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अनुबन्ध : परिभाषा एवं लक्षण

(Contract : Definition and Essentials)


अनुबन्ध का अर्थ एवं परिभाषा
(Meaning and Definition of Contract)
अनुबन्ध’ शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘Contract’ शब्द का हिन्दी अनुवाद है। अंग्रेजी भाषा के ‘Contract’ शब्द की
उत्पत्ति लेटिन भाषा के Contractum’ शब्द से हुई है जिसका अर्थ साथ मिलने से है। इस दृष्टिकोण से दो या
दो से अधिक व्यक्तियों को किसी ठहराव के लिए मिलाना ही अनुबन्ध है। इसे हिन्दी में ‘संविदा’ या ‘करार’ भी
कहते हैं। कानूनी रूप में दो या दो से अधिक पक्षकारों के बीच किए गए वे ठहराव जो राजनियम द्वारा
प्रवर्तनीय हैं, अनुबन्ध कहलाते हैं अर्थात् प्रत्येक ऐसा ठहराव जो पक्षकारों के बीच वैधानिक दायित्व एवं
अधिकार की उत्पत्ति करता हो, अनुबन्ध कहलाता है।
अनुबन्ध की मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित प्रकार हैं
सालमंड (Salmond) के अनुसार, “अनुबन्ध एक ऐसा ठहराव है जो पक्षकारों के मध्य दायित्व उत्पन्न करता है
और उन दायित्वो की व्याख्या करता है।”
सर विलियम एन्सन के अनुसार, “अनुबन्ध दो या अधिक व्यक्तियों के बीच किया गया एक ऐसा ठहराव है
जो कि राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होता है तथा जिसके द्वारा एक या अधिक पक्षकार दूसरे पक्षकार अथवा
पक्षकारों के विरुद्ध किसी कार्य को करने या न करने के लिए कु छ अधिकार प्राप्त कर लेते हैं। 2
सर फ्रे डरिक पोलाक (Sir Fredric Pollock) के अनुसार, “प्रत्येक ठहराव तथा वचन जो राजनियम द्वारा
प्रवर्तनीय हो, अनुबन्ध कहलाता है।

भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 2 (एच) के अनुसार, “ऐसा ठहराव जो राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होता
है, अनुबन्ध कहलाता है।
ब्लैकस्टोन के अनुसार, “अनुबन्ध किसी विशेष कार्य को करने अथवा नहीं करने का ठहराव है, जिसमें पर्याप्त
प्रतिफल होता है।”
उपरोक्त सभी परिभाषाओं में सर फ्रे डरिक पोलाक की परिभाषा अधिक उपयुक्त एवं वैज्ञानिक है तथा भारतीय
अनुबन्ध अधिनियम में दी गई परिभाषा से मिलती-जुलती है। उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर अनुबन्ध के
लिए निम्नलिखित बातों का होना आवश्यक है
1 पक्षकारों के मध्य ठहराव का होना-अनुबन्ध होने के लिए ठहराव का होना आवश्यक है। जब दो या दो से
अधिक व्यक्ति किसी कार्य को करने या न करने के लिए वचनबद्ध हों तो उसे ठहराव कहते हैं। सरल शब्दों में
ठहराव की उत्पत्ति एक पक्षकार द्वारा प्रस्ताव करने और दूसरे पक्षकार द्वारा उसकी स्वीकृ ति करने पर होती
है। अत: ठहराव के लिए कम से कम दो पक्षकारों का होना आवश्यक है। उदाहरणार्थ, आशीष विपुल के समक्ष
अपना स्कू टर 5000 ₹ में बेचने का प्रस्ताव रखता है और विपल इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है। विपुल
द्वारा स्वीकृ ति देने पर आशीष एवं विपुल के बीच एक ठहराव हो जाता है।
2. ठहराव द्वारा वैधानिक उत्तरदायित्व का उत्पन्न होना-अनुबन्ध के लिए यह आवश्यक है कि राव
वैधानिक सम्बन्ध स्थापित करने की इच्छा से किया गया हो जिससे पक्षकारों के बीच वैधानिक टायित्व उत्पन्न
हो। ऐसे दायित्व जिनको पूरा करने के लिए दूसरे पक्षकारों को कानूनी रूप से बाध्य किया जा सकता है,
वैधानिक उत्तरदायित्व कहते हैं। सामाजिक, राजनैतिक या अन्य किसी प्रकार के ठहराव जिनमें पक्षकारों का
इरादा किसी प्रकार का वैधानिक उत्तरदायित्व उत्पन्न करने का नहीं होता, उन्हें अनुबन्ध नहीं कह सकते। कहीं
पर घूमने जाने, सिनेमा देखने जाने अथवा दावत में सम्मिलित होने के लिए दी गई सहमति से किसी प्रकार के
वैधानिक दायित्व उत्पन्न नहीं होते और इसलिए ऐसे ठहराव कभी भी अनुबन्ध का रूप धारण नहीं कर सकते।
3. वैधानिक दायित्व का राजनियम (कानून) द्वारा प्रवर्तनीय होना-कोई ठहराव तभी अनुबन्ध का रूप लेता
है जब वह कानून द्वारा प्रवर्तनीय होता है अर्थात् यदि कोई पक्ष अपने वचन को पूरा नहीं करता है तो दूसरा
पक्ष उसे न्यायालय की सहायता से वचन को पूरा करने के लिए बाध्य कर सकता है। सरल शब्दों में, कोई
ठहराव राजनियम द्वारा तभी प्रवर्तनीय माना जाता है जब पीड़ित पक्षकार दूसरे पक्ष के विरुद्ध (उस पक्ष के
विरुद्ध जिसने अपने दिए हुए वचन को पूरा नहीं किया है) कानूनी कार्यवाही कर सकता है। प्रश्न यह है कि कौन
से ठहराव कानून द्वारा प्रवर्तनीय कराए जा सकते हैं। ठहराव के राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होने के लिए
आवश्यक बातों का उल्लेख इस अधिनियम की धारा 10 में किया गया है जो इस प्रकार है
“समस्त ठहराव अनुबन्ध हैं, यदि वे उन पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति से किए जाते हैं जो अनुबन्ध करने की
क्षमता रखते हैं, वैधानिक प्रतिफल के लिए तथा वैधानिक उद्देश्य से किए जाते हैं और इस अधिनियम के द्वारा
स्पष्ट रूप से व्यर्थ घोषित नहीं कर दिए गए हैं। इसके अतिरिक्त ठहराव लिखित हो अथवा साक्षी द्वारा
प्रमाणित हो अथवा रजिस्टर्ड हो यदि भारत में प्रचलित किसी विशेष राजनियम द्वारा ऐसा होना अनिवार्य हो।”

वैध अनबन्ध के आवश्यक लक्षण


(Essentials of a Valid Contract)
भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 2 (एच) एवं धारा 10 में वैध अनुबन्ध के लक्षणों के सम्बन्ध में
बताया गया है। धारा 10 के अनुसार “सभी ठहराव अनुबन्ध हैं यदि वे उन पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति से
किए जाते हैं जिनमें अनुबन्ध करने की क्षमता है, जो वैधानिक प्रतिफल एवं उद्देश्य से किए जाते हैं और जो
इस अधिनियम द्वारा स्पष्ट रूप से व्यर्थ घोषित नहीं किए गए हों।” साथ ही इस धारा में यह भी लिखा गया
है कि यदि भारत में प्रचलित किसी राजनियम द्वारा अनिवार्य हो तो ठहराव लिखित, साक्षियों द्वारा प्रमाणित
तथा रजिस्टर्ड भी होना चाहिए। इस प्रकार स्पष्ट है कि एक वैध अनुबन्ध में निम्नलिखित लक्षणों का होना
आवश्यक है। यदि किसी ठहराव में इन लक्षणों में से किसी का भी अभाव होगा, तो वह एक वैध अनुबन्ध नहीं
होगा
1 दो या दो से अधिक पक्षकारों का होना (Minimum Two and More Parties)-किसी भी वैध अनुबन्ध के
निर्माण के लिये कम से कम दो पक्षकारों का होना आवश्यक है क्योंकि एक पक्षकार प्रस्तावक या वचनदाता
तथा दूसरा प्रस्ताविति या वचनग्रहीता होता है। इनमें एक पक्षकार किसी कार्य को करने अथवा न करने के
लिये प्रस्ताव करता है और दूसरा पक्षकार उस पर अपनी सहमति व्यक्त करता है।
इस सम्बन्ध में फौकनर बनाम लोवे के विवाद में विद्वान न्यायाधीश ने कहा, “कोई भी व्यक्ति स्वयं अपने ही
अधिकारों के सम्बन्ध में अपने ही प्रति उत्तरदायी नहीं हो सकता है।”
अत: अनुबन्ध के निर्माण के लिये दो पक्षकारों अर्थात् एक प्रस्ताव करने वाला तथा दूसरा उसको स्वीकार करने
वाला अवश्य होना चाहिये। अतः जब प्रस्तावग्रहीता उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है तो वैध अनुबन्ध का
निर्माण होता है।
2. ठहराव का होना (Agreement)-एक वैध अनुबन्ध के लिए ठहराव का होना आवश्यक है। ठहराव के लिए
वैध प्रस्ताव और वैध स्वीकृ ति का होना आवश्यक है अर्थात् प्रस्ताव एवं स्वीकृ ति भारतीय अनुबन्ध अधिनियम
में प्रस्ताव एवं स्वीकृ ति के सम्बन्ध में दिए गए नियमों के अनुसार होने चाहिए। इस सम्बन्ध में यह
महत्त्वपूर्ण है कि, दोनों पक्षकारों द्वारा एक ही वस्तु के लिये एक समय, एक साथ प्रस्ताव रखने पर किसी भी
प्रकार के ठहराव का निर्माण नहीं हो सकता है क्योकि ये प्रति प्रस्ताव कहलाते हैं, जिनसे ठहराव का निर्माण
नहीं हो सकता है। इसके अतिरिक्त पक्षकारों के बीच किया। वाला ठहराव निश्चित प्रकृ ति का एवं निष्पादन
योग्य होना चाहिये।
उदाहरण 1-सुरेखा, सरिता को अपना ब्यूटी पार्लर 60,000 ₹ में बेचने का प्रस्ताव सरिता इस प्रस्ताव को
स्वीकार कर लेती है। यहाँ सुरेखा व सरिता के बीच ठहराव सारता के बीच ठहराव है क्योंकि इसमें सरिता ब्यूटी
पार्लर के बदले सरेखा को 60.000 ₹ और सुरेखा को ब्यूटी पार्लर के बदले 60,000₹ प्राप्त होते हैं। ये दोनों ही
वचन एक-दूसरे के लिये प्रतिफल हैं।
उदाहरण 2-X, Y को 50,000 ₹ में अपना घोड़ा बेचने का प्रस्ताव करता है। उस घोडे को 25,000 ₹ में खरीदने
की स्वीकृ ति प्रदान करता है। यह स्वीकृ ति नहीं, स्थानापन्न प्रस्ताव है। अत: किसी। भी प्रकार से ठहराव का
निर्माण नहीं हुआ है।
3. वैधानिक सम्बन्ध स्थापित करने की इच्छा (Intention to Create Legal Relations) ठहराव में दोनों
पक्षकारों की इच्छा वैधानिक उत्तरदायित्व उत्पन्न करने की होनी चाहिए अर्थात ठहराव वैधानिक (कानूनी) रूप
से दोनों पक्षकारों पर लाग होना चाहिए। यदि पक्षकारों की इच्छा ठहराव द्वारा कोई सामाजिक या राजनैतिक
सम्बन्ध स्थापित करने की है तो यह अनुबन्ध नहीं होगा। उदाहरण के लिए राम, श्याम को अपने घर पर
भोजन के लिए आमंत्रित करता है और श्याम इस पर अपनी स्वीकृ ति दे देता है परन्तु किसी आवश्यक कार्य में
व्यस्त होने के कारण श्याम भोजन पर नहीं आता है अथवा राम भोजन की व्यवस्था नहीं कर पाता है तो
पीड़ित पक्षकार, दूसरे के विरुद्ध कोई कानूनी कार्यवाही नहीं कर सकता क्योंकि उक्त ठहराव में पक्षकारों के मध्य
कोई वैधानिक उत्तरदायित्व उत्पन्न नहीं होता।
इस सम्बन्ध में डारलिम्पल बनाम डारलिम्पल के मामले में निर्णय देते हुए लार्ड स्टोवेल (Lord Stowell) ने
लिखा है कि, “अनुबन्ध अवकाश के समय का खेलकू द नहीं होना चाहिये। यह के वल आनन्द एवं हँसी-मजाक का
मामला नहीं होना चाहिये, जिनके परिणामों की इच्छा पक्षकारों द्वारा कभी नहीं की गई हो।”
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि अनुबन्ध का निर्माण करते समय पक्षकारों के मस्तिष्क में वैधानिक
सम्बन्ध स्थापित करने की इच्छा, मत, इरादा या उद्देश्य का होना अनिवार्य है, जिसके परिणामस्वरुप पारस्परिक
रुप से अधिकार एवं दायित्व की उत्पत्ति एवं वैधानिक बाध्यता हो।
इस सम्बन्ध में यह भी महत्त्वपूर्ण है कि, यदि किसी व्यापारिक सौदे या ठहराव करने का उद्देश्य वैधानिक
सम्बन्धों को मान्यता न दिलाना हो तो ऐसे ठहराव अनुबन्ध नहीं बन सकते हैं। इस सम्बन्ध में रोज एण्ड
फ्रें क कम्पनी बनाम काम्पटन ब्रदर्स का मामला उल्लेखनीय है, इस ठहराव में पक्षकारों ने लिखा है कि, “हम
पारस्परिक रुप से यह ठहराव औपचारिक रुप से नहीं लिख रहे हैं, न ही यह स्मरण पत्र वैधानिक एवं
औपचारिक रुप से लिखा जा रहा है, साथ ही यह ठहराव किसी भी न्यायालय के वैधानिक क्षेत्राधिकार में नहीं
आयेगा।
न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि इस ठहराव का उद्देश्य वैधानिक बाध्यता को लागू करना नहीं है व
पक्षकारों की इच्छा वैधानिक सम्बन्ध स्थापित करने की नहीं है।
4. पक्षकारों में अनुबन्ध करने की क्षमता (Contractual Capacity to Parties)-‘अनुबन्ध होने के लिए
आवश्यक है कि ठहराव ऐसे व्यक्तियों द्वारा किया जाना चाहिए जो वैधानिक दृष्टि से अनुबन्ध करने की
क्षमता रखते हों। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 11 के अनुसार वही व्यक्ति अनुबन्ध करने की क्षमता
रखते हैं जो–(i) देश में प्रचलित राजनियम के अनुसार वयस्क (Major) हैं, (ii) स्वस्थ मस्तिष्क (Sound Mind) के
हैं तथा (iii) किसी अन्य राजनियम द्वारा (जिसके अधीन वे हैं) अनुबन्ध करने के अयोग्य घोषित नहीं हैं।
उदाहरणस्वरूप-विदेशी राजदूत, विदेशी शत्र, दिवालिया, कै दी आदि व्यक्ति अनुबन्ध करने के लिए अयोग्य माने
गए हैं।
5. पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति (Free Consent of the Parties)-वैध अनुबन्ध के निर्माण के लिए
आवश्यक है कि पक्षकारों के मध्य सहमति होनी चाहिए और वह सहमति स्वतन्त्र भी होनी चाहिए। दो या दो
से अधिक व्यक्तियों की सहमति उसी समय मानी जाती है जबकि वे एक बात पर एक ही अर्थ में सहमत हों
एवं ‘सहमति’ के वल उसी दशा में स्वतन्त्र कही जा सकती है, जबकि वह अपनी मर्जी से तथा बिना किसी दबाव
के दी गई हो। यदि सहमति बल प्रयोग (Coercion), अनुचित प्रभाव (Undue Influence), मिथ्यावर्णन
(Misrepresentation) अथवा कपट द्वारा प्राप्त की गई है तो सहमति स्वतन्त्र नहीं मानी जाएगी। ऐसी दशा में
पीड़ित पक्षकार की इच्छा पर अनुबन्ध रद्द किया जा सकता है। उदाहरण के लिये अजय, विजय को उसके बच्चे
की हत्या की धमकी देकर उसके मकान जिसकी वास्तविक कीमत 50 लाख र है, को 8 लाख ₹ में खरीदने के
अनुबन्ध पर हस्ताक्षर करवा लेता है। इसमें विजय की सहमति उत्पीड़न से प्रभावित है, अतः अनुबन्ध व्यर्थ
माना जाएगा।
6. न्यायोचित प्रतिफल (Lawful Consideration)-ठहराव को कानून द्वारा प्रवर्तनीय कराने के लिए प्रतिफल
का होना अत्यन्त आवश्यक है। साधारण शब्दों में प्रतिफल का अभिप्राय ‘बदले में कु छ व्यावसायिक नियामक
ढाँचा प्राप्त करने से है।’ अत: यह आवश्यक है कि ठहराव करने वाले दोनों पक्षकार ‘कछ प्रदान करें तथा ‘कछ
प्राप्त करें।’ प्रतिफल के लिए यह आवश्यक नहीं कि यह नकद या वस्तु के रूप में प्रतिफल है। प्रतिफल भूत,
वर्तमान अथवा भविष्य से सम्बंधित हो सकता है लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि वह सही एवं वैधानिक हो।
प्रतिफल इसलिए जरूरी माना जाता है जिससे कि पक्षकारों के मध्य वैधानिक सम्बन्ध स्थापित करने की इच्छा
का आभास हो। उदाहरणार्थ, हरि अपना स्कू टर कृ ष्ण को 5,000 ₹ में बेचने का ठहराव करता है तो हरि के लिए
5,000₹ प्रतिफल है तथा कृ ष्ण के लिए स्कू टर प्रतिफल है।
7. वैधानिक उद्देश्य (Lawful object)-ठहराव का उद्देश्य वैधानिक होना चाहिए। ऐसा न होने पर वैध अनुबन्ध
नहीं बन सके गा। सरल शब्दों में, ठहराव का उद्देश्य अवैधानिक (Illegal), अनैतिक (Immoral) तथा लोकनीति के
विरुद्ध नहीं होना चाहिए। अनुबन्ध का उद्देश्य किसी अन्य व्यक्ति अथवा उसकी सम्पत्ति को हानि पहुँचाना भी
नहीं होना चाहिए। उदाहरणार्थ, अजय विजय को संजय की हत्या के बदले एक लाख रुपये देने का ठहराव करता
है तो यह वैध अनुबन्ध नहीं कहा जाएगा क्योंकि उक्त ठहराव का उद्देश्य अवैधानिक है।
8. ठहराव का स्पष्ट रूप से व्यर्थ घोषित न होना (Agreement Expressly not Declared Void)-वैध
अनुबन्ध के लिए यह भी आवश्यक है कि ठहराव ऐसा नहीं होना चाहिए जो इस अधिनियम के द्वारा स्पष्ट
रूप से व्यर्थ घोषित किया गया हो। जैसे शर्त या बाजी के ठहराव, व्यापार में रुकावट डालने वाले ठहराव, विवाह
में रुकावट डालने वाला ठहराव आदि ठहरावों को कानून द्वारा प्रवर्तित नहीं कराया जा सकता क्योंकि इन्हें
अनुबन्ध अधिनियम के अन्तर्गत स्पष्ट रूप से व्यर्थ घोषित किया गया
9. ठहराव का लिखित, प्रमाणित व रजिस्टर्ड होना (Agreement should be written and Registered, if
Necessary)-यह अनिवार्य नहीं है कि प्रत्येक ठहराव लिखित या साक्षी (गवाह) द्वारा प्रमाणित या रजिस्टर्ड
हो। ऐसा होना के वल उन्हीं ठहरावों के सम्बन्ध में आवश्यक है जहाँ भारत में प्रचलित किसी विशेष राजनियम
द्वारा ऐसा करने का आदेश हो। उदाहरण के लिए बीमे के अनुबन्ध, अवधि वर्जित ऋण के भुगतान का ठहराव,
विनिमय साध्य विलेख, तीन वर्ष से अधिक के पटटे के ठहराव एवं पंच निर्णय समझौते आदि का लिखित होना
आवश्यक है। अचल सम्पत्तियों की बिक्री एवं बंधक के अनुबन्धों का सम्पत्ति हस्तांतरण अधिनियम
(Transfer of Property Act) के अनुसार लिखित एवं रजिस्टर्ड होना आवश्यक है। वैसे भी अनुबन्ध का लिखित
होना ही अच्छा माना दशाओं में मौखिक अनुबन्ध की विद्यमानता को सिद्ध करना कठिन हो जाता है।

“सभी अनुबन्ध ठहराव होते हैं, परन्तु सभी ठहराव अनुबन्ध नहीं होते“
(All Contracts are Agreement, but all Agreements are not
Contracts)
यह कथन सत्य है कि समस्त अनुबन्ध ठहराव होते हैं किन्तु समस्त ठहराव अनुबन्ध नहीं होते। यह कथन
अनुबन्ध और ठहराव की प्रकृ ति में अन्तर करने का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आधार है। यह कथन अनुबन्ध और
ठहराव के क्षेत्र की ओर भी संके त करता है। जैसा कि हम जानते हैं कि कोई ठहराव अनुबन्ध तभी बन सकता
है जब इसके कारण पक्षकारों में कोई वैधानिक सम्बन्ध उत्पन्न होता है। यदि इसके कारण पक्षकारों में कोई
वैधानिक सम्बन्ध उत्पन्न नहीं होता तो के वल ठहराव होता है, अनुबन्ध नहीं। इसी कारण यह कहा जाता है कि
अनुबन्ध (Contract) की अपेक्षा ठहराव (Agreement) का क्षेत्र कहीं अधिक व्यापक है। ठहराव किसी भी प्रकार
का हो सकता है जैसे धार्मिक (Religious), सामाजिक (Social), राजनैतिक (Political), नैतिक (Moral) आदि।
जैसे-किसी मित्र के साथ पिक्चर जाने या पिकनिक मनाने का ठहराव या उसके साथ भोजन करने का ठहराव
अनुबन्ध नहीं है क्योंकि इससे पक्षकारों में वैधानिक सम्बन्ध उत्पन्न नहीं होता जिसके कारण से वे राजनियम
द्वारा प्रर्वतनीय नहीं होते। इस तरह के ठहराव जब कु छ व्यक्ति आपस में करते हैं तो उनका उद्देश्य कभी भी
यह नहीं होता कि दिए गए वचन को न निभाए जाने पर वह दूसरे पक्षकार पर कोई काननी कार्यवाही करेंगे।
उपरोक्त कथन को और अधिक स्पष्ट व्याख्या के लिए इस कथन को दो भागों में बाँटा जा सकता है:
(I) समस्त अनुबन्ध ठहराव होते हैं तथा (II) समस्त ठहराव अनबन्ध नहीं होते।
(I समस्त अनुबन्ध ठहराव होते हैं (All Contracts are agreement) अनुबन्ध की परिभाषाओं के विश्लेषण
में कहा गया था कि अनबन्ध में दो तत्वों का होना अत्यन्त आवश्यक यदी तत्व ठहराव तथा वैधानिक दायित्व
के रुप में होते हैं। भारतीय अनबन्ध अधिनियम का धारा के अनुसार, “जब वह व्यक्ति जिसके सम्मुख प्रस्ताव
रखा जाता है. उस पर अपनी सहमति प्रकट कर देता है तो कहा जाता है की प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता
है। कहलाता हा इसी प्रकार भारतीय अनबन्ध अधिनियम की धारा 2(e) के अनुसार, वचन। तथा वचनों का समूह
जो एक दूसरे के लिए प्रतिफल हो, ठहराव कहलाता है। इसक आतारक ठहराव पक्षकारों में वैधानिक दायित्व
उत्पन्न करता है तो वह अनुबन्ध कहलाता है
इसका अर्थ यह है कि वही ठहराव अनुबन्ध होता है जिसे राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय करवाया जा सकता है।
दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि जहाँ अनुबन्ध होगा वहाँ ठहराव अवश्य ही होगा तथा ठहराव के
बिना अनुबन्ध हो ही नहीं सकता। जिस प्रकार यह कहा जाता है कि जहाँ धुआँ होगा, वहा आग अवश्य होगी,
बिना आग के धुआँ हो ही नहीं सकता, उसी प्रकार ठहराव के बिना अनुबन्ध का जन्म ही नहीं हो सकता। जिस
तरह से आग ही धुएँ को जन्म देती है, उसी प्रकार ठहराव अनुबन्ध को जन्म देता है। इसलिए यह कहा जाता
है कि सभी अनुबन्ध ठहराव होते हैं। अत: यह कथन पूर्ण रुप से सही है कि सभी अनुबन्ध ठहराव होते हैं
परन्तु उसके लिए अनुबन्ध के अन्य आवश्यक लक्षण जैसे पक्षकारों में अनुबन्ध करने की क्षमता, स्वतन्त्र
सहमति, प्रतिफल तथा वैधानिक उद्देश्य उसमें विद्यमान होने चाहिएँ। इस कथन की सत्यता सालमण्ड
(salmond) द्वारा दिए गए कथन से भी सिद्ध होती है। सालमण्ड (Salmond) के अनुसार, “अनुबन्ध अधिनियम
के वल उन्हीं ठहरावों का अधिनियम है जो दायित्व उत्पन्न करते हैं तथा उन्हीं दायित्वों का अधिनियम है,
जिनका स्त्रोत ठहराव होता है।”
(II) समस्त ठहराव अनुबन्ध नहीं होते (All agreements are not contract)- अनुबन्ध की विभिन्न
परिभाषाओं के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि के वल वही ठहराव अनुबन्ध होते हैं जिन्हें राजनियम द्वारा
प्रवर्तनीय करवाया जा सकता है। यदि किसी ठहराव को राजनियम द्वारा प्रवर्तित नहीं करवाया जा सकता तो
वह ठहराव सदैव के वल ठहराव ही बना रहता है, अनुबन्ध कभी भी नहीं बनता है। जैसे सामाजिक, राजनैतिक,
धार्मिक, नैतिक ठहराव अनुबन्ध नहीं कहे जा सकते क्योंकि वे राजनियम द्वारा प्रवर्तित नहीं करवाये जा सकते
हैं। इसी कारण से सिनेमा जाने के ठहराव, घूमने के लिए ठहराव अथवा साथ खाना खाने के ठहराव के वल
ठहराव ही होते हैं क्योंकि वे वैधानिक दायित्व उत्पन्न नहीं करते।
ठहराव के लिये वैधानिक उत्तरदायित्व (Legal Obligation) का होना भी आवश्यक नहीं है। गैर कानूनी
कार्यों के लिए भी ठहराव हो सकते हैं। ठहराव का क्षेत्र विस्तृत होने के कारण धार्मिक (Religious), सांस्कृ तिक
(Cultural), सामाजिक (Social) तथा नैतिक (Moral) उत्तरदायित्व भी ठहराव के अन्तर्गत आ जाते हैं। वैधानिक
दृष्टि से सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक अथवा राजनीतिक उत्तरदायित्वों से सम्बन्धित ठहराव अनुबन्ध का रूप
धारण नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसे ठहरावों से वैधानिक उत्तरदायित्व उत्पन्न नहीं होता और इन्हें राजनियम
(कानून) द्वारा प्रवर्तनीय नहीं कराया जा सकता। ठहराव के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह राजनियम द्वारा
प्रवर्तनीय हो। वस्तुत: ठहराव होने के लिए अनुबन्ध का होना अनिवार्य नहीं है। इसीलिए यह कहा जाता है कि
समस्त ठहराव अनुबन्ध नहीं होते अर्थात् कोई ठहराव, अनुबन्ध हो भी सकता है और नहीं भी। यदि किसी
ठहराव में वैध अनुबन्ध के सभी लक्षण विद्यमान हैं तो वह ठहराव अनुबन्ध कहलाता है अन्यथा नहीं। इस
सम्बन्ध में धारा 10 में स्पष्ट रूप से वर्णित है कि “वे सभी ठहराव अनुबन्ध होते हैं, यदि वे ऐसे पक्षकारों की
स्वतन्त्र सहमति से किये गए हैं जो कि अनुबन्ध करने की योग्यता रखते हैं तथा जो वैधानिक प्रतिफल तथा
उद्देश्य से किये गए हों तथा इस अधिनियम के अन्तर्गत स्पष्ट रूप से व्यर्थ घोषित न हों। यदि किसी प्रचलित
राजनियम द्वारा आवश्यक हो तो वह ठहराव लिखित, साक्षी (गवाह) द्वारा प्रमाणित और पंजीकत होना चाहिए।”
अतः स्पष्ट है कि वे ही ठहराव अनुबन्ध बन पाते हैं जिनमें भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 10 में
बताए गए लक्षण विद्यमान हों और यदि उपरोक्त लक्षण किसी ठहराव में विद्यमान नहीं हैं तो वह ठहराव
के वल ठहराव ही रहेगा। निम्नलिखित कु छ ऐसे ठहराव हैं जो कि के वल ठहराव ही रहते हैं, अनुबन्ध नहीं होते हैं
(I) सामाजिक ठहराव–सामाजिक ठहराव से आशय ऐसे ठहराव से है जो कि पक्षकारों के मध्य सामाजिक
सम्बन्धों को स्थापना एवं उनके विस्तार के लिए किए जाते हैं और इस प्रकार उनका टेण्य उनके भंग होने पर
उन्ह वधानिक रुप से क्रियान्वित कराने का नहीं होता। अतएव ऐसे ठहराव के वल ठहराव ही रहते हैं, अ पदाव
ही रहते हैं, अनुबन्ध नहीं बन पाते हैं। उदाहरण के लिए, ‘अ’, ‘ब’ को अपने यहाँ भोजन करता है जिसे वह
स्वीकार कर लेता है। किन्तु किसी कारणवश ‘ब’ अ के यहाँ नियामक ढाँचा निर्धारित समय पर नहीं पहुंच पाता
है जिसके कारण ‘अ’ का सारा सामान व्यर्थ में ही नष्ट होता है। यहाँ पर ‘अ’, ‘ब’ के प्रति वैधानिक कार्यवाही
नहीं कर सकता है क्योंकि यह एक सामाजिक ठहराव था जिसका उद्देश्य उसे वैधानिक रुप से क्रियान्वित कराने
का नहीं था।
(2) पारिवारिक ठहराव–परिवार में रहने वाले सदस्यों के मध्य पारिवारिक विषयों के लिए किये। गये ठहराव
पारिवारिक ठहराव कहलाते हैं। ये भी के वल ठहराव ही रहते हैं, अनुबन्ध नहीं बन पाते हैं। क्योंकि इनका उद्देश्य
इनके भंग होने की दशा में उन्हें वैधानिक रुप से क्रियान्वित कराने का नहीं होता है।
इस सम्बन्ध में श्रीमती बालफोर बनाम श्री बालफोर (Mrs. Balfour Vs. Mr. Balfour) का प्रकरण भी
उल्लेखनीय है। श्री बालफोर (प्रतिवादी) लंका में नौकरी करते थे। छु ट्टियों में वह अपनी पत्नी श्रीमती बालफोर
(वादी) को लेने इंग्लैंड गए। पत्नी के अस्वस्थ होने के कारण वे प्रेम व स्नेहवश उनको 30 पौंड प्रतिमाह भेजने
का वायदा करके लंका लौट आए। श्री बालफोर अपने वायदे के अनुसार राशि अपनी पत्नी को नहीं भेज सके ,
अत: श्रीमती बालफोर ने उक्त धनराशि प्राप्त करने के लिए अपने पति पर मुकदमा दायर कर दिया। न्यायालय
ने यह निर्णय देते हुए कि इस ठहराव द्वारा वैधानिक उत्तरदायित्व उत्पन्न नहीं हुआ, मुकद्दमा रद्द कर दिया।
विशेष-वादी उसे कहते हैं जो मुकदमा दायर करता है एवं जिस पर मुकदमा दायर किया जाता है, उसे प्रतिवादी
कहते हैं।
(3) अनुबन्ध करने की क्षमता नहीं रखने वाले पक्षकारों के द्वारा किये गये ठहराव-वे ठहराव जोकि अनुबन्ध
करने की क्षमता नहीं रखने वाले पक्षकारों के द्वारा किये जाते हैं के वल ठहराव ही रहते हैं, अनुबन्ध नहीं बन
पाते हैं। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 11 के अनुसार (1) अवयस्क, (i) अस्वस्थ मस्तिष्क वाले व्यक्ति,
तथा (iii) राजनियम द्वारा अनुबन्ध करने के लिए अयोग्य घोषित व्यक्ति अनबन्ध करने की क्षमता नहीं रखते
हैं। अतएव ऐसे व्यक्तियों द्वारा किये गये ठहराव, के वल ठहराव ही रहते हैं अनुबन्ध का रुप धारण नहीं करते
हैं क्योंकि उन्हें न्यायालय द्वारा क्रियान्वित नहीं कराया जा सकता है।
(4) स्वतन्त्र सहमति के अभाव में किये गये ठहराव-एक वैध ठहराव होने के लिए पक्षकारों के मध्य स्वतन्त्र
सहमति का होना परम आवश्यक होता है। यदि किसी पक्षकार ने पीड़ित पक्षकार से सहमति (i) उत्पीड़न, (ii)
अनुचित प्रभाव, (iii) कपट, (iv) मिथ्या वर्णन, अथवा (v) गलती के आधार पर प्राप्त की हो, तो यह सहमति
स्वतन्त्र नहीं कही जा सकती है। अतएव ऐसी सहमति के आधार पर किया गया ठहराव, के वल ठहराव ही रहता
है, अनुबन्ध का रुप धारण नहीं कर सकता है क्योंकि ऐसे ठहराव को वैधानिक रुप से क्रियान्वित नहीं कराया
सकता है।
(5) अवैधानिक उद्देश्य एवं प्रतिफल के ठहराव-जिन ठहरावों के उद्देश्य एवं प्रतिफल अवैधानिक होते हैं, वे ठहराव
के वल ठहराव ही बने रहते हैं। ऐसे ठहराव अनुबन्ध नहीं बन पाते हैं क्योंकि इनको राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय
नहीं कराया जा सकता है।
(6) स्पष्ट रूप से व्यर्थ घोषित ठहराव-ऐसे ठहराव जिन्हें अधिनियम द्वारा स्पष्ट रुप से व्यर्थ घोषित कर दिया
गया है के वल ठहराव ही रहते हैं, अनुबन्ध नहीं बन पाते हैं क्योंकि उन्हें राजनियम द्वारा प्रवर्तित नहीं कराया
जा सकता है। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम के अन्तर्गत कु छ ठहरावों को स्पष्ट रुप में व्यर्थ घोषित कर दिया
गया है, जैसे-(i) विवाह में रुकावट डालने का ठहराव, (ii) वैध व्यापार में रुकावट डालने का ठहराव, (iii) वैधानिक
कार्यवाही में रुकावट डालने वाला ठहराव, (iv) असम्भव कार्य करने का ठहराव, (v) अनिश्चित कार्य करने का
ठहराव, तथा (vi) बाजी का ठहराव।
(7) राजनीतिक ठहराव-राजनीति में भी कई बार ऐसे ठहराव करने पड़ते हैं जो के वल ठहराव ही रहते हैं, अनुबन्ध
का रुप धारण नहीं कर पाते हैं क्योंकि उनका उद्देश्य उन्हें वैधानिक रुप से क्रियान्वित कराने का नहीं होता है।
उदाहरण के लिए यदि किसी राज्य के मुख्यमन्त्री द्वारा किसी विधायक को मन्त्री पद देने का वचन दिया
जाता है और बाद में उक्त विधायक को मन्त्री पद नहीं दिया जाता है, तो यह ठहराव के वल राजनीतिक ठहराव
ही रहेगा, अनुबन्ध का रुप धारण नहीं कर सके गा क्योंकि उक्त विधायक मुख्यमन्त्री के विरुद्ध न्यायालय में
वाद प्रस्तुत नहीं कर सकता है।
(8) धार्मिक व नैतिक ठहराव–धार्मिक तथा नैतिक रुप में किये गये ठहराव भी के वल ठहराव ही होते हैं,
अनुबन्ध नहीं होते हैं, क्योंकि उनका उद्देश्य ठहराव भंग होने की दशा में उन्हें न्यायालय द्वारा प्रवर्तित कराने
का नहीं होता है। उदाहरण के लिए, यदि सेठ झलामल किसी मन्दिर के निर्माण के लिए। 10,000 ₹ देने का
वचन देते हैं किन्तु बाद में अपनी पत्नी के मना करने पर रुपया देने से इन्कार कर। दत है, तो यह ठहराव
के वल ठहराव ही रहेगा. अनबन्ध नहीं हो सकता क्योंकि उक्त धनराशि का वसूल करने के लिए सेठ झूलामल
पर न्यायालय में वाद प्रस्तत नहीं किया जा सकता है।

अनुबन्धों के प्रकार
(Kinds of Contracts)
भारताय अनुबन्ध अधिनियम के अनसार अनबन्धों के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं
1 वैध अनुबन्ध (Valid Contract)-वैध अनुबन्ध से आशय उस ठहराव से है जो राजनियम द्वारा प्रवतनीय
हो। अत: जिस किसी भी ठहराव को वैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त हो तथा कानुन द्वारा लागू करवाया जा
सकता हो, वह एक वैध अनवध कहलाता है। इसमें भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 10 में बताए गए
सभी आवश्यक तत्नों का होना भी आवश्यक है।
2. व्यर्थ या शून्य अनुबन्ध (Void Contract)-व्यर्थ अनुबन्ध वास्तव में अनुबन्ध नहीं होते क्योकि जो ‘व्यर्थ’
है उसे कानन द्वारा प्रवर्तित नहीं कराया जा सकता ओर जो ‘अनुबन्ध है वह कानून के द्वारा प्रवर्तित कराया
जा सकता है। अतः ये परस्पर विरोधी शब्द हैं। वस्तुत: व्यर्थ अनुबन्ध के स्थान पर व्यर्थ हो गए अनुबन्ध
(Contracts which have become void) कहना अधिक उचित होगा। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 2
(5) के अनुसार “एक अनुबन्ध जब कानून द्वारा प्रवर्तित नहीं रहता, उस समय व्यर्थ या शून्य हो जाता है जब
उसकी प्रवर्तनीयता समाप्त होती है।” सरल शब्दों में, ऐसा अनुबन्ध जो अनुबन्ध करते समय तो वैध होता है
परन्तु बाद में किन्हीं कारणों से कानून द्वारा अप्रवर्तनीय हो जाता है, व्यर्थ या शून्य अनुबन्ध कहलाता है।
व्यर्थ ठहराव एवं व्यर्थ अनुबन्ध में एक ही मुख्य अन्तर है कि व्यर्थ ठहराव आरम्भ से ही व्यर्थ होता है, जबकि
व्यर्थ अनुबन्ध प्रारम्भ में तो वैध होता है परन्तु बाद में किसी कारणवश व्यर्थ हो जाता है । क्योंकि जो ‘व्यर्थ’
है उसे कानून हा अतः ये परस्पर विरोधी शब्द का कहना अधिक उचित है
उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण-राजीव, संजीव को एक माह पश्चात् 50 बोरी चावल बेचने का अनुबन्ध करता है
परन्तु एक माह से पूर्व ही सरकार चावल के व्यापार पर प्रतिबन्ध लगा देती है जिसके कारण राजीव अपने
वचन का पालन नहीं कर सकता। इस स्थिति में अनुबन्ध ‘व्यर्थ हो गया’ माना जाएगा। इस प्रकार से व्यर्थ हो
गए अनुबन्ध के अंतर्गत अगर किसी पक्ष को कोई लाभ अथवा वस्तु प्राप्त हुई हो तो उसे वह लाभ या वस्तु
दूसरे पक्ष को लौटानी पड़ती है या मुआवजा देना पड़ता है। यह अनुबन्ध प्रारम्भ में वैध था, परन्तु बाद में
सरकारी प्रतिबन्ध के कारण व्यर्थ हो गया है। इसके विपरीत प्रतिफल रहित ठहराव या एक अवयस्क के साथ
किया गया ठहराव प्रारम्भ से ही व्यर्थ होता है जिसे कानून द्वारा प्रवर्तनीय नहीं कराया जा सकता।
3. व्यर्थनीय या शून्यकरणीय अनुबन्ध (Voidable Contract)-भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 2 (i)
के अनुसार, “ऐसा ठहराव जो किसी एक पक्षकार अथवा पक्षकारों की इच्छा पर कानून द्वारा प्रवर्तनीय है परन्तु
दूसरे पक्षकार अथवा पक्षकारों की इच्छा पर प्रवर्तनीय नहीं है, व्यर्थनीय अनुबन्ध कहलाता है।” व्यर्थनीय
अनुबन्ध में पीड़ित पक्षकार दोषी पक्षकार के विरुद्ध वैधानिक लाभ प्राप्त करता है। उसे यह अधिकार प्राप्त है
कि वह अनुबन्ध को अपनी इच्छा से व्यर्थ भी घोषित कर सकता है अथवा दूसरे पक्षकार को अनुबन्ध पूरा
करने के लिए बाध्य भी कर सकता है। इस प्रकार व्यर्थनीय अनुबन्ध पीड़ित पक्षकार की इच्छा पर व्यर्थ या
वैध दोनों ही हो सकता है। उत्पीड़न (Coercion), अनुचित प्रभाव (Undue-influence), कपट (Fraud) या मिथ्या
वर्णन (Misrepresentation) द्वारा दूसरे पक्षकार की सहमति प्राप्त करने पर ठहराव उस पक्षकार की इच्छा पर
व्यर्थनीय होता है जिस पक्षकार की सहमति इस प्रकार प्राप्त की गई है। उदाहरणार्थ यदि अजय, विजय को
पिस्तौल दिखाकर उसका स्कू टर जिसका उचित मूल्य 6,000 ₹ हैं, के वल 1,000 ₹ देकर क्रय कर लेता है। यहाँ
पर विजय पीडित पक्षकार है एवं अजय दोषी पक्षकार है। विजय की सहमति बल प्रयोग द्वारा प्राप्त की गई है,
अत: अनुबन्ध विजय की इच्छा पर व्यर्थनीय होगा।

व्यर्थ एवं व्यर्थनीय अनुबन्ध में अन्तर


(Difference between Void and Voidable Contract)
Contract Definition Essentials
4. अवैध अनुबन्ध (Illegal Contract)-अवैध अनुबन्ध से आशय उस ठहराव से है जो कि स्वयं तो व्यर्थ होता
ही है साथ में उसके समस्त समपाश्विक व्यवहार (Collateral Transactions) भी व्यर्थ होते हैं। एक ठहराव जो
कि लोक-नीति के विरुद्ध हो या दण्डनीय प्रकृ ति का हो अथवा अनैतिक हो, अवैध ठहराव कहलाता है। इस प्रकार
के अनुबन्धों की अधिनियमों में कोई मान्यता नहीं होती है. इसलिए ऐसे अनुबन्ध राजनियम द्वारा कार्यान्वित
नहीं कराए जा सकते हैं। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम में अवैध शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है वरन्
अवैधानिक अनुबन्ध शब्द का प्रयोग किया गया है। ये दोनों शब्द समान अर्थी ही माने जाते हैं। उदाहरण के
लिए ‘अ’, ‘ब’ से ‘स’ की पिटाई करने के लिए। कहता है और इस कार्य के लिए उसे 5000 ₹ देने का वचन देता
है। ‘ब’ “स’ की पिटाई कर देता है। और बाद में वह ‘अ’ से 5000 ₹ की माँग करता है। ‘अ’ उसे देने से इन्कार
कर देता है। यहाँ पर ‘ब’ ‘अ’ के विरुद्ध न्यायालय में वाद प्रस्तुत करके यह पैसा प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि
यह कार्य भारतीय दंड संहिता के विरुद्ध होने के कारण यह अनुबन्ध अवैध है।
5. अप्रवर्तनीय अनुबन्ध (Unforceable Contract)-अप्रवर्तनीय अनुबन्ध से आशय उन अनबन्धों से है
जिनमें यद्यपि एक वैध अनुबन्ध के सभी आवश्यक लक्षण पाए जाते हैं लेकिन उनमें कु छ वैधानिक तकनीकी
दोषों के कारण उन्हें प्रवर्तनीय नहीं कराया जा सकता है। ये तकनीकी दोष कई प्रकार के हो सकते हैं जैसे-
अनुबन्ध का लिखित न होना, उस पर पर्याप्त स्टाम्प का न लगा होना या अभिप्रमाणन न होना, ऋण का
अवधि वर्जित हो जाना आदि। यदि राजनियम आज्ञा प्रदान करे तो इन तकनीकी दोषों को दूर करने पर ऐसे
अनुबन्धों को प्रवर्तनीय कराया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी प्रपत्र पर जिसके अधीन कोई
अनुबन्ध किया गया है अपेक्षा से कम स्टाम्प लगी है तो वह अप्रवर्तनीय होगा। लेकिन यदि त्रुटि करने वाले
पक्षकार को निर्दिष्ट दण्ड का भगतान करने पर अपेक्षित स्टाम्प लगाने की अनुमति दे दी जाती है तो अनुबन्ध
प्रवर्तनीय हो जाता है।
6. निष्पादित अनुबन्ध (Executed Contract)-जब किसी अनुबन्ध के सभी पक्षका अपने-अपने दायित्व को
पूरा कर चुके होते हों और उसके पश्चात् कु छ करना शेष न हो तो यह निष्पादित अनुबन्ध कहलाता है।
उदाहरणार्थ-रमेश मोहन को एक रेडियो 300 ₹ में बेचता है। मोहन रेडियं प के मूल्य का भुगतान रमेश को कर
देता है। रमेश मोहन को रेडियो की सर्पदगी दे देता है। चूंकि दोने स पक्षकारों ने अपने-अपने दायित्वों का पूर्ण
रूपेण पालन कर दिया है इसलिए इसे निष्पादित अनुबन्ध कहेगे। ह
7. निष्पादनीय अनुबन्ध (Executory Contract)-जब किसी अनुबन्ध के एक अथवा दोनों ही. पक्षकारों ने
अपना दायित्व पूरा नहीं किया है, एवं भविष्य में अपने दायित्व को पूरा करेंगे, तो ऐसा अनुबन्ध निष्पादनीय
अनुबन्ध कहलाता है। यह निम्न दो प्रकार का होता है
(i) एकपक्षीय अनुबन्ध (Unilateral Contract)-ऐसे अनुबन्ध जिनके किसी एक पक्षकार द्वारा तो अपने
वचन या दायित्वों को क्रियान्वित कर दिया जाता है किं तु दूसरे पक्षकार द्वारा अपने वचन को पूरा किया जाना
शेष रहता है तो इसे एक पक्षीय अनबन्ध कहते हैं। उदाहरण-रमेश मोहन के लिए चित्र बनाने पर अपनी
सहमति देता है और प्रतिफल के रूप में मोहन रमेश को 500 ₹ का भुगतान कर . देता है। जबकि रमेश को
अभी चित्र बनाना शेष है तो यह एक पक्षीय अनुबन्ध होगा।
(ii) द्विपक्षीय अनुबन्ध (Bilateral Contracts)-द्विपक्षीय अनुबन्धों से आशय ऐसे अनुबन्धों से है जिसमें
अनुबन्ध से सम्बन्धित दोनों पक्षकारों द्वारा अपने-अपने वचनों को पूरा किया जाना शेष है। उदाहरणार्थ-रमेश,
मोहन के लिए एक चित्र बनाने का वचन देता है। मोहन, रमेश को चित्र के । प्रतिफलस्वरूप 500 ₹देने का
वचन देता है। परन्तु अभी तक न तो रमेश ने चित्र बनाया है और न मोहन ने 500₹ का भुगतान किया है
इसलिए इसे द्विपक्षीय अनुबन्ध कहेंगे।
8. स्पष्ट अनुबन्ध (Express Contract) भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 9 के अनुसार, जब अनुबन्ध
करने वाले पक्षकार स्पष्ट रुप से अर्थात् लिखित अथवा मौखिक शब्दों द्वारा प्रस्ताव एवं स्वीकृ ति के समय
अनुबन्ध की शर्तों, विषयवस्तु व अन्य बातों के सम्बन्ध में एक-दूसरे के समक्ष अपनी बात या विचार प्रस्तुत
करते है एवं पारस्परिक रुप से सहमति व्यक्त करते हैं, तो ऐसा अनुबन्ध स्पष्ट अनुबन्ध कहलाता है।
अत: इस प्रकार के अनुबन्धों में पक्षकार अनुबन्ध करते समय ही अनुबन्ध की शर्तों एवं विषयवस्तु के सम्बन्ध
में लिखित एवं मौखिक रुप से उनका स्पष्ट वर्णन कर देते हैं, जिससे पक्षकारों के मध्य अनुमान तथा
सम्भावना का कोई स्थान नहीं होता है। आज के आधुनिक व्यावसायिक परिवेश में पत्र लिखकर, फै क्स द्वारा
अथवा आमने-सामने या टेलीफोन पर मौखिक बातचीत द्वारा स्पष्ट अनुबन्ध किया जा सकता है।
उदाहरण-अशोक अपना मकान सरिता को 5 लाख ₹ में बेचने का प्रस्ताव पत्र द्वारा करता है और सरिता उस
पर अपनी सहमति भी पत्र द्वारा भेजती है, तो यह दोनों पक्षकारों के बीच स्पष्ट अनुबन्ध माना जायेगा।
9. गर्भित अनुबन्ध (Implied Contract)-गर्भित अनुबन्ध वह अनुबन्ध होता है, जो वचनदाता और वचनग्रहीता
के मध्य स्पष्ट रुप से लिखित अथवा मौखिक रुप से न हुआ हो, लेकिन पक्षकारों के आचरण, व्यवहार, अनुबन्ध
की बातें, पक्षकारों के विचार, उनके कार्य करने का ढंग, व्यापारिक रीति-रिवाज, वर्तमान दशा को देखकर अनुबन्ध
का होना मान लिया जाता है।
उदाहरण-रेखा हवामहल से आमेर जाने वाली बस में चढ़ती है। रेखा के बस में चढ़ने के आचरण से यह बस
मालिक के साथ गर्भित अनुबन्ध होगा। रेखा को इस अनुबन्ध के अन्तर्गत उसे अपने निर्धारित स्थान तक ले
जाने के लिये निर्धारित किराया, बस मालिक को देना पड़ेगा।
10. संयोगिक अनुबन्ध (Contingent Contract)-संयोगिक अनुबन्ध किसी अनिश्चित भावा । घटना के किसी
नियत समय में होने अथवा न होने पर ही निर्भर करते हैं और इस शर्त के पूरा होने पर। ही उन्हें राजनियम
द्वारा प्रवर्तित कराया जा सकता है।
भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 31 के अनुसार, “जब किसी कार्य को करने अथवा न करने का
अनुबन्ध किसी घटना के घटित होने अथवा न होने पर निर्भर करता है, तो उसे संयोगिक अनुबन्ध कहते हैं।”
उदाहरण–यनाइटेड इन्श्योरेन्स कम्पनी विमल जैन के मकान पर चोरी के खिलाफ बीमा करती है कम्पनी
द्वारा विमल को राशि देने का प्रश्न उसी दशा में उत्पन्न होगा. जबकि विमल के मकान में चोरी होना या न
होना संयोगिक घटना पर आधारित अनुबन्ध है ।
11. अर्द्ध अनुबन्ध (Quasi Contract) सामान्यतः अनुबन्ध के कारण पक्षकारों के मध्य पारस्परिक रुप से
अधिकार एवं दायित्व उत्पन्न होते हैं, लेकिन कु छ दायित्व ऐसे भी हैं, जो अनबन्ध सम्बन्धी नहीं होते हैं लेकिन
कानून द्वारा उन्हें मान लिया जाता है अर्थात् वास्तव में कोई अनुबन्ध नहीं। होता है लेकिन कानून की दृष्टि
में होता है।
अर्द्ध अनुबन्ध ऐसे अनुबन्ध होते हैं, जिनमें अनबन्ध के सभी आवश्यक लक्षण नहीं पाये जाते हैं, जैसे-प्रस्ताव
एवं स्वीकृ ति का न होना, प्रतिफल का न होना, पक्षकारों में अनुबन्ध करने की योग्यता का न होना आदि।
लेकिन पक्षकारों में न्याय स्थापित करने की दृष्टि से कानून उनको अनुबन्ध मान लेता है।“
अत: अर्द्ध अनुबन्ध एक ऐसा व्यवहार है, जिसमें पक्षकारों के मध्य किसी भी प्रकार का अनुबन्ध नहीं होता है
लेकिन अधिनियम के अनुसार उनके बीच सामान्य रुप से कु छ अधिकार तथा दायित्व उत्पन्न हो जाते हैं।
इसलिये भारतीय अनुबन्ध अधिनियम में उन्हें, “अनबन्ध के समान कु छ नाते” कहा जाता है।
उदाहरण-भारत गैस कम्पनी, X के यहाँ एक गैस सिलेण्डर भेजती है, परन्तु गलती से वह गैस सिलण्डेर Y के
यहाँ पहुँचा दिया जाता है, जो उसका प्रयोग कर लेते हैं, ऐसी स्थिति में गैस कम्पनी उसका मूल्य Y से प्राप्त
करने का अधिकार रखती है। यद्यपि गैस कम्पनी और Y के बीच अनुबन्ध नहीं हुआ, लेकिन कानून की दृष्टि
में यह उचित अनुबन्ध है।)

परीक्षा हेतु सम्भावित महत्त्वपूर्ण प्रश्न


(Expected Important Questions for Examination)
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
(Long Answer Questions)
1. अनुबन्ध क्या है? अनुबन्ध के आवश्यक तत्वों को समझाइए।
What is contract? Discuss essential elements of a contract.
2. “सभी अनुबन्ध ठहराव अनुबन्ध होते हैं परन्तु सभी ठहराव अनुबन्ध नहीं होते।” व्याख्या कीजिए।
“All contracts are agreements, but all agreements are not contracts.” Explain.
3. किसी ठहराव को प्रवर्तनीय मानने के लिए आप कै से परीक्षण करेंगे? स्पष्ट कीजिए।
How will you test that an agreement is enforceable? Discuss.
4. प्रस्ताव एवं स्वीकृ ति से पक्षकार तो समीप आ जाते हैं लेकिन वे वैधानिक सम्बन्ध स्थापित करने की इच्छा
रखते हैं यह आप कै से समझेंगे? तर्क प्रस्तुत कीजिए।
The parties come closer by an offer and its acceptance but how will you understand that they intend to
establish legal relationship? Explain with arguments.
5. अनुबन्ध किसे कहते हैं? संक्षेप में एक वेध अनुबन्ध के आवश्यक तत्वों को समझाइए।
What is a contract? Explain in brief the essential elements of a valid contract.
6. एक वैध अनुबन्ध के आवश्यक लक्षण क्या हैं? संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।
What are essentials of a valid contract? Explain in brief.
7. अनुबन्ध एक ऐसा ठहराव है जो राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय है।” व्याख्या कीजिए तथा एक वैध अनुबन्ध के
आवश्यक लक्षण बताइए।
“Contract is an agreement enforceable by law.” Discuss Bringing out the essentials of a valid contract.
8. एक वैध अनुबन्ध के आवश्यक लक्षण अथवा तत्व क्या हैं? उदाहरण सहित समझाइए।
What are essentials of a valid contract? Explain with illustrations.
9. “एक ठहराव जो सन्नियम द्वारा प्रवर्तनीय होता है, अनुबन्ध कहलाता है।” इस कथन को समझाइए और एक
वैध अनुबन्ध की आवश्यक बातों की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
“An agreement enforceable by law is a contract.” Explain this statement and discuss the essentials of
valid contract in brief.

लघु उत्तरीय प्रश्न


(Short Answer Questions)
1 ठहराव क्या है?
What is agreement?
2. क्या सभी ठहराव अनुबन्ध होते हैं?
Are all agreements contracts?
3. सभी ठहराव प्रवर्तनीय नहीं होते क्यों?
All agreements are not enforceable. Why?
4. प्रस्ताव जब स्वीकृ त होता है तब वचन बनता है। स्पष्ट कीजिए।
When offer is accepted, it becomes a promise. Explain.
5. अनुबन्ध का अर्थ उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
Explain the meaning of contract with illustration.
6. अनुबन्ध के प्रमुख लक्षण संक्षेप में बताइए।
State in brief the main characteristics of a contract.
7. अनुबन्ध क्या है? अनुबन्ध के कोई तीन प्रमुख लक्षण समझाइए।
What is contract? Explain the three main characteristics of contract.
8. किन अनुबन्धों की वैधता के लिए उनके प्रलेखों का लिखित होने के साथ-साथ उनका पंजीयन होना अनिवार्य
है?
9. गर्भित अनुबन्ध का क्या आशय है?
What is the meaning of implied contract?
10. व्यर्थनीय अनुबन्ध एवं व्यर्थ अनुबन्ध में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
Differentiate between Voidable contract and Void contract.
11. अवैधानिक ठहराव क्या है?
What is illegal Agreement?
12 अप्रवर्तनीय अनुबन्ध से क्या आशय है?
What is meant by Unenforceable contract?
13. निष्पादित एवं निष्पादनीय अनुबन्ध में अन्तर कीजिए।
Differentiate between Executed and Executor contract.

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