You are on page 1of 50

भाषा और संस्कृति – कुछ विचार

शंकर दयाल ससंह


भाषा और संस्कृति एक-दस ू रे के पूरक हैं या अनुपूरक? जहां भाषा हमारे भावों को अभभव्यक्तिक
चेिना प्रदान करिी है , वहां संस्कृति मानवीय गररमा और सांस्कृतिक सौष्ठव की संवाहहका है । इसे
इस रूप में भी कहा या समझा जा सकिा है कक भाषा की भी अपनी संस्कृति होिी है और संस्कृति
भाषा के बिना गूंगी होिी है । इसका सिसे िडा प्रमाण हमारा संस्कृि वांग्मय है , क्जसके द्वारा हमें
भाषा और संस्कृति दोनों का अक्षय भंडार प्राप्ि हुआ।

वेद, ब्राह्मण, आरण्यक और उपतनषदों ने जहां सूत्र और संस्कृति की स्थापना की, वह ं अष्टध्यायी
जैसे ग्रंथों की रचना से भाषा का सौष्ठव िढा। िाद में स्मतृ ियों ने इस चेिना को आगे िढाया
िथा रामायण और महाभारि की रचना के िाद धमम, संस्कृति, नीति शौयम, वववेक, मयामदा एवं
राष्रधमम को भाषाई सुदृढिा िो भमल ह , साथ में सांस्कृतिक वैभव भी भमला। कालांिर में इन
महान ग्रंथों द्वारा हमार संस्कृति में अक्षुण्णिा प्राप्ि हुई।

श्रीमिी महादे वी वमाम का कहना है ,

भारिीय संस्कृति का प्रश्न अन्य संस्कृतिय ं से कुछ भभन्न है तयोंकक वह अिीि की वैभव कथा ह
नह ं, विममान की करुणा गाथा भी है । उसकी ववभभन्निा प्रत्येक अध्ययनशील व्यक्ति को कुछ
उलझन में डाल दे िी है। संस्कृति, ववकास के ववववध रूपों की समन्वयात्मक समक्ष्ट है और भारिीय
संस्कृति ववववध संस्कृतियों की समन्वयात्मक समक्ष्ट है । इस प्रकार इसके मूल ित्व को समझने
के भलए हमें अत्यधधक उदार, तनष्पक्ष और व्यापक दृक्ष्टकोण की आवश्यकिा है।

इसके साथ ह उन्होंने इस िाि पर भी िल हदया है कक

भारिीय संस्कृति ववववधिामयी है तयोंकक भारि की प्रकृति अनन्िरूपा है । यह समन्वयवाहदनी है


तयोंकक प्रकृति सभी को स्वीकृति दे िी है । ककसी एक ववचार, एक भावना और एक धारणा की सीमा
उसके भलए िंधन है तयोंकक वह असंख्य नहदयों-स्त्रोिों को अपने में मुक्ति दे नेवाला समुद्र है ।

इस सत्य की पहचान का सूत्र हमें भाषा ह प्रदान करिी है । वह मानव की सज


ृ नात्मक अभभव्यक्ति
को अक्षरों या वाणी द्वारा आकार दे िी है। िभी िो अक्षर को ब्रह्म एवं वाणी को सरस्विी के रूप
में माना गया है। हम कुछ कहना चाहिे हैं, उसे आकार दे ना चाहिे हैं, पूपातयि करिे हैं, िोधों के
भलए भाव को और भावों के भलए भाषा को एक-दस
ू रे से गूंथिे हैं, ििव जाकर कह ं सज
ृ न प्रकिया
परू होिी है।

भाषा उस बत्रवेणी के समान हैं, क्जसकी धाराएं व्यावहाररक जीवन के भलए आवश्यक हैं। इस ववशाल
दे श में भाषाओं की कई सररिें प्रवाहहि होिी हैं जो अन्ििः संस्कृतिरूपी सागर में जाकर रुकिी
हैं। यह कारण है कक दक्षक्षण के सुब्रह्मणयम भारिी का स्वर उत्तर के मैधथलू शरण गुप्ि से स्विः
मेल खािा है। अलवार संिों की वाणी उत्तर भारि के संिों के साथ भमलकर संगम का रूप धर
लेिी है , भले ह खुद दोनों एक-दस
ू रे से कभी न भमलों हों।

भाषा की भभन्निा के िावजूद हमार सांस्कृतिक एकिा हमेशा कायम रह है। कन्याकुमार से लेकर
कश्मीर िक और अरुणाचल से लेकर गुजराि िक फैले इस ववशाल भूखंड को भारिीय संस्कृति
ने ह जोड रखा है। हमार सामाक्जक संस्कृति ककसी कटघरे में कैद नह ं की जा सकिी। ऐसे में
यह दख
ु द है कक कभी-कभी भाषा के वववाद में वपसकर संस्कृति भी वपसने लग पडिी है ।

वाक्ममकी और काल दास से शरु


ु कर कववगरु
ु रवीन्द्र नाथ ठाकुर और महादे वी वमाम िक की यात्रा
करें िो हम पाएंगे कक हमारा अक्षय कोष हमार संस्कृति ह है । यह संस्कृति कभी पहाडों की
चोहटयों से तनधामररि होिी है िो कभी पववत्र नहदयों के िटों से झांकिी है। काभलदास जि नगाधधराज
हहमालय की प्रशस्िी करिे हैं िो उनकी चेिना में केवल हमारा भौगोभलक पररवेश ह नह ं रहिा,
िक्मक सांस्कृतिक धचंिन भी रहिा है । वैहदक ऋचों से लेकर सूकफयों एवं सन्िों की की वाणणयों
िक हमारे पास जो अक्षय भंडार है , वह हमार भाषाई ववरासि की अवगाहहनी है। एक िरफ यहद
िुकाराम, ज्ञानेश्वर, सूरदास, िुलसीदास, किीर, रै दास आहद की परम्परा है िो दस
ू र िरफ रामानन्द,
माधवाचायम और वमलभाचायम की परम्परा। एक का ित्व धचन्िन िो दस
ू रे का भाव िोध, दोनों ह
भाषा के सहारे ह चलिे हैं।

भाषा और संस्कृति दोनों को ह हम एक-दस


ू रे से जोडकर ह दे ख सकिे हैं। अभी हाल में मैं
सूर नाम, हरतनडाड, गयाना, जैसे दे शों की यात्रा पर गया था, जहां की जनसंख्या का आधा भाग
भारिीय मूल के लोगों का है । इनके पूवज
म आज से सौ-डेढ सौ साल पहले मजदरू के रूप में उन
दे शों में गए थे, पर आज वे वहां के माभलक हैं। मैंने उन दे शों के भारिवंभशयों के भीिर क्जस
भारिीयिा के दशमन ककए, उनके मन में हहन्द के प्रति जो प्रेम दे खा, और क्जस िरह वे संस्कृति
को अपने सीने से धचपकाए हुए थे, वैसा आज भारि में भी नह ं है। उनका कहना था, अगर हम
अपनी भाषा की रक्षा नह ं कर सकिे िो हम अपनी संस्कृति से भी अलग हो जाएंगे।
साहहत्य में मानव-मम
ू य
जी. बत्रवेणी

क्जन मान्यिाओं के आधार पर हम अपने को अपने समाज को न केवल धारण और व्यवक्स्थि


कर पािे हैं , िक्मक दोनों में तनहहि लोक मांगभलक संभावनाओं को चररिाथम भी करिे हैं मानव
मूमय कहलािे हैं | मानव मूमय मानविा को गररमा प्रदान करिे हैं | मानव मूमयों से युति
व्यक्तित्व ऐसी अमर तनधध है , क्जसकी प्रतिकृति जीवन सुन्दर होकर स्वतनममिा का रूप धारण
करिी है | इससे जीवन में यश , अथम , काम, और मोक्ष की प्राक्प्ि होिी है |
मानव और मानवीय मूमय सवोपरर है | संसार की समस्ि उपलक्धधयां मानव के भलए हैं , मानव
उनके भलए नह ं है | मत्ृ यु जीवन का यथाथम है | जो जन्म लेिा है उसकी मत्ृ यु तनक्श्चि है |
मानव मूमय एक ऐसी आचरण सहहिा या सद्गण
ु समूह है क्जसे अपने संस्कारों एवं पयामवरण के
माध्यम से अपना कर मनुष्य अपने तनक्श्चि लक्ष्य की प्राक्प्ि हे िु अपनी जीवन पद्धति का
तनमामण करिा है | अपने व्यक्तित्व का ववकास करिा है |
वास्िव में मानव मम
ू य िीन िािों पर तनभमर हैं - [१] जो व्यक्ति ववशेष की मान्यिा है -यह
मानव मम
ू य है [२] जैसा वह व्यवहार करिा है - यह व्यवहार व्यावहाररक मम
ू यों को प्रगट करिा
है [३] जो हम जीवन के घाि प्रतिघाि से अनभ
ु व द्वारा सीखिे हैं और अपने मम
ू यों का पन
ु तनममामण
करिे हैं | प्राचीन और नवीन दोनों में जो ग्राह्य है , उनका समन्वय करके ह वांतछि मम
ू यों का
तनमामण होिा है इसमें परं परागि मम
ू यों की अपनी महत्त्वपण
ू म भभू मका होिी है |
मानव मूमयों का सम्िन्ध नैतिक ववचार से है और नीति का घतनष्ठ सम्िन्ध धमम और दशमन
से है |भारि वषम में धमम और दशमन साथ साथ चलिे रहे है | ये दोनों ह नैतिक जीवन के आधार
स्िम्भ माने गये हैं |जीवन तया है ? इसका लक्ष्य तया है ? अच्छा तया है ? िुरा तया है ? अच्छा
ह तयूूँ िनना चाहहए ? इन प्रश्नों का उत्तर एवं ववववध मूमयों का समाधान दशमन के द्वारा ह
होिा है |हमार संस्कृति में तनहहि नीति भसद्धांि न केवल हमार नैतिक सामाक्जक एवं
आध्याक्त्मक मूमयों को ववशेष आधार प्रदान करिे है अवपिु इनका पोषण भी करिे आये हैं|
आरं भ से ह मानव सुववधापूवक
म जीवन यापन करने के भलए कुछ तनयमों का तनधामरण
करिा है , जो सावमभौभमक और सावमकाभलक होिे है । ककन्िु इनमें समयानुसार थोडा िहुि पररविमन
होिा रहिा है। इनका ववकास, ववभभन्न पररवेश, पररक्स्थतियों में होिा है , इसभलए प्रत्येक दे श के
धमम, दशमन, संस्कृति में भभन्निा हदखाई पडिी है ककन्िु सवमत्र ह मूमयों के तनधामरण में मानव के
उत्थान-पिन और कमयाण की भावना मूल में रहिी है , जैसा कक प्रसुद्ध समाजशास्त्री सुड्स ने
भलखा है – “मूमय” दै तनक जीवन में व्यवहार को तनयंबत्रि करने के सामान्य भसद्धान्ि हैं। मूमय
न केवल मानव व्यवहार को हदशा प्रदान करिे हैं, िक्मक वे अपने आप में आदशम और उद्दे श्य भी
हैं।
सभी प्रकार के मम
ू य मानव-जीवन से संिंधधि होिे हैं । इसभलए मम
ू यों को मानव-जीवन से अलग
रखकर नहां दे खा जा सकिा है , तयोंकक समाज के साथ ह मम
ू यों का आववभामव और ववकास होिा
है। अि: क्जिना परु ाना समाज होिा है , मूमय भी उिने ह परु ाने होिे हैं । कहने का आशय है कक
सभी मम
ू य मानव द्वारा तनभममि होिे हैं और समयानस
ु ार उसी के द्वारा उनकों अस्वीकार कर
हदया जािा है । मानव ह सभी प्रकार के मूमयों के केंद्र में होिा है इसभलए सभी मम
ू यों को हम
मानव मूमय मान सकिे हैं।
मानव-मूमय के अंिगमि-व्यक्तिगि मूमय, सामाक्जक मूमय, आधथमक मूमय, राजनैतिक मूमय, दाशमतनक
मूमय, धाभममक मूमय, नैतिक मूमय और सौंदयमपरक मूमयों की गणना की जा सकिी है ।
मानव-मूमय : वगीकरण सामान्यि: व्यक्ति और समाज के आधार पर मूमयों को दो भागों में िाूँटा
जा सकिा है । व्यक्तिगि मूमय और सामाक्जक मूमय। व्यक्तिगि मूमय इन्द्र य िोध से संिंधधि
और भावात्मक होिे हैं जो व्यक्ति ववशेष िक सीभमि रहिे हैं। सामाक्जक मूमयों में रूहढयाूँ,
सामाक्जक क्स्थतियाूँ, सामाक्जक परं पराएूँ, उत्सव आहद आिे हैं।
भारिीय और पाश्चात्य धचंिकों में भौतिकिा और आध्याक्त्मकिा को लेकर मिभेद है तयोंकक
पक्श्चमी लोग भौतिकिा को ज्यादा महत्व दे िे हैं और भारिीय आध्याक्त्मकिा को। पाश्चात्य
धचन्िक ‘प्यू’ ने मूमयों को समय, आवश्यकिा और क्स्थति के अनुसार श्रेष्ठ या गौण माना है और
मानव के तनणमय, व्यवहार और िौद्धधक ववकास को मूल माना है । उनका मूमयों का वगीकरण
कुछ इस प्रकार है- (क) स्वतनष्ठ मूमय अथवा शार ररक मूमय(सैलकफस वैमयूज) । (ख) सामाक्जक
मूमय(सोशल वैमयूज) । (ग) िौद्धधक मूमय(इंटलेतचुअल वैमयूज) ।
भारिीय और पाश्चात्य ववचारकों का अध्ययन एवं मनन कर हहन्द में डॉ. धममवीर भारिी ने नवीन
मूमयों में मानव-स्विंत्रिा की चरम सत्ता मानिे हुए मूमयों में पररविमनशीलिा को रे खांककि ककया
है, जिकक डॉ. गोववन्दचंद्र पांडे ने मूमयों की उपयोधगिा, आदशम और नीति के आधार पर समझने
का प्रयत्न ककया है। डॉ. रमेश कंु िल मेघ ने किीलाई मूमयों के साथ मातसमवाद धचंिन को ग्रहण
कर सौंदयम-िोधात्मक मूमयों को श्रेष्ठ माना है ।
कमलेश्वर : कमलेश्वर मूलि: कहानीकार हैं ककं िु उन्होंने अपने आपको सशति उपन्यासकार के
रूप में भी स्थावपि कर अपनी कृतियों में , मध्यवगीय जीवन के अच्छे -िुरे, सच्चे-झूठे अनुभवों का
यथाथमपरक धचत्रण ककया है। वे नयी दृक्ष्ट और नए मम
ू यों को महत्व दे िे हैं िथा उन्हें जीवन में ,
नवीन संदभों की िलाश भी है। क्जससे उन्होंने अकेलेपन, अजनिीपन, भटकन िथा अन्य िनावपण
ू म
मन:क्स्थतियों का सफल धचत्रण ककया है। उनके उपन्यासों में ‘डाक िंगला'(1961), ‘िदनाम गल ’,
‘एक सडक सिावन गभलया'(1961), ‘िीसरा आदमी'(1964) प्रमख
ु रहे हैं।
कमलेश्वर ने व्यक्ति की सामाक्जक, राजनीतिक, धाभममक, वैयक्तिक, नैतिक समस्याओं को िडे ह
माभममक ढं ग से पेश ककया है। मध्यवगीय जीवन के यथाथम को नवीन दृक्ष्ट से दे खा िथा नवीन
जीवन को खोजा इनमें व्यक्ति की भटकन, अकेलेपन िथा अन्य मन:क्स्थतियों का सट क धचत्रण
हुआ है।
‘डाक िंगला’ की ‘इरा’ जीवन भर भटकने के िाद कह ं भी स्थावपि नह ं हो पािी और अपने आप
में डाक िंगला और मस
ु ाकफर दोनों िन जािी है । ववमल ििरा, सोलंकी, डॉतटर, तिलक, सभी परु
ु ष
उसके जीवन में डाक िंगले के मस
ु ाकफर की िरह आिे हैं, कुछ हदन ठहर, चले जािे हैं। नार की
यह अजीि ववडंिना है कक पुरुष प्रधान समाज में उसका अकेले रह पाना संभव नह ं है । नार की
मानभसकिा आज भी परं परागि संस्कारों, धाभममक, सामाक्जक, नैतिक मूमयों से जुडी हुई है क्जनसे
पुरुष हमेशा उनका शोषण करिा है , उसे बिस्िर की सज्जा हर कोई िनाना चाहिा है , पर कोई उसे
घर नहां दे िा, पत्नी पद नह ं दे िा। ‘ इरा ‘ इस संिंध में कहिी है , ” यह िुम्हार दतु नया िहुि
कमीनी है। यहाूँ औरि िगैर आदमी के रह ह नह ं सकिी चाहे उसके साथ पति हो, भाई हो या
िाप हो। कोई न हो िो नौकर ह हो,पर आदमी की छाया जरूर चाहहए, इसभलए हर लडकी कवच
ढूूँढिी है । इस कवच के नीचे वह अच्छा या िुरा हर िरह का जीवन िािा सकिी है । उसे पहनने
के भलए जैसे एक साडी चाहहए, वैसे ह एक कवच भी चाहहए।” समाज में सांप्रदातयकिा, जािीयिा
की संकीणम भावना से समाज ववघटन के कगार पर खडा है , हर जगह, हर क्षेत्र में इसका जहर फैल
चुका है, क्जससे लोग एक-दस
ु रे के शक और घण
ृ ा की नजर से दे खिे हैं। हर व्यक्ति अपनी जाति
और धमम को श्रेष्ठ साबिि करने पर िुला है और दस
ू रे को तनम्न। इस संदभम में लेखक के ववचार
हैं-” सरकार स्कूल को छोडकर कौन-सा स्कूल है क्जले में जो ककसी जाति ववशेष के आधधपत्य में
न हो। ब्राह्मणों के अपने स्कूल हैं, कायस्थों के अपने, अह रों के अलग, अग्रवालों के अलग, हर
जाति का सपम फन फैलाये िैठा है।” भारिीय समाज में जाति व्यवस्था का िुरा पररणाम शाद -
वववाह िक साभमि नह ं है िक्मक वह अपनी जडे शैक्षक्षक, नैतिक, आधथमक, राजनीतिक क्षेत्रों में िुर
िरह जमा हो चुका है।
रघुवीर सहाय की कवविाओं का मूमयगि वववेचन में वयक्तिक जीवन मूमयों, राजनीतिक, धाभममक,
सामाक्जक, नैतिक मूमयों, आधथमक , सांस्कृतिक मूमयों की अभभव्यंजना की दृक्ष्ट से रघुवीर सहाय
की काव्य-कृतियों का समग्र अनुशीलन प्रस्िुि है व्यक्ति की महत्ता और उसकी प्रतिभा को पहचानने
की, कवव ने मांग की है आशावाद होने और दणु खयारे लोगों के प्रति संवेदनशील होने की मांग कर,
प्रेम के समथमन कवव ने शाश्वि मम
ू य के रूप में ककया है और इन कवविाओं में जीवन की श्रेस््िा
को साधन के िल पर तनरूवपि करने का संदेश हदया । शोषण और अत्याचारों का खंडन कर नव
समाज की स्थापना करने के पक्ष में कवव ने प्रिल ववचार व्यति ककए । साम्यवाद और गांधी
वाद के समथमक कवव रघुवीर सहाय ने नागररकों के अधधकारों की रक्षा करने और मम
ू यों की भभवत्त
पर लोकिन्त्र को सुरक्षक्षि रखने के पक्ष में अपने ववचार प्रकट ककए । इस आध्याय में कवव रघुवीर
सहाय की मम
ू य-दृक्ष्ट का समग्र अध्ययन प्रस्िि
ु है ।
राजेन्द्र यादव: नये कहानीकारों में राजेन्द्र यादव का महत्वपण
ू म स्थान है । उन्होंने अपने उपन्यासों
में मध्यवगम की सामाक्जक, आधथमक, धाभममक, नैतिक, व्यक्तिगि समस्याओं का धचत्रण ईमानदार के
साथ, जीवंि रूप में ककया िथा जीवन के प्रति उनका दृक्ष्टकोण प्रगतिशील है। अपने उपन्यासों में
उन्होंने स्त्री-पुरुष के िनिे बिगडिे संिंधों, प्राचीन रूहढयों के प्रति नकारात्मक दृक्ष्टकोण, परं परागि-
मम
ू यों के ह्रास िथा मानव-मम
ू यों की स्थापना का प्रयत्न ककया है । स्त्री-पुरुष संिंध आज क्जस
दौर से गुजर रहे हैं, उसका यथाथम धचत्रण हमें राजेन्द्र यादव के उपन्यासों में भमलिा है। उनके
उपन्यासों में ‘ उखडे हुए लोग’ (1957), ‘ शह और माि’ (1959), ‘ सारा आकाश’ (1960), ‘ अनदे ख
अनजान पल ु ’ (1963), ‘ कुलटा’ (1969) महत्वपूणम हैं।
‘सारा आकाश’ में मध्यवगीय पररवार का धचत्रण ककया गया है। उसमें एक भशक्षक्षि युवक को प्रिीक
मानकर आज के समाज की वास्िववक स्थति को उभारने का प्रयत्न ककया है।
‘सारा आकाश’ में क्जस पररवार का धचत्रण है , उसमें पाररवाररक मूमयों को ह्रास के पश्चाि भी इस
मि
ृ परं परा को घसीटा जा रहा है । समर कमािा नह ं िो उसके िथा उसकी पत्नी के साथ ककसी
भी सहानुभूति नह ं है। इस संिंध में भशर ष िो साफ कह दे िा है – “इस संयुति पररवार की परं परा
को िोडना ह होगा। अि आपके भलए ह कहूूँ कक अगर खुद क्जंदा रहना चाहिे हैं या चाहिे हैं कक
आपकी पत्नी भी क्जंदा रहे िो इसके भसवाय कोई रास्िा नह ं है कक अलग रहहए। जैसे भी हो
अलग रहहए।” लेखक संयुति पररवार परं परा को िोडकर एकल पाररवाररक व्यवस्था का समथमक
है। संयुति पररवार में कोई भी अपने व्यक्तित्व का पूणम ववकास नह ं कर पािा, उसके मन में
सदै व एक कंु ठा-सी रहिी है। इस संिंध में उपन्यास का पात्र समर कहिा है – “हाय मेर वे सार
महत्वकांक्षाएूँ, कुछ िनकर हदखलाने के सपने, अि यों ह घुट-घुट कर मर जाएंगे। राि-राि भर
नींद और खून दे कर, पाले हुए वे सारे भववष्य के सपने अि दम िोड दें गे।”
उनके पात्र कह ं भी आरोवपि नह ं लगिे िक्मक वे हमारे अपने जीवन का अंग लगिे हैं। कह भी
उन पर ककसी आदशम को लादा नह ं गया। भशररष भारिीय इतिहास की नैतिकिा की पुनव्यामख्या
करिा हुआ कहिा है – ” करोडों व्यक्तियों के हजारों सालों के इतिहास से तनकाले गए दो नाम
सीिा और साववत्री। मैं पूछिा हूूँ कक सीिा का नाम लेिे हमारा मक्स्िष्क शरम से झुक नह ं जािा?
तनदोष नार के ककिने िडे कलंक और ककिनी िडी अमानुवषक यािना को हम लोग झंडों पर काढ
कर पज
ू िे हैं।” नैतिक मम
ू य अपने भलए कुछ और हो और दस
ू रे के भलए कुछ और िो अपनी
साथमकिा खो दे िे हैं। आज कोई भी दस
ू रे के पत्नी के साथ िो घम
ू सकिा है , लेककन अपनी पत्नी
को दस
ू रों के साथ नह ं दे ख सकिा। विममान समय में प्रेम, आधथमक समस्याओं के कारण अपना
महत्व खोिा जा रहा है। आधथमक मम
ू यों से उसकी चमक प्राय: समाप्ि होिी जा रह है – ” इिनी
फुरसि आजकल ककसे है कक हदन-राि िस प्रेम को िैठा गाया करे ? जीववि रहने के संघषम ने सि
कुछ उडा हदया है । यह जो फुरसि और मेर शधदावल में पेट भर लोगों के ककस्से हैं। अि िो
पहल िार ख की राह ज्यादा दे खी जािी है।”
अि: वे मानवीय मम
ू यों को विममान मानव के संदभम में दे खिे हैं जो अपनी साथमकिा, उपयोधगिा
खो चक
ु े हैं, उनसे मत
ु ि होने के भलए प्रेररि करिे हैं। उनके पात्र पारं पररक मूमयों, रूहढयों को िोडने
और उन्हें उखाड फेंकने के भलए हर समय िैयार रहिे हैं।

हहंद साहहत्य में मूमयों की अभभव्यक्ति

जीवन के साथ जुडा शधद है ’मूमय’ । धचंिन के क्षेत्र में िो इस शधद का प्रयोग हमेषा होिा है।
व्यावहाररक रुप में भी इस शधद का प्रयोग होिा है । आदषम और मूमय में भी सूक्ष्मिम फरक है ।
व्यावहाररक मूमय शधद ’मापन की कसौट ’ के िौर पर प्रयोग ककया जािा है , पर यहाॅ ’मूमय’
यानी संपूणम मानवी व्यवहार से अभभप्रेि है। ’मूमय’ शधद गौरविा को दषामिा है। इसे ह अंग्रेजी में
अंसनम कहां जािा है। संस्कृि के आधारपर ’मूलेन समोमूमय’ कह सकिे है। अथमपररविमन के
कारण इस शधद में िडड व्यापकिा पाई जािी है । संक्षेप में गुणों को मूमय कह सकिे है ।
ऽ मूमय की पररभाषा:-

1. अिमन – ’’ऐसी कोई भी वस्िू मम


ू य हो सकिी है जो जीवन को आगे िढािी है और
सरु क्षक्षि करिी है। ’’1
2. वुड्स:- ’’मूमय दै तनक जीवन में व्यवहार को तनयंबत्रि करने के सामान्य भसद्धांि है ।
मूमय केवल मानव व्यवहार की हदषा तनधामरण ह नह ं करिे, िक्मक अपने आप में आदषम और
उद्दे ष्य भी होिे है।’’2
हमारा साहहत्य भले वो ककसी भी भाषा में हो उसमें मूमयों के दषमन होिे है । साहहत्य और मूमयों
का अटूट ररष्िा है। साहहत्य में प्राचीन काल से ह मूमयों का वववरण हम दे खिे है । प्राचीन काल
के साहहत्य में हमें भगवान श्रीकृष्ण या आदषोन्मुखी राम का गुण वणमन हदखाई दे िा है । इन रुपों
द्वारा आदषम व्यक्तित्व में धैय,म नीति, िुक्ध्द, वातचिुरिा आद ’षाष्वि’ मूमय दषामये गये है ।
मूमयों का हमेषा आदर होना चाहहए, मूमयों की रक्षा करणा ह मनूष्यिा का मुख्य धमम है । जीवन
में सौदयम की स्थापना करनी हो िो उसमें मूमयों का होना अतिआवष्यक है । मनुष्य ने अपना
भौतिक ववकास िो िहोि कर भलया है साथ उसे जीवन मूमयों की भी उिनी ह आवष्यकिा होिी
है। मूमय िो हमेषा पररवतिमि होिे आए है। पुराने मुमयों को छोड पररक्स्थिीनुरुप हमेषा तनि नववन
मूमयों को स्वीकारा गया है। आज मूमयों का तनमामण स्वयं आदमी खुद अपने भलए कर रहा है।
पर ऐसे भी मूमय है जो धचरं िन शाष्वि रहे है । मूमयो को अगर हम दे खिे है उसमें दो प्रकार के
मूमयों के मुख्य भेद नजर आिे है ।
ऽ मूमयों के भेद:-
1. शाष्वि मम
ू य:- इन मम
ू यों मेॅेॅं ककसी भी कारण या पररक्स्थिीनरु
ु प पररविमन नह ं
होिा है क्जसमें सौदयामत्मक मम
ू य जैसे सत्यम,् वषवम,् संद
ु रम का स्थान है । िथा नैतिक मम
ू य-
त्याग, अहहंसा, सेवा, न्याय आहद।
2. िदलिे मम
ू य:- भौतिक समक्ृ ध्द के साथ-साथ इन मम
ू यों में िदलाव आिे गये है।
जैसे जैववक मम
ू य क्जनमें आधथमक मम
ू य, या कफर अतिजैववक मूमय – सामाक्जक, आध्याक्त्मक आद
मम
ू योंका समावेष हम कर सकिे है ।
साहहत्य में िो हर ववधा में अपनी-अपनी शैल के अनुसार मूमयों को प्रतिक्ष्ठि ककया गया है।
समय की माॅग के अनुसार इन मूमयों में पररविमन हदखाई दे िा है । इस प्रकार हम संक्षेप में
उपन्यास ववधा और कहानी ववधा या कवविा में व्यति मूमयों को दे खेंगे।

ऽ कहानी ववधा में अभभव्यति मूमय:-


कहानी साहहत्य की एक सषति ववधा मानी जािी है। कहानी ववधा से हमें जीवनपथ पर चलने
के भलए आदषम एवं मूमय भमलिे है । नयी कहानी और मूमयों के संदभम में डाॅ. इंद्रनाथ मदान ने
भलखा है – ’’पहले कहानी अधधकांषिः कमपना पर आधाररि होिी थी अि यथाथम को लेकर चलिी
है। अिः पहले की कहानी पुरानी है और आज की कहानी नयी है । नयी कहानी में िलाष पात्रों की
नह ं यथाथम की है , पात्रों के माध्यम से यथाथम की अभभव्यति ् क्ॅकी। पहले कहानी कला मूमयों को
लेकर भलखी जािी थी, अि जीवन मूमयों को लेकर। 3
अगर हम कहानी साहहत्य ववधा का ववचार करिे है िो आरं भभक कहानीयाॅ आदषमपरक या
कमपनापरक होिी थी पर धधरे धधरे इसमें जीवन मूमयों की स्पष्ट अभभव्यक्ति होिी गई। स्विंत्रिा
पुवम कहानी में त्याग, तनस्वाथमिा, िभलदान आद भावनायें ववकभसि की गई थी। प्रेमचंद काल न
कहानी में यथाथम को दषामने का प्रयास ककया गया । यानी यथाथमिा के माध्यम से जीवन की
ववसंगिीयाॅॅं, कुरुपिा को दषामने का प्रयास ककया गया। स्वािंत्र्योत्तर काल में भ्रष्टाचार, आधथमक
ववषमिा, लोभस प्रवत्त
ृ ी को हदखाया गया है । िनिे बिगडिे ररष्िे भी हदखाई दे िे है ।
जयषंकर प्रसाद जी ने अपनी कहानीयों में ’आकाषद प’, ’ममिा’, ’पक
ु ार’, ररष्िों की उलझनें ह
दषामयी है । चंद्रधर शमाम गल
ु ेर की ’उसने कहा था’ कहानी में ववषध्
ु द प्रेम और श्रध्दा भाव दषामया
गया है। प्रेमचंदजी िो हमेषा से ह मूमयों के आग्रह हदखाई दे िे है । उनकी ’पर क्षा’, ’नमक का
दरोगा’, ’पाॅच परमेष्वर’, में आदषम का ह धचत्रण है। ववष्वंभर नाथ शमाम की ’िाई’ में पाररवाररक
मूमयों को हदखाया गया है । यषपाल जी की ’महादान’ कहानी में मूमयों का ववघटन ककस प्रकार हो
रहा है उसे दषामया है। ’दख
ु का अधधकार’ इस कहानी में सामाक्जक, आधथमक ववषमिा को हदखाया
है। अज्ञेय जी के ’इंदे की िेट ’ कहानी में दांपत्य संिंधों में छे द हदखाया है। मोहन राकेष की ’मलिे
का आदमी’ में पररक्स्थिीनुरुप मूमयों में हो रह धगरावट दे ख सकिे है। कमलेष्वर जी के ’मांस का
दररया’, ’कस्िे का आदमी’, ’ियान’ आद कहानीयों में आदषम का आग्रह हदखाई दे िा है । मंन्नू भंडार
की कहानीयों में पाररवार क टूटिे मम
ू य, परु ाने और नये मम
ू यों में हो रहा संघषम हदखाई दे िा है ।
स्वािंत्र्योत्तर काल में नैतिक मम
ू यों में ववघटन होिा गया। मम
ू यों का अधःपिन हो गया है । अनेक
कहानीयों में यौन संिंधों को दषामया गया है। जो वणमन यौन संिंधों का भमलिा है वह अधधक मात्रा
में और खल
ु कर ककया गया है । साथ ह इस काल में हहणिा, स्वाथमप्रवत्त
ृ ी अधधक हदखाई गई है।
ववष्णु प्रभाकर की कहानी ’लैम्प पोष्ट के नीचे लाष’ में यव
ु िी के लाष के प्रिी पभु लस की िूरिा
को दषामया है। मन्नू जी की ’उं चाई’, यादवेंद्र शमाम की ’नार और पत्नी’, केषव दि
ु ेजी की ’काॅॅंच
का घर’, शैलेष महटयानी की ’भय’ इन कहाॅॅंनीयों में यौन संिंधों का उन्मुति वववरण पाया जािा
है। नैतिक मूमयों के साथ आधथमक मूमयों में भी ववघटन होिा गया। ’अथम’ को जादा महत्व हदया
गया । इसीसे भ्रष्टाचार, गररिी, महॅंगाई िढ है । मंजूल भगि की ’पाव रोट और कटलेट्स’, हदप्िी
खंडेवाल की ’िेहया’ क्जिेंद्र भाहटया की ’षहाजदनामा’ कहानीयों में आधथमक ववषमिा को दे ख सकिे
है।
वषवानी की ’स्वयं भसद्धा’, मेहरुतनसा परवेज की ’धगरवी रखी धूप’ , धचत्रा मुद्गल की अक्ग्नरे खा
आहद कहातनयों में सामाक्जक मूमयों का ववघटन दे खा जा सकिा है । इस प्रकार कहानी ववधा के
माध्यम से अभभव्यति मूमयों को दे ख सकिे है ।

ऽ उपन्यास ववधा में अभभव्यति मूमय:-


अयोध्याभसंह उपाध्याय जी का उपन्यास ’अधणखला फूल’ में धाभममक अंधववष्वास का दष्ु पररणाम
दे ख सकिे है। प्रेमचंद और उनके िाद के उपन्यासों में चररत्रात्मकिा और उद्दे ष्यिा हदखाई दे िी
है। प्रेमचंद िो युगप्रविमक उपन्यासकार माने जािे है । प्रेमचंदजी ने कृषकों की समस्याओं को उठाया
है। प्रेमचंदजी के उपन्यासों द्वारा व्यति समस्याएॅ सामाक्जक और ववष्वव्यापी है। ’गोदान’ एक
सवमश्रेष्ठ कृिी है । प्रेमचंदजी के िाद जैनेंद्र, अज्ञेय, और इलाचंद जोषी आद लेखकों ने कंु ठाओं,
सेतस आहद का धचत्रण ककया है। यषपाल , रांगेय राघव, आद माक्र्सवाद के प्रभाव में होने के
कारण समाजवाद ववचारधारा का प्रचार एवं प्रसार अपने उपन्यासों द्वारा ककया है। साठोत्तर य
काल में िो महहला लेखन ने उपन्यासों में अपनी अलग पहचान तनमामण की । उनके उपन्यासों
द्वारा ववभभन्न मम
ू यों को दषामया है । इस काल में पररवार टूटिे नजर आये है । दे ष की
अनुषासनह निा, िेरोजगार , महॅंगाई अधधकिर नजर आिी है । कृष्णा सोििी के ’डार से बिछुडी’,
’भमत्रो मरजानी,’ ’सूरजमुखी अंधेरे के’, उपन्यासों में सेतस का अधधकिर धचत्रण, पुरािण मूमयों को
नकारिी औरिे हदखाई दे िी है। उषा वप्रयंवदा जी ने ’रुकोगी नह ं राधधका’ में प्यार, और प्यार न
भमलने के कारण राधधका को भमलने वाला िणाव दषामया है। शवषप्रभा शास्त्री के ’वीरान रास्िे और
झरना’ , नावें , ’सीहढयाॅ’, आहद उपन्यासों में नार मन की दःु ख, वेदना का वणमन भमलिा है। वीरान
रास्िे और झरना में अवैध यौन संिंधों हदखाई दे िे है । मुन्नू भंडार के ’आपका िंट ’, ’एक इच
मुस्कार’, ’महाभोज’, ’स्वामी’ आद उपन्यासों मे प्रेम, राजनैतिक पररवेष, अलगाव, ववष्वास आद
मम
ू यों को व्यति करिे है । मालिी जोषी जी के ’ज्वालामख
ु ी के संदभम में ’, ’पाषाण यग
ु ’, ’तनष्कासन’,
’सहमें हुए प्रष्न’ आद उपन्यासों में एकाकीपन, आधतु नकिा का पररवेष और उसके दष्ु पररणाम
हदखाई दे िे है। द प्िी खंडेलवाल के ’वप्रया’, ’वह तिसरा’, ’कोहरे ’िो मद ृ ल
ु ा गगम के ’धचिकोिरा’ ,
’उसके हहस्से की धप ू ’ , ’वंषज’ आद में प्रेम की नई भावनाएॅॅं, स्नेह, कुछ उपन्यासों में िांतिकार
वत्त
ृ ी भी है। इस प्रकार उपन्यास साहहत्य ववधा के माध्यम से मम
ू यों को अभभव्यतिी भमल है ।

ऽ कवविा में अभभव्यति मूमय –


कवविा एक ऐसी ववधा है क्जसमें कम शधदों में हम जादा िाि कह सकिे है। हर कवविा में कोई
न कोई मूमय भमलिा ह है । कवविा में कवव शायद नह ं होिे है पर भसफम समाज को एक तनजिा
की संकीणमिा दे जािे है । जो जीवन जीने के भलए प्रेररि करिी है । सुनीिा जैन की एक कवविा है
’िदल सको िो िदलो’ उसमें कुछ पंक्तियाॅ इस प्रकार है –
’’हम दोनों
एक दस
ू रे को
घायल करिे रह सकिे थे
नाखनों से
चकू पैंन से …………
…………..
जल से अधधक
आंसू में िैरानी है ।’’ 4

इस प्रकार एक ह कवविा में उन्होंने जीवन के आदषम और यथाथम मूमयों को हदखाया है ।

तनष्कषम:-
साहहत्य को समाज का दपमन माना जािा है । उसी कारण समाज में मूमयों की जो क्स्थतियाॅ है
वह ं हम साहहत्य में दे खिे है। िस ककसी ने कहानी के माध्यम से िो ककसी ने कवविा या उपन्यास
के माध्यम से व्यति ककया है । इस प्रकार मूमयों में आदषमिा, यथाथमिा, ववघटन, मूमयों में धगरावट
आयी है। इस ववघटन का मुख्य कारण है पाष्चात्य संस्कृिी का अनुकरण, औद्योधगकीकरण,
शहर करण, िढिी आिाद ।

संदभम –
1. उषा वप्रयंवदा की कहातनयों में टूटिे जीवन मूमयों का यथाथम धचत्रण, अववनाष महाजन,
शैलजा प्रकाषन , कानपरु , प.ृ 34
2. वह , प.ृ 34
3. हहंद कहानी अपनी जि
ु ानी, डाॅ. इंद्रनाथ मदान, प.ृ 31
4. यग
ु तया होिे और नह ं?, सन
ु ीिा जैन, पव
ू ोदय प्रकाषन, नई हदमल , प.ृ 39

———————————————–
ससनेमा और साहहत्य
साधना अक्ग्नहोत्री
‘‘साहहत्य और भसनेमा का संिंध एक अच्छे अथवा िुरे पडोसी, भमत्र या संिंधी की िरह एक दस
ू रे
पर तनभमर है। यह कहना जायज होगा कक दोनो में प्रेम संिंध है ।”[1] – गलु ज़ार
साहहत्य और भसनेमा दोनों ह ऐसे माध्यम हैं जो अपने पररवेश, समाज और ववचारधारा को व्यति
करने में सिसे अधधक सक्षम हैं। इन दोनों ववधाओं ने ह समाज को हमे शा से ह नवीन ववचारों
और प्रववृ त्तयों से जोडा है । साहहत्य और भसनेमा का संिंध दे खें िो भसनेमा अपने आरं भ से साहहत्य
का ऋणी रहा है । साहहत्य की ववभभन्न ववधाओं को अपने में समाहहि ककए हुए एक साथ प्रस्िुि
कर भसनेमा ने अपनी प्रभावशाल उपक्स्थति और महत्व को दशामया है। साहहत्य अपने उदार स्वरूप
में कई सार कलाओं को समाहहि ककए हुए है। क्जसमें ववचार है , बिम्ि है , गीि है , कवविा है , कहानी
है, उपन्यास है , धचत्र है , नाटक है और समाज की गति को प्रकट करने की क्षमिा है। साहहत्य की
इन सभी कलाओं के संिंध और संयोग से भसनेमा का तनमामण होिा है।
चाहे हम भसनेमा के िडे पदे की िाि करें या कफर छोटे पदे की , भसनेमा अपने आरं भ से ह
साहहक्त्यक रचनाओं से जुडा रहा है । यह और िाि है कक ककसी रचना को समाज में ककिनी
सफलिा प्राप्ि होिी है। भारि की िाि करें या ववश्व की, साहहत्य को भसनेमा में भरपूर स्थान
भमला।
साहहत्य और भसनेमा जीवन के नीरस ित्वों को कम करने का एक साधन भी है । साहहत्य और
भसनेमा हमें एक ओर जहाूँ जीवन जीने की प्रेरणा दे िे हैं िो दस
ू र ओर मनोरं जन के साथ संदेश
भी दे िे हैं। दोनों ह ऐसे माध्यम हैं जो समाज को पररवतिमि करने की ज़िरदस्ि िाकि रखिे हैं,
और अन्याय के णखलाफ कभी दिे स्वर में िो कभी िल
ु ंद आवाज में सामने आिे हैं। हमारे राष्र
और समाज के भलए क्जस प्रकार साहहत्य महत्वपण
ू म है उसी प्रकार भसनेमा भी अपनी अहम भूभमका
तनभािा है।
साहहत्य की अपेक्षा भसनेमा एक नई ववधा है जो मानव द्वारा तनभममि खूिसूरि अववष्कारों में से
एक है । क्जसमें साहहत्य की उन छूट हुई लगभग सार िािों को अपने में समेटे हुए हमारा
मनोरं जन करिा है । साथ ह यह िहुि सी जानकर और भशक्षा भी दे िा है । इसी िाि को और
स्पष्टिा से समझने के भलए आलोचक डॉ. मैनेजेर पाण्डेय के ववचार को दे खा जा सकिा है । वे
कहिे हैं – ‘‘आजकल कला की कोई भी चचाम कफमम को छोडकर परू नह ं हो सकिी । वह आज
के यग
ु के सवामधधक प्रभावशाल और प्रतितनधध कला है । कफमम के तनमामण में कला और ववज्ञान,
साधना और व्यवसाय, वैयक्तिक रचनाशीलिा और सामहू हक प्रयत्न का गहरा सामंजस्य होिा है।
कफमम अनेक अथों में सामहू हक कला है । उसमें अभभनेिा, तनदे शक, कथाकार, फोटोग्राफर, संगीिकार,
गायक, वादक, निमक और िकनीकक ववशेषज्ञों का सामहू हक योगदान होिा है । कफमम तनमामण के
पीछे पूँज
ू ी की जरूरि होिी है और आगे िाजार की धचंिा। कफमम का दशमक भी समह
ू होिा है ।
इस िरह कफमम आधुतनक युग की सामूहहक कला है ।’’[2]
जि साहहत्य अपना रूप िदलकर या कहे िो अपने भलणखि माध्यम से भसनेमा में पररवेश करिा
है िो उसे भसनेमा की िकतनकी प्रकिया से होकर गुजरना होिा है इसी िकनीकी प्रकिया को
भसने –रूपांिरण/ माध्यम रुपान्िरण कहा जािा है । माध्यम रुपान्िरण की प्रकिया की जि हम
िाि करिे हैं िो सामान्य शधदों में कह सकिे हैं कक ककसी ववधा को अन्य ववधा के रूप का चोला
पहनाकर नई ववधा का तनमामण करना ह माध्यम रूपांिरण है । क्जसमें एक कला या कृति के
भाव-िोध को अन्य माध्यमों के द्वारा व्यति ककया जािा है । यहद इसे संपादकीय कला या कौशल
कहें िो गलि नह ं होगा, तयोंकक इसमें भी काट-छाूँट, साज-सज्जा, ववस्िार, जोडना-घटाना,
प्रस्िुिीकरण आहद का ध्यान रखा जािा है । साहहत्य से भसनेमा के रूपांिरण की प्रकिया और
स्वरूप को समझिे समय समाज की समकाल न वास्िववकिा ,दशमकों की क्जज्ञासा, राजनीतिक
पररदृश्य ,सांस्कृतिक समझ ,लेखक और तनदे शक के ववचारों में अंिर िथा , प्रस्िुिीकरण या
िकनीकक ववकास आहद को मुख्य बिंदओ
ु ं की ओर भी ध्यान दे ना जाना चाहहए।
माध्यम रूपांिरण में ककसी साहहक्त्यक रचना का हू-ि-हू कफममी रूपांिरण की िाि करना संभव
नह ं होिा है िथा ऐसी िाि करना भी िेईमानी है । इस संदभम को आचायम महावीर प्रसाद द्वववेद
जी के लेख ‘कवव-किमव्य’ द्वारा समझा जा सकिा है । क्जसमें वे भलखिे हैं – ‘‘परं िु स्विंत्र कवविा
करने की अपेक्षा दस
ू रे की कवविा का अनुवाद अन्य भाषा में करना िडा कहठन काम है । एक
शीशी में भरे हुए इत्र को जि दस
ू र शीशी में डालने लगिे है िि डालने में ह पहले कहठनाई
उपक्स्थि होिी है ।’’[3]
साहहत्य और भसनेमा के आपसी संिंध में पटकथा का महत्त्वपूणम योगदान है । पटकथा दो शधदों,
पट और कथा से भमलकर िना है। क्जसमें पट का अथम है पदाम और कथा का अथम कहानी से है
अथामि पटकथा का िात्पयम है वह कथा जो पदे पर चलधचत्रों के माध्यम से प्रसाररि होिी है।
क्जसमें घटनाओं का ऐसा समह
ू होिा है क्जसके द्वारा चररत्र तनमामण व सजमन, गीि-संगीि, संवाद
आहद सभी को ववकभसि ककया जािा है । कथा और पटकथा के ववषय में कमलेश्वर का कहना है
कक “कुछ अनभ
ु व शधद से परे होिे हैं, कुछ दृश्यों से परे , इसीभलए कफमम-लेखन में उन्हें शधदों,
दृश्यों और प्रववृ त्तयों में िांधना पडिा है । शधदह न दृश्य से भरा हुआ सन्नाटा कभी-कभी जो िाि
कह दे िा है , वो शधदों से नह ं कह जा सकिी । काव्य की बिम्ि-क्षमिा, शधदों की ववचार क्षमिा
से नह ं कह जा सकिी । काव्य की बिम्ि- क्षमिा, शधदों की ववचार क्षमिा और दृश्य की अनभ
ु व-
क्षमिा के संयोग से एक भसने- दृश्य आकर पािा है । काव्य-क्षमिा को कैमरा, दृश्य क्षमिा को
तनदे शक और ववचार-क्षमिा के साथ-साथ सम्पण
ू म अनभ
ु व क्षमिा की अभभव्यक्ति लेखक करिा है
इसीभलए कोई भी साथमक कफमम पहले भलखी जािी है -िि िनाई जािी है।”[4]
साहहत्य में रचे गए चररत्र के प्रति व्यक्ति की अपनी एक अलग पररकमपना हो सकिी है। जैसे
‘गोदान’ पढने वाले लोगों के मन में ‘होर ’ और ‘धतनया’ का अपना ह एक चररत्र या कहें िो दृश्य
हो सकिा है। लेककन भसनेमा में ऐसा किई नह ं होिा भसनेमा का अपना एक इमेज़ एक मैनेररज़्म
होिा है , क्जसे दशमकों पर थोपा जािा है। कफमम दे खना और साहहत्य पढना दो अलग-अलग ववषय
हैं और इन अलग-अलग ववषयों को पटकथा लेखक कफममी रं ग में ढालिा है। कफमम, धारावाहहक,
टे ल कफमम, आहद इन सिके भलए पटकथा अतनवायम प्रकिया है।
क्जस प्रकार साहहत्य में ववषय वस्िु को कथानक के माध्यम से ििाया जािा है । ठीक उसी प्रकार
कफमम में पटकथा के जररए यह कायम ककया जािा है । इसी िाि की स्पष्टिा िथा कथा-पटकथा
के अंिर को ििािे हुए मनु भंडार कहिी हैं कक – “कहानी (साहहत्य) और पटकथा में सिसे िडा
और प्रमुख अंिर होिा है प्रारूप का । कहानीकार को िो पूर छूट होिी है कक वह अपनी कहानी
ककसी भी शैल में भलखें । ….. उत्तम पुरुष में भलखें या अन्य पुरुष में …….डायर फॉमम में भलखें या
पत्रों के रूप में , िरह-िरह के प्रयोग करने कक उसे पूर छूट होिी है पर पटकथा लेखक को िो
सार कहानी दृश्यों और संवादों में ढालकर ह प्रस्िुि करनी होिी है । कहानी में लेखक क्जिनी
दे र िक और जहाूँ चाहे अपनी उपक्स्थति दज़म करा सकिा है पर पटकथा में लेखक को िो बिमकुल
ह अनुपक्स्थि रहना होिा है ….जो कुछ भी कहना है मात्र पात्रों के संवादों के माध्यम से ।”[5]
वस्िुिः “पटकथा कुछ और नह ं, कैमरे से कफममकार द्वारा पदे पर हदखाए जाने के भलए भलखी
हुई कथा है । गोया पहले आपके पास कोई कथा हो िभी आप पटकथा भलख सकिे हैं ।”[6] डॉ.
रामदास नारायण िोडे पटकथा के अंगों को ििािे हुए कहिे हैं – “पटकथा के प्रमुख िीन अंग
ककए जा सकिे हैं । कथा, पटकथा, संवाद । एक ओर दृश्यों के माध्यम से कथानक चलिा रहिा
है । यह िीनों अंग एक-दस
ू रे से भमले हुए हैं । िगैर संवाद के पटकथा िथा कहानी नह ं होिी
िथा िगैर कहानी के पटकथा िथा संवाद नह ं होिे । इसभलए पटकथाकार को इन िीनों अंगों का
समिोल (Balance) रखना पडिा है ।”[7]
यंू िो भसनेमा का तनमामण कहठन कायम है , परन्िु साहहक्त्यक कृतियों पर कफमम िनाना िहुि मक्ु श्कल
कायम है । साहहत्य में कथा का सज
ृ न जीवन की अनभ ु तू ियों में कमपना का छींटा मारकर ककया
जािा है जिकक भसनेमा में कथा को कहा नह ं जािा िक्मक घटिे हुए हदखाया जािा है । भसनेमा
में संवाद कथा को गति प्रदान करिे हुए चलिे हैं क्जसे मनोभावों द्वारा अभभव्यति ककया जािा
है । यद्यवप साहहत्य और भसनेमा दोनों में कथा होिी है अंिर भसफम इिना है कक एक में मूिम रूप
होिा है िो दस
ू रे में अमि
ू ।म
ककसी भी कामयाि कफमम में पटकथा की भभू मका िहुि ह महत्वपणू म होिी है और िाि जि
साहहक्त्यक कृिी पर िनी कफमम या उसकी पटकथा की हो रह हो िो पटकथा की भभू मका और
भी महत्वपण
ू म स्थान रखिी है । तयोंकक कहानी, कवविा, नाटक या उपन्यास आहद पर भलखी गई
पटकथा में िहुि-सी सावधातनयों को िरिा जािा है । कभी-कभी ऐसा होिा है कक जि उच्च कोहट
की कथा पर पटकथा भलखी जािी है िो भी उस कफमम को उिनी सफलिा प्राप्ि नह ं होिी और
कभी-कभी ठीक उसके ववपर ि भी दे खने को भमलिा है क्जसमें सामान्य-सी लगने वाल कहानी पर
पटकथा भलखी जािी है और वह कफमम उत्तम दज़े की कफमम िनकर सामने आिी है।
कफममांकन में साहहत्य के कथानक के साथ ककया गया फेर-िदल कभी-कभी कथानक की पूर
आत्मा को ह िदल दे िा है जो कक उस साहहक्त्यक कृिी के भलए बिमकुल भी ठीक िाि नह ं है ।
थोडा-िहुि फेर-िदल ककया जा सकिा है तयोंकक साहहत्य और भसनेमा अपने िनावट के आधार पर
अलग-अलग ववधाएं हैं । इसी कारण साहहक्त्यक कृतियों का जि कफममांकन होिा है िो उसका
रूपांिरण कई जहटल समस्याओं से होकर गुजरिा है । यह समस्याऐं ककसी कफममी कहानी पर
पटकथा भलखिे समय उिनी नह ं होिी क्जिनी साहहक्त्यक कृति पर कफमम िनाने वाले तनदे शक
को होिी है। “ककसी तनदे शक ने साहहत्य पर आधाररि ककिनी भी कफममों का तनमामण तयों न
ककया हो ककं िु प्रत्येक नई साहहक्त्यक कृिी कफममांिरण संिंधी नई समस्याएं लेकर उसके सामने
प्रस्िुि होिी हैं और वह ककस प्रकार उनका समाधान करिा है यह पूणि
म ा उसकी योग्यिा और
पररश्रम पर तनभमर करिा है । ककन्िु इनके िावजद
ू भी वह सि समस्याओं का समाधान कर ह
पाएगा यह आवश्यक नह ं है । यह अवश्य है कक एक अच्छा तनदे शक इस िाि का भरसक प्रयास
करिा है कक वह मूल कृति की आत्मा को अक्षुण्ण रखिे हुए ह आवश्यक पररविमन करें और यहद
संभव हो िो मूल रचना से भी सुंदर कृति का तनमामण कर सके । अथवा न्यूनिम भी उसकी रचना
मूल कृति से कमिर न भसद्ध हो । कफर भी इस महान उद्दे श्य को कम ह तनदे शक पूरा कर
पािे हैं । स्वयं सत्यजीि राय भी ‘शिरं ज के णखलाडी’ पर आधाररि अपनी कफमम में असाधारण
प्रतिभा, द घम अनुभव और अथक पररश्रम के िावजूद इस उद्दे श्य को प्राप्ि करने में सफल न हो
सके । जिकक इससे पूवम वे साहहक्त्यक कृतियों पर आधाररि अनेक उत्कृष्ट कफममों का तनमामण
कर चुके थे । अथामि कफममांिरण संिंधी ववकट समस्याओं को दे खिे हुए यह कह पाना लगभग
असंभव है कक कि ककसी कृति का सफल कफममांिरण हो पाएगा और कि नह ं ।”[8]
पटकथा लेखन पाठकों के भलए ना होकर दशमकों के भलए होिा है , क्जसमें पटकथा लेखक उन बिम्िों
को शधदों के माध्यम से गढिा है जो हदखाए जािे हैं, उन ध्वतनयों को शधद प्रदान करिा है जो
कक सन
ु ी जाएंगी और इसी के साथ उसे दशमकों की रुधच का ख्याल भी रखना होिा है । इसभलए
पटकथा लेखक को प्रत्येक स्थान पर नवीन समस्याओं का सामना करना पडिा है । साथ साहहत्य
जगि में व्यवसातयकिा का एक िहुि िडा पक्ष होिा है क्जसको दे खकर ह ककसी कफमम का
तनमामण ककया जािा है इसी के आधार पर जि ककसी कहानी की पटकथा भलखिे हैं िो उसमें
व्यवसातयकिा का भी ध्यान रखना होिा है।
उपन्यास या कहानी पर आधाररि पटकथा भलखिे समय साहहक्त्यक कृति के आधार को भी दे खा
जािा है , तयोंकक पाूँच या छः पन्नों की कहानी पर जि ढाई घंटे की कफमम िनाई जािी है िो
उसमें िहुि कुछ जोडा जािा है और जि िीन सौ पन्नों के ककसी उपन्यास पर कफमम की पटकथा
का तनमामण होिा है िो उसमें िहुि कुछ छोडना भी पडिा है । यह एक िडी सीमा होिी है ककसी
भी पटकथा लेखक के भलए।
इसी कारण जि ‘दो िैलों की कथा’, ‘िीसर कसम’, ‘उसने कहा था’, ‘िलाश’, ‘शिरं ज के णखलाडी’
जैसी कहातनयों पर पटकथाओं को भलखा गया िो िहुि-सी घटनाओं, पात्रों, गीिों एवं नत्ृ यों को भी
जोडा गया । यह चीज हम ‘गोदान’, ‘धचत्रलेखा’, ‘गिन’ जैसे उपन्यासों के कफममांिरण के संदभम
में भी कह सकिे हैं । ढाई से िीन घंटे की कफमम में पूरा उपन्यास कभी भी रूपांिररि नह ं ककया
जा सकिा है। “सत्यजीि रे द्वारा ककए गए उपन्यास के कफममांकन इसके उत्तम उदाहरण है कक
उपन्यासों को कफमम में ककस प्रकार रूपांिररि ककया जाना चाहहए । रे की पहल कफमम ‘पथेर
पांचाल ’ नाम के िहुि लंिे उपन्यास पर आधाररि थी, लेककन रे नें इस कृति की मूल संवेदना को
अखंडडि रखिे हुए उसमें से केवल ऐसे प्रसंगों का चयन ककया क्जन से कथा का सूत्र िो िना रहे
लेककन कफमम न िो लंिी हो न कलात्मक दृक्ष्ट से कमजोर । इन्ह ं सि कारणों से ‘पथेर पांचाल ’
इिनी संिुभलि और अपने आप में संपूणम कृति िनी कक उसे ववश्व की िेहिर न कफममों में स्थान
भमला ।”[9]
उपयत
ुम ि ववश्लेषण से स्पष्ट होिा है कक कथा का पटकथा में रूपांिरण एक श्रमसाध्य कायम है ।
साथ ह इसमें अनेक िकनीकी समस्याओं के साथ – साथ साहहक्त्यक कृति से न्याय का दवाि भी
िना रहिा है। कई िार यह प्रयास सफल होिा है िो काई िार और सुधार के साथ प्रयास करने
का मौका दे िा है। भसनेमा के भलए पटकथा की भी क्स्थति है जो साहहत्य के भलए कथा वस्िु की
है।

संदभम :

[1] पांडेय, रिनकुमार.( सं.).( 2014). मीडडया और साहहत्य अंि:संिंध. हदमल . आनंद प्रकाशन.
पष्ृ ठ सं.-66

[2] जलक्षबत्र, नीरा.(2013). साहहत्य और भसनेमा के अंिसंिंध. हदमल .भशमपायन. पष्ृ ठ सं.-1
[3] कुमार, डॉ ववपुल. (2014). साहहत्य और भसनेमा अंि:संिंध और रूपांिरण. हदमल . मनीष
पक्धलकेशंस. पष्ृ ठ सं.- 42

[4] वह ं पष्ृ ठ सं.-106

[5] भंडार , मनु.(2013). कथा- पटकथा. हदमल . वाणी प्रकाशन. पष्ृ ठ सं.- 13

[6] जोशी, मनोहर श्याम.(2002). पटकथा लेखन एक पररचय. नई हदमल . राजकमल प्रकाशन
.पष्ृ ठ सं.- 21

[7] िोडे ,रामदास नारायण. (2016). हहंद साहहत्य कफममांकन. हदमल . लोकवाणी संस्थान. पष्ृ ठ
सं.-187

[8] दि
ु ,े वववेक. (2009) .हहंद साहहत्य और भसनेमा. नई हदमल . संजय प्रकाशन. पष्ृ ठ संख्या -16

[9] िोडे ,रामदास नारायण. (2016). हहंद साहहत्य कफममांकन. हदमल . लोकवाणी संस्थान. पष्ृ ठ
सं.-191

सत्मेयव बत्रपाठी

भसनेमा को शुरू हुए अभी सवा सौ साल हो रहे हैं। साहहत्य हजारों साल पुराना है । मगर भसनेमा
में क्जिना ववपुल साहहत्य आ गया है , उसे दे ख कर ववश्वास पूवक
म कहा जा सकिा है कक साहहत्य
के जन्मकाल से ह उसमें मौजूद था भसनेमा। कफममेतिहास में कुछ साहहक्त्यक कृतियां िो
कफममकारों को इिनी भाई, उन्हें ऐसी चुनौिी दे सकीं कक एक कृति पर आधा दजमन कफममें िन
चुकी हैं। शरि िािू के उपन्यास ‘पररणीिा’ पर छह कफममें भसफम हहंद में िनी हैं। जाहहर है कक
भसनेमा अपने जन्मकाल से ह साहहत्य से आकवषमि और उद्वेभलि होिा रहा है। यह साहहत्य की
गररमा और सज
ृ न की शक्ति है कक साहहत्य से आकृष्ट होकर भसनेमा समद्
ृ ध हो सकिा है , पर
भसनेमा से आकृष्ट होकर साहहत्य नह ं। उदाहरण अनेक हैं, पर सवोपरर हैं कफमम-जगि के केंद्र में
रहिे हुए भी अपनी ककसी रचना को न लाने वाले राह मासूम रजा- कुछ िो दे खा-समझा होगा
उन्होंने। कफर कफमम से मुिाक्स्सर ‘शैलूष’, ‘ककिने पाककस्िान’ आहद रचनाएं साहहत्य की श्रीह निा
और उसकी गररमा की क्षति की सिि िनी हैं।

संिंधधि खिरें COVID-19LOCKDOWNPHOTOS


salman khanसीतवेल के गड्ढे में फंसा हहंद भसनेमाBollywoodकोरोना ने कफर छीना चैन,
िॉल वड
ु हुआ िेचैन
भसनेमा में साहहत्य की शुरुआि 1915 में थॉमस डडतशन के उपन्यास ‘द कैं समैन’ पर िनी डीडधमयू
ग्रीकफथ की कफमम ‘द िथम आॅफ अ नेशन’ से मानी जािी है। साहहक्त्यक कृति पर हहंद में िनी
पहल कफमम वी. शांिाराम की ‘माया मक्च्छं द्रनाथ’ है , जो मणणशंकर बत्रवेद के गज
ु रािी नाटक
‘भसद्ध संसार’ पर िनी थी। हहंद रचना पर िनी पहल हहंद कफमम मोहन भवनानी तनदे भशि ‘भमल
मजदरू ’ मानी जािी है , जो प्रेमचंद की कहानी ‘भमल माभलक’ पर िनी है। ‘भमल मजदरू ’ को दे ख
कर स्वयं प्रेमचंद ने इसे ‘प्रेमचंद की हत्या’ कहा था।

अगर भसनेमा में साहहत्य का यह एक सीमांि है , िो दस


ू रा सीमांि है- कवव शैलेंद्र तनभममि ‘िीसर
कसम’ को रुपहले पदे (सेमयूलाइड) पर रे णु की कमपना का मनोरम अविार कहा जाना। ‘गोदान’
के सारे सामाक्जक सरोकारों की कब्र पर िनी बत्रलोक जेटल की कफमम प्रेमचंद दे ख पािे, िो अपने
िाल नोच लेिे। कफर गुलजार के पांच घंटे वाले दरू दशमनी ‘गोदान’ में 1935 के होर (पंकज कपूर)
को चमचमािा जूिा पहन के हल जोििे दे खिे, िो न जाने तया कर लेिे। पर अपनी दो कहातनयों
पर िनी सत्यक्जि रे की कफममें ‘सद्गति’ और ‘शिरं ज के णखलाडी’ दे खिे, िो तनस्संदेह गदगद
होिे। गरज यह कक इन्ह ं दो ध्रुवों के िीच भसमटा-फैला है भसनेमा में साहहत्य का संसार, क्जसे
समझा जा सकिा है - िनाने वाले के मकसदों और कला-कौशलों की जातनि से।

दोनों कलामाध्यमों की प्रकृति भभन्न है । कफमम जनमाध्यम है - लोकवप्रय ववधा है। ‘सरू ज का
सािवां घोडा’ के भलखे जाने के चाल स सालों िाद जि इसी नाम से श्याम िेनेगल की कफमम आई,
िभी सचमच
ु भमला- रचना (सरू ज) को गण
ु ग्राहक (सािवां घोडा)। लेककन इससे िडा सच कलागि
है। दृश्यिा इसका तनणामयक आयाम है , जो अभभनयाहद अपने ित्त्वों को भमला कर ऐसी जीवंििा
और रोचकिा पैदा करिा है कक रामायण-महाभारि िक की महाकाव्यात्मकिा को भी इसका लोहा
मानना पडिा है । मगर इिनी समद्
ृ धध के िावजूद, ह रामन (िीसर कसम) की पीठ में होने वाल
खुजल के बिना ियां नह ं हो पािी। और दृश्यिा का जो आयाम दोनों के िीच सिसे िडा तनणामयक
है, वह इसे फौर (नश्वर) भी िनािा है।

जि साहहत्य की ककसी कृति को कफममकार उठािा है , िो उससे उसका गहरे प्रभाववि होना तनववमवाद
है, पर भभन्न ववधा के भलए मूल में ककए जािे पररविमनों की चचाम इस संदभम का सिसे गरम मुद्दा
िनिा है । यह सुखद है कक कृतियों पर िनी ऐसी ढे र कफममें मौजूद हैं, जो कला और सरोकार की
शंग
ृ ार िनी हैं। कोई िधद ल न करने की शैलेंद्र य प्रतििद्धिा और स्वयं रे णु की उपक्स्थति न
होिी, िो िासु दा ‘िीसर कसम’ में ह रामन को ह रािाई से अवश्य भमलवा दे िे- सुखांि की पक्धलक
पसंद के चलिे, जो दादा की अन्य सभी कफममों में है। ऐसा होने पर या िो ह रामन की गाडीवानी
छूटिी या ह रािाई का गाना छूटिा, क्जनके बिना दोनों की पहचान खो जािी। और बिना छूटे
दांपत्य न चलिा। गाना छूटिे ह उस वति प्रेम कला को ल लिे हुए उभरिी व्यावसायीकरण की
प्रववृ त्त झठ
ु ला उठिी। छोटे -छोटे पररविमन हुए भी, क्जनसे कहानी की मल
ू संवेदना खल
ु -णखल ह ।
मसलन- जमीदार का चररत्र कहानी में नह ं है , पर कफमम में आकर उसने दोनों के प्रेम को गहराया,
ह रािाई के भागने का वाक्जि कारण िना िथा प्रेम और कला के प्रति सामंिी ववृ त्त उभर , जो कथा
के सोने में सह
ु ागा िनी। कुल भमलाकर यह कक एक तलाभसक ने दस
ू रे तलाभसक को जन्म हदया
है।

ऐसे तलाभसक उदाहरण िो कम ह होिे हैं, पर भारिीजी के उपन्यास ‘सूरज का सािवां घोडा’ की
यथावि प्रस्िुति को लेकर श्याम िेनेगल की प्रतििद्धिा भी कृति की प्रकृति के अनुसार तलाभसक
नह ं, िस स्टाइभलश है। ‘तिररयाचररत्तर’ पूरे गांव की पंचायि के सामने स्त्री के जननांग को दागने
जैसे िूर-वीभत्स अत्याचार की रोंगटे खडे कर दे ने वाल कहानी को भशवमूतिम ने िडी गममजोशी से
भलखा है और िासुजी ने बिना कोई रद्दोिदल ककए िडे ‘कूलल ’ िनाया है। शायद ये ववधान और
िेवर भी ववधागि प्रकृति के ह अनुकूल वाक्जि हैं, वरना ‘कूल’ होकर कहानी नष्ट भी हो सकिी
थी और गमामहट से भर कर कफमम उस वेदना को सोख भी सकिी थी।

असल में यथाथमवाद कहातनयों पर बिना ककसी रद्दोिदल के कफमम िनाने का िहुि कुछ श्रेय
सत्यक्जि राय को जािा है , जि उन्होंने ‘सद्गति’ और ‘शिरं ज के णखलाडी’ जैसी मान्य यथाथमवाद
कहातनयों को कलात्मक आयाम हदया और दृश्य ववधा की वह िाकि यों नम ु ायां हुई (तनहहि िो
सिमें होिी है) कक दभलि सणु खया की मरणांिक व्यथा पढिे हुए ककिनी भी कमपना-शक्ति के
िावजूद उस भशद्दि का अहसास नह ं करा पािी, जो ओमपुर को लकडी चीरिे-चीरिे मरिे और
जो जुगुप्सा उस मि
ृ के गले में दरू से फंदा फेंकने और खींच कर ले जािे मोहन अगाशे को दे ख
कर होिी है।

बिना िधद ल के यथावि िनी कुछ दस


ू र िरह की कफममों में मन्नू भंडार की कहानी ‘यह सच
है’ पर िनी कफमम का िस नाम िदला है - रजनीगंधा, क्जसमें िेहिर भसनेमाई सौंदयम िो है ह ,
नायक के रोज रजनीगंधा लाने से कफमम महक भी जािी है। कृति में साथमक पररविमन करने वाल
कफममों में िासु चटजी ने ‘पंचवट ’ में साध्वी (द क्प्ि नवल) के जेठ वविम (सुरेश ओिेराय) को
क्जंदा रखने का वांक्च्छि पररविमन ककया, क्जसे दघ
ु मटना में मरवा कर लेणखका कुसुम अंसल सामाक्जक
समक्षिा से पलायन कर गई थीं। तयोंकक छोटे भाई की पत्नी से उसके प्यार के िच्चे की मां
िनने वाल थी।
लेककन ‘उसने कहा था’ जैसी िेजोड रचना पर िनी कफमम दे ख कर भसर पीट लेना पडा। िचपन के
अनकहे प्रेम में ‘िेर कुडमाई हो गई?’ पर ‘धि’ कह कर भाग जाने और एक हदन ‘हां, हो गई,
दे खिे नह ं हो यह रे शम का शालू’ के िाद मौन हो गए नायक लहना का कभी उसके कहे पर जान
की कुिामनी दे दे ने को न समझ कर मोना गुलाट ने दोनों को गल -चौिारों में घुमा-घुमा कर पूर
िस्िी में िदनाम करके ह सच का प्रेम साबिि ककया। कहानी का शर र ह क्षि-ववक्षि नह ं हुआ,
उसकी आत्मा (प्रेम) का भी सत्यानाश हो गया।

इस कला के िडे सौदागर संजय ल ला भंसाल ने अभी िो सूफी भक्ति के श्रेष्ठ काव्य ‘पद्मावि’
िक को न िख्शा। शरि िािू की अमर कृति ‘दे वदास’ के नाम को भुना कर अकूि धन कमाने
की भूख के भलए सि कुछ को ‘ग्लैमरस’ के नाम पर पहले ह ववकृि कर हदया था। क्जस पारो-
चंद्रमुखी का कभी आमना-सामना नह ं हुआ, भसफम एक िार आिे-जािे पालकी से नजर पडी थी,
उन्हें भमलवाया ह नह ं, सहे ल िना हदया और दोनों से गाना गवा हदया- ‘हॉय मार डाला’।
भंसाल के ये णखलक्जयाना पैंिरे और हथौडे िथा गुलजार के होर के जूिे ककसी न ककसी रूप में
हर दे शकाल में आिे-जािे रहे हैं और रहें गे। पद्मावि, गोदान, दे वदास से ये वह मांगिे-पािे हैं-
नाम-दाम, क्जसके भलए िािा ने कहा है - का मांगउं कछु धथर न रहाई। पर ये रचनाएं अपने छवपि
रूप में अपना काम करिी रहें गी।

साहहत्य और भसनेमा : अंिसंिंधसधचन तिवार

हम अपनी िाि शुरू करें , इससे पहले एक हदलचस्प िथ्य का उमलेख करना उधचि होगा। जैसे -
जैसे हम आगे िढें गे, इसका महत्व िढिा जाएगा। यह भसफम भसनेमा ह है , क्जसने अि िक साहहत्य
के उपयोग, इसके रूपांिरण और इसमें भमलावट करने की कोभशश की है। इस िाि का कोई प्रमाण
नह ं भमलिा कक इसकी उमट कोभशश आज िक कभी हुई है । आणखर ऐसा तयों होिा है ? इसकी
वजह तया है ? मैं अपने वतिव्य में भसनेमा और साहहत्य के उदाहरणों के साथ उन तनष्कषों िक
आपको ले जाने की कोभशश करूूँगा, क्जनका सूत्रीकरण करना इसका ध्येय है।

साहहत्य और भसनेमा के कुछ रोचक आयामों की चचाम करना, अपनी िाि शरू
ु करने का हदलचस्प
िर का हो सकिा है। पहला आयाम है - शधदों और दृश्यों का आपसी संिंध। जैसे-जैसे हम िीन
िीज शधदों - उपयोग (appropriation), रूपांिरण (adaptation) और भमलावट (adulteration)
की अथम-छववयों को पकडने और व्याख्यातयि करने की हदशा में अग्रसर होंगे, हम यह महसूस करें गे
कक इन दोनों ववधाओं में वत्त
ृ ांि रचने की प्रकिया एक ह समय में समान भी है और भभन्न भी।
संचार और संवाद के िदलिे रूपों को दोनों ववधाओं के परस्पर प्रस्थान बिंद ु के िौर पर परखना
काफी प्रासंधगक होगा, भले ह यह ककिने ह अलग-अलग िर के से तयों न प्रभाव डालिा हो! आज
के िेहद िेजी से िदलिे हुए पररवेश के संदभम में दोनों ववधाओं की सीमाओं को समझने की कोभशश
करना भी इस मायने में जरूर होगा। जरूरि शायद इस िाि की भी है कक हम इन दोनों ववधाओं
द्वारा इन सीमाओं के पार जाने की कोभशशों की भी पहचान करें । ऐसा करना इन िीन शधदों को
िेहिर िर के से पररभावषि करने के भलहाज से कारगर साबिि हो सकिा है।

एक नजर में दे खें, िो साहहत्य और भसनेमा का मूलभूि प्रयोजन लोगों का मनोरं जन करना है । एक
दशमक धथयेटर या कफमम दे खने इसभलए जािा है , िाकक उसका मनोरं जन हो, उसे खुशी भमले। ऐसा
तयों है कक कोई व्यक्ति हटकट खर दकर एक कफमम के शो में दाणखल हो सकिा है , लेककन अगर
वह इसी िजम पर धथयेटर दे खना चाहे , िो दतु नया के अधधकिर दे शों में यह िि िक मुमककन नह ं
होगा जि िक कक उसने हफ्िों पहले एडवांस िुककं ग न कराई हो! मुझे लगिा है कक इसका कारण
भसफम यह नह ं है कक कफममें घर में टे ल ववजन स्िीन पर भी मौजूद हैं। इसका जवाि जैसा कक
डेववड मैमेट ने कहा था - मनोरं जन और खुशी की िलाश में दशमक द्वारा ककया वरण है । साहहत्य
दोनों का संगम है। लेककन भसनेमा के भलए इस एकात्मक संिुलन के एहसास को हाभसल कर पाना
शेष है । साहहत्य और लुग्द साहहत्य का अंिर स्विः स्पष्ट है । इसी िरह से भसनेमा में कुरोसावा
के 'थ्रोन ऑफ धलड' और हमारे अपने 'मकिूल' के िीच का अंिर है। ककसी भी रूपांिरण में
मौभलकिा का महत्व, जैसा कक 'वेहटंग फॉर गोडो' में व्लाहदमीर, एस्रे गॉन से कहिा है , "िुम जो कर
(कह) रहे हो वह महत्वपूणम नह ं है , िक्मक महत्वपूणम यह है कक िुम उसे ककस िरह कर (कह) रहे
हो।" यहाूँ िेकेट के जाद ू को महसूस ककया जा सकिा है , जो धथयेटर की ग्रीक अवधारणा का
भमलान, युद्धोिर संवेदनशीलिा से कर रहे थे, साथ ह गहर मानविा में अभभव्यक्ति ढूूँढ रहे थे
और िीिे हुए समय और विममान के िीच के संिंध सत्र
ू ों की हर क्षण िलाश और पहचान कर रहे
थे।

संक्षेप में कहें , िो कफममों के दृश्यात्मक प्रभाव की िात्काभलकिा या नजद की को हमेशा भसनेमा
के महत्वपूणम गुण के िौर पर पेश ककया जािा है । लेककन ऐसा करिे वति पहले से िय खाूँचों
(फ्रेमों) में , भले ह वे ककिने ह कलात्मक तयों न हों, ववन्यस्ि सीमाओं को अतसर नजरअंदाज
कर हदया जािा है। साहहत्य शधदों के माध्यम से लोगों की कमपनाओं में छववयों का तनमामण करिा
है। यह अलग-अलग लोगों के भलए अलग होिा है । इसका अनुमान नह ं लगाया जा सकिा है । यह
अनेक संभावनाओं को जन्म दे िा है , जो कक भभन्न-भभन्न व्याख्याओं में स्वाभाववक है। भसनेमा
अपनी रे खाएूँ काफी स्पष्ट िर के से खींचिा है । एक दशमक सि कुछ तनदे शक की तनगाह से कैमरा
के जररए दे खिा है। कैमरे की आूँख, इनसान की आूँख का स्थानापन्न िन जािी है। यह दशमक को
वह हदखािी है , जो तनदे शक इसे कहिा है । इसके िावजूद यह िकम हदया जािा है कक भसनेमा एक
दशमक को बिना भमलावट के या कहें खाूँट या खाभलस सच्चाई की समझ ववकभसि करने की
इजाजि दे िा है। हमारे दे श के महानिम धथयेटर और कफमम तनदे शकों में से एक िा.व. कारं ि ने
इसे िेहद सारगभभमि िर के से कहा था, "टे ल ववजन के पदे पर इनसान अपने असल कद से काफी
छोटे नजर आिे हैं, जिकक भसनेमा के पदे पर वे अपने असल कद से कह ं िडे होिे हैं। धथयेटर
एकमात्र ऐसी जगह है , जहाूँ वे वैसे ह होिे हैं, जैसे वे वास्िव में हैं।" यह वतिव्य काफी महत्वपण
ू म
है, तयोंकक यह एक तनदे शक-अभभनेिा द्वारा हदया गया है , जो दोनों माध्यमों में एक समान रूप
से सहज था।

एक दस
ू रा िीज शधद है - 'अंिरपाठीयिा'। इस शधद पर ककसी ककस्म की िहस के वति रूपांिरण
और उपयोग पर पडनेवाले इसके प्रभाव को ध्यान में रखना होगा। इस सवाल का जवाि खोजना
होगा कक आणखर कला, कला का तनमामण कैसे करिी है ? या कफर खुद साहहत्य, साहहत्य से आकार
लेिा है ? रूपांिरण और उपयोग की सीमाएूँ इस िाि से प्रभाववि हो सकिी हैं वे ककिने स्पष्ट रूप
से अपने अंिरपाठीय मकसद को ियान करिे हैं। इस संदभम में ऐंटन चेखव के 'द चेर ऑरचडम' के
उपलधध अनेक रूपांिरणों को दे खा जा सकिा है , क्जसका क्जि रे वर धग्रकफथ और आथमर भमलर ने
ककया है। ऐसे कई उदाहरण धगनाए जा सकिे हैं। मसलन, जेम्स जॉयस का 'युभलभसस' ककसी टे तस्ट
के रूपांिरण के आदशम के िौर पर हमारे सामने उपक्स्थि होिा है । यह तलाभसक कृति 'ओडडसी'
के उपयोग का भी उदाहरण है। ट .एस. एभलयट का 'द फैभमल र यूतनयन' ग्रीक माइथलॉजी के
यूमेनाइड्स का रूपांिरण है। अपने घर में झाूँक कर दे खें िो रामायण के कई रूपांिरण और उसकी
अनेक व्याख्याएूँ भमलिी हैं। धथयेटर में 'महाभारि' के कई रूपांिरण हुए हैं। इनमें संभविः सिसे
चुनौिीपूणम रहा है भारि के महान रं ग तनदे शक रिन धथयम का िहुचधचमि 'चिव्यूह,' क्जसका अि
िक दतु नया के सभी प्रमुख धथयेटर केंद्रों में प्रदशमन हो चक
ु ा है। यहाूँ हमें रं चमंचीय (द)ु रुपयोग के
दस
ू रे बिंद ु पर भी ध्यान दे ना चाहहए, भले ह इसका मकसद भसफम अंिर ििाना हो। मैं यहाूँ पीटर
ब्रत
ु स के काफी चधचमि रहे 'महाभारि' के प्रोडतशन की िाि करना चाहूूँगा। मीडडया द्वारा इसके
प्रोडतशन / उपयोग को लेकर काफी चचाम करने के िावजद ू यह असफल साबिि हुआ था। मैं नाट्य
आलोचक गौिम दास गप्ु िा की समीक्षा का एक अंश उद्धि
ृ करना चाहूूँगा :

"महाभारि खाल ििमन से ज्यादा कुछ नह ं है , अगर इसे भसफम प्रतिशोध, शौयम और साहस के सैन्य
ककस्सों के समुच्चय मात्र के िौर पर पढा जाए। भगवद्गीिा के प्रकरण पर क्जस िरह से कैं ची
चलाई गई है , जो कक इस महाकाव्य का केंद्र बिंद ु है , जो कक मानविा के इस भव्य नाटक की धुर
है, उससे वह भसफम फुसफुसाहट िक महदद
ू रह जािा है , क्जसे दशमक कभी सुन नह ं पािा।"
इसी लेख में दास गुप्िा यह रे खांककि करिे हैं कक ब्रुतस ने जो ककया, वह कुछ वैसा ह था, जैसे
कोई िाइिल के साथ ऐसा ह प्रयोग करना चाह रहा हो और ईसा मसीह के 'सममन ऑन द माउं ट'
को नजरअंदाज कर दे ।

यह हदलचस्प है कक रूपांिरण और उपयोग पर अध्ययन हमें उत्तर आधुतनकिा और उत्तर


उपतनवेशवाद के आलोचकीय और सांस्कृतिक आंदोलनों के प्रस्थान बिंद ु की ओर ले जाएगा। एक
स्िर पर यह आलोचकीय भसद्धांि (किहटकल धथयर ) का इतिहास िन जाएगा। रूपांिरण को हम
पुनव्यमवस्थापन (अदला-िदल ) की प्रकिया के िौर पर दे ख सकिे हैं, क्जसमें एक ववधा को दस
ू र
ववधा के साूँचे में ढाला जािा है। यह ककसी चीज को कफर से नए भसरे से दे खना है। लेककन, इसके
साथ ह रूपांिरण को अनुमान और सुधार (प्रॉतसीमेशन एंड अपडेहटंग) की प्रववधध द्वारा ककया
गया सहज प्रयास भी माना जा सकिा है जो ककसी आलेख (टे तस्ट) को नए दशमकों या पाठकों के
भलए प्रासंधगक िनाने या आसानी से समझ में आने लायक िनाने की हदशा में ककया जािा है।
और इसकी शुरुआि भसफम शेतसपीयर से ह नह ं होिी है , िक्मक उन प्रतियोगी कथाओं से होिी है ,
जो व्यवहार में थीं और क्जन्होंने ग्रीक ड्रामा की नींव िैयार की। यह प्रकिया रोमवाभसयों से होिे
हुए मध्य युग और एभलजािेथ के युग िक चलिी रह । जैसा कक जूल सैंडसम का कहना है ,
"रूपांिरण और उपयोग स्वाभाववक रूप से आणखरकार पाठीय प्रतिध्वतन और संकेि के प्रदशमन से
जुडे हैं। यह कह ं का ईंट कह ं का रोडा, भानुमिी ने कुनिा जोडा यानी उद्धरणों का चलिाऊ या
सुववधाजनक समुचय नह ं है , क्जसे कक अकसर अंिरपाठीयिा के ऑपरे हटव (कियाशील) रूप के िौर
पर दे खा जािा है । इसमें कोई शक नह ं कक एक नई इकाई या पूणि
म ा के गठन के भलए ववभभन्न
टुकडों का उद्दे श्यपूणम पुनगमठन कई उत्तर आधुतनक पाठों का सकिय ित्व है ।"

यहाूँ दो लेखों और एक ककिाि का क्जि करना दरु


ु स्ि होगा, जो कक रूपांिरण और उपयोग की
समझ ववकभसि करने के भलए काफी महत्वपूणम मानी जा सकिी है । पहला है , ट .एस. एभलयट का
लेख, 'रे डडशन एंड इंडडववजुअल टै लेंट (परं परा और व्यक्तिगि प्रतिभा); दस
ू रा है , एडड्रएन ररच का
लेख, 'व्हे न वी डेड अवेकन : राइहटंग ऐज ररववजन,' आणखर है हैरमड धलूम की ककिाि - 'द
एंग्जाइट ऑफ इनफ्लुएंस : अ धथयर ऑफ पोएर ।' इस ककिाि में धलूम ने लेखकों और उनकी
ववरासि के िीच के व्याकुल संिंधों की जाूँच की है । धलूम ने इसे आत्म चेिस फ्रायडडयन शधदावल
में तनभममि करिे हुए इसे युवा संिानों और उनके साहहक्त्यक पूवज
म ों के िीच के ओडडवपसीय संघषम
के िौर पर व्याख्यातयि ककया है । हालाूँकक जूल सैंडसम आगे कई एकांगी तनष्कषम तनकालिी हैं,
क्जन्हें स्वीकार करना कहठन है , खासकर जेंडर को लेकर उनके दरु ाग्रहों को। यह एक हदलचस्प
िथ्य है कक कई लेणखकाओं ने, मसलन ग्लोररया नेलस के उपन्यासों में िाइिल, चौसर, दांिे के
लेखन और शेतसपीयर और ववभलयम फॉकनर के साथ िडी मात्रा में अंिरपाठीयिा भमलिी है।
आदशम रूप में िाि करें , िो पन
ु लेखन को, क्जसका इस्िेमाल पन
ु दृमक्ष्ट की एक अभभव्यक्ति के िौर
पर पर ककया जा रहा है , कफर चाहे यह उपन्यास हो या नाटक या कफमम, हर िार महज अनुकरण
की सीमाओं के पार जाना चाहहए। इस प्रकिया का सिसे िडा शाप कुछ वैसा होिा है , जैसे िॉल वुड
के भसनेमा को कलात्मक सम्मान के भलए संघषम करना पड रहा है और इसने अि भी दतु नया के
सामने अपनी सौंदयमशास्त्रीय क्षमिा का प्रदशमन नह ं ककया है। यह ऐसे ववचलन का संकेि दे िा है ,
जो वास्िव में उपयोग और रूपांिरण की प्रकिया के भमलावट िक जा पहुूँचने की दास्िान ियान
करिा है । कलात्मक और रचनात्मक रूप से द वाभलया िॉल वुड ने कई रूपांिरणों में अपना हाथ
आजमाया है , लेककन वे आणखरकार भसफम भमलावट ह साबिि हुए हैं। यहाूँ हम 'मकिूल' पर खास
िौर पर िाि कर सकिे हैं। यह द वाभलयापन अचानक पुरानी कफममों के र मेक के िढिे चलन में
भी हदखाई दे िा है। यह रूपांिरण है , उपयोग है या भमलावट? यहाूँ यह गौर करना महत्वपूणम होगा
कक इस िथ्य के िावजूद कक भारि में दतु नया में सिसे ज्यादा कफममें िनिी हैं, यह अभी िक
िॉतस ऑकफस और सौंदयमिोध के िीच में से ककसी एक को चुनने की दवु वधा में फूँसा है । इसका
पररणाम रहा है कक अंिरराष्र य मंचों पर हमार कफममें िुर िरह असफल साबिि होिी हैं। क्जस
कान कफमम महोत्सव की हमारे यहाूँ खूि चचाम होिी है और वहाूँ भारिीय कलाकारों की उपक्स्थति
को सुणखमयों में स्थान हदया जािा है , वपछले 19 सालों से एक भी भारिीय कफमम गोमडन पाम
सेतशन िक भी पहुूँच पाने में नाकाम रह है । हालाूँकक हम इस िथ्य से इनकार नह ं कर सकिे
कक यह द वाभलयापन भसफम िॉल वुड िक ह सीभमि नह ं हैं, ब्रुक की 'महाभारि' भी पूर िरह से
रास्िे से भटक गई थी।

हालाूँकक, विममान में इस िाि की पहचान कर पाना काफी कहठन है कक आणखर अच्छे और खराि
रूपांिरण में भेद तया है ? वे कैसे िनिे हैं? ओररजनल या मौभलक के प्रति ईमानदार इसका आधार
नह ं हो सकिी, तयोंकक रूपांिरण और उपयोग के ज्यादािर कलात्मक उदाहरणों का आधार ह
मौभलक से ववचलन होिा है । डेिोरा काटम मेल ने उपन्यासों के भसनेमाई रूपांिरण के भलए कुछ
उपयोगी तनयम धचक्ह्नि ककए हैं। ये इस प्रकार हैं - 1. पुनव्यमवस्थापन, 2. भाष्य या ििसरा और
3. मौभलक से समानिा िनाए रखने की कोभशश। पहल नजर में दे खें, िो स्िीन पर उपन्यासों के
अधधकांश रूपांिरण पुनव्यमवस्थापन होिे हैं, क्जनमें एक ववधा के पाठ को लेकर नए दशमक िक
पहुूँचने िक कोभशश की जािी है । इसके भलए सौंदयमशास्त्रीय परं पराओं का इस्िेमाल ककया जािा
है, जो बिलकुल ह भभन्न प्रकिया पर आधाररि होिा है - यानी उपन्यासों को कफमम में ढालने की
प्रकिया पर। यह सूची अंिह न है। यहाूँ पेचीदा मसला समद्
ृ धीकरण (इनररचमें ट) या भसफम कुछ
अलग करने के िीच की रे खा तनधामररि करने का है।
रूपांिरण को स्विंत्र कला के िौर पर काम करना चाहहए। भले ह यह मौभलक के प्रति अपनी
कृिज्ञिा प्रकट करे , दरू से ह सह । एनलॉग यानी मौभलक से समानिा िनाए रखने की कोभशश -
यह वगीकरण थोडे अलग ककस्म का है । यह नए रूपांिरण की हमार समझ को भले समद्
ृ ध करे ,
पहले के अंिपामठों के योगदान के िारे में ििाए, लेककन यह भी काफी हद िक संभव है कक रूपांिरण
का आनंद इसके पहले के पाठों के िारे में जाने बिना भी उठाया जा सकिा है। हम कह सकिे हैं
कक ऐसे उदाहरण अलग ह किार में रखे जा सकिे हैं और अपनी अलग हैभसयि / पहचान रखिे
हैं। इसी िरह से संगीि प्रधान या कहें गीतिकाव्य (म्यक्ू जकमस) का ररश्िा भी साहहत्य से रहा है।
इसके दो अच्छे उदाहरणों में एक ट .एस. एभलयट के 'ओमड पॉसम्स िुक ऑफ प्रैक्तटकल कैट्स'
पर ववतटर ह्यूगो के महाकाव्यात्मक उपन्यास 'ला भमजराधल' का प्रभाव है। दस
ू रा उदाहरण 'माई
फेयर लेडी' नामक कफमम है क्जसने खुद अच्छी ख्याति हाभसल कर ल है , जिकक यह जॉजम िरनाडम
शॉ के नाटक 'वपगमैभलयन' का उमथा या पररवतिमि संस्करण है। 'माई फेयर लेडी' का शीषमक इस
कारण और ज्यादा महत्वपूणम हो जािा है , तयोंकक वास्िव में यह शॉ से भी पहले ओववड के
'मेटामॉरफॉसेस' िक जािा है, क्जसमें वपगमैभलयन अपनी ह िनाई मूतिम के प्यार में पड जािा है।

जहाूँ रूपांिरण कृति के साथ संिंधों को िचाए रखिा है , उपयोग मौभलक कृति से दरू जाने वाल
एक यात्रा िय करिा है , क्जसका मकसद एक बिलकुल नई कृति को रचना और नए आयाम को
हाभसल करना होिा है। इन दोनों के िीच अंिर लाने वाला एक िथ्य यह है कक उपयोग की प्रकिया
में मौभलक कृति से प्रभाव को उस िरह स्वीकार नह ं ककया जािा है , जैसे कक रूपांिरण में। यहाूँ
इस िाि की पर क्षण करने की जरूरि है कक एक, आणखर अंिःस्थावपि ववभभन्न पाठ एक-दस
ू रे के
साथ अपनी किया-प्रतिकिया ककस िरह ववकभसि करिे हैं? और ककस िरह से दो पाठों के िीच के
संिंधों और अतिव्यापन / ओवरलैप की परख की जा सकिी है ? इसके साथ ह यह सवाल भी
महत्वपण
ू म है कक तया उपयोग को मौभलक कृति के प्रति श्रद्धांजभल माना जा सकिा है या कफर
यह महज साहहक्त्यक चोर का मसला है ? उपन्यासों और धथयेटर में पाठों के उपयोग के उदाहरण
कुछ ज्यादा ह हैं। हालाूँकक, इस भीड में शेतसपीयर अलग खडे नजर आिे हैं, क्जनके पाठ का प्रभि

मात्रा में उपयोग और रूपांिरण ह नह ं हुआ है , उसमें जम कर भमलावट भी की गई है।

जैसे कक लॉरें स ऑभलववयर ने एक साक्षात्कार के दौरान यह पूछे जाने पर कक लंिे अरसे िक


रं गमंच का अभभनेिा होने के नािे शेतसपीयर को कफममी परदे पर उिारने की कोभशश को वे ककस
िरह से दे खिे हैं, जवाि में एक सपने का क्जि ककया था। यह सपना इस िरह था, वे अपनी
पसंद दा पि में िैठे हुए हैं और बियर पी रहे हैं। इिने में शेतसपीयर के जमाने के एक अभभनेिा
- जेम्स िरिेज उनके पास रखे स्टूल पर आ िैठिे हैं और दोनों के िीच िािचीि शुरू हो जािी
है। यह िािचीि शेतसपीयर के नाटकों पर हो रह है । जेम्स िरिेज ऑभलववयर को यह चुनौिी
दे िे हैं कक एक ऐतटर के िौर पर वे उनके मुकािले आगे नह ं जा सकिे हैं। ऑभलववयर यह चुनौिी
स्वीकार कर लेिे हैं और दोनों के िीच शिम लग जािी है । शिम यह थी कक अगर ऑभलववयर कुछ
नया कर पािे हैं, िो िरिेज उन्हें दावि में 13 धगलास बियर वपलाएूँगे। लेककन अगर ऑभलववयर
हारिे हैं िो वे दावि में 13 धगलास बियर िरिेज को दें गे। इसी बिंद ु पर वह सपना टूट गया।
इसके िाद ऑभलववयर आगे िढे और उन्होंने शेतसपीयर की कफममों की प्रभसद्ध सीर ज िनाई।
उस शिम का तया हुआ? उसके िाद से िरिेज उन्हें कफर नह ं हदखाई हदए।

कहने का मकसद यह है कक कई मौकों पर उपयोग तनक्श्चि िौर पर पाठ को समद्


ृ ध करिा है ।
जि ऐसी रचना ककसी रचनात्मक हदमाग से जन्म लेिी है िो वह अगर मौभलक से ज्यादा नह ं
िो कम-से-कम उिनी ह वैध हो सकिी है। यहाूँ यह भी ध्यान में रखने लायक है कक जि एक
रचनात्मक कायम ककसी दस
ू रे कलाकार के भलए चुनौिी िन जािा है , िो चुनौिी भसफम व्यक्तिगि
अहं को नह ं भमलिी। िक्मक कलात्मक अहं को भमलिी है । और इस कलात्मक अहं से चुनौतियों
का सामना इस िरह ककया जािा है कक वह कलात्मक सरहदों के पार चला जाए।

एक िरह से दे खें, िो उपयोग और रूपांिरण सभी कलाओं के अभ्यास और उसकी रसानुभूति के


भलहाज से मौभलक महत्व रखिा है। इसमें लेखक, तनदे शक और अभभनेिा समान रूप से रूपांिरण
और उपयोग की प्रकिया में शाभमल होिे हैं। यह िाि खास िौर पर धथयेटर पर लागू होिे है , जहाूँ
कोई भी प्रदशमन ककसी दस
ू रे प्रदशमन के समान नह ं हो सकिा। यह कफममों से काफी अलग है , जहाूँ
एक स्िर पर हर प्रदशमन / शो एकांगी और क्स्थर / अपररवतिमि / स्टै हटक होिा है।

ववषय के संिंध में एक सीमा िक पक्श्चमी सौंदयमशात्री िकनीक पर नजर डालने के िाद, मुझे
लगिा है कक हमार दृक्ष्ट गैर पक्श्चमी सौंदयमशात्र के उद्भव की संभावनाओं की ओर भी जानी
चाहहए, जो कह ं से भी कम महत्वपूणम या कम व्यवहायम नह ं है । हमें इस सौंदयमशास्त्र के दायरे में
भी रूपांिरण, उपयोग और भमलावट के सवाल पर ववचार करना चाहहए। एक चीज ववशेष उमलेख
ककए जाने की माूँग करिी है । दतु नया ने काफी लंिे अरसे िक पक्श्चमी सौंदयमशास्त्र को इस िाि
की छूट द है कक वह उसकी कलात्मक दृक्ष्ट को प्रभाववि करे , जिकक इसकी समरूपिा मानव
जाति के भलए िेहद लज्जाजनक या अनचाह दघ
ु ट
म ना के समान है । यह एक सावमभौभमक सत्य है
कक अप्रत्याभशि और एकरूपिा का तिरस्कार, जीवन के सौंदयम को गतिमान रखने के भलए केंद्र य
महत्व रखिा है। यह दे खा गया है कक पक्श्चम की भाषा अंग्रेजी भसफम दस
ू र दतु नया की णखडकी
नह ं है , िक्मक इसने खुद को एक ऐसी जगह पर ला खडा ककया, जहाूँ यह अपने से जुडी हर चीज
की श्रेष्ठिा का प्रिीक िन गई है। इसभलए जरूर है कक हम इस िहस को आगे िढािे हुए धममवीर
भारिी, उत्पल दत्त, मनोज भमत्र और धगर श कनामड जैसे नाटककारों के नाटकों पर भी चचाम करें ।
इसके साथ ह दतु नया के इस हहस्से के दस
ू रे नाटककारों, मसलन रफी पीर और लैहटन अमेररका,
पि
ु ग
म ाल, स्पेन, पाककस्िान, अजेंट ना और श्रीलंका से आनेवाले अन्य नाटककारों की रचना पर भी
अतनवायम रूप से िाि की जानी चाहहए।

यह दे खना आश्चयमजनक है कक कैसे एक खास सौंदयमशास्त्र को पूर दतु नया पर थोपने की कोभशशें
की जा रह हैं। ऐसा शायद इसभलए है कक कुछ दे शों को यह भ्रम है कक वे ह ववश्व हैं। यह एक
आत्मपीडक व्यामोह है , क्जस पर संवेदना ह जिाई जानी चाहहए। यह एक िडा रहस्य है कक
येलोरोि को छोडकर, क्जनसे मुझे धथयेटर ववदाउट िॉरडसम के सम्मेलन में और 2010 में न्यूयॉकम
में ला मामा धथयेटर के दौरान भमलने का मौका भमला, ककसी अन्य रे ड इंडडयन नाटककार का उभार
तयों नह ं हुआ? मैं कभी-कभी हैरि से सोचिा हूूँ कक अमेररका के ककसी तनदे शक ने ऐसे नाटकों
का प्रदशमन या उनके भसनेमाई रूपांिरण के भलहाज से महत्वपूणम तयों नह ं माना है ? तया इसके
पीछे ककसी डर या असुरक्षािोध का हाथ है ? वह डर जो 'हमारे ,' 'उनके' की झूठी अवधारणाओं को
जन्म दे िा है। ऐसी क्स्थति में दतु नया 'दस
ू र / अन्य' होिी है। लेककन अगर आप इस 'दस
ू रे ' की
पहचान को पोंछ कर भमटाना चाहिे हैं िो आप खुद अपने सौंदयमशास्त्र के णखलाफ जा रहे होिे हैं,
जैसा कक दे कािे ने कहा था, " 'पयमवेक्षक' और 'पयमवेक्षणीय' की आपसी अंिःकिया के िगैर, दोनों में
से ककसी की पहचान या अक्स्ित्व संभव नह ं है।"

सैमए
ु ल िेकेट ने अपने सभी नाटकों और उपन्यासों में इस द्वैध को काफी प्रभावशाल िर के से
िने रहने हदया। िेकेट ने आइंस्ट न को एक पत्र भलखा था, क्जसमें उनके साथ भसनेमा सीखने की
िाि थी। यह धचट्ठी द्वविीय ववश्वयद्
ु ध के दौरान गम
ु हो गई। यह यद्
ु ध के समाप्ि होने के िाद
ह आइंस्ट न को भमल सकी। िि िक िेकेट की ख्याति एक महान नाटककार और उपन्यासकार
के िौर पर हो चुकी थी। अगला चरण साहहत्य में काफी उत्साहवद्मधक है । है रमड वपंटर पर िेकेट
के प्रभाव ने उन्हें न भसफम नई नाट्यभाषा, िक्मक नई कफमम भाषा का संधान करने के भलए प्रेररि
ककया। इसी जगह से एक नई धारा की शुरुआि हुई, जो भसनेमा और धथयेटर के िीच ररश्िा
जोडनेवाल , उन्हें आपस में भमलानेवाल थी। यह भमलाप धथयेटर और भसनेमा के िीच एक सहकिया
पैदा करिा है , जो दोनों को समद्
ृ ध करिी है । ज्यादािर नाट्यलेखक, अपने नाटकों की पटकथा खुद
भलखिे हैं। हैरमड वपंटर, पीटर शेफर, टॉम स्टॉपाडम ऐसे कई नाम हैं। िा.व. कारं ि, कनामटक से धगर श
कनामड, कोलकािा से मनोज भमत्र भी ऐसे नाम हैं। नाट्य साहहत्य के एक हहस्से के िौर पर धथयेटर
और भसनेमा के िीच की यह सह-किया स्वागि-योग्य संकेि है और नाट्य लेखक, तनदे शक और
अभभनेिा सभी शाभमल हैं। इसका एक तलाभसक उदाहरण है लुइस माल द्वारा 'अंकल वान्या ऑन
फॉटी सेकेंड स्र ट' के नाम से चेखव के नाटक 'अंकल वान्या' का प्रदशमन। यह रूपांिरण और
उपयोग का सिसे मोहक उदाहरण है।
परू दतु नया में अभभनेिा लगािार धथयेटर की ओर लौटिे रहे हैं। िेन ककं ग्सले से लेकर नसीरुद्द न
शाह, मधुर जाफर , शिाना आजमी, अमोल पालेकर और नाना पाटे कर िक। आलोचना और पक्श्चमी
सौंदयमशास्त्र के भलए जरूर है कक वह अपने ववकमप को आजमाए और उसे स्वीकार करे । ऐसा
करके वे खुद को समद्
ृ ध ह करें गे। श्रीलंका के प्रसन्ना ववथांगें, भारि के तिग्मांशु धूभलया और
शोएि मंसूर जैसे प्रभसद्ध तनदे शकों की कफममें पररदृश्य में िदलाव ला रह हैं। और यह िदलाव
भसफम स्ट वन स्पीलिगम की कफममों जैसा भव्य नह ं है , िक्मक यह एक सौंदयमशास्त्रीय िदलाव है ,
जो िदल रहा है , उभर रहा है और अपनी स्विंत्र राह पकड रहा है।

जि हम भसनेमा और साहहत्य के िारे में िाि करिे हैं, िि हमें इस िथ्य पर भी ववचार करना
चाहहए कक आणखर तया वजह है कक दतु नया की सवमश्रेष्ठ कफममें पक्श्चम से नह ं आ रह हैं, िक्मक
छोटे दे शों से आ रह रह हैं। उनके सामने महूँगी और भव्य िकनीक की िाढ में िह जाने का
खिरा है , लेककन वे इसकी क्षतिपूतिम महानिर भसनेमा के तनमामण से कर लेिे हैं। यह खुशी, मनोरं जन
और उत्थान की रचना के आसपास पहुूँचिा है , जो काम साहहत्य अि िक करिा रहा है और आगे
भी करिा रहेगा। इस श्रेणी में चार कफममों का क्जि खास िौर पर जरूर है , जो साहहत्य द्वारा
मम
ु ककन ककए जानेवाले उत्थान से आगे जािी हैं। पहल कफमम है अकीरा कुरोसावा की 'ड्रीम्स,'
क्जसमें कुरोसावा, जो पहले धचत्रकार थे, अपनी कफमम के भलए पारं पररक धलैक एंड व्हाइट की जगह
पहल िार रं गों का इस्िेमाल करिे हैं। और रं गों और सपनों की कवविा के द्वारा वे कवविा, पें हटग,
यद्
ु ध और मानवीय क्स्थति का एक समग्र धचत्र प्रस्िि
ु करने में कामयाि होिे हैं।

यह समझ में आनेवाल िाि है कक पक्श्चम ने इस कफमम पर संभविः जान-िूझ कर कोई ध्यान
नह ं हदया। ऐसी ह एक कफमम आजेट ना की 'द सीिेट इन दे यर आई' है। यह काफी पररपतव
और सि कुछ को समेटनेवाल कफमम है। यह एक ऐसी कफमम है जो अपने दायरे में मानवीय
क्स्थति की सभी भावनाओं को समेट लेिी है। सुववधाजनक रास्िा अपनािे हुए इस कफमम को गैर
अंग्रेजी कफमम की कैटे धगर में िेस्ट कफमम का ऑस्कर अवॉडम दे कर रुखसि कर हदया गया, जिकक
यह कफमम ककसी भी िथाकधथि अंग्रेजी कफमम से श्रेष्ठ थी। यह कफमम भी भसनेमा की सीमाओं
के पार गई और इसने सावमभौभमक को कुछ उसी िरह छूने का काम ककया जैसा साहहत्य करिा
है। िीसर कफमम है , शोएि मंसूर की 'िोल।' 'खुदा के भलए' के िाद अई यह कफमम न भसफम एक
डायरे तटर के और पररपतव होने की खिर लेकर आई, िक्मक यह हमें ििािी है कक महान कफमम
का तनमामण करने वाले ित्व कौन से होिे हैं? यह कफमम इनसानी क्स्थतियों के त्रासद रास्िों के
िारे में ििािी है , कुछ उस िरह से क्जसके कारण अनेस्ट हे भमंग्वे को 'द ओमड मैन एंड द सी' के
भलए नोिल पुरस्कार भमला था। चौथी कफमम युवा तनदे शक तिग्मांशु धूभलया की 'पान भसंह िोमर'
है, क्जसने अपने सौंदयमशात्र और प्रासंधगकिा के िल पर िॉल वुड द्वारा िॉतस ऑकफस को सवोपरर
मानने की कफिरि को शममसार कर हदया है । यह कफमम क्जस िरह से मानवीय मम
ू यों को ववशेष
मानवीय संदभों में पेश करिी है , उसने पेडों के चारों ओर चतकर लगाने और लगवाने वाले तनदे शकों,
िथाकधथि ह रो और ह रोइनों को खद
ु पर लक्ज्जि ककया है । इस कफमम की लोकवप्रयिा िाकी
िािें खद
ु -ि-खुद ियान कर दे िी है। हाल के वषों में आई ये कफममें साहहत्य के प्रभाव का मक
ु ािला
करिी हैं, इसभलए वे हमेशा िची रहें गी। इन सिके िावजद
ू क्जस िरह से पीटर शेफर की 'अमादे उस'
िची रहे गी, तयोंकक यह औसि और उत्कृष्टिा के िीच के सावमभौभमक संघषम से दो-चार होिी है।
उनका नाटक 'ईतवस' िचा रहे गा, तयोंकक यह इस िाि के महत्व को रे खांककि करिा है कक
व्यक्तियों में फकम होिा है । व्यवस्था को यह िाि अस्वीकायम होिी है और दो ववश्व युद्धों की
हहंसा के िाद वह व्यक्तिगि प्रतिरोधों के दमन को प्रेररि करिी है। इसके भलए व्यवस्था के नौकर
यानी मनोववज्ञान का इस्िेमाल ककया जािा है।

ये नाटक और कफममें िि िनीं थीं, जि अथम के संचार ने प्रतिकूल दि


ु ोधिा हाभसल नह ं कर ल
थी। जि व्यवहार में आनेवाल ककसी िाि का बिना ककसी भसद्धांि के सूत्रीकरण करने की कोभशश
की जािी है , िो पररणाम कुछ ऐसा ह होिा है । मुगी पहले या अंडा की कभी न खत्म होनेवाल
िहस में पडने की जगह सीधा-सा सवाल पूछा जाए। तया इन भसद्धांिों के फैशनेिल होने से पहले
अथम का संचार नह ं होिा था? मेरा इशारा तनक्श्चि िौर पर साहहत्य या भसनेमा के लक्षण ववज्ञान
/ (semiotics) की ओर है। साहहत्य और भसनेमा में एक चीज साझी है। दोनों एक स्िर पर नैरेहटव
आटम / वि
ृ ांिपरक कला-रूप हैं। जहाूँ िक भसनेमा की िाि की जाए, लक्षण ववज्ञान में काफी
ववशेषीकृि भाषा को ईजाद ककया गया है । सट क पररभाषाओं और उपयोगी हदशा-तनदे शों की
अनुपक्स्थति के कारण लक्षण ववज्ञान काफी पेचीदा / भ्रामक और कहठन हो गया है। इसका
प्राथभमक कारण यह है कक शधदकोश के साथ नािा जोडने की िमाम कोभशशों के िावजद
ू इनके
िीच का अंिसंिंध अभी िक धध
ूँु ला है ।

यह स्विः प्रमाणणि है कक लक्षण ववज्ञान का संिंध साइन / संकेि और प्रिीक के अध्ययन के


भसद्धांिों से है। खासकर भाषा के ित्वों और संचार के दस
ू रे िंत्रों में । संकेिों के इस िंत्र में अथम
के तनमामण की ववधधयाूँ समाहहि हैं। और साथ में यह भी कक वास्िववकिा को ककस िरह प्रस्िि

ककया जािा है ? जैसा कक सि को पिा है कक संकेि खुद में अथम को संप्रेषण नह ं करिे हैं। वे उस
माध्यम का तनमामण करिे हैं, क्जसमें अथम का तनमामण ककया जािा है। सवाल है कक इससे पहले
अथम का तनमामण ककस िरह से हो रहा था? संकेि इस्िेमाल के हहसाि से िदलिे रहिे हैं और वे
क्जस अथम का तनमामण करिे हैं, वे कभी समरूप नह ं हो सकिे। यह अलग िाि है कक दस
ू रे ववश्व
युद्ध के िाद ज्यादािर राजनीतिक व्यवस्थाओं ने ककसी एक चीज की सिसे ज्यादा कोभशश की
है, िो वह है एकरूपिा का सज
ृ न। व्यवहारवाद इसका सीधा प्रतिफल हैं।

अथम का तनमामण करने के भलए भसद्धांि की ओर मुडना मेरे हहसाि से थोडा संदेहास्पद है , तयोंकक
यह एक िरह से शायद यह संदेश दे िा है कक अथम को संकेिों के िंत्र में महदद
ू ककया जा सकिा
है। या अथों के संचार पर तनयंत्रण संभव है। तयोंकक कफमम अपनी भाषा के िौर पर संकेिों में
िुनी हुई ककसी भी चीज को अपना लेिी है , यह कारण है कक कफमम का लक्षण ववज्ञान /
(semiotics) श्रव्य और दृश्य संकेिों का अध््यन िन जािा है , क्जसका मकसद उस अथम का
तनमामण होिा है , जो दे खे और सुने गए के परे होिा है। यह एक गलि कोभशश होिी है - छपे हुए
शधदों की दतु नया के पार जाने की, जो साहहत्य का तनमामण करिे हैं। लेककन, कफर भी कोई ऐसा
िर का नह ं हो सकिा, जो भसनेमा के संकेि िंत्र को संपूणि
म ा में कफमम तनदे शक और दशमक या
सभी दशमकों के िीच साझा कर सके। यहाूँ िेहिर न ईरानी कफमम 'लैला' का क्जि करना अप्रासंधगक
नह ं होगा। अगर कफमम के अथम को उसकी पूणि
म ा में भसफम संकेि िंत्र की सीमाओं में िाूँध हदया
जाए, िो काफी हद िक इसके अथम का महत्वपूणम हहस्सा हमसे छूट जाएगा। यह िाि कुरोसावा
की कफमम 'ड्रीम्स' के िारे में भी कह जा सकिी है । एक सच्चा कलाकार िंत्रों की अवहे लना करिा
है। वह खुद अपने अथम का तनमामण करिा है , जो महज आलोचकीय शधदावल को नापसंद करिा
है। यह कारण है कक जि व्लाहदमीर और एस्रे गॉन समय बििाने के भलए एक-दस
ू रे को गाल दे ने
का खेल खेलिे हैं, िि उसका अंि उस बिंद ु पर होिा है जि एक गाल के िौर पर 'आमललोचतक'
का इस्िेमाल करिा है । यह दस
ू रे को हार मानने पर मजिूर कर दे िा है , कुछ इस िरह कक कोई
दस
ू रा शधद इसका जवाि नह ं हो सकिा। यहाूँ है रमड वपंटर का क्जि करना मानीखेज होगा,
क्जन्होंने अपने नोिेल ग्रहण वतिव्य का शीषमक 'आटम , ट्रूथ एंड पॉभलहटतस' (कला, सच्चाई और
राजनीति) - िक्मक उन्होंने 'सच्चाई' शधद का इस्िेमाल ककया। यह एक सच्चाई है कक वपंटर ने
'वास्िववकिा / यथाथम शधद का इस्िेमाल जान-िझ
ू कर नह ं ककया, जो सभी आलोचकों को खासा
वप्रय रहा है। इस िरह से उन्होंने कलात्मक उद्यम के दायरे का ववस्िार आलोचना की उन सीमाओं
के परे ककया, पक्श्चमी आलोचक उन्हें क्जसके भीिर िाूँधना पसंद करिे।

यह लगािार चलनेवाल िहस है कक तया कलात्मक प्रेरणा या उत्प्रेरणा ककसी भसद्धांि की दे न है।
शुि है कक इसका जवाि नह ं है । जैसा कक पहले मैंने कहा, कलाकार अतनवायम रूप से व्यवस्थापीकरण
का ववरोध करिे हैं। िंत्र की पूर कोभशश होिी है कक वह प्रेरणा को िंत्र की सीमाओं के भीिर
िाूँधने की कोभशश करे , क्जसे समरूप िर के से सभी कलारूपों पर लागू ककया जािा है । कौन सा
ऐसा आलोचकीय िंत्र है , जो कवविा के िकम को पूर िरह से समझने और व्याख्यातयि करने का
दावा कर सका है ? कलात्मक अभभप्रेरणा और अभभव्यक्ति में भभन्निा का उत्सव मनाया जाना
चाहहए। चभलए, हम एक सामान्य-सा शधद लेिे हैं - रं ग। भसनेमा में इसे कुरोसावा की कफमम
'ड्रीम्स' में रं गों का इस्िेमाल कवविा के िौर पर करने और िॉल वडु में िथाकधथि सप ु रस्टारों पर
छाप छोडने के भलए ईस्टमैन कलर के उपयोग को िरािर नह ं मान सकिे, क्जनकी तनयति स्मतृ ियों
में खो जाने की है। हम यहाूँ ररचडम ऐटनिरो का उदाहरण भी ले सकिे हैं , क्जन्होंने कफमम 'गांधी'
में गांधी की भभू मका के भलए िेन ककं ग्सले का चन ु ाव नसीरुद्द न शाह के ऊपर ककया, जिकक खद ु
नसीरुद्द न शाह मानिे हैं कक उस भभू मका के भलए उनका दावा कह ं ज्यादा मजिि
ू था। और
कस्िरू िा के भलए रोहहणी हटं गर को तयों भलया गया? सवाल है कक यह कफमम तयों चल ? तया
लक्षण ववज्ञान के उप-िंत्र के चलिे या कफर इसभलए कक सह लोगों का चयन मुख्यिः कलात्मक
दृक्ष्ट से ककया गया था? लेककन वह इतिहास था। तया यह महज दस्िावेजीकरण था या कफर
व्याख्या भी थी?

कला के ककसी भी कायम के पीछे , कफर चाहे वह साहहत्य हो या भसनेमा, काम करने वाला प्रभाव
ककसी भी अन्य प्रभाव से अलग होिा है । आणखर पक्श्चमी आलोचना का कोई स्वयंभू मुहावरा /
इडडयम सभी कलाओं पर समरूप िर के से लागू होने का दावा कैसे कर सकिा है ? यह वह बिंद ु
है, जहाूँ पक्श्चमी परं परा के सौंदशामस्त्र के साथ हदतकि शुरू होिी है । और कोई कारण नह ं कक
आणखर तयों दतु नया को इसका अनुकरण करना चाहहए जि िक कक यह भसर के ऊपर से न गुजर
जाए? पक्श्चम के सैद्धांतिकी में ववन्यस्ि व्यक्तिगि कलात्मक प्रभावों के प्रति असम्मान की
भावना, धीरे -धीरे और अधधक स्पष्ट होने लगी है। हालाूँकक, इसे अंदरुनी िर के से फासीवाद का िडा
स्थानापन्न माना जाने लगा है। िहरहाल, यहाूँ कलात्मक उद्यम के मूमयांकन का सवाल प्रासंधगक
और महत्वपूणम है। कला अभभव्यक्तिपरक धचह्नों के िंत्र की िजाय हमेशा से इस िाि पर तनभमर
करिी है कक आणखर दशमक / श्रोिा / पाठक तया ग्रहण करिा है - सामूहहक रूप से नह ं, िक्मक
व्यक्तिगि िौर पर। वैसे आलोचक जो अपनी तनजी राय को सह / न्यायोधचि ठहराने के भलए,
कलात्मक उद्यम को श्रोिा / दशमक / पाठक के समह
ू पर लादना चाहिे हैं, वे ववश्वास के योग्य
नह ं हैं। दतु नया भर के कलाकार ऐसे आलोचकों को हहकारि की भावना से दे खिे हैं। इसकी वजह
तया है ?

पक्श्चम के एक ििके द्वारा कला में पल िा लगाने के िावजूद, और जैसा कक वपंटर ने अपने
नोिल वतिव्य में कहा था, इस मरुभूभम में िीच-िीच में कई उद्यान भी हैं। िॉल वुड भले ह
ककिनी अपनी पीठ थपथपाए, सच्चाई यह है कक िाहर इसे वैसी प्रशंसा या सराहना नह ं भमलिी।
जि हमार कफममें िाहर सराह / पहचानी जािी हैं, िो यह ऋक्त्वक घटक की कफममों के कारण
होिा है। उनकी कफममें , कफर चाहे वह 'सुिनम रे खा' हो, या 'मेघे ढाके िारा।' और वे हर ववदे शी
आलोचकीय मानदं डों को झुठलािे हुए सफल होिी हैं। सत्यक्जि राय भी सफल होिे हैं, लेककन
बिलकुल दस
ू र िरह से। अपु रायोलॉजी एक भव्य शुरुआि है , लेककन यह आगे चल कर क्षीण पड
जािा है। वे 'शिरं ज के णखलाडी' में उत्कषम पर पहुूँचिे हैं, जो कक इसी नाम से भलखी गई प्रेमचंद
की कहानी पर िनी थी। यह इस िाि का एक िेहिर न उदाहरण है कक ककस िरह से भसनेमा
साहहक्त्यक पाठ को और ऊूँचाई दे सकिा है और लेखक के मौभलक से भी िेहिर प्रभाव छोड
सकिा है। ककस िरह से यह लेखक द्वारा िय की गई सीमाओं के पार ले जा सकिा है। ऐसा
तयों और कैसे होिा है ? लेककन कहानी यह ं खत्म नह ं होिी है। जि खद
ु राय ने इधसन के नाटक
'एनेमी ऑफ द पीपल' का रूपांिरण 'गणशत्र,ु ' के नाम से करने की कोभशश की िो वे सफल नह ं
हुए। यह कफमम एक हादसे के समान है । रूपांिरण, उपयोग और भमलावट के सभी आयामों को
ववभशष्ट उदाहरणों के आईने में दे खना हदलचस्प होगा, तयोंकक ये ववभशष्ट उदाहरण ह हैं, जो
अपवाद के िौर पर उभर सकिे हैं और एक तनयम िना सकिे हैं।

कफममों के तनमामण को प्रेररि करने वाले साहहत्य की सूची िनाई जाए, िो यह अंिह न होगी। इनमें
से एक केन केसी की कफमम 'वन फ्मयू ओवर द कुकूज नेस्ट' है, जो उपन्यास की सीमा से पार
चल जािी है। लेककन हे भमंग्वे के उपन्यास 'द ओमड मैन एंड द सी' पर िनी कफमम, इसका ठीक
उमटा उदाहरण है। इस पर िनी कोई भी कफमम इस उपन्यास के प्रभाव के स्िर िक नह ं पहुूँच
पायी है। ग्रीक लेखक तनकोस कजांिजाककस के उपन्यास 'जोरिा द ग्रीक' के िारे में यह मानना
पडेगा कक इस उपन्यास का भसनेमाई रूपांिरण, और उपन्यास, दोनों का प्रभाव समान स्िर िक
पहुूँचिा है । हालाूँकक दस
ू रे रूप में । दोनों कभी न भमटने वाला प्रभाव छोड जािे हैं, क्जन्हें एक-दस
ू रे
का पूरक ह कहा जा सकिा है ।

इस लेख में ववश्व में साहहत्य और भसनेमा के दोनों रूपों में समान रूप से दखल रखनेवाले लोगों
का क्जि ककया गया है । लेककन यह प्रासंधगक होगा कक हम दतु नया के इस हहस्से के ऐसे लोगों के
नामों का भी उमलेख करें । इनमें भारिीय धथयेटर की कद्दावर शक्ख्सयि शंभु भमत्र, श्यामानंद
जालान, 'गोधूभल' और 'चोमन' के भलए प्रभसद्ध िा.व. कारं ि, मनोज भमत्र, हिीि िनवीर, धगर श
कनामड का नाम धगनाया जा सकिा है , ये नाट्य लेखक भी थे। तनदे शक और अभभनेिा भी। इनकी
दोनों माध्यमों में आवाजाह थी।

इस बिंद ु पर हमारे भलए महत्वपूणम ऊपर से थोपा गया कोई भसद्धांि नह ं है । आज की दतु नया में
हमारे भलए महत्वपूणम व्यक्ति की क्षमिा का उत्सव उसकी कमजोररयाूँ, उसकी असहायिा और
इसके िावजूद उसकी अतनवायम गररमा है । मैं एक िार कफर से वपंटर के नोिल व्याख्यान को उद्धि

कर रहा हूूँ :
"मेरा यह यकीन है कक मौजूदा िमाम ववपर ि पररक्स्थतियों के िावजूद एक नागररक के िौर पर
अपने और समाज के वास्िववक सत्य को पररभावषि करने के भलए तनभीक, अटल, कट्टर, िौद्धधक
संकमप का होना, हमारा एक अत्यंि महत्वपण
ू म किमव्य है । िक्मक यह अतनवायम है । अगर हमार
राजनीतिक दृक्ष्ट में ऐसा संकमप शाभमल नह ं है , िो हम उस चीज को दि
ु ारा हाभसल करने के िारे
में सोच भी नह ं सकिे हैं, जो लगभग हम से खो गई है : व्यक्ति की गररमा।"

यह एक ऐसे व्यक्ति का कथन है , जो भसनेमा और साहहत्य, दोनों में ह भसद्धहस्ि है। ककिने
कलाकार और उनके भसद्धांि हैं जो ऐसा करने के नजद क भी फटकिे हैं? रूपांिरण और उपयोग
की प्रकिया को मजिूि करने में यह काफी मददगार हो सकिा है । यानी अपने मकसद के प्रति
धचंिा और प्रतििद्धिा, न कक भसफम भसद्धांि के प्रति।

1. डेववड मैमेट, धथयेटर, फेिर एंड फेिर, 2010।

2. सैमुएल िैकेट, वेहटंग फॉर गोडो।

3. होमर, ओडडभसयस, रैंडम हाउस, द मॉडनम लाइब्रेर , 1950, यू.एस.ए., अनुवाद- एच. एस. िुचर और
ऐंड्रयू लैंग।

4. वह , 3।

5. गौिम दासगुप्ि : द महाभारि : पीटर ब्रत


ु स ओररएंटभलज्म, 1991, इंटरकमचररज्म एंड
परफॉरमेंस, राइहटंग फ्रॉम पीएजे, सं. िॉनी मारांका और गौिम दासगुप्ि, न्यूयॉकम।

6. एडैप्टे शन एंड एप्रोवप्रएशन, जूल सैंडसम, रटलज, टे लर एंड फ्रांभसस ग्रुप, लंदन एंड न्यूयॉकम, 2006।

7. उपरोति 6।

8. रे डडशन एंड इंडडववजुअल टै लेंट, सेलेतटे ड प्रोज ऑफ ट .एस. एभलयट, सं. फ्रैक करमोड, फेिर,
लंदन, 1984।

9. फेभमतनज्म : अ र डर, सं मैगी हम्म, 1992, हरनेल हें प्स्टे ड, हारवेस्टर व्ह स्टशीफ।
10. द एंग्जाइट ऑफ इंफ्लुएंस : ए धथयर ऑफ पोएर , 1973, ऑतसफोडम यूतनवभसमट प्रेस।

11. एडैप्टे शन एंड एप्रोवप्रएशन, जूल सैंडसम, रटलज, टे लर एंड फ्रांभसस ग्रुप, लंदन एंड न्यूयॉकम, 2006।

12. डेिोराह काटम मेल और इमेमडा ह्वेलेहान, सं. एडैप्टे शंस : फ्रॉम टे तस्ट टू स्िीन, स्िीन टू टे तस्ट,
1999, लंदन रटलेज।

सामाजिक सरोकार का ससनेमा


दीजति अंगरीश

हमारे समाज में भसनेमा का अटूट प्रभाव पडिा है । यूं कहें कक भसनेमा से ह समाज की मानभसकिा
िनिी व बिगडिी है। यह नह ,ं िहुिेरे दशमक अपने पसंद दा अभभनेिा-अभभनेत्री और उनके
अववस्मरणीय ककरदारों से प्रभाववि रहिे हैं। उनके जैसे कपडे, उनके जैसा हे यर स्टाइल, उनके जैसा
ककरदार और उनकी जैसी सोच असल क्जंदगी में अपनािे हैं। ककिनी कमाल की िाि है कक हम
इिने कम समय में कामपतनक पात्रों से भावनात्मक रूप से जुड जािे हैं। कई तनदे शकों ने ल क
से हटकर कफममें िनाई हैं। उनका लक्ष्य कफमम से मनोरं जन नह ं, िक्मक मजिूि समाक्जक संदेश
दे ना भी है। िाि करिे हैं क्जम्मेदार भसनेमा की कुछ िेहिर न सामाक्जक संदेश दे िी कफममों की।
ओएमजी! ओह माई गाॅड हमारे समाज में धमम के प्रति ववववध प्रकार के अॅाडंिर और अंधववश्वास
अटे पडे हैं। आलम िो यह है कक लोग धमम गुरुओं और कथा वाचक को ह भगवान समझिे हैं।
ऐसे जीवंि भगवान के प्रति अंधववश्वास इिना है कक वे अपना पैसा व इज्जि सि दांव पर लगा
दे िे हैं। ऐसे अंधववश्वास को लोगों के आगे प्रस्िि
ु ककया है ओएमजी में । कमाल की िाि है कक
इस िीखी िाि पर करारा प्रहार तनदे शक उमेश शुतला ने काॅमेडी वाले अंदाज में ककया है । इस
कफमम में ववश्वास और अंधववश्वास के िीच सूक्ष्म अंिर को िार की से हदखाया गया है ।टॉयलेट-
एक प्रेम कथा श्री नारायण भसंह द्वारा तनदे भशि साल 2017 में आई टॉयलेट-एक प्रेम कथा हहंद
भाषा की कॉमेडी-ड्रामा कफमम है । यह कफमम भारि में स्वच्छिा की क्स्थति में सुधार करने के
भलए सरकार अभभयानों के समथमन में एक व्यंग्यपूणम कॉमेडी है , क्जसमें खुले में शौच के उन्मूलन
पर जोर हदया गया है , खासकर ग्रामीण इलाकों में। कफमम भारि की शौचालय समस्या पर प्रकाश
डालिी है। आज भी भारि में िहुि से ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय नह ं हैं। यहद है भी िो साझे, जहां
गल , मोहमले के सभी लोग जािे हैं। और िो और, शमम के कारण महहलाएं इसे इस्िेमाल नह ं
करिीं। उनके भलए शौचालय है दरू दराज के खेि या जंगल या कंट ला या सन
ु सान इलाका। कई
िार यह यौन उत्पीडन का कारण िनिा है । यह एक ितु नयाद जरूरि है, क्जसका इस कफमम ने
संदेश हदया है। िारे ज़मीं परसाल 2007 में आई कफमम ‘िारे ज़मीं पर’ ईशान के जीवन और
कमपना की खोज करिी है , जो एक 8 वषीय डडस्लेक्तसक िच्चा है । वह कला में उत्कृष्ट है , उसके
खराि शैक्षणणक प्रदशमन से उसके मािा-वपिा उसे एक िोडडंग स्कूल में भेजिे हैं। ईशान के आटम
ट चर को परू ा ववश्वास है कक ईशान डडस्लेक्तसक है और वो इसे दरू करने में उसकी मदद कर
सकिे हैं। दशील सफर 8 वषीय ईशान के रूप में , और आभमर खान ने कला भशक्षक की भभू मका
तनभाई। कफमम स्पेशल चाइमड की जरूरिों के िारे में है ।दाभमनी राजकुमार संिोषी द्वारा तनदे भशि
साल 1993 में ररल ज यह कफमम अपराध ड्रामा है । इस कफमम में हदखाया है कक कैसे एक महहला
न्याय के भलए समाज से लडिी है। यह कफमम िॉल वड
ु में अि िक िनी महहला केंहद्रि कफममों
में सवमश्रेष्ठ है। मदामनीकफमम मदामनी की कहानी भशवानी भशवाजी रॉय के इदम -धगदम घूमिी है, जो
एक पुभलसकमी है। रानी मुखजी द्वारा अभभनीि भशवानी ककशोर लडकी के अपहरण के केस की
परिें खोलिी है , जहां उसे भारिीय माकफया द्वारा मानव िस्कर के रहस्यों का पिा चलिा है।
यह कफमम महहला की िहादरु को दशामिी है और मानव िस्कर पर कडा प्रहार करिी है ।पीपल
लाइव आए हदन ककसान आत्महत्या कर रहा है । कारण कजाम या सूखी ज़मीन या गर िी। यह
भसलभसला थमने का नाम ह नह ं ले रहा है। और िो और ककसानों की िदहाल की कोई सुध नह ं
लेिा। नेिा, मंत्री आश्वासन दे िे हैं, पर सट क उपाय नह ं दे िे। साल 2010 में ररल ज कफमम पीपल
लाइव ने भारि के इस सिसे िडे सामाक्जक मुद्दे यानी ककसानों की आत्महत्या की िाि की है ।
मािभ
ृ ूभमः ए नेशन ववदआउट वुमन सामाक्जक मुद्दे यानी कन्या भ्रूण हत्या पर आधाररि यह
कफमम दे श के भववष्य को हदखािी है । यहद लडककयों को मारिे रहे िो वो हदन दरू नह ं जि दे श
ह नह ं रहे गा। आज भी भारि में कई जगहों पर लडककयों को जन्म के समय ह मार हदया जािा
हैॅै। यह कफमम एक लडकी की कहानी के इदम -धगदम घूमिी है , क्जसकी शाद पांच भाइयों से होिी
है। कफमम िूर समाज की झलक हदखािी है और एक िच्ची को िचाने का संदेश दे िी है । जॉल
एलएलिी जॉल एलएलिी साल 2013 में ररल ज ल गल कॉमेडी कफमम है । इसे सुभाष कपूर ने
भलखा और तनदे भशि ककया है। कफमम में अरशद वारसी, िोमन ईरानी और अमि
ृ ा राव मुख्य
भूभमकाओं में हैं। यह कफमम वकील जगद श त्यागी के जीवन के आसपास घूमिी है । इसकी कहानी
साल 1999 के संजीव नंदा के हहट-एंड-रन मामले और वप्रयदशमनी मट्टू मामले के एक संदभम से
प्रेररि है। वपंक कफमम वपंक के शीषमक का लडककयों के पसंद दा रं ग वपंक से कोई संिंध नह ं है।
यह कफमम यह संदेश दे िी है कक महहलाओं को खुलकर िोलने और राि में स्विंत्रि चलने की
आज़ाद होनी चाहहए। साथ ह दे श में महहलाओं की सुरक्षा हे िु सोचने को वववश करिी है । अ
वेडनेसडे कफमम अ वेडनेसडे (2008) ने आम आदमी की िाकि के िारे में ििाया है। यह कफमम
अि िक की िेस्ट धथ्रलर कफममों में धगनी जािी है और आम आदमी से जड
ु ी ऐसी िाि आज िक
ककसी कफमम में दे खने को नह ं भमल है । नसीरुद्द न शाह और अनप
ु म खेर की इस कफमम में
हदखाया गया है कक जि एक आम आदमी का हदमाग सटक जािा है िो वो ककस हद िक जा
सकिा है। ऐसे सधजेतट पर िनी कफमम पहले दे खने को नह ं भमल । नीरज पांडे द्वारा तनदे भशि
ये कफमम भले ह छोटे िजट पर िनी थी, लेककन इस कफमम ने ऑडडएंस को ऐसा झकझोरा कक
ये िॉतस ऑकफस पर अच्छी-खासी कमाई कर गई। िजरं गी भाईजान साल 2015 में ररल ज कफमम
िजरं गी भाईजान में अभभनेिा सलमान खान ने भगवान हनम
ु ान के एक भति िजरं गी की भभू मका
तनभाई है , जो छह साल की पाककस्िानी मक्ु स्लम लडकी को उसके मािा-वपिा से भमलवािा है।
िच्ची भारि में अलग होिी है और िजरं गी उसे मािा-वपिा से भमलवाने पाककस्िान की यात्रा करिा
है। इस कफमम में हदया गया प्यार, करुणा और सहानभ
ु तू ि का संदेश सभी के हदलों को छू गया।
पैड मैन अक्षय कुमार अभभनीि कफमम पैडमैन िभमलनाडु के उद्यमी अरुणाचलम मरु
ु गनाथम की
कहानी से प्रेररि है , क्जन्होंने अपने गांव की महहलाओं के भलए सस्िे सैतनटर नैपककन िनाए।
पद्मश्री (2016) प्राप्ि मरु
ु गनाथम ने िडी मात्रा में सैतनटर पैड िनाने के भलए कम लागि वाले
सैतनटर पैड िनाने की मशीन का आववष्कार ककया है। आहटम कल 15 एक अपराध जांच के माध्यम
से, यह कफमम आहटम कल 15 (2019) तनचल जाति की दद
ु म शा और जाति व्यवस्था की िुराइयों को
उजागर करिी है। यह समस्या कामपतनक नह ं है। यह हमारे समाज में व्याप्ि है। हहंद मीडडयमसाल
2017 में आई कफमम हहंद मीडडयम ने हमारे दे श की भशक्षा प्रणाल की खाभमयों पर प्रकाश डाला
है। साथ ह इस कफमम ने िच्चों की भशक्षा के भलए मािा-वपिा के सामने आने वाल परे शातनयों
के िारे में ििाया। डोर कफमम डोर (2006) नारे िाजी ककए बिना एक मजिूि नार वाद ियान दे िी
है। यह दशामिी है कक आधुतनक भारि में आज भी ववधवा महहलाओं के साथ कैसा सुलूक ककया
जािा है। साथ ह इस कफमम में क्षमा की शक्ति का संदेश भी है। छपाककफमम छपाक (2020)
मेघना गुलजार द्वारा तनदे भशि और फॉतस स्टार स्टूडडयोज के सहयोग द्वारा तनभममि है । यह
कफमम लक्ष्मी अग्रवाल के जीवन पर आधाररि है। लक्ष्मी एभसड अटै क सवामइवर है। यह कफमम
द वपका पादक
ु ोण और वविांि मैसी द्वारा अभभनीि है । यह कफमम िेजाि पीडडिों की व्यथा को
ियां करिी है।

सामाक्जक राजनीतिक यथाथम और भसनेमा रामशरण जोशी

अतसर हम संचार माध्यमों को तनरपेक्ष पररघटना के रूप में दे खिे हैं। यह मानकर चलिे हैं कक
लोकमाध्यमों से लेकर इलेतरोतनक माध्यम िक के संचार माध्यम कालतनरपेक्ष, समाजतनरपेक्ष होिे
हैं। वे अपने समय की सामाक्जक-सांस्कृतिक-आधथमक-राजनीतिक-टे तनोलॉजी प्रकियाओं के प्रभावों
से अछूिे रहिे हैं। इन िहुआयामी प्रकियाओं के प्रभावजगि से संचार माध्यमों का कोई सरोकार
नह ं होिा है। भसनेमा को भी इसी पररप्रेक्ष्य में दे खा जािा है।

यह एक भ्रामक सोच है। प्रायः भाववाद , आदशमवाद और संरचनात्मकवाद ववचारक ऐसा मानकर
चलिे हैं कक संचार माध्यम क्जसमें तनःसंदेह भसनेमा भी शाभमल है , भौतिक यथाथों से स्विंत्र हैं।
इसका अथम यह हुआ कक संचार माध्यम और भौतिक संरचनात्मक पररविमन दोनों का स्विंत्र
अक्स्ित्व है। पर ऐसा नह ं है। इतिहास के अनभ
ु व इस िाि की िस्द क करें गे कक भसनेमा समेि
संचार के शेष सभी माध्यम क्स्थति सापेक्ष होिे हैं, ित्काल न और समकाल न घटनाओं का उन
पर कम अधधक प्रभाव पडिा है िक्मक समकाल न सापेक्षिा ह संचार माध्यमों का चररत्र,
प्रभावशीलिा और प्रासंधगकिा तनधामररि करिी आई है। इस दृक्ष्ट से भारिीय भसनेमा भी इस सच
का अपवाद नह ं है। साफ शधदों में समझें िो भसनेमा िथा अन्य सभी माध्यमों का स्विंत्र कायम-
अक्स्ित्व रहने के िावजद
ू ये सामाक्जक-आधथमक-राजनीतिक व्यवस्था के 'िाई प्रोडतट' ह कहे
जाएूँगे। ककसी भी राष्र-राज्य की 'राजनीतिक-आधथमक व्यवस्था' (पॉल हटकल इकोनॉमी) का प्रत्यक्ष
व परोक्ष िथा सघन व गहन प्रभाव इन माध्यमों पर पडिा आया है और ये प्रभाव माध्यमों द्वारा
संप्रेवषि अंिवमस्िुओं के माध्यम से प्रतिबिंबिि या अभभव्यति होिा है ।

भारिीय भसनेमा की यात्रा दे श के औपतनवेभशक काल से शुरू होिी है। राजनीतिक दृक्ष्ट से यह
समय साम्राज्यवाद -औपतनवेभशक शासनकाल का था। भारि अंग्रेजों का परिंत्र था लेककन इसके
साथ ह एक दस
ू रा सामाक्जक व राजनीतिक यथाथम भी था क्जसे मैं ध्यान में रखना जरूर समझिा
हूूँ। जहाूँ एक िरफ ववदे शी शासनम्व्यवस्था थी वह ं दस
ू र िरफ भारि में सामंिवाद व्यवस्था भी
थी। ये दोनों समानांिर व्यवस्थाएूँ भारिीय जनमानस को गहरे िक जकडे हुए थी। सामंिी व्यवस्था
राज्यसत्ता या शासनव्यवस्था के रूप में ह जीववि नह ं थी िक्मक सामंिवाद मूमयों के रूप में भी
इसकी एक सांस्कृतिक सत्ता भारिीय समाज में गतिशील थी। इन बत्रकोणीय व्यवस्थाओं से भारिीय
समाज की मानस तनभममति हुई थी। इस पष्ृ ठभूभम में भसनेमा जैसे औद्योधगक और पूँज
ू ीवाद काल
के संचार माध्यम का आगमन भारि के भलए एक महान ऐतिहाभसक घटना से कम नह ं था; लोक
माध्यम और वप्रंट माध्यम के िाद भसनेमा माध्यम के जन्म ने भारिीय समाज के समक्ष
अभभव्यक्ति के नए ववकमप को प्रस्िि
ु कर हदया था। िीसवीं सद के प्रथम चरण में दादा साहि
फामके द्वारा तनभममि मूक कफमम 'हररश्चंद्र' ने जहाूँ नई संचार िांति की थी वह ं सामंिी और
औपतनवेभशक भारि के आंिररक जगि को िाह्य रूप से प्रस्फुहटि होने का अवसर भी हदया था।
तया वजह है कक फामके साहि ने अपनी पहल कफमम की कथावस्िु के रूप में एक भमथकीय
आख्यान को चन
ु ा हररश्चंद्र-िारामिी की कहानी पण
ू ि
म ः धाभममक थी और भारिीय भमथकीय मन से
गहरे िक जुडी हुई थी। हमें यहाूँ यह भी समझ लेना होगा कक भारि एक िरफ गहरे िक
कृवषयुगीन समाज था, कृवषयुगीन समाज मल ू िः भावनात्मक होिा है और भमथकीय आख्यानों में
समाया हुआ होिा है । ववदे शी शासनव्यवस्था ने ित्काल न भारि को केवल सिह िक प्रभाववि
ककया था लेककन भारिीय समाज का अंिज म गि कमोिेस भावनाप्रधान व भमथकीय ह रहा। यह
अकारण नह ं है कक िीसवीं सद के शुरुआिी दशकों में धाभममक कफममों का तनमामण अधधक होिा
है। हहंद में ह नह ं, दक्षक्षण की भाषाओं और िाूँग्ला में भी धाभममक कफममें अधधक िनी। यहाूँ िक
कक सवाक कफममों में भी धाभममक कफममों का तनमामण अधधक हुआ था।

दे श की पहल िोलिी कफमम या सवाक कफमम 'आलम आरा' का तनमामण 1931 में हुआ था। यह
भी अकारण नह ं है कक कृवषप्रधान और औपतनवेभशक समाज मूलिः पौराणणकिा और रूमातनयि
में जीिे हैं। जि पौराणणकिा और रूमातनयि का प्रभाव अधधक होिा है िि समाज ऐसे आख्यानों
में रमना पसंद करिा है जो कक उसे आलोचनात्मक चेिना से दरू रखकर एक ऐसी मायानगर में
ले जाए जहाूँ वह अपने जीवन की समकाल न पीडाओं, दःु खों, त्रासहदयों आहद से मुक्ति (पलभर के
भलए ह सह ) पा सके और एक छद्म आध्याक्त्मकिा का आनंद लूट सके। इस मजे के भलए वह
समकाल न कटु यथाथों से वह पलायन करिा है और धाभममक, पौराणणक, चमत्काररक, इश्क भमजाजी
जैसी कफममों में शरण लेिा है। आजाद प्राक्प्ि के काल िक हररश्चंद्र के अलावा भगवान राम,
भति प्रह्लाद, भति हनम
ु ान, भरि भमलाप, दशहरा, रावण वध, िाभल वध, लव-कुश, कृष्ण-सुदामा,
राधा-कृष्ण, कंस वध, द्रौपद चीरहरण, कृष्ण ल लाएूँ, सिी साववत्री, सिी अनुसूइया जैसे ववषयों को
लेकर दजमनों धाभममक कफममों का तनमामण हुआ। इसी के साथ-साथ रूमातनयि के भसनेमा का िाजार
भी चमका। इस कडी में 'आलम आरा', 'अभलफ लैला', 'अरि का सौदागर', 'लैला मजनूँ'ू , 'अल िािा
चाल स चोर', 'िगदाद का चोर', 'िगदाद की राजकुमार ', 'सोहनी माह वाल', 'ह र राूँझा', 'भोला-मारू'
जैसी प्रेम कथाओं को लेकर सैकडों कफममें िनाई गईं और इनमें कई हहट भी हुईं। जि कोई व्यक्ति
या समाज या कौम या दे श दासत्व का भशकार होिा है या पराधीन होिा है िि उसका आंिररक
प्रतिरोध नकारात्मक ढूँ ग से भी अभभव्यति होिा है। यह नकारात्मक अभभव्यक्ति पौराणणक नायक-
नातयकाओं, प्रेमी-प्रेभमकाओं, पौराणणक युद्धों के माध्यम से व्यति होिी है। गल
ु ाम प्रजा इन पौराणणक
िथा रोमानी पात्रों के माध्यम से अपने आिोश और शौयम को वाणी दे ने की कोभशश करिी है। इस
धारा के भसनेमा तनमामिाओं, तनदे शकों, पटकथा लेखकों और संगीिकारों ने सामंिी व औपतनवेभशक
भारि की इस मनोसंरचना का जमकर फायदा उठाया लेककन इसके साथ ह परोक्ष रूप से भारिीयों
को एक सांस्कृतिक सत्र
ू में वपरोने का प्रयास भी ककया।

यह वह काल था जि महात्मा गांधी राष्र य मंच पर स्थावपि हो चुके थे। स्विंत्रिा आंदोलन िेज
होने लगा था। अणखल भारिीय राष्र य कांग्रेस राष्र की आवाज िनने जा रह थी। इसी काल में
जाभलयाूँवाला िाग कांड हुआ, भसववल नाफरमानी आंदोलन चला, चौरा-चौर हहंसा हुई, भगि भसंह,
सुखदे व और राजगुरू की शहादि हुई, जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र िोस, मोहम्मद अल क्जन्ना,
मौलाना आजाद जैसे नेिा समाज के ववभभन्न वगों के नायक के रूप में उभरे । इसी दौर में
'प्रगतिशील लेखक संघ', 'इप्टा' जैसे सांस्कृतिक प्रगतिशील आंदोलन अक्स्ित्व में आए। यहाूँ यह
भी समझ लेना प्रासंधगक रहे गा कक 1917 में रूस की िांति ने भी जहाूँ भारिीय राजनीतिज्ञों को
प्रभाववि ककया वह ं संस्कृतिकमी और िौद्धधकों की जमाि भी अतटूिर िांति से अछूिी नह ं रह
सकी। कला, संस्कृति, साहहक्त्यक, नाटक, भसनेमा जैसे माध्यमों पर इस ऐतिहाभसक िांति की छाप
साफ िौर पर दे खी जा सकिी है। सवाक भारिीय भसनेमा में नए सामाक्जक-राजनीतिक-सांस्कृतिक
मद्
ु दे उठने लगे। इन मद्
ु दों को आधार िनाकर अनेक गैर-पौराणणक व रोमानी कफममों का तनमामण
ककया गया।

जैसा कक पहले कहा जा चुका है कक समाज िदलने लगिा है िो संचार माध्यम भी उससे अछूिे
नह ं रहिे हैं। दे श में आंदोलन संस्कृति फूटने लगी भारिीयों में स्व-अक्स्मिा का भाव जाग्रि होने
लगा और राष्र राज्य के तनमामण की चेिना अंकुररि होने लगी। भसनेमा कभममयों ने अपने-अपने
ढं ग से उभरिी हुई प्रवतृ ियों और ववमशों को पकडने की कोभशश की। यह अकारण नह ं था कक
महिूि खाूँ ने 'औरि' िाद में 'मदर इंडडया' के नाम से िनी कफममों में कृवष समाज की महाजनी
अथमव्यवस्था और िदजतनि अंिववमरोधों को प्रस्िि
ु ककया। इसके साथ ह भारिीय कृवष समाज में
औरि की तया हैभसयि है , इसे भी सामने रखा। यह कहना होगा कक जहाूँ पौराणणक भारिीय
नाररयों ('सीिा', 'साववत्री', 'िाराविी', 'दग
ु ाम' आहद) की कफममों में भरमार थी वह ं महिूि खाूँ ने
भारिीय स्त्री की यथाथमवाद क्स्थति को धचबत्रि ककया। ककसान समस्या से संिंधधि कई और भी
कफममें िनीं। उदाहरण के भलए उत्तर औपतनवेभशक भारि में बिमल रॉय ने िहुि ह सशति कफमम
'दो िीघा जमीन' का तनमामण कर दे श के संिमणकाल न द्वंद्वों को उजागर ककया। 1953 में िनी
ये कफमम दे श के िदलिे राजनीतिक-आधथमक दौर को सामने रखिी है और ििलािी है कक
औद्योधगकीकरण कृवषयुगीन भारि से ककस प्रकार की कीमि वसूल करे गा; भूभम का ववलगन;
सीमांि ककसानों का खेिों से िेदखल होना, गाूँवों से पलायन; ववस्थापन व भूभमह निा िथा शहर
सवमहारा में ककसान का िधद ल होना; पारं पररक भू स्वामी या जमींदार और शहर पूँज
ू ीपति का
जन्म लेिा गठिंधन जैसी प्रववृ त्तयाूँ नेहरूयग
ु ीन समाजवाद की ववसंगतियों को उघाडिी हैं। यहाूँ यह
याद हदलाना मौजंू रहे गा कक पाूँचवें दशक में ह आहदवासी अंचलों में (िस्िर, भभलाई, दग
ु ,म छोटा
नागपरु , राूँची आहद) औद्योधगक सभ्यिा ने अपनी घस
ु पैठ की लंिी यात्रा की शरु
ु आि की थी। यह
वह दौर भी जि मानव और मशीन के िीच प्रतिस्पधाम िेज होने लगी थी, मशीन मानव को
प्रतिस्थावपि करने पर िुल हुई थी। इसका खि ू सूरि कफममांकन िी.आर.चोपडा की कफमम, 'नया
दौर' में दे खा जा सकिा है। इसी प्रकार राजकपूर द्वारा अभभनीि 'जागिे रहो' में भी गाूँवों से गमन
और शहर में ग्रामीण हहंदस्
ु िानी का हाभशयाकरण व हिाशाकरण सामने आिा है ।

इसी संिमणकाल न भारि के अंिववमरोधों को ख्वाजा अहमद अधिास ने अपने कफमम 'शहर और
सपना' में भी प्रभावशाल ढं ग से सामने रखा है। वामपंथी अधिास ििलािे हैं कक एक महानगर का
तनमामण ककस प्रकार मानवीय मूमयों के दम पर ककया जािा है । महानगर की संस्कृति ककस िरह
से संवेदनाशून्य होिी है और ककस प्रकार के नारकीय जीवन को जन्म दे िी है। स्वाधीन भारि के
िेजी से होिे शहर करण और महानगर करण की ववद्रप
ू िाएूँ 'श्री 420', 'िट
ू पॉभलस', 'जागिे रहो',
'कफर सि
ु ह होगी' जैसी कफममों में दे खने को भमलिी है । इन्ह ं ववद्रप
ू िाओं का मेगा संस्करण िीस
पच्चीस साल िाद िनी कफममों ('सत्या', 'कंपनी', 'सरकार', 'हधथयार', 'बत्रशल ू ', 'अक्ग्नपथ' आहद) में
दे खने को भमलिा है । भारि नेहरूयग
ु ीन समाजवाद या भमधश्रि अथमव्यवस्था से छलांग लगाकर
भम
ू ंडल कृि राजनीतिक अथमव्यवस्था में पहुूँच जािा है । एक नया ववमशम भसनेमा में जन्मा लेिा है
जो कक हाइटे क कफममों ('कृष', 'रा-वन', 'कोई भमल गया', 'अविार', '2050', 'माई नेम इज खान',
'न्यूयाकम', 'गजनी' आहद) में प्रतिबिंबिि होिा है। इन कफममों से इस िाि की संकेि भमलिे हैं कक
भारि िेजी से िदल रहा है और उपभोतिावाद के युग में प्रवेश कर चुका है। भारि के भूमंडल कृि
दौर में िनी कफममों में उपभोतिावाद का चरम ववस्फोट, मानवीय संवेदनाओं और संिंधों का
कमोडडट करण, गुरु मूमयों और संस्थाओं का ववखंडन, नायक का प्रतिनायक, प्रतिनायक का नायक
में रूपांिरण, लंपट शक्तियों का ग्लैमर करण, हहंसा व सेतस की वचमस्विा जैसी घटनाएूँ आिमकिा
के साथ स्थावपि हुई हैं। अि यहद भारिीय राजनीतिक व आधथमक पररदृश्य की कफमम िनाई जाए
िो वह इससे भभन्न नह ं होगी। उदाहरण के भलए ववगि दो दशकों में सिसे अधधक महाघोटालों
ने इस राष्र-राज्य को पूर िरह से हहलाकर रख हदया है । इसी दौर में अपराध पष्ृ ठभूभम के
तनवामधचि प्रतितनधध ववधातयका में पहुूँचे, इनका प्रतिशि 30 िक हुआ। इिना ह नह ं, 'आया राम
गया राम' के नवीनिम संस्करण सामने आए। करोडपतियों की िाद्दाद संसद और ववधानसभा में
कई गुणा िढ । इस कुरूप यथाथम का धचत्रण 'राजनीति', 'सरकार', 'गंगाजल', 'अपहरण', 'सत्याग्रह',
'नायक' जैसी कफममों में भशद्धि के साथ हदखाई दे िा है।

गौरिलि यह भी है कक भारिीय भसनेमा समाज के पररविमनशील यथाथम के साथ कदमिाल भमलाकर


चलिा रहा है। पाूँचवें दशक िक जहाूँ भारिीय स्त्री को तनर ह, अिला, पतििा, कुलटा, डायन, तछनाल
जैसे अपमानजनक संिोधनों से जडा जािा था, वह ं कालांिर में स्त्री के अक्स्ित्व, और अक्स्मिा
को भी परु जोर िर के से स्थावपि ककया गया। याद कीक्जए स्वाधीनिा के आरं भभक वषों में िनी
'पतििा', 'धल
ू का फूल', 'साधना', 'एक ह रास्िा', 'धममपत्र
ु ' जैसी कफममों को क्जसमें अद्मधसामंिी व
अद्मध औपतनवेभशक भारि की स्त्री की कशमकश, शधु चिा, परु ु ष प्रधान समाज की वचमस्ववाद
व्यवस्था जैसे पहलुओं का धचत्रांकन ककया गया था लेककन िाद के दशकों में िनी कफममों में
भारिीय स्त्री का नया रूप सामने आिा है। इस दृक्ष्ट से 'अथम', 'अक्स्ित्व', 'तया कहना', 'मािभ
ृ ूभम',
'िैडडंट तवीन', 'मंडी', 'दाभमनी', 'वपंजर', 'चि', 'मम्मो', 'जुिैदा', 'चाूँदनी िार', 'गॉड मदर',
'गजगाभमनी', 'भूभमका', 'लज्जा' जैसी कफममें उमलेखनीय हैं। इन कफममों में उत्तर नेहरूकाल न िथा
इंहदरा-राजीवकाल न भारि की स्त्री का एक नया रूप उभरिा हुआ भमलिा है जो कक अक्स्ित्व व
अक्स्मिा िोध, प्रतिरोध और ववद्रोह से रूपातयि हुआ है । 21वीं सद की भारिीय स्त्री सामंिी
संस्कारों, सोच और पुरुष की वचमस्व सत्ता को सीधे ललकारिी है । वह एक नए ववमशम को जन्म
दे िी है क्जसमें स्त्री पुरुष की समानिा व स्विंत्रिा की उत्कंठा तछिराई हुई है ।

प्रश्न यहाूँ स्त्री-पुरुष की समानिा का नह ं है िक्मक मुद्दा यह है कक भसनेमा िदलिे भारि के


द्वंद्वों और प्रववृ त्तयों को ककस प्रकार अपनी भाषा के माध्यम से अभभक्व्यक्ति दे िा है तयोंकक एक
नया सामाक्जक-राजनीतिक यथाथम भारिीय फलक पर उभर रहा था। एक िरफ गांधीवाद और
समाजवाद की ववचारधाराएूँ अपनी जौहर हदखा रह थी िो दस
ू र ओर हहंद-ू मुक्स्लम संिंध नई
करवटें ले रहे थे; जहाूँ भारि को दो सौ वषम की पराधीनिा से आजाद हदलाने का आंदोलन जार
था वह ं इस ववभाजन की भी िैयाररयाूँ चल रह थी; भारिीय समाज के आंिररक उपतनवेश (दभलि
व आहदवासी) के सुप्ि अंिववमरोध धीरे -धीरे चमकने लगे थे; स्वदे शी और पक्श्चमी जीवन दृक्ष्टयों
के िीच टकराहटें उभरिी जा रह थीं इन िमाम प्रकार के अंिववमरोधों को सैलूलाइड पर उिारना
भारिीय भसनेकभममयों के भलए एक िडी चुनौिी थी; लेककन इससे भारिीय भसनेमा ने पलायन नह ं
ककया िक्मक अपनी ित्काल न प्रतिभा और भसनेमा िकनीकी क्षमिा के साथ इसका सामना ककया।

जैस-े जैसे आंदोलन िेज होिा गया वैसे-वैसे ववभभन्न राष्र य धाराओं को लेकर कफममें िनिी गईं।
उदाहरण के भलए स्विंत्रिा की पव
ू म संध्या पर 'शह द' जैसी कफमम िनी। इसी प्रकार अस्पश्ृ यिा की
समस्या को लेकर 'अछूि कन्या', 'सज
ु ािा', 'नीचा नगर' जैसी कफममें भी िनिी हैं। इसके साथ ह
संस्था के रूप में पिनशील सामंिवाद को लेकर भी कई कफममें िनी क्जनमें प्रमख
ु थी गरू
ु दत्त की
'साहि, िीिी और गलु ाम'। श्रभमक वगम की समस्याओं को लेकर भी कफममें िनाई गईं। श्रभमक वगम
के संघषम को 'समाज को िदल डालो', 'नया जमाना', 'पैगाम', 'सत्यकाम', 'नमक हराम', 'काला सोना'
जैसी कफममों में दे खा जा सकिा है। श्रभमक आंदोलन से संिंधधि कफममों में गांधीवाद ववचारधारा
और मातसमवाद ववचारधारा की स्पष्ट छाप दे खी जा सकिी है। आगे चलकर भी स्वािंत्र्योत्तर भारि
में इसी प्रकार की कई कफममें िनी जो कक ककसी न ककसी रूप में अपनी वैचाररक प्रतििद्धिाओं
को दशामिी हैं। इन कफममों में 'दो आूँखें िारह हाथ', 'सत्यकाम', 'जागतृ ि', 'अंकुर', 'तनशांि', 'आिोश',
'मग
ृ या', 'दामुल', 'अमिटम वपंटों को गुस्सा तयों आिा है ', 'मोहन जोशी हाक्जर हो', 'द्रोहकाल' जैसी
सैलूलाइड कृतियों को शाभमल ककया जा सकिा है ।

भारि महाववभाजन की त्रासद से गुजरा। अथाह कोभशशों के िावजूद स्वाधीनिा आंदोलन का


नेित्ृ व हहंद-ू मुक्स्लम संिंधों को एक समान कौम की शतल दे ने में ऐतिहाभसक रूप से नाकाम रहा
है। हहंद भसनेमा ने इस त्रासद को भी समझने की कोभशश की, कुछ गंभीर कफममें िनीं क्जनमें
'गरम हवा', 'िमस', 'रे न टू लाहौर', 'धमम पुत्र', 'वपंजर' आहद कफममों को याद ककया जा सकिा है।
हालाूँकक आजाद भारि में हहंद-ू मुक्स्लम संिंधों के अलावा ववभाजन से उत्पन्न दक्षक्षण एभशया के
महास्थापन पर भी दजमनों िॉल वुड कफममें िन चुकी हैं। इन कफममों में ववभाजन का सिह र टमें ट
है कफर भी िॉतस ऑकफस पर हहट कफममों में 'वति', 'छभलया' जैसी कफममों को याद ककया जा
सकिा है। हहंद-ू मक्ु स्लम संिंधों पर दजमनों कफममें िन चक
ु ी हैं क्जनमें मग
ु लकाल न पष्ृ ठभभू म पर
िनी ऐतिहाभसक कफममें भी शाभमल हैं। इन कफममों में जहाूँ भसनेमाई ऐतिहाभसकिा हदखाई दे िी है
वह ं सिह स्िर पर या रोमांहटक िजम में हहंद-ू मक्ु स्लम संिंधों को भी परोसा गया है । इस िरह की
कफममें हैं- 'िानसेन', 'मग
ु ले आजम', 'शाहजहां', 'हुमायूँू', 'जोधा अकिर', 'गोलकंु डा, का कैद ',
'लालककला', 'उमरावजान', 'शिरं ज के णखलाडी', 'मेरे महिि ू ', 'चौदहवीं का चाूँद', 'िाजार', 'िरसाि
की एक राि', 'धममपुत्र', 'आसमान महल', 'दस्िक', 'नसीम', 'िहू िेगम', 'अमर अकिर एंथोनी',
'सरफरोश', 'कफजा', 'पाकीजा', 'वीरजारा' आहद। यहाूँ यह उमलेखनीय है कक स्वाधीन भारि में उस
मुक्स्लम वगम का कफममांकन ककया गया जो कक सामंिी पष्ृ ठभूभम से था, अमपसंख्यक वगम के तनचले
ििकों की उपक्स्थति िहुि कम हदखाई गई। वैसे वपछले कुछ वषों से िंिईया कफममों में ववभभन्न
प्रकार के अपराधों में संभलप्ि तनम्न मुक्स्लम वगम को जरूर धचबत्रि ककया जा रहा है जो कक गैर
नवािी मुक्स्लम समाज की आधी-अधूर या ववकृि िस्वीर पेश करिा है । अधधसंख्य मुक्स्लम समाज
िेजी से िदल रहा है । मुक्स्लम समाज का नवउहदि मध्य वगम व तनम्न मध्य वगम भी भारिीय
राष्र राज्य में अपना गररमापूणम स्थान पाने और राष्र तनमामण में अपना सकिय योगदान दे ने की
दृक्ष्ट से वैसी ह भूभमका तनभा रहे हैं क्जस प्रकार िहुसंख्यक समाज के वगम तनभािे हैं। हहंद
भसनेमा को अमपसंख्यक वगों के प्रति नई दृक्ष्ट और संवेदनशीलिा से काम लेने की जरूरि है।

ववगि ढाई-िीन दशकों में नए ववमशम सामने आए हैं। भसनेमा ने इनकी अनदे खी नह ं की है , यह
सच है। उदाहरण के भलए 'मुन्ना भाई एमिीिीएस', 'लगे रहो मुन्ना भाई', 'हे राम', 'थ्री इडडयट',
'िारे जमीं पर', 'पा', 'खामोशी', 'धलैक', 'माधचस', 'स्वदे श' 'आ अि लौट चलें', 'रांझणा', 'मद्रास कैफे',
'पीपल लाइव', 'रे कफक भसग्नल', 'रं ग दे िसंिी', 'वेडनसडे', 'पान भसंह िोमर', 'हजारों ख्वाहहशें ऐसी',
'गैंग ऑफ वासेपरु ' जैसी कफममों में हहंद भसनेकभममयों ने 21वीं सद के पररप्रेक्ष्य में गतिशील भारि
की अधन
ु ािन प्रववृ त्तयों का कफममांकन ककया है ।

आज भारि भूमंडल करण के िीसरे चरण की दहल ज पर खडा हुआ है । एक प्रकार का अदृश्य
साम्राज्यवाद व उपतनवेशवाद दक्षक्षण एभशया को घेरे हुए है । ववश्व में एकल ध्रुवीय शक्ति िंत्र की
सत्ता फैल हुई है। सभ्यिाओं के टकराव और संघषम के नए क्षेत्र तनभममि होिे जा रहे हैं। सुदरू
संचाभलि साम्राज्यवाद शक्तियाूँ नए मानव संिंधों को जन्म दे रह हैं जो कक परू िौर पर
अनुकूभलि और एकरूपी िनने के संकटों के साये में पल रहे हैं। राष्रों की संप्रभुिा ववखंडडि हो
चुकी है और कारपोरे ट राज्यी परं परागि राज्य को प्रतिस्थावपि करने पर कहटिद्ध है । जाहहर है
कक इस िरह की क्स्थतियाूँ समाज में कमपनािीि पररक्स्थतियों को जन्मा दे गी। एक नया
राजनीतिक-आधथमक ववमशम मानव सभ्य िा को ललकारने के भलए िैयार खडा है। जि आज भारिीय
भसनेमा की एक सद मनाई जा रह है िि भसनेकभममयों और धचंिकों के समक्ष सिसे िडी चन
ु ौिी
यह है कक वे हाइटे क भसनेमा के माध्यम से भववष्य के मानव का संत्रास ककस प्रकार पढिे हैं

भारिीय ससनेमा

भारिीय भसनेमा के सौ वषों के इतिहास में हहंद कफममों ने भारि की सामाक्जक, राजनीतिक और
सांस्कृतिक सरोकारों को ववश्व के सम्मुख प्रस्िुि करने में महत्त्वपूणम भूभमका तनभाई है । हहंद
कफममों में मनोरं जन के साथ साथ भारिीय जीवन के ववववध पहलुओं को िदलिे पररवेश में धचबत्रि
करने में सफलिा हाभसल की है। हहंद कफममों की सिसे िडी ववशेषिा जीवन में व्याप्ि हर िरह
की संवेदना को दशामना रहा है। भारि में भसनेमा के उदय काल से ह इस माध्यम का प्रयोग
कफमम किममकारों ने दे श में राजनीतिक, सामाक्जक और सांस्कृतिक चेिना जगाने के भलए ककया।
हहंद कफममें (भारिीय कफममें ) मूलि: संगीि प्रधान रह ं हैं। गीि और संगीि के बिना हहंद कफममों
की कमपना नह ं की जा सकिी। हहंद कफममों को सामाक्जक, राजनीतिक और सांस्कृतिक धरािल
पर पथ
ृ क कर उनमें व्याप्ि ववभभन्न सरोकारों को ववश्लेवषि ककया जा सकिा है । आज़ाद से पहले
की कफममों के मख्
ु य ववषय स्विन्त्रिा संग्राम, अंग्रेजी राज से मक्ु ति के प्रयास और दे शभति वीरों
के िभलदान की कथाओं पर आधाररि रहे । हहंद कफममों का प्रथम दौर ऐतिहाभसक और धाभममक
कफममों का था इस दौर में तनमामिा तनदे शक और अभभनेिा सोहराि मोद ने भसकंदर, पक
ु ार, झांसी
की रानी जैसी महान ऐतिहाभसक कफममें िनाईं। इन कफममों ने लोगों में दे श प्रेम की भावना को
उद्द प्ि करने का माहौल िनाया। भारिीय नवजागरण आन्दोलन से प्रेररि और प्रभाववि होकर
किममकारों की दृक्ष्ट भारिीय समाज में व्याप्ि सामाक्जक कुर तियों और कुप्रथाओं की ओर गई।
पररणामस्वरूप सुधारवाद कफममों का आववभामव आज़ाद से पहले हुआ। साहहत्य की ह िरह भसनेमा
भी समाज का दपमण है। समाज की सच्ची िस्वीर भसनेमा में हदखाई दे िी है। किममकारों ने इस
सशति माध्यम के द्वारा एक कारगर पररविमन और सुधार को समाज में प्रचाररि करने के भलए
महत्त्वपूणम कफममें िनाई क्जनकी प्रासंधगकिा आज भी अक्षुण्ण है।

भसनेमा का जन्म भसफम मनोरं जन परोसकर पैसे कमाने के भलए नह ं हुआ है । सदा से भसनेमा के
मज़िूि कन्धों पर दे श-काल और सामाक्जक दातयत्व का दोहरा िोझ भी हुआ करिा है । अपने
प्रारक्म्भक काल से ह भसनेमा अपने मनमोहक लुभावने अंदाज के साथ-साथ अपनी सरल और
प्रभावशाल संप्रेषणीयिा के कारण लोगों के भलए आकषमण का केंद्र रहा है। बब्रहटश साम्राज्यवाद
और सामाक्जक कुर तियों के ववरोध में भसनेमा का, साहहत्य और नाटक की िरह सामाक्जक पररविमन
के ध्येय से एक िेज़ दो-धार िलवार की िरह इस्िेमाल ककया गया।
पचास का दशक हहंद कफममों का स्वणम यग
ु है । इसका सिसे िडा कारण है - कफममों और
किममकारों की सामाक्जक प्रतििद्धिा। सामाक्जक समस्याओं के प्रति एक ईमानदार संवेदनशीलिा
और उन समस्याओं का समाधान िलाशने की एक ललक क्जसे वे दशमकों में जागरूकिा पैदा कर
हाभसल करना चाहिे थे। उन हदनों कफमम तनमामण का एक मात्र उद्दे श्य व्यावसातयकिा नह ं हुआ
करिा था। सामाक्जक सरोकारों से जुडे सशति कथानक, संदभामनुकूल गीि, कणमवप्रय मधुर संगीि
और एक संदेशात्मक सुखद अंि के साथ कफममें लोगों को आकवषमि करिी थीं। तनमामिाओं की
दृक्ष्ट केवल आधथमक लाभ पर ह न होकर समाज के भलए स्वस्थ मनोरं जन जुटाने की ओर भी
हुआ करिी थी। व्यावसातयकिा और ववनोदात्मकिा के संग-संग संदेशात्मकिा और रूहढयों से
मुक्ति की आकांक्षा भी किममकारों की सोच का हहस्सा हुआ करिी थी। ऐसे किममकारों में सोहराि
मोद , पथ्
ृ वीराज कपूर, वी शांिाराम, कमाल अमरोह , गुरुदत्त, ववमलराय, महिूि खान, तनतिन िोस,
िाराचंद िडजात्या, िी आर चोपडा, चेिन आनंद, दे व आनंद, ववजय आनंद, मनोज कुमार आिे हैं।
आज के दौर में गोववंद तनहलानी, श्याम िेनेगल, अनुराग कश्यप, आशुिोष गावर कर, यश चोपडा,
प्रकाश झा आहद नाम उद्दे श्यमूलक सामाक्जक सरोकारों की लोकवप्रय कफममों के तनमामण के भलए
पहचाने जािे हैं। यहद भारिीय भसनेमा की समग्रिा में िाि की जाए, िो िंगाल में सत्यक्जि राय
और ऋक्त्वक घटक ने पचास के दौर में भारिीय समाज के वंधचि जनसमूहों के जीवन और उनकी
आकांक्षाओं पर कफममें िनाकर अंिरामष्र य ख्याति अक्जमि की। इस दशक में आने से ठीक पहले
1946 में चेिन आनंद ने 'नीचा नगर' कामगारों और माभलकों के संघषम को प्रभावशाल ढं ग से
प्रस्िुि ककया था। कॉन (फ्रांस) जैसे महत्त्वपूणम कफमम समारोह में इस कफमम को पुरस्कार भी भमला
था। ख्वाजा अहमद अधिास की 'धरिी के लाल' में सामाक्जक यथाथम का अभूिपूवम धचत्रण हुआ था।

भारिीय ककसान जीवन की त्रासद को ववमल राय ने 1953 में 'दो िीघा ज़मीन' कफमम में क्जस
यथाथम के साथ प्रस्िुि ककया वह ममांिक है । पूँज
ू ीपतियों के द्वारा गर ि ककसानों की ज़मीन को
िडे िडे उद्योगों के भलए हडप लेने के षडयंत्र की दारुण और अमानवीय कथा कहिी है यह कफमम।
आज के स्पेशल इकनॉभमक ज़ोन के भलए सरकार की पूंजीवाद नीतियों का प्रारम्भ उसी युग में
हो चुका था क्जसका िेिाकी से पदामफाश ववमल राय ने ककया। 'िलराज साहनी' ने इस कफमम में
शंभू नाम के गर ि ककसान की मममस्पशी भूभमका तनभाई थी, जो अपनी दो िीघा ज़मीन को
जमींदार के चंगुल से छुडाने के भलए मेहनि मजदरू करने कलकत्ता पहुूँच जािा है । लेककन उसका
हर प्रयास ववफल होिा है और अंि में वह अपनी ज़मीन से िेदखल हो जािा है। वह अपनी ज़मीन
पर ककसी िडे कारखाने को िनािे हुए दे खकर कह ं दरू चला जािा है ।
वी शांिाराम हहंद भसनेमा को सामाक्जक सरोकार से सीधे जोडने वाले एक सशति किममकार थे
क्जन्होंने प्रभाि और राजकमल कफमम तनमामण संस्थाओं के माध्यम से एक से एक िेजोड समाज
सध
ु ार की मराठी और हहंद में कलात्मक कफममें िनाईं और भारिीय भसनेमा को एक साथमक हदशा
प्रदान की। सामाक्जक रूहढयों के ववरुद्ध नए यग
ु का आह्वान करने वाल उनकी कफममों में 'दतु नया
न माने'(1937) उमलेखनीय है। िेमेल वववाह की समस्या पर आधाररि 'दतु नया न माने' स्त्रीत्व की
गररमा को िेहद खि
ू सरू िी से उभारिी है। शांिा आप्टे ने नातयका 'नीरा' की भभू मका को जीवंि कर
हदया। औरि को भोग्या, चरणों की दासी और उपभोतिा- वस्िु मानने वालों को यह कफमम करारा
सिक भसखािी है। आज की इतकीसवीं सद की कफममों में भी यह नार िेजक्स्विा जो शांिाराम
ने 1937 में प्रस्िुि की थी - ढूूँढने से नह ं भमलिी।

इसी िम में उनकी 'दो आूँखें िारह हाथ' भी एक प्रयोगात्मक और संदेशात्मक कफमम थी क्जसमें
पहल िार वे सज़ायाफ्िा मुजररमों के चररत्र में िदलाव लाने के भलए उन्हें िंद कारागारों से िाहर
तनकालकर मुति ग्रामीण पररवेश में खेिीिाडी करवाकर उनमें मानवीय मूमयों के प्रति जागरूकिा
पैदा करिे हैं। शांिाराम गांधीवाद ववचारधारा को व्यवहाररक रूप से भसद्ध करिे हैं क्जसके अनुसार
मनुष्य में तछपी हुई िुराई को खत्म करना चाहहए न कक मनुष्य को ह ।

भारि के िहुि सारे समाज सध


ु ारकों ने अस्पश्ृ यिा के भशकार लोगों के जीवन को िदलने के प्रयास
ककए लेककन यह भी सत्य है कक इनमें से ककसी ने भसनेमा के माध्यम का इस्िेमाल नह ं ककया।
हहंद कफममों के सामाक्जक सरोकार को िलपव
ू क
म दशामने वाल कफममों में अस्पश्ृ यिा की समस्या
को प्रस्िि
ु करने वाल पहल कफमम फ़्ांज ऑस्टे न की सन ् 1936 में तनभममि 'अछूि कन्या' थी जो
गांधी जी के सुधार आंदोलन से प्रेररि थी। यह कफमम प्रिाप (अशोक कुमार) नाम के ब्राह्मण
लडके और कस्िूर (दे ववका रानी) नाम की अछूि लडकी की एक दारुण प्रेम कहानी है । यह एक
दख
ु ांि कफमम है । इस वक्जमि और उपेक्षक्षि ववषय को पहल िार कफमम के माध्यम से लोगों के
िीच लाने के भलए किममकार ने काफी प्रशंसा िटोर ।लेककन वास्िव में 1936 में ऐसे ववषय को
कथानक िनाना िहुि साहस का काम था। फ़्ांज ऑस्टे न जममन मूल का किममकार था इसभलए
शायद उसे यह ववषय तनवषद्ध नह ं लगा होगा ककन्िु ववदे शी होने के िावजूद उसने भारिीय समाज
का िडी गहराई से अध्ययन और अनुभव ककया। 'प्रिाप और कस्िूर ' के िीच का प्रेम वणम भेद से
परे है। परस्पर व्याप्ि वणमभेद को भमटाने के भलए प्रिाप भगवान से पूछिा है कक उसे भी उसने
अछूि तयों नह ं िनाया। उस समय के भलए ऐसी सोच नई थी। इसमे एक ऐसा वववेक है कक भसफम
अछूि होने में कोई दोष नह ं है , समस्या िि उत्पन्न होिी है जि दो जातियों के लोग एक दस
ू रे
से प्रेम करिे हैं। शाद के भलए समाज की अनुमति का अभाव कफमम की एक कहठनाई है , लेककन
सिसे महत्त्वपूणम िो वह है जो सिको याद हदलािी है कक कई ऐसे तनषेध होिे हैं क्जनको िोडना
असंभव है। कफमम में महत्त्वपूणम िाि यह भी है कक तनयमों को िोडने की सज़ा लडकी को भमलिी
है तयोंकक वह नीची जाति की पात्र है। जाति भेद से उत्पन्न सामाक्जक असंिोष और आिोश की
अभभव्यक्ति कफममों द्वारा ह सवमप्रथम समाज के सम्मख
ु उजागर हुई।

सन ् 1959 में इसी समस्या पर ववमल राय ने 'सुजािा' िनाई जो कफर से अछूि लडकी और
ब्राह्मण लडके के प्रेम की कहानी है। 'सुजािा' कथा नातयका (नूिन) एक अछूि लडकी है जो एक
संभ्रांि पररवार में आश्रय लेिी है। यहाूँ उसकी दे खभाल के भलए अलग व्यवस्था की जािी है क्जससे
उसकी पहचान उसी रूप में हो सके। आश्चयम पैदा करने वाला िकम िि सामने आिा है जि 'सुजािा'
के भलए पक्ण्डि कहिा है कक 'अछूिों के शर र से जहर ल हवा तनकलिी है जो आसपास के लोगों
के भलए िहुि खिरनाक है ।' ववमल राय की सजु ािा का पंडडि कोई अतिरं क्जि व्यक्ति नह ं है
िक्मक भारि में सचमुच ऐसे लोग हैं जो आज भी इन िेिुकी िािों पर ववश्वास करिे हैं। 'अधीर'
(सुनील दत्त) उस संभ्रांि पररवार में वववाह के उद्दे श्य से आिा है लेककन वह 'सुजािा' से प्यार
कर िैठिा है। 'सुजािा' के भलए यह संकट है कक वह जाति से 'अस्पश्ृ य' है और उस घर में आधश्रिा।
ककन्िु एक नाटकीय घटनाचि में उस घर की मालककन और सुजािा की अभभभाववका 'चारु' के
दघ
ु ट
म नाग्रस्ि होने पर अछूि 'सुजािा' का ह खून उसके काम आिा है । ववमल राय की यह कफमम
आज़ाद के िाद इस ववषय पर िनाई गई पहल कफमम थी। इसी कफमम में रवीन्द्रनाथ ठाकुर कृि
नाटक 'चांडाभलका' का मंचन ककया जािा है। इस नाटक में 'िुद्ध' अछूि लडकी के हाथों से पानी
लेिे हैं और सभी जातियों की समानिा को व्याख्यातयि करिे हैं। इस कफमम में ववमल राय,
'अछूि-कन्या' के फ़्ांज ऑस्टे न से भी आगे तनकल जािे हैं और वे एक अछूि लडकी (सुजािा) की
ब्राह्मण लडके (अधीर) से शाद को संभव िना दे िे हैं। 'सुजािा' के समय से भारि में िहुि ह
सशति सामाक्जक सरोकार की कफममें िनी हैं और िहुि सारे तनषेध टूटे भी हैं कफर भी अंिजामिीय
और ववधवा वववाह आज भी भारट ए समाज में परू िरह स्वीकृि नह ं हैं।

िी आर चोपडा हहंद कफममों में सामाक्जक सुधार और सामाक्जक चेिना को आधुतनक संदभों में
व्याख्यातयि करने वाले सफलिम तनमामिा तनदे शक हुए हैं। ववधवा वववाह को सामाक्जक मान्यिा
हदलाने के भलए उन्होंने 'एक ह रास्िा' (1958) िनाई। यह एक बत्रकोणात्मक कहानी है । सुनील
दत्त और मीनाकुमार पति-पत्नी हैं जि एक हादसे में सुनील दत्त की मत्ृ यु हो जािी है िो अशोक
कुमार एक भमत्र के रूप में मीना कुमार की दे खभाल करने लगिे हैं। लेककन यह क्स्थति एक
ववधवा स्त्री को िदचलन घोवषि करने के भलए समाज में पयामप्ि थी। िी आर चोपडा ने साहस के
साथ कफमम में ववधवा स्त्री का वववाह (अशोक कुमार के साथ) करवाकर सुधार की एक नई परं परा
को स्थावपि ककया। इसके िाद समाज में ववधवा क्स्त्रयॉ ं के भलए एक नए जीवन को स्वीकार करने
का साहस पैदा होने लगा। िी आर चोपडा एक तनमामिा और तनदे शक के रूप में हमेशा से ह
भारिीय स्त्री जीवन की ववसंगतियों के प्रति संवेदनशील रहे हैं और इसीभलए उनकी कफममें व्या
व्यावसातयक होने के साथ समस्यामल
ू क भी िन पडी हैं।

सन ् 1959 में ह अवववाहहि माित्ृ व की समस्या से जूझने वाल क्स्त्रयों के जीवन के बिखराव
और उसकी पररणति को दशामने वाल सशति कफमम 'धूल का फूल' िी आर चोपडा के ह तनदे शन
में आई। अवववाहहि माित्ृ व के पररणामस्वरूप जन्म लेनी वाल संिान अवैध घोवषि की जािी है
और उसका जीवन नारकीय हो जािा है । यह एक िहुि ह संवेदनशील ववषय है क्जसे कफमम द्वारा
समाज के सम्मुख लाने का साहस िी आर चोपडा ने ककया है । ये कफममें समाज को ऐसी ववषम
क्स्थतियों से िचने के भलए आगाह करिी हैं और उन क्स्थतियों के पयमवसान को िेिाकी से प्रस्िुि
कर क्स्त्रयॉ ं के पक्ष में समाज को खडे होने का साहस प्रदान करिी हैं। िी आर चोपडा अपनी एक
और कफमम 'इंसाफ का िराजू'(1959) िलात्काररि पीडडिा को न्याय हदलािे हैं। िलात्काररि स्त्री
पीडडिा के रूप में समाज के सम्मुख आने से आज भी डरिी है इस ववषय पर िहुि कम कफममें
िनी हैं इसभलए इसे एक नई साहसपूणम प्रस्िुति के रूप में स्वीकार ककया गया। हहंद कफममें प्रारम्भ
से मूलि: स्त्री प्रधान ह रह ं हैं। हहंद किममकारों ने भारिीय स्त्री के सभी रूपों को कफममों में
प्रस्िुि ककया है। घरे लू स्त्री, कामकाजी स्त्री, ककसान स्त्री, वववाहहि और अवववाहहि स्त्री आहद।
जुझारू स्त्री, संघषमशील स्त्री और अन्याय - अत्याचार से लडने वाल स्त्री आहद रूप हहंद कफममों
में प्रमुख रूप से आिे रहे हैं। राजकपूर द्वारा तनभममि 'प्रेमरोग' (1982) में आभभजात्य पररवार की
ववधवा युविी 'मनोरमा'(पद्भमनी कोमहापुर ) का वववाह सामान्य वगम के युवक 'दे वधर' (ऋवषकपूर)
से करवाकर वगम वैषम्य को भमटाने की पहल की है की गई है। इस कफमम में एक ओर वगम-संघषम
है िो दस
ू र ओर आभभजात्य पररवारों में प्रच्छन्न रूप से प्रचभलि स्त्री शोषण का तघनौना रूप भी
अनावत्त
ृ हुआ है। ये कफममें उपदे शात्मक और संदेशात्मक कफममें हैं। इसी श्रेणी में आर के कफमम्स
के िैनर िले िनी कफमम 'प्रेमग्रन्थ' भी आिी है जो कक िलात्काररि स्त्री के उत्पीडन और िद्जतनि
पररणामों को दशामिी है। इस कफमम के माध्यम से ऐसी लांतछि क्स्त्रयों को समाज में स्वीकार
करने की पहल की गयी है। ऐसी ह कफमम है

'लज्जा' क्जसमे िीन ववभभन्न पररवेशों की िीन शोवषि स्त्री पात्रों के दारुण शोषण और मुक्ति के
संघषम को दशामया गया है।

चधचमि सामाक्जक आलोचक 'प्रकाश झा' ने 1985 में 'दामुल' िनाई क्जसमें अमीर लोगों द्वारा
गर िों का शोषण हदखाया गया है। इसके पश्चाि 'मत्ृ युदंड' में उन्होने ग्रामीण वािावरण में स्त्री के
ु तम ि के प्रयासों के ववरुद्ध क्स्त्रयॉ ं
यौन शोषण और कममकाण्डी धाभममक व्यवस्था द्वारा स्त्री कक दग
के संघषम को दशामया गया है।
हहंद कफममों में तनमामिा-तनदे शक के रूप में राजकपरू का प्रवेश एक नए यग
ु को जन्म दे िा है।
आम आदमी का संघषम, महानगर य जीवन की ववसंगतियाूँ और नेहरू युग के मोह भंग को कलात्मक
और मनोरं जक रूप में प्रस्िुि करने वाले वे महान किममकार थे। उनकी कफममों का नायक सदै व
आम आदमी रहा है।

'िरसाि, जागिे रहो, आह, आवारा, श्री 420, िूट पोभलश, क्जस दे श में गंगा िहिी है , आभशक, मेरा
नाम जोकर, िॉिी, धमम करम, कल आज और कल, हहना, राम िेर गंगा मैल और आ अि लौट
चलें' आहद सभी कफममें उद्दे श्यमूलक और संदेशात्मक रह ं हैं।

महिि
ू खान द्वारा तनदे भशि कफमम 'मदर इंडडया' भारिीय ककसान नार के संघषम और त्रासद की
महागाथा है। यह नेहरू युग के नवतनमामण के सपने को साकार करने का उत्सव है िो दस
ू र ओर
ग्रामीण महाजनी सभ्यिा की िूरिा और अत्याचार से लडिी हुई नार की माभममक कहानी भी है ।
जमींदार अन्याय से लडिे लडिे गांवों में डाकुओं की जमाि भी िैयार होिी है । ग्रामीण सामंिी
अत्याचार से उत्पन्न डाकू समस्या को उजागर करने वाल कफममों में 'मझ
ु े जीने दो' (सन
ु ील दत्त-
वह दा रहमान), गंगा जमुना (हदल प कुमार- वैजयंिी माला), शेखर कपूर की िैंडडट तवीन (सीमा
बिस्वास), क्जस दे श में गंगा िहिी है (राजकपूर-पद्भमनी-प्राण) प्रमुख हैं। नेहरू जी के आज़ाद भारि
का जि मोह भंग हुआ िो एकाएक अनेक िरह की सामाक्जक और आधथमक ववसंगतियाूँ सामने
आईं। जाति-भेद और दभलि जीवन की ववषमिाओं और ववडंिनाओं से आज़ाद भारि मुति नह ं
हो सका इसी कारण इन क्स्थतियों के प्रति आिोश कफममकारों ने कफमम माध्यम में इन्हें हदखाया
और इनके समाधान के उपायों को िलाशने के भलए दशमकों को प्रेररि ककया।

कफमम एक अनुकरणीय माध्यम है । दशमक इसे दे खकर इसमें वणणमि अनेकों संदभों को अपने जीवन
से जोडने का प्रयास करािे हैं। कफमम लोगों के अधूर और अपूणम कामनाओं को कामपतनक रूप से
पूणम होिे दे खने का जररया है । हहंद कफममों में समाज के सभी वगम ककसी न ककसी रूप में धचबत्रि
होिे रहे हैं। उच्च, मध्य और तनम्न वगीय समाजों की समस्याओं, जीवन-शैभलयों, सांस्कृतिक
परम्पराओं को कभी गंभीर िो कभी हमके फुमके हास्य एवं ववनोद के पररवेश में कफममें िनिी रह ं
हैं। इसीभलए इन्हें हहंद का लोकवप्रय भसनेमा कहा जािा है।

हहंद में कफममों की दो प्रमुख धाराएूँ ववकभसि हुई हैं। एक मुख्य धारा की कफममें हैं क्जन्हें
व्यावसातयक (कमभशमयल) अथवा लोकप्रोय भसनेमा कहा जािा है क्जनका महत्त्व व्यापाररक दृक्ष्टकोण
से अधधक होिा है । इन कफममों का तनमामण िहुि िडी संख्या में होिा है और ये लोगों का भरपूर
मनोरं जन भी करिी हैं। इन कफममों का प्राण ित्व गीि और संगीि होिे हैं। इनमें हमकी-फुमकी
हास्य एवं ववनोदप्रधान कफममों की भरमार है । ये ववनोदपण
ू म कफममें भी अपने साथ कोई संदेश
लेकर आिी हैं। इस श्रेणी में िासु चटजी, िासु भट्टाचायम, अमोल पालेकर की कफममें लोकवप्रय रह ं
हैं। पाररवाररक मनमट
ु ावों का समाधान खोजने वाल और स्त्री-परु
ु ष संिंधों की व्याख्या करने वाल
कफममें इनमें प्रमुख हैं। 'आनंद, िावची, चप
ु के- चप
ु के, वपया का घर, अभभमान, नमक हराम, गोलमाल,
रजनी गंधा, छोट सी िाि’ आहद आिी हैं। 'िाराचंद िडजात्या' ने राजश्री वपतचसम के िैनर िले
अनेक घरे लू - पाररवाररक प्रसंगों पर आधाररि िहुि संद ु र ववनोदपण ू म उद्दे श्यप्रधान कफममें िनाईं
जो संदेशात्मक और सुधारवाद दोनों दृक्ष्टयों से महत्त्वपूणम हैं। 'आरिी, नहदया के पार, गीि गािा
चल, दोस्िी, दम
ु हन वह जो वपया मन भाए, धचिचोर, मैं िुलसी िेरे आूँगन की’ आहद कफममें
पाररवाररक मूमयों को िल प्रदान करने वाल कफममें हैं। इसी परं परा को आगे िढािे हुए सूरज
िडजात्या ने 'मैंने प्यार ककया, हम आपके हैं कौन, वववाह, मैं प्रेम की द वानी हूूँ’, आहद कफममों का
तनमामण ककया। ये कफममें पूर िरह पाररवाररक मनोरं जन से भरपूर ककन्िु भारिीय सांस्कृतिक
परम्पराओं की पक्षधर कफममें हैं।

हृवषकेश मुखजी एक ऐसे तनदे शक रहे जो प्रेम के मांसल रूप की जगह उसके मानवीय पक्ष को
लेकर आए।

प्रयोगधमी तनदे शक हृवषकेश ने हहंद कफममों की मख्


ु य धारा के साथ िाल-मेल रखिे हुए ह अपने
नि ू न प्रयोग करिे रहे । आज से 40-45 साल पहले उन्होंने वे ववषय उठाए, क्जस पर आज कफमम
और धारावाहहक िनाना फैशन-सा हो गया है लेककन उसमें समस्या में मल
ू में जाकर उसके कारण
और तनवारण की िाि नह ं रहिी। िलराज साहनी, ल ला नायडू को लेकर 1960 में िनाई गई
कफमम 'अनुराधा' एक ऐसे व्यस्ि डॉतटर पति की कहानी है , क्जसके पास अपनी गातयका पत्नी के
भलए वति नह ं है और इस कारण उसकी हिाशा अवसाद के उस स्िर पर जा पहुूँचिी है , जहां वह
अपने पुराने प्रेमी के प्रति पुन: आकषमण का भशकार हो जािी है । भूमंडल करण और पाश्चात्य जीवन
शैल के अनुकरण के कारण आज के युवाओं की व्यस्ििा और उस व्यस्ििा से जीवन में उपजे
संत्रास, घुटन और कालांिर में आए खोखलेपन की आज जो क्स्थति है , उसे हृवषकेश मुखजी ने
चाल स साल पहले ह उस ववषय पर अपना दृक्ष्टकोण भसद्ध कर हदया था। उनकी कफममों में
ववषयों की नवीनिा िो रह , मगर ये सारे ववषय मानव जीवन की रोज़मराम की समस्याओं से जुडे
रहे । निीजिन कफमम दे खिे समय हरे क को यह आभास होिा कक यह िो उसकी अपनी ह कहानी
है। उनकी 'आनंद, भमल , गुड्डी, खूिसूरि, अभभमान' आहद कफममें यह अहसास करािी हैं।
उपरोति मुख्य धारा कफममों के अतिररति भारिीय कफममों की एक सशति धारा समांिर भसनेमा
अथवा कला भसनेमा के रूप में भी ववकभसि हुई। जो कम िजट की, बिना चमक दमक की, िहुि
ह सपाट कथ्य को भलए हुए ककसी एक ववशेष सामाक्जक उद्दे श्य की पूतिम के भलए िनाई जािी
रह ं हैं। इस धारा के तनमामिा और तनदे शक कफमम तनमामण की नई सोच के साथ कफममी दतु नया
में आए। श्याम िेनेगल, गोववंद तनहलानी, ऋिप
ु णों घोष, द पा मेहिा, अनरु ाग कश्यप आहद इस
श्रेणी में आिे हैं। इन किममकारों की प्रतििद्धिा और सामाक्जक दातयत्व इनके कफममों में स्पष्ट
रूप से उजागर हुई हैं।

िहुचधचमि तनदे शक श्याम िेनेगल ने क्जन्हें कई राष्र य पुरस्कार भी भमल चुके हैं, अपनी पहल
कफमम 1974 'अंकुर' नाम से िनाई। यह कफमम भी अछूि औरि और ब्राह्मण आदमी के ररश्िे की
कहानी है। इसके िाद, भुवन शोम, मग
ृ या, भूभमका, मंडी आहद कफममों में श्याम िेनेगल ने हाभशये
पर के समाज के उपेक्षक्षि जीवन को प्रस्िुि ककया है । अस्सी के दशक से कला कफममों ने मुख्यधारा
कफममों के समानान्िर अपनी एक ठोस जगह िनाई है। इसी श्रेणी में ववभाजन की त्रासद पर भी
कुछ िहुि श्रेष्ठ कफममें िनी हैं जो की ववभाजन के ददम को िाज़ा कर जािी हैं। प्रकाश द्वववेद
द्वारा तनभममि - 'वपंजर', खुशवंि भसंह द्वारा रधचि पुस्िक पर आधाररि 'रे न टु पाककस्िान', 1947
अथम, िमस (टे ल कफमम) आहद महत्वपूणम हैं। कन्या भ्रूण हत्या पर आधाररि 'मािभ
ृ ूभम' िहुि ह
माभममक कफमम है। इसके अतिररति गुजराि के दं गों पर आधाररि 'परजातनया', 1984 के भसख
दं गों पर आधाररि 'अम्मू' आहद कफममें लघु -कफममों की श्रेणी में आकार भी िहुि ह प्रभावशाल
कफममें हैं जो दे शवाभसयों को इन समस्याओं के प्रति संवेदनशील िनािी हैं और इन ववषयों पर
सोचने के भलए मजिूर करिी हैं।

हहंद कफममों में पाररवाररक मूमयों और संिंधों को सुदृढ रखने की परं परा को प्रोत्साहहि करने वाले
कथानकों पर आधाररि कफममों की एक सुद घम शंख
ृ ला दक्षक्षण भारिीय कफममी संस्कृति की दे न
रह है। मध्यवगीय पाररवाररक जीवन के सुख-दख
ु ों का धचत्रण दक्षक्षण भारिीय हहंद कफममों की
ववशेषिा रह है। सक्म्मभलि पररवार परं परा िथा दाम्पत्य संिंधों की जहटलिा को सुलझाकर एक
स्वस्थ सामाक्जक जीवन की ओर इंधगि करने वाल ये कफममें रह ं हैं। ए वी एम, जेभमनी और
प्रसाद स्टुडडयो द्वारा तनभममि लोकवप्रय पाररवाररक कफममों में 'घराना, भाभी, िेटे-िेट , मैं चुप रहूूँगी,
ससुराल’ महत्वपूणम हैं। नधिे के दशक में मणणरत्नम, िालचंदर और के ववश्वनाथ के तनदे शन में
तनभममि 'िॉम्िे, और रोजा' आिंकवाद और सांप्रदातयक वैमनस्य के दष्ु पररणामों को रे खांककि करने
वाल कफममें आईं क्जन्हें अंिरामष्र य ख्याति प्राि हुई।
हहंद कफममें हर युग में िदलिे पररक्स्थतियों के साथ भारिीय समाज के हर रूप और रं ग को
ककसी न ककसी रूप में प्रस्िि
ु करने में सफल हुई हैं। आज का दौर कफममों का ह दौर है । कफममें
ह मख्
ु य मनोरं जन और ज्ञान-ववज्ञान को संवद्
ृ ध करने काकारगर साधन है । कफमम प्रस्िि ु ीकरण
की शैल में िदलाव अवश्य हदखाई दे िा है ककन्िु इसके केंद्र में व्यक्ति और समाज के अंिसंिंध
ह रहे हैं। तनक्श्चि रूप से कफममें समाज को एक नई सोच दे सकिी हैं।

You might also like