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सोयाबीन

सोयाबीन -[वैज्ञानिक नाम="ग्लाईसीन मैक्स"] सोयाबीन फसल है। यह


तिलहन के बजाय दलहन की फसल मानी जाती है। सोयाबीन दलहन
की फसल है शाकाहारी मनुष्यों के लिए इसको मांस भी कहा जाता है
क्योंकि इसमें बहुत अधिक प्रोटीन होता है। इसका वानस्पतिक नाम
ग्लाईसीन मैक्स है।स्वास्थ्य के लिए एक बहुउपयोगी खाद्य पदार्थ है।
सोयाबीन एक महत्वपूर्ण खाद्य स्रोत है। इसके मुख्य घटक प्रोटीन,
कार्बोहाइडेंट और वसा होते है। सोयाबीन में 42 प्रतिशत प्रोटीन, 22
प्रतिशत तेल, 21 प्रतिशत कार्बोहाइडेंट, 12 प्रतिशत नमी तथा 5 प्रतिशत
भस्म होती है।
सोयाप्रोटीन के एमीगेमिनो अम्ल की संरचना पशु प्रोटीन के समकक्ष
होती हैं। अतः मनुष्य के पोषण के लिए सोयाबीन उच्च गुणवत्ता युक्त
प्रोटीन का एक अच्छा स्रोत हैं। कार्बोहाइडेंट के रूप में आहार रेशा,
शर्क रा, रैफीनोस एवं स्टाकियोज होता है जो कि पेट में पाए जाने वाले
सूक्ष्मजीवों के लिए लाभप्रद होता हैं। सोयाबीन तेल में लिनोलिक अम्ल
एवं लिनालेनिक अम्ल प्रचुर मात्रा में होते हैं। ये अम्ल शरीर के लिए
आवश्यक वसा अम्ल होते हैं। इसके अलावा सोयाबीन में आइसोफ्लावोन,
लेसिथिन और फाइटोस्टेरॉल रूप में कु छ अन्य स्वास्थवर्धक उपयोगी
घटक होते हैं।

सोयाबीन न के वल प्रोटीन का एक उत्कृ ष्ट स्त्रौत है बल्कि कई शारीरिक


क्रियाओं को भी प्रभावित करता है। विभिन्न शोधकर्ताओं द्वारा सोया
प्रोटीन का प्लाज्मा लिपिड एवं कोलेस्टेरॉल की मात्रा पर पड़ने वाले
प्रभाव का अध्ययन किया गया है और यह पाया गया है कि सोया
प्रोटीन मानव रक्त में कोलेस्टेरॉल की मात्रा कम करने में सहायक होता
है। निर्दिष्ट स्वास्थ्य उपयोग के लिए सोया प्रोटीन संभवतः पहला
सोयाबीन घटक है।

विश्व का 60% सोयाबीन अमेरिका में पैदा होता है। भारत मे सबसे
अधिक सोयाबीन का उत्पादन महाराष्ट्र करता है। मध्यप्रदेश में इंदौर में
सोयाबीन रिसर्च सेंटर है।

सोयाबीन घटकों के निर्दिष्ट स्वास्थ्य कार्य

घटक निर्दिष्ट स्वास्थ्य कार्य

कोलेस्ट्राल को कम करना, मोटापा कम करना, उम्र


प्रोटीन
बढ़ने से रोकना, कैं सर रोधी

प्रोटीन षोषक, मोटापा कम करना, उच्च रक्त चाप से बचाव


हाइडोंलाइजेट

लेक्टिन प्रतिरक्षा क्रिया

टिंप्सिन
कैं सर रोधी
इन्हीबिटर

आहार फाइबर वसा को कम करना, पेट कैं सर रोधी

आंतों में पाए जाने वाले बिफीडो बैक्टीरिया के लिए


ऑलिगो-सैकराइड
लाभदायक

लिनोलिक एसिड आवश्यक फै टी एसिड, कोलेस्ट्राल को कम करना

लिनोलेनिक कोरोनरी हृदय रोग के जोखिम को कम करने में


एसिड सहायक, एलर्जी रोधक

लेसिथिन वसा को कम करना, स्मृति में सहायक

स्टेरोल वसा को कम करना

टोकोफे रोल कोरोनरी हृदय रोग के जोखिम को कम करने में


सहायक, एंटीऑक्सीडेंट गुण

थक्का रोधी, ऑस्टियोपोरोसिस की रोकथाम, कैं सर


विटामिन के
रोधी

विटामिन बी बेरीबेरी रोग रोधी

फाईटेट कैं सर रोधी

सैपोनिन वसा को कम करना, एंटीऑक्सीडेंट गुण

आइसोफ्लावॉन ऑस्टियोपोरोसिस की रोकथाम, कैं सर रोधी

सोयाबीन की खेती
भूमि का चुनाव एवं तैयारी
सोयाबीन की खेती अधिक हल्‍कीरेतीली व हल्‍की भूमि को छोड्कर सभी
प्रकार की भूमि में सफलतापूर्वक की जा सकती है परन्‍तु पानी के
निकास वाली चिकनी दोमट भूमि सोयाबीन के लिए अधिक उपयुक्‍त
होती है। जहां भी खेत में पानी रूकता हो वहां सोयाबीन ना लें।

ग्रीष्‍म कालीन जुताई 3 वर्ष में कम से कम एक बार अवश्‍य करनी


चाहिए। वर्षा प्रारम्‍भ होने पर 2 या 3 बार बखर तथा पाटा चलाकर खेत
को तैयार कर लेना चाहिए। इससे हानि पहॅचाने वाले कीटों की सभी
अवस्‍थाएं नष्‍
ट होगीं। ढेला रहित और भूरभुरी मिटटी वाले खेत सोयाबीन
के लिए उत्‍तम होते हैं। खेत में पानी भरने से सोयाबीन की फसल पर
प्रतिकू ल प्रभाव पडता है अत: अधिक उत्‍पादन के लिए खेत में जल
निकास की व्‍यवस्‍था करना आवश्‍यक होता है। जहां तक संभव हो
आखरी बखरनी एवं पाटा समय से करें जिससे अंकु रित खरपतवार नष्‍ट
हो सके । यथा संभव मेंड् और कू ड् रिज एवं फरो बनाकर सोयाबीन बोएं।

बीज दर

सोयाबीन की फसल

 छोटे दाने वाली किस्‍में – 70 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टर


 मध्‍
यम दोन वाली किस्‍में – 80 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टर

 बडे़ दाने वाली किस्‍में – 100 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टर


बोने का समय

जून के अन्तिम सप्‍ताह में जुलाई के प्रथम सप्‍ताह तक का समय सबसे


उपयुक्‍त है बोने के समय अच्‍
छे अंकु रण हेतु भूमि में 10 सेमी गहराई
तक उपयुक्‍त नमी होना चाहिए। जुलाई के प्रथम सप्‍
ताह के पश्‍चात
बोनी की बीज दर 5- 10 प्रतिशत बढ़ा देनी चाहिए।

जलवायु:उष्ण मुख्यतः गर्म व नम जलवायु होनी चाहिये।

वर्षा:600 से 850 मिल्लीमीटर वर्षा की आवश्कता पड़ती है।

=== पौध संख्‍या === 3 – 4 लाख पौधे प्रति हेक्‍टर ‘’ 40 से 60 प्रति वर्ग
मीटर ‘’ पौध संख्‍या उपयुक्‍त है। जे.एस. 75 – 46 जे. एस. 93 – 05 किस्‍
मों में पौधों की संख्‍या 6 लाख प्रति हेक्‍टेयर उपयुक्‍त है। असीमित बढ़ने
वाली किस्‍मों के लिए 4 लाख एवं सीमित वृद्धि वाली किस्‍
मों के लिए 6
लाख पौधे प्रति हेक्‍टेयर होना चाहिए।

बोने की विधि

सोयाबीन की बोनी कतारों में करना चाहिए। कतारों की दूरी 30 सेमी. ‘’


बोनी किस्‍मों के लिए ‘’ तथा 45 सेमी. बड़ी किस्‍मों के लिए उपयुक्‍त है।
20 कतारों के बाद कू ड़ जल निथार तथा नमी संरक्षण के लिए खाली
छोड़ देना चाहिए। बीज 2.5 से 3 सेमी. गहराई त‍क बोयें। बीज एवं खाद
को अलग अलग बोना चाहिए जिससे अंकु रण क्षमता प्रभावित न हो।
बीजोपचार[

सोयाबीन के अंकु रण को बीज तथा मृदा जनित रोग प्रभावित करते है।
इसकी रोकथाम हेतु बीज को थीरम या के प्‍
टान 2 ग्राम कार्बेन्‍डाजिम या
थायोफे नेट मिथीईल 1 ग्राम मिश्रण प्रति किलो ग्राम बीज की दर से
उपचारित करना चाहिए अथवा ट्राइकोडरमा 4 ग्राम एवं कार्बेन्‍डाजिम 2
ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज से उपचारित करके बोयें।

कल्‍चर का उपयोग

फफूँ दनाशक दवाओं से बीजोपचार के पश्‍चात बीज को 5 ग्राम


राइजोबियम एवं 5 ग्राम पी.एस.बी.कल्‍चर प्रति किलो ग्राम बीज की दर
से उपचारित करें। उपचारित बीज को छाया में रखना चाहिए एवं शीघ्र
बोनी करना चाहिए। ध्‍
यान रहें कि फफूँ दनाशक दवा एवं कल्‍चर को एक
साथ न मिलाऐं।

समन्वित पोषण प्रबंधन


अच्‍छी सड़ी हुई गोबर की खाद (कम्‍पोस्‍
ट) 5 टन प्रति हेक्‍टर अंतिम
बखरनी के समय खेत में अच्‍
छी तरह मिला देवें तथा बोते समय 20
किलो नत्रजन 60 किलो स्‍फु र 20 किलो पोटाश एवं 20 किलो गंधक प्रति
हेक्‍टर देवें। यह मात्रा मिटटी परीक्षण के आधर पर घटाई बढ़ाई जा
सकती है तथा संभव नाडेप, फास्‍फो कम्‍पोस्‍ट के उपयोग को प्राथमिकता
दें। रासायनिक उर्वरकों को कू ड़ों में लगभग 5 से 6 से.मी. की गहराई पर
डालना चाहिए। गहरी काली मिटटी में जिंक सल्‍फे ट 50 किलो ग्राम प्रति
हेक्‍टर एवं उथली मिटिटयों में 25 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टर की दर से 5 से
6 फसलें लेने के बाद उपयोग करना चाहिए।
खरपतवार प्रबंधन
फसल के प्रारम्भिक 30 से 40 दिनों तक खरपतवार नियंत्रण बहुत आवश्‍
यक होता है। बतर आने पर डोरा या कु ल्‍फा चलाकर खरपतवार नियंत्रण
करें व दूसरी निंदाई अंकु रण होने के 30 और 45 दिन बाद करें। 15 से
20 दिन की खड़ी फसल में घांस कु ल के खरपतवारो को नष्‍ट करने के
लिए क्‍यूजेलेफोप इथाइल एक लीटर प्रति हेक्‍टर अथवा घांस कु ल और
कु छ चौड़ी पत्‍ती वाले खरपतवारों के लिए इमेजेथाफायर 750 मिली. ली.
लीटर प्रति हेक्‍टर की दर से छिड़काव की अनुशंसा है। नींदानाशक के
प्रयोग में बोने के पूर्व फलुक्‍लोरेलीन 2 लीटर प्रति हेक्‍टर आखरी बखरनी
के पूर्व खेतों में छिड़के और अवा को पेन्‍डीमेथलीन 3 लीटर प्रति हेक्‍टर
या मेटोलाक्‍लोर 2 लीटर प्रति हेक्‍टर की दर से 600 लीटर पानी में
घोलकर फलैटफे न या फलेटजेट नोजल की सहायकता से पूरे खेत में
छिड़काव करें। तरल खरपतवार नाशियों के मिटटी में पर्याप्‍त पानी व
भुरभुरापन होना चाहिए।

सिंचाई
खरीफ मौसम की फसल होने के कारण सामान्‍यत: सोयाबीन को सिंचाई
की आवश्‍यकता नही होती है। फलियों में दाना भरते समय अर्थात
सितंबर माह में यदि खेत में नमी पर्याप्‍
त न हो तो आवश्‍यकतानुसार
एक या दो हल्‍की सिंचाई करना सोयाबीन के विपुल उत्‍पादन लेने हेतु
लाभदायक है। वर्षा ना होने पर उपयुक्त सिचाई नमी के अनुसार सही
समय पर की जा सकती है।
पौध संरक्षण
कीट

सोयाबीन की फसल पर बीज एवं छोटे पौधे को नुकसान पहुंचाने वाला


नीलाभृंग (ब्‍लूबीटल) पत्‍ते खाने वाली इल्लियां, तने को नुकसान पहुंचाने
वाली तने की मक्‍खी एवं चक्रभृंग (गर्डल बीटल) आदि का प्रकोप होता है
एवं कीटों के आक्रमण से 5 से 50 प्रतिशत तक पैदावार में कमी आ
जाती है। इन कीटों के नियंत्रण के उपाय निम्‍नलिखित है:

कृ षिगत नियंत्रण

खेत की ग्रीष्‍मकालीन गहरी जुताई करें। मानसून की वर्षा के पूर्व बोनी


नहीं करे। मानसून आगमन के पश्‍चात बोनी शीघ्रता से पूरी करें। खेत
नींदा रहित रखें। सोयाबीन के साथ ज्‍वार अथवा मक्‍का की अंतरवर्तीय
खेती करें। खेतों को फसल अवशेषों से मुक्‍त रखें तथा मेढ़ों की सफाई
रखें।

रासायनिक नियंत्रण
बुआई के समय थयोमिथोक्‍जाम 70 डब्‍लू एस. 3 ग्राम दवा प्रति किलो
ग्राम बीज की दर से उपचारित करने से प्रारम्भिक कीटों का नियंत्रण
होता है अथवा अंकु रण के प्रारम्‍भ होते ही नीला भृंग कीट नियंत्रण के
लिए क्‍यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत या मिथाइल पेराथियान (फालीडाल 2
प्रतिशत या धानुडाल 2 प्रतिशत) 25 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टर की दर से
भुरकाव करना चाहिए। कई प्रकार की इल्लियां पत्‍ती छोटी फलियों और
फलों को खाकर नष्‍ट कर देती है इन कीटों के नियंत्रण के लिए
घुलनशील दवाओं की निम्‍नलिखित मात्रा 700 से 800 लीटर पानी में
घोलकर छिड़काव करना चाहिए। हरी इल्‍ली की एक प्रजाति जिसका सिर
पतला एवं पिछला भाग चौड़ा होता है सोयाबीन के फू लों और फलियों को
खा जाती है जिससे पौधे फली विहीन हो जाते हैं। फसल बांझ होने जैसी
लगती है। चूकि फसल पर तना मक्‍खी, चक्रभृंग, माहो हरी इल्‍ली लगभग
एक साथ आक्रमण करते हैं अत: प्रथम छिड़काव 25 से 30 दिन पर एवं
दूसरा छिड़काव 40-45 दिन की फसल पर आवश्‍यक करना चाहिए।

जैविक नियंत्रण
कीटों के आरम्भिक अवस्‍था में जैविक कट नियंत्रण हेतु बी.टी एवं ब्‍
यूवेरीया बैसियाना आधरित जैविक कीटनाशक 1 किलोग्राम या 1 लीटर
प्रति हेक्‍टर की दर से बुवाई के 35-40 दिन तथा 50-55 दिन बाद
छिड़काव करें। एन.पी.वी. का 250 एल.ई समतुल्‍य का 500 लीटर पानी में
घोलकर बनाकर प्रति हेक्‍टेयर छिड़काव करें। रासायनिक कीटनाशकों की
जगह जैविक कीटनाशकों को अदला बदली कर डालना लाभदायक होता
है।

1. गर्डल बीटल प्रभावित क्षेत्र में जे.एस. 335, जे.एस. 80 – 21, जे.एस 90
– 41, लगावें

1.2. निंदाई के समय प्रभावित टहनियां तोड़कर नष्‍ट कर दें

1.3. कटाई के पश्‍चात बंडलों को सीधे गहराई स्‍थल पर ले जावें

1.4. तने की मक्‍खी के प्रकोप के समय छिड़काव शीघ्र करें

रोग
1 . फसल बोने के बाद से ही फसल निगरानी करें। यदि संभव हो तो
लाइट ट्रेप तथा फे रोमेन टयूब का उपयोग करें।

2 . बीजोपचार आवश्‍यक है। इसके बाद रोग नियंत्रण के लिए फफूँ द के


आक्रमण से बीज सड़न रोकने हेतु कार्बेन्‍डाजिम 1 ग्राम + 2 ग्राम थीरम
के मिश्रण से प्रति किलो ग्राम बीज उपचारित करना चाहिए। थीरम के स्‍
थान पर के प्‍टान एवं कार्बेन्‍डाजिम के स्‍थान पर थायोफे नेट मिथाइल का
प्रयोग किया जा सकता है।

3 . पत्‍तों पर कई तरह के धब्‍बे वाले फफूं द जनित रोगों को नियंत्रित


करने के लिए कार्बेन्‍डाजिम 50 डबलू पी या थायोफे नेट मिथाइल 70 डब्‍लू
पी 0.05 से 0.1 प्रतिशत से 1 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी का छिड़काव
करना चाहिए। पहला छिड़काव 30 -35 दिन की अवस्‍था पर तथा दूसरा
छिड़काव 40 – 45 दिन की अवस्‍था पर करना चाहिए।

4 . बैक्‍टीरियल पश्‍चयूल नामक रोग को नियंत्रित करने के लिए स्‍ट्रेप्‍


टोसाइक्‍लीन या कासूगामाइसिन की 200 पी.पी.एम. 200 मि.ग्रा; दवा प्रति
लीटर पानी के घोल और कापर आक्‍सीक्‍लोराइड 0.2 (2 ग्राम प्रति लीटर)
पानी के घोल के मिश्रण का छिड़काव करना चाहिए। इराके लिए 10
लीटर पानी में 1 ग्राम स्‍
ट्रेप्‍टोसाइक्‍लीन एवं 20 ग्राम कापर अक्‍सीक्‍
लोराइड दवा का घोल बनाकर उपयोग कर सकते हैं।

5 . गेरूआ प्रभावित क्षेत्रों (जैसे बैतूल, छिंदवाडा, सिवनी) में गेरूआ के लिए
सहनशील जातियां लगायें तथा रोग के प्रारम्भिक लक्षण दिखते ही 1
मि.ली. प्रति लीटर की दर से हेक्‍साकोनाजोल 5 ई.सी. या प्रोपिकोनाजोल
25 ई.सी. या आक्‍सीकार्बोजिम 10 ग्राम प्रति लीटर की दर से
ट्रायएडिमीफान 25 डब्‍लू पी दवा के घोल का छिड़काव करें।
6 . विषाणु जनित पीला मोजेक वायरस रोग व वड व्‍लाइट रोग प्राय:
एफ्रिडस सफे द मक्‍खी, थ्रिप्‍स आदि द्वारा फै लते हैं अत: के वल रोग रहित
स्‍वस्‍थ बीज का उपयोग करना चाहिए। एवं रोग फै लाने वाले कीड़ों के
लिए थायोमेथेक्‍जोन 70 डब्‍लू एव. से 3 ग्राम प्रति किलो ग्राम की दर से
उपचारित कर एवं 30 दिनों के अंतराल पर दोहराते रहें। रोगी पौधों को
खेत से निकाल देवें। इथोफे नप्राक्‍स 10 ई.सी. 1.0 लीटर प्रति हेक्‍टर
थायोमिथेजेम 25 डब्‍लू जी, 1000 ग्राम प्रति हेक्‍टर।

7 . पीला मोजेक प्रभावित क्षेत्रों में रोग के लिए ग्राही फसलों (मूंग, उड़द,
बरबटी) की के वल प्रतिरोधी जातियां ही गर्मी के मौसम में लगायें तथा
गर्मी की फसलों में सफे द मक्‍खी का नियमित नियंत्रण करें।

8 . नीम की निम्‍बोली का अर्क डिफोलियेटर्स के नियंत्रण के लिए कारगर


साबित हुआ है।

फसल कटाई एवं गहराई


अधिकांश पत्तियों के सूख कर झड़ जाने पर और 10 प्रतिशत फलियों के
सूख कर भूरी हो जाने पर फसल की कटाई कर लेना चाहिए। पंजाब 1
पकने के 4 – 5 दिन बाद, जे.एस. 335, जे.एस. 76 – 205 एवं जे.एस. 72
– 44 जे.एस. 75 – 46 आदि सूखने के लगभग 10 दिन बाद चटकने
लगती हैं। कटाई के बाद गडढ़ो को 2 – 3 दिन तक सुखाना चाहिए जब
कटी फसल अच्‍
छी तरह सूख जाये तो गहराई कर दोनों को अलग कर
देना चाहिए। फसल गहाई थ्रेसर, ट्रेक्‍टर, बेलों तथा हाथ द्वारा लकड़ी से
पीटकर करना चाहिए। जहां तक संभव हो बीज के लिए गहराई लकड़ी
से पीट कर करना चाहिए, जिससे अंकु रण प्रभावित न हो।
अन्‍तर्वर्तीय फसल पद्धति
सोयाबीन के साथ अन्‍तर्वर्तीय फसलों के रूप में निम्‍नानुसार फसलों की
खेती अवश्‍य करें

1 . अरहर + सोयाबीन (2:4)

2 . ज्‍वार + सोयाबीन (2:2)

3 . मक्‍का + सोयाबीन (2:2)

4 . तिल + सोयाबीन (2:2)

अरहर एवं सोयाबीन में कतारों की दूरी 30 से.मी. रखें।

fo"k; lwph
 सोयाबीन
 सोयाबीन घटकों के निर्दिष्ट स्वास्थ्य कार्य
 सोयाबीन की खेती
 भूमि का चुनाव एवं तैयारी
 बोने की विधि
 समन्वित पोषण प्रबंधन
 खरपतवार प्रबंधन
 सिंचाई
 रासायनिक नियंत्रण
 जैविक नियंत्रण
 फसल कटाई एवं गहराई
 अन्‍तर्वर्तीय फसल पद्धति
 सन्दर्भ सूची

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