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संसार के ककसी भी प्राणी, वस्त,ु स्थान, जातत या भाव, दशा आदद के नाम

को संज्ञा (Sangya) कहते हैं|

त्योहार हमारे घर खशु ियां लाता है.

क्रिकेट भारत का लोकप्रप्रय खेल है .

ऊपर ललखे वाक्यों में सभी चिन्हहत शब्द संज्ञा के ककसी ना ककसी प्रकार हैं.

किकेट – खेल का नाम

खुलशयां – प्रवशेष मनः न्स्थतत (भाव) का नाम

संज्ञा के भेद – (Sangya ke Bhed):

1 . व्यन्क्तवािक संज्ञा (Vyakti Vachak Sangya)- गुलाब, ददल्ली, इंडिया गेट,

गंगा, राम आदद


2 . जाततवािक संज्ञा (Jativachak Sangya) – गधा, किताब, माकन, नदी आदद

3. भाववािक संज्ञा -(Bhav Vachak Sangya) सद


ुं रता, इमानदारी, प्रशहनता,

बईमानी आदद

जाततवािक संज्ञा के दो उपभेद हैं –

4. द्रव्यवािक संज्ञा (Dravya Vachak Sangya) तथा

5. समूहवािक संज्ञा (Samuh Vachak Sangya).

इन दो उपभेदों को लमला कर संज्ञा के कुल 5 प्रकार को जाते हैं|

अब संज्ञा के सभी प्रकार का प्रवस्तत


ृ वणणन नीिे ककया गया है -

1. व्यक्तिवाचक संज्ञा (Vyakti Vachak Sangya)

न्जन शब्दों से ककसी प्रवशेष व्यन्क्त, प्रवशेष प्राणी, प्रवशेष स्थान या ककसी प्रवशेष

वस्तु का बोध हो उहहें व्यन्क्तवािक संज्ञा कहते है .


जैसे- रमेश (व्यन्क्त का नाम), आगरा (स्थान का नाम), बाइबल (किताब का

नाम), ताजमहल (इमारत का नाम), एम्स (अस्पताल का नाम) इत्यादद.

2. जातिवाचक संज्ञा (Jativachak Sangya)

वैसे संज्ञा शब्द जो की एक ही जातत के प्रवलभहन व्यन्क्तयों, प्राणणयों, स्थानों एवं

वस्तुओं का बोध कराती हैं उहहें जाततवािक संज्ञाएँ कहते है ।

कुत्ता, गाय, हाथी, मनुष्य, पहाड़ आदद शब्द एकही जातत के प्राणणयों, वस्तुओं एवं

स्थानों का बोध करा रहे है।

जाततवािक संज्ञा के अंतगणत तनम्नललणखत दो है –

(क) द्रव्यवाचक संज्ञा – (Dravya Vachak Sangya)

न्जन संज्ञा शब्दों से ककसी पदाथण या धातु का बोध हो, उहहें द्रव्यवािक संज्ञा कहते

है ।
जैसे – दध
ू , घी, गेहूँ, सोना, िाँदी, उन, पानी आदद द्रव्यवािक संज्ञाएँ है ।

(ख) समह
ू वाचक संज्ञा -(Samuh Vachak Sangya)

जो शब्द ककसी समह


ू या समद
ु ाय का बोध कराते है , उहहें समह
ू वािक संज्ञा कहते

हैं।

जैसे – भीड़, मेला, कक्षा, सलमतत, झुंि आदद समूहवािक संज्ञा हैँ।

व्यक्तिवाचक संज्ञा का जातिवाचक संज्ञा के रूप में प्रयोग: (Vyakti Vachak

Sangya Use in form of Jati Vachak Sangya)

व्यन्क्तवािक संज्ञाएँ कभी कभी ऐसे व्यन्क्तयों की ओर इशारा करती हैं, जो

समाज में अपने प्रवशेष गण


ु ों के कारण प्रिललत होते हैं। उन व्यन्क्तयों का नाम

लेते ही वे गुण हमारे मन्स्तष्क में उभर आते है , जैस-


हरीशिंद्र (सत्यवादी), महात्मा गांधी (मकात्मा), जयिंद (प्रवश्वासघाती), प्रवभीषण

(घर का भेदी), अजन


ुण (महान ् धनुधरण ) इत्यादद। कभी कभी बोलिाल में हम इनका

इस्तेमाल इस प्रकार कर लेते हैं-

1. इस दे श में जयचंदों की कमी नहीं । (जयिंद- दे शद्रोही के अथण में )


2. कललयुग में हरििचंद्र कहां लमलते हैं । (हररशिंद्र- सत्यवादी के अथण में
प्रयुक्त)
3. हमेँ दे श के ववभीषणों से बिकर रहना िादहए । (प्रवभीषण- घर के भेदी के
अथण में प्रयक्
ु त)

जातिवाचक संज्ञा का व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में प्रयोग– (Jativachak

Sangya Use in form of Vyakti Vachak Sangya)

कमी-कभी जाततवािक संज्ञाएँ रूढ हो जाती है । तब वे केवल एक प्रवशेष अथण में

प्रयुक्त होने लगती हैं- जैसे:

पंडििजी हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री थे।

यहाँ ‘पंडििजी‘ जाततवािक संज्ञा शब्द है , ककंतु भूतपूवण प्रधानमंत्री ‘पंडित


जवाहरलाल नेहरू’ अथाणत ् व्यन्क्त प्रवशेष के ललए रूढ़ हो गया है । इस प्रकार यहाँ

जाततवािक का व्यन्क्तवािक संज्ञा के रूप में प्रयोग ककया गया है ।

िाष्ट्रवपिा गांधी जी ने हररजनों का उद्धार ककया । (राष्रप्रपता गांधी)

नेिा जी ने कहा- “तुम मुझे खून दे , मैं तुम्हें आजादी कूँरा । (नेता जी – सुभाष िंद्र

बोस)

3. भाववाचक संज्ञा – (Bhav Vachak Sangya)

जो संज्ञा शब्द गण
ु , कमम, दिा, अवस्था, भाव आदद का बोध कराएँ उहहें भाववािक

संज्ञाएँ कहते है।

जैसे – भख
ू , प्यास, थकावट, िोरी, घण
ृ ा, िोध, संद
ु रता आदद। भाववािक संज्ञाओं

का संबंध हमारे

भावों से होता है । इनका कोई रूप या आकार नहीं होता । ये अमत


ू ण (अनुभव ककए

जाने वाले) शब्द होते है।


भाववाचक संज्ञाओं का जातिवाचक संज्ञा के रूप में प्रयोग :

भाववािक संज्ञाएँ जब बहुविन में प्रयोग की जाती है , तो वे जाततवािक संज्ञाएँ

बन जाती हैं ; जैसे –

(क) बुिाई से बिो । ( भाववािक संज्ञा)

बिु ाइयों से बिो । (जाततवािक संज्ञा)

(ख) घर से प्रवद्यालय की दिू ी अचधक नहीं है । (भाववािक संझा)

मेरे और उसके बीि दरू ियााँ बढ़ती जा रही है । (जाततवािक संज्ञा)

द्रव्यवािक संज्ञाएँ एवं समुहवािक संज्ञाएँ भी जब बहुविन में प्रयोग होती हैं तो वे

जाततवािक

संज्ञाएँ बन जाती हैं, जैसे-


(क) मेरी कक्षा में 50 बच्िे हैं । (समह
ू वािक संज्ञा)

लभहन – लभहन प्रवषयों की कक्षाएाँ िल रही है । (जाततवािक संज्ञा)

(ख) सेना अभ्यास कर रही है। (समूहवािकसंज्ञा)

हमारी सारी सेनाएाँ वीरता से लिी। (जाततवािक संज्ञा)

(ग) रोहन का परिवाि यहां रहता है। (समूहवािक संज्ञा)

आज कल सभी परिवािों में छोटे -मोटे झगड़े होते रहते है । (जाततवािक संज्ञा)

(घ) लकिी से अलमीरा बनता है। (द्रव्यवािक संझा)

ढे र सारी लकडियां इकट्ठी करो। (जाततवािक संज्ञा)

(ङ) सरसों का िेल पीला होता है। (द्रव्यवािक संज्ञा)

वनस्पतत िेलों का प्रिलन शहरों में ज्यादा है । (जाततवािक संज्ञा)


सवमनाम की परिभाषा:

जो शब्द संज्ञा के स्थान पर प्रयुक्त ककए जाते हैं, वे सवणनाम (Sarvnam) कहलाते

हैं।

सवणनाम सभी संज्ञा शब्दों के स्थान पर प्रयोग होने वाले वे शब्द हैं, जो भाषा को

संक्षक्षप्त एवं रिना की दृन्ष्ट से सुंदर बनाने में सहायक होते हैं।

सवणनाम सभी प्रकार की संज्ञाओं (नामों) के स्थान पर प्रयोग ककए जाते हैं। अत:

संज्ञा के समान ही प्रवकारी शब्द होने के कारण इनमें भी कारक के कारण प्रवकार

या पररवतणन आता है -जैसे- तू, तुमको, तुझको, तुझे, तेरा, तेरे ललए, तुझमें , आदद।

संज्ञा के समान ही सवणनाम के भी दो विन होते हैं-

(क) एकविन ; जैसे-मैं, तू, यह, वह, आदद।

(ख) बहुविन ; जैसे-हम, तम


ु , ये, वे, आदद।
सवणनाम शब्द दोनों ललंगों में एक जैसे ही रहते हैं; जैसे-

मैं, तू, तुम, आप, आदद तथा ललंग-संबंधी जो प्रभाव वाक्य में ददखाई दे ता है , वह

किया-पदों से स्पष्ट होता है ;

जैसे-(क) वह जाता है। (ख) वह जाती है ।

सवणनाम के तनम्नललणखत छह भेद हैं

1. पुरुषवाचक सवमनाम (Purush Vachak Sarvnam)

2. तनश्चयवाचक सवमनाम (Nishchay Vachak Sarvnam)

3. अतनश्चयवाचक सवमनाम (Anishchay Vachak Sarvnam)

4. प्रश्नवाचक सवमनाम (Prashan Vachak Sarvnam)

5. सम्बन्धवाचक सवमनाम (Sambandh Vachak Sarvnam)

6. तनजवाचक सवमनाम (Nij Vachak Sarvnam)


1. परु
ु षवाचक सवमनाम (Purushvachak Sarvanam)

अपने ललए, सन
ु ने वाले के ललए या ककसी अहय व्यन्क्त के ललए प्रयोग ककये गए

सवणनाम पुरुषवािक सवणनाम की श्रेणी में आते हैं, जैसे –

(क) मैं खेल रहा हूँ। तू भी खेल। वे सब भी खेल रहे हैं।

(ख) हम खेल रहे हैं। तुम भी खेलो। ये सब भी हमारे साथ खेलेंग।े

उपयुक्
ण त वाक्यों में –

(i) वक्ता द्वारा अपने ललए प्रयोग ककए गए सवणनाम हैं- मैं, हम।

(ii) वक्ता द्वारा श्रोता के ललए प्रयोग ककए गए सवणनाम हैं- त,ू तुम।

(iii) वक्ता द्वारा अहय व्यन्क्तयों के ललए प्रयोग ककए गए सवणनाम हैं- वे, ये।

इसी आधार पर पुरुषवािक सवणनाम के तनम्नललणखत तीन उपभेद हैं :

(i). उत्तम परु


ु ष
(ii). मध्यम परु
ु ष

(iii). अहय पुरुष

(i) उत्तम परु


ु षवािक सवणनाम (Uttam Purushvachak Sarvanam): वक्ता या

लेखक न्जन सवणनामों का प्रयोग अपने ललए करता है , उहहें उत्तम पुरुषवािक सवणनाम

कहते हैं|

जैसे-मैं, हम, आदद।

(ii) मध्यम परु


ु षवािक सवणनाम (Madhayam Purushvachak Sarvanam): वक्ता

या लेखक द्वारा जो सवणनाम श्रोता के ललए प्रयुक्त ककए जाते हैं, उहहें मध्यम

पुरुषवािक सवणनाम कहते हैं|

जैसे-तू, तुम, आप, आदद।


(iii) अहय परु
ु षवािक सवणनाम (Anya Purushvachak Sarvanam): वक्ता अथवा

लेखक न्जन सवणनामों का प्रयोग अपने या श्रोता के अततररक्त अहय व्यन्क्तयों के ललए

करते हैं, उहहें अहय परु


ु षवािक सवणनाम कहते हैं|

जैसे-यह, वह, ये, वे, आदद।

परु
ु षवाचक सवमनाम कािक के रूप में -

एकविन बहुविन
कारक
मैंं तंू वह हम त ुम वंे

वह, हम, तुम, वे,


कतणंा मैं, मैंनंे तू, तूनंे
उसनंे हमनंे तुमनंे उहहोंनंे

मझ
ु े, तझ
ु े, उसे, हमें , तम्
ु हे , उहहें ,
कर्म
मुझकंो तुझकंो उसकंो हमकंो तुमकंो उनकंो
मुझसे, तुझसे, उससे, हमसे, तुमसे, उनसे,
करण मेरे तेरे उसके हमारे तुम्हारे उनके
द्वारंा द्वारंा द्वारंा द्वारंा द्वारंा द्वारंा

हमारे तुम्हारे उनके


मेरे ललए, तेरे ललए, उसके
ललए, ललए, ललए,
सम्प्रदान मुझे, युझे, ललए, उसे,
हमको, तम्
ु हे , उहहें ,
मुझकंो तुझकंो उसकंो
हमेंं तम
ु कंो उनकंो

मुझसे तुझसे उससे हमसे तुमसे उनसे


अपादान
(अलगाव) (अलगाव) (अलगाव) (अलगाव) (अलगाव) (अलगाव)

उसका, हमारा, तुम्हारा, उनका,


मेरा, मेरी, तेरा, तेरी,
सम्बन ्ध उसकी, हमारी, तम्
ु हारी, उनकी,
मेरंे तेरंे
उसकंे हमारंे तम्
ु हारंे उनकंे

अचधकर मुझमे, तुझमे, उसमे, हममे, तुममे, उनमे,


ण मझ
ु पर तझ
ु पर उस पर हम पर तम
ु पर उनपर

2. तनश्चयवाचक सवमनाम – (Nishchay Vachak Sarvanam)-

न्जस सवणनाम के द्वारा पास या दरू न्स्थत व्यन्क्तयों, प्राणणयों अथवा वस्तओ
ु ं की ओर
संकेत ककया जाए, उहहें

तनश्ियवािक सवणनाम कहते हैं

जैसे

(क) वह मेरा लमत्र है।

(ख) यह अमन का णखलौना है।

(ग) वे मोहन के चित्र हैं।

(घ) वे नेहा की पुस्तकें हैं।

इन वाक्यों में –

वह, वे तनश्ियवािक सवणनाम हैं, जो दरू न्स्थत वस्तुओं एवं व्यन्क्तयों की ओर संकेत

कर रहे हैं, इहहें दरू वती

तनश्ियवािक सवणनाम कहते हैं।


यह, ये भी तनश्ियवािक सवणनाम हैं, जो तनकटवती वस्तओ
ु ं की ओर संकेत कर रहे हैं,

अत: ये तनकटवतीं

तनश्ियवािक सवणनाम हैं।

3. अतनश्चयवाचक सवमनाम (Anishchay Vachak Sarvanam): न्जन सवणनामों

से तनन्श्ित वस्तु एवं व्यन्क्त का बोध न हो, उहहें अतनश्ियवािक सवणनाम कहते हैं|

जैसे-

कोई आया है |

कुछ लाया है |

ककसी से बताना नहीं|

इन वाक्यों में कोई, कुछ तथा ककसी सवणनाम शब्द ककसी तनन्श्ित व्यन्क्त अथवा

तनन्श्ित वस्तु की ओर संकेत नहीं करते, अतः ये अतनश्ियवािक सवणनाम हैं।


4. प्रश्नवाचक सवमनाम (Prashn Vachak Sarvanam):

न्जन सवणनाम शब्दों का प्रयोग प्रश्न पूछने के ललए ककया जाता है , वे ‘प्रश्नवािक

सवणनाम’ कहलाते हैं.

जैसे–

(क) दरवाजे पर कौन खड़ा है ?

(ख) तुम्हारे हाथ में क्या है?

कौन प्रश्नवािक सवणनाम का प्रयोग प्राणणवािक संज्ञाओं के स्थान पर ककया जाता है।

जबकक क्या प्रश्नवािक सवणनाम का प्रयोग अप्राणणवािक संज्ञाओं के स्थान पर ककया

जाता है ।

5. सम्बन्धवाचक सवमनाम (Sambandh Vachak Sarvanam) : जो सवणनाम शब्द

ककसी अहय उपवाक्य में प्रयक्


ु त संज्ञा या सवणनाम से संबंध दशाणते हैं, उहहें संबंधवािक

सवणनाम कहते हैं|


जैसे –

(क) जो करे गा, सो भरे गा।

(ख) न्जसकी लाठी उसकी भैस।

(ग) यह वही लड़का है , जो बाजार में लमला था।

(घ) जो जीता वही लसकंदर।

6. तनजवाचक सवमनाम (Nij Vachak Sarvanam):

जो सवणनाम वाक्य में कताण के साथ अपनेपन का बोध कराते हैं, उहहें ‘तनजवािक

सवणनाम’ कहते हैं| जैसे –

(क) मैं यह काम स्वयं कर लंग


ू ा।

(ख) मैं आप ही िला जाऊँगा।

(ग) वह अपने आप आ जाएगा।

(घ) उसे अपना काम खुद करने दो।


उपयक्
ुण त वाक्यों में स्वयं, आप, अपने आप एवं अपना तनजवािक सवणनाम हैं, जो

वाक्यों में कताण के साथ अपनेपन का बोध करा रहे हैं।

वविेषण औि वविेषण के भेद

संज्ञा और सवणनाम की प्रवशेषता बतानेवाले शब्द को (प्रवशेषण Visheshan) कहते हैं।

जैसे-

‘काली’ गाय,

‘अच्छा’ लड़का।

प्रवशेषण न्जस शब्द की प्रवशेषता बतलाता है , उसे प्रवशेष्य कहते हैं।

जैसे-उजली गाय मैदान में खड़ी है। यहाँ ‘उजली’ प्रवशेषण और ‘गाय’ प्रवशेष्य है ।

Visheshan Ke Bhed

अथण की दृन्ष्ट से प्रवशेषण (Visheshan) के मख्


ु यत: छह भेद हैं-
(1) गण
ु वािक प्रवशेषण (Gunvachak Visheshan)

(2) पररमाणवािक प्रवशेषण (Parimaan Vachak Visheshan)

(3) संख्यावािक प्रवशेषण (Sankhya Vachak Visheshan)

(4) सावणनालमक प्रवशेषण (Sarvanamik Visheshan)

(5) तल
ु नाबोधक प्रवशेषण (Tulna Bodhak Visheshan)

(6) संबंधवािक प्रवशेषण (Sambandh Vachak Visheshan)

(1) गुणवािक प्रवशेषण– (Gunvachak Visheshan) संज्ञा या सवणनाम के गुण, रूप,

रं ग, आकार, अवस्था, स्वभाव, दशा, स्वाद, स्पशण, गंध, ददशा, स्थान, समय, भार,

तापमान, इत्यादद का बोध करानेवाले शब्द गण


ु वािक प्रवशेषण कहलाते हैं। गण
ु वािक

प्रवशेषण के साथ ‘सा’ जोड़कर इसके गुणों में कमी की जाती है । जैसे-मोटा-सा, थोड़ा-

सा, छोटा-सा, इत्यादद ।


(2) पररमाणवािक प्रवशेषण (Parimaan Vachak Visheshan) यह ककसी वस्तु की

नाप या तौल का बोध कराता है । जैसे-सेर भर दध


ू , थोड़ा पानी, कुछ पानी, सब धन,

और घी, इत्यादद । पररमाणवािक के दो भेद हैं-

(i) तनलशित पररमाणवािक– दो सेर घी, दस हाथ जगह, आदद ।

(ii) अतनन्श्ित पररमाणवािक– बहुत दध


ू , थोड़ा धन, परू ा आनहद, इत्यादद ।

(3) संख्यावािक प्रवशेषण (Sankhya Vachak Visheshan) -न्जस प्रवशेषण से संज्ञा

या सवणनाम की संख्या का बोध हो, उसे संख्यावािक प्रवशेषण कहते हैं।

जैसे—िार घोिे, तीस ददन, कुछ लोग, सब लड़के, इत्यादद ।

संख्यावािक के भी दो भेद हैं

(i) तनन्श्ित संख्यावािक–आठ गाय, एक दजणन पेन्हसल, आदद ।

(ii) अतनन्श्ित संख्यावािक-कुछ लड़के, कई आदमी, थोड़े िावल, इत्यादद ।


(4) सावणनालमक प्रवशेषण (Sarvanamik Visheshan)–

न्जस सवणनाम का प्रयोग प्रवशेषण की तरह होता है , उसे सावणनालमक प्रवशेषण कहते हैं।

जैसे-वह आदमी, यह लड़की ।

इन वाक्यों में ‘वह’ तथा ‘यह’ ‘आदमी’ और ‘लड़की’ की प्रवशेषता बताते हैं ।

सावणनालमक प्रवशेषण के भी दो भेद हैं-

(i) मौललक सावणनालमक प्रवशेषण–सवणनाम का मूल रूप जो ककसी संज्ञा की प्रवशेषता

बताए, वह मौललक सावणनालमक प्रवशेषण कहलाता है। जैसे- यह लड़का, कोई नौकर,

कुछ काम इत्यादद।

(ii) यौचगक सावणनालमक प्रवशेषण-सवणनाम का रूपाहतररत रूप, जो संज्ञा की प्रवशेषता

बताए, वह यौचगक सावणनालमक प्रवशेषण कहलाता है। जैसे- ऐसा आदमी, कैसा घर,

उतना काम इत्यादद।

(5) तुलनाबोधक प्रवशेषण (Tulna Bodhak Visheshan)-दो या दो से अचधक


वस्तओ
ु ं या भावों के गण
ु , रूप, स्वभाव, न्स्थतत इत्यादद की परस्पर तल
ु ना न्जन

प्रवशेषणों के माध्यम से की जाती है , उहहें तुलनाबोधक प्रवशेषण कहते हैं ।

तल
ु ना की तीन अवस्थाएँ होती हैं—

(1) मूलावस्था,

(2) उत्तरावस्था,

(3) उत्तमावस्था।

जैसे- अचधक, अचधकतर, अचधकतम । ये िमश: तल


ु नात्मक अवस्थाएँ हैं ।

(6) संबंधवािक प्रवशेषण (Sambandh Vachak Visheshan)-जो प्रवशेषण ककसी

वस्तु की प्रवशेषताएँ दस
ू री वस्तु के संबंध में बताता है , तो उसे संबंधवािक प्रवशेषण

कहते हैं ।

इस तरह के प्रवशेषण संज्ञा, किया-प्रवशेषण तथा किया से बनते हैं ।


जैसे-‘दयामय’ ‘दया’ संज्ञा से, ‘बाहरी’ ‘बाहर’ कियाप्रवशेषण से, ‘गला’ ‘गलना’ किया से

प्रवशेषणों का तनमाणण-

कुछ शब्द तो अपने मल


ू रूप में ही प्रवशेषण होते हैं। जैसे-अच्छा, बरु ा, संद
ु र, बदमाश,

इत्यादद ।

लेककन कुछ प्रवशेषण दस


ू री जाततयों के शब्दों में उपसगण, प्रत्यय आदद लगा कर भी

बनाये जाते हैं, ऐसे प्रवशेषणों को व्युत्पहन प्रवशेषण कहते हैं| उदाहरण-

(क) संज्ञा से– उपसगण लगाकर-तनदण य, तनस्संकोि, तनगुणण, तनबणल, प्रबल, इत्यादद ।

प्रत्यय लगाकर-धनी, इलाहाबादी, बलवान, बंबइया, इत्यादद ।

(ख) सवणनाम से-आप से आपसी, वह से वैसा, यह से ऐसा, इत्यादद ।

(ग) किया से-लगना से लागू, भल


ू ना से भल
ु कृड्, दे खना से ददखाऊ, बेिना से बबकाऊ,
इत्यादद ।

(घ) अव्यय से-भीतर से भीतरी, बाहर से बाहरी, आदद ।

प्रवशेषण की कुछ प्रवशेषताएँ :

(क) प्रवशेषण के ललंग, परु


ु ष और विन प्रवशेष्य के अनरू
ु प ही होते हैं । अथाणत ् प्रवशेष्य

(संज्ञा या सवणनाम) के जो ललंग, पुरुष और विन होंगे, वही प्रवशेषण के भी होंगे ।

(ख) जब एक प्रवशेषण के एक से अचधक प्रवशेष्य हों, तो जो प्रवशेष्य उसके बबलकुल

तनकट होगा, उसी के अनुसार प्रवशेषण के ललंग, विन आदद होंगे । जैसे— उजली धोती

और कुरता ।

(ग) सावणनालमक प्रवशेषण तथा सवणनाम की पहिान-कुछ सावणनालमक प्रवशेषणों तथा

तनश्ियवािक सवणनामों के रूप में कोई फकण नहीं होता । दोनों आवस्थाओं में उनका

रूप एकसमान बना रहता है । अतः उनकी पहिान के ललए इस बात का ध्यान रखें कक
यदद ऐसे शब्द संज्ञा के पहले आयें, तो प्रवशेषण होंगे और यदद वे संज्ञा के स्थान पर या

उसके बदले अकेले प्रयुक्त हों, तो वे सवणनाम होंगे ।

जैसे-(1) यह गाड़ी मेरी है । इस वाक्य में ‘यह’ संज्ञा (गाड़ी) के पहले आया है , अत:

प्रवशेषण है ।

(2) वह आपके साथ रहता है | इस वाक्य में ‘वह’ संज्ञा के रूप में अकेले ही आया है,

अतः ‘वह’ सवणनाम है |

(घ) जब एक से अचधक शब्दों के मेल से ककसी संज्ञा का प्रवशेषण बनता है , तब उस

शब्द-समूह को प्रवशेषण-पदबंध कहते हैं । जैसे-भवन-तनमाणण के काम में आनेवाले सारे

सामान काफी महँगे हो गये हैं ।

प्रप्रवशेषण:- न्जस शब्द से प्रवशेषण की प्रवशेषता का ज्ञान होता है , उसे प्रप्रवशेषण कहते

हैं ।
जैसे-

(1) वह बहुत अच्छा प्रवद्याथी है।

(2) कौशल बड़ा साहसी है।

(3) हमारे प्रपताजी अत्यचधक उदार हैं।

(4) घनश्याम अततशय भावक


ु व्यन्क्त है ।

ऊपर के सभी वाक्यों के काले अक्षरों वाले शब्द प्रप्रवशेषण के उदाहरण हैं, क्योंकक ये

सभी प्रवशेषण की प्रवशेषता का ज्ञान कराते हैं।

प्रवशेषण का प्रयोग :

प्रयोग के प्रविार से प्रवशेषण के दो भेद हैं-

(1)प्रवशेष्य-प्रवशेषण और (2) प्रवधेय-प्रवशेषण।


(1) प्रवशेष्य-प्रवशेषण–प्रवशेष्य से पहले आनेवाले प्रवशेषण को प्रवशेष्य-प्रवशेषण कहते

हैं। जैसे-िंद ू अच्छा लड्का है । इस वाक्य में ‘अच्छा’ लड़का का प्रवशेषण है और उसके

पहले आया है , अतः यहाँ ‘अच्छा’ प्रवशेष्य-प्रवशेषण है ।

(2) प्रवधेय-प्रवशेषण-जो प्रवशेषण प्रवशेष्य के बाद प्रयक्


ु त होता है , उसे प्रवधेय-प्रवशेषण

कहते हैं । जैसे-यह आम मीठा है । इस वाक्य में ‘मीठा’ ‘आम’ का प्रवशेषण है , और

उसके बाद आया है , अत: प्रवधेय-प्रवशेषण है ।

किया पररभाषा (Kriya Definition in Hindi Grammar):


न्जस शब्द से ककसी काम का करना या होना प्रकट हो, उसे किया कहते हैं। जैसे-खाना,

पीना, सोना, जागना, पढ़ना, ललखना, इत्यादद ।

संज्ञा, सवणनाम और प्रवशेषण की तरह ही किया भी प्रवकारी शब्द है । इसके रूप ललंग, विन

और पुरुष के अनुसार बदलते रहते हैं ।


Dhatu in Hindi Grammar – धात:ु
न्जस मूल शब्द से किया का तनमाणण होता है , उसे धािु कहते हैं। धातु में ‘ना’ जोड़कर

किया बनायी जाती है ।

जैसे-

खा + ना = खाना

पढ़ + ना = पढ़ना

जा + ना = जाना

ललख + ना = ललखना।

शब्द-तनमाणण के प्रविार से धातु भी दो प्रकार की होती हैं-

(1) मूल धातु और (2) यौचगक धातु ।

मूल धािु स्वतंत्र होती है तथा ककसी अहय शब्द पर आचश्रत नहीं होती। जैसे-खा, पढ़,

ललख, जा, इत्यादद ।


यौगगक धािु ककसी प्रत्यय के संयोग से बनती है । जैसे-पढ़ना से पढ़ा, ललखना से ललखा,

खाना से णखलायी जाती, इत्यादद ।

किया के भेद (Kriya ke Bhed in Hinid Vyakaran)


कमण, जातत तथा रिना के आधार पर किया के दो भेद हैं

(1) अकममक क्रिया (Sakarmak Kriya) िथा

(2) सकममक क्रिया (Akarmak Kriya)

(1) अकममक क्रिया (Akarmak Kriya)–न्जस किया के कायण का फल कताण पर ही पड़े, उसे

अकमणक किया (Akarmak Kriya) कहते हैं । अकमणक किया का कोई कमण (कारक) नहीं

होता, इसीललए इसे अकमणक कहा जाता है ।

जैसे-श्याम रोता है। वह हँसता है । इन दोनों वाक्यों में ‘रोना’ और ‘हँसना’ किया अकमणक

हैं, क्योंकक यहाँ इनका न तो कोई कमण है और न ही उसकी संभावना है । ‘रोना’ और ‘


हँसना।” कियाओं का फल कताण पर (ऊपर के उदाहरणों में ‘श्याम’ और ‘वह’ कताण हैं) ही

पिता है ।

(2) सकममक क्रिया (Sakarmak Kriya)–न्जस किया के कायण का फल कताण पर न पड़कर

ककसी दस
ू री जगह पड़ता हो, तो उसे सकमणक किया (Sakarmak Kriya) कहते हैं ।

सकमणक किया के साथ कमण (कारक) रहता है या उसके साथ रहने की संभावना रहती है।

इसीललए इसे ‘सकमणक” किया कहा जाता है । सकमणक अथाणत ् कमण के साथ । जैसे-राम

खाना खाता है । इस वाक्य में खानेवाला राम है , लेककन उसकी किया ‘खाना’ (खाता है) का

फल ‘खाना’ (भोजन) पर पड़ता है। एक और उदाहरण लें-वह जाता है । इस वाक्य में भी

‘जाना’ (जाता है ) किया सकमणक है, क्योंकक इसके साथ ककसी कमण का शब्दत: उल्लेख न

रहने पर भी कमण की संभावना स्पष्ट रूप से प्रतीत होती है । ‘जाता है ’ के पहले कमण के रूप

में ककसी स्थान जैसे-घर, प्रवद्यालय या पटना जैसे गहतव्य स्थान की संभावना स्पष्ट है ।
कुछ कियाएँ अकमणक और सकमणक दोनों होती हैं । वाक्य में प्रयोग के आधार पर उनके

अकमणक या सकमणक होने का ज्ञान होता है । जैसे

अकममक: उसका शरीर खज


ु ला रहा है ।

सकममक: वह अपना शरीर खुजला रहा है ।

अकममक: मेरा जी घबराता है ।

सकममक: मुसीबत ककसी को भी घबरा दे ती है ।

Akarmak Kriya se Sakarmak Kriya Banana

अकममक क्रिया से सकममक क्रिया बनाना:

1.एक अक्षरी या दो अक्षरी अकमणक धातु में ‘लाना’ जोड़कर सकमणक किया बनायी जाती है

। ककंतु कहीं-कहीं धातु के दीघण स्वर को हृस्व तथा “ओकार” को “उकार” कर दे ना पड़ता है ।

जैसे-जीना-न्जलाना, रोना-रुलाना
2.दो अक्षरी अकमणक धातु में कहीं पहले अक्षर अथवा कहीं दस
ू रे अक्षर के हृस्व को दीघण

करके ‘ना’ प्रत्यय जोड़कर भी सकमणक किया बनायी जाती है ।

जैसे-उिना-उड़ाना, कटना-काटना

3.दो अक्षरी अकमणक धातु के दीघण स्वर को हृस्व करके तथा ‘आना’ जोड़कर सकमणक किया

बनायी जाती है ।

जैसे-जागना-जगाना, भींगना-लमंगाना, आदद

ककंतु कुछ ‘अकमणक’ धातुओं के स्वर में बबना ककसी बदलाव के ही ‘आना’ जोड़कर भी

सकमणक कियाएँ बनायी जाती हैं । जैसे-चिढ़ना-चिढ़ाना

4.दो अक्षरी अकमणक धातुओं में ‘उकार’ को ‘ओकार’ तथा ‘इकार’ को ‘एकार’ में बदलकर

तथा ‘ना’ जोड़कर भी सकमणक कियाएँ बनायी जाती हैं। जैसेखल


ु ना-खोलना, ददखना-

दे खना, आदद ।

5.तीन अक्षरी अकमणक धातओ


ु ं में दस
ू रे अक्षर के हृस्व स्वर को दीघण करके तथा अंत में ‘ना’
जोड़कर सकमणक कियाएँ बनायी जाती हैं ।

जैसे-उतरना-उतारना, तनकलना-तनकालना, उखड़ना-उखाड़ना, बबगड़ना-बबगाड़ना ।

6.कुछ अकमणक धातए


ु ँ बबना ककसी तनयम का अनस
ु रण ककये ही सकमणक में पररवततणत की

जाती हैं । जैसे-टूटना-तोड़ना, जुटना-जोड़ना ।

Sakarmak Kriya ke Bhed:

सकमणक किया के भेद-सकमणक किया के भी दो भेद हैं-

(1) एककमणक तथा (2) द्प्रवकमणकः ।

(1) एककममक– न्जस किया का एक ही कमण (कारक) हो, उसे एककमणक (सकमणक) किया

कहते हैं जैसे-वह रोटी खाता है | इस वाक्य में ‘खाना” किया का एक ही कमण ‘रोटी’ है ।

(2) द्ववकममक– न्जस किया के साथ दो कमण हों तथा पहला कमण प्राणणवािक हो और दस
ू रा

कमण तनजीव हो अथाणत ् प्राणणवािक न हो । ऐसे वाक्य में प्राणणवािक कमण गौण होता है ,
जबकक तनजीव कमण ही मख्
ु य कमण होता है । जैसे-नसण रोगी को दवा प्रपलाती है। इस वाक्य

में ‘रोगी” पहला तथा प्राणणवािक कमण है और ‘दवा’ दस


ू रा तनजीव कमण है ।

संिचना (बनावट के आधाि पि क्रिया के भेद):

संरिना के आधार पर किया के िार भेद हैं-

(1) प्रेरणाथणक किया, (2) संयक्


ु त किया, (3) नामधातु किया तथा (4) कृदं त किया ।

(1) प्रेिणाथमक क्रिया– (Prernarthak Kriya) न्जस किया से इस बात का ज्ञान हो कक

कताण स्वयं कायण न कर ककसी अहय को उसे करने के ललए प्रेररत करता है, उसे प्रेरणाथणक

किया कहते हैं ।

जैसे-बोलना- बोलवाना, पढ़ना- पढ़वाना, खाना- णखलवाना, इत्यादद ।

प्रेरणाथणक कियाओं के बनाने की तनम्नललणखत प्रवचधयाँ हैं-

(a) मल
ू द्प्रव-अक्षरी धातओ
ु ं में ‘आना’ तथा ‘वाना’ जोड़ने से प्रेरणाथणक कियाएँ बनती हैं ।
जैसे-पढ़ (पढ़ना) – पढ़ाना – पढ़वाना

िल (िलना) – िलाना – िलवाना, आदद ।

(b) द्प्रव-अक्षरी धातओ


ु ं में ‘ऐ’ या ‘ओ’ को छोड़कर दीघण स्वर हृस्व हो जाता है ।

जैसे – जीत (जीतना) – न्जताना – न्जतवाना

लेट (लेटना) – ललटाना – ललटवाना, आदद ।

(c) तीन अक्षर वाली धातुओं में भी ‘आना’ और ‘वाना’ जोड़कर प्रेरणाथणक कियाएँ बनायी

जाती हैं । लेककन ऐसी धातुओं से बनी प्रेरणाथणक कियाओं के दस


ू रे ‘अ’ अनुच्िररत रहते है

जैसे-समझ (समझना) – समझाना – समझवाना

बदल (बदलना) – बदलाना – बदलवाना, आदद ।

(d) ‘खा’, ‘आ’, ‘जा’ इत्यादद एकाक्षरी आकाराहत ‘जी’, ‘पी’, ‘सी’ इत्यादद ईकाराहत, ‘िू’,

‘छू-ये दो ऊकाराहत; ‘खे’, ‘दे ’, ‘ले’ और ‘से’-िार एकाराहत: ‘खो’, ‘हो’, ‘धो’, ‘बी’, ‘ढो’, ‘रो’
तथा ‘सो”-इन ओकाराहत धातओ
ु ं में ‘लाना’, ‘लवाना’, ‘वाना’ इत्यादद प्रत्यय

आवश्यकतानुसार लगाये जाते हैं ।

जैसे- जी (जीना) – न्जलाना – न्जलवाना

(2) संयुति क्रिया (Sanyukat Kriya) दो या दो से अचधक धातुओं के संयोग से

बननेवाली किया को संयत


ु ि क्रिया कहते हैं ।

जैसे-िल दे ना, हँस दे ना, रो पड़ना, झुक जाना, इत्यादद ।

(3) नामधािु क्रिया–(Nam Dhatu Kriya) संज्ञा, सवणनाम, प्रवशेषण इत्यादद से

बननेवाली किया को नामधािु क्रिया कहते हैं।

जैसे-हाथ से हचथयाना, बात से बततयाना, दख


ु ना से दख
ु ाना, चिकना से चिकनाना, लाठी से

लदठयाना, लात से लततयाना, पानी से पतनयाना, बबलग से बबलगाना, इत्यादद । ये संज्ञा

या प्रवशेषण में “ना” जोिने से (जैसे-स्वीकार-स्वीकारना, चधक्कार-चधक्कारना, उद्धार-


उद्धारना, इत्यादद) तथा दहंदी शब्दों के अंत में ‘आ’ करके और आदद ‘आ’ को हृस्व करके

(जैसे-दख
ु -दख
ु ाना, बात—बततयाना, आदद) बनायी जाती हैं ।

(4) कृदं ि क्रिया-(Kridant Kriya) कृत ्-प्रत्ययों के संयोग से बनने वाले किया को कृदं त

किया कहते हैं; जैसे – िलता, दौड़ता, भगता हँसता.

प्रयोग के आधाि पि क्रिया के अन्य रूप:

(1) सहायक किया (Sahayak Kriya)

(2) पूवक
ण ाललक किया (Purvkalik Kriya)

(3) सजातीय किया (Sajatiya Kriya)

(4) द्प्रवकमणक किया (Dvikarmak Kriya)

(5) प्रवचध किया (Vidhi Kriya)

(6) अपण
ू ण किया (Apurn Kriya)
(a) अपण
ू ण अकमणक किया (Apurn Akarmak Kriya)

(b) अपूणण सकमणक किया (Apurn Sakarmak Kriya)

(1) सहायक क्रिया-(Sahayak Kriya) मख्


ु य किया की सहायता करनेवाली किया

को सहायक क्रिया कहते हैं ।

जैसे- उसने बाघ को मार िाला ।

सहायक किया मुख्य कियां के अथण को स्पष्ट और पूरा करने में सहायक होती है । कभी

एक और कभी एक से अचधक कियाएँ सहायक बनकर आती हैं । इनमें हे र-फेर से किया का

काल पररवततणत हो जाता है ।

जैसे- वह आता है ।

तम
ु गये थे ।

तुम सोये हुए थे ।


हम दे ख रहे थे ।

इनमे आना, जाना, सोना, और दे खना मुख्य किया हैं क्योंकक इन वाक्यों में कियाओं के

अथण प्रधान हैं ।

शेष किया में - है , थे, हुए थे, िहे थे– सहायक हैं। ये मुख्य किया के अथण को स्पष्ट और पूरा

करती हैं ।

(2) पूवक
म ाशलक क्रिया-(Purvkalik Kriya) जब कताण एक किया को समाप्त करके

तत्काल ककसी दस
ू री किया को आरं भ करता है , तब पहली किया

को पूवक
म ाशलक क्रिया कहते हैं ।

जैसे- वह गाकर सो गया।

मैं खाकर खेलने लगा ।


(3) सजािीय क्रिया-(Sajatiya Kriya) कुछ अकमणक और सकमणक कियाओं के साथ

उनके धातु की बनी हुई भाववािक संज्ञा के प्रयोग को सजािीय क्रिया कहते हैं । जैसे-

अच्छा खेल खेल रहे हो । वह मन से पढ़ाई पढ़िा है । वह अच्छी शलखाई ललख रहा है ।

(4) द्ववकममक क्रिया-(Dvikarmak Kriya) कभी-कभी ककसी किया के दो कमण (कारक)

रहते हैं । ऐसी किया को द्ववकममक क्रिया कहते हैं । जैसे-तुमने राम को कलम दी । इस

वाक्य में राम और कलम दोनों कमण (कारक) हैं ।

(5) ववगध क्रिया-(Vidhi Kriya)न्जस किया से ककसी प्रकार की आज्ञा का ज्ञान हो,

उसे ववगध क्रिया कहते हैं । जैसे-घर जाओ । ठहर जा।

(6) अपण
ू म क्रिया-(Apurn Kriya)न्जस किया से इन्च्छत अथण नहीं तनकलता,

उसे अपूणम क्रिया कहते हैं। इसके दो भेद हैं- (1) अपूणण अकमणक किया तथा (2) अपूणण

सकमणक किया ।
(a) अपण
ू म अकममक क्रिया-(Apurn Akarmak Kriya) कततपय अकमणक कियाएँ कभी-

कभी अकेले कताण से स्पष्ट नहीं होतीं । इनके अथण को स्पष्ट करने के ललए इनके साथ कोई

संज्ञा या प्रवशेषण परू क के रूप में लगाना पड़ता है । ऐसी कियाओं को अपण
ू ण अकमणक किया

कहते हैं। जैसे – वह बीमार रहा । इस वाक्य में बीमार पूरक है ।

(b) अपण
ू म सकममक क्रिया–(Apurn Sakarmak Kriya) कुछ संकमणक कियाओं का अथण

कताण और कमण के रहने पर भी स्पष्ट नहीं होता । इनके अथण को स्पष्ट करने के ललए इनके

साथ कोई संज्ञा या प्रवशेषण पूरक के रूप में लगाना पिता है । ऐसी कियाओं को अपूणण

सकमणक किया कहा जाता है ।

जैसे-आपने उसे महान ् बनाया । इस वाक्य में ‘महान ् पूरक है .


Kriya Visheshan (कियाप्रवशेषण) :
न्जस शब्द से किया की प्रवशेषता का ज्ञान होता है , उसे कियाप्रवशेषण कहते हैं।

जैसे-यहाँ, वहाँ, अब, तक, जल्दी, अभी, धीरे , बहुत, इत्यादद ।

कियाप्रवशेषणों का वगीकरण तीन आधारों पर ककया जाता है -

(1) प्रयोग

(2) रूप

(3) अथण

क्रियावविेषण

(1)
(2) रूप (3) अर्थ
प्रयोग

(क) (क)
(क) मूल
साधारण स्थानवािक

(ख) (ख)
(ख) यौचगक
संयोजक कालवािक
(ग) (ग)
(ग) स्थानीय
अनुबद्ध पररमाणवािक

(घ)
रीततवािक

प्रयोग के आधाि पि क्रियावविेषण िीन प्रकाि के होिे हैं:

(क) साधािण क्रियावविेषण (Sadhran Kriya Visheshan) – न्जन कियाप्रवशेषणों का

प्रयोग ककसी वाक्य में स्वतंत्र होता है , उहहें साधारण कियाप्रवशेषण कहते हैं । जैसे-‘हाय !

अब मैं क्या करूं ?’, ‘बेटा जल्दी आओ !’, ‘अरे ! वह साँप कहाँ गया ?’

(ख) संयोजक क्रियावविेषण (Sanyojak Kriya Visheshan) – न्जन कियाप्रवशेषणों

का संबंध ककसी उपवाक्ये के साथ रहता है , उहहें संयोजक कियाप्रवशेषण कहते हैं । जैसे-

जब रोदहताश्व ही नहीं, तो मैं जी के क्या करूंगी 1′, ‘जहाँ अभी समद्र


ु है , वहाँ ककसी समय

जंगल था ।

(ग) अनुबद्ध क्रियावविेषण (Anubaddh Kriya Visheshan) – अनुबद्ध किय


वशेषण वे हैं, न्जनका प्रयोग तनश्िय के ललए ककसी भी शब्द-भेद के साथ हो सकता है ।

जैसे- यह तो ककसी ने धोखा ही ददया है ।

मैंने उसे दे खा तक नहीं ।

आपके आने भर की दे र है।

रूप के आधाि पि भी क्रियावविेषण िीन प्रकाि के होिे हैं-

(क) मूल क्रियावविेषण (Mul Kriya Visheshan) – जो कियाप्रवशेषण दस


ू रे शब्दों के

मेल से नहीं बनते, उहहें मूल कियाप्रवशेषण कहते हैं । जैसे- ठीक, दरू , अिानक, कफर, नहीं,

इत्यादद

(ख) यौगगक क्रियावविेषण (Yaugik Kriya Visheshan) – जो कियाप्रवशेषण दस


ू रे

शब्दों में प्रत्यय या पद जोिने से बनते हैं, उहहें यौचगक कियाप्रवशेषण कहते हैं ।

जैसे-न्जससे, ककससे, िप
ु के से, दे खते हुए, भल
ू से, यहाँ तक, झट से, कल से, इत्यादद ।

संज्ञा से -रातभर, मन से
सवणनाम से -जहाँ, न्जससे

प्रवशेषण से-िुपके, धीरे

अव्यय से – झट से, यहाँ तक

धातु से -दे खने आते

(ग) स्थानीय क्रियावविेषण (Sthaniya Kriya Visheshan) – अहय शब्द-भेद, जो

बबना ककसी रूपांतर के ककसी प्रवशेष स्थान पर आते हैं, उहहें स्थानीय कियाप्रवशेषण कहते

हैं।

जैसे – वह अपना लसर पढ़े गा

तुम दौड़कर िलते हो

अथम के आधाि पि क्रियावविेषण के चाि भेद हैं:

(i) स्थानवाचक क्रियावविेषण (Sthan Vachak Kriya Visheshan) – यह दो प्रकार

का होता है :
न्स्थततवािक – यहाँ, वहाँ, साथ, बाहर, भीतर, इत्यादद ।

ददशावािक – इधर उधर, ककधर, दादहने, वॉयें, इत्यादद ।

(ii) कालवाचक क्रियावविेषण (Kaal Vachak Kriya Visheshan) – इसके तीन प्रकार

हैं

समयवािक-आज, कल, जब, पहले, तरु हत, अभी, इत्यादद

अवचधवािक-आजकाल, तनत्य, सदा, लगातार, ददनभर, इत्यादद

पौन:पुण्य (बार-बार) वािक-प्रततददन, कई बार, हर बार, इत्यादद

(iii)परिमाणवाचक क्रियावविेषण (Pariman Vachak Kriya Visheshan) – यह भी

कई प्रकार का है

अचधकताबोधक – बहुत, बड़ा, भारी, अत्यहत, इत्यादद

हयूनताबोधक – कुछ, लगभग, थोिा, प्राय: इत्यादद

पयाणप्तबोधक – केवल, बस, काफी, ठीक, इत्यादद


तल
ु नाबोधक –इतना, उतना, कम, अचधक, इत्यादद

श्रेणणबोधक – थोड़ा-थोड़ा, िमश: आदद

(iv)िीतिवाचक क्रियावविेषण (Riti Vachak Kriya Visheshan) – न्जस किया-

प्रवशेषण से प्रकार, तनश्िय, अतनश्िय, स्वीकार, तनषेध, कारण इत्यादद के अथण प्रकट हो

उसे रीततवािक कियाप्रवशेषण कहते हैं ।

इन अथों में प्राय: रीततवािक कियाप्रवशेषण का प्रयोग होता है

प्रकार – जैसे, तैसे, अकस्मात ्, ऐसे ।

तनश्िय – तन:संदेह, वस्तुतः, अवश्य ।

अतनश्िय – संभवत:, कदाचित ्, शायद ।

स्वीकार – जी, हाँ, अच्छा

तनषेध – नहीं, न, मत

कारण – क्योंकक, िँकू क, ककसललए


अवधारण – तो, भी, तक

तनष्कषण – अतः, इसललए ।

अव्यय (अववकािी िब्द)

Avyay Definition:
ऐसे शब्द न्जन पर ललंग, विन एवं कारक का कोई प्रभाव नहीं पड़ता तथा

ललंग, विन एवं कारक बदलने पर भी ये ज्यों-के-त्यों बने रहते हैं, ऐसे शब्दों

को अव्यय या अववकािी िब्द कहते हैं।

अव्यय शब्दों उदाहरण -जब, तब, अभी, वहाँ, उधर, यहाँ, इधर, कब, क्यों,

आह, वाह, ठीक, अरे , और, तथा, एवं, ककंत,ु परं तु, लेककन, बन्ल्क, इसललए,

ककसललए, बबलकुल, अत:, अतएव, अथाणत ्, िँकू क, क्योंकक, इत्यादद ।


अव्यय वे शब्द हैं न्जनपे ललंग, विन, परु
ु ष एवं काल का कोई पररवतणन नहीं

पड़ता।

इहहें अप्रवकारी (अ + प्रवकार + ई = न पररवततणत होने वाले) शब्द भी कहा जाता

है ।

(क) बालक ददनभि पढ़ता है।

(ख) बाललका ददनभि पढ़ती है।

(ग) बालक एवं बाललकाएँ ददनभि पढ़ती हैं।

(घ) बालक एवं बाललकाओं ने ददनभि पढ़ा।

(ङ) बालकों को ददनभि पढ़ने दो।

(ि) मैं ददनभि पढ़ता हूँ।

उपयक्
ुण त वाक्यों में ‘ददनभर’ शब्द अलग-अलग छह वाक्यों में आया है परं तु
इस में ललंग, विन, परु
ु ष, कारक आदद तत्वों के कारण कोई पररवतणन नहीं

हुआ। अतः ‘ददनभर’ अव्यय या अप्रवकारी शब्द है ।

अव्यय के तनम्नशलखखि कायम हैं

(1) अव्यय किया का स्थान ददशा, समय, रीतत, तल


ु ना, पररमाण, उद्दे श्य,

सादृश्य इत्यादद का ज्ञान कराते हैं ।

(2) कुछ अव्यय शब्दों, पदबंधो, उपवाक्यों और वाक्यों को आपस में जोड़ने का

काम करते हैं

(3) अव्यय शोक, हषण, आश्ियण इत्यादद भावों को व्यक्त करते हैं ।

(4) कुछ अव्यय संबोधन को सचू ित करते हैं ।

(5) कुछ अव्यय बल, तनषेध, स्वीकार, अवधारणा इत्यादद भी व्यन्क्त करते हैं


Avyay Ke Bhed (अव्यय के भेद)

सामाहयत: अव्यय के िार भेद हैं-

(1) क्रियावविेषण

(2) संबंधवाचक

(3) समुच्चय बोधक और

(4) ववस्मयाददबोधक ।

(1) कियाप्रवशेषण अव्यय–


न्जस शब्द से किया की प्रवशेषता का ज्ञान होता है , उसे क्रियावविेषण कहते हैं।

जैसे-यहाँ, वहाँ, अब, तक, जल्दी, अभी, धीरे , बहुत, इत्यादद ।

कियाप्रवशेषणों का वगीकरण तीन आधारों पर ककया जाता है -

(1) प्रयोग (2) रूप और (3) अथण


प्रयोग के आधार पर कियाप्रवशेषण तीन प्रकार के होते हैं-

(क) साधािण (ख) संयोजक औि (ग) अनुबद्ध ।

(क) साधािण क्रियावविेषण–न्जन कियाप्रवशेषणों का प्रयोग ककसी वाक्य में

स्वतंत्र होता है , उहहें साधारण कियाप्रवशेषण कहते हैं । जैसे-‘हाय ! अब मैं क्या

करूं ?’, ‘बेटा जल्दी आओ !’, ‘अरे ! वह साँप कहााँ गया ?’

(ख) संयोजक क्रियावविेषण–न्जन कियाप्रवशेषणों का संबंध ककसी उपवाक्ये के

साथ रहता है , उहहें संयोजक कियाप्रवशेषण कहते हैं । जैसे- जब रोदहताश्व ही

नहीं, तो मैं जी के क्या करूंगी 1′, ‘जहााँ अभी समद्र


ु है , वहाँ ककसी समय जंगल

था ।

(ग) अनब
ु द्ध क्रियावविेषण–अनुबद्ध किय वशेषण वे हैं, न्जनका प्रयोग

तनश्िय के ललए ककसी भी शब्द-भेद के साथ हो सकता है ।

जैसे- यह तो ककसी ने धोखा ही ददया है ।


मैंने उसे दे खा तक नहीं ।

आपके आने भर की दे र है।

रूप के आधाि पि क्रियावविेषण िीन प्रकाि के होिे हैं-

(क) मल
ू (ख) यौगगक औि (ग) स्थानीय ।

(क) मूल क्रियावविेषण- जो कियाप्रवशेषण दस


ू रे शब्दों के मेल से नहीं बनते,

उहहें मूल कियाप्रवशेषण कहते हैं । जैसे- ठीक, दरू , अिानक, कफर, नहीं,

इत्यादद

(ख) यौगगक क्रियावविेषण- जो कियाप्रवशेषण दस


ू रे शब्दों में प्रत्यय या पद

जोिने से बनते हैं, उहहें यौचगक कियाप्रवशेषण कहते हैं ।

जैसे-न्जससे, ककससे, िुपके से, दे खते हुए, भूल से, यहाँ तक, झट से, कल से,

इत्यादद ।

संज्ञा से -रातभर, मन से
सवणनाम से -जहाँ, न्जससे

प्रवशेषण से-िुपके, धीरे

अव्यय से – झट से, यहाँ तक

धातु से -दे खने आते

(ग) स्थानीय क्रियावविेषण– अहय शब्द-भेद, जो बबना ककसी रूपांतर के ककसी

प्रवशेष स्थान पर आते हैं, उहहें स्थानीय कियाप्रवशेषण कहते हैं।

जैसे – वह अपना लसर पढ़े गा

तुम दौड़कर िलते हो

अथम के आधाि पि क्रियावविेषण के चाि भेद क्रकये जा सकिे हैं-

(i) स्थानवाचक,

(ii) कालवाचक

(iii) परिमाणवाचक
(iv) िीतिवाचक

(i) स्थानवाचक क्रियावविेषण- यह दो प्रकार का होता है :

क्स्थतिवाचक – यहाँ, वहाँ, साथ, बाहर, भीतर, इत्यादद ।

ददिावाचक – इधर उधर, ककधर, दादहने, वॉयें, इत्यादद ।

(ii) कालवाचक क्रियावविेषण– इसके तीन प्रकार हैं

समयवािक-आज, कल, जब, पहले, तुरहत, अभी, इत्यादद

अवचधवािक-आजकाल, तनत्य, सदा, लगातार, ददनभर, इत्यादद

पौन:पुण्य (बार-बार) वािक-प्रततददन, कई बार, हर बार, इत्यादद

(iii)परिमाणवाचक क्रियावविेषण – यह भी कई प्रकार का है

अगधकिाबोधक – बहुत, बड़ा, भारी, अत्यहत, इत्यादद

न्यूनिाबोधक – कुछ, लगभग, थोिा, प्राय: इत्यादद

पयामप्िबोधक – केवल, बस, काफी, ठीक, इत्यादद


िल
ु नाबोधक –इतना, उतना, कम, अचधक, इत्यादद

श्रेखणबोधक – थोड़ा-थोड़ा, िमश: आदद

(iv)िीतिवाचक क्रियावविेषण- न्जस किया-प्रवशेषण से प्रकार, तनश्िय,

अतनश्िय, स्वीकार, तनषेध, कारण इत्यादद के अथण प्रकट हो उसे रीततवािक

कियाप्रवशेषण कहते हैं ।

इन अथों में प्राय: रीततवािक कियाप्रवशेषण का प्रयोग होता है

प्रकाि-जैसे, तैसे, अकस्मात ्, ऐसे ।

तनश्चय-तन:संदेह, वस्तुतः, अवश्य ।

अतनश्चय-संभवत:, कदाचित ्, शायद ।

स्वीकाि-जी, हाँ, अच्छा

तनषेध-नहीं, न, मत

कािण-क्योंकक, िँकू क, ककसललए


अवधािण-तो, भी, तक

तनष्ट्कषम-अतः, इसललए

(2) संबंधवािक अव्यय–


जो िब्द संज्ञा के बाद आकि उसका संबंध वातय के दस
ू िे िब्द के साथ बिािा है
उसे सम्बन्धवाचक अव्यय कहिे हैं. जैसे नीचे, ऊपि, बहाि, भीिि, इत्यादक्
प्रयोग के अनुसाि संबंधवाचक अव्यय दो प्रकाि के होिे हैं–

(क) संबद्ध तथा (ख) अनुबद्ध ।

( क ) संबद्ध संबंधवाचक अव्यय – ये संज्ञाओं की प्रवभन्क्तयों के बाद आते हैं

जैसे-धन के बबना, नर की नाई, पूजा से पहले, इत्यादद ।

( ख ) अनब
ु द्ध संबंद्धवाचक अव्यय – ये संज्ञा के प्रवकृत रूप के बाद आते हैं ।

जैसे-ककनारे तक, सणखयों सदहत, कटोरे भर, पुत्रों समेत


अथण के अनस
ु ार संबंधवािक अव्ययों के उदाहरण तनम्नललणखत अनस
ु ार हैं-

(i) कालवाचक – आगे, पीछे , बाद, पहले, पूव,ण अहनंतर, उपरांत, लगभग

(ii) स्थानवाचक – तनकट, समीप, दरू , भीतर, यहाँ, बीि

(iii) ददिावाचक – ओर, तरफ, पार, आसपास

(iv) साधनवाचक – सहारे , जररये, मारफत, द्वारा

(v) हे िुवाचक – ललए, तनलमत, वास्ते, हेतु, खाततर, कारण, सबध

(vi) ववषयवाचक – भरोसे, नाम, मुद्दे , प्रवषय

(vii) व्यतििे कवाचक – लसवा (लसवाय), अलावा, बबना, वगैर, अततररक्त, रदहत

(viii) ववतनमयवाचक – पलटे बदले, जगह, एवज

(ix) सादृश्यवाचक – समान, सम, तरह, भाँतत, नाई, बराबर, तल्


ु य, योग्य,

लायक, सदृश, अनुसार, अनुरूप, अनुकूल, दे खा-दे खी

(x) वविोधवाचक – प्रवरुद्ध, णखलाफ, उलट प्रवपरीत


(xi) सहचिवाचक – संग, साथ, समेत, सदहत, पव
ू क
ण , अधीन, स्वाधीन, वश ।

(xii) संग्रहवाचक – तक, पयंत, भर, मात्र

(xiii) िल
ु नावाचक – अपेक्षा, बतनस्बत, आगे, सामने

व्यत्ु पवि के अनस


ु ाि संबंधवाचक अव्यय दो प्रकाि के हैं-

(क) मूल औि (ख) यौगगक ।

(क) मूल संबंधवाचक अव्यय – बबना, पयंत, नाई, पूवक


ण , इत्यादद ।

( ख ) यौगगक संबंधवाचक अव्यय – ये दस


ू रे शब्द-भें दों से बने हैं ।

जैसे –

(1) संज्ञा से -पलटे वास्ते, और, अपेक्षा, नाम, लेखे, प्रवषय मारफत, इत्यादद ।

(2) प्रवशेषण से – तुल्य, समान, उलटा, जबानी, सरीखा, योग्य, जैसा


(3) कियाप्रवशेषण से – ऊपर, भीतर, यहाँ बाहर, पास, परे , पीछे , इत्यादद

(4) किया से-ललए, मारे , करके, िलते, जाने, इत्यादद ।

(3) समुच्ियबोधक अव्यय



दो शब्दों, वाक्यांशों या वाक्यों को परस्पर जोड़ने या अलग करनेवाले अव्यय

को समच्
ु ियबोधक अव्यय कहते हैं ।

जैसे- या, और, कक, क्योंकक.

समुच्चयबोधक अव्यय के मुख्य दो भेद हैं-(a) समानाचधकरण और (b)

व्याचधकरण ।

a. समानागधकिण समुच्चयबोधक अव्यय – इनके द्वारा मुख्य वाक्य जोड़े

जाते इनके िार उपभेद हैं-

(क) संयोजक (ख) प्रवभाजक (ग) प्रवरोधदशणक और (घ) पुररणामदशणक ।


(क) संयोजक-इनके द्वारा दो या अचधक वाक्यों को आपस में जोड़ा जाता है ।

जैसे- और, व, एवं, तथा, भी । बबल्ली के पंजे होते हैं और उनमें नख होते हैं.

(ख) प्रवभाजक – इन अव्ययों से दो या अचधक वाक्यों या शब्दों में से ककसी एक

का ग्रहण अथवा दोनों का त्याग ककया जाता है ।

जैसे- या, वा, अथवा, ककंवा कक, या-या, िाहे -िाहे , क्या-क्या, न-न, न कक, नहीं

तो ।

उदाहरण – क्या स्त्री क्या पुरुष, सब ही के मन में आनंद छा रहा था ।

( ग ) प्रवरोधदशणक – ये दो वाक्यों में से पहले का तनषेध या उसकी सीमा सूचित

करते हैं ।

जैसे – पर, परं तु, ककंत,ु लेककन, मगर, वरन ्, बन्ल्क ।

उदाहरण – झूठ-सि को तो भगवान जाने, पर मेरे मन में एक बात आयी है ।


(घ) पररणामदशणक – इनसे यह ज्ञात होता है कक इनके आगे के वाक्य का अथण

प्रपछले वाक्य के अथण का फल या पररणाम है ।

जैसे – इसललए, सो, अत:, अतएव इस वास्ते, इस कारण इत्यादद ।

उदाहरण – अब भोर होने लगा था, इसललए दोनों जने अपनी-अपनी जगह से

उठे ।

b. व्यागधकिण समुच्चयबोधक अव्यय – न्जन अव्ययों की सहायता से एक

वाक्य में एक या अचधक आचश्रत वाक्य जोिे जाते हैं, उहहें व्याचधकरण

समुच्ियबोधक अव्यय कहते हैं ।

इनके िार उपभेद हैं- (क) कारणवािक, (ख) उद्दे श्यवािक, (ग) संकेतवािक

और (घ) स्वरूपवािक ।
(क) करणवािक – इन अव्ययों से प्रारं भ होनेवाले वाक्य पहले वाक्य का

समथणन करते हैं।

जैसे – क्योंकक, जो कक, इसललए | उदाहरण – इस नाटक का अनव


ु ाद करना

मेरा काम नहीं था, क्योंकक मैं संस्कृत नहीं जानता ।

( ख ) उद्दे श्यवािक – इन अव्ययों के बाद आनेवाला वाक्य दस


ू रे वाक्य की

उद्दे श्य या हे तु सूचित करता है ।

जैसे – कक, जो, ताकक, इसललए कक। उदाहरण-मछुआ मछली मारने के ललएं हर

घिी मेहनत करता है ताकक उसकी मछली का अच्छा दाम लमले ।

( ग ) संकेतवािक – इन अव्ययों की सहायता से पूणण वाक्य की घटना से उत्तर

(बाद के) वाक्य की घटना का संकेत लमलता है । जैसे-जो-तो, यदद-तो, यद्यप्रप-

तथाप्रप, िाहे -परं तु, कक ।

उदाहरण-जो मैंने हररश्िंद्र को तेजोभ्रष्ट न ककया तो मेरा नाम प्रवश्वालमत्र नहीं


(घ) स्वरूपवािक – इन अव्ययों के द्वारा जड़
ु े हुए शब्दों या वाक्यों में से पहले

वाक्य का स्वरूप (स्पष्टीकरण) प्रपछले शब्द या वाक्य से जाना जाता है । जैसे-

कक, जो, अथाणत ्, यानी, मानो !

उदाहरण-श्री शुकदे व मुतन बोले कक महाराज अब आगे की कथा सुतनए

4. प्रवस्मयाददबोधक अव्यय –
न्जन अव्ययों का सम्बहध वाक्य से नहीं रहता, जो वक्ता के केवल हषण, शोक,

प्रवस्मय इत्यादद का भाव सचू ित करते हैं, उहहें प्रवस्मयाददबोधक अव्यय कहते

हैं।

उदाहरण-हाय ! अब मैं क्या करूं

लभहन-लभहन मनोप्रवकारों को सूचित करने के ललए लभहन-लभहन

प्रवस्मयाददबोधक अव्ययों का प्रयोग होता है । जैसे –

हषणबोधक – अहा, वाह-वाह, धहय-धहय, जय, शाबाश


शोकबोधक – आह, ऊह, हा-हा, हाय, त्रादह-त्रादह

अश्िायणबोधक – वाह, क्या, ओहो, हैं

अनुमोदं बोधक – ठीक, वाह, अच्छा, शाबास, हाँ-हाँ,

ततरस्कारबोधक – तछः, हट, अरे , दरू , िप


स्वीकारबोधक – हाँ, जी, जी हाँ, अच्छा, ठीक

संबोधनबोधक – अरे , रे , अजी, लो, जी, अहो, क्यूँ

पयामयवाची िब्द

Sr पयाणयवािी
शब ्द
No. शब ्द

अंश, कलेवर,
1 अंग भाग, दे ह,
दहस्सा, अवयव
चिह्न, छाप,
अदद, पत्र,
पबत्रकाओं की
2 अंक
प्रतत, ललखावट,
अक्षर, नाटक
का खंि

तम, तलमस्रा,
ततलमर, स्याही ,
3 अंधकार
अँधेरा,
अंधतमस

मजबूत,
अखंडित, अपार,
4 अटूट
पक्का, अजेय,
पुष ्ट

आग, अनल,
5 अग्नन्ं
वन्ह्न, पावक,
वायुसखा, दहन,
तपन, दव,
लशखी, हरन्ं

अपव
ू ,ण अनोखा,
अद्भुत, अनूठा,
6 अनप
ु म
अद्प्रवतीय,
अतल
ु , अनन ्य

असीम, बेहद,
अपार,
7 अहनंत अप्रवनाशी,
शेषनाग, प्रवष्णु,
लक्ष्मण

पीयष
ू , सध
ु ा,
अलमय,
8 अमत

जीवनोदक,
अलमत, जीवन

हय, घोटक,
9 अश ्व
सैंधव, तुरंग,
रप्रव, पत्र
ु , बान्ज,
घोड़ा, तुरंगम,
वाह

दनज
ु , दानव,
राक्षस,
तनशािर,
रजनीिर,
10 असरु तनलशािर, दै त्य,
ददततसुत,
शुिलशष्य,
यातध
ु ान,
दे वारर, इहद्रारन्ं

अन्स्मता, अह,
अहकार,
अवलेप,
11 अलभमान
अहतनका,
अहम्महयता,
आत्मश्लाघा,
गवण, घमंि, दपण,
दं भ, मद, मान,
लमथ्यालभमान

प्राथणनापत्र,
तनवेदनपत्र,
12 अजणंी
दरख्वास्त,
उावेदन, पत ्र

अत्यचधक,
अततवेल,
13 अततशय
अततमात्र,
अततरे कः, भश

उपेक्षा, अनादर,
अवमानना,
14 अपमान अवज्ञा,
अवहेलना,
बेइज्जतंी

15 अततथन्ं पाहुन, पाहुना,


अभ्यागत,
आगंतुक,
मेहमान

जगल, वन,
16 अरण ्य प्रवप्रपन, कांतार,
कानन, अटवंी

अनुसंधान,
खोज, जाँि,
18 अहवेषण
शोध, छानबीन,
पछ
ू ताछ

प्रकटन,
प्रकाशन,
19 अलभव्यक्तन्ं स्पष्टीकरण,
व्यक्त होना,
स्फुटीकरण

अनुपम, अनूठा,

20 अदभत
ु अद्प्रवतीय,
अनोखा, अतुल,
अपव
ू ,ण हयारा,
तनराला,
प्रवलक्षण

अनी, कटक, िम,ू


21 सेनंा कुमक, फौज, दल,
सेनंा

अधोगतत, अपकषण,
क्षय, ह्वास, पतन,
22 अवनतन्ं
अध, पतन, चगरावट,
उतार, झक
ु ाव

अक्षक्ष, अंबक, ईक्षण,


िक्षु, नयन, दृन्ष्ट,
23 आँख नेत्र, लोिन,
प्रवलोिन, दीठ, िख,
िश ्म

24 आकाश अंबर, अनंत,


अंतररक्ष, अभ्र,
आसमान, गगन,
ददव, नभ, पुष्कर,
व्योम, प्रवष्णुपद,
सारं ग, फलक

सम्मान, इज्जत,
कद्र, पज्
ू यभाव,
25 आदर प्रततष्ठा, समादर,
उत्सुकता, प्रयत्न,
प्रेम, आरं भ, सत्कार

आमोद, उल्लास,
26 आनंद ख़ुशी, मोद, सुख, हषण,
पररतोष, प्रमोद

शुरू, श्रीगणेश, प्रारं भ,


27 आरं भ उपिम, इन्ब्तदा,
आदद, उत्पतन्ं

28 आम आम्र, रसाल,
अमत
ृ फल, ित
ू ,
प्रप्रयांबु, अततसौरभ,
प्रपकबंधंु

सरलता, सहजता,
29 आसानंी सुगमता, सभ
ु ीता,
सुप्रवधंा

मठ, प्रवहार, कुटी,


30 आश्रम तपोवन, स्थान,
अखािा, संघ

ईप्सा, अलभलाषा,
िाह, कामना,
31 इच्छंा आकाक्षा, मनोरथ,
स्पह
ृ ा, ईहा, वांछा,
एषणंा

सरु पतत, परु ं दर,


वासव, महें द्र,
32 इंद्र
दे वराज, सुराचधप,
शिीपतत, मधवा,
शि, शतमहयु,
सहस्राक्ष, सुरेश,
मेघवाहन, शिीश,
मरुत्पतत, दे वेहद्र,
सरु े हद्र, अमरे श,
मरुत्पाल, नाकपतन्ं

ईश, जगदीश,
परमेश्वर, परमात्मा,
भगवान ्,
33 ईश्वर
सन्च्िदानंद,
जगन्हनयंता,
जगदीश्वर

अच्छा, बडड़या, उत्तम,


34 उम्दंा
श्रेष्ठ, उमदंा

उत्थान, प्रगतत,
प्रवकास, उत्कषण,
35 उहनतन्ं
अभ्यद
ु य, वद्
ृ चध,
तरक्की, बढ़तंी
बगीिा, बचगया, बाग,
36 उद्यान
वादटका, उपवन

णखल्ली, िट
ु की,
छींटा, ताना, कटाक्ष,
37 उपहास
तनंदा, बदनामी,
तमाशंा

ऐक्य, मेल, समानता,


अद्प्रवतीय, अनुपम,
38 एकतंा एका, अभेद,
भेदरदहत,
एकजुटतंा

नीहार, दहम, प्रालेय,


39 ओस पाला, तुदहन, तुषार,
लमट्दटका, शबनम

वस्त्र, वसन, अंबर,


40 कपड़ंा पट, िीर, अंशुष्क,
आच्छादन, िैल
ककहनरे श, यक्षराज,
41 कुबेर धनद, धनाचधप,
राजराज

सरोज, जलज, अब्ज,


पंकज, अरप्रवंद, पद्म,
शतदल, अंबज
ु ,
42 कमल सरलसज, सारं ग,
राजीव, वाररज,
पुंिररक, मण
ृ ाल,
तामरस

इंददरा, पद्मा,
पद्मजा, पद्मालया,
पद्मासना, भागणवी,

43 कमलंा रमा, लक्ष्मी,


लोकमाता,
प्रवष्णुप्रप्रया, श्री,
लसंधज
ु ा, समद्र
ु जा,
हररप्रप्रया,
क्षीरोदतनया,
लसंधुतनयंा

इहकलाब, उलट फेर,


पररवतणन, गतत,
44 िाहतन्ं
िमण, लौघना सूयण
का भ्रमण

अनंग, अतनु,
आत्मज, आत्मभू,
कदपण, काम,
कुसमयुध, पंिबाण,
पंिशर, प्रद्युम्न,
पुष्पधहवा, पुष्पिाप,
45 कामदे व
मकरध्वज, रततपतत,
मदन, मनलसज,
मनोज, महमथ,
मनोजात, मार,
रततसखा, रतीश,
स्मर, कुसुमेषंु
कपोत, परे वा,
46 कबत
ू र
पारापत, पंिुक

कोककल, प्रपक,
47 कोयल काकलीक, वनप्रप्रय,
परभूत, काकलंी

रोष, कोप, अमषण,


48 िोध
गुस्सा, रूठ, कुद्ध

लशव, मंगल, शभ
ु ,
49 कल्याण भावुक, श्रेयस्य,
कुशल

श्याम, कहहैया,
नंदनंदन, कसारर,
50 कृष ्ण गोपीवल्लभ, माधव,
मरु ारर, गोपीनाथ,
वासुदेव, यशोदानंदन

अलसत, श्याम, स्याह,


51 कालंा
कृष्ण, नील
कृपा, दया, अनुकंपा,
52 करुणंा
अनुिोश, कारुण ्य

शपथ, सौगंध,
53 कसम
प्रततज्ञा, प्रण

पस्
ु तक, पोथी, ग्रंथ,
54 ककताब प्रवद्यासागर, बही,
खाता, रन्जस्टर

तीर, तट, सैकत,


55 ककनारंा
पुललन, रोध, प्रतीर

कोट, दग
ु ण, गढ़,
56 ककलंा
स्थूलवसन

मद
ृ ,ु मसण
ृ , नरम,
57 कोमल मल
ु ायम, अरुक्ष,
अकठोर, अपरुष

मयख
ू , अंशु, रन्श्म,
58 ककरण
मरीचि, प्रभा, गंो
पटुता, तनपुणता,
नैपुण्य, दक्षता,
59 कौशल
िालाकी, कुशलता,
पाटव

प्रसहनता, हषण, आनंद,


इच्छा, उल्लास,
60 खश
ु ंी प्रमोद, प्रीतत, मोद,
सुख, आहलाद,
आमोद

लहू. रक्त, लोहु,


61 खन

शोणणत

अधम, दष्ु ट, कुदटल,


62 खल दज
ु न
ण , धूत,ण बदमाश,
पाजी, शैतान

काश्त, कृप्रष, ककसानी,


63 खेतंी बोआई, फसल,
कृप्रषकर्म
पहनगारर, वैनतेय,
खगेश, खगेश्वर,
64 गरुिं नागांतक,
पहनगाशन, ताक्ष्र्य,
प्रवष्णुवाहन, सुपर्ण

जाह्नवी, बत्रपथगा,
बत्रपथगालमनी,
दे वनदी, नदीश्वरी,
65 गंगंा भागीरथी, मंदाककनी,
प्रवष्णप
ु दी, सरु धतु न,
सरु नदी, सरु सरर,
सुरापगा, दे वापगंा

खर, गदणभ, रासभ,


वैशाखनंदन, गधा,
66 गदहंा
बेसर, धूसर,
ििीवाहनं्

67 गरीब दररद्र, दीन, तनधणन,


धनहीन, मुफललस,
दीन हीन, बेिारा,
श्रीहीन

एकदं त, गजवदन,
गजानन, गजास्य,
गणनायक, गणपतत,
मोदकप्रप्रय, मोददात
प्रवघ्ननाशक,
प्रवघ्नराज, प्रवनायक,
68 गणेश
लशवनंदन, उमासत
ु ,
गौरीनंदन, लम्बोदर,
लशवनंदन, लशवनंदन,
उमासत
ु , गणाचधपतत,
प्रवनायक,
प्रवघ्ननासक

गो, गौरी, धेनु भद्रा,


69 गाय सुरभी, गोंवी,
दहंदम
ु ातंा
श्रंग
ृ ाल, लशवा, जंबुक,
70 गीदिं
लसयार

िाल, हरकत, दशा,


71 गतन्ं मोक्ष, ज्ञान, उपाय,
नासूर

गह
ृ . सदन. भवन,
आलय, तनकेतन,
72 घर शाला, कुटी, वास,
धाम, आवास, तनलय,
ओक, आयतन

िाँद, िंद्र, दहमांश,ु


सध
ु ांश,ु सध
ु ाकर,
सुधाधर, राकेश,
राकापतत, शलश,
73 िद्रमंा
सारं ग, तनशाकर्,
तनशापतत, रजनीपतत,
मग
ृ ांक, कलातनचध,
इंद,ु शशांक, प्रवधु,
शशधर, कलाधर,
मयंक, तारापतत,
द्प्रवजराज, सोम,
दहमकर, शुभ्रांश,ु
शीतांश,ु शीतगु, कुमद

कुशल, दक्ष, नागर,


तनपण
ु , पटु, प्रवीण,
74 ितुर
योग्य, प्रवज्ञ, सयाना,
होलशयार,िालाक

िलन, आिरण,
िररत्र, िलन, ढंग,
75 िाल
अदब, बनावट, छल,
कूटयुक्तन्ं

कौमुदी, ज्योत्स्ना,
76 िाँदनंी िंदद्रका, जुहहाई,
जोन ्ह

अंिज, पक्षी, खग,


77 चिडड़यंा
प्रवहग, प्रवहगम,
शकुन, द्प्रवज, पतंग,
पंछी, शकंु त, खेिर,
पररंदा, पखेरू, प्रवहग

मष
ू क, इंदरु , मप्रू षका,
78 िूहंा आखु, गणेशवाहन,
मूस, मस
ू ा, मूप्रषक

पानी, अंबु, नीर,


सललल, वारर, उदक,
क्षीर, तोय, पय,
79 जल
सारं ग, रस, अप,
जीवन, अमत
ृ ,
मेघपुष ्प

पथ्
ृ वी, भलू म, धरती,
खेत, स्थल, धरा, मही,
80 जमीन
धरणी, भू, धररत्री,
वसह
ु धरंा
लोकनायक,
जननेता,
81 जननायक जनसेवक,
लोकसेवक,
लोकप्रप्रय

न्जदगी, प्राण,
82 जीवन जीप्रवका, वाय,ु पत्र
ु ,
जल, जान, हयात

ध्वज, ध्वजा,
पताका, केतन,
83 झंिंा
तनशान, केतु,
परिम

िाल, शाखा, टहनी,


84 िालंी
पक् ष

85 िर भय, भीतत, त्रास,


खौफ, साध्वस,
अंदेशा, आतंक,
प्रवभीप्रषकंा

आख,ु खनक,
तस्तर, रजनीिर,
86 िोर
िोरटा, िोरकट,
िोरक

हजाम, ब्राह्मण,
88 ठाकुर
परमेश्वर, दे व

लहर, लहरी,
89 तरं ग कल्लोल, ऊलमण,
वीचि, दहल्लोल

अलस, करवाल,
90 तलवार कृपाण, खंजर,
खड्ग, िंद्रहास

खेल, कौतुक,
91 तमाशंा कौतह
ू ल, कुतक
ु ,
कुतह
ू ल
ईषत ्, ककंचित ्,
92 थोड़ंा अल्प, हयून, ऊन,
स्तोक

दौलत, धन, संपतत,


93 द्रव ्य संपदा, प्रवत्त,
प्रवभतू त, अर्थ

अजा, अभया,
कल्याणी, कामाक्षी,
कललका, कुमारी,
िंडिका, िामुंिा,
95 दग
ु णंा
धात्री, महागौरी,
वागीश्वरी, शांभवी,
अंबा, भवानी,
सुभद्रंा

96 दे शभक् त दे शानरु ागी, दे श

97 दे वतंा सुर, अमर,


आददत्य, बत्रददवेश,
वसु, वद
ृ ारक,
सुभना, बत्रदस

शरीर, तन, काया,


98 दे ह
वदन, तनंु

ददवस, वार, वासर,


99 ददन समय, ततचथ, काल,
सदा, अहनं्

सेप्रवका, नौकरानी,
100 दासंी पररिाररका, भूत्या,
दाई, धाय

कमान, धनु,
101 धनुष शरासन, कामक
ुण ,
िाप, कोदं ि

दृन्ष्ट, तनगाह,
102 नजर
तनगरानी, दे ख
सररता, तदटनी,
आपगा, तनम्नगा,
तनझणरणी, कूलंकषा,
तरॉचगनी,
103 नदंी
जलमाला, नद,
प्रवादहनी, सररत ्,
द्वीपवती,
शैवाललनंी

घुड़की, णझड़की,
िांट. ताड़ना,
104 तनंदंा फटकार, बरु ाई,
भत्सणना,
आलोिनंा

जलयान, िोंगी,
तरणी, तरी, नाव,
105 नौकंा
पोत, बेड़ा, ककस्ती,
पतंग

106 नरक यमपुर, यमालय,


यमशाला, यमपरु ी,
जहहनुम, नकण,
दग
ु णत

पीड़ा, व्यथा, कष्ट,


संकट, शोक, क्लेश,
वेदना, यातना,
113 द:ु ख
यंत्रणा, खेद,
उत्पीिन, प्रवषाद,
संताप, क्षोभ

सेप्रवका, नौकरानी,
114 दासंी पररिाररका,
प्रवद्यंा

सररता, तदटनी,

115 नदंी आपगा, तनम्नगा,


तनझणररणी,
कुलंकषा, तरं चगनी,
जलमाला, नद,
प्रवादहनी, सररत,
द्वीपवती,
शैवाललनंी

नूतन, नव, नवीन,


116 नयंा
नव्य।

तनद्रा, शयन, सोना,


117 नींद
स्वप्न, संवेश

सुधी, प्रवद्वान,
कोप्रवद्, कप्रव, बुध,
118 पंडित धीर, सरू र, मनीषी,
प्राज्ञ, प्रवज्ञ,
प्रवलक्षण!

भताण, वल्लभ,
स्वामी, आयणपुत्र,
119 पतन्ं
बालम, आयण, ईश,
अचधपतत, दल्
ू हा,
भताणर, जीवनसाथी,
सहिर, सुहाग,
शौहर, खाप्रवंद,
हमसफर, हमराही,
साजन

भायाण, स्त्री, दारा,


गदृ हणी, बहू, वध,ू
कलत्र, प्राणप्रप्रया,
औरत, अद्धचगनी,
120 पत्नंी गह
ृ लक्ष्मी,
जीवनसंचगनी,
सहिरी, प्राणेश्वरी,
गह
ृ स्वालमनी, बीबी,
बेगम

पाषाण, अश्म,
121 पत्थर प्रस्तर, उपल,
पाहन, संग

भूधर, शैल, अिल,


122 पवणत
महीधर, चगरर,
भलू मधर, पहाड़,
धरणीधर, नग,
मेरु, लशखर, नाग,
अदद्र, तग
ुं ।

उमा, गौरी,
जगदम्बा, भवानी,
अंबबका, आयाण,
दग
ु ाण, चगररजा,
दहमािलसुता,
अभया, ईश्वरी,
कुमारी,
123 पावणतंी चगररतनया,
रूद्राणी, शैलजा,
शैलपुत्री, शैलसत
ु ा,
सती, सवणमंगला,
लशवानी, पततव्रता,
बत्रनेत्रा,
शूलधाररणी,
भगवती।।

124 पत
ु ्र तनय, सुत, सूनु,
बेटा, लड़का,
आत्मज, पूत,
नंदन, कुमार।

तनया, सत
ु ा, सन
ू ू,
बेटी, लड़की,
आत्मजा, ददु हता,
125 पुत्रंी
तनज
ु ा, कहया,
नंददनी, दख्
ु तर,
धीया, बबदटयंा

धरती, धरा, क्षक्षतत,


भूलम, मही, धरणी,
126 पथ्
ृ वंी
वसुधा, वसुंधरा, भू,
इला, उवी, धररत्रंी

फूल, सुमन, कुसुम,


127 पष
ु ्प
प्रसून, सारं ग

िमक, प्रभा, आभा,


128 प्रकाश छप्रव, ज्योतत, रुचि,
रोशनंी
आदमी, जन, नर,
मत्यण, मदण , मनुज,
129 पुरुष मानव, मनुष्य,
मानष
ु , आदमजाद,
मनई।

अतनल, गंधवह,
जगत्प्राण, पवमान,
प्रभंजन, प्रवात,
जौन, मारुत, वात,
130 पवन वाय,ु समीर,
समीरण, हवा,
आशुग, पष
ृ दश्व,
मातररश्वा, श्वसन,
स्पथणन।

अप, अमत
ृ , अंबु,
अंभ, उदक, कबंध,

131 पानंी क्षीर, धनरस, जल,


जीवन, तोय, तीर,
पयस ्, पाप, पानीय,
भुवन, मेघपुष्प,
वन, बादह, शंबर,
सललल, सारं ग,
अणण।

समान, तल्
ु य,
सदृश, सम,
समरूप, समतल,
132 बराबर
हसबार, समकक्ष,
लगातार, सद, तक,
साथ, पास।

–तीर, सर, प्रवलशख,


133 बाण
आशुग, नारािंा

समानता,
प्रततस्पधाण,

134 बराबरंी समकक्षता,


समरूपता,
तल्
ु यता, समता,
सदृशता,
एकरूपता, तुल्यता,
समता, एकरूपतंा

कप्रप, शाखामग
ृ ,
135 बंदर वानर, मकणट, हरर,
लंगूर, हनुमान।

िंिला, िपला,
प्रवद्युत ्, दालमनी,
तडित, क्षणप्रभा,
136 बबजलंी घनप्रप्रया,
घनवल्लभ
घनवामा, बीजुरी,
सौदालमनंी

ितुरानन,
प्रपतामह, लोकेश,
आत्मभू, स्वयंभ,ू
137 ब्रह्मंा
प्रवचध, प्रवधाता,
दहरण्यगभण,
प्रजापतत,
सन्ृ ष्टकताण, अज,
अंिज, अब्जयोतन,
कताणर, सदानंद,
सुरज्येष्ठ,
नालभजहय।

पेड़, गाछ, प्रवटप,


तरु, अगम, पादप,
138 वक
ृ ्ष द्रम
ु , महीरूह,
प्रवटपी, शाखी, कुट

जलद, अभ्र, अंबुद,


जलधर, जीमत
ू ,
जगज्जीवन,
बादल धराधर, नीरद,
139
(मेघ) पयोद, बलाहक,
मेघ, वाररद,
वाररधर, वाररवाद,
तडित्वान ्।
प्रवभीप्रषका, भीतत,
140 भय िर, आतंक, त्रास,
भी, साध्वस

मत्स्य, झख, मीन,


जलजीवन, सफरी,
141 मछलंी
शफरी, झष,
जलजीव।

शंभु, ईश, शव,


लशव, शंकर,
िंद्रशेखर, चगरीश,
हर, नीलकंठ,
भूतनाथ,

महादे व वैद्यनाथ,
142
(महेश) प्रवश्वनाथ,
पशुपतत, कपददण न,
महेश्वर, दे वाचधदे व,
भव, भत
ू ेश,
बत्रलोिन, िमरूधर,
उमाकांत,
उमानाथ, कामररपु,
कामारर,
कैलाशपतत,
गंगाधर,
चगररजापतत,
चगररजानाथ,
गौरीपतत, िंद्रिूि,
त्र्यंबक, धूजट
ण ी,
नीलकंठ, प्रपनाकी,
भव, अंधकररपु,
कपदी, ऋतुध्वंसी,
कृप्रत्तवास,
चगररजाकांत,
मदनारर, मत्ृ युंजय,
रूद्र, व्योमकेश,
वष
ृ भध्वज,
वामदे व, प्रवरूपाक्ष,
शवण, श्रीकंठ,
लशततकंठ, शल
ू ी,
स्मरहर, मि
ृ ,
बत्रशल
ू धारी।
बड़ा, ऊँिा, महत ्,
143 महानं् उहनत, प्रवशाल,
प्रवशद्, बड़ा भारी।

माधुय,ण मधुरता,
144 लमठास
मीठापन, लमठाई

यती, अवधूत,
संहयासी, वैरागी,
तापस, संत, लभक्षु,
145 मुनन्ं
महात्मा, साध,ु
मुक्तपुरुष,
तपस्वी।

कदठन, कड़ा,
दष्ु कर, ददक्कत,
कदठनता, प्रवपप्रत्त,
146 मन्ु श्कल मस
ु ीबत, आफत,
कदठनाई, परे शानी,
कष्टसाध्य,
न्क्लष्ट, संकट।
अलल, िंिरीक,
द्प्रवरे फ, मधुप,
147 मधुकर लमललंद, भंवरा,
मंग
ू , भ्रमर, भौंरा,
षट्पद, लशलीमुख।

अम्मा, अंब, अंबा,


जननी, मैया, माँ,
148 मातंा धात्री, प्रसू, माई,
मात,ृ महतारी,
जहमदात्री।

तात, प्रप्रय, मीत,


सहृ
ृ द, स्नेही, दहतू,
दहतैषी, दोस्त,
149 लमत ्र सखा, सहिर,
लमतवा, हमजोली,
हमदम, हमराह,
हमसफर, हमदर्द
मुन्क्त, कैवल्य,
150 मोक् ष तनवाणण, अपवगण,
परमपद

अवपात, इंतकाल,
काशीवास,
गंगालाभ,
गंगावास, दे हाहत,
दे हावसान, तनधन,
मत्ृ यु तनवाणण, मरण,
151
(मौत) मन्ु क्तलाभ, मौत,
स्वगणवास, प्राण-
त्याग, प्राणांत,
दे हत्याग,
परलोकवास,
सद्गतत।

सूयस
ण ुता,
सय
ू त
ण नथा,
152 यमन
ु ंा काललंदी, अकणजा,
कृष्णा, जमुना,
तरणणतनुजा,
रप्रवतनया,
रप्रवनंददनी,
रप्रवसुता।

सूयप
ण ुत्र, कृतांत,
धमणराज, काल,
दं िधर, जीवनपतत,
153 यम
मत्ृ यद
ु ाता,
मत्ृ युदेवता,
यमराज।

कमला, पद्मा,
पद्मासना, लक्ष्मी,
इंददरा, श्री,
154 रमंा
प्रवष्णप्रु प्रया,
कमलासना,
हररप्रप्रया।

तनशािर, दानव,
155 राक्षस
ददततसुत, दै त्य,
असुर, सुरारी,
खेिर, दे वारर,
दनुज।

प्रकाश, उजाला,
चिराग, दीया, दीप,
156 रोशनंी दीपक, आभा,
भास, िमक, कांतत,
मयख
ू ।

नप
ृ , भूप, महीप,
महीपतत, नरपतत,
नरे श, भूपतत, राव,
सम्राट, क्षक्षतीश,
157 राजंा अवनीश, दे व,
नप
ृ तत, नरे हद्र,
मदहपाल,
क्षोणणपतत,
क्षमाभुक् ।

शवणरी, तनशा, रात,


158 रात्रन्ं
रै न, रजनी,
यालमनी, बत्रयामा,
प्रवभावरी, क्षणदा,
कुहू, तपन्स्वनी,
तलमस्रा, तमी,
तनशीचथनी, राका।।

रघुनाथ, अलमताभ,
दशरथनंदन,
कौशल्यानंदन,
जानकीपतत,
159 राम सीतापतत,
सौलमत्रमोहन,
रघव
ु ंशमणण,
अयोध्यापतत,
कोशलपतत।

सतत, अनवरत,
160 लगातार अश्रांत, अप्रवरत,
तनत्य, अप्रवराम।

कुसुमाकर,
161 वसंत
ऋतुराज, प्रपकानंद,
पष्ु पसमय, बहार,
मधु, मधुकाल,
मधुऋतु, माधव।

अच्यत
ु , उपेंद्र,
कमलाकांत, केशव,
कैटभारर,
गरुिध्वज, गोप्रवंद,
ििपाणण, ितभ
ु ज
ुण ,
जनादणन, शेषशायी,
जलशायी, दामोदर,
दे वकीनंदन,
162 प्रवष्णंु
नारायण, पीतांबर,
पुरुषोत्तम, माधव,
मधुसूदन, मुकंु द,
रमाकांत, रमेश,
लक्ष्मीकांत,
लक्ष्मीपतत,
वनमाली, प्रवश्वंभर,
प्रवश्वरूप, श्रीपतत,
श्रीवत्सल, हृषीकेश,
कमलापतत, प्रवभु,
जगदीश।

समस्त, सवण,
अणखल, तनणखल,
163 सब
समग्र, सकल, पूण,ण
संपरू ण

झुि, वंद
ृ , गण,
164 समूह टोली, मंिली,
समद
ु ाय, दल।

सागर, रत्नाकर,
जलचध, उदचध,
पयोचध, वाररचध,
पारावार, लसंधु,
165 समद्
ु र
नदीश, नीरतनचध,
अन्ब्ध, तोयतनचध,
सलललेश, अकूपार,
जलधाम।
अचधवेशन, संगतत,
धमणसभा, पररषद्,
बैठक, महावतणन,
166 सभंा महासभा, संगमन,
सत्संग, समागम,
समुदाय, सलमतत,
सम्मेलन, जमघट।

ब्राह्मी, भारती,
वाक् , चगरा, वाणी,
शारदा, वीणापाणण,
वाग्दे वी, वागीशा,
167 सरस्वतंी पद्मासना,
महाश्वेता, प्रवधात्री,
प्रवद्यादे वी, ज्ञानदा,
प्रवद्यादातयनी,
हंसवादहनंी

स्वच्छ, तनमणल,
168 साफ
उज्ज्वल, बेदाग,
शुद्ध, पप्रवत्र, खुला,
आसान, स्पष्ट,
तनदोष

अजगर, अदह,
आशीप्रवष, उरग,
काकोदर,
िक्षुःश्रवा, ििी,
पहनग, न्जह्यग,
नाग, द्प्रवन्जह्व,
169 साँप (सपण) पवनाशन, फणी,
फणीश, प्रवलेशय,
भज
ु ग, भज
ु ग
ं ,
मणणधर, प्रवषधर,
सपण, सरीसप
ृ ,
सारं ग, उरर, भोगी,
व्याल

सग
ु ंध, खुशबूदार, सुवास,
170
सुगंधन्ं खश
ु ब,ू गंधतण
ृ ,
सुरलभ, सौरभ,
महक, िंदन,
केसर, कस्तूरंी

अंशम
ु ाली, अकण,
अरुण, आददत्य,
कमलबंधु, कर,
खग, गह
ृ पतत,
छायापतत,
कायानाथ, तपन,
तरणण, ददन,
ददनकर, ददनमणण,
सूयण
171 ददनेश, ददवाकर,
(सूरज)
तनदाघकर, पतंग,
प्रभाकर, भानु,
भास्कर, भास्वान ्,
मरीचिमाली,
मातंि, लमत्र, रप्रव,
प्रवभाकर, प्रवरोिन,
सप्रवता, सहस्रांशु,
सरू , हंस ।
कंिन, कनक,
कलधौत, कबरुण ,
जातरूप, जांबूनद,
172 सोनंा तपनीय, महारजत,
रुक्म, स्वणण,
सुवणण, हारक,
दहरण्य, हे म

बत्रदशालय, बत्रददव,
बत्रप्रवष्टप, ददव,
दे वलोक, नाक,
173 स्वर्ग
स्वर, सरु लोक,
स्वगणलोक,
बबदहश ्त

शादण ल
ू , व्याघ्र,
पंिमुख, मग
ृ राज,
174 लसंह मग
ृ ें द्र, केशरी,
केशी, महावीर,
शेर।
रुचिर, िारु, रम्य,
सुहावना, मनोहर,
मनहर, रमणीक,
175 संद
ु र रमणीय,
चित्ताकषणक,
लललत, मोहक,
अनवद्य, मोहन

अंगना, अबला,
नारी, वतनता,
मदहला, ललना,
176 स्त्रंी कांता, रमणी,
कालमनी, सुंदरी,
औरत, वामा,
भामा।

अंजनीपुत्र,
अंजनीलाल,

177 हनुमान आंजनेय, कपीश्वर,


केशरीनंदन,
पवनसुत,
पवनकुमार,
अजरं गबली,
बजरं गी, मारुतत,
मारुतेय,
मारुतनंदन,
रामदत
ू , रामदास,
कपीश, न्जतेंदद्रय

वाय,ु मारुत, वात,


178 हवंा बयार, समीर,
पवन, अतनल।

गज, हस्ती, द्प्रवप,


कंु जर, वारण, नाग,
करी, मतंग, कंु भी,
द्प्रवरद, गयंद,
179 हाथंी
दं ती, दं ताबल,
अनेकप, मतंगज,
मातंग, प्रवतुंि,
लसंधरू
उर, छाती, वक्ष,
180 हृदय वक्षस्थल, दहय,
दहयंा

हस्त, कर, बाहु,


181 हाथ भुजा, दस्त, दाव,
बाँह

युद्ध, समर, रण,


संगर, आन्ज,
182 लड़ाई
अनीक, संयग
ु ,
आहव, संग्राम

कातत, द्यतु त, छप्रव,


183 शोभंा
सौंदर्य

वदन, आनन, तुंि,


184 मुख (मुँह)
िेहरंा

अज्ञ, अज्ञानी,
185 मरू ख
् अबोध, बेवकूफ,
जड़, मंदबद्
ु धन्ं
केवट, कैवतण, दाश,
186 मल्लाह
धीवर, दास

दादरु , मंिूक, भेक,


187 में ढक
बेंग, वषाणभू, शालूर

मयरू , लशखी,
मेहप्रप्रय, मेहनतणक,
188 भोर
मेहावत्त
ृ क, राष्रीय
पक्षी, बदहणण

खबर, वाताण, प्रवप्रृ त्त,


189 समािार वत्त
ृ ांत, उदांत, हाल-
िाल

संशय, शंका, वहम,


190 संदेह भ्रांतत, द्वापर,
प्रवचिककत्संा

191 शीघ ्र तुरत, तुरंत, द्रत


ु ,
सत्वर, िपल,
आशु, जल्दी,
त्वररत

प्रच्छन ्, ततरोधान,
अंतधाणन,
192 तछपनंा अपवारण,
अप्रपधान, अप्रकट,
गायब

कूमण, कच्छप,
193 कछुआ
कमठ

काक, काग, कागा,


वायस, जयंत,
194 कौआ
एकाक्षी, एकाक्ष,
कौवंा

खेततहर, कृषक,
काश्तकार,
195 ककसान
जोतदार, िासा,
कृप्रषकार,
कृप्रषजीवी, कृप्रषक,
कृप्रषकमी,
हलजीवी, हलवाह

(उपसगम)

जो शब्दांश मल
ू शब्द के पहले जड़
ु कर उसके अथण में पररवतणन कर दे ते हैं,

अथवा प्रवशेषता उत्पहन कर दे ते हैं, उहहें ‘उपसगम’ (Upsarg) कहते हैं।

उपसगण भाषा के साथणक लघुतम खंि होते हैं जो हमेशा मूल शब्दों के पहले जुड़ते

हैं।

उपसगों का स्वतंत्र रूप से प्रयोग नहीं होता। इनके प्रयोग से मूल शब्द के अथण

में पररवतणन हो जाता है या प्रवशेषता उत्पहन हो जाती है ;

जैसे
उपसगण + मल
ू शब्द = नया शब्द

दरु ् + आशा = दरु ाशा

उप + कार = उपकार

अलभ + नेता = अलभनेता

Pratyay (प्रत्यय) Definition–


प्रतत’ और ‘अय’ दो शब्दों के मेल से ‘प्रत्यय’ शब्द का तनमाणण हुआ है ।

‘प्रतत’ का अथण ‘साथ में , पर बाद में ” होता है । ‘अय’ का अथण होता है ,

‘िलनेवाला’ ।

इस प्रकार प्रत्यय का अथण हुआ-शब्दों के साथ, पर बाद में िलनेवाला या

लगनेवाला शब्दांश । अत:, जो शब्दांश के अंत में जोड़े जाते हैं, उहहें प्रत्यय

कहते हैं।

जैसे-‘ बड़ा’ शब्द में ‘आई’ प्रत्यय जोड़ कर ‘बड़ाई’ शब्द बनता है ।
Hindi ke Upsarg (दहंदी के उपसगम)

दहंदी के उपसर्ग

अिेत, अजान,
अ, अन –
अथाह, अबेर,
आभाव
अलग, अनपढ़

अधकच्िा,
अध – आधंा अधणखला,
अधपका, अधजल

उहनीस, उहतीस,
उन – एक कम
उहिास

औ, अव – औगुन, औसत,
हीनता, तनषेध औसर

तन – आभाव, तनकम्मा, तनिर,


तनषेध, प्रवशेष तनधड़क, तनरोगंी
बबनजाने, बबनबोया,
बबन – तनषेध
बबनदे खंा

भरपेट, भरपरू ,
भर – पूरा, ठीक
भरसक

सि
ु ौल, सज
ु ान,
सुराज, सुपात,
सु, स – सपूत, सजग,
श्रेष्ठता, साथ सगोत्र, सरस,
सदहत, सलोना,
सजीला, सबेरंा

कु, क – बरु ाई, कुकरम, कुपात्र,


हीनतंा कपत

Sanskrit ke Upsarg (संस्कृि के उपसगम)

संस्कृत के उपसर्ग
आ – तक,
आकषणण, आकर,
ओर, समेत,
आभार, आशंका,
उल्टा, सीमा,
आवेश, आिरण
कमी, प्रवपरीत

उत्कषण उत्पल,
उत ्, उद –
उल्लेख, उत्साह,
ऊँिा, श्रेष ्ठ
उत्थान, उत्पात

उप – तनकट,
उपकार, उपभेद,
सदृश,
उपतनवेश, उपनाम,
सहायक,
उपरांत
हीनतंा

दब
ु ल, दल
ु भ,
दरु , दस
ु ् – बुरा, दष्ु कम, दख
ु द,
कदठन, दष्ु ट, दष्ु प्राप्य, द:ु सह,
हीन दरु वस्था, दद
ु णमनीय,
दस्
ु साहस
तन-भीतर, तनदे शक, तनदान,
नीिे, बाहर, तनपात, तनगम,
अततररक् त तनरूपा, तनखर

तनर्, तनस ्–
तनबणल, तनराकरण,
बाहर, तनषेध,
तनरपराध, तनभणर
रदहत

परा-पीछे ,
पराजय, पराभव,
उलटा,
पराधीन, परान्जत
अनादर, नाश

प्रकाश, प्रख्यात,
प्र-अचधक, प्रिार, प्रयोग, प्रसार,
आगे, ऊपर, प्रकट, प्रवाह, प्रबल,
यश प्रगतत, प्रताप, प्रपंि,
प्रलाप, प्रभुतंा

प्रतत-प्रवरुद्ध, प्रततकूल, प्रततकार,


सामने, प्रततदान, प्रत्यपणण,
बराबरी, प्रततद्वंद्वी,
प्रत्येक प्रततशोध, प्रततरोधक

प्रव – लभहन, प्रवभाग, प्रववाह,


आभाव, प्रवमुख, प्रवनय,
प्रवशेष, हीनता, प्रवलभहन, प्रवहार,
असामनतंा प्रवश्राम

संगम, संग्रह,
सम ् – अच्छा, संजय, संस्कार,
साथ, संयोग संदेह, संसगण, संग्राम,
संिालन

सग
ु दठत, सह
ु ाग,
सु – अच्छा, सक
ु मण, सक
ु ृ त,
अचधक, सुखद, सुभाप्रषत,
सुहदर, सुखंी सुकप्रव, सुरलभ,
सल
ु भ

अध, अधस ् – अधजल, अधोगतत,


नीिे आधंा अध्स्थल
अज्ञान, अलग,
अनजान, अनमोल,
अ, अन ् –
अनेक, अतनष्ट,
अभाव, तनषेध
अथाह, अनािार,
अलौककक

अतत – अततकाल,
अचधक, उस अततररक्त,
पार, ऊपर अततशय, अत्यंत

अचधकरण ,
अचधकार,
अचध – ऊपर,
अचधपाठक,
स्थान में श्रेष्ठ,
अचधग्रहण,
सामीप ्य
अचधवक्ता,
आचधक् य

अनु-पीछे , अनक
ु रण, अनग्र
ु ह,
पश्िात ्, िम, अनि
ु र, अनज
ु ,
समानतंा अनुपात,अपकषण,
अप – बुरा, अपकीततण, अपभ्रश,
हीन, प्रवरुद्ध, अपमान, अपव्यय,
अभाव अपवाद

अलभसार, अभ्यागत,
अलभ – ओर,
अभ्यास, अभ्युदय,
पास, सामने,
अलभषेक, अलभनय,
इच्छा प्रकट
अलभभावक,
करनंा
अलभयान

Urdu ke Upsarg (उदम ू के उपसगम)

उदण ू के उपसर्ग

अल –
अलगरज, अलबतंा
तनन्श्ित

कम –
कमउम्र, कमखयाल,
थोड़ा, हीन
कमलसन, कमकीमत,
कमजोर, कमबख्त,
कमदहम्मत

खश
ु – खश
ु ककस्मत, खश
ु ब,ू
अच्छा, खुशददल, खुशहाल,
श्रेष ्ठ खुशखबरंी

गैर –
लभहन,
गैरकानन
ू ंी
प्रवरुद्ध,
तनषेध

दर – मेंं दरलमयान

नापसंद, नाउम्मेद,
ना –
नादान, नाराज,
अभाव,
नालायक, नामुमककन,
तनषेध
नाजायज, नागवार

बदमाश, बदहवास,
बद – बुरंा
बदहजमी, बदजात
बर – उपर, बरखास्त, बरदास्त,
पर, बहार बरतरफ

बबलकुल, बबलमक
ु ता,
बबल – साथ
बबलवहज

बबला – बबलाकसरू , बबलाशक,


बबनंा आदद ।

बे – बबनंा बेहया, बेइज्जत

ला – बबना, लािार, लावाररस,


अभाव लाजवाब, लापरवाह

सर –
सरहद, सरपंि
मुख ्य

हमउम्र हमददों ,हमराह,


हम – साथ,
हमवतन , हमखयाल,
समान
हमपेशंा
हर – हरहाल, हरएक,
प्रत्येक हरकाम, हरकोई

बाजाप्ता, बाकायदा,
बा – साथ
बातमीज, बाअदब

अंग्रजी के उपसगण

सबइंस्पेक्टर,
सब –
सबरन्जस्रार, सबजज,
अधीन
सबकलमटी, सबडिप्रवजन

दह
ु रा, दग
ु ुना ।
िबल िबलखरु ाक, िबलनाश्ता,
िबलरोटी

डिप्टी – डिप्टी साहब, डिप्टी


उप कलमश्नर, डिप्टी कलक्टर
पूरा | फुलस्वेटर, फुलजूता,
फुल
फूलपूफ

हाफ – हाफकमीज, हाफकुरता,


आधा हाफपेंट

वाइस – वाइस िांसलर, वाइस


उप िेयरमैन

Pratyay ke Bhed (प्रत्यय के भेद):

प्रत्यय

2. िद्गधि
1. कृि प्रत्यय
प्रत्यय

i. प्रवकारी कृत ्- (1)


ii.
प्रत्यय कतव
णृ ािक,
अप्रवकारी
(a) कियाथणक कृत ्- (2)
संज्ञा, प्रत्यय भाववािक,

(b) कतव
ृ ािक (3)
संज्ञंा ऊनवािक,

(c)
(4)
वतणमानकाललक
संबंधवािक,
कृदं त

(d) भत
ू काललक (5)
कृदं त अपत्यवािक,

(6)
गुणवािक,

(7)
स्थानवािक
तथंा

(8)
अव्ययवािक

प्रत्यय के भेद : प्रत्यय के दो मख्
ु य भेद हैं-(1) कृत ् और (2) तद्चधत ।

1. कृि ्-प्रत्यय (Krit Pratyay)-

किया अथवा धातु के बाद जो प्रत्यय लगाये जाते हैं, उहहें कृत ्-प्रत्यय कहते हैं ।

कृत ्-प्रत्यय के मेल से बने शब्दों को कृदं त कहते हैं.

2. िद्गधि प्रत्यय (Taddhit Pratyay)-

संज्ञा, सवणनाम तथा प्रवशेषण के अंत में लगनेवाले प्रत्यय को ‘तद्चधत’ कहा

जाता है । तद्चधत प्रत्यय के मेल से बने शब्द को तद्चधतांत कहते हैं ।

जैसे-लघु + त = लघुता, बड़ा + आई = बड़ाई, सुंदर + त = सुंदरता, बूढ़ा + प =

बढ़
ु ापा ।

कृत ्-प्रत्यय के दो भेद हैं-

(क) प्रवकारी कृत ्-प्रत्यय (Vikari Krit Pratyay) – ऐसे कृत ्-प्रत्यय न्जनसे
शद्
ु ध संज्ञा या प्रवशेषण बनते हैं तथा

(ख) अप्रवकारी या अव्यय कृत ्-प्रत्यय (Avikari Krit Pratyay) – ऐसे कृत ्-

प्रत्यय न्जनसे कियामल


ू क प्रवशेषण या अव्यय बनते हैं।

प्रवकारी कृत ्-प्रत्यय के िार भेद हैं-(Vikari Krit Pratyay ke Bhed)

(a) कियाथणक संज्ञा, (b) कतव


ृ ािक संज्ञा, (c) वतणमानकाललक कृदं त तथा (d)

भूतकाललक कृदं त ।

दहंदी कियापदों के अंत में कृत ्-प्रत्यय के योग से छह प्रकार के कृदं त

शब्द बनाये जाते हैं-

(i) कतव
ृ ािक,

(ii) गण
ु वािक,

(iii) कमणवािक,
(iv) करणवािक,

(v) भाववािक तथा

(vi) कियाद्योदक ।

(i) कतव
णृ ािक- कतव
णृ ािक कृत ्-प्रत्यय उहहें कहते हैं, न्जनके संयोग से बने

शब्दों से किया करनेवाले का ज्ञान होता है । जैसे-वाला, द्वारा, सार, इत्यादद ।

कतव
णृ ािक कृदं त तनम्न तरीके से बनाये जाते हैं-

(क) किया के सामाहय रूप के अंततम अक्षर ‘ ना’ को ‘ने’ करके उसके बाद

‘वाला” प्रत्यय जोड़कर । जैसे-िढ़ना-िढ़नेवाला, गढ़ना-गढ़नेवाला, पढ़ना-

पढ़नेवाला, इत्यादद (ख) ‘ ना’ को ‘न’ करके उसके बाद ‘हार’ या ‘सार’ प्रत्यय

जोड़कर । जैसे-लमलना-लमलनसार, होना-होनहार, आदद ।

(ग) धातु के बाद अक्कड़, आऊ, आक, आका, आड़ी, आल,ू इयल, इया, ऊ, एरा,
ऐत, ऐया, ओड़ा, कवैया इत्यादद प्रत्यय जोड़कर ।

जैसे-पी-प्रपयकूि, बढ़-बदढ़या, घट-घदटया, इत्यादद ।

(ii) गुणवािक- गुणवािक कृदं त शब्दों से ककसी प्रवशेष गुण या प्रवलशष्टता का

बोध होता है । ये कृदं त, आऊ, आवना, इया, वाँ इत्यादद प्रत्यय जोड़कर बनाये

जाते हैं । जैसे-बबकना-बबकाऊ ।

(iii) कमणवािक- न्जन कृत ्-प्रत्ययों के योग से बने संज्ञा-पदों से कमण का बोध

हो, उहहें कमणवािक कृदं त कहते हैं । ये धातु के अंत में औना, ना और नती

प्रत्ययों के योग से बनते हैं । जैसे-णखलौना, बबछौना, ओढ़नी, सुंघनी, इत्यादद ।

(iv) करणवािक- न्जन कृत ्-प्रत्ययों के योग से बने संज्ञा-पदों से किया के

साधन का बोध होता है , उहहें करणवािक कृत ्-प्रत्यय तथा इनसे बने शब्दों को

करणवािक कृदं त कहते हैं । करणवािक कृदं त धातओ


ु ं के अंत में नी, अन, ना,
अ, आनी, औटी, औना इत्यादद प्रत्यय जोड़ कर बनाये जाते हैं। जैसे- िलनी,

करनी, झाड़न, बेलन, ओढना, ढकना, झािू. िालू, ढक्कन, इत्यादद ।

(v) भाववािक- न्जन कृत ्-प्रत्ययों के योग से बने संज्ञा-पदों से भाव या किया

के व्यापार का बोध हो, उहहें भाववािक कृत ्-प्रत्यय तथा इनसे बने शब्दों को

भाववािक कृदं त कहते हैं ! किया के अंत में आप, अंत, वट, हट, ई, आई, आव,

आन इत्यादद जोड़कर भाववािक कृदं त संज्ञा-पद बनाये जाते हैं।

जैसे-लमलाप, लड़ाई, कमाई, भुलावा,

(vi) कियाद्योतक- न्जन कृत ्-प्रत्ययों के योग से कियामल


ू क प्रवशेषण, संज्ञा,

अव्यय या प्रवशेषता रखनेवाली किया का तनमाणण होता है, उहहें कियाद्योतक

कृत ्-प्रत्यय तथा इनसे बने शब्दों को कियाद्योतक कृदं त कहते हैं । मल
ू धातु

के बाद ‘आ’ अथवा, ‘वा’ जोड़कर भूतकाललक तथा ‘ता’ प्रत्यय जोड़कर
वतणमानकाललक कृदं त बनाये जाते हैं । कहीं-कहीं हुआ’ प्रत्यय भी अलग से

जोड़ ददया जाता है । जैसे-खोया, सोया, न्जया, िूबता, बहता, िलता, रोता,

रोता हुआ, जाता हुआ इत्यादद.

दहंदी के कृि ्-प्रत्यय (Hindi ke Krit Pratyay)


दहंदी में कृत ्-प्रत्ययों की संख्या अनचगनत है , न्जनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

अन, अ, आ, आई, आलू, अक्कड़, आवनी, आड़ी, आक, अंत, आनी, आप,

अंकु, आका, आकू, आन, आपा, आव, आवट, आवना, आवा, आस, आहट,

इया, इयल, ई, एरा, ऐया, ऐत, ओिा, आड़े, औता, औती, औना, औनी, औटा,

औटी, औवल, ऊ, उक, क, का, की, गी, त, ता, ती, हती, न, ना, नी, वन, वाँ,

वट, वैया, वाला, सार, हार, हारा, हा, हट, इत्यादद ।

ऊपर बताया जा िुका है कक कृत ्-प्रत्ययों के योग से छह प्रकार के कृदं त बनाये


जाते हैं। इनके उदाहरण प्रत्यय, धातु (किया) तथा कृदं त-रूप के साथ नीिे ददये

जा रहे हैं-

1. किव
मृ ाचक कृदं ि- किया के अंत में आक, वाला, वैया, त,ृ उक, अन, अंकू,

आऊ, आना, आड़ी, आल,ू इया, इयल, एरा, ऐत, ओड़, ओड़ा, आकू, अक्कड़,

वन, वैया, सार, हार, हारा, इत्यादद प्रत्ययों के योग से कतव


णृ ािक कृदं त संज्ञाएँ

बनती हैं ।

प्रत्यय धाि ु कृदं ि-रूप

आक तैरनंा तैराक

आकंा लड़नंा लड़ाकंा

आड़ंी खेलनंा णख़लाड़ंी

वालंा गानंा गानेवालंा


आलंू झगड़नंा झगड़ालंू

इयंा बढ़ बदढ़यंा

इयल सड़नंा सडड़यल

ओड़ हँसनंा हँसोड़

ओड़ंा भागनंा भगोड़ंा

अक्कड़ पीनंा प्रपयक्कड़

सार लमलनंा लमलनसार

क पूजंा पूजक

हुआ पकनंा पका हुआ

2. गण
ु वाचक कृदन्ि – किया के अंत में आऊ, आल,ू इया, इयल, एरा, वन,

वैया, सार, इत्यादद प्रत्यय जोड़ने से बनते हैं:


प्रत्यय क्रिय ा कृदं ि-रूप

आऊ दटकनंा दटकाऊ

वन सुहानंा सुहावन

हरंा सोनंा सन
ु हरंा

आगे, अगला,
लंा
पीछंे प्रपछलंा

इयंा घटनंा घदटयंा

एरंा बहुत बहुतेरंा

वाहंा हल हलवाहंा

3. कममवाचक कृदं ि- किया के अंत में औना, हुआ, नी, हुई इत्यादद प्रत्ययों को

जोड़ने से बनते हैं ।


प्रत्यय क्रिया कृदं ि-रूप

िाटना, िटनी,
नंी
संघ
ू नंा संघ
ु नंी

बबकना, बबकौना,
औनंा
खेलनंा णखलौनंा

पढना, पढ़ा हुआ,


हुआ
ललखनंा ललखा हुआ

सुनना, सुनी हुईम


हुई
जागनंा जगी हुई

4. किणवाचक कृदं ि- किया के अंत में आ, आनी, ई, ऊ, ने, नी इत्यादद

प्रत्ययों के योग से करणवािक कृदं त संज्ञाएँ बनती हैं तथा इनसे कताण के कायण

करने के साधन का । बोध होता है ।


प्रत्यय क्रिया कृदं ि-रूप

आ झल
ु नंा झल
ु ंा

ई रे तनंा रे तंी

ऊ झाड़नंा झाड़ंू

न झाड़नंा झाड़न

नंी कतरनंा कतरनंी

आनंी मथनंा मथानंी

अन ढकनंा ढक्कन

5. भाववाचक कृदं ि- किया के अंत में अ, आ, आई, आप, आया, आव, वट, हट,

आहट, ई, औता, औती, त, ता, ती इत्यादद प्रत्ययों के योग से भाववािक कृदं त

बनाये जाते हैं तथा इनसे किया के व्यापार का बोध होता है ।


प्रत्यय क्रिया कृदं ि-रूप

अ दौड़नंा दौड़

आ घेरनंा घेरंा

आई लड़नंा लड़ाई

आप लमलनंा लमलाप

वट लमलनंा लमलावट

हट झल्लानंा झल्लाहट

तंी बोलनंा बोलतंी

त बिनंा बित

आस पीनंा प्यास

आहट घबरानंा घबराहट


ई हँसनंा हँसंी

एरंा बसनंा बसेरंा

औतंा समझानंा समझौतंा

औतंी मनानंा मनौतंी

न िलनंा िलन

नंी करनंा करनंी

6. क्रियाद्योदक कृदं ि- किया के अंत में ता, आ, वा, इत्यादद प्रत्ययों के योग

से कियाद्योदक प्रवशेषण बनते हैं. यद्यप्रप इनसे किया का बोध होता है परहतु

ये हमेशा संज्ञा के प्रवशेषण के रूप में ही प्रयक्


ु त होते हैं-

प्रत्यय क्रिय ा कृदं ि-रूप


तंा बहनंा बहतंा

तंा भरनंा भरतंा

तंा गानंा गातंा

तंा हँसनंा हँसतंा

आ रोनंा रोयंा

ता हुआ दौड़नंा दौड़ता हुआ

ता हुआ जानंा जाता हुआ

कृदं ि औि िद्गधि में अंिि – (Difference between Kridant and Tadhit)


कृत ्-प्रत्यय किया अथवा धातु के अंत में लगता है , तथा इनसे बने शब्दों को

कृदं त कहते हैं ।

तद्चधत प्रत्यय संज्ञा, सवणनाम तथा प्रवशेषण के अंत में लगता है और इनसे

बने शब्दों को तद्चधतांत कहते हैं ।


कृदं त और तद्चधतांत में यही मल
ू अंतर है । संस्कृत, दहंदी तथा उदण -ू इन तीन

स्रोतों से तद्चधत-प्रत्यय आकर दहंदी शब्दों की रिना में सहायता करते हैं ।

िद्गधि प्रत्यय:
दहंदी में तद्चधत प्रत्यय के आठ प्रकार हैं-

(1) कतव
णृ ािक,

(2) भाववािक,

(3) ऊनवािक,

(4) संबंधवािक,

(5) अपत्यवािक,

(6) गण
ु वािक,

(7) स्थानवािक तथा

(8) अव्ययवािक ।
1. किव
मृ ाचक िद्गधि प्रत्यय (Kartri Vachak Taddhit Pratyaya)–

संज्ञा के अंत में आर, आरी, इया, एरा, वाला, हारा, हार, दार, इत्यादद प्रत्यय के

योग से कतव
णृ ािक तद्चधतांत संज्ञाएँ बनती हैं ।

प्रत्यय िब ्द िद्गधिांि

आर सोनंा सुनार

आरंी जआ
ू जआ
ु रंी

इयंा मजाक मजाककयंा

वालंा सब्जंी सब्जीवालंा

हार पालन पालनहार

दार समझ समझदार


2. भाववाचक िद्गधि प्रत्यय (Bhav Vachak Taddhit Pratyaya)- संज्ञा

या प्रवशेषण में आई, त्व, पन, वट, हट, त, आस पा इत्यादद प्रत्यय लगाकर

भाववािक तद्चधतांत संज्ञा-पद बनते हैं । इनसे भाव, गण


ु , धमण इत्यादद का

बोध होता है ।

िद्गधिांि
प्रत्यय िब ्द
रूप

त ्व दे वतंा दे वत ्व

पन बच्िंा बिपन

वट सज्जंा सजावट

हट चिकनंा चिकनाहट

त रं ग रं गत
आस मीठंा लमठास

3. ऊनवाचक िद्गधि प्रत्यय (Oon Vachak Taddhit Pratyaya)- संज्ञा-

पदों के अंत में आ, क, री, ओला, इया, ई, की, टा, टी, िा, िी, ली, वा इत्यादद

प्रत्यय लगाकर ऊनवािक तद्चधतांत संज्ञाएँ बनती हैं। इनसे ककसी वस्तु या

प्राणी की लघत
ु ा, ओछापन, हीनता इत्यादद का भाव व्यक्त होता है ।

िद्गधिांि
प्रत्यय िब ्द
रूप

क ढोल ढोलक

रंी छातंा छतरंी

इयंा बढ
ू ंी बदु ढ़यंा

ई टोप टोपंी
कंी छोटंा छोटकंी

टंा िोरंी िोट्टंा

ड़ंा द:ु ख दख
ु िंा

ड़ंी पाग पगिंी

लंी खाट खटोलंी

वंा बच्िंा बिवंा

4. सम्बन्धवाचक िद्गधि प्रत्यय (Sambandh Vachak Taddhit

Pratyaya)- संज्ञा के अंत में हाल, एल, औती, आल, ई, एरा, जा, वाल, इया,

इत्यादद प्रत्यय को जोड़ कर सम्बहधवािक तद्चधतांत संज्ञा बनाई जाती है .-

िद्गधिांि
प्रत्यय िब ्द
रूप
हाल नानंा नतनहाल

एल नाक नकेल

आल ससुर ससुराल

औतंी बाप बपौतंी

ई लखनऊ लखनवंी

एरंा फूफंा फुफेरंा

जंा भाई भतीजंा

इयंा पटनंा पटतनयंा

5. अपत्यवाचक िद्गधि प्रत्यय (Apatya Vachak Taddhit

Pratyaya)- व्यन्क्तवािक संज्ञा-पदों के अंत में अ, आयन,


एय, य इत्यादद प्रत्यय लगाकर अपत्यवािक तद्चधतांत संज्ञाएँ बनायी जाती हैं

। इनसे वंश, संतान या संप्रदाय आदद का बोध होता हे ।

िद्गधिांि
प्रत्यय िब ्द
रूप

अ वसुदेव वासुदेव

अ मनंु मानव

अ कुरंु कौरव

आयन नर नारायण

एय राधंा राधेय

य ददतन्ं दै त ्य
6. गण
ु वाचक िद्गधि प्रत्यय (Gun Vachak Taddhit Pratyaya)- संज्ञा-

पदों के अंत में अ, आ, इक, ई, ऊ, हा, हर, हरा, एिी, इत, इम, इय, इष्ठ, एय,

म, मान ्, र, ल, वान ्, वी, श, इमा, इल, इन, लु, वाँ प्रत्यय जोड़कर गण
ु वािक

तद्चधतांत शब्द बनते हैं। इनसे संज्ञा का गण


ु प्रकट होता है -

प्रत्यय िब ्द िद्गधिांि रूप

आ भ ूख भख
ू ंा

अ तनशंा नैश

इक शरीर शारीररक

ई पक् ष पक्षंी

ऊ बुद्ध बुढहंू

हंा छूत छुतहर


एड़ंी गांजंा गंजेड़ंी

इत शाप शाप्रपत

इमंा लाल लाललमंा

इष ्ठ वर वररष ्ठ

ईन कुल कुलीन

र मधंु मधुर

ल वत ्स वत्सल

वंी मायंा मायावंी

श कर्क ककणश

7. स्थानवाचक िद्गधि प्रत्यय (Sthan Vachak Taddhit

Pratyaya)- संज्ञा-पदों के अंत में ई, इया, आना, इस्तान, गाह, आड़ी, वाल, त्र
इत्यादद प्रत्यय जोड़ कर स्थानवािक तद्चधतांत शब्द बनाये जाते हैं. इनमे

स्थान या स्थान सूिक प्रवशेषणका बोध होता है -

िद्गधिांि
प्रत्यय िब ्द
रूप

ई गुजरात गुजरतंी

इयंा पटनंा पटतनयंा

गाह िारंा िारागाह

आड़ंी आगंा अगाड़ंी

त ्र सर्व सवणत ्र

त ्र यदं् यत ्र

त ्र तद तत ्र
8. अव्ययवाचक िद्गधि प्रत्यय (Avyay Vachak Taddhit

Pratyaya)- संज्ञा, सवणनाम या प्रवशेषण पदों के अंत में आँ, अ, ओं, तना, भर,

यों, त्र, दा, स इत्यादद प्रत्ययों को जोड़कर अव्ययवािक तद्चधतांत शब्द बनाये

जाते हैं तथा इनका प्रयोग प्राय: कियाप्रवशेषण की तरह ही होता है ।

िद्गधिांि
प्रत्यय िब ्द
रूप

दंा सर्व सवणदंा

त ्र एक एकत ्र

ओंं कोस कोसोंं

स आप आपस

आंँ यह यहांँ

भर ददन ददनभर
ए धीर धीरंे

ए तिकंा तिकंे

ए पीछंा पीछंे

फािसी के िद्गधि प्रत्यय:

दहंदी में फारसी के भी बहुत सारे तद्चधत प्रत्यय ललये गये हैं। इहहें पाँि वगों में

प्रवभान्जत ककया जुा सकता है -

(1) भाववािक, (2) कतव


णृ ािक, (3) ऊनवािक, (4) न्स्थततवािक और (5)

प्रवशेषणवािक

1. भाववािक तद्चधत प्रत्यय: (Bhavvachak Taddhit Pratyaya)


िद्गधिांि
प्रत्यय िब ्द
रूप

आ सफ़ेद सफेदंा

आनंा नजर नजरानंा

ई खुश ख़ुशंी

ई बेवफंा बेवफाई

गंी मदाणनंा मदाणनगंी

(2) किव
मृ ाचक िद्गधि प्रत्यय: (Kartri Vachak Taddhita Pratyaya)

प्रत्यय िब ्द िद्गधिांि रूप

कार पेश पेशकार

गार मदद मददगार


बान दर दरबान

खोर हराम हरामखोर

दार दक
ु ान दक
ु ानदार

नशीन परदंा परदानशीन

पोश सफ़ेद सफेदपोश

साज घड़ंी घड़ीसाज

बाज दगंा दगाबाज

बीन दरु ं् दरू बीन

नामंा इकरार इकरारनामंा

3. ऊनवाचक िद्ववि प्रत्यय: (Oon vachak Taddhita Pratyaya)


प्रत्यय िब ्द िद्गधिांि रूप

क तोप तप
ु क

िंा संदक
ू संदक
ू िंा

इिंा बाग बगीिंा

4. क्स्थतिवाचक िद्गधि प्रत्यय: (Sthiti Vachak Taddhita Pratyaya)

प्रत्यय िब ्द िद्गधिांि रूप

आबाद हैदर हैदराबाद

खानंा दौलत दौलतखानंा

गाह ईद ईदगाह

उस्तान दहंद दहंदस्


ु तान
शन गुल गुलशन

दानंी मच्छर मच्छरदानंी

बार दर दरबार

5. वविेषणवाचक िद्गधि प्रत्यय: (Visheshan Vachak Taddhita

Pratyaya)

प्रत्यय िब ्द िद्गधिांि रूप

आनह रोज रोजानंा

इंदंा शर्म शलमंदंा

मंद अकल अक्लमंद

वार उम्मीद उम्मीदवार


जादह शाह शहजादंा

खोर सद
ू सद
ू खोर

दार माल मालदार

नम
ु ंा कुतुब कुतब
ु नम
ु ंा

बंद कमर कमरबंद

पोश जीन जीनपोश

साज जाल जालसाज

अंग्रेजी के िद्गधि प्रत्यय : दहंदी में कुछ अंग्रेजी के भी िद्गधि प्रत्यय प्रचलन में
आ गये हैं:

िद्गधिांि
प्रत्यय िब ्द प्रकाि
रूप

अर पें ट पेंटर कतव


णृ ािक

आइट नक्सल नकसलाइट गुणवािक


इयन द्रप्रवड़ द्रप्रवडड़यन गुणवािक

इज ्म कम्यून कम्यतु नस ्म भाववािक

उपसगम औि प्रत्यय का एकसाथ प्रयोग :


कुछ ऐसे भी शब्द हैं, न्जनकी रिना उपसगण तथा प्रत्यय दोनों के योग से होती

है । जैसे –

अलभ (उपसगण) + मान + ई (प्रत्यय) = अलभमानी

अप (उपसगण) + मान + इत (प्रत्यय) = अपमातनत

परर (उपसगण) + पूणण + ता (प्रत्यय) = पररपूणत


ण ा

दस
ु ् (उपसगण) + साहस + ई (प्रत्यय) = दस्
ु साहसी

बद् (उपसगण) + िलन + ई (प्रत्यय) = बदिलनी

तनर् (उपसगण) + दया + ई (प्रत्यय) = तनदण यी


उप (उपसगण + कार + क (प्रत्यय) = उपकारक

सु (उपसगण) + लभ + ता (प्रत्यय) = सुलभता

अतत (उपसगण) + शय + ता (प्रत्यय) = अततशयता

तन (उपसगण) + युक्त + इ (प्रत्यय) = तनयुन्क्त

प्र (उपसगण) + लय + कारी (प्रत्यय) = प्रलयकार

वचन

परिभाषा – संज्ञा, सवणनाम, प्रवशेषण तथा किया के न्जस रूप से संख्या का

बोध होता है, उसे विन कहते हैं।

व्याकरण में “विन’ संख्या का बोध कराता है ।

लिकी गाती है ।

लड़ककयाँ गाती हैं ।

लड़की शब्द के इस रूपांतरण को विन कहते हैं ।


वचन के भेद (Bachan ke Bhed)
विन के दो भेद हैं- (1) एकविन और (2) बहुविन ।

(1) एकवचन (ek vachan) – शब्द के न्जस रूप से एक व्यन्क्त या वस्तु

का बोध हों, उसे एकविन कहते हैं । जैसे – लड़का, पुस्तक, घड़ी,

इत्यादद।

(2) बहुवचन (Bahu Vachan) – शब्द के न्जस रूप से एक से अचधक

व्यन्क्तयों या वस्तओ
ु ं का बोध हो उसे बहुविन कहते हैं । जैसे – लड़के,

पुस्तकें, घडड़याँ, इत्यादद।

बहुविन बनाने के तनयम ( प्रवभन्क्तरदहत शब्द) :

(1) आकारांत पलु लंग शब्दों के ‘आ’ को ‘ए’ बनाकर बहुविन बनाया

जाता है ।

जैसे – लड़का – लड़के, गदहा – गदहे , घोिा – घोड़े ।


(2) इकरात, ईकारांत, उकारांत तथा ऊकारांत शब्दों के रूप दोनों विनों

में एकसमान बने रहते हैं । इनके रूप नहीं बदलते । इनके विन की

पहिान किया में होती है ।

जैसे:

साथी आता है – साथी आते हैं

साधु खाता है – साधु खाते हैं

िाकू जाता है – िाकू जाते हैं

(3) आकारांत स्त्रीललंग एकविन संज्ञा – शब्दों के अंत में ‘एँ’ या ‘यें’

लगाकर बहुविन बनाये जाते हैं ।

जैसे-शाखा-शाखाएँ, कथा-कथाएँ, कक्षा-कक्षाएँ, इत्यादद ।

(4) याकारांत स्त्रीललग संज्ञा – शब्दों के अन्हतम स्वर के ऊपर िहद्रबबंद ु

लगाकर बहुविन बनाये जाते हैं ।


जैसे- चिडड़या – चिडड़याँ,

डिबबया – डिबबयाँ,

गडु िया – गडु ड़याँ,

बुदढ़या – बुदढ़याँ,

लदु टया – लदु टयाँ

खदटयां – खदटयाँ, इत्यादद ।

(5) अकारांत स्त्रीललंग शब्दों का बहुविन संज्ञा के अंततम स्वर ‘अ’ को

‘एँ कर दे ने से बनता है ।

जैसे-पुस्तक – पुस्तकें,

ककताब – ककताबें,

गाय – गायें,

बहन – बहनें,
औाँख – औाँखें,

रात – रातें,

झील – झीलें,

बात – बातें, इत्यादद ।

(6) इकारात और ईकारांत स्त्रीललंग संज्ञा-शब्दों में ‘ई’ को हृस्व (इ)

करके तथा उसके बाद ‘याँ लगाकर अथाणत ् ‘इ’ या ‘ई’ को ‘इयाँ” कर दे ने

से बहुविन बनता है ।

जैसे – ततचथ-ततचथयाँ,

घड़
ु की – घड़
ु ककयाँ,

िुटकी–िुटककयाँ,

टोपी-टोप्रपयाँ,

रानी-रातनयाँ,
नदी-नददयाँ

रालश-रालशयाँ

रीतत-रीततयाँ, इत्यादद ।

(7) अ-आ-इ-ई को छोड़कर अहय मात्राओं से समाप्त होनेवाले स्त्रीललंग

संज्ञा-शब्दों के अंत में ‘एँ जोड़कर बहुविन बनाया जाता है ।

अंततम स्वर यदद ‘ऊ” हो, तो उसे हृस्व “उ” करके ‘एँ लगाते हैं।

जैसे-बदण -ू बहुएँ,

वस्तु-वस्तुएँ,

लता-लताए,

माता-माताए ।

(8) संज्ञा के पुंललंग या स्त्रीललंग रूपों में बहुविन का बोध प्राय: ‘गण’,

‘वगण’, ‘जन’, ‘लोग’, ‘वद


ृ ’ आदद शब्द लगाकर भी कराया जाता है । जैसे

श्रोता – श्रोतागण

पाठक – पाठकगण

दशणक – दशणकगण

अचधकारी – अचधकारीवगण

आप – आपलोग

वद्
ृ ध – वद्
ृ धजन

‘गण’ शब्द बहुधा मनुष्यों, दे वताओं और ग्रहों के साथ आता है । जैसे-

दे वतागण, अप्सरागण, तारागण, इत्यादद

‘वगण” तथा ‘जातत” – ये दोनों शब्द जाततबोधक हैं तथा प्राय: प्राणणवािक

शब्दों के साथ आते हैं । जैसे-मनुष्यजातत, स्त्रीजातत, पशुजातत, बंधुवगण,

पाठकवगण, इत्यादद ।
‘जन’ शब्द का प्रयोग बहुधा मनष्ु यवािक शब्दों के साथ बहुविन बनाने

के ललए ककया जाता है । जैसे-भक्तजन, गुरुजन, स्त्रोजन, इत्यादद ।

(9) जाततवािक संज्ञा-शब्दों के ही बहुविन रूप होते हैं । परं तु, जब

व्यन्क्तवािक और भाववािक संज्ञाओं का प्रयोग जाततवािक संज्ञा के

समान होता है , तब उनका भी बहुविन होता है ।

जैसे – कहो रावण, इस जग में और ककतने रावण हैं ?

मन में बुरी भावनाएँ उठ रही थीं ।

ववभक्तिसदहि संज्ञा-िब्दों के बहुवचन

बहुविन बनाने के ललए अंततम स्वर को ‘ऑ’ कर ददया जाता है ।

1. न्जन संज्ञा-शब्दों के अंत में ‘अ’, ‘आ’ या ‘ए’ रहते हैं, उनका बहुविन

बनने के ललए अंततम स्वर को ‘ओ’ कर ददया जाता है ।


जैसे –

लड़का – लिकों – लिकों ने पढ़ा

गाय – गायों – गायों का दध


दल – दलों – दलों का जमा होना

िोर – िोरों – िोरों को छोड़ना मत

2. संस्कृत की आिांत तथा संस्कृत-दहंदी की सभी उकारांत, ऊकाराहत,

अकारांत और औकरांत संज्ञा-शब्दों का बहुविन बनाने के ललए उनके

अंत में ओं जोड़ ददया जाता है ।

ऊकारांत शब्दों के साथ ‘ओं’ लगाने के पहले ‘ऊ, को ‘उ’ कर ददया जाता

है । जैसे-

दवा – दवाओं : दवाओं की कीमत ।

साधु – साधुओं : साधुओं की जमात ।


वधू – वधओ
ु ं : वधओ
ु ं को बल
ु ाओं ।

घर – घरों : घरों में लोग रहते हैं ।

(3) सभी इकारांत और ईकारांत संज्ञा-शब्दों का बहुविन बनाने के ललए

उनके अंत में ‘यों’ लगा ददया जाता है ।

ईकारांत शब्दों में ‘यों’ जोिने के पहले ‘ई’ को ‘इ’ कर ददया जाता है ।

एकविन बहुविन प्रवभन्क्तसदहत प्रयोग

मुतन – मुतनयों : मुतनयों का आश्रम ।

नदी – नददयों : नददयों का जल ।

गािी – गाडड़यों : वे लोग गाडड़यों में गये ।

झािी – झाडड़यों : गें द इहहीं झाडड़यों में गया है ।

श्रीमती – श्रीमततयों : आज श्रीमततयों का सम्मेलन है ।


वचन-संबंधी वविेष तनयम

(a) द्रव्यवािक संज्ञा-शब्दों का प्रयोग प्राय: एकविन में होता है ।

जैसे-उनके पास बहुत धन है ।

उसका सारा सोना िाकू लूटकर ले गये ।

(b) भाववािक तथा गुणवािक संज्ञा-शब्दों का प्रयोग सदै व एकविन में

ही होत है।

जैसे- मैं उनकी भलमनसाहत का कायल हूँ।

िॉ० राजेहद्र प्रसाद की सज्जनता पर सभी मुग्ध थे

लेककन जब संख्या अथवा प्रकार का बोध कराना होता है , तब भाववािक

और गुणवािक संज्ञा-शब्दों का बहुविन में भी प्रयोग ककया जाता है ।

जैसे – इस दवा की अनेक खबू बयाँ हैं ।

मैं आपकी प्रववशताओं को अच्छी तरह समझता हूँ।


(c) ‘हर’, ‘प्रत्येक’ तथा ‘हर एक’ का प्रयोग सदै व एकविन में होता है ।

जैसे – हर एक कुआँ का जल मीठा नहीं होता ।

प्रत्येक छात्र यही कहेगा ।

हर आदमी इस सि की जानता है ।

(d) कुछ शब्दों जैसे – प्राण, लोग, दशणन, आँसू, अक्षत, दाम, होश,

समािार, इत्यादद का प्रयोग हमेशा बदहविन में होता है ।

जैसे – आज के समािार

आपके दशणन

आपके आलशवाणद से मैं धहय हो गया


(e) समह
ू वािक संज्ञा-शब्दों का प्रयोग प्राय: एकविन में होता है ।

जैसे – इस दे श की बहुसंख्यक जनता अलशक्षक्षत है

बंदरो की एक टोली ने बड़ा उत्पात मिा रखा है

(f) अनेक समह


ू ों का बोध कराने के ललए समह
ू वािक संज्ञा का प्रयोग

बहुविन में ककया जाता है ।

जैसे-छात्रों की कई टोललयाँ गयी हैं ।

प्रािीनकाल में अनेक दे शों की प्रजाओं पर खूब अत्यािार होता था ।

(g) पूरी जातत का बोध कराने के ललए जाततवािक संज्ञा-शब्दों का प्रयोग

प्राय: एकविन में होता है ।

जैसे-शेर जंगल का राजा है ।

बैल एक िौपाया जानवर है ।


(h) कुछ आकारांत प्रवकारी शब्द एकविन में भी कारक-प्रवभन्क्त लगने

पर एकारांत हो जाते हैं ।

जैसे- इस गधे से काम नहीं िलेगा ।

प्यादा घोड़े पर आया था ।

(i) आदर या सम्मान दे ने के ललए एकविन व्यन्क्तवािक संज्ञा का

प्रयोग भी बहुविन में ककया जाता है ।

जैसे-गाँधीजी िंपारण आये थे ।

शास्त्रीजी सरल स्वभाव के थे।

(j) आँख, कान, उँ गली, पैर, दाँत इत्यादद शब्द, न्जनसे एक से अचधक

अवयवों का ज्ञान होता है , प्राय: बहुविन में प्रयक्


ु त ककये जाते हैं ।

जैसे-राधा के दाँत िमक रहे हैं ।


मेरे बाल सफेद हो गये ।

इन शब्दों को जब एकविन के रूप में ददखाना होता है तब इनके पहले

‘एक’ शब्द लगा ददया जाता है ।

जैसे-मेरा एक बाल टूट गया ।

उसकी एक आँख खराब है ।

मुतनया का एक दाँत चगर गया ।

(k) ‘पुरखा’, ‘बाप-दादा’ और ‘लोग’ शब्द अथाणनुसार बहुविन के रूप में

प्रयुक्त ककये जाते हैं ।

जैसे-हमारे परु खे मध्य एलशया से आये थे ।

उनके बाप-दादे ऊँिे पदों पर थे ।

इस राज्य के लोग आलसी हैं ।


(l) करणकारक में ‘जाड़ा’, ‘गमी, ‘बरसात’, ‘प्यास’, ‘भख
ू ’ इत्यादद का

बहुविन में प्रयोग होता है ।

जैसे-बंदर जािों से दटटुर रहा था ।

लभखारी भूखों मर रहा था।

काल औि काल के भेद

किया के उस रूपांतर को ‘काल’ कहते हैं, न्जससे किया के होने का

समय तथा उसकी पूणण या अपूणण अवस्था का बोध होता है ।

जैसे-वह खाता है । वह खा रहा है । वह खाता था । वह खा िुका था ।

वह खा रहा था।

काल के भेद (Kaal Ke Bhed)


काल के तीन मुख्य भेद हैं-

(1) वतणमानकाल (Vartman Kaal)


(2) भत
ू काल (Bhoot Kaal)

(3) भप्रवष्यत्काल (Bhavishyat Kaal)

(1) विममानकाल (Vartman Kaal)

कियाओं के होने की तनरं तरता को वतणमान काल कहते हैं । इस काल में

किया प्रारं भ हो िुकी होती है ।

जैसे-वह खाता है, वह खा रहा है ।

वतणमानकाल के भेद – वतणमानकाल के पाँि भेद हैं-

(a) सामाहय वतणमानकाल (Samanya Vartman Kaal)

(b) तात्काललक वतणमानकाल (Tatkaalitk Vartman Kaal)

(c) पूणण वतणमानकाल (Purn Vartman Kaal)

(d) संददग्ध वतणमानकाल (Sandigdh Vartman Kaal)

(e) संभाव्य वतणमानकाल (Sambhavya Vartman Kaal)


a. सामान्य विममानकाल (Samanya Vartman Kaal) – किया के न्जस

रूप से किया के वतणमान काल में सामाहय रूप से संपहन होने का बोध

होता है , उसे सामाहय वतणमान कहते हैं ।

अथाणत ् सामाहय वतणमान से यह ज्ञात होता है कक किया का प्रारं भ बोलने

के समय हुआ है । जैस-हवा िलती है । लड़का पस्


ु तक पढ़ता है ।

b. िात्काशलक विममानकाल (Tatkaalitk Vartman Kaal) – तात्काललक

वतणमान से यह ज्ञात होता है कक वतणमानकाल में किया हो रही है ।

अथाणत ् बोलते समय किया का व्यापार जारी है या िल रहा है । अत: इस

किया से इसकी पण
ू त
ण ा का ज्ञान नहीं होता । इसीललए तात्काललक

वतणमान को अपूणण वतणमान के नाम से भी जाना जाता है ।

जैसे-गािी आ रही है । हम कपड़े पहन रहे हैं । पत्र भेजा जा रहा है ।


c. पण
ू म विममानकाल (Purn Vartman Kaal) – पण
ू ण वतणमानकाल की

किया से ज्ञात होता है कक किया का व्यापार ताईकल में पूणण हुआ है

जैसे – नकर आया है।

राम ने खाया है।

पत्र भेज गया ह

d. संददग्ध विममानकाल (Sandigdh Vartman Kaal) – न्जससे किया के

संपहन होने में तो संदेह प्रकट हो, परं तु उसकी वतणमानता में कोई संदेह

नहीं हो ।

जैसे – गाड़ी आती होगी ।

वह खाता होगा ।

वह सोता होगा ।
e. संभाव्य विममानकाल (Sambhavya Vartman Kaal) – संभाव्य

वतणमान में किया के वतणमानकाल में पूरा होने की संभावना रहती है ।

संभाव्य का अथण है संभाप्रवत अथाणत ्, न्जसके होने की संभावना या

अनुमान हो ।

जैसे-वह िलता हो ।

राम गया हो ।

उसने खाया हो ।

(2) भूिकाल (Bhoot Kaal)

किया के न्जस रूप से कायण की समान्प्त का ज्ञान हो, उसे भत


ू काल की

किया कहते हैं ।

जैसे- वह आया था ।
उसने पढ़ा ।

वह जा िुका था !

भूतकाल के भेद – इसके छह भेद हैं-

(a) सामाहय भत
ू ,

(b) आसहन भूत,

(c) पूणण भूत,

(d) अपूणण भूत,

(e) संददग्ध भूत

(f) हे तह
ु े तम
ु द् भत

(a) सामान्य भि
ू – भत
ू काल की न्जस किया से प्रवशेष समय का बोध

नहीं हो, उसे सामाहय भूतकाल की किया कहते हैं । सामाहय भूतकाल
की किया से यह पता िलता है कक किया का व्यापार बोलने या ललखने

के पहले हुआ ।

जैसे-पानी चगरा । गाड़ी आयी। पत्र भेजा गया ।

(b) आसन्न भि
ू – किया के न्जस रूप से कायण-व्यापार की समान्प्त

तनकट भूतकाल में या तत्काल ही उसके होने का भाव सूचित होता है ,

उसे आसहन भूतकाल की किया कहते हैं ।

जैसे-मैंने पढ़ा है ।

उसने दवा खायी है ।

वह िला है ।

(c) पण
ू म भि
ू – पण
ू ण भत
ू काल से ज्ञात होता है कक किया के व्यापार को

पूणण हुए काफी समय बीत िुका है । इसमें किया की समान्प्त के समय
का स्पष्ट ज्ञान होता है ।

जैसे-नौकर पत्र लाया था ।

राम ने लड्िू खाया था ।

(d) अपण
ू म भि
ू – अपण
ू ण भत
ू काल से यह ज्ञात होता है कक किया भत
ू काल

में हो रही थी, उसका व्यापार पूरा नहीं हुआ था, लेककन जारी था ।

जैसे-नौकर जा रहा था ।

गािी आ रही थी ।

चिट्टी ललखी जाती थी ।

(e) संददग्ध भूि – संददग्ध भूतकाल में यह संदेह बना रहता है कक

भत
ू काल में किया समाप्त हुई या नहीं ।

जैसे-उसने खाया होगा ।


वह िला होगा ।

राम ने पढ़ा होगा ।

(f) हे िुहेिुमद् भूि – हे तुहेतुमद् भूत से यह ज्ञात होता है कक किया

भत
ू काल में होनेवाली थी, परहतु ककसी कारण से नहीं हो सकी ।

जैसे-मैं गाता ।

तू आता।

वह जाता ।

राम खाता ।

वह आता तो मैं जाता ।


(3) भववष्ट्यत्काल (Bhavishyat Kaal) – भप्रवष्य में होनेवाली किया को

भप्रवष्यत्काल की किया कहते हैं ।

जैसे-वह आज आयेगा । राम कल पढ़े गा ।

भप्रवष्यत्काल के भेद – भप्रवष्यत्काल के तीन भेद हैं-

(a) सामाहय भप्रवष्य,

(b) संभाव्य भप्रवष्य और

(c) हे तुहेतुमद्भप्रवष्य ।

(a) सामान्य भववष्ट्य – सामाहय भप्रवष्य से यह ज्ञात होता है कक किया

सामाहयत: भप्रवष्य में संपहन होगी ।

जैसे-मैं घर जाऊँगा ।

वह पढ़े गा ।
तू खायेगा।

राम आयेगा ।

(b) संभाव्य भववष्ट्य – इससे भप्रवष्य में होनेवाली ककसी किया की

संभावना का बोध तता है ।

जैसे-मैं सफल होऊँगा ।

शायद माँ कल लौट आये ।

वह प्रवजयी होगा ।

(c) हे िुहेिुमद्भववष्ट्य-इसमें भप्रवष्य में होनेवाली एक किया दस


ू री किया

के होने पर तनभणर रहती है ।

जैसे-वह गाये तो मैं भी गाऊँ ।


जो कमाये सो खाये ।

वह पढ़े तो सफल हो ।

समास
दो या दो से अचधक शब्दों का अपने प्रवभन्क्त-चिह्नों को छोड़कर आपस में

लमलना ‘समास’ (Samas) कहलाता है , अथवा, परस्पर सम्बंचधत शब्दों के

मेल की प्रकिया समास कहलाती है ।

अथवा,

दो या अचधक शब्दों का परस्पर सम्बहध बतानेवाले शब्दों अथवा प्रत्ययों का

लोप होने पर उन दो या अचधक शब्दों से जो एक स्वतंत्र शब्द बनता है , उस

शब्द को सामालसक शब्द कहते हैं और उन दो या अचधक शब्दों का जो संयोग

होता है , वह समास कहलाता है ।

जैसे-
हाथ के ललए कड़ी = हथकड़ी

गोशाला-गाय के ललए शाला

पत्र
ु शोक-पत्र
ु के ललए शोक

Samas ke Bhed:
1. Avyayi Samas (अव्ययी समास)

2. Tatpurush Samas (ित्परु


ु ष समास)

a. Karmdharay Samas (कममधािय ित्परु


ु ष समास)

b. Dvigu Samas (द्ववगु ित्परु


ु ष समास)

3. Bahuvrihi Samas (बहुव्रीदह समास)

4. Dvandav Samas (द्वन्द्व समास)


5. Nay Samas (नञ ्। समास)

(अव्ययी समास) (Avyayi Bhav Samas) – न्जस समास का

पहला पद अव्यय हो और न्जससे बना समस्त पद कियाप्रवशेषण की

तरह प्रयुक्त हो, उसे अव्ययीभाव समास कहते हैं। जैसे-

प्रतिददन,

यथाशन्क्त,

प्रतिमास,

आजहम, इत्यादद ।

इन सामालसक शब्दों का पहला पद िमश: प्रतत, यथा, प्रतत, आ अव्यय

हैं ।

अव्ययीभाव पद प्रवग्रह उदाहरण:


पद प्रवग्रह

कूल के अनस
ु ार
अनुकूल
(मन के मत
ु ाबबक)

अनुरूप रूप के समान

अभ्यागत अलभ आगत

आकंठ आ कंठ (कंठ तक)

आ जहम (जहम से
आजहम
लेकर)

आ जीवन (जीवन
आजीवन
भर)

आ मरण
आमरण
(मरणपयंत)

आ समुद्र (समुद्र
आसमद्र

तक)
पाद (पैर) से
आपादमस्तक
मस्तक तक

अकारण बबना कारण के

जो पूवण नहीं भूत


अभूतपूवण
(हुआ) है

अनजाने बबना जाने हुए

अनुगुण गुण के योग्य

आजानु घट
ु ना (जान)ु तक

एक खंि से दस
ू रा
खंि-खंि
खंि

कूल के समीप गह

उपकूल
के तनकट

उपगह
ृ एक-ब-एक
एकाएक घड़ी के बाद घड़ी

एक घर से दस
ू रा
घड़ी-घड़ी
घर

घर-घर ददन-प्रततददन

धीरे के बाद भी
ददनानदु दन
धीरे

धीरे -धीरे जल्दी से

धड़ाधड़ बबना प्रवकार के

तनप्रवणकार बबना प्रववाद के

तनप्रवणवाद बबना धिक के

तनधड़क बबना भय के

तनभणय अक्षक्ष (आँख) से परे


परोक्ष अक्षक्ष के आगे

प्रत्यक्ष हर मास

प्रततमास हर एक

प्रत्येक एक-एक

प्रत्यंग हर अंग

प्रत्युपकार उपकार के प्रतत

हर ददन या ददन-
प्रततददन
ददन

प्रततपल हर पल, पल-पल

प्रततबार हर बार
ित्परु
ु ष समास- (Tatpurush Samas) :

न्जस समास में अंततम पद की प्रधानता रहती है , उसे तत्पुरुष समास

कहते हैं । इस समास के पहिानने का तरीका यह है कक दोनों पदों के

बीि में कारक की प्रवभन्क्त लुप्त रहती है । जैसे-

राजपुत्र- राजा का पुत्र,

दानवीर- दान में वीर,

पथभ्रष्ट- पथ से भ्रष्ट, इत्यादद ।

तत्परु
ु ष समास में पहले पद की जो प्रवभन्क्त होती है , उसी प्रवभन्क्त के

नाम पर तत्पुरुष समास का नामकरण होता है । नामकरण के

तनम्नांककत प्रकार हैं-


(a) ‘कमण तत्परु
ु ष’ या ‘द्प्रवतीया तत्परु
ु ष’ – गह
ृ ागत-गह
ृ को आगत,

सुखप्राप्त-सुख को प्राप्त आदद।

(b) ‘करण तत्पुरुष’ या ‘तत


ृ ीया तत्पुरुष’ – अकालपीडड़त-अकाल से पीडड़त,

करुणापण
ू -ण करुणा से पण
ू ,ण कष्टसाध्य – कष्ट से साध्य इत्यादद

(c) ‘सम्प्रदान तत्पुरुष’ या ‘ितुथी तत्पुरुष’ – गोशाला-गाय के ललए शाला,

पुत्रशोक-पुत्र के ललए शोक आदद।

(d) ‘अपादान तत्पुरुष’ या ‘पंिमी तत्पुरुष’ – अहनहीन-अहन से हीन,

धनहीन-धन से हीन, दयाहीन-दया से हीन

(e)‘संबंध तत्परु
ु ष’ या ‘षष्ठी तत्परु
ु ष’ – मददरालय-मददरा का आलय,

राजपुत्र-राजा का पुत्र, प्रवद्याथी-प्रवद्या का अथी इत्यादद ।


(f) ‘अचधकरण तत्परु
ु ष’ या ‘सप्तमी तत्परु
ु ष’ – आनहदमग्न-आनहद में

मग्न, कुलश्रेष्ठ-कुल में श्रेष्ठ, प्रेममग्न-प्रेम में मग्न इत्यादद ।

(a) ‘कमम ित्पुरुष’ या ‘द्वविीया ित्पुरुष’ उदाहिण

अन्ग्न (को) भक्षण


अन्ग्नभक्षी
करनेवाला

कष्ट को सह
कष्टसदहष्णु
लेनेवाला

काठ (को)
कठफोड़वा
फोड़नेवाला

काठ (को)
कठखोदवा
खोदनेवाला

कंु भकार कंु भ (को) बनानेवाला

गगनिंब
ु ी गगन को िम
ू नेवाला
चगरहकट चगरह को काटनेवाला

चगरर को जो धारण
चगररधर
करता है

गह
ृ ागत गह
ृ को आगत

गठकटा गाँठ को काटनेवाला

चिडड़यों को
चिड़ीमार
मारनेवाला

जल को पीने की
जलप्रपपासु
इच्छा रखनेवाला

जल को धारण
जलधर
करनेवाला

ततलिट्टा ततल को िाटनेवाला

द:ु खापहनी द:ु ख को आपहन


द:ु खद दःु ख को दे नेवाला

पाककट को
पाककटमार
मारनेवाला

पत्तों को झाड़ता है ,
पतझड़
जो

माखन को
माखनिोर
िुरानेवाला

मुँहतोड़ मुँह को तोड़नेवाला

मनोहर मन को हरनेवाला

स्वगणप्राप्त स्वगण को प्राप्त

सुखप्राप्त सुख को प्राप्त

संकट को आपहन
संकटापहन
(प्राप्त)
स्थान को आपहन
स्थानापहन
(प्राप्त)

संगीत को
संगीतज्ञ
जाननेवाला

शत्रुघ्न शत्रु को मारनेवाला

सवण (सब) को भक्षण


सवणभक्षी
करनेवाला

यशोदा यश को दे नेवाली

(b) ‘किण ित्पुरुष’ या ‘िि


ृ ीया ित्पुरुष’ उदाहिण
अनल (आग) से
अनलदग्ध
दग्द

अकालपीडड़त अकाल से पीडड़त

अंधकारयक्
ु त अंधकार से यक्
ु त
आतप (धूप) से
आतपजीवी
जीनेवाला

आिार से पूत
आिारपत

(पप्रवत्र)

उत्कंठापूणण उत्कंठा से पूणण

करुणापूणण करुणा से पूणण

कामिोर काम से िोर

कलंकयुक्त कलंक से युक्त

कंटकों (काँटों) से
कंटकाकीणण
भरा

कष्ट से साध्य
कष्टसाध्य
(लसद्ध करने योग्य)

क्षुधा (भूख) से
क्षुधातुर
आतरु
कमणवीर कमण से वीर

कपड़छन कपड़ा से छना

गरु
ु दक्ष गरु
ु से दक्ष

गुणयुक्त गुण से युक्त

ज्ञानयुक्त ज्ञान से युक्त

जलावत
ृ जल से आवत

जललसक्त जल से लसक्त

जलालभषेक जल से अलभषेक

तुलसी द्वारा कृत


तुलसीकृत
(ककया गया)

तकणसंगत तकण से संगत

ततलपापड़ी ततल से बनी पापड़ी


दःु खसंतप्त दःु ख से संतप्त

दःु खातण दःु ख से आतण

दे शभन्क्त दे श से भन्क्त

दे हिोर दे ह से िोर

दे व द्वारा दत्त
दे वदत्त
(प्रदत्त)

धमाणध धमण से अंधा

तनयम से आबद्ध
तनयमाबद्ध
(बँधा हुआ)

पददललत पद से दललत

पणणकुटीर पणण से बनी कुटी

पाद्प (पैर) से
पादप
पीनेवाला
प्रेमलसक्त प्रेम से लसक्त

फलावेन्ष्टत फल से आवेन्ष्टत

मदमाता मद से माता

मनगढं त मन से गढं त

मुँहलगा मुँह से लगा

मेघाच्छहन मेघ से आच्छहन

मदांध ‘मद से अंध (अंधा)

मँह
ु िोर मँह
ु से िोर

मुँहजोर मुँह से जोर (दार)

मुँहमाँगा मुँह से माँगा

मन:पूत मन से पूत (पप्रवत्र)


मनिाहा मन से िाहा

मनमाना मन से माना

रक्त से आरक्त
रक्तारक्त
(लाल)

रक्तरं न्जत रक्त से रं न्जत

रे खांककत रे खा से अंककत

रसभरा रस से भरा

रोगग्रस्त रोग से ग्रस्त

रोगपीडित रोग से पीडित

रसभरी रस से भरी

वाग्दत्ता वाक् से दत्ता

शोकाकुल शोक से आकुल


शोकग्रस्त शोक से ग्रस्त

शोकातण शोक से आतण

शोकदग्ध शोक से दग्ध

जो लसर द्वारा
लशरोधायण धारण करने योग्य
हो

श्रमजीवी श्रम से जीनेवाला

द्ववगु समास- (Dvigu Samas) : संख्यावािक प्रवशेषण के साथ

ककसी शब्द का समास हो, तो उसे द्प्रवगु समास कहते हैं, अथाणत ्

न्जसका पहला पद संख्यावािक हो, वह द्प्रवगु समास होता है। जैसे-


पंिपात्र-पाँि पात्र,

बत्रभुवन-तीन भुवन,

ितव
ु ण
ण -ण िार वणण, इत्यादद ।

बहुव्रीदह समास- (Bahuvrihi Samas) – न्जस समास में कोई भी पद

प्रधान नहीं होता, अप्रपतु बाहर से ही आकर कोई शब्द प्रधान हो जाता

है , बहुव्रीदह समास कहलाता है । जैसे-

पंकज, लंबोदर, दशांनन, इत्यादद । इन सामालसक शब्दों के खंि करने

पर ककसी प्रवलशष्ट अथण का बोध होता है ।

बहुव्रीदह समास की तनम्नललणखत प्रवशेषताएँ हैं-

(क) यह समास दो या दो से अचधक पदों का होता है ।


(ख) इसके पदों के अथण से अलग अथण प्रधान होता है ।

(ग) इसका प्रवग्रह शब्दों या पदों में न होकर वाक्यों में होता है ।

(घ) इसका पहला पद प्रायें: कताणकारक होता है अथवा प्रवशेषेण

(ङ) इस समास से बने पद प्रवशेषण होते हैं । इसललए इनका ललंग

प्रवशेष्ये के अनरू
ु प होता है ।

Karmadharay Samas Definition & Example (कममधािय समास)

Karmadharay Samas (कमणधारय समास) – वह समास, न्जसमें प्रवशेषण

तथा प्रवशेष्य अथवा उपमान (न्जससे उपमा दी जाए)

तथा उपमेय का मेल हो और प्रवग्रह करने पर दोनों खण्िों में एक ही

कताणकारक की प्रथमा प्रवभन्क्त रहे , तो कमणधारय कहलाता है । जैसे-


शैलोहनत-शैल के समान उहनत,

आम्रवक्ष
ृ -आम्र है जो वक्ष
ृ ,

नवयुवक-नया है जो युवक,

महात्मा-महान ् है जो आत्मा।

द्वंद्व समास-(Dvandva Samas) –

न्जस समास में दोनों पद प्रधान हों, उसे द्वंद्व समास कहते हैं।

इस समास के प्रवग्रह में - और, तथा, एवं, या, अथवा इत्यादद संयोजक

शब्दों का प्रयोग होता है ।

जैसे-

गौरीशंकर-गौरी और शंकर,
मारपीट-मार या पीट,

अहनजल-अहन और जल, इत्यादद ।

Nay Samas Definition & Example (नञ ् समास)

नञ ् समास (Nay Samas) : इस समास का पहला पद ‘नञ ्’

(अथाणत ् नकारात्मक) होता है । अथाणत ् जो तनषेधाथण प्रकट करे , नञ समास

कहलाता है । जैसे-

अनंत-न अंत,

अभाव-न भाव,

अतनष्ट-न इष्ट, इत्यादद ।


Sandhi in Hindi Grammar (संगध)

Sandhi Definition in Hindi–


दो अक्षरों के आपस में लमलने से उनमें जो प्रवकार पैदा होता है , उसे संचध कहते

हैं ।

संचध और संयोग में बड़ा अंतर है । संयोग में अक्षर अपने मूल रूप में बने रहते

हैं ।

जैसे-क् + अ – म ् – अ + ल ् + अ । इन छह वणो के संयोग से ‘कमल’ शब्द

बना है और इस शब्द में सभी वणण अपने मल


ू रूप में ही हैं।

परं तु संचध में उच्िारण के तनयम के अनुसार दो वणो या अक्षरों के मेल से

उनके बदले कोई दस


ू रा अक्षर बन जाता है ।

जैसे – सत ् + आनंद = सदानंद । इस शब्द में ‘त ्’ और ‘आ’ के आपस में लमलने

से एक लभहन वणण ‘दा’ बन गया है ।


Sandhi ke Bhed (संगध के भेद)
1. स्वर संचध (Savar Sandhi)
i दीघण संचध

ii गुण संचध

iii वद्
ृ चध संचध

iv यण ् संचध

v अयादद संचध ।

2. व्यंजन संचध (Vyanjan Sandhi)


3. प्रवसगण संचध (Visarg Sandhi)
1. स्वि संगध (Savar Sandhi)–
दो स्वरों के आपस में लमलने से जो प्रवकार या पररवतणन होता है , उसे स्वर संचध

कहते हैं ।

जैसे-दे व + इंद्र = दे वेंद्र ।

इसमें दो स्वर ‘अ’ और ‘इ’ आस-पास हैं तथा इनके मेल से (अ + इ) ‘ए’ बन
जाता है ।

इस प्रकार दो स्वर-ध्वतनयों के मेल से एक अलग स्वर बन गया । इसी प्रवकार

को स्वर संचध कहते हैं ।

स्वि संगध के भेद-


i. दीर्म संगध- (Dirgh Sandhi) यदद दो सुजातीय स्वर आस-पास आवे, तो

दोनों के मेल से सजातीय दीघण स्वर हो जाता है , न्जसे स्वरों की दीघण संचध कहते

हैं

(a) अ और आ की संचध :

अ + अ = आ – कल्प + अंत = कल्पांत; परम + अथण = परमाथण

अ + आ = आ – परम + आत्मा = परमात्मा; कुश + आसन = कुशासन

आ + अ = आ – रे खा + अंश = रे खांश ; प्रवद्या + अभ्यास = प्रवद्याभ्यास

आ + आ = आ – वाताण + अलाप = वातललाप; महा + आशय = महाशय


(b) ‘इ’ और ‘ई’ की संचध :

इ + इ = ई – चगरर + इंद्र = चगरींद्र

इ + ई = ई – कप्रव + ईश्वर = कवीश्वर

ई + ई = ई – सती + ईशा = सतीश, जानकी – ईश = जानकीश

(c) ‘उ’ और ‘ऊ’ की संचध

उ + उ = ऊ – भानु + उदय = भानूदय, प्रवधु + उदय = प्रवधूदय

उ + ऊ =ऊ – लसंधु + ऊलमण = लसधूलमण, लघु + ऊलमण = लघूलमण

ऊ + ऊ = ऊ – भू + उन्जणत = भुन्जणत

ii गुण संगध (Gun Sandhi)- यदद ‘अ’ या ‘आ’ के बाद ‘इ’ या ‘ई’ रहे , तो दोनों

लमलकर ‘ए’, ‘उ’ या ‘ऊ’ रहे तो दोनों लमलकर ‘ओ’; और ‘ऋ’ रहे तो ‘अर’ हो

जाता है | इस प्रवकार को गुण संचध कहते हैं ।


अ + इ = ए – दे व + इंद्र = दे वेंद्र

अ + ई = ए – सुर + ईश = सुरेश

आ + ई = ए – रमा + ईश = रमेशा

आ + इ = ए – महा + इंद्र = महें द्र

अ + ऊ = ओ – समद्र
ु + ऊलमण = समद्र
ु ोलमण

आ + ऊ = ओ — महा + ऊरु = महोरू

अ + उ = ओ – िंद्र + उदय = िंद्रोदय

आ + उ = ओ – महा + उत्सव = महोत्सव

अ + ऋ = अर् – सप्त + ऋप्रष = सप्तप्रषण

आ + ऋ = अर् – महा + ऋप्रष = महप्रषण

iii वद्
ृ गध संगध (vridhhi sandhi)–‘अ’ या ‘आ’ के बाद यदद ‘ए’ या ‘ऐ’ हो, तो

दोनों लमलकर ‘ऐ’; और ‘औ’ या ‘औ’ रहे तो दोनों लमलकर ‘औ’ हो जाता है ।
स्वर वणण के इस प्रवकार को वद्
ृ चध संचध कहते हैं ।

अ + ए = ऐ — एक + एक = एकैक

अ + ऐ = ऐ – मत + ऐक्य = मतैक्य

आ + ए = ऐ – सदा + एव = सदै व

आ + ऐ = ऐ – महा + ऐश्वयण = महै श्वयं

अ + ओ = औ – जल + ओघ = जलौघ

आ + औ = औ – महा + औषध = महौषध

अ + औ = औ — परम + औषध = परमौषध

आ + ओ = औ – महा + ओजस्वी = महौजस्वी

iv यण संगध (Yan Sandhi)–’इ’, ‘ई’,’उ’, ‘ऊ’ या ‘ऋ’ के बाद यदद कोई

प्रवजातीय स्वर आये, तो ‘इ’-‘ई’ की जगह ‘य’, ‘उ’-‘ऊ’ की जगह ‘व ्’ तथा ‘ऋ’

की जगह ‘र’ होता है। स्वर वणण के इस प्रवकार को यण संचध कहते हैं ।
इ + अ = य – यदद + अप्रप = यद्यप्रप

इ + आ = या – इतत + आदद = इत्यादद

इ + उ = यु — प्रतत + उपकार = प्रत्यप


ु कार

इ + ऊ = यू – तन + ऊन = हयून

इ + ए = ये – प्रतत + एक = प्रत्येक

ई + अ = य – नदी + अपणण = नद्यापणण

ई + आ = या – दे वी + आगम = दे व्यागम

ई + उ = यु – सखी + उचित = सख्युचित

ई + ऊ = यू– नदी + ऊलमण = नद्युलमण

ई + ऐ = यै – दे वी + ऐश्वयण = दे व्यैश्वयण

उ + अ = व – मनु + अतर = महवतर

उ + अ = वा – सु + आगत = स्वागत
उ + इ = प्रव — अनु + इत = अन्हवत

उ + ए = वे — अनु + एषण = अहवेषण

ऋ + अ = र् – प्रपत ृ + अनम
ु तत = प्रपत्रनम
ु तत

ऋ + आ = रा – प्रपत ृ + आदे श = प्रपत्रादे श

v अयादद संगध- (Ayadi Sandhi)– यदद ‘ए’, ‘ऐ’, ‘ओ’ या ‘औ’ के बाद कोई

लभहन स्वर आता है , तो ‘ए’ का ‘अय’, ‘ऐ’ का ‘आय’, ‘ओ’ का ‘अव’ तथा ‘औ’

का ‘आव’ हो जाता है, स्वर वणण के इस प्रवकार को अयादद संचध कहते हैं ।

ने + अन = नयन (न ् + ए + अ + न = न ्। + अय ् + अन = नयन)

िे + अन = ियन, शे + अहन = प्शयन

गै + अन = गायन (ग ् + ऐ + अ + न = ग ् + आय ् + अ + न = गायन’)

नै + अक = नायक
गो + ईश = गवीश (ग्र + ओ + ईश = गवीश)

नौ + इक = नाप्रवक (न ् + औ + इ + क = नाप्रवक)

पो + अन = पवन

श्री + अन = श्रवण

पौ + अक = पावक

पौ + अन = पावन

Vyanjan Sandhi (व्यंजन संगध)

2. Vyanjan Sandhi (व्यंजन संचध)- न्जन दो वणों में संचध होती है , उनमें से

यदद पहला वणण व्यंजन हो और दस


ू रा वणण व्यंजन
या स्वर हो, तो इस प्रकार की संचध को व्यंजन संचध कहते हैं ।

(a) क् , ि ्, ट्, त ्, फ् के बाद ककसी वणं का तत


ृ ीय या ितुथण वणं आये अथवा य,

र, ल, व या कोई स्वर आये, तो क् , ि ्, ट्, त ्, प ् की जगह अपने ही वगण का

तीसरा वणण हो जाता है ।

ददक् + गज = ददग्गज

ददक् + भ्रम = ददग्भ्रम

वाक् + जाल = वाग्जाल

जगत ् + ईश = जगदीश

षट् + आनन = षिानन

जगत ् + आनंद = जगदानंद

अप ् + ज = अब्जं

तत ् + वत ् = तद्वतत
अि ् + अंत = अजंत

भगवत ् + भन्क्तः = भगवद्भन्क्त

(b) वगण के प्रथम वणण – क् , ि ्, टु, त ्, प ्, के बाद यदद अनन


ु ालसक वणण – म, न;

हो, तो यह प्रथम वणण अपने वगण के पंिमाक्षर में बदल जाता है ।

वाक् + मय = वाङमय

अप ् + मयः = अम्मय

उत ् + नतत = उहनतत

षट् + मास = षण्मास

जगत ् + नाथ = जगहनाथ

(3) त ् या द् के बाद यदद ि या छ हो, तो-

त ् या द् के बदले ि;

ज या झ हो तो ज ्
ट् या ठ हो तो ट्

ि या ढ हो तो ड्, और

ल हो तो ल ् हो जाता है ।

जैसे –उत ् + िारण = उच्िारण

शरत ् + िंद्र = शरच्च्तद्र

सत ् + जन = सज्जन

प्रवपद् + जाल = प्रवपज्जाल

उत ् + णझत = उन्ज्झत

तत ् + टीका = तट्टीका
उत ् + ियन = उड्ियन

उत ् + लास = उल्लास

(4) त ् या द् के बाद यदद ‘ह’ हो तो ‘त ्’ या ‘द्’ के स्थान पर ‘द्’ और ‘ह’ के स्थान

घर ‘ ध’ हो जाता है ।

जैसे -तत ् + दहत = तद्चधत

उत ् + हार् = उद्धार

(5) त ् या द् के बाद यदद ‘श’ हो तो ‘त’ या ‘द् के बदले ‘ि’ और ‘श’ के बदले ‘छ’

हो जाता है ।

जैसे – उत ् + लशष्ट = उन्च्छष्ट

उत ् + श्रंख
ृ ल = उच्छुखल
(6) त ् के बाद कोई स्वर या ग, घ, द, ध, ब, भ, य, र, व में से कोई आये तो ‘त ्’

के बदले “द्’ हो जाता है ।

जैसे – जगत ् + आनंद = जगदानंद

जगत ् + ईश = जगदीश

तत ् + रूप = तद्रप

सत ् + धमण = सद्धमं+

(7) स्वर के बाद यदद ‘छ’ आये, तो ‘छ’ के स्थान पर ‘च्छ” हो जाता है।

जैसे – स्व + छं द = स्वच्छद

प्रव + छे द = प्रवच्छे द

अनु + छे द = अनुच्छे द
(8) म ् के बाद यदद ‘क’ से ‘म’ तक का कोई एक व्यंजन आये, तो ‘म ्’ के बदले

अनुस्वार या उस वगण का पंिम वणण (ङ, ञ ्, ण ्, न ्, म ्) हो जाता है ।

जैसे- सम ् + कल्प = संकल्प

सम ् + िय = संिय

पम ् + डित = पंडित या पन्ण्ित

सम ्+ पूणण = संपूणण या सम्पूणण

सम ् + तप्त = संतप्त या सहतप्त

(9) ‘म’ के बाद यदद य, र, ल, व, श, ष, स, ह में से कोई एक व्यंजन हो, तो ‘म ्”

अनस्
ु वार में बदल जाता है ।
जैसे- सम ् + योग = संयोग

सम ् + हार = संहार

सम ् + वाद = संवाद

सम ् + सार = संसार

सम ् + शय = संशय

(10) ‘ऋ’, ‘रू’ या ‘थ्रू’ के बाद ‘न’ तथा इनके बीि में िाहे स्वर, कवगण, पवगण,

अनुस्वार, ‘य’, ‘व’, या ‘ह’ आये तो ‘न ्’ का ‘ण’ हो जाता है ।

जैसे – भर् + अन = भरण

भष
ू + अन = भष
ू ण

प्र + मान = प्रमण

राम + अयन = रामायण


तष
ृ ् + ना = तष्ृ णा

ऋ + न = ऋण

(11) यदद ककसी शब्द का पहला वणण ‘स’ हो तथा उसके पहले ‘अ’ या ‘आ’ के

अलावे कोई दस
ू रा स्वर आये, तो ‘स’ के स्थान पर ‘ष’ हो जाता है ।

जैसे – अलभ + सेक = अलभषेक

तन + लसद्ध = तनप्रषद्ध

प्रव + समयः = प्रवषम

सु + सुन्प्त = सुषुन्प्त

अपवाद- प्रव + स्मरण = प्रवस्मरण,

अनु + सरण = अनुसरण,

प्रव + सगण = प्रवसगण


(12) यौचगक शब्दों के अंत में यदद प्रथम शब्द का अंततम वणण ‘न ्’ हो, तो

उसका लोप हो जाता है ।

जैसे – राजन ् + आज्ञा = राजाज्ञा

हन्स्तन ् + दं त = हन्स्तदं त

प्राणणन ् + मात्र = प्राणणमात्र

धतनन ् + त्व = धतनत्व

(13) ‘ष ्’ के बाद ‘त’ या ‘थ’ रहे तो ‘त’ के बदले ‘ट’ और ‘थ’ के बदले ‘ठ’ हो

जाता है

जैसे — लशष ् + त = लशष्ट

पष
ृ ् + थ = पष्ृ ठ
Visarg Sandhi (ववसगम संगध):
(3) प्रवसगण संचध – प्रवसगण के बाद स्वर या व्यंजन वणण के आने पर प्रवसगण में जो

प्रवकार उत्पहन होता है , उसे प्रवसगण संचध कहते हैं।

जैसे-तप: + वन = तपोवन,

तन: + अंतर = तनरं तर ।

(i) यदद प्रवसगण के बाद ‘ि’ या ‘छ’ हो तो प्रवसगण ‘श’ हो जाता है ; ‘ट’ या ‘ठ’ हो तो

‘ष ्’ तथा ‘त ्’ या ‘ थ” हो तो ‘स ्’ हो जाता है ।

जैसे- तन: + िल = तनश्िल

तन: + छल = तनश्छल

धनुः + टकार = धनुष्टकार

तन: + टुर = तनष्टुर


तनः + तार् = तनस्तार्

द:ु + थल = दस्
ु थल

(ii) यदद प्रवसगण के बाद श, ष या स आये तो प्रवसगण अपने मूल रूप में बना रहता

है , या उसके स्थान पर बाद का वणण हो जाता है ।

जैसे- द:ु + शासन = द:ु शासन या दश्ु शासन

तन: + संदेह = तन:संदेह या तनस्संदेह

(iii) प्रवसगण के बाद ‘क’, ‘ख’ या ‘प’, ‘फ’ हों तो प्रवसगण में कोई प्रवकार नहीं होता।

जैसे – रजः + कण = रजःकण

पय: + पान = पय:पान

अपवाद – (क) यदद प्रवसगण के पहले ‘ई’ य ‘उ’ हो तो ‘क’, ‘ख’, ‘प’, और ‘फ’ के

पव
ू ण प्रवसगण ‘ष ्’ में बदल जाता है ।
जैसे – तन: + कपट = तनष्कपट

दःु + कमण = दष्ु कमण

तन: + फल = तनष्फल

तन: + पाप = तनष्पाप

अपवाद-(ख) कुछ शब्दों में प्रवसगण के बदले ‘स ्’ आता है ।

जैसे – नम: + कार = नमस्कार

परु ः + कार् = परु स्कार

भा: + कर = भास्कर

भा: + पतत = भास्पतत ।


(iv) यदद प्रवसगण के पहले ‘अ’ हो और बाद में घोष व्यंजन या ‘ह’ हो तो प्रवसगण

‘ओ’ में बदल जाता है ।

जैसे – अधः + गतत = अधोगतत

मन: + योग = मनोयोग

मनः + हर = मनोहर

मनः + भाव = मनोभाव

वयः + वद्
ृ ध = वयोवद्
ृ ध

यश: + दा = यशोदा

(v) यदद प्रवसगण के पहले ‘अ’ या ‘आ’ को छोड़कर कोई अहय स्वर हो तथा बाद

में कोई घोष वणण हो तो प्रवसगण के स्थान में ‘र’ हो जाता है ।

जैसे – तन: + आशा = तनराशा

दःु + उपयोग = दरु


ु पयोग
तनः + गण
ु = तनगणण

बदह: + मुख = बदहमख


ुण

(vi) यदद प्रवसगण के बाद ‘त’, ‘श’ या ‘स’ हो तो प्रवसगण के बदले ‘श’ या ‘स ्’ हो

जाता है ।

जैसे – नम: + ते = नमस्ते

तनः + तेज = तनस्तेज

तन: + संतान = तनस्संतान

द:ु + शासन = दश्ु शासन |

(vii) प्रवसगण के पूवण यदद ‘अ’ या ‘आ’ हो तथा उसके बाद कोई लभहन स्वर हो, तो

प्रवसगण का लोप हो जाता है तथा पास-पास आये हुए स्वरों की संचध नहीं होती ।

जैसे – अत: + एव = अतएव


(viii) अंत्य के बदले भी प्रवसगण होता है । यदद के आगे अघोष वणण आवे तो

प्रवसगण का कोई प्रवकार नहीं होता और यदद उनके आगे घोष वणण आवे तो र् ज्यों

का त्यों

रहता है ।

जैसे – प्रातर् + काल = प्रात:काल

अंतर् + करण = अंत:करण

अतर् + पुर = अत:पुर

पन
ु र् + उन्क्त = पन
ु रुन्क्त

पुनर् + जहम = पुनजणहम

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