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राष्ट्रीय शिक्षा नीति२०२०

और
दे श में शिक्षा का भविष्य

शोध प्रस्ताव
डॉ शिवेश प्रसाद राय
अस्सिटें ट प्रोफेसर
राजनीती विज्ञान
अमरनाथ मिश्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय
दब
ु ेछपरा ,बलिया
9450725750
शिक्षक एवं प्रशिक्षण संस्थानों में शिक्षक व विद्यार्थी

आज भारतीय समाज भविष्य के प्रति समद्धि


ृ एवं कल्याण का स्वप्न संजोये 21 वीं
सदी में प्रवेश कर चुका है । इस नए युग में खड़े समाज की युवा पीढ़ी से अनेक
आशाएं हैं क्योंकि हमारी युवा पीढ़ी ही भारत की आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक
प्रगति की द्योतक है । यही पीढ़ी नवीन जन संस्कृति के निर्माण तथा भारतीय
संस्कृति के पर्व
ू स्थापित सत्यों एवं जनतांत्रिक मल्
ू यों के संरक्षण एवं संश्लेषण का
दायित्व लेने के लिए तैयार है , परं तु इस सय
ु ोग्य यव
ु ा पीढ़ी का निर्माण तभी संभव
है जब योग्य शिक्षक मिलेंगे।

शिक्षकों का महत्व बताते हुए एच जी वेल्स का कथन है कि “अध्यापक इतिहास


का वास्तविक निर्माता है जो मैडम ने भी कहा है कि शिक्षक मनष्ु य का निर्माता”
है । इन कथनो से स्पष्ट है कि विश्व के सभी मनीषी शिक्षक को आज समाज में
अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान दे ते हैं। अपने दे श में तो गुरु का स्थान ईशवर से भी
महान बताया गया है । वास्तव में शिक्षक के हाथ में वह शक्ति है जो बालक को
नया जन्म दे ता है । इसलिए प्रत्येक शैछिक योजना में शिक्षक महत्वपूर्ण माना
जाता है ।

शिछाविद नेल्सन एल बासिंग का कहना है कि “ किसी भी शिक्षा योजना में मैं


शिक्षक को निर्विवाद केंद्रीय स्थान दे ता हूं। शैछिक प्रक्रिया के प्रमख
ु संचालक होने
के कारण अवश्य ही उसका स्थान प्रमख ु है ”।

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार “समाज में अध्यापक का स्थान बड़ा


महत्वपूर्ण है वह एक पीढ़ी से दस
ू री पीढ़ी को और अधिक परं पराएं तथा तकनीकी
कौशल पहुंचाने का केंद्र है और सभ्यता के प्रकाश को प्रज्वलित रखने में सहायक
होता है ” ।
रविंद्र नाथ ठाकुर के अनुसार “एक अध्यापक तक नहीं सिखा सकता जब तक कि
वह स्वयं ही ना रहा होती उसी तरह से जैसे एक दस
ू रे से दीपक को प्रज्वलित नहीं
कर सकता जब तक कि स्वयं की ज्योति जलती न रहे ” ।

माध्यमिक शिक्षा के आयोग के अनुसार “शिक्षक एवं शिक्षिकाओं का कार्य एक


माली के समान बड़ा कठिन एवं महत्वपर्ण
ू है जिस प्रकार माली कठिन परिश्रम
और लगन से हरे व ् संद
ू र पौधों को सन्
ु दर वक्ष
ृ बनाता है उसी प्रकार योग्य
चरित्रवान व्यक्ति ही शिक्षक का कार्य पूरा कर सकता है ”।

शिक्षा प्रक्रिया द्वारा राष्ट्रीय अपेक्षाओं की पूर्ति एवं शिक्षा महाविद्यालयों का


अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि इन संस्थाओं का सम्बन्ध शिक्षक निर्माण की
प्रक्रिया से संबंधित है । शिक्षक प्रशिक्षण का मुख्य उद्देश्य छात्राध्यापिकाओं में नवीन
उपायों से सम्बंधित ज्ञान , विशिष्ट कौशल का विकास करना है अनुदानित
शिक्षण संस्थाओं में कार्यरत शिक्षकों कार्यरत शिक्ष्कों कि कार्य संतुस्टी तथा
विद्यार्थियों कि शैक्षिक उपलब्धि का तल
ु नात्मक अध्यन करना ही इस लेख का
मख्
ु य उद्देश्य है ।

अध्यापक की कार्य संस्कृति पर विश्व का भविष्य निर्भर है । जो शिक्षक अपने


शिक्षण कार्य के प्रति संतुष्ट होता है ।वह एक अच्छा शिक्षक होता है लेकिन
वर्तमान समय में शिक्षक अपने दायित्व बोध से विमुख होते जा रहे हैं।शिक्षकों में
अपने कार्यों के प्रति असंतोष की भावना प्रबल होती जा रही ।है शिक्षकों में दायित्व
बोध में कमी कार्य संतुष्टि ना होने के कारण है ।वर्तमान समय में यह समस्या
विकराल रूप धारण करती जा रही है ।

चारों ओर अराजकता, नशाखोरी, हिंसा, हत्या, बलात्कार, अनश


ु ासनहीनता आदि
बरु ाइयों के कारण शिक्षकों का अपने दायित्व से अलग होना ही है । आज के
शिक्षकों को छात्र, विद्यालय, अभिभावक तथा समाज के प्रति अपने दायित्व का ही
बोध नहीं है । लेकिन इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है कि इन सब का
क्या कारण है ? क्यों समाज सुधारक, शिल्पी, राष्ट्र निर्माता व ् पथप्रदर्शक कहा जाने
वाला शिक्षक अपने दायित्वों को भूलता जा रहा है । वास्तव में आज हम शिक्षकों
को सम्मान, प्रेम, गौरव और सहानुभूति की भावना नहीं दे पा रहे हैं जो उसे प्राचीन
काल में प्राप्त थी। जरूरी शिक्षण प्रक्रिया का केंद्र बिंद ु शिक्षक ही माना जाता था।

वैदिक काल में गरु


ु -शिष्य संबध
ं अत्यंत मधरु थे। गरु
ु अपने शिष्यों को पत्र
ु वत
मानते थे और शिष्य भी अपने गरु
ु को अपना मानस पिता समान मानते थे। और
उनकी सेवा सुश्रुषा करना अपना धर्म समझते थे। यही स्थिति बौद्ध काल में भी थी
जैसा कि अलतेकर ने लिखा है ” शिस्य और उसके गुरु के मध्य संबंधों का स्वरूप
पुत्रानुरूप था। वे परस्पर सम्मान विश्वास और प्रेम से आबद्ध थे”।

कार्य संतुष्टि का अर्थ- मनोवैज्ञानिकों ने की विभिन्न परिभाषाएं दी है लेकिन


औद्योगिक मनोविज्ञान तथा प्रबंध संगठन मनोविज्ञान की दृष्टि से विश्व में कई
आपत्तियां शामिल की गई जिसके कारण अब तक इसकी परिभाषा उभर कर
सामने नहीं आ सकती व्यापक अर्थ में एक सामान्य व्यापक अर्थ में यह एक
सामान्य मनोवति
ृ है जो कई अभिवति
ृ यों के परिणाम स्वरुप तीन क्षेत्रों में निर्मित
होती है
१- विशिष्ट कारण
२- व्यक्तिगत समायोजन
३- समूह सम्बन्ध

तीनो क्षेत्र कार्य संतोष से अलग नहीं किये जा सकते और कार्य संतोष इन तीनो
क्षेत्रों का संतुलित सहयोग है । सरल शब्दों में हम कह सकते हैं कि सारे संतोष
कर्मचारी की अपने कार्य के प्रति पर्ण
ू सहमति है । कार्य संतोष सामान्य तौर पर
किसी व्यक्ति की पारिवारिक तथा समाज के जीवन से संतष्ु ट करता है । लेकिन
यह परिभाषा उचित और सही नहीं है क्योंकि ऐसा भी दे खा गया है कि कुछ
व्यक्तियों में उनका पारिवारिक तथा समाज का जीवन ठीक है । लेकिन फिर भी
यह कह सकते हैं कि जीवन संतोष और कार्य संतोष एक दस
ू रे से संबधि
ं त है ।
कार्य संतोष को परिभाषित करने वाली भाषा को लगभग सभी विद्वान स्वीकार
करते हैं। “रोजगार संतुष्टि में रोजगार से संबधि
ं त सभी योग्यताओं, छमताओं को
सम्मिलित करते हैं जिससे व्यक्ति उस रोजगार के कार्यों को करना पसंद करता
है , उसी रहकर प्रगति कि इच्छा रखता है ।
शोध समस्या- आधनि
ु क यग
ु में मनष्ु य की बढ़ती हुई आकांक्षाओं के कारण चारों
तरफ तनाव और संतोष एवं और असरु क्षा की भावना पाई जाती है । यदि किसी
व्यक्ति को ऐसा कार्य मिले जो उसकी रूचि का ना हो और रूचि के साथ साथ
भौतिक आवश्यकताओं की पर्ति
ू भी ना हो तो व्यक्ति अपने जीवन को और अधिक
तनाव पूर्ण ढं ग से जीने के लिए मजबूर हो जाएगा।
शिक्षक हो या शिक्षिका कार्य से मिलने वाले संतोष पर ही भावी पीढ़ी के सुखद
भविष्य की कामना की जा सकती है और असंतुष्ट शिक्षक एवं शिक्षिका असंतुष्ट
विद्यार्थियों को जन्म दें गे।
जिससे समाज का पतन हो जाएगा। असंतष्ु ट मन व बद्धि
ु का प्रभाव शिक्षकों के
कार्य पर पड़ता है ।यदि शिक्षक अपने कार्य से संतष्ु ट होंगे तो निश्चय ही ऐसे
समाज का निर्माण होगा जो स्वस्थ मस्तिष्क और बौद्धिक प्रतिभा का धनी होगा।

संबंधित साहित्य -संबधि


ं त साहित्य से तात्पर्य अनुसध
ं ान की समस्या से संबंधित
उन सभी प्रकार की पुस्तकों ज्ञान पुरुषों पत्र-पत्रिकाओं सरकार तथा और प्रकाशित
शोध प्रबंधों एवं अभिलेखों मार दे ते हैं जिनके अध्ययन से शोधकर्ता को अपनी
समस्या के चयन पर कल्पनाओं के निर्माण अध्यन की रूपरे खा तैयार करने एवं
कार्य को आगे बढ़ाने की सहायता मिलती है ।

शोध विधि -प्रस्तत


ु शोध में वर्णनात्मक सर्वेक्षण विधि का प्रयोग किया गया है ।
न्यायदर्श- प्रस्तत
ु शोध में आजमगढ़ जिले में स्थापित स्ववित्तपोषित अनद
ु ानित
शिक्षण प्रशिक्षण संस्थाओं में कार्यरत 200 शिक्षकों का चयन यादृष्टि की विधि
द्वारा किया गया है ।
परिकल्पना- प्रस्तुतु शोधपत्र में शुन्य परिकल्पनाओं का निर्माण किया गया है ।
१- स्ववित्तपोषित तथा अनुदानित शिक्षक -प्रशिक्षण संस्थानों में कार्यरत शिक्षकों
कि कार्य संतुस्टी में अंतर नहीं होता है ।
२- स्ववित्तपोषित तथा अनुदानित शिक्षक -प्रशिक्षण संस्थानों में अध्यनरत
विद्यार्थिओं कि शैक्षिक उपलब्धि में में सार्थक अंतर नहीं होता है ।
प्रयक्
ु त उपकरण -प्रस्तत
ु शोध प्रबंध में आंकड़ों को एकत्रित करने हे तु निम्न
उपकरणों का प्रयोग किया गया है ।
१- अध्यापक कृत्य संतोष प्रश्नावली -डॉ, प्रमोद कुमार एवं डी एन मथ
ु ा
२- विद्यार्थिओं कि शैक्षिक उपलब्धि -विगत तीन वर्षों का वार्षिक परीक्षाफल
(थ्योरी पेपर के आधार पर )

परिकल्पनाओं का का परीक्षण-

तालिक संख्या -१

स्ववित्तपोषित तथा अनद


ु ानित शिक्षक -प्रशिक्षण संस्थानों में कार्यरत शिक्षकों कि
कार्य संतुस्टी का तुलनात्मक अध्यन-

क्रम संख्या क्षेत्र N संख्याM मध्यमान मानक विचलन "t " मान सार्थकता

1- स्ववित्तपोषित शिक्षक 25 17.88 4.16 0.33 N.S


-

2- प्रशिक्षण 25 18.32 5.02

अनुदानित शिक्षक -
प्रशिक्षण

N.S.- असार्थक

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