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Set - 1-10
से ट -1 (प्रश्न)
ह िं दी (50 अिं क)
समय : 1 घं टा 37.5 ममनट पू र्ाा क:50
परीक्षार्थी के हिए हिदे श:
Instructions to the candidate:
1.परीक्षार्थी यर्थासंभव अपने शब्दं में ही उत्तर दें ।
Candidates are required to give their answer in their own words as far
as practicable.
2.दामहनी vksर हामशये पर मदए हुए अंक पूर्ााक मनमदा ष्ट करते हैं।
Figures in the right hand margin indicate full marks.
3.परीक्षार्थी प्रत्येक उत्तर के सार्थ प्रश्न संख्या अवश्य मिखें।
Right question number with every answer.

1.संक्षेपर् करें :- 05
मेरा यह मतिब कदामप नहीं मक हमें मवदे शी भाषाएं सीखनी ही नहीं चामहए। नही ं,
आवश्यकता, अनुकूिता, अवसर और अवकाश हदने पर हमें एक नहीं अनेक भाषाएं
सीख कर ज्ञानाजान करना चामहए। ज्ञान कहीं भी ममिता हद उसे ग्रहर् कर िेना चामहए।
परं तु यह अपनी भाषा और उसी के सामहत्य की उन्नमत से हद संभव सकता है । ज्ञान,
मवज्ञान, धमा और राजनीमत की भाषा सदै व िदकभाषा ही हदनी चामहए। अतएव अपनी
भाषा के सामहत्य की सेवा और अमभवृद्धि करना, सभी दृमष्टयदं से हमारा परम धमा है ।

2.भावार्था मिखें:- 7.5


नाद रीमि तन दे त मृग, नर धन हे तु-समेत।
ते रहीम पसु ते अमधक, ररिेहु कछु न दे त।।
अर्थवा

रमव जग में शदभा सरसाता सदम सुधा बरसाता।


सब हैं िगे कमा में कदई मनद्धिय दु ष्ट ना आता ।
है उद्दे श्य मनतां त तुच्छ तृर् के भी िघु जीवन का।
उसी पूमता में वह करता है अंत कमामय तन का।

3. „गौरा‟ शीषाक रे खामचत्र का सारां श प्रस्तुत कीमजए। 7.5


अर्थवा
“रवींद्र नार्थ ठाकुर महान पुरुष हैं ।” स्पष्ट करें ।

4. ममिान करें :- 5x1=5


1. जीवन का िरना (क)प्रेमचंद
2. गौरा (ख)आरसी प्रसाद मसंह
3. मंगर (ग)सुममत्रानंदन पंत
4. भारतमाता ग्रामवामसनी (घ)महादे वी वमाा
5. पं च परमेश्वर (ड़)रामवृक्ष बेनीपुरी

5.मविदम शब् मिखें:- 5x1=5


(क) सार्थाक (ख) पाताि (ग) रक्षक (घ) अदृश्य (ड़) प्रेम

6.पयाा यवाची शब् मिखें:- 5x1=5


(क)अमि (ख)सरस्वती (ग)नयन (घ)पवात (ड़)मशव
7. मुहावरदं से वाक्य बनाकर अर्था स्पष्ट करें :- 5x1=5
1. हार्थ पर हार्थ धरकर बैठना
2. मसर पर सवार हदना
3. रं गे हार्थदं पकड़ ना
4. बाि बां का न हदना
5. पे ट में चूहे कूदना

8. मकसी एक पर मनबंध मिखें:- 10


1. नशाबंदी
2. छात्र और राजनीमत
3. प्रदू षर्
4. समाचार पत्र
5. मदवािी
से ट -1 (उत्तर)
ह िं दी (50 अिं क)

1. शीर्षक--ज्ञानाजान
हमें ज्ञानाजान के मिए मकसी भी भाषा कद सीखने से परहे ज नहीं करना चामहए।
सभी भाषाओं से ज्ञान संग्रह उपयदगी हैं । परं तु मकसी राष्टर का कल्यार् उसकी भाषा से ही
संभव हैं , अतः अपनी भाषा में सामहत्य और ज्ञान की वृद्धि करनी चामहए ।

2. प्रस्तुत पंद्धियााँ मवद्वान कमव रहीम द्वारा रमचत हैं । इसमें उन्दंने धन के मिए हाय-
हाय करने वािे िदभी व्यद्धियदं कद पशुओं से भी अमधक मनकृष्ट माना है । कमव कहते हैं
मक मधुर संगीत सुनकर महरर् अपने प्रार् दे दे ता है । िेमकन धन का िािची व्यद्धि
प्रसन्न हदकर भी कुछ नही ं दे ता है ।
अर्थवा
प्रस्तुत पंद्धियदं में कमव रामनरे श मत्रपाठी कहते हैं मक सूया इस संसार कद शदभा
प्रदान करता है और चंद्रमा अमृत की वषाा करता है । अपने-अपने काम में सभी िगे हुए
हैं । कदई भी आिसी हदकर बैठा हुआ नहीं रहता है । अत्यंत तुच्छ घास के इस छदटे से
जीवन का भी उद्दे श्य मदखिाई पड़ता है और उसी उद्दे श्य की पूमता में वह अपने
कताव्यमय जीवन का अंत कर दे ती है ।

3. प्रस्तुत रे खामचत्र में महादे वी वमाा ने अपनी छदटी बहन से प्राप्त गाय (गौरा) का
अदभुत वर्ान मकया है । सार्थ ही गौरा की मनमाम मृत्यु के पररप्रक्ष्य में मानव की स्वार्था
मिप्सा का रहस्यदद् घाटन मकया है ।
गौरा, एक सफेद, चमकदार रदमदं वािी बाछी र्थी। उसे सफेद-िाि
गुिाबदं की मािा पहना कर, मार्थे पर टीका िगाकर और आरती उतार कर स्वागत
मकया गया। उसका नामकरर् भी हुआ, „गौरां मगनी‟ या „गौरा‟ के नाम से वह प्रमसि हद
गई।
गौरा केवि दे खने में सुंदर नहीं र्थी, बद्धि उसका स्वभाव भी अच्छा
र्था, अन्य पाितू पशु -पमक्षयदं के सार्थ घुि-ममि गई। कुत्ते-मबद्धियााँ उसके पेट के नीचे
और पैरदं के बीच में खेिते रहते हैं , मजनका संपका सुख पाकर वह अपनी आं खें मूंदे
खड़ी रहती हैं ।
गौरा िेद्धखका के यहां रहते-रहते सभी िदगदं के पैरदं की आहट
पहचानती र्थी। गौरा 1 वषा के बाद मां बनी और िाि रं ग के बच्चे कद जन्म दी, मजसका
नाम िािममर् रखा गया। वह प्रमतमदन 12 सेर दू ध दे ने िगी र्थी। िािममर् के मिए कई
सेर दू ध छदड़कर जद दू ध हदता उससे आस-पास के बाि-गदपाि से िेकर कुत्ते मबिी
सभी तृप्त हदते।
जब गौरा के दु ग्ध ददहन की समस्या खड़ी हुई तब उसके मिए ग्वािे
कद ही मनयुि कर मदया गया, जद पूवा में दू ध दे जाता र्था।
मकंतु गौरा ने दद-तीन महीने के बाद दाना-चारा खाना ही बंद कर
मदया, पररर्ामस्वरुप वह कमजदर हदती चिी गई। डॉक्टर से उसे मदखिाया गया, एक्सरे
से यह पता चिा मक उसे सुई द्धखिा दी गई है । इसका प्रमार् तद नहीं र्था मक मकसने
द्धखिाई है , िेमकन ग्वािे के भाग जाने से यह मवश्वास हद गया र्था मक यह ग्वािे का ही
कारनामा है । आद्धखरकार गौरा मृत्यु के सार्थ संघषा करती हुई एक मदन मर गई। उसकी
मृत्यु का दु ख सहना िेद्धखका के मिए बहुत कमठन हद गया।
अर्थवा
कमववर „रवीद्र
ं नार्थ ठाकुर‟आचाया हजारी प्रसाद मद्ववेदी द्वारा मिद्धखत एक अत्यंत
प्रेरक मनबंध है । इसमें बाबू की महानता कद रे खां मकत मकया गया है ।
„हदनहार वीरवान के हदत मचकने पात‟ कहावत के अनुसार रवींद्र बाबू
बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के र्थे।
ं बाबू दे श के बड़े भि र्थे। स्वदे श-भद्धि पर उन्दंने अनेक कमवताएं
रवीद्र
मिखी हैं । मातृभूमम के वे पक्के आराधक र्थे। उनकी स्वदे श भद्धि संकीर्ा नहीं र्थी।
रवीद्र
ं बाबू की महानता का आधार सममपात भाव से सामहत्य साधना र्थी।
सरस्वती की आराधना करके वह महान बने हैं । बंगाि ने उनके प्रमत यर्थेष्ट सम्मान भी
प्रकट मकया है । हार्थी दां त पर खमचत अमभनंदन पत्र रजत-अर्ध्ापात्र, सदने का एक कमि
और एक मािा उन्ें भेंट की गई। वस्तुतः सरस्वती का ही यह सम्मान है । सरस्वती मंमदर
का वह पुजारी सचमुच धन्य है मजसे सम्मान अपने दे श और जामत वािदं से प्राप्त हदता
है ।
मवश्वकमव के गौरव से मवभूमषत रवींद्रनार्थ ठाकुर अपने बहुआयामी व्यद्धित्व
के कारर् महान हैं । सामहत्य की साधना उन्दंने मजस सेवा-भाव से की, वह सेवा उनके
द्वारा मनुष्यता की सेवा की दृमष्ट-पर्थ में रखकर ही की गई है मजस कारर् उनकी आज
अमद्वतीय कमव, िेखक और महान पुरुष के रूप में पहचान है ।

4. जीवन का िरना- आरसी प्रसाद मसंह


गौरा- महादे वी वमाा
मंगर- रामवृक्ष बेनीपुरी
भारतमाता ग्रामवामसनी- सुममत्रानंदन पंत
पं च परमेश्वर- प्रेमचंद

5. सार्थाक- मनरर्थाक
पाताि- आकाश
रक्षक- भक्षक
अदृश्य- दृश्य
प्रे म- घृर्ा

6. अमि- पावक, अनि


सरस्वती- शारदा, वीर्ापामर्,
नयन- आं ख, नेत्र,
पवात- पहाड़, शैि,
मशव- शंभु, महादे व,
7.
(क) कामहि हदकर बैठना- परीक्षा में पास हदना चाहते हैं तद मेहनत कीमजए, हार्थ पर
हार्थ धरे बैठने से काम नही ं चिेगा।
(ख) बुरी तरह से पीछे पड़ना- मैंने तुम्हें र्थदड़ी शह क्या दी मक तुम मेरे मसर पर सवार हद
गए।
(ग) अपराध करते समय ही पकड़ना- वह चदरी करने मनकिा र्था पर मैंने रं गे हार्थदं
पकड़ मिया।
(घ) जरा भी हामन ना हदना- भगवान की कृपा रही तद मेरा बाि भी बााँ का नहीं हदगा।
(ड़) भूख िगना- मां मुिे जल्दी खाना दीमजए मेरे पेट में चूहे कूद रहे हैं ।

8.
1. िशाबिंदी

आज के युग में मद्य सेवन का प्रवेश हद गया है । िेमकन ऐसा नहीं है मक मद्य
सेवन की प्रवृमत्त आज की दे न ही है । अमपतु मद्य सेवन की प्रवृमत्त दद शताद्धब्यदं
पू वा की है । हमारे प्राचीन धमा ग्रंर्थदं में भी „सदम‟ और „सुरा‟ शब्दं का उिेख हुआ
है । जद इस तथ्य कद प्रमामर्त करते हैं मक हमारे पूवाज मादक पदार्थों के प्रेमी र्थे,
और इसका सेवन खुिे रुप में मकया करते र्थे। यह भी सत्य है मक आज की तरह
सदमरस पान के मिए बड़े बड़े संकट मंडराते र्थे। मद्य सेवन का प्रभाव उत्तेजना
प्रदान कर बकवास और मुसीबतदं कद आमंमत्रत करता हैं ।

मादक मद्य द्रव्य का सेवन मनरं तर क्यदं बढ़ रहा है ? जबमक इसके पररर्ाम केवि
भयानक ही नही ं अमपतु प्रार्हारी भी हैं । मादक मद्य सेवन के प्रमुख कारर् एक नही ं
अनेक हैं । कुछ तद कारर् ऐसे हैं जद यर्थार्था और स्वाभामवक िगते हैं जैसे मनरं तर दु ख,
अवसाद, पीड़ा और उििन के कारर् परे शान और िाचार हदकर मन की शां मत के मिए
नशा का सेवन मकया जाता है । कुछ ऐसे भी कारर् है जद अस्वाभामवक और असंगत
िगते हैं , जैसे शौकवश मकसी की नकि करके इसकी ित में पड़ जाना। मद्य सेवन के
कारर् जद भी हद इससे मकसी प्रकार का कल्यार् संभव नहीं है । इसके सेवन से गरीबी,
मनराशा, तनाव,बेरदजगारी, हीनभावना, कुंठा, अभाव, अवसाद, व्याकुिता, शदक आमद से
मुद्धि ममि नही ं सकती है । मादक द्रव्यदं या पदार्थों के सेवन करने का एक मुख्य
कारर् है समाज की मवषमता। समाज में सभी एक समान नहीं है , कहीं अमीरी है तद
कही ं गरीबी, और कही ं साक्षरता है तद कहीं मनरक्षरता है । दू सरी और धनी और संपन्न वगा
मनम्न और अभावग्रस्त व्यद्धियदं का शदषर् करते हैं । वह गरीब और दीन-दु खी कजादार
व्यद्धियदं कद तनाव और अशां मत के घेरे में डािकर मादक द्रव्यदं का सेवन करने के
मिए मववश कर दे ते हैं ।
मद्य सेवन की दु ष्प्रवृमत्त कद रदकने के मिए व्यापक स्तर पर सामामजक जागृमत
आवश्यक है । यह व्यद्धिगत, संपका आकाशवार्ी, दू रदशान, समाचार-पत्रदं समहत अनेक
प्रकार के इद्धिहारदं के द्वारा अमधक सफिता के सार्थ कायाा द्धन्रत की जा सकती है ।
इसके सार्थ ही सार्थ काव्य-गदमियदं, नाटकदं, कमव-सम्मेिनदं समहत जागृमत के मशमवरदं
द्वारा भी नशाबंदी की दु ष्प्रवृमत्त कद रदका जा सकता है ।

2.छात्र और राजिीहि

आधुमनक काि में राजनीमतक का अर्था कहीं अमधक व्यापक हद गया है । आज


राजनीमत शब् राज्य के सत्ता संबंधी समस्त गमतमवमधयदं का पररचायक हद गया है ।
सरकार मनमाा र् से िेकर सरकार के मवमभन्न अंगदं द्वारा मकए जाने वािे समस्त काया
राजनीमत के अंतगात आते हैं । स्पष्ट है मक राजनीमत आधुमनक जीवन की एक अमनवायाता
बन गई है ।
क्या मवद्यामर्थायदं कद भी इस में भाग िेना चामहए? यह आज का एक ज्विंत प्रश्न है ।
मवगत कुछ वषों में मवद्यामर्थायदं ने राजनीमत में समिय भाग मिया है , जद युगीन जागरूकता
का पररचायक है । मवद्यामर्थायदं का पढ़ाई त्यागकर हड़ताि, पर्थराव ,आगजनी और
नारे बाजी में संिि हदना-यह उस प्रश्न कद अत्यंत महत्वपूर्ा बना दे ता है मक मवद्यार्थी कद
राजनीमत में भाग िेना चामहए अर्थवा नहीं?
कुछ िदग मवद्यामर्थायदं के राजनीमत में भाग िेने के मवरदधी हैं । उनके अनुसार
राजनीमत धूताता की िीड़ा भूमम है । मवद्यामर्थायदं कद इस दू मषत वायु से दू र रखने का
यर्थासंभव प्रयास मकया जाना चामहए। कुछ िदगदं का मवचार है मक मवद्यामर्थायदं कद
राजनीमत में भाग िेना चामहए, तामक मवद्यार्थी जीवन में ही इस क्षेत्र में मनपुर्ता प्राप्त
करके एक आदशा नागररक के रूप में अपने राजनीमतक कताव्यदं का मनवाा ह कर सकें।
एक तीसरे मवचार के अनुसार मवद्यामर्थायदं कद राजनीमतक मसिां तदं का अर्ध्यन तद करना
चामहए मकंतु उन्ें व्यावहाररक राजनीमतक में भाग िेने की अनुममत नहीं प्रदान की जानी
चामहए।
मनिषातः मवद्यामर्थायदं द्वारा राजनीमत में भाग िेना न केवि भमवष्य के मिए
उपयदगी है , बद्धि वतामान के मिए भी उपयदगी मसि हद सकता है । यह वतामान समय
की मााँ ग भी है ।

3.प्रदू र्ण

आज संपूर्ा मवश्व के मिए जद सवाा मधक मचंता का मवषय है उसे हम पयाा वरर् की
समस्या कहते हैं । इसके कारर् मानव का अद्धस्तत्व खतरे में पड़ता जा रहा है । हम मजस
प्राकृमतक वातावरर् में रहते हैं , अर्थाा त हमारे आसपास चारदं ओर जद प्राकृमतक आवरर्
है , उसे हम पयाा वरर् कहते हैं । वायुमंडि, वन, पवात, नमदयााँ , जि आमद इसके अंग
कहिाते हैं । मानव ने अपनी सुख-सुमवधा के मिए जद कुछ मकया है , उसी से पयाा वरर्
प्रदू षर् की समस्या उत्पन्न हद गई है ।
पयाा वरर् के घटकदं के संतुिन मबगड़ने कद ही पयाा वरर् प्रदू षर् कहा जाता है ।
पयाा वरर् प्रदू षर् के कई रुप हैं - वायु प्रदू षर्, जि प्रदू षर्, ध्वमन प्रदू षर्, मृदा (ममट्टी)
प्रदू षर्, रे मडयदधमी प्रदू षर् आमद। प्रदू षर् के कई कारर् हैं । सवाप्रर्थम वृक्षदं की कटाई
ही इसका बड़ा कारर् है । वैध अर्थवा अवैध तरीकदं से बड़े पैमाने पर जंगिदं की कटाई
के कारर् पयाा वरर्-संतुिन में बाधा उत्पन्न हुई है । पेड़-पौधे वायुमंडि के काबान का
अवशदषर् करते हैं । इससे एक ओर वायुमंडि अर्थाा त वायु की द्धथर्थमत सामान्य बनी रहती
है तर्था दू सरी ओर इससे वषाा भी हदती है । इसी तरह इं धन के रूप में िकड़ी का प्रयदग,
बढ़ती हुई गामड़यदं के प्रयदग से धुआाँ तर्था बड़े पैमाने पर जहरीिे और हामनकारक गैसदं
के वातावरर् में ममिने से वायु प्रदू षर् हद रहा है । बड़े -बड़े नगरदं और औद्यदमगक
कारखानदं से मनकिनेवािे अवशेष नमदयदं में मगराए जा रहे हैं । इससे जि प्रदू षर् का
खतरा उत्पन्न हद गया है । वाहनदं और कि-कारखानदं से हदनेवािी तेज आवाज के कारर्
ध्वमन प्रदू षर् की समस्या बढ़ रही है । इसी तरह रसायमनक और कीटनाशक औषमधयद
के प्रयदग से ममट्टी भी प्रदू मषत हद रही है ।
पयाा वरर् प्रदू षर् से ओजदन संकट उत्पन्न हद रहा है । धराति से िगभग 25
मकिदमीटर ऊपर एक 20 मकिदमीटर का गैस आवरर् है , मजससे धरती की सुरक्षा हदती
है । इस आवरर् कद ओजदनमंडि कहा जाता है । इससे धरती के ऊपर के वायुमंडि की
सुरक्षा हदती है तर्था सूया की मकरर्दं कद इसे पार करना पड़ता है । मजससे उसकी
हामनकारक मकरर्ें धरती पर नहीं आ पाती हैं । आज ओजदन मंडि में छे द हद गया है ।
धरती पर फैिे पयाा वरर् प्रदू षर् के कारर् ओजदन हमारी सुरक्षा करने में असमर्था हद
रहा है । इसी तरह अन्य तरह के प्रदू षर् से मानव और प्रकृमत उत्पाददं पर खतरा उत्पन्न
हद रहा है । खतरा तद यहां तक बढ़ गया है मक तेजाबी वषाा का भय उत्पन्न हद रहा है ।
पयाा वरर् प्रदू षर् से बचाव हद सकता है । मानव ने ही पयाा वरर् कद प्रदू मषत मकया
है । यही इसमें सुधार भी िा सकता है । इसके मिए यह आवश्यक है मक अमधक से
अमधक वृक्ष िगाए जाएं । वनदं की सुरक्षा की जाए। अंधाधुंध वन-कटाई कद रदका जाए।
वाहनदं और औद्यदमगक संथर्थानदं से मनकिनेवािा धुंआ हमारे वायुमंडि कद प्रभामवत कर
रहा है । इस पर र्ध्ान मदया जाए। शहरदं के नािदं और औद्यदमगक संथर्थानदं के मिबे कद
नमदयदं में मगरने से रदका जाए। इसी तरह अन्य उपाय भी मकए जा सकते हैं ।
पयाा वरर् प्रदू षर् की समस्या मवश्व-स्तर की समस्या है । इस पर संपूर्ा मवश्व कद
सदचना हदगा। यही कारर् है मक सभी दे शदं ने अपने-अपने यहां पयाा वरर् सुरक्षा कद एक
अमभयान रूप में मिया है । इस संबंध में भारत ने इसके मिए कई कड़े कदम उठाए हैं ।
जै से 1974 ईस्वी में जि प्रदू षर् मनवारर् और मनयंत्रर् अमधमनयम, 1986 ईस्वी में
पयाा वरर् संरक्षर् अमधमनयम आमद की व्यवथर्था की गई है । इस तरह, पयाा वरर् प्रदू षर्
मनश्चय ही मानव जामत कद क्या, संपूर्ा चराचर जगत के मिए मचंतनीय मवषय बन गया है ।

4.समाचार पत्र

समाचार पत्र के नाम से ही इसका स्वरूप उभर कर सामने आ जाता है । इसे


आम बदिचाि की भाषा में अखबार कहते है । मजसका अमभप्राय है ख़बरदं का खजाना।
इन ददनदं ही नामदं से स्पष्ट हद जाता है मक समाचार पत्र वह पत्र है मजसमें मवश्व की घमटत
घटनाओं का सूचना के रूप में मववरर् प्रस्तुत मकया जाए। आज के मानव जीवन में
अखबार या समाचार पत्रदं का महत्वपूर्ा थर्थान है । मजस प्रकार वस्त्र और भदजन हमारे
दै मनक जीवन की प्रमुख आवश्यकताएं हैं , ठीक उसी प्रकार समाचार पत्र भी आज हमारे
जीवन के अमभन्न अंग बन गए हैं ।
समाचार पत्र का जन्म कब, कहां और क्यदं हुआ ? यह तद दावे के सार्थ नहीं कहा
जा सकता। मफर भी यह मनमश्चत है मक समाचार पत्र आधुमनक सभ्यता की दे न है । जब
मवश्व के दे श और संपूर्ा मानव समाज धीरे -धीरे वैचाररक रूप से एक-दू सरे के मनकट
आए, तब िदगदं के मन में एक दू सरे के मवषय में जानने की मजज्ञासा हुई। इन्ीं
मजज्ञासाओं के पररर्ाम स्वरुप समाचार पत्र का जन्म हुआ। इसमें मकसी प्रकार का संदेह
नहीं। मजस मवश्व में हम रह रहे हैं , वह परस्पर एक दू सरे से जुड़ा हुआ है । एक के मबना
दू सरे का काया नही ं चिता। ऐसी द्धथर्थमत में यह आवश्यक है मक हम एक दू सरे कद जानें
और समिें। दू र रहकर भी मनकट आने का एकमात्र सस्ता मार्ध्म समाचार पत्र ही है ।
भारत में समाचार पत्र का जन्म अंग्रेजी राज्य के समय 1720 ईस्वी में हुआ।
समाचार पत्रदं के कई रुप आज प्रचमित हैं । इसमें प्रमुख है - दै मनक, साप्तामहक,
पामक्षक और मामसक। परं तु िदगदं में दै मनक समाचार पत्रदं के प्रमत अमधक रुमच है ।
क्यदंमक वे शीघ्रामतशीघ्र मवश्व के अन्य दे शद अर्थवा दे श के अन्य भागदं से अपने कद जुड़ा
हुआ दे खना चाहते हैं । साप्तामहक, पामक्षक, मामसक पत्रदं में समाचारदं के अमतररि अन्य
उपयदगी सामग्री का भी प्रकाशन हदता है । साममयक मवषयदं पर सामग्री इन पत्र-
पमत्रकाओं की प्रमुख मवशेषता है ।
समाचार पत्र के मार्ध्म से मवश्व के दे शदं में बंधुत्व का भाव जागृत करने में बहुत
सहायता ममिी है । आज मवश्व के मवमभन्न दे शदं में जद मनकटता बढ़ रही है , इसके मूि में
समाचार पत्रदं की भूममका ही है । एक समय र्था जब िदग संकुमचत राष्टरीयता की भावना से
पढ़ते र्थे, परं तु आज राष्टरीयता की भावना के सार्थ िदगदं में अंतराष्टरीयता की भावना का
प्रसार व प्रचार हद रहा है । मकसी भी मवषय पर मवश्वभर की प्रमतमिया समाचार पत्र एक
थर्थान से दू सरे थर्थान तक आसानी से पहुं चा दे ते हैं ।
मवज्ञापन के क्षेत्र में समाचार पत्रदं ने िां मत िा दी है । संसार के मकसी भी कदने में
बननेवािी सामग्री मवज्ञापन का आश्रय िेकर संपूर्ा मवश्व में छा जाती है । बड़े -बड़े व्यापारी
एवं उद्यदगपमत अपने संथर्थानदं के मवज्ञापन पर पानी की तरह पैसा बहाते दे खे जाते हैं ।
इस प्रकार समाचार पत्र व्यापाररक एवं व्यावसामयक क्षेत्रदं के मिए अत्यंत उपयदगी साधन
बन गए हैं ।
समाचार पत्र गरीबदं और श्रममकदं के मिए तद एक अमदघ अस्त्र तर्था वरदान है ।
वह समाचार पत्रदं के मार्ध्म से समय-समय पर अपनी समस्याओं कद प्रस्तुत करते रहते
हैं । बड़े -बड़े आं ददिनदं के पीछे समाचार पत्रदं की शद्धि मछपी रही है । समाचार पत्र यमद
अपनी भूममका कद उमचत ढ़ं ग से मनभाते रहें , तद कम से कम प्रजातां मत्रक पिमतवािे
दे शदं में कभी अत्याचारदं कद आश्रय न ममिे। पर, दु भाा ग्य से समाचार पत्र अपने इस
महान दामयत्व कद कभी-कभी भूि बैठते हैं । समाचार पत्र िदकतंत्र का हमर्थयार माना
जाता है ।
समाचार पत्रदं की शद्धि असीम है । शद्धि की यह असीमता प्रायः समाचार पत्रदं
कद भटका दे ती है । सभी बड़े -बड़े समाचार पत्र पर आज बड़े -बड़े उद्यदगपमतयदं का
स्वाममत्व है । ये उद्यदगपमत सरकार के परमभि हदते हैं । इन सबदं का पररर्ाम यह
मनकिता है मक जनता की आवाज दबी रह जाती है और अखबार केवि सरकार का
गुर्गान करने में िगे रहते हैं ।
समाचार पत्र आधुमनक समाज के सच्चे सार्थी हैं । यह प्रजातंत्र तर्था मानव
अमधकारदं के सजग प्रहरी है । आज हम मवश्वबंधुत्व की मजस भावना कद हृदय में िेकर
प्रगमत के मजन सपनदं की ओर बढ़ रहे हैं , उनके मनमाा र् में समाचार पत्रदं का अत्यंत
महत्वपूर्ा यदगदान है ।
से ट -2 (प्रश्न)
ह िं दी (50 अिं क)
समय : 1 घं टा 37.5 ममनट पू र्ाा क:50
परीक्षाथी के हिए हिदे श:
Instructions to the candidate:
1.परीक्षार्थी यर्थासंभव अपने शब्दं में ही उत्तर दें ।
Candidates are required to give their answer in their own words as far
as practicable.
2.दामहनी और हामशये पर मदए हुए अंक पूर्ाा क मनमदा ष्ट करते हैं ।
Figures in the right hand margin indicate full marks.
3.परीक्षार्थी प्रत्येक उत्तर के सार्थ प्रश्न संख्या अवश्य मिखें।
Right question number with every answer.

1.संक्षेपर् कीमजए:- 05
आज मानव, मानव से दू र हटता जा रहा है । वह भूिता जा रहा है मक दे श, धमा,
जामत या वर्ा मभन्न हदते हुए भी हम सवाप्रर्थम मानव है । हमारी भावनाएं एक हैं । धन, धमा
या सत्ता के मद में एक दू सरे कद हे य समझने िगा है । वह भूि जाता है मक दू सरे मानव
में भी स्वामभमान है । उसे भी अपनी संतान से प्रेम है । वह भी अपने समाज और दे श के
मिए कुछ करना चाहता है । मजस मदन मानव यह समझ जाएगा मक एक आकाश के नीचे
रहने वािा सभी मानव परस्पर भाई-भाई हैं , उसी मदन वह सच्चा मानव कहिाने का
अमधकारी बन जाएगा।

2.भावार्था मिखखए:- 7.5


रमहमन, मजह्वा बावरी, कमह गई सरग-पताि।
आपु तद कमह भीतर गयी, जूती खात कपाि ।।

अर्थवा
मनझार कहता है - “बढे चिद!
तुम पीछे मत दे खद मुड़कर।”
यौवन कहता है - “बढे चिद!
सदचे मत हदगा क्या चिकर।”

3. „मंगर‟ पाठ का सारां श मिखखए। 7.5


अर्थवा
अिगु और जुम्मन की ममत्रता मकस प्रकार टू टी? क्या अंत में ददनदं की ममत्रता बनी रही?

4. ममिान करें :- 5x1=5


1. सुंदर का ध्यान कही ं सुंदर (क) राम नरे श मत्रपाठी
2. महमािय का संदेश (ख)हररशंकर परसाई
3. जीवन-संदेश (ग)गदपाि मसंह „नेपािी‟
4. कमववर रवीद्र
ं नार्थ ठाकुर (घ)रामधारी मसंह „मदनकर‟
5. मठठु रता हुआ गर्तंत्र (ड़)हजारी प्रसाद मिवेदी

5. मनम्नमिखखत शब्दं से वाक्य बनाकर मिंग स्पष्ट कीमजए:- 5x1=5


(1)आं ख (2)ओस (3)कपूर (4)खीर (5)घी

6. मनम्नमिखखत अनेक शब्दं के मिए एक शब् मिखखए:- 5x1=5


1. मजसकद मकसी का भय नही ं है -
2. पीछे -पीछे चिने वािा -
3. आशा से अमधक-
4. नहीं मरने वािा-
5. जद ईश्वर में मवश्वास करता है -
7. मविदम शब् मिखखए:- 5x1=5
1. महं सा (2) वाचाि (3) सजीव (4) जागृमत (5) कृतज्ञ

8. मकसी एक पर मनबंध मिखखए:- 10


(1)समाज सेवा (2)मशक्षा और चररत्र मनमाा र् (3)आतंकवाद (4)हदिी
(5)वर्ाा ऋतु
से ट -2 (उत्तर)
ह िं दी (50 अिं क)

1. शीर्षक - सच्चा मानव


मानव मानव में कदई अंतर नहीं है । धन, धमा और सत्ता के मद में वह भूि जाता है मक
मानव अपनी संतान, दे श और समाज के मिए कुछ करना चाहता है । यह समझ मजस
मदन आ जाएगा उसी मदन से मानव „सच्चा मानव‟ कहिाने िगेगा।

2.
प्रस्तुत पं खियदं में रहीम कहते हैं मक मजह्वा के महत्व कद समझना चामहए। क्यदंमक यह
जीभ अत्यंत ही बावरी है । यह मनुष्य कद अपनी उं गिी पर सदै व नचाती रहती है ।
अच्छी और मधुर बदिी हमें सम्मामनत करती है । हमारी प्रमतष्ठा, हमारे भाव और भार्ा से
बढती है । इसके मवपरीत यमद कदई अपनी मजह्वा से अपशब् मनकािता है , तद ऐसे
व्यखि कद जूतदं से मार „मसर पर‟ पड़ती है । स्वगा-नरक के भेद की चचाा मनुष्य करता है
तद आपस में मववाद उत्पन्न हद जाता है । ऐसी खस्तमर्थ में वह तद भीतर चिी जाती है और
उसके कपार कद चदट खानी पड़ती हैं ।

अर्थवा

प्रस्तुत पद्य पंखियााँ आरसी प्रसाद मसंह रमचत „जीवन का झरना‟ से उद् धृत हैं । कमवता में
कमव सतr~ गमतशीिता का संदेश दे ते हैं । जीवन उस झरने के समान है जद अपने िक्ष्य
तक पहुं चने की िगन मिए पर्थ की बाधाओं कद पार करते हुए आगे बढता है । गमत ही
जीवन है और खथर्थरता ही मृत्यु। अतः मनुष्य कद भी मनझार के समान हमेशा गमतमान
रहना चामहए।
मनझार „बढे चिद,बढे चिद,‟ कहता है । आगे बढने वािे पीछे मुड़कर नही ं
दे खते। युवावथर्था भी „बढे चिद, बढे चिद,‟ कहती हैं । आगे चिकर क्या हदगा, यह
सदचना नहीं है । मनझार बहता है और मनरं तर बहते हुए वह मनुष्य कद भी उसी तरह आगे
बढते रहने कद कहता है ।
3.
रामवृक्ष बेनीपुरी जन-मानस के किाकार र्थे। िेखक जानते र्थे मक भारत का जीवन
गां वदं में बसता है । बेनीपुरी जी ने झदपमड़यदं की ओर ध्यान मदया। अब तक मजन पात्रदं की
अपेक्षा की गई र्थी, बेनीपुरी जी ने उनकk उद्धार मकया। मंगर एक हिवाहा है । उसके
दारूर् जीवन कर्था कद अत्यंत माममाक अमभव्यखि प्रदान की है । मंगर बाहर से भिे ही
कािा-किूटा हद िेमकन उसकी आत्मा कद उज्ज्विता, उसके चेहरे की कामिमा कद
अपूवा आभा से आिदमकत कर दे ती है ।
„मंगर‟ के बहाने िेखक ने सभी श्रेर्ी के मजदू रदं का मचत्रर् मकया है । ऐसे
मजदू रदं के जीवन में अभाव रहता है वे इतने गरीब हैं मक उनकी कमर में धदती भी नही ं
रहती। जीवन-भर भगवा ही पहन कर रह जाते हैं । वह अपने काम में बड़ा दक्ष र्था।
इसमिए उसे अन्य मजदू रदं से मवशेर् और अच्छी रदजी ममिती र्थी। मंगर िेखक रामवृक्ष
पर स्नेह की नजर रखता र्था। कई बार िेखक उसके कंधे पर बैठा र्था। वह बाहर से
सख्त मािूम पड़ता र्था, िेमकन अंदर से बहुत कदमि एवं भावप्रवर् र्था।
पवा-त्यौहार के अवसर पर मंगर के प्रमत मवशेर् सहानुभूमत मदखाई जाती
र्थी। कभी-कभी उसे धदती भी ममिती। वह पहनता! पर भगवा पहनने के बाद भी वह
सुंदर िगता र्था। मंगर के शरीर का गठन बड़ा ही सुव्यवखथर्थत और सुंदर र्था। िेखक कद
वह उसी रूप में अच्छा िगता र्था।
मंगर कद एक मदन अधकपारी की ददा उठी, और उसकी पत्नी भकदमिया
जद मक एक आदशा पत्नी र्थी, कही ं से दािचीनी िे आई और उसे पीस कर बकरी के दू ध
में िेप बनाकर उसके मसर पर िगा मदया। यह िेप घातक मसद्ध हुआ। जिन पैदा हद
गई। जिन जख्म में बदि गई। इस घटना से उसकी एक आाँ ख चिी गई। मंगर की
हाित कद दे खकर िेखक के हृदय में करुर्ा उमड़ पड़ी।

अर्थवा
अिगू और जुम्मन में गाढी ददस्ती र्थी। एक मदन खािाजान ने अिगू कद पंचायत में चिने
की बात कही, पर वह पंचायत में जाना नहीं चाहता र्था। बहुत आग्रह मकए जाने पर
उसने पंचायत में जाना तद स्वीकार मकया पर यह भी कहा मक वह वहां कुछ नही ं
बदिेगा। िेमकन खािाजान ने ऐसी ममाभेदी बात कही मक उसका हृदय मतिममिा उठा -
उसने अिगू के ईमान कद ििकार मदया।
पंचायत में अिगू कद सरपंच बनाया गया। सरपंच बनते ही अिगू ददस्ती
और दु श्मनी की भावना से ऊपर उठ गया। ददनदं पक्षदं की बात सुनकर अिगु ने
खािाजान के पक्ष में फैसिा सुनाया। फैसिा सुनकर जुम्मन शे ख अिगू चौधरी का
दु श्मन बन गया। इस अपमान का बदिा िेने का अवसर पाने की प्रतीक्षा करने िगा।
इस प्रकार ददनदं की ममत्रता टू ट गई।
कुछ ही महीने बाद समझू साहू और अिगू का मामिा पंचायत के सामने
आया। समझू ने जान-बूझकर जुम्मन कद ही सरपंच चुना। इस आसन कद ग्रहर् करते ही
उनके मवचार में बदिाव आया व न्याय और धमा के पक्षधर बन गए। परमेश्वर के
अिौमकक प्रकाश से उसके हृदय का अंधकार दू र हद गया। वह भूि गया मक अिगू
उसका दु श्मन र्था। उसने सत्य और न्याय का ही पक्ष िेकर अिगु चौधरी के पक्ष में
फैसिा सुना मदया।
जुम्मन शेख ने अिगू चौधरी कद गिे िगाकर यह स्वीकार मकया मक “भैया,
जब से तु म मेरी पंचायत की तबसे मैं तुम्हारा शत्रु बन गया र्था िेमकन आज मािूम हुआ
मक पंच के आसन पर बैठकर न कदई मकसी का ददस्त हदता है और न दु श्मन। न्याय के
मसवा उसे कुछ नही ं सूझता।” यह सुनकर अिगू रदने िगा। वास्तव में पंच की जुबान से
खुदा बदिता है । इस प्रकार ददनदं की टू टी हुई ममत्रता मफर से जुड़ गई। वस्तुतः यह एक
आदशा कहानी है ।

4.
1. सुन्दर का ध्यान कही ं सुंदर (क)गदपाि मसंह नेपािी
2. महमािय का संदेश (ख)रामधारी मसंह मदनकर
3. जीवन-संदेश (ग)रामनरे श मत्रपाठी
4. कमववर रवीन्द्र नार्थ ठाकुर (घ)हजारी प्रसाद मिवेदी
5. मठठु रता हुआ गर्तंत्र (ड़)हररशंकर परसाई

5. (1)आं ख-(स्त्री०) - उसकी आं खदं में िगा काजि धुि गया।


(2)ओस-(स्त्री०) - रात भर ओस मगरती रही।
(3)कपूर- (पु०) - कपूर हवा में उड़ गया।
(4)खीर-(स्त्री०) -आज खीर अच्छी बनी है ।
(5)घी-(पु०) -घी महं गा है ।
6. (1) मनभाय
(2) अनुगामी
(3) आशातीत
(4) अमर
(5) आखस्तक

7. (1) महं सा- अमहं सा


(2) वाचाि- मूक
(3) सजीव- मनजीव
(4) जागृमत- सुर्ुखि
(5) कृतज्ञ- कृतध्न

8.
1. समाजसेवा

मजस व्यखि में समाजसेवा की भावना नहीं है वह मनुष्य कहिाने का अमधकारी


नहीं है । समाज व्यखियदं का उद्दे श्यपूर्ा संगठन हदता है । व्यखियदं का समुमचत एवं
सवाां गीर् मवकास समाज में ही संभव है । व्यखि की सारी आवश्यकताओं की पूमता समाज
िारा ही हदती है । समाज की सहायता के अभाव में मकसी व्यखि का जीवन अत्यंत
कमठन हद जाएगा। समाज व्यखि के मवकास के मिए इतना करता है , तद व्यखि का भी
कताव्य है मक वह समाज की प्रगमत में अपना यदगदान दे । समाज ने मुझे मदया है , मुझे
भी समाज कद दे ना है -मजस मदन मकसी व्यखि में यह भाव जागृत हद जाए, तद सदचना
चामहए, उसी मदन से वह व्यखि समाजसेवक हद गया।
हमारे जीवन में प्रमतमदन समाजसेवा के छदटे -बड़े अवसर आते रहते हैं । हमें इन
अवसरदं पर अपने सामामजक दामयत्व का मनवाा ह करना चामहए। यमद हम ऐसा नहीं करते
हैं तद हम सामामजक प्रार्ी कहिाने के अमधकारी नहीं हैं । हमारा पररवार छदटा समाज
है । हमें सामामजक सेवा का स्वाभामवक प्रमशक्षर् यहां ममिता है । हमारी समाजसेवा की
शुरुआत अपने पररवार और पड़दस के पररवारदं से हदना चामहए। और, प्रायः ऐसा हदता
भी है । हमें अपने पड़दसी के सुख-दु ख में सखम्ममित हदना चामहए। हमारे जीवन में पग-
पग पर समाज सेवा के अवसर आते रहते हैं । इन अवसरदं पर बेमझझक हमें समाजसेवा
के मिए तत्पर हदना चामहए।
ईसा मसीह ने अपने मशष्यदं से „समरीतन‟ की कर्था सुनाई र्थी। रास्ते पर एक
घायि पड़ा र्था। पुजारी, धमाा त्मा, समाजसुधारक सभी उस रास्ते से गए, पर उन्दंने उस
घायि कद दे खते हुए भी उसकी कदई मदद नहीं की। समरीतन ने उसे दे खा। वह उस
घायि की दशा दे खकर करुर्ा से भर गया। उसने उस घायि की पूरी सेवा की। सच्चे
अर्थों में वही पुजारी, धमाा त्मा और समाजसुधारक र्था; और तद ढदगीं र्थे। समाजसेवा में
ढदग नहीं चिता। समाजसेवा प्रत्येक सामामजक व्यखि का कताव्य है । मकसी भी दे श की
सभ्यता और संस्कृमत की उच्चता का आधार यही है मक उस दे श के नागररक समाजसेवा
में संिग्न रहें ।

2.हशक्षा और चररत्र हिमाषण

मशक्षा का अर्था है मवद्यदपाजान। सद् ज्ञान और समिवेक मशक्षा की दे न है । यमद प्रारं भ


में छात्रदं के महृयाकिापदं पर गौर करें , तद पाएं गे मक प्रार्थममक मवद्यािय से िेकर उच्च
मवद्याियदं तक और महामवद्याियदं से िेकर मवश्वमवद्याियदं तक में अध्ययन करते हुए, जद
भी 18-20 वर्ा कम-से -कम व्यतीत करते हैं , उसका िक्ष्य ज्ञानाजान मात्र हदता है । यह
ज्ञानाजान कुछ एक मवर्यदं एवं उनके पररचायक सामहत्य का हदता है । आशा की जाती है
मक उन मवर्यदं का अध्ययन करते हुए वह इस यदग्य बन जाएं गे मक अपना जीवन
सुखपूवाक मबता सकें।
आज की मशक्षा में चररत्र-मनमाा र् का कदई थर्थान नहीं है , और न उसका कदई
महत्व मदया जाता है । हमारी संस्कृमत में गुरु और मशष्य का संबंध बहुत ही सुंदर और
सुखद हुआ करता र्था। इसका कारर् यही र्था मक ददनदं का एक दू सरे पर मवश्वास हुआ
करता र्था। गुरु-मशष्य कद पुत्रवत् मानते र्थे, और उस पर स्नेह रखते र्थे। मशष्य गुरु कद
मपतातुल्य और मवश्वसनीय समझता र्था। मशष्य के जीवन पर गुरु का गहरा प्रभाव पड़ता
र्था, और गुरु-मशष्य के बीच केवि व्यापाररक संबंध, मजसमें पैसे के बदिे कुछ पुस्तक
पढा दे ना मात्र का संबंध हदता है , न रहकर आध्याखत्मक संबंध हद जाता र्था. जद घमनष्ट हुए
मबना नहीं रह सकता र्था। आए मदन समाचार पत्रदं में छात्रदं और मशक्षकदं के संबंध में
ऐसी शमानाक बातें पढने कद ममिती हैं । मजससे हृदय अत्यंत खखन्न हद उठता है । मेरी
समझ में इसका ekSमिक कारर् चररत्र-गठन पर ध्यान दे ना और छात्रदं पर मशक्षक वगा के
नै मतक प्रभाव का न हदना ही है । छात्रदं के मिए सही चररत्र मनमाा र् के मिए न केवि
उनके जीवन से जुड़ी मशक्षा अमनवाया है , बखि मशक्षा-काि में हमेशा रचनात्मक
कायाहृमदं में उनका व्यस्त रहना भी अमनवाया है पर प्रायः दे खा यहीं जा रहा है मक
मकताबी अध्ययन के अमतररि छात्रदं कद मकसी प्रकार का न तद रचनात्मक व्यवथर्था है
और न उनके बारे में उन्ें सम्यक मदशा-मनदे श ही ममि पाता है ।
चररत्र के अभाव में मकसी दे श का सम्यक मवकास नहीं हद सकता। मकसी दे श के
चररत्र का अर्था है उसके नागररकदं का चररत्र और नागररकदं के चररत्र की बुमनयाद।
चररत्रवान नागररक जब ज्ञानवान हदते हैं , तभी सामहत्य मवज्ञान आमद क्षेत्रदं में भी कुछ काम
कर पाते हैं । कुछ उपिखियां प्राि कर पाते हैं , पर ज्ञानवान हदना मवद्यदपाजान के मबना
असंभव है । मवद्यदपाजान तभी संभव है जब उसकी प्राखि करने वािे अपने गुरुजनदं के
अनुशासन में रहें , उनकी सीख सुनें, उनके िारा बताए मागा पर चिें।
इस तरह चररत्र मनमाा र् के मिए सद् मशक्षा आवश्यक है । इसके अभाव में सच्चररत्र
की कल्पना करना भी मूखाता ही हदगी। आज जरुरी है अच्छी मशक्षा व्यवथर्था की, मधुर
छात्र-अध्यापक संबंध मक। हमें इस मवशाि राष्टर का प्रबुद्ध नागररक बनना है या अपने
आप में हर दृमष्ट से महान काम है , और इसका दु बाि भार चररत्रवान तर्था ज्ञानवान
नागररक ही उठा सकता है । सार्थी चररत्र-मनमाा र् पाररवाररक एवं सामामजक संतदं की
कुाँजी है ।
3.आतिंकवाद

„आतंकवाद‟ नागररकदं, राज्य के मवरुद्ध मवमभन्न िदगदं िारा अपने वां मछत उद्दे श्यदं
की पूमता के मिए प्रयदग मकया जाने वािा बिपूवाक एवं गैर-कानूनी तरीका है ।
„आतंकवाद‟ से ममिता-जुिता एक शब् „उग्रवाद‟ है । „उग्रवाद‟ में शदर्र् के मवरुद्ध
संघर्ा हदता है । „आतंकवाद‟ में शदर्र् से मुखि मक नहीं, अपने हट कद सबके मार्थे पर
र्थदपने का महं सात्मक पाशमवक कृत्य।
आतंकवाद का सबसे डरावना, घृमर्त पहिू यह है मक इनमें अमधकतर िदग धमा
और पंर्थ से प्रेररत है । यह धमाा ध िदग मवश्व स्तर पर सां प्रदामयक महं सा तर्था घृर्ा फैिाकर
संसार कद सां प्रदामयक आधार पर बां ट दे ने पर तुिे हैं । आतंकवाद, शासन तर्था व्यवथर्था
ददनदं के मिए गंभीर समस्या है , जद समाज कद मवघटन की ओर िे जा रही है - हत्या,
यातना, मफरौती, िूटपाट इत्यामद घटनाएं आतंक और भय का वातावरर् पैदा करती हैं ।
भारत दद दशकदं से आतंकवाद से जूझ रहा है । इसी „आतंकवाद‟ के चिते मई
1999 में पामकस्तान के सार्थ भारत कारमगि युद्ध में मभड़ा और एक 17 जुिाई कद
भारत ने मवजय प्राि की 23 जुिाई कद प्रधानमंत्री अटि मबहारी वाजपेयी ने कहा -
“युद्ध खत्म हद गया, पर िड़ाई जारी है ।” यह िड़ाई आतंकवाद के सार्थ है । हमारे दे श
में आतंकवाद कई रूपदं में दे खने कद ममिती है । चीनी हृां मत से प्रेररत 1967 ईस्वी में
पमिम बंगाि के नक्सि बाड़ी नामक थर्थान से शुरू हुआ नक्सिवादी आतंकवाद, कद
1970 के दशक में मबहार, आं ध्रप्रदे श, केरि में फैि गया।
कश्मीर कद हमर्थयाने के मिए पामकस्तान आए मदन आतंकवादी हर्थकंडे अपनाता
है । पामकस्तान िारा छदड़े गए युद्ध का भारत ने दद बार मुकाबिा मकया है ।
आतंकवाद मानवीय मूल्यदं की पूर्ातया अवहे िना करता है । हमारा दे श संकखल्पत
है मक वह सभी जगहदं पर सभी प्रकार के आतंकवाद का मवरदध करे गा। आतंकवादी
संगठनदं का केंद्रीय थर्थि सब कद ज्ञात है , पर इच्छा शखि के अभाव में उस पर सही
समय पर आहृमर् नहीं हद पा रहा है ।
4. ोिी

मनुष्य के जीवन में सामान्य और मवशेर् दद प्रकार के काया हदते हैं , दद प्रकार के
मदन हदते हैं । सामान्य कार और सामान्य मदन बराबर हदते हैं , मकंतु मवशेर् काया और
मवशेर् मदन अपने मनयत समय पर आते हैं और उनका मवशेर् महत्व हदता है ।
त्यदहारदं का महत्व इसमिए है मक उनमें अनेक मवशेर्ताएं हदती हैं , तर्था वे मवशेर्
समय पर आते हैं । भारतवर्ा एक ऐसा दे श है जहां प्राचीन काि से वर्ाा श्रम-व्यवथर्था
चिी आ रही है । मूितः भारतीय समाज चार वर्ों में मवभामजत है । प्रायः सभी वर्ा के
िदग सभी त्यदहारदं में भाग िेते हैं , और अपना संबंध सभी त्यदहारदं से मानते हैं । महं दू धमा
की उदारता है मक मकसी भी सां स्कृमतक और धाममाक पवा में सभी महं दू प्रेम-पूवाक
सखम्ममित हदते हैं । यह त्यौहार मनाने की प्रर्था मानव समाज में अज्ञात काि से चिी आ
रही है ।
भारत में चार त्यौहार मुख्य रूप से मनाए जाते हैं , तर्था उन का व्यापक महत्व है ।
हदिी भी इसमें से एक है । फाल्गुन शु क्ल की अंमतम मतमर्थ कद इसे जिाया जाता है , तर्था
चैत्र कृष्ण कद हदमिका की धूि उड़ायी जाती है । उस मदन अच्छे -अच्छे पकवान बनते हैं ।
िदग आनंद से गाते-बजाते हैं । नया वर्ा नए उत्साह कद िेकर आता है ।
हदमिका के मवर्य में यह कहानी प्रमसद्ध है मक महरण्यकश्यपु का पुत्र प्रह्लाद हरर
भि र्था, और वह स्वयं हरर मवरदधी र्था। उसने एक बार हदमिका कद प्रहिाद के सार्थ
अमग्न में बैठने की आज्ञा दी। हररमाया से हदमिका स्वयं जि गई और भि प्रह्लाद बच
गया। तभी से हदमिकादहन की प्रर्था चि पड़ी। तभी साि भर की गंदगी उस मदन
अवश्य साफ कर दी जाती है । इस त्यौहार पर रं ग गुिाि मछड़का जाता है , तर्था िदग
परस्पर प्रेम से ममिते हैं ।
कुि ममिाकर हदिी हर्ाा मभव्यखि का पवा है । यह महं दू जामत के मिए प्रसन्नता एवं
नव वर्ा आरं भ का संदेश िेकर उपखथर्थत हदता है । इसके आगमन से िदगदं में प्रसन्नता
की िहर दौड़ जाती है । हमें भी चामहए मक शु द्ध मन से प्रेम पूवाक हदिी का आनंद
उठाएं और हर वगा के सार्थ ममिकर सुख सौहादा , भाईचारे का संदेश दें । तभी इस महान
त्यौहार की सार्थाकता हदगी।
से ट -3 (iz”u)
ह िं दी (50 अिं क)
समय : 1 घं टा 37.5 ममनट पू णाा क:50
परीक्षार्थी के हिए हनदे श:
Instructions to the candidate:
1.परीक्षाथी यथासंभव अपने शब्दं में ही उत्तर दें ।
Candidates are required to give their answer in their own words as far
as practicable.
2.दामहनी और हामशये पर मदए हुए अंक पूणाा क मनमदा ष्ट करते हैं ।
Figures in the right hand margin indicate full marks.
3.परीक्षाथी प्रत्येक उत्तर के साथ प्रश्न संख्या अवश्य मिखें।
Right question number with every answer.

1.संक्षेपण करें :- 05
धमा कद िदगदं ने धदखे की दु कान बना रखा है । वे उसकी आड़ में स्वाथा मसद्ध
करते हैं । बात यह है मक िदग धमा कद छदड़कर संप्रदाय के जाि में फँस जाते हैं ।
संप्रदाय बाह्य कृत्यदं पर जदर दे ते हैं । वे मिन्दं कद अपनाकर धमा के सार तत्व कद मसि
दे ते हैं । धमा मनुष्य कद अंतमुाखी बनाता है , उसके हृदय के मकवाड़दं कद खदखिा है ,
उसकी आत्मा कद मवशाि, मन कद उदार तथा िररत्र कद उन्नत बनाता है । संप्रदाय
संकीणाता मसखाते हैं , जात-पात, रूप-रं ग तथा ऊँि-नीि के मत मेदभावदं से ऊपर नही ं
उठने दे ते हैं ।

2.भावाथा मिखें:- 7.5


रमहमन, पानी राfखये, मबन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरै , मदती मानुस िून।।

अथवा
भारत जहाँ , वहाँ जीवन-साधना नहीं है भ्रम में,
धाराओं कद समाधान है ममिा हुआ संगम में।
जहाँ त्याग माधुयापूणा हद, जहाँ भदग मनष्काम,
समरस हद कामना, वहीं भारत कद करद प्रणाम!
वृथा, मत िद भारत का नाम।

3. „भकदमिया‟ का िररत्र-मित्रण अपने शब्दं में कीमजए। 7.5


अथवा
“रवींद्र नाथ ठाकुर” शीर्ाक पाठ का सारां श मिखें।
4.वस्तुमनष्ठ प्रश्न:- 5x1=5
बताए मकस पाठ से उद्धत है :-
(क) अच्छे कामदं की मसद्धद्ध में बड़ी दे र िगती है , पर बुरे की मसद्धद्ध में यह बात
नहीं हदती।
(ख) तीव्र गमत में स द
ं या है , परं तु वह मंथर गमत के सुंदर कद नहीं पाता।
(ग) कािा-किूटा मफर भी खूबसूरत? सैन्दया के रं गसाजी और नक्कासी का
ममिान करें ।
(घ) बंग दे श की बुिबुि
(ड़) स्वतंत्रता मदवस भंगता है और गणतंत्र मदवस मठठु रता है ।
5. मुहावरदं से वाक्य बनाकर अथा स्पष्ट करें :- 5x1=5
(क) अक्ल पर पत्थर पड़ना
(ख) ईद का िां द हदना
(ग) हवा से बातें करना
(घ) दां तद तिे उँ गिी दबाना
(ड़) गाि बजाना
6. पयाा यवािी शब् मिखे:- 5x1=5
(क) अमृत
(ख) सदना
(ग) जि
(घ) राजा
(ड़) हाथी

7.मनम्नमिद्धखत शब्दं से वाक्य बनाकर मिंग स्पष्ट करें :- 5x1=5


(क) आग (ख) मकताब (ग) नदी (घ) शाम (ड़) जेब

8. मकसी एक पर मनबंध मिखें :- 10


(क) भारतीय मकसान (ख) मूल्य-वृद्धद्ध की समस्या-महं गाई (ग) भ्रष्टािार
(घ) दु गाा पूजा (ड़) कमव - मैमथिी शरण गुप्त
से ट -3 (उत्तर)
ह िं दी (50 अिं क)

1.
शीर्षक-धर्ाांधता
धमा कद िदगदं ने धदखे की दु कान बना रखा है । वे उसकी आड़ में स्वाथा मसfद्ध
करते हैं । बात यह है मक िदग धमा कद छदड़कर संप्रदाय के जाि में फंस जाते हैं । धमा
मनुष्य कद अंतमुाखी बनाता है , उसके हृदय कh मकवाड़दं कद खदिता है , उसकी आत्मा
कद] मवशाि, मन कद उदार, तथा िररत्र कद उन्नत बनाता है ।

2.
प्रस्तुत ददहे में महाकमव रहीम ने पानी शब् के मशि्िष्ट (अनेक अथो वािा) प्रयदग
द्वारा उनके अथों में उसके महत्व पर प्रकाश डािा है । कमववर रहीम कहते हैं मक पानी
का महत्व बहुत हदता है । इसमिए हर मूल्य पर इसकी रक्षा की जानी िामहए। इसके
अभाव में मदती, मनुष्य और िूना के मिए तद कुछ भी नहीं बि जाता है ।
मदती, मनुष्य और िूना इन तीनदं के संदभा में पानी के अिग-अिग अथा मनकिते
हैं । मदती के संदभा में इसका अथा िमक है , मजसे आभा या उदू ा में आब भी कहते हैं ।
अााब पानी का ही उदू ा पयाा यवािी शब् है । इस आब या पानी अथाा ति् स्वाभामवक िमक
के समाप्त हद जाने पर मदती रत्न भी सवाथा मूल्यहीन हद जाता है । इसमिए इसकी रक्षा
की जानी िामहए।
मनुष्य के संदभा में पानी का अथा प्रमतष्ठा है । व्यद्धि की प्रमतष्ठा नष्ट हद जाने पर
उसका कदई मूल्य नही ं रह जाता। उसमें मनरथाकता आ जाती है । प्रमतमष्ठत व्यद्धि कद
पानीदार व्यद्धि भी कहा जाता है । प्रमतष्ठा ििे जाने के बाद उसके पास कुछ नहीं बिा
जाता। इसमिए हर मूल्य पर उसे पानी अथाि्ा त प्रमतष्ठा की रक्षा करनी िामहए।
िूने के संदभा में पानी का अथा जि है । जि सूख जाने पर िुना मकसी उपयदग के
िायक नहीं रह जाता। उसे खाने या िगाने की उपयदमगता तभी तक रहती है जबतक
उसमें पानी रहता है । पानी समाप्त हद जाने के बाद अनुंपयदगी धूि जैसा रह जाता है ।
इसमिए हर सूरत में उसके मिए रक्षा करनी िामहए।
अथवा

प्रस्तुत पंद्धियदं में राष्टर कमव रामधारी मसंह „मदनकर‟ ने भारत के आदशों कद
प्रस्तुत करते हुए यह याद मदिाया है मक भारत में मवर्मता, मवमभन्नता के बीि एकता,
अखंडता, प्रेम और अमहं सा मवकमसत हद रही है । भारत में जीवन साधना के आदशा
ममिते हैं । यहां भ्रम और भूि नहीं है । बद्धि त्याग, माधुयापूणा और मनष्काम सेवाएँ
ममिती हैं । अच्छे मविार व्यवहार भारतीयदं के जीवन शै िी रही है । नैमतकता का पाठ
भारत से मवश्व के अनेकदं दे शदं में पहुं िा है । हमें भारत के मान-सम्मान कद हमेशा बढाना
िामहए।

3.
भकदमिया मंगर की पत्नी है । जैसा सीधा मंगर है , वैसी ही सीधी भकदमिया है । वह
रं ग साँ विी है । वह मंगर से मवशेर् स्वस्थ है । वह कमाठ स्त्री है । वह इधर-उधर फुटकर
काम करती है और कुछ कमा िेती है । पहिे भकदमिया भी मंगर की तरह तमकती थी,
मििकती थी। उसका भी स्वभाव मंगर के स्वभाव के समान ही था। पर बाद में उसने
अपने आपमें सुधार िाने का प्रयास मकया। मंगर तद ज्दं का त्यदं रहा, पर उसने अपने
कद पररद्धस्थमत के अनुकूि बना मिया। वह घर-घर जाकर कुटान-मपसान का काया करती
थी, गदबर पाथती थी, पानी भरती थी इस प्रकार उसके स्वभाव में कदमिता आ गयी थी।
भकदमिया सेवा भाव से भरी थी। जब मंगर कद अधकपारी उठी तद उसने बड़ी
सेवा-भाव की। इस प्रकार हम दे खते हैं मक भकदमिया सामान्य दे हाती औरत से
मवशेर्कर मजदू रदं की औरतदं से ऊपर उठी हुई थी।

अथवा

मवश्व कमव के ग रव से मवभूमर्त „रवींद्रनाथ ठाकुर‟ अपने बहुआयामी व्यद्धित्व के


कारण महान हैं । सामहत्य की साधना उन्दंने मजस सेवा-भाव से की, वह सेवा उनके द्वारा
मनुष्यता की सेवा कद दृमष्ट-पथ में रखकर ही की गई है मजस कारण उन्ें आज अमद्वतीय
कमव, िेखक और महान पुरुर् के रूप में पहिान है ।
उनका जन्म सनि् 1861 ईस्वी में बंगाि के एक संभ्रां त पररवार में हुआ था जद पूवा
से ही अपनी मवद्वता के मिए प्रमसद्ध रहा है । उनके मपता का नाम महमर्ा दे वेंद्रनाथ ठाकुर
था। िूँमक अपनी माता की स्नेह-छाया बिपन से मछन गई थी इसमिए मपता द्वारा ही
उनका पािन-पदर्ण मकया गया। मवद्याियी मशक्षा उन्ें नाममात्र की ही प्राप्त हुई थी।
उन्ें घर पर ही मशक्षा मदिायी गयी। अपनी कुशाग्र बुद्धद्ध के कारण 16 वर्ा की अवस्था
में ही िेखन के प्रमत उनकी प्रवृमत्त भिी-भाँ मत उजागर हदने िगी। आरं भ में स्वरमित गीत
वे स्वयं गाते थे। इसके अमतररि उन्दंने अपने िेखन कद जारी रखते हुए आगे अनेक
गद्य पद्ध संबंधी पुस्तकें मिखी। अपनी काव्य-पुस्तक के मिए नदबेि पुरस्कार से
सम्मामनत हदना न केवि उनकी मवमशष्ट उपिद्धि मानी जाएगी अमपतु यह समस्त
दे शवामसयदं के मिए ग रव की बात है ।

4.
1.पंि परमेश्वर
2. ग रा
3. मंगर
4. कमववर रवीद्र
ं नाथ ठाकुर
5. मठठु रता हुआ गणतंत्र

5.
1.अक्ल पर पत्थर पड़ना- (बुद्धद्ध का मारा जाना) - उसे क्या समि में आएगा,
उसकी अक्ल पर तद पत्थर पड़ा है ।
2. ईद का िां द हदना- (कभी-कभी मदखाई दे ना) - आजकि तद आप मबिुि
ईद का िां द हद गए हैं ।
3. हवा से बातें करना- (बहुत तेज भागना) - मार िगते ही घदड़ा हवा से बातें
करने िगा।
4.दां तद तिे उं गिी दबाना- (आश्चया प्रकट करना) - बस इतने में ही आप दां तद
तिे उं गिी दबाने िगे।
5. गाि बजाना- (डींगे हाँ कना) - गाि क्या बजाते हद? जद कहता हं उसे सुनद।
6.
(1) अमृत - सुधा, पीयूर्
(2) सदना - स्वणा, कनक
(3) जि - पानी, नीर
(4) राजा - नृप, भूपमत
(5) हाथी - गज, कुंजर

7.
(क) आग - (स्त्री०) - आग फैि गई।
(ख) मकताब - (स्त्री०) - मेरी मकताब नई है ।
(ग) नदी - (स्त्री०) - नदी बहती है ।
(घ) शाम - (स्त्री०) - शाम ढि गई।
(ड़) जेब - (स्त्री०) - मदहन की जेब कट गई।

8.
(क) भारतीय हकसान
भारतीय मकसान स्वभाव से मनश्छि तथा सीधे-साधे हदते हैं । ईमानदारी इनकी
जीवन का अिंकार है । ये ईश्वर पर अटू ट मवश्वास और श्रद्धा रखते हैं । इनका मानना है
मक ईश्वर मजस मवमध से रखे उस मवमध से रहना िामहए। इसके साथ ये यह भी मानते हैं
मक घदर से घदर मवपमत्त में भी महम्मत नहीं हारनी िामहए तथा भगवान का नाम नही ं
भूिना िामहए। कमा के साथ अध्यात्म का अपूवा सहयदग ही भारतीय कृर्क का अद्धस्तत्व
मनममात करता है । खेती इनका यज्ञ है , खेत की धरती इनका यज्ञ मंडप है । पररश्रम इनके
जीवन का सबसे बड़ा धमा है ।
भारतीय मकसानदं की आमथाक द्धस्थमत संतदर्जनक नहीं है । यह मकतने दु ख की
बात है मक सारे दे श कद द्धखिाने वािा मकसान अपने मबना खाए सद जाएं । दू सरदं के
शरीर ढके और अपने नंगा रहे । यह सुबह से शाम तक कड़ी मेहनत करते हैं । सुबह
उठे कुंट्टी काटी, नाद साफ की, गाय बैिदं कद दाना-पानी मदया, गाय भैंस ददहा, मफर
कुछ रुखा-सुखा खाकर हि बैि मिए और खेतदं की ओर िि पड़े । ददपहर तक हि
ििाते रहें । खेत में ही खाना पहुं ि गया, तद वही मकसी वृक्ष की छाया में बैठ कर खा
मिया, नहीं तद कंधे पर हर रख बैि ं के पीछे -पीछे घर की ओर िि पड़े । बैिदं कद नाँ द
पर बां धकर, पानी मपिाया और अपने खाकर बािदं कद द्धखिाने के मिए िारा काटने
िगे। सुबह से शाम तक इनका जीवन कमठन पररश्रम और कठदर साधना में बीतता है ।
इतनी परे शानी, इतनी उििन, इतनी मेहनत के बाद भी यह जद कुछ उत्पादन
करते हैं ,उससे इनके पररवार की आवश्यकता पूरी नहीं हद पाती। पाररवाररक मिंता में
व्यग्र ये धीरे -धीरे कृशकाय हद जाते हैं । यही भारतीय कृर्क की मनयमत है ।
अमधकतर भारतीय मकसान अनपढ हदते हैं । इनकी गरीबी का मुख्य कारण
अमशक्षा भी है । यह बहुत सारी गित रूमढयदं के मशकार हैं । मजन्ें मशक्षा से ही दू र मकया
जा सकता है । इनके मशक्षा का समुमित प्रबंध कर तथा वैज्ञामनक ढं ग से खेती करने की
सारी सुमवधाएं दे कर, उनकी आमथाक दशा में समुमित सुधार िाया जा सकता है ।
भारतीय मकसान ऋण में ही जन्म िेता है , ऋण में ही पिता है , और ऋण में ही मर जाता
है । इस भ्रामक िदकदद्धि कद ममटाया जा सकता है । मकसानदं की खुशहािी ही दे श की
खुशहािी है , क्यदंमक भारत मकसानदं का दे श है 80% दे श की आबादी कृमर् पर ही मनभार
है ।

(घ) दु र्ाषपूजा
भारत में शद्धि और ऐश्वया की पूजा प्रािीनकाि से ििी आ रही है । शास्त्रबि के
साथ ही भारत वामसयदं ने शस्त्रबि कद भी अमधक महत्व मदया है । यही कारण है मक दे वी
दु गाा की आराधना भारतवासी प्रािीनकाि से ही करते ििे आ रहे हैं ।
दु गाा पूजा कद मवजयदशमी के नाम से भी पुकारा जाता है । इसके भी कई कारण
हैं । इस दशमी की मतमथ कद मवजया अथाा त महाशद्धि की मवमध पूवाक आराधना एवं
अनुष्ठान मकया जाता है , इस कारण उसे मवजयादशमी कहा जाता है । यह भी कहा जाता
है मक इस मतमथ कद भगवान श्रीराम ने दे वी दु गाा की आराधना करके आततायी रावण
पर मवजय प्राप्त की थी और इसी कारण यह मतमथ मवजयादशमी के नाम से मवख्यात हुई।
एक अन्य मान्यता के अनुसार, यमद दशमी कद श्रद्धा पूवाक दे वी की आराधना की जाए तद
जीवन में जय अवश्यंभावी हदती है । यह भी मान्यता है मक महामवद्याओं एवं इं मद्रयदं की
संख्या 10 है । माता की आराधना इन दसदं महामवद्याओं एवं इं मद्रयदं पर अमधकार करने
के मिए की जाती है । दु गाा पूजा कद दशहरा के नाम से भी पुकारा जाता है , क्यदंमक इसी
मदन दसमुख (रावण) का संहार मकया गया था और उसके द्वारा उत्पन्न मकए गए कष्टदं
का हरण मकया गया था।
माता दु गाा के पूजन का मवशेर् महत्व है । कहा जाता है मक माँ दु गाा समस्त राष्टर
शद्धि के प्रतीक हैं । अपने साधकदं के हे तु वह सब कुछ करने कद तैयार हैं । वह
सदि् वृमत्तयदं में िगे हुए िदगदं कद कल्याण करने वािी हैं । वह मनुष्य के द्वारा ही नही ं
बद्धि दे वताओं के द्वारा भी वंदनीय हैं ।
दु गाा पूजा महदत्सव भारत में अत्यंत धूमधाम से मनाया जाता है । औपिाररक रुप
से यह उत्सव आमश्वन मास की दू सरी प्रमतपदा से दसवीं तक मनाया जाता है । भारत के
मवमभन्न भागदं में दु गाा पूजा का आयदजन मवमभन्न ढं ग से हदता है । ना केवि भारत अमपतु
मवदे शदं में भी जहां भारतीय मूि के मनवासी हैं , वहां दु गाा पूजा का आयदजन सदल्लास
मनाया जाता है ।
मां दु गाा शद्धि की प्रतीक हैं । वह कष्टदं कद हरने वािी और पापदं कद नाश करने
वािी हैं ां। महामदह, अमवद्या और अज्ञान के बादिदं कद मछन्न-मभन्न करके मवद्या और ज्ञान
का प्रकाश फैिाने वािी हैं ।
से ट -4 (प्रश्न)
ह िं दी (50 अिं क)
समय : 1 घं टा 37.5 ममनट पू र्ाा क:50
परीक्षार्थी के हिए हनदे श:
Instructions to the candidate:
1.परीक्षार्थी यर्थासंभव अपने शब्दं में ही उत्तर दें ।
Candidates are required to give their answer in their own words as far
as practicable.
2.दामहनी और हामशये पर मदए हुए अंक पूर्ाा क मनमदा ष्ट करते हैं ।
Figures in the right hand margin indicate full marks.
3.परीक्षार्थी प्रत्येक उत्तर के सार्थ प्रश्न संख्या अवश्य मिखें।
Right question number with every answer.

1.संक्षेपर् करें :- 05
जद हमारे पास है उसके मिए धन्यवाद दें या जद हमारे पास नहीं है , उसके मिए
मशकायत करें ? मजी है आपकी, जद चाहे करें -चाहे मशकायत करें , चाहे धन्यवाद दें अर्थवा
प्रशंसा करें । मकंतु इतना अवश्य जान िें मक ददनदं ही दशाओं में जमीन आसमान का
अंतर है । मशकायत करने वािा मन धीरे -धीरे उदास, म्लान, मनजीव, बदमिि और रदगी
हदने िगता है । वह पशु हद जाता है । उसमें मियाशीिता नहीं रहती। उसकी ताजगी नष्ट
हद जाती है । इसके ठीक मवपरीत धन्यवाद दे ने वािा मन धीरे -धीरे आशा और मवश्वास से
प्रफुल्ल हद उठता है । उसमें गमतशीिता और दू सरदं के प्रमत आत्मीयता बढ़ती है । जीवन-
जगत के प्रमत उसका रुिान बढ़ जाता है । वह आशा से भरकर आगे कदम बढ़ा सकता
है । अतएव हर पररस्थर्थमत में ईश्वर कद, अपने सामर्थयदं कद अपने पररवेश कद धन्यवाद
दीमजए; उसके प्रमत कृतज्ञ भाव रस्खए।
2.भावार्था मिखें:- 7.5
रमहमन वे नर मर चुके, जे कहूँ माूँ गन जामह।
उनते पहिे वे मरे , मजन मुख मनकसत नामहं ।।
अर्थवा
क्या उनका उपकार-भार तुम पर िविेश नहीं है ?
उनके प्रमत कताव्य तुम्हारा क्या कुछ शेष नहीं है ?
सतत ज्वमित दु ख-दावानि में जाग के दारुर् रन में।
छदड़ उन्हें कायर बनकर तुम भाग बसे मनजान में।।

3.गौरा कौन र्थी? गौरा के संबंध में महादे वी वमाा के मवचारदं कद प्रस्तुत करें । 7.5
अर्थवा
मनुष्दं में पारस्पररक प्रीमत का हदना कल्यार्कारी है , प्रस्तुत उदाहरर् के अिदक में
„कमववर रवीन्द्रनार्थ ठाकुर‟ शीषाक पाठ का सारां श मिस्खए।

4.मनम्नमिस्खत मुहावरदं से वाक्य बनाकर अर्था स्पष्ट करें :- 5x1=5


(क)आूँ ख मदखाना
(ख)अंधे की िकड़ी
(ग)कानदं पर जूूँ तक न रें गना
(घ)घी के मदए जिाना
(ड़)पेट में चूहे कूदना

5.मनम्नमिस्खत अनेक शब्दं के मिए एक शब् मिखें:- 5x1=5


(क)जद ईश्वर में मवश्वास करता है
(ख)जद सब कुछ जानना चाहता हद
(ग)मजसके चार पैर हैं
(घ)नगर में रहने वािा
(ड़)दे खने यदग्य
6.मनम्नमिस्खत शब्दं से वाक्य बनाकर मिंग स्पष्ट करें :- 5x1=5
(क) कदमशश (ख) चादर (ग) पानी (घ) हीरा (ड़) दही

7.पयाा यवाची शब् मिखें:- 5x1=5


(क) स्वगा (ख) रात (ग) पुष्प (घ) पंक्षी (ड़) घदड़ा

8.मकसी एक पर मनबंध मिखे:- 10


(क) महात्मा गां धी
(ख) ममहिा आरक्षर्
(ग) कंप्यूटर आज की जरूरत
(घ) वसंत ऋतु
(ड़) दहे ज प्रर्था
से ट -4 (उत्तर)
ह िं दी (50 अिं क)

1.
शीर्षक- सिंतोर् का भाव
हमारे पास जद कुछ भी है , उसके मिए हमें खुश रहना चामहए।इसके सार्थ-सार्थ
जद चीजें हमें नहीं प्राप्त हैं , उसके मिए दु खी भी नहीं हदना चामहए। क्यदंमक दु खी हदने से
मन-तन ददनदं प्रभामवत हदता है । जद कुछ हमें प्राप्त है , उन्हीं कद संतदष मानकर सबदं के
प्रमत आभार प्रकट करना चामहए।

2.
प्रस्तुत ददहे कमव रहीम कहते हैं मक माूँ गना एक अपमानजनक काया है । माूँ गने
वािे व्यस्ि मृत समान हदते हैं । उनमें िाज, शमा और मयाा दा इत्यामद का अभाव हदता
है । असहाय, मनबाि व्यस्ि मृत समान हदते हैं । उस की सेवा करना, सहयदग दे ना, मानव
का कताव्य है । दया करना मानव का धमा है । िेमकन यमद ऐसे मनबाि और असहाय
माूँ गनेवािे व्यस्ि कद दान दे ने से कदई हार्थ खींचता है । साधन रखते हुए भी यमद कदई
धनवान व्यस्ि असहाय की सेवा नहीं करता है । जद रहीम कमव कहते हैं मक असहाय
और मनबाि से पहिे वह धनवान मर चुका हदता है मजसमें मुूँह नकारात्मक शब् मनकिते
हैं ।
इस ददहे में दान, दया, सहयदग कद उत्तम काया के रूप में पेश मकया गया है ।
माूँ गना यमद एक सामामजक बुराई है , तद धन रखते हुए सहयदग न दे ना कंजूसी या
कठदरता नही ं बस्ि दयाहीनता है और ऐसा व्यस्ि वास्तव में मृत समान हदता है ।

अर्थवा
“जीवन संदेश” शीषाक कमवता, मवद्वान कमव श्री राम नरे श मिपाठी की रचना है जद
„पमर्थक‟ खंड-काव्य से उदधृत है । कमव प्रकृमत के मवमभन्न रूपदं की मियाशीिता का
उदाहरर् प्रस्तुत करते हुए, कमाशीि रहने का संदेश मदया है । मजस पृथ्वी और मानव
समाज ने हमें एक सार्थ मनुष् बनने में मनरं तर सहयदग मकया है उस दे श और समाज के
प्रमत भी तद हमारा कुछ कताव्य है । यमद उस समाज कद संकट में छदड़कर हम अपनी ही
दु मनया में मस्त रहते हैं तद हम मनमित रूप से कताव्य मवमुख और पिायनवादी
कहिाएं गे।
इस पृथ्वी पर भी सभी जीवदं से बुस्िमान, बिवान और मवकमसत प्रार्ी मनुष् है ।
क्या ईश्वर ने मनुष् कद उद्दे श्य रमहत कताव्य ही बनाया है ? नहीं, बस्ि मनुष् के जीवन
का एक उत्तम िक्ष्य सवाश्रेष्ठ बनकर ईश्वर के आदे श का पािन करना भी है ।

3.
प्रस्तुत रे खामचि में महादे वी वमाा ने अपनी छदटी बहन से प्राप्त गाय (गौरा) का
अदभुत वर्ान मकया है । सार्थ ही गौरा की मनमाम मृत्यु के पररपेक्ष्य में मानव की स्वार्था
मिप्सा का रहस्यदद् घाटन मकया है ।
गौरा, एक सफेद, चमकदार रदमदं वािी बाछी र्थी। उसे सफेद-िाि
गुिाबदं की मािा पहना कर, मार्थे पर टीका िगाकर और आरती उतार कर स्वागत
मकया गया। उसका नामकरर् भी हुआ „गौरां मगनी‟ या „गौरा‟ के नाम से वह प्रमसि हद
गई।
गौरा केवि दे खने में सुंदर नहीं र्थी बस्ि उसका स्वभाव भी अच्छा
र्था, अन्य पाितू पशु -पमक्षयदं के सार्थ घुि-ममि गई। कुत्ते-मबस्ल्लयाूँ उसके पेट के नीचे
और पैरदं के बीच में खेिते रहते हैं , मजनका संपका सुख पाकर वह अपनी आं खें मूंदे
खड़ी रहती हैं ।
गौरा िेस्खका के यहां रहते-रहते सभी िदगदं के पैरदं की आहट
पहचानती र्थी। गौरा 1 वषा के बाद मां बनी और िाि रं ग के बच्चे कद जन्म दी, मजसका
नाम िािममर् रखा गया। वह प्रमतमदन 12 सेर दू ध दे ने िगी र्थी। िािममर् के मिए कई
सेर दू ध छदड़कर जद दू ध हदता उसे आस-पास के बाि-गदपाि से िेकर कुत्ते मबल्ली nw/k
ihdj सभी तृप्त हदते।
जब गौरा के दु ग्ध ददहन की समस्या खड़ी हुई तब उसके मिए ग्वािे
कद ही मनयुि कर मदया, जद पूवा में दू ध दे जाता र्था।
मकंतु गौरा ने दद-तीन महीने के बाद दाना-चारा खाना ही बंद कर
मदया, पररर्ामस्वरुप वह कमजदर हदती चिी गई। डॉक्टर से उसे मदखिाया गया, एक्सरे
से यह पता चिा मक उसे सुई स्खिा दी गई है । इसका प्रमार् तद नहीं र्था मक मकसने
स्खिाई है , िेमकन ग्वािे के भाग जाने से यह मवश्वास हद गया र्था मक यह ग्वािे का ही
कारनामा है । आस्खरकार गौरा मृत्यु के सार्थ संघषा करती हुए एक मदन मर गई। उसकी
मृत्यु का दु ख सहना िेस्खका के मिए बहुत कमठन हद गया।

अर्थवा
यमद जनसामान्य की तरह सामहत्य-सेमवयदं में पारस्पररक प्रीमत हद तद इससे बढ़कर
भिा अच्छी बात और क्या हद सकती है ? सामहत्य-सेमवयदं द्वारा अक्सर सभा-सम्मेिनदं के
माध्यम से प्रायः उसके अभाव कद दू र करने की चेष्टा की जाती है ।
स्पष्ट है मक मनुष् में पारस्पररक प्रीमत अपेमक्षत है पर इससे रचना-काया में कदई
सुमवधा ममिती हद ऐसा रमव बाबू नहीं मानते र्थे। अमपतु वे सामहत्य-सेवी कद स्वतंि
मानकर अपनी मनज प्रर्ािी का अनुसरर् करते हुए अपनी मवद्या-बुस्ि के अनुसार
सरस्वती-सेवा करने वािा बताते हैं । जैसे मक उनकी स्वीकारदस्ि है - “यह नहीं कहा जा
सकता मक िेखक िदग यमद एक-दू सरे कद प्यार करें , तद इससे उनके रचना-काया में भी
मवशेष सुभीता हद अर्थवा िेखकदं का इससे कदई मवशेष उपकार है । व्यवसाय की दृमष्ट से
प्रत्येक सामहत्य-स्वतंि हैं । िदग परस्पर परामशा करके, सस्म्ममित भाव से , अपना-अपना
काम नहीं करते। प्रत्येक िेखक अपने मनजी प्रर्ािी का अनुसरर् करके, अपनी-अपनी
मवद्या- बुस्ि के अनुसार सरस्वती की सेवा करता है ।”

4.का उत्तर -
1. आं ख मदखाना- (िदध करना) - तुम्हारी आं ख मदखाने से मैं डरने वािा नहीं।
2. अंधे की िकड़ी- (एक माि सहारा हदना) - इकिौते पुि की मृत्यु ने उस अंधे की
िकड़ी भी छीन िी।
3. कानदं पर जूं तक न रें गना- (बार-बार कहने पर भी न सुनना) - मकतनी बार कहा,
पर उनके कान पर जुएूँ तक न रें गी।
4. घी के मदए जिाना- (खुमशयां मनाना) - सेठ जी के यहां तद रदज ही घी के दीए
जिाए जाते हैं ।
5. पे ट में चूहे कूदना- (खूब भूख िगना) - पेट में चूहे कूद रहे र्थे, पर चूल्हा ठं डा
पड़ा र्था।

5.का उत्तर -
1.आस्स्तक
2.सवाज्ञ
3.चौपाया
4.नागररक
5.दशानीय

6.का उत्तर -
1. कदमशश- (स्त्री०) -मैंने कदमशश की।
2. चादर- (स्त्री०) -मैनें चादर ओढ़ िी।
3. पानी- (पु०) -पानी खारा है ।
4. हीरा - (पु ०) -हीरा चमकता है ।
5. मचट्ठी- (स्त्री०) -मैंने मचट्ठी मिखी।

7.का उत्तर -
1. पु स्तक -ग्रंर्थ , मकताब ।
2. रात - मनशा , रामि ।
3. पु ष्प - फूि , सुमन ।
4. पक्षी - मचमड़या , खग ।
5. घदड़ा - अश्व , तुरग ।
8.का उत्तर -
1.राष्ट्रहपता म ात्मा गािंधी

दु बिh-पतिh काया , खद्दर की िूँगदटी में मिपटा हुआ वह सेवाग्राम का संत,


संपूर्ा भारत की मदव्य आत्मा र्था। वह भारत का ज्यदमतषमान भव्य भाि र्था। वह इस
मनधान, पीमड़त, शदमषत दे श की जनता का हृदय-सम्राट र्था। छदटी-छदटी चमकती आूँ खें,
चेहरे पर खेिती हुई शुि, मनमाि मुस्कान, न जाने मकतने शदमषत एवं प्रेररत भारतीयदं कद
सां त्वना दे चुकी हैं । न जाने उसमें कैसा जादू र्था, कैसी अद् भुत शस्ि र्थी मक मकतने वषों
से मनराश भारतीयदं में जीवन, आत्ममवश्वास, प्रेम, सद्भाव और कताव्यमनष्ठा कद कुछ ही
वषों में जाग्रत कर मदया।
2 अक्टू बर, 1869 ईसवी का वह पावन मदवस र्था जब गुजरात के पदरबंदर
(कामठयावाड़) की धरती पर इस महान आत्मा का अवतरर् हुआ र्था। इनके मपता
करमचंद गां धी वहां के दीवान र्थे। इनकी माता पुतिीबाई एक धमामनष्ठ ममहिा र्थी।ं गां धी
जी एक साधारर् मवद्यार्थी र्थे , पर शुरू से ही सत्य के प्रमत उनकी अटू ट मनष्ठा र्थी। मपता
की मृत्यु के बाद बैररस्टर पढ़ने इं ग्लैंड गए। बैररस्टर बनकर इं ग्लैंड से िौटने के बाद एक
मुकदमे के मसिमसिे में उन्हें दमक्षर् अफ्रीका जाना पड़ा। वहां भारतीयदं की दु दाशा
दे खकर उन्हें बड़ी वेदना हुई। उन्हें मानवदमचत अमधकार मदिाने के मिए उन्हदंने वहां
अमहं सक आं ददिन छे ड़ा मजसके आगे वहां के गदरे शासकदं कद िुकना पड़ा।
दमक्षर् अफ्रीका से िौटने के बाद सदस्यदं की दशा सुधारने एवं अंग्रेजदं के शदषर्
का अंत करने में वे िग गए। यहाूँ उनके सत्याग्रह आं ददिन का प्रर्थम कायाक्षेि बना
चंपारर्, जहाूँ fuिहे xksjksa का अत्याचार अपनी पराकाष्ठा पर र्था। और, इसके बाद तद
दे श का हर गाूँ व, हर नगर उनका कायाक्षेि बन गया। सत्य और अमहं सा उनके अस्त्र र्थे।
कां ग्रेस का नेतृत्व उनके हार्थदं में आ गया। आजादी के मिए उन्हदंने सत्याग्रह और
समवनय अवज्ञा आं ददिन शुरु मकये और, उसके आगे अंग्रेज मटक न सके। अंततः 15
अगस्त, 1947 ईस्वी कद हमारा दे श स्वतंि हुआ।
महात्मा गां धी जीवनभर आध्यास्त्मक मूल्यदं के पक्षधर रहे । सारे राष्टर ने उन्हें
राष्टरमपता का सम्मान मदया और वह „बापू ‟ कहिाए। वस्तुतः महात्मा गाूँ धी की दे न आज
भी प्रासंमगकतापूर्ा है

5.द ेज प्रर्था

हमारे वतामान सामामजक जीवन की सवाा मधक असाध्य व्यामध है - दहे ज-प्रर्था।
दहे ज मातृ-शस्ि की मवराटता के समक्ष भयंकर प्रश्न मचंह है । समदयदं से शदमषत नारी
आज तक वास्तमवक मूल्यवत्ता से वंमचत है । दहे ज उसकी उदात्त अमभव्यस्ियदं का
उपहासात्मक पुरस्कार है । आमद- शस्ि दु गाा , मवद्या-दातृ सरस्वती और दान-दातृ िक्ष्मी
कद आहत करने वािी यह मवषैिी प्रर्था बहुत बड़ी चुनौती है ।
आरं भ में यह प्रर्था कन्या-पक्ष के प्रेम-प्रदशान के रूप में प्रकट हुई। आगे यह
अपनी वास्तमवक चेतना खद बैठी। इसने िूठी सामामजक प्रमतष्ठा का रुप िे मिया।
अमधकामधक दहे ज िेना शान की बात समिी जाने िगी।
वस्तुतः दहे ज-प्रर्था का मवरदध वार्ी से नहीं कमा से हाेे और वह भी सामूमहक
स्तर पर हद तद मनमित ही सफिता ममिेगी। दहे ज प्रर्था के दु ष्पररर्ाम अनमगनत हैं । अल्प
मवत्तीय पररवार की रूपवती, शीिवती एवं गुर्वती कन्याएूँ भी दहे ज के अभाव में गदहदं
के गिे बाूँ ध दी जाती हैं । दहे ज रदग वर-कन्या के ममिन मागा की सबसे बड़ी बाधा है ।
कन्याओं का आत्मदाह, अनुमचत असामामजक वृमत्तयदं का अविंबन दहे ज प्रर्था का
प्रमतफि है ।
यह प्रर्था नारी की अस्िता के अवमूल्यन की ओर संकेत करती है । अतः यमद
तमाम माताएूँ अपने पुिदं की शामदयाूँ मबना दहे ज मिए करने का संकल्प कर सकेगी तद
अवश्य ही समाज कद इस कुष्ठ से िार् ममि सकेगा। सच्चाई तद यह है मक बहुओं कद
मतिक दहे ज के मिए सास और ननद के ही मवष भरे ताने सहने पड़ते हैं ,पमत और ससुर
की मिड़मकयाूँ कम सुननी पड़ती है । हमारे समाज की धममनयदं में पूरी तरह दहे ज का
जहर फैि चुका है ।अस्तु तमाम नर-नाररयदं के दृढ़ संकल्प ही इस मवषयुि परं परा कद
नष्ट कर पाएं गे। कन्याओं कद आमर्थाक दृमष्ट से आत्ममनभार एवं मानमसक दृमष्ट से सशि
बनाना हदगा, दहे ज माूँ गने वािदं कद मनभीकतापूवाक बमहष्कृत और मतरस्कृत करना
पड़े गा।
मनष्कषातः दहे ज प्रर्था भारतीय समाज के समुन्नत ििाट पर ऐसा ररसता हुआ
घाव है मजसके मिए उत्तरदायी पुरुष और नारी- ददनदं वगा ही हैं और समाधान सामूमहक
संकल्प से ही संभव हद सकेगा।
सेट -5 ( न)
हंद (50 अंक)
समय : 1 घंटा 37.5 मनट पण
ू ाक: 50
पर ाथ के लए नदश:
Instructions to the candidate:
1.पर ाथ यथासंभव अपने श द म ह उ र द।
Candidates are required to give their answer in their own words as far as
practicable.
2.दा हनी और हा शये पर दए हुए अंक पणू ाक न द ट करते ह।
Figures in the right hand margin indicate full marks.
3.पर ाथ येक उ र के साथ न सं या अव य लख।
Right question number with every answer.

1. सं पे ण कर :- 05
भारत म अ त थ स कार क एक अ भत ु और गौरवमयी परं परा रह है । इ तहास
सा ी रहा है क अ त थ ाण से भी यारे होते ह। ‘साधु न भखू ा जाए’ यहां का गह
ृ -स कार
मं रहा है । गह
ृ वा मनी वार पर आए अ त थ को अपना पेट काटकर भी खलाती है ।
उसके दय क वशालता और उदारता भारत क धरोहर है । अ त थय को यहां दे वता
माना गया है । “अ त थ दे वो भवा” यहाँ का जीवन मं है । अ त थय के जठ ू न के कण
गह ृ वामी और गह ृ वा मनी के लए गंगा के समान प व माने गये ह भारत का गांव
अथवा शहर इस आ मीय भाव से भरा रहा ह, वे इस परं परा क अवहे लना नह ं करते ह,
भखू े रह कर भी अपने अ त थ को संतु ट करते रहते ह। भारतीय सं कृ त क वशालता
और उदारता व व म अकेल परं परा है ।

2.भावाथ लख:- 7.5


ध न रह म जल पंक को, लघु िजय पयत अघाई।
उद ध बड़ाई कौन है , जगत पयासे जाई।।

अथवा
लहर उठती ह, गरती ह,
ना वक तट पर पछताता है ।
तब यौवन बढ़ता है आगे,
नझर बढ़ता ह जाता है । नझर म ग त ह जीवन है ,

3.’पंच परमे वर’ कहानी का सारांश लख।


7.5
अथवा

‘गौरा’ क म ृ यु का कारण या था? यह रह य कैसे उदघा टत हुआ?

4. मलान कर:- 5x1=5


(1)नगर शोभा (क) सु म ानंदन पंत
(2)प थक (ख) तल
ु सीदास
(3)कला और बढ़
ू ा चांद (ग) रह म
(4)रि मरथी (घ) रामनरे श पाठ
(5)राम चर मानस (ड़) रामधार संह दनकर

5.मह
ु ावर से वा य बनाकर अथ प ट कर:- 5x1=5
(क) आंख चार होना
(ख) कमर कसना
(ग) चैन क बंसी बजाना
(घ) दाल भात म मस
ू लचंद
(ड़) नौ दो यारह होना
6. वलोम श द लखे:- 5x1=5
(क) उ न त (ख) य (ग) तु त (घ) वष (ड़) शांत

7.पयायवाची श द लख:- 5x1=5


(क) आकाश (ख) कपड़ा (ग) पवन (घ) महादे व (ड़) हाथ

8. कसी एक पर नबंध लख:- 10


(क) दरू दशन (ख) यकव
(ग) दहे ज था (घ) छा और अनश
ु ासन
(ड़) शरद ऋतु
सेट -5 (उ र)
हंद (50 अंक)

1.
अ त थ स कार
भारत म अ त थ स कार क परु ानी और गौरवमयी परं परा रह है । अ त थ को
दे वता माना गया है । उनके जठ
ू न को गंगा के प व जल क तरह प व कहा गया है । यह
अ त थ स कार क परं परा भारतीय सं कृ त क वशालता एवं उदारता का प रचायक है ।

2.
ततु दोहे म क व रह म ने उस शासन यव था क शंसा क है जो चं मा के
समान सबको सख ु दान करती है । उस सय ू क या शंसा कर जो अपने ताप से लोग को
जलाता है । बड़े सरल ढं ग से क व मानवीय ि ट और जीवन का रह य समझाया है । क व
कहते ह क पंक म सं हत जल ध य है य क उसके जल को पश,ु प ी और सभी
जीवधार उपयोग करते ह और अपनी यास बझ ु ाते ह। ले कन वह सय
ू जो बड़ा है उसके
ताप से पंक का जल सख ू जाता है । ऐसी ि थ त म धरती के जीव यासे रह जाते ह। अतः
सख
ु पहुचाने वाला बड़ा होता है दखु दे ने वाला नह ।ं

अथवा
ततु पंि तयाँ आरसी साद संह वारा र चत है । इन पंि तय म क व ने
बतलाया है क नाव खेनेवाला म लाह लहर को उठते- गरते दे खकर पछताता रहता
है ।ले कन यव
ु ाव था कुछ और ह बात कहती है । यौवन आगे बढ़ता ह रहता है । उसी तरह
नझर भी बढ़ता ह जाता है । यौवन चन
ु ौ तय से लड़ते रहने का संदेश दे ता है ।

3. अलगू चौधर और जु मन शेख नामक दो म थे। दोन क म ता गाढ़ थी। जु मन


श त था,अलगू धनवान ्। जु मन क एक बढ़
ू मौसी वधवा थी। वह न:संतान थी, पर
थी मि कयत वाल । उसने चार ओर आँख उठाकर दे खा, जु मन के सवा कह ं उसका
कोई अपना नजर न आया। मौसी ने जु मन के नाम अपनी मि कयत रिज कर द ।
जु मन ने वादा कया था क वह आजीवन मौसी को खाना-कपड़ा दे गा। रिज होते ह
जु मन ने रं ग बदला। वह मौसी जो पहले सर पर बैठ थी, अब पैर तले कुचल जाने
लगी। बढ़ ू मौसी ने समझा क वह सब जु मन क प नी क बदमाशी है । उसने जु मन से
शकायत क । पर जु मन चप ु रहा।
तब मौसी का माथा ठनका। उसने जु मन को पंचायत क धमक द । बढ़ ू मौसी
हाथ म लकड़ी लये आस-पास के गांव , पंच के पास दौड़ती रह । सबके सामने उसने दख ु
के आँसू बहाए। अलगू इस झगड़े से अलग रहना चाहता था। पर, बढ़ ू मौसी उसे इस बीच
घसीटना चाहती थी। अलगू ने मौसी से कहा, “ जु मन मेरा म है , उससे बगाड़ नह ं
कर सकता।” मौसी ने कहा, “तो या बगाड़ के डर से ईमान क बात न कहोगे?”इस
ललकार को सन ु कर अलगू के भीतर सोया हुआ धम ान जाग पड़ा। उसने पंचायत म
स म लत होने क वीकृ त दे द । न उठा क पंच कसे बनाया जाए। मौसी ने अलगू
को पंच बनाया। लोग ने समझा, अब जु मन क वजय नि चत है । अलगु जु मन का
म है और जु मन के प म फैसला करे गा। पर, सरपंच के पद पर बैठते ह अलगू का
उ रदा य व ान जाग पड़ा। वह भल ू गया क जु मन उसका दो त है । उसने स य और
याय का प लया। उसका फैसला बढ़ ू मौसी के प म हुआ। जु मन और अलगू क
म ता स य के इस ध के को न सह सक , उसक नींव हल गई ।
कुछ दन के बाद अलगु के बैल क जोड़ी म से एक मर गया। अलगू को संदेह
था क जु मन ने बैल को वष दया है । अलगू ने सोचा, एक बैल से खेती होना मिु कल
है । इस लए उसने समझू साहू को बैल बेच दया। कुछ दन बाद वह बैल भी मर गया।
गु से म आकर समझू साहू ने पंचायत बल ु ाई और जु मन को सरपंच बनाया। लोग ने
समझा क अलगू क हार नि चत है । पर, जु मन जब सरपंच के आसन पर बैठा तो
उसका उ रदा य व ान जाग बढ़ा और उसने स य का प लया। उसका फैसला अलगू
के प म हुआ। िजसके बाद जु मन और अलगू क परु ानी म ता फर से गहर हो उठ ,
य क दोन स य से प र चत हो चकु े थे।

अथवा

‘गौरा’ के दध
ू दे ने से पवू जो वाला महादे वी वमा के घर पर दध
ू दे ता था। उसने
आ ह करके गौरा का दध ू दह ू ने का कायभार संभाल लया था। ले कन उसके मन म एक
चोर छपा हुआ था।यह गौरा का आना सह नह ं पाया, य क उसके कारण उसक
आ थक हा न हो रह थी। अवसर मलते ह गड़ ु म लपेटकर सई ु उसे खलाकर उसक
असमय म ृ यु नि चत कर दया। ता क गाय के मर जाने पर वह पन ु ः दधू दे ने लगे।
गाय के बीमार हो जाने पर च क सक ने यह रह य, नर ण, पर ण, ए स-रे
इ या द के आधार पर कया था। वाला भी संदेह के बाद भाग नकला था। अतः गौरा क
म ृ यु वाला के कारण हुई थी।

4.
(1)नगर शोभा (ग) रह म
(2)प थक (घ) रामनरे श पाठ
(3)कला और बढ़
ू ा चांद (क) सु म ानंदन पंत
(4)रि मरथी (ड़) रामधार संह दनकर
(5)रामच रतमानस (ख) तल
ु सीदास

5.
(क) आंख चार होना-( यार होना) - सव थम पु प वा टका म राम-सीता क आंख चार हुई
थी।
(ख) कमर कसना-(तैयार होना) - जब हम लोग ने कमर कस ल है , तो बाजी भी हमार
ह होगी।
(ग) चैन क बंसी बजाना-(शांत और सख
ु मय जीवन बताना) - उनके यहां हमेशा चैन क
बंसी बजती रहती है ।
(घ) दाल -भात म मस
ू लचंद-(बेमतलब बीच म टपक पड़ना) - अपने काम से मतलब रखो,
नरथक दाल -भात म मस
ू लचंद बनने आ गए हो।
(ड़) नौ-दो यारह होना-(भाग जाना) - पु लस को दे खकर चोर नौ-दो यारह हो गए।

6.
(1)अवन त (2)अ य (3) नंदा (4)अमत
ृ (5)अशांत
7.
(क) आकाश- नभ, योम
(ख) कपड़ा- वसन, व
(ग) पवन- हवा, वायु
(घ) महादे व- शंकर, शंभु
(ड़) हाथ- कर, बाहु

8.
(क) दरू दशन
दरू दशन मनोरं जन के साथ-साथ ान सार एवं चार का मह वपण
ू साधन है ।
इसका मु य कारण यह है क दरू दशन म म एवं य दोन ह साधन क वशेषताओं
का समावेश है । यह सा ह य, न ृ य एवं कला को समि वत प से तत
ु करने वाला
उपकरण है । इसके अ व कार ने जीवन को एक नया आयाम दान कया है । शत -सह
कलोमीटर क दरू पर घ टत होने वाल घटनाओं को य दे ख लेना सचमच

व मयकार है । भारत क लगभग 50 तशत जनता इस कौतह
ू लवधक उपकरण वारा
लाभां वत हो रह है ।
दरू दशन का आ व कार सन 1944 ई वी म अमे रक वै ा नक जॉन लोगी बेयड ने
कया था। यह रे डयो णाल वारा व तओ
ु ं के भेजे गए च को ा त करने वाला साधन
है । इसम फोटो इलेि क भाव वारा बंब क काश करण को व धत
ु तरं ग म
प रव तत कर दया जाता है और फर उ ह सद
ु रू थान तक सा रत कया जाता है । यह
व यत
ु तरं ग दरू दशन सेट पर पन
ु ः च म बदल जाती ह। इसी के साथ रे डयो णाल
वारा व न तरं ग भी साथ साथ काम करती ह।
15 सतंबर 1959 ई वी को द ल म दरू दशन क क थापना के साथ भारत म
दरू दशन यव था का सू पात हुआ। इसका औपचा रक उ घाटन भारत के भत
ू पव

रा प त डॉ टर राज साद ने कया था। तब से लेकर आज तक इसम नवीन खोज के
आधार पर ग त होती रह है ।
दरू दशन सेवा म त
ु ग त से होनेवाल ग त दरू दशन क सफलता एवं लोक यता
का वयं स ध माण है । इसके काय म बहुउ दे शीय एवं बहुआयामी ह। वे जीवन के
यः येक े एवं प को ि ट म रखकर आयोिजत कए जाते ह। दरू दशन समाज के
वशाल जनसमह
ू को व भ न कार से भा वत एवं लाभाि वत कर रहा है । इसके वारा
अनेक यि तय को सा र एवं श त बनाया जा रहा है ।
उ च श ा, कृ ष दशन, मौसम व ान संबध
ं ी जानकार , दे श वदे श के इ तहास
और उनक स यता सं कृ त, खेलकूद आ द क उपलि धय क जानकार दान करने म
दरू दशन समाज के वकास म मह वपण
ू भू मका अदा कर रहा है । ले कन, क तपय ऐसे
काय म भी दखाए जाते ह िजनसे समाज क दशा वकृत हो रह है । ऐसे म
आव यकता इस बात क है क इसके मा यम से समाजोपयोगी काय म सा रत कया
अपना जाए।

(ख) यकव
आधु नक काल के हंद क वय म मै थल शरण गु त का थान अ यंत मह वपण

है । उनका ज म चरगांव (िजला झांसी, उ र दे श) म सन 1883 ई0 म हुआ था। उनके
पता का नाम सेठ रामचरण था, जो एक धन-संप न वै णव थे।
मै थल शरण गु त को का य- तभा पैतक
ृ संप अथवा वरासत के प म ा त
हुई, उनके पता ी ‘कनकलता’ उपनाम से क वता कया करते थे। मै थल शरण गु त को
बचपन से ह क वता करने का शौक था। ारं भ म वह जभाषा म क वता करते थे, परं तु
बाद म आचाय महावीर साद ववेद के भाववश खड़ी बोल म क वता करने लगे।
उनक सरस क वताओं ने यह स ध कर दया क ज भाषा के समान खड़ी बोल म भी
सरस एवं कण य क वता लखी जा सकती है । सन 1906 ई0 से गु त जी क क वताएं
आचाय महावीर साद ववेद वारा संपा दत मा सक प का ‘सर वती’ म का शत
होने लगी थी, वे अनेक मान-स मान ा त करने के उपरांत आप सन ् 1964 ई वी म
वगवासी हुए।
गु त जी क का शत मौ लक रचनाओं क सं या लगभग 52 है । इसके अलावा
कई अनव
ु ा दत ंथ भी है । आप क स ध का य-कृ तयां है , भारत-भारती, जय थ-बध,
साकेत, यशोधरा, पंचवट , वापर, वैता लक, अनघ, नहुष, स धराज, वकट भट तथा
व णु या।
रा य भावना और भारतीय सं कृ त के त अ वचल न ठा आप क क वता क
मख
ु वशेषताएं ह। अपनी थम रचना ‘भारत-भारती’ वारा उ ह ने दे शवा सय का
यान भारत के अतीत के गौरव एवं वतमान क दद
ु शा क ओर आकृ ट करके पराधीनता
क बे ड़य से मु त होने क ेरणा दान क । उसके बाद ‘वैता लक’ के गीत वारा अपने
एक स चे वैता लक के प म भारतवा सय क मोह न ा भंग क और उ ह ग त क
ओर उ मख
ु कया। रा यता वारा सम त रचनाओं के ओत- ोत होने के कारण सन
1936 ई वी म रा पता महा मा गांधी ने गु त जी को रा क व क उपा ध से वभू षत
कया।
गु त जी क का य- तभा क सबसे बड़ी वशेषता है -कालानस
ु ार का य सज
ृ नक
मता, अथात ् उ रो र बदलती हुई भावनाओं और का य- णा लय को हण करते
चलने क शि त। समाज के द लत, शो षत, प तत एवं न नवग क समानता एवं
त ठा के लए गु त जी क पक
ु ार सव प र है । नार क मह ा और उपे ा के त गु त
जी क ि ट सदा मा मक रह है । इस लए ‘ वापर’ म गु त जी ने नार क मह ा को
तपा दत कया है तथा ‘यशोधरा’ म उसक दद
ु शा पर आंसू बहाए ह।
कहने का ता पय यह है क गु त जी के का य से हम धम, समाज, राजनी त तथा
सा ह य येक कार क यग
ु ानक
ु ू लता के दशन होते ह। इस लए वह मेरे य क व ह।
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Mkfd;k cM+k egRoiw.kZ dk;Z djrk gSA iksLV vkWfQl dk dke var esa Mkfd;s ds }kjk gh iwjk gksrk
gSA ,d O;fDr ls nwj jgus okys nwljs O;fDr ds ikl i=] efuvkMZj vkSj iklZy bR;kfn Hkstokuk gh
iksLV&vkWfQl dk dke gSA fpV~Bh Nk¡Vusokys( Mkd <ksusokys vkSj fdjkuh dsoy igys gksusokys dk;Z laikfnr
djrs gaSA Mkfd;k gh var esa i= vkfn oLrqvksa dks mu O;fDr;ksa ds ikl igq¡pk nsrk gS ftuds uke ls os phtas
Hksth tkrh gSaA
Mkfd;k cgqr de osru ikrk gSA fQj Hkh] og viuk dke bZekunkjh ls djrk gSA efuvkMZj dh Hkkjh
jde] chek djk;k gqvk iklZy vkSj i= mls lqinq Z fd, tkrs gaSA Mkfd;k mfpr O;fDr dks phtsa nsus dh ps"Vk
djrk gSA ijarq] dHkh&dHkh og xyrh djrk gSA rc mls ?kkVk gksrk gSA mls lPps gdnkj dh {kfriwfrZ Hkh
djuh iM+rh gSaA dHkh&dHkh og xyrh ls vf/kd :i, ns nsrk gSA rc mls viuh tsc ls gh {kfriwfrZ djuh
iM+rh gSA
xk¡o ds iksLV vkWfQl esa izk;% ,d gh Mkfd;k jgrk gS tks lIrkg esa nks ckj i=- vkfn ck¡Vrk gSA
'kgjksa esa vf/kd la[;k esa Mkfd;s jgrs gaSA bUgas eqgYyk ck¡Vk tkrk gSA ;gk¡ rd fd ,d gh eqgYys esa fofHkUu
Mkfd;s fnu esa fofHkUu le; ij vkrs gSaA Mkfd;s ds lkjs dk;Z fu;r fd, jgrs gaSA Mkfd;k fpV~Bh ikusokys
O;fDr dh [kkst djus esa vf/kd d"V mBkrk gS vkSj izkIr djds mfpr O;fDr dks gh mls nsrk gSA
Mkfd;s dk dk;Z cM+k gh mÙkjnkf;Ro dk dk;Z gSA mlds bZekunkjhiw.kZ ls dk;Z ij cgqr&ls yksxksa dk HkkX;
fuHkZj djrk gSA blfy, Mkfd;s dks cgqr bZekunkj vkSj foosdiw.kZ gksuk pkfg,A
¼[k½ lkoZtfud iqLrdky;
¼1½ ifjp; ¼2½ foHkkx ¼3½ mi;ksfxrk ¼4½ milagkj
¼1½ iqLrdky; ,d LFkku gS tgk¡ iqLrdksa dk ,d cgqr cM+k laxzg jgrk gSA iqLrdky; nks izdkj dk
gksrk gS%& futh vkSj lkoZtfudA dqN yksxksa dks fdrkcksa ds izfr cM+h vuqjfDr jgrh gS vkSj os vius Kku
dh r`".kk dks iw.kZ djus ds fy, fdrkcas tek djrs gSaA dqN yksx tSls f’k{kd ] odhy] MkDVj vkfn dks vius&vius
is'ks ds laca/k esa cgqr lh fdrkcksa dk v/;;u djuk iM+rk gS A blfy, os vius fy, iqLrdky; j[krs gaSA
;s lHkh futh iqLrdky; dgykrs gSaA ftu iqLrdky;ksa esa lHkh dks i<+us dh lqfo/kk jgrh gSa A os lkoZtfud
iqLrdky; dgykrs gaSA
¼2½ lkoZtfud iqLrdky; ds izk;% nks foHkkx gksrs gSaA ,d okpuky; foHkkx vkSj nwljk] iqLrd djusokyk
foHkkx A okpuky; esa rjg&rjg ds lekpkj i=] lkIrkfgr i= vkSj ekfld if=dk,¡ Vscwy ij j[kh jgrh
gaSA dksbZ Hkh O;fDr ogk¡ tk ldrk gS vkSj mUgas i<+ ldrk gSA iqLrdky; v/;{k }kjk fdrkcksa dh lwph j[kh
tkrh gSA gj ,d O;fDr ml lwph dks ns[k ldrk gS vkSj okpuky; esa i<+us ds fy, dksbZ Hkh iqLrd ys ldrk
gS A
iqLrd djusokys foHkkx esa lnL;kas dh lwph j[kh tkrh gSA lnL;kas dks FkksM+k ekfld pank nsuk iM+uk gSA
mUgsa iqLrdksa ds fy, izkjafHkd tekur Hkh nsuh iM+rh gSA rc os ?kj ij O;ogkj ds fy, iqLrdsa ys tk ldrs
gSaA gj iqLrdky; esa ?kj ij O;ogkj ds fy, iqLrdsa ysus ds fu;eksa esa Hksn gksrk gSA
¼3½ iqLrdky; cgqr gh mi;ksxh laLFkk gSA gj ,d fo"k; ij iqLrdsa [kjhnuk izR;sd O;fDr ds fy, laHko
ugah gksrk gSA iqLrdky; esa os gh fdrkcas ?kqedj dbZ O;fDr;ksa ds gkFkksa esa tkrh gSA ,d vkneh cgqr de
[kpZ esa ;k fcuk [kpZ ds Hkh cgqr lh fdrkcas i<+ ldrk gSA lw{e ,oa euks;ksX;iwoZd v/;;u ds fy, ;g mi;qDr
LFkku gSa A ;gk¡ dksbZ ck/kk ugha gS vkSj gj dksbZ iw.kZ /;ku ls iqLrdksa dks i<+ ldrk gSA
Kku vkSj f'k{kk ds izpkj esa iqLrdky; ls vf/kd lgk;rk feyrh gSA cgqr lh fdrkcas bruh ewY;oku gS
fd vkSlr O;fDr mUgsa ugha [kjhn ldrk gS A ,slh fLFkfr esa yksx bu fdrkcksa dks iqLrdky; esa i<+dj buls
ykHk mBk ldrs gSaA
¼4½ fganqLrku esa cgqr de vPNs iqLrdky; gSaA gj ,d xk¡o esa iqLrdky; [kksyus dh vkt vf/kd vko';drk
gS rHkh gekjs Hkkjro"kZ ds xk¡oksa esa QSyh fuj{kjrk nwj gksxh rFkk lk{kjrk dk izfr”kr c<sxk A
¼x½ dEI;wVj
vkt dk ;qx foKku dk ;qx gSA ,d&ls&,d u, vkfo"dkj ekuo thou dks izHkkfor dj jgs gSaA
daI;wVj muesa ls ,d gSa A ;g iw.kZr% vkKkdkjh e'khu gS ftlesa mi;ksxdÙkkZ dksbZ Hkh rF; Mkyrk gS rks lgh&lgh
mldk mÙkj ijns ij ns nsrk gSA
daI;wVj dh izxfr&vkt cSadksa] ljdkjksa ,oa tu&izfr"Bkuksa ,oa lHkh izdkj ds cM+s dk;kZy;ksa esa daI;wVj dk mi;ksx
gks jgk gSA dk;kZy;ksa esa lwpuk dh miyC/krk ,oa dk;Z nksuksa rsth ls ,oa oSKkfud <ax ls gks jgs gSaA izxfr
dh j¶rkj rhoz gks x;h gSA
daI;wVj bathfu;j&Hkkjr vesfjdk dks 40 izfr'kr daI;wVj vfHk;Urk Hkst jgk gS tcfd baXyS.M ek= 16 izfr'kr
daI;wVj bathfu;j gh Hkst ikrk gSA Hkkjr daI;wVj ds {ks= esa rsth ls izxfr dj jgk gSA

pkYlZ csot us igyk&daI;wVj cuk;k&19oha 'krkCnh esa pkYlZ csot us igyk daI;wVj cuk;k FkkA vkt rks lalkj
Hkj ds iqLrdky; daI;wVj dh enn ls daI;wVj ds Lej.k&iVy ij yk, tk ldrs gSaA Nk=ksa ds fy, ;g vR;Ur
mi;ksxh gSA
mi;ksfxrk& daI;wVj dksbZ xyrh ugha djrk gSA ekuo efLr"d dk dk;Z ;g 'kq)re :i esa djrk gSA bl
ckr dh vk'kadk c<+ x;h gS fd dgha ekuo efLr"d daI;wVj dk nkl u cu tk,A
ik¡p Hkkx& daI;wVj e'khu ds ik¡p Hkkx gksrs gSaA& Lej.k [kaM] fu;a=.k [kaM] buiqV [kaM vkSj vkmViqV [kaMA
lwpuk,¡ daI;wVj esa Hkjh tkrh gSaA daI;wVj dh Hkk"kk i`Fkd~ gksrh gSA mlh Hkk"kk esa lkexzh Mkydj visf{kr ifjorZu
fd;k tkrk gSa Lej.k [kaM esa iwoZ Mkyh x;h lkexzh jgrh gSA vko';drk iM+us ij bls eqfnzr dj fudkyk
Hkh tk ldrk gSA
VkbZijkbVj Hkh& daI;wVj ,d VkbZijkbVj dk Hkh dke djrk gSA 'kks/k izca/ku Vkbfiax dk ;g lqanj dke djrk
gSA ftl rjg ds pkgsa lqanj fyfi ;g fudkyrk gSA ;g bl rjg ds vusd dk;ksZa esa enn djrk gSA
ijh{kkQy fudkyuk vklku& fo'ofo|ky;ksa ,oa yksd lsok vk;ksxksa ds ijh{kkQy Hkh ;g ladfyr ,oa eqfnzr
s j 'kh?kzrk ls fudkyrk gSA
d
mi;ksxh& ekuo ;fn bldk mi;ksx djrk jgk rks ;g mi;ksxh fl) gksxkA ysfdu ;g ;a= gSA ekuo efLr"d
dk ;g LFkkukiUu ugha cu ldrkA ekuoh; laons u'khyrk vkSj lgkuHkwfr ;g ugha iznku dj ldrkA ysfdu
jaxhu isafVax fudkyus esa bldk tksM+ ughaA MkWDVj Hkh vc bu daI;wVjksa dk iz;ksx dj jgs gSaA
fu"d"kZ& bl rjg daI;wVj ekuo ds fy, ,d vR;ar mi;ksxh la;a= gSA blds mi;ksx ls ns'k Hkh rsth ls
rjDdh dj jgk gSA
¼?k½ vkidk fiz; i'kq
Ik’kq &i{kh lcksa dks fiz; yxrs gaSA oSls rks yksx fny cgyko ds fy;s yksx fcYyh ikyrs gSa] [kjxks'k ikyrs
gS vkSj ikyrs gSa gkFkh ?kksM+] Å¡V vkSj u tkus D;k&D;k! exj gkFkh ikyuk vklku gS D;k\ mlds fy, dkQh
/ku pkfg,] LFkku pkfg,A ?kksM+k vkSj Å¡V ds fy, Hkh nkuk&ikuh ds fy, dkQh iSls dh t:jr gS] txg dh
HkhA fcYyh Bhd gSA fcYyh ikyus esa gtZ ugha gS ysfdu fcYyh dh vknrsa vPNh ugha gksrhA yk[k ikyrw gkaas
exj ekSdk ikrs gh jlksbZ&?kj esa ?kql tkrh gS] nw/k ih tkrh gS] [khj&eykbZ pV dj tkrh gSA >V iyax ij
p<+ tkrh gS vkSj tgk¡&rgk¡ xank dj nsrh gSA
blfy;s esjk fiz; i'kq gS&dqÙkkA bldks ikyus ds fy;s cgqr txg ugha pkfg,A ?kj ds ckgj fdlh dksus esa
iM+k jgsxkA ns'kh dqÙkk gks rks f[kykus&fiykus dk Hkh >a>V ugha gS fd mls jkst ekal&eNyh pkfg,A tks Hkh
vki [kkrs gksa mlh esa ls ns nhft;sA dqÙkk cspkjk larq"V jgsxkA twBu Hkh [kk ysxk vkSj blh esa [kq'kh ds ekjs
viuh nqe Hkh fgykrk jgsxkA og ?kj esa ugha ?kqlrkA pkS[kV ds ckgj ;k pkS[kV ij iM+k jgrk gSA
lcls cM+h ckr rks ;g gS fd dqÙkk oQknkj tkuoj gSa og esjs ?kj dh gj le; j[kokyh djrk
gSA fdlh ckgjh vifjfpr O;fä dks vius ?kj esa ?kqlus ugha nsrkA fdlh ckgjh vkneh ds vkus ij HkkSad&HkkaSd
dj gessa lwfpr dj nsrk gS fd ckgj dksbZ vk;k gSA dqÙks dh Lokeh&Hkfä izfl) gSA og vius ekfyd dks
igpkurk gS vkSj ml ij [krjk gksrs ns[k cpko esa fHkM+ tkrk gS pkgs tks gks tk;s] exj og vius ekfyd
ds ?kj dh M~;ksVh ejrs ne rd ugha NksM+rkA esjk dqÙkk Hkh ,slk gh gSA blh dkj.k eq>s dqÙkk ikyuk cgqr
ilan gSA dqÙkk esjk fiz; i'kq gSA vius bl fiz; i'kq dk eSa [kqn gh ns[kHkky djrk gw¡A mls le; ij [kkuk
nsrk gw¡A g¶rs esa ,d fnu lkcqu ls ugykrk gw¡A tc&rc i'kq&fpfdRld ls mls fn[kkdj LokLF;c)Zd nok,¡
nsrk gw¡A lksuiqj esys esa dqÙkksa dk vyx cktkj yxrk gSA bl lky eSa fQj esys esa tkÅ¡xk vkSj cf<+;k uLy
dk ,d dqÙkk [kjhn ykÅ¡xkA ?kj esa lcksa dks ;g i”kq csgn ilan gS A

¼M+½ iznw"k.k
i;kZoj.k euq"; dh HkSkxksfyd ,oa ckSf)d mit gSA vFkkZr~ ekuo thou dks i;kZoj.k dh ifjfLFkfr;k¡
O;kid :i ls izHkkfor djrh gSaA euq"; dks ,d ^lUrqfyr i;kZoj.k* dh LFkkiuk djuh pkfg,A ysfdu vkt
ds bl gj {k.k cnyrs ;qx esa ^vlUrqfyr i;kZoj.k* dh LFkkiuk gks jgh gS vkSj bldk lcls cM+k mnkgj.k
gS& ^izn"w k.k*A
izn"w k.k okLro esa tyok;q ;k Hkwfe ds HkkSfrd jklk;fud vkSj tSfod xq.kksa esa dksbZ Hkh vokaNuh; ifjorZu
gS ftlls euq";] vU; thoks]a vkS|ksfxd izfØ;kvksa] lkaLd`frd rÙoksa rFkk izkd`frd lalk/kuksa dks gkfu igq¡prh
gSAiznw"k.k dk lcls cM+k dkj.k gS& fo'o dh c<+rh tula[;kA fo'o dh c<+rh tula[;k ds dkj.k gh vkt
isM+ dkVs tk jgs gSa] tks iznw"k.k dk lcls eq[; dkj.k gSA o`{kksa dk okrkoj.k dks larqfyr cuk, j[kus esa cgqr
cM+k ;ksxnku gSA
izn"w k.k dbZ izdkj ds gks ldrs gSa A tSls&
ok;w iznw"k.k] ty iznw"k.k ]/ofu iznw"k.k vkfnA
ok;q iznw"k.k lcls vf/kd O;kid vkSj gkfudkjd gSA ok;qe.My esa lHkh rjg ds xSlksa dh ek=k fuf'pr
jgrh gS vkSj vf/kdka'kr% vkWDlhtu vkSj ukbVªkstu gksrh gSA 'olu] vi?kVu vkSj lfØ; Tokykeqf[k;ksa ls
mRiUu xSlksa ds vfrfjDr gkfudkjd xSlksa dh lokZf/kd ek=k euq"; ds dk;Z&dyki ls mRiUu gksrh gSaA buesa
ydM+h] dks;ys] [kfut rsy rFkk dkcZfud inkFkksZa ds Toyu dk lokZf/kd ;ksxnku gSA
vkS|ksfxd laLFkkuksa ls fudyus okyh lYQkbM vkWDlkbM xSl rFkk gkbMªkt s u lYQkbM xSl vkdk'k
esa tkdj o"kkZ ls fey tkrh gSa vkSj ^,sflM jsu* dk fuekZ.k djrh gSa tks /kjrh ij igq¡dj cgqr gkfu igq¡pkrs
gSaA euq";ksa dks blls peZ jksx gksus dh vk'kadk gksrh gS vkSj bu jklk;fud inkFkksZa ls /kjrh dh feÍh dks Hkh
gkfu igq¡prh gSA feÍh esa jklk;fud [kkn nh tkrh gSA euq"; dks ok;q izn"w k.k ds dkj.k dbZ rjg dh ,ythZ
mRiUu gksrh gSA vU; dqizHkkoksa ls QsQM+ksa ds jksx gksrs gSaA
ty lHkh izkf.k;ksa ds fy, vfuok;Z oLrq gSA isM+&ikS/ks Hkh vko';d rÙo ty ls gh ?kqyh voLFkk esa
xzg.k djrs gSaA ty esa vusd dkcZfud] vdkcZfud inkFkZ] [kfut rÙo tSlh xSlsa ?kqyh gksrh gSaA ;fn bu rÙoksa
dh ek=k vko';drk ls vf/kd gks tkrh gS rks ty gkfudkjd gks tkrk gS vkSj bl ty dks ge iznwf"kr ty
dgrs gSaA ihus ;ksX; ty dk izn"w k.k jksx mRiUu djus okys thok.kq&fo"kk.kq] dy&dkj[kkuksa ls fudys gq,
oftZr inkFkZ] dhV&uk'kd inkFkZ o jklk;fud [kkn ls gks ldrk gSA ,sls ty ds mi;ksx ls ihfy;k] vk¡rksa
ds jksx o vU; laØked jksx gks tkrs gSaA egkuxjksa esa Hkkjh ek=k esa xUns inkFkZ ufn;ksa ds ikuh esa izokfgr
fd;s tkrs gSa] ftlls bu ufn;ksa dk ty iznwf"kr gksdj gkfudkjd curk tk jgk gSA
egkuxjksa esa vusd izdkj ds okgu] ykmMLihdj] ckts ,oa vkS|ksfxd laLFkkuksa dh e'khuksa ds 'kksj us
/ofu izn"w k.k dks tUe fn;k gSA /ofu iznw"k.k ls u dsoy euq"; Jo.k'kfDr dk ákl gksrk gS] oju~ mlds efLr"d
ij Hkh bldk ?kkrd izHkko iM+rk gSA ijek.kq 'kfDr mRiknu o ukfHkdh; fo[k.Mu us ok;q] ty o /ofu rhuksa
iznq"k.kksa dks dkQh foLrkj fn;k gSA
bl izdkj ge ns[krs gSa fd vk/kqfud ;qx esa iznw"k.k dh leL;k vR;f/kd Hk;adj :i /kkj.k djrh
tk jgh gSA ;fn bl leL;k dk fujkdj.k le; jgrs u fd;k x;k] rks ,d fnu ,slk vk;sxk] tc izn"w k.k
dh leL;k lEiw.kZ ekuo tkfr dks fuxy tk;sxhA
vr% iznw"k.k ls cpus ds fy, fuEufyf[kr mik;ksa ij vey djuk vko';d gS&
¼1½ o`{kkjksi.k dk dk;ZØe rsth ls pyk;k tkuk pkfg,A
¼2½ ouksa ds fouk'k ij jksd yxuh pkfg,A
¼3½ oftZr inkFkksZa ds fu"dklu ds fy, dksbZ nwj LFkku ij O;oLFkk djuh pkfg,A
¼4½ ykmMLihdjksa dk mi;ksx de gksuk pkfg,A
iznw"k.k ls eqfDr ds fy, lHkh yksxksa dks ,d lkFk gksdj iz;kl djuk gksxkA

Þ/ofu iznw"k.kß ls uqdlku gksrk gS] ;g lHkh dks irk gSA ysfdu bldk lek/kku Hkh gksuk pkfg,A uqdlku
dk irk ml oDr ugha py ikrkA ;g ckn esa viuk izfrdwy vlj fn[kkrk gSA lcls vf/kd /ofu izn"w k.k
ls uqdlku NksVs cPpksa vkSj cqtqxksZa dks gks jgk gSA
/ofu iznw"k.k ls nks rjg ds uqdlku gksrs gSaA ,d vLFkk;h vkSj nwljk LFkk;h A

NksVs cPpksa dks rks irk Hkh ugha pyrk fd mUgsa /ofu iznw"k.k dc uqdlku dj x;kA NksVs okguksa esa
Hkh rks vktdy rst gkuZ bLrseky fd;k tkrk gSA ;fn lacfa /kr foHkkx bu okguksa dh LØhfuax djuk 'kq:
djas rks lPpkbZ lkeus vk tk,xhA
vktdy rks lqcg esa Ldwyh cPpksa ;k fQj vfHkHkkodksa dks cqykus ds fy, okguksa esa rst gkuZ dk bLrseky
fd;k tk jgk gSA ;g dkQh uqdlkunsg gSA blls fpM+fpM+kiu] cgjkiu vkSj CyM izs'kj c<+us dh vk'kadk
jgrh gSA iznw"k.k fu;a=.k i"kZn us blds fy, Msflcy Hkh fu/kkZfjr dj j[kk gSA ckotwn /ofu&iznw"k.k c<+ jgk
gSA
vyx&vyx bykdksa ds fy, /ofu ds fy, Msflcy fu/kkZfjr fd;k x;k gSA blesa vkoklh;] okf.kfT;d]
vkS|ksfxd vkSj vLirkyh {ks= izeq[k gSaA
vkoklh; {ks= esa fnu esa 55 Msflcy vkSj jkr esa 45 Msflcy] okf.kfT;d {ks= ds fy, fnu esa 65 Mslhcy vkSj
jkr esa 55 Msflcy] vkS|ksfxd {ks= esa fnu esa 75 vkSj 70 Msflcy ogha fnu esa 'kkar {ks= esa 50 Msflcy tcfd
jkr esa 40 Msflcy fu/kkZfjr fd;k x;k gSA fu;e dk mya?ku djus ij ik¡p lky dk lJe dkjkokl vkSj
,d yk[k :i, rd ds tqekZus dk Hkh izko/kku gSA
3- ¼d½ vk¡[ks pqjkuk ¼utjsa cpkuk½ & eq>s ns[krs gh “;ke vk¡[ks pqjkdj pyrk cukA
¼[k½ dUuh dkVuk ¼cp fudyuk½& dkepksj vkneh lnk gh dUuh dkVrk gSA
¼x½ xkscj x.ks’k gksuk ¼ew[kZ gksuk½ & og xkscj x.ks’k gSA mldh eksVh cqf) esa dqN ugha vkrkA
¼?k½ ne rksM+uk ¼ej tkuk½ & yach chekjh ds ckn mlus ne rksM+ fn;kA
¼M+½ jax p<+uk¼u;k ifjorZu vkuk½&vkt rks mu ij ,d u;k gh jax p<+k FkkA

4- Hkou ¼iq0½&Hkou Å¡pk cuk gSA


izk.k ¼iq0½&iq= ds fy, ekrk ds izk.k O;kdqy FksA
dye ¼L=h0½&dye lLrh gSA
ryokj¼L=h0½&ryokj VwV xbZA
’kjkc ¼L=h0½&”’kjkc lLrh gSA
5- diM+k & oL=] ifj/kku
es?k & ckny] uhjn
gkFkh & erax] dqatj
iq=h & csVh] lqrk]
/ku & nkSyr] lEink
6- izLrqr nksgs esa egkdfo jghe dgrs gSa fd ;g lalkj cgqr gh dqfVy gS] uhp gSa dfo jghe us bu
iafDr;ksa }kjk dgk gS fd yksxksa dks viuh O;Fkk nwljksa ds lkeus izdV ugaha djuh pkfg, D;ksafd dksbZ O;fDr
nq%[k ck¡Vrk ugha gS ysfdu mlds nq[k dks lqudj mldk etkd t:j mM+krk gSA
vFkok
izLrqr iafDr;ksa esa dfo Jh xksiky flag ^usikyh* dgrs gaS fd ekuo dks bZ”oj us Kku] /;ku] psruk]
lkgl vkSj lkSUn;Z iznku fd;s gaSA og ekuo dfBukbZ;ksa esa dHkh ihNs ugha gVrk gSA vkxs c<+us vkSj c<+rs
jgus dk ekxZ [kkst ysrk gSA tc og dfBukb;ksa vkSj va/kdkjksa ij fot; izkIr djrk gS rks mlds eq¡g ij
eqLdku >ydrh gS tks cgqr gh lqUnj izrhr gksrk gSA
7- ^eaxj* csuhiqjhth dk ,d cM+k gh fo’oklh gyokgk FkkA og Fkk rks nfjnz( ij nhu ugha FkkA LokfHkeku
mldh ul&ul esa Hkjk FkkA og bruk fo’oklh Fkk vkSj bruk MVdj dke djrk Fkk fd dgkuhdkj ds ckck
mls cgqr ekurs FksA tgk¡ nwljs tu dks ,d&,d jksVh feyrh Fkh ogk¡ eaxj dks Ms<+ jksVh feyrh FkhA fcuk
dgs lqus og [ksrksa dk dke cM+h pkSdlh ls djrk FkkA
^eaxj* dks csuhiqjh th ds ifjokj ls cM+k Lusg FkkA mls cPpksa ls cM+k isze FkkA og Lo;a csuhiqjh th dks
da/kksa ij <ksrk FkkA
^eaxj* esa yksHk u FkkA dgkuhdkj dk mruk dke djrk Fkk] muds lkekuksa dh j[kokyh djrk Fkk] ij dHkh
dqN Nwrk u FkkA blfy, og u dsoy dgkuhdkj ds ifjokj dk fo”oklik= Fkk] cfYd lckas dk fo”oklik=
FkkA
eaxj ns[kus esa dkyk&dywVk Fkk] ij Fkk [kwclwjrA [kwclwjr bl vFkZ esa fd mlds “kjhj dk xBu cgqr
lqUnj Fkk&mldk LokLF; vPNk FkkA vkSj lPpk lkSUn;Z rks vPNs LokLF; esa gh fuokl djrk gSA
eaxj dh ekuork egku FkhA og lc dks I;kj djrk Fkk] fdlh ls og ?k`.kk ugha djrk FkkA viuh jksVh
esa ls vk/kh jksVh og cSy dks f[kyk nsrk FkkA cSy dks og lk{kkr egknso ekurk FkkA dgus dks rks vkSj yksx
Hkh cSy dks egknso dgrs Fks] ij eaxj mls egknso ekurk FkkA
eaxj gyokgk esa gesa ,d lPpfj= etnwj dh >k¡dh feyrh gSA ;g lgh gS fd og fo}ku ugha gS] vk/kqfud
lH;rk dk jax ml ij ugha p<+ ik;k gS] ij mleas tks xq.k gS] os gekjs Hkkjrh; xzkeksa ds xq.k gSa] gekjh ekuork
ds xq.k gaSA vr% etnwj gksus ds dkj.k eaxj Hkys gh NksVk fn[k iM+rk gks] ij ekuork ds ukrs og egku gSA
vFkok
Mk0 gtkjh izlkn f}osnh fgUnh lkfgR; ds egku miU;kl ys[kd] vkykspd vkSj yfyr fuca/kdkj
ds :i esa izfrf’Br jgsA gtkjh izlkn f}osnh dk tUe lu~ 1907 bZ0 esa mÙkj izns’k ds cfy;k ftys ds vkjr
nqcsdk Nijk xk¡o esa gqvk FkkA lu~ 1930 esa dk”kh fganq fo”ofo|ky; ls T;ksfr’kkpk;Z rFkk baVj dh ijh{kk
mÙkh.kZ gksus ds ckn os “kkafr fudsru esa v/;kid gksdj pys x,A 1940 bZ0 ls 1950 bZ0 rd mUgksaus ^fgUnh
Hkou* ds funs’kd ds in ij dk;Z fd;kA fo”o dfo jfoUnzukFk VSxksj ds lEidZ us muds ekuorkoknh n`f’Vdks.k
dks vkSj vf/kd O;kid vk;ke iznku fd;kA f{kfreksgu lsu] fo/kq”ks[kj HkÍkpk;Z vkSj cukjlhnkl prqosZnh tSls
O;fDrRoksa dh laxfr esa mudh jpukRed lfØ;rk dks xfr vkSj fn”kk feyhA fganh lkfgR; dh nwljh ijEijk
ds izfrfuf/k ds :i esa vkpk;Z f}osnh us fganh dh dkO; ijEijk dks dchj ls tksM+dj mls ,d izxfr”khy ewY;
ds :i esa izfrf’Br fd;k gSA HkfDrdky dks Hkkjrh; fpark /kkjk dk lgt vkSj LokHkkfod fodkl ekuus okys
lkfgR;ksfrgkldkj ds :i esa f}osnh th dh Hkwfedk ,sfrgkfld gSA miU;kldkj ds :i esa tgk¡ mUgksaus ^ck.kHkÍ
dh vkRedFkk* ds }kjk fganh miU;kl dks ,d u;h fn”kk nh gS] ogha vius yfyr fuca/kksa ds }kjk fganh fuca/k
dks ,d u;h fo/kk dk vonku fn;k gSA mudh izeq[k d`fr;k¡ fuEufyf[kr gS & lwj lkfgR;] fganh lkfgR;
dh Hkwfedk] izkphu Hkkjr ds dykRed fouksn] dchj( ck.kHkÍ dh vkRedFkk] v’kksd ds Qwy ¼fuca/k½] fopkj
izokg] es?knwr] i`Fohjkt jklks] e/;;qxhu cks/k bR;kfnA

8- izLrqr dfork esa dfo us Hkkjrekrk dk fp= mifLFkr fd;k gSA izLrqr dfork dk jpuk dky Lora=rk
ds iwoZ dk gSA dfo us Hkkjr dh nhu&ghu n’kk dk fp= izLrqr fd;k gSA
Hkkjr dh ifo= Hkwfe ;kuh Hkkjr ekrk xzkeokfluh gSA Hkkjr ,d d`f’k iz/kku ns’k gSA gekjh ekrk dk
vk¡py /kwyksa Hkjk eSyk vk¡py gSA pw¡fd ;g fdlkuksa dk ns’k gS ( gekjh ek¡ ,d xjhfcuh ekrk gSA xaxk vkSj
;equk ekuksa blh xjhfcuh ek¡ ds vJq& :i gSA blhfy, ;g feÍh dh izfrek vius eVeSys :iksa esa vkt vkSj
Hkh mnkl gks x;h gSA bldh uhph fuxkgsa bldh fpark dh lwpuk ns jgh gS vkSj yxrk gS( tSls vHkh&vHkh
jksrs&jksrs pqi gqbZ gSA ;qxhu xfrfof/k;k¡ eu dks >d>ksj dj pqdh gS] O;fDr&O;fDr eqew’kZ gks pqdk gSA yxrk
gS] ekrk vius ?kj esa gh izokfluh lh gks xbZ gSA bldh rhl dksfV larkusa fuoZL= gS] Hkw[kh gS] vY;kpkjksa ds
izHkko esa nfer] “kksf’kr gaSA n;uh;rk ;gk¡ rd vk igq¡ph gS fd lHkh fuoZL= gks x, gaSA bldh larkuksa dh
;g fLFkfrxr ekfeZdrk&fu/kZurk] vf’k{kk] vlH;rk vkSj ew<+rk ns[kdj Hkkjr ekrk Lo;a fdlh isM+ dh Nk;k
esa fuokl djus yxh gaSA
bl ekrk ds ikl vkHkw’k.k ds :i esa /kku ds iks/ks gaS] ysfdu] ;s Hkh nwljkas ds v/khu gSaSA ijo’k gqbZ
;g viuh oLrq dk Hkh mi;ksx ugh dj ik jgh gS rFkk og fcYdqy daBq kxzLr gks pqdh gSA ck/kk&foinkvksa
dh lfg’.kq “kfDr Hkh vkt fdlh dke ugha vk ldhA “kks’k.k] vR;kpkj ds vkxs ;g ekSu gSA “kjn ds panz
dks T;ksa( jkgq us xzl fy;k gSA ;g Øanu dafir gS] eq[k ls cksy ugha QwV jgsA
fdarq] vkt cgqr fnuksa ds ckn mldks lkjk ri&R;kx vpkud lQy gksus yxk gSA og vius Lru
dk vfgalke; ve`r viuh larkuksa dks fiykus yxh gSA blls txr dk eu&ekul gf’kZr gksus yxk gS] lalkj
dk Hkze:ih va/kdkj feVus yxk gS vkSj ,d fodkl dh fLFkfr fu[kj vk;h gSA bl dfork esa xk¡/kh th ds
lR;&vfgalk ozr ds Áfr dfo vkLFkke; fn[kyk;h iM+rk gSA
vFkok
ekuo thou ds nks igyw gS& ,d HkkSfrd vkSj nwljk vk/;kfRedA HkkSfrd igyw mlds ckã txg dh
mUufr ls laca/k j[krk gS vkSj vk/;kfRed igyw vUrZtxr~ dh mu~ufr lsA Hkw[k] I;kl] foykl] ,s”o;Z vkfn
vko”;drkvksa dh iwfrZ ds fy, gh ekuo HkkSfrd mUufr dh eafty dh vksj viuk iSj c<+krk gSA blh izdkj
isze] lgkuqHkwfr] n;k] la;e vkfn vk/;kfRed oLrq,¡ gSa vkSj bUgha dh mi;qDr lk/kuk ls ekuo viuh vk/;kfRed
mUufr djrk gSA bUgha Hkkoukvksa dk jgL; dfo ;gka crykrk gS vkSj mls deZ{ks= dh vksj iz;kx djus dks
izsfjr djrk gSA
jpukdkj dk dguk gS fd ;g lalkj ,d deZLFky gSA lalkj ds ftrus tM+ vkSj psru] taxe
vkSj LFkkoj inkFkZ gS] lHkh vius&vius dkeksa eas yxs gq, gaSA dksbZ csdkj cSBk ugha gS blfy, dfo dgrk gS
& ^rqPN i= dh Hkh LodeZ esa dSlh rRijrk gSA* bl rjg lalkj ds izR;sd izk.kh dk ,d&u&,d mÌs”; gksrk
gS vkSj og mÌs’; gS vf/kd&ls&vf/kd lsok djukA blfy, lalkj esa euq’; dks oS;fDrd lq[k ds fy, bruk
fpafrr ugh gksuk pkfg,] ftruk fd vf[ky HkweM a y ds lq[k ds fy,A
;gka dfo dgrk gS fd rqEgkjs thou dk mÌs’; ^ihfM+rkas dh lsok djuk* gksuk pkfg,A
rqEgkjh jkg esa dfBukb;ksa ds Hk;adj rwQku Hkh vk;sa] rc Hkh rqEgsa viuh jkg ls fopfyr ugha gksuk pkfg,A
dfo n`<+ izfrK] dÙkZO;ijk;.k] vk’kkoknh vkSj tkx:d gksus dk mins’k nsrk gS vkSj crykrk gS fd
ln~xq.k] lkgl] lR; “kwjrk vkfn fof’k’V xq.k bZ’oj us ekuoksa dks blfy, fn;s gaS fd ekuo volj ikdj lalkj
ds dY;k.kkFkZ vius bu xq.kksa dk forj.k djsAa bruk t:j gS fd ;g lalkj euq’; ds fy, ,d ijh{kk&LFky
gS] tgk¡ thou esa dBksj iz’uksa dk lkeuk djuk iM+rk gSA fdlh dfo us Bhd gh dgk gS--
ÞfdUrq LokRecy&foK iq:’k gh Bhd igq¡p vVdy lsA
gy djrs gS iz’u lgt esa vfojy es/kk&cy lsAß
dfo iqu% dgrk gS fd rqEgsa nq[kksa ls ?kcjkdj ou dk vkJ; ugha ysuk pkfg,] ;g rks iyk;uoknh
n`f’Vdks.k gSA nq%[k gh lq[k dk tud gS( ln~xq.kksa dk firk gSA vr,o nq%[kksa dks >syus ls vkRecy dh o`f)
gksrh gSA ewy #i ls ;gka dfo tXkr ds dY;k.k esa fujr gksus dk mins’k nsrk gSA
-----------------------------------------------------------------------
lsV&8
fgUnh ¼50 vad½

le;% 1 ?kaVk 37½ feuV iw.kkZad&50


ijh{kkFkhZ ds fy;s funsZ'k %
1- ijh{kkFkhZ ;FkklaHko vius 'kCnksa esa gh mÙkj nsAa
2- nkfguh vksj gkf'k;s ij fn;s gq, vad iw.kkZad fufnZ"V djrs gSaA
3- ijh{kkFkhZ izR;sd mÙkj ds lkFk iz'u la[;k vo'; fy[ksaA

iz'u

1-la{ksi.k djs%a & 5


eksckby us geas okpky cukus ds lkFk&lkFk gekjh fprau'khyrk vkSj /;ku 'kfDr dks Hkh de fd;k
gSA Nk= thou ij bldk O;kid dqizHkko iM+k gSA i<+kbZ esa O;o/kku iSnk gksrk gSaA Nk= pkgdj Hkh fparu
euu ugha dj ikrs] bldk dkj.k eksckby ls c<+rh fudVrk gSA T;knk nsj rd eksckby ls fpids jgus ds
dkj.k Nk= viuk dherh oDr Hkh x¡ok;k djrs gaSA ekufld Lrj ij Hkh eksckby us ml 'kkafr dks Nhuk gS
tks thou ls lqdwu ds fy, vko';d gS A
2- fdlh ,d fo"k; ij fuca/k fyf[k,% 10
¼d½ lapkj Økafr
¼[k½ le; dk egÙo
¼x½ lnkpkj dk egÙo
¼?k½ Lora=rk fnol
¼M+½ Hkkjr&ikd lEcU/k

3-okD; iz;ksx }kjk fyax fu.kZ; dhft,% 1×5 ¾ 5


pknj] rhj] ifg;k] f[kykSuk] >hyA

4-nks&nks i;kZ;okph 'kCn fyf[k,% 1×5 ¾ 5


gkFkh] leqnz] vk¡[k] x.ks'k] vkdk'kA

5- okD; }kjk eqgkojksa ds vFkZ Li"V dhft,% 1×5 ¾ 5


¼d½ ukd dk cky gksukA
¼[k½ ckr c<+kukA
¼x½ ik¡o ilkjukA
¼?k½ yky&ihyk gksukA
¼M+½ flj&Å¡pk gksukA
6- ^dfooj johUnzukFk Bkdqj* ikB dk lkjka'k fyf[k,% 7
vFkok
Hkdksfy;k dk pfj=&fp=.k vius 'kCnkas esa dhft,A
7- ^fgeky; dk lans'k* dfork esa dfo us D;k lans'k fn;k gS] 7
fyf[k,A
vFkok
^lqUnj dk /;ku dgha lqUnj* 'kh"kZd dfork dk HkkokFkZ fyf[k,A
8- vFkZ Li"V dhft,& 5
ek¡xs ?kVr jghe in] fdrkS djkS cM+ dkeA
rhu iSj olq/kk djh] rm ckouS ukeAA
vFkok
vius mÙkjnkf;Ro dk Kku cgq/kk gekjs ladqfpr O;ogkjksa dk lq/kkjd gksrk gSA
lsV&8
mÙkj& 50 vad
1- 'kh"kZd& eksckby ¼'kCn la[;k&28½
lapkj Økafr us eksckby ds :i esa gesa v'kkafr dk ,d f[kykSuk feyk gSA eksckby us gekjs lq[k&pSu] fparu]
euu lc&dqN Nhu fy;k gSA
2-¼d½ lapkj Økafr
Hkkjr ns'k esa ^olq/kSo dqVqEcde* dk fopkj lnSo ls gh iYyfor gksrk jgk gS A ;g fopkj vc lapkj
ds ek/;e ls vkSj lkdkj gks mBk gSA fo'o ds mUur ns'kksa us lapkj ds vk/kqfudre rjhdks]a [kkstksa vkSj iwjs
fo'o ij ncnck LFkkfir fd;kA vkt Hkkjr Hkh lapkj Økafr esa vxz.kh ns'k cu x;k gSA
lapkj dk vFkZ gS& lans'k Hkstus ds lk/kuA bu lk/kuksa esa Mkd&rkj] ehfM;k] nwjHkk"k vkfn lk/ku
vk tkrs gSaA ^lapkj Økafr ls vk'k; gS& ,sls lk/kuksa dk vk'p;Ztud rjhds ls vR;f/kd la[;k esa bdÎs gks
tkukA vkt ns'k esa VsfyQksu] Mkd&rkj] eksckby] jsfM;ks] nwjn'kZu] dksfj;j] bUVjusV tSls vufxur lk/ku
miyC/k gks x;s gSaA vkt viuk lans'k Hkstuk bruk ljy ]lLrk vkSj ltg gks x;k gS fd lapkj ds {ks= esa
vk'p;Ztud Økafr mRiUu gks x;h gSA
Hkkjr ,d fodkl'khy jk"Vª gSA ;gk¡ lapkj ds lk/kuksa esa Mkd lsok xzkeh.k {ks=ksa dk lcls izpfyr
lk/ku gSA blds ek/;e ls xzkeh.k tu vusd izdkj ds ykHk mBk jgs gaSA Mkd lsok us vusd ;kstuk,¡ izkjaHk
djds csjkstxkj yksxksa dks jkstxkj Hkh iznku fd;kA
Hkkjr dh turk dk lcls yksdfiz; lapkj lk/ku gS& nwjHkk"kA vkt ns'k esa djksM+ksa yksx dk nwjHkk"k
mi;ksx djrs gSA xk¡o&dLcksa esa Hkh nwjHkk"k dk iz;ksx gksrk gSA bl lk/ku us xk¡o&'kgj] ns'k&fons'k dh nwjh
feVk nh gSA nwjHkk"k esa lcls vf/kd mi;ksx eksckby Qksu dk gks jgk gSA ftlls ?kj cSBs fdlh dh Hkh fofM;ks
ns[kdj ckrsa dj ldrs gaSA ,d eksckby daiuh us rks viuk Lyksxu gh fudkyk Fkk &^dj yks nqfu;k eqÎh
esaA okLro esa vkt eksckby ds ek/;e ls nqfu;k eqÎh esa gh gSA
b.VjusV Hkh lapkj dk ,d cM+k lk/ku cu x;k gSA vkt i<+kbZ& fy[kkbZ ls lacaf/kr dk;Z b.VjusV
ij gks jgs gSa A bl ij vius lans'k cgqr de ewY; ij Hksts o izkIr fd, tkrs gaSA ftlls le; dh cpr
gksrh A blds fy, dEI;wVj] LekVZ eksckby rFkk b.VjusV gksuk vko';d gSA blds ek/;e ls [kjhn&fcØh]
eafM;ks vkSj 'ks;j cktkj ij utj j[k ldrs gaSA vius mRiknu vkSj lsokvksa dk foKkiu dj ldrs gaSA
jsfM;ks vkSj nwjn'kZu lewg lapkj ds yksdfiz; lk/ku gSa A lekt esa ;|fi i=&if=dkvksa dh Hkwfedk
de ugha gqbZ gSa ] fQj vkd"kZd de vo'; gqvk gSA vc 24 ?kaVs lekpkj pSuy pyrs jgrs gSaA orZeku esa
nwjn'kZu lcdk fiz; lk/ku gSA
lapkj Økafr dk lcls cM+k ykHk ;g gqvk gS fd ekuo&ekuo dh nwfj;k¡ de gks x;h gSA fo'o dh
lHkh tkudkfj;k¡ lcdks miyC/k gksus yxh gSaA blds dkj.k yksxkas dk thou Lrj mUur gqvk gSA lcds fy,
fodkl ds leku Lrj miyC/k gks x;s gaSA
lapkj Økafr dh cM+h gkfu gS& 'kksj dk c<+ukA pkjksa vksj eksckby ?kafV;k¡] nwjn'kZu] baVjusV ls fudy
jgh jsfM;'ku [krjs mRiUu dj jgh gSaA blls vkneh dk vkjke lekIr gks jgk gSaA mls lapkj Økafr dh
'kksj&'kjkcksa dh laLd`fr ls cpuk gksxk rHkh og blds ykHkksa dks Hkyh&Hkk¡fr izkIr dj ldsxkA

¼[k½ le; dk egÙo


csatkfeu ÝSadfyu dk dFku gS& ^rqEgas vius thou ls izse gS] rks le; dks O;FkZ er xWaokvks D;ksafd
thou blh ls cuk gS*A le; dks u"V djuk thou dks u"V djuk gSA le; gh rks thou gSA bZ'oj ,d
ckj ,d gh {k.k nsrk gS vkSj nwljk {k.k nsus ls igys mls Nhu ysrk gSA
le; ds lnqi;ksx dk vFkZ gS&mfpr volj ij mfpr dk;Z dks iwjk dj ysukA tks yksx vkt dk
dke dy ij vkSj dy dk dke ijlkas ij Vkyrs jgrs gSa] os ,d izdkj ls vius fy, tatky [kM+k djrs pys
tkrs gSaA tks Nk= i<+us ds le; ugha i<+rs] os ifj.kke vkus ij jksrs gh gSaA
le; fdlh ds fy, :drk ugha gSA ftls mldk lkFkZd mi;ksx djus dh mRdaBk gS] mls rS;kj
gksdj mlds vkus dh vfxze izrh{kk djuh pkfg,A tks le; ds fudy tkus ij mlds ihNs nkSM+rs gSa] os ftanxh
esa lnk f?klVrss jgrs gSaA
tks yksx le; dk lEeku djuk tkurs gSa] og viuh 'kfDr dks dbZ xquk c<+k ysrh gSaA ;fn lHkh
xkfM+;k¡ vius fuf'pr le; ls pyus yxas rks ns'k esa fdruh dk;Zdq'kyrk c<+ tk,xhA ;fn dk;kZy; ds dk;Z
Bhd le; ij laiUu gks tk,¡] deZpkjh le; ds ikcan gks]a rks lHkh dk;Z lqfo/kk ls gks ldsx
a As ;fn jksxh dh
Bhd le; ij bykt u gks rks og ekSr dks xys yxk ysrk gSA vr% gesa le; ds egRo dks le>uk pkfg,A
dgk Hkh x;k gS &
^dky djS lks vkt dj] vkt djS lks vcA
iy esa ijyS gks,xh] cgqfj djksxs dcAA*
¼M+½ Hkkjr&ikd lEcU/k
Hkkjr&ikd laca/k] vius dVq&e/kq vk;keksa esa ikfdLrku ds tUe dh dgkuh ls tqM+k
gSA ikfdLrku ds bfrgkldkjksa vksj jktusrkvksa ds vuqlkj mUgksua s Lora=rk dh yM+kbZ u dsoy
fczfV'k ljdkj ls yM+h Fkh] cfYd fgUnw cgql[a ;d ds f[kykQ HkhA vktknh ds le; lkEiznkf;drk]
eqfLye usrkvksa dh dÍjrk vkSj vaxzsth ljdkj dh uhfr;k¡ vkfn us feydj Hkkjr dks nks Hkkxksa
esa ck¡Vdj j[k fn;kA
foHkktu ls bu nksuksa ds chp Toyar leL;k,¡sa mB [kM+h gqbZA nksuksa dh lhekvksa ls
/ku] dtZ] unh&ty] ukxfjd lsokvksa vkfn dk c¡Vokjk vko';d FkkA bu leL;kvksa dk le;
le; ij lek/kku fd;k tk jgk gSA ysfdu vYila[;d dh leL;k] d'ehj&leL;k vkfn dks
ysdj ikfdLrku le;&le; ij vius oSeuL; dk ifjp; nsrk jgk gSA vktknh ds le; d'ehj
ij dck;fy;ksa ds vkØe.k us ;g lkfcr dj fn;k fd ikfdLrku foLrkjoknh uhfr viukrk
gSA ysfdu rRdkyhu jktk gfj flag vkSj vU; usrkvksa ds iz;kl ls d'ehj dks cpk;k x;kA ysfdu
rc Hkh d'ehj dk ,d Hkkx ikd ds vf/kdkj esa jg x;kA 1962 esa Hkkjr&phu ;q) esa ikfdLrku
dks Hkkjr dh enn djuh pkfg, Fkh] ysfdu mlus phu ds lkFk le>kSrk dj nq [krh jxks dks
vkSj nq[kk;kA
vUrjkZ"Vªh; eapksa ij d'ehj dk eqÌk mBkdj ikfdLrku us viuh /kkfeZd dÍjrk vkSj
d'ehj ds eqfLye&cgqy gksus dk ykHk mBkdj bl ij nkok fd;k] ogha Hkkjr us bls viuk vfHké
vax ekukA rc ls ysdj vkt rd ikfdLrku us vius bjkns ugha NksM+s vkSj le;&le; ij d'ehj
dk eqÌk gj txg mBkrk gh jgkA 1965 esa ikfdLrku dk tks eku&enZu gqvk] mlls Hkh mlus
viuk bjknk ugha NksM+k] ;q) us mls cryk fn;k fd Hkkjr dh {kerk D;k gS] ysfdu blds ckn
lSU; 'kfä ij viuk [kpZ c<+kdj og Hkkjr ds lkFk ;q) djus esa rks mls Hk;kud {kfr gqbZ ysfdu
rc Hkh csg;k dh rjg flj mBkrk jgkA ikfdLrku esa ckaxyk ns'k dk lkFk nsuk vkfn dqN ,slh
?kVuk,¡ gaS ftuls Hkkjr vkSj ikfdLrku dk laca/k lq/kj ugha ldkA
d'ehj dh leL;k dks ysdj Hkkjr&ikfdLrku dk lac/a k lkekU; ugha gks ldrk gSA
d'ehj tcfd Hkkjr dk ,d vfHkUu vax gS] ogha ikfdLrku&izf'kf{kr vkradokfn;ksa dk v[kkM+k
gks x;k gSA ikfdlrku us d'ehj esa /kkfeZd dÍjrk dk tgj QSykdj ogk¡ Hkkjr fojks/kh vfHk;ku
pyk;kA /kkfeZd dV~Vjrkokn vkSj HkM+dkusokys lkfgR; dk izlkj&izpkj dj ikfdLrku d'ehj
esa Hkkjr fojks/kh vfHk;ku vHkh rd pyk jgk gSA bruk gh ugha] ikfdLrku esa vkradokn] rksM+QksM+
vkSj l'kó la?k"kZ ds izf'k{k.k gsrq vusd dsUnz gSa] tgk¡ d'ehjh ;qodksa dks izf'k{k.k fn;k tkrk
gSA d'ehj esa tuer laxzg vkfn dh leL;k dks ysdj ikfdLrku vkt Hkh fojks/kh vfHk;ku pyk
jgk gSA blds vykos og iatkc esa vkradokfn;ksa dks lgk;rk nsdj viuk lac/a k lq/kkjus dh txg
fcxkM+ gh jgk gSA
Hkkjr&ikd laca/k dks lgh vatke nsus ds fy, dbZ ckj vUrjkZ"Vªh; igy Hkh gq,] ysfdu
lc csdkj gks x;sA ikfdLrku ds 'kkldksa esa vkt rd dksbZ oSlk O;fä ugha vk;k] tks tufiz;
usrk gksA blhfy, 'kklu ds fy, lc ds lc ogk¡ dh turk esa Hk; dk Hkwr QSykrs jgrs gSa vkSj
blds fy, vko';d gS fd os Hkkjr ls nq'euh cuk;s j[ksAa blls dqN rks jktuhfrd pky vkSj
/kkfeZd dÍjrk vkSj cgqr dqN Hkkjrh; usrkvksa dh vnwjnf'kZrk ,oa dqlhZ&cpko ekufldrk ls
ikfdLrku vkSj Hkkjr dk laca/k lq/kj ugha jgk gSA brus yEcs le; dh xfrfof/k;ksa us ;g cryk;k
gS fd ^fcu Hk; gksfga u izhrÞ rFkk ß [khjk ds eq[k dkV ds efy;r uksu yxk;Þ dh uhfr gh
lgh gSA
var esa ge dg ldrs gSa fd Hkkjr&ikd lac/a k ds chp bruh cM+h njkj gS fd mls ikVuk
dksbZ vklku dk;Z ugha gSA bls dksbZ n`<+ bPNk'kfä gh ikV ldrh gSA vko';drk bl ckr dh
gS fd nksukas gh ns’kksa esa “kkafr vkSj veu&pSu cgky gks ldasA

3- pknj ¼L=h0½& rqe viuh pknj ykvksA


rhj ¼iq0½ & rhj cM+k FkkA
ifg;k¼iq0½ & cSyxkM+h dk ifg;k VwV x;kA
f[kykSuk¼iq0½ & mldk f[kykSuk u;k gSA
>hy ¼L=h0½ & ;g >hy cgqr xgjh gSA
4- nks&nks i;kZ;okph 'kCn fy[kaAs
gkFkh& gLrh] xt
leqnz& tyf/k] lkxj
vk¡[k& us=] u;u
x.ks'k& yEcksnj] x.kifr
vkdk'k& uHk] xxu
5-¼d½ ukd dk cky gksuk ¼vfr'k; nqykjk gksuk½&jes'k vktdy ek¡ dk dguk ekudj ukd dk cky gks x;k
gSA
¼[k½ ckr c<+kuk ¼>xM+k c<+uk½& jkgwy us [ksy&[ksy esa ckr c<+k fn;kA
¼x½ ik¡o ilkjuk ¼vf/kdkj c<+kuk½ & jkS'ku us vius cM+s HkkbZ ds gd ij ik¡o ilkjus ’kq: dj fn,A
¼?k½ yky&ihyk gksuk ¼Øksf/kr gksuk½ & larks"k tjk&lh ckr ij yky&ihys gksus yxkA
¼M+½ flj Å¡pk gksuk ¼;'k c<+kuk½ & csVs jktdqekj ds MkDVj cu tkus ls mlds firk dk flj Å¡pk gks x;kA
6- ßdfooj johUnzukFk BkdqjÞ 'kh"kZd fuca/k esa fo'o dfo] ns'kHkDr johUnzukFk Bkdqj ds O;fDrRo ij izdk'k
Mkyk x;k gSA vkpk;Z gtkjh izlkn f}osnh us mUgsa egku dfo] laxhrK] lekt lq/kkjd] ns'kHkDr cgqHkk"kkfon
,oa dykizseh crk;k gSA os lkfgR; esa izFke Hkkjrh; dfo Fks ftUgsa ukscy iqjLdkj ls iqjLd`r fd;k x;kA os
ekurs Fks fd lkfgR; lsfo;ksa eas Hkh vkil esa izse gksuk pkfg,] bZ";kZ ughaA lp dgk tk, rks bl ikB esa fuca/kdkj
us ßdfooj johUnzukFk BkdqjÞ ds O;fDrRo ,oa d`frRo ij izdk'k Mkyk gSA
vkSipkfjd Ldwy&dWkystksa dh f'k{kk mUgksaus ugha yh FkhA mUgksaus ns'k&fons'k dk i;ZVu Hkh [kwc fd;kA
vFkok
^Hkdksfy;k* eaxj dh iRuh gSA tSlk lh/kk eaxj dk LoHkko gS] oSlk gh lh/kh Hkdksfy;k gSA og jax
esa lkaoyh gSA og eaxj ls fo'ks"k LoLFk gSA og deZB L=h gSA og b/kj&m/kj QqVdj dke djrh gS vkSj dqN
dek ykrh gSA igys Hkdksfy;k Hkh eaxj dh rjg redrh Fkh] f>>drh FkhA mldk Hkh LoHkko eaxj ds LoHkko
ds leku gh FkkA ij ckn esa mlus vius vkiesa lq/kkj ykus dk iz;kl fd;kA eaxj rks T;ksa dk R;ksa jgk] ij
mlus vius dks ifjfLFkfr ds vuqdwy cuk fy;kA og ?kj&?kj tkdj dqVku&filku dk dk;Z djrh Fkh] xkscj
Fkkirh Fkh] ikuh Hkjrh FkhA bl izdkj mlds LoHkko esa dkseyrk vk x;h FkhA
Hkdksfy;k lsok Hkko ls Hkjh FkhA tc eaxj dks v/kdikjh mBh rks mlus cM+h lsok&Hkko dhA bl izdkj
ge ns[krs gSa fd Hkdksfy;k lkekU; nsgkrh vkSjrksa ls fo'ks"kdj etnwjksa dh vkSjrksa ls Åij mBh gqbZ FkhA
7- ßfgeky; dk lans'kÞ 'kh"kZd dfork ds dfo fnudj gaSA ^fnudj* vrhr ds xkSjo xk;d oÙkZeku ds
lw{e nz"Vk vkSj Hkfo"; ds dq'ky lkjFkh ekus tkrs gaSA izLrqr dfork esa bUgksaus ;g crykus dk iz;kl fd;k
gS fd ekufp= ij feyus okys ns'k Hkkjr dk uke ugha gSA Hkkjr dks dsoy Hkwfe ij ugha] cfYd euksa esa LFkkfir
djuk pkfg,A Hkkjr rks lejlrk] vkuUn] ek/kq;Ziw.kZ R;kx] lR;] vfgalk ls ifjiw.kZ gSA
Hkkjr ,d fopkj dk i;kZ; gS ftls ikdj euq"; tkx [kM+k gksrk gS ftlls euq"; dk mn; gksrk gSA
fuLlansg euq"; dh lcls cM+h vkHkk] fnO;rk]mPprk vkSj ifo=rk dk izrhd Hkkjr gSA dfo dguk gS fd Hkkjr
ds bUgha Lo:iksa dks gesa iz.kke vkSj lEeku djuk pkfg,A Hkkjr dk uke O;FkZ cnuke gksus ls cpkus dk LrqR;
iz;kl fd;k gSA ;gh bl dfork dh lkFkZdrk vkSj lans'k Hkh gSA
vFkok
Jh xksiky flag ^usikyh* us izLrqr xhr esa ekuoh; lkSUn;Z vkSj Hkkouk dh Js"Brk dk c[kku fd;k
gSA og bZ'oj ds lkSUn;Z dk mRl gS fdUrq og gekjh Hkkoukvksa ds izfr lnZo ekSu jgrk gSA efUnj] efLtn
vkSj ppZ esa jgus okys nsork ls dgha vf/kd cM+k euq"; ds vanj dk og nsork gS tks e/kqj Loj esa Lo;a dks
O;Dr djrk gSA
Jh xksiky flag usikyh dgrs gSa fd ekuo dks bZ'oj us Kku] /;ku] psruk] lkgl vkSj lkSUn;Z iznku
fd, gaSA og dfBukb;ksa esa dHkh ihNs ugha gVrk gS] og vkxs c<+us vkSj c<+rs jgus dk ekxZ [kkst ysrk gSA
tc og dfBukbZ;ksa vkSj va/kdkj ij fot; izkIr djrk gS rks mlds eq[k ij eqLdku >ydrh gS tks cgqr
gh lqUnj gksrh gSA
bl i`Foh ij lH;rk ^vkSj laLd`fr* dyk vkSj dkS'ky ds ftrus fpà feyrs gS muesa ges euq"; ds
Kku dh efgek vkSj mlds lqanj fopkjks vkSj dYiukvksa dh igpku ns[kus dks feyrh gSA
izd`fr dk lkSUn;Z es?kksa ds xjtus esa] iihgksa dh cksyh esa] cqycqy dh e/kqj vkokt esa Hkh feyrh gS]
ysfdu ekuo }kjk fy[kh xbZ dforkvkas] xhrkas vkSj Hktukas esa tks dYiuk,a( Loj] 'kCn vkSj y; dk Lokn feyrk
gS] og cgqr gh lqanj vkSj egRoiw.kZ gksrk gSA
okLro esa ekuo cM+k gh lkglh vkSj foosd'khy izk.kh gSA og lalkj ds egklkxjksa esa y?kq ty;ku
vkSj cM+&
s cM+s tgkt cukdj lkxj dh Å¡ph ygjksa ls lQyrkiwoZd ikj mrj tkrk gSA ekuo ds vjekuksa
dh dksbZ lhek fuf'pr ugha gSA
8- izLrqr nksgs esa egkdfo jghe dgrs gaS fd ek¡xus ls euq"; dh egÙkk ?kV tkrh gS pkgs og fdruk
gh cM+k dke D;kas u djs\ dfo jghe us dgk gS fd fo".kq us ek= rhu ix pydj iwjh i`Foh dks uki fy;k]
fQj Hkh og okeu gh dgykrs gSaA vFkkZr~ ek¡xuk ,d ?kfV;k dke gS tks eku vkSj e;kZnk dks de djrk gSA
vFkok
izLrqr iafDr;k¡ ^iap ijes'oj* dgkuh ls yh x;h gSA bu iafDr;ksa esa ys[kd us crk;k gS fd iapks esa
ijes'oj dk fuokl gksrk gSA tc euq"; dks vius mÙkjnkf;Ro dk Kku gksrk gS rks mldh ladqfpr euksof`Ùk;k¡
lekIr gks tkrh gSaA mÙkjnkf;Ro vk tkus ij euq"; LokFkZ] bZ";kZ] i{kikr] vKkurk vkfn voxq.kksa dk R;kx
dj nsrk gSA og vius dÙkZO; dk fuoZgu djus esa l{ke gks ikrk gSA
------------------------------------------------------------
lsV&9
fgUnh ¼50 vad½
le;% 1 ?kaVk 37½ feuV iw.kkZad% 50

ijh{kkFkhZ ds fy;s funsZ'k %


1- ijh{kkFkhZ ;FkklaHko vius 'kCnksa esa gh mÙkj nsAa
2- nkfguh vksj gkf'k;s ij fn;s gq, vad iw.kkZad fufnZ"V djrs gSaA
3- ijh{kkFkhZ izR;sd mÙkj ds lkFk iz'u la[;k vo'; fy[ksaA

iz'u
1-fuEufyf[kr vorj.k dk la{ksi.k djs% 5
ns'k HkDr viuh ekr`Hkwfe dks lPps ân; ls I;kj djrk gSa ;fn ,d vksj mls vius Lof.kZe vrhr ij
xoZ gS] rks nwljh vksj og vius Hkfo"; dks Hkh mTtoy cukuk pkgrk gSA og lnSo lekt esa Økafr pkgrk
gSA og lekt esa iz;fpr :f<+;ksa vkSj va/kfuo'oklksa rFkk mu ijaijkvksa vkSj ifjikfV;ksa ds fo:) Økafr djrk
gS] tks ns'k dh mUufr ds iFk esa ck/kk,¡ gSA yksxksa esa ,drk] izse vkSj lgkuqHkwfr mRiUu djuk] muesa jk"Vªh;]
lkekftd ,oa uSfrd psruk tkx`fr djuk vkSj mUgs dÙkZO;ijk;.k rFkk v/;olk;h cus jgus ds fy, izksRlkgu
nsuk gh ns'k HkfDr gSA
2- fdlh ,d ij fuca/k fy[ksa% 10
¼d½ 'kS{kf.kd ;k=k
¼[k½ esjh fiz; _rq
¼x½ iafMr tokgjyky usg:
¼?k½ vuq'kklu

3- okD; iz;ksx }kjk fyax fu.kZ; djsAa 1×5 ¾ 5


buke] ijh{kk] vdky] vuqjkx] vkrad

4- nks&nks i;kZ;okph fy[ksaA 1×5 ¾ 5


ia{kh] o`{k] jktk] xaxk] rkykc]
5- okD; }kjk eqgkojksa dk vFkZ Li"V dhft,A 1×5 ¾ 5
¼d½ eq¡g yxkuk
¼[k½ flj ?kweuk
¼x½ Hkhaxh fcYyh cuuk
¼?k½ dku Hkjuk
¼?k½ Jh x.ks'k djuk

6- jke/kkjh flag fnudj dk dfo ifjp; nhft,A 7½

vFkok
^Hkkjr ekrk xzkeokfluh* dfork dk HkkokFkZ fyf[k,A

7- jkeo`{k csuhiqjh }kjk jfpr ^eaxj* 'kh"kZd ikB dk lkjka'k fyf[k,A 7½

vFkok
gtkjh izlkn f}osnh us dfooj johUnzukFk Bkdqj ds thou vkSj O;fDrRo dk tks ifjp; izLrqr fd;k
gS ml ij la{ksi esa izdk'k Mkfy,A
8- vFkZ Li"V dhft,A 5
ftudh dfBu dekbZ dk Qy [kkdj cM+s gq, gksA --------
NksM+ mUgsa dk;j cudj rqe Hkkx cls futZu esAa A
vFkok
nqfu;k ns[kh ij dqN u feyk] rq>dks ns[kk lc dqN ik;k
lalkj&Kku dh efgek ls] fiz; dh igpku
dgha lqUnj rsjh eqLdku dgha lqUnjA
lsV&9
mÙkj& 50 vad

1- 'kh"kZd& lPph ns'kHkfDr


ns'kHkDr esa lPpk ns'kizse gksrk gSA og vrhr ij xoZ ugha djrk] Hkfo"; dk fuekZ.k Hkh
djuk pkgrk gSA og lkekftd :f<+;ksa dk fojks/k djrk gS vkSj yksxksa esas ln~Hkko] cgqeq[kh psruk
,oa deZBrk dk fodkl djrk gSA lPph ns'kHkfDr ;gh gSA]
ewy vorj.k dh 'kCn la[;k& 95
la{ksi.k la[;k& 44

2 ¼d½ 'kS{kf.kd ;k=k


Nk=ksa ds fy, 'kS{kf.kd ;k=k cgqr mi;ksxh gksrh gSA ;g Nk=ksa dks fofHké LFkkuksa dks ns[kus
esa leFkZ cukrh gSA tc os fofHké LFkkuksa dks ns[krs gSa rc os cgqr ckrsa lh[krs gSaA 'kS{kf.kd ;k=k
muds Kku dks c<+krh gS vkSj muds n`f"Vdks.k dks mnkj cukrh gSA xr o"kZ esjs fo|ky; ds
iz/kkuk/;kid us ,d 'kS{kf.kd ;k=k dh O;oLFkk dhA esjs fo|ky; ds chl Nk=ksa us Hkkx ysus
dk fu'p; fd;kA eSa dqN euksjatd LFkkuksa dks ns[kus ds fy, cgqr mRlqd FkkA blfy, eSaus
Hkh ;k=k esa lfEefyr gksus dk fu'p; fd;kA
geyksxksa us ;k=k ds fy, dqN rS;kfj;k¡ dhaA ;k=k ds fy, gesa ljdkj ls dqN :i, feys
FksA ysfdu os gekjs [kpZ ds fy, i;kZIr ugha FksA blfy, geyksxksa us ;k=k ds fy, :i, fn;sA
geyksxksa us fdjk, dh NwV ds fy, jsyos ds vf/kdkfj;ksa ds ikl vkosnu&i= fn;kA esjs fo|ky;
ds iz/kkuk/;kid geyksxksa ds lkFk tkus dks rS;kj gks x,A
fuf’pr frfFk dks ge lc LVs'ku ij ,df=r gq,A ge fVdV dVkdj xkM+h dh izrh{kk
djus yxsA tc xkM+h vkbZ rks ge ,d MCcs esa p<+ x,A gekjh ;k=k cgqr vkuannk;d FkhA vxys
fnu ge fnYyh igq¡psA
ge ,d gksVy esa BgjsA ge cgqr Fkd x, FksA blfy, geyksxksa us dqN nsj rd vkjke
fd;kA rc ge rS;kj gksdj ckgj fudy x,A ge fnYyh esa pkj fnuksa rd jgsA geyksxksa us yky
fdyk] laln Hkou] jsfM;ks LVs'ku ] dqrqc ehukj] tarj earj vkSj fcM+yk eafnj ns[kkA rc geyksxksa
us vkxjk ds fy, xkM+h idM+hA tc ge vkxjk igq¡ps rc ge jkr&Hkj ds fy, ,d gksVy esa
BgjsA pk¡nuh jkr FkhA geyksxksa us pk¡nuh esa rktegy ds lkSan;Z dk vkuan mBk;kA eSusa fdrkcksa
esa rktegy ds ckjs esa i<+k Fkk] ysfdu mls dHkh ugha ns[kk FkkA eSa mlds lkSan;Z ij eksfgr gks
x;kA og pk¡nuh esa ped jgk FkkA gesa yxrk Fkk fd tSls og pk¡nh dk cuk gqvk gksA gekjs
vkuan dk ikjkokj ugha FkkA gesa yxrk Fkk fd tSls ge lkSan;Z ds lalkj esa [kks x, gksAa ge
cgqr nsj rd rktegy dks ,dVd ns[krs jgsA vk/kh jkr dks ge vius gksVy esa igq¡psA vxys
fnu ge Qrsgiqj fldjh x,A bl lqulku 'kgj esa tkus ij gesa nq% [k gqvkA ;|fi bl 'kgj
dh cukoV egku vkSj HkO; gSa] fQj Hkh os fcydqy [kkyh gSaA gesa ekywe fd vdcj us pkj lkS
o"kZ igys bl 'kgj dk fuekZ.k fd;k FkkA ykSVrs le; geus okjk.klh esa mrjdj fganw fo'ofo|ky;
ns[kus x, A mlds ckn ge lc ?kj ykSV x,A
gekjh 'kS{kf.kd ;k=k cgqr vkuannk;d vkSj mi;ksxh jghA geus dqN euksjatd LFkkuksa
dks ns[kkA ;k=k ls gekjk Kku c<+k vkSj gekjs n`f"Vdks.k mnkj gq,A geyksxksa us ftu LFkkuksa dh
;k=k dh ] muds ckjs esa Hkh cgqr&dqN lh[kkA bl ;k=k ls gesa vius ns'k ds bfrgkl ds ckjs
esa tkudkjh gqbZA ;g ;k=k vo'; gh gekjs fy, ,d vkuannk;d vuqHko FkhA
izR;sd fo|ky; dks 'kS{kf.kd ;k=kvksa dh O;oLFkk djuh pkfg,A tks fo|ky; 'kS{kf.kd
;k=k dk izca/k ugha djrk] og f'k{kk dk vkn'kZ dsanz ugha cu ldrkA lp rks ;g gS fd ,slh
fLFkfr esa cPpksa dk Hkjiwj euksjatu ,oa KkuktZu Hkh gksrk gSA
¼[k½ esjh lcls fiz; _rq
izR;sd _rq ekuo thou dks izHkkfor djrh gSaA eq[;r% gekjs ns'k esa pkj _rq,¡ gksrh gSa&
xzh"e] o"kkZ] tkM+k vkSj olarA fofHké _rqvksa dk viuk fo'ks"k lkSan;Z vkSj vkd"kZ.k gksrk gSa A
xzh"e_rq esa ehBs vke feyrs gSa] o"kkZ_rq tyrh /kjrh dks thou iznku djrh gS vkSj tkM+k gesa
vkuafnr djrk gSA izR;sd _rq vPNh gksrh gSA
fofHké yksx fofHké _rqvksa dks ilan djrs gSaA izR;sd O;fä dh viuh ilan vkSj ukilan
gksrh gSA eSa lHkh _rqvksa esa olar_rq dks lcls vf/kd ilan djrk gw¡A olar okLro esa o"kZ dh
loksZÙke _rq gSA vf/kdrj yksx bl _rq dks ilan djrs gSaA ;g dfo;ksa dh fiz; _rq gSA bls
_rqvksa dh jktk dgk tkrk gSA
olar tkM+k ds ckn vkrk gSa A ;g Qjojh ds e/; esa izkjHk gksrk gS vkSj viSzy ds e/; rd
jgrk gSA tc olar vkrk gS rc i`Foh lqanj vkSj vkd"kZd yxus yxrh gSA o`{kksa esa u, iÙksa
fudyrs gSaA izd`fr vkd"kZd yxrh gaSA bl _rq esa vusd izdkj ds lqanj Qwy f[kyrs gSaA lqanj
xqykc gekjk eu eksg ysrs gSaA tc ge Qqyokjh esa Vgyrs gSa rc ge Qwyksa ds pedhys jaxksa ij
eqX/k gks tkrs gSaA
oLrqr%] olar lqanj Qwyksa dh _rq gSA bl _rq esa e/kqefD[k;k¡ cgqr O;Lr jgrh gSaA os
e/kq dh [kkst esa ,d Qwy ls nwljs Qwy ij tkrh gSaA ge lqanj frrfy;ksa dks mM+rs gq, ns[krs
gSaA os cPpksa dks vkdf"kZr djrh gSaA
olar+_rq ds fnu cgqr vkuannk;d gksrs gSaA olar esa u xehZ jgrh gS] u tkM+kA ;g cgqr
lq[knk;d gksrk gSA ;g LokLF; ds fy, Hkh vPNk gksrk gS A
olar_rq esa euksje /ofu;k¡ lqukbZ iM+rh gSaA Qqyokjh esa HkuHkukrh gqbZ e/kqefD[k;k¡ gesa
vkuafnr dj nsrh gSaA dks;y vkuan ls ikxy gks tkrh gSA blds e/kqj Loj ij ge ea=eqX/k gks
tkrs gSaA izkr%dky ge isM+ksa ij if{k;ksa dks pgpgkrs gq, ns[krs &lqurs gSaA
olar esa Qly ds [ksrksa esa Vgyuk vkuannk;d gksrk gSA gjs ikS/ks gekjh vk¡[kksa dks izlé
dj nsrs gSaA ljlksa ds ihys Qwy gok esa QM+QMk+rs gSaA /kjrh gjk oó /kkj.k dj ysrh gSA olar
bls LoxZ esa cny nsrk gSA
eSa olar dks lcls vf/kd ilan djrk gw¡ D;ksafd ;g vR;ar vkuan nsrk gSA tkM+s dh vR;f/kd
Ba<+d ds dkj.k eSa mlls ?k`.kk djrk gw¡A xzh"e dh fpyfpykrh /kwi ls eq>s Hk; yxrk gSA eSa
o"kkZ ds dhpM+ vkSj xanxh dks ukilan djrk gw¡A olar gh eq>s vkdf"kZr djrk gSA ;g vlk/kkj.k
lkSan;Z vkSj vkd"kZ.k ykrk gSA blfy, ;g eq>s cgqr vkuafnr djrk gSA
olar ds lkSan;Z dks ns[kdj ge viuh fparkvksa vkSj d"Vksa dks Hkwy tkrs gSaA ;fn gesa ns[kus
ds fy, vk¡[ksa gSa] lquus ds fy, dku gSa] rks ge olar esa cgqr vkuannk;d izzkIr dj ik,¡xsA
¼x½ ia0 tokgjyky usg:
- Hkkjr ds izFke iz/kkuea=h ds :i esa iafMr tokgjyky usg: iafMr eksrhyky usg: ds ,dek=
iq= FksA os ;ksX; firk ds ;ksX; iq= FksA 14 uoacj] 1889 dks bykgkckn esa mudk tUe gqvk FkkA
os ,d dqyhu ifjokj ds FksA mUgksaus ?kj ij gh izkjafHkd f'k{kk izkIr dh FkhA
tc mudk ifjokj ;wjksi&Hkze.k ds fy, x;k rc os baxySaM ds gSjks uked LFkku ds Ldwy
esa Hkjrh djk fn, x,A mUgksua s gSjks vkSj dSafczt esa f'k{kk izkIr dhA 1912 bZ- esa os ^ckj&,V&yk*
gks x,A mUgksaus fganqLrku ykSVdj bykgkckn gkbZdksVZ esa odkyr vkjaHk dhA
;|fi mUgksaus odkyr vkjaHk dh Fkh] rFkkfi mudk eu bl is'ks esa ugha yxrk FkkA muds
HkkX; esa cM+k vkneh gksuk fy[kk FkkA os LokHkkfod :i ls jktuhfr dh vksj vkdf"kZr FksA
os tYn gh Hkkjro"kZ esa ,d izeq[k O;fä gks x,A turk mUgsa bruk I;kj djrh vkSj vknj
nsrh Fkh fd os 1929 bZ0 esa bafM;u us'kuy dk¡xzsl ds lHkkifr pqus x,A ml le; ls os dbZ
ckj bafM;u us'kuy dk¡xzsl ds lHkkifr Hkh pqus x,A
mudk iwjk thou Hkkjro"kZ dh Lora=rk ds fy, yM+h xbZ yM+kbZ dk gh bfrgkl gSa A
eq[; lfpo ds :i esa Hkh mUgksua s cgqr o"kksZ rd dk¡xzsl dh lsok dhA cgqr&lh lfefr;ksa ,oa
lEesyuksa ls Hkh mudk lac/a k FkkA os vius thou ds vafre {k.kksa rd Hkkjro"kZ ds iz/kkuea=h jgsA
iafMr usg: lR;fu"B] bZekunkj ,oa izrkih O;fä FksA muesa vkRefoyksiu ,oa le>kSrk djus
dh vn~Hkqr {kerk FkhA bfrgkl esa muds R;kx ,oa cfynku dh dksbZ cjkcjh ugha dj ldrkA
vkRecfynku ds os vf}rh; mnkgj.k FksA muesa vn~Hkqr 'kfä ,oa ;ksX;rk FkhA cq<kis esa Hkh os
yack rwQkuh nkSjk djrs Fks vkSj ?kaVksa viuk dk;Z fd;k djrs FksA os cM+s fo}ku Fks vkSj mUgksaus
dbZ fo}Ùkkiw.kZ iqLrdsa Hkh fy[kha FkhaA
fganqLrku dh Lora=rk dh /otk dks Å¡pk j[kus ,oa fganqLrku dks ;'kLoh cukus esa mudk
uke xoZ ls fy;k tk,xkA
¼?k½ vuq'kklu

vuq'kklu thou ds lHkh {ks=ksa esa vko';d gS] Ldwy esa ;k ?kj es]a dk;kZy; esa ;k dkj[kkus
es]a [ksy ds eSnku esa ;k ;q)&{ks= esa] lHkh txg vuq'kklu vko';d gSA vuq'kklu vko';d
gSA vuq'kklu ds fcuk iw.kZr% vjktdrk ,oa vfu;ferrk QSy tk,xhA ;gh dkj.k gS fd vkt
vuq'kklu ds ikyu ij bruk tksj fn;k tkrk
Ldwy esa vxj yM+ds vuq'kklughu gks tk,¡ rks f'k{kdksa ds fy, Ldwy dk dk;Z l¡Hkkyuk
dfBu gks tk,xkA Lo;a yM+ds dqN ugha lh[ksx a s vkSj f'k{kk dk mÌs'; Hkh iwjk ugha gksxkA blh
rjg v/khuLFk deZpkjh dk;kZy;ksa ,oa dkj[kkuksa esa vius ofj"B inkf/kdkfj;ksa dh vkKk u ekusa
rks mRiknu ,oa O;oLkk; dk dk;Z djuk nq"dj gks tk,xkA tjk [;ky djsa] vxj yksdlsod
vuq'kklughu gks tk,¡ vkSj vius bPNkuqlkj dk;Z djus yxsa rks ns'k dh D;k n'kk gksxh\ rc
dksbZ ;kstuk ,oa laxBu ugha jgsxkA mlh rjg vxj lsuk ,oa vkj{kh vius tsujy ,oa dekaMj
dh vkKk ekuuk vLohdkj dj nsa rks 'k=q ,oa xqaMksa dks ns'k ij viuk vf/kdkj LFkkfir djus
esa dqN nsj u yxsxhA bl rjg vuq'kklughu jk"Vª ,d Hkh {k.k Lora= jgus dh vk'kk ugha dj
ldrkA ?kj ,oa [ksy ds eSnku tSls NksVs LFkkuksa esa Hkh yksx vuq'kklu ds fcuk dk;Z ugha dj
ldrsA vxj ifjokj esa vuq'kklu ugha jgs rks ifjokj ds lHkh yksx euekuk dk;Z djus yxsaxsA
rc ifjokj esa 'kkafr ,oa O;oLFkk u jg ldsxhA [ksy ds eSnku esa vxj f[kykM+h [ksy ds fu;eksa
,oa jsQjh dh vkKk dk ikyu u djsa rks [ksy gks gh ugha ldrkA
- vuq'kklu vPNh pht gS vkSj blesa dqN Hkh cqjkbZ ugha gSA ;g pfj= dk fuekZ.k djrk gS
rFkk ,drk ,oa lg;ksx dh Hkkouk dk fodkl djrk gSA blfy, ;g vko';d gS fd yM+dksa
dks cpiu ls vuq'kklu fl[kk;k tk,A bldh mis{kk dHkh ugh djuh pkfg, D;ksfa d thou dh
lQyrk dk jgL; ;gh gSA bl rF; ls budkj ugha fd;k tk ldrkA
3- buke¼iq0½& xkSjo dks fØdsV esa buke feyk
ijh{kk ¼L=h0½& esjh baVj dh ijh{kk [kRe gks xbZA
'kjkc ¼L=h0½&fcgkj esa 'kjkc can gks xbZA
vdky ¼iq0½& vdky iM+ x;k gSA
vuqjkx ¼iq0½& mls vuqjkx gks x;k A
vkrad ¼iq0½& tEew vkSj d'ehj esa vkrad QSy x;kA
4 ia{kh] o`{k] jktk] xaxk] rkykc]
ia{kh& [kx] fogx
o`{k& isM] foVi
jktk& ujs'k] u`i
xaxk& nsounh] HkkxhjFkh
rkykc& ljksoj] iq"dj
5 ¼d½ eq¡g yxkuk¼<+hB cukuk½& bdykSrk csVk gksus dk urhtk Fkk fd 'kekZ th us mls eq¡g
yxk j[k FkkA
¼[k½ flj /kweuk ¼?kcM+k tkuk½& vpkud lk¡i dks jkLrs ij ns[kdj esjk rks flj ?kweus yxkA
¼x½ Hkhaxh fcYyh cuuk ¼Mj tkuk½& jkS'ku ekLVj lkgc dks ns[krs gh Hkhaxh fcYyh cu tkrk
gSaA
¼?k½ dku Hkjuk ¼HkM+dk nsuk ½& esjs fojksf/k;ksa us esjs f[kykQ vktdy fo/kk;d th dks dku
Hkj fn;s gSA
¼M+½ Jh x.ks'k djuk ¼'kq: djuk½& ';ke u;s lky esa QksVks dEiksftax dk Jh x.ks'k fd;kA
6- vkst vkSj mRlkg ds dfo jke/kkjh flag fnudj dh jpukvksa esa HkSjoh dh gqadkj vkSj
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vUrxZr flefj;k uked xk¡o esa lu~ 1908 bZ0 esa gqvkA os cpiu ls gh es/kkoh FksA mudh f'k{kk
esa vM+pusa vkrh jghaA ;g dguk lR; gS fd mPp f'k{kk dh vfHkyk"kk fy, mUgsa jksVh dh ryk'k
es]a ukSdjh djuh iM+hA ysfdu mudh izfrHkk lrr~ xfr'khy jgh vkSj ,d fnu yaxV flag dkWyst
esa LukrdksÙkj fgUnh&foHkkx ds v/;{k cuk;s x;sA fQj 1964 bZ0 esa Hkkxyiqj fo'ofo|ky; ds
dqyifr cuk, x,A ysfdu 1965 bZ0 esa mUgksua s R;kxi= ns fn;kA mlh o"kZ ds var esa bUgsa dsUnzh;
ljdkj dh fgUnh lfefr dk lfpo in fn;k x;kA budh dkO; izfrHkk dk t;?kks"k gj txg
lqukbZ iM+rk gSA
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^fnudj* ds dkO; dh 'kfä thou&ewY;ksa dks O;aftr djus okyh ,slh mfä;ksa ds dkO;kRed
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gSA mudh e`R;q lu~ 1974 bZ0 esa gqbZA
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7-
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'kjhj feyk FkkA dkyk&dywVk&fQj Hkh [kwclwjr\ ,d lEiw.kZ lqfodflr ekuo&iqrys dk mrd`"V
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^lw[kh gkM+ BkB HkbZ Hkkjh& vc dk yncn gs O;kikjhA og xjhch dks vius vD[kM+iu
ls /krk crk;s jgrkA cq<k+ is ds fy, mlus dHkh cpr ugha dhA dksbZ lUrku Hkh ugha jgh] tks
cq<k+ is esa mldh ykBh dk lgkjk curkA mldh csykSl cksyh ds dkj.k dksbZ ml ij n;k Hkh
ugha djrk FkkA
cq<k+ is esa mldh v)kZafxuh Hkdksfy;k us lkFk fn;kA eaxj Hkdksfy;k dh vkn'kZ tksM+h FkhA
Hkdksfy;k dk jax teqfu;k dkyk FkkA mldk LoHkko Hkh eaxj ls esy [kkrk FkkA Hkdksfy;k eaxj
dh iwjh bZekunkjh ls lsok djrh FkhA eaxj dks v)kaZx ekj x;kA fQj Hkh mlesa mQku Fkk ghA
,d fnu mldk fu/ku gks x;k&,d dk:f.kd fu/kuA vPNs yksxksa dks Hkxoku~ Hkh tYnh gh mBk
ysrk gSA
csuhiqjh th dk ;g 'kCnfp= vR;Ur pqLr&nq:Lr ,oa izHkko'kkyh cu iM+k gSA lp gS&
csuhiqjh th dye ds tknwxj FksA mudh Hkk’kk lgt] ljy vkSj izHkkoiw.kZ gSA
vFkok
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esa fo'odfo ds O;fDrRo ds mu i{kksa ij n`f"Vikr fd;k gS tks lkekU; yksxksa dh n`f"V ls vks>y
gks tkrs gSaA
johUnzukFk Bkdqj dh egkurk dk vk/kkj lefiZr Hkko ls ljLorh dh lk/kuk gSA mudh
lk/kuk dk ,dek= mÌs'; euq";rk dh lsok gSA ;gh dkj.k gS fd fcuk fdlh 'kS{kf.kd fMxzh
ds gksrs gq, Hkh og vius Lok/;k;] vFkd~ ifjJe vkSj O;kid ekuoh; n`f"V ds cy ij fo'odfo
ds xkSjo ls foHkwf"kr gq,A
mudk tUe lu~ 1861 esa gqvk FkkA muds firk egf"kZ nsosUnzukFk Bkdqj FksA bl ifjokj
esa vusd /kkfeZd] nk'kZfud] lkfgR; lsoh vkSj f'kYihdkj iq:"kksa us tUe fy;k gSA johUnzukFk Bkdqj
cpiu esa gh ekrk ds nsgkur ds ckn egf"kZ nsosUnz ukFk Bkdqj dh fuxjkuh esa vk x,A Ldwy
dh lk/kkj.k f'k{kk izkIr djus ds ckn] ?kj ij gh jgdj f'k{kk izkIr djus yxsA cpiu ls gh
mUgksua s fofp= cqf)eku gksus dk ifjp; nsuk vkjEHk dj fn;kA 16 o"kZ dh vk;q esa x| vkSj i|
nksuksa esa cgqr vPNh ;ksX;rk fn[kkbZA og laxhr ds iszeh FksA
firk dks og xhr xkdj lqukrs FksA muds xkus ls izlUu gksdj firk us mudks ^cax ns'k
dh cqycqy* dh mikf/k nh FkhA laxhr fo|k ds og iwjs Kkrk FksA og xhrksa ds cukus vkSj xkus
esa u;s&u;s lqjksa dk iz;ksx djrs FksA
johUnzukFk Bkdqj ns'kHkDr dfo FksA mUgksaus ekr`Hkwfe] ns'kizse] ns'kHkDr ij vk/kkfjr
cgqr&lh dfork,¡ fy[kh gSaA mudh dforkvksa esa ^xhrkatyh* fo'o izfl) gSA og lkfgR; esa ukscy
iqjLdkj ikusokys igys Hkkjrh; FksA
Kku&o`f) ds fy, mUgksaus dsoy lEiw.kZ Hkkjr esa gh Hkze.k ugha fd;k] cfYd ;wjksi] vesfjdk]
tkiku Hkh ?kwesaA ^'kkfUr fudsru* johUnzukFk Bkdqj dh ,d mÙke ;knxkj gSA tks vkt fo'o Hkkjrh]
fo'ofo|ky; cu x;k gSA
johUnzukFk Bkdqj us lSdM+ksa iqLrdsa caxyk esa fy[kha gSA og vaxzst Hkk"kk esa fy[kus dh vPNh
;ksX;rk j[kus ij Hkh og ns'kh Hkk"kk esa fy[kuk vPNk le>rs FksA og okLro esa ekuo lsok] izhfr]
dY;k.kdkjh] midkj vkSj ljLorh dh lsok djus dh Hkkouk ls dke djus okys egku O;fDr
FksA mudh jpuk,¡ vkt Hkh gesa izsfjr djrh gSaA
8- dfo dgrk gS& ftudh dfBu dekbZ dk Qy [kkdj rqe cM+s gq, gks vkSj ck/kkvksa esa
Hkh bl fo'kky 'kjhj ds lkFk fuHkZ; [kM+s gks] ftuds cuk;s gq, oóksa ls rqeus viuk 'kjhj <+¡dk
gS vkSj lnhZ&xehZ&o"kkZ ls vius 'kjhj dks ihfM+r gksus ls cpk;k gS] D;k mudk dqN Hkh midkj
dk Hkkj rqe ij ugha gS\ muds izfr D;k rqEgkjk dksbZ dÙkZO; ugha gS\ rqe dk;j ds leku mUgsa
nq%[k dh vfXu esa tyrs gq, NksMd + j futZu ou esa Hkkx vk;s gksA rqe muds nq%[kksa dks lqudj
dsoy fopfyr gksrs gks] fdUrq muds nq%[kksa dks nwj djus dk iz;kl ugha djrs&;g euq"; tkfr
ds fy, ?kksj fuUnk rFkk yTtk dk fo"k; gS A rqe 'kq) izse ds eeZ rFkk mldh efgek ls ifjfpr
gks fdUrq izse&ihM+k ls rqEgkjk fpÙk D;k O;kdqy ugha gksrk\
vFkok
izLrqr iafDr;ksa esa dfo Jh xksiky flag ^usikyh* dgrs gSa fd ekuo dks bZ'oj us Kku]
/;ku] psruk] lkgl vkSj lkSUn;Z iznku dj fn;s gSaA og dfBukbZ;ksa esa dHkh ihNs ugha gVrk gSaA
vkxs c<+us vkSj jgus dk ekxZ [kkst ysrk gSa] tc og dfBukb;ksa vkSj vU/kdkj ij fot; izkIr
djrk gS rks mlds eq¡g ij eqLdku >ydrh gS tks cgqr gh lqUnj gksrh gSA bl dfork esa dfo
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