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॥श्रीहर िः ॥
• अनुस्वा – ऐसा वणघ, ज स्व का अनुगमन क ता है अर्ाघ त् स्व के पश्चात् आता है औ जजसका उच्चा ण नाजसका
से जकया जाता है ।
• अनुनाजसक – ऐसा वणघ, जजसका उच्चा ण मुख औ नाजसका से जकया जाता है । यह पााँ च वगों का अन्तिम अर्ाघ त्
पााँ चवााँ वणघ ह ता है ।
• अनुस्वा का उच्चा ण अगले वणघ प जनभघ क ता है अर्ाघ त् वह अनुस्वा अगले वणघ के अनुसा पर वजतघत ह ता है ।
क वगग
• क्, ख्, ग्, र््, ङ् कण्ठ्य वणघ हैं , इनका उच्चा ण कण्ठ से ह ता है ।
• इस वगघ का अनुनाजसक 'ङ् ' है , अतिः इस वगघ के वणों से पहले आने वाले अनुस्वा का उच्चा ण 'ङ् ' क ें ।
जैसे - कोंकण (कङ्कण), पोंख (पङ् ख), गोंगा (गङ्गा), सोंर् (सङ्घ)
• ‘क्ष' सोंयुक्त वणघ है (क्+ष=क्ष), जजसमें 'क्' प्रर्म वणघ है , अत: 'क्ष' अक्ष से पहले आने वाले अनुस्वा का उच्चा ण
'ङ् ' ह गा। जैसे - सोंर्क्षप्त (सर्िप्त)
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च वगग
ट वगग
त वगग
• ‘त्र’ सोंयुक्त वणघ है (त्+र=त्र), जजसमें 'त्' प्रर्म वणघ है अत: 'त्' से पूवघ आने वाले अनुस्वा का उच्चा ण 'न्'
ह गा। जैसे - तोंत्र (तन्त्र)
प वगग
• प्, फ्, ब्, भ्, म् ओष्ठ्य वणघ हैं , इनका उच्चा ण ओष्ठ से ह ता है ।
• इस वगघ का अनुनाजसक 'म्' है , अतिः इस वगघ के वणों से पहले आने वाले अनुस्वा का उच्चा ण 'म्' क ें ।
जैसे - चोंपा (चम्पा), इों फाि (इम्फाि), सोंबि (सम्बि), दों भ (दम्भ)
र्वर्शष्ट वगग
'क' से 'प' वगघ तक के व्योंजन ों से पहले आने वाले अनुस्वा का उच्चा कैसे क ें यह हमने दे खा। अब 'य' से 'ह' तक
प्रत्येक वणघ के पश्चात् आने वाले अनुस्वा ों का कैसे उच्चा ण क ें यह दे खते हैं । उच्चा ण स्पष्टता से समझ में आये, इस
हे तु क ष्ठक में वह अक्ष जलखे हैं । ध्यान हे , वास्तव में ये वणघ वहााँ नहीों हैं , केवल अनुस्वा के उच्चा ण की स्पष्टता
औ प्रार्जमक स्त के छात् ों के सुलभता हे तु उन्हें यहााँ जनजदघ ष्ट जकया गया है ।
पद के बीच में अनुस्वारयुक्त वणग के बाद आने वािे 'य' से 'ह' तक के उदाहरण
पद के बीच में आने वाले 'य' से 'ह' तक के अक्ष ों से पहले अनुस्वा युक्त अक्ष आने प , अनुस्वा का उच्चा ण
सानुनाजसक 'य्', 'ि्' अर्वा 'व्' ह ता है ।
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• य- सोंयम [सों(य्)यम], सोंय जगता [सों(य्)य जगता], सोंयुक्त [सों(य्)युक्त]
• ि- सोंलग्न [सों(ल्)लग्न], सोंलाप [सों(ल्)लाप]
• व- सोंवाद [सों(व्)वाद], सोंवर्घन [सों(व्)वर्घन], सोंवेदना [सों(व्)वेदना]
• र- सों चना [सों(व्) चना], सों क्षण [सों(व्) क्षण], सों े खण [सों(व्) े खण]
• श/ष - सोंशय [सों(व्)शय], वोंश [वों(व्)श] , दों श [दों (व्)श], दों ष्टरा [दों (व्)ष्टरा], सोंश्रय [सों(व्)श्रय]
• स- कोंस [कों(व्)स], सोंसा [सों(व्)सा ], सोंसगघ [सों(व्)सगघ]
पद के अन्त में अनुस्वारयुक्त वणग के बाद आने वािे 'य' से 'ह' तक के उदाहरण
पद के अि में आने वाले अनुस्वा युक्त वणघ के बाद ‘य से ह’ वणघ आने प अनुस्वा का उच्चा ण 'म्' ह ता है ।
जवसगघ भी जनत्य स्व के पश्चात् ही आता है। भगवद्गीता में पोंन्तक्त के अि में आने वाले जवसगों का उच्चा ण
कुछ 'ह्' जैसे जकया जाता है , स्व ों के अनुसा यह ह, हु, हे , र्ह आजद में पर वजतघत ह जाता है। उदाह ण -
• यजद 'आ' है त जवसगघ का उच्चा ण 'हा' जैसे ह गा। उदा. - रता: - रताहा
• यजद 'इ', 'ई', 'ऐ' हैं त जवसगघ का उच्चा ण 'र्ह' जैसे ह गा। उदा. - मर्त: - मर्तर्ह, धममैः - धममर्ह
• यजद 'उ', ’ऊ’, ‘औ’ हैं त जवसगघ का उच्चा ण 'हु' जैसे ह गा। उदा. - कुरु: - कुरुहु, गौ: - गौहु
• यजद 'ए' है त जवसगघ का उच्चा ण 'हे ' जैसे ह गा। उदा. - भूमे: - भूमेहे
• यजद 'ओ' है त जवसगघ का उच्चा ण 'ह ' जैसे ह गा। उदा. - मानापमानय : - मानापमानय ह
द पद ों के बीच में आने वाले जवसगघ का उच्चा ण उसके आगे वाले वणघ के अनुसा ह ता है -
• यजद जवसगघ के पश्चात् 'क्' अर्वा 'ख्' यह वणघ आते हैं , त उस जवसगघ का उच्चा ण कुछ 'ख्' की त ह
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• यजद जवसगघ के पश्चात् 'प्' अर्वा 'फ्' यह वणघ आते हैं , त उस जवसगघ का उच्चा ण कुछ 'फ्' की त ह
• जवसगघ के पश्चात् यजद 'स्', 'श्' अर्वा 'ष्' ये वणघ आते हैं , त उस जवसगघ का उच्चा ण क्रमशिः 'स्', 'श्'
औ 'ष्' की त ह ह ता है । उदाह ण - य मद्भक्तैः स मे र्प्रयैः = य मद्भक्तस्स मे र्प्रयैः
र्वशेष र्नयम : यजद जवसगघ के पश्चात् 'क्ष' वणघ आता है , त उस जवसगघ का उच्चा ण जनयम 1 की भााँजत ह,
र्ह, हु, हे हेगा। उदाह ण - तेजैः क्षमा = तेजह क्षमा
सन्ति क ते समय भगवद्गीता में कई स्र्ान ों प जवसगघ का पर वतघन र् , स्, श्, ष् आजद में ह ता दीखता है
यह पर वतघन जवसगघ सन्ति के जनयम के का ण ह ते हैं , वह बहुत जवस्तृत हैं इसजलये उनक आगे के स्त ों
प समझाया जायेगा, अभी आप पीडीऍफ़ में जहााँ जैसा पर वतघन जदया है , उसका वैसा अभ्यास क ें ।
यहाों अवधेय है र्क र्वसगग के पश्चात् उपर क्त वणों के अर्तररक्त र्कसी भी वणग के आने पर र्वसगग
का उच्चारण र्नयम -1 की भाोंर्त ह, हु, हे, र्ह आर्द ह गा |
अवग्रह(ऽ) - अवग्रह (ऽ) एक जचह्न ज सों जर् के का ण हुए 'अका (अ)' के लॉप क दशाघ ता है । वस्तु त:
इसका क ई जवशे ष उच्चा ण नहीों ह ता। केवल जवग्रह के समय अर्घभेद न ह इसजलए इसका प्रय ग
जकया जाता है । जैसे - प्रयाणकाले+अजप - प्रयाणकालेऽजप
चाजहये वहााँ सोंकेत हे तु प्रत्येक श्ल क में वणों के ऊप '||' जचह्न जदया गया है ।
जैसे - क्ष(क्+ष), त्र(त्+र), ज्ञ(ज्+ञ), त्य(त्+य ), व्य(व् +य) आजद सोंयुक्त वणघ हैं ।
नहीों ह गा। उदाह ण - 'ऋ' एक स्व है अतिः 'र्वसृजाम्यहम्' में 'सृ'='स्+ऋ' में 'सृ' से पूवघ 'र्व' प
आर्ात नहीों ह गा। सोंयुक्त वणघ से पूवघ स्व प ही आर्ात जदया जाता है जकसी व्योंजन, अनुस्वा या
जवसगघ प नहीों। उदाह ण - 'वासुदेवों(म्) व्रजर्प्रयम्' में 'व्र' सोंयुक्त ह ने प भी पूवघ में अनुस्वा ह ने से
आर्ात नहीों आयेगा।
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संस्कृत भाषा में वर्णों के उच्चारों के लिये मुख के लवलभन्न स्थानों का प्रयोग होता है। इस लचत्र में
वर्णों के उच्चारर्ण स्थानों को दर्ााया जा रहा है। लनयत स्थान का प्रयोग करके हम हमारे उच्चारों
को अलिक से अलिक र्ुद्ध बना सकते हैं। संस्कृत भाषा लकतनी वैज्ञालनक और समद्ध
ृ है इसको
लनम्न लचत्र से जाना जा सकता है।
||इजत ||