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भाषा एवं भारतीय भाषा वैज्ञानिक निन्ति

जजस तरह यह जिशाल दजु नया, ब्रह्माण्ड हमारी जजज्ञासा का कारण रहा है, ईसी प्रकार मानि भी जजज्ञासा
का कारण रहा है । जजतना िह बाहरी दजु नया को देखना-समझना चाहता है ईतना ही भीतरी पररदृश्य को भी ।
अजदकाल की जथथजतयों का यजद हम ऄनमु ान करें तो ज्ञात होता है जक जब मनष्ु य के पास भाषा नहीं थी तब भी
िह ऄपने कायय-कलाप करता होगा । जकन्तु ईस समय जकसी कायय-कलाप में कोइ तारतम्यता न रही होगी । ईसका
जीिन, भोजन और जीिन-यापन की समथयाओ ं तक ही ईलझा होगा । धीरे -धीरे सिं दे नाओ ं की तीव्रता और
भािाजतरे क के कारण जकन्हीं जिशेष प्रकार की ध्िजनयों का ईच्चारण जकया होगा और प्रकृ जत के श्रोतों से भी ईसने
जिजभन्न प्रकार की ध्िजनयों को सनु ा होगा, जजससे जिजभन्न प्रकार के शब्द संकेतों का जनमायण एिं मौजखक भाषा
का जिकास हुअ होगा । कुछ समय पश्चात जिचारों के संयोजन की अिश्यकता होने पर भाषा का जलजखत रुप
ऄजथतत्ि में अया होगा । आसी क्रम में ध्िजनयों का जनमायण एिं ईनका क्रमानसु ार संयोजन जकया गया होगा ।
जिकास के आस थिरुप को हम हमारे जीिन से जोङकर समझ सकते हैं । जैसे एक बालक भाषा ग्रहण करता है । यह
प्रजक्रया बहुत कुछ िैसी ही प्रतीत होती है ।
‚भाषा ईच्चारण ऄियिों से ईच्चररत मल ू तः प्रायः यादृजच्छक (Arbitrary) ध्िजन-प्रतीकों की िह
व्यिथथा है, जजसके द्रारा जकसी भाषा-समाज के लोग अपस में जिचारों का अदान-प्रदान करते हैं‛1 भाषा
सामाजजक सम्पजि हेने के कारण यादृजच्छक होती है । यही कारण है जक यह सामाज के सभी लोगों को जिजभन्न
समहू ों में जोड़ कर रखती है । दजु नया भर में जजतनी भाषाएँ हैं ईतने ही भाषा समहू भी हैं । यह समहू बनते और
बदलते रहते हैं, जजसके कारण भाषा भी नया रूप धारण करती रहती है । भाषा के िल भािप्रेषण का माध्यम न
होकर ऄनभु जू त और संिदे ना भी होती है, यह ऄनभु जू त और संिदे ना जिशेष थथान पर रहने, तद्नरू ु प जीिन-यापन
करने से बहुत हद तक जनयजं ित होती है । आसजलए भाषा को सप्रं ेषण िैजिध्य की संज्ञा न देकर ऄनभु जू त िैजिध्य
कहना ऄजधक श्रेयथकर होगा । यह ऄनुभजू त जिजभन्न थथानों पर रहने िाले लोगों की जिजभन्न भाषाओ ं के रूप में
पररणजत है । भाषा जजतना ऄजधक बताती है ईससे ऄजधक छुपाती है । जकन्तु मनष्ु यों द्रारा जिकजसत यह ईिम
व्यिथथा है । यजद हम ऄपना आजतहास देखें तो जानेंगे जक जकस प्रकार भाषा समय के साथ ऄपना रूप बदलती है ।
और यह बदलाि बहुत धीरे -धीरे होता है, कइ बार यह सहज रूप में होता है तो कइ बार आसके प्रिाह को रोकने
और मोड़ने का प्रयास भी जकया जाता है । शैशिकाल में मनष्ु य लगभग 3-4 िषय की ऄिथथा तक भाषा का ज्ञान
प्राप्त कर लेता है । और आसी भाषा ज्ञान के द्रारा िह जीिन-पययन्त जिजभन्न प्रकार की जजज्ञासाओ ं का समाधान
करता है ।
भारतीय िाङमय में सभी जिद्याओ ं पर जचन्तन-मनन प्राचीन काल से ही होता अया है । यहाँ ज्ञान की
दीघय परम्परा जिद्यमान है । भाषा जिज्ञान के क्षेि में भी कइ महत्िपणू य अचायय हुए जजनकी थथापनाएँ, जसध्दांत भाषा
जिज्ञान के क्षेि में ‘मील का पत्थर’ माने जाते हैं । सबसे परु ाना भाषा िैज्ञाजनक जचन्तन सथं कृ त साजहत्य से जमलता
है, आनमें सबसे पहले भाजषक जचन्तन िेदों से जमलता है । िेदों में भाषा पर जचन्तन हुअ है । िेदों को समझने के
जलए िेदांगों का ऄध्ययन अिश्यक है, जजनकी संख्या छः है । यह छः िेदांग हैं- जशक्षा, कल्प, व्याकरण, जनरुक्त,
छन्द और ज्योजतष । आसमें जशक्षा, व्याकरण, जनरूक्त और छन्द तो मख्ु यतः भाषा पर ही के जन्ित हैं । जशक्षा से
तात्पयय ध्िजन के जनदोष ईच्चारण से है । जब िेदांगों की रचना हुइ तब ध्िजन के थथान पर ‘जशक्षा’ शब्द का ही
प्रयोग होता था । जनरुक्त से तात्पयय शब्दों की ईत्पजि से है एिं छन्द तो काव्यात्मक सौष्ठि के जलए प्रयक्तु होता है,
जकन्तु यहाँ यह िैजदक मन्िों के यथोजचत पाठ से सम्बजन्धत है ।
1
. भोलानाथ जतिारी- भाषा जिज्ञान 1969, पृष्ठ संख्या- 04
पाजणनी पिू य भाजषक जचन्तन, िेदांगों में जशक्षा प्राजतशाख्य, जनरुक्त एिं व्याकरण नामक जभन्न खण्डों के
जििेचन से जमलता है । भोलानाथ जतिारी ने क्रमशः ब्राह्मण एिं अरण्यक ग्रन्थ, पदपाठ, प्राजतशाख्य, जशक्षा तथा
जनघण्टु को याथक पिू य जचन्तन माना है । आसके पश्चात याथक ने आन सभी को ऄपने ऄध्ययन का अधार बनाकर
व्याकरण का जििेचन जकया । आनमें जशक्षा को अधजु नक ध्िजन जिज्ञान का पयायय समझा जा सकता है । आसमें
पाठक के गणु -दोषों पर जिचार जकया गया है । आसी के साथ-साथ ध्िजन दोष के कारणों पर भी जििेचन जमलता है ।
पाठक के दोषों में- जल्दी बोलना, ठीक तरह से न सनु ना, ईच्चारण ठीक तरह से न करना अजद । आन िजु टयों के
ईन्मलू न से िह आस जक्रया को जनदोष बना सकता है । प्राजतशाख्य के जिषय में भोलानाथ जतिारी जलखते हैं-
‚प्रमखु प्राजतशाख्य ऋक्प्प्राजतशाख्य, ऄथियप्राजतशाख्य, िाजसनेयी प्राजतशाख्य तथा ऋितन्ि व्याकरण अजद हैं ।
ईस प्राचीन परम्परा को ऄक्षण्ु ण रखने के प्रयास में िेद की प्रजतशाखा का ऄध्ययन ईच्चारण-सम्बन्धी जिजशष्ट
पक्षों की दृजष्ट से जकया गया । प्रजतशाखा के कारण ही आन पजु थतकाओ ं का नाम प्राजतशाख्य पड़ा‛2 प्राजतशाख्य
ऄथिा पदपाठ के ऄन्तगयत ध्िजन सम्बन्धी ऄशजु ध्दयों को दरू करते हुए पाठक को ईजचत पदपाठ सहायता प्रदान
करना एिं एक शाखा से दसू री शाखा के सम्बन्ध को व्याख्याजयत करना । आसी कारणिश आसे प्राजतशाख्य की संज्ञा
दी गइ है । जनरुक्त से ऄजभप्राय शब्दों की ईत्पजि एिं ईनकी मल ू धातु से है । जनरुक्त की पररभाषा आस प्रकार दी गइ
है-
‚िणायगमों िणयजिपययश्च द्रौचापरौ िणयजिकारनाशौ ।
धातोथतदयायजतशयेन योगथतदच्ु यते पंचजिधं जनरुक्तम् ।।
ऄथायत िणायगम, िणयजिपययय, िणयजिकार, िणयनाश (िणयलोप) और धातु का ऄथय-जिथतार, जनरुक्त के ये पाँच भेद
हैं‛3 आस प्रकार जनरुक्त शब्दों की ईत्पजि के साथ-साथ ईनकी िैज्ञाजनकता एिं ईनके मल ू ईद्गम पर भी जिचार करता
है । ऐसा माना जाता है जक कइ जनरुक्तकार हुए हैं, जकन्तु ईपलब्ध जनरुक्त याथक द्रारा जलजखत है । आनके पिू य के
जनरुक्तों का कोइ पता नहीं चल सका है । पाजणनी के पहले, भाषा िैज्ञाजनक के रूप में याथक हमारे सामने अते हैं ।
याथक का समय जनजत्श्चत नहीं है, जकन्तु 500 इ. पिू य से 800 इ. पिू य आनका समय माना जा सकता है । जनरुक्त के
पहले जनघण्टु जलखा जा चक ु ा था । जनघण्टु का ऄथय कोश माना जाता है, आसमें िैजदक शब्दों के जिश्लेषण हैं । िेदों
के ऄध्ययन के जलए जनरुक्त का ऄध्ययन अिश्यक माना गया है । जनरुक्त की प्रमख ु जिशेषताओ ं का ईल्लेख
जनम्नजलजखत रुप से जकया गया है-
‚याथक का जनरुक्त जनघण्टु की व्याख्या है । ऄथय-जिचार का यह जिश्व में प्राचीनतम जििेचन है । आसमें
जनघण्टु के प्रत्येक शब्द को ऄलग-ऄलग लेकर ईसकी व्यत्ु पजि तथा ऄथय पर जिचार जकया गया है । जनरुक्त के
लेखक के व्यजक्तत्ि की सबसे बड़ी महानता आस बात में है जक ऄथपष्ट शब्दों के साथ दरु ाग्रह न करके ईसने थपष्टतः
यह थिीकार कर जलया है जक ये शब्द ईसके जलए ऄथपष्ट हैं‛4 जनरुक्त मख्ु य रुप से शब्दों पर जिचार करता है । आसमें
शब्दों की ईत्पजि पर जिचार जकया गया है । शब्दों के ऄथय को जनरुक्तकार ने जथथर माना है, जजससे जक बोलने
िाला सनु ने िाले पर िही ऄथय ईत्पन्न करता है । जनरुक्त में सभी शब्दों की ईत्पजि धातुओ ं से ही मानी गयी है ।
जैसे नीजत से नैजतक शब्द बना है, आसकी मल ू धातु नीजत है । जनरुक्त में पदों का जिभाग जकया गया है जजनकी संख्या
चार है- नाम, अख्यात, ईपसगय, जनपात । यह पद जिभाजन सबसे प्राचीन है । याथक ने शब्दों की ईत्पजि धातुमल ू
शब्दों से ही माना । कुछ जिद्रानों ने आस पर अपजि जताते हुए शब्दों के दो ईद्गम् श्रोत बताये हैं- जजनमें पहला
सत्ििाचक है तथा दसू रा िव्यिाचक । ईनका मानना है जक सत्ििाचक ऄथिा िव्यिाचक शब्द धातु से ही बने

2
. भोलानाथ जतिारी- भाषा जिज्ञान 1969, पृष्ठ संख्या-512
3
. अचायय देिेन्िनाथ शमाय- भाषा जिज्ञान की भजू मका 2008, पृष्ठ संख्या- 294
4
. भोलानाथ जतिारी- भाषा जिज्ञान 1969, पृष्ठ संख्या-513
हैं, ऐसा मानना न्याय संगत नहीं है, ईनका ईद्गम ऄन्य शब्दों के रूप में भी हो सकता है । भािना से प्रेररत होकर
कुछ िव्यों के नाम धातओ ु ं से जभन्न हो सकते हैं । जकन्तु याथक ने आन्हें जकसी कायय के प्रेरक के रूप में ही ग्रहण
करते हुए धातु से ही ईत्पन्न माना है । याथक के पश्चात भाषा जिज्ञान के क्षेि में अजपशजल तथा काशकृ त्थन नामक
िैयाकरणों का ईद्भि होता है । आन िैयाकरणों का ईल्लेख पाजणनी ने ऄपने ग्रन्थ ऄष्टाध्यायी में जकया है । के य्यट,
जयाजदत्य तथा िामन ने भी आनके नामों का ईल्लेख जकया है, जकन्तु आनके ग्रन्थ अज ऄनुपलब्ध हैं । आसके पश्चात
भाषािैज्ञाजनक एिं िैयाकरण पाजणनी का ईद्भि होता है । आनके काल के जिषय में जिद्रानों में मतभेद है जकन्तु
ऄनमु ानतः आनका समय 800 इ. पिू य से 450 इ. पिू य के बीच माना जाता है । भाषाजिज्ञान के जचन्तन के क्षेि में
पाजणनी का थथान सिोपरर है । न के िल भारतीय ऄजपतु िैजश्वक थतर पर ईनकी देन ऄभतू पिू य है । पाजणनी द्रारा
रजचत ग्रन्थ ‘ऄष्टाध्यायी’ है । आसके ऄजतररक्त आन्होंने कइ ऄन्य ग्रन्थों का प्रणयन भी जकया है- जाम्बिती जिजय,
पाताल जिजय, धातपु ाठ, गणपाठ, ईणाजदसिू , जलगं ानश ु ासन, पाजणनीय जशक्षा अजद । धातपु ाठ में सथं कृ त शब्दों
की धातओ ु ं की सचू ी दी गयी है । आन्हीं के अधार पर शब्दों का जनमायण हुअ । गणपाठ में एक गण की धातु का
रूप एक ही प्रकार का रहा है । आनमें पररितयन बहुत कम हुए हैं । आनमें अजखरी तीन रचनाओ ं के जिषय में सन्देह
प्रकट जकया जाता रहा है । ऄष्टाध्यायी में अठ ऄध्याय हैं । प्रत्येक ऄध्याय में चार-चार पाद हैं । यह ग्रन्थ सिू रूप
में रचा गया है । आन सिू ों की संख्या लगभग चार हजार है । ऄष्टाध्यायी की महिा आसजलए और ऄजधक बढ़ जाती
है जक आसमें माहेश्वर सिू ों का िणयन जकया गया है, जजसमें 14 सिू हैं- ऄआईण,् ऋलक ं ् , एओङ्, एओच,् हयिरट्,
लण,् लमङणनम,् ऄमल,् घढघष,् जबगडदश,् खफछञथचटति,् कपय,् शषसर,् हल् । ‚संक्षेप में कहने के जलए
प्रत्याहार, गण अजद का सहारा जलया गया है‛5 पाजणनी ने शब्दों की ईत्पजि धातुओ ं से मानी है । यह धातएु ँ जक्रया
का ऄथय जलए हुए हैं, जजसमें ईपसगय एिं प्रत्यय के प्रयोग से नये शब्दों का जनमायण जकया जाता है । ध्िजनयों का
िगीकरण थथान एिं प्रयत्न के ऄनसु ार है, जो ध्िजनजिज्ञान का अरम्भ कहा जा सकता है । ऄष्टाध्यायी में संज्ञा
(सबु न्त, आसमें ऄव्यय भी सजम्मजलत हैं), जक्रया (जतड़न्त), सामान्य कारक, सजन्ध, कृ त और तजध्दत प्रत्यय, थिर-
ध्िजन जिकार और पदों का ईल्लेख जकया गया है । ऄष्टाध्यायी की मल ू जिशेषता है िाक्प्य को भाषा की मल ू आकाइ
मानना । ध्िजन ईत्पादन प्रजक्रया का जिथतृत जििेचन एिं ध्िजनयों का िगीकरण करना । पाजणनी ने याथक द्रारा
शब्दों के चार प्रकार के जिभाजन को घटाकर दो कर जदया । याथक द्रारा शब्दों का जिभाजन आस प्रकार है - नाम,
अख्यात, ईपसगय तथा जनपात । पाजणनी ने आसे घटाकर संज्ञा (सबु न्त) तथा जक्रया (जतड़न्त) कर जदया । पाजणनी ने
ध्िजन का जिभाजन हल एिं ऄच् के रूप में जकया । प्रत्यय एिं प्रकृ जत के अधार पर शब्दों का जिश्ले षण जकया ।
पाजणनीय ऄष्टाध्यायी के सम्बन्ध में डॉ. बसन्त भट्ट कहते हैं- ‚महजषय पाजणनी ने ऄपनी ऄष्टाध्यायी में लौजकक एिं
िैजदक संथकृ त भाषा का व्याकरण एक साथ में प्रथततु जकया है । यह ईनकी ऄपिू य एिं ऄजद्रतीय जसजध्द है ईसमें भी
कोइ जििाद नहीं है । परन्तु यह प्रश्न जिचारणीय है जक पाजणनी ने दो तरह की सथं कृ त भाषा का व्याकरण एक साथ
में कै से (जकस ढंग से) प्रथततु जकया है । एक तो शरू ु में जैसे कहा है पाजणनीय व्याकरण पृथक्प्करणात्मक नहीं है,
परन्तु प्रकृ जत प्रत्यय का संयोजन प्रथततु करके िाक्प्य का जनष्पादन करने िाला व्याकरण है । तथा ईसमें भी पाजणनी
ने ऄपने समकाल में जो लौजकक संथकृ त बोली जाती थी, ईस भाषा का िणयन प्रथततु करने का अशय रखा है‛6
जजस प्रश्न को भट्ट जी यहाँ ईठाते हैं ईसका ईिर भी सम्भितः ऄष्टाध्यायी में ही जमल सकता है । आस प्रकार पाजणनी
भाषा का सक्ष्ू माजतसक्ष्ू म जििेचन प्रथततु करते हैं । ऄष्टाध्यायी के जिषय में भोलानाथ जतिारी जलखते हैं- ‚आन
चौदह सिू ों के अधार पर संथकृ त भाषा जैसी जजटल और जिथतृत भाषा को थोड़े से पृष्ठों में आस खबू ी से पाजणनी ने

5
. भोलानाथ जतिारी- भाषा जिज्ञान 1969, पृष्ठ संख्या-517
6
. ड़ॉ. िसन्त भट्ट- संथकृ त साजहत्य निीन ऄथय एिं समीक्षा vasantbhatt.blogspot.in
बाँधा है जक अज तक लगभग ढाइ हजार िषय बाद भी िह टस से मस न हो सकी‛7 पाजणनी ने िैजदक संथकृ त तथा
लौजकक सथं कृ त का तल ु नात्मक ऄध्ययन भी प्रथततु जकया । पाजणनी ने ऄजिथमरणीय कायय जकया, जजसे अधजु नक
भाषािैज्ञाजनक भी थिीकार करते हैं । पाजणनी के पश्चात कात्यायन नामक भाषािैज्ञाजनक का ईद्भि हुअ । आनका
समय काल पाजणनी के अस-पास का ही थिीकार जकया जाता है । अचायय देिन्े ि नाथ शमाय आस सम्बन्ध में
जलखते हैं- ‚कहा जाता है जक पाजणनी ने ऄष्टाध्यायी की रचना करने के बाद ईसे कात्यायन के पास ऄिलोकनाथय
भेजा, जजसमें 15000 थथानों पर कात्यायन ने संशोधन कर जदया । कात्यायन के संशोधन को िाजतयक कहा जाता है

ईक्तानक्तु दरुु क्तानां जचन्तायि प्रितयते ।
तं ग्रन्थ िाजतयकं प्राहुिायजतकज्ञाः मनीजषणः ।।
जजसमें कहे हुए, नहीं कहे हुए या गलत कहे हुए पर जिचार जकया जाये ईसे िाजतयक कहते हैं‛8 कात्यायन ने मल ू तः
पाजणनी द्रारा रजचत ग्रन्थ ऄष्टाध्यायी में ही संशोधन ि पररिध्दयन जकया । आनके ग्रन्थ का नाम िाजतयक है । जजसमें
ईन्होंने ऄष्टाध्यायी के 1500 सिू ों को लेकर, ईनमें दोष जदखलाते हुए पररितयन जकया है । आनके ग्रन्थ में िाजतयकों
की संख्या चार हजार है । ईन्होंने पाजणनी द्रारा व्यिरृत ध्िजन जिभाग ऄच् के थथान पर थिर एिं हल के थथान पर
व्यंजन जैसे नये शब्दों का प्रयोग जकया । कात्यायन का महत्त्ि आस परम्परा में पररिध्दयन करने के जलए
ऄजिथमरणीय है । कात्यायन के समय (500 इ. पिू य से 300 इ. पिू )य के अस-पास ही तजमल भाषा के िैयाकरण
एिं महत्त्िपूणय ग्रन्थ तोल्काजपपयम के रचनाकार तोल्काजपपयर का भी ईद्भि हुअ । आन्हें ऋजष ऄगथत्य का जशष्य
भी कहा जाता है । आस सम्बन्ध में भोलानाथ जतिारी जलखते हैं-‚एन्ि सम्प्रदाय का प्रभाि और प्रचार दजक्षण में
ऄजधक था । डॉ. िनेल के ऄनसु ार दजक्षण के प्राचीनतम व्याकरणों में से एक ‘तोल्कजपपयम’ पणू तय ः आसी अधार
पर बना है । सामग्री के ऄभाि के कारण आस सम्प्रदाय के पाजणनी के पिू य के जीिन पर ऄभी तक ऄजधक प्रकाश
नहीं पड़ सका है‛9 िे यहाँ ऐन्ि सम्प्रदाय के जिषय में बात करते हुए बताते हैं जक यह सम्प्रदाय पाजणनी से पिू य
प्रचलन में था । जजसके ईद्भािक आन्ि ऋजष को माना जाता है । आन्हीं को प्रथम िैयाकरण के रूप में भी थिीकर
जकया जाता है । आस सम्प्रदाय में कोइ प्रमख ु िैयाकरण न होने के कारण यह आतना प्रचजलत नहीं हुअ ।
तोल्काजपपयम ग्रन्थ तजमल भाषा का सबसे परु ाना ईपलब्ध व्याकरण ग्रन्थ है । तोल्काजपपयम दो शब्दों से जमलकर
बना है- तोन्मइ एिं काजपपयम जजसमें तोन्मइ का ऄथय है प्राचीन ऄथिा परु ातन एिं काजपपयम का ऄथय है साजहत्य ।
आससे यह ऄनमु ान लगाया जा सकता है जक कइ िषों पश्चात जब यह पथु तक लोगों को जमली होगी तो ईन्होंने
आसकी भाषा एिं जलजप की प्राचीनता के अधार पर आसका नाम तोल्काजपपयम रखा होगा । आसी ग्रन्थ के अधार पर
आसके रचजयता का नाम भी तोल्काजपपयर ऄथिा तोल्काजपपयन को मानना अरम्भ कर जदया । तोल्काजपपयम
सजं क्षप्त सिू ात्मक रूप में जलखा गया है । आसके तीन भाग हैं- सोल्लाजदकरम, पोरुल्लाजदकरम, एजदू ाजदकरम । हर
एक भाग के नौ ऄध्याय हैं । आसमें पोरूल्लाजदकरम बाद में जोड़ा गया है, जजससे यह पता चलता है जक यह ग्रन्थ
जकसी एक जिद्रान द्रारा रजचत नहीं है । आसमें तजमल भाषा के दो जिभाग जकए गये हैं- सेण्टाजमल और दसू रा
कोडूण्टाजमल । आनमें से पहले का प्रयोग प्राचीन तजमल, साजहजत्यक भाषा से सम्बध्द है एिं दसू रा अम लोगों की
भाषा से सम्बजन्धत है । जो सामान्य लोगों के द्रारा ऄलग- ऄलग गाँिों तथा प्रान्तों में बोली जाती थी । आसमें थिर
एिं व्यजं न के रूप में ध्िजनयों का जिभाजन जकया गया है । आसमें शब्द एिं िाक्प्य पर भी पयायप्त प्रकाश डाला गया
है । आसके ऄजतररक्त आस ग्रन्थ में ितयनी, थिर जिज्ञान, शब्दसंरचना, ऄथयजिज्ञान, छन्दशास्त्र एिं साजहजत्यक जिषयों

7
. भोलानाथ जतिारी- भाषा जिज्ञान 1969, पृष्ठ संख्या-517
8
. अचायय देिेन्ि नाथ शमाय- भाषा जिज्ञान की भजू मका 2008, पृष्ठ संख्या-300
9
. भोलानाथ जतिारी- भाषा जिज्ञान 1969, पृष्ठ संख्या- 516
पर भी पयायप्त जिचार जकया गया है । कात्यायन एिं तोल्काजपपयर के पश्चात पतंजजल का समय अता है । पतंजजल
का समय दसू री शताब्दी इ. प.ू माना जाता है । पतजं जल द्रारा रजचत ग्रन्थ का नाम है- ‘महाभाष्य’ । पतजं जल ने
पाजणनी द्रारा रजचत ग्रन्थ ऄष्टाध्यायी के कुछ चनु े हुए सिू ों पर भाष्य जलखा, आसमें कात्यायन द्रारा ऄष्टाध्यायी पर
जलखे िाजतयक भी सजम्मजलत हैं जो महाभाष्य में सन्दभय के रूप में ईजल्लजखत हैं । आन िाजतयकों की कुल संख्या
1500 हैं । पतजं जल ने महाभाष्य में पाजणनी के सिू ों की एिं कात्यायन के िाजतयकों की सक्ष्ू म व्याख्या की है ।
जजससे पाजणनी द्रारा रजचत सिू ों को समझने में सहायता प्राप्त होती है । पतंजजल ने आसमें दाशयजनक शब्द
जनत्यतत्ििाद एिं एकांतिाद, शब्दब्रह्मिाद का जििेचन भी व्याकरजणक सन्दभय में जकया है । पतजं जल के महाभाष्य
की भाषा गद्यात्मक है । जजसमें कहीं-कहीं महु ािरों का भी प्रयोग जकया गया है । महाभाष्य में 84 ऄध्याय हैं ।
जजसमें प्रथम ऄध्याय पथपशां के नाम से जाना जाता है । आसमें शब्द थिरूप पर जिचार जकया गया है पतंजजल ने
शब्दों के दो प्रकार बताये हैं, पहला है- लौजकक तथा दसू रा है िैजदक । महाभाष्य पर के य्यट तथा नागेश भट्ट ने
टीकाएँ भी जलखी हैं । पतंजजल के पिू य व्याजड नामक िैयाकरण भी हुए, जजनके ग्रन्थ का नाम ‘संग्रह’ था । आसमें
ऄनमु ानतः एक लाख श्लोकों का होना माना जाता है । जजसका ईल्लेख पतंजजल ने महाभाष्य में तथा नागेश भट्ट ने
ऄपनी टीका में जकया है । पाजणनी, पतंजजल तथा कात्यायन को मजु निय के रूप में जाना जाता है । आन तीनों
अचायों ने न के िल संथकृ त भाषा एिं व्याकरण को समृध्द जकया, बजल्क दजु नया की ऄन्य भाषाओ ं के जिकास
एिं मानकीकरण का मागय प्रशथत जकया ।
पतंजजल के पश्चात िैयाकरण भतृयहरर का थथान बहुत महत्त्िपणू य है । आन्होंने िाक्प्यपदीय नामक ग्रन्थ की
रचना की । आसे जिकाण्डी भी कहा जाता है । आनके समय के जिषय में जिद्रानों में मतभेद है । कुछ जिद्रान आनका
समय तीसरी तो कुछ चौथी, पाँचिीं, छठी शताब्दी का रचजयता मानते हैं । कुछ जिद्रान आन्हें शतकियी
(नीजतशतक, श्रृंगारशतक, िैराग्यशतक) का रचजयता मानते हैं । जकन्तु ऄब यह थपष्ट हो चक ु ा है जक शतकियी
एिं िाक्प्यपदीय के रचनाकार भतृयहरर ऄलग हैं । भतृयहरर द्रारा रजचत ग्रन्थ िाक्प्यपदीय तीन काण्डों में जिभक्त है-
ब्रह्मकाण्ड, िाक्प्यकाण्ड, पदकाण्ड । ब्रह्मकाण्ड में 157 काररकाएँ हैं, िाक्प्यकाण्ड में 493 काररकाएँ हैं तथा
पदकाण्ड में 1300 से ऄजधक काररकाएँ हैं । प्रथम काण्ड ऄथायत् ब्रह्मकाण्ड में शब्द की महिा थथाजपत करते हुए
शब्द को ब्रह्म कहा गया है । भतृयहरर ने शब्दों के चार थिरूप बताये हैं- परा, पश्यन्ती, मध्यमा तथा िैखरी । आसमें
परा को ही ब्रह्म के रूप में थिीकार जकया गया है । आसमें ध्िजन के ईच्चारण को सबसे महत्त्िपणू य माना गया है । आसी
का प्रजतपादन ईन्होंने थफोट जसध्दातं के ऄन्तगयत जकया गया है । आस जसध्दातं के ऄनसु ार शब्द की महिा ईसके
ईच्चारण में है । यजद शब्द का ईच्चारण ईसके मल ू रूप में जकया गया तो शब्द ‘परा’ ऄथायत ब्रह्म की ओर ले जाने
का कायय करता है । ईन्होंने जगत की ईत्पजि का कारण शब्द को ही माना है । आसी काण्ड में ईन्होंने कालशजक्त का
िणयन जकया है । ईन्होंने शब्द तत्ि को जिश्व से जोड़ा एिं यह भी थपष्ट जकया जक आसी के द्रारा जकसी िथतु की
ईपजथथजत का बोध होता है । आस प्रजक्रया को थपष्ट करते हुए कहा जक जिश्व के अजद से ऄतं तक यह प्रजक्रया
बदलाि को जनयंजित करती है । ईन्होंने ऄथय पर जिचार करते हुए शब्द एिं ऄथय को ऄजभन्न माना है । कालशजक्त
के िणयन के ऄन्तगयत ईन्होंने थपष्ट जकया जक कालशजक्त से तात्पयय काल ऄथिा समय से है । भतृयहरर के ऄनसु ार
शब्द पररितयन में सहायक हैं । एिं पररितयन की आस परू ी प्रजक्रया को ईन्होंने छः भागों में बाँटा है- जन्म, ईपजथथजत,
बदलाि, जिकास, क्षरण और जिनाश । समय पररितयन का कारण एिं समय जिभाजन को पणू य करता है भतू ,
भजिष्य एिं ितयमान । जद्रतीय काण्ड में ईन्होंने शब्द एिं ऄथय पर जिचार करते हुए ईन्हें एक दसू रे से ऄजभन्न माना
एिं िाक्प्य को भाषा की मल ू आकाइ थिीकार जकया है । आसमें ईन्होंने पिू यमीमांसाशास्त्र के जसध्दांतों पर गहराइ से
जिचार जकया है । आसी के साथ-साथ ऄजं तम काररकाओ ं में व्याकरण परम्परा पर भी जिचार जकया है । ऄजं तम काण्ड
जजसे पदकाण्ड कहते हैं, आसमें पदों एिं पदाथों पर गहराइ से जिचार जकया है । आसमें चौदह ईपप्रकरण हैं- जैसे,
ऄजाजत, िव्य, संख्या, गणु , जतया तथा साधन अजद । आन्हें जाजतसमदु ेश तथा िव्यसमदु ेश नामक दो भागों में
जिभाजजत जकया है । भतृयहरर ने कइ परु ाने जसध्दातं ों का जिथतार जकया है । जजसे आसी परम्परा के मजु निय द्रारा आजं गत
जकया गया था । थफोट जसध्दांत आसी का प्रमाण है । थफोट का ऄथय है शब्द द्रारा प्रथफुजटत ध्िजन । जिितयिाद तथा
शब्दाद्रैतिाद के जसध्दातं का प्रजतपादन एिं जिथतार भतृयहरर द्रारा ही जकया गया । भतृयहरर ने भाषािैज्ञाजनक परम्परा
को ऄत्यतं सदृु ढ़ एिं समृध्द करने में ऄपनी महत्त्िपणू य भजू मका जनभाइ । आस क्षेि में ऄन्य जिद्रानों का नाम भी
ईल्लेखनीय है । जजनका संजक्षप्त ईल्लेख करना यहाँ अिश्यक है । जयाजदत्य तथा िामन द्रारा जलखी गयी टीका
‘काजशका’ जो ऄष्टाध्यायी पर अधाररत है । यह सबसे प्रजसध्द टीका ग्रन्थ है । आसमें भी अठ ऄध्याय हैं । पाँच
जयाजदत्य द्रारा रजचत हैं तथा तीन िामन द्रारा । आस ग्रन्थ में पाजणनी के सिू ों को ईदाहरण देकर सरल रूप में
समझाया गया है । आनके ऄजतररक्त जजनेन्ि बजु ध्द, हरदि, के य्यट, कौमदु ीकार, जिमल सरथिती, रामचन्ि, भट्टोजज
दीजक्षत तथा िरदराज का नाम आस क्षेि में ईल्लेखनीय है । आसी के साथ-साथ जिजभन्न शाखाओ ं का भी ईल्लेख
जमलता है, जजसका िणयन भोलानाथ जतिारी ने ऄपने ग्रन्थ भाषा जिज्ञान में भी जकया है- चान्िशाखा, जैनेन्ि शाखा,
शाकटायन शाखा, हेमचन्ि शाखा, कातंि शाखा, सारथित शाखा, बोप देि शाखा, अजद शाखाओ ं तथा जिद्रानों
ने समय-समय पर आस क्षेि में ऄपना योगदान जदया, जजसका प्रौढ़तम रूप अज हमें जदखाइ देता है ।
‚भारत में भाषा जिज्ञान का अधजु नक रूप में ऄध्ययन यरू ोप के संसगय से अरम्भ हुअ है । सत्य तो यह है
जक पहले-पहल ईन्हीं लोगों ने यहाँ आसका प्रारम्भ भी जकया, और आसी कारण यह श्रेय ईनको ही प्राप्त है‛10
अधजु नक भारतीय भाषािैज्ञाजनकों में भोलानाथ जतिारी, कामता प्रसाद गरू ु , अचायय देिन्े ि नाथ शमाय, ईदय
नारायण जतिारी एिं डॉ. हरदेि बाहरी का नाम प्रमख ु रूप से ईल्लेखनीय है । कामता प्रसाद गरू ु को अधजु नक
भाषाजिज्ञान का पाजणनी भी कहा जाता है । ईन्होंने न के िल भाषा के व्याकरजणक पक्ष बजल्क जहन्दी भाषा को
संथकृ त से पृथक ऄजथतत्ि बताते हुए जहन्दी की संरचना तथा जथथरता पर कायय जकया । आसके पहले जजतने भाजषक
जचन्तन हुए िे सथं कृ त भाषा पर ही अधाररत थे । जकन्तु कामता प्रसाद गरू ु का भाजषक जचन्तन जहन्दी के ऄपने
व्याकरजणक ढाँचे की माँग एिं जरूरत को परू ा करता है । ईन्होंने व्याकरण के महत्त्ि, जहन्दी भाषा की ईत्पि, जहन्दी
शब्द, िणयमाला, जलपी तथा िाक्प्य संरचना आन सभी जबन्दओ ु ं पर बड़ी गहराइ से जिचार जकया है । आनकी प्रमख ु
पथु तक है- ‘जहन्दी व्याकरण’ । आसी प्रकार भोलानाथ जतिारी ने ऄपने जीिन सघं षों से अगे बढ़ते हुए जहन्दी भाषा
एिं व्याकरण की समृजध्द में ऄपना ऄमल्ू य योगदान जदया । आनकी कुल जमलाकर सम्पाजदत तथा मौजलक पथु तकों
की सख्ं या 85 है । आससे आनके जचन्तन के व्यापकत्ि का पता चलता है । अचायय देिन्े ि नाथ शमाय का कायय भी आस
दृजष्ट से सराहनीय रहा है । ऄपने जीिन का बड़ा जहथसा ईन्होंने भाषा के जिकास एिं संिध्दयन में लगाया । भाषा पर
ईनका बहुत गहरा ऄध्ययन था, ईन्होंने न के िल अधजु नक बजल्क प्राचीन भाषा जिज्ञान को निीन ज्ञान से जोड़ कर
पनु ः जीजित करने का कायय जकया । आनकी प्रमख ु पथु तक है- ‘भाषा जिज्ञान की भजू मका’ । ऄन्य अधजु नक भारतीय
भाषा िैज्ञाजनकों में काल्डिेल का नाम प्रमख ु है । ये मलू तः भारतीय तो नहीं, जकन्तु आन्होंने भारतीय िजिड़ पररिार
की भाषाओ ं पर कायय जकया । आनके ग्रन्थ का नाम है- ‘िजिड़ भाषाओ ं का तुलनात्मक व्याकरण’ । आसी श्रृंखला में
ऄन्य जिद्रान हैं- बीम्स । आन्होंने बांग्ला, ईजड़या, मराठी, पंजाबी, जसंधी आत्याजद भाषाओ ं का तल ु नात्मक ऄध्ययन
प्रथततु जकया । आनका प्रमख ु ग्रन्थ है- ‘भारतीय अयय भाषाओ ं का तल ु नात्मक व्याकरण’ है । ऄन्य जिद्रान हैं- ट्रंप ।
आन्होंने सथं कृ त, प्राकृ त तथा ऄन्य महत्त्िपणू य भाषाओ ं के व्याकरण का तल ु नात्मक ऄध्ययन प्रथततु जकया । आनका
प्रमखु ग्रन्थ है- ‘Grammar of the Sindhi language compared with the Sanskrit, Prakrit and the
cognate Indian Vernaculars’ के लॉग ने ‘जहन्दी व्याकरण’ नामक पथु तक जलखी । जॉजय ऄब्राहम जग्रयसयन,
रॉल्फ जललेटनय एिं जल ू ब्लॉख आस दृजष्ट से बहुत महत्त्िपणू य हैं । जग्रयसयन ने जबहारी भाषाओ ं के ‘सात व्याकरण’
10
. भोलानाथ जतिारी- भाषा जिज्ञान 1969, पृष्ठ संख्या-526
नामक जकताब जलखी । आन्हीं की एक और जकताब है- ‘भारतीय भाषाओ ं का सिे’ । यह भी महत्त्िपणू य जकताब है ।
टनयर द्रारा रजचत नेपाली कोश एिं ब्लाख द्रारा रजचत ‘मराठी की रचना एिं भारतीय अययभाषाएँ’ । ऄन्य भाषा
िैज्ञाजनकों में डॉ. सर रामकृ ष्ण गोपाल भण्डारकर हैं आनके जिषय में भोलानाथ जतिारी जलखते हैं- ‚भाषा जिज्ञान के
क्षेि में अधजु नक युग में काम करने िाले ये प्रथम भारतीय हैं । भण्डारकर प्रमख
ु तः प्राचीन भारतीय आजतहास तथा
11
परु ातत्ि के जिद्रान थे, पर अयय भाषाओ ं पर भी पयायप्त ऄध्ययन जकया था‛ आन्होंने प्राचीन भाषा जिज्ञान के साथ-
साथ अधजु नक यरू ोपीय भाषा जिज्ञान का भी ऄध्ययन जकया था । आनके ऄजतररक्त चन्िधर शमाय गल ु ेरी, पद्मजसंह
शमाय, जिश्वनाथ प्रसाद अजद जिद्रानों ने कायय जकया । एिं जहन्दीतर भाषाओ ं पर कायय करने िालों में िाणीकान्त
काकती- ऄसमी, जिनायक जमश्र, गोपालचन्ि, गोपीनाथचन्ि शमाय, गोलोक जबहारी, सनु ीजत कुमार चटजी, सक ु ु मार
सेन, ज्ञानेन्ि मोहनदास, सजु मि मगं श े किे, के . पी. कुलकणी, नीलकण्ठ शास्त्री, ऄमृतराि, रामथिामी ऄय्यर,
चन्िशेखर, नरजसहं चार अजद ऄनेक जिद्रानों ने जिजभन्न भाषाओ ं में कायय जकया है ।

सन्दभभ-
1. भोलानाथ जतिारी- भाषा जिज्ञान पृष्ठ सख्ं या- 04, 1969 जकताब महल आलाहाबाद
2. भोलानाथ जतिारी- भाषा जिज्ञान पृष्ठ संख्या- 512, 1969 जकताब महल आलाहाबाद
3. अचायय देिेन्िनाथ शमाय- भाषा जिज्ञान की भजू मका पृष्ठ संख्या 294, 2008 राधाकृ ष्ण प्रकाशन प्राआिेट जलजमटेड 7/31,
ऄसं ारी मागय, दररयागजं नइ जदल्ली- 110 002
4. भोलानाथ जतिारी- भाषा जिज्ञान पृष्ठ संख्या- 513, 1969 जकताब महल आलाहाबाद
5. भोलानाथ जतिारी- भाषा जिज्ञान पृष्ठ संख्या- 517, 1969 जकताब महल आलाहाबाद
6. डॉ. िसन्त भट्ट- सथं कृ त साजहत्य निीन ऄथय एिं समीक्षा- vasantbhatt.blogspot.in बधु िार 22 जल ु ाइ 2009
7. अचायय देिेन्िनाथ शमाय- भाषा जिज्ञान की भजू मका पृष्ठ संख्या- 300, 2008 राधाकृ ष्ण प्रकाशन प्राआिेट जलजमटेड
7/31, ऄसं ारी मागय, दररयागंज नइ जदल्ली- 110 002
8. भोलानाथ जतिारी- भाषा जिज्ञान पृष्ठ संख्या- 517, 1969 जकताब महल आलाहाबाद
9. भोलानाथ जतिारी- भाषा जिज्ञान पृष्ठ संख्या- 516, 1969 जकताब महल आलाहाबाद
10. भोलानाथ जतिारी- भाषा जिज्ञान पृष्ठ सख्ं या- 526, 1969 जकताब महल आलाहाबाद
11. भोलानाथ जतिारी- भाषा जिज्ञान पृष्ठ संख्या- 527, 1969 जकताब महल आलाहाबाद

11
. भोलानाथ जतिारी- भाषा जिज्ञान 1969, पृष्ठ संख्या- 527

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