Professional Documents
Culture Documents
Art and Culture
Art and Culture
in
2019
Copyright © by Vision IAS
All rights are reserved. No part of this document may be reproduced, stored in a retrieval system or
transmitted in any form or by any means, electronic, mechanical, photocopying, recording or otherwise,
without prior permission of Vision IAS.
DEEPAK PHOTOSTAT 9310521834
तवषय सूची
1. पररचय ____________________________________________________________________________________ 3
1. पररचय
कला मानवीय भावनाओं की सहज ऄतभव्यति है। कला का ईद्द्गम मानव की सौंदयय भावना का
पररचायक है। कला का ऄर्य है ‘अनंद प्रदान’ करना। ऄतभनवगुप्त ने कला को ‘कलागति वाद्याददका’
कहा है, तजससे स्पष्ट होिा है दक कला शब्द का प्रयोग लतलि कला हेिु दकया जािा है। कला मुख्यिः दो
प्रकार की मानी जािी है। ‘ईपयोगी कला’ और ‘लतलि कला’। वह कला जो हमारी दैनंददन की
अवश्यकिाओं की पूर्ति करिी है, ‘ईपयोगी कला’ कहलािी है। वह कला तजससे सौंदयय की ऄनुभूति
िर्ा अनंद की प्रातप्त होिी है, ईसे ‘लतलि कला’ (fine art) कहा जािा है। लतलि कला, फ्रेंच भाषा के
शब्द ‘ब्यूऑक्स अर्टसय’ का ऄनुवाद है, तजसका ऄर्य ईन कलाओं से है तजनका सम्बन्ध के वल सौन्दयय से
हो। कलातवदों ने लतलि कलाओं का तवभाजन कु छ तवतशष्ट कलाओं के अधार पर दकया है, जो
तनम्नतलतखि हैं-
वास्िुकला ऄर्वा स्र्ापत्य कला- आस कला के ऄंिगयि भवन, मंददर, स्िूप, गुफा, मतस्जद, मकबरा,
चचय अदद का तनमायण दकया जािा है।
o भारिीय वास्िुकला को तनम्नानुसार वगीकृ ि दकया जा सकिा है:
मूर्तिकला- आस कला के ऄंिगयि दकसी वास्िु का रूप, रं ग एवं अकार अदद तनर्तमि दकया जािा है।
कला है। पत्र्र, धािु, तमट्टी, काष्ठ अदद आसके माध्यम के रूप में प्रयुि होिे हैं।
तचिकला- आस कला में रूप, रं ग, अकार िर्ा लम्बाइ एवं चौड़ाइ होिी है। यह मनोभावों को स्पष्ट
करने में समर्य होिी है। तचिकला में तनम्नतलतखि ित्त्व ऄत्यंि महत्वपूणय होिे हैं, तजन्हें तचिकला
o रूपभेद
o प्रमाण
o भाव
o लावण्य
o सादृश्य
o वर्तणका भंग
तचिकला के तनम्नतलतखि रूप दृतष्टगोचर होिे हैं
तभति तचि
तचिपट
तचिफलक
लघु-तचिकारी
संगीि कला- आस कला का अधार ‘स्वर’ है। स्वर का मूल ‘नाद’ या ‘ध्वतन’ है। स्वरों की स्वच्छंद
गति को छंद में बांधकर आसके ईिार चढ़ाव से ‘लय’ ईत्पन्न दकया जािा है। ईसी संगीि को
सवोिम माना गया है तजसको सुनने के बाद मंिमुग्ध श्रोिा अंिररक संगीिमय व अतत्मक शातन्ि
को प्राप्त करिा है। आसी अतत्मक शातन्ि की प्रातप्त ही संगीि की सार्यकिा का प्रमाण होिी है।
‘संगीि रत्नाकर’ ग्रन्र् में ईल्लेख दकया गया है दक गीि, वाद्य और नृत्य आन िीनों कलाओं का समूह
ही संगीि है।
काव्य कला- यह कला ‘शब्द’ एवं ‘ऄर्य’ पर अधाररि होिी है, तजसमें स्वर एवं व्यंजन दोनों ही
प्रयुि होिे हैं। काव्य के पांच प्रमुख तसद्ांि होिे हैं-
o गुण
o रीति
o ऄलंकार
o वक्रोति
o औतचत्य
2. ऄध्याय तववरण
प्रर्म ऄध्याय
आस ऄध्याय में ‘तसन्धु घाटी सभ्यिा’ िर्ा ‘मौयय काल’ की वास्िुकला, मूर्तिकला, मनकों, मुहरों
और मृद्ांडों का ऄध्ययन दकया जाएगा।
तििीय ऄध्याय
आस ऄध्याय में ‘मौयोिर काल’ िर्ा ‘गुप्त काल’ की कलाओं का ऄध्ययन दकया जाएगा। मौयोिर
काल में तवशेष रूप से गुहा (गुफ़ा) स्र्ापत्य, स्िूप स्र्ापत्य िर्ा मूर्तिकला का ऄध्ययन दकया
जाएगा।
गुप्त काल के ऄंिगयि मुख्य रूप से गुहा वास्िु कला, मूर्तिकला िर्ा मंददर वास्िुकला और ईनकी
तवतभन्न शैतलयों का ऄध्ययन दकया जाएगा।
िृिीय ऄध्याय
आस ऄध्याय में दतिण भारि में मंददर वास्िुकला, द्रतवड़ मंददरों की ईपशैतलयों, मध्यकालीन
भारि में वास्िुकला िर्ा अधुतनक काल की वास्िुकला का ऄध्ययन दकया जाएगा। मध्यकालीन
भारि में वास्िुकला के ऄंिगयि सल्िनि कालीन वास्िुकला, प्रांिीय राज्यों की वास्िुकला शैतलयों
िर्ा मुग़ल वास्िुकला का ऄध्ययन दकया जाएगा।
चिुर्य ऄध्याय
आस ऄध्याय में ‘भारिीय तचिकला’ का ऄध्ययन दकया जाएगा। आसके ऄंिगयि भारिीय तचिकला
के षडाङ्ग, भारिीय तशला तचिकला, तभति तचि, लघु तचिकारी, मुगल तचिकला, तचिकला की
िेिीय शैतलयााँ, ऄलंकृि कला या लोक तचिकला िर्ा अधुतनक तचिकला का ऄध्ययन दकया
जाएगा।
पंचम ऄध्याय
आस ऄध्याय में ‘भारिीय शास्त्रीय नृत्य’ िर्ा ‘लोक एवं अददवासी नृत्य’ का ऄध्ययन दकया
जाएगा। भारिीय शास्त्रीय नृत्य के ऄंिगयि तवशेष रूप से भारिनाट्यम, कु चीपुड़ी, कर्कली,
ज्योतिष एवं खगोल तवद्या, भौतिक िर्ा रसायन तवज्ञान और तचदकत्सा शास्त्र का ऄध्ययन दकया
जाएगा। सार् ही तवतभन्न कालों की प्रौद्योतगकी और भारि के महान वैज्ञातनकों का भी ऄध्ययन
दकया जाएगा।
ऄष्टम ऄध्याय
आस ऄध्याय में भारि के तवतभन्न धमों और भारिीय दशयन के छः सम्प्रदायों (षर्टदशयन) का ऄध्ययन
दकया जाएगा।
नवम ऄध्याय
आस ऄध्याय में लोक संस्कृ ति के तवतभन्न पहलुओं का ऄध्ययन दकया जाएगा।
दशम ऄध्याय
एकादश ऄध्याय
VISIONIAS
www.visionias.in
तवषय सूची
1.1. भीमबेटका की गुफाएं, मध्य प्रदेश _______________________________________________________________ 5
1.6. चौरी/चंवर वाहक (CHAURI BEARER), मौयय काल, पटना, तबहार _______________________________________ 8
1.15. मंकदर क्रमांक 17, गुप्त काल, सांची, मध्य प्रदेश ____________________________________________________ 13
1.54. कक्ष, ईतकीणय स्तंभ एवं संगमरमर की छत, तवमल वसाही मंकदर, माउंट अबू, राजस्थान________________________ 32
1.67. जाली का कायय, अंतररक दृश्य, सीदी सैय्यब मतस्जद, ऄहमदाबाद, गुजरात ________________________________ 38
हमारी सांस्कृ ततक तवरासत की कहानी लगभग 10,000 वषय पुरानी है। सवायतधक प्राचीन
ऐततहातसक काल को पूव-य ऐततहातसक काल ऄथवा पाषाण युग के नाम से जाना जाता है। आस काल
में लोगों ने ऄतत जल-वृति अकद प्राकृ ततक तवपदाओं से बचाव के तलए गुफाओं में अश्रय तलया था।
वे तशकार और फल-फू ल एकतत्रत कर जीवन यापन करते थे। ईन्होंने पतथरों, लकड़ी तथा हतियों से
साधारण औजार भी बना तलए थे।
यह गुफाएं भोपाल शहर के दतक्षणी कदशा में वहां से कोइ पचास ककलोमीटर दूर भीमबेटका में
तस्थत है। आन गुफाओं में पतथरों को तराश कर बनाए गए औजार तमले हैं तथा आनकी दीवारें
तशकार, संगीत एवं नृतय अकद के दृश्यों से प्रचुर रूप से तचतत्रत हैं। आन्हीं सब के कारण आन गुफाओं
को, आनमें रह चुके लोगों के दैतनक जीवन की जानकारी देने वाला भंडार गृह माना जाता है।
भीमबेटका की प्राकृ ततक पहाड़ी गुफाओं में तजन लोगों ने अश्रय तलया था, ईन्होंने गुफाओं की
दीवारों की तभतितचत्रों से सजाया। आन तभतितचत्रों में आस्तेमाल ककए गए रं ग आस क्षे त्र में तमलने
वाले खतनज पदाथों एवं पतथरों से प्राप्त ककए गए थे।
ये तभतितचत्र हमें आस बात की जानकारी प्रदान करते हैं कक गुफा-तनवासी ककस प्रकार के औजार
ईपयोग में लाते थे और ककस प्रकार तशकार करते थे। यह भी एक अिययजनक बात है कक लगभग
10,000 वषय पूवय मानव ने ऐसे सुन्दर तचत्रों की रचना की जो ईनके दैतनक जीवन के तवतभन्न पक्षों
को दशायते हैं।
करीब 5000 वषय पूव,य तसन्धु नदी के ककनारे एक महतवपूणय सभ्यता तवकतसत हुइ थी। बाद में की
गइ खुदाइ से आस तथ्य का भी पता चलता है कक आस सभ्यता से सम्बतन्धत ईिर प्रदेश, राजस्थान,
गुजरात तथा महाराष्ट्र के कइ स्थलों में भी आसी प्रकार की नगर-योजना तवद्यमान थी। मानवीय
सभ्यता के प्रारं तभक काल में आस प्रकार के सुतनयोतजत नगरों की रचना ससधु सभ्यता की एक
दुलभ
य तवशेषता है। नगर-योजना में मुख्य मागों के साथ ईप-मागय जुड़े थे एवं अवासीय क्षेत्र ऄलग
थे। सभी मकान, यहां तक कक दो मंतजल उंचे मकान भी, ईंट से बनाए जाते थे।
सभ्यता के स्थानों पर की गइ खुदाइ के दौरान 2000 से भी ज्यादा मुहरें प्राप्त हुइ हैं। यह मुहरें
चौरस और अयताकार हैं। आन्हें नमय पतथर से बनाया गया है तथा आन पर तचत्र तथा तलतप ईतकीणय
हैं। ईतकीणय तचत्रों में सांड, बकरा, भैंस, शेर तथा हाथी अकद पशुओं के तचत्र हैं एवं लेखों में दस से
बीस प्रतीक हैं। ये मुहरें , वतयमान में व्यवहार में लाइ जाने वाली मुहरों जैसी ही हैं तथा नमय तमट्टी
की पट्टी पर दबा कर ऄंककत की जाती थीं। आन्हें संभवतः व्यापाररक कायों तथा संपति पर
स्वातमतव दशायने हेतु आस्तेमाल ककया जाता होगा। प्रस्तुत तचत्र में एक श्रृंगी पौरातणक पशु को देखा
जा सकता हैं। संभवतः यह ककसी व्यापाररक घराने का व्यापाररक प्रतीक रहा होगा।
1.5. नृ तयां ग ना, कां स्य प्रततमा, ससधु सभ्यता, मोहनजोदड़ो, पाककस्तान
हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो में की गइ खुदाइ से प्राप्त वस्तुओं से यहां के तनवातसयों की कलातमक
प्रततभा का भी पता चलता है। ईनकी महतवपूणय ईपलतधधयों में ईतकीणय मुहरें तथा मानव-
अकृ ततयां हैं। आनमें सवायतधक महतवपूणय नृतयांगना की प्रततमा है। आस कांस्य प्रततमा को नृतयांगना
नाम आसतलए कदया गया है क्योंकक ईसके खड़े होने की मुद्रा भव्य है। ईसने एक हाथ में चूतड़यााँ
पहन रखी हैं तथा दूसरे में एक कटोरा है। यह तथ्य ऄतयंत महतवपूणय है कक हजारों वषय पहले के
कलाकार धातु-तवज्ञान से पररतचत थे और धातु को ढाल कर कलातमक वस्तुएं बना सकते थे।
सम्राट ऄशोक ने ऄपने पूरे राज्य में बहुत से “स्तंभ' तनर्तमत करवाए थे। प्रतयेक स्तंभ के उपर
बौद्धमत का एक प्रतीक है तथा ईन पर सम्राट ऄशोक के तनयम एवं कानून तलतपबद्ध हैं ताकक लोग
ईन्हें जान सके । सम्राट ऄशोक का यह ससह प्रतीक ईिर प्रदेश तस्थत सारनाथ में पाया गया और
आसे भारतीय गणतंत्र के प्रतीक तचन्ह के रूप में चुना गया।
आस ससह प्रतीक को सभी भारतीय तसक्कों, रुपयों, सरकारी मुहरों और ऄन्य सरकारी कागजातों पर
पाएंगे। आसमें चार ससह बने हुए हैं जो प्रतीकातमक रूप में हमारे देश की चार कदशाओं ऄथायत्
ईिर, दतक्षण, पूवय और पतिम की रक्षा करते हैं। ससहों के नीचे, बौद्ध प्रतीक-धमयचक्र है जो
धमयपरायणता और प्रगतत का तचन्ह है। आसके नीचे बैल, बल तथा सदाशयता का एवं हाथी, घोड़ा
तहरण, शति, गतत और सुंदरता के प्रतीक रूप हैं।
प्राचीन काल में तनर्तमत बौद्ध स्तूपों तथा धार्तमक स्थलों का पयाययवाची शधद, सांची है। स्तूप एक
ठोस ऄधयवि
ृ ाकार भवन होता है, तजससे भगवान बुद्ध या बौद्ध संतों और ऄध्यापकों के भौततक
ऄवशेष रखे जाते हैं।
बौद्ध मत में स्तूप भगवान बुद्ध का प्रतीक भी माना जाता है। आसके तीन घेरे (रे सलग) होते हैं। भूतम
पर तस्थर घेरा पृथ्वी का प्रतीक माना जाता है, मेतध घेरा ऄंतररक्ष का तथा हर्तमका स्वगय का। यहां
दृतिगत हो रहे सांची के स्तूप क्रमांक-3 में एक ही छत्रावली है। गुंबद को पुनः बनाया गया था।
आसमें भगवान बुद्ध की प्रारं तभक तशष्यों-सररपुतासा और महमोगलनासा के ऄवशेष हैं।
ऄन्यों से सम्बद्ध स्तूप संख्या-3 के भू-स्तंभ ईस समय के जीवन की दृश्यावली तचतत्रत करता है,
तजसकी सहायता से ततकालीन जीवन-शैली का ऄध्ययन ककया जा सकता है। सााँची से सम्बद्ध कु छ
मूर्ततयााँ संग्रहालय में संरतक्षत हैं।
1.15. मं कदर क्रमां क 17, गु प्त काल, सां ची, मध्य प्रदे श
भारत में मंकदरों के तवकास के आततहास में गुप्तकाल का महतवपूणय स्थान है। सांची में तजस मंकदर के
भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं वह गुप्त काल में तनर्तमत प्रारं तभक मंकदर है। यह पतथर का बना हुअ है। आस
का गभय गृह छोटे अकार का है तथा ईस में देव मूर्तत स्थातपत थी। आसका एक प्रांगण भी था तजसमें
ऄतयलंकृत स्तंभ थे। आसमें सुद ं रतापूवयक बने स्तंभों के साथ एक द्वारमण्डप भी था। ध्यान देने पर
देखा जा सकता है कक मंकदर की छत सपाट है। धीरे -धीरे , समय के साथ-साथ यह छत शानदार
रूप से बने तशल्पयुि तशखर में तवकतसत हुइ। आसी प्रकार के तशखरों को हम बाद में तनर्तमत मंकदरों
में देख सकते हैं। दतक्षण भारतीय मंकदरों में प्रचुर रूप में ततक्षत “गोपुरम" या प्रवेशद्वार एवं तशखर
होते हैं।
मान्यता है कक यकद कोइ स्तंभ के अस-पास ऄपनी बांहें डालकर (ऄपनी पीठ स्तंभ की ओर करके )
कु छ मांगता है तो ईसकी गुप्त आच्छा पूरी हो जाती है।
ऄजंता, मठों और गुफा मंकदरों में तनर्तमत मूर्ततकला एवं तचत्रकला के तलए प्रतसद्ध है। वघोरा नदी
पर घोड़े की नाल की अकार की चट्टानों को तराश कर 30 गुफाएं बनाइ गइ हैं, तजनमें सुन्दर
मूर्ततयां एवं तभतितचत्र हैं।
गुप्तवंश से वैवातहक संबंध रखने वाले वाकाटक शासकों के शासन काल में आन गुफा एवं मठों का
तनमायण हुअ था। वाकाटक शासक हररसेन के मंत्री और सामंतों के पुत्रों ने संघ की प्रचुर रूप से
अर्तथक तथा ऄन्य रूपों में मदद की थी।
ऄथय भी तलया जाता है। कु छ तवद्वानों का यह भी मत है कक यद्यतप मूर्तत में तीन मुख ही हैं पर
मूर्ततकार चौथा यहां तक कक पांचवां मुख भी बना सकते थे।
पल्लवों का बंदरगाह नगर महाबतलपुरम चैन्नइ से 55 ककलोमीटर दूर दतक्षण में तस्थत है तथा छठीं
एवं सातवीं शताधदी में एकाश्म चट्टानों को तराश कर बनाइ गइ कलाकृ ततयों और मंकदरों के तलए
प्रतसद्ध है। पल्लवों ने दतक्षण भारत ने ऄपने शासनकाल के दौरान ऄपने पूरे साम्राज्य में बड़ी संख्या
में मंकदर बनवाए। ईनके काल के पूवायद्धय में मुख्यतः तराश कर और ईिराद्धय में तनर्तमत भवनों को
बनवाया गया।
महाबतलपुरम में
ऄनेक एकाश्म
स्मारक हैं। ईनमें
समुद्र तट के
तनकट के
धमयराज रथ,
भीम रथ, ऄजुयन
रथ, द्रौपदी रथ
और नकु ल-
सहदेव रथ,
तजन्हें पंच पांडव
रथ कहा जाता
है, भी शातमल
हैं। संभवत: आनका मामला प्रथम के शासनकाल में ईतकीणयन हुअ। आन मंकदरों में बहुमंजलीय
भवनों की तनमायण कला तथा तवतभन्न रूपों की छतों को देखा जा सकता है।
वैसे यह एक रोचक तथ्य है कक कु छ भवनों की छत गांवों में थाप कर बनाए गए घरों की छतों के
ऄनुरूप है।
अठवीं शताधदी में राष्ट्रकू टों ने प्रारं तभक पतिमी चालुक्य राजाओं को परातजत कर दक्खन पर
तवजय प्राप्त की थी। वैसे तो यहां
पर ऐसे ऄनेक स्थान हैं जहां
राष्ट्रकू टों की कला को देखा जा
सकता हैं पर मुख्य स्थान है-
एलोरा। यहां ईस काल की भवन
तनमायण कला एवं वास्तुकला की
तवतशिताओं के भव्य समतन्वत
रूप में कृ ष्ण (प्रथम) द्वारा चट्टानों
को काट कर बनवाया गया
कै लाशनाथ मंकदर तस्थत है। अम पररपाटी के तवपरीत आस मंकदर का तनमायण कायय आसकी चोटी से
शुरू ककया गया था। वास्तुकारों ने ऄतयंत सूक्ष्मतापूवयक कायय योजना बनाकर चट्टानों को तराशा
था। आसके गभयगृह के प्रवेशद्वार के दोनों तरफ गंगा तथा यमुना की बड़ी अकृ ततयां थीं। ऄब वे
मस्तकतवहीन हैं।
यह कै लाशनाथ मंकदर ऄपने तडजाआन के कारण ततमलनाडु के कांचीपुरम् के कै लाशनाथ मंकदर
तथा कनायटक के वीरूपाक्ष मंकदर से काफी साम्यता रखता है, पर ईनकी तुलना में आसका अकार
बड़ा है।
सोलंकी राजवंश ने 11वीं शताधदी इस्वीं में सूयय मंकदर का तनमायण करवाया था। यह मंकदर भगवान
सूयय को समर्तपत है तथा
आसी प्रकार के सूयय
मंकदर ओतडशा के
कोणाकय में तथा कश्मीर
के मातयड में भी हैं।
मंकदर के सम्मुख एक
तवशाल तालाब है तथा
जलस्तर तक ढलुवां
सीकढ़यों के द्वारा पहुंचा
जा सकता है। धार्तमक
ऄनुष्ठानों में आस जल का
ईपयोग ककया जाता
था। तालाब के पायदानों पर भी छोटे-छोटे मंकदर तथा दीपक रखने के तलए अले बने हुए हैं।
यद्यतप आस मंकदर का एक भाग क्षततग्रस्त हो गया है लेककन कफर भी तजस तवस्तृत पैमाने पर आसकी
सजावट की गइ थी, ईसे अज भी देखा जा सकता है।
खजुराहो के मंकदर मध्य भारत की वास्तुकला के शतातधदयों के तवकास के पिात् ईसके चरमोतकषय
रूप को दशायते हैं। ये मंकदर चंदल
े
काल के तनवातसयों के सामातजक,
अर्तथक एवं धार्तमक जीवन पर
प्रकाश डालते हैं। आन मंकदरों की
एक ऄन्य खास तवशेषता ईनकी
तवतशि वास्तुतनमायण कला है।
प्रायः सभी मंकदर एक उंचे और
ठोस चबूतरे पर तस्थत हैं।
तवश्वनाथ मंकदर की धरातलीय
एवं उपरी योजना कं दररया
महादेव मंकदर तथा लक्ष्मण मंकदर
से मेल खाती है। प्रवेशमागय के
साथ की तीन मूर्ततमय परट्टकाएं खजुराहो की सुद
ं रतम मूर्ततयां दशायती हैं। यह मंकदर भगवान तशव
को समर्तपत है तथा आसमें तशवसलग स्थातपत है। आस मंकदर की छत पर ऄनेक दलों वाले फू ल
ईतकीणय हैं। मंकदर का मुख्य तशखर शंकु के अकार का है तथा ईसके असपास ऄनेक छोटे तशखर हैं
जो पवयतमाला का अभास देते हैं।
मंकदर का तशलालेख यह दशायता है कक राजा धंगदेव ने आसका तनमायण करवाया था और वहां एक
तशला तथा पन्ना तमतश्रत सलग स्थातपत ककया।
खजुराहो की मूर्ततयों का भंडार वहां रहने वाले ईस काल के लोगों के सामातजक, अर्तथक एवं
धार्तमक जीवन के बारे में जानकारी प्रदान करता है। वहां ऐसे ऄनेक मूर्ततमय फलक हैं जो घरे लू
जीवन, नृतय तथा संगीत अकद ऄनेक तवषयों को दशायते हैं। आस तचत्र में दशायए गए संगीतकारों से
ज्ञात होता है कक ईस काल में कै से वाद्ययंत्र होते थे। आसी से यह भी पता चलता है कक
खजुराहोवासी वतयमान दो मुखी प्रकार की बांसरु ी, मंजीरे तथा पखावज से साम्यता रखती ढोलक
से पररतचत थे।
हैं। समूचा मंकदर पररसर 440 x 360 फीट के तवशाल अयताकार क्षेत्र में फै ला है। मंकदर पररसर
में पारं पररक गोपुरम बाद में तनर्तमत हुए थे।
होयसाल मंकदर की समूची दीवार को ऄनेक मूर्तत-फलकों में तवभातजत ककया जा सकता है। दीवार
के तनचले भाग पर जलूस के रूप में जाते हातथयों की कतारें ईतकीणय हैं। आनके उपर ऄश्वों की
अकृ ततयां तथा ईनके पहले
फू लों एवं लताओं को
ईतकीणय ककया हुअ है। आस
कतार के उपर काल्पतनक
जीवों हंसों, देवी-देवताओं
की तवशाल सजावटी
मूर्ततयों की कतार है। सबसे
पहले रे खागतणतीय
तडजाआन वाली छत है जो
कक प्राचीन सुंदर काष्ठ
भवन तनमायणकला का
प्रततरूप प्रतीत होती है।
नटराज, हेलीतबड, कनायटक
होयसाल मंकदर की
तवशाल मूर्ततयों को एक
तनतित अकार-प्रकार
(बनावट) को ईतकीणय ककया गया है। मुख्य अकृ तत फू लों और लताओं के शोभायमान चंदोवे से
तघरी हुइ है। देवताओं की अकृ ततयां शास्त्र-पद्धतत या शास्त्रानुसार भारी अभूषणों से ऄलंकृत हैं।
आस मूर्तत तशल्प में भगवान तशव को ऄज्ञानता के दानव ऄपस्मार की लेटी हुइ मुद्रा में ततक्षत
अकृ तत के उपर नृतय करते दशायया गया है। ईनके हर हाथ की एक तवशेष नृतय मुद्रा है।
तथा कमल की पतियों की पंतियााँ ईतकीणय की गइ हैं। चक्रों के नीचे की तचत्रवल्लरी पर चलते हुए
हातथयों के समूह को बड़ी सूक्ष्मता से ईतकीणय ककया गया है।
मध्य काल में भवन तनमायणकला तवशेषकर मकदरों का तनमायण, मूर्ततकला, तचत्रकला, संगीत, नृतय
और सातहतय अकद कलाएं राज दरबार के संरक्षण में खूब तवकतसत हुइ। भारत के सभी भागों में
ताड़ के पिे पर ईिम तचत्रों
वाली पांडुतलतपयों को तैयार
ककया गया। कागज के
तनमायण से पहले महतवपूणय
धार्तमक मूलग्रंथों की
पांडुतलतपयां ताड़ के पिों
पर तैयार की गइ। आसके
तलए सबसे पहले पिे को
सुखाकर समतल (प्रेस) ककया
जाता था। प्रतयेक पिे को
मूल ग्रंथ में, सतचत्र तथा
सुसतज्जत ककनारों के तलए
खंडों में तवभि ककया गया।
कफर, कुं तचयों की सहायता से तडजाआन बनाए जाते थे। आस तचत्र में बैठे कदखाइ दे रहे दो बौद्ध
तभक्षु महातमा बुद्ध की तशक्षा की व्याख्या कर रहे हैं।
ग्वातलयर का नगर दुगय (ककला) दसवीं शताधदी में तनर्तमत हुअ। सन् 950 में यहां सूरज पाल द्वारा
तहन्दू राजवंश संस्थातपत हुअ। सन् 1129 में जब यह राजवंश लुप्त हो गया तो आसके पिात्
पररहार राजवंश अया
तजसका सन् 1232 में कदल्ली
के बादशाह आल्तुततमश द्वारा
ककला जीत लेने तक ककले पर
अतधपतय रहा। सन् 1398 में
बीरससह देव नाम तोमर
राजपूत ने तैमरू की चढ़ाइ
द्वारा फै ली ऄशांतत का लाभ
ईठाया। वह ग्वातलयर का
राजा बन गया और ईसने
तोमर राजवंश की स्थापना
की। सन् 1486 में मानससह
ग्वातलयर का राजा बना जो सभी तोमर शासकों में सबसे शतिशाली था। सन् 1516 में ईसकी
मृतयु हुइ और ईसके पिात् ईसके पुत्र तवक्रमाकदतय ने सन् 1518 तक ग्वातलयर पर शासन ककया।
हम्पी, कनायटक के बेल्लारी तजले में तुंगभद्रा नदी के दतक्षणी ककनारे पर तस्थत है। हम्पी का
आततहास नवप्रस्तर काल और साथ ही चालुक्य, चोल तथा पांडय राजवंशों से जुड़ा हुअ है। यहां
पर, सन् 1336 में तवजयनगर ऄथायत "तवजय के नगर' को हररहर और बुक्का नामक दो भाइयों ने
स्थातपत ककया, तजन्हें
जनतप्रय रूप में हुक्का और
बुक्का नाम से जाना जाता है।
हालांकक, तवजयनगर के
सवायतधक शतिशाली,
लोकतप्रय और तवतशि राजा
- कृ ष्णदेव राय थे, तजन्होंने
सन् 1509 से सन् 1530 तक
शासन ककया। वे स्वयं एक
कतव थे और नृतय, संगीत
कला तथा वास्तुकला के
महान संरक्षक थे।
हम्पी में बहुसंख्य आमारतें बनाइ गइ, तजनमें बड़े गोपुरम, स्तंभयुि मंडप और मंकदर रथ
सतम्मतलत हैं। प्रस्तुत तचत्र में चबूतरे पर नक्काशीदार तशल्प से ऄलंकृत मकदर, मंडप और सुंदर ढंग
से ततक्षत स्तंभ देखे जा सकते हैं। ऄग्र भाग में, तचत्र के दातहनी ओर, अप पतथर पर ईतकीर्तणत
पतहयों के साथ एक संपण
ू य रथ देख सकते हैं। अज बहुत से आततहासकार और वास्तुकलातवद् आस
स्थान का ऄध्ययन करने हेतु हम्पी की प्राचीन राजधानी, ईसके महलों, सड़कों, मंकदरों और ऄन्य
आमारतों की खुदाइ कर रहे हैं।
1.54. कक्ष, ईतकीणय स्तं भ एवं सं ग मरमर की छत, तवमल वसाही मं कदर, माउं ट अबू ,
राजस्थान
आसका गुंबद लगभग 18.28 मीटर उंचा है। आसकी आस कदशा के मध्य में एक प्रवेशद्वार हैं। तजनके
दोनों तरफ जालीदार पतथरों की तखड़ककयां या झरोखे हैं। आस प्रकार का हर प्रवेशद्वार एक
ऄंदरूनी कमरे में खुलता है जो 9.14 मीटर चौड़ा है तथा ईसकी छत गुंबदाकार है।
लाल पतथर के ये दरवाजे स्वयं में ऄपने प्रकार के ऐसे पहले तनमायण हैं। तजनमें आस्लामी बनावट
एवं सजावट का ईपयोग ककया गया है।
ग्यास-ईद्-दीन तुगलक एक शाही तुकय था तथा सन् 1321 में ईसने तखलजी वंश के बाद राजगद्दी
संभाली थी। वह कु शल
वास्तुकार भी था। ईसने
कदल्ली में ऄपनी नइ
राजधानी बसाइ थी।
ऄपनी उंची बुजाय तथा 13
दरवाजों वाला यह
ककलेबद
ं नगर -
तुगलकाबाद, कदल्ली का
तीसरा शहर था। एक तरह
से यह ककला ग्यास-ईद्-
दीन की रचनातमक
शतियों का प्रतीक था।
आस ऄिकोणीय ककले के
दतक्षणी मुख्य प्रवेशद्वार के
ईस पार लाल पतथर से
बना ग्यास-ईद्-दीन का मकबरा है। ईसने आस मकबरे को स्वयं बनवाया था। आसकी दीवारों पर
यहां-वहां संगमरमर का आस्तेमाल आस ककलेनुमा मकबरे को तवतशि बना देता है।
सफे द संगमरमर के गुंबद पर लाल पतथर की चोटी आस ईतकृ ि मकबरे के गौरव को दशायती हैं।
मूलतः यह मकबरा वषाय के पानी के एक कृ तत्रम तवशाल तालाब के बीच बनाया गया था तथा एक
पुल के जररए तुगलकाबाद से जोड़ा गया था। अज आस पुल के बीच से कु तुब-बदरपुर सड़क जाती
है।
मोहम्मद तबन तुगलक के ईिरातधकारी कफरोज शाह तुगलक ने सन् 1354 में यमुना नदी के
दातहनी ककनारे पर कदल्ली
का पांचवा मध्ययुगीन शहर
कफरोजशाह बनवाया था।
ईस काल के बहुत ज्यादा
जनसंख्या वाले आस नगर के
भग्नावशेष दतक्षण में हौज
खास से लेकर ईिर की
हररयाली पट्टी तथा पूवय में
यमुना के ककनारे तक फै ले
हैं। मुख्य ऄवशेष यमुना के
ककनारे पर तस्थत कु श्क-ए-
कफरोज या कफरोज शाह का
महल है। आस महल की एक
खास तवशेषता इसा पूवय
तीसरी शताधदी के लाल
बलुअ पतथर का पातलश
ककया गया शृंडाकार एकाश्म
स्तंभ है, तजसे ऄशोक स्तंभ के नाम से जाना जाता है। कफरोजशाह ऄपने महल की शोभा बढ़ाने हेतु
आसे ऄंबाला से लेकर अया था। यह ऄशोक का दूसरा स्तंभ है तथा आसकी उंचाइ 13.1 मीटर (42'
7'') है।
ककले की तवशाल मोटी दीवारें बड़े-बड़े पतथरों को गारे से जोड़कर बनाइ गइ थीं तथा खुरदरी
दीवारों को तचकना बनाने के तलए पलस्तर ककया गया था या पातलश ककए गए पतथर की परत
चढ़ाइ गइ थी।
कफरोज शाह तुगलक का स्वयं बनवाया गया ऄपना मकबरा एक चौरस कक्ष पर तस्थत है, ईसकी
दीवारें उंची होने के
साथ-साथ जरा सी
कोणीय भी हैं। उंचा
गुंबद हौज खास के
खूबसूरत वातावरण में
तस्थत है। मकबरे का
अंतररक भाग मोटे
पलस्तर में तवभि
जयातमततय तडजाआनों
से कु शलतापूवक
य सजाया
गया है।
आस्लामी बागों और प्रांगणों का स्वयं में ऄपना ही एक खास अकषयण होता है। ककसी स्थान पर
बाग स्थातपत करने का ऄथय है कक ईस स्थान के महतव को ईजागर करना। आस्लामी सातहतय के गद्य
एवं पद्य दोनों में ही बागों की प्रशंसा होती रही है और ईनकी तुलना स्वगय के बाग के साथ की
जाती रही है।
लेडी तवसलगड़न पाकय के नाम से भी पहचाने जाने वाली लोदी बागों में-मोहम्मद शाह सैयद का
मकबरा, बड़ा गुंबद, शीश गुंबद तथा
तसकं दर शाह लोदी का मकबरा - ये
चार ऐततहातसक महतव के स्मारक
तस्थत हैं।
15वीं शताधदी के ऄंत में तसकन्दर
लोदी के शासनकाल में तनर्तमत
मतस्जद सहदू-आस्लामी वास्तुकला के
तवकास में महतवपूणय स्थान रखती है।
कु छ मकबरों के साथ बनी मतस्जदों में
बड़ा गुंबद सबसे प्रारं तभक है। प्रचुर
रूप में ऄलंकृत कु रान की अयतों से
आसकी दीवारों को सजाया गया है। खूबसूरत रं ग वाले पतथर का ईपयोग मतस्जद की एक
महतवपूणय तवशेषता है। एक तवशेष अकार की पांच खुली-चौड़ी मेहराबें, तजनकी छत सपाट हैं,
मतस्जद में नवीनता का समावेश करती हैं।
लोदी बाग में ही तसकं दर लोदी का मकबरा भी तस्थत है। यह स्मारक एक ककले के लघु रूप से तघरे
चौरस बाग में
तस्थत है।
मकबरा ऄपनी
योजना में
ऄिकोणीय है।
आसके कें द्रीय कक्ष
में तसकं दर लोदी
की कब्र है तथा
ईसके चारों तरफ
गुंबद हैं। यहां के
ऄिकोणीय
मकबरे की
योजना को आसके
बाद के मुगल मकबरों जैसे कक ताज महल अकद में आस्तेमाल ककया गया है।
1.67. जाली का कायय , अं त ररक दृ श्य, सीदी सै य्यब मतस्जद, ऄहमदाबाद, गु ज रात
गोलकुं डा, 16वीं शताधदी के अरम्भ में बहमनी साम्राज्य के तवघटन के बाद बने प्रांत का एक
शतिशाली एवं धन के न्द्र था। यह आस्लामी वास्तुकला की दक्खन शैली के तीसरे और अतखरी
चरण का प्रतततनतधतव
करने वाले ककलों और
शाही मकबरों के तलए
ईल्लेखनीय है।
गोलकुं डा का ककला
हैदराबाद से पतिम
कदशा में 8.5
ककलोमीटर दूर है।
तथा यह सन् 1512 में
120 मीटर उंची
पहाड़ी चोटी पर
बनाया गया था। ककले
की बाहरी परदे वाली
दीवार की पररतध 4.8
ककलोमीटर है। तथा
तवशाल पतथरों की
दीवार बड़े तशलाखंडों
से बनाइ गइ थी। ऄनेक तशलाखंडों का वजन कइ टन है।
आस ककले की खास तवशेषताओं में से एक आसकी ध्वतन-तनयंत्रण की व्यवस्था भी है। ककले के तनचले
भाग में बजाइ गइ ताली की अवाज उंचाइ पर तस्थत दरबार हाल में सुनी जा सकती है।
यह ककला आतना ऄजेय था कक औरं गजेब की सेना सन् 1686 में एक वषय की घेराबंदी के पिात् ही
आस पर ऄतधकार कर पाइ थी। गोलकुं डा के कु तुब शाही स्मारकों की बड़ी मेहराबें, ऄलंकृत
ऄग्रभाग और गुंबद आसकी तवशेष पहचान है।
तवश्व के सात अियों में से ताजमहल भी एक है और यह ऄपने संतुतलत तडजाआन के तलए माना
जाता है। आस मक़बरे का हर तहस्सा-चाहे वह गुंबद हो या छतररयााँ या कफर मीनारें , बाग़ और
सजावट, सभी तमलकर एक सुंदर एवं पूणय सामंजस्य स्थातपत करते हैं। ताज वैसे तो यमुना के
ककनारे तस्थत था,
पर कालांतर में
यमुना नदी ऄपने
स्थान से ऄपना
मागय बदलते हुए
ऄब ताज से थोड़ा
हट कर बहती है।
मुख्य मकबरा एक
उाँचे चबूतरे पर
तस्थत है तथा आसके
हर कोने में एक
मीनार है। आन
मीनारों की
तडजाआन कु छ आस
प्रकार का है कक
आनका झुकाव
थोड़ा-सा बाहर की
तरफ है। ऐसा आसतलए ककया गया है कक ऄगर कभी ये तगरें भी, तो बाहर की तरफ तगरें , मुख्य
मक़बरे पर नहीं। चार बाग़ शैली में बना बारा, लॉन और फव्वारों से सुव्यवतस्थत है। बाग के मध्य
में संगमरमर का जल-कुं ड भी है। दातहनी तरफ पेड़ों के पीछे आस मक़बरे का पूवी दरवाजा दृतिगत
है।
VISIONIAS
www.visionias.in
तवषय सूची
1. हड़प्पा / तसन्धु घाटी सभ्यता _____________________________________________________________________ 3
ससधु घाटी सभ्यता में एक पटरष्कृ त और तकनीकी रूप से ईन्नत नगरीय संस्कृ तत के लक्षण कदखाइ देते
हैं, तजसने आसे ‘प्रथम नगरीय सभ्यता’ के रूप में स्थातपत ककया। ऄत्याधुतनक जल तनकासी प्रणाली तथा
योजनाबद्ध सड़कों और घरों से पता चलता है कक अयों के अगमन से पहले भारत में एक ऄतत
तवकतसत संस्कृ तत का ऄतस्तत्व था। ससधु घाटी सभ्यता के स्थलों की खुदाइ ऄंग्रेजों द्वारा स्थातपत
भारतीय पुरातातत्वक सवेक्षण की देखरे ख में हुइ। ससधु सभ्यता के नगर तनयोजन की प्रमुख तवशेषताएं
तनम्नतलतखत थीं-
समकालीन नगरीय व्यवस्था अयताकार तग्रड प्रणाली पर अधाटरत थी। आस प्रणाली में सड़कें एक-
दूसरे को समकोण पर काटती थीं।
आस सभ्यता के लोगों ने मुख्यतः तीन प्रकार के भवनों का तनमायण ककया- तनवास गृह, स्तम्भों वाले
पकाइ गइ ईंटों से तनर्तमत ककये गए थे। आन ईंटों के प्रचतलत अकार का ऄनुपात 4:2:1 था।
कहीं आनके ऄपवाद भी हैं, जैसे धौलावीरा नगर तीन भागों में बंटा हुअ था।
गढी/ दुगय क्षेत्र कु लीन वगय के लोगों की बस्ती प्रतीत होती है, लेककन आसका क्या ईद्देश्य था यह
ऄभी भी तववाद का तवषय है। यद्यतप ककले चहारदीवारी/ रक्षा-प्राचीर से तघरे थे, परन्तु यह ऄभी
तक स्पष्ट नहीं है कक आन संरचनाओं का प्रयोग सुरक्षा की दृतष्ट से ककया गया था या बाढ के पानी
को मोड़ने के तलए।
ऄन्नागार एक महत्वपूणय संरचना थी जोकक गढी/ दुगय क्षेत्र में तस्थत थी। आसका तनमायण-कायय ईत्कृ ष्ट
था और आसमें युतिपूवक
य वायु-तनकासी के साधन तथा फसल दावने के तलए चबूतरे भी बने हुए थे।
सावयजतनक स्नानागार ससधु सभ्यता के नगरों की एक सामान्य तवशेषता थी, मोहनजोदड़ो का
तवशाल-स्नानागार आसका प्रमुख ईदाहरण है। आसका फशय पकी हुइ ईंटों का बना हुअ है। पास के
कमरे में ही तवशाल कुाँ अ था, तजससे पानी तनकालकर हौज़ में डाला जाता था। आसके चारों तरफ
गतलयां और कमरे बने हुए थे तथा जलाशय में ईतरने के तलए ईत्तर और दतक्षण कदशा में सीकढयों
की व्यवस्था थी। ईपयोग ककये गए जल के तनकासी की भी समुतचत व्यवस्था थी। आस स्नानागार
का ईपयोग संभवतः सावयजतनक रूप से धार्तमक ऄनुष्ठान ऄथवा ककसी पतवत्र कायय हेतु ककया जाता
था।
मोहनजोदड़ो से एक ‘सभाभवन’ के ध्वंसावशेष तमले हैं, तजसकी छत 20 स्तम्भों पर टटकी हुइ है।
सम्भवतः धार्तमक सभाओं हेतु आसका ईपयोग ककया जाता था। यहााँ से एक ‘पुरोतहत अवास’ भी
प्राप्त हुअ है। ‘ऄनेस्ट मैके’ ने आसे 'पुरोतहत' जैसे तवतशष्ट लोगों के तनवास हेतु तनर्तमत बताया है।
ऄतधकांश नगरवासी व्यापारी या कारीगर प्रतीत होते हैं, जो एक ही तरह के व्यवसाय करने वाले
तसन्धु घाटी सभ्यता के स्थापत्य ऄवशेषों से कहीं भी स्पष्ट रूप से मंकदर स्थापत्य के साक्ष्य प्राप्त
नहीं हुए हैं।
आस काल की मूर्ततकला के ऄंतगयत प्रस्तर, धातु एवं तमट्टी (मृण्मूर्तत) की बनी हुइ मूर्ततयों का ईल्लेख
ककया जाता है। प्रस्तर तथा धातु की ईत्कृ ष्ट मूर्ततयााँ तत्कालीन तकनीकी प्रगतत की पटरचायक हैं।
हड़प्पा से प्राप्त कु छ प्रस्तर मूर्ततयों में गदयन तथा कन्धों में छेद तमलें हैं, तजससे पता चलता है कक
technique) के रूप में जाना जाता है। आस तकनीक के ऄंतगयत, सवयप्रथम मोम से बनी अकृ तत पर
तमट्टी की एक परत चढाकर सुखाया जाता है। तत्पश्चात आसे गमय ककया जाता है, तजससे तपघला
हुअ मोम अवृत तमट्टी के तल पर एक छोटे से छेद के माध्यम से बाहर तनकल जाता है। ऄब
खोखले सांचे को रतवत कांसे या ककसी ऄन्य धातु से भरा जाता है। जब धातु ठं डी हो जाती है तो
तमट्टी को तनकाल कदया जाता है। कालीबंगा और दायमाबाद से सांचों में ढली मूर्ततयों के ईत्कृ ष्ट
नमूने प्राप्त हुए हैं।
o कांसे से बनी मूर्ततयों में हमें मानव के साथ-साथ पशु-अकृ ततयााँ भी प्राप्त होती हैं।
मोहनजोदड़ो से प्राप्त नतयकी (Dancing Girl) की कांस्य-मूर्तत आसका सवोत्कृ ष्ट ईदाहरण है।
o कांसे की पशु-अकृ ततयों में ईठे हुए तसर, पीठ (कू बड़) और भारी सींग वाला भैंसा तथा भेड़
की कलात्मक दृतष्ट से ईत्तम कृ ततयााँ हैं।
o आसके ऄततटरि कालीबंगा से प्राप्त तांबे की वृषभ मूर्तत ऄतद्वतीय है। बैल, कु त्ता, खरगोश तथा
तचतड़यों की भी तांबे की मूर्ततयााँ प्राप्त होती हैं।
मातृदव
े ी (Mother Goddess) पतहया युि तखलौना गाड़ी (Toy carts with
wheels)
कांचली तमट्टी, गोमेद, चटय तथा तमट्टी अकद के टु कड़ों से तनर्तमत मुहरें भी आस सभ्यता से संबंतधत
स्थलों से प्राप्त होती हैं।
मानक हड़प्पा मुहर एक 2 × 2 आं च की वगय पटट्टका थी, तजसे सामान्यतः नकदयों के कोमल पत्थरों
प्रत्येक मुहर तचत्राक्षर तलतप (pictographic script) में पशु-छापों के साथ ईत्कीणय है, तजसका
ऄथय ऄभी स्पष्ट नहीं हो सका है।
कु छ मुहरें स्वणय और हाथी-दांत की भी पायी गइ हैं।
प्रत्येक मुहर पर औसतन 5 संकेत या प्रतीक ईपतस्थत हैं।
लेखन की कदशा दायीं ओर से बायीं ओर है।
आन मुहरों पर तवतवध रूपांकन हैं, तजनमें पशुओं के ऄंकन की प्रधानता है। आनमें बैल, हाथी, बाघ,
बकरी अकद पशु सतम्मतलत हैं।
आनमें सबसे महत्वपूणय ईदाहरण पशुपतत-तशव की मुहर है। आस मुहर में असीन मुरा में एक योगी
को दशायया गया है जो संभवत: पशुपतत तशव हैं। आस योगी के ऄगल-बगल चार पशु- गैंडा, भैंस,
हाथी और बाघ हैं। ससहासन के नीचे दो मृग दशायए गए हैं। पशुपतत का ऄथय है ‘पशुओं का स्वामी’।
यह मुहर संभवत: हड़प्पा कालीन धमय पर प्रकाश डालती है।
आसके ऄततटरि एक-िृग
ं ी पशु (unicorn) की मुहर है, तजसे नीचे प्रदर्तशत ककया गया है।
पशुओं के तचत्रण का एक ईत्कृ ष्ट ईदाहरण, ऄत्यंत शतिशाली ककु द् (कू बड़) वाला एक वृषभ है।
यह प्राचीन काल की एक ऄत्यंत कलात्मक ईपलतब्ध है। वृषभ के शरीर के मांसल तहस्से को ऄत्यंत
वास्ततवक ढंग से दशायया गया है।
कहीं-कहीं वृक्षों, पतत्तयों, टहतनयों या मानव अकृ ततयों का भी ऄंकन सूक्ष्मता से ककया गया है।
लोथल से नाव के ऄंकन वाली एक मुहर तमली है, तजससे आसके बंदरगाह नगर होने का ऄनुमान
लगाया जाता है।
एक-िृग
ं ी पशु मुहर (Unicorn Seal) पशुपतत-तशव (Pashupati) मुहर
o आनका मुख्य रूप से व्यापार एवं वातणज्य की आकाइ के रूप में प्रयोग ककया गया।
o आनका एक ताबीज के रूप में भी प्रयोग ककया गया (बुराइ या ऄपशकु न से बचाव के तलए)।
o पाइ (Pie/π) तचन्ह की ईपतस्थतत]-आसका संभवतः एक शैतक्षक ईपकरण के रूप में भी प्रयोग
पुरास्थलों के ईत्खनन से प्राप्त मृद्ांडों (तमट्टी के बतयनों) की बड़ी मात्रा तवतभन्न तडजाआन के रूपांकनों के
क्रतमक तवकास को दशायती है, जो तभन्न-तभन्न अकार और शैली रूप में प्रयुि होते थे।
मृद्ांड मुख्यतः सादे थे तजनको लाल और काले रं ग से तचतत्रत ककया गया था (लाल एवं काले रं ग
ससधु घाटी के ऄतधकांश मृद्ांड चाक (wheel-made) पर बने हुए हैं, हाथ से बने हुए पात्रों के
सादे मृद्ांड प्रायः लाल तचकनी तमट्टी के हैं, तजन पर कभी-कभी लाल या धूसर रं ग का लेप पाया
जाता है। आनमें घुण्डीदार (knobbed) बतयन, घुण्डी की पंतियों से ऄलंकृत बतयन भी सतम्मतलत हैं।
काले रं ग से तचतत्रत बतयनों पर लाल रं ग के लेप की पतली परत है, तजस पर चमकीले काले रं ग से
ज्यातमतीय अकृ ततयााँ, वनस्पततयों तथा पशुओं की अकृ ततयााँ तचतत्रत हैं।
लोथल से प्राप्त एक मृदभांड पर एक तवशेष तचत्र ईके रा गया है, तजस पर एक कौअ तथा एक
लोमड़ी ईत्कीणय है। आससे आसका साम्य पंचतंत्र की कथा ‘चालाक लोमड़ी’ से ककया गया है।
o सजावट के तलए - लघु अकार (अधा आं च से कम) के पात्र सजावट के तलए प्रयुि होते थे।
o तछकरत मृद्ांडों के साक्ष्य भी तमले हैं तजनके तल पर बड़ा छेद और दीवारों पर छोटे-छोटे छेद हैं,
ये संभवतः शराब को ईड़ेलने (strain) हेतु प्रयोग में लाये जाते थे।
हड़प्पा सभ्यता के पुरुषों और मतहलाओं ने तवतभन्न प्रकार की सामतग्रयों यथा कीमती धातुओं, रत्न,
हड्डी और पकी हुइ तमट्टी से बने तवतवध अभूषणों से स्वयं का िृंगार ककया। हार, बाजूबंद और
ऄंगूटठयााँ सामान्यतः पुरुषों और मतहलाओं दोनों के द्वारा पहनी जाती थी। मतहलाएं करधनी, कान
मनके सेलखड़ी, मोती, स्फटटक, नीलम, कांचली तमट्टी, संख, सीप, हाथी-दांत, कफरोज़ा अकद के
बने थे। मनके कुं डलाकार (Disc), बेलनाकार, गोलाकार, ढोलाकार, ऄधयवृत्ताकार तथा सखंड
बेलनाकार मनके तसन्धु घाटी सभ्यता में सवायतधक लोकतप्रय थे। आन मनकों के तनमायण में ईन्नत
तकनीकी कौशल का प्रयोग ककया जाता था।
कहीं-कहीं गहनों के साथ दफनाए गए शवों के साक्ष्य भी प्राप्त हुए हैं।
आस सभ्यता के लोग वेश-भूषा की शैली के प्रतत भी जागरूक थे (जैसे- के श-तवन्यास की तवतभन्न
शैतलयााँ, ततपततया ऄलंकरण से युि शाल ओढे दाढी वाले अवक्ष पुरुष की मूर्तत अकद)।
िृंगार प्रसाधन के रूप में तसन्दूर, तलतपतस्टक, चेहरे पर लगाने वाला रं ग तथा अइलाआनर के भी
सैन्धव सभ्यता समकालीन तवकतसत नगरीय सभ्यता थी, जो बहुत बड़े भू-भाग में फै ली हुयी थी।
तवस्तृत क्षेत्र में फै ली यह सभ्यता ऄपना कोइ तचह्न ऄथवा स्मृतत छोड़े तबना कै से लुप्त हो गइ, आस
सम्बन्ध में ऄब भी मतभेद बना हुअ है। आसका सबसे बड़ा कारण हड़प्पाइ तलतप का तवद्वानों द्वारा
सही से न समझा जाना है। पतन के कारणों के सन्दभय में तवतभन्न तवद्वानों ने तभन्न-तभन्न मत प्रस्तुत
ककये हैं, जैसे -
o पाटरतस्थततक ऄसंतल ु न
o शुष्कता में वृतद्ध और घग्गर नदी का सूख जाना
o बाढ
o जल प्लावन
o बाह्य अक्रमण/ अयों का अक्रमण
o प्रशासतनक तशतथलता
o जलवायु पटरवतयन
o महामारी
2. तसन्धु घाटी सभ्यता के पतन के पश्चात वास्तु क ला
आस सभ्यता के पतन के बाद जो वैकदक अयय अये, वे लकड़ी, बांस और सरकं डों के मकानों में रहने
लगे। अयय संस्कृ तत मूलतः ग्रामीण और कृ षक संस्कृ तत थी, ऄतः आस काल में बड़े एवं स्थायी भवनों
का ऄभाव तमलता है।
अयों ने ऄपने शाही महलों को बनाने में लकड़ी जैसी सामतग्रयों का प्रयोग ककया जोकक नष्टप्राय
थी। ऄतः वे समय बीतने पर नष्ट हो गए।
वैकदक काल का एक महत्त्वपूणय पहलू ‘वेदी’ बनाना था जो शीघ्र ही लोगों के सामातजक-धार्तमक
जीवन का अधार बन गइ। अज भी तहन्दू घरों में मुख्यतः तववाह अकद के ऄवसरों पर ऄतिवेदी
की महत्त्वपूणय भूतमका होती है। अंगन तथा मण्डप में यज्ञशाला की वेदी, स्थापत्य कला की
महत्त्वपूणय अकृ तत है। हमें गुरुकु लों और अिमों के भी प्रसंग तमलते हैं। दुभायग्यवश वैकदक कालीन
कोइ भी स्थापत्य संबंधी ढांचा नहीं तमलता है।
छठीं शताब्दी इसा पूवय में भारत ने ऄपने आततहास के महत्त्वपूणय चरण में प्रवेश ककया। आस समय दो नए
धमय जैन धमय और बौद्ध धमय का ईदय हुअ। पटरणामस्वरूप वैकदक धमय में भी पटरवतयन होने लगा।
लगभग ईसी समय बड़े राज्यों का तवकास हुअ। आस समय मगध् महाजनपद के साम्राज्य के रूप में
तवस्तृत होने से स्थापत्य कला को और ऄतधक प्रोत्साहन तमला। आसके बाद से भारतीय स्थापत्य कला
की प्रायः सम्पूणय शृंखला की रूपरे खा प्रस्तुत करना सम्भव है।
बौद्ध एवं जैन धमय के ईद्व ने भारत की प्रारं तभक स्थापत्य कला के तवकास में महत्त्वपूणय योगदान
कदया। बौद्ध स्तूपों का तनमायण वहीं हुअ जहां बुद्ध ऄथवा ककसी महत्त्वपूणय बौद्ध संत के ऄवशेष रखे
गये थे तथा ईन प्रमुख स्थानों पर जहां बुद्ध के जीवन की महत्त्वपूणय घटनाएं घटीं थीं।
तमट्टी के गारे की सहायता से सावधानीपूवयक तपाइ गइ छोटी-छोटी इटों को जोड़कर स्तूप बनाए
गए। एक स्तूप ईनके जन्म-स्थान लुतम्बनी में बना है, दूसरा स्तूप गया में बना है जहां पीपल के वृक्ष
के नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुअ था, तीसरा स्तूप सारनाथ में जहां बुद्ध ने ऄपना प्रथम ईपदेश
कदया था तथा चौथा स्तूप कु शीनगर में बना है, जहां ईन्होंने ऄस्सी वषय की अयु में महापटरतनवायण
प्राप्त ककया।
बुद्ध के ऄवशेषों को जहां रखा गया और वे स्थान जहां बुद्ध के जीवन की महत्त्वपूणय घटनाएं घटीं,
ऐसे सभी स्थानों पर अज भारतीय स्थापत्य कला के महत्त्वपूणय प्रततमान ईपतस्थत हैं।
बौद्ध तभक्षु और तभक्षुतणयों के अवास स्थल को ‘तवहार’ तथा सामुदातयक पूजा स्थलों को ‘चैत्य’
कहा जाता था। ये महत्त्वपूणय स्थल पठन-पाठन एवं ईपदेश देने के स्थान के रूप में ईभर कर सामने
अए हैं।
आसी समय से धमय ने स्थापत्य-कला को प्रभातवत करना प्रारं भ ककया। जहां बौद्धों और जैनों ने
स्तूपों, तवहारों तथा चैत्यों का तनमायण प्रारं भ ककया वहीं गुप्त काल में सवयप्रथम मंकदरों का तनमायण
प्रारं भ हुअ।
आत्याकद जैसी नष्टप्राय सामातग्रयों से होता था, ऄतः ऄध्ययन के तलए कोइ पुरावशेष प्राप्य नहीं है।
छठीं शताब्दी इसा पूवय में बौद्ध और जैन धमय के रूप में गंगा नदी घाटी में नए सामातजक-धार्तमक
अंदोलनों का प्रारम्भ हुअ जो िमण परं परा का तहस्सा थे।
चौथी शताब्दी इसा पूवय में मौयों ने ऄपने साम्राज्य की स्थापना की। ऄशोक ने तृतीय शताब्दी इसा
पूवय में िमण परं परा को संरक्षण प्रदान ककया तथा स्थापत्य और मूर्ततकला की तवतशष्ट शैली के
तवकास को प्रोत्सातहत ककया।
धार्तमक प्रथाओं के कइ अयाम थे जोकक पूजा की ककसी तवशेष पद्धतत तक ही सीतमत नहीं थे। यक्ष
और मातृदव
े ी की ईपासना ईस समय काफी प्रचतलत थी, तजसे कालांतर में बौद्ध और जैन धमय
द्वारा भी अत्मसात कर तलया गया। मौयय कला में तनमायण सामग्री के रूप में लकड़ी का स्थान
पत्थर ने ले तलया जो भारतीय कला में एक महत्वपूणय संक्रमण काल का प्रतततनतधत्व करता है।
कौटटल्य का ‘ऄथयशास्त्र’ तथा मेगस्थनीज की ‘आं तडका’ ऐसे महत्वपूणय ग्रन्थ हैं तजससे मौययकालीन नगरों,
ककलेबद
ं ी, राजप्रासादों अकद का तवस्तृत तववरण प्राप्त होता है। प्रारं तभक वास्तु तनमायण में लकड़ी का
प्रयोग ककया गया है, परन्तु कालांतर में ईंट, तमट्टी तथा पत्थर के भवन प्राप्त होते हैं। मेगस्थनीज ने
पाटतलपुत्र नगर का तवस्तृत वणयन ककया है, जहााँ चन्रगुप्त का राजमहल तस्थत था, परन्तु काष्ठ-तनर्तमत
होने के कारण आसके ऄवशेष प्राप्त नहीं होते।
राजकीय कला का सबसे पहला ईदाहरण चन्रगुप्त का प्रासाद है, तजसका वणयन एटरयन ने ककया
है। ईसने राजप्रासाद को तत्कालीन पर्तशयन नगरों सूसा और एकबेतना के भवनों से ज्यादा भव्य
बताया है।
यह प्रासाद संभवतः वतयमान पटना के तनकट कु म्रहार (कु म्हरार) गााँव के समीप था। तजसके
ईत्खनन में प्रासाद के सभा-भवन के जो ऄवशेष प्राप्त हुए हैं ईससे प्रासाद की तवशालता का
ऄनुमान लगाया जा सकता है।
यह सभा-भवन खंभों वाला हॉल था। तवतभन्न ईत्खननों में यहााँ से कु ल तमलाकर 40 पाषाण-स्तम्भ
तमले हैं, जो आस समय भि दशा में हैं। आस सभा-भवन में फशय और छत लकड़ी के थे। भवन की
लम्बाइ 140 फु ट और चौड़ाइ 120 फु ट है। भवन के स्तम्भ बलुअ पत्थर के बने हुए थे और ईनमें
चमकदार पॉतलश की गयी थी।
मेगस्थनीज़ के ऄनुसार पाटतलपुत्र, सोन और गंगा नदी के संगम पर बसा हुअ था। नगर की
लम्बाइ 9.5 मील और चौड़ाइ 1.5 मील थी। नगर के चारों ओर लकड़ी की दीवार बनी हुइ थी
तजसके बीच-बीच में तीर चलाने के तलए तछर बने हुए थे। दीवार के चारों ओर एक खाइ थी जो
60 फु ट गहरी और 600 फु ट चौड़ी थी। नगर में अने-जाने के तलए 64 द्वार थे। दीवारों पर बहुत
से बुज़य थे तजनकी संख्या लगभग 570 थी।
पटना के ईत्खनन में काष्ठ तनर्तमत दीवार के ऄवशेष प्राप्त हुए हैं। बुलंदीबाग के ईत्खनन में प्राचीर
का एक ऄंश प्राप्त हुअ है, तजसकी लम्बाइ 150 फु ट है। लकड़ी के खंभों की दो पंतियााँ पायी गइ
हैं, तजनके मध्य 14.5 फु ट का ऄंतर है। यह ऄंतर लकड़ी के स्लीपरों से ढका गया है।
खंभों के उपर शहतीर जुड़े हुए हैं। खंभों की उंचाइ जमीन की सतह से 12.5 फु ट है और ये जमीन
के ऄंदर 5 फु ट गहरे गाड़े गए थे। यूनानी लेखकों के ऄनुसार नदी तट पर तस्थत नगरों में प्रायः
काष्ठतशल्प का ईपयोग होता था। सभा-मंडप में तशला-स्तम्भों का प्रयोग एक नइ प्रथा थी।
मौयय काल के सवोत्कृ ष्ट नमून,े ऄशोक कालीन एकाश्मक (monolithic) स्तंभ हैं। ऄशोक के तवस्तृत
साम्राज्य में श्वेत-धूसर बलुअ पत्थरों से तनर्तमत स्तंभों को देखा जा सकता है। आसे या तो बुद्ध के
जीवन से जुड़े पतवत्र स्थलों को तचतह्नत करने के तलए या ककसी महान घटना के ईपलक्ष्य में
बनवाया गया था।
आन स्तंभों में से ऄतधकांश पर धम्म (बुद्ध के तनयमों) के प्रचार-प्रसार से संबंतधत लेख या जनता के
तलए ऄशोक के शासनादेश खुदवाए गए थे।
स्तंभों की उाँचाइ लगभग 35 से 50 फीट है जोकक ऄपनी पूणय तवकतसत ऄवस्था में है, सभी स्तम्भ
चमकदार, लम्बे, सुडौल तथा एकाश्मक हैं, तजनके शीषय तराशे हुए हैं। ये स्तम्भ नीचे से उपर की
ओर क्रमशः पतले होते गए हैं। स्तंभों को मुख्य रूप से चार भागों में बांटा जा सकता है:
o स्तम्भ-यतष्ट (Shaft)
o यतष्ट के उपर स्थातपत घंटाकृ तत (Capital)
o फलक / चौकी (Abacus)
o स्तम्भ के शीषय पर पशु-अकृ ततयााँ (Crowing Animal)
यतष्ट के उपर शीषय भाग का मुख्य ऄंश घंटा है, जोकक ऄखमीनी (इरानी) स्तम्भों के अधार के घंटों
से तमलते-जुलते हैं। भारतीय तवद्वान आसे अवांगमुखी कमल कहते हैं।
आसके उपर गोल ऄंड या चौकी है। कु छ चौककयों पर चार पशु और चार छोटे चक्र ऄंककत हैं तथा
कु छ पर हंस पंति ऄंककत है। चौकी पर ईके री हंसों की अकृ ततयों और ऄन्य सज्जाओं में यूनानी
प्रभाव कदखाइ देता है। चौकी पर ससह, ऄश्व, हाथी तथा बैल असीन हैं। ये पशु अकृ ततयााँ खड़ी
तथा बैठी दोनों मुराओं में प्राप्त होती हैं।
o रामपुरवा में नटुवा बैल लतलत मुरा में खड़ा है। लौटरया नंदनगढ का ससह बैठा हुअ है।
o सारनाथ के शीषय स्तम्भ पर चार ससह पीठ सटाए बैठे हैं। ये चार ससह एक चक्र धारण ककये
हुए हैं। यह चक्र बुद्ध द्वारा धमय-चक्र-प्रवतयन का प्रतीक है। ऄशोक के एकाश्मक स्तम्भों का
सवोत्कृ ष्ट नमूना सारनाथ के ससह स्तम्भ का शीषय है। मौयय तशतल्पयों के रूपतवधान का आससे
ऄछछा दूसरा ईदहारण नहीं है। शीषय ससहों में जैसी शति का प्रदशयन है, ईनकी फू ली नसों में
जैसी स्वाभातवकता है और नीचे ईके री अकृ ततयों में जो प्राणवान वास्ततवकता है, ईसमें कहीं
भी अरं तभक कला की छाया नहीं है। तशतल्पयों ने ससहों के रूप को प्राकृ ततक सच्चाइ से प्रकट
ककया है।
आन स्तंभों में दो प्रकार के पत्थर प्रयुि हुए थे। कु छ मथुरा के क्षेत्र से प्राप्त लाल तचत्तीदार और
सफे द बलुअ पत्थर थे तो कु छ वाराणसी के तनकट चुनार की पत्थर की खानों से प्राप्त पांडु
(बादामी) रं ग के बारीक रवेदार कठोर बलुअ पत्थर थे, तजन पर सामान्यतः काले रं ग की तचतत्तयााँ
थीं।
स्तम्भ शीषों में शैली की एकरूपता को देखकर यह प्रतीत होता है कक ये एक ही क्षेत्र के कारीगरों
द्वारा ईत्कीणय(तनर्तमत) ककये गए थे।
चुनार की खानों से पत्थरों को काटकर तनकलना, तशल्पकला में आन एकाश्मक खम्भों को काट-
तराशकर वतयमान रूप देना, आन स्तम्भों को देश के तवतभन्न भागों में पहुाँचाना, तशल्पकला तथा
ऄतभयांतत्रकी कौशल का ऄनोखा ईदाहरण है।
स्तंभों के तनमायण की परं परा बहुत प्राचीन है और यह देखा जा सकता है कक स्तम्भों का तनमाय ण
ऄखमीनी साम्राज्य (Achamenian) में पूणत
य या प्रचतलत था। परन्तु मौयय स्तंभों तथा ऄखमीनी
(इरानी) स्तंभों में अकार-प्रकार तथा स्वरुप में पयायप्त ऄसमानता है। आन ऄसमानताओं को आस
प्रकार स्पष्ट ककया जा सकता है-
o मौययकालीन स्तम्भ एकाश्मक हैं जबकक इरानी स्तम्भ मंडलाकार टु कड़ों को जोड़कर बनाया
गया है।
o इरानी स्तंभ नालीदार (fluted) है जबकक भारतीय स्तंभ सपाट है।
o मौयय स्तम्भ तबना चौकी के अधार पर टटके हैं जबकक इरानी स्तम्भ चौकी पर।
o मौयय स्तम्भ स्वतंत्र रूप से खुले अकाश के नीचे खड़े हैं जबकक इरानी स्तंभों को भवनों में
स्थातपत ककया गया है।
o मौयय स्तंभों के शीषय पर पशु-अकृ ततयााँ हैं, जबकक इरानी स्तंभों पर मानवाकृ ततयााँ।
o मौयय स्तंभ नीचे से उपर की ओर पतले होते गए हैं जबकक इरानी स्तंभों की चौड़ाइ नीचे से
उपर एक समान है।
भारतीय तवद्वानों के ऄनुसार ऄशोक स्तम्भ की कला का स्रोत भारतीय है, न कक तवदेशी। मौयय
सारनाथ से प्राप्त मौयय स्तंभ शीषय जोकक अम-तौर से ससह शीषय के रूप में जाना जाता है, मौयय
कालीन मूर्ततकला परं परा का बेहतरीन ईदाहरण है। यह सारनाथ में बुद्ध द्वारा प्रथम धमोपदेश या
धमयचक्रप्रवतयन की ऐततहातसक घटना की स्मृतत में ऄशोक द्वारा तनर्तमत ककया गया था।
शीषय भाग मूल रूप से पांच घटक भागों से तमलकर बना हुअ था :
o स्तम्भ यतष्ट (shaft) (जो ऄब कइ तहस्सों में टू ट गया है),
तहस्सा था। हालांकक, यह पतहया ऄब टू टी हुइ हालत में पड़ा हुअ है।
चक्र (पतहया) और ऄवांगमुखी कमल अधार को छोड़कर शीषय को भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के रूप
में ऄपनाया गया है।
मूर्ततयों की सतह पर चमकदार पॉतलश है, जो मौयय कला की महत्वपूणय तवशेषता है।
स्तम्भ के गोल ऄंड या फलक पर चार छोटे धमयचक्र चारों कदशाओं में ईत्कीणय हैं, तजनमें 24
तीतलयााँ हैं तथा एक बैल, एक घोड़ा, एक हाथी और एक शेर की अकृ तत प्रत्येक चक्र के बीच में
बारीकी से ईत्त्कीणय हैं। चक्र का ऄंकन संपूणय बौद्ध कला में धमयचक्र के प्रदशयन के रूप में महत्वपूणय
हो जाता है।
स्तूप तनमायण कला ऄशोक के काल से पहले भी भारत में प्रचतलत थी। ऄशोक के समय बुद्ध के
मौजूदा शरीर ऄवशेषों को तवभातजत कर स्मारकों में ईन्हें प्रततष्ठातपत करने से, स्तूप पूजा के
तनतमत्त प्रयोग ककये जाने लगे।
मूल रूप से बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् 9 स्तूपों का तनमायण ककया गया था, तजनमें से अठ ईनके
ऄवशेषों पर बनवाये गए थे और नौवें में वह बतयन था, तजसमें मूल रूप से ऄवशेषों को रखा गया
था। बुद्ध के ऄवशेषों पर स्तूपों का तनमायण राजगृह, वैशाली, कतपलवस्तु, ऄल्कप्प, रामग्राम,
वेठ्ठदीप (Vethadipa), पावा, कु शीनगर और तपप्पतलवन अकद स्थलों पर ककया गया।
स्तूप प्रारं भ में तमट्टी के थूहे होते थे। पातल ग्रंथों में आसे ‘थूह’ या ‘थूप’ कहा गया जो कालांतर में
‘स्तूप’ हो गया । स्तूप का भीतरी भाग ऄधजली ईंटों और बाहरी भाग पकी ईंटों से बना है, तजस
पर प्लास्टर की मोटी परत चढाइ गइ है।
स्तूप के शीषय भाग पर छत्र है, जो लकड़ी की बाड़ से तघरा हुअ था। तीसरी शताब्दी इसा पूवय में
स्तूप की संरचना के सबसे ऄछछे ईदाहरणों में से एक राजस्थान के बैराट से प्राप्त होता है। यह एक
बहुत ही भव्य स्तूप है तजसमें वृत्ताकार टीले के चारों ओर एक प्रदतक्षणापथ है।
सांची का महान स्तूप ऄशोक के समय में ईंटों से बनाया गया था। कालांतर में शुंग-सातवाहन काल
में आसका प्रस्तराछछादन ककया गया और कइ ऄन्य नए पटरवधयन ककये गए।
बाद की सकदयों में, स्तूप को कु छ पटरवधयनों के साथ सुसतज्जत ककया गया जैसे- ऄलंकृत वेकदका
और मूर्ततयों के सजावट के साथ प्रदतक्षणापथ को घेर कदया गया।
आससे पहले कइ स्तूपों के तनमायण ककये गए थे, परन्तु ईनका तवस्तार या पटरवधयन तद्वतीय शताब्दी
इसा पूवय में ककया गया।
स्तूप अकार में ऄंडाकार (ऄधय-गोलाकार) ऄथवा ईल्टे कटोरे की तरह बना होता है तजसके शीषय
पर ‘छत्र’ और ईसको चारों ओर से घेरे ‘हर्तमका’ होती है। प्रारं भ में छत्रों की संख्या कम थी, परन्तु
बाद में आनकी संख्या बढ गइ और आसे ‘छत्रावली’ कहा जाने लगा। आस प्रकार ऄपने अकार और
अकृ तत में थोड़े बहुत पटरवतयनों के साथ यह एक सा बना हुअ है।
स्तूप के उपर बने तीन छत्र बौद्ध धमय के तत्ररत्नों का प्रतततनतधत्व करते हैं, ऄथायत बुद्ध (प्रबुद्ध),
धम्म (तसद्धांत) और संघ (अदेश)।
आसके ऄततटरि प्रदतक्षणापथ के साथ तोरण द्वार को जोड़ा गया था। आस प्रकार, स्तूप वास्तुकला में
तवस्तारण के साथ, वहााँ के वास्तुकारों और मूर्ततकारों के पास तवस्तार के तलए योजना बनाने और
छतवयों को ईत्कीणय करने हेतु पयायप्त स्थान था।
बौद्ध धमय के प्रारं तभक चरण के दौरान बुद्ध को; पैरों के तनशान, स्तूप, कमल ससहासन, चक्र अकद
के माध्यम से प्रतीकात्मक रूप में दशायया गया है। यह या तो सरल पूजा तवतध या सम्मान को
आं तगत करता है ऄथवा ईनके जीवन से संबंतधत घटनाओं को प्रदर्तशत करता है।
धीरे -धीरे ये कथाएाँ बौद्ध परं परा का एक तहस्सा बन गईं। आस प्रकार बुद्ध के जीवन से सम्बंतधत
घटनाएं, जातक कथाएाँ (बुद्ध के पूवय जन्म की कथाएाँ ) स्तूपों की वेकदकाओं और तोरणों पर दशायए
गए। मुख्य रूप से संतक्षप्त कथाओं और प्रासंतगक कथाओं का सतचत्र परं परा में ईपयोग ककया जाता
है। बुद्ध के जीवन से सम्बंतधत घटनाएाँ सभी बौद्ध स्मारकों में एक महत्वपूणय तवषय बन गए, वहीं
जातक कथाएाँ भी मूर्ततकला के ऄलंकरण के तलए ईतनी ही महत्वपूणय बन गईं। बुद्ध के जीवन से
सम्बंतधत मुख्य घटनाएाँ जो प्रायः ईत्कीणय की गईं वे हैं –
o बुद्ध का जन्म
o महातभतनष्क्रमण (गृहत्याग)
o बोतध (ज्ञानप्रातप्त)
o धमयचक्रप्रवतयन (ईपदेश)
o महापटरतनवायण (मृत्यु)।
जातक कथाओं में से जो प्रायः ईत्कीणय की गईं वे हैं - छदंत (chhadanta) जातक, तवदुपुुंतडत
(Vidurpundita) जातक, रुरु (Ruru) जातक, सीबी (Sibi) जातक, वेसंतर (Vessantara)
जातक और शाम (shama) जातक।
(स्तूप वास्तु का तवस्तृत वणयन ऄगले ऄध्याय में ककया जायेगा)
मौयय काल में पवयत-गुफाओं को काटकर बनायी गयी वास्तुकला की भी सुदढृ स्थापना हुइ।
ऄशोक और ईसके पौत्र दशरथ के समय तबहार में गया के समीप ‘बाराबर’ तथा ‘नागाजुन
य ी’ की
पहातड़यों को काटकर अजीवक सम्प्रदाय के लोगों को दान कदया गया था।
स्थानीय मूर्ततकारों के कायय मौययकालीन लोक कला का प्रदशयन करते हैं। आनमें वे मूर्तत-तशल्प
शातमल हैं तजनको संभवतः सम्राट द्वारा संरक्षण नहीं कदया गया था। स्थानीय राज्यपालों द्वारा आस
लोक कला को संरक्षण प्रदान ककया गया।
यक्ष और यतक्षणी की महाकाय मूर्ततयां पटना, तवकदशा और मथुरा जैसे कइ स्थानों से प्राप्त हुइ हैं।
ये स्मरणीय मूर्ततयााँ ज्यादातर खड़ी तस्थतत में ही प्राप्त होती हैं। आन सभी मूर्ततयों की सतह की
चमकीली पॉतलश आनके तवतशष्ट तत्वों में से एक है। चेहरे का तचत्रण पूरी तरह से गोल (चतुमुयख)
तथा सुस्पष्ट गाल अकृ तत तवज्ञान की दृतष्ट से ईत्तम है।
मूर्ततयों को थोडा स्थूल कदखाया गया है, तजन्होंने पारं पटरक वस्त्र- पगड़ी, ईत्तरीय, धोती और
आस काल में पशु-पतक्षयों तथा जलचरों की मृण्मूर्ततयों के साथ स्त्री-पुरुषों की मूर्ततयााँ भी ईत्खनन से
प्राप्त हुईं हैं। ऄतहछछत्र, मथुरा, हतस्तनापुर, ऄतरं जीखेड़ा, कौशाम्बी, भीटा, िृंगवेरपुर, बुलद
ं ीबाग,
कु म्हरार अकद ऄनेक स्थानों से मौयय काल की तमट्टी की मूर्ततयााँ प्राप्त हुइ हैं।
हाथी, घोड़ा, बैल, कु त्ता, तहरण अकद ऄनेक पशुओं तथा तचतड़यों की हस्ततनर्तमत मूर्ततयााँ प्राप्त हुइ
हैं।
आनमें से ऄतधकांश मूर्ततयााँ लाल रं ग की हैं तजसके उपर गेरुए रं ग के गाढे घोल का प्रलेप चढाया
गया है। अाँखों को वृत्त के ऄन्दर छेद करके बनाया गया है। छोटे-छोटे गोल ठप्पे लगाकर आनको
ऄलंकृत ककया गया है।
पशु मृण्मूर्ततयों के ऄततटरि मानव मृण्मूर्ततयां भी प्राप्त हुइ हैं। ऄतधकााँश पशु-मूर्ततयााँ हाथ से बनाइ
गईं हैं, परन्तु कु छ मानव-मृण्मूर्ततयां सांचे में ढालकर बनाइ गइ हैं। बालों को रे खांकन के द्वारा तथा
नाक को चुटकी से दबाकर बनाया गया है। स्त्री मृण्मूर्ततयों को अभूषण पहने हुए बनाया गया है।
आन मृण्मूर्ततयों का तनमायण प्रायः तखलौनों के रूप में ककया गया है, परन्तु संभवतः आनके पीछे
धार्तमक तवश्वास भी हो सकता है।
3.9. मनके
आस काल में कौशाम्बी, िृंगवेरपुर, कु म्हरार, वैशाली, चम्पा अकद के ईत्खनन से मनके भी प्राप्त हुए
हैं।
ये मनके गोमेद, रे खांककत करके तन, कानेतलयन तथा तमट्टी के बने हुए हैं।
पंचभुजाकार, षड्भुजाकार, चतुरस्त्र, वृत्ताकार तथा बेलनाकार मनके ऄतधक लोकतप्रय थे।
हड्डी तथा हाथी दांत के बने हुए मनके भी यदा-कदा प्राप्त होते हैं।
आन मनकों से तत्कालीन समाज में लोगों की रूतच के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
मौयय काल से जुड़े मृद्ांडों में पात्रों के कइ प्रकार प्राप्त होते हैं। लेककन सबसे ऄतधक तवकतसत
तकनीक तमट्टी के बतयनों का एक तवशेष प्रकार है, तजसे ईत्तरी काली-चमकीली पात्र परम्परा
(NBPW) के रूप में जाना जाता है। यह पूवयवती और प्राक-मौयय काल की पहचान है।
NBPW के बतयनों का तनमायण ऄछछी तरह से गुंथी तमट्टी से तेज गतत के चाक पर ककया जाता था।
आस तवतध से तनर्तमत बतयन ऄत्यंत पतले और हलके होते थे। आसके तलए प्रायः जलोढ तमट्टी का
प्रयोग ककया जाता था। आसे आसकी तवतशष्ट चमक और अभा के कारण ऄन्य चमकीले या ग्रेफाआट
लेतपत लाल बतयनों से ऄलग ककया जा सकता है।
थातलयों और छोटे कटोरे के तलए आसका व्यापक रूप से प्रयोग ककया गया था।
आस पात्र-परम्परा के बतयन ऄतधकांशतः ऄनलंकृत और सादे तमलते हैं, ककन्तु हतस्तनापुर,
कौशाम्बी, िावस्ती तथा चम्पा अकद से तचत्रण और ऄलंकरण युि बतयन भी तमलते हैं।
VISIONIAS
www.visionias.in
तवषय सूची
1. मौयोत्तर कला (Post-Mauryan Art) ______________________________________________________________ 3
र्ासकों िारा ऄपना अतधपत्य स्थातपत कर तलया गया। र्ुंग एवं कण्व र्ासकों िारा ईत्तर और
मध्य भारत के कु छ भागों में तथा सातवाहन, आक्ष्वाकु , अभीर एवं वाकाटक र्ासकों िारा दतक्षणी
और पतश्चमी भारत में र्ासन स्थातपत दकया गया। संयोग से यह काल ब्राह्मण संप्रदाय के ऄंतगशत
वैष्णव और र्ैव संप्रदाय के ईद्भव काल के रूप में भी ईल्लेखनीय है।
हालांदक आस ऄवतध की एक ऄन्य महत्वपूणश घटना तहन्द-यवन जैसे तवदेर्ी (अक्रमणकारी)
कबीलाइ समूहों का भारत अगमन भी थी। ईन्होंने सामातजक, सांस्कृ ततक, राजनीततक एवं
अर्तथक लगभग प्रत्येक स्तर पर तवतभन्न पररवतशनों के माध्यम से भारतीय संस्कृ तत के साथ स्वयं का
एकाकार कर तलया तथा परस्पर एक-दूसरे की संस्कृ ततयों के प्रत्येक पक्ष को प्रभातवत दकया। आससे
भारत में लगभग एक नइ प्रकार की वास्तुकला-परम्परा प्रारं भ हुइ, तजसे तवतर्ष्ट रूप से
गुफाओं, स्तूपों और मूर्ततयों के तनमाशण की परम्परा वहीं से प्रारं भ हुइ जहााँ यह मौयश काल में थी।
मूर्तत तनमाशण के क्षेत्र में हुइ ईन्नतत आस ऄवतध में ऄपने चरमोत्कषश पर पहुंच गइ थी। तवददर्ा,
भरहुत (मध्य प्रदेर्), बोध गया (तबहार), जग्गेयापेट (कृ ष्णा तजला, अन्र प्रदेर्), मथुरा (ईत्तर
प्रदेर्), खंडतगरर-ईदयतगरर (ओतडर्ा), पुणे के पास भज, नागपुर के पास पावनी (महाराष्ट्र) से आस
पतश्चमी भारत में कइ बौद्ध गुफाएाँ तितीय र्ताब्दी इसा पूवश के बाद से ईत्खतनत की गईं। आनमें
मुख्यतः तीन प्रकार की वास्तुतर्ल्पीय र्ैली तनष्पाददत की गइ है -
o मेहराबदार/ गजपृष्ठाकार/ ढोलाकार छत वाले चैत्यगृह (ऄजंता, पीतलखोरा, भाजा);
o गजपृष्ठाकार छत वाले स्तम्भ रतहत चैत्यगृह (थाना तजले के नद्सुर (Nadsur) से प्राप्त);
o पृष्ठभाग में ऄधशवृत्ताकार कोष्ठ के साथ सपाट छत वाला चतुष्कोणीय गृह (महाकाली गुफ़ा से
प्राप्त)।
सभी चैत्य गुफाओं के पृष्ठभाग में एक स्तूप का पाया जाना सामान्य बात है। चैत्य, बौद्ध तभक्षुओं
हैं। मंडप और प्रदतक्षणापथ के बीच स्तम्भ पंति होती है। स्तूप में बुद्ध की मूर्तत के ऄभाव ऄथवा
ईपतस्थतत तथा बौद्ध धमश की दो र्ाखाओं के अधार पर आन्हें भी दो भागों में तवभातजत दकया गया
है-
o हीनयान युगीन चैत्यगृह (तितीय र्ताब्दी इसा पूवश से तितीय र्ताब्दी इसवी तक)- भाजा,
o महायान युगीन चैत्य गृह [पांचवी र्ताब्दी इसवी से अठवीं र्ताब्दी इसवी तक (आस युग में
तनवास करते थे। तवहार की वास्तु योजना ऐसी थी दक आसके ऄन्दर एक बड़ा मंडप होता था, जो
अाँगन की भांतत होता था। आससे सटी हुइ छोटी-छोटी कोठररयां खोदी जाती थीं। सामने की दीवार
में प्रवेर् िार होता था और ईसके सामने स्तंभों पर अतित मुखमंडप या बारामदा रहता था। जहााँ
नातसक, ऄजंता, भाजा जैसी कु छ तसफश तवहार गुफाएं हैं तो वही ाँ कु छ तवहार गुफाएं चैत्यगृहों के
साथ हैं जैस-े बेडसा, पीतलखोरा, कोंडाने, काले एवं जुन्नार। ऄजंता की गुफा संख्या 12, बेडसा की
गुफा सं. 11, नातसक की गुफा सं. 3, 10, 17 कु छ महत्वपूणश तवहार गुफाएाँ हैं।
ऄद्धशगोलाकार गुंबद वाला बौद्ध स्तूप मौयोत्तर कालीन वास्तुकला का एक ऄन्य ईदाहरण है। ऄंदर
से ठोस होने के कारण स्तूपों में कोइ प्रवेर् नहीं कर सकता। स्तूप का र्ातब्दक ऄथश ‘थूहा’ या ‘ढेर’
होता है। यह बौद्ध वास्तुकला का एक रूप है।
स्तूप ऄंत्येतष्ट के तलए बनाए गए मतहमामंतडत, सतित और पररवर्तधत टीले हैं जहां पर कभी दकसी
पतवत्र व्यति की हतडिययााँ ऄथवा ऄतस्थयााँ रखी गईं थीं। परं परानुसार भगवान बुद्ध के पररतनवाशण के
बाद सम्राट ऄर्ोक ने समस्त राज्य में भगवान बुद्ध की स्मृतत में तवर्ाल संख्या में स्तूपों का तनमाशण
करवाया तजनमें ईनकी हतडिययों के टु कड़े, दांत, के र् आत्यादद ऄवर्ेषों को प्रततष्ठातपत दकया गया।
ऄर्ोक के काल में मूल रूप से ईंट के बने स्तूपों को पहले लकड़ी की वेददका से घेरा गया था परन्तु
मौयोत्तर काल में आसे तवर्ाल पत्थर की वेददका से प्रततस्थातपत दकया गया।
प्रारम्भ में स्तूप एक गुब
ं दाकार ढांचा होता था। यह कभी गोलाकार तो कभी अयताकार होता था।
आसमें एक प्रदतक्षणा पथ, वेददका और चारों ददर्ाओं में चार सुरुतचपूणश नक्कार्ी वाले प्रवेर्िार
ऄद्धशगोलाकार या ईल्टे कटोरे की भााँतत होता है। आस ऄद्धश गोलाकार भाग को ‘ऄंड’ भी कहा
o ऄंड की चोटी पूरी तरह गोलाकार न होकर चपटी होती है, तजस पर वेददका जैसी सरं चना
होती है तजसे ‘हर्तमका’ कहा जाता है। यह स्तूप का सवाशतधक पतवत्र स्थान होता है, तजसमें
धातु पात्र रखे जाते हैं।
o हर्तमका के उपर ‘छत्र’ लगाए जाते हैं तजनकी संख्या ऄलग-ऄलग हो सकती है। सातवाहन युग
में सात छत्रों तक के ऄवर्ेष प्राप्त होते हैं।
o स्तूप भूतम को ऄन्य भूतम से पृथक करने के तलए कु छ दूरी पर चारों ओर एक घेरा
(रे ललग)बनाया जाता है, तजसे ‘वेददका’ कहते हैं।
o स्तूप तथा वेददका के बीच पररक्रमा करने के तलए खाली स्थान होता है तजसे ‘प्रदतक्षणा पथ’
कहते हैं।
o स्तूप में वेददका के साथ-साथ चारों तरफ जो प्रवेर् िारा बनाए जाते हैं ईसे ‘तोरण िार’ कहा
जाता है। कु छ स्तूपों के तोरण िारों पर ऄलंकरण की प्रधानता है। सााँची स्तूप के तोरण िार
पर गजारोही एवं ऄश्वारोही तथा मानवमूर्ततयााँ अकषशक ढंग से ईत्कीणश हैं।
स्तूप के ऄंग
स्तूप बौद्ध परं परा में एक समातध स्मारक है लेदकन यह के वल स्थापत्य न होकर बौद्ध दर्शन की
ऄतभव्यति भी है।
स्तूप बुद्ध के महापररतनमाशण का द्योतक है लेदकन बौद्ध परं परा में महापररतनवाशण या मृत्यु को
र्ोक या दुःख के रूप में नहीं बतल्क पूणश अनंद तथा ज्योतत के रूप में समझा जाता है। आसी अनंद
की ऄतभव्यति स्तूप के माध्यम से की गइ है।
स्तूप का तनमाशण बुद्ध की समातध पर र्ोक करना नहीं है बतल्क ईनके अध्यातत्मक स्वरूप् का
भौततक धरातल पर प्रकटीकरण है।
आस प्रकार स्तूप के सभी ऄंग-प्रत्यंग दकसी न दकसी रूप में बौद्ध दर्शन को प्रतततबतम्बत करते हैं।
छत्र- प्रततष्ठा तथा बुद्ध की तर्क्षाओं का प्रतीक।
हर्तमका- पतवत्र स्थान, आसकी 13 लतड़यां 13 मानतसक ऄवस्था की पररचायक हैं, तजसे बुद्ध ने
पार दकया था।
ऄंड- जल तथा र्ांतत का पररचायक है।
चबूतरा (मेतध)- पृथ्वी का पररचायक है।
वेददका- पतवत्र घेरा
तोरण िार- चार ददर्ाओं का प्रतीक
आस प्रकार स्तूप को धरातल से अकार् तक सांकेततक माध्यम से ऄतभव्यि दकया गया है।
बौद्ध परं परा में 4 प्रकार के स्तूपों का तनमाशण दकया जाता था, जो तनम्नतलतखत हैंःः
o र्ारीररक स्तूपः आस स्तूप का तनमाशण बुद्ध या दकसी महान बौद्ध अचायश के र्रीर संबंधी
ऄवर्ेष पर दकया जाता था।
o पाररभोतगक स्तूपः ऐसे स्तूपों को बुद्ध िारा ईपयोग में लायी गइ वस्तुओं पर बनाया जाता
था।
o ईद्देतर्का स्तूपः यह स्तूप बुद्ध के जीवन से संबंतधत महत्वपूणश स्थानों पर बौद्ध धमश के प्रचार-
प्रसार के तलए बनवाया जाता था।
o पूजाथशक स्तूपः यह स्तूप बुद्ध की पूजा के तनतमत्त बनवाया जाता था।
सााँची मध्यप्रदेर् के रायसेन तजले में बेतवा नदी के तट पर ऄवतस्थत है। यहााँ का स्तूप भारत का
सबसे महत्वपूणश स्तूप है।
सााँची में तीन स्तूप हैं- संख्या 1, 2 और 3। तीनों स्तूपों में ऄलग-ऄलग प्रवेर्िार हैं। परन्तु आनमें
सवाशतधक महत्वपूणश स्तूप संख्या 1 है, तजसका तनमाशण ऄर्ोक के र्ासन काल (250 इ. पू) में हुअ
था।
o 150 इ.पू. में र्ुंग र्ासन काल में आसका अकार दोगुना कर ददया गया।
o ऄर्ोक काल की ईंटों को हटाकर पत्थर लगाया गया और आसके चारों ओर “वेददका” का
तनमाशण दकया गया।
o आसकी सुंदरता बढ़ाने के तलए, प्रत्येक ददर्ा में एक प्रवेर् िार बनाया गया। चारों तोरण िारों
पर सुन्दर मूर्ततयााँ ईत्कीणश की गयी हैं। दतक्षण िार पर स्तम्भ स्थापत्यकार का एक विव्य
प्राप्त हुअ है, तजसके ऄनुसार यह प्रवेर् िार राजा र्ातकणी ने धमाशथश दान ददया था। आसमें
नक्कार्ी का काम हाथी दांत का काम करने वाले तर्ल्पकारों िारा दकया गया था।
o सांची के स्तूप संख्या-1 में उपरी प्रदतक्षणापथ के साथ-साथ तनचला प्रदतक्षणापथ भी दृष्टव्य
है।
o आसमें बुद्ध के जीवन और जातक कथाओं से सम्बंतधत घटनाओं के दृश्य चारों तोरणों पर ईके रे
गए हैं। संपूणश दृश्यपटल को ईच्च स्तर की नक्कार्ी िारा भरा गया है। ईके री गइ अकृ ततयों का
तचत्रण प्राकृ ततक प्रतीत होता है। आसकी संरचना में दकसी तरह की कोइ कठोरता नहीं ददखती
है। नक्कार्ी की तकनीक ऄत्यंत ईन्नत प्रतीत होती है। बुद्ध और मानुषी बुद्ध का प्रतततनतधत्व
करने के तलए प्रतीकों के प्रयोग की परम्परा जारी रही।
o ईत्तरी िार और आसके चौखटे पर जातक कथाएाँ ऄंदकत हैं। आसके ऄततररि सााँची स्तूप में
तनम्नतलतखत तचत्र बने हुए हैं -
o बुद्ध के जीवन से सम्बद्ध चार प्रमुख घटनाएाँ - जन्म, बोतधसत्व की प्रातप्त, धमश-चक्र-प्रवतशन
और महापररतनवाशण।
पक्षी और पर्ुओं जैसे र्ेर, हाथी, बैल अदद के तचत्र काफी मात्रा में ईपलब्ध हैं। आनमें
कु छ जानवरों पर भारी कोट और बूट पहने सवार तचतत्रत दकये गए हैं।
दीवारों पर कमल और ऄंगरू के गुच्छों के सुन्दर तचत्रों का ऄलंकरण दकया गया है।
जंगली जानवरों का तचत्र आस प्रकार बनाया गया है मानो सारा जंगल बुद्ध का ईपासक
हो गया हो।
सबसे नीचे की बड़ेर के अवतों से स्तंभों पर लटकती दो स्त्री मूर्ततयााँ र्ालभंतजका मुद्रा में
बनी हैं। (र्ालभंतजका स्त्री की मूर्तत तजसमें स्त्री का तवर्ेष र्ैली में तचत्रण हो, जैसे दकसी
वृक्ष के नीचे ईसकी एक डाली को पकड़े स्त्री की मूर्तत। 'र्ालभंतजका' का र्ातब्दक ऄथश है
दुलभ
श व तवतर्ष्ट संरचना है, जो तत्रभंग मुद्रा में खड़ी है।)
सबसे उपर की बड़ेर के उपर मध्य में धमशचक्र तथा तत्ररत्न तचह्न तनर्तमत हैं।
ऄमरावती के वेददका स्तंभों पर ऄनेक दृश्यों का ऄंकन दकया गया था- बुद्ध िारा हाथी के दमन का
दृश्य ईल्लेखनीय है।
ऄमरावती के प्रस्तर-फलकों पर बौद्ध प्रतीकों का ऄंकन दकया गया था तथा साथ ही बुद्ध का मूतश
रूप में भी ऄंकन दकया गया था।
ऄमरावती की मूर्ततयां सााँची तथा भरहुत से तभन्न हैं। स्त्री-पुरुषों की दुबली-पतली दकन्तु लम्बी
काया ऄमरावती र्ैली की ऄपनी तवर्ेषता है। मानवाकृ ततयों की भाव-भंतगमाएाँ दर्शनीय हैं तजसमें
सहज तकनीकी दक्षता ददखाइ देती है।
वनस्पततयों के ऄंकन के साथ वेददकाओं और परट्टकाओं में चैत्य, स्तूप, तवहार अदद के रूपों को भी
ईके रा गया है।
आस स्तूप की ऄन्य कु छ महत्वपूणश तवर्ेषताएं तनम्नतलतखत हैं-
वेददका खंभों पर माला पहने देवताओं, बोतध वृक्ष, स्तूप, धमश-चक्र और भगवान् बुद्ध के जीवन और
जातक कथाओं से सम्बंतधत तचत्र ईत्कीणश दकये गए थे।
स्तूप के तोरण की वेददका पर चार र्ेरों का तचत्रांकन दकया गया है।
स्तम्भों के उपर कमल को भी ईत्कीणश दकया गया है। ऄमरावती स्तूप से कइ प्रकार की मूर्ततयां भी
पायी गयीं हैं।
ऄमरावती स्तूप
आस ऄवतध में मूर्तत तनमाशण ऄपनी पराकाष्ठा पर पहुाँच गइ। प्रथम र्ताब्दी इसवी के बाद गांधार (ऄब
पादकस्तान में), मथुरा तथा वेंगी (मुख्यतः ऄमरावती) महत्वपूणश कला के न्द्रों के रूप में ईभरे । बुद्ध के
प्रतीकात्मक रूप ने मथुरा और गांधार में मानवाकार रूप धारण कर तलया। गांधार की मूर्ततकला
परं परा बैतक्िया, पार्तथया और स्थानीय गांधार परं परा का संगम थी। गांधार क्षेत्र लंबे समय से
सांस्कृ ततक प्रभावों का तमलन स्थल था। सम्राट ऄर्ोक के र्ासनकाल में यह क्षेत्र गहन बौद्ध तमर्नरी
गतततवतधयों का कें द्र बन गया। प्रथम र्ताब्दी इस्वी में, कु षाण साम्राज्य के र्ासकों ने- तजसमें गांधार
र्ातमल है- रोम के साथ संपकश बनाए रखा। बौद्ध अख्यानों की ऄपनी व्याख्या के ऄनुसार गांधार कला
सम्प्रदाय/ पद्धतत ने र्ास्त्रीय रोमन कला से कइ रूपांकनों और तकनीकों को ऄपने में सतम्मतलत दकया।
दूसरी ओर, मथुरा में स्थानीय मूर्ततकला परं परा आतनी मजबूत थी दक यह परं परा ईत्तरी भारत के ऄन्य
भागों में भी फै ल गइ।
वैष्णव (मुख्य रूप से तवष्णु और ईनके तवतभन्न रूपों) और र्ैव (मुख्य रूप से ललग और मुखललग)
सम्प्रदाय की प्रततमाएं भी मथुरा में पायी जाती हैं, लेदकन बौद्ध प्रततमाएं बड़ी संख्या में प्राप्त होती हैं।
धार्तमक प्रभाव मुख्यतः बौद्ध सभी तीन धमश – जैन मुख्यतः बौद्ध
ब्राह्मण धमश
संरक्षक कु षाण वंर् कु षाण वंर् सातवाहन और आक्ष्वाकु वंर्
क्षेत्र पतश्चमोत्तर सीमांत मथुरा, सोंख, कं काली कृ ष्णा-गोदावरी की तनम्न
क्षेत्र टीला (ऄतधकांर्तः घाटी
जैन)
मूर्तत तर्ल्प की बौतद्धकता एवं अनंददत बुद्ध ; बुद्ध के जीवन और
तवर्ेषताएं र्ारीररक सौन्दयश अध्यातत्मकता जातक कथाओं पर
(र्ोकाकु ल बुद्ध ) अधाररत कथा-वस्तु को
है
र्ांतत के प्रतीक, दर्ाशता है
दाढ़ी और मूछ
ं
दाढ़ीयुि, मूंछ रतहत मुखमंडल बुद्ध के पूवश जन्म की
गांधार क्षेत्र भारतीय ईपमहािीप के ईत्तरी पतश्चमी क्षेत्र में लसधु नदी के दोनों ओर तस्थत है। आसमें
पेर्ावर की घाटी, स्वात, बुलेर और बिुरा के आलाके र्ातमल हैं। छठीं -पांचवीं र्ताब्दी इ.पू. में इरान
के ऄखमतनयों ने यहां र्ासन दकया था। बाद में यूनातनयों, मौयों, र्कों, पहलवों और कु षाणों ने आस
क्षेत्र पर ऄतधकार स्थातपत दकया। पररणामस्वरूप आस क्षेत्र में एक तमतित संस्कृ तत का जन्म हुअ।
यूनानी कला के प्रभाव से आस क्षेत्र में तजस नवीन र्ैली का ईदय हुअ ईसे गांधार मूर्ततकला र्ैली कहा
जाता है। आस र्ैली में भारतीय तवषयों को यूनानी ढंग से व्यि दकया गया है और आस पर रोमन कला
का प्रभाव भी स्पष्ट होता है।
आसका तवषय मुख्य रूप से बौद्ध है, आसी कारण कभी-कभी आस कला को यूनानी बौद्ध (ग्रोीको-
बुतद्धष्ट), आं डो-ग्रोीक ऄथवा ग्रोीको-रोमन कला भी कहा जाता है। परन्तु आसका प्रमुख कें द्र गांधार
होने के कारण यह गांधार कला के नाम से ज्यादा लोकतप्रय है।
गांधार कला के नमूने जलालाबाद, हडिया, बामरान, बेगराम और तक्षतर्ला से प्राप्त हुए हैं।
धोती, संघाटी अदद प्रदर्तर्त की गयी हैं। मांसपेतर्यों और लहरदार बालों का ऄत्यंत सूक्ष्म ढंग से
प्रदर्शन दकया गया है।
आन मूर्ततयों में मनुष्य की अकृ तत का जीवंत ऄंकन हो पाता था। ईनके नाक, नक्र् तीखे हुअ करते
थे और ईनमें एक गतणतीय ऄनुपात होता था।
बुद्ध की वेर्भूषा यूनानी है। यहााँ ईनके पैरों में जूते ददखाए गए हैं।
बुद्ध की प्रततमा में ईत्कीणश वस्त्र यूनानी-रोमन फै र्न के ऄनुरूप हल्के और पारदर्ी होते थे।
प्रभामंडल सादा और ऄलंकरण रतहत है।
आस प्रकार आस र्ैली में तनर्तमत बुद्ध की मूर्ततयां यूनानी देवता ऄपोलो की नक़ल प्रतीत होती हैं। आनमें
वह सहजता, भावात्मक स्नेह प्राप्त नहीं होते जो भरहुत, सााँची, बोधगया तथा ऄमरावती की मूर्ततयों से
प्राप्त होते हैं। आन मूर्ततयों में अध्यातत्मकता तथा भावुकता न होकर बौतद्धकता एवं र्रीररक सौन्दयश की
आन मूर्ततयों के ऄततररि दीवारों पर ईभारदार मूर्ततयां भी ईत्कीणश की जाती थीं। आनमें ऄतधकांर्तः
बुद्ध के जीवन तथा ईनके पूवज
श न्मों और बोतधसत्व के जीवन से सम्बंतधत तचत्र ऄंदकत होते थे।
ईदाहरणाथश-
1. तक्षतर्ला का स्तूप बोतधसत्व की मूर्ततयों से सजाया गया है, ये मूर्ततयां पूजा के तलए ताखे पर रखी
हैं।
2. सेहरीभेलोल स्तूप के छोटे खम्भों के परकोटे पर बुद्ध, बोतधसत्व और ईनके जीवन से सम्बंतधत
बुद्ध, कु षाण राजा और ईड़ता हुअ हंस (तवचरणर्ील तभक्षुओं का प्रतीक) तचतत्रत है।
हैं। आसी प्रकार हाथी दांत की बनी एक परटया बेगराम से प्राप्त हुइ है।
बोतधसत्व और बुद्ध की मूर्तत संभवतः सबसे पहले मथुरा में बनायी गयी थी और यहीं से देर् के
ऄन्य भागों में भेजी गयी थी। ईदाहरण के तलए कतनष्क प्रथम के र्ासन काल में सारनाथ में
स्थातपत खड़े बोतधसत्व की मूर्तत का तनमाशण मथुरा में ही दकया गया था।
बुद्ध की प्रततमा मुख्यतः दो मुद्राओं में प्राप्त होती है -खड़े हुए और बैठे हुए। आस युग की बौद्ध
प्रततमाओं की अम तवर्ेषताएं तनम्नतलतखत हैं-
o ईनका तनमाशण ईजले धब्बे वाले लाल पत्थर से दकया गया है।
o मूर्ततयों का तनमाशण गोलाकार हुअ है तादक चारों तरफ से ईन्हें देखा जा सके ।
o तसर के बाल और चेहरे की दाढ़ी तबलकु ल साफ़ है।
o दातहना हाथ ऄभय मुद्रा में है।
o ललाट पर कोइ तनर्ान नहीं है। वस्त्र र्रीर से तबलकु ल सटे होते थे और आसका झालर बाएं
हाथ में रहता है।
1.3.2.2.जै न प्रततमाएाँ
मथुरा ब्राह्मण और बौद्ध धमश का पतवत्र स्थल होने के साथ-साथ जैन धमश की भी पुण्य भूतम है।
यहां से ऐसे ऄतभलेख प्राप्त हुए हैं, तजनमें जैन धमश के ऄनुयातययों, जैन तभक्षुओं, तभक्षुतणयों एवं
ईनको ददए गए दान अदद का ईल्लेख है।
मथुरा से कइ जैन मूर्ततयां प्राप्त हुइ हैं। यहााँ से तनम्नतलतखत तर्ल्पगत नमूने प्राप्त हुए हैं:
o मूर्ततयााँ
o जैन मूर्ततयों से ऄंदकत पत्थर की परट्टयााँ या अयक पट्ट, आन परट्टयों पर जैन धमश की ऄन्य
तनर्ातनयााँ, जैसे स्तूप अदद भी ऄंदकत हैं।
o आमारतों के टू टे हुए ऄंर्, जैसे खम्भे, स्तम्भ र्ीषश, ऄगशला ढेंकली वेददका अदद।
अयक पट्ट पर जैन तीथंकरों के तचत्र कु षाण काल के पहले ऄंदकत दकये गए थे, पर कु षाण काल से
ही मूर्ततयां तनयतमत रूप से बनने लगीं।
आनमें से पाश्वशनाथ को सााँपों के साथ और ऊषभ नाथ को कं धे पर झूलते बालों के साथ पहचाना
जा सकता है, पर ऄन्य तीथंकरों की प्रततमाओं को असानी से नहीं पहचाना जा सकता है।
मथुरा से यक्ष और यतक्षणी की ऄनेक मूर्ततयां तमली हैं। ईनका सम्बन्ध बौद्ध, जैन और ब्राह्मण तीनों
धमों से है।
कु बेर ऄन्य देवता है, तजसकी मूर्तत एक मोटे व्यति के रूप में बनाइ गयी है। ईसका सम्बन्ध मद्य
और मद्यपान के अयोजन से बताया गया है। आस देवता पर वधु और डायोतनसस जैसे रोमन और
यूनानी मद्य देवता की छाप ददखाइ देती है।
पूवी दक्कन में कृ ष्णा और गोदावरी की तनचली घारटयों में ऄमरावती कला का तवकास हुअ।
आस कला को सातवाहन एवं आक्ष्वाकु राजाओं का संरक्षण प्राप्त था।
यह कला बौद्ध धमश से प्रभातवत थी और आसके मुख्य कें द्र नागाजुन
श कोंडा, ऄमरावती, गोली,
घंटसाल, जग्गेयापेट थे।
यह कला 150 इ.पू. से 350 इ. तक ऄपनी समृतद्ध और ईत्कषश पर थी।
आस कला के तर्ल्पगत नमूने भी वेददका, चबूतरे और स्तूप के ऄन्य तहस्सों के रूप में ईपलब्ध हैं।
तवषयवस्तु की दृतष्ट से मथुरा और ऄमरावती कला में कहीं-कहीं अश्चयशजनक समानता है।
आस कला की मुख्य तवर्ेषताएं तनम्नतलतखत हैं-
1. बुद्ध के जीवन और जातक कथाओं को जगह-जगह ईभारदार र्ैली में ईत्कीणश दकया गया है।
2. मूर्ततयां ईजले संगमरमर से बनाइ गयी हैं।
3. आस कला में र्ारीररक सौंदयश और सांसाररक ऄतभव्यति की बहुलता है।
4. प्राकृ ततक दृश्यों का भी ऄंकन तमलता है परन्तु कें द्र में मनुष्य ही है।
5. राजाओं, राजकु मारों और राजप्रासादों को भी तचतत्रत दकया गया है।
रूप से पतश्चमी भारत में, जहां ईत्खनन में - तवर्ेष रूप से ऄजंता ने चरम समृतद्ध और वैभव
ऄर्तजत दकया। तवहारों के कु छ कक्षों में मूर्ततयों के प्रारं भ ने आन्हें साधारण अवासों की जगह एक
मंददर का स्वरुप प्रदान दकया (ऄजंता तवहार सं. 1 में बुद्ध की तवर्ाल मूर्तत आसका प्रमाण है)।
गुप्त काल तवर्ेष रूप से नवीन मंददर र्ैतलयों के तवकास के तलए तचतह्नत दकया गया है। परन्तु आस
काल में कु छ ऄसाधारण गुहा वास्तुतर्ल्पीय संरचनाएं स्पष्ट होती हैं।
यह चार चैत्य गुफाएं प्रथम चरण की हैं, यानी तितीय और प्रथम र्ताब्दी इसवी पूवश की और कु छ
बाद के चरण की ऄथाशत चौथी-पांचवीं सदी इसवी की हैं।
यहां बड़े चैत्य-तवहार हैं तजन्हें मूर्ततयों और तचत्रों से सजाया गया है।
ऄजंता की तचत्रकला प्रथम सदी इसा पूवश से पांचवीं सदी इसवी के मध्य तचत्रकला की एकमात्र
जीतवत ईदाहरण है।
ये गुफाएं एक लम्बवत खड़ी चट्टान पर खुदी हुइ हैं।
ये लम्बवत ददर्ा में है और यहां कोइ प्रांगण नहीं है।
ये गुफाएं कला के सभी तीन रूपों- वास्तुकला, मूर्ततकला और तचत्रकला से सम्बंतधत हैं।
(ऄजंता तचत्रकला का वणशन ऄध्याय 4 भारतीय तचत्रकला में तवस्तृत रूप से दकया जाएगा)
एक ऄन्य महत्वपूणश गुफा स्थल औरं गाबाद तजले में तस्थत एलोरा है।
यह ऄजंता से सौ दकलोमीटर की दूरी पर तस्थत है और यहां 32 गुफाएं हैं जो बौद्ध, जैन और
लेकर ग्यारहवीं र्ताब्दी इसवी तक तीनों प्रमुख धमों से जुड़ी मठों की िृंखला प्राप्त होती है।
यह भी र्ैलीगत सारसंग्रोहवाद ऄथाशत एक ही स्थान पर कइ र्ैतलयों के संगम के मामले में
ऄतितीय है।
यहां बारह बौद्ध गुफाएं हैं जहााँ वज्रयान बौद्ध धमश से सम्बंतधत तचत्र प्राप्त होते हैं जैसे - तारा,
यहााँ बौद्ध गुफाएं अकार में बड़ी हैं और पहली, दूसरी तथा तीसरी मंतजल तक प्राप्त होती हैं। आनके
ईपलतब्ध है।
सभी गुफाओं में प्लास्टर दकये गए तथा ईन पर तचत्रकारी की गइ परन्तु अज कु छ भी दर्शनीय
नहीं है।
ऄजंता गुफाओं के तवपरीत, एलोरा के गुफा मंददर पहाड़ी की ढाल की तरफ से तरार्कर बनाए
यह मध्य प्रदेर् के धार तजले में (आं दौर के पास) तस्थत है।
यहााँ पर तवन्ध्य की पहातड़यों को काटकर 9 गुफाओं का तनमाशण दकया गया था।
ऄजंता की तरह यहां भी बौद्ध तवहार बनवाए गए थे।
आन पत्थरों की प्रकृ तत मुलायम होने के कारण कु छ गुफाएं तवनष्ट हो गइ हैं।
आसकी तततथ लगभग छठीं र्ताब्दी इसवी ऄनुमातनत है।
यहां की गुफ़ा सं. 4 ‘रं गमहल’ के नाम से तवख्यात है, तजसमें मनोहर और भाव-प्रवण तचत्र बने हुए
हैं।
जूनागढ़ की गुफाएं
मूर्ततकला की दृतष्ट से गुप्त काल में पयाशप्त सृजन हुअ। मथुरा, सारनाथ और पाटतलपुत्र भारतीय
अकारमूलक ऄतभव्यति के मुख्य कें द्र थे। गुप्त कला की ईत्कृ ष्टता तवतभन्न लोक-प्रचतलत मतों के मध्य
समन्वय की स्पष्टता में तनतहत है। गुप्त कालीन बौद्ध मूर्ततयां ऄपनी ईत्कृ ष्टता के तलए प्रतसद्ध हैं। ईनमें
सजीवता तथा मौतलकता तमलती है। गुप्त कालीन बौद्ध तक्षण कला का प्रभाव दतक्षण पूवश एतर्या की
कला पर भी पड़ा। गुप्तकालीन ऄतभलेखों में बुद्ध की मूर्ततयों की स्थापना के ऄनेक ईल्लेख तमलते हैं। आस
युग की तीन बुद्ध मूर्ततयां प्रतसद्ध हैं- मथुरा संग्रोहालय की बुद्ध मूर्तत, बर्ममघम संग्रोहालय की ताम्र मूर्तत
तथा सारनाथ की प्रततमा। गुप्तकालीन मूर्ततकला की प्रमुख तवर्ेषताएं तनम्नतलतखत हैं -
गुप्तकालीन मूर्ततकला संयत और नैततक है।
कु षाणकालीन मूर्ततयों में र्रीर के सौंदयश का जो रूप था ईसके तवपरीत गुप्त काल की मूर्ततयों में
नग्नता नहीं है।
गुप्तकालीन मूर्ततकारों ने मोटे ईत्तरीय वस्त्र का प्रदर्शन दकया है।
सारनाथ कला की मूर्ततयों पर गांधार कला का प्रभाव नहीं तमलता है। यहां की मूर्ततयों में सुसतित
प्रभामंडल बनाये गए जबदक कु षाणकालीन मूर्ततयों में प्रभामंडल सादा था।
मानव अकृ तत में बुद्ध प्रततमाओं के समान महत्वपूणश तहन्दू देवी-देवताओं को भी मूर्ततयों में ढाला
गया।
आस काल में वैष्णव धमश के तवकास के कारण वैष्णव मूर्ततयों का तनमाशण स्वाभातवक था।
देवताओं को मानवीय अकार ददया गया हालांदक ईनकी ऄनेक भुजाएं बनायी जाती थीं तजसमें
ईस देवता के गुणों से सम्बंतधत प्रतीक बना ददए जाते थे।
गुप्त काल की तर्ल्प कला का जन्म तवर्ेषतः मथुरा र्ैली िारा स्थातपत प्रततमानों पर अधाररत
था। र्ैव सम्प्रदाय में ललग पूजा का महत्त्व होने के कारण तर्ल्प के तलए संभावनाएं नहीं थीं।
आस काल में मुख्यतः तवष्णु के ऄवतारों की प्रततमाएं बनायी गईं।
o तवष्णु की प्रतसद्ध प्रततमा देवगढ़ के दर्ावतार मंददर में है।
o आस ‘ऄनन्तर्ायी’ मूर्तत में तवष्णु को र्ेषनाग की र्ैया पर दर्ाशया गया है।
o आसी प्रततमा में तर्व, आं द्र, कार्ततके य, ब्रह्मा तथा लक्ष्मी का भी ऄंकन दकया गया है।
o ऄवतारों में वराह की ऄनेक प्रततमाएं बनाइ गईं।
o ईदयतगरर में प्राप्त मूर्तत में र्रीर मनुष्य का है तथा मुख वराह का।
o एरण से भी वराह की ईल्लेखनीय मूर्तत प्राप्त हुइ है।
गुप्तकाल में मूर्ततकला की एक नवीन तवधा तवकतसत हुइ तजसे ‘सारनाथ मूर्ततकला र्ैली’ कहा गया
जो सारनाथ के पास तवकतसत हुइ।
आस कला परम्परा में ‘बुद्ध’ तथा ‘बोतधसत्वों’ की ऄनेक मूर्ततयों का तनमाशण हुअ।
सारनाथ में बुद्ध की कइ मूर्ततयों में सादे पारदर्ी संघाटी वस्त्र दोनों कं धों को ढंके हुए हैं और
मस्तक के पीछे चारों ओर बहुत कम ऄलंकरणयुि प्रभामंडल (Halo) है जबदक मथुरा में बुद्ध की
मूर्ततयों में चुन्नटदार संघाटी और मस्तक के चारों ओर प्रभामंडल में प्रचुरता से ऄलंकरण तनरं तर
ईत्कीणश दकये जाते रहे।
सुल्तानगंज से प्राप्त बुद्ध मूर्तत ईल्लेखनीय ईदाहरण है (उंचाइ में 7.5 फीट)।
ईत्खनन के दौरान प्राचीन मंददरों के भी ऄवर्ेष सामने अए हैं। राजस्थान में जयपुर के बैराट तजले में
इसा पूवश तृतीय र्ताब्दी का एक मौयशकालीन गोलाकार ईंट और आमारती लकड़ी का मंददर तमला है।
गुप्त काल के पूवश बने ये मंददर सुरतक्षत रूप में नहीं हैं।
ये मंददर ईंट तथा लकड़ी जैसी नष्टप्राय सामतग्रोयों से तनर्तमत थे, ऄतः आनके ऄवर्ेष नहीं प्राप्त होते
हैं।
गुप्त काल से भारतीय मंददर वास्तुकला का प्रारं भ माना जाता है क्योंदक यही वह काल है जब
मंददरों तनमाशण में पाषाण का प्रयोग प्रारं भ हुअ। आससे मंददरों में सुदढ़ृ ता एवं स्थातयत्व अया।
मंददरों के तनमाशण की तकनीक एवं ईसके स्वरुप पर कु छ ग्रोन्थ तलखे गए जैसे- तर्ल्प-र्ास्त्र, वास्तु-
र्ास्त्र, तर्ल्प-प्रकार्, मानसोल्लास, मानसार, वृहत्संतहता, ऄपरातजतपृच्छा, समरांगणसूत्रधार
अदद ।
गुप्त काल के मंददरों के पांच मुख्य प्रकार थे:
1) वगाशकार गभशगह
ृ के उपर सपाट छत तथा हलके स्तम्भयुि िारमंडप; जैस-े ततगवां का कं काली
देवी मंददर और एरण का तवष्णु वराह मंददर। मंददर के गभशगृह में एकल प्रवेर् िार और एक ड्योढ़ी
(मंडप) यहां पहली बार प्रकट होता है।
2) मंददरों के दूसरे समूह की तवर्ेषता है दक यहां गभशगह
ृ के चारों ओर ढका हुअ प्रदतक्षणापथ है
तथा कहीं-कहीं गभशगह
ृ के उपर दूसरी मंतजल भी प्राप्त होती है; ईदाहरणस्वरुप भूमरा का तर्व
मंददर (मध्यप्रदेर्) और नचना कु ठार (म.प्र.) का पावशती मंददर (दो मंतजला)।
3) वगाशकार मंददर के उपर नीचा तथा छोटा (नाटा) तर्खर; स्तम्भयुि मंडप तथा अधार पर एक
उाँचा चबूतरा है; ईल्लेखनीय ईदाहरणों में देवगढ़ का दर्ावतार मंददर (झांसी) और भीतरगांव
(कानपुर) का ईंटों का मंददर हैं। आन दोनों की तततथ छठीं र्ताब्दी इसवी है।
आस चरण की सबसे ऄतितीय ईपलतब्ध "वक्रीय तर्खर" थी।
देवगढ़ मंददर एक उाँचे चबूतरे पर तनर्तमत है, जहााँ तक पहुाँचने के तलए चारों ददर्ाओं में सीदढ़यों
की कतार है।
प्रत्येक कोने पर एक-एक ईप मंददर होने के कारण यह ‘पंचायतन प्रकार’ का मंददर है।
‘पंचायतन र्ैली’ के मंददर ऐसे मंददर हैं, तजनमें मुख्य देवता या देवी को मुख्य मंददर में स्थातपत
दकया जाता था और ईसके चारों ओर गौण मंददरों में चार ऄन्य देवता रखे जाते थे।
वास्तुतर्ल्पीय ग्रोन्थ ‘तर्ल्पर्ास्त्र’ के ऄनुसार मंददरों की तीन पृथक िेतणयां हैं। मंददर वास्तुकला को
र्ैलीगत (बनावट के अधार पर) तथा क्षेत्रीय तवतवधता के अधार पर तनम्नतलतखत भागों में तवभातजत
दकया गया है -
1. नागर र्ैली (Nagar Style)
2. द्रतवड़ र्ैली (Dravid Style)
3. बेसर र्ैली (Vesar Style)
नागर र्ैली
नागर र्ैली के मंददरों के गभशगह
ृ तल तवन्यास में वगाशकार होते हैं तथा उध्वश तवन्यास में तर्खर
गोलाइ तलए होते हैं तजनकी रे खाएं ततरछी और चोटी की ओर झुकी हुइ होती हैं, तजसके र्ीषश पर
अमलक और कलर् की व्यवस्था होती है।
तहमालय पवशत से लेकर तवन्ध्य पवशत के बीच के क्षेत्र से जो मंददर प्राप्त हुए वे नागर र्ैली की
तवर्ेषताओं को धारण दकये हुए हैं।
प्रांतीय अधार पर भी आन मंददरों में पयाशप्त तवभेद है, ऄतः आनके तवतवध नामकरण दकये गए हैं
जैस-े ईड़ीसा के मंददर, गुजरात के मंददर, पवशतीय मंददर।
ऄल्ची मतन्दर संकुल जम्मू-कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र में तस्थत है जो पवशतीय मंददर का ईत्कृ ष्ट
ईदाहरण है।
द्रतवड़ र्ैली
द्रतवड़ र्ैली के मंददरों के गभशगह ृ भी वगाशकार होते हैं तथा ईध्वश-तवन्यास में तवमान (तजसे नागर
र्ैली में तर्खर कहा जाता है) सीढ़ीदार तथा तपरातमडाकार होते हैं। तवमान के उपर का र्ीषश भाग
स्तूपी/ स्तूतपका (जो नागर र्ैली के कलर् की भांतत है) कहलाता है।
द्रतवड़ र्ैली के ऄतधकााँर् मंददर तवर्ाल प्रांगण से तघरे होते हैं, तजसके ऄन्दर कइ ऄन्य मंददर, कक्ष,
जलकुं ड अदद बने होते हैं।
प्रांगण का मुख्य प्रवेर् िार गोपुरम (र्ीषश के दोनों छोरों पर गाय की सींग जैसी अकृ तत के कारण)
कहलाता है जो द्रतवड़ र्ैली की एक मुख्य तवर्ेषता है।
क्षेत्रीय अधार पर आस र्ैली के मंददर कृ ष्णा-तुंगभद्रा नदी से लेकर कु मारी ऄंतरीप तक पाए जाते
हैं।
चोल, पल्लव, राष्ट्रकू ट, पांड्य अदद राजवंर्ों ने आस र्ैली को संरक्षण ददया।
बेसर
‘बेसर’ का र्ातब्दक ऄथश ही है ‘तमतित’।
ऄतः नागर तथा द्रतवड़ र्ैली के मंददर वास्तु तकनीक के तमिण से तवन्ध्य पवशत तथा कृ ष्णा नदी के
बीच के संक्रमण क्षेत्र में स्वतः प्रस्फु रटत हुइ र्ैली को बेसर र्ैली की संज्ञा दी गइ।
आसमें मंददर तवन्यास में द्रतवड़ र्ैली तथा रूप में नागर र्ैली का होता है।
चालुक्य तथा होयसल नरे र्ों ने आस र्ैली को संरक्षण प्रदान दकया।
मंददर वास्तुकला की वह र्ैली जो ईत्तरी भारत में लोकतप्रय है आसे ‘नागर र्ैली’ के रूप में जाना
जाता है।
आस प्रकार के मंददरों को पत्थर के एक उाँचे चबूतरे (जगती) पर बनाया जाता है तजनमें उपर चढ़ने
के तलए सीदढयााँ (सोपान) होती हैं, ईत्तर भारत में लगभग सभी मंददरों के तलए यह सामान्य बात
है।
यह एक चौकोर (वगाशकार) मंददर होता है तजनके प्रत्येक तल/ दीवार के मध्य भाग में क्रम से
प्रक्षेपण तनकले होते हैं तजसे ‘रथ’ कहा जाता है।
प्रारम्भ में दीवार को तीन क्षैततज भागों में तवभातजत दकया गया था तजन्हें ‘तत्ररथ मंददर’ कहा
जाता था। बाद में पंचरथ, सप्तरथ और नवरथ मंददर भी बनाए जाने लगे।
तर्खर उपर जाते हुए ईत्तरोत्तर ऄन्दर की ओर झुके हुए होते हैं और एक ऄंडाकार परट्टका -तजनके
दकनारे ईभरे हुए होते हैं- के िारा ढंके होते है, आन्हें ‘अमलक’ कहा जाता है। यह आसे ईठान प्रदान
करता है।
आस प्रकार आस र्ैली की दो प्रमुख तवर्ेषताएं हैं-
o क्रॉस अकार का तल तवन्यास।
o वक्ररे खीय तर्खर।
आस र्ैली के मंददरों में बाद के काल में ढंका हुअ प्रदतक्षणापथ भी प्राप्त होता है ऐसे मंददर
कक्षासनों से युि होते थे, तजन्हें ‘सान्धार मंददर’ भी कहा जाता है।
तजन मंददरों में प्रदतक्षणापथ नहीं होते ईन्हें ‘तनरं धार मंददर’ कहा जाता है।
यह सरल तर्खर, सबसे सामान्य प्रकार का है, अधार वगाशकार और आसकी दीवारों की ढलान
उपर एक लबदु पर चारों ओर से अकर तमलती हैं।
आस प्रकार के र्ीषश को लैरटना (Latina) या तर्खर का रे खा-प्रसाद कहा जाता है।
ओतडर्ा के मंददरों की मुख्य वास्तुतर्ल्पीय तवर्ेषताएं तीन भागों में वगीकृ त हैं- रे खा-देईल, पीढ़ा-
देईल और खाखरा-देईल।
मुख्य मंददरों में से ऄतधकांर् प्राचीन कललग - अधुतनक पुरी तजला, भुवनेश्वर या प्राचीन
B. खजुराहो / चंदल
े र्ैली (Khujuraho/ Chandel school)
बुंदल
े खंड के चंदल
े राजाओं के ऄंतगशत 10 वीं और 11 वीं सदी में वास्तुकला की एक महान तवधा
तवकतसत हुइ।
आस र्ैली का एक ईदाहरण खजुराहो मंददरों का समूह, मध्य प्रदेर् में है।
एक सवोत्कृ ष्ट र्ैव मंददर, कं दररया महादेव मंददर के रूप में जाना जाता है, तजसका तनमाशण चंदल
े
नरे र् गंड िारा लगभग 1000 इसवी के अस-पास करवाया गया था।
सभी मंददर, पूवश से पतश्चम की ओर एक ही धुरी पर तनर्तमत हैं, जो ज्यादा बड़ी नहीं हैं जबदक
ओतडर्ा में यह ऄलग-ऄलग तत्त्व के रूप में ड्योढ़ी िारा जुड़े हुए हैं।
समस्त मंददरों में ऄधशमड
ं प, मंडप, ऄंतराल व गभशगह
ृ हैं बाद में महामंडपों का तवकास भी ददखता
है।
मंददरों में गभश गृह तक जाने के तलए एक छोटा गतलयारा होता था, तजसको ऄंतराल कहा जाता है।
मंददर तनमाशण में पंचायतन र्ैली का प्रयोग दकया गया है।
गभशगृह पर तनर्तमत तर्खर सबसे उाँचा है जो ईतुग
ं िृग
ं ों (लघु तर्खर) की िेतणयों से बना है जो
एक के बाद एक उपर नीचे होते हुए उंचान की ओर बढ़ते हुए गभशगृह पर तनर्तमत तर्खर में तनतहत
हो जाते हैं।
ऄलग-ऄलग भागों की छतें भी ऄलग-ऄलग हैं- ऄधशमंडप का तर्खर सबसे नीचा और मंडप,
ऄंतराल व गभशगृह के तर्खर क्रमर्ः उाँचे होते गए हैं और आसे एक पहाड़ी िृंखला का स्वरुप प्रदान
करते हैं।
खजुराहो के मंददरों को भी आसकी व्यापक कामुक मूर्ततयों के तलए जाना जाता है-
o कामुक ऄतभव्यति को अध्यातत्मक खोज के रूप में मानव ऄनुभव में समान महत्व ददया
जाता है और आसे एक सम्पूणश ब्रह्मांडीय तहस्से के रूप में देखा जाता है।
o आसीतलए कइ लहदू मंददरों पर तमथुन मूर्ततयों (अललगनबद्ध जोड़े) को मांगतलक तचन्ह के रूप
में बनाया गया है।
o अमतौर पर, ये मंददर के प्रवेर् िार पर या बाहरी दीवार पर या मंडप और मुख्य मंददर के
बीच की दीवारों पर भी ईत्त्कीणश दकए गए हैं।
o कु छ आततहासकार आन तमथुन मूर्ततयों की ईपतस्थतत को सामंती प्रभाव का लक्षण मानते हैं तो
कु छ आसे तांतत्रक प्रभाव मानते हैं।
मोढेरा का सूयश मंददर ग्यारहवीं सदी के पूवाशधश का है और 1026 इसवी में सोलंकी वंर् के राजा
भीमदेव- प्रथम िारा बनवाया गया था। सोलंकी परवती चालुक्यों की एक र्ाखा थे।
o उंची जगती पर खड़ा यह मंददर तीन भागों में तवभातजत है -आनमें
1. प्रदतक्षणापथ सतहत गभशगह
ृ , ऄंतराल, एक बंद मंडप तथा गूढ़मंडप युि मंददर की
व्यवस्था
2. सभा-मंडप व तोरण
के कुं ड पतवत्र वास्तु का तहस्सा थे तजस पर ईस समय बहुत ऄतधक ध्यान ददया गया और
ग्यारहवीं र्ताब्दी तक वे कइ मंददरों का एक ऄतभन्न ऄंग बन गए थे।
100 वगश मीटर क्षेत्रफल का यह अयताकार तालाब भारत के भव्य मंददर कुं डों में से एक है।
मंददर का मुहाना पूवश की ओर होने के कारण सादा छोड़ ददया गया है, प्रत्येक वषश तवषुवों के समय
सूयश मंददर:
सूयश मंददर, मोढ़ेरा
यह मंददर गुजरात के मोढ़ेरा में तस्थत है।
आस मंददर का तनमाशण सम्राट भीमदेव सोलंकी प्रथम ने करवाया था।
सोलंकी सूयव
श ंर्ी थे, वे सूयश को कु लदेवता के रूप में पूजते थे। आसतलए ईन्होंने ऄपने अराध्य देवता
की अराधना के तलए एक भव्य सूयश मंददर बनवाया।
भारत में तीन सबसे प्राचीन सूयश मंददर हैं तजसमें पहला ओतडर्ा का कोणाकश मंददर, दूसरा जम्मू में
तस्थत मातंड मंददर और तीसरा गुजरात के मोढ़ेरा का सूयश मंददर।
कोणाकश सूयश मंददर
ओतडर्ा राज्य मे पुरी के तनकट कोणाकश का सूयश मंददर तस्थत है।
कोणाकश सूयश मंददर सूयश देवता को समर्तपत है।
रथ के अकार में बनाया गया यह मंददर भारत की मध्यकालीन वास्तुकला का ऄनोखा ईदाहरण है।
आस सूयश मंददर का तनमाशण राजा नरलसहदेव ने 13वीं र्ताब्दी में करवाया था।
मंददर ऄपने तवतर्ष्ट अकार और तर्ल्पकला के तलए पूरे तवश्व में प्रतसद्ध है।
तहन्दू मान्यता के ऄनुसार सूयश देवता के रथ में बारह जोड़ी पतहए हैं और रथ को खींचने के तलए
ईसमें 7 घोड़े जुटे हुए हैं।
रथ के अकार में बने कोणाकश के आस मंददर में पत्थर के पतहए और घोड़े हैं।
मातंड सूयश मंददर
यह मंददर जम्मू एवं कश्मीर राज्य के पहलगाम के तनकट ऄनंतनाग में तस्थत है।
आस मंददर का तनमाशण मध्यकालीन युग में 7वीं से 8वीं र्ताब्दी के दौरान हुअ था।
सूयश राजवंर् के राजा लतलताददत्य ने आस मंददर का तनमाशण एक छोटे से र्हर ऄनंतनाग के पास एक
पठार के उपर दकया था।
आसकी गणना लतलताददत्य के प्रमुख कायों में की जाती है।
आसमें 84 स्तंभ हैं जो तनयतमत ऄंतराल पर रखे गए हैं।
मंददर को बनाने के तलए चूने के पत्थर की चौकोर ईंटों का ईपयोग दकया गया है, जो ईस समय के
कलाकारों की कु र्लता को दर्ाशता है।
बेलाईर सूयश मंददर
तबहार के भोजपुर तजले के बेलाईर गांव के पतश्चमी एवं दतक्षणी छोर पर ऄवतस्थत वेलाईर सूयश
मंददर काफी प्राचीन है। आस मंददर का तनमाशण राजा सूबा ने करवाया था।
राजा िारा बनवाए 52 पोखरों मे एक पोखरे के मध्य में यह सूयश मतन्दर तस्थत है।
झालरापाटन सूयश मंददर
झालावाड़ का दूसरा जुड़वा र्हर झालरापाटन को तसटी ऑफ वेल्स यानी घारटयों का र्हर भी कहा
जाता है।
र्हर के मध्य तस्थत सूयश मंददर झालरापाटन का प्रमुख दर्शनीय स्थल है।
वास्तुकला की दृतष्ट से भी यह मंददर ऄहम है।
आसका तनमाशण दसवीं र्ताब्दी में मालवा के परमार वंर्ीय राजाओं ने करवाया था।
मंददर के गभशगृह में भगवान तवष्णु की प्रततमा तवराजमान है।
आसे पद्मनाभ मंददर भी कहा जाता है।
औंगारी सूयश मंददर
नालंदा का प्रतसद्ध सूयश धाम औंगारी और बडग़ांव के सूयश मंददर देर् भर में प्रतसद्ध हैं।
कहा जाता है दक भगवान कृ ष्ण के वंर्ज साम्ब कु ष्ठ रोग से पीतड़त था। आसतलए ईसने 12 जगहों पर
भव्य सूयश मतन्दर बनवाए थे और भगवान सूयश की अराधना की थी। ऐसा कहा जाता है तब साम्ब
को कु ष्ठ से मुति तमली थी। ईन्ही 12 मतन्दरों में औंगारी सूयश मंददर एक है।
ऄन्य सूयश मंददरों में देवाकश , लोलाकश , पूण्याकश , कोणाकश , चाणाकश अदद र्ातमल है।
ईनाव का सूयश मंददर
ईनाव के सूयश मंददर का नाम बह्यन्य देव मतन्दर है।
यह मध्य प्रदेर् के ईनाव (दततया के तनकट) में तस्थत है।
आस मतन्दर में भगवान सूयश की पत्थर की मूर्तत है, जो एक ईंट से बने चबूतरे पर तस्थत है। तजस पर
काले धातु की परत चढी हुइ है। साथ ही साथ 21 कलाओं का प्रतततनतधत्व करने वाले सूयश के 21
तत्रभुजाकार प्रतीक मंददर पर ऄवलंतबत हैं।
रणकपुर सूयश मंददर
राजस्थान के रणकपुर नामक स्थान में ऄवतस्थत यह सूयश मंददर, नागर र्ैली मे सफे द संगमरमर से
बना है।
यह सूयश मंददर जैन ऄनुयातययों के िारा बनवाया गया था
रांची सूयश मंददर
रांची से 39 दकलोमीटर की दूरी पर रांची टाटा रोड़ पर तस्थत यह सूयश मंददर बुंडू के समीप है।
VISIONIAS
www.visionias.in
तवषय सूची
1. दतिण भारत में मंददर वास्तुकला __________________________________________________________________ 4
दतिण भारतीय मंददर, वास्तुकला की ‘द्रतवड़ शैली’ में तनर्तमत दकये गए।
यह शैली 7 वीं से 14 वीं शताब्दी इसवी के मध्य अधुतनक ततमलनाडु में तनरपवाद रूप से सहदू
मंददरों के तलए प्युक्त हुइ। आसकी मुख्य तवशेषता तपरातमडाकार या कु टटना (KUTINA) प्कार के
तवमान हैं।
कनामटक (पूवम मैसरू ) और अंध्र प्देश राज्यों में भी आसके तवतभन्न रूप प्ाप्त होते हैं।
आस शैली की मुख्य तवशेषताएं तनम्नतलतखत हैं-
o गभमगृह के उपर एक-के -बाद-एक कइ मंतजलों का तनमामण।
o मंतजलें पांच से सात तक होती थीं और तपरातमड अकार में धीरे -धीरे घटती मंतजलों की व्यवस्था
के अधार पर बनी हुइ थीं। आस शैली को तवमान शैली कहा जाता है।
o प्त्येक मंतजल पर लघु मंददरों की मुंडरे (रे सलग) तनर्तमत है तजनकी छत कोनों पर वगामकार और
मध्य में अयताकार तथा गजपृष्ठाकार है।
o तवमान एक गुंबद जैसी संरचना से ढका हुअ है, तजसे स्तूतपका कहते हैं।
o मंददर के मुख्य भवन के सामने सामादयतः स्तम्भों पर बना हुअ एक तवशाल कि होता था तजसकी
छत सपाट होती थी। स्तम्भों को खूब ऄलंकृत दकया जाता था। आस कि को मंडपम कहते हैं।
o आस कि का ईपयोग श्रोता कि के रूप में दकया जाता था। आसके ऄलावा तवशेष त्योहारों और
ईत्सवों के ऄवसर पर अयोतजत नृत्य समारोहों अदद के तलए भी आनका ईपयोग दकया जाता था।
o आनमें देवदातसयााँ नृत्य दकया करती थीं। ये देवदातसयााँ देवताओं की सेवा में समर्तपत तियााँ होती
थीं।
o कभी-कभी मुख्य मंददर के चारों ओर प्दतिणा पथ बना ददया जाता था।
o प्दतिणा पथ में मंददर के ऄतधष्ठाता देवता को छोड़कर ऄदय देवी देवताओं की प्ततमा भी रखी
जाती थीं।
o मंददर के चारों ओर एक तवशाल प्दतिणा पथ होता था जो उंची चारदीवारी से तघरा होता था।
o चारदीवाटरयों में जगह-जगह उाँचे ससहद्वार बने होते थे तजदहें ‘गोपुरम’ कहा जाता था।
o कालांतर में तवमानों की उंचाइ बढ़ती गइ और अंगनों की संख्या दो-दो तीन-तीन तक पहुाँच गइ।
साथ ही गोपुरम को भी ऄतधकातधक ऄलंकृत दकया जाने लगा।
o आस प्कार मंददर एक प्कार का छोटा शहर या प्ासाद बन गया, तजसमें पुरोतहतों के रहने के कमरे
के ऄततटरक्त ऄदय बहुत से कि होते थे।
o मंददर की वाह्य दीवारें तभति स्तंभों से तवभातजत हैं और आनमें अले (Niches) बनाकर मूर्ततयााँ
ईत्कीणम की गयी हैं।
द्रतवड़ शैली की ईत्पति गुप्त काल से मानी जा सकती है। जब ईिर-मध्य भारत में गुप्त काल था,
ईसी समय ततमल प्देश में पल्लवों ने आस शैली में भवनों के तनमामण को प्श्रय ददया।
तवकतसत शैली के प्ारतम्भक ज्ञात ईदाहरणों में 7 वीं शताब्दी इसवी के महाबलीपुरम के
शैलोत्कीणम मंददर तथा महाबलीपुरम के तट मंददर जैसे तवकतसत संरचनात्मक मंददर ईल्लेखनीय
हैं।
पल्लव नरे शों ने छठीं से दसवीं शताब्दी के मध्य ततमल प्देश में राज्य दकया।
पल्लवकालीन वास्तुकला के ईदाहरण कांचीपुरम तथा महाबलीपुरम में पाए जाते हैं।
आस वंश के प्मुख शासकों- महेदद्रवममन, नरससहवममन, राजससहवममन तथा नतददवममन ने 600
इसवी से 900 इसवी के मध्य लगभग 300 वषों तक शासन दकया। प्त्येक शासक के काल में एक
तवतशष्ट शैली प्स्फु टटत हुइ, तजसे वास्तुकलातवद पसी िाईन ने दो समूहों तथा चार भागों में
तवभक्त दकया है –
आस शैली के ऄतधकााँश मंददर मामल्लपुरम में ही कें दद्रत हैं, तजसे आस शैली के प्णेता नरससह वममन
ने स्थातपत दकया था।
आस शैली के ऄंतगमत मंडप तथा रथों (एकाश्मक मंददर) का तनमामण हुअ।
ये मंडप महेंद्र शैली के मंडपों की ऄपेिा ऄतधक तवकतसत और ऄलंकृत हैं।
मंडपों की एक मुख्य तवशेषता आनके स्तम्भ हैं।
ये स्तम्भ ससहों के तसर पर तस्थत हैं, ये नालीदार हैं तथा शीषम भाग मंगलघट अकार का है।
‘रथ’ तवशाल तशलाखंडों को काटकर बनाए गए हैं, जो ऄपनी सुददरता के तलए प्तसद्ध हैं।
रथ मंददर ऄपनी मूर्ततकला के तलए भी प्तसद्ध हैं। आन पर तवतभन्न देवी-देवताओं की मूर्ततयााँ
ईत्कीणम की गइ हैं।
मामल्ल शैली के रथ ‘सप्त पैगोडा’ के नाम से प्तसद्ध हैं, परदतु आनकी संख्या अठ है।
धममराज रथ सबसे बड़ा तथा द्रौपदी रथ सबसे छोटा है।
धर्मराज रथ र्ंदिर को द्रतवड़ शैली के ऄग्रदूत के रूप में माना जाता है।
रथ मंददर (महाबलीपुरम)
1.1.1.3. राजससह-शै ली
नरससह वममन तद्वतीय राजससह के काल में पत्थर काटकर तनर्तमत होने वाली कला का समापन हो
गया।
आस काल में स्वतंत्र मंददरों का तनमामण हुअ, जो गुहा में नहीं हैं।
आसे दतिण भारतीय मंददर स्थापत्य के ह्रास का चरण कहा जा सकता है।
आस काल में के वल छोटे मंददरों का तनमामण हुअ, जो पूवमवती मंददरों की प्ततकृ तत मात्र लगते हैं।
शैली में कोइ नवीनता नहीं है, परदतु स्तम्भशीषों का ऄतधक तवकास हुअ है।
पल्लव नरे शों ने तजस द्रतवड़ शैली का अरम्भ दकया, चोल नरे शों के काल में ईसका ऄत्यतधक
तवकास हुअ।
आस मंददर तनमामण कला का सवोत्कृ ष्ट ईदाहरण तंजौर का बृहदीश्वर मंददर है, तजसे 1003-1010
o आसका तवमान (तशखर) तीन भागों में तवभातजत है- अधार, मध्य भाग और शीषम भाग।
o अधार 50 फीट उाँचा है और यह मध्य भाग से कार्तनस द्वारा दो भागों में तवभक्त है।
o मध्य भाग उपर की ओर क्रमशः पतला होता गया है। तपरातमड अकार का यह भाग 13
मंतजलों में बनाया गया है।
o आन दोनों भागों की बाहरी दीवार मूर्ततयों और ऄलंकरणों से सुसतित हैं।
o शीषम भाग गोलाकार गुम्बद है, तजसके चारों ओर पंखदार ताखे (Niche) बने हुए हैं।
मंददर का एक दूसरा मुख्य ईदाहरण राजेंद्र चोल द्वारा 1025 इसवी के लगभग बनवाया गया
गंगक
ै ोंडचोलपुरम मंददर है। यह मंददर तशव को समर्तपत है।
चोल मंददर तवस्तृत प्ांगण के मध्य तनर्तमत हैं।
आसके प्दतिणापथ, प्ाचीर तथा गोपुरम सभी तवशाल हैं।
चार हाथ वाले द्वारपाल भी तवतशष्ट हैं।
पांड्य और तवजयनगर काल में ‘गोपुरम’ ने तवशाल और भव्य रूप धारण कर तलया तजसके सम्मुख
मुख्य मंददर गौड़ प्तीत होने लगे।
तशव (नटराज) की यह नृत्यरत तस्थतत लौदकक दुतनया के ऄंत के साथ जुड़ी हुइ है। तशव के तांडव
के दो स्वरुप हैं- रौद्र तांडव और अनंद तांडव।
तचत्र 4: नटराज
आस चोल मूर्तत में ईदहें ऄपने दाएं पैर पर खुद को संततु लत करते हुए ददखाया गया है। आसी पैर से
ईदहोंने ऄज्ञानता या भुलक्कड़पन के दानव ऄपस्मार को दबा रखा है। ये ऄपने बाएं पैर को
भुजंगत्रातसत (bhujangtrasita) मुद्रा में ईठाए हुए हैं, जो ततरोभाव का तनरूपण करता है।
ततरोभाव का ऄथम है, भक्त के के मन से माया या भ्रम के अवरण को ठोकर मार कर दूर करना।
आनकी चारों भुजाएं फै ली हुइ हैं और मुख्य हाथ ऄभयहस्त (ऄभय मुद्रा) मुद्रा में है, जो बुराइयों से
रिा का प्तीक है। आनका दातहना हाथ उपर की ओर ईठा हुअ है, तजसमें ईदहोंने ऄपना पसंदीदा
वाद्ययंत्र डमरू धारण दकया है। आस डमरू की ताल सृजन का प्तीक है।
उपरी बाएाँ हाथ में ऄतग्न या ज्वाला है, जो तवनाश का प्तीक है। आस प्कार तशव नटराज के रूप में
एक साथ सृजन और तवनाश दोनों के प्तीक हैं। ईनका दूसरा बायााँ हाथ ईठे हुए पैर की ओर आं तगत
करता है। यह ईठा हुअ पैर मोि का प्तीक है।
ईनके बालों का लच्छा दोनों ओर ईड़ता हुअ गोलाकार ज्वाला की माला को स्पशम कर रहा है। यह
गोलाकार ज्वाला आस नृत्यरत प्ततमा को चारों ओर से घेरे हुए है।
तवजयनगर के राजाओं ने 1336 इसवी से 1565 इसवी तक कृ ष्णा नदी से कु मारी ऄंतरीप के मध्य
शासन दकया।
आनकी राजधानी तवजयनगर थी।
14 वीं शताब्दी के मध्य में आन राजाओं के प्श्रय से यहां द्रतवड़-स्थापत्य शैली के एक तनजी
स्थानीय स्वरुप का तवकास हुअ।
पांड्य शासकों के समय ऄतधकांशतः ‘गोपुरम’ का ही तनमामण दकया गया था, परदतु तवजयनगर के
शासकों के काल में एक बार पुनः मंददरों का तनमामण प्ारं भ हुअ।
तवजयनगर शैली चालुक्य, होयसल, पांड्य और चोलों की शैली का संयोजन थी।
ऄतधकांश भवन प्ायः अग्नेय चट्टानों या कजली रं ग के पत्थरों से बने हुए हैं।
तजससे आनकी शैली में भी तवतभन्नता पायी जाती है, संभव है दक यह ऄंतर पत्थरों के कारण हो।
तवजयनगर के मंददरों की तनमामण योजना तवतशष्ट प्कार की है- ये मंददर उंचे परकोटे से तघरे हैं,
तजसके भीतर ऄनेक भवन बने हैं।
कें द्र में मुख्य मंददर की योजना है, तजसके गभमगृह में आष्ट देवता की मूर्तत है। अवश्यकतानुसार, आन
मंददरों में स्तम्भयुक्त कि, बारामदा तथा ऄदय किों का समावेश है।
मुख्य मंददर के पीछे एक ऄदय देवालय है, तजसमें देवी की प्ततमा स्थातपत है।
तवजयनगर शैली के ख़ास भवनों में ‘ऄम्मान मठ’ और ‘कल्याण-मंडप’ हैं।
ये मुख्य मंददर से तमलते जुलते हैं, पर अकार में छोटे हैं।
तवतशष्ट ऄवसरों पर मुख्य मंददर और ऄम्मान मठ की प्ततमाएं कल्याण मंडप तक प्दशमन और
पूजा के तलए लाइ जाती थीं।
यह मंडप वगामकार, ऄलंकृत स्तम्भों की पंतक्त से तघरा, बीच में प्लेटफामम ईठा और खुला हुअ है,
जो तवजयनगर शैली का ईत्कृ ष्ट नमूना है।
तवजयनगर में ‘गोपुरम’ पर ऄतधक सजावट की ऄवधारणा शुरू हुइ। आदहें प्ायः ‘रायगोपुरम’ कहा
जाता है।
ये गोपुरम पुरुषों, मतहलाओं, देवताओं और देतवयों की अदमकद मूर्ततयों से सुसतित हैं।
तवजयनगर के स्तंभों पर ऄलौदकक ऄश्वों की तथा ऄदय पशुओं की अकृ ततयााँ ईत्कीणम हैं। आस प्कार
के ऄलंकृत स्तम्भों का प्योग तवजयनगर शैली की महत्वपूणम तवशेषता है।
पांड्यों की वास्तुकला परम्परा को जीतवत रखने का श्रेय मदुरै/मदुरा के नायक वंश को है।
आदहोंने 1565 में ऄपनी स्वतंत्रता के बाद 16 वीं से 18 वीं शताब्दी तक शासन दकया।
तवजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद नायकों का ईदय हुअ। आदहोंने भी वास्तव में द्रतवड़ शैली की
कलात्मक परं परा को जारी रखते हुए आसे अगे बढ़ाया।
मदुरा के मंददरों में स्थापत्य-नवीनता नहीं है बतल्क यह पांड्य शैली का तवस्तृत और पटरवर्तधत रूप
ही है।
मदुरा के मंददरों में उाँचे गोपुरम तथा स्तंभों की योजना तवतशष्ट है।
आन स्तंभों में ऄलंकृत कोतनयााँ तथा ऄश्वों के तचत्रण की प्धानता है।
मदुरा मंददरों के स्तम्भ के धड़ भाग पर कु छ तवशाल मानवाकृ ततयां ईत्कीणम हैं जो संभवतः
दानकताम एवं ईनके पटरवार के सदस्यों के स्मृततस्वरूप ऄंदकत की गयीं हैं।
आस युग की वास्तुकला का सबसे प्तसद्ध ईदाहरण मदुरै का ‘मीनािी-सुददरे श्वर मंददर’ है।
o आस भव्य मंददर पटरसर में वास्तव में दो मंददर भवन है; प्थम सुददरे श्वर के रूप में तशव को
समर्तपत है, तो तद्वतीय ईनकी पत्नी मीनािी को।
o द्रतवड़ शैली की सभी तवशेषताओं के साथ एक ऄततटरक्त प्मुख तवशेषता ‘प्ाकारम’ या
चहारदीवारी का तनमामण है जो ऄत्यतधक अकषमक है।
o प्ाकारम तवशाल गतलयारे वाले ढके हुए प्दतिणापथ हैं।
o ये ढके हुए मागम मंददर के तवतभन्न भागों को एक दूसरे से जोड़ने में मुख्य भूतमका तनभाते थे।
o बारीक नक्काशी मंददर की सभी दीवारों पर ईत्कीणम है।
o मुख्य मंददर से ऄलग हटकर बना तवशाल सरोवर आस मंददर की एक मुख्य तवशेषता है। आसके
चारों ओर स्तम्भयुक्त बरसाती तथा सोपानमागम की व्यवस्था है। आस सरोवर को ‘स्वणमकमल-
सरोवर’ भी कहा जाता है। आस सरोवर के दतिण में एक भव्य गोपुरम है। आस सरोवर का
ईपयोग अनुष्ठातनक स्नान हेतु दकया जाता था।
मदुरा मंददरों के कु छ ऄदय ईदाहरण हैं जैसे- श्रीरं गम मंददर, जम्बुकेश्वर मंददर, तचदंबरम मंददर,
रामेश्वरम मंददर, ततरुवनमलइ मंददर अदद।
2. बे स र शै ली (Vesara Style)
‘नागर’ तथा ‘द्रतवड़’ शै तलयों के सतम्मश्रण से मं ददर का जो नवीन स्वरूप तनधाम टरत हुअ,
2.1. होयसल
मैसरू िेत्र में द्वारसमुद्र के होयसलों ने 11 वीं से 14 वीं शताब्दी के मध्य चालुक्य शैली को चरम
रूप प्दान दकया।
आस काल में बेसर शैली में एक ऄद्भुत पटरवतमन हुअ। आसके ऄंतगमत गभमगृह का वगम घूमता हुअ
बना तजससे ताराकार मंददरों का तनमामण हुअ।
o आन मंददरों में मुख्य तनमामण सामग्री के रूप में मुलायम बलुअ पत्थरों का प्योग दकया गया है।
o मंददरों को एक उाँची जगती पर बनाया गया है।
o मंडप के चारों ओर ऄनेक गभमगह ृ ों का तनमामण दकया गया।
o होयसलों ने मूर्ततयों के माध्यम से मंददरों के ऄलंकरण पर भी तवशेष ध्यान ददया।
o बाह्य और भीतरी दीवारें ऄलंकरण युक्त हैं।
o बेल्लूर का चेन्नाके शव मंददर, हेलेतबड का होयसलेश्वर मंददर तथा सोमनाथपुर का के शव
मंददर, होयसल साम्राज्य के कु छ प्तसद्ध मंददर हैं।
भारत में मुतस्लम शासन काल के दौरान भवन-तनमामण शैली में ऄनेक नइ तनमामण पद्धततयों की
शुरूअत हुइ। मंददरों तथा ऄदय धममतनरपेि भवनों के तनमामण में ऄपनाइ जा रही भवन तनमामण
शैली से यह बहुत ऄतधक तभदन थी।
आस्लामी शैली में पांरपटरक भारतीय शैली के भी ऄनेक तत्व समातवष्ट हुए और एक तमतश्रत शैली
का जदम हुअ तजसे ‘भारतीय-आस्लामी वास्तुकला शैली’ का नाम ददया गया।
आसने अधुतनक भारतीय, पादकस्तानी और बांग्लादेशी वास्तुकला पर ऄपना प्भाव डाला।
धममतनरपेि और धार्तमक दोनों प्कार के भवन भारतीय-आस्लातमक वास्तुकला से प्भातवत हैं।
आस्लामी वास्तुकला के मुख्य तत्व के रूप में ‘मेहराब’ और ‘सरदल’ (Beam) की शुरूअत हुइ,
तजसे तनमामण की मेहराब शैली कहा गया जबदक परं परागत भारतीय भवन-तनमामण शैली में
शहतीरी तशल्प का प्योग होता है, तजसमें स्तंभों, धरनों या शहतीर (Beam) और चौखट
(lintels) का प्योग दकया गया है।
गुलाम वंश की प्ारं तभक आमारतों में वास्ततवक आस्लामी भवन तनमामण शैली का प्योग नहीं दकया
गया। आसमें कृ तत्रम गुम्बदों और मेहराबों का प्योग दकया गया। बाद में, वास्ततवक मेहराब और
वास्ततवक गुंबदों की शुरूअत ददखाइ देती है। आसका प्ारं तभक ईदाहरण कु तुब मीनार के तनकट
तनर्तमत ऄलाइ दरवाजा है।
स्थापत्य कला में सजावटी िेकटों, छज्जों, चापांतर तत्रभुजाकार ऄलंकरणों अदद के प्योग की
शुरूअत हुइ।
छतटरयों, उंची मीनारों और ऄधम-गुम्बदीय दोहरे प्वेश द्वारों का प्योग भारतीय-आस्लामी
स्थापत्य कला की ऄदय ईल्लेखनीय तवशेषताएं हैं।
पारं पटरक सहदू स्थापत्य शैली या ऄलंकरण मुख्यत: प्कृ ततवादी है, तजसमें समृद्ध वनस्पतत जीवन
के साथ मानव और पशु अकृ ततयााँ भी प्दर्तशत की गइ हैं। आस्लाम में मानव पूजा और मूर्तत रूप में
आसका तनरूपण नहीं दकया जाता, ऄतः आमारतों और ऄदय भवनों पर सामादयतः ज्यातमतीय और
‘ऄरबैस्क तवतध’ का बड़े पैमाने पर प्योग दकया गया है।
ये तडजाआन पत्थर पर कम ईभरी हुइ नक्काशी, प्लास्टर पर कटाव, तचतत्रत या जड़ाउ अदद
माध्यमों से दकये गए हैं।
गारा या मोटामर (पत्थर के बड़े-बड़े टु कडु ों को एक दूसरे के उपर रखकर ईदहें लोहे की कीलों से
जोड़ा जाता था) के रूप में चूने का ईपयोग भी एक प्मुख तत्व था जो पारं पटरक भवन तनमामण
शैली से ऄलग था।
मकबरा वास्तुकला भी आस्लामी वास्तुकला की एक प्मुख तवशेषता है क्योंदक आस्लाम में मृतकों
को दफ़नाने की प्था ऄपनाइ गइ है। मक़बरा वास्तुकला की कु छ सामादय तवशेषताएं तनम्नतलतखत
हैं-
o एक गुब
ं दाकार कि (हुजरा), आसके कें द्र में एक स्मारक कि तथा पतिमी दीवार पर एक
मेहराब और भूतमगत कि में वास्ततवक कि होती है।
o मुगलों ने मकबरों के चारों ओर बागों की व्यवस्था करके मकबरा वास्तुकला को एक नया
अयाम ददया।
o मुगल कालीन मकबरे सामादयतः एक बहुत बड़े ईद्यान (बगीचे) पटरसर के कें द्र में तनर्तमत
दकए गए हैं, तजसे बाद में वगामकार खंडों में तवभातजत दकया गया, तजसे ‘चारबाग़ शैली’ कहा
जाता है।
o मुगलों ने भी तवतभन्न स्तरों पर चार-बाग शैली में तवशाल बगीचों और चबूतरों का तनमामण
करवाया।
o तवद्वानों ने बागवानी की चार-बाग शैली के तवकास को मुगलों की मूल भूतम काबुल घाटी को
माना है, जहां प्ाकृ ततक दृश्यों या भूभागों के अधार पर ईद्यानों और अवासीय पटरसरों का
तनमामण दकया गया था।
o मुगलों ने आस बगीचा शैली को तवरासत में पाया था, तजसे ईदहोंने भारत के नए भू-िेत्र के
ऄनुसार सवोत्कृ ष्ट तरीके से रूपांतटरत कर ददया। आस प्कार बागवानी की एक रूपांतटरत
शैली ‘चार-बाग’ पद्धतत का तवकास हुअ।
o मुगलों को जड़ाउ सजावट की एक पद्धतत ‘प्येत्रा द्यूरा’ को प्ारम्भ करने का श्रेय भी ददया
जाता है। अगरा में तनर्तमत एत्मादुदौला के मक़बरे में आसका प्योग दकया गया था।
जैसा दक उपर वर्तणत है, भारतीय-आस्लातमक वास्तुकला के ईद्भव के पूवम शहतीरी पद्धतत का
बड़े पैमाने पर प्योग दकया गया। परदतु आस्लामी शासन की स्थापना के साथ ही वास्तुकला
की मेहराबदार या चापाकार तवतध से आसे प्ततस्थातपत कर ददया गया। आन दोनों के बीच
प्मुख ऄंतर तनम्नतलतखत रूप में वगीकृ त दकया जा सकता है:
4. प्युक्त सामग्री पत्थर (Stone) ईंट, चूना और गारा (Brick, lime and
Mortar)
एक और प्ारं तभक मतस्ज़द ऄजमेर में है, तजसे ‘ऄढ़ाइ ददन का झोपड़ा’ के नाम से जाना जाता है।
यह भी तहददू मंददरों को नष्ट करने के बाद प्ाप्त सामग्री से ही तनर्तमत है।
आस ऄवतध को 'वास्तुकला का संकट काल' कहा जाता है क्योंदक सुंदरता की ऄपेिा शतक्त एकत्रण
पर ऄतधक ध्यान ददया गया था।
तुग़लक काल में ढलुअ दीवारों का प्चलन प्ारं भ हुअ तजसे ‘तनप्वण’ (Batter) कहा जाता है। आस
काल में मेहराब, धरन और सरदल के तसद्धांतों के समदवय का प्यास दकया गया।
एक तनतित सीमा तक तहददू शहतीरी तनमामण कला का प्योग ऄब भी जारी रहा; आस काल में
ऄवास्ततवक मेहराब और गुंबद सीटरया और बाआजेंटाआन से तवतशष्ट रूप से अयाततत हैं।
तुगलकाबाद का दकला, गयासुद्दीन का मकबरा, अददलाबाद का दकला, सतपुला (जहााँपनाह नगर
में दो मंतजला पुल तजसमें सात मेहराबों की योजना थी), शेख तनजामुद्दीन औतलया का मकबरा,
बारह खम्भा, तखकी मतस्ज़द, दफ़रोज़ शाह कोटला अदद आस काल के कु छ महत्वपूणम स्थापत्य हैं।
दीवारों से तघरा तवस्तृत रूप से सजा ईद्यान मकबरों को चारों ओर से घेरे रहता है, तजससे पूरी
भवन श्रृंखला में सौंदयम का समावेश होता है।
लोददयों के काल में भारत में पहली बार ददखने वाली एक नइ युतक्त थी ‘दोहरे गुम्बदों का
प्योग’। तजसका तवकतसत रूप हमें तसकं दर लोदी के मकबरे से प्ाप्त होता है। गुम्बदों की
उंचाइ बढ़ने के कारण यह युतक्त अवश्यक हो गइ थी।
लोदी काल में भवनों, तवशेषकर मकबरों को उाँचे चबूतरे पर तनर्तमत करवाया गया, तजससे
ईनका अकार ऄतधक बड़ा लगता था। कु छ मकबरे ईद्यानों के बीच में भी बनवाए गए, जैस-े
ददल्ली का लोदी ईद्यान।
तसकं दर लोदी ने अगरा शहर की स्थापना की और आसे ऄपनी राजधानी बनाया। आसने कु तुब
मीनार की मरम्मत भी करवाइ।
बंगाल के आस्लामी स्मारक ऄदय स्थलों पर पाइ जाने वाली ऐसी आमारतों से योजना और रूपरे खा
(तडजाआन) में ज्यादा तभन्न नहीं हैं। लेदकन तनमामण की ऄलग सामग्री और स्थानीय परं पराओं के
प्भाव ने ईदहें काफी तभन्नता प्दान की है।
ढलुवा कार्तनस वाली तथाकतथत ‘बंगाल’ छत को मुसलमानों ने ऄपनाया और बाद में यह ऄदय
िेत्रों में भी तवस्तृत हुइ। प्ाचीन काल से बंगाल के जलोढ़ मैदानों में ईंट ही तनमामण की मुख्य
सामग्री थी जो अज भी है।
पत्थर का प्योग मुख्यत: स्तंभों में दकया जाता था, जो नष्ट दकए गए मंददरों से तमले थे। ईंटों से
तनर्तमत होने के बावज़ूद भी बंगाल में स्तंभ अमतौर पर छोटे और अयताकार हैं और ईनका प्वेश
मेहराबदार है, क्योंदक िैततज तनमामण में पत्थर की अवश्यकता होती थी।
अवृत ईंट और चमकदार टाआलों का प्योग प्ायः ऄलंकरण में दकया जाता था।
गौड़ (बंगाल) में तनमामण और ऄलंकरण की आस शैली का प्तततनतधत्व करने वाली प्ारं तभक आमारत
है, बारबक शाह (1959-74) का ‘दातखल दरवाज़ा’ जो दक दकले के सामने एक ऄनुष्ठातनक
प्वेशद्वार है। आस भव्य स्थापत्य में उध्वामधर तोरणों के मध्य एक उाँचा मेहराबदार प्वेशद्वार और
कोनों पर पतली मीनारें हैं।
आसके ऄततटरक्त ज़फर खां गाज़ी का मकबरा, ऄदीना मतस्ज़द, आकलाखी मकबरा (जलालुद्दीन
मोहम्मदशाह का मकबरा) अदद बंगाल के कु छ प्तसद्ध स्थापत्य हैं।
गोल गुम्बद
3.1.3. मु ग़ ल वास्तु क ला
पटरचय
मुगलों के अगमन के साथ, आं डो-आस्लातमक वास्तुकला को एक रक्ताधान तमला क्योंदक लोददयों के
शासन काल के दौरान वास्तु गतततवतधयों में काफी तगरावट अ गइ थी।
मुगलों को आस बात का एहसास बहुत जल्दी हो गया दक वे तब तक भारत में एक स्थायी साम्राज्य
स्थातपत करने की ईम्मीद नहीं कर सकते, जब तक दक वे स्थानीय लोगों, तवशेष रूप से राजस्थान
के राजपूतों के साथ घुलतमलकर ईदहें स्वयं में समातहत न कर लें।
ददल्ली के सुल्तानों की तरह के वल सिा स्थातपत करने और दकसी भी तरह ऄपनी सल्तनत की
सुरिा करने से संतुष्ट होने, खुद को तवजेता सोचने, ऄपनी प्जा से खुद को पृथक करने और यह
सोचकर दक ईदहें शासन करने का सौभाग्य प्ाप्त हुअ है, देश की जनता और स्वयं के बीच व्यापक
खाइ बनाने के बजाय मुग़लों ने जानबूझ कर तहददुओं से मेल-तमलाप करने और शातदत स्थातपत
करने की नीतत ऄपनाइ।
ऄकबर ने, ऄपनी तहददू प्जा के साथ शांतत और सौहादम से रहने के तलए वह सब दकया जो संभव
था। ईसकी ‘सुलह-ए-कु ल’ की नीतत, ईसकी सहदू संस्कृ तत की खुली प्शंसा और एक नए ईदार धमम
‘दीन-ए-आलाही’ का प्भाव ईसकी वास्तुकला में भी पटरलतित होता है।
ऄपनी मााँ (जयपुर की राजकु मारी मटरयम ईज्ज्मानी) के एक राजपूत राजकु मारी होने के कारण
जहााँगीर रक्त से अधा तहददू था तजसका प्भाव ईसकी वास्तुकला पर भी ददखाइ पड़ता है।
शाहजहााँ ने भी सहदुओं के साथ सतहष्णुता और सम्मान की आस नीतत को जारी रखा।
मुगल साम्राज्य के साथ ही मुगल वास्तुकला भी ईनके सौम्य शासन के ऄधीन फली-फू ली और नइ
उंचाआयों पर पहुंच गइ, परदतु ऄंततम महान मुग़ल शासक तवशुतद्धवादी औरं गजेब के शासन काल
में ऄचानक ही यह समाप्त हो गइ।
3.1.3.1. बाबर
मुगल साम्राज्य का संस्थापक बाबर, संस्कृ तत और ऄसाधारण सौंदयम बोध वाला व्यतक्त था।
ईसने भारत पर ऄपने शासन के चार वषों में से ज्यादातर समय युद्धों में ही व्यतीत दकए।
वह रूपात्मक बगीचों का शौकीन था और कु छ बगीचों के तनमामण का श्रेय भी ईसे ददया जाता है।
आनमें कश्मीर के तनशात बाग़, लाहौर के शालीमार बाग़, कालका के तनकट सपजौर बाग़ तथा
अगरा के नजदीक अराम बाग़ (तजसे ऄब रामबाग कहा जाता है) ईल्लेखनीय हैं।
शायद कु छ मतस्जदों को छोड़ कर वास्तुकला की दृतष्ट से ईल्लेखनीय दकसी आमारत का तनमामण
बाबर के समय में नहीं हुअ।
ईसे संभल, ऄयोध्या और पानीपत (काबुलीबाग) की तजन मतस्जदों के तनमामण का श्रेय ददया जाता
है, वे पुरानी आमारतों में ही फे र-बदल करके बनवाइ गइ थीं ऄतः आससे स्थापत्य की ईसकी कल्पना
का पटरचय नहीं तमलता।
3.1.3.2. हुमायूाँ
बाबर की मृत्यु के बाद ईसके बेटे हुमायूं ने ईसका स्थान तलया, लेदकन शेरशाह सूरी द्वारा ईसे
भारत से बाहर कर ददया गया और इरान में शरण लेने के बाद, ऄंततः भारत लौटा और तसकददर
शाह सूर को हटा कर ऄपना ससहासन वापस प्ाप्त दकया।
हुमायूाँ कला के तवकास की दृतष्ट से कोइ सराहनीय कायम नहीं कर सका। ‘दीनपनाह’ नामक ईसका
महल शेरशाह द्वारा नष्ट कर ददया गया।
अगरा तथा फतेहाबाद में बनवाइ गयी ईसकी दो मतस्जदें कला के ऄच्छे नमूने नहीं माने जा
सकते।
3.1.3.3. शे र शाह
शेरशाह के स्वयं के मकबरे सतहत तबहार के सासाराम के मकबरों के तनमामण का श्रेय सूरों को ददया
जाता है।
शेरशाह के मकबरे का तनमामण लोददयों के ऄष्टभुजाकार नमूने को संतुतलत कर और ईसमें चारों
ओर बरामदा बनाकर दकया गया था, प्त्येक दीवार मेहराब युक्त है और हॉल एक बड़े और तवस्तृत
गुंबद द्वारा ढंका हुअ है।
सूटरयों ने, लाल और गहरे भूरे रं ग के पत्थरों के जालीदार परदे, सजावटी बुजों, तचतत्रत छतों और
रं गीन टाआलों का प्योग दकया।
पुराना दकला और आसके ऄददर बनी ‘दकला-ए-कु हना’ मतस्जद के तनमामण का श्रेय भी शेर शाह सूरी
को ददया जाता है।
पुराना दकला, मजबूत और मोटी दीवारों के साथ अधे तराशे हुए बड़े पत्थरों से बना हुअ है, आसमें
ऄलंकरण और सजावट बहुत कम है।
3.1.3.4. ऄकबर
हुमायूं का मक़बरा
o फारसी स्थापत्य कला से प्ेटरत मुगल वास्तुकला का पहला तवतशष्ट ईदाहरण, ददल्ली में हुमायूाँ का
मक़बरा है, तजसे ईसकी तवधवा, हाजी बेगम ने बनवाया था।
o यह मक़बरा ईिरवती मुगल स्थापत्य कला के तवकास के सही ऄध्ययन के तलए महत्वपूणम है।
o आस मकबरे ने अगरा के ताजमहल और लाहौर के शाहदरा में तस्थत जहााँगीर के मक़बरे के
वास्तुकारों को योजना बनाने के तलए प्ततमान स्थातपत दकया।
o हालांदक, तसकं दर लोदी का मक़बरा भारत में बनाया गया पहला ऐसा मक़बरा है, तजसके चारों
ओर ईद्यान है, परदतु हुमायूं के मक़बरे ने नया प्ततमान स्थातपत दकया।
o एक तवशाल चबूतरे पर तस्थत, यह मक़बरा वगामकार बागीचे के कें द्र में ऄवतस्थत है, यह दो
तवभाजक के दद्रीय जल नातलकाओं द्वारा बंटे हुये चार भागों (चार बाग़) द्वारा तवभातजत है।
o मकबरे की चौकोर, लाल बलुअ पत्थर से तनर्तमत दो मंतजली आमारत एक उाँचे चौकोर चबूतरे पर
खड़ी है जोदक किों की एक श्रृंखला पर बनी है और एक संगीतात्मक संयोजन की भांतत लगती है।
o स्मारक वाले ऄष्टकोणीय कें द्रीय कि की योजना पर सीटरया और प्ारं तभक आस्लातमक अदशों का
प्भाव था।
o आस आमारत में पहली बार गुलाबी बलुअ पत्थर और सफे द संगमरमर का ऄत्यंत प्भावी तरीके से
प्योग दकया गया।
o सफे द संगमरमर का प्योग दरवाज़ों और तखड़दकयों को ईभारने तथा ईनके चारों ओर घेरा बनाने
के तलए दकया गया है, जो तडजाआन को और मज़बूत बनाता है।
o पूरी आमारत में एक लयबद्धता देखने को तमलती है, चाहे वह ईसकी संततु लत रूपरे खा में हो या
समान अकार तलए गुंबदों वाले समान मंडपों पर तवशाल गुंबद की पुनरावृति में।
o मकबरा, फारसी वास्तुकला और भारतीय परं पराओं का सतम्मश्रण है जो दक ईसके मेहराबदार
अलों, गतलयारों और उाँचे दोहरे गुंबद तथा छतटरयों में ददखाइ पड़ता है। आन सबका ईतचत
संयोजन दूर से ईसे तपरातमड का अकार देता है।
o यह मज़बूत और तवशाल मकबरा एक समर्तपत पत्नी की एक महान सम्राट, तनभीक सेनानी और
बतलष्ठ पुरूष के प्तत एक प्ेमपूणम रचना है।
o ऄकबर के शासन काल में तनर्तमत होने के बावजूद हुमायूं के मकबरे के तनमामण में ऄकबर का कोइ
योगदान नहीं था।
का 1565 इसवी में तनमामण करवाया और 1574 इसवी में ईसे पूणम करा तलया।
o यह तनमामण कायम ऄकबर के प्धान कारीगर क़ातसम खां की देखरे ख में हुअ था।
o प्वेशद्वारों की ओर मुाँह दकए हुए बलुअ पत्थर की उाँची दीवारों के दोनों ओर बुजम, तवशाल सभा
गृह, महल, मतस्ज़द, बाज़ार, हम्माम, बगीचे ओर दरबाटरयों व ऄतभजात्य वगम के तलए घर थे।
o आसके पतिम का प्वेश द्वार 1566 इसवी में बनकर तैयार हुअ तजसे ‘ददल्ली दरवाजा’ कहा जाता
है।
o अगरा के दकले ने शाही दकलों के तनमामण की ऐसी रूपरे खा प्स्तुत की जो भावी दकलों के तलए एक
अदशम बन गइ।
फतेहपुर सीकरी सतहत ऄकबरी महल व ऄदय आमारतें लाल बलुअ पत्थर से बनी हैं और आनकी
तनमामण पद्धतत शहतीरी तथा आनका ऄलंकरण दयूनतम है।
जहांगीरी महल के ताखा, कोष्ठक/अले, टोडा (दीवार से तनकला भाग जो उपर के तहस्से को सहारा
दे) और दरवाज़ों के सरदल तथा दरवाज़ों के उपर बने छिे सतहत सभी पर प्चुर मात्र में गढ़न
(नक्काशी) का काम दकया गया है।
3.1.3.4.1.फ़ते ह पु र सीकरी
अगरा से 23 मील की दूरी पर सीकरी नामक एक गााँव तस्थत था, जहााँ सूफ़ी संत शेख़ सलीम
तचश्ती रहा करते थे।
आदहीं के प्भाव से ऄकबर को पुत्र प्ातप्त हुइ थी। ऄतः ऄकबर ने सीकरी को एक नगर का रूप
प्दान दकया, तजसे ‘फतेहपुर सीकरी’ के नाम से जाना जाता है। तजसकी योजना एक ऐसी
प्शासतनक आकाइ के रूप में तनर्तमत थी तजसमें सावमजतनक आमारतें और तनजी अवास एक दूसरे के
समीप थे।
1569 इसवी में फ़तेहपुर सीकरी का तनमामण कायम प्ारं भ हुअ तथा 1574 इसवी में यह पूणम हुअ।
आसी वषम अगरा के दकले का तनमामण कायम भी पूणम हुअ था।
फतेहपुर सीकरी एक साधारण और सघन नगर-िेत्र है तजसमें सभा गृह, महल, कायामलय, बगीचे,
मनोरं जन स्थल, हम्माम, मतस्ज़द और मकबरे हैं जो दक वास्तुकला के ईत्कृ ष्ट ईदाहरण हैं।
यहााँ की लगभग सभी आमारतें शहतीरी तशल्प पद्धतत पर अधाटरत हैं।
सबसे तवतशष्ट और सबसे प्तसद्ध आमारत ‘पंच महल’ है, जो यहां की सबसे उाँची और प्भावशाली
आमारत है, आसे पांच मंतजला महल भी कहते हैं।
o यह शहतीरी तशल्प पद्धतत की सहदू शैली पर अधाटरत है, तजसमें स्तंभ, दरवाजे का ढांचा और
कोष्ठक शातमल हैं।
o आसका के वल एक ऄपवाद है दक सम्पूणम आमारत के शीषम पर रखे सवोच्च गुंबद वाले मंडप को
जानबूझकर आमारत के मध्य में नहीं रखा गया है।
o संभवत: आस मीनार का प्योग सम्राट और शाही पटरवार के सदस्य मनोरं जन व तवश्राम के तलए
करते थे।
o एक के उपर एक छोटी होती मंतजलों वाली आस प्भावशाली आमारत के तनमामण के पीछे यह
तवचार था दक ढके हुए तहस्सों के सामने अराम और छाया के तलए खुले बारजे हों, हवादार और
खुले स्तंभों वाला बरामदा तजसकी तछदद्रत अड़ (रे सलग) हो आसका ईद्देश्य फशम पर बैठने वालों को
छाया और शुद्ध हवा पहुाँचाना था।
‘दीवान-ए-खास’ की योजना ऄतद्वतीय है।
नक्काशी कर पशु, पतियों और वृिों सतहत जंगल के दृश्यों को दशामया गया है।
o आसकी सजावट में काष्ठकला का ऄनुकरण दृतष्टगोचर होता है।
o फग्युमसन के शब्दों में एक ‘तवशालकाय अभूषण मंजष
ू ा’ में यह सवामतधक ऄलंकृत आमारत है।
आसके ऄततटरक्त जोधाबाइ का महल, हवा महल, मटरयम की कोठी, बीरबल की कोठी, तहरन
मीनार, बुलंद दरवाजा, शेख़ सलीम तचश्ती का मकबरा, नौ महला अदद फतेहपुर सीकरी के ऄदय
भवन हैं।
आसमें ‘बुलद
ं दरवाजे’ का तनमामण ऄकबर ने 1601 इसवी में ऄपनी ‘गुजरात तवजय’ के ईपलक्ष्य में
करवाया था।
o यह सीकरी की जामा मतस्ज़द की दतिणी दीवार में तनर्तमत है।
o यह स्मारक तवश्व का सबसे बडाऺ प्वेशद्वार है।
o आसकी योजना अयताकार है, तजसके दकनारे के दोनों भाग तीन मंतजले हैं और प्त्येक मंतजल
पर तखड़दकयों की योजना है तथा ऄग्र भाग के मध्य में मेहराबी मागम है।
o आसको सुसतित करने के तलए ईन पर कलश की योजना है।
o दरवाजे के अगे और स्तंभों पर कु रान की अयतें खुदी हुइ हैं।
o दरवाजेऺ के तोरण पर इसा मसीह से संबंतधत कु छ पंतक्तयााँ तलखी हैं। बुलंद दरवाज़े पर
बाआतबल की आन पंतक्तयों की ईपतस्थतत को ऄकबर को धार्तमक सतहष्णुता का प्तीक माना
जाता है।
3.1.3.6. शाहजहााँ
बाग़, झरोखा दशमन का स्थान, शाह-बुज़,म मोती-मतस्ज़द, नगीना मतस्ज़द अदद का तनमामण कराया।
अगरा में ही जामा मतस्ज़द, ददल्ली की जामा मतस्ज़द तथा लालदकला और आसमें बनीं हुइ
लाहौर के दकले में दीवान-ए-अम, शाह-बुज़,म शीश महल, नौलखामहल और खवाबगाह अदद
शाहजहााँ के समय की मुख्य आमारतें हैं।
शाहजहााँ ने सबसे रूमानी (प्ेम प्संग युक्त) और भव्य आमारत, ‘ताज महल’ का तनमामण
संगरमर की पृष्ठभूतम में बारीक ऄलंकरण और जाफरी का काम दकया गया है।
‘प्येत्रा द्यूरा’ कहते हैं। एत्मादुदौला के मक़बरे में यह युतक्त प्योग की गइ थी। जहााँगीर के काल
में प्ारम्भ हुइ यह पद्धतत शाहजहााँ के काल में ऄपने चरमोत्कषम पर पहुाँच गइ थी।
o स्वन की भांतत ईसकी कोमलता हो या दफर साथ ही बहुमूल्य जड़ाउ काम, ताजमहल की
नारीसहज तवशेषता, तजस खूबसूरत िी की याद में आसे बनवाया गया था, ईसी के समान
1638 इसवी में शाहजहााँ ने ऄपनी राजधानी अगरा से ददल्ली स्थानांतटरत की और शाहजहााँनाबाद
प्तसद्ध लाल दकले का तनमामण 1639 इसवी में प्ारम्भ हुअ और 9 वषम बाद यह पूणम हुअ।
o आस सुतनयोतजत आमारत की दीवारें , प्वेशद्वार और कु छ ऄदय ढांचे लाल बलुअ पत्थर से बने
o आसके स्तंभों पर ‘प्येत्रा द्यूरा’ ऄंलकरण है, जबदक उपरी तहस्से पर मूलत: सोने का पानी
महल की दीवारों पर फारसी में दोहे तलखे हुए हैं तजनमें दकले के तनमामण की तारीखें, तनमामण
पर हुअ खचम और प्तसद्ध ईतक्त ‘धरती पर यदद कहीं स्वगम है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है’
3.1.3.7. औरं ग ज़े ब
जहााँगीर और शाहजहााँ द्वारा भव्य आमारतों के तनमामण की प्दक्रया ऄंततम मुगल सम्राट औरं गज़ेब के
गद्दी संभालते ही ऄवरुद्ध हो गइ।
दफर भी ददल्ली के लाल दकले के ऄददर औरं गजेब ने संगमरमर की एक मतस्ज़द का तनमामण
करवाया तजसे मोती मतस्ज़द कहा जाता है। आसके ऄततटरक्त रातबया-ईद्द-दुरानी का मकबरा,
लाहौर की बादशाही मतस्ज़द का भी तनमामण औरं गजेब के ही शासन काल में हुअ।
मध्य काल के ऄतधकांश राजाओं के ऄतधकांश महल नष्ट हो चुके हैं। आस्लातमक वास्तुकला की कु छ
तवशेषताएं के वल मुतस्लम दकलों, महलों, मतस्जदों और मकबरों तक ही सीतमत नहीं थीं बतल्क
सहदुओं ने भी आसे ऄपनाया और कु छ स्थानीय तवशेषताओं के साथ ऄपनी आमारतों की योजना
ऄपनी प्थाओं और जीवन शैली के ऄनुरूप तैयार की।
आस प्कार के महलों में राजस्थान वैभवशाली है।
मुगलकाल के दौरान बनाए गए महलों की योजना एक दूसरे से तभन्न हो सकती है, लेदकन ईनमें
कु छ वास्तुतशल्पीय तवशेषताएं समान हैं जैसे दक-
o ईत्कीणम अलों पर टटके छिे
o स्तंभयुक्त छतटरयां तजनके उपर गुंबद है
o धाँसे हुए मेहराबों से युक्त वीतथकाएं
o बेल-बूटों से सजे हुए मेहराब
o जालीदार अवरण
o बंगाली शैली की वक्रकार छतें
o अयताकार अधार से ईठते समतल गुंबद
ये महल जोदक प्ायः पथरीली उाँचाआयों पर तस्थत हैं ऄततशय प्भावशाली ददखते हैं- अमेर/ऄंबरे ,
जयपुर, बीकानेर, जोधपुर, ईदयपुर, जैसलमेर आत्यादद के महल आनमें से कु छ ईत्कृ ष्ट ईदाहरण हैं।
आस प्कार स्थापत्य की एक तभन्न शैली की भारत में शुरुअत हुइ। हालांदक, तवक्टोटरयन शैली
ऄपने अप में मौतलक न होकर नक़ल मात्र थी, ऄतः आसमें आतना सामर्थयम नहीं था दक यह
भारतीय-आस्लातमक वास्तुकला की भांतत भारत में भारतीय-तिटटश वास्तुकला की शैली का
अरम्भ कर सके ।
भारत में तवक्टोटरयन वास्तुतशतल्पयों ने सावमजतनक भवनों के तनमामण में प्ाच्य (ओटरएंटल)
शैतलयों की नकल करने की गलती की है। लोहे (आस्पात) के सहारे खड़े ईंटों वाले गुम्बदाकार भवन
तवक्टोटरयन वास्तुकला के सबसे खराब स्वरुप थे। ऄंततः आसीतलए ईन्नीसवीं शताब्दी की ऄंग्रजे ी
शैली दकसी भी तरह से यहां प्चतलत पूवमगामी वास्तुकला की तुलना में ऄपना स्थान बनाने में
ऄसफल रही।
18 वीं शताब्दी में कु छ ऄदय तिटटश ऄतधकाटरयों ने वास्तुकला की पल्लतडयन (Palladian) शैली
को भारत में प्ारं भ दकए जाने की मांग की थी। कांसटेंतसया (Constantia) आमारत तजसे लखनउ
में जनरल मार्टटन द्वारा बनवाया गया, भारत में आस शैली का सबसे ऄच्छा नमूना है। क्रतमक रूप
से सीढ़ीदार छतों से उपर ईठता एक भव्य कें द्रीय बुजम आस शैली की एक महत्वपूणम तवशेषता है।
19 वीं शताब्दी के ईिराधम में भारत में कु छ यूरोपीय भवन तनमामताओं ने भारतीय और पतिमी
वास्तुकला के कु छ तत्वों और तवशेषताओं के तमश्रण का सवमश्रष्ठ
े प्यास दकया। आस ऄतभयान के
ऄग्रणी एक तसतवल सेवक, एफ. एस. ग्राईस थे।
जयपुर संग्रहालय और मद्रास में मूर बाजार (ऄब चेन्नइ में) आसी वास्तुकला के ईदाहरण हैं। पंजाब
के एक कु शल भवन तनमामता सरदार राम ससह ने लाहौर (पादकस्तान में) में के दद्रीय संग्रहालय और
सीनेट हाईस का तडजाआन तैयार दकया।
जी. तवटेट ने मुब
ं इ में गेटवे ऑफ आं तडया की तडजाआन बनाइ, तजसमें ईदहोंने मुग़ल वास्तुकला से
ऄनेक तत्वों को ईधार तलया।
तवक्टोटरया टर्तमनस स्टेशन, मुब
ं इ (तजसे ऄब छत्रपतत तशवाजी स्टेशन के रूप में जाना जाता है)
भारत में तवक्टोटरयन गोतथक पुनरुद्धार वास्तुकला का ईत्कृ ष्ट ईदाहरण है। आसको भारतीय
पारं पटरक वास्तुकला से व्युत्पन्न तवषयों के साथ तमतश्रत दकया गया।
तिटटश वास्तुकार एफ. डब्ल्यू. स्टीवंस द्वारा तडजाआन यह भवन, 'गोतथक तसटी' और भारत के
प्मुख ऄंतरामष्ट्रीय व्यापाटरक बंदरगाह बंबइ (ऄब, मुंबइ) का प्तीक बन गया। टर्तमनल 1878 में
शुरू होकर 10 साल से ऄतधक समय में बना जोदक ईिर मध्ययुगीन आतालवी मॉडल पर अधाटरत
तवक्टोटरयन गोतथक तडजाआन के ऄनुसार बनाया गया था। आसका प्स्तर गुंबद, बुज,म नुकीले
मेहराब और तवलिण भूतम योजना पारं पटरक भारतीय महल वास्तुकला के काफी तनकट है।
तिटटश वास्तुकारों ने भारतीय स्थापत्य परं परा को शातमल करने के तलए भारतीय तशतल्पयों के
साथ काम दकया और आस प्कार बंबइ (ऄब मुंबइ) के तलए ऄतद्वतीय एक नइ शैली गढ़ी गयी।
तवक्टोटरयन युग की ऄनेक आमारतों में कोलकाता और चेन्नइ के तगरजाघर, तशमला और लाहौर के
कै थेड्रल, लाहौर तथा कलकिा ईच्च दयायालय ईल्लेखनीय हैं। लेदकन आन आमारतों में से दकसी को
भी वास्तुकला के महान प्तीक के रूप में नहीं माना जा सकता है।
तवक्टोटरयन युग के ऄंत में भारत ने राष्ट्रीय जागरण और अंदोलन के युग में प्वेश दकया। आस युग
की वास्तुकला में ईस काल की साम्राज्यवादी अवश्यकताओं तथा राष्ट्रीय अकांिाओं के सतम्मलन
का प्तततबम्ब झलकता है।
o नोकदार तोरणद्वार
o कं गूरेदार तोरणद्वार
o गुम्बदाकार छत
o गुंबददार छतरी
o कइ लघु गुंबद
o बुजम
o लाट (टावर) और मीनारें
o खुले मंडप और तछदद्रत वीतथकाएाँ
दुभामग्य से तवक्टोटरया मेमोटरयल हॉल के वास्तुकार, तवतलयम आमसमन, तजदहोंने आससे पूवम बंबइ में
क्रॉफोडम माके ट तडजाआन दकया था, आसे भारतीय-तिटटश तनमामण शैली का एक ईल्लेखनीय नमूना
नहीं बना सके । आस भवन पर भारतीय तवतशष्टताएं अरोतपत कर दी गईं और ईस पर गुम्बद लगा
ददया गया, तजससे यह ताजमहल जैसा ददखना तो दूर ईसकी मामूली प्ततकृ तत भी नहीं बन सका।
आसी तरह मुम्बइ में सप्स ऑफ वेल्स म्यूतज़यम का तनमामण करते समय प्ाच्य तवतशष्टताओं की
नक़ल का प्यास भी सफल सातबत नहीं हुअ।
जब 1911 में भारत की राजधानी कलकिा से ददल्ली स्थानांतटरत करने का तनिय हुअ तो
तिटटश शासकों के सामने भारत में भव्य भवनों के तनमामण का एक महान ऄवसर ईपतस्थत हुअ।
मुख्य वास्तुकार सर एडतवन लुटटयन और ईनके सहयोगी सर एडवडम बेकर ने पहले नव-रोमन
शैली में भवनों के तडजाआन (खाका) तैयार दकये। लेदकन भारतीय पृष्ठभूतम में ये तडजाआन ऄनुतचत
ददखाइ ददए।
तिटटश वास्तुकारों ने ददल्ली के तलए ऄपनी योजना तैयार करने से पहले बौद्ध, सहदू और आस्लामी
तनमामण शैतलयों की तवतशष्टताओं का ऄध्ययन दकया। जब ऄंत में राजधानी ने ऄपनी भव्य आमारतों
के साथ स्वरुप ग्रहण दकया तो वायसरीगल महल के शीषम पर बौद्ध स्तूप जैसा एक बड़ा गुम्बद या
तशखर नजर अया और ऄतधकांश भवनों में तहददू ऄलंकरण और आस्लातमक शैली के तत्त्व तवद्यमान
थे।
भारतीय वास्तुकला की तवतभन्न शैतलयों को यूरोपीय शैली में संश्लेतषत करने के आस ऄभूतपूवम
प्योग का सबसे बड़ा दोष यह रहा दक तथाकतथत सौंदयम और संरचनात्मक भव्यता के नाम पर
सादगी, अधुतनकता, और ईपयोतगता के साथ बहुत हद तक समझौता दकया गया।
आस प्योग ने न तो भारत के वास्तुकलात्मक मूल्यों के लुप्त गौरव को पुनजीतवत दकया और न ही
यह नए युग के ऄनुरूप एकदम ऄलग और नवीन तनमामण के स्वरुप को ही प्कट कर सका।
ऄतधकांश संरचनाएं भारी, तवशाल और मजबूत तो प्तीत होती हैं लेदकन साथ ही संकीणम, बंद
और स्वरुप में मध्यकालीन प्तीत होती हैं। सर जॉन माशमल द्वारा एक ऄच्छा कायम यह दकया गया
दक ईदहोंने मुग़ल शैली से प्ेरणा लेते हुए सुददर ईद्यानों को तवकतसत दकया।
यह वह समय था जब महात्मा गांधी द्वारा सभी तिटटश संस्थानों का बतहष्कार करने का अह्वान
करने के बाद कइ भारतीय शैितणक संस्थानों की स्थापना की गइ। आस पटरयोजना के तलए एक
जममन वास्तुकार कालम हेंज को यह तनदेश देते हुए तनयुक्त दकया गया दक वह जातमया के संस्थापकों
की साम्राज्य तवरोधी धारणा को ध्यान में रखते हुए, तिटटश या मुग़ल स्थापत्य कला के तत्वों से
सकता था; आसे ‘वास्तुकला की अधुतनक शैली’ कहा जा सकता है, जोदक अम तौर पर वास्तुकार
बड़े अंगनों और तखड़दकयों का प्योग सुददरता के तलए दकया गया था न दक दकसी तवशेष प्योजन
के तलए। हेंज लाल बलुअ पत्थर और चूने जैसी स्थानीय सामग्री का प्योग करते थे जो असानी से
ईपलब्ध थे।
अआबेटरयन (पुतग
म ाली) गोतथक (तिटटश)
प्युक्त सामग्री मुख्य सामग्री के रूप में ईंट, लकड़ी के छत और लाल बलुअ पत्थर और
मोटे/ऄपटरष्कृ त चूना पत्थर
सीदढयां
संरचनागत नए अकार और संरचनाओं का सृजन नहीं दकया नए अकार और संरचनाओं के
तभन्नता गया, पािात्य शैली को पुनव्यामख्यातयत दकया सृजन को सतम्मतलत दकया गया
गया
प्लास्टर गोवा तगरजाघर की मुख्य तवशेषताएाँ ऄनुपतस्थत
संगतराशी
4.2.1. लॉरी बे क र
आदहें गरीबों का वास्तुकार और भारत की ऄंतरात्मा के रिक के रूप में पुकारा जाता था।
आदहोंने भवनों का पयामवरण के साथ तमश्रण दकया और स्थानीय स्तर पर ईपलब्ध सामग्री का
ईपयोग दकया।
आदहोंने आस्पात और सीमेंट की खपत को कम करने के तलए भराव (Filler) स्लैब तनमामण तवतध को
प्ारं भ दकया। ईदहोंने भवनों का खाका बनाते समय वातायन-व्यवस्था तथा उष्मीय सुतवधा पर
तवशेष ध्यान रखा।
यह एक जममन वास्तुकार था, तजसे यह तनदेश देते हुए तनयुक्त दकया गया दक वह जातमया के
संस्थापकों की साम्राज्य तवरोधी धारणा को ध्यान में रखते हुए, तिटटश या मुग़ल स्थापत्य कला के
तत्वों से स्पष्ट रूप से ऄलग रहे।
हेंज ने लाल बलुअ पत्थर और चूने जैसी स्थानीय सामग्री का प्योग दकया जो असानी से ईपलब्ध
थे।
बड़े अंगनों और तखड़दकयों से युक्त सफ़े द गुम्बद लाल बलुअ पत्थर वाले भवनों की मुख्य तवशेषता
थी। आसे ‘वास्तुकला की अधुतनक शैली’ कहा जा सकता है।
यह एक फ्रेंच वास्तुकार था। आसने सुतनयोतजत ढांचे के अधार पर चंडीगढ़ नगर को तडजाआन
दकया।
आसने स्वतंत्र हटरत िेत्र के रूप में सेक्टर के तवचार की कल्पना की।
तीव्र यातायात के तलए तनयतमत तग्रड प्णाली का ध्यान रखा गया था।
ददल्ली, महात्मा गांधी मेमोटरयल साबरमती (ऄहमदाबाद) अदद की योजना तैयार की।
VISIONIAS
www.visionias.in
तवषय सूिी
1. पररिय ________________________________________________________________________________________ 4
1. पररिय
भारिीय कला में भारिीय तित्रकला की एक बहुि लंबी परं परा और तवस्िृि आतिहास रहा है।
तित्रकला से सम्बंतधि अलेख यह दिागिे हैं कक बहुि िंािीन काल से ही तित्रकला िाहे वह
धार्ममक रही हो या धमगतनरपेक्ष, कलात्मक ऄतभव्यति का एक अवश्यक माध्यम समझी जािी रही
है िथा बड़े व्यापक स्िर पर आसका िंयोग भी ककया जािा रहा है।
ऄतभव्यति की आच्छा मानवीय ऄतस्ित्व की मूलभूि अवश्यकिा है िथा िंागैतिहातसक काल से ही
यह तवतभन्न रूपों में िंकट होिी रही है। अत्मातभव्यति मानव की िंाकृ तिक िंवृति है। ऄपने ऄंदर
के भाव िंकट ककए तबना वह नहीं रह सकिा। भावों का अधार होिा है, मनुष्य का पररवेि।
तवद्वानों की मान्यिा है कक अकदम काल में जब भाषा और तलतप-तिह्नों का अतवभागव नहीं हुअ
था िो रे खाओं के संकेि से ही व्यति स्वयं को ऄतभव्यि करिा था। गुफाओं के ऄंदर अज जो
तिलातित्र तमलिे हैं, वे ही तित्रकला के अकद िंमाण हैं। ईस समय का मानवजीवन िंकृ ति िथा
पिुओं अकद के ऄतधक तनकट था, जीवन के ऄन्य पक्ष ऄभी तवकतसि होने बाकी थे, आसतलए
तहन्दु और बौद्ध दोनों ही सातहत्य कला के तवतभन्न िरीकों और िकनीकों के तवषय में संकेि करिे
हैं, जैस-े लेप्यतित्र, लेखातित्र और धूतलतित्र। पहली िंकार की कला का सम्बन्ध् लोक कथाओं से
है। दूसरी िंागेतिहातसक वस्त्रों पर बने रे खा तित्र और तित्रकला से सम्बद्ध है और िीसरे िंकार की
कला फिग पर बनाइ जािी है।
भारि के बौद्ध सातहत्य ऐसे ग्रंथों के ईदाहरणों से भरे पड़े हैं जो ऄनेक िाही आमारिों पर तितत्रि
अकृ तियों और कु लीन वगग का वणगन करिे हैं। लेककन ऄजंिा की गुफा तित्रकाररयां कु छ बिे हुए
ऄविेषों में सबसे महत्वपूणग हैं। पांडुतलतपयों में छोटे पैमाने पर तित्रकला का िायद आस ऄवतध में
भी िंयोग ककया गया, हालांकक मुख्य रूप से आसका िंारम्भ मध्यकाल में ही हुअ।
मुगल तित्रकला ने फारसी लघु तित्रकला िथा िंािीन भारिीय परं पराओं के तमश्रण का
िंतितनतधत्व ककया और 17 वीं ििाब्दी से आसकी िैली सभी धमों के भारिीय राजसी दरबारों में
िजग पर स्थातपि कला तवद्यालयों से सभी को पररतिि करवाया, जो अधुतनक भारिीय तित्रकला
में ऄग्रणी थे। बाजार तित्रकला के ऄंिगगि िंतिकदन के बाजार पर तित्र तनर्ममि ककए गए जो
यूरोपीय पृष्ठभूतम के साथ-साथ भारिीय बाजारों को भी िंदर्मिि करिे थे। आन पर ग्रीको-रोमन
िंभाव स्पष्ट रूप से कदखाइ देिा है।
आस िंकार भारिीय तित्रकला सौंदयग की साित्यिा िंदान करिी है। यह िंारं तभक सभ्यिा से लेकर
विगमान िक तवस्िृि है। िंारं भ में ऄपने ईद्देश्य में यह ऄतनवायग रूप से धार्ममक रही है, परन्िु भारिीय
तित्रकला तपछले कु छ वषों में तवतभन्न संस्कृ तियों और परं पराओं के तमश्रण के रूप में तवकतसि हुइ है।
o सफे द, काले, लाल और हरे रं ग का ईपयोग जंगली भैंसे, हाथी, गैंड,े बाघ अकद जैसे बड़े
जानवरों को तितत्रि करने के तलए ककया जािा था।
o मानव अकृ तियों में लाल रं ग का अखेटकों के तलए और हरे रं ग का ऄतधकांिि: निगककयों के
तलए ईपयोग ककया जािा था।
ििुभज
ुग नाथ नाला, मंदसौर से िंाप्त गाड़ी का िाम्र्पाषातणक िैल तित्र
ऐतिहातसक तिला तित्रकला की तवषय-वस्िु पूवगविी दोनों वगों की तित्रकला से तभन्न है-
o आस वगग की तित्रकला में राजकीय जुलस
ू , िोभा-यात्रा, जीन वाले घोड़े िथा झूल डाले हुए
हातथयों का ऄंकन है। सैतनकों को ऄस्त्र -िस्त्र िथा िलवार धारण ककये हुए तितत्रि ककया गया
है। आस वगग के तित्र ऄजंिा िथा बाघ की तित्रकला से तभन्न हैं।
अद्य ऐतिहातसक काल की तित्रकला के ईदाहरण तसन्धु सभ्यिा िथा ईसके ईिर काल की
समकालीन िाम्र्पाषातणक संस्कृ तियों के मृद्ांडों पर िंाप्त तित्रकारी के रूप में तमलिे हैं। तसन्धु
सभ्यिा के स्थलों से गुलाबी रं ग के तमटटी के बिगनों पर काले रं ग से ऄलंकरण- ऄतभिंाय संजोये
हुए तमलिे हैं। कहीं-कहीं हरे िथा सफ़े द रं गों के भी ईपयोग के साक्ष्य िंाप्त होिे हैं। ज्यातमिीय
अकृ तियााँ, पेड़-पौधों, पिु-पतक्षयों के तित्रण तसन्धु सभ्यिा के मृद्ांडों पर तमलिे हैं।
o तभति तित्र ठोस संरिनाओं की दीवारों पर तनष्पाकदि बड़े कायग हैं, जैसे ऄजंिा गुफाएं और
कै लािनाथ मंकदर में है।
o छठी ििाब्दी में िालुक्यों द्वारा बादामी में, सािवीं ििाब्दी में पल्लवों द्वारा पनमलै में, नवीं
ििाब्दी में पांड्यों द्वारा तसिन्नवासल में, बारहवीं ििाब्दी में िोलों द्वारा िंजौर में िथा सोलहवीं
ििाब्दी के तवजयनगर साम्राज्य के िासकों द्वारा लेपाक्षी में तभति तित्रकारी के ईत्कृ ष्ट नमूने
िैयार करवाये गये। आसी िंकार के रल में भी आस कला के कइ ईत्कृ ष्ट ईदाहरण तमलिे हैं।
तभति तित्र, तित्रात्मक कला के ऄन्य सभी रूपों से स्वाभातवक रूप से ऄलग है। यह मूलिः छिों
पर या पहाड़ी दीवारों या ककसी ठोस संरिना पर बनाइ जािी है।
रं ग, तडजाआन और तवषयगि (thematic) िंबंध के ईपयोग आमारि के तत्रतवमीय ऄनुपाि की
मौतलक ऄनुभूति को बदल सकिे हैं; आस ऄथग में तभति तित्र ही तित्रकला का एक ऐसा रूप है
जोकक वास्िव में तत्र-तवमीय है, क्योंकक यह स्थान के सदृि पररवर्मिि हो जािी है।
भारिीय तभति तित्र का आतिहास, िंािीन और पूवग मध्य काल से िुरू होिा है (तद्विीय ििाब्दी
इसा पूवग से 8-10 वीं ििाब्दी इसवी)। सम्पूणग भारि में 20 से ऄतधक स्थानों से आस ऄवतध के
तभति तित्र िंाप्त हुए हैं। यह मुख्य रूप से िंाकृ तिक गुफाओं और िैल कक्षों में तितत्रि ककये गए थे।
आस ऄवतध की तभति तित्रकला मुख्य रूप से बौद्ध, जैन और प्रहदू धमग के धार्ममक तवषयों को
दिागिी हैं। रावण छाया तिलाश्रय- वहााँ हालांकक ऐसे भी स्थान हैं जहााँ तित्रों लौककक पररसरों
को सजाने के तलए भी तित्रों का िंयोग ककया गया है ईदाहरणाथग: जोगीमारा गुफा की िंािीन
नायिाला और संभविः 7वीं ििाब्दी इसवी की रावणछाया िैलाश्रय का राजकीय तिकार
तवश्रामालय।
स्थापत्य से आसके संघरटि सम्बन्ध के ऄतिररि, तभति तित्रकला की एक तविेषिा आसका वृहि
लोक महत्त्व है। तभतितित्र कला में दीवारों पर ज्यातमतिक अकार, कलापूणग ऄतभिंाय, पारं पररक
अकल्पन, सहज बनावट और ऄनुकरणमूलक सरल अकृ तियों में तनतहि स्वच्छंद अकल्पन, ईन्मुि
अवेग और रै तखक उजाग, ऄनूठी िाजगी और िाक्षुष सौंदयग सृतष्ट करिी है।
तवतभन्न िंकार के तित्रों में तभन्न-तभन्न सामतग्रयों का िंयोग ककया जािा था। तित्रों में तजन रं गों का
मुख्य रूप से ईपयोग ककया गया है, वे हैं धािु-राग, िटख लाल कु मकु म या तसन्दूर, हरीिाल
(पीलाद्ध नीला), लातपस लाजुली नीला, काला, िाक की िरह सफे द खड़ी तमट्टी, (गेरु माटी) और
हरा।
आस काल के सवोच्च तभतितित्रों में ऄजंिा, बाघ, तसिनवासल, अम्रमलाइ गुफा (ितमलनाडु ),
रावण छाया िैलाश्रय और एलोरा गुफाओं में कै लािनाथ मंकदर हैं।
3.1.1.1. ऄजं िा की तित्रकला (Ajanta Paintings)
ऄजंिा गुफाओं को िौथी ििाब्दी इसवी में िट्टानों को काटकर बनाया गया था। आनमें 29 गुफाएं
सतम्मतलि हैं जो ऄपने सुन्दर तित्रों के तलए तवश्व िंतसद्ध हैं।
आसमें गुफ़ा संख्या 9 और 10 के तभति तित्र िुग
ं काल से सम्बंतधि हैं जबकक ऄन्य गुफाओं का
सम्बन्ध गुप्त काल से है।
ऄजंिा के तभतितित्रों का पिा 1824 इसवी में सर जेम्स ऄलेक्जेंडर ने लगाया था। िब िक धूप,
हवा, नमी अकद कारणों से यहां के ऄतधकांि तित्र नष्ट हो िुके थे। परन्िु अज जो भी तित्र बिे हैं
वे दिगकों का ध्यान ऄपनी ओर ऄवश्य ही खींि लेिे हैं। आसका कारण तनमागण की िकनीकक, रं ग-
योजना, िैली िथा ईनकी तवषय-वस्िु हैं।
ऄजंिा के तित्रकारों ने तनमागण की ‘फ्रेस्को’, ’टेम्पेरा’ िथा ‘एन्कातस्टक’ तवतधयााँ ऄपनायीं।
o फ्रेस्को िकनीक में तित्रों का तनमागण गीली सिह पर ककया जािा है।
o टेम्पेरा में सूखी सिह पर तित्र बनाए जािे हैं।
o एन्कातस्टक तवतध में तित्र बनाने से पहले मोम का लेप ककया जािा है।
o गुफ़ा की खुरदुरी सिह पर तमट्टी, बालू, भूसी, गोबर, गोंद अकद तमलाकर क्रमिः एक हल्का
लेप िथा कफर कठोर लेप (वज्रलेप) से दीवार को समिल बनाया जािा था, ईसके बाद ईस
पर तित्र ईके रे जािे थे और कफर रं ग भरा जािा था।
o ऄजंिा के तित्रों में िंयुि रं ग िंाकृ तिक हैं जो पीली तमट्टी, नील के पौधे, खतड़या, काजल अकद से
िंाप्त ककये जािे थे, लाजवदग से गहरा नीला रं ग िैयार ककया जािा था। गैररक, लाल, पीला, नीला,
सफ़े द और हरा रं ग मुख्यिः िंयुि हुअ।
o ऄजंिा से एकाकी िथा सामूतहक तित्रकला के ऄंकन का ईदाहरण तमलिा है। ऄजंिा के तित्र
मुख्यिया बौद्ध धमग से सम्बंतधि हैं।
o ऄजंिा के तित्रकला के िीन िंधान वण्यग-तवषय हैं : (1) बुद्ध एवं बोतधसत्वों के तित्र (2) जािक
कथाओं के तित्र (3) गंधवग, ऄप्सराएं, यक्ष-ककन्नर, पिु-पक्षी, पुष्प अकद।
o आस सन्दभग में कु छ लोकतिंय तित्रों के नाम तलए जा सकिे हैं जैसे- गुफ़ा सं. 1 से िंाप्त पद्मपातण
ऄवलोककिेश्वर, गुफ़ा सं. 16 से िंाप्त मरणासन्न राजकु मारी, गुफ़ा सं. 17 से िंाप्त महातभतनष्क्रमण,
यिोधरा द्वारा पुत्र राहुल का समपगण अकद।
ऄजन्िा की गुफा में जािक कथा का तित्रण : 7वीं ििाब्दी मरणासन्न राजकु मारी, गुफ़ा सं. 16
गुफा के ऄंदर फ्रेस्को तभति तित्र:
एलोरा की गुफाओं में तभतितित्र ऄतधकांिि: कै लाि मंकदर िक सीतमि पांि गुफाओं में पाए जािे
हैं।
आन तभतितित्रों का तनमागण दो िरणों में ककया गया था। पहले िरण के तित्रों का तित्रण गुफाओं
की खुदाइ के दौरान ककया गया था जबकक दूसरे िरण का कइ ििातब्दयों बाद ककया गया था।
िंारं तभक तित्र बादलों से होकर गुजरिे अकािीय पक्षी गरुड़ पर ऄपनी पत्नी लक्ष्मी के साथ बैठे
तवष्णु का है।
गुजरािी िैली में बने ईिरकालीन तित्र िैव साधुओं के जुलूस का तित्रण करिे हैं। ये तित्र सभी
िीनों धमों से संबतं धि हैं।
3.1.1.5.1. पल्लव
िालुक्यों पर तवजय िंाप्त करने वाले पल्लव िासक कला के भी संरक्षक थे। महें्र वमगन िंथम ने
पन्नामलाइ (Panamalai), मंडगपट्टू (Mandagapattu और कांिीपुरम (Kanchipuram) में
मंकदरों का तनमागण करवाया। मंडगपट्टू के तिलालेखों में महें्र वमगन िंथम को कदए गए ईपातधयों
जैसे कक तवतित्रतिि (तजज्ञासु मन वाला), तित्रकारपुली (कलाकारों में बाघ), िैत्यकारी (मंकदर
तनमागणकिाग) का ईल्लेख तमलिा है, जो ईसकी कलात्मक ऄतभरुति को दिागिा है।
आन मंकदरों में तित्रकारी आन्हीं के पहल पर की गयी, हालांकक ऄब ईनके ऄविेष ही बिे हैं।
o पन्नामलाइ में एक देवी का सादगीपूणग तित्र ईके रा गया है।
o कांिीपुरम मंकदर के तित्रों को पल्लव राजा राजप्रसह द्वारा संरतक्षि ककया गया था। ऄब तित्रों
के के वल ऄविेष ही बिे हैं जो सोमस्कं द (Somaskand) को दिागिा है। िेहरे गोल और बड़े
हैं। पूवगकाल के तित्रों की िुलना में रे खाएं लयबद्ध और ईच्चकोरट के ऄलंकरण से पररपूणग हैं।
धड़ का तित्रण अरं तभक परं परागि मूर्मियों जैसा ही लेककन लंबा हैं।
िहर के 16 कक.मी. ईिर पतिम में तस्थि िट्टानों को काटकर बनाइ गइ ये िंतसद्ध गुफाएं जैन
मंकदरों की तित्रकला के तलए जानी जािी है। आन तभतितित्रों का बाघ और ऄजंिा की तित्रकला से
तनकटस्थ सादृश्यििा है।
तित्रों के तलए ईपयोग ककए जाने वाले माध्यम िाकीय और खतनज रं जक हैं और आन्हें पिले गीले
िूने के प्लास्टर की सिह पर रं ग डालकर बनाया गया था। हरा, पीला, नारं गी, नीला, काला और
सफे द सामान्य रूप से िंयुि ककये गए रं ग हैं।
3.1.1.5.3. िोल
मंकदर तनमागण और ईन्हें नक्कातियों और तित्रों से ऄलंकृि करने की परं परा की िुरुअि िोल युग के
िासकों के िासनकाल में िंारम्भ हुइ। आन्होंने नौवीं से िेरहवी ििाब्दी िक आस क्षेत्र में िासन
ककया।
हालांकक िोल तित्रकारी नरिामलाइ (Nartamalai) में देखी गयी है। आनमे से सबसे महत्वपूणग
तित्रकारी बृहदेश्वर मंकदर में है। तित्रों को मंकदर के िारों ओर संकीणग गतलयारों की तभतियों पर
ईके रा गया है।
जब आन्हें खोजा गया िो आन पर दो रं गों की परि पायी गयी थी। उपरी परि को सोलहवीं
ििाब्दी में नायक काल में रं गा गया था।
तभति तित्र की बारीकी िोल काल के ईत्कृ ष्ट तित्रकारी की परं परा के ईदहारण को ऄनावररि
करिी है। ये तित्र भगवान तिव, कै लाि पवगि पर तिव, तत्रपुरांिक के रूप में तिव, नटराज के रूप
में तिव, संरक्षक राजराज और ईनके िंतिपालक कु रुवर (Kuruvar) की िंतिमा और नृत्य तित्रों
आत्याकद से सम्बंतधि वृिांि एवं पक्ष को दिागिे हैं।
है। गुणविा के ऄथग में आस समय की तित्रकला में पिन कदखाइ देिा है। रूपों, अकृ तियों और आनकी
वेिभूषा के तववरणों को काले रं ग से रे खांककि ककया गया है।
तभतितित्रण विगमान में ऄब छिीसगढ़ के तजलों में देखने को तमलिा है। ईदाहरण के तलए सरगुजा,
िहसील ऄंतबकापुर के ऄंिगगि अने वाले गांव पुहपुटरा, लखनपुर, के नापारा अकद में लोक एवं
अकदवासी जातियों द्वारा ऄभ्यास की जाने वाली ऐसी लोक कला है जो गांव की औरिों के द्वारा
वहां की कच्ची तमट्टी से बनी झोपतड़यों की दीवारों पर गोबर, िाक तमट्टी, गोबर अकद को तमलाकर
की जािी है।
घर की दीवारें मूर्मियों, जातलयों, तवतवध अकल्पनों और तभति के कलात्मक रूप से सुसतिि की
जािी हैं। जािीय तवश्वासों के ऄनुरुप ईनके सृजनलोक में िंकृ ति, पिु-पक्षी, मनुष्य और देवी
देविाओं की सहज ऄनौपिाररक ईपतस्थति होिी है।
दीवारों पर बनाइ गइ आन कलाकृ तियों में पास-पड़ोस का ऄति पररतिि ससांर ऄपने सामातजक
तवश्वासों की ऄतभव्यति है। सुदरू अकदवासीय क्षेत्रों में जहााँ सजावट अकद के साधन ऄपयागप्त होिे थे,
लोग वहााँ िंितलि तवतभन्न त्योहारों व धार्ममक ऄवसरों के समय ऄपने घरों की सिा हेिु दीवारों में
कच्ची तमट्टी द्वारा पेड़-पौधों, पिु-पतक्षयों अकद की अकृ तियां बनाकर व ईनमें बहुि ही मनोरम रं गों
को भरकर ऄपने घरों को सजािे हैं।
लघु तित्रकारी कागज, िाड़ के पिों या कपड़ों जैसी नष्टिंाय सामतग्रयों पर, पुस्िकों या एलबमों के
तलए छोटे स्िर पर तितत्रि की जािी थी। बंगाल के पाल िासकों को लघु तित्रकारी की िुरुअि
का श्रेय कदया जािा है। आसका तवकास मुग़ल काल में मुख्य रूप से िंारम्भ होिा है। लघु तित्रकारी
(Miniature painting) भारिीय िास्त्रीय परम्परा के ऄनुसार बनाइ गइ तित्रकारी तिल्प है।
“समरांगण सूत्रधार” नामक वास्िुिास्त्र में आसका तवस्िृि रूप से ईल्लेख तमलिा है। आस तिल्प की
कलाकृ तियााँ सैंकड़ों वषों के बाद भी ऄब िक आिनी नवीन लगिी हैं मानो ये कु छ वषग पूवग ही
तितत्रि की गइ हों।
िाड़ के पिे पर बनाया गया लघु तित्र (पाल वंि, 12वीं रे िम के कपड़े पर बना लघु तित्र
ििाब्दी)
बाद तित्रकारी में रं गों को समिल करने के तलए दबाव के साथ ईसे रगड़ा जािा है। पृष्ठभूतम बनाने
के बाद पोिाक की ओर ध्यान कदया जािा है। ऄंि में अभूषणों और िेहरे सतहि ऄन्य ऄंगों की
रिना की जािी है। पूरी कलाकृ ति तनर्ममि हो जाने के बाद ईनमें रं ग भरे जािे हैं।
राजस्थानी लघु तित्रों में पात्रों की त्विा का रं ग भूरा है, जबकक मुगल तित्रों में यह सामान्यि:
ईजला है। आसके ऄतिररि, भगवान कृ ष्ण की भांति कदव्य िंातणयों का रं ग नीला है।
मतहला अकृ तियों के लंबे बाल हैं और ईनकी अंखों और बालों का रं ग सामान्यि: काला है।
पुरुष सामान्यि: पारं पररक कपड़े पहने हुए हैं और ईनके तसर पर पगड़ी है।
अभूषणों में स्वणग और िांदी के रं गों को बड़ी कु िलिापूवक
ग भरा जािा है। लघु तित्रकारी बनाने में
िंािीन समय से ही िंाकृ तिक रं गों का िंयोग ककया जािा था। आस तित्रकारी में तवतभन्न िंाकृ तिक
पत्थरों का भी िंयोग ककया जािा था यथा मूग
ं ा, लाजवदग, हल्दी अकद।
3.2.3.1. पाल िै ली
भारि में लघु तित्रकला के िंारं तभक ईदाहरण पूवी भारि में पाल वंि के ऄधीन तनष्पाकदि बौद्ध
धार्ममक पाठों और ग्यारहवीं-बारहवीं ििाब्दी इसवी के दौरान पतिम भारि में तनष्पाकदि जैन
पाठों के सतित्र ईदाहरणों के रूप में तवद्यमान हैं।
पाल वंि का काल (750 इसवी से बारहवीं ििाब्दी के मध्य िक) बौद्ध धमग के ऄतन्िम िरण और
भारि में बौद्ध कला की साक्षी है। नालन्दा, ओदन्िपुरी, तवक्रम-तिला और सोमरूप के बौद्ध
महातवहार बौद्ध तिक्षा िथा कला के महान के न््र थे। बौद्ध तवषयों से संबंतधि िाड़-पिे पर ऄसंख्य
पाण्डु तलतपयां आन के न््र ों पर बौद्ध देविाओं की िंतिमा सतहि तलखी िथा सतित्र िंस्िुि की गइ थीं।
पाल तित्रकला की तविेषिा आसकी लहरदार रे खाएं और रं ग की हल्की अभाएं हैं। तित्रों में ऄके ली
अकृ तियां िंायः िंाप्त होिी हैं और कदातिि ही समूह तित्र पाए जािे हैं।
यह एक िंाकृ तिक िैली है जो समकालीन कांस्य पाषाण मूर्मिकला के अदिग रूपों से तमलिी है और
ऄजन्िा की िास्त्रीय कला के कु छ भावों को िंतितबतम्बि करिी है। आस लघु तित्रकारी कला को
बौद्ध धमग की वज्रयान िाखा को मानने वालों ने िथा बौद्ध धमग को संरक्षण देने वाले कु छ िासकों
ने संरतक्षि करने का िंयास ककया।
लगभग 12 वीं सदी से 14वीं सदी इसवी िक िंारं तभक पांडुतलतपयों के तलए िाड़ के पिों का
िंयोग ककया गया था जो एक ही अयिाकार िंारूप पर बनी हुईं हैं। परन्िु 14 वीं सदी के ऄंि िक
यह िैली 13 वीं सदी के ऄंि िक ऄच्छी िरह से स्थातपि रही, परन्िु ऄगले 250 वषों में यह
दिागइ गइ मानव अकृ तियों की तविेषिा मछली के अाँख की िरह बाहर ईभरी हुइ अाँख;ें नुकीले
नाक और दोहरी ठोड़ी थी। आस िैली में िरीर की कतिपय तविेषिाओं, नेत्रों, वक्षस्थलों और
यह अकदम जीवन-िति, सिि रे खा और िंभाविाली वणों की एक कला है। जैन ग्रथों के दो ऄति
तित्रकलाओं के माध्यम से तितत्रि ककया गया था। कल्पसूत्र की पाण्डु तलतपयों के कु छ ईल्लेखनीय
ईदाहरण ऄहमदाबाद के देवासनो पादो भण्डार में हैं। कल्पसूत्र को 1465 इसवी में जौनपुर में
कल्पसूत्र की कु छ सतित्र पाण्डु तलतपयों के ककनारे पर कदखाइ देने वाली फारसी िैली और तिकार
के दृश्यों से स्पष्ट है कक पन््र हवीं ििाब्दी के दौरान तित्रकला की फारसी िैली ने तित्रकला की
पतिम भारिीय िैली को िंभातवि करना िंारं भ कर कदया था।
पतिम भारिीय पाण्डु तलतपयों में गहरे नीले और सुनहरे रं ग का िंयोग िंारम्भ हो जाना भी
फारसी तित्रकला का िंभाव समझा जािा है। भारि अने वाली ये फारसी तित्रकलाएं सतित्र
पाण्डु तलतपयों के रूप में थीं। आन ऄनेक पाण्डु तलतपयों की भारि में नकल िैयार की गइ थी।
आस ऄवतध के सवोिम ईदाहरणों में से एक मांडू पर िासन करने वाले नातसर िाह के िासनकाल
o ऐसी िंकुरूप टोतपयां ‘कु लहा’ का िंकट होना है, तजन पर पुरुष अकृ तियां पगतडयां पहनिी हैं।
4.1. बाबर
‘मुग़लकालीन तित्रकला' का िंेरणा स्रोि 'समरकन्द' एवं 'हेराि' रहा है। बाबर ने ऄपनी अत्मकथा
में 'तबहजाद' की िंिंसा की है। यह बाबर के समय का महत्त्वपूणग तित्रकार था। परन्िु बाबर
ऄल्पकाल के तलए ही भारि पर िासन कर सका, ऄिः वह तित्रकला के क्षेत्र में ज्यादा कु छ नहीं
कर सका।
4.2. हुमायूाँ
हुमायूाँ ने मीर सैयद ऄली और ऄब्दुस समद को संरक्षण कदया। आन दोनों ने ही तमलकर ऄकबर के
तलए एक ‘ईन्नि कला संगठन’ की स्थापना की।
4.3. ऄकबर
o 'मीर सैय्यद' एवं 'ऄब्दुस्समद' के ऄतिररि 'अइने ऄकबरी' में ऄबुल फ़ज़ल ने लगभग 15
मुग़ल सम्राट जहााँगीर के समय में तित्रकारी ऄपने िरमोत्कषग पर थी। ईसने 'हेराि' के 'अगा रजा'
'ईस्िाद मंसरू ' एवं 'ऄबुल हसन' जहााँगीर के श्रेष्ठ कलाकारों में से थे। ईन्हें बादिाह ने क्रमिः
खुरगम का स्वागि करिे हुए जहााँगीर का लघु तित्र जहााँगीर के दरबार का लघु तित्र
4.5. िाहजहां
िाहजहां (1627-1658) ने तित्रकला के संरक्षण को जारी रखा। परन्िु िाहजहााँ की वास्िुकला में
ऄतधक रूति थी ऄिः तित्रकारों की संख्या में कटौिी कर दी गयी थी। आस काल के िंतसद्ध
कलाकारों में से कु छ थे - मोहम्मद फककरुल्लाह खान, मीर हातिम, मोहम्मद नाकदर, मनोहर और
होनहार।
औरं गजेब की लतलि कला में कोइ रूति नहीं थी। औरं गज़ेब ने तित्रकारी को आस्लाम के तवरुद्ध
मानकर आससे घृणा की, परन्िु ऄपने िासन काल के ऄतन्िम समय में ईसने तित्रकारी में कु छ रुति
ली। ऄिः पररणामस्वरूप ईसके कु छ लघु तित्र तिकार खेलिे हुए, दरबार लगािे हुए एवं युद्ध
करिे हुए तितत्रि हुए। आसके काल में तित्रकला को तमलने वाले संरक्षण के ऄभाव में कलाकार नए
संरक्षक की िलाि में दक्कन में हैदराबाद िथा राजस्थान के प्रहदू राज्यों की ओर िले गए।
[The Central Indian and Rajasthani Schools] (17 वीं - 19 वीं सदी)
रतसकतिंया की एक िृख
ं ला, 1652 इसवी सन् में नसरिगढ़ नामक एक स्थान पर तितत्रि की गइ
मालवा िैली की तित्रकला में िोख़ रं गों में तितत्रि वास्िुतिल्पीय दृश्यों की ओर झुकाव,
सावधानीपूवक
ग िैयार की गयी सपाट ककिु सुव्यवतस्थि संरिना, श्रेष्ठ िंारूपण, िोभा हेिु
िंाकृ तिक दृश्यों का सृजन िथा रूपों को ईभारने के तलए एक रं ग के धब्बों का सुतनयोतजि ईपयोग
दिगनीय है।
आस िैली के सबसे अकषगक गुण हैं आनका अकदम लुभावनापना और सहज बालसुलभ दृतष्ट।
रागमाला िृख
ं ला के लघु तित्र
बनी ठनी (तनहाल िं्र द्वारा तितत्रि ककिनगढ़ राधा-कृ ष्ण ( ककिनगढ़ िैली)
िैली)
मेवाड़ तित्रकला, 17 वीं और 18 वीं ििाब्दी की भारिीय लघु तित्रकला के सबसे महत्वपूणग
तवधाओं में से एक है।
यह राजस्थानी िैली की एक तवधा है और मेवाड़ (राजस्थान राज्य में) की तहन्दू ररयासि में
तवकतसि हुइ थी।
आस तवधा के कायग सरल िमकीले रं ग और िंत्यक्ष भावनात्मक ऄपील द्वारा तितत्रि हैं।
िंारं तभक रूप से िंाप्त ईदाहरण 'रागमाला' के तित्र हैं जो 16वीं ििाब्दी में महाराणा िंिाप की
राजधानी िावण्ड में बनाये गये।
आसमें लोककला का िंभाव िथा मेवाड़ िैली के स्वरूप तितत्रि हैं।
यह ऄथगपणू ग और सिि िैली कु छ बदलावों के साथ 1680 इसवी िक िलिी रही, तजस पर आस
समय के बाद मुगल िंभाव ऄतधक स्पष्ट हो गया।
कलाकार सातहबदीन (Sāhibdīn) िंारं तभक िरण के ईत्कृ ष्ट कलाकारों में से एक था।
वल्लभ संिंदाय के राजस्थान में िंभावी हो जाने के कारण राधा-कृ ष्ण की लीलाएाँ मेवाड़ िैली की
मुख्य तवषयवस्िु रही है।
मेवाड़ िैली के रं गों में पीला, लाल िथा के सररया िंमुख हैं।
पृष्ठभूतम या िो एक रं ग में सपाट है ऄथवा अकृ तियों के तवरोधी रं गों का िंयोग ककया गया है।
िंारतम्भक मेवाड़ िैली में जैन व गुजराि की तित्रकलाओं का तमश्रण दृतष्टगोिर होिा है िथा
लोककला की रुक्षिा, मोटापन, रे खाओं का भारीपन आस की तविेषिाएाँ रही है।
17वीं ििाब्दी के मध्य में यह िैली एक स्विंत्र स्वरूप में रही।
मानवाकृ तियों में ऄण्डकार िेहरे , लम्बी नुकीली नातसका, मीन नयन िथा अकृ तियााँ छोटे क़द की
हैं।
पुरुषों के वस्त्रों में जामा, पटका िथा पगड़ी और तस्त्रयों ने िोली, पारदिी ओढ़नी, बूटेदार ऄथवा
सादा लहंगा पहना है।
बाहों िथा कमर में काले फुं दने ऄंककि हैं।
िंाकृ तिक द्दश्य तित्रण ऄलंकृि हैं।
'रागमाला' के तित्रों में कृ ष्ण िथा गोतपयों की लीलाओं में श्रृंगार रस का तित्रण ऄत्यंि सजीव हुअ
है।
मेवाड़ िैली 18 वीं से लेकर 19 वीं ििाब्दी िक ऄतस्ित्व में रही, तजसमें ऄनेक कलाकृ तियााँ
तितत्रि की गईं।
आन कलाकृ तियों में िासक के जीवन और व्यतित्व का ऄतधक तित्रण ककया जाने लगा, लेककन
धार्ममक तवषय लोकतिंय बने रहे।
गोवधगन पवगि ईठाये हुए कृ ष्ण, मेवाड़ लघु तित्र मेवाड़ के महाराज, मेवाड़ लघु तित्र
तित्रकला की बूाँदी िैली मेवाड़ िैली के ऄति तनकट है, लेककन बूद
ाँ ी िैली गुणविा में मेवाड़ िैली
से अगे है।
बूाँदी िैली में तित्रकला लगभग 1625 इसवी में िंारम्भ हो गइ थी।
भैरवी रातगनी (Bhairavi Ragini) को दिागिे हुए एक तित्र आलाहाबाद संग्रहालय में हैं जो बूाँदी
तित्रकला का एक िंारं तभक ईदाहरण है।
आसके कु छ ईदाहरण हैं- कोटा संग्रहालय में भागवि पुराण की एक सतित्र पाण्डु तलतप और नइ
कदल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में रतसकतिंया की एक श्रृंखला।
o सत्रहवीं ििाब्दी के ऄन्ि में रतसकतिंया की श्रृंखला में एक दृश्य है तजसमें कृ ष्ण एक गोपी से
मक्खन लेने का िंयास कर रहे हैं लेककन जब ईन्हें यह पिा िलिा है कक पात्र में एक वस्त्र का
टु कड़ा और कु छ ऄन्य वस्िुएं हैं लेककन मक्खन नहीं है िो वे यह समझ जािे हैं कक गोपी ने
ईनसे छल ककया है।
o पृष्ठभूतम में वृक्ष और ऄग्रभाग में एक नदी है तजसे िरं गी रे खाओं द्वारा तितत्रि ककया गया है,
नदी में फू ल और जलीय पक्षी कदखाइ दे रहे हैं। आस तित्र में िमकीले लाल रं ग का एक
ककनारा है।
बूाँदी तित्रकला के तविेष गुण भड़कीले िथा िमकीले वणग, सुनहरे रं ग में ईगिा हुअ सूरज,
ककरतमजी-लाल रं ग (crimson-red) का तक्षतिज, घने और ऄद्धग-िंकृ तिवादी वृक्ष हैं।
िेहरों के पररष्कृ ि अरे खण में मुगल िंमाण और वृक्षों की ऄतभकक्रया में िंकृ तिवाद के ित्व
दृतष्टगोिर होिे हैं। अलेख पीली पृष्ठभूतम पर सबसे उपर काले रं ग से तलखा गया है।
रतसकतिंया श्रृख
ं ला का एक दृश्य, बूद
ं ी िैली
कोटा तित्रकला में पवगिीय जंगलों को तविेष महत्व कदया गया है तजसे ऄसाधारण अकषगण के
साथ िंस्िुि ककया गया है।
रातगन वसन्ि, कोटा तित्रकला अखेट दृश्य, महाराजा राम प्रसह तद्विीय (कोटा िैली)
5.1.6. जयपु र िै ली
5.1.7. बीकाने र िै ली
मारवाड़ िैली से सम्बतन्धि बीकानेर िैली का सवागतधक तवकास ऄनूप प्रसह के िासन काल में
हुअ।
रामलाल, ऄली रजा, हसन रजा, रूकनुद्दीन अकद आस िैली के ईल्लेखनीय कलाकार थे।
यहााँ के िासकों की तनयुति दतक्षण में होने के कारण आस िैली पर दतक्खनी िैली का भी िंभाव
पड़ा है।
आस िैली की सबसे िंमुख तविेषिा है मुतस्लम कलाकारों द्वारा तहन्दू धमग से सम्बतन्धि एवं
बीकानेर के िंारं तभक तित्र मुगल दरबार के िंवासी कलाकारों ‘पटिाही तित्रकारों’ द्वारा बनाए
ििाब्दी)
तित्रकला की पहाड़ी िैली के क्षेत्रों में विगमान तहमािल िंदेि, पंजाब के कु छ तनकटविी क्षेत्र,
जम्मू और कश्मीर राज्य में जम्मू क्षेत्र और ईिराखण्ड में गढ़वाल िातमल हैं।
आस सम्पूणग क्षेत्र को छोटे-छोटे राज्यों में तवभातजि ककया गया था िथा राजपूि राजकु मारों का आन
पर िासन था।
सत्रहवीं ििाब्दी के ईिराद्धग से लेकर ईन्नीसवीं ििाब्दी के लगभग मध्य िक ये राज्य महान
यह ऄतधकिर लघु रूप में ककया जािा है। आस िैली में बिोली, मानकोट, नूरपुर, िंबा, कांगड़ा,
बिोली या बसोहली भारिीय राज्य जम्मू-कश्मीर के कठु अ तजले में तस्थि एक नगर या कस्बा है।
बिोली तवधा ने ऄपना यह नाम आसी छोटे से स्विंत्र राज्य बिोली से िंाप्त ककया जो कक आस िैली
का िंमुख कें ्र है।
बिोली तित्रकला, 17 वीं ििाब्दी के ईिराधग और 18 वीं ििाब्दी के दौरान भारिीय पहाड़ी
बिोली िैली का ईद्गम ऄस्पष्ट है; ऄब िक खोजे गए िंािीनिम नमूनों में से एक, ‘रसमंजरी’
o ऄतधकांि तित्र अयिाकार खांिे में बने हैं, तजसमें तित्र बनाने का स्थान बहुधा तवतिष्ट लाल रं ग
o पाश्वगतित्र में बड़ी, भाविंवण अंखों के साथ दिागए गए िेहरे तविेष िैली में हैं; रं गों में गेरुअ,
o अभूषणों को सफ़े द रं ग की मोटी, ईठी हुइ बूंदों के माध्यम से दिागया है, तजसमें हरे भृंगो के पंखों
o बिोली िैली के िंभाविाली िथा तवषम वणों के िंयोग, एकवणीय पृष्ठभूतम, बड़ी-बड़ी अंख,ें
मोटा व ठोस अरे खण, अभूषणों में हीरों को कदखाने के तलए बाहर तनकले हुए पंखों के िंयोग, िंग
अकाि और लाल ककनारा जैसी सामान्य तविेषिाएं आस लघु तित्रण में भी देखी जा सकिी हैं ।
बिोली िैली के ऄतन्िम िरण के पिाि तित्रकलाओं के जम्मू समूह का ईद्व हुअ।
आसमें मूल रूप से गुलरे से संबंध रखने वाले और जसरोटा में बस जाने वाले एक कलाकार नैनसुख
द्वारा बनाया गया जसरोटा (जम्मू् के तनकट एक छोटा स्थान) के राजा बलवन्ि प्रसह का तित्र
िातमल हैं।
नैनसुख ने जसरोटा और गुलेर दोनों स्थानों पर कायग ककया।
ये तित्रकलाएं नइ िंाकृ तिक िथा कोमल िैली में हैं जो बिोली कला की िंारतम्भक परम्पराओं में
एक पररविगन का द्योिक है।
भागवि और ऄन्य िृंखलाओं सतहि गुलरे िंतिकृ तियों को गुलरे िंतिकृ तियों की िैली के अधार पर
गुलेर िैली नाम के एक सामान्य िीषगक के ऄन्ि्गि समूहबद्ध ककया गया है।
आन तित्रकलाओं की िैली िंकृ तिवादी, सुकोमल और गीिात्मक है। आन तित्रकलाओं में मतहला
अकृ ति तविेष रूप से सुकोमल है, तजसमें सुिंतिरूतपि िेहरे , छोटी और ईल्टी नाक है और बालों
को सूक्ष्मरूप से बांधा गया है।
िंयुि रं ग कोमल िथा ईदासीन हैं।
ऐसा िंिीि होिा कक यह िैली मोहम्मद िाह के समय की मुगल तित्रकला की िंाकृ तिक िैली से
िंभातवि हुइ है।
गुलेर िैली के पिाि् ‘कांगड़ा िैली’ नामक एक तित्रकला की एक ऄन्य िैली का ईद्व ऄठारहवीं
ििाब्दी के ऄतन्िम ििुथाांि में हुअ जो पहाड़ी तित्रकला के िृिीय िरण का िंतितनतधत्व करिी
है।
कांगड़ा िैली का तवकास गुलरे िैली से हुअ।
आसमें गुलेर िैली की अरे खण में लातलत्य और िंकृ तिवाद की गुणविा जैसी िंमुख तविेषिाएं
तनतहि हैं।
तित्रकला के आस समूह को कांगड़ा िैली का नाम आसतलए कदया गया क्योंकक ये कांगड़ा के राजा
संसार िन्द के तित्र की िैली के समान है।
आन तित्रकलाओं में, पाश्वग-तित्र में मतहलाओं के िेहरों पर नाक लगभग माथे की सीध में हैं, नेत्र
लम्बे िथा तिरछे हैं और ठु ड्डी नुकीली है, िथातप अकृ तियों का कोइ िंतिरूपण नहीं है और बालों
को एक सपाट समूह माना गया है।
कांगड़ा िैली कांगड़ा, गुलरे , बिोली, िम्बा, जम्मू, नूरपुर, गढ़वाल अकद तवतभन्न स्थानों पर
ईन्नति करिी रही।
कांगड़ा िैली की तित्रकलाओं का श्रेय मुख्य रूप से नैनसुख पररवार को जािा है।
कु छ पहाड़ी तित्रकारों को पंजाब में महाराजा रणजीि प्रसह और ईन्नीसवीं ििाब्दी के िंारम्भ में
तसख ऄतभजाि वगग का संरक्षण तमला था।
कांगड़ा िैली के अिोतधि रूप में िंतिकृ तियों और एवं ऄन्य लघु तित्रकलाओं का तनष्पादन ककया
गया था जो ईन्नीसवीं ििाब्दी के मध्य िक जारी रहा।
राजा संसार िन््र (कांगड़ा िैली) बांसरु ी बजािे कृ ष्ण (कांगड़ा िैली)
पहाड़ी क्षेत्र में िंकृ तिवादी कांगड़ा िैली के साथ-साथ, कु ल्लू-मण्डी क्षेत्र में तित्रकला की एक लोक
िैली ने भी ईन्नति की िथा आसे मुख्य रूप से स्थानीय परम्परा से िंेरणा तमली।
आस िैली की तविेषिा मजबूि एवं िंभाविाली अरे खण और गाढ़े िथा हल्के रं गों का िंयोग करना
है।
हालांकक कु छ मामलों में कांगड़ा िैली के िंभाव को देखा जािा है, कफर भी आस िैली ने ऄपनी
तवतिष्ट िास्त्रीय तविेषिा को बनाए रखा है।
कु ल्लू और मण्डी के िासकों के बड़ी संख्या में िंतिकृ तियां और ऄन्य तवषयों पर लघु तित्रकलाएं
आस िैली में ईपलब्ध हैं। आस िैली में एक स्त्री और सारस का मनोरम दृश्य तितत्रि ककया गया है।
आस िैली में देवी के भयानक रूपों का तित्रण ककया गया है।
राष्ट्रीय संग्रहालय के संग्रह में भागवि की एक लघु तित्रकला श्रृंखला को 1794 इसवी में श्री
भगवान ने तितत्रि ककया था।
आन सतित्र ईदाहरणों में कृ ष्ण को ऄपनी छोटी ऄंगल
ु ी पर गोवधगन पवगि को ईठाए हुए कदखाया
गया है, िाकक गोकु ल वातसयों को आन््र के कोप से बिाया जा सके क्योंकक वे मूसलाधार वषाग कर
रहे हैं।
o काले बादलों और सफे द तबन्दु रे खाओं के रूप में वषाग को पृष्ठभूतम में कदखाया गया है।
o अकृ तियों का अरे खण ठोस रूप में है।
o तित्रकला में ककनारे पीले पुष्पों के द्वारा तितत्रि हैं।
महाकाल तिव एवं पावगिी (मंडी िैली,1720इ.) स्त्री और सारस (कु ल्लू-मंडी िैली)
तमतथला तित्रकला तजसे ‘मधुबनी लोक कला’ भी कहिे हैं, यह तमतथलांिल क्षेत्र जैसे तबहार के
दरभंगा, मधुबनी एवं नेपाल के कु छ क्षेत्रों की िंमुख तित्रकला है।
िंारम्भ में रं गोली के रुप में रहने के बाद यह कला धीरे -धीरे अधुतनक रूप में कपड़ों, दीवारों एवं
काग़ज़ पर ईिर अइ है।
आस तित्रकारी को गााँव की मतहलाएं सब्जी के रं गों िथा तत्र-अयामी मूर्मियों के रूप में तमट्टी के
रं गों से गोबर से पुिे कागजों पर बनािी हैं।
ये तित्र िंायः सीिा बनवास, राम लक्ष्मण के वन्य जीवन की कहातनयों ऄथवा लक्ष्मी, गणेि,
हनुमान अकद तहन्दु तमथकों पर बनाए जािे हैं।
आनके ऄतिररि तस्त्रयााँ दैवीय तवभूतियााँ जैसे सूय,ग िन््र अकद के भी तित्र बनािी हैं।
ये तित्र ऄदालि के दृश्य, तववाह िथा ऄन्य सामातजक घटनाओं को िंदर्मिि करिे हैं।
मधुबनी िैली के तित्र बहुि वैिाररक होिे हैं।
पहले तित्रकार सोििा है और कफर ऄपने तविारों को तित्रकला के माध्यम से िंस्िुि करिा है।
तित्रों में कोइ बनावटीपन नहीं होिा। देखने में यह तित्र ऐसे तबम्ब होिे हैं जो रे खाओं और रं गों में
मुखर होिे हैं।
िंायः ये तित्र कु छ ऄनुष्ठानों ऄथवा त्योहारों के ऄवसर पर ऄथवा जीवन की तविेष घटनाओं के
समय गांव या घरों की दीवारों पर बनाए जािे हैं।
रे खागतणिीय अकृ तियों के बीि में स्थान को भरने के तलए जरटल फू ल पिे, पिु-पक्षी, बनाए जािे
हैं।
तित्रों में िंयुि रं गों से ही यह स्पष्ट हो जािा है कक यह तित्र ककस समुदाय से सम्बंतधि हैं।
ईच्च स्िरीय वगग द्वारा बनाए गए तित्र ऄतधक रं ग तबरं गे होिे हैं जबकक तनम्न वगग द्वारा बनाये गए
तित्रों में लाल और काली रे खाओं का िंयोग ककया जािा है।
मधुबनी तित्रकला दो िरह की होिी हैं- तभति तित्र और ऄररपन या ऄल्पना। तभति तित्र को
तमट्टी से पुिी दीवारों पर बनाया जािा है। आसे घर की िीन ख़ास जगहों पर ही बनाने की परं परा
है, जैस-े भगवान व तववातहिों के कमरे में और िादी या ककसी ख़ास ईत्सव पर घर की बाहरी
दीवारों पर।
आस कला के ऄंिगगि मंकदरों के भीिरी भागों को तितत्रि वस्त्रपटलों से सजाया जािा है।
15वीं ििाब्दी में तवजयनगर के िासकों के संरक्षण में आस कला का तवकास हुअ।
आन तित्रों में रामायण, महाभारि और ऄन्य धार्ममक ग्रंथों से दृश्य तलए जािे हैं।
यह कला िैली तपिा से पुत्र को पीढ़ी दर पीढ़ी ईिरातधकार के रूप में िलिी जािी है।
सी. सुिह्मन्यम कलमकारी तित्रकला के तलए जाने जािे हैं।
आस कला में तित्र का तवषय िुनने के बाद दृश्य क्रम से तित्र बनाए जािे हैं। िंत्येक दृश्य को िारों
ओर से पेड़-पौधें और वनस्पतियों से सजाया जािा है।
यह तित्रकारी वस्त्रों पर की जािी है।
ये तित्र बहुि ही स्थायी होिे हैं, अकार में लिीले िथा तवषय वस्िु के ऄनुरूप बनाए जािे हैं।
देविाओं के तित्र खूबसूरि बॉडगर से सजाए जािे हैं और मंकदरों के तलए बनाए जािे हैं।
गोलकु ण्डा के मुतस्लम िासकों के कारण मसुलीपटनम कलमकारी िंायः पारसी तित्रों और
तडजाआनों से िंभातवि होिी थी। हाथ से खुदे ब्लाकों से आन तित्रों की रूपरे खा और िंमुख घटक
बनाए जािे हैं। बाद में कलम से बारीक तित्रकारी की जािी है।
यह कला वस्त्रों, िादरों और पदों से िंारं भ हुइ।
o कलाकार बांस की या खजूर की लकड़ी को िरािकर एक ओर से नुकीली और दूसरी ओर
बारीक बालों के गुच्छे से युि कर देिे थे जो िि या कलम का काम करिी थी।
o कलमकारी के रं ग पौधें की जड़ों या पिों को तनिोड़ कर िंाप्त ककए जािे थे और आनमें लोहे,
7.3. पट्टतित्र
यह तित्रकला िास्त्रीय और लोक ित्वों के तमश्रण को िंदर्मिि करिी है, तजसमें लोक ित्वों के िंति
ऄतधक झुकाव है।
कालीघाट के पट्टतित्रों के समान ही ईड़ीसा िंदेि से एक ऄन्य िंकार के पट्टतित्र िंाप्त होिे हैं।
ईड़ीसा पट्टतित्र भी ऄतधकिर कपड़ों पर ही बनाए जािे हैं। यहााँ का रघुराजपुर स्थान आस कला के
तलए िंतसद्ध है।
ये तित्र ऄत्यतधक तवस्िृि और रं गीन हैं और तहन्दू देवी-देविाओं से संबद्ध कथाओं को दिागिे हैं।
फड़ तित्र ककसी नायक के वीरिा पूणग कायों की कथा, ऄथवा ककसी तित्रकार/ककसान के जीवन,
तित्रों की रूपरे खा पहले काले रं ग से बनाइ जािी है, बाद में ईसमें रं ग भर कदए जािे हैं।
फड़ तित्रों की िंमुख तवषयवस्िु देविाओं और आनसे सम्बंतधि कथा-कहातनयों से सम्बद्ध होिी है,
फड़ कला िंायः 700 वषग पुरानी है। ऐसा कहा जािा है कक आसका जन्म पहले िाहपुरा में हुअ जो
तनरं िर िाही संरक्षण ने आस कला को तनणगयात्मक रूप से िंोत्सातहि ककया तजससे पीकढ़यों से यह
कला फलिी-फू लिी िली अ रही है।
देवनारायण जी की फड़, पाबूजी की फड़, रामदेव जी की फड़, रामदला व कृ ष्ण दला की फड़,
मध्यिंदेि के मण्डला तजले की िंतसद्ध जनजातियों में से एक 'गोंड' द्वारा बानायी गयी तित्रकला
भी सदा लुप्त रहिी है। यह लोक कलाओं के कलाकारों की सादगी और सरलिा की पररिायक है।
तित्रों की तवषयवस्िु िंाकृ तिक पररवेि से या ईनके दैतनक जीवन की घटनाओं से ली जािी है।
फसल, खेि या पाररवाररक समारोह लगभग सभी कु छ ईनके तित्रफलक पर ऄपना सौन्दयग
तबखेरिा है।
कागज़ पर तित्रकला के ऄतिररि गोंड जनजाति स्वयं को तभतितित्रण और िल तित्रण में भी
व्यस्ि रखिी है।
गोंड जनजाति की ही एक िाखा और संथाल तजिनी ही िंािीन; गोदावरी िट की गोंड जाति भी
गोंड कला
बारटक (ब्लॉक प्रिंटटग) कपड़ों पर वनस्पति, रासायतनक रं गों से तित्र बनाने की कला है।
आसका रं ग फीका नहीं पड़िा और आसकी तडज़ाआन भी ऄपनी संस्कृ ति की याद कदलािी है।
िाजमहल, गुड्ड-े गुतड़या, पुराित्व से जुड़ी आमारिों और राजा-महाराजाओं के तित्र को रं गों के साथ
ईके रा जािा है।
कारीगर कलम से कपड़े पर तविेष िंकार की कलाकृ तियााँ बनािे हैं।
ईिैन के समीप तस्थि भैरवगढ़ अज भी आस कला का िंतसद्ध कें ्र है।
बारटक प्रिंट
वली तित्रकला का संबंध् महाराष्ट्र के जनजािीय िंदेि में रहने वाले एक छोटे जनजािीय वगग से
है।
ये जनजाति महाराष्् राज्य के थाने तजले के दहानू, िलासरी एवं जव्हार िालुका में ऄन्य दूसरी
जनजातियों के साथ पायी जािी हैं।
आस तित्रकला के ऄंिगगि ऄलंकृि तित्र गोंड िथा कोल जैसे जनजािीय घरों और पूजाघरों के फिों
और दीवारों पर बनाए जािे हैं।
वृक्ष, पक्षी, नर िथा नारी तमल कर एक वली तित्र को पूणि
ग ा िंदान करिे हैं।
ये तित्र िुभ ऄवसरों पर अकदवासी मतहलाओं द्वारा कदनियाग के एक तहस्से के रूप में बनाए जािे
हैं।
आन तित्रों की तवषयवस्िु िंमुखिः धमगतनरपेक्ष है।
आन तित्रों में मुख्यिः फसल पैदावार ऊिु, िादी, ईत्सव, जन्म अकद को दिागया जािा है।
ये साधारण और स्थानीय वस्िुओं का िंयोग करके बनाए जािे हैं, जैसे िावल की लेइ िथा
वली तित्रकला
कालीघाट तित्रकला का नाम कलकिा में तस्थि कालीघाट नामक स्थान से जुड़ा है।
कलकिे में काली मंकदर के पास ही कालीघाट नामक बाजार हैं 19वीं ििी के िंारं भ में पटु अ
से ईत्पन्न हुइ बंगाल की बाबू संस्कृ ति िथा कोलकािा के नये-नये बने ऄमीर लोगों की जीवन
िैली ने कला को िंभातवि ककया।
आन सभी िंेरक घटकों ने तमलकर बंगला सातहत्य, तथयेटर, और दृश्य कला को एक नवीन
ऄतभनेतत्रयों, दरबाररयों, िानिौकि वाले बाबुओं, घमण्डी छैलों के रं गतबरं गे कपड़ों, ईनके
बालों की िैली िथा पाआप से धूम्रपान करिे हुए और तसिार बजािे हुए दृश्यों को ऄपने तित्र
पटल पर ईिारने लगे।
कालीघाट के तित्र बंगाल से अइ कला के सवगिंथम ईदाहरण माने जाने जािे हैं।
कालीघाट तित्रकला
त्रावनकोर (के रल) के राजा रतव वमाग के तमथकीय और सामातजक तवषयवस्िु पर अधाररि िैल
तित्र आस काल में सवागतधक लोकतिंय हुए।
ये भारि के सवागतधक महान तित्रकारों में से एक हैं। ईन्हें अधुतनक तित्रकला िैली का िंविगक
माना जािा है। आस िैली को पाश्िात्य िकनीकों और तवषयवस्िुओं के भारी िंभाव के कारण
‘अधुतनक’ कहा जािा था।
आन्होंने भारिीय सातहत्य, संस्कृ ति और पौरातणक कथाओं (जैसे महाभारि और रामायण) और
ईनके पात्रों का जीवन तित्रण ककया।
ईनके कृ तियों की सबसे बड़ी तविेषिा है तहन्दू महाकाव्यों और धमग ग्रंथों पर बनाए गए तित्र।
आन्होंने देवी सरस्विी और ईवगिी-पुरुरवा कथा का दृश्य ऄत्यंि सुन्दरिा के साथ तितत्रि ककया है।
ईनकी कला भारिीय परं परा और यूरोपीय िकनीक के समेकन का सबसे बेहिरीन ईदाहरण है।
ईन्होंने ईस समय में खुलप
े न को स्वीकार ककया, जब आस बारे में सोिना भी मुतश्कल था।
राजा रतव वमाग ने आस तविारधारा को न तसफग अत्मसाि ककया, बतल्क ऄपने कै नवास पर रं गों के
माध्यम से ईके रा भी। यही कारण रहा कक ईनकी कलाकृ तियों को ईस समय के िंतितष्ठि तित्रकारों
ने स्वीकार करने से आनकार कर कदया था। कफर भी ईन्होंने िंयास नहीं छोड़ा और बाद में ईन्हीं
तित्रकारों को ईनकी िंतिभा का लोहा मानना पड़ा।
ईन्होंने ऄपनी तित्रकारी में िंयोग करना नहीं छोड़ा और हमेिा कु छ ऄनोखा और नया करने का
िंयास करिे रहे। आनके कला कौिल के कारण ईन्हें 'पूवग का रफै ल' कहा जािा है।
आनके कु छ िंतसद्ध कायों में 'लेडी आन द मूनलाआट', 'मदर आं तडया' आत्याकद सतम्मतलि हैं।
रवीन््र नाथ ठाकु र, ऄवनीन््र नाथ ठाकु र, आ.बी हैवल और अनन्द के हरटि कु मार स्वामी ने बंगाल
कला िैली के ईदय में महत्त्वपूणग भूतमका तनभाइ।
o बंगाल कला िैली ‘िांति तनके िन’ में फली-फू ली जहााँ पर रवीन््र नाथ टैगोर ने ‘कलाभवन’ की
स्थापना की।
रवीन््र नाथ ठाकु र ने ऄपनी तित्रकला में िंभावी काली रे खाओं का िंयोग ककया तजससे तवषय
िंमुखिा से ईभरिा था।
o आन्होंने लघु अकार की तित्रकलाओं का तनमागण ककया है।
ऄवनीन््र नाथ ठाकु र की 'ऄरे तबयन नाआट श्रृख
ं ला' ने तवश्व स्िर पर पहिान बनाइ क्योंकक आसने
नंदलाल बोस, तवनोद तबहारी मुखजी जैसे िंतिभािाली कलाकार ईभरिे कलाकारों को िंतिक्षण
देकर िंोत्सातहि कर रहे थे।
o नन्दलाल बोस भारिीय लोक कला िथा जापानी तित्रकला से िंभातवि थे और तवनोद
तबहारी मुखजी िंाच्य परम्पराओं में गहरी रुति रखिे थे।
o आस काल के ऄन्य तित्रकार जैतमनी राय ने ईड़ीसा की पट-तित्रकारी और बंगाल की
कालीघाट तित्रकारी से िंेरणा िंाप्त की।
ऄमृिा िेरतगल ने पेररस और बुडापेस्ट में तिक्षा िंाप्त की िथातप भारिीय तवषयवस्िु को लेकर
गहरे िटख रं गों से तित्रकारी की।
o ईन्होंने तविेषरूप से भारिीय नारी और ककसानों को ऄपने तित्रों का तवषय बनाया।
o यद्यतप आनकी मृत्यु ऄल्पायु में ही हो गइ परं िु वह ऄपने पीछे भारिीय तित्रकला की समृद्ध
तवरासि छोड़ गइ हैं।
धीरे -धीरे ऄंग्रज
े ी पढ़े-तलखे िहरी मध्यविी लोगों की सोि में भारी पररविगन अने लगा और यह
पररविगन कलाकारों की ऄतभव्यति में भी कदखाइ पड़ने लगा।
तिरटि िासन के तवरुद्ध बढ़िी जागरूकिा, राष्ट्रीयिा की भावना और एक राष्ट्रीय पहिान की
िीव्र आच्छा ने ऐसी कलाकृ तियों को जन्म कदया जो पूवव
ग िी कला की परम्पराओं से एकदम ऄलग
थीं।
सन् 1943 में तद्विीय तवश्वयुद्ध के समय पररिोष सेन, तनरोद मजुमदार और िंदोष दासगुप्ता अकद
के नेिृत्व में कलकिा के तित्रकारों ने एक नया वगग बनाया तजसने भारिीय जनिा की दिा को नइ
दृश्य भाषा और नवीन िकनीक के माध्यम से िंस्िुि ककया।
o आस िैली के ऄंिगगि, वस्िुओं को पहले तवभातजि ककया जािा था, तवश्लेतषि ककया जािा था
और ईसके बाद आन्हें पुन: संयोतजि ककया जािा था।
o आस िैली के ऄंिगगि रे खाओं और रं गों के बीि तबल्कु ल सही सन्िुलन िंाप्ि करने का िंयास ककया
गया है।
1970 के बाद से कलाकारों ने ऄपने वािावरण का अलोिनात्मक दृतष्ट से सववेकक्षण करना िंारं भ
ककया।
गरीबी और भ्रष्टािार की दैतनक घटनाएाँ, ऄनैतिक भारिीय राजनीति, तवस्फोटक साम्िंदातयक
िनाव, एवम् ऄन्य िहरी समस्याएाँ ऄब ईनकी कला का तवषय बनने लगीं।
देविंसाद राय िौधरी एवं के . सी. एस. पतणकर के संरक्षण में म्र ास स्कू ल अफ अटग संस्था
स्वािंत्र्योिर भारि में एक महत्त्वपूणग कला के न््र के रूप में ईभरी और अधुतनक कलाकारों की एक
नइ पीढ़ी को िंभातवि ककया।
अधुतनक भारिीय तित्रकला के रूप में तजन कलाकारों ने ऄपनी पहिान बनाइ, वे हैं- िैयब
मेहिा, सिीि गुजराल, कृ ष्ण खन्ना, मनजीि बाबा, के जी सुिह्मण्यन्, रामकु मार, ऄंजतल आला
मेनन, ऄकबर पिंश्री, जतिन दास, जहांगीर सबावाला िथा ए. रामिन््र न अकद।
भारि में कला और संगीि को िंोत्सातहि करने के तलए दो ऄन्य राजकीय संस्थाएाँ स्थातपि हुइ-
o नेिनल गैलरी ऑफ़ मॉडनग अटग- आसमें एक ही छि के नीिे अधुतनक कला का एक बहुि बड़ा
संग्रह है।
o लतलि कला ऄकादमी जो सभी ईभरिे कलाकारों को तवतभन्न कला क्षेत्रों में संरक्षण िंदान करिी
है और ईन्हें एक नइ पहिान देिी है।
फ़्ांतसस न्यूटन सूजा की तित्रकला एम. एफ. हुसैन द्वारा तितत्रि घोड़े
All rights are reserved. No part of this document may be reproduced, stored in a retrieval system or transmitted in any
form or by any means, electronic, mechanical, photocopying, recording or otherwise, without prior permission of Vision
IAS
46 www.visionias.in ©Vision IAS
VISIONIAS
www.visionias.in
तवषय सूची
1. पररचय ____________________________________________________________________________________ 4
2. संगीत नाटक ऄकादमी द्वारा ‘शास्त्रीय नृत्य’ का दजाा प्रदान ककये गए नृत्य ______________________________________ 5
1. पररचय
भारतीय शास्त्रीय नृत्य (Indian Classical Dance)
भारतीय शास्त्रीय नृत्य कू छह मान्दयता प्राप्त तवधाएं धार्ममक ऄनुष्ठान के रूप में तवकतसत हुईं।
आसमें नताक/नताककयां देवताओं के जीवन और पराक्रम क ऄथापूणा कहातनयों के माध्यम से व्यक्त
कर पूजा करते थे।
भारतीय शास्त्रीय नृत्य के तसद्धांत भरत मुतन द्वारा रतचत 'नाट्य शास्त्र' से तलए गए हैं। आस कृ तत
का संकलन तद्वतीय शताब्दी इसा पूवा से तद्वतीय शताब्दी इसवी के बीच ककया गया। आसकू ईत्पतत्त
भगवान् ब्रह्मा से मानी गइ।
भगवान ब्रह्मा ने ‘नाट्यवेद’ के रूप में पंचमवेद कू रचना कू ज प्रचतलत चारों वेदों का सार माना
जाता है। ईदाहरणतः, पाठ्य (शब्द) ऊग्वेद से, ऄतभनय (मुरा) [gestures] यजुवेद से, गीत
(संगीत) सामवेद से तथा रस (भाव) ऄथवावेद से तलया गया है।
नृत्य के घटक: तीन मुख्य घटक आन नृत्यों के अधार रूप हैं- नाट्य, नृत्त और नृत्य।
o नाट्य- यह नृत्य के नाटकूय तत्व का तनरूपण है (ऄथाात, चररि कू नकल);
o नृत्त- यह शुद्ध नृत्य है, जहां शरीर कू गतततवतधयां न त ककसी भाव का वणान करती हैं और
न ही वे ककसी ऄथा क प्रततपाकदत करती हैं।
o नृत्य- आसका अशय नतान के माध्यम से वर्मणत रस तथा भावों से है। आसमें मुखातभव्यतक्त,
हस्त-मुरा और पैरों कू तस्थतत के माध्यम से मन दशा का तनरूपण ह ता है।
भारतीय शास्त्रीय नृत्य नाट्य शास्त्र में संतहताबद्ध सौंदया तसद्धांतों से संचातलत ह ते हैं। नाट्यशास्त्र
के तसद्धांत के ऄनुसार नृत्य के द बुतनयादी स्वरुप ह ते हैं: तांडव और लास्य।
o तांडव- यह लय तथा गतत क दशााता है, तजसमें शतक्त, मजबूती और दृढ़ता जैसे पौरुष
तवशेषताओं पर बल कदया जाता है। तांडव नृत्य भगवान शंकर ने ककया था।
o लास्य - यह लातलत्य, भाव, रस तथा ऄतभनय क दशााता है, ज नृत्य के क मल स्वरुप ऄथवा
नारी सुलभ तवशेषताओं का प्रदशान करता है। तजसे भगवान कृ ष्ण ग तपयों के साथ ककया
करते थे।
ऄतभनय का तवस्ताररत ऄथा ऄतभयतक्त है। यह अंतगक, शरीर और ऄंगों; वातचक ऄथाात कथन;
ऄहाया, वेशभूषा और ऄलंकार; और सातत्वक, भावों और ऄतभयतक्तयों के द्वारा सम्पाकदत ककया
जाता है ।
नृत्य और नाटय क प्रभावकारी ढंग से प्रस्तुत करने के तलए एक नताकू क नवरसों का संचार करने
में प्रवीण ह ना चातहए। यह नवरस हैं- श्ृग
ं ार, हास्य, करूणा, वीर, रौर, भय, तवभत्स, ऄदभुत
और शांत।
भारतीय शास्त्रीय नृत्य तथा पतिमी नृत्यनाटकूय (ballet) शैली में तभन्नता:
o भारतीय शास्त्रीय नृत्य में संचार कू शैली पतिमी नृत्यनाटकूय (ballet) शैली से बहुत तभन्न
है। बैले में ज र प्रायः पैरों कू गतततवतध पर रहता है - ऄथाात ईछाल में, घुमाव में और तीव्र
पद-चाप में ज कक बैले क उँचाइ, गतत और फु तीलापन जैसे तवशेष गुण प्रदान करता है
जबकक शरीर ऄपेक्षाकृ त तस्थर रहता है और भुजाएं मुख क घेरती हैं या शरीर का संतुलन
बनाती हैं।
o हालांकक, भारतीय नृत्य में पैर ईठाने या आं तगत करने के बजाए समतल पाँव के साथ
सामान्दयतः मुडे ह ते हैं। ईछाल प्रायः कम (हल्का) ह ता है और नताकू शायद ही कभी ज्यादा
स्थान लेती है या जरटल पद-चाप प्रस्तुत करती है।
o पद्कायों कू जरटलता लय के मुरांकन के तवस्तार में ऄतधक कदखाइ देती है। ये मुरांकन लय
नृत्य कू संगीतात्मकता बढ़ाते हैं। कइ नताककयां ऄपने टखने (एंडी) के असपास घंटी (घुंघुरू)
पहनती हैं, ज बाहर से संगीतकारों द्वारा कदए जा रहे संगीत के पूरक के रूप में स्वयं ही साज़
कू अपूर्मत करती है।
o धड, मुख, भुजाएं और हाथ बहुत सकक्रय ह ते हैं। कदशाओं में तीव्र पररवतान के साथ तसर
काफू गततशील रहता है और एक-एक करके दायें-बाएं तवतशष्ट लक्षणों वाले गतत के साथ
नताकू के पररवर्मतत ह ते मुख भावातभव्यतक्त पर तवशेष ज र रहता है।
o धड कू गतत ऄत्यंत अकषाक और प्रवाही ह ती है, ज एक-एक कर बदलती रहती है या
मेरुदंड के ऄक्ष पर घूमती है जबकक, हाथ और भुजाओं कू गतत तीव्र और तवस्तृत हैं तथा
प्रत्येक मुरा कथात्मक कक्रयाशीलता क प्रदर्मशत करते हैं।
o भारतीय नताकों के पास मुराओं (Gestures) का खजाना है, तजसके माध्यम से वे जरटल से जरटल
घटनाओं, तवचारों और भावों क ऄतभव्यक्त करते हैं। ईदाहरण के तलए; तसर कू 13 मुराएं और
आनके 36 तवतभन्न नज़ारे या भाव हैं और 67 प्रकार कू हस्तमुरायें हैं तजनके तभन्न-तभन्न संय जनों
से कइ हजार ऄलग ऄथा प्राप्त ककए जा सकते हैं।
भारत में नृत्य शैतलयाँ शतातब्दयों के तवकास क्रम में देश के तवतभन्दन भागों में तवकतसत हुईं। आनकू
ऄपनी पृथक शैली ने ईस तवशेष प्रदेश कू संस्कृ तत क रहणहण ककया तथा प्रत्येक ने ऄपनी
तवतशष्टता प्रा्त कू। ऄत: ‘कला’ कू ऄनेक प्रमुख शैतलयां बनीं; तजन्दहें हम अज भरतनाट्यम,
कथकली, कु चीपुडी, कथक, मतणपुरी तथा ओडीसी अकद के रूप में जानते हैं।
यहां अकदवासी और रहणामीण क्षेिों के नृत्य में प्रादेतशक तवतवधताएं हैं, ज मौसम के हषापण
ू ा
समार हों, फसल और बच्चे के जन्दम के ऄवसर अकद से सम्बतन्दधत हैं। पतवि अत्माओं के अववान
तथा दुष्ट अत्माओं क शांत करने के तलए भी नृत्य ककए जाते हैं। अज यहां अधुतनक प्रय गात्मक
नृत्य के तलए भी एक सम्पूणा नव तनकाय है।
भरतनाट्यम में नृत्य संतुतलत ऄंगभंगी से ईत्पन्न ह ता है तजसमें भाव, रस, और काल्पतनक
ऄतभव्यतक्त का ह ना अवश्यक है।
शारीररक प्रकक्रया क तीन भागों में बांटा गया है-
o समभंग,
o ऄभंग
o तिभंग
आसमें नृत्यक्रम तनम्नतलतखत क्रम में ह ता है-
o अलाररपु
o जाततस्वरम्
o शब्दम्
o वणानम्
o पदम्
o ततल्लाना
भरतनाट्यम् का रं गपटल या मंच बहुत तवस्तृत ह ता है, जबकक प्रस्तुतीकरण तनयतमत ढांचे के
ऄनुरूप ह ता है। सबसे पहले आसमें ‘मंगलाचरण’ या तवनय गीत ह ता है।
पहला नृत्य एकक ऄलाररपु (Alarippu) ह ता है, तजसका शातब्दक ऄथा है- फू लों से सजावट। यह
ध्वतन ऄक्षरों के पठन के साथ शुद्ध नृत्य संय जन का एक ऄमूता खण्ड है।
ऄगला चरण, जाततस्वरम् (Jatiswaram) एक लघु शुद्ध नृत्य खण्ड है, तजसका प्रदशान कनााटक
संगीत के ककसी राग के संगीतात्मक स्वरों के साथ ककया जाता है। जाततस्वरम् में सातहत्य या शब्द
नहीं ह ते पर ऄड्वू (ADAVUS) कू रचना कू जाती है, ज कक शुद्ध नृत्य क्रम ह ते हैं। यह
भरतनाट्यम नृत्य में प्रतशक्षण के अधारभूत प्रकार हैं।
एक एकल नृत्य के रूप में भरतनाट्यम का ऄतभनय या मूक ऄतभनय के स्वरुप पर ऄतधक झुकाव
ह ता है। नृत्य, जहां नताकू गतततवतध और स्वांग या मूक ऄतभनय द्वारा सातहत्य (SAHITYA) क
ऄतभयक्त करती है। भरतनाट्यम नृत्य के प्रदशान में जाततस्वरम् का ऄनुसरण शब्दम्
(shabdam) द्वारा ककया जाता है। साथ में गाया जाने वाला गीत सामान्दयतः इश्वर कू अराधना
ह ती है।
पर प्रकाश डाला जाता है। प्रकृ तत में द नों प्राय: धार्ममक ही हैं और आनमें राम, तशव, तवष्णु
अकद देवताओं के जीवन कू ईपकथाएं (Episodes) प्रस्तुत ककये जाते हैं।
o पदम् और जावली प्रेम कू पृष्ठभूतम पर अधाररत ह ते हैं ज प्रायः दैतवक ह ता है।
भरतनाट्यम कू प्रस्तुतीकरण का ऄंत ततल्लाना (Tillana) के साथ
ह ता है, तजसकू ईत्पतत्त तहन्ददुस्तानी संगीत के तराना (Tarana) में
ह ती है।
यह एक गुज
ं ायमान नृत्य (vibrant dance) है, तजसे सातहत्य कू
कु छ पंतक्तयों के साथ संगीत के ऄक्षरों के सहायक के रूप में प्रस्तुत
ककया जाता है।
ऄतभकतल्पत लयात्मक पंतक्तयों कू श्ृंखला के चरम त्कषा पर पहुंचने
के साथ ही आस खण्ड का समापन ह ता है।
प्रस्तुतीकरण का ऄंत मंगलम् (Manglam) के साथ ह ता है, तजसमे
इश्वर से अशीवाचन कू कामना कू जाती है।
संगीत मंडल
o भरतनाट्यम नृत्य के संगीत वा्य मण्डल में एक गायक, एक मृदग
ं वादक, एक वायतलन या
वीणा वादक, एक बांसरु ी वादक और एक करताल वादक ह ता है।
o ज यतक्त नृत्य का कतवता-पाठ करता है, वह नट्टु वनार (Nattuvanar) ह ता है।
यह नृत्य शैली ततमलनाडु प्रदेश में ऄतधक प्रचतलत है।
भरतनाट्यम कू नृत्यकार ऄतधकतर मतहलाएं ही हैं।
भरतनाट्यम क साकदर, दासी ऄट्टम तथा तंजावूरनाट्यम अकद ऄन्दय नामों से भी जाना जाता है।
इ. कृ ष्ण ऄय्यर और रूतक्मणी देवी ऄरुन्ददाले द्वारा बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में आस नृत्य कू
पुनस्थाापना के बाद आस नृत्य शैली से सम्बंतधत कलाकारों में यातमनी कृ ष्णमूर्मत, लीला सैमसन,
स नल मान ससह, मृणातलनी साराभाइ, मालतवका सर ज, एस.के . सर ज, रामग पाल, टी.
बालासरस्वती अकद प्रमुख हैं।
2.2. कु चीपु डी नृ त्य (Kuchipudi dance)
कु चीपुडी, भारतीय नृत्य कू शास्त्रीय शैतलयों में से एक है। आस
शताब्दी के तीसरे व चौथे दशक के अस-पास यह नृत्य-शैली आस
नाम के नृत्य-नाटक कू एक लंबी तथा समृद्ध परं परा से ईद्भूत हुइ।
वस्तुतः, अंध्र प्रदेश के कृ ष्णा तजले में कु चीपुडी नाम का एक गाँव है।
आसका मूल नाम कु चेलापुरी या कु चेलापुरम था। यह तवजयवाडा से
35 कक.मी. कू दूरी पर तस्थत है।
अंध्र प्रदेश में नृत्य-नाटक कू एक लंबी परं परा चली अ रही है,
तजसे यक्षगान (Yakshagaana) के जातीय नाम से जाना जाता
था।
2.2.1. कु चीपु डी नृ त्य के तवकास में तसद्धे न्दर य गी कू भू तमका
17वीं शताब्दी में एक प्रततभाशाली वैष्णव कतव तथा रष्टा तसद्धेन्दर
य गी ने यक्षगान कू कु चीपुडी शैली कू कल्पना कू। आनके ऄन्ददर
ऄपनी कल्पनाओं क मूता रूप प्रदान करने कू ऄद्भुत क्षमता थी।
संस्कृ त में ‘कृ ष्ण-लीला-तरं तगणी’ नामक काय के रचतयता ऄपने गुरु
तीथानारायण य गी से मागादशान प्रा्त कर वे यक्षगान कू सातहतत्यक
परं परा में तल्लीन ह गए।
ऐसा कहा जाता है कक तसद्धेन्दर य गी ने एक स्व्न देखा, तजसमें
भगवान कृ ष्ण ईनसे ऄपनी सवाातधक तप्रय रानी सत्यभामा हेतु
पाररजात के फू ल लाने कू कथा पर अधाररत एक नृत्य-नारटका कू रचना करने क कह रहे हैं।
आस अदेश के ऄनुपालन में ईत्सातहत तसद्धेन्दर य गी ने
‘भामाकल्पम्’ (Bhaamaakalaapam) कू रचना कू, ज
अज भी कु चीपुडी रं गमंच कू ईत्कृ ष्ट कृ तत मानी जाती है।
आन्दहोंने ‘ग ल्लाकल्पम’ कू भी रचना कू।
तसद्धेन्दर य गी ने कु चीपुडी गाँव के ब्राह्मण युवकों क ऄपनी
रचनाओं, तवशेषकर भामाकल्पम् के ऄभ्यास तथा आसे प्रस्तुत
करने के तलए प्र त्सातहत ककया।
भामाकल्पम् कू प्रस्तुतत एक अश्चयाजनक सफलता थी।
आसका सौन्ददयापरक अकषाण आतना व्यापक था कक तत्कालीन ग लकु ण्डा के नवाब ऄब्दुल हसन
तनीशाह ने 1675 इस्वी में एक ताम्र परट्टका जारी कर
आस कला क ख जने वाले तथा आसका ऄनुसरण करने
वाले ब्राह्मण पररवारों क ऄरहणहार के रूप में कु चीपुडी
गांव क ऄनुदान में दे कदया।
ईस समय सभी कलाकार पुरुष ही थे और ईनके द्वारा
प्रस्तुत स्त्री कू वेष-भूषा धारण करना ऄत्यंत श्ेष्ठ ह ता
था। एक तवचार के रूप में स्त्री का वेश धारण करने के
ईच्च स्तर क महान कु तचपुडी नताक तथा सत्यभामा कू
भूतमका तनभाने वाले वेदांतम् सत्यनारायण शमाा में देखा
जा सकता है।
नृत्य नारटकाओं के ऄततररक्त भी कु छ प्रमुख तवषय हैं जैसे- मंडूक शब्दम, बालग पाल तरं ग, ताल
तचि तजसमे नताक तथा नताककयां नृत्य करते समय ऄपने ऄंगठ
ू े से फशा पर अकृ तत बनाते हैं।
कु तचपुडी के प्रमुख कलाकार राधा रे ड्डी, राजा रे ड्डी, यातमनी कृ ष्णमूर्मत, वेदांतम सत्यनारायण,
लक्ष्मी नारायण शास्त्री, स्वप्न सुद
ं री अकद हैं।
कथकली नृत्य, संगीत और ऄतभनय का तमश्ण है। आसमें नाटकूकरण के तलए ऄतधकतर भारतीय
महाकायों से ली गइ कथायें ह ती हैं।
यह शैलीबद्ध कला रूप है, तजसमें ऄतभनय के चार रूपों- ऄंतगका (Angika), ऄहाया (Aharya),
वातचका (Vachika), सातत्वका (Satvika) तथा नृत्त (Nritta), नृत्य (Nritya) तथा नाट्य
(Natya) रूपों का ईत्कृ ष्ट सतम्मश्ण ह ता है।
यह एक मूक ऄतभनय है, तजसमें ऄतभनेता ब लता एवं गाता नहीं है, लेककन बेहद संवद
े नशील
माध्यमों जैस-े हाथ के आशारे और मुखातभव्यतक्त के सहारे ऄपनी भावनाओं कू सुगम प्रस्तुतत देता
है। आसके बाद प्य ात्मक भाग (प्म)) ह ता है, तजन्दहें गाया
जाता है।
कथकली ऄपनी मूलपाठ-तवषयक स्वीकृ तत बलराम
भरतम् (Balraam Bharatam) (तजसे िावनक र के
राजा कार्मतक ततरुनल बलराम वमाा ने तलखा, ये अट्टिथा
के भी रचतयता थे) और हस्तलक्षणा दीतपका
(Hastlakshna Deepika) रहणंथों से प्रा्त करती है। आन
रहणंथों में ईतल्लतखत हस्त मुराओं के के अधार पर ईनके
तवतभन्न ऄथा प्रकट ह ते हैं। आन्दहीं मुराओं के अधार पर ही
कथाओं का वणान ककया जाता है।
अट्टकथायें या कहातनयों क महाकायों तथा पौरातणक
कथाओं से चुनकर आन्दहें ईच्च स्तरीय संस्कृ त प्य रूप में
मलयालम भाषा में तलखा जाता है। मलयालम भाषा के
बहुत से लेखकों ने कथकली सातहत्य के तवशाल भण्डार क बनाने में ऄपना य गदान कदया है।
कथकली एक दृश्यात्मक कला है, जहां ऄहाया, वेश-भूषा और श्ृग
ं ार पाि के ऄनुसार ह ता है ज
नाट्य शास्ि के तसद्धांतों पर अधाररत ह ता है।
पािों क स्पष्ट रूप से पररभातषत प्रकारों में वगीकृ त ककया जाता है जैसे- पच्चा (Pacha), कथी
(Kathi), ताढ़ी (Thadi), करर (करी) या तमनुक्कु (Minukku)।
कलाकार के चेहरे क आस प्रकार रं ग कदया जाता है कक वह एक मुखौटे सा प्रतीत ह ता है।
o ह ठों, भौहों और पलकों क ईभार कर कदखाया जाता है।
o चेहरे पर चट्टी (Chutti) बनाने के तलए तपसे हुए चावल का लेप और चूने का तमश्ण लगाया जाता
है, तजससे चेहरे का श्ृंगार ईभर कर अता है।
कथकली नृत्य मुख्यतय: याख्यात्मक ह ता है। कथकली प्रस्तुतीकरण में पािों क म टे तौर पर
सातत्वक, राजतसक और तामतसक वगों में तवभक्त ककया जाता है।
o सातत्वक चररि कु लीन, वीर तचत, दानशील और पररष्कृ त ह ते हैं। पच्चा में हरा रं ग प्रमुख ह ता
है और सभी पाि ककरीट (मुकुट) धारण करते हैं। कृ ष्ण और राम म र पंखों से ऄलंकृत तवशेष मुकुट
पहनते हैं।
o आं र, ऄजुन
ा ओर देवताओं जैसे कु छ कु लीन (राजसी) पाि पच्चा (Pacha) पाि ह ते हैं।
o कथी प्रकार के पाि खलनायक पाि ह ते हैं, परन्दतु कफर भी ये राजतसक वगा के ऄंतगात अते हैं।
कभी-कभी ये रावण, कमसा और तशशुपाल जैसे महान य द्धा और तवद्वान भी ह ते हैं।
मूँछें और चुट्टी्प नामक छ टी मूठ (घुण्डी) क नाक के ऄरहणभाग और एक ऄन्दय क माथे के बीच में
लगाया जाता है ज कक कथी पाि के श्ृग ं ार कू तवशेषता है।
ताढ़ी (दाढ़ी) वगा के पाि हैं- चुवन्दना ताढ़ी (लाल दाढ़ी) वेल्लाताढ़ी (सफे द दाढ़ी) और करूत्ता
ताढ़ी (काली दाढ़ी)। वेल्लाताढ़ी या कफर सफे द दाढ़ी वाला चररि सामान्दयतः हनुमान का ह ता है।
आसके तलए नताक बन्ददर कू वेश-भूषा वाले वस्ि भी पहनता है।
करर वगा के पाि के रूपसज्जा का अधार काला रं ग ह ता है, ज काली वेशभूषा पहनते हैं और आस
वगा के पाि तशकारी या जंगलवासी का ऄतभनय करते हैं।
आनके ऄततररक्त यहां तमनुक्कु जैसे तनम्न वगा के पाि भी ह ते हैं, तजसमें तस्त्रयां और ऊृतष-मुतन
अते हैं।
श्ेष्ठ मानवीय प्रभाव ईत्पन्दन करने के तलए वेश-भूषा और श्ृंगार तवस्तृत तथा तडजाआन युक्त ह ता
है।
कथकली नृत्य के तलए श्ृंगार कू प्रकक्रया तीन भागों में वगीकृ त ककया जाता है-
o ते्पू (Teppu)- आस श्ृंगार क कलाकार स्वयं ही कर लेता है। प्रत्येक पाि का तभन्दन ते्पू
ह ता है।
o चुट्टीकु थू (Chuttikuthu)- यह श्ृंगार रूप-सज्जा में तवतशष्टता रखने वाले तवशेष्ों द्वारा
ककया जाता है।
o ईडु त्तुकेट्टू (Uduthukettu)- यह बडा घेरदार घाघरा (स्कटा) आस नृत्य क करते समय पहना
जाता है, तजसे ईडु त्तुकेट्टू कहा जाता है।
आसमें एक साधारण मंच का प्रय ग ककया जाता है। तेल से भरा एक बडा दीपक मंच के सामने रखा
जाता है और द ल ग मंच पर एक परदे क पकडकर खडे रहते हैं, तजसे ततरस्सीला (Tirasseela)
कहा जाता है, मुख्य नताक या नताककयां ऄपने प्रदशान से पहले आसी परदे के पीछे खडे ह ते हैं।
कथकली के ऄततररक्त ऄन्दय ककसी नृत्य शैली में पूरी तरह से शरीर के सभी ऄंगों का ईपय ग नहीं
ह ता। आस नृत्य शैली के तकनीकू तववरण में चेहरे कू मांसपेतशयों से लेकर ऄंगुतलयां, अंखें, हाथ
और कलाइ सभी कु छ अ जाते हैं। चेहरे कू मांसपेतशयां महत्वपूणा भूतमका तनभाती हैं।
नाट्य शास्ि के वणान के ऄनुसार ऄन्दय ककसी भी नृत्य शैली में भौहों, अंख कू पुततलयों और
तनचली पलकों कू गतत का आतना प्रय ग नहीं ककया जाता।
शरीर का सारा भार पैरों के बाहरी ककनारों पर ह ता है, ज थ डे झुके हुए और मुडे हुए ह ते हैं।
कलाशम (Kalasams) तवशुद्ध नृत्य के क्रम ह ते हैं, तजसमें कलाकार क स्वयं क ऄतभयक्त
करने और ऄपनी कु शलताओं का प्रदशान करने कू पूरी स्वतंिता ह ती है। ईछालें (कू द), तत्क्षण
घुमाव, छलांगें और लयात्मक संय जन सब तमलकर कलाशम् बनाते हैं, तजसे देखने में अनंद अता
है।
नृत्य क्रम
o कथकली नृत्य का प्रदशान के तलक टटू (Kelikottu) से अरम्भ ह ता है, तजसके द्वारा दशाकों क
अकर्मषत ककया जाता है।
o आसके बाद त डयम (Todayam) ह ता है। यह धार्ममक नृत्य ह ता है, तजसमें एक या द
कलाकार भगवान के अशीवाचनों क रहणहण करने के तलए प्राथाना करते हैं।
o के तलक टटू शाम क ह ने वाले कायाक्रम कू औपचाररक घ षणा ह ती है, जब खुले स्थान पर
कायाक्रम कू जगह पर ढ ल और मंजीरे बजाए जाते हैं।
o आसके ऄंत: भाग के रूप में पुरा्पाडू (Purappadu) नामक एक तवशुद्ध नृत्त खण्ड प्रदर्मशत
ककया जाता है।
o आसके बाद मेला्पदम (Melappada) में संगीतकार तथा ढ लवादक मंच पर ऄपनी कु शलता
का प्रदशान करते हुए दशाकों का मन रं जन करते हैं।
o ततरान क्कु , पच्चा या तमनुक्कु के ऄततररक्त सभी कलाकारों का मंच पर प्रवेश ह ता है।
तजसके बाद नाटक या चुने हुए नाटक का एक तवतशष्ट दृश्य अरम्भ ह ता है।
o ‘आलाककयाट्टम’ प्रस्तुतीकरण का वह भाग है, जहां पाि क ऄतभनय में ऄपनी श्ेष्ठता क
प्रदर्मशत करने का ऄवसर प्रा्त ह ता है। प्रदशान के ऄतधकतर समय में नताक कलाकार स्वयं
क च तडयाट्टम (Chodiattam) में यस्त रखता है, तजसका ऄथा है संगत करने वाले
संगीतकारों द्वारा गाये गए प्य ों के शब्दों पर ही मुख्य रूप से ऄतभनय करना।
संगीत मंडल
o कथकली नृत्य का संगीत के रल के परम्परागत स पान संगीत का ऄनुसरण करता है, तजसकू
गतत बहुत धीमी ह ती है।
o स पान संगीत के ऄन्दतगात मंकदर के मुख्य गभा गृह (मुख्य कक्ष) कू ओर जाने वाली सीकढयों कू
पंतक्तयों पर ऄष्टपाकदयों क ऄनुष्ठातनक गान ह ता है।
o ऄब कथकली नृत्य संगीत में कनााटक रागों का भी प्रय ग ह ता है, तजसके ऄन्दतगात राग और
o वा्य समूह में, सामान्दयतः चेंडा (Chenda), मद्दलम् (Maddalam), चेंतगला (Chengila),
तहन्ददू और मुतस्लम, द नों दरबारों में कथक ईच्च शैली में ईभरा और
मन रं जन के एक पररष्कृ त रूप में तवकतसत हुअ। मुतस्लम वगा के
ऄंतगात आसमें नृत्य पर तवशेष ज र कदया गया और भाव ने आस नृत्य क
सौंदयापूण,ा प्रभावकारी तथा भावनात्मक अयाम प्रदान ककए।
19वीं सदी में ऄवध के ऄंततम नवाब वातजद ऄली शाह के संरक्षण में
कथक का स्वर्मणम युग देखने क तमलता है। आन्दहोंने लखनउ घराने क
ईसके प्रभावशाली स्वरांकन तथा मन दशा और भावनाओं कू
ऄतभयतक्त के साथ स्थातपत ककया। जयपुर घराना ऄपनी लयकारी या
लयात्मक प्रवीणता के तलए जाना जाता है और बनारस घराना कथक
नृत्य का एक ऄन्दय प्रतसद्ध तवधा है। कथक में गतत कू तकनीक तवतशष्ट
ह ती है।
शरीर का भार क्षैततज और लम्बवत धुरी पर समान रूप से तवभातजत ह ता है। पांव के सम्पूणा
सम्पका क मुख्य रूप से महत्व कदया जाता है, जहां तसफा पैर
कू एडी या ऄंगुतलयों का ईपय ग ककया जाता है।
यहां कक्रया सीतमत ह ती है। आसमें क इ झुकाव नहीं ह ता और
शरीर के तनचले या उपरी तहस्से के वक्रों या म डों का ईपय ग
नहीं ककया जाता।
तनचले कमर कू मांस-पेतशयों और उपरी छाती या रीढ़ कू
हड्डी के पररचालन कू ऄपेक्षा धड (Torso) गतततवतधयां कं धों
कू रे खा के पररवतान से ज्यादा ईत्पन्दन ह ती हैं।
बुतनयादी रूप से, नताक सीधा खडा रहता है। एक हाथ क
तसर कू तुलना में उँची तस्थतत में रखता है और दूसरे क
बहार कू ओर रखता है, तजससे मौतलक मुरा में संचालन कू
एक जरटल पद्धतत के ईपय ग के द्वारा तकनीकू का तनमााण ह ता है।
शुद्ध नृत्य (नृत्त) सबसे ज्यादा महत्वपूणा है, जहां नताकू द्वारा पहनी गइ पाजेब के घुंघरुओं कू
ध्वतन के तनयंिण और समतल पांव के प्रय ग से पेचीदे लयात्मक नमूनों के रचना कू जाती है।
भरतनाट्यम्, ओतडसी और मतणपुरी कू तरह कथक में भी गतततवतध कू आकाइयों के संय जन
द्वारा आसके शुद्ध नृत्य क्रमों का तनमााण ककया जाता है।
तालों क तवतभन्दन प्रकार के नामों से पुकारा जाता है, जैस-े टु कडा (tukra), त डा (Tora) और
पराना (Parana)
लयात्मक नमूनों कू प्रकृ तत के सभी सूचक प्रय ग में लाए जाते हैं और वा्य ों कू ताल पर नृत्य के
साथ संगत कू जाती है।
नताकू नृत्य क ‘थाट’ (That) के साथ अरम्भ करती है, जहां गले, भौहों और कलाइयों कू धीरे -
धीरे ह ने वाली गतततवतधयों के साथ शुरूअत कू जाती है। आसका ऄनुसरण एक परं परागत
औपचाररक प्रवेश द्वारा ककया जाता है तजसे ‘ऄमद’ (प्रवेश) और ‘सलामी’ (ऄतभवादन) के रूप में
जाना जाता है।
आसके बाद सभी ज र देते देते हुए लयबद्ध मागा के तवतभन्न संय जनों का पालन करते हैं और घेरों
कू एक संख्या में आनका समापन ह ता है। ऄनेक घेरे या चक्कर नृत्त खण्डों में नृत्य शैली कू एक
बहुत तवलक्षण तवशेषता है।
लयात्मक ऄक्षरों का वणान सामान्दय है; नताकू ऄक्सर एक तन्दष्ट छंदबद्ध गीत का वणान करती है
और ईसके बाद नृत्य गतततवतध के प्रस्तुतीकरण द्वारा ईसका ऄनुसरण करती है।
कथक के नृत्त भाग में ‘नगमा’ (Nagma) क प्रय ग में लाया जाता है। ढ ल बजाने वाले (यहां
ढ ल या त एक पखावज, मृदग
ं का एक प्रकार या तबले कू ज डी में से क इ भी एक ह सकता है)
और नताकू-द नों एक सुरीली पंतक्त कू अवृतत्त पर तनरं तर संय जनों का तनमााण करते हैं। 16, 10,
14 के लयबद्ध अघात (ताल) का एक सुरीला क्रम एक अधार पर प्रदान करता है, तजस पर नृत्य
ऄन्दय समूहों जैसे ठु मरी, भजन, दादरा सभी संगीतात्मक रचनाओं में मुराओं के साथ एक
तजसका सम्बंध मुतस्लम संस्कृ तत से रहा है। यह कला में तहन्ददू और मुतस्लम प्रततभाओं के एक
ऄतद्वतीय संश्लेषण क प्रस्तुत करता है।
आसके ऄततररक्त तसफा कथक ही शास्िीय नृत्य का वह रूप है, ज तहन्ददुस्तानी या ईत्तरी भारतीय
संगीत से जुडा है। आन द नों का तवकास एक समान है और द नों एक दूसरे क सहारा व प्र त्साहन
देते हैं।
कथक कू पारम्पररक शुरुअत का श्ेय जयपुर घराने के पंतडत तबन्ददादीन महाराज क जाता है।
पंतडत तबन्ददादीन महाराज के बाद कथक के तवकास कू बागड र पंतडत जयलाल, पंतडत नारायण
प्रसाद, पंतडत सुन्ददर प्रसाद, शंकरलाल, पंतडत लच्छू महाराज, म हनलाल, पंतडत महादेव और
पंतडत तबरजू महाराज, कृ ष्ण कु मार महाराज, पंतडत रामम हन महाराज अकद ने कथक के प्रचार-
प्रसार क ऄपने नृत्य द्वारा जारी रखा। आन सबका य गदान ऄतवस्मरणीय है। आन्दहोंने कथक क
देश-तवदेश में काफू ल कतप्रय बना कदया।
मतणपुरी नृत्य का एक तवस्तृत रं गपटल ह ता है। रास (Ras), संकूतान (Sankirtana) और थंग-
टा (Thang-Ta) आसके बहुत प्रतसद्ध रूप हैं। यहां पाँच मुख्य रास नृत्य हैं, तजनमें से चार का
सम्बन्दध तवतशष्ट ऊृतओं
ु से है। जबकक पांचवां साल में ककसी भी समय प्रस्तुत ककया जा सकता है।
मतणपुरी रास में राधा, कृ ष्ण और ग तपयां मुख्य पाि ह ते हैं।
तवषय-वस्तु ऄतधकांशतः राधा और ग तपयों कू कृ ष्ण से ऄलग ह ने कू यथा क दशााते हैं।
रासलीला नृत्यों में परें ग (Pareng) या शुद्ध नृत्य क्रम प्रस्तुत ककये जाते हैं। आसमें तन्दष्ट
लयात्मक भंतगमाओं और शरीर कू गतततवतधयों का ऄनुसरण ककया जाता है, ज परम्परागत रूप
से ऄनुसरणीय ह ते हैं।
रास कू वेश-भूषा में प्रचुर मािा में कशीदेकारी ककया गया एक सख्त घाघरा शातमल ह ता है, ज
पैरों तक फै ला ह ता है। आसके उपर महीन मलमल का एक घाघरा पहना जाता है। शरीर का
उपरी भाग गहरे रं ग के मखमल के ब्लाउज से ढका रहता है और एक परम्परागत घूँघट एक
तवशेष के श-सज्जा के उपर पहना जाता है, ज मन हारी रूप से चेहरे के उपर तगरा ह ता है।
कृ ष्ण क पीली ध ती, गहरे मखमल कू तमरजइ (जैकेट) और म रपंखों का एक मुकुट पहनाया
जाता है। आनके ऄलंकरण ईत्कृ ष्ट ह ते हैं और ईनकू बनावट प्रदेश कू तवतशष्टता तलये ह ती है।
सामूतहक गान का कूतान रूप नृत्य के साथ जुडा हुअ है, तजसे मतणपुर में संकूतान के रूप में जाना
जाता है। पुरुष नताक नृत्य करते समय पुग
ं और करताल बजाते हैं। नृत्य का पुरुष तचत पहलू-
च ल म (Cholom), संकूतान परम्परा का एक भाग है। सभी सामातजक और धार्ममक त्यौहारों पर
पुंग तथा करताल च ल म प्रस्तुत ककया जाता है।
मतणपुर का युद्ध-संबध
ं ी नृत्य- थंग-टा (Thang-Ta) ईन कदनों ईत्पन्दन हुअ, जब मनुष्य ने जंगली
पशुओं से ऄपनी रक्षा करने के तलए ऄपनी क्षमता पर तनभार रहना शुरू ककया था।
अज मतणपुर युद्ध-संबंधी नृत्यों, तलवारों, ढालों और भालों का ईपय ग करने वाले नताकों का
ईत्सजाक तथा कृ तिम रं गपटल है। नताकों के बीच वास्ततवक लडाइ के दृश्य शरीर के तनयंिण और
तवस्तृत प्रतशक्षण क दशााते हैं।
मतणपुरी नृत्य में तांडव और लास्य द नों का समावेशन है और आसकू पहुंच बहुत वीरतापूणा
पुरुष तचत पहलू से लेकर शांत तथा मन हारी तस्त्रय तचत पहलू तक है। यह मतणपुरी नृत्य कू एक
दुलभ
ा तवशेषता है, तजसे लयात्मक और मन हारी गतततवतधयों के रूप में जाना जाता है।
मतणपुरी ऄतभनय में मुखातभनय क बहुत ज्यादा महत्व नहीं कदया जाता- चेहरे के भाव
स्वाभातवक ह ते हैं और ऄततरं तजत नहीं ह ते। सवाग्रंथग ऄतभनय या सम्पूणा शरीर का ईपय ग एक
तनतित रस क संप्रेतषत करने के तलए ककया जाता है, ज कक आसकू तवतशष्टता है।
लयात्मक समूहों में अमतौर पर देखा जाता है कक नताक एक नाटकूय प्रदशान में पैरों से ताल देने
के तलए घुंघरू नहीं पहनते। संवद
े नशील शरीर कू गतततवतधयों के साथ आसका ज्यादा महत्व नहीं
है। जबकक मतणपुरी नृत्य और संगीत एक ईच्च तवकतसत ताल तंि है।
गायन कू मतणपुरी शास्िीय शैली क ‘नट’ (Nat) कहा जाता है, ज ईत्तर तथा दतक्षण भारतीय
संगीत- द नों से बहुत ऄलग है। यह शैली तनतित प्रकार के स्वर-कम्पन और ऄनुकूलन सतहत ईच्च
स्वरमान के साथ जल्दी पहचानी जा सकती है।
संगीत मंडल
o मुख्य संगीत वा्य पुग
ं या मतणपुरी शास्िीय ढ ल है। ढ लों कू ऄन्दय बहुत सी ककस्में भी हैं,
ज मतणपुरी संगीत और नृत्य में प्रय ग में लाइ जाती हैं।
o पेना (Pena), एक तारदार वा्य , लाइ हार बा और पेना गायन में प्रय ग में लाया जाता है।
o रास और संकूतान में करताल कू तवतवध ककस्में प्रय ग कू जाती हैं।
o स्वर-गायन के साथ बांसरु ी का भी प्रय ग ककया जाता है।
जयदेव द्धारा रतचत गीत-ग तवन्दद कू ऄष्टपकदयां बहुत प्रचतलत हैं और आन्दहें मतणपुर में बहुत
धार्ममक ईत्साह के साथ गाया जाता है तथा नृत्य ककया जाता है।
रास और ऄन्दय लीलाओं के ऄलावा प्रत्येक यतक्त के जीवन के प्रत्येक चरण क संकूतान
प्रस्तुतीकरण के साथ मनाया जाता है । बच्चे के जन्दम, ईपनयन, तववाह और श्ाद्ध आन सभी
ऄवसरों के तलए मतणपुर में नृत्य और गायन ककया जाता है। पूरा समुदाय दैतनक जीवन के ऄनुभवों
के तहस्से के रूप में नृत्य व गायन में भाग लेता है।
महाबीर, जमुना देवी, ओझा बाबू ससह, राजकु मार ससहजीत ससह, ईसकू पत्नी चारु तसजा, तप्रया
ग पाल साना, गुरु तबतपनससह कू पत्नी कलावती देवी, ईनकू बेटी तबम्बावती, झावेरी बहनें और
प्रीतत पटेल सभी मतणपुरी नृत्य के जाने माने कलाकार हैं।
शतातब्दयों से महारी (Maharis) आस नृत्य शैली कू प्रमुख ऄतधकाररणी रहीं हैं। महारी, मूलत:
मंकदर कू नताककयां (देवदासी) थीं ज धीरे -धीरे शाही दरबारों में काम करने लगीं। आसके
पररणामस्वरूप आस कला-रूप का हा्स हुअ।
आसी समय लडकों का एक वगा, तजन्दहें ग टीपुअ (Gotipua)
कहा जाता था, मंकदर में और ल गों के सामान्दय मन रं जन के
तलए भी नृत्य करने लगे। ये भी आस कला में तनपुण थे। आस
शैली के वतामान गुरुओं में से ऄनेक ग टीपुअ परम्परा से
सम्बतन्दधत हैं।
ओतडसी एक ईच्च शैली का नृत्य है और कु छ मािा में यह
शास्िीय नाट्य शास्ि तथा ऄतभनय दपाण पर अधाररत है।
वस्तुतः जदुनाथ तसन्दहा के ऄतभनय दपाण प्रकाश’, राजमनी
पत्तरा के ‘ऄतभनय चंकरका’ और महेश्वर महापाि के ऄन्दय
ऄतभनय चंकरका से आस कला ने बहुत कु छ प्राप्त ककया है।
भारत के ऄन्दय भागों कू तरह, रचनात्मक सातहत्य ओतडसी
नताककयों क प्रेरणा प्रदान करता है और नृत्य के तलए
तवषय-वस्तु भी ईपलब्ध कराता है।
यह बात तवशेषत: जयदेव द्वारा रतचत बारहवीं शताब्दी के
गीत ग तवन्दद के तवषय में सत्य है। यह नायक-नातयका भाव का एक गहन ईदाहरण है तथा
सातहतत्यक शैली और कतवत शैली में आसने ऄन्दय ईत्कृ ष्ट कतवताओं क भी मात दे कदया है। कृ ष्ण के
तलए कतव कू भतक्त काया से ही झलकती है।
ओतडसी घतनष्ठ रूप से नाट्यशास्ि द्वारा स्थातपत तसद्धांतों का ऄनुसरण करती है।
चेहरे के भाव, हस्त–मुराएं और शरीर कू गतततवतधयों का ईपय ग एक तनतित ऄनुभूतत, एक
भावना या नवरसों में से ककसी एक के संकेत के तलए ककया जाता है।
गतततवतध कू तकनीककयां द अधारभूत मुराओं- चौक (Chowk) तथा तिभंग (Tribhang) के
समान तनर्ममत ह ती हैं।
o चौक एक वगा (चौक र) कू तस्थतत है, तजसमें शरीर के भार के समान संतल
ु न के साथ एक
पुरुष तचत मुरा कदखती है।
o तिभंग मुख्यतः एक तस्त्रय तचत मुरा है, तजसमें शरीर क गले, धड और घुटने तीनों जगह से
म डा जाता है।
धड संचालन ओतडसी शैली का एक बहुत महत्वपूणा और तवतशष्ट लक्षण है-
o आसमें शरीर का शेष तनचला तहस्सा तस्थर रहता है और शरीर के उपरी तहस्से के के न्दर द्वारा
धड धुरी के समानान्दतर एक ओर से दूसरी ओर गतत करता हैं।
o आसके संतुलन के तलए तवतशष्ट प्रतशक्षण कू अवश्यकता ह ती है तजससे कं धों या तनतम्बों कू
ककसी गतततवतध से बचा जा सकता है।
समतल पांव, पदांगुली या एडी के मेल के साथ तनतित पद-संचालन ह ता है। यह जरटल संय जनों
कू एक तवतवधता में ईपय ग कू जाती है। यहां पैरों कू गतततवतधयों कू बहुसंख्यक संभावनाएं भी
हैं। ऄतधकांशतः पैरों कू गतततवतधयां धरती पर या हवा में सर्मपलाकार या वृत्ताकार ह ती हैं।
पैरों कू गतततवतधयों के ऄततररक्त छलांग या चक्कर के तलए चाल कू एक तवतवधता है और
तनतित मुराएं ज मूर्मतकला द्वारा प्रेररत ह ती हैं। आन्दहें भंगी (Bhangi) कहा जाता है। यह एक
तनतित मुरा में गतततवतध कू समातप्त का वास्तातवक संय ग है।
हस्तमुराएं, नृत्त एवं नृत्य द नों में महत्वपूणा भूतमका तनभाती हैं। नृत्त में आनका ईपय ग के वल
सजावटी ऄलंकरणों के रूप में ककया जाता है एवं नृत्य में आनका ईपय ग सम्प्रेषण में ककया जाता
है।
नृत्य क्रम
ओतडसी के औपचाररक रं गपटल में प्रस्तुतीकरण का एक तनतित क्रम है, जहां ‘रास’ कू कल्पना कू
रचना के तलए प्रत्येक क्रतमक तवषय-वस्तु का तनमााण यवतस्थत रूप से ककया जाता है।
मंगलाचरण- मंगलाचरणअरतम्भक ऄंश है, जहां नताकू हाथों में फू ल तलए धीरे -धीरे मंच पर प्रवेश
करती है और धरती माता क पुष्प ऄर्मपत करती है। आसके बाद नताकू ऄपने आष्टदेव क प्रणाम
करती है। प्रायः मांगतलक शुभारम्भ के तलए गणेश का अववान ककया जाता है। एक नृत्त क्रम के
साथ आस ऄंश का ऄन्दत आष्टदेव, गुरूजनों और दशाकों के ऄतभवादन के साथ ह ता है।
बटु -ऄगले ऄंश क ‘बटु ’ (Batu) कहा जाता है, जहां चौक और तिभंगी कू अधारभूत भंतगमा
द्वारा पुरुष तचत और तस्त्रय तचत द्वयात्मकता में से ओतडसी नृत्त तकनीक के मूल तवचार क प्रकाश
में लाया जाता है। आसके साथ बजाया जाने वाला संगीत बहुत सरल है- के वल नृत्य ऄक्षरों से
बचना चातहए।
पल्लवी- बटु में नृत्त कू बहुत अधारभूत याख्या के बाद ‘पल्लवी’ (Pallavi) में गतततवतधयों और
संगीत के साज-सामान तथा पुष्पण कू बारी अती है। एक तनतित राग में एक संगीतात्मक
संय जन का दृश्यात्मक प्रदशान नताकू द्वारा धीमे और यथ तचत गतततवतधयों के साथ ककया जाता
है। ताल संरचना के ऄन्ददर जरटल नमूनों कू तवतशष्ट लयात्मक रूपांतरण में संरचना कू जाती है।
ऄतभनय-ऄतभनय कू प्रस्तुतत के द्वारा आसका ऄनुसरण ककया जाता है। ईडीसा में जयदेव द्वारा
रतचत बारहवीं सदी के गीत-ग तवन्दद के ऄष्टपदों के नृत्य कू सतत् परम्परा है। आस कतवता कू
गीतात्मकता (लयात्मकता) तवशेषत: ओतडसी शैली के तलए ईपयुक्त है। गीत ग तवन्दद के ऄततररक्त
ईपेन्दर भंज, बालदेव रथ, बनमाली और ग पाल कृ ष्ण जैसे ऄन्दय ओतडसी कतवयों कू रचनाओं का
भी ईपय ग ककया जाता है।
म क्ष- रं गपटल का अतखरी ऄंश, ज शायद एक से ज्यादा पल्लवी और ऄतभनय पर अधाररत
ऄंशों का एक सतम्मश्ण है, तजसक ‘म क्ष’ (Moksha) कहा जाता है। पखावज़ पर ऄक्षरों का
वणान ह ता है और नताकू धीरे -धीरे घूमती हुइ तीव्रता से चरम त्कषा पर पहुंचती है, तत्पिात
नताकू अतखरी प्रणाम करती है।
संगीत मंडल
o ओतडसी वादक मण्डल में मूलत: एक पखावज़ वादक (ज कक सामान्दयतः स्वयं गुरू ह ता है),
यह नृत्य कला 500 से ऄतधक वषों से चली अ रही परं परा है।
यह नृत्य ऄसम के वैष्णव मठों या
तवहारों कू परं परा हैं। आन मठों या
तवहारों क ‘सिा’ (Sattra) के नाम
से जाना जाता है। ऄपने धार्ममक
तवचार और सिों के साथ जुडाव के
कारण ही आस नृत्य शैली क समुतचत
रूप से ‘सतिया’ नाम कदया गया।
15वीं शताब्दी इस्वी में ऄसम के
महान वैष्णव संत और सुधारक तथा
महापुरुष शंकरदेव द्वारा सतिया नृत्य
क वैष्णव धमा के प्रचार हेतु एक
शतक्तशाली माध्यम के रूप में प्रस्तुत ककया गया।
बाद में यह नृत्य शैली एक तवतशष्ट नृत्य शैली के रूप में तवकतसत व तवस्ताररत हुइ। आस ऄसमी
नृत्य और नाटक कू नव-वैष्णव तनतध क शतातब्दयों तक सिों द्वारा एक बडी प्रतत्ा के साथ
तवकतसत और संरतक्षत ककया गया है।
शंकरदेव ने तवतभन्दन स्थानीय श ध प्रबन्दधों, स्थानीय ल क नृत्यों जैसे तवतभन्दन घटकों क शातमल
करते हुए ऄपने स्वयं कू नइ शैली में आस नृत्य शैली कू रचना कू।
नव वैष्णव अंद लन से पहले ऄसम में ऄनेक शास्िीय तत्वों से युक्त द नृत्य शैतलयां थीं-
‘ओजापल्ली’ तथा ‘देवदासी’
o ओजापल्ली नृत्य - ओजापल्ली नृत्यों के द प्रकार ऄभी भी ऄसम में हैं– सुकनानी
(Sukananni) या मर इ ग वा ओज (Maroi Goa Ojah) और व्याह ग वा ओज (Vyah
Goa Ojah)। सुकनानी ओजापल्ली शतक्त सम्प्रदाय तथा व्याह ग वा ओजापल्ली वैष्णव
सम्प्रदाय से सम्बंतधत है। शंकरदेव ने सि में ऄपने दैतनक धार्ममक ऄनुष्ठानों में याहार गीतों
क ज डा ज ऄब तक ऄसम के सिों के धार्ममक ऄनुष्ठानों का एक भाग है। ओजापल्ली समूह
के नताक के वल गायन और नृत्य ही नहीं करते ऄतपतु मुराओं और शैलीबद्ध गततयों द्वारा वणान
क समझाते भी हैं।
o देवदासी नृत्य- जहां तक देवदासी नृत्य का संबंध है, बडी संख्या में सतिया नृत्य के साथ
लयात्मक शब्दों और पादकौशल के साथ नृत्य मुराओं कू साम्यता, देवदासी नृत्य का सतिया
नृत्य पर स्पष्ट प्रभाव तनदेतशत करती है। ऄसमी ल क नृत्यों जैसे तब , ब ड अकद का सतिया
नृत्य पर भी दृश्यात्मक प्रभाव पडा है। कइ हस्तमुराएँ तथा लयात्मक ईच्चारण आन नृत्य
शैतलयों में अियाजनक रूप से समान हैं।
हस्तमुराओं, पादकायों, अहाया और संगीत अकद के संबंध में कठ र तसद्धांतों के द्वारा सतिया नृत्य
कू परं परा संचातलत ह ती है।
आस परं परा में तवतशष्ट रूप से तभन्दन द धाराएं हैं– भाओना तजसमें गायन बायनार नाच से
खरमारनाच के अरं भ से युक्त संबंतधत रं गपटल ह ता है तथा दूसरा ऐसे नृत्य हैं ज स्वतंि हैं जैसे
चाली (Chali), राजघाररया चाली (Rajagharia chali), झुमरु ा (Jhumura), नादु भंगी
(Nadu Bhangi) अकद। आसमें चाली का चररि लातलत्यपूणा एवं शानदार है जबकक झुमरु ा,
ओजशाली तथा प्रभावशाली सुन्ददरता क प्रदर्मशत करता है।
15 नवम्बर 2000 क संगीत नाटक ऄकादमी ने सतिया नृत्य क भारत के शास्त्रीय नृत्य रूपों में से
एक के रूप में मान्दयता दे दी है। बापूराम बरबायान ऄतैइ, मतनराम डटा मुकततयार बरबायान, गहन
चंर ग स्वामी, जीबेश्वर ग स्वामी, प्रदीप चलीहा, लतलत चंरा नाथ ओझा, ग पीराम बरबायान,
मातणक बरबायान, रामेश्वर सैककया, हरीचरण सैककया अकद प्रमुख सिीया नृत्य प्रततपादक हैं।
म तहनीऄट्टम, के रल कू एक शास्त्रीय नृत्य शैली है। आसकू शुरुअत 16 वीं सदी में मानी जाती है।
यह संगीत नाटक ऄकादमी द्वारा मान्दयता प्राप्त अठ भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैतलयों में से एक है।
यह मतहलाओं द्वारा एकल प्रस्तुतत के रूप में प्रदर्मशत कू जाने वाली नृत्य कू एक बहुत ही सुंदर
शैली मानी जाती है। आस नृत्य का ईल्लेख 934 इ. के नेदम
ु पुरा तली तशलालेखों में तमलता है|
ईन्नीसवीं सदी में िावणक र (दतक्षणी के रल) राज्य के महाराजा स्वातथ तथरूनल (Swathi
Thirunal) और तंजावुर चतुष्टय में से एक वाकदवेलु (Vadivelu) द्वारा म तहनीऄट्टम क एक
प्रचतलत नृत्य शैली के रूप में ल कतप्रय ककया गया।
स्वातथ तथरूनल ने ऄपने शासनकाल के दौरान म तहनीऄट्टम के ऄध्ययन क बढ़ावा कदया।
अधुतनक म तहनीऄट्टम नताककयों के तलए संगीत कू पृष्ठभूतम प्रदान करने वाली संगीत कू व्यवस्था
और मुखर संगत कू रचना का श्ेय आन्दहें ही जाता है।
1930 में के रल कलामंडलम नृत्य स्कू ल कू स्थापना करने वाले प्रतसद्ध मलयालम कतव वल्लथ ल
(Vallathol) ने 20 वीं सदी में म तहनीऄट्टम क ल कतप्रय बनाने में महत्वपूणा भूतमका तनभाइ।
म तहनीऄट्टम का ऄथा-
o म तहनीऄट्टम "म तहनी" और “ऄट्टम” शब्दों से बना है, तजसमें म तहनी का अशय एक औरत
से है, ज दशाकों क म हती है तथा ऄट्टम का तात्पया शरीर कू सुद
ं र और कामुक गतततवतधयों
से है। आस प्रकार "म तहनीऄट्टम" का शातब्दक ऄथा "म तहनी का नृत्य" है।
o भगवान तवष्णु के छ्म) रूप म तहनी कू द कहातनयां हैं। एक में, ईन्दहोंने दूध और नमक के
पानी का सागर के मंथन के दौरान प्राप्त ऄमृत (ऄमरता का ऄमृत) से ऄसुरों (राक्षसों) क दूर
रखने के तलए तथा लुभाने हेतु म तहनी का रूप धारण ककया। दूसरी कहानी में दानव
भस्मासुर से भगवान तशव क बचाने के तलए तवष्णु, म तहनी रूप में प्रकट हुए।
o ह सकता है कक म तहनीऄट्टम शब्द भगवान तवष्णु के ऄनुसरण में गढ़ा गया ह ; सामान्दयतः
आस नृत्य में तवष्णु या कृ ष्ण क नायक माना जाता है और नृत्य का मुख्य तवषय भगवान के
तलए प्रेम और भतक्त है।
देवदातसयां मंकदरों में आसका प्रदशान करती थीं। आसमें कु थू (Koothu) और क ट्टीयट्टम
(Kottiyattom) के तत्वों का भी समावेश है।
म तहनीऄट्टम, नृत्य एवं कतवता के रूप में एक नाटक है। आस नृत्य क मंकदर कू देवदातसयों द्वारा
तनष्पाकदत ककया जाता है, आस कारण आसे ‘दासीऄट्टम’ भी कहा जाता है।
नृत्य में पृथल
ु तनतम्बों का तहलना और एक-एक करके ईठे हुए ऄंग-तवन्दयास कू मंद गतत
सतम्मतलत है। यह म तहनीऄट्टम कू भूतम के रल के बहुतायत में झूलते ताड के पत्तों और धीरे -धीरे
बहने वाली नकदयों के समान प्रदर्मशत ह ती है।
आसमें लगभग 40 अधारभूत भंतगमाएं हैं, तजन्दह,ें ‘ऄटवुकल’ (Atavukal) के नाम से जाना जाता
है।
वेशभूषा में सफे द साडी सतम्मतलत है, तजसके ककनारों पर चमकूले सुनहले जरी [कसवु
(Kasavu) के रूप में जाना जाता हैइ से कशीदाकारी ककया गया है।
यह नृत्य ‘हस्तलक्षणदीतपका’ रहणन्दथ का ऄनुपालन करता है, तजसमें मुराओं (हाथ, हथेली और
ऄँगुतलयों कू मुरातभव्यतक्त) के बारे में तवस्तार से व्याख्या कू गइ है।
अभूषण ज पारं पररक नताककयां पहनती हैं, ईन्दहें तवशेष रूप से म तहनीऄट्टम नृत्य के तलए बनाया
गया है। यह ईतचत रूप से चौडा लक्ष्मी बेल्ट/पेटी के साथ सुनहरे पररष्कृ त अभूषणों का एक
तवतशष्ट संरहणह है।
नताककयां ऄपने पैरों में मूल तचलंका (Chilanka) कू ऄच्छी ज डी ऄथवा घुंघुरू या नृत्य कू घंटी
पहनतीं हैं तजससे पदचाप में खनक बनी रहे।
नताककयां ताजे सफे द चमेली के फू ल से ऄपना श्ृंगार करतीं हैं, ज तसर के बाईं ओर बालों में एक
सुन्ददर जुडातपन से नत्थी रहता है। यह म तहनीऄट्टम के कलाकारों क भारत के ऄन्दय नृत्य रूपों के
कलाकारों से ऄलग बनाता है।
म तहनीऄट्टम का मुखर (Vocal) संगीत लयबद्ध संरचना में तवतवधता तलए ह ता है, तजसे ‘च ल्लू’
(chollu) के रूप में जाना जाता है। गीत मतणप्रवलं (Manipravalam) में हैं, ज संस्कृ त और
मलयालम का एक तमश्ण है।
म तहनीऄट्टम नृत्य क नृत्यांगना द्वारा तीव्र मुराओं और पद्काया के संगत में प्रस्तुत ककया जाता है।
कलाकार मन क म तहत करने के तलए बहुत तवनीत, रत्यात्मक (कामुक) तरीके से अंखों का
ईपय ग करता है।
श्ी स्वातत तथरूनल राम वमाा, श्ी वल्लथ ल नारायण मेनन (एक कतव और के रल कलामंडलम
संस्था के संस्थापक) और श्ीमती कलामंडलम कल्याणीकु ट्टी ऄम्मा ("म तहनीऄट्टम कू जननी"
मानी जाती हैं) ने 20 वीं सदी के ईत्तराद्धा में समकालीन म तहनीऄट्टम क अकार देने में य गदान
कदया।
गुरु कल्याणीकु ट्टी ऄम्मा ने आस नृत्य शैली के नाम के पीछे के पौरातणक रहस्य क स्पष्ट ककया और
स्वगा से अइ एक पौरातणक म तहनी के स्थान पर म तहनीऄट्टम क एक खूबसूरत मतहला के नृत्य के
रूप में व्याख्या करते हुए, सामातजक एवं ऐततहातसक तवकास और सत्य पर अधाररत यथाथापण
ू ा
स्पष्टीकरण कदया।
आसके मुख्य कलाकारों में भारती तशवाजी, रातगनी देवी, शांता राव, हेमामातलनी, श्ीदेवी,
कल्याणी ऄम्मा, तंकमतण अकद हैं। कनक रे ले और भारती तशवाजी जैसे कलाकारों ने आसमें
वै्ातनक दृतष्टक ण का ईपय ग करके आसे नयी ल कतप्रयता दी।
3.2. छउ नृ त्य
(Chhau)
छउ नृत्य भारत के सबसे प्रतसद्ध अकदवासी माशाल नृत्यों में से एक है। आस नृत्य क मुखौटे के साथ
प्रदर्मशत ककये जाने के कारण ही आसका नाम ‘छउ’ पडा (छाया का ऄथा मुखौटा ह ता है)।
छउ नृत्य पूवी भारत कू एक परं परा है। आस नृत्य में महाभारत एवं रामायण सतहत ऄन्दय
महाकाव्यों, स्थानीय ल ककथाओं और काल्पतनक तवषयों से संबंतधत प्रसंगों का ऄतभनय ककया
जाता है।
आसकू तीन तवतशष्ट शैतलयों कू ईत्पतत्त सराआके ला, पुरुतलया और मयूरभंज के क्षेिों में हुइ है।
पहली द शैतलयों में मुखौटे का ईपय ग ककया जाता है।
छउ नृत्य क्षेिीय त्य हारों से घतनष्ठता से सम्बद्ध है, तवशेषकर बसंत त्यौहार चैि पवा से।
आस नृत्य में तेज धुन और तीव्र ध्वतन ईत्पन्न करने वाले ढ ल और मरुइ जैसे वा्य यंिों का प्रय ग
ककया जाता है।
[Pungcholom (Manipur)]
यह नृत्य कला माशाल अटा और पारं पररक मेआबी जाग इ नृत्य के सतम्मलन से तवकतसत हुइ है।
यह सिहवीं सदी से चली अ रही परं परा का ऄंग है।
पगडी, ध ती और तुलसी के बीज से तनर्ममत माला आस नृत्य में धारण कू जाने वाली पारं पररक
वेशभूषा के ऄंग ह ते हैं।
यह मतणपुर में तववाह, ईपासना और यहां तक कक ऄंत्येतष्ट के दौरान भी ककया जाता है।
एक पुंग, (ढ ल के तलए मतणपुरी नाम) प्रत्येक नताक के गले में लटका हुअ ह ता है। एक बार नृत्य
के लय में अने के ईपरांत नताक उँची कू द लगाते हैं और हवा में ईछलते हैं।
पुग
ं च लम नृत्य (मतणपुर) पुग
ं च लम नताक
[RAUF (J&K)]
यह कश्मीर के सबसे ल कतप्रय पारं पररक नृत्यों में से एक है।
आस खूबसूरत नृत्य शैली का प्रदशान लगभग सभी ईत्सवों और तवशेष रूप से इद और रमजान के
मौके पर ककया जाता है।
यह नृत्य द पंतक्तयों में एक-दूसरे कू ओर ऄतभमुख सुन्ददर वेशभूषा में सुसतज्जत मतहलाओं के समूह
द्वारा ककया जाता है।
आस नृत्य में सरल कदमताल का प्रय ग ह ता है, तजसे स्थानीय भाषा में चकरी कहा जाता है।
नृत्य ऄक्सर ऄच्छे मौसम का ईल्लास मनाने के तलए बसंत के मौसम में ककया जाता है।
3.10 कु ड नृ त्य
(KUD dance)
यह जम्मू-कश्मीर कू मध्य पवात श्ृंखलाओं कू एक ल कतप्रय नृत्य शैली है।
आसका प्रदशान राज्य में सबसे ज्यादा पूजे जाने वाले देवताओं में से एक - ल क के देवता के सम्मान
में ककया जाता है।
20 से 30 सदस्य आस नृत्य का एक साथ प्रदशान कर सकते हैं।
कु ड नृत्य
(Jabro Dance)
यह लद्दाख क्षेि कू ईच्च पहातडयों में ततब्बती मूल के खानाबद श ल गों का एक सामुदातयक नृत्य
है।
यह ल सर (ततब्बती नव वषा त्य हार) समार ह के भाग के रूप में पुरुषों और मतहलाओं द्वारा ककया
जाता है।
संगीत वा्य यंिों में शातमल हैं - बांसुरी और बांतधया (तगटार कू तरह तांत या तार वाला वा्य
यंि)
प्रदशान कम गतत के साथ शुरू ह ता है तजसकू गतत धीरे -धीरे बढ़ती जाती है और तवशेष रूप से
चांदनी रात में घंटों आसका प्रदशान ककया जाता है।
(Mayur Dance)
यह नृत्य ईत्तर प्रदेश के ब्रज क्षेि में ल कतप्रय है।
मयूर या म र नृत्य राधा और कृ ष्ण के प्रेम संदश े ों पर अधाररत है।
एक संतक्षप्त तवय ग कू तस्थतत में व्यतथत राधा मयूर के रूप में ही कृ ष्ण कू छतव देख कर स्वयं
क सांत्वना देती हैं।
ऄंततः वह राधा के अत्म तनवेदन से प्रभातवत ह कर मयूर के छ्म) वेश में स्वयं ही ईपतस्थत ह
कर तप्रय राधा के साथ नृत्य में भागीदारी करते हैं।
पणी जाग र ज कक एक प्राचीन मास्क डांस (मुखौटा नृत्य) है, मुख्यतः ग वा का एक नाटक है। ऄच्छी
तरह से तैयार कू गइ तचतित लकडी के मास्क का प्रय ग, तवतभन्न पशुओं, पतक्षयों, ऄलौककक शतक्त,
देवताओं, राक्षसों और सामातजक पािों क प्रदर्मशत करते हुए पणी पररवारों द्वारा आसका प्रदशान
ककया जाता है।
गौडा जाग र, सामातजक जीवन कू एक छाप है ज मानव व्यतक्तत्व कू सभी मौजूदा मन दशाओं
और रं गों क प्रदर्मशत करता है।
आसका प्रदशान ग वा के ल क वा्य यंि नगाडा/द ब, घुमट, मदाले (Nagara/Dobe, Ghumat,
Madale) अकद का प्रय ग कर ककया जाता है।
(Dollu Kunitha)
ड ल्लू कु तनथा, कु तनथा नृत्य कू एक शैली है। आसका एक ऄन्दय प्रकार सुग्गी है।
यह नृत्य फसल के मौसम के दौरान यापक रूप से प्रदर्मशत ककया जाता है।
मुख्य रूप से गडररया समुदाय (तजसे कु रुबा के रूप में जाना जाता है) द्वारा प्रदर्मशत ककया जाने
वाला यह नृत्य नगाडों कू धुन पर ककया जाता है।
आस नृत्य में प्रय ग ककये जाने वाले गीतों में अम तौर पर धार्ममक और युद्ध ईत्साह तनतहत ह ता है।
बडे अकार वाले ढ ल रं गीन कपडों से सजाये जाते हैं, तजसे पुरुष ऄपनी गदान में लटकाते हैं।
पैरों कू त्वररत और हल्कू गतत पर मुख्य ज र कदया जाता है।
ड ल्लू कु तनथा कनााटक के ड डावासी (dodavāsīs) के धार्ममक नृत्यों का एक भाग है।
(Bayalata Dance)
यह दतक्षणी कनााटक का एक ल क नृत्य है ज फसल कटाइ मौसम के ऄंत क आं तगत करता है।
यह नाटक और संवाद क सतम्मतलत करने वाला एक धार्ममक नृत्य हैI
यह यक्षगान नृत्य का ही एक रूप हैI
नाटक का तवषय प्रायः महाकाव्य, पुराण या रामायण एवं महाभारत कू कथाओं पर अधाररत
ह ता है।
(Yakshagana Dance)
यक्षगान नृत्य और नाटक का तमश्ण है।
रामायण, महाभारत महाकायों और पुराणों से तचतित कथाओं क मंच पर प्रदर्मशत ककया जाता
है।
एक कथावाचक कहानी कहता है और साथ ही संगीतकारों द्वारा पारं पररक वा्य यंि बजाए जाते हैं
एवं ऄतभनेताओं द्वारा कहानी का ऄतभनय ककया जाता है।
आसमें चेंड नामक ड्रम बजाने के ऄलावा कलाकारों के नाटकूय हाव-भाव सतम्मतलत ह ते हैं।
आसे प्रदर्मशत करने वाले कलाकार समृद्ध तडज़ाआनों के साथ चटकूले रं ग तबरं गे पररधानों से स्वयं
क सजाते हैं, ज कनााटक के तटीय तज़लों कू समृद्ध सांस्कृ ततक परम्परा पर प्रकाश डालते हैं।
(Nagamandala Dance)
यह दतक्षणी कनााटक के क्षेिों में सम्पन्दन ककया जाने वाला रातिपयान्दत चलने वाला ऄनुष्ठान ह ता
है।
आसमें जनन क्षमता का प्रतीक माने जाने वाले नागों क प्रसन्दन करने का पारं पररक कमाकांड
समातवष्ट ह ता है।
यह नृत्य रूप पुरुष नताकों (तजन्दहें वै्य कहा जाता है) द्वारा प्रदर्मशत ककया जाता है, ज मादा सपों
(नागकन्दयाओं) जैसी वेषभूषा धारण करते हैं।
नताक पतवि भूतम पर तचतित कू गइ ऄल्पना, ज सपा अत्मा का प्रतततनतधत्व करती है, के चारों
ओर नृत्य करते हैं।
(Gorava Dance)
ग रवा नृत्य या 'ग रवारा कु तनथा' ईत्तरी कनााटक क्षेि में ल कतप्रय नृत्य शैली है।
आसका प्रदशान ग रवा जनजातत द्वारा ककया जाता है, ज शैव सम्प्रदाय से सम्बंतधत हैं।
ग रवा, गवैया जनजातत हैं ज गहरे धार्ममक मूल्यों कू कहातनयों का वणान करते हैं।
नृत्य में प्रयुक्त सामरहणी - एक हाथ में छ टे ड लू, दूसरे में बांसरु ी, भालू के बाल से बनी ट पी अकद।
(Karakattam-Tamil Nadu)
करागम के रूप में भी पहचाने जाने वाले आस ल कतप्रय ल क नृत्य कू ईत्पतत्त तंजावुर से हुइ और
वहां से यह समीपवती क्षेिों में प्रसाररत हुइ।
यह ऄगस्त के महीने में संपन्न ककया जाने वाला एक कमाकांडीय नृत्य है, तजसमें कलाबाजी के
करतब सतम्मतलत ह ते हैं। यह स्वास्र्थय और वषाा कू देवी मररऄम्मन के प्रतत समर्मपत ह ता है।
आसे एक व्यतक्त या द व्यतक्तयों द्वारा ककया जाता है।
(devarattam Dance)
यह कं बला नायक समुदाय द्वारा प्रस्तुत ककया जाने वाला ततमलनाडु का ल क नृत्य है।
देवरत्तम का शातब्दक ऄथा है "देवताओं का नृत्य" और ल कतप्रय धारणा यह है कक कं बला नायक
समुदाय के सदस्य देवताओं या देवों के वंशज हैं।
सतम्मतलत संगीत वा्य यंि - ईरूमी (ड्रम कू तरह द हरे तसरे वाला वा्य यंि), लंबी बांसरु ी।
3.23. ह जातगरर-तिपु रा
(Hojagiri-Tripura)
यह तिपुरी ल गों के ररयांग कबीले द्वारा ककया जाने वाला एक ल क नृत्य है।
यह ह जातगरर त्य हार (लक्ष्मी पूजा) के दौरान सम्पन्दन ककया जाता है। लक्ष्मी पूजा, दुगाा पूजा के
बाद अने वाली पूर्मणमा तततथ क अय तजत कू जाती है।
यह नृत्य के वल मतहलाओं द्वारा ककया जाता है, जबकक पुरुष सदस्य गायन एवं संगीत वा्य यंि का
वादन करते हैं।
नताककयाँ बसलग, बेंत कू बनी चावल कू सफाइ करने वाली तवस्तृत वृत्ताकार वस्तु, घडे या कलश,
ब तल, घरे लू पारं पररक दीपक, साधारण थाली और रूमाल जैसी रं गमंच सामतरहणयों का ईपय ग
करती हैं।
(Sammi Dance)
यह पंजाब का एक ल क नृत्य है। यह नृत्य पंजाबी जनजातीय मतहलाओं द्वारा प्रदर्मशत ककया
जाता है।
नताककयां चमकूले रं ग के कु ते, लहंगे तथा चांदी के अभूषण पहनती हैं।
(Lava Dance)
यह लक्षद्वीप का पारं पररक ल क नृत्य है।
यह अम तौर पर पुरुष सदस्यों द्वारा ककया जाता है (ईनमें से कु छ ड्रम तलए रहते हैं)।
नताक लाल पतलून, कमर के अस-पास सफे द स्काफा , काले और सफे द हेड तगयर (तजसे स्थानीय
रूप से ‘Bolufeyle’ नाम से जाना जाता है) पहनते हैं।
यह नृत्य मालदीव के ल क नृत्य- ‘Maldive Bileh dhafi negun’ के समान है।
VISIONIAS
www.visionias.in
तवषय सूची
1. भारतीय रं गमंच: तवरासत, संक्रमण और भतवष्य के तवकल्प ________________________________________________ 4
2. पारं पररक रं गमंच के तवतभन्न रूप (Different forms of Traditional Theatre) ________________________________ 7
भारतीय रं गमंच के आस अधारभूत प्रकृ तत को समझने के बाद, अगे हम भारत में आसके तवकास को
तवस्तारपूवक
त प्रस्तुत कर सकते हैं। मोटे तौर पर यह तीन तवतशि चरणों में तवभातजत ककया जा सकता
है: शास्त्रीय काल; पारं पररक काल और अधुतनक काल।
प्रथम चरण 1000 इस्वी तक के रं गमंच के लेखन और ऄभ्यास को सतम्मतलत करता है, जो नाट्य
शास्त्र िारा प्रदान ककये गए लगभग सभी तनयमों, तवतनयमों और संशोधनों पर अधाररत है।
ये नाटकों, प्रदशतन स्थलों और नाटकों के मंचन की परं पराओं के लेखन के तलए प्रयुि होते हैं। भास,
कातलदास, शूद्रक, तवशाखदत्त और भवभूतत जैसे नाटककारों ने संस्कृ त में तलतखत ऄपने नाटकीय
अख्यानों के माध्यम से महत्वपूणत योगदान कदया है। ईन्होंने महाकाव्यों, आततहास, लोक कथाओं
और ककवदंततयों अकद जैसे स्रोतों को ऄपने कथानकों का अधार बनाया है। दशतक पहले से ही आन
कहातनयों से पररतचत थे। आसतलए, रं गमंच की भाषा में मुद्राओं (gestures), मूकऄतभनय
(Mime) और गतत (movement) के माध्यम से एक दृश्य प्रस्तुतत अवश्यक थी।
कलाकार सभी लतलत कलाओं में तनपुण होना चातहए था। एक तरह से, यह सम्पूणत रं गमंच की एक
तस्वीर थी। प्रतसद् जमतन नाटककार और तनदेशक ब्रेक्ट (Bertolt Brecht) ने वस्तुतः आन स्रोतों से
'महाकाव्य रं गमंच' (Epic Theatre) के ऄपने तसद्ांत और 'परकीयकरण' (Alienation) की
ऄवधारणा को तवकतसत ककया।
तितीय चरण रं गमंच की ईस कक्रया को सतम्मतलत करता है जो मौतखक परं परा पर अधाररत था।
1000 इस्वी के बाद से लेकर 1700 इस्वी तक यह प्रदर्तशत ककया जा रहा था और यह अज भी
भारत के लगभग प्रत्येक भाग में प्रचलन में है।
रं गमंच के आस प्रकार का ईद्भव भारत में राजनीततक तंत्र के पररवततन तथा साथ ही साथ देश के
सभी भागों में तवतवध क्षेत्रीय भाषाओँ के ऄतस्तत्व में अने के साथ जुड़ा हुअ है। ये भाषाएं स्वयं ही
1000 इस्वी के असपास ऄतस्तत्व में अईं ऐसे में ईन भाषाओं में ककसी भी लेखन की ईम्मीद
करना बहुत बेमानी था। यही कारण है कक आस सम्पूणत कालावतध को लोक या पारं पररक ऄवतध के
रूप में जाना जाता है, ऄथातत, रं गमंच को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक एक मौतखक परं परा के
माध्यम से सपपा गया। रं गमंच के आस पारं पररक प्रकार में और दूसरे बड़े पररवततनों ने भी ऄपना
स्थान बनाया।
शास्त्रीय रं गमंच जो कक नाट्य शास्त्र पर अधाररत है, ऄपने रूप और प्रकृ तत में बहुत ऄतधक
पररष्कृ त था और पूरी तरह से शहरी-ईन्मुख था जबकक यह पारं पररक रं गमंच ग्रामीण पृष्ठभूतम से
तवकतसत हुअ। हालांकक रं गमंच के ऄन्य तत्वों संगीत, मूकऄतभनय, गतत, नृत्य और कथाओं का
ईपयोग लगभग समान बना रहा। यह परवती रं गमंच ऄतधक सरल, तात्कातलक और अशुरतचत
था और यहां तक कक समकालीन सीमा में था।
आसके ऄततररि जहाँ शास्त्रीय रं गमंच ऄपनी प्रस्तुततकरण में एक तनतित समय में भारत के समस्त
भागों में लगभग एकसमान था, वहीं पारं पररक रं गमंच ने प्रस्तुततकरण की दो ऄलग ऄलग
पद्ततयों को ऄपनाया - ईत्तरी भारत में सभी लोक और पारं पररक रूप मुख्यतः मौतखक रहे हैं,
ऄथातत, गायन और सस्वर पाि अधाररत जैसे रामलीला, रासलीला, भांड नौटंकी अकद तजसमें
कोइ जरटल मुद्रा या गतत और नृत्य के तत्व नहीं थे।
तृतीय चरण पुनः भारत में राजनीततक व्यवस्था में पररवततन के साथ जुड़ा था- आस समय पतिम से
एक वाह्य प्रभाव अ रहा था। तब्ररटश शासन के ऄधीन लगभग 200 वषों की समय ऄवतध
भारतीय रं गमंच को पतिमी रं गमंच के साथ सीधे संपकत में लाती है। भारत में पहली बार, रं गमंच
के लेखन और ऄभ्यास कायत पूणत त ः वास्ततवक या यथाथत प्रस्तुततकरण की कदशा में गततमान हुए।
ऐसा नहीं है कक यथाथतवाद या प्रकृ ततवाद जैसे तत्व हमारी परं परा में पूरी तरह से ऄनुपतस्थत थे।
यह सदैव ईपतस्थत था जैसाकक नाट्यशास्त्र में लोकधमी (Lokdharmi) की ऄवधारणा के माध्यम
से पररकतल्पत भी ककया गया था, ऄथातत, दैनतन्दन मुद्राओं और व्यवहार (लोकजीवन) के साथ
जुड़ी प्रस्तुततकरण की एक शैली और नाट्यधमी (Natyadharami), - ऄथातत, एक शैली जो
प्रकृ तत में ऄतधकतया प्रस्तुततकरण संबंधी और नाटकीय थी। परन्तु कहातनयों का ईपयोग
तनरपवाद रूप से एक ही स्रोत से ककया गया था। अधुतनक रं गमंच में कहानी ने भी ऄपनी प्रकृ तत
को बदल कदया है। ऄब यह बड़े नायकों और देवताओं के असपास बुना न होकर अम अदमी की
तस्वीर बन गइ है।
एक तरह से यह प्राचीन काल से लेकर वततमान तक प्रस्तुत भारतीय रं गमंच की पूरी तस्वीर है।
जैसाकक हम पहले ही देख चुके हैं, समकालीन भारत में रं गमंच ऄपने ऐततहातसक पररप्रेक्ष्य में
व्याख्यातयत आसके तवकास के तीन ऄलग-ऄलग चरणों का एक संयोजन है। लेककन दुतनया के सही
ऄथों में यह कभी भी पेशेवर नहीं बना, ऄथातत, प्रारं भ से ही लोग कभी भी ऄपनी अजीतवका के
तलए रं गमंच पर पूणत
त या तनभतर नहीं बने। यद्यतप ऐसा प्रतीत होता है कक भारत में रं गमंच एक
सतत गतततवतध बनी हुइ है, तथातप वास्ततवकता में ऐसा नहीं है। यह सदैव त्योहारों या मनोरं जन
के ऄन्य ऄवसरों से संबंतधत कायतक्रमों का भाग रहा है। रं गमंच ऄतधक से ऄतधक ऄक्टू बर से माचत
के बीच- के वल छह महीने के तलए तथाकतथत वातणतययक या व्यावसातयक कं पतनयों िारा -प्रस्तुत
ककया जाता है।
साल के बाकी समय में, लोग या तो कृ तष या ककन्हीं ऄन्य व्यवसायों में लगे रहते हैं। आस प्रकार की
तस्थतत भारतीय रं गमंच के तलए एक बड़ी समस्या पैदा करता है। यह ऄभी भी हमारे जीवन का
तहस्सा और व्यवहार नहीं बन पाया है, जैसाकक पतिम में है। यहाँ तक कक पतिम बंगाल और
महाराष्ट्र जैसे राययों में, जहाँ रं गमंच परम्परा बहुत सफल है, कोइ भी कलाकार रं गमंच के प्रतत
पूणतत ः समर्तपत नहीं है। वे कदन के समय ककसी व्यवसाय या ककसी ऄन्य कायत में संलग्न रहते हैं तथा
के वल शाम को वे ऄभ्यास या प्रदशतन करने के तलए अते हैं। भारत में व्यावसातयक प्रदशतनों की
सूची वाली कं पतनयों की ऄवधारणा बहुत नइ है। भारतीय ऄतभनेता और रं गमंच कायतकतात के तलए
रं गमंच एक व्यवसाय कै से बन सकता है? यह सबसे बड़ा प्रश्न है। यह कै से ईसे ईसके भोजन की
ईपलब्धता के साथ-साथ ईसकी कला के ऄभ्यास का ऄवसर प्रदान कर सकता है?
रं गमंच से कफल्मों की ओर भारी संख्या में पलायन कोइ नइ घटना नहीं है। टेलीतवज़न, वीतडयो, कफल्म
और ईपग्रह चैनलों ने लोगों की ऄतधकतम संख्या को रं गमंच से आन तवकल्पों के प्रतत अकर्तषत ककया है
क्योंकक यहां ऄतधक पैसा, चकाचपध करने वाला अकषतण और बाजार के ऄवसर हैं। पररणामतः,
रं गमंचीय गतततवतधयां तपछले 15 वषों से एक गंभीर बाधा से बुरी तरह से प्रभातवत हैं। हालांकक, पुनः
धीरे -धीरे तस्थतत बदलना प्रारम्भ हुइ है। दशतक छोटे परदे से तंग अ चुके प्रतीत होते हैं। रं गमंच एक
जीतवत और प्रत्यक्ष माध्यम रहा है और सदैव ऄपने दशतकों के साथ मानवीय स्तर पर काम करता रहा
है, जो कभी मर नहीं सकता है। यहाँ तक कक ऄसंख्य बाधाओं और आततहास में ईथल-पुथल के बाद भी
यह ऄंत में हमेशा एक तवजेता के रूप में ईभरा है।
यह ऄसम के ऄंककअ
नाट की प्रस्तुतत है।
आस शैली में ऄसम,
तवद्युत् गतत के पदचाप, तवतवध मुद्राओं िारा सभी भावनाएं दशातयी जा सकती हैं।
के रल के पारं पररक
लोकनाट्य का ईत्सव वृतिकम्
(नवम्बर-कदसम्बर) मास में
मनाया जाता है।
यह प्राय: देवी के सम्मान में
के रल के के वल काली मंकदरों में
प्रदर्तशत ककया जाता है।
यह ऄसुर दाररका पर देवी
भद्रकाली की तवजय को तचतत्रत
करता है।
गहरे साज-श्रृंगार के अधार पर
मुतडयेट्टु में सात चररत्रों का
तनरूपण होता है- तशव, नारद,
दाररका, दानवेन्द्र, भद्रकाली, कू तल, कोआतम्बदार (नंकदके श्वर)।
यह के रल की एक पारं पररक और
ऄत्यंत लोकतप्रय रं गमंच शैली है।
'थेय्यम' शब्द संस्कृ त के शब्द 'दैव'ं
(Daivam) से व्युत्पन्न है तजसका ऄथत
है परमेश्वर।
ऄत: आसे भगवान का नृत्य कहा जाता
है।
पूवज
त ों की अत्मा, लोक नायकों, और
तवतभन्न रोगों और बीमाररयों के देवी-
देवताओं की पूजा करने की परं परा को
दतक्षण भारत में प्राचीन काल से ही
देखा जा सकता है।
थेय्यम तवतभन्न जाततयों िारा आन
अत्माओं को खुश करने व तृप्त करने के तलए ककया जाता है
थेय्यम के तवतशि तवशेषताओं में से एक है, रं गीन पोशाक और प्रेरणादायक टोपी [ Mudi (मुडी)]
जो लगभग 5 से 6 फीट उंची सुपारी के जोड़, बांस, सुपारी की पत्ती से अच्छाकदत और लकड़ी के
तख्तों से बना है और तवतभन्न पक्के रं गों हल्दी, मोम और Arac (ऄरक) से रं तजत है।
यह के रल की सवाततधक
प्राचीन पारं पररक रं गमंच
शैली है, जोकक संस्कृ त
नाटकों की परं परा पर
अधाररत है।
आसकी ईत्पतत्त दो हजार
वषत पूवत हुइ थीI
भारत के प्रख्यात संस्कृ त
नाटकों से भी आसकी
ईत्पतत्त को संबद् ककया
जा सकता है।
कु रटयट्टम संस्कृ त के
शास्त्रीय स्वरुप और के रल
की स्थानीय प्रकृ तत के संश्लष
े ण का प्रतततनतधत्व करता है।
कु रटयट्टम, पुरुष ऄतभनेताओं तजन्हें चकयार (Chakyars) तथा मतहला कलाकारों तजन्हें नांतगयार
(Nangiars) कहा जाता है के एक समूह िारा ककया जाता है।
आस कला में ढ़ोल बजाने वालों को नातम्बयासत कहा जाता है, रं गशालाओं को कु ट्टमपालम
(Kuttampalams) कहा जाता है।
सूत्रधार और तवदूषक या मसखरे कु रटयाट्टम् के तवशेष पात्र हैं।
तसफत तवदूषक को ही संवाद बोलने की स्वंतत्रता है।
हस्तमुद्राओं तथा अंखों के संचलन पर बल देने के कारण यह नृत्य एवं नाट्य रूप तवतशष्ट बन
जाता है।
हाल ही में, कु रटयट्टम को यूनेस्को िारा "मानवता की मौतखक और ऄमूतत तवरासत की कृ ततयों में
ईत्कृ ि" के रूप में घोतषत ककया गया है।
ऄतभनेताओं को आस कला में महारत प्राप्त करने के तलए दस से पंद्रह वषत के किोर प्रतशक्षण से
गुजरना होता है तभी वे ऄपनी श्वास पर तनयंत्रण करने तथा चेहरे और शरीर की पेतशयों िारा
सूक्ष्म भावों की प्रस्तुतत को रं गमंच के ऄनुसार पररवर्ततत करने में समथत हो पाते हैं।
2.17. रामलीला
रामलीला ईत्तरी भारत में परम्परागत रूप
से खेला जाने वाला राम के चररत पर
अधाररत नाटक है।
यह प्रायः तवजयादशमी के ऄवसर पर खेला
जाता है।
दशहरा ईत्सव में रामलीला का मंचन भी
महत्वपूणत है।
रामलीला में राम, सीता और लक्ष्मण के
जीवन वृत्तांत का वणतन ककया जाता है।
रामलीला नाटक का मंचन देश के तवतभन्न
क्षेत्रों में होता है।
यह देश में ऄलग-ऄलग तरीके से मनाया जाता है।
2.18. भू ता
2.19. दसकरिया
दसकरिया ओतडशा में
प्रचतलत गाथा गायन की एक
शैली है।
‘दसकरिया’ काष्ि से बने
शब्द ‘कािी’ ऄथवा ‘राम
ताली’ नामक एक संगीत
वाद्य से तलया गया है,
तजसका ईपयोग प्रस्तुतीकरण
के दौरान ककया जाता है।
प्रस्तुतीकरण एक प्रकार की
पूजा है तथा भक्त ‘दास’ की
ओर से भेंट है।
2.20. पोवाडा
पोवाडा, महाराष्र की एक
पारम्पररक लोक कला शैली है।
यह नृत्य मुख्य रूप से महाराष्ट्र के
के न्द्रीय तज़ले धुतलया के
अकदवातसयों िारा ककया जाता है।
पोवाडा शब्द का ऄथत,’ शानदार
शब्दों में एक कहानी का वृतान्त है।
वृतान्त सदैव ककसी वीर ऄथवा
घटना ऄथवा स्थान की प्रशंसा में
सुनाया जाता है।
मुख्य वृतान्तकतात को शाहीर के नाम
से जाना जाता है जो लय बनाए
रखने के तलए डफ बजाता है।
आस नृत्य में प्लेटों पर डंतडयों के वादन से धुन तनकाली जाती है।
आसके ऄलावा ढोल का प्रयोग भी आस नृत्य में ककया जाता है।
गीत तीव्र होता है और मुख्य गायक िारा तनयंतत्रत होता है तजसका समथतन मंडली के ऄन्य सदस्यों
प्राचीनतम ईल्लेखनीय पोवाडा ऄतग्नदास िारा रतचत ऄफज़ल खानचा वध (ऄफज़ल खाँ का वध-
1659) था, तजसमें ऄफज़ल खाँ के साथ तशवाजी के संघषत का वणतन ककया गया है।
का एक लोकतप्रय लोक
संगीत है।
तनष्पादनकतात की भी
जो धनुष के अकार का
होता है।
पहनता है।
यह छत्तीसगढ़ में प्रचतलत एक लोक गीत है तजसमें पांडवों की कहानी का वणतन ककया जाता है।
परं परागत रूप से यह पुरुषों िारा
प्रदर्तशत ककया जाता था, लेककन ऄब
मतहलाएं भी आसका प्रदशतन करती हैं।
आसमें एक मुख्य कलाकार और कु छ
सहायक गायक और संगीतकार होते
हैं।
मुख्य कलाकार एक के बाद एक
प्रकरण प्रस्तुत करता है तथा
पररदृश्य में पात्रों को ऄपने ऄतभनय
के माध्यम से जीवंत करता चला
जाता है, कभी-कभी वह बीच में नृत्य
भी प्रस्तुत करता है।
प्रदशतन के दौरान वह ऄपने हाथ में
पकड़े हुए आकतारे की लय पर ऄपना
गीत प्रस्तुत करता है। पंडवानी गायन की दो शैतलयाँ प्रचतलत हैं: वेदमतत और कापातलक।
2.24. कतनयन कू थु
VISIONIAS
www.visionias.in
तवषय सूची
1. पररचय ____________________________________________________________________________________ 3
2. गतणत _____________________________________________________________________________________ 3
1. पररचय
प्राचीन काल में भारतीयों ने तवशेष रूप से धमय तथा दशयन में रूतच ली, ककन्द्तु आसका ऄथय यह
कदातप नहीं है कक व्यावहाररक तवज्ञान में ईनकी कोइ रूतच नहीं थी।
पाषाणकाल से ही यहााँ के तनवातसयों के वैज्ञातनक बुति होने का स्पष्ट प्रमाण तमलता है। तवज्ञान के
कु छ क्षेत्रों जैसे गतणत, ज्योततष तथा धातुतवज्ञान में भारतीयों द्वारा ककये गए अतवष्कारों तथा
सफलता से सम्पूणय तवश्व पररतचत है।
प्रागैततहातसक काल से ही भारतीयों की वैज्ञातनक बुति का पररचय हमें प्राप्त होने लगता है।
वास्तव में पाषाणकालीन मानव ही वनस्पतत शास्त्र, प्राणी शास्त्र, ऊतु शास्त्र अकद का जन्द्मदाता
है। पशुओं का तचत्र तैयार करने के दौरान ईसने ईनकी शरीर संरचना की ऄच्छी जानकारी प्राप्त
कर ली, खाद्य- ऄखाद्य पदाथों का भी ईसे ज्ञान था तथा खाद्य पदाथों को ईत्पन्न करने के तलए
ईपयुक्त ऊतु की भी ईसे जानकारी थी। ऄति पर तनयंत्रण स्थातपत कर आसने सुन्द्दर और सुडौल
ईपकरण, हतथयार अकद बनाना प्रारम्भ कर कदया था। आसी ज्ञान ने कालांतर में भौततकी तथा
रसायन शास्त्र को जन्द्म कदया।
तसन्द्धु सभ्यता में भी हमें वैज्ञातनक प्रगतत का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त होता है। एक सुतनतित योजना के
अधार पर नगरों का तनमायण, भार-माप के तनतित पैमानों का प्रयोग, दशमलव पितत का ज्ञान,
पात्रों के उपर प्राप्त ज्यातमतीय ऄलंकरण, तौल की आकाइ के रूप में 16 की संख्या तथा ईसके
अवतयकों का प्रयोग, तवकतसत पाषाण तथा धातु ईद्योग, मुहरें , मनके , अभूषण, मूर्ततयााँ, ईपकरण
अकद ईनके तवकतसत वैज्ञातनक तथा तकनीकी ज्ञान के पररचायक हैं। कालीबंगा तथा लोथल से
प्राप्त बालक के छेदयुक्त कपालों से ऐसा तनष्कषय तनकाला जाता है कक ये लोग शल्य-तचककत्सा
करना भी जानते थे।
ईपयुयक्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कक भारत में प्राचीन काल से ही तवज्ञान एवं तकनीकी की एक
समृि तवरासत रही है। आस प्रकार अगे हम ईन तवतभन्न क्षेत्रों पर दृतष्ट डालते हैं जहााँ हमें भारत के
तवज्ञान तथा प्रौद्योतगकी एवं तवतभन्न वैज्ञातनकों के योगदान का पता चलता है।
2. गतणत
वैकदक काल में हम गतणत शास्त्र के तवकतसत होने का प्रमाण प्राप्त करते हैं। आस दृतष्ट से सूत्र-काल
(लगभग इ. पू. 600-400) महत्वपूणय है।
o ‘शुल्व’ का शातददक ऄथय नापना होता है। यज्ञों में वेकदयां और मण्डप बनाये जाते थे। वेदी की
अकृ तत तभन्न-तभन्न होती थी- वगय, समचतुभुयज, समबाहु समलंब, अयत, समकोण तत्रभुज,
अकद।
o आन्द्हें तैयार करने के तलये नाप-जोख की अवश्यकता पड़ती थी। आस कायय के तलये जो तवतध-
तवधान बनाये गये ईन्द्हें शुल्व सूत्रों में तलखा गया।
o वस्तुतः ये सूत्र ही भारत के गतणतशास्त्र में प्राचीनतम ग्रन्द्थ कहे जा सकते हैं, तजनमें हम
ज्यातमतत ऄथवा रे खागतणत संबध
ं ी ज्ञान को ऄत्यन्द्त तवकतसत पाते हैं।
o गौतम, बौधायन, अपस्तम्ब, कात्यायन, मैत्रायण, वाराह, वतशष्ठ अकद प्राचीन सूत्रकार हैं।
रे खागतणत संबंधी तसिान्द्तों के प्रततपादन तथा तवकास का प्रधान श्रेय बौिायन को ही कदया जा
सकता है। ईन्द्होंने ही सबसे पहले2जैसी संख्याओं को ऄपररमेय मानते हुए ईनका ऄतधकतम शुि
मूल्य ज्ञात ककया था।
यूनानी दाशयतनक पाआथागोरस (540 इ. पू.) के नाम से प्रचतलत प्रमेय तजसके ऄनुसार ‘समकोण
तत्रभुज के कणय पर बना वगय शेष दो भुजाओं पर बने वगों के योग के बराबर होता है’ का ज्ञान
बौिायन को शतातददयों पूवय ही था और ऄब ऄतधकांश तवद्वान् आसे ‘शुल्व प्रमेय’ ही कहना ज्यादा
पसन्द्द करते हैं।
बौिायन ने वृत्त को वगय तथा वगय को वृत्त में बदलने का तनयम प्रस्तुत ककया तथा तत्रभुज, अयत
समलम्ब चतुभज ुय जैसी रे खागतणत की अकृ ततयों से वे पूणय पररतचत थे।
अपस्तम्ब ने तद्वतीय शताददी इसा पूवय में व्यावहाररक रे खागतणत की ऄवधारणाओं को प्रस्तुत
ककया तजसमें न्द्यन
ू कोण, ऄतधककोण और समकोण का भी ईल्लेख तमलता है। कोणों के आस ज्ञान से
ईन कदनों ऄति वेकदयों के तनमायण में सहायता तमलती थी।
यजुवदे तथा तवष्णु पुराण से स्पष्ट होता है कक एक से दस तथा दस पर अधाररत ऄन्द्य संख्याओं के
संबंध में दाशतमक पितत का ज्ञान वैकदककालीन भारतीयों को था।
ऄंक तचन्द्हों के साथ आस पितत का प्रयोग सवयप्रथम बक्षाली पाण्डु तलतप (तीसरी-चौथी शताददी
इस्वी) में ही प्राप्त होता है।
o बक्षाली, पाककस्तान के पेशावर के समीप एक ग्राम है।
o यहीं से 1881 इ. में एक ककसान को खुदाइ करते समय खतण्डत ऄवस्था में यह पाण्डु तलतप
प्राप्त हुइ थी।
o समकालीन गतणत की तस्थतत पर प्रकाश डालने वाला यह एकमात्र ग्रन्द्थ है।
o आसमें न के वल भाग, वगयमूल, ऄंकगतणतीय एवं ज्यातमतीय श्रेतणयों जैसे प्रारतम्भक तवषयों की
व्याख्या है, ऄतपतु यह कु छ तवकतसत तवषयों जैसे सतम्मश्र श्रेतणयों के योग, समरे खीय
समीकरणों तथा प्रारतम्भक तद्वघात समीकरणों जैसे तवकतसत तवषयों पर भी प्रकाश डालता
है।
पतिमी संसार भारत का तचरऊणी है। आब्नवतशया (9वीं शती), ऄलमसूदी (दसवी शती) तथा
ऄल्बरूनी (12वीं शती) जैसे ऄरब लेखक आस पितत के अतवष्कार का श्रेय तहन्द्दओं
ु
(भारतवातसयों) को ही देते हैं।
अययभट्ट के पिात् ‘ब्रह्यगुप्त’ (लगभग सातवीं शती) का नाम अता है। ईनकी प्रतसि कृ तत ‘ब्रह्मस्फु ि
तसिान्द्त’ 628 इ. में तलखी गयी।
o ऄपनी पुस्तक में आन्द्होंने शून्द्य का ईल्लेख पहली बार एक संख्या के रूप में ककया।
o आसमें वृतीय चतुभुयजों, वगों, अयतों, अकद की पररभाषा तथा व्याख्या के तलये ऄनेक सूत्र
कदये गये हैं।
o आन्द्होंने वृत्तीय चतुभज
ुय ों के क्षेत्रफल को 21वें श्लोक में, ‘िालेमी प्रमेय’ को 28वें श्लोक में, सूची
स्तंभ (pyramid) और तछन्नक (frustum) के अयतन को 45वें एवं 46वें श्लोक में वर्तणत
ककया है।
ब्रह्मगुप्त के पिात महावीर (नवीं शती) तथा भास्कर ऄथवा भास्कराचायय (12वीं शती) जैसे
प्रतसि गतणतज्ञों का नाम अता है। आन्द्होंने जो ऄनुसंधान ककये ईनके तवषय में पतिमी जगत्
पुनजायगरण काल ऄथवा ईसके बाद तक नहीं जानता था। महावीर ने ऄत्यन्द्त सुबोध शैली में
तवतवध प्रकार के वृत्तों का क्षेत्रफल तनकालने की तवतध प्रस्तुत की। धनात्मक तथा ऊणात्मक
पररणामों से वे पररतचत थे, वगयमूल एवं घनमूल तनकालने की ठोस प्रणाली का प्रवतयन ककया तथा
वगय समीकरण एवं ऄन्द्य प्रकार के ऄतनतित समीकरणों का हल तनकालने में वे तनपुण थे।
गतणतज्ञ भास्कर खानदेश (महाराष्ट्र) के तनवासी थे तजनका सुप्रतसि गन्द्थ ‘तसिान्द्त तशरोमतण’ है।
यह पुस्तक चार भागों में तवभातजत है- लीलावती, बीजगतणत, ग्रहगतणत तथा गोलाध्याय।
o ऄतन्द्तम भाग में मुख्यतः खगोल का वणयन है।
o भास्कराचायय ने ‘लीलावती’ में ‘क्षेत्र व्यवहार’ नामक ऄध्याय तलखा है- समकोण तत्रभुजों पर
‘शुल्ब प्रमेय’ (पाआथागोरस प्रमेय) की ईपपतत्त दी है।
o लीलावती ऄंकगतणत और महत्वमानव (क्षेत्रफल, घनफल) का स्वतंत्र ग्रन्द्थ है, तजसमें पूणायक
और तभन्न, त्रैरातशक (rule of three), दयाज, व्यापार गतणत, तमश्रण, श्रेतणयां (series),
क्रमचय (permutation), मातपकी (mensuration) और थोड़ी बीजगतणत भी है।
o चूंकक प्राचीनकाल में गणना पािी पर धूल तबछाकर ईं गली या लकड़ी से की जाती थी ऄतः
लीलावती को ‘पािी गतणत’ भी कहते हैं।
o यद्यतप ऄतनणीत समीकरणों (interminate equations) का ऄध्ययन अययभट्ट प्रथम के
समय से ही अरं भ हो गया था, लेककन भास्कर ने ईसे चरम तक पहुंचाया।
o ऄपने महत्वपूणय ग्रन्द्थ ‘बीजगतणत’ में भास्कर ने 213 पद्य तलखे हैं। वर्तणत तवषय हैं- धनणय
(धनात्मक) संख्याओं का योग, करणी (surds) संख्याओ का योग, कट्टक (भाजक और भाज्य)
की प्रकक्रया, वगय प्रकृ तत, एक-वगय समीकरण, ऄनेक-वगय समीकरण अकद।
o भास्कर ने ऄतनणीत वगय समीकरण के हल की जो तवतध दी है, ईसे ‘चक्रवाल तवतध’ (cyclic
method) की संज्ञा दी गइ और यह खोज जो भास्कराचायय ने 12वीं शती में की, ईसे 16वीं
शती में पािात्य गतणतज्ञों ने खोजा।
o तसिान्द्त तशरोमणी में सबसे महत्वपूणय ‘तनरन्द्तर गतत का तवचार’ (idea of perpetual
motion) है। यह ऄरबों द्वारा बारहवीं शताददी में यूरोप में फै लाया गया।
o आसी से कालान्द्तर में शतक्त तकनीक (power technology) का तवकास हुअ।
o न्द्यूिन से शतातददयों पूवय भास्कर ने ‘पृथ्वी के गुरुत्वाकषयण तसिान्द्त’ का पता लगा तलया था।
भास्कर ने बताया कक पृथ्वी का कोइ अधार नहीं है और यह के वल ऄपनी शतक्त से तस्थर है।
वे ‘शून्द्य’ तथा ‘ऄनन्द्त’ (infinity) का तनतहताथय भलीभांतत समझते थे।
o आस प्रकार नवीन ऄंकन पितत, शून्द्य तथा दाशतमक पितत का अतवष्कार गतणत क्षेत्र में
प्राचीन भारतीयों की सवायतधक महत्वपूणय ईपलतदधयां हैं। ऄपनी तजन महत्वपूणय खोजों तथा
अतवष्कारों के उपर यूरोप के लोग आतना गवय करते हैं, ईनमें से ऄतधकांश तवकतसत गतणतीय
पितत के तबना संभव नहीं थे। भास्कर के पिात् भारत में गतणत शास्त्र का कोइ मौतलक
लेखक नहीं हुअ।
नौंवीं शताददी में, जेम्स िेलर ने लीलावती का ऄनुवाद ककया। मध्य युग में, नारायण पंतडत ने ऐसी
गतणत रचनाओं की रचना की तजसमें ‘गतणतकौमुदी’ और ‘बीजगतणतवताम्सा’ का समावेश है।
नीलकं ठ सोमासुत्वन ने ‘तंत्रसंग्रह’ की रचना की, तजसमें तत्रकोणतमतीय फलनों के तनयम का
समावेश है। नीलकं ठ ज्योततर्तवद ने तातजक का संकलन ककया जो कक बड़ी मात्रा में फ़ारसी
तकनीकी शददों से संबंतधत है। मुगलकाल में शेख फै जी (1587 इ.) ने लीलावती का फारसी
ऄनुवाद प्रस्तुत ककया। तत्पिात् ईनकी कृ ततयों का ऄंग्रज
े ी ऄनुवाद भी हुअ।
ज्योततष के पांच तसिान्द्तों- पैतामह, वातशष्ठ, सूय,य पौतलश तथा रोमक का ईल्लेख ककया गया है।
आसमे ऄतन्द्तम दो की ईत्पतत्त यूनान से मानी गयी है। रोमक तसिान्द्त के संबंध में वाराहतमतहर ने
तजन नक्षत्रों का ईल्लेख ककया है वे यूनानी लगते हैं। पौतलश तसिान्द्त तसकन्द्दररया के प्राचीन
ज्योततषी पाल के तसिान्द्तों पर अधाररत प्रतीत होता है। ज्योततष के माध्यम से यूनानी भाषा के
ऄनेक शदद संस्कृ त तथा बाद की भारतीय भाषाओं में प्रचतलत हो गये।
गुप्त काल में संस्कृ तत के ऄन्द्य पक्षों के साथ-साथ ज्योततष एवं खगोल तवद्या का भी सवाांगीण
तवकास हुअ। गुप्तकाल के आततहास-प्रतसि ज्योततषी ‘अययभट्ट’ प्रथम एवं ‘वाराहतमतहर’ हैं।
o अययभट्ट प्रतसि खगोलतवद् होने के साथ-साथ महान् गतणतज्ञ भी थे। अययभट्ट के प्रतसि ग्रन्द्थ
‘अययभिीयम’ से ज्योततष के प्रगतत के तनतित एवं प्रत्यक्ष साक्ष्य तमलते हैं।
o अययभट्ट ज्योततष पर लेखनी ईठाने वाले प्रथम प्राचीनतम ज्ञात ऐततहातसक व्यतक्त थे।
अययभट्ट ने कभी भी ककसी मत का ऄन्द्धानुकरण नहीं ककया बतल्क ज्योततष संबंधी ईनके
तनष्कषय स्वयं के तनरीक्षणों एवं ऄन्द्वेषणों पर अधाररत थे।
o अययभट्ट ने आस बात को नहीं माना कक सूयय एवं चन्द्द्र ग्रहणों का कारण राहु और के तु जैसे ऄसुर
हैं। ईन्द्होंने यह मत कदया कक चन्द्द्र या सूयय ग्रहण चन्द्द्रमा पर पृथ्वी की छाया पड़ने से ऄथव
सूयय और पृथ्वी के बीच चन्द्द्रमा के अ जाने से लगते हैं।
o अययभट्ट पहले भारतीय खगोलशास्त्री थे, तजन्द्होंने यह खोज की कक पृथ्वी गोल है तथा ऄपने
ऄक्ष (axis) के चारों ओर पररभ्रमण करती है, सूयय तस्थत है तथा पृथ्वी गततशील है, चन्द्द्रमा
तथा दूसरे ग्रह सूयय के प्रकाश से ही प्रकातशत होते हैं, ईनमें स्वयं कोइ प्रकाश नहीं होता है।
o आन्द्होंने ही जीवा के फलनों (sine functions) का पता लगाया तथा खगोल के तलये ईनका
ईपयोग ककया, दो क्रमागत कदनों की ऄवतध में वृति या कमी को नापने के तलये सिीक सूत्र
प्रस्तुत ककया, ग्रहीय गततयों के तववरण की व्याख्या के तलये ‘ऄतधचक्रीय तसिान्द्त’
(epicyclic theory) की स्थापना ककया, चन्द्द्र की कक्षा में पृथ्वी की छाया के कोणीय व्यास
को शुि रूप में प्रकि ककया।
o ईन्द्होंने यह तनतित करने के भी तनयम बनाये कक ककसी ग्रहण में चन्द्द्रमा का कौन सा भाग
अच्छाकदत होता है तथा ग्रहण कक ऄवतध में ऄधायश तथा पूणय ग्रास का ज्ञान ककस प्रकार ककया
जा सकता है।
o अययभट्ट ने वषय की लम्बाइ 365.2586805 कदनों की बताइ। यह िालमी द्वारा मान्द्य लम्बाइ
365.2631579 कदनों की यथाथय ऄवतध के सतन्नकि है। ये सभी खगोल क्षेत्र में ईन्नत ज्ञान के
पररचालक हैं ककन्द्तु यह खेद का तवषय है कक हम ईन पिततयों तथा परीक्षणों के बारे में कु छ
भी नहीं जानते तजन्द्होंने आन ईपलतदधयों को सुगम बनाया।
o दूरबीन (Telescope) के ज्ञान के ऄभाव में खगोल क्षेत्र में आतनी ईच्चकोरि की ईपलतदध
अियय की बात कही जायेगी।
o पािात्य जगत् कोपरतनकस (1473-1543) को ब्रह्माण्ड के ‘सूयय के तन्द्द्रक तसिान्द्त’ का
ऄन्द्वेषक मानता है, जबकक आसके शतातददयों पूवय भारतीय खगोलशास्त्री अययभट्ट ने आस
तसिान्द्त का पता लगाकर ब्रह्माण्डीय गतततवतधयों का के न्द्द्र सूयय को घोतषत कर कदया था।
o अययभट्ट ने ज्योततष को गतणत से ऄलग शास्त्र के रूप में प्रततस्थातपत कर कदया। ईनके तवचार
सबसे ऄतधक वैज्ञातनक थे।
o अययभट्ट के पिात् ईनके तशष्यों- तनःशंक, पाण्डु रंगस्वामी तथा लािदेव द्वारा ईनके तसिान्द्तों
का प्रचार-प्रसार ककया गया। आनमें लािदेव सबसे ऄतधक प्रतसि हैं तजसने ‘पौतलश’ तथा
‘रोमक तसिातों’ की व्याख्या प्रस्तुत की। ईन्द्हें ‘सवय तसिान्द्त गुरु’ भी कहा जाता है।
अययभट्ट के पिात् भारतीय ज्योतततषयों में वाराहतमतहर (छठी शताददी) का नाम ईल्लेखनीय है।
यकद अययभट्ट गतणत ज्योततष के प्रवतयक थे तो वाराहतमतहर फतलत ज्योततष के प्रणेता के रूप में
स्मरणीय हैं।
o आनका गतणत ज्योततष संबंधी प्रतसि ग्रन्द्थ ‘पंचतसिातन्द्तका’ है तजसमें इसा की तीसरी-चैथी
शती में प्रचतलत ज्योततष के पांचों तसिान्द्तों- पैतामह, वातशष्ठ, रोमक, पौतलश तथा सूय-य का
ईल्लेख तमलता है।
o पंचतसिातन्द्तका के प्रथम खण्ड में खगोल तवज्ञान पर तवशद प्रकाश डाला गया है।
o ब्रह्माण्डीय तपण्डों का ऄतस्तत्व, ईनका परस्पर संबंध तथा प्रभाव संबंधी वाराहतमतहर का
ज्ञान अज भी हमें चमत्कृ त करता है। आनमें मात्र सूयय तसिान्द्त संबंधी पाण्डु तलतप तथा िीकायें
ही आस समय प्राप्त हैं।
o वाराहतमतहर ने तवज्ञान की ईन्नतत में कोइ मौतलक योगदान तो नहीं कदया ककन्द्तु
‘पंचतसिातन्द्तका’ तलखकर ईन्द्होंने ज्योततष का बड़ा ईपकार ककया। यकद यह ग्रन्द्थ न तमलता
तो ज्योततष शास्त्र का आततहास ऄपूणय रहता।
o ‘पंचतसिातन्द्तका’ के ऄततररक्त वाराहतमतहर ने कु छ ऄन्द्य ग्रन्द्थों- बृहज्जातक बृहत्संतहता तथा
लघुजातक- की भी रचना की। ये फतलत ज्योततष की रचनायें हैं। बृहत्जातक एवं बृहत्संतहता
में भौततक भूगोल, नक्षत्र तवद्या, वनस्पतत तवज्ञान, प्रातण शास्त्र अकद का तवश्लेषण ककया गया
है। पौधो में होने वाले तवतभन्न रोगों तथा ईनके ईपचार के क्षेत्र में भी ईन्द्होंने बड़ा काम
ककया। तवतभन्न औषतध के रूप में पौधों के गुणकारी ईपयोग संबंधी ईनके शोध अयुवेद की
ऄमूल्य तनतध है। बृहत्संतहता, ज्योततष, भौततक भूगोल, वनस्पतत तथा प्राकृ ततक आततहास का
तवश्वकोश ही है।
अययभट्ट तथा वाराहतमतहर के पिात् भारतीय ज्योतततषयों में ‘ब्रह्मगुप्त’ का नाम प्रतसि है। आनके
प्रतसि ‘ब्रह्मस्फु ि तसिान्द्त’ के कु ल चौबीस ऄध्यायों में से बाआस ज्योततष से ही संबंतधत हैं। ‘खण्ड
खाद्यक’ आनका दूसरा ग्रन्द्थ है। ब्रह्मगुप्त को आस बात का श्रेय कदया जाता है कक ऄरबों में ज्योततष
का प्रचार सवयप्रथम ईन्द्होंने ही ककया। ईनके ग्रंथों का ऄल्बरूनी द्वारा ऄनुवाद ककया गया।
प्राचीन रसायन शास्त्र ‘रसतवद्या’, ‘रसतंत्र’, ‘रसकक्रया’ ऄथवा ‘रसशास्त्र’ के नाम से जाना जाता है।
तजसका ऄथय है, तरल पदाथय का तवज्ञान। प्राचीन ग्रन्द्थों में रसतवद्या को ‘परातवद्या’ भी कहा गया है
जो तीनों लोकों में दुलभ
य तथा भोग और मुतक्त प्रदान करती है।
रसायनज्ञों ने मध्ययुगीन यूरोपीयों के समान मूल धातु को स्वणय में रूपान्द्तरण करने की तकनीक में
कदलचस्पी नहीं ली तथा ऄपना ध्यान ऄतधकांशतः औषतधयों, अयुवधयक रसायनों, वाजीकरों
(aphrodisics), तवषों तथा ईनके प्रततकारों अकद के बनाने पर ही के तन्द्द्रत ककया। ये रसायनज्ञ
तवचूणन
य (calculation) तथा असवन (distillation) जैसी सामान्द्य प्रकक्रया द्वारा तवतवध प्रकार
के ऄम्ल, क्षार तथा धातु लवण बनाने में सफल भी हो गये। ईन्द्होंने एक प्रकार की बारुद का भी
अतवष्कार कर तलया था।
भारतीय परम्परा में बौि दाशयतनक ‘नागाजुन
य ’ को रसायन का तनयामक माना गया है जो कतनष्क
के समकालीन थे। संभव है आस नाम के कु छ और अचायय भी बाद में हुए हों। व्हेनसांग के ऄनुसार
नागाजुन
य दतक्षण कोशल में तनवास करते थे।
o ये रसायन शास्त्र में तसि थे तथा आन्द्होंने ऄत्यन्द्त लम्बी अयु देने वाली एक तसिविी का
ऄतवष्कार ककया था।
o सोने, चांदी, तांब,े लोहे अकद के भस्मों द्वारा ईन्द्होंने रोेेगों की तचककत्सा का तवधान भी
प्रस्तुत ककया था।
o पारा (mercury) की खोज ईनका सबसे महत्वपूणय ऄतवष्कार था जो रसायन के आततहास में
युगान्द्तकारी घिना है।
o आन्द्होंने ‘रसरत्नाकर’ नामक एक प्रबंध की रचना की जो कक रसायन शास्त्र पर अधाररत एक
पुस्तक थी।
o नागाजुन
य ने ‘ईत्तरतंत्र’ की भी रचना की जो कक सुश्रुत संतहता का एक पूरक है और
तचककत्सीय औषतधयों के तनमायण से संबंतधत है।
o बाद के वषों में जब ईनकी रूतच जैतवक रसायन शास्त्र और तचककत्सा की ओर स्थानांतररत
हुइ तो ईन्द्होंने चार अयुवेकदक ग्रंथों की भी रचना की। महर्तष कणाद के वैशते षक दशयन में भी
रसायतनक प्रकक्रया (chemical action) का ईल्लेख ककया गया है।
मेहरौली तस्थत लौह स्तम्भ आस बात का जीवंत प्रमाण है कक प्राचीन भारतीय वैज्ञातनक ‘धातु
तवज्ञान’ (Metallurgy) में ऄत्यन्द्त पारं गत थे। वास्तव में, धातुकमय में होने वाले तवकास में लौह
युग से कांस्य युग और वहां से वतयमान युग तक हुइ प्रगतत का तवशेष योगदान है।
तजस समय पतिमी तवश्व में भी लोहा बनाने की तवतध का ऄधूरा ज्ञान था, भारतीय धातु शोधकों
ने आस लौह स्तम्भ को आतनी तनपुणता से बनाया कक तपछले डेढ़ हजार वषों से धूप और वषाय में
खुला खड़ा होने पर भी आसमें ककसी प्रकार की जंग नहीं लगने पाइ है। आसकी पातलश अज भी
धातु वैज्ञातनक के तलये अियय की वस्तु है। कइ शतातददयों तक आतने बड़े लौह स्तम्भ का तनमायण
मानव कल्पना के परे था।
5. तचककत्सा शास्त्र
आस क्षेत्र में प्राचीन भारतीयों की ईपलतदधयां ऄत्यंत महत्वपूणय हैं। भारत में तचककत्सा ऄथवा
‘औषतधशास्त्र’ का आततहास ऄत्यन्द्त प्राचीन है और आसकी ऐततहातसकता वैकदक काल तक जाती है।
ऊग्वेद में ‘ऄतश्वन’ को देवताओं का कु शल वैद्य कहा गया है जो ऄपने औषधों से रोगों को दूर करने
में तनपुण थे।
ऄथवयवद
े में ‘अयुवद
े के तसिान्द्त’ तथा व्यवहार संबंधी बातें तमलती हैं। रोग, ईनके प्रततकार तथा
औषध संबंधी ऄनेक ईपयोगी तथा वैज्ञातनक तथ्यों का तववरण आसमें कदया गया है। तवतवध प्रकार
के ज्वरों, यक्ष्मा, ऄपतचत (गण्डमाला), ऄततसार, जलोदर जैसे रोगों के प्रकार एवं ईनकी
तचककत्सा का तवधान प्रस्तुत ककया गया है। ‘
तवषस्य तवषमौषधम्’ ऄथायत् तवष की दवा तवष ही होती है का तसिांत भी ऄथवयवेद के एक मन्द्त्र
में तमलता है। ईल्लेखनीय है कक आसी पितत पर अधुतनक होतमयोपैथी तचककत्सा अधाररत है,
तजसका मूल-तसिान्द्त सम से सम की तचककत्सा’ (समः समे शमयतत) है। आसी को लैरिन भाषा में
तसतमतलया तसतमतलबस क्यूरेन्द्िर (Similia Similibus Curantur) कहा जाता है। प्राचीन
भारतीयों ने आस तसिांत को ऄपनाया था।
बुिकाल में औषतध शास्त्र का व्यापक ऄध्ययन होता था। जातक ग्रन्द्थों से पता चलता है कक प्रतसि
तवश्वतवद्यालय तक्षतशला में वैद्यक के ख्यातत प्राप्त तवद्वान थे जहां दूर-दूर से तवद्याथी अयुवेद का
ऄध्ययन करने के तलए अते थे। आन्द्हीं में जीवक का नाम तमलता है। तबतम्बसार ने ईसे ऄपना
राजवैद्य बनाया तथा ईसने तबम्बसार, प्रद्योत तथा महात्मा बुि तक की तचककत्सा कर ईन्द्हे
रोगमुक्त ककया था।
ऄथयशास्त्र से पता चलता है कक मौययकाल में तचककत्सा शास्त्र तवकतसत था। साधारण वैद्यों, चीड़-
फाड़ करने वाले तभजषों एवं चीड़-फाड़ में प्रयुक्त होने वाले यंत्रों, पररचाररकाओं, मतहला
तचककत्सकों अकद का ईल्लेख तमलता है। शव-परीक्षा (Post mortem) भी ककया जाता था। शवों
को तवकृ त होने से बचाने के तलए तेल में डु बोकर रखा जाता था। ऄकाल मृत्यु के तवतभन्न मामलों
जैसे फांसी, तवषपान अकद की जांच कु शल तचककत्सक करते थे।
अयुवद
े में मुतन आ़त्रेय का वही स्थान है जो यूनानी तचककत्सा में तहपोक्रेिीस का है। अत्रेय संतहता
में साध्य रोग, ऄसाध्य रोग, ज्वर, ऄततसार, पेतचश, क्षय, रक्तचाप अकद के ईपचार की तवशेष
चचाय की गइ है। आस ग्रन्द्थ में जल तचककत्सा का भी वणयन है। तचककत्सा शास्त्र के क्षेत्र में ईल्लेखनीय
प्रगतत इसा पूवय प्रथम शती से ही हुइ जबकक ‘चरक’ तथा ‘सुश्रत
ु ’ जैसे सुप्रतसि अचायों ने अयुवेद
तवषयक ऄपने ज्ञान से सम्पूणय तवश्व को अलोककत ककया।
चरक:
o चरक को काय तचककत्सा का प्रणेता कहा जा सकता है। वे कु षाण नरे श कतनष्क प्रथम के राजवैऺद्य
थे। ईनकी कृ तत ‘चरक संतहता’ काय तचककत्सा का प्राचीनतम प्रामातणक ग्रन्द्थ है और महर्तष अत्रेय
के ईपदेशों पर अधाररत है।
o यह मुख्य रूप से अयुवदे तवज्ञान से संबंतधत है तजसके तनम्नतलतखत अठ ऄवयव हैं - काय
तचककत्सा (सामान्द्य तचककत्सा), कौमार-भत्यय (बाल तचककत्सा), शल्य तचककत्सा (सजयरी), सलक्य
तंत्र (नेत्र तवज्ञान/इएनिी), बूिा तवद्या (भूत तवद्या/मनोरोग), ऄगाद तंत्र (तवष तवद्या), रसायन तंत्र
(सुधा), वाजीकरण तंत्र (कामोत्तेजक)। ऄल्बरूनी ने आसे औषतध शास्त्र का ‘सवयश्रेष्ठ ग्रन्द्थ’ बताया है।
o चरक संतहता में 120 ऄध्याय हैं। आसमें अठ खण्ड हैं, तजन्द्हें ‘स्थान’ कहा गया है‘- सूत्र, तनदान,
तवमान, शरीर, आं कद्रय, तचककत्सा, कल्प तथा तसति । आसमें शरीर रचना, गभय तस्थतत, तशशु का
जन्द्म तथा तवकास, कु ष्ठ, तमरगी, ज्वर जैसे प्रमुख अठ रोग, मन के रोगों की तचककत्सा, भेदोपभेद
अहार, पेथ्यापथ्य, रूतचकर स्वास्थवधयक भोज्यों, औषधीय वनस्पततयों अकद का वणयन ककया गया
है। प्राचीन वनस्पतत एवं रसायन के ऄध्ययन का भी यह एक ईपयोगी ग्रन्द्थ है। आसमें तचककत्सकों
के पालनाथय जो व्यावसातयक तनयम कदये गये हैं वे तहप्पोक्रेिस के तनयमों का स्मरण कराते हैं तथा
प्रत्येक समय तथा स्थान के तचककत्सक के तलये ऄनुकरणीय हैं।
o ‘चरक संतहता’ का न के वल भारतीय ऄतपतु सम्पूणय तवश्व तचककत्सा के आततहास में महत्वपूणय स्थान
है। आसका ऄनुवाद कइ तवदेशी भाषाओं में हो चुका है। भारतीय तचककत्सा शास्त्र का तो यह
तवश्वकोश ही है। आसके द्वारा तनदेतशत तसिान्द्तों के अधार पर ही कालान्द्तर में अयुर्तवज्ञान का
तवकास हुअ।
‘सुश्रत
ु ’
o चरक के कु छ समय पिात् ‘सुश्रत
ु ’ का ऄतवभायव हुअ। यकद चरक काय तचककत्सा के प्रणेता थे तो
सुश्रत
ु शल्य तचककत्सा के ।
o ईनके ग्रन्द्थ ‘सुश्रत
ु संतहता’ में ईपदेष्टा धन्द्वत
ं रर हैं और संपूणय संतहता सुश्रत
ु को सम्बोतधत करके
कही गयी है।
o आसमें तवतवध प्रकार की शल्य एवं छेदन कक्रयाओं का ऄततसूक्ष्म तववरण कदया गया है।
मोततयातबन्द्द,ु पथरी जैसे कइ रे ागों का शल्योपचार बताया गया है। शवतवच्छेदन का भी वणयन है।
सुश्रुत ने शल्य कक्रया में प्रयुक्त होने वाले लगभग 121 ईपकरणों के नाम तगनाये हैं जो ऄच्छे लोहे
के बने होते थे। वे तचककत्सा तथा शल्य तवज्ञान में दीतक्षत होने वाले छात्रों का तववरण भी प्रस्तुत
करते हैं। वे सूआयों (Injections) तथा पट्टी बांधने की तवतवध तवतधयों का भी ईल्लेख करते हैं।
चरक के समान सुश्रतु की ख्यातत भी तवश्वव्यापी थी। गुप्तकाल में भी चरक तथा सुश्रुत के तसिान्द्तों
को मान्द्यता तमलती रही तथा ईन्द्हें ऄत्यन्द्त सम्मान के साथ देखा जाता था। मनुष्यों के साथ-साथ
पशुओं की तचककत्सा पर भी ग्रन्द्थ तलखे गये। आसका एक ऄच्छा ईदाहरण पालकाप्य कृ त
‘हस्त्यायुवद
े ’ है। आस तवस्तृत ग्रन्द्थ के 160 ऄध्यायों में हातथयों के प्रमुख रोगों, ईनकी पहचान एक
तचककत्सा का वणयन ककया गया है। ईनके शल्य कक्रयाओं का भी ईल्लेख है।
भारतीय तचककत्सा पितत तीन रसों- कफ, वात तथा तपत्त के तसिान्द्त पर अधाररत थी। आनके
संतुतलत रहने पर ही मनुष्य स्वस्थ रहता था। तीनों रस जीवनी शतक्त माने जाते थे। अहार-तवहार
के संतल
ु न पर भी तवशेष बल कदया जाता था। स्वच्छ वायु तथा प्रकाश के महत्व को भी भली-
भांतत समझा गया था। ऄनेक एतशयाइ जड़ी-बूरियां यूरोप में पहुंचने के पहले से ही यहां ज्ञात थीं,
जैसे कक छौलमुग्र वृक्ष का तेल, तजसे कु ष्ठ रोग की औषतध माना जाता था।
भारत में यहााँ के ईदार शासकों एवं धार्तमक संस्थानों ने तचककत्सा शास्त्र को तवशेष रूप से संरक्षण
प्रदान ककया तजससे आस क्षेत्र की यथेष्ट प्रगतत हुइ।
ऄशोक नेऄपने राज्य में मानव तथा पशु जातत, दोनों की तचककत्सा की ऄलग-ऄलग व्यवस्था
करवाइ थी। चीनी यात्री फाह्यान तलखता है कक यहां धार्तमक संस्थानों द्वारा औषधालय स्थातपत
ककये गये थे जहां मुफ्त औषतधयां तवतररत की जाती थीं।
भारतीय तचककत्सक तवतवध रोगों के तवशेषज्ञ थे। यद्यतप शवों के सम्पकय पर तनषेध के कारण शरीर
तवज्ञान एवं जीव तवज्ञान के क्षेत्र में यथेष्ठ प्रगतत नहीं हो सकी तथातप भारतीयों ने एक प्रयोगातश्रत
शल्य शास्त्र (empirical surgery) का तवकास कर तलया था। वे प्रसवोत्तर शल्य कक्रया से
पररतचत थे, ऄतस्थ संधान में तनपुणता प्राप्त कर ली थी तथा तचककत्सक नष्ट, युिक्षत ऄथवा दण्ड
स्वरूप तवकृ त ककये गये नाक, कान एवं होठों को पुनः जोड़कर ठीक कर सकते थे।
सुश्रत
ु संतहता में वर्तणत शल्य तचककत्सा में प्रयोग होने वाले ईपकरण
6. प्रौद्योतगकी (Technology)
पाषाण प्रौद्योतगकी: प्रागैततहातसक काल से ही प्राचीन भारतीयों ने तवज्ञान के साथ-साथ
प्रौद्योतगकी (technology) के क्षेत्र में भी महत्वपूणय प्रगतत की। आस काल में पाषाण प्रौद्योतगकी
का खूब तवकास हुअ।
अकद मानव ने पाषाण से तवतवध प्रकार के ईपकरणों का तनमायण ककया। पाषाण काल के प्रमुख
ईपकरण कोर (core), फ्लेक (flakes), तथा दलेड (Blades) हैं।
o ईपकरण बनाने के तलये कोइ ईपयुक्त पत्थर चुना जाता था, कफर ईस पर ककसी गोल-मिोल पत्थर
(pebble) से हथौड़े के समान चोि की जाती थी तजससे ईसका एक छोिा खण्ड तनकल जाता था।
आस तवतध से कइ छोिे-छोिे िुकडेऺ तनकल जाते थे तथा बचे हुए अन्द्तररक भाग को बार-बार चोि
करके ऄभीष्ट अकार का ईपकरण तैयार कर तलया जाता था। आसे ही कोर कहते थे।
o जबकक ऄलग हुए िु कड़ों को फ्लेक कहा जाता था।
o आनके ककनारों पर बारीक तघासाइ करके ईन्द्हें धारदार बना कदया जाता था जो दलेड कहलाते थे।
o कु छ ईपकरणों के तनमायण में ऄत्यन्द्त ईन्नत प्रौद्योतगकी के दशयन होते हैं। पाषाण तनर्तमत प्रमुख
ईपकरण हैं- गड़ासा (chopper) तथा खण्डक (chopping) ईपकरण, हैन्द्ड एक्स तथा क्लीवर,
खुरचनी (scraper,) बेधनी (point), तक्षणी (burin), बेधक (borer) अकद।
o पूवय पाषाणयुगीन मानव ने पत्थरों की किाइ, तघसाइ अकद के द्वारा ऄभीष्ट ईपकरण बनाने में
दक्षता प्राप्त कर ली थी।
आस प्रकार पाषाण प्रौद्योतगकी का तवकास पाषाणकाल में हो चुका था। पत्थर से वस्तुयें बनाने का
ईद्योग कालान्द्तर में ऄत्यन्द्त तवकतसत हो गया।
सैन्द्धव सभ्यता के बाद भारत के तवतभन्न क्षेत्रों में ताम्रपाषातणक संस्कृ ततयों के दशयन होते हैं-
o आनमें ताम्र धातु का व्यापक प्रयोग हुअ। तांबे को घरों में तपघलाकर वस्तुयें बनाने के साक्ष्य
तमलते हैं।
o राजस्थान का क्षेत्र ताम्र धातु ईद्योग का सवयप्रमुख के न्द्द्र था। यहां के एक पुरास्थल ऄहाड़ का
एक ऄन्द्य नाम ताम्बवती ऄथायत् तांबे वाली जगह भी तमलता है।
o आसी के समीप गणेश्वर नामक स्थल से बड़ी मात्रा में तांबे के ईपकरण तमलते हैं।
o आन तथ्यों से सूतचत होता है कक ऄब देश के तवतभन्न भागों में धातु प्रौद्योतगकी काफी तवकतसत
एवं लोकतप्रय हो गयी थी। लगभग 1200 इ. पू. के अस-पास ताम्रपाषातणक संस्कृ ततयों का
पतन हो गया।
इ. पू. छठी शताददी ऄथवा बुि काल में गंगा-घािी में नगरों का तेजी से ईत्थान हुअ। आसे तद्वतीय
नगरीकरण कहा जाता है-
o आसके पीछे लौह तकनीक का तवकास भी ईत्तरदायी था।
o मगध क्षेत्र में कच्चा लोहा असानी से प्राप्त हो जाता था। यहां के लुहार लोहे के ऄच्छे -ऄच्छे
हतथयार बना लेते थे जो मगध के शासकों को सहज में सुलभ थे। आससे मगध साम्राज्यवाद को
तवकतसत एवं सुदढ़ृ होने का ऄवसर तमला।
o युि संबंधी ऄस्त्र-शस्त्रों के साथ-साथ ऄब गंगाघािी में बड़े पैमाने पर लोहे से कृ तष में काम
अने वाले ईपकरण भी तैयार ककये जाने लगे। आनकी सहायता से वनों की किायी कर
ऄतधकातधक भूतम कृ तष योग्य बनाइ गयी तथा प्रभूत ईत्पादन होने वाला। ईत्पादन ऄतधशेष
(surplus produce) ने नगरीकरण को पुष्ट ककया।
मौयय काल में पाषाण एवं लौह प्रौद्योतगकी का खूब तवकास हुअ-
o ऄशोक के एकाश्मक स्तम्भ पाषाण तराशने की कला की ईत्कृ ष्टता के साक्षी हैं।
o लगभग पचास िन वजन तथा तीस फीि से ऄतधक की ईं चाइ वाले स्तम्भों को पांच-छह सौ
मील की दूरी तक ले जाकर स्थातपत करना तत्कालीन ऄतभयातन्द्त्रकी कु शलता को सूतचत
करता है तथा अज के वैज्ञातनक युग में भी अियय की वस्तु है।
o आसी प्रकार का एक ऄन्द्य ईदाहरण सुदशयन झील का तनमायण है।
o आस काल के पुरास्थलों से लोहे के औजार तथा हतथयार भारी संख्या में तमलते हैं।
o तचतत्रत धूसर मृद्भाण्ड (painted grey ware) के प्रयोक्ता लौह ईपकरणों से भली-भांतत
पररतचत थे। यह संस्कृ तत लौह तकनीक के तवकास को सूतचत करती है।
मौयोतर काल प्रौद्योतगकी प्रगतत की दृतष्ट से ऄत्यन्द्त महत्वपूणय माना जा सकता है-
o महावस्तु ग्रंथ में राजगृह नगर में तनवास करने वाले 36 प्रकार के तशतल्पयों ऄथवा कामगारों
का ईल्लेख तमलता है तथा तमतलन्द्दपन्द्हो में 75 व्यवसायों का ईल्लेख है तजनमें लगभग 60
तवतभन्न प्रकार के तशल्पों से संबि थे।
o अठ तशल्प सोना, चांदी, सीसा, रिन, तांबा, पीतल, लोहा तथा हीरे -जवाहरात जैसे ईत्पादों
से संबंतधत थे।
o आससे सूतचत होता है कक धातुकमय के क्षेत्र में पयायप्त तनपुणता हातसल कर ली गयी थी- तवशेष
रूप से लोहा ढलायी का तकनीकी ज्ञान काफी तवकतसत हो गया था।
o प्रौद्योतगकी प्रगतत के पररणामस्वरूप इसा की प्रथम तीन शतातददयों में नगरीकरण ऄपने
ईत्कषय की पराष्ठा पर पहुंच गया। आसके बाद लौह धातु अम ईपयोग की सबसे महत्वपूणय
वस्तु बन गयी।
गुप्तकाल भी प्रौद्योतगकी प्रगतत की दृतष्ट से ईन्नत था-
o ऄमरकोश में लोहे के तलये सात नाम कदये गये हैं। पांच नाम हल के फाल से संबंतधत हैं।
o मेहरौली लौह स्तम्भ से सूतचत होता है कक लौह कमय का तकनीकी ज्ञान ऄपने चरमोत्कषय पर
पहुंच गया था। आस पर मात्र मैिीज अक्साआड (MgO)की पतली परत चढ़ाकर आसे जंगरतहत
बना कदया गया है। दुभायग्यवश आसके बाद आस तकनीकी तवकास को समझने के तलये हमारे
पास कोइ स्रोत ही नहीं है। आसमें लगी पातलश अज भी धातु वैज्ञातनकों के तलये अियय की
वस्तु बनी हुइ है।
o सुल्तानगंज (तबहार) से प्राप्त महात्मा बुि की लगभग साढ़े सात फु ि उंची तथा एक िन भार
वाली कांस्य प्रततमा ईल्लेखनीय है।
o धातु प्रौद्योतगकी के सुतवकतसत होने का प्रमाण तसक्कों तथा मुहरों की बहुलता में देखा जा
सकता है।
o बहुमूल्य धातुओं एवं पत्थरों से अभूषण तैयार करने का ईद्योग भी प्रगतत पर था। जहाजरानी
ईद्योग की भी ईन्नतत हुइ। सुप्रतसि कलातवद् अनन्द्द कु मार स्वमी के ऄनुसार यह पोत
तनमायण (ship building) का महानतम युग था।
रहि (ऄरघट्ट)
o पल्लव तथा चोलकालीन कलाकृ ततयां ईच्चतम तकनीकी प्रगतत की सूचक है।
आस प्रकार प्राचीन भारत के तवतभन्न कालों में तवज्ञान एवं प्रौद्योतगकी के क्षेत्र में ईल्लेखनीय प्रगतत
हुइ। कु छ क्षेत्रों में भारतीय ज्ञान-तवज्ञान को तवदेतशयों ने भी ग्रहण ककया तथा ईसकी प्रशंसा की।
ये गतणत की ईन तवतभन्न ऄवधारणाओं तक पहुाँचने वाले प्रथम व्यतक्त थे, तजन्द्हें बाद में पािात्य
तवश्व द्वारा खोजा गया।
पाइ (π) के मूल्य की गणना सबसे पहले आन्द्हीं के द्वारा
की गइ। अज तजसे पाआथागोरस प्रमेय के रूप में जाना
जाता है, वह पहले से ही बौधायन के शुल्व सूत्र
(Salbasutra) में है, तजसे पाआथागोरस से कइ वषय
पहले तलखा गया था।
ये ‘बौधायन सूत्र’ के लेखक थे।
बौधायन सूत्र को छः वगों में बांिा गया - 1. श्रौतसूत्र
(Srautasutra), 2. कमायन्द्तसूत्र (Karmantsutra),
3. द्वैधसूत्र (dvaidhsutra) 4. गृह्यसूत्र (Grihyasutra), 5. धमयसत्र
ू (Dharmasutra) 6.
शुल्वसूत्र (Salbasutra)।
अययभट्ट ने शून्द्य की खोज की तजसकी सहायता से आन्द्होंनेपथ्ृ वी और चन्द्द्रमा के मध्य दूरी का सही
मापन ककया।
अययभट्ट ने सवयप्रथम स्पष्ट ककया की पृथ्वी गोल है और ऄपनी
धुरी पर घूमती है।
आन्द्होंने तत्कालीन समय में मान्द्य सूयय की पूवय से पतिम की
ओर गतत को ईदाहरण द्वारा गलत तसि ककया।
अययभट्ट ने यह भी स्पष्ट ककया कक चााँद और ऄन्द्य ग्रह सूयय की
रोशनी के प्रतततबम्ब के कारण ही चमकते हैं।
ईन्द्होंने चंद्रग्रहण और सूयग्र
य हण का वैज्ञातनक स्पष्टीकरण
कदया और कहा कक ग्रहण के वल राहु या के तु या ककसी ऄन्द्य
राक्षस के कारण नहीं होते।
खगोल तवज्ञान से सम्बंतधत ऄन्द्य कायय: सौर मण्डल की गतत,
नक्षत्र ऄवतध और सूयय का के न्द्द्रीय तसिांत। आन्द्हीं के नाम पर भारत के प्रथम ईपग्रह का नाम
‘अययभट्ट’ रखा गया।
वराहतमतहर पहले वैज्ञातनक थे, तजन्द्होंने दावा ककया कक दीमक और पौधे भी भूगभीय जल की
पहचान के तनशान हो सकते हैं।
ईन्द्होंने छः पशुओं और तीस पौधों की सूची दी जो पानी के सूचक हो सकते हैं।
7.1.5. भास्कराचायय II
बाल्यावस्था में ऄतत सूक्ष्म कण (तजसे ‘कण’ कहा जाता है) में
तवशेष रूतच होने के कारण ईनका नाम ‘कणाद’ पड़ा।
कणाद के ऄनुसार भौततक जगत कणों, (ऄणु / atom) से बना है तजसे मानव नेत्र के माध्यम से
नहीं देखा जा सकता है तथा आसका और ऄतधक तवभाजन नहीं ककया जा सकता।
आस प्रकार, ये ऄतवभाज्य और ऄतवनाश्य हैं। यही तथ्य अधुतनक ऄणु तसिांत भी बताता है।
चरकसंतहता में ज्वर, कु ष्ठ, तमगी और यक्ष्मा के ऄनेक भेदोपभेदों का वणयन है।
शायद चरक यह नहीं जानते कक आनमें कु छ बीमाररयां छू त से भी फै लतीं हैं।
आनकी पुस्तक में भारी संख्या में ईन पेड़-पौधों का वणयन है तजनका प्रयोग दवा के रूप में होता है।
आस प्रकार यह पुस्तक न के वल भारतीय अयुर्तवज्ञान के ऄध्ययन के तलए बतल्क प्राचीन भारत के
वनस्पतत और रसायन शास्त्र के ऄध्ययन के तलए भी ईपयोगी है।
बाद की सकदयों में भारत में अयुर्तवज्ञान का तवकास चरक के बताये मागय पर होता रहा।
7.2.1. सर जगदीश चं द्र बोस (Sir Jagdish Chandra Bose) (1858 -1937)
आन्द्होंने सूक्ष्मतरं गों (माआक्रोवेव) के क्षेत्र में ऄग्रणी कायय ककया है।
आन्द्होंने छोिी तरं ग दैध्यय की रे तडयो तरं गों तथा सफे द और
पराबैंगनी प्रकाश दोनों के तलए, ररसीवर बनाने हेतु गेलन
े ा
कक्रस्िल के ईपयोग का तवकास ककया।
1895 में, मारकोनी के प्रदशयन से दो साल पहले, बोस ने रे तडयो
तरं गों का ईपयोग कर बेतार संचार का प्रततपादन ककया। आन्द्होंने
आसे दूर से ककसी घंिी को बजाने के तलए तथा बारूद में तवस्फोि
करने के तलए प्रततपाकदत ककया था।
आन्द्होंने बहुत से सूक्ष्म तरं गीय घिक जैसे तरं ग गाआडों (Wave
Guides), हॉनय ऐन्द्िेना, पोलराआज़र, पारदुयततक लेंस
(Dielectric lenses) एवं तप्रज़्म और यहां तक कक सूयय से होने
वाले तवद्युत चुम्बकीय तवककरण की पहचान करने वाले ऄधयचालकों का अतवष्कार और ईपयोग
19 वीं सदी के ऄंततम दशक में ककया।
आन्द्होंने सूयय से होने वाले तवद्युत चुम्बकीय तवककरण के ऄतस्तत्व का सुझाव भी कदया, तजसकी पुतष्ट
1944 में की गइ।
बोस को 1917 में नाआि की ईपातध दी गइ और आसके बाद शीघ्र ही आन्द्हें भौततक तवज्ञानी और
जीवतवज्ञानी दोनों के रूप में रॉयल सोसाआिी, लंदन का फे लो तनवायतचत ककया गया।
साहा समीकरण का ऄनुप्रयोग तारों के वणयक्रमीय (Spectral) वगीकरण का वणयन करने में हुअ।
करने में मदद की। आसे बोस अआंस्िीन कं डेंसिे (Bose Einstein condensate) के नाम से जाना
गया।
बोस अआं स्िीन कं डेंसेि के ऄतस्तत्व का प्रदशयन प्रयोगों द्वारा 1995 में ककया गया।
1955 के दौरान, बायोकफतज़क्स के क्षेत्र में काम करते हुए रामचंद्रन ने एक्स-रे तववतयन (x-ray
diffraction) और संबंतधत अंकड़ों के अधार पर कोलेजन
(collagen) के तलए एक संरचना का प्रस्ताव रखा।
बाद में आसे ‘तद्वबंध संरचना (two bonded structure)' का नाम
कदया गया।
आस संरचना ने ककसी भी पेप्िाआड / प्रोिीन की गठनात्मक जांच में
आस जानकारी का ईपयोग करने के नए तवचार को जन्द्म कदया,
तजसने बाद में रामचंद्रन मैप (Ramachandran map) के रूप में
अकार तलया।
रामचंद्रन मैप प्रोिीन संरचना से सम्बंतधत ककसी भी तवश्लेषण के
तलए एक महत्वपूणय तवतध है। यह न्द्यूतक्लक एतसड (Nuclic
Acids) और पालीसैकराआड्स (polysaccharides) जैसे ऄन्द्य बायोपॉलीमर (biopolymer) पर
भी लागू होता है।
रामचंद्रन ने प्रोिीन गठन के क्षेत्र में ऄपना योगदान कदया, जैसे कक प्रोतलल घिकों (Prolil
residues) का ऄध्ययन, हाआड्रोजन बंध तवभव कक्रया (Hydrogen bonding potential
function) और कु ण्डतलनी (Helix) तथा L और D घिकों की एकान्द्तरता।
आन्द्हें अनुवंतशक कोड का रहस्योद्घािन करने के तलए 1968 में माशयल नीरे नबगय (marshall
Nirenberg) और रॉबिय हॉली के साथ संयुक्त रूप से तचककत्सा
और शरीरकक्रया तवज्ञान (कफतजयोलॉजी) के नोबेल पुरस्कार से
सम्मातनत ककया गया।
आन्द्होंने स्थातपत ककया कक यह कोड, सभी जीवों के तलए समान है
और तीन ऄक्षरों से बने शदद के रूप में ईच्चाररत ककया जाता है।
तीन न्द्युतक्लयोिाइडों (Nucleotides) से बना प्रत्येक सेि एक
तवतशष्ट एतमनो एतसड को कोड करता है।
डॉ. खुराना ओतलगोन्द्यतु क्लयोिाइड्स (oligonucleotides:
न्द्यूतक्लयोिाआडों का तार) को संश्लेतषत करने वालों में भी प्रथम
थे। अज, ओतलगोन्द्युतक्लयोिाइड्स जैव प्रौद्योतगकी में ऄतनवायय
ईपकरण हैं, जोकक ऄनुक्रमण, क्लोवनग और जेनेरिक
आं जीतनयररग के तलए जीव तवज्ञान प्रयोगशालाओं में व्यापक रूप से प्रयोग हो रहे हैं।
VISIONIAS
www.visionias.in
िवषय सूची
1. िहन्दू धमम (Hinduism) ________________________________________________________________________ 3
2. चावामक-दर्मन _______________________________________________________________________________ 12
धमम अत्मा का िवज्ञान है। नैितकता और अचार नीित धमम पर ही अधाररत हैं। अरं िभक काल से ही
धमम ने भारतीयों के जीवन में एक महत्त्वपूणम भूिमका िनभाइ है। धमम ने ऄपने से जुड़े लोगों के िभन्न-
िभन्न वगों के फलस्वरूप ऄनेक रूप धारण कर िलए। िविभन्न जन-वगों के धार्ममक-िवचारधारणाएं और
अचार ऄलग-ऄलग हुअ करते थे और समय व्यतीत होने के साथ-साथ धमम में पररवतमन और िवकास
होने लगा। भारत में धमम कभी भी ऄपने रूप में स्थायी नहीं रहा बिकक अन्तररक गितपूणम र्िि से
पररवर्मतत होता रहा।
ऄवतारवाद की ऄवधारणा
कइ र्तािब्दयों में हुए िवकास के फलस्वरूप िहन्दू धमम में िवकिसत प्रमुख ऄवधारणाएं िनम्निलिखत हैं-
1.1.1. ब्रह्म
1.1.2. अत्मा
ब्रह्म को सवमव्यापी माना गया है ऄत: जीवों में भी ईसका ऄंर् िवद्यमान है।
जीवों में िवद्यमान ब्रह्म का यह ऄंर् ही अत्मा कहलाती है, जो जीव की मृत्यु के पश्चात भी समाप्त
नहीं होती और दकसी नवीन देह को धारण कर लेती है। ऄंतत: मोक्ष प्रािप्त के पश्चात् वह ब्रह्म में
लीन हो जाती है।
1.1.3. पु न जम न्म
1.1.4. मोक्ष
िहन्दू धमम में मोक्ष का तात्पयम है- अत्मा का जीवन-मरण के दुष्चक्र से मुि हो जाना ऄथामत्
परमब्रह्म में लीन हो जाना।
िहन्दू धमम के ऄनुसार आसके िलए िनर्मवकार भाव से सत्कमम करना और इश्वर की अराधना
अवश्यक है।
ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूि में वणमव्यवस्था का प्रारं िभक साक्ष्य िमलता है।
प्रारिम्प्भक िहन्दू समाज कमम के अधार पर चार वणों में िवभािजत था - ब्राह्मण, क्षििय, वैश्य तथा
र्ूर।
िवद्याजमन, िर्क्षण, पूजन, कममकांड सम्प्पादन अदद करने वाले वणम को ब्राह्मण कहा जाता था।
देर् व धमम की रक्षा हेतु र्स्त्र धारण करने एवं युद्ध करने वाले वणम को क्षििय कहा जाता था।
वैश्यों का कृ िष एवं व्यापार द्वारा समाज की अर्मथक अवश्यकताएँ पूणम करने वाले वणम को वैश्य
कहा जाता था।
ऄन्य तीन वणों की सेवा करने एवं ऄन्य जरूरतें पूरी करने वाले वणम को र्ूर कहा जाता था।
ऄथामत दकसी भी कु ल में जन्म लेने वाला व्यिि ऄपने कमम या व्यवसाय के अधार पर आन वणों में
से दकसी भी वणम का हो सकता था।
कालांतर में वणम व्यवस्था जरिल होती गइ और यह वंर्ानुगत तथा र्ोषणपरक हो गइ। र्ूरों को
ऄछू त माना जाने लगा।
बाद में िविभन्न वणों के बीच दैिहक सम्प्बन्धों से ऄन्य मध्यवती जाितयों का जन्म हुअ। वतममान में
जाित व्यवस्था ऄत्यंत िवकृ त रूप में दृिष्टगोचर होती है।
िहन्दू धमम के ऄनुसार मनुष्य क सम्प्पूणम जीवन काल को चार चरणों में बांिा गया है िजन्हें अश्रम
कहा जाता है।
ये चार अश्रम हैं- ब्रह्मचयम, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास।
o ब्रह्मचयम अश्रम में व्यिि गुरु अश्रम में जाकर िवद्याध्ययन करता है।
o गृहस्थ अश्रम में िववाह, संतानोत्पित्त, ऄथोपाजमन, दान तथा ऄन्य भोग िवलास करता है।
o वानप्रस्थ में व्यिि धीरे -धीरे संसाररक ईत्तरदाियत्व ऄपने पुिों को सौंप कर ईनसे िवरि
होता जाता है।
o ऄन्तत: सन्यास अश्रम में गृह त्यागकर िनर्मवकार होकर इश्वर की ईपासना में लीन हो जाता
है।
अश्रम व्यवस्था
िहन्दू धमम में मोक्ष के चार मागम बताये गए हैं ज्ञानयोग, भिियोग, कममयोग तथा राजयोग।
o ज्ञान योग दार्मिनक एवं तार्ककक िविध का ऄनुसरण करता है।
o वहीं भिियोग अत्मसमपमण और सेवा भाव का।
िहन्दू धमम में मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक िनम्निलिखत सोलह पिवि संस्कार सम्प्पन्न दकये जाते हैं-
1. गभामधान
2. पुंसवन (गभम के तीसरे माह तेजस्वी पुि प्रािप्त हेतु दकया गया संस्कार),
3. सीमोन्तोन्नयन (गभम के चौथे महीने गर्मभणी स्त्री के सुख और सांत्वना हेतु),
4. जातकमम (जन्म के समय)
5. नामकरण
6. िनष्क्रमण (बच्चे का सवमप्रथम घर से बाहर लाना),
7. ऄन्नप्रार्न (पांच महीने की अयु में सवमप्रथम ऄन्न ग्रहण करवाना),
8. चूड़ाकरण (मुंडन)
9. कणमछेदन
10. ईपनयन (यज्ञोपवीत धारण एवं गुरु अश्रम को प्रस्थान)
11. के र्ान्त ऄथवा गौदान (दाढ़ी को सवमप्रथम कािना)
12. समावतमन (िर्क्षा समाप्त कर गृह को वापसी)
13. िववाह
14. वानप्रस्थ
15. सन्यास
16. ऄन्त्येिष्ट
आस प्रकार िहन्दू धमम की िविवधता, जरिलता एवं बहु अयामी प्रवृित्त स्पष्ट है। आसमें ऄनेक दार्मिनकों ने
ऄलग-ऄलग प्रकार से इश्वर एवं सत्य को समझने का प्रयास दकया, फलस्वरूप ऄनेक दार्मिनक मतों का
प्रादुभामव हुअ। िजनमें से छह प्रमुख हैं।
ऄथामत वैर्ेिषक का बुिनयादी िसद्धांत यह है दक, प्रकृ ित परमाणु है ऄथामत भौितक वस्तुएं
परमाणुओं के संयोजन से बनी हैं। परमाणु अत्मा से पृथक है।
कणाद् ने वैर्ेिषक-दर्मन का मूल ग्रंथ िलखा।
कणाद द्वारा िलिखत मूल ग्रंथ पर बहुत सी िीकाएँ िलखी गईं दकन्तु प्रर्स्तपाद द्वारा छिी र्ताब्दी
में िलिखत िीका आनमें सवमश्रेष्ठ है।
वैर्ेिषक दर्मन सृिष्ट की रचना को अजीवक िसद्धांत के अधार पर स्पष्ट करता है।
4. योग (Yoga) - संस्थापक – पतंजिल
योग का मूल पतंजिल के योग सूि में िमलता है जो दूसरी
र्ताब्दी इ.पू. में िलखा गया माना जाता है।
मोक्ष ध्यान और र्ारीररक साधना के माध्यम से संभव है।
‘योग’ र्ब्द संस्कृ त के र्ब्द ‘योक्त्ि’ (Yoktra) से ईद्भूत हुअ है,
िजसका ऄथम है 'आं दरयों को वाह्य िवषयों से पृथक कर ऄपने मन
को ऄपनी ऄंतरात्मा से जोड़ना।
आसे िचत्त के रूप में पररभािषत करते हैं ऄथामत; व्यिि की चेतना
के िवचारों, भावनाओं और आच्छाओं को िमिाकर संतल
ु न की िस्थित को प्राप्त करना। यह ईस र्िि
को गित प्रदान करता है जोदक दैिवक ऄनुभूित के िलए चेतना को र्ुद्ध और ईन्नत करता है।
र्ारीररक योग को हियोग कहा जाता है तथा मानिसक योग को
राजयोग।
योग के अि ऄंग (ऄष्टांग-योग) हैं – यम, िनयम, असन,
प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समािध।
5. मीमांसा (Mimansa) - संस्थापक - जैिमनी
मीमांसा का मूल ऄथम है तकम करने और ऄथम लगाने की कला।
लेदकन आसमें तकम का प्रयोग िविवध वैददक कमों के ऄनुष्ठानों का
औिचत्य िसद्ध करने में दकया गया है और आसके ऄनुसार मोक्ष
आन्हीं वेद-िविहत कमों के ऄनुष्ठानों से प्राप्त होता है।
मीमांसा के ऄनुसार वेद में कही गयी बातें सदा सत्य हैं।
आस दर्मन का मुख्य लक्ष्य स्वगम और मोक्ष की प्रािप्त है।
मनुष्य तब तक स्वगम-सुख पाता रहता है जब तक ईसका संिचत पुण्य र्ेष रहता है। जब वह पुण्य
समाप्त हो जाता है तब वह दफर धरती पर अ जाता है। परन्तु
यदद वह मोक्ष पा लेता है तो वह सांसाररक जन्म-मृत्यु के चक्र
से सदा के िलए मुि हो जाता है।
मीमांसा के ऄनुसार मोक्ष पाने के िलए यज्ञ करना चािहए।
आसके मूल ग्रन्थ के रूप में जैिमिन कृ त सूि है िजसकी रचना
तीसरी सदी इसवी पूवम हुइ।
कु माररल भट्ट और र्बर स्वामी आस दर्मन सम्प्प्रदाय के ऄन्य
महत्वपूणम दार्मिनक हैं।
6. वेदांत (Vedanta) - संस्थापक- बादरायण (Badrayana)
आसे ईत्तर मीमांसा (Later Mimansa) भी कहा जाता है।
यह गैर-द्वैतवाद या एक सत्य /वास्तिवकता ‘ऄद्वैतवाद’ ("Advaitvada") में िवश्वास रखता है।
वेदांत का ऄथम है वेद का ऄंत।
इसा पूवम दूसरी र्ताब्दी में संकिलत बादरायण का ब्रह्मसूि आस दर्मन का मूल ग्रन्थ है। बाद में आस
पर दो प्रख्यात भाष्य िलखे गए, पहला र्ंकर का नौवीं सदी में और दूसरा रामानुज का बारहवीं
सदी में।
र्ंकर ब्रह्म को िनगुण
म बताते हैं, दकन्तु रामानुज के ऄनुसार ब्रह्म सगुण है।
र्ंकर ज्ञान को मोक्ष का मुख्य कारण मानते हैं, दकन्तु रामानुज भिि को मोक्ष-प्रािप्त का मागम
बताते हैं।
वेदांत दर्मन का मूल अरं िभक ईपिनषदों में पाया जाता है।
आस दर्मन के ऄनुसार ब्रह्म ही सत्य है, ऄन्य हर वस्तु माया ऄथामत ऄवास्तिवक है। अत्मा और ब्रह्म
में ऄभेद है। ऄतः जो कोइ अत्मा को या ऄपने अप को पहचान लेता है, ईसे ब्रह्म का ज्ञान हो
जाता है और मोक्ष िमल जाता है। ब्रह्म और अत्मा दोनों र्ाश्वत और ऄिवनार्ी हैं। ऐसा मत
स्थाियत्व और ऄपररवतमनीयता की भावना जगाता है। अध्याित्मक दृिष्ट से जो सत्य है वह ईस
व्यिि की ऄपनी सामािजक और भौितक पररिस्थित में भी सत्य हो सकता है। बाद में कममवाद भी
वेदांत के साथ जुड़ गया। आसका ऄथम है की मनुष्य को पूवजम न्म में दकये गए कमों का पररणाम
भुगतना पड़ता है।
गुप्त काल में वैष्णव सम्प्प्रदाय लगभग सम्प्पूणम भारत वषम में प्रसाररत हो चूका था।
महाभारत तथा पुराणों अदद ग्रंथों में िवष्णु-नारायण की ईपासना का भागवत सम्प्प्रदाय से
एकीकरण होने के कारण वैष्णव धमम को िवर्ेष लोकिप्रयता प्राप्त हुइ।
गीता के अधार पर िवकिसत प्रपित्त (िवष्णु-कृ ष्ण-नारायण के प्रित पूणम समपमण) इश्वर के प्रसाद
द्वारा मुिि प्राप्त होने के भिि मागी िसद्धांत को दिक्षण के ऄनेक वैष्णव अचायों ने िवकिसत
दकया। बाद में ईत्तरी भारत में आसी िसद्धांत को रामभिि र्ाखा के रूप में और ऄिधक प्रचाररत
प्रसाररत दकया गया। यह सम्प्प्रदाय ‘श्रीवैष्णव’ नाम से प्रिसद्ध हुअ िजसमें व्यिि द्वारा ऄपने सारे
कममफल त्यागने पर बल ददया गया।
वैष्णव धमम की ईदारवादी प्रवृित्त के कारण आसमें पौरािणक काल से ही िवष्णु के ऄवतार के रूप में
ऄनेक लौदकक देवताओं की ईपासना भी समािहत हुइ। आससे वैष्णव सम्प्प्रदाय ऄत्यंत लोकिप्रय
हुअ।
वैष्णव भिि अंदोलन में कृ ष्ण की रासलीला का बड़ा महत्व था।
गुप्तकाल के ऄंत से लेकर 13वीं सदी इसवी के पहले दर्क तक वैष्णव-अंदोलन का आितहास
मुख्यतया दिक्षण भारत से सम्प्बंिधत है।
वैष्णव भि-किव ‘ऄलवारों’ (िवष्णु की भिि में िनमि व्यिियों के िलए तिमल भाषा का र्ब्द) ने
िवष्णु की भिि तथा ईसमें एकान्त-िनष्ठा के गीत गाए। आनके गीतों को समग्र रूप से ‘प्रबंध’् कहा
जाता है।
अण्डाल ऄपने समय की प्रिसद्ध ऄलवार संत थीं।
र्ैव मत के ऄनेक सम्प्प्रदाय तथा ईप-सम्प्प्रदाय थे िजनके ऄनुयािययों में ऄपने िविर्ष्ट दर्मन तथा
चयाम के अधार पर िभन्नता होने पर भी वे लोग रूर-िर्व की सवोच्च र्िि के रूप में ईपासना
करते थे।
कश्मीरी र्ैवमत के ऄनुसार व्यिि की अत्मा तथा िर्व एक ही हैं।
समस्त सांसाररक िविवधता पररवतमनर्ीलता के कारण है। अत्मा को िर्व में लीन करना र्ुद्ध
चैतन्य तथा मोक्ष है।
वीरर्ैव मत भी ऄनेक प्रांतों में पयामप्त लोकिप्रय था।
आसके ऄितररि पार्ुपत, कापािलक, कालामुख, ऄघोरी, हलगायत, िर्वाद्वैत अदद ऄनेक ईप-
सम्प्प्रदाय िवद्यमान थे।
o आनमें पार्ुपत सम्प्प्रदाय ऄिधक लोकिप्रय था। ये िर्व की पर्ुपित के रूप में अराधना करते
हैं।
o पार्ुपत सम्प्प्रदाय दो प्रकार के थे - 1) श्रौत (वैददक) पार्ुपत जो वैददक परं परा के ऄनुकूल था
; 2) ऄश्रौत (लौदकक) पार्ुपत, जो लौदकक परम्प्परा के ऄनुकूल नहीं था।
कापािलकों में नरबिल प्रथा थी।
o आनमें कपाल धारण करना तथा कपाल में भोजन अदद ग्रहण करने की अददम भयावह
परम्प्परा थी।
िर्व कापािलक
आस वाममागी सम्प्प्रदाय में ‘तंि’ (ज्ञान का िवस्तार), ‘यंि’ (रहस्यमय चक्रों पर ध्यान करना) तथा
आसमें र्िि की सवोच्च प्रितष्ठा है, िजससे सभी जीव, देवता तथा सम्प्पूणम ब्रह्माण्ड की ईत्पित्त होने
का िसद्धांत मान्य है।
तांििक साधना के ऄंतगमत ध्यान-योग (पूजा) तथा चयाम (ऄनेक प्रकार के अचार) की व्यवस्था है।
गुरु की दीक्षा तथा किोर मानिसक िनयंिण द्वारा पंचमकार (पंचतत्व- मद्य, मत्स्य, मांस, मुरा,
मैथन
ु ) की साधना द्वारा मुिि प्राप्त होती है।
2. चावाम क -दर्म न
चावामक-दर्मन का प्रणेता बृहस्पित को माना जाता है।
आसकी चचाम वेद और बृहदारण्यक ईपिनषद् में िमलती है। ऄतः माना जाता है दक ज्ञान की आस
र्ाखा का ईद्भव आन ग्रंथों से पहले हुअ होगा।
आस दर्मन की मान्यता है दक ज्ञान चार भौितक पदाथों के मेल से बनता है और मृत्यु के बाद आसका
कोइ ऄिस्तत्व नहीं रहता।
चावामक भौितकवादी दर्मन है।
आसे लोकायत-दर्मन ऄथवा जन साधारण का दर्मन भी कहते हैं।
आस दर्मन में लोक ऄथामत दुिनया के साथ लगाव को महत्व ददया गया है और परलोक में ऄिवश्वास
व्यि दकया गया है।
यह दर्मन मोक्ष की कामना का िवरोधी था।
यह दकसी दैवी या ऄलौदकक र्िि के ऄिस्तत्व को नहीं मानता था। यह ईन्हीं वस्तुओं की सत्ता या
यथाथमता स्वीकार करता था िजन्हें मानव की बुिद्ध और आिन्रयों द्वारा ऄनुभव दकया जा सके ।
स्पष्टतः आसका ऄथम यह हुअ दक ब्रह्म और इश्वर की सत्ता नहीं होती है।
आसके ऄनुसार यज्ञ की ककपना ब्राह्मणों ने दिक्षणा ऄर्मजत करने के ईद्देश्य से की है।
चावामक का वास्तिवक योगदान है ईसकी भौितकवादी दृिष्ट।
यह दर्मन दकसी भी कायम में ददव्य या ऄलौदकक हाथ को नकारता है और मानव को सभी दक्रयाओं
का मूल मानता है।
चावामक के ऄनुसार परलोक नहीं है आसिलए मृत्यु के साथ मनुष्य के ऄिस्तत्व की समािप्त हो जाती
है और आं दरय अनंद ही जीवन का लक्ष्य है।
चावामक दर्मन भौितक पदाथों के ऄितररि और कोइ सत्ता नहीं मानता।
पृथ्वी, जल, ऄिि, वायु और अकार् में से यह अकार् की सत्ता स्वीकार नहीं करता क्त्योंदक ईसके
ऄनुसार अकार् का प्रत्यक्षीकरण नहीं होता है।
आस दर्मन के ऄनुसार सम्प्पूणम िवश्व के वल चार तत्त्वों (पृथ्वी, जल, ऄिि, वायु) से ही बना है।
ऄपने जीवन के प्रारं िभक वषों में गौतम बुद्ध ने गृहस्थ जीवन का अनंद िलया और 29 साल की
अयु में ईन्होंने सांसाररक सुख का त्याग कर ददया और
तपस्वी बन गए। 5 वषम तक वे जगह जगह भिकते रहे और
35 वषम की अयु में बोधगया में ईन्होंने िनवामण (परमानंद
और र्ांित) या मोक्ष या अत्मज्ञान प्राप्त दकया।
गौतम बुद्ध ने ऄपना प्रथम ईपदेर् सारनाथ में ददया जो धमम-
चक्र-प्रवतमन (धमम का चक्र बदलना) के रूप में जाना जाता है।
बुद्ध, धम्प्म और संघ को बौद्ध धमम का ििरत्न कहा जाता है।
ईन्होंने दो महत्वपूणम िसद्धांत प्रितपाददत दकए-
1. चार अयम सत्य (दुःख, दुःख समुदाय, दुःख-िनरोध तथा दुःख
िनरोध-गािमनी-प्रितपदा)
2. ऄष्टांिगक मागम (सम्प्यक दृिष्ट, सम्प्यक संककप, सम्प्यक वाणी, सम्प्यक कमम, सम्प्यक अजीव, सम्प्यक
व्यायाम, सम्प्यक स्मृित, सम्प्यक समािध)
गौतम बुद्ध ने प्रत्येक व्यिि को जन्म-मरण के चक्र से मुिि (िनवामण) प्राप्त करने के िलए ऄष्टांिगक
मागों के ऄनुर्ीलन पर बल ददया है।
गौतम बुद्ध ने ऄपने ऄनुयािययों को वैचाररक रूपरे खा प्रदान करने के बाद महापररिनवामण प्राप्त
दकया, ऄथामत आनकी मृत्यु 483 इसा पूवम में कु र्ीनगर (यूपी) में हुइ।
गौतम बुद्ध की मृत्यु के ईपरान्त ईनके ऄनुयािययों ने 483 इसा पूवम में राजगृह नामक स्थान पर
प्रथम बौद्ध संगीित बुलाइ। िजसकी ऄध्यक्षता बौद्ध िवद्वान महाकस्सप द्वारा की गइ थी।
आसे समकालीन र्ासक ऄजातर्िु द्वारा संरक्षण प्राप्त हुअ।
आस संगीित में दो महत्वपूणम पुस्तकों का संकलन दकया गया
1. सुत्त-िपिक – आसमें गौतम बुद्ध की मूल िर्क्षाएं संकिलत हैं।
2. िवनय-िपिक – आसमें िभक्षु-िभक्षुिणयों के संघ के दैिनक जीवन सम्प्बन्धी
अचार-िवचार तथा िनयम संग्रहीत हैं।
िद्वतीय बौद्ध संगीित 383 इसा पूवम में वैर्ाली (िबहार) में बुलाइ गइ
थी, यह बौद्ध िवद्वान सुबक
ु ामी की ऄध्यक्षता में हुइ और आसे
समकालीन र्ासक कालार्ोक द्वारा संरक्षण प्रदान दकया गया था।
o आस संगीित में, ऄनुयािययों का दो सम्प्प्रदायों के मध्य एक ऄनौपचाररक िवभाजन हो गया-
1. स्थिवरवादी (Sthavirvadins) - ये बौद्ध धमम के रूदढ़वादी ऄनुयायी थे।
2. महासंिघक (Mahasangvikas) - ये बौद्ध धमम के ईदारवादी ऄनुयायी थे।
तृतीय बौद्ध संगीित पाििलपुि (िबहार) में 250 इसा पूवम में बुलाइ
गइ थी। आसकी ऄध्यक्षता बौद्ध िभक्षु मोगिलपुत्तितस्य ने की और
ऄर्ोक द्वारा आस संगीित को संरक्षण प्रदान दकया गया।
o आस संगीित में एक नया िपिक (पाि) िलखा गया था, िजसे
ऄिभधम्प्मिपिक (Abhidammapitaka) नाम ददया गया।
o आस िपिक में गौतम बुद्ध के जीवन के िर्क्षण की दार्मिनक व्याख्याएं
संकिलत की गइ हैं।
आन तीनों संकलनों को सिम्प्मिलत रूप से िििपिक कहा जाता है,
ऄथामत सुत्त िपिक, िवनय िपिक, ऄिभधम्प्मिपिक। जोदक बौद्ध धमम
के पिवि ग्रन्थ हैं।
चतुथम बौद्ध संगीित प्रथम र्ताब्दी इसवी में कश्मीर (कुं डलवन) में बुलाइ गइ थी, बौद्ध िभक्षु
वसुिमि ने आसकी ऄध्यक्षता की थी तथा ऄश्वघोष ईपाध्यक्ष थे और आसे कु षाण नरे र् किनष्क द्वारा
संरक्षण प्रदान दकया गया था।
o आस संगीित में बौद्ध धमम के ऄनुयािययों का दो महत्वपूणम संप्रदायों में औपचाररक िवभाजन हो
गया।
1. हीनयान – ये प्रकृ ित में रूदढ़वादी थे।
आस संगीित के बाद, बौद्ध धमम का हीनयान संप्रदाय दिक्षण पूवम एिर्या के देर्ों में लोकिप्रय हो
(Mindon) के समय तथा छिीं बौद्ध संगीित 1954 में बमाम के Kaba Aye नामक स्थान पर बमाम
बौद्ध संगीितयाँ
बौद्ध धमम मूलतः ऄनीश्वरवादी है।
सृिष्ट का कारण इश्वर को नहीं माना गया है। तकम यह है दक यदद इश्वर को संसार का रचियता
माना जाए तो ईसे दुःख को ईत्पन्न करने वाला भी मानना होगा।
वास्तव में बुद्ध ने इश्वर के स्थान पर मानव प्रितष्ठा पर ही बल ददया है।
आसी प्रकार बौद्ध धमम में अत्मा की पररककपना भी नहीं है।
ऄनत्ता ऄथामत ऄनात्मवाद के िसद्धांत के ऄंतगमत यह मान्यता है की व्यिि में जो अत्मा है वह
ईसके ऄवसान के साथ समाप्त हो जाती है।
अत्मा र्ाश्वत या िचरस्थायी वास्तु नहीं है जो ऄगले जन्म में भी िवद्यमान रहे। दकन्तु बौद्ध धमम में
पुनजमन्म की मान्यता है। आसके कारण कमम-फल का िसद्धांत भी तकम संगत होता है। आस कमम-फल
को ऄगले जन्म में ले जाने वाला माध्यम अत्मा नहीं है। दफर कमम-फल ऄगले जन्म का कारण कै से
होता है? आसके ईत्तर में िमिलन्दपन्हो में कहा गया है दक िजस प्रकार पानी में एक लहर ईिकर
दुसरे को जन्म देकर स्वयं समाप्त हो जाती है ईसी प्रकार कमम-फल चेतना के रूप में पुनजमन्म का
कारण होता है।
4. जै न धमम (Jainism)
जैन धमम वद्धममान महावीर द्वारा स्थािपत दकया गया था।
महावीर का जन्म 540 इसा पूवम में वैर्ाली (कुं डग्राम)
नामक स्थान पर हुअ था।
जैन िवचारधारा के ऄनुसार वद्धममान महावीर 24 वें
तीथंकर थे और जैन धमम की मूल वैचाररक रूपरे खा आनके
पूवमवर्मतयों द्वारा दी गयी थी।
सम्प्यक दर्मन, सम्प्यक ज्ञान तथा सम्प्यक अचरण को जैन
धमम का ििरत्न कहा जाता है।
जैन धमम के तीथंकर - अददनाथ, ऄिजत, संभव,
ऄिभनन्दन, सुमित, पद्मप्रभ, सुपाश्वम, चन्रप्रभ, सुिविध,
र्ीतल, श्रेयांस, वासुपज्ू य, िवमल, ऄनंत, धमम, र्ांित, कु न्थु, अरा, मिकल, मुिन सुव्रत, नामी, नेमी,
पाश्वम तथा महावीर।
जैन धमम की मूल िवचारधारा-
o जैन धमम के पञ्च महाव्रत-
1. ऄहहसा- हहसा मत करो।
2. सत्य- झूि मत बोलो।
3. ऄस्तेय- चोरी मत करो।
4. ऄपररग्रह- संपित्त एकिित मत करो।
5. ब्रह्मचयम- ऄनुर्ािसत जीवन जीने का तरीका।
आनमें से के वल पांचवां (ब्रह्मचयम) महावीर द्वारा प्रितपाददत है।
कइ वषों के ईपदेर् के बाद महावीर 468 इसा पूवम में राजगीर नामक स्थान पर 72 वषम की अयु
में मृत्यु को प्राप्त हुए।
चतुथम र्ताब्दी इसा पूवम के ऄंत में ईत्तर भारत में िवर्ेष रूप से पाििलपुि में एक गंभीर ऄकाल
पड़ा। जलवायु पररिस्थितयों की गंभीरता से बचने के िलए, चंरगुप्त मौयम ने एक सुरिक्षत गंतव्य पर
स्थानांतररत होने का िनणमय िलया। वे एक जैन संत भरबाहु के साथ अधुिनक कनामिक में
श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर िवस्थािपत हो गए।
चंरगुप्त मौयम ने भरबाहु के प्रभाव में अकार जैन धमम स्वीकार कर िलया और संलख
े ना िविध
(क्रिमक ईपवास) द्वारा ऄपने जीवन को समाप्त कर िलया।
प्रथम जैन सभा 299 इसा पूवम में पाििलपुि नामक स्थान पर बुलाइ गइ थी।
o आस जैन सभा की ऄध्यक्षता जैन संत स्थूलभर द्वारा की गइ और आसे मौयम नरे र् हबदुसार का
संरक्षण प्राप्त था।
o आस सभा में, महावीर और ईनके पूवमवर्मतयों की िर्क्षाओं को िविभन्न पुस्तकों में संिहताबद्ध
दकया गया िजसे ‘पुब्व’ (Purvas) के रूप में जाना जाता है। ये संख्या में 14 थे।
िद्वतीय जैन सभा 512 इस्वी में गुजरात के वकलभी नामक स्थान पर बुलाइ गइ िजसकी ऄध्यक्षता
जैन संत देवर्मधक्षमाश्रमण ने की थी। आसे गुजरात के चालुक्त्य र्ासकों द्वारा संरक्षण प्रदान दकया
गया था। आस सभा में जैन धमम के ऄनुयािययों का दो महत्वपूणम समूहों में एक औपचाररक िवभाजन
हुअ।
गुरु नानक के बाद गुरु ऄंगद दूसरे गुरु हुए, िजन्होंने गुरुमुखी िलिप का अिवष्कार दकया, िजसका
रचना की।
आनके पश्चात गुरू हरगोहवद हुए िजन्होंने िसख ऄनुयािययों के बीच
सैन्य भाइचारे खालसा की ऄवधारणा प्रदान की तथा िसखों को लड़ाकू जाित के रूप में पररवर्मतत
करने का कायम दकया।
आनके पश्चात गुरू हर राय और गुरु हरदकर्न िसखों के गुरु हुए।
नौवें अध्याित्मक गुरु गुरु तेग बहादुर थे िजनकी समकालीन मुगल
सम्राि औरं गजेब द्वारा हत्या कर दी गइ थी।
दसवें और ऄंितम अध्याित्मक गुरु गुरु गोहवद हसह थे। आन्होंने
खालसा की ऄवधारणा को औपचाररक अकार ददया।
गुरु गोहवद हसह की मृत्यु के पश्चात अध्याित्मक नेताओं (गुरुओं)
को िनयुि करने की प्रणाली समाप्त हो गइ और राजनीितक नेताओं
का चयन दकया जाना र्ुरू कर ददया गया। आन के बीच में प्रथम
बंदा बहादुर था। पाहुल या बपितस्मा की संककपना (Concept of
Pahul or baptism)
को हल करते हैं।
o ऄमृतसर में िस्थत 'ऄकाल तख्त' सबसे महत्वपूणम है।
6. आस्लाम (Islam)
आस्लाम धमम पैगब
ं र मोहम्प्मद द्वारा 622 इस्वी में स्थािपत
दकया गया था।
‘आस्लाम’ र्ब्द एक ऄरबी र्ब्द है, िजसका ऄथम है के वल एक ही
सत्ता के प्रित समपमण जो दक सवमर्ििमान इश्वर (ऄकलाह) है।
यह एक एके श्वरवादी धमम है। एके श्वरवाद को ऄरबी में तौहीद
कहते हैं, जो र्ब्द वािहद से अता है िजसका ऄथम है एक।
ऄकलाह के पिवि र्ब्द एक दूत िजब्राआल (Gibrail) के माध्यम
से नबी को ददए गए और पिवि र्ब्द को एक पुस्तक के रूप में
िलखा गया िजसे पिवि ‘कु रान’ के रूप में जाना जाता है।
कु रान ऄरबी भाषा में रची गइ पिवि पुस्तक है।
मुसलमान देवदूतों (ऄरबी में मलाआका/ ईदुम मे "फ़ररश्ते") के
ऄिस्तत्व को मानते हैं। ईनके ऄनुसार देवदूत स्वयं कोइ िववेक नहीं रखते और इश्वर की अज्ञा का
यथारूप पालन ही करते हैं।
मोिे तौर पर आस्लाम को दो श्रेिणयों में बांिा गया है:
1. िर्या
2. सुन्नी
दोनों के ऄपने ऄपने आस्लामी िनयम हैं लेदकन अधारभूत िसद्धान्त िमलते-जुलते हैं।
सुन्नी आस्लाम में प्रत्येक मुसलमान के 5 अवश्यक कतमव्य होते हैं, िजन्हें आस्लाम के 5 स्तम्प्भ भी
कहा जाता है। ये िनम्निलिखत हैं-
o साक्षी होना (र्हादा )- आस का र्ािब्दक ऄथम है गवाही देना।
o प्राथमना (सलात)- आसे फ़ारसी में नमाज भी कहते हैं। प्रत्येक मुसलमान के िलये ददन में 5 बार
नमाज पढ़ना ऄिनवायम है।
o व्रत (रमजान) (सौम )- आस के ऄनुसार आस्लामी कै लेंडर के नवें महीने में सभी सक्षम मुसलमानों के
िलये सूयोदय (फरज) से सूयामस्त (मग़ररब) तक व्रत रखना(भूखा रहना)ऄिनवायम है। आस व्रत को
रोजा भी कहते हैं।
o दान (जकात )- यह एक वार्मषक दान है जो दक हर अर्मथक रूप से सक्षम मुसलमान को िनधमन
मुसलमानों में बांिना ऄिनवायम है।
o तीथम यािा (हज)- हज ईस धार्ममक तीथम यािा का नाम है जो आस्लामी कै लेण्डर के 12वें महीने में
मक्का में जाकर की जाती है।
मुसलमानों के ईपासना स्थल को ‘मिस्जद’ कहा जाता है। मिस्जद आस्लाम में के वल इश्वर की
प्राथमना का ही कें र नहीं होता है ऄिपतु यहाँ पर मुिस्लम समुदाय के लोग िवचारों का अदान
प्रदान और ऄध्ययन भी करते हैं।
िवश्व की सबसे बड़ी मिस्जद मक्का की मिस्जद ऄल हराम या ऄल हरम है। मुसलमानों का पिवि
स्थल काबा आसी मिस्जद में है।
‘धार्ममक स्नान’ िजसमें मुख्य धारा के धमम में इसाइ धमम के देर
से अने वाले ऄनुयािययों को प्रवेर् कराया जाता है।
पिवि कोमुन्यो िजसका ऄथम है ईपासक एक दूसरे और इसा
के साथ एकता प्रदर्मर्त करने के िलए ब्रेड और र्राब अपस
में बांिकर खाते हैं।
पिवि पुस्तक बाआिबल है िजसके दो महत्वपूणम खंड हैं।
1. ओकड िेस्िामेंि (The old Testament) - मूल रूप से
एक यहूदी पाि।
2. न्यू िेस्िामेंि (New Testament) - इसाइ धमम के ऄनुयािययों द्वारा िलखा गया है।
ददए, जो आस दुिनया में यहूददयों द्वारा पालन दकए जाने वाले अचार संिहता को िनधामररत करता
है।
यहूदी िवश्वास के आन महत्वपूणम िसद्धांतों को यहूदी धमम के पिवि ग्रन्थ में र्ािमल दकया गया िजसे
'तोरा' (Torah) के रूप में जाना जाता है।यहूदी धमम एके श्वरवाद में िवश्वास रखता है।
VISIONIAS
www.visionias.in
तवषय सूची
1. बाईल (Baul) _______________________________________________________________________________ 4
3. पंडवानी (Pandwani)_________________________________________________________________________ 4
1. बाईल (Baul)
‘बाईल’ बंगाल के घुम्मकड़ लोकगायकों द्वारा
2. गोंड (Gond)
गोंड देश में सबसे बड़े अददवासी समुदाय हैं, जो मुख्य रूप से मध्य भारत में पाए जाते हैं।
गोंड कलाकारों की तचत्रकारी की शैली तवतशष्ट रूप से तद्वअयामी है।
हालांदक, वे मात्र सजावट के तलए तचत्रकारी नहीं करते, बतल्क आन तचत्रकाररयों के माध्यम से वे
ऄपनी धार्ममक भावनाओं, प्राथानाओं और जीवन के प्रतत ऄपनी ऄनुभतू त को भी व्यि करते हैं।
ऄपनी कला शैली के माध्यम से गोंड समुदाय ने ऄपनी सददयों पुरानी सांस्कृ ततक परं पराओं और
कालातीत प्रासंतगकता को संरतक्षत दकया है।
3. पं ड वानी (Pandwani)
यह एक लोक कथात्मक (balled) नाट्ड है, तजसका छिीसगढ़ में मुख्य रूप से प्रदशान दकया जाता
है।
पंडवानी महाकाव्य महाभारत में वर्मणत पांडवों की कहानी को दशााता है जहां से आसका नाम
तनकला है।
कथा बहुत ही जीवंत है और दशाकों के मन में यह लगभग सजीव दृश्यों का तनमााण करती है।
वेदमती शैली में मुख्य कलाकार जहााँ प्रदशान के दौरान फशा पर बैठ कर कहातनयााँ सुनाते हैं वहीं
ईत्साहपूणा कापातलक
शैली में कथावाचक
वस्तुतः दृश्यों और चररत्रों
का ऄतभनय भी संपाददत
करते हैं।
यह समुदाय के मनोरं जन
का एक बड़ा स्रोत रहा है
और ईस समय ग्रामीण
जन को ईनकी सांस्कृ ततक
तवरासत के बारे में
तशतक्षत करता है।
तीजन बाइ आस शैली की
प्रतसद्ध कलाकार हैं।
4. पपगु ली तचत्रकथी (Pinguli Chitrakathi)
पपगुली तचत्रकथी महाराष्ट्र और अंध्र प्रदेश में कहानी सुनाने की एक शैली है जो 17 वीं और 18
वीं सदी के बीच बहुत लोकतप्रय थी और गांवों में मनोरं जन का एक प्रमुख साधन थी।
कथा के दौरान दशाकों के समक्ष बड़े अकार के तचत्रों का प्रदशान दकया जाता था, तजनकी कहातनयां
मुख्य रूप से दो महाकाव्यों और ईपाख्यानों से ली जाती थीं।
यह दुलभ ा कला मुख्यतः पपगुली और पैठण में फली-फू ली और आनका प्रयोग तीथायातत्रयों को आन
तचत्रों के माध्यम से एक दृश्य कहानी तचतत्रत करने के तलए दकया गया।
5. कलमकारी (Kalamkari)
प्राचीन समय में, महाकाव्यों और पुराणों से ईद्धरण ले कर प्रतसद्ध कहातनयों को गायकों,
संगीतकारों और तचत्रकारों के समूह द्वारा ग्रामवातसयों को सुनाया जाता था, आन कहानी सुनाने
वालों को तचत्रकथी कहा जाता था, जो गााँव- गााँव घूमते रहते थे।
धीरे -धीरे ईन्होंने ऄपने वृतांतों की सतचत्र व्याख्या के तलए कै नवास के बड़े थानों का ईपयोग दकया
और मौतलक ढंग से तथा पौधों से तनकाले गए डाइ से आन पर रं ग भरा। आस प्रकार, प्रथम
कलमकारी पैदा हुइ।
कलमकारी शब्द का ऄथा वस्तुतः पेन की सहायता से सजावट करने की कला है।
यह कला अन्ध्र प्रदेश के दो गांवों - श्रीकलाहस्ती (Srikalashasti) और मसूलीपट्टनम (
Masulipatnam) में दो तवतशष्ट शैली के साथ तपछले 3000 वषों में तवकतसत हुइ है।
यह मुि हस्त रे खांकन तकनीकी तथा मंददरों और रथों पर सजावटी तत्व के रूप में पैनलों के
प्रयोग द्वारा प्रदर्मशत की जाती है।
यह परं परा ग्रामीण लोगों की कइ देशज कला शैतलयों में से एक है, तजसने भारत की रचनात्मक
तवरासत को समृद्ध बनाने में योगदान ददया है।
6. पट्टतचत्र (Patachitra)
ईड़ीसा और बंगाल की पट्टतचत्र परं परा आस क्षेत्र के जनजाततयों के तलए ऄतद्वतीय है, जो बंगाल में
'पाटीदार' के रूप में जाने जाते हैं।
यह एक प्रतीकात्मक कला रूप है जो यह दशााता है दक कै से तचत्रकाररयााँ प्राकृ ततक वातावरण के
साथ सामंजस्य स्थातपत कर सकती हैं, कटावदार तडजाआनों में रं ग चढ़ाने के तलए रं ग और सामग्री
प्राकृ ततक तत्वों से तनकाली जाती है।
भारतीय पौरातणक कथाएाँ, लोकगीत, महाकाव्यों और पुरी के आष्टदेव भगवान जगन्नाथ एवं कृ ष्ण
जैसे देवताओं से सम्बंतधत प्रकरण आस कला के दृश्य अख्यानों के तवषय हैं।
गीत, संगीत और नृत्य द्वारा आसमें संगत ददया गया जाता है।
पट्टतचत्र
7. कावड़ (Kavad)
कावड़ (Kavad) वस्तुतः कथावाचन की सतचत्र परं परा है तजसमें ऄनपढ़ और सामातजक रूप से
वंतचत वगों, तजनका मंददर में प्रवेश वंतचत था, को धार्ममक ग्रंथों और महाकाव्यों से संबंतधत
मनोरं जन और तशक्षा प्रदान की जाती थी।
ये ईठा कर ले जाने लायक, कइ मुड़ने वाले दरवाजे लगे लघु मंददर रूप हैं, तजनमें से प्रत्येक को
महाकाव्यों और तमथकों के तनरूपण के साथ तचतत्रत दकया जाता है।
घुमंतू पुजारी तजन्हें कावतड़या भट्ट कहा जाता है द्वारा सतचत्र कथावाचन कावड़ है, जो कावड़ पर
तचतत्रत ईतचत दृष्टांतों पर संकेत करते हुए कथावाचन करते हैं।
लगभग तद्वतीय शताब्दी इसवी तक प्राचीन यह परं परा राजस्थान की सबसे ऄतधक दशानीय
ईद्बोधक कलाओं में से एक है और दुतनया में जहां भी नैततकता और नीतत की तशक्षाएाँ कहातनयों के
माध्यम से दी जाती हैं वहां यह बहुत ऄतद्वतीय है।
8. वली (Warli)
वली (Varlis) जनजातत
महाराष्ट्र-गुजरात और ईसके
असपास के सीमावती क्षेत्रों में
तनवास करती है।
ईनके ऄपने खुद के ऄनूठे
अध्यातत्मक तवश्वास, जीवन
शैली, रीतत-ररवाज और
परं पराएाँ हैं, जो ईनके घरों की
दीवारों पर ऄलंकृत ईनकी
तचत्रकाररयों में सजीव रूप में
व्यि होती हैं।
वे दैतनक और सामातजक
ददनचयाा और कु छ प्रजनन
देवताओं को दशााते हैं जो दक
वली कला का प्रमाण तचन्ह है।
आन प्रमाण तचह्नों को दसवीं शताब्दी तक देखा जा सकता है।
यह कला वली के मानव-पयाावरण ऄंतःदिया का ऄनुकरणीय शानदार ईदाहरण दशााती है जो
स्वयं में प्रकृ तत को सतम्मतलत करती है और मौसम के चि के चारों ओर घूमती है।
सिर के दशक के प्रारम्भ में खोजी गइ, वली पेंटटग को समुदाय द्वारा शुभ माना गया। जहां तचत्रों
का संतल
ु न ब्रह्ांड के संतल
ु न का प्रतीक है और आसका संपरू क है।
यह कला स्वदेशी ज्ञान का खजाना है।
9. पटु अ (Patua)
पटु अ समुदाय मुख्य रूप से तबहार और पतिम बंगाल में पाए जाते हैं।
वे एक गांव से दूसरे गांव की यात्रा करते हैं और ऄपने तचत्रों को उपर नीचे करते हुए (स्िॉल)
ग्रामीण भीड़ को ददखाते हुए कहानी कहते हैं और कइ सामातजक मुद्दों पर ऄपनी पचताओं से
संवाद स्थातपत करते हैं और दशाकों से प्रततदियाओं का अह्वान करते हैं।
आस तरह के स्िॉल की छतवयों में रामायण और महाभारत जैसे लोकतप्रय महाकाव्य वणान के तलए
प्रयोग दकए गए थे।
धीरे -धीरे पटुअओं में तवतवधता अइ और ईनकी कथा सामग्री में प्रमुख ऐततहातसक घटनाओं और
सामातजक व्यंग्य के रूप में नए तवषयों की शुरुअत हुइ।
तपथौरा तचत्रकला
17. थं का (Thanka)
थंका में कशीदेकारी के साथ रे शम पर
तचत्रकारी होती है।
ये थंका बुद्ध, तवतभन्न प्रभावशाली
लामाओं, ऄन्य देवी-देवताओं,
बोतधसत्वों के जीवन का तचत्रण करते
हुए महत्वपूणा तशक्षण ईपकरण के रूप
में काया करते हैं।
ये पचतनशील ऄनुभवों के तलए
दस्तावेज और मागादशाक का भी काया
करते हैं, जहााँ प्रततमाशास्त्रीय तवज्ञान
को तचत्रात्मक रूप में प्रदर्मशत दकया
जाता है।
कइ थंका तचत्रों और दृश्यों का पररचय
औपचाररक और सूक्ष्म ऄनूददत
तलतपयों में बताते हैं।
‘जीवन का चि’ (The Wheel of
द्वारा रची गयी थी, जो दक 12 वीं शताब्दी के महान ततमल तवद्वान और कतव कं बन के कम्बन
रामायण पर अधाररत है।
रामायण की कथा के पूणा प्रदशान के तलए तहरण की खाल से बनी लगभग 180 कठपुततलयां
अवश्यक हैं।
थोलपावाकु थु की 21 रातों की प्रस्तुततकरण हेतु यह कथा 21 भागों में बनी हैं।
यह ग्रामीण क्षेत्रों में मनोरं जन का एक लोकतप्रय रूप था।
बरााकथा
21. चं बा रूमाल (Chamba Rumal)
आसे तहमाचल प्रदेश की कशीदेकारी के रूप में जाना जाता है।
चंबा रुमाल का प्रयोग ईपहार और प्रसाद को ढंकने (कवर) के तलए दकया जाता है।
परं परागत रूप से आन रुमालों का दूल्हे और दुल्हन के पररवारों के बीच अदान-प्रदान दकया जाता
था और ईच्च वगा की मतहलाओं द्वारा आन पर कढ़ाइ की जाती थी।
हषोन्माद के क्षणों को संजोते ये रुमाल मोटे तौर पर तचत्रकला की कांगड़ा और चंबा शैतलयों पर
अधाररत हैं।
रास मंडल और कृ ष्ण के रूपांकन बहुत लोकतप्रय हैं।
यह कला अनंद और ईत्सव की ऄतभव्यति है।
ये तडजाआन सांस्कृ ततक परं पराओं और आस क्षेत्र के धार्ममक तवश्वासों की तवरासत का प्रदशान करते
हैं।
24. जं ग म जोगी
ये हररयाणा और पंजाब के क्षेत्रों से संबद्ध लोक गायक हैं।
यह भगवान तशव को समर्मपत भति संगीत की एक शैली है।
आस संगीत कला में डफली, खंजरी तथा खरताल जैसे छोटे तथा असानी से एक स्थान से दूसरे
स्थान पर ले जाए जा सकने वाले वाद्य यंत्रो का प्रयोग दकया जाता है, क्योंदक आसके कलाकार
यात्रा करते रहते हैं।
जंगम जोगी
25. चन्नापटना काष्ठकला
चन्नापटना कनााटक की पारं पररक काष्ठकला है।
आस कला का प्रयोग तखलौने बनाने हेतु दकया जाता है।
आन तखलौनों में कोइ भी तीक्ष्ण दकनारा नहीं होता है तथा के वल जैतवक रं गों के प्रयोग के कारण
यह बच्चों के तलए पूरी तरह सुरतक्षत होते हैं।
आन तखलौनों को WTO के तहत GI दजाा प्राप्त है।
चन्नापटना कला भारत की प्राचीनतम तशल्प कला से भी सम्बंतधत है।
तसलाम्बम
आसके तीन क्षे त्रीय रूप हैं तजनमें ईनकी अिामक और रक्षात्मक शै तलयों के अधार पर
तवभे द दकया जाता है ।
कलारीपयट्टु तकनीक कदम (चु वातु ) और मु द्रा (वाददवु ) का सं योजन है ।
ततमल और मलयालम में कलारी का ऄथा है - स्कू ल या प्रतशक्षण हाल जहां माशा ल अटा
तसखाइ जाती है ।
मलखंब का प्रदशान
नाडा कु श्ती
35. फु लकारी
आस कला का प्रमाण 15वीं शताब्दी से तमलता है ।
यह तशल्प का एक रूप है तजसमें शॉल और दु प ट्टे पर सरल और तबखरी हुइ तडजाआन में
कढ़ाइ की जाती है ।
जहां तडजाआन पर बहुत बारीक काम दकया गया हो और पू रे वस्त्र पर कढ़ाइ की गयी
हो, वहां आसे बाग (फू लों का बगीचा) कहा जाता है ।
आसमें प्रयु ि तसल्क के धागे को पट (pat) कहा जाता है ।
फु लकारी कढ़ाइ
36. ज़रदोजी
ज़रदोजी धातु से की जाने वाली एक सुं द र कढ़ाइ है , जो भारत में राजाओं और शाही
पररवारों के व्यतियों की पोशाक के तलए आस्ते माल की जाती थी।
फारसी शब्द ज़र (ZAR) का ऄथा सोना और दोजी (Dozi) का ऄथा कढ़ाइ होता है ।
आसमें सोने और चां दी के धागे का ईपयोग करके तवस्तृ त तडजाआन बनाए जाते हैं । साथ
ही, कीमती पत्थर, हीरे , पन्ने और मोती का प्रयोग भी दकया जाता है ।
ईपयोग:
o शाही टें ट की दीवारों, म्यानों, दीवार के पदे और शाही हाथी और घोड़ों के वस्त्रों को
सजाने के तलए।
o ज़रदोजी कशीदाकारी काया वस्तु तः लखनउ, भोपाल, है द राबाद, ददल्ली, अगरा,
कश्मीर, मुं ब इ, ऄजमे र और चे न्न इ जै से शहरों की तवशे ष ता रही है ।
o 2013 में भौगोतलक सं के तक रतजस्री (GIR) द्वारा लखनउ ज़रदोजी को भौगोतलक
सं के तक (GI) पं जीकरण प्रदान दकया गया।
o ज़रदोजी ईत्पाद लखनउ और 6 ऄन्य तनकटवती तजलों (बाराबं की, ईन्नाव,
सीतापु र , रायबरे ली, हरदोइ और ऄमे ठी) में तनर्ममत दकये जाते हैं ।
चे िीनाड सातड़यों को चटकीले रं गों जै से मस्टडा रं ग, ईंट जै सा लाल, नारं गी, बसन्ती और
भू रे रं ग के चे क (checks) का प्रयोग करके तै यार दकया जाता है ।
चे क और टें प ल बॉडा र चे िीनाड सातड़यों में प्रयोग दकए जाने वाले पारं पररक पै ट ना हैं ।
तांगतलया शॉल
थेवा शब्द दो शब्दों से बनता है: थारना तथा वाडा- तजसमें थारना का ऄथा है ‘हथौड़ा’ और वाडा
VISIONIAS
www.visionias.in
तवषय सूची
1. हड़प्पा सभ्यता की तलतप _______________________________________________________________________ 4
12. बांग्ला___________________________________________________________________________________ 23
14. ओतडया__________________________________________________________________________________ 24
इसा की प्रथम तीन शतातब्दयों में पाली और संस्कृ त को तमलाकर बौद्धों ने एक नयी भाषा
चलायी, तजसे तमतित संस्कृ त कहते हैं।
तृतीय शताब्दी इसा-पूवव में प्राकृ त देश भर की संपकव -भाषा का काम करती थी। सम्पूणव देश के
प्रमुख भागों में ऄशोक के तशलालेख प्राकृ त भाषा और ब्राह्मी तलतप में तलखे गए थे। बाद में यह
स्थान संस्कृ त ने ले तलया और देश के कोने-कोने में राजभाषा के रूप में प्रचतलत हुयी। यह
तसलतसला चतुथव शताब्दी इसवी में अकर गुप्त काल में और भी मजबूत हुअ। यद्यतप गुप्त काल के
बाद देश ऄनेक छोटे-छोटे भागों में तवभातजत हो गया, कफर भी राजकीय दस्तावेज संस्कृ त में ही
तलखे जाते रहे।
इरान और भारत के संपकव के फलस्वरूप इरानी तलतपकार (काततब) भारत में लेखन का एक ख़ास
रूप लेकर अये जो अगे चलकर खरोष्ठी नाम से मशहूर हुअ। यह तलतप ऄरबी की तरह दायीं से
बायीं ओर तलखी जाती है। इसा पूवव तृतीय शताब्दी में पतिमोिर भारत में ऄशोक के कु छ
ऄतभलेख आसी तलतप में तलखे गए हैं। प्राकृ त भाषा में तलखे गए ऄशोक के ये ऄतभलेख साम्राज्य के
ऄतधकााँश भागों में ब्राह्मी तलतप में तलखे गए हैं। ककतु पतिमोिर भाग में ये खरोष्ठी और ऄरामेआक
तलतपयों में हैं और ऄफगातनस्तान में आनकी भाषा और तलतप ऄरामेआक और यूनानी दोनों हैं।
ऄशोक द्वारा देश में स्थातपत की गयी राजनीततक एकता में एक भाषा और प्रायः एक तलतप ने
एकता सूत्र का काम ककया।
तद्वतीय शताब्दी के शक शासक रुद्रदामन ने सववप्रथम तवशुद्ध संस्कृ त भाषा में लम्बे ऄतभलेख जारी
ककये। काव्य शैली का पहला नमूना रुद्रदामन का कारठयावाड़ में जूनागढ़ ऄतभलेख है, तजसका
समय लगभग 150 इ. है। आसके बाद से ऄतभलेख पररष्कृ त संस्कृ त भाषा में तलखे जाने लगे।
2.1 वे द (Ved)
वेद भारत के प्राचीनतम ज्ञात सातहत्य हैं। वेद संस्कृ त में रचे गए तथा एक पीढी से दूसरी पीढ़ी को
मौतखक रूप में सम्प्रेतषत होते रहे।
वेद का शातब्दक ऄथव ‘‘ज्ञान’’ होता है। तहन्दू संस्कृ तत में वेदों को शाश्वत और इश्वर प्रदि ज्ञान माना
गया है। वे समस्त तवश्व को एक मानव पररवार मानते हैं ‘‘वसुधैव कु टु म्बकम।’’
वेद की पांडुतलतप
ऊग्वेद प्राचीनतम वेद है, तजसमें वैकदक संस्कृ त में 1028 सूतक्तयों का संकलन है। ईनमें से ऄनेक में
प्रकृ तत का सुंदर वणवन है।
ऄतधकांश ऊचाओं में तवश्व की समृतद्ध की प्रातप्त के तलए इश्वर से प्राथवना की गइ है। ऐसा माना
जाता है कक ये ऊचाएाँ ऊतषयों की स्वच्छन्द ऄतभव्यतक्त हैं जो ईन्होंने आतन्द्रयातीत मानतसक
ऄनुभूतत की ऄवस्था में की थीं।
आन सुतवख्यात ऊतषयों में वतशष्ठ, गौतम, गृत्समद, वामदेव, तवश्वातमत्र, ऄतत्र अकद हैं।
ऊग्वेद के प्रमुख देव आन्द्र, ऄति, वरुण, रुद्र, अकदत्य, वायु, ईषा, ऄकदतत और ऄतश्वनी बंधु हैं।
प्रमुख देतवयों में ईषा- प्रभात काल की देवी, वाक- वाणी की देवी और पृथ्वी- भूतम की देवी है।
ऄतधकांश सूतक्तयों में प्रकृ तत का सुंदर वणवन, साववभौतमक मान्यता प्राप्त जीवन के ईच्च मूकयों जैसे
कक सत्यवाकदता, इमानदारी, समपवण, त्याग, शील अकद का वणवन है। यह प्राचीन भारत की
सामातजक, राजनीततक और अर्मथक तस्थतत का ज्ञान भी ईपलब्ध कराता है।
ऊग्वेद के ब्राह्मण ग्रन्थ - कौषीतकी और ऐतरे य
ऊग्वेद की पांडुतलतप (19 वीं शताब्दी में कागज़ पर पुनर्मलतखत) ऊग्वेद की पांडुतलतप
‘यजुवेद’ का ऄथव है ‘कमवकांड’ या ‘पूजा’। आसमें तवतभन्न यज्ञों से सम्बंतधत ऄनुष्ठान तवतधयों और
मन्त्रों का ईकलेख है। यह यज्ञों के अयोजन को कदशा तनदेश देता है। आसमें गद्य-पद्य दोनों रूपों में
व्याख्याएाँ हैं। यह कमवकाण्ड से संबंतधत पतवत्र पुस्तक होने के कारण चारों वेदों में सवावतधक
लोकतप्रय है।
यजुवेद की दो प्रमुख शाखाएाँ हैं, शुक्ल तथा कृ ष्ण यजुवद
े ऄथावत् वाजसनेयी संतहता तथा तैतिरीय
संतहता।
यजुवेद के दो ब्राह्मण पाठ हैं, तजसमें से तैतिरीय (Taitereya) कृ ष्ण यजुवद
े और शतपथ
(Shatpath) शुक्ल यजुवद
े से सम्बतन्धत है।
यह ग्रन्थ तत्कालीन भारतीय सामातजक तथा धार्ममक तस्थतत को दशावता है।
यजुवद
े की पांडुतलतप
‘साम’ का ऄथव है ‘संगीत’ ऄथवा ‘गायन’। आसमें 16,000 राग और रातगतनयां या संगीतात्मक सुर
तनतहत हैं।
आसे संगीत के वेद के रूप में और गंधवववेद को जोकक सामवेद का एक ईपवेद है, संगीत के तवज्ञान के
रूप में माना जाता है।
तांड्य और जैतमनीय आसके ब्राह्मण ग्रन्थ हैं। तांड्य ब्राह्मण को पंचतवश ब्राह्मण भी कहते हैं क्योंकक
आसमें 25 मण्डल हैं।
आसके कु ल 1875 मन्त्रों में से के वल 75 मूल हैं, शेष ऊग्वेद से तलए गए हैं। सामवेद में ऊग्वेद की
ऊचाओं का संगीतमय पाठ करने की तवतध का ईकलेख ककया गया है। यह ग्रन्थ भारतीय संगीत के
तवकास का मूल है।
सामवेद
आसे ‘ब्रह्मवेद’ के रूप में भी जाना जाता है। आसमें 99 रोगों के ईपचार शातमल हैं। आस वेद का स्रोत
दो ऊतषयों ऄथवाव (Atharvah) और ऄंतगरस (Angirash) को माना जाता है।
आसमें देवताओं की स्तुतत के साथ जादू, चमत्कार, तचककत्सा, तवज्ञान और दशवन के भी मन्त्र हैं।
भूगोल, खगोल, वनस्पतत तवद्या, ऄसंख्य जड़ी-बूरटयााँ, अयुवद
े , गंभीर से गंभीर रोगों का तनदान
और ईनकी तचककत्सा, ऄथवशास्त्र के मौतलक तसद्धान्त, राजनीतत के गुह्य तत्त्व, राष्ट्रभूतम तथा
राष्ट्रभाषा की मतहमा, शकयतचककत्सा, कृ तमयों से ईत्पन्न होने वाले रोगों का तववेचन, मृत्यु को दूर
करने के ईपाय, प्रजनन-तवज्ञान ऄकद सैकड़ों लोकोपकारक तवषयों का तनरूपण ऄथवववेद में है।
ॠग्वेद के ईच्च कोरट के देवताओं को आस वेद में गौण स्थान प्राप्त हुअ है।
यह ईिर वैकदक काल के पाररवाररक, सामातजक तथा राजनीततक जीवन की तवस्तृत जानकारी
प्रदान करता है। आसकी ‘‘पैप्पलाद’’ तथा ‘‘शौनक’’ दो शाखाएाँ हैं।
ऄथवववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ - गोपथ।
ऄथवववद
े की पांडुतलतप
वेदांग
वेदांग शब्द से ऄतभप्राय है- 'तजसके द्वारा ककसी वस्तु के स्वरूप को समझने में सहायता तमले'।
वेदों को जानने के तलए वेदांग ऄथावत् वेदों के ऄंगों को जानना अवश्यक है। वेदों के ये सहायक ग्रंथ
तशक्षा, व्याकरण, ककप (कमवकाण्ड) तनरुक्त ( व्युत्पति), छंद (छंदतवधान) और ज्योततष का ज्ञान
देते हैं। छन्द को वेदों का पाद, ककप को हाथ, ज्योततष को नेत्र, तनरुक्त को कान, तशक्षा को नाक
और व्याकरण को मुख कहा गया है।
ऄतधकांश सातहत्य आन्हीं तवषयों पर रचे गये हैं। यह सूत्र-शैली में ईपदेशों के रूप में तलखे गये हैं।
संतक्षप्त शैली में तनबद्ध तनदेश सूत्र कहलाता हैं। आसका सवावतधक प्रतसद्ध ईदाहरण पातणतन की
व्याकरण है, तजसे ‘ऄष्टाध्यायी’ कहा जाता है। आसमें व्याकरण के तनयमों का ईकलेख ककया गया है
तथा यह पुस्तक ईस समय के समाज, ऄथवव्यवस्था तथा संस्कृ तत पर भी प्रकाश डालती है।
यह मंत्रों और मंगलकामनाओं की पुस्तकें हैं। सभी चार वेदों की ऄपनी स्वयं की संतहताएं हैं।
हालांकक संतहताएं वैकदक ग्रंथों तक ही सीतमत नहीं हैं बतकक कइ ईिर वैकदक संतहताएं भी हैं।
संतहताएं मूल रूप से स्तुततग्रन्थ हैं, परन्तु आसमें व्याख्यायें नहीं हैं।
ब्राह्मण वेदों के बाद तलखे गए और यह वैकदक ऄनुष्ठानों का एक तवस्तृत तववरण प्रदान करते हैं।
यह तनदेश देते हैं और कमवकांड के तवज्ञान के साथ सम्बद्ध हैं।
ब्राह्मण के कु छ परवती ऄंशों को ‘अरण्यक’ कहा जाता था। अरण्यक के ऄंततम भाग दाशवतनक
पुस्तकें हैं, तजसे ‘ईपतनषद’ के नाम से जाना जाता है, जोकक ब्राह्मण ग्रंथों के परवती चरण से
सम्बंतधत हैं।
अरण्यक अत्मा, जन्म, मृत्यु और आसके अगे के जीवन से सम्बंतधत हैं। वानप्रस्थ अिम में यह
पुरुषों द्वारा ऄध्ययन ककया जाता था और पढ़ाया जाता था।
ईपतनषद संस्कृ त शब्द ईप+ तन+ सद के युग्म से व्युत्पन्न है, तजसमें ‘ईप’ का ऄथव है समीप, ‘तन’
ऄथावत तनष्ठापूवक
व तथा ‘सद’ का ऄथव है बैठना, आस प्रकार ईपतनषद का ऄथव है ‘गुरु के समीप
तनष्ठापूवक
व बैठना’।
यह तशष्यों के ऐसे समूह को द्योततत करता है, जो गुरु-तशष्य परम्परा में गुरु के समीप बैठकर
रहस्यात्मक ज्ञान और तसद्धांतों का ऄजवन करते हैं।
ईपतनषद भारतीय हचतन की पररणतत को तचतन्हत करते हैं और ये वैकदक सातहत्य के ऄंततम भाग
हैं। आसमें परम दाशवतनक समस्याओं के ऄमूतव और गूढ़ तवचार- तवमशव समातवष्ट होते हैं। आन्हें
तवद्यार्मथयों को सबसे ऄंत में पढ़ाया जाता था, आसी कारण आन्हें वेदों का ऄंत कहा जाता है।
ईपतनषद ब्रह्मांड की ईत्पति, जीवन और मृत्यु, भौततक और अध्यातत्मक जगत, ज्ञान की प्रकृ तत
और आसी तरह के कइ ऄन्य प्रश्नों से सम्बंतधत हैं।
ईपतनषदों की संख्या के तवषय में मतभेद है, परन्तु मुतक्तकोपतनषद में 108 ईपतनषदों का ईकलेख
तमलता है।
कु छ महत्वपूणव ईपतनषदों के नाम आस प्रकार हैं- इश, के न, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, तैतिरीय,
ऐतरे य, छान्दोग्य, बृहदारण्यक अकद।
ईपतनषद की पांडुतलतप
2.6 भगवद्गीता
भगवद्गीता में िीकृ ष्ण ने ऄजुन
व को एक योद्धा और राजा के
कतवव्यों को समझाया और तवतभन्न यौतगक तथा वेदातन्तक
दशवनों को ईदाहरणों तथा समानान्तर कथानकों से स्पष्ट
ककया।
गीता तहन्दू दशवन का एक संतक्षप्त ग्रन्थ और जीवन के तलए
एक संतक्षप्त, सारगर्ममत तनदेतशका है।
अधुतनक युग में स्वामी तववेकानन्द, बाल गंगाधर ततलक,
महात्मा गांधी तथा बहुत से ऄन्य लोगों ने भारतीय
स्वतंत्रता अंदोलन में गीता से ही प्रेरणा प्राप्त की। ऐसा
आसतलए था क्योंकक भगवद्गीता मानवीय कमों में
सकारात्मकता को प्रधानता देती है।
यह इश्वर और मनुष्य दोनों के ही प्रतत तबना फल की
तचन्ता ककए ऄपने कतवव्य का पालन करने की प्रेरणा देती
है।
‘पुराण’ शब्द का ऄथव है ‘ककसी पुराने का नवीनीकरण करना’। पुराण हहदुओं के पतवत्र सातहत्य में
एक ऄतद्वतीय स्थान रखते हैं। महत्व के अधार पर वेद और महाकाव्यों के बाद आनका ऄगला स्थान
है।
लगभग सदैव आसका ईकलेख आततहास के साथ ककया जाता है। वेदों की सत्यता को स्पष्ट करने और
आनकी व्याख्या करने के तलए पुराण तलखे गए थे।
पुराण पौरातणक या ऄयथाथव कायव हैं जो दृष्टान्तों और दंतकथाओं के माध्यम से धार्ममक और
अध्यातत्मक संदश े ों का प्रचार कर रहे हैं। ये महाभारत और रामायण जैसे दो प्रमुख महाकाव्यों की
पंतक्तयों का पालन करते हैं।
अरं तभक पुराण गुप्त काल में संकतलत ककए गए। आसके ईद्भव को समय से काफी पीछे जा के खोजा
जा सकता है जब बौद्ध धमव महत्व प्राप्त कर रहा था और ब्राह्मणवादी संस्कृ तत का प्रमुख प्रततद्वंद्वी
था।
ऐसा कहा जाता है कक पुराण संख्या में ऄठारह है और लगभग आतनी ही संख्या ईपपुराणों की भी
है।
पुराणों के मुख्यतः पााँच तवषय हैं- सगव, प्रततसगव, मन्वंतर, वंश, वंशानुचररत।
कु छ ज्ञात पुराण हैं- ब्रह्म, भागवत, पद्म, तवष्णु, वायु, ऄति, मत्स्य और गरुड़।
तवनय तपटक (Vinaya Pitaka) -बौद्ध मठवातसयों के संबंध में मठवासीय तनयम
शातमल हैं।
सुितपटक (Suttapitaka) - बुद्ध के भाषणों और संवादों का एक संग्रह है।
ऄतभधम्मतपटक (Abhidhamma Pitaka)- नीततशास्त्र, मनोतवज्ञान या ज्ञान के
तसद्धान्त से जुड़े तवतभन्न तवषयों का वणवन करती है।
o गैर तवतहत सातहत्य (Non canonical Literature) - आसमें जातक काथाएं सतम्मतलत हैं
तजसमें बुद्ध के पूवव जन्मों से संबंतधत कथाओं का वणवन है। ये कहातनयां बौद्ध धमव के तसद्धान्तों
का प्रचार करती हैं तथा संस्कृ त एवं पातल दोनों में ईपलब्ध हैं।
जातक (Jataks): ये छठी शताब्दी इसा पूवव से लेकर दूसरी शताब्दी इसा पूवव तक के
सामातजक और अर्मथक तस्थतत पर ऄमूकय प्रकाश डालते हैं। ये बुद्ध काल में राजनीततक
घटनाओं के तलए प्रासंतगक संदभव भी प्रस्तुत करते हैं।
जैन धमव ने एक समृद्ध सातहत्य के तवकास में योगदान कदया तजसमें कतवता, दशवन और व्याकरण
समातवष्ट हैं।
प्राकृ त, संस्कृ त और ऄपभ्रंश भाषा के वृहत जैन तशक्षाप्रद या नीततपरक कहानी (कथा) तथा
सातहत्य तत्कालीन समय के अम जन-जीवन का दृष्टांत ईपलब्ध कराते हैं।
जैन ग्रंथ व्यापार और व्यापाररयों के बारे में प्रायः ईकलेख करते हैं। आनमें ऐसे बहुत से ऄवतरण हैं
जो पूवी ईिर प्रदेश और तबहार के राजनीततक आततहास की पुनसंरचना करने में हमारी सहायता
करते हैं।
जैन ग्रन्थ सामान्यतः चररत्र में नीततपरक और तशक्षाप्रद हैं। आन्हें प्राकृ त के कु छ रूपों में तलखा गया
है।
जैन सातहत्य संस्कृ त भाषा में भी ईपलब्ध हैं, जैसे 906 इसवी में तसद्धरातश द्वारा तलतखत
मनुस्मृतत समाज में स्त्री और पुरुष की भूतमका, ईनके तलए अचार-संतहता तथा ईनके अपसी
संबंधों के बारे में बताती है।
कौरटकय द्वारा रतचत ‘ऄथवशास्त्र’ मौयवकाल का सबसे महत्वपूणव ग्रंथ है। यह ग्रंथ ईस समय के समाज
की दशा और ऄथव-व्यवस्था को दशावता है। प्राचीन-भारत की राज व्यवस्था और ऄथव-व्यवस्था के
ऄध्ययन के तलए यह ग्रंथ प्रचुर सामग्री ईपलब्ध कराता है।
भास, शूद्रक, कातलदास और बाणभट्ट की रचनाएाँ गुप्त और हषव कालीन, ईिरी तथा मध्य भारत के
सामातजक एवं सांस्कृ ततक जीवन की झलक देती हैं। गुप्तकाल में ही पातणतन और पतंजतल के
संस्कृ त व्याकरण पर अधाररत व्याकरण ग्रन्थों का तवकास हुअ।
कु षाण राजाओं ने संस्कृ त के तवद्वानों को संरक्षण कदया। ऄश्वघोष ने ‘‘बुद्धचररतम’’ की रचना की
है, तजसमें बुद्ध का जीवन चररत्र है। ईन्होंने ‘‘सौन्दरानन्द’’ भी तलखा जो संस्कृ त भाषा की एक िेष्ठ
कृ तत है।
भारतवषव में गतणत, खगोल, ज्योततष, कृ तष तथा भूगोल जैसे तवषयों पर महान सातहत्य तलखा
गया। चरक ने तचककत्सा शास्त्र तथा सुित
ु ने शकय तचककत्सा संबंधी ग्रन्थ तलखे। माधव ने
‘‘औषतधतवज्ञान ग्रंथ’’ की रचना की।
वाराहतमतहर तथा अयवभट्ट द्वारा ऄंतररक्ष तवज्ञान पर तथा लगधाचायव द्वारा ज्योततष शास्त्र पर
रतचत पुस्तक बहुत प्रतसद्ध हैं।
बृहत् संतहता, अयवभट्टीयम् तथा वेदांग ज्योततष ऄतुलनीय ग्रन्थ हैं।
‘गुप्त काल’ भारत की संस्कृ तत का स्वणवकाल माना जाता है। गुप्तकालीन राजाओं ने शास्त्रीय संस्कृ त
सातहत्य को बढ़ावा कदया। वे संस्कृ त के कतव तथा तवद्वानों की सहायता करते थे। आससे संस्कृ त
भाषा समृद्ध हुइ।
वास्तव में आस काल में संस्कृ त भाषा सभ्य तथा तशतक्षत लोगों की भाषा बन गइ। आस काल में बहुत
से महान कतवयों, नाटककारों और तवद्वानों ने ईच्चकोरट के संस्कृ त सातहत्य का सृजन ककया-
o कातलदास- कतव कातलदास ने ऄनेक सुंदर कतवताएं और नाटक तलखे। संस्कृ त में ईनको काव्य
सातहत्य का ‘रत्न’ माना जाता है। ईनकी अियवजनक तवद्वता दो खण्ड काव्य ‘मेघदूत’ तथा
‘ऊतुसह
ं ार’, दो महाकाव्य ‘‘कु मारसंभव’’ और ‘‘रघुवश
ं ’’ अकद महान काव्यों में देखी जा
सकती है। ‘‘ऄतभज्ञानशाकु न्तलम’’ तथा ‘‘तवक्रमोववशीयम’’, ‘‘मालतवकातितमत्रम्’’ ईनके
सुप्रतसद्ध नाटक हैं।
o तवशाखदत- तवशाखदत ईस समय के एक ऄन्य महान नाटककार है। अपने ‘‘मुद्राराक्षस’’ तथा
‘‘देव चन्द्रगुप्त’’ जैसे दो ऐततहातसक नाटक रचे।
o शूद्रक- अपने ‘‘मृच्छकरटकम् (तमट्टी की गाड़ी)’’ जैसा सामतयक नाटक तलखा। यह ईस काल
की सामातजक तथा सांस्कृ ततक तस्थततयों का स्रोत है।
o हररसेण- हररसेण गुप्त काल के ऄनेक महान कतवयों तथा नाटककारों में एक थे। अपने
समुद्रगुप्त की वीरता की प्रशंसा में ऄनेक कतवताएं तलखी। यह प्रयाग प्रशतस्त पर स्पष्ट रूप से
देखी जा सकती है।
o भास- अपने ईस समय के जीवनदशवन और तवश्वास तथा संस्कृ तत के प्रतीक तेरह नाटक तलखे।
ईिरी भारत में मध्यकाल के बाद कश्मीर में संस्कृ त सातहत्य का ईदय हुअ। सोमदेव का
‘‘कथासररतसागर’’ तथा ककहण की ‘‘राजतरं तगणी’’ ऐततहातसक महत्व के ग्रंथ हैं। यह कश्मीर के
राजाओं के तवषय में महत्वपूणव सूचनाएाँ देती हैं।
जयदेव का ‘गीतगोहवद’ आस काल के संस्कृ त सातहत्य की सवोिम रचना है। आसके ऄततररक्त
तवतभन्न तवषय जैसे कला, वास्तुकला, तशकपकला, मूर्मतकला अकद संबंतधत क्षेत्रों में भी महत्वपूणव
ग्रन्थ तलखे गए।
संगम सातहत्य में कु छ महत्वपूणव संग्रह ग्रन्थ हैं, तजनमें से एतुिौके ऄथवा ऄष्टसंग्रह प्रथम संग्रह
ग्रन्थ है तजनमें 8 पद्य संग्रह हैं और पिुप्पातु ऄथवा दशगीत तद्वतीय संग्रह ग्रन्थ हैं जो दस लंबी
कतवताओं का संग्रह है।
आसके ऄततररक्त पकदनेकककलकणक्कु तीसरा संग्रह ग्रन्थ है, तजसमें 18 सदाचारपरक गीत हैं। ये
ऄपनी सरलतापूणव ऄतभव्यतक्त के तलए तवशेष रूप से जाने जाते हैं। आनकी रचना 473 कतवयों
द्वारा की गइ थी, तजनमें से 30 तस्त्रयां थीं, आनमें से ऄवय्यर (Avvaiyar) एक प्रतसद्ध कवतयत्री थी।
5.1.2 सं ग म यु ग के महाकाव्य
संगम युग में कु ल पांच महाकाव्य हैं- तशलप्पाकदकारम, मतणमेखलै, जीवकतचन्तामतण, बलयपतत,
कुं डलके तश।
आन महाकाव्यों के रचनाकाल को ततमल सातहत्य का स्वणवयुग कहा जाता है। आनमें से प्रथम तीन
ही ईपलब्ध हैं-
o तशलप्पाकदकारम (Silappadhikaram) – आलांगोअकदगल (Ilango-Adigal) द्वारा तलतखत
(नुपरु की कहानी), आस ग्रन्थ को ततमल सातहत्य का आतलयड माना जाता है।
o मतणमेखलै (Manimekalai)- सीतलैसत्त्नार (Chattanar ) द्वारा तलतखत, आस ग्रन्थ को
ततमल सातहत्य का ओतडसी माना जाता है।
o जीवकतचन्तामतण (Jeevakchintamani)- ततरुतक्कदेवर द्वारा तलतखत।
आन ग्रंथों से तत्कालीन ततमल जन-जीवन तथा समाज के तवषय में तवशद वणवन प्राप्त होता है।
ततमल सातहत्य की एक और मुख्य तवशेषता वैष्णव भतक्त सातहत्य है। ऄलवार (Alvar) और
नयनार (Nayanar) ततमल संत कतवयों ने आसे वैष्णव तथा शैव सम्प्रदायों के प्रतत समर्मपत होकर
तलखा और गाया। ऄलवार कतवयों में से ऄंडाल एक मतहला थी।
6. ते ल गु सातहत्य
तवजयनगर काल को तेलगु सातहत्य का स्वणव युग कहा जाता था। बुक्का प्रथम के राजकतव नाचणा
सोमनाथ ने ‘‘ईिरहररवंशम’’ नामक काव्य की रचना की।
तवजयनगर के महानतम शासक कृ ष्णदेव राय (1509 इ.-29) स्वयं महान कतव थे। ईनकी रचना
‘ऄवमुक्तमाकयद’’ तेलगु सातहत्य में ईत्कृ ष्ट प्रबंध रचना मानी जाती है। ‘ऄष्टकदग्गज’ रूप में प्रख्यात
तेलगु भाषा के अठ महान सातहत्यकार ईनके दरबार की शोभा थे।
आनमें से ऄकलसनी पेड्डना महानतम सातहत्यकार माने जाते थे, तजन्होंने ‘मनुचररतम’ नामक ग्रंथ
की रचना की। ईन्हें अंध्र कतवता का तपतामाह कहा जाता है। ऄन्य सात कतवयों में
‘पाररजातापहरणम’ के रचतयता नंदी ततम्मणा के ऄततररक्त मदयगरी मकलण, धुजत
व ी,
ऄय्यालाराजू रामभद्र कतव, हपगली सुराण, रामराज भूषण तथा तेनाली रामकृ ष्ण हैं।
तशव भक्त धूजवती ने ‘‘कला हतस्तस्वर माहात्म्यम’’ और ‘कलाहतस्तस्वर शतकम्’ नामक दो रचनाएाँ
तलखीं।
हपगली सुराण ने ‘राघवपांडतवयम्’ तथा ‘कलापुरानोदयम्’ नामक रचनाएाँ तलखीं। पहली रचना में
ईन्होंने रामायण और महाभारत की कथा को एक साथ रचने की कोतशश की है। राजतवदूषक
तेनाली रामकृ ष्ण ‘‘पांडुरंग माहात्म्यम’’ के रचनाकार हैं। ईनकी यह रचना तेलुगु सातहत्य की
महान कृ तत मानी जाती है।
रामराजभूषण ‘‘वासुचररतम’’ के रचनाकार हैं। आन्हें भट्टमूर्मत नाम से भी जाना जाता है।
नरशंभप
ु ांडतवयम् तथा हररिंद्र नलोपाख्यानम्’ आनकी ऄन्य कृ ततयााँ हैं। यह ‘राघवपाण्डवीयम’ की
पद्धतत पर तलखी काव्य रचना है। आसमें नल और हररिंद्र की कथाएाँ साथ-साथ पढ़ी जा सकती हैं।
मदयगरी मकलण कृ त ‘राजशेखरचररत’ एक प्रबंध रचना है। आसकी तवषयवस्तु ऄवन्ती के सम्राट
राजशेखर का युद्ध एवं प्रेम है।
ऄय्यालाराजू रामभद्र ‘रामाम्युदयम’ तथा सकलकथासार संग्रहम् कृ ततयों के रचनाकार हैं।
7. कन्नड़ सातहत्य
तेलगु रचनाकारों के ऄलावा तवजयनगर शासकों ने कन्नड़ और संस्कृ त लेखकों को भी अिय कदया।
ऄनेक जैन तवद्वानों ने कन्नड़ सातहत्य में योगदान ककया।
माधव ने पन्द्रहवें तीथंकर पर धमवनाथ पुराण तलखा। जैन तवद्वान ईररत तवलास ने ‘धमव परीक्ष ग्रंथ
की रचना की। आस काल की संस्कृ त कृ ततयों में वेदनाथ देतशक का ‘यादवाभ्युदयम्’ तथा
माधवाचायव की ‘पराशरस्मृतत व्याख्या’ शातमल है।
कन्नड़ भाषा का संपूणव तवकास दसवीं शताब्दी के बाद हुअ। कन्नड़ की प्राचीनतम सातहतत्यक कृ तत
‘कतवराजमागव’ है जो राष्ट्रकू ट के राजा नृपतुग
ं ऄधोवषव प्रथम द्वारा तलखी गइ।
पंपा ने ऄपनी ईत्कृ ष्ट काव्यात्मक कृ ततयााँ ‘अकदपुराण’ और ‘तवक्रमाजुन
व तवजय’ दसवीं शताब्दी इ.
में तलखीं। पम्पा को कन्नड़ कतवता का जनक कहा जाता है। वे चालुक्य नरे श ऄररके शरी के दरबार
में रहते थे। ऄपने काव्यात्मक ज्ञान, सौंदयव के वणवन, चररत्रों की व्याख्या और रसों के सूजन में पंपा
का कोइ जोड़ नहीं है।
राष्ट्रकू ट राजा कृ ष्ण तृतीय के राज्य में रहने वाले ऄन्य दो कतव पोन्ना और रान्ना थे। पोन्ना ने
‘शांततपुराण’ नामक एक महाकाव्य तलखा और रान्ना ने ‘ऄतजतनाथ पुराण’ तलखा। आसतलए पंपा,
पोन्ना और राना को ‘रत्नत्रय’ (तीन रत्न) की ईपातध दी गइ।
12वीं शताब्दी के ईिराधव में बसवेश्वर का अतवभावव हुअ। ईन्होंने वीरशैव मत का पुन: संघटन
करके कनावटक के धार्ममक एवं सामातजक जीवन में एक क्रातन्त ला दी।
बसव तथा ईनके ऄनुयातययों ने ऄपने मत के प्रचार के तलए बोलचाल की कन्नड भाषा को माध्यम
बनाया। वीरशैव भक्तों ने भतक्त, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार एवं
नीतत पर तनराडंबर शैली में ऄपने ऄनुभवों की बातें सुनाइ, जो
‘वचन सातहत्य’ के नाम से प्रतसद्ध हुइ।
आस काल में ऄक्का महादेवी एक प्रतसद्ध कवतयत्री थीं।
तेरहवीं शताब्दी में कन्नड़ सातहत्य में नए अयाम जुड़।े हररश्वर ने
‘हररिन्द्र काव्य’ और ‘सोमनाथ चररत’ तथा बंधव
ु माव ने
‘हररवंश- ऄभ्युदय’ और ‘जीवन संबोधन’ की रचना की।
होयसल शासकों के संरक्षण में ऄनेक सातहतत्यक ग्रंथों की रचना
हुइ। रुद्रभट्ट ने ‘जगन्नाथ तवजय’ की रचना की। ऄनदआया का
‘मदनतवजय’ या ‘कतब्बगार काव’ तबना संस्कृ त के ईपयोग के तवशुद्ध कन्नड़ की एक रोचक पुस्तक
है।
मतकलकाजुन
व के द्वारा ककया गया कन्नड़ सूतक्तयों का पहला संकलन ‘सूतक्तसुधाणवव’ और व्याकरण
पर के सीराजा की ‘शब्दमतणदपवण’ कन्नड़ भाषा की दो ऄन्य महान कृ ततयााँ हैं।
माना जाता है कक चौदहवीं और सोलहवीं शताब्दी के बीच तवजयनगर के राजाओं के संरक्षण में
कन्नड़ सातहत्य फला-फू ला। कुं वर व्यास ने ‘भारत’ और नरहरर ने ‘तारव रामायण’ की रचना की।
सत्रहवीं शताब्दी में लक्ष्मीशा तजन्होंने ‘जातमनी भारत’ तलखा, ईन्हें कामना-कररकु तवन-चैत्र
(कनावटक की अम्र-ईपवन की बसंत) की ईपातध तमली। तत्कालीन समय के ऄन्य महत्वपूणव कतव
महान ‘सववजन’ थे, जो जनता के कतव के नाम से लोकतप्रय थे। ईनके द्वारा रतचत तत्रपदी सूतक्तयााँ,
ज्ञान और अचरण का स्रोत हैं।
कन्नड़ की सम्भवतः शायद पहली ऄतद्वतीय कवतयत्री, होनाम्मा, तवशेष रूप से ईकलेखनीय हैं।
ईनकी रचना ‘हाकदबदेय धमव’ (िद्धावान पत्नी का कतवव्य) अचरण मूकयों का सार-संक्षेप है।
8. मलयालम सातहत्य
मलयालम भाषा के रल और अस-पास के आलाकों में बोली जाती है। मलयालम भाषा का ईद्भव
लगभग 11वीं शताब्दी में हुअ। 15वीं शताब्दी तक मलयालम को एक स्वतंत्र भाषा के रूप में
पहचान तमल गइ।
ईपलब्ध सातहतत्यक कृ तत 'राम-चररतम' (12वीं सदी के ईिराद्धव या 13वीं सदी के पूवावद्धव में) है।
आसकी तवषयवस्तु रामायण के लंकाकांड की कथा है। के रल के चीरामन नामक कतव ने आसकी
रचना की है।
अयववंशज नंपूततररयों के प्रभाव से के रल में ‘मतणप्रवालम्’ नामक तमि भाषा का तवकास हुअ। यह
ततमल और संस्कृ त का तमिण थी। 10वीं और 15वीं सदी इसवी के मध्य ‘मतणप्रवाल सातहत्य’ की
ऄत्यतधक पुतष्ट हुइ। आसी मतणप्रवाल के माध्यम से संस्कृ त के ऄनेक काव्यरूपों का संक्रमण
मलयालम् में हुअ।
एक तरफ मतणप्रवाल सातहत्य का तवकास होता गया तो दूसरी तरफ "पाट्टु " (गीत) नामक
काव्यशाखा की भी वृतद्ध होती गइ। आस शाखा में धार्ममक एवं खेती तथा ऄन्य पेशों से संबद्ध ऄनेक
लोकगीत हैं।
पंद्रहवीं शताब्दी में अतवभूवत "कृ ष्णगाथा" के वल पुराण का पुनराख्यान मात्र नहीं है बतकक
कृ ष्णगाथा को मलयालम् का सववप्रथम स्वतंत्र महाकाव्य मान सकते हैं।
‘‘भाषा कौरटकय’’ और ‘कोकासंकदसन’ मलयालम में रतचत दो महान कृ ततयां हैं। आसमें भाषा
कौरटकय ऄथवशास्त्र पर एक रटप्पणी है।
राम पतणकर और रामानुजन एजहुथाचन मलयालम सातहत्य के जाने-माने सातहत्यकार हैं।
हालांकक ऄन्य दतक्षण भारतीय भाषाओं की तुलना में मलयालम भाषा का तवकास बहुत बाद में
हुअ, कफर भी आसने ऄतभव्यतक्त के एक शतक्तशाली माध्यम के रूप में ऄपनी ईपतस्थतत दजव की है।
ऄमीर खुसरो :
ख़ुसरो ने फ़ारसी की एक नइ शैली तवकतसत की तजसे सबक़-ए-तहन्दी या भारत की शैली कहा
जाने लगा।
ऄमीर खुसरो
फारसी में खुसरो की पांच महत्वपूणव सातहतत्यक कृ ततयााँ तनम्नतलतखत हैं-
o (1) खमसा (Khamsa) (2) तस्तरीन खुसरो (Stirin khusrau) (3) लैला-मजनू (Laila-
Majnun) (4) अआन-ए-तसकं दरी (Aina-i-Sikandari) (5) हश्त-बतहश्त (Hast –
Bihisht)।
आसके ऄततररक्त खुसरो की कु छ ऄन्य महत्वपूणव कृ ततयां भी सतम्मतलत हैं – मसनवी, दीवान,
ककरान-ईस-सादेन, खज़ाआन-ईल-फु तूह (Khaza-in-ul-Futuh), तुगलक नामा (Tughlaq
Nama), तमफ्ताह-ईल-फु तूह (Miftah-ul-Futah), नूह तशपहर (Nuh-Siphir)।
आस काल में पयावप्त रूप से फ़ारसी में आततहास लेखन का कायव भी हुअ। आस काल के प्रतसद्ध
आततहासकार तमन्हाज़ तसराज़, तजयाईद्दीन बरनी, ऄफीफ़ एवं आसामी थे।
मुग़ल काल में बादशाहों ने ऄपनी जीवतनयााँ तलखकर ऐततहातसक चेतना का प्रमाण कदया। साथ
ही आन्होंने ऄपना आततहास तलखवाने के तलए ईस समय के प्रतसद्ध आततहासकारों और लेखकों को
तनयुक्त ककया। गैर- सरकारी आततहासकारों का भी मुग़ल कालीन आततहास लेखन के तवकास में
महत्वपूणव योगदान रहा। आनके ईदाहरण तनम्नलतखत हैं-
o बाबर ने तुकी में तुज़क
ु -ए-बाबरी (बाबरनामा) तलखा था, तजसका पहले शेख़ जेतद्द
ु ीन ख्वाज़ा
द्वारा और बाद में ऄब्दुल रहीम खान-ए-खाना द्वारा फ़ारसी में ऄनुवाद ककया गया।
o हुमायूं नामा ईसकी बहन गुलबदन बेगम द्वारा फ़ारसी भाषा में तलखी गइ।
o ऄकबरनामा ऄबुल फजल द्वारा तथा तुज़क
ु -ए- जहांगीरी (Tuzuk-i-jahangiri) स्वयं
जहांगीर द्वारा तलखा गया था।
o ऄकबरनामा, पादशाहनामा, अलमगीरनामा मुग़ल कालीन सरकारी आततहास के ईकलेखनीय
ईदाहरण हैं।
o आनके ऄततररक्त आस काल में तारीख-ए-रशीदी, कानूने हुमायून
ाँ ी, तजककरातुल वाकयात,
वाकयात-ए-मुश्ताकी, ऄकबरनामा के भाग के रूप में अआन-ए-ऄकबरी, तबकात-ए-ऄकबरी,
मुन्तखब-ईत-तवारीख अकद महत्वपूणव रचनाएं की गईं।
18वीं और 19वीं शताब्दी को शास्त्रीय ईदूव सातहत्य का स्वर्मणम काल माना जाता है।
आस काल के महान् लेखकों में- मीर तक़ी मीर (मृत्यु- 1810), सौदा (मृत्यु-1781), ख़्वाजा मीर
ददव (मृत्यु-1784), आं शा (मृत्यु-1817), मुशाफ़ी (मृत्यु-1824), नातसख (मृत्यु-1838), अततश
(मृत्यु-1847), मोतमन (मृत्यु-1852), ज़ौक (मृत्यु-1854) और ग़ातलब (मृत्यु- 1869) शातमल हैं।
तमज़ाव ग़ातलब
सभी वणवनात्मक और कथात्मक ईदेश्यों के तलए मसनवी शैली को पसंद ककया जाता था, क्योंकक
आसमें बहुत स्वतंत्रता थी (के वल प्रत्येक शेर की पतक्तयों का क़ाकफ़या तमलना चातहए था)।
दक्कन में सभी प्रमुख शायरों ने कम से कम एक लंबी मसनवी तलखी, लेककन ईनकी बोली से
ऄपररचय के कारण ईन्हें ईतनी प्रशंसा नहीं तमली। ऄत: ऄतधक प्रतसद्ध मसनतवयां कदकली व
लखनउ के बाद के शायरों, जैसे मीर, मीर हसन, दया शंकर नसीम और तमज़ाव ज़ौक़ ने तलखीं।
वणवनात्मक मसनतवयों के तवषय, दैतनक जीवन की घटनाओं से बादशाहों की तशकार यात्राओं तक
और प्रकृ तत की तवतभन्न ऊतुओं के रं गों से अत्मकथात्मक तनबंधों तक तवस्तृत थे। कथात्मक
मसनतवयां ऄपेक्षाकृ त लंबी होती हैं और ईनमें हज़ारों शेर होते हैं। दक्कन में बहुत से शायरों ने
फ़ारसी मसनतवयों के संतक्षप्त रूपांतरण तलखे, लेककन बहुत से ऄन्य रचनाकारों ने मूल रचनाएं
तलखीं, तजनमें भारतीय और साथ ही फ़ारसी व ऄरबी रूमातनयत थी।
आन मसनतवयों में फ़ारसी व ऄरबी कतवताओं से प्रेररत नायकों के नामों के ऄलावा बाक़ी सब कु छ
स्थानीय था। कु दरती नज़ारे , शहरी जीवन, जुलूस, परं पराएं, रीतत-ररवाज, सामातजक मूकय और
पाबंकदयााँ यहां तक कक लोगों के रूप-रं ग भी पूरी तरह भारतीय थे, हालांकक वे मुख्यत: मुसलमान
और सामंती थे।
ऄपनी लंबाइ के बावजूद आन रचनाओं को बहुत लोकतप्रयता तमली और कम से कम ईिरी भारत में
आन्हें साववजतनक स्थानों पर ऄक्सर ईसी तरह पढ़ा जाता था, जैसे कथावाचक कथाएं सुनाते हैं।
मसनवी शैली का कु छ हहदी सूफ़ी कतवयों ने भी ईपयोग ककया।
एक ऄन्य शैली मर्मसया है, तजसका ऄथव शोकगीत है, लेककन ईदूव सातहत्य में अमतौर पर आसका
ऄथव हुसैन (मुहम्मद के पोते) के पररवार व ररश्तेदारों के कष्टों पर शोकगीत और आराक़ के कबवला में
ईनकी क़ु बावनी है। ये शोकगीत और ऄन्य तवलाप गीत साववजतनक जनसमूह में पढ़े जाते हैं, ख़ासकर
मुहरव म के महीने में।
11. हहदी सातहत्य
तहन्दी भारत और तवश्व में सवावतधक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है। आसकी जड़ें प्राचीन
भारत की संस्कृ त भाषा में तलाशी जा सकती हैं। परं तु तहन्दी सातहत्य की जड़ें मध्ययुगीन भारत
की ब्रजभाषा, ऄवधी, मैतथली और मारवाड़ी जैसी भाषाओं के सातहत्य में पाइ जाती हैं।
हहदी में गद्य का तवकास बहुत बाद में हुअ और आसने ऄपनी
शुरुअत कतवता के माध्यम से की जो कक ज्यादातर लोकभाषा
के साथ प्रयोग कर तवकतसत की गइ।
हहदी में तीन प्रकार का सातहत्य तमलता है। गद्य, पद्य और
चम्पू।
‘पृथ्वीराज रासो’ को तहन्दी भाषा की पहली पुस्तक माना जाता
है। यह कदकली के राजा पृथ्वीराज चौहान की वीरता का लेखा-
जोखा है। आसके ऄनुकरण में ऄनेक रासो ग्रंथों की रचना की
गइ।
देवकीनन्दन खत्री द्वारा तलतखत ईपन्यास चंद्रकांता तहन्दी की
पहली प्रामातणक गद्य रचना मानी जाती है।
मागवदशवन के तलए तहन्दी सातहत्य ने संस्कृ त के शास्त्रीय ग्रंथों को अधार बनाया और भरत मुतन के
‘नाट्यशास्त्र’ को तहन्दी लेखकों ने ध्यान में रखा।
भतक्त अंदोलन की धारा के ईिर भारत पहुाँचने के पिात हहदी सातहत्य की कतवताओं का मुख्य
चररत्र भतक्त रस हो गया। कु छ कतव जैसे तुलसीदास सीतमत क्षेत्र में रहे और ईन्होंने काव्य रचना
ईस क्षेत्र की भाषा में की, जहााँ के वे तनवासी थे।
दूसरी ओर कबीर जैसे ऄन्य कतव एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते थे आसतलए ईनकी
कतवता में फारसी के साथ-साथ ईदूव भाषा के शब्द भी अ गए।
यह सही है कक तुलसीदास ने ‘रामचररतमानस’ की रचना
वाकमीकक रतचत ‘रामायण’ के अधार पर की, ककन्तु
लोककथाओं में ईपलब्ध् कु छ नए दृश्यों और तस्थततयों को भी
ईन्होंनें आसमें जोड़ा।
सूरदास ने ‘सूरसागर’ की रचना की। मीराबाइ राजस्थानी
भाषा में पद रचना करती थीं। यद्यतप, रसखान मुसलमान थे,
पर ईन्होंने कृ ष्ण-भतक्त के पद तलखे हैं। कृ ष्ण भक्त कतवयों में
एक महत्त्वपूणव नाम नंददास का है। रहीम और भूषण
ऄलगधारा के कतव हैं। आनके काव्य का तवषय भतक्त नहीं, बतकक
अध्यातत्मक था।
तबहारी ने सत्रहवीं सदी में ‘सतसइ’ तलखी। आनके दोहों में शृंगार
(प्रेम) के साथ ऄन्य रसों का भी सुंदर वणवन है।
कबीर को छोड़कर ईक्त सभी कतवयों ने ऄपनी भावनाओं को
ऄतनवायवतः ऄपनी धार्ममक प्रवृतियों को संतुष्ट करने के तलए
व्यक्त ककया। कबीर संस्थागत धमव में तवश्वास नहीं करते थे। वे
तनराकार इश्वर के भक्त थे। ईस इश्वर का नाम लेना ही ईनके
तलए सब कु छ था। आन सब कतवयों ने ईिर भारतीय समाज को
आस प्रकार प्रभातवत ककया जैसा पहले कभी नहीं हुअ था।
ईन्नीसवीं सदी के अरं भ में ही तहन्दी गद्य ऄपने सही रूप में अ
सका। भारतेंद ु हररिंद्र तहन्दी के अरं तभक नाटककारों में से एक
थे। ईनके कु छ नाटक संस्कृ त तथा ऄन्य भाषाओं के नाटकों के
ऄनुवाद हैं। ईन्होंने नइ परं परा की शुरूअत की। आन्होंने तहन्दी
भाषा को बढ़ावा कदया।
महावीर प्रसाद तद्ववेदी एक ऄन्य लेखक थे, तजन्होंने संस्कृ त के
ग्रन्थों का ऄनुवाद ऄथवा रूपांतरण ककया। तहन्दी में स्वामी
दयानंद सरस्वती के योगदान को ऄनदेखा नहीं ककया जा सकता।
मूलतः वे गुजराती थे और संस्कृ त के तवद्वान थे, तथातप ईन्होंने
तहन्दी को पूरे भारत की अम भाषा बनाने का समथवन ककया।
ईन्होंने तहन्दी में तलखना शुरू ककया और धार्ममक तथा सामातजक
सुधारों से जुड़ी पत्र-पतत्रकाओं में लेख तलखे। तहन्दी में ‘‘सत्याथव
प्रकाश’’ ईनकी सवावतधक महत्त्वपूणव रचना है।
तहन्दी सातहत्य को तजन लोगों ने समृद्ध बनाया है, ईनमें मुश
ं ी
प्रेमचंद्र का नाम प्रमुख है, तजन्होंने ईदूव से तहन्दी में तलखना
प्रारम्भ ककया।
सूयक
व ांत तत्रपाठी ‘तनराला’ को ख्यातत तमली क्योंकक ईन्होंने ऄपने सातहत्य के माध्यम से ऄपने
समाज की रूकढ़यों पर प्रश्नतचह्न लगाए। तनराला अधुतनक भारत के जागृतत के ऄग्रदूत बने।
महादेवी वमाव पहली मतहला लेतखका हैं तजन्होंने नाररयों से सम्बद्ध तवषयों पर तलखा। आन्होंने
समाज में मतहलाओं की दशा का तवस्तृत वणवन ककया।
मैतथलीशरण गुप्त एक ऄन्य नाम है जो ईकलेखनीय है। जयशंकर प्रसाद ने ईत्कृ ष्ट नाटक तलखे।
रामधारी हसह ‘कदनकर’ तथा हररवंशराय बच्चन ने तहन्दी काव्य के तवकास में महान योगदान ककया
है।
अधुतनक समय में तहन्दी भाषा का तवकास 18वीं सदी के ऄंततम समय में हुअ। आस काल के प्रमुख
लेखक थे मुश
ं ी सदासुख लाल तथा आन्शाकलाह खान। आसी प्रकार राजा लक्ष्मण हसह ने ‘शाकुं तलम्’
का तहन्दी में ऄनुवाद ककया। आस समय तहन्दी तवपरीत ऄवस्था में भी तवकास कर रही थी क्योंकक
कायावलयों का कायव ईदूव में ककया जाता था।
आहलौककक थे। हालााँकक थोड़े बहुत धार्ममक-सातहत्य की रचना भी हुइ, पर ईसमें कु छ नया नहीं
था।
पतिमी प्रभाव के कारण लेखक अम अदमी के तनकट अए। ईन्नीसवीं सदी के ऄंततम और बीसवीं
सदी के पूवावद्धव में ‘राष्ट्रवाद’ सातहत्य के एक नए तवषय के रूप में ईभरा। आस नइ प्रवृति में दो बातें
देखी गइ। एक ओर आततहास और संस्कृ तत के प्रतत सम्मान और ऄंग्रेजों द्वारा ककए गए शोषण से
सम्बंतधत तथ्यों के संबंध् में जागरूकता।
वहीं, दूसरी ओर तवदेतशयों को भारत से खदेड़ने के तलए भारतीयों का अह्वान ककया जाने लगा।
आस नइ प्रवृति को सुब्रह्मण्यम भारती ने ततमल में और बांग्ला में काजी नजरूल आस्लाम ने
ऄतभव्यक्त ककया। पाठकों में राष्ट्रवादी भावनाअःेःं को जगाने में आन दो लेखकों का योगदान
अियवजनक था। आनके काव्य का ऄनुवाद ऄन्य भारतीय भाषाओं में भी ककया गया।
13. ऄसमी
ऄसमी भाषा भी भतक्त अंदोलन के कारण तवकतसत हुइ। शंकरदेव ने
ऄसम में वैष्णव धमव का प्रचार ककया और ऄसमी भाषा के तवकास में
योगदान ककया।
आसके साथ पुराणों का भी ऄसमी भाषा में ऄनुवाद ककया गया। अरं तभक
ऄसमी सातहत्य में बरोंजी (दरबारी आततहास) प्रमुख था। शंकरदेव ने
ऄनेक धार्ममक कतवताएं तलखी हैं तजन्हें लोग हषोन्मुक्त होकर गाते हैं।
1827 इ. के बाद ही ऄसमी सातहत्य के सृजन में ऄतधक रुतच कदखाइ देने
लगी। लक्ष्मीकांत बेजबरूअ और पद्मनाभ गोसाईं बरूअ, शंकरदेव
सवावतधक ख्यातत प्राप्त ऄसमी लेखक हैं।
14. ओतडया
ईड़ीसा से फकीरमोहन सेनापतत और राधनाथ रे के नाम ईकलेखनीय हैं। आनका लेखन ईतड़या
सातहत्य के आततहास में महत्त्वपूणव स्थान रखता है।
ओतडया सातहत्य में एक नये युग को जन्म देने का िेय ईपेन्द्र भंजा (1670-1720) को जाता है।
सरलदास काव्य ईतड़या सातहत्य की प्रथम सातहतत्यक कृ तत कहलाती है।
गुरुमुखी तलतप
ऄतधक रुतच लेते थे। परन्तु, न तो यहां कोइ तवद्यालय था और न ही तशक्षा की ऄच्छी व्यवस्था थी।
चारों ओर गरीबी और अर्मथक तपछड़ापन था। यही कारण है कक कश्मीरी में ऄच्छा सातहत्य नहीं
तलखा जा सका।
संवध
ै ातनक तस्थतत
भारत में तवतभन्नता का स्वरूप न के वल भौगोतलक है, बतकक भाषायी तथा सांस्कृ ततक भी है। एक
ररपोटव के ऄनुसार भारत में 1652 मातृभाषायें प्रचलन में हैं, जबकक संतवधान द्वारा 22 भाषाओं
को राजभाषा की मान्यता प्रदान की गयी है।
संतवधान के ऄनुच्छेद 344 के ऄंतगवत पहले के वल 15 भाषाओं को राजभाषा की मान्यता दी गयी
थी, लेककन 21वें संतवधान संशोधन के द्वारा तसन्धी को तथा 71वें संतवधान संशोधन द्वारा नेपाली,
कोंकणी तथा मतणपुरी को भी राजभाषा का दजाव प्रदान ककया गया। बाद में 92वााँ संतवधान
संशोधन ऄतधतनयम, 2003 के द्वारा संतवधान की अठवीं ऄनुसूची में चार नइ भाषाओं बोडो,
डोगरी, मैतथली तथा संथाली को राजभाषा में शातमल कर तलया गया। आस प्रकार ऄब संतवधान में