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पवत दे श म पावस

किव – सु िम ानंदन पंत


ज -20 मई 1900 ( उ राखंड – कौसानी अलमोड़ा )
मृ ु – 28 िदस र 1977
@lotus valley international school, Gurgaon
'पवत दे श म पावस' किवता पवतीय सौंदय को करने वाली किवता है । कृित का यह सौंदय वषा म और भी बढ़ जाता है । वषा
काल म कृित म ण- ण होने वाला प रवतन दे खकर लगता है िक कृित सजने -धजने के म म पल-पल अपना वेश बदल रही है ।
भला ऐसा भी कोई इं सान हो सकता है जो पहाड़ों पर ना जाना चाहता हो। िजन लोगों को दू र िहमालय पर जाने का मौका नही ं िमल
पाता वो लोग अपने आसपास के पहाड़ी इलाकों म जाने का कोई मौका कभी नही ं छोड़ते ।
ुत किवता भी इसी तरह के रोमां च और कृित के सु र वणन से भरी है िजससे आपकी आँ खों और मन दोनों को आनं द आएगा।
सुिम ानंदन पंत जी की ब त सारी किवताओं को पढ़ते ए ऐसा लगता है जैसे आपके चारों ओर की दीवार कही ं गायब हो गई हों और
आप िकसी सु र पवतीय जगह पर प ँ च गए हों। जहाँ दू र - दू र तक पहाड़ ही पहाड़ हों और झरने बह रहे हों और आप बस वहीं रहना
चाह रहे हों।

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किव ने इस किवता म मानवीकरण अलंकार का योग करते ए कृित का ऐसा जीवां त वणन िकया है मानो कृित सजीव हो उठी है।
किव कहता है िक वषा ऋतु म कृित का प हर पल बदल रहा है कभी वषा होती है तो कभी धू प िनकल आती है । पवतों पर उगे
हजारों फूल ऐसे लग रहे ह जैसे पवत की हज़ारों आँ ख हों और वो इन आँ खों के सहारे अपने आपको अपने चरणों ने फैले दपण पी
तालाब म दे ख रहे हो। पवतों से िगरते ए झरने कल- कल की मधु र आवाज कर रहे ह जो नस - नस को स ता से भर रहे ह। पवतों पर
उगे ए पेड़ शां त आकाश को ऐसे दे ख रहे ह जै से वो उसे छूना चाह रहे हों। बा रश के बाद घनी धुं ध के कारण लग रहा है मानो पेड़
कही उड़ गए हों | अथात गायब हो गए हों , चारों ओर धुँआ होने के कारण लग रहा है मानो तालाब म आग लग गई है । ऐसा लग रहा है
िक ऐसे मौसम म इं दे व भी अपना बादल पी िवमान ले कर इधर - उधर जादू का खे ल िदखते ए घू म रहे ह ।

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पावस ऋतु ( वषा ऋतु ) थी ,पवत वेश ,
पल - पल प रवितत (बदलना) कृित -वे श। ( कृित का प)
मे खलाकार ( करधनी के आकार की पहाड़ की ढाल ) पवत अपार ( िवशाल , असीम )

 किव कहता है िक पवतीय े म वषा ऋतु का वे श हो गया है । िजसकी वजह से कृित के पम


बार - बार बदलाव आ रहा है | अथात कभी मू सलाधार बा रश होती है तो कभी धू प िनकल आती है ।

 का ां श का िश सौंदय – पवत दे श म अनु ास अलंकार की छटा है | भाषा सं ृ तिन खड़ी


बोली है | कृित का मानवीकरण िकया गया है | पल – पल , बार – बार म पुन काश
अलंकार है |

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अपने सह (हज़ार ) ग- सु मन (पु पी आँ ख) फाड़ , ( खोलकर )
अवलोक ( दे ख ) रहा है बार - बार ,
नीचे जल ने िनज ( अपना ) महाकार , ( िवशाल आकार)
-िजसके चरणों म (पै रों म ) पला ताल (तालाब)
दपण ( शीशा ) सा फैला है िवशाल !

इस प ां श म किव ने पहाड़ों के आकार की तुलना करघनी अथात कमर म बाँ धने वाले आभू षण से
की है । किव कहता है िक करघनी के आकर वाले पहाड़ अपनी हजारों पु पी आँ ख फाड़ कर
नीचे जल म अपने िवशाल आकार को दे ख रहे ह। ऐसा लग रहा है िक पहाड़ ने िजस तालाब को अपने
चरणों म पाला है वह तालाब पहाड़ के िलए िवशाल आईने का काम कर रहा है ।

का ां श का िश सौंदय – कृित का मानवीकरण िकया गया है | भाषा सं ृ तिन खड़ी बोली है |


ग सुमन म पक अलं कार है |

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िग र (पहाड़) का गौरव ( मिहमा , बड़ाई ) गाकर झर- झर
मद (म ी) म नस -नस ( रग – रग ) उ ेिजत कर (भड़काया आ )
मोती की लिड़यों- से सु र
झरते ह झाग भरे िनझर ! ( झरना )
िग रवर (ऊँचा पवत ) के उर ( दय ) से उठ -उठ कर
उ ाकां ाओं (ऊँचा उठने की कामना ) से त वर (पेड़)
है झाँ क रहे नीरव नभ (शां त आकाश ) पर
अिनमेष, (एक टक , िबना पलक झपकाए ) अटल ( थर ) कुछ िचंतापर।( िचंितत , िचं ता म म )

किव कहता है िक मोितयों की लिड़यों के समान सुं दर झरने झर- झर की आवाज करते ए बह रहे ह
,ऐसा लग रहा है िक वे पहाड़ों का गुणगान कर रहे हों। उनकी करतल िन नस - नस म उ ाह
अथवा स ता भर दे ती है । पहाड़ों के दय से उठ-उठ कर अनेकों पेड़ ऊँचा उठने की इ ा िलए
एक टक ि से थर हो कर शां त आकाश को इस तरह दे ख रहे ह, मनो वो िकसी िचंता म डूबे ए
हों। अथात वे हम िनर र ऊँचा उठने की ेरणा दे रहे ह।

 मोितयों से सुं दर , उ ाकां ाओं से त वर म उपमा अलं कार का योग है |


 नीरव नभ – अनु ास अलंकार , िनझर तथा िग र म मानवीकरण अलंकार है |
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उड़ गया ,अचानक लो , भूधर (पहाड़)
फड़का अपार ( ब त अिधक ) पारद * के पर ! ( पारे के समान धवल एवं चमकीले पंख )
रव -शेष ( केवल आवाज का रह जाना ) रह गए ह िनझर ! ( झरने )
है टू ट पड़ा भू ( भूिम ) पर अ र ! ( आकाश )
धँ स गए धरा ( धरती ) म सभय ( भय के साथ ) शाल ! ( पहाड़ों पर पाए जाने वाले वृ )
उठ रहा धु आँ , जल गया ताल ! ( तालाब )
-यों जलद -यान ( बादल पी िवमान ) म िवचर –िवचर ( घू म – घू मकर )
था इं खेलता इं जाल। (बा रश के दे वता इं की जादू गरी)

 किव कहता है िक ते ज बा रश के बाद मौसम ऐसा हो गया है िक घनी धुं ध के कारण लग रहा है मानो पेड़ कही उड़ गए हों अथात गायब
हो गए हों। बादलों की गड़गड़ाहट से लगता है मानो पू रा आकाश ही धरती पर आ गया हो केवल झरने की आवाज़ ही सुनाई दे रही है ।
कृित का ऐसा भयानक प दे ख कर शाल के पेड़ डर कर धरती के अंदर धं स गए ह। चारों ओर धुँ आ होने के कारण लग रहा है िक
तालाब म आग लग गई है । ऐसे मौसम म इं भी अपना बादल पी िवमान ले कर इधर - उधर जादू का खेल िदखते ए घू म रहे ह।

 ‘ वा रद के पर’ म पक अलं कार है |


 मानवीकरण अलंकार का योग िकया गया है |
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