You are on page 1of 9

कबीर की साखी अर्थ सहित-

ऐसी ब ाँणी बोलिए मन क आप खोई।


अपन तन सीति करै औरन कैं सुख होई।।

कबीर की साखी प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तिय ाँ हम री लहंदी प ठ्यपुस्तक ‘स्पर्श’ प ठ-1 ‘स खी’ से िी गई है।
इस ‘स खी’ के कलि संत कबीरद स जी है। इस स खी में कबीरद स जी ने मीठी बोिी बोिने और दू सरों
को दु ुः ख न दे ने की ब त कही है ।

कबीर की साखी भावार्थ : प्रस्तुत प ठ कबीर की स खी की इन पंक्तियों में कबीर ने ि णी को अत्यलिक


महत्त्वपूणश बत य है। मह कलि संत कबीर जी ने अपने दोहे में कह है लक हमें ऐसी मिुर ि णी बोिनी
च लहए, लजससे हमें र्ीतित क अनुभि हो और स थ ही सुनने ि िों क मन भी प्रसन्न हो उठे । मिुर
ि णी से सम ज में प्रेम की भ िन क संच र होत है। जबलक कटु िचनों से हम एक-दू सरे के लिरोिी बन
ज ते हैं। इसलिए हमें हमेर् मीठ और उलचत ही बोिन च लहए, जो दू सरों को तो प्रसन्न करत ही है और
आपको भी सुख की अनुभूलत कर त है।

कबीर की साखी हवशेष :


1.सिुक्कड़ी भ ष क प्रयोग लकय गय है
2. ‘ब ाँणी बोलिए’ अनुप्र स अिंक र क प्रयोग लकय गय है ।
कस्तूरी कुण्डिी बसै मृग ढ़ूाँढ़ै बन म लह।
ऐसे घटी घटी रम हैं दु लनय दे खै न ाँलह॥

कबीर की साखी प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तिय ाँ हम री लहंदी प ठ्यपुस्तक ‘स्पर्श’ प ठ-1 ‘स खी’ से िी गई है।
इस ‘स खी’ के कलि संत कबीरद स जी है। इस स खी में कबीर जी कहते हैं लक िोग कस्तूरी लहरण की
तरह हो गए है लजस प्रक र लहरण कस्तूरी को प्र प्त करने के लिए इिर-उिर भटक रह है उसी तरह
िोग भी ईश्वर को प्र प्त करने के लिए इिर-उिर भटक रहे हैं ।

कबीर की साखी भावार्थ : लजस प्रक र लहरण की न लभ में कस्तूरी रहती है , परन्तु लहरण इस ब त से
अनज न उसकी खुर्बू के क रण उसे पूरे जंगि में इिर-उिर ढू ं ढ़त रहत है। ठीक इसी प्रक र ईश्वर को
प्र प्त करने के लिए हम उन्हें मंलदर-मक्तिद, पूज -प ठ में ढू ं ढ़ते हैं। जबलक ईश्वर तो स्वयं कण-कण में बसे
हुए हैं, उन्हें कहीं ढू ं ढ़ने की ज़रूरत नहीं। बस ज़रूरत है , तो खुद को पहच नने की।

कस्तूरी :- कस्तूरी एक तरह क पद थश होत है, जो नर-लहरण की न लभ में प य ज त है। इसमें एक


प्रक र की लिर्ेष खुर्बू होती है। इसे इं क्तिर् में Deer musk बोिते हैं। इसक इस्तेम ि परफ्यूम तथ
मेलिलसन (दि इय ाँ) बन ने में होत है। यह बहुत ही महं ग होत है।
कबीर की साखी हवशेष :

1.’घलट-घलट’ में पुनरुक्ति प्रक र् अिंक र है ।


2.’कस्तूरी कुण्डि’ और ‘दु लनय दे खै’ में अनुप्र स अिंक र है ।
3.सरि एिं सहज सिुक्कड़ी भ ष क प्रयोग लकय गय है ।
जब मैं थ तब हरर नहीं अब हरर हैं मैं न ाँलह।
सब अाँलिय र लमटी गय दीपक दे ख्य म ाँलह॥
कबीर की साखी प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तिय ाँ हम री लहंदी प ठ्यपुस्तक ‘स्पर्श’ प ठ-1 ‘स खी’ से िी गई है।
इस ‘स खी’ के कलि संत कबीरद स जी है। इस स खी में कबीर जी मन में अहंक र लमट ज ने के ब द मन
में ईश्वर के ि स की ब त कहते हैं।

कबीर की साखी भावार्थ : प्रस्तुत प ठ कबीर की स खी की इन पंक्तियों में कबीर जी कह रहे हैं लक जब
तक मनुष्य में अहं क र (मैं) रहत है, तब तक िह ईश्वर की भक्ति में िीन नहीं हो सकत और एक ब र जो
मनुष्य ईश्वर-भक्ति में पूणश रुप से िीन हो ज त है , उस मनुष्य के अंदर कोई अहंक र र्ेष नहीं रहत । िह
खुद को नगण्य समझत है। लजस प्रक र दीपक के जिते ही पूर अंिक र लमट ज त है और च रों तरफ
प्रक र् फ़ैि ज त है, ठीक उसी प्रक र, भक्ति के म गश पर चिने से ही मनुष्य के अंदर व्य प्त अहं क र
लमट ज त है।

कबीर की साखी हवशेष :

1. ‘अाँलिय र ’ अज्ञ न क प्रतीक है और ‘दीपक’ ज्ञ न क प्रतीक है ।


2. ‘हरर हैं’ और ‘दीपक दे ख्य ’ में अनुप्र स अिंक र है ।
सुक्तखय सब संस र है खए अरु सोिै।
दु क्तखय द स कबीर है ज गे अरु रोिै।।

कबीर की साखी प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तिय ाँ हम री लहंदी प ठ्यपुस्तक ‘स्पर्श’ प ठ-1 ‘स खी’ से िी गई है।
इस स खी के कलि कबीरद स जी है। इसमें कबीर जी अज्ञ न रूपी अंिक र में सोये हुए मनुष्यों को
दे खकर दु ुः खी होकर रो रहे है हैं।

कबीर की साखी भावार्थ : प्रस्तुत प ठ कबीर की स खी की इन पंक्तियों में कबीर ने सम ज के ऊपर


व्यंग्य लकय है। िह कहते हैं लक स र संस र लकसी झ ंसे में जी रह है। िोग ख ते हैं और सोते हैं , उन्हें
लकसी ब त की लचंत नहीं है । िह लसफ़श ख ने एिं सोने से ही ख़ुर् हो ज ते हैं। जबलक सच्ची ख़ुर्ी तो तब
प्र प्त होती है, जब आप प्रभु की आर िन में िीन हो ज ते हो। परन्तु भक्ति क म गश इतन आस न नहीं है ,
इसी िजह से संत कबीर को ज गन एिं रोन पड़त है ।

कबीर की साखी हवशेष :

1. ‘सुक्तखय सब संस र’ और ‘दु क्तखय द स’ में अनुप्र स अिंक र है ।


2. सिुक्कड़ी भ ष क प्रयोग लकय गय है ।
लबरह भुिंगम तन बसै मन्त्र न ि गै कोई।
रम लबयोगी न लजिै लजिै तो बौर होई।।

कबीर की साखी प्रसंग : प्रस्तुत स खी हम री लहंदी प ठ्यपुस्तक ‘स्पर्श’ प ठ-1 ‘स खी’ से िी गई है।
इस स खी के कलि कबीरद स जी है। इस स खी में कबीरजी कहते हैं लक ईश्वर के लियोग के मनुष्य
जीलित नहीं रह सकत और अगर जीलित रह भी ज त है तो प गि हो ज त है ।

कबीर की साखी भावार्थ : लजस प्रक र अपने प्रेमी से लबछड़े हुए व्यक्ति की पीड़ लकसी मंत्र य दि से
ठीक नहीं हो सकती, ठीक उसी प्रक र, अपने प्रभु से लबछड़ हुआ कोई भि जी नहीं सकत । उसमें प्रभु-
भक्ति के अि ि कुछ र्ेष बचत ही नहीं। अपने प्रभु से लबछड़ अगर िो जीलित रह भी ज ते हैं , तो अपने
प्रभु की य द में िो प गि हो ज ते हैं।

कबीर की साखी हवशेष :

1. ‘लबरह भुिंगम’ में रूपक अिंक र है ।


2 .सिुक्कड़ी भ ष क प्रयोग लकय गय है
लनंदक नेड़ र क्तखये, आाँ गलण कुटी बाँि इ।
लबन स बण प ाँणीं लबन , लनरमि करै सुभ इ॥

कबीर की साखी प्रसंग : प्रस्तुत स खी हम री लहं दी प ठ्य पुस्तक ‘स्पर्श’ प ठ-1 ‘स खी’ से िी गई है।
इस स खी के कलि कबीरद स जी है। इस स खी में कबीरद स जी लनंद करने ि िे िोगों को अपने लनकट
रखने की सि ह दे ते हैं त लक आपके स्वभ ि से उनमें स क र त्मक पररितशन आ सके।

कबीर की साखी भावार्थ : प्रस्तुत प ठ कबीर की स खी की इन पंक्तियों में संत कबीर द स जी के


अनुस र जो व्यक्ति हम री लनंद करते हैं , उनसे कभी दू र नहीं भ गन च लहए, बक्ति हमें हमेर् उनके
समीप रहन च लहए। जैसे हम लकसी ग य को अपने आाँ गन में खूाँटे से ब ंिकर रखते हैं , ठीक उसी प्रक र
ही हमें लनंद करने ि िे व्यक्ति को अपने प स रखने क कोई प्रबंि कर िेन च लहए। लजससे हम रोज
उनसे अपनी बुर ईयों के ब रे में ज न सकें और अपनी गिलतय ाँ दोब र दोहर ने से बच सकें। इस प्रक र
हम लबन स बुन और प नी के ही खुद को लनमशि बन सकते हैं ।

कबीर की साखी हवशेष :

1. ‘लनंदक नेड़ ’ में अनुप्र स अिंक र है।

पोथी पलढ़ पलढ़ जग मुि , पंलित भय न कोइ।


एकै अलषर पीि क , पढ़ै सु पंलित होइ॥

कबीर की साखी प्रसंग: प्रस्तुत स खी हम री लहंदी प ठ्य पुस्तक ‘स्पर्श’ प ठ-1 ‘स खी’ से िी गई है।
इस स खी के कलि कबीरद स जी है। इस स खी में कबीरद स जी लकत बी ज्ञ न को महत्त्व न दे कर ईश्वर
प्रेम को अलिक महत्त्व दे ते हैं।

कबीर की साखी भावार्थ : प्रस्तुत प ठ कबीर की स खी की इन पंक्तियों में कबीर के अनुस र लसफ़श
मोटी-मोटी लकत बों को पढ़कर लकत बी ज्ञ न प्र प्त कर िेने से भी कोई पंलित नहीं बन सकत । जबलक
ईश्वर-भक्ति क एक अक्षर पढ़कर भी िोग पंलित बन ज ते हैं। अथ शत लकत बी ज्ञ न के स थ-स थ
व्यिह ररक ज्ञ न भी होन आिश्यक है, नहीं तो कोई व्यक्ति ज्ञ नी नहीं बन सकत ।

कबीर की साखी हवशेष :

1 . ‘पोथी पलढ़ पलढ़’ में अनुप्र स अिंक र है।

हम घर ज ल्य आपण ाँ , लिय मुर ड़ ह लथ।


अब घर ज िौं त स क , जे चिै हम रे स लथ॥

कबीर की साखी प्रसंग: प्रस्तुत स खी हम री लहंदी प ठ्य पुस्तक ‘स्पर्श’ प ठ-1 ‘स खी’ से िी गई है।
इस स खी के कलि कबीरद स जी है। इस स खी में कबीरद स जी कहते हैं लक यलद ज्ञ न को प्र प्त करन
है तो मोह- म य क त्य ग करन पड़े ग ।

कबीर की साखी भावार्थ : सच्च ज्ञ न प्र प्त करने के लिए, हमें अपनी मोह-म य क त्य ग करन होग ।
तभी हम सच्चे ज्ञ न की प्र क्तप्त कर सकते हैं। कबीर के अनुस र, उन्होंने खुद ही अपने मोह-म य रूपी घर
को ज्ञ न रूपी मर् ि से जि य है। अगर कोई उनके स थ भक्ति की र ह पर चिन च हत है , तो कबीर
अपनी इस मर् ि से उसक घर भी रोर्न करें गे अथ शत अपने ज्ञ न से उसे मोह-म य के बंिन से मुि
करें गे।

कबीर की साखी हवशेष :

1.घर और मर् ि क प्रतीक त्मक प्रयोग हुआ है ।


पूवथ वषों के प्रश्नोत्तर

2016

हिबंधात्मक प्रश्न

Question 1.

Answer:

Question 2.
Answer:

2015
अहतलघुत्तरात्मक प्रश्न

Question 3.

Answer:

हिबंधात्मक प्रश्न

Question 4.

Answer:
2014
अहतलघुत्तरात्मक प्रश्न

Question 5.

Answer:

लघुत्तरात्मक प्रसि

Question 6.

Answer:

2013
लघुत्तरात्मक प्रसि

Question 7.

Answer:

2012
लघुत्तरात्मक प्रसि

Question 8.
Answer:

Question 9.

Answer:

2011
अहतलघुत्तरात्मक प्रश्न

Question 10.

Answer:

2010
लघुत्तरात्मक प्रसि

Question 11.

Answer:
2009
लघुत्तरात्मक प्रसि

Question 12.

Answer:

Question 13.

Answer:

Question 14.

Answer:

Question 15.
Answer:

You might also like