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Judicial review of ninth schedule explained in hindi

P B Chaudhary
इस लेख में हम नवीं अनुसूची की न्यायिक समीक्षा (Judicial review of ninth schedule) पर सरल और
सहज चर्चा करेंगे और समझेंगे कि नवीं अनुसूची की समीक्षा सुप्रीम कोर्ट कर सकती है या नहीं। ये लेख न्यायिक
समीक्षा (judicial review) वाले लेख का अगला पार्ट है अच्छी समझ के लिए उस लेख को अवश्य पढ़ें।

नवीं अनुसूची की न्यायिक समीक्षा (Judicial review of ninth schedule)

संविधान लागू होते ही उसमें कु छ लूपहोल नजर आने लगा था खासकर के मूल अधिकार और राज्य के नीति
निदेशक तत्व के बीच कु छ अंतर्विरोध (contradiction) स्पष्ट रूप से झलकने लगा। ये कोई छोटा-मोटा अंतर्विरोध नहीं
था, जिससे कि नजर फे र लिया जाता। वो क्या था आइये इसे उदाहरण से समझते हैं –

अनुच्छेद 19 (1)(f) और अनुच्छेद 31 संपत्ति का अधिकार देता था, वहीं अनुच्छेद 39 सभी प्रकार के असमानता को
खत्म करके सभी को बराबर के स्तर पर लाने की बात करता है।

उस समय जमींदारी प्रथा अपने चरम पर था, एक-एक जमींदारों के पास सैकड़ों-हजारों बीघा जमीने हुआ करती थी। अब
असमानता खत्म करने के लिए जरूरी था कि जमींदारी प्रथा को खत्म कर दिया जाये और उनकी कु छ ज़मीनों को आम
आदमी को दे दिया जाये या फिर, उस जमीन पर ऐसे फै क्ट्रीयां, उद्योग-धंधे आदि लगाया जाये ताकि समाज के निचले
तबके के लोगों को ऊपर लाया जा सकें ।

राज्य के नीति निदेशक तत्व के अनुच्छेद 39 के हिसाब से तो ऐसा करना बिलकु ल सही था, क्योंकि वह असमानता खत्म
करने की ही तो बात करता है। पर अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 31 जो कि संपत्ति का अधिकार देता है, इसके अनुसार
संपत्ति एक मूल अधिकार था और इसे किसी से छीना नहीं जा सकता था। वो क्यूँ?

क्योंकि अनुच्छेद 13 के अनुसार आप ऐसा कर ही नहीं सकते। क्योंकि ये अनुच्छेद मूल अधिकारों को खत्म होने से रोकता
है।

जबकि दूसरी तरफ अनुच्छेद 368 संविधान में संशोधन का अधिकार भी देता है। अनुच्छेद 368 के अनुसार आप
संविधान के किसी भी भाग का संशोधन कर सकते है। ऐसे में आप खुद ही सोचिए कि एक कानून तो आपको वहीं चीज़ करने
की इजाज़त देता है वहीं दूसरी ओर एक कानून आपको वहीं चीज़ करने से भी रोकता है। तो है न कितना बड़ा अंतर्विरोध।
इसी तरह एक और मामला है अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 16 जो कि समानता की बात करता है। वहीं
राज्य के नीति निदेशक तत्व के अनुच्छेद 46, अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग के लोगों को समाज के मुख्य
धारा में लाने के लिए उसके सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक हितों को प्रोत्साहन देने की बात करता है।

अब फिर से एक अंतर्विरोध है – एक तरफ अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 16 समानता की बात करता है तो
वहीं दूसरी तरफ अनुच्छेद 46 विशेष प्रकार की सुविधा या आरक्षण की बात करता है।

यहाँ भी एक समस्या आती है अगर समानता की रक्षा करेंगे तो निचले तबके के लोग कभी भी मुख्य धारा में नहीं आ पाएंगे
और अगर आरक्षण देंगे तो फिर समानता नहीं बचेगा।

ऐसे और भी उदाहरण संविधान में ढूँढे जा सकते हैं। उम्मीद है इस दो उदाहरण से आप संविधान के अंदर के अंतर्विरोधों को
समझ पा रहे होंगे। अब आगे की बात करते हैं।

चंपकम दोराइराजन बनाम मद्रास सरकार का मामला – 1951

ऊपर जो पढ़ें हैं उससे संबन्धित एक दिलचस्प मामला है चंपकम दोराइराजन vs मद्रास सरकार का मामला (1951)।
दरअसल मद्रास सरकार को लगा कि जब तक समाज के कु छ विशेष वर्ग को आरक्षण नहीं दिया जाएगा, तब तक वो समाज
के मुख्य धारा में शामिल नहीं हो पाएगा इसीलिए मद्रास सरकार ने उन कु छ वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर दी।

चंपकम दोराइराजन नामक एक व्यक्ति ने इसे हाइ कोर्ट में इस आधार पर चुनौती दी कि ये अनुच्छेद 15, 16 का हनन है,
जो कि सही भी था।

मामला सुप्रीम कोर्ट गया और सुप्रीम कोर्ट ने 9 अप्रैल 1951 फै सला सुनाते हुए कहा कि अनुच्छेद 14, 15 और 16 के
हिसाब से आरक्षण नहीं दी जा सकती। भले ही राज्य के नीति निदेशक तत्व ऐसा करने को क्यों न कहता हो। वो क्यूँ?

क्योंकि राज्य के नीति निदेशक तत्व को अगर लागू नहीं भी किया जाएगा तो ठीक है, वैसे भी उसे लागू करना अनिवार्य नहीं
है। लेकिन मूल अधिकार को बचाना सुप्रीम कोर्ट का एक अतिआवश्यक दायित्व है।

जाहिर है राज्य का नीति निदेशक तत्व बाध्यकारी नहीं है, लेकिन मूल अधिकार तो है और सुप्रीम कोर्ट ने मूल
अधिकार को ही प्राथमिकता दी। पर जब सब कु छ मूल अधिकार ही है तो फिर राज्य के नीति निदेशक तत्व की फिर जरूरत
ही क्या है?

उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जो कि एक समाजवादी विचारधारा के नेता थे, समझ गए कि अगर समाज के
वंचित तबके को मुख्य धारा में लाना है तो संविधान में संशोधन करके उसके कु छ प्रावधानों को हटाना ही पड़ेगा। क्योंकि
अगर ऐसा नहीं किया तो सुप्रीम कोर्ट हर बार टांग अड़ाएगा और समाज के वंचित हमेशा वंचित ही रह जाएँगे।

पहला संविधान संशोधन (First Amendment to the Constitution)

इस प्रकार जून 1951 में पंडित नेहरू ने संविधान का पहला संशोधन किया। संशोधन कु छ इस प्रकार था।

जमींदारी प्रथा को खत्म कर दी गयी और भूमि अधिग्रहण (land acquisition) को आसान बना दिया।
अनुच्छेद 31 (A) में ही ये लिखवा दिया गया कि भूमि सुधार (Land Reforms) से संबन्धित जितने भी
कानून बनेंगे, उस सब पर अनुच्छेद 31 के प्रावधान काम नहीं करेगा।
नोट– भूमि सुधार कानून के अंतर्गत जमींदारी प्रथा उन्मूलन, भूमि अधिग्रहण आदि आते हैं।

अनुच्छेद 15 में भी संशोधन करके ये लिखवा दिया कि अगर किसी वर्ग को आरक्षण दिया जाता है तो उसे मूल
अधिकारों के हनन के नाम पर सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज नहीं किया जा सके गा।

सबसे खास और दिलचस्प बात ये कि अनुच्छेद 31 (B) के तहत एक नौवीं अनुसूची (Ninth
schedule) बनाया गया और इसमें लिखवा दिया कि 9 वीं अनुसूची में निर्दिष्ट अधिनियमों और विनियमों में से कोई भी
और न ही इसके प्रावधानों में से कोई भी शून्य माना जाएगा, या कभी भी शून्य हो जाएगा।

यानी कि इसे आसान भाषा में कहें तो इसमें जो भी अधिनियम या प्रावधान डाले जाएँगे उसकी समीक्षा न्यायालय में नहीं हो
सकती। उस समय 1951 में इसमें 13 विषय डाले गए। जो आज की तारीख में बढ़कर 284 हो चुका है।

भूमि कानून को चुनौती देने वाला पहला मामला कामेश्वर सिंह बनाम बिहार राज्य था, इस मामले में बिहार भूमि सुधार
अधिनियम 1950 को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि मुआवजे देने के उद्देश्य से बनाए गए ज़मींदारों का वर्गीकरण
भेदभावपूर्ण था। पटना उच्च न्यायालय ने कानून के इस भाग को अनुच्छेद 14 के उल्लंघन के रूप में रखा क्योंकि इसने
भेदभावपूर्ण तरीके से मुआवजे के भुगतान के उद्देश्य से जमींदारों को वर्गीकृ त किया।

इन न्यायिक घोषणाओं के परिणामस्वरूप, सरकार आशंकित हो गई कि संपूर्ण कृ षि सुधार कार्यक्रम खतरे में पड़ जाएंगे। यह
सुनिश्चित करने के लिए विधायिका ने वर्ष 1951 में इस कानून को नौवीं अनुसूची में डाल दिया।

इस प्रकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 31(बी) ने यह सुनिश्चित किया कि नौवीं अनुसूची के किसी भी कानून को
अदालतों में चुनौती नहीं दी जा सकती है और सरकार भूमि और कृ षि कानूनों में सुधार करके सामाजिक कार्यक्रम को
तर्क संगत बना सकती है।

दूसरे शब्दों में, नौवीं अनुसूची के तहत कानून न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर हैं, भले ही वे संविधान के भाग III के
तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। यानी कि सुप्रीम कोर्ट नौवीं अनुसूची की समीक्षा (Judicial review of
ninth schedule) नहीं कर सकता है।

अनुच्छेद 31(बी) की अन्य विशेषता यह है कि यह प्रकृ ति में पूर्वव्यापी (Retrospective) है जब किसी न्यायालय
द्वारा किसी अधिनियम को असंवैधानिक घोषित किया जाता है और बाद में इसे नौवीं अनुसूची में शामिल किया जाता है, तो
यह माना जाता है कि इसके प्रारंभ होने के समय से ही ये संवैधानिक है।

अनुच्छेद 31 (बी) और नौवीं अनुसूची (Ninth schedule) के लिए तर्क संपत्ति के अधिकारों से संबंधित कानून की
रक्षा करना था और किसी अन्य प्रकार का कानून नहीं। लेकिन, व्यवहार में, अनुच्छेद 31-बी का उपयोग इसके अलावा भी
अन्य उद्देश्यों के लिए किया जा रहा है।

जब तक सुप्रीम कोर्ट ने शंकर प्रसाद और सज्जन सिंह मामले का फै सला किया, तब तक सर्वोच्च न्यायालय का दृष्टिकोण
विधान के अनुरूप और समान था। सुप्रीम कोर्ट ने देखा कि नौंवी अनुसूची के कारण विधायिका की बढ़ी हुई शक्ति से कोई
खतरा नहीं था उल्टे ये गरीबी को कम करने और ग्रामीण इलाकों में भूमि जोतों के समान वितरण के लिए जरूरी था।

गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सख्त रुख अपनाते हुए कहा कि यदि संविधान के भाग III
द्वारा गारंटीकृ त एक मौलिक अधिकार को छीन लिया गया या ले लिया गया, तो संशोधित अधिनियम स्वयं ही शून्य हो
जाएगा, दूसरे शब्दों में, संसद के पास संविधान के भाग III के तहत निहित मौलिक अधिकारों में संशोधन या दूर करने की
कोई शक्ति नहीं है।

इसके बाद के शवानंद भारती बनाम के रल राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संविधान के सभी प्रावधानों में
संशोधन किया जा सकता है, लेकिन संविधान के मौलिक अधिकारों / बुनियादी ढांचे को प्रभावित करने वाले प्रावधान में
संशोधन नहीं किया जा सकता है; और यदि कोई संवैधानिक संशोधन, जो संविधान के मूल ढांचे को बदल देता है, तो
न्यायालय द्वारा उस अधिनियम को शून्य किया जा सकता है।

वामन राव बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले

वामन राव बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले (1981) में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि (1) ऐसे किसी भी कानून या
प्रावधान को नौवीं अनुसूची में नहीं डाला जा सकता है जो संविधान के मूल ढाँचे और मूल अधिकारों का उल्लंघन कर रहा
हो,
(2) 24 अप्रैल 1973 यानी कि के शवानन्द भारती मामले से पहले संविधान में जो संशोधन किया गया था, और जिसके
द्वारा संविधान की नौवीं अनुसूची में समय-समय पर विभिन्न अधिनियमों एवं प्रावधानों को डाला गया है वे मान्य और
संवैधानिक हैं।

लेकिन 24 अप्रैल, 1973 के बाद नौवीं अनुसूची में डाले गए अधिनियमों या प्रावधानों की उच्चतम न्यायालय द्वारा न्यायिक
समीक्षा की जा सकती है अगर उस अधिनियम से संविधान के मूल ढांचे को नुकसान पहुँच रहा हो।

पहला संशोधन (1951), चौथा संशोधन (1955), सातवाँ संशोधन (1964) और उनतीसवाँ संशोधन (1972) को
24 अप्रैल 1973 से पहले नौवीं अनुसूची में डाला गया था।

34 वां संशोधन (1974), 39 वां संशोधन (1975), 40 वां संशोधन (1976), 47 वां संशोधन (1984), 66 वां
संशोधन (1990), 76 वां संशोधन (1994), 78 वां संशोधन (1995) को 24 अप्रैल 1973 के बाद नौवीं अनुसूची
में डाला गया है।

IR Coelho बनाम तमिलनाडु राज्य

IR Coelho बनाम तमिलनाडु राज्य मामले में 11 जनवरी 2007 को सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की संवैधानिक पीठ ने
फै सला सुनाते हुए कहा कि 24 अप्रैल 1973 को या उसके बाद संविधान में किए गए सभी संशोधन, जिनमें विभिन्न
कानूनों को शामिल करके नौवीं अनुसूची में संशोधन किया जाना है, का परीक्षण होगा।

यदि संविधान के भाग III में किसी भी अधिकार का उल्लंघन करने वाला कानून 24 अप्रैल 1973 के बाद नौवीं अनुसूची
में शामिल किया गया है, तो ऐसा उल्लंघन उस आधार पर चुनौती देने के लिए खुला होगा, जो मूल अधिकार या संविधान के
मूल ढाँचे को नष्ट या क्षतिग्रस्त कर देता है

कु ल मिलाकर IR Coelho मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फै सले के बाद, अब यह अच्छी तरह से सुलझा हुआ
सिद्धांत है कि 23 अप्रैल 1973 के बाद नौवीं अनुसूची के तहत रखा गया कोई भी कानून कोर्ट के जांच के अधीन है यदि
उसने मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया है या संविधान के मूल ढाँचे को क्षति पहुंचाया है।

अगर नवीं अनुसूची के किसी कानून की वैधता को इस न्यायालय ने सही ठहराया है तो इस निर्णय द्वारा घोषित
सिद्धांत पर बने ऐसे कानून को पुनः चुनौती नहीं दी जा सकती। तथापि न्यायालय द्वारा अगर किसी कानून को भाग 3 के
आधार पर का उल्लंघंकारी ठहराया गया हो और उस कानून को 24 अप्रैल 1973 के बाद नवीं अनुसूची मे शामिल कर
लिया गया हो तो ऐसा उल्लंघन चुनौती देने के योग्य होगा, इस आधार पर कि यह संविधान की मूल संरचना और मूल
अधिकार को क्षति पहुंचाता है।

तो कु ल मिलाकर हमारे संस्थापक पूर्वजों ने, बुद्धिमानीपूर्वक स्वयं संविधान में ही न्यायिक समीक्षा का प्रावधान सम्मिलित
कर दिया जिससे कि संघवाद का संतुलन कायम रहे, नागरिकों को दिये मौलिक अधिकार एवं मूल स्वतंत्रता की रक्षा हो सके
और समता, स्वाधीनता और आजादी की उपलब्धता उपलब्धि तथा आनंद हासिल करने का एक स्वस्थ राष्ट्रवाद का सृजन
करने में सफल हो सके ।

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