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Generic Elective

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स्‍नातक‍पाठ्यक्रम

Generic Elective (ह दिं ी)

पटकथा‍तथा‍सविं ाद-लेखन
अनुक्रम
इकाई-1 : पटकथा-लेखन‍–‍स्‍वरूप‍और‍अवधारणा –डॉ.‍ रीश‍नवल
इकाई-2 : फीचर‍ह़िल्म, टी.‍वी.‍धारावाह क, क ानी‍एविं‍ –डॉ.‍जवरीमल्ल‍पारख
डाक्यूमेंट्री‍की‍पटकथा
इकाई-3 : सिंवाद-लेखन‍:‍सिंरचना‍और‍हसद्ािंत –डॉ.‍ र्षबाला‍शमाष
इकाई-4 : ़िीचर‍ह़िल्म, धारावाह क, क ानी‍एविं‍डॉक्यूमेंट्री‍का‍ –डॉ.‍मनीर्‍ओझा
सिंवाद-लेखन

हिन्‍
दी-विभाग

मुक्‍त‍हशक्षा‍हवद्यालय
दिल्‍ली‍दिश्‍िदिद्यालय
5, के िेलरी‍लेन, दिल्‍ली-110007
Cut To
(Tele Rating Process)
इकाई-2

फीचर फ़िल्म, टी. वी. धारावाहिक, किानी एवं डाक्यूमेंट्री की पटकथा

डॉ. जवरीमल्ल पारख


प्रोफेसर (सेवानिवत्त
ृ )
इन्दिरा गााँधी राष्ट्रीय मुक्त ववश्वववद्यालय

2.1 प्रस्तावना

ससिेमा से संबंधधत पाठ्यक्रम के ‘पटकथा एवं संवाि लेखि’ खंड की यह िस


ू री इकाई है ,
न्जसका शीर्षक है , ‘फीचर फ़िल्म, टी. वी. धारावाहहक, कहािी एवं डाक्यूमेंरी की पटकथा’। इससे
पहले की इकाई में आप ‘पटकथा: अवधारणा और स्वरूप’ का अध्ययि कर चक
ु े हैं। इस िस
ू री
इकाई में आप फीचर फ़िल्म, टे लीववजि धारावाहहक, कहािी और डाक्यम
ू ें री की पटकथा के बारे
में पढें गे। फीचर फ़िल्म, टी. वी. धारावाहहक और डाक्यूमेंरी दृश्य ववधाएाँ हैं जबफक कहािी की
पटकथा भी कहािी के दृश्य रूपांतरण के सलए सलखिी होती है । इससलए इि चारों ववधाओं के
पटकथा लेखि में जो सामादय तत्त्व है वह है , उिका दृश्य माध्यम होिा। लेफकि ववधागत दृन्ष्ट्ट
से चारों अलग-अलग हैं और उिकी ववधागत सभदिता उिके पटकथा लेखि में भी व्यक्त होती
है ।

फीचर फ़िल्म आमतौर पर िो से तीि घंटे की अवधध की होती है । उसमें भी कोई कहािी
कही जाती है । लेफकि यह जरूरी िहीं है फक वह फकसी साहहन्ययक कृनत पर आधाररत हो। िस
ू रा
बडा अंतर यह होता है फक फीचर फ़िल्म ससिेमा हॉल के बडे पिे पर हिखायी जाती है इससलए
उसके निमाषण की ववधध अदय ववधाओं से अलग होती है । टीवी धारावाहहक टे लीववजि के छोटे
स्क्रीि पर हिखािे के सलए बिाये जाते हैं और न्जसकी कहािी बहुत सी आख्यािों में बंटी होती है
और महीिों, सालों तक हिखायी जाती रहती है । इि िोिों ववधाओं से अलग कहािी एक
साहहन्ययक ववधा है न्जसका दृश्य माध्यम के सलए रूपांतरण करिा होता है । यह रूपांतरण इस
बात पर निभषर करता है फक कहािी फकस दृश्य ववधा के सलए रूपांतररत होिी है । डाक्यूमेंरी न्जसे
हहंिी में वत्त
ृ धचत्र के िाम से जािा जाता है , कथा ववधा िहीं है । यह आमतौर पर फकसी
राजिीनतक, सामान्जक, सांस्कृनतक आहि क्षेत्रों से संबंधधत ववर्य की सूचिा और सशक्षाप्रि
दृश्यायमक प्रस्तुनत होती है न्जसका मकसि लोगों तक प्रामाणणक जािकारी पहुाँचािा होता है ।
इसकी पटकथा बहुत अलग तरह से सलखी जाती है । इस इकाई में हम इि सब पर उिाहरणों के
साथ चचाष करें गे।

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2.2 उद्दे श्य

इस इकाई में ‘फीचर फ़िल्म, टी. वी. धारावाहहक, कहािी एवं डाक्यूमेंरी की पटकथा’
िामक इकाई के अंतगषत आप:

* दृश्य माध्यमों की पटकथा लेखि की सामादय ववसशष्ट्टताओं का उल्लेख कर सकेंगे;


* फीचर फ़िल्म की पटकथा लेखि के सैद्धांनतक और व्यावहाररक पक्षों की जािकारी िे
सकेंगे;
* टे लीववजि के धारावाहहकों की पटकथा लेखि की वववेचिा कर सकेंगे;
* साहहन्ययक ववधा कहािी के फ़िल्मांतरण की ववधधयों के बारे में बता सकेंगे; और
* दृश्य माध्यम की एक महत्त्वपण
ू ष ववधा वत्त
ृ धचत्र की पटकथा सलखिे के बारे में बता सकेंगे।

2.3 दृश्य माध्यमों की पटकथा

साहहन्ययक ववधाओं को माध्यम की दृन्ष्ट्ट से िो तरह से वगीकृत फकया जाता है । एक, वे


ववधाएाँ न्जिका आस्वािि पढकर या सि
ु कर सलया जाता है और िो, न्जिका आस्वािि िे खकर
सलया जाता है । कहािी, उपदयास, कववता आहि ववधाओं को आमतौर पढकर या सुिकर हम
उिका आस्वािि लेते हैं जबफक िाटक का आस्वािि रं गमंच पर िे खकर लेते हैं। लेफकि अब
फ़िल्म, टे लीववजि धारावाहहक, वत्त
ृ धचत्र आहि भी दृश्य माध्यमों के अंतगषत आते हैं न्जदहें हम
ससिेमा हॉल या टे लीववजि के स्क्रीि पर िे खकर आस्वािि लेते हैं। िाटक से ये ववधाएाँ काफी
अलग होती हैं। िाटक रं गमंच पर पेश फकया जाता है , लेफकि यह असभिेताओं का माध्यम है ।
रं गमंच पर प्रस्तुनत से पहले असभिेताओं िे चाहे न्जतिी तैयारी की हो, लेफकि जब वे प्रस्तुनत के
सलए रं गमंच पर उतरते हैं तब प्रययेक असभिेता को अपिी भूसमका एक बार में ही निभािी होती
है , उसे सध
ु ारिे या बिलिे का मौका िहीं समलता और प्रययेक ियी प्रस्तनु त में उदहें अपिी
भूसमका को िोहरािा होता है । जबफक फ़िल्म, धारावाहहक आहि ववधाएाँ मुवी कैमरे में ररकाडष की
जाती है । अगर नििे शक को शॉट संतोर्प्रि िहीं लगता तो वह िब
ु ारा ररकाडष करता है । इस तरह
वह एक ही शॉट को कई-कई बार िोहराता है और संतुष्ट्ट होिे पर ही वह उस शॉट को ओके
करता है ।

मुवी कैमरे से फ़िल्माये जािे वाले दृश्य माध्यम के चार चरण होते हैं: फ्रेम, शॉट, सीि
और ससक्वेंस। जैसाफक आप पहले की इकाइयों में पढ चुके होंगे फक दृश्य माध्यम की सबसे छोटी
इकाई फ्रेम होती है । यािी पिे पर हिखिे वाला वह न्स्थर धचत्र जो अदय न्स्थर धचत्रों से जुडकर
निधाषररत गनत से हमारी आाँखों के आगे से गुजरता है और हमें गनतशील दृश्य का आभास िे ता
है । शॉट फ्रेमों की वह श्ख
ं ृ ला है न्जसे कैमरा एक बार में ररकाडष करता है । यािी कैमरा चालू होिे
और बंि होिे के िौराि जो दृश्य उसके द्वारा ररकाडष फकया जाता है , उसे शॉट कहते हैं। ऐसे कई
शॉट समलकर सीि का निमाषण करते हैं। आमतौर पर एक सीि एक निन्श्चत स्थाि और निन्श्चत
अवधध में घहटत घटिाओं से समलकर बिता है । और ऐसे कई सारे सीि समलकर एक ससक्वेंस

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निसमषत करते हैं और कई ससक्वेंस समलकर एक आख्याि, एक फ़िल्म, एक वत्त
ृ धचत्र का निमाषण
करते हैं। ससक्वेंस प्रसंग के अिुसार बिते हैं। एक फ़िल्म कई प्रसंगों से समलकर बिती है ।
इससलए यह स्वाभाववक है फक पटकथा भी प्रसंगािस
ु ार कई ससक्वेंस से समलकर तैयार होगी।

फकसी भी तरह की पटकथा सलखिे के सलए दृश्य माध्यम के इि चारों चरणों का ज्ञाि
होिा आवश्यक है । लेफकि पटकथा सलखते हुए पटकथाकार के सलए प्रययेक फ्रेम का ध्याि रखिा
आवश्यक िहीं है । हााँ शॉट बिलिे का संकेत, कैमरे की न्स्थनत, पाश्वष संगीत और ध्वनियों का
संकेत वह पटकथा में अवश्य िे सकता है और उसे िे िा चाहहए। लेफकि फ़िल्म नििे शक (और
कैमरामेि) के सलए प्रययेक फ्रेम का ध्याि रखिा बेहतर होता है क्योंफक एक शॉट में भी कैमरे की
मुवमें ट के साथ फ्रेम बिलते हैं और उसके साथ ही उस शॉट में हिखाया जािे वाला दृश्य
गनतशील होिे के कारण उसमें पात्रों की शारीररक चेष्ट्टाएाँ, चेहरे के भाव और उसके द्वारा बोले
जािे वाले संवाि में बिलाव आ रहा होता है । यही िहीं पात्रो की पष्ट्ृ ठभूसम जो दृश्य में हिखायी
िे ती है , वह भी बिलती है और यह नििे शक के सलए जरूरी होता है फक वह फ्रेम िर फ्रेम इि
सब के बीच संगनत और सामंजस्य को बिाये रखे।

पटकथाकार के सलए इि तकिीकी जािकाररयों का बडा महत्त्व होता है । वह पटकथा


कहािी, उपदयास की तरह काग़ज़ पर सलखता है , लेफकि उसे शब्िों में िहीं बन्ल्क दृश्यों में
सोचिा होता है और फफर उि दृश्यों को शब्िों में ढालिा होता है न्जसे िब
ु ारा फ़िल्म नििे शक
दृश्यों में रूपांतररत करता है । उदाहरण ् क लिए राजेंद्र यादव के उपन्यास ‘सारा आकाश’ पर बनी
बासु चटजी की फ़िल्म ‘सारा आकाश’ का एक छोटा सीन यहााँ प्रस्तुत है :

सीन 3. रात : वििाह मंडप

समर का क्िोज़ अप। पंडितजी की तीखी आवाज़-

समर की प्रततफिया-

पंडडत : िाइए अपना हाथ दीजजए-

पंडडत : कोई कुआाँ बावडी धममशािा, जो कुछ भी कहीं बनवाऊाँगा तम्


ु हारी राय और मशववरे से
बनवाऊाँगा... (कैमरा पीछे हटता है )

सामने कुताम-धोती पहने समर प्रभा के साथ ददखाई दे ता है । पंडित िडकी का हाथ मंत्र
उच्चाररत करते हुए समर के हाथ पर रखता है - धीरे धीरे पंडित की आवाज़ गायब हो जाती
है और समर की मां की आवाज सुनाई दे ने िगती है

-बेटा, अब तो इस घर में बहू आनी ही चादहए।– बडे की बारात गए आठ साि हो गए-

अब मेरे हाथ-पााँव नहीं चिते... छोटी बहू आ जाए तो मुझे फुरसत लमिे...

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अगर उपयक्
ुम त सीन पर ववचार करें तो आप दे खेंगे फक यह एक सीन है , िेफकन इसमें
एक से अधधक शॉट की संभावना है । यह पूरा दृश्य एक ही स्थान वववाह मंिप में और रात के
समय का है । िेफकन इसमें वॉयस ओवर का भी इस्तेमाि फकया गया है । मंिप में बैठे-बैठे समर
को अपनी मााँ की बात याद आती है जजसे वॉयस ओवर में बोिा गया है । यानी फक दशमकों के
लिए यह आवाज और दृश्य का फ्िैश बैक है । इस सीन में कैमरे का इस्तेमाि फकस तरह फकया
जाना है यह भी बताया गया है । एक जगह क्िोज अप का संकेत है । एक जगह जम
ू आउट का
संकेत है । पंडित के दो संवाद है जो समर को संबोधधत है । पूरे सीन को यहााँ एक साथ ही पेश
फकया गया है । फ़िल्म संकेतों को इटे लिक में लिखा गया है और संवादों को सीधे लिखा गया है
ताफक पटकथा पढ़ने वािा संकेत और संवाद का अंतर समझ सके। इसे अिग ढं ग से भी लिखा
जा सकता है । फ़िल्म संबध
ं ी संकेत बायीं तरफ और संवाद दायीं तरफ भी रखे जा सकते हैं।

कोई भी पटकथा सलखी जािे से पहले उसकी कहािी की पूरी रूपरे खा (स्टोरी लाइि)
पटकथाकार के हिमाग में साफ होिी चाहहए। या तो वह अकेले या फ़िल्म नििे शक के साथ
बैठकर रूपरे खा तय कर काग़ज़ पर उतार ले। फफर उसे अलग-अलग प्रसंगों के अिुसार ससक्वेंस
में ववभान्जत कर ले और फफर ससक्वेंस के अिुसार प्रययेक सीि का लेखि शुरू करे । पटकथाकार
द्वारा सलखी गयी पटकथा को नििे शक प्रोडक्शि न्स्क्रप्ट में ढालता है । प्रोडक्शि न्स्क्रप्ट का अथष
है न्स्क्रप्ट का वह रूप जो शूहटंग के िौराि फ़िल्म की पूरी टीम के सामिे रहता है । इस िौराि
पटकथा में आवश्यकतािुसार बिलाव भी फकया जाता है । आमतौर पर नििे शक फ़िल्म की शूहटंग
पटकथा के अिुसार िहीं करता वरि स्थािों के अिुसार करता है और उसमें समय का भी ध्याि
रखिा होता है । फफर संपािि के िौराि उि दृश्यों को पटकथा के क्रम में संपाहित फकया जाता है ।
उिमें आवश्यकता के अिस
ु ार पाश्वष संगीत और ध्वनियााँ जोडी जाती हैं। फ़िल्म निमाषण में
पटकथा लेखि उसका पहला चरण है तो संपािि उसका अंनतम चरण। इसके बाि ही फ़िल्म
प्रिशषि के सलए तैयार होती है ।

पटकथा लेखि के सलए पटकथाकार का लेखक होिा आवश्यक िहीं है , ज्यािा जरूरी है
फ़िल्म निमाषण के परू े उपक्रम से पररधचत होिा। इससलए पटकथा फ़िल्म नििे शक भी सलख सकता
है । लेफकि संवाि लेखि के सलए जरूरी है फक न्जस भार्ा में फ़िल्म बि रही है, उस भार्ा के
रचिायमक प्रयोग की क्षमता का होिा। इसके सलए आमतौर पर उस भार्ा के लेखकों की मिि
ली जाती है । कई फ़िल्म नििे शकों में भी यह क्षमता होती है और कई लेखक भी संवाि ही िहीं
पटकथा लेखि करिे की क्षमता रखते हैं।

यहााँ हमिे पटकथा लेखि की सामादय ववसशष्ट्टताओं का उल्लेख फकया है , लेफकि ववधाओं
के अिुसार पटकथा लेखि में अंतर भी आता है न्जसका उल्लेख आगे के भागों में करें गे।

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बोध प्रश्न-1

1. मव
ु ी कैमरा एक बार में शरू
ु होिे से लेकर बंि होिे तक जो ररकाडष करता है , उसे क्या
कहते हैंॽ
(i) फ्रेम
(ii) शॉट
(iii) ससक्वेंस
(iv) सीि ( )
2. पटकथा लेखि में संवािों के अलावा फकि-फकि बातों का उल्लेख फकया जा सकता है ॽ
(i) कैमरे की न्स्थनत
(ii) पाश्वष संगीत
(iii) असभिय संकेत
(iv) उपयुक्
ष त सभी ( )

2.4 ़िीचर फ़िल्म की पटकथा

फीचर फ़िल्म यािी धचत्रकथा। कोई भी फ़िल्म न्जसमें एक कहािी कही जाती है , उसे
फीचर फ़िल्म कहा जाता है। आमतौर पर भारत में यह िो से तीि घंटे की अवधध की बिायी
जाती है । लेफकि फीचर फ़िल्म इससे छोटी भी हो सकती है और इससे लंबी भी। बहुत छोटी
फ़िल्म को न्जसमें कोई कहािी या प्रसंग फ़िल्माया जाता है , उदहें शॉटष फ़िल्म या लघु फ़िल्म
कहते हैं। फीचर फ़िल्म बिािे के सलए एक कहािी की िरकार होती है । यह कहािी स्वयं
फ़िल्मकार की हो सकती है, या वह फकसी और की कहािी का भी इस्तेमाल कर सकता है ,
या पहले से प्रकासशत फकसी कहािी, उपदयास या िाटक या अदय कोई साहहन्ययक कृनत को
ले सकता है , लेफकि इसके सलए उसे लेखक (अगर जीववत है और उसकी रचिा कॉपीराइट के
अंतगषत आती है ) से अिुमनत लेिी होती है । कहािी पहले से सलखी गयी हो या फकसी िे
फ़िल्म के सलए ही सलखी हो, लेफकि वह फ़िल्म बिािे के सलए पयाषप्त िहीं होती, उसे
पटकथा में रूपांतररत करिा जरूरी होता है ।

फ़िल्म में सबसे महत्त्वपण


ू ष होता है , दृश्य यािी बबंब। फ़िल्म बबंबों की लंबी श्ख
ं ृ ला होती
है । उसमें शब्ि और ध्वनियााँ भी गूंथी होती हैं। इससलए पटकथा लेखि के सलए पटकथाकार
को कहािी को दृश्यों में सोचिा होता है । फीचर फ़िल्म की पटकथा के सलए पटकथाकार को
निम्िसलणखत पक्षों का ध्याि रखिा होता है ।

केंद्रीय ववचार– फीचर फ़िल्म की कोई भी कहािी फकसी ि फकसी केंद्रीय ववचार के इिष धगिष
बुिी जाती है । पटकथाकार को सबसे पहले यह जाििा होता है फक उस कहािी का केंद्रीय
ववचार क्या है । उिाहरण के सलए फ़िल्म ‘छपाक’ का केंद्रीय ववचार यह है फक एससड हमले की

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सशकार लडकी के साथ क्या बीतती है और वह इसका कैसे मक
ु ाबला करती है। या फ़िल्म
‘शोले’ में िो िोस्तों की िोस्ती और बिले की कहािी है । स्पष्ट्ट ही पटकथा सलखते हुए
पटकथाकार को इस बात का ध्याि रखिा होता है फक वह इस केंद्रीय ववचार से भटक तो
िहीं रहा है ।

किानी की रूपरे खा– इस केंद्रीय ववचार के इिषधगिष बुिी गयी कहािी की स्टोरी लाइि को
समझिा जरूरी होता है । कहािी कैसे अपिे को खोलती है , कैसे ववकससत होती है और फकस
बबंि ू पर जाकर समाप्त होती है । पढी जािे वाली कहािी और िे खी जािे वाली फ़िल्म िोिों में
कहािी के प्रनत उयसुकता का होिा जरूरी है । चाहे फकसी भी ववधा में कहािी कही जा रही हो,
चाहे वह सामान्जक ववर्य पर हो, या धिलर हो, ववज्ञाि कथा पर हो। कहािी की स्टोरी
लाइि को समझते हुए इस तत्त्व की पहचाि करिा जरूरी है । इस उयसक ु ता का फ़िल्म के
अंत तक बिा रहिा जरूरी है , लेफकि उयसक
ु ता की समान्प्त के साथ ही िशषक को एक तरह
की संतुन्ष्ट्ट का भाव भी समलिा जरूरी है , भले ही वह उसके अपिे अिुमाि से सभदि हो।

किानी के आंतररक तत्त्व– कहािी ससफष आरं भ, ववकास और अंत से िहीं बिती। कहािी में
टकराव, तिाव और संघर्ष का होिा जरूरी है । कहािी इदहीं आंतररक तत्त्वों से निसमषत होती है
और इदहीं से िशषकों में उयसुकता पैिा होती है । जीवि में सब-कुछ अच्छा-अच्छा हो, फकसी
तरह की समस्या ि हो, फकसी तरह की चुिौती ि हो, कोई तिाव ि हो, टकराव ि हो, संघर्ष
ि हो, तो ऐसा जीवि फकसी को अपिी ओर आकृष्ट्ट िहीं कर सकेगा और तब कहािी भी
िहीं बिेगी। लेफकि ये सभी तत्त्व तकषपूणष ढं ग से सामान्जक संिभष के साथ प्रकट होिे
चाहहए। फ़िल्म चाँफू क दृश्य माध्यम है , इससलए ये सभी तत्त्व दृश्य रूप में सामिे आिे चाहहए
और शब्िों पर निभषरता कम से कम होिी चाहहए। फ़िल्म ‘मुग़ले आज़म’ का वह दृश्य याि
कीन्जए जब सलीम और अिारकली एकांत में बैठे हैं और अचािक बािशाह अकबर के आिे
की घोर्णा होती है । यह सि
ु ते ही डर के मारे अिारकली वहााँ से भागती है , जैसे सशकारी से
डरकर हहरण भागता है । लेफकि जब वह अकबर को सामिे से आता हुआ िे खती है , तो
पलटकर सलीम की तरफ भागती है और उसी डर की वजह से वह उससे सलपट जाती है ।
लेफकि उसका डर इतिा ज्यािा होता है फक वह बेहोश होिे लगती है । उसके हाथ में सलीम
के गले में पडी माला आ जाती है । माला टूट जाती है और उसके मिके टूटकर बबखर जाते हैं
और वह भी बेहोश होकर ज़मीि पर धगर जाती है । इस परू े दृश्य में एक भी संवाि िहीं है ,
लेफकि न्जस तिाव और टकराव की सन्ृ ष्ट्ट की गयी है , उसका िशषकों पर गहरा प्रभाव पडता
है । लेफकि कोई भी फ़िल्म तिाव, टकराव और संघर्ष से ही निसमषत िहीं होिी चाहहए। उसमें
बीच-बीच में ऐसे हल्के-फुल्के क्षण जरूर आिे चाहहए जो तिाव की एकरसता को तोडे।
भारतीय फ़िल्मों में यह काम गीतों के इस्तेमाल द्वारा फकया जाता है । गीतों का उयकृष्ट्ट
उपयोग तभी होता है जब वे कहािी में ऊपर से थोपे हुए ि प्रतीत हों और कहािी को आगे
बढािे में सहायक हों।

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किानी के पात्र– कहािी पात्रों के माध्यम से ही अपिे को व्यक्त करती है । पात्र बडा हो या
छोटा, उसकी भूसमका छोटी हो या लंबी, कहािी में उिकी एक अनिवायष भूसमका होिी चाहहए।
कुछ पात्र कहािी के केंद्र में होते हैं और कुछ पररधध पर होते हैं और कुछ केंद्र और पररधध के
बीच कहीं होते हैं। प्रययेक पात्र को अपिी सामान्जक और शैक्षक्षक पष्ट्ृ ठभूसम के अिुसार
आचरण करिा चाहहए। उिके द्वारा बोली जािे वाली भार्ा, उिकी वेशभूर्ा, उिका चलिा-
फफरिा आहि इस पष्ट्ृ ठभसू म से तय होिा चाहहए। पात्र का व्यवहार उसके चररत्र और
मि:न्स्थनत के अिुरूप होिा चाहहए। पात्र का चररत्र न्स्थर रहिा चाहहए और अगर उसके
चररत्र में बिलाव आता है , तो यह बिलाव तकषपण
ू ष हिखिा चाहहए। छोटा से छोटा और बडे से
बडा पात्र िस
ू रों से सभदि होिा चाहहए। पटकथा सलखते हुए पटकथाकार को इि सब बातों को
ध्याि में रखिा चाहहए।

दे श-काल– कहािी फकस िे श-काल से संबंधधत है , इसका ध्याि रखिा चाहहए। इससे पात्रों की
भार्ा, आचरण और वेशभूर्ा आहि तय होिे चाहहए। कहािी की राजिीनतक, सामान्जक और
सांस्कृनतक पष्ट्ृ ठभसू म का सही-सही ज्ञाि पटकथाकार को अवश्य होिा चाहहए। यह भी ध्याि
रखिा चाहहए फक सीि फकस काल से संबंधधत है , हिि में रात में , िोपहर में या भोर में । इि
सब बातों का संबध
ं पात्रों के आचरण में व्यक्त होिा चाहहए।

मािौल– पटकथाकार को कहािी की पष्ट्ृ ठभूसम के साथ-साथ उस माहौल को भी ध्याि में


रखिा चाहहए जो कहािी के साथ-साथ निसमषत हो रहा है । यह माहौल को तकषपूणष और
यथाथषपरक बिाता है । प्रययेक फ्रेम में कैमरे में क्या-क्या िज़र आिा चाहहए, फकस तरह की
ध्वनियााँ, फकस तरह का भावायमक वातावरण जो उस सीि को जीवंत बिा िे । इसके सलए
पाश्वष संगीत का इस्तेमाल भी फकया जाता है ।

भारत में बििे वाली फ़िल्मों के ससिेमाघर में प्रिशषि के िौराि आमतौर पर एक इंटरवेल
होता है । इंटरवेल फफल्म के मध्य के आसपास रखा जाता है । लेफकि इंटरवेल के समय
कहािी एक ऐसे बबंि ू पर खयम होिी चाहहए फक िशषक आगे िे खिे के सलए उयसक
ु हो। फीचर
फ़िल्म की पटकथा सलखते हुए इि सब बातों का ध्याि रखिा चाहहए। तभी आप एक
प्रभावशाली पटकथा सलख सकेंगे।

बोध प्रश्न-2

3. निम्िसलणखत में से जो कथि सही हो उसके आगे ‘सही’ और जो गलत हो उसके आगे
‘गलत’ सलणखए।
(i) पटकथा सलखिा आरं भ करिे से पहले कहािी के केंद्रीय ववचार को जाििा जरूरी
है ।
(ii) फ़िल्मों में छोटे पात्रों पर अधधक ध्याि िे िे की जरूरत िहीं है ।
(iii) पटकथाकार को कहािी में वणणषत िे शकाल का सही ज्ञाि जरूरी है ।

33
(iv) माहौल निसमषत करिे के सलए पाश्वष संगीत का उपयोग िहीं करिा चाहहए।
4. पटकथाकार को कहािी कहिे के सलए फकि आंतररक तयवों का ध्याि रखिा चाहहएॽ
(i) टकराव
(ii) तिाव
(iii) संघर्ष
(iv) उपयक्
ुष त सभी ( )

2.5 टी.वी. धारावाहिक की पटकथा

टे लीववजि के सलए धारावाहहक की पटकथा का लेखि फीचर फ़िल्म के सलए पटकथा


लेखि से थोडा सभदि होता है । फीचर फफल्म की पटकथा के सलए न्जि बबंिओ
ु ं पर ध्याि िे िे का
उल्लेख हमिे इससे पहले वाले भाग में फकया है , लगभग उि सभी को धारावाहहक के सलए
पटकथा सलखते हुए भी ध्याि रखिा होता है । लेफकि ववधा के पररवतषि के कारण कुछ
सभदिताओं को भी ध्याि में रखिा चाहहए। धारावाहहक टे लीववजि पर प्रसारण के सलए होता है
जो घर में पररवार के साथ आमतौर पर िे खा जाता है । यह िे खिा ससिेमाघर में जाकर अंधेरे में
िो-तीि घंटे लगातार फ़िल्म िे खिे से अलग फकस्म का अिुभव है । िस
ू रा बडा अंतर अवधध का
है । आमतौर पर एक धारावाहहक कई हििों, महीिों और सालों तक चलता रहता है । प्रययेक हिि
उसका एक आख्याि (एवपसोड) प्रसाररत होता है और प्रययेक आख्याि के प्रसारण की अवधध 20-
25 समिट या 45-50 की होती है न्जसमें बीच-बीच में ववज्ञापि भी आते हैं। धारावाहहक
टे लीववजि के छोटे से पिे पर प्रसाररत होते हैं इससलए उिमें ऐसे दृश्य यथासंभव कम होिे
चाहहए न्जसमें शॉट बहुत िरू ी से फफल्माए गये हों। और ि उिमें एक साथ इतिे अधधक पात्र
हिखिे चाहहए फक पूरा स्क्रीि भरा हुआ हिखायी िे ।

धारावाहहक िो तरह के होते हैं। कुछ धारावाहहक ऐसे होते हैं न्जसकी कथा निरं तर आगे
बढती है , िये प्रसंग, िये पात्र जुडते जाते हैं और कुछ धारावाहहक के पात्र तो वही रहते हैं लेफकि
प्रययेक आख्याि या िो-तीि आख्याि में एक ियी कहािी कही जाती है । पहली तरह के
धारावाहहक पाररवाररक, सामान्जक, जीविीपरक, ऐनतहाससक और पौराणणक ववर्यों पर होते हैं और
िस
ू री तरह के धारावाहहक हास्यपरक, आपराधधक और जासूसी ववर्यों से संबंधधत होते हैं। पहली
तरह के धारावाहहकों में ‘हमलोग’, ‘बुनियाि’, ‘ये ररश्ता क्या कहता है ’, ‘टीपू सल्
ु ताि की तलवार’,
‘रामायण’, ‘महाभारत’ आहि हैं जबफक िस
ू री तरह के धारावाहहकों में ‘िे ख भाई िे ख’ ‘िक्
ु कड’,
‘श्ीमाि श्ीमती’, ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’, ‘ररपोटष र’, ‘सी आई डी’, ‘क्राइम पेरोल’ आहि
आते हैं।

धारावाहहक के सलए पटकथा लेख्नि में केंद्रीय ववचार का महत्त्व होता है और प्रययेक
आख्याि इस केंद्रीय ववचार के अिुरूप होिे चाहहए। जहााँ तक स्टोरी लाइि का सवाल है , प्रययेक

34
आख्याि की स्टोरी लाइि के साथ-साथ यथासंभव पूरे धारावाहहक की स्टोरी लाइि को ध्याि में
रखा जािा चाहहए। प्रययेक धारावाहहक के पात्रों का चररत्र आख्याि के अिस
ु ार बिलिा िहीं
चाहहए। धारावाहहकों में पात्रों की संख्या बहुत ज्यािा होती है । इससलए जब वे पहली बार आते हैं,
तब उिका पररचय भी िे िा होता है और कहािी में उिकी भूसमका भी बतािी होती है । यह काम
अलग-अलग िहीं बन्ल्क एक साथ होिा चाहहए और कहािी कहते हुए ही होिा चाहहए। टकराव,
तिाव और संघर्ष धारावाहहकों में ही िहीं प्रययेक आख्याि में जरूरी है और कथा आगे के
आख्यािों में बढती है तो प्रययेक आख्याि ऐसे मोड पर खयम होिा चाहहए फक िशषक आगे के
आख्याि का उयसक ु ता से इंतजार करे । धारावाहहकों में बहुत थोडी अवधध में प्रभाव पैिा करिा
होता है , इससलए असभिय, संवाि, पात्रों की वेशभूर्ा, पाश्वष संगीत सभी कुछ बहुत भडकीला और
लाउड होता है । िशषक भी धीरे -धीरे इसी के आिी हो जाते हैं। इसीसलए धारावाहहकों में
रचिायमकता की संभाविा कम होती है । धारावाहहकों में खासतौर पर पाररवाररक और सामान्जक
आख्यािों में प्रययेक आख्याि को उयसुकतापूणष मोड पर समाप्त करिा चुिौतीपण
ू ष काम होता है ।
िस
ू री समस्या यह होती है फक 25-50 समिट की अवधध में कथा को इस तरह ववकससत करिा
होता है फक प्रययेक सीि िशषकों को बांधकर रखे। पात्रों में चररत्रगत सभदिता होिी चाहहए। हर
दृश्य में हर पात्र की मौजि
ू गी अथषवाि होिी चाहहए। स्क्रीि पर इतिी भीड िहीं हिखिी चाहहए
फक िशषक समझ ही ि पाये फक हो क्या रहा है । लंबे धारावाहहकों में निरं तरता (कंटीदयूटी) पर
जरूर ध्याि िे िा चाहहए।

बोध प्रश्न-3

5. निम्िसलणखत में से कौि-सी ववशेर्ता धारावाहहकों पर लागू िहीं होती।


(i) धारावाहहक टे लीववजि पर प्रसारण के सलए होते हैं।
(ii) धारावाहहक की कहािी कई आख्यािों में जारी रहती है ।
(iii) धारावाहहक में कोई केंद्रीय ववचार िहीं होता।
(iv) धारावाहहक में समाि पात्रों द्वारा कही गयी अलग-अलग कहानियााँ हो सकती हैं।
( )
6. निम्िसलणखत धारावाहहकों को उिके ववर्य से समलाि कीन्जए।
(i) ये ररश्ता क्या कहता है (क) जासूसी
(ii) तारक मेहता का उल्टा चश्मा (ख) आपराधधक
(iii) सी आई डी (ग) पाररवाररक
(iv) क्राइम पेरोल (घ) कॉमेडी

2.6 किानी की पटकथा

साहहन्ययक रचिाओं पर फ़िल्म बिािे की परं परा आरं भ से ही है । जब फीचर फ़िल्में


बििी शुरू हुई थी हहंिी में भी आरं भ में पौराणणक कथाओं पर फ़िल्में बिीं। बाि में साहहन्ययक

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रचिाओं पर भी फ़िल्में बिीं। मूक ससिेमा के िौर में 1928 में शरतचंद्र के प्रख्यात उपदयास
‘िे विास’ पर फ़िल्म बिी। बाि में 1935 में फफर सवाक फ़िल्म बिी और इसके बाि भी कई बार
ववसभदि भार्ाओं में ‘िे विास’ पर फ़िल्में बिती रही हैं। प्रेमचंि के उपदयास ‘सेवासिि’ पर हहंिी
और तसमल में फ़िल्में बिीं। बाि में ‘गोिाि’ और ‘गबि’ उपदयासों पर फ़िल्में बिीं। उिकी
कहानियों ‘क़िि’, ‘सद्गनत’, ‘शतरं ज के णखलाडी’ आहि पर भी फ़िल्में बिीं। कहिे का तायपयष
यह है फक साहहन्ययक रचिाओं पर फ़िल्मांतरण की लंबी परं परा है । टे िीववजन के लिए भी
सादहजययक रचनाओं पर धारावादहक और टे िीववजन फ़िल्में बनती हैं। गुिज़ार ने प्रेमचंद की बहुत
सी रचनाओं पर टे िीववजन के लिए धारावादहक और फ़िल्में बनायी हैं। भीष्म साहनी के उपन्यास
‘तमस’ पर गोववंद तनहिानी ने दरू दशमन के लिए धारावादहक ही बनाया था जजसे बाद में उन्होंने
फ़िल्म के तौर पर भी ररिीज फकया।

कथा लेखि और कथा फ़िल्म िो अलग-अलग माध्यम हैं। कहािी और उपदयास का


आस्वािि पढकर या सुिकर सलया जाता है और फ़िल्म का आस्वािि िे खकर सलया जाता है ।
जब एक माध्यम को िस
ू रे माध्यम में बिलिा होता है तो िरअसल ‘कहे ’ को ‘िे खे’ में बिलना
होता है । लेफकि जब कोई लेखक कहािी या उपदयास सलख रहा होता है तो उसके मन्स्तष्ट्क में
भी बहुत से दृश्य बिते-बबगडते हैं। उि जगहों के दृश्य जहााँ घटिाएाँ घहटत होती हैं, उि लोगो की
छववयााँ जो रचिा में पात्रों के रूप में सामिे आते हैं और उि न्स्थनतयों के बबंब न्जिके बीच पात्र
फक्रयाशील हिखायी िे ते हैं। दृश्यों, छववयों और बबंबों के साथ-साथ लोगों की बातचीत, तरह-तरह की
ध्वनियां भी शासमल होती हैं और इदहीं सबसे उिको पूणत
ष ा समलती है । लेफकि कहािी और
उपदयास में रचिाकार अपिी कल्पिा शन्क्त द्वारा इिकी रचिा शब्िों के माध्यम से करता है
जबफक फ़िल्म में इदहें दृश्यों के रूप में करिा होता है । रचिाकार िे अपिे जीवि में जो कुछ भी
िे खा और सुिा होता है , रचिा करते हुए वे बबंब और वे छववयााँ उिके मािस में मौजूि रहती हैं
लेफकि उदहें शब्िों में बााँधते हुए उिका रूपांतरण हो जाता है । फ़िल्मकार जब फकसी रचिा पर
फ़िल्म बिािे की सोचता है, तो वह यह भी सोचता है फक इस रचिा को रचते हुए रचिाकार के
मि में फकस तरह की छववयााँ उभरी होंगी। ऐसे रचिाकार जो अब हमारे बीच मौजूि िहीं हैं वहााँ
तो फ़िल्मकार को इसकी कल्पिा रचिा के माध्यम से और रचिा न्जस िौर में सलखी गयी और
स्वयं रचिा में न्जस िे शकाल का अंकि है , उि काल खंडों के बारे में ज्यािा से ज्यािा जािकारी
हाससल कर ही अपिे फ़िल्म के सलए उस िे शकाल का खाका बिािा चाहहए। न्जस िे शकाल के
बीच उसकी बििे वाली फ़िल्म का पररवेश सन्ृ जत होिा है ।

कोई भी पूवम प्रकालशत कहानी जजस पर फ़िल्म बननी है , उसे सबसे पहिे पटकथा में
बदिना होता है । इस दृजष्ट से कहानी कच्चे माि की तरह है जजसे पहिे पटकथा में रूपांतररत
होना है और फफर फ़िल्म में । यह जरूरी िहीं फक कहािी न्जस तरह ववकससत हो फ़िल्म भी उसी
तरह तरह ववकससत हो। कहािी में बहुत कुछ शब्िों में कह हिया जाता है । िेफकन फ़िल्म में उसे
ददखाना होता है । कहानी जहााँ से शरू
ु होती है , जरूरी नहीं फक फ़िल्म भी वहीं से शुरू हो। कहानी

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में कहानीकार अपनी तरफ से बहुत कुछ कह दे ता है। िेफकन फ़िल्म में यह ववधध आमतौर पर
नहीं अपनायी जाती। कुछ हद तक वायस ओवर का इस्तेमाि फकया जा सकता है । िेफकन ऐसा
करते हुए भी दृश्य भी ददखाने होते हैं। आमतौर पर पात्रों का और पररवेश का पररचय कहानीकार
कहानी के आरं भ में या बीच में वणमन करते हुए दे दे ता है । िेफकन फ़िल्म में उसे पहिे शॉट से
ही कहानी आरं भ कर दे नी होती है और कहानी को आगे बढ़ाते हुए ही उसे पात्रों और पररवेश के
बारे में इस तरह ददखाना होता है फक कहानी पर ऊपर से थोपा हुआ या अिग से धचपका हुआ न
िगे। कहानी कहने के कुछ तरीके फ़िल्म और कहानी में एक से होते हैं। मसिन, फ्िैशबैक का
इस्तेमाि दोनों में होता है । िेफकन यह आवश्यक नहीं है फक जहााँ फ्िैशबैक का इस्तेमाि कहानी
में हुआ हो, फ़िल्म में भी वहीं हो। पटकथाकार फकसी और जगह भी इस्तेमाि कर सकता है या
जहााँ कहानी में फ्िैशबैक का इस्तेमाि न हुआ हो, वहााँ भी फ़िल्म में इस्तेमाि फकया जा सकता
है । मसिन, मोहन राकेश की कहानी ‘उसकी रोटी’ में कहानी की नातयका बािो बस स्टैंि पर
इंतजार करते हुए लसफम यह सोचती है फक उसका पतत सुच्चा लसंह ने फकसी ढाबे में खाना खा
लिया होगा। िेफकन फ़िल्म में सच् ु चा लसंह को ढाबे में खाना खाते हुए ददखाया जाता है । इसी
तरह गााँव के गंि
ु े द्वारा बािो की छोटी बहन जजंदा के साथ छे डछाड का वणमन बािो के यादों में
बाद में आता है , िेफकन फ़िल्म की शुरुआत इसी से होती है । इन उदाहरणों से साफ है फक फकसी
भी कहानी पर लिखी जाने वािी पटकथा में कहानी ठीक उसी तरह आगे बढ़े जैसे कहानी में
बढ़ती है यह आवश्यक नहीं है । वह आगे-पीछे हो सकती है । कुछ पात्र बढ़ाए-घटाए जा सकते हैं।
िेफकन जो चीज सबसे महत्त्वपूणम है वह है कहानी का केंद्रीय ववचार और स्टोरी िाइन। अगर
फ़िल्मकार कोई कहानी पर फ़िल्म बनाना चाहता है तो यह जरूरी है फक फ़िल्म का केंद्रीय ववचार
और स्टोरी िाइन में बदिाव न हो। अगर वह इनमें भी बदिाव कर दे ता है तो फफर उसे कहानी
का रूपांतरण कहना बहुत उधचत नहीं होगा। िेफकन फ़िल्मकार ऐसा भी करते हैं। उदाहरण के
लिए सययजजत राय ने फ़िल्म ‘शतरं ज के खखिाडी’ में कहानी के अंत को बदि ददया था। जहााँ
कहानी में मीर और लमजाम शतरं ज खेिते हुए िडने िगते हैं और एक दस ू रे को तिवार से मार
दे ते हैं। वहीं फ़िल्म में उनके पास तिवार की बजाए वपस्तौि होती है और एक दस ू रे पर फायर
भी करते हैं िेफकन उनके तनशाने चूक जाते हैं और बाद में दोनों दब
ु ारा शतरं ज खेिने बैठ जाते
हैं। इसी तरह इस कहानी में वाजजदअिी शाह का सत्ता से हटाया जाना ईस्ट इंडिया कंपनी की
सेना द्वारा उन्हें धगरफ्तार करने आदद का उल्िेख भर है िेफकन फ़िल्म में मीर और लमज़ाम की
कहानी के समानांतर वाजजदअिी शाह की कहानी चिती है । अंत के इस बदिाव ने कहानी के
केंद्रीय ववचार को भी कुछ हद तक बदि ददया था। जहााँ कहानी में मीर और लमज़ाम का मरना
सामंतवाद के मरने का प्रतीक था, वहीं फ़िल्म में उनका न मरना सामंतवाद के अब भी मौजूद
होने का प्रतीक बन गया। यह एक बडा अंतर है । िेफकन यह अंतर कहानी के एक लभन्न पाठ से
उपजा है , जो सययजजत राय ने कहानी पढ़ते हुए महसस
ू फकया होगा।

दरअसि, फकसी सादहजययक रचना को जब फ़िल्मकार फ़िल्म बनाने के लिए चि


ु ता है ,
तब वह कहानी में कहानीकार का जो केंद्रीय ववचार है , जरूरी नहीं फक वह उससे प्रेररत हो। इस

37
बात की संभावना भी होती है फक उसे कहानी में कोई और केंद्रीय ववचार नज़र आये और इसी के
इदम -धगदम वह पटकथा में परू ी कहानी की पुनरम चना करे । अगर फ़िल्मकार स्वयं पटकथा िेखक है
तो वह अपने ववचार के अनरू
ु प कहानी की पटकथा लिखेगा। िेफकन अगर पटकथा फकसी अन्य
ने लिखी है या फ़िल्मकार ने लिखवायी है , तो उन दोनों का कहानी की व्याख्या के बारे में
आपसी सहमतत तक पहुाँचना जरूरी है तभी पटकथाकार फ़िल्मकार के नज़ररए से कहानी का
पटकथा में रूपांतरण कर पायेगा।

कहािी आमतौर पर छोटी होती है और छोटी कहािी पर िो-तीि घंटे की फीचर फ़िल्म
बिािा हर न्स्थनत में संभव िहीं होता। ‘शतरं ज के णखलाडी’ में मीर और समज़ाष की कहािी के
साथ वान्जिअली शाह की कहािी जुडिे से एक लंबी फ़िल्म बििे की संभाविा पैिा हो गयी थी।
फ़िल्म की स्वीकृत लंबाई के सलए पटकथाकार को अपिी कल्पिाशीलता से कुछ प्रसंग और पात्र
जोडिे होते हैं, लेफकि वह मूल कहािी के कथािक पर िकारायमक असर ि डाले, यह भी जरूरी
है । इसी तरह जब एक बडे आकार के उपदयास पर फीचर फ़िल्म बिायी जाती है , तो उपदयास में
से कुछ प्रसंगों और पात्रों को हटािा पडता है । मसलि, ‘सारा आकाश’ पर बिी फ़िल्म में
उपदयास के िस
ू रे भाग की कहािी को छोड हिया गया था।

आमतौर पर पटकथा को रचनायमक ववधा नहीं माना जाता। मूि कहानी और उस पर


बनने वािी फ़िल्म को ही रचनायमक ववधा माना जाता है । िेफकन ऐसा सोचना पूरी तरह सही
नहीं है । पटकथा लिखने के लिए पटकथाकार में भी एक साथ ही कहानीकार और फ़िल्मकार दोनों
की रचनायमक क्षमताओं का होना आवश्यक है । उसे कहानी की आंतररक रचनायमक शजक्त को
भी पहचानना होता है और साथ ही उस पर बनने वािी फ़िल्म की परू ी संकल्पना उसके सामने न
केवि स्पष्ट होना जरूरी है बजल्क उस संकल्पना को शब्दों में उतार दे ने की क्षमता का होना भी
जरूरी है और यह काम रचनायमकता और कल्पनाशीिता के बबना मुमफकन नहीं है । एक ही अथम
में पटकथा दोयम दजे का काम प्रतीत हो सकती है फक कहानी पर लिखी गयी पटकथा कहानी
का स्थान नहीं िे सकती और न ही पटकथा पर बनने वािी फ़िल्म का स्थान भी पटकथा नहीं
िे सकती। हािांफक पटकथा िेखन और खासतौर पर सादहजययक रचना के रूपांतरण के रूप में
लिखी गयी पटकथा का न केवि महत्त्व बढ़ रहा है बजल्क नाटकों की तरह उनका भी पुस्तकाकार
प्रकाशन होने िगा है और कुछ हद तक नाटकों की तरह पटकथा भी एक स्वतंत्र सादहजययक
ववधा मािी जाने की तरफ बढ़ रही है । इसी तरह कुछ फ़िल्में रचिायमक और कलायमक रूप से
इतिी उयकृष्ट्ट होती है फक उिकी पटकथा का साहहन्ययक कृनत की तरह अध्ययि फकया जािे
लगा है ।

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बोध प्रश्न-4

7. निम्िसलणखत वाक्यों में उपयक्


ु त शब्िों से ररक्त स्थािों की पनू तष कीन्जए।
(i) साहहयय का फ़िल्म में रूपांतरण -------को-------- में बिलिा है । (िे खे/सुिे/कहे )
(ii) जीवि में जो भी िे खा और सुिा होता है , उदहें कथाकार ---------- में बांधकर
व्यक्त करता है । (शब्िों/दृश्यों)
(iii) कहािी कच्चे माल की तरह है न्जसे पहले --------- में रूपांतररत करिा होता है
और फफर --------में । (फ़िल्म/पटकथा/दृश्य)
(iv) पटकथा लेखक में भी रचिायमकता और -------------- का होिा आवश्यक है ।
(िाटकीयता/ कल्पिाशीलता)
8. निम्िसलणखत में से जो कथि सही हो उसके आगे ‘सही’ और जो गलत हो उसके ‘गलत’
सलणखए।
(i) कहािी पर सलखी गयी पटकथा कभी कहािी का स्थाि िहीं ले सकती। ( )
(ii) पटकथाकार पटकथा के द्वारा मूल कहािी का दृश्य ववधा में रूपांतरण करता
है । ( )

(iii) कहािी जहााँ से शुरू होती है, फ़िल्म को भी वहीं से शरू


ु होिा चाहहए। ( )

(v) मूल कहािी से फकसी भी तरह का ववचलि फ़िल्मकार के सलए उपयुक्त िहीं है । ( )

2.7 डॉक्यूमेंट्री की पटकथा

डॉक्यम
ू ें री न्जसे हहंिी में वत्त
ृ धचत्र कहते हैं, वह एक गैरकथायमक ववधा है । इसका उद्िे श्य
फकसी ववर्य ववशेर् के बारे में लोगों को सूचिा िे िा, ज्ञािवाि बिािा या सशक्षक्षत करिा होता है ।
एक वत्त
ृ धचत्र ये तीिों काम एक साथ कर सकता है । वत्त
ृ धचत्र फकसी भी ववर्य पर हो सकता है ।
आधथषक, सामान्जक, राजिीनतक, सांस्कृनतक, जीविीपरक, समस्यापरक आहि। एक वत्त
ृ धचत्र में
ववर्य से संबंधधत कई पक्ष शासमल फकये जा सकते हैं। वत्त
ृ धचत्र के सलए पटकथा लेखि करिे
वाले को ववर्य से संबंधधत अधधकतम जािकारी होिी चाहहए और उसे स्वयं या िस
ू रों की मिि
से ववर्य से संबधं धत पयाषप्त शोध भी करिा चाहहए। क्योंफक वत्त
ृ धचत्र में तथ्यों और सूचिाओं का
सही होिा आवश्यक है ।

वत्त
ृ धचत्र और कथायमक फ़िल्म या धारावाहहक में बुनियािी अंतर यथाथष और कल्पिा का
है । वत्त
ृ धचत्र परू ी तरह यथाथषपरक होता है । उसमें फ़िल्मकार कुछ भी ऐसा िहीं जोड सकता जो
तथ्य ि हो या तथ्य पर आधाररत ि हो। कथायमक फ़िल्म यथाथष से प्रेररत होते हुए भी उसकी
कथा लेखक और फ़िल्मकार की कल्पिाशीलता पर आधाररत होती है । यहााँ तक फक फकसी
वास्तववक व्यन्क्त के जीवि पर बिी जीविीपरक फ़िल्म में भी बहुत कुछ लेखक की
कल्पिाशीलता का पररणाम होता है । लेफकि वत्त
ृ धचत्र में ऐसा िहीं होता वहााँ फ़िल्मकार को

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तथ्यपरक होिा जरूरी है । यह अवश्य है फक अपिी दृन्ष्ट्ट और समझ के अिुसार वह तथ्यों का
चयि करता है । मुमफकि है फक कोई अदय फ़िल्मकार सभदि दृन्ष्ट्ट के साथ सभदि तथ्यों को पेश
करके बबल्कुल सभदि तरह का वत्त
ृ धचत्र बिा सकता है । इससलए वत्त
ृ धचत्र में तथ्यों के साथ-साथ
फ़िल्मकार की दृन्ष्ट्ट का भी बडा महत्त्व होता है । वत्त
ृ धचत्र का उद्िे श्य मिोरं जि करिा िहीं है
लेफकि इसका अथष यह भी िहीं है फक वह उबाऊ हो, असंबद्ध हो या अप्रभावी हो। उसमें प्रवाह
और रोचकता हो।

वत्त
ृ धचत्र में भी दृश्यों का केंद्रीय महत्त्व होता है । अगर वत्त
ृ धचत्र में फ़िल्मकार के पास
हिखािे के सलए कुछ िहीं है , तो फफर वत्त
ृ धचत्र बिािे की क्या आवश्यकता। वत्त
ृ धचत्र में न्जतिा
संभव हो फ़िल्मकार को कैमरे के पीछे ही रहिा चाहहए और दृश्यों, धचत्रों और शब्िों को बोलिे
िे िा चाहहए। एक अच्छा वत्त
ृ धचत्रकार वह होता है जो अपिे ववचारों को िशषकों पर थोपता िहीं
बन्ल्क जो कुछ भी वह हिखा रहा है , उसे ही बोलिे िे िा चाहहए। आमतौर पर वत्त
ृ धचत्र में वायस
ओवर का इस्तेमाल फकया जाता है , लेफकि धचत्रों के साथ उिका मेल होिा चाहहए। वत्त
ृ धचत्र में
संबंधधत लोगों के साक्षायकार का उपयोग भी कर सकते हैं। उिका साक्षायकार न्जिसे संबंधधत
वत्त
ृ धचत्र है , या ववशेर्ज्ञों का जो वत्त
ृ धचत्र में बतायी जािे वाली समस्या पर अपिी राय िे सकते
हैं। जहााँ जरूरत हो, वहााँ आंकडे, तासलका आहि का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। अगर वत्त
ृ धचत्र में
अकाल, िघ
ु ट
ष िा या कुछ ऐसा हिखाया जािा है तो उसके वास्तववक वीडडयो और धचत्र होिे
चाहहए।

फीचर फ़िल्म या धारावाहहक की तरह पटकथा वत्त


ृ धचत्र के सलए पहले से िहीं सलखी
जाती। सबसे पहले वत्त
ृ धचत्र का ववर्य और उद्िे श्य तय फकया जाता है । उसके बाि उससे संबंधधत
सामग्री की सूची बिायी जाती है न्जिका उपयोग वत्त
ृ धचत्र में फकया जािा है । फफर वत्त
ृ धचत्र की
रूपरे खा तैयार की जाती है । जब यह सब कुछ तैयार हो जाए तो पटकथा सलखी जाती है । पटकथा
को िो भागों में ववभान्जत करके सलखिी चाहहए। बायीं तरफ दृश्यों का उल्लेख हो और िायीं
तरफ शब्िों और संवािों का। दृश्यों के साथ पाश्वष संगीत, धचत्रों, तासलकाओं आहि का भी उल्लेख
होिा चाहहए। साथ ही जहााँ जरूरत हो कैमरे के इस्तेमाल के संकेत और नििे शि के सलए
आवश्यक हहिायतें भी सलखे होिे चाहहए। िायीं तरफ िैरेटर का कथि, साक्षायकार में कही गयी
बातें या कोई पहले से ररकाडेड आवाज़ में कही गयी बात का उल्लेख हो। यह आवश्यक िहीं फक
दृश्य बायीं तरफ ही हो, वह िायीं तरफ भी सलखे जा सकते हैं। ऐसी न्स्थनत में ऑडडयो बायीं
तरफ होंगे। वत्त
ृ धचत्र की पटकथा भी सीि के अिुसार ही सलखी जािी चाहहए। लेफकि सलखी गयी
पटकथा अंतत: संपािि के िौराि ही अंनतम रूप प्राप्त करती है ।

डॉक्यूमेंरी का एक प्रकार डॉक्यूड्रामा भी होता है न्जसमें बीच-बीच में कुछ िाटकीय दृश्यों
का इस्तेमाल फकया जाता है । ऐसे दृश्यों की पटकथा का लेखि वैसे ही फकया जाता है जैसे फकसी
फ़िल्म के सलए पटकथा सलखी जाती है । अंतर ससफष इतिा होता है फक डॉक्यूड्रामा में िाटकीय
दृश्य में िाटक का छोटा सा अंश होता है न्जसका डॉक्यूमेंरी के ववर्य से संबंध होता है ।

40
डॉक्यूमेंरी में िाटक के अंश का इस्तेमाल आमतौर पर फकसी बात को, घटिा या प्रसंग को स्पष्ट्ट
करिे के सलए फकया जाता है । इसके सलए आजकल एनिमेशि का भी इस्तेमाल फकया जाता है ।

बोध प्रश्न-5

9. निम्िसलणखत में से कौि सा उद्िे श्य वत्त


ृ धचत्र पर लागू िहीं होता।
(i) मिोरं जि करिा
(ii) सच
ू िा िे िा
(iii) ज्ञािवाि बिािा
(iv) सशक्षक्षत करिा ( )
10. निम्िसलणखत में से जो कथि वत्त
ृ धचत्र पर लागू ि हो उसके आगे ‘िहीं’ सलणखए।
(i) वत्त
ृ धचत्र को तथ्यपरक होिा चाहहए।
(ii) वत्त
ृ धचत्र के केंद्र में कोई ववर्य या समस्या अवश्य होिी चाहहए।
(iii) वत्त
ृ धचत्र िाटकीय होिा चाहहए।
(iv) वत्त
ृ धचत्र कल्पिाशील होिा चाहहए ( )

2.8 सारांश

यह इकाई ‘पटकथा एवं संवाि लेखि’ खंड से संबधं धत है । इसमें फीचर फ़िल्म, टीवी
धारावाहहक, कहािी और डॉक्यूमेंरी की पटकथा लेखि के बारे में बताया गया है । इकाई में सबसे
पहले दृश्य माध्यमों की पटकथा से संबधं धत उि सामादय ववसशष्ट्टताओं का उल्लेख फकया गया है
जो फकसी भी तरह के दृश्य माध्यमों की पटकथा सलखते हुए ध्याि रखिे की जरूरत है । पटकथा
के आधार पर ही फ़िल्म का निमाषण होता है । पटकथा सलखते हुए पटकथाकार को कहािी का
केंद्रीय ववचार, उसकी रूपरे खा, उसके पात्र, कहािी में ऐसे प्रसंग जो ववसभदि पात्रों के पारस्पररक
संबंध, तिाव और संघर्ष को िशाषते हैं का ध्याि रखिा होता है । उसे फ़िल्म के तकिीकी पक्षों की
जािकारी होिा भी जरूरी है ताफक वह कैमरा, संगीत, संवाि आहि के संबंध में संकेत बता सके।

आगे के भागों में फीचर फ़िल्म और टीवी धारावाहहक की पटकथा लेखि की ववसशष्ट्टताओं
का उल्लेख फकया गया है न्जससे ववद्याथी इि ववधाओं के पटकथा लेखि के ववसभदि पक्षों को
अच्छी तरह समझ सकें। इकाई में कहािी के फ़िल्म में रूपांतरण के सलए पटकथा सलखिे पर भी
ववस्तार से ववचार फकया गया है । फकसी साहहन्ययक कृनत को फ़िल्म में रूपांतररत करिे में फकि
बातों का ध्याि रखा जािा चाहहए इसे इकाई में स्पष्ट्टता से समझािे की कोसशश की गयी है ।
अंत में , डॉक्यूमेंरी की पटकथा सलखिे के बारे में ववचार फकया गया है । डॉक्यम
ू ें री गैरकथायमक
ववधा है और इसका मकसि सूचिा, सशक्षा और ज्ञाि िे िा है , ि फक मिोरं जि करिा। डॉक्यूमेंरी
में तथ्यों का बडा महत्त्व होता है और उिका उपयोग कहााँ-कहााँ से और कैसे-कैसे फकया जा सकता
है , इसके बारे में भी बताया गया है ।

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इस इकाई को पढिे के बाि आप फीचर फ़िल्म, टीवी धारावाहहक, कहािी का फफल्मांतरण
और वत्त
ृ धचत्र के पटकथा लेखि की ववसशष्ट्टताओं के बारे में बता सकते हैं।

2.9 उपयोगी पुस्तकें

* पटकथा लेखि: व्यावहाररक नििे सशका: असग़र वजाहत, राजकमल प्रकाशि प्रा. सल., ियी
हिल्ली।

* पटकथा लेखि: एक पररचय: मिोहर श्याम जोशी, 2000, राजकमल प्रकाशि प्रा. सल.,
ियी हिल्ली।

* कथा-पटकथा: मदिू भंडारी, 2003, वाणी प्रकाशि, ियी हिल्ली।

* सारा आकाश पटकथा: राजेंद्र यािव, बासु चटजी, 2007, राजकमल प्रकाशि प्रा. सल.,
ियी हिल्ली।

* जिसंचार के सामान्जक संिभष: जवरीमल्ल पारख, 2001, अिासमका पन्ब्लशसष एंड


डडस्रीब्यट
ू सष प्रा. सल. , ियी हिल्ली।

2.10 अभ्यास

1. दृश्य माध्यमों के सलए पटकथा लेखि की सामादय ववसशष्ट्टताओं का उल्लेख कीन्जए।

2. फीचर फ़िल्म की पटकथा सलखिे के सलए फकि-फकि बातों का ध्याि रखिा चाहहएॽ
उिाहरण सहहत समझाइए।

3. टे लीववजि के सलए ववर्य और ववधा अिुसार फकतिे प्रकार के धारावाहहक होते हैंॽ
धारावाहहकों के सलए पटकथा लेखि की ववशेर्ताओं के बारे में बताइए।

4. फकसी कहािी या उपदयास का फ़िल्म में रूपांतरण करिे के सलए पटकथा सलखते हुए
फकि बातों को ध्याि में रखिा चाहहएॽ

5. वत्त
ृ धचत्र की पटकथा और कथा आधाररत फ़िल्म की पटकथा में क्या बनु ियािी अंतर होता
है और यह अंतर वत्त
ृ धचत्र की पटकथा लेखि को कैसे प्रभाववत करता है ॽ स्पष्ट्ट कीन्जए।

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इकाई-3

संवाद-लेखन : संरचना और ससद्धांत

डॉ. हर्षबाला शमाष,


इदद्रप्रस्थ कॉलेज, हिल्ली

3.1 प्रस्तावना

संवाि मिुष्ट्य जीवि का मल


ू सेतु है । जब हम समाज की पररकल्पिा करते हैं तो उसके केंद्र में
संवाि अनिवायष है । संवाि जीवि की धुरी है । मिुष्ट्य समाज संवाि के माध्यम से ही आपस में
जुडा है । समस्त िनु िया की शांनत प्रफक्रयाएाँ, मिष्ट्ु य संबंध संवाि के रास्ते ही चलते और निसमषत
होते हैं। संवाि ही हमारी सबसे बडी शन्क्त है न्जसके सहारे िो मिष्ट्ु यों से लेकर िो िे शों के बीच
संबंध निसमषत फकए जाते हैं। िाटक से लेकर फफल्म तक संवाि ही केंद्र में हैं। पटकथा सलखते
समय लेखक अपिी कल्पिा में अिेक पात्रों को जदम िे ता है तथा उिके माध्यम से कथा सत्र

निसमषत करता है । इस इकाई में संवाि लेखि के ससद्धांत और संरचिा पर ववचार फकया जाएगा।

3.2 अधधगम का उद्दे श्य

इस इकाई को पढिे के पश्चात ववद्याथी यह सीख सकेंगे फक—

1. संवाि क्या है ?
2. पटकथा-लेखि में संवाि का महययव जािे सकेंगे।
3. संवाि की संरचिा की प्रफक्रया को समझ सकेंगे।
4. संवाि लेखि के प्रमुख ससद्धांत की उपयोधगता को जाििे में मिि समलेगी।
5. संवाि और सम्प्रेर्ण के संबध
ं का महययव जाि सकेंगे।
6. िाटक, टीवी और फफल्म के संवाि लेखि में अंतर की प्रफक्रया को समझ सकेंगे।

3.3 संवाद क्या िै

िो या िो से अधधक व्यन्क्तयों के बीच बातचीत के सलए संवाि का प्रयोग होता है । संवाि फकसी
कथा को मत
ू ष आकार िे ते हैं, पात्रों के मि के भीतर समाई ववर्यवस्तु/ कथािक को प्रस्तुत करिे
के सलए संवाि ही सहायक होते हैं। लेखक न्जस कथा को पदिों पर आकार िे ता है , पात्र/चररत्र
उसे संवािों के सहारे िशषक तक पहुाँचाते हैं। शौम (2012) (Chaume) सलखते हैं फक संवाि लेखक
द्वारा निसमषत तथा पूव-ष संरधचत (prefabricated) रूप हैं न्जिके माध्यम से सलप-ससंक करते हुए
पात्रों को ऐसे प्रस्तुत फकया जाता है , जैसे वह पूव-ष सलणखत शब्िों का इस्तेमाल ि करके ठीक उसी
समय इि भाविाओं को व्यक्त करते हुए वास्तववक शब्िों का प्रयोग कर रहे हों। इसका प्रभाव
िशषक पर भी कुछ ऐसा ही होता है जैसे िशषक उि संवािों के सहारे सामिे खडे/ स्क्रीि पर

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हिखाए जािे वाले चररत्रों का ही जीवि िे ख रहा हो! ‘It creates workable, convincing,
prefabricated oral script that meets all lip-sync requirements, but at the same time gives the
impression that it is an original dialogue’

मोहि राकेश संवाि की पररभार्ा िे ते हुए कहते हैं—प्रसंग, प्रथािुरूप आलाप फकए गए वाक्य प्रयोग
को संवाि कहा जाता है । मोहि राकेश यहााँ िो तत्त्वों पर ववशेर् रूप से बल िे ते हैं—पहला संवाि
प्रसंग के अिुरूप होिे चाहहए और िस
ू रा प्रथा के अिुसार—यािी यहि कथा (पटकथा) ऐनतहाससक
है तो संवाि भी उसी के अिुसार होंगे, यहि पटकथा सामान्जक है तो संवाि की भार्ा भी
युगािुरूप बिल जाएगी।

संवाि हमें ि केवल कथा से जोडिे का काम करते हैं बन्ल्क िे श-काल, वातावरण को िशषक के
समक्ष प्रस्तुत करते हैं। पात्रों के जीवि संघर्ष को सामिे लािे का काम करते हैं साथ ही कथा के
सूत्र को आगे बढािे का काम भी करते हैं। जगदिाथ प्रसाि शमाष सलखते हैं ‘संवाि जहााँ एक ओर
कथा प्रसार का मुख्य साधि होता है , वही चररत्रोंिघाटि का भी साथ ही िे शकाल का भी पयाषप्त
बोध करा िे ता है ।’

संवाि में वक्ता और श्ोता िोिों की अहम भूसमका होती है । संचार की दृन्ष्ट्ट से िाइडा िे संवाि
में चार न्स्थनतयों को व्यक्त फकया और इिकी भसू मका को जरूरी मािा—

• उद्भावक (Originator) — न्जिके द्वारा बातचीत की शुरुआत की जाती है जैसे फकसी


कथा सत्र
ू का िायक, फकसी घटिा का प्रमख
ु पात्र, फकसी अस्पताल का डॉक्टर, फकसी
िक
ु ाि का ग्राहक, फकसी िशषिशास्त्र का प्रणेता आहि।
• सूचना वािक — जो उद्भावक की जािकारी िस ू रे तक पहुाँचािे का कायष करते हैं जैसे
अध्यापक, मीडडयाकमी, संिेशवाहक, अिव
ु ािक आहि।
• ननयंत्रणकताा — वे जो संिेश को बाधधत करते हैं अथवा उसकी फफल्टररंग करते हैं । ये एक
तरह से संवाि को नियंबत्रत करते हुए उसे समय और समाज के अिुकूल बिाते हैं। जैसे
फकसी ववशेर् काल से संबंधधत पटकथा में उस काल की भार्ा और उसी में रधचत संवािों
का ध्याि रखिा आवश्यक होगा। 16वीं सिी की पटकथा में बीसवीं सिी की संवाि
योजिा िहीं आ सकती। यह एक प्रकार का नियंत्रण है न्जसका ध्याि संवािों की रचिा
प्रफक्रया में रखिा आवश्यक है ।
• ग्रिणकताा (Reciever) — श्ोता जो उद्भावक की बात को ग्रहण करता है जैसे ऊपर के
उिाहरण में फकसी कथा सत्र
ू की िानयका, फकसी घटिा का गौण पात्र, फकसी अस्पताल का
मरीज (या िसष/ या कोई अस्पतालकमी), फकसी िक
ु ाि पर िक
ु ाििार, फकसी िशषिशास्त्र
का ववद्याथी। बाि में यह वक्ता की भूसमका में आएगा और उद्भावक श्ोता की भूसमका
ग्रहण करे गा।

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संवाि के संिभष में आयषववि आर. ब्लैकर सलखते हैं— “Dialogue is not conversation; while if
may create the illusion of conversation, it is selected ordered and purposeful.” यािी संवाि
ससफष बातचीत िहीं है बन्ल्क यह फकसी उद्िे श्य और प्रफक्रया के आधार पर सलखे और बोले
जाते हैं न्जसके पीछे एक सनु िन्श्चत पटकथा होती है ।

3.3.1 प्रश्नों की स्वयं जााँच करना


प्रश्ि (क) निम्िसलणखत प्रश्िों के उत्तर हााँ या िा में िीन्जए—
i. संवाि प्रसंग के अिरू
ु प होिे चाहहएाँ (.....)
ii. ससिेमा में केवल संवाि ही महययवपूणष है (.....)
प्रश्ि (ख) कोष्ट्ठक में हिए गए शब्िों में से सही शब्ि चुिकर ररक्त स्थाि की पूनतष कीन्जए—
i. िायडा िे संवाि की प्रफक्रया के ...................... अंग मािे। (तीि, चार)
ii. संवाि में वक्ता और ..............की भूसमका जरूरी है । (श्ोता, नियंत्रक)
iii. संवाि के केंद्र में एक निन्श्चत ...................होती है । (थ्योरी, कल्पिा, पटकथा, कहािी)
iv. ससिेमा की भार्ा ......... (पररवेश, कल्पिा, संवाि) द्वारा निसमषत की जाती है ।

3.4 संवाद के काया

संवाि पटकथा का मूल अंग हैं। पटकथा िो प्रकार से सलखी जाती है —पहला ‘वि लाइिर स्टे प
लेखि’ के रूप में वहीं िस
ू रा पूणष पटकथा लेखि के साथ संवाि सलखते हुए! संवाि पाठ को
खोलिे का कायष करता है और कथा सूत्र को आगे बढाता है । िशषक फफल्म िे खते हुए पात्र के साथ
इस प्रकार तािायमय कर लेता है फक उसके अगले संवाि की पररकल्पिा करिे लगता है । यह
संवाि लेखक द्वारा पहले ही तैयार कर सलए जाते हैं पर िशषक को इसका आभास भी िहीं होता
बन्ल्क वह हर संवाि के भीतर अिाकार की अिायगी को समझिे और जााँचिे की कोसशश करता
है । जब कभी ‘फकतिे आिमी थे’ सि
ु ाई िे ता है तो अमजि खाि की संवाि अिायगी ही हमारे
समक्ष आती है , संवाि की पूवष सलणखत पररकल्पिा हमारे समक्ष िहीं आती। संवाि इस दृन्ष्ट्ट से
निम्ि कायष करते हैं—

• चररत्रों की आितों, ववसशष्ट्टताओं और व्यवहार का निरूपण


• कथा का ववकास और कथा के ववववध प्रसंगों का उद्घाटि
• पररवेश का उद्घाटि
• चररत्रों का क्रसमक ववकास, उिके भीतरी संघर्ष की यात्रा की प्रस्तनु त
• दृश्य के अधूरेपि को पूरा करिे कायष
• िे श, काल और समाज की मािससकता का उद्घाटि
• भार्ायी क्षेत्र के वैसशष्ट््य का उद्घाटि
• फकसी पात्र ववशेर् की शैली का प्रस्तुतीकरण

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संवाि पटकथा की ववर्यवस्तु के अिुसार सलखे जाते हैं। आध्यान्यमक कथा के भीतर पात्रों के
पौराणणक स्वरूप का उद्घाटि न्जतिा उिकी वेशभर्
ू ा से होगा उतिा ही उिके संवािों से।
महाभारत के पात्र ‘समय’ को याि कीन्जए न्जसके संवाि लेखक राही मासम
ू रज़ा थे। समय के
संवाि चफूं क महाभारत काल को िशाषते थे, इससलए उसकी भार्ा उस काल के अिुरूप ही हिखाई
िे ती है । एक उिाहरण िे खा जा सकता है—

‘मैं समय हूाँ। मेरा जदम सन्ृ ष्ट्ट के निमाषण के साथ हुआ था। मैं वपछले युगों में था, इस युग में
हूाँ और आिे वाले सभी यग ु ों में रहूाँगा। अिंत काल से पथ्
ृ वी पर राज करिे की लडाई जारी है ....’

इसी प्रकार यहि कथा ऐनतहाससक है तो उसके संवाि इनतहास के ववशेर् युग से ही प्रभाववत होंगे।
उिाहरण के सलए ‘पद्मावत’ फफल्म के सम्वाि को यहि िे खा जाए तो—‘धचंता को तलवार की िोंक
पर रखे वो राजपूत, रे त के िांव लेकर समंिर से शतष लगाए वो राजपूत और न्जसका ससर कट
जाए और धड िश्ु मि से लडता रहे वो राजपत
ू ।’ यह डायलॉग उस काल के राजपत
ू वीरों का
जीवि हिखाता है ।

राजेदद्र पांडे अपिी पुस्तक ‘पटकथा कैसे सलखें’ में संवाि के कायष पर ववचार करते हुए सलखते हैं
–‘कुछ खाद्य पिाथष प्राकृनतक रूप से खारे होते हैं, कुछ प्राकृनतक रूप से मीठे ! जो खारे होते हैं,
क्या पकाते समय हम उिमें उतिा ही िमक छोडते हैं, न्जतिा उिमें जो खारे िहीं हैं?...िहीं।
हम िमक छोडते समय यह ख्याल रखते हैं फक खारे पि की जो हमारी आवश्यकता है , वो बिी
रहे .************** संवाि को लेकर भी यही नियम लागू होता है ।’ इस नियम के आधार पर
वे संवाि से निम्ि अपेक्षाएाँ रखते हैं—

• जहााँ दृश्य बोल रहा हो, तो संवाि को कम बोलिा चाहहए। दृश्य यहि इतिा सजीव है फक
उसी से िशषक तक बात पहुाँच सकती है तो संवाि को कम-से-कम होिा चाहहए।
• जहााँ दृश्य िहीं बोलता यािी दृश्य से कथा आगे िहीं बढती, वहााँ संवाि अपेक्षक्षत हैं।
• संवाि न्जतिे छोटे होंगे, उतिे ही प्रभावशाली होंगे, िपेतुले संवाि िशषक पर प्रभाव डालते
हैं। लंबे संवाि िशषक को उबाऊ लगते हैं। मोिोलॉग के स्थाि पर संवाि (छोटे -छोटे )
अधधक प्रभाव छोडते हैं।
• संवाि की भार्ा पात्र के अिुकूल होिी चाहहए यािी पात्र न्जस क्षेत्र, समाज का
प्रनतनिधधयव कर रहा है , उसके संवाि उसके क्षेत्र की शन्क्त और सीमाओं से संचासलत
होंगे।
• फफल्म/ पटकथा की मााँग के अिुसार संवाि का चुटीला, हास्य-व्यंग्य से पूणष होिा
आवश्यक है । अपिे युग और काल का प्रनतनिधधयव भी संवािों को करिा चाहहए।

िशषक जब फफल्म िे खकर हॉल से बाहर निकलता है तो कहािी से ज्यािा संवाि उसके मि और
मन्स्तष्ट्क पर छाए रहते हैं। हाल ही में ररलीज हुई आयष्ट्ु माि खरु ािा की फफल्म ‘बाला’ का एक

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डायलॉग पूरी फफल्म की टोि को खोल िे ता है- ‘जो आिमी अपिी शक्ल शीशे में िहीं िे ख
सकता, उसकी शक्ल मैं पूरी न्जंिगी भर क्यों िे खूं!’ िशषक को भीतर से झकझोर कर रख िे ता है
यह वाक्य! और वह अपिी कमजोररयों के बारे में पि
ु ववषचार के सलए बाध्य हो जाता है ।

कई बार कुछ संवाि फकसी कलाकार के सलए ‘ससग्िेचर स्टे टमें ट’ का काम करते हैं। उसके
व्यन्क्तयव से िशषक इतिे प्रभाववत होते हैं फक उसका स्टाइल और टोि भी संवाि में अपेक्षक्षत
होता है । संवाि उसके इस टोि को प्रेवर्त करिे का भी काम करते हैं जैसे राजकुमार, हिलीप
कुमार, मिोज कुमार, असमताभ बच्चि, शाहरुख खाि के संवाि सलखते समय इिके व्यन्क्तयव
का उभार भी संवािों में हिखाई िे ता है । ‘न्जिके खुि के घर शीशे के बिे होते हैं, वो िस
ू रे पर
पयथर िहीं फेंकते धचिॉय सेठ’, ‘राहुल, िाम तो सुिा ही होगा’, ‘डॉि को पकडिा मुन्श्कल ही
िहीं, िामम
ु फकि है ’, ‘आई केि टाक इंन्ग्लश, आई केि वाक् इंन्ग्लश, आई केि लाफ इंन्ग्लश
बबकाज इंन्ग्लश इज अ वेरी फिी लैंग्वेज’ इि वाक्यों का िरू गामी पररणाम यह भी हुआ फक कई
अिाकारों िे इदहें अपिाकर मूल कलाकार की टोि की िकल करिे का भी प्रयास फकया।

संवाि फकसी फफल्म का सबसे सजीव हहस्सा है न्जसे सुिकर िशषक ि केवल िायक-िानयका से
जुड जाते हैं बन्ल्क उिके साथ-साथ हाँसते और रोते हैं। उिके पहले से याि फकए गए संवािों के
आधार पर उिकी छवव मि के भीतर निसमषत करते हैं, उिकी खश
ु ी और िुःु ख को साझा करते हैं,
उसे भला-बुरा कहते हैं, डरते हैं, क्रोधधत होते हैं, लाज से भर जाते हैं। यािी संवाि हमारी
मिोववृ त्तयों को संचासलत करिे लगते हैं। ‘बजरं गी भाईजाि’ फफल्म में काम करिे वाली बच्ची के
‘मामा’ कहिे भर से पूरा िशषकों से भरा हॉल सजीव हो उठता है , तब संवाि की शन्क्त को िे खा
और समझा जा सकता है ।

हमारे मिोववज्ञाि को इतिा प्रभाववत करिे वाले संवाि फकसी पात्र को परू ी तरह स्वीकार और
िकारिे का माध्यम भी बि जाते हैं। रामायण में राम का फकरिार निभािे वाले अरुण गोववल को
फकसी साधारण िायक की तरह फफल्मों में िे खिे से िशषकों िे इिकार कर हिया। मशहूर ववलेि
प्राण की संवाि अिायगी लोगों को ऐसी भायी फक वे ववलेि के रूप में ही स्वीकार कर सलए गए,
फकसी अदय भसू मका में उदहें िहीं स्वीकार फकया गया।

3.4.1 प्रश्नों की स्वयं जााँच करना

प्रश्ि (क) निम्िसलणखत प्रश्िों के उत्तर एक शब्ि या एक पंन्क्त में िीन्जए—


i. क्या संवाि पात्रों के संघर्ष का उद्घाटि करिे में समथष होते हैं?
ii. क्या संवाि हमारे मिोववज्ञाि को प्रभाववत करते हैं ?
iii. क्या संवाि पात्र के क्षेत्र ववशेर् की शन्क्त और सीमाओं को व्यक्त करते हैं? फकस प्रकार?
iv. फकदही िो असभिेताओं के ‘ससग्िेचर स्टे टमें ट’ के उिाहरण सलणखए?

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प्रश्ि (ख) सही शब्िों से ररक्त स्थाि की पनू तष कीन्जए-

i. हास्य फफल्मों में संवािों का .................( जोशपरक, चट


ु ीला, गंभीर)होिा जरूरी है ।
ii. ...............संवाि कला फफल्मों में अनिवायष रूप से िे खे जा सकते हैं। ( गम्भीर,
हास्यपरक)
iii. ससिेमा के संवाि अलग अलग ...............से फफल्म िे खिे का िजररया प्रस्ताववत करते
हैं। (दृन्ष्ट्ट, सीमाओं)

3.5 संवाद की संरचना

संवाि सलखे जािे की एक परू ी प्रफक्रया है जो लेखक, वक्ता और िशषक के मिोववज्ञाि से होकर
गुजरती है । इसमें भावर्क ध्वनियों, शब्िों, वाक्य रचिा का भी उतिा ही महययव है न्जतिा
उसकी शैली का! हालांफक यह ध्याि रखिा जरूरी है फक संवाि लेखि में ध्वनि, वाक्य और शब्ि
वैसे िहीं आते, जैसे वह सामादय व्याकरण में सीखे और ससखाए जाते हैं। एक उिाहरण केन्ल्वि
और हॉब्स से लेते हैं। केन्ल्वि एक लडकी से पूछता है Do you hate being a girl? अब इसका उत्तर
सोधचए! इसका उत्तर हो सकता है ‘िहीं’ या ‘हााँ’ पर वह लडकी इतिा मजेिार/व्यंग्यायमक/ धारिार
उत्तर िे ती है फक पाठक के चेहरे पर मुस्काि आए बबिा रहती। उसका उत्तर है –Its gotta be better
than the alternative! अब इस संवाि में ससफष इि शब्िों/ वाक्यों की ही िहीं, दृश्य की भी उतिी
ही बडी भूसमका है । बच्ची के चेहरे पर हिखती उपेक्षा, केन्ल्वि की है रािी और िरवाजा खुलिे की
भी इस संवाि के संप्रेर्ण में उतिी ही जरूरी भूसमका है । इसी से एक और उिाहरण भी लेते हैं।
यह उिाहरण मोिोलॉग का है —केन्ल्वि और एक बच्ची साथ में खडे हैं। िोिों के हाथ में स्कूल
बैग है । िे खकर लगता है फक बस का इंतजार फकया जा रहा है । बच्ची बहुत खश ु है और केन्ल्वि
के माथे पर ययौरी चढी है , वो कहता है —I can’t believe, I am here waiting to go to school. What
happened to summer? इस परू े दृश्य में कोई उत्तर िहीं है । यह एक वाक्य ही संवाि का कायष
करता है , बची-खुची जरूरत दृश्य पूरी कर िे ता है —पीछे एक उिास पेड और खाली जगह!

अब इससे हम क्या निष्ट्कर्ष निकाल सकते है - संवाि के निमाषण में ध्वनि, शब्ि, वाक्य, ववशेर्
शैली में प्रस्तुत रन्जस्टर (प्रोन्क्त), पररवेश, मूड (स्वभाव) और क्षेत्र की महती भूसमका है । संवाि
की संरचिा व्याकरण के नियमों के अिस
ु ार िहीं चलती बन्ल्क पटकथा के अिस
ु ार चलती है।
इससलए इसे भार्ा संरचिा ि कहकर दृश्य-भार्ा संरचिा कहा जा सकता है ।

इस संरचिा के निमाषण में रचिाकार (लेखक) का अिुभव जगत भी बडी भूसमका निभाता है ।
न्जसका अिुभव संसार न्जतिा ववस्तत
ृ होगा, उसके संवािों में उतिी ही गहराई होगी। साथ ही
न्जस रचिाकार की कल्पिा शन्क्त न्जतिी उवषर होगी, उतिा ही बेहतर संवाि लेखि संभव हो
सकेगा। इसका एक उिाहरण सुरेदद्र वमाष के उपदयास ‘मुझे चााँि चाहहए’ से सलया जा सकता है
जहााँ फफल्म माध्यम में संवाि और कल्पिा की शन्क्त के संबंध की चचाष की गई है ।

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‘संवाि बबलकुल रोजमराष के हैं। पािी पी लो, रोटी ठं डी तो िहीं हुई, और इदहीं के इिष -धगिष कैसे
गहरी भाविाएाँ गूंथी गई हैं।’

‘यही तो इस मीडडयम की शन्क्त है ’******************* ‘मंच पर असभिेत्री िशषक से िरू


होती है । उसे अपिे को प्रोजेक्ट करिा होता है । यहााँ कैमरा तुम्हारे बबलकुल पास है ... बहुत
सेंसेहटव और बहुर क्रूर। यहााँ तुम्हें अंडरप्ले करिा होगा। वास्तववक न्जदिगी में जो तुम्हारा बताषव
होगा, लगभग उसी के जैसा, पर संतुसलत और सुववचाररत!’ पष्ट्ृ ठ 301

यही शन्क्त संवािों की संरचिा में हिखाई िे ती है फकशोर वासवािी अपिी पुस्तक ‘ससिेमाई भार्ा
और हहंिी संवािों का ववश्लेर्ण’ में संप्रेर्ण की प्रफक्रया की संरचिा पर ववचार करते हुए उसे िो
भागों में बांटकर िे खते हैं—वह
ृ ि संरचिा (मैक्रो स्रक्चर) और सूक्ष्म संरचिा (माइक्रो स्रक्चर)।
माइक्रो स्रक्चर में पटकथा, संगीत और असभप्रायों को िोहरािे की प्रफक्रया को शासमल करते हैं ।
िस
ू री संरचिा में वे कैमरे द्वारा छवव निमाषण, शॉट आहि को शासमल करते हैं। संवाि को भी वे
मैक्रो स्रक्चर में ही शासमल करते हैं क्योंफक ‘संवािों का स्थाि ससिेमाई भार्ा में वह
ृ ि संरचिा के
अंतगषत आता है और ये फफल्म के संिेश को सम्प्रेवर्त करिे का कायष करते हैं। चूंफक ससिेमाई
संवाि (चलधचत्र) पटकथा (स्क्रीि प्ले) का एक ववशेर् अंग हैं अत: इसे पटकथा के साथ जोडकर
िे खा जािा चाहहए।’ (पष्ट्ृ ठ 112)

गुलज़ार, राही मासूम रज़ा, कमलेश्वर, ऋवर्केश मख


ु जी आहि ऐसी कई लेखक हैं जो संवाि कला
के सलए जािे जाते रहे हैं। यहााँ हम ऋवर्केश मुखजी द्वारा सलणखत ‘चुपके-चुपके’ के डायलॉग को
िे ख सकते हैं जहााँ असमताभ जया को जब कोरे ला और करे ला के बीच फकष िहीं समझा पाते और
जया उिसे प्रेम करिे लगती है । जया की बडी बहि उसके हाथ में अंगूठी िे खकर पूछताछ करती
है —

‘यह अंगूठी तुम्हारे पास कहााँ से आई?

बगीचे में समली।

पडी हुई समली?

िहीं, उदहोंिे िी।

उदहोंिे...फकदहोिे...?

वो..वो..वो .. जीजाजी के िोस्त हैं िा!

इस पर एस क्यों सलखा है ?

मेरा िाम वसध


ु ा है िा... वी ए एस... वही वाला एस..

वो वाला एस... िहीं गधी वाला एस... गधी बिा रहा है तुझे!’ (चुपके-चुपके)

49
अब यहि इसे ध्याि से िे खा जाए तो इसमें वाक्य संरचिा की दृन्ष्ट्ट से सभी वाक्य पण
ू ष िहीं हैं
पर अथष प्रेवर्त करिे में परू ी तरह समथष है । असल में भार्ा और फफल्म का फॉमल
ूष ा एक जैसा
िहीं चलता। व्याकरण की दृन्ष्ट्ट से जो पण
ू ष हिखता है , यहि वैसा वाक्य फफल्म के सलए सलखा
जाए तो फफल्म फेल हो जाएगी। संवािों में वणषिायमकता से बचिा जरूरी है क्योंफक साहहयय
लेखि और फफल्म के सलए संवाि लेखि में अंतर है । यहााँ न्स्थनतयााँ पात्रों पर हावी हैं ि फक
ध्वनियााँ और शब्ि! सययन्जत रे इस सदिभष में कहते हैं ‘फफल्म में सबसे बहढया संवाि वहीं होगा
जहााँ िशषक संवाि लेखक की उपन्स्थनत महसूस ि करे ।’

संवाि की संरचिा वही श्ेष्ट्ठ है जहााँ िशषक को अथष ग्रहण करिे के सलए संवाि को फफर से सुििे
की जरुरत महसूस ि हो बन्ल्क एक ही बार में अथष प्रेवर्त हो जाए। कई बार फकसी अच्छी
कहािी को खराब संवाि लेखक बबगाडते हैं तो कई बार खराब कहािी अपिे अच्छे / पॉपल
ु र संवािों
के कारण लोकवप्रय हो सकती है । टे लीववजि लेखि िामक पुस्तक में असगर वजाहत और प्रभात
रं जि संवाि की संरचिा पर ववचार करते हुए सलखते हैं—‘प्रससद्ध लेखक अिेस्ट हे समंग्वे और
ऍ़ि.स्कॉट फफ्ज़जेराल्ड एक सफल पटकथा लेखक बििा चाहते थे, पर िहीं बि पाए। इसका
कारण यह बताया जाता है फक उिके संवाि दृश्य माध्यम के अिुकूल िहीं होते थे। मसलि अगर
आप यह सलखते हैं फक वह िे खो रमेश आ रहा है तो यह आपका संवाि फफल्म या टे लीववजि
लेखि के सलए उपयुक्
ष त िहीं मािा जाएगा क्योंफक यह तो सभी िे ख रहे हैं फक रमेश आया रहा
है । संवाि लेखि के बारे में यह कहा जाता है फक अच्छा संवाि वह है जो फक यह बताए जो
आपके चररत्र में िजर िहीं आ रहा हो।’ (पष्ट्ृ ठ 49)

इस संिभष में क्लाससकल ससद्धांत जहााँ ऐनतहाससक, पौराणणक और शास्त्रीय ववर्यों पर बिी
फफल्मों में आसभजायय से भरपूर संवाि पर बल िे ता है वहीं फौमषसलस्ट ससद्धांत संवाि की
निन्श्चत फौमेशि पर बल िे ता है । फेसमनिस्ट थ्यरी के अिुसार स्त्री पक्ष के संवाि ‘वपंक’ जैसी
फफल्मों में िे खे जा सकते हैं। असमताभ इस फफल्म में कहते है ‘उसकी िा का मतलब िा है ।’

इस प्रकार संवािों की संरचिा पर ववचार करते हुए निम्ि निष्ट्कर्ष निकाले जा सकते हैं—
• पटकथा के संवाि व्याकरण की संरचिा से सभदि मािे जाते हैं।
• संवाि चररत्र के भीतरी द्वंद्व को उद्घाहटत करिे में समथष हों, इसके सलए उदहें
छोटे -छोटे और तेज असरिार होिा जरूरी है ।
• संवाि की भार्ा में पात्र का चररत्र उभरकर आिा आवश्यक है । इससलए पात्र के क्षेत्र,
स्वभाव, आयु, जेंडर और अंिाज का ध्याि रखिा आवश्यक है ।
• संवाि लेखक का अपिे चररत्रों से एकमेक होिा जरूरी है न्जससे वह स्वयं को
कायांतररत करके िे ख सके तभी संवाि सहज और यथाथष का आभास करािे में
सक्षम होंगे।

50
• तफकया कलाम का प्रयोग करते हुए फकसी चररत्र को उभारा जा सकता है जैसे
अमरीश पुरी का डायलॉग ‘मौगैम्बो खुश हुआ’ या चुपके चुपके फफल्म में असमताभ
का संवाि ‘ससंपल, वैरी-वैरी ससंपल’।
• वणषिायमकता का कम से कम प्रयोग होिा चाहहए।
• संवाि को जबरि अधूरा रखिा भी ठीक िहीं मािा जाता।
• एक ही वाक्य को िोहरािा िहीं चाहहए जब तक फक वह अययंत जरूरी ि हो।
• धगसेल स्पेरी समग्यािी अपिी पुस्तक Dialogue writing for dubbing: An
insider’s perspective में संवाि को 8 तत्त्वों से जोडकर िे खते हैं—छवव (image)
िे ह भार्ा (body language) दृश्य प्रभाव (visual effects) संगीत (music)
धचत्रांकि (photography) दृश्यांकि (scenography) प्रकाश (lighting) असभिेताओं
की अिाकारी (actor’s performance) यह सभी तत्त्व समलकर संवाि की संरचिा में
जरूरी भूसमका निभाते हैं।
• न्जि पात्रों को अनतरं न्जत रूप में प्रस्तुत फकया गया हो, यािी न्जदहें फकसी अय्यारी,
फैं तेसीपरक भसू मका में हिखाया गया हो, उिके संवािों में भी फैटे सी या कल्पिा का
गहि प्रभाव हिखाया जाि चाहहए।
• द्ववअथी संवािों का प्रयोग कम-से-कम होिा चाहहए। आजकल फफल्मों में इस तरह
के संवाि बहुप्रचसलत हो रहे हैं पर संवाि लेखक को इिसे बचिे का प्रयास तो
करिा ही चाहहए।
• टूटे और अधरू े वाक्य फफल्म की पटकथा के अिस
ु ार आिे चाहहए। साहहन्ययक शैली
का प्रयोग कम से कम हो।
• न्क्लष्ट्ट शब्िों का प्रयोग दयूितम होिा चाहहए। दृश्य के सहायक के रूप में संवाि
की रचिा होिी चाहहए।

3.5.1 प्रश्नों की स्वयं जााँच करना


प्रश्ि (क) निम्िसलणखत प्रश्िों का उत्तर एक या िो पंन्क्तयों में िीन्जए—
i. वह
ृ ि संरचिा का अथष समझाइए और उसमे संवाि की भसू मका स्पष्ट्ट कीन्जए।
ii. माइक्रो ससद्धांत के केंद्र में फकसे रखा जाता है ?

प्रश्ि (ख) निन्म्लणखत प्रश्िों पर सही/गलत के निशाि लगाइए—

i. क्लाससकल ससद्धांत आसभजायय संवाि का प्रारूप प्रस्तुत करता है । (सही/गलत)


ii. फैं टे सी पर आधाररत फफल्मों में भार्ा में भी अनतरं जिा पाई जाती है । (सही/ गलत)
iii. फेमेनिस्ट ससद्धांत के आधार पर अिेक परु ािी फ़िल्में न्जिमें परु
ु र् शन्क्त को िशाषया
गया है , संवािों के आधार पर वे मूलत: स्त्री ववरोधी हिखाई िे ती हैं। (सही/ गलत)

51
प्रश्ि (ग) सही शब्ि चयि करते हुए ररक्त स्थाि की पूनतष कीन्जए—

i. धगसेल स्पेरी समग्यािी िे .................तययवों को संवाि के सलए अनिवायष मािा है ।


(सात, आठ)
ii. फफल्म के संवाि ............िहीं होिे चाहहए। (सरल, न्क्लष्ट्ट)
iii. द्ववअथी संवाि फफल्म की ................पर प्रश्िधचह्ि लगाते हैं। (गुणवत्ता, संस्कृनत)

3.6 संवाद लेखन के ससद्धांत

संवाि लेखि की ऊपर जो चचाष की गई है , उसमें कहीं ि कहीं संवािों के ससद्धांतों की चचाष आ
ही गई है । यहााँ हम ववशेर् रूप से उि पर ववस्तत
ृ बात करें गे। ससद्धांत से तायपयष है —वे नियम
न्जिके आधार पर फफल्म/ टीवी की पटकथा के संवािों की रचिा की जाती है । फकशोर वासवािी
िे अपिी पस्
ु तक ‘ससिेमाई भार्ा और हहदिी संवािों का ववश्लेर्ण’ में इरववि आर. ब्लेकर के
सदिभष से संवाि के कुछ प्रमुख ससद्धांतों की चचाष की है , जो इस प्रकार है —

1. दृश्य के प्रसंगािस
ु ार सम्मोहिजिक संवाि प्रस्तत
ु करिा न्जससे उसका िशषक पर अपेक्षक्षत
प्रभाव हो।
2. समय, स्थाि और काल के संिभष में पूरी जािकारी िे िे में सक्षम होिा चाहहए।
3. िाटकीयता के माध्यम से कथा प्रवाह का निमाषण
4. असभिेता के साथ तालमेल
5. िशषक की सहािभ
ु नू त ग्रहण करिा न्जससे िशषक संवािों में डूब सके।
6. मिोरं जक स्तर के संवाि होिे चाहहए।

संवाि के संिभष में िा्यशास्त्र और पन्श्चम िोिों से िो प्रमुख ससद्धांतो की चचाष की जा सकती
है —पहली भरत की रस सैद्धांनतकी। भरत िाटक के संिभष में साधारणीकरण का ससद्धांत
प्रस्ताववत करते हैं। इस ससद्धांत के अिस
ु ार हॉल में बैठा िशषक जब पात्र के संवाि सि
ु ता है तो
उसके साथ तािायमय करता है । इस तािायमय में पात्र द्वारा कहे गए संवाि और उिके चररत्र के
साथ िशषक का संबध
ं इस प्रकार स्थावपत होता है फक िशषक और पात्र की भाविाएाँ एक िस
ू रे से
जुड जाती हैं। िाटक के असभिेता के साथ िशषक हाँसता और रोता है , उसके स्वरूप को ही सच
मािता है और उसके शब्िों को ही सयय मािता है । वप्रय पात्र के साथ प्रेम और ववरोधी पात्र के
साथ भाविाएाँ उठती और बिलती रहती हैं। इसके ववपरीत ब्रेख्त का ससद्धांत अलगाववाि की
थ्योरी प्रस्तुत करता है । इस ससद्धांत के अिुसार िशषक को सिै व जागत
ृ रहिा चाहहए और यह
बात उसके सामिे हमेशा स्पष्ट्ट रहिी चाहहए फक जो भी वह िे ख रहा है , वह सयय िहीं है । ऐसे
में िशषक हर वाक्य, हर चररत्र के कथि और कथासत्र
ू पर ववचार करता है और फकसी भी पात्र को
एक निन्श्चत ढााँचे में िहीं ढालता।

52
संवाि के संिभष में इि िोिों ससद्धांतों का प्रयोग फकया जाता है । भाविायमक रूप से बााँधिे वाली
फफल्मों में संवाि इस प्रकार सलखे जाते हैं फक उिकी कथा िशषक को अपिी ही कहािी प्रतीत
होती है । वह पात्र के साथ बहता है , उसके साथ-साथ चलता है , उसकी पीडा में सहभागी बिता है
और उसकी तकलीफ पर रुष्ट्ट होता है । घर हो तो ऐसा से लेकर बजरं गी भाईजाि तक इसी
इमोशिल यात्रा का प्रसार संवािों द्वारा हुआ है जहााँ िशषक और चररत्र िोिों एक िसू रे से जुड
जाते हैं। रुस्तम, केसरी आहि ऐसी फफल्मों के उिाहरण हैं न्जिके संवाि िशषकों की जबाि पर थे
जब वे हॉल से बाहर निकल रहे थे।

िस
ू री ओर कला फफल्मों में ववचार केंद्र में होिे के कारण िशषक को यह यकीि होता है फक यह
जीवि की वास्तववकता िहीं है इससलए प्रस्तुत की गई न्स्थनतयों को बिलिे के सलए उसके भीतर
ववचार पैिा होता है । हालांफक फफल्म जैसा माध्यम न्जसके केंद्र में इदफोटें मेदट है , वह डडटै चमें ट
ससद्धांत पर बहुत अधधक कायष िहीं करता परदतु कला फफल्मों से लेकर पन्श्चम की फफल्मों में
ऐसे प्रयोग हिखाई िे ते हैं।

अदय सामादय ससद्धांतो में प्रमुख ससद्धांत इस प्रकार हैं—

• ववश्वसिीयता उयपदि करिा


• िाटकीयता
• कथा सूत्र का ववस्तार
• संवाि िहीं दृश्य प्रस्तनु त
• एकसूत्रता
• संक्षक्षप्तता
• संवािों का दृश्यों से तालमेल आवश्यक
• संवािों द्वारा यथाथष का आभास अथवा पुिप्रषस्तुनत होिी चाहहए
• कथािक के ववकास में संवाि ही सहायक होते हैं, उिका साथ िे िे का काम िे ह भार्ा
को करिा चाहहए।
• भरत मुनि िे चार प्रकार की ववृ त्तयों का उल्लेख िा्यशास्त्र में फकया है - भारती,
कैसशकी, सायवती, आरभटी। यह चारों ववृ त्तयााँ संवाि कथि के ससद्धांतों को प्रस्तुत
करती हैं। भारती यािी उद्िात स्तर के संवाि, कैसशकी यािी वे संवाि न्जिमे संगीत
की प्रधािता हो, सायवती यािी वे संवाि जो व्यन्क्त को केंद्र में रखकर सलखे गए हैं,
आरभटी न्जिमें संघर्ष की प्रधािता हो।

3.6.1 प्रश्नों के ववस्तार से उत्तर दीजजए –

i. 80 के िशक में ससिेमा में पाररवाररक पष्ट्ृ ठभसू म के कुछ संवािों के उिाहरण प्रस्तुत
कीन्जए।
ii. भरत मुनन का ससद्धांत िशषक और पात्र के सम्बदध को फकस प्रकार स्थावपत करता है ?
iii. ब्रेख्त के ससद्धांत के आधार पर कुछ फफल्मों के उिाहरण प्रस्तुत कीन्जए।

53
3.7 पटकथा (टीवी/ फफल्म) और नाटक के सलए संवाद लेखन में अंतर

िाटक और फफल्म/ टीवी की पटकथा िोिों में ही संवािों की प्रधािता होती है । संवाि िाटक और
पटकथा िोिों की आयमा है । पर िाटक के केंद्र में संवाि है और फफल्म में पटकथा के भीतर के
फफलसष को भरिे का काम संवाि करते हैं। िाटक की कथा का सूत्र और ववकास संवािों के सहारे
ही प्रस्तत
ु और ववकससत होता है जबफक फफल्म में चसलत दृश्य, गीत और संगीत आहि भी महती
भूसमका निभाते हैं। िाटक में संवाि ही दृश्य और पररवेश निसमषत करते हैं पर फफल्म में केंद्रीय
भूसमका पररवेश और चररत्र की होती है , संवाि उसमें सहायक होते हैं। बेंटले िे तो यहााँ तक कहा
फक जो जदमजात िाटककार है , उसे दृश्यों पर निभषर रहिे की जरूरत िहीं। िाटककार तो शब्ि
को ब्रह्म ही मािते हैं। जयशंकर प्रसाि के िाटकों में स्कदिगप्ु त के संवाि ‘अधधकार सुख फकतिा
मािक और सारहीि है ’ अथवा चाणक्य के सत्र
ू ‘वह स्वराज्य में ववचरता है और अमरयव होकर
जीता है ’ जैसे संवाि अथवा भारतें ि ु के ‘चूरि साहे ब लोग जो खाता/ सारा हहंि हजम कर जाता’
के बबिा िाटक की पण
ू त
ष ा संभव ही िहीं! ठीक इसी प्रकार संवाि लेखि भी यहि टीवी के सलए है
अथवा फफल्म के सलए, उसमें भी सभदिता हिखाई िे ती है । अरुण प्रकाश कहते हैं—‘मझ
ु े लगता है
फक धारावाहहक को अच्छा बिािे के सलए अच्छे संवाि की न्स्थनत बिािी चाहहए। अच्छी न्स्थनत
तभी बिती है जब आप प्लाट में गुंजाइश रखते हैं। िस
ू रे हर सीि के ससिेररयो के भीतर आपको
यह बात पैिा करिी होगी न्जससे अच्छे संवाि की न्स्थनत उयपदि हो सके। फफल्म में ससिेररयो
में आपको उतिी मेहित िहीं करिी पडती। टीवी में ससिेररयो ही सफलता की कंु जी है ।’
(टे लीववजि लेखि, पष्ट्ृ ठ 92)

कहा जा सकता है फक संवाि लेखि एक श्मसाध्य कायष है न्जसकी अपिी संरचिा और ससद्धांत
है । भारतीय और पन्श्चमी ससद्धादतकारों िे संवाि लेखि के अिेक रूप ववकससत फकए पर यह
भी सयय है फक इसकी कोई एक निन्श्चत सैद्धांनतकी निसमषत िहीं की जा सकती क्योंफक हर
पटकथा के साथ लेखक खि
ु के ससद्धांत निसमषत करता है । इसी प्रकार संवाि की संरचिा एक
क्षण-क्षण ववकससत प्रफक्रया है न्जसे लेखक ववकससत करता और रचता है । हर फफल्म की तकिीक
िई संवाि प्रफक्रया की मााँग करती है । इस क्षेत्र में कायष करिे वालों को निरं तर प्रयास करते हुए
संवाि लेखि का अभ्यास करिा चाहहए।

3.7.1 प्रश्नों की स्वयं जााँच करना


प्रश्ि (क) निम्िसलणखत प्रश्िों के उत्तर एक या िो पंन्क्तयों में िीन्जए—
i. िाटक के संवािों की िो प्रमख
ु ववशेर्ताएाँ बताइए।
ii. टीवी के फकसी एक धारावाहहक से संवाि के िो उिाहरण सलणखए।
iii. क्या संवाि की संरचिा माध्यम के अिुसार लगातार ववकससत होती है ?
iv. टीवी और फफल्म के संवािों में प्रमुख अंतर बताइए।

प्रश्ि (ख) निम्िसलणखत कथिों की सही/गलत के आधार पर परख कीन्जए—


i. आजकल फफल्मों में अनत वास्तववकता के अिेक उिाहरण समलते हैं। (सही/ गलत)

54
ii. संवाि फकसी भी फफल्म के प्राणतययव हैं। (सही/गलत)
iii. संवािों में संिेश के स्थाि पर मिोरं जि प्रमुख होिा चाहहए। (सही/गलत)

3.8 स्वयं जााँच करें

i. मिोरं जि पर आधाररत फकसी एक फफल्म के संवािों की समीक्षा कीन्जए।


ii. 50 के िशक की फकसी फफल्म की संवािों के आधार पर आज की फफल्म से तल
ु िा
कीन्जए।
iii. हहंिी ससिेमा में िे विास पर बिी तीि फफल्मों के संवािों से क्या निष्ट्कर्ष निकाले जा
सकते हैं?
iv. क्या भारतीय ससिेमा में संवािों के प्रयोग की तुलिा पन्श्चमी ससिेमा के तकिीक से की
जा सकती है ? क्या यह तल
ु िा करिा सही होगा?

3.9 संदभा ग्रन्थ

1. पटकथा कैसे सलखें : राजेदद्र पांडे


2. ससिेमाई भार्ा और हहदिी संवािों का ववश्लेर्ण : फकशोर वासवािी
3. पटकथा लेखि : एक पररचय : मिोहर श्याम जोशी
4. सम्पािि कला : राजशेखर समश्ा
5. Writing Dialogue for Scripts : Rib Davis
6. िाटकालोचि के ससद्धांत : ससद्धिाथ कुमार
7. टे लीववजि लेखि : असगर वजाहत, प्रभात रं जि

55
इकाई-4

फ़ीचर फ़फ़ल्म, धारावाहिक, किानी एवं डॉक्यूमट्रें ी का संवाद-लेखन


डॉ. मनीष ओझा,
श्री गुरुनानक देव खालसा कॉलेज,
फ़दल्ली हवश्वहवद्यालय, फ़दल्ली

4.1 प्रस्तावना
‘संवाद’ मनुष्य जीवन का अिम् अंग िै हजसके अभाव में जीवन की पररकल्पना निीं की
जा सकती। जीवन की हवहवध गहतहवहधयों की पूर्णता और भावाहभव्यहि संवाद द्वारा
िी संभव िोती िै। ‘संवाद’ की आवश्यकता हजतनी सामान्य जीवन में िोती िै उतनी िी
फ़ीचर फ़फ़ल्म, धारावाहिक, उपन्यास, किानी एवं डॉक्यूमट्रें ी जैसी हवधाओं के हलए भी
िोती िै। यि सभी हवधाएँ मनुष्य जीवन के हवहवध पक्षों को अहभव्यहि देती िैं और इस
अहभव्यहि की सार्णकता ‘संवाद’ पर िी हनभणर करती िै। अतः यि जानना अत्यावश्यक
िै फ़क इन हवधाओं की सफलता और सार्णकता में संवाद की क्या और फ़कतनी भूहमका
िोती िै। वि कौन से ब द ं ु िैं जो इन हवधाओं िेतु हलखे जाने वाले संवाद को एक दूसरे से
पृर्क करते िैं। सार् िी यि जानना भी अपेहक्षत िै फ़क इन हवधाओं के हलए हलखे जाने
वाले संवाद कै से िोने चाहिए तर्ा ‘संवाद’ की हवधागत हवहिष्टताएँ क्या िोती िैं ताफ़क
‘संवाद-लेखन’ में सार्णक उपहस्र्हत दजण की जा सके ।

4.2 अहधगम का उद्देश्य

1. संवाद का अर्ण जान सकें गे।


2. दृश्य-श्रव्य माध्यमों में संवाद की आवश्यकता को समझ सकें गे।
3. फ़फ़ल्म िेतु संवाद-लेखन की हविेषताओं से पररहचत िोंगे।
4. धारावाहिक के संवाद-लेखन के मित्त्वपूर्ण ब ंदओं
ु से पररहचत िोंगे।
5. जान सकें गे फ़क किानी का संवाद-लेखन दृश्य-श्रव्य हवधाओं से कै से हभन्न िै।
6. ‘डॉक्युमेंट्री’ हवधा के ारे में जानकार ाकी हवधाओं के संवाद-लेखन से इस
हवधा की पृर्कता को समझ सकें गे।

56
7. संवाद-लेखन के हलए आवश्यक सभी ह न्दुओं को समझकर संवाद-लेखन का
कौिल हवकहसत कर सकें गे।

4.3 संवाद-लेखन

संवाद से तात्पयण दो या दो से अहधक व्यहियों के ीच िोने वाली वाताणलाप से िै। सरल


िब्दों में किें तो ‘संवाद’ एकाहधक व्यहियों के मध्य फ़कसी हवषय या हस्र्हत पर िोने
वाली ातचीत िै। अंग्रज़ े ी में इसके हलए ‘डायलॉग’ िब्द प्रयुि िोता िै। बिंदी भाषा में
इसके हलए प्रयुि िोने वाले िब्दों में वाताणलाप, कर्ोपकर्न, चचाण आफ़द प्रमुख िैं।
भावाहभव्यहि का या फ़कसी हवषय पर हवचार रखने और उपहस्र्त व्यहि के हवचार
जानने का या कायणसाधन का यि मूलाधार िै। इस िब्द की उत्पहि संस्कृ त की ‘वद्’ धातु
से हुई िै, हजसका अर्ण िै ‘ ोलना’ ।
साहित्य की हवहवध हवधाओं यर्ा नाटक, एकांकी, उपन्यास, किानी में तर्ा दृश्य-श्रव्य
माध्यमों यर्ा फ़ीचर फ़फ़ल्म , टेहलहवज़न धारावाहिक, डॉक्युमेंट्री में ‘संवाद’ मित्त्वपूर्ण
स्र्ान रखता िै। इन हवधाओं में आने वाले पात्रों का अहभप्राय ‘संवाद’ के िी माध्यम से
दिणक या श्रोता तक अहभप्रेहषत िोता िै। ‘संवाद’ अहभप्रेत की अहभव्यहि का सिि
माध्यम िै हजसके द्वारा साहित्य की हवहभन्न हवधाओं (‘नाटक, एकांकी, उपन्यास,
किानी) तर्ा दृश्य-श्रव्य माध्यमों (फ़ीचर फ़फ़ल्म , टेहलहवज़न धारावाहिक) के चररत्र
आपनी भावनाओं को संप्रेहषत करते िैं। संवाद के कारर् िी उन चररत्रों की अपनी अलग
पिचान हनर्मणत िोती िै। संवाद के द्वारा िी रचनाकार चररत्र की आतंररक भावनाओं को
दिणक या पाठक तक पहुँचा पाता िै।

‘संवाद-लेखन, रचनाकार द्वारा पात्रों के मध्य िोने वाली ातचीत का हलहप द्ध स्वरूप
िै’। यि साहित्य की हवहभन्न हवधाओं के सार्-सार् दृश्य-श्रव्य माध्यम यर्ा फ़ीचर फ़फ़ल्म
, टीवी धारावाहिक का भी आवश्यक अंग िै । संवाद की भूहमका कर्ा-वस्तु के हवकास में
भी अत्यंत मित्त्वपूर्ण िोती िै ।

4.3.1 प्रश्नों की स्वयं जाँच करना

1. हनम्नहलहखत प्रश्नों के उिर िाँ या ना में दीहजए –

क. संवाद’ एकाहधक व्यहियों के मध्य फ़कसी हवषय या हस्र्हत पर िोने वाली


ातचीत िै।
ख. संवाद के कारर् चररत्रों की अलग पिचान हनर्मणत निीं िोती िै।
57
ग. दृश्य-श्रव्य माध्यमों में उपन्यास और किानी मित्त्वपूर्ण स्र्ान रखता िै ।
2. सिी िब्द चुनकर ररि स्र्ान की पूर्तण कीहजए-
क. संवाद िब्द की उत्पहि संस्कृ त की ............ धातु से हुई िै, हजसका अर्ण िै
‘ ोलना’ । (वाद्/वद्)
ख. अंग्रेज़ी में इसके हलए ..............िब्द प्रयुि िोता िै। (डायलॉग/मोनोलॉग )

ग. ‘संवाद-लेखन, रचनाकार द्वारा पात्रों के मध्य िोने वाली ातचीत का ..........


स्वरूप िै। (स्वर द्ध/हलहप द्ध) ।

4.4 फ़ीचर-फ़फ़ल्म के हलए संवाद-लेखन

हसनेमा हनमाणर् के प्रारं हभक फ़दनों में मूक फ़फ़ल्में नती र्ी फ़कन्तु उसके पीछे का मूल
कारर् तकनीक का सीहमत ज्ञान र्ा। जैसे िी तकनीक ने उन्नहत की, फ़फ़ल्म हनमाणर् में भी
पररवतणन हुआ और िम मूक फ़फल्मों के दौर से हनकल ोलती हुई फ़फल्मों की ओर अग्रसर
हुए। ह ना आवाज़ की फ़फ़ल्मों में जो अधूरापन स को मिसूस िो रिा र्ा वो अ समाप्त
हुआ और संवाद ने कर्ा को गहतिीलता प्रदान की।
फ़फ़ल्म लेखन के तीन मित्त्वपूर्ण अंग िोते िैं - कर्ा, पटकर्ा और संवाद, हजसमें कर्ा
अगर भूहम िै और पटकर्ा वृक्ष तो संवाद उस उवणरक के समान िै जो दोनों को ऊजाण
प्रदान करने का कायण करता िै। फ़फ़ल्म हनमाणर् की प्रफ़िया में यि एक मित्त्वपूर्ण अंग िै,
हजसके ह ना फ़फ़ल्म की कल्पना भी निीं की जा सकती। िालाँफ़क फ़फ़ल्म की सफलता में
यि तीनों पृर्क और मित्त्वपूर्ण स्र्ान रखते िैं फ़कन्तु अलग-अलग िोने के ावजूद भी
तीनों िी डोर से जुड़े हुए िोते िैं। कर्ा और पटकर्ा लेखन के उपरांत संवाद-लेखन का
कायण आरं भ िोता िै। अहधकांि फ़फल्मों में कर्ा, पटकर्ा और संवाद लेखक एक िी िोता
िै और कु छ में तीनों स्वतंत्र िोते िैं। आज के समय में संवाद की अिहमयत समझते हुए
अलग संवाद लेखक रखे जाने का प्रचलन िो गया िै क्योंफ़क ‘संवाद-लेखन’ एक अलग
प्रकार का कलात्मक कायण िै।
यि सृजनात्मक कला िै हजसके द्वारा फ़फ़ल्म की कर्ा को गहत प्राप्त िोती िै और दिणक
की रुहच नी रिती िै। संवाद मात्र दो पात्रों के ीच की ातचीत का िी ज़ररया निीं िै
अहपतु चररत्रों की आंतररक भावनाओं एवं हवचारों की अहभव्यहि का आधार िै । यिाँ
एक ात ध्यान देने योग्य िै फ़क धारावाहिक, डॉक्युमेंट्री, नाटक, एकांकी, किानी,
उपन्यास आफ़द में संवाद की हजतनी एिहमयत िै उससे किीं अहधक फ़फ़ल्म में िोती िै ।

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फ़फ़ल्म संवाद लेखक को अहतररि सतकण ता रतनी पड़ती िै और संवाद को अहतररि
हवस्तार से चाना िोता िै। दृश्य-श्रव्य माध्यम िोने के कारर् कर्ा से सं ंहधत काफ़ी
चीज़ें फ़दखाई जा सकती िैं इसहलए अहधकांि घटनाओं का तर्ा कई ार मनोवैज्ञाहनक
हस्र्हतयों का भी अहभनेता के िाव-भाव द्वारा का प्रकटीकरर् हचत्रपट पर कर फ़दया
जाता िै और कम से कम संवाद फ़दए जाने का प्रयास फ़कया जाता िै। फ़फ़ल्म संवाद-लेखन
अहधक पररश्रम की अपेक्षा रखता िै और लेखक को लेखन कला को हवस्तार देना पड़ता
िै। फ़फ़ल्म में िाव-भाव के प्रकटन के सार् संवाद का सामंजस्य इस प्रकार ैठाना
अपेहक्षत िोता िै फ़क हस्र्हत स्पष्ट िो जाए और संवाद भी कम से कम िो। सार् िी
तारतम्यता और रुहच नाये रखने के हलए अहतररि सतकण ता और कौिल की
आवश्यकता िोती िै क्योंफ़क फ़फ़ल्म के संवादों में पुनरावृहि का स्र्ान निीं िोता और
संवाद ताज़गी और स्फू र्तण भरे िोने की अपेक्षा िोती िै।
फ़दलचस्प ात यि िै फ़क हजन ब ंदओं ु का िोना ‘फ़फ़ल्म संवाद-लेखन’ को रुहचकर नाता
िै विी ब ंदु उसकी चुन्नौहतयाँ भी िैं। संवाद लेखक की स से ड़ी चुनौती फ़फ़ल्मी संवाद
को पात्रों की पृष्ठभूहम, वगण और स्वभाव के अनुसार, तालमेल ैठाते हुए हलखना िै। उसे
सभी पात्रों की भाषा और ोलने की िैली ‘चररत्र’ की हवहिष्टताओं के अनुसार सुहनहित
करनी िोती िै। यि लेखक की रचनात्मकता और कल्पनािहि पर हनभणर करता िै फ़क
उसे फ़कतनी भाषाओं, ोहलयों और हवहवध िैहलयों की जानकारी िै। एक संवाद लेखक
को हजतनी ज़्यादा जानकारी िोगी उसके लेखन में उतनी िी हवहवधता फ़दखेगी और
संवाद भी उतने िी प्रभाहवत करने वाले िोंगे। इससे फ़फ़ल्म के प्रहत उस ोली या िैली
हविेष के दिणकों का अहतररि आकषणर् नता िै। सार् िी सिज और स्वाभाहवक संवाद
हलखना अच्छे संवाद लेखक से अपेहक्षत िोता िै ताफ़क वि यर्ार्णवादी लगे, र्ोपा या
गढ़ा हुआ निीं।

‘संवाद’ पात्र और दिणक के ीच सं ंध स्र्ाहपत करने, कर्ा को नाटकीय, फ़फर भी


हवश्वसनीय नाने, कर्ा का हवकास करने, कर्ा, हस्र्हत और दृश्य के अनुसार ‘मूड’
पररवर्तणत करने में मुख्य भूहमका हनभाता िै। संवाद लेखक की दृहष्ट कर्ा की
आवश्यकता, उसके प्रयोजन तर्ा दिणकों की रुहच पर सदैव रिती िै। इसीहलए वि
संवाद को फ़फ़ल्म के ‘फ्लेवर’ के अनुकूल नाने के सार्-सार् संहक्षप्त, सुगरठत और अर्ण
को अहभव्यहि प्रदान करने वाला नाता िै हजससे फ़क हवहभन्न पात्रों के गुर्, स्वभाव,
वगण, उसकी चाररहत्रक पृष्ठभूहम, हवचार, मनोभाव आफ़द का पररचय दिणकों को सिजता
से िो जाए। फ़फल्मों में ‘संवाद’ हसफ़ण पात्रों के भावों को संप्रेहषत करने का िी कायण निीं

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करते अहपतु कर्ा में घटनाओं तर्ा वातावरर् को भी रूपाहयत करने का कायण करते िैं।
व्यंग्य को मारक नाते िैं, काल, स्र्ान की पूरी जानकारी प्रदान करते िैं। संवाद लेखक
यि भी ध्यान रखता िै फ़क एक संवाद के उपरांत दूसरा संवाद हवकहसत िोता जाए,
हजसे साहित्य में कर्ोपकर्न किा जाता िै। ‘संवाद-लेखन’ में इस ात का ध्यान रखा
जाना हुत ज़रूरी िै फ़क पात्र जो संवाद ोल रिा िै वि उसी पात्र से सं हं धत िो न फ़क
लेखक से क्योंफ़क संवाद फ़फ़ल्म का वि तत्त्व िै हजसके कारर् फ़फ़ल्में दिणकों से जुड़ती िैं
और कोई पात्र दिणकों के ीच अपनी जगि नाता िै। ‘संवाद’ फ़कसी फ़फ़ल्म या पात्र को
अमर नाने का सामर्थयण रखते िैं। यिी कारर् िै फ़क फ़कसी फ़फ़ल्म का संवाद वषों तक
दिणकों की ज़ु ां पर रि जाता िै।
फ़फ़ल्म की सफलता के हलए संवाद लेखक को कु छ ातों पर ारीक़ी से ध्यान रखना
पड़ता िै। संवाद को पात्रानुकूल नाना िोना आवश्यक िोता िै क्योंफ़क पात्र िी संवाद
को सिी रूप में प्रस्तुत करते िैं। किानी उसी के इदणहगदण घूमती िै। फ़फ़ल्म के संवाद और
पात्रों के ीच एक ख़ास तरि का ररश्ता िोता िै। संवाद लेखक के हलए इस ात पर
ध्यान देना आवश्यक िोता िै फ़क पात्र फ़कस वगण या सामाहजक पृष्ठभूहम से िै क्योंफ़क उसी
पर यि हनभणर करता िै फ़क उसकी भाषा और ोलने का लिज़ा कै सा िोगा। अगर पात्र
ग्रामीर् समाज का िो और पररष्कृ त अंग्रेज़ी का प्रयोग करे या ििरी पात्र िो और देिाती
भाषा का प्रयोग करे तो संवाद ऊटपटांग सा लगेगा। कु छ फ़फल्मों के पात्र िब्दों या
वाक्यों का उच्चारर् हभन्न प्रकार से करते िैं जैसे - स्कू ल के स्र्ान पर ‘ईस्कू ल’ या
गवनणमेंट की जगि ‘गोरमेंट’ आफ़द। संवाद लेखक के हलए इस ात का ध्यान रखना
आवश्यक िोता िै फ़क ऐसे िब्दों का प्रयोग या उच्चारर् पात्रों के अनुकूल िी िो क्योंफ़क
फ़फ़ल्म की सफलता में संवादों की हविेष भूहमका िोती िै।
फ़फ़ल्म के संवाद पात्र के के वल ािरी व्यहित्व को िी निीं उसके मनोहवज्ञान को भी
उजागर करते िैं। उनके संवाद इस प्रकार हलखे जाते िैं फ़क कई ार वे पात्रों की पिचान
न जाते िैं। उदािरर् के हलए कु छ संवाद देखे जा सकते िैं जो पात्रों की सोच, उनके
चररत्र को उजागर करते िैं और उनकी प्रहसहद्ध का आधार भी िैं:-

मनोवैज्ञाहनक अहभव्यहि – “िेयर लॉस निीं, आइडेंरटटी लॉस िो रिा िै िमारा।”

यि संवाद ‘ ाला’ फ़फ़ल्म के मुख्य फ़करदार ालमुकुन्द गुप्त का िै हजसके ाल झड़ रिे िैं
और इस पर वि िर्मिंदा मिसूस करता िै। ालों को वि अपनी पिचान से जोड़कर
देखता िै और ाल झड़ने से त्रस्त िै।
चाररहत्रक अहभव्यहि - मेरा वचन िी िै िासन।

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‘ ाहु ली’ फ़फ़ल्म का यि संवाद ‘माहिष्महत’ की मिारानी की चाररहत्रक हवहिष्टता को
स्पष्ट करता िै। जिाँ मिारानी देवसेना एक मज़ त
ू चररत्र के रूप में सामने आती िैं और
‘िासन’ का तात्पयण वचन पूर्तण से िै।

प्रहसहद्ध का आधार – अरे ओ साम् ा...िोली क िै? फ़कतना ईनाम रक्खे िैं सरकार िम
पर?
यि ‘संवाद’ गब् रबसंि की पिचान िै। फ़फ़ल्म के लगभग 45 वषण ीत जाने पर भी यि
ताने की आवश्यकता निीं पड़ती फ़क यि संवाद फ़कस फ़फ़ल्म और फ़कस पात्र का िै। सार्
िी यि भी स्पष्ट िो जाता िै फ़क यि संवाद फ़कसी खलनायक (डाकू ) का िै क्योंफ़क उस पर
सरकार ने ईनाम रखा िै। यिी ‘फ़फ़ल्म ’ के संवाद-लेखन की हवहिष्टता िै जिाँ यि निीं
ताया जा रिा फ़क गब् र या संवाद किने वाला व्यहि डाकू िै। इन उदािरर्ों से
‘संवाद’ की मििा और पात्रानुकूलता का स्पष्ट पता चलता िै।
‘संवाद’ और कर्ा को प्रवािमान और सुगरठत नाए रखने के हलए उसमें एकसूत्रता,
दृश्यानुरूपता, संहक्षप्तता और भाषा का सिज और सरल िोना भी मित्त्वपूर्ण िोता िै।
एकसूत्रता या एकरूपता कर्ा को ाँधे रखने में सिायक िोती िै। दृश्य-श्रव्य माध्यमों में
दृश्यों का मुख्य कायण कर्ा को आगे ढ़ाना िोता िै। फ़कसी स्र्ान पर और फ़कसी समय
पर लगातार िोने वाली हविेष घटनाओं को दृश्य किा जाता िै। दृश्य दलते िी संवाद
में भी दलाव आवश्यक िोता िै। इसहलए दृश्यों की पररकल्पना के उपरांत, उसी के
अनुरूप संवाद हलखे जाते िैं हजससे दृश्यानुरूपता नी रिती िै। अगर दृश्य ग्रामीर्
पररवेि वाले िों और संवाद ििरी िैली में हलखे जाएँ तो दिणकों को अटपटा सा लगेगा
ज फ़क दृश्यों के अनुरूप संवाद हलखे िोने से दिणकों को दृश्य समझ पाने में आसानी िोती
िै, रुहच िोती िै।
दृश्यात्मकता के सार् िी संहक्षप्तता का ध्यान रखना भी प्रभावी संवाद-लेखन िेतु
अहनवायण िै। कम िब्दों में अहधक से अहधक भावों को प्रेहषत करना संवाद लेखक का
कायण िै । आवश्यक और अनावश्यक के ीच सामंजस्य ैठाने में संवाद लेखक की
कु िलता और सफलता देखी जा सकती िै क्योंफ़क कम से कम िब्दों का प्रयोग और
अहधक भावों का सम्प्रेषर् दृश्य को अहधक स्पष्ट करता िै। फ़फल्मों या धारावाहिकों में
दृश्यों की कहड़याँ िोती िैं इसहलए यि ज़रूरी िै फ़क उन कहड़यों को आगे ढ़ाने में संवाद
सिायक िों न फ़क उन्िें ोहझल नाएँ। के वल कौिल का पररचय देने या समय व्यतीत
करने िेतु हलखे गया संवाद कर्ा को और पररहस्र्हतयों को उलझाने के सार् िी
अरूहचकर नाते िैं। किने की आवश्यकता निीं िै फ़क कम ोल कर भी अपने भावों को

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एक से दूसरे तक पहुँचाया जा सकता िै। उदािरर् के हलए अपने प्रेमभाव को प्रेहषत
करने के हलए यि ज़रूरी निीं िै फ़क एक-दूसरे से लं े संवाद िी फ़कए जाएँ। दोनों के
िाव-भाव भी फ़िया व्यापार को प्रस्तुत कर सकते िैं और कभी-कभी ऐसे दृश्यों में
अहतररि वाचन ाधक भी िोता िै। अतः संवाद लेखक को िब्दों का हमतव्ययी िोना
चाहिए ।
सरल और सिज भावों की अहभव्यहि के हलए सरल-सिज भाषा को िी आवश्यकता
िोती िै। संवाद-लेखन के समय हुत ारीक़ी से यि ध्यान देना आवश्यक िोता िै फ़क
हलखे जाने वाला संवाद अपेहक्षत भाव की यर्ारूप अहभव्यहि में सिायक िो। संवादों
का पात्र के पररवेि और पृष्ठभूहम से सं ंहधत िोना अहनवायण िोता िै क्योंफ़क यि
आवश्यक निीं फ़क सभी पात्र फ़कसी एक वगण और समाज से िी िों, उनकी िैली, लिज़ा,
भाषा अलग िो सकते िैं। अतः ग्रामीर् पात्रों के हलए अलग और ििरी या सम्रान्त वगण
के पात्रों के हलए अलग िब्दों का चुनाव करना ज़रूरी िोता िै। इसे इस प्रकार भी किा
जा सकता िै फ़क दृश्य-श्रव्य माध्यमों में साहित्य की मानक, अलंकृत भाषा के हवपरीत
सिज, सरल, भावात्मक िब्दों का प्रयोग फ़कया जाता िै।
फ़फ़ल्म, धारावाहिक जैसे दृश्य-श्रव्य माध्यमों में घटनाओं के िहमक रूप से आगे ढ़ते
रिने के हलए यि ज़रूरी िै फ़क उसमें तारतम्यता नी रिे तर्ा फ़कसी भी तरि का
हवश्रृंखलता न आए। यि तारतम्यता अच्छे ‘संवाद’ के द्वारा िी नी रि सकती िै, ज
कर्ा की कहड़याँ एक सार् हपरोई गयी िोंगी, संवाद सिज, स्वाभाहवक, तार्कण क,
िम द्ध, संप्रेषर्ीय, संहक्षप्त, स्पष्ट और सुगरठत िोगा त िी संवाद प्रभाविाली िोगा
और वि दिणकों को प्रभाहवत कर सके गा।

4.4.1 प्रश्नों की स्वयं जाँच करना

प्रश्न 1. हनम्नहलहखत प्रश्नों के उिर एक िब्द या एक पंहि में दीहजए—

क. हसनेमा हनमाणर् के प्रारं हभक फ़दनों में फ़कस प्रकार की फ़फ़ल्में नती र्ी ?
ख. फ़फ़ल्म लेखन के मित्त्वपूर्ण अंग कौन-कौन से िैं ?
ग. कर्ा को प्रवािमान और सुगरठत नाए रखने के हलए उसमें कौन-कौन से तत्त्व
मित्त्वपूर्ण िैं ?
घ. ग्रामीर् पात्रों के हलए अलग और ििरी या सम्रान्त वगण के पात्रों के हलए अलग
िब्दों का चुनाव करना ज़रूरी क्यों िोता िै।

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प्रश्न 2. सिी िब्दों से ररि स्र्ान की पूर्तण कीहजए—

क. संवाद ..........कला िै हजसके द्वारा फ़फ़ल्म की कर्ा को गहत प्राप्त िोती िै ।


(सृजनात्मक/मनोरं जक)

ख. दृश्यों की पररकल्पना के उपरांत, उसी के अनुरूप संवाद हलखे जाते िैं हजससे
............. नी रिती िै । (रोचकता/ दृश्यानुरूपता )

ग. दृश्य-श्रव्य माध्यमों में घटनाओं के िहमक रूप से आगे ढ़ते रिने के हलए यि
ज़रूरी िै फ़क उसमें तारतम्यता नी रिे तर्ा फ़कसी भी तरि का हवश्रृख
ं लता न
आए । (हवश्रृख
ं लता/ श्रृख
ं लता)

4.5 धारावाहिक के हलए संवाद-लेखन

धारावाहिक सभी दृश्य-श्रव्य माध्यमों में सवाणहधक प्रचहलत और लोकहप्रय हवधा िै।
टेलीहवज़न जगत में इस हवधा की धूम िै और यि लोगों के दैहनक जीवन का अंग न
गया िै। आज ऐसा कोई भी घर निीं िोगा जिाँ इसकी पहुँच न िो। यूँ तो टेलीहवज़न पर
िर प्रकार के धारावाहिकों का प्रसारर् िोता िै फ़कन्तु पाररवाररक धारावाहिकों की
लोकहप्रयता हजतनी िै उतनी फ़कसी और की निीं। टेलीहवजन पर आने वाले अन्य सभी
कायणिमों की तुलना में इन धारावाहिकों का अपना अलग द द ा िै।
धारावाहिक एक ऐसी दृश्यात्मक कर्ा को किते िैं हजसको अनेक भागों या टुकड़ों में
हवभाहजत कर टेलीहवजन पर दैहनक रूप से या साप्ताहिक रूप से प्रसाररत फ़कया जाता
िै। इसके हलए अंग्रेज़ी में ‘सोप ऑपेरा’ िब्द का प्रचलन िै। इसके ‘सोप ऑपेरा’ किलाने
के पीछे का कारर् धारावाहिकों के प्रायोजक र्े। आरंभ में ऐसे धारावाहिकों को सोप
(सा ुन) नाने वाली कं पहनयों (जैसे प्रोक्टर एंड गैम् ल, कोलगेट, पामोहलव आफ़द) ने
प्रायोहजत फ़कया र्ा हजसके कारर् इसका नाम ‘सोप ऑपेरा’ पड़ा। इन धारावाहिकों को
‘टी.वी. सीररयल’ भी किा जाता िै। इन धारावाहिकों की हविेषता उनकी अनंत चलने
वाली कर्ा िै जो समय के सार्-सार् हवकहसत िोती जाती िै और हजसका कोई छोर
फ़दखाई निीं देता।
धारावाहिक में दिणकों की ढ़ती रुहच के अनुसार कर्ा में हवस्तार और पररवतणन िोता
चला जाता िै हजसमें एक सार् कई किाहनयाँ चलती िैं जो कई ार वषों के पिात

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अंजाम पर पहुँचती िैं। एक मुख्य कर्ा के सार् िी कई अन्य उप-कर्ाओं के हवकहसत
िोने के कारर् धारावाहिक के लेखक को अपने भावों का हवस्तार करने के हलए समय
हमल जाता िै। वि दिणकों की रुहच के अनुसार आवश्यकतानुसार संवाद-लेखन कौिल
का प्रयोग कर धारावाहिक की कर्ा में पररवतणन भी कर पाता िै ।
वैसे तो फ़ीचर फ़फ़ल्म और धारावाहिक दोनों िी दृश्य-श्रव्य माध्यम िैं फ़फर भी दोनों के
संवाद में हुत अंतर फ़दखाई देता िै। दोनों माध्यमों की अपनी अलग-अलग प्रकृ हत और
स्वभाव िै। फ़फ़ल्म में अल्पावहध में िी लेखक का अहभप्रेत सपष्ट िो जाता िै फ़कन्तु
धारावाहिक की पटकर्ा हवस्तृत िोने के कारर् संवाद लेखक को लेखन के हलए काफ़ी
‘स्पेस’ हमलता िै क्योंफ़क धारावाहिक हवस्तार की अपेक्षा करता िै।
धारावाहिक में संवाद लेखक नाटकीयता पर अहधक ज़ोर देता िै। कर्ा का हवस्तार तर्ा
मुख्य कर्ा के सार्-सार् उपकर्ाओं के िोने से धारावाहिक में संवाद की भूहमका
मित्त्वपूर्ण िो जाती िै फ़कन्तु इसमें संवाद का कायण के वल कर्ा हवस्तार करना निीं
िोता। धारावाहिक में संवाद के द्वारा लेखक दिणकों का ध्यानाकषणर् करने का प्रयास
करता िै। एक सार् कई कर्ाएँ-उपकर्ाएँ चलने के कारर् धारावाहिक के संवादों में
सदैव नवीनता लाना करठन िोता िै। फ़फर भी संवाद लेखक धारावाहिक में रोमांच और
उत्सुकता का समावेि करते हुए तर्ा लहक्षत दिणकों को ध्यान में रखते हुए समान भावों
की अहभव्यहि अलग-अलग िब्दों की प्रयुहि द्वारा करता िै। धारावाहिक एक िम में
लगभग रोज़ प्रसाररत िोता िै अतः फ़कसी घटना की प्रस्तुहत लं -े लं े संवादों द्वारा िोती
िै।
धारावाहिक के संवाद रे हडयो नाटक की तरि हलखे जाते िैं ताफ़क धारावाहिक देखते-
देखते यफ़द फ़कसी काम से कोई दूसरे कमरे में भी चला जाए तो भी तारतम्यता नी रिे
और संवाद सुनकर िी दृश्य स्पष्ट िो जाए। ऐसा दिणकों की रुहच नाए रखने के हलए,
हवहवध पात्रों के ीच का सं ंध दिाणने के हलए तर्ा घटना को हवस्तार देने के हलए फ़कया
जाता िै। धारावाहिक के संवादों में अक्सर ातें िी ातें िोती िैं और इन्िीं ातों के
माध्यम से घटनाओं का वर्णन कर फ़दया जाता िै। सार् िी संवाद पूर्ण वाक्य में हलखे
जाते िैं ताफ़क अपेहक्षत भाव या घटना की अहभव्यहि में कोई कमी न रि जाए।
धारावाहिक में पात्रों के ीच में वाताणलाप लं ी अवहध तक िोता िै हजससे लेखक को
गंभीर या ‘सस्पेंस’ का मािौल उत्पन्न करने का समय हमल जाता िै। समानांतर चलने
वाली किाहनयों में लगभग िर दृश्य में कौतुिल उत्पन्न करने में ‘संवाद’ की भूहमका
मित्त्वपूर्ण िो जाती िै। इसहलए धारावाहिक में नाटकीयता को अहधक तरजीि दी जाती

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िै। धारावाहिक के ीच- ीच में आने वाले हवज्ञापनों से पिले तर्ा खासकर उस फ़दन के
अंक के अंत में उस नाटकीयता को सवाणहधक नाए रखने की ज़रूरत िोती िै हजससे
दिणकों में अगले फ़दन आने वाले अंक को देखने की उत्सुकता और कौतुिल दिणकों में ना
रिे।
धारावाहिक के संवादों में भावुकता अहधक िोती िै और यि संवाद जज़् ातों से भरे िोते
िैं। साहित्य और हवहभन्न दृश्य-श्रव्य माध्यमों वाली हवधाएँ भावनात्मक पररहस्र्हतयों
को जन्म देने वाली िोती िैं। हजस तरि से साहित्य में रचनाकार अपनी कल्पना के द्वारा
फ़कसी पात्र के भावों को अहभव्यि करता िै, ठीक उसी तरि संवाद लेखक अपनी कल्पना
के द्वारा भावनात्मक दृश्यों का सृजन करता िै और संवाद के द्वारा उनकी प्रस्तुहत करता
िै। भावों की अहभव्यहि के हलए सवाणहधक उपयुि माध्यम संवाद िै, िालाँफ़क ‘संवाद’
का सं ंध दो या अहधक व्यहियों के ीच िोने वाली वाताणलाप से िोता िै फ़कन्तु कभी-
कभी यि अिाहब्दक भी िो सकता िै। यि संवाद लेखक का कायण और दाहयत्व िोता िै
फ़क कर्ा और उसमें आने वाले दृश्यों की पररकल्पना के अनुरूप संवादों की रचना करे
क्योंफ़क दृश्यात्मक तर्ा भावात्मक अहभव्यहि का हवस्तार करना िी संवाद का मुख्य
उद्देश्य िै । भावनात्मकता िी वि तत्त्व िै हजसके माध्यम से पात्र और दिणक एक दूसरे से
जुड़े रिते िैं। संवाद के कारर् िी दिणक िँसता भी िै और रोता भी िै। अपनी
रचनात्मकता को चरम पर पहुँचाकर भावों के अनुरूप िब्दों का प्रयोग और िब्दों का
चुनाव करना संवाद लेखक के हलए अहनवायण िो जाता िै क्योंफ़क पाररवाररक
धारावाहिकों के दिणक उसी संवेदना और भावात्मक अहभव्यहि से जुड़े िोते िैं। इसी
कारर् उत्सुकतावि अगले फ़दन उस धारावाहिक से जुड़े पात्रों के जीवन में घटी या
घटनेवाली घटनाओं के प्रहत बचंहतत या प्रसन्न िोते िैं।

4.5.1 प्रश्नों की स्वयं जाँच करना-

प्रश्न – क. फ़दए गए प्रश्नों के उिर संक्षप


े में दीहजए-

क. धारावाहिक से क्या तात्पयण िै?


ख. धारावाहिक को ‘सोप ऑपेरा’ क्यूँ किा जाता िै?
ग. धारावाहिक के संवाद रे हडयो नाटक की तरि क्यों हलखे जाते िैं?
घ. धारावाहिक में संवाद लेखक फ़कस चीज़ पर अहधक जोर देता िै और क्यों?

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प्रश्न – ख. फ़दए गए हवषयों पर रटप्पर्ी हलहखए-

क. सोप ऑपेरा
ख. धारावाहिक में हवस्तार की आवश्यकता

4.6 किानी के हलए संवाद-लेखन

कर्ात्मक हवधाओं में किानी सवाणहधक प्राचीन हवधा िै। मानव की हवकास यात्रा के
सार्-सार् इस हवधा का भी हवकास हुआ िै। कर्ा किने की प्रर्ा वैफ़दक समय से िी
प्रचहलत िै। मौहखक परंपरा से प्रारंभ हुई इस हवधा ने आज साहित्य में अपना एक अलग
स्र्ान ना हलया िै। कम िब्दों में या छोटे कलेवर में ंधी हुई यि हवधा अपने भीतर
भावनाओं का सागर धारर् फ़कए हुए िोती िै। किानी को कु छ आलोचकों ने जीवन का
हचत्रर् माना िै तो फ़कसी ने जीवन को क़री से देखने का एक माध्यम। प्रेमचंद ने इसे
ऐसी रचना माना िै ‘हजसमें जीवन के फ़कसी एक अंग या मनोभाव को प्रभाहवत करना
िी लेखक का उद्देश्य रिता िै ।’
किानी भावनाओं, अनुभूहतयों और घटनाओं की रोचक प्रस्तुहत िै। किानी में कर्ानक
एक मित्त्वपूर्ण तत्त्व तो िै पर सार् िी उसके हवकास के हलए घटनाओं का िोना भी
आवश्यक िै। इन घटनाओं का हनयोजन पात्रों द्वारा िोता िै। पात्रों के वाताणलाप या
संवादों के माध्यम से किानी हवकहसत िोती िै और उसमें नाटकीयता का समावेि िोता
जाता िै । साहित्य में दो पात्रों के मध्य िोने वाले ातचीत के हलए संवाद के स्र्ान पर
कर्ोपकर्न िब्द का प्रयोग हमलता िै। इस कर्ोपकर्न या संवाद के द्वारा िी पात्रों के
आतंररक मनोभावों और हस्र्हतयों को समझा जा सकता िै। किानी में संवादों या
कर्ोपकर्न का सिी प्रयोग पाठक को आकर्षणत करता िै और कर्ा प्रवाि नाए रखता
िै । किानी का कलेवर छोटा िोता िै और पात्रों की संख्या अपेक्षाकृ त कम, इसहलए
इसमें सार्णक िब्दों और छोटे-छोटे संवाद के द्वारा िी लेखक को पात्रों की भावनाओं को
प्रस्तुत करना िोता िै । सिज, सरल, और भावाहभव्यंजक संवाद फ़कसी भी किानी को
प्रभाविाली नाने में सक्षम िोते िैं। किानी के संवादों में भी नाटकीयता िोती िै,
हजससे किानी सजीव, आकषणक, कौतूिलपूर्ण नी रिती िै और पाठक के मन में
हजज्ञासा नी रिती िै। कर्ा को आगे ढ़ाने में संवाद का मित्त्व तो िै लेफ़कन
अनावश्यक प्रयोग के द्वारा किानी में उ ाऊपन, नीरसता, ोहझलता आने की संभावना
नी रिती िै। किानी के संवाद लेखक को यि सदैव ध्यान रखना िोता िै फ़क संवाद

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कर्ा को अहनयंहत्रत न करे । अतः किानी के संवाद-लेखन िेतु इन स ब ंदओं
ु को ध्यान
में रखना अत्यावश्यक िै ताफ़क किानी सरस, सफल, रोचक और सार्णक िो सके ।
4.6.1 प्रश्नों की स्वयं जाँच करना

प्रश्न – 1. ररि स्र्ानों की पूर्तण कीहजए-

क. किानी में .............. और छोटे-छोटे संवाद के द्वारा िी लेखक को पात्रों की


भावनाओं को प्रस्तुत करना िोता िै । (सार्णक िब्दों/िुद्ध व हक्लष्ट िब्दों)
ख. साहित्य में दो पात्रों के मध्य िोने वाले ातचीत के हलए.................का प्रयोग
हमलता िै। (कर्ोपकर्न िब्द/हमहश्रत िब्द)
ग. किानी के संवाद लेखक को यि सदैव ध्यान रखना िोता िै फ़क संवाद ………को

अहनयंहत्रत न करे । (कर्ा/ ातों)

प्रश्न – 2. फ़दए गए प्रश्नों के उिर एक िब्द या एक वाक्य में दीहजए।

क. प्रेमचंद ने किानी को फ़कस प्रकार की रचना किा िै?


ख. किानी फ़कस प्रकार हवकहसत िोती िै?
ग. किानी लेखक को फ़कन-फ़कन ातों का ध्यान रखना चाहिए?
घ. किानी को आलोचकों ने क्या माना िै?

4.7 डॉक्यूमट्रें ी के हलए संवाद-लेखन

‘डॉक्यूमेंट्री’ दृश्य-श्रव्य माध्यम का नवीन रूप िै। यि एक ऐसी हवधा िै जो कल्पनाओं से


अपनी दूरी नाए हुए िै और यर्ार्ण की ज़मीन पर स्वछंद हवचरर् कर रिी िै ।
‘डॉक्यूमेंट्री’ का सं ंध यर्ार्ण से िै हजसमें कल्पना का समावेि निीं िोता। यानी, यि
ऐसी प्रस्तुहत िै हजसमें हवषयाधार चररत्र या उसका अहभनय करने वाला व्यहि मूल
पात्र िोता िै और फ़दखाए जाने वाले दृश्य भी मित्त्वपूर्ण िोते िैं। इस हवधा में यर्ार्ण की
िी प्रस्तुहत की जाती िै।
‘डॉक्यूमेंट्री’ के हलए बिंदी में ‘वृिहचत्र’ िब्द प्रचहलत िै। किीं-किीं इसके हलए
‘दस्तावेज़ी फ़फ़ल्म ’ िब्द का भी प्रयोग िोता िै हजसके पीछे का कारर् उसका अंग्रेज़ी
िब्द ‘डॉक्यूमेंट’ से सं ंध िै। यि िब्द िी स्पष्ट करता िै फ़क ‘डॉक्यूमट्रें ी’ सच्ची घटनाओं,
वास्तहवक व्यहियों, सच्ची समस्याओं या पररहस्र्हतयों से िी सं ंहधत िोती िै। सत्यता,

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वास्तहवकता, प्रामाहर्कता और यर्ार्ण के प्रस्तुहतकरर् िेतु यि सवाणहधक उपयुि
माध्यम िै।
आज के समय में समाज के िर हवषय पर ‘डॉक्यूमेंट्री’ का हनमाणर् िो रिा िै चािे वि
प्रकृ हत से जुड़े हुए मुद्दे िों या समाज से सं ंहधत, व्यहि के हन्ित िों या जाहत, बलंग, वगण
हविेष के हन्ित, खेल-तमािे से िो या तीज-त्यौिार के रं गों से, जनमानस के दैहनक जीवन
और उनकी समस्याओं की अहभव्यहि िो या देि की राजनैहतक या आर्र्णक दिा की
प्रस्तुहत। इस आधार पर िम यि देख और समझ सकते िैं फ़क डॉक्यूमेंट्री के अनेक प्रकार
िो सकते िैं जैस–े सामाहजक डॉक्यूमेंट्री, ऐहतिाहसक डॉक्यूमेंट्री, सूचनात्मक डॉक्यूमेंट्री,
यात्रापरक डॉक्यूमेंट्री, जीवनीपरक डॉक्यूमट्र
ें ी, िोधपरक डॉक्यूमेंट्री आफ़द।
दृश्य-श्रव्य हवधाओं के अन्य रूपों से डॉक्यूमेंट्री कु छ मामलों में ह लकु ल अलग िै। इस
हवधा में हवषय का चयन करना ेिद मित्त्वपूर्ण कायण िै। ‘डॉक्यूमेंट्री’ का लक्ष्य फ़फ़ल्म
या धारावाहिक की तरि जन-सामान्य का मनोरं जन करना निीं िोता। यिी कारर् िै फ़क
इसमें ‘संवाद’ निीं िोते और न नाटकीयता िी िोती िै। ‘डॉक्यूमेंट्री’ में यफ़द फ़कसी हविेष
हस्र्हत पर प्रकाि डालने के हलए फ़कसी हविेषज्ञ से ात की जाती िै तो वि ‘साक्षात्कार’
के अंदाज़ में िोती िै फ़कन्तु उसे ‘संवाद’ निीं किा जाता क्योंफ़क वि ‘डॉक्यूमेंट्री’ के मूल
पात्र निीं िोते। यि साक्षात्कार उस सच्चाई को उदघारटत करने और उन आंकड़ों को पुष्ट
करने के हलए िी िोते िैं। इस सं ंध में डॉ. असग़र वजाित हलखते िैं फ़क“...यफ़द
डॉक्यूमेंट्री सत्य से साक्षात्कार करने का एक माध्यम िै तो उसे हलखा कै से जा सकता िै।
यफ़द डॉक्यूमेंट्री में वास्तहवक पात्र स्वयं अपने संवाद ोलते िैं, पररहस्र्हतयाँ वास्तहवक
िैं और घटनाएँ पूरी तरि सच िैं तो उसमें लेखक की भूहमका क्या रि जाती िै ।”1
‘डॉक्यूमेंट्री’ के हवषय का चुनाव करते समय लहक्षत दिणकों को ध्यान में रखना आवश्यक
िोता िै। सार् िी हवषय का मित्त्व और समाज से उसका जुड़ाव िोने के सार्-सार्
दिणकों की रुहच का भी ध्यान रखना िोता िै। इसके सार् िी उस हवषय से जुड़े सभी
साक्ष्यों की पड़ताल और तर्थयों की प्रामाहर्कता िेतु िोध करना भी अपेहक्षत िोता िै।
दृश्य-श्रव्य माध्यम की इस हवधा का सं ंध वास्तहवकताओं और सच्ची घटनाओं से िोने के
कारर् इसमें कर्ा और हवस्तृत पटकर्ा लेखन के हलए कोई स्र्ान निीं रिता हजसके
पररर्ामस्वरूप ‘संवाद-लेखन’ का कायण अनपेहक्षत तर्ा लगभग अनुपहस्र्त िोता िै ।
यिाँ ‘लगभग अनुपहस्र्त’ किने का उद्देश्य के वल यि िै फ़क फ़ीचर फ़फल्मों की तरि दो
या दो से अहधक पात्रों के मध्य संवाद स्र्ाहपत निीं िोता। यिाँ हवषय का सूत्रधार या

1
पटकर्ा लेखन, असगर वजाित,पृष्ठ सं. 123

68
वाचक हजसे ‘नेरेटर’ किते िैं, उसका ‘एकालाप’ िोता िै। वि ‘हस्िप्ट’ (कर्ानक) के
अनुसार अपने भावों को दिणकों तक प्रेहषत करता िै। ध्यान रखने वाली ात यि िै फ़क
वि फ़फ़ल्म में चल रिे दृश्यों को िब्दों में ाँध कर प्रेहषत निीं करता िै अहपतु उन दृश्यों
की व्याख्या करता िै तर्ा तर्थयों और आंकड़ों के द्वारा उसका हवस्तार करता िै। यिी
कारर् िै फ़क इस हवधा में िमें ‘संवाद’ निीं फ़दखाई देता।
इसे स्पष्टतः इस रूप में समझा जा सकता िै फ़क ‘डॉक्यूमट्रें ी’ में किी जाने वाली ात
‘एकाकी’ िोती िै या कि सकते िैं फ़क वि एक-पक्षीय िी िोता िै हजसके कारर् िी उसके
हलए ‘संवाद’ िब्द का प्रयोग निीं फ़कया जाता िै। उसके हलए प्रचहलत िब्द ‘नैरेिन’ िी
िै। इसके हलए बिंदी में ‘वाचक’ या ‘वर्णनकताण’ िब्द भी प्रचहलत िैं। वर्णनकताण द्वारा
दिणकों से फ़कया गया ‘संवाद’ प्रभाविाली िोने के सार्-सार् कलात्मकता का पुट भी
हलए हुए िोता िै। इससे भावों का हवस्तार तो िोता िै फ़कन्तु लं े और ोहझल वाक्यों
का निीं । ‘डॉक्यूमट्र
ें ी’ में किी जाने वाली ात की भाषा में दलाव डॉक्यूमट्रें ी के हवषय
पर भी हनभणर करता िै। यानी हवषय की स्पष्टता के हलए हवषय से सं हं धत िब्दावली
का प्रयोग वर्णनकताण करता िै ।
कु ल हमलाकर यि किा जा सकता िै फ़क ‘संवाद’ सभी दृश्य-श्रव्य माध्यमों तर्ा
साहिहत्यक हवधाओं की सफलता का मूलाधार िै। एक अच्छा संवाद लेखक अपनी
रचनात्मकता और कौिल का प्रयोग कर फ़फ़ल्म , धारावाहिक आफ़द को लोकहप्रय नाने
के सार् िी पात्रों की प्रहसहद्ध का भी कारर् नता िै। कर्ा का यर्ारूप दिणकों तक प्रेषर्
भी अच्छे संवाद पर हनभणर करता िै अतः ‘संवाद-लेखन’ की सभी हवहिष्टताओं को ध्यान
में रखकर संवाद हलखा जाना हुत आवश्यक िोता िै।

4.7.1 प्रश्नों की स्वयं जाँच करना-

प्रश्न-1 हनम्नहलहखत वाक्य सिी िैं या ग़लत, हलहखए –

क. ‘डॉक्यूमेंट्री’ का सं ंध यर्ार्ण से िै हजसमें कल्पना का समावेि कम िी िोता िै।


(.........)
ख. ‘डॉक्यूमेंट्री’ के हलए प्रचहलत िब्द ‘नैरेिन’ िै। इसके हलए बिंदी में ‘वाचक’ या
‘वर्णनकताण’ िब्द भी प्रचहलत िैं। (.............)
ग. धारावाहिक में दो पात्रों के मध्य िोने वाले ातचीत के हलए संवाद के स्र्ान पर
कर्ोपकर्न िब्द का प्रयोग हमलता िै। (............)

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घ. सत्यता, वास्तहवकता, प्रामाहर्कता और यर्ार्ण के प्रस्तुहतकरर् िेतु ‘डॉक्यूमेंट्री’
सवाणहधक उपयुि माध्यम िै। (..............)

4.8 अभ्यास के हलए प्रश्न

प्रश्न – हनम्नहलहखत प्रश्नों के उिर हवस्तार से दीहजए।

क. फ़फ़ल्म संवाद-लेखन की हविेषताओं पर हवस्तार से प्रकाि डाहलए।


ख. दृश्य-श्रव्य माध्यमों के हलए संवाद-लेखन के समय फ़कन-फ़कन ातों का ध्यान
रखना अपेहक्षत िै और क्यों? उदािरर् सहित ताइए।
ग. फ़फ़ल्म संवाद-लेखन और धारावाहिक संवाद-लेखन के ीच क्या अंतर िै?
ह न्दुवार स्पष्ट कीहजए।
घ. डॉक्युमेंट्री से क्या तात्पयण िै? डॉक्युमेंट्री के हलए लेखन अन्य हवधाओं के संवाद-
लेखन से फ़कस प्रकार हभन्न िै?

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