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Art N Culture Part 2
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भारतीय रं गमंच
तवषय सूची
1. भारतीय रं गमंच: तवरासत, संक्रमण और भतवष्य के तवकल्प ______________________________ 4
1.1. चरण (Phases) _______________________________________________________________________ 4
1.1.1. प्रथम चरण (र्ास्त्रीय काल) ________________________________________________________________ 4
1.1.2 तितीय चरण (पारंपररक काल) ______________________________________________________________ 5
1.1.3. तृतीय चरण (अधुतनक काल)_______________________________________________________________ 5
2. पारं पररक रं गमंच के तवतभन्न रूप (Different forms of Traditional Theatre) __________________ 7
2.1. भांड-पाथर (Bhand Pather) _____________________________________________________________ 7
भारतीय रंगमंच के आस अधारभूत प्रकृ तत को समझने के बाद, अगे हम भारत में आसके तवकास को
तवस्तारपूवमक प्रस्तुत कर सकते हैं। मोटे तौर पर यह तीन तवतर्ि चरणों में तवभातजत ककया जा सकता
है: र्ास्त्रीय काल; पारंपररक काल और अधुतनक काल।
प्रथम चरण 1000 इस्वी तक के रंगमंच के लेखन और ऄभ्यास को सतम्मतलत करता है, जो नाट्य
र्ास्त्र िारा प्रदान ककये गए लगभग सभी तनयमों, तवतनयमों और संर्ोधनों पर अधाररत है।
ये नाटकों, प्रदर्मन स्थलों और नाटकों के मंचन की परंपराओं के लेखन के तलए प्रयुि होते हैं। भास,
कातलदास, र्ूद्रक, तवर्ाखदत्त और भवभूतत जैसे नाटककारों ने संस्कृ त में तलतखत ऄपने नाटकीय
अख्यानों के माध्यम से महत्वपूणम योगदान कदया है। ईन्होंने महाकाव्यों, आततहास, लोक कथाओं
और ककवदंततयों अकद जैसे स्रोतों को ऄपने कथानकों का अधार बनाया है। दर्मक पहले से ही आन
कहातनयों से पररतचत थे। आसतलए, रंगमंच की भाषा में मुद्राओं (gestures), मूकऄतभनय
(Mime) और गतत (movement) के माध्यम से एक दृश्य प्रस्तुतत अवश्यक थी।
कलाकार सभी लतलत कलाओं में तनपुण होना चातहए था। एक तरह से, यह सम्पूणम रंगमंच की एक
तस्वीर थी। प्रतसद् जममन नाटककार और तनदेर्क ब्रेक्ट (Bertolt Brecht) ने वस्तुतः आन स्रोतों से
'महाकाव्य रंगमंच' (Epic Theatre) के ऄपने तसद्ांत और 'परकीयकरण' (Alienation) की
ऄवधारणा को तवकतसत ककया।
तितीय चरण रंगमंच की ईस कक्रया को सतम्मतलत करता है जो मौतखक परंपरा पर अधाररत था।
1000 इस्वी के बाद से लेकर 1700 इस्वी तक यह प्रदर्तर्त ककया जा रहा था और यह अज भी
भारत के लगभग प्रत्येक भाग में प्रचलन में है।
रंगमंच के आस प्रकार का ईद्भव भारत में राजनीततक तंत्र के पररवतमन तथा साथ ही साथ देर् के
सभी भागों में तवतवध क्षेत्रीय भाषाओँ के ऄतस्तत्व में अने के साथ जुड़ा हुअ है। ये भाषाएं स्वयं ही
1000 इस्वी के असपास ऄतस्तत्व में अईं ऐसे में ईन भाषाओं में ककसी भी लेखन की ईम्मीद
करना बहुत बेमानी था। यही कारण है कक आस सम्पूणम कालावतध को लोक या पारंपररक ऄवतध के
रूप में जाना जाता है, ऄथामत, रंगमंच को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक एक मौतखक परंपरा के
माध्यम से सौंपा गया। रंगमंच के आस पारंपररक प्रकार में और दूसरे बड़े पररवतमनों ने भी ऄपना
स्थान बनाया।
र्ास्त्रीय रंगमंच जो कक नाट्य र्ास्त्र पर अधाररत है, ऄपने रूप और प्रकृ तत में बहुत ऄतधक
पररष्कृ त था और पूरी तरह से र्हरी-ईन्मुख था जबकक यह पारंपररक रंगमंच ग्रामीण पृष्ठभूतम से
तवकतसत हुअ। हालांकक रंगमंच के ऄन्य तत्वों संगीत, मूकऄतभनय, गतत, नृत्य और कथाओं का
ईपयोग लगभग समान बना रहा। यह परवती रंगमंच ऄतधक सरल, तात्कातलक और अर्ुरतचत
था और यहां तक कक समकालीन सीमा में था।
आसके ऄततररि जहाँ र्ास्त्रीय रंगमंच ऄपनी प्रस्तुततकरण में एक तनतित समय में भारत के समस्त
भागों में लगभग एकसमान था, वहह पारंपररक रंगमंच ने प्रस्तुततकरण की दो ऄलग ऄलग
पद्ततयों को ऄपनाया - ईत्तरी भारत में सभी लोक और पारंपररक रूप मुख्यतः मौतखक रहे हैं,
ऄथामत, गायन और सस्वर पाि अधाररत जैसे रामलीला, रासलीला, भांड नौटंकी अकद तजसमें
कोइ जरटल मुद्रा या गतत और नृत्य के तत्व नहह थे।
तृतीय चरण पुनः भारत में राजनीततक व्यवस्था में पररवतमन के साथ जुड़ा था- आस समय पतिम से
एक वाह्य प्रभाव अ रहा था। तब्ररटर् र्ासन के ऄधीन लगभग 200 वषों की समय ऄवतध
भारतीय रंगमंच को पतिमी रंगमंच के साथ सीधे संपकम में लाती है। भारत में पहली बार, रंगमंच
के लेखन और ऄभ्यास कायम पूणमतः वास्ततवक या यथाथम प्रस्तुततकरण की कदर्ा में गततमान हुए।
ऐसा नहह है कक यथाथमवाद या प्रकृ ततवाद जैसे तत्व हमारी परंपरा में पूरी तरह से ऄनुपतस्थत थे।
यह सदैव ईपतस्थत था जैसाकक नाट्यर्ास्त्र में लोकधमी (Lokdharmi) की ऄवधारणा के माध्यम
से पररकतल्पत भी ककया गया था, ऄथामत, दैनतन्दन मुद्राओं और व्यवहार (लोकजीवन) के साथ
जुड़ी प्रस्तुततकरण की एक र्ैली और नाट्यधमी (Natyadharami), - ऄथामत, एक र्ैली जो
प्रकृ तत में ऄतधकतया प्रस्तुततकरण संबंधी और नाटकीय थी। परन्तु कहातनयों का ईपयोग
तनरपवाद रूप से एक ही स्रोत से ककया गया था। अधुतनक रंगमंच में कहानी ने भी ऄपनी प्रकृ तत
को बदल कदया है। ऄब यह बड़े नायकों और देवताओं के असपास बुना न होकर अम अदमी की
तस्वीर बन गइ है।
एक तरह से यह प्राचीन काल से लेकर वतममान तक प्रस्तुत भारतीय रंगमंच की पूरी तस्वीर है।
जैसाकक हम पहले ही देख चुके हैं, समकालीन भारत में रंगमंच ऄपने ऐततहातसक पररप्रेक्ष्य में
व्याख्यातयत आसके तवकास के तीन ऄलग-ऄलग चरणों का एक संयोजन है। लेककन दुतनया के सही
ऄथों में यह कभी भी पेर्ेवर नहह बना, ऄथामत, प्रारंभ से ही लोग कभी भी ऄपनी अजीतवका के
तलए रंगमंच पर पूणमतया तनभमर नहह बने। यद्यतप ऐसा प्रतीत होता है कक भारत में रंगमंच एक
सतत गतततवतध बनी हुइ है, तथातप वास्ततवकता में ऐसा नहह है। यह सदैव त्योहारों या मनोरंजन
के ऄन्य ऄवसरों से संबंतधत कायमक्रमों का भाग रहा है। रंगमंच ऄतधक से ऄतधक ऄक्टूबर से माचम
के बीच- के वल छह महीने के तलए तथाकतथत वातणतययक या व्यावसातयक कं पतनयों िारा -प्रस्तुत
ककया जाता है।
साल के बाकी समय में, लोग या तो कृ तष या ककन्हह ऄन्य व्यवसायों में लगे रहते हैं। आस प्रकार की
तस्थतत भारतीय रंगमंच के तलए एक बड़ी समस्या पैदा करता है। यह ऄभी भी हमारे जीवन का
तहस्सा और व्यवहार नहह बन पाया है, जैसाकक पतिम में है। यहाँ तक कक पतिम बंगाल और
महाराष्ट्र जैसे राययों में, जहाँ रंगमंच परम्परा बहुत सफल है, कोइ भी कलाकार रंगमंच के प्रतत
पूणमतः समर्तपत नहह है। वे कदन के समय ककसी व्यवसाय या ककसी ऄन्य कायम में संलग्न रहते हैं तथा
के वल र्ाम को वे ऄभ्यास या प्रदर्मन करने के तलए अते हैं। भारत में व्यावसातयक प्रदर्मनों की
सूची वाली कं पतनयों की ऄवधारणा बहुत नइ है। भारतीय ऄतभनेता और रंगमंच कायमकताम के तलए
रंगमंच एक व्यवसाय कै से बन सकता है? यह सबसे बड़ा प्रश्न है। यह कै से ईसे ईसके भोजन की
ईपलब्धता के साथ-साथ ईसकी कला के ऄभ्यास का ऄवसर प्रदान कर सकता है?
रंगमंच से कफल्मों की ओर भारी संख्या में पलायन कोइ नइ घटना नहह है। टेलीतवज़न, वीतडयो, कफल्म
और ईपग्रह चैनलों ने लोगों की ऄतधकतम संख्या को रंगमंच से आन तवकल्पों के प्रतत अकर्तषत ककया है
क्योंकक यहां ऄतधक पैसा, चकाचौंध करने वाला अकषमण और बाजार के ऄवसर हैं। पररणामतः,
रंगमंचीय गतततवतधयां तपछले 15 वषों से एक गंभीर बाधा से बुरी तरह से प्रभातवत हैं। हालांकक, पुनः
धीरे-धीरे तस्थतत बदलना प्रारम्भ हुइ है। दर्मक छोटे परदे से तंग अ चुके प्रतीत होते हैं। रंगमंच एक
जीतवत और प्रत्यक्ष माध्यम रहा है और सदैव ऄपने दर्मकों के साथ मानवीय स्तर पर काम करता रहा
है, जो कभी मर नहह सकता है। यहाँ तक कक ऄसंख्य बाधाओं और आततहास में ईथल-पुथल के बाद भी
यह ऄंत में हमेर्ा एक तवजेता के रूप में ईभरा है।
यह ऄसम के ऄंककअ
नाट की प्रस्तुतत है।
आस र्ैली में ऄसम,
तवद्युत् गतत के पदचाप, तवतवध मुद्राओं िारा सभी भावनाएं दर्ामयी जा सकती हैं।
के रल के पारंपररक
लोकनाट्य का ईत्सव वृतिकम्
(नवम्बर-कदसम्बर) मास में
मनाया जाता है।
यह प्राय: देवी के सम्मान में
के रल के के वल काली मंकदरों में
प्रदर्तर्त ककया जाता है।
यह ऄसुर दाररका पर देवी
भद्रकाली की तवजय को तचतत्रत
करता है।
गहरे साज-श्रृंगार के अधार पर
मुतडयेट्टु में सात चररत्रों का
तनरूपण होता है- तर्व, नारद,
दाररका, दानवेन्द्र, भद्रकाली, कू तल, कोआतम्बदार (नंकदके श्वर)।
यह के रल की एक पारंपररक और
ऄत्यंत लोकतप्रय रंगमंच र्ैली है।
'थेय्यम' र्ब्द संस्कृ त के र्ब्द 'दैव'ं
(Daivam) से व्युत्पन्न है तजसका ऄथम
है परमेश्वर।
ऄत: आसे भगवान का नृत्य कहा जाता
है।
पूवमजों की अत्मा, लोक नायकों, और
तवतभन्न रोगों और बीमाररयों के देवी-
देवताओं की पूजा करने की परंपरा को
दतक्षण भारत में प्राचीन काल से ही
देखा जा सकता है।
थेय्यम तवतभन्न जाततयों िारा आन
अत्माओं को खुर् करने व तृप्त करने के तलए ककया जाता है
थेय्यम के तवतर्ि तवर्ेषताओं में से एक है, रंगीन पोर्ाक और प्रेरणादायक टोपी [ Mudi (मुडी)]
जो लगभग 5 से 6 फीट उंची सुपारी के जोड़, बांस, सुपारी की पत्ती से अच्छाकदत और लकड़ी के
तख्तों से बना है और तवतभन्न पक्के रंगों हल्दी, मोम और Arac (ऄरक) से रंतजत है।
यह के रल की सवामतधक
प्राचीन पारंपररक रंगमंच
र्ैली है, जोकक संस्कृ त
नाटकों की परंपरा पर
अधाररत है।
आसकी ईत्पतत्त दो हजार
वषम पूवम हुइ थीI
भारत के प्रख्यात संस्कृ त
नाटकों से भी आसकी
ईत्पतत्त को संबद् ककया
जा सकता है।
कु रटयट्टम संस्कृ त के
र्ास्त्रीय स्वरुप और के रल
की स्थानीय प्रकृ तत के संश्लेषण का प्रतततनतधत्व करता है।
कु रटयट्टम, पुरुष ऄतभनेताओं तजन्हें चकयार (Chakyars) तथा मतहला कलाकारों तजन्हें नांतगयार
(Nangiars) कहा जाता है के एक समूह िारा ककया जाता है।
आस कला में ढ़ोल बजाने वालों को नातम्बयासम कहा जाता है, रंगर्ालाओं को कु ट्टमपालम
(Kuttampalams) कहा जाता है।
सूत्रधार और तवदूषक या मसखरे कु रटयाट्टम् के तवर्ेष पात्र हैं।
तसफम तवदूषक को ही संवाद बोलने की स्वंतत्रता है।
हस्तमुद्राओं तथा अंखों के संचलन पर बल देने के कारण यह नृत्य एवं नाट्य रूप तवतर्ष्ट बन
जाता है।
हाल ही में, कु रटयट्टम को यूनेस्को िारा "मानवता की मौतखक और ऄमूतम तवरासत की कृ ततयों में
ईत्कृ ि" के रूप में घोतषत ककया गया है।
ऄतभनेताओं को आस कला में महारत प्राप्त करने के तलए दस से पंद्रह वषम के किोर प्रतर्क्षण से
गुजरना होता है तभी वे ऄपनी श्वास पर तनयंत्रण करने तथा चेहरे और र्रीर की पेतर्यों िारा
सूक्ष्म भावों की प्रस्तुतत को रंगमंच के ऄनुसार पररवर्ततत करने में समथम हो पाते हैं।
2.17. रामलीला
रामलीला ईत्तरी भारत में परम्परागत रूप
से खेला जाने वाला राम के चररत पर
अधाररत नाटक है।
यह प्रायः तवजयादर्मी के ऄवसर पर खेला
जाता है।
दर्हरा ईत्सव में रामलीला का मंचन भी
महत्वपूणम है।
रामलीला में राम, सीता और लक्ष्मण के
जीवन वृत्तांत का वणमन ककया जाता है।
रामलीला नाटक का मंचन देर् के तवतभन्न
क्षेत्रों में होता है।
यह देर् में ऄलग-ऄलग तरीके से मनाया जाता है।
2.18. भू ता
2.19. दसकरिया
दसकरिया ओतडर्ा में
प्रचतलत गाथा गायन की एक
र्ैली है।
‘दसकरिया’ काष्ि से बने
र्ब्द ‘कािी’ ऄथवा ‘राम
ताली’ नामक एक संगीत
वाद्य से तलया गया है,
तजसका ईपयोग प्रस्तुतीकरण
के दौरान ककया जाता है।
प्रस्तुतीकरण एक प्रकार की
पूजा है तथा भक्त ‘दास’ की
ओर से भेंट है।
2.20. पोवाडा
पोवाडा, महाराष्र की एक
पारम्पररक लोक कला र्ैली है।
यह नृत्य मुख्य रूप से महाराष्ट्र के
के न्द्रीय तज़ले धुतलया के
अकदवातसयों िारा ककया जाता है।
पोवाडा र्ब्द का ऄथम,’ र्ानदार
र्ब्दों में एक कहानी का वृतान्त है।
वृतान्त सदैव ककसी वीर ऄथवा
घटना ऄथवा स्थान की प्रर्ंसा में
सुनाया जाता है।
मुख्य वृतान्तकताम को र्ाहीर के नाम
से जाना जाता है जो लय बनाए
रखने के तलए डफ बजाता है।
आस नृत्य में प्लेटों पर डंतडयों के वादन से धुन तनकाली जाती है।
आसके ऄलावा ढोल का प्रयोग भी आस नृत्य में ककया जाता है।
गीत तीव्र होता है और मुख्य गायक िारा तनयंतत्रत होता है तजसका समथमन मंडली के ऄन्य सदस्यों
प्राचीनतम ईल्लेखनीय पोवाडा ऄतग्नदास िारा रतचत ऄफज़ल खानचा वध (ऄफज़ल खाँ का वध-
1659) था, तजसमें ऄफज़ल खाँ के साथ तर्वाजी के संघषम का वणमन ककया गया है।
का एक लोकतप्रय लोक
संगीत है।
तनष्पादनकताम की भी
जो धनुष के अकार का
होता है।
पहनता है।
यह छत्तीसगढ़ में प्रचतलत एक लोक गीत है तजसमें पांडवों की कहानी का वणमन ककया जाता है।
परंपरागत रूप से यह पुरुषों िारा
प्रदर्तर्त ककया जाता था, लेककन ऄब
मतहलाएं भी आसका प्रदर्मन करती हैं।
आसमें एक मुख्य कलाकार और कु छ
सहायक गायक और संगीतकार होते
हैं।
मुख्य कलाकार एक के बाद एक
प्रकरण प्रस्तुत करता है तथा
पररदृश्य में पात्रों को ऄपने ऄतभनय
के माध्यम से जीवंत करता चला
जाता है, कभी-कभी वह बीच में नृत्य
भी प्रस्तुत करता है।
प्रदर्मन के दौरान वह ऄपने हाथ में
पकड़े हुए आकतारे की लय पर ऄपना
गीत प्रस्तुत करता है। पंडवानी गायन की दो र्ैतलयाँ प्रचतलत हैं: वेदमतत और कापातलक।
2.24. कतनयन कू थु
1. पररचय ___________________________________________________________________________________ 17
2. गवणत ____________________________________________________________________________________ 17
16
1. पररचय
प्राचीन काल में भारतीयों ने विशेष रूप से धमय तथा दशयन में रूवच ली, ककन्द्तु आसका ऄथय यह
कदावप नहीं है कक व्यािहाररक विज्ञान में ईनकी कोइ रूवच नहीं थी।
पाषाणकाल से ही यहााँ के वनिावसयों के िैज्ञावनक बुवि होने का स्पष्ट प्रमाण वमलता है। विज्ञान के
कु छ क्षेत्रों जैसे गवणत, ज्योवतष तथा धातुविज्ञान में भारतीयों द्वारा ककये गए अविष्कारों तथा
सफलता से सम्पूणय विश्व पररवचत है।
प्रागैवतहावसक काल से ही भारतीयों की िैज्ञावनक बुवि का पररचय हमें प्राप्त होने लगता है।
िास्ति में पाषाणकालीन मानि ही िनस्पवत शास्त्र, प्राणी शास्त्र, ऊतु शास्त्र अकद का जन्द्मदाता
है। पशुओं का वचत्र तैयार करने के दौरान ईसने ईनकी शरीर संरचना की ऄच्छी जानकारी प्राप्त
कर ली, खाद्य- ऄखाद्य पदाथों का भी ईसे ज्ञान था तथा खाद्य पदाथों को ईत्पन्न करने के वलए
ईपयुक्त ऊतु की भी ईसे जानकारी थी। ऄवि पर वनयंत्रण स्थावपत कर आसने सुन्द्दर और सुडौल
ईपकरण, हवथयार अकद बनाना प्रारम्भ कर कदया था। आसी ज्ञान ने कालांतर में भौवतकी तथा
रसायन शास्त्र को जन्द्म कदया।
वसन्द्धु सभ्यता में भी हमें िैज्ञावनक प्रगवत का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त होता है। एक सुवनवित योजना के
अधार पर नगरों का वनमायण, भार-माप के वनवित पैमानों का प्रयोग, दशमलि पिवत का ज्ञान,
पात्रों के उपर प्राप्त ज्यावमतीय ऄलंकरण, तौल की आकाइ के रूप में 16 की संख्या तथा ईसके
अितयकों का प्रयोग, विकवसत पाषाण तथा धातु ईद्योग, मुहरें, मनके , अभूषण, मूर्ततयााँ, ईपकरण
अकद ईनके विकवसत िैज्ञावनक तथा तकनीकी ज्ञान के पररचायक हैं। कालीबंगा तथा लोथल से
प्राप्त बालक के छेदयुक्त कपालों से ऐसा वनष्कषय वनकाला जाता है कक ये लोग शल्य-वचककत्सा
करना भी जानते थे।
ईपयुयक्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कक भारत में प्राचीन काल से ही विज्ञान एिं तकनीकी की एक
समृि विरासत रही है। आस प्रकार अगे हम ईन विवभन्न क्षेत्रों पर दृवष्ट डालते हैं जहााँ हमें भारत के
विज्ञान तथा प्रौद्योवगकी एिं विवभन्न िैज्ञावनकों के योगदान का पता चलता है।
2. गवणत
िैकदक काल में हम गवणत शास्त्र के विकवसत होने का प्रमाण प्राप्त करते हैं। आस दृवष्ट से सूत्र-काल
(लगभग इ. पू. 600-400) महत्िपूणय है।
o ‘शुल्ि’ का शावददक ऄथय नापना होता है। यज्ञों में िेकदयां और मण्डप बनाये जाते थे। िेदी की
अकृ वत वभन्न-वभन्न होती थी- िगय, समचतुभुयज, समबाहु समलंब, अयत, समकोण वत्रभुज,
अकद।
o आन्द्हें तैयार करने के वलये नाप-जोख की अिश्यकता पड़ती थी। आस कायय के वलये जो विवध-
विधान बनाये गये ईन्द्हें शुल्ि सूत्रों में वलखा गया।
o िस्तुतः ये सूत्र ही भारत के गवणतशास्त्र में प्राचीनतम ग्रन्द्थ कहे जा सकते हैं, वजनमें हम
ज्यावमवत ऄथिा रेखागवणत संबंधी ज्ञान को ऄत्यन्द्त विकवसत पाते हैं।
o गौतम, बौधायन, अपस्तम्ब, कात्यायन, मैत्रायण, िाराह, िवशष्ठ अकद प्राचीन सूत्रकार हैं।
रेखागवणत संबंधी वसिान्द्तों के प्रवतपादन तथा विकास का प्रधान श्रेय बौिायन को ही कदया जा
सकता है। ईन्द्होंने ही सबसे पहले2जैसी संख्याओं को ऄपररमेय मानते हुए ईनका ऄवधकतम शुि
मूल्य ज्ञात ककया था।
यूनानी दाशयवनक पाआथागोरस (540 इ. पू.) के नाम से प्रचवलत प्रमेय वजसके ऄनुसार ‘समकोण
वत्रभुज के कणय पर बना िगय शेष दो भुजाओं पर बने िगों के योग के बराबर होता है’ का ज्ञान
बौिायन को शतावददयों पूिय ही था और ऄब ऄवधकांश विद्वान् आसे ‘शुल्ि प्रमेय’ ही कहना ज्यादा
पसन्द्द करते हैं।
बौिायन ने िृत्त को िगय तथा िगय को िृत्त में बदलने का वनयम प्रस्तुत ककया तथा वत्रभुज, अयत
समलम्ब चतुभुयज जैसी रेखागवणत की अकृ वतयों से िे पूणय पररवचत थे।
अपस्तम्ब ने वद्वतीय शताददी इसा पूिय में व्यािहाररक रेखागवणत की ऄिधारणाओं को प्रस्तुत
ककया वजसमें न्द्यन
ू कोण, ऄवधककोण और समकोण का भी ईल्लेख वमलता है। कोणों के आस ज्ञान से
ईन कदनों ऄवि िेकदयों के वनमायण में सहायता वमलती थी।
यजुिेद तथा विष्णु पुराण से स्पष्ट होता है कक एक से दस तथा दस पर अधाररत ऄन्द्य संख्याओं के
संबंध में दाशवमक पिवत का ज्ञान िैकदककालीन भारतीयों को था।
ऄंक वचन्द्हों के साथ आस पिवत का प्रयोग सियप्रथम बक्षाली पाण्डु वलवप (तीसरी-चौथी शताददी
इस्िी) में ही प्राप्त होता है।
o बक्षाली, पाककस्तान के पेशािर के समीप एक ग्राम है।
o यहीं से 1881 इ. में एक ककसान को खुदाइ करते समय खवण्डत ऄिस्था में यह पाण्डु वलवप
प्राप्त हुइ थी।
o समकालीन गवणत की वस्थवत पर प्रकाश डालने िाला यह एकमात्र ग्रन्द्थ है।
o आसमें न के िल भाग, िगयमूल, ऄंकगवणतीय एिं ज्यावमतीय श्रेवणयों जैसे प्रारवम्भक विषयों की
व्याख्या है, ऄवपतु यह कु छ विकवसत विषयों जैसे सवम्मश्र श्रेवणयों के योग, समरेखीय
समीकरणों तथा प्रारवम्भक वद्वघात समीकरणों जैसे विकवसत विषयों पर भी प्रकाश डालता
है।
पविमी संसार भारत का वचरऊणी है। आब्निवशया (9िीं शती), ऄलमसूदी (दसिी शती) तथा
ऄल्बरूनी (12िीं शती) जैसे ऄरब लेखक आस पिवत के अविष्कार का श्रेय वहन्द्दओं
ु
(भारतिावसयों) को ही देते हैं।
अययभट्ट के पिात् ‘ब्रह्यगुप्त’ (लगभग सातिीं शती) का नाम अता है। ईनकी प्रवसि कृ वत ‘ब्रह्मस्फु ि
वसिान्द्त’ 628 इ. में वलखी गयी।
o ऄपनी पुस्तक में आन्द्होंने शून्द्य का ईल्लेख पहली बार एक संख्या के रूप में ककया।
o आसमें िृतीय चतुभुयजों, िगों, अयतों, अकद की पररभाषा तथा व्याख्या के वलये ऄनेक सूत्र
कदये गये हैं।
o आन्द्होंने िृत्तीय चतुभुयजों के क्षेत्रफल को 21िें श्लोक में, ‘िालेमी प्रमेय’ को 28िें श्लोक में, सूची
स्तंभ (pyramid) और वछन्नक (frustum) के अयतन को 45िें एिं 46िें श्लोक में िर्तणत
ककया है।
ब्रह्मगुप्त के पिात महािीर (निीं शती) तथा भास्कर ऄथिा भास्कराचायय (12िीं शती) जैसे
प्रवसि गवणतज्ञों का नाम अता है। आन्द्होंने जो ऄनुसंधान ककये ईनके विषय में पविमी जगत्
पुनजायगरण काल ऄथिा ईसके बाद तक नहीं जानता था। महािीर ने ऄत्यन्द्त सुबोध शैली में
विविध प्रकार के िृत्तों का क्षेत्रफल वनकालने की विवध प्रस्तुत की। धनात्मक तथा ऊणात्मक
पररणामों से िे पररवचत थे, िगयमूल एिं घनमूल वनकालने की ठोस प्रणाली का प्रितयन ककया तथा
िगय समीकरण एिं ऄन्द्य प्रकार के ऄवनवित समीकरणों का हल वनकालने में िे वनपुण थे।
गवणतज्ञ भास्कर खानदेश (महाराष्ट्र) के वनिासी थे वजनका सुप्रवसि गन्द्थ ‘वसिान्द्त वशरोमवण’ है।
यह पुस्तक चार भागों में विभावजत है- लीलािती, बीजगवणत, ग्रहगवणत तथा गोलाध्याय।
o ऄवन्द्तम भाग में मुख्यतः खगोल का िणयन है।
o भास्कराचायय ने ‘लीलािती’ में ‘क्षेत्र व्यिहार’ नामक ऄध्याय वलखा है- समकोण वत्रभुजों पर
‘शुल्ब प्रमेय’ (पाआथागोरस प्रमेय) की ईपपवत्त दी है।
o लीलािती ऄंकगवणत और महत्िमानि (क्षेत्रफल, घनफल) का स्ितंत्र ग्रन्द्थ है, वजसमें पूणायक
और वभन्न, त्रैरावशक (rule of three), दयाज, व्यापार गवणत, वमश्रण, श्रेवणयां (series),
क्रमचय (permutation), मावपकी (mensuration) और थोड़ी बीजगवणत भी है।
o चूंकक प्राचीनकाल में गणना पािी पर धूल वबछाकर ईं गली या लकड़ी से की जाती थी ऄतः
लीलािती को ‘पािी गवणत’ भी कहते हैं।
o यद्यवप ऄवनणीत समीकरणों (interminate equations) का ऄध्ययन अययभट्ट प्रथम के
समय से ही अरंभ हो गया था, लेककन भास्कर ने ईसे चरम तक पहुंचाया।
o ऄपने महत्िपूणय ग्रन्द्थ ‘बीजगवणत’ में भास्कर ने 213 पद्य वलखे हैं। िर्तणत विषय हैं- धनणय
(धनात्मक) संख्याओं का योग, करणी (surds) संख्याओ का योग, कट्टक (भाजक और भाज्य)
की प्रकक्रया, िगय प्रकृ वत, एक-िगय समीकरण, ऄनेक-िगय समीकरण अकद।
o भास्कर ने ऄवनणीत िगय समीकरण के हल की जो विवध दी है , ईसे ‘चक्रिाल विवध’ (cyclic
method) की संज्ञा दी गइ और यह खोज जो भास्कराचायय ने 12िीं शती में की, ईसे 16िीं
शती में पािात्य गवणतज्ञों ने खोजा।
o वसिान्द्त वशरोमणी में सबसे महत्िपूणय ‘वनरन्द्तर गवत का विचार’ (idea of perpetual
motion) है। यह ऄरबों द्वारा बारहिीं शताददी में यूरोप में फै लाया गया।
o आसी से कालान्द्तर में शवक्त तकनीक (power technology) का विकास हुअ।
o न्द्यूिन से शतावददयों पूिय भास्कर ने ‘पृथ्िी के गुरुत्िाकषयण वसिान्द्त’ का पता लगा वलया था।
भास्कर ने बताया कक पृथ्िी का कोइ अधार नहीं है और यह के िल ऄपनी शवक्त से वस्थर है।
िे ‘शून्द्य’ तथा ‘ऄनन्द्त’ (infinity) का वनवहताथय भलीभांवत समझते थे।
o आस प्रकार निीन ऄंकन पिवत, शून्द्य तथा दाशवमक पिवत का अविष्कार गवणत क्षेत्र में
प्राचीन भारतीयों की सिायवधक महत्िपूणय ईपलवदधयां हैं। ऄपनी वजन महत्िपूणय खोजों तथा
अविष्कारों के उपर यूरोप के लोग आतना गिय करते हैं, ईनमें से ऄवधकांश विकवसत गवणतीय
पिवत के वबना संभि नहीं थे। भास्कर के पिात् भारत में गवणत शास्त्र का कोइ मौवलक
लेखक नहीं हुअ।
नौंिीं शताददी में, जेम्स िेलर ने लीलािती का ऄनुिाद ककया। मध्य युग में, नारायण पंवडत ने ऐसी
गवणत रचनाओं की रचना की वजसमें ‘गवणतकौमुदी’ और ‘बीजगवणतिताम्सा’ का समािेश है।
नीलकं ठ सोमासुत्िन ने ‘तंत्रसंग्रह’ की रचना की, वजसमें वत्रकोणवमतीय फलनों के वनयम का
समािेश है। नीलकं ठ ज्योवतर्तिद ने तावजक का संकलन ककया जो कक बड़ी मात्रा में फ़ारसी
तकनीकी शददों से संबंवधत है। मुगलकाल में शेख फै जी (1587 इ.) ने लीलािती का फारसी
ऄनुिाद प्रस्तुत ककया। तत्पिात् ईनकी कृ वतयों का ऄंग्रेजी ऄनुिाद भी हुअ।
ज्योवतष के पांच वसिान्द्तों- पैतामह, िावशष्ठ, सूय,य पौवलश तथा रोमक का ईल्लेख ककया गया है।
आसमे ऄवन्द्तम दो की ईत्पवत्त यूनान से मानी गयी है। रोमक वसिान्द्त के संबंध में िाराहवमवहर ने
वजन नक्षत्रों का ईल्लेख ककया है िे यूनानी लगते हैं। पौवलश वसिान्द्त वसकन्द्दररया के प्राचीन
ज्योवतषी पाल के वसिान्द्तों पर अधाररत प्रतीत होता है। ज्योवतष के माध्यम से यूनानी भाषा के
ऄनेक शदद संस्कृ त तथा बाद की भारतीय भाषाओं में प्रचवलत हो गये।
गुप्त काल में संस्कृ वत के ऄन्द्य पक्षों के साथ-साथ ज्योवतष एिं खगोल विद्या का भी सिाांगीण
विकास हुअ। गुप्तकाल के आवतहास-प्रवसि ज्योवतषी ‘अययभट्ट’ प्रथम एिं ‘िाराहवमवहर’ हैं।
o अययभट्ट प्रवसि खगोलविद् होने के साथ-साथ महान् गवणतज्ञ भी थे। अययभट्ट के प्रवसि ग्रन्द्थ
‘अययभिीयम’ से ज्योवतष के प्रगवत के वनवित एिं प्रत्यक्ष साक्ष्य वमलते हैं।
o अययभट्ट ज्योवतष पर लेखनी ईठाने िाले प्रथम प्राचीनतम ज्ञात ऐवतहावसक व्यवक्त थे।
अययभट्ट ने कभी भी ककसी मत का ऄन्द्धानुकरण नहीं ककया बवल्क ज्योवतष संबंधी ईनके
वनष्कषय स्ियं के वनरीक्षणों एिं ऄन्द्िेषणों पर अधाररत थे।
o अययभट्ट ने आस बात को नहीं माना कक सूयय एिं चन्द्द्र ग्रहणों का कारण राहु और के तु जैसे ऄसुर
हैं। ईन्द्होंने यह मत कदया कक चन्द्द्र या सूयय ग्रहण चन्द्द्रमा पर पृथ्िी की छाया पड़ने से ऄथि
सूयय और पृथ्िी के बीच चन्द्द्रमा के अ जाने से लगते हैं।
o अययभट्ट पहले भारतीय खगोलशास्त्री थे, वजन्द्होंने यह खोज की कक पृथ्िी गोल है तथा ऄपने
ऄक्ष (axis) के चारों ओर पररभ्रमण करती है, सूयय वस्थत है तथा पृथ्िी गवतशील है, चन्द्द्रमा
तथा दूसरे ग्रह सूयय के प्रकाश से ही प्रकावशत होते हैं, ईनमें स्ियं कोइ प्रकाश नहीं होता है।
o आन्द्होंने ही जीिा के फलनों (sine functions) का पता लगाया तथा खगोल के वलये ईनका
ईपयोग ककया, दो क्रमागत कदनों की ऄिवध में िृवि या कमी को नापने के वलये सिीक सूत्र
प्रस्तुत ककया, ग्रहीय गवतयों के वििरण की व्याख्या के वलये ‘ऄवधचक्रीय वसिान्द्त’
(epicyclic theory) की स्थापना ककया, चन्द्द्र की कक्षा में पृथ्िी की छाया के कोणीय व्यास
को शुि रूप में प्रकि ककया।
o ईन्द्होंने यह वनवित करने के भी वनयम बनाये कक ककसी ग्रहण में चन्द्द्रमा का कौन सा भाग
अच्छाकदत होता है तथा ग्रहण कक ऄिवध में ऄधायश तथा पूणय ग्रास का ज्ञान ककस प्रकार ककया
जा सकता है।
o अययभट्ट ने िषय की लम्बाइ 365.2586805 कदनों की बताइ। यह िालमी द्वारा मान्द्य लम्बाइ
365.2631579 कदनों की यथाथय ऄिवध के सवन्नकि है। ये सभी खगोल क्षेत्र में ईन्नत ज्ञान के
पररचालक हैं ककन्द्तु यह खेद का विषय है कक हम ईन पिवतयों तथा परीक्षणों के बारे में कु छ
भी नहीं जानते वजन्द्होंने आन ईपलवदधयों को सुगम बनाया।
o दूरबीन (Telescope) के ज्ञान के ऄभाि में खगोल क्षेत्र में आतनी ईच्चकोरि की ईपलवदध
अियय की बात कही जायेगी।
o पािात्य जगत् कोपरवनकस (1473-1543) को ब्रह्माण्ड के ‘सूयय के वन्द्द्रक वसिान्द्त’ का
ऄन्द्िेषक मानता है, जबकक आसके शतावददयों पूिय भारतीय खगोलशास्त्री अययभट्ट ने आस
वसिान्द्त का पता लगाकर ब्रह्माण्डीय गवतविवधयों का के न्द्द्र सूयय को घोवषत कर कदया था।
o अययभट्ट ने ज्योवतष को गवणत से ऄलग शास्त्र के रूप में प्रवतस्थावपत कर कदया। ईनके विचार
सबसे ऄवधक िैज्ञावनक थे।
o अययभट्ट के पिात् ईनके वशष्यों- वनःशंक, पाण्डु रंगस्िामी तथा लािदेि द्वारा ईनके वसिान्द्तों
का प्रचार-प्रसार ककया गया। आनमें लािदेि सबसे ऄवधक प्रवसि हैं वजसने ‘पौवलश’ तथा
‘रोमक वसिातों’ की व्याख्या प्रस्तुत की। ईन्द्हें ‘सिय वसिान्द्त गुरु’ भी कहा जाता है।
अययभट्ट के पिात् भारतीय ज्योवतवषयों में िाराहवमवहर (छठी शताददी) का नाम ईल्लेखनीय है।
यकद अययभट्ट गवणत ज्योवतष के प्रितयक थे तो िाराहवमवहर फवलत ज्योवतष के प्रणेता के रूप में
स्मरणीय हैं।
o आनका गवणत ज्योवतष संबंधी प्रवसि ग्रन्द्थ ‘पंचवसिावन्द्तका’ है वजसमें इसा की तीसरी-चैथी
शती में प्रचवलत ज्योवतष के पांचों वसिान्द्तों- पैतामह, िावशष्ठ, रोमक, पौवलश तथा सूय-य का
ईल्लेख वमलता है।
o पंचवसिावन्द्तका के प्रथम खण्ड में खगोल विज्ञान पर विशद प्रकाश डाला गया है।
o ब्रह्माण्डीय वपण्डों का ऄवस्तत्ि, ईनका परस्पर संबंध तथा प्रभाि संबंधी िाराहवमवहर का
ज्ञान अज भी हमें चमत्कृ त करता है। आनमें मात्र सूयय वसिान्द्त संबध
ं ी पाण्डु वलवप तथा िीकायें
ही आस समय प्राप्त हैं।
o िाराहवमवहर ने विज्ञान की ईन्नवत में कोइ मौवलक योगदान तो नहीं कदया ककन्द्तु
‘पंचवसिावन्द्तका’ वलखकर ईन्द्होंने ज्योवतष का बड़ा ईपकार ककया। यकद यह ग्रन्द्थ न वमलता
तो ज्योवतष शास्त्र का आवतहास ऄपूणय रहता।
o ‘पंचवसिावन्द्तका’ के ऄवतररक्त िाराहवमवहर ने कु छ ऄन्द्य ग्रन्द्थों- बृहज्जातक बृहत्संवहता तथा
लघुजातक- की भी रचना की। ये फवलत ज्योवतष की रचनायें हैं। बृहत्जातक एिं बृहत्संवहता
में भौवतक भूगोल, नक्षत्र विद्या, िनस्पवत विज्ञान, प्रावण शास्त्र अकद का विश्लेषण ककया गया
है। पौधो में होने िाले विवभन्न रोगों तथा ईनके ईपचार के क्षेत्र में भी ईन्द्होंने बड़ा काम
ककया। विवभन्न औषवध के रूप में पौधों के गुणकारी ईपयोग संबंधी ईनके शोध अयुिेद की
ऄमूल्य वनवध है। बृहत्संवहता, ज्योवतष, भौवतक भूगोल, िनस्पवत तथा प्राकृ वतक आवतहास का
विश्वकोश ही है।
अययभट्ट तथा िाराहवमवहर के पिात् भारतीय ज्योवतवषयों में ‘ब्रह्मगुप्त’ का नाम प्रवसि है। आनके
प्रवसि ‘ब्रह्मस्फु ि वसिान्द्त’ के कु ल चौबीस ऄध्यायों में से बाआस ज्योवतष से ही संबंवधत हैं। ‘खण्ड
खाद्यक’ आनका दूसरा ग्रन्द्थ है। ब्रह्मगुप्त को आस बात का श्रेय कदया जाता है कक ऄरबों में ज्योवतष
का प्रचार सियप्रथम ईन्द्होंने ही ककया। ईनके ग्रंथों का ऄल्बरूनी द्वारा ऄनुिाद ककया गया।
प्राचीन रसायन शास्त्र ‘रसविद्या’, ‘रसतंत्र’, ‘रसकक्रया’ ऄथिा ‘रसशास्त्र’ के नाम से जाना जाता है।
वजसका ऄथय है, तरल पदाथय का विज्ञान। प्राचीन ग्रन्द्थों में रसविद्या को ‘पराविद्या’ भी कहा गया है
जो तीनों लोकों में दुलयभ तथा भोग और मुवक्त प्रदान करती है।
रसायनज्ञों ने मध्ययुगीन यूरोपीयों के समान मूल धातु को स्िणय में रूपान्द्तरण करने की तकनीक में
कदलचस्पी नहीं ली तथा ऄपना ध्यान ऄवधकांशतः औषवधयों, अयुिधयक रसायनों, िाजीकरों
(aphrodisics), विषों तथा ईनके प्रवतकारों अकद के बनाने पर ही के वन्द्द्रत ककया। ये रसायनज्ञ
विचूणयन (calculation) तथा असिन (distillation) जैसी सामान्द्य प्रकक्रया द्वारा विविध प्रकार
के ऄम्ल, क्षार तथा धातु लिण बनाने में सफल भी हो गये। ईन्द्होंने एक प्रकार की बारुद का भी
अविष्कार कर वलया था।
भारतीय परम्परा में बौि दाशयवनक ‘नागाजुन
य ’ को रसायन का वनयामक माना गया है जो कवनष्क
के समकालीन थे। संभि है आस नाम के कु छ और अचायय भी बाद में हुए हों। व्हेनसांग के ऄनुसार
नागाजुयन दवक्षण कोशल में वनिास करते थे।
o ये रसायन शास्त्र में वसि थे तथा आन्द्होंने ऄत्यन्द्त लम्बी अयु देने िाली एक वसिििी का
ऄविष्कार ककया था।
o सोने, चांदी, तांब,े लोहे अकद के भस्मों द्वारा ईन्द्होंने रोेेगों की वचककत्सा का विधान भी
प्रस्तुत ककया था।
o पारा (mercury) की खोज ईनका सबसे महत्िपूणय ऄविष्कार था जो रसायन के आवतहास में
युगान्द्तकारी घिना है।
o आन्द्होंने ‘रसरत्नाकर’ नामक एक प्रबंध की रचना की जो कक रसायन शास्त्र पर अधाररत एक
पुस्तक थी।
o नागाजुयन ने ‘ईत्तरतंत्र’ की भी रचना की जो कक सुश्रुत संवहता का एक पूरक है और
वचककत्सीय औषवधयों के वनमायण से संबंवधत है।
o बाद के िषों में जब ईनकी रूवच जैविक रसायन शास्त्र और वचककत्सा की ओर स्थानांतररत
हुइ तो ईन्द्होंने चार अयुिेकदक ग्रंथों की भी रचना की। महर्तष कणाद के िैशवे षक दशयन में भी
रसायवनक प्रकक्रया (chemical action) का ईल्लेख ककया गया है।
मेहरौली वस्थत लौह स्तम्भ आस बात का जीिंत प्रमाण है कक प्राचीन भारतीय िैज्ञावनक ‘धातु
विज्ञान’ (Metallurgy) में ऄत्यन्द्त पारंगत थे। िास्ति में, धातुकमय में होने िाले विकास में लौह
युग से कांस्य युग और िहां से ितयमान युग तक हुइ प्रगवत का विशेष योगदान है।
वजस समय पविमी विश्व में भी लोहा बनाने की विवध का ऄधूरा ज्ञान था, भारतीय धातु शोधकों
ने आस लौह स्तम्भ को आतनी वनपुणता से बनाया कक वपछले डेढ़ हजार िषों से धूप और िषाय में
खुला खड़ा होने पर भी आसमें ककसी प्रकार की जंग नहीं लगने पाइ है। आसकी पावलश अज भी
धातु िैज्ञावनक के वलये अियय की िस्तु है। कइ शतावददयों तक आतने बड़े लौह स्तम्भ का वनमायण
मानि कल्पना के परे था।
5. वचककत्सा शास्त्र
आस क्षेत्र में प्राचीन भारतीयों की ईपलवदधयां ऄत्यंत महत्िपूणय हैं। भारत में वचककत्सा ऄथिा
‘औषवधशास्त्र’ का आवतहास ऄत्यन्द्त प्राचीन है और आसकी ऐवतहावसकता िैकदक काल तक जाती है।
ऊग्िेद में ‘ऄवश्वन’ को देिताओं का कु शल िैद्य कहा गया है जो ऄपने औषधों से रोगों को दूर करने
में वनपुण थे।
ऄथियिद
े में ‘अयुिद
े के वसिान्द्त’ तथा व्यिहार संबंधी बातें वमलती हैं। रोग, ईनके प्रवतकार तथा
औषध संबंधी ऄनेक ईपयोगी तथा िैज्ञावनक तथ्यों का वििरण आसमें कदया गया है। विविध प्रकार
के ज्िरों, यक्ष्मा, ऄपवचत (गण्डमाला), ऄवतसार, जलोदर जैसे रोगों के प्रकार एिं ईनकी
वचककत्सा का विधान प्रस्तुत ककया गया है। ‘
विषस्य विषमौषधम्’ ऄथायत् विष की दिा विष ही होती है का वसिांत भी ऄथियिेद के एक मन्द्त्र
में वमलता है। ईल्लेखनीय है कक आसी पिवत पर अधुवनक होवमयोपैथी वचककत्सा अधाररत है,
वजसका मूल-वसिान्द्त सम से सम की वचककत्सा’ (समः समे शमयवत) है। आसी को लैरिन भाषा में
वसवमवलया वसवमवलबस क्यूरेन्द्िर (Similia Similibus Curantur) कहा जाता है। प्राचीन
भारतीयों ने आस वसिांत को ऄपनाया था।
बुिकाल में औषवध शास्त्र का व्यापक ऄध्ययन होता था। जातक ग्रन्द्थों से पता चलता है कक प्रवसि
विश्वविद्यालय तक्षवशला में िैद्यक के ख्यावत प्राप्त विद्वान थे जहां दूर-दूर से विद्याथी अयुिेद का
ऄध्ययन करने के वलए अते थे। आन्द्हीं में जीिक का नाम वमलता है। वबवम्बसार ने ईसे ऄपना
राजिैद्य बनाया तथा ईसने वबम्बसार, प्रद्योत तथा महात्मा बुि तक की वचककत्सा कर ईन्द्हे
रोगमुक्त ककया था।
ऄथयशास्त्र से पता चलता है कक मौययकाल में वचककत्सा शास्त्र विकवसत था। साधारण िैद्यों, चीड़-
फाड़ करने िाले वभजषों एिं चीड़-फाड़ में प्रयुक्त होने िाले यंत्रों, पररचाररकाओं, मवहला
वचककत्सकों अकद का ईल्लेख वमलता है। शि-परीक्षा (Post mortem) भी ककया जाता था। शिों
को विकृ त होने से बचाने के वलए तेल में डु बोकर रखा जाता था। ऄकाल मृत्यु के विवभन्न मामलों
जैसे फांसी, विषपान अकद की जांच कु शल वचककत्सक करते थे।
अयुिद
े में मुवन आ़त्रेय का िही स्थान है जो यूनानी वचककत्सा में वहपोक्रेिीस का है। अत्रेय संवहता
में साध्य रोग, ऄसाध्य रोग, ज्िर, ऄवतसार, पेवचश, क्षय, रक्तचाप अकद के ईपचार की विशेष
चचाय की गइ है। आस ग्रन्द्थ में जल वचककत्सा का भी िणयन है। वचककत्सा शास्त्र के क्षेत्र में ईल्लेखनीय
प्रगवत इसा पूिय प्रथम शती से ही हुइ जबकक ‘चरक’ तथा ‘सुश्रत
ु ’ जैसे सुप्रवसि अचायों ने अयुिेद
विषयक ऄपने ज्ञान से सम्पूणय विश्व को अलोककत ककया।
चरक:
o चरक को काय वचककत्सा का प्रणेता कहा जा सकता है। िे कु षाण नरेश कवनष्क प्रथम के राजिैऺद्य
थे। ईनकी कृ वत ‘चरक संवहता’ काय वचककत्सा का प्राचीनतम प्रामावणक ग्रन्द्थ है और महर्तष अत्रेय
के ईपदेशों पर अधाररत है।
o यह मुख्य रूप से अयुिेद विज्ञान से संबंवधत है वजसके वनम्नवलवखत अठ ऄियि हैं - काय
वचककत्सा (सामान्द्य वचककत्सा), कौमार-भत्यय (बाल वचककत्सा), शल्य वचककत्सा (सजयरी), सलक्य
तंत्र (नेत्र विज्ञान/इएनिी), बूिा विद्या (भूत विद्या/मनोरोग), ऄगाद तंत्र (विष विद्या), रसायन तंत्र
(सुधा), िाजीकरण तंत्र (कामोत्तेजक)। ऄल्बरूनी ने आसे औषवध शास्त्र का ‘सियश्रेष्ठ ग्रन्द्थ’ बताया है।
o चरक संवहता में 120 ऄध्याय हैं। आसमें अठ खण्ड हैं, वजन्द्हें ‘स्थान’ कहा गया है‘- सूत्र, वनदान,
विमान, शरीर, आंकद्रय, वचककत्सा, कल्प तथा वसवि । आसमें शरीर रचना, गभय वस्थवत, वशशु का
जन्द्म तथा विकास, कु ष्ठ, वमरगी, ज्िर जैसे प्रमुख अठ रोग, मन के रोगों की वचककत्सा, भेदोपभेद
अहार, पेथ्यापथ्य, रूवचकर स्िास्थिधयक भोज्यों, औषधीय िनस्पवतयों अकद का िणयन ककया गया
है। प्राचीन िनस्पवत एिं रसायन के ऄध्ययन का भी यह एक ईपयोगी ग्रन्द्थ है। आसमें वचककत्सकों
के पालनाथय जो व्यािसावयक वनयम कदये गये हैं िे वहप्पोक्रेिस के वनयमों का स्मरण कराते हैं तथा
प्रत्येक समय तथा स्थान के वचककत्सक के वलये ऄनुकरणीय हैं।
o ‘चरक संवहता’ का न के िल भारतीय ऄवपतु सम्पूणय विश्व वचककत्सा के आवतहास में महत्िपूणय स्थान
है। आसका ऄनुिाद कइ विदेशी भाषाओं में हो चुका है। भारतीय वचककत्सा शास्त्र का तो यह
विश्वकोश ही है। आसके द्वारा वनदेवशत वसिान्द्तों के अधार पर ही कालान्द्तर में अयुर्तिज्ञान का
विकास हुअ।
‘सुश्रत
ु ’
o चरक के कु छ समय पिात् ‘सुश्रत
ु ’ का ऄविभायि हुअ। यकद चरक काय वचककत्सा के प्रणेता थे तो
सुश्रत
ु शल्य वचककत्सा के ।
o ईनके ग्रन्द्थ ‘सुश्रत
ु संवहता’ में ईपदेष्टा धन्द्ित
ं रर हैं और संपूणय संवहता सुश्रुत को सम्बोवधत करके
कही गयी है।
o आसमें विविध प्रकार की शल्य एिं छेदन कक्रयाओं का ऄवतसूक्ष्म वििरण कदया गया है।
मोवतयावबन्द्द,ु पथरी जैसे कइ रेागों का शल्योपचार बताया गया है। शिविच्छेदन का भी िणयन है।
सुश्रुत ने शल्य कक्रया में प्रयुक्त होने िाले लगभग 121 ईपकरणों के नाम वगनाये हैं जो ऄच्छे लोहे
के बने होते थे। िे वचककत्सा तथा शल्य विज्ञान में दीवक्षत होने िाले छात्रों का वििरण भी प्रस्तुत
करते हैं। िे सूआयों (Injections) तथा पट्टी बांधने की विविध विवधयों का भी ईल्लेख करते हैं।
चरक के समान सुश्रुत की ख्यावत भी विश्वव्यापी थी। गुप्तकाल में भी चरक तथा सुश्रुत के वसिान्द्तों
को मान्द्यता वमलती रही तथा ईन्द्हें ऄत्यन्द्त सम्मान के साथ देखा जाता था। मनुष्यों के साथ-साथ
पशुओं की वचककत्सा पर भी ग्रन्द्थ वलखे गये। आसका एक ऄच्छा ईदाहरण पालकाप्य कृ त
‘हस्त्यायुिद
े ’ है। आस विस्तृत ग्रन्द्थ के 160 ऄध्यायों में हावथयों के प्रमुख रोगों, ईनकी पहचान एक
वचककत्सा का िणयन ककया गया है। ईनके शल्य कक्रयाओं का भी ईल्लेख है।
भारतीय वचककत्सा पिवत तीन रसों- कफ, िात तथा वपत्त के वसिान्द्त पर अधाररत थी। आनके
संतुवलत रहने पर ही मनुष्य स्िस्थ रहता था। तीनों रस जीिनी शवक्त माने जाते थे। अहार-विहार
के संतुलन पर भी विशेष बल कदया जाता था। स्िच्छ िायु तथा प्रकाश के महत्ि को भी भली-
भांवत समझा गया था। ऄनेक एवशयाइ जड़ी-बूरियां यूरोप में पहुंचने के पहले से ही यहां ज्ञात थीं,
जैसे कक छौलमुग्र िृक्ष का तेल, वजसे कु ष्ठ रोग की औषवध माना जाता था।
भारत में यहााँ के ईदार शासकों एिं धार्तमक संस्थानों ने वचककत्सा शास्त्र को विशेष रूप से संरक्षण
प्रदान ककया वजससे आस क्षेत्र की यथेष्ट प्रगवत हुइ।
ऄशोक नेऄपने राज्य में मानि तथा पशु जावत, दोनों की वचककत्सा की ऄलग-ऄलग व्यिस्था
करिाइ थी। चीनी यात्री फाह्यान वलखता है कक यहां धार्तमक संस्थानों द्वारा औषधालय स्थावपत
ककये गये थे जहां मुफ्त औषवधयां वितररत की जाती थीं।
भारतीय वचककत्सक विविध रोगों के विशेषज्ञ थे। यद्यवप शिों के सम्पकय पर वनषेध के कारण शरीर
विज्ञान एिं जीि विज्ञान के क्षेत्र में यथेष्ठ प्रगवत नहीं हो सकी तथावप भारतीयों ने एक प्रयोगावश्रत
शल्य शास्त्र (empirical surgery) का विकास कर वलया था। िे प्रसिोत्तर शल्य कक्रया से
पररवचत थे, ऄवस्थ संधान में वनपुणता प्राप्त कर ली थी तथा वचककत्सक नष्ट, युिक्षत ऄथिा दण्ड
स्िरूप विकृ त ककये गये नाक, कान एिं होठों को पुनः जोड़कर ठीक कर सकते थे।
सुश्रत
ु संवहता में िर्तणत शल्य वचककत्सा में प्रयोग होने िाले ईपकरण
6. प्रौद्योवगकी (Technology)
पाषाण प्रौद्योवगकी: प्रागैवतहावसक काल से ही प्राचीन भारतीयों ने विज्ञान के साथ-साथ
प्रौद्योवगकी (technology) के क्षेत्र में भी महत्िपूणय प्रगवत की। आस काल में पाषाण प्रौद्योवगकी
का खूब विकास हुअ।
अकद मानि ने पाषाण से विविध प्रकार के ईपकरणों का वनमायण ककया। पाषाण काल के प्रमुख
ईपकरण कोर (core), फ्लेक (flakes), तथा दलेड (Blades) हैं।
o ईपकरण बनाने के वलये कोइ ईपयुक्त पत्थर चुना जाता था, कफर ईस पर ककसी गोल-मिोल पत्थर
(pebble) से हथौड़े के समान चोि की जाती थी वजससे ईसका एक छोिा खण्ड वनकल जाता था।
आस विवध से कइ छोिे-छोिे िुकडेऺ वनकल जाते थे तथा बचे हुए अन्द्तररक भाग को बार-बार चोि
करके ऄभीष्ट अकार का ईपकरण तैयार कर वलया जाता था। आसे ही कोर कहते थे।
o जबकक ऄलग हुए िुकड़ों को फ्लेक कहा जाता था।
o आनके ककनारों पर बारीक वघासाइ करके ईन्द्हें धारदार बना कदया जाता था जो दलेड कहलाते थे।
o कु छ ईपकरणों के वनमायण में ऄत्यन्द्त ईन्नत प्रौद्योवगकी के दशयन होते हैं। पाषाण वनर्तमत प्रमुख
ईपकरण हैं- गड़ासा (chopper) तथा खण्डक (chopping) ईपकरण, हैन्द्ड एक्स तथा क्लीिर,
खुरचनी (scraper,) बेधनी (point), तक्षणी (burin), बेधक (borer) अकद।
o पूिय पाषाणयुगीन मानि ने पत्थरों की किाइ, वघसाइ अकद के द्वारा ऄभीष्ट ईपकरण बनाने में
दक्षता प्राप्त कर ली थी।
आस प्रकार पाषाण प्रौद्योवगकी का विकास पाषाणकाल में हो चुका था। पत्थर से िस्तुयें बनाने का
ईद्योग कालान्द्तर में ऄत्यन्द्त विकवसत हो गया।
सैन्द्धि सभ्यता के बाद भारत के विवभन्न क्षेत्रों में ताम्रपाषावणक संस्कृ वतयों के दशयन होते हैं-
o आनमें ताम्र धातु का व्यापक प्रयोग हुअ। तांबे को घरों में वपघलाकर िस्तुयें बनाने के साक्ष्य
वमलते हैं।
o राजस्थान का क्षेत्र ताम्र धातु ईद्योग का सियप्रमुख के न्द्द्र था। यहां के एक पुरास्थल ऄहाड़ का
एक ऄन्द्य नाम ताम्बिती ऄथायत् तांबे िाली जगह भी वमलता है।
o आसी के समीप गणेश्वर नामक स्थल से बड़ी मात्रा में तांबे के ईपकरण वमलते हैं।
o आन तथ्यों से सूवचत होता है कक ऄब देश के विवभन्न भागों में धातु प्रौद्योवगकी काफी विकवसत
एिं लोकवप्रय हो गयी थी। लगभग 1200 इ. पू. के अस-पास ताम्रपाषावणक संस्कृ वतयों का
पतन हो गया।
इ. पू. छठी शताददी ऄथिा बुि काल में गंगा-घािी में नगरों का तेजी से ईत्थान हुअ। आसे वद्वतीय
नगरीकरण कहा जाता है-
o आसके पीछे लौह तकनीक का विकास भी ईत्तरदायी था।
o मगध क्षेत्र में कच्चा लोहा असानी से प्राप्त हो जाता था। यहां के लुहार लोहे के ऄच्छे -ऄच्छे
हवथयार बना लेते थे जो मगध के शासकों को सहज में सुलभ थे। आससे मगध साम्राज्यिाद को
विकवसत एिं सुदढ़ृ होने का ऄिसर वमला।
o युि संबंधी ऄस्त्र-शस्त्रों के साथ-साथ ऄब गंगाघािी में बड़े पैमाने पर लोहे से कृ वष में काम
अने िाले ईपकरण भी तैयार ककये जाने लगे। आनकी सहायता से िनों की किायी कर
ऄवधकावधक भूवम कृ वष योग्य बनाइ गयी तथा प्रभूत ईत्पादन होने िाला। ईत्पादन ऄवधशेष
(surplus produce) ने नगरीकरण को पुष्ट ककया।
मौयय काल में पाषाण एिं लौह प्रौद्योवगकी का खूब विकास हुअ-
o ऄशोक के एकाश्मक स्तम्भ पाषाण तराशने की कला की ईत्कृ ष्टता के साक्षी हैं।
o लगभग पचास िन िजन तथा तीस फीि से ऄवधक की ईं चाइ िाले स्तम्भों को पांच-छह सौ
मील की दूरी तक ले जाकर स्थावपत करना तत्कालीन ऄवभयावन्द्त्रकी कु शलता को सूवचत
करता है तथा अज के िैज्ञावनक युग में भी अियय की िस्तु है।
o आसी प्रकार का एक ऄन्द्य ईदाहरण सुदशयन झील का वनमायण है।
o आस काल के पुरास्थलों से लोहे के औजार तथा हवथयार भारी संख्या में वमलते हैं।
o वचवत्रत धूसर मृद्भाण्ड (painted grey ware) के प्रयोक्ता लौह ईपकरणों से भली-भांवत
पररवचत थे। यह संस्कृ वत लौह तकनीक के विकास को सूवचत करती है।
मौयोतर काल प्रौद्योवगकी प्रगवत की दृवष्ट से ऄत्यन्द्त महत्िपूणय माना जा सकता है-
o महािस्तु ग्रंथ में राजगृह नगर में वनिास करने िाले 36 प्रकार के वशवल्पयों ऄथिा कामगारों
का ईल्लेख वमलता है तथा वमवलन्द्दपन्द्हो में 75 व्यिसायों का ईल्लेख है वजनमें लगभग 60
विवभन्न प्रकार के वशल्पों से संबि थे।
o अठ वशल्प सोना, चांदी, सीसा, रिन, तांबा, पीतल, लोहा तथा हीरे-जिाहरात जैसे ईत्पादों
से संबंवधत थे।
o आससे सूवचत होता है कक धातुकमय के क्षेत्र में पयायप्त वनपुणता हावसल कर ली गयी थी- विशेष
रूप से लोहा ढलायी का तकनीकी ज्ञान काफी विकवसत हो गया था।
o प्रौद्योवगकी प्रगवत के पररणामस्िरूप इसा की प्रथम तीन शतावददयों में नगरीकरण ऄपने
ईत्कषय की पराष्ठा पर पहुंच गया। आसके बाद लौह धातु अम ईपयोग की सबसे महत्िपूणय
िस्तु बन गयी।
गुप्तकाल भी प्रौद्योवगकी प्रगवत की दृवष्ट से ईन्नत था-
o ऄमरकोश में लोहे के वलये सात नाम कदये गये हैं। पांच नाम हल के फाल से संबंवधत हैं।
o मेहरौली लौह स्तम्भ से सूवचत होता है कक लौह कमय का तकनीकी ज्ञान ऄपने चरमोत्कषय पर
पहुंच गया था। आस पर मात्र मैिीज अक्साआड (MgO)की पतली परत चढ़ाकर आसे जंगरवहत
बना कदया गया है। दुभायग्यिश आसके बाद आस तकनीकी विकास को समझने के वलये हमारे
पास कोइ स्रोत ही नहीं है। आसमें लगी पावलश अज भी धातु िैज्ञावनकों के वलये अियय की
िस्तु बनी हुइ है।
o सुल्तानगंज (वबहार) से प्राप्त महात्मा बुि की लगभग साढ़े सात फु ि उंची तथा एक िन भार
िाली कांस्य प्रवतमा ईल्लेखनीय है।
o धातु प्रौद्योवगकी के सुविकवसत होने का प्रमाण वसक्कों तथा मुहरों की बहुलता में देखा जा
सकता है।
o बहुमूल्य धातुओं एिं पत्थरों से अभूषण तैयार करने का ईद्योग भी प्रगवत पर था। जहाजरानी
ईद्योग की भी ईन्नवत हुइ। सुप्रवसि कलाविद् अनन्द्द कु मार स्िमी के ऄनुसार यह पोत
वनमायण (ship building) का महानतम युग था।
रहि (ऄरघट्ट)
दवक्षण भारत भी प्रौद्योवगकी के विकास की दृवष्ट से ऄत्यवधक समृि रहा-
o वसचाइ के वलये जो बहुसंख्यक तालाबों एिं बांधों का वनमायण करिाया गया ईनमें ईच्चकोरि
की ऄवभयांवत्रक कु शलता कदखाइ देती है। आसका ईत्कृ ष्ट ईदाहरण कािेरी नदी ति पर चोल
राजाओं द्वारा श्रीरंगम् िापू के नीचे बनिाया गया बांध है।
o सम्पूणय दवक्षण में विविध प्रकार के वशल्प एिं ईद्योग धन्द्धे प्रचवलत थे।
o िस्त्र ईद्योग, नमक ईद्योग, मोती, सीप अकद के व्यिसाय सभी प्रगवत पर थे।
o दवक्षण के विवभन्न भागों से बहुसंख्यक पाषाण मवन्द्दर तथा मूर्ततयां वमलती हैं, वजनमें नाना
प्रकार की नक्काशी की गयी है। आससे पाषाण तकनीक के समुन्नत होने का प्रमाण वमलता है।
o पल्लि तथा चोलकालीन कलाकृ वतयां ईच्चतम तकनीकी प्रगवत की सूचक है।
आस प्रकार प्राचीन भारत के विवभन्न कालों में विज्ञान एिं प्रौद्योवगकी के क्षेत्र में ईल्लेखनीय प्रगवत
हुइ। कु छ क्षेत्रों में भारतीय ज्ञान-विज्ञान को विदेवशयों ने भी ग्रहण ककया तथा ईसकी प्रशंसा की।
ये गवणत की ईन विवभन्न ऄिधारणाओं तक पहुाँचने िाले प्रथम व्यवक्त थे, वजन्द्हें बाद में पािात्य
विश्व द्वारा खोजा गया।
पाइ (π) के मूल्य की गणना सबसे पहले आन्द्हीं के द्वारा
की गइ। अज वजसे पाआथागोरस प्रमेय के रूप में जाना
जाता है, िह पहले से ही बौधायन के शुल्ि सूत्र
(Salbasutra) में है, वजसे पाआथागोरस से कइ िषय
पहले वलखा गया था।
ये ‘बौधायन सूत्र’ के लेखक थे।
बौधायन सूत्र को छः िगों में बांिा गया - 1. श्रौतसूत्र
(Srautasutra), 2. कमायन्द्तसूत्र (Karmantsutra),
3. द्वैधसूत्र (dvaidhsutra) 4. गृह्यसूत्र (Grihyasutra), 5. धमयसत्र
ू (Dharmasutra) 6.
शुल्िसूत्र (Salbasutra)।
अययभट्ट ने शून्द्य की खोज की वजसकी सहायता से आन्द्होंनेपृथ्िी और चन्द्द्रमा के मध्य दूरी का सही
मापन ककया।
अययभट्ट ने सियप्रथम स्पष्ट ककया की पृथ्िी गोल है और ऄपनी
धुरी पर घूमती है।
आन्द्होंने तत्कालीन समय में मान्द्य सूयय की पूिय से पविम की
ओर गवत को ईदाहरण द्वारा गलत वसि ककया।
अययभट्ट ने यह भी स्पष्ट ककया कक चााँद और ऄन्द्य ग्रह सूयय की
रोशनी के प्रवतवबम्ब के कारण ही चमकते हैं।
ईन्द्होंने चंद्रग्रहण और सूयग्र
य हण का िैज्ञावनक स्पष्टीकरण
कदया और कहा कक ग्रहण के िल राहु या के तु या ककसी ऄन्द्य
राक्षस के कारण नहीं होते।
खगोल विज्ञान से सम्बंवधत ऄन्द्य कायय: सौर मण्डल की गवत,
नक्षत्र ऄिवध और सूयय का के न्द्द्रीय वसिांत। आन्द्हीं के नाम पर भारत के प्रथम ईपग्रह का नाम
‘अययभट्ट’ रखा गया।
िराहवमवहर पहले िैज्ञावनक थे, वजन्द्होंने दािा ककया कक दीमक और पौधे भी भूगभीय जल की
पहचान के वनशान हो सकते हैं।
ईन्द्होंने छः पशुओं और तीस पौधों की सूची दी जो पानी के सूचक हो सकते हैं।
7.1.5. भास्कराचायय II
बाल्यािस्था में ऄवत सूक्ष्म कण (वजसे ‘कण’ कहा जाता है) में
विशेष रूवच होने के कारण ईनका नाम ‘कणाद’ पड़ा।
कणाद के ऄनुसार भौवतक जगत कणों, (ऄणु / atom) से बना है वजसे मानि नेत्र के माध्यम से
नहीं देखा जा सकता है तथा आसका और ऄवधक विभाजन नहीं ककया जा सकता।
आस प्रकार, ये ऄविभाज्य और ऄविनाश्य हैं। यही तथ्य अधुवनक ऄणु वसिांत भी बताता है।
चरकसंवहता में ज्िर, कु ष्ठ, वमगी और यक्ष्मा के ऄनेक भेदोपभेदों का िणयन है।
शायद चरक यह नहीं जानते कक आनमें कु छ बीमाररयां छू त से भी फै लतीं हैं।
आनकी पुस्तक में भारी संख्या में ईन पेड़-पौधों का िणयन है वजनका प्रयोग दिा के रूप में होता है।
आस प्रकार यह पुस्तक न के िल भारतीय अयुर्तिज्ञान के ऄध्ययन के वलए बवल्क प्राचीन भारत के
िनस्पवत और रसायन शास्त्र के ऄध्ययन के वलए भी ईपयोगी है।
बाद की सकदयों में भारत में अयुर्तिज्ञान का विकास चरक के बताये मागय पर होता रहा।
आन्द्होंने सूयय से होने िाले विद्युत चुम्बकीय विककरण के ऄवस्तत्ि का सुझाि भी कदया, वजसकी पुवष्ट
1944 में की गइ।
बोस को 1917 में नाआि की ईपावध दी गइ और आसके बाद शीघ्र ही आन्द्हें भौवतक विज्ञानी और
जीिविज्ञानी दोनों के रूप में रॉयल सोसाआिी, लंदन का फे लो वनिायवचत ककया गया।
साहा समीकरण का ऄनुप्रयोग तारों के िणयक्रमीय (Spectral) िगीकरण का िणयन करने में हुअ।
करने में मदद की। आसे बोस अआंस्िीन कं डेंसिे (Bose Einstein condensate) के नाम से जाना
गया।
बोस अआंस्िीन कं डेंसेि के ऄवस्तत्ि का प्रदशयन प्रयोगों द्वारा 1995 में ककया गया।
1955 के दौरान, बायोकफवज़क्स के क्षेत्र में काम करते हुए रामचंद्रन ने एक्स-रे विितयन (x-ray
diffraction) और संबंवधत अंकड़ों के अधार पर कोलेजन
(collagen) के वलए एक संरचना का प्रस्ताि रखा।
बाद में आसे ‘वद्वबंध संरचना (two bonded structure)' का नाम
कदया गया।
आस संरचना ने ककसी भी पेप्िाआड / प्रोिीन की गठनात्मक जांच में
आस जानकारी का ईपयोग करने के नए विचार को जन्द्म कदया,
वजसने बाद में रामचंद्रन मैप (Ramachandran map) के रूप में
अकार वलया।
रामचंद्रन मैप प्रोिीन संरचना से सम्बंवधत ककसी भी विश्लेषण के
वलए एक महत्िपूणय विवध है। यह न्द्यूवक्लक एवसड (Nuclic
Acids) और पालीसैकराआड्स (polysaccharides) जैसे ऄन्द्य बायोपॉलीमर (biopolymer) पर
भी लागू होता है।
रामचंद्रन ने प्रोिीन गठन के क्षेत्र में ऄपना योगदान कदया, जैसे कक प्रोवलल घिकों (Prolil
residues) का ऄध्ययन, हाआड्रोजन बंध विभि कक्रया (Hydrogen bonding potential
function) और कु ण्डवलनी (Helix) तथा L और D घिकों की एकान्द्तरता।
आन्द्हें अनुिंवशक कोड का रहस्योद्घािन करने के वलए 1968 में माशयल नीरेनबगय (marshall
Nirenberg) और रॉबिय हॉली के साथ संयुक्त रूप से वचककत्सा
और शरीरकक्रया विज्ञान (कफवजयोलॉजी) के नोबेल पुरस्कार से
सम्मावनत ककया गया।
आन्द्होंने स्थावपत ककया कक यह कोड, सभी जीिों के वलए समान है
और तीन ऄक्षरों से बने शदद के रूप में ईच्चाररत ककया जाता है।
तीन न्द्युवक्लयोिाइडों (Nucleotides) से बना प्रत्येक सेि एक
विवशष्ट एवमनो एवसड को कोड करता है।
डॉ. खुराना ओवलगोन्द्यवु क्लयोिाइड्स (oligonucleotides:
न्द्यूवक्लयोिाआडों का तार) को संश्लेवषत करने िालों में भी प्रथम
थे। अज, ओवलगोन्द्युवक्लयोिाइड्स जैि प्रौद्योवगकी में ऄवनिायय
ईपकरण हैं, जोकक ऄनुक्रमण, क्लोवनग और जेनेरिक
आंजीवनयररग के वलए जीि विज्ञान प्रयोगशालाओं में व्यापक रूप से प्रयोग हो रहे हैं।
2. चावामक-दर्मन _______________________________________________________________________________ 50
40
धमम अत्मा का िवज्ञान है। नैितकता और अचार नीित धमम पर ही अधाररत हैं। अरंिभक काल से ही
धमम ने भारतीयों के जीवन में एक महत्त्वपूणम भूिमका िनभाइ है। धमम ने ऄपने से जुड़े लोगों के िभन्न-
िभन्न वगों के फलस्वरूप ऄनेक रूप धारण कर िलए। िविभन्न जन-वगों के धार्ममक-िवचारधारणाएं और
अचार ऄलग-ऄलग हुअ करते थे और समय व्यतीत होने के साथ-साथ धमम में पररवतमन और िवकास
होने लगा। भारत में धमम कभी भी ऄपने रूप में स्थायी नहीं रहा बिकक अन्तररक गितपूणम र्िि से
पररवर्मतत होता रहा।
ऄवतारवाद की ऄवधारणा
कइ र्तािब्दयों में हुए िवकास के फलस्वरूप िहन्दू धमम में िवकिसत प्रमुख ऄवधारणाएं िनम्निलिखत हैं-
1.1.1. ब्रह्म
1.1.2. अत्मा
ब्रह्म को सवमव्यापी माना गया है ऄत: जीवों में भी ईसका ऄंर् िवद्यमान है।
जीवों में िवद्यमान ब्रह्म का यह ऄंर् ही अत्मा कहलाती है, जो जीव की मृत्यु के पश्चात भी समाप्त
नहीं होती और दकसी नवीन देह को धारण कर लेती है। ऄंतत: मोक्ष प्रािप्त के पश्चात् वह ब्रह्म में
लीन हो जाती है।
1.1.3. पु न जम न्म
1.1.4. मोक्ष
िहन्दू धमम में मोक्ष का तात्पयम है- अत्मा का जीवन-मरण के दुष्चक्र से मुि हो जाना ऄथामत्
परमब्रह्म में लीन हो जाना।
िहन्दू धमम के ऄनुसार आसके िलए िनर्मवकार भाव से सत्कमम करना और इश्वर की अराधना
अवश्यक है।
ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूि में वणमव्यवस्था का प्रारंिभक साक्ष्य िमलता है।
प्रारिम्प्भक िहन्दू समाज कमम के अधार पर चार वणों में िवभािजत था - ब्राह्मण, क्षििय, वैश्य तथा
र्ूर।
िवद्याजमन, िर्क्षण, पूजन, कममकांड सम्प्पादन अदद करने वाले वणम को ब्राह्मण कहा जाता था।
देर् व धमम की रक्षा हेतु र्स्त्र धारण करने एवं युद्ध करने वाले वणम को क्षििय कहा जाता था।
वैश्यों का कृ िष एवं व्यापार द्वारा समाज की अर्मथक अवश्यकताएँ पूणम करने वाले वणम को वैश्य
कहा जाता था।
ऄन्य तीन वणों की सेवा करने एवं ऄन्य जरूरतें पूरी करने वाले वणम को र्ूर कहा जाता था।
ऄथामत दकसी भी कु ल में जन्म लेने वाला व्यिि ऄपने कमम या व्यवसाय के अधार पर आन वणों में
से दकसी भी वणम का हो सकता था।
कालांतर में वणम व्यवस्था जरिल होती गइ और यह वंर्ानुगत तथा र्ोषणपरक हो गइ। र्ूरों को
ऄछू त माना जाने लगा।
बाद में िविभन्न वणों के बीच दैिहक सम्प्बन्धों से ऄन्य मध्यवती जाितयों का जन्म हुअ। वतममान में
जाित व्यवस्था ऄत्यंत िवकृ त रूप में दृिष्टगोचर होती है।
िहन्दू धमम के ऄनुसार मनुष्य क सम्प्पूणम जीवन काल को चार चरणों में बांिा गया है िजन्हें अश्रम
कहा जाता है।
ये चार अश्रम हैं- ब्रह्मचयम, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास।
o ब्रह्मचयम अश्रम में व्यिि गुरु अश्रम में जाकर िवद्याध्ययन करता है।
o गृहस्थ अश्रम में िववाह, संतानोत्पित्त, ऄथोपाजमन, दान तथा ऄन्य भोग िवलास करता है।
o वानप्रस्थ में व्यिि धीरे -धीरे संसाररक ईत्तरदाियत्व ऄपने पुिों को सौंप कर ईनसे िवरि
होता जाता है।
o ऄन्तत: सन्यास अश्रम में गृह त्यागकर िनर्मवकार होकर इश्वर की ईपासना में लीन हो जाता
है।
अश्रम व्यवस्था
िहन्दू धमम में मोक्ष के चार मागम बताये गए हैं ज्ञानयोग, भिियोग, कममयोग तथा राजयोग।
o ज्ञान योग दार्मिनक एवं तार्ककक िविध का ऄनुसरण करता है।
o वहीं भिियोग अत्मसमपमण और सेवा भाव का।
िहन्दू धमम में मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक िनम्निलिखत सोलह पिवि संस्कार सम्प्पन्न दकये जाते हैं-
1. गभामधान
2. पुंसवन (गभम के तीसरे माह तेजस्वी पुि प्रािप्त हेतु दकया गया संस्कार),
3. सीमोन्तोन्नयन (गभम के चौथे महीने गर्मभणी स्त्री के सुख और सांत्वना हेतु),
4. जातकमम (जन्म के समय)
5. नामकरण
6. िनष्क्रमण (बच्चे का सवमप्रथम घर से बाहर लाना),
7. ऄन्नप्रार्न (पांच महीने की अयु में सवमप्रथम ऄन्न ग्रहण करवाना),
8. चूड़ाकरण (मुंडन)
9. कणमछेदन
10. ईपनयन (यज्ञोपवीत धारण एवं गुरु अश्रम को प्रस्थान)
11. के र्ान्त ऄथवा गौदान (दाढ़ी को सवमप्रथम कािना)
12. समावतमन (िर्क्षा समाप्त कर गृह को वापसी)
13. िववाह
14. वानप्रस्थ
15. सन्यास
16. ऄन्त्येिष्ट
आस प्रकार िहन्दू धमम की िविवधता, जरिलता एवं बहु अयामी प्रवृित्त स्पष्ट है। आसमें ऄनेक दार्मिनकों ने
ऄलग-ऄलग प्रकार से इश्वर एवं सत्य को समझने का प्रयास दकया, फलस्वरूप ऄनेक दार्मिनक मतों का
प्रादुभामव हुअ। िजनमें से छह प्रमुख हैं।
ऄथामत वैर्ेिषक का बुिनयादी िसद्धांत यह है दक, प्रकृ ित परमाणु है ऄथामत भौितक वस्तुएं
परमाणुओं के संयोजन से बनी हैं। परमाणु अत्मा से पृथक है।
कणाद् ने वैर्ेिषक-दर्मन का मूल ग्रंथ िलखा।
कणाद द्वारा िलिखत मूल ग्रंथ पर बहुत सी िीकाएँ िलखी गईं दकन्तु प्रर्स्तपाद द्वारा छिी र्ताब्दी
में िलिखत िीका आनमें सवमश्रेष्ठ है।
वैर्ेिषक दर्मन सृिष्ट की रचना को अजीवक िसद्धांत के अधार पर स्पष्ट करता है।
4. योग (Yoga) - संस्थापक – पतंजिल
योग का मूल पतंजिल के योग सूि में िमलता है जो दूसरी
र्ताब्दी इ.पू. में िलखा गया माना जाता है।
मोक्ष ध्यान और र्ारीररक साधना के माध्यम से संभव है।
‘योग’ र्ब्द संस्कृ त के र्ब्द ‘योक्त्ि’ (Yoktra) से ईद्भूत हुअ है,
िजसका ऄथम है 'आंदरयों को वाह्य िवषयों से पृथक कर ऄपने मन
को ऄपनी ऄंतरात्मा से जोड़ना।
आसे िचत्त के रूप में पररभािषत करते हैं ऄथामत; व्यिि की चेतना
के िवचारों, भावनाओं और आच्छाओं को िमिाकर संतुलन की िस्थित को प्राप्त करना। यह ईस र्िि
को गित प्रदान करता है जोदक दैिवक ऄनुभूित के िलए चेतना को र्ुद्ध और ईन्नत करता है।
र्ारीररक योग को हियोग कहा जाता है तथा मानिसक योग को
राजयोग।
योग के अि ऄंग (ऄष्टांग-योग) हैं – यम, िनयम, असन,
प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समािध।
5. मीमांसा (Mimansa) - संस्थापक - जैिमनी
मीमांसा का मूल ऄथम है तकम करने और ऄथम लगाने की कला।
लेदकन आसमें तकम का प्रयोग िविवध वैददक कमों के ऄनुष्ठानों का
औिचत्य िसद्ध करने में दकया गया है और आसके ऄनुसार मोक्ष
आन्हीं वेद-िविहत कमों के ऄनुष्ठानों से प्राप्त होता है।
मीमांसा के ऄनुसार वेद में कही गयी बातें सदा सत्य हैं।
आस दर्मन का मुख्य लक्ष्य स्वगम और मोक्ष की प्रािप्त है।
मनुष्य तब तक स्वगम-सुख पाता रहता है जब तक ईसका संिचत पुण्य र्ेष रहता है। जब वह पुण्य
समाप्त हो जाता है तब वह दफर धरती पर अ जाता है। परन्तु
यदद वह मोक्ष पा लेता है तो वह सांसाररक जन्म-मृत्यु के चक्र
से सदा के िलए मुि हो जाता है।
मीमांसा के ऄनुसार मोक्ष पाने के िलए यज्ञ करना चािहए।
आसके मूल ग्रन्थ के रूप में जैिमिन कृ त सूि है िजसकी रचना
तीसरी सदी इसवी पूवम हुइ।
कु माररल भट्ट और र्बर स्वामी आस दर्मन सम्प्प्रदाय के ऄन्य
महत्वपूणम दार्मिनक हैं।
6. वेदांत (Vedanta) - संस्थापक- बादरायण (Badrayana)
आसे ईत्तर मीमांसा (Later Mimansa) भी कहा जाता है।
यह गैर-द्वैतवाद या एक सत्य /वास्तिवकता ‘ऄद्वैतवाद’ ("Advaitvada") में िवश्वास रखता है।
वेदांत का ऄथम है वेद का ऄंत।
इसा पूवम दूसरी र्ताब्दी में संकिलत बादरायण का ब्रह्मसूि आस दर्मन का मूल ग्रन्थ है। बाद में आस
पर दो प्रख्यात भाष्य िलखे गए, पहला र्ंकर का नौवीं सदी में और दूसरा रामानुज का बारहवीं
सदी में।
र्ंकर ब्रह्म को िनगुण
म बताते हैं, दकन्तु रामानुज के ऄनुसार ब्रह्म सगुण है।
र्ंकर ज्ञान को मोक्ष का मुख्य कारण मानते हैं, दकन्तु रामानुज भिि को मोक्ष-प्रािप्त का मागम
बताते हैं।
वेदांत दर्मन का मूल अरंिभक ईपिनषदों में पाया जाता है।
आस दर्मन के ऄनुसार ब्रह्म ही सत्य है, ऄन्य हर वस्तु माया ऄथामत ऄवास्तिवक है। अत्मा और ब्रह्म
में ऄभेद है। ऄतः जो कोइ अत्मा को या ऄपने अप को पहचान लेता है, ईसे ब्रह्म का ज्ञान हो
जाता है और मोक्ष िमल जाता है। ब्रह्म और अत्मा दोनों र्ाश्वत और ऄिवनार्ी हैं। ऐसा मत
स्थाियत्व और ऄपररवतमनीयता की भावना जगाता है। अध्याित्मक दृिष्ट से जो सत्य है वह ईस
व्यिि की ऄपनी सामािजक और भौितक पररिस्थित में भी सत्य हो सकता है। बाद में कममवाद भी
वेदांत के साथ जुड़ गया। आसका ऄथम है की मनुष्य को पूवमजन्म में दकये गए कमों का पररणाम
भुगतना पड़ता है।
गुप्त काल में वैष्णव सम्प्प्रदाय लगभग सम्प्पूणम भारत वषम में प्रसाररत हो चूका था।
महाभारत तथा पुराणों अदद ग्रंथों में िवष्णु -नारायण की ईपासना का भागवत सम्प्प्रदाय से
एकीकरण होने के कारण वैष्णव धमम को िवर्ेष लोकिप्रयता प्राप्त हुइ।
गीता के अधार पर िवकिसत प्रपित्त (िवष्णु-कृ ष्ण-नारायण के प्रित पूणम समपमण) इश्वर के प्रसाद
द्वारा मुिि प्राप्त होने के भिि मागी िसद्धांत को दिक्षण के ऄनेक वैष्णव अचायों ने िवकिसत
दकया। बाद में ईत्तरी भारत में आसी िसद्धांत को रामभिि र्ाखा के रूप में और ऄिधक प्रचाररत
प्रसाररत दकया गया। यह सम्प्प्रदाय ‘श्रीवैष्णव’ नाम से प्रिसद्ध हुअ िजसमें व्यिि द्वारा ऄपने सारे
कममफल त्यागने पर बल ददया गया।
वैष्णव धमम की ईदारवादी प्रवृित्त के कारण आसमें पौरािणक काल से ही िवष्णु के ऄवतार के रूप में
ऄनेक लौदकक देवताओं की ईपासना भी समािहत हुइ। आससे वैष्णव सम्प्प्रदाय ऄत्यंत लोकिप्रय
हुअ।
वैष्णव भिि अंदोलन में कृ ष्ण की रासलीला का बड़ा महत्व था।
गुप्तकाल के ऄंत से लेकर 13वीं सदी इसवी के पहले दर्क तक वैष्णव-अंदोलन का आितहास
मुख्यतया दिक्षण भारत से सम्प्बंिधत है।
वैष्णव भि-किव ‘ऄलवारों’ (िवष्णु की भिि में िनमि व्यिियों के िलए तिमल भाषा का र्ब्द) ने
िवष्णु की भिि तथा ईसमें एकान्त-िनष्ठा के गीत गाए। आनके गीतों को समग्र रूप से ‘प्रबंध’् कहा
जाता है।
अण्डाल ऄपने समय की प्रिसद्ध ऄलवार संत थीं।
र्ैव मत के ऄनेक सम्प्प्रदाय तथा ईप-सम्प्प्रदाय थे िजनके ऄनुयािययों में ऄपने िविर्ष्ट दर्मन तथा
चयाम के अधार पर िभन्नता होने पर भी वे लोग रूर-िर्व की सवोच्च र्िि के रूप में ईपासना
करते थे।
कश्मीरी र्ैवमत के ऄनुसार व्यिि की अत्मा तथा िर्व एक ही हैं।
समस्त सांसाररक िविवधता पररवतमनर्ीलता के कारण है। अत्मा को िर्व में लीन करना र्ुद्ध
चैतन्य तथा मोक्ष है।
वीरर्ैव मत भी ऄनेक प्रांतों में पयामप्त लोकिप्रय था।
आसके ऄितररि पार्ुपत, कापािलक, कालामुख, ऄघोरी, हलगायत, िर्वाद्वैत अदद ऄनेक ईप-
सम्प्प्रदाय िवद्यमान थे।
o आनमें पार्ुपत सम्प्प्रदाय ऄिधक लोकिप्रय था। ये िर्व की पर्ुपित के रूप में अराधना करते
हैं।
o पार्ुपत सम्प्प्रदाय दो प्रकार के थे - 1) श्रौत (वैददक) पार्ुपत जो वैददक परंपरा के ऄनुकूल था
; 2) ऄश्रौत (लौदकक) पार्ुपत, जो लौदकक परम्प्परा के ऄनुकूल नहीं था।
कापािलकों में नरबिल प्रथा थी।
o आनमें कपाल धारण करना तथा कपाल में भोजन अदद ग्रहण करने की अददम भयावह
परम्प्परा थी।
िर्व कापािलक
आस वाममागी सम्प्प्रदाय में ‘तंि’ (ज्ञान का िवस्तार), ‘यंि’ (रहस्यमय चक्रों पर ध्यान करना) तथा
आसमें र्िि की सवोच्च प्रितष्ठा है, िजससे सभी जीव, देवता तथा सम्प्पूणम ब्रह्माण्ड की ईत्पित्त होने
का िसद्धांत मान्य है।
तांििक साधना के ऄंतगमत ध्यान-योग (पूजा) तथा चयाम (ऄनेक प्रकार के अचार) की व्यवस्था है।
गुरु की दीक्षा तथा किोर मानिसक िनयंिण द्वारा पंचमकार (पंचतत्व- मद्य, मत्स्य, मांस, मुरा,
मैथन
ु ) की साधना द्वारा मुिि प्राप्त होती है।
2. चावामक -दर्मन
चावामक-दर्मन का प्रणेता बृहस्पित को माना जाता है।
आसकी चचाम वेद और बृहदारण्यक ईपिनषद् में िमलती है। ऄतः माना जाता है दक ज्ञान की आस
र्ाखा का ईद्भव आन ग्रंथों से पहले हुअ होगा।
आस दर्मन की मान्यता है दक ज्ञान चार भौितक पदाथों के मेल से बनता है और मृत्यु के बाद आसका
कोइ ऄिस्तत्व नहीं रहता।
चावामक भौितकवादी दर्मन है।
आसे लोकायत-दर्मन ऄथवा जन साधारण का दर्मन भी कहते हैं।
आस दर्मन में लोक ऄथामत दुिनया के साथ लगाव को महत्व ददया गया है और परलोक में ऄिवश्वास
व्यि दकया गया है।
यह दर्मन मोक्ष की कामना का िवरोधी था।
यह दकसी दैवी या ऄलौदकक र्िि के ऄिस्तत्व को नहीं मानता था। यह ईन्हीं वस्तुओं की सत्ता या
यथाथमता स्वीकार करता था िजन्हें मानव की बुिद्ध और आिन्रयों द्वारा ऄनुभव दकया जा सके ।
स्पष्टतः आसका ऄथम यह हुअ दक ब्रह्म और इश्वर की सत्ता नहीं होती है।
आसके ऄनुसार यज्ञ की ककपना ब्राह्मणों ने दिक्षणा ऄर्मजत करने के ईद्देश्य से की है।
चावामक का वास्तिवक योगदान है ईसकी भौितकवादी दृिष्ट।
यह दर्मन दकसी भी कायम में ददव्य या ऄलौदकक हाथ को नकारता है और मानव को सभी दक्रयाओं
का मूल मानता है।
चावामक के ऄनुसार परलोक नहीं है आसिलए मृत्यु के साथ मनुष्य के ऄिस्तत्व की समािप्त हो जाती
है और आंदरय अनंद ही जीवन का लक्ष्य है।
चावामक दर्मन भौितक पदाथों के ऄितररि और कोइ सत्ता नहीं मानता।
पृथ्वी, जल, ऄिि, वायु और अकार् में से यह अकार् की सत्ता स्वीकार नहीं करता क्त्योंदक ईसके
ऄनुसार अकार् का प्रत्यक्षीकरण नहीं होता है।
आस दर्मन के ऄनुसार सम्प्पूणम िवश्व के वल चार तत्त्वों (पृथ्वी, जल, ऄिि, वायु) से ही बना है।
ऄपने जीवन के प्रारंिभक वषों में गौतम बुद्ध ने गृहस्थ जीवन का अनंद िलया और 29 साल की
अयु में ईन्होंने सांसाररक सुख का त्याग कर ददया और
तपस्वी बन गए। 5 वषम तक वे जगह जगह भिकते रहे और
35 वषम की अयु में बोधगया में ईन्होंने िनवामण (परमानंद
और र्ांित) या मोक्ष या अत्मज्ञान प्राप्त दकया।
गौतम बुद्ध ने ऄपना प्रथम ईपदेर् सारनाथ में ददया जो धमम-
चक्र-प्रवतमन (धमम का चक्र बदलना) के रूप में जाना जाता है।
बुद्ध, धम्प्म और संघ को बौद्ध धमम का ििरत्न कहा जाता है।
ईन्होंने दो महत्वपूणम िसद्धांत प्रितपाददत दकए-
1. चार अयम सत्य (दुःख, दुःख समुदाय, दुःख-िनरोध तथा दुःख
िनरोध-गािमनी-प्रितपदा)
2. ऄष्टांिगक मागम (सम्प्यक दृिष्ट, सम्प्यक संककप, सम्प्यक वाणी, सम्प्यक कमम, सम्प्यक अजीव, सम्प्यक
व्यायाम, सम्प्यक स्मृित, सम्प्यक समािध)
गौतम बुद्ध ने प्रत्येक व्यिि को जन्म-मरण के चक्र से मुिि (िनवामण) प्राप्त करने के िलए ऄष्टांिगक
मागों के ऄनुर्ीलन पर बल ददया है।
गौतम बुद्ध ने ऄपने ऄनुयािययों को वैचाररक रूपरेखा प्रदान करने के बाद महापररिनवामण प्राप्त
दकया, ऄथामत आनकी मृत्यु 483 इसा पूवम में कु र्ीनगर (यूपी) में हुइ।
गौतम बुद्ध की मृत्यु के ईपरान्त ईनके ऄनुयािययों ने 483 इसा पूवम में राजगृह नामक स्थान पर
प्रथम बौद्ध संगीित बुलाइ। िजसकी ऄध्यक्षता बौद्ध िवद्वान महाकस्सप द्वारा की गइ थी।
आसे समकालीन र्ासक ऄजातर्िु द्वारा संरक्षण प्राप्त हुअ।
आस संगीित में दो महत्वपूणम पुस्तकों का संकलन दकया गया
1. सुत्त-िपिक – आसमें गौतम बुद्ध की मूल िर्क्षाएं संकिलत हैं।
2. िवनय-िपिक – आसमें िभक्षु-िभक्षुिणयों के संघ के दैिनक जीवन सम्प्बन्धी
अचार-िवचार तथा िनयम संग्रहीत हैं।
िद्वतीय बौद्ध संगीित 383 इसा पूवम में वैर्ाली (िबहार) में बुलाइ गइ
थी, यह बौद्ध िवद्वान सुबक
ु ामी की ऄध्यक्षता में हुइ और आसे
समकालीन र्ासक कालार्ोक द्वारा संरक्षण प्रदान दकया गया था।
o आस संगीित में, ऄनुयािययों का दो सम्प्प्रदायों के मध्य एक ऄनौपचाररक िवभाजन हो गया-
1. स्थिवरवादी (Sthavirvadins) - ये बौद्ध धमम के रूदढ़वादी ऄनुयायी थे।
2. महासंिघक (Mahasangvikas) - ये बौद्ध धमम के ईदारवादी ऄनुयायी थे।
तृतीय बौद्ध संगीित पाििलपुि (िबहार) में 250 इसा पूवम में बुलाइ
गइ थी। आसकी ऄध्यक्षता बौद्ध िभक्षु मोगिलपुत्तितस्य ने की और
ऄर्ोक द्वारा आस संगीित को संरक्षण प्रदान दकया गया।
o आस संगीित में एक नया िपिक (पाि) िलखा गया था, िजसे
ऄिभधम्प्मिपिक (Abhidammapitaka) नाम ददया गया।
o आस िपिक में गौतम बुद्ध के जीवन के िर्क्षण की दार्मिनक व्याख्याएं
संकिलत की गइ हैं।
आन तीनों संकलनों को सिम्प्मिलत रूप से िििपिक कहा जाता है,
ऄथामत सुत्त िपिक, िवनय िपिक, ऄिभधम्प्मिपिक। जोदक बौद्ध धमम
के पिवि ग्रन्थ हैं।
चतुथम बौद्ध संगीित प्रथम र्ताब्दी इसवी में कश्मीर (कुं डलवन) में बुलाइ गइ थी, बौद्ध िभक्षु
वसुिमि ने आसकी ऄध्यक्षता की थी तथा ऄश्वघोष ईपाध्यक्ष थे और आसे कु षाण नरेर् किनष्क द्वारा
संरक्षण प्रदान दकया गया था।
o आस संगीित में बौद्ध धमम के ऄनुयािययों का दो महत्वपूणम संप्रदायों में औपचाररक िवभाजन हो
गया।
आस संगीित के बाद, बौद्ध धमम का हीनयान संप्रदाय दिक्षण पूवम एिर्या के देर्ों में लोकिप्रय हो
(Mindon) के समय तथा छिीं बौद्ध संगीित 1954 में बमाम के Kaba Aye नामक स्थान पर बमाम
बौद्ध संगीितयाँ
बौद्ध धमम मूलतः ऄनीश्वरवादी है।
सृिष्ट का कारण इश्वर को नहीं माना गया है। तकम यह है दक यदद इश्वर को संसार का रचियता
माना जाए तो ईसे दुःख को ईत्पन्न करने वाला भी मानना होगा।
वास्तव में बुद्ध ने इश्वर के स्थान पर मानव प्रितष्ठा पर ही बल ददया है।
आसी प्रकार बौद्ध धमम में अत्मा की पररककपना भी नहीं है।
ऄनत्ता ऄथामत ऄनात्मवाद के िसद्धांत के ऄंतगमत यह मान्यता है की व्यिि में जो अत्मा है वह
ईसके ऄवसान के साथ समाप्त हो जाती है।
अत्मा र्ाश्वत या िचरस्थायी वास्तु नहीं है जो ऄगले जन्म में भी िवद्यमान रहे। दकन्तु बौद्ध धमम में
पुनजमन्म की मान्यता है। आसके कारण कमम-फल का िसद्धांत भी तकम संगत होता है। आस कमम-फल
को ऄगले जन्म में ले जाने वाला माध्यम अत्मा नहीं है। दफर कमम-फल ऄगले जन्म का कारण कै से
होता है? आसके ईत्तर में िमिलन्दपन्हो में कहा गया है दक िजस प्रकार पानी में एक लहर ईिकर
दुसरे को जन्म देकर स्वयं समाप्त हो जाती है ईसी प्रकार कमम-फल चेतना के रूप में पुनजमन्म का
र्ीतल, श्रेयांस, वासुपज्ू य, िवमल, ऄनंत, धमम, र्ांित, कु न्थु, अरा, मिकल, मुिन सुव्रत, नामी, नेमी,
पाश्वम तथा महावीर।
जैन धमम की मूल िवचारधारा-
o जैन धमम के पञ्च महाव्रत-
प्रथम जैन सभा 299 इसा पूवम में पाििलपुि नामक स्थान पर बुलाइ गइ थी।
o आस जैन सभा की ऄध्यक्षता जैन संत स्थूलभर द्वारा की गइ और आसे मौयम नरेर् हबदुसार का
संरक्षण प्राप्त था।
o आस सभा में, महावीर और ईनके पूवमवर्मतयों की िर्क्षाओं को िविभन्न पुस्तकों में संिहताबद्ध
दकया गया िजसे ‘पुब्व’ (Purvas) के रूप में जाना जाता है। ये संख्या में 14 थे।
िद्वतीय जैन सभा 512 इस्वी में गुजरात के वकलभी नामक स्थान पर बुलाइ गइ िजसकी ऄध्यक्षता
जैन संत देवर्मधक्षमाश्रमण ने की थी। आसे गुजरात के चालुक्त्य र्ासकों द्वारा संरक्षण प्रदान दकया
गया था। आस सभा में जैन धमम के ऄनुयािययों का दो महत्वपूणम समूहों में एक औपचाररक िवभाजन
हुअ।
गुरु नानक के बाद गुरु ऄंगद दूसरे गुरु हुए, िजन्होंने गुरुमुखी िलिप का अिवष्कार दकया, िजसका
रचना की।
आनके पश्चात गुरू हरगोहवद हुए िजन्होंने िसख ऄनुयािययों के बीच
सैन्य भाइचारे खालसा की ऄवधारणा प्रदान की तथा िसखों को लड़ाकू जाित के रूप में पररवर्मतत
करने का कायम दकया।
आनके पश्चात गुरू हर राय और गुरु हरदकर्न िसखों के गुरु हुए।
नौवें अध्याित्मक गुरु गुरु तेग बहादुर थे िजनकी समकालीन मुगल
सम्राि औरंगजेब द्वारा हत्या कर दी गइ थी।
दसवें और ऄंितम अध्याित्मक गुरु गुरु गोहवद हसह थे। आन्होंने
खालसा की ऄवधारणा को औपचाररक अकार ददया।
गुरु गोहवद हसह की मृत्यु के पश्चात अध्याित्मक नेताओं (गुरुओं)
को िनयुि करने की प्रणाली समाप्त हो गइ और राजनीितक नेताओं
का चयन दकया जाना र्ुरू कर ददया गया। आन के बीच में प्रथम
बंदा बहादुर था। पाहुल या बपितस्मा की संककपना (Concept of
Pahul or baptism)
को हल करते हैं।
o ऄमृतसर में िस्थत 'ऄकाल तख्त' सबसे महत्वपूणम है।
6. आस्लाम (Islam)
आस्लाम धमम पैगब
ं र मोहम्प्मद द्वारा 622 इस्वी में स्थािपत
दकया गया था।
‘आस्लाम’ र्ब्द एक ऄरबी र्ब्द है, िजसका ऄथम है के वल एक ही
सत्ता के प्रित समपमण जो दक सवमर्ििमान इश्वर (ऄकलाह) है।
यह एक एके श्वरवादी धमम है। एके श्वरवाद को ऄरबी में तौहीद
कहते हैं, जो र्ब्द वािहद से अता है िजसका ऄथम है एक।
ऄकलाह के पिवि र्ब्द एक दूत िजब्राआल (Gibrail) के माध्यम
से नबी को ददए गए और पिवि र्ब्द को एक पुस्तक के रूप में
िलखा गया िजसे पिवि ‘कु रान’ के रूप में जाना जाता है।
कु रान ऄरबी भाषा में रची गइ पिवि पुस्तक है।
मुसलमान देवदूतों (ऄरबी में मलाआका/ ईदुम मे "फ़ररश्ते") के
ऄिस्तत्व को मानते हैं। ईनके ऄनुसार देवदूत स्वयं कोइ िववेक नहीं रखते और इश्वर की अज्ञा का
यथारूप पालन ही करते हैं।
मोिे तौर पर आस्लाम को दो श्रेिणयों में बांिा गया है:
1. िर्या
2. सुन्नी
दोनों के ऄपने ऄपने आस्लामी िनयम हैं लेदकन अधारभूत िसद्धान्त िमलते-जुलते हैं।
सुन्नी आस्लाम में प्रत्येक मुसलमान के 5 अवश्यक कतमव्य होते हैं, िजन्हें आस्लाम के 5 स्तम्प्भ भी
कहा जाता है। ये िनम्निलिखत हैं-
o साक्षी होना (र्हादा )- आस का र्ािब्दक ऄथम है गवाही देना।
o प्राथमना (सलात)- आसे फ़ारसी में नमाज भी कहते हैं। प्रत्येक मुसलमान के िलये ददन में 5 बार
नमाज पढ़ना ऄिनवायम है।
o व्रत (रमजान) (सौम )- आस के ऄनुसार आस्लामी कै लेंडर के नवें महीने में सभी सक्षम मुसलमानों के
िलये सूयोदय (फरज) से सूयामस्त (मग़ररब) तक व्रत रखना(भूखा रहना)ऄिनवायम है। आस व्रत को
रोजा भी कहते हैं।
o दान (जकात )- यह एक वार्मषक दान है जो दक हर अर्मथक रूप से सक्षम मुसलमान को िनधमन
मुसलमानों में बांिना ऄिनवायम है।
o तीथम यािा (हज)- हज ईस धार्ममक तीथम यािा का नाम है जो आस्लामी कै लेण्डर के 12वें महीने में
मक्का में जाकर की जाती है।
मुसलमानों के ईपासना स्थल को ‘मिस्जद’ कहा जाता है। मिस्जद आस्लाम में के वल इश्वर की
प्राथमना का ही कें र नहीं होता है ऄिपतु यहाँ पर मुिस्लम समुदाय के लोग िवचारों का अदान
प्रदान और ऄध्ययन भी करते हैं।
िवश्व की सबसे बड़ी मिस्जद मक्का की मिस्जद ऄल हराम या ऄल हरम है। मुसलमानों का पिवि
स्थल काबा आसी मिस्जद में है।
‘धार्ममक स्नान’ िजसमें मुख्य धारा के धमम में इसाइ धमम के देर
से अने वाले ऄनुयािययों को प्रवेर् कराया जाता है।
पिवि कोमुन्यो िजसका ऄथम है ईपासक एक दूसरे और इसा
के साथ एकता प्रदर्मर्त करने के िलए ब्रेड और र्राब अपस
में बांिकर खाते हैं।
पिवि पुस्तक बाआिबल है िजसके दो महत्वपूणम खंड हैं।
1. ओकड िेस्िामेंि (The old Testament) - मूल रूप से
एक यहूदी पाि।
2. न्यू िेस्िामेंि (New Testament) - इसाइ धमम के ऄनुयािययों द्वारा िलखा गया है।
ददए, जो आस दुिनया में यहूददयों द्वारा पालन दकए जाने वाले अचार संिहता को िनधामररत करता
है।
यहूदी िवश्वास के आन महत्वपूणम िसद्धांतों को यहूदी धमम के पिवि ग्रन्थ में र्ािमल दकया गया िजसे
'तोरा' (Torah) के रूप में जाना जाता है।यहूदी धमम एके श्वरवाद में िवश्वास रखता है।
देशज ऄभभव्यभि
भिषय सूची
59
35. फु लकारी______________________________________________________________________________ 76
60
1. बाईल (Baul)
‘बाईल’ बंगाल के घुम्मकड़ लोकगायकों द्वारा
2. गोंड (Gond)
गोंड देश में सबसे बड़े अददिासी समुदाय हैं, जो मुख्य रूप से मध्य भारत में पाए जाते हैं।
गोंड कलाकारों की भचत्रकारी की शैली भिभशष्ट रूप से भद्वअयामी है।
हालांदक, िे मात्र सजािट के भलए भचत्रकारी नहीं करते, बभल्क आन भचत्रकाररयों के माध्यम से िे
ऄपनी धार्ममक भािनाओं, प्राथानाओं और जीिन के प्रभत ऄपनी ऄनुभूभत को भी व्यि करते हैं।
ऄपनी कला शैली के माध्यम से गोंड समुदाय ने ऄपनी सददयों पुरानी सांस्कृ भतक परंपराओं और
कालातीत प्रासंभगकता को संरभक्षत दकया है।
पंडिानी महाकाव्य महाभारत में िर्मणत पांडिों की कहानी को दशााता है जहां से आसका नाम
भनकला है।
कथा बहुत ही जीिंत है और दशाकों के मन में यह लगभग सजीि दृश्यों का भनमााण करती है।
िेदमती शैली में मुख्य कलाकार जहााँ प्रदशान के दौरान फशा पर बैठ कर कहाभनयााँ सुनाते हैं िहीं
ईत्साहपूणा कापाभलक
शैली में कथािाचक
िस्तुतः दृश्यों और चररत्रों
का ऄभभनय भी संपाददत
करते हैं।
यह समुदाय के मनोरंजन
का एक बड़ा स्रोत रहा है
और ईस समय ग्रामीण
जन को ईनकी सांस्कृ भतक
भिरासत के बारे में
भशभक्षत करता है।
तीजन बाइ आस शैली की
प्रभसद्ध कलाकार हैं।
5. कलमकारी (Kalamkari)
प्राचीन समय में, महाकाव्यों और पुराणों से ईद्धरण ले कर प्रभसद्ध कहाभनयों को गायकों,
संगीतकारों और भचत्रकारों के समूह द्वारा ग्रामिाभसयों को सुनाया जाता था, आन कहानी सुनाने
िालों को भचत्रकथी कहा जाता था, जो गााँि- गााँि घूमते रहते थे।
धीरे-धीरे ईन्होंने ऄपने िृतांतों की सभचत्र व्याख्या के भलए कै निास के बड़े थानों का ईपयोग दकया
और मौभलक ढंग से तथा पौधों से भनकाले गए डाइ से आन पर रंग भरा। आस प्रकार, प्रथम
कलमकारी पैदा हुइ।
कलमकारी शब्द का ऄथा िस्तुतः पेन की सहायता से सजािट करने की कला है।
यह कला अन् प् प्रदेश के दो गांिों - श्रीकलाहस्ती (Srikalashasti) और मसूलीपट्टनम
(Masulipatnam) में दो भिभशष्ट शैली के साथ भपछले 3000 िषों में भिकभसत हुइ है।
यह मुि हस्त रेखांकन तकनीकी तथा मंददरों और रथों पर सजािटी तत्ि के रूप में पैनलों के
प्रयोग द्वारा प्रदर्मशत की जाती है।
यह परंपरा ग्रामीण लोगों की कइ देशज कला शैभलयों में से एक है, भजसने भारत की रचनात्मक
भिरासत को समृद्ध बनाने में योगदान ददया है।
6. पट्टभचत्र (Patachitra)
ईड़ीसा और बंगाल की पट्टभचत्र परंपरा आस क्षेत्र के जनजाभतयों के भलए ऄभद्वतीय है, जो बंगाल में
'पाटीदार' के रूप में जाने जाते हैं।
यह एक प्रतीकात्मक कला रूप है जो यह दशााता है दक कै से भचत्रकाररयााँ प्राकृ भतक िातािरण के
साथ सामंजस्य स्थाभपत कर सकती हैं, कटािदार भडजाआनों में रंग चढ़ाने के भलए रंग और सामग्री
प्राकृ भतक तत्िों से भनकाली जाती है।
भारतीय पौराभणक कथाएाँ, लोकगीत, महाकाव्यों और पुरी के आष्टदेि भगिान जगन्नाथ एिं कृ ष्ण
जैसे देिताओं से सम्बंभधत प्रकरण आस कला के दृश्य अख्यानों के भिषय हैं।
गीत, संगीत और नृत्य द्वारा आसमें संगत ददया गया जाता है।
पट्टभचत्र
7. कािड़ (Kavad)
कािड़ (Kavad) िस्तुतः कथािाचन की सभचत्र परंपरा है भजसमें ऄनपढ़ और सामाभजक रूप से
िंभचत िगों, भजनका मंददर में प्रिेश िंभचत था, को धार्ममक ग्रंथों और महाकाव्यों से संबंभधत
मनोरंजन और भशक्षा प्रदान की जाती थी।
ये ईठा कर ले जाने लायक, कइ मुड़ने िाले दरिाजे लगे लघु मंददर रूप हैं, भजनमें से प्रत्येक को
महाकाव्यों और भमथकों के भनरूपण के साथ भचभत्रत दकया जाता है।
घुमंतू पुजारी भजन्हें कािभड़या भट्ट कहा जाता है द्वारा सभचत्र कथािाचन कािड़ है, जो कािड़ पर
भचभत्रत ईभचत दृष्टांतों पर संकेत करते हुए कथािाचन करते हैं।
लगभग भद्वतीय शताब्दी इसिी तक प्राचीन यह परंपरा राजस्थान की सबसे ऄभधक दशानीय
ईद्बोधक कलाओं में से एक है और दुभनया में जहां भी नैभतकता और नीभत की भशक्षाएाँ कहाभनयों के
माध्यम से दी जाती हैं िहां यह बहुत ऄभद्वतीय है।
8. िली (Warli)
िली (Varlis) जनजाभत
महाराष्ट्र-गुजरात और ईसके
असपास के सीमािती क्षेत्रों में
भनिास करती है।
ईनके ऄपने खुद के ऄनूठे
अध्याभत्मक भिश्वास, जीिन
शैली, रीभत-ररिाज और
परंपराएाँ हैं, जो ईनके घरों की
दीिारों पर ऄलंकृत ईनकी
भचत्रकाररयों में सजीि रूप में
व्यि होती हैं।
िे दैभनक और सामाभजक
ददनचयाा और कु छ प्रजनन
देिताओं को दशााते हैं जो दक
िली कला का प्रमाण भचन्ह है।
आन प्रमाण भचह्नों को दसिीं शताब्दी तक देखा जा सकता है।
यह कला िली के मानि-पयाािरण ऄंतःदिया का ऄनुकरणीय शानदार ईदाहरण दशााती है जो
स्ियं में प्रकृ भत को सभम्मभलत करती है और मौसम के चि के चारों ओर घूमती है।
सिर के दशक के प्रारम्भ में खोजी गइ, िली पेंटटग को समुदाय द्वारा शुभ माना गया। जहां भचत्रों
का संतल
ु न ब्रह्ांड के संतल
ु न का प्रतीक है और आसका संपूरक है।
यह कला स्िदेशी ज्ञान का खजाना है।
9. पटु अ (Patua)
पटुअ समुदाय मुख्य रूप से भबहार और पभिम बंगाल में पाए जाते हैं।
िे एक गांि से दूसरे गांि की यात्रा करते हैं और ऄपने भचत्रों को उपर नीचे करते हुए (स्िॉल)
ग्रामीण भीड़ को ददखाते हुए कहानी कहते हैं और कइ सामाभजक मुद्दों पर ऄपनी पचताओं से
संिाद स्थाभपत करते हैं और दशाकों से प्रभतदियाओं का अह्िान करते हैं।
आस तरह के स्िॉल की छभियों में रामायण और महाभारत जैसे लोकभप्रय महाकाव्य िणान के भलए
प्रयोग दकए गए थे।
धीरे-धीरे पटुअओं में भिभिधता अइ और ईनकी कथा सामग्री में प्रमुख ऐभतहाभसक घटनाओं और
सामाभजक व्यंग्य के रूप में नए भिषयों की शुरुअत हुइ।
भपथौरा भचत्रकला
17. थं का (Thanka)
थंका में कशीदेकारी के साथ रेशम पर
भचत्रकारी होती है।
ये थंका बुद्ध, भिभभन्न प्रभािशाली
लामाओं, ऄन्य देिी-देिताओं,
बोभधसत्िों के जीिन का भचत्रण करते
हुए महत्िपूणा भशक्षण ईपकरण के रूप
में काया करते हैं।
ये पचतनशील ऄनुभिों के भलए
दस्तािेज और मागादशाक का भी काया
करते हैं, जहााँ प्रभतमाशास्त्रीय भिज्ञान
को भचत्रात्मक रूप में प्रदर्मशत दकया
जाता है।
कइ थंका भचत्रों और दृश्यों का पररचय
औपचाररक और सूक्ष्म ऄनूददत
भलभपयों में बताते हैं।
‘जीिन का चि’ (The Wheel of
Life) आसका एक प्रमुख भिषय है, जो
अध्याभत्मक ईन्नयन के भलए अिश्यक ऄभभधमा भशक्षाओं (अत्मज्ञान की कला) का एक दृश्य
भनरूपण है।
द्वारा रची गयी थी, जो दक 12 िीं शताब्दी के महान तभमल भिद्वान और कभि कं बन के कम्बन
रामायण पर अधाररत है।
रामायण की कथा के पूणा प्रदशान के भलए भहरण की खाल से बनी लगभग 180 कठपुतभलयां
अिश्यक हैं।
थोलपािाकु थु की 21 रातों की प्रस्तुभतकरण हेतु यह कथा 21 भागों में बनी हैं।
यह ग्रामीण क्षेत्रों में मनोरंजन का एक लोकभप्रय रूप था।
बरााकथा
21. चंबा रूमाल (Chamba Rumal)
आसे भहमाचल प्रदेश की कशीदेकारी के रूप में जाना जाता है।
चंबा रुमाल का प्रयोग ईपहार और प्रसाद को ढंकने (किर) के भलए दकया जाता है।
परंपरागत रूप से आन रुमालों का दूल्हे और दुल्हन के पररिारों के बीच अदान-प्रदान दकया जाता
था और ईच्च िगा की मभहलाओं द्वारा आन पर कढ़ाइ की जाती थी।
हषोन्माद के क्षणों को संजोते ये रुमाल मोटे तौर पर भचत्रकला की कांगड़ा और चंबा शैभलयों पर
अधाररत हैं।
रास मंडल और कृ ष्ण के रूपांकन बहुत लोकभप्रय हैं।
यह कला अनंद और ईत्सि की ऄभभव्यभि है।
ये भडजाआन सांस्कृ भतक परंपराओं और आस क्षेत्र के धार्ममक भिश्वासों की भिरासत का प्रदशान करते
हैं।
आस संगीत कला में डफली, खंजरी तथा खरताल जैसे छोटे तथा असानी से एक स्थान से दूसरे
स्थान पर ले जाए जा सकने िाले िाद्य यंत्रो का प्रयोग दकया जाता है, क्योंदक आसके कलाकार
यात्रा करते रहते हैं।
जंगम जोगी
25. चन्नापटना काष्ठकला
चन्नापटना कनााटक की पारंपररक काष्ठकला है।
आस कला का प्रयोग भखलौने बनाने हेतु दकया जाता है।
आन भखलौनों में कोइ भी तीक्ष्ण दकनारा नहीं होता है तथा के िल जैभिक रंगों के प्रयोग के कारण
यह बच्चों के भलए पूरी तरह सुरभक्षत होते हैं।
आन भखलौनों को WTO के तहत GI दजाा प्राप्त है।
चन्नापटना कला भारत की प्राचीनतम भशल्प कला से भी सम्बंभधत है।
भसलाम्बम
आसके तीन क्षे त्रीय रूप हैं भजनमें ईनकी अिामक और रक्षात्मक शै भलयों के अधार पर
भिभे द दकया जाता है ।
कलारीपयट्टु तकनीक कदम (चु िातु ) और मु द्रा (िाददिु ) का सं योजन है ।
तभमल और मलयालम में कलारी का ऄथा है - स्कू ल या प्रभशक्षण हाल जहां माशा ल अटा
भसखाइ जाती है ।
मलखंब का प्रदशान
नाडा कु श्ती
35. फु लकारी
आस कला का प्रमाण 15िीं शताब्दी से भमलता है ।
यह भशल्प का एक रूप है भजसमें शॉल और दुप ट्टे पर सरल और भबखरी हुइ भडजाआन में
कढ़ाइ की जाती है ।
जहां भडजाआन पर बहुत बारीक काम दकया गया हो और पू रे िस्त्र पर कढ़ाइ की गयी
हो, िहां आसे बाग (फू लों का बगीचा) कहा जाता है ।
आसमें प्रयु ि भसल्क के धागे को पट (pat) कहा जाता है ।
फु लकारी कढ़ाइ
36. ज़रदोजी
ज़रदोजी धातु से की जाने िाली एक सुं द र कढ़ाइ है , जो भारत में राजाओं और शाही
पररिारों के व्यभियों की पोशाक के भलए आस्ते माल की जाती थी।
फारसी शब्द ज़र (ZAR) का ऄथा सोना और दोजी ( Dozi) का ऄथा कढ़ाइ होता है ।
आसमें सोने और चां दी के धागे का ईपयोग करके भिस्तृ त भडजाआन बनाए जाते हैं । साथ
ही, कीमती पत्थर, हीरे , पन्ने और मोती का प्रयोग भी दकया जाता है ।
ईपयोग:
o शाही टें ट की दीिारों , म्यानों, दीिार के पदे और शाही हाथी और घोड़ों के िस्त्रों को
सजाने के भलए।
o ज़रदोजी कशीदाकारी काया िस्तु तः लखनउ, भोपाल, है द राबाद, ददल्ली, अगरा,
कश्मीर, मुंब इ, ऄजमे र और चे न्न इ जै से शहरों की भिशे ष ता रही है ।
o 2013 में भौगोभलक सं के तक रभजस्री ( GIR) द्वारा लखनउ ज़रदोजी को भौगोभलक
सं के तक (GI) पं जीकरण प्रदान दकया गया।
o ज़रदोजी ईत्पाद लखनउ और 6 ऄन्य भनकटिती भजलों (बाराबं की, ईन्नाि,
सीतापु र , रायबरे ली, हरदोइ और ऄमे ठी) में भनर्ममत दकये जाते हैं ।
चे िीनाड साभड़यों को चटकीले रं गों जै से मस्टडा रं ग , ईंट जै सा लाल, नारं गी, बसन्ती और
भू रे रं ग के चे क (checks) का प्रयोग करके तै यार दकया जाता है ।
चे क और टें प ल बॉडा र चे िीनाड साभड़यों में प्रयोग दकए जाने िाले पारं प ररक पै ट ना हैं ।
तांगभलया शॉल
थेिा शब्द दो शब्दों से बनता है: थारना तथा िाडा- भजसमें थारना का ऄथा है ‘हथौड़ा’ और िाडा
भाषा और साहहत्य
हिषय सूची
81
82
इसा की प्रथम तीन शताहब्दयों में पािी और संस्कृ त को हमिाकर बौद्धों ने एक नयी भाषा
चिायी, हजसे हमहित संस्कृ त कहते हैं।
तृतीय शताब्दी इसा-पूिव में प्राकृ त देश भर की संपकव -भाषा का काम करती थी। सम्पूणव देश के
प्रमुख भागों में ऄशोक के हशिािेख प्राकृ त भाषा और ब्राह्मी हिहप में हिखे गए थे। बाद में यह
स्थान संस्कृ त ने िे हिया और देश के कोने -कोने में राजभाषा के रूप में प्रचहित हुयी। यह
हसिहसिा चतुथव शताब्दी इसिी में अकर गुप्त काि में और भी मजबूत हुअ। यद्यहप गुप्त काि के
बाद देश ऄनेक छोटे-छोटे भागों में हिभाहजत हो गया, कफर भी राजकीय दस्तािेज संस्कृ त में ही
हिखे जाते रहे।
इरान और भारत के संपकव के फिस्िरूप इरानी हिहपकार (काहतब) भारत में िेखन का एक ख़ास
रूप िेकर अये जो अगे चिकर खरो्ी नाम से मशहूर हुअ। यह हिहप ऄरबी की तरह दायीं से
बायीं ओर हिखी जाती है। इसा पूिव तृतीय शताब्दी में पहिमोिर भारत में ऄशोक के कु छ
ऄहभिेख आसी हिहप में हिखे गए हैं। प्राकृ त भाषा में हिखे गए ऄशोक के ये ऄहभिेख साम्राज्य के
ऄहधकााँश भागों में ब्राह्मी हिहप में हिखे गए हैं। ककतु पहिमोिर भाग में ये खरो्ी और ऄरामेआक
हिहपयों में हैं और ऄफगाहनस्तान में आनकी भाषा और हिहप ऄरामेआक और यूनानी दोनों हैं।
ऄशोक द्वारा देश में स्थाहपत की गयी राजनीहतक एकता में एक भाषा और प्रायः एक हिहप ने
एकता सूत्र का काम ककया।
हद्वतीय शताब्दी के शक शासक रुद्रदामन ने सिवप्रथम हिशुद्ध संस्कृ त भाषा में िम्बे ऄहभिेख जारी
ककये। काव्य शैिी का पहिा नमूना रुद्रदामन का कारठयािाड़ में जूनागढ़ ऄहभिेख है, हजसका
समय िगभग 150 इ. है। आसके बाद से ऄहभिेख पररष्कृ त संस्कृ त भाषा में हिखे जाने िगे।
2.1 िे द (Ved)
िेद भारत के प्राचीनतम ज्ञात साहहत्य हैं। िेद संस्कृ त में रचे गए तथा एक पीढी से दूसरी पीढ़ी को
मौहखक रूप में सम्प्रेहषत होते रहे।
िेद का शाहब्दक ऄथव ‘‘ज्ञान’’ होता है। हहन्दू संस्कृ हत में िेदों को शाश्वत और इश्वर प्रदि ज्ञान माना
गया है। िे समस्त हिश्व को एक मानि पररिार मानते हैं ‘‘िसुधैि कु टुम्बकम।’’
िेद की पांडुहिहप
ऊग्िेद प्राचीनतम िेद है, हजसमें िैकदक संस्कृ त में 1028 सूहक्तयों का संकिन है। ईनमें से ऄनेक में
प्रकृ हत का सुंदर िणवन है।
ऄहधकांश ऊचाओं में हिश्व की समृहद्ध की प्राहप्त के हिए इश्वर से प्राथवना की गइ है। ऐसा माना
जाता है कक ये ऊचाएाँ ऊहषयों की स्िच्छन्द ऄहभव्यहक्त हैं जो ईन्होंने आहन्द्रयातीत मानहसक
ऄनुभूहत की ऄिस्था में की थीं।
आन सुहिख्यात ऊहषयों में िहश्, गौतम, गृत्समद, िामदेि, हिश्वाहमत्र, ऄहत्र अकद हैं।
ऊग्िेद के प्रमुख देि आन्द्र, ऄहि, िरुण, रुद्र, अकदत्य, िायु, ईषा, ऄकदहत और ऄहश्वनी बंधु हैं।
प्रमुख देहियों में ईषा- प्रभात काि की देिी, िाक- िाणी की देिी और पृथ्िी- भूहम की देिी है।
ऄहधकांश सूहक्तयों में प्रकृ हत का सुंदर िणवन , सािवभौहमक मान्यता प्राप्त जीिन के ईच्च मूकयों जैसे
कक सत्यिाकदता, इमानदारी, समपवण, त्याग, शीि अकद का िणवन है। यह प्राचीन भारत की
ऊग्िेद की पांडुहिहप (19 िीं शताब्दी में कागज़ पर पुनर्मिहखत) ऊग्िेद की पांडुहिहप
‘यजुिेद’ का ऄथव है ‘कमवकांड’ या ‘पूजा’। आसमें हिहभन्न यज्ञों से सम्बंहधत ऄनु्ान हिहधयों और
मन्त्रों का ईकिेख है। यह यज्ञों के अयोजन को कदशा हनदेश देता है। आसमें गद्य-पद्य दोनों रूपों में
व्याख्याएाँ हैं। यह कमवकाण्ड से संबंहधत पहित्र पुस्तक होने के कारण चारों िेदों में सिावहधक
िोकहप्रय है।
यजुिेद की दो प्रमुख शाखाएाँ हैं, शुक्ि तथा कृ ष्ण यजुिेद ऄथावत् िाजसनेयी संहहता तथा तैहिरीय
संहहता।
यजुिेद के दो ब्राह्मण पाठ हैं, हजसमें से तैहिरीय (Taitereya) कृ ष्ण यजुिद
े और शतपथ
यजुिेद की पांडुहिहप
‘साम’ का ऄथव है ‘संगीत’ ऄथिा ‘गायन’। आसमें 16,000 राग और राहगहनयां या संगीतात्मक सुर
हनहहत हैं।
आसे संगीत के िेद के रूप में और गंधिविेद को जोकक सामिेद का एक ईपिेद है, संगीत के हिज्ञान के
रूप में माना जाता है।
तांड्य और जैहमनीय आसके ब्राह्मण ग्रन्थ हैं। तांड्य ब्राह्मण को पंचहिश ब्राह्मण भी कहते हैं क्योंकक
आसमें 25 मण्डि हैं।
आसके कु ि 1875 मन्त्रों में से के िि 75 मूि हैं, शेष ऊग्िेद से हिए गए हैं। सामिेद में ऊग्िेद की
ऊचाओं का संगीतमय पाठ करने की हिहध का ईकिेख ककया गया है। यह ग्रन्थ भारतीय संगीत के
हिकास का मूि है।
सामिेद
आसे ‘ब्रह्मिेद’ के रूप में भी जाना जाता है। आसमें 99 रोगों के ईपचार शाहमि हैं। आस िेद का स्रोत
दो ऊहषयों ऄथिाव (Atharvah) और ऄंहगरस (Angirash) को माना जाता है।
आसमें देिताओं की स्तुहत के साथ जादू, चमत्कार, हचककत्सा, हिज्ञान और दशवन के भी मन्त्र हैं।
भूगोि, खगोि, िनस्पहत हिद्या, ऄसंख्य जड़ी-बूरटयााँ, अयुिेद, गंभीर से गंभीर रोगों का हनदान
और ईनकी हचककत्सा, ऄथवशास्त्र के मौहिक हसद्धान्त, राजनीहत के गुह्य तत्त्ि, राष्ट्रभूहम तथा
राष्ट्रभाषा की महहमा, शकयहचककत्सा, कृ हमयों से ईत्पन्न होने िािे रोगों का हििेचन, मृत्यु को दूर
करने के ईपाय, प्रजनन-हिज्ञान ऄकद सैकड़ों िोकोपकारक हिषयों का हनरूपण ऄथिविेद में है।
ॠग्िेद के ईच्च कोरट के देिताओं को आस िेद में गौण स्थान प्राप्त हुअ है।
यह ईिर िैकदक काि के पाररिाररक, सामाहजक तथा राजनीहतक जीिन की हिस्तृत जानकारी
प्रदान करता है। आसकी ‘‘पैप्पिाद’’ तथा ‘‘शौनक’’ दो शाखाएाँ हैं।
ऄथिविेद का ब्राह्मण ग्रन्थ - गोपथ।
ऄथिविद
े की पांडुहिहप
िेदांग
िेदांग शब्द से ऄहभप्राय है- 'हजसके द्वारा ककसी िस्तु के स्िरूप को समझने में सहायता हमिे'।
िेदों को जानने के हिए िेदांग ऄथावत् िेदों के ऄंगों को जानना अिश्यक है। िेदों के ये सहायक ग्रंथ
हशक्षा, व्याकरण, ककप (कमवकाण्ड) हनरुक्त ( व्युत्पहि), छंद (छंदहिधान) और ज्योहतष का ज्ञान
देते हैं। छन्द को िेदों का पाद, ककप को हाथ, ज्योहतष को नेत्र, हनरुक्त को कान, हशक्षा को नाक
और व्याकरण को मुख कहा गया है।
ऄहधकांश साहहत्य आन्हीं हिषयों पर रचे गये हैं। यह सूत्र-शैिी में ईपदेशों के रूप में हिखे गये हैं।
संहक्षप्त शैिी में हनबद्ध हनदेश सूत्र कहिाता हैं। आसका सिावहधक प्रहसद्ध ईदाहरण पाहणहन की
व्याकरण है, हजसे ‘ऄष्टाध्यायी’ कहा जाता है। आसमें व्याकरण के हनयमों का ईकिेख ककया गया है
तथा यह पुस्तक ईस समय के समाज, ऄथवव्यिस्था तथा संस्कृ हत पर भी प्रकाश डािती है।
यह मंत्रों और मंगिकामनाओं की पुस्तकें हैं। सभी चार िेदों की ऄपनी स्ियं की संहहताएं हैं।
हािांकक संहहताएं िैकदक ग्रंथों तक ही सीहमत नहीं हैं बहकक कइ ईिर िैकदक संहहताएं भी हैं।
संहहताएं मूि रूप से स्तुहतग्रन्थ हैं, परन्तु आसमें व्याख्यायें नहीं हैं।
ब्राह्मण िेदों के बाद हिखे गए और यह िैकदक ऄनु्ानों का एक हिस्तृत हििरण प्रदान करते हैं।
यह हनदेश देते हैं और कमवकांड के हिज्ञान के साथ सम्बद्ध हैं।
ब्राह्मण के कु छ परिती ऄंशों को ‘अरण्यक’ कहा जाता था। अरण्यक के ऄंहतम भाग दाशवहनक
पुस्तकें हैं, हजसे ‘ईपहनषद’ के नाम से जाना जाता है, जोकक ब्राह्मण ग्रंथों के परिती चरण से
सम्बंहधत हैं।
अरण्यक अत्मा, जन्म, मृत्यु और आसके अगे के जीिन से सम्बंहधत हैं। िानप्रस्थ अिम में यह
पुरुषों द्वारा ऄध्ययन ककया जाता था और पढ़ाया जाता था।
ईपहनषद संस्कृ त शब्द ईप+ हन+ सद के युग्म से व्युत्पन्न है, हजसमें ‘ईप’ का ऄथव है समीप, ‘हन’
ऄथावत हन्ापूिक
व तथा ‘सद’ का ऄथव है बैठना, आस प्रकार ईपहनषद का ऄथव है ‘गुरु के समीप
हन्ापूिक
व बैठना’।
यह हशष्यों के ऐसे समूह को द्योहतत करता है, जो गुरु-हशष्य परम्परा में गुरु के समीप बैठकर
रहस्यात्मक ज्ञान और हसद्धांतों का ऄजवन करते हैं।
ईपहनषद भारतीय हचतन की पररणहत को हचहन्हत करते हैं और ये िैकदक साहहत्य के ऄंहतम भाग
हैं। आसमें परम दाशवहनक समस्याओं के ऄमूतव और गूढ़ हिचार- हिमशव समाहिष्ट होते हैं। आन्हें
हिद्यार्मथयों को सबसे ऄंत में पढ़ाया जाता था, आसी कारण आन्हें िेदों का ऄंत कहा जाता है।
ईपहनषद ब्रह्मांड की ईत्पहि, जीिन और मृत्यु, भौहतक और अध्याहत्मक जगत, ज्ञान की प्रकृ हत
और आसी तरह के कइ ऄन्य प्रश्नों से सम्बंहधत हैं।
ईपहनषदों की संख्या के हिषय में मतभेद है, परन्तु मुहक्तकोपहनषद में 108 ईपहनषदों का ईकिेख
हमिता है।
कु छ महत्िपूणव ईपहनषदों के नाम आस प्रकार हैं- इश, के न, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, तैहिरीय,
ईपहनषद की पांडुहिहप
2.6 भगिद्गीता
भगिद्गीता में िीकृ ष्ण ने ऄजुवन को एक योद्धा और राजा के
कतवव्यों को समझाया और हिहभन्न यौहगक तथा िेदाहन्तक
दशवनों को ईदाहरणों तथा समानान्तर कथानकों से स्पष्ट
ककया।
गीता हहन्दू दशवन का एक संहक्षप्त ग्रन्थ और जीिन के हिए
एक संहक्षप्त, सारगर्ममत हनदेहशका है।
अधुहनक युग में स्िामी हििेकानन्द, बाि गंगाधर हतिक,
महात्मा गांधी तथा बहुत से ऄन्य िोगों ने भारतीय
स्ितंत्रता अंदोिन में गीता से ही प्रेरणा प्राप्त की। ऐसा
आसहिए था क्योंकक भगिद्गीता मानिीय कमों में
सकारात्मकता को प्रधानता देती है।
यह इश्वर और मनुष्य दोनों के ही प्रहत हबना फि की
हचन्ता ककए ऄपने कतवव्य का पािन करने की प्रेरणा देती
है।
‘पुराण’ शब्द का ऄथव है ‘ककसी पुराने का निीनीकरण करना’। पुराण हहदुओं के पहित्र साहहत्य में
एक ऄहद्वतीय स्थान रखते हैं। महत्ि के अधार पर िेद और महाकाव्यों के बाद आनका ऄगिा स्थान
है।
िगभग सदैि आसका ईकिेख आहतहास के साथ ककया जाता है। िेदों की सत्यता को स्पष्ट करने और
आनकी व्याख्या करने के हिए पुराण हिखे गए थे।
पुराण पौराहणक या ऄयथाथव कायव हैं जो दृष्टान्तों और दंतकथाओं के माध्यम से धार्ममक और
अध्याहत्मक संदश े ों का प्रचार कर रहे हैं। ये महाभारत और रामायण जैसे दो प्रमुख महाकाव्यों की
पंहक्तयों का पािन करते हैं।
अरंहभक पुराण गुप्त काि में संकहित ककए गए। आसके ईद्भि को समय से काफी पीछे जा के खोजा
जा सकता है जब बौद्ध धमव महत्ि प्राप्त कर रहा था और ब्राह्मणिादी संस्कृ हत का प्रमुख प्रहतद्वंद्वी
था।
ऐसा कहा जाता है कक पुराण संख्या में ऄठारह है और िगभग आतनी ही संख्या ईपपुराणों की भी
है।
पुराणों के मुख्यतः पााँच हिषय हैं- सगव, प्रहतसगव, मन्िंतर, िंश, िंशानुचररत।
कु छ ज्ञात पुराण हैं- ब्रह्म, भागित, पद्म, हिष्णु, िायु, ऄहि, मत्स्य और गरुड़।
हिनय हपटक (Vinaya Pitaka) -बौद्ध मठिाहसयों के संबंध में मठिासीय हनयम
शाहमि हैं।
सुिहपटक (Suttapitaka) - बुद्ध के भाषणों और संिादों का एक संग्रह है।
ऄहभधम्महपटक (Abhidhamma Pitaka)- नीहतशास्त्र, मनोहिज्ञान या ज्ञान के
हसद्धान्त से जुड़े हिहभन्न हिषयों का िणवन करती है।
o गैर हिहहत साहहत्य (Non canonical Literature) - आसमें जातक काथाएं सहम्महित हैं
हजसमें बुद्ध के पूिव जन्मों से संबंहधत कथाओं का िणवन है। ये कहाहनयां बौद्ध धमव के हसद्धान्तों
का प्रचार करती हैं तथा संस्कृ त एिं पाहि दोनों में ईपिब्ध हैं।
जातक (Jataks): ये छठी शताब्दी इसा पूिव से िेकर दूसरी शताब्दी इसा पूिव तक के
सामाहजक और अर्मथक हस्थहत पर ऄमूकय प्रकाश डािते हैं। ये बुद्ध काि में राजनीहतक
घटनाओं के हिए प्रासंहगक संदभव भी प्रस्तुत करते हैं।
मूिसूत्र (Mulasutras), ऄनुयोग सूत्र तथा नंकदसूत्र के रूप में जाना जाता है।
जैन धमव ने एक समृद्ध साहहत्य के हिकास में योगदान कदया हजसमें कहिता, दशवन और व्याकरण
समाहिष्ट हैं।
प्राकृ त, संस्कृ त और ऄपभ्रंश भाषा के िृहत जैन हशक्षाप्रद या नीहतपरक कहानी (कथा) तथा
साहहत्य तत्कािीन समय के अम जन-जीिन का दृष्टांत ईपिब्ध कराते हैं।
जैन ग्रंथ व्यापार और व्यापाररयों के बारे में प्रायः ईकिेख करते हैं। आनमें ऐसे बहुत से ऄितरण हैं
जो पूिी ईिर प्रदेश और हबहार के राजनीहतक आहतहास की पुनसंरचना करने में हमारी सहायता
करते हैं।
जैन ग्रन्थ सामान्यतः चररत्र में नीहतपरक और हशक्षाप्रद हैं। आन्हें प्राकृ त के कु छ रूपों में हिखा गया
है।
जैन साहहत्य संस्कृ त भाषा में भी ईपिब्ध हैं, जैसे 906 इसिी में हसद्धराहश द्वारा हिहखत
धमवसूत्रों को 500-200 इ.पू. के मध्य संकहित ककया गया। आनमें हिहभन्न िणों के साथ-साथ
राजाओं और ईनके कमवचाररयों के कतवव्य बताए गए हैं।
आनमें संपहि रखने , बेचने और आसके ईिराहधकार के हनयम कदए गए हैं। ईनमें चोरी, अक्रमण,
है, हजसमें बुद्ध का जीिन चररत्र है। ईन्होंने ‘‘सौन्दरानन्द’’ भी हिखा जो संस्कृ त भाषा की एक िे्
कृ हत है।
भारतिषव में गहणत, खगोि, ज्योहतष, कृ हष तथा भूगोि जैसे हिषयों पर महान साहहत्य हिखा
गया। चरक ने हचककत्सा शास्त्र तथा सुित
ु ने शकय हचककत्सा संबंधी ग्रन्थ हिखे। माधि ने
‘‘औषहधहिज्ञान ग्रंथ’’ की रचना की।
िाराहहमहहर तथा अयवभट्ट द्वारा ऄंतररक्ष हिज्ञान पर तथा िगधाचायव द्वारा ज्योहतष शास्त्र पर
रहचत पुस्तक बहुत प्रहसद्ध हैं।
बृहत् संहहता, अयवभट्टीयम् तथा िेदांग ज्योहतष ऄतुिनीय ग्रन्थ हैं।
‘गुप्त काि’ भारत की संस्कृ हत का स्िणवकाि माना जाता है। गुप्तकािीन राजाओं ने शास्त्रीय संस्कृ त
साहहत्य को बढ़ािा कदया। िे संस्कृ त के कहि तथा हिद्वानों की सहायता करते थे। आससे संस्कृ त
भाषा समृद्ध हुइ।
िास्ति में आस काि में संस्कृ त भाषा सभ्य तथा हशहक्षत िोगों की भाषा बन गइ। आस काि में बहुत
से महान कहियों, नाटककारों और हिद्वानों ने ईच्चकोरट के संस्कृ त साहहत्य का सृजन ककया-
o काहिदास- कहि काहिदास ने ऄनेक सुंदर कहिताएं और नाटक हिखे। संस्कृ त में ईनको काव्य
साहहत्य का ‘रत्न’ माना जाता है। ईनकी अियवजनक हिद्वता दो खण्ड काव्य ‘मेघदूत’ तथा
‘ऊतुसह
ं ार’, दो महाकाव्य ‘‘कु मारसंभि’’ और ‘‘रघुिश
ं ’’ अकद महान काव्यों में देखी जा
सकती है। ‘‘ऄहभज्ञानशाकु न्तिम’’ तथा ‘‘हिक्रमोिवशीयम’’, ‘‘मािहिकाहिहमत्रम्’’ ईनके
सुप्रहसद्ध नाटक हैं।
o हिशाखदत- हिशाखदत ईस समय के एक ऄन्य महान नाटककार है। अपने ‘‘मुद्राराक्षस’’ तथा
‘‘देि चन्द्रगुप्त’’ जैसे दो ऐहतहाहसक नाटक रचे।
o शूद्रक- अपने ‘‘मृच्छकरटकम् (हमट्टी की गाड़ी)’’ जैसा सामहयक नाटक हिखा। यह ईस काि
की सामाहजक तथा सांस्कृ हतक हस्थहतयों का स्रोत है।
o हररसेण- हररसेण गुप्त काि के ऄनेक महान कहियों तथा नाटककारों में एक थे। अपने
समुद्रगुप्त की िीरता की प्रशंसा में ऄनेक कहिताएं हिखी। यह प्रयाग प्रशहस्त पर स्पष्ट रूप से
देखी जा सकती है।
o भास- अपने ईस समय के जीिनदशवन और हिश्वास तथा संस्कृ हत के प्रतीक तेरह नाटक हिखे।
ईिरी भारत में मध्यकाि के बाद कश्मीर में संस्कृ त साहहत्य का ईदय हुअ। सोमदेि का
‘‘कथासररतसागर’’ तथा ककहण की ‘‘राजतरंहगणी’’ ऐहतहाहसक महत्ि के ग्रंथ हैं। यह कश्मीर के
राजाओं के हिषय में महत्िपूणव सूचनाएाँ देती हैं।
जयदेि का ‘गीतगोहिद’ आस काि के संस्कृ त साहहत्य की सिोिम रचना है। आसके ऄहतररक्त
हिहभन्न हिषय जैसे किा, िास्तुकिा, हशकपकिा, मूर्मतकिा अकद संबंहधत क्षेत्रों में भी महत्िपूणव
ग्रन्थ हिखे गए।
संगम साहहत्य में कु छ महत्िपूणव संग्रह ग्रन्थ हैं, हजनमें से एतुिौके ऄथिा ऄष्टसंग्रह प्रथम संग्रह
ग्रन्थ है हजनमें 8 पद्य संग्रह हैं और पिुप्पातु ऄथिा दशगीत हद्वतीय संग्रह ग्रन्थ हैं जो दस िंबी
कहिताओं का संग्रह है।
आसके ऄहतररक्त पकदनेकककिकणक्कु तीसरा संग्रह ग्रन्थ है, हजसमें 18 सदाचारपरक गीत हैं। ये
ऄपनी सरितापूणव ऄहभव्यहक्त के हिए हिशेष रूप से जाने जाते हैं। आनकी रचना 473 कहियों
द्वारा की गइ थी, हजनमें से 30 हस्त्रयां थीं, आनमें से ऄिय्यर (Avvaiyar) एक प्रहसद्ध किहयत्री थी।
5.1.2 सं ग म यु ग के महाकाव्य
संगम युग में कु ि पांच महाकाव्य हैं- हशिप्पाकदकारम, महणमेखिै, जीिकहचन्तामहण, बियपहत,
कुं डिके हश।
आन महाकाव्यों के रचनाकाि को तहमि साहहत्य का स्िणवयुग कहा जाता है। आनमें से प्रथम तीन
ही ईपिब्ध हैं-
o हशिप्पाकदकारम (Silappadhikaram) – आिांगोअकदगि (Ilango-Adigal) द्वारा हिहखत
(नुपुर की कहानी), आस ग्रन्थ को तहमि साहहत्य का आहियड माना जाता है।
6. तेि गु साहहत्य
हिजयनगर काि को तेिगु साहहत्य का स्िणव युग कहा जाता था। बुक्का प्रथम के राजकहि नाचणा
सोमनाथ ने ‘‘ईिरहररिंशम’’ नामक काव्य की रचना की।
हिजयनगर के महानतम शासक कृ ष्णदेि राय (1509 इ.-29) स्ियं महान कहि थे। ईनकी रचना
‘ऄिमुक्तमाकयद’’ तेिगु साहहत्य में ईत्कृ ष्ट प्रबंध रचना मानी जाती है। ‘ऄष्टकदग्गज’ रूप में प्रख्यात
तेिगु भाषा के अठ महान साहहत्यकार ईनके दरबार की शोभा थे।
आनमें से ऄकिसनी पेड्डना महानतम साहहत्यकार माने जाते थे, हजन्होंने ‘मनुचररतम’ नामक ग्रंथ
की रचना की। ईन्हें अंध्र कहिता का हपतामाह कहा जाता है। ऄन्य सात कहियों में
‘पाररजातापहरणम’ के रचहयता नंदी हतम्मणा के ऄहतररक्त मदयगरी मकिण, धुजत
व ी,
ऄय्यािाराजू रामभद्र कहि, हपगिी सुराण, रामराज भूषण तथा तेनािी रामकृ ष्ण हैं।
हशि भक्त धूजवती ने ‘‘किा हहस्तस्िर माहात्म्यम’’ और ‘किाहहस्तस्िर शतकम्’ नामक दो रचनाएाँ
हिखीं।
हपगिी सुराण ने ‘राघिपांडहियम्’ तथा ‘किापुरानोदयम्’ नामक रचनाएाँ हिखीं। पहिी रचना में
ईन्होंने रामायण और महाभारत की कथा को एक साथ रचने की कोहशश की है। राजहिदूषक
तेनािी रामकृ ष्ण ‘‘पांडुरंग माहात्म्यम’’ के रचनाकार हैं। ईनकी यह रचना तेिुगु साहहत्य की
महान कृ हत मानी जाती है।
रामराजभूषण ‘‘िासुचररतम’’ के रचनाकार हैं। आन्हें भट्टमूर्मत नाम से भी जाना जाता है।
नरशंभप
ु ांडहियम् तथा हररिंद्र निोपाख्यानम्’ आनकी ऄन्य कृ हतयााँ हैं। यह ‘राघिपाण्डिीयम’ की
पद्धहत पर हिखी काव्य रचना है। आसमें नि और हररिंद्र की कथाएाँ साथ-साथ पढ़ी जा सकती हैं।
मदयगरी मकिण कृ त ‘राजशेखरचररत’ एक प्रबंध रचना है। आसकी हिषयिस्तु ऄिन्ती के सम्राट
राजशेखर का युद्ध एिं प्रेम है।
ऄय्यािाराजू रामभद्र ‘रामाम्युदयम’ तथा सकिकथासार संग्रहम् कृ हतयों के रचनाकार हैं।
7. कन्नड़ साहहत्य
तेिगु रचनाकारों के ऄिािा हिजयनगर शासकों ने कन्नड़ और संस्कृ त िेखकों को भी अिय कदया।
ऄनेक जैन हिद्वानों ने कन्नड़ साहहत्य में योगदान ककया।
माधि ने पन्द्रहिें तीथंकर पर धमवनाथ पुराण हिखा। जैन हिद्वान ईररत हििास ने ‘धमव परीक्ष ग्रंथ
की रचना की। आस काि की संस्कृ त कृ हतयों में िेदनाथ देहशक का ‘यादिाभ्युदयम्’ तथा
माधिाचायव की ‘पराशरस्मृहत व्याख्या’ शाहमि है।
कन्नड़ भाषा का संपूणव हिकास दसिीं शताब्दी के बाद हुअ। कन्नड़ की प्राचीनतम साहहहत्यक कृ हत
‘कहिराजमागव’ है जो राष्ट्रकू ट के राजा नृपतुग
ं ऄधोिषव प्रथम द्वारा हिखी गइ।
पंपा ने ऄपनी ईत्कृ ष्ट काव्यात्मक कृ हतयााँ ‘अकदपुराण’ और ‘हिक्रमाजुन
व हिजय’ दसिीं शताब्दी इ.
में हिखीं। पम्पा को कन्नड़ कहिता का जनक कहा जाता है। िे चािुक्य नरेश ऄररके शरी के दरबार
में रहते थे। ऄपने काव्यात्मक ज्ञान, सौंदयव के िणवन , चररत्रों की व्याख्या और रसों के सूजन में पंपा
का कोइ जोड़ नहीं है।
राष्ट्रकू ट राजा कृ ष्ण तृतीय के राज्य में रहने िािे ऄन्य दो कहि पोन्ना और रान्ना थे। पोन्ना ने
‘शांहतपुराण’ नामक एक महाकाव्य हिखा और रान्ना ने ‘ऄहजतनाथ पुराण’ हिखा। आसहिए पंपा,
पोन्ना और राना को ‘रत्नत्रय’ (तीन रत्न) की ईपाहध दी गइ।
12िीं शताब्दी के ईिराधव में बसिेश्वर का अहिभावि हुअ। ईन्होंने िीरशैि मत का पुन: संघटन
करके कनावटक के धार्ममक एिं सामाहजक जीिन में एक क्राहन्त िा दी।
बसि तथा ईनके ऄनुयाहययों ने ऄपने मत के प्रचार के हिए बोिचाि की कन्नड भाषा को माध्यम
बनाया। िीरशैि भक्तों ने भहक्त, ज्ञान, िैराग्य, सदाचार एिं
नीहत पर हनराडंबर शैिी में ऄपने ऄनुभिों की बातें सुनाइ, जो
‘िचन साहहत्य’ के नाम से प्रहसद्ध हुइ।
आस काि में ऄक्का महादेिी एक प्रहसद्ध किहयत्री थीं।
तेरहिीं शताब्दी में कन्नड़ साहहत्य में नए अयाम जुड़े। हररश्वर ने
‘हररिन्द्र काव्य’ और ‘सोमनाथ चररत’ तथा बंधि
ु माव ने
‘हररिंश- ऄभ्युदय’ और ‘जीिन संबोधन’ की रचना की।
होयसि शासकों के संरक्षण में ऄनेक साहहहत्यक ग्रंथों की रचना
हुइ। रुद्रभट्ट ने ‘जगन्नाथ हिजय’ की रचना की। ऄनदआया का
‘मदनहिजय’ या ‘कहब्बगार काि’ हबना संस्कृ त के ईपयोग के हिशुद्ध कन्नड़ की एक रोचक पुस्तक
है।
महकिकाजुन
व के द्वारा ककया गया कन्नड़ सूहक्तयों का पहिा संकिन ‘सूहक्तसुधाणवि’ और व्याकरण
पर के सीराजा की ‘शब्दमहणदपवण’ कन्नड़ भाषा की दो ऄन्य महान कृ हतयााँ हैं।
माना जाता है कक चौदहिीं और सोिहिीं शताब्दी के बीच हिजयनगर के राजाओं के संरक्षण में
कन्नड़ साहहत्य फिा-फू िा। कुं िर व्यास ने ‘भारत’ और नरहरर ने ‘तारि रामायण’ की रचना की।
सत्रहिीं शताब्दी में िक्ष्मीशा हजन्होंने ‘जाहमनी भारत’ हिखा, ईन्हें कामना-कररकु तिन-चैत्र
(कनावटक की अम्र-ईपिन की बसंत) की ईपाहध हमिी। तत्कािीन समय के ऄन्य महत्िपूणव कहि
महान ‘सिवजन’ थे, जो जनता के कहि के नाम से िोकहप्रय थे। ईनके द्वारा रहचत हत्रपदी सूहक्तयााँ ,
ज्ञान और अचरण का स्रोत हैं।
कन्नड़ की सम्भितः शायद पहिी ऄहद्वतीय किहयत्री, होनाम्मा, हिशेष रूप से ईकिेखनीय हैं।
ईनकी रचना ‘हाकदबदेय धमव’ (िद्धािान पत्नी का कतवव्य) अचरण मूकयों का सार-संक्षेप है।
8. मियािम साहहत्य
मियािम भाषा के रि और अस-पास के आिाकों में बोिी जाती है। मियािम भाषा का ईद्भि
िगभग 11िीं शताब्दी में हुअ। 15िीं शताब्दी तक मियािम को एक स्ितंत्र भाषा के रूप में
पहचान हमि गइ।
ईपिब्ध साहहहत्यक कृ हत 'राम-चररतम' (12िीं सदी के ईिराद्धव या 13िीं सदी के पूिावद्धव में) है।
आसकी हिषयिस्तु रामायण के िंकाकांड की कथा है। के रि के चीरामन नामक कहि ने आसकी
रचना की है।
अयविंशज नंपूहतररयों के प्रभाि से के रि में ‘महणप्रिािम्’ नामक हमि भाषा का हिकास हुअ। यह
तहमि और संस्कृ त का हमिण थी। 10िीं और 15िीं सदी इसिी के मध्य ‘महणप्रिाि साहहत्य’ की
ऄत्यहधक पुहष्ट हुइ। आसी महणप्रिाि के माध्यम से संस्कृ त के ऄनेक काव्यरूपों का संक्रमण
मियािम् में हुअ।
एक तरफ महणप्रिाि साहहत्य का हिकास होता गया तो दूसरी तरफ "पाट्टु" (गीत) नामक
काव्यशाखा की भी िृहद्ध होती गइ। आस शाखा में धार्ममक एिं खेती तथा ऄन्य पेशों से संबद्ध ऄनेक
िोकगीत हैं।
पंद्रहिीं शताब्दी में अहिभूवत "कृ ष्णगाथा" के िि पुराण का पुनराख्यान मात्र नहीं है बहकक
कृ ष्णगाथा को मियािम् का सिवप्रथम स्ितंत्र महाकाव्य मान सकते हैं।
‘‘भाषा कौरटकय’’ और ‘कोकासंकदसन’ मियािम में रहचत दो महान कृ हतयां हैं। आसमें भाषा
कौरटकय ऄथवशास्त्र पर एक रटप्पणी है।
राम पहणकर और रामानुजन एजहुथाचन मियािम साहहत्य के जाने-माने साहहत्यकार हैं।
हािांकक ऄन्य दहक्षण भारतीय भाषाओं की तुिना में मियािम भाषा का हिकास बहुत बाद में
हुअ, कफर भी आसने ऄहभव्यहक्त के एक शहक्तशािी माध्यम के रूप में ऄपनी ईपहस्थहत दजव की है।
ऄमीर खुसरो :
ख़ुसरो ने फ़ारसी की एक नइ शैिी हिकहसत की हजसे सबक़-ए-हहन्दी या भारत की शैिी कहा
जाने िगा।
ऄमीर खुसरो
फारसी में खुसरो की पांच महत्िपूणव साहहहत्यक कृ हतयााँ हनम्नहिहखत हैं-
o (1) खमसा (Khamsa) (2) हस्तरीन खुसरो (Stirin khusrau) (3) िैिा-मजनू (Laila-
Majnun) (4) अआन-ए-हसकं दरी (Aina-i-Sikandari) (5) हश्त-बहहश्त (Hast –
Bihisht)।
आसके ऄहतररक्त खुसरो की कु छ ऄन्य महत्िपूणव कृ हतयां भी सहम्महित हैं – मसनिी, दीिान,
ककरान-ईस-सादेन, खज़ाआन-ईि-फु तूह (Khaza-in-ul-Futuh), तुगिक नामा (Tughlaq
Nama), हमफ्ताह-ईि-फु तूह (Miftah-ul-Futah), नूह हशपहर (Nuh-Siphir)।
आस काि में पयावप्त रूप से फ़ारसी में आहतहास िेखन का कायव भी हुअ। आस काि के प्रहसद्ध
आहतहासकार हमन्हाज़ हसराज़, हजयाईद्दीन बरनी, ऄफीफ़ एिं आसामी थे।
मुग़ि काि में बादशाहों ने ऄपनी जीिहनयााँ हिखकर ऐहतहाहसक चेतना का प्रमाण कदया। साथ
ही आन्होंने ऄपना आहतहास हिखिाने के हिए ईस समय के प्रहसद्ध आहतहासकारों और िेखकों को
हनयुक्त ककया। गैर- सरकारी आहतहासकारों का भी मुग़ि कािीन आहतहास िेखन के हिकास में
महत्िपूणव योगदान रहा। आनके ईदाहरण हनम्निहखत हैं-
o बाबर ने तुकी में तुज़क
ु -ए-बाबरी (बाबरनामा) हिखा था, हजसका पहिे शेख़ जेतुद्दीन ख्िाज़ा
द्वारा और बाद में ऄब्दुि रहीम खान-ए-खाना द्वारा फ़ारसी में ऄनुिाद ककया गया।
o हुमायूं नामा ईसकी बहन गुिबदन बेगम द्वारा फ़ारसी भाषा में हिखी गइ।
o ऄकबरनामा ऄबुि फजि द्वारा तथा तुज़क
ु -ए- जहांगीरी (Tuzuk-i-jahangiri) स्ियं
जहांगीर द्वारा हिखा गया था।
o ऄकबरनामा, पादशाहनामा, अिमगीरनामा मुग़ि कािीन सरकारी आहतहास के ईकिेखनीय
ईदाहरण हैं।
o आनके ऄहतररक्त आस काि में तारीख-ए-रशीदी, कानूने हुमायून
ाँ ी, तजककरातुि िाकयात,
िाकयात-ए-मुश्ताकी, ऄकबरनामा के भाग के रूप में अआन-ए-ऄकबरी, तबकात-ए-ऄकबरी,
मुन्तखब-ईत-तिारीख अकद महत्िपूणव रचनाएं की गईं।
18िीं और 19िीं शताब्दी को शास्त्रीय ईदूव साहहत्य का स्िर्मणम काि माना जाता है।
आस काि के महान् िेखकों में - मीर तक़ी मीर (मृत्यु- 1810), सौदा (मृत्यु-1781), ख़्िाजा मीर
ददव (मृत्यु-1784), आंशा (मृत्यु-1817), मुशाफ़ी (मृत्यु-1824), नाहसख (मृत्यु-1838), अहतश
(मृत्यु-1847), मोहमन (मृत्यु-1852), ज़ौक (मृत्यु-1854) और ग़ाहिब (मृत्यु- 1869) शाहमि हैं।
हमज़ाव ग़ाहिब
सभी िणवनात्मक और कथात्मक ईदेश्यों के हिए मसनिी शैिी को पसंद ककया जाता था, क्योंकक
आसमें बहुत स्ितंत्रता थी (के िि प्रत्येक शेर की पहक्तयों का क़ाकफ़या हमिना चाहहए था)।
दक्कन में सभी प्रमुख शायरों ने कम से कम एक िंबी मसनिी हिखी, िेककन ईनकी बोिी से
ऄपररचय के कारण ईन्हें ईतनी प्रशंसा नहीं हमिी। ऄत: ऄहधक प्रहसद्ध मसनहियां कदकिी ि
िखनउ के बाद के शायरों, जैसे मीर, मीर हसन, दया शंकर नसीम और हमज़ाव ज़ौक़ ने हिखीं।
िणवनात्मक मसनहियों के हिषय, दैहनक जीिन की घटनाओं से बादशाहों की हशकार यात्राओं तक
और प्रकृ हत की हिहभन्न ऊतुओं के रंगों से अत्मकथात्मक हनबंधों तक हिस्तृत थे। कथात्मक
मसनहियां ऄपेक्षाकृ त िंबी होती हैं और ईनमें हज़ारों शेर होते हैं। दक्कन में बहुत से शायरों ने
फ़ारसी मसनहियों के संहक्षप्त रूपांतरण हिखे , िेककन बहुत से ऄन्य रचनाकारों ने मूि रचनाएं
हिखीं, हजनमें भारतीय और साथ ही फ़ारसी ि ऄरबी रूमाहनयत थी।
आन मसनहियों में फ़ारसी ि ऄरबी कहिताओं से प्रेररत नायकों के नामों के ऄिािा बाक़ी सब कु छ
स्थानीय था। कु दरती नज़ारे, शहरी जीिन, जुिूस, परंपराएं, रीहत-ररिाज, सामाहजक मूकय और
पाबंकदयााँ यहां तक कक िोगों के रूप-रंग भी पूरी तरह भारतीय थे, हािांकक िे मुख्यत: मुसिमान
और सामंती थे।
ऄपनी िंबाइ के बािजूद आन रचनाओं को बहुत िोकहप्रयता हमिी और कम से कम ईिरी भारत में
आन्हें सािवजहनक स्थानों पर ऄक्सर ईसी तरह पढ़ा जाता था, जैसे कथािाचक कथाएं सुनाते हैं।
मसनिी शैिी का कु छ हहदी सूफ़ी कहियों ने भी ईपयोग ककया।
एक ऄन्य शैिी मर्मसया है, हजसका ऄथव शोकगीत है, िेककन ईदूव साहहत्य में अमतौर पर आसका
ऄथव हुसैन (मुहम्मद के पोते) के पररिार ि ररश्तेदारों के कष्टों पर शोकगीत और आराक़ के कबविा में
ईनकी क़ु बावनी है। ये शोकगीत और ऄन्य हििाप गीत सािवजहनक जनसमूह में पढ़े जाते हैं, ख़ासकर
मुहरवम के महीने में।
11. हहदी साहहत्य
हहन्दी भारत और हिश्व में सिावहधक बोिी जाने िािी भाषाओं में से एक है। आसकी जड़ें प्राचीन
भारत की संस्कृ त भाषा में तिाशी जा सकती हैं। परंतु हहन्दी साहहत्य की जड़ें मध्ययुगीन भारत
की ब्रजभाषा, ऄिधी, मैहथिी और मारिाड़ी जैसी भाषाओं के साहहत्य में पाइ जाती हैं।
हहदी में गद्य का हिकास बहुत बाद में हुअ और आसने ऄपनी
शुरुअत कहिता के माध्यम से की जो कक ज्यादातर िोकभाषा
के साथ प्रयोग कर हिकहसत की गइ।
हहदी में तीन प्रकार का साहहत्य हमिता है। गद्य, पद्य और
चम्पू।
‘पृथ्िीराज रासो’ को हहन्दी भाषा की पहिी पुस्तक माना जाता
है। यह कदकिी के राजा पृथ्िीराज चौहान की िीरता का िेखा-
जोखा है। आसके ऄनुकरण में ऄनेक रासो ग्रंथों की रचना की
गइ।
देिकीनन्दन खत्री द्वारा हिहखत ईपन्यास चंद्रकांता हहन्दी की
पहिी प्रामाहणक गद्य रचना मानी जाती है।
मागवदशवन के हिए हहन्दी साहहत्य ने संस्कृ त के शास्त्रीय ग्रंथों को अधार बनाया और भरत मुहन के
‘नाट्यशास्त्र’ को हहन्दी िेखकों ने ध्यान में रखा।
भहक्त अंदोिन की धारा के ईिर भारत पहुाँचने के पिात हहदी साहहत्य की कहिताओं का मुख्य
चररत्र भहक्त रस हो गया। कु छ कहि जैसे तुिसीदास सीहमत क्षेत्र में रहे और ईन्होंने काव्य रचना
ईस क्षेत्र की भाषा में की, जहााँ के िे हनिासी थे।
दूसरी ओर कबीर जैसे ऄन्य कहि एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते थे आसहिए ईनकी
कहिता में फारसी के साथ-साथ ईदूव भाषा के शब्द भी अ गए।
यह सही है कक तुिसीदास ने ‘रामचररतमानस’ की रचना
िाकमीकक रहचत ‘रामायण’ के अधार पर की, ककन्तु
िोककथाओं में ईपिब्ध् कु छ नए दृश्यों और हस्थहतयों को भी
ईन्होंनें आसमें जोड़ा।
सूरदास ने ‘सूरसागर’ की रचना की। मीराबाइ राजस्थानी
भाषा में पद रचना करती थीं। यद्यहप, रसखान मुसिमान थे,
पर ईन्होंने कृ ष्ण-भहक्त के पद हिखे हैं। कृ ष्ण भक्त कहियों में
एक महत्त्िपूणव नाम नंददास का है। रहीम और भूषण
ऄिगधारा के कहि हैं। आनके काव्य का हिषय भहक्त नहीं, बहकक
अध्याहत्मक था।
हबहारी ने सत्रहिीं सदी में ‘सतसइ’ हिखी। आनके दोहों में शृंगार
(प्रेम) के साथ ऄन्य रसों का भी सुंदर िणवन है।
कबीर को छोड़कर ईक्त सभी कहियों ने ऄपनी भािनाओं को
ऄहनिायवतः ऄपनी धार्ममक प्रिृहियों को संतुष्ट करने के हिए
व्यक्त ककया। कबीर संस्थागत धमव में हिश्वास नहीं करते थे। िे
हनराकार इश्वर के भक्त थे। ईस इश्वर का नाम िेना ही ईनके
हिए सब कु छ था। आन सब कहियों ने ईिर भारतीय समाज को
आस प्रकार प्रभाहित ककया जैसा पहिे कभी नहीं हुअ था।
ईन्नीसिीं सदी के अरंभ में ही हहन्दी गद्य ऄपने सही रूप में अ
सका। भारतेंद ु हररिंद्र हहन्दी के अरंहभक नाटककारों में से एक
थे। ईनके कु छ नाटक संस्कृ त तथा ऄन्य भाषाओं के नाटकों के
ऄनुिाद हैं। ईन्होंने नइ परंपरा की शुरूअत की। आन्होंने हहन्दी
भाषा को बढ़ािा कदया।
महािीर प्रसाद हद्विेदी एक ऄन्य िेखक थे, हजन्होंने संस्कृ त के
ग्रन्थों का ऄनुिाद ऄथिा रूपांतरण ककया। हहन्दी में स्िामी
दयानंद सरस्िती के योगदान को ऄनदेखा नहीं ककया जा सकता।
मूितः िे गुजराती थे और संस्कृ त के हिद्वान थे, तथाहप ईन्होंने
हहन्दी को पूरे भारत की अम भाषा बनाने का समथवन ककया।
ईन्होंने हहन्दी में हिखना शुरू ककया और धार्ममक तथा सामाहजक
सुधारों से जुड़ी पत्र-पहत्रकाओं में िेख हिखे। हहन्दी में ‘‘सत्याथव
प्रकाश’’ ईनकी सिावहधक महत्त्िपूणव रचना है।
हहन्दी साहहत्य को हजन िोगों ने समृद्ध बनाया है, ईनमें मुश
ं ी
प्रेमचंद्र का नाम प्रमुख है, हजन्होंने ईदूव से हहन्दी में हिखना
प्रारम्भ ककया।
सूयक
व ांत हत्रपाठी ‘हनरािा’ को ख्याहत हमिी क्योंकक ईन्होंने ऄपने साहहत्य के माध्यम से ऄपने
समाज की रूकढ़यों पर प्रश्नहचह्न िगाए। हनरािा अधुहनक भारत के जागृहत के ऄग्रदूत बने।
महादेिी िमाव पहिी महहिा िेहखका हैं हजन्होंने नाररयों से सम्बद्ध हिषयों पर हिखा। आन्होंने
समाज में महहिाओं की दशा का हिस्तृत िणवन ककया।
मैहथिीशरण गुप्त एक ऄन्य नाम है जो ईकिेखनीय है। जयशंकर प्रसाद ने ईत्कृ ष्ट नाटक हिखे।
रामधारी हसह ‘कदनकर’ तथा हररिंशराय बच्चन ने हहन्दी काव्य के हिकास में महान योगदान ककया
है।
अधुहनक समय में हहन्दी भाषा का हिकास 18िीं सदी के ऄंहतम समय में हुअ। आस काि के प्रमुख
िेखक थे मुश
ं ी सदासुख िाि तथा आन्शाकिाह खान। आसी प्रकार राजा िक्ष्मण हसह ने ‘शाकुं तिम्’
का हहन्दी में ऄनुिाद ककया। आस समय हहन्दी हिपरीत ऄिस्था में भी हिकास कर रही थी क्योंकक
कायावियों का कायव ईदूव में ककया जाता था।
12. बांग्िा
हहन्दी के बाद सबसे ऄहधक समृद्ध साहहत्य बांग्िा साहहत्य था। भहक्त अंदोिन के हिकास तथा
चैतन्य की हिहभन्न भहक्तपूणव रचनाओं ने बंगािी भाषा को हिकहसत करने में योगदान ककया।
‘‘मंगि काव्य’’ के नाम से प्रहसद्ध कथात्मक कहिताएाँ आस काि में बहुत प्रहसद्ध हुईं। ईन्होंने चण्डी
जैसी स्थानीय देहियों की स्तुहत का प्रचार ककया तथा पौराहणक देिों जैसे हशि तथा हिष्णु को
घरेिू देिों के रूप में प्रस्तुत ककया।
हिहियम करे ने बांग्िा का व्याकरण हिखा और एक ऄंग्रेजी-बांग्िा शब्दकोश भी प्रकाहशत ककया।
आसके ऄहतररक्त ईन्होंने संिाद और कहाहनयों की भी पुस्तकें हिखीं।
राजा राममोहन राय ने ऄंग्रेजी के ऄिािा बांग्िा में भी हिखा। आससे बांग्िा साहहत्य को बि
हमिा। इश्वरचंद्र हिद्यासागर (1820-91) और ऄक्षय कु मार दि (1820-86) आस अरंहभक ऄिहध्
के दो ऄन्य िेखक थे।
आनके ऄहतररक्त बंककम चंद्र चटजी (1834-94) और शरत् चंद्र
चटजी (1876-1938) और अर.सी. दि, जो एक जाने माने
ऄहभव्यक्त ककया। पाठकों में राष्ट्रिादी भािनाअःेःं को जगाने में आन दो िेखकों का योगदान
अियवजनक था। आनके काव्य का ऄनुिाद ऄन्य भारतीय भाषाओं में भी ककया गया।
13. ऄसमी
ऄसमी भाषा भी भहक्त अंदोिन के कारण हिकहसत हुइ। शंकरदेि ने
ऄसम में िैष्णि धमव का प्रचार ककया और ऄसमी भाषा के हिकास में
योगदान ककया।
आसके साथ पुराणों का भी ऄसमी भाषा में ऄनुिाद ककया गया। अरंहभक
ऄसमी साहहत्य में बरोंजी (दरबारी आहतहास) प्रमुख था। शंकरदेि ने
ऄनेक धार्ममक कहिताएं हिखी हैं हजन्हें िोग हषोन्मुक्त होकर गाते हैं।
1827 इ. के बाद ही ऄसमी साहहत्य के सृजन में ऄहधक रुहच कदखाइ देने
िगी। िक्ष्मीकांत बेजबरूअ और पद्मनाभ गोसाईं बरूअ, शंकरदेि
सिावहधक ख्याहत प्राप्त ऄसमी िेखक हैं।
14. ओहडया
ईड़ीसा से फकीरमोहन सेनापहत और राधनाथ रे के नाम ईकिेखनीय हैं। आनका िेखन ईहड़या
साहहत्य के आहतहास में महत्त्िपूणव स्थान रखता है।
ओहडया साहहत्य में एक नये युग को जन्म देने का िेय ईपेन्द्र भंजा (1670-1720) को जाता है।
सरिदास काव्य ईहड़या साहहत्य की प्रथम साहहहत्यक कृ हत कहिाती है।
गुरुमुखी हिहप
ऄहधक रुहच िेते थे। परन्तु, न तो यहां कोइ हिद्यािय था और न ही हशक्षा की ऄच्छी व्यिस्था थी।
चारों ओर गरीबी और अर्मथक हपछड़ापन था। यही कारण है कक कश्मीरी में ऄच्छा साहहत्य नहीं
हिखा जा सका।
संिध
ै ाहनक हस्थहत
भारत में हिहभन्नता का स्िरूप न के िि भौगोहिक है, बहकक भाषायी तथा सांस्कृ हतक भी है। एक
ररपोटव के ऄनुसार भारत में 1652 मातृभाषायें प्रचिन में हैं, जबकक संहिधान द्वारा 22 भाषाओं
को राजभाषा की मान्यता प्रदान की गयी है।
संहिधान के ऄनुच्छेद 344 के ऄंतगवत पहिे के िि 15 भाषाओं को राजभाषा की मान्यता दी गयी
थी, िेककन 21िें संहिधान संशोधन के द्वारा हसन्धी को तथा 71िें संहिधान संशोधन द्वारा नेपािी,
कोंकणी तथा महणपुरी को भी राजभाषा का दजाव प्रदान ककया गया। बाद में 92िााँ संहिधान
संशोधन ऄहधहनयम, 2003 के द्वारा संहिधान की अठिीं ऄनुसूची में चार नइ भाषाओं बोडो,
डोगरी, मैहथिी तथा संथािी को राजभाषा में शाहमि कर हिया गया। आस प्रकार ऄब संहिधान में
तहमि, तेिगु, कन्नड़, मियािम, नेपािी, महणपुरी, कोंकणी, बोडो, मैहथिी, संथािी ि
डोगरी
1.5. नृतयाांगना, काांस्य प्रततमा, ससधु सभ्यता, मोहनजोदड़ो, पाककस्तान _____________________________________ 112
1.6. चौरी/चांवर वाहक (CHAURI BEARER), मौयय काल, पटना, तबहार ____________________________________ 113
1.7. ससह प्रतीक, मौयय काल, सारनाथ, ाईिर प्रदेश ___________________________________________________ 114
1.15. मांकदर क्रमाांक 17, गुप्त काल, साांची, मध्य प्रदेश _________________________________________________ 118
@
80
h1
107
1.39. मूर्ततमय फलक, लक्ष्मण मांकदर, खजुराहो, मध्य प्रदेश _____________________________________________ 129
1.46. तचतत्रत फलक, नतयक, सूयय मांकदर, कोणाकय , ओतड़शा _____________________________________________ 133
1.54. कक्ष, ाईतकीणय स्तांभ एवां सांगमरमर की छत, तवमल वसाही मांकदर, मााउांट ाअबू, राजस्थान ______________________ 137
108
1.58. सुलख
े (खुशनवीसी), कु तुब मीनार, कदल्ली____________________________________________________ 139
1.63. कफरोज शाह तुगलक का मकबरा, हौज खास, कदल्ली _____________________________________________ 141
1.67. जाली का कायय, ाअांतररक दृश्य, सीदी सैय्यब मतस्जद, ाऄहमदाबाद, गुजरात ______________________________ 143
109
हमारी साांस्कृ ततक तवरासत की कहानी लगभग 10,000 वषय पुरानी है। सवायतधक प्राचीन
ऐततहातसक काल को पूवय-ऐततहातसक काल ाऄथवा पाषाण युग के नाम से जाना जाता है। ाआस काल
में लोगों ने ाऄतत जल-वृति ाअकद प्राकृ ततक तवपदाओं से बचाव के तलए गुफाओं में ाअश्रय तलया था।
वे तशकार और फल-फू ल एकतत्रत कर जीवन यापन करते थे। ाईन्होंने पतथरों, लकड़ी तथा हतियों से
साधारण औजार भी बना तलए थे।
यह गुफाएां भोपाल शहर के दतक्षणी कदशा में वहाां से कोाइ पचास ककलोमीटर दूर भीमबेटका में
तस्थत है। ाआन गुफाओं में पतथरों को तराश कर बनाए गए औजार तमले हैं तथा ाआनकी दीवारें
तशकार, सांगीत एवां नृतय ाअकद के दृश्यों से प्रचुर रूप से तचतत्रत हैं। ाआन्हीं सब के कारण ाआन गुफाओं
को, ाआनमें रह चुके लोगों के दैतनक जीवन की जानकारी देने वाला भांडार गृह माना जाता है।
भीमबेटका की प्राकृ ततक पहाड़ी गुफाओं में तजन लोगों ने ाअश्रय तलया था, ाईन्होंने गुफाओं की
दीवारों की तभतितचत्रों से सजाया। ाआन तभतितचत्रों में ाआस्तेमाल ककए गए रांग ाआस क्षेत्र में तमलने
वाले खतनज पदाथों एवां पतथरों से प्राप्त ककए गए थे।
ये तभतितचत्र हमें ाआस बात की जानकारी प्रदान करते हैं कक गुफा-तनवासी ककस प्रकार के औजार
ाईपयोग में लाते थे और ककस प्रकार तशकार करते थे। यह भी एक ाअिययजनक बात है कक लगभग
10,000 वषय पूवय मानव ने ऐसे सुन्दर तचत्रों की रचना की जो ाईनके दैतनक जीवन के तवतभन्न पक्षों
को दशायते हैं।
करीब 5000 वषय पूवय, तसन्धु नदी के ककनारे एक महतवपूणय सभ्यता तवकतसत हुाइ थी। बाद में की
गाइ खुदााइ से ाआस तथ्य का भी पता चलता है कक ाआस सभ्यता से सम्बतन्धत ाईिर प्रदेश, राजस्थान,
गुजरात तथा महाराष्ट्र के काइ स्थलों में भी ाआसी प्रकार की नगर-योजना तवद्यमान थी। मानवीय
सभ्यता के प्रारांतभक काल में ाआस प्रकार के सुतनयोतजत नगरों की रचना ससधु सभ्यता की एक
दुलयभ तवशेषता है। नगर-योजना में मुख्य मागों के साथ ाईप-मागय जुड़े थे एवां ाअवासीय क्षेत्र ाऄलग
थे। सभी मकान, यहाां तक कक दो मांतजल ाउांचे मकान भी, ईंट से बनाए जाते थे।
सभ्यता के स्थानों पर की गाइ खुदााइ के दौरान 2000 से भी ज्यादा मुहरें प्राप्त हुाइ हैं। यह मुहरें
चौरस और ाअयताकार हैं। ाआन्हें नमय पतथर से बनाया गया है तथा ाआन पर तचत्र तथा तलतप ाईतकीणय
हैं। ाईतकीणय तचत्रों में साांड, बकरा, भैंस, शेर तथा हाथी ाअकद पशुओं के तचत्र हैं एवां लेखों में दस से
बीस प्रतीक हैं। ये मुहरें , वतयमान में व्यवहार में लााइ जाने वाली मुहरों जैसी ही हैं तथा नमय तमट्टी
की पट्टी पर दबा कर ाऄांककत की जाती थीं। ाआन्हें सांभवताः व्यापाररक कायों तथा सांपति पर
स्वातमतव दशायने हेतु ाआस्तेमाल ककया जाता होगा। प्रस्तुत तचत्र में एक श्रृांगी पौरातणक पशु को देखा
जा सकता हैं। सांभवताः यह ककसी व्यापाररक घराने का व्यापाररक प्रतीक रहा होगा।
1.5. नृ तयाां ग ना, काां स्य प्रततमा, ससधु सभ्यता, मोहनजोदड़ो, पाककस्तान
हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो में की गाइ खुदााइ से प्राप्त वस्तुओं से यहाां के तनवातसयों की कलातमक
प्रततभा का भी पता चलता है। ाईनकी महतवपूणय ाईपलतधधयों में ाईतकीणय मुहरें तथा मानव-
ाअकृ ततयाां हैं। ाआनमें सवायतधक महतवपूणय नृतयाांगना की प्रततमा है। ाआस काांस्य प्रततमा को नृतयाांगना
नाम ाआसतलए कदया गया है क्योंकक ाईसके खड़े होने की मुद्रा भव्य है। ाईसने एक हाथ में चूतड़यााँ
पहन रखी हैं तथा दूसरे में एक कटोरा है। यह तथ्य ाऄतयांत महतवपूणय है कक हजारों वषय पहले के
कलाकार धातु-तवज्ञान से पररतचत थे और धातु को ढाल कर कलातमक वस्तुएां बना सकते थे।
सम्राट ाऄशोक ने ाऄपने पूरे राज्य में बहुत से “स्तांभ' तनर्तमत करवाए थे। प्रतयेक स्तांभ के ाउपर
बौद्धमत का एक प्रतीक है तथा ाईन पर सम्राट ाऄशोक के तनयम एवां कानून तलतपबद्ध हैं ताकक लोग
ाईन्हें जान सके । सम्राट ाऄशोक का यह ससह प्रतीक ाईिर प्रदेश तस्थत सारनाथ में पाया गया और
ाआसे भारतीय गणतांत्र के प्रतीक तचन्ह के रूप में चुना गया।
ाआस ससह प्रतीक को सभी भारतीय तसक्कों, रुपयों, सरकारी मुहरों और ाऄन्य सरकारी कागजातों पर
पाएांगे। ाआसमें चार ससह बने हुए हैं जो प्रतीकातमक रूप में हमारे देश की चार कदशाओं ाऄथायत्
ाईिर, दतक्षण, पूवय और पतिम की रक्षा करते हैं। ससहों के नीचे, बौद्ध प्रतीक-धमयचक्र है जो
धमयपरायणता और प्रगतत का तचन्ह है। ाआसके नीचे बैल, बल तथा सदाशयता का एवां हाथी, घोड़ा
तहरण, शति, गतत और सुांदरता के प्रतीक रूप हैं।
प्राचीन काल में तनर्तमत बौद्ध स्तूपों तथा धार्तमक स्थलों का पयाययवाची शधद, साांची है। स्तूप एक
ठोस ाऄधयवृिाकार भवन होता है, तजससे भगवान बुद्ध या बौद्ध सांतों और ाऄध्यापकों के भौततक
ाऄवशेष रखे जाते हैं।
बौद्ध मत में स्तूप भगवान बुद्ध का प्रतीक भी माना जाता है। ाआसके तीन घेरे (रेसलग) होते हैं। भूतम
पर तस्थर घेरा पृथ्वी का प्रतीक माना जाता है, मेतध घेरा ाऄांतररक्ष का तथा हर्तमका स्वगय का। यहाां
दृतिगत हो रहे साांची के स्तूप क्रमाांक-3 में एक ही छत्रावली है। गुांबद को पुनाः बनाया गया था।
ाआसमें भगवान बुद्ध की प्रारांतभक तशष्यों-सररपुतासा और महमोगलनासा के ाऄवशेष हैं।
ाऄन्यों से सम्बद्ध स्तूप सांख्या-3 के भू-स्तांभ ाईस समय के जीवन की दृश्यावली तचतत्रत करता है,
तजसकी सहायता से ततकालीन जीवन-शैली का ाऄध्ययन ककया जा सकता है। सााँची से सम्बद्ध कु छ
मूर्ततयााँ सांग्रहालय में सांरतक्षत हैं।
1.15. मां कदर क्रमाां क 17, गु प्त काल, साां ची, मध्य प्रदे श
भारत में मांकदरों के तवकास के ाआततहास में गुप्तकाल का महतवपूणय स्थान है। साांची में तजस मांकदर के
भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं वह गुप्त काल में तनर्तमत प्रारांतभक मांकदर है। यह पतथर का बना हुाअ है। ाआस
का गभय गृह छोटे ाअकार का है तथा ाईस में देव मूर्तत स्थातपत थी। ाआसका एक प्राांगण भी था तजसमें
ाऄतयलांकृत स्तांभ थे। ाआसमें सुांदरतापूवयक बने स्तांभों के साथ एक द्वारमण्डप भी था। ध्यान देने पर
देखा जा सकता है कक मांकदर की छत सपाट है। धीरे -धीरे, समय के साथ-साथ यह छत शानदार
रूप से बने तशल्पयुि तशखर में तवकतसत हुाइ। ाआसी प्रकार के तशखरों को हम बाद में तनर्तमत मांकदरों
में देख सकते हैं। दतक्षण भारतीय मांकदरों में प्रचुर रूप में ततक्षत “गोपुरम" या प्रवेशद्वार एवां तशखर
होते हैं।
मान्यता है कक यकद कोाइ स्तांभ के ाअस-पास ाऄपनी बाांहें डालकर (ाऄपनी पीठ स्तांभ की ओर करके )
कु छ माांगता है तो ाईसकी गुप्त ाआच्छा पूरी हो जाती है।
ाऄजांता, मठों और गुफा मांकदरों में तनर्तमत मूर्ततकला एवां तचत्रकला के तलए प्रतसद्ध है। वघोरा नदी
पर घोड़े की नाल की ाअकार की चट्टानों को तराश कर 30 गुफाएां बनााइ गाइ हैं, तजनमें सुन्दर
मूर्ततयाां एवां तभतितचत्र हैं।
गुप्तवांश से वैवातहक सांबांध रखने वाले वाकाटक शासकों के शासन काल में ाआन गुफा एवां मठों का
तनमायण हुाअ था। वाकाटक शासक हररसेन के मांत्री और सामांतों के पुत्रों ने सांघ की प्रचुर रूप से
ाअर्तथक तथा ाऄन्य रूपों में मदद की थी।
ाऄथय भी तलया जाता है। कु छ तवद्वानों का यह भी मत है कक यद्यतप मूर्तत में तीन मुख ही हैं पर
मूर्ततकार चौथा यहाां तक कक पाांचवाां मुख भी बना सकते थे।
पल्लवों का बांदरगाह नगर महाबतलपुरम चैन्नाइ से 55 ककलोमीटर दूर दतक्षण में तस्थत है तथा छठीं
एवां सातवीं शताधदी में एकाश्म चट्टानों को तराश कर बनााइ गाइ कलाकृ ततयों और मांकदरों के तलए
प्रतसद्ध है। पल्लवों ने दतक्षण भारत ने ाऄपने शासनकाल के दौरान ाऄपने पूरे साम्राज्य में बड़ी सांख्या
में मांकदर बनवाए। ाईनके काल के पूवायद्धय में मुख्यताः तराश कर और ाईिराद्धय में तनर्तमत भवनों को
बनवाया गया।
महाबतलपुरम में
ाऄनेक एकाश्म
स्मारक हैं। ाईनमें
समुद्र तट के
तनकट के
धमयराज रथ,
भीम रथ, ाऄजुयन
रथ, द्रौपदी रथ
और नकु ल-
सहदेव रथ,
तजन्हें पांच पाांडव
रथ कहा जाता
है, भी शातमल
हैं। सांभवत: ाआनका मामला प्रथम के शासनकाल में ाईतकीणयन हुाअ। ाआन मांकदरों में बहुमांजलीय
भवनों की तनमायण कला तथा तवतभन्न रूपों की छतों को देखा जा सकता है।
वैसे यह एक रोचक तथ्य है कक कु छ भवनों की छत गाांवों में थाप कर बनाए गए घरों की छतों के
ाऄनुरूप है।
ाअठवीं शताधदी में राष्ट्रकू टों ने प्रारांतभक पतिमी चालुक्य राजाओं को परातजत कर दक्खन पर
तवजय प्राप्त की थी। वैसे तो यहाां
पर ऐसे ाऄनेक स्थान हैं जहाां
राष्ट्रकू टों की कला को देखा जा
सकता हैं पर मुख्य स्थान है-
एलोरा। यहाां ाईस काल की भवन
तनमायण कला एवां वास्तुकला की
तवतशिताओं के भव्य समतन्वत
रूप में कृ ष्ण (प्रथम) द्वारा चट्टानों
को काट कर बनवाया गया
कै लाशनाथ मांकदर तस्थत है। ाअम पररपाटी के तवपरीत ाआस मांकदर का तनमायण कायय ाआसकी चोटी से
शुरू ककया गया था। वास्तुकारों ने ाऄतयांत सूक्ष्मतापूवयक कायय योजना बनाकर चट्टानों को तराशा
था। ाआसके गभयगृह के प्रवेशद्वार के दोनों तरफ गांगा तथा यमुना की बड़ी ाअकृ ततयाां थीं। ाऄब वे
मस्तकतवहीन हैं।
यह कै लाशनाथ मांकदर ाऄपने तडजााआन के कारण ततमलनाडु के काांचीपुरम् के कै लाशनाथ मांकदर
तथा कनायटक के वीरूपाक्ष मांकदर से काफी साम्यता रखता है, पर ाईनकी तुलना में ाआसका ाअकार
बड़ा है।
सोलांकी राजवांश ने 11वीं शताधदी ाइस्वीं में सूयय मांकदर का तनमायण करवाया था। यह मांकदर भगवान
सूयय को समर्तपत है तथा
ाआसी प्रकार के सूयय
मांकदर ओतडशा के
कोणाकय में तथा कश्मीर
के मातयड में भी हैं।
मांकदर के सम्मुख एक
तवशाल तालाब है तथा
जलस्तर तक ढलुवाां
सीकढ़यों के द्वारा पहुांचा
जा सकता है। धार्तमक
ाऄनुष्ठानों में ाआस जल का
ाईपयोग ककया जाता
था। तालाब के पायदानों पर भी छोटे -छोटे मांकदर तथा दीपक रखने के तलए ाअले बने हुए हैं।
यद्यतप ाआस मांकदर का एक भाग क्षततग्रस्त हो गया है लेककन कफर भी तजस तवस्तृत पैमाने पर ाआसकी
सजावट की गाइ थी, ाईसे ाअज भी देखा जा सकता है।
खजुराहो के मांकदर मध्य भारत की वास्तुकला के शतातधदयों के तवकास के पिात् ाईसके चरमोतकषय
रूप को दशायते हैं। ये मांकदर चांदल
े
काल के तनवातसयों के सामातजक,
ाअर्तथक एवां धार्तमक जीवन पर
प्रकाश डालते हैं। ाआन मांकदरों की
एक ाऄन्य खास तवशेषता ाईनकी
तवतशि वास्तुतनमायण कला है।
प्रायाः सभी मांकदर एक ाउांचे और
ठोस चबूतरे पर तस्थत हैं।
तवश्वनाथ मांकदर की धरातलीय
एवां ाउपरी योजना कां दररया
महादेव मांकदर तथा लक्ष्मण मांकदर
से मेल खाती है। प्रवेशमागय के
साथ की तीन मूर्ततमय परट्टकाएां खजुराहो की सुांदरतम मूर्ततयाां दशायती हैं। यह मांकदर भगवान तशव
को समर्तपत है तथा ाआसमें तशवसलग स्थातपत है। ाआस मांकदर की छत पर ाऄनेक दलों वाले फू ल
ाईतकीणय हैं। मांकदर का मुख्य तशखर शांकु के ाअकार का है तथा ाईसके ाअसपास ाऄनेक छोटे तशखर हैं
जो पवयतमाला का ाअभास देते हैं।
मांकदर का तशलालेख यह दशायता है कक राजा धांगदेव ने ाआसका तनमायण करवाया था और वहाां एक
तशला तथा पन्ना तमतश्रत सलग स्थातपत ककया।
1.39. मू र्ततमय फलक, लक्ष्मण मां कदर, खजु राहो, मध्य प्रदे श
खजुराहो के मांकदरों में वास्तुतनमायण कला एवां मूर्ततकला ाऄपने सुांदरतम रूप में ाईभरी है। मांकदरों की
दीवारें ाअांतररक एवां बाहरी दोनों तरफ प्रचुर रूप से ाईतकीणय हैं। ाईनमें स्त्री-ाअकृ ततयों एवां प्रेमरत
युगलों की
प्रचुरता को
देखकर तवद्वान
ाऄनेक तसद्धाांतों
का प्रततपादन
करते हैं।
प्रस्तुत तचत्र में
ाअांतररक ाअलों
में पौरातणक
पशुओं की
ाअकृ ततयों तथा
नृतय करती,
वाद्ययांत्र
बजाती, दपयण
में स्वयां को
तनहारती तथा
ससदूर, काजल
और ाअलते से स्वयां का श्रृांगार करती स्त्री-ाअकृ ततयों को देख सकते हैं। ाआन सभी ाअकृ ततयों के
पररधान बड़े ही सुांदर हैं तथा ाईनका ाऄांग-प्रतयांग ाअभूषणों से सुसतज्जत है। ये सभी ाअकृ ततयाां
दीवार से ाईभरी हुाइ हैं तथा कमोबेश मुि ाऄवस्था में हैं। ग्रेनााआट तथा बलुाअ पतथर का ाईपयोग
भवन तथा मूर्ततयाां बनाने के तलए ककया गया है।
खजुराहो की मूर्ततयों का भांडार वहाां रहने वाले ाईस काल के लोगों के सामातजक, ाअर्तथक एवां
धार्तमक जीवन के बारे में जानकारी प्रदान करता है। वहाां ऐसे ाऄनेक मूर्ततमय फलक हैं जो घरेलू
जीवन, नृतय तथा सांगीत ाअकद ाऄनेक तवषयों को दशायते हैं। ाआस तचत्र में दशाय ए गए सांगीतकारों से
ज्ञात होता है कक ाईस काल में कै से वाद्ययांत्र होते थे। ाआसी से यह भी पता चलता है कक
खजुराहोवासी वतयमान दो मुखी प्रकार की बाांसुरी, मांजीरे तथा पखावज से साम्यता रखती ढोलक
से पररतचत थे।
हैं। समूचा मांकदर पररसर 440 x 360 फीट के तवशाल ाअयताकार क्षेत्र में फै ला है। मांकदर पररसर
में पारांपररक गोपुरम बाद में तनर्तमत हुए थे।
होयसाल मांकदर की समूची दीवार को ाऄनेक मूर्तत-फलकों में तवभातजत ककया जा सकता है। दीवार
के तनचले भाग पर जलूस के रूप में जाते हातथयों की कतारें ाईतकीणय हैं। ाआनके ाउपर ाऄश्वों की
ाअकृ ततयाां तथा ाईनके पहले
फू लों एवां लताओं को
ाईतकीणय ककया हुाअ है। ाआस
कतार के ाउपर काल्पतनक
जीवों हांसों, देवी-देवताओं
की तवशाल सजावटी
मूर्ततयों की कतार है। सबसे
पहले रेखागतणतीय
तडजााआन वाली छत है जो
कक प्राचीन सुांदर काष्ठ
भवन तनमायणकला का
प्रततरूप प्रतीत होती है।
नटराज, हेलीतबड, कनायटक
होयसाल मांकदर की
तवशाल मूर्ततयों को एक
तनतित ाअकार-प्रकार
(बनावट) को ाईतकीणय ककया गया है। मुख्य ाअकृ तत फू लों और लताओं के शोभायमान चांदोवे से
तघरी हुाइ है। देवताओं की ाअकृ ततयाां शास्त्र-पद्धतत या शास्त्रानुसार भारी ाअभूषणों से ाऄलांकृत हैं।
ाआस मूर्तत तशल्प में भगवान तशव को ाऄज्ञानता के दानव ाऄपस्मार की लेटी हुाइ मुद्रा में ततक्षत
ाअकृ तत के ाउपर नृतय करते दशायया गया है। ाईनके हर हाथ की एक तवशेष नृतय मुद्रा है।
तथा कमल की पतियों की पांतियााँ ाईतकीणय की गाइ हैं। चक्रों के नीचे की तचत्रवल्लरी पर चलते हुए
हातथयों के समूह को बड़ी सूक्ष्मता से ाईतकीणय ककया गया है।
मध्य काल में भवन तनमायणकला तवशेषकर मकदरों का तनमायण , मूर्ततकला, तचत्रकला, सांगीत, नृतय
और सातहतय ाअकद कलाएां राज दरबार के सांरक्षण में खूब तवकतसत हुाइ। भारत के सभी भागों में
ताड़ के पिे पर ाईिम तचत्रों
वाली पाांडुतलतपयों को तैयार
ककया गया। कागज के
तनमायण से पहले महतवपूणय
धार्तमक मूलग्रांथों की
पाांडुतलतपयाां ताड़ के पिों
पर तैयार की गाइ। ाआसके
तलए सबसे पहले पिे को
सुखाकर समतल (प्रेस) ककया
जाता था। प्रतयेक पिे को
मूल ग्रांथ में, सतचत्र तथा
सुसतज्जत ककनारों के तलए
खांडों में तवभि ककया गया।
कफर, कुां तचयों की सहायता से तडजााआन बनाए जाते थे। ाआस तचत्र में बैठे कदखााइ दे रहे दो बौद्ध
तभक्षु महातमा बुद्ध की तशक्षा की व्याख्या कर रहे हैं।
ग्वातलयर का नगर दुगय (ककला) दसवीं शताधदी में तनर्तमत हुाअ। सन् 950 में यहाां सूरज पाल द्वारा
तहन्दू राजवांश सांस्थातपत हुाअ। सन् 1129 में जब यह राजवांश लुप्त हो गया तो ाआसके पिात्
पररहार राजवांश ाअया
तजसका सन् 1232 में कदल्ली
के बादशाह ाआल्तुततमश द्वारा
ककला जीत लेने तक ककले पर
ाअतधपतय रहा। सन् 1398 में
बीरससह देव नाम तोमर
राजपूत ने तैमूर की चढ़ााइ
द्वारा फै ली ाऄशाांतत का लाभ
ाईठाया। वह ग्वातलयर का
राजा बन गया और ाईसने
तोमर राजवांश की स्थापना
की। सन् 1486 में मानससह
ग्वातलयर का राजा बना जो सभी तोमर शासकों में सबसे शतिशाली था। सन् 1516 में ाईसकी
मृतयु हुाइ और ाईसके पिात् ाईसके पुत्र तवक्रमाकदतय ने सन् 1518 तक ग्वातलयर पर शासन ककया।
सन् 1518 में ाआब्राहीम लोदी ने ाऄपनी दो वषय की घेरेबांदी सफलतापूवयक पूरी की और कदल्ली
सल्तनत के तलए ग्वातलयर का ककला जीत तलया। मुगल शासकों का ाऄठारहवीं शताधदी के मध्य
तक ककले पर ाअतधपतय रहा और सन् 1754 में मराठों ने ककले को ाऄपने ाऄतधकार में ले तलया।
ाऄगले 50 वषों तक ाऄनेक राजवांशों द्वारा ककले पर ाअक्रमण होते रहे और ाऄांत में तसतन्धया राजवांश
ने ाआस पर ाअतधपतय जमा तलया।
ाआस ऐततहातसक काल के दौरान ककले के नीचे और ककले के ाऄन्दर बहुत-सी ाआमारतें बनााइ गाइ,
तजसमें मांकदर और मुतस्लम महल शातमल हैं जैसे मानससह महल, गुजयरी महल, सास-बहू मांकदर,
तेली का मांकदर, ाअकद।
हम्पी, कनायटक के बेल्लारी तजले में तुांगभद्रा नदी के दतक्षणी ककनारे पर तस्थत है। हम्पी का
ाआततहास नवप्रस्तर काल और साथ ही चालुक्य, चोल तथा पाांडय राजवांशों से जुड़ा हुाअ है। यहाां
पर, सन् 1336 में तवजयनगर ाऄथायत "तवजय के नगर' को हररहर और बुक्का नामक दो भााइयों ने
स्थातपत ककया, तजन्हें
जनतप्रय रूप में हुक्का और
बुक्का नाम से जाना जाता है।
हालाांकक, तवजयनगर के
सवायतधक शतिशाली,
लोकतप्रय और तवतशि राजा
- कृ ष्णदेव राय थे , तजन्होंने
सन् 1509 से सन् 1530 तक
शासन ककया। वे स्वयां एक
कतव थे और नृतय, सांगीत
कला तथा वास्तुकला के
महान सांरक्षक थे।
हम्पी में बहुसांख्य ाआमारतें बनााइ गाइ, तजनमें बड़े गोपुरम, स्तांभयुि मांडप और मांकदर रथ
सतम्मतलत हैं। प्रस्तुत तचत्र में चबूतरे पर नक्काशीदार तशल्प से ाऄलांकृत मकदर, मांडप और सुांदर ढांग
से ततक्षत स्तांभ देखे जा सकते हैं। ाऄग्र भाग में, तचत्र के दातहनी ओर, ाअप पतथर पर ाईतकीर्तणत
पतहयों के साथ एक सांपूणय रथ देख सकते हैं। ाअज बहुत से ाआततहासकार और वास्तुकलातवद् ाआस
स्थान का ाऄध्ययन करने हेतु हम्पी की प्राचीन राजधानी, ाईसके महलों, सड़कों, मांकदरों और ाऄन्य
ाआमारतों की खुदााइ कर रहे हैं।
1.54. कक्ष, ाईतकीणय स्तां भ एवां सां ग मरमर की छत, तवमल वसाही मां कदर, मााउां ट ाअबू ,
राजस्थान
ाआसका गुांबद लगभग 18.28 मीटर ाउांचा है। ाआसकी ाआस कदशा के मध्य में एक प्रवेशद्वार हैं। तजनके
दोनों तरफ जालीदार पतथरों की तखड़ककयाां या झरोखे हैं। ाआस प्रकार का हर प्रवेशद्वार एक
ाऄांदरूनी कमरे में खुलता है जो 9.14 मीटर चौड़ा है तथा ाईसकी छत गुांबदाकार है।
लाल पतथर के ये दरवाजे स्वयां में ाऄपने प्रकार के ऐसे पहले तनमायण हैं। तजनमें ाआस्लामी बनावट
एवां सजावट का ाईपयोग ककया गया है।
ग्यास-ाईद्-दीन तुगलक एक शाही तुकय था तथा सन् 1321 में ाईसने तखलजी वांश के बाद राजगद्दी
सांभाली थी। वह कु शल
वास्तुकार भी था। ाईसने
कदल्ली में ाऄपनी नाइ
राजधानी बसााइ थी।
ाऄपनी ाउांची बुजाय तथा 13
दरवाजों वाला यह
ककलेबांद नगर -
तुगलकाबाद, कदल्ली का
तीसरा शहर था। एक तरह
से यह ककला ग्यास-ाईद्-
दीन की रचनातमक
शतियों का प्रतीक था।
ाआस ाऄिकोणीय ककले के
दतक्षणी मुख्य प्रवेशद्वार के
ाईस पार लाल पतथर से
बना ग्यास-ाईद्-दीन का मकबरा है। ाईसने ाआस मकबरे को स्वयां बनवाया था। ाआसकी दीवारों पर
यहाां-वहाां सांगमरमर का ाआस्तेमाल ाआस ककलेनुमा मकबरे को तवतशि बना देता है।
सफे द सांगमरमर के गुांबद पर लाल पतथर की चोटी ाआस ाईतकृ ि मकबरे के गौरव को दशायती हैं।
मूलताः यह मकबरा वषाय के पानी के एक कृ तत्रम तवशाल तालाब के बीच बनाया गया था तथा एक
पुल के जररए तुगलकाबाद से जोड़ा गया था। ाअज ाआस पुल के बीच से कु तुब -बदरपुर सड़क जाती
है।
मोहम्मद तबन तुगलक के ाईिरातधकारी कफरोज शाह तुगलक ने सन् 1354 में यमुना नदी के
दातहनी ककनारे पर कदल्ली
का पाांचवा मध्ययुगीन शहर
कफरोजशाह बनवाया था।
ाईस काल के बहुत ज्यादा
जनसांख्या वाले ाआस नगर के
भग्नावशेष दतक्षण में हौज
खास से लेकर ाईिर की
हररयाली पट्टी तथा पूवय में
यमुना के ककनारे तक फै ले
हैं। मुख्य ाऄवशेष यमुना के
ककनारे पर तस्थत कु श्क-ए-
कफरोज या कफरोज शाह का
महल है। ाआस महल की एक
खास तवशेषता ाइसा पूवय
तीसरी शताधदी के लाल
बलुाअ पतथर का पातलश
ककया गया शृांडाकार एकाश्म
स्तांभ है, तजसे ाऄशोक स्तांभ के नाम से जाना जाता है। कफरोजशाह ाऄपने महल की शोभा बढ़ाने हेतु
ाआसे ाऄांबाला से लेकर ाअया था। यह ाऄशोक का दूसरा स्तांभ है तथा ाआसकी ाउांचााइ 13.1 मीटर (42'
7'') है।
ककले की तवशाल मोटी दीवारें बड़े-बड़े पतथरों को गारे से जोड़कर बनााइ गाइ थीं तथा खुरदरी
दीवारों को तचकना बनाने के तलए पलस्तर ककया गया था या पातलश ककए गए पतथर की परत
चढ़ााइ गाइ थी।
कफरोज शाह तुगलक का स्वयां बनवाया गया ाऄपना मकबरा एक चौरस कक्ष पर तस्थत है , ाईसकी
दीवारें ाउांची होने के
साथ-साथ जरा सी
कोणीय भी हैं। ाउांचा
गुांबद हौज खास के
खूबसूरत वातावरण में
तस्थत है। मकबरे का
ाअांतररक भाग मोटे
पलस्तर में तवभि
जयातमततय तडजााआनों
से कु शलतापूवयक सजाया
गया है।
ाआस्लामी बागों और प्राांगणों का स्वयां में ाऄपना ही एक खास ाअकषयण होता है। ककसी स्थान पर
बाग स्थातपत करने का ाऄथय है कक ाईस स्थान के महतव को ाईजागर करना। ाआस्लामी सातहतय के गद्य
एवां पद्य दोनों में ही बागों की प्रशांसा होती रही है और ाईनकी तुलना स्वगय के बाग के साथ की
जाती रही है।
लेडी तवसलगड़न पाकय के नाम से भी पहचाने जाने वाली लोदी बागों में -मोहम्मद शाह सैयद का
मकबरा, बड़ा गुांबद, शीश गुांबद तथा
तसकां दर शाह लोदी का मकबरा - ये
चार ऐततहातसक महतव के स्मारक
तस्थत हैं।
15वीं शताधदी के ाऄांत में तसकन्दर
लोदी के शासनकाल में तनर्तमत
मतस्जद सहदू-ाआस्लामी वास्तुकला के
तवकास में महतवपूणय स्थान रखती है।
कु छ मकबरों के साथ बनी मतस्जदों में
बड़ा गुांबद सबसे प्रारांतभक है। प्रचुर
रूप में ाऄलांकृत कु रान की ाअयतों से
ाआसकी दीवारों को सजाया गया है। खूबसूरत रांग वाले पतथर का ाईपयोग मतस्जद की एक
महतवपूणय तवशेषता है। एक तवशेष ाअकार की पाांच खुली-चौड़ी मेहराबें, तजनकी छत सपाट हैं,
मतस्जद में नवीनता का समावेश करती हैं।
लोदी बाग में ही तसकां दर लोदी का मकबरा भी तस्थत है। यह स्मारक एक ककले के लघु रूप से तघरे
चौरस बाग में
तस्थत है।
मकबरा ाऄपनी
योजना में
ाऄिकोणीय है।
ाआसके कें द्रीय कक्ष
में तसकां दर लोदी
की कब्र है तथा
ाईसके चारों तरफ
गुांबद हैं। यहाां के
ाऄिकोणीय
मकबरे की
योजना को ाआसके
बाद के मुगल मकबरों जैसे कक ताज महल ाअकद में ाआस्तेमाल ककया गया है।
1.67. जाली का कायय , ाअां त ररक दृ श्य, सीदी सै य्यब मतस्जद, ाऄहमदाबाद, गु ज रात
गोलकुां डा, 16वीं शताधदी के ाअरम्भ में बहमनी साम्राज्य के तवघटन के बाद बने प्राांत का एक
शतिशाली एवां धन के न्द्र था। यह ाआस्लामी वास्तुकला की दक्खन शैली के तीसरे और ाअतखरी
चरण का प्रतततनतधतव
करने वाले ककलों और
शाही मकबरों के तलए
ाईल्लेखनीय है।
गोलकुां डा का ककला
हैदराबाद से पतिम
कदशा में 8.5
ककलोमीटर दूर है।
तथा यह सन् 1512 में
120 मीटर ाउांची
पहाड़ी चोटी पर
बनाया गया था। ककले
की बाहरी परदे वाली
दीवार की पररतध 4.8
ककलोमीटर है। तथा
तवशाल पतथरों की
दीवार बड़े तशलाखांडों
से बनााइ गाइ थी। ाऄनेक तशलाखांडों का वजन काइ टन है।
ाआस ककले की खास तवशेषताओं में से एक ाआसकी ध्वतन-तनयांत्रण की व्यवस्था भी है। ककले के तनचले
भाग में बजााइ गाइ ताली की ाअवाज ाउांचााइ पर तस्थत दरबार हाल में सुनी जा सकती है।
यह ककला ाआतना ाऄजेय था कक औरांगजेब की सेना सन् 1686 में एक वषय की घेराबांदी के पिात् ही
ाआस पर ाऄतधकार कर पााइ थी। गोलकुां डा के कु तुब शाही स्मारकों की बड़ी मेहराबें, ाऄलांकृत
ाऄग्रभाग और गुांबद ाआसकी तवशेष पहचान है।
तवश्व के सात ाअियों में से ताजमहल भी एक है और यह ाऄपने सांतुतलत तडजााआन के तलए माना
जाता है। ाआस मक़बरे का हर तहस्सा-चाहे वह गुांबद हो या छतररयााँ या कफर मीनारें , बाग़ और
सजावट, सभी तमलकर एक सुांदर एवां पूणय सामांजस्य स्थातपत करते हैं। ताज वैसे तो यमुना के
ककनारे तस्थत था,
पर कालाांतर में
यमुना नदी ाऄपने
स्थान से ाऄपना
मागय बदलते हुए
ाऄब ताज से थोड़ा
हट कर बहती है।
मुख्य मकबरा एक
ाउाँचे चबूतरे पर
तस्थत है तथा ाआसके
हर कोने में एक
मीनार है। ाआन
मीनारों की
तडजााआन कु छ ाआस
प्रकार का है कक
ाआनका झुकाव
थोड़ा-सा बाहर की
तरफ है। ऐसा ाआसतलए ककया गया है कक ाऄगर कभी ये तगरें भी, तो बाहर की तरफ तगरें , मुख्य
मक़बरे पर नहीं। चार बाग़ शैली में बना बारा, लॉन और फव्वारों से सुव्यवतस्थत है। बाग के मध्य
में सांगमरमर का जल-कुां ड भी है। दातहनी तरफ पेड़ों के पीछे ाआस मक़बरे का पूवी दरवाजा दृतिगत
है।