You are on page 1of 7

तुलनात्मक अध्ययन एवं अनुवाद की समस्याएँ

तल
ु नात्मक साहित्य अथवा तल ु नात्मक अध्ययन पद प्रकारान्तर से समानाथी िी जान पङते िैं।
तलु नात्मक साहित्य के अन्तर्गत िी िमें हवश्व साहित्य अथवा भारतीय साहित्य की अवधारणा का हदग्दर्गन िोता
िै। हवश्व साहित्य अथवा भारतीय साहित्य की अवधारणा जोङने से तात्पयग िै हक तुलनात्मक साहित्य यहद
भारतीय पररप्रेक्ष्य में देखा जाय तो तल ु ना के द्वारा अन्य भाषा के साहित्य में एक सत्रू ात्मकता स्थाहपत करने का
कायग करता िै। यिी कायग हवश्वस्तर पर भी तल ु नात्मक अध्ययन के द्वारा हकया जाता िै। “सबसे पिले जमगन
भारतहवद् प्रोफे सर हवटिं रहनत्ज ने भारतीय साहित्य का इहतिास हलखा-सस्िं कृ त साहित्य का निीं। उन्िोंने िी पिले
पिल ‘भारतीय साहित्य और हवश्वसाहित्य’ नामक हनबिंध भी हलखा।”1 भारतीय साहित्य एविं हवश्वसाहित्य कोई
ऐसी इकाई निीं िैं हजसके उध्दरण मात्र से िी एक हित्र महस्तष्क में उभरता िो। बहकक यि ऐसी सिंककपनाएँ िैं जो
तल ु नात्मक साहित्य के माध्यम से एक आकार ग्रिण कर रिी िैं। इसी सिंबधिं में डॉ. इन्रनाथ िौधरु ी हलखते िैं-
‘र्ोयते हवश्वसाहित्य (Welt literature) की अवधारणा को फै लाने में जटु र्ये थे। इधर भारत में रवीन्रनाथ ठाकुर
भी हवश्वसाहित्य की बात करते िुए स्पष्ट कर रिे थे हक यि पृथ्वी हवहभन्न टुकङों में बँटी िुई लोर्ों के रिने का
अलर्-अलर् स्थान निीं, उनका साहित्य अलर्-अलर् रहित साहित्य निीं िै। प्रत्येक लेखक के द्वारा रहित
साहित्य एक पणू ग इकाई िै तथा वि इकाई समिू े मानव समाज की सावगभौम सृजनात्मकता की पररिायक िै।
‘हवश्वसाहित्य’ हजसको अग्रिं ेजी में ‘कम्पैरेहटव हलटरे िर’ किा जाता िै इस सावगभौम सृजनात्मकता की अहभव्यहि
िै।’2 इस प्रकार रवीन्रनाथ ठाकुर ने सभी कृ हतयों को पूणग किा िै, और यिी पणू तग ा िै जो हवश्वसाहित्य अथवा
तल ु नात्मक साहित्य की आधारभहू म िै। इस साहित्य में वैहवध्य तो िोर्ा हकन्तु आधार हबन्दु समान िी िोर्ा। इसी
आधारहबन्दु की तलार् करना तल ु नात्मक अध्ययन का मख्ु य उद्देश्य िै।
भारतीय साहित्य की अवधारणा को हवकहसत करने और बनाने के हलए अनवु ाद एविं तुलनात्मक अध्ययन का
हवर्ेष मित्व िै। िँहू क भारत एक बिुभाषी देर् िै, एविं यिाँ ज्ञान की हवहभन्न र्ाखाएँ प्रािीनकाल से िी हवद्यमान
रिी िैं, हजनकी प्रािीनता सवगहवहदत िै। सिंस्कृ त एविं वैहदक साहित्य बिुत प्रािीन िै। इसी प्रकार यहद अन्य
भाषाओ िं के साहित्य से सस्िं कृ त साहित्य का तल ु नात्मक अध्ययन प्रस्ततु हकया जाय तो ज्ञान की अन्य र्ाखाओ िं
का िी निीं बहकक नये हवषयों का भी पता िलेर्ा हजन्िें आधहु नक सन्दभग में देखा और समझा जा सकता िै।
“भारत जैसे बिुभाहषक और बिुल सभ्यताओ िं के जोङ वाले मकु क में ‘भारतीय साहित्य’ का हबम्ब हनिायत
सक िं ु ल (कॉम््लेक्स) और अतिं हवगरोधी तत्वों से बनता िै एक ओर यि हबम्ब अपने सामान्य अथग में प्रादेहर्क
इकाइयों का र्हणतीय जोङ िै, पर दसू री ओर अपने हवहर्ष्ट अथग में हभन्न सािंस्कृ हतक सजगन इकाइयों की आपसी
अतिं :हिया के मध्य उभरी एक खास जमीन भी िै।”3 इससे इन हवहभन्नताओ िं की एक सामान्य भावभहू म की तलार्
परू ी िोर्ी। एविं सस्िं कृ त साहित्य से इसे जोङने पर कई हबन्दओ
ु िं को समझ कर ज्ञान की र्ाखाओ िं में कुछ नया जोङा
जा सकता िै। इससे न के वल तत्कालीन समय की हस्थहतयों पर प्रकार् डाला जा सके र्ा बहकक साहिहत्यक
हवकास, साहिहत्यक मकू यों का भी हवकास स्पष्ट िो जायेर्ा। यि के वल साहिहत्यक एकसत्रू ता का िी सवाल निीं िै
िमारी राष्रीयता को भी इससे हवर्ेष बल हमलेर्ा। तुलनात्मक अध्ययन एक ऐसा माध्यम िै, जो िमें अन्य

1
भाषाओ,िं साहित्य एविं सस्िं कृ हत से जोङता िै। आज यहद िम हवश्वग्राम की ककपना करने में सक्षम िैं, हवज्ञान के
अनेकानेक आहवष्कारों ने िमें एक सामान्य जमीन पर लाकर खङा कर हदया िै। जिाँ से समीपता तो हदखाई देती
िै हकन्तु सामी्य भाव मिससू निीं िोता। ऐसी हस्थहत में िमारा ज्ञान अथवा समीपता की यि हस्थहत बङी असिज
मालमू पङती िै। समीपता एविं सामी्य भाव दोनों में अन्तर िै। यहद िम इस बात को र्िराई से समझने का प्रयत्न
करें तो बिुत कुछ स्पष्टता एविं पारदहर्गता आ जाती िै। हजतना िम तकनीहक तौर पर नजदीक आये िैं, मानहसक
और आनभु हवक तौर पर उतने िी दरू िोते र्ये िैं। इस दृहष्ट से तल ु नात्मक अध्ययन एक व्यापक क्षेत्र िै, हजसमें कई
अन्य पिलू भी समाहित िैं। तल ु नात्मक अध्ययन के मित्व को रे खाहिं कत करते इस कथन पर ध्यान देना आवश्यक
िै-“इहतिास तथा दर्गन के साथ साहिहत्यक रिनाओ िं की तल ु नीयता िी िमें वि दृहष्ट देती िै, जो प्रासिंहर्कता,
प्रामाहणकता, जीवतिं ता, अथगवत्ता आहद पररभाहषकों को उत्पन्न करती िै तथा साहित्य की सिंवदे ना की समझ के
हलए िमें ये उपकरण देती िै।”4 इस प्रकार यि समझना सरल िो जाता िै हक तल ु नात्मक साहित्य का क्षेत्र बिुत
व्यापक िै हजसमें सस्िं कृ हत, इहतिास, दर्गन का समावेर् भी िै। इस अध्ययन पररक्षेत्र में अन्य पिलू भी र्ाहमल िैं-
सिंिार एविं तकनीहक, सािंस्कृ हतक आदान-प्रदान, मानवीय सिंवदे ना, वैहवध्य का ग्रिण, हवश्वग्राम एविं भमू िंडलीकरण
की सिंककपना, तुलनात्मक साहित्य में अनवु ाद एविं अनवु ाद की भहू मका तथा मित्व इत्याहद कुछ हबन्दु िैं हजनपर
हवस्तृत रुप में ििाग की जा सकती िै।
पिला हबन्द-ु सिंिार एविं तकनीहक, इसके प्रभाव अथवा योर्दान पर यहद िम नजर डालें तो पायेंर्े हक आज बिुत
से सिंिार माध्यमों के द्वारा हवहवध भाषा साहित्य िमारे हलए उपलब्ध िो जाता िै। इसमें तकनीहक हवकास को
नजरअन्दाज निीं हकया जा सकता। इससे िमें लहक्षत साहित्य को पढ़ने में जिाँ सहु वधा िुई िै विीं हवहभन्न प्रकार
की समस्याएँ भी उत्पन्न िुई िैं, प्रासिंहर्कता, प्रामाहणकता एविं औहित्य पर सवाल उठाना लाहजमी िो र्या िै।
इसका मख्ु य कारण यि भी िै हक आज एक बडा पाठक वर्ग इन्िीं माध्यमों को अध्ययन का आधार बना रिा िै।
जिाँ पस्ु तकों की उपलहब्ध सरलता से निीं िो पाती अथवा अन्य बिुत से कारणों से इस माध्यम को अपनाया
जाता िै। इस दृहष्ट से भी यि समझना आवश्यक िो जाता िै हक इन माध्यमों का प्रभाव तल ु नात्मक अध्ययन के
क्षेत्र में हकस प्रकार से िो रिा िै। दसू रा हबन्दु िै-सास्िं कृ हतक आदान-प्रदान, तल ु नात्मक अध्ययन में सस्िं कृ हत एविं
पररवेर् इस प्रकार रिना के साथ अतिं र्हगु म्फत िोते िैं हक उन्िें अलर् करके देखना सिंभव निीं िोता। वि रिना के
जातीय िररत्र के हनमागण में मित्वपणू ग आधार का कायग करते िैं। तल ु नात्मक साहित्य का सिंबिंध सीधे-सीधे सिंस्कृ हत
एविं पररवेर् से जडु ा िोता िै। क्योंहक सस्िं कृ हत भी भाषा का िी एक अर्िं िै। जब िम एक भाषा से दसू री भाषा में
हकसी कृ हत का तल ु नात्मक अध्ययन हवश्ले षण करते िैं तब उस भाषा के साथ जडु े भाषा समिू के लोर्ों की
प्रवृहत्तयाँ, हवहभन्न प्रकार की परम्पराएँ एविं हवहभन्न अवधारणाओ िं का भी ज्ञान िमें िोता िै। इसी सिंबिंध में यि
कथन दृष्टव्य िै-“भारत में तल ु नात्मक अध्ययन में सबसे बडी बाधा भाषा की जानकारी िै और हकसी सिी
सास्िं कृ हतक पररवेर् के अभाव में हवहनमय अथवा आदान-प्रदान की प्रहिया में परू ी र्हत निीं आ सकी िै। इसे पार
कै से हकया जाय, यि अिम सवाल िै।”5 सािंस्कृ हतक वैहवध्य हजतनी जीवतिं ता प्रदान करता िै उतनी िी हजजीहवषा
के साथ उसे समझना भी आवश्यक िोता िै। यहद यि कायग परू ी दक्षता के साथ हकया जाय तो बिुत कुछ िाहदगक
एविं सास्िं कृ हतक सत्रू इससे जडु ते िैं एविं राष्रीय अथवा वैहश्वक सकिं कपना को परू ा करते िैं। यथा- “भारतीय राष्र का

2
ढाँिा बिुराष्रीय िै। अत: तल ु नात्मक साहित्य यिाँ वरण का प्रश्न निीं िै वरन् यिाँ की वि आवश्यकता िै।”6
तलु नात्मक साहित्य इसी अथग में राष्रीय सिंककपना एविं भारतीय साहित्य की अवधारणा को परू ा करता िै।
सािंस्कृ हतक आदान-प्रदान, इसी प्रकार राष्रीय साहित्य की अवधारणा से जडु ा िुआ िै। अनवु ाद के द्वारा भी
रिनाओ िं का स्वरुप बिुत कुछ बदलने के बाद भी कमोबेर् उसी रुप में िोता िै हजस रुप में उसकी रिना की र्यी
िै। यिाँ के वल भाषा िी निीं उस रिना में व्याप्त भौर्ोहलक, सामाहजक, आहथगक एविं राजनीहतक सम्वेदनाओ िं का
हित्रण भी उसी रुप में समझा जा सकता िै।
तीसरा हबन्दु िै- मानवीय सिंवदे ना एविं वैहवध्य, तल ु नात्मक साहित्य मानवीय सिंवदे नाओ िं का भी प्रहतहनहधत्व करता
िै। िँहू क रिना भाषा में िोती िै इसहलए भाषा के सत्रू सिंस्कृ हत, सिंवदे ना, सिंिार एविं अन्य मानवीय कायगव्यापारों से
जडु े िोते िैं और उसे बिुत िद तक सििं ाहलत भी करते िैं। “भाव भल ू कर हकया र्या अनसु धिं ान स्थल ू जानकारी
मात्र िोता िै।”7 इस सिंवदे नात्मक भहू मका में मानवीय व्यापारों को रखा जा सकता िै। इसके अतिं र्गत र्ोधाथी एविं
अध्ययन हवषय पर समान सिंवेदनात्मक एविं मानहसक समझ का िोना बिुत आवश्यक िै। कृ हत अथवा कृ हतकार के
भावों को ग्रिण करना सिज िो पायेर्ा। अन्यथा र्ब्दों के अथग सन्दभग बदलते िी बदल जाते िैं, इसी आधार पर
यि समझा जा सकता िै हक रिना में व्यिंहजत भावों एविं सिंवदे नाओ िं से जडु ना बिुत आवश्यक िै। तभी हकसी रिना
की आतिं ररक सिंवदे ना से एकाकार िुआ जा सकता िै। िौथा हबन्दु िै- हवश्वग्राम एविं भमू डिं लीकरण की अवधारणा
एविं हवहवधता, यहद िम वतगमान काल की ओर प्रकार् डालें तो िमें ज्ञात िोर्ा हक आज िम बािरी दरू रयों को कम
करके सदु रू क्षेत्रों में रिने वाले लोर्ों से भी सिंपकग कर सकते िैं, ज्ञान के क्षेत्र में हवकहसत सििं ार माध्यमों का प्रयोर्
करते िुए हकसी भी प्रकार की जानकारी एक जर्ि बैठे िुए िी प्राप्त कर सकते िैं। इन सभी माध्यमों ने जिाँ कई
समस्याओ िं का समाधान हकया िै, विीं कई अन्य समस्याओ िं को जन्म भी हदया िै। भौहतक रुप में यहद देखा जाय
तो आज िमारे पास इतनी सहु वधाएँ िैं हजतनी इस यर्ु से पिले र्ायद िी कभी रिी िों। जीवन यापन की सभी
जरुरतों को परू ा करने पर मानव सहु वधाओ िं के पीछे भार् रिा िै। हकन्तु इन सहु वधाओ िं से सिंवेदनात्मक समझ में कोई
बदलाव निीं आया बहकक इसका हवपरीत प्रभाव यि िुआ हक लोर्ों ने एक प्रकार का दायरा बना हलया और यि
दरू ी आतिं ररक रुप से अहधक बढ़ र्यी। इन मानवीय सिंबधिं ों में आयी दरू रयों एविं एक दसू रे को समझने, एक दसू रे के
प्रहत सिंवदे नर्ील बनने के हलए तल ु नात्मक साहित्य एक अच्छा हवककप िै। हजसके द्वारा सािंस्कृ हतक आदान-
प्रदान, सिंवदे नर्ीलता, राष्रीय भावना का हवकास आहद सिंभव बनाया जा सकता िै। इसके आधार पर एक ऐसे
हवश्व का हनमागण करना हजसमें वैहवध्य के साथ सकारात्मक समतोलन हवद्यमान िो। भमू डिं लीकरण की आज की
जो हस्थहतयाँ देखने को हमलती िैं उनमें मिानर्रों की हवश्वनर्रीयता (Cosmopolitan) हदखाई देती िै, हजसने
िमारे वैहवध्यपणू ग एविं सिंतहु लत जीवन को बिुत अहधक िाहन पिुिँ ाई िै। इनका समाधान करना न के वल आवश्यक
िै, बहकक आज की िमारी जरुरत भी िै। “पहिमी सरोकार से न के वल िमारी वाङमय हवधाएँ आमल ू िलू बदली
िैं अहपतु आधहु नकता के सि िं मण से िमारी सिंवदे ना भी हकसी िद तक बदली िै।”8 तल ु नात्मक साहित्य के द्वारा
हवश्वग्राम एविं भमू डिं लीकरण की इस सिंककपना को सकारात्मक अथों में समझना एविं इसे साकार करना िोर्ा।
तल
ु नात्मक साहित्य की समस्याएँ- तल ु नात्मक साहित्य एक व्यापक पररदृश्य िै इसमें कोई सिंदिे निीं हकन्तु इसकी
कुछ सीमाएँ भी िैं- जैसे तल
ु ना से हकसी कहवता,किानी, उपन्यास इत्याहद को आधार बना कर अध्ययन हकया जा
3
रिा िै तो सभिं व िै हक वि रिना हजसे आधार बनाया र्या िै वि हकसी नये अथवा र्रुु तर हविारों की सविं ािक
निीं िो, तो तल ु ना में भी विी हबन्दु सामने आयेंर्।े इस प्रकार के तल
ु नात्मक अध्ययन के सिंदभग में यि कथन दृष्टव्य
िै- “तलु नात्मक र्ोध के सन्दभग में अनेक सैध्दािंहतक एविं व्याविाररक समस्याएँ आती िैं। इस तरि के र्ोध में
पिली समस्या स्वयिं र्ोधाथी सबिं धिं ी िै। यहद तल ु नात्मक र्ोध दो या दो से अहधक भाषाओ िं से सम्बध्द िै तो
र्ोधाथी से यि अपेक्षा की जाती िै हक उस भाषा एविं साहित्य के साथ-साथ र्ोध हवषय से सिंबिंहधत क्षेत्रों पर
उसका अहधकार िो।”9 भाषा सिंबिंधी यि समस्या मित्वपणू ग रुप से सामने आती िै, जैसा हक िम उपयगि ु पिंहियों में
ििाग कर िक ु े िैं भाषा के साथ-साथ अन्य पिलू भी जडु े िुए िैं। यहद उनपर र्िराई से हविार करते िुए तल ु नात्मक
अध्ययन हकया जाता िै तभी र्ोध सिी हदर्ा में िलेर्ा अन्यथा भाषा से सिंबिंहधत त्रहु टयाँ अवश्यिंभावी िैं। यहद
र्ोध अनहू दत कृ हत को आधार बनाकर हकया जा रिा िै तो यि हजम्मेदारी और बढ़ जाती िै। दोनों भाषाओ िं पर
समान अहधकार िोना न के वल र्ोधाथी के हलए अहपतु र्ोध के हलए भी बिुत आवश्यक िै। दसू री समस्या इस
अध्ययन में यि आती िै हक िमारी दृहष्ट पहिमी साहित्य की ओर अहधक जाती िै, इस प्रकार के अध्ययन भी
आवश्यक िैं हकन्तु जिाँ तक िम अपने साहित्य की अविेलना निीं करते। यहद िम भारतीय भाषाओ िं के साहित्य
की ओर दृहष्टपात करें तो पायेंर्े हक यिाँ जानने-समझने की अपार सिंभावनाएँ िैं। “भारतीय सन्दभग में तल ु नात्मक
अध्ययन की पिली समस्या भारतीय बौहध्दकों की मानहसकता िै जो आज भी उपहनवेर्वाद से प्रभाहवत िै।”10
यहद हिन्दी साहित्य के आधहु नक काल में छायावादी एविं राष्रवादी साहित्य की रिना की जा रिी थी तो इसी
समयकाल में तहमल साहित्य, मलयालम साहित्य, तेलर्ु ु एविं कन्नड साहित्य में हकस प्रकार का साहित्य रिा जा
रिा था। इस प्रकार के सवालों पर भा हविार करना आवश्यक िै। अन्तरागष्रीय स्तर पर भी तल ु नात्मक अध्ययन की
आवश्यकता िै जैसा रवीन्रनाथ ठाकुर ने ‘हवश्वसाहित्य’ की सिंककपना प्रस्ततु की थी, हकन्तु यि विीं तक िोना
िाहिए जिाँ तक यि िमारे राष्रीय िररत्र की अवधारणा को हवकहसत करने में साधक िो बाधक निीं। तल ु नात्मक
साहित्य के अध्ययन के अन्तर्गत एक समस्या और िै िँहू क यि क्षेत्र हवस्तृत िै इसहलए इसमें अध्ययन भी व्यापक
एविं हवस्तृत िोना िाहिए परन्तु कई बार “तल ु नात्मक अध्ययन में मित्वपणू ग समस्या अध्येता के व्यापक अध्ययन
की िै। आज तो कुल अध्ययन के प्रहत िी िमारी रुहि और हनष्ठा क्षीण िो रिी िै।”11 इस प्रकार तल ु नात्मक
अध्ययन के अन्तर्गत आने वाली समस्याएँ बिुत िैं हकन्तु समाधान भी विीं पर हमलेर्ा। यिाँ इतना िी किकर इस
बात को समाप्त करना िोर्ा, यहद हनष्ठा िै तो यि सारी समस्याएँ इस अध्ययन में सिायक िी िोंर्ी बाधक निीं।
तलु नात्मक साहित्य एविं अनुवाद- तल ु नात्मक साहित्य के अन्तर्गत अनवु ाद की भहू मका बिुत मित्वपूणग िै।
वस्ततु : अनवु ाद एक स्वतिंत्र हवषय एविं ज्ञानर्ाखा के रुप में प्रिहलत िै एविं इसका अध्ययन भी अपनेआप में एक
हवस्तृत क्षेत्र िै। इसका अनमु ान इसी बात से लर्ाया जा सकता िै हक रवीन्रनाथ ठाकुर को नोबेल परु स्कार
अनहू दत कृ हत पर िी हदया र्या था। हकन्तु तल ु नात्मक अध्ययन के अन्तर्गत यि इसहलए भी आवश्यक िै क्योंहक
तल ु नात्मक अध्ययन बिुत बार एक से अहधक साहित्य के अध्ययन पर आधाररत िोता िै, ऐसी हस्थहत में यहद
र्ोधक अथवा आलोिक पर यि दाहयत्व िोता िै हक वि तहद्वषयक साहित्य की भाषा पर समान अहधकार रखता
िो, क्योंहक एक साहित्य के हवद्याथी को ज्ञात िोता िै हक साहिहत्यक र्ोध के अन्तर्गत भाषा का क्या मित्व िोता
िै। यहद एक र्ब्द का अथग बदल जाये तो र्ोध पर क्या प्रभाव पड सकता िै। भाषार्त सावधाहनयों को ध्यान में

4
रखना बेिद आवश्यक िै। “तल ु नाकार अनवु ाद के द्वारा पाठक को दोनों रिनाओ िं के साम्य और वैषम्य से अवर्त
कराकर दोिरी रसानभु हू त से जोडता िै।”12 यहद एक र्ोध दो भाषाओ िं के साहित्य के अन्तर्गत हकया जा रिा िै तो
न के वल उस रिना की र्ाहब्दक रुपरे खा वरन् र्ैलीर्त, व्याकरणसम्मत त्रहु टयों, रिना की भावनात्मक,
सविं दे नात्मक जीवतिं ता को बनाये रखने की हजम्मेदारी भी र्ोधक की िी िोती िै। इसी सबिं धिं में डॉ इन्रनाथ िौधरी
का यि कथन दृष्टव्य िै-‘आहखरकार अनवु ाद िी इस अनुर्ासन की आधार पीहठका िै और आज के सन्दभग में
सािंस्कृ हतक अध्ययन के अन्तर्गत अनवु ाद ने एक बिुत मित्वपणू ग स्थान बना हलया िै।’13 हद्वभाहषक तल ु नात्मक
साहित्य के अन्तर्गत अनवु ाद आधारभहू म का कायग करता िै यि किना अहतश्योहि निीं िोर्ा। अनवु ाद एक
स्वतिंत्र र्ाखा के रुप में तो प्रिहलत िै िी जो आधहु नक एविं भमू डिं लीकरण के दौर में बिुत मित्वपूणग भी िै। तल
ु ना
में अनवु ाद की भहू मका बिुत मित्वपूणग िो जाती िै, क्योंहक तल ु ना यहद एक भाषा से दसू री भाषा के हवद्वानों,
रिनाओ िं अथवा अन्य हवषयों को लेकर की जा रिी िै तो यि आवश्यक िै हक उस व्यहि को उन दोनों भाषाओ िं
का ज्ञान िोना िाहिए। यहद वि सफल अनवु ादक िोर्ा तो वि तल ु नात्मक अध्ययन अथवा हवषय के साथ न्याय
कर पायेर्ा। अनवु ाद कायग राष्रीय साहित्य की अवधारणा से बडी र्िराई से जडु ा िुआ िै। आज जब िम भाषा के
नाम पर, प्रान्त के नाम पर, अपनी भौर्ोहलक सीमाओ िं के हलए प्रहतद्वन्द्वी के रुप में एक दसू रे को पछाडने में लर्े
िुए िैं तब इस बात की बिुत आवश्यकता िै हक िम हकसी ऐसे हबन्दु पर पिुिँ े, जिाँ पर इतने सारे अन्तहवगरोधों के
बावजदू एक सामान्य भावभहू म का हनमागण िो सके । “साहित्य में अनुवाद कायग उस तेजी से बढ़ सकता िै हक
इसका मकू यािंकन करने के हलए तौलहनक हविारों का सिारा लेना आवश्यक िो सकता िै। तल ु नात्मक आलोिना
के लेखकों को भी कम से कम दो या अहधक भाषाओ िं को जानना परमावश्यक िो सकता िै।”14 इसके अन्तर्गत
हवहभन्न प्रकार के अनवु ादों का अध्ययन भी र्ाहमल िै हजनपर ििाग करना हवषय को अहधक हवस्तार देना िो
जायेर्ा, हजससे बिना आवश्यक िै एविं वि िमारा अभीष्ट भी निीं िै। हकन्तु एक तथ्य की ओर ध्यानाकहषगत
करना आवश्यक जान पडता िै और वि िै- अनहू दत कृ हत से अनवु ाद करना यि मार्ग न तो उतना कारर्र िी िै न
िी अहधक प्रामाहणक इस सिंबिंध में इस उहि पर ध्यान देना आवश्यक प्रतीत िोता िै-“वस्ततु : अनवु ाद से अनवु ाद
कमग दसू रे दजे का निीं िोता, परिंतु आर्क िं ा उठती िै हक उस मल ू रिना का भाव उसमें, उस अनवु ाद से अनवु ाद
में, किाँ तक सरु हक्षत रि पाता िै।”15
अनवु ाद की प्रमख
ु समस्याओ िं में से एक िै- भाषाओ िं का भौर्ोहलक, सािंस्कृ हतक, सामाहजक राजनीहतक
दृहष्ट से अलर् िोना। िर भाषा की अपनी प्रकृ हत िोती िै। इसी कारण िम हकसी भी भाषा के साहित्य, हवज्ञान,
समाजर्ास्त्र अथवा ज्ञान की अन्य र्ाखाओ िं के क्षेत्र को एक िी आधार पर निीं परख सकते। “अनवु ाद की अपनी
एक मयागदा भी िोती िै हक वि मल ू रिना को ठीक उसी रुप में निीं रख पाता इसका मल ू कारण यि िै हक एक
अनवु ादक की अपनी र्ैली िोती िै जो उसकी प्रहतभा एविं यर्ु िेतना से प्रभाहवत रिती िै दसू रा मातृभाषा और
लक्ष्यभाषा का अथग और स्वरुप की सरिं िना र्ायद समान िो हकन्तु विी की विी तो कभी निीं िोती।”16 अनवु ाद
करते समय अनवु ादक रिनाकार के समान स्वतिंत्र निीं िोता वि उस रिना का पनु : सृजन करने का प्रयत्न करता िै
जो पिले रिी जा िक ु ी िै इस हस्थहत की ककपना करते िी बिुत सी बातें स्पष्ट िो जाती िैं हक हकसी रिना को
िूबिू उसी प्रकार जीवतिं करना दष्ु कर कायग िै। हफर भी प्रयास तो हकया िी जा सकता िै। साहिहत्यक क्षेत्र का व्यहि

5
यहद वैज्ञाहनक अनवु ाद करे तो सभिं वतः उसमें अहधक त्रहु टयाँ िोने की सभिं ावना रिती िै। यहद वि दसू रे क्षेत्र के ज्ञान
का भी अध्ययन करता िै तो अनवु ाद करना अहधक सरल व सिज िोर्ा। क्योंहक सभी ज्ञान र्ाखाओ िं के र्ब्द भी
उसी के अनरुु प िोते िैं जैस-े साहिहत्यक र्ब्दावली, वैज्ञाहनक र्ब्दावली से हभन्न िोर्ी। इसी प्रकार भाषा के अन्य
रुपों से पररहित िोना आवश्यक िै। अनवु ाद इसी कारण एक जहटल प्रहिया िै, जो कलात्मक तो िै िी तथ्यात्मक
भी िै। जिाँ तथ्यात्मकता छूटती िै विाँ कलात्मकता के सिारे अर्ली कङी जोङना सिंभव िो जाता िै। इन सभी
समस्याओ िं के बावजदू अनवु ाद की प्रहिया हनरन्तर जारी िै। िािे वि साहिहत्यक अनवु ाद िो अथवा अन्य
हवषयों से सबिं हिं धत अनवु ाद।
ननष्कर्ष-
तलु नात्मक अध्ययन की आधार भहू म व्यापक एविं हवहभन्न अवधारणाओ िं से यि ु िै। इसके अन्तर्गत
वैहश्वक साहित्य की अवधारणा िै, भारतीय साहित्य की अवधारणा िै, तल ु नात्मक अध्ययन के हवहवध स्वरुप एविं
प्रकार िैं। अनवु ाद का मित्व तल ु नात्मक साहित्य के अन्तर्गत और अहधक बढ़ जाता िै क्योहक इसकी आधार
भहू म अनुवाद िै। तल ु नात्मक साहित्य के क्षेत्र में हवहवध अध्ययन िो रिे िैं, हजससे िम इस कायगक्षेत्र के मित्व का
अनमु ान कर सकते िैं। अभी हजतना कायग इसपर िुआ िै इससे अहधक हकये जाने की आवश्यकता िै। अनवु ाद के
क्षेत्र में भी यि आवश्यकता बनी िुई िै हक अन्य भारतीय भाषाओ िं के उत्तम साहित्य को हिन्दी में अनहू दत करने
की आवश्यकता िै। इस क्षेत्र में कायग करने के अवसर भी बिुत अहधक िैं। यि न के वल सािंस्कृ हतक आदान-प्रदान
का हवषय िै अहपतु हवश्व मानववाद एविं वसधु ैव कुटुम्बकम् की भावना को साकार करने का भी एक उपिम िै।
भारतीय सन्दभग में तल ु ना एविं अनवु ाद का फलक बिुत व्यापक िै। आधहु नक समय में भी यि भाषार्त हवभेद
िमारे जीवन और साहित्य दोनों िी में बना िुआ िै हजसे दरू करना िमारी आवश्यकता िी निीं जरुरत भी िै।

सन्दर्ष-
1. सपिं ादक डॉ. भ. ि. राजरू कर, डॉ. राजमल बोरा- तुलनात्मक अध्ययन स्वरुप एविं समस्याएँ, वाणी प्रकार्न, 4695 21
ए, दररयार्िंज नयी हदकली 110002 र्ाखा अर्ोक राजपथ, पटना 800004 आवृहत्त सिंस्करण 2013, पृष्ठ सिंख्या- 19
2. इन्रनाथ िौधरु ी- तल ु नात्मक साहित्य भारतीय पररप्रेक्ष्य, www.google.co.in 28/07/2019 वाणी प्रकार्न 21 ए
दररयार्िंज, नई हदकली 110002 प्रथम सिंस्करण 2006, पृष्ठ सिंख्या- 13
3. सिंपादक डॉ. भ. ि. राजरू कर, डॉ. राजमल बोरा- तुलनात्मक अध्ययन स्वरुप एविं समस्याएँ, वाणी प्रकार्न, 4695 21
ए, दररयार्जिं नयी हदकली 110002 र्ाखा अर्ोक राजपथ, पटना 800004 आवृहत्त सस्िं करण 2013, पृष्ठ सख्िं या 53
4. विी,पृष्ठ सिंख्या 79
5. विी,पृष्ठ सिंख्या 43
6. विी,पृष्ठ सख्िं या 19
7. विी,पृष्ठ सिंख्या 71
8. विी,पृष्ठ सिंख्या 68
9. प्रदीप हत्रपाठी- तल ु नात्मक र्ोध के हवहवध पररप्रेक्ष्य, www.hindisamay.com 28/07/2019.

6
10. सपिं ादक डॉ. भ. ि. राजरू कर, डॉ. राजमल बोरा- तुलनात्मक अध्ययन स्वरुप एविं समस्याएँ, वाणी प्रकार्न, 4695 21
ए, दररयार्िंज नयी हदकली 110002 र्ाखा अर्ोक राजपथ, पटना 800004 आवृहत्त सिंस्करण 2013, पृष्ठ सिंख्या 65
11. सपिं ादक डॉ. भ. ि. राजरू कर, डॉ. राजमल बोरा- तल ु नात्मक अध्ययन स्वरूप एविं समस्याएँ, वाणी प्रकार्न, 4695 21
ए, दररयार्िंज नयी हदकली 110002 र्ाखा अर्ोक राजपथ, पटना 800004 आवृहत्त सिंस्करण 2013, पृष्ठ सिंख्या 68
12. प्रा. तेजाभाई एन. पटेहलया- तल ु नात्मक साहित्य में अनवु ाद की भहू मका, www.shabdbrahm.com ISSN 2320 -
0871 17 अप्रैल 2013.
13. प्रा. तेजाभाई एन. पटेहलया- तलु नात्मक साहित्य में अनवु ाद की भहू मका, www.shabdbrahm.com ISSN 2320 -
0871 17 अप्रैल 2013.
14. सिंपादक डॉ. भ. ि. राजरू कर, डॉ. राजमल बोरा- तुलनात्मक अध्ययन स्वरुप एविं समस्याएँ, वाणी प्रकार्न, 4695 21
ए, दररयार्िंज नयी हदकली 110002 र्ाखा अर्ोक राजपथ, पटना 800004 आवृहत्त सिंस्करण 2013, पृष्ठ सिंख्या 102
15. सिंपादक डॉ. भ. ि. राजरू कर, राजमल बोरा- तल ु नात्मक अध्ययन स्वरुप एविं समस्याएँ, वाणी प्रकार्न, 4695 21 ए,
दररयार्िंज नयी हदकली 110002 र्ाखा अर्ोक राजपथ, पटना 800004 आवृहत्त सिंस्करण 2013, पृष्ठ सख्िं या 101
16. प्रा. तेजाभाई एन. पटेहलया- तल ु नात्मक साहित्य में अनवु ाद की भहू मका, www.shabdbrahm.com ISSN 2320 -
871 17 अप्रैल 2013.

You might also like