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संपि -अंतरण अिधिनयम, 1882

(1882 का अिधिनयम संख्यांक 4)


[17 फरवरी, 1882]
पक्षकार के कायर् ारा िकए गए संपि -अंतरण से
सम्बिन्धत िविध को संशोिधत
करने के िलए
अिधिनयम
उ ेिशका—पक्षकार के कायर् ारा िकए गए संपि -अंतरण से संबंिधत िविध के कितपय भाग को पिरभािषत और संशोिधत
करना समीचीन है ; अत: एतद् ारा िनम्निलिखत रूप म यह अिधिनयिमत िकया जाता है :—
अध्याय 1

पर्ारं िभक
1. संिक्षप्त नाम—यह अिधिनयम संपि -अंतरण अिधिनयम, 1882 कहा जा सके गा ।
पर्ारम्भ—यह जुलाई, 1882 के पर्थम िदन को पर्वृ होगा ।
िवस्तार— 1 [पर्थमत: इसका िवस्तार 2 सम्पूणर् भारत पर है िसवाय 3 [उन राज्यक्षेतर् के जो 1 नवम्बर, 1956 से अव्यविहत पूवर्
भाग ख राज्य म या] मुम्बई, पंजाब और िदल्ली 3[के राज्य म समािवष्ट थे] । ]
िकन्तु इस अिधिनयम या इसके िकसी भाग का िवस्तार 5 [उक्त सम्पूणर् राज्यक्षेतर् ] या उनके िकसी भाग पर सम्पृक्त राज्य
4

सरकार शासकीय राजपतर् म अिधसूचना 6 ारा कर सके गी ।


कोई भी राज्य सरकार 8 *** अपने ारा पर्शािसत राज्यक्षेतर् के िकसी भी भाग को िनम्निलिखत सब उपबन्ध से या
7 [और

उनम िकसी से भी चाहे भूतलक्षी या चाहे भिवष्यलक्षी रूप से छू ट शासकीय राजपतर् म अिधसूचना ारा समय-समय पर दे सके गी,
अथार्त् :—
धारा 54, पैरा 2 और 3, धाराएं 59, 107 और 123 ।]

1
िविध अनुकूलन आदेश, 1950 ारा तीसरे पैरा के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
2
आसाम फर्िण्टयर टर्ेक्ट्स रे ग्यूलेशन, 1880 (1880 का 2) की धारा 2 के अधीन अिधसूचना ारा इस अिधिनयम का नागा िहल्स िजले, िजसके अन्तगर्त मौकोकचांग सब-
िडिवजन, िडबर्ूगढ़ फर्िण्टयर टर्ेक्ट, नाथर् कछार िहल्स, गारोिहल्स, खािसया और जयिन्तया िहल्स तथा िमिकर िहल्स भी ह, को लागू होगा विजत िकया गया था ।
1941 के अिधिनयम सं० 4 ारा बरार पर भागत: िवस्तार िकया गया । 1956 के अिधिनयम सं० 68 ारा मिणपुर पर ; 1963 के िविनयम सं० 6 की धारा 2
और अनुसूची 1 ारा दादरा और नागर हवेली पर, 1963 के िविनयम सं० 11 की धारा 3 और अनुसूची ारा गोवा, दमण और दीव पर; 1965 के िविनयम सं० 8 की
धारा 3 और अनुसूची ारा लक्ष ीप पर ; 1968 के अिधिनयम सं० 26 की धारा 3 और अनुसूची ारा पांिडचेरी पर िवस्तार िकया गया ।
1939 के मुम्बई अिधिनयम सं० 14 और 1959 के मुम्बई अिधिनयम सं० 57 ारा मुम्बई के िलए ; 1954 के उ र पर्देश अिधिनयम सं० 24, 1970 के उ र
पर्देश अिधिनयम सं० 14 और 1976 के उ र पर्देश अिधिनयम सं० 57 ारा उ र पर्देश के िलए संशोिधत िकया गया ।
3
िविध अनुकूलन (सं० 2) आदेश, 1956 ारा “भाग ख राज्य ” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
4
भारत शासन (भारतीय िविध अनुकूलन) आदेश, 1937 ारा मूल पैरा के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
5
िविध अनुकूलन (सं० 2) आदेश, 1956 ारा “उक्त राज्य ” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
6
इस अिधिनयम का िनम्निलिखत पर िवस्तार िकया गया—
1-1-1893 से बाम्बे पर्ेिसडसी (अनुसूिचत िजल को छोड़कर) पर; 1949 के मुंबई िविनयम सं० 1 ारा मेहवासी एस्टेट पर ; और 1-4-1951 से भूतपूवर्
िरयासती क्षेतर् पर ; अब संपूणर् महाराष्टर् पर लागू ;
1949 के सौराष्टर् अध्यादेश सं० 25 ारा गुजरात (सौराष्टर् क्षेतर्) पर ; और 1-1-1950 से कच्छ क्षेतर् पर ;
मध्य पर्देश ; मैसूर पर 1-4-1951 से राजस्थान पर 1-7-1952 से ;
भूतपूवर् टर्ावनकोर-कोचीन राज्य पर 1-5-1952 से, अब सम्पूणर् के रल पर लागू ।
धारा 54, धारा 107 और धारा 123 के उपबन्ध का ; 30-5-1939 से िदल्ली पर िवस्तार िकया गया । धारा 129 का 16-11-1940 से िदल्ली के कितपय क्षेतर्
और शेष क्षेतर् पर 1-12-1962 से िवस्तार िकया गया ; शेष उपबन्ध का भी िदल्ली संघ राज्यक्षेतर् पर 1-12-1962 से िवस्तार िकया गया ; 7-12-1970 से िहमाचल
पर्देश पर ; 1-4-1955 से पंजाब पर; और 15-5-1957 से भूतपूवर् िरयासती क्षेतर् पर [धारा 59 तारीख 15-8-1967 से हिरयाणा क्षेतर् म पर्वृ की गई]
मानपुर लॉज रे ग्युलेशन, 1926 (1926 का 2) ारा मानपुर के परगना म ; पंथ िपपलोदा लॉज रे ग्युलेशन, 1929 (1929 का 1) ारा पंथ िपपलोदा म और अिधसूचना
सं० 643 (अ), ता० 24-8-1984, भारत का राजपतर्, असाधारण, भाग 2 ; अनुभाग 3(ii) ारा िसक्कम राज्य म 1-9-1984 से पर्वृ घोिषत िकया गया ।
यह अिधिनयम, सरकारी अनुदान अिधिनयम, 1895 (1895 का 15) ारा सरकारी अनुदान के बारे म िनरिसत िकया गया, मदर्ास शहर म 1922 के मदर्ास
अिधिनयम सं० 3 के उपबंध को पर्भावी बनाने के िलए अिधिनयम को यथावश्यक रूप से िनरिसत या उपान्तिरत िकया गया, देिखए 1922 का मदर्ास अिधिनयम
सं० 3 की धारा 13 ।
7
1885 के अिधिनयम सं० 3 की धारा 1 ारा मूल पैरा के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
8
1920 के अिधिनयम सं० 38 की धारा 2 और अनुसूची 1 ारा “सपिरषद् गवनर्र जनरल की पूवर् मंजूरी से” शब्द का लोप िकया गया ।
2

1 [इस धारा के पूवर्वत भाग म िकसी बात के होते हुए भी, धारा 54, पैरा 2 और 3 और धाराएं 59, 107 और 123 का
िवस्तार िकसी ऐसे िजले या भू-भाग पर न तो होगा और न िकया जाएगा, जो भारतीय रिजस्टर्ीकरण अिधिनयम, 2 [1908] (1908 का
16) के पर्वतर्न म उस अिधिनयम की पर्थम धारा ारा पर्द शिक्त के अधीन या अन्यथा तत्समय अपविजत ह ।]
2. अिधिनयम का िनरसन—िकन्ह अिधिनयिमितय , पर्संगितय , अिधकार , दाियत्व इत्यािद की व्यावृि —उन राज्यक्षेतर्
म, िजन पर इस अिधिनयम का तत्समय िवस्तार हो, वे अिधिनयिमितयां, जो एतद् उपाब अनुसच ू ी म िविनिदष्ट ह उनम विणत
िवस्तार तक िनरिसत हो जाएंगी । िकन्तु एतिस्मन् अन्तिवष्ट कोई भी बात िनम्निलिखत पर पर्भाव डालने वाली न समझी जाएगी—
(क) एतद् ारा अिभव्यक्त रूप से न िनरिसत िकसी भी अिधिनयिमित के उपबन्ध ;
(ख) िकसी संिवदा के या सम्पि संघटन के , कोई भी िनबन्धन और पर्संगितयां जो इस अिधिनयम के उपबन्ध से
संगत और तत्समय-पर्वृ -िविध ारा अनुज्ञात है ;
(ग) इस अिधिनयम के पर्वृ होने से पूवर् गिठत िकसी िविधक सम्बन्ध से उत्पन्न कोई अिधकार या दाियत्व या
िकसी ऐसे अिधकार या दाियत्व के बारे म कोई अनुतोष ; अथवा
(घ) इस अिधिनयम की धारा 57 और अध्याय 4 ारा यथा उपबिन्धत के िसवाय िविध की िकर्या ारा या सक्षम
अिधकािरतायुक्त न्यायालय की िडकर्ी या आदेश के ारा या उसके िनष्पादन म हुआ कोई अन्तरण,
और इस अिधिनयम के दूसरे अध्याय की कोई भी बात 3 *** मोहमेडन 4 *** िविध के िकसी िनयम पर पर्भाव डालने वाली नह समझी
जाएगी ।
3. िनवर्चन खंड—इस अिधिनयम म, जब तक िक िवषय या संदभर् म कोई बात िवरु न हो,—
“स्थावर संपि ” के अन्तगर्त खड़ा काष्ठ, उगती फसल या घास नह आती ;
“िलखत” से अवसीयती िलखत अिभपर्ेत है ;
5 [िकसीिलखत के सम्बन्ध म “अनुपर्मािणत” से ऐसे दो या अिधक सािक्षय ारा अनुपर्मािणत अिभपर्ेत है और सवर्दा
अिभपर्ेत रहा होना समझा जाएगा िजनम से हर एक ने िनष्पादक को िलखत पर हस्ताक्षर करते या अपना िचह्न लगाते देखा है या
िनष्पादक की उपिस्थित म और उसके िनदेश ारा िकसी अन्य व्यिक्त को िलखत पर हस्ताक्षर करते देखा है, या िनष्पादक से उसके
अपने हस्ताक्षर या िचह्न की या ऐसे अन्य व्यिक्त के हस्ताक्षर की वैयिक्तक अिभस्वीकृ ित पाई है, और िजनम से हर एक ने िनष्पादक
की उपिस्थित म िलखत पर हस्ताक्षर िकए ह, िकन्तु यह आवश्यक न होगा िक ऐसे सािक्षय म से एक से अिधक एक ही समय उपिस्थत
रहे ह और अनुपर्माणन का कोई िविशष्ट पर्रूप आवश्यक न होगा ;]
“रिजस्टर्ीकृ त” से 6 [ 7 [ऐसे िकन्ह राज्यक्षेतर् के ], िजन पर इस अिधिनयम का िवस्तार है, िकसी भी भाग म,] दस्तावेज के
रिजस्टर्ीकरण को िविनयिमत करने वाली तत्समय पर्वृ 8 िविध के अधीन रिजस्टर्ीकृ त अिभपर्ेत है ;
“भूब ” से अिभपर्ेत है—
(क) भूिम म मूिलत, जैसे पेड़ और झािड़यां ;
(ख) भूिम म िनिवष्ट, जैसे िभि यां या िनमार्ण ; अथवा
(ग) ऐसी िनिवष्ट वस्तु से इसिलए ब िक िजससे यह ब है उसका स्थायी फायदापर्द उपभोग िकया जा सके ;
9 [“अनुयोज्य
दावे” से स्थावर सम्पि के बन्धक ारा या जंगम सम्पि के आडमान या िगरवी ारा पर्ितभूत ऋण से िभन्न
िकसी ऋण का या उस जंगम सम्पि म, जो दावेदार के वास्तिवक या आन्वियक कब्जे म नह है फायदापर्द िहत का ऐसा दावा अिभपर्ेत
है, िजसे िसिवल न्यायालय अनुतोष देने के िलए आधार पर्दान करने वाला मानता हो चाहे ऐसा ऋण या फायदापर्द िहत वतर्मान,
पर्ोद्भवमान, सशतर् या समािशर्त हो ;]

1
1885 के अिधिनयम सं० 3 की धारा 2 ारा (1-7-1882 से) जोड़ा गया ।
2
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 2 ारा “1877” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
3
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 3 ारा शब्द “िहन्दू” का लोप िकया गया ।
4
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 3 ारा शब्द “या बौ ” का लोप िकया गया ।
5
1927 के अिधिनयम सं० 10 की धारा 2 और अनुसूची ारा यथासंशोिधत 1926 के अिधिनयम सं० 27 की धारा 2 ारा अन्त:स्थािपत ।
6
1951 के अिधिनयम सं० 3 की धारा 3 और अनुसूची ारा (1-4-1951 से) “ऐसे िकसी भाग क राज्य या ऐसे िकसी भाग ग राज्य के ” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
7
िविध अनुकूलन (सं० 2) आदेश, 1956 ारा “िकसी राज्य के ” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
8
देिखए, भारतीय रिजस्टर्ीकरण अिधिनयम, 1908 (1908 का 16) ।
9
1900 के अिधिनयम सं० 2 की धारा 2 ारा अन्त:स्थािपत ।
3

तथ्य की “िकसी व्यिक्त को सूचना है” यह तब कहा जाता है, जब वह वास्तव म उस तथ्य को जानता है, अथवा यिद
1 [िकसी

ऐसी जांच या तलाश, जो उसे करनी चािहए थी, करने से जानबूझकर पर्िवरत न रहता या घोर उपेक्षा न करता, तो वह उस तथ्य को
जान लेता ।
स्पष्टीकरण 1—जहां िक स्थावर सम्पि से सम्बिन्धत कोई संव्यवहार रिजस्टर्ीकृ त िलखत ारा िकया जाना िविध ारा
अपेिक्षत है, और वह रिजस्टर्ीकृ त िलखत ारा िकया गया है वहां यह समझा जाएगा िक ऐसे व्यिक्त को, जो ऐसी सम्पि को या ऐसी
सम्पि के िकसी भाग या ऐसी सम्पि म िकसी अंश या िहत को अिजत करता है, ऐसी िलखत की सूचना उस तारीख से है, िजस
तारीख को रिजस्टर्ीकरण हुआ है, या 2 जहां िक एक ही उपिजले म सब सम्पि िस्थत नह है या जहां िक रिजस्टर्ीकृ त िलखत भारतीय
रिजस्टर्ीकरण अिधिनयम, 1908 (1908 का 16) की धारा 30 की उपधारा (2) के अधीन रिजस्टर्ीकृ त की गई है, वहां उस पूवर्तम तारीख
से है, िजसको ऐसे रिजस्टर्ीकृ त िलखत का कोई ज्ञापन उस उपरिजस्टर्ार के पास फाइल िकया गया है िजसके उपिजले म उस सम्पि को,
जो अिजत की जा रही है या उस सम्पि का, िजसम अंश या िहत अिजत िकया जा रहा है, कोई भाग िस्थत है ] :
परन्तु यह तब जबिक—
(1) उस िलखत का रिजस्टर्ीकरण और उसके रिजस्टर्ीकरण की पूित भारतीय रिजस्टर्ीकरण अिधिनयम, 1908
(1908 का 16) ारा और तद्धीन बनाए गए िनयम ारा िविहत रीित से की जा चुकी हो ;
(2) िलखत 3 [या ज्ञापन] को उन पुस्तक म, यथािस्थित, सम्यक् रूप से पर्िवष्ट या फाइल कर िदया गया हो जो उस
अिधिनयम की धारा 51 के अधीन रखी जाती ह ; तथा
(3) उस संव्यवहार के बारे म, िजससे वह िलखत सम्बिन्धत है, िविशिष्टयां उन अनुकर्मिणका म ठीक-ठीक
पर्िवष्ट कर दी गई ह , जो उस अिधिनयम की धारा 55 के अधीन रखी जाती ह ।
स्पष्टीकरण 2—जो व्यिक्त िकसी स्थावर सम्पि को या िकसी ऐसी सम्पि म के िकसी अंश या िहत को अिजत करता है,
यह समझा जाएगा िक उसे उस सम्पि म उस व्यिक्त के हक की, यिद कोई हो, सूचना है, िजसका तत्समय उस पर वास्तिवक
कब्जा है ।
स्पष्टीकरण 3—यिद िकसी व्यिक्त के अिभकतार् को िकसी तथ्य की उस कारबार के अनुकर्म म, िजसके िलए वह तथ्य ताित्त्वक
है, उस व्यिक्त की ओर से कायर् करते हुए सूचना िमल जाती है तो यह समझा जाएगा िक उस तथ्य की सूचना उस व्यिक्त को थी :
परन्तु यिद अिभकतार् कपटपूवर्क तथ्य को िछपा लेता है तो जहां तक िक उस व्यिक्त का सम्बन्ध है, जो उस कपट म पक्षकार
था या अन्यथा उसका संज्ञान रखता था, उसकी सूचना मािलक पर आरोिपत न की जाएगी ।]
4. संिवदा से सम्बिन्धत अिधिनयिमितय का संिवदा अिधिनयम का भाग और रिजस्टर्ीकरण अिधिनयम का अनुपरू क
समझा जाना—इस अिधिनयम के वे अध्याय और धाराएं, जो संिवदा से सम्बिन्धत ह, भारतीय संिवदा अिधिनयम, 1872 (1872 का
9) का भाग मानी जाएंगी ।
4 [तथा धारा 54, पैरा 2 और 3 और धाराएं 59, 107 और 123 भारतीय रिजस्टर्ीकरण अिधिनयम, 5 [1908 (1908 का 16)]
के अनुपूरक के रूप म पढ़ी जाएंगी ।]
अध्याय 2 6

पक्षकार के ारा संपि -अंतरण के िवषय म


(क) जंगम या स्थावर संपि का अंतरण
5. “संपि के अंतरण” की पिरभाषा—आगामी धारा म, “संपि के अंतरण” से ऐसा कायर् अिभपर्ेत है, िजसके ारा कोई
जीिवत व्यिक्त एक या अिधक अन्य जीिवत व्यिक्तय को 7 [या स्वयं को] अथवा स्वयं और एक या अिधक अन्य जीिवत व्यिक्तय को
वतर्मान म या भिवष्य म सम्पि हस्तान्तिरत करता है और “संपि का अंतरण करना” ऐसा कायर् करना है ।
8 [इस धारा म “जीिवत व्यिक्त” के अन्तगर्त कम्पनी या संगम या व्यिक्तय का िनकाय, चाहे वह िनगिमत हो या न हो, आता
है, िकन्तु एतिस्मन् अन्तिवष्ट कोई भी बात कम्पिनय , संगम या व्यिक्तय के िनकाय को या के ारा िकए जाने वाले संपि -अंतरण से
सम्बिन्धत िकसी भी तत्समय-पर्वृ -िविध पर पर्भाव न डालेगी ।]

1
1929 के अिधिनयम सं 20 की धारा 4 ारा पर्ितस्थािपत ।
2
1930 के अिधिनयम सं० 5 की धारा 2 ारा कितपय शब्द के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
3
1930 के अिधिनयम सं० 5 की धारा 2 ारा अंत:स्थािपत ।
4
1885 के अिधिनयम सं० 3 की धारा 3 ारा जोड़ा गया ।
5
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 5 ारा “1877” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
6
अध्याय 2 की कोई बात मुिस्लम िविध के िकसी िनयम पर पर्भाव डालने वाली नह समझी जाएगी—देिखए सम्पि अन्तरण अिधिनयम, 1882 (1882 का 4) की
धारा 2 ।
7
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 6 ारा अन्त:स्थािपत ।
8
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 6 ारा जोड़ा गया ।
4

6. क्या अंतिरत िकया जा सके गा—िकसी भी िकस्म की संपि , इस अिधिनयम या िकसी भी अन्य तत्समय-पर्वृ -िविध ारा
अन्यथा उपबंिधत के िसवाय, अन्तिरत की जा सके गी—
(क) िकसी पर्त्यक्ष वािरस की संपदा का उ रािधकारी होने की संभावना, कु ल्य की मृत्यु पर िकसी नातेदार की
वसीयत-संपदा अिभपर्ाप्त करने की संभावना या इसी पर्कृ ित की कोई अन्य संभावना मातर् अन्तिरत नह की जा सकती ;
(ख) िकसी उ रभाव्य शतर् के भंग के कारण पुन: पर्वेश का अिधकार मातर् उस सम्पि का, िजस पर तद् ारा पर्भाव
पड़ा है, स्वामी के िसवाय िकसी अन्य को अन्तिरत नह िकया जा सकता ;
(ग) कोई सुखाचार अिधष्ठायी स्थल से पृथक्त: अन्तिरत नह िकया जा सकता ;
(घ) सम्पि म का ऐसा िहत, जो उपभोग म स्वयं स्वामी तक ही िनबर्िन्धत है, उसके ारा अन्तिरत नह िकया जा
सकता ;
भावी भरणपोषण का अिधकार, चाहे वह िकसी भी रीित से उद्भूत, पर्ितभूत या अवधािरत हो, अन्तिरत
1 [(घघ)

नह िकया जा सकता ;
(ङ) 2 *** वाद लाने का अिधकार मातर् अन्तिरत नह िकया जा सकता ;
(च) लोक पद अन्तिरत नह िकया जा सकता, और न लोक आिफसर का संबलम् उसके देय होने से, चाहे पूवर् या
पश्चात्, अन्तिरत िकया जा सकता ;
(छ) वृि काएं, जो 3 [सरकार] के सैिनक, 4 [नौसैिनक], 5 [वायुसैिनक] और िसिवल पेन्शन भोिगय को अनुज्ञात ह ,
और राजनैितक पशन अन्तिरत नह की जा सकत ;
(ज) कोई भी अन्तरण (1) जहां तक वह तद् ारा उस िहत की, िजस पर पर्भाव पड़ा है, पर्कृ ित के पर्ितकू ल हो, या
(2) जो 6 [भारतीयसंिवदा अिधिनयम, 1872 (1872 का 9) की धारा 23 के अथर् के अन्तगर्त िकसी िविधिवरु उ ेश्य या
पर्ितफल के िलए हो,] या (3) जो ऐसे व्यिक्त को, जो अन्तिरती होने से िविधत: िनरिहत हो, नह िकया जा सकता ;
7 [(झ)इस धारा की कोई भी बात अिधभोग का अनन्तरणीय अिधकार रखने वाले िकसी अिभधारी को, उस सम्पदा
के फामर्र को, िजस सम्पदा के िलए राजस्व देने म व्यितकर्म हुआ है, या िकसी पर्ितपाल्य अिधकरण के पर्बंध के अधीन िकसी
सम्पदा के प ेदार को, ऐसे अिभधारी, फामर्र या प ेदार के नाते अपने िहत का समनुदश े न करने के बारे म पर्ािधकृ त करने
वाली नह समझी जाएगी ।]
7. अंतरण करने के िलए सक्षम व्यिक्त—हर व्यिक्त, जो संिवदा करने के िलए सक्षम हो और अन्तरणीय सम्पि का हकदार
हो या अन्तरणीय सम्पि के जो उसकी अपनी नह है, व्ययन के िलए पर्ािधकृ त हो, ऐसी सम्पि का अन्तरण, पूणर्त: या भागत: तथा
आत्यिन्तक रूप से या सशतर्, उन पिरिस्थितय म, उतनी िवस्तार तक और उस पर्कार से, जो िकसी भी तत्समय-पर्वृ -िविध ारा
अनुज्ञात और िविहत हो, करने के िलए सक्षम है ।
8. अंतरण का पर्भाव—जब तक िक कोई िभन्न आशय अिभव्यक्त न हो या आवश्यक रूप से िवविक्षत न हो, सम्पि का
अन्तरण अन्तिरती को तत्काल ही सम्पि म के और उसकी िविधक पर्संगितय म के उस समस्त िहत का संकर्ामण कर देता है िजसका
संकर्ामण करने के िलए अन्तरक तब समथर् हो ।
ऐसी पर्संगितय के अन्तगर्त आते ह—
जहां िक सम्पि भूिम हो, वहां उससे उपाब सुखाचार, अन्तरण के पश्चात् पर्ोद्भवमान उसके भाटक और लाभ तथा भूब
सब चीज,
और जहां िक संपि भूब मशीनरी हो, वहां उसके जंगम भाग,
और जहां िक संपि कोई गृह हो वहां उसके उपाब सुखाचार, अंतर के पश्चात् पर्ोद्भवमान उसका भाटक और इसके साथ
स्थायी उपयोग के िलए उपबिन्धत उसके ताले, चािबयां, छड़, ार, िखड़िकयां और अन्य सब चीज,

1
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 7 ारा अन्त:स्थािपत ।
2
1900 के अिधिनयम सं० 2 की धारा 3 ारा “िकसी कपट या अवैध रूप से िकसी नुकसान के िलए पर्ितकर के िलए” शब्द का लोप िकया गया ।
3
“सरकार” शब्द भारत शासन (भारतीय िविध अनुकूलन) आदेश, 1937 ारा और तत्पश्चात िविध अनुकूलन आदेश, 1950 ारा संशोिधत होकर उपरोक्त रूप से
आया ।
4
1934 के अिधिनयम सं० 35 की धारा 2 और अनुसूची ारा अन्त:स्थािपत ।
5
1927 के अिधिनयम सं० 10 की धारा 2 और अनुसूची 1 ारा अन्त:स्थािपत ।
6
1900 के अिधिनयम सं० 2 की धारा 3 ारा “िकसी अवैध पर्योजन के िलए” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
7
1885 के अिधिनयम सं० 3 की धारा 4 ारा जोड़ा गया ।
5

और जहां िक संपि कोई ऋण या अन्य अनुयोज्य दावा हो वहां उसके िलए पर्ितभूितयां (उस दशा के िसवाय िजसम वे ऐसे
अन्य ऋण या दाव के िलए भी ह, िजन्ह अन्तिरती को अन्तिरत नह िकया गया है), िकन्तु अंतरण के पूवर् पर्ोद्भूत ब्याज की बकाया
नह ,
और जहां िक संपि धन या आय देने वाली अन्य सम्पि हो, वहां अंतरण के पर्भावशील होने के पश्चात् पर्ोद्भवमान उसका
ब्याज या आय ।
9. मौिखक अंतरण—हर उस दशा म, िजसम िविध ारा कोई लेख अिभव्यक्तत: अपेिक्षत नह है, सम्पि का अन्तरण िलखे
िबना िकया जा सके गा ।
10. अन्य-संकर्ामण अवरु करने वाली शतर्—जहां िक सम्पि ऐसी शतर् या मयार्दा के अध्यधीन अन्तिरत की जाती है, जो
अन्तिरती या उसके अधीन दावा करने वाले व्यिक्त को सम्पि म अपने िहत को अलग करने या व्ययिनत करने से आत्यिन्तकत: अवरु
करती है, वहां ऐसी शतर् या मयार्दा शून्य है, िसवाय ऐसे प े की दशा के िजसम िक वह शतर् प ाकतार् या उसके अधीन दावेदार के फायदे
के िलए हो, परन्तु सम्पि िकसी स्तर्ी को (जो िहन्दू, मुसलमान या बौ न हो) या उसके फायदे के िलए इस पर्कार अन्तिरत की जा
सके गी िक उसे अपनी िववािहत िस्थित के दौरान उस सम्पि को या उसम के अपने फायदापर्द िहत को अन्तिरत या भािरत करने की
शिक्त न होगी ।
11. सृष्ट िहत के िवरु िनबर्न्धन—जहां िक सम्पि के अन्तरण पर उस सम्पि म िकसी व्यिक्त के पक्ष म िहत आत्यिन्तकत:
सृष्ट िकया जाता हो, िकन्तु अन्तरण के िनबर्न्धन िनदेश करते ह िक वह ऐसे िहत का िकसी िविशष्ट रीित से उपयोजन या उपभोग करे ,
वहां वह ऐसे िहत को ऐसे पर्ाप्त और व्ययिनत करने का हकदार होगा मानो ऐसा कोई िनदेश था ही नह ।
1
[जहां िक ऐसा कोई िनदेश स्थावर सम्पि के एक टु कड़े के बारे म उस सम्पि के दूसरे टुकड़े के फायदापर्द उपभोग को
सुिनिश्चत करने के पर्योजन से िकया गया हो, वहां इस धारा की कोई भी बात िकसी ऐसे अिधकार पर, जो अन्तरक ऐसे िनदेश का
पर्वतर्न कराने के िलए रखता हो, या िकसी ऐसे उपचार पर, जो वह उसके भंग के बारे म रखता हो, पर्भाव डालने वाली नह समझी
जाएगी ।]
12. िदवाले या पर्यितत अन्य-संकर्ामण पर िहत को पयर्वसेय बनाने वाली शतर्—जहां िक इस शतर् या मयार्दा के अध्यधीन
सम्पि अन्तिरत की जाती है िक िकसी व्यिक्त को या उसके फायदे के िलए आरिक्षत या िदया हुआ उस सम्पि म का कोई भी िहत उस
व्यिक्त के िदवािलया होने पर या उसके अन्तरण या व्ययन करने का पर्यास करने पर समाप्त हो जाएगा, वहां ऐसी शतर् या मयार्दा
शून्य है ।
इस धारा की कोई भी बात प े म की िकसी ऐसी शतर् को लागू न होगी जा प ाकतार् या उसे व्युत्पन्न अिधकाराधीन दावा
करने वाल के फायदे के िलए हो ।
13. अजात व्यिक्त के फायदे के िलए अंतरण—जहां िक सम्पि के अन्तरण पर उस संपि म कोई िहत उसी अंतरण ारा
सृष्ट िकसी पूिवक िहत के अध्यधीन ऐसे व्यिक्त के फायदे के िलए, जो अंतरण की तारीख को अिस्तत्व म न हो, सृष्ट िकया जाता है,
वहां ऐसे व्यिक्त के फायदे के िलए सृष्ट िहत पर्भावी न होगा जब तक िक उसका िवस्तार सम्पि म अन्तरक के सम्पूणर् अविशष्ट िहत
पर न हो ।
दृष्टांत
क उस सम्पि का, िजसका वह स्वामी है, ख को अनुकर्मश: अपने और अपनी आशियत पत्नी के जीवनपयर्न्त के िलए और
उ रजीवी की मृत्यु के पश्चात् आशियत िववाह से ज्येष्ठ पुतर् के जीवनपयर्न्त के िलए और उसकी मृत्यु के पश्चात् क के दूसरे पुतर् के िलए
न्यास के रूप म अन्तिरत करता है । ज्येष्ठ पुतर् के फायदे के िलए इस पर्कार सृष्ट िहत पर्भावशील नह होता है क्योिक उसका िवस्तार
उस सम्पि म क के सम्पूणर् अविशष्ट िहत पर नह है ।
14. शाश्वतता के िवरु िनयम—कोई भी सम्पि -अन्तरण ऐसा िहत सृष्ट करने के िलए पर्वृ नह हो सकता जो ऐसे
अन्तरण की तारीख को जीिवत एक या अिधक व्यिक्तय के जीवन काल के , और िकसी व्यिक्त की, जो उस कालाविध के अवसान के
समय अिस्तत्व म हो, िजसे यिद वह पूणर् वय पर्ाप्त करे तो वह सृष्ट िहत िमलना हो, अपर्ाप्तवयता के पश्चात् पर्भावी होना है ।
15. उस वगर् को अंतरण, िजसम के कु छ व्यिक्त धारा 13 और 14 के अन्दर आते ह—यिद सम्पि -अन्तरण से उस सम्पि म
िकसी िहत का सृजन ऐसे व्यिक्तय के िकसी वगर् के फायदे के िलए िकया जाता है िजनम से कु छ के सम्बन्ध म ऐसा िहत धारा 13 और
14 म अन्तिवष्ट िनयम म से िकसी के कारण िनष्फल हो जाता है तो ऐसा िहत 2 [के वल उन्ह व्यिक्तय के सम्बन्ध म, न िक सम्पूणर् वगर्
के सम्बन्ध म] िनष्फल हो जाता है ।
[16. अंतरण का िकसी पूिवक िहत की िनष्फलता पर पर्भावी होना—जहां िक व्यिक्त या व्यिक्तय के िकसी वगर् के फायदे के
3

िलए सृष्ट िहत धारा 13 और 14 म अन्तिवष्ट िनयम म से िकसी के कारण ऐसे व्यिक्त या ऐसे संपूणर् वगर् के सम्बन्ध म िनष्फल हो

1
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 8 ारा दूसरे पैरा के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
2
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 9 ारा “संपूणर् वगर् के संबंध म” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
3
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 10 ारा धारा 16, धारा 17 और धारा 18 के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
6

जाता है, वहां उसी संव्यवहार म सृष्ट और ऐसे पूिवक िहत की िनष्फलता के पश्चात् या पर पर्भावी होने के िलए आशियत कोई िहत भी
िनष्फल हो जाता है ।
17. संचयन के िलए िनदेश—(1) जहां िक सम्पि के िकसी अन्तरण के िनबन्धन िनिदष्ट करते ह िक उस सम्पि से उद्भूत
आय—
(क) अन्तरक के जीवन से, या
(ख) अन्तरण की तारीख से अठारह वषर् की कालाविध से,
अिधक कालाविध तक पूणर्त: या भागत: संिचत की जाएगी, वहां एतिस्मन्पश्चात् यथा उपबंिधत के िसवाय ऐसा िनदेश वहां तक शून्य
होगा, जहां तक िक वह कालाविध, िजसके दौरान संचय करना िनिदष्ट है, पूव क्त कालाविधय म से दीघर्तर कालाविध से अिधक हो
और ऐसी अिन्तम विणत कालाविध का अन्त होने पर वह सम्पि और उसकी आय इस पर्कार व्ययिनत की जाएगी मानो वह
कालाविध, िजसके दौरान संचय करना िनिदष्ट िकया गया है, बीत गई है ।
(2) यह धारा ऐसे िकसी िनदेश पर पर्भाव न डालेगी जो—
(i) अन्तरक के ऋण का या अन्तरण के अधीन कोई िहत पाने वाले िकसी अन्य व्यिक्त के ऋण का संदाय करने के ,
अथवा
(ii) अन्तक के या अन्तरण के अधीन कोई िहत पाने वाले िकसी अन्य व्यिक्त के पुतर्-पुितर्य या दूरतर सन्तित के
िलए भाग का उपबन्ध करने के , अथवा
(iii) अन्तिरत सम्पि के पिररक्षण या अनुरक्षण के ,
पर्योजन से संचय करने के िलए हो, और ऐसा िनदेश तद्नुकूल िकया जा सके गा ।
18. लोक के फायदे के िलए शाश्वितक अंतरण—धारा 14, 16 और 17 म के िनबर्न्धन ऐसे सम्पि -अंतरण की दशा म लागू
नह ह गे, जो लोक के फायदे के िलए धमर्, ज्ञान, वािणज्य, स्वास्थ्य, क्षेम को या मानव जाित के िलए फायदापर्द िकसी अन्य उ ेश्य को
अगर्सर करने के िलए िकया गया हो ।]
19. िनिहत िहत—जहां िक िकसी सम्पि -अन्तरण से िकसी व्यिक्त के पक्ष म उस सम्पि म कोई िहत, वह समय िविनिदष्ट
िकए िबना, जब से वह पर्भावी होगा, या शब्द म यह िविनिदष्ट करते हुए िक वह तत्काल या िकसी ऐसी घटना होने पर, जो
अवश्यंभावी है, पर्भावी होगा, सृष्ट िकया जाता है, वहां जब तक िक अन्तरण के िनबन्धन से पर्ितकू ल आशय पर्तीत न होता हो ऐसा
िहत िनिहत िहत है ।
िनिहत िहत कब्जा अिभपर्ाप्त करने से पहले अन्तिरती की मृत्यु हो जाने से िवफल नह हो जाता ।
स्पष्टीकरण—के वल ऐसे उपबन्ध से, िजसके ारा िहत का उपभोग मुल्तवी िकया जाता है, या उसी सम्पि म कोई पूिवक
िहत िकसी अन्य व्यिक्त के िलए िदया जाता या आरिक्षत िकया जाता है, या उस सम्पि से उद्भूत आय को उस समय तक संिचत िकए
जाने का िनदेश िकया जाता है, जब तक उपभोग का समय नह आ जाता, या के वल ऐसे िकसी उपबन्ध से िक यिद कोई िवशेष घटना
घिटत हो जाए तो वह िहत िकसी अन्य व्यिक्त को संकर्ान्त हो जाएगा यह आशय िक िहत िनिहत नह होगा अनुिमत न िकया जाएगा ।
20. अजात व्यिक्त अपने फायदे के िलए िकए गए अन्तरण पर कब िनिहत िहत अिजत करता है—जहां िक संपि -अंतरण से
उस संपि म कोई िहत ऐसे व्यिक्त के फायदे के िलए सृष्ट िकया जाता है जो उस समय अजात है वहां, जब तक िक अन्तरण के
िनबन्धन से कोई तत्पर्ितकू ल आशय पर्तीत न होता हो, वह अपना जन्म होने पर िनिहत िहत अिजत कर लेता है, य िप उसे यह हक न
हो िक वह अपने जन्म से ही उसका उपभोग करने लगे ।
21. समािशर्त िहत—जहां िक संपि -अंतरण से उस संपि म िकसी व्यिक्त के पक्ष म िहत िविनिदष्ट अिनिश्चत घटना के
घिटत न होने पर ही अथवा िकसी िविनिदष्ट अिनिश्चत घटना के घिटत न होने पर ही पर्भावी होने के िलए सृष्ट िकया गया हो, वहां
ऐसा व्यिक्त तद् ारा उस संपि म समािशर्त िहत अिजत करता है । ऐसा िहत पूवर् किथत दशा म उस घटना के घिटत होने पर और
पश्चात्-किथत दशा म उस घटना का घिटत होना असम्भव हो जाने पर िनिहत िहत हो जाता है ।
अपवाद—जहां िक संपि -अंतरण के अधीन कोई व्यिक्त उस संपि म िकसी िहत का हकदार कोई िविशष्ट आयु पर्ाप्त करने
पर हो जाता है, और अन्तरक उसको वह आय भी आत्यिन्तकत: देता है जो उसके वह आयु पर्ाप्त करने से पहले ऐसे िहत से उद्भूत हो
यह िनदेश देता है िक वह आय या उसम से उतनी, िजतनी आवश्यक हो, उसके फायदे के िलए उपयोिजत की जाए, वहां ऐसा िहत
समािशर्त िहत नह है ।
22. िकसी वगर् के ऐसे सदस्य को अन्तरण जो िकसी िविशष्ट आयु को पर्ाप्त कर—जहां िक सम्पि -अन्तरण से उस सम्पि म
कोई िहत िकसी वगर् के के वल ऐसे सदस्य के पक्ष म सृष्ट िकया गया हो, जो कोई िविशष्ट आयु पर्ाप्त करे, वहां ऐसा िहत वगर् के ऐसे
िकसी सदस्य म िनिहत नह होता िजसने वह आयु पर्ाप्त नह कर ली है ।
7

23. अंतरण जो, िविनिदष्ट अिनिश्चत घटना के घिटत होने पर समािशर्त है—जहां िक सम्पि -अन्तरण से उस सम्पि म
कोई िहत िकसी िविनिदष्ट व्यिक्त को िकसी िविनिदष्ट अिनिश्चत घटना के घिटत होने पर ही पर्ोद्भूत होना हो, और उस घटना के
घिटत होने के िलए समय विणत न हो, वहां वह िहत िनष्फल हो जाता है जब तक ऐसी घटना मध्यवत या पूवर्वत िहत के
अिस्तत्वहीन होने के पहले ही या साथ ही घिटत नह हो जाती ।
24. िनिश्चत व्यिक्तय म से ऐसे व्यिक्तय को अन्तरण जो अिविनिदष्ट कालाविध पर उ रजीवी ह —जहां िक सम्पि -
अन्तरण से उस सम्पि म िहत िनिश्चत व्यिक्तय म से ऐसे व्यिक्तय को पर्ोद्भूत होना हो, जो िकसी कालाविध पर उ रजीवी रहे
िकन्तु िनिश्चत कालाविध िविनिदष्ट न हो, वहां वह िहत उन व्यिक्तय म से ऐस को जो मध्यवत या पूवर्वत िहत के अिस्तत्व का
अन्त होने के समय जीिवत ह , चला जाएगा, जब तक िक अन्तरण के िनबन्धन से कोई तत्पर्ितकू ल आशय पर्तीत न होता हो ।
दृष्टांत
क सम्पि को ख के जीवनपयर्न्त के िलए ख को और उसकी मृत्यु के पश्चात् ग और घ को उनम समिवभािजत िकए जाने के
िलए या उनम से उ रजीवी को अन्तिरत करता है । ख के जीवनकाल म ग की मृत्यु हो जाती है । ख का उ रजीवी घ है । ख की मृत्यु
पर वह सम्पि घ को संकर्ािमत हो जाती है ।
25. सशतर् अन्तरण—सम्पि -अन्तरण से सृष्ट और िकसी शतर् पर िनभर्र िहत िनष्फल हो जाता है यिद उस शतर् की पूित
संभव हो, या िविध ारा िनिष हो या ऐसी कृ ित की हो िक यिद वह अनुज्ञात की जाए तो वह िकसी िविध के उपबन्ध को िवफल कर
देगी या कपटपूणर् हो, या ऐसी हो िजनम िकसी दूसरे के शरीर या सम्पि को क्षित अन्तवर्िलत या अन्तिहत हो, या िजसे न्यायालय
अनैितक या लोकनीित के िवरु समझता हो ।
दृष्टांत
(क) ख को क कोई खेत प े पर इस शतर् पर देता है िक वह एक घंटे म 100 मील पैदल चले । प ा शून्य है ।
(ख) ख को क 500 रुपए इस शतर् पर देता है िक वह क की पुतर्ी ग से िववाह करे । अन्तरण की तारीख पर ग की मृत्यु हो चुकी
थी । अन्तरण शून्य है ।
(ग) ख को क 500 रुपए इस शतर् पर अन्तिरत करता है िक वह ग की हत्या करे । अन्तरण शून्य है ।
(घ) क अपनी भतीजी ग को 500 रुपए इस शतर् पर अन्तिरत करता है िक वह अपने पित का अिभत्याग कर दे । अन्तरण
शून्य है ।
26. पुरोभाव्य शतर् की पूित—जहां िक सम्पि -अन्तरण के िनबन्धन कोई ऐसी शतर् अिधरोिपत करते ह जो इससे पहले िक
कोई व्यिक्त उस सम्पि म िहत पर्ाप्त कर सके , पूरी की जानी हो, वहां यिद उस शतर् का सारत: अनुपालन कर िदया गया है, तो यह
समझा जाएगा िक उसकी पूित कर दी गई है ।
दृष्टांत
(क) क 5,000 रुपए ख को इस शतर् पर अन्तिरत करता है िक वह ग, घ और ङ की सम्मित से िववाह करे गा । ङ की मृत्यु हो
जाती है । ग और घ की सम्मित से ख िववाह करता है । यह समझा जाएगा िक ख ने शतर् पूरी कर दी है ।
(ख) क 5,000 रुपए ख को इस शतर् पर अन्तिरत करता है िक वह ग, घ और ङ की सम्मित से िववाह करे गा । ग, घ और ङ की
सम्मित के िबना ख िववाह करता है िववाह के पश्चात् उनकी सम्मित अिभपर्ाप्त कर लेता है । ख ने शतर् पूरी नह की है ।
27. एक व्यिक्त को सशतर् अंतरण ऐसे अन्तरण के साथ जो पूिवक व्ययन के िनष्फल होने पर दूसरे व्यिक्त के पक्ष म हो
जाएगा—जहां िक सम्पि -अन्तरण से उस सम्पि म कोई िहत एक व्यिक्त के पक्ष म सृष्ट िकया जाता है और उसी संव्यवहार ारा
उसी िहत का कोई परतर व्ययन उस अन्तरण के अधीन पूिवक व्ययन के िनष्फल होने की दशा म िकसी दूसरे के पक्ष म िकया जाता है,
वहां पूिवक व्ययन की िनष्फलता पर परतर व्ययन पर्भावी हो जाएगा, य िप वह िनष्फलता अन्तरक ारा अनुध्यात पर्कार से न हुई
हो ।
िकन्तु जहां िक संव्यवहार के पक्षकार का आशय यह हो िक पूिवक व्ययन के िकसी िवशेष पर्कार से िनष्फल हो जाने की दशा
म ही परतर व्ययन पर्भावी होगा, वहां जब तक िक पूिवक व्ययन उस पर्कार से िनष्फल नह हो जाता, परतर व्ययन पर्भावी न होगा ।
दृष्टांत
(क) क इस शतर् पर िक क की मृत्यु के पश्चात् ख तीन मास के भीतर अमुक प ा िनष्पािदत कर देगा, ख को और यिद वह ऐसा
करने म उपेक्षा करे तो ग को 500 रुपए अन्तिरत करता है । क के जीवनकाल म ख की मृत्यु हो जाती है । ग के पक्ष म व्ययन पर्भावी हो
जाता है ।
(ख) क अपनी पत्नी को सम्पि अन्तिरत करता है िकन्तु उसके जीवनकाल म ही उसकी पत्नी की मृत्यु हो जाने की दशा म
वह सम्पि , िजसे उसने अपनी पत्नी को अन्तिरत िकया था, ख को अन्तिरत करता है । क और उसकी पत्नी ऐसी पिरिस्थितय मे एक
8

साथ िवनष्ट हो जाते ह, िजनसे यह सािबत करना असम्भव हो जाता है िक वह उसके पहले मर गई । ख के पक्ष म व्ययन पर्भावी नह
होता ।
28. परतर अंतरण का िविनिदष्ट घटना के घिटत होने या न होने की शतर् पर आिशर्त होना—सम्पि -अन्तरण से उस सम्पि
म कोई िहत िकसी व्यिक्त के िलए इस अिधयोिजत शतर् के साथ पर्ोद्भूत होने के िलए सृष्ट िकया जा सके गा िक िविनिदष्ट अिनिश्चत
घटना के घिटत होने की दशा म ऐसा िहत िकसी अन्य व्यिक्त को संकर्ान्त हो जाएगा या िविनिदष्ट अिनिश्चत घटना के घिटत न होने
की दशा म ऐसा िहत िकसी अन्य व्यिक्त को संकर्ान्त हो जाएगा । हर एक दशा म के व्ययन धारा 10, 12, 21, 22, 23, 24, 25 और 27
म अन्तिवष्ट िनयम के अध्यधीन ह ।
29. उ रभाव्य शतर् की पूित—पूवर्गामी अंितम धारा ारा अनुध्यात िकस्म का परतर व्ययन पर्भावी नह हो सकता, जब तक
िक शतर् की पूित यथावत् नह हो जाती ।
दृष्टांत
क 500 रुपए ख को उसके पर्ाप्तवय होने या िववाह करने पर उसे िदए जाने के िलए इस उपबन्ध के साथ अन्तिरत करता है
िक यिद ख अपर्ाप्तवय ही मर जाए या ग की सम्मित के िबना िववाह कर ले, तो वे 500 रुपए घ को िमलगे । ख के वल 17 वषर् की आयु
म और ग की सम्मित के िबना िववाह करता है । घ को अन्तरण पर्भावी हो जाता है ।
30. पूिवक व्ययन का परतर व्ययन की अिविधमान्यता ारा पर्भािवत न होना—यिद परतर व्ययन िविधमान्य न हो, तो
पूिवक व्ययन पर उसका पर्भाव नह पड़ेगा ।
दृष्टांत
क एक फामर् ख को उसके जीवनपयर्न्त के िलए तथा यिद वह अपने पित का अिभत्यजन न करे , तो ग को अन्तिरत करता है ।
ख अपने जीवनपयर्न्त फामर् की ऐसे हकदार है मानो कोई शतर् अन्त:स्थािपत थी ही नह ।
31. यह शतर् िक अन्तरण िविनिदष्ट अिनिश्चत घटना के घिटत होने या न होने की दशा म पर्भावी न रहेगा—धारा 12 के
उपबन्ध के अध्यधीन यह है िक सम्पि के अन्तरण पर उस सम्पि म कोई िहत इस अिधयोिजत शतर् के साथ सृष्ट िकया जा सके गा िक
िकसी िविनिदष्ट अिनिश्चत घटना के घिटत होने की दशा म या िकसी िविनिदष्ट अिनिश्चत घटना के घिटत न होने की दशा म उसके
अिस्तत्व का अन्त हो जाएगा ।
दृष्टांत
(क) क कोई फामर् ख को उसके जीवनपयर्न्त के िलए इस उपबन्ध के साथ अन्तिरत करता है िक यिद ख ने अमुक जंगल को
काटा तो अन्तरण के पर्भाव का अन्त हो जाएगा । ख जंगल काट डालता है । यह फामर् म अपना आजीवन िहत खो देता है ।
(ख) क कोई फामर् ख को इस उपबन्ध के साथ अन्तिरत करता है िक यिद अन्तरण की तारीख के पश्चात् तीन वषर् के भीतर ख
इं ग्लड न जाएगा तो फामर् म उसके िहत का अन्त हो जाएगा । ख िविहत अविध के भीतर इं ग्लड नह जाता । फामर् म उस िहत का अन्त
हो जाता है ।
32. ऐसी शतर् अिविधमान्य नह होनी चािहए—इसके िलए िक यह शतर् िविधमान्य हो िक िहत के अिस्तत्व का अंत हो
जाएगा, यह आवश्यक है िक वह घटना, िजससे वह सम्बिन्धत है, ऐसी हो जो िहत के सृजन की शतर् िविधत: हो सकती है ।
33. कायर् करने की शतर् पर अन्तरण जबिक उस कायर् के करने के िलए कोई समय िविनिदष्ट नह है—जहां िक संपि -अंतरण
से उस संपि म कोई िहत इस शतर् के अध्यधीन सृष्ट िकया जाता है िक उसे लेने वाला व्यिक्त अमुक कायर् करे गा, िकन्तु उस कायर् के
करने के िलए कोई समय िविनिदष्ट नह है, वहां वह शतर् भंग हो जाती है, जब वह ऐसे कायर् का करना सवर्दा के िलए या िकसी
अिनिश्चत कालाविध के िलए असम्भव कर देता है ।
34. कायर् करने की शतर् पर आिशर्त अन्तरण जबिक समय िविनिदष्ट है—जहां िक या तो संपि के अंतरण से सृष्ट िकसी िहत
का िकसी व्यिक्त ारा उपभोग िकए जाने से पहले पूित की जानी वाली शतर् के तौर पर या ऐसी शतर् के तौर पर, िजसकी अपूित की
दशा म वह िहत उससे िकसी दूसरे व्यिक्त को संकर्ान्त हो जाना है, कोई कायर् उस व्यिक्त ारा िकया जाना है और उस कायर् के करने के
िलए कोई समय िविनिदष्ट िकया गया है, वहां यिद िविनिदष्ट समय के भीतर ऐसे कायर् का िकया जाना िकसी ऐसे व्यिक्त के कपट
ारा िनवािरत कर िदया जाए, िजसे शतर् की अपूित से सीधे फायदा होता हो, तो उस कायर् को करने के िलए उसके िवरु इतना
अितिरक्त समय अनुज्ञात िकया जाएगा िजतना ऐसे कपट ारा िकए गए िवलम्ब की पर्ितपूित के िलए अपेिक्षत हो । िकन्तु यिद उस
कायर् को करने के िलए कोई समय िविनिदष्ट न हो तो यिद उसका िकया जाना शतर् की अपूित म िहतब व्यिक्त के कपट ारा असम्भव
बना िदया जाए, या अिनिश्चत समय के िलए मुल्तवी हो जाए, तो वह शतर्, जहां तक उस व्यिक्त का सम्बन्ध है, पूरी कर दी गई समझी
जाएगी ।
िनवार्चन
35. िनवार्चन कब आवश्यक है—जहां िक कोई व्यिक्त ऐसी सम्पि अन्तिरत करने की पर्व्यंजना करता है, िजसे अन्तिरत
करने का उसे कोई अिधकार नह है और उसी संव्यवहार के भागरूप कोई फायदा उस सम्पि के स्वामी को पर्द करता है वहां ऐसे
9

स्वामी को िनवार्चन करना होगा िक वह या तो ऐसे अन्तरण को पुष्ट करे या उससे िवसम्मत हो और पश्चात्किथत दशा म वह ऐसे
पर्द फायदे का त्याग करे गा और इस पर्कार त्यक्त फायदा अन्तरक या उसके पर्ितिनिध को ऐसे पर्ितवितत हो जाएगा, मानो वह
व्ययिनत ही नह हुआ था, तथािप—
जहां िक अन्तरण आनुगर्िहक है और जहां अन्तरक िनवार्चन िकए जाने से पहले मर गया है या नवीन अन्तरण करने के िलए
अन्यथा असमथर् हो गया है,
और उन सब दशा म, िजनम अन्तरण पर्ितफलाथर् है, िनराश अन्तिरती को, पर्ितफल की रकम या उस सम्पि के , िजसे
उसको अन्तिरत िकए जाने का पर्यत्न िकया गया था, मूल्य को चुका देने के भार के अध्यधीन ही वह फायदा पर्ितवितत होगा ।
दृष्टांत
सुल्तानपुर का खेत ग की सम्पि है और उसका मूल्य 800 रुपए है । क उसे दान की िलखत ारा ख को अंतिरत करने की
पर्व्यंजना करता है और उसी िलखत ारा ग को 1,000 रुपए देता है । ग खेत को अपने पास रखना िनवार्िचत करता है । 1,000 रुपए का
दान उससे समपहृत हो जाता है ।
उसी मामले म क िनवार्चन के पहले मर जाता है । उसका पर्ितिनिध 1,000 रुपए म से 800 रुपए ख को देगा ।
इस धारा के पर्थम पैरा का िनयम लागू होता है चाहे अन्तरक यह िवश्वास करता हो या न करता हो िक िजसका अन्तरण
करने की वह पर्व्यंजना करता है, वह स्वयं उसकी अपनी है ।
जो व्यिक्त िकसी संव्यवहार के अधीन कोई फायदा सीधा नह लेता िकन्तु उसके अधीन फायदा उसे परत: व्युत्पन्न होता है
उसे िनवार्चन करने की आवश्यकता नह ह ।
जो व्यिक्त अपनी िकसी एक हैिसयत म कोई फायदा उस संव्यवहार के अधीन लेता है, वह िकसी अन्य हैिसयत म उससे
िवसम्मत हो सके गा ।
अिन्तम पूववर् त चार िनयम का अपवाद―जहां िक उस सम्पि के स्वामी को, िजसका अन्तरण करने की अन्तरक पर्व्यंजना
करता है, कोई िविशष्ट फायदा पर्द िकया जाना अिभव्यक्त िकया गया है और ऐसा फायदा उस सम्पि के बदले म िकया जाना
अिभव्यक्त है, वहां यिद ऐसा स्वामी सम्पि का दावा करे तो उसे िविशष्ट फायदे का त्याग करना होगा िकन्तु वह उसी संव्यहार ारा
उसे पर्द िकसी अन्य फायदे को त्यागने के िलए आब नह है ।
िजस व्यिक्त को फायदा पर्द िकया गया है उस व्यिक्त ारा पर्ितगर्हण ही अन्तरण की पुिष्ट के िलए उस ारा िकया गया
िनवार्चन गिठत करता है, यिद वह िनवार्चन करने के अपने कतर्व्य को जानता हो और उन पिरिस्थितय को जानता हो जो िनवार्चन
करने म िकसी युिक्तमान मनुष्य के िनणर्य पर पर्भाव डालती है, अथवा यिद वह उन पिरिस्थितय की जांच करने का अिधत्यजन कर
देता है ।
यिद वह व्यिक्त, िजसे वह फायदा पर्द िकया गया है, िवसम्मित अिभव्यक्त करने के िलए कोई कायर् िकए िबना उसका
उपभोग दो वषर् तक कर लेता है तो ऐसा ज्ञान या अिधत्यजन तत्पर्ितकू ल सा य के अभाव म उपधािरत कर िलया जाएगा ।
ऐसा ज्ञान या अिधत्यजन उसके िकसी ऐसे कायर् से अनुिमत िकया जा सके गा िजसने उस सम्पि म, िजसके अन्तिरत करने की
पर्व्यंजना की गई है िहतब व्यिक्तय को उसी दशा म रखना असम्भव बना िदया है िजसम वे होते यिद वह कायर् न िकया गया
होता ।
दृष्टांत
ख को क एक सम्पदा अन्तिरत करता है, िजसका ग हकदार है, और उस संव्यहार के भागरूप ग को कोयले की एक खान देता
है । ग खान को कब्जे म लेता है और उसे िन:शेष कर देता है । तद् ारा उसने सम्पदा के ख को अन्तरण की पुिष्ट कर दी है ।
यिद वह अन्तरण की तारीख से एक वषर् के भीतर अन्तरण की पुिष्ट करने का या उससे िवसम्मित का अपना आशय अन्तरक
या उसके पर्ितिनिध को जता नह देता, तो अन्तरक या उसका पर्ितिनिध उस कालाविध के अवसान पर उससे यह अपेक्षा कर सके गा िक
वह िनवार्चन करे और यिद वह ऐसी अपेक्षा की पर्ािप्त के पश्चात् युिक्तयुक्त समय के भीतर उसका पालन नह करता तो यह समझा
जाएगा िक उसने उस अन्तरण की पुिष्ट करने का िनवार्चन कर िलया है ।
िनय ग्यता की दशा म िनवार्चन उस समय तक मुल्तवी रहेगा, जब तक उस िनय ग्यता का अन्त नह हो जाता, या जब तक
िनवार्चन िकसी सक्षम पर्ािधकारी ारा नह िकया जाता ।
पर्भाजन
36. हकदार व्यिक्त के िहत के पयर्वसान पर कािलक संदाय का पर्भाजन― तत्पर्ितकू ल संिवदा या स्थानीय पर्था के अभाव म
सब भाटक, वािषिकयां, पेशन, लाभांश और अन्य कािलक संदाय, जो आय की पर्कृ ित के ह, ऐसे संदाय को पाने के िलए हकदार व्यिक्त
के िहत के अन्तरण पर, जहां तक अन्तरक और अन्तिरती के बीच का संबंध है, िदन पर्ितिदन पर्ोद्भवमान और तद्नुकूल पर्भाजनीय,
िकन्तु वे उनके संदाय के िलए िनयत िदन को संदय े , समझे जाएंगे ।
10

37. िवभाजन पर बाध्यता के फायदे का पर्भाजन―जबिक अंतरण के पिरणामस्वरूप सम्पि िवभािजत और कई अंश म
धािरत है और तदुपिर पूरी सम्पि से सम्बिन्धत िकसी बाध्यता का फायदा उस सम्पि के एक स्वामी से कई स्वािमय को संकर्ान्त हो
जाता है, तब तत्संबंधी कतर्व्य का पालन, स्वािमय के बीच कोई तत्पर्ितकू ल संिवदा न हो तो, ऐसे स्वािमय म से हर एक के पक्ष म उस
अनुपात म िकया जाएगा जो सम्पि म उसके अंश मूल्य का है, परन्तु यह तब जब िक कतर्व्य का िवभाजन िकया जा सकता हो और उस
िवभाजन से बाध्यता का बोझ सारवान् रूप म बढ़ नह जाता, िकन्तु यिद कतर्व्य का िवभाजन नह िकया जा सकता अथवा िवभाजन
बाध्यता के बोझ को सारवान् रूप म बढ़ाता है, तो कतर्व्य पालन कई स्वािमय म ऐसे एक के फायदे के िलए िकया जाएगा िजसे वे
संयुक्त तौर पर उस पर्योजन के िलए अिभिहत कर द :
परन्तु कोई भी व्यिक्त, िजस पर बाध्यता का बोझ हो, उसका इस धारा ारा उपबिन्धत पर्कार से िनवर्हन करने म असफलता
के िलए उ रदायी नह होगा । यिद और जब तक उसे िवभाजन की युिक्तयुक्त सूचना न िमल गई हो ।
इस धारा की कोई भी बात ऐसे प को, जो कृ िष पर्योजन के िलए ह , लागू नह होगी यिद और जब तक राज्य सरकार उसे
उन प को लागू करने का िनदेश शासकीय राजपतर् म अिधसूचना ारा न दे दे ।
दृष्टांत
(क) क िकसी गांव म िस्थत ऐसा गृह, जो ङ को 30 रुपए और एक मोटी भेड़ के पिरदान के वािषक भाटक पर प े पर िदया
हुआ है, ख, ग और घ को बेचता है । कर्य मूल्य का ख ने आधा रुपया और ग और घ म से हर एक ने एक चौथाई िदया है । ङ को उसकी
सूचना है अत: वह पन्दर्ह रुपए ख को, साढ़े सात रुपए ग को, साढ़े सात रुपए घ को देगा और भेड़ का पिरदान ख, ग और घ के संयुक्त
िनदेश के अनुसार करे गा ।
(ख) उसी दृष्टांत म गांव का हर एक गृह बाढ़ रोकने के िलए तटबंध म पर्ित वषर् 10 िदन के शर्म का पर्दाय करने के िलए
आब है और ङ ने अपने प े के िनबंधन के तौर पर क के िलए यह काम करने का करार िकया था । ख, ग और घ म से हर एक अपने गृह
की ओर से अलग-अलग 10 िदन तक काम करने की अपेक्षा ङ से करते ह । ङ ऐसे िनदेश के अनुसार जैसा सिम्मिलत होकर ख, ग और
घ द, कु ल 10 िदन से अिधक काम करने के िलए आब नह ह ।
(ख) स्थावर सम्पि का अंतरण
38. कु छ पिरिस्थितय म ही अंतरण करने के िलए पर्ािधकृ त व्यिक्त ारा अंतरण―जहां िक कोई व्यिक्त, जो ऐसी
पिरिस्थितय म ही, िजनम पर्कृ त्या फे रफार होता रहता है, स्थावर सम्पि का व्ययन करने के िलए पर्ािधकृ त है, ऐसी पिरिस्थितय के
वतर्मान होने का अिभकथन करके ऐसी सम्पि को पर्ितफल के िलए अंतिरत करता है, वहां यिद अंतिरती ने ऐसी पिरिस्थितय म होने
का अिभिनश्चय करने के िलए युिक्तयुक्त सावधानी बरतने के पश्चात् सद्भावपूवर्क कायर् िकया है, तो जहां तक एक ओर अन्तिरती का
और दूसरी ओर अन्तरक और ऐसे अन्य व्यिक्तय के (यिद कोई ह ), िजन पर पर्भाव पड़ा है, बीच का संबंध है यह समझा जाएगा िक वे
पिरिस्थितयां वतर्मान थ ।
दृष्टांत
िहन्दू िवधवा क िजसका पित साम्पािश्वक वािरस छोड़ गया है, यह अिभकिथत करते हुए िक ऐसे रूप म उसके ारा धािरत
सम्पि उसके भरणपोषण के िलए अपयार्प्त है, एक खेत को, जो उस सम्पि का भाग है ख को ऐसे पर्योजन के िलए, जो न तो धािमक
है और न खैराती है, बेचने का करार करती है । ख युिक्तयुक्त जांच के बाद अपना यह समाधान कर लेता है िक क के भरणपोषण के
िलए सम्पि की आय अपयार्प्त है और खेत का िवकर्य आवश्यक है, और सद्भावपूवर्क कायर् करते हुए क से खेत खरीद लेता है । जहां
तक िक एक ओर ख और दूसरी ओर क और साम्पािश्वक वािरस के बीच का संबंध है यह समझा जाएगा िक उक्त िवकर्य को
आवश्यकता वतर्मान थी ।
39. अंतरण, जहां िक अन्य व्यिक्त भरणपोषण का हकदार है―जहां िक अन्य व्यिक्त स्थावर सम्पि के लाभ म से
भरणपोषण या अपने अिभवधर्न या िववाह के िलए उपबंध पाने का अिधकार रखता है और ऐसी सम्पि 1 *** अंतिरत की जाती है,
वहां उस अिधकार को अन्तिरती के िवरु पर्वृ कराया जा सके गा, यिद अन्तिरती को 2 [उस अिधकार की सूचना] या अन्तरण
आनुगर्िहक है ; िकन्तु उस अन्तिरती के िवरु नह जो सपर्ितफल है और ; िजसे उस अिधकार की सूचना नह है और न उसके हाथ म की
वैसी सम्पि के िवरु ।
3
* * * * *
40. भूिम के उपयोग पर िनबर्न्धन लगाने वाली बाध्यता का या स्वािमत्व से उपाब िकन्तु िहत या सुखाचार की कोिट म न
आने वाली बाध्यता का बोझ―जहां िक अपनी िनजी स्थावर सम्पि के अिधक फायदापर्द उपभोग के िलए िकसी अन्य व्यिक्त का

1
1929 के अिधिनमय सं० 20 की धारा 11 ारा “ऐसे िकसी अिधकार से वंिचत करने के आशय से” शब्द का लोप िकया गया ।
2
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 11 ारा “ऐसे आशय की सूचना” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
3
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 11 ारा दृष्टांत का लोप िकया गया ।
11

िकसी दूसरे व्यिक्त की स्थावर सम्पि म के िकसी िहत या सुखाचार पर अनािशर्त यह अिधकार हो िक वह 1 [पश्चात्किथत सम्पि का
िकसी िविशष्ट रीित से उपभोग िकए जाने पर] अवरोध लगा दे, अथवा
जहां िक अन्य व्यिक्त ऐसी बाध्यता से फायदा उठाने का हकदार हो, जो संिवदा से उद्भूत होता है और स्थावर सम्पि के
स्वािमत्व से उपाब है, िकन्तु जो उसम िहत या सुखाचार की कोिट म नही आता,
वहां ऐसा अिधकार या बाध्यता ऐसे अन्तिरती के िवरु पर्वितत की जा सके गी, िजसको उसकी सूचना है या जो उस सम्पि
का, िजस पर तद् ारा पर्भाव पड़ा है, आनुगर्िहक अन्तिरती है, िकन्तु उस अन्तिरती के िवरु नह जो सपर्ितफल है और िजसे अिधकार
या बाध्यता की सूचना नह है और न उसके हाथ म की वैसी सम्पि के िवरु ।
दृष्टांत
ख को सुलतानपुर बेचने की संिवदा क करता है । संिवदा के पर्वतर्न म होते हुए भी वह सुलतानपुर को ग को, िजसे संिवदा की
सूचना है, बेच देता है । ख संिवदा को ग के िवरु उसी िवस्तार तक पर्वितत करा सके गा िजस तक वह क के िवरु पर्वितत करा
सकता है ।
41. दृश्यमान स्वामी ारा अंतरण―जहां िक स्थावर सम्पि म िहतब व्यिक्तय की अिभव्यक्त या िवविक्षत सम्मित से
कोई व्यिक्त ऐसी सम्पि का दृश्यमान स्वामी है और उसे पर्ितफलाथर् अन्तिरत करता है, वहां अंतरण इस आधार पर शून्यकरणीय नह
होगा िक अंतरक वैसा करने के िलए पर्ािधकृ त नह था, परन्तु यह तब जबिक अन्तिरती ने यह अिभिनिश्चत करने के िलए िक अंतरक
अंतरण करने की शिक्त रखता था युिक्तयुक्त सावधानी बरतने के पश्चात् सद्भावपूवर्क कायर् िकया हो ।
42. पूवत र् र अंतरण का पर्ितसंहरण करने का पर्ािधकार रखने वाले व्यिक्त ारा अंतरण―जहां िक कोई िकसी स्थावर सम्पि
को यह शिक्त आरिक्षत रखते हुए अन्तिरत करता है िक वह उस अन्तरण का पर्ितसंहरण कर सके गा और तत्पश्चात् उस सम्पि को
िकसी अन्य अन्तिरती को पर्ितफलाथर् अन्तिरत कर देता है वहां ऐसा अंतरण (ऐसी िकसी शतर् के अध्यधीन, जो उस शिक्त के पर्योग से
ब है) उस पूवतर् र अन्तरण के पर्ितसंहरण के रूप म ऐसे अंतिरती के पक्ष म उस शिक्त के िवस्तार तक पर्वृ होता है ।
दृष्टांत
ख को क एक गृह प े पर देता है और यह शिक्त आरिक्षत रखता है िक यिद ख उसका ऐसा उपयोग करे गा िजससे उस गृह का
मूल्य िविनिदष्ट सवक्षक की राय म िगर जाएगा, तो वह प े को पर्ितसंहृत कर देगा । इसके पश्चात् क यह सोच कर िक ऐसा उपयोग
िकया गया है वह उस गृह को प े पर ग को देता है । इसके अध्यधीन िक ख ारा िकए गए उस गृह के उपयोग के बारे म सवक्षक की यह
राय हो िक उस गृह का मूल्य िगर गया है, यह अन्तरण ख के प े के पर्ितसंहरण के रूप म िकर्याशील होता है ।
43. अपर्ािधकृ त व्यिक्त ारा अंतरण, जो अंतिरत सम्पि म पीछे िहत अिजत कर लेता है―जहां िक कोई
व्यिक्त 2 [कपटपूवर्क या] भूलवश यह व्यपदेश करता है िक वह अमुक स्थावर सम्पि को अन्तिरत करने के िलए पर्ािधकृ त है और ऐसी
सम्पि को पर्ितफलाथर् अन्तिरत करने की पर्व्यंजना करता है, वहां ऐसा अन्तरण, अन्तिरती के िवकल्प पर िकसी भी उस िहत पर पर्वृ
होगा, िजसे अन्तरक ऐसी सम्पि म उतने समय के दौरान कभी भी अिजत करे िजतने समय तक उस अन्तरण की संिवदा अिस्तत्व म
रहती है ।
इस धारा की कोई भी बात उक्त िवकल्प के अिस्तत्व की सूचना न रखने वाले सद्भावपूणर् सपर्ितफल अन्तिरितय के अिधकार
का हर्ास न करे गी ।
दृष्टांत
क, जो िहन्दू है और अपने िपता ख से पृथक् हो गया है, तीन खेत, क्ष, तर् और ज्ञ यह व्यपदेशन करते हुए ग को बेच देता है, िक
क उन्ह अन्तिरत करने के िलए पर्ािधकृ त है । इन खेत म से ज्ञ खेत क का नह है, क्य िक िवभाजन के समय ख ने इसे अपने िलए
पर्ािधकृ त कर िलया था, िकन्तु ख के मरने पर वािरस के रूप म ज्ञ को क पर्ाप्त कर लेता है । ग ने िवकर्य संिवदा को िवखिण्डत नह
िकया है इसिलए वह क से अपेक्षा कर सके गा िक क उसे ज्ञ को पिरद करे ।
44. एक सहस्वामी ारा अन्तरण—जहां िक स्थावर सम्पि के दो या अिधक सहस्वािमय म से एक, जो ऐसा करने के िलए
वैध रूप से सक्षम है, ऐसी सम्पि म का अपना अंश या कोई िहत अन्तिरत करता है, वहां अन्तिरती ऐसे अंश या िहत के बारे म और
वहां तक, जहां तक उस अन्तरण को पर्भावशील करने के िलए आवश्यक हो सम्पि पर संयुक्त कब्जा रखने का, या सम्पि का अन्य
सामान्य या भािगक उपभोग करने का और उस सम्पि का िवभाजन कराने का अन्तरक का अिधकार अिजत करता है जो ऐसे अन्तिरत
अंश या िहत पर अन्तरण की तारीख को पर्भाव डालने वाली शत और दाियत्व के अध्यधीन है ।

1
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 12 ारा “पश्चात्किथत सम्पि का या िकसी िविशष्ट रीित से उसका उपभोग हेतु िववश िकए जाने पर” के स्थान पर
पर्ितस्थािपत ।
2
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 13 ारा अन्त:स्थािपत ।
12

जहां िक िकसी अिवभक्त कु टु म्ब के िनवास गृह के िकसी अंश का अन्तिरती उस कु टु म्ब का सदस्य नह है वहां इस धारा की
कोई भी बात उसे उस गृह पर संयुक्त कब्जा रखने का या कोई दूसरा सामान्य या भािगक उपभोग करने का हकदार करने वाली नह
समझी जाएगी ।
45. पर्ितफलाथर् संयक्
ु त अन्तरण—जहां िक स्थावर सम्पि दो या अिधक व्यिक्तय को पर्ितफलाथर् अन्तिरत की जाती है और
ऐसा पर्ितफल िकसी ऐसी िनिध म से िदया जाता है जो उनकी सांझे की है, वहां तत्पर्ितकू ल संिवदा के अभाव म वे ऐसी सम्पि म उन
िहत के कर्मश: हकदार ह गे जो उन िहत के यथाशक्य समान ह गे िजनके वे उस िनिध म कर्मश: हकदार थे और जहां िक ऐसा पर्ितफल
उसकी अपनी-अपनी पृथक् िनिधय म से िदया जाता है वहां कोई तत्पर्ितकू ल संिवदा न हो तो वे ऐसी सम्पि म िहत के हकदार कर्मश:
उसी अनुपात म ह गे जो पर्ितफल के उन अंश का है िजन्ह उन्ह ने कर्मश: िदया था ।
इस बात के बारे म सा य के अभाव म िक उस िनिध म वे िकसी िहत के कर्मश: हकदार थे या उन्ह ने कर्मश: िकतना-िकतना
अंश िदया था यह उपधारणा की जाएगी िक वे व्यिक्त उस सम्पि म बराबर का िहत रखते ह ।
46. सुिभन्न िहत रखने वाले व्यिक्तय ारा पर्ितफलाथर् अन्तरण—जहां िक स्थावर सम्पि उसम सुिभन्न िहत रखने वाले
व्यिक्तय ारा पर्ितफलाथर् अन्तिरत की जाती है, वहां कोई तत्पर्ितकू ल संिवदा न हो तो वे अन्तरक, जहां िक उस सम्पि म उनके िहत
बराबर मूल्य के ह , वहां पर्ितफल म से बराबर-बराबर अंश और, जहां िक ऐसे िहत असमान मूल्य के ह , वहां अपने-अपने िहत के मूल्य
के अनुपात म अंश पाने के हकदार ह ।
दृष्टांत
(क) सुलतानपुर मौजे म क का अंश आधा और ख और ग म से हर एक का एक-चौथाई है । वे इस मौजे के आठव अंश का
लालपुर मौजे म एक-चौथाई अंश से िविनमय कर लेते ह । कोई तत्पर्ितकू ल करार नह है इसिलए क लालपुर म आठव अंश का और ख
और ग हर एक उस मौज म सोलहव अंश का हकदार है ।
(ख) अतरौली मौजे म क, जो आजीवन िहत का, और ख और ग, जो उस मौजे के शेष भाग के हकदार ह, उस मौजे को 1,000
रुपए म बेच देते ह । क के आजीवन िहत का मूल्य 600 रुपए और शेष भाग का मूल्य 400 रुपए अिभिनिश्चत िकया जाता है । क
कर्यधन म से 600 रुपए और ख और ग 400 रुपए पाने के हकदार ह ।
47. सामान्य संपि म के अंश का सहस्वािमय ारा अंतरण—जहां िक स्थावर सम्पि के कई सहस्वामी उसम के िकसी अंश
को यह िविनिदष्ट िकए िबना अन्तिरत करते ह िक वह अन्तरण उन अन्तरक के िकसी िविशष्ट अंश या अंश पर पर्भावी होना है वहां
ऐसा अन्तरण, जहां तक िक ऐसे अन्तरक के बीच का सम्बन्ध है, ऐसे अंश पर, जहां िक वे अंश बराबर थे, वहां बराबर-बराबर और,
जहां िक वे अंश बराबर नह थे, वहां ऐसे अंश के िवस्तार के अनुपात म पर्भावी होता है ।
दृष्टांत
सुलतानपुर मौजे म क, जो आठ आने के अंश का स्वामी है, और ख और ग, जो हर एक चार-चार आने के स्वामी ह उस मौजे
का दो आना अंश यह िविनिदष्ट िकए िबना घ को अन्तिरत कर देते ह िक उनके िविभन्न अंश मे िकस म से यह अन्तरण िकया गया है ।
उस अन्तरण को पर्भावी करने के िलए क के अंश से एक आना अंश ख और ग के अंश म से आध-आध आना अंश िलया जाएगा ।
48. अंतरण ारा सृष्ट अिधकार की पूिवकता—जहां िक िकसी व्यिक्त ारा िभन्न समय पर अन्तरण ारा एक ही स्थावर
सम्पि म या पर अिधकार सृष्ट िकया जाना तात्पियत है और ऐसे अिधकार सब अपने पूरे िवस्तार तक एक साथ अिस्तत्वयुक्त या
पर्युक्त नह हो सकते वहां पश्चात् सृष्ट हर एक अिधकार पूवर्तर अन्तिरितय को बाध्य करने वाली कोई िवशेष संिवदा या आरक्षण न
हो तो पूवर् सृष्ट अिधकार को अध्यधीन रहेगा ।
49. बीमा पािलसी के अधीन अंतिरती का अिधकार—जहां िक स्थावर सम्पि पर्ितफलाथर् अंतिरत की जाती है और उस
अन्तरण की तारीख को ऐसी सम्पि या उसका कोई भाग हािन या नुकसान के िलए, जो अिग्न से हो, बीमाकृ त है, वहां तत्पर्ितकू ल
संिवदा न हो तो अन्तिरती ऐसी हािन या नुकासन की दशा म यह अपेक्षा कर सके गा िक कोई भी धन, जो अन्तरक को उस पािलसी के
अधीन वास्तव म पर्ाप्त होता है या उसका उतना भाग, िजतना आवश्यक हो, उस सम्पि के यथापूवर्करण म लगाया जाए ।
50. तर्ुिटयुक्त हक के अधीन धारक को सद्भावपूवक
र् िदया गया भाटक—िकसी भी व्यिक्त पर िकसी स्थावर सम्पि के ऐसे
भाटक या लाभ का पर्भार न डाला जा सके गा जो उसने सद्भावपूवर्क िकसी ऐसे व्यिक्त को दे िदए ह या पिरद कर िदए ह, िजससे
उसने ऐसी सम्पि को सद्भावपूवर्क धािरत कर रखा था य िप पीछे यह पर्तीत हो िक वह व्यिक्त, िजसे ऐसा संदाय या पिरदान िकया
गया था, ऐसे भाटक या लाभ को पर्ाप्त करने का अिधकार नह रखता था ।
दृष्टांत
ख को क एक खेत 50 रुपए भाटक पर देता है और िफर खेत ग को अन्तिरत करता है । ख अन्तरण की कोई सूचना न रखते
हुए सद्भावपूवर्क क को भाटक दे देता है । ख इस पर्कार िदए गए भाटक से पर्भायर् नह है ।
र् धारक ारा की गई अिभवृि यां—जब िक स्थावर सम्पि का अन्तिरती
51. तर्ुिटयुक्त हक के अधीन सद्भावपूवक
सद्भावपूवर्क यह िवश्वास करते हुए िक उस पर उसका आत्यिन्तक हक है सम्पि म अिभवृि करता है, िकन्तु पीछे बेहतर हक रखने
13

वाले िकसी व्यिक्त ारा वह उससे बेदखल कर िदया जाता है तब बेदखल करने वाले व्यिक्त से यह अपेक्षा करने का अन्तिरती को
अिधकार है िक वह या तो अिभवृि के मूल्य को पर्ाक्किलत कराए और उसे अन्तिरती को िदलाए या पर्ितभूत कराए अथवा अपने उस
िहत को, जो उस सम्पि म उसे हो, ऐसी अिभवृि के मूल्य को दृिष्ट म लाए िबना अन्तिरती को तत्कालीन बाजार भाव पर बेच द ।
जो रकम ऐसी अिभवृि के िलए दी जानी या पर्ितभूत की जानी है वह बेदखली के समय का उसका पर्ाक्किलत मूल्य होगी ।
जब िक अन्तिरती ने उस सम्पि म पूव क्त पिरिस्थितय के अधीन ऐसी फसल लगाई या बोई हो, जो उसके वहां से बेदखल
होने के समय उगी हुई है, तब वह ऐसी फसल का और उन्ह एकितर्त करने और ले जाने के िलए सम्पि पर अबाध रूप से आने जाने का
हकदार है ।
52. संपि संबध ं ी वाद के लंिबत रहते हुए संपि का अंतरण— 1 [जम्मू-कश्मीर राज्य को छोड़कर भारत की सीमा के
अन्दर] पर्ािधकारवान् या 2 [के न्दर्ीय सरकार 3 ***] ारा 4 [ऐसी सीमा के परे स्थािपत] िकसी न्यायालय म 5 [ऐसे] वाद या कायर्वाही
के 6 [लिम्बत रहते हुए], 7 [जो दुस्संिधपूणर् न हो और] िजसम स्थावर सम्पि का कोई अिधकार पर्त्यक्षत: और िविनिदष्टत: पर्श्नगत हो,
वह सम्पि उस वाद या कायर्वाही के िकसी भी पक्षकार ारा उस न्यायालय के पर्ािधकार के अधीन और ऐसे िनबन्धन के साथ, जैसे
वह अिधरोिपत करे अन्तिरत या व्ययिनत की जाने के िसवाय ऐसे अन्तिरत या अन्यथा व्ययिनत नह की जा सकती िक उसके िकसी
अन्य पक्षकार के िकसी िडकर्ी या आदेश के अधीन, जो उसम िदया जाए, अिधकार पर पर्भाव पड़े ।
8 [स्पष्टीकरण—िकसी वाद या कायर्वाही का लम्बन इस धारा के पर्योजन के िलए उस तारीख से पर्ारम्भ हुआ समझा जाएगा
िजस तारीख को सक्षम अिधकािरता वाले न्यायालय म वह वादपतर् पर्स्तुत िकया गया या वह कायर्वाही संिस्थत की गई और तब तक
चलता हुआ समझा जाएगा जब तक उस वाद या कायर्वाही का िनपटारा अिन्तम िडकर्ी या आदेश ारा न हो गया हो और ऐसी िडकर्ी
या आदेश की पूरी तुिष्ट या उन्मोचन अिभपर्ाप्त न कर िलया गया हो या तत्समय-पर्वृ -िविध ारा उसके िनष्पादन के िलए िविहत
िकसी अविध के अवसान के कारण वह अनिभपर्ाप्य न हो गया हो ।]
कपटपूणर् अंतरण―(1) स्थावर सम्पि का हर एक ऐसा अन्तरण, जो अन्तरक के लेनदार को िवफल करने या उन्ह
9 [53.

देरी कराने के आशय से िकया गया है, ऐसे िकसी भी लेनदार के िवकल्प पर शून्यकरणीय होगा िजसे इस पर्कार िवफल या देरी कराई
गई है ।
इस उपधारा की कोई भी बात िकसी सद्भावपूणर् सपर्ितफल अन्तिरती के अिधकार का हर्ास न करे गी ।
इस उपधारा की कोई भी बात िदवाला सम्बन्धी िकसी तत्समय-पर्वृ -िविध पर पर्भाव नह डालेगी ।
वह वाद, जो िकसी लेनदार ने (िजस शब्द के अन्तगर्त िडकर्ीदार आता है चाहे उसने अपनी िडकर्ी के िनष्पादन के िलए आवेदन
िकया हो या नह ) िकसी अन्तरण को इस आधार पर शून्य कराने के िलए संिस्थत िकया है िक वह अन्तरण, अन्तरक के लेनदार को
िवफल करने या उन्ह देरी कराने के आशय से िकया गया है उन सब लेनदार की ओर से या के फायदे के िलए संिस्थत िकया जाएगा ।
(2) स्थावर सम्पि का हर एक ऐसा अन्तरण, जो पािश्चक अन्तिरती को कपटवंिचत करने के आशय से पर्ितफल के िबना
िकया गया है, ऐसे अन्तिरती के िवकल्प पर शून्यकरणीय होगा ।
पर्ितफल के िबना िकया गया कोई अन्तरण इस धारा के पर्योजन के िलए के वल इस कारण से ही कपटवंिचत करने के आशय
से िकया गया न समझा जाएगा िक कोई पािश्चक अन्तरण पर्ितफलाथर् िकया गया था ।]
[53क. भािगक पालन―जहां िक कोई व्यिक्त िकसी स्थावर सम्पि को पर्ितफलाथर् अन्तिरत करने के िलए अपने ारा या
10

अपनी ओर से हस्ताक्षिरत लेखब ऐसी संिवदा करता है िजससे उस अन्तरण को गिठत करने के िलए आवश्यक िनबन्धन युक्तयुक्त
िनश्चय के साथ अिभिनिश्चत िकए जा सकते ह,
और अन्तिरती ने संिवदा के भािगक पालन म उस सम्पि या उसके िकसी भाग का कब्जा ले िलया है अन्तिरती, िजसका
कब्जा पहले से ही है, संिवदा के भािगक पालन म अपना कब्जा चालू रखता है और उस संिवदा को अगर्सर करने के िलए कोई कायर् कर
चुका है,
और अन्तिरती संिवदा के अपने भाग का पालन कर चुका है, या पालन करने के िलए रजामन्द है,

1
िविध अनुकूलन आदेश, 1950 ारा “पर्ान्त म या पर्ान्त की सीमा से परे स्थािपत” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
2
भारत शासन (भारतीय िविध अनुकूलन) आदेश, 1937 ारा “सपिरषद् गवनर्र जनरल” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
3
भारतीय स्वतंतर्ता (के न्दर्ीय अिधिनयम तथा अध्यादेश अनुकूलन) आदेश, 1948 ारा “या कर्ाउन िरपर्जेन्टेिटव” शब्द का लोप िकया गया ।
4
1951 के अिधिनयम सं० 3 की धारा 3 ारा (1-4-1951 से) “भाग क राज्य और भाग राज्य की सीमा के अन्दर” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
5
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 14 ारा “सिकर्य अिभयोजन के दौरान” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
6
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 14 ारा “िकसी पर्ितिवरोधात्मक” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
7
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 14 ारा अन्त:स्थािपत ।
8
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 14 ारा जोड़ा गया ।
9
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 15 ारा धारा 53 के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
10
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 16 ारा अंत:स्थािपत ।
14

वहां इस बात के होते हुए भी िक 1 *** जहां िक अन्तरण की कोई िलखत है, वहां पर अन्तरण िकसी तत्समय-पर्वृ -िविध
ारा उसके िलए िविहत रीित से पूरा नह िकया गया है, अन्तरक या उससे व्युत्पन्न अिधकार के अधीन दावा करने वाला कोई व्यिक्त
अन्तिरती या उससे व्युत्पन्न अिधकार के अधीन दावा करने वाले व्यिक्तय के िवरु उस सम्पि के िवषय म, िजस पर अन्तिरती ने
कब्जा ले िलया है या चालू रखा है, कोई भी ऐसा अिधकार, जो संिवदा के िनबन्धन ारा अिभव्यक्त रूप से उपबिन्धत अिधकार से
िभन्न है, पर्वितत कराने से िवविजत होगा :
परन्तु इस धारा की कोई भी बात ऐसे सपर्ितफल अन्तिरती के अिधकार पर पर्भाव नह डालेगी िजसे उस संिवदा या उसके
भािगक पालन की कोई सूचना न हो ।]
अध्याय 3

स्थावर संपि के िवकर्य के िवषय म


54. “िवकर्य” की पिरभाषा―“िवकर्य” ऐसी कीमत के बदले म स्वािमत्व का अन्तरण है जो दी जा चुकी हो, या िजसके देने
का वचन िदया गया हो या िजसका कोई भाग दे िदया गया हो और िकसी भाग के देने का वचन िदया गया हो ।
िवकर्य कै से िकया जाता है―ऐसा अन्तरण एक सौ रुपए और उससे अिधक के मूल्य की मूतर् स्थावर सम्पि की दशा म ; या
िकसी उ र-भोग या अन्य अमूतर् वस्तु की दशा म के वल रिजस्टर्ीकृ त िलखत ारा िकया जा सकता है ।
एक सौ रुपए से कम मूल्य की मूतर् स्थावर सम्पि की दशा म ऐसा अन्तरण या तो रिजस्टर्ीकृ त िलखत ारा या सम्पि के
पिरदान ारा िकया जा सके गा ।
मूतर् स्थावर सम्पि का पिरदान तब हो जाता है जब िवकर्ेता कर्ेता या कर्ेता ारा िनिदष्ट व्यिक्त का सम्पि पर कब्जा करा
देता है ।
िवकर्य-संिवदा―स्थावर सम्पि की िवकर्य-संिवदा यह संिवदा है िक उस स्थावर सम्पि का िवकर्य पक्षकार के बीच तय हुए
िनबन्धन पर होगा ।
वह स्वत: ऐसी सम्पि म कोई िहत या उस पर कोई भार सृष्ट नह करती ।
55. कर्ेता और िवकर्ेता के अिधकार और दाियत्व―तत्पर्ितकू ल संिवदा न हो तो स्थावर सम्पि का कर्ेता और िवकर्ेता
कर्मश: उन दाियत्व के अध्यधीन और उन अिधकार से युक्त ह गे जो िक ठीक नीचे िलखे िनयम म, या उनम से ऐसी म, जो बेची गई
सम्पि को लागू ह , विणत ह―
(1) िवकर्ेता आब है िक वह―
(क) उस सम्पि म 2 [या िवकर्ेता के उस सम्पि पर के हक म] िकसी ऐसी ताित्त्वक तर्ुिट को, िजसे
िवकर्ेता जानता हो और कर्ेता नह जानता हो और कर्ेता िजसका पता मामूली सावधानी से नह लगा सकता था,
कर्ेता को पर्कट करे ,
(ख) उस सम्पि सम्बन्धी जो हक की दस्तावेज िवकर्ेता के कब्जे या शिक्त म ह , उन सब को कर्ेता को
उसकी पर्ाथर्ना पर परीक्षा के िलए पेश करे ,
(ग) उस सम्पि या उस पर के हक के बारे म कर्ेता ारा उससे पूछे गए सभी सुसंगत पर्श्न का उ र
अपनी पूरी जानकारी से दे,
(घ) कीमत की बाबत शोध्य रकम के संदाय या िनिवदा पर सम्पि का उिचत हस्तांतरण-पतर् िनष्पािदत
करे जबिक कर्ेता उसे उिचत समय और स्थान पर िनष्पादन के िलए िवकर्ेता को िनिवद करे ,
(ङ) िवकर्य-संिवदा और उस सम्पि के पिरदान की तारीख के बीच उस सम्पि को और उस पर के हक
सम्बन्धी सब दस्तावेज को, जो उसके कब्जे म ह , ऐसी सावधानी से रखे जैसी मामूली पर्ज्ञा वाला स्वामी ऐसी
सम्पि और दस्तावेज को रखता,
(च) ऐसे अपेिक्षत िकए जाने पर कर्ेता या तिन्निदष्ट व्यिक्त को उस सम्पि पर ऐसे कब्जा दे जैसा
सम्पि को पर्कृ ित के अनुसार िदया जा सकता है,
(छ) सम्पि पर िवकर्य की तारीख तक पर्ोद्भूत शोध्य सब लोक पर्भार और भाटक को, ऐसी सम्पि पर
सब िवल्लंगम पर के ब्याज को, जो ऐसी तारीख को शोध्य हो, दे और िसवाय उस दशा के जहां िक सम्पि
िवल्लंगम के अध्यधीन बेची गई हो सम्पि पर उस समय वतर्मान सब िवल्लंगम को उन्मोिचत कर दे ।

1
2001 के अिधिनयम सं० 48 की धारा 10 ारा लोप िकया गया ।
2
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 17 ारा अन्त:स्थािपत ।
15

(2) यह समझा जाएगा िक िवकर्ेता कर्ेता से यह संिवदा करता है िक वह िहत, िजसे िवकर्ेता कर्ेता को अन्तिरत करने
की पर्व्यंजना करता है, अिस्तत्वयुक्त है और उसे अन्तिरत करने की शिक्त िवकर्ेता रखता है :
परन्तु जहां िक िवकर्य िकसी व्यिक्त ारा अपनी वैश्वािसक हैिसयत म िकया जाता है, वहां यह समझा जाएगा िक
वह व्यिक्त कर्ेता से यह संिवदा करता है िक िवकर्ेता ने ऐसा कोई कायर् नह िकया है िजससे सम्पि िवल्लंगिमत हो गई है या
िजससे वह उसे अन्तिरत करने से पर्ितबािधत हो गया है ।
इस िनयम म विणत संिवदा का फायदा अन्तिरती की हैिसयत म उस अन्तिरती के िहत के साथ उपाब रहेगा और
जाएगा और ऐसे हर एक व्यिक्त ारा पर्वितत कराया जा सके गा िजसम समय-समय पर वह िहत सम्पूणर्त: या उसका कोई
भाग िनिहत हो ।
(3) जहां िक िवकर्ेता को पूणर् कर्य-धन दे िदया गया है, वहां वह कर्ेता को सम्पि से सम्बिन्धत सब ऐसी हक की
दस्तावेज का भी पिरदान करने के िलए आब है, जो िवकर्ेता के कब्जे या शिक्त म ह :
परन्तु (क) जहां िक िवकर्ेता ऐसी दस्तावेज म समािवष्ट सम्पि के िकसी भाग को अपने पास पर्ितधृत करता
है, वहां वह उन सब दस्तावेज का पर्ितधारण करने का हकदार है, और (ख) जहां िक ऐसी सम्पूणर् सम्पि िविभन्न कर्ेता को
बेची जाती है, वहां सावार्िधक मूल्य वाले टु कड़े का कर्ेता उन दस्तावेज का हकदार है । िकन्तु (क) दशा म िवकर्ेता ; और (ख)
दशा म सावार्िधक मूल्य वाले टुकड़ का कर्ेता, यथािस्थित, कर्ेता की या अन्य कर्ेता म से िकसी एक की हर युिक्तयुक्त
पर्ाथर्ना पर और पर्ाथर्ना करने वाले व्यिक्त के खच पर उक्त दस्तावेज को पेश करने और उनकी ऐसी सही पर्ितयां या उनम से
ऐसे उ रण, जैस की वह अपेक्षा करे , देने के िलए आब है और इस बीच, यथािस्थित, िवकर्ेता या सावार्िधक मूल्य वाले टु कड़े
के कर्ेता को उक्त दस्तावेज , यिद वह ऐसा करने से अिग्न या अिनवायर् दुघर्टना ारा िनवािरत हो जाए, सुरिक्षत, अर और
अिवरूिपत रखने ह गे ।
(4) िवकर्ेता हकदार है―
(क) सम्पि के तब तक के भाटक और लाभ का जब तक उसका स्वािमत्व कर्ेता को संकर्ान्त न हो जाए,
(ख) जहां िक सम्पि का स्वािमत्व, पूरा कर्य-धन िदए जाने के पूवर्, कर्ेता को संकर्ान्त हो गया है वहां कर्य-
धन की रकम या उसके असंद शेष भाग के िलए और 1 [उस तारीख से, िजसको कब्जा पिरदान िकया गया है,]
ऐसी रकम या भाग पर ब्याज के िलए कर्ेता या 1[िकसी भी अपर्ितफल अन्तिरती या कर्य-धन के असंदाय की सूचना
रखने वाले] िकसी अन्तिरती के हाथ म की उस सम्पि पर भार का ।
(5) कर्ेता आब है िक वह―
(क) सम्पि म िवकर्ेता के िहत की पर्कृ ित या िवस्तार के बारे म ऐसा तथ्य, िजसे कर्ेता जानता है िकन्तु िजसे उसके
पास यह िवश्वास करने का कारण है िक िवकर्ेता नह जानता है और िजससे ऐसे िहत के मूल्य म ताित्त्वक वृि होती
है, िवकर्ेता को पर्कट करे ,
(ख) िवकर्य के पूरा होने के समय और स्थान पर िवकर्ेता या तिन्निदष्ट व्यिक्त को कर्य-धन का संदाय या िनिवदा
करे परन्तु जहां िक सम्पि िवल्लंगम से मुक्त बेची जाती है, वहां िवकर्य की तारीख पर सम्पि पर वतर्मान िकन्ह
िवल्लंगम की रकम कर्ेता कर्य-धन म से पर्ितधािरत कर सके गा, और इस पर्कार पर्ितधािरत रकम का संदाय उन व्यिक्तय को
करे गा जो उसके िलए हकदार ह,
(ग) जहां िक सम्पि का स्वािमत्व कर्ेता को संकर्ान्त को गया है, वहां सम्पि के ऐसे नाश, ऐसी क्षित या मूल्य म
ऐसी िगरावट से, जो िवकर्ेता ारा कािरत न हो, उद्भूत िकसी हािन को सहे,
(घ) जहां िक सम्पि का स्वािमत्व कर्ेता को संकर्ांत हो गया है वहां, जहां तक िक उसका और िवकर्ेता के बीच का
सम्बन्ध है, वे सब लोक पर्भार और भाटक जो उस सम्पि के बारे म देय हो जाएं, और िजन िकन्ह िवल्लंगम के अध्यधीन
सम्पि बेची गई है उन म े शोध्य मूलधन और उन पर तत्पश्चात् पर्ोद्भवमान शोध्य ब्याज दे ।
(6) कर्ेता हकदार है―
(क) जहां िक सम्पि का स्वािमत्व उसको संकर्ांत हो गया है, वहां सम्पि म िकसी अिभवृि का या उस सम्पि के
मूल्य म वृि का फायदा उठाने का और उसके भाटक और लाभ का,
(ख) जब तक िक उसने सम्पि का पिरदान पर्ितगृहीत करने से अनुिचत रूप से इन्कार न कर िदया हो, िवकर्ेता और
उससे व्युत्पन्न अिधकाराधीन दावा करने वाले सब व्यिक्तय के िवरु सम्पि म िवकर्ेता के िहत के िवस्तार तक 2 *** िकसी
कर्य-धन की उस रकम का, जो कर्ेता ने पिरदान की पूवार्शा म उपयुक्त रूप से दे दी हो और और ऐसी रकम पर ब्याज का भार
उस सम्पि पर डालने का तथा जबिक उसने पिरदान पर्ितगृहीत करने के िलए उपयुक्त रूप से इन्कार कर िदया हो तब

1
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 17 ारा अन्त:स्थािपत ।
2
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 17 ारा “संदाय की सूचना सिहत” शब्द का लोप िकया गया ।
16

अिगर्म धन का भी, यिद कोई हो, भार और संिवदा का िविनिदष्ट पालन कराने के या उसके िवखंडनाथर् िडकर्ी अिभपर्ाप्त करने
के वाद के उसके पक्ष म अिधिनण त खच का भी, यिद कोई हो, भार उस सम्पि पर डालने का ।
िजन बात के पर्कट करने का इस धारा के पैरा (1) खंड (क) और पैरा (5) खंड (क) म वणर्न है, उनके पर्कट करने का लोप
करना कपटपूणर् है ।
पािश्चक कर्ेता ारा कर्मबन्धन—यिद दो या अिधक सम्पि य का स्वामी उन्ह एक व्यिक्त के पास बन्धक रख देता है
1 [56.

और िफर उन सम्पि य म से एक या अिधक को िकसी दूसरे व्यिक्त को बेच देता है तो तत्पर्ितकू ल संिवदा के अभाव म कर्ेता उक्त
बन्धक ऋण को उसे न बेची गई सम्पि या सम्पि य से, जहां तक िक उससे या उनसे उसकी तुिष्ट हो सकती है, तुिष्ट कराने का
हकदार है िकन्तु इस पर्कार नह िक उससे बन्धकदार के या उससे व्युत्पन्न अिधकाराधीन दावा करने वाले व्यिक्तय के या उक्त
सम्पि य म से िकसी म पर्ितफलाथर् िहत अिजत करने वाले िकसी दूसरे व्यिक्त के अिधकार पर पर्ितकू ल पर्भाव पड़े ।]
िवकर्य पर िवल्लंगम का उन्मोचन
57. िवल्लंगम और उनसे मुक्त िवकर्य के िलए न्यायालय ारा उपबंध—(क) जहां िक स्थावर सम्पि , जो िकसी िवल्लंगम
के , चाहे वह तुरन्त देय हो या नह , अध्यधीन है, िकसी न्यायालय ारा या िकसी िडकर्ी के िनष्पादन म या न्यायालय से बाहर बेची
जाती है, वहां िवकर्य के िकसी पक्षकार के आवेदन पर न्यायालय, यिद वह ठीक समझे—
(1) उस सम्पि पर भािरत वािषक या मािसक रािश, या उस सम्पि म के अवधारणीय िहत पर भािरत मूलधन
की दशा म—इतनी रकम, िजतनी न्यायालय ठीक समझे िक के न्दर्ीय सरकार की पर्ितभूितय म िविनिहत िकए जाने पर उनके
ब्याज के सहारे वह उस भार को नीचा रखने या उसके िलए अन्यथा उपबन्ध करने को पयार्प्त होगी, तथा
(2) उस सम्पि पर भािरत मूलधन की िकसी अन्य दशा म—उस िवल्लंगम को और उस पर शोध्य ब्याज को
चुकाने के िलए पयार्प्त रकम,
न्यायालय म जमा िकए जाने के िलए िनदेश या अनुज्ञा दे सके गा ।
िकन्तु इन दोन दशा म से हर एक म इतनी अितिरक्त रकम भी, िजतनी के बारे म न्यायालय समझता है िक वह सम्भािवत
अितिरक्त खच, व्यय और ब्याज के िलए और िविनधान के अवक्षयण के िसवाय िकसी अन्य आकिस्मकता के िलए भुगतान करने को
पयार्प्त होगी और जो मूल रकम के दशमांश से तब के िसवाय अिधक न होगी जबिक न्यायालय िवशेष कारण के िलए, िजन्ह वह
अिभिलिखत करेगा, यह ठीक समझता हो िक दशमांश से अिधक अितिरक्त रकम अपेिक्षत की जाए, न्यायालय म जमा की जाएगी ।
(ख) तदुपिर न्यायालय, यिद वह ठीक समझे तो, और िवल्लंगमदार को सूचना देने के पश्चात् जब तक िक न्यायालय
िवल्लंगमदार को ऐसी सूचना का िदया जाना िलिखत रूप से अिभिलिखत िकए जाने वाले कारण के िलए अिभमुक्त न कर दे, सम्पि
को िवल्लंगम से मुक्त घोिषत कर सके गा और ऐसा हस्तान्तरण-आदेश, या िनधान-आदेश, जो िवकर्य को पर्भावी करने के िलए उपयुक्त
हो, दे सके गा और न्यायालय म जमा धन के पर्ितधारण और िविनधान के िलए िनदेश दे सके गा ।
(ग) न्यायालय म के उस धन या िनिध म िहत या उन पर हक रखने वाले व्यिक्तय पर सूचना की तामील होने के पश्चात्
न्यायालय ऐसे व्यिक्तय को उसके िदए जाने या अन्तिरत िकए जाने के िलए िनदेश दे सके गा जो उसे पर्ाप्त करने या उसके िलए
उन्मोचन देने के हकदार ह और साधारणतया उस मूलधन या उसकी आय के उपयोजन या िवतरण के बारे म िनदेश दे सके गा ।
(घ) इस धारा के अधीन की गई िकसी घोषणा, आदेश या िनदेश के िवरु अपील उसी पर्कार होगी मानो वह िडकर्ी हो ।
(ङ) इस धारा म “न्यायालय” से अिभपर्ेत है (1) अपने मामूली या गैर-मामूली आरिम्भक िसिवल अिधकािरता का पर्योग
करता हुआ उच्च न्यायालय, (2) िजला न्यायाधीश का न्यायालय िजसकी अिधकािरता की स्थानीय सीमा के अन्दर सम्पि या
उसका कोई भाग िस्थत है, (3) अन्य कोई न्यायालय, िजसे समय-समय पर राज्य सरकार शासकीय राजपतर् म अिधसूचना ारा इस
धारा ारा पर्द अिधकािरता का पर्योग करने के िलए सक्षम घोिषत करे ।
अध्याय 4

स्थावर सम्पि के बन्धक और भार के िवषय म


58. “बंधक”, “बंधककतार्”, “बंधकदार”, “बंधक धन” और “बंधक िवलेख” की पिरभाषा—(क) बन्धक—िविनिदष्ट स्थावर
सम्पि म के िकसी िहत का वह अन्तरण है जो उधार के तौर पर िदए गए या िदए जाने वाले धन के संदाय को या वतर्मान या भावी
ऋण के संदाय को या ऐसे वचनबन्ध का पालन, िजससे धन सम्बन्धी दाियत्व पैदा हो सकता है, पर्ितभूत करने के पर्योजन से िकया
जाता है ।
अन्तरक बन्धककतार् और अन्तिरती बन्धकदार कहलाता है, मूलधन और ब्याज, िजनका संदाय तत्समय पर्ितभूत है, बन्धक धन
कहलाते ह और वह िलखत (यिद कोई हो), िजसके ारा अन्तरण िकया जाता है बन्धक िवलेख कहलाती है ।

1
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 18 ारा धारा 56 के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
17

(ख) सादा बंधक—जहां िक बन्धककतार् बन्धक-सम्पि का कब्जा पिरद िकए िबना बन्धक धन चुकाने के िलए अपने को
व्यिक्तत: आब करता है और अिभव्यक्त या िवविक्षत तौर पर करार करता है िक उस संिवदा के अनुसार संदाय करने म उसके
असफल रहने की दशा म बन्धकदार को बन्धक-सम्पि का िवकर्य कराने का और िवकर्य के आगम को जहां तक वह आवश्यक हो बन्धक
धन के संदाय म उपयोिजत कराने का अिधकार होगा, वहां वह संव्यवहार सादा बंधक और बन्धकदार सादा बन्धकदार कहलाता है ।
(ग) सशतर् िवकर्य ारा बंधक—जहां िक कोई बन्धककतार् बन्धक-सम्पि को दृश्यत: बेच देता है—
सशतर् पर िक िकसी िनिश्चत तारीख को बन्धक धन के संदाय म व्यितकर्म होते ही िवकर्य आत्यिन्तक हो जाएगा,
अथवा
इस शतर् पर िक ऐसा संदाय िकए जाने पर िवकर्य शून्य हो जाएगा, अथवा
इस शतर् पर िक ऐसा संदाय िकए जाने पर कर्ेता वह सम्पि को अन्तिरत कर देगा, वहां ऐसा संव्यवहार सशतर्
िवकर्य ारा बन्धक और बन्धकदार सशतर् िवकर्य ारा बन्धकदार कहलाता है :
1 [परन्तु
ऐसा कोई भी संव्यवहार बन्धक नह समझा जाएगा जब तक िक वह शतर् उस दस्तावेज म सिन्निवष्ट न हो िजससे
िवकर्य िकया गया है या िकया जाना तात्पियत है ।]
(घ) भोग-बन्धक—जहां िक बन्धककतार् बन्धक-सम्पि का कब्जा बन्धकदार को पिरद कर देता है 2 [या पिरद करने के
िलए अपने को अिभव्यक्त या िवविक्षत तौर पर आब कर लेता है] और उसे पर्ािधकृ त करता है िक बन्धक धन का संदाय िकए जाने तक
वह ऐसा कब्जा पर्ितधृत करे और उस सम्पि से पर्ोद्भूत भाटक और लाभ को 3 [या ऐसे भाटक और लाभ के िकसी भाग को पर्ाप्त
करे और उन्ह ब्याज म े या बन्धक धन के संदाय म या भागत: ब्याज म े 4 [या] भागत: बन्धक धन के संदाय म, िविनयोिजत कर ले,]
वहां वह संव्यवहार भोग-बन्धक और वह बन्धकदार भोग-बन्धकदार कहलाता है ।
(ङ) अंगर्ज
े ी बंधक—जहां िक बन्धककतार् बन्धक धन का पर्ितसंदाय िनिश्चत तारीख को करने के िलए अपने को आब करता
है और बन्धक-सम्पि को बन्धकदार को आत्यिन्तक रूप से िकतु इस परन्तुक के अध्यधीन अन्तिरत करता है िक करार के अनुसार
बन्धक धन के संदाय पर बन्धकदार उसे बन्धककतार् को पर्ित-अन्तिरत कर देगा, वहां वह संव्यवहार अंगर्ेजी बन्धक कहलाता है ।
हक-िवलेख के िनक्षेप ारा बंधक—जहां िक कोई व्यिक्त िनम्निलिखत नगर , अथार्त् कलक ा, मदर्ास 6 [और मुम्बई]
5 [(च)

7 *** नगर म से िकसी म और िकसी भी अन्य नगर म, िजसे 8 [संपृक्त राज्य सरकार] शासकीय राजपतर् म अिधसूचना ारा इस
िनिम िविनिदष्ट करे , िकसी लेनदार को या उसके अिभकतार् को स्थावर सम्पि की हक की दस्तावेज को, उस सम्पि पर पर्ितभूित
सृष्ट करने के आशय से पिरद करता है, वहां वह संव्यवहार हक-िवलेख के िनक्षेप ारा बन्धक कहलाता है ।
(छ) िवलक्षण बंधक—जो बन्धक इस धारा के अथर् म सादा बन्धक, सशतर् िवकर्य ारा बन्धक, भोग-बन्धक, अंगर्ेजी बन्धक या
हक-िवलेख के िनक्षेप ारा बन्धक नह है, वह िवलक्षण बन्धक कहलाता है ।]
59. बंधक कब हस्तान्तरण पतर् ारा िकया जाना चािहए—जहां िक पर्ितभूत मूलधन सौ रुपए या उससे अिधक है, वहां वह
बन्धक, 9 [जोहक-िवलेख के िनक्षेप ारा बन्धक से िभन्न है] बन्धकतार् ारा हस्ताक्षिरत और कम से कम दो सािक्षय ारा
अनुपर्मािणत रिजस्टर्ीकृ त िलखत ारा ही िकया जा सके गा ।
जहां िक पर्ितभूत मूलधन सौ रुपए से कम है वहां बन्धक या तो उपयुर्क्त जैसे हस्ताक्षिरत और अनुपर्मािणत 10 [रिजस्टर्ीकृ त

िलखत] ारा या (िसवाय सादा बन्धक की दशा म के ) सम्पि के पिरदान ारा िकया जा सके गा ।
11 * * * * *
12 [59क.बंधककतार् और बंधकदार के पर्ित िनदश के अंतगर्त वे व्यिक्त भी ह िजन्ह उनसे हक व्युत्पन्न हुआ है—जब तक
िक अिभव्यक्त तौर पर अन्यथा उपबंिधत न हो, इस अध्याय म बंधककतार् और बंधकदार के पर्ित िनदश के अंतगर्त कर्मश: उन
व्यिक्तय के पर्ित भी िनदश समझे जाएंगे िजन्ह उनसे हक व्युत्पन्न हुआ है ।]

1
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 19 ारा जोड़ा गया ।
2
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 19 ारा अंत:स्थािपत ।
3
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 19 ारा “और उनको िविनयोिजत कर ले” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
4
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 19 ारा “और” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
5
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 19 ारा जोड़े गए ।
6
भारतीय स्वतंतर्ता (के न्दर्ीय अिधिनयम तथा अध्यादेश अनुकूलन) आदेश, 1948 ारा “मुम्बई और कराची” के स्थान पर पर्ितस्थािपत । भारत शासन (भारतीय िविध
अनुकूलन) आदेश, 1937 ारा शब्द “और” अन्त:स्थािपत िकया गया था ।
7
भारत शासन (भारतीय िविध अनुकूलन) आदेश, 1937 ारा “रं गून, मौल्मेइन, बािसन और अकयब” शब्द का लोप िकया गया ।
8
“सपिरषद् गवनर्र जनरल” शब्द भारत शासन (भारतीय िविध अनुकूलन) आदेश, 1937 ारा और तत्पश्चात् िविध अनुकूलन आदेश, 1950 ारा संशोिधत होकर
उपरोक्त रूप से आए ।
9
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 20 ारा अन्त:स्थािपत ।
10
1904 के अिधिनमय सं० 6 की धारा 3 ारा “िकसी िलखत” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
11
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 20 ारा तीसरा पैरा लोप िकया गया ।
12
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 21 ारा अंत:स्थािपत ।
18

बंधककतार् के अिधकार और दाियत्व


60. मोचन करने का बंधककतार् का अिधकार—मूलधन के 1 [शोध्य] हो जाने के पश्चात् िकसी भी समय बंधककतार् का बंधक
धन को उपयुक्त समय और स्थान म देने या िनिवद करने पर यह अिधकार होता है िक वह बंधकदार से अपेक्षा करे िक वह (क)
2 [बंधककतार् को बंधक िवलेख और बंधक-सम्पि से संबंिधत ऐसी सब दस्तावेज का पिरदान करे जो बंधकदार के कब्जे म या शिक्त म
ह ], (ख) जहां िक बंधकदार बंधक-सम्पि पर कब्जा रखता है वहां बंधककतार् को उस पर कब्जा पिरद करे ; और (ग) बंधककतार् के
खचर् पर या तो बंधक-सम्पि उसको या ऐसे अन्य व्यिक्त को, िजसे वह िनदेिशत करे , पर्ित-अंतिरत करे या यह लेखब अिभस्वीकृ ित
िक ऐसा कोई अिधकार, जो बंधककतार् के उस िहत का अल्पीकरण करता है जो बंधकदार को अंतिरत िकया गया है, िनवार्िपत हो गया
है, िनष्पािदत करे और (जहां िक बंधक रिजस्टर्ीकृ त िलखत ारा िकया गया है) रिजस्टर्ीकृ त कराए :
परन्तु यह तब िक इस धारा ारा पर्द अिधकार पक्षकार के कायर् ारा या न्यायालय की 3 [िडकर्ी] ारा िनवार्िपत न हो
चुका हो ।
इस धारा ारा पर्द अिधकार मोचन अिधकार कहलाता है और उसे पर्वितत कराने का वाद मोचन वाद कहलाता है ।
इस धारा की कोई भी बात ऐसे िकसी उपबंध को अिविधमान्य कर देने वाली न समझी जाएगी िजसका यह पर्भाव है िक यिद
वह समय िनकल जाने िदया गया है जो मूलधन के संदाय के िलए िनयत है या यिद ऐसा कोई समय िनयत नह िकया गया है तो
बंधकदार ऐसे धन के संदाय या िनिवदा से पहले युिक्तयुक्त सूचना पाने का हकदार होगा ।
बंधक-सम्पि के भाग का मोचन—इस धारा की कोई भी बात बंधक-सम्पि के अंश म ही िहतब िकसी व्यिक्त को बंधक
म े अविशष्ट शोध्य रकम के आनुपाितक भाग के संदाय पर अपने ही अंश का मोचन कराने का हकदार नह बनाएगी 4 [के वल] वहां के
िसवाय जहां िक बंधकदार ने या यिद एक से अिधक बंधकदार ह तो ऐसे सब बंधकदार ने बंधककतार् के उस अंश को पूणर्त: या भागत:
अिजत कर िलया है ।
बंधककतार् को पर्ित-अंतरण करने के बजाय िकसी तृतीय पक्षकारो को अंतरण करने की बाध्यता—(1) जहां िक
5 [60क.

बंधककतार् मोचन के िलए हकदार है, वहां उन िकन्ह भी शत की पूित पर, िजनकी पूित पर वह पर्ित-अंतरण कराने की अपेक्षा करने का
हकदार हो जाता है, वह बंधकदार से यह अपेक्षा कर सके गा िक वह उस सम्पि को पर्ित-अंतिरत करने के बजाय, ऐसे अन्य व्यिक्त को,
िजसे बंधककतार् िनिदष्ट करे , बंधक ऋण समुनदेिशत करे और बंधक-सम्पि अंतिरत करे , तथा बंधकदार तदनुसार समनुदश े न और
अंतरण करने के िलए आब होगा ।
(2) इस धारा ारा पर्द अिधकार बंधककतार् और िवल्लंगमदार के ह गे और िकसी मध्यवत िवल्लंगम के होते हुए भी
बंधककतार् ारा या िकसी िवल्लंगमदार ारा पर्वितत कराए जा सकगे, िकन्तु िकसी िवल्लंगमदार ारा की गई अपेक्षा बंधककतार् ारा
की गई अपेक्षा पर अिभभावी होगी और जहां तक िवल्लंगमदार के बीच का संबंध है पूिवक िवल्लंगमदार की अपेक्षा पािश्चक
िवल्लंगमदार की अपेक्षा पर अिभभावी होगी ।
(3) इस धारा के उपबंध उस बंधकदार के बारे म लागू नह होते िजसका कब्जा है या रहा है ।
60ख. दस्तावेज के िनरीक्षण और पेश कराने का अिधकार—बंधककतार् का उस समय तक, जब तक उसका मोचन अिधकार
बना रहता है, यह हक होगा िक बंधक-सम्पि सम्बन्धी जो हक की दस्तावेज बंधकदार की अिभरक्षा या शिक्त म ह, उनका िनरीक्षण
और उनकी पर्ितयां या संिक्षिप्तयां या उनम से उ रण सब युिक्तयुक्त समय पर अपनी पर्ाथर्ना और अपने खचर् पर और बंधकदार के
तिन्निम खच और व्यय को देकर कर ले ।]
[61. पृथक् तया या साथ-साथ मोचन कराने का अिधकार—वह बंधककतार्, िजसने दो या अिधक बंधक एक ही बंधकदार के
6

पक्ष मे िनष्पािदत कर िदए ह, तत्पर्ितकू ल संिवदा न हो तो उस समय, जब उन बंधक म से दो या अिधक बंधक का मूलधन शोध्य हो
गया हो, ऐसे िकसी एक बंधक का पृथक् त: या ऐसे बंधक म से एक साथ ही दो या अिधक बंधक का मोचन कराने का हकदार होगा ।]
62. कब्जा पर्त्यु रण का भोग-बंधककतार् का अिधकार—भोग-बंधक की दशा म बंधककतार् को यह अिधकार है िक वह
7 [बंधक िवलेख और बंधक-सम्पि संबंधी सब दस्तावेज के सिहत, जो बंधकदार के कब्जे या शिक्त म ह ] उस सम्पि के कब्जे का
पर्त्यु रण कर ले—
(क) जहां िक बंधकदार सम्पि के भाटक और लाभ के बंधक धन का भुगतान स्वयं कर लेने के िलए पर्ािधकृ त है
वहां तब जब ऐसे धन का भुगतान हो गया हो,

1
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 22 ारा “संदय
े ” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
2
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 22 ारा “बन्धककतार् को बंधक िवलेख, यिद कोई हो,” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
3
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 22 ारा “आदेश” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
4
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 22 ारा अंत:स्थािपत ।
5
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 23 ारा धारा 60क और धारा 60ख अन्त:स्थािपत ।
6
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 24 ारा धारा 61 के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
7
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 25 ारा अंत:स्थािपत ।
19

(ख) जहां िक बंधकदार ऐसे भाटक और लाभ से 1 [या उनके िकसी भाग से बंधक धन के ] के वल िकसी भाग का
भुगतान स्वयं कर लेने के िलए पर्ािधकृ त है, वहां तब जब बंधक धन के संदाय के िलए िविहत कालाविध का (यिद कोई हो)
अवसान हो गया हो और बंधककतार् 2 [बंधक धन या उसका कोई अितशेष] बंधकदार को दे दे या िनिवद कर दे या जैसा िक
एतिस्मन्पश्चात् उपबिन्धत है, न्यायालय म िनिक्षप्त कर दे ।
63. बंधक-संपि म अनुविृ —जहां िक बंधकदार के कब्जे म की बंधक-सम्पि म अनुवृि बंधक चालू रहने के दौरान होती
है, वहां तत्पर्ितकू ल संिवदा न हो तो मोचन िकए जाने पर बंधकदार के िवरु बंधककतार् ऐसी अनुवृि का हकदार होगा ।
अंतिरत स्वािमत्व के आधार पर अिजत अनुविृ —जहां िक ऐसी अनुवृि बंधकदार के व्यय से अिजत की गई है, और मूल
सम्पि का अपाय हुए िबना पृथक् कब्जे या उपभोग के योग्य है, वहां उस अनुवृि को लेने की वांछा करने वाला बंधककतार् उसे अिजत
करने का व्यय बंधकदार को देगा । यिद ऐसा पृथक् कब्जा या उपभोग संभव न हो तो वह अनुवृि , सम्पि के साथ पिरद करनी होगी
और बंधककतार् दायी होगा िक ऐसी दशा म, जब उस सम्पि को नाश, समपहरण या िवकर्य से पिररिक्षत रखने के िलए अजर्न आवश्यक
हो, या ऐसी दशा म, जब अजर्न बंधककतार् की अनुमित से िकया गया हो, उस अजर्न म लगे उिचत खच को 3 [उन पर उसी दर से, जो
मूलधन पर देय है, या जहां िक ऐसी कोई दर िनयत नह की गई है, वहां नौ पर्ितशत वािषक दर से ब्याज सिहत] मूलधन म जोड़कर दे ।
अंितम विणत दशा म अनुवृि म उत्पन्न होने वाले लाभ, यिद कोई ह , बंधकतार् के नाम जमा िकए जाएंगे ।
जहां िक बन्धक भोग-बन्धक है और अनुवृि बन्धकदार के व्यय से अिजत की गई है, वहां अनुवृि से उद्भूत लाभ, यिद कोई
हो, पर्ितकू ल संिवदा न हो तो ऐसे व्यय िकए गए धन पर देय ब्याज म ,े यिद कोई हो, मुजरा कर िदए जाएंगे ।
[63क. बंधक-संपि म अिभवृि —(1) जहां िक बन्धकदार के कब्जे म की बन्धक-सम्पि म अिभवृि बन्धक के चालू रहने
4

के दौरान की गई है, वहां मोचन पर बन्धककतार् तत्पर्ितकू ल संिवदा न हो तो अिभवृि का हकदार होगा और बन्धकतार् के वल उपधारा
(2) म उपबिन्धत मामल को छोड़कर उसका खचार् देने का दायी न होगा ।
(2) जहां िक कोई ऐसी अिभवृि बन्धकदार के खचर् पर की गई थी और सम्पि को नाश या क्षय से पिररिक्षत करने के िलए
आवश्यक थी या पर्ितभूित को अपयार्प्त होने से रोकने के िलए आवश्यक थी, या िकसी लोक सेवक या लोक पर्ािधकारी के िविधपूणर्
आदेश के अनुपालन म की गई थी, वहां तत्पर्ितकू ल संिवदा न हो तो बन्धककतार् दायी होगा िक अिभवृि के उिचत खच को उसी दर से
ब्याज सिहत, जो मूलधन पर देय है, या जहां िक कोई ऐसी दर िनयत नह है वहां नौ पर्ितशत वािषक दर से ब्याज सिहत मूलधन म
जोड़कर दे तथा उस अिभवृि के कारण पर्ोद्भवमान लाभ, यिद कोई ह , बन्धकतार् के नाम जमा िकए जाएंगे ।]
64. बंधिकत प े का नवीकरण—जहां िक बन्धक-सम्पि 5 *** प ा है और बन्धकदार उस प े का नवीकरण अिभपर्ाप्त करता
है, वहां बन्धकतार् ारा तत्पर्ितकू ल संिवदा न की गई हो तो मोचन पर नवीन प े का फायदा उसे िमलेगा ।
65. बंधककतार् ारा िवविक्षत संिवदाएं—तत्पर्ितकू ल संिवदा न हो तो यह समझा जाएगा िक बन्धककतार् ने बन्धकदार से
संिवदा की है िक—
(क) वह िहत, िजसे बन्धककतार् बन्धकदार को अन्तिरत करने की पर्व्यंजना करता है अिस्तत्वयुक्त है, और उसे
अन्तिरत करने की शिक्त बन्धककतार् को है,
(ख) बन्धककतार् बन्धक-सम्पि पर बन्धककतार् के हक की पर्ितरक्षा करे गा या यिद बन्धकदार का उस पर कब्जा है
तो बन्धककतार् उसे उस हक की पर्ितरक्षा करने के योग्य बनाएगा,
(ग) जब तक बन्धक-सम्पि पर बन्धकदार का कब्जा नह है, तब तक सम्पि की बाबत पर्ोद्भवमान शोध्य सब
लोक पर्भार को बन्धककतार् देगा,
(घ) और जहां िक बन्धक-सम्पि 6 *** प ा है, वहां उस प े के अधीन देय भाटक का संदाय, उसम अन्तिवष्ट शत
का पालन और प ेदार को आब करने वाली संिवदा का अनुपालन बन्धक के पर्ारम्भ होने तक का िकया जा चुका है, तथा
बन्धककतार् उस समय तक, जब तक पर्ितभूित वतर्मान रहती है, और बन्धकदार का कब्जा बन्धक-सम्पि पर नह है, प े
ारा या यिद प े का नवीकरण कराया जाए तो नवीकृ त प े ारा आरिक्षत भाटक देगा, उसम अन्तिवष्ट शत का पालन
करे गा और प ेदार को आब करने वाली संिवदा का अनुपालन करे गा और उक्त भाटक के असंदाय के या उक्त शत और
संिवदा के अपालन या अननुपालन के कारण जो दावे बन्धकदार को भुगतने पड़, उन सबके िलए बन्धकदार की क्षितपूित
करे गा,

1
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 25 ारा “मूलधन के ब्याज के ” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
2
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 25 ारा “मूलधन” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
3
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 26 ारा “ब्याज की उसी दर से” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
4
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 27 ारा अन्त:स्थािपत ।
5
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 28 ारा “कितपय वष की अविध के िलए” शब्द का लोप िकया गया ।
6
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 29 ारा “कितपय वष की अविध के िलए” शब्द का लोप िकया गया ।
20

(ङ) और जहां िक वह बन्धक उस सम्पि पर ि तीय या पािश्चक िवल्लंगम है वहां बन्धककतार् हर एक पूिवक
िवल्लंगम म े पर्ोद्भवमान शोध्य ब्याज, जैसे और जब वह शोध्य हो जाए, समय-समय पर देगा और ऐसे पूिवक िवल्लंगम
म े शोध्य मूलधन का भुगतान उिचत समय पर करे गा ।
1
* * * * *
इस धारा म विणत संिवदा का फायदा बन्धकदार के अपनी उस हैिसयत के िहत के साथ उपाब होगा और जाएगा और
ऐसे हर व्यिक्त ारा पर्वृ कराया जा सके गा िजसम वह िहत पूणर्त: या भागत: समय-समय पर िनिहत हो ।
बंधककतार् की प ा करने की शिक्त—(1) उपधारा (2) के उपबन्ध के अध्यधीन जब बन्धककतार् का बन्धक-सम्पि
2 [65क.

पर िविधपूणर् रूप से कब्जा हो तब उसकी यह शिक्त होगी िक उसे प पर दे दे, जो प े बन्धकदार पर आब कर ह गे ।


(2) (क) हर ऐसा प ा ऐसा होगा जो सम्पृक्त सम्पि के पर्बन्ध के मामूली अनुकर्म म और िकसी स्थानीय िविध, रूिढ़ या पर्था
के अनुसार िकया जाता ।
(ख) हर ऐसे प े म वह सव म भाटक आरिक्षत होगा जो युिक्तयुक्तत: अिभपर्ाप्त िकया जा सकता हो और कोई भी
पर्ीिमयम न तो िदया जाएगा और न उसके िलए वचन िदया जाएगा तथा कोई भी भाटक अिगर्म देय नह होगा ।
(ग) िकसी भी ऐसे प े म नवीकरण के िलए पर्संिवदा अन्तिवष्ट नह होगी ।
(घ) हर ऐसा प ा ऐसी तारीख से पर्भावी होगा जो उसके िलए िकए जाने की तारीख से छह मास से अिधक पश्चात् की
न हो ।
(ङ) िनमार्ण के प े की दशा म, चाहे वे उस भूिम के , िजस पर वे िस्थत ह, सिहत या िबना प े पर िदए गए ह , प े की
अिस्तत्वाविध िकसी दशा म भी तीन वषर् से अिधक की न होगी और प े म भाटक देने के िलए पर्संिवदा और उसम िविनिदष्ट समय के
भीतर भाटक न चुकाए जाने पर पुन: पर्वेश करने की शतर् अन्तिवष्ट होगी ।
(3) उपधारा (1) के उपबन्ध के वल तभी और वह तक लागू होते ह जब और जहां तक िक बन्धक िवलेख म कोई तत्पर्ितकू ल
आशय अिभव्यक्त न िकया गया हो और उपधारा (2) के उपबन्ध म फे रफार या उनका िवस्तारण बन्धक िवलेख ारा िकया जा सके गा
और इस पर्कार फे रफार िकए गए या िवस्तािरत उपबन्ध यावत्शक्य वैसे ही पर्कार से और वैसी ही पर्संगितय , पर्भाव और पिरणाम के
सिहत पर्वितत ह गे, मानो ऐसे फे रफार या िवस्तारण उस उपधारा म अन्तिवष्ट ह ।]
66. कब्जा रखने वाले बन्धककतार् ारा दुव्यर्य—बन्धक सम्पि पर कब्जा रखने वाला बन्धककतार् सम्पि का क्षय होने देने के
िलए बन्धकदार के पर्ित दायी नह होगा िकन्तु वह ऐसा कोई कायर् नह करे गा जो सम्पि के िलए िवनाशक या स्थायी रूप से क्षितपूणर्
हो यिद पर्ितभूित अपयार्प्त हो या ऐसे कायर् ारा अपयार्प्त कर दी जाएगी ।
स्पष्टीकरण—पर्ितभूित इस धारा के अथर् म अपयार्प्त है जब तक बन्धक-सम्पि का मूल्य बन्धक पर उस समय शोध्य रकम से
एक ितहाई से, या यिद वह सम्पि िनमार्ण है तो आधे से अिधक न हो ।
बंधकदार के अिधकार और दाियत्व
67. पुरोबंध या िवकर्य का अिधकार—तत्पर्ितकू ल संिवदा न हो तो, बन्धकदार को यह अिधकार है िक बन्धक धन के अपने
को 3 [शोध्य] हो जाने के पश्चात् और बन्धक सम्पि के मोचन के िलए िडकर्ी दी जाने से, या बन्धक धन चुकाए जाने से या यथा
एतिस्मन्पश्चात् उपबिन्धत तौर पर िनिक्षप्त िकए जाने से पहले िकसी भी समय वह न्यायालय से यह 4 [िडकर्ी] िक बन्धककतार् उस
सम्पि का मोचन कराने के अपने अिधकार से आत्यिन्तक रूप से िवविजत होगा या यह 4[िडकर्ी] िक वह सम्पि बेच दी जाए
अिभपर्ाप्त कर ले ।
[िडकर्ी] अिभपर्ाप्त करने के िलए वाद िक बन्धकतार् बन्धक सम्पि
4
का मोचन कराने के अपने अिधकार से आत्यिन्तक रूप से
िवविजत होगा, पुरोबन्ध वाद कहलाता है ।
इस धारा की िकसी भी बात से यह न समझा जाएगा िक वह—
5
[(क) सशतर् िवकर्य वाले बन्धकदार से िभन्न या ऐसे िवलक्षण बन्धक वाले बन्धकदार से िभन्न, िजसके िनबन्धन
ारा वह पुरोबन्ध कराने का हकदार है, िकसी बन्धकार को पुरोबन्ध वाद संिस्थत करने या िकसी भोग-बन्धकदार को अपनी
वैसी हैिसयत म या सशतर् िवकर्य वाले िकसी बन्धकदार को अपनी जैसी हैिसयत म िवकर्य के िलए वाद संिस्थत करने को
पर्ािधकृ त करती है ; अथवा]

1
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 29 ारा कितपय शब्द का लोप िकया गया ।
2
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 30 ारा अन्त:स्थािपत ।
3
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 31 ारा “संदय
े ” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
4
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 31 ारा “आदेश” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
5
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 31 ारा खण्ड (क) के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
21

(ख) उस बन्धककतार् को, जो बन्धकदार के अिधकार उसके न्यासधारी या िविधक पर्ितिनिध की हैिसयत से धािरत
करता है और जो सम्पि के िवकर्य के िलए वाद ला सकता है, पुरोबन्ध वाद संिस्थत करने को पर्ािधकृ त करती है ; अथवा
(ग) रेल, नहर या अन्य ऐसे संकमर् के , िजसके कायम रखने म जनता िहतब है, बन्धकदार को पुरोबन्ध या िवकर्य
के िलए वाद संिस्थत करने को पर्ािधकृ त करती है ; अथवा
(घ) बन्धक धन के भाग मातर् म िहतब व्यिक्त को बंधक-सम्पि के तत्सम भाग के सम्बन्ध म ही वाद संिस्थत
करने को पर्ािधकृ त करती है, जब तक िक बन्धकदार ने बन्धककतार् की सम्मित से बन्धक के अधीन के अपने िहत को िवभक्त
न कर िलया हो ।
1 [67क. बंधकदार कई बन्धक के आधार पर एक वाद लाने को कब आब होता है—जो बन्धकदार एक ही बन्धककतार् ारा
िनष्पािदत ऐसे दो या अिधक बन्धक धारण करता है, िजनम से हर एक के िवषय म उसे धारा 67 के अधीन एक ही िकस्म की िडकर्ी
अिभपर्ाप्त करने का अिधकार है, और जो उन बन्धक म से िकसी एक के िलए ऐसी िडकर्ी अिभपर्ाप्त करने के िलए वाद लाता है, तब
तत्पर्ितकू ल संिवदा न हो तो, उन सब बन्धक के आधार पर, िजनके बारे म बन्धक धन शोध्य हो गया है, वाद लाने के िलए आब
होगा ।]
[68. बंधक धन के िलए वाद लाने का अिधकार—(1) बन्धक धन के िलए वाद लाने का अिधकार बन्धकदार को
2

िनम्निलिखत दशा म ही है, अन्य दशा म नह , अथार्त् : —


(क) जहां िक बन्धककतार् बन्धक धन के पर्ितसंदाय के िलए अपने आपको आब करता है,
(ख) जहां िक बन्धककतार् या बन्धकदार के सदोष कायर् या व्यितकर्म से िभन्न िकसी हेतुक से बन्धक-सम्पि पूणर्त:
या भागत: नष्ट हो जाती है या पर्ितभूित धारा 66 के अथर् के अन्दर अपयार्प्त हो जाती है और बन्धकदार ने बन्धककतार् को
इतनी अितिरक्त पर्ितभूित देने के िलए, िजतनी से कु ल पर्ितभूित पयार्प्त हो जाए, युिक्तयुक्त अवसर िदया है, और बन्धककतार्
ऐसा करने म असफल रहा है,
(ग) जहां िक बन्धकदार अपनी पूणर् पर्ितभूित से या उसके िकसी भाग से बन्धककतार् के सदोष कायर् या व्यितकर्म के
ारा या पिरणामस्वरूप वंिचत कर िदया गया है,
(घ) जहां िक बन्धकदार बन्धक-सम्पि पर कब्जे का हकदार है, वहां यिद बन्धककतार् उसे उसका पिरदान करने म
अथवा बन्धककतार् या बन्धककतार् के हक से विरष्ठ हक के अधीन दावा करने वाले िकसी व्यिक्त ारा िकए गए िवघ्न के िबना
उस पर कब्जा सुिनिश्चत कराने म असफल रहता है :
परन्तु खण्ड (क) म िनदिशत दशा म, बन्धककतार् का या उसके िविधक पर्ितिनिध का कोई अन्तिरती इस दाियत्व के अधीन न
होगा िक बन्धक धन के िलए उस पर वाद चलाया जाए ।
(2) जहां िक वाद उपधारा (1) के खंड (क) या खंड (ख) के अधीन लाया जाता है, वहां यिद बन्धकदार अपनी पर्ितभूित का
पिरत्याग नह कर देता और यिद आवश्यकता हो तो बन्धक-सम्पि का पर्ित-अन्तरण नह कर देता वाद और उसम की सब
कायर्वािहय को, िकसी तत्पर्ितकू ल संिवदा के होते हुए भी, न्यायालय स्विववेक म तब तक के िलए रोक सके गा जब तक बन्धकदार
बन्धक-सम्पि , या उसम से शेष जो बची हो उसके िवरु अपने सब उपलभ्य उपचार को िन:शेष नह कर देता है ।]
69. िवकर्य करने की शिक्त कब िविधमान्य होती है— 3 [(1)] 4 [ 5 *** बन्धकदार को, या उसकी ओर से कायर् काने वाले िकसी
व्यिक्त को, इस धारा के उपबन्ध के अध्यधीन िनम्निलिखत दशा म ही, न िक िकन्ह भी अन्य दशा म, यह शिक्त होगी िक बन्धक
धन के संदाय म व्यितकर्म होने पर न्यायालय के मध्यक्षेप के िबना वह बन्धक-सम्पि या उसका कोई भाग बेच दे या बेचे जाने म
सहमत हो जाए, अथार्त्—]
(क) जहां िक बन्धक अंगर्ेजी बन्धक है, और न तो बन्धककतार् और न बन्धकदार िहन्दू, मुसलमान या बौ 6 [या
7 [राज्य सरकार] ारा शासकीय राजपतर् म इस िनिम समय-समय पर िविनिदष्ट िकसी अन्य मूलवंश, पंथ, जनजाित या
वगर् का सदस्य है] ;

1
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 32 ारा अन्त:स्थािपत ।
2
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 33 ारा धारा 68 के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
3
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 34 ारा धारा 69 को उस धारा की उपधारा (1) के रूप म संख्यांिकत िकया गया ।
4
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 34 ारा कितपय शब्द के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
5
1952 के अिधिनयम सं० 48 की धारा 3 और अनुसूची 2 ारा “टर्स्टीज एण्ड मोटर्गेजीज पावसर् ऐक्ट, 1866 (1866 का 28) म अन्तिवष्ट िकसी बात के होते हुए भी”
शब्द और अंक का लोप िकया गया ।
6
1885 के अिधिनयम सं० 3 की धारा 5 ारा अन्त:स्थािपत ।
7
“सपिरषद् गवनर्र जनरल की पूवर् मंजूरी से गवनर्र जनरल” शब्द भारत शासन (भारतीय िविध अनुकूलन) आदेश, 1937 ारा और तत्पश्चात् िविध अनुकूलन आदेश,
1950 ारा संशोिधत होकर उपरोक्त रूप म आए ।
22

(ख) जहां िक 1 [बन्धकदार को बन्धक िवलेख ारा अिभव्यक्त रूप से यह शिक्त पर्द है िक वह न्यायालय के
मध्यक्षेप के िबना िवकर्य करा सके और] बन्धकदार 2 [सरकार] है ;
(ग) जहां िक 1[बन्धकदार को बन्धक िवलेख ारा अिभव्यक्त रूप से यह शिक्त पर्द है िक वह न्यायालय के
मध्यक्षेप के िबना िवकर्य करा सके और] बन्धक-सम्पि या उसका कोई भाग 3 [बन्धक िवलेख के िनष्पादन की तारीख को
कलक ा, मदर्ास, मुम्बई 4 *** के नगर के भीतर िस्थत था 5 [या िकसी अन्य नगर या क्षेतर् म िस्थत था] िजसे राज्य सरकार
शासकीय राजपतर् म अिधसूचना ारा इस बारे म िविनिदष्ट करे ।]
6
[(2)] 7 *** ऐसी कोई भी शिक्त पर्योग म न लाई जाएगी यिद और जब तक—
मूलधन के संदाय की अपेक्षा करने वाली िलिखत सूचना की तामील बन्धककतार् या कई बन्धककतार् म से
8 [(क)]

िकसी एक पर न कर दी गई हो और मूलधन या उसके िकसी भाग का संदाय करने म ऐसी तामील के पश्चात् तीन मास तक
व्यितकर्म न िकया गया हो ; अथवा
बन्धक के अधीन कु छ ब्याज, िजसकी रकम कम से कम पांच सौ रुपए हो, बकाया न हो और शोध्य होने के
9 [(ख)]

पश्चात् तीन मास तक अद न रहा हो ।


जबिक िवकर्य ऐसी शिक्त के पर्व्यंिजत पर्योग म कर िदया गया है तब कर्ेता का हक इस आधार पर अिधक्षेपणीय न
10 [(3)]

होगा िक उस िवकर्य को पर्ािधकृ त करने के िलए कोई भी दशा पैदा न हुई थी िजसम वह िवकर्य पर्ािधकृ त होता या िक सम्यक् सूचना
नह दी गई थी या िक शिक्त अन्यथा अनुिचत या अिनयिमत रूप से पर्युक्त की गई थी ; िकन्तु इस शिक्त के िकसी अपर्ािधकृ त या
अनुिचत या अिनयिमत पर्योग से क्षितगर्स्त व्यिक्त को उस शिक्त का पर्योग करने वाले व्यिक्त के िवरु नुकसानी पर्ािप्त का उपचार
उपलब्ध होगा ।
बन्धकदार को िवकर्य ारा जो धन पर्ाप्त हुआ है, वह उन पूिवक िवल्लंगम के , यिद कोई ह , उन्मोचन के पश्चात्
11 [(4)]

िजनके अध्यधीन वह िवकर्य नह िकया गया है, या न्यायालय म धारा 57 के अधीन वह रािश जमा िकए जाने के पश्चात्, जो िकसी
पूिवक िवल्लंगम को चुकाने के िलए पयार्प्त है, तत्पर्ितकू ल संिवदा न हो, तो पर्थमत: िवकर्य या िकसी पर्यितत िवकर्य के पर्संगत: अपने
ारा उिचत रूप से उपगत सब खच , पर्भार और व्यय का संदाय करने म और ि तीयत: बन्धक-धन और खच और बन्धक के अधीन
शोध्य अन्य धन के यिद कोई हो, भुगतान म अपने ारा उपयोिजत िकए जाने के िलए बन्धकदार न्यासत: धािरत रखेगा, और इस पर्कार
पर्ाप्त धन की अविशिष्ट बन्धक-सम्पि के हकदार, या उसके िवकर्य के आगम की रसीद देने के िलए पर्ािधकृ त व्यिक्त को दे दी
जाएंगी ।
12 [(5) इस धारा या धारा 69क की कोई भी बात 1882 की जुलाई के पहले िदन से पूवर् पर्द शिक्तय को लागू नह है ।]
13 * * * * *
िरसीवर की िनयुिक्त—(1) धारा 69 के अधीन िवकर्य की शिक्त के पर्योग का अिधकार रखने वाले बन्धकदार को,
14 [69क.

उपधारा (2) के उपबन्ध के अध्यधीन यह हक होगा िक वह बन्धक-सम्पि या उसके िकसी भाग की आय का िरसीवर अपने ारा या
अपनी ओर से हस्ताक्षिरत लेख ारा िनयुक्त करे ।
(2) जो व्यिक्त िरसीवर के रूप म कायर् करने के िलए बन्धक िवलेख म नािमत है और उस रूप म कायर् करने के िलए रजामन्द
और योग्य है, वह बन्धकदार ारा िनयुक्त िकया जा सके गा ।
यिद कोई भी व्यिक्त ऐसे नािमत न िकया गया हो या यिद वह नािमत व्यिक्त कायर् करने के िलए अयोग्य हो या रजामन्द न
हो या मर चुके हो, तो बन्धकदार ऐसे िकसी व्यिक्त को िनयुक्त कर सके गा िजसकी िनयुिक्त के िलए बन्धककतार् भी सहमत हो, ऐसी

1
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 34 ारा अन्त:स्थािपत ।
2
“सपिरषद् भारत का सेकर्ेटरी आफ स्टेट्स” शब्द भारत शासन (भारतीय िविध अनुकूलन) आदेश, 1937 ारा और तत्पश्चात् िविध अनुकूलन आदेश, 1950 ारा
संशोिधत होकर उपरोक्त रूप से आए ।
3
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 34 ारा “है” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
4
भारतीय स्वतंतर्ता (के न्दर्ीय अिधिनयम तथा अध्यादेश अनुकूलन) आदेश, 1948 ारा “कराची” शब्द का लोप िकया गया ।
5
“या रं गून” शब्द 1904 के अिधिनयम सं० 6, 1915 के अिधिनयम सं० 11, 1929 के अिधिनयम सं० 20, भारत शासन (भारतीय िविध अनुकूलन) आदेश, 1937 ारा
और तत्पश्चात् िविध अनुकूलन आदेश, 1950 ारा संशोिधत होकर उपरोक्त रूप म आए ।
6
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 34 ारा दूसरे पैरे को उपधारा (2) के रूप म संख्यांिकत िकया गया ।
7
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 34 ारा “िकन्तु” शब्द का लोप िकया गया ।
8
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 34 ारा खण्ड (1) को खण्ड (क) के रूप म अक्षरांिकत िकया गया था ।
9
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 34 ारा खण्ड (2) को खण्ड (ख) के रूप म अक्षरांिकत िकया गया था ।
10
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 34 ारा तीसरा पैरा को उपधारा (3) के रूप म संख्यांिकत िकया गया ।
11
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 34 ारा चौथा पैरा को उपधारा (4) के रूप म संख्यांिकत िकया गया ।
12
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 34 ारा मूल पांचवे पैरे के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
13
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 34 ारा इस धारा के अिन्तम पैरे का लोप िकया गया ।
14
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 35 ारा अन्त:स्थािपत ।
23

सहमित न होने पर बन्धकदार न्यायालय से िरसीवर की िनयुिक्त करने के िलए आवेदन करने का हकदार होगा और न्यायालय ारा
िनयुक्त कोई भी व्यिक्त बन्धकदार ारा सम्यक् रूप से िनयुक्त िकया गया समझा जाएगा ।
िरसीवर िकसी समय भी ऐसे लेख ारा, जो बन्धककतार् और बन्धकदार ारा या उनकी ओर से हस्ताक्षिरत हो, अथवा दोन
म से िकसी पक्षकार ारा आवेदन पर और सम्यक् हेतुक दिशत िकए जाने पर न्यायालय ारा हटाया जा सके गा ।
िरसीवर का पद खाली होने पर उसकी पूित इस उपधारा के उपबंध के अनुकूल की जा सके गी ।
(3) इस धारा ारा पर्द शिक्तय के अधीन िनयुक्त िरसीवर बन्धककतार् का अिभकतार् समझा जाएगा तथा िरसीवर के काय
या व्यितकर्म के िलए बन्धककतार् अके ले ही उ रदायी होगा जब तक िक बन्धक िवलेख म अन्यथा उपबिन्धत न हो या जब तक िक ऐसे
कायर् या व्यितकर्म बन्धकदार के अनुिचत मध्यपेक्ष के कारण न हुए ह ।
(4) िरसीवर को यह शिक्त होगी िक वह उस समस्त आय की, िजनके िलए वह िरसीवर िनयुक्त िकया गया है, उस िहत के ,
िजसका व्ययन बन्धककतार् कर सकता था, पूरे िवस्तार तक, मांग और वसूली या तो बन्धककतार् के या बन्धकदार के नाम म वाद लाकर
या िनष्पादन करा के या अन्यथा करे और उसके िलए तद्नुकूल िविधमान्य रसीद दे और ऐसी िकन्ह शिक्तय का पर्योग करे जो उसम
बन्धकदार ारा इस धारा के उपबन्ध के अनुकूल पर्त्यायोिजत ह ।
(5) िरसीवर को धन देने वाले व्यिक्त को यह जांच करने की आवश्यकता नह है िक िरसीवर की िनयुिक्त िविधमान्य थी या
नह ।
(6) िरसीवर का यह हक होगा िक वह उसे पर्ाप्त समस्त धन की रकम पर कमीशन पांच पर्ितशत से अनिधक ऐसी दर से,
जैसी उसके िनयुिक्त-पतर् म िविनिदष्ट है, और यिद कोई दर ऐसे िविनिदष्ट न हो तो उस कु ल रकम पर पांच पर्ितशत की दर से या ऐसी
दर से, जैसे न्यायालय िरसीवर ारा उस पर्योजन के िलए िकए गए आवेदन पर अनुज्ञात करना ठीक समझे उस िकसी रकम म से, जो
उसे पर्ाप्त हुई है, अपने पािरशर्िमक के िलए और िरसीवर के तौर पर स्वयं ारा उपगत सब खच , पर्भार और व्यय की तुिष्ट के िलए
रख ले ।
(7) यिद िरसीवर को बन्धकदार ारा ऐसा करने के िलए िलिखत िनदेश िदया जाए, तो िरसीवर बन्धक सम्पि या उसके
िकसी भाग का, जो पर्कृ त्या बीमा कराने योग्य है, हािन या नुकसान के िलए, जो अिग्न से हो, उस मातर्ा तक, यिद कोई हो, िजस तक
बन्धकदार ने उसका बीमा कराया होता, उस धन म से, जो उसे पर्ाप्त हुआ है, बीमा कराएगा और उसे बीमाकृ त रखेगा ।
(8) बीमाधन के उपयोजन के बारे म इस अिधिनयम के उपबंध के अध्यधीन िरसीवर अपने ारा पर्ाप्त सब धन को िनम्न
पर्कार से उपयोिजत करे गा, अथार्त्—
(i) बन्धक-सम्पि पर पड़ने वाले सब भाटक , कर , भू-राजस्व, रे ट और िनगर्म के , चाहे वे कै से ही क्य न ह ,
भुगतान म;
(ii) िजस बन्धक के अिधकार के बारे म वह िरसीवर है उस बन्धक से पूिवकता रखने वाली सब वािषक रािशय या
अन्य संदाय को और सब मूल रािशय पर ब्याज को नीचा रखने म;
(iii) अपने कमीशन के और अिग्न, जीवन या अन्य पर्कार के बीमा के यिद कोई ह , पर्ीिमयम के , जो बन्धक
िवलेख के अधीन या इस अिधिनयम के अधीन उिचत तौर पर देय है, और बन्धकदार ारा िलिखत रूप म िनिदष्ट आवश्यक
या उिचत मरम्मत म हुए खच के संदाय म;
(iv) बन्धक के अधीन शोध्य होने वाले ब्याज के संदाय म;
(v) मूलधन के भुगतान म या उस म े यिद बन्धकदार ारा वह ऐसा करने के िलए िलिखत रूप म िनिदष्ट हो,
और जो धन उसे पर्ाप्त हुआ है, उसकी अविशिष्ट, यिद कोई हो, उस व्यिक्त को देगा, जो यिद िरसीवर का कब्जा न होता, तो उस आय
को पर्ाप्त करने का हकदार होता िजसका वह िरसीवर िनयुक्त िकया गया है, या जो बन्धक-सम्पि का अन्यथा हकदार है ।
(9) उपधारा (1) के उपबन्ध के वल तब और वह तक लागू होते ह, जब और जहां तक िक बन्धक िवलेख म कोई तत्पर्ितकू ल
आशय अिभव्यक्त नह िकया गया है, और उपधारा (3) से (8) तक के , िजनके अन्तगर्त दोन उपधाराएं ह, उपबन्ध म फे रफार या
िवस्तारण, बन्धक िवलेख ारा िकए जा सकगे और वे उपबंध इस पर्कार फे रफार या िवस्तार िकए गए रूप म यावत्शक्य उसी पर्कार से
और वैसी ही सब पर्संगितय , पर्भाव और पिरणाम के सिहत पर्वितत ह गे मानो ऐसे फे रफार या िवस्तारण उक्त उपधारा म
अन्तिवष्ट थे ।
(10) बन्धक-सम्पि के पर्बन्ध या पर्शासन िवषयक िकसी वतर्मान पर्श्न पर, जो ऐसे किठनाईपूणर् या महत्वपूणर् पर्श्न से
िभन्न हो, िजनके बारे म न्यायालय की राय हो िक वे संिक्षप्त िनपटारे के िलए उिचत नह ह, न्यायालय की राय, सलाह या िनदेश के
िलए न्यायालय से आवेदन वाद संिस्थत िकए िबना िकया जा सके गा । आवेदन म िहतब व्यिक्तय म से उन पर, िजन्ह न्यायालय इस
संबंध म ठीक समझे, आवेदन की पर्ित की तामील कराई जाएगी और वे उसकी सुनवाई म हािजर हो सके गा ।
इस उपधारा के अधीन िकए गए हर एक आवेदन के खच का अिधिनणर्यन न्यायालय के िववेकाधीन होगा ।
24

(11) इस धारा म “न्यायालय” से वह न्यायालय अिभपर्ेत है िजसे उस बन्धक को पर्वितत कराने के वाद म अिधकािरता हो ।]
70. बंधक-संपि म अनुविृ —यिद बंधक की तारीख के पश्चात् बन्धक-सम्पि म कोई अनुवृि होती है, तो बन्धकदार
तत्पर्ितकू ल संिवदा न हो तो, पर्ितभूित के पर्योजन के िलए ऐसी अनुवृि का हकदार होगा ।
दृष्टांत
(क) क नदी के िकनारे वाला कोई खेत ख के पास बन्धक रखता है । वह खेत जलोढ़ से बढ़ जाता है । अपनी पर्ितभूित के
पर्योजन के िलए ख इस वृि का हकदार है ।
(ख) क िनमार्ण भूिम का कोई टु कड़ा ख के पास बन्धक रखता है, और तत्पश्चात् उस टुकड़े पर गृह खड़ा करता है अपनी
पर्ितभूित के पर्योजन के िलए ख गृह का तथा उस भूिम के टुकड़े का हकदार है ।
71. बंधिकत प े का नवीकरण—जब िक बन्धक-सम्पि 1 *** प ा है और बंधककतार् उस प े का नवीकरण अिभपर्ाप्त कर
लेता है तब बन्धकदार तत्पर्ितकू ल संिवदा न हो तो नए प े का पर्ितभूित के पर्योजन के िलए हकदार होगा ।
72. सकब्जा बन्धकदार के अिधकार— 2 [बन्धकदार] इतना धन व्यय कर सके गा िजतना—
3
* * * * * * *
(ख) नाश, समपहरण या िवकर्य से 4 [बन्धक-सम्पि का पिररक्षण] करने के िलए,
(ग) उस सम्पि पर बंधककतार् के हक के समथर्न के िलए,
(घ) उसम स्वयं अपने हक को बन्धककतार् के िवरु पक्का करने के िलए, तथा
(ङ) जब िक बन्धक-सम्पि नवीकरणीय प ाधृित है तब प े के नवीकरण के िलए,
आवश्यक है; और तत्पर्ितकू ल संिवदा न हो तो ऐसे धन को मूलधन म जोड़ सके गा; उस धन पर ऐसी दर से, जो मूलधन पर देय है, और
जहां िक ऐसी कोई दर िनयत न हो, वहां नौ पर्ितशत वािषक दर से, ब्याज लगेगा :
[परं तु बन्धकदार ारा खंड (ख) या खंड (ग) के अधीन िकया गया धन का व्यय आवश्यक न समझा जाएगा, जब तक िक
5

बंधककतार् सम्पि को पिररिक्षत करने के िलए या हक का समथर्न करने के िलए अपेिक्षत न िकया गया हो और वह तदथर् उिचत और
यथासमय पग उठाने म असफल न हो गया हो ।]
जहां िक सम्पि अपनी पर्कृ ित से बीमा योग्य है, वहां तत्पर्ितकू ल संिवदा न हो तो बंधकदार ऐसी सब सम्पि या उसके िकसी
भाग को हािन या नुकसान के िलए, जो अिग्न से हो, बीमाकृ त भी कर और रख सके गा और िकसी ऐसे बीमे के िलए िदए गए पर्ीिमयम
उसी दर से, 2[जो मूलधन पर देय है, या जहां िक ऐसी दर िनयत नह है वहां नौ पर्ितशत वािषक दर से ब्याज सिहत मूलधन म जोड़े
जाएंग]े । िकन्तु ऐसे बीमे की रकम उस रकम से अिधक न होगी जो बन्धक-िवलेख म इस िनिम िविनिदष्ट है या (यिद ऐसी कोई रकम
उसम िविनिदष्ट न हो तो) उस रकम के दो-ितहाई से अिधक न होगी जो पूणर् नाश की दशा म बीमाकृ त सम्पि के पुन:स्थािपत करने के
िलए अपेिक्षत होती ।
इस धारा की कोई भी बात बन्धकदार को बीमा कराने के िलए पर्ािधकृ त करने वाली न समझी जाएगी, जब िक सम्पि का
बीमा बन्धककतार् ारा या बन्धककतार् की ओर से उतनी रकम का िकया हुआ रखा जाता है िजतने के िलए बन्धकदार बीमा कराने के
िलए एत्द ारा पर्ािधकृ त है ।
[73. राजस्व के िलए िकए गए िवकर्य के आगम पर या अजर्न पर पर्ितकर पर अिधकार—(1) जहां िक बन्धक-सम्पि या
6

उसका कोई भाग या उसम का कोई िहत ऐसी सम्पि के बारे म राजस्व की बकाया या लोक पर्कृ ित के अन्य पर्भार या शोध्य भाटक देने
म असफलता के कारण बेचा जाता है, और ऐसी असफलता बन्धकदार के िकसी व्यितकर्म से उत्पन्न नह हुई है, वहां बन्धकदार उस
बकाया के और िविध ारा िनिदष्ट सब पर्भार और कटौितय के संदाय के पश्चात् िवकर्य आगम म जो कु छ अिधशेष रहे उसम से
बन्धक धन के पूणर्त: या भागत: िदए जाने का दावा करने का हकदार होगा ।
(2) जहां िक बन्धक-सम्पि या उसका कोई भाग या उसम का कोई िहत भूिम अजर्न अिधिनयम, 1894 (1894 का 1) या
स्थावर सम्पि के आवश्यक अजर्न के िलए उपबन्ध करने वाली िकसी अन्य तत्समय पर्वृ -अिधिनयिमित के अधीन अिजत िकया जाता
है, वहां बन्धकदार बन्धककतार् को पर्ितकर के रूप म शोध्य रकम म से बन्धक धन के पूणर्त: या भागत: संदाय का दावा करने का हकदार
होगा।

1
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 36 ारा “कु छ वष की अविध के िलए” शब्द का लोप िकया गया ।
2
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 37 ारा कितपय शब्द के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
3
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 37 ारा खण्ड (क) का लोप िकया गया ।
4
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 37 ारा “उसके पिररक्षण” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
5
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 3 ारा अन्त:स्थािपत ।
6
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 38 ारा धारा 37 कितपय शब्द के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
25

(3) ऐसे दावे पूिवक िवल्लंगमदार के दाव के िसवाय अन्य सब दाव के िवरु अिभभावी ह गे और इस बात के होते हुए भी
िक बन्धक पर मूलधन शोध्य नह हुआ है, पर्वितत िकए जा सकगे ।]
74. [पािश्चक बन्धकदार का पूिवक बन्धकदार को संदाय करने का अिधकार ।]—सम्पि -अन्तरण (संशोधन) अिधिनयम,
1929 (1929 का 20) की धारा 39 ारा िनरिसत ।
75. [मध्यवत बन्धकदार के पूिवक और पािश्चक बन्धकदार के िवरु अिधकार ।]—सम्पि -अन्तरण (संशोधन)
अिधिनयम, 1929 (1929 का 20) की धारा 39 ारा िनरिसत ।
76. सकब्जा बंधकदार का दाियत्व—जबिक बन्धक चालू रहने के दौरान बन्धकदार बन्धक-सम्पि का कब्जा ले लेता है,
तब—
(क) उसको उस सम्पि का पर्बन्ध उस पर्कार करना होगा जैसा मामूली पर्ज्ञावाला व्यिक्त उसका पर्बन्ध करता,
यिद वह उसकी अपनी होती;
(ख) उसको उस सम्पि के भाटक और लाभ को वसूल करने म अपने सव म पर्यास करने ह गे;
(ग) तत्पर्ितकू ल संिवदा न हो तो उसे सरकारी राजस्व, लोक पर्कृ ित के सब अन्य पर्भार और ऐसे कब्जे के दौरान
तत्संबंधी पर्ोद्भवमान शोध्य 1 [सब भाटक और] भाटक की ऐसी कोई बकाया, िजसका संदाय करने म व्यितकर्म होने पर वह
सम्पि संक्षेपत: बेची जा सके , उस सम्पि की आय म से देनी होगी;
(घ) तत्पर्ितकल संिवदा न हो तो, उसे उस सम्पि की ऐसी आवश्यक मरम्मत करानी होगी िजसके िलए वह उस
सम्पि के भाटक और लाभ म से खंड (ग) म विणत संदाय की और मूलधन पर ब्याज की कटौती करने के पश्चात् उन
भाटक और लाभ म से संदाय कर सकता हो;
(ङ) वह ऐसा कोई कायर् नह करे गा जो सम्पि के िलए िवनाशक या स्थायी रूप से क्षितकर हो;
(च) जहां िक उसने संपूणर् सम्पि या उसके िकसी भाग या हािन या नुकसान के िलए, जो अिग्न से हो, बीमा
कराया है, वहां ऐसी हािन या नुकसान होने पर, उसे ऐसा कोई धन, िजसे वह पािलसी के अधीन वस्तुत: पर्ाप्त करता है या
उसम से इतना, िजतना आवश्यक हो, सम्पि के यथापूवर्करण म, अथवा यिद बन्धककतार् ऐसा िनदेश दे तो बन्धक धन के
घटाने या भुगतान म उपयोिजत करना होगा;
(छ) बंधकदार की हैिसयत म उस ारा पर्ाप्त और खचर् की गई सब रािशय का स्पष्ट, पूरा और शु लेखा उसे
रखना होगा और बन्धक के चालू रहने के दौरान िकसी भी समय बन्धककतार् को उसके िनवेदन और खचर् पर ऐसे लेखा की
और ऐसे वाउचर की िजनसे वे समिथत ह , सही पर्ितयां देनी ह गी;
(ज) बन्धक-सम्पि से उसे हुई पर्ािप्तयां, या जहां िक ऐसी सम्पि उसके वैयिक्तक अिधभोग म है, 1[वहां उस
सम्पि के बारे म उिचत अिधभोग-भाटक, उस सम्पि के पर्बंध के िलए और भाटक और लाभ के संगर्हण के िलए समुिचत
रूप से उपगत व्यय को और अन्य व्यय को,] जो खंड (ग) और (घ) म विणत है, तथा उन पर के ब्याज को काट लेने के
पश्चात् उस रकम को (यिद कोई हो), जो समय-समय पर 2 *** ब्याज म े शोध्य हो, कम करने म और ऐसी पर्ािप्तयां,
िजतनी शोध्य ब्याज से अिधक हो, बन्धक धन के घटाने या भुगतान म उसके पर्ित िवकिलत की जाएंगी और अिधशेष, यिद
हो, बन्धककतार् को दे िदया जाएगा;
(झ) जब िक बन्धककतार् बंधक पर तत्समय शोध्य रकम िनिवद करता है या एतिस्मन्पश्चात् उपबिन्धत पर्कार से
िनिक्षप्त करता है, तब बन्धकदार बन्धक-सम्पि से, यथािस्थित, िनिवदा की तारीख से या उस पूवर्तम समय से, जब वह
न्ययालय से ऐसी रकम िनकाल सकता था, अपने को हुई 3 *** पर्ािप्तय का लेखा इस धारा के अन्य खंड म के उपबन्ध के
होते हुए भी देगा 1[और वह ऐसी तारीख या समय के पश्चात् िकए गए बंधक सम्पि संबंधी िकन्ह भी व्यय म ,े कोई
रकम उनम से काटने का हकदार नह होगा ।]
उसके व्यितकर्म के कारण हुई हािन—यिद बन्धकदार इस धारा ारा अपने पर अिधरोिपत कतर्व्य म से िकसी का पालन
करने म असफल रहे, तो ऐसी असफलता के कारण हुई हािन, यिद कोई हो, उस समय, जब इस अध्याय के अधीन की गई िकसी िडकर्ी के
अनुसरण म लेखा िलया जाए, उसके पर्ित िवकिलत की जा सके गी ।
77. ब्याज के बदले म पर्ािप्तयां—धारा 76 के खंड (ख), (घ), (छ) और (ज) म की कोई भी बात उन दशा म लागू नह होती
िजनम बन्धकदार और बन्धककतार् के बीच यह संिवदा है िक िजतने समय सम्पि बन्धकदार के कब्जे म रहेगी, बंधक-सम्पि से
पर्ािप्तयां मूलधन पर ब्याज के बदले म या ऐसे ब्याज और मूलधन के सुिनिश्चत भाग के बदले म ली जाएंगी ।

1
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 40 ारा अन्त:स्थािपत ।
2
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 40 ारा “बंधक धन पर” शब्द का लोप िकया गया ।
3
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 40 ारा “सकल” शब्द का लोप िकया गया ।
26

पूिवकता
78. पूिवक बंधकदार का मुल्तवी होना—जहां िक िकसी पूिवक बन्धकदार के कपट, िमथ्या व्यपदेशन या घोर उपेक्षा से कोई
अन्य व्यिक्त बन्धक-सम्पि की पर्ितभूित पर धन उधार देने के िलए उत्पर्ेिरत हुआ है, वहां वह पूिवक बन्धकदार उस पािश्चक
बन्धकदार के मुकाबले म मुल्तवी हो जाएगा ।
79. जब िक अिधकतम रकम अिभव्यक्त है, तब अिनिश्चत रकम को पर्ितभूत करने के िलए बन्धक—यिद भिवष्यवत उधार
को, वचनबन्ध के पालन को, या िकसी चालू खाते की बाकी को पर्ितभूत करने के िलए िकए गए िकसी बन्धक म वह अिधकतम रकम
अिभव्यक्त है, जो तद् ारा पर्ितभूत की जानी है, तो उसी सम्पि का कोई पािश्चक बन्धक, यिद वह िकसी पूिवक बन्धक की सूचना
होते हुए िकया गया है, उस अिधकतम से अनिधक उन सब उधार या िवकलन की बाबत, य िप वे पािश्चक बन्धक की सूचना होते
हुए िदए गए या अनुज्ञात िकए गए ह , उसी सम्पि का पािश्चक बन्धक पूिवक बन्धक के मुकाबले म मुल्तवी रहेगा ।
दृष्टांत
क सुल्तानपुर का बन्धक अपने महाजन ख एवं कं पनी के पास 10,000 रुपए तक उनके साथ अपने लेखा की बाकी को
पर्ितभूत करने के िलए करता है । क िफर ग के पास, िजसे ख एवं कं पनी के पास िकए गए बन्धक को सूचना है, सुल्तानपुर का बन्धक
10,000 रुपए को पर्ितभूत करने के िलए करता है, और ख एवं कं पनी को ग उसे दूसरे बन्धक को सूचना देता है । दूसरे बन्धक की तारीख
को ख एवं कम्पनी को शोध्य बाकी 5,000 रुपए से अिधक नह है । ख एवं कम्पनी उसके पश्चात् क को ऐसी रािश देते ह िजससे क के
खाते म िवकलन बाकी 10,000 रुपए की रािश से अिधक हो जाती है । ख एवं कम्पनी, ग के मुकाबले म 10,000 रुपए तक पूिवकता के
हकदार ह ।
80. [आबन्धन का उत्सादन ।]—सम्पि -अन्तरण (संशोधन) अिधिनयम, 1929 (1929 का 20) की धारा 41 ारा िनरिसत ।
कर्मबंधन और अिभदाय
पर्ितभूितय का कर्मबंधन—यिद दो या अिधक सम्पि य का स्वामी उन्ह एक व्यिक्त के पास बन्धक रखता है और िफर
1 [81.

उन सम्पि य म से एक या अिधक को िकसी अन्य व्यिक्त के पास बन्धक रखता है, तो तत्पर्ितकू ल संिवदा के अभाव म पािश्चक
बन्धकदार इस बात का हकदार है िक वह पूिवक बन्धक ऋण को, उसे बंधक न की गई सम्पि या सम्पि य म से वहां तक तुष्ट
करवाए जहां तक उससे या उनसे उसकी तुिष्ट हो सकती है, िकन्तु ऐसे नह िक पूिवक बन्धकदार के या िकसी ऐसे अन्य व्यिक्त के ,
िजसने उन सम्पि य म से िकसी भी सम्पि म कोई िहत पर्ितफलेन अिजत िकया है, अिधकार पर पर्ितकू ल पर्भाव पड़े ।]
82. बंधक ऋण की बाबत अिभदाय— 2 [जहां िक बन्धक के अध्यधीन सम्पि ऐसे दो या अिधक व्यिक्तय की है, िजनके उसम
सुिभन्न और पृथक् स्वािमत्वािधकार ह तत्पर्ितकू ल संिवदा न हो तो ऐसी सम्पि म के िविभन्न अंश या भाग, जो ऐसे व्यिक्तय के
स्वािमत्व म ह, उस बन्धक ारा पर्ितभूत ऋण के िलए अनुपात म अिभदाय करने के दायी ह, और ऐसा हर अंश या भाग िजस अनुपात
म अिभदाय करे गा, उसके अवधारण के पर्योजन के िलए उसका मूल्य ऐसे िकसी अन्य बन्धक या भार की रकम को, िजसके अध्यधीन यह
बन्धक की तारीख पर रहा हो, काट कर वह मूल्य समझा जाएगा जो उस तारीख पर उसका था ।]
जहां िक एक ही स्वामी की दो सम्पि य म से एक सम्पि एक ऋण की पर्ितभूित के िलए बन्धक रखी गई है और िफर दोन
एक अन्य ऋण की पर्ितभूित के िलए बन्धक रखी गई है और पूवर्भावी ऋण पूव क्त सम्पि म से चुकाया गया है वहां तत्पर्ितकू ल संिवदा
न हो तो िजस सम्पि म से वह पूवर् भावी ऋण चुकाया गया है, उसके मूल्य म से उस पूवर्भावी ऋण की रकम काटकर हर एक सम्पि
उ रभावी ऋण म अनुपाती अिभदाय करने की दायी है ।
[पािश्चक] बन्धकदार के दावे के िलए जो सम्पि
3
धारा 81 के अधीन दायी है उसे इस धारा की कोई भी बात लागू
नह होती ।
न्यायालय म िनक्षेप
83. बन्धक म े शोध्य धन का न्यायालय म िनक्षेप करने की शिक्त— 4 [िकसी बन्धक के बारे म देय मूलधन के शोध्य हो जाने
के ] पश्चात् और बन्धक-सम्पि के मोचन के िलए वाद विजत हो जाने से पहले िकसी भी समय बन्धककतार् या ऐसा वाद संिस्थत करने
के िलए हकदार कोई भी अन्य व्यिक्त ऐसे िकसी भी न्यायालय म, िजसम वह ऐसा वाद संिस्थत कर सकता था, उस बन्धक के बारे म
शोध्य अविशष्ट रािश का बन्धकदार के नाम िनक्षेप कर सके गा ।
बन्धककतार् ारा िनिक्षप्त धन पर अिधकार—तदुपिर न्यायालय िनक्षेप की िलिखत सूचना की तामील बन्धकदार पर
कराएगा और बन्धकदार (वादपतर् के सत्यापन के िलए 5 िविध-िविहत पर्कार से सत्यािपत) ऐसी अज पेश करने पर, िजसम बन्धक म े
तब शोध्य रकम और इस तरह िनिक्षप्त धन को ऐसी रकम के पूणर्त: भुगतान म पर्ितगृहीत करने के िलए उसकी अपनी रजामन्दी किथत

1
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 42 ारा धारा 81 के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
2
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 43 ारा पर्थम पैरा के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
3
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 43 ारा “दूसरे ” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
4
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 44 ारा “देय हो जाने के ” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
5
देिखए िसिवल पर्िकर्या संिहता, 1908 (1908 का अिधिनयम सं० 5) अनुसूची 1, आदेश 6, िनयम 15 ।
27

हो और उसी न्यायालय म बन्धक िवलेख 1 [और बन्धक-सम्पि सम्बन्धी सब दस्तावेज को, जो उसके अपने कब्जे या शिक्त म ह ,]
िनिक्षप्त करने पर उस धन के िलए आवेदन कर सके गा और उसे पर्ाप्त कर सके गा तथा ऐसे िनिक्षप्त बन्धक िवलेख 2 [और अन्य सब ऐसी
दस्तावेज] बन्धककतार् या यथापूव क्त अन्य व्यिक्त को पिरद कर दी जाएंगी ।
2
[जहां िक बन्धक-सम्पि बन्धकदार के कब्जे म है, वहां न्यायालय ऐसी िनिक्षप्त रकम का उसे संदाय करने से पहले उसे यह
िनदेश देगा िक वह बन्धककतार् को उसका कब्जा पिरद करे और बन्धककतार् के खचर् पर या तो बन्धक-सम्पि बन्धककतार् को या ऐसे
अन्य व्यिक्त को, िजसे बन्धककतार् िनदेिशत करे, पर्ित-अन्तिरत करे या यह लेखब अिभस्वीकृ ित िक ऐसा कोई अिधकार, जो
बन्धककतार् के उस िहत का अल्पीकरण करता है जो बन्धकदार को अन्तिरत िकया गया है, िनवार्िपत हो गया है, िनष्पािदत करे और
(जहां िक बन्धक रिजस्टर्ीकृ त िलखत ारा िकया गया है) रिजस्टर्ीकृ त कराए ।]
84. ब्याज का बन्द हो जाना—जब िक बन्धककतार् ने या यथापूव क्त अन्य व्यिक्त ने बन्धक पर शोध्य अविशष्ट रकम
िनिवद कर दी है या न्यायालय म धारा 83 के अधीन िनिक्षप्त कर दी है, तब िनिवदा की तारीख से या 3 [िनक्षेप की दशा म, जहां िक
पहले ऐसी रकम की कोई िनिवदा नह की गई है,] ज्य ही बन्धककतार् या पूव क्त अन्य व्यिक्त वे सब बात कर देता है जो उसे
बन्धकदार को न्यायालय से ऐसी रकम िनकालने के योग्य करने के िलए करनी है 4 [और बन्धकदार पर धारा 83 ारा अपेिक्षत सूचना
की तामील हो जाती है, त्य ही मूलधन पर ब्याज चलना बन्द हो जाएगा :
परन्तु जहां िक बन्धककतार् ने ऐसी रकम को उसकी पूवर् िनिवदा िकए िबना िनिक्षप्त कर िदया है और तत्पश्चात् उसका या
उसके िकसी भाग का पर्त्याहरण कर िलया है वहां मूलधन पर ब्याज ऐसे पर्त्याहरण की तारीख से देय होगा ।]
जब िक यह संिवदा वतर्मान हो िक बन्धकदार इस बात का हकदार होगा िक बन्धक धन के संदाय या िनिवदा से पूवर् उसे
युिक्तयुक्त सूचना दी जाए 5 [और उसे ऐसी सूचना, यथािस्थित, िनिवदा या िनक्षेप करने से पहले नह दी गई हो, तो इस धारा की या
धारा 83 की कोई भी बात बन्धकदार को ब्याज के िलए अपने अिधकार से वंिचत करने वाली न समझी जाएगी ।]
पुरोबन्ध, िवकर्य या मोचन के िलए वाद 6
85. [पुरोबन्ध, िवकर्य और मोचन के िलए वाद के पक्षकार ।]—िसिवल पर्िकर्या संिहता, 1908 (1908 का अिधिनयम संख्यांक
5) की धारा 156 तथा अनुसूची 5 ारा िनरिसत ।
6
पुरोबन्ध और िवकर्य
86—90—िसिवल पर्िकर्या संिहता, 1908 (1908 का अिधिनयम संख्यांक 5) की धारा 156 तथा अनुसच
ू ी 5 ारा िनरिसत ।
मोचन
[91. वे व्यिक्त जो मोचन के िलए वाद ला सकगे—बन्धककतार् के अितिरक्त िनम्निलिखत व्यिक्तय म से कोई भी बन्धक-
7

सम्पि का मोचन करा सके गा या उसके मोचन के िलए वाद ला सके गा, अथार्त् :—
(क) कोई व्यिक्त (उस िहत के बन्धकदार से िभन्न िजसका मोचन कराना ईिप्सत है) िजसका उस बन्धक सम्पि या
उसके मोचन अिधकार म कोई िहत या पर कोई भार है,
(ख) बन्धक ऋण या उसके िकसी भाग का संदाय करने के िलए कोई भी पर्ितभू, अथवा
(ग) बन्धककतार् को कोई लेनदार, िजसने उसकी सम्पदा के पर्शासन के िलए वाद म उस बन्धक-सम्पि के िवकर्य के
िलए िडकर्ी अिभपर्ाप्त की हो ।]
8
[92. पर्त्यासन—धारा 91 म िनिदष्ट व्यिक्तय म से (बन्धककतार् से िभन्न) कोई भी, और कोई भी सहबन्धककतार्, उस
सम्पि का, जो बन्धक के अध्यधीन है, मोचन कराने पर वहां तक, जहां तक िक ऐसी सम्पि के मोचन, पुरोबन्ध या िवकर्य का सम्बन्ध
है, वे ही अिधकार रखेगा िजन्ह बन्धककतार् के या िकसी अन्य बन्धकदार के िवरु वह बन्धकदार रखता हो िजसके बन्धक का वह मोचन
कराता ।
इस धारा ारा पर्द अिधकार पर्त्यासन-अिधकार कहलाता है तथा जो व्यिक्त उसे अिजत करता है, वह उस बन्धकदार के
अिधकार म पर्त्यासीन हुआ कहलाता है िजसके बन्धक का वह मोचन कराता है ।

1
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 44 ारा “ यिद उस समय उसके कब्जे या शिक्त म हो” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
2
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 44 ारा अन्त:स्थािपत ।
3
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 45 ारा अन्त:स्थािपत ।
4
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 45 ारा “यथािस्थित” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
5
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 45 ारा अन्त:स्थािपत ।
6
िनरिसत िकए गए उपबंध िजस रूप म पुन:अिधिनयिमत िकए गए ह उनके िलए 1908 का अिधिनयम सं० 5 अनुसूची 1, आदेश 34 देिखए ।
7
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 46 ारा धारा 91 के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
8
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 47 ारा मूल धाराएं 92 से 94 तक के स्थान पर अन्त:स्थािपत की गई िजन्ह 1908 के अिधिनयम सं० 5 की धारा 156 और
अनुसूची 5 ारा िनरिसत कर िदया गया था ।
28

वह व्यिक्त, िजसने बन्धककतार् को वह धन उधार िदया है, िजससे बन्धक का मोचन हुआ है, उस बन्धकदार के अिधकार म
पर्त्यासीन हो जाएगा िजसके बन्धक का मोचन कराया गया है यिद बन्धककतार् ने रिजस्टर्ीकृ त िलखत ारा यह करार िकया हो िक ऐसा
व्यिक्त ऐसे पर्त्यासीन हो जाएगा ।
इस धारा की कोई भी बात िकसी भी व्यिक्त को पर्त्यासन का अिधकार पर्दान करने वाली न समझी जाएगी, जब तक िक उस
बन्धक का, िजसके बारे म इस अिधकार का दावा िकया जाता है मोचन पूणर्त: न करा िलया गया हो ।
93. आबन्धन का पर्ितषेध—कोई भी बन्धकदार, जो पूिवक बन्धक को मध्यवत बन्धक की सूचना होते हुए या न होते हुए
चुका देता है, अपनी मूल पर्ितभूित के िवषय म कोई पूिवकता तद् ारा अिजत नह करे गा, और धारा 79 ारा उपिबन्धत दशा के
िसवाय कोई भी बन्धकदार, जो मध्यवत बन्धक की सूचना होते हुए या न होते हुए बन्धककतार् को पािश्चक उधार दे, ऐसे पािश्चक
उधार के िलए अपनी पर्ितभूित के बारे म तद् ारा कोई पूिवकता अिजत नह करे गा ।]
94. मध्यवत बन्धकदार के अिधकार—जहां िक सम्पि आनुकर्िमक ऋण के िलए आनुकर्िमक बन्धकदार के पास बन्धक
रखी जाती है वहां मध्यवत बन्धकदार के अपने से पीछे वाले बन्धकदार के िवरु वे ही अिधकार ह गे जो उसे बन्धककतार् के
िवरु ह ।]
[95. मोचन कराने वाले सहबन्धककतार् का व्यय पाने का अिधकार—जहां िक कई बन्धककतार् म से एक बन्धककतार्
1

बन्धक-सम्पि का मोचन करा लेता है, वहां अपने सहबन्धककतार् के िवरु धारा 92 के अधीन पर्त्यासन का अपना अिधकार पर्वृ
कराने म वह ऐसे मोचन म उिचत तौर पर िकए गए व्यय का ऐसा आनुपाितक भाग उनसे वसूलीय बन्धक धन म जोड़ने का हकदार
होगा जैसा उस सम्पि म उनके अपने-अपने अंश म े हुआ माना जा सकता है ।
96. हक िवलेख के िनक्षेप ारा बन्धक—एतिस्मन्पूवर् अन्तिवष्ट जो उपबन्ध सादा बन्धक को लागू होते ह, वे हक िवलेख के
िनक्षेप ारा बन्धक को यावत्शक्य लागू ह गे ।
97. [आगम का लागू होना ।]—िसिवल पर्िकर्या संिहता, 1908 (1908 का अिधिनयम संख्यांक 5) की धारा 156 तथा
2

अनुसच
ू ी 5 ारा िनरिसत ।
िवलक्षण बंधक
98. िवलक्षण बंधक के पक्षकार के अिधकार और दाियत्व— 3 [िवलक्षण बन्धक] की दशा म पक्षकार के अिधकार और
दाियत्व बन्धक िवलेख म यथासािक्षत उनकी संिवदा ारा, तथा ऐसी संिवदा के िवस्तार के बाहर स्थानीय पर्था ारा अवधािरत ह गे ।
बंधिकत संपि की कु क 4

99. [बंधिकत सम्पि की कु क ।]—िसिवल पर्िकर्या संिहता, 1908 (1908 का अिधिनयम संख्यांक 5) की धारा 156 तथा
अनुसच
ू ी 5 ारा िनरिसत ।
भार
100. भार—जहां िक एक व्यिक्त की स्थावर सम्पि पक्षकार के कायर् ारा या िविध की िकर्या ारा िकसी दूसरे व्यिक्त को
धन के संदाय के िलए पर्ितभूित बन जाती है और वह संव्यवहार बन्धक की कोिट म नह आता, वहां यह कहा जाता है िक
पश्चात्-किथत व्यिक्त का उस सम्पि पर भार है और एतिस्मन्पूवर् अन्तिवष्ट वे सब उपबन्ध, 5 [जो सादा बन्धक को लागू होते ह, ऐसे
भार को यावत्शक्य लागू ह गे ।]
न्यास के िनष्पादन म उिचत रूप से िकए गए व्यय के िलए जो भार न्यासधारी का न्यस्त सम्पि पर होता है उसे इस धारा
की कोई भी बात लागू नह है 6 [और िकसी तत्समय-पर्वृ -िविध ारा अन्यथा अिभव्यक्तत: उपबिन्धत को छोड़कर कोई भी भार उस
सम्पि के िवरु पर्वितत न िकया जाएगा, जो ऐसे व्यिक्त के हस्तगत हो िजसे ऐसी सम्पि पर्ितफलाथर् और उस भार की सूचना के
िबना अन्तिरत की गई है ।]
[101. पािश्चक िवल्लंगम के िव मान होने पर िवलयन न होगा—स्थावर सम्पि का कोई भी बन्धकदार या वैसी सम्पि
7

पर भार रखने वाला कोई भी व्यिक्त या ऐसे बन्धकदार या भारक का कोई अन्तिरती, यथािस्थित, बन्धककतार् या स्वामी के उस
सम्पि म के अिधकार का कर्य या अन्यथा अजर्न, जहां तक िक उसके अपने और उसी सम्पि के िकसी पािश्चक बन्धकदार या िकसी
पािश्चक भारक के बीच का सम्बन्ध है, बन्धक या भार का तद् ारा िवलयन कािरत िकए िबना कर सके गा और ऐसा कोई भी पािश्चक

1
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 48 ारा मूल धारा 95 के स्थान पर पर्ितस्थािपत। मूल धारा 96 को 1908 के अिधिनयम सं० 5 की धारा 156 और अनुसूची 5
ारा िनरिसत कर िदया गया था ।
2
िनरिसत िकए गए पुन:अिधिनयिमत उपबंध के िलए देिखए—1908 का अिधिनयम सं० 5, अनुसूची 1, आदेश 34, िनयम 12 और िनयम 13 ।
3
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 49 ारा कितपय शब्द के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
4
िनरिसत िकए गए पुन:अिधिनयिमत उपबंध के िलए देिखए—1908 का अिधिनयम सं० 5, अनुसूची 1, आदेश 34, िनयम 14 ।
5
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 50 ारा कितपय शब्द के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
6
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 50 ारा जोड़ा गया ।
7
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 51 ारा धारा 101 के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
29

बन्धकदार या भारक पूिवक बन्धक या भार का मोचन कराए िबना या बन्धक या भार के अध्यधीन बने रहने से अन्यथा पुरोबन्ध कराने
या ऐसी सम्पि का िवकर्य कराने का हकदार न होगा ।]
सूचना और िनिवदा
102. अिभकतार् पर तामील या उसकी िनिवदा—जहां िक वह व्यिक्त, िजस पर या िजसको इस अध्याय के अधीन िकसी
सूचना की तामील या िनिवदा की जानी है, उस िजले म िनवास नह करता, िजसम बन्धक-सम्पि या उसका कु छ भाग िस्थत है, वहां
ऐसे व्यिक्त से आम-मुख्तारनामा पर्ाप्त या ऐसी तामील या िनिवदा को पर्ितगृहीत करने के िलए सम्यक् रूप से पर्ािधकृ त अिभकतार् पर
तामील या उसको िनिवदा पयार्प्त समझी जाएगी ।
[जहां िक ऐसा कोई व्यिक्त या अिभकतार् िजस पर ऐसी सूचना की तामील होनी चािहए, नह िमल सकता या सूचना की
1

तामील करने के िलए अपेिक्षत व्यिक्त को ज्ञात नह है] वहां पश्चात्किथत व्यिक्त ऐसे िकसी भी न्यायालय से, िजसम उस बन्धक संपि
के मोचन के िलए वाद लाया जा सकता है, आवेदन कर सके गा और ऐसा न्यायालय िनिदष्ट करे गा िक िकस पर्कार से ऐसी सूचना की
तामील होगी और ऐसे िनदेश के अनुवतर्न म तामील की गई सूचना पयार्प्त समझी जाएगी :
[परन्तु यिद वह सूचना ऐसी सूचना है जो िकसी िनक्षेप की दशा म धारा 83 ारा अपेिक्षत है तो उसके बारे म आवेदन उस
2

न्यायालय म िकया जाएगा िजसम वह िनक्षेप िकया गया है ।]


[जहां िक कोई भी व्यिक्त या अिभकतार् िजसे ऐसी िनिवदा की जानी चािहए, नह िमल सकता या िनिवदा करने
3

के िलए इच्छु क व्यिक्त को ज्ञात नह है] वहां पश्चात्किथत व्यिक्त 4 [िकसी भी ऐसे न्यायालय म, िजसम उस बन्धक-सम्पि के मोचन
के िलए वाद लाया जा सकता है,] वह रकम, िजसकी िनिवदा की जानी ईिप्सत थी, िनिक्षप्त कर सके गा, और ऐसा िनक्षेप ऐसा रकम की
िनिवदा का पर्भाव रखेगा ।
103. संिवदा करने के िलए अक्षम व्यिक्त को या उस ारा सूचना इत्यािद—इस अध्याय के उपबंध के अधीन जहां िक संिवदा
करने के िलए अक्षम िकसी व्यिक्त 5 [पर या ारा] िकसी सूचना की तामील होनी या कराई जानी है, या ऐसे व्यिक्त ारा कोई िनिवदा
या िनक्षेप िकया जाना या पर्ितगृहीत िकया जाना या न्यायालय से िनकाला जाना है वहां ऐसे व्यिक्त का सम्पि के वैध रक्षक पर या के
ारा ऐसी सूचना की तामील हो सके गी या कराई जा सके गी या के ारा िनिवदा या िनक्षप िकया जा सके गा या पर्ितगृहीत हो सके गा
या िनकाला जा सके गा, िकन्तु जहां िक ऐसा कोई रक्षक नह है और ऐसे व्यिक्त के िहत म यह अपेिक्षत या वाछंनीय है िक इस अध्याय
के उपबन्ध के अधीन सूचना की तामील होनी चािहए या िनिवदा या िनक्षेप िकया जाना चािहए वहां िकसी भी न्यायालय से, िजसम
बन्धकमोचन के िलए वाद लाया जा सकता हो, ऐसी सूचना की तामील करने या पर्ाप्त करने, या ऐसी िनिवदा करने या पर्ितगृहीत करने
या ऐसे िनक्षेप को न्यायालय म करने या से िनकालने के पर्योजन से और उन सब पािरणािमक काय को करने के िलए जो यिद ऐसा
व्यिक्त संिवदा करने के िलए सक्षम होता तो उसके ारा िकए जा सकते या िकए जाने चािहए थे, वादाथर् संरक्षक िनयुक्त करने के िलए
आवेदन िकया जा सके गा और 6 [िसिवल पर्िकर्या संिहता 1908 (1908 का 5) की पर्थम अनुसूची के आदेश 32] के उपबंध यावत्शक्य ऐसे
आवेदन और उसके पक्षकार और उसके अधीन िनयुक्त संरक्षक को लागू ह गे ।
104. िनयम बनाने की शिक्त—उच्च न्यायालय स्वयं अपने यहां और अपने अधीक्षणाधीन न्यायालय म इस अध्याय म
अंतिवष्ट उपबन्ध के कायार्न्वयन के िलए समय-समय पर ऐसे िनयम बना सके गा जो इस अिधिनयम से संगत ह ।
अध्याय 5

स्थावर संपि के प के िवषय म


105. प े की पिरभाषा—स्थावर सम्पि का प ा ऐसी संपि का उपभोग करने के अिधकार का ऐसा अन्तरण है, जो एक
अिभव्यक्त या िवविक्षत समय के िलए या शाश्वत काल के िलए िकसी कीमत के , जो दी गई हो या िजसे देने का वचन िदया गया हो,
अथवा धन, या फसल के अंश या सेवा या िकसी मूल्यवान वस्तु के , जो कालावधीय रूप से या िविनिदष्ट अवसर पर अन्तिरती ारा,
जो उस अन्तरण को ऐसे िनबंधन पर पर्ितगृहीत करता है, अन्तरक को की या दी जानी है, पर्ितफल के रूप म िकया गया हो ।
प ाकतार्, प ेदार, पर्ीिमयम और भाटक की पिरभाषा—वह अन्तरक प ाकतार् कहलाता है, वह अन्तिरती प ेदार कहलाता है,
वह कीमत पर्ीिमयम कहलाती है और इस पर्कार देय या करणीय धन, अंश, सेवा या अन्य वस्तु भाटक कहलाती है ।
[106. िलिखत संिवदा या स्थानीय पर्था के अभाव म कु ल प की कालाविध—(1) तत्पर्ितकू ल संिवदा या स्थानीय िविध या
7

पर्था न हो तो कृ िष या िविनमार्ण के पर्योजन के िलए स्थावर संपि का प ा ऐसा वषार्नव


ु ष प ा समझा जाएगा जो या तो प ाकतार्

1
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 52 ारा कितपय शब्द के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
2
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 51 ारा अन्त:स्थािपत ।
3
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 52 ारा कितपय शब्द के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
4
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 52 ारा “जैसा िक ऊपर अन्त म कहा गया है िकसी ऐसे न्यायालय म” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
5
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 53 ारा अन्त:स्थािपत ।
6
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 53 ारा “िसिवल पर्िकर्या संिहता के अध्याय 31” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
7
2003 के अिधिनयम सं० 3 की धारा 2 ारा पर्ितस्थािपत ।
30

या प ेदार ारा छह मास की सूचना ारा पयर्वसेय है; और िकसी अन्य पर्योजन के िलए स्थावर संपि का प ा मासानुमासी प ा
समझा जाएगा जो या तो प ाकतार् या प ेदार ारा पंदर्ह िदन की सूचना ारा पयर्वसेय है ।
(2) तत्समय पर्वृ िकसी अन्य िविध म िकसी बात के होते हुए भी, उपधारा (1) म विणत कालाविध सूचना की पर्ािप्त की
तारीख से पर्ारं भ होगी ।
(3) जहां कोई वाद या कायर्वाही उपधारा (1) म विणत कालाविध के अवसान के पश्चात् फाइल की गई है, वहां उस उपधारा
के अधीन कोई सूचना के वल इस कारण अिविधमान्य नह समझी जाएगी िक उसम विणत कालाविध उक्त उपधारा म िविनिदष्ट
कालाविध से कम है ।
(4) उपधारा (1) के अधीन पर्त्येक सूचना लेखब और उसे देने वाले व्यिक्त ारा या उसकी ओर से हस्ताक्षिरत होगी और
उस पक्षकार को िजसे उसके ारा आब करना आशियत है या तो डाक ारा भेजी जाएगी या स्वयं उस पक्षकार को या उसके
कु टु िम्बय या नौकर म से िकसी एक को, उसके िनवास पर िनिवद या पिरद की जाएगी, या (यिद ऐसी िनिवदा या पिरदान साध्य
नह है तो) संपि के िकसी सहजदृश्य भाग पर लगा दी जाएगी ।]
107. प े कै से िकए जाते ह—स्थावर सम्पि का वपार्नुवष या एक वषर् से अिधक िकसी अविध का या वािषक भाटक
आरिक्षत करने वाला प ा के वल रिजस्टर्ीकृ त िलखत ारा िकया जा सके गा ।

1
[स्थावर संपि के अन्य सब प े या तो रिजस्टर्ीकृ त िलखत ारा या कब्जे के पिरदान सिहत मौिखक करार ारा िकए गए
सकगे ।]
[जहां िक स्थावर संपि का प ा रिजस्टर्ीकृ त िलखत ारा िकया गया है वहां ऐसी िलखत या जहां िक एक िलखत से अिधक
2

िलखत ह वहां हर एक िलखत प ाकतार् और प ेदार दोन ारा िनष्पािदत की जाएंगी :]


परन्तु राज्य सरकार 3 *** शासकीय राजपतर् म अिधसूचना ारा समय-समय पर िनिदष्ट कर सके गी िक वषार्नुवष या एक
वषर् से अिधक अविध के या वािषक भाटक आरिक्षत करने वाले प को छोड़कर स्थावर संपि के प े या ऐसे प का कोई वगर्
अरिजस्टर्ीकृ त िलखत ारा या कब्जे के पिरदान िबना मौिखक करार ारा िकया जा सके गा ।
108. प ाकतार् और प ेदार के अिधकार और दाियत्व—तत्पर्ितकू ल संिवदा या स्थानीय पर्था न हो तो स्थावर सम्पि का
प ाकतार् और प ेदार एक दूसरे के िवरु कर्मश: वे अिधकार रखते ह और उन दाियत्व के अध्यधीन होते ह जो िनम्निलिखत िनयम म
या उनम से ऐस म, जो उस प ाकृ त सम्पि को लागू ह , विणत ह—
(क) प ाकतार् के अिधकार और दाियत्व
(क) सम्पि के आशियत उपयोग के बारे की सम्पि म की िकसी ताित्त्वक तर्ुिट को, िजसे प ाकतार् जानता है और प ेदार नह
जानता और मामूली सावधानी बरत कर भी मामूल नह कर सकता, प ेदार को पर्कट करने के िलए प ाकतार् आब है;
(ख) प कतार् प ेदार की पर्ाथर्ना पर उसे सम्पि पर कब्जा देने के िलए आब है;
(ग) यह समझा जाएगा िक प ेदार से प ाकतार् यह संिवदा करता है िक यिद प ादार प े म आरिक्षत भाटक देता रहे और
प ेदार पर आब कर संिवदा का पालन करता रहे, तो उस प े ारा पिरसीिमत समय के दौरान वह सम्पि को िनिवघ्न धारण कर
सके गा ।
ऐसी संिवदा का फायदा प ेदार के उस िहत से उपाब होगा और उसी के साथ जाएगा, जो उसका प ेदार के नाते हो, और
ऐसे हर व्यिक्त ारा पर्वितत कराया जा सके गा िजसम वह पूणर् िहत या उसका कोई भाग समय-समय पर िनिहत हो ।
(ख) प ेदार के अिधकार और दाियत्व
(घ) यिद प े के चालू रहने के दौरान सम्पि म कोई अनुवृि होती है तो ऐसी अनुवृि (जलोढ़ सम्बधी तत्समय पर्वृ िविध
के अध्यधीन) प े म समािवष्ट समझी जाएंगी;
(ङ) यिद अिग्न, तुफान या बाढ़ से अथवा िकसी सेना या भीड़ ारा की गई िहसा से अथवा अन्य अपर्ितरोध्य बल से सम्पि
का कोई ताित्त्वक भाग पूणर्त: नष्ट हो जाए या उन पर्योजन के िलए िजसके िलए वह प े पर दी गई थी, सारवान् रूप म और स्थायी
तौर पर अयोग्य हो जाए तो प ा, प ेदार के िवकल्प पर, शून्य होगा :
परन्तु यिद क्षित प ेदार के सदोष कायर् या व्यितकर्म के कारण हो तो वह इस उपबन्ध का फायदा उठाने का हकदार नह
होगा;

1
1904 के अिधिनयम सं० 6 की धारा 5 ारा दूसरे पैरा के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
2
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 55 ारा अंत:स्थािपत ।
3
िविध अनुकूलन आदेश, 1937 ारा “सपिरषद् गवनर्र जनरल की पूवर् मंजूरी से” शब्द का लोप िकया गया ।
31

(च) यिद प ाकतार् सूचना के पश्चात् युिक्तयुक्त समय के अन्दर सम्पि की ऐसी मरम्मत करना उपेिक्षत करे , िजसे करने के
िलए वह आब है, तो प ेदार स्वयं उसे करा सके गा और ऐसी मरम्मत का व्यय भाटक म से ब्याज सिहत काट सके गा या प ाकतार् से
अन्यथा वसूल कर सके गा;
(छ) यिद प ाकतार् ऐसा संदाय करने म उपेक्षा करे , िजसे करने के िलए वह आब है, और जो यिद उस ारा न िकया जाए तो
प ेदार से या उस सम्पि से वसूलीय है, तो प ेदार ऐसा संदाय स्वयं कर सके गा और उसे उस भाटक म से ब्याज सिहत काट सके गा या
प ाकतार् से अन्यथा वसूल कर सके गा;
(ज) प ेदार 1 [प े का पयर्वसान िकए जाने के पश्चात् भी] िकसी भी समय, 2 [जब तक प े की सम्पि का उसका कब्जा है,
िकन्तु तत्पश्चात् नह ,] उन सब वस्तु को जो उसने भूब की ह हटा सके गा : परन्तु यह तब जबिक वह सम्पि को उसी अवस्था म
छोड़ देता है िजसम उसने उसे पर्ाप्त िकया था;
(झ) जबिक अिनिश्चत कालाविध का प ा प ेदार के व्यितकर्म के िसवाय िकसी अन्य करण ारा पयर्विसत कर िदया जाता है
तब वह या उसका िविधक पर्ितिनिध प ेदार ारा रोिपत या बोई गई और उस सम्पि पर उस समय, जब प े का पयर्वसान िकया
जाता है, उगी हुई कु ल फसल का और उन्ह एकितर्त करने और ले जाने के िलए अबाध रूप से आने-जाने का हकदार होगा;
(ञ) प ेदार सम्पि म के अपने पूणर् िहत को या उसके भाग को आत्यिन्तक रूप से अथवा बन्धक या उपप े ारा अन्तिरत कर
सके गा, और ऐसे िहत या भाग का अन्तिरती उसे पुन: अन्तिरत कर सके गा । प ेदार का प े से संलग्न दाियत्व से िकसी के अध्यधीन
रहना के वल ऐसे अन्तरण के कारण पिरिवरत न हो जाएगा ;
इस खंड की कोई भी बात अिधभोग का अनन्तरणीय अिधकार रखने वाले िकसी अिभधारी को उस सम्पदा के फामर्र को, िजस
सम्पदा के िलए राजस्व देने म व्यितकर्म हुआ है, या िकसी पर्ितपाल्य अिधकरण के पर्बन्ध के अधीन सम्पदा के प ेदार को ऐसे अिभधारी,
फामर्र या प ेदार के नाते अपने िहत का समनुदश े न करने के िलए पर्ािधकृ त करने वाली नह समझी जाएगी;
(ट) प ेदार उस िहत की िजसे प ेदार लेने वाला है, पर्कृ ित या िवस्तार के बारे म ऐसा तथ्य, िजसे प ेदार जानता है और
प ाकतार् नह जानता और िजससे ऐसे िहत के मूल्य म ताित्त्वक वृि होती है, प ाकतार् को पर्कट करने के िलए आब है;
(ठ) प ेदार उिचत समय और स्थान पर प ाकतार् या उसके तिन्निम अिभकतार् को पर्ीिमयम या भाटक देने या िनिवद करने
के िलए आब है;
(ड) प ेदार सम्पि म युिक्तयुक्त िघसाई या अपर्ितरोध्य बल ारा हुए पिरवतर्न के िसवाय सम्पि को वैसी ही अच्छी
हालत म, जैसी म वह उस समय थी जब उस पर उसका कब्जा कराया गया था, रखने के िलए और प े के पयर्वसान पर पर्त्यावतर्न करने
के िलए और प ाकतार् और उसके अिभकतार् को प े की अविध के दौरान सब युिक्तयुक्त समय पर सम्पि म पर्वेश करने और उसकी
हालत का िनरीक्षण करने देने और उसकी हालत म िकसी खराबी की सूचना देने या सूचना वहां छोड़ने की अनुज्ञा देने के िलए आब है,
तथा जबिक ऐसी खराबी प ेदार या उसके सेवक या अिभकतार् के िकसी कायर् या व्यितकर्म ारा हुई हो तब वह ऐसी सूचना के िदए
जाने या छोड़े जाने से तीन मास के अन्दर उसे ठीक करने के िलए आब है;
(ढ) यिद सम्पि या उसके िकसी भाग के पर्त्यु रण के िलए िकसी कायर्वाही की या ऐसी सम्पि से संयुक्त प ाकतार् के
अिधकार पर िकसी अिधकर्मण की या उनम िकसी हस्तक्षेप की जानकारी प े ार को हो जाए, तो वह प ाकतार् को उसकी सूचना
युिक्तयुक्त तत्परता से देने के िलए आब है;
(ण) प ेदार सम्पि का और उसकी पैदावार का (यिद कोई हो) ऐसे उपयोग कर सके गा जैसे मामूली पर्ज्ञावाला व्यिक्त करता
है, यिद वह इसकी अपनी होती िकन्तु सम्पि का उस पर्योजन से िभन्न, िजसके िलए वह प े दी गई थी, उपयोग न तो स्वयं करे गा, न
िकसी अन्य को करने देगा, न काष्ठ काटेगा, 3 [न बेचेगा], न 3[प ाकतार् के ] िनमार्ण को िगराएगा, न नुकसान पहुंचाएगा, न ऐसी खान
या खदान को खुदवाएगा, जो प ा देने के समय खुली नह थी, न कोई ऐसा अन्य कायर् करे गा जो उस सम्पि के िलए नाशक हो या
स्थायी रूप से क्षितकर हो;
(त) वह प ाकतार् की सम्मित के िबना उस सम्पि पर कोई स्थायी संरचना कृ िष-पर्योजन से िभन्न िकसी पर्योजन के िलए
खड़ी न करे गा;
(थ) प े के पयर्वसान पर प ेदार प ाकतार् को सम्पि का कब्जा देने के िलए आब है ।
109. प ाकतार् के अंतिरती के अिधकार—यिद प ाकतार् प े पर दी हुई सम्पि को या उसके िकसी भाग को या उसम के अपने
िहत के िकसी भाग को अन्तिरत कर देता है तो अन्तिरती तत्पर्ितकू ल संिवदा के अभाव म उस अन्तिरत सम्पि या भाग के बारे म
प ाकतार् के वे सब अिधकार तब तक रखेगा और यिद प ेदार ऐसा िनवार्चन करे तो प ाकतार् के सब दाियत्य के अध्यधीन तब तक
रहेगा, जब तक वह उसका स्वामी रहता है, िकन्तु प ाकतार् का प े ारा अपने पर अिधरोिपत दाियत्व म से िकसी के अध्यधीन रहना

1
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 56 ारा अंत:स्थािपत ।
2
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 56 ारा “प े की अविध जारी रहने के दौरान” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
3
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 56 ारा अंत:स्थािपत ।
32

के वल ऐसे अन्तरण के कारण ही पिरिवरत न हो जाएगा, जब तक िक प ेदार अन्तिरती को अपने पर्ितदायी व्यिक्त मानने का िनवार्चन
न कर ले :
परन्तु अन्तिरती अन्तरण से पहले के भाटक के शोध्य बकाय का हकदार नह है, और यिद प ेदार यह िवश्वास करने का
कारण न रखते हुए िक ऐसा अन्तरण िकया गया है, प ाकतार् को भाटक दे देता है, तो प ेदार अन्तिरती को ऐसा भाटक पुन: देने का
दायी न होगा।
प ाकतार्, अन्तिरती और प ेदार यह अवधािरत कर सकगे िक प े ारा आरिक्षत पर्ीिमयम या भाटक का कौन सा अनुपात इस
पर्कार अन्तिरत भाटक के िलए देय है और उनम असहमित होने की दशा म ऐसा अवधारण ऐसे िकसी भी न्यायालय ारा िकया जा
सके गा जो प े पर दी गई सम्पि के कब्जे के िलए वाद को गर्हण करने की अिधकािरता रखता हो ।
110. उस िदन का अपवजर्न िजससे अविध का पर्ारम्भ होता है—जहां िक िकसी स्थावर सम्पि के प े ारा पिरसीिमत समय
का िकसी िविशष्ट िदन से पर्ारम्भ होना अिभव्यक्त है वहां उस समय की संगणना करने म वह िदन अपविजत कर िदया जाएगा । जहां
िक पर्ारम्भ होने के िलए कोई िदन नािमत न हो वहां इस पर्कार पिरसीिमत समय प ा करने के िदन से पर्ारम्भ होता है ।
वषर् के प े की कालाविध—जहां िक इस पर्कार पिरसीिमत समय एक वषर् या कई वष का है वहां तत्पर्ितकू ल अिभव्यक्त
करार न हो तो प ा उस िदन की आिब्दकी के पूरे िदन चालू रहेगा िजस िदन से ऐसा समय पर्ारम्भ होता है ।
प े का पयर्वयान करने के िलए िवकल्प—जहां िक यह अिभव्यक्त है िक इस पर्कार पिरसीिमत समय अपने अवसान से पूवर्
पयर्वसेय है और प े म इसका वणर्न नह है िक िकसके िवकल्प पर वह इस पर्कार पयर्वसेय है, वहां ऐसा िवकल्प प ेदार को पर्ाप्त होगा,
प ाकतार् को नह ।
111. प े का पयर्वसान—स्थावर सम्पि के प े का पयर्वसान हो जाता है—
(क) तद् ारा पिरसीिमत समय के बीत जाने से;
(ख) जहां िक ऐसा समय िकसी घटना के घिटत होने की शतर् पर पिरसीिमत है, वहां ऐसी घटना के घिटत होने से;
(ग) जहां िक उक्त सम्पि म प ाकतार् के िहत का पयर्वसान िकसी घटना के घिटत होने पर होता है या उसका
व्ययन करने की उसकी शिक्त का िवस्तार िकसी घटना के घिटत होने तक ही है, वहां ऐसी घटना के घिटत होने से;
(घ) उस दशा म, जबिक उस सम्पूणर् सम्पि के प ेदार और प ाकतार् के िहत एक ही व्यिक्त म एक ही समय एक
ही अिधकार के नाते िनिहत हो जाते ह;
(ङ) अिभव्यक्त अभ्यपर्ण ारा, अथार्त् उस दशा म जबिक प ेदार प े के अधीन अपना िहत पारस्पिरक करार ारा
प ाकतार् के पर्ित छोड़ देता है;
(च) िवविक्षत अभ्यपर्ण ारा;
(छ) समपहरण ारा; अथार्त् (1) उस दशा म जब िक प ेदार िकसी ऐसी अिभव्यक्त शतर् को भंग करता है, िजससे
यह उपबंिधत है िक उसका भंग होने पर प ाकतार् पुन: पर्वेश कर सके गा; 1 *** या (2) उस दशा म, जबिक प ेदार िकसी अन्य
व्यिक्त का हक खड़ा करके या यह दावा करके िक वह स्वयं हकदार है अपनी प ेदारी हैिसयत का त्याग करता है, 2 [या (3)
जब िक प ेदार िदवािलया न्यायिनण त हो जाता है और प ा यह उपबंध करता है िक प ाकतार् ऐसी घटना के घिटत होने पर
पुन: पर्वेश कर सके गा,] और जब िक 3 [उन दशा म से िकसी म] प ाकतार् या उसका अन्तिरती 4 [प ेदार को प े का
पयर्वसान करने के अपने आशय की िलिखत सूचना देता है,]
(ज) प े का पयर्वसान करने या प े पर दी गई सम्पि को छोड़ देने या छोड़ देने के आशय की एक पक्षकार ारा
दूसरे पक्षकार को सम्यक् रूप से दी गई सूचना के अवसान पर ।
खंड च का दृष्टांत
प ाकृ त सम्पि का नया प ा एक प ेदार अपने प ाकतार् से वतर्मान प े के चालू रहने के दौरान पर्भावी होने के िलए
पर्ितगृहीत करता है । यह पूव क्त प े का िवविक्षत अभ्यपर्ण है और उसे प े का तदुपिर पयर्वसान हो जाता है ।
112. समपहरण का अिधत्यजन—धारा 111 के खंड (छ) के अधीन हुआ समपहरण उस भाटक के पर्ितगर्हण ारा, जो
समपहरण की ितिथ से शोध्य हो गया है, या ऐसे भाटक के िलए करस्थम् ारा या प ाकतार् की तरफ से िकसी ऐसे अन्य कायर् ारा,
िजससे प े को चालू मानने का उसका आशय दिशत होता हो, अिधत्यक्त हो जाता है :
परन्तु यह तब जब िक प ाकतार् को यह जानकारी हो िक समपहरण उपगत हो गया है :

1
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 57 ारा “या प ा शून्य हो जाएगा” शब्द का लोप िकया गया ।
2
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 57 ारा अन्त:स्थािपत ।
3
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 57 ारा “दोन दशा म से िकसी म” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
4
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 57 ारा “कोई ऐसा कायर् करता है जो यह दशार्ता है” के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
33

परन्तु यह और भी िक जहां प ेदार को समपहरण के आधार पर बेदखल करने के िलए वाद संिस्थत िकए जाने के पश्चात्
भाटक पर्ितगृहीत कर िलया जाता है वहां ऐसा पर्ितगर्हण अिधत्यजन नह है ।
113. छोड़ देने की सूचना का अिधत्यजन—धारा 111 के खंड (ज) के अधीन दी गई सूचना िजस व्यिक्त को दी गई है, उस
व्यिक्त की अिभव्यक्त या िवविक्षत सम्मित से वह उसे देने वाले व्यिक्त के िकसी ऐसे कायर् ारा, िजससे प े को चालू मानने का उसका
आशय दिशत होता है, अिधत्यक्त हो जाती है ।
दृष्टांत
(क) प ाकतार् क प ेदार ख को प े पर दी गई सम्पि को छोड़ देने के िलए सूचना देता है । सूचना का अवसान हो जाता है ।
उस भाटक की िनिवदा, जो सूचना के अवसान से सम्पि म े शोध्य हुआ हो ख करता है और क उसे पर्ितगृहीत कर लेता है । सूचना
अिधत्यक्त हो जाती है ।
(ख) प ाकतार् क प ेदार ख को प े दी गई सम्पि को छोड़ देने के िलए सूचना देता है । सूचना का अवसान हो जाता है और
ख अपना कब्जा कायम रखता है । क छोड़ देने की दूसरी सूचना ख को अपने प ेदार के नाते देता है पहली सूचना अिधत्यक्त
हो जाती है ।
114. भाटक का संदाय न करने के कारण समपहरण से मुिक्त—जहां िक स्थावर सम्पि के प े का पयर्वसान भाटक न देने के
समपहरण ारा हो गया है और प ाकतार् प ेदार को बेदखल करने के िलए वाद लाता है वहां यिद वाद की सुनवाई म प ेदार प ाकतार्
को बकाया भाटक उस पर ब्याज सिहत और वाद के उसके पूरे खच दे देता है या िनिवद करता है या ऐसी पर्ितभूित दे देता है, िजससे
न्यायालय ऐसा संदाय पन्दर्ह िदन म िकए जाने के िलए पयार्प्त समझता है, तो न्यायालय बेदखली के िलए िडकर्ी देने के बदले प ेदार को
समपहरण से मुिक्त देने का आदेश दे सके गा और तदुपिर प ेदार प ाकृ त सम्पि को ऐसे धािरत करे गा मानो समपहरण हुआ ही नह
था ।
[114क. कु छ अन्य दशा म समपहरण से मुिक्त—जहां िक स्थावर सम्पि के िकसी प े का पयर्वसान िकसी ऐसी
1

अिभव्यक्त शतर् के भंग के कारण समपहरण ारा हो गया है, जो यह उपबंिधत करती है िक उसके भंग पर प ाकतार् पुन: पर्वेश कर
सके गा, वहां बेदखली के िलए कोई वाद तब तक न होगा जब तक िक और यिद प ाकतार् ने प ेदार पर—
(क) पिरवािदत िविशष्ट भंग का िविनदश करने वाली, तथा
(ख) यिद भंग उपचार योग्य है तो उस भंग का उपचार करने की प ेटार से अपेक्षा करने वाली, िलिखत सूचना की
तामील न कर दी हो और यिद वह भंग उपचार योग्य है तो प ेदार उसका उपचार सूचना की तामील की तारीख से
युिक्तयुक्त समय के भीतर करने म असफल न रहा हो ।
इस धारा की कोई भी बात ऐसी िकसी अिभव्यक्त शतर् को, जो प े पर दी गई सम्पि के समनुदश
े न, उपप ाकरण, कब्जा-
िवलग या व्ययन के िवरु है, अथवा भाटक के असंदाय की दशा म समपहरण से सम्बिन्धत िकसी अिभव्यक्त शतर् को लागू नह
होगी ।]
115. अभ्यपर्ण और समपहरण का उपप पर पर्भाव—स्थावर सम्पि के प े के अिभव्यक्त या िवविक्षत अभ्यपर्ण का
पर्ितकू ल पर्भाव सम्पि के या उसके िकसी भाग के ऐसे उपप े पर नह पड़ता, जो प ेदार ारा उन िनबंधन और शत पर पहले ही
अनुद कर िदया गया है जो (भाटक की रकम के बारे म के िसवाय) सारत: वे ही ह, जो मूल प े की ह, िकतु जब तक िक यह अभ्यपर्ण
नया प ा अिभपर्ाप्त करने के पर्योजन से न िकया गया हो उपप ेदार ारा देय भाटक और उसे आब करने वाली संिवदाएं कर्मश:
प ाकतार् को देय और उसके ारा पर्वतर्नीय रहगी ।
ऐसे प े का समपहरण ऐसे सब उपप े को वहां के िसवाय बाितल कर देता है जहां िक ऐसा समपहरण प ाकतार् ारा
उपप ेदार को कपटवंिचत करने के िलए उपाप्त िकया गया है या जहां िक समपहरण से मुिक्त धारा 114 के अधीन अनुद की गई है ।
116. अितधारण का पर्भाव—यिद सम्पि का प ेदार या उपप ेदार प ेदार को अनुद प े के पयर्वसान के पश्चात् उस पर
अपना कब्जा बनाए रखता है और प ाकतार् या उसका िविधक पर्ितिनिध प ेदार या उप ेदार से भाटक पर्ितगृहीत करता है या कब्जा
बनाए रखने के िलए अन्यथा उसको अनुमित देता है तो तत्पर्ितकू ल करार के अभाव म प ा धारा 106 म यथा िविनिदष्ट उस पर्योजन के
अनुसार, िजसके िलए सम्पि प े पर दी गई थी, वषार्नुवषर् या मासानुमास के िलए नवीकृ त हो जाता है ।
दृष्टांत
(क) क एक गृह ख को पांच वषर् के िलए प े पर देता है । ख वह गृह को 100 रुपए मािसक भाटक पर उप े पर देता है । पांच
वषर् का अवसान हो जाता है िकन्तु ग गृह पर कब्जा बनाए रखता है और क को भाटक देता है । ग का प ा मासानुमान नवीकृ त होता
रहता है ।

1
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 58 ारा अन्त:स्थािपत ।
34

(ख) ख को एक एक फामर् ग के जीवनपयर्न्त के िलए प े पर देता है । ग की मृत्यु हो जाती है, िकन्तु क की अनुमित से ख कब्जा
बनाए रखता है । ख का प ा वषार्नुवषर् नवीकृ त होता रहता है ।
117. कृ िष पर्योजन वाले प को छू ट—इस अध्याय के उपबन्ध म से कोई भी उपबन्ध कृ िष पर्योजन वाले प को वहां तक
के िसवाय लागू नह होता जहां तक िक राज्य सरकार 1 *** शासकीय राजपतर् म पर्कािशत अिधसूचना ारा घोिषत कर दे िक ऐसे सब
उपबन्ध या उनम से कोई उपबन्ध 2 [ऐसे सब प या उनम से िकसी के िवषय म] तत्समय पर्वृ स्थानीय िविध के , यिद कोई हो,
उपबन्ध के सिहत या अध्यधीन लागू ह गे ।
ऐसी अिधसूचना तब तक पर्भाव म न आएगी जब तक उसके पर्काशन की तारीख से छह मास का अवसान न हो जाए ।
अध्याय 6

िविनयम के िवषय म
118. “िविनमय” की पिरभाषा—जबिक दो व्यिक्त एक चीज का स्वािमत्व िकसी अन्य चीज के स्वािमत्व के िलए परस्पर
अन्तिरत करते ह िजन दोन चीज म से कोई भी के वल धन नह है या दोन चीज के वल धन ह, तब वह संव्यवहार “िविनमय” कहा
जाता है ।
िविनमय को पूणर् करने के िलए सम्पि का अन्तरण के वल ऐसे पर्कार से िकया जा सकता है जैसा ऐसी सम्पि के िवकर्य ारा
अन्तरण के िलए उपबिन्धत है ।
3
[119. िविनमय म पर्ाप्त चीज से वंिचत िकए गए पक्षकार का अिधकार—यिद िविनमय का कोई पक्षकार या ऐसे पक्षकार से
व्युत्पन्न अिधकार के ारा या अधीन दावा करने वाला कोई व्यिक्त दूसरे पक्षकार के हक म िकसी तर्ुिट के कारण उस चीज या चीज के
भाग से, जो िविनमय ारा उसने पर्ाप्त की है, वंिचत हो जाता है तो जब तक िक िविनमय के िनबन्धन से कोई तत्पर्ितकू ल आशय पर्तीत
नह होता हो ऐसा दूसरा पक्षकार उसके पर्ित या उससे व्युत्पन्न अिधकार के ारा या अधीन दावा करने वाले व्यिक्त के पर्ित उस हािन
के िलए, जो तद् ारा हुई है, दायी है, अथवा इस पर्कार वंिचत व्यिक्त के िवकल्प पर उस अन्तिरत चीज को लौटाने के िलए दायी है,
यिद अन्तिरत चीज तब तक ऐसे दूसरे पक्षकार या उसके िविधक पर्ितिनिध या उसके अपर्ितफल अन्तिरती के कब्जे म ही हो ।]
120. पक्षकार के अिधकार और दाियत्व—इस अध्याय म अन्यथा उपबिन्धत के िसवाय हर एक पक्षकार उस चीज के बारे म,
जो वह देता है, िवकर्ेता के अिधकार रखता है और िवकर्ेता के दाियत्व के अध्यधीन होता है और उस चीज के बारे म, िजसे वह लेता है,
कर्ेता के अिधकार रखता है और कर्ेता के दाियत्व के अध्यधीन होता है ।
121. धन का िविनमय—धन के िविनयम पर हर एक पक्षकार अपने ारा िदए गए धन के असली होने की तद् ारा वारण्टी
देता है ।
अध्याय 7

दान के िवषय म
122. “दान” की पिरभाषा—“दान” िकसी वतर्मान जंगम या स्थावर सम्पि का वह अन्तरण है, जो एक व्यिक्त ारा, जो
दाता कहलाता है, दूसरे व्यिक्त को, जो आदाता कहलाता है, स्वेच्छया और पर्ितफल के िबना िकया गया हो और आदाता ारा या की
ओर से पर्ितगृहीत िकया गया हो ।
पर्ितगर्हण कब करना होगा—ऐसा पर्ितगर्हण दाता के जीवन काल म और जब तक वह देने के िलए समथर् हो, करना होगा ।
यिद पर्ितगर्हण करने से पहले आदाता की मृत्यु हो जाती है तो दान शून्य हो जाता है ।
123. अंतरण कै से िकया जाता है—स्थावर सम्पि के दान के पर्योजन के िलए वह अन्तरण दाता ारा या उसकी ओर से
हस्ताक्षिरत और कम से कम दो सािक्षय ारा अनुपर्मािणत रिजस्टर्ीकृ त िलखत ारा करना होगा ।
जंगम सम्पि के दान के पर्योजन के िलए अन्तरण या तो यथापूव क्त पर्कार से हस्ताक्षिरत रिजस्टर्ीकृ त िलखत ारा, या
पिरदान ारा, िकया जा सके गा ।
ऐसा पिरदान उसी पर्कार से िकया जा सके गा जैसे बेचा हुआ माल पिरद िकया जा सकता हो ।
124. वतर्मान और भावी सम्पि का दान—िजस दान म वतर्मान और भावी सम्पि दोन समािवष्ट ह , वह भावी सम्पि
के िवषय म शून्य है ।
125. ऐसे कई व्यिक्तय को दान, िजसम से एक पर्ितगृहीत नह करता है—ऐसे दो या अिधक आदाता को िकसी चीज का
दान, िजनम से एक उसे पर्ितगृहीत नह करता है, उस िहत के सम्बन्ध म शून्य है िजसे यिद वह पर्ितगृहीत करता तो वह लेता ।

1
1920 के अिधिनयम सं० 38 की धारा 2 अनुसूची 1 ारा “सपिरषद् गवनर्र जनरल की पूवर् मंजूरी से” शब्द का लोप िकया गया ।
2
1904 के अिधिनयम सं० 6 की धारा 6 ारा अंत:स्थािपत ।
3
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 59 ारा धारा 119 के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
35

126. दान िनलिम्बत या पर्ितसंहृत कब िकया जा सके गा—दाता और आदाता करार कर सकगे िक िकसी ऐसी िविनिदष्ट
घटना के घिटत होने पर, जो दाता की इच्छा पर िनभर्र नह करती, दान िनलंिबत या पर्ितसंहृत हो जाएगा, िकन्तु वह दान, िजसके बारे
म पक्षकार करार करते ह िक वह दाता की इच्छा मातर् से पूणर्त: या भागत: पर्ितसंहरणीय होगा, यथािस्थित, पूणर्त: या भागत: शून्य है ।
दान उन दशा म से (पर्ितफल के अभाव या असफलता की दशा को छोड़कर), िकसी भी दशा म पर्ितसंहृत िकया जा सके गा
िजनम िक यिद वह संिवदा होता हो िवखिण्डत िकया जा सकता ।
यथापूव क्त को छोड़कर दान पर्ितसंहृत नह िकया जा सकता ।
इस धारा म अन्तिवष्ट कोई भी बात िबना सूचना सपर्ितफल अन्तिरितय के अिधकार पर पर्भाव डालने वाली नह समझी
जाएगी ।
दृष्टांत
(क) ख को क एक खेत ख की अनुमित से अपना यह अिधकार आरिक्षत करके देता है िक ख और उसके वंशज के क के पहले
मर जाने की सूरत म वह उसे वापस ले सके गा । क के जीवन काल म ख अपने वंशज छोड़े िबना मर जाता है । क खेत वापस ले सके गा ।
(ख) ख को क एक लाख रुपया, ख की अनुमित से अपना यह अिधकार आरिक्षत करते हुए देता है िक वह उन लाख रुपय म
से, 10,000 रुपए जब जी चाहे वापस ले सके गा । 90,000 रुपय के बारे म दान वैध है, िकन्तु 10,000 रुपय के बारे म, जो क के ही बने
रहते ह, शून्य है ।
127. दुभरर् दान—जहां िक दान, एक ही व्यिक्त को ऐसी कई चीज के एकल अन्तरण के रूप म है िजनम से एक पर बाध्यता
का बोझ है और अन्य पर नह है, जहां आदाता उस दान ारा कु छ नह पा सकता जब तक िक वह उसे पूणर्त: पर्ितगृहीत नह करता ।
जहां िक कोई दान कई चीज के एक ही व्यिक्त को दो या अिधक पृथक् और स्वतन्तर् अन्तरण के रूप म है, वहां आदाता उनम
से एक को पर्ितगृहीत करने के िलए और अन्य को लेने से इन्कार करने के िलए स्वतंतर् है चाहे पूवर् किथत फायदापर्द हो और
पश्चात्किथत दुभर्र हो ।
िनरिहत व्यिक्त को दुभरर् दान—जो आदाता संिवदा करने के िलए अक्षम है और िकसी ऐसी सम्पि को, िजस पर बाध्यता का
बोझ है, पर्ितगृहीत कर लेता है वह अपने पर्ितगर्हण से आब नह है । िकतु यिद संिवदा करने के िलए सक्षम होने के पश्चात् और
बाध्यता की जानकारी रखते हुए वह दी हुई सम्पि को पर्ितधृत कर लेता है, तो वह ऐसे आब हो जाता है ।
दृष्टांत
(क) क के एक समृ संयुक्त स्टाक कम्पनी भ म अंश है और किठनाइय म गर्स्त एक संयुक्त स्टाक कम्पनी म म भी उसके अंश
है । म म के अंश म े भारी मांग की पर्त्याशा है । क संयुक्त स्टाक कम्पिनय म के अपने सब अंश ख को दे देता है । म म अंश को
पर्ितगृहीत करने से ख इन्कार करता है वह भ म के अंश को नह ले सकता ।
(ख) क ऐसे गृह का प ा ख को देता है जो कु छ वष की अविध के िलए प े पर उस ारा ऐसे भाटक पर िलया हुआ है, िजस
भाटक को अविध भर तक देने के िलए वह और उसके पर्ितिनिध आब ह, और जो उतने से अिधक ह िजतने पर िक गृह प े पर चढ़ाया
जा सकता है, और एक पृथक् और स्वतंतर् संव्यवहार के रूप म उसे एक धनरािश भी देता है । ख प े को पर्ितगृहीत करने से इन्कार करता
है । इस इन्कार के कारण उससे धन का समपहरण नह हो जाता ।
128. सवर्स्व आदाता—धारा 127 के उपबन्ध के अध्यधीन यह है िक जहां िक दाता की पूरी सम्पि का दान है वहां आदाता
दान के समय के दाता के सब शोध्य ऋण 1 [और दाियत्व ] के िलए वैयिक्तक रूप से उसम समािवष्ट सम्पि के िवस्तार तक दायी है ।
129. आसन्न मरण दान और मोहमेडन िविध की व्यावृि —इस अध्याय की िकसी भी बात का सम्बन्ध जंगम सम्पि के उन
दान से नह है जो मृत्यु को आसन्न मान कर िकए गए ह और न वह मोहमेडन िविध 2 *** के िकसी िनयम पर पर्भाव डालने वाली
समझी जाएगी ।
3
[अध्याय 8

अनुयोज्य दाव के अंतरण के िवषय म


130. अनुयोज्य दाव का अंतरण—(1) अनुयोज्य दावे का अन्तरण 4 [चाहे वह पर्ितफल सिहत या रिहत हो] ऐसी िलखत के
िनष्पादन ारा ही िकया जाएगा जो अन्तरक या उसके सम्यक् रूप से पर्ािधकृ त अिभकतार् ारा हस्ताक्षिरत है, 5 *** वह ऐसी िलखत के

1
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 60 ारा अंत:स्थािपत ।
2
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 61 ारा “या धारा 123, िहन्दू या बौ िविध के िकसी िनयम म यथाउपबंिधत के िसवाय” का लोप िकया गया ।
3
1900 के अिधिनयम सं० 2 की धारा 4 ारा मूल अध्याय 8 के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
4
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 62 ारा अंत:स्थािपत ।
5
1929 के अिधिनयम सं० 20 की धारा 62 ारा “और धारा 123 म अन्तिवष्ट िकसी बात के होते हुए भी” शब्द का लोप िकया गया िजन्ह 1925 के अिधिनयम सं० 38
की धारा 2 ारा अन्त:स्थािपत िकया गया था ।
36

िनष्पादन पर पूरा और पर्भावी हो जाएगा और तदुपिर अन्तरक के सब अिधकार और उपचार, चाहे वे नुकसान के तौर पर ह या
अन्यथा ह , अन्तिरती म िनिहत हो जाएंग,े चाहे अन्तरण की ऐसी सूचना, जैसी एतिस्मन्पश्चात् उपबंिधत है, दी गई हो या
न दी गई हो :
परन्तु ऋण या अन्य अनुयोज्य दावे के बारे म हर व्यवहार, जो ऋणी ारा या अन्य व्यिक्त ारा िकया गया है । िजससे या
िजसके िवरु अन्तरक यथापूव क्त अन्तरण की िलखत के अभाव म ऐसा ऋण या अन्य अनुयोज्य दावा वसूल करने या पर्वितत कराने
का हकदार होता, ऐसे अन्तरण के मुकाबले म िविधमान्य होगा (िसवाय वहां के जहां िक ऋणी या अन्य व्यिक्त उस अन्तरण का
पक्षकार है या उसकी ऐसी अिभव्यक्त सूचना पा चुका है जैसी एतिस्मन्पश्चात् उपबिन्धत है) ।
(2) अनुयोज्य दावे का अन्तिरती अन्तरण की यथापूव क्त िलखत के िनष्पादन पर उसके िलए वाद या कायर्वािहयां करने के
िलए अन्तरक की सम्मित अिभपर्ाप्त िकए िबना और उसे उनम का पक्षकार बनाए िबना स्वयं अपने नाम से ऐसा वाद ला सके गा या
ऐसी कायर्वािहयां संिस्थत कर सके गा ।
अपवाद—इस धारा की कोई भी बात िकसी समुदर्ी बीमा या अिग्न बीमा पािलसी के अन्तरण को लागू नह है और न 1 [बीमा
अिधिनयम, 1938 (1938 का 4) की धारा 38 के उपबंध पर पर्भाव डालती है] ।
दृष्टांत
(i) ख का क देनदार है । ख वह ऋण ग को अन्तिरत कर देता है । तब क से ऋण के चुकाने के िलए ख तकाजा करता है ।
अन्तरण की क को धारा 131 म यथा िविहत सूचना नह िमली है और वह ख को संदाय कर देता है । यह संदाय िविधमान्य है, और ग
उस ऋण के िलए क पर वाद नह ला सकता ।
(ii) क एक बीमा कम्पनी से अपने जीवन के िलए पािलसी लेता है और उस पािलसी को वतर्मान या भावी ऋण का संदाय
पर्ितभूत करने के िलए िकसी बक को समनुिष्ट करता है । यिद क की मृत्यु हो जाती है, तो बक धारा 130 की उपधारा (1) के परन्तुक
और धारा 132 के उपबंध के अध्यधीन क के िनष्पादक की सहमित के िबना पािलसी की रकम पाने और उसके आधार पर वाद लाने का
हकदार है ।
[130क. [समुदर्ी बीमा पािलसी का अंतरण ।]—समुदर्ी बीमा अिधिनयम, 1963 (1963 का 11) की धारा 92
2
ारा
(1-8-1963 से) िनरिसत ।
131. सूचना का िलिखत और हस्ताक्षिरत होना—अनुयोज्य दावे के अन्तरण की हर सूचना िलिखत होगी और अन्तरक या इस
िनिम सम्यक् रूप से पर्ािधकृ त उसके अिभकतार् ारा, या अन्तरक के हस्ताक्षर करने से इन्कार करने की दशा म, अन्तिरती या उसके
अिभकतार् ारा हस्ताक्षिरत होगी और उसम अन्तिरती का नाम और पता किथत होगा ।
132. अनुयोज्य दावे के अन्तिरती का दाियत्व—अनुयोज्य दावे का अन्तिरती ऐसे दावे को उन सब दाियत्व और साम्या के
अध्यधीन लेगा िजनके अध्यधीन अंतरक अन्तरण की तारीख को उस दावे के बारे म था ।
दृष्टांत
(i) ग को क वह ऋण अन्तिरत करता है जो ख ारा उसे शोध्य है । क उस समय ख का ऋणी है । ख पर ग उस ऋण के िलए
वाद लाता है जो क को ख ारा शोध्य है । ऐसे वाद म ख वह ऋण मुजरा कराने का हकदार है जो उसके ारा शोध्य है, य िप ग ऐसे
अन्तरण की तारीख पर उसकी जानकारी नह रखता था ।
(ii) क ने ख के पक्ष म ऐसी पिरिस्थितय म बन्धपतर् का िनष्पादन िकया िजनम उसे इस बात का हक था िक वह बन्धपतर् को
पिरद और र करवा ले । ख बन्धपतर् को ग को, िजसे ऐसी पिरिस्थितय की सूचना नह है, मूल्याथर् समनुिदष्ट कर देता है । ग
बन्धपतर् को क के िवरु पर्वृ नह करा सकता ।
133. ऋणी की शोधन-क्षमता की वारं टी—जहां िक ऋण का अन्तरक ऋणी की शोधन-क्षमता की वारण्टी देता है वहां
तत्पर्ितकू ल संिवदा न हो तो वह वारण्टी उस ऋणी की अन्तरण के समय की शोधन-क्षमता को ही लागू होती है और जहां िक अन्तरण
पर्ितफल के िलए िकया जाता है, वहां ऐसे पर्ितफल की रकम या मूल्य तक पिरसीिमत रहती है ।
134. बन्धिकत ब्याज—जहां िक ऋण वतर्मान या भावी ऋण को पर्ितभूत करने के पर्योजन से अन्तिरत िकया जाता है वहां
ऐसे अन्तिरत िकया गया ऋण यिद अन्तरक ारा पर्ाप्त या अन्तिरती ारा वसूल कर िलया जाता है तो वह पर्थमत: ऐसी वसूली के खचर्
के चुकाने म और ि तीयत: उस अन्तरण ारा तत्समय पर्वृ रकम की तुिष्ट म या उस रकम म े उपयोजनीय है और अविशिष्ट, यिद
कु छ रहे, अन्तरक की या अन्य ऐसे व्यिक्त की होती है जो उसे पर्ाप्त करने का हकदार है ।

1
1938 के अिधिनयम सं० 4 की धारा 121 ारा (1-7-1939 से) जोड़ा गया ।
2
1944 के अिधिनयम सं० 6 की धारा 2 ारा अन्त:स्थािपत ।
37

[135. अिग्न बीमा पािलसी के अधीन के अिधकार का समनुदश


1
े न—अिग्न बीमा पािलसी के पृष्ठांकन या अन्य लेखन ारा
ऐसे हर समनुदिे शती को, िजसम बीमाकृ त िवषयवस्तु म की सम्पि समनुदश
े न की तारीख पर आत्यिन्तक रूप से िनिहत हो, वाद के
सब अिधकार ऐसे अन्तिरत और उसम ऐसे िनिहत हो जाएंगे मानो उस पािलसी म अन्तिवष्ट संिवदा स्वयं उससे ही की गई थी ।]
[समुदर्ी बीमा पािलसी के अधीन अिधकार का समनुदश
2 [135क. े न ।]—समुदर्ी बीमा अिधिनयम, 1963 (1963 का 11) की
धारा 92 ारा (1-8-1963 से) िनरिसत ।]
136. न्यायालय से संसक्त आिफसर की असामथ्यर्—कोई भी न्यायाधीश या िविध व्यवसायी अथवा कोई भी आिफसर, जो
िकसी न्यायालय से संसक्त है, िकसी अनुयोज्य दावे म िकसी अंश या िहत का न तो कर्य करे गा, न दुव्यार्पार करे गा, न उसके िलए
अनुबन्ध करे गा, और न उसे पर्ाप्त करने के िलए करार करे गा, और न कोई न्यायालय उसकी पर्ेरणा पर या उससे व्युत्पन्न अिधकार के
अधीन या ारा दावा करने वाले िकसी व्यिक्त की पर्ेरणा पर ऐसा कोई भी अनुयोज्य दावा पर्वृ करे गा िजसके बारे म उसने उपयुर्क्त
व्यवहार िकया है ।
137. परकर्ाम्य िलखत की व्यावृि —इस अध्याय की पूवर्गामी धारा की कोई भी बात, स्टाक , अंश या िडबचर को
अथवा उन िलखत को, जो िविध या रूिढ़ ारा तत्समय परकर्ाम्य ह, अथवा माल पर हक की वािणिज्यक दस्तावेज को, लागू नह है ।
स्पष्टीकरण—“माल पर हक की वािणिज्यक दस्तावेज” पद के अन्तगर्त वहनपतर्, डाक वारण्ट, भाण्डागािरक पर्माणपतर्, रे ल
रसीद, माल के पिरदान के िलए वारण्ट या आदेश, और ऐसी अन्य कोई भी दस्तावेज आती है िजसका व्यापार के मामूली अनुकर्म म
उपयोग माल पर कब्जे या िनयंतर्ण के सबूत के रूप म िकया जाता है, या जो उस दस्तावेज पर कब्जा रखने वाले व्यिक्त को वह माल,
िजसके बारे म वह दस्तावेज है अन्तिरत करने या पर्ाप्त करने के िलए पृष्ठांकन ारा या पिरदान ारा पर्ािधकृ त करती है या पर्ािधकृ त
करने वाली तात्पियत है ।

अनुसूची
(क) स्टे टू
वषर् और अध्याय िवषय िनरसन का िवस्तार
27 हेनरी 8, चेप्टर 10 यूजेज पूरा
13 एिलजाबेथ, चेप्टर 5 फर्ाडू लेन्ट कन्वेयन्सेज पूरा
27 एिलजाबेथ, चेप्टर 4 फर्ाडू लेन्ट कन्वेयन्सेज पूरा
4 िविलयम एंड मेरी, चेप्टर 16 कलन्डस्टाइन मागजेज पूरा
(ख) सपिरषद् गवनर्र जनरल के अिधिनयम
संख्या और वषर् िवषय िनरसन का िवस्तार
1842 का 9 लीज एण्ड िरलीज पूरा
1854 का 31 भूिम के अन्तरण के ढंग धारा 17
1855 का 11 अन्त:कालीन लाभ और अिभवृि धारा (1); नाम म से “टू मेस्ने पर्ािफट्स एण्ड” शब्द
(अंत:कालीन लाभ को) और उ ेिशका म “टू िलिमट
िद लायिबिलटी फार मेस्ने पर्ािफट्स एण्ड” शब्द ।
1866 का 27 इिण्डयन टर्स्टी एक्ट धारा 31
1872 का 4 पंजाब लाज एक्ट जहां तक िक वह सन् 1798 के बंगाल रे गूलेशन 1
और 1806 के बंगाल रे गूलेशन 17 से सम्बिन्धत है ।
1875 का 20 सेन्टर्ल पर्ािवन्सेज लाज ऐक्ट जहां तक िक वह 1798 के बंगाल रे गूलेशन 1 और
1806 के बंगाल रे गूलेशन 17 से सम्बिन्धत है ।
1876 का 18 अवध लाज ऐक्ट जहां तक िक वह 1806 के बंगाल के रे गूलेशन 17 से
सम्बिन्धत है ।
1877 का 1 स्पैिसिफक िरलीफ धारा 35 और 36 म ‘इन राइिटग’ शब्द ।

1
1944 के अिधिनयम सं० 6 की धारा 3 ारा धारा 135 के स्थान पर पर्ितस्थािपत ।
2
1944 के अिधिनयम सं० 6 की धारा 4 ारा अन्त:स्थािपत ।
38

(ग) िविनयम
संख्या और वषर् िवषय िनरसन का िवस्तार
1798 का बंगाल रे गूलेशन 1 सशतर् िवकर्य पूरा िविनयम
1806 का बंगाल रे गूलेशन 17 मोचन पूरा िविनयम
1827 का मुम्बई रे गूलेशन 5 ऋण की अिभस्वीकृ ितयां, ब्याज, धारा 15
और सकब्जा बन्धकदार

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