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उच्च शिक्षा शिभाग, मध्यप्रदेि िासन

हवर्य / Subject हिन्दी साहित्य

कक्षा एिं वर्ष / Class and Year बी.ए. प्रथम वर्ष

कोसष कोड एवं शीर्षक / Course Code and Title A1HLIT1T, हिंदी काव्य

काययक्रम / Program प्रमाण पत्र / Certificate

प्रश्न पत्र / Paper मुख्य शिषय - हिन्दी काव्य ( प्रथम प्रश्न पत्र)

मॉड्यूल शीर्षक / Module Title गोरखनाथ (व्याख्या एवं समीक्षा)

गोरखबानी – सबदी - पद क्र. 2, 4, 7, 8, 16

राग रामग्री – पद क्र. 10, 11

कं टें ट लेखक / Content Writer डॉ. घनश्याम हसंि, सिायक प्राध्यापक, शासकीय

मिाहवद्यालय, महिदपुर, हिला- उज्जैन (म.प्र.)

मुख्य शब्द / Key Words गोरखनाथ (Gorakhnath), नाथ-संप्रदाय

(Nath-Sampradaya), िठयोग (Hath-Yoga),

शून्यवाद (Shunyvad)

बीए प्रथम वर्ष हिन्दी साहित्य, प्रथम प्रश्न-पत्र (हिन्दी काव्य), इकाई -01
मॉड्यूल क्र. 1.3, गोरखनाथ : व्याख्या एवं समीक्षा
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1. शैक्षहिक उद्देश्य / Learning Outcomes

1.1. हवद्याथी गोरखनाथ के व्यहित्व, कृ हित्व एवं हसद्धान्िों से पररहिि िो सकें गे।

1.2 हवद्याथी गोरखनाथ की व्याख्या एवं समीक्षा करने में सक्षम िो सकें गे।

1.3 हवद्याथी आददकाल की पृष्ठभूहम से पररहिि िो सकें गे।

1.4 हवद्याथी योग की पाररभाहर्क शब्दावली से पररहिि िोंगे।

1.5 हवद्याथी सन्ि-साहित्य की भूहमका से भी पररहिि िोंगे।

2. हवर्य-वस्िु

2.1 प्रस्िावना

हिन्दी साहित्य के आददकाल का समय मोटे िौर पर सािवीं शिाब्दी के मध्य से िौदिवीं शिाब्दी ईस्वी के मध्य
िक माना िािा िै। इस काल में मुख्यि: िार धाराओं–हसद्ध-साहित्य, नाथ-साहित्य, िैन-साहित्य, रासो-

साहित्य–में साहित्य का सृिन हुआ। हसद्ध-साहित्य के अन्िगषि िौरासी हसद्धों में से कु छ प्रमुख हसद्धों- सरिपा,
लुईपा, कण्िपा आदद ने साहित्य सृिन दकया। मंत्रों द्वारा हसहद्ध प्राप्त करने वाले साधक ‘हसद्ध’ किलािे थे। हसद्धों
का सम्बन्ध बौद्ध धमष की मिायान शाखा से िोडा िािा िै। बौद्ध धमष ईसा की पिली शिाब्दी के आसपास
िीनयान और मिायान दो शाखाओं में बँट गया था। िीनयान में ििाँ बौद्ध धमष की सैद्धाहन्िक बािें अहधक थी िो
विीं मिायान में व्याविाररक। मिायानी बौद्ध साधना की सरलिा और सदािार में हवश्वास रखिे थे । मिायान
से वज्रयान और सिियान दो शाखाएँ हवकहसि हुईं। वज्रयान में मन्त्र-िन्त्र, वामािार, पंिमकारों का सेवन आदद
साधना के अंग िो गए। ये वज्रयानी िी हसद्ध किलाए। सिि-साधना, पाखण्ड और आडम्बर हवनाश, गुरु-सेवा,
शून्यवाद आदद प्रवृहियाँ हसद्धसाहित्य के अन्िगषि देखने में आई, िो हनश्चय िी बाद के साहित्य में भी पल्लहवि
हुई। हसद्धों की वाम-मागी साधना की प्रहिदक्रया में गोरखनाथ ने नाथ-संप्रदाय की स्थापना की। गोरखनाथ ने
अपने गुरु मत्स्येन्रनाथ को भी नारी सािियष के आिार से मुि करवाया था। ‘िाग मछंदर गोरख आया’ लोकोहि
प्रिहलि िै। इस लोक-श्रुहि में हसद्ध और नाथ वैिाररकी का अंिर भी हवद्यमान िै। योहगक साधना, आिरि की
पहवत्रिा, िठयोग आदद प्रवृहियाँ भहि-कालीन सन्ि-साहित्य में कथ्य और हशल्प दोनों दृहियों से हवद्यमान िैं।
कबीर आदद सन्ि कहवयों ने िो गोरखनाथ का प्रत्यक्ष उल्लेख भी दकया िै। हनश्चय िी गोरखनाथ का साहिहत्यक
अवदान सन्ि-साहित्य में िमें देखने को हमलिा िै। नाथ-पंथ ने भहि कालीन संि-साहित्य के हलए मागष बना
ददया।

2.2 कहव पररिय

आिायष ििारीप्रसाद हद्ववेदी अपनी पुस्िक ‘नाथ-साहित्य’ में हलखिे िैं – “शंकरािायष के बाद इिना प्रभावशाली
और इिना महिमाहन्वि मिापुरुर् भारिवर्ष में दूसरा निीं हुआ। भारिवर्ष के कोने -कोने में उनके अनुयायी आि

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भी पाए िािे िैं।’’ नाथ-सम्प्रदाय के अनुसार गुरु गोरखनाथ का िन्म और कमष दोनों ददव्य िैं। िनश्रुहि के अनुसार
गोरखनाथ का िन्म मत्स्येन्रनाथ के कृ पा प्रसाद से हुआ।

गोरखनाथ के िन्म स्थान को लेकर भी हवहभन्न मि िैं। गोरखपुर हस्थि गोरखनाथ मंददर की परंपरा के अनुसार
गोरखनाथ ‘गोरख रटल्ला’ (झेलम-पंिाब) से आए थे। किीं अफगाहनस्िान, किीं गोदावरी िीर का ‘वडव’ नामक
स्थान िो किीं नेपाल को गोरखनाथ का िन्म स्थान बिाया गया िै। अद्यावहध गोरखनाथ का िन्म स्थान भी
हनहश्चि िौर पर निीं बिाया िा सकिा। गोरखनाथ के कमषक्षेत्र के सम्बन्ध में आिायष रामिन्र शुक्ल हलखिे िैं-
“हसद्धों का लीला क्षेत्र भारि का पूवी भाग था। गोरख ने अपने ग्रन्थ का प्रिार पहश्चमी भागों में रािपूिाने और
पंिाब में दकया।’’

2.2.1 गुरु – गोरखनाथ के गुरु हनर्वषवाद रूप से मत्स्येन्रनाथ माने िािे िैं। मत्स्येन्र स्वयं आददनाथ
(हशव) के िी हशष्य थे।

2.2.2 रिनाएँ – गोरखनाथ भारिीय धमषसाधना के एक बडे सन्ि कहव िैं। उनके नाम से कई रिनाएँ
प्राप्त िोिी िैं। संस्कृ ि में भी उनकी रिनाएँ प्राप्त िोिी िैं। डॉ. पीिांबरदि बडथ्वाल ने िालीस हिंदी रिनाओं
की सूिी दी और उनमें से कु ल िौदि रिनाओं को प्रामाहिक माना। वे रिनाएँ िैं - सबदी, पद, हसष्या दरसन,
प्राि संकली, नरवै बोध, आिम बोध, अभै मात्रा िोग, पन्रि हिहथ, सप्तवार, मछीन्रगोरखबोध, रोमावली,
ग्यानहिलक, ज्ञान िौंिीसा और पंिमात्रा। डॉ. बडथ्वाल ने ‘गोरखबानी’ में इनमें से िेरि को स्थान ददया।
‘ज्ञानिौंिीसा’ समय पर उपलब्ध निीं िोने से संग्रि में निीं आ पाया। डॉ. रामकु मार वमाष ‘अभैमात्रा िोग’ को
भी प्रामाहिक निीं मानिे िैं।

2.3 अनुभहू ि पक्ष –

गोरखनाथ नाथ-सम्प्रदाय के प्रविषक माने िािे िैं। आिायष ििारीप्रसाद हद्ववेदी ने नाथ-सम्प्रदाय के हसद्ध-मि,
हसद्ध-मागष, योग-मागष, योग-संप्रदाय, अवधूि-मि, अवधूि संप्रदाय आदद अन्य नाम बिाए और हलखा दक “इस
मि के योगमि और योगमागष नाम िो साथषक िी िै, क्योंदक इनका मुख्य धमष िी योगाभ्यास िै। ’’ नाथ सम्प्रदाय
हनवृहिमागी सम्प्रदाय िै। नाथ का अथष मुहि देने वाला किा गया िै। मुहि वैराग्य के हबना सम्भव निीं िै।
इहन्रय-हनग्रि, प्रािसाधना और मन-साधना योग के उद्देश्य िैं।

इस साधना में गोरखनाथ द्वारा िठयोग का प्रविषन दकया गया। ‘ि’ का अथष सूयष और ‘ठ’ का अथष िन्र दकया गया
और सूयष से िात्पयष प्रािवायु िथा िन्र से िात्पयष अपान वायु भी अथष ग्रिि दकया गया। इन दोनों का योग िी
िठयोग िै। िठयोग को शरीर की आन्िररक रिना िाने हबना समझना सम्भव निीं िै। मेरुदण्ड के स्थान पर एक
हत्रकोि िक्र में स्वयम्भू हलंग को साढे िीन वलयों में लपेटकर सर्पषिी की भाँहि कु ण्डहलनी अवहस्थि िै। यि
ब्रह्माण्ड व्यापी मिाकु ण्डहलनी शहि िी िै िो ब्रह्मद्वार को रोक कर सोई िै। इस कु ण्डहलनी शहि को िाग्रि कर
हशव से समरस करना योगी का परम लक्ष्य िै। िैसे िाबी से िाला िठाि् खूल िािा िै वैसे िी कु ण्डहलनी के
उद्बोधन से मोक्ष का द्वार िठाि् खुल िािा िै। इसीहलए इसे िठयोग कििे िैं।

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शरीर में िी िीन और शहिशाली ित्त्व िैं- हवन्दु अथाषि् शुक्र, वायु और मन। इनमें से दकसी को भी यदद वश में
कर हलया िाए िो अन्य दो स्वयं िी वश में िो िािे िैं। ब्रह्मियष और प्रािायाम द्वारा इस हबन्दु को हस्थर और
ऊध्वषमुख दकया िािा िै। परन्िु इसके हलए शरीरस्थ इडा, हपंगला नाहडयों को शुद्ध करना िोिा िै। इडा, हपंगला
दोनों के बीि सुर्ुम्ना नाडी का स्थान बिाया िािा िै। इडा और हपं गला के अवरोध एवं सुर्ुम्ना का द्वार खुलने
पर कु ण्डहलनी ऊध्वषमुख िोिी िै। कु ण्डहलनी के ऊपर ऊठने पर–मूलाधार िक्र, स्वाहधष्ठान िक्र, महिपुर िक्र,

अनािि िक्र, हवशुहद्ध िक्र, भ्रू-मध्य में आज्ञा िक्र–इन र्ट्िक्रों का भेदन करिी िै। इन सब िक्रों के भेदन करने
के बाद महस्िष्क में शून्य िक्र हमलिा िै, ििाँ कु ण्डहलनी को पहुँिाना योगी का ध्येय िोिा िै। र्टिक्रों के भेद के
बाद सुरहि शब्दयोग की अनुभूहि िोिी िै । इसे ‘अनािि नाद’ किा गया िै। अनािि नाद का सुख अहनवषिनीय
िै। परंिु यि मागष हबना गुरु के संभव निीं, इसहलए नाथ संप्रदाय में गुरु का मित्त्व िै।

2.4 अहभव्यहि पक्ष – हसद्ध, नाथ और मध्यकालीन सन्ि कहवयों ने साधारि िनिा की भार्ा में साहित्य सृिन
दकया िै। परन्िु किीं-किीं साधना मागष की रिस्यात्मक उहियों और साधनात्मक पाररभाहर्की के कारि कथ्य
िरटल और रिस्यात्मक िो िािा िै। ऐसे पदों को अहधकिर उलटबाँहसयों का रूप प्राप्त िो िािा िै। उलटबाँहसयों
के मूल में रिस्यात्मकिा के साथ िी हिि की बहिमुषखी वृहियों को अन्िमुषखी करने का भाव िोिा िै। इस अथष में
उलटबाँहसयों का प्रयोग परम्परा अनुसार मध्यकालीन सन्िों - कबीर आदद के साहित्य में भी पयाषप्त देखने को
हमलिा िै।

2.5 व्याख्या –

सबदी

अदेहर् देहर्बा देहर् हबिाररबा अददहसरट राहर्बा िीया।

पािाल की गंगा ब्रह्मंड िढाइबा, ििां हबमल िल पीया ।। 2 ।।

शब्दाथष – अदेहर्=अदृि। िीया=हविार में रखना। पािाल=मूलाधार। गंगा=कु ण्डहलनी शहि। ब्रह्माण्ड=सिस्रार
िक्र। हबमल िल=परमात्म साक्षात्कार रूप आनन्द।

संदभष – प्रस्िुि पंहियाँ डॉ. पीिाम्बर दि बडथ्वाल द्वारा सम्पाददि पुस्िक ‘गोरखबानी’ में संकहलि गोरखनाथ
की रिना ‘सबदी’ से उद्धृि िैं।

प्रसंग – यिाँ कहव भौहिक आँखों से ददखाई न देने वाले ब्रह्म, परमात्मा को ज्ञानरूपी नेत्रों द्वारा देखने िथा हवहभन्न
योहगक दक्रयाओं द्वारा कु ण्डहलनी शहि को िागृि कर परमात्मा के साक्षात्कार की बाि कि रिा िै।

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व्याख्या – न देखे हुए (परब्रह्म) को देखना िाहिये। देख कर उस पर हविार करना िाहिए। िो आँखों से देखा निीं
िा सकिा उसे हिि में रखना िाहिए। पािाल की गंगा को ब्रह्माण्ड में प्रेररि करना िाहिए। विीं पहुँि कर योगी
हनमषल रस पीिा िै। यिाँ पािाल शरीर में हस्थि महिपुर िक्र को, गंगा योहगनी शहि (कु ण्डहलनी शहि) को,
ब्रह्माण्ड ब्रह्मरंध्र या सिस्रार िक्र को िथा हवमल िल परमात्मा के साक्षात्कार रूप आनंद को किा गया िै। पूरी
िरि योग प्रधान शब्दावली िै।

वेद किेब न र्ांिी वांिी। सब ढं की िहल आंहि।।

गगहन हसर्र महि सबद प्रकास्या। ििं बुझ ै अलर् हबनांिीं ।। 4 ।।

शब्दाथष – अलर्=अदृष्य।

संदभष – पूवषवि।

प्रसंग – यिाँ कहव परमात्मा के स्वरूप के हवर्य में हवहभन्न मिों के भ्रान्ि िकों का खंडन कर उसे वािी से परे
बिा रिा िै।

व्याख्या – परमात्मा का ठीक-ठीक विषन न वेद कर पाये िैं, न दकिाबी धमों की पुस्िकें और न िारों खाहन की
वािी। ये सब िो उसे और भी आच्छाददि कर देिे िैं। इन सबने िो सत्य को बिाने के बदले उस पर आवरि डाल
ददया िै। यदद ब्रह्म के स्वरूप का यथाथष ज्ञान प्राप्त करना िै िो ब्रह्मरन्ध्र (गगन हशखर) में समाहध द्वारा िो शब्द
प्रकाश में आिा िै, उसमें हवज्ञान रूप परब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करना िोगा। िार प्रकार की वािी वैखरी, मध्यमा,
पश्यहन्ि और परा वािी की ओर संकेि िै। वैखरी वािी के वल मुख के उच्चारि अवयवों के संयोग से हनकलिी िै।
मध्यमा वािी में हृदय का संयोग िै। पश्यंहि वािी नाभी प्रदेश से हनकलिी िै। परा वािी ददव्य वािी िोिी िै।

िहसबा र्ेहलबा रहिबा रं ग। कांम क्रोध न कररबा संग।।

िहसबा र्ेहलबा गाइबा गीि। ददढ करर राहर् आपना िीि ।। 7 ।।

संदभष – पूवषवि।

प्रसंग – यिाँ कहव हवहभन्न सांसाररक दक्रयाओं को करिे हुए काम, क्रोध आदद हवकारों से दूर रिकर हिि को
परमात्मा के ध्यान में दृढ रखने की आवश्यकिा बिा रिा िै।

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व्याख्या – िँसना िाहिए, खेलना िाहिए, मस्ि रिना िाहिए। दकन्िु काम, क्रोध का साथ न करना िाहिए।
िँसना, खेलना और गीि भी गाना िाहिए ककं िु अपने हिि को दृढ करके रखना िाहिए।

िहसबा र्ेहलबा धररबा ध्यांन। अिहनहस कहथवा ब्रह्म हगयांन।।

िसै र्ेलै न करै मन भंग। िे हनििल सदा नाथ कै संग ।।8।।

शब्दाथष – अिहनहस=ददनराि। हनििल=हनश्चल।

संदभष – पूवषवि।

प्रसंग – यिँ कहव आनन्दपूवषक ब्रह्मििाष ओर मन को हवहभन्न सांसाररक दक्रयाओं को करिे हुए एकरस रखने पर
िोर दे रिा िै।

व्याख्या – िँसना, खेलना और ध्यान धरना िाहिए। राि-ददन ब्रह्म ज्ञान का कथन करना िाहिए। इस प्रकार
(संयम पूवषक) िँसिे-खेलिे िो अपने मन को भंग निीं करिे वे हनश्चल िोकर ब्रह्म के साथ रमि करिे िैं।

अि हनहस मन लै उनमन रिै, गम की छांहड अगम की किै।

छांडै आसा रिै हनरास, किै ब्रह्मा हँ िाका दास ।। 16 ।।

शब्दाथष – उनमन=उनमनी अवस्था अथाषि अन्यमनस्क, संसार से हनर्लषप्त भावभूहम।

संदभष – पूवषवि।

प्रसंग – यिाँ कहव योग की उनमनावस्था का विषन कर रिा िै।

व्याख्या – िो राि-ददन मन को बहिमुषख उन्मनावस्था में लीन दकये रििा िै, ‘गम’ का अथष गम्य (िो साधारि
दृहि से ददखाई दे िाए -संसार) या दुख भी अथष दकया िा सकिा िै। िो गम्य िगि की बािें छोडकर अगम अथाषि्
आध्याहत्मक क्षेत्र परमात्मा की बािें करिा िै। सब आशाओं को छोड देिा िै, कोई आशा निीं रखिा, वि ब्रह्म से
भी बढकर िै। ब्रह्मा उसका दासत्व स्वीकार करिा िै।

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पद (राग रामग्री)

मनसा मेरी ब्यौपार बांधौ, पवन पुरहर् उिपनां।

िाग्यौ िोगी अध्यात्म लागौ, काया पाटि मैं िांनां।।

इकबीस सिंस र्टसां आदू, पवन पुररर् िप माली।

इला प्यंगल
ु ा सुर्मन नारी, अिहनहस विै प्रनाली।।

र्टसां र्ोहड कवल दल धारा, ििां बसै ब्रह्मिारी।

िंस पवन ि फू लन पैठा, नौ सै नदी पहनिारी।।

गंगा िीर मिीरा अवधू, दफरर दफरर वहििां कीिै।

अरघ बिन्िा उरघैं लीिै, रहव सस मेला कीिै।।

िंद सूर दोऊ गगन हबलूघा, भईला घोर अंधारं ।

पंि वािक िब न्यंरा पौढ्या, प्रगट्या पौहल पगार।।

काया कं था, मन िगोटा, सि गुरु मुझ लर्ाया।

भिंन गोरर्नाथ गूढा रार्ौ, नगरी िोर मलाया ।। 10 ।।

शब्दाथष – मनस=इच्छा। व्यौपार=मन की िंिलिा। इला=इडा। प्युंगला=हपंगला। र्टसां=स्वाहधष्ठान िक्र।


र्ोहड=हवशुहद्ध िक्र। गंगािीर मिीरा=इडा नाडी के पास सिि फल। अवधू=योगी। वहििां=व्यापार।
उरघै=ऊध्वष। रहव=सूयष नाडी(हपंगला)। सहस=िन्र नाडी(इडा)। हबलूघा=डू व गये। पंि वािक=पंिेंदरय।
न्यंरा=नींद। पौढ़्या=सो गये। काया कं था=शरीर रूपी गुदडी। गूढ=रिस्य।

संदभष – प्रस्िुि पद डॉ. पीिाम्बर दि बडथ्वाल द्वारा सम्पाददि पुस्िक ‘गोरखबानी’ में संकहलि गोरखनाथ की
रिना ‘राग रामग्री’ से उद्धृि िै।

प्रसंग – यिाँ कहव स्वयं अपने मन को संबोहधि करिे हुए हवहभन्न योहगक दक्रयाओं को प्रिीकात्मक शैली में व्यि
करिे हुए कु ण्डहलनी शहि को िाग्रि करने की पद्धहि को व्यि कर रिा िै। मूलाधार िक्र से लेकर सिस्रार िक्र
िक की यात्रा इडा(िन्र नाडी), हपंगला(सूयष-नाडी) और सुर्ुम्ना को ब्रह्मरन्ध्र (आज्ञािक्र) पर हमलाकर परम सुख
ब्रह्मानंद को योगी प्राप्त कर सकिा िै। इस मागष में योगी को काम, क्रोध आदद हवकारों से बिने की आवश्यकिा
िै। इनको िोर किा गया िै।

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व्याख्या – िे मेरी मनसा ! (इच्छा) िुम अपना व्यापार बाँधो। अथाषि् िुम अब शान्ि िो िाओ क्योंदक प्राि पुरुर्
िाग गया िै। अथाषि् मन और पवन का संयोग सम्भव िो गया िै। इस प्रकार िागा हुआ योगी अध्यात्म में लग
गया िै। उसे इस शरीर रूपी नगर में प्रवेश करना िै। पवन अथाषि् बािर-भीिर िािी हुई साँस िी िप की माला
िै िो प्रहिददन 21,600 िप करिी िै। योहगयों के अनुसार मनुष्य प्रहिददन 21,600 बार साँस लेिा िै। इस सब
साँसों के साथ ‘सोिं िंसा’ का िाप ‘अिपा िाप’ किलािा िै। इडा, हपंगला और सुर्ुम्ना नाहडयों में पवन बराबर
बििा रििा िै। िप श्वास दक्रया के द्वारा स्वयं बेखबर रििा िै। िमें उसकी ओर अपना ध्यान ले िाकर श्वासों को
संज्ञान रूप से करना िै। ‘र्टसां’ अथाषि् छि कमल पंखुहडयों वाला स्वाहधष्ठान िक्र। ‘र्ोहड कवलदल’ अथाषि्
सोलि कमलदल वाला हवशुहद्ध िक्र। सूक्ष्म ित्त्व से धारा छू ट कर स्थूल ित्त्व का हनमाषि हुआ िै। स्वाहधष्ठान और
हवशुहद्ध आदद िक्र उसी धारा में बने हुए िैं। इसी धारा में अथवा इन्िीं िक्रों में आत्मा का हनवास िै। नौ सौ
नददयाँ (शरीर की समस्ि नाहडयाँ) पहनिाररन िोकर प्रािायाम से िंस (िीवात्मा) को सींििी िै। इससे आत्मा
रूपी बेल पुहष्पि िो िािी िै और इडा (िन्र नाडी) का फल िरबूि (शीघ्रिा दायक ज्ञान) उत्पन्न िो िािा िै।
नीिे बिने वाली अमृि की धारा (कु ण्डहलनी शहि या प्राि शहि) को ऊपर ब्रह्मरन्ध्र में ले िाइए और िन्र नाडी
और सूयष नाडी का मेल कीहिए। ब्रह्मरन्ध्र में इन दोनों (िन्र नाडी और सूयष नाडी) के लोप िो िाने से अथाषि्
सुर्ुम्ना के प्राधान्य से (याहत्रयों के हलए) घोर अंधकार िो गया। पाँिों सैहनक अथाषि् पंिहे न्रय राि िानकर सो
गई। प्राकार और हसंिद्वार प्रकट िो गए। अथाषि् अंदर िाने का मागष ददखाई पडा, आध्याहत्मक िीवन में प्रवेश
करने का मागष खुल गया। मन िोगी िै और काया गुदडी। यि रिस्य मुझे गुरु ने बिाया। गोरखनाथ कििे िैं दक
इस रिस्य को सुरहक्षि रखो, नगरी में िोर (काम, क्रोध, लोभ आदद हवकार) छू टे हुए िैं।

अवधू बोल्या िि हबिारी, पृथ्वी मैं बकबाली ।

अिकु ल परबि िल हबन हिररया, अदबुद अिंभा भारी ।। टे क ।।

मन पवन अगम उहियाला, रहव सहस िार गयाई ।

िीहन राि हत्रहवहध कु ल नांिी, िारर िुग हसहध बाई ।।

पांि सिंस मैं र्ट अर्ूठा, सप्त दीप अि नारी ।

नव र्ंड पृथ्वी इकबीस मांिी, एकादहस एक िारी ।।

द्वादसी हत्रकु टी यला हपंगला, िवदहस हिि हमलाइ ।

र्ोडस कवल दल सो बिीसौ, सबदै उलटु समांनां ।।

भिंि गोरर्नाथ मछींर नां पूिा, अहविल थीर रिांनां ।। 11 ।।

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मॉड्यूल क्र. 1.3, गोरखनाथ : व्याख्या एवं समीक्षा
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शब्दाथष – अदबुद=अद्भुि। अिंभा=आश्चयष। थीर=हस्थर।

संदभष – पूवषवि।

प्रसंग – कहव ने हवहभन्न हिहथयों के बिाने योग का विषन दकया िै।

व्याख्या – अवधूि ने हविार कर ित्त्व किा िो पृथ्वी में बकवास िी समझा िा रिा िै। इस ित्त्व कथन में पूर्िषमा
और अमावस्या को हमलाकर सोलि हिहथयों के बिाने योग वर्िषि िै। कु छ हिहथयों का स्पि उल्लेख निीं िै।
(प्रहिपदा) यि अिम्भे की बाि िै दक अिकु ल पवषि हबना िल के िी िै र गये। अिकु ल पवषि स्थूल काया िै और
िल सूक्ष्म माया। काया में माया और आत्मा दोनों िैं। िल अथवा माया के रहिि िो िाने पर व्यहि के िरने में,
मुि िो िाने में कोई सन्देि निीं रि िािा। (हद्विीया) मन, पवन के संयम से अगम ज्योहि प्राप्त हुई िै हिसके
समक्ष सूयष, िन्र और िारे गि िो िािे िैं। िौथ, िगि में हसहद्ध का डंका बि रिा िै। पंिमी, सिस्रार में हस्थि
िो गई िै। छठ उलटी अन्िमुषख िो गई िै। सप्तमी (अलख ज्योहि का) दीप िल उठा िै। अिमी, कु ण्डहलनी शहि
हसद्ध िो गई िै। नवमी, नौ-खण्ड पृथ्वी और इक्कीस ब्रह्माण्ड (काया के िी) भीिर िैं। दशमी का उल्लेख अन्ि में
िै। एकादशी, एकिार, एकरस समाहध लगी हुई िै। द्वादशी, इला-हपंगला का हत्रकु टी में सुर्ुम्ना द्वारा मेल िो गया
िै। त्रयोदशी का उल्लेख निीं िै। ििुदषशी, हिि ब्रह्म में लीन िो गया िै। पूर्िषमा या अमावस र्ोडश दलकमल
हवशुहद्ध िक्र के हसद्ध िोने से योगी के बिीसों लक्षि प्राप्त िो गए िैं िथा िरा-मरि और भवभीहि नि िो गई िै।
दशमी, उनमनी समाहध के द्वारा हनरंिन रूप िोकर दशमद्वार में वास पाकर उलटकर उसी शब्द में समा गए
हिससे उत्पन्न हुए थे। मत्स्येन्र का पुत्र गोरखनाथ कििा िै दक इस िरि मैं अपने मूल अहविल रूप में हस्थर िो
गया।

3. सारांश / Summary

गोरखनाथ भारिीय धमष साधना के हशखर पुरुर्ों में से एक िैं। उनका साहित्य अहधकिर नाथ-संप्रदाय की
सैद्धाहन्िक व्याख्या से समहन्वि िै, परन्िु नाथ-सम्प्रदाय की सामान्य नैहिक हशक्षाएँ साधारि-िन के हलए भी
बहुि उपयोगी िैं। उनकी नैहिक और आध्याहत्मक बाहनयों से प्रेरिा लेकर परविी संि साहित्य पल्लहवि हुआ िै।
गोरखनाथ का आध्याहत्मक हिन्िन, मन और काया की पहवत्रिा का हविार आि भी प्रासंहगक िै। इहन्रयों पर
हविय प्राप्त करना भारिीय मनीर्ा का आरंभ से िी ध्येय रिा िै। इसी लक्ष्य को साधने के हलए गोरखनाथ िठयोग
(र्डंग योग) का मागष हनदेश करिे िैं। मिर्र्ष पिंिहल के योग-मागष से गोरखनाथ का योग-मागष इसी बाि में हभन्न
िै दक पिंिहल ने ििाँ अिांग योग की बाि की िै विी गोरखनाथ र्डंग (छि अंग) की ििाष करिे िैं। गोरखनाथ
के िठ योग में आरंभ के दो अंगों पर अहधक िोर निीं ददया गया िै। परन्िु नाथ-सम्प्रदाय में अिांगों की भी
मान्यिा िै। हनश्चय िी गोरखनाथ एक महिमाशाली सन्ि िैं। उनके आहवभाषव के सम्बन्ध में कई ककं वदहन्ियाँ
प्रिहलि िैं। इिना िो हनहश्चि िै दक गोरखनाथ मत्स्येन्रनाथ के हशष्य थे और अपने गुरु से आगे बढकर सम्प्रदाय

बीए प्रथम वर्ष हिन्दी साहित्य, प्रथम प्रश्न-पत्र (हिन्दी काव्य), इकाई -01
मॉड्यूल क्र. 1.3, गोरखनाथ : व्याख्या एवं समीक्षा
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का संगठन और हसद्धान्िों का हनमाषि उन्िोंने दकया था। अपने हसद्धान्िो को िी साहित्य में उन्िोंने स्थान ददया
िै।

4. संदभष / References

1. शुक्ल रामिन्र, 2015, हिन्दी साहित्य का इहििास, िय भारिी प्रकाशन, इलािाबाद।

2. वमाष रामकु मार, 2010, हिन्दी साहित्य का आलोिनात्मक इहििास, लोकभारिी प्रकाशन, इलािाबाद।

3. बडथ्वाल पीिांबरदि, (सम्पा.) 2003, गोरखबानी, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग

4. हद्ववेदी ििारी प्रसाद, नाथ साहित्य, 1950, हिन्दुस्िान एके डमी, उिरप्रदेश, इलािाबाद।

5. नगेंर, (सम्पा.) हिन्दी साहित्य का इहििास, 2017, नेशनल पहब्लहशंग िाउस, नयी ददल्ली।

6. वमाष धीरेंर, (सम्पा.) हिन्दी साहित्य कोश (नामवािी शब्दावली), 2015, ज्ञान मण्डल हलहमटेड, वारािसी।

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