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BRF 2
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भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 2 (एच) के अनुसार, “ऐसा ठहराव जो राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होता
है, अनुबन्ध कहलाता है।
ब्लैकस्टोन के अनुसार, “अनुबन्ध किसी विशेष कार्य को करने अथवा नहीं करने का ठहराव है, जिसमें पर्याप्त
प्रतिफल होता है।”
उपरोक्त सभी परिभाषाओं में सर फ्रे डरिक पोलाक की परिभाषा अधिक उपयुक्त एवं वैज्ञानिक है तथा भारतीय
अनुबन्ध अधिनियम में दी गई परिभाषा से मिलती-जुलती है। उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर अनुबन्ध के
लिए निम्नलिखित बातों का होना आवश्यक है
1 पक्षकारों के मध्य ठहराव का होना-अनुबन्ध होने के लिए ठहराव का होना आवश्यक है। जब दो या दो से
अधिक व्यक्ति किसी कार्य को करने या न करने के लिए वचनबद्ध हों तो उसे ठहराव कहते हैं। सरल शब्दों में
ठहराव की उत्पत्ति एक पक्षकार द्वारा प्रस्ताव करने और दूसरे पक्षकार द्वारा उसकी स्वीकृ ति करने पर होती
है। अत: ठहराव के लिए कम से कम दो पक्षकारों का होना आवश्यक है। उदाहरणार्थ, आशीष विपुल के समक्ष
अपना स्कू टर 5000 ₹ में बेचने का प्रस्ताव रखता है और विपल इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है। विपुल
द्वारा स्वीकृ ति देने पर आशीष एवं विपुल के बीच एक ठहराव हो जाता है।
2. ठहराव द्वारा वैधानिक उत्तरदायित्व का उत्पन्न होना-अनुबन्ध के लिए यह आवश्यक है कि राव
वैधानिक सम्बन्ध स्थापित करने की इच्छा से किया गया हो जिससे पक्षकारों के बीच वैधानिक टायित्व उत्पन्न
हो। ऐसे दायित्व जिनको पूरा करने के लिए दूसरे पक्षकारों को कानूनी रूप से बाध्य किया जा सकता है,
वैधानिक उत्तरदायित्व कहते हैं। सामाजिक, राजनैतिक या अन्य किसी प्रकार के ठहराव जिनमें पक्षकारों का
इरादा किसी प्रकार का वैधानिक उत्तरदायित्व उत्पन्न करने का नहीं होता, उन्हें अनुबन्ध नहीं कह सकते। कहीं
पर घूमने जाने, सिनेमा देखने जाने अथवा दावत में सम्मिलित होने के लिए दी गई सहमति से किसी प्रकार के
वैधानिक दायित्व उत्पन्न नहीं होते और इसलिए ऐसे ठहराव कभी भी अनुबन्ध का रूप धारण नहीं कर सकते।
3. वैधानिक दायित्व का राजनियम (कानून) द्वारा प्रवर्तनीय होना-कोई ठहराव तभी अनुबन्ध का रूप लेता
है जब वह कानून द्वारा प्रवर्तनीय होता है अर्थात् यदि कोई पक्ष अपने वचन को पूरा नहीं करता है तो दूसरा
पक्ष उसे न्यायालय की सहायता से वचन को पूरा करने के लिए बाध्य कर सकता है। सरल शब्दों में, कोई
ठहराव राजनियम द्वारा तभी प्रवर्तनीय माना जाता है जब पीड़ित पक्षकार दूसरे पक्ष के विरुद्ध (उस पक्ष के
विरुद्ध जिसने अपने दिए हुए वचन को पूरा नहीं किया है) कानूनी कार्यवाही कर सकता है। प्रश्न यह है कि कौन
से ठहराव कानून द्वारा प्रवर्तनीय कराए जा सकते हैं। ठहराव के राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होने के लिए
आवश्यक बातों का उल्लेख इस अधिनियम की धारा 10 में किया गया है जो इस प्रकार है
“समस्त ठहराव अनुबन्ध हैं, यदि वे उन पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति से किए जाते हैं जो अनुबन्ध करने की
क्षमता रखते हैं, वैधानिक प्रतिफल के लिए तथा वैधानिक उद्देश्य से किए जाते हैं और इस अधिनियम के द्वारा
स्पष्ट रूप से व्यर्थ घोषित नहीं कर दिए गए हैं। इसके अतिरिक्त ठहराव लिखित हो अथवा साक्षी द्वारा
प्रमाणित हो अथवा रजिस्टर्ड हो यदि भारत में प्रचलित किसी विशेष राजनियम द्वारा ऐसा होना अनिवार्य हो।”
“सभी अनुबन्ध ठहराव होते हैं, परन्तु सभी ठहराव अनुबन्ध नहीं होते“
(All Contracts are Agreement, but all Agreements are not
Contracts)
यह कथन सत्य है कि समस्त अनुबन्ध ठहराव होते हैं किन्तु समस्त ठहराव अनुबन्ध नहीं होते। यह कथन
अनुबन्ध और ठहराव की प्रकृ ति में अन्तर करने का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आधार है। यह कथन अनुबन्ध और
ठहराव के क्षेत्र की ओर भी संके त करता है। जैसा कि हम जानते हैं कि कोई ठहराव अनुबन्ध तभी बन सकता
है जब इसके कारण पक्षकारों में कोई वैधानिक सम्बन्ध उत्पन्न होता है। यदि इसके कारण पक्षकारों में कोई
वैधानिक सम्बन्ध उत्पन्न नहीं होता तो के वल ठहराव होता है, अनुबन्ध नहीं। इसी कारण यह कहा जाता है कि
अनुबन्ध (Contract) की अपेक्षा ठहराव (Agreement) का क्षेत्र कहीं अधिक व्यापक है। ठहराव किसी भी प्रकार
का हो सकता है जैसे धार्मिक (Religious), सामाजिक (Social), राजनैतिक (Political), नैतिक (Moral) आदि।
जैसे-किसी मित्र के साथ पिक्चर जाने या पिकनिक मनाने का ठहराव या उसके साथ भोजन करने का ठहराव
अनुबन्ध नहीं है क्योंकि इससे पक्षकारों में वैधानिक सम्बन्ध उत्पन्न नहीं होता जिसके कारण से वे राजनियम
द्वारा प्रर्वतनीय नहीं होते। इस तरह के ठहराव जब कु छ व्यक्ति आपस में करते हैं तो उनका उद्देश्य कभी भी
यह नहीं होता कि दिए गए वचन को न निभाए जाने पर वह दूसरे पक्षकार पर कोई काननी कार्यवाही करेंगे।
उपरोक्त कथन को और अधिक स्पष्ट व्याख्या के लिए इस कथन को दो भागों में बाँटा जा सकता है:
(I) समस्त अनुबन्ध ठहराव होते हैं तथा (II) समस्त ठहराव अनबन्ध नहीं होते।
(I समस्त अनुबन्ध ठहराव होते हैं (All Contracts are agreement) अनुबन्ध की परिभाषाओं के विश्लेषण
में कहा गया था कि अनबन्ध में दो तत्वों का होना अत्यन्त आवश्यक यदी तत्व ठहराव तथा वैधानिक दायित्व
के रुप में होते हैं। भारतीय अनबन्ध अधिनियम का धारा के अनुसार, “जब वह व्यक्ति जिसके सम्मुख प्रस्ताव
रखा जाता है. उस पर अपनी सहमति प्रकट कर देता है तो कहा जाता है की प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता
है। कहलाता हा इसी प्रकार भारतीय अनबन्ध अधिनियम की धारा 2(e) के अनुसार, वचन। तथा वचनों का समूह
जो एक दूसरे के लिए प्रतिफल हो, ठहराव कहलाता है। इसक आतारक ठहराव पक्षकारों में वैधानिक दायित्व
उत्पन्न करता है तो वह अनुबन्ध कहलाता है
इसका अर्थ यह है कि वही ठहराव अनुबन्ध होता है जिसे राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय करवाया जा सकता है।
दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि जहाँ अनुबन्ध होगा वहाँ ठहराव अवश्य ही होगा तथा ठहराव के
बिना अनुबन्ध हो ही नहीं सकता। जिस प्रकार यह कहा जाता है कि जहाँ धुआँ होगा, वहा आग अवश्य होगी,
बिना आग के धुआँ हो ही नहीं सकता, उसी प्रकार ठहराव के बिना अनुबन्ध का जन्म ही नहीं हो सकता। जिस
तरह से आग ही धुएँ को जन्म देती है, उसी प्रकार ठहराव अनुबन्ध को जन्म देता है। इसलिए यह कहा जाता
है कि सभी अनुबन्ध ठहराव होते हैं। अत: यह कथन पूर्ण रुप से सही है कि सभी अनुबन्ध ठहराव होते हैं
परन्तु उसके लिए अनुबन्ध के अन्य आवश्यक लक्षण जैसे पक्षकारों में अनुबन्ध करने की क्षमता, स्वतन्त्र
सहमति, प्रतिफल तथा वैधानिक उद्देश्य उसमें विद्यमान होने चाहिएँ। इस कथन की सत्यता सालमण्ड
(salmond) द्वारा दिए गए कथन से भी सिद्ध होती है। सालमण्ड (Salmond) के अनुसार, “अनुबन्ध अधिनियम
के वल उन्हीं ठहरावों का अधिनियम है जो दायित्व उत्पन्न करते हैं तथा उन्हीं दायित्वों का अधिनियम है,
जिनका स्त्रोत ठहराव होता है।”
(II) समस्त ठहराव अनुबन्ध नहीं होते (All agreements are not contract)- अनुबन्ध की विभिन्न
परिभाषाओं के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि के वल वही ठहराव अनुबन्ध होते हैं जिन्हें राजनियम द्वारा
प्रवर्तनीय करवाया जा सकता है। यदि किसी ठहराव को राजनियम द्वारा प्रवर्तित नहीं करवाया जा सकता तो
वह ठहराव सदैव के वल ठहराव ही बना रहता है, अनुबन्ध कभी भी नहीं बनता है। जैसे सामाजिक, राजनैतिक,
धार्मिक, नैतिक ठहराव अनुबन्ध नहीं कहे जा सकते क्योंकि वे राजनियम द्वारा प्रवर्तित नहीं करवाये जा सकते
हैं। इसी कारण से सिनेमा जाने के ठहराव, घूमने के लिए ठहराव अथवा साथ खाना खाने के ठहराव के वल
ठहराव ही होते हैं क्योंकि वे वैधानिक दायित्व उत्पन्न नहीं करते।
ठहराव के लिये वैधानिक उत्तरदायित्व (Legal Obligation) का होना भी आवश्यक नहीं है। गैर कानूनी
कार्यों के लिए भी ठहराव हो सकते हैं। ठहराव का क्षेत्र विस्तृत होने के कारण धार्मिक (Religious), सांस्कृ तिक
(Cultural), सामाजिक (Social) तथा नैतिक (Moral) उत्तरदायित्व भी ठहराव के अन्तर्गत आ जाते हैं। वैधानिक
दृष्टि से सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक अथवा राजनीतिक उत्तरदायित्वों से सम्बन्धित ठहराव अनुबन्ध का रूप
धारण नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसे ठहरावों से वैधानिक उत्तरदायित्व उत्पन्न नहीं होता और इन्हें राजनियम
(कानून) द्वारा प्रवर्तनीय नहीं कराया जा सकता। ठहराव के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह राजनियम द्वारा
प्रवर्तनीय हो। वस्तुत: ठहराव होने के लिए अनुबन्ध का होना अनिवार्य नहीं है। इसीलिए यह कहा जाता है कि
समस्त ठहराव अनुबन्ध नहीं होते अर्थात् कोई ठहराव, अनुबन्ध हो भी सकता है और नहीं भी। यदि किसी
ठहराव में वैध अनुबन्ध के सभी लक्षण विद्यमान हैं तो वह ठहराव अनुबन्ध कहलाता है अन्यथा नहीं। इस
सम्बन्ध में धारा 10 में स्पष्ट रूप से वर्णित है कि “वे सभी ठहराव अनुबन्ध होते हैं, यदि वे ऐसे पक्षकारों की
स्वतन्त्र सहमति से किये गए हैं जो कि अनुबन्ध करने की योग्यता रखते हैं तथा जो वैधानिक प्रतिफल तथा
उद्देश्य से किये गए हों तथा इस अधिनियम के अन्तर्गत स्पष्ट रूप से व्यर्थ घोषित न हों। यदि किसी प्रचलित
राजनियम द्वारा आवश्यक हो तो वह ठहराव लिखित, साक्षी (गवाह) द्वारा प्रमाणित और पंजीकत होना चाहिए।”
अतः स्पष्ट है कि वे ही ठहराव अनुबन्ध बन पाते हैं जिनमें भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 10 में
बताए गए लक्षण विद्यमान हों और यदि उपरोक्त लक्षण किसी ठहराव में विद्यमान नहीं हैं तो वह ठहराव
के वल ठहराव ही रहेगा। निम्नलिखित कु छ ऐसे ठहराव हैं जो कि के वल ठहराव ही रहते हैं, अनुबन्ध नहीं होते हैं
(I) सामाजिक ठहराव–सामाजिक ठहराव से आशय ऐसे ठहराव से है जो कि पक्षकारों के मध्य सामाजिक
सम्बन्धों को स्थापना एवं उनके विस्तार के लिए किए जाते हैं और इस प्रकार उनका टेण्य उनके भंग होने पर
उन्ह वधानिक रुप से क्रियान्वित कराने का नहीं होता। अतएव ऐसे ठहराव के वल ठहराव ही रहते हैं, अ पदाव
ही रहते हैं, अनुबन्ध नहीं बन पाते हैं। उदाहरण के लिए, ‘अ’, ‘ब’ को अपने यहाँ भोजन करता है जिसे वह
स्वीकार कर लेता है। किन्तु किसी कारणवश ‘ब’ अ के यहाँ नियामक ढाँचा निर्धारित समय पर नहीं पहुंच पाता
है जिसके कारण ‘अ’ का सारा सामान व्यर्थ में ही नष्ट होता है। यहाँ पर ‘अ’, ‘ब’ के प्रति वैधानिक कार्यवाही
नहीं कर सकता है क्योंकि यह एक सामाजिक ठहराव था जिसका उद्देश्य उसे वैधानिक रुप से क्रियान्वित कराने
का नहीं था।
(2) पारिवारिक ठहराव–परिवार में रहने वाले सदस्यों के मध्य पारिवारिक विषयों के लिए किये। गये ठहराव
पारिवारिक ठहराव कहलाते हैं। ये भी के वल ठहराव ही रहते हैं, अनुबन्ध नहीं बन पाते हैं। क्योंकि इनका उद्देश्य
इनके भंग होने की दशा में उन्हें वैधानिक रुप से क्रियान्वित कराने का नहीं होता है।
इस सम्बन्ध में श्रीमती बालफोर बनाम श्री बालफोर (Mrs. Balfour Vs. Mr. Balfour) का प्रकरण भी
उल्लेखनीय है। श्री बालफोर (प्रतिवादी) लंका में नौकरी करते थे। छु ट्टियों में वह अपनी पत्नी श्रीमती बालफोर
(वादी) को लेने इंग्लैंड गए। पत्नी के अस्वस्थ होने के कारण वे प्रेम व स्नेहवश उनको 30 पौंड प्रतिमाह भेजने
का वायदा करके लंका लौट आए। श्री बालफोर अपने वायदे के अनुसार राशि अपनी पत्नी को नहीं भेज सके ,
अत: श्रीमती बालफोर ने उक्त धनराशि प्राप्त करने के लिए अपने पति पर मुकदमा दायर कर दिया। न्यायालय
ने यह निर्णय देते हुए कि इस ठहराव द्वारा वैधानिक उत्तरदायित्व उत्पन्न नहीं हुआ, मुकद्दमा रद्द कर दिया।
विशेष-वादी उसे कहते हैं जो मुकदमा दायर करता है एवं जिस पर मुकदमा दायर किया जाता है, उसे प्रतिवादी
कहते हैं।
(3) अनुबन्ध करने की क्षमता नहीं रखने वाले पक्षकारों के द्वारा किये गये ठहराव-वे ठहराव जोकि अनुबन्ध
करने की क्षमता नहीं रखने वाले पक्षकारों के द्वारा किये जाते हैं के वल ठहराव ही रहते हैं, अनुबन्ध नहीं बन
पाते हैं। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 11 के अनुसार (1) अवयस्क, (i) अस्वस्थ मस्तिष्क वाले व्यक्ति,
तथा (iii) राजनियम द्वारा अनुबन्ध करने के लिए अयोग्य घोषित व्यक्ति अनबन्ध करने की क्षमता नहीं रखते
हैं। अतएव ऐसे व्यक्तियों द्वारा किये गये ठहराव, के वल ठहराव ही रहते हैं अनुबन्ध का रुप धारण नहीं करते
हैं क्योंकि उन्हें न्यायालय द्वारा क्रियान्वित नहीं कराया जा सकता है।
(4) स्वतन्त्र सहमति के अभाव में किये गये ठहराव-एक वैध ठहराव होने के लिए पक्षकारों के मध्य स्वतन्त्र
सहमति का होना परम आवश्यक होता है। यदि किसी पक्षकार ने पीड़ित पक्षकार से सहमति (i) उत्पीड़न, (ii)
अनुचित प्रभाव, (iii) कपट, (iv) मिथ्या वर्णन, अथवा (v) गलती के आधार पर प्राप्त की हो, तो यह सहमति
स्वतन्त्र नहीं कही जा सकती है। अतएव ऐसी सहमति के आधार पर किया गया ठहराव, के वल ठहराव ही रहता
है, अनुबन्ध का रुप धारण नहीं कर सकता है क्योंकि ऐसे ठहराव को वैधानिक रुप से क्रियान्वित नहीं कराया
सकता है।
(5) अवैधानिक उद्देश्य एवं प्रतिफल के ठहराव-जिन ठहरावों के उद्देश्य एवं प्रतिफल अवैधानिक होते हैं, वे ठहराव
के वल ठहराव ही बने रहते हैं। ऐसे ठहराव अनुबन्ध नहीं बन पाते हैं क्योंकि इनको राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय
नहीं कराया जा सकता है।
(6) स्पष्ट रूप से व्यर्थ घोषित ठहराव-ऐसे ठहराव जिन्हें अधिनियम द्वारा स्पष्ट रुप से व्यर्थ घोषित कर दिया
गया है के वल ठहराव ही रहते हैं, अनुबन्ध नहीं बन पाते हैं क्योंकि उन्हें राजनियम द्वारा प्रवर्तित नहीं कराया
जा सकता है। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम के अन्तर्गत कु छ ठहरावों को स्पष्ट रुप में व्यर्थ घोषित कर दिया
गया है, जैसे-(i) विवाह में रुकावट डालने का ठहराव, (ii) वैध व्यापार में रुकावट डालने का ठहराव, (iii) वैधानिक
कार्यवाही में रुकावट डालने वाला ठहराव, (iv) असम्भव कार्य करने का ठहराव, (v) अनिश्चित कार्य करने का
ठहराव, तथा (vi) बाजी का ठहराव।
(7) राजनीतिक ठहराव-राजनीति में भी कई बार ऐसे ठहराव करने पड़ते हैं जो के वल ठहराव ही रहते हैं, अनुबन्ध
का रुप धारण नहीं कर पाते हैं क्योंकि उनका उद्देश्य उन्हें वैधानिक रुप से क्रियान्वित कराने का नहीं होता है।
उदाहरण के लिए यदि किसी राज्य के मुख्यमन्त्री द्वारा किसी विधायक को मन्त्री पद देने का वचन दिया
जाता है और बाद में उक्त विधायक को मन्त्री पद नहीं दिया जाता है, तो यह ठहराव के वल राजनीतिक ठहराव
ही रहेगा, अनुबन्ध का रुप धारण नहीं कर सके गा क्योंकि उक्त विधायक मुख्यमन्त्री के विरुद्ध न्यायालय में
वाद प्रस्तुत नहीं कर सकता है।
(8) धार्मिक व नैतिक ठहराव–धार्मिक तथा नैतिक रुप में किये गये ठहराव भी के वल ठहराव ही होते हैं,
अनुबन्ध नहीं होते हैं, क्योंकि उनका उद्देश्य ठहराव भंग होने की दशा में उन्हें न्यायालय द्वारा प्रवर्तित कराने
का नहीं होता है। उदाहरण के लिए, यदि सेठ झलामल किसी मन्दिर के निर्माण के लिए। 10,000 ₹ देने का
वचन देते हैं किन्तु बाद में अपनी पत्नी के मना करने पर रुपया देने से इन्कार कर। दत है, तो यह ठहराव
के वल ठहराव ही रहेगा. अनबन्ध नहीं हो सकता क्योंकि उक्त धनराशि का वसूल करने के लिए सेठ झूलामल
पर न्यायालय में वाद प्रस्तत नहीं किया जा सकता है।
अनुबन्धों के प्रकार
(Kinds of Contracts)
भारताय अनुबन्ध अधिनियम के अनसार अनबन्धों के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं
1 वैध अनुबन्ध (Valid Contract)-वैध अनुबन्ध से आशय उस ठहराव से है जो राजनियम द्वारा प्रवतनीय
हो। अत: जिस किसी भी ठहराव को वैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त हो तथा कानुन द्वारा लागू करवाया जा
सकता हो, वह एक वैध अनवध कहलाता है। इसमें भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 10 में बताए गए
सभी आवश्यक तत्नों का होना भी आवश्यक है।
2. व्यर्थ या शून्य अनुबन्ध (Void Contract)-व्यर्थ अनुबन्ध वास्तव में अनुबन्ध नहीं होते क्योकि जो ‘व्यर्थ’
है उसे कानन द्वारा प्रवर्तित नहीं कराया जा सकता ओर जो ‘अनुबन्ध है वह कानून के द्वारा प्रवर्तित कराया
जा सकता है। अतः ये परस्पर विरोधी शब्द हैं। वस्तुत: व्यर्थ अनुबन्ध के स्थान पर व्यर्थ हो गए अनुबन्ध
(Contracts which have become void) कहना अधिक उचित होगा। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 2
(5) के अनुसार “एक अनुबन्ध जब कानून द्वारा प्रवर्तित नहीं रहता, उस समय व्यर्थ या शून्य हो जाता है जब
उसकी प्रवर्तनीयता समाप्त होती है।” सरल शब्दों में, ऐसा अनुबन्ध जो अनुबन्ध करते समय तो वैध होता है
परन्तु बाद में किन्हीं कारणों से कानून द्वारा अप्रवर्तनीय हो जाता है, व्यर्थ या शून्य अनुबन्ध कहलाता है।
व्यर्थ ठहराव एवं व्यर्थ अनुबन्ध में एक ही मुख्य अन्तर है कि व्यर्थ ठहराव आरम्भ से ही व्यर्थ होता है, जबकि
व्यर्थ अनुबन्ध प्रारम्भ में तो वैध होता है परन्तु बाद में किसी कारणवश व्यर्थ हो जाता है । क्योंकि जो ‘व्यर्थ’
है उसे कानून हा अतः ये परस्पर विरोधी शब्द का कहना अधिक उचित है
उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण-राजीव, संजीव को एक माह पश्चात् 50 बोरी चावल बेचने का अनुबन्ध करता है
परन्तु एक माह से पूर्व ही सरकार चावल के व्यापार पर प्रतिबन्ध लगा देती है जिसके कारण राजीव अपने
वचन का पालन नहीं कर सकता। इस स्थिति में अनुबन्ध ‘व्यर्थ हो गया’ माना जाएगा। इस प्रकार से व्यर्थ हो
गए अनुबन्ध के अंतर्गत अगर किसी पक्ष को कोई लाभ अथवा वस्तु प्राप्त हुई हो तो उसे वह लाभ या वस्तु
दूसरे पक्ष को लौटानी पड़ती है या मुआवजा देना पड़ता है। यह अनुबन्ध प्रारम्भ में वैध था, परन्तु बाद में
सरकारी प्रतिबन्ध के कारण व्यर्थ हो गया है। इसके विपरीत प्रतिफल रहित ठहराव या एक अवयस्क के साथ
किया गया ठहराव प्रारम्भ से ही व्यर्थ होता है जिसे कानून द्वारा प्रवर्तनीय नहीं कराया जा सकता।
3. व्यर्थनीय या शून्यकरणीय अनुबन्ध (Voidable Contract)-भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 2 (i)
के अनुसार, “ऐसा ठहराव जो किसी एक पक्षकार अथवा पक्षकारों की इच्छा पर कानून द्वारा प्रवर्तनीय है परन्तु
दूसरे पक्षकार अथवा पक्षकारों की इच्छा पर प्रवर्तनीय नहीं है, व्यर्थनीय अनुबन्ध कहलाता है।” व्यर्थनीय
अनुबन्ध में पीड़ित पक्षकार दोषी पक्षकार के विरुद्ध वैधानिक लाभ प्राप्त करता है। उसे यह अधिकार प्राप्त है
कि वह अनुबन्ध को अपनी इच्छा से व्यर्थ भी घोषित कर सकता है अथवा दूसरे पक्षकार को अनुबन्ध पूरा
करने के लिए बाध्य भी कर सकता है। इस प्रकार व्यर्थनीय अनुबन्ध पीड़ित पक्षकार की इच्छा पर व्यर्थ या
वैध दोनों ही हो सकता है। उत्पीड़न (Coercion), अनुचित प्रभाव (Undue-influence), कपट (Fraud) या मिथ्या
वर्णन (Misrepresentation) द्वारा दूसरे पक्षकार की सहमति प्राप्त करने पर ठहराव उस पक्षकार की इच्छा पर
व्यर्थनीय होता है जिस पक्षकार की सहमति इस प्रकार प्राप्त की गई है। उदाहरणार्थ यदि अजय, विजय को
पिस्तौल दिखाकर उसका स्कू टर जिसका उचित मूल्य 6,000 ₹ हैं, के वल 1,000 ₹ देकर क्रय कर लेता है। यहाँ
पर विजय पीडित पक्षकार है एवं अजय दोषी पक्षकार है। विजय की सहमति बल प्रयोग द्वारा प्राप्त की गई है,
अत: अनुबन्ध विजय की इच्छा पर व्यर्थनीय होगा।