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स्नेहन

PRESENTED BY – RAHUL (2138) , RITIKA (2140) , RIPON


(2141)
CONTENT
• व्युत्पत्ति
• परिभाषा
• द्रव्यो के गुण
• कर्म
• भेद
• काल के अनुसार
• स्नेह मात्रा
• अनुपान
• लाभ हानि
व्युत्पत्ति

स्निग्ध में घञ् प्रत्यय लगने पर स्नेह शब्द बनता है |

परिचय:
स्नेह का सामान्य अर्थ है – स्निग्ध तथा वह प्रक्रिया जिसके द्वारा
स्निग्ध किया जाता है वह स्नेहन कहलाती है |
परिभाषा

 स्नेहनं स्नेहविष्यन्दमार्दवक्लेदकारकम् | (च.सू.22/11)


 जिस क्रिया द्वारा शरीर में चिकनापन (स्निग्धता) , दोषों का विलयन
होकर , स्त्रवणशीलता , कोमलता , जलीय घटकों का प्रमाण बढ़ कर
कलेदता (चिपचिपापन) उत्पन्न होती है वह स्नेहन कहलाता है |
स्नेह द्रव्यों के गुण

 पृथ्व्यिम्बु गुण भूयिष्ठ: स्नेह: | (सु.सू.41/11)


 स्नेहन द्रव्यों में जलीय और पार्थिव गुणों की अधिकता होती है |
 उनमें निम्न गुण होते हैं जो शोधन कर्म में उपयोगी हैं –
 द्रव , सूक्ष्म , सर , स्निग्ध , पिच्छिल , गुरु , शीत , मंद , मृदु |
1. द्रव- जो गुण क्लेदन का कार्य करता है उसे द्रव कहते हैं | इस गुण से
शरीर में तरलता आती है जिससे दोषों का विलयन , स्थानच्युति , स्त्रावण
एवं प्लवण होता है |
2. सूक्ष्म- हेमाद्रि ने सूक्ष्म को विवरणशील कहा है अर्थात घटकों को अलग-
अलग करना | इस गुण के कारण यह सूक्ष्म छिद्रों में प्रवेश कर जाता है
और अपना कार्य करता है |
3. सर- जिससे अनुलोमन होता है वह सर है | इस गुण के कारण सरकने
वाला तथा प्रेरणशील होता है |
4. स्निग्ध- इसका सामान्य अर्थ चिकनाहट होता है हेमाद्रि के अनुसार वह
क्लेदन कारक हैं इसके कारण स्नेहद्रव्य शरीर में बल , वर्ण , स्नेह और
मार्दव कारक होता है |
5. पिच्छिल- इसका सामान्य अर्थ चिपचिपान है | बल्य , गुरु , आयुष्य ,
कफवर्धक एवं लेपन कारक होता है |
6. गुरु- सामान्य अर्थ भारीपन है | वातनाशक , कफकर , देहवृद्धिकर होता
है | इसका कर्म साद , उपलेप , बल , तर्पण एवं बृंहणकृ त है |
7. शीत- आनंदकर , उत्साहवर्धक , मूर्च्छाहरण एवं दाह शामक होता है |
8. मंद- इस गुण के कारण स्नेह द्रव्य शरीर में धीरे -धीरे प्रवेश करते हैं और
शमन कार्य करते हैं | अरुण दत्त ने इसे चिरकारित्व कहा है |
9. मृदु- इस गुण कारण स्नेहद्रव्य शरीर के अवयवों को कोमल बनाते हैं |
इसका कार्य शिथिलीकरण है |
पंचकर्म विधि

 त्रिविधं कर्म – पूर्वकर्म , प्रधानकर्म पश्चातकर्मेति | (सु.सू.5/3)


 पूर्व कर्म के निम्न तीन प्रकार
1) पाचन
2) स्नेहन
3) स्वेदन
पाचन

 आहार के ठीक प्रकार से पाचन हेतु तथा जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाली
औषधियों द्वारा यह पाचन कर्म किया जाता है।
 जैसे- पंचकोल चूर्ण, हिंग्वादि वटी, अग्नितुण्डी वटी, चित्रकादि वटी।
क्योंकि पंचकर्म हेतु निराम अवस्था आवश्यक है जिससे आम दोष को
पाचन द्वारा नष्ट करते है तथा अगले कर्म स्नेहन हेतु उपयुक्त अग्नि
प्रदीप्ती एवं पाचन शक्ति बढ़ सके ।
स्नेहन

 यह पंचकर्म का पूर्वकर्म है तथा कु छ रोगों में यह प्रधान कर्म के रूप में भी


प्रयुक्त किया जाता है। घृत, तैल, वसा, मज्जा चार उत्तम स्नेह हैं।
 स्नेह का प्रयोग बाह्य (अभ्यंग आदि) तथा आभ्यांतर (स्नेहपान) दोनोंप्रकार
से किया जाता है। स्नेहन द्वारा शरीर में मृदुता आती है। जिससे दोष अपने
स्थान से अलग हो जाते हैं।
 वमनएवं विरे चन में स्नेहपान केद्वारा (आभ्यान्तर) दोषो को उत्क्लिष्ट किया
जाता है तथा अन्य जो स्नेहपान द्वेष करते होउन्हें स्नेह प्रविचारणा (भोजन
आदि के साथ स्नेह मिश्रण करके देना) द्वारा स्नेहन किया जाता है।
स्वेदन

 जिस क्रिया द्वारा शरीर से स्वेद (पसीना) निकाला जाता है। वह स्वेदन है।
इससे शरीर में जकड़न, भारीपन तथा शीतता दूर होती है।
 स्नेहन से जो दोष उत्क्लिष्ट होते है उन्हे स्वेदन द्वारा पृथक कर प्रधान
कर्म के द्वारा शरीर से बहार निकाल देते हैं।
प्रधान कर्म
 अभ्यंग हेतु आसन - प्रत्येक अंग/अवयव पर अभ्यंग अच्छी प्रकार से
हो इसलिए अभ्यंग तथा अभ्यंग जैसीअन्य क्रिया विधियों को
निम्नोक्त सात अवस्थाओं में या आसन में आतुर को रखकर
अभ्यंग करना चाहिये।
 1. पाँव सीधा रखकर बैठाकर (Sitting with legs Extended)
 2. पीठ के बल लिटाकर (Supine position or Lying)
 3. वामपार्श्व पर लिटाकर (Left lateral)
 4. वक्ष उदर के बल लिटाकर (Prone)
 5. दक्षिण पार्श्व पर लिटाकर (Right lateral)
 6. पुनः पीठ के बल लिटाकर (Again Supine)
 7. पुनः बैठाकर (Again Sitting with leg extened)
अभ्यंग विधि

 रोगी को कोपीन पहनाकर अभ्यंग टेबल पर लिटाया जाता है। सुखोष्ण


सुगंधी, वातघ्न, ऋतु, दोषादि के अनुकू ल तैल लेकर धीरे -धीरे अनुलोम गति
(अनुलोम=जिघर शरीर के लोम/ बाल झुके हु ए हो, उसी दिशा में अभ्यंग
करना) से अभ्यंग करना चाहिए। सिर पर अभ्यंग हेतु शीत स्नेह या सुखोष्ण
स्नेह से तथा हाथ पांव इत्यादि भागों पर ऊष्ण स्नेहों से अभ्यंग करें ।
 शीत ऋतु में ऊष्ण तैलों से तथा ऊष्ण ऋतु में शीत तैलों से अभ्यंग करना
चाहिए।
 सर्वप्रथम ब्रह्मरं ध्र- सम्पूर्ण
सिर- कर्ण-हस्त-पाद अभ्यंग करके अन्य शरीर के
भागों का अभ्यंग प्रारम्भ करनाचाहिये।
 दीर्घाकार वाले अवयवों (हाथ पांव पर अनुलोमतः अर्थात् ऊपर से नीचे की
ओर, संधिस्थान (कर्पूर, अर जानु, गुल्फ, कटि) में वर्तुलाकार अभ्यंग करें ।
अभ्यंग का मुख्य उद्देश्य भीतर के अवयवों की गतियों को उत्तेजित करना
है। अभ्यंग विशेषतः सिर, पांव व कान पर करना चाहिये।अभ्यंग की जो
सात अवस्थाएँ हैं उन सभी अवस्थाओं में शरीर की 5-10 मिनट तक अभ्यंग
करना चाहियेइस प्रकार 45 मिनट से 1 घण्टे तक अभ्यंग करना चाहिये।
पश्चात कर्म

 इसमें निम्नलिखित कर्म आते हैं-


 1. शरीर स्वच्छता (Clean / Sponge ) - अभ्यंग पश्चात् तौलिया को गर्म पानी से
निचोड़कर पूरे शरीर पर स्पंज करते हैं जिससे शरीर पर लगा हु आ तैल पोछकर
शरीर को स्वच्छ किया जाता है।
 2. विश्राम (Rest ) - अभ्यंग पश्चात् 15 मिनट से 30 मिनट तक विश्राम करना चाहिये।
एक से ढेड घण्टे बाद रोगी को उष्णोदक से स्नान करवाया जाता है। या रोगानुसार
औषध क्वाथ स्नान भीकरा सकते हैं।
 3. तापक्रमादि सूचीबद्ध (Vital recording) - रोगी का पुनः तापक्रम, वजन, रक्तचाप,
नाडी गति, श्वसन गति आदि को सूचीबद्ध करके पूर्व तथा वर्तमान के विवरण के
आधार पर वर्तमान स्थिति का निर्धारण करते हैं।
 4. आहार विहार सम्बन्धी निर्देश (Diet & other regimen ) - अभ्यंग पश्चात्
रोगी को लघु आहार, पेया, यवागू का सेवन करवाया जाता है। उसे
समशीतोष्ण वातावरण में रखा जाता है।
 5. यदि अभ्यंग पश्चात् स्वेदन करना हो तो अल्प विश्राम कराकर स्वेदन
करना चाहिये।
स्नेहपान काल

1. स्नेह पान का काल : ऋतु के अनुसार –


घृत का सेवन शरद ऋतु में करना चाहिए|वसा और मज्जा का सेवन
वैशाख में करना चाहिए, और तेल का सेवन प्रावृत ऋतु में करना चाहिए|
अत्यंत शीत तथा अत्यंत उष्ण काल मे सर्वथा स्नेह का सेवन नहीं
करना चाहिए||
1. स्नेहपान काल : दिन तथा रात्रि के अनुसार --
गर्मी के दिनों में वात और पित्त की अधिकता में रात्रि के समय, शीतकाल में
कफ की अधिकता में दिन के समय मनुष्य को स्नेह पान करना चाहिए |
स्नेहापान का अनुपान

1. स्नेहपान का अनुपान –
घृत पीने के बाद गरम जल, तेल पीने के बाद यूष, वसा और मजा पीने के बाद मंड
पीना चाहिए | अभाव में सभी स्नेहो के पीने के बाद गरम जल पीना चाहिए |
स्नेह की मात्रा तथा मान - प्रमाण

स्नेह की मात्रा तथा मान – प्रमाण :


प्रधान, मध्य, ह्रस्ब स्नेह की त्रिविध मात्राए – जो स्नेह की मात्रा दिन-रात में पच जाए
वह प्रधान मात्रा, जो दिन भर में पच जाय वह मध्य मात्रा, जो आधे दिन में पच जाय वह
स्नेह की छोटी मात्रा कही जाती हैं | इस प्रकार स्नेह के पचने के अनुसार यह
प्रधान मध्य और ह्रास्ब तीन मात्राएं बताई गई है |
अस्निग्ध व्यक्ति के लक्षण

अस्निग्ध व्यक्ति के लक्षण :


मल का गांठदार और रूक्ष निकलना, वायु का अनुलोम न होना, जठराग्नि
का मंद होना, शरीर में खरता और रूक्षता उत्पन्न हो जाना, अस्निग्ध पुरुष
का लक्षण हैं|
स्निग्ध व्यक्ति के लक्षण

स्निग्धा व्यक्ति के लक्षण :


स्नेहन क्रिया के बाद यदि वायु का अनुलोमन हों, जठराग्नि तीव्र हो, मलचिकना
और घांटदार न हो, शरीर मे कोमलता और चिकनापन हो तो इस व्यक्ति का स्नेहन
क्रिया उचित रूप से हु आ है, यह समझना चाहिए|
अतिस्निग्ध व्यक्ति के लक्षण

अतिस्निग्ध व्यक्ति के लक्षण:


स्नेह पीने के बाद जिस व्यक्ति के शरीर में पीलापन, भारीपन और जड़ता
उत्पन्न हो, मल पच कर न निकले, तंद्रा, अरुचि और उत्कलेश ये लक्षण
उत्पन्न हो तो उस व्यक्ति का स्नेहन क्रिया अधिक रूप में हो गया है।
लाभ
जठराग्नि प्रदीप्त होती है, कोष्ठ शुद्ध होता है, रसादि धातुएँ तरुण
बनी रहती है। वृद्धावस्था देर से आती है तथा स्नेह उप सेवी मनुष्य
सौ वर्ष तक जीता है।
स्नेहन के योग्य व्यक्ति
* जिनको स्वेदन तथा संशोधन करना हो
* जो मद्यपान मैथुन तथा व्यायाम मे आसक्त हो
*जो चिंतक, वृद्ध, बालक, अबल् हो
* जो कृ ष तथा रुक्ष शरीर वाले हों
* जिनका रक्त तथा शुक्र धातु क्षीण हो गया हो
* जो वातव्यधि अभिश्यंद रोग तथा तिमिर रोग से ग्रस्त हों
* जिसे दारूण प्रतिबोधन हो
स्नेहन के अयोग्य व्यक्ति

 जिनकी अग्नि अत्यंत मन्द तथा तिक्ष्ण हो


 जो अत्यंत स्थूल या दुर्बल हों
 जो ऊरुस्तंभ, अतिसार, आमरोग्, गलरोग्, गरविष, उदर रोग, मूर्छा, छर्दी, अरुचि,
कफवीकार, तृषा तथा मद्य जन्य रोग से पीड़ित हों, जो अपप्रसूता हो |
 जिसको नस्य, वस्ति तथा विरे चन दिया गया हो

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