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पा य म अ भक प स म त
अ य
ो. (डॉ.) नरे श दाधीच
कु लप त
वधमान महावीर खुला व व व यालय, कोटा (राज थान)

संयोजक एवं सम वयक


संयोजक सम वयक
ो. (डॉ.) कु मार कृ ण डॉ. मीता शमा
अ य , ह द वभाग सहायक आचाय, ह द वभाग
हमांचल व व व यालय, शमला वधमान महावीर खुला व व व यालय, कोटा
सद य
 ो. (डॉ.) जवर मल पारख  ो. (डॉ.) सु देश ब ा
अ य , मान वक व यापीठ पूव अ य , ह द वभाग
इि दरा गांधी रा य खुला व व व यालय, नई द ल राज थान व व व यालय, जयपुर
 ो. (डॉ.) न दलाल क ला  डॉ. नवल कशोर भाभड़ा
पूव अ य , ह द वभाग ाचाय
जयनारायण यास व व व यालय, जोधपुर राज. क या महा व यालय, अजमेर
 डॉ. पु षो तम आसोपा
पूव ाचाय
राजक य महा व यालय, सरदारशहर (चु )

संपादन एवं पा य म-ले खन


मु य संपादक सह संपादक
ो. (डॉ.) न दलाल क ला डॉ. मीता शमा
पूव अ य , ह द वभाग सहायक आचाय, ह द वभाग
जयनारायण यास व व व यालय, जोधपुर वधमान महावीर खुला व व व यालय, कोटा

पाठ ले खक इकाई सं या
 डॉ. म जू चतु वद - 1, 2
अ य , ह द वभाग
राजक य मीरा क या नातको तर महा व यालय, उदयपुर
 डॉ. स यनारायण यास - 3,4
या याता, ह द वभाग
राजक य नातको तर महा व यालय, च तौड़गढ़
 डॉ. रमे श वमा - 5
या याता, ह द वभाग
राजक य महा व यालय, सवाईमाधोपुर
 ो.(डॉ.) शरते दु कुमार - 6, 7
ह द वभाग
पटना व व व यालय, पटना
 डॉ. राजे श अनु प म - 8,9
या याता, ह द वभाग
राजक य महा व यालय, चमनपुरा
 डॉ. इ ा जैन - 10, 11
या याता, ह द वभाग
राजक य मीरा नातको तर महा व यालय, उदयपुर
 ो.(डॉ.) सी.एल. गु ता - 12, 13, 14
ोफेसर, ह द वभाग
हमांचल व व व यालय, शमला

5
 डॉ. नरं जन सहाय - 15, 16, 20
अ य , ह द वभाग
पि डत उदय जैन महा व यालय, कानोड़(उदयपुर)
 ो.(डॉ.) एल.के . यास - 17
पूव अ य , ह द वभाग
उ मा नया व व व यालय, है दराबाद
 डॉ. मीता शमा - 18
सहायक आचाय, ह द वभाग
वधमान महावीर खुला व व व यालय, कोटा
 डॉ. बाबू जोसे फ - 19
अ य , ह द वभाग
के.ई. महा व यालय, मननम, को यम, केरल
 डॉ. दे वे गु ता - 21, 22, 23
या याता
वन थल व यापीठ, वन थल , ट क
 डॉ. णव शा ी - 24
अ य , ह द वभाग
उपा ध नातको तर महा व यालय, पील भीत(उ तर दे श)

अकाद मक एवं शास नक यव था


ो. नरे श दाधीच ो. एम.के. घड़ो लया योगे गोयल
कु लप त नदे शक भार
वधमान महावीर खुला व व व यालय, कोटा संकाय वभाग पा य साम ी उ पादन एवं वतरण वभाग

पा य म उ पादन
योगे गोयल
सहायक उ पादन अ धकार ,
वधमान महावीर खुला व व व यालय, कोटा

उ पादन : अग त-2012 ISBN-13/978-81-8496-116-4


इस साम ी के कसी भी अंश को व. म. खु. व., कोटा क ल खत अनु म त के बना कसी भी प मे ‘ म मयो ाफ ’ (च मु ण) वारा
या अ य पुनः तुत करने क अनु म त नह ं है ।व. म. खु. व., कोटा के लये कु लस चव व. म. खु. व., कोटा (राज.) वारा मु त एवं
का शत।

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एमएएचडी-03
वधमान महावीर खु ला व व व यालय, कोटा

ख ड -1
ह द सा ह य के इ तहास क भू मका और आ दकाल 11—66
इकाई सं. इकाई का नाम पृ ठ सं या
इकाई - 1 आ दकाल न काल वभाजन, नामकरण एवं काल नधारण 11—22
इकाई - 2 आ दकाल न का य क प रि थ त 23—37
इकाई - 3 नाथ, स और जैन सा ह य 38—51
इकाई - 4 रासो का य एवं लौ कक सा ह य 52—66
ख ड -2
भि तकाल न का य 67—152
इकाई सं. इकाई का नाम पृ ठ सं या
इकाई - 5 भि तकाल न का य क प रि थ त 67—84
इकाई – 6 नगु ण भि तकाल – ानमाग संत का यधारा 85—101
इकाई - 7 नगु ण भि तकाल – ेममाग सूफ का यधारा 102—119
इकाई - 8 सगुण भि तकाल – कृ ण भि त का य धारा 120—136
इकाई - 9 सगुण भि तकाल – राम भि त का य 137—152
ख ड -3
र तकाल न का य 153—175
इकाई सं. इकाई का नाम पृ ठ सं या
इकाई -10 र तकाल न का य क प रि थ त 153—160
इकाई -11 र तकाल न क वता का व प-र तब , 161—175
र तस और र तमु त का य
ख ड -4
आधु नक का य -1 176—261
इकाई सं. इकाई का नाम पृ ठ सं या
इकाई – 12 आधु नक का य क पृ ठभू म 176—198
इकाई - 13 भारते दु युग का का य 199—224
इकाई – 14 ववेद युग का का य 225—246
इकाई – 15 छायावाद 247—261

7
ख ड -5
आधु नक का य -2 262—332
इकाई सं. इकाई का नाम पृ ठ सं या
इकाई – 16 उ तर छायावाद क वता 262—273
इकाई - 17 ग तवाद का य 274—286
इकाई – 18 योगवाद और नयी क वता 287—311
इकाई – 19 समकाल न क वता 312—332

ख ड -6
आधु नक ह द ग य सा ह य 333—389
इकाई सं. इकाई का नाम पृ ठ सं या
इकाई – 20 ह द कथा सा ह य 333—346
इकाई – 21 ह द ना य सा ह य 347—354
इकाई – 22 ह द आलोचना 355—366
इकाई – 23 नब ध 367—379
इकाई – 24 अ य ग य वधाएँ 380—389

8
ख ड-प रचय

तु त पु तक म आप एम.ए. पूवा के तृतीय न प “ ह द सा ह य का इ तहास,


सं क पा य म का अ ययन कर रहे ह । सा ह य का इ तहास सामािजक चेतना के अनु प
बदलती हु ई जनता क च वृि तय का ह सजना मक तफलन होता है इसी लए सा ह य को
समाज के दय क धड़कन कहा जाता है । सा ह य व समाज पर पर एक दूसरे के स पूरक
होते है । कोई भी सा ह यकार समाज क संवेदनाओं क उपे ा नह ं कर सकता ।

ह द सा ह य का इ तहास वस. 1050 से अ यतन काल का माना गया है । ऐसे


सु द घ काल न इ तहास को गासाद तासी, शव संह सगर, सर जाज अ ाहम, गयसन, म बकु,
आचाय रामच शु ल, आचाय हजार साद ववेद , डी. रामकुमार वमा, डी. नगे मृ त
व वान ने अपनी अपनी ि ट से तु त कया है ।

तु त पु तक म स पूण ह द सा ह य के इ तहास को कु ल 6 ख ड म वभािजत


कया गया है । ख ड- 1 ( ह द सा ह य के इ तहास क भू मका व आ दकाल) क कु ल चार
इकाइय म मश: काल वभाजन, नामकरण क सम या व काल नधारण, आ दकाल न का य क
सामािजक धा मक, राजनै तक व सा हि यक प रि थ तय का च ण तथा नाथ, स , जैन,
लौ कक व रासो सा ह य का वणन है ।

ख ड-2 (भि तकाल न का य) क कु ल पाँच इकाइय म मश: भि तकाल न


प रि थ तय , नगु ण व सगुण भि तकाल न का यधाराओं का सांगोपांग वणन कया गया है ।
ख ड-3 ह तकाल न का य) क कु ल दो इकाइय म मश: र तकाल न का य क प रि थ त,
मु ख धाराओं व क वय का च ण सि म लत है । ख ड-4 (आधु नक का य- 1) क कु ल चार
इकाइय म मश: आधु नक का य क पृ ठभू म, भारते दु युग , ववेद युग व छायावाद युग
तथा ख ड-5 (आधु नक का य- ) क कु ल चार इकाइय म मश: उ तरछायावाद क वता,
ग तवाद, योगवाद व नयी क वता तथा समकाल न क वता का वणन कया गया है ।

अि तम ख ड-6 ग य सा ह य से स बि धत है और इस ख ड क कु ल पाँच इकाइयाँ


मश: कथा सा ह य, नाटक, आलोचना, नब ध व अ य ग य वधाएँ जैसे रे खा च , सं मरण,
रपोताज व आ मकथा लेखन से स बि धत है ।

इस कार हमने स पूण सा ह य को यथो चत इकाइय म वभािजत कया है ।


तावना के अ तगत सा ह य के इ तहास के व प को भी प ट कया गया है ।

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ना को तर क ाओं म व या थय क अ भ यि त द ता और भाषायी मता क
अ भवृ करने के लए अ तलघु तरा मक व लघुतरा मक न हटा लए गये है ता क न का
उ तर दे ने म व तार क संभावना रहे गी और उनक लेखन मता का भी व तार होगा ।

येक काल ख ड क सा हि यक इकाइय म तावना, उ े य, पृ ठभू म, वृि तयाँ


तथा मु ख क वय व उनके कृ त व को रे खां कत करने क ओर ह हमारा मु ख ल य रहा है ।
येक इकाई म ववे चत सामग त यथो चत उ रण से यु त है । एतदथ ह द सा ह य का
इ तहास' सं क यह पा य म आपको सा ह य और इ तहास के पार प रक संबध
ं को समझने
म मह वपूण सहायक होगा । येक इकाई के अंत म यथो चत संदभ थ
ं ो क सू ची भी द गई
ह िजससे आप लोग अ त र त अ ययन कर सक ।

10
इकाई -1 : आ दकाल न काल वभाजन, नामकरण एवं काल
नधारण
इकाई क परे खा
1.0 उ े य
1.1 तावना
1.2 काल वभाजन
1.2.1 काल नधारण का आधार
1.2.2 काल नधारण: सा ह ये तहासकार के मत एवं तक
1.3 नामकरण :
(क) सा ह ये तहासकार के वचार
(ख) परवत आलोचक के ख डन-म डन
(ग) न कष
1.4 सारांश
1.5 अ यासाथ न
1.6 स दभ ग ध उ े य

1.0 उ े य
आधार पा य म के नातको तर पूवा , ख ड 1 म हम ' ह द सा ह य के इ तहास
क भू मका और आ दकाल के अ तगत इकाई- 1 म 'काल वभाजन: नामकरण एवं
काल नधारण के वषय म व तृत जानकार ा त करगे। इस इकाई को पढने के बाद
आप जान सकगे-
(1) काल नधारण म सीमांकन।
(2) सीमांकन का आधार।
(3) ह द सा ह य के इ तहास क ामा णक पु तक और लेखक के नाम।
(4) सा ह ये तहासकारो के काल- नधारण के वषय म मत और तक।
(5) काल- नधारण के वषय म थम इ तहासकार का नाम, यास और पु तक क
जानकार ।
(6) इसी म म म ब धु आचाय रामच शु ल, राहु ल सांकृ यायन, महावीर साद
वेद , हजार साद वेद वारा नधा रत आलो य काल के सीमांकन पर वचार।
(7) इकाई के वक सत म म नामकरण पर आधारभूत जानकार ।
(8) थम सा ह ये तहासकार से ार म करके सभी मह वपूण आधार पर नामकरण
क थापनाओं से प र चत होना।
(9) सा ह ये तहासकारो वारा तु त थापनाओं म वृि तय , ह द भाषा और ह द
सा ह य क ारि मक जानकार ा त करना।

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(10) सा ह ये तहास के लेखन क पर परा के संदभ म पुन वचार।
(11) सारांश प म 'आ दकाल’ के नामकरण और सीमांकन क उपादे यता तपा दत
करना।

1.1 तावना
सा ह य के इ तहास म काल- वभाजन का मु य योजन वभ न ऐ तहा सक
प रि थ तय के स दभ म सा ह य क कृ त एवं वृि त को प ट करना है। डॉ.
गणप तच गु त के श द म, 'सा ह य क अ त न हत चेतना के मक वकास,
उसक पर पराओं के उ थान- पतन एवं उनक वभ न वृि तय के दशा-प रवतन
आ द के काल म को प ट करना ह काल वभाजन का ल य होता है, अ यथा
उसक कोई उपयो गता नह ं। जहाँ काल- वभाजन उपयु त ल य क पू त म साधक के
थान पर बाधक बनता हो, वहाँ यह उ चत है क उसके अभाव म ह काम चलाया
जाए।
ह द सा ह य के व वान ने सा ह ये तहास रचने क या म सा ह यालोचना को
अ नवाय माना है। दूसरे श द म, इ तहास हम राजनै तक, सामािजक और धा मक
घटनाओं क जानकार दे ता है, उसक पर पर स ब ता भी बताता है क तु मानवीय
यास , अनुभू तय क जो सू म आँख सा ह य के पास है, वह घटनाओं के भीतर
वेश करती है। इस कार सा ह ये तहास का एक म बनता है। आलोचक ने सा ह य
के इ तहास के ववेचन एवं व लेषण क या को यवि थत प दे ने के उ े य से
सा ह य के इ तहास को कु ल चार भाग म वभ त कया है :-
1. आ दकाल
2. भि तकाल
3. र तकाल
4. आधु नक काल
ह द सा ह य के इ तहास लेखन क पर परा सा ह य और इ तहास के च तन
स ब ध को दशाती है। भारत के व वान आलोचक ने अपनी सजना मक तभा के
बल पर सा ह य के प म ऐसी बहु मू य न ध दान क है जो हजार वष क
सीमाओं को लांघ कर आज भी सा ह यानुरा गय के दय को भा वत करती है।
सा ह य के इ तहास लेखन क पर परा का थम यास 1839 म च व वान गासा
द तासी ने 'इ वार द ला लतरे युर ऐ दुई ए ऐ दु तानी थ वारा कया। यह थ
ह दुई और ह दु तान के बारे म था। थ दो भाग म वभ त था। पहले भाग म
क व प रचय और दूसरे भाग म क व क रचनाओं के उदाहरण थे जो ांसीसी भाषा म
र चत थे। पु तक का वतीय सं करण तीन भाग म पे रस से का शत हु आ। सन ्
1848 म मौलवी कर मु ीन ने 'तबकातु शु आश लखा। सन ् 1883 म शव संह सगर

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ने ' शव संह सरोज' लखा िजसम अनेक क वय का सा हि यक एवं जीवनगत ववरण
था। क तु सा ह ये तहास क ि ट से ये पु तक बहु त अ धक सहायक स नह ं हु ई।
सन ् 1888 म ऐ शया टक सोसायट ऑफ बंगाल क प का के वशेषांक के प म
जाज यसन वारा ल खत 'द मॉडन वन युलर लटरे चर ऑफ ह दु तान' का
काशन हु आ। यह पु तक परवत इ तहासकार के लये पथ दशक स हु ई। मु य
बात इसम यह थी क जाज यसन ने ह द सा ह य का भाषा क ि ट से े -
नधा रत करते हु ए प ट कया क इसम न तो सं कृ त- ाकृ त को सि म लत कया
गया है और न ह अरबी-फारसी म त उदू को। उ ह ने अपनी भाषा नी त को प ट
करते हु ए भू मका म लखा है, 'म आधु नक भाषा सा ह य का ह ववरण तु त करने
जा रहा हू ँ ।

1.2 काल वभाजन


सा ह य के इ तहास म काल- वभाजन के ारि मक संकेत जाज यसन वारा कए
गए ववेचन से ा त हु ए थे। इस थ म येक काल क युगीन का य वृि तय का
च ण, गौण क वय का उ लेख, स बि धत सां कृ तक प रि थ तय एवं ेरणा- ोत
को उ ृत करने का यास कया गया। उ ह ने अपने पूववत तांसी और शव संह सरोज
के अ त र त भ तमाल, गोसाई च र , हजारा नामधार थ तथा अ य का य- थ
क साम ी का उपयोग करते हु ए काल वभाजन का आधार भी तु त कया।

1.2.1 काल नधारण का आधार:

यसन वारा कया गया काल- नधारण इस कार है:-


1. चारणकाल (700-1300 ई)
2. प हवीं शती का धा मक पुनजागरण
3. जायसी क ेम क वता
4. ज का कृ ण स दाय
5. मु गल दरबार
6. तु लसीदास
7. र तकाल
8. तु लसी के अ य परवत
9. अठारहवीं शता द
10. क पनी के शासन म ह दु तान
11. व टो रया के शासन म ह दु तान
उ त ववरण से प ट है क यसन ने ार भ म काल- नधारण कया था िजसका
अथ संभवत: यह रहा होगा क वे ह द सा ह य के इ तहास का ार भ 700 ई. से
मानते ह। बाद म अ याय का नामकरण कर दया गया।

13
म ब धुओं ने ' म ब धु वनोद म काल- वभाजन का यास इस कार कया :-
(1) आरि भक काल
(क) पूवारि भक काल (700-1343 व.)
(ख) उ तरारि भक काल (1344-1444 व.)
(2) मा य मक काल -
(क) पूव मा य मक काल (1445 - 1560 व.)
(ख) ौढ़ मा य मक काल (1561-1600 व.)
(3) अलंकृ त काल -
(क) पूवालंकृ त काल (1681-1790 व.)
(ख) उ तरालंकृत काल (1791-1889 व.)
(4) प रवतन काल (1990 - 1925 व.)
(5) वतमान काल (1926 व. से अ याव ध)

1.2.2 काल नधारण : सा ह ये तहाकार के मत एवं तक

डा. शवकु मार शमा के अनुसार ' न संदेह म ब धुओं का वग करण यसन क अपे ा
ौढ़ है क तु इसम असंग तय का सवथा अभाव नह ं है। सव थम दोष तो यह है क
म ब धुओं ने भी 7oo से 1300 शती ई. के अप ंश भाषा म नब सा ह य को
ह द क प र ध म समेट लया है।
आचाय रामच शु ल ने इस दशा म सवा धक मा य, और प र कृ त आधार तु त
कया। उ ह ने अपने थ ' ह द सा ह य का इ तहास' म वभाजन का आधार जनता
क च तवृि त को बनाया। आचाय शु ल वारा कया गया काल नधारण इस कार
है:-
(1) वीरगाथाकाल - संवत ् 1050-1375
(2) भि तकाल - संवत ् 1375-1700
(3) र तकाल - संवत ् 1700-1900
(4) ग यकाल - संवत ् 1900 से नर तर
डॉ रामगोपाल शमा ' दनेश’ ने 'आ दकाल’ के सीमांकन पर अपना ववेचन तु त करते
हु ए लखा है 'सरहपाद’ को ह द का थम क व मान लेने से ह द सा ह य के
आर भ क सीमा आठवीं शता द ई वी (769 ई.) नि चत हो जाती है। यह सीमा
राहु ल सांकृ यायन के मत पर आधा रत है। यसन, शव संह सगर, म ब धु ,गुलेर ,
डॉ. हजार साद ववेद तथा डॉ. रामकु मार वमा इससे बहु त दूर तक सहमत ह। दूसरा
प उन व वान का है जो ह द सा ह य का आर भ ईसा क दसवीं शता द के
अि तम वष से मानते ह । इन व वान का नेत ृ व रामच शु ल ने कया। उनके
मत से मु ंज और भोज के समय 993 ई. से पुरानी ह द का योग शु सा ह य म

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हु आ। क तु शु लजी ने पुरानी ह द को ह ' ाकृ तभास ह द ’ या 'अप ंश भी कहा है
तथा िजन बारह कृ तय के आधार पर वीरगाथा-काल नामकरण कया है, उनम भी वे
अप श
ं क चार कृ तयां बतलाते ह। (डा. नगे 'ह द सा ह य का इ तहास,
स पा दत) आ दकाल के सीमा- नधारण म भाषा तथा कृ तय के आधार को मु य माना
गया। डा. दनेश ने 'आ दकाल' नामक लेख म लखा है 'िजस कार ह द सा ह य के
'आ दकाल’ क आरि भक सीमा ववाद त रह है, क तु इस स य से अ य त: ह
सह आचाय शु ल जैसे व वान भी सहमत रहे ह क स और जैन क वय क कई
रचनाओं को उसके बाहर नह ं रखा जा सकता, उसी कार उसक अि तम सीमा भी
ववाद त अव य है। उ ह ने आ दकाल क अि तम सीमा 1400 ई. तक मानी है।
म ब धुओं ने एतदथ 1389 ई. का वष वीकार कया है रामच शु ल आ दकाल क
अि तम सीमा 1318 ई. तक मानते ह। डॉ. रामशंकर शु ल 'रसाल उसे 1343 ई.
तक ले गये क तु डा. रामकु मार वमा शु ल जी से सहमत ह। अ य इ तहासकार भी
अ धकांशत: शु लजी से ह सहमत ह। यह ठ क है क शु लजी ने व याप त को
आ दकाल के अ तगत रखा है और व याप त का रचनाकाल 1375 ई. से 1418 ई.
के म य माना जाता है और इस ि ट से आ दकाल क अि तम सीमा 1418 ई.
नधा रत क जा सकती है क तु इसम स दे ह नह ं है क भि तकाल म िजन
वृि तय का वकास हु आ, उनक भू मका व याप त के पूव ह पूण हो चु क थी।'
डा. दनेश के इस कथन से यह स होता है क आचाय शु ल वारा नधा रत सीमा
1318 ई. के बाद भी दो-तीन दशा द तक आ दकाल न सा ह य लखा जाता रहा।

1.3 आ दकाल : नामकरण क सम या


(क) सा ह ये तहासकारो के वचार
ह द सा ह य का इ तहास आ दकाल से ार भ होता है। इ तहास म सवा धक
ववा दत आलो य काल को अनेक व वान ने भ न- भ न आधार पर नामां कत
कया िजनम आ दकाल, वीरगाथाकाल, ारि मक काल, चारण काल आ द नाम च लत
हु ए।
डॉ. नगे वारा स पा दत पु तक ' ह द सा ह य का इ तहास' म नामकरण के मु ख
आधार का ववेचन न न ल खत व प म ा त होता है:-
(1) ऐ तहा सक काल म के अनुसार : आ दकाल, म यकाल, सं ाि त-काल, आधु नक
काल आ द।
(2) शासक और उसके शासनकाल के अनुसार: ए लजाबेथ युग , व टो रया-युग , मराठा
काल आ द।
(3) लोकनायक और उसके भावकाल के अनुसार : चैत य-काल (बां ला), गाँधी युग
(गुजराती) आ द।

15
(4) सा ह य नेता एवं उसके भाव. प र ध के आधार पर रवी युग , भारते दु युग
आ द।
(5) रा य, सामािजक अथवा सां कृ तक घटना या आ दोलन के आधार पर:
भि तकाल, पुनजागरण काल, सु धार काल' यु ो तरकाल ( थम महायु के बाद का
कालख ड) वातं यो तर काल आ द।
(6) सा हि यक कृ त के नाम पर - रोमानी युग , र तकाल, छायावाद।
उ त आधार म से कसी एक या दो आधार को चु नकर नामकरण करना या उ चत
है और नामकरण से या वग वभाजन के औ च य को स कया जा सकता है? यह
दोन न इस दशा म इं गत करते ह क नामकरण के अभाव म कसी भी समय
वशेष के सा ह य और त स ब धी वृि तय , कृ तय या भाव वशेष को त बि बत
नह ं कया जा सकता है। रा य मह व क घटनाएँ सामािजक, राजनै तक तथा
सां कृ तक जीवन पर गहरा भाव डालती है। सा ह ये तहास म ऐसे अनेक उ लेखनीय
प रवतन राजनै तक और सामािजक घटनाओं के प रणाम व प सामने आये यथा -
वातं ो तर भारत ने यु क वभी षका भी झेल थी और वाधीनता के सपने को
साकार होते हु ए भी पाया। दूसर ओर महानगर का वकास, औ योगीकरण,
मशीनीकरण, सरकार पद क होड़ गाँधीजी क ह या जैसी घटनाओं ने भारतीय
जनमानस को झकझोर कर रख दया। ऐसे म सा ह य क वभाजक रे खा को
वाधीनता से जोड़ना वाभा वक ह था। क तु ऐसा तभी हो सकता है जब कोई एक
घटना या वृि त इतनी बलशाल हो क वह पूरे 'युग का त न ध व कर सके। जहाँ
तक न ह द सा ह य के इ तहास के ार भ-काल का है, वहाँ कोई एक नाम जो
कसी एक वृि त या सा ह यकार या घटना पर केि त हो वह खरा नह ं उतर पाता
है। अत: मतै य के अभाव म कई नाम चलन म आ गए। आगामी पृ ठ म उ ह ं
नाम के औ च य का व लेषण तु त कया जा रहा है।
ह द सा ह य के आर भ को भाषा और सा हि यक साम ी से जोड़कर दे खा जाता है।
ह द भाषा और सा ह य क अ भ नता अ ु ण है क तु भाषा के इ तहास क ल बी
या ा म यह दे खा जा सकता है क भाषा के प थान, काल और आव यकता के
अनु प प रव तत होते आये ह। भाषा वद ने ह द भाषा के अनेक प का उ लेख
कया है िजनम मगह , मै थल , भोजपुर , अवधी, क नौजी, बु दे लख डी, ज,
खड़ीबोल , बांग मेवाती, हाड़ौती, मारवाड़ी, मेवाड़ी, ढू ं ढाड़ी मालवी, भील खानदे शी,
पहाड़ी आ द मु ख ह। ह द के आलोचक इ तहास, सा ह य और त नुसार नामकरण
म भाषा के मह व को उ चत ठहराते ह और यह वीकार करते ह क भाषा, सा ह य,
कृ त और वृि तय का पर पर सामंज य होना अ नवाय है।
ह द सा ह य के आर भ का स ब ध भाषा और सा हि यक चेतना से जोड़ा जा सकता
है। इस ि ट से ह द सा ह य क ारि भक रचनाएँ अप ंश म लखी गयीं। च धर
शमा गुलेर पहले ऐसे व वान थे िज ह ने 'उ तर अप ंश को 'पुरानी ह द का नाम

16
दया। आचाय रामच शु ल ने भी उ तर अप श
ं क रचनाओं को आ दकाल के
अ तगत थान दया। हजार साद ववेद ने यह वीकार कया क 'दसवीं से चौदहवीं
शता द का काल िजसे ह द का आ दकाल कहते ह, भाषा क ि ट से अप ंश का ह
बढ़ाव है। इसी अप श
ं के बढ़ाव को कु छ लोग उ तरकाल न अप श
ं कहते ह और कु छ
लोग पुरानी ह द । बारहवीं शता द तक नि चत प से अप श
ं भाषा ह पुरानी ह द
के प म चलती थी, य य प उसम नये त सम श द का आगमन शु हो गया था।
ववेद के इस कथन से यह ात हो जाता है क 'उ तर अप श
ं म त सम श द का
आगमन होने पर वह भाषा ह द भाषा का प लेने लगी। एक तक यह भी दया
जाता है क शु लजी ने िजस धा मक चेतना को नर त कया उसका स ब ध भि त
सा ह य से जु ड़ता है। अत: आ दकाल म से स और नाथ सा ह य को पृथक करना
उ चत नह ं है।
आर भ का सा ह य : थमक व :
शव संह सगर ने सातवीं शता द म उ प न 'पु य' या 'पु ड ' नामक क व को थम
क व माना है। राहु लजी ने सातवीं शता द के सरहपाद को ह द का थम क व माना
है। क तु थम क व या थम रचना के नामकरण का नणय अभी तक ववादा पद
है।
ह द सा ह य के इ तहास क पर परा का अ ययन करने पर आलोचक ने क तपय
ववरण तु त कए िजनसे यह ात हो पाता है क यसन से पूव 'भ तमाल',
'चौरासी वै णव क वाता', 'दो सौ बावन वै णवन क वाता' आ द क तपय क ववृत
सं ह लखे गये िजनम काल- वभाजन और नामकरण क ओर कोई संकेत नह ं थे।
इसके प चात ् गासा द तासी, मौलवी कर मु ीन, शव संह क पु तक म भी ऐ तहा सक
ि ट का अभाव था। काल वभाजन करके नामकरण करने वाले थम इ तहासकार
यसन थे िज ह ने थमत: 'चारण काल' नाम दया क तु इस नामकरण को उ चत
और पूण नह ं माना गया। इसका कारण यह था क एक तो वे इस काल को 643 ई.
तक पीछे ले गए दूसरा उस समय क कसी भी चारण रचना या चारण- वृि त उ लेख
नह ं कर पाए।
(ख) परवत आलोचक के ख डन-म डन
यसन के प चात ् नामकरण क एक ल बी खृं ला है िजसका मानुसार व लेषण
इस कार है:
म ब धु ( ारि मक काल 700-1444) म ब धुओं ने सा ह य के इ तहास का
वग करण यसन क अपे ा अ धक ौढ़ और सु यवि थत प त से तु त कया है।
म ब धु ओं ने ' म ब धु वनोद नाम से चार भाग म सा ह य का इ तहास लखा जो
2250 पृ ठ म फैला हु आ है। इसम 5000 से अ धक क वय का ववरण है। इस
थ को म ब धु ओं ने आदश इ तहास क सं ा द । म ब धुओं ने आलो य काल
को ' ारि भक काल' नाम दया। इसम म वय ने 643- 1387 ई. तक का सा ह य

17
समेटा है। इस नामकरण का कोई ठोस आधार तो नह ं था क तु ' ारि भक काल के
पीछे ' ह द भाषा' को के म रखा था। यह कारण है क उ ह ने अ याय के
अ तगत 'पूव ारि भक ह द (643-1290 ई-), च द पूव क ह द (643-1143
ई., ‘रासोकाल (1143- 1290 ई.), उ तर आरि भक ह द (1291 -1387 ई.) आ द
नाम दये।
म बंधु ओ के प चात ् 'आ दकाल के लये आचाय रामच शु ल का इ तहास
'वीरगाथाकाल’ क सं ा लेकर काश म आया।
आचाय रामच शु ल : वीरगाथा काल (1050 से 1375 स): आचाय शु ल ने लखा,
'आ दकाल का नाम मने 'वीरगाथाकाल रखा है।‘ अपने दए गए नामकरण क
ासं गकता, औ च य और आधार पर वचार य त करते हु ए शु ल ने अपने थ
' ह द सा ह य का इ तहास के 'व त य' म लखा, 'उ त काल के भीतर दो कार क
रचनाएँ मलती ह - अप श
ं क और दे शभाषा क । अप ंश क पु तक म कई तो
जैन के धम-त व- न पण स ब धी जो सा ह य क को ट म नह ं आती और िजसका
उ लेख केवल यह दखाने के लये कया गया क अप श
ं भाषा का यवहार कब से हो
रहा था। सा ह य क को ट म आने वाल रचनाओं म कु छ तो भ न- भ न वषय पर
फुटकल दोहे ह, िजनके अनुसार उस काल क कोई वशेष वृ त नधा रत नह ं क जा
सकती। शु लजी ने चार सा हि यक पु तक और आठ दे शी पु तक के आधार पर
'आ दकाल' के ल ण और नामकरण को वीरगाथा मक स कया। ये पु तक इस
कार ह:-
1. वजयपाल रासो
2. ह मीर रासो
3. क तलता
4. क तपताका
दे शभाषा का य
5. खु मान रासो
6. वीसलदे व रासो
7. पृ वीराज रासो
8. जयचंद काश
9. जयमयंक जस चि का
10. परमाल रासो
11. खु सरो क पहे लयाँ आ द
12. व याप त पदावल ।
शु लजी के अनुसार 'इनम से अं तम दो तथा वीसलदे व रासो को छो कर शेष सब
थ वीरगाथा मक ह ह। अत: आ दकाल का नाम 'वीरगाथाकाल' ह रखा जा सकता

18
है। िजस सामािजक या राजनी तक प रि थ त क ेरणा से वीरगाथाओं क वृि त
स य रह है, उसका भी उ लेख शु लजी क पु तक म मलता है, 'भारत के इ तहास
म यह वह समय था क मु सलमान के हमले उ तर-पि चम क ओर से लगातार होते
रहते थे। इनके ध के अ धकतर भारत के पि चमी ांत के नवा सय को सहने पड़ते थे
जहाँ ह दुओं के बड़े-बड़े रा य ति ठत थे। गु त सा ा य के व त होने पर हषवधन
के उपरांत भारत का पि चमी भाग ह भारतीय स यता और बलवैभव का के हो रहा
था। क नौज, अजमेर, अ हलवाड़ा आ द बड़ी-बड़ी राजधा नयाँ उधर ह ति ठत थी।
उधर क भाषा ह श ट भाषा मानी जाती थी और क व चारण आ द उसी भाषा म
रचना करते थे। ारि भक काल का जो सा ह य हम उपल ध है उसका आ वभाव उसी
भू-भाग म हु आ। अत: यह वाभा वक है क उस भू-भाग क जनता क च तवृ त क
छाप उस सा ह य पर हो। उस काल म शौय और वीरता का भाव कतना बलवती था
इसका अनुमान शु लजी के इस कथन से और प ट होता है क राजपूत अपने भाव
क वृ के लये पर पर लड़ा करते थे। 'कभी-कभी तो शौय दशन मा के लए य
ह लड़ाई मोल ले ल जाती थी। बीच-बीच म मुसलमान के भी हमले होते रहते थे।
सारांश यह क िजस समय से हमारे ह द सा ह य का अ युदय होता है वह लड़ाई-
भड़ाई का समय था, वीरता के गौरव का समय था। 'शु लजी 'आ दकाल' म च लत
पर पराओं और वृि तय को भी वीरगाथा मक का य के लये िज मेदार मानते ह 'राजा
भोज क सभा म खड़े होकर राजा क दानशीलता का ल बा-चौड़ा वणन करके लाख
पये पाने वाले क वय का समय बीत चु का था। राजदरबार म शा ाथ क वह धू म
नह ं रह गयी थी। पां ड य के चम कार पर पुर कार का वधान भी ढ ला पड़ गया था।
उस समय तो भाट या चारण कसी राजा के परा म, वजय, श ु क या, हरण आ द
का अ युि तपूण आलाप करता था या रण े म जाकर वीर के दय म उ साह क
उमंग भरा करता था, वह स मान पाता था। इस दशा म का य या सा ह य के और
भ न- भ न अंग क पू त और समृ का सामु दा यक य न क ठन था। उस समय
तो केवल वीरगाथाओं क उ न त संभव थी। इस वीरगाथा को हम दोन प म पाते ह
- मु तक के प म भी और बंध के प म भी। फुटकर रचनाओं का वचार छो कर
यहाँ वीरगाथा मक बंधका य का ह उ लेख कया जाता है।
आचाय शु ल के वृ या मक नामकरण 'वीरगाथा-काल' पर परवत आलोचक ने नवीन
च तन तु त करते हु ए अनेक आपि तयाँ य त क -
(1) आचाय शु ल 'वीरगाथाकाल’ क सीमा 1050 से 1375 व. तक मानते ह। डॉ.
शवकुमार शमा के अनुसार 'सव थम तो उ त काल का सीमा नधारण ह सदोष
है। भाषा व ान के अनुसार अ य आधु नक भारतीय भाषाओं के समान ह द
भाषा का वकास बारहवीं शता द के उ तराध म हु आ अत: 1050 के समय ह द
भाषा के थ क स ता सवथा अमा य है। शु ल ने तथा उनके अनेक अनुकता
इ तहास लेखक ने अप श
ं सा ह य को पुरानी ह द या ाकृ ताभास क प र ध म

19
समेटना चाहा है जो क असमीचीन है। इसके अ त र त आचाय शु ल ने िजन
रचनाओं के आधार पर उ त काल का नामकरण वीरगाथाकाल कया है, वे या तो
अि त वह न घो षत हो चु क है अथवा उनम से कु छ परवत काल क स हो
चु क है। व तु ि थ त यह है क भारत म ाचीनकाल से लेकर आधु नककाल के
आर भ से पूव तक सा ह य सृजन क या धमा य, रा या य तथा लोका य
म चलती रह ।‘ व वान का यह भी मत है क शु ल जी ने लगभग 900 वष
का सा ह य ' ह द सा ह य के इ तहास म समेटा है। शु ल ने नामकरण म तीन
मु ख बात का यान रखा। पहल वीरगाथाओं से यु त थ क चु रता दूसर
जैन आचाय वारा र चत ाचीन धा मक थ को धा मक सा ह य कहकर
सा हि यक प र ध से पृथक कर दे ना। इसी तरह नाथ और स क रचनाओं को
वशु सा ह य से वं चत कर दे ना। तीसर मु य बात यह भी थी क वभ न
वषय म ल खत फुटकर दोह को वशेष मह व न दे ना। हजार साद ववेद ने
धा मक पु तक को सा हि यक ेणी म न मानना अनु चत ठहराया। 'धा मक ेरणा
या आ याि मक उपदे श होना का य का बाधक नह ं समझा जाना चा हए अ यथा
हम सं कृ त क रामायण, महाभारत, भागवत एवं ह द सा ह य क रामच रत
मानस, सू रसागर आ द सा हि यक सौ दय संक लत अनुपम थ र न को भी
सा ह य प र ध से बाहर रखना होगा।
डॉ. रामकु मार वमा ने आ दकाल को सं धकाल और चारणकाल इन दो ख ड म
वभािजत कया। थम काल भाषा क ओर संकेत करता है जब क वतीय नाम
एक वग का योतक है।
राहु ल सांकृ यायन ने 'आ दकाल’ को ' स -सामंतकाल’ नाम दया। यह नाम दो
वग का ह त न ध व करता है। स रचनाकार थे और साम त रचना क ेरणा
दया करते थे क तु आ दकाल के चु र सा ह य के स दभ म यह नाम एकप ीय
है।
व वनाथ साद म ने आलो यकाल को 'वीर-काल’ नाम दया जो ाय: शु लजी
के वचार को पु ट करता है।
महावीर साद ववेद ने इस काल को 'बीजवपन काल’ नाम दया। आलोचक ने
इस नामकरण को आगे नह ं बढ़ाया य क यह कसी भी वृि त को नह ं दशाता
था। हजार साद ववेद 'आ दकाल’ नाम क सं ा को था पत करते ह। डॉ.
नगे भी इस नाम का समथन करते ह 'वा तव म आ दकाल ह ऐसा नाम है
िजसे कसी न कसी प म सभी इ तहासकार ने वीकार कया है तथा िजससे
ह द सा ह य के इ तहास क भाषा, भाव, वचारणा, श पभेद आ द से स ब
गुि थयाँ सु लझ जाती है।
ग) न कष

20
'आ दकाल नाम से उस यापक पृ ठभू म का बोध होता है िजस पर आगे का सा ह य
खड़ा है। भाषा क ि ट से भी हम इस काल के सा ह य म ह द के आ द प का
बोध पा सकते ह।‘ इस कथन से स होता है क 'आ दकाल’ नाम ह सवमा य है।

1.4 सारांश
इस इकाई म आपने आ दकाल के काल नधारण, नामकरण, नामकरण का आधार और
ासं गकता के वषय म जानकार ा त क।
इस इकाई का अ ययन करने के उपरा त आप यह बताने म स म हो सकगे क
आ दकाल म ह द भाषा, ह द सा ह य, युगीन प रि थ तय और इ तहास का योग
रहा है। नामकरण पर तु त व भ न इ तहासकार के काल वभाजन और नामकरण
से आ दकाल क वृि तय का बोध होता है। इतना ह नह ,ं यह काल ामा णकता क
ि ट से कतना ववा दत रहा और इसका सा ह य कतनी वभ न वृि तय को
व तार दे ता हु आ अपने नाम को साथक करता है, इस मंत य को भी थान मलता
है। 'आ दकाल’ के नामकरण म ह उसके इ तहास लेखन क पर परा का ान छपा हे
जो लेखन पर परा क साथकता को स करता है।

1.5 अ यासाथ न
(1) आ दकाल का काल नधारण (सीमांकन) कसने और कस तरह कया है?
(2) आ दकाल का सीमांकन राहु लजी ने कब से कया?
(3) आचाय शु ल वारा तु त नामकरण का ववेचन तु त कर।
(4) आ दकाल के थम क व पर वचार तु त कर।
(5) 'वीरगाथा-काल’ क सा हि यक वृि तय पर काश डा लए।
(6) हजार साद ववेद वारा तु त नामकरण पर वचार य त कर।

1.6 ंथ सू ची
1. रामच शु ल - ह द सा ह य का इ तहास, काशन सं थान, दयान द, द रया
गंज, नई द ल , 2005
2. डॉ. नगे (स) ह द सा ह य का इ तहास, मयूर पेपर वै स, ए-15, से टर-5,
नोएडा, 1973
3. हजार साद ववेद - ह द सा ह य का आ दकाल, ह द सा ह य क भू मका,
राजकमल काशन, 2005
4. गणप तच गु त - ह द सा ह य का वै ा नक इ तहास एवं सा ह य नबंध,
लोक भारती काशन, 1999
5. डॉ। रामकुमार वमा - ह द सा ह य का आलोचना मक इ तहास
6. डॉ. ल मीलाल बैरागी - ह द भाषा और सा ह य का इ तहास, संघी काशन,
जयपुर , 2006

21
7. यामचं कपूर - ' ह द सा ह य का इ तहास, ं अकादमी, नई द ल , 1999

8. बहादुर संह - ह द सा ह य का इ तहास, माधव काशन, 2006

22
इकाई - 2 : आ दकाल न का य क प रि थ त
इकाई क परे खा
2.0 उ े य
2.1 तावना
2.2 आ दकाल न का य क प रि थ तयाँ
2.2.1 आ दकाल न का य का ार भ
2.2.2 व भ न प रि थ तयाँ -
(क) राजनै तक ि थ त
(ख) धा मक ि थ त
(ग) सामािजक ि थ त
(घ) सां कृ तक ि थ त
2.2.3 सा हि यक प रवेश
2.3 सारांश
2.4 अ यासाथ न
2.5 संदभ थ

2.0 उ े य
आधार पा य म के नातको तर पूवा , ख ड 1 म हम ' ह द सा ह य के इ तहास
क भू मका और आ दकाल' के अ तगत इकाई-2 म 'आ दकाल न का य क प रि थ त
के वषय म व तृत जानकार ा त करगे। इस इकाई को पढने के बाद आप जान
सकगे-
(1) सा ह य म प रि थ तय का भाव
(2) सा ह य और समाज का पर पर स ब ध
(3) व भ न सा ह यकार के ववे य वषय पर वचार
(4) प रवेश का भाव
(5) व भ न प रि थ तय का उ लेख
(6) राजनै तक प रि थ तय के आलोक म आ दकाल न का य क परख
(7) धा मक प रि थ तय का भाम डल
(8) धम का समाज पर असर
(9) धम का सा ह य म ह त ेप
(10) सा ह य के मा यम से धम का चार
(11) धा मक सा ह य क उपादे यता
(12) सामािजक प रि थ तय का ववरण
(13) सामािजक जीवन म धम, राजनी त और समाज का ह त प

23
(14) सा ह य का समाज पर भाव
(15) समाज क सा ह य म दपण के समान भू मका
(16) सां कृ तक प रि थ तयाँ
(17) भारतीय सं कृ त का प र य
(18) सा हि यक वातावरण

2.1 तावना
सा ह य और समाज का स ब ध अ ु ण है। समाज इ तहास, दशन और क वता सभी
प रवतनशील ह क तु यह सु नि चत है क सा ह य समाज से भाव हण करता है।
इसी म म समाज को बदलने म सा ह य क महती भू मका से इंकार नह ं कया जा
सकता है। 'इ तहास' दशन और क वता कला सभी अपने समय क पदचाप को पहचान
कर ह समृ हु ए ह।
कहा जाता है क 'सा ह य' श द का चलन सातवीं-आठवीं शती से हु आ । इससे पहले
सं कृ त म 'सा ह य' के थान पर 'का य' श द का ह योग मलता है । भामह,
राजशेखर, कु तक आ द भृ त आचाय ने का य क प रभाषा करते हु ए श द और अथ
के सहभाव को ह का य बताया तथा इसी संग म उ ह ने 'स हतौ', 'सहभाव’ आ द का
उ लेख कया, पर आगे चलकर श द और अथ के सहभाव के थान पर केवल सहभाव
ह रह गया। यह भी भाषा व ान का नयम है क जब एक ह अथ म दो श द का
योग होने लगता है तो उनम से कसी एक का अथ संकु चत या प रव तत हो जाता
है। जब सं कृ त म भी का य ओर सा ह य दोन श द का योग एक ह अथ म होने
लगा तो आगे चलकर का य का अथ संकु चत हो गया, वह केवल क वता तक सी मत
रह गया जब क 'सा ह य' का योग यापक प म - क वता, नाटक, उप यास,
समी ा आ द सभी वधाओं के लये होने लगा।' (गणप तच गु त, सा हि यक नबंध)
ह द का सा ह य 'भावना या शि त का सा ह य' है। दे शकाल क प रि थ तय से
सा ह यकार का भा वत होना वाभा वक है। गणप तच गु त ने 'सा ह य म
यि त व के तफलन’ क स व तार ववेचना क है। इसी म म यह प ट होता है
क सा ह य म जो वचार य त होते ह उनका आधार 'समय वशेष’ होता है।
राजनै तक, सामािजक, धा मक और सां कृ तक ि थ तय के त सजग और सचेत
रचनाकार ह कालजयी सा ह य रच सकता है। ऐसा कहा भी गया है क जो रचना
'समय' को अपनी अ भ यि त का सा ी नह ं बनाती है वह समय पर वजय भी ा त
नह ं कर सकती है। आ दकाल न का य अपने प रवेश से अ भ न प से जु ड़ा है।
वीरता, धा मक मा यताएँ, गृं ार, ेम और ओज से भरे आ दकाल न का य क
वृि तय को प रि थ तय क कसौट पर परखा जाना समु चत होगा।

24
रामच शु ल के श द म, 'इ तहास त य सं ह-मा नह ं है। अपने समय क
सं कृ त, समाज और राजनी त क मह वपूण सू चनाओं का जीवंत थाप य ह
वा त वक इ तहास है।

2.2 आ दकाल न का य क प रि थ त
सामा य प रचय
ह द सा ह य क पर परा अ य त ाचीन है। ह द भाषा के सा ह य से पूव ह
सं कृ त, पा ल, ाकृ त तथा अप श
ं भाषा का वपुल और समृ सा ह य उपल ध होता
है।
सं कृ त भाषा का सा ह य अ वतीय माना जाता है। यह सा ह य दो भाग म वभ त
है - (क) वै दक सा ह य (ख) लौ कक सा ह य। वेद, वेदांग, ा मण, थ तथा
उप नष वै दक सा ह य के अंग थे जब क धा मक तथा ऐ हकतापरक का य, बंध
का य, गी त का य, नाटक, मु तक, कथा सा ह य, अलंकृत ग य का य, इ तहास एवं
पुराण तथा समी ा शा के सा ह य को लौ कक सा ह य म अ त न हत माना गया।
भारतीय सा ह य क गौरवमयी पर परा को समृ करने का ेय सं कृ त के दो महा
थ वा मी क कृ त 'रामायण’ और वेद यास कृ त 'महाभारत’ को जाता है। सं कृ त
सा ह य क एक अ य उपलि ध ग य सा ह य के प म ा त होती है। पंचतं ,
हतोपदे श, शु क स त त तथा सातवीं शती म द डी क रचनाएँ ग य सा ह य क
उ लेखनीय उपलि ध रह । भरत का 'ना यशा ' ना य जगत म शा ीय वधान के
कारण ति ठत हु आ। सा ह य के े म पा ल एक भाषा के प म च लत हु ई
िजसका अथ था पु तक से ा त श ा बोध। पा ल भाषा के सा ह य का मह व बौ
धम के स ा त के चार- सार से स ब है। 600 से 1200 ई. पूव तक पा ल,
ाकृ त और अप ंश भाषाएँ चलन म रह िज ह म यकाल न आय भाषाएँ कहा गया
है। ाकृ त जैसी लोक यवहार क भाषा का योग जैन और बौ वारा ह कया
गया।
जनसामा य म अप श
ं दे शी भाषा अथवा बोल के नाम से जानी जाती थी। इसे दोहा
दूहा , अवहठ और अवह थ आ द नाम से भी जाना जाता है। यह भाषा श द के वकृ त
अथ के प म भी जानी जाती है अथात ् सं कृ त को मू ल श द और श द के बगड़े हु ए
प को अप ंश कहा गया। इस लये क वय ने ाय: शौरसेनी अप श
ं का योग कया
जो नागर अप ंश के नाम से स भाषा थी। जैन के धमपरक का य तथा
नाथपं थय क वाणी अप ंश सा ह य का मु ख ह सा है।

2.2.1 आ दकाल न का य का ार म

आ दकाल न का य क प रि थ तय को जानने से पूव यह आव यक है क हम


आ दकाल न का य का सीमांकन तय कर। व तु त: सा हि यक कृ तय क ामा णकता
के ववाद से घरे 'आ दकाल’ म अनेक कार क सा हि यक रचनाओं, रचनाकार और

25
वृि तय का प रचय मलता है। आ दकाल का काल वभाजन, नामकरण, भाषा और
सा ह य सारे उपांग गहरे व लेषण और शोध का वषय है। रा या य, लोका य एवं
धमा य म सृिजत सा ह य का ार भ भाषा के आधार पर नधा रत कया गया है।
राहु ल सांकृ यायन तथा रामकु मार वमा अप श
ं को 'पुरानी ह द’ स करते हु ए
आ दकाल का उ गम 7-8वीं शता द से मानते ह।
आचाय रामच शु ल, यामसु दर दास तथा हजार साद ववेद आ दकाल का
ार म 10वीं और 11वीं शता द के म य मानते ह। शु लजी के अनुसार ' ाकृ त’ क
अि तम अप ंश अव था से ह ह द सा ह य का आ वभाव माना जा सकता है। शु ल
जी ने ' ह द सा ह य का इ तहास’ के करण-1 म यह वीकार कया क अप श
ं या
ाकृ ताभास ह द के प य का सबसे पुराना पता तां क और योगमाग बौ क
रचनाओं के भीतर मलता है जो सातवीं शता द के अं तम चरण म उभरता है क तु
अप श
ं या पुरानी ह द का शु सा हि यक या का य रचनाओं का पता मु ंज और
भोज के समय संवत ् 1050 के लगभग मलता है। शु ल जी के अनुसार ' ह द
सा ह य का आ दकाल संवत ् 1050 से लेकर संवत ् 1375 तक अथात ् महाराज भोज के
समय से लेकर ह मीरदे व के समय के कु छ पीछे तक माना जा सकता है।‘ शु लजी
आ दकाल को 'वीरगाथाकाल' क सं ा से अ भ हत करते ह। इस नामकरण का आधार
वृि त वशेष का उभार है। इस आधार पर आ दकाल के ारि मक डेढ़ सौ वष के
भीतर क रचना म कोई एक वृि त वशेष ि टगत नह ं होती। धम, नी त, गृं ार,
वीर नाम क बहु त सी वृि तयाँ मलती ह। शु ल कसी एक वृि त का नदशन
मु सलमान के आ मण के समय से ह मानते ह। उ त ववेचन से यह सु नि चत
होता है क आ दकाल न का य क प रि थ तय का काल संवत ् 1050 से 1375 तक
का है।
कालगत प रि थ तय के च ण का औ च य :
कसी भी काल के का य पर प रि थ तय का दबाव कतना अ धक होता है इसका
सट क च ण महावीर साद ववेद ने इस पंि त के मा यम से कया था 'सा ह य
समाज का दपण होता है।‘ दूसरा पठनीय आदश कथन शु लजी वारा रचा गया
िजसक पुनरावृि त इस संदभ म आव यक है। वे 'वीरगाथाकाल’ नाम क साथकता के
संग म त काल न प रि थ तय को भावी मानते हु ए लखते ह, जब क येक दे श
का सा ह य वहाँ क जनता क च तवृि त का सं चत त ब ब होता है तब यह
नि चत है क जनता क च तवृि त के प रवतन के साथ-साथ सा ह य के व प म
भी प रवतन होता चला जाता है। आ द से अंत तक इ ह ं च तवृि तय क पर परा को
परखते हु ए सा ह य पर परा के साथ उनका सामंज य दखाना ह 'सा ह य का
इ तहास' कहलाता है। जनता क च तवृि त बहु त कु छ राजनी तक, सामािजक,
सा दा यक तथा धा मक प रि थ त के अनुसार होती है। अत: कारण व प इन
प रि थ तय का कं चत द दशन भी साथ ह साथ आव यक होता है। इस ि ट से

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ह द सा ह य का ववेचन करने म यह बात यान म रखनी होगी क कसी वशेष
समय म लोग म च वशेष का संचार और पोषण कह ं से और कस कार हु आ।
हजार साद ववेद जनसमु दाय क सा हि यक भागीदार को ारि मक समय से ह
ज र मानते है और इस वचार को व तार दे ते हु ए ' ह द सा ह य: भारतीय च ता
का वाभा वक वकास नामक लेख म लखते ह' आज से लगभग हजार वष पहले
ह द सा ह य बनना शु हु आ था। इन हजार वष म भारतवष का ह द भाषा जन-
समु दाय या सोच समझ रहा था, इस बात क जानकार का एकमा साधन ह द
सा ह य ह है। कम से कम भारतवष के आधे ह से क सह वष - यापीआशा-
आकां ाओं का मू तमान तीक यह ह द सा ह य अपने आपम एक ऐसी शि तशाल
व तु है क इसक उपे ा भारतीय वचारधारा के समझने म घातक स होगी। ( ह द
सा ह य क भू मका)

2.2.2 व भ न प रि थ तयाँ

(क) राजनै तक ि थ त –

कसी भी काल क प रि थ तयाँ सा ह य लेखन के मु य वर को भा वत करती ह।


यह बात अलग है क कई बार प रि थ तय से पृथक पर परा के मक वकास को
य त करता सा ह य भी मु य धारा के साथ वा हत रहता है। राजनै तक ि ट से
आ दकाल क पृ ठभू म म हषवधन के सा ा य के पतन का समय स पूण था। वधन
सा ा य के काल म उ तर भारत पर यवन आ मणका रय ने आ मण करना शु
कर दया था। हषवधन ने यवन का पूर बहादुर से सामना कया। हषवधन क मृ यु
के प चात ् हालात और भी बगड़ गए। उनका कोई भी उ तरा धकार इतना ताकतवर
नह ं था क बा य-आ मण से दे श क र ा कर सकता। प रणाम व प वधन सा ा य
का पतन एवं राजपूत रा य का उदय हु आ। राजपूत वीर, साहसी और दे श म
े ी थे।
उ ह ने अपनी पूर शि त यवन से लड़ने म झ क द क तु अ तत: वदे शी
आ मणका रय को सा ा य व तार से रोक नह ं पाए। कारण प ट था 'इनक
आपसी फूट और बैर। एकता और सौहा क कमी ने राजपूत को बार-बार परािजत
कया और यवन के उ साह को बढ़ावा दया। प रणाम यह हु आ क मु ि लम को नाक
चने चबाने वाल राजपूत जा त इ लाम क सा ा यवाद ताकत को रोकने म असफल
रह । ह दू जनता दोहर मार झेल रह थी। उसे एक ओर बा य आ मणका रय क
मार झेलनी पड़ रह थी तो दूसर ओर दे शी राजाओं के नर तर यु क मार भी सहन
करनी पड़ रह थी। ‘आ दकाल के इस यु भा वत जीवन म कह ं भी संतल
ु न नह ं
था। जनता पर वदे शी आ ा ताओं के अ याचार के साथ-साथ यु -कामी दे शी राजाओं
के अ याचार का म भी बढ़ता चला गया। वे पर पर लड़ने लगे और जा पी ड़त
होने लगी। पृ वीराज चौहान, जयच द, परम ददे व आ द क पार प रक लड़ाइयाँ
अ तह न कथाएँ बनती गयीं। फलत: अ तह न जनता म एक ऐसे वग का. उदय हु आ

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जो साहस और वीरता के साथ लड़ते हु ए जीना चाहता था तो एक दूसरा ऐसा वग भी
पनपा जो वनाशल ला दे ख-दे खकर संसारे तर बात सोचने को बा य था। अराजकता,
गृहकलह, व ोह, आ मण और यु के वातावरण म य द एक क व आ याि मक जीवन
क बात करता था, तो दूसरा मरते-मरते भी जीवन का रस भोग लेना चाहता था। एक
तीसरा ऐसा भी क व था जो तलवार के गीत गाकर गौरव के साथ जीना चाहता था।
यह इस काल क राजनै तक प रि थ तय क एक व च दे न है िजसके फल व प
यद ी भोग, हठयोग से लेकर आ याि मक पलायन और उपदे श तक का सा ह य
एक ओर लखा गया तो दूसर ओर ई वर क लोक-क याणकार स ता म व वास
करते, लड़ते-लड़ते जीने और संसार को सरस बनाने क भावना भी सा ह य-रचना के
मू ल म सि न हत हु ई।'
आलोचक रामच शु ल आ दकाल क राजनै तक घटनाओं का मू यांकन यु क मार
से उपजी ि थ तय के आलोक म करते ह, 'भारत के इ तहास म यह वह समय था क
मु सलमान के हमले उ तर-पि चम क ओर से लगातार होते रहते थे। इनके ध के
अ धकतर भारत के पि चमी ांत के नवा सय को सहने पड़ते थे जहाँ ह दुओं के बड़े-
बड़े रा य ति ठत थे। गु त सा ा य के व त होने पर हषवधन (मृ यु संवत ् 704)
के उपरा त भारत का पि चमी भाग ह भारतीय स यता और बालवैभव का के हो
रहा था। क नौज, अजमेर, अ हलवाड़ा आ द बड़ी-बड़ी राजधा नयाँ उधर ह ति ठत
थीं। उधर क भाषा ह श ट भाषा मानी जाती थी और क वचारण आ द उसी भाषा म
रचना करते थे। ारि भक काल का जो सा ह य हम उपल ध है उसका आ वभाव उसी
भू-भाग म हु आ। अत: यह वाभा वक है क उसी भू-भाषा क जनता क च तवृि त
क छाप उस सा ह य पर हो।‘ हषवधन के उपरांत ह सा ा य भावना दे श से अंत हत
हो गयी थी और खंड-खंड होकर जो गहरवार, चौहान, चंदेल और प रहार आ द राजपूत
रा य पि चम क ओर ति ठत थे वे अपने भाव क वृ के लए पर पर यु करते
थे। कभी-कभी तो शौय दशन मा के लये भी यु कये जाते थे। बीच-बीच म
मु सलमान के हमले होते रहते थे। ‘सारांश यह क िजस समय से हमारे ह द सा ह य
का अ युदय होता है, वह लड़ाई- भड़ाई का समय था, वीरता के गौरव का समय था।‘
शु लजी ने महमू द गजनवी के समय और उसके बाद के राजनै तक हालात का व तार
से वणन कया है। अजमेर नगर बसाने वाले अजयदे व का मु सलमान को परा त
करना, अजयदे व के पु अण राज का मु सलमान को परािजत करना, आना के पु
वीसलदे व के समय म बड़े भू-भाग ( द ल और झाँसी) से मु सलमान को खदे ड़ना,
शहाबु ीन गौर क पृ वीराज पर चढ़ाई, रणथ भौर के महाराज ह मीर दे व का
मु सलमान को हराना, आ द ऐसी घटनाएँ थीं िज ह ने यह स कर दया क
आ दकाल क वीरगाथा मक रचनाओं क पृ ठभू म यु का मैदान ह थी।

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उदाहरण के प म 'बीसलदे व रासो का य क मू ल कथा राजा बीसलदे व पर केि त है।
इस थ के रचनाकार नरप त ना ह क व व हराज चतुथ उपनाम वीसलदे व का
समकाल न था। ना ह राजक व था।
च दवरदाई ने 'पृ वीराज रासो’ नाम का एक बड़ा थ लखा। चंद द ल के अं तम
ह दू स ाट महाराज पृ वीराज के सामंत और राजक व थे। 'पृ वीराज रासो’ म
त काल न समय क अनेकानेक घटनाओं का वणन है जहाँ 'यु और ेम’ क
सि म लत का या भ यि तयॉ ह। 'पृ वीराज रासो’ म पृ वीराज और संयो गता का
ग धव ववाह, माग म जयचंद क सेना से यु , भोग- वलास आ द व णत है। जयचंद
से यु , शहाबु ीन क चढ़ाई, पृ वीराज को गजनी भेजना, क वचंद का गजनी पहु ँ चना
यह मा णत करते ह क आ दकाल म ' ी क आसि त और यु क ेरणाएँ, क वय
चारण क तु तयाँ सा ह य म थान बनाए हु ए थे। एक अ य उदाहरण क व क
मनोदशा म बसे वीर व को दशाती है। शु लजी के ववरणानुसार ऐसा स है क
का लंजर के राजा परमार के यहाँ जग नक नाम के एक भाट थे, िज ह ने महोबा के दो
स वीर आ हा और ऊदल (उदय संह) के वीरच रत का व तृत वणन एक
वीरगाथा मक का य के प म लखा था जो इतना सव य हु आ क उसके वीरगीत
का चार मश: सारे उ तर भारत म वशेषत: उन सब दे श म जो क नौज
सा ा य के अ तगत थे- हो गया’। वीर व भाव क पराका ठा इस हु ंकार म सु नी जा
सकती है -
बारह ब रस लै कू कर जीऐं, औ तेरह ले िजऐं सयार।
ब रस अठारह छ ी िजऐं, आगे जीवन को ध कार।।
जनता के कंठ म जग नक के संगीत क यह वीरदपपूण त व न इस त य का माण
है क प रि थ तयाँ सा ह य क धारा को कतना अ धक भा वत करती ह।
(ख) धा मक ि थ त- धा मक ि ट से आ दकाल का समय अनेक कार के धा मक
व वास म घरा हु आ हु आ था। सातवीं शता द के आर भ तक धा मक वातावरण एक
तरह से शांत ह था। धा मक स ाव बना हु आ था। वै दक य , मू तपूजा के साथ-साथ
जैन एवं बौ धम क पूजा प तयाँ जनसाधारण म स मान ा त थी। य- य
सातवीं शता द आगे बढ़ य- य द ण भारत क ओर से धा मक लहर आलवार और
नाय बार स त के सहारे उ तर क ओर बढ़ने लगी। 'चीनी मणकार हे सॉग लगभग
642 ई. म जब भारत आया तो उसने यहाँ बौ धम के पतन क झलक दे खी। ये दे ख
वे बहु त दुःखी हु ए। बौ धम के वकार त होने के प रणाम व प उ तर भारत म
शैव मत एवं जैन मत स मान पाने लगे। अ त म शैव एवं जैन मत म भी संघष
बढ़ने लगा तथा अ तत: जैन मत को काफ ध का लगा और वै णव आ दोलन जोर
पकड़ने लगा। एक कारण यह भी रहा क राजपूत राजा अ हंसा म व वास कम रखते
थे। कारण क आये दन उ ह लड़ाइयाँ लड़नी थी। इस कार राजपूत राजाओं क ओर
से भी जैन मत को य न मल पाया’। (बहादुर संह, ' ह द सा ह य का इ तहास)

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राजपूत जा त अ हंसामूलक स ा त म व वास नह ं करती थी। आलो यकाल के
धा मक वातावरण पर राजनै तक और सामािजक ि थ तय का भाव प ट था। इसका
वणन डॉ. रामगोपाल शमा ' दनेश’ ने इन श द म कया 'राजपूत राजाओं पर शैव मत
का भाव अ धक था। म य-दे श के गाहडवार राजा मात थे तथा मालवा के राजा
वै दक धम के समथक थे। गंगा और नमदा के अ तराल म कलचु र वंश के शैव मत
के चार म लगा हु आ था। इसी वंश के तापी राजा कण के भाव से काशी शैव
साधना का के बनी हु ई थी। धीरे -धीरे मात मतानुयायी जनता भी शैवी होती जा रह
थी। व तु त: सम त उ तर भारत म धीरे -धीरे शैव मत बौ एवं मात भाव को
वीकार करता हु आ एक नया प लेने लगा था। नाथ मत का उदय इसी प म हु आ।
डा. हजार साद ववेद के मतानुसार ' हमालय के पार-दे श म च लत नाथ पूजा बौ
धम को भा वत करके व यान शाखा के नाम से स हो चु क थी।
डॉ. ई वर साद के वचार से इस समय राजपूत शौय के उदय के कारण ा मण धम
क वजय पताका सव फहरा रह थी। क तु बौ धम भी अपनी जड़ गहर कर रहा
था। उसक महायान शाखा के मं -तं , जादू-टोने, यान-धारणा आ द के अनेक भाव
समाज के न न वग के लोग पर छाये हु ए थे। जनता ह दू साधु ओं का िजतना
स मान करती थी उतना ह बौ सं या सय का भी आदर था। इस कार के धा मक
मतवाद का जनता पर भाव बढ़ता ह जा रहा था। लोग म आ म व वास क कमी
होती जा रह थी। शैव साधक ने लोग क चौरासी लाख यो नय म भटकने का भय
दखाकर कम के त न सा हत ह अ धक कया। धा मक थान पर य भचार,
आड बर, अथ लोभ आ द दोष फैलने लगे। इसका शकार बौ वहार और ह दू-मि दर
दोन ह होने लगे। पुजार एवं मह त धम के स चे व प से दूर भाग रहे थे। धा मक
थल का मु य काय धन सं ह था िजसका पता महमू द गजनवी के सोमनाथ मं दर
को लू टने म ा त धन से चलता है।
धा मक अशाि त के इस काल म एक बाहर धम इ लाम का वेश भी मह वपूण था।
क तु इ लाम धम का असर आ दकाल से अ धक 'भि तकाल’ के सा ह य पर
प रल त हु आ। आ दकाल तक तो बौ सं या सय के यौ गक चम कार, वै दक और
पौरा णक मत के ख डन-म डन, जैन धम का पौरा णक आ यान को नये प म
गढ़ना आ द ऐसे धा मक त व थे जो जनता को द मत कर रहे थे।
धम और सा ह य के पर पर तादा मय का सजीव उदाहरण आ दकाल म य दे खे
जा सकते ह। उदाहरण के लए स ने बौ धम के व यान त व का चार करने के
लये जनभाषा म स सा ह य लखा। इन स म सरहपा, शबरपा, लु इपा, डोि भपा,
क हपा एवं कु कु रपा स हु ए। स ने अपनी रचनाओं वारा पाख ड और
आड बर का वरोध कया तथा सहज जीवन को महासुख ाि त का माग बताया।
स ने िजस तरह व यान का चार कया उसी कार क वता के मा यम से जैन
साधुओं ने अपने मत का चार कया। जैन साधु ओं ने 'रास’ को एक भावशाल

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रचनाशैल का प दया। जैन तीथकर के जीवन-च रत तथा वै णव अवतार क कथाएँ
जैन आदश के आवरण म 'रास’ नाम से प यब क गयी। जैन मि दर म ावक
लोग रा के समय ताल दे कर 'रास’ का गायन करते थे। दे वसेन, मु न िजन वजय,
आसगु क व, िजनधमसू र, वजयसेन सू र क धा मक रचनाएँ जैन धम के चार- सार
म बहु त सहायक हु ई।
योग साधना क त या म नाथपं थय क हठयोग साधना आर भ हु ई िजसका समय
बारहवीं से चौदहवीं शता द तक माना गया। डॉ. रामकु मार वमा नाथ पंथ से ह संत
मत का वकास मानते थे। म ये नाथ, गोरखनाथ, चौरं गीनाथ, गोपीच द आ द
ति ठत हु ए। इन क वय क रचनाओं म उपदे शा मक तथा ख डन-म डन का ाधा य
था।
रासो सा ह य क कृ त वीरगाथा मक थी जो धा मक मतवाद क चारक नह ं थी।
(ग) सामािजक ि थ त - आ दकाल क राजनै तक हलचल और धा मक मत-
मता तर का सामािजक जीवन पर गहरा भाव दे खा जा सकता था। व तु त: राजनी त
धम, समाज और सा ह य पर पर स ब होते ह और समय-समय पर इनके भाव
एक दूसरे पर दे खे जा सकते ह।
त काल न शासक वग राज क याओं के ेम और ववाह म इतने त ल न रहते थे क
इ ह ं कारण से अपहरण और लड़ाई तक करने को उता हो जाते थे। इ ह ं राजाओं
पर एक संकट अपने रा य क र ा का भी था। हर समय रा य पर वदे शी आ ांताओं
और पड़ोसी रा य के बलात ् यु का संकट बना ह रहता था। अत: राजा और उसक
सेना का जीवन भी तलवार क धार पर रहता था ।
दूसरा भाव जो धम का था वह इतना यापक था क यि त कसी एक मतवाद पर
व वास नह ं कर पाता था। धम, जा त और समाज पर एक बड़ा गहराता संकट
इ लाम का भी था। इस धम क बात बाद म य क इसका वेश भी बाद म हु आ
पहले यह ववेचन अ धक उ चत रहे गा क बौ धम, जैन धम के उदय और पतन ने
समाज पर या असर डाला। हजार साद ववेद ' ह द सा ह य क भू मका’ पु तक
म इन भाव का यापक व लेषण करते हु ए लखते ह 'व तु त: सारा समाज कसी भी
दन बौ था या नह ं यह न काफ ववादा पद है। कारण यह है क बौ धम
सं या सय का धम था, लोक के सामािजक जीवन पर उसका भु व कम ह था।‘
हु एं साग ने उन दन के भारत का ववरण दया है िजससे यह प ट होता है क
'लोग बौ सं या सय का आदर-स कार करते थे और लोक-परलोक के वषय म सोचने
लगे थे। इससे यह समझना सरल है क उन दन ह दू समाज म लोग बौ भ ुओं
के उप द ट दे वताओं क क याण-कामना से पूजा करते थे और उनके बताए हु ए ढं ग से
जप आ द भी करते थे। लोग के मन म इन दे वताओं और पूजा प तय के त एक
अपनापन का भाव आ गया था।'

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बाद म शंकर, कु मा रल और उदयन के वैदां तक मत के कारण बौ धम के 'दाश नक
युि तजाल ' का भाव कम होता गया। ववेद के अनुसार 'आठवीं शता द म बंगाल
म पाल रा य कायम हु आ। यह वंश भारतवष म बौ धम का अं तम शरणदाता रहा।
यहाँ आकर नेपाल और त बत म जाकर बौ धम का स ब ध तं वाद से और अ धक
बढ़ गया। िजन दन ह द सा ह य का ज म हो रहा था, उन दन भी बंगाल और
मगध तथा उड़ीसा म बड़े-बड़े बौ वहार व यमान थे जो अपने मारण, मोहन,
वशीकरण और उ चाटन क व याओं से और नाना कार के रह यपूण तां क
अनु ठान से जनसमु दाय पर अपना भाव फैलाते रहे । समाज पर महायान, मात, शैव
और वै णव स दाय का भाव भी यापक प म फैला हु आ था। य य प ववेद जी
क यह मा यता है क मत , आचाय , स दाय और दाश नक चंताओं के मानद ड सै
लोक चंता को नह ं मापना चा हये बि क लोक चंता क अपे ा म उ ह दे खना
चा हये।‘ यान दे ने यो य त य यह है क िजस युग म धम और राजनी त क दशा
दयनीय हो उस समय म उ च सामािजकता क वशेष आशा नह ं क जा सकती है।
अब जा त गुण और कम के आधार पर नह ं वरन ् वण के आधार पर मानी जाने लगी।
एक जा त क अनेक उपजा तयाँ होने लगीं। छुआछूत के नयम भी कठोर होते जा रहे
थे। न न जा तयाँ नर तर अपमान के गत म उतरती जा रह थी। समाज भी
ढ़ त होकर अव हो गया था।
साम त और राजपूत क वीरता े ठ व क नशानी थी। राजपूत पु ष ह नह ं बि क
राजपूत ि याँ भी वीरता और उ सग के भाव से भर हु ई थी। जौहर क वाला म
जलकर मर जाना उनक आ मर ा का ह थयार था। पराजय और समपण करना कसी
भी य को मा य नह ं था। वयंवर क था उस युग क एक मह वपूण सामािजक
था थी जो एक ओर राजकु मा रय को वैवा हक जीवन म चयन क वतं ता दे ती थी
तो दूसर ओर स ता और शि त दशन का भी न म त बनती थी। राजा ' वयंवर’ को
'मान' का न बना लेते थे। क या अपहरण जैसी घटनाओं का उ लेख आ दकाल क
अनेक सा हि यक कृ तय म मलता है। 'पृ वीराज रासो’ म पृ वीराज -संयो गता का ेम
और ववाह संग इसका उदाहरण है। सबसे बड़ी बात यह थी क राजपूत ढ़ त
और ईमानदार थे क तु कू टनी त और दूरदश नह ं थे। छोट सी घटना उनके
वा भमान का न बन जाती थी। े ीयता क भावना के कारण मातृभू म के एक
टु कड़े के लये ाण दे ने वाले राजपूत दे श क एकता पर यान नह ं दे पाए। यह
कारण था क वदे शय क सहायता के लए उ ह भारत म वेश दया गया। प रणाम
था यूना नय तथा इ ला मय का भारत म आना। बाद म भारतीय समाज, धम और
सा ह य के साथ-साथ दे श क राजनी त पर भी इ लाम के शासक का दबदबा रहा।
राजा दरबार , साम त, अमीर, जमींदार आ द समाज, सं कृ त और प रवार पर अपना
वच व कायम करने म सफल रहे ।
आलो य काल के जनसामा य म मनोबल क कमी थी। इस सामािजक अव था का
च ण त काल न ह द सा ह य म पूण प से च त हु आ है। त काल न का य के

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अ ययन से हासो मुख सामािजक ि थ त का पता चलता है। राजाओं का जीवन
वलासमय था। ऐ वय और भोग म डू बे राजा अ तय म जी रहे थे। या तो यु करते
थे या अ धकांश समय अ तःपुर म अपनी म ह षयो, उपपि नय तथा र ताओं के साथ
रहा करते थे। जा अ नि चतता म जीती थी। ि य क दशा और भी दयनीय थी।
सेना म भत सै नक क पि नय के लए यु म मारे गए प त क मृ यु के उपरा त
आ मर ा का न मु ँहबाएँ खड़ा रहता था। बहु प नी था, बाल ववाह, पदा था और
सती था ने ि य के जीवन और मृ यु दोन को ह दूभर बना दया था। ी पु ष
क भो य बनी हु ई थी। पु ष का थान ी से ऊँचा और आदर का था। 'वीसलदे व
रासो’ क ना यका के क ण दन म कदा चत म ययुगीन र सक पु ष क वासना से
अ भभू त त काल न नार समाज का ची कार व नत हो उठा-
अ ीक ज म कोई द घड महे स।
अवर ज म घारई घणा रे नरे श।।
कहावत है क 'जैसा राजा वैसी जा।‘ शासन और धम दोन ह जनता को दशा दान
करने म असमथ दखाई पड़ रहे थे। समाज म ऊँच-नीच, वग भेद क भावना घर
करती जा रह थी। जनता म श ा का अभाव था। अंध व वास और ढ़वा दता के
कारण समाज बहु त-सी सम याओं से घरा हु आ था। न संदेह इ ह ं सामािजक
ि थ तय के बीच क व को सृजन करना था। अ ययन से ात होता है क रा या य
और धमा य म पल रहे सा ह यकार ने यु , धम और नार गृं ार का ह सा ह य
रचा।
(घ) सां कृ तक ि थ त - आ दकाल का समय सां कृ तक ि ट से उ कष का था।
हषवधन के वशाल सा ा य ने ह दू धम और सं कृ त को रा यापी एकता का
आधार दया। इस वातावरण म वाधीनता एवं दे शभि त के भाव ढ़ होने लगे थे।
संगीत, च , मू त, थाप य आ द कलाओं म सौ दय और सं कृ त के भाव प ट
प रल त होते थे।
थाप य के े म वै णव और जैन मं दर का नमाण होना धा मक स ावना और
सम वय के आदश उदाहरण थे। 'संगीत, च , -मू त, थाप य आ द कलाओं म जातीय
गौरव क भावना अ भ य त हो रह थी। थाप य के े म वशेषत: मं दर का
नमाण धा मक स ावना का योतक था। भु वने वर, खजु राह , पुर , सोमनाथपुर, बेलोर,
कांची, तंजौर आ द थान पर अनेक भ य मं दर आ दकाल के आर भ के समय म
बनाये गये थे। आबू का जैन मं दर जो भारतीय थाप य का बेजोड़ नमू ना है, यारहवीं
शता द क मह वपूण दे न है। इस शता द तक हर ह दू के लये उसका सम त
जीवन धा मक क त य का त प था। उसका सम त च र धम-भावना से े रत
रहता था। संगीत, मू त, च आ द कलाओं म भी वह अपनी धा मकता क ह
अ भ यंजना करता था।‘
(डॉ. रामगोपाल शमा ' दनेश’- 'आ दकाल’ लेख)

33
अलब नी भारतीय कलाओं म धा मक भावनाओं क ऐसी यापक अ भ यि त दे खकर
च कत रह गया। उसने लखा, 'वे ( ह दु) कला के अ य त उ च सोपान पर आरोहण
कर चु के ह। हमारे लोग (मु सलमान) जब उ ह (मं दर) दे खते ह तो आ चयच कत रह
जाते ह। वे न तो उनका वणन ह कर सकते ह न वैसा नमाण कर सकते ह। (डॉ.
ई वर साद, ' ह ऑफ मु स लम ल इन इं डया’ से उ त
ृ )
महमू द गजनबी के लये भारतीय कलाओं के ये े ठ नमू ने ई या का वषय बन गये।
जनजीवन का यह सु ख चैन उससे बदा त नह हु आ। वह आ ा ता बन दप म चूर
भारतीय पर अ याचार करता रहा। राजपूत राजाओं क सार ताकत आ मर ा म खच
होती रह ।
सां कृ तक जीवन म बड़ा बदलाव आया इ लाम के वेश के बाद। इ ला मक मतवाद
दो जा तय - ह दू-मु सलमान म सां कृ तक सम वय लाने म पूर तरह सफल नह ं
हु आ। ' प टत: दो सं कृ तयाँ एक दूसरे के सामने मान सक तनाव क ि थ त म खड़ी
एक दूसर को शंका क ि ट से दे खती रह । आ दकाल म भारतीय सं कृ त का जो
व प मलता है, वह पर परागत गौरव से व छ न तथा मु ि लम सं कृ त के गहरे
भाव से न मत है। त काल न जन-जीवन के हर व प पर इस सं कृ त क यापक
छाप मलती है। उ सव, मेले, प रधान, आहार, ववाह, मनोरं जन आ द सबम मु ि लम
रं ग मल गया । संगीत. च , वा तु और मू त-कलाओं पर एक ऐसा परदा मलता है
िजसके भीतर भारतीय पर परा धीरे -धीरे य होती गयी है।
मु ि लम मू तभंजक थे। उनके मू त-पूजा वरोधी होने का द ड ह दुओं को भु गतना
पड़ा। शु लजी लखते ह, 'दे श म मु सलमान का रा य ति ठत हो जाने पर ह दू
जनता के दय म गौरव, गव और उ साह के लये अवकाश न रह गया। उसके सामने
ह उसके दे वमं दर गराये जाते थे, दे वमू तयाँ तोड़ी जाती थीं और पू य पु ष का
अपमान होता था और वे कु छ नह ं कर सके थे। यह कारण रहा क आ दकाल के
अवसान और भि तकाल के उदय के सं ध वार पर क वय के लये वीरता के गीत
गाना संभव न रहा। जैसा क शु ल ने प ट कया 'इतने भार राजनी तक उलटफेर के
पीछे ह दू जनसमु दाय पर बहु त दन तक उदासी छायी रह । अपने पौ ष से हताश
जा त के लये भगवान क शि त और क णा क ओर यान ले जाने के अ त र त
दूसरा माग ह या था ?'

2.2.3 सा हि यक प रवेश

आ दकाल न का य तीन धाराओं म वह रहा था िजसका आधार था आलो य काल क


सा हि यक भाषा। द ण भारत क भाषाओं का स ब ध वड़ भाषा प रवार से था
और शेष भारत क भाषाओं का स ब ध आय प रवार के भाषा समु दाय से था। आय
प रवार क ाचीनतम भाषा वै दक- सं कृ त थी जो सा ह य क प र नि ठत भाषा थी।
लोकभाषा के यवहार के लये यु त भाषा लौ कक सं कृ त थी जो प र कृ त होकर

34
ला सकल सं कृ त कहलाई। वै दक सं कृ त म सं हता थ, वेद, उप नष आ द का
सृजन हु आ। उप नषद म लौ कक सं कृ त का प भी उभरने लगा। त प चात ् लौ कक
सं कृ त का वतं सा हि यक अि त व बना।
वै दक सं कृ त के समाना तर लोक भाषा एवं वभाषा के प म पा ल ाकृ त भाषाएँ
उपि थत थीं। महा मा गौतम बु के समय पा ल लोकभाषा थी और उनके उपदे श का
चार- सार इसी भाषा म हु आ। का य मीमांसाकार राजशेखर ने 10वी शती म
महारा ाकृ त म कपू रमंजर जैसी स ना टका लखी। व याप त ने अवह ,
सं कृ त और मै थल सभी भाषाओं म रचनाओं का लेखन कया।
ह द सा ह य के आरि भक काल म 1050 ई. के बाद भी अप श
ं भाषाओं म आचाय
हे मच के का यानुशासन के अनुसार ा य भाषा-अप श
ं म रचनाएँ लखी जाती रह ।ं
सु नी तकुमार चटज के अनुसार , 'यह मालू म नह ं पड़ता है क ह द ठ क-ठ क कौनसी
बोल थी क तु यह जभाषा या प चातकाल न ह दु तानी के स श न होकर तेरहवीं
शती के अ त तक हम ह द या ह दु तानी के दशन नह ं होते।‘ राहु ल सांकृ यायन
का अ भमत है क 'व तु त: सार आधु नक आय भाषाएँ 12वी 13वीं शता द म
अप श
ं से अलग होती द ख पड़ती है।‘
उ त कथन से यह प ट होता है क ह द भाषा एवं सा ह य के उ व च न ा य
अप श
ं म न हत थे।
एक त य यह भी है क य द हम रामच शु ल के काल वभाजन के सीमांकन को
वीकार करते हु ए संवत ् 1050 से और पृ ठभू म म पूववत सा ह य को भी
'आ दकाल’ के अंतगत रखे जैसा क शु लजी भी सहमत थे क स और जैन क वय
क कई रचनाएँ बाहर नह ं रख सकते, तब आ दकाल के सा हि यक वातावरण पर
उदारतापूवक वचार कया जा सकता है।
इस काल म सा ह य-रचना क तीन धाराएँ बह रह थीं। थम धारा सं कृ त-सा ह य
क थी, जो एक पर परा के साथ वक सत होती जा रह थी। दूसर धारा का सा ह य
ाकृ त एवं अप ंश म लखा जा रहा था। तीसर धारा ह द भाषा म लखे जाने वाले
सा ह य क थी। नवीं से यारहवीं शता द तक क नौज एवं क मीर सं कृ त सा ह य
रचना के के रहे और इस बीच अनेक आचाय, क व, नाटककार तथा ग य लेखक
उ प न हु ए। आनंदवधन, अ भनव गु त, कु तक, ेमे , भोजदे व, म मट, राजशेखर,
व वनाथ, भवभू त, ीहष तथा जयदे व इसी युग क दे न ह। इसी काल म शंकर,
कु मा रल भ , भा कर, रामानुज आ द आचाय हु ए। सं कृ त के अ त र त ाकृ त एवं
अप श
ं का े ठ सा ह य भी भू त मा ा म इसी युग म लखा गया। जैन आचाय ने
म य दे श के पि चमी सीमा त े म रहकर सं कृ त के पुराण को नये प म
तु त कया। उ ह ने अपनी रचनाओं के लये ाकृ त अप श
ं के साथ पुरानी ह द को
भी मा यम बनाया। इसी कार पूव सीमा त पर स ने अप ंश के साथ लोक-भाषा
ह द को रचनाओं म यु त कया। इस काल का सा ह य प टत: राजा, धम और

35
लोक के तीन आ य म वभािजत हो चु का था। इनक भाषाएँ भी ाय: नि चत हो
चु क थी। सं कृ त धानत: राज वृि त को सू चत करती थी, अप श
ं धम क भाषा बन
गयी तथा ह द जनता क मान सक ि थ तय एवं भावनाओं का त न ध व कर रह
थी । डॉ. रामगोपाल शमा ' दनेश’, 'आ दकाल’, ' ह द सा ह य का इ तहास' (पु.)
आ दकाल म अप श
ं सा ह य भाषा क नकटता के कारण ह द सा ह य के लये
पृ ठभू म का काम कर रह थी। आचाय शु ल ने 'अप श
ं काल’ के अंतगत अप श
ं और
ारि भक ह द दोन क रचनाएँ सि म लत क थीं। यह बात अलग है क नवीन
खोज ने यह स कया क उस काल म क तपय रचनाएँ अप श
ं सा ह य क ह
मानी जानी चा हये। इस कार व लेषण ने आलोचक को इस नणय पर पहु ँ चाया क
आ दकाल न सा ह य क उपल ध साम ी को दो प म वभ त कर पढ़ा जाना
चा हये। पहला अप श
ं भा वत ह द रचनाएँ यथा स सा ह य, ावकाचार, नाथ
सा ह य, राउवेल, उि त यि त करण, भरते वर बाहु बल रास, ह मीर रासो,
वणरतनाकर। दूसरा, अप ंश के भाव से मु त ह द क रचनाएँ जैसे खु माण रासो,
ढोला मा ं का दूहा , बीसलदे व रासो, पृ वीराज रासो, परमाल रासो, जयच काश,
जयमयंक- जयचि का, खु सरो क पहे लयाँ।

2.3 सारांश
ह द सा ह य के इ तहास म 'आ दकाल' भाषा और सा ह य क ि ट से समृ और
पठनीय है। इस काल क सबसे मह वपूण दे न यह है क आलो यकाल से ह ह द
भाषा के सा ह य क पर परा ार भ हु ई। यह वह काल था िजसम सवा धक व वधा
रह है। ह द सा ह य के अ त र त सं कृ त भाषा का प र कृ त सा ह य अपनी ऊँचाइय
पर था। ' ह द भाषा सा हि यक अप श
ं के साथ-साथ चलती हु ई मश: जनभाषा के
प म सा ह य-रचना का मा यम बन रह थी।
िजन प रि थ तय म आ दकाल न का य रचा गया उनम वीरता, ओज, गृं ार और
धा मक उपदे श का बाहु य था। वधन सा ा य के पतन आर भ राजनै तक ि थ तयाँ
उ तरो तर बगड़ती ह गयी। राजपूत राजाओं क तमाम शि त यु म यय होती थी।
मातृभू म और वदे श ेम क भावना से लड़े गए यु म ी आकषण भी एक मु ख
मु ा हु आ करता था। वदे शी आ ा ताओं से ह दू रा य त रहा करते थे। बाहर
ताकत आ मण भी करती थी और लू टमार भी मचाती थी। जा पी ड़त और दुःखी थी।
पृ वीराज चौहान, जयचंद परम ददे व क कथाएँ का य का क य बनी िजनम क व गीत
गाया करते थे। इसी समय एक वग ऐसा उ दत हु आ जो गृहकलह, व ोह और यु के
वातावरण से दुःखी होकर आ याि मक दशन म डू बकर उपदे श परक का य रचना करने
लगा। इस कार ी ेम, हठयोग और अ या म आ दकाल न का य क ऐ तहा सक
पृ ठभू म म अ त न हत थे।
धम क ि ट से आ दकाल का समय धा मक सौहाद का नह ं था। राजपूत राजा अ हंसा
म व वास नह ं करते थे। स और नाथ स दाय मं -तं , जादू-टोने वारा अपने

36
मत का चार करते थे। वे लोग म भय का वातावरण बनाते थे। दूसर ओर शैव,
मात और जैन धम भी अपने धा मक व वास को फैलाव दे ना चाहते थे। सा ह य को
इसका मा यम बनाया गया।

2.4 अ यासाथ न
(1) आ दकाल न सा ह य क पृ ठभू म पर काश डाल।
(2) आ दकाल न का य पर धा मक वचार के भाव पर वचार य त कर।
(3) आ दकाल न का य के समकाल न अ य भाषा सा ह य का नामो लेख कर।
(4) आ दकाल न सां कृ तक प रवेश पर ट पणी लख।

2.5 संदभ ंथ
1. रामच शु ल - ह द सा ह य का इ तहास, काशन सं थान, दयान द माग,
द रयागंज, नयी द ल , 2005
2. डॉ. नगे - ह द सा ह य का इ तहास, मयूर पेपर बै स नोएडा, 1973
3. हजार साद ववेद - ह द सा ह य का आ दकाल एवं ह द सा ह य क
भू मका, राजकमल काशन, 2005
4. गणप तच गु त - ह द सा ह य का वै ा नक इ तहास एवं सा हि यक नबंध,
लोक भारती काशन, 1999
5. डॉ. रामकुमार वमा - ह द सा ह य का आलोचना मक इ तहास
6. शवकुमार शमा - ह द सा ह य : युग और वृ तयाँ , अशोक काशन, 2006
7. यामच कपूर - ' ह द सा ह य का इ तहास, थ अकादमी, नई द ल,
1999
8. बहादुर संह - ह द सा ह य का इ तहास - माधव काशन, 2006
9. नागर चा रणी प का
10. गंगा प का, जनवर 1933 का अंक

37
इकाई – 3 : नाथ, स व जैन-सा ह य
इकाई क परे खा
3.0 उ े य
3.0 तावना
3.2 आ दकाल और स -सा ह य
3.2.1 काल- वभाजन और आ दकाल का नामकरण
3.2.2 स का काल उ व और वकास
3.2.3 स क सं या, भाव और सा ह य
3.2.4 स का योगदान
3.3 नाथ-सा ह य और जैन-सा ह य
3.3.1 नाथ-सं दाय: परं परा और प रचय
3.3.2 नाथ-सा ह य: व प और वकास
3.3.3 सा ह य म ऐ तहा सक अवदान
3.3.4 जैन-सा ह य: उ पि त और वकास
3.3.5 मु ख जैन-कृ तयां और कृ तकार
3.3.6 जैन-सा ह य: वशेषताएं व उपलि ध
3.4 सारांश
3.5 अ यासाथ न
3.6 संदभ- थ

3.0 उ े य
इस इकाई का उ े य आपको यह समझाना है क.
 ह द सा ह य के इ तहास म काल- वभाजन के अंतगत आ दकाल व उसके
नामकरण का या व प है।
 स -सा ह य के अंतगत उनक साधना-प त, भाव और अवदान या है।
 इसी तरह, आ दकाल म नाथ-सा ह य के उ व और वकास क परं परा या है।
 इसी काल म जैन-सा ह य का व प और योगदान कस कार का रहा है।

3.1 तावना
ह द -सा ह य का इ तहास एक हजार साल से भी अ धक पुराना है। इतने वशाल काल
के व तार म सा ह य और का य क अनेक वृि तयां रह ह। व वान वारा उ त
इ तहास के काल- वभाजन म आ दकाल का थान सबसे थम है। इस काल म स ,
नाथ व जै नय वारा र चत सा ह य क ऐसी वृि तयां व यमान रह ,ं िजनका आने
वाले युग म दूर तक भाव पड़ा। उदाहरण के लए कहा जा सकता ह क स व

38
नाथ के का य के सं कार भि तकाल के नगु ण संतका य म पाए जाते ह इसी तरह,
जैन-सा ह य धममूलक होते हु ए भी सा ह य-परं परा म उसका योगदान परो तः कम
करके नह ं आका जा सकता। वै णव, जैन, शैव और इ लाम परं पराओं ने साझा प म
मलकर भारतीय सा ह य का नमाण कया है। वशेषकर, उ तर भारत क सामा सक
सं कृ त का रह य ह आ दकाल क इन साधनामूलक भि त-प तय म छपा है,
िजनके भाव से आगे चलकर भि तधारा का व णम-काल सा ह य म आ पाया। अत:
एक कार से आ दकाल न नाथ, स व जैन-सा ह य सारे सा ह ये तहास क धु र है।

3.2 आ दकाल और स -सा ह य


आचाय रामचं शु ल ने आ दकाल का ारं भ संवत ् 1050 (सन ् 983) से संवत ्
1375 (सन ् 1318 ई.) माना है। उ ह ने इस काल का नाम वीरगाथाकाल भी दया,
िजसक चचा हम आगे नामकरण के वषय म करगे। साधारणत: सन ् ईसवी क दसवीं
से लेकर चौदहवीं शता द तक के काल को ह द सा ह य का आ दकाल कहा जा
सकता है। इस काल म जो सा हि यक वृि तयां च लत रह , उनका अ छा प रचय
अप श
ं क रचनाओं म मलता है। इस काल क एक मह वपूण भावधारा स क है,
िजनक रचनाएं पया त मा ा म उपल ध होकर संपा दत का शत हो चु क है, िजनसे
उस युग क साधना, वचारधारा और प रवेश पर अ छा काश पड़ता है। ये स बौ
धम के अं तम अवशेष व यानी शाखा से जु ड़े हु ए थे और अनेक तरह क तां क व
यौ गक साधनाएं कया करते थे, िजनका ववरण उनके पद म दे खने को मलता है।
इन स क सं या 84 थी, और उस काल म जनता पर इनका चम कार छाया हु आ
था। इ ह ने च कानेवाल पहे ल नुमा भाषा म अपनी क वताओं क रचना क , िजसे संधा
भाषा या अब उलटबांसी भी कहा जाता है और िजसके कु छ अंश हम आगे चलकर
भि तकाल न स क व कबीर तक के का य म मलते ह।
इस काल क दो अ य मु य सा ह य-धाराएं नाथ-पं थय क और जैन-मु नय क
रचनाओं क है, िजनसे यह काल व वध वषय के साथ समृ हु आ और रचनाएं केवल
वीर रस तक ह समट कर नह ं रह गयी। नाथ-पं थय ने जीवन क शु ता व
नमलता पर जोर दे ते हु ए नराकार उपासना पर अ धक बल दया, वहां जैन मु नय
क रचनाओं म उनके तीथकर , व च रतमूलक का य क अ धकता है। इसी काल क
एक अ य सा हि यक धारा रासो-का य-परं परा क भी है, िजस पर इस पा य म क
अगल इकाई म वचार कया गया है। वीर, गृं ार और नी तपरक रासो का य क
गणना इस धारा के अंतगत क जाती है। यहां हम स , नाथ और जैन-सा ह य क
चचा तक सी मत रहगे।

39
3.2.1 काल- वभाजन और आ दकाल का नामकरण :

ईसा क दसवीं शता द के आसपास ारं भ होने वाले ह द सा ह य के इ तहास का


काल म क ि ट से वभाजन इस कार कया गया है - आ दकाल, पूव म यकाल.
उ तर म यकाल और आधु नक काल। जब क आचाय रामचं शु ल ने इन काल-खंड
का वृि तमू लक नामकरण भी कया था, जो इस कार है - आ दकाल को अप श

का य और दे शभाषा का य दो भाग म बांटकर दे शभाषा का य को वीरगाथाकाल नाम
ं काल म नाथ, जैन व स
दया। अप श क वय वारा ल खत जो साम ी उपल ध
है, उसे वे सा ह य क को ट म रखने को तैयार नह ं थे। उनके अनुसार तो दे शभाषा
का य क वीरगाथा मकता समूचे आ दकाल क धान वृि त है। इस लए वे आ दकाल
को वीरगाथाकाल वशेषण तक सी मत रखना चाहते ह, जो बाद के व वान को गवारा
नह ं हु आ और इस आ दकाल के अनेक नामकरण और सामने आए। राहु ल सांकृ यायन
ने इसे स -साम त काल क सं ा द , तो डॉ. रामकुमार वमा ने इसे चारण काल
कहा। आचाय हजार साद ववेद तो इसे आ दकाल ह कहने के प म ह य क
इस काल म एक से अ धक बहु मु खी सा हि यक वृि तयां च लत रह ,ं अत: उन
सबको कसी एक वृि त के नाम से नह ं सं ा पत कया जा सकता। अत: कालसू चक
आ दकाल ह नाम उनक ि ट से उपयु त है और इस बारे म अ धकतर व वान भी
सहमत ह और हमार भी राय यह है। िजस काल- वभाजन क बात हमने ऊपर उठायी
थी, उसम आ दकाल के साथ अ य काल का वभाजन व सीमांकन इस कार है:
आ दकाल संवत ् 1050 से 1375, भि तकाल संवत ् 1375 से 1700, र तकाल संवत
1700 से 1900 एवं आधु नक काल (ग य-काल) संवत ् 1900 से नरं तर व यमान
है। हालां क, हमने आ दकाल का आरंभ 1000 ई. के आसपास माना है, परं तु
आ दकाल क पृ ठभू म के प म हम और पीछे सातवीं-आठवीं शता द तक जाना
पड़ेगा, जहां स क रचनाएं पुरानी ह द से मलती-जु लती ह।

3.2.2 स का काल : उ भव और वकास

स म मु ख प से सरहपाद और क हपा क रचनाएं मलती ह। इनम सरहपा का


समय राहु ल सांकृ यायन ने 769 ईसवी माना है। इस मत से अ धकांश व वान
सहमत ह। इनके वारा र चत 32 ं बताए जाते ह, जो सब उपल ध नह ं ह। ले कन

इनम से ‘दोहाकोश’ उपल ध, का शत व स है। इसी तरह शब रपा का ज म 780
ई. म य कु ल म हु आ। ये सरहपा के श य थे। चयापद इनक स पु तक है।
इनक क वता का कु छ नमू ना दे खए:
हे र ये मे र तइला बाड़ी खसमे समतुला
भकु आए सेरे कपास फु टला।
तइला वा डर पासेर जोहणा वाड़ी ताएला
फटे ल अंधा र रे आकास फु लआ ।।

40
इसी तरह, लु इपा राजा धमपाल के शासनकाल म काय थ-प रवार म ज मे थे। चौरासी
स म इनका सबसे ऊंचा थान माना जाता है। एक और स ड भपा मगध के
य वंश म 840 ईसवी म उ प न हु ए। इ ह ने व पा से द ा ल थी, इनके
इ कस ं रचे बताए जाते ह, ले कन सभी साम ी उपल ध नह ं हो सक है। क हपा

का ज म कनाटक के ा मण प रवार म 820 ई. म हु आ था और बहार म आकर
रहने लगे। इनके 74 थ
ं बताए जाते है। इ ह ने अ धकतर दाश नक वषय पर लखा।
रह या मक गीत क रचना करके ये ह द क वय म स हु ए। इ ह ने भी शा ीय
ढ़य का खंडन कया है। अ य मु ख स म से कु कु रपा का ज म क पलव तु
नगर के एक ा मण वंश म हु आ माना जाता है, पर इनके ठ क ज मकाल का पता
नह ं चल पाया है। इनके गु चपट पा थे। कु ल 16 थ
ं क रचना इ ह ने क , ऐसा
उ लेख मा मलता है।
स सा ह य ह द का ारं भक प रचय है। इनके का य व भाव-सं कार ठे ठ
भि तकाल तक चलते रहे । कमका ड का वरोध, सहज जीवन पर बल, आचरण व
चर क शु ता का आ ह, अंत साधना व योग साधना पर जोर - ऐसी वृि तयां ह,
जो इनके का य म मलती है।

3.2.3 स क सं या, भाव और सा ह य

पुरानी ह द , िजसे अप श
ं या ाकृ ताभास ह द भी कहा गया है, के सबसे पुराने
प य तां क योगमाग बौ स क सां दा यक रचनाओं म ठे ठ सातवीं-आठवीं
शता द म ा त होते ह। इन स क सं या 84 बतायी जाती है जो इस कार है:
लू हपा, ल लापा, व पा, ड भपा, शवर पा, सरहपा, कंकाल पा, मीनपा, गोर पा,
चौरं गीपा, वीणापा, शां तपा, तं तपा, चम रपा, ख गपा, नागाजु न, क हपा, कण रपा,
थगनपा, नारोपा, शीलपा, तलोपा, छ पा, भ पा, दोख धपा, अजा गपा, कालपा,
ध भीपा, कंकणपा, कम रपा, ड गपा, भदे पा, तंधेपा, कु कु रपा, कु चपा, धमपा, मह पा,
अ चं तपा, भ लहपा, न लनपा, भू सु कु पा, इं भू त, मेकोपा, कु ठा लपा, कम रपा,
जालंधरपा, राहु लपा, घव रपा, धोकु रपा, मे दनीपा, पंकजपा, घंटापा, जोगीपा, चेलु कपा,
गुड रपा, नगु णपा, जयानंत, चपट पा, चंपकपा, भखनपा, भ लपा, कु म रपा, चँ व रपा,
म णभ पा, (यो गनी), कनखलापा, (यो गनी), कलकलपा, कताल पा, धहु रपा, उध रपा,
कपालपा, कलपा सागरपा, सवभ पा, नागबो धपा, दा रकपा, पुत लपा, पनहपा,
कोका लपा, अनगपा, ल मीकरा, (यो गनी) समु दपा और भ लपा। इनम भपा अ र
आदरसूचक भपाद श द का सं त प है, जो ाय: पुराने साधु-संत व भ त के नाम
के साथ लगाया जाता रहा है, जैसे शंकर भगव पाद आ द।
ऊपर व णत चौरासी स म से सरहपा या सरोजव तथा क हपा व उनक रचनाएं ह
उ लेखनीय ह। सबक रचनाएं ा त नह ं होतीं। इन स ू क वय का जीवन के त
सकारा मक सोच था। इ ह ने बाहय आडंबर का वरोध कया और अंतर साधना पर
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बल दया। सरहपा के का य का एक अंश, िजसम समा ध क यानाव था का च ण
है:
ज ह मन पवन न संचर ह र व स स नाह पवेस।
ते ह बट च त बसाम क , सरह क हउ उएस ।।
अथात ् जहां मन, पवन, सू य व चं मा का वेश नह ,ं वह ं अपने मन को यान म
लगाओ। सरहपाद का यह उपदे श है।
इन स ने अपने जीवन म और का य म बंधन से मु त जीवन को सव प र माना
है। स के इस सहिजया सं दाय म मनु य क वाभा वक वृि तय को मह ता दे कर
एक कार से व छं दता का माग तपा दत हु आ। गोरखपंथ इसी व छं दता के वरोध
व प उ प न हु आ था। आगे चलकर नाथपंथ ने इन स क अ ल लता और
वीभ सता को कम कर दया।
स -सा ह य का व य वषय नैरा य भावना, काया-योग, सहयोग शू य क साधना,
समा ध क अव था - िजसे वे अपने श द म भमहासुह (महासु ख) कहकर पुकारते ह
तथा वणा म- यव था पर हार से संबं धत है। इ ह ने संधाभाषा (अबूझ श दावल ) व
शैल का योग करते हु ए अपनी तां क व यौ गक अंत साधना मक अनुभू तय को
वाणी द । यह संधाभाषा एक तरह क संकेत जताने वाल तीक-भाषा है। उन श द का
तीकाथ खु लने पर ह स का कथन व अ भ ाय समझ म आ पाता है। ये लोग
म यदे श के पूव भाग (आज के बहार, बंगाल और आसाम) म फैले हु ए अपनी साधना
व वाणी का चार कया करते थे। अत: इनक का य-भाषा म भी उन े के
त काल न च लत श द व प मलते ह, िज ह आसानी से पहचाना जा सकता है।
ऊपर बताए गए स के जीवन-ल य भमहासु ख क ाि त म दो साधन बताए गए -
ा और उपाय। यह महासु ख एक तरह से आनंद व प ई वरानुभू त का ह पयाय
तीत होता है। स ने नवाण के तीन अंग ठहराए-शू य, व ान और महासु ख, जो
इ ह बौ दशन से मान सं कारगत वरासत म मले थे। पं डत को फटकारते हु ए और
अंतर साधना पर जोर दे ते हु ए सरहपा कहते ह:
पं डअ सअल स त ब याणइ। दे ह ह बु बसंत न जाणई।
अमणागमण ण तेन बखं डअ। तो व णल ज भणइ हउँ पं डअ ।। 25
या न पं डत लोग हमेशा स य ह बोलते ह, जब क उ ह शर र और बु का मह व
नह ं मालू म। वे आवागमन को तो मटा नह ं सके, तो भी नल ज अपने को पं डत
कहते ह। सरहपा क तरह, क हपा भी वेद और पुराण के ान क आलोचना करते हु ए
उसे नरथक बताते ह।

3.2.4 स का योगदान

ये स क वगण समाज क अछूत समझी जाने वाल जा तय से नकल कर आए थे,


अत: इनका आ ोशपूवक वंशा भमान, व आ भजा य का खंडन वाभा वक व उ चत था।

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इ ह ने अछूत जा तय का गौरव से सर ऊंचा कया और नीची समझी जाने वाल
जा तय म आ याि मक चेतना जगाने के साथ उ ह वा भमान से रहना सखाया। ये
जनता क भाषा म, जनता के वारा यु त उपमा- पक म अपनी बात कहते थे,
िजनम क व व का अंश कम, परं तु जीवन-त व का सार अ धक छपा रहता था।
सरहपाद, क हपाद, शबर पा आ द स का सा ह य ह द सा ह य के इ तहास क गव
कए जाने लायक व तु है, िजससे. उस समय क जनता व क वय क च तवृि त
मालूम होती है और आगे के आने वाले का य का मू यांकन करने म एक चरंतन
परं परा व सं कार के अनु म का पता लगता है, िजससे हमारे संपण
ू भारतवष क एक
सां कृ तक त वीर सामने आती है।
इन क वय ने ह द -सा ह य म क वता क जो वृि तयां आरंभ क ,ं उनका भाव
भि तकाल तक चलता रहा। जैसे ढ़य के वरोध का अ खडपन जो कबीर आ द क
क वता म मलता है, इन स क वय क दे न है। योग-साधना के े म भी इनका
भाव पड़ा। सामािजक जीवन के जो सहज और व वसनीय च इ ह ने उभारे ह, वे
भि तकाल न का य के लए सामािजक चेतना क पूवपी ठका बन गए। यहां तक क,
कृ णभि त के मू ल म जो वृि त -माग है, उसक ेरणा के सू भी हम इनके सा ह य
म मलते ह।
स क रचनाएं मु खत: दो का य प म मलती ह - भदोहाकोष और चयापद।
दोहाकोष, दोह से यु त चौपाइय क कडवक शैल म मलते ह। क हपा, तलोपा तथा
सरहपा के संपण
ू दोहाकोष ा त हु ए ह, िजनम कु छ खं डत तयां भी ह। कु छ दोहे
ट काओं म उ ृत और कु छ दोहा-गी तया बौ -तं तथा साधनाओं म मल ह। जब क
चयापद बौ -तां क-चया के समय गाये जाने वाले पद ह। ये चयापद वभ न
स ाचाय वारा लखे गए ह, कं तु इ ह एक साथ संगह त कर दया गया है।

3.3 नाथ-सा ह य और जैन-सा ह य


पहले आप आ दकाल के अंतगत स क परं परा व उनके सा ह य का प रचय ा त
कर चु के ह। अब यहां, आपको उसी परं परा के अंग के प म नाथ-सा ह य और जैन-
सा ह य का एक सामा य प रचय दया जा रहा है, िजसक मु ख वशेषताएं आगे
बतायी जाएंगी। यह यान म रखने क बात है क स के साथ नाथ-सा ह य क
परं परा इस तरह गु थ
ं ी हु ई है क उसम से इसे पृथक कर समझना आव यक है। आचाय
हजार साद ववेद के अनुसार तो स म ह नव नाथ क गनती शा मल हु आ
करती थी। नाथ-पंथ भी कई बार ग ठत हु ए, टू टे और फर पुनग ठत हु ए। इसी भां त
जैन-सा ह य म भी एक वशाल समृ व व वधतामयी परंपरा है, िजसम अनेक कार
का सा ह य शताि दय तक लखा जाता रहा। अत: इन दोन ह धाराओं क सामा य
बात यहां समझकर आगे चलना उ चत रहे गा।

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नाथपंथ के के य आचाय गोरखनाथ का नाम, चौरासी बौ स म पहले गनाया
जा चु का है। अत: यह तो साफ लगता है क ये नाथपंथी बौ - स क वचारधारा व
साधना से भा वत थे, बाद म भले ह उ ह ने अपना माग अलग बना लया हो। अत:
बहु त-सी बात ऐसी ह जो स व नाथ म समान प से पायी जाती ह। जैसे सहज
जीवन पर जोर, कमका ड का ब ह कार, अंतर साधना का आ ह इ या द।
कु छ व वान का यह मत है क गोरखनाथ और उनके अनुयायी व यानी थे और बाद
म शैव हो गए। ले कन कु छ व वान का यह मानना है क वत: व यान पर शैव
साधना का भाव पड़ा था और व या नय म एक व नाथी सं दाय भी वक सत हो
गया। उदाहरण के लए सरहपाद उसे नाथ मानते ह, िजसका च त व फु रत हो गया
हो - यानी ऊ वमु खी चेतना वाला हो गया हो - भजत व च तह व फुरई त त
वणाह (नाथ) स अ (दोहाकोष)। नाथ क सं या 9 मानी जाती है। भगोरख- स ांत-
सं ह के अनुसार आठ दशाओं म आठ नाथ हे और के म आ दनाथ ह। उसी थ

म 24 कापा लक नाथ का भी उ लेख है। योगसाधना से अपनी काया को अमर करने
और व भ न कार के चम कार का दशन करने के लए ये नाथ योगी उ तर भारत
म यात थे। जनता पर इन नाथ यो गय का बहु त गहरा भाव था। गोरखनाथ ने
नाथ-सं दाय म व 12 पंथ का वतन व पुनगठन कया, ऐसी उ लेख व जन ु त
दोन से पुि ट होती है।
जहां तक जैन-सा ह य का न है, यह नाथ- स -सा ह य के समानांतर चलने वाल
का य-परं परा है। फक बस इतना ह है क स -नाथो का जहां केवल उ तर भारत तक
ह भाव सी मत था, वहां जैन धम और उसका सा ह य वं य को पार कर सु दरू
द ण भारत म भी पहु ंचा था और सह जैन- थ
ं व च रतमूलक का य क रचनाएं
जैन मु नय वारा क गयी थी। जैन-सा ह य न केवल अप ंश म अ पतु सं कृ त,
ाकृ त, राज थानी व आधु नक भारतीय भाषाओं म भी रचा गया, िजसम एक ऐसी
आंत रक समानता पायी जाती है क वह एक वतं सु वक सत सा ह य धारा का
थान पाने का हकदार है। आचाय रामचं शु ल ने इस वशाल जैन-वा गमय को
धा मक व सां दा यक कहते हु ए सा ह य के इ तहास म शा मल करने से इंकार कर
अ छा नह ं कया। अत: उनक इस खाई को परवत शोधकताओं ने दूर कर जैन-धारा
को भी ह द सा ह य के इ तहास क मु य धारा म शा मल कया, जो एक समयो चत
व मह वपूण आयोजन है।

3.3.1 नाथ-सं दाय : परपरा और प रचय

नाथ श द का सामा य अथ मा लक, वामी, र क व आ यदाता के प म कया


जाता है। पाशु पत मत क शैव-शाखा, जो योगसाधनापरक थी, का वकास नाथ सं दाय
के प म हु आ, तबसे उसम नाथ श द क अथ शव के अथ म च लत हो गया।
म ये नाथ के श य गोरखनाथ इस पंथ के सबसे मु ख साधक हु ए और उनके

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वारा चलाया जाने वाला बारहपंथी माग नाथ सं दाय के नाम से व यात हु आ। इस
सं दाय के अनुयायी सनक अपने नाम के आगे भनाथ पद जोड़ते ह। कान छदवाने के
कारण ये कनफटा कहलाते ह और दशन धारण करने के कारण दरसनी साधु भी
कहलाते ह। कहा जाता है क अठारह शैव सं दाय और गोरखनाथ के चलाए हु ए बारह
नाथ-सं दाय आपस म आए दन कलह कया करते थे। अत: गोरखनाथ ने पुन : इन
कलहकार सं दाय को समा त करके 12 पंथ म वभािजत कर दया, जो ये ह -
1. स यनाथी, 2. धमनाथी, 3. रामपंथ, 4. नटे वर , 5. क हण, 6. क पलानी, 7.
बैरागी, 8. माननाथी 9. आईपंथ, 10. पागलपंथ 11. धजपंथ और 12. गंगानाथी।
इनका एक ं है - हठयोग
थ द पका िजसम नाथपंथ के अनेक यो गय के नाम दए
हु ए ह। इनम मु ख यो गय के नाम ह - आ दनाथ, म ये नाथ, गोर नाथ,
मीननाथ, नरं जन नाथ, चपट नाथ आ द। आ दनाथ को तो सा ात ् शव का अवतार
माना जाता है। नवनाथ म से के य मह व के गोरखनाथ ईसा क नवीं शता द म
उ तर भारत म कह ं पैदा हु ए थे। उ ह ने इस माग को बहु त यवि थत और प र कृ त
प दया। हठयोग, इ ह ने पांतज ल योग को संशो धत कर च लत कया। ........ का
मतलब सू य और.. ...... का अथ चं मा से है। सू य से ाणवायु और चं से अपानवायु
का संबध
ं बैठाकर इन दोन वायुओं का ाणायाम से नरोध करना हठयोग क प रभाषा
है, जो नाथपंथ म सव वीकृ त है। इसी क दूसर या या यह है क सू य इड़ा नाड़ी है
और चं पंगला। इड़ा और पंगला ना ड़य को रोककर सु षु ना नाड़ी से ाण ऊपर
उठाने को हठयोग कहते ह। कु ल मलाकर यह कहा जा सकता है क इनका ाण-
साधना पर अ धक यान रहा है।

3.3.2 नाथ-सा ह य : व प और वकास

नाथ-सा ह य के प र मी शोधकता व वान पीतांबरद त बड़ वाल ने गोरखनाथ क


छोट -बड़ी कर ब 40 रचनाओं का एक संकलन तैयार कया और उसे गोरखबानी नाम
से का शत करवाया। उ त चाल स रचनाओं के शीषक इस कार ह:
1. सबद 2. पद 3. श ा-दशन 4. ाण संकल 5. नखैबोध 6. आ मबोध 7. अभै
या ायोग 8. पं ह त थ 9. स खर 10. महे गोरखबोध 11. रोमावल 12. ान-
तलक 13. ान चौतीसा 14. पंचमा ा 15. गोरख गणेश गो ठ 16. गोरख दत
गो ठ 17. महादे व गोरखगु ट 18. श ट पुराण 19. दयाबोध 2०. जा त भ राव ल
21. नव ह 22. नवराम 23. अ ट पाछया 24. रहरास 25. ानमाला 26. आ मबोध
27. त 28. नरं जन पुराण 29. गोरख बचन 30. इ दे वता 31. मू ल गभावल
32. खाँडी वाणी 33. गोरख शत 34. अ टमु ा 35. चौबीस स 36. भाड र 37.
पंच अि न 38. अ ट च 39. अव ल सलू क एवं 40. का फर बोध। इनके अलावा,
इकताल सवी रचना एक और भ ान च तीसा है, जो उ त संकलन के का शत होने के
बाद कह ं से मला, अत: इसम जाने से रह गया। इन तमाम रचनाओं म से बड़ वाल

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थम चौदह कृ तय को तो मा णक मानते ह, शेष को सं द ध। तथा प यह कहना
या आसान है क इन थम चौदह रचनाओं म सबकुछ गोरखनाथ का कहा या लखा
हु आ ह है और उसम कोई मलावट नह ं हु ई हो?
इन रचनाओं म हालां क यो गय के लए उपदे श क मा ा अ धक है, तथा प कु छ पद
ऐसे भी ह िजनसे लखने वाले के नै तक मू य का पता चलता है और वे एक
सामािजक उपादे यता धारण कर लेती ह। इन रचनाओं म काम- ोध का वणन, सहज
जीवन, ढ़ मचय, संयत आचरण और सहज शील रखने का उपदे श है। गोरखनाथ
का इस बारे म एक दोहा दे खने यो य हे:
हब क न बो लबा तब क न च लबा धीरे ध रबा पांव।
गरब न क रबा सहजै र हबा, भण त गोरख राव ।।
भावाथ यह क हकला कर नह ं बोलना चा हए, ठु मक कर नह ं चलना चा हए, अ भमान
नह ं करना चा हए और सहज रहना चा हए, ऐसा गोरखनाथ का कथन है।
नाथपंथी सा ह य का नचोड़ हमचय और आचरण क शु ता और प व ता पर है और
यह अपे ा नाथ यो गय से अ धक क गयी है। योग-साधना, ान, वैरा य-बोध,
आ म ान, शील, संतोष और सहज न वकार नमल जीवन जीने पर जोर दया गया
है। एक तरह से यह स -सा ह य का भी शु ीकरण है, िजसम से फालतू तां क व
गु य साधना क अ ल ल बात हटा द गयी ह और जीवन को सहजता व नमलता क
ओर मोड़ा गया है।
नाथपंथी यो गय का वचरण- े पि चमो तर भारत का भू-भाग था, अत: इन े क
भाषाओं म इनक चु र रचनाएं जहां-तहां से ा त हु ई ह। ह द के अलावा बंगला,
मराठ , गुजराती आ द अ य भारतीय भाषाओं म भी गोरखनाथ क वा णयाँ, ा त होती
है। गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं म गु म हमा, इं य- न ह ाण-साधना, वैरा य,
मन:साधना, कं ु ड लनी -जागरण क या व शू य-समा ध का जमकर वणन कया है।
इसके अलावा उ ह ने हठयोग का भी सा ह उपदे श दया है। उनके अनुसार धीर वह है
िजसका च त वकार के साधन मौजू द होने पर भी वकृ त नह ं होता-
नौ लख पात र आगे नाच, पीछे सहज अखाड़ा।
ऐसे मन लै जोगी खेल,ै तब अंत र बसै भंडारा ।।
इस यमान संसार म ह परमस ता को दे खने का दावा करते हु ए वे अ य कहते ह–
अंजन मा ह नरं जन भे या, तल मु ख भे या तैल।ं
मू र त मा ह अमूर त पर या, भया नरं त र खेल ।।
इससे यह तीत होता है क भि तकाल न संतमाग के भावप पर ह उनका भाव
नह ं पड़ा, बि क भाषा और छ द भी उनसे भा वत हु ए ह। नाथपंथ के अ य क वय
म चौरं गीनाथ, गोपीचंद, चुणकरनाथ , भरथर तथा जल ीपाव आ द वशेष प से
उ लेखनीय ह।

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3.3.3 ह द -सा ह य म ऐ तहा सक अवदान

नाथ-सा ह य का ऐ तहा सक मह व तपा दत करते हु ए आचाय हजार साद ववेद


यह लखते ह क भइसने परवत संत के लए ाचरण- धान पृ ठभू म तैयार कर द
थी। कहना न होगा ू भि तकाल,
क संपण वशेषकर उसक नगु ण-भि तशाखा बहु त
अ धक सीमा तक भा वत हु ई और उसके भीतर नाथ-पंथ के ह सार-मम के उपदे श
य त होते रहे । मसलन, नार को माया समझकर उससे दूर रहने का उपदे श कबीर के
पद म जगह-जगह दे खा जा सकता है, िजसम माया महा ठगनी हम जानी तथा ठगनी
य नैना झमकावै जैसे पद आसानी से पहचाने जा सकते ह।
इसी तरह, कबीर व अ य भि तकाल न संत क वय के सा ह य म ा त कं ु ड लनी
जागरण करने क यौ गक याओं का आधार भी इ ह ं नाथपं थय का उप द ट
हठयोग है। यह नह ,ं भाषा व शैल तक उनसे प रचा लत है। उपमाएं, तीक और बंब
भी य के य वह ं से स दय से चले आ रहे ह। वह सू य, चं , इड़ा, पंगला, गंगा,
जमु ना और सर वती और वह सु न महल कबीर को नाथ-भि त से ह वरासत म
मला। भि तकाल को वणयुग बनाने और उसे भावो जल करने क सार पू ज
ं ी इसी
नाथ-सं दाय क रचनाओं से आयी हु यी तीत होती है। यह कम ेय क बात नह ं है।

3.3.4 जैन-सा ह य : उ पि त और वकास

जैन धम को बौ धम से ाचीनतर वीकार कया गया है। इसके वतक जग व यात


महावीर वामी थे। उनका आ वभाव गौतम बु से भी पहले हु आ था। भजैन श द
भिजन का प रणामी प है, िजसका अथ है वजय पाने वाला। वजय कस पर?
वजय इं य पर और मन क वृि तय पर। इस तरह ढाई हजार साल पुराने इस धम
का व प, शाखाएं और सा ह य भी सह मुखी है। ले कन, जैन-सा ह य का मू ल वर
अ हंसा, दया, क णा, मै ी, याग और अप र ह म सव या त है। इन कु छ श द म
जैन-का य के हजार कथन का सार छपा हु आ है।
अ धकांश मा ा म जैन-सा ह य ाय: गुजरात, राज थान और द ण भारत म रचा
गया। भार मा ा म यह सा ह य ामा णक प से उपल ध है। यह जैन-सा ह य दो
कार का है- 1. साधना मक उपदे श परक, और 2. पौरा णक और च रतमू लक, िजनम
लोक च लत कथाओं को आधार बनाकर जैन-मत के चार का ल य है। कई जैनेतर
रचनाएं भी जैन-का य म शा मल मानी जाती ह। हे मचं , मे तु ंग, जोइंद ु राम संह पहले
कार के जैन क व ह। जब क जैन पौरा णक च रतमू लक का यधारा म अप श
ं के
महान क व वयंभू पु पदं त और धनपाल आ द ह।

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इस काल क अ य का यधारा म आ चयजनक प से गृं ारपरक लौ कक का य भी
काफ मलता है। भराउल वेल ( यारहवीं शता द ) व अ हमाण का भसंदेस रासक तथा
भ ाकृ त पगलम ् इसी तरह क रचनाएं ह।
जैन-का य म दोहा सव लोक य छं द रहा है, इसके अलावा प डया, ोटक व गेयपद
भी वीकाय रहे । जैन-का य म न हत ऐसे दोह क अ भ यि त इतनी न छल, सरस
और सहज है क इ ह लोक-सा ह य क को ट म भी रख दया जाय तो अनु चत नह ं
होगा। यह बहु त अ छ बात रह क जैन क वय ने अपने धम और वचार का चार
लोकभाषा म कया। यह अप ंश से भा वत ह द थी। इनक अ धकांश रचनाएं
धा मक व सां दा यक कृ त क ह, यह सह है। कं तु सार ह रचनाएं ऐसी नह ं ह।
इन क वय क रचनाएं रास, फागु च रत आ द व वध का य प म ा त होती ह।
इनम घटनाओं क अ पता और उपदे श क बहु लता है। च रत का य म स पु ष
क कथा है, उसम भी धा मक झान हावी है। जैन क वय वारा र चत मु ख रास-
का य म ेम, वरह और यु आ द लौ कक प का च ण है। दे वसेन नामक स
जैन आचाय ने 933 ईसवी म ावकाचार का य क रचना क , िजसका एक उदाहरण
यहां ासं गक होगा -
जो िजण सासण भा षयउ, सो मइ क हयउ सा ।
जो पालइ सइ भाउ क र, सो स र पावइ पा ।।
यानी वामी महावीर ने जो उपदे श दए उसका सार मैने कहा है, जो इसका पालन
करे गा वह इस संसार-सागर से पार हो जाएगा।

3.3.5 मु ख जैन कृ तयां और कृ तकार

आपको यह बता द क जैन-सा ह य म उपल ध साम ी व ा त रचनाएं इतनी अ धक


वपुल मा ा म है क उनके नाम गनाने के लए ह एक महा थ
ं अलग से तैयार
कया जा सकता है। अत: यहां पर त न ध व के तौर पर अ त स कु छ कृ तय व
कृ तकार क ह चचा उ चत है।
आचाय रामचं शु ल ने धा मक वभाव क जैन कृ तय का प र याग करते हु ए
लौ कक व प क कृ तय व कृ तकार को अपने इ तहास म थान दया है। उ ह ने
मु ख प से जैनाचाय हे मचं , सोम भ सू र, मे तु ंग, व याधर, शारं गधर और
पु पद त क रचनाओं को अ धक मह व दया है, जो उनका ि टकोण है। कालांतर म
जैन-सा ह य के, ह द सा ह य के इ तहास का अंग बन जाने के बाद अंतर आ गया
और अनेक क व व कृ तयां इसम शा मल कर ल गयीं। उनम से मु ख- मु ख का नीचे
हवाला दया जा रहा है।
ावकाचार : यह आचाय दे वसेन क 933 ईसवी क रचना है, जो एक वद ध उ तम
क व थे। यह ं 250 दोह का है, िजनम
थ ावकधम का तपादन कया गया है।
क व ने इसम गृह थ के कत य का भी व तार से वणन कया है।

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भरते वर बाहु बल रास : इसक रचना, मु न िजन वजय के अनुसार 1184 म शा लभ
सू र ने क थी। इसम भरते वर तथा बाहु बल का च रत-वणन है। ये दोन राजा थे,
िजनक वीरता, यु और गृं ार आ द का का या मक वणन कया गया है। इस थ
ं क
भाषा नाटक य, रसमय और व ोि तयु त है : जैसे -
बोलह बाहु बल बलवंत। लोह ख ड तउ गरवीउ हंत ।।
च सर सउ चू नउ क रउं । सयलहं गो ह कु ल संहरउं ।।
चंदनबाला रास : यह छोटा-सा 35 छं द का का य है, जो 1200 ई. म रचा गया।
रच यता आसगु नामक क व है। ना यका चंदनबाला को अपहरण हो गया, जहां उसे
क ट दया गया और अंत म उसने जैन धम क द ा ा त कर नवाण पाया
थू लभ रास : सन 1209 म िजनधम सू र ने इसक रचना क थी। कोशा नामक
वै या के यहां भोगरत रहने वाले थू लभ को जैन धम क द ा दलाकर इस का य
को वषय से अ या म क ओर ले जाकर समा त कया गया है, जो सभी जैन क वय
का मू ल उ े य रहा है।
ं ग र रासु:
रे वत वजयसेन सू र र चत यह का य 2131 ईसवी का है। ने मनाथ क
तमा- थापन का उ सव और रे वत ग र तीथ का इसम रोचक वणन है।
ने मनाथ रास : सुम त ग ण ने इसक रचना 1213 ईसवी म क थी। इसम 58 छं द
म ने मनाथ के च र व यि त व का सु दर वणन कया है। इसक भाषा अप श

भा वत राज थानी- ह द है।

3.3.6 जैन-सा ह य : वशेषताएं और उपलि धयां

ह द भाषा और सा ह य के वकास के अ ययन म ह द जैन-सा ह य क उपयो गता


असं द ध और मह वपूण है। छं द, रचना शैल , का य- श प, तथा अ य सा हि यक
मा यताएं जो ह द को ा त हु ई, उनक परं परा को प ट करने वाले अनेक सू जैन
भाषा-सा ह य म मल सकते ह। दूसर वशेषता, जैन सा ह य म च रत-का य क
अ धकता है। ये च रत-का य धम, नी त और आ याि मक ेरणा से ओत ोत ह, अत:
समाज के नै तक तर को ऊंचा उठाने म इनका योगदान है। यह नह ,ं च रत का य
के मा यम से जैन क वय ने अनेक लोक-कथाओं और पौरा णक आ यान क र ा कर
ल , जो लु त ाय हो सकते थे। यह नह ,ं जैन-सा ह य म ग य-सा ह य क भी चु रता
है। इससे ह द के ाचीन ग य क बहु त बड़ी कमी क पू त होती है। एक उपलि ध
के प म दे ख तो पाते ह क शा त रस क अखंड धारा जैन सा ह य म िजस कार
बह है, अ य मलना दुलभ है और वह भी इतनी भरपूर मा ा म भोग- वलास क
ओर से हटाकर जनता को साि वक गुण क ओर वृ त करने म जैन-सा ह य
मरणीय रहे गा।

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जैन-सा ह य म अनेक ान- व ान के ं भी रचे गए ह, अत: इनका सा ह येतर

मू य भी है, िजसे कमतर नह ं आका जा सकता। इस तरह, जैन-सा ह य का प रमाण,
व वधता और सरसता सराहनीय है।

3.4 सारांश
उपयु त ववेचन म हमने दे खा क ह द -सा ह य के इ तहास क परं परा कतनी
ाचीन है और साथ ह अ वि छ न है। एक काल के सं कार दूसरे सा हि यक काल म
वत: अंत रत हो रहे ह, िजनसे आगामी काल का सा ह य और भी खर व उ ी त
होता नजर आता है। कर ब एक हजार तीन सौ वष पूव से ह द सा ह य का अंकु रण
शु होकर उसका वकास नरं तरता के साथ ि टगोचर होता है। आ दकाल म जहां एक
ओर वीरता, गृं ार क रचनाएं चु र मलती ह, वह ं ारं भक स -सा ह य और नाथ-
सा ह य म हम एक अलग ह वृि त के दशन होते ह। इतने पुराने काल म भी ढ़य
व सामािजक आडंबर का उसी तरह वरोध होता था, जैसा आज के जाग क युग म
होता है। स -सा ह य और नाथ-सा ह य म हम एक तरह क आ याि मक व मू यगत
ग तशीलता दखाई दे ती है, िजसम हर तरह से जनता को ऊंचा उठाने और उसे अ छा
बनाने के लगातार वा चक य न कए गए ह।
सा ह य मू लत: भावना- धान होता है और आ दकाल क रचनाओं म भावमयता व
रसमयता भी कम नह ं है, िजसे हम चु रता से जैन रासो का य म और च रतमूलक
का य म दे ख सकते ह। जब क स -सा ह य ने तबके समाज को कमका ड क बुराई
से सजग कया। हालां क यह सा ह य वयं अपनी बौ काल न वकृ तय से अछूता नह ं
रह सका। फर भी यह हम नःसंकोच कह सकते ह क स और नाथ का सोच
ग तशील और सकारा मक था। यह बात जैन-सा ह य पर भी खर उतरती है।

3.5 अ यासाथ न
1. आ दकाल क मु ख तीन धाराओं का सं त प रचय द िजए।
2. स और नाथ के सा ह य क तु लना करते हु ए समानता बताइए।
3. जैन-सा ह य क उपलि धयाँ और वशेषताएं या ह?
4. न न शीषक पर सारग भत ट प णयाँ ल खए -
(क) स सा ह य (ख) जैन सा ह य (ग) नाथ सा ह य

3.6 स दभ- ंथ
1. रामचं शु ल, ह द सा ह य का इ तहास, नागर चा रणी सभा, काशी, संवत ्
1056
2. डॉ. नगे , ह द सा ह य का इ तहास, मयूर पेपर बे स, द ल , 1998
3. डॉ. धीरे वमा, ह द सा ह य, वतीय खंड, भारतीय ह द प रषद, याग,
1959

50
4. धीरे वमा (सं.,) ह द सा ह य कोश, भाग- 1, ान म डल ल., वाराणसी,
1985 ई.
5. हजार साद ववेद , नाथ-सं दाय।
6. बाबू गुलाबराय, ह द सा ह य का सु बोध इ तहास, ल मीनारायण अ वाल, आगरा,
1998 सं करण
7. डॉ. व वनाथ पाठ , ह द सा ह य का सं त इ तहास, एन.सी.ई.आर.ट . नयी
द ल , 1986

51
इकाई -4 : रासो-का य एवं लौ कक सा ह य
इकाई क परे खा
4.0 उ े य
4.1 तावना
4.2 रासो-का य : यु पि त एवं व प
4.2.1 वीरगाथा मक रासो-का य
4.2.2 गृं ार मूलक रासोका य
4.2.3 धा मक एवं उपदे शा मक रासोका य
4.2.4 मु ख वशेषताएं एवं मह व
4.3 लौ कक सा ह य : व प एवं सामा य प रचय
4.3.1 मु ख क व एवं का य-रचनाएं
4.3.2 वशेषताएं एवं उपलि धयां
4.3.3 मू यांकन
4.4 सारांश
4.5 अ यासाथ न
4.6 संदभ- थ

4.0 उ े य
इस इकाई से आपको यह जानकार दे नी है क:
 आ दकाल के अंतगत रासोका य का या व प रहा?
 रासो श द कैसे बना और यह का य कतने कार का ह?
 इसी काल म लौ कक सा ह य क कृ त, वषय-व तु या थी और उनके रच यता
कौन थे?
 रासोका य एवं लौ कक सा ह य क मु ख वशेषताएं और उपलि धयाँ या ह?

4.1 तावना :
तु त इकाई आ दकाल न सा ह य के एक असाधारण मह व के प - रासोका य एवं
लौ कक सा ह य के सामा य प रचय और वशेषताओं से संबं धत है। द घ काल तक
एक नि चत का य प को लेकर अलग-अलग वषय व कथानक के साथ रासोका य
रचे जाते रहे । ये रासोका य वीरतामूलक गृं ारमू लक व धा मक कृ त के हु आ करते
थे। इन रासोका य क ामा णकता को लेकर व वान म मतभेद है, कं तु का य-रचना
क ि ट से इनक े ठता म कोई कमी नह ं है। इ तहास और क पना के स म ण से
इनका सृजन कया गया तीत होता है। जब क लौ कक का य ाय: सामा य जनता
क अ भ च को यान म रखते हु ए मनमौजी क वय वारा रचे गए। रासोका य क

52
भां त कु छ लौ कक का य गेय कृ त के पाए जाते ह, िजनका यथा थान प रचय दया
जाएगा।
रासो-का य जहां आ यदाता राजा-महाराजाओं को के म रखकर लखे गए, वह ं
लौ कक का य के रच यताओं ने अपनी मन क तरं ग व अ भ च के अनुसार इि छत
व वतं वषय-व तु को लेकर का य रचनाएं क ह।

4.2 रासो-का य : यु पि त एवं व प


यह बात यान दे ने यो य है क रासो नाम से जु ड़ी हु ई कृ तयां पहले पहल अप श
ं म
और उसके बाद ह द व गुजराती म भी मलती ह; ले कन, सं कृ त, ाकृ त या पाल
म ऐसी कोई का य-परं परा इस वशेषण के साथ नह ं ा त होती। रचना- या क
ि ट से रासो का य दो कार के पाए जाते ह - एक तो गीत-नृ यपरक रासो और
दूसरे छं द-वै व यपरक रासोका य। पहले हम यह जानल क यह 'रासो' श द कहां से
आया, कैसे बना और इसका यहां या ता पय है?
रासो श द क अनेक यु पि तयां द गयी ह - राजसू य, रह य, रसायण आ द अनेक
श द से अलग-अलग व वान वारा रासो श द का वकास होना बताया गया है, कं तु
रासो-सा ह य के इ तहास और भाषा व ान के व न- वकास को यान म रखते हु ए
इनम से कोई भी अथ ा य नह ं है। दरअसल, रासो सं ा का वकास रास और रासक
से हु आ है। यह रासो या रासक एक अ त ाचीन भारतीय नृ य रहा है, िजसका संबध

कृ णल ला से भी रहा है। अत: इ ह ं रासो या रासक से हमारे अ भ ेत रासो-का य जु ड़े
हु ए जानने चा हए।
रास और रासो-का य बारहवीं शता द व मी से मलने लगते ह। अत: उस काल के
ना यशा और का यशा ीय थ
ं से इस का य- प क उ पि त पर अ छा काश
पड़ता है। उदाहरण व प, तेरहवीं, शता द व मी के एक स ना याचाय शारदातनय
ने अपने ं भाव काश म ला य नामक नृ य के चार भेद बताए ह -
थ खृं ला , लता,
प डी तथा भे यक। पुन : उ ह ने लता के जो तीन उपभेद बताए ह, उनम यह श द
आया है। जैसे, द डरासक म डल रासक और ना यरासक। हमारा यह व वास है क
इसी ना यरासक श द से आ दकाल न रास या रासोका य श द बने ह और आगे चल
कर अलग प -धारण कर लया। ऊपर बताएँ गए गीत नृ यपरक रास क उ पि त तो
इसी श द से नि चत प से हु ई होगी।
रासो श द क यु प त को लेकर एक दूसर परं परा और हमारे सामने आती है। अप ंश
का य के छं दशा म ाय: रासक और रासाब ध का य के ल ण का नदश कया
गया है। पुराने का यशा ी वरहांक ने लखा है क िजस का य-रचना म अ ड ला,
दोहा, घ ता, रं का और ढोसा छ द अ धकता से पाए जाते ह, वह रासक का य कहलाता
है। जब क वयंभू यह कहते ह क का य म रासाब ध अपने घ ता, छ पय, प डी एवं

53
अ य पक के कारण जनमन अ भराम होता है। रासा नामक एक स छं द भी ाय:
सभी पुराने पंगल थ
ं म मलता है।
अत: इस ववेचन से यह न कष नकलता है क पहले रासा धान छं द-वै व यपरक
का य थ
ं को रासाब ध और रासक कहा गया, और बाद म ये का य रासो कहे जाने
लगे, चाहे वे कसी भी छं द म ह या कसी भी वषय-व तु पर आधा रत ह ।
इन रासोका य म छं द, वषय एवं रचना- या क कोई एक पता नह ं पायी जाती।
िजस कार ’रासो’ श द क यु प त के बारे म तरह-तरह क क पनाएं क गयी ह,
उसी कार रासो क ं म भी। परं त,ु ऊपर व णत दोन परं पराओं के
वषयव तु के संबध
ववेचन से यह सार नकलता है क रासो का य म वषयव तु, रस, शैल , आ द का
कोई तब ध नह ं रहा। उनके वषय धा मक भी ह, तो लौ कक भी। उनम जहां एक
ओर शांत रस ह एकमा रस है, तो दूसर ओर वीर रस या गृं ार रस अंगी रस के
प म च त हु ए ह। कु छ रासोका य म कथानक का अ छा प रपाक मलता है तो
दूसर ओर ऐसे रासोका य भी ह, िजनम कोई कथानक है ह नह ं - केवल तपा य
वषय का न पण है। इनके कथानक जहां ह, वे भी व भ न कार के ह - धा मक,
पौरा णक, ऐ तहा सक तो कह ं पर कि पत भी। कु छ रासोका य का आकार 30-35
छं द तक सी मत है, तो कोई हजार छं द से न मत महाका या मक रचना है - जैसे
पृ वीराज रासो। यहां, इस सार व वधता को यान म रखते हु ए कु छ स व
मह वपूण रासो-का य व उनके रच यताओं का सं त प रचय दया जाएगा।

4.2.1 वीरगाथा मक रासो-का य

जैसा क इकाई 3 के ववेचन म आ दकाल क चचा करते समय यह बात आयी थी


क उस काल म यु और वीरता संबध
ं ी का य अ धक लखे गए और उससे े रत
होकर सा ह य के इ तहासकार ने, वशेषकर आचाय रामचं शु ल ने तो आ दकाल का
वृि तमू लक नाम ह वीरगाथा काल रख दया था। इसका यह ता पय है क उस काल
म वीरगाथा वषयक का य क चु रता रह और कई रासोका य इस आधार पर रचे
गए। ऐसे का य का उ े य ह अपने आ यदाता राजाओं के यि त व म वीरता,
परा म और यश का जमकर च ण करना था। अत: वाभा वक ह ऐसे का य म
अ तशयोि त का जमकर योग हु आ, िजसे तब का य-रचना क वशेषता मानी जाती
थी। यहां हम कु छ चय नत वीरगाथापरक रासोका य क चचा करते ह।
पृ वीराज रासो : इस का य-परं परा म यह एक त न ध एवं सव े ठ रासोका य माना
जाता है, िजसके रच यता चंद बरदाई थे। रामचं शु ल भी इसे ह द का थम
महाका य कहकर मह व दे ते ह। इसका रचनाकाल ईसा क बारहवीं शता द माना जाता
है, जो अनुमान पर आ त है। इसके क व चंद बरदाई द ल के महाराजा पृ वीराज
चौहान के म , समवय क, साम त और राजक व थे। घ न ठ म क भां त हमेशा
चंद क व, राजा, जो क इस का य का च रतनायक है, के साथ आहार- वहार करते थे
54
और इस का य म भी इस प म आंख दे खा हाल मलता है; मान क व घटना का
य दश सा ी हो। यह का य क वता और ब ध व दोन ि टय से एक े ठ
रचना है। यह एक च रतका य है, िजसम इसके नायक पृ वीराज चौहान के जीवन क
व वध घटनाएं, यु व आमोद- मोद का वणन कया गया है । परं परानुसार , महाका य
के सारे नयम का पालन मलता है। जैसे, मंगलाचरण, वनय, स जन- शंसा और
का य का उ े य इ या द। इस थ
ं के चार भ न सं करण ा त हु ए ह, िजनसे यह
रचना संदेह क शकार हो गयी है और इसक ामा णकता को लेकर व वान म
मतभेद आज तक जार है। ये चार सं करण आकार क ि ट से हत,् म यम, लघु
तथा लघुतम ह। बृहत ् सं करण म ढाई हजार पृ ठ ह, व लघुतम म मा कु छे क छ द
ह।
पृ वीराज रासो का य भावप व कलाप दोन ि टय से े ठ व समृ है, चाहे
इसक ामा णकता भले ह तय न हो पायी हो। वैसे भी इस महाका य म ऐ तहा सक
माण क स चाई ढू ं ढना अपने म बेमानी है, य क यह का य ह, इ तहास- थ
ं नह ं।
अत: इ ह का य क रस- ि ट से ह पढ़ा जाना चा हए। इस का य म मा मक संग
का वाभा वक वणन हु आ है। इसका धान रस वीर है, जब क गृं ार रस का भी
जमकर च ण हु आ है। पृ वीराज क वीरता का वणन क व इस कार करता हे:
थ क रहे सू र कौ तग गगन, रगन-मगर भई ोन धर।
ह द हर ष वीर ज गे हु लस, हु रे उ रं ग नवर त वर ।।
यानी, पृ वीराज चौहान के यु -कौशल एवं वीरता को दे खकर सू य भी तं भत हो गया।
इस यु म नरसंहार से सार धरती र त से भर गयी, वीर यो ा उ लास से भर उठे
और उनके चेहर पर स नता से र त क ला लमा छा गयी। इस तरह, इस थ
ं म
वणन क धानता है। न कष यह भी क यह एक अध- ामा णक रचना है, िजसके
रचनाकार का उ े यका य-रचना करना था, इ तहास लखना नह ं।
परमाल रासो : इसे आ ह-खंड के नाम से भी जाना जाता है। यह का य 36 खंड म
वभ त है और यह लोकगीत शैल म लखा गया एक वीरका य है। इसके रच यता का
नाम जग नक है जो महोबा के राजा परम ददे व के आ त राजक व थे। इस का य म
पृ वीराज चौहान और परम ददे व के बीच हु ए यु का वणन है। परम ददे व का ह
बोलता नाम परमाल मलता है, िजससे इस कृ त का नाम परमाल रासो रखा गया
लगता है। इस कृ त म परमाल के दो सामंत - आ हा और ऊदल क असाधारण
वीरता का भी व तृत च ण कया गया है। वीर रस का िजतना भावशाल प इस
रचना म मलता है, उतना कसी अ य रासो म नह ं। इस का य का े ठ गुण इसक
गेयता है, िजसे स दय से गाया जाता रहा है। इसक भाषा ज है जो बु द
ं े लखंडी से
भा वत है।

55
खु माण रासो : इसके क व दलप त वजय ह, िज ह ने इसम मेवाड़ के शासक - बा पा
रावल से लेकर महाराणा राज संह तक का वशद वणन कया है। ले कन, मु ख प से
च रत-नायक के प म महाराणा खु माण संह का च र -वणन है, अत: इनके नाम पर
का य का नामकरण कया गया है। इस थ
ं क भाषा-शैल डंग है। का य क
घटनाएं यादातर का प नक ह और उनम अलौ कक त व का भी समावेश है। इसका
रचनाकाल शु लजी के अनुसार 12 वी शता द है।
ह मीर रासो: यह का य क ववर शारं गधर वारा रचा गया है, हालां क इस का य क
पूण पांडु ल प उपल ध नह ं हु ई, कं तु सा ह य के इ तहास म इस कृ त का बार-बार
उ लेख मलता है। इस ं के केवल 8 छं द
थ ाकृ त पगलम ् नामक थ
ं म उ त कए
हु ए मलते ह। उ ह दे खने से लगता है क यह भी एक वीरगाथा मक रासो थ
ं रहा
होगा। इसक रचना चौदहवीं शता द से पूव हु ई होगी, ऐसा अनुमान है।
वजयपालरासो : न ह संह भाट को इसका रच यता माना जाता है और 1050 ईसवी के
आसपास इसक रचना होना माना जाता है। इस का य म वतमान करौल के वजयगढ़
रा य के राजा वजयपाल सह के परा म का वणन है। न ह संह इनके आ त क व थे।
इस कृ त के मा अब तक 42 छं द ह ा त हु ए ह, िजनके आधार पर यह कहा जा
सकता है क पंगराजा और वजयपाल सह के बीच जमकर यु हु आ। इसम वीर रस का
प रपाक उ नत तर का है।

4.2.2 गृं ारपरक रासोका य

इस कृ त के का य म वीर रस क व यमानता तो है, कं तु इनका धान रस गृं ार


है। अत: इ ह इस को ट म रखा गया है। इन का य म गृं ार के वयोग और संयोग
दोन प का मा मक वणन मलता है। इन का य के अंत म वरह भोग रहे नायक-
ना यकाओं का संयोग व मलन दखाया गया है। अत: ये सु खांत का य ह। ऐसे
रासोका य कई ह, िजनम से सफ दो तनध गृं ारपरक रासोका य का च ण उ चत
होगा।
संदेश रासक : यह 12 वी सद म णीत अप ंश क रचना है, िजसे क व अ हमाण
(अ दुरहमान) ने लखा। इस का य म कुल 223 प य ह और यह तीन खंड म
वभािजत है। इसम वजयनगर म रहने वाल एक वर हणी ना यका क मा मक कथा
व णत है, िजसका प त गुजरात चला गया था। ना यका उधर जाने वाले एक राहगीर के
मा यम से अपने प त को संदेश भेजना चाहती है। आगे बढ़ने को उ यत उस प थक
को बार-बार रोक कर अपना दुखड़ा सु नाती है और संदेश दे ती है, िजसे उसके य तक
पहु ंचाया जाए। छ:ह ऋतु ओं म उ प न वरह के दुःख का इसम सरस वणन है। अंत
म, जब वह ना यका उस प थक को अपने संदेश के साथ वदा करती है, उसी व त
दूसर दशा से उसका यतम आता हु आ दखता है और वह आनंद वभोर हो जाती है।
क व ने सबक मंगलकामना के साथ इस का य का समापन कया है।

56
यह संदेशरासक एक तरह का खंडका य है, िजसम 22 कार के छं द का योग हु आ
है। फर भी इसका मु य छं द रासा है और गृं ार रस के वरह-प का बहु तायत से
च ण है। वर हणी ना यका क द न-ह न दशा, नर हता और वेदना का पूर भावुकता
से च ण हे । ना यका व न म प त से भट करती है और जागने पर उसे नह ं पाती है
तो इस तरह दुखी हो जाती है:
जइ ठाहु ण गउ जीउ पावबं ध ह ज डउ।
हयउ न कण क र फ णाइ वि ज ह थ डउ ।।
अथात ् य द कसी कारणवश मेरे ाण नह ं नकले तो अव य ह कसी पाप के बंधन
से वे जड़ीभू त होकर रह गए ह। प त के न होने पर मेरा दय फट य नह ं गया?
मेरा दय तो मान व का ह बना है। इस का य म क व ने संदेश-परं परा का नवाह
कया है और इसक समाि त भी नाटक य घटना म के साथ नायक-ना यका के
पुन मलन से क गयी है, जो भारतीय का य क सु खा त वशेषता है। यहां दुखांत
का य का चलन नह ं के बराबर है।
बीसलदे व रासो: इस ं का रचनाकाल 1155 ईसवी माना जाता है और इसके क व

के प म नरप त ना ह का नाम न ववाद प से मा य है। इसके च रतनायक
व हराज तृतीय ह, िज ह अप ंश म बीसलदे व संबो धत कया गया है। ये सांभर
(राज थान) के चौहान राजा थे। उनका ववाह राजा भोज परमार क पु ी राजमती के
साथ हु आ था। इनके ववाह तथा कारणवश हु ए वयोग का मा मक व व वसनीय वणन
है। हु आ य क राजा बीसलदे व अपनी नव ववा हता रानी राजमती के यं यबाण से
घायल व नाराज होकर उड़ीसा रा य म चला जाता है तथा वह बारह साल तक लौटकर
नह ं आता। य के वयोग म दुखी रानी एक पं डत वारा बीसलदे व को संदेश भेजती
है। संदेश पाकर बीसलदे व अपने रा य म लौट आते ह और नायक-ना यका का
परं परानुसार पुन मलन हो जाता है, जो क व का अभी ट ल य है। यह भी परं परानुसार
एक गेय रचना है िजसम कु ल 128 छं द ह और यह चार सग म वभािजत है। इसक
खास बात यह है क इसम आ द से अंत तक एक ह कार के छं द का नवाह क व ने
कया है। अ य रासोका य म ऐसा नह ं मलता। इसक रचनाशैल भी वणन- धान है।
मू लत: बीसलदे वरासो एक वरह-का य है। क व ने राजमती के वरह को के म
रखकर उसका व तार से वणन कया है। रचनाकार को नार -जीवन क ववशता और
लाचार से पूर सहानुभू त है :
ी जनम काई दयो हो महेस?
अवर जनम थारे घणा हो नरे स ।।
यानी, हे भगवान शंकर ! तु मने मु झे नार का जीवन य दया? तु हारे पास मु झे दे ने
के लए कई और ज म या जीवन थे, वो दे सकते थे। संदेश रासक क संदेश परं परा
का का यो चत नवाह करते हु ए इस का य म क व ने रानी राजमती वारा अपने य
प त को वापस लौट आने का संदेश भजवाया है।

57
अगर, भाषा क ि ट से दे ख तो इस का य का एक अलग मह व है। इसक रचना-
भाषा उस युग क भाषा का सं ध थल है, िजसम अप ंश के साथ-साथ पुरानी ह द
का समावेश भी हो गया है। यह नह ,ं बरस तक गाये जाते रहने के कारण इस का य
म अनेक गायक और दुहराने वाले अ य गायक वारा थानीय बो लय के अनेक
श द मला दए या बदल दए ह जो हर गेयका य क नय त और वडंबना है।

4.2.3 धा मक एवं उपदे शा मक रासो-का य

इस वग म ाय: जैन क वय वारा रचे गए रासो-का य प रग णत ह, जो धम,


आचरण, साधना-उपासना आ द को यान म रखकर लखे गए या जैन धम का चार
िजनका मू ल रचना-उ े य रहा था। इन सबक ं ी है,
वषयव तु धम तथा उपदे श संबध
हालां क इनम जगह-जगह वीर रस का वणन भी आ जाता है, जो वषय या संग क
मांग के अनुसार आना था। इन का य का मू ल आधार शांत रस है, िजसम हर का य
को समा त कया गया है। उदाहरण के लए उपदे श रसायन रास म धम का ह उपदे श
मु य है। जब क भरते वर बाहु बल रास म ऋषभदे व के पु बाहु बल तथा भरत के
यु क कथा का वणन करने के बाद अंत म बाहु बल वारा वैरा य-द ा लेने का
वणन है। इस कार इन का य म वीरगाथा मक का य क तरह वीर या गृं ार रस
क धानता नह ं है, बि क शांत रस ह इनका अंगी रस है।
इन का य- थ
ं के रच यताओं का उ े य भी राजाओं के यशोगान या शंसा मूल क
का य लखना नह ं है। इनके क व जैन मु न थे, राजा-महाराजाओं और उनके आ य से
इ ह कु छ लेना-दे ना नह ं था, अत: वे वतं रचना कर सके। का य रचना म कथा के
मा यम से धम का उपदे श दे ना ऐसे का य का वा त वक ल य रहा है। इस ेणी म
हम मु ख वृि तमू लक उदाहरण के तौर पर इन तीन रासोका य क चचा करगे -
उपदे श-रसायन रास, भरते वर बाहु ब ल रास तथा चंदनबाला रास।
उपदे श रसायन रास: इसके रच यता क व िजनद त सू र ह। रचनाकाल 1143 ईसवी के
आसपास माना जाता है। इसम कु ल 80 प य माने जाते ह । यह एक धा मक रचना
है और रचनाकार का उ े य भी यह है। क व का यह मानना है क गु के मा यम से
ह हमार आ मा का उ ार हो सकता है। गु के वारा ह इस भवसागर को पार कया
जा सकता है। इस गुर -म हमा के साथ क व ने अपनी रचना म गृह थ के लए भी
अनेक कार के उपदे श दए ह। यह भी एक गी त-का य है, िजसम चौपई नामक छं द
का योग हु आ है। इस क भाषा अप श
ं है।
भरते वर बाहु बल रास': आचाय शा लभ सू र वारा र चत यह का य थ
ं बारहवीं
शता द का णीत माना जाता है। जैन सा ह य के व यात व वान मु न िजन वजय
इस का य को जैन-सा ह य क रास परं परा क वतक रचना मानते ह और उनक यह
मा यता बहु त हद तक सह व उ चत भी है।

58
इस ं का कथानक जैन-सा ह य क अ त
थ च लत घटना पर आधा रत है, जो ाय:
सभी जैन पुराण म पायी जाती है। इस का य म ऋषभदे व के दो पु भरत तथा
बाहु ब ल के यु का वणन है। वीर रस से आरं भ होने के बावजू द इस का य का अंत
नवद तथा वैरा य म ह होता है। इसक मू ल कथा इस कार है क ऋषभदे व ने अपने
अं तम समय म संपण
ू रा य भरत तथा बाहु ब ल स हत सौ पु म बांट दया। ले कन
इनम से भरत अ धक मह वाकां ी थे, जो दि वजयी बनना चाहते थे। प रणाम- व प
इनके भाई बाहु ब ल को छो कर अ य सभी भाइय ने इनक अधीनता वीकार कर ल ।
बाहु ब ल के इस यवहार से भरत के साथ यु होना अ नवाय था। अत: भरत और
बाहु ब ल म घोर सं ाम हु आ और यु के चलते अपने अ ज भरत का वध करते समय
बाहु ब ल को अ यंत ला न हो गई और उ ह ने यु व अपना रा य याग कर वैरा य
ले लया तथा अंत म कैव यपद ा त कया।
इस का य म वीर रस का बहु त अ धक वणन है परं तु इसक समाि त, जैसा क पहले
बताया गया, शांत रस म हु ई है जो क व का उ ट है। इसम कु ल 205 छं द ह। इस
का य क रचना-भाषा अप श
ं ह है, िजस पर पुरानी राज थानी और जू नी गुजराती का
भाव है। इससे इस कृ त के रचना- थल का सहज ह अनुमान कया जा सकता है क
यह अव य पि चमी राज थान म कह ं रची गयी होगी। इसम चौपाई, दोहा और रासो
छं द का योग कया गया है।
चंदनबालु ा रास : इस रासोका य के रच यता आसगु ह। कु ल 35 छ द म र चत यह
छोटा सा खंडका य है और इसका संभा वत रचना काल 1200 ईसवी माना जाता है।
इस का य म राजा द धवाहन क पु ी राजकुमार चंदनबाला के जीवन क क ण-कथा
है। इस का य का समापन भी दूसरे जैन रासो का य क तरह शांत रस म वैरा य और
द ा के साथ होता है, जो क व का पूव नयोिजत योजन है। वह कथा को का य म
इसी लए परो रहा है। ले कन, सा हि यक ि ट से वचार करने पर पाते ह क यह
रचना क ण रस से आ ला वत है। यह का य अप श
ं म रचा गया है और परं परानुसार
चउपइ और दोहा छ द का योग कया गया है।

4.2.4 मु ख वशेषताएं और मह व :

ऊपर रासो का य-परं परा और उसक व वधता क जानकार आपको द जा चु क है।


ा त कृ तय या उनके अंश के आधार पर यहां कु छ खास वशेषताओं का आकलन
और उनके मह व का तपादन कया जा सकता है।
इ तहास और क पना का समु चत संयोग:
पुराने समय म का य-रचना म ाय: अ तशयोि त का योग बहु तायत से कया जाता
था, अत: ऐ तहा सक त य क ामा णकता व स यता क र ा नह हो पाती थी। न
ह ऐसा कसी क व से अपे त है क पूर ऐ तहा सक स चाई का नवाह करते हु ए
अपना का य रचे। अगर ऐसा हु आ तो का य के नीरस इ तहास हो जाने क पूर

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आशंका रहती है। अत: का य म सा हि यक गुण का समु चत कला मक नवाह करते
हु ए इन रासो का य म रस प रपाक क ि ट से इ तहास क मु ख घटनाएं, पा और
उनके जीवन क मु ख वशेषताओं को समेटते हु ए उ तम का य का सृजन कया गया
है। इनके े ठ उदाहरण पृ वीराज रासो तथा बीसलदे व रासो जैसी सु दर कृ तयां ह,
िजनम भावमयता व सरसता वहमान है।
कहना न होगा क रासो का य के क वय ने का य और कथानक का आरं भ तो कसी
ऐ तहा सक घटना से ह कया है, मगर आगे चलकर वे उसक वा त वकता से प ला
छुड़ाते हु ए नायक के म हमा-मंडन म अलौ कक तथा शौयपूण अ व वसनीय काय का
घटाटोप वणन करने लगते ह। यह का य क मांग भी होती है। इस य त म का
अ छा उदाहरण ''परमाल रासो' है, िजसम च रत-नायक राजा परमाल को पृ वीराज
चौहान वारा मार दए जाने का उ लेख है, जब क 'पृ वीराज रासो’ के रच यता चंद
बरदाई ने अपने का य म मारने के बजाय परमाल को केवल दं ड दे कर छोड़ दए जाने
का च ण कया है। अब इन दोन म से कसे सच माना जाए? अत: इनम ऐ तहा सक
त य को क पना के आगे गौण बना दया गया है।
आ यदाता राजाओं काय यशोगान :
यह सह है क वीरगाथा मक रासो का य क रचना का वा त वक उ े य अपने-अपने
आ यदाता राजाओं क बढ़ चढ़कर शंसा करना ह था। इसम क वय ने कोई कसर
नह ं रखी। शायद ह कसी ने भू ल कर अपने आ यदाता राजा क कसी मानवीय
कमजोर का च ण कया हो या उसे कसी बात म ह न व अनु चत ठहराया हो।
जब क वा त वकता म ऐसा कभी होता नह ं है। क मयां और ु टयां तो अवतार पु ष
म भी रह ह। अपने च रत-नायक के यु -कौशल, दानवीरता, सौ दय यता और
अ भमानवृि त का अ तशयोि तपूण वणन इन का य क धान वशेषता है। इसके
चलते क वय ने अपने राजा के सम त व वी राजा को ह न, अ यायी व कमजोर
ठहराने म कोई संकोच नह ं कया है। इ ह ने अपने का य का आदश यु के मैदान म
अपने नायक राजा क वीरता के वणन को ह बनाया है, य क आ यदाता को सदै व
स न रखना तथा यु े म उनम ओज व उ साह का संचार करना इनका धम था।
तेज म सू य से बढ़कर, यश व क त म चं मा क चांदनी से बढ़कर और गंभीरता म
समु से बढ़कर, वैभव म इं से बढ़कर, और वीरता म व णु से बढ़कर अपने राजा
को बताना इनके लए सामा य बात थी और इसे वे अपना रचना मक अ धकार मानते
थे।
वीरता और गृं ा रकता का समवेत च ण :
उस काल म अ धकांश यु अपने रा य का व तार करने के लए अथवा कसी सु दर
राजकुमार के चाहने पर उसका अपहरण कर लाने के प रणाम व प लड़े जाते थे। अत:
वाभा वक ह इन का य म वीरता और गृं ा रकता का च ण एकसाथ, बराबर आता
रहा है। वैसे भी गृं ार को का यशा म ‘रसराज' बताकर म हमा मं डत कया गया है।

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अत: अपने का य के व य- वषय को दे खते हु ए भला ये क व गृं ार को कैसे छोड़
सकते थे। यह और सु खद बात रह क चरभो या वसु ंधरा के तक से वीरता के साथ
गृं ार रस क मै ी भी इन का य के उ कष को बढ़ाने व चमकाने म सहायक रह है।
चंद बरदाई र चत पृ वीराज रासो का नायक महाराज पृ वीराज चौहान िजतना यु म
परा मी है, उतना ह सौ दय का उपासक और मधु र मन का आराधक भी है।
का य- प क व वधता :
ब ध एवं मु तक-शैल दोन तरह से रासोका य क रचना क गयी है। यह नह ,ं कई
का य म उसक गेयता का यान रखते हु ए सृजन कया गया है। एक तरफ,
'पृ वीराज रासो’ और 'परमाल रासो’ को ब ध का य क को ट म रखा जा सकता है,
तो दूसर ओर ''उपदे श रसायन रास'' एक मु तक का य है। परमाल रासो और
वीसलदे व रासो क रचना तो लोकगीत शैल म क गयी है, जो उ ह अ य रासो का य
से अलग दशाती है।
रासो का य का अ भ यंजना एवं श प-प
वीरगाथा मक का य म जहां डंगल व पंगल रचना-शैल दखाई दे ती है, बीसलदे व
रासो जैसी कृ तय म व संदेशरासक आ द म मन क कोमल वृि तय का च ण करने
के लए साद गुणवाल कोमलकांत श दावल का योग कया गया है। रचना-भाषाओं
क व वधता इन रासो का य क अ यतम वशेषता है। एक ह का य म दो तरह क
का य-भाषा यु त क गयी है। छं द के योग का उ लेख थान- थान पर पहले कया
जा चु का है। अलंकार म अ तशयोि त अलंकार और उपमालंकार क वय का य रहा
है। ाय: सभी अलंकार का योग यथा थान बखू बी कया गया है, िजससे उनके
का य-कौशल का पता चलता है।

4.3 लौ कक सा ह य : व प एवं सामा य प रचय


जो सा ह य या उसका कोई का य- प वशाल लोक-मानस को भावम न, रसल न और
आंदो लत कर सके, वह लौ कक सा ह य माना जाता है। यहां लोक-सा ह य और
लौ कक सा ह य का अंतर भी समझ कर चलना आव यक है क लोक-सा ह य तो वह,
िजसक रचना अ ात रचनाकार वारा लोक म से क गयी हो, और लौ कक सा ह य
वह, िजसके रचनाकार कोई यि त- वशेष ह और उसम संदेह न हो। लोक- चपरक
सा ह य लौ कक सा ह य कहलाता है। यहां आ दकाल म र चत लौ कक सा ह य क
चचा करना अभी ट है। क तपय मु ख लौ कक सा ह य क स व लोक य कृ तय
का सं त ववेचन हम आगे करगे। इससे पूव कु छ प रचया मक भू मका बनानी
उ चत होगी।
जनता के मनोरं जन, रस-वषण के आशय से अमीरखु सरो, व याप त जैसे क वय ने जो
रचनाएं क ,ं उनका यहां खास मह व है। खु सरो क मु क रयां और पहे लयां आज 800
साल बीत जाने के बाद भी लोग के मु ंह पर ह। इसका रह य इनक रोचकता व

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रं जकता म छपा हु आ है। जनता क च िजन चीज म है, उसका वणन लोक को
य होता है और लोक उ ह आदर व अपन व से स दय तक याद भी रखता ह,
जब क पां ड यपूण अनेक थ
ं को लोक मानस ने कभी दय से वीकार नह ं कया
और उ ह वह लोक यता नह ं मल सक जो व याप त व खु सरो जैसे क वय को
ा त हु ई, या 'ढोला मा रा दूहा ’ को मल ।

4.3.1 लौ कक सा ह य : मु ख क व एवं का य-रचनाएं

आ दकाल न सा ह य क इस धारा म अनेक छोटे -बड़े क व एवं सा ह यकार हु ए ह,


िज ह ने अनेक वधाओं म अपनी रचनाएं क । मसलन, दोहे , पहे लयां, मु क रयां,
मु तक, सुभा षत, खंड-का य, पद-रचना आ द। इनम सबसे अ धक लोक य व अपनी
म ती के लए जाने जानेवाले क व अमीर खु सरो ह, िजनसे यह चचा शु करना उ चत
रहे गा।
अमीर खुसरो : इनका ज म सन 1255 म उ तर दे श म इटावा के आसपास हु आ।
इनका असल नाम अबुल हसन था और ये फारसी व सं कृ त के भी अ छे ाता थे।
आ दकाल म खड़ी बोल म का यरचना करने वाले ये पहले क व ह। आठ सौ साल
पहले भी आज क खड़ी बोल का इतना सु थरा प इनक रचनाओं म पाया जाता है
क आ चय होता है। एक उदाहरण दे खए :
गौर सोवे सेज पर मु ख पर डारे केस।
चल खु सरो घर आपने रै न भई-चहु ं दे स ।।
इ ह ने कई भाषाओं म ह क व भार रचनाएं क ं। ये दशन के त व- ानी होने के साथ
जीवन का रस व आनंद लेने वाले मनमौजी व एक म तमौला यि त थे, जो कसी भी
अ छे क व के वभाव क सह पहचान है। इनका मनमौजी प इनक पहे लय म व
मु क रय म प ट नजर आता है। एक स पहे ल दे खए:
एक थाल मोती से भरा, सबके सर पर औंधा धरा।
चार ओर वह थाल फरै, मोती उससे एक न गरे ।।
(उ तर : आकाश)
इसी तरह, दो रोचक पहे लयां और दे खने लायक ह :
याम वरन क है एक नार , माथे ऊपर लागे यार ।
जो मनु य इस अरथ को खोले, कु ते क वह बोल बोले ।।
(उ तर: भ )
बीस का सर काट दया। ना मारा ना खू न कया। (नाखू न)
इस तरह, अमीर खु सरो ने हा य- वनोद का सृजन जनता क चलती भाषा म कया।
उनक अ य रचनाओं म गंभीर दाश नकता व भि त पायी जाती है।
व याप त : इनका ज म 1368 ईसवीं म वसपी गांव, दरभंगा िजला ( बहार) म हु आ
था। इ ह ने सं कृ त के पं डत होते हु ए भी ह द क एक शाखा मै थल भाषा म अपनी

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रचनाएं क ं। ये कृ णभि त का य के ारं भक क व माने जाते ह। ये राजा क त संह
और म थला के राजा शव संह के आ त थे और रानी ल खमादे वी इनक भ त थी।
इ ह ने सं कृ त म 11 थ
ं क रचना क , िजनम 11 व सव व सार 1 और 1 दुगा
भि त तरं गणी 1 स ह। ह द (मै थल ) म इ ह ने तीन थ
ं क रचना क -
क तलता, क तपताका और पदावल । थम दोन तो अपने आ यदाता राजा के च रत-
का य ह, जब क व याप त क 'पदावल ’ राधा-कृ ण भि त क अ यंत सु ंदर व
ु और अ व मरणीय रचना है। इस कारण इ ह ' ह द
व यात लोक यता वाल अ त
का जयदे व’ कहा गया है। पदावल अपने ला ल य, सौ दयबोध व कैशोर-कोमल मन के
भाव को अ भ य त करने वाल अ भुत रचना है, िजसक सरसता आज भी कम नह ं
हु ई है। इनके पद से भाव- वभोर होकर चैत य महा भु तक ने उनका गा-गा कर चार
कया। इस पदावल म राधा-कृ ण के ेम व गृं ार का सू म व मनोहार च ण है, जो
सू र के पद से पहले व उनसे ट कर लेने म स म है। इन पद म व याप त ने राधा
के अप प सौ दय, नख- शख वणन, अ भसार, रास, मान व उनक णयल लाओं के
व वध रसमय च उकेरे ह। राधा के अ तम सौ दय क एक झलक उनके पद म
दे खए:
लोल कपोल ल लत म न-कं ु डल , अधर ब ब अध जाई।
भ ह भमर नासापुट सु ंदर सै दे ख क र सजाई ।।
यानी, राधा के गाल बहु त सु ंदर ह। उसके म णज टत कं ु डल हलडु ल रहे ह और ह ठ
क ला लमायु त आभा को दे खकर बंबाफल भी शरमा गया है। उसक भ ह ने तो
मर को नीचा दखा दया है, और ना सका के नुक ले स दय को दे खकर तोता भी
लि जत हो गया है। गृं ार म क व ने संयोग व वयोग दोन प का च ण कया है।
उनका बंब- वधान, श द-चयन, और उ ावना-शि त शंसनीय है। हालां क उनक इस
कृ त पर सं कृ त के क व जयदे व क रचना ''गीत-गो वंद'' का भाव नजर आता है।
ढोला-मा रा दूहा : यारहवीं शता द म र चत यह एक लोकभाषा का गेय का य है,
जो ेम-रस से आ ला वत है। पि चमी राज थान का यह लोकका य अ यंत जन य
रहा है और आज भी श त-अ श त यि त इस का य क मह ता से प र चत ह।
इसके मू ल रच यता का तो पता नह ,ं कं तु कु शललाभ नामक यि त ने इसके दोह को
सु नकर एक कया और संपा दत कर यवि थत प दया, िजसे आज हम का शत
प म दे खते ह। इसक लोक यता एक मसाल बन गयी औr दो े म इसक साख द
जाने लगी:
सोर ठयो दूहो भलो, भल मरवण र बात।
जोबण छाई धण भल , तारा छाई. रात ।।
यानी दूहा छं द म सोरठा, का य म ढोला-मा क बात, जवान प नी और चांदनीरात
सबको य लगती है।

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यह लोक स ेमगाथा, आ दकाल न गृं ार-का य-परं परा क एक मह वपूण कड़ी है।
इस का य म नार - दय क अ यंत मा मक यंजना मलती है और वरह क सघन
अनुभू तय को उभारा गया है। प त के वयोग म प नी मारवणी क याकुलता अपने
चरम पर पहु ंच कर ोता या पाठक को वीभू त कर दे ती है। एक उदाहरण:
ढोला थारे कारणे ताता भात न खा हं।
हवडे भीतर पउ बसह ,ं दाझा ती डरपा ह ।।
यानी, हे यतम ढोला, तु हारे कारण यह मारवणी गरम चावल भी इस लए नह ं खाती
है क दय के भीतर तु म रहते हो, अत: कह ं तु म आंच से जल नह ं जाओ और तु ह
कोई क ट न हो।
जयचंद काश और जयमयंक जसचं का : इनका ''राठौड़ा र यात” नामक थ
ं म
उ लेख अव य मलता है, पर ये आज तक उपल ध नह ं हु ई। अत: इनके बारे म
नि चत कु छ नह ं कहा जा सकता। पहल कृ त शायद महाराज जयचंद के ताप और
परा म से संबं धत है, तो दूसर रचना मधु कर क व क है, जो इसी वषय-व तु क
रची तीत होती है।
भ वसय त कहा (भ व य त कथा) : यह अप श
ं म र चत कथाका य है, िजसके
रच यता धनपाल ह और दसवीं शता द म यह लखी गयी। इस रचना म हि तनापुर
के एक दं पती धनप त व कमल ी के पु भ व यद त क कथा है। भ व यद त के
सौतेले भाई बंधु द त ने उसक संपि त छ न ल तो दं ड व प गजपुर के राजा ने
बंधु द त को दं डत कर उसे वापस दलवायी और अपनी पु ी का याह भी भ व यद त
से कर दया। चौदह सं धय म यह का य लखा गया है। ववाह के बाद भ व यद त
को मु न वमलबु उपदे श दे ते ह और वह तप या म लगकर नवाण ा त करता है।
यह एक ब ध-का य है जो कडवकब शैल म र चत है।
इनके अलावा भी, लौ कक सा ह य क इस धारा म अनेक छोट -बड़ी रचनाएं ा त
होती ह, िजन सबका यहां वणन करना थान व समय-सीमा से उ चत नह ं तीत
होता। उ ह ह द सा ह य के इ तहास- थ
ं म दे खना चा हए।

4.3.2 वशेषताएं और उपलि धयाँ

लौ कक सा ह य क धारा म का य-रचना के साथ अनेक ग य-कृ तयां भी रची गयीं,


िजनम 'राउलवेल' एक शला पर अं कत रचना थी, िजसे वहां से ल पब कर का शत
कराया गया था। इसी तरह दामोदर शमा र चत ''उि त- यि त- करण” और
यो तर वर ठाकु र क मै थल म लखी हु ई 'वण-र नाकर' जैसी अनेक ग य-रचनाओं
से इसक समृ का अंदाज लगाया जा सकता है।
लौ कक सा ह य क सबसे बड़ी वशेषता उसक भाषागत, रचना-शैल गत और वषय-
व तु गत व वधता है । इ तहास- स नायक से लेकर सामा य घर के मामूल आदमी
को इन का य म नायक बनाकर जीवंत प दया गया है। साथ ह इसम रोचकता,

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सरसता और उ सु कता भरे पाठक य या वणीय आकषण को यान म रखा गया है,
िजससे इनके रचनाकार के रचना-कौशल व चातु य का पता चलता है। वे जनअ भ च
को अ छ तरह समझते थे। वना अमीर खु सरो जैसे व वान आदमी को जनता क
भाषा म ब च जैसी पहे लयां व मु क रयां लखने क भला या आव यकता थी?
जन च इनक मु ख वशेषता है, अत: ये अ य आ दकाल न सा ह य-धाराओं - रासो
नाथ, स आ द के सा ह य से भ न अपना मह व रखती ह।

4.3.3 मू यांकन :

बंधी-बधायी स दय पुरानी रचना-प त व ढ़ वषय-व तु को छो कर व छं द तर के


से रचना-पथ पर बढ़नेवाल लौ कक सा ह य क धारा, उस युग के क वय व जनता
क सा हि यक जड़ता से मु ि त पाने का सफल व साथक यास दखाई दे ती है। यह
एक बहु त बड़ा साम यक व साह सक सा हि यक अ भयान था, िजसम इ तहास- व यात
राजा-महाराजाओं को दर कनार कर मामूल आद मय के नजी सु खदुख क बात लखीं
और कह गयीं। ऐसा हर युग म होता आया है। आधु नक ह द -का य धारा म
छायावाद व नई क वता जैसे नए का यादोलन इस वृि त के जीवंत उदाहरण ह।
जनता व क व हमेशा लक र के फक र नह ं होते क बरस तक एक ह का य प या
सा ह य-शैल को झेलते रह सक। अत: लौ कक सा ह य क मह ता इस बात को लेकर
उ लेखनीय है क वषयगत व वधता, शैल गत नवीनता और अ भजात से छुटकारा
पाकर समाज के सामा य पा को का य का नायक बनाया गया।

4.4 सारांश
यापक ि ट से दे ख तो हम पाते ह क आ दकाल न ह द सा ह य अप ंश-सा ह य
के साथ-साथ अपने नजी प म वक सत हु आ। इस युग म ह द भाषा सामंतवाद म
जीती हु ई और उसक बा यता से मु त होने का यास करती हु ई अपना रचना मक
अि त व कायम करती है। जन-जीवन को मह व दे ती हु ई उससे रस- हण कर
था य व और रोचकता को ा त करती है, जो जीवन और समाज के सह दशा म
ग तशील होने का व वसनीय माण है। इस या म ह द -सा ह य क इस धारा
ने अपनी अनेक बो लय को एकसू ता म बांधने का भी सहवत उपयोगी यास कया
है। अनेक का य- प, अनेक शै लय व व वध कार के कथानक को समेटे आ दकाल
का रासो-युग और लौ कक-सा ह य का दौर हमार समृ सा हि यक व सां कृ तक
वरासत का ल खत माण है, जो हमारे भारत क सामा सक सं कृ त को और अ धक
पु ट व समृ करता हु आ ि टगोचर होता है।

4.5 अ यासाथ न
1. आ दकाल क कसी एक का य-धारा का प रचय द िजए।
2. पृ वीराज रासो पर एक लघु नब ध ल खए।
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3. लौ कक सा ह य क रासो-का य से तु लना करते हु ए समानता-असमानता का
ववरण द िजए।
4. रासो श द से या ता पय है? ‘रासो' का यु प तपरक अथ बतलाते हु ए रासो
सं क का य पर परा का उ लेख क िजए।

4.6 स दभ- थ
1. धीरे वमा (सं.) ह द सा ह य, वतीय खंड, भारतीय ह द प रष याग।
2. रामचं शु ल, ह द सा ह य का इ तहास, नागर चा रणी सभा, काशी।
3. डॉ. नगे (सं.) ह द सा ह य का इ तहास, मयूर पेपरबे स द ल ।

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इकाई-5 : भि तकाल न का य क प रि थ तयाँ
इकाई क परे खा
5.0 उ े य
5.1 तावना
5.2 मु य शीषक
5.2.1 लघु शीषक
5.3 सारांश
5.4 संदभ थ

5.5 अ यासाथ शन
5.6 संदभ थ

5.0 उ े य
इस इकाई मे भि तकाल न प रि थ तय को जानने और समझने के उ े य को यान मे
रखकर त काल न प रवेश और प रि थ तय को व भ न व वान क ि ट से समझने
क को शश क गयी है। ह द सा ह य के इ तहास म िजस युग या काल को ' वण-
युग ’ कहा गया है, इस युग या काल को इसक स पूणता म जानना परखना ह इस
इकाई का उ े य है। इस इकाई के अ ययन के बाद आप;
 भि तकाल न युग के पूव प रवेश को समझ सकगे,
 भि तकाल न युग -प रवेश को जान सकगे
 भि तकाल न समाज क आ थक, राजनै तक, धा मक, सामािजक और सं कृ तक
प रि थ तय का संहावलोकन कर सकगे,
 भि तकाल न रचना ध मता क पृ ठभू म को समझ सकगे,
 मु ख क व और मु ख का य धाराओं का प रचय ा त करगे,
 उ तर भारतीय भि तका य के समाना तर दा णा य और पौवा य भि त क
प रि थ तय से प र चत हो सकगे।

5.1 तावना
पछल इकाई म आपने ह द सा ह य के बारे म जानकार ा त क है। इस इकाई म
हम ह द सा ह य म िजसे '' वण युग ' कहा गया है उस भि तकाल का द दशन
कराना चाहगे। हमार ि ट के के म भि तकाल को सहे जने-संवारने, पालने-पोसने.
े रत और पु ट करने वाल त काल न प रि थ तयाँ है। हमने इन सबको उनक स पूण
इय ता और सम ता म दे खने का यास कया है। भि तकाल आ खर म बना कसी
कारण तो आया नह ं है। अ पतु इसके पीछे त काल न युग क प रि थ तयाँ और
प रवेश रहा है िजसने न केवल द णी भारत म अ पतु स पूण उ तर भारत का ह द
े , पंजाबी े , बंगला भाषी े , गुजराती े और क मीर दे श तक को अपने

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भाव- वाह े म समेटा। एक आंधी क तरह भि त क धारा उमडी और उमड़ती हु ई
स पूण उ तर और म य भारत को आ ला वत करती चल गयी। समाज के चतु वण
यूना धक इससे भा वत हु ए बना नह ं रह सके। संत के कंठ से उ च रत और
भावपूण दय से नसृत वा णयां ह समाज और सामािजक के गले का हार बन गयी।
जन जन के तृ त दय म जो भि त उ मीद क सांस बनकर समा गयी, उतर कर
गहरे पैठ गयी उस भि त आंदोलन के कारक त व या थे? भि त को वैयि तकता के
उ गम और थान से उठाकर सामािजक और सावजनीन बना दे ने वाल प रि थ तय
पर ि टपात करना, या कह क संहावलोकन करना ह इस इकाई का उ े य है। सवाल
उठना चा हए क जो भि त 9वीं शता द तक द ण दे श, (त मल दे श) म अपने
मंद-मंद वर आलवार संत के गायन के मा यम से व नत कर रह थी वह 14 वीं
शता द तक आते-आते अपने वर स तम तक लाने म उ तर भारत म कैसे सफल
हु ई। या भि त के बीजाकु रत होने क अनुकू ल प रि थ तयाँ भारत के उ तर दे श
म पहले से ह मौजू द थीं या कोई प रि थ तयाँ वशेष ह इसके पैदा होने, सा रत होने
का कारण बनी या क ह महान ् यि तय वारा इसका णयन, चार और सार
हु आ। ये सब बात जानना-समझना ह इस इकाई का उ े य है। आइये इस पर अब
व तार से चचा कर।

5.2 भि त काल न का य क प रि थ तयाँ


व व जन के मतानुसार स पूण भारतवष क स ची, शु व और खर पहचान कराने
वाल मु खतम घटना अगर कोई है तो वह है म यकाल म भि त का उदय। इस
घटना को स पूण मत मतांतर के साथ भारतीय इ तहास क युगां तकार घटना मानना
पड़ेगा। तु त अ याय म हम इसी युगांतकार घटना का सम ता से न केवल
त काल न प रि थ तय क ि ट से मू यांकन करगे अ पतु यह भी दे खगे क भि त
के उदय और सार के कारण त व कौन से ह?
प ट प से जग- मा णत है क म यकाल क युगांतकार महान घटना ''भि त'' का
एक आ दोलन के प म उ व तथा सार है। इस आ दोलन म थम बार भारतवष
के एक वशेष भू-भाग के नवासी एवं करोड़ जन साधारण लोग सि म लत ह नह ं
होते वरन ् सारे रा क शराओं म भि त आ दोलन क ऊजा पि दत होती हु ई
दखाई द है। भि त का एक ऐसा उ ताल वेग आया क उ तर से लेकर द ण तक,
पूव से लेकर पि चम तक सब मलकर एक हो गये। सबने एक दूसरे को े रत कया,
एक दूसरे से ेरणा ल और सब मलजुल कर ''भि त'' के एक वशाल नद क रचना
करते ह, उसे ती वहमान बनाते ह, िजसम अवगाहन कर इस दे श के करोड़ ,
साधारण जन, स दय से त त अपनी मन को शीतल करते ह, अपनी आ याि मक
यास को शांत करते ह तथा एक नया आ म व वास ा त करते ह, िज दा बने रहने
क , आ म स मान के साथ िज दा रहने क शि त को ा त करते ह। कहने म संकोच

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नह ं है क यह युगांतकार घटना एक उदा त रा य जागरण क सू चक है तथा हमार
मू यवान धरोहर है।
म यकाल न भि त आ दोलन धा मक-सा कृ तक आ दोलन क श ल म हमारे सामने
आया है। स य तो यह है क धा मक आ दोलन के प म ह इसे पहचाना गया है।
यान दे ने यो य त य यह है क म ययुग ने न केवल भारत को अ पतु यूरोप को भी
धा मक ि ट से आ दो लत कया है। म ययुग जैसा क सामािजक इ तहास के बीच से
वह उभरता है, और भारत म ह नह ं युरोप तथा दु नया के अ य दे श म अपनी
पहचान कराता है, अपने येक या कलाप के मूल म धम क के य ि थ त को
सू चत करता है। इसी लए म ययुग म उभरकर सामने आने वाला कोई भी जनतां क
अ भयान धम क सीमाओं के भीतर ह अपने को अ भ य त करता है। यूरोप के महान
सु धार आ दोलन के स दभ म स मा सवाद वचारक एंगे स अपनी स कृ त
'लु ड वग फायरबाख’ म लखते ह: ''म ययुग ने धम दशन के साथ वचारधारा के अ य
सभी प , दशन, राजनी त, व धशा को जोड़ दया और इ ह धम दशन क
उपशाखाएं बना दया। इस तरह उसने हर सामािजक और राजनी तक आ दोलन को
धा मक जामा पहनने के लए ववश कया। आम जनता क भावनाओं को धम का
चारा दे कर और सब चीज से अलग रखा गया। इस लए कोई भी भावशाल आ दोलन
आर भ करने के लए अपने हत को धा मक जाम म पेश करना आव यक था।'' जैसा
क ी के. दामोदरन ने लखा है एंगे स का यह कथन चौदहवीं तथा स हवीं शताि दय
के काल म भारत पर भी समान प से लागू होता है।
(भारतीय च तन परं परा, पृ ठ 327)
धम और जनता के संबध
ं को समझाते हु ऐ मा स एक थान पर कहते ह - ''धम
पी ड़त ाणी क कराह है, वह इस दयह न जगत का दय है, ठ क उसी कार जैसे
वह आ माह न प रि थ तय क आ मा है । वह जनता के लए अफ म है।'' इस उि त
के संदभ म हम कह सकते ह क जब चार ह और से भारतीय जन हताश- नराश हो
चु का था, न रा य से, न राजा से, उसे कोई सहायता क उ मीद शेष नजर नह ं आयी
तो भारतीय जन ने धम के अधीन ह अपना एक मा आ य खोजा और उसके
प रि थ तज य त त- उत त दय को धम ने अपनी अफ म क खु राक से उसे दुख से
मु ि त का अहसास कराया। धम ने उसक चु कती हु ई िजजी वषा को पुनज वत ह नह ं
कया अ पतु उसे हौसले से भी आकंठ भर दया।
स वचारक ी के. दामोदरन अपनी स कृ त 'भारतीय च तन पर परा’ म एक
थान पर धम के बारे म लखते है :- ''भारत म धम पर आ था सदा सामािजक
ग त के लए तकू ल नह ं रह । वा तव म इसने ाय: ह उ पीड़न और शोषण के
व व तरोध का प धारण कया। भारत म कतने ह सामािजक और राजनी तक
संघष धा मक सुधार के आवरण म लड़े गये। इस कार धा मक आ दोलन ने,
वशेषकर उस समय जब वे ारं भक अव था म थे, और िज ह ने कसी पंथ या

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स दाय का प धारण नह ं कया था, एक ग तपूण और ग तशील भू मका ह अदा
क । हमारे इ तहास के कतने ह मोड़ पर जनता म धा मक श ाओं के त
आ याि मक ि टकोण ने वल ण सृजना मक शि त को ज म दया, ऐसी शि त को
ज म दया जो अभू तपूव सामािजक प रवतन लाने म सहायक हु ई।'''
उपयु त उ रण के आलोक म हम उन भारतीय प रि थ तय को समझ सकते ह
िजनके कारण धम ने सकारा मक भू मका नभाते हु ये एक आ दोलन का प ा त कर
लया। जब तक क स दायवाद क जकड़ब द गहरायी नह ं थी तब तक तो धम ने
भारतीय के जीवन म एक ां तकार भू मका ह नभाई और सामािजक प रवतन का
वाहक बना रहा। उदाहरण के लए कबीर के सृजना मक सा ह य को लया जा सकता
है जो जड़ हो चु क ढ़याँ, ि थत हो चु क अ ासं गक पर पराओं और यथाड बर से
न केवल टकराता है अ पतु जन जन तक अपनी मु खर और खर वाणी से समाज को
ग तशीलता- ग तशीलता के माग पर लाना चाहता है। उ त कथन के आलोक म
म ययुग क सामािजक, सा कृ तक, राजनै तक, आ थक, धा मक और दाश नक
सार णय का हम मू याकन करना चा हए। इस त य को अगर हम यान म रखगे तो
भि तकाल न प रि थ तय को समझना न केवल हमारे लए आसान होगा अ पतु धम
और 'भि त का मू यांकन भी हम सह तर के से कर सकगे।
म ययुग म भारतीय के सामने सबसे अहम सवाल अपनी अि मता को बचाये रखने
का था। भि तकाल न दौर म तमाम स त अपने-अपने अ त वरोध म घरे थे पर तु
अपनी अपनी आ थाओं और धा मक व वास के साथ जनता से जु ड़े रहे तथा परािजत
और आ ांता समाज म साधारण जनता को मान सक प रतृि त तथा संतोष दान
कया । यह इन स त का मह वपूण योगदान है।
आचाय हजार साद ववेद ने अ धकाश म ययुगीन वैद ु य को ट काओं तथा भा य
क रचना तक ह सी मत माना है। एक अथ म यह सह भी है। व तु त: सामंतवाद के
पतन के साथ ह दू पं डत और आचाय ने इ लाम क ओर से आई चु नौती को
दे खकर सवा धक यास इस बात का कया क पुरानी यव था को कैसे सह स
कया जाये, इसी लए शा और ाचीन धम थ
ं क ट काओं का अंबार लगा और
ह दू समाज को संघ टत करने के लए नवाचार और नाना कार के व ध वधान का
भी प सामने आया तो दूसर और ाचीन आचार तथा कमका ड को भी फर से
जी वत और रे खां कत कया गया।
प ट है क अतीत को पुनज वत करने का यास त काल न स दभ म कारगर
सा बत नह ं हो सका। डॉ. शव कु मार म ने भि तकाल न प रि थ तय के संदभ म
एक थान पर लखा है क, ''नई आ थक तथा सामािजक शि तयां अपने नये वचार
के साथ सामने आकर ाचीन आचार - वचार तथा व वास को नई चु नौ तयाँ दे रह
थीं। नये वचारक अपने वचार के मा यम से पुरातन यव था क असंग तय को
उभार रहे थे तथा समाज को संघ टत करने के उ े य से नई दशाओं का वतन कर
रहे थे, जो जा हरा तौर पर चल आती हु ई ल क के वरोध म था। ऐसी ि थ त म ह ,
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सामंतवाद क जकडब द के कमजोर पड़ने का लाभ उठाकर भारत म एक नये जन-
अ भयान का प सामने आया िजसे भि त के आ दोलन के नाम से पहचाना जाता
है।'' इस कथन के आलोक म भि त काल के उदय क प रि थ तय को सम ता से
समझा जा सकता है क एक और पुरानी यव था को पोषने का यास था तो दूसर
और नई ऐ तहा सक प रि थ तयाँ थी जो नया वातावरण रच रह थी, नये को ज म
दे ने जा रह थी, और यह नया था भि तकाल। म ययुग म भारत म ह दुओं म वग-
भेद, जा त-भेद, अपनी पराका ठा पर था। जा तगत ऊँच-नीच चरम ि थ त पर थी।
धा मक अ याय और सामािजक अ याय जोर पर था। इन सबक जांच पड़ताल करते
हु ये त काल न प रि थ तय पर स वचारक के दामोदरन लखते ह- “भि त
आ दोलन का मू ल आधार भगवान व णु अथवा उनके अवतार , राम और कृ ण क
भि त थी। क तु यह शु त: एक धा मक आ दोलन नह ं था। वै णव के स ा त
मू लत: उस समय या त सामािजक आ थक यथाथ क आदशवाद अ भ यि त थे।
सां कृ तक े म उ ह ने रा य नव जागरण का प धारण कया। सामािजक वषय
व तु म वे जा त था के आ धप य और अ याय के व अ यंत, मह वपूण व ोह के
योतक थे। इस आ दोलन ने भारत म व भ न रा य इकाइय के उदय को नया बल
दान कया। साथ ह रा य भाषाओं और उनके सा ह य क अ भवृ का माग भी
श त कया। यापार और द तकार सामंती अवशोषण का मु काबला करने के लए,
इस आ दोलन से ेरणा ा त करते थे। यह स ा त ई वर के सामने सभी मनु य,
फर वे ऊँची जा त के ह अथवा नीची जा त के, समान ह, इस आ दोलन का के
ब दु बन गया, िजसने पुरो हत वग और जा त- था के आतंक के व संघष करने
वाले आम जनता के यापक हत को अपने चार और एकजु ट कया। इस कार
म ययुग के इस महान आ दोलन ने न केवल व भ न भाषाओं और व भ न धम
वाले जन समु दाय क एक सुसंब भारतीय सं कृ त के वकास म मदद क , बि क
सामंती दमन और उ पीड़न के व संयु त संघष चलाने का माग भी श त कया।“
उ त उ रण के आलोक म अनेक ऐसे त य और ब दु हम दखलायी पड़ते ह जो
हमारे सम भि त काल क प रि थ तय के संकेत करते ह, यथा, सामंतवाद का
अ तह न आतंक था, आ थक भार, चाहे कर का हो या जबरन वसू ले जाने वाले लगान
का, जोर पर था, िजससे जनता और छोटे यापार सं त थे, उनके लए जीवन
चलाना बेहद क ठन था। समाज जा त के दायर क जकडब द म ससक रहा था,
न न जा तयाँ, ऊँची समझी जाने वाल जा तय के वभेदा मक आतंक से परे शान थी,
उनके कोई सामािजक अ धकार नह ं थे, मं दर वेश या साधना-आराधना से ये वग
वं चत कर दये गये थे। इन सब दम घोटू प रि थ तय का तकाजा था क कोई नई
चेतना से स प न नया वचार आवे जो क ई वर का नाम मु त प से ले सकने क
वकालत करे , जा त था, ऊँच नीच का वरोध करे , सामंती आतंक से मु ि त का रा ता
सु झाये, और इन सबक वकालत करता हु आ नया वर भारतीय धरा पर सु नाई पड़ा

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उसे हम भि तकाल के नाम से जानते है। इस कार भि त आ दोलन धा मक आवरण
म भी दे श के साधारण जन क यथा-कथा बनकर सामने आया। इसने दे श को उ तर
से द ण, पूव से पि चम सभी ओर पि दत कया और सारे रा क सम
अ भ यि त के प म सामने आया। द ण म रामानुज इसके पुरोधा बने तथा उ तर
म इसे उनके श य रामानंद सामने लाये। रामानुज ने ा मण-अ ा मण सभी को, यहाँ
तक क मुसलमान को भी अपनी श य पर परा म थान दया तथा द ण म
खानपान संबध
ं ी क रता एवं अ पृ यता जैसी सामािजक वकृ तय पर हार कया। इसी
काम को उ तर म रामान द ने कया। समू चे उ तर भारत म मण करते हु ये
रामान द ने अपने ां तकार सामािजक वचार का चार- सार कया। तु लसी को
अपनी श य पर परा म लेते हु ये कबीर को भी उसके अ तगत वीकार कया। राम
नाम का उनका मं सगुण तथा नगु ण दोन ह कार क भि त का संवाहक बना।
इसी म म डॉ. शवकुमार म का मह वपूण कथन है क “ न न जा तय से तमाम
संत इस भि त आ दोलन क लहर म ऊपर आये िजनम जु लाहा कबीर, बुनकर दादू,
चमार रै दास, नाई सेना, दरजी नामदे व, कसाई सदना आ द मु ख ह। चाहे पूरब हो या
पि चम, उ तर हो या द ण भि त आ दोलन का मु य नेत ृ व नीची कह जाने वाल
जा तय के हाथ म ह रहा। इन स त ने साधारण जनता को वग, धम, जा त और
स दाय क संक णता से मु त करते हु ये पर पर घुलने मलने क ेरणा द और इस
कार सामंतवाद क जड़ पर हार कया।“ 4

उ त कथन म भी भि तकाल न समय और समाज क प रि थ तयाँ सांके तक प से


कट हो रह ह िजनम जा तवाद, सामंतवाद तथा मतमतांतर का भेद ह य त हु आ
है।
उस काल का स य था क धा मक वचार म एक दूसरे के त, धम के त, आपसी
मतभेद था, जा त और धन स पदा को ई वर ाि त का मा यम और ई वर द त
मानने का पंच फैलाया हु आ था, बा माचार और कमका ड ने साधारण भारतीय
जनता का जीवन जीना दूभर कर रखा था। धम के नाम पर उ पीड़न कया जाता था।
भि त आ दोलन ने इ ह ं सब बात को न केवल रे खां कत कया वरन ् इन सबके
वरोध म खरता से आवाज भी उठाई। इस आ दोलन के भौ तक-सामािजक आधार के
मु ख प को रे खां कत करते हु ये के. दामोदरन लखते ह-
“व तु न ठ ि ट से सम त जनता क एकता पर जोर दया जाना ऐ तहा सक
आव यकता के अनु प था। समय क माग थी क जा त-पाँ त और धम के भेदभाव
पर आधा रत तु छ सामािजक वभाजन का, जो घरे लू बाजार के वकास और उसके
प रणाम व प होने वाले प रवतन के कारण अब एकदम नरथक हो गये थे, अंत
कया जाए। ई वर के स मु ख सभी ा णय क समानता का स ा त उस नई चेतना
का घोतक था, जो सामंती शोषण के व जू झने वाले कसान और कार गर म फैल
रह थी। यि त के गुण और यो यताओं पर जोर, जो ऊँची जा त या कसी व श ट

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वंश म ज म लेने के फल व प ा त सु वधाओं के वप रत था, यि तगत वतं ताओं
क ऐ तहा सक आकां ाओं क अ भ यि त था। यि तगत वतं ता का यह नारा, एक
नये पूँजीप त वग का, िजसका क उदय हो ह रहा था, का नारा था। ये वचार धा मक
अथ म भी, नःस दे ह, म ययुग क उन प रि थ तय को दे खते हु ऐ, िजनम जा त-
पा त क पधा और अ ध व वास के फल व प समाज का ग त करना असंभव हो
गया था, ग तशील थे।
भि त आ दोलन ने केवल अंध व वास और जा त था के खलाफ आवाज उठाने और
ई वर क ि ट म सबक समानता घो षत करने क बात तक ह अपने को सी मत
नह ं रखा। इस आ दोलन के कु छ नेताओं ने तो मु गल आ धप य और कु शासन तथा
सामंती शोषण और उ पीड़न के व पा रय , कार गर और गर ब कसान का नेत ृ व
भी कया।''
उ त कथन भी अपनी यापक ि ट के साथ त काल न सामािजक, आ थक, ऐ तहा सक
और सामंती प रि थ तय क कु टलताओं को ह व नत कर रहा है।
क व और च तक गजानन माधव मु ि त बोध ने भि तकाल को उसक प रि थ तय
क ि ट से दे खते हु ऐ इसके संबध
ं म इस कार कहा है क भि त आ दोलन मू लत:
ऊँची कह जाने वाल जा तय और उ च वग के खलाफ न न वग तथा जा तय का
व ोह था। यह अलग बात है क समय के तकाजे से भि त आ दोलन म ऊँची
जा तय के भ त तथा संत का भी योग रहा और उ ह न न वग के लोग क
आकां ाओं को अ भ यि त दे नी पड़ी। मु ि तबोध क दूसर थापना यह है क भि त
आ दोलन म ऊँच और नीच दोन कार के संत और भ त का योग रहा। जहां तक
सामािजक भेदभाव तथा मानवीय एकता क मूलवत आ था का सवाल है, न न कहे
जाने वाले संत का योगदान अ धक भा वर है। मु ि तबोध क तीसर मह वपूण
थापना यह है क भि त आ दोलन म उ च वग का भाव शनै-शनै मजबूत होता
गया और भि त आ दोलन के बखरने तथा अपना वा त वक ताप खो दे ने का यह एक
मह वपूण कारण है। उनक मा यता है क महारा म सगुण भि त तथा नगु ण
भि त म कोई वैत नह ं था क तु जहाँ तक उ तरभारत का सवाल है, यहाँ नगु ण
भि त न न वण के स त क मु खता को सू चत करती है, तथा न न वग के
साधारण जन भी उसके अ तगत बहु सं या म एक होते ह। कमका ड , जा त- था,
तथा मानव एकता क बात इस नगु ण संत का अवलंब पाकर नपूण भि त म िजतने
आवेग और जोर-शोर से सामने आती है, सगुण भि त के अ तगत वह इस कारण
उतना वेग तथा मु खता नह ं पाती य क उसके पोषक संत अ धकतर उ च वग के थे
और नगु ण संत क भाँ त जा तगत वषमता तथा वणगत अपमान का उ ह सीधा
अनुभव नह ं था। नगु ण भि त म जहाँ हम जा त-धम, वग-वणगत भेदभाव तथा
उसके फल व प साधारण जन पर होने वाले अ याचार आ द के त तीखे व ोह का
भाव दखाई पड़ता है, सगुण कृ ण भि त म आकर वह एकदम कमजोर हो जाता है।

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मु ि तबोध के उ त वचार म हम भि तकाल के उ व क प रि थ तयाँ ह नह ं अ पतु
उसके पराभव क प रि थ तय का भी अवलोकन कर सकते ह।
भि तकाल का वचार करते हु ऐ आचाय हजार साद ववेद उन व वान से सहमत
नह ं होते िजनका मानना है क भारत म भि तकाल के उदय का कारण इ लाम का
भारत म आगमन और राजनै तक पराजय से उपजी हताशा है। इससे अलग ववेद जी
अपना मत रखते हु ऐ कहते ह -कु छ व वान ने इस भि त आ दोलन को हार हु ई
ह दू जा त क असहाय च त क त या के प म बताया है जो ठ क नह ं है।
त या तो जा तगत कठोरता और धमगत संक णता क प म कट हु ई थी। उस
जा तगत कठोरता का एक प रणाम यह हु आ क उस काल म ह दुओं म वैरागी
साधुओं क वशाल वा हनी खड़ी हो गई य क जा त के कठोर शकंजे से भाग
नकलने का एकमा उपाय साधू हो जाना ह रह गया था। भि तमतवाद ने इस
अव था को संभाला और ह दुओं म नवीन और उदार आशावाद ि ट ति ठत क ।
इसी म म वे लखते ह क “अगर इ लाम न भी आया होता तो भी इस सा ह य का
आना बारह आना वैसा ह होता जैसा क आज है।''( ह द सा ह य क भू मका, पृ ठ -8)
यहाँ एक न हमारे दमाग म आता है वह यह है क भारत म अनेक धममत और
साधना प वि तय के बीच स दय से चले आ रहे आदान दान के बीच भि त क जो
लोक सामा य आकृ त न मत हु ई, भि त क इस मंद मंद चल आ रह धारा को य द
इ लाम के आगमन अथवा उसके धा मक आवेश से ज मी त या ने नह ं उभारा तो
फर वह कौनसा जी वत सं पश था िजसने उसे उ यम वेग वाले उ छल नद का प
दान करते हु ऐ समूचे उ तर भारत म एक छोर से दूसरे छोर तक फैल जाने को े रत
कया। यह भि त य सामा य जन के बीच लोक य होते हु ए एक वराट जन
आ दोलन के प म स य हो उठ और लगभग चार सद तक भारतीय जनमन क
तृषा शांत करती रह ?
उ त ब दुओं का वचार करते ह तो हम ज र लगता है क उ तर भारत जो क
भि त का के रहा है, क धा मक, सा कृ तक और राजनी तक ि थ त का सं त
जायजा भी लया जाये। इसके आलोक म ह रामान द और व लभ का युगांतकार
मह व समझ म आ सकेगा। यह सह है क द ण से भि त चेतना आने से पहले
उ तर म मौजू द सार धम साधनाओं, धममत और उपासना प तय के बीच एक
अ त न हत आदान- दान चल रहा था और वे सब मश: एक यापक लोकधम क
ओर उ मु ख हो रह थीं, फर भी, इन धम मत और साधना प तय का अपना अलग
वजू द भी कायम था। दे श के उ तर म भागवतधम क लोक यता चरम पर थी। व णु
के अवतार पर जनता का व वास था। पि चमी भाग म स और कापा लक का
जोर था तथा पूव भाग म नाथ पं थय तथा सहजया नय के या-कलाप तथा
बा नयां जन मन को आक षत और भा वत कये थीं। इ लाम के आगमन और
वजेता के प म इ लामी शासन और मजहब क त ठा तथा सार के समय दे श

74
क धा मक-सा कृ तक ि थ त यह थी। सामािजक जीवन अ त- य त था। जन
सामा य आ था के कसी ढ़ आधार को पाने के लए आकु ल थे। इस ि थ त पर
आचाय हजार साद ववेद कहते ह, '' क इ लाम के आगमन ने भारतीय धममत
और समाज यव था को बुर तरह झकझोर दया। उसक अप रवतनीय समझी जाने
वाल जा त- यव था को पहल बार जबरद त ठोकर लगी थी। सारा भारतीय वातावरण
सं ु ध था। ऐसा जान पड़ता है क पहल बार भारतीय मनी षय को एक संघब
धमाचार क ज रत महसूस हु ई। इसी म म ववेद जी का कथन है क दे श म
पहल बार वणा म यव था को एक अननुभू तपूव वकट प रि थ त का सामना करना
पड़ रहा था। अब तक वणा म यव था का कोई त व वी सामने नह ं था। आचार
ट यि त समाज से अलग कर दये जाते थे और वे एक नई जा त क रचना कर
लेते थे। इस कार सैकड़ जा तयां और उपजा तयाँ, ट होते रहने पर भी वणा म
यव था एक कार से चलती आ रह थी। अब सामने एक जबरद त त व वी
समाज था जो येक यि त और येक जा त को अंगीकार करने के लए ब
प रकर था। उसक एक मा शत यह थी क वह उसके वशेष कार के धममत को
वीकार करले। समाज से ठं ड पाने वाला यि त अब असहाय नह ं था। इ छा करते ह
वह एक नये मु ि लम समाज का सहारा पा सकता था।9
यह तो हु ई आचार ट जा तय क बात और उनक सम या तथा उनका वक प
क तु जो जा तयाँ आचार ट न थीं और आचार वण ह दू धममत के भीतर थीं,
क तु सामािजक तर पर ह न और द लत थीं, संकट उनके भी सामने था। त काल न
कोई भी धममत, वह भागवत धम हो, उदार दय ेमी मु ि लम जन का सू फ धम
मत हो, वह आचरण वण ह दू धममत के बा याचारो तथा धा मक व वास क
मजाक उड़ाने वाल नाथपंथी साधक क तीखी वाणी हो अथवा नगु णयो क नगु ण
परम त व क साधना? समाज म आ म स मान पूवक जी सकने क तथा अपनी
आ याि मक धा मक तृषा को शांत कर सकने क आकां ा को लेकर कसी कार
जीवनयापन करने वाले ह दू-अ हंद,ू मुसलमान-अमु सलमान सामा य जन को कोई
उनके सामािजक आ याि मक संकट से उबारने का सट क रा ता नह सु झा सका था।
ऐसे ह समय म द ण से वेगवती वै णव भि त का आगमन हु आ और यह भि त
एक वराट जन समाज का सहयोग साहचय पाकर एक आ दोलन बन गई। इसे दे खकर
सब चम कृ त हु ए, दे शी भी, वदे शी भी। स सगुणोपासक संत तु लसीदास भि तकाल
क प रि थ तय को यह कहकर य त कर रहे ह-
“ कयो न कछू, क रबो न कछू क हबो, न कछू म रब ह रहो है'' इस पंि त म
त काल न यि त क और यि त के मा यम से समाज क प रि थ तय क क पना
क जा सकती है क कु छ नह ं कया जा सकता, कसी से कहा नह ं जा सकता, हाँ
केवल असहाय होकर मरा ह जा सकता है। इन पंि तय से उस काल क ममा तक
प रि थ तय का सहजता से अनुमान कया जा सकता है । कु छ व वान का मत है

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क ऐसी ह नराश-हताश प रि थ तय क पैदाइश था भि त काल। क तु एक थान
पर डॉ. राम वलास शमा अपनी पु तक 'भि त आ दोलन और तु लसीदास’ म पृ ठ 93
पर लखते ह क - भि त सा ह य नराशाज य सा ह य नह ं है य य प उसम नराशा
भी है। यह थापना क मु सलमान के शासनकाल म पराधीनता के कारण लोग भि त
और नराशा के गीत गाने लगे, अवै ा नक है। भि त आ दोलन तु क आ मण से
पहले का है। गु त स ाट के युग म ह वै णव मत का सार होता है, त मलनाडु
भि त आ दोलन का के रहा, जहाँ मु सलमान का शासन न था। वयं अनेक
मु ि लम संत ने इस आ दोलन म योग दया। भि त आ दोलन वशु दे शज
आ दोलन है। वह सामंती समाज क प रि थ तय से उ प न हु आ था, वह मू लत: इस
सामंती समाज- यव था से व ोह का सा ह य है। ''इस कथन म हम त काल न
प रि थ तय क रे श-े रे शे पहचान मलती है। डॉ. राम वलास जी क मा यतानुसार
सामंती यव था के वारा पैदा क गय ि थ तयाँ-प रि थ तयाँ ह भि तकाल के ज म
का कारण बनी ह।
आचाय राम वलास शमा के अनुसार इस युग म उ तर भारत म द तकार का
उद यमान वग पार प रक ह दू समाज म अपनी ि थ त से संतु ट नह ं था। उनम से
बहु त से लोग का झु काव कबीर, नानक, रै दास, दादू जैसे स त वारा सम थत
समतावाद एके वरवाद आ दोलन को अपना समथन दे ने क ओर था। बहरहाल इन
प रवतनवाद वचारक का भाव द तकार तक ह सी मत नह ं था। नाथपंथी जैसे
लोक य एके वरवाद आ दोलन के कृ त तु क रा य क थापना से पहले वजू द म
आ चु के थे। सामा य प से न न वग उस ि थ त से अस तु ट था जो उसे
पार प रक ह दू समाज ने दान क थी। इसी लए वह सनातनी आ दोलन और दूसरे
ऐसे आ दोलन का समथन करता था जो वरोध और असहम त क भावनाओं को
य त करते थे। यापार भी उस समाज म अपनी सामािजक है सयत से स न नह ं
थे िजस पर बा मण और साम तवाद वग का भु व था और िजसका य
त न ध व करते थे। पि चमी राज थान और गुजरात क भां त द ण भारत म भी
यापार समु दाय वारा जैन धम को नरं तर दया गया समथन इसका माण है।
कहना न होगा क गु नानक ख ी थे, ख ी तबका वह तबका था जो पंजाब म यापार
और सरकार नौकर म आगे था। यह इस बात का दूसरा संकेत है। संभवत: न न
तर पर नपुण द तकार और यापार वग म बहु त से सामा य संबध
ं का वकास हो
चु का था।
उ त त य के आलोक म भी भि तकाल क आधारभू म और सार- चार क
प रि थ तयाँ व नत हो रह है।
भि त अपने उ व से आगे सा रत होती हु ई सगुण और नगु ण दो धाराओं म बंटती
है। सगुण भि त धारा के सवा धक मह वपूण दो क व मश: सू र और तु लसी हु ऐ ह,
तो भि त क दूसर धारा नगु ण के सबसे बड़े क व या भ त स त कबीर हु ऐ ह। ये

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सब अपने-अपने काल क प रि थ तय से चा लत-प रचा लत ह नह ं रहे वरन ् इनक
रचनाय इनके काल क प रि थ तय को भी स पूणता के साथ हमारे सामने लाती ह।

5.2.1 सू र काल क प रि थ तयाँ

सू र ह द के भि तकाल के त न ध क व ह जो सगुण भि तधारा का मु ख वर ह।


सू र क भि त का सम आकलन करने के लए हम त काल न एवं पूववत राजनै तक,
सामािजक, धा मक आ द प रि थ तय का अनुशीलन करना होगा।
राजनै तक ि थ त महाक व सू रदास का रचनाकाल स वत ् 1535 से 164० तक माना
जाता है। उ तर भारत का राजनै तक वातावरण सू र के जीवन के पूवा म अ धक कटु
था। मु सलमान शासक वारा ह दू जनता पर अ याचार कये जाते थे। कैसी
प रि थ तयाँ रह ं ह गी इस संबध
ं म आचाय रामच शु ल ने वचार करके राजनै तक
अराजकता, सामािजक दुराव था और धा मक अ याचार को ह भि त आ दोलन का
मू ल कारण मानते हु ये लखा है ''दे श म मु सलमान का रा य ति ठत हो जाने पर
ह दू जनता के दय म गौरव, गव और उ साह के लए वह थान नह ं रह गया।
उनके सामने ह उनके दे व मं दर गराये जाते थे, दे व मू तयाँ तोड़ी जाती थीं, पूव -पु ष
का अपमान होता था और वे कु छ भी नह ं कर सकते थे। ऐसी दशा म..............
अपने पौ ष से हताश जा त के लए भगवान क शि त और क णा क ओर यान ले
जाने के अ त र त दूसरा माग ह या था? ह दूमत कमजोर हो रहा था और इ लाम
फैलता जा रहा था। इस संबध
ं म स इ तहासकार ई वर साद लखते ह – “इ लाम
धम का चार भारत वष म उसके सरल स ा त के कारण नह ं अ पतु इस लए हु आ
क वह एक राजशि त का धम था, िजसका चार विजत जा म बलात कृ पाण और
द ड के आधार पर कया जाता था”।
वा तव म तो सातवीं शता द म स ाट हषवधन के समय म ह राजनै तक व खृं लता
आर भ हो चु क थी। छोटे -छोटे रा य पर शासन करने वाले राजपूत अपनी रयासत
को ह अपनी मातृभू म मानते थे, दे श उनके चंतन के के म कह ं भी नह ं था।
पर पर लड़ते रहना उनके ा धम क नशानी था। ये लोग झू ठ शंसा से स न
होकर घोर वलासी हो गये थे। ता पय यह है क कोई भी संग ठत और के य शि त
को लेकर नह ं सोचता था। इसी का प रणाम था क अनेक बार परािजत होकर भी सन ्
1193 म गौर ने पृ वीराज पर वजय पायी और द ल पर मु ि लम शासन का बज
हो गया। इस घटना से भी राजपूत ने कु छ नह ं सीखा और सन ् 1194 म भावशाल
शासक जयचंद भी परािजत हु आ।
इसके बाद तो मु ि लम स ता के अ याचार और व वंस, नरं कु शता से बढ़ता चला
गया। पृ वीराज क पराजय के बाद ह दुओं क राजनै तक स ता टू ट गई और मु ि लम
सै नक शासन ने ह दू जनता से मनमाना कर उगाना, धा मक-आ थक अ याचार करना
और अपने रा य का व तार करना नब ध जार रखा। इ ह ं प रि थ तय म

77
गुलामवश खलजीवश तु गलकवंश, सैयद तथा लोद वंश के शासक ने लगभग 300
वष (1206 -1526 ई. तक) ह दू जनता पर राज कया।
राजनै तक अ यव था क इन प रि थ तय म जनता नरालंब हो गयी। जो जनता शक
हू ण आ द ू र जा तय के आ मण के उपरा त भी अपने शि तशाल शासक के रा य
म महफूज बनी रह , वह जनता राजपूत राजाओं क आपसी फूट और कलह के कारण
अपने को असहाय पाने लगी। इस जनता ने मु ि लम शासक वारा द त आतंक-
अ याचार को अपने लए ई वर य वधान और नय त के प म वीकार कर लया।
संगठन का कह ं नामो नशान नह ं था। ी व लभचाय ने अपने ं 'कृ णायन' म इस

ि थ त का बयान इस कार कया है:- “मले छ से आ ांत दे श पाप का आगार हो
गया है, स यु ष पी ड़त है, गंगा आ द सभी उ तम तीथ ट से आवृ त ह िजससे
इन तीथ का मह व तरो हत हो गया है, ऐसी दशा म केवल कृ ण ह मेर ग त है।
“उ त कथन से तीत हो रहा है क जनता म एक नवीन चेतना उ प न करने के
लए ह भि त का आ वभाव हु आ जो बढ़ते बढ़ते वशाल आ दोलन का आकार हण
कर गया। िजसक गू ज
ं भारत क चार दशाओं म सु नाई पड़ी।
लोद वंश के पतन के बाद मु गल का शासन आरं भ हु आ तो भारतीय राजनै तक प र य
भी बदला। तु लना मक ि ट से ह दुओं पर अ याचार म कमी आयी। इसका कारण
भले ह मु गलशासन और स ता को था प व दान करना रहा हो। बाबर का उ े य
इस कार के सा ा य क थापना करना था जहाँ शासन सू मु लाओं के अधीन न
हो। अकबर तक आते-आते तो मु ि लम शासन का व प ह प रव तत हो गया। उसके
सा ा य म मह वपूण पद पर ह दू अ धका रय क नयुि त हु ई। उसक मंशा थी क
जनता को धा मक मत-मता तर से अलग रहना चा हए। उसने इसी उ े य के लए
'द न इलाह ' नामक नये मत का णयन कया। कठोर समझे जा रहे कर से जनता
को मु ि त मल ।
सामािजक ि थ त
त काल न ह दू समाज म गहरे तक जड़ जमा चु क जा त- यव था और व भ न मत-
मता तर का ह प रणाम था क उनक राजनी तक पराजय हु ई। ह दुओं के अनेक वग
नराशा, भय, आ थक शोषण और उ पीड़न आ द के कारण ह वध मय के धम को
अपनाने को ववश हु ऐ। परािजत जा त को वजेता मु ि लम ने तलवार के बल पर भी
अपना धम यागने एवं इ लाम अपनाने को ववश कया। जो मु ि लम बने उ ह
उ पीड़न, अ याचार से मु ि त मल और िज ह ने इ लाम वीकारने से मना कया
उनको यातनाएं और भयंकर अ याचार सहने पड़े। इतने पर भी ह दू जा त अगर
अपना व व कायम रख सक तो उसका कारण भि त आ दोलन ह था। दूसर बात
यह है क ह दुओं ने उस काल म मु ि लम के साथ बहु त यादा सहयोग नह ं कया।
इस असहयोग के पीछे मु ि लम वारा बरती जा रह अस ह णु ता और क रता
(मजहबी) क त या म उपजी ह दू क रता थी। इसका सबसे बुरा प रणाम ह दुओं

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म बढ़ती आपसी जा तगत क रता का बढ़ना रहा। जा तगत व खृं लाएं एवं बढ़ और
छुआछूत, खानपान और शाद - ववाह के नयम कठोर से कठोरतम होते चले गये।
त काल न समाज म अ य कार क ढ़याँ या कु थाएँ भी च लत थी, यथा-बाल
ववाह, वधवा, सम या, सती था आ द। नार क दशा समाज म अ य त ह न थी।
मु ि लम सं कृ त के भाव से नार क ि थ त और भी दयनीय हो गई । वह पूणत
पु ष क पराधीनता म कैद हो गई। मु ि लम स यता म नार केवल भोग क व तु
और हरम के लए ह उपयु त मानी जाती थी, पु ष से ह न मानी जाती थी। इसी का
भाव संभवतया भि तकाल न संत सा ह य पर पड़ा और नार को सवथा या य मान
लया गया। धम और कम का े केवल और केवल पु ष के लए माना गया।
संसार से वरि त उस युग क यापक वचारधारा थी। यहाँ नार और धन दौलत दोन
को यागने का आहवान सामा य सी बात थी। संत सा ह य और उनक वा णय म
कंचन और काया को (नार काया) यागने का भाव चा रत हु आ। इस कार सांसा रक
जीवन अ यंत उपे णीय और उ े यह न माना जाने लगा। ल बे अरसे से चला आ रहा
बौ भ ुओं का भाव और शंकर के मायावाद ने 'संसार- याग’ क ओर मनु य को
झु काया। प रणाम व प यि तवाद बढ़ा और सामािजकता क वृि तय को नुकसान
पहु ँ चा। अपने आचरण, यवहार, साधना आ द सभी क ि ट से त काल न मनु य घोर
यि तवाद हो गया। सामािजक अ यव था के कारण धम का सामािजक व प िजसे
जन जाग त का मा यम बनना चा हए था ाय: न ट होता चला गया। समाज के
न न वग म तो श ा का नतात अभाव था ह , तथाक थत उ चवग भी श ा से
वं चत हु आ। दे वालय के साथ ह श ालय भी मु ि लम आ ाताओं वारा व त कये
गये अत: श ा के का नतात अभाव हो गया। फल व प सा कृ तक-सा हि यक
ग त म अवरोध आया। इन सब ि थ तय पर ी ब लभ ने अपने 'कृ णायन’ म
काश डाला और ब लभ एवं अनेक संत ने समाज को उ त कार क सामािजक
दु यव था से नकालने का य न कया।
धा मक ि थ त
उ तर भारत म िजस भि त आ दोलन का वकास हु आ, उसने अपने ढं ग से समाज को
वकृ तय से मु त करने का यास कया। हाँ वै णव भि त उ तर भारत के लए कोई
नई बात नह ं थी। गु तकाल से ह यहाँ वासु देवभि त मौजूद थी। क तु उ तरभारत म
वह वक सत नह ं थी। िजस भि त आ दोलन का समय 1400-1600 ई वी माना
जाता है, इससे पूव यहाँ शा त और शैव मत क बलता थी। ाय: 600 से 1200
ई वी तक तां क मत क धानता रह । क तु भि त आ दोलन के वाह म ाचीन
काल से चल आती हु ई वै दक-अवै दक मत क धाराएं वल न हो गई। उ तर भारत के
भि त आ दोलन पर सवा धक भाव द ण (त मल दे श के) के आडवार या आलवार
भ त का पड़ा, िजनक भि त भावना सरल और स ची थी। आलवार भि त पर परा
म जा त-भेद के लए कोई थान नह ं था। उसका व प वहाँ लोकगीत और ामीण

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भजन का ह था। द ण क इसी भि त भावना को द ण के आचाय ने दाश नक
व प और आधार दान करते हु ए उ तर भारत म चा रत कया।
भि त आ दोलन से पूव क धा मक दशा पर य द हम यान द तो हम पायगे क
त काल न प रि थ तय म बौ धम का भाव ीण हो गया था। वह अनेक शाखा-
शाखाओं म बंटकर नाना कार क वकृ तय से सत हो गया था। महायान,
मं यान, व यान, सहजयान आ द क यह ि थ त थी। हाँ साधना और आचरण क
शु ता के सहारे नाथ स दाय अव य लोक य था। पि चमी भारत म जैनधम चा रत
था। वै णव धम को सवा धक संघष तां क वचारधारा से करना पड़ा। लौ कक और
अलौ कक शि तय क स तां क का सबसे बडा आकषण था। तां क क साधना
म अनेक गु य और गोपनीय याऐं शा मल थी जो सामािजक सदाचार के वपर त
थी। इसी कारण से तां क को वाम माग कहा गया। म दरा, मैथु न, म य आ द पंच
मकार तां क साधना के आव यक अंग थे। समाज के अ धकाश लोग म तं मत
अ यंत लोक य था। श त (उ च वग ) म शंकराचाय का अ वैतवाद और मायावाद
च लत था। तं मत म घोर भोगवाद और शंकर के मायावाद म घोर वैरा य का चरम
था। व यान स के वामाचार क त या के प म नाथ पंथ का वकास हु आ और
शंकर के अ वैतवाद क त या व प द ण म अनेक आचाय के भि तपरक
दाश नक स दाय का वकास हु आ। यह थी उस समय क प रि थ तयाँ और
स दाय क ि थ तयाँ।
इसी समय भारत म मु ि लम धम इ लाम का भी वेश हु आ। यह धम अ याचार
शासक और संक णम त मु ला-मौल वय का धम था। इसने परािजत भारतीय और
समाज एवं धम को घृणा क ि ट से दे खा। यह भी त य है क इ लाम क एक
शाखा सू फ मत म क रता का अभाव था। ये सू फ अंध नह ं अ पतु वचारवान और
साधुता को तरजीह दे ने वाले थे। ये लोग भारतीय सव वरवाद और अ वैतवाद को
समझने वाले थे। यूना धक सं या म सू फ म क तरफ भारतीय आक षत हु ऐ।
सू फ म का ह भाव था क दोन ह धम के लोग ने एक दूसरे को, उनके धम को
जानना समझना चाहा। सू फ म का सवा धक भाव संत कबीर क वाणी म मलता है।
संत कबीर ने कसी नये मत क थापना का ल य अपने मन म नह ं रखा। ह दू
और मु सलमान दोन ह संत कबीर के श य बने। समाज क वकृ तय पर कबीर ने
खरता से हार कया और धम एवं समाज क ढ़य को मटाकर समाज को सु धरने
हे तु े रत कया जो क समाज को उनका सबसे ग तशील एवं मु ख योगदान है।
यात य है क जो कबीर ढ़य और आड बर के घोर वरोधी थे, उनके श य ने
अनेक नवीन ढ़य क थापना करके साधना के शु और सरल माग को व बना
दया। संत मत तां क दुराचार से मु त तो रहा पर तु चम कार और स य के
जाल म ये भी उलझे। अहंकार, गु डम , पाख ड और नये आड बर म वृ होने लगी।
इसके प रणाम व प म यावाद पनपा। सू रदास ने वनय के पद म इस बात क ओर
संकेत कया है क कस कार शैव, शा त, गोरखपंथी, अ वैतवाद और मायावाद

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पाख ड का चार कर रहे थे। बारह वष तक के अबोध बालक को उदासी स यासी बना
दया जाता था। कम और ान के थान पर अ ान अ धक था। इ ह ं प रि थ तय म
द ण के आचाय ने शा स मत वै णव भि त के चार वारा जनता को नयी राह
दखायी।
सतह ि ट से दे खने पर भि त का यह प नया सा लगता है क तु द ण भारत म
आडवार या आलवार वै णव भ त क पर परा पाँचवी छठ शता द म आर भ हो चु क
थी। त मल भाषा म आलवार के रचे लगभग चार हजार पद मलते ह। इन पद म
व णु, वासु देव या नारायण के त ेम और भि त भावना कट हु ई है। इनम कृ ण
और गो पय क आन द ड़ा का वणन है। वैसे आलवार भ त म राम तथा कृ ण को
अवतार प म दशाया गया है। आलवार भ त पर परा क वशेषता यह है क जा त-
भेद क यहाँ कोई भी गु ज
ं ाइश नह ं थी।
उ तर भारत म वै णव भि त का चार करने वाले आचाय के सामने सबसे बड़ी
चु नौती शंकर का अ वैतवाद थी। भि त स दाय के आचाय म से केवल म वाचाय ने
ह अ वैतवाद का पूरा ख डन कया।
भि त के थम चारक आचाय नाथमु न माने गये ह। इनका समय ईसा क नवीं
शता द माना जाता है। आचाय रामानुज ने यारहवीं शता द म व श टा वैत का
तपादन कया। ‘ ी’ स दाय के नाम से नारायण और ी (ल मी) क भि त का
चार हु आ। न बकाचाय ने बारहवीं शता द म वैता वैत स ा त का तपादन
कया। तेरहवीं शता द म आचाय म य ने अ वैत का ख डन और वैतवाद का
तपादन करते हु ए व णु भि त का चार कया। सोलहवीं शता द म व लभाचाय ने
शु ा वैत क थापना क । इस स ांत के अनुसार जगत क स यता एवं संसार (नाम,
प आ द) को म या माना गया। वैसे तो मू ल प से शु ा वैत का तपादन ब लभ
से पूव ी व णु वामी कर चु के थे पर तु उनसे संबं धत जानकार का अभाव है और
उन पर व वान भी एकमत नह ं है।
इस कार व भ न आचाय ने वै णव भि त को भ न- भ न दाश नक भू मकाऐं द ।
इन आचाय क पर परा 11वीं शता द से आर भ हु ई क तु 15वीं एवं 16वीं शता द
म ह भि त का यापक चार- सार हु आ। भि त के चार का सवा धक ेय रामान द
को है। 15वीं शता द म दे श यापी भि त का चार करने हे तु रामान द ने पूरे दे श म
मण कया। इनके मह व को इस पंि त म दे खा जा सकता है “भि त ा वड़ उपजी,
लाए रामान द”। रामान द ने नगु ण-सगुण दोन कार क भि त को वीकारा। यह
कारण है क इनके स बारह श य म सगुण - नगु ण दोन ह कार के संत श य
ह। कबीर इनके श य थे तो तु लसीदास इनके श य। तु लसी के गु नरह रदास इनके
श य थे। रामान द वयं जा त-भेद के व थे। इनके श य ने जनभाषा म भि त
पद का गान कया और ेरणा रामान द क ह थी। रामान द के उपदे शानुसार संत
क वय को राजा य हण नह ं करना चा हए। इसी लए कबीर-तु लसी म से कोई भी
राजा यी या रा या यी नह ं है। रामभि त चार का ेय क व े ठ तु लसी को है तो
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कृ ण भि त के चार का ेय महाक व सू रदास को है। कृ ण भि त का उ तर भारत
म सवा धक चार व लभाचाय के पुि ट स दाय वारा हु आ। आचाय व लभ के पु
व लनाथ ने 'अ टछाप’ क थापना क । अ टछाप के मु खतम क वय म सू रदास का
नाम अ ग य है। ब लभ के समकाल न ह चैत य दे व ने कृ ण भि त का चार
बंगाल म कया, िजसको यापक सार- स मल । इनके साथ ह गोसाई हतह रवंश
जी का राधाब लभ स दाय और ह रदास जी का स ख स दाय उ लेखनीय है।
इस कार एका धक प रि थ तय के तकाज से उपजी मान सकता, स दाय, स त
पर परा और ऐ तहा सक, सामािजक, आ थक, धा मक प र य ने भि त को न केवल
ासं गक बनाया अ पतु वहमान भी बनाया और जन समाज म त ठा दान क ।

5.3 सारांश
सारांश प म कहा जा सकता है क भि तकाल ने लगभग तीन शताि दय तक
भारतीय जन-मानस को आ दो लत और भा वत कये रखा। दे शी और वदे शी व वान
ने एकमत से भि त आ दोलन को एक महान ् ऐ तहा सक घटना करार दया है। कसी
ने उसे म ययुग के एक नये सा कृ तक जागरण के प म दे खा है, तो कसी ने धम,
समाज, सं कृ त, यहाँ तक क जीवन के येक े म उसके त व पश भाव को
ल य करते हु ऐ उसे एक नया युगांतर माना है। इस आ दोलन के यापक जन आधार,
खासकर को ट को ट द लत , पी ड़त और शो षत के जीवन म आ म स मानपूवक जी
सकने क नयी आशा और िजजी वषा का संचार करने तथा उनके यापक सहयोग और
सहभा गता के बल पर चार दशाओं म, शताि दय क कालाव ध म भी, अपने साथक
भाव को कायम रख सकने के नाते उसे (भि तकाल को) म यकाल के एक महान
जन आ दोलन क सं ा भी द गई। वण और वग यव था क या ध से जजर,
सामािजक ऊंच-नीच को भावना से आ ा त अनेक धा मक भेदभाव, कमका ड तथा
व ध नषेध से प रचा लत भारत के लए भि त आ दोलन का ादुभाव और उसके
वारा उ घो षत मानव स य एक ऐसा अनुभव था िजसक तु लना नह ं है। भि त
आ दोलन भारतीय चतना क ह सहज वाभा वक अ भ यि त और वकास है जो
चार दशाओं म फैले इस आ दोलन क प रि थ तय और प रवेश पर अपनी ि ट न
केवल केि त करता है अ पतु अपने समय क समान-असमान भावनाओं. वचार
सार णय , साधनाओं और साधना प तय के सारत व का ऐसा मेल है िजसक मसाल
दुलभ है।
मत मंतातर के भेद, जा त-वग, वण के भेद, धम और धमाचाय के पाख ड, बौ धम
क नर तर भावह नता, तं और नाथ पं थय के चम कृ त कर दे ने वाले अनु ठान,
मु ि लम सामंत के अ याचार, मजदूर और कसान का लगान और बेरोजगार से दुखी
होते चले जाना, नई आ थक पूँजी का उदय और उसका खेल, ग तशील वचार क

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आव यकता और फुटन आ द अनेक बात ह जो क धीरे -धीरे भि तकाल के उदय
और सार- चार को आव यक बनाती चले गयी।
आचाय हजार साद ववेद ने भि त आ दोलन के मू ल म 'लोकधम' को मु ख ेरक
शि त वीकार कया है। यह 'लोकधम' तमाम वै दक-अवै दक धम , मत , स दाय
आ द के शा न ठ वचन का तर कार करता हु आ सामा य जनता के जीवन के बीच
अपना माग बना रहा था। सारे धम तथा सारे मतवाद का सारत व इस लोकधम म
घुसकर एक ऐसी समि वत श ल पा रहा था िजसके रं ग और रे श क अलग से
पहचान करना मु ि कल था। त काल न प रि थ तय पर ि टपात करते हु ऐ ववेद जी
के वर से वर मलाते हु ऐ डॉ. शव कु मार म लखते ह- “इस कार एक अ भनव
लोकधम का प तो नखर ह रहा था, एक अ भनव लोकभाषा तथा लोक सं कृ त भी
वै दक-अवै दक, आय और आयतर आचार- वचार , धारणाओं तथा मा यताओं को एक
दूसरे म घुलाते- मलाते न मत हो रह थी। बौ धम के अवसान के साथ सामने आने
वाले उसके महायान स दाय म, तदनंतर उसक व यान तथा सहजयान शाखाओं म,
बौ मत और शैव मत के अनोखे सि म ण से उपजे नाथपंथ म, शा और
स ा त थ
ं से हटकर आय अनाय त व तथा साधना प तय से आदान- दान करते
हु ऐ वक सत होने वाले वै णव मत म तथा उसके दे वी दे वताओं म, कहने का ता पय
यह है क तं -मं , योग भि त आ द नाना कार क ऐसी धा मक एवं सा दा यक
वचार सार णय म, जो वै दक-अवै दक दोन कार क थी, क तु पार प रक आदान
दान के फल व प न वशु वै दक रह गयी थी और न अवै दक, वरन जो लोकधम,
लोकमत तथा लोक सं कृ त का प पा चु क थीं, उन मेघख ड को पहचाना जा सकता
है िजनक एक बारगी और उ ाम अ भ यि त भि त आ दोलन के प म हु ई।''6
उ त कथन म भी हम भि तकाल न प रि थ तय को उनक सम ता म दे ख-परख
सकते ह। िजनक वजह से भि तकाल अि त व म आया।
लेखक-डॉ. रमेश वमा,
व र ठ या याता, राजक य नातको तर महा व यालय, सवाई माधोपुर (राज)

5.4 अ यासाथ न
1. उ तर भारत म भि त के उदय पर काश डा लए।
2. भि त के उदय क सामािजक/धा मक प र थ तय का स व तार वणन क िजए?
3. 'भि त' पर परा को द ण भारत क दे न, वषय को समझाइये।
4. सगुण / नगुण भि त के उदय क ासं गता त काल न संदभ से समझाइये।

5.5 संदभ ंथ
1. के. दामोदरन - भारतीय चंतन पर परा, पी.पी.एच., 1979
2. डॉ. शवकुमार म - भि तका य और लोक जीवन, अ णोदय काशन, 1983

83
3. गजान द माघव - मु ि तबोध, नई क वता का आ म संघष तथा अ य नबंध
4. आचाय हजार साद ववेद - ह द सा ह य क भू मका।
5. आचाय हजार साद ववेद - कबीर, राजकमल द ल , 1971
6. काशन वभाग, भारत सरकार, 'कबीर’ छठा सं करण, 2000
7. अल सरदार जाफर - 'कबीर वाणी’ राजकमल काशन, 1998
8. ो. शव शंकर सार वत - 'सू रदास' अशोक काशन, द ल , 1964
9. ल मीनारायण वमा - 'भि तकाल के सामािजक आयाम’ संत काशन, इटावा
(यू.पी.)
10. स पादक सुधा संह - म यकाल न सा ह य वमश, आन द काशन, कलक ता-
2004
11. राम व प चतु वद - 'भि त काल का उदय' लोक भारती, इलाहाबाद, 2003
12. नामवर संह - दूसर पर परा क खोज, राजकमल काशन, नई द ल , 1982

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इकाई – 6 : नगु ण भि तकाल – ानमाग संत का य
धारा
इकाई क परे खा :
6.0 उ े य
6.1 तावना
6.2 नगु ण भि तका य ( ानमाग संतका य) - ऐ तहा सक पृ ठभू म और भाव
6.2.1 राजनी तक पृ ठभू म
6.2.2 धा मक पृ ठभू म
6.2.3 सामािजक-सां कृ तक पृ ठभू म
6.2.4 सा हि यक पृ ठभू म
6.3 संतका य : दाश नक आधार
6.4 संतका य : आशय और परं परा
6.4.1 आशय
6.4.2 परं परा
6.5 संतका य : वृि त ( वशेषता)
6.6 सारांश
6.7 अ यासाथ न
6.8 संदभ थ

6.0 उ े य
ानमाग संतका य वै दक युग से चल आ रह आ याि मक चंतन-परं परा क चरम
और अभू तपूव अ भ यि त है। नगु ण म, जो ारं भ से गहन चंतन और ान का
वषय रहा है, उसे संत ने का या मक अनुभू त का वषय बनाकर आकषक ढ़ं ग से
तु त कया है। व तु त: सं दाय नरपे आधु नक भारतीय सं कृ त के नमाण म
संतका य क सम वयवाद और सार ाह वृि त क मह वपूण भू मका रह है।
म यकाल न भि त आंदोलन क सबसे बड़ी उपलि ध सामािजक प रवतन के संदभ म
रे खां कत क जा सकती है। अ धकांश ानमाग संत क व समाज क न नवग य
जा तय से संब रहे ह। इनका आ याि मक अनुभव और म चंतन, इनके
का या मक उपकरण, भाषा, सब के मूल म इनक सामािजक चेतना स य रह है।
धा मक-सामािजक आडंबर और ढ़य का सश त वरोध, शा ीय और परं परागत
नै तकताओं का नषेध, सहज और अकृ म जीवन शैल क वकालत, इनक रचनाओं
म सहजता से ा य ये वृि तयाँ इनक ग तशील चेतना को अ भ य त करती ह।
इनक आ याि मक अनुभू त इ ह अपनी बरादर से ने तो अलग करती है और न ह

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इनम व श ट और असाधारण होने का भाव भरती है। कबीर वयं को 'जु लाहा’ कहने
म और रै दास ‘चमार’ कहलाने म त नक भी नह ं हच कचाते ह। आव यकतानुसार ये
अपने समाज और बरादर के मु य व ता क भू मका का नवाह भी बे हचक करते
ह। वेदांत दशन के सू के अनु प इनके लए संसार य य प माया है, फर भी इ ह ने
सामािजक अ याय, असमानता, अस य, अंध व वास आ द नकारा मक वृि तय के
व आ ामक ख अि तयार कया है। संत का य क यह ग तशील वृि त
कालांतर म ह द क वता क जातीय पहचान बनती है। भारते दु, नराला, नागाजु न,
मुि तबोध, लोचन, धू मल आ द आधु नक युग के क व संत क वय क उसी
ां तकार परं परा के सफल वाहक बनकर रचनाकम म वृत होते ह।
आधु नक ह द क वता क सवा धक सश त समाज सापे यथाथवाद परं परा का उ स
संतक वयो क रचनाओं म दे खा जा सकता है। संतका य म सव ‘मनु य’ और
'मनु यता' क त ठा दखती है। धा मक - सामािजक - राजनै तक अराजकता के उस
दौर म संतक वय ने संतु लन, सम वय, ग त और सांमज य था पत करने क भरपूर
चे टा क है। धमशा ीय नै तकताओ मयादाओं और सामंती व ध- नषेध क जगह
समाज को इ ह ने अपने आ याि मक अनुभव और सरल-सहज जीवन शैल से
अनुशा सत और मया दत करने क को शश क ।
संतक वय क आ याि मक न ठा, बौ कता के नषेध पर आधा रत नह ं है। इनके
सट क तक, जीवनानुभव से नःसृत वचार हम आज भी भा वत करते है। लोक जीवन
से इनका जु ड़ाव आज भी इनक रचनाओं को ासं गकता दान करता है। सहजता से
समझ म आने और याद हो जाने के कारण संतक वयो क रचनाएँ लोक जीवन म इस
तरह बस गयी ह क जाने अनजाने वे पंि तयाँ हमार जु बान पर चल आती ह।
न संदेह एक हजार वष क ह द -क वता के इ तहास म संतक वय क रचनाएँ
अमू य धरोहर जैसी ह। संतक व कबीर क रचनाओं ने गु रवी नाथ टै गोर को काफ
भा वत कया था। उनक स कृ त गीतांज ल के सृजन के मू ल म कबीर क ेरणा
थी। संत क व क रचनाओं ने आम तौर से बाहर क रचनाओं को भी भा वत कया
है। इस म यकाल न का या मक वरासत को समझकर, सहे ज कर हम अपने आप को
और अपने समाज को सकारा मक सोच और दशा दान कर सकते है।
तु त इकाई का प टत: यह उ े य है।

6.1 तावना
व तु त: संतका य ानमाग संत के आ याि मक अनुभव क का या मक अ भ यि त
है। प हवी तथा सोलहवीं सद म सम त उ तर भारत एक यापक भि त-आंदोलन के
जबद त भाव म था। म के सगुण और नगु ण दोन प को लेकर चलने वाला
यह आंदोलन अनायास नह ं था, बि क ाचीन परं परा और त काल न सामािजक,
राजनै तक प रि थ तय के संदभ म इसका स यक ववेचन कया जा सकता है।

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नगु ण म- चंतन के सू उप नषद म भरे पड़े ह और व तार से उनक ववेचना भी
क गयी है। कं तु भि त और उपासना के लए उसके सगुण प का वणन है।
महाभारत काल तक वै णव भि त का वकास हो चु का था और पुराणकाल म यह
सं थाब प म ति ठत हो जाती है। वै णव भि त के अंतगत नवधा भि त और
कृ ण भि त के संदभ म ेमाभि त के मू ल संकेत भागवत ् पुराण म ह मलते ह।
कं तु म यकाल न उ तर भारतीय भि त-आंदोलन के पीछे कई और व तु न ठ कारण
थे। आ दकाल के अंतगत हम नाथ (शैव), स (बौ ) और जैन क वय क धा मक
सां दा यक रचनाओं और वृि तय को दे ख चु के ह। उस समय तक भारत म इ लाम
धम का आगमन भी हो चु का था। उ तर भारत क त काल न अराजक धा मक -
राजनै तक और सामािजक ि थ त से भी हम भल भाँ त प र चत थे। भि त क धारा
आंदोलन का प ले, इसके लए आव यक प रि थ तयाँ लगभग बन चुक थीं। स यक
ेरणा और ो साहन क आव यकता थी। आचाय रामचं शु ल ने इ लाम के आगमन
को भि त आंदोलन के सबसे बड़े कारण के प म चि नत कया था, कं तु हजार
साद ववेद तथा अ य परव त इ तहासकार ने शु ल जी क इस मा यता का
जोरदार ढं ग से खंडन कया। उन लोग क मा यता यह थी क य द इ लाम न भी
आया होता तब भी भि त क यह धारा इसी तरह वा हत होती। इ लाम धम का
आगमन उसके फैलने के कई कारण म एक कारण अव य था ले कन यह आ यं तक
कारण नह ं था। उ तर भारत म भि त के यापक चार - सार का ेय िजन
आचाय , यथा- रामानुजाचाय , म वाचाय, व णु वामी, व लभाचाय, आ द को दया
जाता है, वे सब के सब द ण भारत से आए थे। व तु त: द ण भारतीय समाज म
भि त क सकारा मक ऐ तहा सक भू मका छठ सद से नौवीं सद तक पूर हो चु क
थी। नौवीं सद के अंत म नाथमु न ने आलवार भ त के लगभग चार हजार पद का
सं ह ' द य बंधम'् नाम से कया। इसम व णु के दो अवतार राम और कृ ण क
भि त क धानता है। आलवार भि त परं परा से ह दसवीं से लेकर चौदहवीं सद तक
के उ त सारे आचाय सि म लत थे। इन आचाय से पूव आठवीं सद म शंकराचाय ने
ह दू धम क पुन त ठा और बौ धम के खंडन के लए वेदांत सू क रचना क
और अ वैतवाद चंतन का तपादन कया। शंकराचाय ने म को नगु ण नराकार
माना। यह नगु ण- नराकार म भि त और उपासना के लए सवथा अ यावहा रक था।
अत: कालांतर म अनेक आचाय ने इसम कं चत संशोधन कया और व श टा वैत,
वैतवाद, शु ा वैत, भेदाभेदवाद आ द व भ न कार के भि त सं दाय वक सत हु ए।
उ तर और द ण भारत क भि त परं परा को एक सू म परोने का काम वामी
रामानंद (1299- 1410 ई०) ने कया। ये एक ओर द ण भारत के आचाय रामानुज
के ी सं दाय से संब थे तो दूसर ओर उ तर भारत के शैव (नाथो) क योग साधना
से। यह कारण है क उनक श य परं परा म एक ओर नगु ण पंथी कबीर है तो दूसर

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ओर रामभि त के सगुण माग तु लसीदास। भि त आंदोलन के चार- सार म वामी
रामानंद क भू मका अ यंत मह वपूण है।
म यकाल न भि त का य-धारा के अंतगत सू फ संत क ेमार यानक रचनाओं को भी
मु खता से रखा गया है। संत का य, वशेषकर कबीर क रचनाओं म नगु ण म क
भि त के अंतगत िजन ेम और दांप य तीक का समावेश है, वहाँ सू फ संत क
उपासना प त का प ट भाव दे खा जा सकता है। सू फ संत क वय ने ह दुओं म
चा लत लोककथाओं, वशेषकर ेम कथाओं को अपनी रचनाओं का आधार बनाया।
परमा मा के त अन य ेम भावना सू फ मत क वशेषता थी, यह मत एके वरवाद
या अ वैतमूलक सवा मवाद पर आधा रत है। इन सू फ संत क वय का उ े य भी
ह दू- मु ि लम के बीच एकता था पत करना था। वे उदारवाद , मानवतावाद साधक
थे, िजनक ेमा यानक रचनाओं ने ह द -सा ह य को भरपूर समृ कया है। म लक
मु ह मद जायसी उसी ेमा यानक धारा के त न ध क व थे।
इस तरह हम दे खते ह क पूरे भि तकाल म भि त क चार प ट धाराएँ एक दूसरे के
समानांतर कभी-कभी एक दूसरे से टकराती, तो बहु त बार एक दूसरे को भा वत करती
एक साथ वा हत होती रह ।ं नगु ण भि त का य क दो धाराएँ - ानमाग संतका य
धारा, ेममाग सू फ का य धारा और सगुण भि त का य क रामभि त धारा और
कृ ण भि त धारा। ानमाग संत का य धारा के त न ध क व कबीर, सू फ का य
धारा के म लक मु ह मद जायसी, राम भि त धारा के तु लसीदास और कृ ण भि त
धारा के सू रदास ह।
भि त क इन चार धाराओं के अंतगत जो रचनाएँ हु ई उनसे ह द क वता तो समृ
हु ई ह , साथ ह उ तर भारतीय समाज भी अराजकता और नराशा के दलदल से बाहर
नकलने म समथ हु आ। त काल न प तत समाज के लए यह संजीवनी के समान था।
ये ह वे कारण थे, िजनके आधार पर सा ह य के इ तहासकार ने इस काल को
वणकाल कहा।

6.2 नगु ण भि तकाल ( ानमाग संत का य) - ऐ तहा सक


पृ ठभू म
6.2.1 राजनै तक पृ ठभू म

ह द के समथ सा ह ये तहासकार आचाय रामचं शु ल ने भि तकाल करण का


ारं भ ह अ यंत नराशा और हताशाजनक राजनै तक प रवेश से कया है। पर पर
लड़ने वाले वतं ह दू रा य का पतन और इ लामी सा ा य का नरं तर व तार,
व तु त: ये दोन घटनाएँ पर पर संब है। भि त आंदोलन के उ व के लए आचाय
शु ल के इस नवाचक कथन ‘इतने भार राजनी तक उलट-फेर के पीछे ह दू
जनसमु दाय पर बहु त दन तक उदासी सी छायी रह । अपने पौ ष से हताश जा त के

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लए भगवान क शि त और क णा क ओर यान ले जाने के अ त र त दूसरा माग
ह या था?'- से आचाय हजार साद ववेद जैसे इ तहास चंतक सहमत नह ं हु ए।
उनका प ट मानना था क इ लाम का आगमन य द नह ं भी होता तब भी त काल न
भि त आंदोलन पर इसका बहु त यादा असर नह ं पड़ता। आगे चलकर हम लोग दोन
इ तहासकार क थापनाओं पर अपनी प ट राय बना सकते ह।
ह द सा ह य के इ तहास म 1350 ई० 1650 ई० तक का कालखंड भि तकाल के
प म जाना जाता है। उस समय द ल के संहासन पर मु ह मद व तु गलक आसीन
था। सु दरू द ण तक उसका सा ा य व तृत था। वह केवल मह वाकां ी शासक नह ,ं
बि क यो य और न प सु तान था। वह पढने का शौक न था और वयं क वताएँ भी
लखता था। व वान को उसने संर ण भी दान कया था। इसका शासन-काल सं0
1382-1408 तक रहा। उसके बाद सं0 1408-1485 तक फरोज तु गलक का शासन-
काल रहा। अपने पूववत शासक क तरह न तो वह उदार था और नह यो य। उसके
शासनकाल म सा ा य पर उसक पकड़ नरं तर कमजोर होती चल गयी और द ल
का सा ा य वखं डत हो गया। उसके बाद के सु तान तो और भी अयो य और
कमजोर सा बत हु ए। द ल पर जब सं0 1455 म तैमरू लंग का आ मण हु आ तो उस
समय वहाँ का सु तान महमू द अ यंत नकारा सा बत हु आ। तैमू रलंग के आतंक से वह
अपनी जा क र ा नह ं कर सका। सं0 1469 म तु गलक वंश का आ धप य पूर
तरह समा त हो गया। सं0 1471 म द ल सा ा य पर खज़ खाँ ने अ धकार
जमाया और इस तरह सैयद वंश क नींव पड़ी। सैयद वंश का शासन सं0 1508 तक
रहा। शासन क ि ट से यह काल कसी भी ि ट से उ लेखनीय नह ं रहा। इसके
प चात ् लोद वंश का शासन-काल चला। इस वंश के अं तम शासक इ ाह म लोद सं०
1544-83 और मु गल सा ा य के जनक बाबर म भड़ त हु ई, िजसम लोद क
पराजय और बाबर क वजय हु ई। बाबर ने िजस मु गल सा ा य क नींव रखी उस
वंश के शासन-काल म द ल क शि त लगातार बढ़ती रह । इसी दौर म मालवा,
गुजरात, जौनपुर , बंगाल वतं रा य थे। इन पर भी मु ि लम सामंत का अ धप य
था। द ण भारत म बहमनी रा य क थापना हु ई। बाबर क मृ यु के उपरांत कु छ-
कु छ वष तक सू र वंश का शासन रहा। उस वंश का सं थापक शेरशाह सू र था जो
सासाराम के जागीदार का पु था और बाद म बाबर क फौज म शा मल हु आ। बाबर
क मृ यु के बाद उसने हु मायू ँ को परा त कर द ल पर आ धप य जमा लया। वह
एक कु शल एवं यो य शासक था। कं तु उसके मरने के बाद उसका कोई भी यो य
उ तरा धकार नह ं हो सका, प रणाम व प एक बार पुन : हु मायू ँ ने आ मण कया और
अपनी खोयी हु ई स तनत वापस पा ल ।
मु गलवंश के शासनकाल म ह भि त आंदोलन क लहर ती तर होती चल गयी। इस
वंश म अकबर का शासन-काल हर ि ट से बेहतर था। वह एक सु यो य, दूरदश ,
याय य और उदारवाद शासक था, िजसक या त और लोक यता नरं तर बढ़ती

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रह । उसके शासन-काल म राजनी तक उथल-पुथल क ि थ त लगभग समा त हो गयी
थी और दे श के बड़े भू भाग पर उसका नयं ण कायम रहा। मु गलवंश का अं तम
शि तशाल शासक औरं गजेब था। य य प वह एक क र मु ि लम शासक था, फर भी
उसके शासन काल म भारत क राजनी तक ि थ त लगभग शांत थी। उसक मृ यु के
बाद ह इस वंश का भु व कम होने लगा और फर कालांतर म के य श ता के
कमजोर पड़ जाने से छोटे -छोटे रा य अपने को वतं घो षत करने लगे।
मु ि लम आ मणका रय ने और फर कालांतर म मु ि लम शासक ने भारतीय राजनी त
म अपना भु व कायम रखा। इतने लंबे समय तक शासन करने के म म यहाँ
मु ि लम ने कई नगर बसाए। वे यह ं के थायी नवासी बन गये थे। बहु सं यक ह दू
जनता के लए इ लाम अब कोई नयी और अजनबी चीज नह ं था। भारतीय समाज के
लए वह एक वा त वकता थी, िजससे सामंज य बठाना समय क बहु त बड़ी मांग थी।
इसी प र े य म संत क वय के रचना मक अवदान क सह या या हो सकती है।

6.2.2 धा मक पृ ठभू म

भि त आंदोलन के उ व से पहले यहाँ ह दू, इ लाम, जैन, बौ , ईसाई, यहू द और


पारसी धम च लत हो चु के थे, कं तु ह दू और इ लाम दो ह धान थे, शेष का
भाव े अ यंत सी मत था। जैन धम और बौ धम भी अपने मू ल प म नह ं रह
गया था। उसके कई स दाय न मत हो चु के थे।
इस समय तक ह दू धम के अंतगत भी कई सं दाय स य थे, िजनम परमत व क
अवधारणा भ न भ न थी, उपासना प त अलग थी तथा वे अपनी अलग पहचान
बनाकर रखते थे। इन सं दाय म शैव सं दाय सवा धक ाचीन है। यह ा वै दक
सं दाय है। इस भू भाग के बड़े े म इसका यापक चार- सार था। इसके भी कई
उपसं दाय थे। भि त आंदोलन के पूव नाथ पं थय का वशेष प से उ लेख हु आ है।
नाथ ( शव) पंथ व तु त: शैव सं दाय का ह अंग था। इस पंथ के चारक गु
गोरखनाथ क अ य धक त ठा रह । सू फ साधक ने भी इस पंथ से संबध
ं जोड़ा था।
शैव सं दाय का संबध
ं योग साधना से था। इसके समानांतर अपे ाकृ त एक नया
सं दाय वै णव सं दाय था िजसके साथ सगुण भि त जु ड़ी थी। इसी भि त भावना के
कारण सामा य जन म इसक लोक यता नरं तर बढ़ती जा रह थी। वै णव सं दाय के
अंतगत भी अलग-अलग आचाय ने अलग ढं ग से अपने मत का तपादन कया,
िजससे यहाँ भी कई उपसं दाय न मत होते चले गए। दाश नक स ांत के आधार पर
वैता वैत, व श टा वैत, वैत, शु ा वैत, इ या द अनेक सं दाय बने तो उपासना
प तय के आधार पर बंगाल म सहिजया, महारा के महानुभाव तथा बारकर आ द
उपसं दाय भी च लत हु ए।
ह दू धम के अंतगत अ य अनेक सं दाय भी थे, जैसे- शा त, सौर, गाणप य, मा त
आ द। इन सारे सं दाय और उपसं दाय के कारण ह दू धम क वतं एवं व श ट
पहचान नरं तर धु ंधल होती चल जा रह थी। इतनी वसंग तय , अंत वरोध और

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वषमताओं के बीच कसी भी धम के लए अपने वतं अि त व को बचाए रखना
क ठन था। भि त आंदोलन के पूव ह दू धम के अंतगत आए इस बखराव को समेटने
और उनम साथक सामंज य था पत करने के यास जोर पकड़ने लगे थे।
जैन एवं बौ धम के उ व और सार का े भी यह भारतीय भू भाग रहा है। ये
दोन नाि तक धम वै दक धम क त या व प अि त व म आए थे। इन दोन
धम ने ह दू धम को बहु त दूर तक भा वत कया था। अंतत: शंकराचाय ने आठवीं
शता द म वै दक धम क पुन : त ठा क साथक चे टा क । कालांतर म ये दोन धम
भी अलग-अलग सं दाय म वभािजत होकर अपने मू ल प से अलग होते चले गए।
भि त आंदोलन के पूव बौ धम क महायान शाखा से वक सत स पंथ और चौरासी
स क व तार से चचा हु ई है। संत का य पर स और नाथ का भाव दे खा जा
सकता है। उसक का य शैल और का य भाषा पर भी इसका य भाव पड़ा है।

6.2.3 सामािजक - सां कृ तक पृ ठभू म

इस दे श मे इ लामी सा ा य के ति ठत हो जाने के कारण उनक आबाद भी नरं तर


बढ़ती गई। उ होन यहाँ कई बि तयाँ बसायी, नगर बसाए य य प यहाँ बहु सं यक ह दू
ह थे, जो इन बदल हु ई प रि थ तय म अपनी जातीय सं कृ त क र ा के लए
सजग थे। वण यव था पर आधा रत ह दू समाज म उस समय तक कई जा तयाँ
और उपजा तयां भी बन चु क थी। छूआछूत, दास था, पदा था, सती था, बहु
ववाह आ द का चलन था। धमातरण क घटनाएँ भी घ टत हो रह थीं। ह दुओं के
अपने पव- योहार भी थे िजनक धा मक परं परा और पृ ठभू म थी। स दय से वक सत
होती उनक थाप य कला, मू तकला तथा च कला अदभू त प से स प न थीं।
ले कन यह वह दौर नह ं था जब इन कलाओं को अ भ यि त दान करने के अनुकू ल
अवसर मलते। उनका वकास अव हो चु का था। इ लामी शासन के साथ-साथ यहाँ
इ लामी सं कृ त क नींव भी पड़ गई जो समय के साथ-साथ वक सत होती रह ।
इ लामी समाज भी एक समान नह ं था। समय-समय पर यहाँ अलग - अलग दशाओं
और दे श से मु ि लम आ मणकार आते रहे थे। बहु त बार लू ट-पाट मचाने के बाद वे
लौट जाते ले कन उनम से कु छ यहाँ बसने का लोभ नह ं रोक पाते थे। सामािजक तर
के अनु प उनम सु तान, उमरा और उलेमा का वभाजन था। फारस, तु क तान,
अफगा न तान एवं अरब से आए मु सलमान मश: शेख, मु गल, पठान एवं सैयद
कहलाते थे और ये शासक वग से संब थे। मु सलमान म शया और सु नी का भी
भेद था। खेती, मजदूर , यापार और नौकर म शा मल मु सलमान न न ेणी के थे
और सामा य ढं ग से जीवन-यापन करते थे। ि य क दशा यहाँ भी बहु त अ छ नह ं
थी। बहु ववाह का चलन यहाँ भी था। इनके भी अपने पव - योहार थे, अपनी
वेशभू षा थी, खाने पीने क अपनी शैल थी, अ भवादन का अपना ढं ग था, ज म मृ यु
का अपना कमकांड था। थाप य कला, च कला, संगीत कला जैसे उनके अपने

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व श ट कला मा यम थे। उस दौर म इ लामी शासक ने अपनी सं कृ त के अनु प
महल, मारक, मि जद आ द का नमाण कया।
ह दू और मुसलमान दोन ह समाज म अमीर-गर ब का अंतर प ट था। अमीर एक
ओर अपने वैभव और भु व का दशन करते थे वह ं गर ब कसी कार
औपचा रकताओं का नवाह भर कर कया करते थे। ह दुओं क तरह मुसलमान म
छूआछूत क सम या नह ं थी। वे लोग धा मक कृ य म समान प से सि म लत होते
थे जब क ह दुओं म न न जा तय के लए धम और मं दर के वार बंद थे।
सावज नक प से धा मक कृ य म भाग लेना उनके लए न ष था।
इ लाम धम के आगमन के पूव भी यहाँ सां कृ तक व वधता वतमान थी, इस
अपे ाकृ त नयी धम-सं कृ त ने उस वै व य को और यापकता दान क । सं कृ त जड़
नह होती। समय के साथ वह भी बदलती और वक सत होती रहती है। सां कृ तक
व वधताओं के बीच एक सामा य सं कृ त भी उसके समानांतर वक सत हो रह थी।
आचाय हजार साद ववेद ने भारतीय सं कृ त के इस सार ाह और सम वयवाद
व प पर व तार से वचार कया है। उनका प ट मानना है क इस दे श म समय-
समय पर भ न- भ न दशाओं से अनेक जा तय का आगमन होता रहा है जैसे- आय,
वड़, य , क नर, गंधव, शक, हू ण, यवन, मु सलमान, अं ेज, पुतगाल , डच आ द।
इन सब ने भारतीय सं कृ त को भा वत कया है।

6.2.4 सा हि यक पृ ठभू म

ानमाग संतका य के उ व के पूव यहाँ अप श


ं और े ीय भाषाओं म सा ह य रचना
क परं परा व यमान थी। यह सब ह द भाषा के समाना तर चलता रहा है। अ धकांश
रचनाएँ धा मक-सां दा यक थीं क तु ठे ठ जनसामा य वाला लोकसा ह य भी रचा जा
रहा था। इसके समानांतर सं कृ त, पा ल और ाकृ त जैसी पुरानी भाषाओं म भी
सा ह य रचना का म जार था। त युगीन सं कृ त सा ह य का संतका य पर कोई
य भाव नह ं दखता ले कन ाकृ त क गृं ारपरक ेमा यान का भाव सू फ
का य पर दे खा जा सकता है। ाकृ त के मु तक छं द क परं परा संभवत: वक सत होती
हु ई संतका य म सा खय का प हण कर लेती है।
अप श
ं सा ह य का ारं भ संभवत: सातवीं सद के आसपास हु आ था और यह
सल सला यारहवीं-बारहवीं सद तक चलता रहा। अप ंश क ारं भक रचनाओं म एक
ओर जैन क वय वारा र चत सु ंदर बंधका य मलते ह, वह ं दूसर ओर स क वय
के फुटकर प य भी ा त होते ह. िज ह ‘दोह ’ और ‘चयापद ’ क सं ा द गयी है।
बंध का य के अंतगत ‘च रउ’, ‘पुराण’ ‘महापुराण ’ एवं ‘कहा’ जैसी रचनाएँ आती ह।
स क वय वारा र चत ‘दोहाकोश ’ तथा ‘चयाजीतो’ म य य प सां दा यक वचार
क ह अ भ यि त हु ई है कं तु उनक कथन शैल का संतक वयो पर सीधा भाव पड़ा
है। उस समय च लत लोकगीत क परं पराएँ जैसे- ‘चचर ’, ‘फाग’, ‘बारहमासा’,

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‘क का’ आ द नगु ण भ त क वय वारा भी अपना ल जाती है। अप श
ं के लौ कक
खंडका य ‘संदेशरासक’ क वणन शैल का भाव आगे चलकर सू फ क वय के
ेमा यानक का य पर पड़ता है। उस समय म नाथपंथी क वय क ‘बा नय ’ और
‘सब दय ’ जैसी रचनाएँ भी अ प सं या म मलती ह, िजनक वषय व तु और
रचनाशैल को संतक वय ने भी हण कया था। न कषत: हम यह कह सकते है क
ं भाषा म र चत जैन,
अप श स एवं नाथ पंथी क वय क रचनाओं का बहु वध
भाव म यकाल न संत का य और सू फ ेमा यानक का य पर पड़ता है।
उस समय तक यहाँ अरबी और फारसी भाषा च लत हो गयी थी। अरबी धानत: धम
क भाषा थी और इसका योग भी अ यंत सी मत था, कं तु फारसी राज काज और
सा ह य क भाषा थी। इसका चलन अपे ाकृ त अ धक हु आ। यहाँ के कई मह वपूण

ं फारसी म अनू दत हु ए। खड़ी बोल ह द के संभवत: पहले आ दकाल न रचनाकार
अमीर खु सरो ने फारसी भाषा म भी कई रचनाएँ तु त क । इ तहास एवं अ य वषय
के साथ उसने ेमा यान क भी रचना क । उसक रचनाओं म भारतीयता क झलक
मलती है। फारसी म अ य क वय वारा भी मसन वय ( ेमा यान ) क रचना क
गयी। अरबी सा ह य क तु लना म फारसी क रचनाओं ने यहाँ के सा ह य को कह ं
अ धक भा वत कया। अरबी और फारसी भाषाओं के भाव से ह द भाषा क एक
अलग शैल ह वक सत हो गयी जो कालांतर म उदू कहलायी और ह द के समानांतर
इसने एक वतं भाषा का प धारण कया। खड़ी बोल ह द क श द-संपदा म भी
अरबी-फारसी के श द-मु हावरे धड़ ले से शा मल होते गए। संत का य क भाषा पर
इसका य भाव दे खा जा सकता है।
अप श
ं भाषा के सा ह य म कु छ ऐसी नयी वृि तयाँ भी दखाई पड़ी जो उससे पूव क
च लत भाषाओं म नह ं थीं। इन नयी वृि तय ने नगु ण धारा के अंतगत रची
जानेवाल रचनाओं पर अ छा असर डाला। ये नयी वृि तयाँ थीं- लोक चेतना का
जागरण, लोकभाषा का मह व, लौ कक वण वषय क धानता, सम वया मक
ि टकोण और क व क आ मा भ यि त।

6.3 संतका य : दाश नक आधार


युगीन प रि थ तय क आव यकता के अनु प संत क वय ने सम वय और सार ा हता
क भावना को धानता द है। भारतीय चंतन-दशन परं परा म जो कु छ मू यवान,
संर णीय और ासं गक उ ह लगा, सब को इन संत क वय ने समान आदर के साथ
आ मसात कया और अपनी रचनाओं म तु त कया। कु छ आलोचक को संतक वय
का यह यास ‘कह ं का ईट कह ं का रोड़ा, भानुम त ने कुनबा जोड़ा’ जैसा तीत हु आ
और उ ह ने इसक आलोचना भी क । वे आलोचक यह भू ल गए क संत का उ े य
कसी नए धम का वतन करना नह ं था। चूँ क उस समय च लत सार धम परं पराएँ
अपने मू ल व प से भटक कर अंध व वास और म याचार क भू ल-भुलैया म च कर
काट रह थीं। समाज म नये उ साह और आ म व वास का संचार कर माग दशन करने
93
क उनम मता ह नह ं थी। कबीर के सम आ याि मक चेतना से शू य एक ऐसा
मानव समाज था जो पशु वत यां क जीवन िजए जा रहा था। जीवन और जगत के
गंभीर न और उसक साथकता से उसे कोई मतलब ह नह ं था। आ याि मक चेतना
शू य उस यापक जन समुदाय को संत ने अपनी वा णय से अनुशा सत, यवि थत
और मया दत करने क चे टा क , उनम आ मगौरव का भाव जगाया और जीवन क
मू याव ता का अथ समझाया। लोकमंगल क उदा त भावना से आप म का नवाह
करते हु ए संत ने न नवग य समाज का समु चत मागदशन कया।
संत का य के दाश नक आधार के नमाण म अनेक कार क चंतन-परं पराओं का
समावेश हु आ है जैसे- उप नषद, शंकराचाय का अ वैत दशन, स नाथ क
वचारधारा, इ लाम धम तथा सू फ दशन। संत के जीवन - दशन और रचनाकम पर
उप नषद का यापक भाव है। म, जीव, जगत और माया वषयक उनके वचार
उप नषद म य त वचार के अनु प तो ह ह , साथ ह म के व प वणन से
संब उपमान और अ तु त योजनाएँ भी लगभग वैसी ह ह। उप नषद के उपरांत संत
का य धारा और संत-दशन पर शंकराचाय के अ वैत दशन का सबसे गहरा भाव है।
यह भाव संत क वव त भावना, त ब ब भावना, णव भावना, साधना प और
भि त प त पर प ट दे खा जा सकता है। शंकराचाय क तरह नगु णमाग संत क व
भी मानते है क जीव वशु म त व है, य द भ नता झलकती है तो वह माया
अथवा अ व याज नत है। संत वारा तपा दत आ मा क सव पता, सवा म भावना
और सवशि तमान अ वैत दशन के अनु प है। संतक वयो के चंतन और रचनाकम पर
नाथपंथ (शैव दशन, योग दशन) का भी चु र भाव है। नाथपंथी क वय एवं वचार
के शू यवाद, गु म हमा, सृि ट म , आ मा, जीव आ द से संतक वय ने भी ेरणा ल
है। संत साधना म योग दशन और साधना के जो पा रभा षक श द और वचार है, वे
भी नाथपंथी साधना प त के अनु प ह। स क तं -साधना का भी संतमत पर
भाव है। य य प यह भाव संत कबीर पर कम कं तु उनक परं परा से वक सत अ य
सं दाय जैसे मलू क पंथ और नरं जनी सं दाय पर अ धक है।
अ वैत वेदांत और इ लाम के एके वरवाद म भी बहु त हद तक ताि वक समानता है।
उस समय तक भारतीय जीवन म इ लाम भी अ छ तरह ति ठत हो चु का था। अत:
वाभा वक है क संत क वय के चंतन पर इ लामी एके वरवाद का भी भाव
प रल त होता है कं तु यह भाव सकारा मक कम नकारा मक यादा है। हंदओ
ु ं ने
अवतारवाद, मू तपूजा, बहु दे वोपासना, कमकांड आ द के व इन संत ने मु सलमान
के समान आ मण कया है, य क इ लाम धम म भी ये बात न ष , नंदनीय और
दं डनीय थीं। इसी म म सू फ मत के भाव का भी उ लेख कया जा सकता है। सू फ
मत के साधना मक और भावा मक आदश संत क वय को भा वत करते तीत होते
ह। सू फ धम चारक और रचनाकार ने इस दे श म ह दुओं और मु सलमान के बीच
उभर कटु ता, वैमन य और अ व वास को दूर कर ेम, स ह णुता, उदारता एवं

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पार प रक स दयता का संदेश दया था। सू फय के इस लोकमंगल कार काय को
नःसंदेह संत का भी सहचय- सहयोग मला। संतो क नगु ण भि त भी सू फय क
भि त से भा वत दखती है। यह भी एक कं वदं ती है क संत कबीर ने एक सू फ संत
शेख तक को अपना गु बनाया था। संत क वय ने वै दक सा ह य, वै दक परं परा,
बा याडंबर और नानापुराण नगमागम क आलोचना क और उ ह अनाव यक करार
दया, उनके इस कृ य के पीछे संभवत: बौ धम के तक और वचार रहे ह गे। उस
युग म भि त आंदोलन के चार- सार म वामी रामानंद का बहु त बड़ा योगदान है।
उ होन एक ह साथ सगुण और नगु ण दोन पंथ को अ भ े रत कया। उनक श य
परं परा म एक ओर तु लसी है तो दूसर ओर कबीर। दूसरे अ य सगुणमाग आचाय क
तु लना म वामी रामानंद कह अ धक उदार, ग तशील और दूरदश थे। उनक
श यपरं परा म समाज क कई न नजा तय के लोग भी शा मल थे। संतमत के
उ थान के पीछे न संदेह वामी रामानंद के उदार चंतन और उपासना प त क
ेरणा रह होगी।
इस कार हम दे खते ह क संत क वय ने अपने समय म च लत सभी धम-सं दाय,
दशन- चंतन उपासना प त से कु छ न कु छ हण कया है। नगु ण म चंतन म
भि त का समावेश यह संतक वयो का ब कु ल मौ लक अवदान है।

6.4 संतका य: आशय और परं परा


6.4.1 आशय

म यकाल न ानमाग नगु ण भि त के उपासक और क वय के लए संत और उनके


का य के लए 'संतका य’ श द लगभग ढ़ हो गया है। य य प संत और भ त म
कोई ताि वक या गुणा मक अंतर नह ं है। बहु त बार ये दोन श द एक ह अथ के
यंजक होते ह। डॉ. पीता बरद त बड़ वाल ने संत श द क यु प त 'शांत’ से मानी है
और इसका अथ नवृ त माग या वैरागी कया है। परशु राम चतु वद के अनुसार ‘संत’
श द उस यि त क ओर संकेत करता है िजसने संत पी परम त व का अनुभव कर
लया हो और जो इस कार अपने यि त व से ऊपर उठकर उसके साथ त प
ू हो गया
हो, जो संत व प स व तु का सा ा कार कर चु का हो अथवा अपरो क उपलि ध
के फल व प अखंड त व म ति ठत हो गया हो, वह संत है। कु छ चंतक इसक
यु प त ‘सत'् से मानते ह। उनके अनुसार स य न ठ, सदाचार , साि वक, सांसा रकता
से न ल त और ई वरो मु ख कोई भी स जन संत कहला सकता है। सं कृ त म भी संत
ववेक यि त या स जन के अथ म यु त हु आ है। भतृह र ने परोपकार यि त को
संत कहा है। भागवत म प व आ मा वाले यि त संत कहे गए ह।

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6.4.2 परं परा

म यकाल न ह द सा ह य के इ तहास म ानमाग नगु ण पंथी संत का य धारा के


वतक कबीर दास माने जाते ह। समकाल न संत म इनका यि त व सबसे वराट
था। ये अ यंत तभाशाल , ां तकार चेतना से लैस नेत ृ वकता थे। कबीर के पूव भी
कई भावशाल संत हो चु के ह, िजनका नामो लेख वयं कबीर और अ य दूसरे संत
क वय ने अपनी रचनाओं म कया है। ऐसे पूववत पथ दशक संत म जयदे व,
साधना, वेणी, नामदे व और लोचन मु ख ह। नाभादास के 'भ तमाल’ म जयदे व का
उ लेख 'गीतगो वंद’ का य के रचनाकार के प म हु आ है। ' थ
ं साहे ब' म जयदे व के
नाम पर दो पद मलते ह। कं तु दोन जयदे व एक ह ह, इस पर व वान म सहम त
नह ं है। ' थ
ं साहे ब' म संक लत दोन पद ह द म है और भाव, भाषा एवं छं द हर
कार से ये उ च को ट के ह। ह द म उनके और पद नह ं मलते ह। सधना भी
न न जा त म उ प न एक उ च को ट के संत थे। ' थ
ं साहे ब' म इनका भी एक पद
संक लत है। ‘संत गाथा’ नामक पु तक म इनके छह पद और ह। इनके बारे म भी
पया त जानकार उपल ध नह ं है। ' थ
ं साहे ब' म संक लत पद, भाव और भाषा क
ि ट से उ च को ट के ह। संत वेणी के वषय म भी पया त सू चनाओं का अभाव है।
ं साहे ब' म इनके तीन पद ह। इन पद म आ मत व पर बल दया गया है और

बा याचार तथा शलापूजन क नंदा क गयी है। इनके एक पद म नाथपंथी योगसाधना
के कई सांके तक श द ह, िजनका कालांतर म कबीर तथा अ य संत क वय क
रचनाओं म भी योग हु आ है। कबीर के पूववत संत म नामदे व सवा धक ति ठत
है। मराठ म र चत इनके कई 'अभंग’ मलते ह। ह द म भी इ होने पद क रचना
क थी। कबीर ने इ ह महान ् भ त क ेणी म रखा है। संत रै दास ने इनका उ लेख
न नजा त म ज म लेने वाले महान ् भ त के प म कया है। ' थ
ं साहे ब' म इनके
इकसठ पद संक लत ह। मराठ सं ह म संक लत ह द के पद को इनम मला दे ने
से यह सं या लगभग एक सौ बीस होती है। इन पद क भाषा उस समय क सामा य
बोल-चाल क भाषा है, िजसम ज और खड़ी बोल का म त प मलता है। ऐसी ह
म त भाषा कबीर तथा अ य परव त संत क रचनाओं म मलती है। वषय और
भाव क ि ट से इनक रचनाओं म ई वर के नगु ण और सगुण दोन प मलते ह।
मू तपूजा, बहु दे वोपासना और म याचार क इ होने भी नंदा क है। नाथपंथी
योगसाधना के सांके तक श द और याओं का भी इनक रचनाओं म योग हु आ है।
कबीर क तरह इ ह ने भी ‘राम’ को अपना 'भ तार’ और 'खसम’ कहा है। संत लोचन
भी महारा के थे और नामदे व के समकाल न थे। 'भ तमाल' के अनुसार ये दोन
ानदे व के श य थे। ं साहे ब' म दोन के संवाद भी मलते ह। इनके चार पद ‘ थ
थ ं
साहे ब' म संक लत है। म याचार और पाखंड क यहाँ भी नंदा क गयी है और च त
क नमलता पर बल दया गया है।

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म यकाल न भि त आंदोलन के नेत ृ वक ताओं म वामी रामानंद का नाम काफ
स मान के साथ लया जाता है। इनक श य परं परा म एक ओर महान सगुण
रामभ त तु लसीदास ह तो दूसर ओर नगु णपंथी संत कबीरदास। वामी रामानंद ने
भि त क दोन धाराओं को ग त द थी। अ य आचाय क तु लना म ये कह ं अ धक
उदारवाद , ग तशील और दूरदश थे। न न जा त के लोग के लए भी इ ह ने भगवत ्
भि त का वार खोल दया था। इनक श य परं परा म न न जा त से आने वाले कई
संत और भ त थे। ' थ
ं साहे ब' म इनका भी एक पद संक लत है। उस पद क भाषा
और भाव से प ट है क इनके और भी पद रहे ह गे जो अब उपल ध नह ं ह। इस
पद म उ ह ने तीथ, मू तपूजा, वेद-पुराण तथा अ य बा याचार और उपासना प तय
को याग कर अंतयामी एवं व व यापी म या परमा मा क भि त करने क बात
कह है। गु कृ पा से पूव म के न ट होने और उनके मल न होने का भी उ लेख
है। ऐसा तीत होता है क वामी रामानंद पहले सगुण म के उपासक रहे ह गे कं तु
कालांतर म नगु ण म क उपासना म उनक च हो गयी होगी।
म यकाल न ह द सा ह य म संत का यधारा का वतन कबीर से ह माना जाता है।
अपने पूववत नगु णपथी संत क परं परा को पूर तरह आ मसात करते हु ए उ ह ने
अपने समकाल न और परव त संतक वय पर यापक भाव डाला है। कबीर के ज म,
उनक मृ यु , उनके माता- पता, श ा-द ा, गु , रचना आ द सबको लेकर व वान म
मतभेद है। उनके जीवन से जु ड़ी कई कं वदं तयाँ जन-सामा य म च लत ह; इसी तरह
उनके नाम से जु ड़ी कई रचनाएँ ा त ह। कबीर क रचनाओं के कई संकलन अनेक
व वान ने अलग-अलग का शत करवाएँ ह। कबीर क रचनाओं का संकलन 'बीजक'
है, जो कबीर के अनुया यय का धम थ ं ‘ थ
ं है। सख के धम थ ं साहे ब' म कबीर के
228 पद तथा 238 सलोकु (सा खयाँ) संक लत ह।
कबीर क का य भाषा म उस समय म च लत कई बो लय का म ण है। य य प
खड़ी बोल और जभाषा क धानता है फर भी उसम अवधी, राज थानी, पंजाबी
आ द भाषाओं के भी श द मलते ह। कबीर क भाषा को व वान ने 'पंचरं गी
मल जु ल ’ या ‘सधु कड़ी’ भाषा का नाम दया है। कबीर क रचनाओं क भाषा सायास
गढ़ गयी कृ म भाषा नह ,ं न वह का य क पारं प रक या औपचा रक श ट भाषा है,
बि क उस समय च लत बोल-चाल क सरल-सहज-सामा य भाषा है, िजसम कबीर क
घुम कड़ी वृि त के कारण अलग-अलग ांत क भाषाओं के श द घुल मल गए ह।
यह सधु कड़ी भाषा उ ह नाथपं थय से वरासत म भी मल थी।
संतका य के दाश नक आधार, परं परा और वृि त के अंतगत िजन बात का उ लेख
हु आ है, उसका मू ल आधार कबीर क रचनाएँ ह। कबीर क मौ लकता इस बात म है
क उ ह ने जातीय- वजातीय चंतन परं परा से अपने समय- समाज के अनुसार
मू यवान अंश संजोया है और उ ह अपने जीवनानुभव से मलाकर आ याि मक प से
तु त कया है। उनक रचनाओं का सं ेषण प इतना सबल है क वे जो कहना

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चाहते ह, सरलता और सहजता से कह दे ते ह। भाषा पर उनक जबद त पकड़ है। डॉ.
हजार साद ववेद ने उ ह 'भाषा का ड टे टर’ कहा है, जो ब कु ल सच है। वे
अपने समय के खर, वेदांती और नगु णपंथी चंतक संत थे। संसार को माया और
म या मानने के बावजू द उ ह ने अपने समय के समाज के अंत वरोध , अंध व वास
और वसंग तय पर जमकर हार कया है। स ाव, समानता, आपसी व वास और
सदाचार पर बल दे ते हु ए उ ह ने अराजक, वखं डत और पतनशील समाज को
अनुशा सत-मया दत करने क भरसक को शश क है। इ ह ं कारण से उ ह ां तकार
समाज सु धारक भी कहा गया है। न संदेह अपने समय के वे असाधारण बौ क
यि त थे िज ह ने ानमाग संतका य धारा का व तन और त न ध व कया।
कबीर के समकाल न और रामानंद क श य परं परा म य य प कई संत हु ए ह, कं तु
उनम कबीर के बाद सवा धक या त रै दास को मल । कबीर के वपर त रै दास खंडन-
मंडन क वृि त से र हत ब कु ल शांत और वन वभाव के संत थे। ये भी
न नजा त म उ प न थे और अ सर अपनी रचनाओं म अपने 'चमार’ होने क बात
करते ह। सगुण - नगु ण के त इनम समान आदर - भाव दे खा जाता है, य य प ये
नगु णपंथी संत थे। इनक या त भी बहु त दूर तक फैल थी।
इनके तीस पद ‘ थ
ं साहे ब' म संक लत है। इनक बा नय का एक सं ह याग से
का शत हो चु का है। कबीर क तरह इनके नाम पर भी एक सं दाय चल रहा है।
कबीर के समकाल न संत म गु नानक का नाम भी अ यंत स है। ये सख धम
के आ द गु ह और इ ह ने ह उस धम क नींव रखी थी। अपने समकाल न और
पूवव त संत क रचनाओं म से चु नकर इ ह ने ' थ
ं साहेब' म संक लत कया था जो
सख धम का धम थ
ं है। नानक के वचार भी अ य नगु णपंथी संत के वचार से
मलते-जु लते ह; उनम ताि वक समानता है, फर भी बा य प रि थ तय तथा उनके
त ि टकोण म भ नता के कारण इनके मत का व प कु छ अलग था और वकास
भी अलग तरह से हु आ। उनक गु परं परा दस गु ओं तक चल , िजनम पाँचव गु
गो वंद संह थे, िज ह ने उस पंथ म धमर ा के लए तलवार रखने क परं परा का नींव
रखी और उसे यो चत व प दान कया।
उसी म म परव त संत म बीरभान और साध सं दाय, संत लालदास और लालपंथ,
संत दादू दयाल और दादू पंथ, संत र जब जी, संत सु ंदरदास, गर बदास आ द हु ए ह,
िज ह ने अपनी रचनाओं से इस परं परा को और समृ कया है। संत दादू दयाल कबीर
क ह तरह उ च को ट के संत थे और सु ंदरदास क का य भाषा अ य संत क तु लना
म अ धक श ट और का यो चत थी।

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6.5 संतका य : वशेषताएँ ( वृि तयाँ )
(क) नगु णोपासना : -
नगु ण म चंतन क परं परा य य प वेद- उप नषद से ह ारंभ हो जाती है, िजसे
शंकराचाय अ वैत वेदांत दशन के प म सं थाब कर दे ते ह। य य प म के
नगु ण व प क उपासना और भि त को लेकर ारं भक आचाय म बहु त मतभेद रहा
और संभवत: इ ह ं कारण से सगुणोपासना या सगुण भि त क धारा का ारं भ हु आ।
कं तु नगु ण म क उपासना और भि त क परं परा भी नरं तर वक सत होती चल
गयी जो कबीर के उपरांत ब कु ल ति ठत हो जाती है। म यकाल न समय और
प रि थ तय के संदभ म नगु ण म क यावहा रकता और उपादे यता असं द ध थी।
ह दू धम अवतारवाद, मू तपूजा, बा याडंबर, वण और जा त यव था आ द के कारण
अपनी ासं गकता खो चु का था। सम समाज के दशा नदशन क उसक संभावना
नःशेष हो चु क थी। इ लाम के आगमन से ि थ तयाँ और भयावह एवं ज टल होती
चल गयीं। व वेष, वरोध और टकराव से सामािजक जीवन और भी कलहपूण हो चु का
था। अत: इस प रि थ तय से उबरने और एक समि वत धम साधना के लए ई वर के
नगु ण नराकार प क उपासना एक यावहा रक समाधान था, िजसे संत ने अपनाया
और उसक भावपूण अ भ यि त तु त क ।
(ख) ान और ेम:-
संत क वय ने िजस ान को नगु ण क उपासना के लए आव यक माना वह शा
ान नह ं बि क आ म ान था। एका ता, यान और आ म चंतन से ह उस म
क अनुभू त या सा ा कार संभव था। इसी तरह उ ह ने ेम के मह व को भी रे खां कत
कया। व तु त: उस समय समाज म ेम के मह व को ति ठत करने क अ नवायता
थी। पा रवा रक जीवन, सामािजक जीवन और यि तगत जीवन ेमशू य हो चु का था।
हर तरफ अराजकता क ि थ त या त थी। अत: संत ने ेम के गीत गाए।
(ग) गु म हमा:-
संत का य म गु क मह ता का सव वणन मलता है। उ ह ने िजस आ म ान क
बात कह है, उसके लए यो य गु क आव यकता भी बतलायी है। गु को म के
समक ह उ ह ने रखा है। यह उपासना प त गु -परं परा म ह वक सत हु ई है। गु
को मह व दे ने के पीछे उनक यह ि ट थी क गु ह साधक के मन म म
िज ासा उ प न करता है और फर उस माग पर सफलतापूवक चलने के लए स यक
मागदशन भी करता है। साधक को गु कृ पा से ह म क अनुभू त या सा ा कार
होता है और इस तरह उसे मु ि त मल जाती है।
(घ) रह य भावना :-
संत क रह य भावना के मूल म उनका अ वैत चंतन ह है। इस रह य भावना के
दो प ट प प रल त होते ह- भावा मक, रह या मक और साधना मक रह यवाद।
कबीर के ‘लाल मेरे लाल क िजत दे ख तत लाल' या ‘म तो राम क बहु रया’,

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व तु त: नगु ण म क माधु य भाव क अ भ यि त ह रह यानुभू त का मू ल है। संत
क उलटबां सय म साधनापरक रह यवाद क चचा है। ऐसे ह जहाँ वे ‘सह ार’ या
‘सु न समा ध’ जैसे योगमू लक श द - तीक का सहारा लेते ह, वह सब साधना मक
रह यवाद के ह अंतगत आता है।
(ड़) मानवतावाद ि ट :-
संत का य धारा म य त धान ि ट मानवतावाद ह है। मनु य और मनु य म वण,
जा त, कु ल, श ा या कसी भी कार के अंतर को वे यथ मानते ह। ऐसे संग का
उ ह ने खु लकर वरोध कया है और हर जगह समानता-समरसता क बात कह ह।
उनक चंता के क म मनु य और उसक मु ि त है। उनके वचार, उनक भि त,
उनक साधना सब के क म मनु यता है। संत ने िजस धम क वकालत क है वह
च लत अथ म कोई धम नह ं बि क यह मानव धम है।
(च) धा मक-सामािजक आडंबर का वरोध : -
सारे संत ने एक वर से बा याचार और आडंबर का खु ला वरोध कया है। उस समय
सारे धम अपने मू ल व प से हटकर आडंबर तक सी मत रह गए थे। पूरे समाज म
द म क ि थ त बनी हु ई थी। धम के बीच टकराव और व वेष का यह एक बड़ा
कारण था। अत: संत ने सव थम इस वकृ त के व मोचा खोला। इस वरोध म
इतनी उ कटता और त खी थी क बहु त बार उनक भाषा श टता क सार सीमाओं
को तोड़ती तीत होती है। ले कन ऐसी अ श टता के मूल म मानव ेम से उ प न
सदाशयता ह थी। ‘लोकमंगल' के लए ह उ ह यह सब करना पड़ रहा था। वरोध क
यह परं परा संत क वय को वरासत म मल थी।
(छ) लोक भाषा क मह ता : -
संत क यह आ याि मक चंतन परं परा अपने वभाव से लोकधम है अत: इसम
लौ कक वण वषय और लोकभाषा क त ठा हु ई है। ऐसे भी बहु सं यक लोग तक
अपने वचार के सं ेषण के लए बु और अ या य दूसरे महापु ष ने त काल न
लोकभाषाओं को ह मा यम बनाया था। शा ीय भाषाओं के मा यम से सामा य जन
तक पहु ँ चना संभव नह ं होता। संत के लए तो लोकजीवन और लोकभाषा कोई सायास
अिजत क हु ई वृि त नह ं है, बि क उसका अ नवाय अंग है। संतो क का य रचना
सहज-सरल-अकृ म त काल न लोकभाषा ह रह है। उनके भा षक उपकरण छं द- योग,
गेयता, अलंकरण, संकेत- तीक, बंब सब लोकजीवन से ह उठाए गए ह। संतका य क
यह एक बड़ी वशेषता रह है। आधु नक यथाथवाद ह द क वता क भाषा भी संत
क वय क भाषा से ह शि त ा त करती है और उ ह ं के आदश के अनु प
वक सत हु ई है।

6.6 सारांश
तु त इकाई का सारांश यह है क ानमाग नगु णपंथी संतका य क परं परा म
अ यंत ाचीन है। उसके दाश नक आधार का एक प वेद- उप नषद के नगु ण म

100
चंतन से जु ड़ता है तो दूसरा प त काल न राजनी तक-सां कृ तक-सामािजक-सा ह यक
परं परा से ेरणा और शि त अिजत करता है। यह चंतन परं परा ारं भ से ह लोकधम
रह है। जीव और जीव तथा जीव और म म अभेद के इस दशन का मानवतावाद
क त ठा म समाहार होता है। इस परं परा म धा मक बा याचार और आडंबर के लए
कोई जगह नह ं है। यह नानापुराण मगमागम जैसे सम त शा को नकारता है और
शु आ म ान या ‘आं खन दे खी' क बात करता है। संतका य म उपल ध म चंतन
य य प वेदांत दशन के अनु प है, जहाँ ' म स यं जगि म या’ के सू क थापना
है कं तु, संसार को अस य या म या मानते हु ए भी वे समाज या संसार से नरपे
नह ं ह। उनक आ याि मक चंता द मत-प तत समाज क मंगल कामना से ह
उपजती है और अंत तक उसको के म रखकर ह वक सत होती है। तमाम च लत
धम से सवथा अलग आ याि मक का य धारा का अं तम ल य व व ेम और मानव
धम ह है।

6.7 अ यासाथ न
(क) संतका य क राजनी तक-सामािजक-सा कृ तक-सा हि यक पृ ठभू म का प रचय
द िजए।
(ख) संतका य के उ व और वकास पर वचार क िजए।
(ग) संतका य क परं परा का ववेचन क िजए।
(घ) संतका य क वभ न वृि तय या वशेषताओं पर वचार क िजए।
(ङ) संतका य का अं तम उ े य व व ेम और मानव धम क त ठा है- इस कथन
पर वचार क िजए।
(च) संतक वय क सम वयावाद एवं सार ाह वृि त क ववेचना क िजए।
(छ) नगु ण हम चंतन और उपासना क पहले से चल आ रह परं परा म संतक वय के
योगदान के मह व को रे खां कत क िजए।

6.8 संदभ- ंथ
1. आचाय रामच शु ल – ह द सा ह य का इ तहास, लोक भारती काशन, नई
द ल
2. परशुराम चतु वद - ह द सा ह य का वृहत इ तहास (चतुथ भाग), नागर चारनी
सभा वाराणसी,
3. डा० नागे - ह द सा ह य का इ तहास, नेशनल पि ल शंग हाउस
4. डा० हु कुम चंदराजपाल - ह द सा ह य का इ तहास, वकास पि ल शंग हाउस
5. डा० पीतांबर द त ब वाल - ह द का य म नगु ण सं दाय, अवध पि ल शंग
हाउस
6. हजार साद ववेद - कबीर, राजकमल काशन

101
इकाई – 7 : नगु ण भि तकाल – ेममाग सू फ का य
धारा
इकाई क परे खा
7.0 उ े य
7.1 तावना
7.2 ेमा यानक का य - पृ ठभू म, भाव और ेरणा
7.3 ेमा यानक का य - मु ख क व, रचनाएँ और परं परा
7.4 ेमा यानक का य - वृि त ( वशेषता)
7.4.1 अंतव तु
7.4.2 पा
7.4.3 वणना मकता का आ ध य
7.4.4 भाव एवं रस
7.4.5 मत और वचारधारा
7.4.6 श प या का य प
7.4.7 शैल
7.5 सारांश
7.6 अ यासाथ न
7.7 संदभ थ

7.0 उ े य
नगु ण–भि त-का य-धारा म एक ानमाग संत क वय क है और दूसर म
े माग सू फ
क वय क । अपने नाम के अनुकूल यह धारा ेम पर आधा रत है। इस धारा के
अंतगत भी नगु ण - नराकार म क उपासना है। इस धारा के क वय पर सू फ
वचारधारा का भाव है। ‘सू फ ’ श द ‘सू फ़’ से बना है, िजसका अथ है सफेद ऊन से
न मत। व तु त: इस मत के संत सफेद ऊन का व धारण करते थे और अ यंत
सादा एवं सरल जीवन जीते थे। भि तकाल म संत क वय ने िजस तरह तमाम
च लत धम सं दाय म सम वय था पत करने क चे टा क थी, उसी तरह सू फ
साधक चारक और क वय ने वशेषकर ह दू-मुस लम एकता पर बल दया था।
पहले से चल आती ेमा यानक का य परं परा को अपनाते हु ए सू फ क वय ने उसे
लौ ककता के धरातल से उठाकर अलौ कक अथ दान कया था। यह परं परा लगभग
चौदहवीं शता द से शु होकर उ नीसवीं सद तक चलती रह । म लक मु ह मद जायसी
इस धारा के े ठ क व थे, जो अपने यि तगत जीवन म भी सू फ साधक थे।
भि तकाल के े ठ क वय म तु लसी, सू र, कबीर के साथ उनका नाम भी शा मल है।

102
इस इकाई का उ े य भि तकाल क इस मह वपूण धारा को उसक वशेषताओं के साथ
च त करना है।

7.1 तावना
ह द सा ह व मे भि तकाल के पूव ह एक ऐसी का य परं परा का ारं भ हो चु का था
िजसमे ेम त व क धानता थी। इसी ेमत व क धानता के आधार पर व वान ने
इस का य धारा को अलग-अलग नाम से जैसे - ेममाग (सू फ ) शाखा, ेमका य,
ेमकथानक का य, ेमा यान का य, सू फ का य आ द से अ भ हत कया। इस ेम
त व को आचाय रामच शु ल ने भारतीय महाका य म अ भ य त गाहि थक ेम
क कसौट पर परखते हु ए इसे अभारतीय मान लया था। उस काल म िजतने
ेमा यानक का य उपल ध थे, उनम से अ धकांश के रच यता मु सलमान थे। म लक
मु ह मद जायसी कृ त ‘प ावत’ उस परं परा क एक े ठ त न ध रचना थी। जायसी
वयं एक सू फ साधक रचनाकार थे।
आचाय शु ल ने इसी आधार पर पूर ेमा यानक का य परं परा को सू फ मत से
भा वत मानकर इसका नामकरण कया था। तब से भि तकाल के अंतगत इस
का यधारा का उ लेख कमोवेश उ ह ं क मा यताओं के अनु प होता रहा है। नवीनतम
शोध से उपल ध सू चनाओं के आधार पर जब इस का य धारा का मू यांकन हु आ और
तमाम भाव -पर पराओ- ेरणाओं क गहन छानबीन हु ई तो न कष कु छ अलग था,
जो आचाय शु ल जी क थापनाओं से मेल नह ं खाता था।
ववाह पूव , समाज नरपे , वछं द ेम पर आधा रत ेमा यान क परं परा का सू पात
व तु त: ऋ वेद से ह होता है, जहाँ उवशी-पु रवा क ेमकथा व णत है। कालांतर म
महाभारत, पुराण , सं कृ त के ग या मक ेमा यान म, ाकृ त और अप श
ं के कथा
का य म यह परं परा नरं तर वक सत होती हु ई ह द सा ह य क एक सश त धारा
बन गयी। भारतीय ेमा यान परं परा और फारसी क मसन वय ( बंध का य ) क
परं परा म च त ेम के न पण म प ट अंतर है। यह अंतर व तु गत, भावगत और
श पगत तीन ह तर पर है। डॉ. गणप त चं गु त ने ह द सा ह य के वै ा नक
इ तहास के अंतगत प ट श द म यह वीकार कया है-भले ह कु छ व वान
ां तवश इस परं परा को वदे शी घो षत करे क तु हमारे वचार से यह शु भारतीय
परं परा है िजसम भारतीय सं कृ त के वकास म क प रे खा यथाथ प म न हत
है।
इ लाम धम के अंतगत ह सू फ मत का चार हो चु का था। डा0 पीतांबर द त
बड़ वाल का यह कथन यहाँ ट य है- ी मत का उदय अरब म और वकास फारस
(ईरान) म बहु त कुछ भारतीय सं कृ त के भाव से हु आ। उनका अ वैतमूलक
सवा मवाद भारतीय दशन का दान है। यह नह ं डा0 बड़ वाल ने सू फ मत पर बौ धम
और भारतीय योग दशन का भाव भी माना है। इ लाम के साथ-साथ भारत म सू फ
मत भी आया। सू फ मत के अनुयायी संत शां त, स ाव और ेम म आ था रखते थे।

103
वे ह दुओं और मु सलमान म समान प से लोक य और समा त थे। आज भी उनके
मजार पर दोन धम के लोग समान प से सि म लत होते है। इसी के समानांतर
कु छ मु सलमान रचनाकार ने िजनम कु छ ी वचारधारा से भी भा वत थे, ह द क
पहले से चल आ रह ेमा यान परं परा का अनुसरण करते हु ए ेमा यानक का य क
रचना क है। म यकाल न ह द क वता क यह एक सश त धारा थी। प ट तौर पर
इस का यधारा क अपनी वशेषताएँ और परं परा थी जो काफ वै व यपूण और समृ
थीं। भारतीय सं कृ त के संदभ म इस का यधारा का मह व इसी त य से चल जाता है
क अ धकांश ेमा यानक का य का आधार भारतीय समाज क लोककथा और
लोकजीवन है। यह का यधारा अपने व प और कृ त म शु भारतीय है।

7.2 ेमा यान का य: पृ ठभू म भाव और ेरणा


म यकाल न ह द ेममाग का यधारा के उ गम और उस पर पड़ने वाले भाव को
लेकर ार भ से ह म क ि थ त बनी रह । आचाय रामचं शु ल ने इस का यधारा
के आधार ेम त व को सू फ मत के अनु प मान लया और फर फारसी मसन वय
का हवाला दे कर इन ेमा यान को उसी से भा वत स कर दखाया। आज भी
आचाय शु ल क मा यताएँ और थापनाएँ दुहरायी जाती ह य य प नए शोध से ा त
सू चनाओं के आलोक म शु ल जी क अनेक मा यताएँ वत: ह नर त हो जाती है।
यहाँ सु वधा के लए हम भारतीय ेमा यान क परं परा और सू फ मत के अंतगत
फारसी मसन वय क परं परा, दोन का वतं और तु लना मक अ ययन करगे।
भारतीय वा गमय के थम ं ऋ वेद म ‘उवशीपु खा’
थ ेमा यान का उ लेख है। यह
ेम- संग कालांतर म सं कृ त के साथ-साथ अ य भाषाओं म भी च त हु आ है और
आधु नक ह द का य म भी उसक पुनरावृि त हु ई है। महाभारत के ‘नल-दमयंती’
‘त ता-संवरण’ पौरा णक सा ह य के ‘उषा-अ न ’ ‘ भावती- यु न ’, ‘राधाकृ ण’ आ द
ऐसे ह ेमा यान ह, िजनम ेम क व छं द अ भ यि त हु ई है। यह ेम च दशन
या व न-दशन से उ प न स दयानुभू त से े रत है। यहाँ ना यका को ा त करने के
लए नायक भार संघष या यु करता है। व तु त: व छं द ेम क यह परं परा सं कृ त
के ग या मक ेमा यान जैसे - वासवद ता, कादं बर , दशकुमार च रत आ द तथा
ाकृ त अप ंश के कथा का य म वक सत होती हु ई आधु नक भारतीय भाषाओं म
पुनरावृत होती रह है। भारतीय वा मय म ेम च ण क एक दूसर परं परा भी रह है
जहाँ ‘सीता-राम' के मया दत-गाहि थक दांप यभाव का च ण हु आ है। एक परं परा का
उ कष य द मयादापु षो तम राम के यि त व म हु आ है तो दूसर परं परा ल ला पु ष
कृ ण के यि त व म साथकता ा त करती है। राम के यि त व म जहाँ भारतीय
आदशवाद का चरम प है वह ं कृ ण उस व छं दतावाद के वतक है जहाँ ढ़य
वजनाओं और आरो पत मयादाओं - नै तकताओ के लए कोई जगह नह ं है। भारतीय
सं कृ त के नमाण और वकास म दोन युगपु ष और भावनाओं का समान योगदान
है।

104
आचाय शु ल ने भारतीय सं कृ त के के म राम को ति ठत कर उसक एकांगी
या या क है। व छं दतावाद ेमा यान परं परा क या या उनके इस कथन से होती
है - राम के समु म पुल बांधने और रावण जैसे चंड श ु को मार गराने को हम
केवल एक नायक के य न के प म नह ं दे खते, वीरधमानुसार पृ वी का भार उतारने
के य न करके लोक मंगल के साधक के प म दे खते ह। पीछे कृ णच रत, कादं बर ,
नैषध च रत, माधवानल कामक दला आ द एकां तक ेम कहा नय का भारतीय सा ह य
म चुर चार हु आ है। ये कहा नयाँ अरब-फारस क ेम प त के अ धक मेल म थीं।
नल- दमयंती क ेम कहानी का अनुवाद बहु त पहले फारसी या, अरबी तक म हु आ।
इस तरह शु ल जी ने व छं दतावाद ेमा यान क पूर परं परा को ह उ ह ने
वजातीय घो षत कर दया।
फारसी सा ह य म यारहवीं शता द के बाद रह यवाद या सू फ वृि त क झलक
मलने लगती है। नवीं से लेकर यारहवीं शता द तक का काल फारसी सा ह य का
एक गौरवपूण काल है िजसम दक , फरदौसी जैसे महान क व हु ए। इस काल का
फारसी सा ह य अ यंत सरल-सहज है, भाषा तथा वणनशैल म भी सादगी या
वाभा वकता दखती है। ईरान म इ लाम के आगमन के बाद फारसी सा ह य पर अरब
का जबद त भाव हु आ। फारसी सा ह य का वकास लगभग एक सा गया। नवीं सद
के उतरा के बाद फारसी सा ह य म नवजागरण के ल ण कट होने लगे। अरबी
खल फाओं का भु व वहाँ समा त हो गया था। रा यता क भावना ने फारसी सा ह य
को अरबी भाव से मु ि त दला द । बारहवीं से चौदहवीं सद का फारसी सा ह य
व तु त: सू फ सा ह य है। सू फ मत का भाव इतना गहरा था क आज भी फारसी
सा ह य म उसक अनुगू ज
ं सु नायी पड़ जाती है।
फारसी के स सू फ साधक एवं महान क व जलालु ीन मी ह। उनक कृ त
‘मसनवी मआनवी’ जायसी के ‘पदमावत'् क तरह ेमा यान नह ं है। इस वृहदाकार
ं म सू फ मत और साधना व धय का व तृत उ लेख है। छोट - छोट कहा नय

के वारा क व ने अपने वचार को समझाने क चे टा क है। ह द म मसनवी के
िजतने ल ण गनाए गए ह, वे भी वहाँ नह ं मलते। फारसी का सू फ सा ह य अ यंत
समृ है। वहाँ केवल बंध का य ह नह ं रचे गए ह बि क, सू फ संत क जीव नयाँ
और नबंध भी लखे गए ह। ह द म ऐसा चलन नह ं मलता है। फारसी क
ारं भक मसन वय म सू फ या रह यवाद वृि त नह ं है। यह वृि त यारहवीं सद
के बाद ह उभरती है और उसका चरमो कष भी दखता है।
फारसी के सू फ क वय ने जनता म च लत ेमकथाओं को ह ं चु ना है और उस पर
आ याि मक ेम का रं ग चढ़ाया है। ये ेम कथाएँ जैसे - यूसु फ जु लेखा, खु सरो शीर ,ं
मजनूँ लैला आ द सं या म दस-बारह ह ं ह, िजनका सू फ क वय ने योग कया है।
सू फ क वय ने भारतीय भाषा क परं पराओं, तीक और का य ढ़य का योग
अपने मौ लक अंदाज म कया है। सू फ क वय ने लौ कक ेम वषयक श द को ह ं

105
योग म लाया है ले कन उन श द के सांके तक अथ प ट ह। अ य फारसी क वय
क तरह सू फय ने भी शराब, मयखाना, लब, साक , जु फ, बुत आ द श द का योग
कया है क तु उनके सांके तक अथ आ याि मक ह। इन क वय ने मु यतया तीन
का य प का योग कया है - मसनवी, बाई और गजल। मसनवी म कई सग होते
है। थम सग म ई वर तु त, दूसरे सग म पैग बर का नाम मरण, तीसरे सग म
पैगबर के 'मीराज' का वणन बाद के सग म त काल न सु तान या आ यदाता का
वणन, ं रचना का उ े य, एवं रचना क
थ ेरणा का उ लेख एवं त प चात मू लकथा
का वणन होता है। यह वणन कई खंड म चलता है। खंड सग म वभािजत होते ह।
येक सग म संग से संब शीषक भी दया जाता है, उपसंहार और रचना त थ का
उ लेख भी कया जाता है। सारे मसनवी इ ह ं नयम के अनु प नह ं रचे गए है।
आचाय शु ल ने ह द ेमा यानक का य को फारसी के मसनवी का ह अनुकरण
माना था और बाद म अ य आलोचक ने भी वैसी ह ं या या तु त क । सच तो यह
है क ह द ेमा यान और फारसी मसन वय म च त ेम का व प एक जैसा
नह ं है। फारसी के ेमा यान म नायक-ना यका बचपन से ह एक दूसरे के प र चत
होते ह और उनम ेम का उदय साहचय ज नत है, जब क ह द ेमा यान म थम
दशन, च दशन या व न दशन के उपरांत ेम उ प न होता है। फारसी मसन वय
म नायक-ना यका के बीच तनायक बाधक होता है और ना यका का ववाह तनायक
से होता है; नायक आ मह या करता है। भारतीय ेमा यान म पता, भाई या संर क
बाधक बनता है। दै वी शि त क सहायता से नायक क जीत होती है और उसे ना यका
मल जाती है। सं कृ त, ाकृ त और अप ंश भाषा के ेमा यान क कई वृि तयाँ और
का य ढ़याँ ह द ेमा यानक म य क य मल जाती है जैसे - शु क या हंस
क सहायता से नायक- ना यका के बीच संदेश का आदान- दान, ना यका का अनाय,
रा स, असु र, नाग आ द ह न वंश से संब होना; ना यका के पता या भाई से
ना यका ाि त के लए संघष और कसी दै वी कृ पा या चम कार से ना यका क ाि त।
भारतीय ेमा यान के श पगत वै श य का भामह और ट ने कथा- का य के
अंतगत उ लेख कया है। यह नवीं शता द क घटना है जब फारसी म पहल मसनवी
भी नह ं रची गयी थी।
ारं भक काल म ेमा यान म घटनाओं क बहु लता है ले कन परवत युग म सं कृ त
के ग य-का य-सु बध
ं ु क ‘वासवदता’ बाण क ‘कादं बर ’ एवं दं डी के ‘दशकुमार च रत’ म
उपयु त वृि तय के साथ-साथ दो नयी वृि तयाँ भी मलती ह। ये ह भावा भ यंजना
क मु खता और अलंकृ त शैल । ये ेमा यान इतने लोक य हु ए क इनसे भा वत
होकर ाकृ त और अप ंश के जैन क वय ने भी कई ेमा यानक का य क रचना
क । इनम समरा द य कथा, सु र-सु दर च र , भु वन सु ंदर , मलय सु ंदर , ल लावती,
नागकु मार च रत, भ व यद त कथा, यशोधर च रत आ द उ लेखनीय ह। जैन क वय
क यह परं परा आठवीं शती से चौदहवीं शती तक नरं तर चलती रह , जैन क वय ने

106
इस परं परा क पुरानी वृि तय के साथ कु छ नयी वृि तय का भी समावेश कया।
यहाँ ग य के थान पर दोहा-चौपाई वाल पदया मक शैल अपनायी गयी। ना यका
ाि त म नायक क सफलता का ेय इन क वय ने कसी जैन तीथकर, जैन मु न या
जैन धम म व णत कमकांड को दया ह संभवत: यह अपने धम के चाराथ ह था।
अ य संग का यो चत ग रमा से सवथा प रपूण है।
व तु त: भारतीय वा मय क यह लोक य परं परा वेद से लेकर महाभारत, पुराण , ाकृ त
और अप ंश भाषाओं से होती हु ई ह द म आई है। दे श काल और प रि थ तय के
अनु प इसम नयी-नयी वृि तय का समावेश होता गया। यह परं परा गुजरात,
राज थान से होती हु ई अवध और फर बंगाल तक पहु ँ ची। न संदेह भारतीय सा ह य
क यह एक सश त, द घ और यापक परं परा है, िजसक झलक उ तर भारत क
तमाम भाषाओं म मलती है। यूरो पय व वान ने भी अपने शोध से यह न कष
नकाला क भारतीय ेमा यान क यह परं परा सकंदर के साथ यूनान गयी और फर
सम त यूरोप के सा ह य म फैल गयी। व व सा ह य म इसे रोमांस का य या
व छं दतावाद का य-धारा के प म चि हत कया गया है ।
ह द क इस ेमा यानक का य परं परा क ेरणा और उ े य पर भी वचार कया
जाना चा हए। सू फ मत से संब कर दे ने के कारण सा ह य के अ येताओं म यह
सामा य धारणा बन गयी क इसका उ े य सू फ मत का चार करना एवं ह दुओं का
दल जीतना रहा होगा। व तु त: इस पारं प रक का य धारा को आचाय शु ल ने जब
सू फ वचारधारा के प म दे खा था, उस समय छः-सात ेमा यानक का य ह उपल ध
थे और उनम भी अ धकांश के मु ि लम रचनाकार ह थे। अब तक इस तरह के पचास
से अ धक ेमा यानक का य मल चु के ह और उनके यादातर रचनाकार ह दू ह।
उ ह ने आ यान के ारं भ म गणेश, सर वती, कृ ण आ द दे वताओं क तु त क है।
ये क व ह दू धम के व भ न सं दाय से संब थे, सूफ मत से उनका कु छ भी
लेना-दे ना नह ं था, बाक के मु ि लम रचनाकार को भी सू फ मान लेने का कोई
औ च य नह ं दखता है। हाँ, उनम से कु छ सू फ मत के अनुयायी हो सकते ह कं तु
उनका भी उ े य इन आ यान वारा अपने मत का चार करना रहा होगा, दावे के
साथ नह ं कहा जा सकता। अनेक मु ि लम क वय के अ त:सा य भी इस बात के
प ट माण दे ते ह क इनका उ े य यश ाि त, का य कला का दशन, मनोरं जन
या अपने नजी जीवन के कसी दुःखद संग से यान हटाना रहा है। इन पर बलात ्
कसी सं दाय या मत वशेष के आरोपण का कोई औ च य नह ं है।

7.3 ेमा यानक का य: मु ख क व, रचना और परं परा


भारतीय सूफ क वय मे अमीर खुसरो (1253 इ0 1323 ई0) का नाम लया जा सकता
है। य य प इनक मसन वयाँ फारसी भाषा म लखी गयी है। अमीर खु सरो ने ह द के
सू फ क वय को कस सीमा तक भा वत कया है, इस पर प ट प से कु छ भी
नह ं कहा जा सकता। खु सरो क रचनाओं पर भाव, भाषा, श प सबम फारसी भाषा
107
और उसक परं पराओं का य भाव है। ह द के सूफ सा ह य का व प और
खु सरो क फारसी म र चत कृ तय के व प म कोई समानता नह ं दखती। फारसी म
र चत खु सरो क रचनाओं म भी भारत- ेम और म हमा का भावशाल और
भावना मक च ण हु आ है। ह द म ेमा यानक का य के थम रचनाकार को लेकर
काफ मतवै भ य है। आचाय शु ल मृगावती (1501) के रच यता कु तु बन को हजार
साद ववेद 'स यवती कथा’ (1500) के रच यता ई वरदास को, डा० रामकुमार वमा
'च दायन' (1379) के रच यता मु ला दाऊद को थम ेमा यानक ह द क व मानते
ह। य य प सवा धक ाचीन ेमा यानक कृ त हंसावल (1370 ई०) है, िजसके
रच यता असाइत ह। इससे पूव क कसी और कृ त का उ लेख नह ं मलता है।
हंसाबल - (1370 ई0)
इस कृ त के रच यता असाइत ह। यह कृ त ाचीन राज थानी भाषा म र चत है, जब
गुजराती भाषा इससे अलग नह ं हु ई थी। गुजराती के व वान इसे ाचीन गुजराती
भाषा क रचना मानते ह। क व असाइत ने इस रचना का आधार व म एवं बैताल क
पारं प रक कथा को बनाया है। इस कथा म व णत ेम साहस और परा म से ओत- ोत
है। ारं भक आ यानकार क तरह यहाँ भी वीर कथा एवं ेम कथा का सम वय
मलता है। हंसावल म कई कथाएँ एक साथ परोयी गयी ह। मू ल कथा पाटण क
राजकुमार हंसावल से संब है। वह अ यंत नमम कं तु अ नं य सु ंदर है। येक
पखवाड़े वह पाँच पु ष क ह या करती है। इस कथा का नायक राजकुमार व न म
इसके दशन करता है और मु ध हो जाता है। मं ी को साथ लेकर योगी वेष म वह
इससे मलने के लए थान करता है। काफ संघष एवं क ठनाइय के बाद राजकुमार
को वह ा त कर लेता है और राजकु मार को हर पखवारे पाँच पु ष क ह या के
नयम से मु ि त दला दे ता है। पाँच पु ष क ह या के मूल म उसके पछले ज म के
एक दुःखद संग का भी उ लेख हु आ है।
वषय व तु और शैल क ि ट से इसम ेमा यानक का य के सारे ल ण मल जाते
ह, जैसे - व नदशन से ेमभावना का उदय, योगी वेश म नायक का थान साह सक
या ा, पूव ज म क मृ त , क याप वारा नायक के माग म बाधा उ प न करना,
दै वी कृ पा से नायक-ना यका का मलन। श पप के अंतगत भी कथा के आरं भ म
शि त, शंभु और सर वती क तु त क गयी है, आ म प रचय दया गया है और
रचना ोत क सू चना द गयी है। छं द वधान म चौपाई के बीच- बीच म दोहा का
योग हु आ है, य य प भाव स दय एवं का य सौ ठव क ि ट से यह साधारण रचना
तीत होती है।
‘चांदायन’ (1379 ई0)
इसके रचनाकार मु ला दाऊद ह। इसके कई पाठ मले ह। थ
ं का नाम भी कह ं
‘चंदायन' कह ं 'चांदायन’ और कह ं 'चंदावन’ मलता है। डा० माता साद गु त ने
इसक गहन छानवीन के बाद कहा है क इसके ारं भक अंश म फारसी मसनवी और

108
भारतीय ेमा यानक परं परा, दोनो के म त प मलते ह। उ ह ने इसे भारतीय
ेमा यानक परं परा का ह का य वीकार कया है। इनक भाषा अवधी, छं द वधान
चौपाई दोहे पर आधा रत एवं वषय व तु लोक कथा से ल गयी है। अ य वृि तयाँ
भी इसे भारतीय ेमा यानक परं परा के अनु प ह सा बत करती है।
लखनसेन प ावती कथा-(1459 ई0)
इसक रचना दाम या दामोदर क व ने 1459 ई० म क थी। क व के अनुसार यह
वीरकथा है कं तु वणन के आधार पर यह एक ेमा यान ह तीत होता है। थम
दशन ज य ेम पर आधा रत राजा ल मण सेन एवं राजकु मार क ेम-गाथा अ यंत
रोमानी अंदाज म कह गयी है। कथा के आरं भ म मंगलाचरण, गणेश तु त, आ म
प रचय, रचना काल एवं रचना उ े य का संकेत है। नायक का योगी वेश म गृह याग
एवं ना यका के पता से संघष के उपरांत उसक ाि त ेमा यानक का य क च लत
परं परा के अनु प है। चौपाई के साथ-साथ दोहा सोरठा छं द का भी योग हु आ है।
भाषा राज थानी एवं शैल इ तवृ ता मक है। का य थ
ं म सं कृ त क सूि तय और
का यशा ीय त व का समावेश कव के सु प ठत होने का संकेत दे ता है।
आ याि मकता एवं सां दा यकता से सवथा र हत यह एक शु ेमा यानक का य है।
स यवती कथा - (1501 ई0)
इस वशु ेमा यानक का य क मू ल अंतव तु राजकु मार स यवती एवं राजकु मार
ऋतपण के थमदशनज य ेम पर आधा रत है। ेम, स दय और वरह क भावना,
अवधी भाषा एवं दोहा चौपाई शैल सब कु छ ेमा यानक का य के अनु प है। आचाय
शु ल ने अपने इ तहास ं म इसे न तो सू फ का य-धारा के अंतगत रखा था और

न ह भि तकाल के अंतगत, य य प यह एक ेमा यानक का य ह है।
मृगावती (1503 ई०)
इसके रचनाकार कु तु बन ह। इसम भी नायक और ना यका के बीच थम दशन से
उ प न ेम क कथा व णत है। इसम कु छ नयी वृि तय का भी रचनाकार ने
समावेश कया है।
मृगावती क ाि त के लए नायक योगी वेश म घर से नकलता है। रा ते म एक
रा स से एक सु ंदर को मु त कराकर उससे ववाह करता है और पुन : मृगावती को पा
ं के जैन का य के अनु प शांत-रस म होता है,
लेता है। कथा का अंत अप श य क
नायक क मृ यु के बाद ना यकाओं का सती होना दखलाया गया है। इसक भाषा भी
अवधी है एवं छं द- वधान दोहा-चौपाई क शैल म है। यह एक पारं प रक सफल
ेमा यानक का य है।
माधवानल काम दला -(1527 ई०)
इसके रचनाकार गणप त ह। इस कृ त म नायक माधव एवं ना यका नृ यांगना
कामक दला क ेम कथा व णत है। नायक उसके नृ य कौशल पर मु ध होकर उसक
ओर आकृ ट होता है एवं तमाम बाधाओं पर वजय पाकर उसे पा लेता है। इसक भाषा

109
राज थानी है। इसम कामदे व क तु त है और क व का आ म प रचय है। ेमा यानक
का य क सभी वृि तय को क व ने अपनाया है। छं द योजना क वशेषता इसम यह
है क क व ने केवल दोहे का योग कया है। ेम, स दय और परा म के साथ-साथ
इसम धा मक और नै तक उपदे श का भी योग है। क व व क ि ट से यह एक
उ तम ेमा यान है।
पदमावत (1540 ई0)
म लक मु ह मद जायसी क यह कृ त ेमा यानक का य परं परा क सव तम और
त न ध रचना है। इसम च तौड़ के राजा र नसेन एवं संहल वीप क राजकु मार
पदमावती के ेम, ववाह एवं ववाहो तर जीवन का च ण है। आलोचक ने कथा को
दो भाग-र नसेन पदमावती के ववाह को पूवा एवं शेष कथा को उ तरा म वभािजत
कया है; पु व को का प नक एवं उ तरा को ऐ तहा सक माना है। नए शोध से
मल सू चनाओं के आधार पर दोन ह वभाजन गलत सा बत हु ए ह। जायसी से पूव
भी यह कथा कई प म मलती है। ाकृ त म र चत ‘र ने वर कथा’ और जायसी
र चत पदमावत क कथा म कई समानताएँ मलती है। जायसी और इस कृ त का
मह व इस त य म है क उ ह ने पारं प रक कथा के थूल ढाँचे को अ यंत आकषक
और का यो चत सौ ठव दान कया है। बहु त बार आलोचक ने इसे महाका य मानकर
उ ह ं मानदं ड के अनु प इसक समी ा क चे टा क है जब क यह एक कथा का य
है। आचाय शु ल ने इस कथा म व णत ेम को भारतीय आदश के अनुकूल न पाकर
इसे फारसी से भा वत माना था। सच तो यह है क कथा नायक ह दू है जो नाथपंथी
योगी के वेश म गृह याग करता है। शव-पावती क सहायता से उसे सफलता मलती
है। अलाउ ीन यहाँ शैतान के त न ध के प म खलनायक बनकर उपि थत होता है।
इसके बावजू द इसे सू फ मत से भा वत कहा गया है जो उ चत तीत नह ं होता। क व
ने वयं प ट श द म रचना के योजन का संकेत दया है- 'औ मन जा न क वत
अस क हा, मकु यह रहै जगत मँह ची हा।' - अथात ् संसार म मेर पहचान शेष रहे
इस योजन से मने यह क वता रची है।
पदमावत क कथा और उसके पा दाश नक ती व भी धारण करते ह। इस ि ट से
इसे पक का य भी कहा जा सकता है, यथा- तन चतउर मन राजा क हा। हय
संघल, बु पद मनी ची हा।
'गु सु आ जे ह पंथ दे खावा। बनु जगत को नरगुण पावा।
नागमती यह दु नया धंधा। बांचा सोई न ए ह चत बंधा ।।'
यह पक नगु ण साधना से संब भले तीत हो कं तु सू फ मत के अनु प तो कतई
नह ं कहा जा सकता। आचाय शु ल ने जब इसे सू फ मत के अनु प समझाने क
चे टा क तो कई असंग तयाँ उभर कर आ गयीं, िजनका उ चत समाधान वे नह ं दे
पाए। आज भी इस कृ त क समी ा आचाय शु ल क असंगत और अपया त
थापनाओं के आधार पर करने क प रपाट दुहरायी जाती है।

110
जायसी ने य य प अनेक थ
ं क रचना क है कं तु उसक स इस त व म है क
उनम का यो चत स दयता, उदारता एवं भावुकता क मा ा पया त है। इसी उदारता के
कारण उ ह ने भारतीय सं कृ त के उ सव को आ मसात कया था तथा भारतीय लोक
जीवन को सम ता म चि नत कर धा मक व वेष एवं क रता को व मृत करने के
लए यह कथा दुहरायी थी। उ ह ने मानव दय के उन सावज नक पहलु ओं को उठाया
है, जहाँ धम, समाज एवं सं कृ त के अंतर कोई मायने नह ं रखते। यह केवल ेम
कथा नह ं बि क धम कथा भी है।
भारतीय ेमा यानक का य क ाय: सभी च लत ढ़य का इसम समावेश हु आ है।
का यो चत ग रमा, औदा य एवं सौ ठव क ि ट से यह एक सफल का य है। इसक
भाषा अवधी एवं छं द- वधान दोहे-चौपाई वाल शैल पर आधा रत है। ेमा यानक का य
परं परा के अनु प इसम क व ने अ या य शा जैसे- यो तष, पाकशा , कामशा ,
बागवानी, शा व या आ द क भी सहायता ल है। कह -ं कह ं इससे वणन म
अ ी तकर बो झलता और श थलता भी आ गयी है। रामच रतमानस क तरह यह भी
एक उ च को ट का बंध का य है।
जायसी के प चात भी ेमा यानक का य क परं परा व यमान रह है। ह दू और
मु सलमान दोन धम से संब रचनाकार ने इस परं परा को नरं तर समृ कया है।
इस कड़ी म सव थम हम मंझनकृ त मधु मालती का उ लेख करना चाहगे।
मधुमालती - (1545 ई०)
तु त ेमा यानक का य म मंझन ने कनेसर नगर के राजा सू रजभान के पु मनोहर
एवं महारस नगर के राजा व म क पु ी मधुमालती क ेमकथा कह है। इस कथा
म ेम क उ पि त थम दशन से ह होती है कं तु रचनाकार ने इसे पूवज म के
णय-संबध
ं का तफल माना है। नायक के ेम क एक न ठता और गंभीरता इस
त य म न हत है क वह अन य सु ंदर ेमा के णय- नवेदन को ठु करा दे ता है, साथ
ह मधुमालती को पाने के लए नाना क ठनाइय और क ट से होकर गुजरता है। अ य
ेमा यानक रचनाओं के वपर त इस कृ त म एक न ठता को मह व दया गया है।
शेष अ य ढ़याँ इसम भी सव मलती है । का य क भाषा अवधी और शैल दोहा-
चौपाई वाल है।
माधवानल कामकंदला चौपाई (1556 ई0)
तु त कृ त इसी नाम से पूव र चत ेमा यान पर आधा रत है। इसके रचनाकार
कु शललाभ है एवं रचनाकाल 1556 ई० है। इसम नायक-ना यका म कई पूव ज म क
कथा कह गयी है। इसम चौपाइय के बीच-बीच म दोहा, सोरठा, गाथा आ द छं द का
योग हु आ है। इसक भाषा राज थानी है।
पमंजर (1568 ई0)
कृ ण भि त परं परा म अ टछाप के कु शल क व नंददास र चत इस ेमा यानक का य
म उस परं परा क सार वृि तय को अपनाते हु ए कृ ण और पमंजर के व छं द ेम

111
का च ण हु आ है। पमंजर ववा हता अथात परक या है और व न म कृ ण को
दे खकर उसके भीतर णय भावना उ प न हो जाती है। अपनी णय भावना को साकार
करने के लए वह तमाम सामािजक पा रवा रक मयादाओं को तोड़ने म त नक भी नह ं
हच कचाती है। क व का य त: यह उ े य भी रहा है। रचना क शैल
अ तशयोि तपूण है। उ मु ता ेम क प धरता के प रणाम व प समकाल न
भ तमंडल के संभा वत वरोध के नराकरण के लए उ ह ने रचना के ारं भ म ह
उ ह नीरस मानकर उपे त कर दया है। रचना के आरं भ म ई वर-वंदना, उ े य,
आ म प रचय आ द के वारा उ ह ने ेमा यान क पूव परं परा का पालन कया है।
इसक भाषा य य प ज है कं तु शैल दोहा-चौपाई वाल ह है। का य-सौ ठव क ि ट
से यह एक मह वपूण रचना है।
ेम वलास ेमलता क कथा (1558 ई0)
एक जैन मतावलंबी जटमल ने इसक रचना क थी। इसक कथाव तु इस ि ट से
मौ लक है क इसम लोको तर घटनाओं को अ धक मह व दया गया है। यहाँ ेम
य दशन पर आधा रत है। इसके बाद ववाह और राह याग का वणन है। कथा का
अंत शांत रस म होता है। शैल दोहा चौपाई वाल ह है।
छताईवाता (1500ई०)
तु त कृ त के क व नारायणदास ने इ तहास और क पना के मेल से कथानक बुना है।
यह कथा 'प ावत क कथा से मलती-जु लती है। इसक भाषा राज थानी म त ज
और शैल दोहा चौपाई वाल है। भाव और कला क ि ट से रचना साधारण को ट क
है।
माधवानल कामकंदला (1584 ई0)
इस कथा पर आधा रत कई ेमा यान रचे गए ह। तुत कृ त के रचनाकार आलम
है। इनक मौ लकता इस बात म है क इ ह ने नायक-ना यका के ज म-ज मांतर के
बदले एक ह ज म क कथा ल है। वाभा वकता, सरसता और मा मकता क ि ट से
यह एक मह वपूण रचना है, िजसक भाषा अवधी है। पाँच चौपाइय क अ ा लय के
म य दोहा एवं सोरठा का योग हु आ है।
च ावल (1613 ई०)
इसके रच यता क व उसमान ह। रचना का येय अमरता क आकां ा है। क व अपनी
रचना क मह ता से इतना आ व त है क वह अ य रचनाकार को ऐसी रचना के
लए चु नौती भी दे डालता है। ेमा यानक का य क ाय: सभी वृि तय को अपनाते
हु ए सु जान और च ावल के च दशन ज य ेम का वणन है। ेमा यानक का य क
सभी ढ़य का क व ने सफलतापूवक योग कया है। रचना क भाषा अवधी एवं शैल
दोहा चौपाई वाल है ेम और स दय का भावपूण और सरस वणन है।

112
रसरतन (1618 ई०)
इस ेमा यान म राजकुमार रं भा और नायक सोम के ेम का वणन है। इस का य म
ेमा यानक का य क सम त ढ़य और वृि तय को अपनाया गया है। क व
सु श त और सु प ठत है। रचना क भाषा अवधी और शैल दोहा-चौपाई वाल ह है।
ानद प (1619 ई0)
इसके रचनाकार शेखनबी ह। ेमा यानक का य क च लत ढ़य और वृि तय के
साथ-साथ मौ लकता के भी दशन होते ह। इ ह ने ह दू धम क अ य धक शंसा कर
है। भाषा अवधी एवं शैल दोहा-चौपाई वाल ह है। भाव और कला क ि ट? सै
रचना सामा य तीत होती है।
जानक व के ेमा यानक का य (1612-1664 ई0)
जानक व ने अठह तर कृ तय क रचना क है िजसम उनतीस ेमा यान ह। इ ह ने
भारतीय ेमा यान का य परं परा के साथ-साथ फारसी क परं परा को भी अपनाया है।
ेम और वरह पर आधा रत इन कृ तय म कथा-का य के ल ण का नवाह है। ह द
ेमा यानक परं परा म फारसी क कथा परं परा से लैला-मजनूँ क कथा का योग करने
वाले ये संभवत: पहले क व ह। इनक कृ तय क भाषा राज थानी म त ज है।
दोहा-चौपाई के साथ-साथ इ ह ने क वत और सवैया छं द का भी योग कया है।
ेमा यानक का य क परं परा अ यंत समृ और द घ है। अत: सभी कृ तय और
कृ तकार का उ लेख संभव नह ं है। य य प इस परं परा के त न ध क व जायसी ह।
हमल ग ने दे खा है क जायसी के पूव भी भारतीय भाषाओं म ेमा यानक का य क
एक समृ परं परा रह है और जायसी के बाद भी यह परं परा उसी तरह चलती रह है।
इस समृ परं परा से यह प ट है क यह लोक च के सवा धक अनुकू ल वधा थी।

7.4 ेमा यानक का य: वृि त और वशेषता


ह द के अ धकांश ेमा यानक का य म उ ह ं ढ़य और वृि तय का समावेश
हु आ है, जो महाभारत, पुराण , सं कृ त- ाकृ त-अप श
ं आ द म र चत ेमा यान म
मलती ह। इस ि ट से य द इसका ववेचन कया जाए तो प ट प से यह कहा जा
सकता है क इस पर फारसी क ेमा यान परं परा का भाव कम भारतीय परं परा का
कह ं अ धक है।

7.4.1 अंतव तु:

शैल क ि ट से सभी ेमा यानक का य व तु त: बंधा मक है। यहाँ कथा त व क


धानता है। व तु त: इस परं परा का उ व ह उपा यान एवं कथा- संग से होता है।
वृह कथा , कथा स र सागर आ द कथा कृ तय म व तु त: घटनाओं क ह मु खता थी।
अप श
ं और ह द के ेमा यान म कथा के अ त र त अ य त व का भी समावेश
हु आ है। कथा के मु यत: चार ोत ह - (1) महाभारत, ह रवंश पुराण . व णु पुराण
आ द पौरा णक ं (2) सं कृ त - ाकृ त क पारं प रक कथानक
थ ढ़याँ (3) उदयन,

113
व म, र नसेन आ द ऐ तहा सक - अ ऐ तहा सक पा क कथाएँ (4) ेम वषयक
लोक च लत कथाएँ। य य प ह द के ेमा यानक का य म उ त चार ोत से
कथाएँ ल गयी ह। क व क अपनी मौ लकता और क पनाशीलता के कारण ये शु
पौरा णक या ऐ तहा सक नह ं कह जा सकती। परं परागत पौरा णक कथाओं म नल
दमयंती का कथा- संग सवा धक य रहा है। इस कथानक पर आधा रत ह द म छह
ेमा यान उपल ध ह, िजनके रचनाकार ह दू एवं मु सलमान दोन ह।
इन ेमा यान म पौरा णक कथानक से कह अ धक ाकृ त, सं कृ त और अप ंश क
कथा- ढ़य का योग हु आ है। ये ढ़याँ न न ल खत ह :-
(क) ना यका का नाम छूती यय पर आधा रत होना।
(ख) नायक-ना यका का ज म दै वी अनु ठान से होना।
(ग) ना यका का संबध
ं कसी न कसी वीप से होना - मलय वीप, संहल वीप,
र न वीप, वण वीप आ द।
(घ) व न दशन, च दशन या कसी के वारा वणन कए जाने पर नायक-ना यका
के म य ेम क उ पि त।
(ङ) नायक का योगी, पं डत, भ ुक, तप वी आ द के वेश म गृह याग करना और
ना यका क खोज म नकलना।
(च) मं दर या उ यान म नायक-ना यका क भट।
(छ) ना यका के संर क पता-भाई आ द से यु -संघष।
(ज) नायक का बहु ववाह और कई सु ंद रय से ेम।
(झ) नायक को कसी म , योगी, साधु बैताल या दे वता क सहायता से सफलता क
ाि त।
व तु त: सं कृ त क इस परं परा को जैन क वय ने आठवीं से चौदहवीं शता द तक
जार रखा। इस अंतराल म कई-नई वृि तयाँ वक सत हु ई। दोहा-चौपाई वाला छं द
वधान भी इ ह ं क वय क दे न है। ेम और स दय क अ भ यंजना म धम नरपे
ि ट ह मु ख रह , िजसे परव त रचनाकार ने भी य दया।
ह द के ेमा यानक क वय क मौ लकता इस बात म थी क वे इन कथानक ढ़य
- वृि तय को नवीन प म संयोिजत करते थे। इन ेमा यान म कथा- वाह
वाभा वक न होकर व च ता पर आधा रत होता है। पाठक क िज ासा और कौतू हल
वृि त को बनाए रखने के लए कथा घुमावदार ढं ग से आगे बढ़ती है।

7.4.2 पा

ह द के ेमा यान के पा मानव और मानवेतर दोन कार के ह। मानव को ट के


अंतगत राजकुमार-राजकु मार और अ य लोग आते है। मानवेतर को ट के अंतगत
सु गा-मैना, अ सरा, दे वता आ द आते ह। यहाँ व णत राजकु मार ाय: स दय, दयालु
परा मी, स दय ेमी, साहसी एवं यागी होते है, जब क ना यकाएँ अ यंत सु ंदर ,

114
पग वता, ेम पाने और करने के लए आतु र, दु नयावी समझदार से लैस द खती ह।
बहु त बार ना यकाएँ अनाय, न तक , वे या कु लो प न भी दखायी दे ती ह नायक क
तु लना म ना यकाएँ यादा धैयशाल ह साथ ह उनका तर भी ऊँचा है य क अ सर
नायक ह उनसे आकृ ट होकर उनको पाने के लए त पर होते ह। च र - च ण म
भारतीय परं परा और आदश का ह अ धकांशत: पालन हु आ है। भारतीय परं परा म
बहु ववाह का चलन था अत: नायक भी कई ववाह करते थे जब क ना यकाएँ एक
न ठ और प त ता होती थीं। फारसी के बंध का य म ना यका क अपे ा नायक म
एक न ठता के गुण का समावेश कया गया है। फारसी के ेमा यान म खलनायक या
तनायक का च ण है िजसम ववाह ना यका से हो जाता है और नायक क मृ यु हो
जाती है। ह द ेमा यान म खलनायक क भू मका म ना यका का पता, भाई आ द
संर क होता है। यहाँ कोणा मक ेमकथा क परं परा नह ं है।
मानवेतर को ट के पा म ना यका के संर क के प म असु र या रा स िजसे अ यंत:
ू र और बलशाल दखाया जाता है। नायक के सहायक या दूत के प म हंस, तोता,
बैताल आ द च त होते ह िज ह स गुण से यु त दखाया गया है। अ सराओं-प रय
का भी च ण है जो नायक और ना यकाओं के त सहानुभू त ओर स दयता दखाते
हु ए उनके मलन म अपनी नणायक भू मका नबाहते है। मानवेतर पा के यि त व
को सम ता म नह ं दखाया गया है, वे संगवश उपि थत होते ह। सारांशत: यह कहा
जा सकता है क सभी च र अ यंत जड़, परपरानुवत और ढ़ब ह। उनम मौ लकता
का नतांत अभाव है। व तु त: इन कृ तय क रचना पाठक के वशु मनोरंजन के
न म त थी अत: च र च ण क अपे ा व च ता और कु तू हल से भरे कथानक गढ़ना
यादा आव यक होता था।

7.4.3 वणना मकता का आ ध य

भारतीय सा ह य म अ तशयोि त क वृि त चौथी-पांचवी शता द से ह दखने लगती


है, िजसके अंतगत र त, व ो त और अलंकार को का य के धान गुण न पत करने
वाले स ांत था पत होते ह। सं कृ त म बाणभ , दं डी, ी हष आ द ने वणा मकता
और चम कार को अपने का य म चु र मह व दया था। ना यका के अंग- यंग का
अ यंत वशद वणन हु आ है। कालांतर म हर व तु, घटना काय जैसे वन, वा टका,
नद , तालाब, पवत, सागर, पव- योहार आ द के संग म इ ह ं वृि तय और प तय
को अपनाया गया अप श
ं के च रत का य और ह द ेमा यान म यह वृि त एक
समान है। अ य धक वणा मकता और अ तशयोि त कथानक को बो झल, अ वाभा वक
तथा अ चकर बना दे ती है। संभवत: अपने ानदशन के लए ह वे ऐसा करते थे।

115
7.4.4 भाव एवं रस

ह द ेमा यान का मूल भाव णय है और धान रस गृं ार। गृं ार- न पण सं कृ त


महाका य म च त गृं ार जैसा नह ं है, बि क यहाँ पौ ष, परा म, साहस एवं संघष
क वह भावना है, जो बहु त बार सामािजक-पा रवा रक मयादाओं-अनै तकताओं के
तकू ल होती है। अपने नाम के अनु प इन ेमा यान म ेम को जीवन म सव प र
समझा गया है, िजसके लए सव व दाँव पर लगाया जा सकता है । यह ेम तमाम
वजनाओं- नषेध से सवथा मु त सहज- वाभा वक है। च दशन या व न दशन से
उ प न ेम प रि थ तय के घात- तघात म नरं तर उदा त और यापक होता चला
जाता है। ना यका का स दय वणन बा य और आ यंत रक, दोन ि टय से कया गया
है। वणन म य य प अ तशयोि त है। बहु त बार तो क व ना यकाओं के साथ वे याओं
के स दय- च ण म भी उ ह ं उपमान का योग करता है और बराबर च लेता है,
िजससे अ तर करना क ठन हो जाता है। ेमा यान के नायक अपनी णय भावना को
साकार करने के लए शौय, परा म और याग का प रचय दे ता है, िजससे यह नरं तर
उदा त होती जाती है। यहाँ, वाथ एवं अहंकार का वत: वसजन हो जाता है। इन
ेमा यान म ेम अपने वशु , न कलु ष, सव तम एवं सव प र प म च त हु आ
है। संयोग- गृं ार क अपे ा वयोग को अ धक मह व दया गया है। कह -ं कह ं वरह
वणन म अ तशयोि त के कारण वीभ सता भी आयी है। य य प अ धकांश अ यंत
मा मक और अनुभू तपूण है।

7.4.5 मत ओर वचारधारा

य यप ह द ेमा यान के ववेचन मे सूफ मत और वचारधारा का इतना अ धक


उ लेख हु आ है क उससे यह ांत धारणा ह बन गयी है क ये का य उसी मत के
चार के न म त रचे गए ह। व तु त: आचाय शु ल ने जायसी और प ावत के
ववेचन म इस मत के भाव क अ य धक चचा क थी जो कालांतर मे प रपाट सी
बन गयी और आलोचक उनक थापनाओं का अंधानुकरण करने लग गए। कालांतर म
जब नई रचनाएँ का शत हु ई और उनक गहन छानबीन क गयी तो न कष के तौर
पर यह पता चला क अ धकांश ेमा यान ह दू क वय के ह और य द मु ि लम भी है
तो जायसी को छो कर कसी का भी सू फ मतवाद से कु छ लेना-दे ना नह ं है। ये
ेमा यान कसी भी वचारधारा, मतवाद के आ ह से सवथा मु त भारतीय परं परा म
वक सत शु का य ह, िजनका योजन मनोरं जन के साथ-साथ ान- व ान क
जानकार दे ना और पाठक को श त करना है। भारतीय ान- व ान शा और

ं तक ह सी मत था; सामा य पाठक तक न तो उनक पहु ँ च थी और न ह वे
उनके लए उतने बोधग य थे। इन क वय ने उस ान को अ धसं या साधारण पाठक
के लए सु लभ बना दया । इ ह ने अपनी रचनाओं के योजन के संग म इसका
संकेत भी दया है।

116
7.4.6 श प या का य प

ेमा यानक का य के श प पर वचार करते हु ए आचाय शु ल ने इस पर फारसी


मसन वय के अनुकरण और भाव क चचा क थी जो अब भी उसी तरह दुहरायी
जाती है। नए शोध से यह लगभग मा णत हो चु का है क यह भारतीय सा ह य क
जातीय परं परा के अंतगत है। इसका श प भी समय के साथ वक सत होता रहा है।
ह द ेमा यानक का य का श प परं परा के सवथा अनु प है। भामह, दं डी ओर ट
जैसे सा ह यचाय ने कथा का य के िजतने ल ण न पत कए ह, इन ेमा यान म
सब मलते ह। नवीं शती म ट ने अपने का यालंकार म कथा का य के
न न ल खत ल ण का उ लेख कया है- (1) कथा के आरं भ म दे वता या गु क
तु त और त प चात ् आ म प रचय (2) कथा लेखन का उ े य (3) मू ल कथा क
तावना (4) इसका तपा य ेम से प रपूण क या ( े मका) क ाि त (5) यह
सं कृ त म ग य म एवं अ य भाषाओं म प य म लखी जाती है। कथा-का य के
वकास के साथ-साथ ये ल ण भी संशो धत प रव त होते रहे ह। अप ंश भाषा तक
कथा-का य म िजतने ल ण वक सत हो चु के थे, वे सब ह द ेमा यान म सहज ह
मल जाते ह। अपनी रचनाओं को उन क वय ने 'कथा' सं ा द है। का य प क
ि ट से ये व तु त: कथा का य ह ह, महाका य नह ं। महाका य क कसौट पर
परखने के सारे यास गलत न कष तक ले जाते ह। महाका य म जहाँ कसी
असाधारण महान वभू त के मा यम से आदश या मयादा क थापना पर बल दया
जाता है, वह ं ये कथा-का य व छं दता वाद चेतना से नःसृत होते ह। आदश और
मयादा के बदले स दय और ेम न पण तथा लोकमंगल -क जगह लोकरं जन का
येय रहता है।

7.4.7 शैल

ह द ेमा यान क शैल पर नणया मक और आ यं तक वचार क ठन हे, यो क


सारे रचनाकार एक ह तर के नह ं ह। जायसी म िजतनी ौढ़ता और गंभीरता है,
दूसरे रचनाकार म वह नह ं है। इन रचनाओं के संदभ म एक सामा य बात यह कह
जा सकती है क इनक शैल इ तवृ ता मक (वणना मक)है। ल णा और यंजना क
अपे ा अ भधा क धानता है। बहु त बार तु त और य पर अ य का आरोपण
होता है। तीक योजना के कारण भी अ भ यंजना शि त बढ़ है। तीक-योजना का
फारसी मसनवी के अनु प य द व लेषण कया जाए तो असंग तयाँ सामने आती है
जब क भारतीय परं परा के अनुसार यह ब कु ल साथक तीत होती है। शैल क एक
अ य मु ख वशेषता अ तशयोि त है। बहु त बार इसके आ ध य से कथा वाह बो झल
हो जाता है और पाठक म अ च भी पैदा हो जाती है। अलंकार का भी स यक योग
हु आ है। छं द-योजना क ि ट से चौपाइय या अ ा लय के म य दोहा रखने क
परं परा रह है। कु छ अपवाद भी ह जहाँ क व त, सवैया, सोरठा, कं ु ड लया आ द छं द

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का योग हु आ है। अ धकांश ेमा यान क भाषा ाय: अव ध । अपवाद व प कु छ
कृ ि तयाँ राज थानी और ज भाषा म भी रची गयी ह। यह परं परा राज थान और
गुजरात से होकर अवधी म आयी है। रचनाकार ने लोक च लत श द , मु हावर और
लोकोि तयाँ का ह योग कया है। मु ि लम क वय ने भी अरबी-फारसी के श द के
बदले सं कृ त के त सम या त व श द का ह यादा योग कया है। इन ेमा यान
से अवधी, ज और राज थानी भाषाएँ काफ समृ हु ई ह।

7.5 सारांश
ेमा यानक का य के उ गम, पड़ने वाले भाव, परं परा, कथानक, वचारधारा आ द
अ य वृि तय और वशेषताओं पर स यक ववेचन व लेषण के प चात हम यह
न कष नकाल सकते ह क ह द क यह एक ऐसी का य परं परा है, िजसका सीधा
ं सं कृ त,
संबध ाकृ त और अप ंश भाषा क का य परं परा से जु ड़ता है। म यकाल न
ह द का य म भी यह धारा सवा धक सश त, द घ और लोको मुख रह है। राजस ता
और धम के भाव से सवथा मु त यह लोका य म ह वक सत होती रह है तथा
लोक च का प र कार, पोषण एवं ानव न ह इस का य धारा का अं तम योजन
रहा है। मनु य क सवा धक सश त वृि त ेम स दय पपासा संयोग एवं वयोग गृं ार
का च ण इस का य म काफ रोमांचकार ढं ग से हु आ है। यहाँ व णत ेम को अपनी
- साथकता मा णत करने के लए कसी ई वर अथवा ई वर य अवतार क
आव यकताओं नह ं रह है। यह पूर तरह मानवीय संदभ म ह अपना औ च य स
करती है। इन रचनाओं म च त णय भावना, साहस, परा म, वपर त प रि थ तय
से संघष, याग एवं उ सग जैसी भावनाओं से मलकर पाठक को उदा त भावभू म पर
पहु ँ चा दे ती है, जहाँ वाथ, वासना और शार रकता का भाव ण भर के लए ह सह
मट जाता है। शु का य व क ि ट से भी यह धारा कम मह वपूण नह है। कथा,
क वता और शा ान से समि वत यह का य प न संदेह आम पाठक म सवा धक
लोक य रहा है।

7.6 अ यासाथ न
1. सू फ का य का अथ प ट करते हु ए इस पर पड़ने वाले भाव क समी ा क िजए
2. सू फ अथवा ेमा यानक का य के उ गम और परं परा पर वचार क िजए।
3. ेमा यानक का य परं परा म जायसी और 'प ावत’ के मह व पर वचार क िजए।
4. ेमा यानक का य क वृि तय और वशेषताओं का ववेचन क िजए।
5. सू फ मत के संदभ म ेमा यानक का यधारा का मू यांकन क िजए।
6. ेमा यानक का यधारा म च त ेम और गृं ार भावना का ववेचन क िजए।
7. लोकरंजन के संदभ म इस का यधारा के मह व पर काश डा लए।

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7.7 संदभ सहायक ंथ
1. सं. परशु राम चतु वद - ह द सा ह य का वृहत इ तहास, नागर चारणी सभा,
वाराणसी
2. सं० डा० नगे - ह द सा ह य का इ तहास, नेशनल पि ल शंग हाउस, द ल
3. रामचं शु ल - ह द सा ह य का इ तहास
4. ले0 पीतांबर द त बुड वाल - ह द का य म नगु ण सं दाय

119
इकाई -8 : सगु ण भि तकाल – कृ ण भि त का य धारा
इकाई क परे खा
8.0 उ े य
8.1 तावना
8.2 कृ ण भि त का य का उ व और वकास
82.1 कृ ण भि त का य पर परा
8.2.2 कृ ण भि त का य के मु ख रचनाकार एवं रचनाएँ
8.3 कृ ण भि त का य क मु ख वृि तयाँ
8.4 कृ ण का य म र तकाल न गृं ा रकता का भाव
8.5 सारांश
8.6 श दावल
8.7 अ यासाथ न
8.8 संदभ थ

8.0 उ े य
भारतीय धम और सं कृ त म कृ ण का बहु त अ धक मह व है। भि त आ दोलन म
सगुण और नगु ण का य धारा के वकास के साथ ह सगुण का य धारा म राम भि त
के साथ- साथ कृ ण भि त का य धारा भी सहज व वत: वा हत हु ई थी। राम जहाँ
लोकमंगल क साधनाव था के त ब ब थे तो कृ ण लोकमंगल क स ाव था के
त प थे।
कृ ण भि त का बीजो मेष कब हु आ यह कहना तो मु ि कल है य क महाभारत के
प चात ् ह कृ ण अपने जीवन काल म भगवान ् के प म पूजे जाने लगे थे। वे
कमयोगी, राजनी त व धमा मा माने जाते थे। युग प रवतन के साथ उ ह ने समाज
को दशा दान क । कालांतर म कृ ण भ त ने उ ह ई वर मान कर उ ह अपने दय
संहासन पर थान दया। सू रदास के मत से इस पंचा मक संसार से छूटने का
एकमा उपाय ह र भि त है, िजसके बना सम त जीवन ह भार व प है। क लयुग
के संतापकार ताप- य का शमन भ त के कोमल दय से बहते हु ए भगवत ् भि त रस
के शीतल ोत से ह स भव है। ान और वैरा य को भि त का साधन बना कर
उ ह ने भ त के पद क त ठा क और ान तथा योग वारा अग य त व क भी
भि त के सरल माग वारा थापना क । कृ ण भि त का य क पर परा राम भि त
का य से अ धक व तृत है । हम यहाँ इस पा य म म कृ ण भि त का य पर परा
पर व तार से न न ब दुओं पर काश डालते हु ए ववेचन करगे –
 भि त काल का उदय एवं उसक ऐ तहा सक पृ ठभू म।
 भि त काल का वग करण।
 कृ ण भि त का उ व और वकास।

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 कृ ण भि त का य क प रि थ तयाँ।
 कृ ण भि त का य क वृि तयाँ ।
 कृ ण भ त का प रचय और उनक रचनाएँ।
 कृ ण का गृं ा रक का य म च ण।

8.1 तावना
ह द सा ह य के इ तहास के पूव म यकाल को अ ययन क सु वधा के लए भि त
के स दायगत अ तर और उसी के प रणाम व प का य वषय के आधार पर आचाय
रामच शु ल ने चार मु ख शाखाओं म वभािजत कया था। यह वभाजन वाभा वक
और प ट होने के कारण सव वीकाय हो गया है। पूव म यकाल को ह द का य क
त काल न मु ख वृि त के आधार पर भि त काल- कहा जाता है। यह भि त मोटे
तौर पर नगु ण और सगुण दो स धाराओं मे वभ त क जाती है। सगुण धारा का
अ ययन पुन : राम भि त शाखा व कृ ण भि त शाखा म वभािजत कया जाता है।
जैसा क राम का य व कृ ण का य क वृि तय के साधारण प रचय से ह प ट हो
जाता है, इन शाखाओं म केवल वषय-व तु का ह अ तर नह ं है, ि टकोण और
वृि तय का भी प ट अ तर है। कृ ण भि त का य म क व परम स य को सौ दय
एवं आन द के प म मू तमान करते ह और उसी नःशेष प रपूणता म शव और
स य को अ तभु त मानते ह। वे मानसी और रागानुराग भि त के समथक ह। बा य
आचरण, मयादा आ द को वे तु छ मानते ह। फल व प उनके का य म भावा मकता
और रसा मकता कह ं अ धक है। का य के कला मक सौ दय के लए भी उसम कह ं
अ धक उवर े है। यह कारण है क कृ ण भि त शाखा का का य भी अ धक
स प न और समृ हु आ। उसी क पर परा आगे चल और आधु नक युग तक पया त
धू मधाम से जी वत है। उसी क सहज प रण त का य के उस प म हो सक , िजसे
बहु त अंश म ईहलौ कक कह सकते ह। कृ ण भि त शाखा का का य आगे चल कर
कृ ण का य के प म चा रत हु आ। भि त भावना बहु त कु छ दब गई। गृं ार रस क
धानता दखाई दे ने लगी क तु भि त और का य क सीमाओं को इतना नकट से
मला कर बहु त कु छ समान कर सकने क मता कृ ण भि त शाखा के का य म ह
है।
यह स य है क भि त का उदय द ण म हु आ था क तु माधवाचाय, व णु वामी
और न बाक ने राधा-कृ ण क उपासना ार भ क तथा उ तर भारत म ब लभाचाय
व उनके पु व लदास ने राधा-कृ ण क आराधना को जन-जन तक पहु ँ चाया। महा भु
ब लभाचाय ने लगभग स पूण उ तर भारत का मण कर कृ ण भि त का चार
कया। इसी चार के प रणाम व प ह द सा ह य म भी कृ ण भि त शाखा का
ादुभाव हु आ। कृ ण भ त का यकार पर पूणत: महा भु ब लभाचाय के ह स ा त
का भाव रहा है । इ ह ने ह ‘पुि ट माग' क थापना क थी। ‘पुि ट' का अथ है
'पोषण या अनु ह ’ इस कार पुि ट माग का ता पय हु आ क भु िजस पर कृ पा करते

121
ह उसे ह भु भि त ा त होती है और िजसे भु भि त ा त होती है वह मो का
अ धकार होता है। ह द म सू रदास, न ददास जैसे सभी कृ ण भ त क वय ने इसी
स ा त को वीकार कया और कृ ण ल लाओं को अपने जीवन के साथ जोड़ कर दे खा
है।
कृ ण का य िजसका ार भ कह ं न कह ं पुि ट माग से माना जा सकता है। उसके
वकास का ेय नि चत प से म यकाल न कृ ण भ त क व सू रदास, रह म, रसखान,
मीरा को जाता है। कृ ण का य क पहचान ह सू र, मीरा, रसखान के का य से होती
है। यह अलग बात है क ल ला गान पर परा का ार म ब लभाचाय से हु आ था,
क तु यह स य है क उसको सह आकार सू र व मीरा के पद से ह ा त हु आ
िजसक पृ ठभू म जयदे व के गीत गो व द से तैयार हो गई थी। 11 वीं शता द म
‘गीत गो व द' क गेयता ने कृ ण का य के वार जनमानस के लए खोल दए थे।
आगे चल कर चंडीदास और व याप त ने गीत म कृ ण ल ला का च ण कया। इन
गीत क मु ख वशेषता यह थी क इसम राधा को अ त कोमल व सु दर प म
तु त कया गया। आचाय ेमे ने गो पय के वरह का वणन कर आ मा व
परमा मा को जोड़ने- का यास कया । कु छ आलोचक का यह भी मानना है क यह ं
से कृ ण' का य म शृंगा रकता का समावेश हु आ और भि त का भाव समा त होने
लगा। इन त य से यह प ट होता है क ब लभाचाय और सू र से पूव भी ह द म
कृ ण ल ला गान क पर परा अव य चल रह थी। इसी त य क ओर संकेत करते हु ए
आचाय रामच शु ल ने कहा है क ‘सु र सागर द घकाल से चल आती हु ई कसी
पुरानी पर परा का वकास है।'

8.2 कृ ण भि त का य का उ भव और वकास
डॉ. रामकु मार वमा के अनुसार ‘य द रामानुजाचाय से भा वत होकर उनके अनुयायी
रामान द ने व णु और नारायण का पा तरण कर राम भि त को चार कया तो
न बाक, माध, और व णु गो वामी के आदश को सामने रख कर उनके अनुयायी
चैत य और ब लभाचाय ने ीकृ ण क भि त का चार कया। यह भि त 'भागवत ्
पुराण ’ से ल गई है िजसम ान क अपे ा ेम को ह अ धक मह व दया है।
आ म च तन क अपे ा आ मसमपण क भावना का ाधा य है। ऋ वेद सं हता म
कृ ण का नाम कई थान पर आया है। यजु वद म कृ णकेसी नामक असुर को मारने
वाले कृ ण क कथा है। छ दो य उप नष म भी कृ ण का उ लेख है, वहाँ उ ह ऋ ष
अंगीरस का श य और दे वक का पु कहा गया है। इसके प चात ् वासु देव धम के
उ थान के साथ वासु देव के पु ी कृ ण क त ठा हु ई जो एक ऐ तहा सक पु ष
तथा वा रका के राजा ह। वै दक कृ ण और उप नषद के कृ ण से इसका योग हु आ
और कदा चत ् इस कार महाभारत के यो ा और ानी कृ ण के यि त व का नमाण
हु आ। पतंज ल के समय म वासु देव धम के पुन थान के कारण महाभारत के कृ ण को

122
परम भगवन ् मान लया और उसे वै दक दे वता व णु तथा नारायण से मला दया
गया।
न बाक से पहले भागवत पुराण के आधार पर माधव स दाय क त ठा हो चु क
थी पर तु इसम अ वैतवाद के स ा त पर कृ णोपासना को ह थान दया गया। ईसा
क 15वी शता द मे कृ ण भि त का जो चार हु आ उसम ब लभाचाय का मह वपूण
योगदान था। उ ह ने जहाँ दाश नक े म शु ा वैत क थापना क वहाँ भि त के
े म पुि ट माग चलाया। शु ा वैत तथा पुि ट माग के योग से उ ह ने ीकृ ण को
म मान कर उ ह ं क कृ पा पर जीव के सत-् च त के अ त र त आन द प क भी
क पना क । शंकराचाय ने नगु ण को ह म मान कर पारमा थक या असल प
कहा था और सगुण को यावहा रक या मा यक। ब लभाचाय ने बात को उलट कर
सगुण प को ह असल पारमा थक प बताया और नगु ण को उसका अंशत: तरो हत
प कहा और ेम ल णा भि त को ह अपनाया।
महा भु ने ीकृ ण को पर म और द य गुण स प न पु षो तम माना है। उनके
लोक को बैकु ठ माना है, इसका एक ख ड गौलोक है। इसके अ तगत वृ दावन ,
यमु ना, गोवधन, नकं ु ज आ द आते ह और इसम ीकृ ण अल य भाव से गौचारण
रास ड़ा आ द करते ह। इस न य ड़ा थल म य द जीव व ट हो जाता है तो
वह मो ा त करता है। जीव का इसम व ट होना भगव नु ह से होता है। इस
भगवदनु ह को ह ये पोषण या पुि ट मानते ह। ब लभाचाय ने कृ ण भि त का बहु त
अ धक चार कया और उसे अ त लोक य बना दया।
ब लभाचाय के पुि ट माग स दाय म अनेक वै णव द त हु ए, िज ह ने ीकृ ण
भि त का चार कया। इसम अ टछाप के क व मु ख ह िजसक थापना ब लभाचाय
के पु व लदास ने क थी। अ टछाप म सू रदास, न ददास, कु भनदास,
परमान ददास, कृ णदास, छ त वामी, गो व द वामी, और चतु भु जदास जैसे आठ भ त
क वय ने िज ह ने ज भाषा के मा यम से कृ ण भि त को अपने का य. के वारा
चरम सीमा पर पहु ँ चाया। कृ ण भि त चार म अ य स दाय के कृ ण भ त का भी
मह वपूण योगदान रहा है। ी ब लभाचाय से भा वत होकर िजन क वय ने कृ ण
भि त का य क रचना क उनम सव प र सू रदास को माना-जाता है और यह पर परा
सू रदास के बाद भी र तकाल तक नर तर चलती रह । यह अलग बात है क र तकाल
म राधा-कृ ण के भि त व प के थान पर गृं ारपरक लौ कक नायक-ना यका का
च ण होने लगा। ले कन इसम कोई दो राय नह ं है क कृ ण का य क पर परा अ त
ाचीन है।

8.2.1 कृ ण भि त का य पर परा

भि तकाल न सगुण का य के अ तगत कृ ण का य का वशेष मह व है। भि त काल


म राम का य क अपे ा कृ ण का य अ धक लोक य हु आ। डॉ. हजार साद ववेद
के अनुसार ‘ ीकृ ण भि त सा ह य मनु य क सबसे बल भू ख का समाधान करता

123
है। यह मनु य को बा य वषय क आसि त से तो अलग कर दे ता है ले कन उसे
शु क त ववाद और ेमह न कथनी का उपासक नह ं बनाता। वह मनु य क सरसता
को उ बु करता है। उसक अ त न हत अनुराग लालसा को ऊ वमु खी करता है और
उसे नर तर र सक बनाता रहता है। यह ेम साधना एकां तक है। वह अपने भ त को
जग तक वं व और क त यगत संघष से हटा कर भगवान ् के अन यगामी ेम क
शरण म ले जाती है।‘ राम का य क तरह कृ ण का य क पर परा भी ाचीन है। राम
ने दे व व क थापना कृ ण म उसी तरह क भावना क थापना के साथ हु ई थी
पर तु कृ ण च र शी लोक य हो गया। ीम ागवत क रचना ने कृ ण भि त को
एक ऐसा आकषक प दया क शी ह उसके सा ह य क पर परा चल पड़ी। ह द
सा ह य म कृ ण का य का ार म व याप त से माना जाता है क तु व याप त पर
सं कृ त के ‘गीत गो व द’ के रच यता जयदे व का वशेष भाव होने के कारण कृ ण
का य का सू पात जयदे व से माना जाना चा हए। कृ ण भि त का य धारा का वकास
ाय: मु तक के प म ह हु आ है। व याप त का स पूण का य गी त का य है।
व याप त शैव मत को मानने वाले थे अत: उ ह ने शव स ब धी जो पद लखे ह वे
भि त से ओत: ोत ह। व याप त ने राधा-कृ ण वषयक िजन सरस पद क रचना
'पदावल ’ म क है उनका कृ ण भि त का य धारा म वशेष मह व है। जयदे व के
'गीत गो व द' क पर परा म न मत व याप त क पदावल म राधा-कृ ण क ेम-
ड़ाओं का माधु यपूण वणन हु आ है। इसम गृं ार का आ ध य दे ख कर कु छ व वान
ने व याप त को घोर गृं ार क व घो षत कर दया क तु जैसा क हम ववेचन कर
चु के ह व याप त क राधा- कृ ण के त पू य भावना थी। अत: उनक कृ ण
स ब धी रचनाएँ भि त का य के अ तगत आती ह और वे ह द म कृ ण भि त
का य धारा के सव थम क व माने जाते ह। इसके अ त र त कृ ण का य को
उ कृ टता तक ले जाने वाले अ य स दाय का भी मह वपूण योगदान है िजनम
ब लभ स दाय, गौड़ीय स दाय, राधाब लभी स दाय और हरदासी स दाय मु ख
ह। ब लभाचाय ने कृ ण का य के णयन म महान ् योगदान दया। उ ह ने ह सू रदास
आ द क वय को कृ ण ल ला गान के लए े रत कया। सू रदास के का य म कृ ण
का य का चरमो कष दे खने को मलता है। अ टछाप के क वय का कृ ण का य
मह वपूण है। राधा व लभी स दाय म हत ह रवंश, ु वदास, ह रराम यास, नेह
नागर दास, चाचा हत वृ दावनदास आ द मु ख ह। ह रदासी स दाय के ह रदास जी
वयं मु ख क व ह। चैत य स दाय के भ त क वय म ी भ जी, सू रदास
मदनमोहन आ द स ह।
उपयु त स दाय के अ त र त कृ ण का य के वकास म योगदान दे ने वाले अ य
भ त क वय म मीराबाई, नरो तमदास, रसखान, रह म, नरह र बंद जन, गंग आ द
मु ख क व ह। म यकाल म कृ ण भि त का य अ य त लोक य हु आ। नागर दास
आ द भ त क वय ने उ च को ट के कृ ण का य का णयन र तकाल म कया।

124
कृ ण का य क पर परा आधु नक काल म र नाकर, ह रऔध, मै थल शरण गु त ,
वारका साद म आ द तक चलती रह ।

8.2.2 कृ ण भि त का य के मु ख रचनाकार एवं उनक रचनाएँ

कृ ण भि त का य धारा के भ त क वय म मु ख क व ह -
सू रदास: भि त काल न क व अपने आरा य के अन य ेम और भि त म ल न होने के
कारण अपने यि तगत जीवन के त उदासीन रहते थे। यह कारण है क वे अपनी
रचनाओं म कह ं भी अपना प रचय नह ं छोड़ते थे। इसी म म भ त शरोम ण
सू रदास भी आते ह। उनक ज म त थ का उ लेख कसी भी थ म नह ं मलता। ‘सू र
सारावल ’ के एक पद म आयु स ब धी एक पंि त मलती है तथा ‘सा ह य लहर ’ के
एक पद म भी रचनाकाल का उ लेख पाया गया है जो ' ि ट-कू ट' होने के कारण
ववाद का वषय बना हु आ है। उपयु त दोन पद के आधार पर व वान ने सू रदास
क भ न- भ न ज म त थयाँ नि चत क ह। आचाय शु ल ने सू र सारावल क पंि त
– ‘गु परसाद होत यह दरसन सरसठ वष वीन' के आधार पर सू रदास का ज म सं.
1540 के लगभग माना जाता है। वह ं दूसरे व वान भी सा ह य लहर क पंि त –
‘मु न पु न रसन के रसलेख’ के आधार पर सू रदास जी का ज म सं. 1540 ह मानते
ह जब क 'ब लभ दि वजय' के अनुसार उनका ज म सं. 1535 ह मा णत माना
जाता है। उसम उ लेख है सू रदास क ज म त थ वैशाख शु ल 5, मंगलवार सं.
1535। ज म के बाद उनक जा त और वंश का प रचय सा ह य लहर म एक-एक पद
म ा त होता है जो इस कार है -
थम ह पृथु जागते, ये गट अ ुत प।
म राज वचा र मा, राखु नाम अनूप
––– ––– –––
दूसरे गुण च द ता सु त, सील च द व प।
वीर च ताप पूरण , भयो अ ु त प।।
भ ा मण वंशीय सू रदास का ज म द ल के पास सीह ाम म माना जाता है।
सू रदास के अंध व को लेकर भी व वान म मतभेद है। कु छ का मानना है क वे
ज मांध थे तो कु छ उ ह बाद म ने ह न होना मानते ह पर तु इतना तो सभी मानते
ह क ‘सु र सागर’ को आचाय व लदास से द त होने के बाद लखा गया है। उसके
वनय के पद म य - त उनके अंधे होने का उ लेख मलता है -
सू रदास स कहा नहारो नैननहू क हा न।
––– ––– –––
सू र कू र आँधरो, म वार परौ गाऊँ।
––– ––– –––
सू रदास अंध अपराधी, सो काहे बसरायो।

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––– ––– –––
इत उत दे खत जनम गयो।
––– ––– –––
या झू ठा माया के कारण दहु ँ ग अंध भयो।
––– ––– –––
सू र क ब रयाँ नठु र होइ बैठे ज म-अंध कसौ।
––– ––– –––
रहौ जाल एक प तत जनम क आँधरो ‘सू र’ सदा को ।।
––– ––– –––
करमजीन जनम कौ आँधो मो ते कौन न कारौ ।।
सू रदास क ज म त थ क भां त ह उनक नधन त थ भी ववादा पद है। आचाय
रामच शु ल ने अनेक माण के आधार पर इसे सं. व 1620 व. के आसपास
नधा रत कया था। वाता सा ह य के आधार पर यह स होता है क सू रदास. जी क
मृ यु के समय ब लभाचाय के पु व लदास जी वत थे। व लदास जी का वगवास
सं. 1682 व. सं हु आ माना जाता है। इस लए यह नि चत है क सू रदास जी का
वगवास इससे पहले हु आ था। इसके अ त र त सू रदास जी के नधन त थ के वषय
म नि चत प से और कु छ नह ं कहा जा सकता। रचनाएँ : काशी-नागर चा रणी
सभा क खोज रपोट तथा इ तहास के आधार पर सू रदास वारा र चत 25 ग ध माने
जाते ह। िजनम कु छ ह- सू रसारावल , सा ह य लहर , सू र सागर, मर गीत, ाण यार ,
नागल ला, नल दमयंती, याहलो, सू र शतक, राम ज म, एकादशी महा य सू र
प चीसी आ द। इनम से कु छ का शत व कु छ अ का शत ह। आधु नक आलोचक ने
सू र क तीन ह रचनाएँ मानी ह- सू रसारावल , सा ह य लहर और सू र सागर। आ चय
का वषय यह है क वाता सा ह य म महाक व सू र क रचनाओं के वषय म कह ं कु छ
भी नह ं कहा गया। 'चौरासी वै णव क वाता म इनके वारा वर चत पद क सं या
‘सह ाव ध’ बताई गई है। ह रराय जी क ट का म कहा गया है क उ ह ने लाख पद
क रचना क जो अस भव तीत होता है। वाता सा ह य से पता चलता है क उनके
पद का सं ह ‘सू रदास' के नाम से उनके जीवन काल म ह बहु ु त हो गया था।
सू रदास क उपयु त मु ख तीन रचनाओं म ‘सू रसागर’ सवा धक मह वपूण कृ त मानी
जा सकती है। ' मर गीत’ भी इसी का एक अंश है। सू रसागर क ाचीनतम त
नाथ वारा के ‘सर वती भ डार’ म संर त है जो सं. 1658 व. के आसपास क मानी
जाती है। मीराबाई : मीराबाई भि त काल क स कव य ी थी। मेवाड़ राजघराने क
महारानी होने के बाद भी उ ह ने अपने कृ ण के ेम म सार दु नया क लोक लाज
छोड़ कर द वानगी धारण कर ल । असमय वैध य को उ ह ने कृ ण भि त क चादर से
ढक दया और भि त भाव से उ नत हो मि दर म क तन करने लगी। इनके दे वर
व म संह ने इ ह अनेक मा यम से मारने का यास कया क तु –

126
अब तौ फैल पर जैसे बीज बट क ,
अब चू हू ँ तो तौर न हं जैसे कला नट क ।
मीरा अपनी भि त पर अटल रह । उ ह ने कृ ण को प त मान कर माधु य भाव क
भि त क - मेरे तो गरधर गोपाल दूसर न कोई।
जाके सर मोर मु कु ट मेरो प त सोई।।
उनके पद म वरह क आतु रता और ेम क तड़प अ य त वाभा वक प से य त
हु ई है। कु ट और सु न आ द श द के योग से स होता है क मीरा पुर हठयोग
का भाव भी था मीरा को ब लभाचाय के समकाल न माना जाता है। सं. 1587 व.
म आचाय ब लभाचाय का वगवास हु आ था। उस -समय तक मीरा इतनी लोक य हो
गई थी क गो व द दुबे जैसे उ ट व वान उनसे भि त वाता करते थे। अ य उदाहरण
म मीरा कृ णदास, हत ह रवंश एवं ह रराम यास जैसे भ त क वय से भि त चचा
करने वाल उनके समकाल न स होती है। कृ णदास का समय सं. 1554 व. से व
1634 व. एवं हत ह रवंश का समय सं. 1559 से 1659 व. तक माना जाता है।
इन त थय से यह प ट होता है क मीरा का ज म सं. भी व 1555-60 के बीच
कह ं होना चा हए। ह रराम यास सं. 1622 व. के आसपास वै णव स दाय म
द त हु ए थे। उपयु त घटना इस लए प टत: सं. 1622 व. के बाद क है। इससे
यह बात प ट होती है क मीरां सं. 1622 व. तक जी वत थी और सं. 1555-
1560 व. के म य कुड़क नामक गाँव म जोधपुर के सं थापक राठौड़ प रवार म राव
दूदाजी क पौ ी तथा रतन संह क इकलौती पु ी थी। राव दूदाजी ने ह सं. 1590 व.
म मेड़ता नगर क थापना क थी। इनके नाम को लेकर भी कई ववाद ह। कु छ
व वान मीरां, कु छ मीरा तो कु छ वीरां नाम को वीकार करते ह।
रचनाएँ : मीराबाई क फुटकर रचनाएँ पद के प म ा त है। िजनक सं या 200 से
2000 तक मानी जाती है। इसके अ त र त 'गीत गो व द क ट का’, ‘नरसीजी को
माहे रो’, ‘स यभामा जी नू सणू’ं आ द रचनाओं को उनके वारा र चत माना जाता है।
इस वषय म स व वान डा. मोतीलाल मेना रया का मानना है क इनम एक भी
पद मीराबाई वारा बनाया हु आ तीत नह ं होता। कारण इनम न तो कह ं इस बात का
नदश है क मीराबाई के लखे हु ए ह और न इनक भाषा-क वता मीरा बाई क भाषा-
क वता से मलती है। ‘स यभामा जी नू सणू ं गुजराती म है जब क मीराँ क भाषा
राज थानी म त ज है िजसे पंगल भी कहा जाता है। ‘राग सोरठ' और ‘राग
गो व द’ नामक दो ग थ भी इनके नाम माने जाते ह पर तु इनका अि त व कह ं
दखाई नह ं दे ता। राज थानी म त ज क उ ट भ त कव य ी मीरा कृ ण भि त
पर परा क पयाय मानी जाती ह।
रसखान : कृ ण भि त म सहज माधु य के कारण अनेक स दय मु सलमान क व इस
ओर आकृ ट हु ए। रसखान भी उनम से एक ह। ये जा त से पठान थे। कहा जाता है
क साधु ओं क संगत म उ ह ने सभी बुरे आचरण छोड़ कर ह र भि त म वयं को

127
ल न कर लया था। उनक दो रचनाएँ ा त ह - 1 सु जान रसखान, 2 ेम वा टका।
पहल रचना म क वत और सवैये तथा दूसर रचना म दोहे ह। उनके सवैय म इतनी
मधुरता है क इनके नाम पर ह सवैये भी रसखान सवैये के नाम से पुकारे जाने लगे।
शु ज भाषा म र चत अनु ास अलंकार से सुसि जत उनके सवैये जन-जन क जु दा
पर ह -
सेस महेस गनेस दनेस सुरेसहू जा ह नर तर गावै।
जा ह अना द अन त अखंड अछे द अभेद सु वेद बतावे।
नारद से सु ख यास रटै प च हारे तऊ पु न पार न पावै;
ता ह अह र क छोह रयाँ छ छया भर छाछ पे नाच नचावै।
कृ ण के त अन य ेम रसखान के इस सवैये म दे खा जा सकता है -
मानुस ह तो वह रसखान, बसौ ज गोकु ल गाँव के वारन।
जो पसु हो तो कहा बस मेरो, चरौ नत नंद क धेनु मंझारन।
पाहन हो तो वह ग र को, जो कया ह र छ पुर दर धारन।
जो खग ह तो बसेरो करौ, म ल का ल द कू ल कद ब क डारन।।
रसखान के जीवन का समपण कृ ण चरण म है तो उनक का य वा टका के र क भी
राधा और कृ ण ह ह। उ ह केवल कृ ण ह नह ं कृ ण के संसग म आने वाल हर
व तु से ेम है। वह कर ल क कं ु जन पर कलधौत के को टक धाम इस स ब ध क
भावना के साथ यौछावर करते ह`। वे लकु ट और कम रया पर इस लए तहू ँ पुर का
राज अ पत करने को उ यत ह य क उनका स ब ध कृ ण से है -
वा लकु ट और कम रया पर राज तहु ँ पुर को तिज डार ।
आठहू ँ स नव न ध को सु ख न द क धेनु चराय बसार ।
रसखा न जबै इन नैनन ते ज के बन बाग तड़ाग नहार ।
को टक ये कलधौत के धाम कर ल के कुँ जन ऊपर वारो।।
रसखान एक भावुक भ त क व ह उनका ेम भ त भावना से भ न नह ं है। उनक
भि त म उदारता है। क ह ं सा दा यक स ा त म उनक भि त बँधी हु ई नह ं है।
कृ ण भ त क वय म उनको सू रदास, मीरां, न ददास क ेणी म ह रखा जाता है।
रह म. रह मदास जी बादशाह अकबर के अ भभावक बैरम खाँ के पु थे। उनका ज म
सं. 16 व ० म और दे हावसान सं. 1683 म माना जाता है। कृ त से कृ ण भ त व
दानी वृि त के यि त थे। उनके वारा र चत न न थ ा त ह - रह म सतसई,
बरवे ना यका भेद, गृं ार सोरठा, मदना टक रास पंचा यायी, द वान-फारसी और
बाकयात-बावर । रह म के दोहे वृ द और गरधर के पद के समान कोर नी त के पद
नह ं ह अ पतु उनके भीतर एक स चे भावुक दय क झलक मलती है। तु लसी के
समान इनका भाषा पर पूण अ धकार है। ये ज और अवधी दोन भाषाओं म वीण
थे। कु छ आलोचक रह मदास जी के काल नधारण के आधार पर उ ह र तकाल का

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क व भी मानते ह पर तु हक कत म रह मदास जी भि त के ह क व थे। रह मदास जी
ने भि तकाल के साथ नी त का भी सु दर सामंज य था पत कया -
तै रह म मन आपुनो , क ह चा चकोर।
न स बासर लागो रहै, कृ णचं क ओर।।
––– ––– –––
अनु चत वचन न मा नए जद प गुराइसु गा ढ़।
है रह म रघुनाथ त, सु जस भरत को बा ढ़।।
––– ––– –––
ओछो काम बड़े कर तौ न बढ़ाई होय।
य रह म अनुमत को, गरधर कहै न कोय।।
नरो तमदास : इनके ज म और जीवन के बारे म कह ं कोई उ लेख नह ं मलता।
इनक एक ह स रचना है ‘सु दामा च रत’। यह का य इतना सरस और मा मक है
क नरो तमदास क गनती इस रचना के मा यम से े ठ क वय म होती है। कु छ
व वान का मानना है क नरो तमदास अ ट छाप के न ददास क व के समकाल न थे।
हालां क न ददास कृ त सु दामा च रत भी मलती है क तु सरसता और वषय ा यता
के आधार पर नरो तमदास जी क सु दामा च रत अ धक े ठ है। सु दामा च रत का
ोत ीम ागवत को माना गया है िजसके दशम क ध के आधार पर इस छोटे थ
क रचना हु ई है। नरो तमदास जी ने अपने इस छोटे -से थ
ं म रस योजना व अलंकार
वधान का वशेष यान रखा है िजसके कारण यह रचना इतनी स हु ई।
नरो तमदास के का य व का सबसे बड़ा माण तो यह है क उनक रचना ‘सु दामा
च रत’ के समक और कोई ‘सु दामा च रत’ मह व न पा सक ।

8.3 कृ ण भि त का य क मु ख वृि तयाँ


ह द कृ ण का य धारा के वकास का न पण करने के प चात ् अब हम इस धारा क
मु ख वृि तय पर काश डालगे।
1. वा स य रस का च ण : पुि ट माग के ार भ म बाल कृ ण क उपासना
का चार था। अत: त काल न क वय का बाल प च ण करना वाभा वक था। इस
े म सबसे अ धक सफलता महाक व सू रदास को मल है। उ ह ने कृ ण के प म
बालक क व भ न चे टाओं एवं याओं का च ण तथा उनक उि तय क यंजना
सहज वाभा वक ढं ग से क है जैसे -
मैया मो ह दाऊ बहु त खझायो।
मोस कहत मोल को ल ह तो ह जसु म त कब जायो।
––– ––– –––
तू मो हं को मारन सीखी, दाऊ हं कबहु ँ न खीझे।
मोहन को मु ख रस समेत ल ख, सु न सु न जसुम त र झे।।
मैया कब हं बढ़े गी चोट ?

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कती बार मो ह दूध पयत भई, यह अजहु है छोट ।
इस कार सूरदास जी ने मातृ दय क आशा आकां ाओं का उ घाटन भी
सफलतापूवक कया है। जब कृ ण मथु रा चले गए तो जशोदा दे वक को संदेश
भजवाती है -
संदेसो दे वक स क हयो।
ह तो धाय तहारे सु ख क मया करत ह र हयो।
कृ ण का य के कारण ह सा ह य म नौ रस के बाद िजस दसव रस क चचा होने
लगी है वह है ‘वा स य रस’ िजसका कारक सू रदास को माना जाता है। सू रदास ने
कृ ण का य के मा यम से बाल मनो व ान का भी सु दर च ण कया है।
2. ल लाओं का गान : कृ ण भि त का य क पूणता केवल कृ ण के बाल और
कशोर जीवन तक ह सी मत नह ं है। कृ ण का य का मु ख वषय कृ ण क ल लाओं
का गान है। इन ल लाओं म क वय का यान मु यत: कृ ण क कशोर ल ला क ओर
अ धक गया है। व तु त: कृ ण भि त शाखा म वा स य, सं या एवं माधु य भाव क
भि त का ाधा य है। अत: इसके अनु प ह कृ ण भि त का वणन कृ ण का य म
मलता है। वा स य भाव के अ तगत कृ ण क बाल ल लाओं, चे टाओं एवं यशोदा माँ
के दय क झाँक मलती है -
जसोदा ह र पालने झु लावै हलरावै मलरावै दुलरावै।
जोई सोई कछु गावै, मेरे लाल को आवै नंद रया काहे न बेगी आवै।
स य भाव के अ तगत कृ ण और वाल के जीवन क मनोरं जक घटनाओं का वणन
मलता है और माधु य भाव के अ तगत रासल ला का वणन है। रास म संयोग और
वयोग दोन का बराबर मह व है। इसी माधु य भाव के अ तगत ' मर गीत’ क रचना
का वशेष मह व है। इसम ेमा मक यं योि तय का सु दर व प दे खने को मलता
है। आगे चल कर इस माधु य भाव के अ तगत ह नायक-ना यका का भेद व नख- शख
वणन इ या द का वकास हु आ है।
3. गीत का य एवं संगीता मकता : कृ ण का य क दूसर वृि त उसक
संगीता मकता है। इसम गीत का य का सु दर वकास हु आ है। इस लए कृ ण का य म
राग-राग नय का सु दर संयोजन है। सू रदास, मीरा, हत ह रवंश, ह रदास, रसखान
आ द के पद म संगीत क अपूव छटा है और आज भी संगीत के े म इन गेय पद
का मह व प ट है। आचाय हजार साद ववेद ने राधा को ‘ ल रकल’ पा कहा
है। िजसके का य म आ जाने मा से संगीत क वर लह रयाँ झंकृ त हो जाती ह।
सू रदास या मीरां का कोई भी पद संगीत का सु दर उदाहरण हो सकता है-
आल र हारे नैणां बाण पड़ी।
च त चढ़ हारे माधु र मू रत, हवड़ा आणी गड़ी।
कब र ठाड़ी पंथ नहारां, अपने भवण खड़ी।
अट या ाण साँवरो यारो, जीवन मू र जड़ी।

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मीरा गरधर हाथ बकाणी लोग कह बगड़ी।। - (मीरां)
––– ––– –––
खेलन ह र नकसे ज खोर ।
गये याम र व तनया के तट, अंग लसत चंदन क खोर ।।
औचक ह दे खी तहं राधा, नैन वसाल भाल दय रोर ।
सू र याम दे खत ह र झै, नैन-नै म ल पर ठगोर ।। - (सू र)
4. मु त शैल क धानता : कृ ण का य क तीसर मु ख वृि त है मु तक
शैल के छ द - पद, दोहा, रोला, चौपाई, क वत, सवैया इ या द। इस का य म गीत
का य क बड़ी मनोहार छटा है। संगीता मकता के कारण कृ ण का य के पद का
सृजन व भ न राग-राग नय पर मलता है। कृ ण का य म मु तम शैल अ य त
लोक य हु ई है क तु यहाँ यह भी याद रखना चा हए क कृ ण का य का सृजन
बोध शैल म भी हु आ है िजनम मु ख ह - लालचदास कृ त ‘ह रच रत’ (1528 ई.),
जवासी दास कृ त ‘ ज वलास' (1770 ई.), मं चत क व कृ त ‘कृ णामया’ (1779
ई.), न ददास कृ त ‘ कमणी मंगल’ (1587 ई.) पृ वीराज राठौड़ कृ त ‘वे ल सन
कमणी र ’ (1587 ई.), नर हर कृ त ‘ कमणी मंगल’ (1600 ई.) आ द उ लेखनीय
ह। छ द क ि ट से ार भ म दोहा चौपाई शैल का चलन अ धक रहा क तु आगे
चल कर छ द वै व य क वृि त बढ़ गई।
5. ज व डंगल भाषा का योग : कृ ण का य क भाषा उसक मह वपूण
वृि त है। इस का य क भाषा ाय: सा हि यक ज भाषा है। कृ ण ल ला के िजन
अंग (बाल व कशोर जीवन) को कृ ण भ त क वय ने अपने का य म च त कया
है उसके लए ज भाषा जैसी मधुर और सरस भाषा क आव यकता थी। इसी लए ज
भाषा कृ ण च रत के लए पूणतया उपयु त स हु ई। इस भाषा का योग वयं
भगवान ् कृ ण करते थे इस लए इसे पु षो तम भाषा भी कहते ह। ज भाषा के
अतर त डंगल म भी कृ ण का य का पया त सृजन हु आ। पृ वीराज राठौड़ कृ त
‘वे ल सन कमणी र ’ व मीरा का सम त सा ह य डंगल भाषा म ह है जो सरसता
क ि ट से कसी भी माने म ज भाषा से कम नह ं है।
6. माधु य भि त का उ कष : कृ ण का य म उ कृ ट ेम वणन ह इसक
मह ती पहचान है। आचाय हजार साद ववेद ने सू रदास के ेम के व छ द एवं
मािजत प का वणन बड़े ह मा मक श द म कया है। सू र के वयोग क चचा करते
हु ए वे कहते ह – ‘ मलन क समय क मु खरा, ल लावती, चंचल और हंसोड़ रा धका
वयोग के समय मौन, शांत और ग मीर हो जाती है। उधव के साथ अ य गो पयाँ बड़ी
बक-झक करती ह क तु राधा वहाँ जाती भी नह ं है। उधव ने कृ ण से उसक िजस
मू त का च ण कया है उससे प थर भी पघल जाए। उ ह ने रा धका क आँख को
नर तर बहते हु ए दे खा था। कपोल-दे श वार धारा से आ था। मु खम डल पीत हो गया
था। आँख धँस गई थी.. य के वय क ने जब संदेश माँगा तो वे मू छत होकर गर

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पड़ी। ेम का वह प िजसम संयोग म कभी वरहांस का अनुमान नह ं कया। वयोग
ने इस मू त को धारण कर सकता है। सू रदास के अ त र त अ य क वय ने भी माधु य
भि त का सु दर योग कया। इसम मीरा क पीर, उसका दद सबसे अलग है -
तनक ह र चतवाँ हार ओर।
हम चतवाँ थ चतवो णा ह र, हवड बड़ो कठोर।
हार आसा चतव ण थार , ओर णा दूजी ठौर।
ऊ याँ ठाढ़ ं अरज क ँ छूँ करताँ करताँ भोर।
मीराँ र भु ह र अ वनासी दे यू ँ ाण अंकोर।।
7. कृ ण का य के मु ख भाव : कृ ण का य म मु यत: चार भाव मलते ह -
र त भाव, भि त भाव, वा स य भाव एवं नवद। नवद ज य भाव क अ भ यि त
आ म ला न एवं दै य क अ भ यि त करने वाले पद म हु ई है। वा स य के
अ ध ठाता महाक व सू रदास ह। भि त भावना के उ वल व प अथात ् च मुख ेम
भ त ने इसे उ वल रस कहा है। यह उ जवल रस कृ ण का य म अपने उ कृ ट
प म मलता है। कृ ण का य के पारदश सा ह य म शु र त भाव क धानता भी
मलती है।

8.4 कृ ण का य म र तकाल न गृं ा रकता का भाव


कृ ण का य भि त काल क अ वरल धारा म लगातार बहता हु आ एक ल बा सफर तय
करके अ तत: र तकाल म वेश कर गया। र तकाल के क वय ने राधा और कृ ण के
नाम को तो य का य रखा ले कन उ ह सामा य नायक-ना यका के तर पर उतार
दया। प ाकर से लेकर बहार तक तमाम गृं ार क वय ने कृ ण और राधा के रास
को सामा य काम- ड़ा बना कर तु त कया। आचाय व क होड़ म उ ह ने अ त
गृं ार का य सृजन कर राधा कृ ण के मह व को ह समा त कर दया। भि त काल
म जन समु दाय क भावनाओं म बसने वाले राधा कृ ण अब जन समु दाय क वासना
म बसने लगे। ना यका नख- शख वणन का य चातु य माना जाने लगा िजसम ना यका
के थूल अंग का मवार वणन इसक वशेषता हो गई –
कु दन को रं ग फ को लागे, झलके ऐसौ अंगन चा गुराई।
आँ खन म अलसा न चतौ न म मंजु वलासन क सरसाई।
को बनु मोल बतात नह ,ं म तराम लहै मु सु का न ठठाई।
य य नहा रये नेरे वै नैन न लौ योखार नकरे सी नकाई।।
(म तराम)
भा सि त का एक उदाहरण दे ख -
मू र त जो मनमोहन क , मन मो हनी के मन हवै थरक सी।
‘दे व’ गुपाल को बोल सु न,ै छ तयाँ सगरा त सु धा छटक सी।
नीक झरोखा हवै झाँ क सकै न हं नैन न लाज घटा थरक सी।
पूरन ी त हए हरक , खरक - खरको न फरै फरक सी।।

132
(दे व)
बहार के आते-आते राधा कृ ण का भि त प भि त म भी गृं ार सा दखाई दे ने
लगा। बहार ने राधा कृ ण के र त का वणन करते हु ए कहा -
राधा ह र ह र रा धका, बन आये संकेत।
द प त र त वपर त सु ख, सहज सु र त ह लेत।
ऐसा नह ं है क बहार व अ य र तकाल न क वय ने राधा कृ ण को केवल गृं ार म
ह तु त कया है। उ ह ने भि त भाव म भी उ ह मरण कया है -
कब को टे रत द न रट, होत न याम सहाय।
तु महू ँ ला ग जगत गु जगनायक जग बाय।
––– ––– –––
थोड़े ह गुण र झते, बसराई वह बा ण।
तु महू ँ याम मनौ भये आजु का ल के दा न।
इन दोह म क व आ मीय भाव से उपाल भ दे रहा है। अपने भगवान ् अपने कृ ण को।
भि त चाहे जब रह हो िजस काल म रह हो उसने अपना प बदला है भाव नह ं।
यह कारण है क र तकाल म भी राधा कृ ण को क वय ने अपना आरा य माना और
पूजा।

8.5 सारांश
कृ ण भि त का य धारा के उपयु त पयालोचन से इसका मह व प ट प से
ि टगोचर होता है। इस धारा के क वय ने सांसा रक वातावरण से दूर मं दर म रहते
हु ए नि चत प से का य साधना क । यह ठ क है क मि दर का वातावरण पया त
दू षत हो चु का था फर भी दरबार क वय क भाँ त उ ह पग-पग पर आ यदाता को
स न करने क च ता नह ं थी। यह कारण था क वे कला क उदा त साधना म
वृ त हो सके। दूसरे , उनक क वता का धम और दशन से स ब ध होते हु ए भी उसम
कबीर और तु लसी क भाँ त धा मक चार, दाश नक गुि थयाँ एवं शु क उपदे श का
तपादन नह ं मलता। उसम इ तवृ ता मकता क अपे ा भावा मकता क ाधा य है।
संगीत के माधु य ने उसक सरसता म और भी अ धक अ भवृ कर द है। उसम
त काल न लोक जीवन का त ब ब राधा कृ ण के लौ कक जीवन म मलता है। उसके
भाव प और कला प दोन ौढ़ ह तथा जनता के अ प श त व श त दोन
वग उसका आ वादन कर सकते ह क तु नै तकता, मयादा एवं लोक मंगल क उपे ा
के कारण इस सा ह य का जनता के च र पर अ छा भाव नह ं पड़ा। इनके का य
द पक से आगे चल कर अ ल ल गृं ा रकता का क जल उ प न हु आ। र त त व का
समावेश भी सू रदास एवं न ददास जैसे क वय ने अपने का य म कया है। अत: कहा
जा सकता है क परवत र तकाल के वतन म इन क वय ने य प से गहरा
योगदान दया है।

133
8.6 श दावल
आल -सखी, बाण-आदत, हवडा- दय, अ ण-न क, हाथ बकानी-सम पत हो गई, बगड़ी-
पथ ट होना, पालना-झू ला, हलरावै- हलाना, मलरावै-थपेड़ना, दुलरावै- यार करना, कछु-
कु छ, नंद रया-नींद बेगी-शी , नकसे- नकलना, खोर -गल , खौर -धू ल, र वत या-यमु ना,
लसत-दे खना, औचक-अचानक, तहँ-वहाँ, भाल-म तक, रोर - संदरू ठगौर -ठगी, दाऊ-
बलराम, खझायो- चढाना मौस -मेरे से, मोल-क मत दे कर, यायो-ज म दया, खीझै-
गु सा करना, रस- ोध, ल ख-दे खना, र झै- स न होना, पयत- पलाना, मया-दया,
कु दन-सोना, आन-अंग, चा -सु दर, चतौनी-आँख, मंज-ु सु दर, सरसई-अ छ लगी,
ठठाई-िजद से, खरक - खड़क , टे रत-पुकारता, बाय-हवा, बा न-आदत, चतवाँ-दे खा
हवडो- दय, अंकोर-समपण के साथ, अ वनासी-िजसका कभी नाश नह ं होता आ द।

8.7 अ यासाथ न
1. कृ ण भि त का य पर परा का व तार से वणन कर।
2. मु ख कृ ण भ त क वय का सं त जीवन प रचय दे ते हु ए कृ ण का य म
उनक भू मका नधा रत क िजए।
3. रसखान क भि त भावना पर काश डा लए।
4. मीरा के का य क वशेषताओं पर काश डा लए।
5. वा स य रस का अ ध ठाता सू रदास को य माना जाता है? उदाहरण स हत
प ट क िजए।
6. कृ ण भि त का य क मु ख वृि तय पर काश डा लए।
7. कृ ण का य क भाषा क ांजलता को का शत कर।
8. भि त काल के अि तम चरण म कृ ण का य पर र तकाल के भाव को दे खा जा
सकता है। उ त कथन क समी ा कर।
9. अ टछाप के क वय का प रचय दे ते हु ए कृ ण का य पर परा म उनके मह व
प ट क िजए।
10. पुि ट माग ह आगे चल कर अ टछाप म प रव तत हु आ। उ त कथन क समी ा
क िजए।

8.8 संदभ थ
1. डॉ. मायारानी ट डन - अ टछाप का य का सां कृ तक मू यांकन , ह द सा ह य
भ डार, लखनऊ, 1980
2. डॉ. गणपतच गु त - सा हि यक नब ध, लोक भारती काशन, इलाहाबाद
1996
3. डॉ. जय कशन साद खंडेलवाल - ह द सा ह य क वृि तयाँ , वनोद पु तक
मं दर, आगरा 1986

134
4. डॉ. धीर वमा - ह द सा ह य कोष-S, नागर चा रणी सभा, वाराणसी 1978
5. आचाय रामच शु ल - ह द सा ह य का इ तहास, नागर चा रणी सभा,
वाराणसी 1980
6. सू र सागर - गीता ेस, गोरखपुर 2002
7. आचाय रामच शु ल - च ताम ण भाग-1, ह द पु तक मि दर वाराणसी,
1970
8. डॉ. नगे - दे व और उसक क वता, ऊषा काशन, आगरा 1992
9. ज र नदास - न ददास थावल , वनोद पु तक मि दर, आगरा 1980
10. सं. लाला भगवानद न - बहार सतसई, ह द पॉकेट बु स द ल , 1972
11. वयोगी ह र - ज माधु र सहाय, ऊषा काशन, आगरा 1996
12. डॉ. सा व ी स हा - ज भाषा के कृ ण, एकता काशन, जयपुर 1986 भि त
का य म अ भ यंजना श प
13. नाभादास - भ तमाल, अनुराग काशन, आगरा 1980
14. मह ष यास - भागवत, गीता ेस, गोरखपुर 2002
15. सं. कृ ण बहार म - म तराम थावल , जय काश काशन, इलाहाबाद 1972
16. सं. परशु राम चतुवद - मीरा पदावल , पंचशील काशन, जयपुर 1999
17. सं. पं. व वनाथ साद म - रसखान थावल , दे हाती पु तक मि दर, द ल
1991
18. ल लाधर वयोगी - रसखान भ त और क व, सू य काशन, द ल 1972
19. डॉ. ब चन संह - र तकाल न क वय म, दे हाती पु तक मि दर, ेम यंजना
द ल 1998
20. डॉ. जयनाथ न लन - व याप त, सू य काशन, एक तु लना मक समी ा नई
द ल 1972
21. सं. डॉ. नगे तथा डॉ. वजे नातक - ह द क व समी ा, सू य काशन, नई
द ल 1980
22. डॉ. रामरतन भटनागर - ह द क वता क पृ ठभू म, ऊषा काशन, आगरा 1992
23. ी परशु राम चतु वद - ह द का य धारा म ेम ववाह, ह द पॉकेट बु स ,
द ल 1980
24. डॉ. करण कु मार गु त - ह द का य म कृ त च ण, थागार, जोधपुर
2002
25. लालता साद स सेना - ह द का य मे कृ त तथा मानव मधुर काशन, आगरा
1972
26. डॉ. हजार साद ववेद - ह द सा ह य, वनय काशन, आगरा 1975

135
27. डॉ. रामकुमार वमा - ह द सा ह य का आलोचना मक इ तहास, वनय काशन,
द ल 1982
28. डॉ. असद अल - भि तकाल न ह द क वता पर मु ि लम सं कृ त का भाव,
राजकमल काशन, द ल 1999
29. डॉ. राम वलास शमा - पर परा का मू यांकन, राजकमल काशन द ल 1986
30. डॉ. ेम शंकर - भि त का य क भू मका, मैक मलन, द ल 1995
31. डॉ. हजार साद ववेद - सू र सा ह य, राजकमल काशन, द ल 1978
32. डॉ. याम बाला गोयल - भि त काल न राम तथा कृ ण का य क वभू काशन,
सा हबाबाद 1986 नार भावना, एक तु लना मक अ ययन
33. भू पाल संह रावत - वनय प का और गीतावल का मू यांकन , याम काशन,
जयपुर 1989
34. डॉ. गजान द शमा - भि त काल न का य, ऊजा काशन, इलाहाबाद 1985 म
नार
35. डॉ. रामरतन भटनागर - म ययुगीन वै णव सं कृ त, ह द सा ह य संसार, द ल
1990

136
इकाई - 9 : सगु ण भि तकाल - राम भि त का य धारा
इकाई क परे खा
9.0 उ े य
9.1 तावना
9.2 भि तकाल क भू मका एवं वग करण
9.2.1 सगुण भि त
9.2.2 नगु ण भि त
9.3 राम भि त का य पर परा
9.4 राम भि त का य धारा क मु ख वृि तयाँ
9.4.1 राम-का य क अ य वशेषताएँ
9.5 राम भि त का य एवं उसके मु ख रचनाकार
9.6 सारांश
9.7 श दावल
9.8 अ यासाथ न
9.9 संदभ थ

9.0 उ े य
ह द सा ह य के इ तहास म म य काल को भि त काल भी कहा जाता है।
भि तकाल न सा ह य क पर पर वरोधी च तन धाराओं क वजह से उसका मह व
और अ धक बढ़ जाता है। ह द सा ह य के इस काल म प रि थ तय , वृि तय ,
भाषाओं और वचारधाराओं क भ नता भी है और सम वय भी। भि तकाल क सगुण
पर परा म राम भि त पर परा का वशेष मह व है। इस पा य म म भि त क
पर परा व प रि थ तय का व तृत ववेचन न न ब दुओं म आप कर पाएँग:े
 भि त काल का अथ, व प एवं उसक ऐ तहा सक पृ ठभू म का प रचय।
 भि त काल का वग करण - सगुण व नगु ण भि त के प म।
 राम भि त का य क भू मका।
 राम भि त का य क राजनी तक, सामािजक, आ थक, सां कृ तक प रि थ तय क
समी ा
 राम भि त का य एवं उसके रचनाकार का प रचय।
 राम भि त सा ह य का मह व।

9.1 तावना
ह द सा ह य के इ तहास म 1350 से 1700 ई. तक के म य युगीन भि त सा ह य
का थान अनेक कारण से अ तम है। भि त के मा यम से सामािजक आचार को
ववृ त करना इस सा ह य क मह वपूण वशेषता है। व तु त: य द कह क भि त का

137
सा ह य अपने नगु ण-सगुण आरा य के कारण वरे य नह ं अ पतु अपने सामािजक
संदभ को सा ह य म समेटने के कारण वरे य है तो अ त योि त नह होगी। कबीर,
रै दास, नानक, पीपा, जायसी, सू र, तु लसी, मीरा आ द का का य इसका माण है।
सामंती प रवेश म रह कर सामािजक स ब ध म स तुलन बनाने का इनका यास
आज भी ासं गक है।
ह द सा ह य के ादुभाव के पूव ह राम का य शताि दय से भारतीय सा ह य म
इतना रचा-बसा था क सम त भारतीय सं कृ त राममय हो चल थी। अत: ह द
सा ह य म राम भि त क इस लोक यता के कारण संत क वय ने भी राम-नाम का
सहारा लेकर अपनी नगु ण साधना का चार कया। संत का य पर राम का य का यह
भाव नाम के योग तक सी मत न रह सका। ह द सा ह य के आ दकाल म
रामान द ने उ तर भारत म जनसाधारण क भाषा म राम भि त का चार कया।
द ण म ज मी भि त उ तर म रामान द के वारा राम का य के प म फु टत
हु ई - 'भि त ा वड़ ऊपजी, लाए रामान द।‘ इसके फल व प ह द राम सा ह य
आधु नक काल को छोड़ कर ाय: भि त भावना से ओत: ोत है। इस सा ह य क चार
मु खताएँ तीत होती ह - तु लसीदास का एका धप य, लोक सं ह दा य भि त का
ाधा य, कृ ण का य का भाव, व वध रचना शै लय , छ द और सा हि यक भाषाओं
का योग।
ह द भि त का य म तु लसी ने राम भि त धारा को एक नवीन याले म भर कर
जनता के स मुख नवीन प म तु त कया। अपने आरा य राम म शील, शि त,
सौ दय को समा हत कर उ ह ने समाज को राम के आचरण का अनुसरण करने का
नदश दया। तु लसी का रचना संसार आ द से अंत तक अपने सामािजक संदभ से
जु ड़ा हु आ है। उनक रचनाओं म दे श अपने व वध प म मौजू द है। तु लसी सा ह य
का ेमी पाठक उनक रचनाओं के मा यम से अपने को व अपने आसपास क स पूण
प रि थ तय को समझ सकता है य क वे िजतनी ासं गक पहले थी उतनी ह आज
भी लगती ह।
तु लसी के राम एक यि त नह ं एक नाम नह ं बि क एक वचारधारा है। ऐसी
वचारधारा िजसम सारे राजनै तक, आ थक, सामािजक, मानवीय मू य समाए हु ए ह।
दा य भि त क भावना के मा यम से तु लसी ने था पत आ याि मक और लौ कक
मा यताओं को लोक मंगल क भावना से वीकृ त दान क । तु लसी मानते थे क
शां त तभी था पत हो सकती है जब मनु य म समानता हो। उ ह ने समता के आदश
का न पण करने के लए राम रा य क क पना क । जहाँ राम क कृ पा से कोई भी
एक-दूसरे से वैर भाव नह ं रखता था। बाघ और बकर एक घाट पर पानी पीते थे।
तु लसी के राम ने वषादराज गूह, प ीराज जटायू, वानरराज सु ीव जैसे तु छ समझे
जाने वाले लोग को भी गले लगा कर समाज को समानता का संदेश दया। उस समय
कसी भी कार क वषमता नह ं थी। उ ह ने अपनी रचनाओं म पुराषो तम राम का

138
ह वणन नह ं कया अ पतु उस समय के आम आदमी क दशा तथा च तवृि तय का
भी दय पश च ांकन कया।

9.2 भि तकाल क भू मका एवं वग करण


14वीं शता द ई. के अि तम समय म ह द सा ह य रचना के े म युगा तर
उपि थत हु आ। ह द सा ह य के आ दकाल का सा ह य प र नि ठत अप ंश के
सा ह य का बढ़ाव है। इसका सृजन भी ह द भाषी दे श के बाहर हु आ था। कु छ
व वान भि त सा ह य से ह वा त वक ह द सा ह य का आर भ मानते ह। व तु त:
14वीं शता द से िजस भि त सा ह य का सृजन ार भ हु आ उसम ऐसे महान ्
सा ह य क रचना हु ई जो भारतीय इ तहास म अपने ढं ग का नराला था। आ दकाल न
सा ह य क दो मु ख वृि तयाँ - नाथ- स क रह यमयी साधना एवं लौ कक रस
क नी त, गृं ार इ या द क रचनाओं का भि त सा ह य म अपूव सम वय हु आ और
उनके योग से ग रमापूण भि त सा ह य का सृजन हु आ। उस काल के मु ख क व
कबीर, रै दास, नानक, दादूदयाल, सु दरदास, मलूकदास , कु तु बन, मंझन, जायसी,
उ मान, सू रदास, न ददास, रसखान, तु लसीदास, मीरा आ द सभी अपने-अपने भाव के
अनुसार भि त का य का सृजन कर रहे थे। इ तहास के त काल न युग नमाता वे ह
क व ह और उ ह ने िजस उ च नै तक चेतना को जगाया था वह आज भी कसी न
कसी अंश म उ तर भारत के अ धकांश जनसमू ह के च त म आ ढ़ ह।
यह वह काल था जब भारतीय इ तहास म पहल बार समू चा दे श एक भाव धारा से
आ दो लत हो उठा। यसन ने कहा है - 'हम अपने को ऐसे धा मक आ दोलन के
सामने पाते ह जो उन सब आ दोलन से कह ं अ धक वशाल है िज ह भारतवष ने
कभी दे खा है। यहाँ तक क बौ धम के आ दोलन से भी वशाल है य क इसका
भाव आज भी व यमान है। इस युग म धम ान का नह ं अ पतु भावावेश का वषय
हो गया था। यहाँ से हम रह यवाद, ेमो ान के दे श म आते ह और ऐसी आ माओं
का सा ा कार करते ह जो काशी के द गज पं डत क जा त के नह ं बि क िजनक
समता म ययुग के यूरोपीयन भ त बनाड आवॅ लेयर वा स, थामस ए. केि पस और
से ट बेरेसेसे ह।‘ दे श म इ लाम का वेश हो चु का था। डॉ. ताराच द के अनुसार -
'भि त माग के व प घटक एके वरवाद तथा प त स ा त इ लाम धम के व श ट
त व ह। इ लाम का अथ ह प न होना है। इ ला मक रा य क थापना से पहले ह
मु सलमान फक र के मा यम से इ लाम का भाव भि त आ दोलन के वतक पर
पड़ चु का था।' दूसर ओर आचाय रामच शु ल के अनुसार - '13वीं शता द के अंत
म वामी रामान द के आ वभाव को उ तर भारत के भि त आ दोलन एवं ह द
का य े म एक महान ् घटना समझा जाता है। रामान द क ेरणा पाकर रामोपासना
क दो वकल धाराएँ उ तर भारत म बह चल थी। िजनम एक थी सगुण भि त धारा
िजसके वतक थे सू र, तु लसी, मीरा, रह म, रसखान, रै दास आ द तो दूसर थी नगु ण
धारा िजसके वतक थे कबीर, नानक, जायसी आ द।

139
9.2.1 सगुण भि त धारा

म य युग म राम और कृ ण दो अवतार के आधार पर सगुण स दाय संग ठत हु आ।


राम भि त का चार रामान द के ी वै णव स दाय वारा कया गया तो कृ ण
भि त का चार ब लभ स दाय के ी ब लभाचाय वारा कया गया। रामान द
पर परा म तु लसी उनके े ठ अनुयायी माने जाते ह पर तु तु लसी के का य को य द
दे खा जाए तो उनम कह ं भी सा दा यक आ ह दखाई नह ं दे ता। जब क कृ ण भि त
के स दाय म नयम और आचार क कठोरता दे खने को मलती है। म ययुग म
न बाक और म य के सनका द तथा म नामक ाचीन स दाय के अ त र त
पुि टमाग या ब लभ स दाय, राधाब लभ स दाय, सखी स दाय और गौ डय
वै णव स दाय अ धक भावशाल थे। इ ह ं स दाय म कृ ण या राधाकृ ण को इ ट
दे व मान कर उनक ल लाओं का ान करते हु ए सगुण भि त का चार कया। सगुण
भि त धारा म ई वर के साकार प क क पना कर आराधना क जाती है। त काल न
पी ड़त समाज को अपनी पीड़ा क अ भ यि त के लए एक ऐसे ह माग क
आव यकता थी जो सू र-तु लसी वारा श त कया गया था।

9.2.2 नगु ण भि त धारा

' नगु ण’ श द अपने पा रभा षक प म स वा द गुण से र हत या उनसे परे समझी


जाने वाल कसी ऐसी अ नवचनीय स ता का बोधक है िजसे बहु धा परम त व,
परमा मा अथवा म जैसी सं ाओं से अ भ हत कया जाता है। नगु ण भि त धारा के
लए कहा जाता है क वह सव थम मु सलमान के भारत म आकर बस जाने क नवीन
प रि थ त म एक ‘सामा य भि त माग' के प म चला था और यह उस काल क
च लत सगुणोपासना से भ न एक ऐसी साधना को लेकर वक सत हु आ था जो
एके वरवाद के कसी अ नि चत व प के ऊपर आधा रत रह और वह कभी मवाद
क तरफ झु कता था तो कभी पैग बर खु दावाद क ओर इसक ओर जाने वाल सबसे
पहल वृि त जा त-पाँ त स ब धी भाव के याग एवं ई वर भि त के लए मनु य
मा के समान अ धकार क वीकृ त म दख पड़ी थी। नगु ण का य धारा का धान
वतक कबीर को माना जाता है। नगु ण का य धारा म फर दो धाराएँ नकल ं एक
‘ ान माग ’ तथा दूसर ‘ ेम माग ’ िजसका वतक सू फ संत जायसी को माना जाता
है। इस कार नगु ण धारा एक सा हि यक वृि त है िजसम संत क वय क रचनाएँ
एवं सू फ संत क ेम गाथाएँ एक साथ चलती ह। तु लना मक ि ट से य द दे खा जाए
तो नगु ण का य धारा समाज के अ धक नजद क दखाई दे ती है। सामािजक ढ़य ,
कु र तय , आड बर से समाज को मु त कराने का दा य व समझने वाल इस धारा के
संत क वय ने इसी उ े य को लेकर का य सृजन कया। सा दा यकता और जा त
ब धन से मु त होकर कबीर ह दू और मु सलमान दोन को समान प से लताडते ह
तो सू फ संत म लक मोह मद जायसी ह दू कथा प ावत के मा यम से सारे संसार

140
को ेम का संदेश दे ते ह। न कषत: कहा जा सकता है क भि त काल के वग करण
म इन दोन धाराओं का ह द सा ह य मे समान मह व है।

9.3 राम भि त का य पर परा


आलो य वषय राम भि त का य का मूल ोत सं कृ त म र चत ‘बा मी क रामायण’
को माना जाता है क तु राम भि त का वा त वक चार- सार गो वामी तु लसीदास क
रामच रतमानस के वारा ह हु आ माना जाता है। रामान द क पर परा म उनके कु छ
समकाल न संत जैसे ‘संत नामदे व’ और ‘ लोन’ महारा म रामच रत मानस का गान
कर राम का य क म हमा का चार- सार कर रहे थे तो उ तर म तु लसीदास से पूव
‘सू दन' और ‘बेनी क व’ ने भी इस का य पर परा को बढ़ाया था। ह द म रामच रत
को सव थम उजागर करने वाले क व 'भू प त’ माने जाते ह। उ ह ने 12वीं शता द के
उ तरा म दोहा चौपाई शैल म रामकथा लखी थी। 15वीं शता द म ‘मु नलाल’ ने
र त शा ानुसार ‘रामकथा’ का सृजन कया था। इसके बाद भी लगातार राम का य
लखा जाता रहा होगा क तु उसका कोई ठोस माण नह ं मल सका। फर 16वीं
शता द के उ तरा म राम का य के पयाय ‘गो वामी तु लसीदास’ का समय आया।
उ ह ने रामान द क लोक स ता का स चा संगठन कया और रामच रत मानस क
रचना करके ह द सा ह य और ह दू समाज मे युगा तर उपि थत कया। इस लए
जहाँ सा हि यक ि ट से तु लसी ह द के उ कृ ट महाक व ह वह ं ह दू समाज के
उ थापक एवं र क भी ह। आज का ह दू धम तु लसी का ह दू धम है। राम भि त
शाखा का पूण प रपाक तु लसीदास के राम का य म हु आ है। तु लसी के बाद राम भि त
का य थोड़ा बहु त वक सत हु आ क तु उसका नाम एवं भाव तु लसी क लोक यता
के नीचे दब गया िजसका दूसरा कारण कृ ण भि त पर परा का उदय भी माना जाता
है। तु लसी के अ त र त बौ ने ई वी सन ् के कई शताि दय पूव राम को बो धस व
मान कर राम का य को अपने जातक सा ह य म थान दया। इस कार ‘दशरथ
जातक', 'अनामक जातकम’ तथा ‘दशरथ कथानकम’् ये तीन जातक उ प न हु ए। इनका
मू ल ोत स भवत: रामकथा स ब धी ाचीन आ यान का य है। आगे चल कर बौ
म रामकथा क लोक यता घटने लगी अत: अवाचीन बौ सा ह य म राम का य का
अभाव नजर आता है।
बौ क भाँ त जैन मतावलि बय ने भी रामकथा को अपनाया और जैन सा ह य म
इसक लोक यता शताि दय तक बनी रह िजसके फल व प एक अ य त व तृत
जैन राम का य क सृि ट हु ई। वमल सू र ने पहले पहल ई वी सन ् क तीसर शता द
म ‘पउमच रय' ( ाकृ त मे) लख कर रामकथा को जैन धम के साँचे म ढालने का
य न कया िजसका सं कृ त पा तरण र वसेन ने सन ् 660 ई. म कया था जो
प च रत के नाम से स है। ह द सा ह य के इ तहास म ह द खड़ी बोल क यह
ग य रचना मह वपूण थान रखती है। आगे चल कर और भी जैन क वय ने र वसेन
के आधार पर राम का य क रचना क िजनम मु ख ह सं कृ त म हे मच कृ त 'जैन
141
रामायण’ (12वीं शता द ), िजनदास कृ त ‘राम पुराण ’ (15वीं शता द ), प दे व वजय
गणी कृ त ‘रामच रत’ (12वीं शता द ), अप श
ं म स यभू देव कृ त ‘पउनच रय' (8वीं
शता द मे) क नड भाषा म नागच द कृ त ‘प परामायण’ (11वीं शता द मे) तथा
दे व प कृ त ‘राम वजयच रत’ (16वीं शता द मे)। कहने का ता पय यह है क राम
का य पर परा बहु त ाचीन और व तृत है ले कन न केवल भारत म अ पतु पूरे व व
म राम को परमा मा के प म त था पत करने का काय जैसा तु लसी ने कया वैसा
कसी अ य क व ने नह ं।

9.4 राम भि त का य धारा क मु ख वृि तयाँ


राम भि त का य धारा क मु ख वृि तयाँ न न ल खत ह -
1. राम का य का मु य वषय रामच रत है। इसम व णु के राम प क भि त का
तपादन मलता है। तु लसी ने राम को पूण म माना है। रामच रत मानस के
अर य कांड म गीध तु त करता है –
जे ह ु त नरं जन म यापक, बरज अज क ह गाबह ं।
कर यान यान वराग जोग अनेक मु न जे ह पावह ं।
सो कट करनाकंद सोभा वृ द अग जग मोहई।
मम दय पंकज भृं ग अंग अनंग बहु छ व सोहई।
त काल न राजनै तक एवं सामािजक प रि थ तय के अनु प तु लसी ने राम के
मयादा पु षो तम एवं शि त, शील और सौ दय के नधान- व प का सु दर
च ण कया है। डॉ. राम कु मार वमा के अनुसार ‘राजनी त क ज टल प रि थ तय
म धम क भावना इस कार अपना उ थान कर सकती है यह राम का य ने
प ट कर दया।' राम का य का मह व इसी महत ् काय से प ट है। मु गल का
स पूण दे श पर अ धप य हो जाने के बाद इ लाम धम का चार- सार वाभा वक
था। ऐसी ि थ त म दे श को एक बार पुन : ह दू धम क ओर मोड़ने का दु ह
काय तु लसीदास ने अपने राम का य के मा यम से कया।
2. राम का य म वै णव धम के आदश क पूण त ठा है। इनम वै णव धम के
आदश के वारा सेवक-से य-भाव क उपासना पर जोर दया गया है -
सेवक से य भाव बनु, भव न ज रय उरगा र।
3. राम का य म ान, कम और भि त क अलग-अलग मह ता प ट करके भि त
को सव े ठ बताया है। राम भ त क व जीवन का परम ल य भि त को मानते
ह। इस जीवन से परे एक जीवन है उसका सु ख इसी जीवन के कम के वारा
स भव है। तु लसी मानस के उ तराखंड म कहते ह -
बड़े भाग मानुष तन पावा। सु र दुलभ स थि ह गावा।।
साधन धाम मो कर वारा। पाई न जे ह परलोक सँवारा।।

142
इस जीवन म सब कार का साफ य ा त करने के लए भि त ह सु लभ साधन
है। राम भि त को ह तु लसी स पूण जीवन-प र ध का के ब दु मान कर चले
ह। राम से उनक वन या ा म ऋ ष-मु न या माँगते ह तु लसी इसका वणन
मानस के अर यकांड म कु छ इस तरह करते ह -
जोगु ज य जप तप जत क हा। भु कहु ँ दे ई भग त वर ल हा।।
4. मयादापूण वणन : राम का य म ाय: मयादा क झलक मलती है और तु लसी ने
तो राम को मयादा पु षो तम के प म तु त कया है इस लए सम त वकार
से र हत रामच रत को संसार के सामने तु त कया है। मयादा के कारण ह
गृं ार और वशेष कर संयोग गृं ार का इसम पूण प रपाक नह ं दखाई दे ता क तु
यह बात तु लसी जैसे मयादाशील क व के अ त र त अ य क वय म दखाई नह ं
दे ती। 18वीं सद म राम-का य म माधु य भावना का भाव धीरे -धीरे दखाई दे ने
लगा। यह कृ ण का य क माधु यमयी उपासना का भाव माना जा सकता है।
इस लए रामायण, सखी स दाय म 'अ टयाम’, ‘नख शख’ इ या द के वणन मलते
ह। वैसे राम का य म नवरस का योग है य क रामकथा इतनी यापक है क
उसम स पूण भाव का अपूव सहयोग हो जाता है। तु लसी के मानस म मानव
जीवन क व वध प रि थ तय एवं भावनाओं का बड़ा मा मक च ण है। यह
महाका य है, अत: इसम वभावत: नवरस का न पण मलना आव यक है क तु
दा य भाव क भि त का आदश होने के कारण नवद-ज य शांत रस ह इसका
धान रस है। हा य रस का राम-का य म ाय: अभाव ह दखाई दे ता है।
5. का य प क व वधता : राम-का य म ाय: सभी कार क रचना शैल दे खने
को मलती है। इसम य-का य के साथ-साथ य-का य के ल ण भी वशेषत:
मलते ह। वह ं ब ध का य के साथ-साथ मु तक रचनाओं का भी अथाह भ डार
है जैसे - तु लसीदास क रामच रतमानस ब ध का य है तो वनय प का मु तक
का य। आचाय हजार साद ववेद ने तु लसीदास के राम-का य को दस व वध
प म वग कृ त कया है।1. दोहा चौपाई वाले का य, 2. क वत सवैया प त 3.
दोह म आ या म और धम नी त के उपदे श, 4.बरवै छ द, 5. सोहर छ द,
6. वनय के पद, 7. ल ला के पद, 8.वीर का य के लए उपयोगी छ पय, तोमर,
नाराच आ द क प त, 9. दोहे म सगुण वचार, 10. मंगल का य। इसके
अ त र त भी राम-का य धारा के कु छ क वय ने कु छ नवीन का य प का योग
कया है िजनम दयराम और ाणच द चौहान ने रामकथा को य-का य के प
म तु त कया है। दे खा जाए तो दे श- वदे श म होने वाल रामल लाएँ राम-का य
का य प ह है। आचाय केशवदास ने ‘रामचि का’ म व भ न छ द का
योग कर रामकथा लखी है। राम-का य का सव कृ ट प ‘मानस’ म ह मलता
है तो मु तक शैल म वनय प का इसका सु दर उदाहरण है।

143
6. भाषा. राम-का य क रचना धानत: अवधी भाषा म हु ई। तु लसी के अलावा राम-
का य ज भाषा म भी लखा गया है। तु लसी क रचना वनय प का म ज
भाषा को दे खा जा सकता है तो केशव क राम चि का ज भाषा का सु दर
उदाहरण है। राम-का य चाहे ज म हो अथवा अवधी म भाषा क ि ट से स पूण
राम-का य प रमािजत है। उ त दोन भाषाओं के अ त र त बुस
ं दे ल , भोजपुर आ द
ादे शक भाषाओं म भी य -त फुटकर राम-का य का सृजन होता रहा है।

9.4.1 राम-का य क अ य वशेषताएँ

1. राम भि त का य शाखा म व णु के अवतार राम क से य-सेवक भाव से


आराधना क गई है। तु लसी ने प ट कहा है -
से य-सेवक भाव बनु, भव न त रय उरगा र।
2. ान और भि त का समान मह व वीकार करते हु ए भी इस शाखा के क वय ने
भि त क धानता को वीकार कया है। रामच रतमानस के उ तरका ड म भि त
के मह व पर व तारपूवक काश डाला गया है।
3. राम के लोक र क प क थापना और उसके वारा समाज और प रवार क
यव था का संदेश इस शाखा क सबसे बड़ी वशेषता है। य द रामच रतमानस को
ह दू समाज का संक लत सं करण कहा जाए तो कोई अ तशयोि त नह ं होगी।
4. राम का सवागीण च ण करने के कारण इस शाखा के सभी क वय क शैल
ब धा मक रह है। य मु तक का य भी राम भि त शाखा म सृिजत हु ए ह।
5. ज और अवधी दोन ह भाषाओं म राम-का य क रचना हु ई है। तु लसी राम-
का य के े ठ क व कहे जा सकते ह। अपने आरा य के त तु लसी क अंध
भि त उस समय दे खी जा सकती है जब वे वृ दावन के बाँके बहार मि दर म
राम के दशन हे तु पहु ँ चे और कहा-
कहा कह छ व आपक , भले बने हो नाथ।
तु लसी म तक तब नवे, धनुषबाण लो हाथ।।
राम भि त शाखा ने ह भारतीय जनमानस को अ धका धक प म भा वत कया
था। रामच रतमानस स पूण समाज के लए आदश तु त करता है। यह कारण है
क शताि दय से रामच रतमानस का मह व ह दू समाज म वीकारा जाता रहा
है।

9.5 राम भि त का य एवं उसके मु ख रचनाकार


वै णव भि त म रामोपासना का अि त व कृ णोपासना से अ धक ाचीन है। ईसा क
14वीं शता द के म य म रामानुजाचाय ने इसक थापना ी स दाय के प म क।
िजसके धानाचाय राघवान द नयु त कए गए। उ ह ं क पर परा म रामान दजी इस
स दाय म द त हु ए। िज ह राम भि त शाखा का सं थापक माना जा सकता है।
वामी रामानुजाचाय ने राम को व णु के प म माना था क तु रामान द ने

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दशरथजी राम के प म राम क थापना क । इस लए राम भि त शाखा का सं थापक
इ ह ह माना जा सकता है। रामान दजी को उ तर भारत म भि त स दाय का
वतक भी माना जाता है। कहा भी गया है ‘भि त ा वड़ ऊपजी लाये रामान द’
द ण के आलवार संत म भि त का काफ वकास हो चु का था और वह ं से भि त
रामान द क वाणी म उ तर भारत म पहु ँ ची। इस भि त क लहर को उ तर म लाने
वाले रामान द का मह व इस कारण भी बढ़ जाता है क उनके श य सगुण और
नगु ण दोन तरह के उपासक थे। भ तमाल म रामान द के बारह श य का वणन
मलता है - अन तानंद, सु खानंद, सु रसु रानंद, नरहयानंद, भावानद पीपा, कबीर, सेना,
धना रै दास, प ावती और सु रसुर । इनम आधे भ त सगुण मतावल बी ह तो आधे
नगु ण मतावल बी। रामान द ने अपनी पर परा म राम भि त को मह व दया था।
उ ह ने राम और सीता को ह एकमा परमारा य माना और भि त म फैले हु ए
आड बर को दूर कर वै णव धम म तीन बड़े सुधार कए – 1. भि त माग म जा त
भेद क संक णता मटाई और वयं ने कई छोट समझी जाने वाल जा तय के लोग
को श य बनाया। 2. इ ह ने सं कृ त क अपे ा जनता क भाषा म अपने मत का
चार कया। इस कार 15वीं शता द म राम सा ह य लोक सा ह य बन गया। ह द
सा ह य के कु छ व वान तो इसी सा ह य को ह द सु धार पर परा का उ नायक
मानते ह। लोक च लत भाषा एवं का य प को धानता दे कर रामान द ने भि त
सा ह य को नवीन ि टकोण दान कया। 3. का य के वषय म उ ह ने आमू लचू ल
प रवतन कया। लोक मयादामूलक सदाचारपण राम भि त को मह व दया और
सा ह य म इस नवीन आदश को च लत कया। इनक ेरणा पाकर ह ह द का य
म जीवन का नि चत ल य एवं आदश ति ठत हु आ और इस आदश का आल बन
मयादा पु षो तम राम का च र बना।
रामकथा का मू ल ोत सं कृ त म र चत वा मी क रामायण को माना जाता है पर तु
जन-जन तक रामकथा पहु ँ चाने का ेय गो वामी तु लसीदास को जाता है। वा मी क
और तु लसी के अ त र त रामकथा क लोक यता बौ सा ह य म और जैन सा ह य
म भी कम नह ं है। बौ सा ह य म तीन जातक म रामकथा मलती है तो वह ं जैन
सा ह य म रामकथा को जैनाचाय ने जैन सा ह य के अनुकू ल बना लया है। ईसा क
थम शता द म वमल सू र से रामका य क पर परा का ार भ होता है और 8वीं
शता द म जैन महाक व वयंभू ने वमल सू र क पर परा म अप श
ं भाषा का योग
कर ‘पउमच रउ’ नामक रामकथा का जैन धम के लए सृजन कया। इसके अ त र त
पु पदं त व महाक व रइधू ने भी जैन सा ह य म रामकथा का वणन कया है। आगे
चल कर राम सा ह य अवधी और ज भाषा म जन-जन तक पहु ँ चा िजनम नामदे व,
लोचन, सू दन, बैनी, भू प त, मु नीलाल आ द रामान द के समकाल न क व रहे और
इसी पर परा म आगे गो वामी तु लसीदास ने राम सा ह य को जन सा ह य बना दया।
तु लसी क मु ख रचनाएँ : गो वामी तु लसीदास क ‘रामच रतमानस’ के अ त र त
अ य कु छ रचनाएँ भी ह जो रामच र को लेकर काफ मह वपूण है िजनम वनय

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प का, रामलला नहछू वैरा य संद पनी, रामा ा न, जानक मंगल, राम सतसई,
पावती मंगल गीतावल , कृ ण गीतावल , बरवै रामायण, दोहावल , क वतावल आद
मु ख ह। तु लसीदास जी ने अपनी रचनाओं म अपने समय तथा पूववत काल म
च लत सभी शै लय का व नयोग कया है। उ ह ने सभी का य णा लय को राममय
बनाने का तु य यास कया है। उनका ल य था भि त भाव पूवक ी राम का
गुणगान और इसके लए उ ह ने सम त लोक य का य शै लय को अपनाया।
रामच रतमानस : रामच रतमानस तु लसी क अमर कृ त है। भाव और कला दोन ह
ि टय से यह ह द सा ह य क उ कृ ट रचना मानी जाती है। यह एक ऐसी रचना है
जो एक वशेष युग म रची गई ले कन युग -युग तक इसका मह व बना रहे गा।
तु लसीदास ने मानस क रचना सं. 1631 व. (1574 ई.) म आर भ क थी। इसका
नदश वयं क व ने इस कार दया है -
संवत सोरह सै इकतीसा, करौ कथा ह रपद घ र सीस।
नौमी भौमवार मधु मासा, अवधपुर यह च रत कासा।।
आज शताि दय बाद भी रामच रतमानस का भारतीय समाज म उतना ह मह व है
िजतना 15वीं शता द म था। नमल जल क तरह बहते हु ए रामच रतमानस नवरस
का भ डार है -
नवरस जप तप जोग बरागा। ते सब जलचर चा तडागा।
––– ––– –––
चल सुभग क वता स रता सो। राम बमल-जस-ज भ रता सो।
इतना ह नह ं राम और म के म य सामंज य था पत करके तु लसी ने सगुण और
नगु ण के म य सामंज य था पत कया है -
राम म परमारथ पा। अ वगत अलख अना द अनूपा।।
रामच रतमानस के मा यम से तु लसी ने भारतीय सं कृ त के उ वल प को तु त
कया है तो वह ं दूसर ओर उस युग क वभी षका को भी मानस म थान दया है।
मानस म आदश क पूण र ा क गई है। आदश गु , आदश माता- पता, आदश भाई,
आदश प नी, आदश पु , आदश राजा, आदश जा और आदश समाज का सु दर
च ण मानस म दे खने को मलता है। कला क ि ट से भी यह उ कृ ट कृ त है।
इसम बड़े वाभा वक संवाद, ि ल ट च ण, अनोखी एवं अनूठ उि तयाँ तथा कथा का
अ यंत नैस गक वाह दे खने को मलता है-
रामच रत जे सु नत अघाह ;ं रस वशेष पावा तन नाह ं।।
रामच रतमानस भारतीय जन-मानस का त ब ब है। येक भारतीय अपने आपको
रामच रतमानस म पाता है अपनी सम याओं का समाधान वह ं से करता है। वह एक
थ नह ं एक सं था है जो युग से मनु य को राह दखा रह है।
रामच रत स ब धी का य को ाय: ‘रामायण’ कहने क पर परा रह है क तु
गो वामी तु लसीदास ने अपने का य को रामच रतमानस नाम से ह पुकारा। इसका

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वशेष कारण यह है क तु लसी ने इसे मानस पी सरोवर के पक के प म तु त
कया है। सार कथा चार व ताओं के मा यम से सात का ड म तु त क गई है। ये
चार व ता ह इसके चार घाट ह तथा सात का ड इसके सात सोपान। वैसे इस पक
के और भी कई अंग ह जैसे राम क म हमा इसके जलाशय क ग भीरता है, उपमा द
इसक तरं ग ह, छ दा द इसके कमल ह, अनुपम अथ, भाव, भाषा आ द पराग,
मकर द और सु ग ध ह। व तु त: यह पक इसके नामकरण क साथकता स करता
है। यह दूसर बात है क यह इतना अ धक व तृत और बौ क हो गया है क िजससे
इसम का या मक आकषण बहु त कम रह गया है।
मानस क रचना म क व ने सं कृ त, ाकृ त आ द के व भ न पौरा णक एवं सा हि यक
थ का उपयोग स यक् प से कया है। कथा का मू ल आधार वा मी क रामायण है,
क तु उनम अनेक थल पर प रवतन एवं प रवधन भी पया त मा ा म कया गया
है, िजसने क व क मौ लक ि ट का उ मेष मलता है। इसके अ त र त आ या म
रामायण, ीम ागवत, व णु पुराण , शव पुराण , हनुम नाटक, स न राघव, रघुवश
ं ,
उ तर रामच रत आ द थ का भी भाव इस पर व भ न प म ि टगोचर होता
है। जैसा क वयं क व ने ‘नानापुराण नगमागमस मतं य रामायण नग दतं
व चद यतोऽ प’ कह कर वीकार कया है। इसम वभ न ोत क साम ी का
उपयोग वतं तापूवक कया गया है। रामच रतमानस क रचना केवल धा मक ि ट से
ह नह ं उसम का या मक ल य भी क व के सामने प ट प से व यमान था -
तैसे हं सु क व क वत बुध कह हं। उपज हं अन त अनत छ व लह हं।
––– ––– –––
जद प क वत रस एको नाह ं। राम ताप कट य ह मांह ।
––– ––– –––
जे ब ध न हं बुध आदरह ं। सो म बा द बाल क व करह ।ं
––– ––– –––
क ह ाकृ त जन गुन गाना। सर-धु न गरा लाग प छताना।
उपयु त पंि तय म क व, क वता एवं का या मकता का उ लेख इस बात का माण है
क क व ने भले ह श टता एवं न ता के नाते अपनी रचना को का य व से शू य
कह दया है, क तु उसक आ त रक इ छा अपनी रचना को का या मक ि ट से भी
सफल बनाने क अव य रह है। तु लसी म धा मक भावनाओं क बलता होते हु ए भी
वे अपनी रचना क का या मकता के त भी सचेत रहे ह। तु लसीदास क ब धा मक
रचनाओं के स ब ध म यहाँ सामा य प से इतना ह कहना उपयु त होगा क उनक
क त का अमर आधार त भ रामच रतमानस है।
तु लसीदास के अ त र त कृ ण भि त का य पर परा के कु छ संत क वय ने भी राम-
का य का सृजन कया है िजनम मु ख ह सू रदास। इ ह ने रामभि त वषयक कु छ
सु दर पद क रचना क है िजनका रामभि त का य धारा म वशेष मह व है जो
गीता ेस गोरखपुर से का शत हु ई है। सू रदास के अ त र त वामी अ दासजी क
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रामभि तमयी का य रचनाएँ भी मह वपूण ह। अ दास के श य नाभादास जी ने भी
रामभि त वषयक क वताएँ रची ह। इनके अलावा केशवदास क ‘रामचि का’ भी राम-
का य का उ कृ ट उदाहरण मानी जाती है। इसका रचनाकाल वयं क व के अनुसार
1658 व. या 1601 ई. है। केशवदास रा या त गृं ार क व थे अत: यह वषय
उनक च के बहु त अनुकूल नह ं था फर भी 17 वष पूव तु लसी वारा र चत
रामच रतमानस क स ने स भवत: उ ह इस ओर आक षत कया क तु उ ह ने
तु लसी के आदश, श प एवं रचनाशैल को वीकार नह ं कया। कदा चत ् इसी लए
उ ह ने अपने का य म कह ं भी तु लसी का उ लेख नह ं कया बि क अपना स ब ध
सीधा वा मी क से था पत कया। केशवदास ने अपने ेरणा ोत के प म व न म
वा मी क दशन को माना। उनका पूरा थ सात का ड क अपे ा 39 काश म
वभ त है। गणेश व दना से ार भ कर राम के च र को व तार दया गया है। यह
अलग बात है क पूववत आलोचक ने रामचि का पर अनेक आ ेप लगाए ह जैसे –
1. ब ध पटु ता एवं स ब ध नवाह क मता केशव म नह ं थी। इस लए
रामचि का अलग-अलग लखे हु ए वणन का सं ह जान पड़ती है। 2. कथा के मा मक
एवं ग भीर थल क पहचान क व को नह ं थी। ऐसे म या तो उन थल को छोड़
दया गया या इ तवृत मा कह कर चलता कर दया गया। 3. य क थानगत
वशेषता इसम कह ं भी नह ं मलती। इन आ ेप के आधार पर ह आचाय रामच
शु ल ने कहा है – ‘ सारांश यह है क ब ध का य रचना के यो य न तो केशव म
अनुभू त ह थी, न शि त। पर परा के चले आते हु ए कु छ नयत वषय के (जैसे यु ,
सेना तैयार , उपवन, राजदरबार के ठाट-बाट तथा गृं ार और वीर रस) फुटकर वणन ह
अलंकार क भरमार के साथ वे करना जानते थे। इसी से बहु त से वणन य ह बना
अवसर का वचार कए वे भरते गए ह। वणन के लए करते थे न क संग या
अवसर क अपे ा से। रामचि का के ल बे और चौड़े वणन को दे खने से प ट होता
है क केशव क ि ट जीवन के ग भीर और मा मक प पर थी। उनका मन राजसी
ठाट-बाट, तैयार , नगर क सजावट, चहल-पहल आ द के वणन म ह वशेषत: लगता
था।‘ इसम कोई संदेह नह ं क केशव को ब ध व क ि ट से ‘रामचि का’ म
अ धक सफलता नह ं मल है तथा आचाय शु ल के अनेक आ ेप सवथा यथाथ ह
क तु साथ ह यह भी प ट है क आचाय शु ल ने केशव के ि टकोण, ल य एवं
वातावरण को समझने का यास भी बहु त ग भीरता से नह ं कया अ यथा यह प ट
हो जाता क केशवदास िजस ल य एवं वातावरण से े रत थे उसम यह स भव था
य क केशव तु लसी क भाँ त भ त और धा मक क व नह ं थे। वे दरबार क व थे
इस लए उनके का य म वैभव क चकाच ध वाभा वक थी। व तु त: कहा जा सकता है
क राम-का य के वटवृ रामच रतमानस के नीचे राम सा ह य के छोटे -बड़े बहु त से
पौधे पनपे िजन सबका भरण-पोषण तु लसी क रामच रतमानस से ह हु आ। आचाय
रामच शु ल के अनुसार – ‘गो वामी जी के पीछे भी कई लोग ने रामायण लखीं,

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पर वे गो वामीजी क रचनाओं के सामने स न ा त कर सक । ऐसा जान पड़ता
है क गो वामीजी क तभा का खर काश 100-150 वष तक छाया रहा इस लये
राम भि त क और रचनाएँ इनके सामने ठहर न सक ।ं ‘ आचाय हजार साद ववेद
के अनुसार – ‘तुलसीदास के अ य त लोक य और भावशाल सा ह य के आगे
परवत काल म भी सभी का य य न फ के पड़ गए। रामच रत को लेकर लखे गए
का य तो उस गौरव तक पहु ँ च ह नह ं सके। रामभि त शाखा के अ या य क व भावी
सा ह य को इसी कार से चा लत या वा हत करने म समथ न हो सके।‘ रामभि त
शाखा म तु लसीदास का थान बहु त मह वपूण है। वे एक कार से रामभि त शाखा
के एकमा उ कृ ट क व एवं सं थापक ठहरते ह।

9.6 सारांश
ह द सा ह य का वण युग कहलाता है 'भि त काल'। भि त काल म भी सगुण धारा
का रामभि त का य मयादा और धम का का य माना जाता है। समाज को सं कार
दान करने वाला का य माना जाता है। वा मी क वारा र चत रामायण के आधार पर
सम त राम-का य का सृजन हु आ क तु सह अथ म राम-का य का चार- सार
तु लसी कृ त रामच रतमानस से माना जाता है। वह उनके महत ् भाव के कारण परवत
राम-का य म दखाई नह ं पड़ता। ह द राम सा ह य म गो वामी तु लसीदास का
एका धप य दखाई दे ता है। तु लसीदास वारा तपा दत दा य भि त राम-का य के प
म इतनी लोक य हु ई क यह पूरा काल ह राममय हो गया। हालां क राम क माधु य
भि त तु लसी के पूव भी व यमान थी पर तु तु लसी ने राम भि त को जो ऊँचाइयाँ द
ह वह अ य कसी राम सा ह य के मा यम से स भव नह ं थी। व तु त: धा मक थ
क इस पर परा म यि त क भावनाओं को अ धक मह व दया गया िजसके कारण
का यशा ीय गुण को अ धक मह व नह ं दया गया अ पतु का य तर क उ चता
एवं का य सौ ठव के वकास क ि ट से ह का य सृजन हु आ। तु लसी जैसा महाक व
इस का य पर परा से जु ड़ा और अपने यापक सम वयवाद ि टकोण, महापु ष के
आदश च र एवं भि त के यापक प क थापना करके एक और धम-र ा, लोक हत
एवं समाज के उ थान म योग दया है तो दूसर ओर का य का उदा त उ कृ ट एवं
लोकमंगलकार प दान करने का तु य काय कया है। अत: यह कहा जा सकता है
क राम सा ह य का पयाय तु लसीदास को माना जा सकता है िज ह ने राम सा ह य के
मा यम से समाज क दशा और दशा दोन को बदल दया।

9.7 श दावल
उपजी-उ प न होना, जे ह-जो, ु त-सु नना और कान, वरज- वरद, गावह -गाना, बराग-
वैरा य, जोग-योग, पाव ह-पाना, मोहई-मोहने वाल , पंकज-कमल, भृं ग-भंवरा, अनंग-
कामदे व, बहु-बहु त, सोहई-सु दर लगने वाल , ज रय-जलना, उरगा र-उजागर होना,
मानुष -मनु य , थि ह- थ म, जोगु-योग ज य-य , ल हा- लया, नवे-झु कना, सोरह-

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सोलह, नौमी-नवमी, भौमवार-मंगलवार, चा -सु दर, तड़ाग-तालाब, सु भग-सु दर, वमल-
नमल, अ वगत-नह ं बीतने वाला ( म), अनूपा - अनुपम , अघाह -थकना, तैसे हं-ऐसे
ह , सु क व-अ छे क व, उपज हं-उ प न होना, लह हं-लेना, माह -अ दर और कनारा,
यापक- व तृत , अव ध-तक और समय, ल ग-से, नयत- ार ध, सरोरहू-कमल।

9.8 अ यासाथ न
(1) राम भि त का य धारा क मु ख वृि तय पर काश डा लए।
(2) भि त का उदय कहाँ हु आ और उ तर भारत म भि त कौन लेकर आया?
(3) तु लसीदास के पूववत और परवत राम भ त क वय का कृ तय स हत प रचय द।
(4) राम भि त का य धारा म मु ख कृ ण भि त क वय के योगदान पर काश
डा लए।
(5) राम भि त सा ह य ने समाज क दशा और दशा को भा वत कया। उ त कथन
क समी ा कर।
(6) रामच रतमानस ह द सा ह य का उ कृ ट थ माना जाता है। उ त कथन क
साथकता प ट क िजए।
(7) तु लसी अपने युग के लोकनायक ह इस कथन से आप कह ं तक सहमत ह,
ववेचन क िजए।
(8) तु लसी के का य के दाश नक प पर काश डा लए।

9.9 संदभ थ
1. वा मी क - वा मी क रामायण, गीता ेस, गोरखपुर 1950
2. गो वामी तु लसीदास - रामच रतमानस, गीता ेस, गोरखपुर 1965
3. वह , वनय प का
4. वह , गीतावल
5. डॉ. राजनाथ शमा - वनय प का (मू ल (आलोचना एवं ट का) वनोद पु तक
मि दर, आगरा, 1964
6. आचाय केशव - रामचि का. गीता ेस, गोरखपुर 1974
7. गो वामी तु लसीदास - पावती मंगल, गीता ेस, गोरखपुर 1949
8. गो वामी तु लसीदास - रामलला नहछु, नागर चा रणी सभा, वाराणसी 1950
9. डॉ. मायारानी ट डन - अ टछाप का य का सां कृ तक मू यांकन , ह द सा ह य
भ डार, लखनऊ, 1980
10. डॉ. गणप तच गु त - सा हि यक नब ध, लोक भारती काशन, इलाहाबाद
1996
11. डॉ. जय कशन साद खंडेलवाल - ह द सा ह य क वृि तयाँ , वनोद पु तक
मं दर मि दर, आगरा 1986

150
12. डॉ. धीर वमा - ह द सा ह य कोष-2, नागर चा रणी सभा, वाराणसी 1978
13. ी नारायण संह – ाि तकार तु लसी, ह द सा ह य स मेलन, याग 1985
14. आचाय रामच शु ल - गो वामी तु लसीदास, ना. .स. वाराणसी 1972
15. डॉ. रामद त भार वाज - गो वामी तु लसीदास, भारतीय सा ह य मि दर, द ल
1988
16. डॉ. व वनाथ साद म - गोसाई तु लसीदास, वाणी- वतान, वाराणसी 1990
17. योहार राजे संह - गो वामी तु लसीदास क सम वय साधना, ना. .स. वाराणसी
1988
18. डॉ. ानवती वेद - गो वामी तु लसीदास क ि ट म नार और मानव जीवन म
उसका मह व, काशी ह दू व. व. वाराणसी, 1978
19. सु ी सु धारानी शु ल - गो वामी तु लसीदास का सामािजक आदश, लखनऊ व. व.
1998
20. डॉ. याम सु दरदास - गो वामी तु लसीदास, ह दु तानी एकेडमी, इलाहाबाद,
1990
21. डॉ. इ नाथ मदान - तु लसीदास च तन और कला, राजपाल ए ड संस, द ल ,
1990
22. सं. उदयभानु संह - तु लसीदास, राधाकृ ण काशन, द ल , 1992
23. डॉ. उदयभानु सह - तु लसी का य मीमांसा, राधाकृ ण काशन, द ल , 1992
24. डॉ. केशव साद संह और डॉ. वासु देव सह - तु लसी संदभ और ि ट, ह द चारक
सं थान, वाराणसी 1994
25. डॉ. च भान रावत - तु लसी सा ह य बदलते तमान, जवाहर पु तकालय, मथुरा,
1980
26. डॉ. चरणदास शमा - तु लसी के का य म नै तम मू य, भारतीय थ नकेतन,
द ल 1982
27. डॉ. बलदे व साद म - तु लसी-दशन, ह द सा ह य स मेलन, द ल , 1978
28. डॉ. भागीरथ म - तु लसी रसायन, सा ह य भवन, इलाहाबाद, 1972
29. डॉ. माता साद गु त - तु लसीदास, ह द प रषद, याग व. व. 1972
30. डॉ. युगे वर - तु लसीदास आज के संदभ म, अ भ यि त काशन, इलाहाबाद,
1980
31. डॉ. रमेश कु तल मेघ - तु लसी आधु नक वातायन से, भारतीय ानपीठ काशन,
वाराणसी 1986
32. सं. डॉ. राममू त पाठ - तु लसी, लोकभारती काशन, इलाहाबाद 1980
33. डॉ. रामरतन भटनागर - तु लसीदास नवमू यांकन, मृ त काशन इलाहाबाद 1999

151
34. डॉ. रामनरे श पाठ - तु लसीदास और उनका का य, राजपाल ए ड स स, द ल
1975

152
इकाई – 10 : र तकाल न का य क प रि थ त
इकाई क परे खा
10.0 उ े य
10.1 तावना
10.2 र तकाल न क समय अव ध (सीमांकन)
10.3 र तकाल न का य क प रि थ त
10.3.1 राजनी तक प रि थ त
10.3.2 सामािजक प रि थ त
10.3.3 धा मक प रि थ त
10.3.4 सां कृ तक प रि थ त
10.3.5 कला मक प रि थ त
10.3.6 सा हि यक प रि थ त
10.4 सारांश
10.5 अ यासाथ न
10.6 संदभ थ

10.0 उ े य
इस इकाई म हम र तकाल न का य क प रि थ तय का अ ययन करगे। इसे पढ़ने के
बाद आप:
1. र तकाल क समय अव ध के बारे म जान सकगे।
2. त काल न राजनै तक, सामािजक, धा मक, सां कृ तक, कला एवं सा ह य क
प रि थ तय से प र चत हो सकगे।
3. युग बोध के प रचय से र तकाल न का य क वृि तय को समझ सकगे।
4. यह भी जान सकगे क र तकाल का सा ह य कस कार युगीन प रि थ तय से
भा वत है।

10.1 तावना
तु त इकाई म व म संवत ् 1700 से 1900 तक क समय अव ध (लगभग) म
बहु लता से लखे गये र तका य क युगीन प रि थ तय पर काश डाला गया है। र त
का य का ार भ भि त काल के कृ ण क वय म दे खा जा सकता है। कु छ क वय ने
कृ ण भि त के प रवेश म अलंकार तथा ना यका भेद आ द का वणन कया है। सू र
क 'सा ह य लहर ’ इसका उदाहरण है।
इस इकाई म सव थम र त काल क समय अव ध पर वचार कया गया है। इसके
प चात ् र तकाल न प रि थ तय क वणन कया गया है। सा ह य अपने समय क
उपज होता है। येक युग के सा ह य का अ ययन यु गीन प रि थ तय को समझे

153
बना अधूरा है। अत: युग क सभी राजनी तक, सामािजक. धा मक, सां कृ तक,
कला मक एवं सा हि यक प रि थ तय का अ ययन इस इकाई म कया जायेगा।

10.2 र तकाल क समय अव ध (सीमांकन)


सा ह य के इ तहास का सीमांकन कसी नि चत त थ या घटना से करना क ठन है,
क तु अ ययन क सु वधा के लये काल वभाजन अ नवाय है। कसी भी सा हि यक
वृि त के पूण प से प रप व होने के पीछे एक सु द घ पर परा या समय अव य
काय कर रहा होता है। कसी काल क सीमा नधा रत करते समय उस काल क
च लत अनेक वचारधाराओं म से मु ख वृि त के आधार पर सीमा नधारण कया
जाता है। र तकाल से पूव भि त काल म ेम एवं गृं ार का वणन करने वाले अनेक
भ त क व हु ए। क तु वृि त क ि ट से भि त क पराका ठा होने के कारण उसे
भि तकाल क सं ा मल । इसी कार उ तर म य काल म भी भ त क व थे क तु
र त का य क चु रता के कारण इसका नाम र त काल हु आ।
र त काल का वा त वक आर भ व म संवत ् 1700 से माना जाता है य क इस
समय से र त का य मु ख प से लखा जाने लगा। र त का य का यह यापक
भाव सं. 1900 तक रहा। अत: र त का य क सीमा 1700 से 1900 तक मानी
जाती है। संवत ् 1700 से पूव कु छ कृ ण भ त क वय के का य म भी र त का य क
वृि तयाँ अलंकार, ना यका भेद आ द का वणन मलता है। उ तर काल म भारते दु
युग म भी र त पर परा पर रचना करने वाल क वशाल पर परा मलती है क तु
इस युग म नवीन का य चेतना क धानता थी। अत: यथाथत: र त पर परा का
समय सं. 1700 से 1900 तक ह माना जाता है।

10.3 र तकाल न का य क प रि थ त
सा ह य के नमाण म युगीन प रि थ तय का मह वपूण योगदान होता है। र तकाल न
सा ह य युगीन प रवेश से पूणत: भा वत था। वग वशेष क अ भ च वारा नय मत
होने के कारण र तका य क वृि तयाँ पूणत: इस युग क प रि थ तय से भा वत
हु ई। अत: इस युग के का य का अ ययन करने से पूव इस युग क प रि थ तय पर
वचार करना आव यक है।

10.3.1 राजनी तक प रि थ त

राजनी तक ि ट से र तकाल मु गल के शासन के चरम उ कष और उसके बाद


उ तरो तर पतन तथा वनाश का युग कहा जा सकता है। र तकाल से पूव स ाट
अकबर ने अपनी स ह णु ता क नी त से ह दू-मुि लम सम वय का काय कया।
अकबर के प चात ् जहाँगीर ने रा य के वकास म कोई योगदान नह ं दया। उसक
सु रा, सु दर क लालसा अव य आगे वाल पीढ़ को वरासत म मल । शाहजहाँ का
काल सु ख शां त और समृ का समय था। वह वयं स ह णु उदार एवं कला ेमी था।

154
ताजमहल और मयूर संहासन का नमाण शाहजहाँ क दशन वृि त का प रणाम था।
कदा चत ् इस दशन वृि त का भाव युगीन का य नमाण पर भी पड़ा।
शाहजहाँ के रोग त होने और उसक मृ यु क अफवाह फैलने के कारण उसके पु
म स ता के लये संघष ार भ हो गया। इसके बाद ह वैभवशाल मु गल सा ा य
पतन क ओर अ सर हो गया। दारा क मृ यु के प चात ् ह दू मु ि लम स ह णु ता टू ट
कर बखर गई। औरं गजेब क सा ा य- व तार ल सा और अतीव धा मक क रता क
नी त से दे शी नरे श ु ध हो गये तथा ह दू जनता परे शान हो उठ । इस नी त ने उसे
सख और मराठ का कोप भाजन बना दया। औरं गजेब को संगीत, सा ह य, कला से
चढ़ थी। वे यावृि त और म यपान नषेध होने पर भी इस समय इनका बंद होना
क ठन था। साम त वग वलासी था। औरं गजेब क मृ यु के प चात ् राजनी तक ि थ त
अ य त वकट हो गई। औरं गजेब के उ तरा धकार अयो य, असमथ एवं वलासी थे।
प रणामत: अनेक दे श के शासक वतं हो गये। आगरा म जाट , राज थान म
राजपूत तथा पंजाब म बंदा वैरागी ने बहादुरशाह को बुर तरह तंग कर दया।
ना दरशाह तथा अहमद शाह अ दाल के आ मण ने मु गल सा ा य क र ढ़ क ह डी
को ह तोड़ दया। सम त दे श म फैले वैमन य का फायदा अं ेज ने ब सर क लड़ाई
म शाहआलम को परा त कर उठाया और मु गल शासन कानूनी प से समा त हो
गया। आगे के मु गल शासक अं ेज क कठपुत लयाँ मा बनकर रह गये।
औरं गजेब के प चात ् उसके उ तरा धकार अमीर वग के मोहरे बन कर रह गये। स ाट
जहाँदारशाह पर लाल कं ु वर वै या का इतना भाव था क सारा राजकाज लालकं ु वर के
संकेत पर चलने लगा। इस वै या ने अपने स बि धय को उ च पद पर नयु त कर
दया, िज ह ने जनसामा य पर अनेक अ याचार कये। नगर के ासाद अपने र तेदार
को दे दये। इस संग म एक इ तहासकार ने लखा है, ' ग के नीड़ म उ लू रहने
लगे तथा बुलबुल का थान कांग ने ले लया।‘ सारं गीवादक और तबला बजाने वाले
उ च पद पर नयु त कये गये। स ाट मु ह मदशाह को तो इ तहासकार ने 'रं गीले'
क उपा ध द है। वह अपना अ धकांश समय नाच-गान और म दरापान म ह यतीत
करता था। वा तव म इस काल म नै तक पतन क पराका ठा थी।
जहाँ तक दे श का न है, र त का य क रचना के े - अवध, राज थान,
बु दे लख ड क ि थ त भी ऐसी ह रह । अवध के वलासी शासक का अंत भी मु गल
के समान ह हु आ। राज थान म बहु प नी था और म यपान इतना बढ़ गया था क
राजपु ष कु च , ष यं और आंत रक कलह के कारण शि तह न होते चले गये।
बु दे ल ने अव य मराठ के साथ मलकर जजर के य शि त से अपने पुराने गौरव
एवं रा य को ा त करने का यास कया पर तु राजपूत के पार प रक व वेष ने
पूण सफलता ा त न होने द । इस कार संगठन क कमी ने मु गल सा ा य के साथ
ह ह दू रजवाड़ और अवध के नवाब को भी पतन के कगार पर ला खड़ा कया।

155
10.3.2 सामािजक प रि थ त

राजतं म नरं कुश राजाओं का वलास य हो जाना कोई आ चय क बात नह ं है।


मु गल शासक भी इसका अपवाद न थे। बाबर, हु माँय,ु अकबर तक तो ि थ त फर भी
ठ क थी क तु नूरजहाँ के ेम म डू बे हु ए जहाँगीर के यि त व म वला सता उ प
म कट हु ई। शाहजहाँ क वैभव यता और वलास ल सा का त काल न सामंतीय
जीवन पर पया त भाव पड़ा।
सामािजक यव था का के ब दु बादशाह था और उसके अधीन थे मनसबदार अथवा
अमीर उमराव आ द। नीचे से लेकर ऊपर तक के कमचा रय का धम अपने ऊपर वाल
को स न रखना और नीचे वाल का शोषण करना था। न न वग म आता था मक
वग जो बेगार करके भी पेट नह ं भर पाता था। शासक वग क आय यापार एवं
कृ षक वग क कमाई पर चलती थी और कभी अ तवृि ट , अनावृि ट आ द के कारण
कृ ष क भी हा न हो जाती थी। यह मार भी इ ह ह सहनी होती। कु ल मलाकर इस
युग म गर ब क आ थक ि थ त अ य त शोचनीय थी और शासक वग म कये
बना ह स प न था।
दशन वृि त के फल व प अ भजा य सं कृ त के नाम पर राजा और उसके अमीर
उमराव के पास रखैल क भरमार थी। नार को केवल मनोरं जन और वलास क
साम ी समझा गया। सामंतीय युग क पु ष ि ट नार के शार रक सौ दय तक
सी मत रह उसक अनुपम शि त-स प न अ तरा मा तक न पहु ँ च सक । म यपान
और युत डा इनके जीवन का अंग बन गई थी। जीवन के कसी अ य प या संघष
से इनका कोई सरोकार न था।
जनसाधारण क श ा, च क सा, सु र ा आ द का भी इस काल म कोई समु चत
ब ध न था। ऐसी ि थ त म लोग भा यवाद एवं अनै तक मू य से त हो गये थे।
यो त षय क वाणी, शकु न शा वचार आ द का बोलबाला था। वलास क धानता
ने भि त भावना के वार को कमजोर कर दया था। सव दा सय क मांग थी। राजा
और अमीर वग के लये वलास के उपकरण एक त करना ह न न वग का एकमा
काय रह गया था। नार को अपनी स पि त मान कर उसका भोग इनके जीवन का
मू ल मं बन गया था। इस कार नै तक मू य के पतन के साथ ह इस युग म
समाज यव था के भी कोई मापद ड न थे। इस लये उ च वग नरं कुश होकर वलास
म डू बा रहा और न न वग असहाय हो उनक उं ग लय पर नाचता रहा।

10.3.3 धा मक प रि थ त

स यता और सं कृ त के पतन के युग म धा मक आ था के बंधन भी कमजोर पड़


गये थे। मनोबल क कमी के कारण समाज का बौ क तर बहु त न न हो गया था।
वलासी उ च वग के युग म धम के कसी उदा त प क क पना असंभव थी। अत:
अंध व वास और बा य आड बर को ह लोग धम समझते थे। पं डत और मु ला लोग

156
धम के सवसवा बन गये थे। अत: अ श त जनता के लये उनके कथन तथा फरमान
ह इस दशा म वेद वा य और कु रान थे।
कृ ण भ त क वय के आरा य राधा-कृ ण क प व भि त और ेम का थान र त
च ण और काममयी ड़ाओं ने ले लया। भगवान के थान पर राधा कृ ण गल
मु ह ले के नायक-ना यका मा बन कर रह गये। सू र क रागा मक भि त को समझने
क शि त न तो र तकाल के क व म थी और न अप र कृ त मि त क से यु त
सामा यजन म।
राम भि त के वभ न स दाय क ि थ त भी यह रह । शि त और मयादा के
तीक पु षो तम राम को र सक स दाय म सामा य काम ड़ा करने वाले नायक के
प म तु त कर दया। याग मू त सीता को भी सामा य वलासी ना यका के प म
च त कया जाने लगा। राम भि त म भी इस युग के क व ने संयोग ल लाओं के
च ण के अवसर ढू ँ ढ नकाले।
नगु ण भि त-स दाय पर भी युगीन वलास-वृि त का भाव पड़ा और सू फय के
अनेक पंथ म थूल गृं ार, नख शख वणन तथा ना यका भेद का वणन होने लगा।

10.3.4 सां कृ तक प रि थ त

धा मक अव था के समान ह इस युग क सां कृ तक अव था भी अ य त शोचनीय


थी। अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ क उदारवाद नी त से ह दू-मु ि लम सं कृ त नकट
आने लगी थी वह ं औरं गजेब क क रता ने इन दोन के मेल क स भावनाओं को ह
समा त कर दया। वलास धान युग म अपनी-अपनी धा मक आ थाओं पर क र
रहना सभी के लये मु ि कल था। फलत: धम के र क पं डत और मु लाओं का
स ब ध त व चंतन से छूटकर भौ तकता के साथ हो गया।
वै णव स दाय के मठाधीश राजाओं और सामंत को गु द ा दे ने म गौरव अनुभव
करने लगे। मं दर म ऐ वय और वलास क ल लाएँ होने लगी और लोग राम-कृ ण क
ल लाओं म अपने वलासी जीवन क संग त खोजने लगे थे। इ लाम धम भी
ढ़वा दता के बढ़ने से जीवन क वा त वकताओं से हट गया था। दोन ह धम मू ल
स ा त से हटकर बा य आचरण के पालन तक सी मत रह गये थे।
धम के साथ नी त का जो स ब ध होता है, उससे वलासी स प न वग एकदम दूर हो
गया था और वलास के साधन से ह न न न वग मनोरथ स हे तु पुजार और पीर
क शरण लेने लगा। इस ि थ त म धम थल टाचार और पापाचार के के बन
गये थे। धमकथाओं के पाठ भी मनो वनोद तक सी मत रह गये। उनका नै तक या
आ याि मक भाव ऐसे वलासी युग म अस भव था।

10.3.5 कला मक प रि थ त

कलाओं के वकास के लये इस युग क राजनै तक ि थ त अनुकू ल थी। सामंती


वातावरण म फलने-फूलने वाल कला दशन वृि त का सश त मा यम थी। अत:

157
आ यदाताओं के मनोनुकू ल कला म वासना मक च ण ह मु ख रहा। र तकाल म
पर परागत ि टकोण का नवाह होता रहा। तभावान होने पर भी कलाकार अपनी
वतं तभा और सृजन के े ठ प का दशन न कर सका। आ यदाता क
अ भ च का वशेष यान रखने के कारण च कला म नायक-ना यकाओं के ढ़ब
च एवं पौरा णक कथाओं पर आधा रत च म भी कलाकार क न छल अ भ यि त
नह ं हो पाई है। युग अ भ च के अनुसार राधा-कृ ण ह नह ं राम-सीता और शव-
पावती के भी अ ल ल च उकेरे जाने लगे। मू त नमाण कला क भी यह दशा थी।
इसम भी र तयुगीन सभी वृि तयाँ गृं ा रकता , चम कार वृि त , रोमानी वातावरण क
सृि ट आ द दखाई दे ती है।
च कला के अ त र त इस युग म थाप य कला और संगीत कला का भी अपना
वशेष भाव रहा। दोन कलाय यय सा य होने के कारण य य प रा या य म ह
फल -फूल और जन जीवन से इनका स ब ध दूर होता गया। शाहजहाँ को य य प
संगीत का अ छा ान था तथा प उसका झान थाप य कला क ओर अ धक रहा।
इस लये शाहजहाँ के काल म यह कला अपने चरम उ कष पर रह । आगरा के
ताजमहल और द ल का द वाने खास मू तकला और च कला के सामंज य के
अनुपम उदाहरण ह। औरं गजेब के समय कलाओं क ि थ त भी शोचनीय हो गई
य क उसका सारा यान मं दर को तोड़कर मि जद के नमाण क ओर था। संगीत
कला का तो वह क र वरोधी था। मु ह मदशाह ने अव य संगीत-कला को पुन : जी वत
करने का यास कया।
मु गल दरबार और अवध के नवाब के अ त र त इस काल के ह दू राजाओं के आ य
म भी कलाओं को य मला। क तु कु ल मलाकर संगीत कला हो या च कला सभी
का वकास आ यदाताओं क च के अनुकू ल ह हु आ। का य के समान सभी कलाओं
म भी दशन वृि त के दशन अ धक होते ह।

10.3.6 सा हि यक प रि थ त

र त काल का आर भ शाहजहाँ के शासन काल के उ तरा से होता है। शाहजहाँ वयं


कला ेमी शासक था। उसक कला यता का भाव थाप य एवं च कला के समान
सा ह य पर भी पड़ा। दशन धान र तब का य शैल तथा का य म र सकता धान
गृं ार क अ भ यि त युगीन प रवेश क दे न है। शां त और समृ के इस युग म
सा ह य और कला का सु चपूण वकास हु आ। तभावान क व कलाकार के लये
मु गल स ाट एवं दे शी राजा नवाब के दरबार हमेशा खु ले रहते थे। समाज के
ति ठत लोग म क व-कलाकार क गणना होती थी। स ाट और सामंत नज
गुणगान के लये उ तम कलाकार क खोज म रहते थे। इससे सा ह य का भी खू ब
वकास हु आ।
फारसी मु गल क राजक य भाषा थी अत: इसक अलंकार धान शैल का भाव इस
युग क येक भाषा पर पड़ा। इस समय फारसी शैल म लैला मजनू ं आ द क रोमानी

158
कहा नयाँ नब हो रह थी िजसका भाव र तकाल न का य पर भी प टत: दे खा जा
सकता है। क तु क व चम कार के उपकरण के लये फारसी क अपे ा सं कृ त क
ओर उ मु ख हु आ। भारतीय भाषा होने के कारण सं कृ त-का य शा के बताये सौ दय
के उपकरण उसे अ धक अनुकू ल जान पड़े। र त थ
ं क रचना भी दरबार क व ने
अपने साम य के दशन एवं युगीन का य र सक को का य शा का ान कराने के
लये ह क थी। र त क व को दरबार म फारसी के क व के साथ तयो गता म
उतरना होता था इसी लये भि तकाल के प व राधाकृ ण को उसे रोमानी बनाना पड़ा
और उनके च र को फारसी नायक-ना यका के अनु प गढ़ना पड़ा। यह कारण है क
र त क व को गृं ा रक वातावरण के सृजन के लये राधाकृ ण, राम-सीता आ द को
सामा य मानव च र क भाव भू म पर लाना पड़ा।
इधर जन समु दाय म ऐसे क व भी व यमान थे जो वतं प से का य क रचना
कर रहे थे। ये क व राजक य वातावरण से दूर थे अत: इनक रचनाय का यशा ीय
उपकरण एवं दशन वृि त क बुराइय से दूर रह । इसी कारण इनका का य र तब
क वय क तु लना म अ धक भावी स हु आ। कु ल मलाकर रा या त एवं जन
क वय वारा र चत सा ह य गुण और प रमाण म इतना अ धक है क ह द भाषा
उससे बहु त समृ हु ई है। र तकाल न क वता म जो घोर गृं ा रकता आई है उसके मू ल
म मु गल शासन क शां त-समृ , वलास और भोगमय वातावरण को ह इ तहास
लेखक कारण मानते ह। येक युग का सा ह य युगीन प रवेश क उपज हु आ करता
है। दरबार के र सकता धान वातावरण म अपने यश और गौरव को बढ़ाने के लये
र त क व ने भी उ ह ं त व को हण कया जो युग क मांग थी। र तकाल न गृं ार
पर वा यायन के कामसू का भाव भी असं द ध प से पड़ा। गृं ार ह नह ं र त
का य के शा ीय प पर भी इस भाव को दे खा जा सकता है।
न कष प से राजनी तक यव था म राजतं और सामंतवाद क धानता ने कला को
भी अपने अनुकू ल रं ग म रं ग दया। डॉ. सा व ी कु मार स हा के श द म -
' वाथपरायण राजनी तक यव था, सामंतीय वातावरण, राजनी तक वके करण और
सामािजक अ यव था तथा वलासमूलक वैभवज य दशन धान अलंकार वृि त का
त काल न सा ह य एवं कलाओं क ग त व ध पर बड़ा भाव रहा। युगीन कलाकार क
आ मा पर ये बा य प रि थ तयां एक कार से हावी हो गई थी। चेतना के सू म,
सावभौम और न य त व बा य जीवन क थू ल साधना म लु त हो गये थे। थू ल क
सू म पर वजय के कारण ह युग म र त का य लखा गया।'

10.4 सारांश
इस इकाई म आपने र तकाल न प रि थ तय क जानकार ा त क।
इस इकाई को पढने के बाद आप बता सकगे क र त काल क समय अव ध
भि तकाल के प चात ् व म संवत 1700 से 1900 तक फैल हु ई थी।

159
यह काल मु गल सा ा य के उ तर काल का समय था और युगीन क व दरबार आ य
म रहता था अत: उस वातावरण का भाव ह क वता म आया है। आ यदाताओं क
अ भ च के अनुकू ल सृजन क व का येय था। इस इकाई म राजनी तक, सामािजक,
धा मक, सां कृ तक, कला मक एवं सा हि यक प रि थ तय के मा यम से आपने
युगबोध का प रचय ा त कया।

10.5 अ यासाथ न
1. र तकाल क समय अव ध पर वचार क िजए।
2. र तकाल क राजनी तक प रि थ त समझाइये।
3. र तकाल क समाज यव था पर काश डा लए।
4. र तकाल क धा मक एवं सां कृ तक प रि थ तय पर वचार क िजए।
5. र तकाल क कला एवं सा हि यक ि थ त को प ट क िजए।

10.6 संदभ ंथ
1. डॉ. नगे (सं.) - ह द सा ह य का इ तहास, नेशनल पि ल शंग हाऊस, द ल
2. डॉ. ब चन संह - ह द सा ह य का दूसरा इ तहास
3. रामच शु ल - ह द सा ह य का इ तहास
4. डॉ. धीरे वमा (सं.) - ह द सा ह य कोष - भाग- थम

160
इकाई - 11 : र तकाल न क वता का व प - र तब .
र तस और र तमु त का य
इकाई क परे खा
11.0 उ े य
11.1 तावना
11.2 र तकाल न क वता : अथ एवं व प
11.2.1 र त श द का अथ
11.2.2 र तकाल न क वता का व प
11.3 र तब का य
11.3.1 अथ एवं व प ववेचन ( वशेषताएँ)
11.3.2 मु ख र तब कव
11.4 र त स का य
11.4.1 अथ एवं व प ववेचन ( वशेषताएं)
11.4.2 मु ख र त स कव
11.5 र तमु त का य
11.5.1 अथ एवं व प ववेचन
11.5.2 सामा य वृि तयाँ
11.5.3 मु ख र तमु त क व
11.6 सारांश
11.7 अ यासाथ न
11.8 संदभ थ

11.0 उ े य
तु त इकाई म र तकाल क क वता का अ ययन कया जायेगा। इसे पढने के बाद
आप :-
1. बता सकगे क र त श द का अथ या है,
2. र तकाल न क वता के व प से प र चत हो सकगे।
3. र तब , र त स और र तमु त का य क वशेषताओं से प र चत हो सकगे।
4. र तकाल के मु ख क वय का प रचय ा त कर सकगे।
5. आचाय पर परा म केशव का थान जान सकगे।
8. सतसई पर परा म बहार का थान या है जान सकगे।

161
11.1 तावना
व मी संवत ् 1700 से 1900 (लगभग 1643 से 1843 ई.) के समय को उ तर
म यकाल या र तकाल के नाम से जाना जाता है। इस युग का क व 'दरबार क व’ था,
उसक क वता का उ े य आ यदाता को स न कर अथ क ाि त था। अत: दशन
वृि त के कारण आचाय कम और क व कम का एक साथ नवाह होता रहा। र तब
का य के अंतगत आप ऐसे क वय का अ ययन करगे। िजन क वय ने ल ण थ
ं क
रचना न करके केवल इन थ
ं के आधार पर अपनी रचनाय लखी। इसी युग म कु छ
क व ऐसे भी हु ए िज ह ने अपनी भावनाओं क अ भ यि त वतं प से क है।
र तमु त का यधारा के अंतगत आप ऐसे क वय का अ ययन करगे। इनके अ त र त
ह द क र त थ पर परा और आचाय केशव, सतसई पर परा और बहार ,
र तमु त का य क नवीनता आ द वशेष ान का भी प रचय ा त कर सकगे।

11.2 र तकाल न क वता : अथ एवं व प


11.2.1 र त श द का अथ

सं कृ त का य शा म वामन ने सव थम 'र त’ श द का योग कया। उनके अनुसार


' व श ट पद-रचना र त है। वामन ने इसे का य क आ मा वीकार कया है। ह द
म व याप त के समय से र त श द का अथ का य रचना प त तथा उसका नदशक
शा होने लगा। र तकाल न आचाय क वय ने इसी अथ म पंथ श द का भी योग
कया। इस युग म र त श द का अथ रस, अलंकार, श द-शि त, छं द आ द का यांग
का न पण माना जाने लगा। अत: र त क व या र त थ
ं म र त श द का स ब ध
का य शा से समझना चा हये। ह द म र त का य का अथ है ल ण के साथ
अथवा ल ण के आधार पर लखा गया का य। 'र त का य' वह का य है िजसक
रचना व श ट प त अथवा नयम को ि ट म रखकर क गयी है। इस युग के
अनेक क वय ने सं कृ त का य शा क बंधी बंधाई प रपाट पर अपने का य क
रचना क इसी लये इसे र त का य नाम दया गया।

11.2.2 र तकाल न क वता का व प

र तकाल म रा या त क वय म से अ धकांश तथा कु छ जनक व ऐसे थे, िज ह ने


आ म- दशन एवं क व श ा दे ने के कम के कारण र त थ का नमाण कया। इन
क वय क मु ख वृि त र त- न पण क ह थी। ऐसे क व आचाय कहलाये।
आ यदाताओं को स न करने के लये गृं ा रक रचनाएँ लखी अत: गृं ा रकता इस
युग क मु ख का य वृि त कह जा सकती है। भि तकाल के बल धा मक सं कार
के चलते भि त और नी त भी राज शि त के साथ इनक क वता म गौण वृि त के
प म आ गई है। अत: इस युग क क वता को तीन मु ख धाराओं म रखा जा
सकता है:-
162
(1) र तब (2) र त स (3) र तमु त

11.3 र तब का य
11.3.1 अथ एवं व प ववेचन (r वशेषताएँ)

र तब का य लेखक वे ह, िज ह ने सं कृ त के का य शा के आधार पर 'का य के


अंग ’ के ल ण दे ते हु ए उनके उदाहरण तु त कये। र त न पण के आधारण पर
इनके मु यत: दो भेद कये जाते ह :-
(1) सवाग न पक - िज ह ने का य के सम त अंग का ववेचन अपने ल ण थ
ं म
कया।
(2) व श टांग न पक - िज ह ने का य के तीन मह वपूण अंग (रस, अलंकार, छं द)
म से एक, दो या तीन का न पण अपने थ
ं म कया।
र तब आचाय क वय म क वता और ल ण थ
ं दोन क रचना का अ ुत सामंज य
दे खने को मलता है। ऐसे थ
ं म कला प क धानता और अलंकार का बहु त
योग कया गया है। राजदरबार आचाय क व का उ े य पाि ड य और कौशल दशन
रहा िजससे क वता म चम कार तो तु त कया पर तु वतं का य चंतन क उपे ा
रह । आचाय व क पधा के कारण र तब का य क व-कम से दूर होता गया िजससे
उसक क वता म उ कृ ट का य वाह क कमी दखाई दे ती है।

11.3.2 मु ख र तब कव

केशव : केशव का ज म एक धना य ा मण कु ल म हु आ। इनके पता का नाम


काशीराम था जो सं कृ त के धु रंधर व वान थे। केशव ओरछा नरे श महाराज इ जीत
क राजसभा म रहा करते थे जहाँ इनका बहु त मान था। केशव आचाय और क व दोन
प म ह मह वपूण है। हम पहले उनके आचाय प क समी ा करगे।
ह द के र त थ
ं क पर परा और आचाय केशव
ह द सा ह य म र त पर परा का एक नि चत आधार है और यह एक सु वक सत
पर परा के सहारे चल है। इसका ेरणा- ोत सं कृ त के का यशा ीय थ
ं ह। भि त
युग के उ तर काल म र तका य क पर परा पड़ी। इस धारा के वतन का ेय
नि चत प से आचाय केशवदास को है।
र त का य म लखा गया सबसे पहला ं (1598) कृ पाराम क
थ हत तरं गणी है।
इसका आधार भरत का ना यशा और भानुद त क 'रस मंजर ’ है। मोहनलाल म
का ‘ गृं ार सागर’ (सं. 1616), रह म के 'बरवै ना यका भेद', नंददास कृ त 'रसमंजर ’ -
ये तीन ना यका-भेद स ब धी ं ह। क व करनेस ने 'कणाभरण-भू षण’ ' ु त भू षण’

और 'भू प भू षण’ तीन थ
ं अलंकार वषय पर लखे। नःसंदेह केशवदास से पूव इन
उपयु त र त थ
ं का णयन हो चु का था पर तु इनम कोई भी मह वपूण भाव
रखने वाला थ
ं नह ं है। र तका य का सबसे पहले सह शा ीय न पण आचाय

163
केशव ने ह अपनी र सक या और क व या म सवागत: कया है। उ ह ने भाषा का
काय, क व क यो यता, क वता का व प और उ े य, क वय के कार, का य रचना
के ढं ग, क वता के वषय, वणन के व वध प, का य दोष, अलंकार, रस, वृि त आ द
वषय पर अपने नजी ढं ग से काश डाला है। केशव ने का य के सभी सौ दय
वधायक धम को अलंकार कहा है। इस कार केशव वारा गृह त अलंकार बहु त
यापक ह, उसे का यशा के पर परागत सी मत अथ म समझना संगत न होगा।
उसम श द अथ और श दाथ अलंकार के अ त र त ाकृ तक य तथा समाज का
यापक नर ण भी समा हत है। इनम य य प का यशा ीय वषय का पूण ववेचन,
पूण ान और मौ लक स ांत-सजन क मता का अभाव है। वे चम कार य और
अलंकारवाद क व ह। उनका स ांत वा य है -
जद प सु जा त सु ल छनी, सु बरन सरस सु व ृ त।
भू षण बनु न वराजई, क वता ब नता म त।।
केशव ने भाषा क वय के सामने ह द का य रचना का एक नवीन माग खोल दया,
जो शु सा हि यक रचना का माग था। इस लये केशव का मह व भारतदु ह र च के
समान उनके परवत लेखक ने बराबर वीकार कया है। उ ह ने वीरगाथा पर परा को
अपनाते हु ए 'वीरदे व संह च रत’ तथा 'जहांगीर जस चि का’ लखी। ान और भि त
क का य पर परा म ' व ान गीता’ और 'रामचि का’ का णयन कया। साथ ह
'क व या’ और 'र सक या’ लखकर र तका य क प रपाट भी डाल । इस कार
भि तकाल म होते हु ए भी उ ह ने एक सु नि चत र त का य पर परा का वतन
कया।
केशव- क व के प म : य य प केशव का आचाय प धान है तथा प उनका क व
प भी उपे ा-यो य नह ं कहा जा सकता। य द वे सू य-च क पदवी न पा सके तो
न सह क तु ‘उडगण’ मा णत होकर सा ह य गगन के यो त प ड म अव य
थान पाते ह। केशव के का य म कला प क धानता है। का य म उ कृ टता लाने
के िजतने कृ म साधन होते ह वे पूण पेण व यमान ह। इनके का य म लेष,
प रसं या वरोधाभास आ द अलंकार के अ छे उदाहरण मलते ह। 'ल क सी लखत
नभ पाहन के अंक’ क ग त क तेजी के लये बड़ी ह उपयु त उपमा है। प रसं या
का सु दर उदाहरण :
'मू लन ह क जहाँ अधोग त केशव गाइये।
होम हु तासन धू म नगर एकै म लनाइये।‘
रामचि का के कथोपकथन बड़े ह सजीव एवं नाटक व से पूण ह। रावण-हनुमान
संवाद यं य से भरा है। क तु पाि ड य दशन और छं द, अलंकार का मोह केशव
छोड़ नह ं पाये यहां तक क वयोगी राम को उलूक क उपमा दे डाल -
'बासर क स पि त उलू क य न चतवत’

164
ऐसा नह ं है उनक वाणी म रस न हो, कह ं कह ं तो बड़ी सरस रचना क है-
मग को म ीप त दूर करे , सय कौ शु भ वाकल-अंचलस ।
म तेउ हट तनको क ह केशव, चंचल चा गंचल स ।।
'क व या’ म क व ने कृ त का वणन कया है क तु कृ त के त वाभा वक ेम
का उनम अभाव ह दखाई दे ता है। द डक वन म भी राज सेवा वृि त उनका पीछा
नह ं छोड़ती-
शो भत द डक क च बनी। भां तन-भां तन सु दर धनी।
सेव बड़े नृप क जनु लसै। ीफल मू र भाव जहँ बसै।
बेर भयानक सी अ त लगै। अक समू ह जहाँ जगमगै।
इसम सेब, बैर के नाम मा आये ह। 'अक' सू य को भी कहते ह। इस श द के आधार
पर उस वन म वादश सू य के होने से लय काल का सा भयानक (बेर) समय
उपि थत कर दया है। इसे लेष का चम कार भले ह कह, क तु द डक वन क
सु र यता दखाई नह ं दे ती है। कह -ं कह ं लेष चम कार के लये यु त क ठन
उदाहरण के कारण उ ह 'क ठन का य का ेत’ भी कहा जाता है। व तु त: केशव के
का य म वे सभी प रसीमाय ह, जो एक राजदरबार क व के जीवन म होना वाभा वक
है। पर जहाँ केशव का मन रमा है वह ं उनका क व- प उभर आया है। केशव क भाषा
जभाषा है, क तु लेषा द श दालंकार का ाधा य होने के कारण उनको सं कृ त
श दावल का भी सहारा लेना पड़ा। केशव के का य म दोष अव य है और दु हता भी
कम नह ं है पर तु क तपय वशेषताओं के कारण सू र और तु लसी के बाद थान पाते
ह। वे ह द र त-पर परा के वतक ह और इस दशा म कु छ न कु छ अनुकरणीय भी
रहे ह।
चंताम ण: आचाय रामच शु ल चंताम ण को ह र तकाल का वतक मानते ह।
य क इ ह ं के प चात ् र त- थ
ं क अ वरल धारा बहती रह । इनके बनाये पांच थ

का य- ववेक, क वकु ल-क पत , का य काश, रसमंजर , पंगल और रामायण म से दो
ह उपल ध ह, क वकु ल-क पत और पंगल। क वकु ल-क पत म इ ह ने का य के
सभी अंग का न पण कया है। इ ह ने ल ण का तपादन दोहा, सोरठा और छ द
म कया है। उदाहरण के लये क व त, सवैया को अपनाया है। दो चार थल पर
प ट करण के लये ग य का भी सहारा लया है। श द शि त और गुण करण को
छो कर इनक शैल गंभीर, वैयि तक एवं वषयानुकू ल रह । सम वयवाद म मट क
का य- न पण क प त का ार भ ह द म इ ह ने ह कया। ' पंगल' इनका छं द
स ब धी थ
ं है िजसम व वध छं द के उदाहरण जभाषा म दये गये ह।
आचाय कम के साथ-साथ इनका क व कम भी मह वपूण है। रसवाद होने के कारण
इनके का य म वशेषत: गृं ार रस का स यक् ववेचन मलता है। इ ह ने अपनी
सहज-अनुभू तय को सरल श द म अ भ य त कया है। य द इ ह र त-पर परा का

165
वतक आचाय न भी मान तो ह द के सवाग न पक सव थम सफल आचाय तो ये
ह ह। कव व क ि ट से भी इ ह म तराम के समक माना जाता है।
म तराम : रस स क व म तराम चंताम ण और भू षण के भाई थे। इनके पता का
नाम र नाकर पाठ था। म तराम अनेक राजाओं के आ य म रहे थे। ये सरस,
ल लत एवं सु कु मार रचना के धनी थे। इनक स रचनाय ह : ल लत ललाम,
रसराज, फूल मंजर , छं दसार पंगल, म तराम-सतसई, सा ह य सार, ल ण गृं ार और
अलंकार पंचा शका। सा ह यसार म ना यका भेद का वणन है और ल ण- गृं ार म
भाव , वभाव का वणन है
ना यका भेद के उदाहरण अ य त सरस ह जो क का य का सु दर नमू ना है। जैसे:
कं ु दन को रं ग फ कौ लगे, झलके अ त अंग न चा गौराई।
अँ खन म अलसा न, चतौन म मंजु वलासन क सरसाई।।
को बनु मोल बकात नह ं म तराम लहे मु सका न मठाई।
य- य नहा रये नेरे हवँ नैन न य - य नकरै -सी नकाई।।
म तराम क क वता सु कु मार, सु दर, कोमल क पना के गुण से स प न है। उसम
भाव क कृ मता नह ं है। म तराम पहले क व बाद म आचाय ह। दा प य जीवन के
वशु , नर ह एवं न कपट च उतारने क कला म म तराम र तकाल के े ठ
क वय म गने जाते ह।
भू षण : चंताम ण और म तराम के भाई भू षण ह द के सव थम और सव े ठ वीर
रस के क वय म एक है। महाराज छ साल और शवाजी इनके य आ यदाता रहे ।
भू षण ने का य का उ े य गृं ा रकता के थान पर वीर व जगाना रहा। शवराज
भू षण, शवा बावनी, छ साल दशक, भू षण उ लास, दूषण उ लास तथा भू षण हजारा
इनक रचनाय ह। इनम थम तीन थ
ं ह ा त ह। शवराज भू षण म अलंकार के
ल ण दे कर उदाहरण म शवाजी क वीरता पर क व त और सवैये लखे ह। भू षण
और दूषण उ लास अलंकार और दोष पर लखे थ
ं ह। भू षण वीर रस के ह क व
थे। ह द सा ह य म भू षण का मह व वीर रस के क व के नाते है।
इ िज म जंभ पर, बाड़व सु अ ब पर,
रावन संदभ पर रघुकुल राज है।
पौन वा रवाह पर श भु र तनाहु पर,
य सह बाहु पर राम वजराज है।
दावा दुम दं ड पर, चीता मृग झु ंड पर,
भू षण वतु ंड पर जैसे मृगराज है।
तेज तम अंश पर, का ह िज म कंस पर,
य ले छ बंस पर सेर सवराज है।
इस कार भू षण क क वता म शवाजी और छ साल के गौरव गान के प र े य म
रा यता एवं ह दू मू य के त उनक न ठा का भी बोध होता है।

166
दे व : दे व भी र तकाल के स क व माने जाते ह। शु ल ने इ ह सना य ा मण
माना है। म ब धु इ ह का यकं ु ज ा मण मानते ह। जी वका नवाह के लये ये
अनेक आ यदाताओं के पास रहे । अंत म इनका मन भोगीलाल के यहाँ अ धक रमा।
इनके थ
ं क सं या 72 कह जाती है। िजनम से 25 उपल ध बताये जाते ह। इनम
मु ख ह - भाव- वलास, अ टयामी, भवानी वलास, ेमतरंग, कु शल- वलास, दे व च र ,
जा त वलास, ेम-चि का, सु जान वनोद, श द-रसायन, सु ख सागर तरं ग, राग
र नाकर, ेम-प चीसी, त व दशन-प चीसी, आ मदशन प चीसी, दे वमाया- पंच आ द।
दे वच रत और माया पंच को छो कर शेष थ
ं का य शा से स ब ह। इ ह ने
का य के सभी अंग का वणन अपने व वध थ
ं म कया है। दे व मु यत: गृं ार रस
के क व ह। वैरा य क भावना, गृं ार जीवन क त या के प म ह समझनी
चा हये। इनक रचनाओं म गृं ार रस ओर क पना क उड़ान का पया त योग रहा है।
दे व क अ भ यंजना शैल भी क वता को सरस और दय ाह बना दे ती है।
सांसन ह म समीर गयो अ आँसु न ह सब नीर गयो ढ र।
तेज गयो गुन लै अपनो अ भू म गई तनु क तनुता क र।।
दे व िजय म लबेई क आस कै, आसहु पास अकास रहयो भ र।
जा दन ते मु ख हे र हरै हँ स हे र हयो जु लयो ह रजू ह र।।
भखार दास, पदमाकर, इस युग के अ य मह वपूण ल ण थ
ं कार क व हु ए ह।
कु लप त म , ीप त, सोमनाथ, वाल, बेनी वीन, दूलह, रसल न आ द क व भी इसी
पर परा म आते ह।

11.4 र त स का य
11.4.1 अथ एवं व प ववेचन ( वशेषताएँ)

इस युग म कु छ क व ऐसे भी हु ए िज ह ने र त का य क बंधी-बंधाई प रपाट म


व वास रखते हु ए भी ल ण थ
ं का णयन नह ं कया। इ ह ने वतं थ
ं के
वारा अपनी क व तभा का प रचय दया। राजशेखर ने ऐसे क वय के लये 'का य-
क व’ के पद का यवहार कया। आचाय व वनाथ साद म ने सव थम इ ह र त-
स क व कहा है। इ ह ने र त- थ
ं क रचना न करके का य स ा त या ल ण के
अनुसार का य-रचना क है। अलंकार, रस, ना यका, भेद, व न आ द को यान म
रखकर उ कृ ट का य का सृजन कया है। इनक वशेषता यह है क वे क व व के
लोभ म चम कारपूण उि तयाँ बनाने म ल न होकर क व गौरव के अ भलाषी थे। इनक
क वता म वैयि तकता ने भावप और कलाप दोन म समान प से मह व पाया
है। इ ह ने वतं प से ल ण थ
ं का नमाण नह ं कया, हाँ क वता क पृ ठभू म
म अव य र त पर परा काम कर रह है।

167
11.4.2 मु ख र त स क व : बहार

इनका ज म पुराने वा लयर रा य के बसु आ गो वंदपुर म बताया जाता है। इनके पता
का नाम केशवराय था। इनका ज म संवत ् 1660 म हु आ और 1719 म अपनी
सतसई समा त क । वे जयपुर के महाराज जय संह के आ त थे। इनका जीवन बु दे ल
ख ड, मथुरा, आगरा और जयपुर म यतीत हु आ। जय संह को एक दोहा लखकर
इ ह ने दरबार म अपना भाव जमा लया
न हं पराग नह ं मधुर मधु, न हं वकास इ हकाल
अल कल ह स ब यो, आगे कौन हवाल।।
महाराज नव प र णता प नी के ेम म फँस गये थे, राजकाज क भी चंता न रह ,
मं ी हैरान थे। इस दोहे को पढ़कर महाराज क आँख खु ल गई। पुन : राजकाय म
वृ त हु ए। बहार को अपना दरबार क व नयु त कया और एक-एक दोहे पर एक-
एक अशफ दे ने लगे।
सतसई पर परा और बहार सतसई : संसार का आ द का य मु तक म ह णीत हु आ
है। ाकृ त म सतसई पर परा का आर भ हाल क 'गाथा स तशती' से हु आ। इसम
ाकृ त के अनेक क वय के प य का सं ह है। ाकृ त का दूसरा ं है ‘व जल ग'।

प चात ् इनसे भा वत होकर सं कृ त म अम क ने 'अम क शतक' लखा। भतृह र ने
'शतक य' क रचना क । 12वीं शती म गोवधन ने 'आयास तशती’ क रचना क ।
ह द म कृ पाराम क ' हत तरं गणी’ को सतसई पर परा म थम थ
ं कहा जा सकता
है। मु बारक का 'अलकशतक’ और तलक शतक भी इसी पर परा म आता है। रह म
और तु लसी ने भी सतसई थ
ं क रचना क थी क तु बहार सतसई से ह द म
सतसई परक थ
ं लखने क शैल का खू ब चार हु आ। म तराम, कृ पाराम, रस न ध,
सू यम ल, ह रऔध, वयोगी ह र, रामे वर क ण आ द क सतसइयाँ और दोहावल
उ लेखनीय है। सतसई सा ह य क ाय: सभी वृि तय गृं ा रकता क धानता,
अनेक वषय का समावेश, यथाथवाद ि टकोण, मु तक शैल आ द का योग बहार
ने कया। इ ह ने अलंकार दशन और र त पर परा के च ण आ द नवीन त व का
भी समावेश कया। फर भी 'गाथा-स तशती’ जैसी सहज ताजगी, वाभा वक भावो े क,
द ि त और भावो लास एवं सरलता बहार सतसई म नह ं है। बहार ने लोकभाषा के
मा यम से अपनी अनुभू तय और सरस वा वैद य को य त कया है क तु र त
पर परा के बोझ से उनक क वता बो झल हो गई है। बहार सतसई म मु तक का य
क सम त वशेषताएँ प रल त होती ह इसी लये कहा है-
'सतसैया के दोहरे , य नैनन के तीर
दे खन म छोटे लगे, बेधै सकल शर र।

168
का य समी ा: बहार एक गृं ार क व ह। गृं ार के संयोग प म वे खू ब रमे ह।
अनुभाव के वधान म इनक रसरं जना अ य त भ य बन पड़ी है। हाव-भाव क बहु त
सु ंदर योजना ट य है-
बतरस लालच लाल क मुरल धर लु काइ।
स ह करे , भ ह न हँ से दै न कहै न ट जाय।।
वरह वणन म बहार गंभीर नह ं रह पाये ह। ना यका क सु कुमारता, वरह ताप, वरह
ीणता म बहार कह ं-कह ं औ च य क सीमा का अ त मण कर गये ह। पर तु जहाँ
वे दय से काम लेते ह वहाँ गृं ार के संचार भाव का रसमय च ण है। णयानुभू त
के च ण के साथ बहार सतसई म भि त और नी त के दोहे भी लखे गये ह। अपनी
सतसई म अलग-अलग रं ग भरने के लये ह उ ह ने राधा-कृ ण का नाम मरण कया
है व तु त: बहार भ त बाद म क व पहले ह वह भी अनुराग के अत: भ त दय उ ह
ा त न था। फर भी बहार के भि त और नी त के दोहे मा मक बन पड़े ह -
बड़े न हू जै गुनन बनू वरद बड़ाई पाई
कहत धतू रे सौ कनक, गहनौ गढ़यौ न जाइ।।
कृ त च ण बहार के का य म अ तुत प म ह हु आ है। कह -ं कह ं षडऋतु वणन
आद म कृ त का वतं च ण भी है। वहाँ कृ त च ण मनोरम बन पड़ा है -
र नत भृं ग घंटावल , झ रत दान मधु नीर।
मंद-मंद आवत-च यौ, कं ु जर कं ु ज समीर।
बहार भावशाल क व तो थे ह , इसके अ त र त येक वषय के का ड पं डत थे।
उ ह यो तष, पुराण , ग णत, वै यक, सां य आ द अनेक वषय का ान था जो
सतसई म झलकता है। बहार क भाषा को हम शु जभाषा कह सकते ह। इनक
भाषा म श द गठन और वा य व यास पया त सु यवि थत ह। बहार ने श द क
एक पता और ांजलता पर यान दे कर भाषा के प र कार का माग श त कया है।
बहार र तकाल के लोक य क व ह, उनका का य उस युग क चय और वृि तय
का सु दर नदशन है-
'कर बहार सतसई भर अनेक सवाद’
सेनाप त : सेनाप त ने अपने ं 'क व त र नाकर’ म जो अपना प रचय दया है उसी

के आधार पर इनके पता का नाम गंगाधर द त था और ये गंगा के कनारे अनूप
शहर म रहते थे ऐसा माना जाता है। कु छ इ तहासकार इनका दूसरा थ
ं 'का य
क पदुम’ मानते ह पर तु यह उपल ध नह ं है। क व त र नाकर म पांच तरं ग और
तीन सौ चौरानव छं द ह। इसके अंतगत सेनाप त ने लेष अलंकार, गृं ार, षडू ऋतु,
रामायण और राम रसायन का वणन कया है। थम तीन तरं ग का णयन र त
पर परा को यान म रखकर कया गया है। छं द क मू ल चेतना र तकाल न है
इस लये ये र तब क व ह। सेनाप त का य अलंकार लेष है इस लये इ ह ने पूर

169
क पूर तरं ग लेष अलंकार का चम कार दखाने के लये रची है। गृं ार वणन म,
नख- शख सौ दय, उ ीपन भाव, वय: सि ध आ द का मनोहार च ण हु आ है।
सेनाप त के का य का सव मु ख वै श य ऋतु वणन है िजनम श द और अथ के
चम कार के साथ व णत ऋतु का सहज, यथाथ व प उनके छं द म खरा उतरता है।
यह उनक सू म नर ण शि त का ह प रणाम है क इ ह ने शरद, ी म और वषा
ऋतु के मा मक वणन के ाकृ तक सौ दय से भरे च उकेरे ह-
दे ख छ त अ बर जले ह चा र ओर छोर,
तन त वर सबह को प हटयो है।
महा झर लागै जो त भादव क हो त चलै,
जलद पवन तन सेक मानौ परयो है।
दा ण तर न तरै नद सु ख पाव सब
सीर घन छाँह चा ह बौई चत धरयो है।
दे खो चतु राई सेनाप त क वताई क जु,
ीषम- वषम बरसा क सम करयो है।
चौथी और पांचवी तरं ग म राम का च र और राम भि त-भावना का सु दर वणन है।
सेनाप त जभाषा के स क व ह। भाषा म ओज, साद, माधु य तीन गुण का सहज
संगु फ
ं न है। छं द क नि चत एवं सु नयोिजत लय संतु लत ग त से नतक के पद
संचार का सौ दय बखेरती ह।
वृ द : इनका पूरा नाम वृ दावन था। इ ह ने काशी म रहकर व या अ ययन कया।
काशी से लौटने पर अपनी ज मभू म मेड़ता म इनका बड़ा स मान हु आ। जोधपुर नरे श
जसवंत संह ने इ ह भू म दान क । बाद म औरं गजेब के दरबार म गये और स न
होकर बादशाह ने अपने पु का श क इ ह नयु त कया। सन ् 1707 के लगभग
कशनगढ़ के महाराज राज संह ने वृ द को मांग लया और जागीर दे कर यह ं बसा
दया।
वृ द क रचनाओं म बारह मासा, भाव पंचा शका नयन पचीसी, पवन पचीसी, गृं ार
श ा, यमक सतसई आ द र त पर परा क है। नी त, भि त, वाता आ द पर इनक
अ य रचनाय भी मानी जाती ह। 'बारह मासा’ म बारह मह न का सु दर वणन है।
'भाव पंचा शका’ म गृं ार के व वध भाव के अनुसार सरस छं द लखे ह। जैसे -
आयो अस त बस त सम, नज कंत वदे स दग त लयो है।
बाग न-बाग न को कल कू क, बयो ग न क दुख घोर दयो है।
ता न कमान क बान न सौ, ह न क तन याकु ल काम कयो है।
चातु र नाग र आतु र हवै, तब काहे भलै ग र पौन पयो है?
उपयु त छं द म उ ीपन के प म बसंत का च ण कया गया है। ‘ गृं ार श ा' म
ना यका भेद के आधार पर आभू षण, गृं ार आ द के साथ ना यकाओं का च ण है।
'नयन पचीसी’ म ने के मह व तथा ने वारा कट व भ न भाव का च ण है।

170
‘पवन पचीसी’ म षडऋतु वणन है। 'यमक सतसई' म व वध कार से यमक अलंकार
का व प प ट कया गया है। इस कार वृ द क व क रचनाय र तब पर परा म
मह वपूण थान रखती ह।
रस न ध: इनका वा त वक नाम पृ वी संह था। 'रस न ध’ इनका उपनाम था। इनके
जीवन के स ब ध म अ धक जानकार नह ं मलती। इनका रचना काल 1603 से
11660 ई. माना जाता है। इनक रचनाएँ ह - रतन हजारा, क वत, व णु पद क तन,
बारह मास, रस न ध सागर, हंडोला, अ र ल आ द। इनक या त का मू ल आधार
'रतन हजारा’ नामक दोहा सं ह है जो ' बहार सतसई’ के अनुकरण पर ल खत है। ये
ेम और गृं ार के क व थे। इनके दोह म र तब , वशेषता, अलंकृ त और गृं ार
पर परा ा त होती है:-
लाल भाल पै लसत है, सु दर बद लाल।
कयो तलक अनुराग य , ल ख कै प रसाल।।
इनके का य म अलंकार यता, नख शख सौ दय, सौ दयानुभू त, वरहानुभू त के च ण
क वृि तयाँ दखाई दे ती ह जो र तयुगीन वशेषताएँ ह।
इनके अ त र त नृप श भू, नेवाज, कृ ण क व, हठ जी, रामसहाय, पजनैस, बेनी
वाजपेयी आ द इस वृि त के मु ख क व ह।

11.5 र तमु त का य
11.5.1 अथ एवं व प ववेचन ( वशेषताएँ)

र तब का य के समाना तर इस काल म र तमु त का य क भी रचना हु ई। इस


काल म कु छ ऐसे क व हु ए, िज ह ने र त के बंधन से मु त होकर सा ह य सृि ट क ।
इ ह ने न ल ण थ
ं लखे न बहार क भाँ त र तब रचना लखी। इनम कु छ क व
ऐसे हु ए जो व द े क पीर सु नाते रहे इस वग म घनानंद, आलम, बोधा, ठाकु र

आते ह। दूसरा वग उन क वय का ह िज ह ने ब ध का य लखे, लाल और सू दन
आ द। तीसरे वग म दान ल ला, मान ल ला आ द पर वणना मक ब ध का य लखने
वाले ह। चौथे वग म नी त स ब धी प य और सू ि तयां लखने वाले गरधर,
द नदयाल ग र आ द। पांचवे वग म म ान, वैरा य पर लखने वाले और छठे वग
म वीर रस के फुटकर प य लखने वाले क व आते ह। इनके का य म भावप क
धानता है। इनक शैल अनाव यक अलंकार के बोझ से भी आ ांत नह ं हु ई। इ ह ने
ल ण थ पर परा से मु त होकर का य रचना क इस लये ये व छं द या र तमु त
धारा के अंतगत आते ह। इनके का य म सामािजकता क घोर अवहेलना भी नह ं है
और गृं ार च ण अपे ाकृ त अ धक व थ, संयत और व छ है।

171
11.5.2 र तमु त धारा क कु छ सामा य वृि तयाँ

(1) व छं द, र तमु त क व अपनी का यगत वशेषताओं के त सजग रहे ।


घनानंद ने अपने का यादश का सा ह उ घोष कया है। वे अपने का य माग
को पर परामु त, वछं द मानते ह। भाव वभोर होकर रचना करने वाले ये क व
बौ कता को अपने का य के अनुकू ल नह ं मानते।
(2) ेमानुभू त को आ मा भ यि त क शैल म तु त कया। इ ह ने नायक-
ना यकाओं क योजना कर ेमभाव क यंजना करने के थान पर लौ कक- ेम
यथा के मम को कट कया।
(3) इनका ेम वणन यथा धान है। ेम म संयोग क मा ा कम वयोग क पीड़ा
अ धक हे जो इसे च लत पर परा से भ न करती है।
(4) ाचीन का य पर परा का याग इनक उ लेखनीय वशेषता है। र तकाल म
जहाँ सव आलंका रक चम कार दशन या ना यका भेद का वच व था। इन
क वय ने सहज भाषा म अ भ यि तयाँ द ह। इ ह ने मु हावर , ल णाओं वारा
का य शैल म चम कार, साम य लाने का नया माग खोला।
(5) इनके ेम च ण म उदा तता है ऐि य वासना नह ं जो इ ह र तब क वय
से पृथक करती है। ेम क अन यता के भाव इनक रचनाओं म ढ़ता और
मा मकता से अ भ य त हु ए है। वयोग म अनुभू तय का ाधा य और भी बढ़
जाता है।
(6) जहाँ र तब क व क भाषा अलंकार से जकड़ी रह र तमु त क व ने इस
दशा म नया माग अपनाया। इ ह ने ल णाओं, मु हावर , लोकोि तय के योग
से अपनी भाषा शि त को बढ़ाया। भाषा लोक जीवन क ओर झु क हु ई है।
(7) इस धारा के क व फारसी क का य वृ तय से भा वत है। मु तककला का
सार, उपमान , ब ब म प रवतन, गृं ार म खि डता के वचन क चु रता
आ द फारसी का य का भाव है।
(8) वछं द ि ट के कारण इस धारा के क व ने दे श के सां कृ तक ब ब को भी
तु त कया। ठाकु र ने अपनी रचनाओं म बु दे लख ड के सां कृ तक जीवन को
तु त कया है।

11.5.3 मु ख र त-मु त धारा के क व

घनानंद : घनानंद का ज म सं. 1764 के लगभग हु आ। ये जा त के काय थ थे और


द ल के मु गल बादशाह मु ह मद शाह के मीर मु ंशी थे। एक दन बादशाह ने नाराज
होकर इ ह शहर से नकाल दया। इनक े मका सु जान ने इनके साथ आने से इंकार
कर दया। इस पर इ ह वराग उ प न हो गया और ये वृ दावन जाकर न बाक
स दाय म द त हो गये। सु जान क सु ध इ ह जीवन-भर आती रह ।

172
इनके सु जान सागर, वरह-ल ला, कोकसार, रस-के लव ल और कृ पाकांड नामक थ

उपल ध ह। कृ ण भि त स ब धी इनका एक बहु त बड़ा थ
ं छतरपुर के राज
पु तकालय म है।
घनानंद मु यत: गृं ार रस के क व ह। वयोग गृं ार म इनक वृि त अ धक रमी है।
शु लजी के अनुसार 'ये वयोग गृं ार के धान-मु तक क व ह। ेम क पीर लेकर
इनक वाणी का ादुभाव हु आ। ेम माग का ऐसा वीण और धीर प थक तथा
जबाँदानी का ऐसा दावा रखने वाला जभाषा का दूसरा क व नह ं हु आ।' इनके का य म
ेम क सू म से सू म अनुभू तय का मम पश च ण हु आ है। वैरा य अव था म भी
ये सु जान को भु ला न सके इस लये भि त स ब धी का य म भी कृ ण के ेम मय
प को ह थान मला है। ये ेममाग के सीधे प थक है-
अ त सु धो सनेह क मारग है, जहँ नैकु सयानक बाँक नह ।ं
तहँ साँचे चले तिज आपनपौ, झझके कपट जो नसाँक नह ं।।
घनआनंद यारे सु जान सुनौ, इन एक ते दूसर आँक नह ं।
तु म कौन सी पाट पढ़े हो लला, मन लेहु पै दे हु छटाँक नह ं।।
इनक भाषा म अलंकार, छं द, का य गुण अथात ् यंजना शि त का कु शल योग आ द
वशेषताएँ आती ह। जभाषा का चलतापन और सफाई जो घनानंद म मलती है
अ य दुलभ है। वे एक सहज भावुक क व थे उ ह अपने दय के भाव का
प ट करण ह अपे त था -
'लोग तो ला ग क व त बनावत, मो हं तो मेरे क व त बनावत।
आलम : इनका क वता काल 1740 से 1760 संवत ् माना जाता है। ये औरं गजेब के
पु मु अ जमशाह के रा या त क व थे। ये जा त के ा मण थे। शेख नाम क
रं गरे िजन से ेम करते थे। इनक क वताओं का सं ह 'आलम-के ल' के नाम से नकला
है।
आचाय शु ल ने इनके स ब ध म लखा है 'ये ेमो नत क व थे और अपनी तरं ग के
अनुसार रचना करते थे। इसी से इनक रचनाओं म दय त व क धानता है।' श द
वै च य, अनु ास , उ े ा आद क वृि त इनम वशेष प से पाई जाती है। ये
फारसी के ाता थे फर भी इनके का य म भारतीय का य पर परा का सु दर प से
पालन हु आ है। इनम व छं द ेमधारा के क वय के सभी गुण मलते ह।
बोधा : ये राजापुर के रहने वाले थे। इनका असल नाम बु सेन था। ये महाराजा प ना
के दरबार म रहते थे। इनका क वता काल 1630 से 1850 संवत तक माना जाता है।
घनानंद क भाँ त ये भी दरबार क 'सुभान ' नामक क वे या पर आस त थे। राजा ने
इ ह भी दे श से नकाल दया। इसी समय इ ह ने ' वरह वार श’ का य क रचना क ।
इनक दूसरा का य 'इ कनामा’ है िजस पर फारसी का भाव प ट है।

173
इनक रचनाओं म र त क वय से भ न ेम का उ लास मलता है। इ ह ने अपनी
मौज के अनुसार मम पश ेम के प य क रचना क है। ये एक भावुक और रस
क व थे। इनक क वता घनानंद के समान है -
जब ते बछुरे क व बोधा हतू, तब वे उरदाह थरातो नह ं।
हम कौन स पीर कह अपनी, दलदार तो कोई दखातो नह ं।।
ठाकु र: इनका ज म ओरछा म 1823 म हु आ। ठाकु र का जोधपुर और बजावर के
रा य म बड़ा मान था। इनक रचनाओं का एक सं ह लाला भगवान द न ने 'ठाकु र-
ठसक नाम से का शत कराया था। इनक रचनाओं म एकां तक ेम का वाह है।
फारसी का य धारा का इन पर अभी ट भाव पड़ा है। इनके का य म मन क उमंग
का च ण सहज वाभा वक भाव म अ भ य त हु आ है। इनक भाषा म बोलचाल के
श द का सहज वाह दखाई दे ता है।
गरधर क वराय : अनुमान है क गरधर क वराय 18वीं शती के आर भ म हु ए ह गे।
इ ह ने नी त वषयक कं ु ड लयां लखी ह। गरधर म यकाल के स गृह थ के सलाहकार
थे। इनक भाषा सरल और बोधग य है। 'दौलत पायन क िजये सपन म अ भमान'
आ द इनक कं ु ड लयां अ य त सु दर बन पड़ी है।
इनके अ त र त लाल, सू दन, वजदे व आ द इस धारा के स क व ह।

11.6 सारांश
इस इकाई म आपने र तकाल न क वता के व प के बारे म जानकार ा त क।
इस इकाई को पढने के बाद आप बता सकगे क 'र त’ कसे कहते ह।
र तकाल का क व राजदरबार म रहने वाला दरबार क व था उसक क वता का उ े य
आ यदाता को स न कर यश एवं अथ क ाि त था। उसने चारण क वय के समान
केवल शि त गान न करके राजाओं के मनोनुकू ल गृं ारपरक रचनाओं का नमाण
कया। र तब , र त स एवं र तमु त का य धाराओं के मा यम से र तकाल न
क वता क वशेषताओं से प र चत हो सक।
आचाय पर परा म केशव एवं सतसई पर परा म बहार का या थान है इसक
जानकार ा त कर सक।
मु ख क वय के मा यम से र तकाल न क वता के वैभव के बारे म जान सक।

11.7 अ यासाथ न
(1) र त श द का अथ लखते हु ए र तकाल न मु ख का य धाराओं का प रचय
द िजए।
(2) र तब का य से आप या समझते ह?
(3) र त स का य कसे कहते ह, इस धारा के कसी एक क व के का य क
समी ा क िजए।
(4) र त मु त का य क वृि तय पर एक आलेख ल खए।

174
(5) आचाय पर परा म केशव का या थान है समझाइये।
(6) सतसई पर परा म बहार सतसई का थान बताइये।
(7) र तकाल न क वता के व प का ववेचन क िजए।

11.8 संदभ पु तक
1. स पादक डॉ. नगे - ह द सा ह य का इ तहास, नेशनल पि ल शंग हाऊस
द ल
2. शव कु मार शमा - ह द सा ह य युग एवं वृि तयाँ , अशोक काशन, द ल
3. आचाय रामच शु ल - ह द सा ह य का इ तहास, याम काशन, जयपुर

175
इकाई -12: आधु नक का य क पु टभू म
इकाई क परे खा
12.0 उ े य
12.1 तावना
12.2 आधु नकता का व प
12.3 भारत म आधु नक युग
12.4 आधु नक युग क वशेषताएं
12.5 रा य-चेतना और नवजागरण का संबध

12.6 नवजागरण और उप नवेशवाद वरोधी भारतीय वाधीनता सं ाम
12.7 समाज सु धार क यापक वृि त
12.8 भारत म आधु नक युग क चेतना का व प
12.9 ह द े क वशेष प रि थ तयां और आधु नक काल का आगमन
12.10 ह द े म टश नी तय का ह द सा ह य पर भाव
12.11 आधु नक ह द का य का ज म एवं वकास
12.12 आधु नक ह द का य क पृ ठभू म का मू यांकन (सारांश)
12.13 संदभ थ
12.14 अ यासाथ न

12.0 उ े य
आधु नक का य क पृ ठभू म वषयक तु त इकाई को पढने के प चात ् छा
न न ल खत न का उ तर दे सकगे -
 'आधु नक युग ' से या अ भ ाय है?
 म यकाल नता से आधु नकता कैसे भ न है?
 पि चमी रे नसां (नवजागरण) का आधु नकता से या संब ध है?
 पि चमी सा ह य और कलाओं म आधु नकतावाद वचार कब अ धक च लत हु ए?
 भारतीय नवजागरण कब से माना जाए?
 भारतीय नवजागरण और उप नवेशवाद का या संब ध है?
 भारतीय नवजागरण का व प या है?
 भारतीय वत ता-सं ाम और आधु नकता म या स ब ध है?
 आधु नक ह द का य, म यकाल न का य धाराओं से कैसे भ न है?
 आधु नक भारतीय भाषाओं म नवजागरण क अ भ यि त कन प म हु ई है?
 र तका य से आधु नक - का य कस कार भ न था, छा यह बता सकगे?
 आधु नक क वता क मु ख वृि तय का प रचय छा दे सकगे ।

176
12.1 तावना
कसी भी युग के सा ह य को समझने के लए आव यक है क हम उस युग के
भौ तक और वैचा रक प रवेश को ठ क से समझ । सा ह य अपने युग क उपज होने
के साथ-साथ उसका मागदशक भी होता है। आधु नक युग का सा ह य िजस प रवेश म
वक सत हु आ उसे समझने के लए हम आधु नक युग को लाने वाल ि थ तय और
वचारधाराओं का अ ययन करना आव यक तीत होता है ।
तु त इकाई म हम आधु नक, आधु नकता, आधु नकतावाद और समसाम यकता क
अवधारणाओं को समझने का यास करगे । आधु नकता बोध और म यकाल नता बोध
का अ तर भी समझने क को शश करगे । पि चम म आधु नक युग का ार भ कब
और कैसे हु आ तथा पि चमी नवजागरण क इसम या भू मका थी यह भी जानने का
यास करगे । तु क क राजधानी कु तु नतु नया पर अरब ने 1453 म अ धकार कया
था तब सैकड़ वचारक अपने थ स हत इटल भाग आए और उ ह ने रोमन और
यूनानी वचार को चा रत कया था । यह ं से पि चमी नवजागरण (रे नेसा) का ार भ
माना जाता है ।
तु त इकाई म हम भारतीय नवजागरण के व प को समझने का यास भी करगे ।
ह द े का नवजागरण अ य े के नवजागरण से कैसे भ न था इसे भी समझने
का यास करगे । भारत म आधु नक युग का आगमन उप नवेशवाद से कैसे भा वत
हु आ यह भी जानगे । भारत म आधु नक युग , उप नवेशवाद वरोधी संघष का प कैसे
ले लेता है इस पर भी वचार करगे । आधु नक युग क वशेषताओं पर वचार करते
हु ए हम इस युग क मू ल संवेदना को समझने का यास करगे । इस इकाई म ह द
सा ह य के वकास को ि टगत रखते हु ए इस बात को भी प ट करगे क र तका य
कैसे आधु नक का य म बदल गया है । ज भाषा का थान खड़ी बोल ने और
दरबार क वता का थान आम आदमी के का य ने कैसे ले लया । रा यता क
भावना ने त काल न सा ह य को कस तरह से भा वत कया इस पर भी वचार
करना आव यक है । आधु नक युग म छापेखाने के आगमन और ह द -ग य के
वकास से जनचेतना कैसे भा वत हु ई इस पर भी वचार कया जाएगा । आधु नक
ह द सा ह य से ठ क पहले जो र तकाल न का य रचा जा रहा था, आधु नक युग का
का य कन अथ म क य और श प के तर पर उससे अलग हु आ इस पर भी इस
इकाई म वचार करना उपयोगी होगा । इकाई के अ त म भारतीय भाषाओं के स दभ
म ह द के आधु नक युगीन सा ह य पर तु लना मक ि ट से सं ेप म वचार कया
जाएगा ता क हम जान सक क आधु नकता क मू ल वृि तयां कहां तक स पूण
भारतीय सा ह य को भा वत कर रह थीं । ह द सा ह य के आधु नक काल म
भारते दु युग , ववेद युग , छायावाद युग तथा छायावाद परवत युग का स पूण
सा ह य आ जाता है, िजसम ग य और प य क व भ न वधाओं म रचा सा ह य

177
शा मल है । इस वशाल सा ह य क मू ल- वृि तय को समझने के लए तु त इकाई
म ववे चत पृ ठभू म सहायक रहे गी ।

12.2 आधु नकता का व प


(क) आधु नक, आधु नकता आधु नकतावाद एवं समसाम यकता
'अधु ना' धातु से आधु नक, आधु नकता और आधु नकतावाद श द बने ह । 'अधु ना' का
कोशगत अथ है `इस समय का' या 'अब का' । इस कार आधु नकता का स ब ध
वतमान काल से जोड़ा जा सकता है पर तु सा ह य म 'आधु नक' श द केवल काल
सू चक न होकर कु छ नई वृि तय अथवा ि थ तय का सू चक है । वतमान म बहु त
कु छ ऐसा घ टत होता रहता है जो पारं प रक, पुरातन अथवा ढ़वाद है क तु िजसे
आधु नक नह ं कहा जा सकता । 'आधु नकता' से अ भ ाय उस नए भावबोध से है जो
पि चम म नवजागरण से प हवीं शता द म ार भ हु आ और भारत म 19वीं
शता द के नवजागरण और वाधीनता सं ाम के प रणाम व प सामने आया ।
'आधु नकतावाद', आधु नकता का ढ़ प है, िजसम आधु नकता के बा य च ह , पर
अ धक बल दया जाता है पर तु उसम नयेपन का अंश मश: मटता जाता है और
वह ढ़ हो जाता है । 'समसाम यक' (contemporary) श द भी काल सूचक तीत
होता है, पर तु यह भी सा ह य म वैचा रक वृि तय से जु ड़ा है । यह नता त
वतमान से न जु ड़कर उस कालख ड वशेष से जु ड़ा रहता है िजसम कोई खास वचार
अथवा वृि त सवा धक भावी रहती है । उ नीसवीं और बीसवीं शता द म
आधु नकतावाद वचार भावी थे इस लए 'आधु नकता' हमार समसाम यकता थी ।
आज इ क सवीं शता द म आ थक उदार करण, वै वीकरण और सू चना- ाि त के
कारण उ तर-आधु नकता का दौर चल रहा है इस लए आज हमार समसाम यकता
'उ तर आधु नकता' है ।
(ख) म यकाल नता बोध और आधु नकता बोध
आधु नक काल से पूव जो युग था उसे म यकाल क सं ा द गई है । आधु नकता,
म यकाल नता से कस कार भ न है इस पर वचार करना उपयोगी होगा ।
म यकाल वह युग था जहां जीवन के के म ई वर, धम तथा आ था थी । यूरोप म
यह युग चच के वच व का था तथा पोप क स ता पूरे यूरोप म मा य थी । इस युग
म हर शंका, हर न का उ तर धमशा और धमगु ओं के वचन म खोजा जाता
था । उ चत और अनु चत क कसौट धमशा ह थे । जीवन धा मक व वास . और
आ थाओं के सहारे चलता था तथा धा मक व ध नषेध ह जीवन को प रचा लत करते
थे । कह सकते ह क दाश नक ि ट से यह युग धा मक व वास और आ थाओं का
युग था । नवजागरण के साथ ह व ान ने ग त क और इन आ थाओं पर न
च ह लगने लगा । वै ा नक ि ट से वकास के साथ-साथ ानोदय का युग ार भ
हु आ िजसम माना जाने लगा क मानवीय ान एवं ववेक से सार सम याओं का

178
समाधान संभव है । वै ा नक खोज से औ यो गक ाि त स भव हु ई िजससे यूरोप म
समृ आई और पू ज
ं ीवाद का वकास होने लगा । मानवीय च तन के के म ई वर
और धम क जगह व ान और मनु य आ गया तथा मानववाद को ह सव तम मू य
वीकार कया जाने लगा । इस कार दाश नक ि ट से आधु नकता तक, वै ा नक
ि ट तथा ानोदय का प रणाम थी । आ थक वकास क ि ट से म यकाल न अथ-
यव था रा य आव यकताओं क पू त हे तु उ पादन पर टक थी िजसे लघु और
कु ट र उ योग पर आधा रत अथ- यव था भी कह सकते ह । यह एक सीमा तक
यापा रक पू ज
ं ीवाद अथवा रा य पू ज
ं ीवाद क ि थ त थी । आधु नक युग म
औ यो गक ाि त के कारण वशाल कारखाने लगे, बड़े-बड़े शहर यूरोप म उभरे और
उ पाद को बेचने के लए उप नवेश क खोज ार भ हु ई । आ थक ि ट से यह युग
सा ा यवाद, पू ज
ं ीवाद और अबाध औ योगीकरण का युग था । राजनी तक ि ट से
म यकाल साम तवाद, राजाओं के दै वी अ धकार और राजतं को मा यता दे ने का युग
था । आधु नक युग के औ योगीकरण और पू ज
ं ीवाद ने यि तवाद को बढ़ावा दया ।
ांस क ाि त ने इस भाव को ढ़ कया । जात को आदश रा य- यव था
वीकार कया जाने लगा िजसम हर यि त को समानता तथा वत ता का अ धकार
मला । इस कार आधु नक भावबोध, म यकाल न भावबोध से दाश नक, आ थक और
राजनी तक ि ट से भ न था । आधु नक युग व ानवाद, पू ज
ं ीवाद और जातं वाद
का युग था ।
(ग) पि चम म आधु नक युग
आधु नक युग का ार म कब से माना जाए यह एक ज टल सम या है । यूरोप म
प हवीं शता द म नवजागरण ार म हो गया था । उसी समय से चच और रा य के
बीच तनाव बढ़ने लगा । ं ीवाद ने इसे बढ़ाया । रा य-रा
यि तवाद तथा पू ज के
उदय के कारण चच के अ धकार को चु नौती द जाने लगी । ईसाइ मत के अ तगत
सु धारवा दय ( ोटे टटो) ने पुरातन कैथो लक चच क स ता को अ वीकार कर दया था
। यूरोप म धम नरपे रा य क मांग भी जातं क मांग के साथ बढ़ । ांस क
ाि त ने नाग रक के समानता, वत ता एवं ातृ व के अ धकार को बढ़ावा दया ।
औ यो गक ाि त और वै ा नक ग त ने आधु नक युग को वक सत कया ।
प हवीं शता द म ार भ हु आ आधु नक युग 19वीं तथा बीसवीं शता द तक आते-
आते ौढ़ता को ा त हु आ । डार वन का वकासवाद का स ा त, मा स का
व वा मक तथा ऐ तहा सक भौ तकवाद, ायड एवं उसके सहयोगी एडलर एवं यु ग

आ द का मनो व लेषणवाद आधु नक युग को वैचा रक ौढ़ता दे ने म सफल हु ए ।
आधु नक युग क ि ट भौ तकवाद , ऐ हकतापरक और वै ा नक तक- वतक पर
अवलि बत थी । दो व व यु ने आधु नक युग के बु वाद को ध का पहु ँ चाया और
स कर दया क मनु य के लए यह आव यक नह ं है क वह सदै व तकपूवक,
ववेकपूण आचरण ह करे । यु के दु प रणाम के फल व प अना था, हताशा,

179
नरथकता, मृ युबोध जैसे नकारा मक भाव घर करने लगे । अि त ववाद म मनु य के
अि त व क खोज पुन : क जाने लगी । बीसवीं शता द का अंत होते-होते आधु नक
युग का अ त होने लगा । सू चना ो यो गक म ाि त, उ तर-औ यो गक युग क
शु आत, वै वीकरण और उपभो तावाद ने मलकर इस नए युग को आकार दे ना ार भ
कया । इस कार पि चम म आधु नक युग ानोदय, नवजागरण, औ योगीकरण,
पू ज
ं ीवाद के व तार तथा व ानवाद से जु ड़ा था । यह सब प हवीं से बीसवीं शता द
के बीच हु आ । यह वह समय था जब पि चम ने उप नवेशवाद का सहारा लेकर अपने
को वक सत कया । यह समय बौ क ि ट से भी पि चमी वचार के फैलने और
ए शया. अ का तथा लै टन अमर का म एका धकार था पत करने का समय था ।

12.3 भारत म आधु नक यु ग


भारत म आधु नक युग का ार म अं ेजी रा य क थापना से माना जा सकता है
जो लासी (1757) और ब सर (1764) क वजय से ार भ होता है । मु गल
सा ा य के पतन के प चात ् 1857 तक अं ेज ने भारत के अनेक भाग पर अ धकार
जमा लया और कलक ता को अपनी राजधानी बनाया । 1858 म भारत म अं ेजी
रा य क बागडोर सीधे महारानी व टो रया ने संभाल ल और कंपनी राज समा त हो
गया । आधु नक श ा का चार हु आ, रे ल, डाक, तार का चलन हु आ और भारतीय
म रा यता का भाव वक सत हु आ । यह वह समय था जब रा य वाधीनता
सं ाम ने ग त पकड़ी । आजाद के लए संघष एक ओर अं ेज के व था तो दूसर
ओर सामािजक, धा मक. आ थक असमानता के व था । समाज सु धार क लहर,
आजाद क लड़ाई के साथ-साथ चल । भारतीय नवजागरण का ार भ राजाराममोहन
राय (1772-1833) से माना जाता है य क उ ह ने पूव और पि चम को ह नह ं
मलाया बि क भारत के अतीत और वतमान को भी संतु लत करने का यास कया ।
अं ेज के आने से मु गलकाल न यापा रक पू ज
ं ीवाद न ट हु आ और भारत को वदे शी
माल क ब का बाजार बनाने का य न कया गया । भारतीय उ योग को न ट
कया गया । कृ ष म भी अपे त सु धार नह ं हु ए । भारत का शोषण हर तरह से बढ़ा
। इसी कारण से भारतीय म उप नवेशवाद वरोधी वचार को बढ़ावा मला िजसका
पहला व फोट 1857 क ां त के प म सामने आया । 1885 म कां ेस क
थापना से जो आजाद का संघष ार भ हु आ वह 1947 म आजाद क ाि त के
साथ ह स प न हु आ । भारत म आधु नक युग यूरोप क तरह 15वीं अथवा सोलहवीं
शता द से नह ं माना जा सकता य क यहां यूरोप जैसा औ योगीकरण और
शहर करण नह ं हु आ । पराधीन भारत म पि चमीयता को ह आधु नकता के प म
चा रत करने का यास कया िजसके वरोध म यहां राजा राममोहन राय से लेकर
गांधी तक सभी बड़े नेताओं ने भारतीय अतीत को मह व दया तथा पि चम से
उपयोगी ान लेने का ह समथन कया । भारत म आधु नक युग मोटे तौर पर
अठारहवीं से बीसवीं सद तक माना जा सकता है ।

180
12.4 आधु नक यु ग क वशेषताएं
नवजागरण का युग : भारत म आधु नक युग क मु ख वशेषताओं पर वचार करते हु ए
हमार नजर सब से पहले नवजागरण पर जाती है । भारत म नवजागरण अठारहवीं
शता द म राजा राममोहन राय के वचार और समाज सु धार से माना जाता है ।
इससे पूव म यकाल न भारत म जो भि त-आ दोलन चला था उससे धा मक और
सां कृ तक जागरण तो हु आ था पर तु समाज के आ थक और राजनी तक ढांचे पर
कोई भाव नह ं पड़ा था । म यकाल न भावबोध ई वर केि त रहा है और भि त
आ दोलन ने उसे पु ट ह कया था। इस कार भि तकाल धा मक जागरण था,
नवजागरण नह ं था ।
भारतीय नवजागरण और पुन थान के यास को अलग-अलग प म समझना
आव यक है । नवजागरण म नये, तकसंगत, ववेक स मत एवं युग के अनु प वचार
और यवहार को अपनाने पर बल दया जाता है । पुन थान क वृि त म कसी
दे श के कि पत व णम अतीत क पुन : त ठा का आदश सामने रखा जाता है ।
भारत म सुधारवाद दोन - कार के थे । कु छ भारतीय समाज को सु धारने के लए
अतीत से ेरणा लेना चाहते थे और `वे क ओर चलो', ` कृ त का अनुसरण करो'
जैसे नारे लगाते थे तो कु छ पि चमी, तक संगत वचार और यवहार को अपना कर
समाज को उ नत करना चाहते थे । इस कार भारतीय नवजागरण म पुन थान और
नवजागरण के भाव एक साथ चल रहे थे । वा तव म भारतीय नवजागरण क वशेषता
यह है क इसम अतीत के सव तम अंश को वतमान क आव यकताओं के अनुसार
ढालकर अपनाने पर ह बल था । अतीत म जो या य था जैसे बाल- ववाह, वधवा
का ववाह न होना, सती- था, पदा- था, क या-ह या आ द उसे नवजागरण के सु धारक
ने यागने पर ह बल दया । रानाडे जैसे वचारक ने अतीत के ग लत त व के
पुन थान का डटकर वरोध कया था ।
नवजागरण सामािजक वकास म एक ऐ तहा सक मोड़ का सू चक है । पू ज
ं ीवाद
शि तयां ाय: इसे वक सत करती है ता क साम ती यव था को तोड़ सक । यूरोप म
साम तवाद का वरोध नवजागरण वारा हु आ । भारत म साम ती समाज यव था को
तोड़ने के साथ-साथ सा ा यवाद अथवा उप नवेशवाद वरोधी चेहरा भी नवजागरण का
सामने आया ।
भारतीय नवजागरण क तीन वशेषताओं क ओर व वान ने वशेष प से संकेत
कया है, वे ह- मानववाद, धम नरपे ता और ाचीन सं कृ त पर इसक नभरता ।
म यकाल न बोध म मनु य क सोच के के म ई वर रहता था और सारा जीवन उसी
को अ पत रहता था । आधु नकता बोध म जो क नवजागरण क उपज है, मनु य क
सोच के के म `मनु य' आ गया । मनु य को सृि ट का े ठतम ाणी मानते हु ए
समाज के स पूण या - कलाप उसके हत म, उसके क याण के लए होने चा हए,
181
यह वचार जोर पकड़ने लगा, िजसे मानववाद का नाम दया जाता है । पू ज
ं ीवाद भी
मानव-क याण को ह अपना येय बताता है और जात के मा यम से क याणकार
रा य क थापना का ल य सामने रखकर चलता है । पू ज
ं ीवाद वैयि तक आजाद पर
बल दे ता है इस लए नार के उ थान तथा उसक मु ि त का वचार इसम न हत है ।
नर-नार क समानता भी मानवीय ग रमा को बढ़ाने के लए आव यक है । आ थक
ि ट से सबको वकास के समान अवसर दे ना, सां कृ तक ि ट से सभी को वैचा रक
आजाद दान करना तथा सभी को श ा के समान अवसर दान करना भी
नवजागरण क चेतना का अंग थे ।
म यकाल म धा मक कया-कलाप तथा धा मक आ थाएं जीवन को प रचा लत करती
थीं । पि चम म चच और रा य म खू नी संघष भी हु ए और अ तत: धम नरपे रा य
यव था को आदश मान लया गया । भारत म धम और रा य म पि चम क तरह
संघष नह ं हु ए य क धम नरपे ता क पर परा भारतीय इ तहास म पुरानी है । भारत
ाचीन काल से व भ न धम का ज मदाता और पालक रहा है और शायद ह कसी
राजा ने अपना धम जनता पर थोपने म सफलता पाई हो । धा मक आजाद भारतीय
सं कृ त के मू ल म रह है । नवजागरण को बल पू ज ं ीवाद,
ं ीवाद से मलता है और पू ज
राजतं , सामंतवाद और ढ़वाद का वरोध करता है य क इनसे उसका अपना
वकास क सकता है । नवजागरण म व ान-पो षत, तका त वचार क मह ता
वीकार क जाती है और भा यवाद, परलोकवाद, पुनज मवाद तथा अ य अ ध व वास
को नकारने पर बल रहता है ।
भारतीय नवजागरण क तीसर वशेषता है ाचीन सं कृ त पर नभरता । भारत एक
ाचीन दे श है िजसके पास समृ , सां कृ तक अतीत है । भारतीय नवजागरणकाल न
वचारक और सु धारक ने नए वचार को भारतीय सं कृ त क नींव पर ह था पत
कया । ऐसा करते समय उ ह ने भारतीय सं कृ त के े ठ अंश को पुन : प रभा षत
कया जैसा क वामी रामकृ ण परमहंस, ववेकानंद, राजाराममोहन राय और वामी
दयान द आ द ने कया । भारत जैसे ाचीन समाज म पर परा से पूर तरह कटकर
या हटकर न तो कोई बात वीकाय हो सकती है और न ह साथक हो सकती है ।
भारतीय पर पराएं इतनी व वध और समृ ह क आधु नक युग के अनु प हर कार
के च तन और यवहार क पुि ट के लए उदाहरण वहां खोजे जा सकते ह । भारतीय
नवजागरण पराधीनता के युग म आया इस लए अपनी पर पराओं क े ठता स
करते हु ए उ ह युगानुकू ल बनाना आव यक था । भारतीय आ म गौरव और वा भमान
क माँग थी क हम अपनी े ठ वरासत से ेरणा ल और उसके ग लत अंश से मु त
हो जाएँ । नवजागरण काल म यह कया गया । पर परा का सं कार पुन थान नह ,ं
नवजागरण है ।
भारत म नवजागरण का ार म राजा राममोहन राय के लेखन से माना जाता है ।
राजा राममोहन राय ने म यकाल न धा मक-सामािजक ढ़य का डट कर वरोध कया

182
। बहु दे व उपासना, अवतारवाद, पुनज म , मू तपूजा जैसी मा यताओं के व चार
करने के लए उ ह ने म समाज' क थापना क । समाज-सु धार क भावना से
े रत होकर उ ह ने सती- था क समाि त और वधवा- ववाह को कानूनी मा यता
दलाने का यास कया । उ ह ने नार श ा को ो साहन दया. बाल- ववाह, जात-
पात और छुआछूत का वरोध कया तथा अंतजातीय ववाह को मा यता दलाने का
यास कया । राजा राममोहन राय ने जनजागरण के लए प का रता का सहारा लया।
1821 म संवाद-कौमु द बंगला म नकाल तो 1822 म मरातउल अखबार बंगला म
नकाला । 1829 म उ ह ने ह द भाषा म बंगदूत नकालनी ार भ क । उनके यह
तीन प रा यता के चारक बने । उ ह ं के काम को ई वर च व यासागर,
केशवच सेन तथा दे वे नाथ ठाकु र ने आगे बढ़ाया । महारा म यो तबा फुले,
आगरकर और महादे व गो व द रानाडे ने समाज सु धार और नवजागरण का काम आगे
बढ़ाया । द ण म ीमती एनी बेस ट ने 1875 म ' थयोसो फकल सोसायट क
थापना क और समाज सु धार का काम आगे बढ़ाया । 1804 म रानाडे जी क ेरणा
से द कन एजु केशन सोसायट क थापना हु ई िजसने 'फगु सन कॉलेज' और व लंगटन
कॉलेज' जैसी श ा सं थाओं वारा श ा का काम आगे बढ़ाया ।
वै ा नक तक णाल एवं चंतन का वकास नवजागरण युग म हु आ । पहल बार
मधुसू दन गु ता ने कलक ता म 10 जनवर 1836 को मानवदे ह क चीरफाड़ क ।
ग णत राधानाथ सकदार ने 1852 म माउं ट एवरे ट क ऊँचाई मापी । असम म
आन द राम धोकयाल फूकन (1822-59) ने अदालत म असमी को थान दलाने के
लए यास कया, उड़ीसा म कहानीकार फक र मोहन सेनाप त रा वाद के जनक बने।
उ तर दे श म भारते दु और उनके सा थय ने नवजागरण को ग त द तो आ म
तेलु गु म गुरजादा अ पराव ने । ग तशील सा ह य रचा । पंजाब म भाईवीर संह
(1872-1924) तथा बंगाल म काजी नज ल इ लाम ने ां तकार सा ह य रचा ।
त मल सु म यम भारती के साथ-साथ ह द के मै थल शरण गु त, रामधार संह
दनकर आ द का सा ह य सामने आया ।
आधु नक युग म अनेक शै क, सां कृ तक, सा हि यक एवं समाज सु धारक सं थाएं
था पत हु ई िजनके मा यम से नवजागरण का स दे श जन-जन तक पहु ँ चा । सर
सै यद अहमद खां ने मु सलमान को अं ेजी श ा दे ने के लए अल गढ़ मु ि लम
व व व यालय क थापना क । 1883 म 'भारतीय रा य स मेलन और 1885 म
'भारतीय रा य कां ेस नामक दो राजनी तक सं थाएं था पत हु ई । 1905 म
गोपालकृ ण गोखले ने सव टस ऑफ इि डया सोसायट नामक सं था बनाई जो समाज
सेवा का काम करती थी । 1911 म सामािजक सेवा संघ तथा व 1920 म मजदूर
नेता नारायण म हार जोशी ने एटक (AITUC) नामक मजदूर संघ था पत कया ।
पंजाब म इ ह ं दन श ा के सार के लए चीफ खालसा द वान' क थापना हु ई

183
िजसने अमृतसर म खालसा कॉलेज था पत कया । 1906 म 'द लत वग मशन
सोसायट ' द लत के उ थान के लए बनी तथा 1922 म 'भील सेवा म डल बनाया
गया । 1902 म सरकार वारा व व व यालय आयोग था पत कया गया िजसम दो
भारतीय को भी सद य के प म लया गया । 1916 म अं ेज सरकार ने अलग
श ा वभाग क थापना क । 1784 म बंगाल क 'ए शया टक सोसायट ' बनी जो
क ऐ तहा सक साम ी के संर ण म लग गई ।
ल लत कलाओं म अदभूत वकास हु आ । अवनी टै गोर, न दलाल बोस, अ दुर
रहमान चु गताई ने च कला म नए योग कए । असम म काम पी नृ य ', द ण म
कथकल का चार हु आ । बंगाल म टै गोर क व वभारती तथा केरल म केरल कला
म डल ने कलाओं का चार कया ।
व ान के े म जगद श च बोस (1858- 1937) ने वन प त शा म, फु ल
च (1887- 1920) ने ग णत के े म, मेघनाथ साहा (1893-1956) ने भौ तक
म, स ये बोस (1894-1974) ने 'का टम योर ' म तथा च शेखर वकटरमण ने
(1888-1970) भौ तक के े म काम कया और रमण को रमण भाव क खोज
के लए नोबेल पुर कार भी मला । इस कार नवजागरण श ा, सं कृ त, सा ह य,
संगीत और कलाओं म बहु वध वकास का वाहक बना ।

12.5 रा य-चेतना और नवजागरण का स ब ध


भारत म नवजागरण केवल नवीन जीवन-प त, नवीन अथ- यव था और सामािजक
यव था का प धर बनकर ह नह ं आया बि क इसने रा यता के भाव को भी
वक सत होने म सहायता द । भारत का श त उ च तथा म य वग पि चमी श ा
के भाव म आकर जात समथक और उप नवेशवाद वरोधी बना । पि चमी स यता
और इसाई पाद रय के चार क त या म व व क खोज ार भ हु ई ।
मै थल शरण गु त जी के श द म हम कौन थे, या हो गए और या ह गे अभी के
अनुसार अपने गौरव क , अपनी अि मता क खोज होने लगी । ववेकान द, तलक,
अर व द, गोखले और गांधी ने हम हमार वरासत से प र चत करवाया और इस कार
रा य चेतना का उदय हु आ । भारत म रा य चेतना का उ थान, पुन थान तथा
नवजागरण के प म एक साथ हु आ । कोई भी समाज पैदा अतीत से होता है, जीता
वतमान म है और दे खता सदा भ व य क ओर है । भारतीय रा य-चेतना का आधार
अतीत क व णम वरासत बनी, बल उसे वतमान के सुधार एवं श ा आ दोलन से
मला और ल य उसका पूण आजाद ा त करना बना ता क भ व य सु खमय हो सके
। पुन थान के समथक और नवजागरण क वकालत करने वाल के बीच तनाव
नर तर बना रहा । कां ेस म नरम और गरम दल के बीच वैसा ह अ तर था जैसा
क राजा राममोहन राय और दयान द सर वती के वचार म था । रा वाद अथवा
गरम दल के नेता लाल, बाल और पाल राजनी तक वचार क ि ट से उदारवाद

184
गोखले, रानाडे, फरोजशाह मेहता गांधी आ द से आगे थे पर तु सामािजक सु धार क
ि ट से उनसे पीछे थे । इस कार रा य-चेतना और नवजागरण म तीखा
अ त व व भी दे खने को मलता है य क रा य चेतना का आधार अतीत का गौरव
था और नवजागरण का आधार वतमान ि थ तयां और सु धार थे । दोन का ल य
रा - नमाण था इस लए दोन साथ-साथ चलते रहे ।
रा य चेतना के वकास म उ रा वा दय अथवा गरम दल के नेताओं ने न चय ह
मह वपूण भू मका नभाई थी । तलक ने अपने अखबार केसर के मा यम से
महारा ह नह ,ं पूरे भारत का माग-दशन कया था । लाला लाजपत राय और व पन
च पाल के याग और ब लदान ने सैकड़ युवक को ेरणा द थी । रा य भाव
को जगाने के लए तलक ने रा यता के तीक शवाजी का ज म दन शवाजी उ सव
के प म मनाना ार भ कया । गणेशो सव के मा यम से महारा य समाज को
एक करने का यास कया । बंगाल म दुगा पूजा का चलन बढ़ा । न चय ह ह दू
मानस इन तीक से जु ड़ा पर तु इन योहार को रा य उ सव के प म चा रत
करने से अ य स दाय म वरोध का भाव बढ़ा । 1906 म मु ि लम ल ग क
थापना, मु सलमान वारा कां ेस से अलग रा ता चु नने का माण बनी िजसका दुखद
प रणाम पा क तान के नमाण म हु आ । इन उ सव से जहां ह दु रा वाद को बल
मला वह ं सा दा यक सदभाव खि डत हु आ और नवजागरण तथा रा य आ दोलन
का धम नरपे व प एक तर पर खं डत हु आ ।

12.6 नवजागरण और उप नवेशवाद वरोधी भारतीय वाधीनता


सं ाम
वाधीनता सं ाम का आधार रा यता के भाव ह । 'रा ' के प म भारत का उदय
या अं ेजी राज म ह हु आ अथवा उससे पहले भी कभी भारत एक रा था, इसे
लेकर व वान एकमत नह ं ह । रा वाद वचारक मानते ह क भू-सां कृ तक इकाई
के प म भारत सदा से एक रा रहा है । आसेतु हमालय भारत भू म पर बसने
वाले लोग इसे भारतमाता मानते आए ह । भारत के चार कोन पर बने चार धाम और
चार आ म क या ा हर भारतीय का सपना होती था । दे शभर क न दय . पवत ,
पु रय आ द क तु त इस बात क सूचक थी क सां कृ तक प से भारत एक रा
रहा है । रा क पि चमी धारणा रा य-रा क है िजसम एक स ता के अधीन
नि चत भू ख ड पर बसे भु ता स प न लोग को ह रा माना जाता है । इस अथ
म अं ेजी रा य ने हम रा यता का भाव दया । इसी समय म अ खल भारतीय तर
पर काम करने वाल ऐसी सं थाएं बनी िज ह ने राजनी तक सम याओं को उठाया ।
1870 म बनी पूना सावज नक सभा, 1884 म था पत म ास महाजन सभा तथा
1884 म ह बनी ड कन एजु केशन सोसायट ऐसी ह सं थाएं थीं । पढ़े लखे
भारतीय के आ ोश को नय ण म रखने के लए ए० ओ० यूम ने इि डयन नेशनल
कां ेस (1885) क थापना क जो बाद म रा य आ दोलन क तीक बन गई ।
185
भारत क भौगो लक एवं सां कृ तक व वधता को आधार बनाकर यह कहा जाता रहा
क भारत म रा यता का भाव संभव ह नह ं है जो क सच नह ं था । अतीत म
मु ि लम रा य म भारत के गांव आ म नभर आ थक इकाई बने रहे इस लए स ता
प रवतन से उन पर अ धक भाव नह ं पड़ता था । अं ेज ने भू म यव था बदल द
िजससे ामीण यव था बखर गई । टश पू ज
ं ीवाद का मु काबला भारत के नवो दत
पू ज
ं ीप तय से हु आ । अं ेज ने अपना माल भारत म बेचने के लए भारतीय उ योगो
को हा न पहु ँ चाई तो भारतीय यापा रय और उ योगप तय ने अपने दे श के बाजार पर
नय ण बनाए रखने के लए वदे शी आ दोलन का सहारा लया । भारतीय
वाधीनता सं ाम म 1857 क ां त के प चात ् 1905 का बंग भंग आ दोलन सब
से बड़ा आ दोलन था िजसम वदे शी माल के योग और वदे शी माल के ब ह कार का
ह थयार सफलतापूवक योग कया गया । अं ेज भारतीय मजदूर और कसान का भी
शोषण कर रहा था इस लए भारतीय पू ज
ं ीप तय ने उ ह भी अं ेजी पू ज
ं ीप तय और
उनके संर क शासक के व अपने साथ लया । इस कार भारतीय वाधीनता
सं ाम ती ग त से आगे बढ़ा । अं ेजी दमनच का जवाब ां तकार आ दोलन और
गांधीवाद स या ह और असहयोग आ दोलन से दया गया । गांधी के नेत ृ व म
नमक आ दोलन' (1930) तथा 'भारत छोड़ो आ दोलन' (1942) जैसे बड़े आ दोलन
लड़े गए । अं ेजी दमन च और आ थक शोषण ने पूरे भारत को एक होने म
सहायता द । उप नवेशवाद- वरोधी आ दोलन को गांधी जी ने आम आदमी क लड़ाई
का प दे दया । भाषा, धम, ा त और स दाय के भेद मट गए और पूरा रा
आजाद क लड़ाई म शा मल हो गया । व वयु के समय अं ेजी अ याचार बढ़े और
दमनच तेज हु आ । व वयु के प चात ् क मंद ने मजदूर और कसान का जीना
क ठन कर दया । भारतीय नौसेना तक म व ोह हो गया । गांधी ने कां ेस को आम
आदमी क सं था बनाया और आजाद क लड़ाई को आम आदमी क लड़ाई बनाया ।
अ हंसा और स या ह के श से टश शासन को चु नौती दे ने म म हलाएं भी पीछे
नह ं रह ं । इस कार भारत म उप नवेशवाद वरोधी यु , भारत क आजाद का यु
बन गया । 15 अग त 1947 को वभािजत भारत वाधीन हो गया, उप नवेशवाद का
अ त हो गया पर तु भारत क अख डता सदा के लए घायल हो गई ।

12.7 समाज सु धार क यापक वृि त


भारत म आधु नक युग उप नवेशवाद वरोधी वाधीनता सं ाम, नवजागरण, आ म
पहचान पर आधा रत रा वाद के साथ-साथ यापक समाज सुधार का युग भी था ।
वाधीनता के लए कया जाने वाला संघष वदे शी शासन से मु ि त के साथ-साथ
सामािजक-धा मक ढ़य , असमानताओं और पछड़ेपन से मु ि त का सं ाम भी बन
गया । इन सु धार क ेरणा कु छ तो पि चमी वचार के स पक म आने से मल थी
और कु छ पर पराओं के गहन अ ययन-मनन से मल थी । नवजागरण क मानववाद

186
चेतना भी इन सु धार क ेरक बनी । बु वाद अथवा वै ा नक जीवन ि ट को
वीकार करने के कारण भी अनेक ढ़य और कु र तय से मु त होने क लालसा
समाज म जगी थी ।
19वीं शती के सामािजक सां कृ तक आ दोलन ने सु धार क या तेज क । राजा
राममोहन राय का म समाज' (1828), केशवच सेन का ाथना समाज' (1867)
दयान द सर वती का 'आय समाज' (1875) समाज सु धार म सहायक बना । इन
सं थाओं का आधार धा मक सु धारवाद था जो क अपनी कृ त म म यकाल न बोध से
जु ड़ा था पर तु इन वचारक क मानववाद ि ट ने पर परा को वतमान के उपयु त
बनाया और ऐसे सुधार ता वत कए जो सामंतवाद एवं उप नवेशवाद वरोधी थे ।
केशवच सेन और महादे व गो व द रानाडे ने ाथना समाज' के मा यम से ह दू-
मु ि लम एकता बढ़ाने और धा मक कु र तय को दूर करने का काय कया । कां ेस के
अ धवेशन म रा य सामािजक स मेलन काँ ेस अ धवेशन के प चात ् उसी प डाल म
होता था । गरम दल के तलक आ द नेता इसके वरोधी हो गए य क वे नह ं चाहते
थे क पर पराओं के साथ छे ड़छाड़ क जाए । 1895 के प चात ् कां ेस म यह
काय म समा त हो गया । आय समाज ने बाल ववाह, सती- था और जात-पात का
वरोध कया तथा वधवा ववाह, ी- श ा का समथन कया । पुरो हतवाद और मू त
पूजा का वरोध भी आय समाज ने कया । आय समाज एक मा वै दक ह दू धम
को े ठ मानता था तथा जैन, बौ , ईसाइ तथा अ य धम क न दा करता था ।
म समाज आ द को ईसाइ समथक मानता था और उसका वरोधी था । आय समाज
ने ह दू धम को छो कर गए लोग को पुन : धम म लाने के लए 'शु आ दोलन'
चलाया । कु छ लोग मानते ह क आय समाज क आ ामकता ने सा दा यकता को
पु ट कया । आय समाज वदे शी राज का वरोध करता था और रा के मु ि त
आ दोलन म आय सामािजयो ने बढ़-चढ़कर भाग लया । सर सै यद अहमद खां ने
मु सलमान को जा त करने के लए और उनम पि चमी श ा का सार करने के लए
'अल गढ़ मु ि लम व व व यालय' क थापना क थी ।
राजा राममोहन राय ने अपने ' म समाज' के वारा म यकाल न सामािजक-आ थक
ढ़य को चु नौती द थी । यि त- वातं य, समानता और जनतां क मू य पर
आधा रत सामािजक सुधार के लए भी उ ह ने आ दोलन कए थे । राजा राममोहन
राय ने पि चमी और भारतीय ान का अ ु त संतल
ु न था पत कया । आधु नक काल
म चलने वाले ये सारे सु धारवाद आ दोलन पुन थान क शि तय के साथ-साथ
नवजागरण के अंश भी अपने म समेटे हु ए थे । इन सु धार ने सामंती समाज- यव था
के मु य आधार जात-पात, वण- यव था भा यवाद तथा ढ़वाद पर हार कया और
इस कार उदार पू ज
ं ीवाद का रा ता साफ कया ।

187
12.8 भारत म आधु नक यु ग क चेतना का व प
सा हि यक चेतना : मु गलकाल म भारत ने यापार और कला-कौशल म अभूतपूव
ग त क थी और भि त आ दोलन के मा यम से समाज म नई चेतना के संचार का
यास भी हु आ था । मु गलकाल के अि तम दौर म वदे शी आ मण , आ त रक व ोह
और अं ेज के दु च के कारण दे श म अ यव था फैल और पूरे दे श म सामंती
शासक के छोटे -छोटे के उभर आए । इन राजाओं और नवाब ने आपस म लड़ने
झगडने और भोग- वलास म ल त रहने को ह जीवन का ल य मान लया । इस
उथल-पुथल का भाव ह द सा ह य पर भी पड़ना वाभा वक था ।
17वी तथा 18वी शता द म भि त आ दोलन नज व सा हो गया था और दरबार
वातावरण म रचे जाने वाले सा ह य मे राधा और कृ ण सामा य नायक-ना यका मा
रह गए थे । गृं ार रस क रचनाओं का ाधा य था । भले ह भि त और वीर रस
क क वता भी रची जा रह थीं । वलासी राजाओं के अ तशयोि तपूण वणन, वीरका य
का आधार बन रहे थे । वलासी और नक मे राजाओं और नवाब को कामुकता
भड़काने वाल शृंगा रक क वता बहु त अ छ लग रह थी और उस पर र झकर वे अपने
दरबार क वय को धन और मान से लाद रहे थे । सा ह य, समाज से कट रहा था ।
सं कृ त के शा ीय ान का उपयोग कया जा रहा था । ना यशा क अपे ा
कामशा क पर परा को अ धक अपनाया जा रहा था । शृंगा रक का य के लए ज
भाषा का माधु य सवा धक उपयु त था इस लए का य-भाषा के प म उसका एकछ
रा य था । सा ह य अ धका धक सं कृ त के शा ीय ान का अनुकरण कर रहा था
और मौ लकता समा त होती जा रह थी । ऐसे समय म अं ेजी सा ा यवाद का उदय
भारत म हु आ । 1857 क ां त म सामंती शि तय क पराजय हु ई और पू ज
ं ीवाद को
बढ़ावा मला । भारतीय यापा रक पू ज
ं ीवाद के वकास म दो बाधाएं थी - एक तो
अं ेजी रा य था िजसके कारण भारतीय पू ज
ं ीप तय का वकास क गया था दूसरे
भारतीय समाज म या त साम ती समाज के अवशेष थे िजनके कारण नवीन चंतन
बा धत हो रहा था । अं ेज के औप नवे शक शासन को चु नौती वाधीनता सं ाम
वारा द गई । भारतीय समाज म नवीन चेतना का संचार करने के लए शै क,
सामािजक और धा मक सु धार का युग ार भ हु आ । भारतीय पू ज
ं ीवाद ने वदे शी
अपनाकर अपने आ थक हत क र ा भी क और आम आदमी को शोषण से भी
बचाया । यह चेतना समाज म घर कर गई क वशासन म ह सुशासन संभव है ।
रा यता का यह भाव वाधीनता सं ाम का आधार बना । वशासन के माग म
समाज क ढ़वा दता और पछड़ापन भी मु ख कारण थे । ी-पु ष क समानता
तथा ना रय के उ थान के सारे आ दोलन ाचीन पर पराओं को नकारते हु ए सामने
आए । आधु नक ह द सा ह य म इन सब मु क अ भ यि त व छ दतावाद
अथात ् छायावाद म भी हु ई और ग तशील यथाथवाद सा ह य म भी हु ई ।

188
आ थक चेतना : आधु नक सा ह य म 19वीं तथा 20वी शता द म अं ेज वारा कए
जाने वाले आ थक शोषण का च ण हु आ है । अं ेज ने हमार ामीण अथ- यव था
को तोड़कर वहां यूरोप जैसी जमींदार था था पत करने का यास कया । जो गांव
स दय से आ थक प म आ म नभर थे वे एकाएक बाजार पर आ त हो गए िजससे
कसान का शोषण होने लगा । भारत के पर परागत श प न ट कए गए और
कसान को नयात हे तु क चा माल तैयार करने के लए ववश कया गया । बहार म
नील क खेती करवाना इस का उदाहरण है । आधु नक भारतीय क वता म, वशेषकर
भारते दु के का य म इस आ थक शोषण का मा मक च ण हु आ है । अं ेज के समय
पड़े अकाल का वणन, टै स क भरमार का च ण तथा खेती क दुदशा का भयावह
च ण आधु नक भारतीय सा ह य म हु आ है । भारत क त काल न आ थक दुदशा,
भु खमर , गर बी, बेरोजगार आ द का च ण आधु नक सा ह य म हु आ ।
आधु नक दौर म अं ेज पू ज
ं ीप तय ने भारत म नवेश ार भ कया । भारतीय
पू ज
ं ीप तय के साथ उनक प ा होने लगी । उजड़े हु ए खे तहर कसान काम क
तलाश म शहर म बसने लगे और इस कार मजदूर वग का उदय हु आ । औ यो गक
वकास के साथ यापा रक और कमचार वग का भी उदय हु आ । द तकार ने छोटे -
छोटे कारखाने भी लगाए । इस ं ीप तय ,
कार म यवग का भी उदय हु आ । पू ज
मक तथा म यवग के लोग ने अपने को संग ठत कया और अपने हत के लए
संघष करना ार भ कया । आ थक हत क र ा क लड़ाई रा य भाव से जु ड़कर
उप नवेश वाद वरोधी लड़ाई बन गई ।
राजनी तक चेतना : भारतीय ने अं ेजी शासन को कभी भी मन से वीकार नह ं कया
। 1857 का थम वाधीनता सं ाम इस बात का सा ी है क पूरे दे श म अं ेजी
स ता के त रोष था । लाख लोग ने इस ाि त म भाग लया और शह द हु ए ।
ए.आर. दे साई जैसे समाजशाि य का मत है क अं ेजी श ा ने रा यता के भाव
को पु ट नह ं कया य क रा यता के भाव तो हमारे वेद तक म न हत ह ।
भारतीय रा वाद का ज म नई सामािजक तथा भौ तक ि थ तय से हु आ था ।
उ नीसवीं सद म वदे शी मेल और वदे शी आ दोलन के वारा हमार रा यता का
भाव अ भ य त हु आ । दे शी व तु ओं का यवहार और वदे शी व तु ओं का ब ह कार
रा वाद का च न माना जाने लगा था ।
1885 म कां ेस क थापना से रा वा दय को एक मंच मला िजससे वे रा हत
क घोषणाएँ कर सकते थे । कां ेस के साथ-साथ समाजवा दय . रा वा दय .
ाि तका रय और सा यवा दय क भू मका भी मह वपूण रह । भारतीय राजनी तक
चेतना का मू ल प वदे शी था िजसम लोकतं और धम नरपे ता के वचार भी जु ड़े
हु ए थे ।
सामािजक और धा मक चेतना : आधु नक युग से पूव भारतीय समाज म ि य और
न न जा तय के लोग क बहु त दुदशा थी । साम ती यव था म अ ध व वास और

189
सामािजक ढ़य के कारण ि य को अ श त रखा जाता था, उनको घर से बाहर
काम नह ं करने दया जाता था । वधवाओं को पुन : शाद का अ धकार नह ं था और
उनक दशा शोचनीय थी । बाल ववाह तथा अनमेल ववाह के साथ-साथ सती था
जैसी अमानवीय था भी च लत थी िजसके अनुसार ी को अपने मृत प त क दे ह
के साथ चता म जलना पड़ता था । न न जा तय को अछूत बना दया गया था और
उ ह मानवीय अ धकार से वं चत कर दया गया था । उ ह श ा और स पि त का
अ धकार भी नह ं था ।
उ नीसवीं शता द म भारत के श त म यवग म ऐसे समाज सुधारक पैदा कए
िज ह ने ना रय और द लत के अ धकार क लड़ाई लड़ी और समाज यव था म
अपे त प रवतन कए । राजा राममोहन राय, ई वर च व यासागर, नारायण गुस ,
महादे व गो व द रानाडे. यो तबा फुले, वामी दयान द सर वती जैसे अनेक समाज
सु धारक ने समाज सुधार एवं श ा- सार का काय कया । लड कय के लए कू ल
खु ल,े सती था पर रोक लगी तथा वधवा- ववाह को मा यता द जाने लगी ।
बहु ववाह और बाल ववाह का वरोध कया जाने लगा । श ा के सार से अंध
व वास और ढ़य का वरोध होने लगा । इस कार आधु नक युग म समाज म
बहु वध प रवतन हु ए ।
सां कृ तक एवं वैचा रक चेतना : आधु नक युग का सा ह य िजस सां कृ तक एवं
वैचा रक प रवेश म रचा गया उसका नमाण नवजागरण के प रणाम व प हु आ था ।
उ नीसवीं सद का भारत सं मण क ि थ त म था । भारत अपने अतीत-गौरव से भी
ेरणा ले रहा था और वतमान म या त नवजागरण के वचार से भी भाव हण कर
रहा था । राजा राममोहन राय और वामी ववेकान द जैसे वचारक ने उप नषद , वेद-
पुराण के मह व को भी उ घा टत कया और पि चम क तक णाल और श ा
प त को भी आ मसात करने क वकालत क । इस युग के वचारक ने अपने अतीत
से वे ह अंश लए जो वतमान म ासं गक और नव नमाण म सहायक थे । व व
मानवता का ाचीन भाव नव- चेतना से जु ड़कर साथक हो गया । इस युग म भारतीय
समाज रा यता के भाव से उ वे लत था और लंग, धम, जा त, भाषा और े से
ऊपर उठने का यास कर रहा था । इस युग म सामािजक सं कृ त के नमाण का
यास कया गया । जा तवाद, सां दा यकता तथा धा मक क रता से समाज ऊपर
उठता दखाई पड़ा । अतीत के त अ ध ा अथवा पूजा का भाव नह ं था बि क
व थ आलोचना का भाव था । सा ह य, संगीत तथा अ य कलाओं म भी ाचीन
पर पराओं से ेरणा लेते हु ए नवीन प म ढाला गया । आधु नक युग के ार भ म
पुन :उ थान क शि तयाँ भारत के व णम अतीत को सामने लाने का य न कर रह
थी । नवजागरण से जु डी ग तशील शि तयाँ नए वचार को हण करने पर बल दे
रह थी । आधु नक युग के ार म म दोन कार क शि तय को संतु लत करने का
यास दखाई पड़ता है।

190
12.9 ह द े क वशेष प रि थ तयाँ और आधु नक काल का
आगमन
सामा यत: यह वीकार कया जाता है क भारत म आधु नक युग का ार म अं ेजी
स ता था पत होने के साथ-साथ हु आ। अं ेज ने सब से पहले बंगाल म अपना भु व
था पत कया । लासी (1757) और ब सर (1764) के यु ने बंगाल म अं ेज
क पनी के शासन क नींव था पत क । अं ेज वारा सवा धक उ पीड़न भी यह ं
हु आ इस लए तरोध और भारतीय नवजागरण के सबसे सबल च ह भी इसी े म
दखाई पड़े । इसके प चात ् द ण म अं ेज ने अपने पांव जमाए । म ास, कनाटक
गुजरात और महारा के े उनके अ धकार म आए । समाज सु धार एवं शै क
सु धार क आहट वह ं सबसे पहले दखाई पड़ी। ह द े म राजपूताना म रजवाड़
का राज था िज ह ने अं ेजी भु स ता को वीकार कर लया और अपने रा य के
वामी बने रहे । पंजाब म रणजीत संह क मृ यु के प चात ् ह 1846 म अं ेजी
शासन था पत हो सका । ह द े के साम त ाय: अं ेजी भु स ता म काम करते
रहे । ह द े 1857 तक साम त के अधीन साम ती यव था म चलता रहा।
1857 क असफल ां त के प चात ् 1858 म टश शासन भारत म था पत हु आ ।
ह द े म जो जमींदार यव था अं ेज ने लागू क उससे यहाँ का कसान और
अ धक शो षत हु आ । यहाँ क अथ यव था कृ ष धान बनी रह और कानपुर जैसे
एक आध औ यो गक े ह वक सत हो पाए । बंगाल और महारा म श त
म यवग के उदय के साथ ह सु धार आ दोलन ार म हु ए । ह द े म यह काय
एक सीमा तक आय समाज ने कया । आय समाज का आ दोलन ी श ा, समाज
सु धार, ढ़य और अ ध व वास के वरोध म था और एक सीमा तक बु वाद या
तकवाद का सहारा भी लेता था । आय समाज वेद को दै वी वाणी और वै दक युग को
अपना आदश मानता था तथा सं कृ त के उ थान का प धर था । इस कार आय
समाजी आ दोलन म नवोदय और पुन थान के वर मले जु ले थे । मू तपूजा का
वरोध आय समाज करता था इस लए ह दुओं के एक बड़े वग म यह वीकाय नह ं हो
पाया । वेद को सव प र मानने और ख डन-म डन म अ धक व वास रखने के कारण
ह वामी दयान द जी के 'स याथ काश' म सभी मत क कटु आलोचना क गई ।
इ लाम का वरोध भी आय समाजी चार का ह सा था । आय समाज शु ,
आ दोलन, श ा- सार, अ ध व वास से संघष और जात-पात वरोध के लए भी
जाना गया । इस आ दोलन से अनेक बड़े नेता रा य आ दोलन म आए पर तु यह
आ दोलन ह द े का सव यापी आ दोलन नह बन सका । सर सैयद अहमद खां
ने मु सलमान को नई श ा से जोड़ने और अं ेज स ता के नकट लाने का भरसक
यास कया ।

191
ह द े म साम ती वचार क पकड़ मजबूत थी तथा पूरा े शै क ि ट से
पछड़ा हु आ था । भारते दु वारा 'ह टर कमीशन' के सम तु त रपोट म इस े
के शै क े म पछड़े होने का वणन व तार से कया गया है । इस े म नए
वचार और नई श ा प त का भाव म य और उ चवग के बु जी वय तक ह
सी मत रहा । इस े के बु जीवी कलक ता के बु जी वय के स पक म आए ।
ह द क प काएँ जैसे उद त मा त ड (1826), बंगदूत (1829) तथा जा म
(1834) भी पहल बार बंगाल से ह नकल । न चय ह बंगाल के नवजागरण ने
ह द े को भा वत कया था।
ह द े म ह द के वकास म एक बड़ी बाधा ह द -उदू ववाद से आई । अं ेज
ने सायास उदू को मु सलमान क भाषा बनाने का काम फोट व लयम कॉलेज के
मु ं शय वारा कया । अरबी ल प म, फारसी श द से यु त ह दु तानी भाषा को उदू
नाम दया गया जो मू लतः मेरठ - द ल के आस-पास सै नक छाव नय क भाषा के
प म वक सत हु ई । यह खड़ी बोल का ह एक प था पर तु सं कृ त त सम
श दावल धान, दे वनागर म लखी जाने वाल ह द को खड़ी बोल ह द का नाम
दया गया जो अ धकतर ह दुओं' क भाषा कह गई । ार भ म अ तर केवल ल प
का था पर तु धीरे -धीरे इसे श दावल और श द- व यास का अ तर बना दया गया
और खड़ी बोल और उदू को सां दा यक प दया गया । कोट-कचहर क भाषा फारसी
के थान पर ह द खड़ी बोल बने अथवा उदू इसको लेकर भी इस े म संघष होता
रहा । इस संघष का प रणाम यह हु आ क खड़ी बोल ह द का सहज वकास बा धत
हु आ य क कह ं तो उसम सं कृ त श द ठू से जाने लगे और कह वह फारसी श द का
अजायबघर बनने लगी । अं ेज क फूट डालो और राज करो क नी त के चलते, भाषा
को सां दा यकता फैलाने का साधन बनाया गया जो दुभा यपूण था । ह द -उदू के
अ धकांश लेखक इस भाषायी सां दा यकता के शकार हु ए । बीसवीं सद के पहले दो
दशक तक सा ह य म यह ि थ त बनी रह पर तु ेमच द के आगमन के साथ ह
यह ि थ त कु छ बदल । ेमच द ने अपना लेखन नवाबराय के नाम से उदू म ह
ार म कया था बाद म ह द म ेमच द के नाम से लखने लगे ।

12.10 ह द े एवं टश नी तय का ह द सा ह य पर भाव


कु छ व वान बंगाल म बौ क जागरण तथा महारा म समाज सु धार एवं नार
उ थान के यास से चम कृ त होकर ाय: कह दे ते ह क ह द े म नवजागरण
का भाव नह ं हु आ अथवा यहाँ नवजागरण आया ह नह । ह द े बहार से
हमाचल तक तथा हमाचल से म य दे श तक फैला है और आज भी आठ ांत के
40 करोड़ से अ धक लोग ह द भाषी ह । इस वशाल भू-भाग म नवजागरण ने
द तक न द हो यह संभव नह ं भले ह इसका व प अ य रा य से भ न रहा है
। ऐ तहा सक ि ट से सवा धक उथल-पुथल यह हु ई और 1857 क ां त के
प चात ् सवा धक दमन भी इसी े म हु आ । इतना कु छ होने के उपरा त भी

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ह द े म सा ह य अ धकतर लोक वमश ह रहा है न क स ता वमश । आ द
काल के कु छ क वय ने दरबार क वता भी लखी पर तु अ धकांश जैन. बौ तथा
लोकक व सीधे जनता से जु ड़े रहे । भि तकाल का स पूण का य लोक को अपने
साथ लेकर चलता है, उसके साये म पलता है और लोक सं कृ त से रस हण करता
है । भि तकाल न क व लोक सं कृ त के सश त आलोचक भी थे और उ ह ने
रा य आदश गढ़ने म लोक क सहायता भी क । र तकाल म ह द का य दरबार
म लखा गया पर तु उसक शृंगा रक चेतना लोक के लए भी आन ददायी थी ।
आधु नक युग म ह द क वता ने लोक से ह नाता जोड़ा और स ता- वमश से ाय:
दूर रह । नवजागरण काल म उप नवेशवाद क कटु आलोचना और सामािजक-
धा मक ढ़य का वरोध आधु नक ह द क वता क पहचान बना ।
ह द े म अं ेज का दमन च और फूट डालने का ष य सवा धक सफल रहा
। ह दू और मु सलमान को पर पर लड़ाने के लए ह द और उदू को सा दा यक
भाषाएँ बनाने का ष य फोट व लयम कॉलेज के मा यम से स प न कया गया ।
श ा के वकास, धा मक सु धार और आधु नक करण का काम इस े म धीमी
ग त से हु आ पर तु भारतीय रा यता क पहचान, ह द - उदू का अ तर पाटने,
ी उ थान, कसान और द लत क दशा सु धारने का काय इस े म नर तर हु आ
। ह द े म नवजागरण मू लत: आ म-पहचान का संघष बनकर आया िजसे
सा ह यकार ने अपने सा ह य म मु ख थान दया । मै थल शरण गु त ने अपनी
भारत-भारती म हम कौन थे, या हो गए, और या ह गे अभी, आओ वचार आज
मलकर ये सम याएँ सभी । का परामश दया था । ह द नवजागरण म सामंती
भेदभाव का वरोध, धा मक अस ह णुता के व आवाज और कू पमंडूकता का वरोध
न हत था । सम प से कह सकते ह क ह द े म नवजागरण उप नवेशवाद
वरोध और सामािजक धा मक ढ़य के वरोध क भू म पर था पत था । ह द
े म भले ह उप नवेशवाद क बौ क जड़े न उखड़ी ह पर तु आधु नकता का
उदार रा य व प यहाँ उभर आया था । अनुदारता और अंध-रा वाद भले ह इस
े म पूर तरह न मटे ह पर तु आधु नक रा यता का व प सम प से यहाँ
दखाई पड़ने लगा था ।
ह द नवजागरण का मु ख ल य ह द भाषा का वकास करना था । ह द को
राजभाषा और रा भाषा बनाने के आ दोलन इसी े म चले । बंगाल से ह द क
अनेक प - प काएँ सव थम नकल य क ेस क थापना सबसे पहले वह ं हु ई
थी । अं ेज ने भेद नी त के चलते ह द क दे वनागर ल प को आधार बनाकर
यह चा रत कया इस ल प म लखी जाने वाल ह द मूलत: ा मण, य और
ब नय क भाषा है अथात ् उ च वण के ह दुओं क भाषा है । फारसी लप म
लखी जाने वाल ह दु तानी का स ब ध काय थ से जोड़कर उसे मु सलमान और
मु नीम क भाषा करार दया गया । भाषा के आधार पर ह नह ,ं ल प के आधार
पर भी समाज को बाँटने का कु यास अं ेज ने कया ।
193
अं ेज ने भारतीय इ तहास का पुनलखन इस तरह से करवाया क उसम
सा दा यक भेद, तनाव एवं संघष को मु ख- थान दया गया । उनके इ तहास म
समाज क बनावट म खु द खाइय और दबी चीख का वणन अ धक हु आ । इ तहास
म जो संवाद के वर थे, अंत म ण था, सांझा जीवन के उदाहरण थे और सांझी
सं कृ त के पृ ठ थे उ ह जानबूझकर उपे त कया गया । इस कार ह द े का
इ तहास वकृ त कया गया और यह बताने का यास कया गया क इस े म
नवजागरण का भाव केवल सा ह य तक सी मत था, समाज म उसक गूज
ं तक
नह ं थी । व व का इ तहास सा ी है क उप नवेशवाद जहां कह ं भी मटा है उसक
राख से आधु नकता के अंकु र अव य फूटे ह और साथ ह वह थानीय अनुदारता,
अंधरा वाद और सामािजक भेद को बढ़ावा दे कर गया है । ह द े के स दभ
म यह दोन बात सच ह । आज ह द म द लत, आ दवासी, ी और कसान
वमश तेजी से उभर रहे ह ' य क नवजागरण काल म और आधु नक काल म इनसे
याय नह ं कया जा सका और इन वग को पूरा याय नह ं मल सका । आज के
उ तर आधु नक सा ह य म हा शये पर पड़े वग का सा ह य के म आ रहा है ।
आज इ तहास के अ त क घोषणा हो रह है और धम, भाषा, लंग, जा त, जा त,
े , संगठन अथवा पेश के आधार पर लघु इ तहास क रचना क जा रह है । इन
आधार पर इ तहास लखने से यादा मह वपूण है ग तशील मानवता का इ तहास
रचना । ह द े क सं कृ त एक सीमा तक द मत सं कृ त रह और यहां के
बु जी वय ने खरता से जनता के न आधु नक युग म नह ं उठाए ।

12.11 आधु नक ह द का य का ज म एवं वकास


आधु नक ह द सा ह य का ार भ व 1850 से माना जाता है । छापाखाने के
आगमन और ग य के चार सार के साथ ह नाटक, उप यास, कहानी आ द नई
वधाओं का चलन ह द म हु आ । समाचार प से नई चेतना आई और एक बड़ा
पाठक वग न मत हु आ । ेस म ार भ म धा मक पु तक और कू ल-कॉलेज क
पा य-पु तक छपती थीं पर तु धीरे -धीरे मनोरं जक सा ह य क मांग बढ़ । सा ह य
दरबार से नकल कर जनता क आवाज बनने लगा । इस कार आधु नक सा ह य
स ता- वमश क अपे ा लोक वमश बन गया ।
आधु नक ह द का य से पूव ह द म दो सौ वष तक र तका य का चलन रहा ।
भि तकाल का भि तभाव मश: शृंगा रकता म तरो हत हो चु का था और भ त के
आरा य राधा और कृ ण र तकाल म साधारण नायक-ना यका बन चु के थे । राधा
कृ ण के बहाने से लौ कक ेम वणन, नख- शख वणन, नायक-ना यका संयोग और
वयोग का च ण ह का य के मु ख वषय था । का य के के म नार अथवा
नार का शर र था । क व ाय: म य अथवा न नवग से आए थे इस लए उनके
गृं ार वणन म मौ लकता स भव न थी । उ ह ने सं कृ त के शृंगा रक थ
ं का
अनुकरण कया । इस युग के क वय ने अपनी सार तभा भा षक चम कार
194
दशन म खच क य क वषय मौ लक न थे । ज भाषा का सरस, कोमल एवं
अ य धक अलंकृत प वक सत हु आ । ज भाषा म ओजपूण एवं गहन जीवनानुभव
को य त करने क मता ीण होती गई । र तयुग का का य ना यका भेद तथा
छं द-अलंकार वणन तक ह सी मत हो गया । छं द-अलंकार स ब धी थ
ं म
मौ लकता का ाय: अभाव था । कथन क अपे ा कथन क शैल पर अ धक बल
दया गया ।
आधु नक युग के आते-आते साम ती भाव, बखरने लगा, रयासत अं ेजी रा य म
वल न क जाने लगी और क वय को रा या य दे ने वाले लोग मटने लगे। नए युग
म पि चमी ान- व ान और वचार का भाव बढ़ा तथा छापेखाने ने िजस नए
श त म यवग को ज म दया उसे अलग तरह के सा ह य क ज रत थी। अं ेजी
और बंगला के भाव से नए कार का सा ह य ह द म भी रचा जाने लगा।
नए वचार को अ भ य त करने के लए ज क का य-भाषा स म नह ं थी और
ज का ग य ाय: धा मक आ यान अथवा च ी-प ी तक समटा था । खड़ी बोल
ह द का ग य व भ न समाचार-प , पा य-पु तक तथा सा ह य क नई वधाओं
के वारा नर तर वक सत हो रहा था । यह मांग उठने लगी थी क सा ह य
लोकभाषा म ह लखा जाए तथा बोलचाल तथा सा ह य क भाषा के बीच क दूर
समा त हो । भारते दु युग के अ धकांश क वय ने ग य के लए तो खड़ी बोल को
वीकार कर लया था पर तु प य के लए खड़ी बोल को वीकार करने म संकोच
बना हु आ था । गत पाँच सौ से भी अ धक वष से िजस जभाषा ने का य-भाषा के
प म अपनी पहचान बनायी थी उसे एकाएक अपद थ कर दे ना आसान न था ।
ताप नारायण म . अि बका द त यास, ब नारायण े धन, ठाकु र जगमोहन

संह आ द ने ग य तो भारते दु क तरह खड़ी बोल म ह रचा पर तु का य-रचना
ज म ह करते रहे । इनके प चात ् ववेद युग म खड़ी बोल म क वता करने
वाले ह रऔध जी और ीधर पाठक जी ने भी ारि मक क वता ज म ह क ।
खड़ी बोल को पूर तरह का य भाषा के प म अपनाने वाले थम बड़े क व
मै थल शरण गु त जी ह थे । गु त जी ने स कया क का य-भाषा के प म भी
खड़ी बोल का सफलतापूवक योग कया जा सकता है । आगे चलकर साद, पंत
और नराला आ द ने खड़ी बोल को का य भाषा के प म ग रमा दान क ।
ह द सा ह य, आ दकाल से आज तक मु ख प से लोक- वमश केि त रहा है,
स ता- वमश परक नह ं । कहने का भाव यह है क ह द सा ह य क ेरणा लोक
से आई है और लोक के क याण और रं जन के हे तु ह इसका सृजन होता आया है ।
आ दकाल के कु छ रासो थ
ं और र त काल क कु छ दरबार क वता को छो कर
अमीर खु सरो और व याप त से लेकर पंत, नराला अथवा मु ि तबोध और नागाजु न
तक ह द क वता जन क वता रह है । श भुनाथ संह इस े क सं कृ त क
वशेषता बताते हु ए लखा है. स दय का अनुभव यह बताता है क ह द े क

195
सं कृ त के सौ दय उदारता, बहु रं गेपन और धम नरपे व प को उजाड़ने क ताकत
न धा मक क रवाद म है और न नव-उदारवाद वै वीकरण म, य क इस े के
लोक म गजब क तरोधा मक और वैकि पक सं कृ त के नमाण क मता है ।'
अजय तवार आधु नक ह द क वता क पृ ठभू म पर वचार करते हु ए प ट करते
है क आधु नक ह द क वता ने लोक सा ह य का सं कृ तकरण नह ं कया बि क
लोक-सं कृ त से ेरणा लेकर श ट सा ह य म स वेदना, वषय-व तु और
अ भ यि त के जड़ ढांचे को तोड़ा है । इस कार ह द क वता का जनतां क प
वक सत हु आ है । आधु नक ह द क वता इस अथ म भी जनतां क है क इसका
लेखन आम आदमी के लये हु आ है और आम आदमी का जीवन ह इसका क य है
। ह द क वय ने अपनी क वता के म यम से भीड़ को जा त करके जु झा जनता
म प रव तत करने का यास कया है ।
रा य भाव के सार क ि ट से ह द म उदार रा वाद को ह अ धकतर
अपनाया गया । ह दू-मु ि लम एकता का भाव इसके सा ह य म खर है । दनकर
ने लखा था. लड़ते ह ह दू मु सलमान, भारत क आख जलती ह । आने वाल
आजाद क , दोन आख जलती ह । ह द म वदे शी शासन, टश सा ा य को ह
माना गया । ह द प ी म सा दा यकता भड़काने का दोषी भी अं ेज शासन क
नी तय को माना गया । साम त ाय: अं ेज समथक थे इस लए उनके वरोध एवं
उपे ा का वर आधु नक ह द क वता म सव मलता है ।
धम नरपे ता का वर ह द क वता म मु ख है । भि तकाल का धा मक 'सा ह य
भी स पूण मानवता क मंगल कामना से ओत- ोत है और उसम सा दा यकता
नाममा को भी नह ं है । धा मक तीक को भी रा य बनाकर तु त कया गया
है । भारते दु ने राधानाथ (कृ ण) को भारतनाथ बनाकर च त कया । अयो या संह
उपा याय के य वास म राधाकृ ण, जर क और लोकर क बनकर आते ह ।
पौरा णक पा , शंसा अथवा उपहास के लए ह यु त हु ए ह ।
आधु नक ह द क वता म जातीय चेतना का वर खर है साथ ह जनसाधारण के
साथ अपने सा हि यक र त क पहचान भी इस का य म है । आधु नक ह द
क वता के नमाणकाल म अतीत तथा पि चम के त आलोचना मक ि ट भी रह
है और नए तथा मंगलकार वचार को वीकार करने का भाव भी रहा है । आधु नक
क वता म सा ा यवाद वरोधी वैि वक वर भी व यमान है । धम नरपे ता के
साथ-साथ मानववाद ि ट इस का य को शि त दान करती रह है । ढ़वाद
वरोध, संघष का भाव तथा जनताि क ि ट इस का य के मु ख गुण ह ।

12.12 आधु नक ह द का य क पृ ठभू म का मू यांकन (सारांश)


 आधु नक ह द का य क पृ ठभू म पर वचार करने से पूव आधु नक,
आधु नकतावाद, समसाम यकता जैसी अवधारणाओं पर वचार करते हु ए हमने
पाया क यह श द वतमान से जु ड़े होने के साथ-साथ नवीन वचार- णाल से
196
भी जु ड़े ह । इन वचार का स ब ध म यकाल न भावबोध से न होकर
आधु नक भावबोध से है ।
 आधु नक भावबोध पि चम म प हवीं शता द के यूरोपीय नवजागरण से
ार म हु आ । औ यो गक ाि त, बु वाद , वै ा नक जीवन ि ट, पू ज
ं ीवाद
वैयि तकता तथा जातं वाद ने इस भावबोध को वक सत कया है ।
 भारत म आधु नक युग , अं ेजी शासन क थापना से लगभग 1850 से
माना जाता है । आधु नक युग के मू ल म नवजागरण, यूरोप क औ यो गक
ाि त के कारण भारत क अथ- यव था का वनाश, ेस और श ा से
उ प न रा यता का बोध तथा वाधीनता सं ाम क शि तयां ह ह ।
 भारतीय नवजागरण म पुनजागरण अथवा पुन थान क शि तयां मह वपूण
रह ह । भारत क ाचीन स यता और सं कृ त के साथ आधु नकता का
सम वय करने का यास आधु नक युग म कया गया ।
 आधु नक वचार धाराएँ अ धक जाताि क, मानवीय और वै ा नक थी ।
भारतीय समाज म या त ढ़य , अ ध व वास , कु र तय तथा कमजो रय
को दूर करने के लए सु धारवाद आ दोलन चलाए गए ।
 ह द े अ य धक वशाल है । 1857 क ाि त क पीड़ा सवा धक इसी
े ने झेल वाधीनता-सं ाम के लए सवा धक आ दोलन इसी े म हु ए ।
इस े म नवजागरण रा वाद का प धारण कर लेता है।
 ह द सा ह य म र तकाल न गृं ा रकता और दरबार पन का वरोध बदल
प रि थ तय म सहज ह होने लगा । ग य का वकास तथा नवीन राजनी त
सामािजक. आ थक तथा धा मक-सां कृ तक प रि थ तय म समाज-संस ृि त का
का य रचा जाने लगा ।
 आधु नक युग म ह द अपने े ीय व प को याग कर ज और अवधी से
आगे बढ़कर खड़ी बोल का प धारण कर लेती है । भारते दु युग म खड़ी
बोल ग य क भाषा बनी तो ववेद युग म वह प य क भी भाषा बन गई।
सम प से कह सकते ह क व व, भारत तथा ह द -प ी क व श ट ि थ तय का
मू यांकन करके हम आधु नक ह द -का य का मू यांकन उ चत प म कर पाएंगे ।

12.13 अ यासाथ न
1. सा ह य के इ तहास म म ययुगीनता तथा आधु नकता के अथ को प ट करते हु ए
उनका पाथ य प ट क िजए ।
2. भारत म नवजागरण आंदोलन क पृ ठभू म को रे खां कत करते हु ए उसके व वध
आयाम को प ट क िजए ।
3. नवजागरण आंदोलन का ह द सा ह य क आधु नक चेतना पर या भाव पड़ा ।

197
12.14 संदभ ंथ
 गौड, हर काश, सर वती और रा य जागरण, नेशनल पि ल शंग हाऊस,
नयी द ल ।
 कृ णलाल, आधु नक ह द सा ह य का वकास, ह द प रष , याग
व व व यालय ।
 गु त, गणप तचं , ह द सा ह य का वै ा नक इ तहास, लोकभारती काशन,
इलाहाबाद ।
 चतु वद , ीनारायण, आधु नक ह द सा ह य का आ दकाल, भात काशन,
द ल ।
 शमा, राम वलास, महावीर साद ववेद और ह द नवजागरण, राजकमल
काशन, द ल ।
 राम व प चतु वद , ह द सा ह य और संवेदना का वकास, लोक भारती
काशन, इलाहाबाद ।
 शु ल, रामच , ह द सा ह य का इ तहास, काशी नागर चा रणी सभा,
वाराणसी ।

198
इकाई- 13 : भारते दु युग का का य
इकाई क परे खा
13.0 उ े य
13.1 तावना
13.2 भारते दु- युग के का य क पृ ठभू म
13.3 भारते दु-युग के का य का वकास
13.4 भारते दु काल न सा ह य क वृि तयां
13.5 भारते दु युग के का य का मू यांकन (सारांश)
13.6 अ यासाथ न
13.7 संदभ थ

13.0 उ े य
तु त पा य म के अ तगत, आधु नक का य पर यह दूसरा पाठ है । आधु नक का य
क पृ ठभू म का व तृत अ ययन हम पछले पाठ म कर चु के ह । तु त पाठ
भारते दु युग के का य पर केि त है । भारते दु युग के का य को म यकाल न र त
का य से अलग करते हु ए हम इस युग के क वय एवं का य का अ ययन करगे । इस
इकाई को पढ़ने के प चात आप-
भारते दु युग क राजनी तक, सामािजक एवं सा हि यक प रि थ तय का प रचय दे
पाएंगे ।
इस युग के णेता भारते दु ह र च के जीवन और का य वषयक न का उ तर दे
पाएंगे ।
भारते दु के का य म वरोधाभासी वृि तय के कारण प ट कर पाएंगे ।
भारते दु ने इस युग के का य को वशेष प से कस दशा म वक सत कया, यह
प ट कर पाएंगे ।
भारते दु युग के अ य मु ख क वय के सा ह य का प रचय ा त करगे और उनसे
स बि धत न का उ तर दे पाएंगे ।
भारते दु युग के का य क वृि तय का व लेषण कर पाएंगे ।

13.1 तावना
प रवतन कृ त का नयम है । प रवतन कृ त म हो अथवा मानवीय समाज म,
उसके पीछे कु छ कारण अव य रहते ह । यह कारण य भी हो सकते ह तथा परो
भी । कारण क खोज, प रवतन क सह कृ त समझने म सहायता दे ती है ।
सकारा मक प रवतन क ग त तेज करने तथा उ ह दुहराने म भी उनके कारण का
ान सहायक होता है । नकारा मक प रवतन के भाव को कम करने और उनक
दुहराई को रोकने म कारण का ान उपयोगी रहता है । सा ह य स य और सु सं कृ त

199
समाज क उपज होता है और उस म हो रहे प रवतन को समझना, मानव समाज म
हो रहे प रवतन को समझने म सहायता दे ता है ।
आचाय रामच शु त ने सा ह य म बदलाव का कारण जनता क च तवृि त म
बदलाव को माना है । जनता क च तवृि त म यह प रवतन सामािजक, राजनी तक
तथा सा हि यक े म होने वाले प रवतन से आता है । ह द सा ह य के इ तहास
को दे खने पर यह प ट हो जाता है क हमार मानव वषयक धारणा म नर तर
प रवतन हु आ है । आ दकाल न सा ह य म मनु य का ई वर क म हमा से यु त वणन
हु आ है, जब क भि तकाल म यह च ण ई वर का मनु य के प म हु आ है आगे
फर र तकाल म ई वर और मनु य दोन का मनु य- प म च ण होता है, और ई वर
क धारणा यि तगत आ था के प म वीकृ त होती ह, सा ह य अथवा कलाओं म
उसका च ण ासं गक नह ं रह जाता । ह द सा ह य म व भ न काल म हु ए
प रवतन न चय ह हमार सोच म आए प रवतन का प रणाम है । समाज क सोच
म प रवतन आ थक, राजनी त, सामािजक. धा मक, बौ क कारण से हो सकता है ।
सा ह य म प रवतन दो तर पर हु आ करता है - एक तो क य या वषय-व तु के
तर पर दूसरे भाषा-शैल एवं छ द-अलंकार के तर पर । भारते दु युग , आधु नक युग
के ार म का सू चक है इस लए आधु नक युग के आगमन के सारे कारण भारते दु युग
के का य को भा वत करने वाले कारण भी ह । इस इकाई म हम इन कारण का
अ ययन करगे और साथ ह यह भी जानने का यास, करगे क भारते दु युग को
वयं भारते दु ने कैसे और कतना भा वत कया । भारते दु म डल के क वय क
दे न पर व तार से वचार कया जाएगा । इस इकाई म भारते दु युग के का य क
सामा य वशेषताओं को भी रे खां कत कया जाएगा । इकाई के अ त म भारते दु युग
के का य का मू यांकन तु त कया जाएगा ।

13.2 भारते दु यु ग के का य क पृ ठभू म


पि चम म 15-16वी शता द के पुनजागरण से नए युग क शु आत मानी जाती है ।
पि चमी यूरोप वशेषकर इटल , पेन, जमनी, ांस और इं लड म नए वचार का
भाव अपे ाकृ त अ धक दखाई पड़ा । इं लड म 17वी शता द म औ यो गक ाि त
आई िजससे वहाँ एक नई यापा रक सं कृ त ने ज म लया । मजबूत समु बेड़े के
सहारे इं लड ने ए शया और अ का म अपने उप नवेश था पत कए । भारत भी
उनक औप नवे शक नी तय का शकार हु आ । पि चम म स हवीं से उ नीसवीं बीसवीं
सद तक जो वैचा रक प रवतन आए उ ह ने पूरे व व को भा वत कया । डा वन के
वकासवाद, ायड आ द के मनो व लेषणवाद तथा मा स के भौ तकवाद ने युगीन
च तन को भा वत कया । भारत म मु गल सा ा य के पतन के प चात ् राजनी तक
बखराव क ि थ तयां पैदा हु ई िजनका लाभ अं ेज यापा रक क पनी ई ट इं डया
क पनी ने उठाया । यापार के साथ- साथ द ण म तथा बंगाल म अपना अ धप य
जमाने के प चात ् इसने अनेक रजवाड़ को अपने अधीन कर लया । पि चम म

200
सतलुज नद के पार रणजीत संह ने इ ह कु छ समय के लए रोका पर तु उसक मृ यु
के प चात ् 1846 म पंजाब भी अं ेज के अधीन चला गया । 1857 क जन ां त ने
भारतीय राजनी त म बड़ा प रवतन उपि थत कया । इस समय म राजाराम मोहन
राय, वामी दयान द, केशव च सेन एवं रामकृ ण परमहंस जैसे लोग सामािजक
जागरण म सहायक हु ए । सुरे नाथ बनज , दादाभाई नौरोजी जैसे राजनेताओं ने
भारतीय राजनी त को दशा द । बंगाल म रा वाद को वक सत करने वाले
ब कमच के व दे मातरम का भाव भी जनता पर पड़ रहा था । ई वर च
व यासागर ने भारतीय को अं ेजी श ा से जोड़ने के यास ार भ कर दए थे।
भारतीय समाज नए युग म वेश कर रहा था, ऐसे समय म भारते दु ह र चं का
आगमन ह द सा ह य म हु आ । भारते दु का समय 1650 से 1889 है पर तु
उनका भाव पूरे युग पर है । वे एक भ त समाज सु धारक, श ा व . सा ह यकार
और दे शभ त एक साथ थे । भारते दु ने 1857 क जन ां त और उसके बाद के दमन
को नकटता से दे खा था । उ ह ने अं ेज वारा लाए गए सु धार को भी दे खा था और
उनक भारत वरोधी नी तय को भी समझा था । भारते दु युग क प रि थ तय को
जानना, उनके सा ह य का व लेषण करने के लए बहु त ज र है । भारते दु युग क
पृ ठभू म या थी?

13.2.1 राजनी तक पृ ठभू म

1857 क ां त टश शासन ने पूर ू रता के साथ कु चल डाल । भारतीय समाज


और भारतीय राजनी त पर इसका गहरा भाव पडा । पहला प रणाम तो यह हु आ क
भारत का शासन ई ट इि डया क पनी के हाथ से नकल कर सीधे महारानी व टो रया
के हाथ म चला गया । इसका दूरगामी फल यह हु आ क अब भारत क वदे श नी त
इं लड के हत के अनु प , यूरोपीय ि थ तय के अनुसार बनने लगी । टश सरकार
अपने लए एक तथा अपने उप नवेश के लए दूसर वदे श नी त नह ं बना सकती थी ।
इसके कारण भारत, यूरोपीय राजनी त से भा वत होने लगा । 1857 के प चात ्
भारतीय वदे शी नी त स के बढ़ते भाव को रोकने क रह य क स म य ए शया
म अपना भाव बढ़ाना चाहता था । रै ड सी टै ल ाफ लाईन के बछ जाने से कलक ता
और लंदन के बीच सीधा स पक था पत हु आ िजससे अं ेज शासन मजबूत हु आ ।
भारत म क पनी शासन के समा त होने से यहां के शासन को चलाने के लए कु शल
शासक क ज रत पड़ी िजसके लए स वल स वस ार भ हु ई । यह दौर नौकरशाह
का वणयुग था य क । टश व व व यालय के े ठ छा चु नकर इसम भेजे जाने
लगे । 1909 तक 1244 आई.सी.एस. अ धकार भारत म रहे िजनम से मा 65 ह
भारतीय थे । अं ेज उ ह भी घृणा से दे खते थे और घ टया मानते थे । संवध
ै ा नक
और वदे शी मामल म टश शासन का शकंजा भारत पर कसता चला गया ।
भारतीय राजनी त को इं लड क औ यो गक ां त ने भी भा वत कया । क पनी के
यापार से ार भ म भारत को अ धक हा न नह ं होती थी । औ यो गक ां त के

201
प रणाम व प य य भारत को क चा माल उ प न करने वाला दे श बनाया गया
और यहाँ के उ योग को सु नयोिजत ढं ग से उपे त एवं न ट कया गया उससे भारत
म असंतोष बढ़ा । अं ेज क आ थक शोषण क नी त को लेखक जॉन ाइट ने 'ए
हं ेड इयस ऑफ ाइम' नाम दया था । 1861 म पंजाब, राजपूताना, आगरा और
अवध म भयंकर अकाल पड़े । 1878 म भारतीय मल के कपड़े पर कर लगाए गए
ता क वदे शी कपड़ा भारत म स ता बक सके । स वल स वस पर ा उ तीण करने के
लए नधा रत आयु सीमा कम करके भारतीय को उससे वं चत रखने का यास कया
गया।1877 म महारानी व टो रया के द ल दरबार पर मनमाना खच करके भारतीय
के ज म पर नमक छड़का गया । 1878 म 'वन यूलर ए ट' पास करके भारत क
ेस क आजाद पर अंकु श लगाने का य न कया गया । 1883 म 'इलबट बल' का
वरोध ार भ हो गया । इस कार दमनकार , भेदभावपूण एवं शोषणपरक नी तय के
कारण भारत म भारते दु युग म गहरा असंतोष था जो युगीन सा ह य म भी व नत
हु आ । असंतोष को दबाने या कम करने के यास भी समय समय पर अं ेज शासक
करते रहे । व टो रया के घोषणा प म यो यता के आधार पर नौक रयां दे न,े धम के
आधार पर भेदभाव न करने और सबक भलाई के लए काम करने का आ वासन
जनता को दया गया था । उस समय के बु जी वय , सा ह यकार एवं समाज
सु धारक ने इस घोषणा क शंसा क थी । अं ेज सरकार ने अं ेजी श ा के यास
के लए कलक ता, म ास, ब बई म व व व यालय था पत कए । सर जॉन लॉरे स
ने 1864-69 तक कृ ष सु धार करके अकाल पी ड़त क सहायता का यास कया ।
लाड रपन ने 1882 म ए
ै ट समा त कर दया । इन कारण से ह द सा ह यकार
ने अं ेजी राज क शंसा क तथा इसका गुणगान भी कया । इस कार राजभि त
और राज- वरोध का वर एक साथ इस युग के का य म दखाई पड़ता है । 1885 म
ए.ओ. हयूम क ेरणा से भारतीय रा य कां ेस क थापना हु ई थी ।

13.2.2 सामािजक पृ ठभू म

1857 क ां त से अं ेज ने एक पाठ यह सीखा था क भारत म ह दू मु सलमान


एकता उनके सा ा य के लए बड़ा खतरा बन सकती है । दोन मु ख समु दाय म
वरोध बढ़ाने के लए अं ेज कू टनी त स य हु ई । उदू और ह द का भेद बढ़ाया गया
और 1800 ई. म था पत फोट व लयम कॉलेज ने उदू को मु सलमान क और ह द
को ह दुओं क भाषा बनाने म योगदान कया ।
उस समय का भारतीय समाज ाय: ढ़वाद था । समु या ा न ष थी । लड़ कय
को ाय: श ा नह ं द जाती थी य क श त लड़ कय क शाद क ठन थी ।
नशाखोर और य भचार बढ़ रहा था । ना रयां घर क चारद वार म बंद रहती थी ।
बाल ववाह, अनमेल ववाह, बहु- ववाह जैसी कु थाओं से समाज त था । भारतीय
समाज सु धारक ने नार क दशा सु धारने के लए यास ार भ कए । 1872 म

202
केशवचं सेन के य न से सरकार बहु ववाह और बाल- ववाह पर रोक लगा सक ।
1795 और 1809 म कानून बना कर नर ब ल क था समा त क गई । राज थान,
बंगाल तथा द णी भारत म सती था का जोर था । राजाराम मोहन राय के यास
से 1829 म इस पर रोक लगी और इसे दं डनीय अपराध घो षत कया गया । सती
था कने से वधवाओं क सं या बढ़ । उनके पुनवास के लए ई वर च
व यासागर ने आ दोलन शु कया था इस लए 1856 म वधवा ववाह को वैध
घो षत करने वाला कानून बना । समाज म या त ढ़वाद, बहु दे ववाद और अ य
व वास पर भी अंकु श लगाने का यास कया गया ।
क पनी के चाटर म इसाई धम के चार को न केवल वीकृ त द गई थी बि क इसके
चार के लए रा श भी नधा रत क गई थी । इसक त या म ह दू सु धारवाद
आ दोलन ार भ हु ए। आयसमाजी आ दोलन सबसे सफल रहा। इ लाम और इसाई
धम क क रता का जवाब आय समाज क ओर से दया गया। इसाई बाईबल ान
को तथा मु सलमान 'कु रान' को एकमा पव पु तक मानते ह। वामी दयान द जी ने
'स याथ काश' म वेद को दोन से े ठ घो षत कया है। म समाज, ाथना
समाज, थयो सफ कल सोसायट के उदारवाद आ दोलन भी च लत हु ए रामकृ ण और
वामी ववेकान द ने ह दू धम को सेवा से जोड़कर एक मशनर धम म बदल दया।
समाज म आ रह नई चेतना का एक पहलू श ा से जु ड़ा हु आ भी था । भारतीय
भाषाओं का तेजी से वकास हो रहा था तथा छापेखाने के आने से ग य का मह व
बढ़ गया था । बंगला और ह द म, ेस (छापेखाने) से ां तकार प रवतन हु ए और
ह द सा ह य क भाषा खड़ी बोल बनने लगी । अं ेजी श ा के चार से वै ा नक
सोच को बढ़ावा मला और रा य चेतना भी वक सत हु ई । भारतीय पर पराओं और
सां कृ तक जागरण से ह दू धम म नई चेतना आई और इसम सुधार आ दोलन चले
। श ा का चार सार धा मक आ दोलन का अंग बना तथा नार श ा पर अ धक
बल दया गया । महारा म ी श ा का चार अ धक हु आ । 1857 क ां त के
प चात ् अं ेज वरोध के कारण मु सलमान पछड़ते जा रहे थे । सर सैयद अहमद खा
ने वहावी आ दोलन चलाया और अल गढ़ कू ल क नींव रखी। मु सलमान म अं ेजी
श ा का चार- सार करने के लए अल गढ़ म मु ि लम एं लो-ओ रये टल कॉलेज
था पत कया । स भवत: यह ह दू पुनजागरण क त या थी । बंगाल म बं कम
क रचनाओं से ह दू पुनजागरण ार भ हु आ िजसक गूँज उनके आन द मठ म है ।
बंगाल म उदारवाद राज नारायण बोस ने रा य भावनाओं को जगाने के लए एक
सं था क थापना क थी । नव गोपाल म ा ने रा भि त का भाव पैदा करने के
लए ' ह दू मेला' ार भ कया था । उ ह ने एक रा य अखबार 'नेशनल पेपर' भी
ार भ कया था । सर सैयद अहमद खां ने मुसलमान म मु ि लम रा वाद वक सत
करने का यास कया । समय के साथ-साथ दोन वपर त दशाओं म चलने लगे
य क सर सैयद का मानना था क ' ह दू और मु सलमान दो अलग-अलग रा यताएं

203
ह जो एक ह संहासन के लए संघष कर रह ह दोन का समानता के तर पर इस
पर अ धकार नह ं हो सकता' उ ह ने 1888 म मेरठ म यह बात कह थी जो आगे
चलकर 1940 म मु ि लम ल ग के लाहौर अ धवेशन म पा क तान क मांग बन गई ।
पा क तान क मांग दो रा यताओं के आधार पर ह क गई थी ।

13.2.3 सा हि यक पृ ठभू म

सा ह य म कोई भी वृि त न तो एकाएक समा त होती है और न ह उ प न होती है


। कु छ समय तक पुरानी, पतनशील वृि तयां , नई, वकासशील वृि तय के साथ-साथ
चलती ह और अ तत: पुरानी यशील वृि तयां समा त हो जाती है और नई सश त
हो जाती है । भारते दु युग म र तकाल क शृंगा रकता , भि त और जभाषा ेम क
वृि तयां इस युग के ारि मक क वय सरदार, ल मण संह, ल छराम, गो व द
ग लाभाई जैसे क वय म प ट दे खी जा सकती ह । भारते दु म डल के क वय
यथा-भारते दु बदर नारायण चौधर 'मेघन', तापनारायण म . राधाचरण गो वामी,
राधाकृ णदास, अि बकाद त यास तथा बाल मु कु द गु त म भी कु छ-कु छ यह
वृि तयां मल जाती ह पर तु उनका अ धकांश का य खड़ी बोल म, समाज संप ृि त
का का य है । भारते दु युग के क व सं ाि त काल के क व ह इस लए उनम
र तकाल न और आधु नक क वता क वृि तयां एक साथ यूना धक मा ा म उपल ध
ह । रा ेम, समाज सु धार तथा टश स ता के त घृणा और ेम के दुहरे संबध

से बंधा भारते दु युगीन समाज उस युग के सा ह य म त व नत हु आ है ।
र तकाल न सा ह य राजाओं के आ य म लखा हु आ दरबार सा ह य था । मु गल
शासन के बखरने और अं ेज का शासन था पत होने से राजे-रजवाड़े ाय: समा त
हो गए और दरबार क वय के लए आ य खोजना क ठन हो गया । दरबार का य
राजाओं और अमीर उमराओं क वला सता को उ तेिजत करने का साधन मा था
इस लए आम जनता से उसका स ब ध नह ं था । अब क वय के लए ज र हो गया
क वे आम जनता के नकट आएं और उनके वषय पर लख िजससे क जनता उ ह
अपनाए । इस कार भारते दु युग का का य समाज से जु ड़ने लगा । भारते दु युग
अं ेज के दमन और शोषण का युग भी था । क वय को इन वषय पर लखना
आव यक लगा पर तु वे खु ल कर लख नह ं सकते थे । वदे शी राज म अ भ यि त
क वतं ता सी मत ह रहती है और राज ोह म कसी को भी ता ड़त कया जा
सकता है । श ा का सार हो रहा था, समाचार प नकल रहे थे इस लए एक पढ़ा
लखा श त वग तैयार हो रहा था िजसे मनोरंजन और आ म-प र कार के लए
सा ह य क आव यकता थी ।
अं ेज क श ा नी त का ल य टश शासन को मजबूत करना तथा राजकाज
चलाने के लए कलक तैयार करना था । 1800 म कलक ता म फोट व लयम कॉलेज
क थापना क गई थी । 1813 म व ान- श ा के लए एक लाख पया वा षक
खच करने क योजना बनी थी पर तु इस पर अमल नह ं हु आ । राजाराममोहन राय ने
204
1817 म ह दू कॉलेज था पत कया । आगरा, द ल , बरे ल तथा ब बई म भी
कॉलेज खु ले । 1855 से अं ेजी भाषा के श ण पर बल दया जाने लगा था । नवीन
श ा के सार से रा यता क भावना वक सत हु ई । इस युग के क व कबीर, सू र,
तु लसी क तरह भि त परक तथा म तराम, दे व और बहार क तरह शृंगा रक क वताएं
भी रच रहे थे । ये क व नवीन आदश से े रत होकर समाज-सु धार, रा - ेम और
आ मो थान क क वताएं भी लख रहे थे । इस युग के क व सं ाि तकाल के क व ह
िजसम ाचीनता का मोह बना रहता है साथ ह नवीन क ललक भी होती है । भाषा-
श प के तर पर इस युग के क व ज क मधु रता को भी लेकर चल रहे थे और
खड़ी बोल ह द के पौ ष को भी मह व दे रहे थे । छ द वधान के तर पर यह
क व क व त, सवैय,े दोहे भी लख रहे थे और लोकगीत से ेरणा पाकर कजल ,
खेमटा, कहरवा, ठु मर , गजल, होल अ ा, चैती, वरहा, लावनी आ द छ द का भी
का य म योग कर रहे थे । इस युग म का य क भाषा ज हो या खड़ी बोल यह
ववाद चलता रहा । ताप नारायण म , राधाचरण गो वामी आ द ज के प म थे
तो ीधर पाठक और अयो या साद ख ी जैसे लोग खडी बोल के प म थे ।
भारते दु के लए सं कार क भाषा ज थी और वचार क भाषा खड़ी बोल थी ।
भारते दु युग के प चात ् खड़ी बोल मश: ह द सा ह य क मु ख भाषा बन गई ।
ज भाषा म क वता बीसवीं शता द तक लखी जाती रह है पर तु वह प रमाण म
कम होती गई है । बाबू जग नाथ दास र नाकर (1866-1932) स यनारायण क वर न
(1859-05), वयोगी ह र (1896) आ द ज म लखते रहे ।
त काल न सामािजक, धा मक, राजनी तक तथा सा हि यक प रि थ तय पर वचार
करते हु ए हम पाते ह क पूरे ह द े का मानस, प रवतन के लए तैयार था । ऐसे
समय म भारते दु ह र च के प म एक युगा तरकार सा ह यकार ने ज म लया
िजसने 34 वष क अ पायु म ह द सा ह य क धारा बदल द और ऐसा सा हि यक
वातावरण तैयार कया क सा ह य दरबार से नकल कर जन-जन तक पहु ँ चने लगा ।
अब हम भारते दु युग के क वय पर व तारपूवक वचार करगे ।

13.3 भारते दु यु ग के का य का वकास


13.3.1 भारते दु ह र च का का य

भारते दु ह र च का ज म 9 सत बर 1850 म काशी के एक धनादय प रवार म


हु आ था । उनके पता गोपालराम ' गरधर' भ त और सा ह य ेमी थे । 11 वष क
अव था म भारते दु ने क वता लखनी ार भ कर द थी और 15 वष क अव था म
वे प रवार के साथ जग नाथ पुर क या ा पर गए थे । यह पर उ ह बां ला सा ह य
क नवीनतम वृि तय का प रचय ा त हु आ था । भारते दु ने 'क ववचन सु धा',
हर च मै जीन', और 'ह र च चि का' का काशन कया था । सरल, वनोद

205
वभाव के भारते दु भावशाल यि त व के वामी थे । आप सफल नाटककार,
इ तहासकार, समालोचक, प स पादक तथा क व होने के साथ-साथ समाज-सु धारक,
रा वाद नेता थी थे । जब अं ेज सरकार ने शव साद संह को ' सतारे ह द' क
उपा ध द तो जनता ने अपने य नेता को 'भारते दु' क उपा ध से स मा नत कया
। भारते दु का नधन 34 वष क अ पायु म 1884 म हु आ । उ ह ं के श द म -
कहगे बैन नीर भ र-भ र पाछे , यारे ह रच क कहानी रह जायगी ।
भारते दु के सम त का य- थ का संकलन काशी नागर चा रणी सभा, काशी वारा
'भारते दु ं ावल ' के दूसरे ख ड म हु आ है । इनके का य-
थ थ क सं या 70 है ।
इनके का य म भि त, ेम और गृं ार, दे श ेम तथा हा य- यं य क वृि तयाँ मु ख
ह ।
भि त भावना - भि त के सं कार उ ह पता से ा त हु ए थे । उनके 'भ त सव व',
'का तक नान', 'उ तराध भ त माल' जैसे थ भि तभाव से ओत- ोत ह । अपने
आप को राधाकृ ण का अन य उपासक घो षत करते हु ए उ ह ने लखा - मेरे तो
रा धका-नायक ह ग त लोक दोऊ रह कै न स जाओ ।' भ त होने के नाते भारते दु
ान और कमका ड क उपे ा करते ह और भि त को ह सव व मानते हु ए लखते ह
- मेरे तो साधन एक ह ह, जग, न दलाल वृषभानु दुलार ।' भारते दु के भि त का य
म माधु य भाव भी है और कह ं-कह दै य भाव क भि त भी है ।
गृं ार-भावना - भारते दु क अनेक रचनाओं - ेम सरोवर, ेमा ,ु ेम-तरं ग, ेम-
माधुर आ द म वशु गृं ार -भावना क अ भ यि त हु ई है । ेम के वषय म उ ह ने
लखा -
िज ह ल ह फर कछु लहन क आस न च त म होय ।
जय त जगत पावन करन ेम वरन यह दोय । ।"
ेम वणन म वरह का आ ध य है, मलन गृं ार के य कम है । वय सि ध क
अव था को ा त बाला का सू म च ण भी कया है और मलन गृं ार के च भी
अं कत कए है पर तु उनम मांसलता नह ं है ।
राजभि त - भारते दु का प रवार उस समय के अ य रईस क तरह राजभ त था ।
मु गल काल क अ यव था के प चात ् अं ेज शासन क याय और शाि त- यव था भी
कह ं उ ह आ व त करती होगी । साथ ह वे यह भी दे ख रहे थे क अं ेज भारत का
शोषण कर रहे ह । इस कार दु वधा क मान सकता उनक अ त तक बनी रह ।
उ होने राजभि त और रा भि त को अलग करके दे खने का यास कया । अं ेजी
शासक क उ ह ने शंसा क है और अं ेजी नी तय का अनेक थल पर वरोध कया
है । भारते दु थ
ं ावल म राजभि त क क वता के अनेक उदाहरण अं कत ह और
उ ह ने इस बात पर दुःख जताया है क उनके वरोधी उ ह राज ोह स करने म लगे
ह । मु ारा स नाटक के अ त म रानी व टो रया क शंसा करते हु ए उ ह ने लखा-
"पूर अमी क कटो रया सी चरजीओं सदा वकटो रया रानी"
206
भारते दु अं ेज राज के समथक य थे इसका कारण उनक 'भारत वीर व रचना म है
जहाँ वे लखते ह-
"जासु राज व यौ सदा भारत भय यागी" ।
जासु बु नत जा पु ज
ं रं जन महं पागी ।
व टो रया के शासन म दे श समृ होगा यह आशा उ ह और उनके समकाल न को
थी। दे शभि त - शनै: शनै: भारते दु को लगने लगा था क अं ेज राज शोषणकार एवं
दमनकार है । 'भारत दुदशा" और "नीलदे वी" म अं ेजी राज से उनका मोहभंग प ट
हो जाता है । 'भारत दुदशा" म उ ह ने लखा है -
"रोअहु सब मलकै आवहु भारत भाई
हा हा! भारत दुदशा न दे खी जाई ।"
"वषा वनोद" तथा ''अंधेर नगर '' म भी भारत क वतमान दशा पर ोभ य त कया
है । भारत क दुदशा का कारण राजा का वदे शी होना बताते हु ए लखते ह -
"अंधाधु ध
ं म य " सब दे सा । मानहु ँ राजा रहत वदे सा ।'
दे श म अंधेरगद का कारण यह है मानो राजा कह ं वदे श म रहता है । भारते दु
टश राज के सु शासन और शोषण म से चु नाव नह ं कर पाए इसी लए उनक दु वधा
न न पंि तय म झलकती हे -
"अंगरे ज राज सु ख साज सजै सब भार ।
पै धन बदे स च ल जात इहै अ त वार । ।"
भारते दु 1857 क ाि त क ओर आकृ ट तो होते ह पर तु संकोच के साथ यथा -
"क ठन सपाह ोह अनल जा जल बल नासी ।
नज भय सर न हलाय सकत कहै भारतवासी ।"
वा तव म कंपनी राज के समा त होने पर रानी व टो रया क घोषणा से उ प न
आशाएँ और टश राज म कानून का शासन होने क आशा से भारते दु काल न
क वय ने ाय: अं ेजी राज क बुराई नह ं क है । 1857 क ां त के प चात ् जैसा
अमानवीय दमन हु आ था और सरकार सचेत हु ई थी उससे भी सा ह य म शासन
वरोधी वर आना क ठन था । हा य- यं य - भारते दु ने सो े य हा य यं य परक
का य का सृजन कया है । "उदू का यापा" म उनका ह द - ेम छपा है तो "ब दर
सभा" लखकर उ ह ने भ डे नाटक का मजाक उड़ाया है । भारते दु क मु क रयो तथा
"अ धेर नगर " जैसे नाटक म यं य का वर पैना है । एक मु कर अं ेज वषयक
ट य है -
"भीतर-भीतर सब रस चू स,े हँ स-हँ स कर तन मन धन मू सै ।
जा हर वातन म अ त तेज, य स ख साजन न हं अंगरे ज । ।"
समाज सुधार - भारते दु के का य म समाज सु धार का वर मु खर है । भारते दु
आव यक आ थक सुधार के प म थे । 'भारत दुदशा ' म भारतीय समाज म या त

207
ढ़य और कु र तय का च ण उ ह ने कया है । समु -या ा नषेध पर उ ह ने
लखा-
"रो क वलासत गमन कूप मंडूक बनायो ।"
जु आ, मांस-म दरा सेवन आ द का वरोध करते हु ए उ ह ने यं य पूवक अपने नाटक
"वै दक हंसा", हंसा व भव त म लखा -
"यह असार संसार म चार व तु ह सार ।
जु आ, म दरा, मांस अ नार संग वहार ।।"
भारते दु ने वदे शी आ दोलन का प लेते हु ए अपनी प का "क व वचन सु धा" म
वदे शी व तु ओं के यवहार का त ा-प छपवाया था ।
भारते दु का ि टकोण अ य त ह उदार तथा यापक था । अपने ब लया वाले भाषण
म उ ह ने धम नरपे भारत क इ छा य त करते हु ए कहा था, "इस महामं का
जाप करो, जो ह दु तान म रहे, चाहे कसी रं ग, कसी जा त का य न हो, वह
ह दू है । ह दू क सहायता करो । बंगाल , मराठा, पंजाबी, म ासी, वै दक, जैन,
म , मु सलमान सब एक का हाथ एक पकड़ो" । वदे शी व तु ओं के समथन म
उ ह ने लखा था -
"मारक न मलमल बना चलत कहू न ह काम
परदे शी जु लाहन के मानहु ँ भए गुलाम ।"
भाषा ेम - भारते दु क क वता क भाषा अ धकतर ज भाषा है पर तु कह -ं कह ं खड़ी
बोल म भी उ ह ने क वता लखी है । उनक भि त और गृं ार क क वता ज म है
तथा चारा मक क वता का कु छ अंश खड़ी बोल म है । उ ह भारतीय भाषाओं से
यार था और अपना वभाषा- ेम य त करते हु ए उ ह ने लखा था -
" नज भाषा उ न त अहै, सब उ न त को मू ल ।
बन नज भाषा ान के, मटत न हय को शू ल । ।"
ह द क उ न त पर एक बार बयान दे ते हु ए उ ह ने कहा था -
" च लत करहु जहान म, नज भाषा क र जतन ।
राजकाज दरबार म फैलावह यह र न ।"
भारते दु ने का य रचना के लए सरल, सरस, च लत जभाषा का योग कया ।
त व श द के अ धका धक योग वारा उ ह ने अपनी क वता को बोधग य बनाया ।
उदू श द और उदू छ द का योग भी उ ह ने खु लकर कया है, यथा -
"खाना-पीना नाच तमाशा ऐश-आराम सभी
जैसे बजन नमक बना य राम बना बेकाम सभी ।"
अं ेजी श द से भी उ ह परहे ज नह ं था -
"लहंगा दुप ा ठ क नह ं लागे ।
मेमन का गौन मंगायो नह ं दे यो ।"

208
भारते दु ने र त स ब धी शृंगा रक का य म क व त तथा सवैय,े कृ ण भि त के
संग म गेय पद, मु तक म मा क छ द यु त कए ह । लोकजीवन से लावनी,
कजर , होल आ द छं द चु ने ह तो भारतीय भाषाओं म उदू बंगला से भी छं द उधार
लए ह ।
भारते दु के का य म व वान को राजभि त और दे शभि त, भि त का य और
शृंगा रक का य, सु धारवाद और ढ़वा दता, ज और खड़ी बोल का व व नजर
आता है । वा तव म भारते दु म ये वरोधाभासी वर समय क उपज थे । पुरातनता
को अभी क व पूर तरह याग नह ं पा रहे थे और नवीनता को पाने क ललक म
उ ह ने कदम बढ़ा दए थे । भारते दु सं ाि त काल क उपज थे, ह द सा ह य के
आधु नक काल के आ दकाल क उपज थे िजसम अभी तक सा हि यक वृि तयाँ
अ प ट थी।
भारते दु मंडल - भारते दु म डल का के तो काशी था और मंडल के अ धकांश
लेखक काशी म रहते थे, यथा-दामोदर शा ी स ,े मोहनलाल व णु पंडया, का तक
साद ख ी, अ बकादत यास रामकृ ण वमा तथा सु धाकर ववेद जैसे लोग काशी म
ह थे । मजापुर के बदर नारायण चौधर ेमघन, इलाहाबाद के बालकृ ण भ , कानपुर
के तापनारायण म , वृंदावन के गो वामी राधाचरण तथा इलाहाबाद के लाला
सीताराम इस मंडल म थे । संवेदना मक तर पर ये सभी लेखक एक दूसरे के नकट
थे और भारते दु का सहयोग एवं संर ण इ ह ा त था । इनम से अ धकांश प कार
भी थे । भारते दु क "क व वचन सुधा" तथा "ह र च चं का", " ेमघन क आनंद
कादं बनी", बालकृ ण भ का " ह द द प" तापनारायण म का " ा मण", लाला
ी नवास दास क "सदादश " केशवचरण का "भारते दु" जैसे प और प काएँ इस
मंडल के सद य नकालते थे । सा हि यक प का रता के वकास का यह वणयुग था
। एक बड़ा पाठकवग इन प -प काओं ने तैयार कया । भारते दु का मू यांकन -
भारते दु क क वता म कह ं अतीत गौरव क गवगाथा है कह ं वतमान अधोग त का
च ण है । कह ं भ व य क च ता है, कह ं भि त तथा गृं ार के पद और क व त
सवैये ह । कृ त वणन म भारते दु बा य कृ त का च ण कम कर पाए आ यांतर
कृ त का च ण अ धक कया है । गंगा वणन म कृ मता है । भारते दु ने ह द
क वता म नवीन वषय को वेश करवाया और उसे जनता से जोड़ा । अठारह के
लगभग नाटक उनके लेखन के के म ह । वे नाटक को नर र और सा र, दोन के
लए उपयोगी मानते थे ।

13.3.2 बदर नारायण चौधर " ेमघन"

भारते दु का हर े मे अनुसरण करने वाले और उ ह क तरह रईसी जीवन जीने


वाले ेमधन जी ने बहु त सा सा ह य रचा जो " ेमघन सव व" म संक लत ह । इनक
क वता म भारते दु के का य क तरह ह भि त, गृं ार, राजभि त और दे शभि त के

209
वर मलेजु ले ह । मंगलाशा हा दक हषादश, भारत बधाई तथा आया भनंदन म इनक
राजभि त है तो क लकाल तपण, पतर लाप, मंगलाशा आनंद बधाई तथा कजल
होल म इनक दे शभि त झलकती है । आनंद बधाई क वता म ह द के त इनका
अन य ेम झलकता है । हा य ब दु तथा होल क नकल म इनक हा य- यं य क
रचनाएँ ह । सामािजक, राजनी तक े म भी इ ह ने भारते दु का अनुसरण कया ।
सा ह य चार के लए र सक समाज तथा स म सभा बनाई तथा मा सक आनंद
कादं बनी और सा ता हक नागर नीरद चलाया । उ ह ने दो ब ध का य जीण-जनपद
तथा अलौ कक ल ला के साथ-साथ चार नाटक - 'भारत सौभा य', 'दारं गना रह य',
याण, रामागमन तथा वृ वलाप का सृजन कया । फुट का य म भी इनक बहु त
सी रचनाएँ ह । अवसरानुकू ल क वता सृजन म कु शल थे इस लए ववाह के बैनर से
लेकर महारानी व टो रया क ह रक जयंती, सनातन धम स मेलन तथा नागर लप
के कचहर वेश के अवसर तक पर आपने सा ह य रचना क । ाचीन पर परा क
क वताओं से ार भ करके ये आधु नक का य क ओर बढ़ते चले गए । इनके का य
क मु ख वशेषताएँ न न ल खत प म दशायी जा सकती है -
गृं ार भावना - वषा के ' ेमी ेमघन' जी ने अपना उपनाम ठ क ह रखा था । वषा
ऋतु म शृंगा रक भाव से यु त क वता करते हु ए लखा -
बरसत नेह यह बरसत प बस ।
बरसत मेह सांझ समै दूर धाम है । ।
गरिज-गरिज बहु ास उपजावै उर
नपट अकेल दूसर न कोई वाम है । ।
"कहा क ँ , कैसे जाऊँ जा न न परत ।
उतै घेरे घन याम, इतै घेरे घन याम है ।"
भि त भावना - र तकाल न गृं ार भावना के साथ-साथ भि तकाल न भि तभाव भी
इतनी क वताओं म मु खर हु आ है, यथा -
"छहरे मु ख पै घन याम के केश, इतै सरमोर पखा फहरै ।
नत ऐसे सनेह सो रा धका याम हमारे हये म सदा बहर । ।"
कृ ण और राधा के प वणन का म भि तकाल से चला आया है ।
दे शभि त - ेमघन जी ने "कल काल तपण" म भारत के व णम अतीत एवं वतमान
क दुदशा का च ण कया है । " पतर लाप म रा यता का वर बल है । अं ेजी
सरकार वारा टै स लगाने तथा अ य जन वरोधी नी तय का वरोध भी आपने कया
है । उनके का य से न न ल खत उदाहरण ट य ह -
टै स वरोध - "जबसे लागहू (इ ट कस हाय उड़ा होश मेरा
रोवे के चा ह ढ ढ उठाना कैसा ।"
तथा
"रोओ सबका मु ँह बाप बाप
210
हाय हाय ट कस हाय हाथ
रोज कचहर धाप धाप
अमलन के ढग जाय जाय
भारतीय को उदबोध -
"उठो आय संतान सकल. बस न वलंब लगाओ ।"
भारत दुदशा च ण -
नधन दन- दन होत है, भरत भु व सब भां त ।
ता ह बचाइ न कोइ सकत नज भु ज बु ध बल कां त ।
वदे शी माल वरोध -
दे स नगर बानक वनो सब अं ेजी चाल ।
हाटन म दे खह भरो बस अं ेजी माल । ।
भारत उ न त क कामना -
सब वीप क व या कला व ान इत चल आवई
उधम नरत आरन जा र ह सु ख समृ बढावई
दु काल रोग अनी त न स, स म उ न त पावई
भर ववुध , अ न, सु र न भारत भू म नत उपजाई ।
राजनी त - भारते दु के समान ह ेमघन जी के का य म राजभि त का वर भी
मला जु ला है । रानी व टो रया के रा यारोहण क ह रक जय ती पर उ ह ने लखा
था -
"तेर सु खद राज क क र त रहै अटल इत
धमराज, रघु राम, जा हय म त म अं कत ।"
1857 क जन ां त का समथन भारते दु युग के क वय ने नह ं कया । ेमधन जी
भी उसे सपा हय क मू खता ह मानते थे यथा -
"दे सी मू ँढ सपाह कछुक लै कु टल जा संग ।
कयो अ मट उ पात रचयो बन नासन को ढँ ग । ।"
व भ न अवसरानुकूल क वता -
ेमघन जी राजनी तक ि ट से अ य त सचेत यि त थे । शु ल जी के श द म,
"दे श क दशा को सु धारने के लए जो राजनी तक या धम स ब धी आ दोलन चलते
रहे, उ ह ये बड़ी उ कंठा से परखा करते थे । जब कह ं कु छ सफलता दखाई पड़ती,
तब लेख और क वताओं वारा हष कट करते और जब बुरे ल ण दे ते, तब ोभ
और ख नता । काँ ेस के अ धवेशन म ाय: जाते थे । भारते दु क मृ यु पर उ ह ने
लखा -
"अथयो ह र च अमंद सो भारत च द चहु ँ तम छाय गयो ।
त ु के हत उ न त को, बढतै अवह ं मु रझाय गयो । ।"
हंदन

211
1857 क ां त को सपा हय क मू खता बताने वाले ेमघन जी दे शभि त पूण
क वताएँ भी रचते रहे । ववाह के अवसर पर गाए जाने वाले बना गीत और वषा म
गाई जाने वल कज रयां भी इ ह ने लखी । एक कजर ट य है -
"तोहसे यार मले के खा तर सौ सौ तार लगाईला ।
गंगा रोज नहाईला मं दर म जाईला
कथा पुरान सु नीला, माला बे ढ हलाईला हो "'
जभाषा के साथ-साथ उदू म भी इ ह ने क वता क , यथा -
"मेर जान ले, या नफा पाइएगा
छुड़ाकर ए दामन कधर जाइएगा ।"
ेमघन के का य म समसाम यक घटनाओं पर अ धक लखा है । क वता को
समसाम यक जीवन से जोड़ने का काम, भारते दु क तरह ेमघन जी ने भी कया है ।
कज लय म वषा ऋतु का सु दर वणन करने वाले ेमघन जी ने होल . कजल , ठु मर ,
दादरा, खेमटा, लावनी तथा गजल आ द क रचना भी क है । भारते दु म डल के बड़े
क वय म इ ह माना जाता है ।

13.3.3 ताप नारायण म (1856-1894)

तापनारायण म का ज म कानपुर म 1856 म हु आ था । वा याय से इ ह ने उदू


फारसी तथा बंगला भाषा का ान ा त कया था । इनक पहल का य रचना ेम
पु पावल क शंसा वयं भारते दु ने क थी । अपने यु ग के अ य सा ह यकार क
तरह इ ह ने भी ा मण नामक मा सक प चलाया जो 50 वष तक चला । इसे
का शत करने म इ ह ने अपना सब कु छ लगा दया । म जी ने नाटक उप यास,
नब ध आ द भी लखे । इनक क वता कम. है पर तु है जन क वता, जन क भाषा
म । मु ख रचनाएँ ह - ेम पु पावल , मन क लहर (31 लाव नय का सं ह) "
गृं ार वलास", "दं गल ख ड" (आ हा), ेडला वागत तथा लोकोि त शतक (1000
कहावत पर क वताएँ) ।
म जी सह अथ म जनता के क व थे. य क इ ह ने साम यक वषय पर जनता
क भाषा म क वताएँ लखी । कजल , लावनी, होल और दादरा के साथ साथ आ हा
जैसे ब ध गीत क भी रचना क । वभ न कार क सामािजक कु र तय .
बा याड बर , आ थक वषमताओं अं ेज के शोषण पर इ ह ने जमकर लखा । मन क
लहर म भारत दुदशा का च ण करते हु ए लखा -
" वधवा वलपै नत धेनु कटे कोउ लागत हाय गोहार नह ं
ु को ठ ग क नज नं दत श य बनावत है,
कोउ मू रख हंदन
बहकाय कु टु ब छुडायं छल फर नेक नह ं अपनावत है "'

212
वधवाओं क दुदशा और धम प रवतन पर यं य कया है । म जी क शैल
यं या मक ह थी । होल के अवसर पर पूछते ह क इस महंगाई म होल कैसे
मनाए-
"महंगी और टकस के मारे सगर व तु अमोल है,
कौन भां त यौहार मनैये कैसे क हये होल है ।"
भारतीय क दासवृि त पर इनका यं य बहु त गहरा है । भारतीय अं ेज बनने क चाह
म अपना सबकु छ छोड रहे ह, वश चले तो अपना काला रं ग भी छुड़ा दे , यथा -
"जन जाने इंि लश हम, वाणी, व हं जोय ।
मटै बदन कर याम रं ग, ज म सफल तब होय ।।"
लोकोि तय पर आधा रत क वताओं म अं ेजी राज क बुराइय का च ण हु आ है,
यथा-
"सब तिज गहो वतं ता,
नह ं चु प लात खाव ।
राजा करै सो याव है,
पासा परै सो दांव । ।"
म जी ने एक दजन हो रयाँ (होल गीत) लखीं िजनम भारत क दुदशा का च ण है
। वीररस क रचनाएँ कम लखी ह पर तु जो लखीं वे सु दर बन पड़ी ह । हठ हमीर
म लखते ह -
"कहू ँ घर सो गरज गजराज । कहू ँ म ह क ह कूद हं बाज ।।
कहू ँ झमके रथ भा तन भां त । महु फ व फै ल पदा तनु पां त ।".
भि तपरक रचनाओं म उपदे शा मकता अ धक है, यथा -
"जागो भाई जागो रात अब थोर ।
काल चोर न ह करन चहत है जीवन धन क चोर ।"
गृं ारपरक रचनाएँ भी सु ंदर बन पड़ी है । शकु तला के मु ख पर मंडराता हु आ भंवरा
कहता है -
"ध भंवर ब डभाग तहारो रे ।
कौन तप क र क ह ं दे ह कार -कार रे । '
र तकाल न पर परा का नवाह करते हु ए कृ त च ण म ऋतु वणन भी इ ह ने कया
है ।
बसंत म वर हणी का दुःख कट करते हु ए लखते ह -
"सब ह सताय हाय लेकै रतु राज पायी,
जै है जमराजपुर आठ-अठवारे म ।"
म जी ने शासक के लोक हतकार काम क शंसा करके अपनी राजभि त का
प रचय ह दया है, यथा युवराज व टर का वागत करते हु ए नवेदन कया -

213
"जु ग-जु ग जीवहु जय-जय युत युवराज दुलारे ,
जु ग-जु ग जीवहु ी वजय न के ाण यारे ।"
अं ेज पर अनुनय वनय का भाव न होते दे खकर उ ह ने दे शवा सय को जागकर
अपना भा य आप संवारने के लए े रत करते हु ए वावल बन क ेरणा इन श द म
य त क-
"अपनो काम अपने ह हाथन भल होई ।
परदे शन परध मन ते आशा नह ं कोई । ।"
भारतीय को एक होकर काम करने और कु र तय से समाज को मु त करने का आ ह
भी उ ह ने बार-बार कया है । दयानंद सर वती के नधन पर उ ह ने लखा -
"क णा न ध कहवाय हाय हारे आज कहा यह क ह ।
दे श अधार जतन त पर पर पु ष रतन ह र ल ह । ।"
ताप नारायण म जी अ य धक वनोद वभाव के थे और हा य- यं य के मा यम
से अपनी बात कहने म अ य धक कु शल थे । इनक हरगंगा तृ य तान ,् बुढ़ापा आ द
क वताएँ हा य यं य का े ठ उदाहरण तु त करती है ।
म जी अलंकृत का य के मानद ड पर भले ह बहु त उ चको ट के क व न ठहर
पर तु जनक व के प म इनका थान बहु त ऊँचा है । व व भर नाथ उपा याय के
श द म, का य का ल य उनके स मु ख प ट था - सामािजक और रा य ां त ।
उनके ं ता है - यह उनक म हमा है । अत: अलंकृ त
येक प य म यह राग गू ज
का य क ि ट से उनका थान ऊँचा न हो जन य का य क ि ट से उनका का य
आज भी हमारा ेरक है ।

13.3.4 ी राधाचरण गो वामी : (1859- 1925)

राधाचरण गो वामी का ज म वृदावन म 1859 म हु आ था । पता ग लू जी वयं


अ छे क व थे । भि त, गृं ार औद दे श ेम क वेणी इनके का य म भी बहती
नजर आती है । भारत क दुदशा से ु ध होकर इ ह ने बहु त सी क वताएँ लखी ह ।
भारते दु से अ य धक भा वत थे और 'भारते दु' नामक प भी चलाते रहे । 'क व-
कु ल कौमु द नामक एक सं था भी सा ह य के चाराथ ग ठत क थी । इनका ह द
ेम अ ुत था । 21 हजार लोग के ह ता र स हत ह द के प म अपील 1883
म सरकार को सौपते हु ए इ ह ने लखा था -
"क व, पं डत, प रजन, भ त, छा र सक रझवार
राजा जा स ेम बस क र हंद को यार ।"
जभाषा को का य भाषा बनाए रखना चाहते थे और उससे इ ह वशेष लगाव था ।
गो वामी जी ाचीन भारतीय सं कृ त के प धर थे पर तु नवीनता के सकारा मक प
को वीकार करने म भी संकोच उ ह नह ं था । वै दक सं कृ त के उ थान क कामना
से उ ह ने पि चमी आधी शीषक से लखा-

214
"उड गए बेद के बादबान अ त भारे ,
ऋ षजन र सा नह ं रहे खचन हारे ।
या म च ताम ण स श र न क ढे र ,
या म अमभत सम, औष ध फर ।
वह चल सकल यूरोप हाय म त भोई.
भारत क डू बी नाव उवारो कोई ।"
भगवान कृ ण को गीता म दए अपने बचन क लाज रखने के लए कहते ह क -
"राखो बरद संभा र कै गीता त अजु न कह ं
जब-जब ला न धम क तब-तब गटौ म सह ।"
अं ेज के अ याचार और पाप से भारत भू म को मु त करने के लए ह वे भगवान
कृ ण को पुकारते ह । गो वामी जी क रचनाओं म अं ेजी राज क आलोचना क
वृि त उ तरो तर बढ़ती गई है भले ह उसम राजभि त क क वताएँ भी ह ।
गो वामी जी क रचनाओं म नव भ तमाल, दा मनी दू तका, श शर सु षमा, इ क-चमन
मर गीत, भारत संगीत, वधवा वलाप, भू भारहरणथ ाथना तथा यमलोक क या ा
जैसी अनेक रचनाएँ ह ।

13.3.5 राधाकृ णदास (1865- 1907)

भारते दु क तरह ह व वध वषय पर लखने वाले राधाकृ णदास का ज म 1865 म


काशी म हु आ था । ये भारते दु के फुफेरे भाई थे और भारते दु म डल के मु ख
क वय म से थे । सन ् 1893 म था पत नागर चा रणी सभा के सभाप त पद पर
आप रहे और ह द सा ह य को गौरवमय थान दलाने का यास कया । ह द को
रोमन ल प म लखने का वरोध करते हु ए इ ह ने रोमन ल प क अवै ा नकता को
प ट कया था । अदालत म ह द का योग ार भ करने के आ दोलन को इ ह ने
गत द थी । राधाकृ णदास थ
ं ावल म इनक बारह रचनाएं संक लत ह िजनम,
वज यनी वलाप, पृ वीराज - याण' 'भारत बारहमासा, 'दे श दशा, छ पन क बदाई', नए
वष क बधाई', राम जानक ' ताप वसजन', ' वनय', र हमन वलास' तथा फुटकर
क वता आ द ।
राधाकृ णदास ने अपने युग के अ य सा ह यकार क तरह लेख, जीवनच रत, नाटक
आ द लखे । इ ह ने अनुवाद एवं संपादन का काय भी कया है । इनक रचनाओं म
भि त, गृं ार दे श- ेम, समाज-सुधार आ द वषय ह । इ ह ने इ तहास के वीर नायक
यथा ी राम, पृ वीराज चौहान तथा, महाराणा ताप क ओर भी यान दया और
इनक चचा कर दे शवा सय म आ मबल एवं वा भमान का संचार करने का यास
कया है । भारतीय क शोचनीय ि थ त पर रोष, शोक एवं ोभ को कट कया है ।
इनक मा यता थी क अपने महान ् पूवज को भू लने के कारण ह भारत क दुग त हु ई
है । भारत के व णम अतीत को पाने क लालसा से आप लखते ह क -

215
"कहं पर त कहं जनमेजय कह व म कह भोज
न द वंश कहं च गु त कहं हाय कहां वह ओज ।"
X x x x x x
"हा! कबहू ं वह दन फर है, कह समृ वह सोमा । ।
कै अब तर स-तर स मसू स कै दन जै है सब छोभा । ।"
अ ान और अ व या के कारण भारत क अवन त हु ई है । भारत क उ न त के लए
श ा का सार आव यक बताते हु ए लखते ह -
"महा अ व या रा छस ने या दे स हं बहु त सतायी ।
साहस पु षारथ उ यम धन सब ह व धन गवायो ।
जो कोई हत क बात कहत तो कोपै सब ह भार ।"
सु धारक क बात सु नने एवं समझने के थान पर उ ह अधम , मू ख एवं नाि तक
कहने वाल को राधाकृ णदास जी दे श ोह मानते ह । भारते दु युगीन क वय ने
समसाम यक वषय पर रचनाएं करके अपने युग क क वता को जन-जीवन से जोड़ा
और समाज म जागृ त फैलायी । इनम ाचीनता और नवीनता का संगम था ।

13.3.6 अ य क व

(क) अि बकाद त यास (1858- 1900)


अि बकाद त यास ने समाज सु धार, भारतीय अि मता एवं रा यता वषयक अनेक
क वताएं लखीं । यास जी युवक पर चढ़ रहे पि चमी रं ग से चं तत थे इस लए
उ ह ने लखा -
"पह र कोट पतलू न बूट अ हे ट धा र सर
भालू चरबी लेवडर को लगाई फर
नज भाइन के रचे वसन भू षन न हं भावत ।
मेनचै टर अ लवरपूल से ला द मंगावत ।"
रा य जागरण के लए अतीत के महापु ष को याद करना और उनका गुणगान करना
भी रा जागरण म सहायक था । यास जी ने अतीत के महान नायक को याद करते
हु ए ल खा -
"पृ वीराज हमीर कहां व म सक-नासक
कहां आजु रनजीत संह जग वजय काशक ।"
भारते दु म डल के क वय ने ाचीन नायक के नाम का जाप तो बहु त कया पर तु
उनके च र पर ब ध-का य ाय: नह ं लखे ह ।
(ख) बाल मु कु द गु त (1865-1907)
भारते दु और ववेद युग के बीच क कड़ी का काम करने वाले बाल मु कु द गु त जी
क । ज म 1865 म हु आ था । ाय: सभी च लत वषय पर आपने क वताएं लखीं

216
पर तु समाज क आ थक ि थ त और राजनी तक पराधीनता पर इनका वशेष यान
था । कसान क दुदशा एवं ध नय क कठोरता पर आप ने लखा -
"िजनके कारण सब सु ख पाव िजनका बोया सब जन खाय
हाय हाय उनके बालक नत भू ख के मारे च लाएँ ।"
x x x x x x
अहा वचारे दुख के मारे नस दन पच पच मर कसान
जब अनाज उ प न होय तब सब उठवा ले जाय लगान ।
ध नय को स बो धत करते हु ए कहा -
"हे बाबा जो यह बेचारे भू ख ाण गवावगे
तब क हए या धनी गलाकर अश फयां पी जावगे ।"
वे रि तम ां त के नह ,ं दय प रवतन वारा सामािजक प रवतन के प धर थे ।
दे श क आ थक वतं ता के लए वदे शी को अपनाने पर उ ह ने बल दया िजसे आगे
चलकर गांधी जी ने अपने संघष का मु ख ह थयार बनाया । गु त जी ने भारतीय को
स बो धत करते हु ए कहा -
"आओ एक त ा कर, एक साथ सब जीव मर ।
अपनी चीज आप बनाओ, उनसे अपना अंग सजाओ ।"
साथ ह कहा -
"अपना बोया आप ह खाव,
अपना कपड़ा आप बनाव ।
माल वदे शी दूर भगाव
अपना चरखा आप चलाव ।
बढ़े सदा अपना यापार,
चार द स हो मौज बहार ।"
समाज-सु धार के नाम पर पि चम का अ धानुकरण उ ह वीकाय नह ं था । व भ न
वण के नव श त पर यं य करते हु ए उ ह ने लखा -
"सेल गई, बरछ गई, गए तीर तलवार
घड़ी छड़ी चसमा भए. छ न के ह थयार ।"
भारतीय को वदे शी भाषा, सा ह य और सं कृ त के गुलाम बनते दे ख वे दुखी थे ।
उ ह ने लखा -
"मेटे वेद पुरान याय न ठा सब खोई,
ू ु ल-मरजाद आज हम सब हं डु बोई ।"
हंदक
तथा
"बहु दन बीते राम भु खोयो अपना दे स ।
खोबत ह अब बैठ के, भाषा, भोजन. बेस । ।"

217
भाषा, भोजन और वेष खोने क पीड़ा को उ ह ने भोगा था ।
अं ेजी सरकार क कटु आलोचना भी उ ह ने अपनी क वता म क है । अं ेज इतनी
वशाल सेना रखकर कसक आ कर रहा है, यह न उठाते हु ए वे लखते ह -
"बाबा उनसे कह दो जो सीमा क र ा करते ह.
लोहे क सीमा कर लेने क चंता म मरते ह ।
जा तु हार दन दुखी है, र ा कसक करते हो,
इससे या कु छ भी होना है नाहक पच पच करते हो ।"
भारते दु म डल के क वय के लए का य-रचना कोरे मनोरं जन का वषय नह ं था
बि क एक सामािजक दा य व था । क वता के मा यम से जन- श ण और जन-
जागरण का काय इ ह ने सव कया है ।
ववे चत मु ख क वय के साथ-साथ भारते दु युग म अ य अनेक क व जन-जागरण
का काय कर रहे थे । बाबा सु मेर संह, सु धाकर ववेद , म नालाल वज, रामकृ ण
वमा, राव कृ णदे व शरण संह 'गोप', लाला सीताराम, माधवी, हु ना नागर तथा
चं का जैसे अनेक क व एवं कव य यां ह द -सेवा म लगे थे।

13.4 भारते दुकाल न सा ह य क वृि तयां


अं ेजी राज क थापना के प चात ् नवीन श ा और संचार के साधन का आगमन
हु आ िजससे लोग क प रवेश के त जाग कता बढ़ । आ यदाता राजाओं के अभाव
म सा ह यकार भी जनता क ओर उ मुख हु ए । मु ण, काशन, प -प काय, रं गमंच,
गोि ठयां जन जागरण का मा यम बनीं । लोग का यान जीवन क कठोर
वा त वकताओं क ओर गया । औ यो गक ाि त यूरोप म हु ई पर तु उसका भाव
भारतीय उ योग के वनाश के प म भारत पर पड़ा । भारत म कृ ष क भी दुदशा
हु ई और अं ेज वारा भारत का आ थक शोषण तेज हु आ । भारतीय समाज आ थक
प से शो षत, राजनी तक ि ट से परािजत और द मत तथा सां कृ तक ि ट से
उपे त एवं ता ड़त अनुभव कर रहा था । इन सबका प रणाम यह हु आ क समाज
सु धार, सां कृ तक पुनजागरण और राजनी तक वाधीनता के लए संघष क शु आत
इस युग म हु ई जो क का य म भी व नत हु ई । का य म च लत र तकाल न
शृंगा रक वृि तयां और भि तकाल क भ तया मक वृि तयां मश: ीण होती गई
और सामािजक ि ट से ासं गक सा ह य वक सत होने लगा । इस युग का नेत ृ व
भारते दु ह र च ने कया । मु ख का या मक वृि तयां न न ल खत थीं -

13.4.1 वषयव तु आधा रत वृि तयां

(क) शृंगा रकता अथवा र तकाल का भाव


सं ाि त काल के क व होने के कारण इस काल के क वय म र तकाल न सं कार मटे
नह ं थे । ाय: सभी क वय ने गृं ा रक पद, सवैय,े क व त आ द लखे ह ।
र तकाल न क वय क अपे ा मांसलता और अ ल लता कम है य क क वय का

218
प रवेश बदल गया था और का य सामा य र सक के लए रचा जा रहा था ।
राधाकृ णदास का नायक या को छो कर कसी ओर पर मु ध है, यथा -
"दास जू छो र कै यारे हहा हमै और के प पै जाइ लु भाये ।
भू त सकै अब कौन िजया उन तौ हंस के प हले ह चु राये ।"
भारते दु क शृंगा रक क वता का उदाहरण ट य है -
"दे यो एक बारहू ं न नैन भ र तो ह यात
जौन जौन लोक जे ह तह ं पछतायगे ।
बना ान यारे , भए दरस नहारे हाय
दे ख ल जो आंखे ये खु ल ह रह जायंगी ।"
भारते दु ने " ेम सरोवर", " ेमा "ु , " ेम तरं ग", " ेम माधु र " आ द वशु गृं ार क
रचनाएं रची थी । संयोग क अपे ा वयोग च ण अ धक है ।
(ख) भि तभावना
भारते दु युग म भि तभावना को अपे ाकृ त गौण थान मला है । इस युग क
भि तपरक क वता म नगु ण भि त, वै णव भि त तथा दे शभि त यु त भि त क
रचनाएं लखी गई ह । शु गीत शील के सभी त व इनके कृ ण का य म ह ।
"च ावल " ना टका म कृ ण को भी नार प म ह अं कत कया है । माधु यभाव क
भि त भी इनक रचनाओं म है ।
(ग) राजभि त और दे शभि त
इस युग क क वता म राजभि त और दे शभि त के वरोधी वर मले जु ले ह ।
1858 म कंपनी राज के समा त होने तथा व टो रया के घोषणा प से नई आशाएं
जगी थीं । सु धार काय म भी घो षत हो रहे थे इस लए टश राज क शंसा ाय:
सभी क वय ने ारि मक दौर म क है । धीरे -धीरे अं ेजी शोषण सामने आने लगा
और रा य चेतना के वकास से आजाद क मांग उठने लगी तो शासन वरोधी वर
भी इस युग के का य म तेज हु ए । भारते दु, ताप नारायण म , ेमघन तथा
अि बका द त यास आ द के का य म यह दोन वृि तयाँ एक साथ दे खी जा सकती
ह । यह क वय के साथ-साथ युग का भी वरोधाभास था । महारानी व टो रया
हर च को "पूर अमी क कटो रया" लगती है तो ेमघन को टश राज धमराज,
रघु, राम क तरह लोक य लगता है । ताप नारायण म राजकु मार व टर के
आगमन पर 1890 म लखते ह, सेवत
"ह र श श पांच मैह, सत पख अगहन मास ।
ी व टर आगमन से भयो ह द सु ख रास ।।"
अं ेजी शासन का दमनकार और शोषणकार प सामने आने पर तथा रा य चेतना
के नर तर वकास से इन क वय के का य म दे शभि त का वर तेज हु आ और राज
भि त का तर ीण हु आ । व णम अतीत का गुणगान, महापु ष क मृ त , भारत
क वतमान दुदशा का च ण और इसके लए अं ेजी शासन और अपनी कु र तय को

219
दोषी ठहराने का भाव इस युग क क वता म है । भारते दु, भात दुदशा से वच लत
होकर कहते ह, "रोवहु सब मलकै, भरत भाइ । हा हा! भारत दुदशा न दे खी जाई ।
और ेमघन कहते ह-
"मची है भारत म कैसी होल सब अनी त ग त हो ल
पी माद म दरा अ धकार लाज सरम सब धोल ।"
कां ेस क शंसा म ताप नारायण म गाते ह -
"जय जय त भगव त कां स
े असेष मंगल का रनी"
वदे शी और नजभाषा पर जोर दे ना दे शभि त का माण माना जाता था । अं ेज
वारा कए जा रहे आ थक शोषण का वरोध भी सभी क वय ने कया है ।
(घ) समाज सु धार क वृि त
रा य चेतना के वकास से समाज-सु धार क वृि त को बल मला । नार श ा,
वधवाओं क दुदशा, बाल ववाह क हा नयाँ, अ पृ यता तथा धा मक भेदभाव के व
इस युग के क वय ने आवाज उठाई । भारते दु छुआछूत के वरोध म लखते ह -
"बहु त हमने फैलाये धम बढ़ाया छुआछूत का कम ।"
(च) कृ त च ण
सं कृ त और अं ेजी सा ह य म व छं द कृ त वणन क पर परा थी । ह द म भी
पृ ठभू म के प म कृ त, भि त और र त सा ह य म व यमान थी । आल बन प
म कृ त च ण भारते दु युग म होने लगा । ठाकु र जगमोहन संह क क वता इस
ि ट से मह वपूण है । भारते दु ने स य ह र च नाटक तथा च ावल ना टका म
मश: गंगा वणन और यमु ना वणन कया है । भारते दु के यमु ना वणन क पंि तयाँ
ट य ह -
"कूजत कहु ं कलहंस कहू ं म जत पारावत ।
कहु ं कारं डव उडत कहू ं जल कु कुर धावत ।
च वाक कहू ं वसत कहू ं बग यान लगावत ।
सु क पक जल कहू ं पयत कहू ं मरावल गावत ।"
(छ) हा य- यं य
भारते दु युग के क व सीधे जनता को स बो धत कर रहे थे इस लए उनके का य म
सीधा संवाद था पत करने के लए हा य- यं य का योग चुरता म हु आ है ।
पि चमी स यता, वदे शी शासन सामािजक ढ़य , धा मक अंध व वास आ द पर हार
करने के लए उपदे श क अपे ा यं य का श अ धक कारगर दखाई पड़ा । ह द
और उदू के संघष म भारते दु ने " यापा" लखा -
"है है उदू हाय हाय! कहां सधार हाय । हाय ।"
पैरोडी और गाल का भी सहारा लया गया । इ सभा जैसे नाटक क पैरोडी "ब दर
सभा" के प म तु त क गई ।

220
13.4.2 शैल गत वृि तयां

इस युग के क वय क का य-भाषा अ धकतर ज ह रह पर तु भारते दु आ द कु छ


क वय ने थोड़ी बहु त खड़ी बोल म भी क वता लखी । ाय: सारे मु ख क व प कार
थे इस लए उ ह ने खड़ी बोल ह द को ग य म अ धका धक योग कया और ग य
को एक नया तेवर दया । ह द के त न ठा का भाव इन क वय क मूल - ेरणा
बना । इस युग म अ धकतर मु तक-का य ह लखा गया य क सं ेषणीयता क
ि ट से उसम सफलता शी मलती है । र तकाल न क वय क सम या पू त क
शैल नवीन सामािजक वषय क अ भ यि त के लए उपयोगी स हु ई । अपने रचना
कौशल को परखने के लए क वय ने सभाओं, गोि ठय और क व स मेलन का
आयोजन भी बड़े पैमाने पर कया । सं कृ त और अं ेजी के का यानुवाद क पर परा
भी इस युग म वक सत हु ई ।
इस युग के क वय ने र तकाल न छ द का योग भि त और र तपरक रचनाओं के
लए अ धक कया और क व त, सवैय,े दोहे तथा पद लखे । लोक च लत छ द-
लावनी, कजर , होल आ द का भी बहु त योग कया है । इस युग का का य प,
भा षक चेतना, अलंकरण वृि त और छ द वधान योग-धम है ।
भारते दु युग के क व प कार भी थे इस लए सहज स ेषण के लए सरल बोलचाल
क भाषा के प धर थे । उदू के च लत श द का योग भी वे स ेषणीयता बढ़ाने
के लए करते थे । र तकाल न सं कार के कारण जभाषा ेम और चम का रता क
वृि त समा त नह ं हु ई थी । का य-भाषा के प म मु यत: ज भाषा को ह वीकार
करते थे । प का रता क अथात ् वचार- वमश क भाषा खड़ी बोल थी इस लए
चारा मक क वताओं म भारते दु और ीधर पाठक ने खड़ी बोल के योग का यास
भी कया । ताप नारायण म उदू श द का अ धक योग भाषा को स ेषणीय
बनाने के लए कैसे करते थे इसका उदाहरण दे खए
"गच यह तक क बला है इ क ।
तौ भी दे ता अजब मजा है इ क ।।
बुलहवास को तो खेल सा है इ क ।
आ शक के लए कजा है इ क ।।"
अं ेजी श द का योग भी इस युग के क वय ने यथावसर कया है ।
मु हावर और लोकोि तय के योग से इस युग का का य अ य त सजीव बना है ।
रा यता के चार के लए जनसभाओं म क वता पाठ करते थे और उनम बु दे ल ,
अवधी और खडीबोल का योग आव यकतानुसार करते थे । खड़ी बोल का योग
उपदे शा मक क वता म ह करते थे व शैल भारते दु युग के क वय ने ाचीन वीरता,
भि त और गृं ार क क वता क अपे ा रा - ेम. समाज सु धार तथा हा य- यं य
षरक क वता पर अ धक जोर दया । क वता आम आदमी के नकट आई और उसक

221
वषय व तु म यापकता आई । खु सर क तरह भारते दु ने मु क रयां लखी िज ह
उ ह ने "नए जमाने क मु क रयां" कहा । पढ़े लख क बेकार पर उ ह ने लखा -
"तीन बुलाए तेरह आव, अपनी अपनी रोय सु नाव
आख फूट भरा न पेट, य सखी साजन, नह ं ेजु एट । ।"
तथा अं ेजी भाषा पर यं य करते हु ए लखा -
"सब गु जन को बुरा बतावै । अपनी खचड़ी अलग पकावे ।
भीतर त व न झू ठ तेजी, य सखी साजन, नह ं अं ेजी । ।"
भारते दु क खड़ी बोल सरल और स ेषणीय है । भारते दु ने ह द उदू को मलाकर
नयी
शैल बनाई थी, यथा -
"जहाँ दे ख वहां मौजू द, मेरा कृ ण यारा है ।
उसी का सब है जलवा जो जहां म अशकारा है ।।
मखलूक खा लक क सपत समझे कहां कु दरत ।
इसी से ने त-ने त ए यार वेद ने पुकारा है ।।"

13.4.3 छं द वधान

भारते दु युग क क वता म पर परागत छं द -दोहा, क व त, सवैया, चौपाई. पद,


छ पय, कु ड लया तथा सोरठा आ द का योग हु आ है । क व त और सवैये के योग
म कु छ नए योग भी भारते दु ने कए है । इस युग क वशेषता यह है इस काल के
क वय ने लावनी, कजर , बारहमासा, गाल , सहरा, चैती आ द छं द का योग भी
कया है । कजर का एक उदाहरण ट य है-
" यार झू लन पधार झु क आए बदरा
ओढो सु ख चु न र तापै याम चदरा ।
दे खो बजु र चम कै बरसै अदरा ।
"ह रचंद" तु म बन पय अ त कदरा ।"
क वय ने अनेक भाव से यु त होल लखी है । भि त, गृं ार तथा दे श-दशा को
च त करने वाल होल भारते दु ने लखी है ।

13.5 भारते दु यु ग के का य का मू यांकन : (सारांश)


भारते दु युग के का य का मू यांकन करते हु ए आलोचक राम वलास शमा लखते ह,
" थम उ थान नवयुग का आर भ मा था । इस लए हम इस समय क क वता म
उस कला मकता के दशन नह ं होते जो कालांतर म सतत ् प र म से कट हु ई ।
का य- वषय के सवथा नवीन होने के कारण उनक का यपूण अ भ यि त के लए
समय क आव यकता थी ।" शमा जी का यह मत आ शक प से सह हो सकता है
पर तु वषय क नवीनता, का या मक अ भ यि त म बाधक नह ं होती ऐसा हम

222
तीत होता है । का या मक अ भ यि त. अनुभू त क गहनता पर नभर करती है ।
सं ाि त काल म वषय नवीन ह होते ह पर तु या इस काल म े ठ कला मक
क वता असंभव होती है "गा लब, दाग, हाजी, अकबर इलाहाबाद , मधुसू दन द त तथा
रवी ठाकु र आ द भी तो सं ाि त काल म लख रहे थे ।" इनके का य म प रप वता
है, कला मकता है । वा त वकता तो यह है क भारते दु काल के अ धकांश सा ह यकार
प कार, सु धारक और चारक थे । उनका ल य अ छे सा ह य क अपे ा अ छे
समाज और रा का नमाण करना था । उनम एक सीमा तक वचार क प रप वता
और अनुभू त क गहनता क कमी थी । प का रता के कारण ता का लकता का दबाव
अ धक रहने से कला मक सजाव गृं ार पर यान भी कम दया जा सका । यह क व
सामािजक, राजनी तक, आ थक तथा भाषा स ब धी सम याओं म अ धक य त रहे
इस लए कला मकता क ि ट से इनका का य नखार नह ं पा सका । इस युग क
उपलि ध सा ह य को सामािजक ि ट से उपयोगी बनाने क है । डी० केसर नारायण
शु ल के श द म, "इससे यह नह ं समझ लेना चा हए क क वय के उ गार म
भारते दु-युग के क वय को अपने क त य तथा उ तरदा य व का पूण ान नह ं है ।
इन क वय ने अपनी अनुभू त का स चा वणन कया है । त काल न जीवन म डू बकर
इ ह ने अपने अनुभव को नभय होकर वणन कया है । इन क वय का नै तक साहस,
भावानुभू त क स चाई तथा स य ेम अ य त शंसनीय है ।" भारते दु, ेमधन और
बाल मु कु द गु त क दे शभि त क रचनाएँ अ धक सु दर बन पड़ी ह । भारते दु युग
क क वता अ धकतर मु तक का य क ेणी म आती है । अतीत गौरव का गुणगान
केवल महापु ष क नामावल दे ने तक सी मत रहा । महापु ष के च र का उदा त
एवं ेरक वणन इस युग के क व नह ं कर पाए य क यह ब ध का य क अपे ा
रखता है ।
सम प म कहा जा सकता है क भारते दु युग का का य सामािजक ि ट से
ासं गक एवं भावा मक एवं वैचा रक ि ट से आदश परक है । यथाथ के धरातल पर
खड़े होकर इस युग के क व ने भारत के सु खद भ व य के सपने दे खे और दखाये,
यह इस का य क उपलि ध है ।

13.6 अ यासाथ न
1. भारते दु युगीन राजनै तक, सामािजक तथा सा हि यक पृ ठभू म का प रचय द िजए।
2. भारते दु ह र च क का यगत वशेषताओं पर काश डा लए ।
3. भारते दु म डल के क वय का प रचय द िजए ।
4. भारते दु युगीन ह द का य क मह ता उ घा टत क िजए ।
5. भारते दु युगीन का य क भाव एवम ् कला प क वशेषताओं का उ लेख क िजए।

13.7 संदभ ंथ
गौड हर काश, सर वती और रा य जागरण, नेशनल पि ल शंग हाऊस, नयी द ल ।

223
कृ णलाल, आधु नक ह द सा ह य का वकास, ह द प रष , याग व व व यालय
वारा का शत ।
गु त गणप तचं ह द सा ह य का वै ा नक इ तहास, लोकभारती काशन, इलाहाबाद।
चतु वद ीनारायण, आधु नक ह द सा ह य का आ दकाल, भात काशन, द ल ।
शमा राम वलास, महावीर साद ववेद और ह द नवजागरण, राजकमल काशन,
द ल ।
राम व प चतु वद , ह द सा ह य और संवेदना का वकास, लोक भारती
काशन,इलाहाबाद ।
शु ल रामच , ह द सा ह य का इ तहास, काशी नागर चा रणी सभा, वाराणसी ।

224
इकाई- 14: ववेद युग का का य
इकाई क परे खा
14.0 उ े य
14.1 तावना
14.2 ववेद युग के का य क पृ ठभू म एवं नवजागरण का व प
14.3 कालसीमा- नधारण एवं युगक ता का नणय
14.4 ववेद युग के मु ख क व एवं उनका का य
14.5 ववेद युगीन का य क वषय-व तु परक वृि तयां
14.6 ववेद युगीन का य का अ भ यंजना श प
14.7 ववेद युग के का य का मू यांकन (सारांश)
14.8 अ यासाथ न
14.9 संदभ थ

14.0 उ े य
इस इकाई को पढने के प चात आप बता सकगे -
 ववेद युगीन का य क पृ ठभू म या थी?
 भारते दु युगीन का य और ववेद युगीन का य म स ब ध या था?
 ववेद युग के का य क कालसीमा या है?
 ववेद युग म महावीर साद को ह युगक ता य माना गया?
 ववेद युग के मु ख क व कौन-कौन से थे?
 अनुशा सत वग म मु य क व कौन से थे?
 व छं द क वय म क ह माना जाता है और य माना जाता है?
 ववेद युग क वषय-व तु परक वशेषताएँ या थीं ।
 ववेद युग म का य- श प क वशेषताएँ या थीं ।
 ववेद युग क ह द सा ह य को या दे न है ।
 ववेद युगीन का य क सीमाएँ या थी ।

14.1 तावना
भारते दु युग के क व भारते दु के साथ सौहाद के स ब ध से बंधे थे और न चय ह
भारते दु का सा ह यकार के प म थान भी सबसे ऊँचा था । भारते दु ने न केवल
भारते दु म डल के सा ह यकार को भा वत एवं ो सा हत कया बि क म डल से
बाहर के क वय को भी े रत कया । भारते दु युग के क व सं ाि त काल के क व थे
इस लए वषय और शैल क ि ट से उनम र तकाल न त व और आधु नक
वैचा रकता के त व घुले - मले ह । बीसवीं शता द के साथ ह महावीर साद ववेद
का अ वभाव सर वती से स पादक के प म हु आ । ववेद जी सजना मक

225
सा ह यकार ने नाते कम एक स पादक और सा हि यक परामशदाता के प म अ धक
जाने गए । उनके समय के ेमच द और मै थल शरण गु त न चय ह अपने-अपने
े के बड़े रचनाकार थे । यह भी सच है क खड़ी बोल ह द म का य रचना क
ेरणा दे ते हु ए और नए वषय के चु नाव के लए ो सा हत करते हु ए ववेद जी ने
मै थल शरण गु त सर खे क वय को अंगल
ु पकड़कर का य रचना करना सखाया ।
1903 ई. म सर वती का स पादन स भालने के प चात ् ववेद जी ने सामा य
जीवन को ेरणा दे ने वाले, अ भ यि त दे ने वाले वषय को अपनाने के लए क वय
को कहा । कु छ व वान का यह मानना क भारते दु युगीन पर परावा दता, मु तक
शैल और जभाषा ेम के वरोध म ववेद युगीन व छ दतावाद, इ तवृ ता मकता ,
ब धा मकता और खड़ी बोल का य का वकास हु आ । हम नह ं भू लना चा हए क
भारते दु युगीन अनेक क व ववेद युग म और उसके प चात ् भी रचना करते रहे
ववेद युग म च लत वृि तय म से अ धकांश का ार भ भारते दु युग म ह हो
गया था । व छ दतावाद का य, नवीन वषय क ओर झु काव तथा खड़ी बोल को
का य-भाषा के प म वीकार करने का दबाव भारते दु युग म ह पड़ने लगा था ।
ववेद युग ने जभाषा का य र तकाल न पर पराब ता और श प योजना का वरोध
अव य कया पर तु सम प से ववेद युगीन सा ह य को भारते दु युग म अंकु रत
ि थ तय का सहज फूटन और वकास ह माना जाएगा ।

14.2 ववेद यु ग के का य क ठभू म एवं नवजागरण का व प


क पनी राज क समाि त के प चात ् भारत का शासन सीधे इं लड क संसद के हाथ म
चला गया तथा महारानी व टो रया भारत क महारानी भी कहलाने लगी ।
औप नवे शक शोषण को तेज करने के लए रे ल, डाक और तार का वकास तेजी से
कया गया । आवागमन और संचार के इन साधन क ज रत टश राज को मजबूत
करने तथा क चे माल को समु ब दरगाह तक लाने के लए थी । इन संचार साधन
के वकास से भारतीय म रा य एकता का भाव भी वक सत हु आ य क इनसे
भारत क सां कृ तक और राजनी तक एकता को भौ तक आधार मला ।
अं ेजी शासन ने जो भी सु धार कए उनम से अ धकांश का ल य भारत का आ थक
शोषण कर उस पर अपना शकंजा कसना था । उनके वारा कए गए सारे सुधार काय
मू लत: अपने वाथ क पू त के लए थे यह बात और है क गौण प से इनसे
भारतीय समाज म जाग त भी आई । भारत का पढ़ा- लखा उ च तथा म यवग अं ेज
क चाल समझने लगा था इस लए भारते दूकाल न क वय क सी दु वधा उनके मन म
नह ं थी । ववेद युग तक आते आते क वय ने राजभि त का माग छोड़ रा भि त
का एकमा रा ता चु न लया था । ववेद युग म दे श ेम. वदे शी ेम, वजन ेम
तथा वभाषा ेम का वार उठा जो क रा ेम का प रचायक था । न चय ह अब
दे शभि त, राजभि त पर हावी हो चु क थी । भारते दु युग के सा ह यकार म भी

226
अं ेजी शासन के त यं य का भाव था । पर तु ववेद युग म वह खर वरोध
का प धारण कर गया ।
भारते दु युगीन धा मक एवं सामािजक सुधार का उ तरो तर वकास हु आ और ववेद
युग म भी यह सु धार जार रहे । उ नीसवीं शता द तक आते-आते आ थक आ था का
थान वै ा नक तकवाद ने लेना ार म कर दया था । धम के वा त वक व प क
खोज करते हु ए उसे ढ़य , अ ध व वास एवं कु र तय से दूर करने क या जार
रह । नवजागरण क चेतना ववेद युग म भी भरपूर मा ा म थी । भारते दु युग के
कई लेखक का उ तरकाल ववेद युग म समा जाता है इस लए इन दोन युग क
भावभू म म ऐसी समता है क कह ं कोई सं धकाल नह ं मलता य य प दोन युग के
नेताओं म पया त अ तर दखाई पड़ता है । भारते दु युग के प चात ् श ा और
सा रता का वकास हु आ था इस लए खड़ी बोल ग य का अभू तपूव वकास हु आ साथ
ह खड़ी बोल को का य क भाषा बनाने पर भी वशेष बल दया जाने लगा था ।
अयो या साद ख ी ने इस दशा म सवा धक काय कया ।
अं ेजी शासन म पि चमी ढं ग क श ा का चलन बढ़ा िजसके प रणाम व प
पि चम के ान- व ान और च तन णा लय से हमारा प रचय बढ़ा भारतीय म
पि चम के भाव क त या तीन कार से हु ई । एक ि ट तो यह थी क पि चम
म जो है, वह हमारे पास वेद शा म पहले से मौजू द है इस लए हम पि चम से
कु छ भी सीखने क ज रत नह ं । यह क रतावाद तथा कू प-मंडूक वृि त का प रणाम
था । दूसर ि ट थी क हमारे पास जो कु छ है वह घ टया, अनुपयोगी है इस लए हम
पि चमी वचारधारा को पूणतया अपना कर उ न त करनी चा हए । यह अपनी पर परा
से अन भ ता अथवा अ ानता से उपजा म था िजससे काल चमड़ी वाले अं ेज पैदा
हु ए । एक तीसर संतु लत ि ट भी थी जो पि चमी के उपयोगी त व को लेकर
भारतीय पर परा को वक सत करने के प म थी । ववेद युग के अ धकांश क व
इस तीसर धारा के क व थे । पि चमी स यता से बु वाद , वै ा नक ि ट, मनु य
मा क समानता और बंधु व का भाव यि त वात य तथा सामािजक, धा मक े
म समानता के जीवन मू य पि चम से हमारे सा ह यकार ने लए । नार के त
संतु लत, सकारा मक एवं समानतापरक ि ट भी पि चम क दे न थी । पी ड़त मानवता
के त क णा का यवहार पि चम क उदार पर परा म था । पि चम क
मानवतावाद ि ट मानवीय यवहार म समानता एवं याय यता पर आधा रत थी ।
धीरे - धीरे मनु य लेखन के के म आ गया था और मनु य म ह ई वर य गुण क
क पना क जाने लगी थी ।
ववेद युग तक आते-आते भारत का वाधीनता आ दोलन ग त पकड़ चु का था ।
ां तकार आ दोलन च शेखर अजाद. राम साद बि मल, अशफाकउ लाह खान,
भगत संह तथा राजगु आ द के नेत ृ व म वक सत हु आ । इस दौर म बंगाल
ां तका रय क मु ख भू मका रह और खु द राम बोस जैसे कशोर ने दे श पर ाण
यौछावर कए थे । काँ ेसी आ दोलन भी तेज हु आ था तथा गोपालकृ ण गोखले और

227
लोकमा य तलक के नेत ृ व म काँ ेस सह अथ म रा वाद सं था बन गई थी ।
1905 ई. का बंगाल का वभाजन और उसके प रणाम व प चलाया गया बंग-भंग
आ दोलन इतना तेज था क पूरे दे श म वदे शी क लहर दौड़ गई ।
जभाषा क जगह खड़ी बोल को का यभाषा के प म अपनाना मा भा षक प रवतन
का प रचायक नह ं था बि क ि ट म प रवतन का भी सू चक था । नई संवेदना क
अ भ यि त जभाषा म संभव नह ं थी । आचाय रामच शु ल ने इस युग के का य
को नई धारा का नाम दया है । इस युग क क वता जागरण, सु धार, ां तचेतना को
अ भ यि त दे ती है । कसान, मजदूर के आ दोलन भी इस युग म बढ़े । भारतीयता
क खोज म इस युग के क व ऐ तहा सक पौरा णक महापु ष के च रतगान क ओर
उ मु ख हु ए । नार जागरण के त भी इस युग के क व अ य धक सचेत थे । य
वास, मलन, यशोधरा और साकेत म नार का नया प तु त कया गया । इस
युग क क वता इ तवृ ता मक , उपदे शा मक तथा आदशा मक थी । उ तर भारत म
भले ह यह युग खड़ी बोल क वता का ारि मक काल है पर तु द ण म सोलहवीं
स हवीं शता द म मु ि लम शासक के साथ-साथ ह द भी द ण म पहु ँ ची थी ।
अठारहवीं शता द तक बीजापुर , गोलकु डा और औरं गाबाद के दरबार म ह द का य
क धू म रह जो क खड़ी बोल का ह दूसरा नाम था । वाजा ब दे नवाज गेसू दराज
शाह मीरांजी, गांवधनी तथा जानम जैसे क वय ने खड़ी बोल ह द का य को द ण
म वक सत कया था । वाजा गेसू दराज क भाषा ट य है -
"ऐसी मीठ माशूक कूँ कोई य न दे खने पावे ।
िजनने दे खे उसे उसी कूँ और न कोई भावे । ।"
यह नि चत है क अयो या साद ख ी और महावीर साद ववेद का द ण के इस
ह दवी का य से कोई स ब ध नह ं था फर भी उ ह ने उदू-का य क लोक यता को
अव य दे खा होगा । उदू का य क तरह खड़ी बोल का य को लोक य बनाने का
वचार उ ह अव य आया होगा ।

14.3 कालसीमा नधारण एवं यु गक ता का नणय


भारते दु युग का अ त बीसवीं शता द के ार भ से माना जाता है । 1900 ई. म
सर वती प का का काशन ार भ हु आ और 1903 ई. म महावीर साद ववेद ने
इसका स पादन स भाला । महावीर साद ववेद ने प का के मा यम से इस युग
के सा ह य को नई दशा द । 1917 ई. के आस-पास नए ढं ग क क वता च लत हो
गई थी । िजसे 'छायावाद' का नाम दया गया । लगभग 1920 ई. तक ववेद
युगीन का य- वृि तयॉ भावी रह । इस कार यह कहा जा सकता है क ह द
सा ह य म ववेद युग सन ् 1900 ई. से 1920 ई. तक रहा ।
इस युग का नामकरण महावीर साद ववेद जी के नाम पर कया गया है । ववेद
जी अपने युग क दो महान तभाओं ेमच द और मै थल शरण गु त के समान

228
सजक सा ह यकार तो नह ं थे पर तु उ ह ने सर वती' म का शत लेख के मा यम से
भाषा और वषय व तु के चु नाव म सबका मागदशन अव य कया । ववेद जी ने
अपने ारि भक जीवन म क वताएँ लखी थी जो तु कबि दय से आगे नह ं बड़ी ।
उ ह ने थ
ं लखा, अनुवाद कए तथा ह द लेखक , क वय और वचारक को
समसाम यक वषय पर लखने के लए नरं तर ो सा हत कया । सर वती म अपने
लेख के मा यम से और काशनाथ आई रचनाओं म भाषा-सु धार के मा यम से
ववेद जी ने का य भाषा खड़ी बोल को याकरण स मत प दया और उसका
मानक करण कया । अं ेजी, मराठ , सं कृ त और बंगला क अ छ रचनाओं का
अनुवाद ह द म करके, ह द पाठक का मान सक वकास कया और उनक च को
प र कृ त भी कया । ववेद जी ने सर वती के पाठक को समसाम यक वै ा नक
राजनी तक, सां कृ तक तथा सामािजक हलचल से अवगत करवाया । ह द म व थ,
ववेक स मत एवं सकारा मक आलोचना क नींव भी महावीर साद ने रखी ।
सर वती प का के प र मी, समाज सेवी, तब और ववेकशील स पादक के प म
ववेद जी ने त ठा पाई थी ।
आलोचक राम वलास शमा ने अपनी पु तक 'महावीर साद ववेद और ह द
नवजागरण म नवजागरण के तृतीय चरण के के य यि त व के प म ववेद जी
क शंसा क है । शमा जी प ट करते ह क सर वती शु सा हि यक प का न
होकर हर कार के नवीन वचार क अ भ यि त का मंच था । सर वती के स पादक
के प म शायद ह कोई ऐसा वषय होगा िजस पर ववेद जी ने ट प णयाँ न
लखी हो । आचाय रामच शु ल और मै थल शरणगु त ने उन पर क वताएँ लखीं ।
राम व प चतु वद उ ह ह द का जॉनसन घो षत करते ह । ववेद जी के श य
भले ह उनसे आगे नकल गए ह । पर तु ह द भाषा के यव थापक के प म
ववेद जी का योगदान दे खते हु ए उ ह युगक ता मानना उ चत है ।

14.4 ववेद यु ग के मु ख क व एवं उनका का य


ववेद युगीन क वता म दो धाराएँ प ट प से दे खी जा सकती ह । एक धारा के
त न ध ह - अयो या संह उपा याय, मै थल शरण गु त, नाथूराम शंकर शमा,
रामच रत उपा याय तथा वयं महावीर साद ववेद । दूसर धारा का तनध व
ीधर पाठक, मु कु टधर पा डेय, लोचन साद पा डेय, पनारायण पा डेय तथा रामनरे श
पाठ करते ह । पहल धारा ववेद म डल क अनुशा सत या ला सक का य क
धारा है जब क दूसर धारा व छ दतावाद है । खड़ी बोल को का य भाषा के प म
ति ठत करने का अ भयान महावीर साद ववेद के नेत ृ व म ला सक क वय ने
चलाया पर तु रचना मक तर पर का य म खड़ी बोल को ति ठत करने के लए
ीधर पाठक ने सवा धक यास कया ।

229
मै थल शरण गु त इस युग के शायद पहले बड़े क व ह िज ह ने केवल खड़ी बोल म ह
क वता लखी और ज भाषा का मोह याग दया । ववेद युग के क वय के का य
पर वचार करना समीचीन होगा ।

14.4.1 अयो या संह उपा याय "हर औध" : (1965-1947)

ह रऔध जी ने मु यत: ीकृ ण के च रत का गायन कया । सु धारवाद युग से


भा वत होते हु ए भी ह रऔध जी जभाषा ेम, भावा मकता, र सकता एवं गृं ा रकता
वृि तय से मु त नह ं हो सके । उनक 'कृ ण शतक', ' यु न वजय', (नाटक),
' ि मणी-प रचय' (नाटक), व य वास (महाका य) जैसी रचनाएँ उनके कृ ण च रत
ेम क प रचायक है । "र सक-रह य", " ेमा बू वा र ध" " ेम पंच", " ेमांबू वण",
" ेमांबू वाह", एवं "रस कलश" जैसी का य रचनाएँ उनक गृं ार वृि त क सू चक है ।
ह रऔध जी क ेमांबू वषयक चार रचनाओं म नायक ी कृ ण ह ह । कृ ण क
म हमा और सौ दय का गायन इन रचनाओं म भी हु आ है । गो पय क वरह वेदना
को मु तक शैल म य त कया गया है । 'रस कलश' म ना यका भेद को आधु नक
ढं ग से तु त करते हु ए ह रऔध जी ने लोक से वका, धम से वका तथा दे श ेमी
ना यकाओं का भी वग करण कया है । यह रचनाएँ ज म ह ।
अयो या संह उपा याय ने खड़ी बोल ह द को पहला महाका य ' य- वास' 1914 ई.
म दया । ' थ का वषय' शीषक के अ तगत इस नथ क भू मका म उ ह ने लखा
है, 'मने ीकृ ण च को इस थ म एक महापु ष क भां त अं कत कया है, मा
करके नह ं ।' राधा भी इस महाका य म मा वर हणी ना यका नह ं है बि क नजी
दुःख से बढ़कर समाज के दुःख को मानती है और उसे दूर करने के लए कृ ण के
मथुरा गमन को वीकार करती है और वयं भी समाज सेवा का त लेती है । खड़ी
बोल का मह व था पत करने के लए उसके अनेक रं ग इस थ
ं म तु त कए गए
ह । सं कृ त वणवृ त म नतांत त सम पदावल ' य वास' म यु त क , तो एकदम
बोलचाल क खड़ी बोल उनके चौपद म है । न चय ह य वास लखते समय
क व के स मु ख वरो धय क यह चु नौती थी क खड़ी बोल म सरस का य रचना
नह ं हो सकती उसम ज भाषा क सी सरसता, मधुरता और कोमलता नह ं आ सकती
। ह रऔध ने इसे गलत स कर दया । ह रऔध जी क दो अ य रचनाएँ मह वपूण
है । उनका वृहत ् महाका य 'पा रजात' (1937) तथा 'वैदेह बनवास' (1941) महाका य
। पा रजात म आ याि मक और धा मक वषय को प ह सग म सं हत कया गया
है । वैदेह बनवास म सीता के नवासन क ं , उ तररामच रत तथा
कथा रघुवश
वा मी क रामायण से ब कु ल भ न प म व णत है । सीता का नवासन पूव
पर परा के अनु प चोर से या चु पके से नह ं दखाया गया बि क गु जन के वारा
स मानपूवक उसे वदाई द जाती है और सीता लोकापवाद ज नत प रि थ त क
ग भीरता समझते हु ए सहष वनवास वीकार करती है ।

230
इन तीन ब ध का य के अ त र त ह रऔध जी क 'च खे चौपदे ' (1914), 'चु भते
चौपदे ' (1924), 'प य- सू न' (1925) 'बोलचाल' (1928), 'फूल प ते' (1935),
'क पलता' (1937), ' ाम गीत' (1938), 'बाल क वतावल ' (1939), 'ह रऔध सतसई'
(1940), तथा 'मम पश' (1956) आ द रचनाएं का शत हु ई ।

14.4.2 मै थल शरण गु त : (1887-1964)

मै थल शरण गु त के का य क के य च ता उनक 1914 ई. म का शत भारत-


भारती क न न पंि तय म य त हु ई है -
'हम कौन थे, या हो गए, और या ह गे अभी,
आओ वचार आज मलकर, यह सम याएँ सभी ।''
गु त जी के का य म अतीत का गुणगान, वतमान क दुदशा पर च ता तथा भ व य
नमाण के त आशावाद ि टकोण सव ल त होता है । उनके मह वपूण थो
म, 'रं ग म भंग' (1909) 'जय थ वध' (1910), 'भारत भारती' (1912), ' कसान'
(1917), 'पंचवट ' (1925) 'गु कुल' (1929), 'साकेत' (1932) 'यशोधरा' (1933)
' वापर' (1936) 'जयभारत' (1952) तथा ' व णु या' (1957) को लया जा सकता
है । पांच दशक तक नर तर ह द का सा ह य भ डार भरने वाले गु त जी का
का यादश न न पंि तय म य त हु आ है -
'केवल मनोरं जन न क व का कम होना चा हए ।
उसम उ चत उपदे श का भी मम होना चा हए ।"
यह का यादश महावीर साद ववेद जी ने अपने युग के क वय के स मुख तु त
कया था । गु त जी ने भारत म च लत अ धकांश धम पर का य लखे । सबसे
अ धक का य उ ह ने धम वतक और धा मक नेताओं पर लखा । राम म उनक ढ़
आ था है तथा उसम संक णता और क रता के लए कह ं थान नह ं है । गु त जी
सम वयवाद थे और गांधी जी के आदश से भा वत भी थे । गु त जी के का य म
रामायण से े रत "साकेत", 'पंचवट ' और ' द णा' का य थे तो महाभारत से े रत
'जय थ वध', 'वक संहार', 'वन-वैभव', 'नहु ष', ' ह ड बा', 'शकु तला', ' तलो तमा' और
'जय भारत' का य है । महाभारत मू लत: अपने अ धकार के लए संघष क गाथा है
और गु त जी इस आदश को पराधीन भारत के समु ख रखना चाहते थे जो क अं ेज
के व संघष कर रहा था । म यकाल न वीर राजपूत को भी उ ह ने अपने का य
का वषय बनाया य क वाधीनता के यु म इनका आदश च रत ेरक हो सकता था
। वशु रा य ेरणाओं और भावनाओं को य त करती रचनाएँ भी गु त जी क है
िजनम 'भारत-भारती' और 'वैता लक' मु ख ह । सार प म कह सकते ह क गु त जी
ने भारतीय सं कृ त के सभी मु ख प , धम, नै तकता, आ म याग, ब लदान,
परोपकार आ द को अपने का य म सोदाहरण तु त कया । सव धम समभाव से
े रत होकर अ धकांश धम के महापु ष पर उ ह ने का य रचे । भारतवा सय को

231
वीरता, याग और ब लदान का पाठ पढ़ाया और ऐसे उपे त पा और वषय को भी
सा ह य म थान दया जो क रा जागरण के लए आव यक थे । 'भारत भारती',
'वैता लक', ' ह दू' और ' वदे श संगीत' म सीधे-सीधे भारतीय को स बो धत कया ।
का य- श प के े म भी गु त जी ने व वधता का प रचय दया । मू लत: ब धकार
होते हु ए भी मु तक, गीत, ना य, गी त ना य तथा नाटक आ द े म इ ह ने
अनेक योग कए । 'प य ब ध', ' वदे श संगीत', 'मंगल घट', 'साकेत' तथा 'कु णाल'
आ द म कु छ अंश ग त शैल के उदाहरण ह । ' तलो तमा', 'च हास', नाटक ह और
'अनघ', को गी त ना य माना जाता है । 'प ावल ' म प शैल का नमू ना है । सम
प से कह सकते ह क गु त जी क अ भ यि त सरल, सहज एवं संवध
े है ।

14.4.3 सयारामशरण गु त

मै थल शरण गु त के छोटे भाई सयारामशरण गु त ने 'मौय वजय' (1914). 'अनाथ'


(1917), 'आ मो सग' (1931) तथा 'नकुल' (1946) ब ध काके क रचना क ।
'दूवादल', ' वषाद', 'आ ा', 'पाथेय', 'मृ मयी ', 'बापू', 'उ मु त', 'नोआखल ', 'गीता संवाद'
इ या द उनके अ य लघु का य-सं ह ह । 'मौय वजय' म च गु त मौय क सै यूकस
पर वजय का च ण हु आ है । 'अनाथ' म का प नक कथा के आधार पर ामीण
जीवन का च ण हु आ है । 'आ मो सग' म कानपुर के सा दा यक दं ग को शा त
करते हु ए शह द हु ए गणेशद त व याथ जी क ब लदान गाथा अं कत है । 'नकु ल' म
पा डव म सबसे छोटा भाई नकु ल को का य नायक बनाया गया ह । इस कार कह
सकते है क गु त जी क का य- तभा ऐ तहा सक, का प नक, रा य तथा पौरा णक,
सभी तरह के का य म कट हु ई है । सयारामशरण गु त जी को गांधीवाद क व
माना जाता है । 'उ मु त' का य म थम व व यु के नरसंहार पर क व ने अपनी
त या य त क है ।

14.4.4 रामच रत उपा याय

उपा याय जी ने अनेक ब ध-का य क रचना क । 'रा भारती', 'दे वदूत', 'दे वसेना',
'दे वी ोपद ', 'रामच रत चि का', तथा 'रामच रत- च ताम ण' इनक उ लेखनीय
रचनाएं ह । 'रामच रत- च ताम ण' इनका रामायण पर आधा रत महाका य है । यमक
के योग म उपा याय जी स ह त थे ।

14.4.5 नाथू राम शमा शंकर

जभाषा और खड़ी बोल म एक साथ सा ह य रचने वाले नाथू राम शमा शंकर सम या
पू त म स ह त थे । इ ह ने उपदे शा मक, सु धारा मक एवं यं या मक मु तक
रचनाओं के साथ-साथ एक वशाल ब ध का य गंभरंडा-रह य भी रचा । इसम
वधवाओं क दुदशा और मं दर म होने वाले दुराचार का च ण हु आ है । आप अ छे

232
यं यकार थे । गृं ारपरक क वत ल म वशेष रस लेते थे । नवीन जी ने इनके वषय
म लखा है, 'तवे श द के वामी, भाषा के अधी वर, मु हावर के सरजनहार और
सा ह य के अखाड़े के अ कड़ पहलवान थे । पू य शंकर जी म श द नमाण क
मता असाधारण प म व यमान थी । 'छ द का आपका ान अ ु त था और अपने
अनेक छ द म का य रचना क है । 'अनुराग र न', 'शंकर सरोज', 'लोकमा य तलक'
आपक अ य कृ तयां ह । आप ने उदू म भी क वता लखी है । युगीन भाव म
दे शभि त क क वताएँ भी लखी ह ।'

14.4.6 रामनरे श पाठ

वछं दवाद का यधारा के मु ख क व रामनरे श पाठ क खड़ी बोल म लखी पहल


रचना 'ज मभू म भारत' 'सर वती' म छपी थी । रा गौरव का भाव इस क वता म है
। 1917 ई. म का शत मलन- इनका थम ख ड का य है िजसम मु ख भाव ेम
है । प त-प नी का ेम और दोन क दे श के लए ब लदान होने क कामना इस का य
का वषय है । यि त, समाज और रा , तीन इकाइय के बीच ेम का सू है जो
मश: यापक और उदा त बनता जाता है । 1920 ई. म इनक दूसर रचना 'प थक'
खंडका य का शत हु ई । रा यता क भावना इसमे भी है । क व का तीसरा खंड
का य व न है । यह तीन ख ड का य छायाकद पूव क वता क उ लेखनीय
उपलि धयां ह । तीन म कथानक सू म है जो नई तरह के कथा-गठन का सूचक है ।
राम व प चतु वद के श द म, 'इन खंड का य म च र के वै श य' का अभाव
कु छ-कु छ लोक सा ह य क भाव-भू म के नकट है । इस तरह सू म कथा और ह के
रं ग वाले च र के संयोग म ये रचनाएं एवं गोचारणी सादगी लए ह, जो उस जन-
जागरण के आरं भक युग के अनुकूल थी । लोक-सा ह य के भी कु छ कथानक
अ भ ाय (Motif) का ख ड का य म क व ने योग कया है - बहते शव का नद म
से योगी वारा नकाला जाना, ेमी का प थक वेष धारण करना, अंत म योगी क
कु ट पर अब तक मृत समझी जाने वाल या से भट । इन लोक अ भ ाय से
नव वक सत रा यता के भाव को संप ृ त करके क व ने उसे अ धक यापक और
ा य बनाना चाहा है ।' रामनरे श पाठ जी ने हंद ू उदू बंगला आ द का य- धाराओं
का आलोचना मक साम ी के साथ संकलन संपादन कया । ाम गीत का संकलन
क वता- कौमु द शीषक से भी कया है ।

14.4.7 ीधर पाठक (1858-1929)

ीधर पाठक ववेद युग क वछं द का य धारा के त न ध थे । इ ह भारते दु और


ववेद जी के समय म एक साथ का य-रचना का अवसर मला । ह द म नई
का य- वृि तय के वकास हे तु आप ने अं ेजी क मह वपूण कृ तय का ह द म
अनुवाद कया । अं ेजी के 'हर मट' का य का 'एका तवासी योगी', 'डेजटड वलेज' का

233
'उजडगांव' तथा ' े वलर' का ' ा त प थक' के शीषक से अनुवाद कया । इस कार
इ ह ने अपने युग के क वय का यान ब धा मक शैल क ओर आक षत कया ।
पाठक जी ने अनेक मौ लक ब धा मक क वताएं रची िजनम 'जगत सचाई सार',
'क मीर सु षमा', 'आरा य शोकांज ल', 'गोखले शि त', 'दे हरादून' तथा 'भारतगीत' जैसी
उ लेखनीय रचनाएं शा मल । पाठक जी ने मनो वनोद, क मीर सु षम
ु ा और उजड़ ाम
जैसी रचनाएं जभाषा म लखकर इस भाषा पर अपना अ धकार स कया । खड़ी
बोल का य को सफल बनाने म भी आपक भू मका मह वपूण रह । खड़ी बोल म
भी कोमल, सरस और सं े य क वता हो सकती है यह उ ह ने ' वग य वीणा' जैसी
क वताओं के मा यम से स कया । पाठक जी ने नए-नए योग का य म कए ।
पाठक जी सफल क व थे । शैल के े म उ ह ने व भ न भाषाओं, छ द , अतु का त
प य शै लय आ द का योग सफलता पूवक कया । का य वषय के चयन म भी
इ ह ने ि ट क नूतनता और च-वै व य का प रचय दया । शु ल जी ने पाठक जी
के वषय म लखा है - 'पाठक जी क वता के लए हर एक वषय ले लेते थे । समाज-
सु धार के वे बड़े आकां ी थे, इससे वधवाओं क वेदना, श ा चार ऐसे वषय भी
उनक कलम के नीचे आया करते थे । वषय को का य का पूरा -पूरा व प दे ने म
चाहे वे सफल न हु ए ह , अ भ यंजना के वा वै च य क ओर उनका यान चाहे न रहा
हो, गंभीर नूतन वचारधारा चाहे उनक क वताओं के भीतर कम मलती हो पर उनक
वाणी म कु छ ऐसा साद था क जो बात उनके वारा कट क जाती थी, उसम
सरसता आ जाती थी । अपने समय के क वय म कृ त का वणन पाठक जी ने सबसे
अ धक कया इससे ह द े मय म वे कृ त के उपासक कहे जाते थे ।' अपने पता
के वषय म 'आरा य शोकांज ल' लखकर 'शोकगीत पर परा', 'गोखले शि त'
लखकर, राजनेताओं के गुणगान क पर परा तथा 'जय-जय यारा भारत दे श' लखकर
रा पूजा क पर परा उ ह ने ह द म ति ठत क ।
खड़ी बोल आ दोलन म महावीर साद ववेद का साथ ीधर पाठक ने दया । ीधर
पाठक अं ेजी क सौ दय-चेतना से भा वत थे इस लए वे क वता म नई शैल और
नई भाषा के साथ वछं दतावाद शैल क थापना करना चाहते थे । कृ त का
उ मु त सौ दय, नार का सु र य प, युवक युव तय का कोमल मधुर यवहार, उनक
मंजल
ु मधु र मु कान आ द वषय पर उ होन त मयता से लखा ।

14.4.8 महावीर साद ववेद

युगकता महावीर साद ववेद , क व के प म अ धक सफल न हो सके पर तु नवीन


का य के ेरक और पथ- दशक के प म उनक भू मका मह वपूण रह । 1902 ई.
म का लदास के 'कु मार स भव' का अनुवाद 'कु मार स भव सार' शीषक से कया और
इस कार ह द म ब ध का य लेखन को बढ़ावा दया । ववेद जी मूलत:
आलोचक और ग यकार थे फर भी नयी पर परा के पोषण के लए उ ह ने क व क

234
भू मका नभाने का न चय कया । 'कु मार स भव' के अनुवाद क शंसा आचाय
रामचं शु ल ने भी क है । इनके दो 'का य-सं ह' 'का य-मंजू षा' और 'सु मन' शीषक
से का शत हु ए । इनम इनका वचारक और आलोचक प ह मु खर हु आ है ।
ववेद जी ने ग य और प य क खड़ी बोल ह द का प रमाजन और मानक करण
कया । 'आचाय, शु ल, ववेद जी के ग य-भाषा सु धार के वषय म कहते ह', 'ग य
क भाषा पर ववेद जी के इस शु भ भाव का मरण जब तक भाषा के लए शु ता
आव यक समझी जाएगी, जब तक बना रहे गा ।' उ ह ने 'स प त शा ' जैसा थ

लखकर ग य क मानक भाषा का उदाहरण रखा । आचाय महावीर साद ववेद ,
सर वती म छपने वाल क वताओं तक क भाषा शु कर दया करते थे अथवा अपने
सु झाव स हत लौटा दे ते थे । उनम इतना ववेक अव य था क अवां छत प रवतन न
कए जाएं । मै थल शरण गु त क क वताएं उ ह ने सु धार पर तु नराला क क वताएं
य क य लौटा द य क उनम भाषापरक प रवतन संभव नह ं था । महावीर साद
ववेद जी क वता-प य क भी भाषा मब और यवि थत करना चाहते थे जैसी
क ग य म होती है । थूल पौरा णक कथा वृ त , सीधी वणन क णाल और ग य
जैसे वा य- व यास का ढं ग, इन सब ने मलकर ववेद युगीन क वता को
इ तवृ ता मक शैल द िजसके त आगे चलकर छायावाद का य ने व ोह कया ।
ववेद युग के वछं दतावाद क वय ने जहां कृ त- ेम, रोमां टक अनुभू त तथा
आदश धान ेम का य लखे वह ं पर अनुशा सत धारा के क वय ने ववेद म डल
के अ तगत नै तकतावाद , रा वाद तथा मानवतावाद क वता क । दोन धाराओं के
क वय ने खड़ी बोल ह द को ह द क एक मा का य भाषा के प म वक सत
करने का यास कया । इस युग क क वता क मु ख वशेषताओं पर वचार करते
हु ए इस युग क क वता का मू यांकन तु त करना उपयोगी रहे गा ।

14.5 ववेद यु गीन का य क वषय-व तु परक वृि तयां


ववेद युग के का य क मु ख वृि तय को वषय व तु तथा भाषा- श प वषयक
वृि तय के दो वग म बांट कर समझा जा सकता है । ववेद युग के का य म न
केवल वषय बदल गए बि क उनक अ भ यि त का तर का भी बदल गया ।

14.5.1 नवीन वषय

युग वतक महावीर साद ववेद ने सर वती प का का स पादन करते हु ए


सा ह यकार को नवीन वषय अपनाने के लए े रत कया । र तकाल न क पना क
उड़ान और प चीकार का उ ह ने सव वरोध कया । ववेद जी ने सर वती म
लखा, 'क वता का वषय मनोरं जक एवं उपदे श जनक होना चा हए । चींट से लेकर
हाथी तक, भ ुक से लेकर राजा तक, ब दु से लेकर समु तक, अन त आकाश,
अनंत पृ वी , अनंत पवत - सभी पर क वता हो सकती है ।' ववेद जी का मानना

235
था क सभी क व महाका य ह लखे यह आव यक नह ं । छोट -छोट वतं क वताएं
लखकर भी ह द क सेवा क जा सकती है

14.5.2 व वध का य प

ववेद जी का य म उपदे श को मह व दे ते थे और इसके लए ऐ तहा सक-पौरा णक


महापु ष . दे वी-दे वताओं के च र उपयोगी हो सकते थे । स चर पर रचे का य
सहज स े य होने के साथ-साथ सामू हक चेतन का ह सा होने के कारण सहज
वीकाय भी होते ह । ववेद युग म इन पौरा णक पा को समयानुकूल रा य
चर म ढालकर का य म लाया गया । अतीत के मा यम से वतमान म ेरणा और
ो साहन दे ने के लए य वास, साकेत, जय थ वध, ह द घाट जैसे ब ध का य
रचे गए । र तकाल क शृंगा रकता , र त भाव पर आधा रत थी जो नर-नार के ेम
तक सी मत होने के कारण संक ण थी उसे ववेद यु गीन क वय ने ेमभाव पर
आ त कया और इसका व तार ' नेह', 'वा स य'. ' ेम और णय' तक कर दया ।
शृंगा रक भाव को उदा त बनाने का काय इस युग म हु आ जैसा क रामनरे श पाठ
के 'प थक' का य म । नार के त व थ मानवीय ि टकोण इन ब ध का य क
वशेषता है । ब ध का य के नायक और ना यकाएं यथाथ के धरातल पर च त
होने के कारण लौ कक और मानवीय यवहार करते ह । उपे त ना रय के त
ववेद युगीन क वय ने वशेष संवेदनशीलता दखाई तथा उपे त एवं व मृत
उ मला, यशोधरा, व णु या और मांडवी को का य के के म था पत कया । नार
को भो या नह ं मानवी और शि त प च त कया गया । इस युग के का य म
नै तकतावाद और आदशवाद का आ ह स भवत: नवजागरण क चेतना को प रणाम था
। आ भजा य और सामंती मू य को नकारती हु ई इस युग क क वता मनु य म
ई वर व क खोज करती है तथा पतनशील यि तवाद, जा तवाद तथा अलगाववाद को
नकारती है । इस युग क मु ख का य- वृि त ब धा मकता क है य य प मु तक
क वता भी पया त प म लखी गई । सम या-पू त क भारते दु काल न पर परा इस
युग म भी चलती रह । नाथू राम शमा शंकर जैसे क वय ने अनेक वषय पर सु दर
मु तक लखे ।

14.5.3 रा यता का खर वर

इस युग क क वता म रा यता का वर भारते दु युग क अपे ा ती था । भारत


का वाधीनता सं ाम गोखले और तलक के नेत ृ व म तेज हो रहा था और गांधी जी
सदूर द णी अ का म भारतीय को स मान से जीना सखा रहे थे । समाज का
जागरण इस युग क क वता का ल य था । दे शभि त क भावना सं कृ त, वदे शी,
वभाषा और वदे श ेम के प म इस युग क क वता म यापक तर पर
अ भ य त हु ई है । भारते दु युग क तरह इसम न तो राजभि त क मलावट है और
न ह द बूपन दखाई दे ता है । अं ेजी राज का वरोध पौरा णक, ऐ तहा सक संग

236
और पा का सहारा लेकर अ भ यि त पाने लगा । रामायण और महाभारत के संग
रा य आदश के गठन के लए उपयोगी स हु ए । सां कृ तक जागरण के लए भी
इन ऐ तहा सक पौरा णक संग और पा का मह व था । इस युग क रा यता
सं कृ त पर आधा रत थी तथा अनेक क व ह द , ह दू ह दु तान के आदश से े रत
होकर लख रहे थे । दरबार वला सतापूण क वता का थान लोकजागरणपरक क वता
ने ले लया था । रा यता का अथ ग तशील जीवन मू य क वीकृ त, वदे श,
वभाषा और वजा त का गौरवगान बन गया था । लोकजागरण का ल य आम
आदमी को अपने अ धकार के त सचेत करते हु ए वदे शी शासन के व खड़ा
करना था । जय थ वध म गु त जी कहते ह -
'अ धकार खोकर बैठ रहना यह महा दु कम है ।
यायाथ अपने बंधु को भी दं ड दे ना धम है ।'
दे शभि त क भावना को सवा धक मह व दया गया । अपने उ वल अतीत के दशन
कर भारतीय जनमानस से ह नता का भाव मटा और आ मगौरव का भाव जागत हु आ
। भारते दु युगीन क वता का दे श ेम, भाषा, भोजन और वेशभू षा तक सी मत था
पर तु ववेद युग म यह भाव यापक होकर जातीयता पर अवि थत हो गया । इस
युग के जातीय ेम क वशेषता यह हे क यह कसी अ य वग, स दाय या जा त
के त व वेषपूण नह ं है अत: इसम सा दा यकता का अंश नह ं है । शवदान संह
चौहान के अनुसार इस युग के क वय ने लोक य आ यान से अपने का य को
सजाया है और 'इन आ यान वृ त और घटनाओं के चयन म उपे त के त
सहानुभू त, दे शानुराग और स ता के त व ोह का वर मु खर है । यह एक कार से
राजनी त म रा य आ दोलन और का य म व छ दतावाद क वृि त के बीच पलने
और बहने वाल क वता क ब हमु खी धारा है, िजसने ह द -भाषी जनता को आधु नक
जीवन के यि त एवं समाज स ब धी गहरे ताि वक न के त नह ं तो राजनी तक
पराधीनता और रा य संघष के त सचेत बनाने म बहु त काम कया है ।'

14.5.4 धा मक क वता

इस युग क क वता धा मक है सा दा यक नह ं । धा मक चेतना पया त यापक है


जो भगवान के गुणगान तक सी मत नह ं है । आ याि मकता और मानवता क
त ठा इस का य म हु ई है । मानवतावाद आदश को अपनाने के कारण द लत ,
उपे त , शो षत के त सहज क णा का भाव और उनके उ थान क ललक पूरे -
का य म या त है । क व का व वास है क ई वर क ाि त मानव- ेम से ह
स भव है । क व को दु खय के आसुओं और उनके क ण वलाप म ई वर- ाि त होने
लगी । सेवा म ई वर को पाने का आदश क व गोपालशरण संह बताते हु ए कहते ह -
'जग क सेवा करना ह बस है सब सारो का सार ।
व व- ेम के ब धन ह म, मु झको मला मु ि त का वार है ।'

237
इसी व थ ि टकोण के कारण साधारण लोग के त अ याय और अवहे लना का
यवहार करने वाल साम ती यव था का वरोध इस युग के का य म हु आ है । क व
को सम त कृ त उस भु क खोज करती तीत होती है, यथा -
' ण भर म तब जड़ म हो जाता चैत य वकास ।
वृ पर वक सत फूल का होता हास वलास । ।'
अयो या संह उपा याय ह रऔध के ' य वास' म राधा ेम क ग भीरता और
त मयता म भी लोक को नह ं भू लती । वह तो यहाँ तक कहती है -
' यारे जीये जग- हत कर गेह चाहे न आव ।'
उसके य कृ ण भी हर दुःखी यि त क सेवा के लए सव उपि थत रहते ह ।

14.5.5 व छं द का य का अंकुरण

छायावाद युग म िजन वृि तय का वकास हु आ उनका अंकुरण ववेद युग म ह


होने लगा था । ीधर पाठक ने अपने को वछं द क व घो षत कया और अपने का य
म वछं दतावाद भाव को थान दया । अं ेजी क व गो डि मथ क रचनाओं के
प यानुवाद तु त करके उ ह ने अपनी व छं द वृि त का प रचय दया । 'जगत
सचाई सार' म संसार को यथाथ मानकर उसका आन द लेने क बात करते हु ए उ ह ने
समझाया -
"जगत है स चा, त नक न क चा
समझो ब चा इसका भेद ।"
और इस कार जगत को माया मानने वाल वचारधारा का ख डन कया । इस
का यधारा म राय दे वी साद 'पूण ', 'मु कु टधर पा डेय', 'लोचन साद पांडेय' और
' पनारायण पांडेय' आ द क व शा मल थे । कृ त का व छं द च ण, मु त ेम को
अ भ यि त दे ने वाले कथानक. लोक सा ह य से लए गए कथा-अ भ ाय, लोकगीत के
छ द और पौरा णक च र को समयानुकू ल रं ग म रं ग कर तु त करना इस का य-
धारा क वशेषताएं ह । 'साकेत' म गु त जी ने सीता और उ मला का च र युगानुकू ल
बदला तो य वास म ह रऔध जी ने राधा को समाज-से वका के प म च त
कया है । साकेत म सीता वनवास म सू त कातती दखाई है, यथा -
'तु म अ न न य रहो अशेष समय म,
आओं हम कात बुने मलन क लय म ।'
धरती अपनी म हमा म वग से बड़ी है । गु त जी के राम इस धरती का गुणगान
करते हु ए कहते है -
"मै यहां नह ं संदेश वग का लाया,
म धरती को ह वग बनाने आया ।"

238
14.5.6 कृ त- च ण का नया प

सं कृ त का य म कृ त का जैसा वशद वणन हु आ वैसा ह द का य म संभव न हो


सका । ाय: कृ त को उ ीपन प म ह च त कया जाता रहा । ववेद युग म
व छं दधारा के क वय ने वशेष प से तथा अनुशा सत का यधारा के क वय ने
गौण प से कृ त का आल बन प म च ण करना ार भ कया । कृ त, का य
क पृ ठभू म नह ं एक सजीव पा बन गई और उसके मानवीयकरण क वृि त ने
जोर पकड़ लया । कृ त अब सामा य न होकर व श ट हो गई । र तकाल का क व
कसी भी जगह कोई भी फल-फूल उगाकर अपनी क वता का मनी का गृं ार कर लेता
था पर तु ववेद युग म कृ त का थानीय प उभरने लगा । ीधर पाठक ने
'क मीर सु षम
ु ा' लखी तो रामनरे श पाठ ने 'प थक' का य म द णी भारत के
ाकृ तक प रवेश का च ण कया । माखनलाल चतु वद ने नमदा दे श के सौ दय का
वणन कया है । मै थल शरण गु त ने 'भारतमाता' का मोहक च तु त करते हु ए
भारत भू का य- ब ब अं कत कया है -
'नीलांबर प रधान ह रत पट पर सु दर है ।
सू य-चं युग मु कु ट मेखला र नाकर है ।
न दयां ेम- वाह फूल तारे मंडन ह
बंद जन खगवृ द शेषफन संहासन है
करते अ भषेक मोद ह, ब लहार इस वेब क
मातृभू म तू है सगुण मू त सवश क ।"
अपने रा य भाव क अ भ यि त कृ त- च ण के मा य से इस युग के क वय ने
क है । ववेद युग का क व सामािजक घुटन से मु त होकर कृ त म खो जाना
चाहता है जो व छं दतावाद वृि त है, यथा -
'यह इ छा है नद और नाल का प ध ं गा ।
गाता हु आ गीत म ती के, पवत से उत ं गा ।'
माखन लाल चतु वद क लघु क वता 'पु प क अ भलाषा' म पु प का मानवीकरण
सु दर ढं ग से हु आ है, यथा-
"मू झे तोड़ लेना वनमाल
उस पथ पर तु म दे ना फक
मातृभू म पर शीश चढ़ाने
िजस पथ जाएं वीर अनेक ।'

14.5.7 उदा त ेम का च ण

ववेद युग क क वता म र त भाव को ेम के यापक भाव म बदलने का काम हु आ


। र त केवल युवा ी-पु ष के बीच होती है जो काम भाव से े रत होती है । ेम
अ धक यापक है और इसम हर वय और लंग के लए थान ह । इसम र तभाव भी

239
समा हत हो जाता है । ववेद युगीन क वय ने अपनी शृंगा रक चेतना को व वध
ि थ तय और वषय से जोड़कर यापक बनाया । का य के लए कसी भी वषय को
अछूत न मानने वाले इस युग के क वय ने गृं ार को नख- शख वणन और दै हक,
मांसल संवेदन तक ह सी मत नह ं रहने दया । ववेद जी ने ेम को उदा त,
यापक और आदश बना दया । साकेत म राम और सीता तथा ल मण और उ मला
का व थ दांप य एवं ेम भाव अं कत है । गृह थ जीवन म भी ेम का वास कैसे
होता है यह राम और सीता के जीवन के मा यम से गु त जी ने अं कत कया ।
ल मण और उ मला के ेम म वरह क ती ता और गहराई के साथ-साथ समपण,
याग और परोपकार क मंगल भावना समाई है ।

14.5.8 ववेद युग का परं परानुवत का य

ववेद युग म भाषा और क य के तर पर नवीन का य-धारा वक सत हु ई पर तु


भि तकाल और र तकाल के भि त और गृं ार के सं कार पूर तरह मट नह ं सके ।
इस युग म भी जभाषा म े ठ का य रचा गया । जग नाथ दास र नाकर ने 'उ व'
जैसे सु दर रसा मक का य लखा । स यनारायण क वर न ने ' मरगीत' और ' ेमकल '
जैसी सु दर रचनाएं क । इस आधु नक भाव से े रत ' मरगीत' म यशोदा ने वारका
म जा बसे कृ ण के पास संदेश भेजा था । वयोग ह र ने ाचीन कृ ण भ त क वय
क तरह का य-रचना क और रा य भावना को अ भ य त करने वाल 'वीर सतसई'
भी लखी । भारते दु युग क सम या पू त क पर परा भी चलती रह ।

14.5.9 इ तवृ ता मकता

इ तवृ त का अथ है त यपरक च ण िजसे शु ल जी ने Matter of Factness कहा


है । इस युग का क व यथाथ के नाम पर बा य जीवन का च ण करता रहा और
उसक ि ट सू म यथाथ तक नह ं पहु ंची । भावा मक गहराई के इस प को ह शु ल
जी ने इ तवृ ता मक कहा है । 'भारत भारती' म सीधा, सपाट एवं व तु परक च ण
हु आ है । 'भारत के अतीत', 'वतमान' और 'भ व य के च सरल भाषा' म, सीधे सादे
ढं ग से व णत हु ए ह । ' य वास' और 'साकेत' म च ण भावुकता धान का प नक
च के प म हु आ है । सु धारवाद और नै तकता क बल वृि त से प रचा लत इस
युग का का य जागरण का का य बन गया । महावीर साद ववेद का प रचय मराठ
सा ह य म अ धकतर सं कृ त इत और ग य का श द व यास होता है । इसी ढं ग क
का य रचना ववेद जी ने ह द म शु क । 'नागर तेर यह दशा' म सं कृ त भाषा
क दुदशा पर ववेद जी ने लखा -
' ीहत नाग र नहार दशा तहार
होवै वषाद मन मा ह अतीव भार ।''
इ तवृ ता मक भाषा-शैल अपनाने का एक अ य कारण यह भी था क इस युग के
क वय ने क वता को रा य चेतना के चार और समाज सुधार का शा बनाना
240
वीकार कया था । समाज सु धार के लए त य कथन ज र था और इसके लए
सबक समझ म आने वाल त य कथन क अ भधा मक भाषा ह उपयु त थी । यह
कारण है क इस युग क क वता म का य-सौ दय को उ प न करने वाले उपकरण -
क पना क उ मु त उड़ान, ल णा- यंजना का योग तथा उि त व ता का योग
अ धक नह ं हो सका ।

14.5.10 अनुवाद -काय

ह द म नवीन वषय का वेश करवाने के लए अं ेजी, बंगला तथा अ य भारतीय


भाषाओं म या लखा जा रहा है इससे ह द के लेखक को प र चत करवाना
आव यक था । ववेद जी ने गो डि मथ के तीन का य ह मट, े वलर और डेज टड
वलेज का अनुवाद मश: 'एकांतवासी योगी', ' ा तप थक' और 'उजड़ गाय' शीषक से
कया । इसी कार शे सपीयर, लांगफेलो बायरन और े क अनेक क वताओं का
अनुवाद कया गया । मै थल शरण गु त ने माइकेल मधु सू दन द त के दो का य ,
'मेघनाद वध' और ' वर हणी जांगना' का अनुवाद बंगला से ह द म कया ।
नवीनच सेन के पलासीर यु का अनुवाद भी इ ह ने कया । सयाराम शरण गु त
आ द क वय क क वता पर गु दे व रवी नाथ ठाकु र क 'गीतांज ल' का भाव प ट
दे खा जा सकता है ।
ववेद युग क सा हि यक उपलि धय का मू यांकन करते हु ए उमाका त गोयल कहते
ह, सम त: ववेद युगीन का य सां कृ तक पुन थान , उदार रा यता, जागरण,
सु धार एवं उ चादश का का य है । इसम वषयगत अपार वै व य और यापक व
मलता है । इस युग म सभी का य प का सफल योग हु आ है । खडीबोल के
व प नधारण और वकास का ेय भी इसी कालख ड को है ।

14.6 ववेद यु गीन का य का अ भ यंजना श प


14.6.1 व वध का य प

ववेद युग का का य व वध का य- प से समृ हु आ । इस युग को ब ध का य


का वणकाल भी कहा जा सकता है य क इस युग म महाका य, ख डका य और
लघु प य ब ध का सवा धक सृजन हु आ । ब ध का य पर आदशवा दता और
रा यता का भाव प ट दखता है य क पर परागत कथानक और पा म
समयानुकूल प रवतन कए गए । अयो या संह उपा याय ने खड़ी बोल ह द को थम
महाका य ' य वास' दे कर यह स कर दया क खड़ी बोल म भी सरस क वता हो
सकती है । मै थल शरण गु त ने साकेत रामच रत उपा याय ने साकेत संत तथा याम
नारायण पा डेय ने ह द घाट और जौहर जैसे महाका य रचे । मै थल शरण गु त ने
'जय थ वध', 'पंचवट ', 'नहु ष' ' वापर', ' स राज' तथा ' व णु या' जैसे खंडका य क
रचना क । रामनरे श पाठ ने 'प थक', ' मलन' और ' व न' जैसे खंडका य कि पत

241
कथाओं पर रचकर व छं दतावाद का य धारा को आगे बढ़ाया । गु त जी ने 'यशोधरा'
' ब ध' का य लखा तथा 'क चक वध कं ु ती ' और 'कण' जैसे लघु गीत लखे । मु तक
का य पर परा का भी वकास हु आ । खड़ी बोल क वता म क व त, सवैय के साथ-
साथ लोक का य-शैल म लावनी, याल और तवगीत लखे । सु भ ा कु मार चौहान
क झांसी क रानी, रामनरे श पाठ क मानसी दे वी साद 'पूण क रचना वदे शी
मंडल लोक य हु ई । रामकृ ण दास ने ग य का य चेतावनी लखा । वयोगी ह र के
दे श भि तपूण लघु बंध-का य 'पदा' और 'बीणा' लोक य हु ए । डी कृ ण लाल इस
युग के का य प क व वधता के वषय म लखते ह -
'प चीस वष म ह अ ु त प रवतन हो गया । मु तक के वन-ख ड के थान पर
महाका य, आ यान-का य (Ballad) ' ेमा यान का य', ' ब ध-का य', 'गी त-का य'
और 'गीत से सु सि जत' का योपवन का नमाण होने लगा ।

14.6.2 का य-भाषा प र कार

३ ववेद युग क सबसे बड़ी उपलि ध खड़ी बोल ह द को का य भाषा के प म


ति ठत कया जाना है । खडी बोल के प म प र कार और सं कार का काय
महावीर साद ववेद ने सर वती प का के स पादक के प मे कया । उदू और
अं ेजी पढ़े लखे लोग को उ ह ने ह द मै लखने के लए े रत कया और खड़ीबोल
क पदावल म प र कार कया । खड़ी बोल के याकरण स मत योग और शु
व यास पर अ ध बल दया गया । वभि तय के योग पर भी उ ह ने अपनी
स म त द और अनेक कार से हनद का प ि थर करने का यास कया । खड़ी
बोल क का य-भाषा म भी व छता और प रप वता आई । ववेद जी सर वती म
काशनाथ आई रचनाओं क भाषा शु करते थे । उ ह ने क वताओं क भाषा सु धारने
का भी साहस कया । एक उदाहरण ट य है -
'मू ल वा य-रव वह सब ह का हो तभी यथ ह है
संशो धत वा य - कलरव ग त सबक भास होती बुर है ।'
ववेद जी क व के मू लभाव को अ ु ण रखते हु ए का य-भाषा का सं कार करते थे ।
ह द को रा भाषा बनाने के लए ज र था क उसका शु और मानक प वक सत
हो । उस समय ह द म ा तीय, ज भाषा, उदू-फारसी के श द क भरमार थी
िजसे ववेद जी ने समा त करने का यास कया । उपसग से बो झल, समास से
ि ल ट तथा त सम श द क बहु लता से ह द ककश हो जाती थी । ववेद जी ने
खड़ी बोल को आम आदमी क भाषा के प म वक सत कया । सरल और ांजल
ह द के साथ-साथ, नरलंकार ह द का चलन भी इसी युग म हु आ । छायावाद
का य-भाषा म मसृणता , कला मकता और अ भ यि त मता के गुण ववेद युग म
ह पनपने लगे थे ।

242
14.6.3 तीक और ब ब- वधान

ववेद युग म ऐ तहा सक-पौरा णक तीक को नए अथ और संदभ दए गए । ' य


वास' क राधा और कृ ण समाज-सेवक बन गए, 'ह द घाट ' रा य वाधीनता संघष
क तीक बन गई और ' शवाजी', राणा ताप और 'प ावती रा य गौरव के
प रचायक हो गए । ' याम नारायण पा डे' ह द घाट क पूजा करते हु ए लखते ह -
'मू झे न जाना गंगा यमु ना,
मु झे न रामे वर काशी ।
तीथराज चतौड़ दे खने को
मेर आखे यासी ।"
भारतीय न दय का जल- वाह, रा य चेतना का वाह बनकर सा ह य म अं कत हु आ
। हमालय भारत के वा भमान और संघष का तीक बन गया । दनकर क 1919
ई. म र चत हमालय के त क वता एक ओज वी क वता है । इस युग का का य
भारतमाता के असं य य- ब ब से सि जत है । कृ त को आल बन प म च त
करने के कारण मानवीकरण अलंकार का योग सवा धक हु आ है । इसी कार गु त
जी उषा का च अं कत करते हु ए लखते ह -
'अ ण पट झट पहन उषा आ गई ।
मु ख कमल पर मु कराहट छा गई । ।"
और रामनरे श पाठ 'प थक' का य म बादल को नार प म तु त करते हु ए कहते
ह- '
' त ण नूतन वेश बनाकर रं ग- बरं ग नराला ।
र व के स मुख थरक रह है नभ म वा र ध बाला ।"
क वय क उपमान योजना भावपूण अ भ यि तय के लए समथ माग बनाती है 'अ प
को प', 'अमू त को मू त', 'अ तुत को तु त', 'अ य को य ' बनाने के लए
उपमान या अलंकार का साधन प म योग करती है ।

14.6.4 छं द- वधान

ज भाषा के परं परागत छं द दोहा, चौपाई, क व त, सवैया, घना र और छ पय आ द


का योग तो इस युग के क वय ने कया ह उदू सं कृ त के छं द का योग भी
खु लकर कया । अतु कांत क वता का आ दोलन भी इसी युग म चला । अं ेजी के
सॉनेटस को चतु दशपद के प म योग कया गया । नवीन युग क प रव तत चेतना
क अ भ यि त पुराने छं द म संभव नह ं थी इस लए नए छं द का आ व कार कया
गया तथा अतुका त छं द को भी अपनाया गया । गु त जी ने बांगला से नवीन च
राय के 'पला शर यु ' तथा 'माइकेल मधुसू दन द त' के 'वीरांगना वध' का अनुवाद
ह द म अतु कांत छ द म कया । 'भारत भारती', 'जय थ वध', 'नहु ष रचनाएं'

243
'गी तका' और 'ह रगी तका' छ द म होने से लोक य हु ई । घना र छ द का भी
उ ह ने अ धक योग कया । ीधर पाठक, क हैयालाल पो ार, रामकृ णदास, प
नारायण पा डेय तथा मु कु टधर पा डे ने अतु का त छ द को अ धक मह व दया ।
लावनी और याल जैसे लोक छं द भी अपनाए गए । रस एवं भाव के अनुकूल छं द का
चु नाव करने क वृि त इस युग म रह । ीधर पाठक ने उदू क बहार का योग
कया । गया साद शु ल नेह और लाला भगवानद न ने भी उदू के छ द का योग
कया । ीधर पाठक, महावीर साद ववेद , मै थल शरण गु त, ह रऔध एवं राय
दे वी साद पूण ने सं कृ त छ द का भरपूर योग कया ।

14.7 ववेद यु ग के का य का मू यांकन


14.7.1 उपलि धयां

ववेद युग के का य पर सम प से वचार करते हु ए हम न न ल खत न कष


पर पहु ँ चते ह -
(1) का य म खड़ी बोल क त ठा न ा त प से इस युग म हु ई । खड़ी बोल के
शु , सरस, सरल एवं मानक प को च लत करने म महावीर साद ववेद एवं
उनके मंडल के क वय का योगदान मह वपूण रहा है ।
(2) क वय ने ऐ तहा सक, पौरा णक संग , पा एवं थान का तीका मक योग
कया और समय क मांग के अनुसार उनम नै तकता, आदशवा दता एवं दे शभि त
का समावेश कर दया । भारतीय वाधीनता-सं ाम के साथ इस युग का का य
कदम से कदम मलाकर चलता है ।
(3) भारते दु युग म का य समसाम यक जीवन से जु ड़ने लगा ववेद युग तक आते-
आते यह भाव अ य धक पु ट हु आ ।
(4) ब धा मकता और वषय क व वधता इस युग के का य क मु ख वशेषताएं ह।
(5) कृ त का आल बन प म च ण तथा उसका यापक प से मानवीकरण इस
युग के का य म हु आ ।
(6) (6) रा य भाव को इस युग के का य म व तार मला । वदे श, वभाषा,
वसं कृ त और रा य वा भमान को क वय ने का य का मु ख वषय बनाया ।
(7) व छं दतावाद का यधारा ने उन वृि तय को द शत कया जो आगे चलकर
छायावाद का य क वशेषताएं बनीं ।
(8) क वता म मानवतावाद मू य क त ठा धा मक चेतना के अनु प क गई ।
पहल बार ह द का य म लघु मानव को ति ठत कया गया ।
(9) नार को इस युग के का य म मह व मला और उसे दे वी अथवा अ सरा के
थान पर मानवी धरातल पर ति ठत कया गया । नार समानता को वीकृ त
मल ।

244
(10) का य-भाषा सरल, सरस, स ेषणीय बनाने के लए वशेष यास कए गए ।
खड़ी बोल ह द का मानक करण इसी युग म होना ार भ हु आ ।
(11) सहज अलंकरण और व वधतापूण छ द वधान इस युग क क वता का गुण है ।
छं द क गेयता और लयब ता पर वशेष बल दया गया ।
(12) ववेद युग म सं कृ त, बंगला, मराठ , अं ेजी आ द भाषाओं के सा ह य से चु र
मा ा म अनुवाद कए गए । व भ न भाषाओं के सा ह य से अनुवाद, पांतरण
एवं अनुकरण क वृि त से ह द सा ह य समृ हु आ ।

14.7.2 सीमाएं

इस युग के सा ह य क क तपय सीमाओं क ओर व वान ने संकेत कया है, यथा -


(1) सरलता एवं सपाटता पर अ धक बल दे ने से का य म सू मता, क पनाशीलता एवं
भाव-गा भीय के थान पर वणना मकता को य मला ।
(2) साद, पंत और नराला जैसे क व ववेद युगीन भा षक अनुशासन और
नै तकतावाद आ ह के कारण अपे त मह व नह ं पा सके ।
(3) शृंगा रकता को हे य मानने के कारण णय भाव को का य म समु चत थान नह ं
मला । आगे चलकर छायावाद का य म यह भाव अ धक य त हु आ ।
(4) इस युग क क वता का य-सौ दय, भाव सौ दय तथा प- च ण क ि ट से
भि तकाल न का य अथवा र तकाल के सम नह ं ठहरती पर तु रा यता के
भाव को वक सत करने और का य को जनका य बनाने क ि ट से ईस का य
का मह व रहे गा ।
(5) डॉ राम वलास शमा का मानना है क इस युग म कला मकता क कमी का कारण
शायद यह था क क व नवीन वषय पर कलम चला रहे थे और इस म कु शलता
पाने के लए समय अपे त था । यह बात आ शक प से स य हो सकती है
पर तु मराठ और बंगला म भी क व नए वषय ले रहे थे और मधु र का य रच
रहे थे । वा तव म इस युग के अ धकांश क व प कार, संपादक थे और उनका
चारक एवं सु धारक प ह मु ख था ।

14.8 अ यासाथ न
1. ववेद युगीन का य क टभू म पर काश डा लए ।
2. ववेद युगीन ह द का य के मु ख क वय के रचना संसार का प रचय दे ते हु ए
उनक का यगत वशेषताओं को उ घा टत क िजये ।
3. ववेद युगीन ह द का य क वषय व तु गत वशेषताओं को रे खां कत क िजए ।
4. ववेद युगीन ह द क वता क श पगत वशेषताएँ उ घा टत क िजए ।

245
14.9 संदभ ंथ
 गौड हर काश, सर वती और रा य जागरण, नेशनल पि ल शंग हाऊस, नयी
द ल ।
 कृ णलाल, आधु नक ह द सा ह य का वकास, ह द प रष , याग
व व व यालय वारा का शत ।
 गु त गणप तचं , ह द सा ह य का वै ा नक इ तहास, लोकभारती काशन,
इलाहाबाद ।
 चतु वद ीनारायण, आधु नक ह द सा ह य का आ दकाल, भात काशन.
द ल।
 शमा राम वलास. महावीर साद ववेद और ह द नवजागरण, राजकमल
काशन, द ल ।
 राम व प चतु वद , ह द सा ह य और संवेदना का वकास, लोक भारती काशन
इलाहाबाद ।
 शु ल रामच , ह द सा ह य का इ तहास, काशी नागर चा रणी सभा,
वाराणसी।

246
इकाई- 15 : छायावाद
इकाई क परे खा
15.1 उ े य
15.2 तावना
15.3 छायावाद : आधु नक क वता या ा म सश त ह त ेप
15.4 छायावाद : नामकरण क पृ ठभू म और प रभाषा
15.5 का य आ वाद के नए धरातल : वशेषताएँ
15.5.1 वैयि तक चेतना क भावी अ भ यि त
15.5.2 िज ासा और क पना
15.5.3 कृ त च ण
15.5.4 ी का व प
15.5.5 जागरण का संदेश
15.5.6 प व यास
15.5.7 पद व यास
15.6 सारांश
15.7 अ यासाथ न
15:8 संदभ- थ

15.1 उ े य
एम.ए. ह द , पूवा के पा य म ह द सा ह य का इ तहास' के अ तगत आप इस
इकाई म आधु नक ह द क वता के सवा धक उ लेखनीय संदभ 'छायावाद' से प र चत
ह गे । यह कालखंड संवेदना के सवथा नए धरातल और अ भ यि त या श प के
युगांतकार बदलाव क ि ट से बेहद च चत है । खड़ी बोल ह द क वता म
छायावाद के पूव का इ तहास भाषा के मानक को अिजत करने के यास , लोक रं ग
और उपदे शा मक वृि त से समृ तो है पर कला मक ऊँचाई और का य सृजन क
नजता के अभाव म वह पूववत क वताओं से पधा म अपनी मजबूत उपि थ त दज
नह ं करा पाता । छायावाद के आगमन ने इन सीमाओं को न सफ दूर कया अ पतु
इस दशा म पृहणीय ऊँचाइय को भी हा सल कया । इस इकाई के अ ययन के बाद
आप प र चत ह गे-
 छायावाद के आगमन क पृ ठभू म से ।
 पूववत क वताओं से छायावाद के अलगाव से ।
 छायावाद के नामकरण संबध
ं ी व भ न संदभ से ।
 छायावाद क वता क भावभू म से ।
 छायावाद क वता के प व यास और पद व यास से ।

247
15.2 तावना
आधु नक ह द क वता के इ तहास म जयशंकर साद, सू यका त पाठ ' नराला'
सु म ानंदन पंत और महादे वी वमा जैसे रचनाकार क क वताओं ने िजस नये आ वाद
से 20वी सद के आरं भक दशक को समृ कया, उसे छायावाद का दौर कहा गया ।
'छायावाद' के साथ ाय: दो और पद का योग कया जाता है- 'रह यवाद' और
' वछनदतावाद' । उस दौर क क वताओं म ाय: ये तीन वृि तयाँ एक साथ दखायी
दे ती ह । 'छायावाद' का संबध
ं जहाँ च ण क वशेष शैल से जोड़ा जाता है, वह ं
'रह यवाद' अ ात क िज ासा या कौतू हल से संब है और ' व छं दतावाद' का सघन
र ता ढ़य से मु ि त से जु ड़ता है ।
इस कालखंड, का फैलाव 1918 से 1936 ई. तक है । 'छायावाद' क पहल रचना के
प म साद र चत का य सं ह 'झरना' का उ लेख कया जाता है, िजसक रचना
1918 ई. म हु ई थी । वह ं अं तम कृ त के प म शखर रचना 'कामायनी' के उ लेख
क प रपाट रह है, िजसक रचना 1936 ई. म हु ई । इस अव ध म ह र चत
'जयशंकर साद' के सं ह 'आँस'ू , 'लहर, नराला के सं ह 'अना मका' 'प रमल'
'गी तका', 'तु लसीदास' पंत क रचनाओं 'प लव', 'वीणा', 'गु ज
ं न', 'युगांत' और महादे वी
वमा के गीत सं ह 'नीहार', 'रि म', 'नीरजा' और 'सां यगीत' ने क वता के इ तहास म
संवेदना और व यास क ि ट से उ लेखनीय ऊँचाइय का पश कया । आइए इस
कालखंड का और भी व तृत अ ययन कर ।

15.3 छायावाद : आधु नक क वता या ा म सश त ह त ेप


क वता के इ तहास म ववेद युगीन इ तवृ ता मकता , उपदे शा मकता, थू लता के
बरअ स सू म ववरण संप न क पना धान और ल लत पद व यास से समृ नए
का य आ वाद क ऐ तहा सक ज रत को 'छायावाद' ने पूरा कया । ' ववेद युगीन
क वता' और 'छायावाद क वता' क पृथकता को व ले षत करने के जो यास हु ए,
उनके अनुसार छायावाद का य के मू ल व प को समझने के लए उसे ऐ तहा सक
स दभ म रखकर दे खना अ नवाय है । ववेद युगीन का य वषय न ठ, वणन धान
और थू ल था । इसके वपर त छायावाद का य यि त न ठ और क पना धान है ।
साद, नराला आ द क वय ने अ धकतर अपनी सु ख दुखमयी अनुभू त को ह मु खर
कया है । िजस कार ववेद युगीन क वता म सृि ट क यापकता और अनेक पता
को समेटने का यास है, उसी कार छायावाद का य म मनोजगत ् क गहराई को
वाणी म संजोने का य न कया गया है । मनोजगत ् का स य सू म होता है िजसे
सजना वारा साकार करने के लए छायावाद क वय ने ऊवरा क पना शि त का
उपयोग कया है । क पना का उपयोग अनुभू त के व वध प और तीक तथा

248
ब ब क उ ावना म भी कया गया है । इसी लए छायावाद अ भ यंजना प त
व श ट और सांके तक हो गयी है ।
आधु नक ह द क वता म जभाषा बनाम खड़ी बोल ववाद के कारण छायावाद
क वय ने आ ह पूवक खड़ी बोल को अ धक सू म, च ा मक और ला णक बनाया
। भाषा के इन योग ने छायावाद को व श ट भं गमाओं से स प न कया ।
अ भ यंजना प त क इन वशेषताओं ने त काल न का य प र य म नवीनता और
ताजगी का अहसास कराया ।

15.4 छायावाद : नामकरण क पृ ठभू म और प रभाषा


'छायावाद' नामकरण के संबध
ं म अनेक मा यताएँ च लत ह । आलोचक रामच
शु ल ने इसे ईसाई संत के फटे समाटा (छायामास) श द से जोड़ते हु ए बंगला का
अनुकरण माना है । वे अपने ह द सा ह य का 'इ तहास' म कहते ह, 'पुराने ईसाई
संत के छायाभास तथा यूरोपीय का य े म व तत आ याि मक तीकवाद के
अनुकरण पर रची जाने के कारण बंगाल म ऐसी क वताएँ छायावाद' कह जाने लगी थीं
। यह वाद या कट हु आ, एक बने-बनाये रा ते का दरवाजा खु ल पड़ा और ह द के
कु छ नए क व उधर एक बारगी झु क पड़े । कहना न होगा र व नाथ ठाकु र क मशहू र
कृ त 'गीतांज ल' म व णत कृ त च ण, मानवीय ेम और आ याि मक सं लेषण का
भाव 'छायावाद' म मान लया गया ।
ह द क प -प काओं म 'छायावाद' का उ लेख 1920 ई. से मलने लगा । मु कु टधर
पांडेय ने जबलपुर से का शत होने वाल प का ' ी शारदा' के जु लाई, सत बर,
नव बर 1920 ई. के अंक म ' ह द म छायावाद' शीषक से चार नब ध क एक
लेखमाला लखी । नामवर संह ने इसे 'छायावाद' पर लखा पहला नबंध माना है ।
इसके बाद सर वती के जू न 1921 ई. के अंक म सु शील कु मार ल खत ' ह द म
छायावाद' शीषक एक संवादा मक नब ध का शत हु आ। 'छायावाद' श द के अथ को
लेकर ह द संसार म काफ ववाद रहा ।
जहां यथाथवाद, आदशवाद, ग तवाद आ द वाद के अंतगत वीकृ त रचनाओं से
बु नयाद व प कट हो जाता है, वह ं 'छायावाद' श द कसी प ट अथ का बोध नह ं
कराता । 'छायावाद' के जो अथ आर भ म नधा रत कये गए, उसम 'छाया' श द के
अथ क ववेचना के ह यास हु ए । आचाय शु ल ने इसके यापक अथ म 'रह यवाद'
को भी शा मल कर लया । वे सी मत अथ म इसे एक शैल वशेष मानते ह, िजसम
ला णक मू तम ता, तीक वधान, वरोध चम कार, वशेषण वपयय, मानवीकरण,
अ योि त वधान आ द पर बल होता है । शैल गत वशेषताओं के साथ-साथ ेम,
सौ दय म बु नयाद अंतर है । संगवश इसे समझ लेना चा हए । व तु त: रह यवाद
भावना का आलंबन जहां अमू त नराकार म है, वह ं छायावाद का वषय लौ कक
संदभ से ह जु ड़ा रहता है । आरं भ म इसका संबध
ं व छं दतावाद से भी जोड़ा गया,

249
ले कन आज छायावाद, रह यवाद और व छं दतावाद के संदभ म यापक अंतर है ।
त काल न प र य क ववेचना से यह समझना काफ आसान है । जहाँ नयी रचना
धारा के वरो धय ने 'छाया' का अथ भाव या अनुकरण लया वह ं दूसरे वग ने
इसका अथ 'सू म' और 'वायवीय' माना । एक अथ 'अ प ट' भी हण कया गया ।
जयशंकर साद ने छाया क या या क , 'मोती के भीतर छाया क जैसी तरलता' ।
उ होने यह भी कहा वद छाया भारतीय ि ट से अनुभू त और अ भ यि त क भं गमा
पर अ धक नभर करती है । पं. नंद दुलारे वाजपेयी ने 'छायावाद' का संबध
ं युगबोध से
जोड़ते हु ए य त सौ दय म आ याि मक छाया का भान कहा । डा. नगे क ि ट
म छायावाद थू ल के त 'सू म' का व ोह है । नामवर संह क बहु च चत कृ त
'छायावाद' के अनुसार, छायावाद व तु त: कई का य वृि तय का सामू हक नाम है और
वह उस रा य जागरण क का या मक अ भ यि त है जो एक और पुरानी ढ़य से
मु ि त पाना चाहता था और दूसर तरफ वदे शी पराधीनता से ।

15.5 का य आ वाद के नए धरातल : वशेषताएँ


ववेद युगीन क वता क इ तवृ ता मकता उपदे शा मकता से अलग 'छायावाद' ने िजस
नये का य आ वाद से ह द पाठक को प र चत कराया वह अनेक अथ म व श ट
अनुभव था । जयशंकर साद, सू यका त पाठ नराला, सु म ानंदन पंत, महादे वी
वमा क का यानुभू त से गुजरते हु ए हम उन व श टताओं को बखू बी रे खां कत कर
सकते ह । 'मधुचया', 'पलायन बोध' जैसे वशेषण के अ तरे क म ाय: हम छायावाद
क वता संसार क उपलि धय को नकार दे ते ह । ले कन 'छायावाद' ने िजन थायी
संदेश को कट कया वह स यता क अवधारणा से जु ड़ा था । इस संदभ म नामवर
संह के व लेषण को यहाँ उ ृत कया जा सकता है, 'छायावाद क वता क
आ मीयता', ' कृ त ेम', 'सौ दय भावना', 'संवेदनशीलता', 'अथक िज ासा', 'जीवन क
लालसा', 'उ चतर जीवन क आकां ा और इन सबके लए संघष करने क अनवरत
ेरणा, छायावाद क वता का थायी संदेश है । छायावाद हम रसम न करके नि य
नह ं बनाता बि क उ बुध करके स य बनाता है । वह प रव तत करता है ।' यह
समझने का यास कया जाए क कन त व से े रत हो छायावाद क वता क
अवधारणा ने ह द क वता के इ तहास म ह त ेप कया ।

15.5.1 वैयि तक चेतना क भावी अ भ यि त

छायावाद क वता क आ मीयता ने पाठक को वशेष प से आक षत कया । ह द


क वता परं परा म यह का य व ध ब कु ल नए ढं ग क थी । इस का य संसार म
क व नवैयि तकता का सारा आवरण उतारकर एक आ मीय क भाँ त बेहद नजी ढं ग
से बात करता दखायी पड़ता है । मन के भाव को कट करने के लए वह कि पत
कहानी, पौरा णकता, आ याि मकता या राधा-कृ ण के गृं ार वणन क ओट नह ं लेता
। वह अपनी बात सीधे-सीधे अपने-अपने मु ँह से उ तम पु ष शैल म कहता है ।
250
कहना न होगा इससे क व और पाठक के बीच िजस सु खद अनुभू त का संचार होता है,
वह पहले के का य अनुभव से वल ण है ।
इस नजता और आ मीयता के पीछे आधु नक युवक का वह यि त व है जो खु द को
सीधे-सीधे अ भ य त करने के लए सामािजक वाधीनता क कामना रखता है ।
उसक वैयि तक चेतना नवयि तकता क च लत ह द परं परा म घुट रह थी ।
भि तकाल के च लत 'आ म नवेदन' और 'र तकाल' क ' ढ़गत' तट थता के
बरअ स वैयि तकता का यह आ ह व ोह तेवर था । छायावाद क वय ने साहसपूवक
का य म य त अनुभू तय को अपनी अनुभू तयाँ कहकर तु त कया । का य संसार
म म, मेरा जैसे श द एकबारगी खर वेग से कट होने लगे । नराला ने लखा-
'मने म शैल अपनाई
या
दे खा मु झे उस ि ट से"
पंत क यह घोषणा कतनी ढ़ भंजक थी- 'बा लका मेर मनोरम म थी ।' इस तरह
क अ य अ भ यि तयाँ भी आसानी से मल जाती ह ।
छायावाद के पहले यह चेतना बमु ि कल नजर आती थी । य द आती भी तो
आ याि मकता क ओट म । ेम म जब रचनाकार ने सामािजक वाधीनता क छूट
ल , तब इसे आधु नक चेतना क जनतां क वजय से नवाजा गया । इस संदभ म
नामवर संह क ट पणी गौरतलब है, 'क वता म जहाँ दे वताओं के ेम का वणन होता
था । वह थान साधारण मनु य ले ले यह जनतां क भाव क वजय है । यह
म यवग क पहल सामािजक वाधीनता है ।'
इस वाधीनता के अ य आयाम से भी ह द क वता संप न हु यी । नराला ने 'सरोज
मृ त ' शोकगीत म नजी जीवन क िजन बात को साफ-साफ कहा वह ह द क वता
क व श ट उपलि ध है । क वता म नराला क आ मकथा का बहु लांश मा मकता से
अ भ य त हु आ है । 'पंत ने उ छवास' म, ' साद ने 'आँस'ू म वयं को अ भ य त
कया । ले कन आ मा भ यि तय के संदभ म कई बार रचनाकार को ढ़य के हार
क आशंका भी होती थी । इस आशंका का ह एक सरा उस समय के रह यवाद से
जु ड़ता है । आचाय शु ल ने इस वा त वकता को पहचानते हु ए लखा, 'इनक
रह यवाद रचनाओं को दे खकर चाहे तो यह कह क इनक मधुचया के मानस सार के
लए रह यवाद का परदा मल गया अथवा य कह क इनक सार णयानुभू त ससीम
से कू दकर असीम पर जा रह है । कहना न होगा आलोचक और पाठक संसार
छायावाद अथवा रह यवाद क वताओं को आ मानुभू त क को ट म ह रख रहे थे ।'

15.5.2 िज ासा और क पना

छायावाद क व क िज ासा का संबध


ं भाव व वलता से है । इस भाव व वलता का
व प भि तकाल न आवेग से अलग है । जहाँ भि तकाल न आवेग को मयादा
नयं त करती है, वह ं छायावाद क व धीरज, ववेक और व वास को क व कम के
251
समय भू ल जाता है । 'पंत के उछवास' और ' ं थ' को उदाहरण के प म दे खा जा
सकता है । इसे भावावेश का एक सरा कृ त और संसार के त छायावाद क वय
क िज ासा और कु तू हल से जु ड़ता है ।
नामवर संह कहते ह, हर चीज के त अथक 'िज ासा और कु तू हल' छायावाद का
मंगलाचरण है और यह वह रचना मक शि त है िजसके वारा क व, दाश नक अथवा
वै ा नक अपने-अपने े म कोई नयी चीज दे जाता है । छायावाद म इस नयी
शि त का उ मेष था । इस लए उसने ह द सा ह य को कु छ नया दया । ववेद
युग म अथवा र तकाल म इसक कमी थी । इस लए इन युग क रचना मक दे न
बहु त कम है ।
इसे कु छ उदाहरण के मा यम से समझने क को शश कर । सु बह के समय च ड़य
का चहकना तो पहले भी लोग ने दे खा था । पेड-पौध का झू मना भी लोग ने दे खा था
। ले कन छायावाद क वय के दे खने क मु ा अलग थी-
' थम रि म का आना रं ग ण, तू ने कैसे पहचाना? - सु म ानंदत पंत
या
तोड़ दो यह तज म भी दे ख लूँ उस ओर या है? - महादे वी वमा
छायावाद क वय क रह य भावना का संबध
ं इसी िज ासा भाव से है । छायावाद
प रवेश, कृ त या परम स य सबके बारे म जानना चाहते ह ।
िज ासा का संबध
ं क पना से है । नामवर संह का व लेषण यान दे ने लायक है,
िज ासा अपने आप म कसी व तु को जानने म समथ नह ं है । केवल न से ह
उ तर नह ं मल जाता । िज ासा क ती ता िज ासु के मन म एक दूसर शि त को
ज म दे ती है, िजसके वारा मन उस व तु के अंत थल म वेश करता है । इस
शि त का नाम है - क पना । क पना शि त के वारा मन अगम व तु तक पहु ँ च
जाता है । दुलभ व तु को भी ा त कर लेता है । अ ात और अ ेय व तु को भी
जान लेता है तथा अ ट व तु का भी प नधा रत कर सकने म समथ हो जाता है ।
िज ासा ने छायावाद क व को यह क पना शि त दान क ।
छायावाद क पना अलंकार और तीक योजना कर संप न नह ं हो जाती । वह
स या वेषी अंत ि ट तक अपना व तार करती है । यह कारण ह क छायावाद युग
म क पना और क वता पयाय हो गए । प लव के क व पंत क उ त रचना पर का य
ट पणी है- क पना के ये वहवल बाल । नराला क ि ट म क वता क पना के
'कानन क रानी' है । साद कहते ह-
'हे क पना सु खदान
तु म मनुज जीवन ान
तु म वशद योम समान ।'

252
क पना क इस अवधारणा के कारण ह छायावा दय ने सवा धक य व तु ओं क
उपमा क पना से द । जयशंकर साद हमालय को व व क पना कहते ह ।
सु म ानंदन पंत बादल को ' भु वन क क पना महान' कहते है ।
छायावा दय क क पना क इसी समझ ने दुखद वतमान म मनोहर व न लोक क
सृि ट क ।

15.5.3 कृ त च ण का व प

छायावाद रचनाकार ने ढ़ मयादाओं के व सामािजक वाधीनता और वैयि तक


चेतना पर बल दे ने के साथ कृ त ेम को भी अपनी का य भू म के प म चु ना ।
दे श ेम या रा य जागरण से समृ उस दौर क अनेक क वताओं का उ साह कृ त
ेम म न हत है । दे श ेम का आ खर कृ त से या र ता है? इसे आचाय रामच
शु ल ने बखू बी, प ट कया है, 'य द कसी को अपने दे श से ेम है तो उसे अपने
दे श के मनु य, पशु, प ी, लता, गु म , पेड, प ते, कण पवत, नद , नझर सबसे ेम
होगा । सबको वह चाह भर ि ट से दे खेगा सबको सु ध करके वदे श म आँसू बहाएगा
। जो यह भी नह ं जानते क कोयल कस च ड़या का नाम है । वे य द दस बने तने
म के बीच येक भारतवासी क औसत आमदनी का परता बताकर दे श- ेम का
दावा कर तो उनसे पूछना चा हए क भाइय बना प रचय का यह ेम कैसा?'
पर छायावाद रचनाकार के कृ त ेम के पीछे दे श ेम नह ं है । य क वह भाव तो
कृ त से प रचय के बाद पैदा होता है । व तु त: जड़ सामू हकता एवं सामािजकता से
उबरने के लए छायावाद रचनाकार ने कृ त म वेश कया । उ ह लगा क कृ त
म उ मु तता एवं व छं दता के लए अवकाश है । कृ त ेम वै ा नक उपलि धयाँ से
भी जु ड़ा है । मनु य वभावत: वं वा मक होता है । वह एक तरफ कृ त से संघष
करता है तो दूसर तरफ उससे ेम भी करता है । जंगल न ट करता है तो बाग
आबाद करता है । छायावाद के कृ त ेम के पीछे उि ल खत सभी कारण क
मौजू दगी है ।
सामािजक वाधीनता एवं ाकृ तक मु ि त से अिजत छायावाद कृ त ेम म पाठक ने
एक नयी जीवन ि ट महसूस क । ' थम रि म' क वता म पंत ने सु बह के सू रज क
पहल करण के जादू का भावी च ण कया । जहाँ नराकार तम म सब कु छ
अ प ट था, वहाँ सु दर सृि ट दखायी दे ने लगी-
' नराकार तम मानो सहसा
यो त-पु ज
ं म हो साकार
बदल गया त
ु जग जाल म
धर कर नाम प नाना ।"
इसके बाद तो जैसे पूर कृ त झू मने लगी । हर तरफ जागरण का संदेश फैल गया :-
'खु ले पलक फैल सु वण छ व
जगी सु र भ, डोले मधु बाल
253
पंदन, कंपन और नवजीवन
सीखा जग ने अपनाना ।'
नवजीवन क यह अथछ व छायावाद क व क नजी वशेषता है ।
छायावाद क वय ने वतं कृ त च ण म जो मसाल कायम क वह आधु नक
ह द क वता म एक उ लेखनीय संदभ है । कहना न होगा इससे कृ त क वतं
स ता का बोध हु आ । जहाँ पहले अ धक से अ धक कृ त का च ण कथा संग
अथवा मानवीय या क पृ ठभू म म कया जाता था, वह ं छायावा दय ने कृ त को
इतना मह व दया क कसी अप र चत और छोटे से फूल या पौधे को भी वतं प
से क वता का वषय बनाया । ओस क बूँद पर क वता के पूरे वधान को रचा गया ।
पंत ने बादल पर एक पूर क वता लखी । उपे त कृ त को छायावाद क वय ने पूरा
स मान दया और इस या म उसे म य युगीन बंधन से मु त कया ।
महादे वी वमा ने कृ त क वराटता को माँ के ग रमामय प से संब करते हु ए कहा-
'इन ि न ध लट से छा दे तन
पुल कत अंक म भर वशाल
झु क सि मत शीतल चु ंबन से
अं कत कर इसका मृदुल भाल
दुलरा दे ना बहला दे ना
यह तेरा शशु जग है उदास ।"
आधु नक ि ट ने िजस वराट चेतना को दे खा था, उसके स मु ख कृ त के त ऐसी
ा वाभा वक थी । नामवर संह ने लखा है व तु त: कृ त ने िजस द य प म
आधु नक मानव को दशन दया था, उसक वराटता के सामने क व क यह ा
वाभा वक है । इस लए कु छ क वय ने ' व व सु ंदर कृ त पर चेतनता का आरोप'
करके उसे व व या शि त का प दे दया और कु छ ने ' कृ त क अनेक पता म,
प रवतनशील व भ नता म 'तारत य खोजने' के फल व प उसके 'कारण पर मधुरतम
यि त व का अरोपण' करके अपना य बना लया । पहल वृि त साद क है और
दूसर महादे वी क ।
छायावाद क वता के व लेषक यह मानते ह क छायावाद पूव के युग म कृ त के
इस वराट प का च ण नह ं मलता ।

15.5.4 ी का व प

छायावाद क वता कृ त के साथ ी को भी क वता के धान वषय के प म चु नती


है । इस वृि त के कारण छायावाद को बहु त दन तक आलोचना का पा भी बनना
पड़ा । उसे ' े ण का य' क उपा ध तक द गयी । ववेद युग का शु वाद आ ह
नार के त दया का भाव तो रखता है ले कन स मान के भाव से वह दूर है । इससे
नीरसता और वजना के भाव को व तार मला । संगवश आलोचक नामवर संह का
व लेषण उ ृत करना उ चत होगा ' ववेद युग ' का यह का य एक कार से

254
अनाथालय तीत होता है । िजसम नार को आ य दे ने के साथ ह बं दनी भी बना
दया गया और इस तरह वह अपने सहज जीवन से वि छ न कर द गयी । आय
समाज क क र शु वाद ( यू रटन) नै तकता ने ववेद युग के संपण
ू का य को
नीरसता और वजना से भर दया, चार ओर ' नरस वसद गुनमय फल' वाले कपास
का वातावरण छा गया ।
छायावाद क वता ने नार च ण दो प म कया । वह दै हक प जो पु ष के
शा वत आकषण का वषय है, उसने छायावाद क वय को भा वत कया । दूसरा वह
प है िजसम ी को बंधनमु त करने क चाहत है । कहना न होगा छायावाद नार
के त मानवीय स दयता क ि ट रखता है । सु म ानंदन पंत ने लखा-
'दे व माँ सहच र ाण । ।'
सा ह य म पहल बार ी एवं पु ष के बीच वैयि तक व छं द ेम का अ युदय
हु आ। इस व छं द ेम का अ नवाय सरा यि त वात य से जु ड़ा है । नार को
ेयसी का ऊँचा आसन इसी चेतना के कारण दया गया । छायावाद क वय ने
' ेय स', ' ये', ' यतमे' और 'सजनी' जैसे संबोधन का योग बहु तायत प म कया।
इन संबोधन के चलते छायावा दय को 'सजनी सं दाय' जैसे उपहास का सामना करना
पड़ा । ले कन ख ल उड़ाने वाले दरअसल ी-पु ष समानता के ढ़वाद संबध
ं के
कायल है-
'यह प ट होते दे र नह ं लगी ।'
जयशंकर साद क 'कामायनी' म मनु के जीवन म ेम क द तक बहु त सु ंदर प म
अ भ य त है-
' ु तय म चु पके चु पके से
कोई मधु धारा घोल रहा,
इस नीरवता के परदे म
जैसे कोई कु छ बोल रहा ।
है पश मलय के झल मल सा
सं ा को और सु लाता है,
पुल कत हो आंख बंद कए
तं ा को पास बुलाता है ।
उठती है करन के ऊपर
कोमल कसलय के छाजन सी
वर का मधु न: वन रं म
जैसे कु छ दूर बजे वंशी ।
था यि त सोचता आलस म
चेतना सजग रहती दुहर
कान के कान खोल करके

255
सु नती थी कोई व न गहर ।"
यह ेम काम म पांत रत हो मनु म एक और जीवन क चाहत उ प न करता है,
साथ ह कम क ेरणा भी दान करता है ।
इस ' ेम' को नराला क क वताएँ अलग अंदाज म पहचानती है । वैसे तो अनेक
क वताओं म उ ह ने ेम का परो च ण कया, ले कन उ ह ने 1932 ई. म ' ेम के
त' एक क वता लखी । इस क वता म वे ेम के व प पर ट पणी करते ह -
' ेम सदा ह तु म असू हो
उर-उर के ह र के हार,
गूँथे हु ए ा णय को भी
गूँथे न कभी सदा ह सार ।"
ेम के इस व प म बंधे ेम क आकां ा कट हु ई । 'पंचवट संग' क वता म
महाक व ेम को उदा त क अवधारणा तक ले जाते हु ए कहते ह :-
'छोटे से घर क लघु सीमा म
बंधे ह ु भाव
यह सच है ये
ेम का पयो ध तो उमड़ता है
सदा ह नःसीम भू पर ।"
ेम क ग भता के च ण क ि ट से उनक ' ग भ ेम' क वता बेहद उ लेखनीय
है । नीरस जीवन म सरसता के आ ह से यु त उस युग क ेम क वताओं ने
छायावाद का य को पूववत क वताओं से अलग और वश ट व प दान कया ।
छायावाद णय भावना ी एवं पु ष दोन के पार प रक मानस वं व का प रणाम
है । म य युग म नार इस वतं मु ा क अ धका रणी नह ं थी । छायावाद म
असमानता का वर अल वदा हो गया ।
भावावेग यु त छायावाद ेम म उ ाम भाव तो अ भ य त ह, पर अ ल लता के नषेध
के साथ । नराला क 'राम क शि त पूजा' म इस नवीन णयानुभू त का बेहद
मा मक च ण हु आ है । राम और सीता के उ कट लगाव का यह व प तु लसीदास
क क वता म भी नह ं था:-
'याद आया उपवन
वदे ह का- थम नेह का लतांतराल मलन
नयन का- नयन से गोपन य संभाषण,
पलक का नव पलक पर थमो थान पतन,
काँपते हु ए कसलय - झरते पराग - समु दाय,
गाते खग नव जीवन प रचय - त मलय - वलय,
यो त: पात वग य - ात छ व थम वीय
जानक -नयन-कमनीय थम कंपन तु र य ।"
256
ेम क इस उदा त चेतना के उ ाम आवेग म सारे बंधन टू ट गए । ढ़य पर हार
क यह आधु नक ि ट मु ि त का समयानुकूल आहवान करती है:-
'दोन हम भ न वण
भ न जा त भ न प
भ न धम भाव, पर
केवल अपनाव से, ाण से एक थे ।"
छायावाद सौ दय च ण और ेम क अ भ यि त िजस आदशवाद धरातल पर हु ई,
उसका पश ववेद युगीन शु वा दता भी नह ं कर सकती थी । सौ दय च ण और
ेम क अ भ यि तक इस वशेषता का वणन नामवर संह ने इस कार कया है,
'अ भ यि त' भी उतने ह आदशवाद धरातल पर हु ई । दोन क ह भू मका अ यंत
उदा त है । ववेद युग क शु वा दता भी इस ऊँचाई को नह ं छू सकती है । उस
उदा त वृि त ने ह छायावाद क व को ऐसी सू म सौ दय ि ट -द क उसने नार
सौ दय के चटक ले रं ग क जगह सू म रे खाओं और वणछायाओं को भी उकेरने म
सफलता ा त क । इसी उदा त वृि त के कारण छायावाद क व को ेम क बार क से
बार क अनुभू तय को अ भ य त करने क शि त मल गयी । साथ ह वह ेम का
ऊँचा आदश भी ति ठत कर सका ।
नार के अ य प का भी छायावाद क वता ने वणन कया । ले कन माँ, ब हन.
क या फै प क अपे ा ेयसी प को ह अ धक धानता मल ।

15.5.5 जागरण का संदेश

छायावाद क वता ने अनेक बार य प से राजनी तक और सामािजक संदभ म


अपनी का य अ भ यि तय को कट कया । पराधीनता के दौर म अतीत का गौरव
गान या पुन थान भावना जातीय गौरव अिजत का ह एक यास है । वतमान क
पराधीनता का हल अतीत क वजय से संब कया गया । जयशंकर साद क ना य
कृ तय (चं गु त, कंदगु त) के गीत म इस जातीय चेतना क खर उपि थ त है
।' कंदगु त' के एक गीत म साद कहते ह :
'वह है र त, वह है दे ह, वह साहस है, वैसा ान,
वह है शाँ त, वह है शि त वह द य आय संतान ।
िजएँ तो सदा, उसी के लए, यह अ भमान रहे यह हष,
नछावर कर द हम सव व, हमारा यारा भारतवष ।"
साद क 'पेशोला क त व न' और 'शेर संह का श ू ' क वताओं म जातीय
संपण
पराजय क मा मक झाँक का वणन करते हु ए वजय क आकां ा कट क गयी है ।
इस आकां ा का एक छोर छायावा दय के अपने समय से ह छ न प से जु ड़ता
है:-
'कौन लेगा भार यह?

257
कौन वचलेगा नह ?

साधना पशाच क बखर चूर -चू र हो के
धू ल-सी उड़ेगी कस त फू कार से ?'
नराला के का य संसार म ां त, व ोह और व लव का वर सवा धक खर है ।
'छ प त शवाजी का प ' क वता म औरं गजेब के समथक जय संह क ह खबर नह ं
ल गयी है, उसक यंजना अं ेज समथक तक भी जाती है :-
'एक भू त शि तय से एक हो प रवार
फैले समवेदना
यि त का खंचाव य द जा तगत हो जाए
दे खो प रणाम फर,
ि थर न रहगे पैर,
प त हौसला होगा,
व त होगा सा ा य ।
िजतने वचार आज
मारते तरं ग ह,
सा ा यवा दय क भोगवासनाओं म
ह दु तान मु त होगा घोर अपमान से,
दासता के पाश कट जाएँगे ।"
ले कन यह बात यान दे ने यो य है क अतीत क चचा करने के बावजू द वे उस
वणयुग म लौटने क तरफदार नह ं करते, वहाँ अतीत ेरणा ोत क प म
उपि थत है । 'छायावाद क व समकाल न संदभा म उ बोधन का नया संदभ अतीत क
पी ठका पर रच रहे थे । इसे 'च गु त' नाटक के इस याण गीत से बखू बी समझा
जा सकता है -
' हमा तु ंम शृंग से
बु शु भारती
वयं भा समु वला
वतं ता पुकारती-
'अम यवीर पु हो, ढ़ त सोच लो,
श त पु य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।"

15.5.6 प व यास

अंतव तु या क वता के आंत रक सौ दय भावना के अनु प ह प व नयास क


न मत होती है । ववेद युग क क वता का प व नयास आयसमाजी स दय भावना
से े रत होने के कारण सादा और सरल है । इस संसार म राग-रं ग क व तु ओं का
वेश विजत है । यहाँ कृ त च ण का अंदाज कु छ इस तरह है:-

258
'कह ं लो कयाँ लटक रह ह,
काशीफल कु मांड कह है
और कसी मा मक संदभ क पुनरं चना का अंदाज है :-
हम कौन थे? या हो गए है ? और या ह गे अभी?
आओ वचारे आज मलकर ये सम याएँ सभी ।"
इससे अलग छायावाद प व नयास अलंकार और प स ज तथा च ण शैल क
सू मता के त अ त र त सजग है । ले कन इस अलंकार यता और प स जा क
बनावट र तकाल न सौ दयबोध से भी पया त भ न है । इसे छायावाद रचनाकार के
अनेक बार प ट कया । र तकाल न सौ दयबोध म यकाल न सौ दयबोध से े रत है
जब क छायावाद सौ दय लोक का ेरक आधु नकता बोध है ।
प व नयास म छायावाद आकार सा य के बजाए भाव सा य पर बल दे ते है । इस
संदभ म नामवर संह जी ट पणी यान दे ने यो य है, 'छायावाद' ने अपना यान
भाव सा य पर वशेष केि त कया । जब क पुराने क व आकार सा य क ओर
अ धक दौड़ते थे । जैसे र तवाद कवी बादल के लए आकार सा य पर 'हाथी' क
उपमा दे ते थे । ले कन जब पंत मे उसे- 'धीरे -धीरे उठै संशय-सा' कहा तो उनका यान
बादल के धीरे -धीरे उठने वाले धम क ओर गया । ेयसी को 'चं का क झनकार',
'ता रकाओं क तान' वगैरह कहना इसी भाव सा य का प रणाम है ।' छायावा दय ने
भाव सा य के ह व तार तीक योजना म भी व श टता का नवाह कया । आचाय
रामच शु ल ने छायावाद अ तु त का व लेषण करते हु ए लखा, 'ऐसे अ तु त
अ धकतर उपल ण के प या तीकवत ् होते ह जैसे सु ख, आनंद, फु लता,
यौवनकाल इ या द के थान पर उनके योतक उषा, भात, मधु काल, या के थान
पर मु कुल, ेमी के थान पर मधु प, वेतया शु के थान पर कं ु द , रजत, माधु य के
थान पर मधु, द ि तमान या कां तमान के थान पर वण, वषाद या अवसाद के
थान पर अंधकार, अंधेर रात या सं या क छाया, पतझड़, मान सक आकुलता या
ोम के थान पर झंझा, तू फान, भाव तरं ग के लए झंकार भाव वाह के लए संगीत
या मु रल के वर इ या द । कहना न होगा छायावा दय ने प व यास क एक नयी
ि ट का उ मेष कया ।

15.5.7 पद- व यास

श द-समू ह क नींव पर प- व यास क पी ठका खड़ी होती है । छायावा दय क


का यभाषा सं कृ त परं परा का युगानु प प र कार करती है । त सम पदावल ववेद
युग म भी थी, पर जहाँ ववेद युग म वह खु ददुर थी, वह ं छायावाद म वह
कोमलकांत पदावल म पांत रत हो मधु र भाव का सु ंदर वाहक बनी । जभाषा क
सु द घ का य पर परा के सामने खड़ी बोल का य क ारं भक रचनाएँ आलोचक के
एक बड़े वग को शं कत कर रह थी । छायावाद ने इस चुनौती को वीकार कर अपनी

259
े ठता का लोहा मनवाया । नामवर संह का व लेषण बेहद सट क है, 'पद रचना म
छायावाद क होड़ जभाषा से थी । जभाषा के समथक का कहना था क खड़ी बोल
म क वता हो ह नह ं सकती । उ ह खड़ी बोल क खरखराहट इतनी कणकटु , प ष
और पौ षमय लगती थी क लोग ाय: इसे क वता जैसी कोमल व तु का मा यम
मानने से इनकार करते थे । जो लोग ज माधु र म पगे थे उ ह ववेद युग क
त यवाद क वता से संतोष न होना वाभा वक था । छायावाद ऐसी ह कोमल च
वाले लोग को जवाब दे ने का उपाय ढू ं ढ़ रहा था । भाषा क कोमलता छायावाद का
पहला वादा था और कहना न होगा क उसने इसे पूरा कर दखाया, यहाँ तक क
छायावाद क खड़ी बोल क क वता के सामने जभाषा खु रदर मालूम होने लगी ।

15.6 सारांश
बीती सद के आरं भक दशक म व तृत छायावाद का य संसार के सरोकार और
भं गमाओं से आप बखू बी प र चत हु ए । ववेद युग के बाद ह द क वता का यह
कालखंड अनेक ि टय से उ लेखनीय सा बत हु आ । भाव एवं भाषा क बनावट और
बुनावट म उ लेखनीय थान के कारण यह का य समय खड़ी बोल ह द क वता के
इ तहास का वह संदभ बना, िजसके बल पर जभाषा का य क सु द घ परं परा के
सामने खड़ी बोल क वता उ लेखनीय और समयानुकूल सा बत हो सक । जयशंकर
साद, सू यकांत पाठ नराला, सु म ानंदन पंत और महादे वी वमा जैसे रचनाकार के
भावी सृजन से बना यह कालखंड लगभग बीस वष तक (1918-1936) ह द
क वता संसार का नेत ृ व करता रहा ।

15.7 अ यासाथ न
1. 'छायावाद क वता खड़ी बोल ह द क वता संसार म भाव एवं भं गमा क ि ट से
अ यंत उ लेखनीय संदभ ह '। इस कथन के आधार पर छायावाद का मू यांकन
क िजए ।
2. आधु नक क वता म छायावाद के ह त ेप का मू यांकन करते हु ए नामकरण संबध
ं ी
मा यताओं पर वचार क िजए ।
3. का य-आ वाद के धरातल के आधार पर छायावाद का य-संसार का मू यांकन
क िजए ।
4. छायावाद क वता के श प प का व लेषण करते हु ए यह बताइए क कैसे ह द
क वता परं परा म यह कालखंड नए संदभ का उ मेष करता है?

15.8 संदभ ंथ
1. रामच शु ल - ह द सा ह य का इ तहास, नागर चा रणी सभा, वाराणसी, सं.
2050
2. हजार साद ववेद - ं ावल , भाग-3, राजकमल
थ काशन, नयी द ल , 1981

260
3. डॉ. नगे (सं.) ह द सा ह य का इ तहास, नेशनल पि ल शंग हाउस. नयी
द ल , 1982
4. नामवर संह - छायावाद, राजकमल काशन, नयी द ल , 1990
5. राम व प चतु वद - ह द सा ह य और संवेदना का वकास, लोकभारती काशन,
इलाहाबाद, 1993

261
इकाई -16: उ तर छायावाद क वता
ईकाई क परे खा
16.1 उ े य
16.2 तावना
16.3 उ तर छायावाद का य क पृ ठभू म
16.4 मु ख का य धाराएँ
16.5 रा य सां कृ तक का यधारा
16.5.1 संवेदना के धरातल
16.5.2 मु ख रचनाकार और उनका अवदान
16.6 वैयि तक गीत क वता
16.6.1 ेम का व प
16.6.2 अवसाद के धरातल
16.6.3 अ भ यि त का अनूठापन
16.6.4 मु ख रचनाकार और उनका अवदान
16.7 सारांश
16.8 अ यासाथ न
16.9 संदभ थ

16.1 उ े य
एम.एम. पूवा ( ह द ) के पा य म ह द सा ह य का इ तहास प के अंतगत आप
इस इकाई म उ तर छायावाद क वता का अ ययन करगे । 1935-38 तक का
कालखंड छायावाद या व छ दतावाद का य के चरम उ कष का समय था । नराला
क 'सरोज मृ त ', 'राम क शि त पूजा', साद क युग वतक कृ त 'कामायनीं' जैसी
रचनाओं के इस कालखंड के बाद ह द का यधारा ने वकास क अ य राह क ओर
ख कया । छायावाद के एक मु ख त भ पंत ने 'युगांत ' कृ त के शीषक वारा
छायावाद युग के अंत क घोषणा क । इ ह ं प रि थ तय के बीच ह द का यधारा
क अलग आवाज ने भी अपनी मजबूत उपि थ त दज करायी । इन अलग धाराओं म
कह यि तवाद वर क का या मक अ भ यि तयाँ ह तो कह ं रा य सां कृ तक
वर का उ घोष । इस इकाई म आप इन का य अ भ यि तय क संवेदना क
बनावट और बुनावट का व तृत अ ययन करगे । इस इकाई के अ ययन के बाद आप
प र चत ह गे-
 उ तर छायावाद क वता के आगमन क पृ ठभू म से ।
 छायावाद का यभू म से परवत का य अ भ यि तय के अलगाव से ।
 यि तवाद गी तक वता म उपि थत ेम के व प और अवसाद के धरातल से ।

262
 रा य-सां कृ तक क वता म उपि थत उ साह, ओज और आवेग क संवेदना से ।
 इन का य धाराओं क अ भ यि तगत व श टता से ।

16.2 तावना
छायावाद के बाद आधु नक ह द क वता संसार मे भगवतीचरण वमा, ह रवंशराय
ब चन, रामधार संह दनकर आ द क उपि थ त ने नए संवेदा मक धरातल और
श प वै श य से -ब- कराया । ह द क वता संसार मे इस काल को कई नाम से
पुकारा गया । उ तर छायावाद युग , उ तर व छ दतावाद काल, छायावादो तर काल
आद !
इस कालखंड क का य संवेदना को य द छायावाद क वता क पृ ठभू म के आलोक म
दे खने समझने क को शश कर तो का य प र य क त वीर एक हद तक प ट होगी
। संगवश आलोचक ब चन संह के इस लंबे उ रण को दे खना साथक होगा, उ तर-
व छ दतावाद सा ह य क मु य वृि तय का बीज व छ दतावाद सा ह य म ह
न हत था । नयी ऐ तहा सक प रि थ तय के कारण उन वृि तयाँ म से कु छ छूट
गयी और कु छ प रव तत प म सामने आयी । व छ दतावाद क वय ने भी 'म'
शैल अपनायी थी । क तु उनका 'मै' अ धक यापक था िजसम भौ तकता-
आ याि मकता, आदश-यथाथ, ई वर- कृ त, क पना का समारोह, सं कृ त न ठ और
आमफहम भाषा आ द का समावेश था । उ तर व छ दतावाद का य म क पना का
समारोह छूट गया, सं कृ त न ठ भाषा के मोहबंध से भी का य को दूर तक मु ि त मल
गयी ।
अब क व का 'मै' अपने ह भोगे हु ए यथाथ तक सी मत हो गया । क पना का थान
यथाथ ने ले लया, भाषा लोकभाषा के नकट चल आयी । उदा त मानवीय मू य का
वघटन शु हु आ । इसके थान पर यि तवाद और हासोमू खी आधु नकतावाद मू य
सामने आये । इनम हार और लाचार का भी वर मलता है, और वैयि तक आ था
का भी । इसके साथ-साथ सामू हक व ोह का राग भी बजता रहा । यानी ह द
क वता क रचना या ा के इस पड़ाव म एक साथ कई रं ग उभरे । मु ख प से दो
धाराएँ साफ तौर पर उभरती हु यी नजर आती ह- यि तवाद गी तक वता और रा य-
सां कृ तक का य धारा । आइए इनका और भी व तार से अ ययन कया जाए ।

16.3 उ तर छायावाद का य का पृ ठभू म


उ तर छायावाद काल क रचना या ा म एक तरफ पूववत का य धारा यानी छायावाद
का य धारा से अलग एक व श ट जमीन हा सल करने का स य का य ववेक दखायी
दे ता है तो दूसर तरफ अपने समय के राजनै तक-सां कृ तक और सामािजक व यास
से खु द को जोड़कर रखने का यास भी । त काल न आ थक-राजनै तक संरचना के
अनु प सा हि यक संरचना का वकास हो रहा था । इनक समाना तर वकास या
पर एक नजर डालना तकसंगत होगा । गाँधी के क र माई यि त व के कारण जहाँ

263
एक ओर समरा यवाद -सामतवाद लौह खृं लाओं से संधारत स या ह क सफलताएँ-
असफलताएँ दखायी पड़ रह थीं तो दूसर तरफ 1934 म जय काश नारायण के
नेत ृ व म समाजवाद दल क थापना हो चु क थी । 1936 के लखनऊ कां ेस के
अ य ीय उ बोधन म जवाहरलाल- नेह ने समाजवाद का खु ला समथन कया । उसी
तरह 1936 म ह ग तशील लेखक संघ के स मेलन म ेमच द का अ य ीय भाषण
इस चेतना क वकालत कर रहा था क सा ह य को ग तशील चेतना का वाहक बनना
चा हए । समाजवाद समझ इस चेतना का एक मु ख आयाम था ।
इसी पृ ठभू म के समाना तर दो तरह क संवेदनाएँ मु ख प से का य अ भ यि त म
पा त रत हो रह थीं । एक म जहाँ यि तगत अनुभू त का घन व मह वपूण था,
वह ं दूसरे म सामािजक अनुभू त का उ ाम आवेग । इसे दो मु ख क वय के अवदान
के मा यम से परखने क को शश कर तो ब चन और दनकर क का यानुभू त को
बुनावट के आधार पर प ट कर सकते ह । एक म जहाँ लौ कक ेम के य वृि त है
वह ं दूसरे म त काल न सामािजक राजनै तक चंताएँ मु खत: मु खर ह ।

16.4 मु ख का य धाराएँ
उ तर छायावाद युग क क वताओं म अनेक वर क उपि थ त है । क वता के
इ तहास म यह दौर अनेक वाद /धाराओं से समि वत है । व तु और श प क
व वधताओं को पाठक , आलोचक ने रे खां कत करते हु ए यह समझदार अिजत क क,
कसी धारा म यि तगत अनुभू त का घन व अ धक है, तो कसी म सामािजक
अनुभू त क फ त । कसी म रोमानी ि ट क धानता है, तो कसी म बौ क
यथाथवाद ि ट क । कृ तय के आधार पर य द इन अनेक ि टय , मा यताओं और
रचना प का वग करण कया जाए तो प ट प से पांच-छह का य धाराएँ उभरकर
आती ल त होती ह । उ ह रा य सां कृ तक क वता, मागत छायावाद का यधारा
या उ तर छायावाद, वैयि तक गी त का य, ग तवाद, योगवाद और नयी क वता कहा
जा सकता है । इस इकाई म हम दो मु ख का य धाराओं यानी वैयि तक गीत
क वता और रा य सां कृ तक का यधारा का व तार से अ ययन करगे ।

16.5 रा य-सां कृ तक का यधारा


छायावाद के बाद के युग म लखी गयी क वताओं का एक बड़ा वग रा य सां कृ तक
का यधारा का है । इस धारा क कु छ रचनाओं और रचनाकार का ववरण इस कार
है- नहु ष, 'कु णाल गीत', 'अिजत', 'जय भारत' (मै थल शरण गु त), 'माता', 'समपण',
'युग चरण' (माखनलाल चतु वद ), 'अपलक', ' वा स', ' वनोबा- तवन', 'हम वषपायी
जनम क' (बाल कृ ण शमा नवीन) 'नकु ल', 'नोआखाल ', 'जय ह द', 'आ मो सग',
'उ मु त', 'गो पका' ( सयाराम शरण गु त ), 'हु ंकार', ' व वगीत', 'कु े ', इ तहास के
आँस'ू , 'रि मरथी', 'धू प और धु आ', ' द ल ' (रामधार संह दनकर), 'वासवद तां', 'भैरवी',
' चंता'', 'युगाधार', (सोहनलाल ववेद ), 'भू त क माला' (ह रवंश राय ब चन),
264
'ह द घाट ', 'जौहर' ( यामनारायण पा डेय), ' व मा द य' (गु भ त संह 'भ त'),
' वसजन', 'मानसी', 'अमृत और वष', 'युगद पं ', 'यथाथ और क पना', 'एकला चलो र',
' वजय पथ' (उदयशंकर भ ), 'काल दहन', 'त तगृह', 'कैकेयी', 'दानवीर कण'
(केदारनाथ म भात) ।
य य प इस धारा के रचनाकार ' व छ दतावादं' या 'छायावाद काल' से ह लखते आ
रहे थे, तथा प उनके रचनाकम का अ धकांश भाग 'उ तर छायावाद ' युग म ह सृिजत
हु आ । इस का यधारा पर ां तकार आ दोलन एवं 'गाँधीवाद आ दोलन' का जबद त
भाव था । यह कारण है क आलोचक का एक वग इस धारा क रचनाओं के लए
' व लववाद और गांधीवाद का य' क सं ा का यवहार करता है । इस धारा के
रचनाकार पर गांधी, तलक और भगत संह के यि त व का काफ असर पड़ा ।
1925 म भगत संह ने 'भारतीय गणतं ा मक समाजवाद संघ' क थापना क ।
उ ह ने त काल न समय के बखरे हु ए ां तकार आंदोलन को संग ठत कया । 1929
म के य वधान सभा म बम फकने के आरोप म उ ह म स हत गर तार कया
गया । फर उ ह फाँसी क सजा द गयी । पूरे दे श म इसका भार तवाद हु आ ।
पेशावर, चटगांव और शोलापुर म अं ेजी सा ा यवाद के खलाफ सश व ोह हु ए ।
अनेक असफलताओं के बावजू द भारतीय मानस म ां तकार चेतना का सार हो रहा
था । ां तकार चेतना के इसी व लवी वर को रा य सां कृ तक का य धारा के
रचनाकार ने वाणी द ।
इस धारा को गहराई से समझने के लए 'मरण योहार' शीषक क वता दे खी जा सकती
है, िजसक रचना माखनलाल चतु वद ने क । क वता पर ट पणी करते हु ए दनकर ने
लखा,' ......क व ने कहा है क नाश ने भारत को चु नौती भेजी है । इस नाश का पूरा
जवाब न तो चरखावाले दे पाये, न उस चु नौती का जवाब पाि डचेर दे सक ।' दनकर
ने अपनी क वता 'नयी द ल ' म टश अ याचार पर उ यं या मक ट पणी क ।
यशपाल ने 1938 म ' व लव' का काशन शु कर इस आवाज को और भी बुलंद
कया ।

16.5.1 संवेदना के धरातल

सां कृ तक एकता के व भ न अनुभव संदभ से भारतीय लंबे काल से प र चत थे


ले कन राजनै तक एकता के अथ म रा य चेतना क अवधारणा अं ेज के आगमन
के साथ आयी । दरअसल दे श के अथ म रा यता क अवधारणा आधु नक काल म
ह आयी । आधु नक काल म रा यता का जो व प उभरा और वक सत हु आ,
उसके तीन आधार ह- पूरे दे श म अ जी शासन क थापना, सम भारतीय जा
वारा अ जी शासन से उ प न यातना का समान अनुभव तथा वाधीनता आ दोलन
और उसका दे श यापी सार ।" भारतदुयग
ु ीन क वता म च त रा यता का बोध
उ तर छायावाद युग आते-आते काफ व तृत हो गया । यह कहना अ तशयोि त नह ं

265
होगा क उ तर छायावाद काल म लखी गयी कृ तय म अ धकांश क के य चेतना
है-रा यता का खं डत या थू ल प म च ण । वदे शी शासन के अ याचार का
मा मक च ण, जन यातनाओं और जन ोध का भावी और व तृत वणन, भारतीय
जनता क ललकार का आवेगधम वणन रचनाओं क सामा य वशेषता के प म
रे खां कत क जा सकती है ।
जहाँ छायावाद युग म गांधी के भाव के कारण आ मपीड़न और अ हंसाज य नरम
तरोध दखायी पड़ता है, वह ं उ तर छायावाद क वता क इस धारा पर वामपंथी
वचारधारा के उदय, समाजवाद स ांत के चार तथा वदे शी शासन के झू ठे वायद
और अ धका धक कठोर, वषम एवं ज टल होती प रि थ तय के कारण उपजी ि थ तय
का भाव साफ तौर पर महसू स कया जा सकता है ।
सा ा यवाद सामंतवाद के कंधे पर चढ़ कर आता है । इस धारा के रचनाकार को यह
बखू बी अहसास है क लड़ाई केवल अ जी स ता से ह नह ं है, उन सामंती महाजनी
दु च से भी है, िजनके भीतर भारत क आम जनता स दय से पस रह है । यह
अहसास दनकर के मा यम से भावी ढं ग से समझा जा सकता है । रा यता का
एक वर सं कृ त क उस समझ से भी जु ड़ता है, िजनके आलोक म वतमान क
गुि थय को इ तहास क नरं तरता म या या यत कया जाता है । इसका एक सरा
पौरा णक-धा मक और ऐ तहा सक च र के पुनसृजन से जु ड़ता है । इसी तरह के
यास म यशोधरा, पंचवट , साकेत जैसी रचनाओं क अंतवत चेतना वारा समझी जा
सकती है । कु ल मलाकर भारतीय सं कृ त के उदा त वर क का य अ भ यि त इस
धारा क एक मु ख चंता है ।

16.5.2 मु ख रचनाकार और उनका अवदान

इस धारा के सवा धक उ लेखनीय क व मै थल शरण गु त ह । हालां क उनक रचना


या ा ववेद युग से ह आरं भ हो गयी थी, ले कन सृजन क अंतवती चेतना के
आधार पर वे रा य-सां कृ तक का यधारा क संग त म ह उ लेखनीय ठहरते ह ।
उनक का य ढ़ पुरानी है, पर सरोकार नये ह । जो नया है उसका मू लाधार पुराना है
। युग के बहु रं गी प को पकड़ने म वे काफ सजग रहे । उनक रा य चेतना का
व प पूववत भारतदु युग से अलग है । आलोचक ब चन संह का उ रण इस संदभ
म यान दे ने यो य है- 'गु त जी िजस रा य चेतना को लेकर का य े म अवतीण
हु ए वह भारते दु तथा उनके समसाम यक क वय क का य चेतना से कं चत भ न है
। उस समय के क व क णा वग लत वर म या तो क णा न ध केशव को जगा रहे
थे या अपने अतीत गौरव का मरण कर गंगा यमु ना से मथुरा काशी को डु बो दे ने क
ाथना करते थे । च तौड़ को अपने समसाम यक संदभ म रखकर उनके मन म
मायूसी छा जाती थी । क तु गु त जी का 'क व पूवज क द य झाँक तु त करते
हु ए उनसे श ा हण करने का संदेश दे ता है और हम भू त, वतमान और भ व य के

266
संबध
ं म वचार करने के लए े रत करता है ।" गु त जी क रा य भावना क
तनध तु त का दजा 'भारत-भारती' को दया जा सकता है । उसी तरह 'जय थ'
'वध'- म अ भम यु उस युवा पीढ़ का त न ध है जो रा य य म महार थय के
अभे यच क च ता न करते हु ए अपनी ब ल चढ़ा दे ता है ।
इस धारा के दूसरे मह वपूण रचनाकार माखनलाल चतु वद ह । 'एक भारतीय आ मा'
उपनाम से ति ठत रहे । उ होने अपने प - ' भा', ' ताप' और 'कमवीर' के मा यम
से स य रा य कायकता क भू मका नभायी । वे समय के राजनै तक बदलाव से
सा ह य के र ते के संबध
ं को वाभा वक मानते ह । एक क वता म वे कहते ह -
'सखे बता दे कैसे गाऊँ, अमृत मौत का दाम न हो,
जगे ए शया, हले व व, और राजनी त का नाम न हो ।'
उनक 'पु प क अ भलाषा' 'क वता तो लोग का कंठहार बन गयी-
'मु झे तोड़ लेना, वनमाल
उस पथ म दे ना तु म फक ।
मातृभू म पर शीश चढ़ाने
िजस पथ पर जाव वीर अनेक ।'
जीवन के अं तम दन क उनक क वताओं म आजाद के बाद के दौर क स ताधा रय
क पदलोलु पता टाचार, दुदशा आ द का मा मक वणन हु आ है । हम कर टनी हम
तरं ग गणी, वेणु लो गूँजे धरा, माता, युग चरण, मरण वार, बीजु ल काजल आँज रह
और धू वलय उनके का य-सं ह ह ।
सयाराम शरण गु त मै थल शरण गु त के छोटे भाई थे, ले कन दोन क रचना भू म
म फक है । जहाँ मै थल शरण गु त म उ लासमयता और ब हमु खता है, वह ं सयाराम
शरण गु त म संयम, भावना मक च ण और क णा क धानता है । उनक गांधीवाद
म अ य आ था थी । 'उ मु त' सं ह क क वताएँ इस बात क गवाह ह । शोषण के
संदभ म उ होने असहाय क णा के थान पर संघष का आहवान कया ।
' वाला ग र के बीज, ू र शोषण से जमकर
फूट पड़े ह ठौर-ठौर आ नेय वकट तर ।
काँप उठ है धरा उ ह ं के व फोटन म
फैल गयी लयाि न- शखा यह न खल भु वन म ।'
मौय वजय, अनाथ, दूवादल, आ ा आ मो सग जय ह द, जैसे का य सं ह से उ होने
पया त या त अिजत क ।
बालकृ ण शमा नवीन इस का य धारा के एक बेहद उ लेखनीय रचनाकार ह । गणेश
शंकर व याथ के नधन के बाद उ ह ने ' ताप' का संपादन कया । दो-तीन साल
तक उ होने - ' भा' का संचालन भी कया । आजाद के जानलेवा संघष के दौरान ेम

267
और सौ दय क कु हे लका म खो जाने वाले क वय से क व ने यथाथ से सा ा कार का
आहवान करते हु ए कहा-
'क व कुछ ऐसी तान सु नाओ िजससे उथल-पुथल मच जाये
एक हलोर इधर से आये, एक हलोर उधर से आये
ाण के लाले पड़ जाय, ा ह- ा ह वर म छाये
बरसे आग, जलद जल जाये, भ मसात भू धर हो जाये ।'
आधु नक चेतना से का यभू म को संब करने वाले इस क व ने सवशि तमान ई वर
क स ता के त जो ोभ य त कया, उसम उसक रा य चेतना क सघनता का
पता चलता है -
'और चाटते जू ठे प ते उस दन दे खा मने
नर को उस दन सोचा, य न लगा दूँ आज आग दु नयाभर को?
यह सोचा, य न टटु आ घ टा जाय वयं जगत प त का?
िजसने अपने ह वर को प दया इस घृ णत वकृ त का?
'कं ु कुम', 'रि म रे खा और अपलक', ' वनोबा', ' तवन', 'उ मला', 'हम वषपायी जनम के'
उनके का य सं ह ह । सु भ ाकु मार चौहान, माखनलाल चतु वद और नवीन क तरह
स य प से रा य आ दोलन से संब रह ं । उ ह ने कई बार जेल या ाएँ क ।
त काल न रा य भावनाओं को ऐ तहा सक और सां कृ तक वृ तांत से जोड़ कर
उ होने आ दोलन धम चेतना को नया व प दान कया । ब लदानी और यु क
ललकार उनक रचनाओं क के य वशेषता थी । बु द
ं े लखंडी लोकशैल म लखी उनक
मशहू र रचना 'झाँसी क रानी' को यापक लोक यता हा सल हु यी । यह रचना अनेक
ां तका रय के लए ेरणा ोत बनी । उनक क वताओं के केवल दो सं ह का शत
हु ए ' धारा' और 'मु कु ल' ।
रामधार संह दनकर इस धारा के सवा धक उ लेखनीय क वय म एक है । उनक
रचनाओं के अनेक धरातल ह । आलोचक ब चन संह इसके उ साह को उनक रा य
चेतना से जोड़ते ह, 'कह ' वे गाँधीवाद का समथन करते ह तो कह ं सश ां त 'का
कह ं कृ त और नार - ेम क आकां ा य त करते ह तो कह ं सवहारा के उदय क ।
क व के इस अंत वरोध को कस प म लया जाय? इन अंत वरोध को रा यता क
याि त म समेटा जा सकता है । समय क मांग के फल व प जहाँ-जहाँ उनके मन
का मेल बैठता गया वहाँ-वहाँ उनक क वता भी अपना व श ट प लेती गयी । क तु
इसका अ भ ाय यह नह ं है क उ ह ने केवल समसाम यक क वताएँ लखी ह ।
समसाम यक होकर भी उनक रचनाएँ समसाम यकता को पारकर जाती ह । व तु त:
यह उनक उपलि धयाँ ह ।' अपनी पहल रचना 'रे णु का' से वे बेहद लोक य हु ए ।
इस सं ह क क वताओं म मा नयत और शोषक के त व ोभ दोन तरह के वर
मल जाते ह । 'हु ंकार' को क व ने वयं रा य क वताओं का सं ह कहा । 'हाहाकार'
जैसी स रचना इसी सं ह म है:-
268
'हटो योम के मेघ, पंथ से, वग लू टने हम आते ह ।
'दूध, दूध ओ व स! तु हारा दूध खोजने हम जाते ह ।'
इसी सं ह म उनक अ याय के व यु यता भी मु खर हु यी है । ' हमालय' क वता
म वे कहते ह :-
'रे ! रोक यु धि ठर को न यहाँ
जाने दे उनको वग धीर
पर फरा हम गांडीव गदा
लौटा दे अजु न भीम वीर
कह दे शंकर से आज कर
वे लय नृ य फर एक बार
सारे भारत म गूँज उठे '
'हर हर हर बम' का महो चार ।'
'सामधेनी' म रा य अंतररा य घटनाओं के बीच मु य वर रा यता का ह ।
'रसव ती म गृं ार और ' व वगीत' म जीवन और जगत के रह य का च ण है ।
'कु े ' म दनकर ने यु धि ठर -भीम संवाद के मा यम से अ याय के तकार का
आहवान करते हु ए यु क अ नवायता को रे खां कत कया ह । 'उवशी' म क व ने
पु रवा और उवशी के मा यम से कामा या म का वणन कया है । 'रि मरथी' म कण
को समकाल न नज रये से दे खने का यास कया गया है । तो 'परशु राम क ती ा'
क रचना चीन-भारत के यु संदभ म क गयी है । व तु त: उनक त न ध रचना
'कु े ' ह है, िजसम उ होने यु धि ठर के व व के मा यम से आधु नक मनु य के
व व को वाणी द है ।
इस कार रा य सां कृ तक का य धारा के रचनाकार ने अपनी संवेदना म टश
शासन के अ याचार, जन यातनाओं और इनके खलाP सश त तरोध के साथ
सामंती-पू ज
ं ीवाद च र को बेनकाब करने क समझ और जनप धरता को वर दया
है ।

16.6 वैयि तक गीत क वता


वैयि तक गीत क वता क धारा को कु छ आलोचक ने यि तवाद गी त क वता से
भी पुकारा है । छायावाद क वय और इस धारा के क वय म एक हद तक समानता
है। वैसे इस धारा के क वय क ि ट भी रोमानी है । व तु जगत के त इनक
त या भावा मक है । आ म स पृि त और उ तेजना के वर क उपि थ त क
ि ट से भी इस धारा के रचनाकार छायावाद क वय से मलते ह । स दय, ेम और
इन संवेदनाओं से जु ड़े मनोभाव उ लास और वषाद भी इ ह छायावाद रचनाकार के
नकट लाता है । ले कन छायावाद रचना संसार से यह धारा अनेक थान पर अलग
भी होती है । आलोचक ने का य आ वाद के इन धरातल को रे खां कत करते हु ए

269
कहा, ' कं तु इन कृ तय म छायावाद क वता जैसे संकोच, रह या मकता और
आदशवा दता नह ं है, साहस के साथ सीधे साफ तौर पर अपने नजी ेम संवेग तथा
सु ख दुख को कहने क आकु लता है । इनक वेदना छायावाद क वेदना क तरह
सामा य नह ,ं वरन ् नजी तीत होती है । अत: उससे अनुभव का एक व श ट ब ब
उभरता ल त होता है । यह अव य है क इनके ये अनुभव ब ब छायावाद के सु दर
अनुभव ब ब के समान सू म, संि ल ट और गहरे नह ं ह, क तु जो कु छ है वह छल
नह ं ओढ़ता उघडे ह प म उभरकर सहज वाह का सु ख दे ता है । छायावाद क वता
भी ाय: 'म' के मा यम से अपना अनुभव उभारती है और यि तवाद ग तक वता भी
क तु छायावाद का 'म' संकोच या मयादा के आतंक का अनुभव करने के कारण
ती ता से आलो कत होने के थान पर मंद-मंद द त होता है जब क यि तवाद
गीतक वता का 'म' अपने समूचे राग- वराग के साथ न याज भाव से फूट चलता है ।
इस कार छायावाद और परवत वैयि तक गीत क वता म अनेक समानताओं के वर
के साथ असमानताओं के धरातल भी मौजू द ह ।

16.6.1 ेम का व प

इस धारा के रचनाकार क के य वृि त लौ कक ेम का च ण है । ेम के संसार के


व भ न रं ग मलन- वरह, उ लास-पीड़ा, उदासी, टू टन, असंतोष आ द के सघन वर
से समि वत इस धारा क अनेक क वताएँ ह द जगत का कंठहार बन गयी । यह
च ण दाश नक आदश और वायवीय कु हे लकाओं म अपना संधान नह ं ढू ं ढता । शील-
संकोच के तमाम आवरण को उतार फकने क वाभा वकता क ओर क वय के झु काव
को साफ तौर पर ल त कया जा सकता है । उदाहरण के लए ह रवंश राय ब चन
क रचनाओं को दे ख सकते ह । उनके ' नशा नमं ण' और 'एका त संगीत' म ेम के
अवसाद का घनीभू त वणन है तो ' मलन या मनी म संयोग क मादकता, उ साह और
उमंग के अ तरे क का सु ंदर और भावी वणन है । उसी तरह नरे शमा र चत ' वासी
के गीत' म लौ कक वरह के यथा क धानता है तो अ य रचनाओं म ेयसी के
मादक प, भोग और संतु ि ट का वणन उपि थत है । रामे वर शु ल अंचल,
भगवतीचरण वमा, गोपाल संह नेपाल , आरसी साद संह जैसे रचनाकार म भी इन
मानी च का वणन दे खा जा सकता है । हा यह सह है क इन क वय म इन
वशेषताओं के साथ नजी ' वशेषताएँ भी मौजू द ह' ।

16.6.2 अवसाद के धरातल

इस धारा के रचनाकार म ेम और वरह से उपजे अवसाद के साथ नराशा और


उदासी के अ य संदभ का च ण भी है । दे श क गुलामी, सामािजक ढ़य , आ थक
र तता के भयंकर अहसास से गुजरते हु ए इन रचनाकार ने अनेक बार अकेलेपन और
उदासी का सामना कया । रचनाकार ने वर को पुराने आ याि मक संसार या नये

270
समाजवाद ि ट से जोड़ने के बजाए सीधे-सीधे च त कया । अनेक आलोचक ने
इसे जीवन ि ट के अभाव से जोड़ा । दरअसल रचनाकार क ं वशेषताएँ इनक सीमाएँ
भी ह । इन रचनाकार के संसार से गुजरते हु ए हम कई बार ऐसा महसू स करते ह
क, 'जीवन ि ट के अभाव म ये यि तवाद अनुभव, नराशा, मृ यु क छाया और
नय तबोध से त ह । ये अनुभव जहाँ अपनी ती ता म सू म पर तु खु ले हु ए
ब ब क रचना म एक नये सा हि यक सौ दय क सृि ट करते ह, वहां अपने
आ यं तक अकेलेपन, उदासी और दुहराव म यो मु ख दखने लगते ह और जहाँ ये
का या मक ि ट से सपाट हो जाते ह वहाँ अपनी साथकता कसी भी कार मा णत
नह ं कर पाते :-
' कतना अकेला आज म
संघष म छा हु आ
दुभा य से लू टा हु आ
प रवार से छूटा हु आ, क तु अकेला आज म । (एका त संगीत)'
वह हर तरफ अवसाद क उपि थ त दे खता है । इस लौ कक अवसाद से संब क व के
साथ कोई अलौ कक स ता नह ं है, ढ़ समाज दशन नह ं है इस लए वह कसी तरह के
आ य का आभास नह ं अनुभव कर पाता । अवसाद का शकार क व कई बार जीवन
क असफलताओं और अपनी आधार ह नता को सीधे तौर पर वीकार करता नजर
आता है । इस धारा के रचनाकार का व वास जीवन क णभंगरु ता म है । णभंगरु
जीवन म उ लास के पल पर इस धारा के क वय का खास बल है । उनका मानना है
इन पल को पूरे आनंद से भोगना चा हए । इन पल को मादकता क हद तक वीकार
करने का आ ह ह इस धारा के रचनाकार को 'मधु' के त अ त र त संवेदनशील
बनाता है । 'मधु' क आ मीयता ब चन जैसे रचनाकार को 'मधुशाला', 'मधु बाला' जैसी
रचनाओं के लए े रत करती है ।
संवेदना क अ भ यि त के दौरान ग लत यव था और मनु यता वरोधी सोच को ये
रचनाकार कई बार ग तवाद क वय क तरह खा रज करते ह । उदाहरण के प म
ब चन क 'बंगाल का काल', नरे शमा 'अि नपथ', अंचल क ' करण बेला' जैसी
रचनाएँ दे खी जा सकती ह ।

16.6.3 अ भ यि त का अनूठापन

वैयि तक गीत क वता के रचनाकार क सबसे बड़ी दे न अ भ यि त मू लक सादगी


वीकार क गयी है । इस धारा के रचनाकार ने सीधे-सादे श द , प र चत च एवं
सहज कथन भं गमा वारा अपनी संवेदनाएँ बखू बी अ भ य त क ।
अ भ यि त क इस शैल के कारण इस धारा के रचनाकार क सीमाएँ और संभावनाएँ
साफतौर पर ल त क जा सकती ह । इस सल सले म रामदरश म के व लेषण
को उ ृत करना तक संगत होगा । वे कहते ह, 'क व क शि तयाँ और अशि तयाँ
दोन बड़ी प टता से उभरती ह । शि तयाँ अ प ट ' ब ब म उलझकर अपनी ती ता

271
और भाव नह ं खोती और अशि तयां रह या मकता का लाभ उठाकर महान होने का
आभास नह ं दे पातीं । य य प इन क वय क संवेदना यि तवाद है, क तु वे अपने
को िजस मा यम-प रवेश, कृ त च , ब ब, उपमा, भाषा आ द के वारा य त
करना चाहते ह वह हमारा अ त प र चत होता है, लोक के नकट का होता है, अतएव
मांसल और मू त तीत होता है । य य प इस धारा क क वता क भी भाषा मू लत:
सं कृ त न ठ है, क तु उसके श द या पद हमारे नकट के लगते ह । बोलचाल के
श द और मु हावरे भी इनम पया त मा ा म आए ह । कु ल मलाकर यह जीव त भाषा
तीत होती है ।'
इस कार यि तवाद ग तक वता क सादगी और अ भ यि त के अनूठेपन क एक
समय खासी धू म रह । आधु नक ह द क वता के इस दौर क अनेक क वताएँ अभी
भी लोग क संवेदना को भा वत करती है ।

16.6.4 मु ख रचनाकार और उनका अवदान

वैयि तक गीत क वता के इस कालखंड के सबसे बड़े रचनाकार ह रवंशराय ब चन ह


। आ मानुभू त क सघनता से स प उनक क वताओं म भाव ध मता और मम पश
चेतना वाभा वक प से उपि थत है । आलोचक ब चन संह ब चन क क वताओं पर
अपनी राय दे ते ह, 'इ तहास के वकास म म ब चन ने क वता को जमीन पर उतारा
उसे इहलौ कक जीवन से स ब कया और उसक सीमा का व तार भी कया ।'
उनक आरं भक रचनाओं 'मधुशाला', 'मधु बाला' और 'मधु कलश' पर उमरखैयाम क
बाइय क गहर छाप है । का य वकास के दूसरे चरण क उनक मु ख कृ तयाँ है-
' नशा नमं ण', 'एकांत संगीत' और 'आकुल' 'अंतर' । एकांत-संगीत क वेदना के साथ
आंत रक बल का मेल का य आ वाद को अनूठा बना दे ता है-
'अि न पथ! अि न पथ! अि न पथ!
वृ ह भले खड़े,
हो घने हो बड़े,
एक प - छाँह भी माँग मत, माँग मत, माँग मत!'
जीवन के उ तरा के संगह सू त क माला, 'खाद के फूल' जैसी रचनाएं सामािजक-
राजनै तक व वो को तु त करती ह, पर आलोचक क ि ट म ये क वताएँ पूवा
क रचनाओं क तु लना म कमजोर ह । 'सतरं गनी', ' मलन य मनी', ' णय-प का'
उनक अ य उ लेखनीय रचनाएं ह । 'धार के इधर उधर', 'आरती' और 'अंगारे ' और
'बु और नाच घड़' म उनक संवेदना का पट यापक है ।
इस धारा के दूसरे उ लेखनीय क व नरे शमा ह । उनके सं ह ' भात फेर ',
'शू लफूल' और कणफूल म व वंस और ेम क संवेदना का सम वय है । वासी के
गीत सं ह से उ ह यापक लोक यता मल । ेम के लौ कक पवणन क ि ट से

272
यह सं ह मह वपूण है । 'पलाशवन', ' म ी और फूल' हंस'माला', र तचंदन',
कदल वन, 'उ तरजय' आ द उनक अ य रचनाएँ ह ।
रामे वर शु ल 'अंचल' ने अपनी २चनाओं म अशर र वायवीय ेम को तरजीह दया ।
बाद के दौर म उनका झु काव मा सवाद दशन क तरफ हु आ । पर 'मधू लका',
'अ ािजता', 'लाल चू नर', 'वषात के बादल' और ' वराम च ह' उनके का य सं ह है ।

16.7 सारांश
आपने इस इकाई म उ तर छायावाद क वता क दो मु ख धाराओं 'रा य सां कृ तक
का यधारा और 'वैयि तक गीत क वता' का यापक अ ययन कया । आ यं तक
क पना और अ तरे कवाद समाज दशन से अलग इस दौर क क वताओं ने िजस का य
आ वाद को संभव कया उनका आधु नक ह द क वता के इ तहास म व श ट मह व
है ।

16.8 अ यासाथ न
1. उ तर छायावाद क वता के उदय क ऐ तहा सक पृ ठभू म का व लेषण करते हु ए
इस दौरे क क वताओं क व श टता बताइए ।
2. रा य सां कृ तक का यधारा एक साथ सा ा यवाद और सामंतवाद पर हार करते
हु ए समकाल न उ तरदा य व बोध का सृजन करती है, कैसे?
3. 'वैयि तक गीत क वता' नजी संवेदना को व श ट अंदाज म तु त करती है,
उदाहरण स हत बताइए ।

16.9 संदभ ंथ
1. ब चन संह - आधु नक ह द सा ह य का इ तहास, लोक भारती काशन,
इलाहबाद, वष 1994
2. नगे (संपादक) - ह द सा ह य का इ तहास, नेशनल पि ल शंग हाउस, नयी
द ल , वष 1982
3. नामवर संह - छायावाद, राजकमल काशन, नयी द ल , वष 1990
4. रामच शु ल - ह द सा ह य का इ तहास, नागर चा रणी सभा, वाराणसी, वष
सं. 2050 व.
5. राम व प चतु वद - ह द सा ह य और संवेदना का वकास, लोकभारती काशन,
इलाहाबाद, वष 1993
6. हजार साद ववेद - हजार साद ववेद ं ावल , भाग-3, राजकमल

काशन, नयी द ल , वष 1981

273
इकाई- 17 : ग तवाद का य
इकाई क परे खा
17.0 उ े य
17.1 तावना
17.2 ग त का ता पय
17.3 ग तवाद क प रभाषा
17.4 ग तवाद क दाश नक पृ ठभू म
17.5 भारत म सा यवाद
17.5.1 ग तवाद लेख संघ : थम अ धवेशन
17.5.2 प -प काएँ
17.6 ग तवाद सा ह य क वृि तयाँ
17.7 ग तशील का य क मु ख वशेषताएँ
17.8 ग तवाद और ग तशील
17.9 ह द का ग तवाद का य
17.10 ग तवाद क व और का य
17.11 ग तवाद का य क भाषा
17.12 सारांश
17.13 अ यासाथ न
17.14 संदभ थ

17.0 उ े य
तु त इकाई को पढने के बाद आप -
 बता सकगे क ' ग त' का सा ह य म या ता पय है ।
 ग तवाद क प रभाषा दे सकगे ।
 ग तवाद क दाश नक पृ ठभू म बतला सकगे ।
 ग तवाद तथा ग तशील के बीच अंतर प ट कर सकगे ।
 ग तवाद का य का आकलन कर सकगे ।

17.1 तावना
वतमान युग ह द का उ तर आधु नक युग कहलाता है । भारते दु ह र च के काल
से ह द सा ह य का आधु नक युग आरं भ होता है । महावीर साद ववेद ने खड़ी
बोल का प रमाजन कया । मश: ह द का य म छायावाद का ादुभाव हु आ ।
साद, पंत, नराला, महादे वी, रामकुमार वमा आ द इस धारा के मु ख क व रहे ।
छायावाद का य म वैयि तकता भावुकता, सौ दया मकता आ द त व क धानता थी
। इसम सामािजक यथाथ के त अवगाहन कम था । इस का प नक सौ दया मक
274
का यधारा (छायावाद) के व ग तवाद का ादुभाव सन ् 1936 ई. म हु आ । इस
क वता म सामािजक यथाथ, जन चेतना-वग-संघष, शोषण के व व ोह, नार
उ कष आ द भाव का ाधा य रहा । इस का य क दाश नक पृ ठभू म
के प म मा सवाद को लया गया । ग तवाद क धारा सम भारतीय सा ह य म
भा वत हु ई । इस का य ने जन सामा य के संघष तथा दुख -दद क बात क ।

17.2 ग तवाद का ता पय
ग तवाद का अथ है - आगे बढ़ना, अ सर होना ।
ग तवाद व व मानव क बात करता है । मनु य को कसी दै वी शि त पर आधा रत
मानने के बदले उसे अपनी मता पर नभर रहने का आहवान करता है । दे वता,
ई वर, धम, कम स ा त, पूव ज म, व ध- व ान जैसी बात से मनु य को मु त कर
वयं संघष वारा प रि थ तय को बदलने क ेरणा दे ता है । ग तवाद मानव य न
तथा म को ति ठत करता है । मनु य वारा मनु य का दलन-शोषण तथा
अ याचार जैसी वृि तय का वरोध करता है । पूँजीप तय वारा शोषण च चलाए
जाने, मनु य को बं धत करने, उसे आगे न बढ़ने दे ने का वरोध करता है । धम तथा
आडंबर के नाम पर ि य को शार रक, बौ क तथा मान सक प से गुलाम बनाए
रखने का वरोध करता है ।

17.3 ग तवाद क प रभाषा


ग तवाद का उ े य - सम-समाज क थापना, िजसके अंतगत समाज के सभी वग
को आगे बढ़ने के समान अवसर ा त ह । जा त, धम, वण, स दाय, लंग आ द
भेद को दूर कर मनु य मा को समान मानना ह ' ग तवाद' है । ग तवाद सा ह य
को सामािजक बदलाव का एक औजार मानता है । अत: क वता म सामािजकता सरल
भाषा तथा सहज अ भ यि त को धानता दे ता है । ग तवाद सा ह य म रचना जन
सामा य को यान म रखकर क जाती है । क पनाशीलता, अलंका रकता,
चम का रकता स दय न पण आ द के आ ह से बचा जाता है ।

17.4 ग तवाद क दाश नक पृ ठभू म


ग तवाद क एक सवमा य प रभाषा द जा सकती है - 'दशन म जो मा सवाद है,
राजनी त म जो समाजवाद है. वह सा ह य म ग तवाद है ।।'
ग तवाद का दाश नक आधार मा सवाद चंतन है । काल मा स एक जमन दाश नक
थे िज ह ने अपने मौ लक चंतन से व व के बड़े भाग को भा वत कया । काल
मा स का ज म 5 मई 1818 ई. को जमनी के राइन ांत म एक यहू द माता- पता
के घर हु आ । उसक प नी का नाम जाना था । मा स के दशन, राजनी त, अथशा ,
समाजशा आ द का गंभीरता से अ ययन कर अपने मौ लक वचार तपा दत कए ।
इनके अंतरं ग म का नाम - एंगे स ।

275
मा स ने अपना मु ख स ा त व वा मक भौ तकवाद (Dialectical
Materialism) तपा दत कया । इस स ांत के अनुसार भौ तक जगत ह स य है ।
चेतना का ादुभाव इ ह ं त व से होता है । मानव नय त को संचा लत करने वाल
भौ तक शि तयाँ तथा पदाथ है । कोई अ य शि त नह ं । मनु य अपने वातावरण
पर आ धप य पा सकता है तथा अपना जीवन बु , ववेक एवं म से सु ख, शां त व
समृ से पूण बना सकता है । मनु य अपना भ व य वयं न मत कर सकता है ।
मा स ने अपना मु ख स ा त व वा मक भौ तकवाद (Dialectical
Materialism) तपा दत कया । इस स ा त के अनुसार भौ तक जगत ह स य है
। चेतना का ादुभाव इ ह ं त व से होता है । मानव नय त को संचा लत करने वाल
भौ तक शि तयाँ तथा पदाथ ह । कोई अ य शि त नह ं । मनु य अपने वातावरण
पर आ धप य पा सकता है तथा अपना जीवन बु , ववेक एवं म से सु ख, शां त व
समृ से पूण बना सकता है । मनु य अपना भ व य वयं न मत कर सकता है ।
मानव मा क एकता
मा स क ढ मा यता थी क सार मनु य जा त मू लत: एक है । काले-गोरे , आय-
अनाय, यूरोपीय -अ क , मु ि लम-ईसाई, नर-नार आ द भेद कृ म है । मनु य म
अपार मता अ त न हत होती है । इनके वकास का समु चत अवसर मलना चा हए ।
मा स ने समाज के दो ह वग माने -
1. िजसके पास बहु त है (Haves) तथा
2. िजसके पास कुछ भी नह ं है (Have nots)
उ ह ने पूँजीप तय के धन को कम करने तथा मजी वय को धन का उ चत भाग दे ने
क बात कह । मा स ने व वभर के म जी वय का आहवान कया । - " व व के
मजी वय , तु म एक हो जाओ । तु हारे पास खोने के लए कु छ नह ,ं सवा बे ड़य
के।"
मा स मजी वय क मु ि त चाहते थे । िजनके म से जगत चलता है । पूँजीप त
य या अ य प से शोषण करते हु ए उ ह ं को आ थक ि ट से वप न रखते
ह, गुलाम बनाए रखते ह ।
इस दशा से मु ि त के लए मा स ने कसान व मजदूर को आ वान वग संघष के
लए कया ।
सामंतवाद और पूँजीवाद के वनाश के बना सम-समाज क थापना नह ं हो सकती ।
नार क मु ि त भी समु चत श ा तथा आ थक वावलंबन वारा ह संभव है ।
धम:
मा स ने धम, ई वर, धा मक आडंबर आ द का वरोध करते हु ए कहा - 'धम व तु त:
अफ म है, जो इसके अनुयायी को सदै व नशे म धु त रखता है तथा उसक सोचने क
शि त को बंद कर दे ता है । धम मनु य के चंतन को संकु चत कर दे ता है । व तु त:
शोषण का मु य साधन धम भी है ।

276
"रास के पटल" मा स का स थ
ं है ।
"अ त र त मू य का स ांत" भी मा स ने तपा दत कया, िजसके अनुसार
अ त र त लाभ मश: पू ज
ं ी म बदल जाता है तथा इससे पू ज
ं ीवाद पनपता है ।
मा स के वचार ां तकार थे । उसके जीवन काल म ह इनका व व यापी भाव पड़ा
। मा स ने वकास क वै ा नक या या क । वह उ पादन क पाँच प तय के
वारा समाज का वकास मानता है । मा स ने इ तहास क वै ा नक या या तु त
क । उसने सा यवाद समाज क क पना क । इस चंतक मनीषी का दे हा त 14
माच, 1883 ई. को हु आ ।
मा स के ां तकार वचार का भाव व व चंतन पर गहराई से पड़ा । सन ् 1917
ई. म पहल बार स म जन ां त हु ई िजसे, 'अग त ां त' कहा जाता है । जनता ने
शोषक, अ याचार 'जार' शासक के रा य को समा त कया और मजदूर के रा य क
थापना क । व व इ तहास ने करवट ल । व व के अनेक दे श म सा यवाद
वचार का चार हु आ । स क ां त से अनेक दे श ने ेरणा हण क । भारत के
बु जी वय , सा ह यकार , कलाकार व राजनी त ने आशा भर नजर से स क
ओर दे खा ।

17.5 भारत म सा यवाद


सन ् 1927 ई. म भारत म भी सा यवाद दल क थापना हु ई । इसी वचारधारा के
चार- सार के फल व प भारतीय सा ह य म ग तवाद वचारधारा का उदय हु आ ।
सन ् 1935 ई. के नवंबर माह म - मु कराज आनंद, स जाद जह र तथा अ य कु छ
छा के सहयोग से लंदन के नेन कं क होटल म ग तशील संघ क थापना हु ई ।
स उप यासकार ई.एम. फर टर क अ य ता म इसका थम अ धवेशन हु आ ।

17.5.1 ग तवाद लेखक संघ : थम अ धवेशन

भारत म ग तशील लेखक संघ का सव थम अ धवेशन 1936 ई. मे लखनऊ मे


उप यास स ाट मु श
ं ी ेमचंद क अ य ता म हु आ ।
यह एक नये युग क शु आत थी । ेमचंद ने सा ह य को जन-जीवन के सु ख-दु:ख
से जोड़ कर दे खा । अपने ऐ तहा सक अ य ीय भाषण म उ ह ने कहा - "हमार
कसौट पर वह सा ह य खरा उतरे गा, िजसम उ च चंतन हो, वाधीनता का भ य हो,
सौ दय का सार हो, सृजन क आ मा हो, जीवन क स चाई का माण हो । जो हमम
ग त, संघष और बेचैनी पैदा करे , सु लाये नह ,ं य क अ धक सोना मृ यु का ल ण है
।" अत: जागरण ह ग त है । ेमचंद का यह अ य ीय भाषण सचमुच ह ग तवाद
सा ह य का द तावेज है । मागदशक सू है ।
हर लेखक को वयं से पूछना चा हए - सा ह य कसके लए? वह कसके लए लख
रहा है? धनवान के मनोरं जन के लए या गर ब के मागदशन के लए? जो सा ह य

277
द न-दु खय का माग श त करता है, उनका मागदशन करता है, उ ह ो सा हत
करता है, वह ग तवाद सा ह य है । ऐसा सा ह य सोते को जगाता है और जागते
हु ए को काय म वृ त करता है । नराशा, उदासीनता, अकम यता व मान सक
पराधीनता के दूर करता है । ऊँच-नीच के, धम-स दाय के, पु ष -नार के भेद को
हटाता है । ऐसा सा ह य ह समाज को आगे बढ़ाता है । स दय से जानवर क तरह
चौबीस घंटे गुलामी, प र म और द र ता का जीवन जीने वाले करोड़ सामा य जन क
मु ि त का माग बनकर ग तवाद सा ह य सामने आया । राजाओं, नवाब , जमींदार ,
पूँजीप तय , सू दखारो तथा अ याचा रय ने ताकत के बल पर सामा य जनता को उनके
अ धकार से वं चत रखा । ग तवाद उन सभी क मु ि त का ननाद है ।
इस आंदोलन का भाव अ य भारतीय भाषाओं पर भी पड़ा । उदू म तर क पसंद
अदब का आरं भ 1936 ई. म हु आ । जोश जैसे क व ने उसे बल दान कया । तेलु गु
म ी ी जैसे क वय ने ां त क आवाज बुलंद क । हैदराबाद के स उदू क व
म दुम मो हयु ीन ने ां तकार क वताएँ लखीं । ह द म सु म ानंदन पंत ने 'युगांत '
तथा 'युगवाणी' व ' ा या' जैसी क वताएं लखकर इस आंदोलन का ी गणेश कया ।
नराला तो ां तकार क व थे ह । उ ह ने ' वधवा', ' भ ुक', 'कु करमु ता', जैसी
क वताएँ लखकर ग तवाद वचार का सार कया । क व दनकर ां त के समथक
थे । उ ह ने लखा -
वान को मलता दूध व , भू खे बालक अकुलाते ह,
माँ क ह डी से चपक, ठठु र, जाड़े क रात बताते ह ।
युवती के ल जा वसन बेच, जब याज चु काये जाते ह,
मा लक तब तेल फुलेल पर, पानी सा य बहाते ह । ( दनकर)
ग तवाद क वय लेखक म पंत, नराला, भगवती चरण वमा. दनकर, भवानी साद
म , शवमंगल संह सुमन , नगे , अंचल, केदारनाथ, मु ि त बोध, नागाजु न ग य
लेखक म यशपाल, अमृतराय , रांगेय राघव, अमृत लाल नगर, कमले वर, राजे यादव
आ द आते ह ।

17.5.2 प -प काएँ

ह द क प -प काओं ने भी ग तवाद वचारधारा के सार म पया त योगदान दया


। ' वशाल भारत' प का म शवदान संह चौहान ने - 'भारत म ग तशील सा ह य क
आव यकता नामक स लेख लखा । पंत जी क ' पाभ' प का ने भी इस े म
मह वपूण काय कया । ेमचंद वारा था पत 'हँ स', 'सा ह य-संदेश', 'आलोचना',
'नवयुग ' 'युगा तर' आ द प काओं ने इस े म योगदान दया ।

278
मा सवाद का राजनै तक प - सा यवाद (Commiunism) को दु नया के अनेक दे श
जैसे स, चीन, यूबा , पोलड, चेको ला वया आ द ने सा यवाद को अपनाया । भारत
जैसे जातां क दे श म सा यवाद को समाजवाद (Socialism) बनाकर वीकार कया
गया । मा सवाद चंतन से आधी से अ धक दु नया भा वत हु ई । जातां क व
पूँजीवाद दे श ..... म भी मजदूर , कसान व म हलाओं क ि थ त म सु धार हु आ ।
समानता व सामािजक याय का ावधान हु आ । इस कार काल मा स ऐसे महान
चंतक हु ए िजनके यावहा रक दशन ने सार व व-मानवता को भा वत कया ।
मा सवाद के न न ल खत स ांत कहे जा सकते ह -
1. वगह न, शोषण र हत, सम-समाज क थापना ।
2. पूँजीवाद व आ थक असमानता का नमू लन
3. जन-चेतना का नमाण
4. जन ां त वारा सा यवाद क थापना ।
मा सवाद अपने उ े य क पू त के लए हंसा या सश ां त क भी हमायत करता
है । य द गाँधीवाद व मा सवाद को मला दया जाए, तो नि चत ह एक अ छे व व
का नमाण हो सकता है । समाजवाद चंतन धारा को बढ़ावा दे ने के उ े य से लखे
गये ग तवाद सा ह य म न न वृि तयाँ दे खी जा सकती है ।

17.6 ग तवाद सा ह य क वृि तया


1) सम-समाज क थापना का य न िजसम सभी के लए सामािजक याय व
आ थक उ न त का ावधान हो ।
2) म-जी वय का उ थान व पूँजीवाद का वरोध
3) मानव क शि त व मता म अटू ट व वास
4) ई वर, धम, धमा धता, भा य आ द म अ व वास
5) नार के त यथाथवाद ि ट
6) अ तरा यता तथा व व मानव क एकता म व वास
7) ढ़य , अंध- व वास आ द का वरोध
8) साम यक सम याओं के त जाग कता
9) भौ तकवाद व तु वाद वै ा नक ि टकोण
10) शो षत के त सहानुभू त तथा वग संघष को बढ़ावा
11) सा ह य वारा लोक-मंगल क साधना
12) सरल सहज भाषा-शैल व अ भ यंजना तथा लोक सा ह य व लोक कलाओं को
ो साहन ।
ग तशील वचारधारा म मानवता क असीम शि त म आ था और ई वर क स ता के
त अना था क भावना भी पायी जाती है । मोि सम ोक ने अपनी पु तक
' लटरे चर ए ड लाइफ' (पृ ठ 6) म यह कहा है - 'मेरे वचार से मनु य से परे कोई

279
शि त नह ं है । मानव सब व तु ओं और वचार का टा है और कृ त के सम त
शि तय का वामी है । ह द के क वय ने भी मानवता को सव च थान दान
कया है और कह ं भु क स ता पर खीज भी कट क है-
'िजसे तु म कहते हो भगवान
जो बरसाता है जीवन म,
रोग शोक दुःख दै य अपार,
उसे सु नाने चले पुकार ?' (नरे )
मा स ने धम को 'अफ म' (Opium) माना जो मनु य को जड़ता म बाँध दे ता है ।
धम मनु य के मु त चंतन म बाधक होता है तथा अंध व वास को बढ़ावा दे कर,
शोषण का माग श त करता है । सारे धम ने नार को माया, डायन, स पणी,
सेडयूसर (Seducer) आ द मानकर उसे घूघ
ँ ट म, पद म, बुरके के पीछे धकेल कर
उसक मताओं को कं ु ठत कया । समाज म नार वतीय ेणी क नाग रक बना द
गई
धम के नाम पर इ तहास ने बड़े-बड़े धमयु दे खे ह । अत: ग तवाद क व धम को
अनाव यक मानकर मानवीय शि त म अपना व वास कट करते है-
'जागो पहचानो अपने को दे खो िजन अनु चत वैभव । ।' (नगे )
मनु य म अ तम बौ म-मान सक शि त अ त न हत है । वह अपने म वारा
वां छत प रवतन उपि थत कर सकता है । अपना जीवन तर सु धार सकता है ।
सन ् 1947 ई. म महापं डत राहु ल सांकृ यायन ने अ खल भारतीय ह द ग तशील
लेखक संघ के अ धवेशन म अ य ीय पद से बोलते हु ए, इसका व प प ट करते
हु ए कहा - ग तशील कोई ट या संक ण स दाय नह ं है ।

17.7 ग तवाद का य क मु ख वशेषताएँ


1. सा ा यवाद, साम तवाद, पूँजीवाद आ द के त व ोह
2. शो षत , द लत , पी ड़त व सवहारा के त सहानुभू त
3. सामािजक यथाथ का च ण
4. सा ह य वारा जन-जागरण का य न
5. शो षत एवं मजी वय के त सहानुभू त
6. अथह न मृत जजर ढ़य का वरोध वै ा नक ि ट का सार ।
7. साम यक सम याओं के त जाग कता ।
8. रा य भावना का सार तथा अ तरा य मानवतावाद का वकास ।
9. धा मक उ माद तथा संक णता का वरोध ।
10. 'सम-समाज' तथा नव-समाज के नमाण का य न । हंद के क वय म
ीबालकृ ण शमा नवीन, नरे शमा, दनकर, माखनलाल चतु वद , मु ि तबोध,

280
भारत भू षण अ वाल शमशेर बहादुर संह सव वर दयाल स सेना, नागाजु न,
लोचन शा ी आ द ऐसे ह क व है ।

17.8 ग तवाद और ग तशील


ग तवाद का काय है - ग त के रा ते खोलना, उसका पथ श त करना । ग तवाद
कलाकार क वतं ता का नह ,ं परत ता का श ु है । ग तवाद लेखक अपनी
सीमाओं का नधारण कर सकता है । उसक सीमा यह है क उसक कृ तयाँ ' तगामी
शि तय ' क सहायक न बने । ग तवाद कला क अवहे लना नह ं करता । यह तो
कला और उ च सा ह य के नमाण म बाधक ढ़य को हटाकर सु वधा दान करता
है । यह ढ़वाद और कू पम डू कता का वरोधी है ।"
ग तवाद ने सौदय वषयक मा यताएं भी बदल द । उसने माँ क अंगु लय म सौ दय
दे खा । ग तवाद ने बैठे ठाले मौज मनाते नि य सौ दय को खा रज कया ।
बे च क थम चंतक ह िज ह ने का य और कला के े म यथाथ का मह व
तपा दत कया । उ ह ने कहा - यथाथ धरती म उ ू त होता है और येक यथाथ
क धरती समाज है । बे च क ने यथाथ को इतना अ धक मह व दान कया क
सो वयत जनता को इससे ेरणा ा त हु ई, उसे साम तवाद सामािजक यव था से
मु त होने वाले संघष हे तु बल मला ।

17.9 ह द का ग तशील का य
ग तवाद एक वश ट वचारधारा से ब मान सकता है । मा सवाद चंतन तथा
क यु न ट वचारधारा इसका मूल आधार है ।
ग तवाद क व मा सवाद वचारधारा तथा समाजवाद चंतन से प रचा लत होता है ।
वह इसी वचारधारा के चार- सार हे तु सा ह य का इ तेमाल करता है । ऐसा करने म
कभी-कभी वचारधारा बल हो उठती है तथा सा ह य के त य ीण होने लगते ह ।
सा ह यकार मानवीय संवेदनाओं, भाव , वचार तथा सा ह य के अंत न हत सौ दय क
अनदे खी करने लगता है । वह वचारधारा के वाहक के प म सा ह य का इ तेमाल
करने लगता है । तब सा ह य सा य नह ,ं साधन मा बन जाता है । कभी-कभी तो
क व अ त र त उ साह के कारण सा हि यक त व क ह उपे ा करने लगता है ।
इससे सा ह य क गुणव ता न ट होने लगती है । ग तवाद कालब - वचारब सा ह य
है । वह ग तशीलता तो सा ह य का शा वत ल ण है । जो सा ह यकार तगामी
शि तय , मू ढ वचार , अंध व वास , अ याचार , अनाचार , शोषण तथा अ याय को
चु नौती दे ता है । वह ग तशील होता है । ग तशीलता कालब नह ं होती । वह तो
समाज को अंधकार से काश क ओर ले जाने वाल वृि त है । ग तशीलता यापक
होती है तथा जन सामा य से सीधे जु ड़ी होती है । उनके सु ख-दुःख के अ भ यि त
दान करती है । वह याय क प धर होती है । अ याचार शासक , धमाचाय
सामंत , राजाओं, नवाब , पू ज
ं ीप तय , सू दखोर आ द को चु नौती दे ती है । ऐसा सा ह य

281
वप का सा ह य होता है । ऐसे क व जन-क व होते ह । ेमचंद, नराला, नागाजु न,
लोचन, केदारनाथ अ वाल आ द ऐसे ह क व थे । इन क वय क क वता को
वैचा रक घेरे ने संक ण नह ं बनाया, युत एक यापक मानवीय धरातल दान कया
। ेमचंद, नगे , भगवतीचरण वमा, शव मंगल संह सु मन, अंचल, मु ि तबोध, रांगेय
राघव, राम वलास शमा, दु यंत कु मार, शवदान संह चौहान, अमृतलाल नागर आ द
ऐसे ह सा ह यकार रहे ।
व तु त: ग तवाद और ग तशील रचनाओं के बीच इतना सू म अंतर है क दोन को
अलग कर पाना क ठन है । ग तवाद अपनी समय सीमा म आब होकर समा त हो
गया, पर ग तशीलता तो कबीर और मीरा बाई से लेकर आज के क वय तक म दे खी
जा सकती है । आम आदमी चाहे वह गाँव का हो चाहे शहर का, उसक सम याओं के
साथ संवेदना मक धरातल पर जु ड़ना तथा उसके साथ खड़ा रहना ह ग तशीलता है ।
सो वयत स म मश: ग तशील सा ह य पर काफ वचार- वमश कया गया ।
ग तशील सा ह य ाचीन ब सं कार , सामंतवाद मान सकता, तथा समाज-
यव था का वरोध है । वह सवहारा वग क भावनाओं और आकां ाओं का
त न ध व करने वाले एवं वग वह न नवीन समाज, यव था का बल समथन है ।
ह द म ग तवाद सा ह यकार दो वचारधाराओं म वभ त है । एक वे जो मा स
क मा यताओं के लेकर र चत सा ह य को ग तवाद मानते ह (डी. राम वलास शमा)
तथा दूसरा वग मा सवाद वचार को भारतीय ि ट से समि वत दे खना चाहते ह । वे
मा सवाद सा ह य के भारतीयकरण के प पाती ह । अमृतराय ड़ा. रागेय राघव,
शवदान संह चौहान, पहले कार के सा ह यकार पाट क नी त से आब है, दूसरे
पाट से उ मु त ह । तथा भारतीय परं पराओं तथा जन-जीवन क मा यताओं से जु ड़े
ह।
दोन भी ऐसे समाज के नमाण के लए य नशील है जो शोषण मु त हो, वग-भेद
वह न हो, समाज को जजर करने वाल ढ़य से मु त ह ।
ड़ा. कृ ण लाल हंस ने 'मा सवाद वचारधारा से आब सा ह य को ' ग तवाद का य'
कहा । दूसर ओर 'उ वल भारतीय परं पराओं क र ा करते हु ए, भारतीय जन-जीवन
के उ थान म सहायक हो, उसे ग तशील का य कहा ।
अत: ' ग तशील का य' वह है जो रा ेम और उसके मा यम से अंतरा य भावना
य त करना हु आ, सामािजक प रवतन क आवाज बुल द कर । ' ग तवाद का य' का
मू ल वर ' ां त' है, िजसके मा यम से परमु खापे ी जजर समाज को एक उ नत और
ग तशील समाज के प म प रव तत कर द । एक संकु चत और दूसरा यापक एवं
उदार है ।

282
17.10 ग तशील क व और का य
( ग तशील क व : मु ि तबोध शमशेर, नागाजु न, केदार, लोचन)
ह द के पाँच ग तशील क वय ने जनवाद सा ह य क धारा को बल दया है तथा
सामािजक बदलाव क ि ट जन-जन से जु ड़कर वक सत क है । ये क व ह -
मु ि तबोध, शमशेर, नागाजु न, केदार और लोचन।
लोचन ने अपनी क वता का वषय जन सामा य का दद बनाया, उसे बसाया ।
"दद जो आया तो दल म उसे जगह दे द
आके बैठ गया, मु झसे उठा न गया ।"
दूसरे थान पर ि थ त क मा मकता य त करते हु ए लखते है । -
" या क ँ झोल अगर खाल क खाल ह रह
अपने ब क बात है, फेर लगा लेता हू ँ म ।
लोचन जन सामा य के बीच रहते ह, साथ
रहते ह, अपने को अलग नह ं समझते -
कभी पूछकर दे खो मु झसे
म कहा हू ँ
म तु हारे खेत म तु हारे साथ रहता हू ँ
म तु मसे, तु ह से बात कया करता हू ँ
और यह बात ह मेर क वता है ।"
लोचन क क वता म संघषशील जनता और सामा य जन ह के म है । सामा य
जन क याशीलता और उसक अद य शि त म लोचन का पूरा व वास था ।
"लड़ता हु आ समाज, नई आशा अ भलाषा,
नये च के साथ, नई दे ता हू ँ भाषा ।"
लोचन क यु न ट पाट के सद य नह ं रहे । फर भी उ ह ने पूँजीवाद के कारण
मानव मू य क गरावट पर ोभ कट कया -
"पूँजीवाद ने मह व न ट कर दया सबका
जीवन का, जन, समाज, कला का ।" (धरती से)
अथात ् क व जन जन सामा य के जीवन से पूण सा ा कार करता है । तभी वह अपनी
वाणी म ओज पैदा कर सकता है ।
ग तशील क व का य म चम कार, अलंका रता तथा कृ मता म व वास नह ं रखता ।
वह सरल श द म जो भी कहना चाहता है, उसे कह दे ता है ।
भाषा क सरलता व सहजता उस का य क स ेषणीयता बढ़ा दे ती है । ग तशील
का य क शि त उसक सरलता, सहजता व यं य है । पर दूसर ओर चारा मकता
उसक यूनता भी है ।

283
ह द सा ह य म भि त आंदोलन के बाद ग तशील सा ह या दोलन ह बड़ा यापक
तथा भावशाल आंदोलन रहा ।
ग तशील क व जीवन का य को अ भ न मानते ह । सवहारा वग को दै य मु त कर
उ ह समानता का अ धकार दलाना, उ ह आ थक, सामािजक शोषण से मु ि त दलाना
ह उनके का य का मू ल उ े य है । क व मु ि तबोध ने 'चाँद का मु ँह टे ढ़ा है' म लखा
है - "अपनी मु ि त के रा ते अकेले नह ं मलते ।"
क व केदारनाथ अ वाल ऋण के बोझ से दबे कसान क बात करते हु ए लखते ह -
"ब नया के पय का कजा
जो नह ं चु काने पर चुकता । ''
क व नागाजु न मजी वय क मु ि त क बात करते हु ए लखते ह
'कदम-कदम पर, इस माट पर
मु हा मु ि त क अि न-गंध
ठहरो ठहरो अपने नथन म भर लूँ
अपना जनम सकारथ कर लूँ ।" - (नागाजु न)
नार क दयनीय ि थ त को दे खते हु ए क व 'शील' लखते ह -
"आज भी तु म
दान द जाती हो क यादान म
यह नह ं दास व तो फर और या है
आज भी तु म बक रह बाजार म
यह नह ं दास व तो फर और या है ?" - (शील)
ग तशील क व शैले चौहान अपनी तेज तरार भाषा म लखते ह -
"असल बाजीगर तो वो तमाशा दखाते ह :
क लोग क जेब अपने आप खाल हो जाती है
एक पारा स यता का ज म होता है
िजसका स मोहन अब हम तोड़ना है ।'' - (शैले )
मानव जीवन क दा णता आ थक वषमता है । यह वषमता पूँजीवाद के शोषण के
नये-नये तर के ह । आज का उ मु त बाजार करण भी एक मु ख कारण है । आ थक
वषमता - दा र य, अ श ा, बीमार , बेरोजगार आ द आज क यव था के प रणाम है
। 'जो मेहनत करता है । वह भू खा मरता है । जो तकडमबाजी, टाचार और
चापलूसी करता है, जो बचौ लया है, वह संप न है ।
"जीवनभर म करता कोई, नह ं पेट भर खा पाना ।
और आलसी वग मजे म, अ धकार का नमाता । ।"
(अजेय ख डहर - रांगेय राघव)
क व शवमंगल संह सु मन - ' व वास बढ़ता ह गया म सामािजक वषमता को लेकर
लखते ह।'
284
"आज शो षत-शोषक म हो गया जग का वभाजन,
अि थय क नींद पर, अकड़ा खड़ा साद का तन । ।
धातु के कु छ ठ कर पर, मानवी सं ा वसजन,
मोल कंकड़-प थर के बक रहा है, मनुज जीवन ।"
मा स के अनुसार आ थक वषमता और सामािजक अ याय के कारण जन आ ोश
बढ़ता ह जाता है । ऐसे म ां त नमाण वयं होता है, शां त का भंग होता है ।
दनकर के श द म
"शां त नह ं तब तक, जब तक
नर भाग न सबका सम हो
नह ं कसी को बहु त अ धक हो.
नह ं कसी को कम हो ।"
आ थक वषमता ह असंतोष व अशां त का कारण है । जब शासन यव था इसे दे ने
म असमथ होती है । तब जनता इसे छ न कर लेती है । इसी को ां त कहते ह ।
नागाजु न के श द म - 'म जग जीवन म जब होऊँगा ल न तभी म जन-जन म
गाऊँगा गीत ।'

17.11 ग तशील का य क भाषा


का य भाषा सदै व वषय का अनुगमन करती है । छायावाद का य क भाषा वषय के
अनु प ह अलंकारमयी व या मक, सं कृ त न ठ, ला णक रह । क वता म अनेक
ब ब - तीक का योग कया गया । ऐि क बोध जगाने वाले ब ब , वण ,
व नय आ द का योग कया गया । क पना के सौ दय के अनु प कणमधु र
कोमलकांत पदावल का योग कया गया ।
इसके वपर त ग तवाद का य भाषा यथाथ को य त करने के कारण सीधी, सपाट,
अनलंकृ त, सामा य बोलचाल क भाषा रह ।
इन क व का उ े य न सौ दय ' न पण करना था न ब ब - तीक वारा क पना
के च उ प न करना । इसी कारण इन क वय ने सहज स ेषणीय भाषा को चु ना ।
गती शील क व सं कृ त न ठ भाषा के बदले उदू म त, ह दु तानी या सहज भाषा
का योग करता है । उसम दु हता नह ं होती, इसे हम जन-जन क भाषा कह सकते
ह ।

17.12 सारांश
ग तशील क वता का आधार है ग तवाद वचारधारा । ह द के ग य-प य सा ह य
म इसका समान प से वकास हु आ ।
ग तवाद का अथ है - आगे बढ़ने वाला सा ह य । वह सा ह य जो समाज को ढ़य ,
अंध व वास आ द से मु त कर वै ा नक वचारधारा क ओर ले जाए ।
ग तवाद का दाश नक आधार मा सवाद है । मा स ने सम-समाज का व न दे खा ।

285
ग तवाद शोषण, अ याय अ याचार, सामािजक भेदभाव आ द का वरोध करता है ।
ग तशील क वय ने जीवन से जु ड़कर सा ह य क रचना क ।

17.13 अ यासाथ न
(1) आधु नक ह द क वता म ग तवाद से या ता पय है? ग तवाद क वता क
सा हि यक पृ ठभू म पर काश डा लए ।
(2) ग तवाद क वैचा रक वशेषताएँ उ घा टत क िजए ।
(3) ग तवाद के मु ख क वय क का यगत वशेषताओं का सारग भत प रचय द िजए।
(4) ग तवाद पूववत छायावाद के का य के भाव तथा श प प से कस कार
भ न है ।

17.14 संदभ ंथ
1. कृ ण कमल हंस - ग तवाद का य का सा ह य, ह द ं , म य दे श

2. हंसराज रहबर - ग तवाद पुनमू यांकन, कताब महल, इलाहबाद
3. रे खा अव थी - ग तवाद और समा तर सा ह य, द मैक मलन कंपनी ऑफ
इि डया ल., नई द ल . 1978
4. ड़ा. राम वलास शमा - ग तशील सा ह य क सम याएँ, वनोद पु तक मं दर,
आगरा, 1954
5. ड़ा. राम वलास शमा - ग त और परं परा, कताब महल, इलाहबाद, थम
सं करण, 1949

286
इकाई-18: ोयोगवाद और नयी क वता
इकाई क परे खा
18.0 उ े य
18.1 तावना
18.2 योगवाद
18.2.1 योगवाद क पृ ठभू म
18.2.2 योग और योगवाद
18.2.3 योगवाद क सीमा-रे खा, अथ व व प
18.3 योगवाद क वृि तयाँ (संवेदना श प)
18.3.1 अनूभू त प
18.3.2 अ भ यंजना प
18.4 नयी क वता
18.4.1 नयी क वता क पृ ठभू म
18.4.2 नयी क वता सीमा रे खा, अथ व व प
18.5 नयी क वता क वृि तयाँ (संवेदना व श प)
18.5.1 अनुभू त प
18.5.2 अ भ यंजना प
18.6 योग और नयी क वता का संबध

18.7 सारांश
18.8 अ यासाथ न
18.9 संदभ थ

18.0 उ े य
इस इकाई के अ ययन बाद आप :
 छायावादो तर वक सत योगवाद का य क ि थ त से प र चत हो सकगे।
 योगवाद व नयी क वता का यधाराओं क पृ ठभू म व मूल चेतना को समझ
सकगे।
 इन दोन का यधाराओं क वृि तय (संवेदना व श प) से अवगत हो सकगे और
इस न कष को दयंगम कर सकगे क योगवाद व नयी क वता पूववत क वता
से भ न है और का यधारा कोई भी हो, वह अपने समय, समाज और प रवेश से
कटकर नह ं लखी जा सकती है।
 योगवाद व नयी क वता के व प और उसके वकास से प र चत हो सकगे।
 नयी क वता और योगवाद के स ब ध से अवगत हो सकगे।

287
18.1 तावना
यह स य है क छायावा दय का व न स य के ताप से झु लसने लगा और धीरे -धीरे
भीतर ह जनमानस म एक सु गबुगाहट हु ई। जीवन चेतना ने करवट ल । एक नया
मानवतावाद ज मा, जीवन यथाथ क ठोस धरती पर आ खड़ा हु आ और इसे
अ भ यि त दे ने वाला का य ग तवाद कहलाया। ग तवाद ने वग-भेद क खाई को
पाटने का काम तो कया ह , मनु य को सामािजक और राजनै तक भू मका भी दान
क । धीरे -धीरे योगवाद वै च य- दशन बौ कता, स यानुभू तय क क ची लखावट
और श पा ह क क वता तीत होने लगा। उसम न तो यापक जीवन के च . ह, न
व तृत फलक पर तु त कये गये वे जीवन-संदभ ह। असल म योगवाद योग का
आर भ था, चरम प रण त नह ं। अत: जब ये योग संतु लत हु ए और बाढ़ का पानी
उतरा तो क वता म संतु लन भी आया और प र कार भी। वह राग-संवेदन क भू मका
पर जीवन से गहरे जु ड़ती चल गयी। जब ऐसा हु आ तब उसे ह नयी क वता का नाम
दया गया।
आधु नक क वता के इ तहास म जो-जो का यधाराएँ समय क कोख से ज मी है,
वक सत हु ई है उनम सबसे अ धक मान नयी क वता को मला और उससे कु छ ह
कम छायावाद को। छायावाद को कु छ कम इस लए क क पना क भावना म अ धक
समय तक नह ं भटका जा सकता है। हम उससे नकलकर यथाथ क ठोस धरती पर
आना ह होता है। नयी क वता हम इसी जमीन पर ले आई है। फर ठोस जमीन पर
न तो फसलने का भय रहता है और न नीचे धँसने का। अत: वहाँ अपे ाकृ त अ धक
दे र तक खड़ा रहा जा सकता है। वैसे नयी क वता क तुलना म ग तवाद, योगवाद
व हालावाद का भाव नग य रहा ह। ग तवाद समोजो मुखी होते हु ए भी वग संघष व
मा स य स ा त से संयु त रहा है तो योगवाद वै च यवाद से तथा हालावाद के
क व म ती, हाला, ेम गृं ार म गोते खाते हु ए नजर आए,। न चय ह हम एक
यापक धरातल या आधार चा हए था िजस पर टक कर हम यथाथ जीवन को दे ख
सक, भोग सके तथा उसे अ भ यि त कर सके। यह धरातल नई क वता ने दान
कया है और आज भी वह धरातल अपने अनेक वक सत प म (अक वता,
साठो तर , समकाल न व आज क क वता) व यमान है।

18.2 योगवाद
18.2.1 योगवाद क पृ ठभू म

सा ह य म ोयोगवाद क वृि त के उदय के मूल म या प रि थ तयाँ रह है इसक


जानकार आव यक है। ग तवाद का आंदोलन रा य वाधीनता के संघष से घ न ठ
प म जु ड़ा हु आ था, ले कन जब आजाद हा सल हो गई तो म यवग के स मु ख कोई
ऐसा आदश नह ं रहा जो उ ह कसी बा य सामािजक आदश से जोड़ पाता। दे श के नव

288
नमाण ने उनम नवीन आकां ाओं को जगाया। सामू हकता क भावना के श थल पड़
जाने के साथ यि तवाद ने जोर पकड़ना शु कया। दूसर ओर व व पैमाने पर
अमर का के नैत व म सा यवाद श वर और सो वयत संघ के नैत व म
समाजवाद श वर के बीच बढते तनावने भी लेखक व बु जी वय के एक बडे ह से
को भा वत कया। वतीय व व यु के बाद सा ा यवाद दे श ने क यु न ट दे श
और मा सवाद वचारधारा के व चार कया। इन चार ने लेखक व बु जी वय
को भा वत कया। इस बात को मु खता द जाने लगी क यि त क वतं ता ह
सव तम मू य है। सा यवाद यि त क वतं ता का अपहरण करता है। समाजवाद
दे श म यि त को कोई वतं ता ा त नह ं है। वहाँ लोकतं व मानव मू य सु र त
नह ं है। योगवाद के उदय म इन प रि थ तय ने भी अपनी भू मका नभाई है। इसी
तरह ग तवाद आंदोलन म जीवन के यापक अनुभव के बजाय कु छ खास तरह के
जीवन यथाथ क अ भ यि त पर बल दया जाने लगा। कला मक े ठता के बजाय
चार को अ धक य दया गया। इस ि थ त ने नये क वय -लेखक म असंतोष
उ प न कया। उ ह ने नये माग क तलाश आर भ क । योगवाद इसी नये सोच का
वाहक बनकर व तत हु आ।

18.2.2 योग और योगवाद

‘ योगवाद’श द के संयोग का प रणाम है: योग और वाद। इसम पहला श द ' योग
व ान से स बि धत है तो दूसरा ‘वाद’ स ा त अथवा मता ह के घेरे से। योग का
अथ है कसी व तु क पूवमा य कृ त का पुन ान ा त करना। योग का उ े य
स या वेषण और उससे पाये स य का हण है। इस आधार पर योग एक या है,
कोई उ े य नह ं है। व तु त: योग जीवन को यथाथ के पा व से दे खने क ेरणा
दान करता है। युग करवट लेता है तो अनेक पुरानी पर पराएँ और मा यताएँ उसक
करवट तले चूर हो जाती ह और कु छ नयी मा यताएँ उभरने लगती ह। कभी कभी ऐसा
भी हो जाता है क नये उभरते मान-मू य के वाहक पुरान को योग क तु ला पर
तौलते ह। इस पर ण म य द वे खरे उतरते ह तो कं चत प रवतन के साथ वीकार
कर लये जाते ह, क तु जब ऐसा नह ं होता तब नयी मयादाएँ नयी संभावनाओं के
वार खटखटाती ह। यह वह भू म है जहाँ से योग क या ार भ होती है।
योग क यह या येक काल म व यमान रहती है।
योग येक काल म होते ह और होते रहगे, क तु योगवा दय ने योग को हण
करते हु ए यह आ ह भी कया है क उनके योग सवथा नवीन ह तथा क वता के
अ तगत वष से चल आ रह जड़ता और नयम क शृंखला को झटके से तोड़ते ह।
ह द क वता म योगवाद उ त नयम और उनसे बनी भू मका पर ह वक सत हु आ
है। नवीनता और अपनी पहचान अलग से कराने का मोह ह योगवाद के मू ल म
दखाई दे ता है। अत: योगवाद श द उन क वताओं का ढ़-संकेतक बनकर आया है
िजनम नया भावबोध व नयी संवेदनाएँ और इनक अ भ यंजना के लए यु त नया

289
शैि पक चम कार है। अ ेय वारा स पा दत ‘तारस तक’ ह द क वता म योगवाद को
लेकर आया।
तारस तक के पूव के क वय म य द कसी को नयी क वता के पूव प योगवाद के
नकट माना जा सकता है तो वे नराला ह हो सकते ह, क तु नयी क वता क
योगशील वृि त का यवि थत प तो तारस तक से ह मानना होगा। कारण,
तारस तक के सात क वय का सारा यान श पगत योग और नयी संवेदनाओं के
काशन क ओर था। इसके सभी क व श प के त आ ह रहे ह। योग के त
आकषण और त नु प नये माग का अ वेषण सभी योगवाद क वय का ल य रहा
है। इस स ब ध म अ ेय ने अपना मत तु त करते हु ए लखा है क '' योग का
कोई वाद नह ं होता। योग अपने आप म इ ट नह ं है। वह साधन है, दोहरा साधन है
य क एक तो वह उस स य को जानने का साधन है िजसे क व े रत करता है, दूसरे
वह उस ेषण क या को और उसके साधनो को जानने का साधन है। योगवाद
क व कसी कू ल के नह ं ह। अभी राह ह, राह भी नह ,ं वरन ् राह के अ वेषी ह।
''इस कार योगवाद श द ढ़ हो गया और धारणा यह बनी क योगवाद का आरंभ
‘तार स तक से हु आ। सन ् 1947 म अ ेय के संपादन म '‘ तीक’नामक सा हि यक
प का का काशन आरं भ हु आ तथा इस प का म का शत होने वाल क वताओं को
योगवाद कहा जाने लगा। इसके बाद से लगातार योगवाद क चचा होती रह
य य प अ ेय ने दूसरा स तक (1953) क भू मका म योग के वाद से इ कार
कया, इसके बावजू द यह श द ढ़ हो गया। इस कार यह मत भी रखा गया है क
योगवाद का आरं भ'‘तार स तक ‘(1943) से नह ं बि क “ तीक” (1947) के काशन
से माना जा सकता है, प ट है क योगवाद एक ऐसी सा हि यक धारा को दया गया
नाम है िजसने था पत मा यताओं को पुनपर त करके नये योग कये। व तु त:
नये योग के मा यम से योगवाद सा ह य म ां त लेकर आयी नयी का यधारा थी।

18.2.3 योगवाद क सीमा-रे खा, अथ व व प

योगवाद क सीमा-रे खा को सन ् 1943 से 1953 तक वीकार कया जा सकता है।


सन ् 1943 म का शत तारस तक, 1953 म का शत दूसरा स तक योगवाद के
मु ख सं ह ह। तारस तक म मु ि तबोध, ने मच , भारत भू षण अ वाल, भाकर
माचवे, ग रजाकु मार माथुर , राम वलास शमा और अ ेय क क वताओं को थान ा त
है तो दूसरा स तक म भवानी साद म , शकु त माथुर , ह रनारायण यास, शमशेर
बहादुर संह, नरे श मेहता, रघुवीर सहाय और भारती क क वताओं को थान मला है।
इन दोन स तक के अ त र त तीक और पाटल जैसी प काओं ने भी योगवाद को
काफ बढ़ावा दया। नकेन (नरे श, केसर कु मार और न लन वलोचन) के प यवाद के
व 10 सू ी काय म से भी योगवाद को बल मला।

290
योगवाद के अथ नधारण का यास अनेक समी क ने कया है। क तपय ऐसी मु ख
मा यताएँ यहाँ उ घ ह िजनसे योगवाद और उसके अथ को समझने म सहायता मल
सकती है। इस म म पहला मत ल मीका त वमा का है। उ ह ने लखा है क
' योगवाद ात से अ ात क ओर बढ़ने क बौ क जाग कता है। यह जाग कता
यि त-स य और यापक स य के तर पर यि त क अनुभू त क साथकता को भी
मह वपूण मानती है। योगवाद यि त-अनुभू त क शि त को मानते हु ए समि ट क
स पूणता तक पहु ँ चने का यास है। योगवाद एक ओर यि ट अनुभू त को समि ट
अनुभू त तक उ सग करने का यास है तो दूसर ओर वह ढ़ का वरोधी और
अ वेषण का समथक भी है। ''उधर डॉ. धमवीर भारती का वचार है क ' योगवाद
क वता म भावना है, क तु हर भावना के आगे एक न च न लगा हु आ है। इसी
न च न को आप बौ कता कह सकते ह। '' ी ग रजाकु मार माथु र ने योगवाद के
स ब ध म लखा है क '' योग का ल य है यापक सामािजक स य के ख ड
अनुभव का साधारणीकरण करने म क वता को नवानुकू ल मा यम दे ना िजसम यि त
वारा इस यापक स य का सवबोधग य ेषण स भव हो सके। इस स ब ध म डॉ.
दे वराज ने लखा है क “पुरानी क वता ढ़ त और अरोचक हो उठ थी, दूसरे का य
भाषा को जनभाषा के नकट लाना था अथवा का यगत नब अनुभू त को जनजीवन
के स पक म लाना था, अत: बदलते हु ए जीवन क नयी संभावनाओं के उ घाटन के
लए अथवा नये मू य क त ठा व नवीन योग करने के लए योगवाद का ज म
हु आ। ”
योगवाद को अ ेय योगशील कहना अ धक साथक मानते ह, और कहते है क
योगवाद क व कसी कू ल के नह ं ह अभी राह भी नह ं वरन ् राह के अ वेषी है।
शील और याद के अ तर क बात ग तवाद के संदभ म ववे चत क जा चु क है।
अत: उसक आव तत यह ं नरथक है। योगवाद के मु ख क वय म तारस तक के
सभी क वय को लया जा सकता है। य य प इन सात म कु छ ऐसे भी ह जो
ग तवाद के साथ भी जु ड़े हु ए ह। ऐसे क वय म राम वलास शमा, ने मच जैन
आद मु ख ह। हाँ, ये सभी क व ाय: लवग के ह ह िज ह ने अपने म यवग य
समाज के यि त के स य को े षत कया है। ऐसी ि थ त म यह कहना अ धक
उ चत तीत होता है क इस धारा के क वय म हांसो मु ख म यवग य समाज के
जीवन का च तु त करने क वृि त ह अ धक प ट रह है। युगीन संदभ,
था पत मा यताओं क जकड़. व ान वारा द त बौ कता, वैयि तकता के त
आ ह, यि त व का वघटन, जीवन क व वध ज टलताएँ, जीवन- यापी नराशा और
पराजय से उ प न अतृि तयाँ , व व के रं गमंच पर पल-पल घ टत होने वाले राजनै तक
और सां कृ तक प रवतन, छायावाद क धू मल अ भ यि त तथा ग तवाद क
राजनै तक मतवा दता व मा स य ि ट के कारण नये क उपलि ध के यास म
योगवाद का वकास हु आ। यह कारण है क इस धारा के क वय ने अपनी क वताओं

291
के वारा वह सब कु छ कहने का यास कया है जो इ ह ने भोगा और अनुभव कया
है। जीवन के कटु से कटु तम और भयंकर से भयंकरतम व यथाथ से अ तयथाथ तक
भोगे हु ए ण का अंकन योगवाद म मलता है।

18.3 योगवाद क वृि तयाँ (संवेदना व श प)


‘ योगवाद के अथ, व प, और मह व व ेरक त व के इस न पण म उसक
क तपय वशेषताएँ भी वत: ह आ गयी ह, फर भी कु छ अ य वशेषताएँ भी ऐसी ह
जो अलग से ववेचन क अपे ा रखती ह। उ ह ं का सं त ववेचन आगे कया जा
रहा है।

18.3.1 अनुभू त प

1. यि तवाद
1. वैयि तकता छायावाद म भी थी, क तु योगवाद म यह चरम सीमा पर है और
इसका कारण व श ट करण क या है। छायावा दय क वैयि तकता िजतनी
रं गीन, वि नल और मनोहर भावुकता से रं िजत थी, वह ं योगवा दय पर यह
आरोप है क उनक वैयि तकता एकदम शु क, प डंठल वह न और नंगी है। उसम
भदे सपन हैव शाल न रमणीयता नह ं। योगवाद क वता म द मत वासना क
अ धक अ भ यि त है।
योगवाद क वय ने यि त के एकांत मह व पर वशेष बल दया है। 'नद के
वीप’ क वता म अ ेय ने यि त और समाज के संबध
ं पर वचार कया है।
उसके अनुसार यि त द प के समान है जो काल पी नद के बीच ढ़ता से
अवि थत रहता है जो समाज पी भू खंड क तरह नद को गंदला नह ं करता।
'नद के वीप’क वता म यि त और समाज अलग-अलग है। उनक अ य कई
क वताओं म भी यि त के वतं अि त व पर बल दया गया है।
यि त क वतं ता के त यह आ ह म यवग क मान सकता क अ भ यि त
है जो वैयि तक असंतोष से उपजी है। छायावाद म भी म यवग का ह यि त
के म था। पर तु वह उसक चेतना उ वमु खी थी, वह आ म- वकास क ओर
अ सर थी, उसक यि त चेतना सामंती ढ़य और बंधन से मु त होना चाहती
थी। ग तवाद ने इस म य वग के यि त को समाज से और सामू हक चेतना से
जोड़ा। इसके कारण म यवग के यि त म यि तवा दता का उदय नह ं हु आ।
परं तु योगवाद दौर म म यवग का असंतोष सामािजक धरातल पर य त होने
क बजाय वैयि तक धरातल पर य त हु आ। समाज म कटा हु आ यि त केवल
दद को य त करने लगा। आशा और व वास क जगह नराशा और अना था ने
ले ल । इस कार योगवाद क वता म यि त क भावनाएँ ह मु ख होती चल
गयीं।

292
2. स य के लए नरं तर अ वेषण
डॉ. नामवर ने 'स य के लए नरं तर अ वेषण को’ योगवाद क दूसर वशेषता
माना है। जब एक बार योगवाद क व ने पर परावाद वचारधारा से अपने को
अलग कर लया तब स य को जानने के नरं तर अ वेषण आव यक हो गऐ। अ ेय
ने 'दूसरा स तक क भू मका म कहा था, योग दोहरा साधन है, य क एक तो
वह स य को जानने का साधन ह िजसे क व े षत करता है उसके साधन को
जानने का भी साधन ह अथात ् योग वारा क व अपने स य को अ धक अ छ
तरह जान सकता है और अ धक अ छ तरह अ भ य त कर सकता है।
योगशीलता क पहचान इसी वृि त म अंत न हत है।
3. यथाथ- ि ट
योगवाद ने योगा तशयता के कारण व य वषय व न ष क के वाता- संग
को भी यथाथवाद के नाम पर अ भ य त कया। इसी अ तयथाथवाद वृि त के
कारण पंत ने लखा है क “ योगवाद क नझ रणी कल-कल छल-छल करती हु ई
फायडवाद से भा वत होकर वि नल फे नल वर संगीतह न भावनाओं क लह रय
से मु ख रत उपचेतन-अवचेतन क - ु ं थय को मु त करती हु ई, द मत
कं ु ठत वासनाओं को वाणी दे ती हु ई लोक-चेतना के ोत म नद के वीप क
तरह कट होकर अपने पृथक अि त व पर अड़ गयी है।''
जीवन के यथाथ को रं गीन मोहक और भावमय प म तु त करने क बजाए
योगवाद ने सहज और साधारण प से तु त कया। य य प योगवाद क व क
जीवानुभू त बहु त सी मत थी पर तु यह सी मत अनुभव यथाथपरक प से ह
य त हु आ है।
4. वचारधारा से मु ि त
योगवाद क वय का मानना था क कोई भी भेद, वाद या वचारधारा मनु य को
स य तक नह ं पहु ँ चा सकती है। राजनी तक प धरता को वे आव यक मानते ह।
अ ेय के अनुसार 'हमारा ज म लेना ह प धर होना है। जीवन संघष म वह
कसी बा य स य, कसी वै ा नक दशन क उपयो गता को वीकार नह ं करते है।
उनका न ह क िजस वचार दशन के सहारे हम जीवन पथ पर चलने का
नणय करते है वह कब तक हम सहारा दे गा। उसका कतना भरोसा कया जा
सकता है।
यह जो दया लये तु म-चले खोजने स य,
या बंध कर चले
क िजस बाती का तु ह भरोसा
अकि पत, उ वल एक प नधू म
5. बौ कता

293
जीवन क ज टलताओं को भोगने के कारण ाय: सभी योगवा दय ने बौ कता
का वरण कया है। इनक बौ कता राग- े रत नह ं है। उसम बौ क चम कार का
अंश इतना अ धक है क यह अनुभव ह नह होता क क वता का स ब ध राग
से भी हो सकता है। यह ठ क है क युग बदल रहा था और बदलते युग म बु
का भाव बढ़ रहा था, क तु वह इतना नह ं था क क वता क वता न रहकर
बौ क यायाम हो जाय तथा उसका प ह कु प हो जाय।
6. नार च ण व ेम
योगवाद म नार च ण व ेम का अलग अंदाज है। छायावाद ओर योगवाद
क वता म नार - च ण क तु लना करते हु ए डा. नामवर संह ने लखा है क
''छायावाद क व ाय: कृ त क मोहक पृ ठभू म म अथवा सु ंदर ाकृ तक तीक
के मा यम से नार क छाया तमा न मत करते रहे , ले कन योगवाद क व ने
यहाँ भी अ सरामयी नार को वग ि थत ग रमामय पद से उबारते हु ए सामा य
भाव-भू म पर ति ठत कर दया। योगवाद म ेम क अ भ यि त योगवाद के
धरातल पर हु ई है। यह अव य है क योगवाद क वताओं म ेम भावुकतापूण
और लजिजले प म य त नह ं हु आ है बि क बौ क धरातल पर य त हु आ
है। उदाहरण के लए “ह र घास पर ण भर” क वता म अ ेय ेमा भ यि त
करते हु ए सामािजक वा त वकता को नह ं भू लते। ेम क भावना का भी एक
आयाम यह है क यि त ेम म डू बकर सु धबुध खोने क बजाय वह समाज के
त उदा त ओर जीवन के त अ धक संघषशील बने। ग रजाकुमार माथु र क
“तैतीसवीं वषगाँठ” म यह ं भावना य त हु ई है।
7. कृ त च ण
योगवाद क वय ने कृ त- च ण म भी यथाथ- ि ट का प रचय दया है। क व
कृ त क सू म ग त व धय के उसके प, रस, पश, गंध और वर के अनुभव
को श दब करने क को शश करते है। अ ेय, शमशेर, ग रजाकुमार माथुर आ द
क क वताओं म हम कृ त के वभ न प दे ख सकते ह। उदाहरणाथ:-शमशेर
बहादुर संह क उषा क वता का श द च दे खए:-
ात : नभ था बहु त नीला शंख जैसे
भोरे का नभ
राख से ल पा हु आ चौक अभी गीला पड़ा है।
बहु त काल सल जरा से लाल केसर से क जैसे धु ल गयी हो
सलेट पर या लाल ख ड़या चाक
मल द हो कसी ने
नील जल म यो कसी क
गौर हल रह हो।
और

294
जादू टू टता है इस उषा का अब
सू य दय हो रहा है।

18.3.2 अ भ यंजना प

का य भाषा
योगवाद का य क भाषा सवथा भ न है। छायावाद क वता क भाषा म कोमलता
और सु कु मार के गुण थे तो ग तवाद क वता म पहल बार क वता क भाषा को बोल-
चाल के नकट लाने क को शश क गयी। योगवाद म श द योग क ओर यान
दया गया। डॉ. नामवर संह के अनुसार य य प योगवाद क वय क भाषा म आरं भ
म दु हता और अनगढपन अ धक था परं तु बाद म भाषा अ धक सहज और सरल बनी।
भाषा म गेयता और अलंका रता कम हु ई। अ ेय क भाषा आरंभ म दु ह और बौ क
अ धक थी, बाद म भाषा बोलचाल के नजद क आई। ग रजाकुमार माथु र क भाषा म
गेयता त व अ धक रहा है।
शमशेर के श द योग य य प सरल है परं तु अथ क ि ट से अ धक गहन है। वे
सफ श द तक ह अपनी क वता के अथ को नह ं बाँधते बि क उससे आगे के श द
के बीच के मौन अंतराल म का याथ छपा होता है।
छं द और लय
क वता पहले छं द से मु त हु ई, फर तु क से, फर श द क लय से। अ ेय ने का य
को 'च ल’माना है। उनके अनुसार व न, छं द, लय आ द सभी न श द म से
नकलते और श द म ह वलय होते ह। अ ेय क वता म कसी-न- कसी प म गेय
त व के आव यक मानते ह।
डॉ नामवर संह ने लखा है क 'छायावाद युग म जो मु त छं द वैकि पक था, वह
योगवाद क वता का मु य वर हो गया। मु त छं द को ह वशेष प से अपनाने के
कारण योगवा दय ने इसम नये-नये वर और नयी लय के योग कये।
तीक
अ ेय का य म तीक का मह वपूण थान मानते ह। उनके अनुसार 'कोई भी व थ
का य सा ह य नये तीक क सृि ट करता है और जब वैसा करना बंद कर दे ता है
तब जड़ हो जाता है-या जब जड़ हो जाता है तब वैसा करना बंद करके पुराने तीक
पर ह नभर करने लगता है। ''अत: अ ेय तीक को स या वेषण का साधन मानते
ह। उनक च चत क वता सोन-मछल इसका े ठ उदाहरण है।
''हम नहारते प
काँच के पीछे हाँफ रह मछल ।
प-त षा भी
(और काँच के पीछे ) है िजजी वषा।''
योगवाद क वता म तीक ''ला णक व ता” से आगे बढ़कर सांके तक अथ क
अ भ यि त म सहायक होते ह। अ ेय के यहाँ ाकृ तक तीक का अ धक योग है।
295
भारत भू षण अ वाल और ग रजाकु मार माथु र के का य म ाय: परं परागत तीक का
ह योग हु आ है।
शमशेर के तीक अ धक दु ह है जब क मु ि तबोध म मथक य, ाकृ तक और
आधु नक जीवन से लए गए व भ न तरह के तीक का योग मलता है।
का य ब ब का संबध
ं भाषा क सजना मक शि त से है तथा इसका नमाण मनु य के
ऐि य बोध का ह तफल है। श द और वचार के अमूत संकेत के मा यम से एक
मू त च न मत ि ट से अ य त समृ होता है। अ ेय के यहाँ ाकृ तक ब ब
अ धक है। सामािजक जीवन से लए गये बंब कम है। मु ि तबोध के यहाँ मानव-
ि थ तय से जु ड़े बंब अ धक है।
अ ेय क अपे ा शमशेर के यहाँ स दय बंब का प अ धक संि ल ट और सू म है।
उ ह ने कई क वताओं म कृ त के बंब को अपनी भावनाओं के साथ इस तरह गूँथा
है क वह केवल व तु का चा ुष बंब न होकर क व का मान सक त बंब बन जाता
है।

18.4 नयी क वता


18.4.1 नयी क वता क पृ ठभू म

नयी क वता पर वतीय व वयु के बाद क अंतरा य प रि थ तय और वतं ता


ाि त के बाद क रा य प रि थ तय का भाव था। इस दौर म पि चम म
अि तत वाद जैसे नये दशन क लोक यता बढ़ । आधु नकतावाद क भी यापक चचा
होने लगी। नये क वता के रचनाकार पर इन दोन वचारधाराओं का भाव पड़ा। यु
क वभी षका ने यूरोप के जन-जीवन को पूर तरह झकझोर दया। मृ यु और वनाश
का भय जीवन क वा त वकता बन गया इसके कारण लोग भोगवाद क ओर भी
वृ त हु ए। व व बाजार क होड़ और यु क जघ यता के बीच यि त को यह
लगने लगा क स य केवल मृ यु है शेष सब कु छ म या है। आ था, मू य, समाज,
आदश व भ व य सब म या है। अि त ववाद के उपयु त सोच का असर नयी क वता
के रचनाकार पर दखाई दे ता है। आधु नकतावाद का संबध
ं म पूँजीवाद वकास के साथ
उभरे नये मू य एवं नयी जीवन-प त को आधु नकतावाद क सं ा द जा सकती है।
आधु नकता ने जहाँ एक ओर वतं ता, समानता और बंधु व जैसे मानव मू य दए,
वह ं दूसर और औ यो गक स यता और मशीनीकरण ने कई नयी सम याएँ भी
उ प न कर द । मशीन के सामने यि त अपने को न पाय समझने लगा। शहर करण
और भीड़ भाड़ ने मनु य को अकेला कर दया। उपयु त प रि थ तय और सोच ने
नयी क वता क वषय व तु को नधा रत करने म अहम भू मका नभाई।
नयी क वता पर मा सवाद का भी भाव रहा है। नयी क वता म व तु त: दो तरह क
धारा रह है। एक धारा जो अि त ववाद-आधु नकता से भा वत थी, दूसर धारा जो
मा सवाद से भा वत थी। कई नई क व ऐसे भी थे िज ह ने प ट प से कोई प
हण नह ं कया।
296
18.4.2 नयी क वता सीमा-रे खा, अथ व व प

नयी क वता का आरंभ कब से हु आ, इसके बारे म वयं नयी क वता के क व भी


आपस म सहमत नह ं है। कु छ आलोचक योगवाद और नयी क वता को अलग-अलग
का यधारा मानते है, जब क कु छ के अनुसार योगवाद का ह वकास नयी क वता के
प म हु आ। दूसरा स तक (1951) के काशन से नयी क वता क चचा आरंभ हु ई
और कई क व-आलोचक 'दूसरा स तक’को नयी क वता का थान बंद ु मानते ह
जब क डॉ. राम वलास शमा नयी क वता क शु आत ''नयी क वता'‘नामक प का के
काशन से मानते है, िजसके थम अंक का काशन सन ् 1954 म हु आ था।
ग रजाकुमार माथुर योगवाद और नयी क वता को अलग-अलग कृ म वग म दे खना
असंगत मानते है। अनके अनुसार योगवाद और नयी क वता आधु नकता क भ न
टे ज है। तीसरा स तक (1959) क भू मका म अ ेय योगवाद या योगशीलता
श द क अपे ा नयी क वता श द का योग करना अ धक उ चत समझते है।
नयी क वता के लए प रभाषा का न ज टल है। कु छ गहराई से वचार कर तो यह
कहा जा सकता है क कोई भी प रभाषा अपनी सी मत और संक ण प र ध से घर
होने के कारण पूणता को ा त नह ं कर सकती है और न उन सभी त व को सम ता
से य त कर सकती है जो कसी भी का यधारा म समा हत होते ह। हाँ, प रभाषा से
एक लाभ अव य हो सकता है क अनेक प रभाषाओं के तु त होने पर त स ब धी
अनेक मू यवान त य सामने आ सकते ह। नयी क वता के स ब ध म भी अनेक
व वान ने अपने-अपने ढं ग से वचार य त कए ह। कु छ वचार इस कार ह.
1. सु म ान दन पंत ने लखा है क “नयी क वता म मानव-भावना को छायावाद
स दय के धड़कते हु ए पलने से बलपूवक उठाकर उसे जीवन-समु क उ ताल लहर
म पैग भरने को छोड़ दया है, जहाँ वह साहस के साथ-साथ सु ख-दुख और आशा-
नराशा के घात- तघात म बढ़ती हु ई युग -जीवन के आँधी-तू फान का सामना कर
सके व अ तवदना से मु त होकर सामािजक यथा के अनुभव से प रप व बन
सके। नयी क वता व व वच व से ेरणा हण करके तथा आज के येक पल
बदलते हु ए युग -पट को अपने मु त छं द के संकेत क ती -म द ग त लय म
अ भ य त कर, युग -मानव के लए नवीन भाव-भू म तु त कर रह ।”
2. ल मीका त वमा ने लखा है क “नयी क वता आज क मानव- व श टता से
अदभूत उस लघु मानव के लघु प रवेश क अ भ यि त है जो एक ओर आज क
सम त त तता और वषमता को तो भोग ह रहा है, साथ ह उन सम त
त तताओं के बीच अपने यि त व को भी सु र त रखना चाहता है।
3. डॉ. धमवीर भारती क नयी क वता वषयक मा यता इस कार है. “नयी क वता
थम बार सम त जीवन को यि त या समाज, इस कार के तंग वभाजन के

297
आधार पर न मापकर मू य क सापे ि थत म यि त और समाज दोन को
मापने का यास कर रह है।
4. ग रजाकुमार माथु र के श द म, ''मौजू दा क वता के अ तगत वे दोन ह बात
कह जा रह ह िजनम एक ओर या तो शैल , श प और मा यम के योग होते
रहे ह या दूसर ओर समाजो मुखता पर बल दया जाता रहा है, ले कन नयी
क वता हम उसे मानते ह िजनम इन दोन के व थ त व का संतल
ु न और
सम वय हो। उपयु त कथन क ववेचना से नयी क वता का वृि तगत प
प ट होकर सामने आ जाता है।

18.5 नयी क वता क वृि तयाँ (संवेदना व श प)


18.5.1 अनुभू त प

नयी क वता क भाव े ीय वशेषताओं म म यवग य समाज के अ तगत साँस लेने


वाले मनु य क भावानुभू तय , स दय-चेतना, णयानुभू त सम याकु लता और इनसे ह
स ब वृि तय को लया जा सकता है। नयी क वता क मु ख वृि तयाँ न नां कत
प म ववे चत क जा रह ह:-
1. लघु मानद दशन म यि त व क खोज
नयी क वता लघु मानव के प रवेश क क वता है। यह न भी उठा है क
लघु मानव कौन ह? कस वचारधारा से उपजा ह। अहं त-आ माल न,
समाज- वमु ख कु ठां त वजना पी डत मानव या है? या इस यि त क ओर
ह क म है? ल मीकांत वमा ने ''नये तमान: पुराने नकष पु तक म
थम बार लघु मानव को 'सहज मानद’कहकर चचा के के म रख दया।
वयं अ ेय के स जन म ''अपरािजत मानव का प दे खए'‘पर हारता नह ं न
मरता ह-पी ड़त मरत मानव अ विजत दुजय मानव कमकर मकर श पी,
सृ टा उसक म कथा हू ँ । '‘(म वहाँ हू ँ)
2. का य क अथ-भू म का व तार व वातं य पर बल
नयी क वता ने सम मानव को सृजन के के म था पत कया। उनके लए
न कोई वषय विजत ह-न कोई वषय अछूत। गल के अंधेरे कोने म खड़े
छोटे से पौधे का स दय भी क व को आकृ ट कर सकता है। सु ंदर और कु प,
पूरा जीवन नयी क वता म का य- वषय, का य व तु बना है। हर वषय को
व तु बनाकर इन क वय ने का य सृजन कया। फलत: अथ भू म का व तार
इनक एक व श ट वृि त रह है। नयी क वता ने यि त- वातं य क चचा
भी बार-बार क और कहा क हम मानव क वतं ता के प धर है। म य
वग क वतं ता के नाम पर यि त क आ थाओं-अना थाओं क सजग
अ भ यि त क गई है। अकेला पी ड़त मानव और समूह मानव दोन पर

298
ववाद भी कम नह ं हु आ। अ ेय-म डल के रचनाकार ने यि त वातं य पर
बल दया।
3. म यवग य मनु य क अनुभू तयाँ
बदलती दु नया म मनु य कतना संकट त, पी ड़त और ववश है, इसक
खु ल यंजना नयी क वता म उपल ध होती है। चाहे दु यंत कु मार ह , चाहे
अ ेय, चाहे मु ि तबोध ह , चाहे ग रजाकुमार माथुर या सव वर, सभी क
क वताएँ इस घेरे म कैद, ववश और च ता वज डत मनु य क ि थ त को
य त करती ह। फलत: क व यह कहकर रह जाता है क 'य बीत गया सब
हम मरे नह ,ं पर हाय! कदा चत ् जी वत भी रह न सके’(अ ेय), भारती इसी
अ न चय, व वधा और संकट- ण को झेलते हु ए पराजय का गीत गाते ह
तो दु य त 'आवाज के घेरे लखते ह। वह आ था का आलोक जगाना चाहता
है ता क उसके काश म वह धु ँधलाये पथ को भी पा सके। इसी कारण नयी
क वता म जीवन के त आ था य त क गयी है। उसक ि ट-दशना म
जीवन के त तशोध भाव नह ं है, वीकार का भाव है।
4. अि त ववाद और आधु नकतावाद का वर
भारत आजाद के बाद क पीड़ा से नह ं गुजरा ह। डॉ. राम वलास शमा ने नयी
क वता के क वय पर ह नह ,ं आलोचक तक पर अि त ववाद का असर माना
है। इसके पीछे हमार ि थ त-प रि थ त क पराजय-हताशा का तक है। शीत-
यु क डरावनी ि थ त का आतंक है-इस लए नई क वता म यापक तर पर
अि त ववाद क कोख से ज मा है। नयी क वता के यि तवाद, यि त
वातं यवाद पर आधु नकता क सीधी छाप है। मु ि त बोध ने पू ज
ं ीवाद समाज
के त क वता म उ च म य वग क नय त को ध कारा है। मा सवाद
क वय -आलोचक ने आधु नकतावाद मे अ ेय, धमवीर भारती, ल मीकांत
वमा, ीकांत वमा आ द क गणना क है तथा मु ि तबोध, शमशेर, रघुवीर
सहाय को आधु नकतावाद के यि त-केि त जन वरोधी च र से दूर रखा है।
5. आ था का वर
जीवन के त व वास का यह वर न केवल भारती म है, अ पतु ाय: सभी
शीष थ क वय म है। जीवन के त आ था लेकर चलने वाले अ ेय, नरे श
मेहता, ग रजाकु मार माथुर और भारती व वजयदे वनारायण साह आ द सभी
यि त व के त भी आ थावान ह। अ ेय तो मू लत: आ थावाद ह ह: ''हम
म तो आ था है कृ त होते है हम डर नह ं लगता क उखड़ न जाव
कह ं।'‘ यागनारायण पाठ मान सक उ वेलन म भी यि त व के लए अ य
आ था लए जी रहे ह। आ था का यह भाव लघु व म भी थका नह ं है।

299
भारती हटा प हया लेकर भी लघु व के त आ थावान ह तो सव वर ने इसी
आ था को 'थरमस’क वता म य वाणी द है.
''तो यह नग य अि त व तक
कसी के कंधे पर भार नह ं होगा
थरमस से हम सब
हर भावी या ा के
यासे ण का
अ भलाषा भाल चूमगे।”
6. ण के स य को वीकार
णबोध नयी क वता क मु ख वृि त है। ण म वभ त जीवन, उसक
यथा, उसका उ लास, ण म ल त मनि थ त और ण म फूिजत कोई
भी स य छोटा नह ं है। यह कारण है क जीवन के छोटे से छोटे , सामा य से
सामा य और व श ट से व श ट संग- ण नयी क वता म नया अथ पा रहे
ह। ये ण और संग आया तत नह ं ह, जैसी क कु छ समी क क मा यता
है, अ पतु समसाम यक प रवेश क उपज ह। नयी क वता म णबोध का
वकास अि त ववाद दशन क भू मका पर हु आ है। इस दशन के आधार पर
येक ण क वतं स ता है। इस ि ट से येक ण अपने म स पूण है
और यथाथ क ग तशीलता म अ भ न है। अ ेय क पंि तयाँ ह
आज के इस व व त अ वतीय ण को
पूरा हम जी ल, पी ल आ मसात कर ल.
उसक व व त अ वतीयता म
शा वत हमारे लए यह है
अिजर है अमर है।
काल अनंत और असीम है और संसार णभंगरु है। अत: णभंगरु संसार के
ाणी का णभोगी हो जाना वाभा वक है। मु ि तबोध क क वता म भी यह
भाव यंिजत है। भारतभू षण अ वाल ने ण क मह ता तपा दत करते हु ए
लखा है.
क ध तो अ भ यि त है
मा अ भ यि त
ण ह उसका वभाव है।
7. यि ट और समि ट
नयी क वता म य त णबोध का दुहरा प रणाम सामने आया है एक तो
भोगवाद वृि तय के अनु प और दूसरे वतमान के त असंतोष यु त
मम व दशन म। नयी क वता म पहल बार मनु य को उसके यि त व के
साथ तु त कया गया है। यह नयी क वता क उ लेखनीय वशेषता है। यहाँ
पर यि त सम पत न होकर अपनी ि थ त के त सतक है। इस क वता म
300
अहं भावना का काशन कई तर पर हु आ है। कह ं यि त स ता के कारण
तो कह ं मानव-मयादा क र ा, वतं ता के कारण और कह ं आ म- व लेषण
के कारण अहं को वीकृ त मल है। यि त स ता को ति ठत करने का
यास वैयि तक और सामािजक दोन तर पर हु आ है। अ ेय और
भारतभू षण अ वाल क क वताएँ नद के वीप और 'हम नह ं ह वीप इस
संदभ म पढ़ जा सकती ह। अ ेय क 'नद के वीप’क वता समाज के
समाना तर चलती हु ई यि त व क त ठा करती है तो भारतभू षण अ वाल
नद के वीप वाले यि त का वरोध करते हु ए जीवन से भरे नमल सरोवर
का प हण करते ह।
8. सामािजकता और यथाथ का हण
नयी क वता क एक वृि त सामािजकता और यथाथ के हण से भी
स बि धत है। सामािजकता का यह संदभ नयी क वता म तीन प म
उ घा टत हु आ है समाज क खोखल ि थ त के च ण म, सामािजक दा य व
के प म और समाज क याण के ेरक त व के प म। अ ेय क 'म वहाँ
हू,ँ 'सागर और गर गट', हवाएँ चैत क , वग भावना सट क’और 'शोषक भैया
आ द क वताओं म सामािजक जीवन क त वीर है। सामािजक जीवन क
वकृ तय , मजबू रय और असमथताओं के प ट और खुले च नये क व ने
उतारे ह। भारतभू षण क वदे ह, अनंतकु मार पाषाण क ब बई का लक',
दे वराज क लक', जगद श गु त क पहे ल , ल मीका त वमा क म ता मा
क वसीयत और अ ेय क महानगर रात’आ द क वताओं म इसी िज दगी के
च ह। ये च जीवन और समाज क खोखल ि थ त को य त करते ह।
9. यं यशीलता
यं य क यह वृि त भी नयी क वता क व श टताओं म से एक है। यं य
बोध वह ं है जहाँ क व सामािजक तर पर असंतोष से भर उठा है या उसने
अनुभव कया है क जीवन म शि त और स ता का दु पयोग करते हु ए
कतने ह लोग जीवन क जा नवी को गंदला कर रहे ह। यह वजह है क
नये क वय का यं य हम कभी वषाद म डु बा जाता है और कभी वैचा रक
सीमाओं पर छोड़ जाता है। ि थ त के अनुभवन और अ भ यंजन म क व क
ख नता यं यमयी होकर ‘ वधाता! और वधाता से वधायक बड़ा है जैसी
पंि तय म प ट हु ई है तो भवानी साद म ने आधु नक स यता पर
यं य करते हु ए म अस य हू ँ य क खु ल-े नंगे पाँव चलता हू ँ धूल क गोद
म पलता हू ँ और आप स य ह य क हवा म उड़ जाते ह ऊपर, आप स य
ह य क आग बरसा दे ते ह भू पर जैसी पंि तयाँ लखी ह। सव वर क
स दयबोध क वता म उस समसाम यक वृि त पर भी यं य कया

301
गया है िजसम ववशता, भू ख और मृ यु के यथाथ को भी दु नया तभी
पहचानती है जब वह सजा दया जाता है।
10. रा यता और अ तरा यता
नयी क वता म समाज और रा से ऊपर उठता हु आ नया क व अ तरा य
ि थ त को य त कर रहा है। यह कारण है क एक रा का संकट, संघष
और सु ख व व का संकट और सु ख बनता जा रहा है। नयी क वता म रा य
भावनाओं का वाहक मानव वतं ता, रा गौरव और रा ो नत क बात
करता हु आ व व-भू मका पर आकर खड़ा हो गया है। नरे श मेहता क समय
दे वता क वता इसका वलंत माण है। ग रजाकुमार क 'पूरब क करन’और
सव वर क 'काफ हाउस म मेलो ामा’व 'पीस पेगोडा’आ द क वताओं म
अ तरा य ं है। व तु त: नये क व का
वर क अनुगू ज ि टकोण सीमाओं को
पार करके व व-शां त क कामना कर रहा है। कु छे क क वताएँ ऐसी भी ह जो
दे श के लए याग करने वाले वीर क शि त के प म लखी गयी ह।
इनम सुभाष क मृ यु पर’(धमवीर भारती), 'दो अ टू बर, 'च र क
केसर’( ग रजाकुमार), 'नेह के त (ह रनारायण यास) और 'यह जवाहर द प
(डॉ. दे वराज) व सव वर वारा ल खत लो हया स ब धी क वताएँ वशेष प
से उ लेखनीय ह। इस दौर क क वताओं म कु छ ऐसी भी ह िजनम संघषमयी
प रि थ तय म भी दे श क वाधीनता को अ ु ण बनाये रखने क बात कह
गयी है। भारती जब लखते ह क ''कह दो उनसे, जो खर दने आये ह तु ह,
हर भू खा आदमी बकाऊ नह ं होता’तब वे दे श के गौरव और वा भमान के
सश त पहलू क ओर ह संकेत करते है।
11. राजनै तक चेतना
नयी क वता राजनी त से जु ड़कर भी सामने आयी। वतमान राजनी त ने दे श
को कह ं ला पटका है, यह सव वर क इन पंि तय से ात हो सकता है.
'सु नो ढोल क लय /धीमी होती जा रह है /धीरे -धीरे एक ां त-या ा/शव-या ा
म बदल रह है/सड़ांध फैल रह है न य पर दे श के/और आँख म यार के
सीमांत धु ँधले पड़ते जा रहे ह/और हम चू ह से दे ख रहे ह/''आज राजनी त
मानव समाज को फुटबाल बनाकर जो खेल खेल रह है उससे मानवता के
आगे दजन न च न लग गये ह।
12. प रव तत मानव मू य
वतं ता के प चात ् मानव-मू य म भी प रवतन आया है। नवीन मा यताएँ,
िजजी वषा, वात यबोध बु वाद आ द ऐसे मानव मू य है जो आजाद के
बाद वक सत हु ए है। वातं यो तर वष म काफ कु छ बदला है। मानव-मू य
का नये संदभ म वकास हु आ है। ी-पु ष के स ब ध म भी पया त अ तर
आया है। इस अ तर को डॉ. जगद श गु त के का य-सं ह 'दम म दे खा जा
302
सकता है। ी-पु ष का पूण साहचय 'यु मता’के प म ह होता है। आज के
युग क यह माँग है। करण जैन क ये पंि तयाँ गौरतलब ह िजनम कहा
गया है ‘संभोग के बाद/ ब तर से उतर कर म केवल एक सं ा हू/ँ िजसम दो
चार वशेषण जु ड़े ह 'कु छ याएँ लगी ह/म अनेक ब च म एक दो क माँ हू ँ
सब औरत जैसी एक औरत हू/ँ एक जी वत कं ु ठा हू ँ /'‘कहने का ता पय यह है
क नार और पु ष के स ब ध से जु ड़े मू य म काफ प रवतन आया है, आ
रहा है और इस सबको नयी क वता म वाणी द गयी है। कुँ वरनारायण क
'कुछ नह ं वाल पहे ल म जीवन को मु त भाव से जीने और िजजी वषा को ह
मू य मानने का भाव दखाई दे ता है। वे कहते है।
अभी तो जू झ लेने का लोभन
शू य से भी जू झ लेने कौ नयोजन
फर कभी या मल सकेगा िज दगी म
िज दगी से भी बड़ा कु छ।
नय त और सु परमैन के इ छा इं गत से आज का मानव सभी बंधन को
तोड़कर मु ि त का आ ह हो उठा है। नयी क वता मानव- वा भमान क र ा
करते हु ए मानव अनुभू तय को उनके प रवेश म च त करती है। 'आ मजयी
का न चकेता इसका उदाहरण है जो जीवन का वरोध नह ं करता है, अ पतु
उस वचारण का वरोधी है जो जीवन को संक ण प र ध म बाँध दे ती है। इसी
म म संशय क एक रात के राम भी वा भमान क र ा और सामू हकता
के लए यु क वीकृ त दे ते ह।
नयी क वता म मानव- व श टता को एक मह वपूण मू य वीकार कया गया
है। नये क वय क ि ट म येक यि त व श ट है, वह भीड़ मा नह ं है।
भीड़ म रहकर भी वह अपनी पहचान लए हु ए है। संशय क एक रात के राम
सृि ट के वनाश को बचाने के साथ-साथ मानव के भीतर व श ट स य को
भी बचाने क बात कहते ह। मानव- व श टता के प धर राम का यह कथन
दे खए
म स य चाहता हू ँ
यु से नह , ख ग से भी नह ं
मानव का मानव से स य चाहता हू ँ ।
म यु को बचाना चाहता रहा हू ँ बंध!ु
मानव म े ठ जो वराजा है
उसको ह
हाँ उसको ह जगाना चाहता रहा हू ँ ।

303
13. स दय चेतना
नयी क वता म जो स दय चेतना वक सत हु ई है उसम कृ त और नार ने
भी मह वपूण भू मका नभाई है। नयी क वता म च त कृ त क अनेक
वशेषताएँ ह। हम ब क क वताओं म हमानी कृ त क आँख दे खी टटक
छ वय क अनुभू तपरक ती तय के श द- ब ब ह। ये ब ब कृ त क
अना ात छ वय , मं पूत पावनता और अचु ि बत स दय-संवेदना को उजागर
करते हु ए क व के सां कृ तक बोध को भी अ भ य त करते ह। क व जब
कहता है क 'दूध के अधउगे दाँत-सी/कोर हम ग ृं क /फूट फर/उस सलेट
बादल क ओट से जाने कब बादल क सीप ने/नभ के उस अँ धयारे कोने
तक/मोती सी चाँदनी उल च द शखर पर टके याह बादल क परछाँई/आँख
म काजल सा पार गई ''तो उसक कृ त-संवेदना के ब ब पाठक य संवेदना म
उतर जाते ह। भवानी साद म , सव वर, नरे श मेहता, ग रजा कु मार माथु र,
धमवीर भारती, ह रनारायण यास, कु वँर नारायण आ द सभी क व कृ त को
सामािजक अतंदशन के प म लेते है। 'स नाटा, सतपुड़ा के जंगल, ''पी के
फूटे बैन'‘आ द ने ब य- कृ त क म हमा को अनेक नये तीक - बंबो म
वाणी द है। सव वर ने ामीण संवेदना के कृ त गीत रचे है तो ग रजा
कु मार ने नार दे ह क लय को य त करने के लए ' श शर नशा सी ल बी
पलक झु कती दे खी ह। नरे श मेहता म आ दम कृ त क गंध का अ ु त रं गीला
संसार है 'नभ क आस छाँव म बैठा बजा रहा वंशी रखवाला'। मू ल बात यह है
क इन क वय ने जीवन के राग- वलास, आ था-अना था को य त करने म
कृ त-बोध का सहारा लया है।
इतने पर भी यह सच है क नयी क वता क कृ त आकृ ट कम और सोचने
के लए अ धक बा य करती है। युग क यथाथता का जादू चढ़ते ह कृ त
क सार मा नयत हवा हो गयी है।
‘बावरा अहे र ’क क वताओं म भी कृ त के साथ युग यापी वषम ि थ तय के
त यं य दखाई दे ता है। नयी क वता के कृ तपरक ि टकोण म एक
नवीनता आंच लकता को लेकर है। आंच लक कृ त को य त करने वाल
क वताओं म वि नल वातावरण क गहराई भा वत करती है। केदारनाथ संह
के लोकगीत क धु न पर सजी क वताओं क कृ त म 'टहनी के टे सू पतरा
गये, पंखड़ी के पात नये आ गये', 'धान उगगे ान उगगे, रात पया पछवारे
पह ठनका कया आ द का समावेश बडी मधुर यंजना के साथ हु आ है। नयी
क वता के लोक-जीवन समृ कृ त- च म श द, लय और य क तो र ा
क गयी है, लोक-जीवन भी अपने असल रं ग-रोगन के साथ आ गया है।

304
18.5.2 अ भ यंजना प

नयी क वता का भावप िजतना सश त और बल है उतना और जीवन के प रपा व


म दे खा और समझा जा सकता है, उसी कार उसका अ भ यंजना प भी जनजीवन
के नकट है। उसम यु त भाषा, अ तुत, तीक, ब ब और छ द हमार जीवनचया
से स ब तीत होते ह। नयी क वता के अ भ यंजना प म ब धन के े म भी
पया त वकास हु आ है। इसक अ भ यंजना स ब धी मु ख वशेषताएँ अ ल खत ह.
1. भाषा
नयी क वता क भाषा के स ब ध म यह कहा जा सकता है क भाषा म यु त श द
जन-जीवन के नकट ह, क तु कई बार वे ज टल अनुभू तय के हाथ म पड़कर अपना
प बदल लेते ह। क व उ ह जानबूझकर नह ं मोड़ता है। नयी क वता म बहु यु त
श द का यथास भव ब ह कार कया गया है। कारण इन क वय क धारणा ह यह है
क जो श द बूढ़ा हो गया है, िजसक उस का आसव चुक गया है, उसे नये अथ से
भरकर या उसक नया सं कार करके योग म लेना चा हए। इसी से नये क व ने
साधारण श द म अ धक गहरा और यापक अथ भरा है। इसके साथ ह अ भ यि त
को स म और भावी बनाने के लए नयी क वता म उपे त श द को भी आदर
ा त हु आ है। कसी भी भाषा का चालू श द नये क व क च का समथक बन गया
है। इस लए वे कहते है क इस ि ट से नयी क वता का श द- वधान बड़ा डेमो े टक
है:
ये उपमान मैले हो गये ह
दे वता इन तीक के कर गये ह कू च
कभी बासन अ धक घसने से मु ल मा छूट लाता है।
इससे प ट है क अ ेय अपनी का य क भाषा तलाश करना चाहते है। अ ेय तदभव
श दावल का अ धक योग करते है। उनक कई े ठ रचनाओं म उ ह दे खा जा
सकता है। बास, असाढ हया जैसे योग काफ मलते है। अ ेय ने का य भाषा म
मौन के मह व को भी वीकार कया है। एक मौन ह है जो अब भी नयी कहानी कह
सकता है। मौन से ता पय है क जो क वता म नह ं कहा गया परं तु जो सांके तक प
म अ भ यि त हु आ है। उसम आई व भ न भाषाओं और बो लय क श दावल म
व ान, दशन, मनो व ान, गल , गाँव, कू चे, शहर, फैि याँ और अ पताल िज दगी
के श द भी वत: ह आते गये ह। अं ेजी, उदू फारसी, सं कृ त के श द के साथ-साथ
कतने ह ामीण श द भी अपनी पूर रं गत के साथ इस क वता म आ गये ह। श द
नमाण क वृि त भी नयी क वता क भाषा क अपनी वशेषता है।
2. अ तु त वधान
तु त को का शत करने के लए नयोिजत श द- वधान अ तु त या उपमान कहलाता
है। का य म उपमान का वै श य सव व दत है। कसी भी क व क सफलता इस बात
म न हत है क उसने व य-व तु या भाव के लए कैसी अ तु त योजना तु त क

305
है। उपमान का य--स दय को भावो पादक तो बनाते ह ह, कभी-कभी उसे मू तता भी
दान करते ह। उपमान के अनेक ोत ह और नये क व अपने क य क स ेषणा
के लए सभी संभव ोत से उपमान का चयन करते दखाई दे ते ह। नयी क वता म
पूववत का य म यु त उपमान से पया त व तृ त मलती है। इस का यधारा ने
व छं द ग त से चलकर सभी वषय े क प र मा क है। इसी कारण इस क वता
म कृ त, पुराण , इ तहास, व ान, धम, राजनी त, मनो व ान, संगीतकला, च कला
और दै नक जीवन के सभी प से उपमान का चयन कया है। क तपय उदाहरण से
यह बात प ट हो सकती है.
1. मेरा दल ढबर सा टम टमा रहा है
(मु ि तबोध)
2. व सल छाती सी पहा ड़याँ, दूध पलाने आतुरा,
ब चे सा सू रज सो जाता लेकर मु ँह म आँचरा ( ग रजा कुमार माथुर)
3. तु म थमामीटर के पारे सी, चु पचाप
िजसम भावनाएँ चढ़ती-उतरती है (सव वरदयाल स सेना)
4. ि मत-शेफाल के फूल झरे (अ ेय)
5. उदयाचल से करन-धेनएु ँ हाँक ला रहा वह भात का वाला (नरे श मेहता)
3. तीक वधान
तीक के वै व यपूण योग करके अनुभू त को यवि थत और सह यंजना दे ने का
काम नयी क वता वारा स प न हु आ। नयी क वता म तीक योग क वृि त
तथाक थत च तीकवाद से भ न है। उसम यथाथ क अ भ यि त वि नल नह ं है
और न नये क व अ भ यि त म च तीकवा दय क सी अ प टता और रह यमयता
ह ला रहे ह। नयी क वता जनमानस के अनेक अछूती पू त को खोलकर रख रह है।
वह मनो व ान और व ान का सहारा लेकर व तु और भाव को उसके सह रं ग- प म
पाठक के सम तु त कर रह है। अत: इसके तीक- वधान म वै व य और
यापकता है। पौरा णक और धा मक तीक का चु र, क तु सट क योग करके नयी
क वता य द परं परा यता दखा रह है तो नये संदभ म तकाय तु त करके गत
के वार भी खोल रह है। इतना ह य , यौन तीक तथा दै नक जीवन से गृह त
तीक को अपनाकर नयी क वता अपनी मौ लकता और स यता भी कायम कए हु ए
है।
4. ब ब- वधान
ब ब- वधान के े म नये क वय ने सवा धक कौशल से काम लया है। ब ब-
वधा यका शि त क पना का सु दर और समृ स दय वैभव नयी क वता म बखरा
पड़ा है। इसम आये ब ब म स यता, औ च य, रस ा यता और प र चतता जैसे गुण
मलते ह। इन गुण से यु त ब ब कह ं-कह ं सीधी-सरल श दावल से तो कह ं
अलंकृ त से ( वशेषकर पक और मानवीकरण से) तैयार कये गये ह। कह ं वे संि ल ट

306
ह तो कह ं वे बखर भी गये ह। ऐि य ब ब भी चु र मा ा म नयी क वता म दे खे
जा सकते ह। नयी क वता के क वय ने व तु के मान सक त बंब को के म ला
दया है। शमशेर, आ मगत बंब और आ मा का व तु गत बंब दोन को रचने का
यास करते है-एक नीला आइना/बैठोस-सी यह चाँदनी/और अंदर चल रहा म/उसी के
महातल के मौन म''। अपने अ यंत नजी अनुभव के आ म धान प त से अलग
करती है। समकाल न यथाथ को य त करने के लए क वय को वकृ त-आकृ त वाले
बंब रचने पड़े। मु ि तबोध ने कहा मेर क वताय भयानक ह ड बा है/वा तव क
व फा रत तमाएँ/ वकृ ताकृ त- बंबा ह'। यथाथ के भीतर यां क और वै ा नक बंब
क नयी क वता म भरमार है। म ययुगीन गाथाओं, मथक के संकेत दं तकथाओं को
क वय ने तीक व बंब म य त कया है। जैसे- मरा स सव वर ने लोकतं को
लाठ म जू त-े सा लटकाये ''म तीका मक बंब दये है। इस तरह के बंबो से नयी
क वता इस कदर भर गई क यान क वता पर न जाकर बंब पर ह क त होने
लगा।
5. छ द वधान
इस का यधारा म मु त छं द को बड़ी आ मीयता और कुशलता से अपनाया गया है।
अनेक पव पर आधृत लय-योजना, श द-संयोजना, नाद-स दय, अं यानु ासाधा रत छ द-
योग म नयी क वता को बड़ी सफलता मल है। अनेक असंग तय के बावजू द नयी
क वता क छ द योजना पया त भावी और नवीन है। उसक उपलि धयाँ अ मत ह।
उसम आये छं द उदू अं ेजी और लोकगीत से भी भा वत है। न चय ह नयी क वता
अपनी शि त के बल पर अपने आपको ति ठत कर रह है। उसम संगीत के
चु ट लेपन क अपे ा का य का गांभीय और ौढ व अ धक है। सच तो यह है क नयी
क वता म वचार प य - य गहरा उतरता गया है, य - य तु क, ताल और लय के
बंधन ढ ले पड़ते गये ह।
6. ना या मक ब ध व ल बी क वता
नयी क वता क एक बड़ी उपलि ध के प म ब धन को लया जा सकता है। नये
क वय ने जो ब ध कृ तयाँ लखी ह, वे पारं प रक अथ म ब ध नह ं ह। उनका
ढाँचा नाटक और का य के सि म लत श प से तैयार कया गया है। अत: नयी क वता
के ब ध का य को ना या मक शैल के बंध या ऐसे बंध कहा जा सकता है जो
शैल म नाटक यता और ब ध व के मेल से अ भनव प लेकर आये ह। इस कार
के सजक म धमवीर भारती (अंधा युग और कनु या ), नरे श मेहता (संशय क एक
रात, महा थान, वाद पव और शबर ), कुँ वरनारायण (आ मजयी), दु यंतकुमार (एक
कंठ वषपायी) और वनय (एक पु ष और) के नाम मु ख ह। इन क वय ने कसी न
कसी पौरा णक संदभ को लेकर समसाम यक जीवन के क तपय न को उठाया है। ये
वे का य ह िजनम मू या वेषण है और है ाचीन मथक क समका लक या या-
ववेचना। कु छ ल बी क वताएँ भी ऐसी ह जो ब ध का-सा आभास दे ती ह। ऐसी

307
क वताओं म अ ेय क 'असा य वीणा, मु ि तबोध क 'अँधेरे म, वजयदे व नारायण
साह क 'अल वदा, सव वर क कु आनो नद , धू मल क पटकथा, 'मोचीराम, ल लाधर
गाड़ी क नाटक जार है इस यव था म और बलदे व खट क', नरे श मेहता क समय
दे वता, राजकमल चौधर क भि त संग, रघुवीर सहाय क 'आ मह या के व ,
सौ म मोहन क लुकमान अल , रामदरश म क फर वह लोग, रमेश गौड़ क एक
मामूल आदमी का बयान और बलदे व वंशी क उपनगर म वापसी वशेष उ लेखनीय
ह। ना या मक बंध का स जन जहाँ नयी क वता क मू या वेशी वृि त को उजागर
करता है, वह ं इतनी बड़ी सं या म ल बी क वताओं का सृजन नये क वय क उस
चेतना को रे खां कत करता है िजसके सहारे क व समकाल न संकट बोध और उससे जु ड़े
हु ए अनेक न -उप न को उठाते हु ए प रवेश के त अपनी साझेदार कट करते ह
और हरे क ब दु पर अपनी उपि थ त बतलाते ह।

18.6 योगवाद और नई क वता का स ब ध


नयी क वता का बीज योगवाद म न हत है। अत: सन ् 1950 के बाद से नयी क वता
का ार भ माना जा सकता है। यह वह वष था जब क नयी क वता का बीज अंकु रत
होकर लहलहाने लगा था। योगवाद क वता म पनपने वाल वृ तयाँ खु ल,े यापक
क तु व थ प म दूसरे स तक या उसक समकाल न रचनाओं म मलती ह।
ग रजाकुमार माथु र और बालकृ ण राव छायावाद के प चात ् लखी गयी सम त क वता
को नयी क वता के अ तगत समझते ह। डॉ. राम वलास शमा और नामवर संह इसे
योगवाद का छ प वीकार करते ह तो नरे श मेहता और ीका त वमा इसे
योगवाद व ग तवाद से सवथा भ न य न मानते ह। नयी क वता को योगवाद
का छदम ् नाम बताने वाले भी उसी स य क ओर संकेत करते ह िजसम योगवाद
और नयी क वता को एक समझा गया है। अस लयत यह है क ये दोन पूर तरह एक
नह ं ह। दोन म सू म अ तर है। योगवाद श पगत योग के प म नयी क वता
क एक व श ट वृि त क ओर ह संकेत करता है जब क नयी क वता म एक व थ
जीवन- ि ट भी मलती है।
योगवाद एक ऐसा पौधा था िजसक शाखाएँ व पि तयाँ काट-छाँट के अभाव म
मनमाने ढं ग से फैलती जा रह थीं, जब क नयी क वता एक कट -छँ ट सजी-सँवर लता
है िजसम यव था है, संतु लन है और है यथाथ का रस खींचकर हर -भर बने रहने क
उमंग। फर ऐसी ि थ त म नयी क वता योगवाद का छ नाम न होकर संशो धत
प है जो अपने म संतु लत जीवन- ि ट और योगवाद क योगशील वृि त लए
खलता रहा है। योगवाद म बौ कता का बेमानी अ तरे क था, रसह नता थी,
चम कृ त, वशेषीकरण क वृि त , कामज नत कं ु ठाओं , नराशाओं, अतृि तय और घोर
वैयि तकता का संदभ था तो नयी क वता रागद त रसनीय सामािजक और आ थावाद
है।

308
18.7 सारांश
यह स य है क युग बदलता है तो जीवन और जगत के स ब ध म मानद ड भी
बदलते ह, यह नयम योगवाद पर भी लागू होता है। यहाँ पर भी सा ह य स दय क
अ भ यि त के मानद ड बदले ह। छायावाद क मानवीय क पना और श द व यास
क कोमलता के कारण जो अनुभू तयाँ अध य त थीं, उ ह सामािजक भू मका पर
ग तवाद ने पूण य त बनाने का म उठाया, पर तु इस म के प रणाम व प
ह द क वता को मा सवाद के स ांत का भी बोझा उठाना पड़ा। नतीजा यह नकला
क क वता व ापनी होती गयी और जब क वता व ापनी हो जाती है तो कला श प
क च ता भी वत: ह छूट जाती है। अत: क वता को कला मक सौ ठव और व थ
सामािजकता दान करने के लए योगवाद आ वभू त हु आ।
यात य यह है क योगवाद वदे शी क वता से भा वत और े रत तो है, क तु वह
अनुकरण भर नह ं है। उसम आई बौ कता, दु हता, रसह नता अ तयथाथवा दता
चम कृ त, अ तवैयि तकता, ग याभास क वृि त , नवीनता के नाम पर कये गये
अनगल और बेमानी योग व मन क द मत भावानुभू तय का कट करण आ द ऐसी
वशेषताएँ ह िजनके लए भारतीय प रवेश क ज टलता भी िज मेदार है। योगवाद म
श प के त वै य व दशन को पा चा य भाव कहा जा सकता है।
योगवाद ने क वता को बंधी-बँधाई प त के घेरे से नकाला है, सी मत
जीवनानुभू तय के अ भ यंजन से का य के मू यांकन को एक दशा द है और वृहत ्
मानव के थान पर आम आदमी (लघु मानव) क मह ता तपा दत क है। योगवाद
के चम कार पवाद को क वता से मु त करने का यास होने लगा है। नयी क वता
उसी चम कार पवाद से मु ि त का व न है। नयी क वता का े योगवाद क
अपे ा अ धक यापक और गहरा था। नई क वताओं मे कई तरह क वचारधाराओं का
सम वय हु आ। पर पर वपर त वचारधारा के क व भी नयी क वता के अंतगत अपनी
का य रचना करते रहे। नयी क वता के त न ध क व अ ेय और मु ि तबोध थे। नयी
क वता क थापनाओं को तपा दत करने के लए समय-समय पर सा हि यक सं था
और सा हि यक प का को ता वत कया गया था।
योगवाद और नयी क वता क का य वृि त भी अलग अलग है। का य वृि त म
कु छ क वय ने गैर रोमाि टक वृि तय को बढावा दया तो कु छ क वय ने रोमानी
वृि त को नए अंदाज म अ तभ यि त करने का यास कया। यि तवाद और
सामंतवाद दोन कार के चंतन से क वता क का यानुभू त को न मत कया गया।
यह जीवन क क वता है, जीव त क वता है, इसम मानव-जीवन क सरस- वरस, राग-
वराग, आसि त-अनासि त, हष- वषाद, आ था-अना था और यथाथमयी ि ट है।
योगवाद का योग-वै च य नवीन, ताजे और संय मत शैि पक योग म बदल गया
है। अत: अपनी नवीनता क सु र ा करती हु ई नयी क वता योगवाद से आगे क
व थ और संतु लत भू मका पर खड़ी है य नयी क वता को योगवाद से सवथा

309
भ न य न भी मानना ठ क नह ं है युत ् यह ठ क मालूम पड़ता है क नयी क वता
योगवाद का व थ और संतु लत दशा म कया गया एक ऐसा वकास है जो
ग यु म
ं ु खी संवेदनाओं को साकार कर नये माग क ओर अ सर हु आ है। इसका गो ीय
स ब ध योगवाद से ह है। अत: कह सकते ह क नयी क वता ऐ तहा सक भू मका
पर योगवाद प रवार क ह सद या है, क तु गहन सामािजकता, व तु और श प
क नवीनता के कारण उसका वच व सघन, भावी और अलग से रे खां कत करने यो य
है।

18.8 अ यासाथ न
1. योग और योगवाद का अथ प ट करते हु ए योगवाद क सीमा रे खा नधा रत
क िजए।
2. योगवाद पूववत का यधाराओं से कस कार भ न रहा ह? इस कथन के
आलोक म योगवाद क वृि तय पर काश डा लए।
3. नयी क वता के अनुभू त व अ भ यंजना प का ववेचन क िजए।
4. नयी क वता म यु त भाषा, अ तु त योजना, तीक वधान और ब बगत स दय
को सोदाहरण प ट क िजए।
5. योगवाद व नयी क वता के स ब ध और अ तर को प ट ववे चत क िजए।
6. नयी क वता के प रभाषीकरण क या म व भ न व वान के मत का उ लेख
करते हु ए नयी क वता के व प पर काश डा लए।
7. ट पणी ल खए-
क योगवाद व नयी क वता के आंदोलन म अ ेय का योगदान।
ख नयी क वता म यु त ब ब वधान।
ग योगवाद म नार च ण व ेम
घ नयी क वता म अ तु त वधान

18.9 संदभ ंथ
1. डॉ. उमाका त गु त ‫ـ‬ नई क वता के ब ध का य श प और
जीवन दशन वाणी काशन, नई
द ल , 1000
2. डॉ. रामकुमार ख डेलवाल ‫ـ‬ ह द का य और योगवाद, संत त
काशन, नई द ल
‫ـ‬ संपादक पि ल शंग हाऊस
3. ह रचरण शमा ‫ـ‬ नए त न ध क व, पंचशील काशन,
जयपुर
4. संपादक व वनाथ साद तवार ‫ـ‬ अ ेय, नेशनल पि ल शंग हाऊस, नई
द ल

310
5. डॉ. संतोष कुमार तवार ‫ـ‬ नए क व: एक अ ययन, भारतीय थ

नकेतन, नई द ल
6. डॉ. नामवर संह ‫ـ‬ आधु नक सा ह य क वृि तयाँ ,
7. राजकमल काशन ‫ـ‬ नई द ल ,
8. स पादक डॉ. नगे ‫ـ‬ ह द सा ह य का इ तहास, नेशनल
पि ल शंग हाउस, नई द ल
9. डॉ राम वलास शमा ‫ـ‬ नई क वता और अि त ववाद, राजकमल
काशन, नई द ल ,
10. अ ेय तारस तक, ‫ـ‬ भारतीय ानपीठ, नई द ल
11. डॉ. कृ ण दे व शमा, ‫ـ‬ आज के लोक य क व अ ेय-
12. डॉ॰ माया अ वाल ‫ـ‬ अ नता काशन; नई द ल
13. ो. राम व प चतु वद ‫ـ‬ अ ेय और आधु नक रचना क सम या,
भारतीय ानपीठ काशन, नई द ल

311
इकाई-19 समकाल न क वता
इकाई क परे खा
19.0 उ े य
19.1 तावना
19.2 समकाल न क वता-रचनागत वै श टय
192.1 समकाल न क वता का क य
192.2 समकाल न क वता-अथ एवं प रभाषा
192.3 समकाल न क वता का काल नधारण
19.3 समकाल न क वता का वकास म
19.4 समकाल न क वता व वध प र य
19.5 सारांश
19.6 तनध कव
19.7 अ यासाथ न
19.8 संदभ थ

19.0 उ े य
यह पाठय म इकाई सं या 19 ह द सा ह य का इ तहास के अंतगत आता है। इस
खंड म आप हंद क समकाल न क वता का अ ययन करगे। इस इकाई म आपको
हंद क समकाल न क वता क शु आत, उसके वकास और उसके व प एवं उसके
व भ न आयाम से प र चत करायगे। इस इकाई को पढने के बाद आप.
 समकाल न क वता का उ व एवं वकास बता सकगे,
 समकाल न क वता क वभ वशेषताएँ बता सकगे,
 समकाल न क वता क मु ख वृ तयाँ समझ सकगे,
 समकाल न क वता के व वध प र य से प र चत ह गे,
 हंद के मु ख समकाल न क वय से प र चत ह गे।

19.1 तावना
यह तृतीय न प हंद सा ह य का इ तहास क एक इकाई है अथात ् यह उ नीसवीं
इकाई है। इस खंड म आप हंद क समकाल न क वता क शु आत, उसके वकास,
उसके व भ न व प, मु ख आंदोलन, समकाल न बोध म चंतन और संवेदना क नई
दशाएँ, समकाल न क वता क मु ख वृि तयाँ , समकाल न क वता क भाषा साम य,
समकाल न क वता का अ तु त वधान, उसक व वधता पूण कथन-प तयाँ मु ख
क व आ द का अ ययन करगे।
क वता का जै वक संबध
ं मानव के जीवन से ह होता है। उसके जीवन से ऊजा पाकर
ह कोई भी महान कृ त तीत होती है। मानव जीवन के मम पश अनुभव से ग ठत

312
होने वाल अनुभू तय से संव लत क वता कभी भी जीवन- नरपे और वायवी रचना
नह ं रहे गी। इसी कार मानव जीवन िजतना पचदार बनता जा रहा है, उतना ह उसक
क वता भी संवेदन और संरचना दोन तर पर संक ण हो जाएगी।
यह कारण है क समकाल न हंद क वता जीवन क इन संक णताओं एवं वै व यपूण
संवेदनाओं को आ मसात करके अ भ यंजना क व भ न दशाओं से होकर वकास पाती
रहती है। आज समकाल न हंद क वता क अपनी एक सु नि चत परे खा बन चु क है
और यह का यधारा आज हंद सा ह य क एक वृि त के प म उभर आई है।
वतमान िजंदगी से सरोकार रखने वाल क वता को समकाल न क वता कहते ह।
दे शकाल क सीमाओं को तोड़कर संवेदनशील मानव से तादा य था पत कर लेना
समकाल नता का सबूत है। आज क वता का भाव बोध ब कु ल बदल चु का है और
क वता रसानुभू त क अपे ा ाना मक संवेदना दान करती आ रह है। समकाल न
क वता म हमारे साम यक जीवन क अनेक ि थ तय क अ भ यि त तो हु ई है।
क वय ने समकाल न िजंदगी को बार क से पकड़कर युग -चेतना एवं युग -संदभ को
अपनाया है। समकाल न जीवन संदभ म हमारा आज का सम जीवन आ जाता है,
िजसम सामािजक, राजनी तक. आ थक ि थ तय तथा धम, श ा, कला और सं कृ त
के अनेक भेद- वभेद संबध
ं ी ि थ तय का च ण तो होता ह रहता है।

19.2 समकाल न क वता रचनागत वै श य


समकाल न क वता पर वचार करते समय हमारे मन म अनेक सवाल उभर कर आ रहे
ह। हंद क वता म समकाल न क शु आत कब से हु ई? समकाल न क वता अपनी
पूववत क वता क तु लना म कस दशा और भं गमा को आगे बढ़ाती है? या उसम
क य क गहराई यादा है? या यह समकाल न जीवन के सह मम क तलाश करती
है? इसक रचनाध मता के संबध
ं म सवा धक मह वपूण पहलू या या है? या
समकाल न क वता म संवेदना और अ भ यंजना को नई दशा म अ सर होने तथा इस
तरह आधु नकता का अ त मण करने क ताकत होती है? इन सवाल का उ तर ढू ँ ढते
हु ए समकाल न क वता म एक पता क जगह व वधता क दु नया बसी हु ई है। इन
व वधताओं से क वता म संभावनाओं के अनेक दरवाजे खु लते दखाई दे रहे ह।

19.2.1 समकाल न क वता का क य

हंद म समकाल न क वता अपनी पूववत क वता क तु लना म पूण प से जीवन के


त सम पत क वता है। समकाल न समाज म िजतनी वसंग तयाँ, वकृ तयाँ एवं
ज टलताएँ उभरकर आई है। उनके प रणाम व प जीवन कृ म एवं अस य बन गया
है। क व िजस समाज म रहता है, उसी से भाव, वचार, भाव ओर अनुभव वीकार
करता है। आधु नक यव था ू र, शोषक तथा दुहरे च र वाल है। समकाल न क वता
जीवन क वसंग तय एवं वडंबनाओं को तथा मानवीय िजंदगी को अपंग और अपा हज
बनाने वाले दबाव , अंत वरोध और वदूपताओं को पहचानने तथा मानवीय संबध
ं को

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वकृ त कर दे ने वाल शि तय क अस लयत को उभारने का यास करती है, इस लए
समकाल न क वता साम यक िजंदगी क अस य और दमघोट प रवेश म जानवर से भी
बदतर जीवन बताने वाले और अमानवीय ि थ तय को झेलने से लगातार छते हु ए
मानव पर केि त क वण, है। समकाल न क वता वतमान जीवन क वसंग तय एवं
वकृ तय पर तीखा हार करते हु ए वा त वकताओं क कई पते खोलकर दखाती ह.
इस लए डॉ. व व भरनाथ उपा याय समकाल न क वता को वतमान से अं कत क वता
मानते ह। समकाल नता से आधु नकता का या मक र ता है। आधु नकता से
समकाल नता सं कार हण करती है। इस लए समकाल नता को आँकने के लए
'आधु नकता श द मह वपूण है। समकाल नता आधु नकता क पीठ पर ि थत एक
कालख ड है जो आधु नकता के साथ होकर भी आधु नकता से अलग अपनी पहचान
रखता है। इस आधार पर यह म नह ं होना चा हए क समकाल नता आधु नकता का
पयाय है। समकाल न संदभ को लेकर लखी गई हर रचना आधु नक ह हो, यह ज र
नह ं है। समकाल नता का संबध
ं आधु नकता से होते हु ए भी समसाम यक संदभ तक
सी मत रह जाने वाल रचना आधु नक नह ं मानी जा। नरे मोहन ने लखा है-
'आधु नकता से यु त रचना समकाल नता से यु त होती है क तु यह आव यक नह ं
क हर समकाल न रचना आधु नक भाव-बोध रखती हो।-इस लए समकाल नता को
आधु नकता के वकास के प म दे खा जा सकता है। समकाल नता जहाँ एक ह
कालख ड क सम याओं से प र चत कराती है, वह ं आधु नकता म काल क यापक
ि थ त रहती है ओर परं परा के साथ नरं तर काल वाह और ग तशीलता बनी रहती है।

19.2.2 समकाल न क वता-अथ एवं प रभाषा

समकाल न श द अं ेजी के 'कांटे परे र ’के समानाथ श द के प म हंद म यु त


हु आ है। सा ह य के े म समकाल न श द का योग पहले सी मत अथ म साम यक
तु लना से होता था। बाद म समकाल न श द का योग वतमान के लए कया जाने
लगा। अथात जो वतमान संदभ म मौजू द और साथक होता है वह समकाल न है।
समकाल नता मनु य को उसके संपण
ू प रवेश के साथ पहचानती है। इस लए समकाल न
क व अपने समय क वसंग त, वडंबना और वदूपताओं को पहचान कर उनका यथाथ
च ण करते ह। डॉ. परमानंद ीवा तव ने समकाल न क वता को एक यापक प र े य
म दे खकर इस कार कहा समकाल न क वता कहते ह हमारे समय के मह वपूण
सरोकार , सवाल से टकराती एक वशेष प और गुण धम वाल क वता का च
सामने आ जाता है। समकाल न क वता चाहे ेम क हो या राजनी तक ि थ त या
मानवीय संकट क इतना नि चत है क एक खास समय क संवेदना इसके च ण के
ढं ग को ह नह ं अनुभव के प अथवा कृ त को भी करती वै। व तु त: समकाल नता
का ोत अपने प रवेश क स चाइय के भीतर रहते ह। जहाँ जन मु ि त क आकां ा
को लेकर क व क संवेदना और प धरता कला मक ढंग से साथ संतु लत होकर
भ व य के संदभ म अपना आकार दे खते हु ए वतमान को य त कर पाते ह, वहाँ

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समकाल नता पैदा होती है। समकाल न क वता का मू यगत व प दे खने लगते ह तो
हम पूववत क वता से वह अ यंत सू म एवं बार क दखाई पड़ता है। उसम क व के
श द बहु त नुक ले तथा व फोटक हो गए ह। समकाल न प रवेश म या त असंग त,
शोषण, अ याय, उ पीड़न और दमन को दे खकर उसम ती असहम त और अ वीकार
का भाव है। अपने समय क मह वपूण सम याओं से उलझना ह समकाल नता है और
सृजनशीलता के संदभ म समकाल नता का मतलब है कसी रचनाकार का अपने समय
एवं समाज के त सचेत एवं सजग ह त ेप करना। डॉ. हरदयाल के अनुसार -कोई भी
यि त अपने समय को य द अनुभव के तर पर हण कर लेता है तो वह
समकाल नता के बोध से यु त है। संतोषकु मार तवार के अनुसार अपने समय क
वृि तय को पहचानने, यि त और समाज क वषम ि थ तय को समझने और
गहर संवेदनशीलता के साथ युग चेतना से संप ृ त होने का पयाय समकाल नता है।
अत: समकाल न क वता अपने समय क जीवंत सम याओं क समझ और स य
ह सेदार क जाग क क वता है। इसका ता पय यह है क समकाल नता उस समय
एवं समाज वशेष के त उ तरदायी होने क माँग करती है। रघुवीर सहाय ने
समकाल नता को बहु त ह यापक अथ म प रभा षत कया है। उ ह ने कहा-मेर ि ट
म समकाल नता मानव-भ व य के त प धरता का दूसरा नाम है। डॉ. राहु ल के
अनुसार आज के आम आदमी क िजंदगी म आई वसंग तय -असंग तय का पदाफाश
कर, उसके भीतर से अनुभव वारा यथाथ क खोज समकाल नता है। इस लए
समकाल न क वता व वधायाम म एक बेहतर िजंदगी क खोज ह क वता है। डॉ.
न द कशोर नवल समकाल न क वता के संबध
ं म इस न कष पर पहु ँ चते ह क उसम
हंद क वता क पना और मथक से यथाथ क ओर, यि त से समाज क ओर, और
असाधारण से साधारण क ओर वक सत हु ई है, न चय ह ज टल प म, य क इस
वकास म यथाथ के साथ क पना और मथक को, समाज के साथ यि त को और
साधारण के साथ असाधारण को छोड़ा नह ं गया। कु ल मलाकर हंद क समकाल न
क वता व ोह क क वता है, वह व ोह कह ं भले पूणतया कट हो और कह ं दबा
हु आ, या यं य। इस कार प ट है क समकाल न क वता अपने समय क वृि तय
को पहचानकर और यि त एवं समाज क वषम ि थ तय से अवगत होकर गहर
संवेदनशीलता के साथ युगबोध को अ भ य त करती है। समकाल न क वता का असल
आधार यथाथ है। जीवन क वसंग तय को इसने वशेष मह व दया है। सपाटबयानी
म जीवन के यथाथ को तु त करना समकाल नता का मह वपूण काय है। समकाल न
क वता पढ़कर हम वतमान समय का बोध होता है। समकाल न क वता का आधार
'क मटमंट’ ( तब ता) है। समकाल न क वय ने प रवेश के यथाथ को नंगा करने के
लए नंगी भाषा का योग कया। इस दौर के क वय ने अपने पूव के का या दोलन
को नकार कर अपनी एक अलग भाषा क तलाश क है और इन क वय ने जनता क

315
सामा य भाषा और सपाटबयानी का सहारा लया और अपने भाव को खु ले श द म
य त करने का साहस कया। ग य-प य क सीमा को इ ह ने ख म कर दया।
उदा - छायावाद के क व श द को तोल कर रखते थे,
योगवाद के क व श द को टटोल कर रखते थे,
नई क वता के क व श द को गोल कर रखते थे
सन ् सात के बाद के क व श द को खोल कर रखते ह।
(धू मल-कल सु नना मु झ,े पृ. 36)

19.2.3 समकाल न क वता का काल- नधारण

सामा यत: सन ् 1960 के बाद क क वता के साथ 'समकाल न श द जोड़ दे ते ह।


ले कन डॉ. व वंभर नाथ उपा याय के अनुसार इमरजसी के बाद समकाल न क वता
शु होती है। 'साठो तर क वता इसका दूसरा सम च लत नाम है। डॉ. रामदरश म
के अनुसार - 'सन ् 1960 के आसपास क क वता, नई क वता से अपने का अलग
करती हु ई दखती है। डॉ. राहु ल साठो तर क वता को 'समकाल न क वता कहने के प
म है। उनके अनुसार - 'समकाल नता (क ) क वता सन ् 1960 के दौर के उ तरा म
उदय हु ई और उसक उदयशीलता समय-समाज क अ नवाय माँग क पू त कह जा
सकती है। इस दौर म दो क व (मु ि तबोध और धू मल) का सामािजक खर- वर हंद
क वता के पाठक को भा वत कर सका, और कहा गया क ये दो क व अपनी क वता
के साथ समकाल न क वता का त न ध व कर रहे ह। डॉ. न द कशोर नवल भी इसी
कार अपना वचार कट करते ह। उनके अनुसार -''सन ् साठ के बाद क क वता का
वर समकाल न मानव नय त से सीधे सा ा कार का ह वर है। अ भ यि त के जब
पुराने उपकरण, बदले हु ए संदभ क अ भ यि त क ि ट से अपया त और अनाव यक
सा बत हु ए तो नये क व समकाल न जीवन को प रभा षत करने वाल सवथा नयी भाषा
क तलाश करने लगे और इस खोज के म म साठो तर क वता क भाषा या वर म
पूरे तौर पर बदलाव आ गया '। ले कन हंद म समकाल न क वता सन ् सात के बाद
पैदा हु ई कोई आकि मक क वता नह ं है। वह एक लंबी वकास या का प रणाम है।

19.3 समकाल न क वता का वकास म


आज समकाल न हंद क वता के प म िजस क वता क पहचान क जा रह है, उसे
अपना व प और अपनी पहचान ा त करने तथा वकास करने के लए लंबा संघष
करना पड़ा है। ऐ तहा सक संदभ म रखकर इस संघष को दे ख तो इस का य आंदोलन
क शु आत ग त- योगवाद आंदोलन से हु ई है। इनम ग तवाद का य आंदोलन का
वशेष मह व यह है क यह आंदोलन यथाथवाद चेतना को लेकर शु हु आ और
समकाल न हंद क वता इस यथाथवाद चेतना का ह वकास है। वत ता-परवत युग
म जो नई उ मीद और नई आ था का वर उभर आया था. उसका पूण च ण नई
क वता आंदोलन म हु आ था। ले कन जब वतं ता के बाद इस नई उ मीद और
316
आ था के वपर त ि थ तयाँ बदलने लगीं तो हंद क वता म भी आ था का वर दबने
लगा और अना था का वर बढ़ने लगा। इसके कारण छठे दशक क क वता म ह
मोहभंग का वर अना था, अ वीकार और नकार के प म उभर आने लगा, जो सातव
दशक तक आते समय अपनी चरम ि थ त तक पहु ँ च गया। राजकमल चौधर , धू मल
जैसे क वय ने अपनी क वताओं म इस कार का च ण कया है। धू मल ने अपनी
क वता 'पटकथा म इस कार लखा है
''मने महसू स कया क म व त के
एक शमनाक दौर से गुजर रहा हू ँ
अब न तो कोई कसी का खाल पेट
दे खता है, न थरथराती हु ई टाँग
सू यह न क धा दे खता है
हर आदमी, सफ, अपना धंधा दे खता है
सबने भाईचारा भु ला दया है
आ मा क सरलता को मारकर
मतलब के अँधेरे म (एक रा य मु हावरे क बगल मे) सु ला दया है।
सहानुभू त और यार
अब ऐसा छलावा है िजसके ज रये
एक आदमी दूसरे को, अकेले
अँधेरे म ले जाता है और
उसक पीठ म छुरा भ कता है '।
सन ् 1962 म चीनी आ मण क पराजय से यु प न घोर नराशा के कारण
संवेदनशील क व येक तर पर बदलाव के लए बेचैन होने लगे और वे दे श क
राजनी तक, सामािजक, आ थक तथा सां कृ तक यव था के वरोध म क वताएँ लखने
लग। दरअसल इ ह ं ि थ तय से हंद म समकाल न क वता क असल शु आत हु ई है
और इसक अलग पहचान भी यह ं से बन गई है। समकाल न क वय ने युग क
स चाइय के आँख दे खा हाल का वणन करते हु ए समसाम यक प रवेश को उसक पूर
भयावहता के साथ ह च त कया है। ऐसी ि थ त म हमार लोकतां क शासन
णाल और वतमान यव था के त असंतोष एवं आ ोश पैदा होना भी वाभा वक
है। इस समय के क वय ने हमार लोकतां त शासन णाल क खु लकर नंदा क है।
धू मल ने लखा है-
''दरअसल, अपने यहाँ जनतं
एक ऐसा तमाशा है
िजसक जान मदार क भाषा है '। (पटकथा, संसद ‘से सड़क तक, पृ. 105)
सातव दशक आते-आते हंद क वता म इस कार का वरोधी वर अपने पूरे तेवर के
साथ मु ख रत हु आ है और यह वर समकाल न क वता के व वध आंदोलन-क वता,

317
भू खी पीढ़ क क वता, सहज क वता और वचार क वता के प म ह मु ख रत हु आ
है। इस कार क क वता लखने वाले क वय म राजकमल चौधर , धू मल, जगद श
चतु वद , याम परमार, म णका मोहनी, मोना गुलाट आ द मु ख है।
आठव दशक तक आते समय हंद क वता के क य म और भी कई मह वपूण
प रवतन आए ह। इस दौर के क वय ने अपनी क वताओं को व छ वैचा रक धरातल
दे ने का यास कया। नरे ं म लखा है-”समकाल न क वता के
मोहन ने इस संबध
संदभ म हम लगता है क वचार ह एकमा ऐसी धु र है जो उसक पहचान दे ती है।
आज क क वता ि थ तय . घटनाओं या समय. क , स चाइय को लेकर चल रह है या
आ मगत मनोदशाओं को लेकर, उसक अ भ यि त वैचा रक आशय और बनावट के
बना संगत, ामा णक और सतक नह ं हो सकती है '। इस कथन के अनुसार हम
समकाल न क वता को वचार क वता भी कह सकते ह।. ीकांत वमा, केदारनाथ संह,
रघुवीर सहाय, लोचन, ल लाधर जगूड़ी, च कांत दे वताले, कु मार वकल, वेणु गोपाल,
गोरख पा डेय आ द आठव दशक के सबसे े ठ क व के प म माने जाते ह। आठव
दशक क क वता पूर तरह मानवीय संदभ से जु ड़ी हु ई क वता है।
नव दशक क क वता अपनी पूववत क वय क क वताओं से एकदम भ न दख
पड़ती है। उस काल के क व अपने समय क ि थ तय को दे ख-समझकर उनके त
संवेदनशील रहते ह। इनक क वताओं म नव दशक का भारत अपनी संपण

वभी षकाओं के साथ उभर आया है। इस दौर क क वता म राजनी त के त या
वचारधारा के त उतना मोह दखाई नह ं पड़ता, िजतना उसक पूववत पीढ़ म
दखाई पड़ता है। नव दशक के अ धकांश क व वचारधारा और दलगत राजनी त से
मु त होकर अपनी क वताओं म आम जनता क सम याओं का च ण करने लगे, और
यह क वता आम जनता के त पूण प से सम पत क वता है। इस दौर क क वता
नगर य जीवन के च ण के साथ-साथ लोक चेतना का च ण भी करने लगी। इस लए
क वता म एक कार क जनपद य आभा एवं थानीयता का समावेश भी होने लगा।
राजेश जोशी, उदय काश, मंगलेश डबराल, व णु खरे , ाने प त, अ टभु जा शु ल,
अशोक वाजपेयी, वीरे न डंगवाल, दे वी साद म , अ ण कमल, वनोदकु मार शु ल,
कु मार वकल, का यायनी, एकांत ीवा तव, कु मार अंबज
ु आ द अनेक क व ह जो आज
क भयावह एवं व प
ू ि थ तय को लेकर क वताएँ लख रहे ह।
इ क सवीं सद के ारं भक वष म तथा वतमान समय म भी जो क वता लखी जा
रह है, उसका बार क अ ययन करने से एक बात मु य प से सामने आती है क
क वता िजस प रवेश म लखी जा रह है, उसका मू ल वर लोक जीवन के तमाम
संघष को नै तकता, ईमानदार और भाव वणता के साथ अ भ य त करना है। आज
क वता को दे श- वदे श क तमाम चु नौ तय का सामना करना पड़ रहा है। उन तमाम
चु नौ तय के बावजू द क वता अपनी मौ लकता और अ भ यि त के नये-नये तर क के
कारण आगे बढ़ रह है।

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19.4 समकाल न क वता- व वध प र य
समय के प रवतन के साथ क वता के प र य म भी बदलाव आया है। पूँजीवाद के
वकास के साथ-साथ उसक सं कृ त भी वक सत होती रह है। वै वीकरण,
उपभो तावाद, बाजारवाद, आ थक सा ा यवाद और उप नवेशवाद क सं कृ त इसी
पूँजीवाद क दे न है। आज वै वीकरण और बाजारवाद क अंधी दौड़ म सम त संसार
शा मल होता जा रहा है। इन तमाम चकाच ध के बीच जहाँ मानवीय संवेदना कं ु ठत हो
रह है और हमार भाषा, हमार कृ त, हमार सं कृ त आ द सब कु छ हमसे छ न ल
जा रह है तब क वता इन सबके वरोध म आवाज उठाती है। जहाँ ौ यो गक का
वकास अपने सां कृ तक प रवेश के त नरपे और न:संग भाव पैदा करता है वहाँ
वक प के लए भी कोई गु ज ु ने लखा है-”जीवन के
ं ाइश नह ं होती है। कु मार अंबज
सामने
सबसे बड़ी मु ि कल यह है
क उ मीद का
कोई वक प नह ं
मृ यु भी नह ं '।
इस संकट काल म ह द क समकाल न क वता अ य त नडरता और साहस के साथ
आगे बढ़ रह है। भू म डल करण और वैि वक पूँजी के इस उ तर आधु नक दौर म
क वता येक घटना को बड़ी सजगता के साथ दे ख रह है। समकाल न समाज म
दन दन बढ़ती ू रता, हंसा, उ ंडता और आतंक को लेकर इस समय बहु त सार
क वताएँ लखी जा रह ह। हे मंत कु केरती पवन करण, भात, संजय कं ु दन , सु ंदर चंद
ठाकु र, नमला गग, वि नल ीवा तव, वसंत पाठ . नमला पुतु ल, ेमरंजन
अ नमेष, अ ण दे व आ द युवा पीढ़ के क व अपनी क वताओं म अपने समय क
भयावहता, हंसा, आतंक और आशंकाओं का च ण कर रहे है। इस लए हम कह सकते
ह क समकाल न क वता व तु त: अपने समय, समाज और उसके सरोकार से
हमकलाम होना है। समकाल न क वता वतमान समाज के आदमी के सहजबोध क
क वता है। इसम अपने समय क बेचैनी और छटपटाहट क पूण अ भ यि त हु ई है।
समकाल न जीवन क आपाधापी, बाजारवाद, तकनीक ां त, म ट नेशनल कंप नय का
बढ़ता आतंक-इन सभी पर क व अपना साथक ह त ेप दज कराते ह। अपसं कृ त
हमारे समूचे प र य पर छा गई है। यहाँ ह यारे नद व घूम रहे ह। मी डया उ ह
फ म म ढाल रहा है और ू रताएँ सु ंदर के उदाहरण के तौर पर द शत हो रह ह।
कु मार अंबज
ु ने य लखा है-
'धीरे -धीरे माभाव समा त हो जाएगा
ेम क आकां ा तो होगी मगर ज रत न रह जाएगी
झर जाएगी पाने क बेचैनी और खो दे ने क पीड़ा
319
ोध अकेला न होगा वह संग ठत हो जाएगः◌ा
एक अनंत तयो गता होगी िजसम लोग
परािजत होने के लए नह ं
अपना े ठता के लए यु रत ह गे
तब आएगी ू रता
पहले दय म आएगी और चेहरे पर न द खेगी '। ( ू रता, पृ. 21)
वतमान समय क व यह अनुभव कर रहे ह क िजन लोग ने हमारे समय को ू र,
यथाथ एवं बाजा बना दया है. उ ह ं ताकत ने क वता को लोग से दूर करने क
को शश क है। फर भी आज क क वता समकाल न संकट से जु ड़ी हु ई क वता है।
आज समकाल नता का मतलब है पूँजी. बाजार, वाथ और अमानवीकरण के व
जागत होना। उपभो तावाद के इस दौर म आज सभी चीज बेची या खर द जा रह ह।
बाजार सव ासी है। बाजार क एक वड बना यह है क वहाँ चीज अपने वा त वक प
म दखाई नह ं पड़ती। मंगलेश डबराल ने 'बाजार शीषक क वता म लखा है-
“जो लोग सफ सहमी-सी आंख से दे खते रहते ह।
वे भी जानते ह क यहां रखी चीज का कोई वक प नह ं है
फक सफ यह है क जो कु छ आम तौर पर
िजस तरह दखता है वह उस तरह नह ं होता
यह बाजार का एक ठोस आ याि मक आधार है '। (आवाज भी एक जगह है, पृ. 58)
मतलब यह है क आजकल बाजार म चम कार का यापार सबसे अ धक चल रहा है।
जब चीज अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रह ह, तब बाजार के प म हमारे सामने एक
भयावह प र य दखाई दे ता है। आज हर मकान दुकान म बदलने क होड़ म है तो
बाजार भी अपने आप बनता है, जैसे कु मार अंबज
ु ने 'एक बार फर शीषक क वता म
लखा है-
'दे खते ह फर क जहाँ दो जन हु ए इक े
वह ं हो जाता बाजार
अब बाजार का बनना इस दु नया क दनचया म
हर पल होने वाल एक मामूल सी घटना '। (अ त मण, पृ. 59)
मु त बाजार क असी मत समृ एवं खु शहाल का च ण ाने प त ने अपनी
'आजाद उफ गुलामी क वता म य लखा है-
“आजाद के गो डन जु बल साल म
आजाद का मतलब है
बाजार से अपनी पस द क चीज चु नने क आजाद
और आपक पस द
वे तय करते ह
िजनके पास उपकरण का कायाबल
व ापन का मायाबल
320
आपक आजाद पस द है उ ह
चीज का गुलाम बनने क आजाद ‘(संशया मा, पृ. 123)
क व को यह कहना पड़ता है क व वबाजार के इन दन म धीरे -धीरे ह बाजार ह
आपका व व बनता है। इस कार पूँजी और व तु आधा रत स यता ने अमानवीयकरण
क जो या शु क है, उसे आ खर दम तक नकारने का म समकाल न क वता
म हु आ है। आज समकाल न क वता का एक मु ा यह है क यह क वता मनु य को
सामािजकता का पहला पाठ पढ़ाती है। समकाल न क वता द लत वमश से अछूती नह ं
है। इ बार र बी, एकांत ीवा तव, का यायनी, बशीर बद, यश मालवीय आ द अनेक
क वय ने इस वषय को लेकर अनेक क वताएँ लखी है। समकाल न क वय ने नार
के त भी अपनी संवेदना कट क ह। वतमान पु षवाद समाज म नार का कोई
वशेष अ धकार नह ं है। समकाल न ह द क वता म नार वाद आ दोलन से जु ड़ी हु ई
क वताएँ लखी जा रह ह। अनेक क वय ने अपने तर से नार क पीड़ा को य त
करने का म कया है, िजनम मु ख ह- वनोद दास. गोरख पा डेय, दे वी साद म .
एकांत ीवा तव, का यायनी. गगन गल ब नारायण आ द।
अ य वषय के साथ पयावरण भी समकाल न क वता का एक वषय बन रहा है। डॉ.
वेद काश अ मताभ के अनुसार -''पयावरण भी समकाल न क वता क के य चंता का
एक उ लेखनीय प है। अत यह आकि मक नह ं है क सकाल न क वता म पयावरण-
दूषण से उ प न चंताएँ भी जहाँ-तहाँ झाँकती ह। अनेक क वय को लगता है क
आज क अनेक सम याएँ ाकृ तक संतु लन के बगड़ने से पैदा हु ई ह। औ यो गक और
नगर करण क अंधी दौड़ ने कृ त को इतना त- व त कया है क उसका
खा मयाजा हम कई तर पर भु गतना पड़ रहा है। मौसम-च के गड़बड़ाने से लेकर
ओजोन क पत म छे द हो जाने के हादसे मामूल नह ं है और इसके दु प रणाम
दूरगामी ह। हंद के अनेक क वय ने चंता य त क है क जब तकनीक स यता
धरती के नायुतं को छ न- भ न करे गी, कृ त क वाभा वकता को न ट करे गी,
तब धरती और कृ त व ु ध होगी ह '। एकांत ीवा तव, ाने प त जैसे क वय ने
अपनी क वताओं म इस त य को बखू बी उभारा है। आज हमारा दे श पानी के भार
संकट का सामना कर रहा है। यह संकट हर वष बढ़ता ह जाएगा य क जल-संचलन
करने वाल हमार न दय को हमार वाथ पीढ़ ने म लन व गंदा बना दया है।
ाने प त को 'नद और साबुन शीषक अपनी क वता म यह पूछना पड़ता है-
नद !
तू इतनी दुबल य है
और मैल -कु चैल मर हु ई इ छाओं क तरह मछ लयाँ’ य उतराई ह
तु हार दु दन के दुजल म कसने तु हारा नीर हरा
कलकल म कलु ष भरा (गंगातट, पृ. 19-20)

321
द ल के चौराहे पर ठ डे पानी क मशीन को दे खकर एकांत ीवा तव को डर लगता
है य क आकाश से बमोल बरसता पानी, न दय म खु ले आम बहता पानी अब
बकाऊ हो गया है।
“ द ल के एक चौराहे पर
म उसे दे खकर डर गया
क जो आकाश से बरसता है बेमोल
जो न दय म बहता है खु ले आम
तो अब यह पानी भी बकाऊ हो गया
बाजार म
कब तक हम अपनी भू ख से लड़ते थे
अब हम अपनी यास से भी लड़ना होगा '। (बीज से फूल तक, एकांत ीवा तव. पृ.
म)। आज लगभग यह तय हो चु का है क पूँजीवाद मान सकता, वै वीकरण, बाजारवाद
आ द के सि म लत प ने एक अमानवीयकरण को ज म दया है, िजसका बुरा असर
न केवल मनु य पर, बि क नद , पेड पशु-प ी और यहाँ तक क समू ची कृ त पर
भी पड़ा है। आज समकाल न क व यह चाहते ह क ाकृ तक स तुलन को अस तु लत
न कया जाए। आज के क व वतमान क हर वड बनाओं का च ण करते समय अपने
ऊपर अनेक दबाव को महसू स कर रहे ह, जैसे-तकनीक ां त का दबाव, आ थक
सा ा यवाद का दबाव, मु त बाजार का दबाव, नई आ थक नी त का दबाव,
म ट नेशन स का दबाव, चीज एच व ापन का दबाव, व व बक का दबाव और इन
सबके ऊपर वै वीकरण क नई सं कृ त का दबाव। इन सबके कारण दे श भर के
कसान को आ मह या करनी पड़ती है और अपनी जमीन क र ा के लए संघष
करना पड़ता है। नंद ाम और संगरू म जो कसान-मजदूर संघषरत ह. उ ह ं के त
अपनी हमदद कट करने के लए समकाल न क व त नक भी संकोच नह ं करते ह।
रवी भारती ने लखा है-
“वे इसी नंद ाम और संगर के लोग थे
वे लोग इसी म ी पानी के थे
उ ह ने सफ यह बताने क को शश क
क नंद ाम और संगरू कोई माल नह ं
जो चाहे जेब म लेकर चलता बने” (रवी भारती-जनस ता, 29 अ ेल, 2007) इसका
मतलब यह है क समकाल न क वता कालवाची क वता है। इसम अपने समय क सार
ग त व धय को हण करने क शि त है। यह अपने समय म घ टत होने वाल येक
घटना को हमारे स मु ख रखती है।
समकाल न क वता क बागडोर आज एक साथ कई पी ढ़य के हाथ म आ गई है। ये
सभी पीढ़ समकाल न जीवन क व वधताओं को बड़ी सतकता के साथ च त कर रह
है। समकाल न क व मनु य के जीवन, जगत, समाज और प रवेश का यथाथ जीवन

322
बड़ी प टता और वाभा वकता के साथ च त करते हु ए युग के वचार और
सम याओं को वाणी दे ते ह।

19.5 सारांश
समकाल न ह द क वता पूणत: अपने प रवेश से स प त होकर प रवेश के व वध
आयाम -सामािजक, राजनी तक, आ थक और सां क तक प पर गंभीरता से वचार
करती है। समकाल न क वता म युगबोध और युग -स य का खु ला च ण हु आ दे िजसके
कारण इसम वरोध और आ ोश का बल वर य त हु आ है। समकाल न क व अपने
समय क जीवंत सम याओं को समझने और उनके स य ह सेदार क इ छा कट
क है। समकाल न क व अपने सामािजक कम को यथासंभव नभाने के लए वचनब
दखाई पड़ते ह। समकाल न क वता म भाषा और श प योजना म भी बहु त अ धक
बदलाव दखाई दे ते ह। क वय ने अपनी इ छा के अनुसार भाषा एवं मु हावर का
नमाण कया है। इ ह ने भाषा को लोको मुखता दान कर द है। क वय ने अपने
भाव क अ भ यि त बहु त ह सहज, वाभा वक और सु लझे प म क है। वे श द
और भाषा म कसी कार का चम कार करने के प म नह ं है। बना कसी बंब ,
तीक के मोह म फंसे सरल और सहज ढं ग से वे अपनी बात कहते ह। समकाल न
क वता म श प-चेतना के आयोम व तृत हु ए ह, साथ ह क तपय श पगत एवं
शैल गत व वधता भी प रल त होती है। उपयु त ववेचन से मालू म होता है क
ह द क समकाल न क वता अपने उ तर आधु नक समय तक आते समय अनेक
आ दोलन एवं वृि तय को पार कर चु क है।

19.6 तनध कव
समकाल न क व अपने नकटतम ेरक क वय के प म नराला को मानने के प म
ह। नराला क िजन क वताओं मानवीय सं पश क ऊ मा भर हु ई है. उ ह समकाल न
क वता मानी जा सकती है। इस लए डॉ. ए. अर वंदा न ने इस कार कहा है-'' नराला
क क वता का यथाथ समकाल न क वता के यथाथबोध तक इस लए व तार पाता है
क उसम मानवीय सं पश क ऊ मा भर हु ई है '। अ ेय वारा संपा दत तीसरा
स तक, िजसका काशन सन ् श59 म हु आ, उसम नयी क वता क वैयि तकता के
आ ह के साथ आ ोश, नकार ओर अ वीकार क भावना भी मु ख रत हु ई है। यह
भावना आगे चलकर समकाल न क वता के प म मजबूत होने लगी। इस लए यह कहा
जा सकता है क समकाल न क वता 'नयी क वता के व वध आ दोलन म एक
मह वपूण आ दोलन है।
समकाल न क वता को एक आ दोलन के प म लाने तथा समकाल न क वता को
ह द म एक साथक पहचान दे ने वाले क वय म सबसे अ णी नाम मु ि तबोध और
धू मल के ह। समकाल न क वता पर सवा धक भाव मु ि तबोध और धू मल का है।
समकाल न क वता का सह प र य मु ि तबोध वारा बनाया गया है। मु ि तबोध क

323
क वता एक बैचेन मन क अ भ यि त है। उनक का य रचनाएँ समकाल नता क
शहादत है य क उनक रचनाएँ यि त और प रवेश के बीच का दुहरा तनाव लेकर
तु त हु ई ह। उनक का य-संवेदना के मू ल म नरं तर 'संघषरत मानक है। वे एक ऐसे
क व ह, जो अपने समय म पूरे दल और दमाग के साथ, पूर मानवता के साथ रहते
ह। इस लए उनक येक वाणी म 'महाका य क पीड़ा है। उनक क वता अपने समय
क क वता है और यह ह द के भ व य क बी क वता है। ह द क समकाल न
क वता मु ि तबोध क ऋणी है। मु ि तबोध के अलावा िजन क वय ने ह द म
समकाल न क वता क नींव डाल , उनम शमशेर बहादुर संह, रघुवीर सहाय, केदारनाथ
संह, वजयदे व नारायण शाह , सव वर दयाल स सेना ीकांत वमा, धमवीर भारती,
नरे श मेहता, भवानी साद म आ द के नाम वशेष उ लेखनीय है। अपनी का यगत
मौ लकता के कारण समकाल न क वय म सव वर दयाल स सेना का नाम वश ट
मह व का है। उनक क वता म अपने समय क सम याओं के त साह सक
जाग कता का भाव व यमान है। उनक क वताओं म क व के वषाद, आ म ोध,
खीझ, असंतोष और बैचेनी क अ भ यि त हु ई है तो 'जंगल का दद’म क व जन ां त
के लए य नशील होते है। 'खू ँ टय पर टं गे लोग म स सेना ने यं य के सहारे दे श
क सामािजक, राजनी तक और धा मक वडंबनाओं का पोल खोला है। उनक अ धकांश
क वताएँ घृणामय हंसा और आतंक के बीच से गुजरती है।
ीकांत वमा ने अपनी क वताओं म म यवग य जीवन क आशा-आकां ाओं का च ण
कया है। उनक क वताएँ समकाल न मनु य क नय त क ओर संकेत करती है, जो
बीसवीं शता द क बबरता का जीवंत च ण तु त करने म सफल हु ई ह। रघुवीर
सहाय, राजकमल चौधर , वेणु गोपाल, याग शु ल, वजयदे व नारायण साह , ल लाधर
जगूड़ी आ द क वय ने वैयि तक भावभू म पर सामािजक प रवेश क सश त
अ भ यि त करने क को शश क है। वेणु गोपाल क क वता जीवन क यातनाओं एवं
छटपटाहट को बड़ी सहजता से य त करती है, वे मानते ह क 'िजंदगी के
दरवाजे’क वता से नह ं खु लते और 'क वता कायरता का एक द तावेज’है। समकाल न
क वय म बलदे व वंशी, गोरख पा डेय, व णु खरे , कमलेश, अ ण कमल, जगद श
चतु वद , अशोक वाजपेयी, िजते कु मार, ाने प त, च का त दे वताले, नीलम आ द
ऐसे क व ह, िज ह युग क वडंबनाओं और वकृ तय का गहरा एहसास है।
धू मल क क वता समकाल न क वता के मजाज क सफल पहचान है। उनक
क वताओं म जीवन और जगत क वकृ तय का अंधकार समाया गया है। क वता
धू मल के लए कोई साफ-सु थर , सु ंदर व तु ओं को सजाकर पेश करने का साधन नह ,ं
बि क उसम जीवन का यथाथ रहता है, इस लए उनक क वता म एक 'डरावनी
स चाई’है-
उसने जाना क हर लड़क
तीसरे गभपात के बाद

324
धमशाला हो जाती है, और क वता
हर तीसरे पाठ के बाद
नह -ं अब वह ं कोई अथ खोजना यथ है
(संसद से सड़क तक-धू मल-पृ. 7)
धू मल क क वता आधु नक मानव के मोहभंग, भय, बेचैनी, ास, आ ोश एवं संघष
क क वता है। दरअसल, धू मल ने समकाल न क वता को नया मु हावरा दया है।
समकाल न क वय म धू मल िजतना अ धक च चत हु ए, उतना अ धक अ य कोई
समकाल न क व नह ं हु आ। समकाल न ह द क वता के अ य त मह वपूण क व
धू मल का असल नाम सु दामा पा डेय है। उनका ज म 9 नवंबर 1936 म उ तर दे श
के खेवल नामक गाँव म हु आ था। ेन टयूमर के कारण 10 फरवर 1975 को उनक
मृ यु हु ई। बहु त कम उ म अ छा लखकर वे काफ व यात हु ए थे। 'संसद से सड़क
तक’नामक क वता सं ह उनके जीवन काल म छप गया था। मरणोपरांत उनके दो
का य सं ह-'कल सु नना मु झे और 'सु दामा पा डेय का जातं का शत हु ए। धू मल
क जीवन- ि ट एवं का य-सृि ट दोन पर मा सवाद दशन का भाव पड़ा है। अपने
का य के मा यम से अपने समय के सबसे नर ह और सताए हु ए आदमी को वे मान
संघष के लए तैयार करते तीत होते है। उनक समू ची सहानुभू त आम आदमी के
त है। अपने दे श क बलकु ल सह और प ट त वीर बड़ी नभ कता से धू मल
तु त करते ह। धू मल म असहम त और अ वीकार का बल वर है। उनक क वता
न वगत क क वता है, न भ व य क । वह केवल आज क और इस ण क क वता
है। उनक क वताओं म आधु नक मानव के मोहभंग, भय बेचैनी. ास, आ ोश एवं
संघष का वर मु ख रत हु आ है। धू मल क क वता का मू ल वर यं या मक है। उनक
यं य शैल म एक वल ण मा मकता तथा 'मारक धार है। उ ह लगता था क
जातं , समाजवाद, संसद और सं वधान के नाम पर लोग को मू ख बनाया जा रहा है।
धू मल संसद से सड़क तक का क व है। इस लए उनक क वताओं म वातं ो तर भारत
का सामािजक, राजनी तक, आ थक तथा सां कृ तक मान च है।
अशोक वाजपेयी आधु नक ह द क वता के मु ख ह ता र म एक है। सन ् 1941 म
ज मे अशोक वाजपेयी पछले लगभग पताल स वष से सा ह य, आलोचना और
सं कृ त क दु नया म स य रहे ह। उनका ज म म य दे श के सागर म हु आ था।
उनक श ा सागर व व व यालय और सट ट फस कॉलेज और द ल व व व यालय
म हु ई थी। फर उ ह ने आई.एस. क पर ा उ तीण क थी और भारतीय शास नक
सेवा म आए। भारतीय शास नक सेवा म कायरत होकर वे सा ह य-सृजन म लग गए।
भोपाल के भारत भवन क थापना और या त म उनक मह वपूण भू मका रह है।
पूव ह बहु वचन, समवेत आ द अनेक मा सक प काओं के वे संपादक रहे थे। अशोक
वाजपेयी ेम एवं सौ दयानुभू त के क व ह। उ ह ने अपनी क वता के लए हमेशा एक
नयी जमीन क खोज जार रखी है। उनक क वता के मु य सरोकार ह-जीवन, ेम

325
और मृ यु । शायद ये तीन वषय ह मु य प से उनके का य संसार और का य या ा
म शा मल ह। अब तक लखी उनक क वताओं से पता चलता है क उनक अ धकांश
क वताएँ ेम, जीवन और मृ यु पर अलग-अलग लखी गयी ह, िजनका पढ़ते हु ए ेम
और मृ यु जैसे वरोधी जीवन स य को एक साथ अनुभव कर सकते ह। यानी उनक
क वता के एक छोर पर ेम है तो दूसरे छोर पर मृ यु है। बीच म जो जगह है, वह ं
है-यह समाज, जहां क व का आदमी लड़ता - भड़ता वजयी और प त होता जीवन-
जगत से संवाद करता है।
अब तक अशोक वाजपेयी के यारह क वता-सं ह और यारह आलोचना-पु तक
का शत ह। उनके स का य सं ह है-शहर अब भी संभावना है, थोड़ी सी वजह.
बहु र अकेला, त पु ष , घास म दुबका आकाश आ द। उनक क वताओं म बौ कता का
वच व अ धक है जो अपने समय क सम याओं से लगातार जू झती हु ई दखाई दे ती
है। उनक रचनाओं म मनु य क यातनाओं का 'भयावह संसार बसा है। उनक क वता
इस भयावह संसार क बढ़ती हु ई वसंग तय से सीधे सा ा कार कराती है। कं तु इन
वसंग तय के बीच भी जीवन के त आ था नह ं खो बैठते ह। 'क व दु नया के
अ भश त लोग क िज दगी बदलने के लए एक “लालटे न क रोशनी के बजाय
धधकता हु आ सू य” चाहते ह। आज समाज म फैल हु ई वषमता को दूर करने के लए
जब राजनी त और वचार म सारे वक प शू य नजर आ रहे ह, ऐसे म क व को
व वास है क समाज म क वता ह अंतत: वक प के प म शेष है, जो आज आदमी
और समाज को साहस के साथ जीने का संक प दे सकती है। यह व वास ह अशोक
वाजपेयी के क व-कम का सच है।
डॉ. बलदे व बंशी क व, आलोचक, संपादक एवं प कार के प म व यात ह। उनका
ज म 1 जू न 1938 को मुलतान शहर (पा क तान) म हु आ था। उ ह ने पंजाब
व व व यालय से ह द म एम.ए. क पर ा उ तीण क और फर उ ह ने अम तसर
के गु नानक दे व व व व यालय से पीएचडॉ. क उपा ध ा त क । वे द ल
व व व यालय के अर वंद महा व यालय म र डर थे। अब वे ' वचार क वता के संपादक
के प म कायरत ह। 'उपनगर म वापसी, अंधेरे के बावजू द, कह ं कोई आवाज नह ,ं
हवा म खल खलाती लौ, वाक् गंगा, ए टर तक जाग रहे ह आ द उनके स का य
सं ह ह। बलदे व वंशी क क वताएँ आंत रक जागरण क क वताएँ तो ह ह , बाहर
आ मण से खु द को बचाए रखने क एक सजग को शश भी इन क वताओं म है।
डॉ. बलदे व वंशी क क वताओं क वशेषता इस बात म ल त होती है क वे अक वता
के भावशाल दौर म भी उसक असामािजक और मू य वरोधी चेतना से भा वत नह ं
हु ए और सामािजक सरोकार क क वता लखते रहे । उनक क वताएँ लगातार सामािजक
प र े य और मानवीय च ता से जु ड़ती रह । उनक सामािजक वचार-पु ट संवेदना
उनम इस कदर रची-बसी है क जब वे उसे श द दे ते ह तो लगता है क हम उससे
सीधा मान सक सा ा कार कर रहे ह। उनक क वताएँ नगर य अनुभू तय का तीसरा

326
आयाम य त करती ह। क व ने अपनी रचनाओं म न न और म य वग य नगर
जीवन क पीड़ा को वाणी द है। एक संवेदनशील क व के प म बलदे व वंशी जाने-
पहचाने दुख और तकल फ को लगातार महसूस ने और उ ह ं पर एका होकर लखने
वाले क व ह। उनम मु हावर को आकषक बनाने क शि त है। बलदे व वंशी म कृ त
के त भी एक नई संवेदनशीलता है। इस लए उनके रचना-संसार म कृ त का
पांतरण, े ण और सोच-संवेदन म संयु त धरातल पर हु आ है। धू प, च ड़या, ब चे,
नद , खु शबू पहाड़, आकाश वायु आ द से वातालाप करता क व कभी भी, कह ं भी
सु त, उदास या लापरवाह नह ं आता। '
ह द के ग तशील यथाथवाद का य धारा को आगे वक सत करने वाले क वय म
अ ण कमल का अ य त मह वपूण थान है। उनका ज म व 5 फरवर 1954 ई. म
बहार के रोहतास िजले के नासर गंज गाँव म हु आ था। वे पटना व व व यालय म
अं ेजी के ोफेसर ह। उनके चार का य सं ह का शत हु ए ह-'अपनी केवल धार, 'सबूत
'नए इलाके म और 'पुतल म संसार'। अ ण कमल सन ् 70 के बाद क क वता म
आजाद ह दु तान के ऐसे नाराज नवयुवक क क वता लखते ह, िजसम यव था के
खलाफ तीखे गु से के साथ सामािजक वषमता पर भी तीखा हार है। पर उनका वर
धू मल जैसा आ ामक नह ं है। उनक भाषा म सबसे बड़ी वशेषता है-ठे ठ थानीयता
का बोध। यह ठे ठ थानीयता न केवल उनक का य-भाषा को समृ करती है, बि क
उनक का य संवेदना को बहार और पूव उ तर दे श के आम आदमी को वाणी दे ती
है। िज दगी क हक कत को का या मक संवेदना म ढालना अ ण कमल क अपनी
पहचान है। म य वग य और न न म यवग य ि थ त क बार क पकड़ अ ण कमल
क क वताओं क उ लेखनीय वशेषता है। जीवन क अभाव तता, बेबसी और शोषण-
या से क व अ छ तरह वा कफ ह। क व क छटपटाहट और आकु लता युग क
कड़वाहट का सबूत है। हमार नपु स
ं कता और संवेदनह नता पर क व कई जगह न
च ह लगा दे ते ह। अ ण कमल क क वता म अनुभव और वचार का सामंज य हु आ
है। 'होटल, डेल पैस जर, खु शबू रचते है हाथ, क याण, खबर’आ द उनक अ धकांश
क वताएँ अपनी खर वैचा रकता और सपाट अ भ यि त के लए वशेष च चत हु ई ह।
अ ण कमल स चे अथ म जीवन धम क व है। उनक क वताओं म अपने को और
अपने समाज को लगातार खोजने और या या यत करने क को शश हु ई है। उनक
क वताओं क एक खा सयत यह है क उनम पूर दु नया से इ सानी सरोकार मौजू द है।
भगवत रावत क क वताओं म समकाल न क वता का एक अलग अंदाज मु ख रत हु आ
है। आम आदमी के त आ मीयता, नसंकोच अपनापन और ढे र सार क णा उनक
क वताओं म मौजू द है। इस लए उनक क वताएँ आदमी को ह के म रखकर सह
श द और भाषा क तलाश करती ह। आदमी को लेकर एक नःसंकोच अपनापन और
क णा भगवत रावत क क वता के के म है। इस लए उ ह लखना पड़ता है क
'इस दु नया को ढे र सार क णा चा हए'। इस का यांश म ह जैसे उनके समूचे क व-

327
कम का सारांश छपा हु आ है। अ भ यि त को लेकर उनक क वता म कई क म के
'कला मक संकोच’नह ं है। भगवत रावत के लए क वता लखना एक त ठा का न
नह ं है। इस लए लखना उनके लए ज र नह ं है। क वता सृजन के संबध
ं म उनका
यह दावा रहा है क आज के भारतीय प रवेश म जो क वता लखते ह, उनके पास
लखने के अलावा और कोई रा ता नह ं है। उनक क वता म मानवीय संबध
ं क इतन
सघन ऊ मा, बैचेनी और अंतह न ती ा दखती है जो आज के तथाक थत स य
संसार म दुलभ ढं ग से अल य है। भगवत रावत घरे लू संवेदना के क व ह। उनम
न न वग के आम आदमी क िजंदगी के छोटे -छोटे अनुभव को बहु त का या मक
संवेदना के साथ उपि थत करने क मता ह।
गोरख पा डेय ह द के खर जनवाद क वय म एक ह। उनका ज म सन ् 1945 म
उ तर दे श के वाराणसी के आस-पास एक न न म यवग य प रवार म हु आ। उनक
उ च श ा द ल के जवाहरलाल नेह व व व यालय म संप न हु ई थी। अ य त
भावुक एवं संवेदनशील होने के कारण 26 जनवर 1979 को उ ह ने आ मह या क
थी। बहु त कम उ म उ ह ने अ छ और तर य क वताएँ लखकर समकाल न ह द
क वता के इ तहास म अपना थान बना लया है। उनके दो मु ख का य सं ह ह-
'जागते रहो सोने वाले’और ' वग से वदाई'। उनके भोजपुर गीत कसान और मजदूर
के बीच काफ लोक य ह। गोरख पा डेय के यि त व एवं कृ त व पर वामपंथी
वचारधारा का भाव प रल त होता है। वे न सलवाद आ दोलन से भी भा वत हु ए
थे। भारतीय समाज क सम याओं का हल उ ह ने जन ां त म दे खा। उनक सभी
रचनाएँ इस ां तकार मनोवृ त पर आधा रत ह। उनक रचनाओं म युग क स चाई
और अनुभू त क यापकता है। उनका सामािजक बोध गाँव क जमीन से पैदा होकर
शह रयत के त अ सर होता दख पड़ता है। मा सवाद वचारधारा का ती
आंदोलनकार प उनक क वताओं म पया त मा ा म उपल ध है। शासक एवं शा सत
वग के बीच क गहर खाई को जनता के सम तु त करना उनका उ े य रहा है।
गोरख पा डेय स चे अथ म जन क व थे और जनता के बीच काम करने के लए
जनता क भाषा म क वता लखने के प धर थे। जमी दार सोचता है, समझदार के
गीत, भू खी च ड़या क कहानी, तट थ, कु स नामा आ द उनक क वताओं म उनक
जनवाद सोच और प रवतन क आकां ा मु ख रत है।
च कांत दे वताले साठो तर ह द क वता के एक मह वपूण ह ता र है। उनका ज म
म य दे श के जौलखटा म 7 नवंबर, 1936 को हु आ। ह द म एम.ए. क पर ा
उ तीण होने के बाद उ ह ने सागर व व व यालय से पीएचडी. क उपा ध ा त क है।
द वार पर खू न से, लकडब घा हँ स रहा है, रोशनी के मैदान क तरफ, भू ख ड तप रहा
है, आग हर चीज म बताई गई थी, प थर क बच, उजाड़ म सं हालय आ द उनके
का य सं ह ह। च कांत दे वताले ह द क समकाल न का य-धारा के एक मु ख ेरक
क व ह। दे वताले मू लत: वप के क व होने के बावजू द जनता, जीवन, मू य और

328
कृ त के साथ संवाद-भावना से जु ड़े हु ए क व ह। उनम आ ोश है और आ ा मकता
भी है। उनक क वताओं म आज के मनु य क ासद को उजागर करने क को शश
क गई है। उ ह ने युगीन जीवन क ज टलताओं को यथाथ के धरातल पर अ भ य त
करने का यास कया है। य य प ये ज टलताएँ आज के याि क युग जीवन क या
य त िज दगी क उपज हो या आ थक-सां कृ तक वप नता हु ई हो या नै तक
अराजकता का प रणाम हो या समकाल न जीवन के तनाव और व व का कु फल हो,
तो भी दे वताले ने इन सबको मानवीय ि ट से परखते हु ए आम आदमी को ह मु ख
थान म रखकर क वताएँ लखी हे । दे वताले के लए क वता एक उ कृ ट रचना मक
आकां ा का तीक है।
ह द क समकाल न क वता म मंगलेश डबराल क या त एक जनवाद क व के प
म हु ई है। उनका ज म 16 मई 1948 को हु आ। अब तक उनके चार का य सं ह-
पहाड़ पर लालटे न (1981) 'घर का रा ता (1977) 'हम जो दे खते ह (1995) और
'आवाज भी एक जगह है (2000)- का शत हु ए ह। मंगलेश डबराल एक ऐसे क व ह,
िज ह ने क वता क व तु और उसके प को बहु त सावधानी से समझा है और इस
समझ व सावधानी को उ ह ने अ य त सहजता के साथ च त कया है। उनक
क वताएँ हम आ दो लत कए बना नह ं रहतीं। उनक क वताएँ अपनी सहजता और
आ मीयता से पाठक को पश करती ह। अपने अनेक समकाल न क वय से उनक
क वताएँ कई अथ म भ न और व श ट ह। उनक क वताएँ समकाल न जीवन के
अ धेर म घूमती हु ई हमार सामू हक मृ त के दुखते ह स को उजागर करती ह। यह
सच है क मंगलेश डबरालl क क वताओं म हताशा, नराशा, उदासी, अवसाद,
अकेलापन और मृ यु का च है ले कन उ ह ने कसी वाद क ि ट से इन सबका
च ण नह ं कया है। क व ने अपनी क वताओं म एक ऐसे आदमी क पीड़ा को य त
कया है, जो अकेला है और आतम नवासन क ि थ त झेलते-झेलते वतमान प रवेश
म वयं को असु र त और असहाय महसू स करता है। उनक क वताओं म रोजमरा
िज दगी के संघष क अनेक स प तयाँ ह मंगलेश चीज और उनसे जु ड़ी हु ई मृ तय
के सहारे संघष करते हु ए आदमी को पहचाना ह। अपने संसार म चीज को न ट करने
वाल अमानवीयता का आतंक उनक क वताओं म बहु त गहरा दख पड़ता है।
समकाल न ह द क वता- े म उदय काश का अ य त मह वपूण थान है। उदर
काश क तभा ग य एवं प य क सभी वधाओं पर समान प से फु टत हु ई है।
वे कहानीकार के प म भी व यात ह। उनका ज म सन ् 1952 को म य दे श के
शहडौत ् िजले के गाँव सीतापुर म हु आ। व ान म नातक होते हु ए भी उ ह ने सागर
व व व याल से ह द सा ह य म नातको तर उपा ध ा त क । 'सु नो कार गर,
'अबूतर कबूतर. 'रात म हारमो नयम आ द उनके का य सं ह ह। समकाल न क वय म
उदय काश अपने नवीनता और व वधता के लए बेहद च चत क व ह। उनक
क वताओं म आ ोश औ तीखापन कम है। सामू हक दुख उनक क वताओं म अ धक
च त हु आ है। आज वे हमार जन वरोधी यव था के अनेक पहलुओं के खलाफ ती

329
त याएँ उनक क व म मलती ह। उदय काश अपनी क वताओं म अपने समाज,
समय, राजनी त त सं कृ त के तीखे सवाल से टकराने क को शश करते दखते ह।
थानीयता उदय काश क क वताओं के ाण ह। क वता म थानीयता और सहजता
का जैसा कोमल पश उदय काश के यहाँ मलता है, उनके समकाल न म आज भी
कम दखाई दे ता है।
ाने प त समकाल न ह द क वता के एक ऐसे मह वपूण क व ह, िज ह ने
समकाल न ह द क वता को नयी दशा एवं नूतन ि ट दान कर द है। उनका ज म
झारख ड के एक गांव पथरगामा म हु आ। उनक क वताओं म एक 'जनपद य’आभा है,
वाधीनता का गौरव है, आंच लकता का उजास है तथा जीवन और जगत को मथने-
भेदने वाले समकाल न मु क अ नवाय अनुगँज
ू है। उनके लए क वता क व क
कथनी नह ,ं करनी है। ाने प त’एक ऐसे क व ह, जो क व-कम को ह अपने जीवन
का आ खर ल य और पाथेय मानते ह। उनक क वता वशेष आथ म सामािजक
सां कृ तक वमश क क वता है। उनके बारे म यह बहु ु त है क उ ह ने काशी म
भि तकाल न क वय जैसा जीवन- वास भी कया। उ ह ने व तु न ठता के साथ अपने
समय के अनुभव को क वता म च त करने क को शश क है। ाने प त इस
मायने म दुलभ क व ह क वे क वता के लए अपनी जी वका और अपना शहर भी
छोड़ सकते ह। उ ह ने अपने का य-सं ह-'गंगातट’एवं 'संशया मा के काशन वारा
समकाल न ह द क वता को उसका मु काम दया है। 'गंगातट’क क वताओं से एक
ओर क व क गहर िजजी वषा का पता चलता है तो दूसर ओर उनक का य-िजजी वषा
का भी। इस लए 'गंगातट’क क वताएँ समकाल न का य भू गोल का दूसरा तट लगती है।
वे अतीत के मो नगर काशी के बजाय उस आधु नक बनारस के नरक के क व ह।
उनक क वताएँ अ सर कई सवाल उठाती ह और जन सवाल का जवाब भी खोजती
ह। उ ह ने क वता को नरे राजनी तक वाह म बहने न दे कर उसे अपनी क व- तभा
से अपने समय क मानवीय कारवाह म बदलने का आ वान दया ह इस लए उनक
क वताएँ मानव के अ तमन को कु रे दती ह और कु रे दने के साथ-साथ कभी-कभी गहरा
घाव भी दे ती ह। इस सद क कालां कत और कालजयी स होने वाल क वता लख
रहे ाने प त व तु त: नराला और मु ि तबोध क सजग क व-चेतना के तनध
क व के प म उभरे है। व तु त: उनके का य संसार म हमार िज ासाएँ, हमारे सवाल,
हमारे दे श, हमार या ाएँ, हमार चीख और हमारा वलाप छपा है। आँख हाथ बनते
हु ए', 'श द लखने के लए यह कागज बना है आ द उनके अ य का य सं ह ह।
'एकच नगर उनका का य नाटक है।
एकांत ीवा तव समकाल न ह द क वता के त न ध क व ह। उनका ज म 8
फरवर , 1 9अ को छ तीसगढ़ के रायपुर िजले म हु आ। ह द म एम.ए. करने के बाद
उ ह ने पी. एच. डी. क उपा ध ा त क है। अब वे राजभाषा वभाग, गृहमं ालय के
अ तगत ह द श ण योजना, वशाखाप नम म ा यापक ह। 'अ न ह मेरे श द,

330
' म ी से कहू ँ गा ध यवाद और 'बीज से फूल तक उनके का य सं ह ह। एकांत
ीवा तव क क वता का मु य वषय ह-लोक जीवन क रागमयता और उसके भीतर
मानवीय िजजी वषा के व वध प क पहचान। इस लए वे ह द म लोक-संवेदना के
क व के प म व यात ह। क व के यह ं सु ख- व न और दुख - वंद म जीता हु आ यह
लोक बहु त का या मक नजर आता है। यहाँ कृ त और मनु य का साहचय और उससे
न मत समाज है, साथ ह साथ इस समाज म उ पीड़न क ासद छ वयाँ भी। एकांत
ीवा तव क क वताओं म राजनी त का वर भी है, िजसे ल त करने के लए
अतर त म क आव यकता नह ं है। वे हमारे समय के अ य त ज र क वताओं म
से एक इस लए ह य क वे गहर मानवीय चंताओं से भरे हु ए ह। उ ह ने पयावरण
क चंता को जीवन-संघष क ि थ तय और सम याओं से जोड़कर क वताएँ लखने क
को शश क है। एकांत ीवा तव क क वताओं क वशेषता अ न फूटने क व न को
पकड़ने म ह, िजसम उसक गंध भी है। अथात ् इनके यहाँ नमाण के पहले क पीड़ा
को दे खा जा सकता है। यह सृजन के पहले का वजन है। उ ह ने अपनी क वताओं के
वारा एक ऐसी दु नया क नमम ि थ तय का च ण कया है, जहाँ आदमी क
उ मीद भी लु त होती जा रह ह।

19.7 अ यास न
(1) 'समकाल न क वता से या ता पय है?
(2) समकाल न क वता के वकास म को समझाइये।
(3) समकाल न क वता के मु ख क वय क रचनाओं का प रचय दे ते हु ए उनक
का यगत वशेषताओं को उ ा रत क िजए।
(4) स क िजए क समकाल न क वता म आमजन क यथा कथा अ भ य त हु ई
है?

19.8 संदभ थ
1. रो हता व-समकाल न क वता और सौ दय बोध-वाणी काशन, नई द ल
2. अंजनी कुमार दुबे भावुक-समकाल न क वता के व वध आयाम-पूवाचल काशन,
द ल
3. माधव हाड़ा-क वता का पूरा य, वा दे वी काशन, बीकानेर
4. संतोष कुमार तवार -नयी क वता के मु ख ह ता र, जवाहर पु तकालय, मथु रा
5. भगवत रावत-क वता का दूसरा पाठ और संग, वाणी काशन, नई द ल
6. डॉ. राहु ल-समकाल न क वता, व वध संदभ, संधान, द ल
7. नरे मोहन-समकाल न क वता के बारे म, वाणी काशन, नई द ल
8. ए. अर वंदा न-समकाल न ह द क वता, राधाकृ ण काशन, नई द ल
9. अशोक संह-समकाल न क वता का व लेषण, लोकभारती काशन, इलाहाबाद

331
10. नंद कशोर नवल-समकाल न का य या ा, कताबघर नई द ल

332
इकाई-20 : ह द कथा सा ह य
इकाई क परे खा
20.0 उ े य
20.1 तावना
20.2 कथा सा ह य का उ मेष काल
20.3 ेमचंद काल
20.3.1 के य कथाकार ेमचंद
20.3.2 अ य कहानीकार का संसार
20.4 ेमचंदो तर ह द कहानी
20.4.1 यि तवाद कहा नय का प र य
20.4.2 सामािजक यथाथ का वर
20.5 नयी कहानी
20.5.1 पुरानी कहानी और नयी कहानी का अलगाव
205.2 नयी कहानी आंदोलन के मु ख कहानीकार
10.6 नयी कहानी के बाद का संसार
20.6.1 सचेतन कहानी
20.6.2 अ-कहानी
20.6.3 समांतर कहानी
20.6.4 जनवाद कहानी
20.7.5 द लत कहानी
20.7 सारांश
20.8 अ यासाथ न
20.9 संदभ थ
ं सू ची

20.0 उ े य
एम.ए. पूवा ह द के पा य म ह द सा ह य का इ तहास नप के अंतगत आप
इस इकाई म ह द कथा सा ह य’क या ा का अ ययन करगे। आधु नक काल को एक
अथ म ग यकाल भी कहा जाता है। कहानी और उप यास को ग य क के य वधा
के प म पहचान मल है। भारतदु युग िजसे आधु नक सा ह य का वेश वार कहा
जाता है, उस युग म कहानी क बजाए नबंध को के यता हा सल थी। भारतदु युग
म कहा नय के उ गम क सु गबुगाहट नजर आने लगी थी। कहानी से इतर अ य
ग य रचनाओं म कह ं कृ त च ण के मा यम से तो कह ं पा के संवाद एवं
च र गत वशेषताओं के उ लेख के वारा िजस रचना प का आभास हो रहा था,
अपने वक सत प म वह कहानी के नकट मालू म हो रहा था। धीरे -धीरे कहानी के

333
व प ने आकार हण कया और सफलता के िजन सोपान को ह द कहानी ने पश
करना शु कया वह कसी भी सा ह य के लए गौरव क बात है। इस इकाई म आप
ह द कहानी के इ तहास से जु ड़े अनेक संग का अ ययन करगे। इकाई अ ययन के
बाद आप प र चत ह गे :-
1. आधु नक कहानी के आरं भक व प एवं ोत से।
2. ारं भक ह द कहा नय क रचना प त से।
3. ेमचंद और साद क कथाभू म के अलगाव और उनके वकास क परं पराओं से।
4. नयी कहानी क नवीन ि ट से।
5. सचेतन कहानी, अ-कहानी, समांतर कहानी, जनवाद कहानी और उ तर आधु नक
कथा संसार से।

20.1 तावना
कहानी कहने सु नने क परं परा बेहद पुरानी है। सं कृ त म आ या यका क परपरा रह ।
पंचतं और हतोपदे श क कहा नय ने तो दे श काल क सीमा का अ त मण कर
यापक स हा सल क । ले कन आधु नक अथ म िजसे हम कहानी कहते ह, उसक
शु आत भारतदु युग से मानी जा सकती है। 1850 से 1900 तक उप यास कहानी का
अंतर प ट नह ं कया जा सकता है। इस दौर म सम त कथा सा ह य को उप यास
कहने का चलन था। इसी दौर म लखी कहानी ‘एक कहानी कु छ आप बीती कु छ
जगबीती िजसक शैल उप यास से मलती-जु लती थी, भारतदु ने कहानी से संबो धत
कया। ले कन आम तौर पद कशोर लाल गो वामी क इ दुमती को पहल कहानी माना
जाता है। यह सर वती म 900 म बतौर कहानी छपी थी। पर इसे भी गो वामी जी ने
उप यास कहकर का शत कया। इन त य से यह प ट होता है क ह द म उस
समय तक उप यास कहानी के बीच वभाजक रे खा नह ं खींची जा सक थी। इसी दौर
म लखी गयी अ य रचनाएँ भी कहानी वधा के अंतगत मानी जा सकती ह। माधव
राव स े क टोकर भर म ी और राजा शव साद सतारे ह द क राजा भोज का
सपना इसी तरह क रचनाएँ ह। कहा नय के ारं भक दौर के प म ववेद युग को
याद कया जा सकता है। शु ल जी 1900 से 1907 के बीच का शत होने वाल छ:
कहा नय को ह द क ारं भक कहा नयाँ कहते ह-इंदम
ु ती, गुलबहार , ै .
लेग क चु ड़ल
यारह वष का समय', पं डत और पं डतानी और दुलाई वाल को उ ह ने इस सू ची म
शा मल कया है। एक शता द पहले शु हु यी यह कथा या ा अनेक सोपान को तय
करती हु यी ऐसी ि थ त म पहु ंच चु क है, िजस पर कसी भी भाषा को नाज हो सकता
है। आइए इस कथा या ा का व तार से अ ययन कया जाए।

20.2 कथा सा ह य का उ मेष काल


उप यास एवं कहानी दोन ह आधु नक काल क ग य वधाएँ ह। पंचतं और
हतोपदे श के प म ाचीन कथाएँ हमार परं परा म शा मल ह। ले कन िज ह हम

334
आधु नक कहानी कहते ह, उनका व प ाचीन कथा से एकदम अलग है। ाचीन कथा
से इनका मु य अंतर घटनाओं एवं पा के संबध
ं म है। पहले पा का च र कथा के
पहले ह नधा रत कर दया जाता था, वह घटना वाह को अपने च र से भा वत
करता हु आ मोड़ता था। इससे अलग आधु नक कहा नय म च र पहले से नि चत
नह ं होता, वह घटनाओं का सहजात होता है या उनके साथ-साथ ज म लेता है। पूव
नि चत का अभाव इन कहा नय का ल ण है। आलोचक नामवर संह कहते ह, 'कहानी
छोटे मु ँह बड़ी बात करती है। यानी वह लघु जीवन खंड के मा यम से एक संपण

जीवन बोध या स य को का शत करती है। ' ेमचंद के पहले के कालखंड यानी ेमचंद
पूव युग को ह द कहा नय का आरं भक दौर कहा जा सकता है। इन कहा नय क
संरचना म घटना वै च य का भाव तौर पर दे खा जा सकता है। ह द कहा नय के
उ मेष काल के दौर म 'सर वती’प का ने उ लेखनीय भू मका नभायी। प का के जू न
1900 अंक म कशोर लाल गो वामी क कहानी 'इंदम
ु ती का शत हु यी। आरं भ म
इसक त ठा मौ लक कहानी के प म हु यी पर बाद म आलोचक ने यह यान
दलाया क इस पर कसी बंगला कहानी के साथ ह शे स पयर के नाटक 'टे पे ट’का
भाव है। आलोचक मधुरेश त काल न समय क उस असहम त का च ण करते हु ए
कहते ह, यह भाव भी अपने म इतना प ट और मु खर था क उसे मौ लक कहानी
के बजाए पांतर माना गया।'
आगे के दस वष ह द कहानी के उ मेष काल क ि ट से बेहद उ लेखनीय रहे ।
माधावराव स े क एक टोकर भर म ी (1901) भगवानदास क ' लेग क
ै ’(1901) पं. ग रजा द त वाजपेयी क पं डत और पं डतानी, आचाय रामचं
चु ड़ल शु ल
क ' यारह वष का समय (1903) लाला पावती नंदन क बजल (1904) मेर चंपा
(1905) एवं बग म हला क दुलाई वाल (1907) आ द कहा नय का संदभ इस ि ट
से मह वपूण है। इन कहा नय के आधार पर इस काल क कहानी क दु नया क
त वीर एक हद तक प ट क जा सकती है। इस दशक के अंत म वृ दावनलाल वमा
क भी दो कहा नयाँ सर वती’म का शत हु यी। राखीब द भाई’ और तातार और एक
वीर राजपूत'।
इस दौर म कहानी ने वतं वधा के प म अपनी वीकृ त क लड़ाई लड़ी। यह
लड़ाई दो तर पर स य थी-एक अि त व क , दूसर वीकृ त क । कहानी को
सामािजक वीकृ त ा त नह ं थी, लोग इसे युवाओं को पथ ट करने वाला मा यम
मानते थे। इसका एक रोचक उदाहरण यह है क राजा बाला घोष को अपना वा त वक
नाम छपाकर जंग म हला’नाम से कहानी लखनी पड़ी। उसी तरह हम बाबू ग रजा
कु मार घोष को पावतीनंदन नाम से कहा नयाँ लखते हु ए पाते ह।
इस दौर क कहा नय म य य प आदश, ब लदान और अतीत गौरव क चेतना मु ख
प से उपि थत है, बावजू द इसके यथाथवाद समझ भी वक सत होती नजर आती है।

335
20.3 ेमचंद काल
उ मेष काल के बाद ह द कथा सा ह य के इ तहास म एक ऐसे कथाकार का ादुभाव
होता है िजसक रचना मक ऊजा इस कदर स य और खर है क उसके नाम पर
ह द कथा सा ह य म काल वभाजन कया जाता है।
ेमचंद का पहला कहानी सं ह सोजे वतन’1909 म का शत हु आ। त काल न तानी
हु कू मत ने इस सं ह पर सडीशन का आरोप लगाया और उनक अदम मौजू दगी म
सं ह क सार तय को आग के सु पदू करते हु ए यह चेतावनी द गयी क वे भ व य
म ऐसा कु छ नह ं लख। उ ह इसके लए खैर मानने क सलाह भी द गयी थी क वे
टश अलमदार म ह, नह ं तो इस जु म के लए उनके हाथ कलम कर दये जा
सकते थे। उनक कथा या ा 1936 तक जार रह , अं तम कहानी कफन भारतीय
सा ह य संसार म मील का प थर है। इस युग के अ य कहानीकार म व व भरनाथ
शमा कौ शक', व व भरनाथ िज जा, सु दशन. वालाद त शमा आ द ेमचंद क परं परा
के कहानीकार ह, अथात ् उनक कहा नयाँ आदश मु ख यथाथवाद से भा वत ह। एक
धारा रोम टक कथाकार क थी, िजनम जयशंकर साद, जैने , पांडेय बेचन शमा उ ,
सू यकांत पाठ नराला, सयाराम शरण गु त, दयेश, च धर शमा गुलेर , राजा
रा धकारमण साद संह भगवती साद वाजपेयी, चतु रसेन शा ी आ द उ लेखनीय ह।

20.3.1 के य कथाकार ेमचंद

ेमचंद के कथा संसार को मु य प से तीन चरण म बाँटा जा सकता है। 1916 से


1920 तक के काल को उ मेष काल क सं ा द जा सकती है। 1916 म उनक
मशहू र कहानी पंच परमे वर का शत हु यी। नमक का दारोगा, बड़े घर क बेट , रानी
सार धा शंखनाद, 'बक का दवाला, चू ड़ी काक आ द कहा नय को इसी कालाव ध म
रखा जा सकता है। इन कहा नय म पुराने आदश को ति ठत करने का यास है।
इस दौर क कहा नय म तीन तरह के वर क मौजू दगी है-आदशा मक,
इ तव ता मक और घटना बहु लता।
उनक कहा नय का दूसरा दौर 1920 से 1930 तक माना जा सकता है। माता का
दय', 'मैकू, 'आ माराम', 'गर ब क हाय', 'दुगा का मं दर, व पात, सेवामाग,
'आभू षण, 'शतरं ज के खलाड़ी जैसी कहा नयाँ इसी दौर म लखी गयीं। इस दौर क
कहा नय म वे आदश क नयमानुव तता के च कर से उबर कर यथाथ का सा ा कार
करते नजर आते ह। थू ल इ तव ता मकता पीछे छूट जाती है, संवेदना और
मनोवै ा नक सू मताएँ कथा संरचना का आधार बनती ह। नाटक यता और यं य के
पैनेपन का भी समावेश होता है ।
कथा वकास के तीसरे चरण म हम 1930 से 1936 के बीच का शत कहा नय को
रख सकते ह। इन कहा नय म वे सामा यत: यथाथवाद दखायी दे ते ह। इस दौर म

336
ह नशा. ' मस प ा, 'पूस क रात और 'कफन’जैसी कहा नयाँ लखी गयीं। कफन ह द
कथा संसार म मील का प थर है। इसम वगत सं कार , धा मक ढ़य , संवेदना के
च लत ढाँच पर पुन वचार क ां तकार तावना है। िजसे हम अमानवीयकरण या
डी यूमनाइजेशन कहते ह, उसका बेहद मारक च ण कफन कहानी म मौजू द है।
वतमान कहानी क जो वधा यूरोप से आयी, उसे ेमचंद के अंदाज ने ठे ठ भारतीय
बना दया। उ ह ने कथा क अंतव तु म भारतीय जीवन, उसका पर पर वरोधी
समकाल न यथाथ एवं आदश और वकास सबको शा मल कर दया है। उनक संवेदना
यापक एवं गंभीर थी। यापकता का प रद य यह है क उ ह ने समाज क सभी
े णय के पा अपनी कहा नय के लए चु न।े गंभीरता यह है क उ ह कभी कहानी के
अंत तक पहु ँ चने क अधीरता नह ं होती। उ ह ने कसानी जीवन के साथ-साथ नार
मनो व ान और बाल मनो व ान पर बेहतर न कहा नयाँ लखी। ईदगाह और रामल ला
इस ि ट से बेहद उ लेखनीय ह। चू ड़ी काक कहानी म उपे ता बूढ़ काक क खोज
खबर अंतत: छोट ब ची ह लेती है। बूढ़े और ब चे ह नह ,ं उनक कहा नय म पशु-
प य को भी बेहद आ मीयता द गयी है। दो इत। क कथा, का ह रा-मोती, 'पूस क
रात का झबरा कु ता, 'आ माराम का तोता जैसे पा ह द कहानी क बे मसाल नजीर
ह। दो बैल क कथा म पराधीनता के व संघष का तीका मक च ण कया गया
है। ेमचंद क सम त कहा नयाँ 'मानसरोवर’के आठ भाग म संक लत ह।

20.3.2 अ य कहानीकार का संसार

व वंभरनाथ शमा कौ शक, व व भरनाथ िज जा, सु दशन, वालाद त शमा आ द


कहानीकार ेमचंद क तज पर आदश मुख यथाथवाद कहा नयाँ लख रहे थे। ये
कहा नयाँ घटनाओं और इ तवृ त को आधार बनाकर अपना वकास करती ह। भाषा म
सपाटता और साफगोई के त व ह। कौ शक के कहानी सं ह ह-' च शाला, 'म णमाला,
'क लोल'। िज जा क ँ ट वाल ’शीषक से
कहा नयाँ घूघ का शत हु यी। सु दशन क
कहा नयाँ सु दशन सु धा, तीथया ा, 'पु पलता, 'ग पमंजर , सु भात आ द शीषक से
का शत हु यी।
ेमचंद के समय ह कहानी क एक अलग धारा वक सत हो रह थी, इसे
वचछ दतावाद या रौम टक धारा कह सकते ह। इस ेणी म जयशंकर साद, जैने ,
उ नराला, सयाराम शरण गु त , दयेश के साथ-साथ वे कथाकार भी शा मल ह,
िज ह ेमचंद सं थान का कहानीकार कहा जाता है। ऐसे कहानीकार म पं. चं धर शमा
गुलेर , राजा रा धकारमण साद संह, भगवती साद वाजपेयी, चतु रसेन श ी,
वनोदशंकर यास, वाच प त पाठक जैसे रचनाकार शा मल ह। गुलेर जी क स
कहानी उसने कहा था ह द कथा सा ह य के इ तहास म मील का प थर 'है। कहने के
लए उ ह ने दो और कहा नयाँ भी लखीं-बु ू का काँटा और 'सु खमय जीवन’ले कन
उनक स का आधार उसने कहा था कहानी ह है। इस कहानी क लोक यता का

337
अंदाज इससे लगाया जा सकता है क ह द का कोई भी त न ध कथा सं ह इस
सं ह के बना अधूरा सा लगता है। साद क कहा नय म व छ दतावाद त व उसी
तरह मौजू द ह, जैसे उनक क वताओं म दखायी पड़ते ह। उनक पहल कहानी ' ाम
1911 म इ दु म छपी। शु म उनके दो कहानी सं ह छपे-छाया और त व न'।
'छाया’क कहा नयाँ ेमवृ त पर आधा रत ह। ' त व न’म भावा मकता का रं ग और भी
गहरा है। 1916 से 1933 के बीच साद के दो और सं ह छपे-'आकाशद प’और
'आँधी'। 'आकाशद प म ाय: मान सक व व का च ण कया गया है। 'आँधी क
संवेदना यथाथवाद सम याओं पर आधा रत है। 1936 म 'इ दजाल’कहानी सं ह
का शत हु आ। सालवती और 'गु ड
ं ा’जैसी कहा नयाँ इसी सं ह म शा मल ह। जहाँ
ेमचंद क कहा नय म व वधता का फलक काफ व तृत है, वह ं साद क कहा नय
म मनोजगत क पैठ वल ण ढं ग से मौजू द है।

20.4 ेमचंदो तर ह द कहानी


ेमचंद का नधन 1936 म हु आ। उनके नधन के पहले ह ह द कहा नयाँ मोटे तौर
पर दो भाग म वक सत होती नजर आ रह थीं-सामािजक यथाथ एवं यि तवाद ।
हालां क कु छ आलोचक को इस वभाजन म सरल करण दखायी दे ता है। ले कन इससे
इनकार करना संभव नह ं क इन दो धाराओं का अि त व था। सामािजक यथाथ को
मु य आधार मानने वाले कहानीकार को आलोचक ने ग तवाद कहानीकार भी कहा
है। ेमचंद क सामािजकता का वकास अ ेय इलाच जोशी म हु आ। ह द कहानी
संसार म 1950 तक यह ि थ त रह । इसी दौर म आंच लक कहा नय का दौर भी
शु हु आ। 50 के बाद धीरे -धीरे वैयि तकता का दबाव बढ़ता गया। आजाद का उ लास
सबसे अ धक आंच लक कहा नय म मु खर हु आ। ले कन वकास या ा का यह बेहद
छोटा दौर था। सु ख का यह रोमानी अहसास ज द ह वगत ् हु आ। मा स और ायड
के भाव के बाद इस दौर क कहा नय पर अि त ववाद दशन का भाव भी पड़ा।

20.4.1 यि तवाद कहा नय का प र य

इस धारा के सवा धक उ लेखनीय कहानीकार जैने ह। महा मा गाँधी के आ वान पर


पढ़ाई बीच म छो कर वे वाधीनता आंदोलन से जु ड़ गये। अपने राजनी तक सरोकार
के लए वे अनेक बार जेल भी गए। उनक शु आती कहा नय का सं ह व 1929 म
का शत हु आ। उनक संपण
ू कहा नयाँ दस खंड म का शत हु यी। जैने क आरं भक
कहा नय - 'फांसी, गदर के बाद', प ा, 'जयसं ध, रानी महामाया से यह पता चल गया
क वे घटन बहु लता क बजाए वचार या मनोवै ा नक स य को आधार बनाते ह।
उनक दो कहा नय क काफ चचा होती है खेल’और प नी। 'खेल क रचना
ह त ल खत प का यो त के लए क गयी थी, जो उनके म नकालाते थे। यह
कहानी बाद म वशाल भारत म छपी। इस कहानी म दो ब च के घर दे बनाने के खेल
का च ण कया गया है। इसके मा यम से वेदांती दशन के रह य का च ण कया

338
गया है। प नी कहानी भी तीका मक है, िजसम ां त के पीछे कायरत संघषशील
म हला क आवाज को मु खर कया गया है। जैने क ाय: सभी कहा नयाँ
तीका मक ह। अपनी कहा नय पर उनक ट पणी है, 'इन कहा नय म भाव धान
ह, यथाथ अ धान। बा य गौण है, अंत: मु य। य जगत ् आनुषं गक अद य आ मा
ल यकृ कृ । उनक अ य तीका मक कहा नय म दो च ड़या, बाहु बल , त सत',् 'लाल
सरोवर और नीलम दे श क राजक या आ द दे खी जा सकती ह। जैने क कहा नय
म ी-पु ष संबध
ं क संि ल टताओं का बेबाक च ण हु आ है। जैने इस संदभ म
साद और गुलेर से अलग उ सग क भावना क बजाए सामा य जीवन क लालसाओं-
कामनाओं और पीड़ा का वणन करते ह। ले कन आलोचक का यह कहना है क वे ेम
म दे ह क स ता को तरो हत कर दे ते ह। उनक ेम कहा नय म मा टरजी, घु घ
ं ',
ामोफोन का रकॉड', जा नवी, ि ट दोष, ' याह और 'भाभी उ लेखनीय ह। उनक
कहा नयाँ 1942 तक का शत होती रह ।ं
अ ेय क कहा नय का पहला सं ह वपथगा नाम से का शत हु आ। उनक अनेक
कहा नय म ां त और उ सग का च ण कया गया। ऐसी कहा नय म हा र त,
'अकलंक, दोह एवं वपथगा जैसी कहा नयाँ दे खी जा सकती ह। दे श वभाजन क पृ ठ
भू म पर लखी गई उनक कहा नयाँ-'शरणदाता, 'लेटर बॉ स', 'बदला धा मक क रता
पर खर हार करती ह।
व तु त: जैने , अ ेय एवं इलाच जोशी का कथा संसार मनोवै ा नक पहलु ओं को
के य सरोकार मानता ह। फायड के चेतन-अचेतन स ा त का इन कथाकारो पर
गहरा भाव है। इलाच जोशी क आरं भक कहा नय म सामािजक यथाथ को कट
करने का आ ह है। ले कन 1935-36 तक उन पर फायड के मनो व लेषणवाद का
गहरा असर पड़ा। उनके कहानी सं ह म 'धू परे खा (1933) ' दवाल और होल (1942
ई.) 'आहू त (1954 ई.) आ द उ लेखनीय ह। उनक कहा नय म सामािजक
वषमताओं के त असहम त और आ ोश के अ त र त समझ म नह ं आ पाने वाल
ि थ तय के त रह य भावना का भाव भी मलता ह।

20.4.2 सामािजक यथाथ का वर

ेमच द के बाद उनके ढर क अ धकांश कहा नयाँ ग तशील रचनाकार वारा लखी
गयीं, िजनम यशपाल, राहु ल सां कृ यायन, उपे नाथ अ क, अम तराय आ द का
अवदान खास तरह से उ लेखनीय ह। ेमचंदो तर कहानीकार म यशपाल सामािजक
यथाथ के वर क अ भ यि त के ि टकोण से सवा धक उ लेखनीय कहानीकार ह। वे
मू लत: मा सवाद वचारधारा के कहानीकार ह। मा स के साथ-साथ इन पर ायड का
भी गहरा भाव था। उनके सोलह कहानी सं ह का शत हु ए ह, िजनम पंजड़े क
उड़ान', जो दु नया , ' ानदान, 'अ भश त', तक का तू फान', 'भ मावृ त चनगार , 'फूल
का कु ता', उ तमी क माँ, सच बोलने क भू ल, तुमने य कहा था, 'म सु ंदर हू ँ

339
उ लेखनीय ह। उनक कहा नय म वग-संघष, मनो व ले ण और मारक यं य भावी
ढं ग से उपि थत है। सामािजक पछड़ेपन के त वे खास तौर पर चौक ने ह, चाहे वह
धा मक हो या राजनै तक। वे नभयता से अपना मंत य कट करते ह।
राहु ल सां कृ यायन के सं ह सतमी के ब चे’और वो गा से गंगा म इ तहास के
व भ न युग का मा मक च ण कया गया है। उनक चंता म संपण
ू मानव इ तहास
के व भ न संदभ शा मल ह। डॉ. भगवतशरण उपा याय क कहा नय का वर भी
ऐसा ह है। उपे नाथ अ क ने बड़ी सं या म कहा नयाँ लखी। वे उदू से ह द म
आए। उनका पहला कथा-सं ह जु दाई क शाम का गीत 1933 म का शत हु आ।
उनके सं ह 'डाची क भी खू ब चचा हु यी। लेखन के शु आती दौर म, उनक कहानी
'काकंडा का तेल के यथाथवाद वर क बहु त चचा हु ई। अ क क अं तम कहानी
'अजगर सन ् 1968 म छपी। इसके बाद वे सा ह य क दूसर वधाओं म स य हो
गए। पांडेय बेचन शमा उ ने समाज के उपे त और ाय: न न वग के पा को
अपनी कहा नय म थान दया। उ ह ने अपनी कहा नय म ाय: यं य के मा यम से
सामािजक, धा मक और राजनै तक टाचार के अनेक प को उभारा है। ले कन कु ल
मलाकर उनके यं य म क णा का वर अंत न हत है। अपने प रवेश क ऐसी पैनी
पकड़ बरले कथाकार म मलती है। अमृतलाल नागर ने अपनी कहा नय म म यवग य
जीवन के च का अंकन कया। ेमचंद एवं यशपाल के बाद नागरजी के यहाँ मु ि लम
पा क सं या सवा धक है। उनक कहा नय म लंगर का ब चा, दो आ थाएँ', म का
हू रया का बेटा, 'मोती क सात चल नयाँ और 'जु ए’ँ उ लेखनीय है। कथा आलोचक
मधुरेश उनक कथा चेतना का व लेषण करते हु ए कहते ह, उनके रचना मक सरोकार
सव यापी नै तक अप य मू य वह न राजनी त के सार और उपभो ता सं कृ त क
वकृ तय को लेकर अ धक प ट ह। नागरजी क कहा नय म 'बतरस’का त व उनके
मू ल वै श य के प म अं कत कया जा सकता है जो उनके पा के संवाद क
अनेक अथछ वय वाल भाषा म दे खा जा सकता है। ‘अमृत राय क कहा नय म
सामािजक वसंग तय का भावी च ण है। उनक कहा नयाँ 'हजार मन राख और एक
चंगार , 'गील म ी, 'एक गुमनाम आदमी’और ' तरं गा कफन’आ द सवहारा और
न नवग के त हो रहे अ याय क ती मु खालफत करती ह। 'आ वान', समय’और
च फलक’कहा नयाँ क य और श पगत वै श य दोन ि टय से उ लेखनीय ह।
ेमचंदो तर कहानीकार म रांगेय राघव, भैरव साद गु त और च करण सौनरे सा
आ द भी सामािजक यथाथ के वर क अ भ यि त क ि ट से मह वपूण ह। रांगेय
राधव क 'गदल’कहानी को यापक लोक यता हा सल हु यी। उनक कहा नय म 'पंच
परमे वर’मृगतृ णा एवं कु ते क दुम एवं शैतान’आ द भी उ लेखनीय ह। व वधता
व तार एवं योगशीलता क ि ट से उनक कहा नयाँ मह वपूण ह। बंगाल के अकाल
दे श वभाजन, सां दा यक व वेष, मजदूर क दे श यापी हड़ताल, गोल का ड,
बेरोजगार एवं भू खमर आ द उनक कहा नय के सरोकार ह। भैरव साद गु त क

340
सपने का अंत ' स वल लाइन का कमरा, 'फंदा, ऐसी आजाद रोज-रोज हो आ द
कहा नय म सवहारा के शोषण एवं सामंती यव था के अ भशाप का उ घाटन कया
गया है। च करण सौनरे सा म यवग य समाज क अंतरं गता, ी मनो व ान क
अंतरं ग झाँक तु त करती ह। 'आदमखोर', नासमझ, 'कव य ी जैसी कहा नय म पु ष
क वच वी मान सकता को बेनकाब कया गया है। बथ डे’एवं 'आ महंता कहा नयाँ
दशनधम मान सकता क अस लयत को उजागर करती ह। बो ा, साइ कल एवं 'बड़े
कमीन-छोटे कमीन’जैसी कहा नयाँ सवहारा और उ पी ड़त वग क हताशा-आकां ा का
भावी च ण करती है। ेमचंदो तर कहानी प रद य वाधीनता के बाद तक बना
रहा। इसी बीच ह द कथा संसार म नयी कहानी ने द तक द ।

20.5 नयी कहानी


नयी कहानी के उ व क पृ ठभू म का व लेषण करते हु ए आलोचक व वनाथ साद
पाठ ने लखा है, वाधीन भारत के सु दरू े म नमाण काय, आम चु नाव ,
राजनी तक अ धकार के त चेतना जगाने एवं श ा का सार होने से इन े का
संबध
ं नगर से अभू तपूव तौर पर जु ड़ा। इससे आंच लक सा ह य सामने आया। साथ ह
ी श ा का यापक चार होने और नौक रय पाने से प रवार म उनक ि थत
बदल । नगर , महानगर म औ यो गक वकास होने से सामू हक जीवन का मह व
सामने आया। यि त का मनोजगत कह ं अ धक ज टल हो गया। ह द कहानी पर
इन सबका दबाव पड़ा। इससे व तु संवेदना के साथ कहानी का प वधान भी बदला।
1955 ई. के आसपास नयी कहानी आंदोलन चल नकला। इस कहानी आंदोलन को
व तत और ति ठत करने म 'नयी कहा नयाँ’के संपादक भैरव साद गु त क
मह वपूण भू मका थी। नयी कहा नयाँ के मा यम से उ ह ने ह द को अनेक
तभाशाल कहानीकार दये। प ट है नयी कहानी का एक युगीन संदभ है िजसका
सरा वाधीनता के बाद के भारतीय प र य से जु ड़ा हु आ है।

20.5.1 पुरानी कहानी और नयी कहानी का अलगाव

नयी कहानी यथाथ एवं जीवन वा त वकताओं के अंकन के आधार पर अपने को


पछल कहा नय से अलग करती है। आदश और वचार के आधार पर गढ़ जाने
वाल कहानी परं परा का नयी कहानी वरोध करती है। पहले क कहानी म कोई वचार,
स य’या 'आइ डया पा , ि थ तय एवं घटनाओं के मा यम से तु त कया जाता था।
नयी कहानी कहानी के च लत और ढ़ त व के आधार पर कहानी मू यांकन के
त असहम त जताती है। राजे यादव कहते ह, 'काल के वाह म, यि त क
सामािजकता का बोध और ि थ त ह आज क कहानी क वषय व तु है। कथाकार
यि त को उसक सम ता म दे खने का आ ह करता है। समकाल न संदभ का दबाव
नयी कहानी को अतीत से अलग कर वतमान क वसंग तय और व प
ू ताओं पर
केि त करती है। नयी कहानी ण, सम ता और भावध मता को पूरेपन के साथ

341
हण करती है। राजनी त के त उदासीनता नयी कहानी क एक उ लेखनीय वशेषता
है। आव यकता इस बात क है क नयी कहानी क कु छ और वशेषताओं पर एक
नजर डाल जाए।
संवेदना और श प क जो वशेषताएँ नयी कहा नय म नजर आती ह, उ ह सम प
से समझने के लए व वनाथ पाठ के दो उ रण को दे खा जा सकता है-
नयी कहानी के आंदोलन ने वातं यो तर ि थ तय के दबाव से पैदा होने वाल
मान सकता क ज टलता को अपनी संवेदना म समेट लया। इसी लए नयी कहानी क
व तु संवेदना के अनेक प ह। उन सभी को सामू हक तौर पर नयी कहानी क
व तु गत वशेषताओं म गना जाता है। आँच लकता, नए पा रवा रक संबध
ं , टाचार,
यं य- वडंबना आ द नयी कहानी क संवेदना का नमाण करते ह।
नयी कहानी के प वधान क वशेषता कहानी के सारे त व का सं लेष है। इसम
त व क स ता अलग नह ं रह गयी है। वातावरण, उ े य भी यंिजत कर सकता है,
भाषा वातावरण का भी काम करती है। नयी कहानी म कथात व का हास हु आ है।
इसक तपू त धानत: नाटक यता, सा य वधान, तीका मकता एवं ब ब- वधान
से हु यी है। नयी कहानी म पूव द ि त, चेतना- वाह आ द शैल गत योग उ चत मा ा
म मलते ह। जा हर सी बात है नयी कहानी के सरोकार पुरानी कहा नय से अलग
अपने नये मकाल न संदभ से जु ड़ते ह।

20.5.2 नयी कहानी आंदोलन के मु ख कहानीकार

नयी कहानी आंदोलन के आंच लक कथा संसार ने यापक प से पाठक को भा वत


कया। इनम कसी े के वातावरण क वशेषता को मु खता से रे खां कत कया गया।
ये कहा नयाँ ाम कहा नय से अलग ह। ाम कहा नय म दे हाती वातावरण हो सकता
है, ले कन वातावरण का च ण अपने आप म उ े य नह ं होता। आंच लक कहानीकार
ने ामीण जीवन के व वध संदभ का मा मक च ण कया। शव साद संह क 'दाद
माँ', माक डेय क 'गुलरा के बाबा च र धान कहा नयाँ ह, िजनका स जन इसी दौर
म हु आ। आंच लक कथाकार के प म सवा धक यश फणी वरनाथ रे णु को मला।
उनक सबसे मशहू र कहानी तीसर कसम म चाल स वष य हरामान और नतक
ह राबाई के बीच िजस पर पर आकषण का च ण कया गया है, उसम रे णु क
मौ लकता व श टता से उभर है। उनक अ य कहा नयाँ रस या, 'एक आ दम रा
क महक', 'लालपान क बेगम, ठे स', टे बल
ु ', लफड़ा इ या द भी खू ब च चत हु यी।
उनक कहा नय का सं ह ठु मर , रे णु क े ठ कहा नयाँ', अ गनखोर आ द शीषक से
छपा। 'नयी कहानी’के तीन मह वपूण कहानीकार मोहन राकेश, कमले वर और राजे
यादव ह। आलोचक ब चन संह कहते है :-मोहन राकेश तनाव के कहानीकार ह, राजे
यादव म वैयि तकता पर सामािजकता हावी है, कमले वर तनाव के बीच मू या वेषण
करने के लए सचे ट रहते ह। ‘राकेश क कहानी 'आ ा’और कमले वर क 'दे वी क

342
माँ’म पुरानी पीढ़ के जीवट को वशेष अंदाज म तु त कया गया है, रोमा नयत क
उपि थ त इन कहा नय म नह ं है। मोहन राकेश क मलबे का मा लक’ वभाजन क
पृ ठभू म पर लखी गयी एक े ठ कहानी है। उनक कहानी 'एक और िजंदगी’को
यापक लोक यता हा सल हु यी। राजे यादव ने आधु नक भावबोध को यापक
सामािजकता के आईने म दे खने का यास कया है। उनक कहा नय म औप या सक
चेतना के त व मल जाते ह। जहां ल मी कैद है, 'अ भम यु क आ मह या, छोटे -
छोटे ताज महल', ' कनारे से कनारे तक', ती ा, टू टना और अ य कहा नयाँ, 'अपने
पार इ या द कहानी सं ह म उनक कहा नयाँ संक लत ह। कमले वर क ताकत
मा नयत से अलग होने एवं भाषाई संरचना के संयम म न हत है। उनक दे वा क माँ
और राजा नरबं सया, 'नील झील जैसी कहा नयाँ इस त य का सा य कट करती ह।
म हला कथाकार म नू भंडार , कृ णा सोबती, उषा यंवदा का कथा संसार पु ष
कहानीकार से अलग है। नये दौर म ी-पु ष संबध
ं , नार क मनोव ि त पर म हला
कथाकार क वशेष नजर है। आधु नक जीवन के व भ न आयाम पर इनक ि ट
खरता से मु ख रत होती है।
नयी कहानी के दौर म अ यंत च चत कथाकार नमल वमा क सात कहा नय का
सं ह प रंदे 1960 म छपा। नमल मन क गहर पत को उघाड़ने वाले कहानीकार ह।
संगीता मकता, द य का संवेदनशील वणन, अकेलेपन के अवसाद को नमल ने वाणी
द है। सू खा और अ य कहा नयाँ, चीड़ पर चांदनी उनके अ य सं ह ह। उनक
द रंदे’और 'अंधेरे म बेहद उ लेखनीय कहा नयाँ ह। ह रशंकर परसाई, शानी कृ णा
सोबती, भी म साहनी क कहा नयाँ भी इस दौर म च चत हु यी। नयी कहानी के दौर के
अ य कहानीकार भी है िजनपर व तार से चचा क जा सकती है। पर यह व तार क
ं ाईश नह ं है. लहाजा त काल न प र
गु ज य के मह वपूण य खंड को यहाँ शा मल
करने का यास कया गया।

20.6 नयी कहानी के बाद का संसार


नयी कहानी के बाद अनेक कहानी आँदोलन ने ह द कथा संसार को क य और
श प क युगीन अवधारणाओं से स प न कया। िजन पर अलग से अ ययन क
ज रत है। इन कहानी आँदोलन म सचेतन कहानी, अ-कहानी, समांतर कहानी,
जनवाद कहानी, द लत कहानी और उ तर आधु नक कहानी वशेष तौर पर उ लेखनीय
है।

20.6.1 सचेतन कहानी

‘सचेतन कहानी’ नयी कहानी के आ मपरक और यि तवाद त व का वरोध करती


है। सचेतन कहानी के व ता मह प संह ने इस धारा का व लेषण करते हु ए कहा,
सचेतन एक ि ट है। वह ि ट िजसम जीवन िजया भी जाता है और जाना भी जाता
है। अपने सं ां त-काल म चाहे हम जीवन अ छा लगे या बुरा लगे, चाहे उसे घूट
ँ -घूट

343
पीकर हम तृि त ा त हो, चाहे नीम के रस क तरह हम डसे, आँख मू ँद कर नगलना
पड़े परं तु जीवन से हमार उप ि त छूटती नह ।ं कडु ए घूट
ँ से घबराकर जीवन से भाग
खडे होने क बात वैयि तक प म मानव इ तहास म अनेक बात दोहरायी गयी है ओर
हर बार कसी-न- कसी कार का दाश नक बौ क आधार दे कर-उसके औ च य क
थापना का यास कया गया है। ‘मह प संह मानते ह क सम या आ थाह नता क न
होकर आ था क जड़ता क है। उनके मु ता बक सचेतन कहानी नि यता के तरोध
क कहानी है।
सचेतन कहानी को ति ठत करने वाले कहानीकार म मह प संह के अलावा मनहर
चौहान, कु लद प ब गा, नरे कोहल , वेद राह , वण कु मार, योगेश गु त, हे तु
भार वाज आ द ह।

20.6.2 अ-कहानी

अ-कहानी कथा के वीकृ त आधार का नषेध तथा कसी तरह क मू य थापना का


अ वीकार है। 1960 के बाद रा य एवं अंतररा य जीवन के बदले हु ए घटना म ने
मोहमंग के यापक यखंड को तु त कया। अ-कहानी पर ांस क एंट टोर और
अि त ववाद चंतक सा और कामू का गहरा भाव पड़ा। अ-कहानी म मनु य क
पीड़ा, सं ास, कं ु ठा , यथताबोध, अजन बयत, नग यताबोध आ द मनोभाव का भावी
च ण कया गया। जगद श चतु वद , ीकांत वमा, राजकमल चौधर , बोधकु मार,
रवी का लया, ममता का लया, काशीनाथ संह दूधनाथ संह ानरंजन, याग शु ल,
महे भ ला, मु ारा स. गंगा साद, वमल, राजकमल चौधर आद धारा के
उ लेखनीय कहानीकार ह।

20.6.3 समांतर कहानी

समांतर कहानी का नेत ृ व ‘सा रका’ प का के संपादक कमले वर ने कया। त काल न


समय के जन आँदोलन क आँच समांतर कहानी पर पड़ी। आठव दशक क शु आत म
कमले वर ने कहानी प का सा रका के मा यम से वाद और पीढ मु त कहानी से
अपनी बात शु क। व भ न गोि ठयाँ ‘सा रका’ के मंच से आयोिजत हु यी, िजनके
मा यम से समांतर कहानी क अवधारणा वक सत करने का यास कया गया।
तब ता से मु ि त का आ वान करके समांतर कहानी नए मनु य और समाजवाद
समाज क थापना के संदभ म सामा य या आम आदमी क चंता को अपना के य
सरोकार मानती है। सा रका के वशेषांक के मा यम से इस आँदोलन म तीन तरह क
कहा नयाँ शा मल क गयीं। एक क म पा रवा रक घेरे के तहत लखी गयी कहा नय
क थी। दूसर क म आम आदमी क िजंदगी के अभाव -अ भशाप को तु त कर रह
थी। एक क म राजनै तक सामािजक प र य के म ेनजर आम आदमी क हताशा-
आकां ा के च ण क थी। सा रका के समांतर कहानी, वशेषांक भाग-1 म कमले वर
ने मेरा प ना; तंभ म इ तहास के नंगे हो जाने”आम आदमी के व वधा र हत होकर
344
संघष करने का आहवान', पूँजी के भु व के खलाP खड़े हो जाने’क बात क । इसी
अंक म भी म साहनी क वा चू, से.रा. या ी क 'अंधेरे का सैलाब', दयेश क
'गु ज
ं लक, म ण मधुकर क ' व फोटक, वणकु मार क नह ,ं यह कोई कहानी नह ं जैसी
कहा नयाँ छपी। गो व द म , कामतानाथ, िजते भा टया, सुधा अरोड़ा, मधुकर संह
इ ाह म शर फ, हमांशु जोशी, म थले वर, राकेश व स, वदे श द पक आ द ने इस
आँदोलन को सम कया। आम आदमी क त ठा के लए सम पत इस आँदोलन ने
ह द कहानी संसार म उ लेखनीय भू मका अदा क ।

20.6.4 जनवाद कहानी

‘जनवाद’ को प रभा षत करते हु ए चं बल संह ने लखा, 'जनवाद एक यापक जन


समू ह का टड वाइंट है, ि टकोण है, िजसम रा ं ीप त वग से लेकर मजदूर-
य पूज
कसान सभी आते ह, उनके हत से जु ड़ा हु आ वह ि टकोण है। ‘ ां त के च लत
श द समू ह और अवधारणाओं से अलग जनवाद क चंता म यापक वग क चेतना
क वकालत है। यह कसान, मजदूर, सवहारा क चंता से आगे जाकर उन सभी लोग
को अपनी अवधारणा म शा मल करता ह, जो सामािजक ि थ त म बदलाव क
आकां ा रखते ह और यथाि थ तवाद से असहमत ह। कलम (कलक ता), कथन
( द ल ), उ तरगाथा ( द ल ) उ तरा (मथु रा), कंकु (रतलाम) जैसी प काओं म
जनवाद कहानी आँदोलन क खू ब-चचा हु यी। सामा य जन के संघष क प धरता क
बात करने वाल जनवाद कहानी म वैचा रक ऊजा मा सवाद से ा त क गयी है। ये
कहानीकार अपनी कहा नय को ेमचंद क जन प धर कथा परं परा म शा मल करते
ह।
जनवाद कहानी क धारा म रमेश उपा याय (दे वी संह कौन, क पव ), वयं काश
(आ मां कैसे-कैसे, सू रज कब नकलेगा), रमेश बतरा (क ल क रात, िजंदा होने के
खलाफ), ानरं जन (घंटा, ब हगमन), काशीनाथ संह (सुधीर घोषाल, अधूरा आदमी क
जबान, सू चना, जंगल जातकम, मीसा जातकम), न मता संह (राजा का चौक, काले
अंधेरे क मौत), असगर वजाहत (मछ लयाँ), उदय काश क (मौसा जी, टे पचू,
वजयकांत ( म फ स, बलैत माखु न भगत, राह), मदन मोहन (ब चे बड़े हो रहे ह),
पंकज व ट (ब चे गवाह नह ं हो सकते) आ द उ लेखनीय ह।

20.6.5 द लत कहानी

न बे के दशक म ह द कथा संसार म द लत कहा नय क चचा आरंभ हु यी। द लत


कहानीकार ने वणवाद के त ती असहम त जतायी। धा मक अनु ठान क आड़ म
द लत उ पीड़न के वरोध, द लत के अपमान, शोषण, उ पीड़न और अमानवीय यवहार
के थान पर समतामूलक और आधु नक चेतना संप न समाज नमाण को अपना
के य सरोकार बनाया।

345
ओम काश वा मी क, मोहनदास नै मशराय ै , कंवल भारती,
योराज संह बेचन हलादचं
दास, धमवीर, दयानंद बटोह , जय काश कदम आ द क कहा नय ने च लत कथा
संसार क सौ दय चेतना को फर से पा रभा षत करने क वकालत क । इस
सौ दयबोध म यो तबा फूले, भीमराव अंबेडकर का वैचा रक दशन आधारभू त ोत है।

20.7 सारांश
आपने व तार से ह द कथा प र य का अ ययन कया। भारतदु युग से शु होने
वाल ह द कहानी अनेक सोपान से गुजरती हु यी समकाल न प र य तक पहु ँ ची।
समकाल न कहानी पर य म म हला कथाकार , द लत कथाकार और उ तर
आधु नकता क चेतना से स प न कथाकार क सजना मक उपि थ त है। उ तर
आधु नक कथाकार भाषा, शैल , सा ह य प म नवीनीकरण, भु ववाद अवधारणा से
असहम त, वखंडन आ द क चचा करते ह। ऐसे कथाकार म सवा धक उ लेखनीय
कहानीकार उदय काश ह। उदय काश क 'और अंत म ाथना, वारे न हे ि टं स का
साहू, पील छतर वाल लड़क आ द शा मल ह। कहानी आँदोलन ने ह द कहानी
संसार को बार-बार नयी दशा द

20.8 अ यासाथ न
1. ेमचंद पूव कहानी संसार का व लेषण क िजए।
2. ेमचंदो तर कहानी के वकास क व भ न दशाओं का वणन क िजए।
3. नयी कहानी पुरानी कहानी से कैसे अलग है? उदाहरण स हत बताइए।
4. नयी कहानी के बाद क ह द कहानी पर वचार क िजए।

20.9 संदभ ंथ
1. दे वीशंकर अव थी, नयी कहानी :संदभ और कृ त, राजकमल काशन, नयी
द ल , वष 1973
2. नगे (संपादक), ह द सा ह य का इ तहास, नेशनल पि ल शंग हाउस, नयी
द ल , वष 1982
3. नामवर संह-कहानी : नयी कहानी, लोकभारती काशन, इलाहबाद, वष 1996
4. मथुरेश , ह द कहानी का वकास, नयी कहानी, इलाहबाद, वष 1996
5. रामच शु ल- ह द सा ह य का इ तहास, नागर चा रणी सभा, वाराणसी, वष
सं. 2050 व.
6. राम व प चतु वद - ह द सा ह य और संवेदना का वकास, लोकभारती काशन,
इलाहाबाद, वष 1993
7. हजार साद ववेद -हजार साद ववेद ं ावल , भाग-3, राजकमल
थ काशन,
नयी द ल . वष 1981

346
इकाई - 21: ह द ना य सा ह य
इकाई क परे खा
21.0 उ े य
21.1 तावना
21.2 ह द नाटक : सामा य प रचय
21.3 ह द नाटक का उ व एवं वकास
21.3.1 भारते दु युगीन ह द नाटक
21.3.2 ववेद युगीन ह द नाटक
21.3.3 साद युगीन ह द नाटक
21.3.4 सादो तर ह द नाटक
21.4 सारांश
21.5 अ यासाथ न
21.6 संदभ थ

21.0 उ े य
इस इकाई म आप ह द ना य सा ह य का अ ययन करगे। इस इकाई म हम आपको
ह द नाटक सा ह य के उ व एवं वकास से प र चत करायगे। इस इकाई को पढ़ने के
बाद आप:
 भारते दु युगीन ह द नाटक से प र चत हो सकगे,
 ववेद युगीन नाटक का प रचय ा त करगे,
 साद युगीन ह द नाटक से अवगत हो सकगे,
 सादो तर युगीन ह द नाटक क वकास या ा को समझ सकगे।

21.1 तावना
नाटक सा ह य क सवा धक ाचीन वधाओं म से एक है। य वधा होने के कारण
यह अ य त लोक य रह है। सं कृ त सा ह य म यह अ य त समृ वधा रह है
ले कन ह द सा ह य म इसका मक वकास उ नीसवीं शता द म भारते दु युग से
ह मलता है। भारते दु ने इसके वकास म उ लेखनीय योगदान कया। भारते दु के
प चात ् जयशंकर साद ने इस वधा के वकास म मह वपूण भू मका का नवाह कया।
साद के प चात ् अनेक नाटककार ने इसका वकास कया। ह द नाटक क लगभग
डेढ़ सौ वष क वकास या ा म अनेक कालजयी ना यकृ तय का सृजन हु आ। इस
दौरान नाटक क तकनीक म भी यापक बदलाव दे खने को मला। आइए हम ह द
नाटक का सामा य प रचय ा त करते हु ए इसके उ व एवं वकास का अवलोकन कर।

21.2 ह द नाटक : सामा य प रचय


भारतीय का यशा म इि य के बा य-उपकरण के आधार पर का य के दो भेद कए
गये ह- य और य। य का अथ है-सु नने यो य। िजस का य को सु नकर आन द
347
ा त होता है, वह य का य कहा जाता है और य का य उसे कहते ह िजसका
आन द दे खकर उठाया जाता है। य य प य का य पढ़े और सु ने भी जा सकते ह.
क तु उनका स यक आन द रं गमंच पर अ भनेता वारा अ भनय कए जाने पर ह
उठाया जा सकता है। दोन का य-भेद का ल य े क के दय को उ ला सत करना
होता है। दोन ि थ तय म ल य क स का मा यम भ न- भ न होता है। य
का य के रचना क ि ट से भी तीन भेद कये गए ह-(क) ग य (ख) प य (ग)
च पू। इसी कार य का य के भेद पक म स पूण नाटक य ल ण होते ह।
भारतीय का यशा के आ द आचाय 'भरतमु न’ वारा र चत ना यशा ’म पक के
लए नाटक श द का योग कया गया है। पा णनी ने नाटक क उ पि त नट’धातु से
द शत क । सं कृ त सा ह य म नाटक को का य क सं ा दान क गई और घो षत
कया गया-का येषु नाटक र यम’् अथात ् का य म नाटक रमणीय होता है। आचाय
'अ भनवगु त ने भी भरत का अनुकरण करते हु ए वीकार कया है-''नाटक वह य
का य है, जो य क पना एवं अ यावसाय का वषय बन स य एवं अस य से
समि वत वल ण प धारण करके सवसाधारण को आन द दान करता है।
व तु त: ना य सा ह य ाचीन काल से ह भारतीय सा ह य म ा त होता है, इसे
पंचम वेद क सं ा भी द गई है। आचाय भरतमु न का 'ना यशा ’ना य सा ह य का
ाचीनतम उपल ध थ
ं है। भरतमु न के प चात ् ना य सा ह य क पर परा चलती
रह ।
ह द सा ह य म नाटक यता क झलक चौदहवीं सद म ि टगोचर होती है।
व याप त के प रजात हरण और कम ण हरण नाटक इसके माण है। सोलहवीं सद
म गो वामी तु लसीदास कृ त रामच रतमानस एवं रामचि का’म संवादगत नाटक यता
ा त होती है। उ नीसवीं सद तक यह नाटक पर परा प ल वत होती रह , क तु इस
अव ध के नाटक को पूण नाटक नह ं कहा जा सकता। ये ाय: अनु दत है अथवा
रामायण और महाभारत क कथाओं पर आधा रत प या मक रचनाएं है। ना य-कला क
ि ट से जभाषा म ल खत नहु ष को ह पूण नाटक कहा जा सकता है। भारते दु
हर च के पता गोपालच ग रधरदास ने इसक रचना 1857 ई. म क । इसे ह
ह द के थम नाटक होने का गौरव ा त है। यह ज-भाषा म त ना य रचना है।
भारते दु ह र च ने कालच ’पु तक म नहु ष (1857) को ह द का थम 'शकु तला
(1863) को वतीय और व यासु दर (1868 ई.) को तृतीय नाटक कहा है। य य प
र वां नरे श महाराज व वनाथ संह का नाटक य त व से भरपूर नाटक 'आन दरघुन दन
अनुमानत: 1700 ई. म लखा गया, क तु उसक रचना पहले सं कृ त म क गई और
बाद म उसे ह द म अनू दत कया गया। अत: ह द के थम मौ लक नाटक का
ेय नहु ष को ह ा त है। खड़ी बोल म लखे गये सव थम नाटक का ेय राजा
ल मण संह कृ त नाटक शकु तला (1863) को ा त है। य य प यह महाक व

348
काल दास के 'अ भ ान शाकु तलम का अनुवाद है। खड़ी बोल का दूसरा नाटक
भारते दु ह र च वारा र चत व यासु दर (1868 ई) है। यह सं कृ त क
'चौरपंचा शका कृ त के बंगला सं करण का छाया अनुवाद है।

21.3 ह द नाटक केए उ व एवं वकास


21.3.1 भारते दु युगीन नाटक

19वीं शता द म अं ेज के साथ ह द भाषा-भा षय का स पक था पत हु आ और


इससे ह द नाटक के े म भी नई जागृ त आई। अं ेज के समु नत ना य सा ह य
से ह द भा षय का सा ा कार हु आ। प रणाम व प ह द ना य- श प को नवीन
दशा ा त हु ई। भारते दु ह र च ह द नाटक के अ दूत होकर सामने आए। उनके
साथ प ल वत हु ई ना य पर परा उ तरो तर वक सत होती चल गई। वे मा
नाटककार नह ं थे, अ पतु नदशक, अ भनेता और रं ग श पी भी थे। इस लए वे अ तम
ना य यो ता के प म ति ठत हु ए। उ ह ने पौरा णक धारा का ी गणेश कया।
इस युग म सवा धक सं या म पौरा णक नाटक लखे गये। उनके स यास से
ऐ तहा सक, सम या धान, रा य, ेम- धान, हसन आ द धाराएँ भी जीव त हो
उठ ।ं उ ह ने अपनी दूर ि ट से भारतीय एवं पा चा य ना य त व म संतल
ु न और
सामंज य था पत कर ह द नाटक को ग तशील, वाभा वक एवं भावपूण बनाया।
भारते दु ने 18 नाटक लखे, िजनम मौ लक और अनू दत आ द ह। मौ लक नाटक म
वै दक हंसा हंसा न भव त, 'स यह र च , ' ीच ावल ', बष य यषमौषधम',् 'भारत
दुदशा, नीलदे वी तथा 'अंधेर नगर आ द ह तथा अनू दत नाटक म व यासु दर,
'पाख ड वड बन, 'धनजंय वजय', कपू र मंजर , 'भारत-जननी, 'मु ारा स’तथा 'दुलभ-
ब धु’आ द ह। इ ह ने अपने नाटक म प या मक संवाद योजना को भी अपनाया।
इनके नाटक का मूल उ े य भारतीय जनमानस म नवचेतना उ प न करना, रा य
चेतना क भावना को वक सत करना तथा नाग रक म दे श ेम एवं आ मस मान क
भावना पैदा करना था। भारते दु युग के अ य नाटकार म बालकृ ण भ , लाला
ी नवासदास, राधाचरण गो वामी, राधाकृ णदास, कशोर लाल गो वामी, दे वक न दन
ख ी, अि बकाद त यास, का तक साद ख ी आ द का योगदान मरणीय है। लाला ी
नवासदास के तृ ता , संवरण, हलाद च र तथा संयो गता वयंवर, बालकृ ण भ का
श ादान, राधाकृ णदास का महाराणा ताप, तापनारायण म के 'क ल कौतु क, 'हठ
हमीर, गो संकट', ब नारायण चौधर का 'भारत सौभा य’व राधाकृ णदास का दु खनी
बाला नामक नाटक उ लेखनीय ह।
भारते दु युग के नाटक ने भावी ना य सा ह य के वकास म सु ढ़ आधारभू म का
नमाण कया। साथ ह वे ग य सा ह य क पर परा के वतन म भी मह वपूण
योगदान दे ने वाले स हु ए।

349
21.3.2 ववेद युगीन ह द नाटक

ववेद युग म सु धारवाद का बोलबाला रहा अत: ग तशील चेतना से स पृ त नाटक


का वकास न हो सका। केवल पारसी- थये कल क प नयाँ ह छोटे -मोटे नाटक द शत
करती रह ं। अत: इस युग म शृंगा रक नाटक लखे गये, िजनका सामा य उ े य
मनोरं जन दान करना था। आगा ह क मीर , ह रकृ ण जौहर, राधे याम कथावाचक,
नारायण साद 'बेताब’इ या द ने पारसी नाटक क प नय के लए ह के फु के शृंगा रक
नाटक लखे। इनके नाटक म सा हि यक त व व आधु नक त व का लगभग अभाव
रहा। इस युग म म ब धुओं ने ने ो मीलन', मै थल शरणगु त ने ' तलो तमा व
च हास, ेमच द ने कबला, माखनलाल चतु वद ने 'कृ णाजु न यु जैसे सा हि यक
नाटक क रचना क िजनम अ भनेयता का पूण प से अभाव था। कु छ हसना मक
नाटक भी लखे गये जैसे-ब नाथ भ का ववाह व ापन तथा मस अमे रका नाटक।
गो व द व लभपंत का वरमाला इस युग का उ लेखनीय नाटक है। इतने नाटक लखे
जाने के बाद भी इस युग म ना य- श प वधान का अ धक वकास नह ं हु आ। यह
कारण है क कु छ व वान ने ना य श प के वकास क ि ट से इस युग को
ग यावरोध का युग कहा है।

21.3.3 साद युगीन ह द नाटक

जयशंकर साद ने उ कृ ट नाटक क रचना करके अपने समय के ह द -नाटक म


नवीन चेतना, भ व णु ता सा हि यकता व का यमयता का संचार कया। एक कार से
इस युग को नाटक सा ह य क ि ट से नवो मेष का युग कहा जा सकता है। सादजी
ने ऐ तहा सक सां कृ तक नाटक के मा यम से भारतीय सां कृ तक पर परा और
जातीय जीवन को नया व प दान कया। उ ह ने अपने नाटक म महाभारत के
प चात से लेकर हषवधन के शासनकाल तक के भारतीय इ तहास का च ण कया।
इन नाटक म इ तहास का थू ल ढांचा ह नह ं अपनाया गया है बि क उसके सू म
प रं ग को भी भल भां त अ भ य त कया गया है। अपने नाटक के लए इ तहास

ं से साम ी उधार लेकर ह संतु ट नह ं हो गये, बि क कु छ ऐसे त य का
उ घाटन कया है िजनसे इ तहासकार भी उनके नाटक से बहु त कु छ श ा हण कर
सकते ह। ऐ तहा सकता को अपनाते हु ए नाटककार साद ने अपनी कृ तय को शु क
इ तवृ त का प न दान कर क पना के उ चत सम वय वारा ऐ तहा सक इ तव त
को सा ह य का प दान कया है। खर क पना और ऐ तहा सक स य के समु चत
और संतु लत योग के मा यम से साद ने भारतीय इ तहास क पी ठका पर इस दे श
क सं कृ त के ाणवान भ य प क झांक तु त क है। इन नाटक म केवल
राजनी तक घटनाओं का उ लेख ह नह ं मलता, बि क उनम स बं धत युग क
सं कृ त का जीव त च ण भी हु आ है। वा तव म उनके नाटक भारतीय इ तहास और
सं कृ त के कोष कहे जा सकते ह। साद के नाटक पर गौतम बु क क णा और

350
महा मा गांधी क भारतीय ि ट का यापक भाव पड़ा। उ ह ने समसाम यक
सम याओं को अतीत से ेरणा हण कर सु लझाने का यास कया। उनके नाटक
अतीत, वतमान और भ व य का समि वत ब ब तु त करते ह। उ ह ने अपने पा
को वतं यि त व दान करने का तु य उदाहरण तुत कया। साद का नाटक य
योगदान चर मरणीय है। साद जी ने कु ल 13 नाटक लखे, िजनम स जन (1911),
'क याणी-प रणय', 'क णालय, ' ायि चत, रा य ी, वशाखा, 'अजातश ,ु कामना,
जनमेजय का नागय ', क दगु त', 'एक घू ट
ं ', 'च गु त, ' ु व वा मनी आ द ह।
सादजी ने िजन नाटक य वशेषताओं को अपने नाटक म सम व ट कया, उ ह इस
युग के सम त नाटककार ने अपनाया। भारतीय एवं पा चा य ना य-शै लय का
सम वय, संघष का ाधा य, व व-योजना, मनोवै ा नक चर च ण आद
सादकाल न नाटक क उ लेखनीय वशेषताएँ ह।
इस युग के अ य नाटककार म ह रकृ ण ेमी, गो व दव लभ पंत, उदयशंकर भ
आ द उ लेखनीय है। इ ह ने म यकाल न कथानक को हण कर पाठक को रा य
एकता व ह दू मु ि लम सौहाद क ेरणा द । गो व द व लभ पंत ने पौरा णक,
ऐ तहा सक व सामािजक नाटक लखे। वरमाला, राजमु कुट', कंजू स क खोपड़ी, 'अंगरू
क बेट , स दूर- ब द , यया त, 'अंतपुर का छ ', ' वषक या व सु जाता इनके मु ख
नाटक ह। उदयशंकर भ ने व मा द य', 'दाहर अथवा संध पतन 'अ बा, कमला,
'अ तह न अ त, मुि तपथ, शक- वजय', ' ां तकार , नया समाज’तथा 'पावती आ द
नाटक लखे। इसी कार ह रकृ ण ेमी के वण वह न, र ाब धन, पाताल- वजय,
शवा-साधना, तशोध, वषपान’आ द मु ख है।
इसके अलावा सु दशन, ल मीनारायण म , पांडेय बेचन शमा उ , चतुरसेन शा ी,
जग नाथ साद म आ द ने भी नाटक लखे। ल मीनारायण म के ' सहर क
होल ’व राजयोग काफ लोक य हु ए। म का ' ताप- त ा नाटक भी इस युग का
सश त नाटक है। इस युग के नाटक म सु धारवाद चेतना के अ त र त सां कृ तक
उ थान व रा ो थान क भावनाएं अ धक बल प से अ भ य त हु ई ह। जी.पी.
ीवा तव ने भी इस युग म अनेक नाटक लखे। साद यु ग ना य सा ह य के वकास
क ि ट से पया त मह वपूण है। इस युग म र चत सम त नाटक युगीन चेतना को
अ भ य त करते है, क तु इस युग के अ धकांश नाटक म अ भनेयता का अभाव है।

21.3.4 सादो तर ह द नाटक

सादो तर युग म आकर ह द नाटक का व प और अ धक नखर गया। इस युग


म आकर ना य-सा ह य म भावना के थान पर बौ कता ने वेश कया। नाटक
जीवन के य व प को अ भ य त करने लगे। नाटक का प नक दु नया से हटकर
जीवन के यथाथ से स ब हु आ और पा , च र च ण, भाषा-वेशभू षा आ द म
सामा य जीवन का बोध होने लगा। इस युग म दै नक जीवन क सम याओं का

351
बाहु य होने के कारण आ थक च ण क ओर भी यान दया गया। सादो तर युगीन
नाटक क सवा धक नवीनता इस बात म है क इस युग के नाटक म तकनीक पर
वशेष यान दया गया। नाटक म तीन अंक रखने पर जोर दया गया। गीत को कम
या फर हटा दया गया। संकलन य का वधान भी श थल हु आ। इन बात के
अ त र त नाटक का आकार छोटा होने लगा। नाटक का अ भनय ढ़ाई-तीन घ ट म
पूण होने लगा। नाटक जो साद युग म पठनीय बन गये थे रं गमंच से जु ड़ने लगे।
कहा जा सकता है क रं गमंच और जीवन के यथाथ से जु ड़कर ह द नाटक नवीन
दशा क ओर अ सर हु आ। ल मीनारायण म , सेठ गो व ददास, उपे नाथ अ क,
रामकु मार वमा, वृ दावनलाल वमा आ द इस युग के मु ख नाटककार ह। म जी क
ना यकला पर इ सन जोला एवं बनाड शॉ नामक पा चा य नाटककार क छाप है।
म जी ने मू लत: सम या धान नाटक क सजना क । इनम मु यत: 'आधी रात',
सं यासी', 'मु ि त का रह य', रा स का मं दर, 'अशोक', ग ड़ वज', 'नारद क वीणा',
व सराज’ ' वत ता क लहर’उ लेखनीय ह। इनके नाटक म रं गमंचीयता बखू बी
व यमान है। सेठ गो व ददास ने अपने नाटक के मा यम से सामािजक जीवन के
व वध प को तु त करने का यास कया। 'दुःख य , 'मह व कसे’g 'बड़ा पापी
कौन', ' काश, ' वकास', ' याग या हण, पा क तान', 'प तत-सु मन', ेम या
पाप’इ या द इनके सामािजक नाटक है। इ ह ने कु छ ऐ तहा सक नाटक भी लखे िजनम
कत य', 'हष, 'अशोक', 'कु ल नता', 'श शगु त, महा भु, व लभाचाय', शेरशाह इ या द
उ लेखनीय ह। इनके नाटक म गाँधीवाद वचारधारा क प ट झलक दे खी जा सकती
है। उपे नाथ अ क िज ह ने सामािजक-ऐ तहा सक नाटक क रचना क 'जय-
पराजय’इनका ऐ तहा सक नाटक है। वग क झलक', कैद व उडान', 'छठा बेटा”आ द
माग', 'अलग-अलग रा ते, 'पतरे , 'अंजो द द ’इनके मु ख सामािजक नाटक ह। इनके
नाटक म साम यक संदभ, सरलता, प टता, अ भनेयता भा व णु ता इ या द गुण
भरपूर है।
डॉ. रामकु मार वमा ने ' वजयपव जैसे कु छ नाटक क रचना क , क तु एक सफल
एकांक कार होने के कारण इनके नाटक एकांक संकलन के स श तीत होते ह।
वृ दावन लाल वमा ने भी ऐ तहा सक उप यास के समान ऐ तहा सक नाटक क भी
रचना क पर तु नाटककार के प म उ ह अ धक सफलता नह ं मल । इन नाटककार
के अलावा चतु रसेनशा ी, अमृतलाल नागर, चं गु त व यालंकार, व णु भाकर,
जयनाथ न लन, पृ वीनाथ शमा, रमेश मेहता, रांघेय राघव, दे वराज दनेश, राजेश शमा,
कृ ण कशोर, कमलाकांत पाठक आ द ने भी सादो तर युग म अनेक े ठ नाटक
लखे।
सन ् 1960 के आस-पास िजस तरह योगवाद का य का दौर चला, उसी कार नाटक
के े म योगवाद नाटक लखे जाने लगे। इन योगवाद नाटक का ार भ
जगद शच माथु र के कोणाक नामक नाटक से माना जा सकता है। इनका पहला-राजा

352
नामक नाटक पौवा य एवं पा चा य नाटय कला का अदभुत सम वय तु त करता है।
इनके नाटक म अ भनेयता के सभी त व व यमान है। साठो तर नाटककार म मोहन
राकेश का नाम उ लेखनीय है। इनके 'आषाढ़ का एक दन', जहर के राजहंस, 'आधे-
अधूरे नामक नाटक सा ह य के लए ां तकार कदम स हु ए। ये सभी नाटक
रं गमंचीयता से भरपूर ह। इसके प चात डॉ. धमवीर भारती, ल मीनारायण लाल, व णु
भाकर, सु रे वमा, रमेश ब शी, मु ारा स, बृजमोहन शाह, ानदे व अि नहो ी, म ण
मधुकर , सव वरदयाल स सेना, दया काश स हा, शंकर शेष, भी म साहनी तथा भात
कु मार भ ाचाय आ द ने ह द नाटक के े म अपना सश त व वकासा मक कदम
रखा। उपयु त सम त नाटककार म से डॉ. ल मीनारायण लाल, सु रे वमा तथा म ण
मधुकर अपनी रं गमंच क पकड़ के कारण ह द नाटक जगत ् म अपना व श ट थान
रखते ह। डॉ. लाल के नाटक म, तोता-मैना, 'अंधा-कं ु आ , मादा कै टस, र तकमल,
कलंक , ‘ म. अ भम यु’, 'अ दु ला द वाना’, ‘रातरानी’, ‘दपणसू यमु ख’, ‘कर यू’,
‘ यि तगत’, ‘सगुन पंछ ’, तथा ‘य न’ इ या द नाटक उ लेखनीय है। सु रे शमा के
भी ‘सू य क अं तम करण से सू य क पहल करण तक व 'आठवां सग व श ट नाटक
ह इसी कार मनी-शंकर के ‘रस-गंधव’, ‘बुलबुल ’, सराय तथा छ भंग नामक नाटक
उ लेखनीय है। शंकु, 'अलगोजा, शह पे मात, यु मन ', बृजमोहन शाह के बहु च चत
नाटक ह। इन सम त नाटक के अलावा 'अ भश त य ( भात भ ाचाय), दे वयानी का
कहना है रमेश ब शी), तलच ा (मु ारा स), एक और अजनबी (मृदुला गग), एक
मशीन कानी क (संतोष नारायण नौ टयाल), एक से बढ़कर (राजे कु मार शमा)
शु तु रमु ग ( ानदे व अि नहो ी), बकर (सव वरदयाल स सेना), कथा एक कंस क (दया
काश स हा), बन बाती के द प, फंद , खजु राह का श पी, मायावी सरोवर, एक और
ोणाचाय (शंकरशेष), हानूस (भी म साहनी), अमृत पु (स य त स हा), सबरं ग
मोहभंग (डॉ. लाल), जीवनद ड (इ जीत भा टया), द र दे (हमीदु ला), शंबक
ू क ह या
(नरे कोहल ), तलच ा, ते दुआ (मु ारा स), पाँचवा सवार (बलराज पं डत) यार यार
के चार (सुशील कु मार संह), तीसरा हाथी, वामाचार रमेश ब शी), आज नह ं कल
(गंगा साद वमल), काला पहाड़ (सु दशन चौपड़ा), इ या द उ लेखनीय नाटक है।
प ट है क आधु नक ह द नाटक अपनी योगा मक ि थ त से नकलकर अगल
मंिजल क ओर ती ग त से बढ़ रहा है। अ य भाषाओं के े ठ नाटक के भी ह द
म अनुवाद कये जा रहे ह।

21.4 सारांश
 नाटक सा ह य क लोक य व या रह है। इस इकाई को पड़ने के बाद आप इसको
इ तहास को बता सकगे।

353
 भारते दु युग म ह द नाटक का भल भां त उ व हु आ। इस युग म अनेक
मह वपूण नाटक क रचना हु ई। इसके प चात ् ववेद युग म भी ह द नाटक
क वकास या ा चलती रह ।
 जयशंकर साद ने ह द नाटक को सु ढ़ आधार दान कया। उनके वारा
ल खत ऐ तहा सक नाटक से हम अपने इ तहास और सं कृ त से प र चत होते ह।
 सादो तर काल म ह द नाटक नर तर वक सत होता रहा है। अनेक
तभाशाल नाटककार ने ना य वधा म सृजन कया। इस युग म इसके व प म
भी गपक बदलाव आया।

21.5 अ यासाथ न
1. ह द ना य सा ह य वकास ‘भारते दु तथा ववेद युगीन नाटक का मू यांकन
क िजए।
2. ह द नाटक के वकास म जयशंकर साद के योगदान पर अपने वचार कट
क िजए।
3. वात यो तर ह द नाटक के वकास का प रचय दे ते हु ए मोहन राकेश का
थान नधा रत क िजए।

21.6 संदभ थ
 डॉ. दशरथ ओझा- ह द नाटक: उ व और वकास
 (सं.) डॉ. नरे - ह द सा ह य का इ तहास
 डॉ. राम च तवार - ह द का ग य सा ह य

354
इकाई-22 : ह द आलोचना
इकाई क परे खा
22.0 उ े य
22.1 तावना
22.2 सामा य प रचय
22.3 आलोचना का वकास
22.3.1 भारते दु युग
22.3.2 ववेद युग
22.3.3 शु ल युग
22.3.4 शु लो तर युग
22.4 सारांश
22.5 अ यासाथ न
22.6 संदभ थ

22.0 उ े य
इस इकाई म आप ह द आलोचना के उ व एवं वकास का प रचय ा त करगे। इस
इकाई के अ ययन से आप
 ह द आलोचना क पूव ि थ त को जान सकगे
 भारते दु युगीन ह द आलोचना का प रचय ा त कर सकगे,
 ववेद युगीन आलोचना के स ब ध म जान सकगे,
 शु ल युगीन आलोचना से प र चत हो सकगे
 शु लजी के प चात ् क आलोचना से अवगत हो सकगे।

22.1 तावना
ह द सा ह य म आलोचना एक मह वपूण वधा है। सा ह य के वकास एवं गुणव ता
म इसक महती भू मका होती है। इसका भावी प रपाक ग य म ह होता है। ग य क
अ य व याओं क भां त आधु नक ह द आलोचना का सू पात भारते दु युग म ह
हु आ है। ह द आलोचना क तब से लेकर अब तक क या ा के व भ न चरण रहे ह,
सा ह य के व भ न प से सा ा कार कया है। हम यह ह द आलोचना क इस
या ा का अवलोकन करगे। आइये ह द आलोचना का प रचय ा त कर।

22.2 सामा य प रचय


'आलोचना’ श द लोच 'धातु से बना है, ‘लोच’ का अथ है-दे खना। अत: कसी व तु या
कृ त क स यक् या या इसका मू यांकन आ द करना ह आलोचना है। आलोचना के
व प क ओर संकेत करते हु ए डॉ. यामसु दरदास ने लखा है: ‘य द हम सा ह य को
या या मान तो आलोचना को या या क या या मानना होगा। ‘इस कथन म एक

355
गढ़ स य है-वह है जीवन का, मानव जीवन का आलोचना से जु ड़ा होना, य क जीवन
के येक प रवतन के साथ आलोचना के व प का प रवतन होना वाभा वक है।
जीवन का येक प रवतन सीधे-सीधे नह ं वरन ् सा ह य के मा यम से आलोचना को
भा वत करता है। ह द समालोचना का वकास भी इसी त य क पुि ट करता है।
आलोचना का व प जो वतमान समय म है, वह आकि मक घटना का प रणाम नह ं
वरन ् उसे एक वक सत प दान करने म पूव म ल खत आलोचना मक थ
ं का भी
व श ट योगदान है। य य प उ ह ौढ़ एवं प रप व आलोचना नह ं कहा जा सकता।
ह द आलोचना का आरि भक प सै ां तक आलोचना के प म म यकाल न सा ह य
म मलता है। सू रदास क सा ह य लहर ’एवं न ददास’क रस मंजर म ना यका भेद का
तपादन सं कृ त के का यशा ीय थ
ं के आधार पर हु आ, क तु इनका ल य
ना यका भेद न पण का न होकर अपने आरा य कृ ण क ेम ल लाओं म योगदान
है। अकबर के कु छ दरबार क वय -करणेश रह म, गोपा, भू प त आ द वारा भी का य
ववेचना न होकर र सकता का पोषण करना था। स हवीं शता द के म य म केशवदास
ने क व या और र सक या क रचना क , िजनका उ े य का यशा के सामा य
नयम एवं स ांत से प रचय कराना था। य य प केशवदास के ववेचन म ौढ़ता न
हो, क तु यह उ ह ने वशु आचाय व क ि ट से कया था। केशवदास क इसी
च तन पर परा का वकास परवत युग के क वय ने कया।
इस कार म यकाल म का यशा ीय एवं अलंकार संबध
ं ी थ
ं म समी ा के स ांत
का तपादन मलता है, इनका आधार सं कृ त का यशा है, िजनका ज भाषा प य
म अनुवाद कर दे ना ह इनका ल य रहा है। इनम मौ लकता नह ं मलती। दूसरे , इनम
ववेचन क ौढ़ता, गंभीरता या प टता का अभाव है और तीसरे , इनम ग य का
योग न होने के कारण ये समी ा के स चे व प को तु त करने म असमथ ह।
व तु त: म यकाल न थ
ं का इतना ह मह व है क इनके वारा हमारा सा ह यशा
सं कृ त का यशा के सामा य नयम से प र चत रह सका-सं कृ त का यशा क
पर परा अशु , अपूण एवं अप रप व प म च लत रह सक । इनक एक और दे न
यह है क इन थ
ं म व भ न अंग के सरस उदाहरण भी भार सं या म उपल ध हो
जाते ह। इस ि ट से यह सं कृ त का यशा से भी आगे बढ़ जाते ह।

22.3 आलोचना का वकास


22.3.1 भारते दु युग

आधु नक ह द सा ह य के ज मदाता एवं पोषक भारते दु ह र च ने ह द सा ह य


के सभी अंग का वकास कया था, अत: आलोचना सा ह य भी भारते दु ह र च क
कलम से नकल कर आया। य द सं कृ त के थम आचाय 'भरतमु न’ ने 'ना यशा
लखा तो बाबू ह र च ने 'नाटक’क रचना क । इसका काशन 1883 ई. म हु आ।

356
अत: मू लत भारते दु युग (उ नीसवीं शता द ) से ह आलोचना का सू पात मानना
चा हए।
भारते दु युग से पूव यावहा रक आलोचना क चेतना का ाय: अभाव ह था। सं कृ त
म भी कसी कृ त क पूण आलोचना का प नह ं मलता। ट काओं, सू ि तय तथा
ल ण- थ
ं म का य के कु छ अंश क ह आलोचना मलती थी। र तकाल म मानस-
रह य म व तृत आलोचना है क तु उसम भी शा ीय और सै ां तक न पण पर ह
वशेष बल दया गया है। आधु नक आलोचना का बीजारोपण तो वा तव म भारते दु
युग से ह माना जाता है। इसका मु ख कारण यह है क आलोचना क बु ,
राजनै तक चेतना और जनतां क णाल से ह आती है और उसका आर भ भारते दु
युग म ह हु आ। पा चा य भाव ने भी आलोचना के बीजारोपण क ओर त काल न
सा ह यकार का यान दलाया। छापेखाने के वकास ने पु तक और प -प काओं को
जन-साधारण तक पहु ँ चाने म सहायता पहु ंचाई। इसका प रणाम यह हु आ क सा ह य
जन-जीवन के नकट आया। सा हि यक पु तक का व ापन प -प काओं म का शत
होना आर भ हु आ। का शत पु तक म चु नाव के न म त प -प काओं म पु तक
प रचय और आलोचना क मांग आर भ हु ई। व तु त: भारते दु युगीन आलोचना पु तक
प रचय के प म ह लखी गयी है। आलोचना के ार भकता के स ब ध म भी
व वान म मतभेद है। इसका कारण यह है क कु छ व वान भारते दुजी को तथा कु छ
व वान ब नारायण चौधर ेमधन’को थम आलोचक मानते ह। अब तक सा य के
आधार पर भारते दुजी ह थम आलोचक ठहरते ह। उनम आलोचना क चेतना थी।
एक ओर उनक प का ह र च चं का क वषयसू ची म समालोचना संभू षता को
थान दया गया था जो उनक आलोचना चेतना का प ट सू चक है तो दूसर ओर
उनक आलोचना बु क अ भ यि त का य और नाटक म भी होती है। उ ह ने 'भारत
दुदशा म भारतीय जीवन क आलोचना क है और का य म अं ेजी रा य क सी मत
समी ा क है। नाटक’शीषक नब ध म उनके आलोचक क तभा के दशन भी हो
जाते ह।
भारते दु युग के आलोचक म भारते दु बाबू ह र च , ब नारायण ेमधन और
बालकृ ण भ क यी का वशेष मह व है। पं. गंगा साद अि नहो ी, बाबू बालमु कु द
गु त ने बाद म आलोचना के इस बीज को सं चत कया।
इस काल म सै ां तक समी ा क ि ट से भारते दुजी का नाटक’पहल और पूण
समी ा मक कृ त है। इसी कार सै ां तक समी ा का थोड़ा सा प रचय बाबू
दे वक न दन ख ी के उस प म मलता है जो उ ह ने 'नागर नीरद’के स पादक
ेमघनजी को लखा था। उस प म एक ओर तो उ ह ने भावा मक समी ा क चचा
क है तथा उप यास के संबध
ं म तथा भेदक त व क ओर संकेत दया है। इसी कार
शु लजी के एकाध नब ध आर भ म भी का शत हु ए। ये नब ध शु लजी क ौढ़ता

357
के बीज व प ह ह। शु लजी ने अपने श द-योजना शीषक नब ध म सा ह य म
श द के व प और उ े य पर वचार कया है।
िजस कार इस युग म सै ां तक समी ा लखी गयी उसी कार यावहा रक समी ा
भी दे खने को मलती है। इस स ब ध म सबसे पहले 'आन द कादि बनी म ेमधन
जी क बाणभ के संबध
ं म ल खत शंसा मक आलोचना है। इसी कार सार
सु धा न ध क संपादक य ट पणी म आलोचना के प का थोड़ा सा दशन होता है।
व तु त: ेमघन से पहले िजतनी भी समी ाएँ लखी गयी थीं वे समी ा के येय से क
गई समी ा पहले पहल 'आन द कादि बनी म दखाई पड़ी। इसम ेमघनजी ने बाबू
रमेशच द त जी.सी.एस णीत बंग वजेता नामक उप यास के बाबू गदाधर संह
वारा कये गये अनुवाद क आलोचना क है। ेमघनजी ने अनुवाद तथा मू ल दोन के
गुण और दोष क वृहत ् समी ा क है।
दूसर मह वपूण आलोचना ह द - द प म पं. बालकृ ण भ क दखाई पड़ी। इ ह ने
स ची आलोचना शीषक से लाला ी नवास दास वारा र चत संयो गता वयंवर क
कटु आलोचना क । ेमघनजी ने जहाँ सहानुभू तपूण ढं ग से जंग वजेता के गुण -दोष
क पर ा क . वह पं. बाल कृ ण भ ने ठोस ढं ग से इस नाटक के दोष का
उ घाटन कया।
भ जी क आलोचना का दूसरा प ीधर पाठक वारा अनु दत गो ड ि मथ क
हर मट नामक का य पु तक क समी ा म दखाई पड़ा। पाठकजी ने 'एका तवासी
योगी नाम से इसका अनुवाद कया है। इस आलोचना म भ जी ने शंसा मक शैल
म गुण का उ घाटन कया है। इस आलोचना म पाठकजी क क वता के साथ-साथ
अपनी मातृभाषा क भी तु त क गई है। इससे वदे शा भमान प ट ल त होता है
जो आलोचना क वै ा नक ि ट के लए उपयु त नह ।ं अं ेजी क वता अ य त उ नत
और वक सत है, उसे दे शा भमान म आकर भ जी ने ह द से बहु त ह ह न स कर
दया।
इस कार भारते दुजी युग म लखी गयी आलोचना मू लत: गुणावगुण वृि त से
स पृ त है िजसे नागर चा रणी सभा ने और अ धक ग त दान क । अ तु भारते दु
काल क आलोचना बीजारोपण ह है िजसका तफल ह द आलोचना का वशाल वट
वृ है।

22.3.2 ववेद युग

बीसवीं शता द म पु तक-समी ाओं क पर परा से ह द आलोचना का म आगे


बढ़ा। 1900 ई. म सर वती का आर भ इस ि ट से एक अ य त मह वपूण घटना है।
आगे चलकर 1903 ई. म आचाय महावीर साद ववेद ने सर वती के स पादन का
भार हण कया। इस प का म का शत होने वाल प रचया मक पु तक-समी ाऍ वे
वयं लखा करते थे।

358
सर वती के अ त र त कु छ प काऍ पु तक समी ा के उ े य से ह का शत क गई।
1902 ई. म जयपुर से समालोचक नामक प का काशन आर भ हु आ। माधव म
पहले ह व 1900 ई. म बनारस से ‘सु दशन’ नकाल चु के थे। आर भ म इन प काओं
म का शत होने वाल पु तक समी ाओं का वर प रचया मक था जो मश:
चारा मक हो चला और फर गुटब द करके पु तक क न दा- शंसा क जाने लगी।
इस कार के प रचया मक नब ध के अ त र त इसी समय ाचीन और समसाम यक
सा ह य पर कु छ मू यांकनपरक लेख भी सामने आए। व तु त: ह द आलोचना क
नींव सह अथ म इ ह ं लेख से पड़ी। ह द क वय और उनके सा ह य को वषय
बनाकर यह शु आत म ब धुओं ने क । 1900 ई. क ‘सर वती’ म 'ह मीर हठ’
और ीधर पाठक पर और 1904 ई. के समालोचक’म महाक व भू षण पर उनके
आलोचना मक लेख का शत हु ए।
प रचय और गुण -दोष के आगे बढ़कर य य प इन लेख म ववे य सा ह य और
सा ह यकार के मू यांकन का य न कया गया तथा प इनका आधार र त- थ
ं म
तपा दत शा ीय स ांत ह रहे। आलोचना क इस प त म कह ं-कह ं बदल च
का आभास मलने लगा था, पर जैसा आचाय शु ल ने कहा है-’उसका व प य:
ढ़गत ह रहा। ‘ ( ह द सा ह य का इ तहास, पृ. सं. 638)
इस प त क आलोचना का चरम प रपाक व 1910-1911 के बीच ह द नवर न के
काशन म हु आ इसम शा ीय ढं ग से का यालोचना को तो बल मला, साथ ह
नवर न म ेणी- म नधारण के कारण तु लना मक आलोचनाओं का भी सल सला
शु हो गया। दे व और बहार के बीच े ठता का नणय करने के लए आर भ होने
वाले इस ववाद म ववेद युग के सभी मा य आलोचक ने भाग लया। पं. पदम
संह शमा, पं. कृ ण बहार म , लाला भगवानद न-सभी ने इस बहस म ह सा लेने के
अलावा तु लना मक समी ा के त भी च दखाई।
ववेद युग क आलोचना क ढब ता का एक कारण यह भी रहा क का य और
नाटक क आलोचना क एक प रपाट र तशा म पहले से मौजू द थी, क तु इनसे
भ न जो समी ा मक लेख नए सा ह य- प को वषय बनाकर लखे गये उनम एक
अलग ढं ग क आलोचना ि ट का प रचय मला। ये लेख समसाम यक कथा सा ह य
पर ववाद के प म सामने आये। इस कार का एक ववाद बाबू दे वक न द ख ी के
उप यास 'च का ता को लेकर 1902-03 म सु दशन तथा ' ी वकटे वर समाचार के
बीच हु आ। 'छ तीसगढ़ म ’(1902) म ी नवासदास के उप यास 'पर ा गु ’और
नाटक रणधीर ेममो हनी क समी ा का शत हु ई। समालोचक (1903 ई.) म
का शत कशोर लाल गो वामी के उप यास तारा’क व तृत समी ा ल ल-अ ल लता
के न को मु खता द गई। समालोचक’के अ टू बर-नव बर अंक म दे वक न दन ख ी
के उप यास 'काजर क कोठर क समी ा का शत हु ई। इसी कार बालकृ ण भ के

359
उप यास 'नूतन हमचार पर 1911 ई. क सर वती म एक मनोरं जक समी ा
का शत हु ई।
इसी कार बीसवीं शता द के आर भ म पु तक-समी ाओं के मा यम से आलोचना क
दो प ट प तयॉ उभरकर सामने आने लगी। का यालोचना क शा नब ढ़ प त
और कथा समी ा क शा मु त प त। इनके अ त र त आलोचना के नाम पर
सै ां तक नब ध और व वतापूण शोध- नब ध रचना क जो वृि त भारते दु युग म
दखाई पड़ी थी उसका भी स यक सार बीसवीं शता द म होता रहा। शा ीय वषय
को लेकर अनेक सै ां तक थ
ं क रचना इस युग म हु ई। इनम पं. क हैया लाल
पो ार क 'का यक प म
ु और लाला भगवानद न क “अलंकार मंजू षा '। इनका मु य
ल य ह द म सा ह यशा को सु लभ भर करना था। इसी कार सं कृ त के
अ त र त पा चा य का य स ांत का भाव महावीर साद ववेद के फुट
आलोचना मक नब ध पर दखाई पड़ने लगा था। इस युग म व वतापूण शोध-
नब ध क भी बहु लता रह । इनम तीन कार के लेख सामने आए 1. सं कृ त क वय
से स ब 2. भि त पर परा के क वय से स ब 3. नागर चा रणी सभा क खोज
रपोट के मा यम से काश म आने वाले सा ह य को वषय बनाकर लखे गये
शोधपूण लेख। बाबू यामसु दरदास वारा तु त बीसलदे वरासो का व तृत ववरण
इसी कार है। 'पृ वीराज रासो क मा णकता के न को लेकर गौर शंकर ह राच द
ओझा, मोहन लाल व णुलाल पां या तथा बाबू यामसु दरदास के बीच का स
ववाद भी इसी समय स प न हु आ।
सा ह ये तहास लेखन क पर परा का वकास भी ' म ब धु वनोद’के काशन के साथ
हु आ। कहने का ता पय यह है क बीसवीं शता द के आर भ म उन सभी आलोचना-
प तय का चार- सार हु आ, जो 21वीं शती के उ तरा से इस युग म वरासत म
पायी थी।
अपने युग के आलोचक म सबसे अ धक खर और नमम वर कदा चत वयं आचाय
महावीर साद ववेद का था। ववेद जी क आलोचना प त म िजतनी नभ क
क रता मलती है, ानाजन म उतनी उदार हणशीलता। उनक आलोचना ि ट के
नमाण म ह द और सं कृ त ह नह ं अ य भारतीय भाषाओं के सा ह य का भी योग
था।
म ब धु- ी गणेश बहार म , रावराजा, डॉ. याम बहार म , और रायदे व शु कदे व
बहार म क ब धु यी को म धु’के नाम से जाना जाता है। आलोचना के इ तहास
म इनके ' ह द नवर न’नाम थ
ं का मरण तु लना मक आलोचना के ार भकता होने
के नाते कया जाता है। इ तहास क भू मका म और क वय के मू यांकन के कम म
म ब धुओं ने िजस आलोचना ि ट का प रचय दया था वह ाय: उपे त रह
गयी। इस ओर कम यान दया गया क आलोचना क जो प त ' ह द नवर न म
तफ लत हु ई है उसका मू ल प म ब धु वनोद म ह बन चु का था। म ब धुय क

360
आलोचना मु य प से कृ त न ठ थी और मू यांकन के न म त वे सा हि यक
तमान को ह ाथ मकता दे ते थे, पर तु राजनी तक प रवतन के कारण बदलते
सामािजक-वैचा रक संदभ क ओर भी वे यथास भव यान दे ते चलते थे। म ब धुओं
ने ीधर पाठक क रचनाओं 'एका तवासी योगी और जगत सचाई सार को खड़ी बोल
रचनाओं का आदश प माना। म ब धुओं ने अपने नवर न म क वय का जो े णी
नधारण कया था इससे ह द म तु लना मक आलोचना क नींव पड़ी। उनके उपरा त
पं. प संह शमा ने बहार सतसई पर आलोचना मक पु तक लखी। वे बहार सतसई
के दोह क तु लना सं कृ त ह द और उदू के अ य क वय से नःसंकोच करते चलते
ह। इस कार वे तु लना मक आलोचना को आलोचक का धान कत य समझते थे।
शैल क सार सफाई और वद धता के बावजू द उनक समी ा म अ त न हत चम कार
ेमी र तकाल न ि ट सवथा प ट है। कह -ं कह ं पुराने वषय क या या म उ ह ने
अपने युग के अनु प आधु नकता का आभास दया है। पं. प संह शमा के अ त र त
तु लना मक आलोचना के इस दौर को जार रखने का ेय पं. कृ ण बहार म
(1890) को है। उ ह ने अपने ं 'दे व और बहार म इन दोन क वय के का य का

तु लना मक ववेचन कया और म तराम थ
ं ावल क भू मका म सवा धक पृ ठ इसी
कार के तु लना मक अ ययन को सम पत कए। वे म तराम क तु लना सू र-तु लसी से
भी करते ह और रसखान-रह म से भी। दे व- बहार च ताम ण से भी और रवी नाथ
ठाकु र से भी। म ब धुओं क स दयता क छटा र तकाल न क वताओं के या या-
व लेषण म ह सवा धक दखाई पड़ती है। य -त आधु नकता का आभास दे ते रहने
पर भी वे म ब धु एवं पं. प संह शमा क तरह र त-सं कार के ह आलोचक कहे
जाएंग।े
पं. कृ ण बहार म क 'दे व और बहार ’के जवाब म लाला भगवान (1868-1930) ने
बहार और दे व नाम क पु तक लखी साथ ह उन आ ेप पर भी वचार कया जो
म ब धु ओं ने बहार पर लगाए थे। बहार क र ा करने के लए ' म ब धु
वनोद’का भी आ य लया। बहार के आ ेप-प रहार के अ त र त लाला भगवानद न
ने बहार और केशव के का य पर जो ट काऍ लखीं उनसे उनक र तकाल न का य
क समझ और अ यवसायी कृ त मा णत होती है।
इस कार म ब धु, प संह शमा, पं. कृ ण बहार म , लाला भगवानद न आ द दे व
और बहार को लेकर पर पर जू झते रहे ह , क तु उनके का य- ववेचन से यह प ट
हो जाता है क इन सभी का का य सं कार मू लत: र तकाल न था।
ववेद युग म कु ल मलाकर दो कार क आलोचना-प तयॉ मु ख प से सामने
आई। इनम एक ओर तो र तकाल न सा ह य के अ ययन क पर परा को बनाए रखने
वाले तथा दूसरे वे एक नयी का य च के नमाण क आव यकता का अनुभव करने
वाले थे। इसके बावजू द अपनी आलोचना म क ह ं नए मानद ड क खोज वे भी नह ं
कर पाए थे।

361
न कष प म ववेद युग क आलोचना म कृ त के गुण -दोष न पण, तु लना, शैल
ववेचन आ द के अ त र त जीवन के संदभ म सा ह य क उपयो गता क परख क
और तो यान दया जाने लगा था क तु क वय क वशेषताओं और उनक अ त:
वृ त क छानबीन आर भ नह ं हु ई थी।

22.3.3 शु ल युग

भारते दु युग के आलोचक ने आलोचना क िजस जनवाद पर परा को ज म दया था


और पं. महावीर साद ववेद ने िजसका वकास कया, उसक चरम प रण त आचाय
रामच शु ल (1884-1941) क आलोचना म हु ई। शु लजी का सबसे मह वपूण
काय आलोचना को सा हि यक प दान करना था। शु लजी सा ह य वारा एक
सु नि चत मानद ड एवं समी ा क वक सत प त अवत रत हु ई। आचाय शु ल वारा
र चत थ
ं म जायसी थ
ं ावल क भू मका ह द सा ह य का इ तहास, गो वामी
तु लसीदास, च ताम ण आद उ लेखनीय है। आचाय शु लजी के आदश कव
तु लसीदासजी ह। उ ह ने िजतना अ धक मह व इ ह दया तथा जैसा सू म व लेषण
इनके का य का कया वैसा वे कसी अ य क व का नह ं कर पाए।
व तु त: ह द आलोचना के िजस दौर को शु ल युग कहा गया है वह ह द म
वा त वक आलोचना का थान ब दु है। यह से ववेद क आलोचना गुण -दोष
ववेचन, तारत मक ेणी. वभाग या र त क वय के बीच े ठता क ऊहापोह से आगे
बढ़कर सह प और साथक भू मका हण करती दखाई पड़ती है।
शु लजी के ह समकाल न आलोचक म बाबू यामसु दरदास ओर पदुमलाल प ना लाल
ब शी के नाम उ लेखनीय है। इ होने एक वै ा नक क भां त पूव अहै पि चम क
सा ह य- स ांत का न प ि ट से अनुशीलन करके उ ह ह द म तु त कर दया।
ह द म सै ां तक समी ा का थम ौढ़ थ
ं सा ह यालोचन बाबू यामसु दरदासजी के
वारा ह तु त हु आ। इसी कार ब शी जी व व-सा ह य’क रचना क , िजसम व व
सा ह य का सामा य प रचय दया गया है। ब शी जी क एक अ य समी ा पु तक
ह द सा ह य वमश है। मू ल प से शु ल युग के ये दो मह वपूण आलोचक ह।

22.3.4 शु लो तर युग

शु ल परवत युग म ह द -समी ा का वकास त


ु ग त से हु आ। इस युग के
समी ा मक वकास को व भ न वग म वभािजत करते हु ए इस कार ववे चत कया
जा सकता है।
(क) ऐ तहा सक समी ा
इस वग म मु यत: आचाय हजार साद ववेद , डॉ. रामकु मार वमा, डॉ. भागीरथ
म आ द आते ह। आचाय ववेद ने अपने ह द सा ह य क भू मका, ह द
सा ह य का आ दकाल, ह द सा ह य का उ व और वकास’आ द थ
ं वारा ह द
सा ह य पर नूतन आलोक सा रत करते हु ए अनेक नूतन थापनाएँ था पत क ।

362
वशेषत: स त सा ह य एवं वै णव भि त आ दोलन के स ब ध म उ ह ने अनेक नये
त य का उ घाटन कया। उनके अ य समी ा मक ं -सू रसा ह य, कबीर आ द भी

मह वपूण ह, जो क यावहा रक समी ा के अ तगत आते ह।
डॉ. रामकुमार वमा ने ह द सा ह य का आलोचना मक इ तहास’म आ दकाल एवं
भि तकाल का ववेचन अ य त व तार से कया गया है। डॉ. भागीरथ म ने ह द
का यशा का इ तहास’एवं ह द सा ह य: उ व एवं वकास’के वारा ह द के
इ तहास को प ट कया। इनके अ त र त डॉ. ी कृ णलाल एवं डॉ. केसर नारायण
शु ल ने भी आधु नक काल का प ट करण कया है।
(ख) सै ां तक समी ा
इस वग म मु यत: डॉ. गुलाबराय, डॉ. नगे , आचाय बलदे व उपा याय, डॉ. राममू त
पाठ ? आ द आते ह।
गुलाबराय ने ‘ स ांत और अ ययन’, का य के प, ह द ना य वमश आ द थ
ं म
भारतीय एवं पा चा य ि टकोण , सा ह य स ांत का ववेचन कया है। डॉ. नगे ने
र तका य क भू मका, 'भारतीय का यशा क भू मका, रस स ांत, का य- ब ब’g
'अर तू का का यशा जैसे थ
ं के वारा भारतीय एवं पा चा य स ांत को नकट
लाने का यास करते हु ए ह द समी ा को एक ौढ़ एवं सश त आधार दान कया
है। आचाय बलदे व उपा याय ने 'भारतीय सा ह यशा म तथा डॉ. राममू त पाठ ने
भारतीय सा ह य, रस वमश आ द म भारतीय स ांत का ववेचन कया है। इस संग
म डॉ. रामलाल संह का समी ा-दशन डॉ. स यदे व चौधर का र तकाल न आचाय, डॉ.
कृ ण दे व ार का रस शा और सा ह य समी ा तथा भोलाशंकर यास का ' व न
स दाय और उसके स ांत भी उ लेखनीय ह। इसके वारा भारतीय स ांत का
पुन ववेचन नूतन ि ट से हु आ है।
(ग) यावहा रक समी ा
इस वग के शु लो तर समी क म आचाय न ददुलारे वाजपेयी का सव च थान हे ।
उ ह ने ह द -सा ह य: बीसवीं शती, 'आधु नक ह द -सा ह य, नया सा ह य: नये न,
जयशंकर साद, सू रदास आ द थ
ं का णयन कया। व तु त: छायावाद रचनाओं का
सव थम स यक् ववेचन तु त करने का ेय आचाय न ददुलारे वाजपेयी को ह है।
वात ो तर युग म योगवा दय के साथ संघष करते हु ए उ ह नयी क वता क ओर
अ सर करने का ेय भी इ ह ह दया जाता है। व तुत : वे अपने युग के सजग
आलोचक थे।
शु ल पर परा के अ य समी क म आचाय व वनाथ साद म , डॉ. वनय मोहन
शमा, डॉ. स ये , डॉ. हरवंशलाल शमा, डॉ. प संह शमा, डॉ. गुणायत ने अपनी
ौढ़ समी ा मक कृ तय वारा अनेक ाचीन एवं अवाचीन सा ह यकार का नया
मू यांकन तु त कया। डॉ. श भूनाथ संह, डॉ. व व भरनाथ उपा याय, डॉ.
ेम व पगु त ने भी इस े म योग दया।

363
मनो व लेषणवाद ि ट से समी ा करने वाले आलोचक म दे वराज उपा याय का थान
सव प र है। उ ह ने मनो व लेषणा मक ि ट से कथा-सा ह य का ववेचन तु त
कया। इसी कार ह द के क तपय आलोचक ने मा सवाद ि टकोण के आधार पर
ह द -सा ह य के वभ न प क आलोचना तु त क । डॉ. राम वलास शमा,
शवदान संह चौहान, काशच द गु त, अमृत राय उ लेखनीय है। इनम भी राम वलास
शमा व श ट है। उनक 'आचाय रामच शु ल और ह द आलोचना, ेमच द और
नराला क सा ह य साधना वयं लेखक ह नह ं वरन ् ह द आलोचना क उपलि धयॉ
ह। अपने सहकम कु छ अ य मा सवाद आलोचक क तरह राम वलास शमा ने
मा सवाद सा ह य स ांत के कोरे सै ां तक तपादन से ह संतोष नह ं कया बि क
मा सवाद ि ट से समूचे ह द सा ह य क पर परा क नई या या तु त करके
मा सवाद आलोचना क साम य था पत करके दखाई।
वै ा नक समी ा प त के उ नायक म डॉ. माता साद गु त का नाम सव प र है।
इ ह ने एक ओर तो अपने तुलसीदास म तु लसी सा ह य का संतु लत ववेचन तु त
करके तथा दूसर ओर बीसलदे व रासो, 'प ावत, चंदायन, मृगावती , कबीर थ
ं ावल
आ द का पाठ-शोधन करके वै ा नक ि ट का प रचय दया। तदन तर डॉ. द नदयाल
गु त ने अपने 'अ टछाप और ब लभ स दाय’ वारा वै ा नक शोध-प त को अ सर
कया। इनके अ त र त ह द के अनेक शोधकताओं ने व भ न सा ह यकार के
यि त व एवं कृ त व के व लेषण एवं मू यांकन म वै ा नक ि ट का उपयोग कया
है-इसम डॉ. भागीरथ म , डॉ. कृ णलाल, डॉ. ल मीसागर वा णय, डॉ. सा व ी स हा,
डॉ. सरनाम संह, डॉ. स ये , डॉ. भोलानाथ तवार , डॉ. ह रालाल माहे वर , डॉ. सरयू
साद अ वाल आ द का नाम उ लेखनीय ह।
आधु नक सा ह य और नयी क वता के आलोचक म डॉ. इ नाथ मदान, डॉ. नामवर
संह, डॉ. जगीदश गु त, ी ल मीका त वमा आ द के नाम मह वपूण ह। डॉ. मदान
ने ेमच द से लेकर आज तक के कथा सा ह य का ववेचन अ य त सू म प म
तु त करते हु ए उसक अनेक नवीन वृि तय को प ट कया है। डॉ. नामवर संह
इस ि ट से व श ट है क वे समाजवाद जीवन- ि ट और नयी क वता के समवेत
बोध को लेकर आलोचना म वृ त हु ए। उनक पहल मह वपूण आलोचना मक समी ा
'छायावाद’(1954 ई.) सामने आयी। का य समी ा क उनक दूसर पु तक 'क वता के
नए तमान’(1968) है। ल बे अ तराल के बाद उनक दो पु तक 'दूसर पर परा क
खोज” (1982) और 'दाद- ववाद संवाद” (1989) का शत हु ई।
नयी समी ा के आलोचक म अ ेय, वजयनारायण दे व साह , राम व प चतु वद ,
शमशेर बहादुर संह, धमवीर भारती तथा ग रजाकुमार माथुर को रखा जा सकता है।
वतमान समय म सा ह य क सभी वधाओं को यान म रखकर समी ाएं क जा रह
है। ह द क समसाम यक आलोचना क एक बड़ी उपलि ध य का य के प म

364
नाटक क समी ा का वकास है। इसम कृ णन द गु त, उपे नाथ अ क, गो व द
चातक तथा व पन कु मार अ वाल मह वपूण ह।
ह द क कथा समी ा के इ तहास म छठे दशक के म य युवा कथाकार क एक पूर
पीढ़ का उदय मह वपूण घटना है। मोहन राकेश, कमले वर, राजे यादव, नमल
वमा, भी म साहनी, रामकु मार वमा, कृ णा सोबती, अमरका त, फणीशवरनाथ रे णु
कहानी के े म एक साथ इतने नाम का उभरकर आना कहानी के े म एक
आ दोलन क शु आत का सू चक है। राजकमल काशन से भैरव साद गु त के
स पादक व म 'नयी कहानी (1960) का काशन आर भ हु आ और कहानी संबध
ं ी
चचा भी धारावा हक प से चल नकल ।
िजस कार कहानी के े म कु छ नये योग के कारण, कहानी समी ा क अपनी
एक नयी प त क ज रत महसू स क गयी, उसी कार उप यास समी ा के वकास
क आव यकता अनुभव क जाने लगी। नै मच द जैन ने ' ह द उप यास क नयी
दशा’शीषक दे कर 'मैला आंचल क समी ा क और 'कथा श प का वश ट
योग’नाम से नमल वमा ने परती प रकथा का मू यांकन कया। इसी कार दे वीशंकर
अव थी क 'एक टू टा दपण शीषक से चा -च लेख क समी ा और क व ि ट का
अभाव शीषक से कं ु वरनारायण वारा क गयी झू ठा सच’क समी ा उ लेखनीय है।
राजे यादव के 'अटठारह उप यास’(1981) म संक लत समी ा मक लेख वशेष प
से उ लेखनीय है। सातव दशक म रचना के े म प रवतन के साथ आलोचना म भी
प रवतन के ल ण कट होने लगे। इस दौर के लेखक के ख सामा यत: आलोचना
वरोधी है, फर भी समकाल न रचना के बीच से कु छ अपने आलोचक उभर ह आए।
इन उद यमान आलोचक म मलयज’और रमेशच शाह के नाम वशेष प से
उ लेखनीय है।
मलयज के समी ा मक लेख का पहला सं ह क वता से सा ा कार (1971) उनके
जीवन काल म और शेष दो रचनाऍ ‘संवाद और एकालाप और रामच
शु ल’मरणोपरा त का शत हु ई।
इसी कार रमेशच शाह क उ लेखनीय आलोचना पु तक ह समाना तर (1973)
और वागथ (1981) जो उनक का य-समी ा और कहानी समी ा दोन का पूरा
त न ध व करती ह।
इन तमाम नाम के बीच एक व श ट नाम कहानीकार चंतक ' नमल वमा’का है।
आठव दशक म स य रचनाकार आलोचक म सबसे वर ठ नमल वमा के
समी ा मक और वैचा रक लेख के तीन सं ह “श द और मृ त ” (1976) “कला का
जो खम ‘(1981) और “ढलान से उतरते हु ए” (1986) का शत हु ए।
स प त ह द आलोचना अपनी द घ ऐ तहा सक या ा अनेक पड़ाव म पार करती हु ई
आगे बढ़ रह है। व तु त: आलोचना एक ऐसा प है जो कसी रचना को लोक य या

365
अलोक य घो षत करती है। इस लए आलोचना का वकास भी व तु त: युग -युग तक
अपनी या ा म अनेक पड़ाव को पार करता चलेगा।

22.4 सारांश
सा ह य के वकास म आलोचना का मह वपूण योगदान होता है। सा ह य क अ य
वधाओं क भां त ह इसक अपनी मह ता है। आलोचना के अंश तो हम म यकाल न
सा ह य म ह दे खने को मल जाते ह ले कन आधु नक ह द आलोचना का वा त वक
आर भ भारते दु युग से माना जाता है। भारते दु और उनके सहयो गय ने िजस ह द
आलोचना का बीजारोपण कया वह आज वट वृ बनकर खड़ी है। भारते दु के बाद
ववेद और उनके युग म भी आलोचना का मक वकास हु आ। शु लजी के
आलोचना े म पदापण ने उसे ग रमापूण बनाया। शु लजी के प चात ् ह द
आलोचना के व वध आयाम दे खने को मलते ह। न द दुलारे वाजपेयी, हजार साद
ववेद , राम वलास शमा, नगे , दे वराज उपा याय और नामवर संह ने इसके वकास
म अपना उ लेखनीय योगदान दया।

22.5 अ यासाथ न
1. आलोचना का अथ एवं मह व उ घा टत क िजए।
2. पूव भारते दु युगीन ह द आलोचना क पर परा का प रचय द िजए।
3. ह द आलोचना के वकास म आचाय रामच शु ल व हजार साद ववेद का
मह व प ट क िजए।
4. वत ो तर ह द आलोचना का वै श य अं कत क िजए।

22.6 संदभ ंथ
1. (सं.) डॉ. नगे - ह द सा ह य का इ तहास
2. डॉ. रामच तवार - ह द का ग य सा ह य
3. डॉ. वैकट शमा- ह द समालोचना का वकास
4. डॉ. गणप तच गु त- ह द सा ह य का वै ा नक इ तहास

366
इकाई- 23 : ह द नबंध
इकाई क परे खा
23.0 उ े य
23.1 तावना
23.2 सामा य प रचय
23.3 नब ध का वकास
23.3.1 भारते दु युग
23.3.2 ववेद युग
23.3.3 शु ल युग
23.3.4 शु लो तर युग
23.4 सारांश
23.5 अ यासाथ न
23.6 संदभ थ

23.0 उ े य
इस इकाई म आप ह द नब ध का प रचय ा त करगे। इस इकाई के अ ययन से
आप:
 ह द नब ध के व प का सामा य प रचय ा त कर सकगे,
 भारते दु युगीन ह द नब ध संसार से प र चत हो सकगे,
 ववेद युगीन नब धकार एवं नब ध के बारे म जान सकगे,
 शु ल युगीन नब ध के स ब ध म प रचय ा त कर सकगे,
 शु लो तर नब ध के स ब ध म व तार से प र चत हो सकगे।

23.1 तावना
आधु नक युग ग य का युग कहा जाता है और नब ध ग य क कसौट है। इसम
वषय का तपादन बड़े सजीव ढं ग से होता है। इस वधा का सू पात भारते दु युग म
ह हु आ। भारते दु युग म का शत होने वाल व भ न प -प काओं म चु र मा ा म
नब ध का काशन हु आ। आचाय महावीर साद ववेद और उनके युग के
नब धकार ने इसे ग भीरता दान क । शु ल युग म नब ध ौढ़ता को ा त हु आ।
इस युग म नब ध सा ह य के वकास म आचाय रामच शु ल के साथ गुलाब राय,
पदुमलाल पु नालाल ब शी, रायकृ णदास, जयशंकर साद ने महती भू मका का नवाह
कया। शु लजी के प चात ् आज तक ह द नब ध नर तर वक सत होता रहा है।
इस दौरान इसके कई प उभर कर आये ह। हजार साद ववेद , राम वलास शमा,
व या नवास म , कु बेरनाथ राय ने नब ध सा ह य को नवीन आयाम दान कया

367
है। आइये, नब ध सा ह य का सामा य प रचय ा त करते हु ए इसक वकास या ा
का अवलोकन कर।

23.2 सामा य प रचय


नब ध ग य क आधु नक वधाओं म अ भ यि त का एक समथ मा यम है।
आधु नक युग म ान का आधार वै ा नक पर ण के समा तर नर तर वकास क
ओर अ सर है, िजसे वहन करने का दा य व अपे ाकृ त ग य पर अ धक है। इस लए
ग य को जीवन-सं ाम क भाषा कहा गया है।
नब ध सं कृ त क मू ल धातु बंध म उपसग न जोड़ दे ने के प चात ् बना है सं कृ त
के व भ न व वान ने नब ध को व भ न अथ म यु त कया है जैसे वाच प त ने
नब धघञ ् का अथ सं ह करना, बाँधना या रोकने से लगाया है 1 जब क जटाधर ने
नब ध क न न सि ध व छे द कया है- नब धअच’अथात ् नीम का वृ िजसका सेवन
करने से कु ठ रोग भी ठ क हो जाता है। वकास के साथ-साथ नब ध के भाव व अथ
म यापक प रवतन आया है। यह श द सं कृ त का अव य है, पर तु अपने उपयु त
शाि दक अथ से जो व न दे ता है, वह उसके वतमान व प को पूणत: प ट कर
दे ता है। नब ध का अथ ग य क उस रचना से लया जाता है, िजसम कसी एक
वषय या उस वषय से स बि धत कसी एक अंश को आधार बना सु ग ठत और
सु स ब प से ववेचन कया जाता है। ह द श द सागर के अनुसार -’ नब ध वह
या या है, िजसम अनेक मत का सं ह हो।
नब ध श द क आवृि त ' ीम गवतगीता ( लोक 5, अ याय 16) म हु ई है। यहाँ
आसु र शि त को बांधने के संदभ म इस श द का योग हु आ है। इसी भॉ त सातवीं
शता द म र चत काद बर , शशु पालवधम ् एवं आठवीं सद म ल खत थ
ं यायमंजर
एवं त वद पन’के अलावा चाय वा तक एवं वेदा त क पत ’आ द थ
ं म भी नब ध
का व भ न स दभ म उ लेख ा त होता है।
जहाँ तक नब ध श द के अथ का स ब ध है सं कृ त म वषय वशेष का तपादन
करने वाले थ
ं को नब ध कहते थे क तु बाद म मह वपूण रचना मा को भी
नब ध कहा जाने लगा। इस कार नब ध श द के स ब ध म भारतीय एवं पा चा य ्
वचारक ने अपने मत दये-
जॉनसन के अनुसार नब ध ‘लूज सैल ऑफ माइ ड अथात ् च तनह न बु , आन द
एवं मन का आकि मक भटकाव मा है। ‘जब क केवेल’ने नब ध को लेखन कला का
य साधन माना है। इसम ान, बु या तभा क आव यकता नह ं है।
इसी कार ह द सा ह य के ति ठत व वान ने भी नब ध को येक ि टकोण
से दे खने का सफल यास कया है।

368
बाबू गुलाबराय के अनुसार ' नब ध ऐसी ग य रचना है िजसम एक नि चत आकार के
म य कसी वषय. का वणन या उ लेख नता त व छ दता, सजीवता एवं नजीपन
के साथ कया गया हो। ''
आचाय शु ल के अनुसार “आधु नक पा चा य ल ण के अनुसार नब ध उसी को
कहना चा हए िजसम यि त व अथात ् यि तगत वशेषता हो। '
डॉ. यामसु दर दास के अनुसार ' नब ध उस लेख को कहना था हए िजसम कसी
गहन वषय पर व तृत एवं पाि ड यपूण वचार कया गया हो। '
डॉ. नगे के अनुसार ‘ नब ध उस कला मक ग य लेख को कहते ह िजसम वैयि तक
ि टकोण तथा आि मक ढं ग से वषय का वाहपूण वणन ह , और जो अपने सं त
आकार म वत:पूण हो। ''
इस कार नब ध के वषय म भारतीय एवं पा चा य ् वचारधारा जानने के प चात ्
न कषत: कहा जा सकता है क नब ध से ता पय ऐसी ग य रचना से है जो कसी
भी शैल वषय (सामािजक. आ थक, बौ क, धा मक एवं दाश नक) पर आ मीय सू
स हत लखी गई हो तथा िजसम लेखक कसी वचार या वषय से भा वत होकर
अपनी भाषा म अपने भाव या वचार क कया तथा त या को सजीव ढं ग से
य त करता हु आ पाठक क मनोवृि तय को आ दो लत करता है।
बाबू गुलाबराय ने नब ध क वशेषताऐं इस कार मानी है-
1. नब ध ग य म लखा जाता है, 2. उसम लेखक के नजीपन और यि त व क
झलक मलती है, 3. उसम अपूणता और व छ दता होते हु ए भी वह अपने आप म
पूण होता है, 4. वह साधारण ग य क अपे ा अ धक रोचक और सजीव होता है 5.
इसम लेखक अपने यि तगत ि टकोण के आधार पर अपनी तभा का पूण काशन
करने का अवसर ा त करता है।
व तु त: कोई स दय स वेदनशील कलाकार जब कसी वषय के स ब ध म अपने
वतं वचार और भाव का काशन पूण त मयता और व छ दता के साथ रोचक
शैल म करता है, तब िजस सा हि यक वधा का सृजन होता है, उसे ह नब ध कहते
ह। उसक त मयता और व छ दता और वचार क मौ लकता और उनक सरस
अ भ यि त उस रचना को उसके यि त व का त न ध बना दे ती है। यह नब ध का
एकमा ल ण माना जा सकता है।
वषय और शैल के आधार पर नब ध को चार वग म वभािजत कया जा सकता है,
जैसे 1. वणना मक, 2. ववरणा मक, 3. वचारा मक और 4. भावा मक। बाबू
गुलाबराय ने उपयु त वग करण करते हु ए लखा है-”इन कार के म ण से भी बहु त
से कार हो सकते ह। वणाना मक नब ध म व तु कौ ि थर प म दे खकर वणन
कया जाता है, इसका स ब ध अ धकतर दे श से है। ववरणा मक का स ब ध
अ धकांश काल से है, इसम व तु को उसके ग तशील प म दे खा जाता है।
वचारा मक म तक का सहारा अ धक लया जाता है, यह मि त क क व तु है।
369
भावा मक नब ध का स ब ध दय से है। य य प का य के चार त व (क पना-
त व, रागा मक-त व, बु -त व और शैल -त व) सभी कार के नब ध म अपे त
रहते ह, तथा प वणना मक और वचारा मक नब ध म क पना क धानता रहती है।
वचारा मक नब ध म बु -त व को और भावा मक नब ध म रागा मक त व को
मु यता मलती है। शैल त व सभी म समान प म व यमान रहता है। वणना मक
तथा ववरणा मक दोन ह कार के नब ध म कह ं वचारा मक क और कह ं
भावा मकता क धानता हो सकती है।

23.3 नब ध का वकास
ह द नब ध के इ तहास पर ि ट डाल तो राज शव साद सतारे हंद वारा र चत
राजा भोज का सपना (1839) को ह द का पहला नब ध माना जा सकता है। इसम
व न क एक कथा वारा नै तक स ांत और उपदे श का अंकन कया गया है।
पर तु इसके स ब ध म काफ ववाद रहा है। इसम कथा का अंश रहने के कारण कु छ
लोग ने इसे ह द क पहल कहानी भी माना है। दरअसल यह नब ध और कहानी
का अ ुत म त प है। इस दौरान राज ल मण संह तथा अ य कई समकाल न
लेखक ने कु छ लेख लखे थे, िजनम नब ध क सी ह क झलक मलती है, पर तु
उ ह नब ध क आधु नक प रभाषा के अनुसार शु नब ध नह ं माना जा सकता।
ह द नब ध का वा त वक उदय तो भारते दु-युग म ह हु आ। तब से लेकर आज
तक ह द म नब ध लेखन क अख ड पर परा चल आ रह है। आज ह द नब ध
लगभग एक सौ पचास वष क सफल या ा कर चु का है। इस या ा को हम चार भाग
म वभािजत कर सकते ह-
1 भारते दु युग - (सन ् 1857-1900 तक)
2. ववेद युग - (सन ् 1900-1920 तक)
3. शु ल युग - (सन ् 1920-1940 तक)
4. शु लो तर युग - (सन ् 1940-से आज तक)

23.3.1 भारते दु युग

भारते दु युग म हम ह द - नब ध को, नब ध के वा त वक अथ म, ज म लेता हु आ


दे खते ह। इस युग के नब धकार व भ न प -प काओं के स पादक थे और
सामािजक एवं रा य चेतना के चार और सार म स य थे। इन सारे काय के
लए नब ध ह सबसे सरल, भावशाल , सु लभ और सश त मा यम बन सकता था
य क नब ध एक तो आकार म छोटा होता है, दूसरे एक नई वधा होने के कारण
अभी उसके नयम-उप नयम नह ं बन पाए थे। सा ह य के अ य अंग के मा यम से
अपनी बात करने म नाना कार के व ध- नषेध का पालन करना पड़ता है। उस युग
म क वता का मा यम जभाषा थी िजसम यं य और हा य के मा यम से नए युग
क नई चेतना को य त करना आसान नह ं था। इन स पादक- नब धकार को अपनी
370
प -प काओं म हर मह ने नई-नई सम याओं पर वचार करना और ट प णयाँ लखनी
पड़ती थी। और इसके लए उस समय नब ध से अ छ और कोई दूसर वधा नह ं
थी। यह कारण था क भारते दु युग म व भ कार के वषय को लेकर बड़ी सं या
म नब ध लखे गये। इस युग के नब ध म न तो बु -वैभव का चम कार तु त
करने क वृि त मलती है, और न पाि ड य दशन का द भ। इनके लेखक मन क
तरं ग के अनु प कसी भी वषय को उठा कर नब ध लखना आर भ कर दे ते थे और
बीच-बीच म हा य- यं य- वनोद क फुलझ ड़याँ छोड़ते चलते थे। ये नब ध वैयि कता,
भावुकता, न छलता, उ मु तता से यु त ह।
इस युग के मु ख नब धकार म भारते दु ह र च , बालकृ ण भ , तापनारायण
म , अि बका साद यास, राधा चरण गो वामी, बदर नारायण चौधर
' ेमघन’बालमु कु द गु त के नाम उ लेखनीय है। इस युग म नब ध-सा ह य को
वकास दे ने म तीन नब धकार वशेष प से मह वपूण ह-बालकृ ण भ ,
तापनारायण म , और बालमुकु द गु त। ये तीन ह मू ल प से नब धकार थे।
व तु त: ह द - नब ध को बहु मु ख,ी उ नत और पु ट करने का ेय इ ह ह दया जा
सकता है। इन लोग ने सामा य और ग भीर, हा य- यं य म त और ग भीर
ववेचन व लेषण क शि त से यु त सम-साम यक वभ न कार के वषय को
अपनाते हु ए बड़ी सं या म नब ध लखे ह। ये सभी नब धकार म त, मनमौजी,
िज दा दल, क पनाशील और यथाथवाद थे। अपनी बात को बना कसी संकोच के खु ल
कर लख डालते थे। ये अपने पाठक के साथ अनौपचा रकता और आ मीयता के साथ
बात करने क कला जानते थे। इन नब धकार क मू ल चेतना रा यता क भावना
थी। ये अपने सा ह य के मा यम से य -अ य प म अपनी रा य भावना को
ह य त करने म लगे रहते थे। य प म ये सामािजक वषय और सम याओं
को उठाते हु ए सामािजक उ थान का रा ता दखाते थे। सामािजक ढ़य और कु र तय
का वरोध करते थे। दय से यह सब अं ेजी शासन और अं ेिजयत के वरोधी थे।
पर तु उस युग म खु ल कर अं ेजी शासन के खलाफ कुछ भी कहना मुसीबत को घर
बैठे बुलाना था। इस लए ये लोग अं ेजी शासन और उससे संबं धत सार बात का
वरोध करने के लए हा य और यं य का सहारा लेते थे। भ जी ' ह द द प’के
स पादक थे और उनक लेखनी ने वणना मक, ववरणा मक, भावना मक और
वचारा मक सभी कार के नब ध लखे ह। उनके नब ध के वषय े यापक ह।
मेला-ठे ला, वक ल, सहानुभू त 'आशा, लटका, 'इंग लश पढ़े तो बाबू होय!’रोट तो कसी
भां त कमा खाय मु छ दर 'आ म- नभरता, 'माधु य', 'श द क आकषण शि त आ द।
भ जी के नब ध म वचार क मौ लकता, शैल क रोचकता मौजू द है।
तापनारायण म ने भी वभ न वषय पर लेख लखे। कभी 'भ , दाँत, पेट',
मु छ’नाक आ द पर म जी क वनो दनी लेखनी चल तो कभी उ ह ने बु ', ताप
च रत, 'दान', जु आ, 'अप यय’जैसे वषय पर काश डाला। एक ओर उ ह ने
371
'नाि तक’ई वर क मू त', शव मू त, सोने का ड डा 'मनोवेग आ द वषय पर लखा,
तो दूसरे ओर समझदार क मौत है, टे ढ़ जान शंका सब काहू, 'पूरे से लती बनै,
कनातन के डोल बॉधे, होल है अथवा होर है जैसी उि तय पर व तृत प से काश
डाला। म जी के नब ध म मु हावर का योग भी अ य धक मा ा म हु आ है।
चौधर बदर नारायण ' ेमघन”आन द कादि बनी और नागर -नीरद’के स पादक थे। इन
प म उनके अनेक नब ध का शत हु ए, जैसे- ह द भाषा का वकास, प रपूण
यास, उ साह-आल बन आ द।
बालमुकु द गु त ने भी भारते दु युग के ह द नब ध सा ह य म अपना योगदान
दया। गु तजी ने बॅगवासी, भारत म , आ द का स पादन करते हु ए अनेक नब ध
लखे। उनके नब ध म वदे शी शासक ह नी त पर मीठा यं य कया गया है। शव-
श भू के उपनाम से उ ह ने अनेक नब ध लखे जो शव श भू का च ा के नाम से
स है। इनम लाड कजन को स बो धत करके भारतवा सय क राजनी तक ववशता
को अ भ यि त दान क गयी है।
भारते दु युग के सभी नब धकार म वैयि तकता के साथ-साथ सामािजकता का
सम वय मलता है। उनके वषय े म यापकता और व वधता मलती है। हा य
और यं य का पुट उ ह ने दया है; क तु यह यं य सो े य है-उसका उ े य
सामािजक या राजनी तक वषमता पर चोट करना है। गढ़ से गढ़ वषय को भी इस
युग के लेखक ने सरल, सु बोध एवं मनोरंजक शैल म तु त कया है। उनक भाषा
शैल म याकरण क ि ट से व छता या शु ता भले ह न हो, क तु वे दय को
गुदगुदाने , मि त क को झंकृ त करने व उसक आ मा को पश करने म पूणत: समथ
ह।

23.3.2 ववेद युग

आचाय महावीर साद ववेद ने भाषा नमाण के े म मह वपूण काय कया है।
महावीर साद ववेद के लेखन का आदश बेकन था। उ ह ने बेकन के नब ध का
अनुवाद बेकन वचार र नावल के प म कया। बेकन क भॉ त ववेद जी भी
नब ध म वचार को मु खता दे ते थे। उनके नब ध-क व और क वता, तमा,
क वता, सा ह य क मह ता, ोध, लोभ आ द नये-नये वचार से यु त ह। भारते दु
युगीन नब ध क सी वैयि तकता का दशन, सजीवता, रोचकता एवं सहज
उ छृं खलता का ववेद जी के नब ध म अभाव सा है। उनके नब ध म भाषा क
शु ता, साथकता, एक पता, श द- योग-पटु ता आ द गुण तो मलते ह, क तु
व लेषण क ग भीरता, च तन क मौ लकता उनम बहु त कम है। फर भी उनके
नब ध म यास-शैल के कारण पया त सरलता आ गयी तथा कह ं-कह ं हा य- यं य
व भावा का भी फुटन हु आ है। ववेद युग के मह वपूण नब धकार म माधव साद
म , बाबू यामसु दर दास, अ यापक पूण संह एवं च धर शमा गुलेर का नाम

372
उ लेखनीय है। वषय व तु क ि ट से उ ह ने ववेद जी का ह अनुकरण करते हु ए
वचारा मक नब ध भी लखे ह, क तु फर भी इनम कह -ं कह ं शैल क व श टता
ि टगोचर होती है। माधव साद जी ने घृ त, स य', जैसे वषय पर ग मीर शैल म
काश डाला है।
बाबू यामसु दरदास उ च को ट के आलोचक होने के साथ-साथ सफल नब धकार भी
थे। उ ह ने ाय: आलोचना मक ग भीर वषय पर ह लेख लखे-जैसे 'भारतीय सा ह य
क वशेषताऍ, समाज और सा ह य', हमारे सा ह योदय क ाचीन कथा g कत य औr
स यता आ द। उनके नब ध म वचार का सं ह और सम वय ह मलता है। उनक
शैल ौढ़ होते हु ए भी सरल है, उसम कह ं भी अ प टता या ज टलता ि टगोचर नह ं
होती। अ यापक पूण संह उन सा ह यकार म ह िज ह ने कम लखकर भी अपार
या त अिजत क है। अ यापक पूण संह के नब ध म वाधीन च तन ् नभय-
वचार काशन एवं गीतशील त व मलते ह। उनक शैल म अनूठ ला णकता और
अपूव यं य मलता है। 'आचरण क स यता, मजदूर और ेम उनके उ लेखनीय
नब ध ह।
गुलेर जी के नब ध सं या म कम ह, क तु गुण क ि ट से वे बहु त मह वपूण ह।
उनम ग भीरता के साथ मनो वनोद, पा ड य के साथ चुलबुलापन, ाचीनता के साथ
नवीनता, सां कृ तकता के साथ ग तशीलता का सु दर सम वय ि टगोचर होता है।
उनक शैल म सरलता, सरसता, यं या मकता एवं रोचकता का गुण चु र मा ा म
व यमान है। 'कछुवा धम’से ट य है-’पुराने से पुराने आय क अपने भाई असुर से
अनबन हु ई। असुर असु रया म रहना चाहते थे, आय स त स धु को आयावत बनाना
चाहते थे। आगे वे चल दये, पीछे वे दबाते आये पर ईरान के अंगरू और गुल का
मु ंजवत ् पहाड़ क सोमलता का च का पड़ा हु आ था, लेने जाते तो वे पुराने गंधव मारने
दौड़ते ह। ह , उनम से कोई कोई उस समय का चलकौआ नकद नारायण लेकर बदले
म सोमलता बेचने ो राजी हो जाते थे। उस समय का स का गौएँ थी। मोल ठहराने
म बड़ी हु जत होती थी, जैसे क तरका रय का भाव करने म कं ु ज डय से हु आ करती
ह। ये कहते क गो क एक कला म सोम बेच दो। वह कहता, वाह! सेम राजा का
दाम इससे कह ं बढ़कर है। इधर ये गो के गुण बखानते। जैसे बु ढे चौबेजी ने अपने
कंधे पर चढ़ बाल-वधू के लए कहा था-या ह म बेट वैसे ये भी कहते क इस गौ से
दूध होता है, म खन होता है, दहो होता है, यह होता है. वह होता है। ‘व तु त: गुलेर
जी के नब ध उनके यि त व क सजीवता से ओत- ोत ह, उनक शैल पर सव
उनका यि त व अं कत है। ये नब ध रा य चेतना, सामािजक एकता, व व ेम,
मानवतावाद से ओत- ोत ह। इसके साथ ह इनक भाषा शु एवं प रमािजत है।

373
23.3.3 शु ल युग

शु ल जी के ह द नब ध के े म पदापण ने इस वधा को ग रमा दान क ।


दूसरे श द म यह कह सकते ह क नब ध के े म आचाय शु ल ने वह काय
कया जो कथा सा ह य म ेमच द ने कया। शु लजी ने अपने भाव और मनो वकार
तथा सा ह य-समी ा स ब धी व भ न नब ध लखकर ह द म पहल बार यह स
कया क नब ध को, नब ध क आ मा वैयि तकपूण आ मीयता और भाव- णवता
को अ ु ण रखते हु ए, ग मीर ववेचन का मा यम बनाया जा सकता है। उनके
नब ध ने ह द - नब ध म एक नया जीवन उ प न कर दया था। च ताम ण के
नब ध के वषय अ य त सू म एवं ग मीर-मनो व ान एवं रसानुभू त से यु त ह
तथा उनका तपादन भी ौढ़तम शैल म हु आ है। उनम एक ओर च तन क
मौ लकता, ववेचन क ग भीरता व लेषण क सू मता एवं शैल क ौढ़ता ि टगोचर
होती है, तो दूसर ओर उनम लेखक क वैयि तकता, भावा मकता एवं यं या मकता
का दशन भी थान- थान पर होता है। उनके नब ध म यि त एवं वषय का ऐसा
सफल सम वय हु आ क इस बात का नणय करना क ठन हो जाता है क उ ह
यि त धान कह या वषय धान? ई या, ' ा, ल जा, ोध, लोभ आ द नब ध
म मनोवृि तय का व लेषण उ ह ने अ य त पैनी ि ट से कया है। इन नब ध म
एक ओर उनक सू म मनोवै ा नकता का प रचय मलता है, तो दूसर ओर उनका
समाज-शा ीय ि टकोण भी प ट प म दखाई दे ता है।
शु लजी ने ग मीर वचार- धान वषय को भी सरल बना दया है। इसका रह य यह
है क वे ग भीर ववेचन करते हु ए बीच-बीच म कह ं भावुक हो उठते ह और कह ं
शाल न हा य- यं य क मीठ फुलझ ड़य छोड़ने लगते ह। ग भीर ववेचन से आ ा त
और बो झल पाठक के मि त क को ऐसे थल पर थोड़ा-सा वराम मल जाता है और
उसका मनोरंजन भी हो जाता ह। शु लजी ऐसे थल पर वयं थोड़ा-सा सु ता कर
और अपने पाठक को भी थोड़ा-सा सु ता लेने का अवसर दान कर, उ ह पुन : अपने
वचार म बॉध आगे बढ़ जाते ह।
शु ल-युग के अ य नब धकार म डॉ. गुलाबराय , पदुमलाल पु नालाल ब शी,
माखनलाल चतु वद , वयोगी ह र, रायकृ णदास, वासु देवशरण अ वाल, जयशंकर साद,
चतु रसेन शा ी, राहु ल आ द उ लेखनीय ह। गुलाबराय के अनेक नब ध-सं ह का शत
हु ए ह, िजनम ' फर नराशा य ? ’मेर असफलताएँ', 'मेरे नब ध’आ द लोक य ह।
इनके नब ध म यि त व क सरलता, अनुभू त का सि म ण, वचार क प टता
एवं शैल क सु बोधता मलती है। उ ह ने वैयि तक वषय को रोचक ढं ग से तु त
कया है। उनके नब ध म यं य भी थान- थान पर मलता है।
पदुमलाल पु नालाल ब शी के नब ध म वचार और शैल क मौ लकता है। इनके
नब ध के वषय ह-'उ सव, रामलाल प डत, नाम, समाज सेवा, ' व ान’आ द। राय

374
कृ णदास और वयोगी ह र के नबंध म वचार क अपे ा नजी अनुभू तय एवं
भावनाओं क अ भ यि त अ धक हु ई है। व तु त: ह द म भावा मक नब ध या
ग य-का य के सु दर उदाहरण तु त करने का ेय इ ह ं लेखक को है। डॉ.
वासु देवशरण अ वाल ने ाय: सां कृ तक वषय पर नब ध लखे ह। राय कृ णदास
और चतुरसेन शा ी भावा मक नब ध के सफल लेखक माने जा सकते ह। उ ह ने
वभ न कार के ऐसे भावा मक नब ध लखे ह जो च तन और शैल का सहयोग
पाकर नखर उठे ह। पीता बरद त बड वाल इस युग के ऐसे ग भीर च तक और
नब धकार थे िजनम शु लजी जैसी खर तभा के दशन होते ह। उनके नब ध
ग भीर ववेचना मक शैल के ऐसे नब ध ह जो च तन को उ ब करते ह। साद ने
का य कला, आ द वषय पर बड़े च तन- धान और गवेषणपूण ऐसे नब ध लखे थे
जो अपनी मौ लक थापनाओं के लए सदै व याद कये जाते रहगे।
राहु ल सांकृ यायन ने इ तहास, दशन, सा ह य, राजनी त आ द वषय पर अनेक सु दर
नब ध लखे। इनके अ त र त पांडेय बेचन शमा उ , रामकृ ण शल मु ख डॉ. धीरे
वमा, भद त आन द कौस यायन, भगवतीचरण वमा, रामनारायण यादवे दु लोचन साद
पांडेय, केदारनाथ भ , स पूणान द, का लदास कपूर , रामावतार शमा, रामच वमा,
ीनाथ संह, बनारसीदास चतु वद आ द ने व भ न वषय से स बि धत अनेक कार
के सु दर और रोचक नब ध लख कर ह द के नब ध सा ह य को समृ बनाने म
सहायता द ।
इस युग म नब ध सा ह य वषय, वचार, शैल , च तन आ द सभी ि टय से ौढ़,
अ धक सश त और भावशाल बन गया था। अब ह द नब ध म हर कार क
अनुभू तय , भाव और वचार को कला मक और भावशाल ढं ग से तु त करने क
मता उ प न हो गई थी।

23.3.4 शु लको तर युग

शु लजी के प चात ् न ददुलारे वाजपेयी, आचाय हजार साद ववेद , वासु देवशरण
अ वाल, डॉ. नगे , जैने कु मार, डॉ. स ये , डॉ. राम वलास शमा, डॉ. भगवतशरण
उपा याय ने ह द नब ध क वकास या ा को आगे बढ़ाने म उ लेखनीय योगदान
दया है।
शु लको तर नब धकार म आचाय हजार साद ववेद का थान शीष थ है। उनके
अनेक नब ध-सं ह का शत हु ए ह। 'अशोक के फूल', 'क पलता, वचार और वतक',
' वचार- वाह, 'कुटज’आ द। इनके नब ध का वषय े अ य त यापक है; उनम
भारतीय सा ह य, भारतीय सं कृ त एवं पर परागत ान व ान के साथ आधु नक युग
क व भ न प रि थ तय , वृि तय एवं सम याओं का सु दर सम वय ि टगोचर
होता है।

375
ववेद जी क नब ध कला क सबसे बड़ी वशेषता है क वे गूढ-से-गूढ वषय को भी
इतने कौशल के साथ तु त करते ह क वह दु ह न रह कर अनुरंजनपूण रसानुभू त
उ प न करने म समथ रहता है। उनक भाषा संगानुकू ल, सं कृ तग भत, सामा य
बोलचाल क भाषा नाना कार के प बदलती एक सहज. ग त के साथ बढ़ती रहती
है। वह बीच-बीच म मु हावरे, कहावत , चु टकल आ द का योग करते हु ए एक ओर तो
वनोद ओर हा य- यं य क फुलझ डया छोड़ते चलते ह, पर तु दूसर ओर वषय क
ग भीरता को रं चमा भी ख लत नह ं होने दे ते। जहाँ वह भावावेश म भर वणन करना
आर भ करते ह वह उनक भाषा का प और वाह दे खते ह बनता है।
आचाय ववेद के नब ध क शैल लेखक के मनोभाव एवं वषय क कृ त के
अनुकू ल बदलती रहती है। का लदास युगीन वातावरण का च ण करते समय जहाँ
उनक श दावल सहज ह सं कृ त-ग भत हो जाती है, वह ं ‘ ामीण जीवन के संग म
लोक-भाषा के चलाऊ श द भी य -त आ टपकते ह। आधु नक जीवन क वकृ तय
एवं दू षत वृि तय का व लेषण करते समय वे ाय: हा य- यं यमयी शैल का योग
करते ह।
आचाय न ददुलारे वाजपेयी नब धकार क अपे ा एक खर समी क माने जाते ह।
उ ह ने मु यत: आलोचना मक नब ध हो लखे ह। उनके नब ध के अनेक सं ह
का शत हु ए ह, िजनम ' ह द -सा ह य', 'बीसवीं शता द , 'आधु नक सा ह य', नया
सा ह य. नये न'। नब ध लखते समय उनका आलोचक ह अ धक जाग क रहता
है, जो अपनी बौ क खरता से ग भीर ववेचन करने म तो समथ रहता है, पर तु
अपने कथन म सरसता और कोमलता नह ं उ प न कर पाता। इसी कारण उनके
अ धकांश नब ध आलोचना मक नब ध बन कर रह गये ह जो वचार को तो
आ दो लत कर दे ते ह, पर तु दय को नह ं छू पाते।
भारतीय सं कृ त एवं पुरात व स ब धी वषय पर नब ध-रच यताओं म डॉ.
वासु देवशरण अ वाल का थान मह वपूण है। इस स ब ध म उनके अनेक नब ध
सं ह का शत हु ए ह, िजनम पृ वी -पु , कला और सं कृ त आ द उ लेखनीय है। डॉ.
अ वाल के नब ध म अ ययन क ग भीरता के साथ-साथ च तन क मौ लकता के
भी दशन होते ह। वे ाचीन त व एवं गुि थय को अपनी या याओं वारा पाठक के
लए सरल बना दे ते ह। डॉ. नगे ने ह द नब ध के वकास म उ लेखनीय सहयोग
कया है। उनके नब ध सं ह म से वचार और ववेचन', ' वचार और अनुभू त, वचार
और व लेषण, 'कामायनी के अ ययन क सम याय’उ लेखनीय है। इनके नब ध का
मू ल वर वषय- धान ह इनका यास पाठक का यान अपनी अपे ा ववे य वषय
पर मू ल सम या क ओर आक षत करने क ओर अ धक रहता है; एक कु शल
या याता क भाँ त वे कसी भी सम या पर अपना समाधान तु त करने से पूव उसे
पाठक के दय म उतार दे ते ह। यह कारण है क गढ़ वषय को भी पाठक चपूवक

376
हण करता चलता है। इनके नब ध म वचार क ग भीरता, च तन क मौ लकता
और शैल क रोचकता व यमान है।
डॉ. राम वलास शमा ह द के एक खर आलोचक के प म जाने जाते ह। वराम
च ह, पर परा का मू यांकन', ग त और पर परा, सं कृ त और सा ह य’इनके
मह वपूण सं ह है। इनके नब ध म ग मीर मौ लक च तन, व तृत अ ययन और
खर यि त व क प ट छाप दखाई पड़ती है, िजसने उनक शैल को एक व श ट
प दान कर अपनी अलग पहचान बना ल है। उनके नब ध हमारे च तन को
उ बु करने के साथ ह मन का भी रं जन करते ह।
जैने कु मार मु यत: कथाकार के प म जाने जाते ह, क तु नब ध के े म भी
उ ह ने योगदान कया है। उनके नब ध-सं ह म 'जड़ क बात, 'जैने के वचार,
सा ह य का ेय और ेय', तु त न', सोच- वचार, म थन’आ द उ लेखनीय ह।
जैने जी ने ाय: दाश नक, मनोवै ा नक सा हि यक आ द व भ न वषय पर अपने
वचार कट कए ह। इनके नब ध म प टता का अभाव है।
डॉ. स ये ने सा ह य एवं कला स ब धी वषय पर उ कृ ट नब ध तु त कए ह
जो कला, क पना और सा ह य', सा ह य क झॉक आ द म सं ह त है। इनके नब ध
म अ ययन क ग भीरता, ान- े क यापकता एवं च तन क प टता प रल त
होती है। अपने त य को ये तक एवं माण से भल -भां त पु ट करते ह, िजनसे वह
पाठक क बु को सहज ह ा य हो जाता है। इनक शैल म भी प टता एवं
रोचकता के दशन होते ह। डॉ. भगवतशरण उपा याय ने ऐ तहा सक, सां कृ त व
सामािजक वषय पर उ कृ ट नब ध लखे ह। उनके नब ध म अ ययन एवं च तन
क ग भीरता एवं मौ लकता प रल त होती है। उनके नब ध सं ह म 'भारत क
सं कृ त का सामािजक व लेषण इ तहास के पृ ठ पर खू न के धबे', सां कृ तक नब ध
आ द उ लेखनीय ह।
इनके अ त र त इस युग के अ य नब ध लेखक म शाि त य ववेद , रामवृ
बेनीपुर , क हैयालाल म भाकर आ द के नाम उ लेखनीय है। शाि त य ववेद ने
आ मानुभू तमयी ल लत शैल म कु छ बहु त ह सु दर नब ध लखे थे। वह मू लत:
भावुक कलाकार थे, इस लए उनक भावुकता उनके नब ध म एक अदभु त ला ल य
और स वेदनशीलता उ प न कर दे ती है।
रामवृ बेनीपुर ने व तु न ठ-शैल म आ मपरक ऐसे नब ध लखे िजनमे सं मरण
क रोचकता आ गई है। शैल भावुकतामयी और भाषा सरल-सहज तथा ा य- योग से
मनोरम हो उठ है। इसी शैल के दूसरे नब धकार क हैयालाल म भाकर ह। यह
कसी भी वषय का न पण भावना के तर पर करते ह िजसने इनके नब ध को
ल लत नब ध क को ट का बना दया ह उपयु त दोन ह नब धकार क यह
वशेषता रह है क उनके नब ध म उनके यि त व क गहर छाप उभर आती है।

377
रामधार संह दनकर ने भी उ चको ट के नब ध लखे ह। उनके नब ध म मानवीय
ि टकोण उजागर हु आ है। इनके नब ध म प टता एवं व वसनीयता व यमान
रहती है जो पाठक को आक षत करती है। म ी क ओर, 'अधनार वर, गु त, साद
सा ह यमु खी, शु क वता क खोज, रे ती के फूल, हमार सां कृ तक एकता, रा भाषा
और रा य सा ह य’इनके मु ख नब ध सं ह है।
महादे वी वमा के सं मरणा मक नब ध उ लेखनीय है। 'अतीत के चल च , म त क
रे खाएँ', शृंखला क क ड़यॉ इनके मु ख नब ध सं ह ह। इनम वषमता एवं द न-ह न
जन क वेदना का च ण अनुभू त से ओत- ोत श द म कया गया है। जहाँ इनका
वषय उदा त है, वह ं इनक शैल भी अ य त सश त एवं ौढ़ है।
शु लको तर युग म ल लत नब ध भी लखे गये ह। इन नब ध म भावुकता से
ओत ोत पर तु गहन अ ययन और मौ लक च तन से यु त सामा य से वषय को
भी असामा य प दान करते हु ए तु त कया है। ऐसे नब ध क भाषा कोमल-
शा त, ल लत होती है। कु शल नब धकार उनम व वध रोचक संग का समावेश करते
हु ए सामा य बोलचाल के कोमल, मधुर श द का ऐसा पुट दे ते ह जो भाषा म एक
अ ु त काि त और सहज सौ दय भर दे ता है। कु बेरनाथ राय और व या नवास म के
अ धकांश नब ध इसी को ट के ह। डॉ. व या नवास म के भी कई नब ध सं ह
का शत हो चु के ह िजनम चतवन क छांह, तु म चंदन हम पानी, मेरे राम का मु कु ट
भीग रहा है आ द उ लेखनीय है। डॉ. म ने अपने नब ध के मा यम से व भ न
मान सक ि थ तय क यंजना करते हु ए व भ न सामािजक, सां कृ तक एवं भौगो लक
ि थ तय का अंकन भावो पादक शैल म कया है। क हैयालाल म भाकर ने
समकाल न समाज का अंकन अ य त सरस एवं भावा मक शैल म कया है। उनके
नब ध सं ह म से िज दगी मु कराई, द प जले शंख बजे’िज दगी सहलाई’ आ द
उ लेखनीय है।
भारते दु युग म लखे गये नब ध म यं य का गहरा पुट दखाई दे ता है। ले कन
उसके बाद यह पर परा श थल पड़ गई। हालां क छुट-पुट यं य आचाय रामच
शु ल, बाबू गुलाब राय, राम वलास शमा आ द नब ध लेखक के नब ध म दखाई
पड़ जाता है। वतं ता के प चात ् कु छ लेखक ऐसे आये िज ह ने वशु प से हा य
यं य धान नब ध लखे। इनम ह रशंकर परसाई को नाम अ णी है उ ह ने न केवल
यं य धान नबंध लखे बि क यं य को एक वतं वधा के प म ति ठत
कया। यं यकार जीवन से जु ड़ी सम याओं को उठाता है और बड़े रोचक ढ़ं ग से उसे
तु त करता है। यं य के मा यम से वभ न े म या त व प
ू ताओं और
वसंग तय पर हार कर सामािजक जाग कता उ प न करता है। ह रशंकर परसाई ने
यं य के मा यम से ह द ग य को लोक य एवं रोचक बना दया। उ ह ने
सामािजक, सां कृ तक और राजनी तक े म या त वसंग तय का पदाफाश कया।
'भू त के पाद, सदाचार का ताबीज, और नठ ले क डायर म उनके यं य नब ध

378
सं ह त है। परसाईजी के अ त र त बेढब बनारसी, शरद जोशी, रवी नाथ यागी एवं
ीलाल शु ल ने भी यं य धान नब ध क रचना क है।
ह द म नब ध लेखन क पर परा अ य त समृ रह है। भारते दु काल से लेकर
अब तक अनवरत प से वक सत हु ई। इस दौरान सामािजक, सां कृ तक, राजनी तक
तथा सा हि यक वषय पर चु र मा ा म नब ध लखे गये ह। नि चत प से ह द
का नब ध सा ह य व व क स प न भाषाओं के नब ध सा ह य के समक है।

23.4 सारांश
नब ध ग य क एक मह वपूण व या है। इसम लेखक आ मीयता के साथ अपने
वचार को वत प से कट करता है। नब ध कसी भी वषय पर लखा जा
सकता है। वषय और शैल के आधार पर मु यत: चार वग म वभािजत कया जा
सकता है जैसे-वणाना मक, ववरणा मक, वचारा मक, भावा मक,। इसके अ त र त
अ य कार भी च लत ह जैसे-ल लत नब ध, हा य- यं य, धान नब ध,
सं मरणा मक नब ध आ द।
ह द नब ध का उ व भारते दु युग म हु आ। इस युग म बडी सं या म सामािजक,
राजनी तक एवं सां कृ तक चेतना से यु त नब ध लखे गये। इस युग के नब ध
लेखन म बालकृ ण भ और ताप नारायण म का सराहनीय योगदान रहा। ववेद
युग के नब ध म वषय क व वधता के साथ वचार गा भीय बढ़ा। महावीर साद
ववेद , अ यापक पूण संह और च धर शमा गुलेर इस युग के मु ख नब धकार
थे। आचाय रामच शु ल के नब ध लेखन के े म आने से उसे गौरवपूण थान
ा त हु आ। शु लो तर युग म वभ न वषय पर नब ध लखे गये। इस युग म
नब ध सा ह य अनेक प म सामने आया जैसे-सा हि यक समी ा मक नब ध,
ल लत नब ध, हा य यं यपरक नब ध, सां कृ तक व सामािजक नब ध आ द।

23.5 अ यासाथ न
1. नबंध से या ता पय है? नबंध के व प एवं कार पर काश डा लए।
2. नबंध व या के वकास म भारते दु तथा ववेद युगीन नबंधकार के योगदान
पर काश डा लए।
3. ह द नबंध व या म आचाय रामच शु ल क मह ता बतलाइए।
4. शु लो तर ह द नबंध क वशेषताएं उ घा टत क िजए।

23.6 संदभ थ
1. स पादक डॉ. नगे - ह द सा ह य का इ तहास, नेशनल पि ल शंग हाउस, द ल
2. डॉ. ब चन संह- ह द सा ह य का दूसरा इ तहास, राधाकृ ण काशन, नई द ल ।
3. डॉ. फणीश संह- ह द सा ह य का प रचय, राजकमल काशन, नई द ल ।
4. डॉ. धीरे वमा- ह द सा ह य कोष, भाग-1, ान म डल ल मटे ड, वाराणसी।

379
इकाई -24 : अ य ग य व या
इकाई क परे खा
24.0 उ े य
24.1 तावना
24.2 ह द सा ह य के इ तहास का सं त पर य
24.3 अ य ग य वधाएँ: एक प रचय
24.4 रे खा च
24.5 रपोताज
24.6 सं मरण
24.7 या ावृ त
24.8 सा ा कार
24.9 सारांश
24.10 अ यासाथ न
24.11 संदभ थ

24.0 उ े य :
यह इकाई ह द सा ह य के इ तहास पर केि त है।
 इस इकाई को पढ़ने के बाद आप:
 ह द सा ह य के इ तहास का व तृत एवं सू म ान ा त कर सकगे।
 अ य ग य वधाओं के बारे म जान सकगे।
 रे खा च , रपोताज, सं मरण, या ावृ त तथा सा ा कार जैसी सू म एवं सु च लत
सा हि यक वधाओं के वषय म ानवधन कर सकगे।
 ह द सा ह य क इन वधाओं क बार कय से प र चत हो सकगे।

24.1 तावना :
आप एम.ए. (पूवा ) ह द के होनहार व याथ ह। आपसे ह द -जगत यह अपे ा
करता है क आपको ह द सा ह य का मम एवं धम अव य ात होगा। इसी
सवमा य त य को ि टपथ म रखकर आपके स मु ख ह द सा ह य के इ तहास क
इन अ य वधाओं का ान कराया जा रहा है। ह द सा ह य म नबाध- नर तर
सा ह य सृजन होते रहने से, अबाध अ वेषण-शोध काय के चलते नवीनतम त य क
उपल धता से सा ह य के इ तहास म आव यक संशोधन-संव न क गु ज
ं ाइश सदा बनी
रहती है। साथ ह रा भाषा होने से ह द -सा ह य के सृजन म असम, बंगाल,
गुजरात, केरल आ द ह द -इतर दे श के लेखक का योगदान भी अब कम नह ं रहा
है, अत: उनके वारा र चत ह द सा ह य के मह वपूण अवदान का आकलन भी अब
अप रहाय हो गया है-इन सब ब दुओं को ि ट म रखकर व व व यालय ने ह द
380
सा ह य के इ तहास क अ य वधाओं को भी अपने कोस म समे कत कया है। छा -
छा ाओं के हताथ इसक ववेचन प त को अ धक वै ा नक और सु बोध बनाने का भी
वन यास कया गया है।

24.2 ह द सा ह य के इ तहास का सं त पर य :
ह द रा भाषा घो षत हो चु क है। वरोध और बाधाओं के होते हु ए भी ह द अपने
उ चत एवं वां छत थान पर आसीन होती जा रह है। व यार भ से लेकर नातको तर
पय त सभी ान- पपासु ओं के लए चाहे वे सा ह य के हो और चाहे व ान के, ह द
का ान अ नवाय हो गया है। रा भाषा के सा ह य क मोट -मोट बात जानना हमार
श ा और सं कृ त का एक अंग हो गया है। ह द सा ह य के इ तहास म आ दकाल,
भि तकाल, र तकाल, आधु नककाल के अ तगत नाटक, कथासा ह य, कहानी, ह द -
नब ध, खड़ी बोल प य, आधु नक का य क धाराऐं तथा ह द ग य क अ य
वधाएं यथा ग य-का य, जीवनी और आ मकथाएँ, रे खा च , सं मरण, रपोताज, डायर
एवं प -सा ह य मु ख है। इस न-प म ह द सा ह य क अ य वधाओं पर
मु खता से काश डाला जायेगा।

24.3 अ य ग य वधाएँ : एक प रचय :


तु त ग य- वधाएँ यथा ग य-का य, जीवनी और आ मकथाएँ, रे खा च , सं मरण,
रपोताज, ह द सा ह य के इ तहास का एक मु ख अंश ह। इन ग य वधाओं के
संसाधक का नाम ह द -सा ह य म बड़े स मानपूवक लया जाता है। महादे वी वमा,
वयोगी ह र, गुलाबराय, रामवृ बेनीपुर , बनारसी दास चतु वद , उपे नाथ अ क,
भाकर माचवे, धमवीर भारती आ द सा ह यकार ने इन वधाओं के णयन एवं
प लवन म अपनी महती भू मका का नवहन कया है।

24.4 रे खा च :
ाचीन का य-सा ह य म यि तय , पशु-प य, थान आ द के अलंकृ त वणन
ववरण म रे खा च मलते ह। महाक व बाणभ क काद बर म 'महा वेता का
रे खा च अनुपम है। आधु नक ह द सा ह य म रे खा च का एक वत वधा के प
म वकास हु आ है। कम से कम श द म कला मक ढं ग से कसी व तु, यि त या
य का अंकन रे खा च कहलाता है। इसक अ भ यंजना बड़ी मा मक होनी चा हए।
महादे वी वमा का इस े म अ तम थान है। उनके रे खा च के चार सं ह 'अतीत
के चल च (1941) मृ त क रे खाएँ’(1943), 'पथ के साथी’(1956) और मेरा
प रवार’ का शत हु ए ह। इनम आ थक तर से ह न यि तय के च तथा शो षत एवं
पी ड़त क तु वा भमानी नार पा के अ धक ह, यथा दो कु लय का वणन, भि तन
से वका का वणन। इन रे खा च म क णापूण प रि थ तय म ववश यातना भोगते हु ए
पा का मा मक च ण है। अ य रे खा च कार ये ह- काश च गु त, रामवृ

381
बेनीपुर , बनारसीदास चतु वद , दे वे स याथ , क हैयालाल म , भाकर, वग य
नरं जन नाथ, आचाय। े ठ उप यासकार अमृतलाल नागर भी रे खा च कार म व श ट
है। उनका 'बूँद और समु ’रे खा च शैल का अ छा नदशन है। वनयमोहन शमा,
शमशेरबहादुर संह, जगद शच माथु र, राजकुमार मोहन राकेश, कृ ण च दर, अमृता
ीतम, यशपाल, व णु भाकर, नागाजु न, उपे नाथ अ क, राजे संह बेद आ द ने
अपना आ मांकन करके इस े म नवीन योग कया है। कु छ ने अपने शु रे खा च
तु त कये ह, तो कु छ ने बहाने से अपनी कहानी। अ य रे खा च कारो म डॉ.
ेमनारायण ट डन, स यवती म लक, अ वनाश, व या माथुर और रघुवीर सहाय ह।
आलो य युग म सं मरण तथा रे खा च -सा ह य के वकास एवं उ नयन क दशा म
'हंस का रे खा च - वशेषांक (माच व 1939, स पादक ीपतराय) सव थम उ लेखनीय
है। इनम ह द ह नह ं : उदू बंगला, मराठ , गुजराती, त मल, क नड आ द भाषाओं
के लेखक के भी रे खा च का शत कये गये ह। वैस,े इन वधाओं के ह द -लेखक म
बनारसीदास चतु वद (ज म 1892) का अ यतम थान है। मधु कर के रे खा च -
वशेषांक’(1946) का स पादन करने के अन तर उ ह ने 'हमारे आरा य’(1952) और
सं मरण (1953) शीषक सं मरणा मक रचनाओं तथा रे खा च (1952) एवं सेतु ब ध
(1952) शीषक रे खा च -सं ह को तु त कया। सं मरण म उ ह ने अपने स पक म
आने वाले यि तय क कटु -मधु र मृ तय का यंकन करते हु ए उनक वशेषताओं
को उभारा है तथा रे खा च म दे श- ेम एवं रा यता को मु खता ा त हु ई है। अपने
थ क भू मकाओं म उ ह ने इन दन वधाओं के रचना श प पर भी मह वपूण
वचार य त कये है। ीराम शमा (ज म 1912) के जो ग ध आलो य युग म
का शत हु ए उनम ाण का सौदा (1939) जंगल के जीS (1949) और वे जीते कैसे
है (1957) उ लेखनीय है। जनपद य श द का योग करते हु ए कथा मक शैल के
मा यम से रोचक और दय पश वणन इनके लेखन क सव मु ख वशेषता है। रामवृ
बेनीपुर (ज म 1902) अपने अ ुत श द- श प के लए यात है। 'लाल तारा
(1938) माट क मू रत (1938), गेहू ँ या गुलाब’(1950) तथा मील के प थर (1957)
इनक स कृ तयाँ ह। यथाथ के साथ क पना और भावुकता का सम वय वषय-
वै व य तथा श द एवं वा यांश का संयत योग बेनीपुर जी के लेखन क क तपय
ऐसी वशेषताएँ ह जो पाठक क मृ त म सदा-सदा के लए अपना थान बना लेती
है। ह द के रे खा च -सा ह य क ीवृ म महादे वी वमा ने अ य धक मह वपूण
योगदान कया है। 'अतीत के चल च (1941) मृ त क रे खाएँ’(1947) पथ के साथी
(1956) और मा रका (1971) उनके उ लेखनीय रे खा च -सं ह ह। 'धमयुग के सन ्
1970 के व भ न अंक म नीलू कु ता, दुमु ख खरगोश, सोना हरनी आ द पशु ओं पर
भी उनके अ य त संवेदनापूण रे खा च का शत हु ए थे। य य प महादे वी के रे खा च
क वधा के स ब ध म व वान म पया त मतभेद रहा है-इ ह नब ध सं मरण और

382
कहानी म से कोई एक सं ा भी द जाती रह है, क तु अ धकांश व वान उ ह
सं मरणा मक रे खा च ह मानते ह। अपने स पक म आने वाले शो षत यि तय ,
द न-ह न ना रय , सा ह यकार , जीव-ज तु ओं आ द का संवेदनामूलक च ण उ ह ने
अ य त मा मक प म कया है। अपनी संवेदना को क व वपूण शैल के मा यम से
मू त कर दे ने म उ ह वशेष कौशल ा त है। वे सा ह यकार होने के साथ-साथ च क
भी ह, फल व प उनके रे खा च म च ोपमता का गुण अनायास समा व ट हो गया
है।

24.5 रपोताज
यह च भाषा का श द है। अं ेजी का रपोट’श द इसका पयाय है। वतीय व वयु
के समय यु क घटनाओं का जो ' रपोट’या ववरण कु शल प कार वारा तु त कये
गये, उनसे ' रपोताज’शैल क एक सा हि यक वधा च लत हु ई। यह वधा समाचार-
प क दे न ह। इनम लेखक क ती भावना का रं ग एवं भाषा म वल ण
भावो पादकता रहती है। ह द म इस शैल के कम ह लेखक स हु ए ह। रांगेय
राघव ने सन ् 1 1 म बंगाल के पड़े भीषण काल का बड़ा मा मक च ण तु त
कया था। काशच गु त , भाकर माचवे, अमृतराय , रे णु धमवीर भारती, बालकृ ण
राव आ द रपोताज’लेखन के लए उ लेखनीय ह।
िजस रचना म व य वषय का आँख -दे खा तथा कान -सु ना ऐसा ववरण तु त कया
जाए क पाठक क दयतं ी के तार झंकृ त हो उठ और वह उसे भू ल न सके, उसे
रपोताज कहते ह। रपोट’से यह इस अथ म भ न है क उसम जहाँ कला मक
अ भ यि त का अभाव होता है तथा त य का लेखा-जोखा-मा रहता है, वह ं रपोताज
म त य को कला मक एवं भावो पादक ढं ग से य त कया जाता है। इस रचना-
वधा का ादुभाव सन ् 1 9अ के आसपास वतीय- व वयु के समय हु आ था। सी
सा ह यकार ने इसका वशेष चार- सार कया तथा इ लया एहरे नबुग ने रपोताज के
कु शल लेखक के प म सवा धक त ठा ा त क। ह द म रपोताज-लेखन क
पर परा शवदान संह चौहान क रचना ल मीपुरा ( पाभ, दस बर 1938) से आर भ
हु ई। 'हंस के समाचार और वचार तथा 'अपना दे श त भ के अ तगत भी उनक इस
शैल क अनेक रचनाएँ का शत हु ई िजनम मौत के खलाफ िज दगी क
लड़ाई’ वशेष पेण उ लेखनीय है। बंगाल के दु भ तथा महामार के स दभ म रांगेय
राघव वारा वशाल भारत के लए ल खत रपोताज भी अपनी मा मकता के लए
स ह। अकाल त े म पहु ँ चकर उ ह ने पूँजीप तयो, यापा रय तथा मु नाफाखोर
के अमानवीय कृ य और भू ख से बल बलाते नर-कंकाल पर जो मम पश रपोताज
लखे, वे आगे चलकर तूफान के बीच (1946) म संक लत- का शत हु ए।
काशच गु त, उपे नाथ अ क तथा रामनारायण उपा याय ने अपने रपोताज के
वत सं ह का शत करने के थान पर रम ह अपनी अ य वषयक कृ तय म

383
संक लत कर डाला है। काशच गु त ने घटना धान रपोताज लखे ह जो उनके
रे खा च -सं ह रे खा च म सं ह त ह। वरा य भवन', 'अ मोड़े का बाजार, और बंगाल
का अकाल’उनके उ लेखनीय रपोताज है। उपे नाथ अ क के रपोताज रे खाएँ और च
(1955) म संक लत ह। पहाड़ म ेममय संगीत उनका उ लेखनीय कथा मक रपोताज
है िजसम पहाड़ी गीत के तपा य वषय ेम पर अ य त ानवधक साम ी जु टायी
गयी है। रामनारायण उपा याय के रपोताज उनके यं या मक नब ध के सं ह गर ब
और अमीर पु तक (1958) म सं ह त ह। नववषाक समारोह म उनका एक अ य त
उ कृ ट रपोताज है िजसम ज म दन-समारोह अ भन दन-समारोह, थ- वमोचन-
समारोह आ द के पैटन पर आयोिजत प काओं के नववषाक-समारोह क अ छ खबर
ल गयी है।
रपोताज-लेखन क दशा म क तपय अ य उ लेखनीय ह ता र ह-भद त आन द
कोस यायन, शवसागर म , डॉ0 धमवीर भारती, क हैया लाल म भाकर, शमशेर
बहादुर संह तथा ीका त वमा, िज ह ने मश: दे श क म ी बुलाती है वे लड़ेगे
हजार साल’ (1966), यु -या ा (1972), ' ण बोले कण मु काए', लॉट का मोचा
और 'अपोलो का रथ स श सश त रचनाओं के मा यम से रपोताज-लेखन को नये
आयाम दये ह। यह उ लेखनीय है क ह द का अ धकांश रपोताज-सा ह य, प -
प काओं म ह का शत हु आ है। नया पथ, ानोदय, क पना, मा यम, सा ता हक
ह दु तान, धमयुग आ द प काओं म समय-समय पर अनेक मह वपूण रपोताज
का शत हु ए ह िजनम डॉ0 भगवतशरण उपा याय, फणी वरनाथ रे ण,ु रामकुमार,
ववेक राय, कैलाश नारद, जगद श साद चतु वद , नमल वमा, सतीश कु मार, ीका त
वमा, कमले वर आ द वारा ल खत खू न क छ ंटे', एकल य के नो स, पे रस के
नो स, बाढ़!! बाढ़!!!', 'धरती के लए', ची नय वारा न मत काठमा डू - हासा सड़क
ाग. एक व न, या हमने कोई ष य रचा था, मु ि त फौज’और ाि त करते हु ए
आदमी का दे खना वशेष पेण उ लेखनीय है।

24.6 सं मरण :
सं मरण ग य म ल खत एक आ म न ठ वधा ह। सं मरण-लेखक अपने स पक म
आने वाले यि तय के जीवन के कसी पहलू पर अपनी मृ त के आधार पर काश
डालता है। अथवा कसी घटना या स वषय के स ब ध म अपने सं मरण को
ल पब करता है। भारतीय सा ह य म सं मरण- वधा का वतन पा चा य सा ह य के
भाव से ह हु आ। सबसे पहले ह द म आचाय चतुरसेन शा ी क पहल सलामी,
लोकमा य तलक, वामी ान द आ द सं मरण-ग ध का शत हु ए।
रामवृ बेनीपुर ने अपने कारागार-जीवन के अनेक मा मक सं मरण लखे ह। इनम
कसी पुरानी बात क मृ त से उ प न होने वाले और वचार एवं अनुभू तय क
सहज एवं यं या मक शैल म अ भ यि त क गयी है।

384
अं ेजी म सं मरण को Reminiscenses कहते ह। आचाय चतु रसेन शा ी के
सं मरण ‘Memoirs’ कहलाने वाले सं मरण है। सु ी महादे वी वमा के रे खा च ,
'अतीत के चल च , एवं म त क रे खाएँ’भी सं मरण वधा क को ट म आती ह व णत
वषय क ि ट से ये सं मरण ह वणन-शैल क ि ट से रे खा च ह।
सं मरण-सा ह य को अलंकृ त करने वाले क वय म माखन लाल चतु वद , रामधार संह
दनकर तथा ह रवंशराय ब चन भी उ लेखनीय ह। चतुवद जी ने समय के पाँव
(1962) म अनेक भावपूण रे खा च अं कत कये ह। दनकर जी क रचनाओं म
लोकदे व नेह ’(1965) तथा सं मरण और ांज लयाँ ‘(1969) उ लेखनीय ह िजनम
सरल एवं भावपूण भाषा के मा यम से अपने युग के मु ख सा ह यकार , राजनी तक
नेताओं आ द के नजी स ब ध का अ तरं ग प रचय दया गया है। ह रवंशराय 'ब चन
क उ लेखनीय कृ त है-नये पुराने झरोखे (1962) िजसम लेखक ने यथा थान
आधु नक ह द -सा ह य पर ट प णयाँ दे ते हु ए उसक दुबलताओं और स ब ध का
सश त अंकन कया है।
रे खा च तथा सं मरण के त वगत अ तर को यान म रखते हु ए इन दोन वधाओं
क ीवृ म योग दे ने वाले लेखक म काशच गु त का थान काफ ऊँचा है।
पुरानी मृ तयाँ (1947) म इनके मृ त च संक लत ह, तो रे खा च (1940) म
नज व व तु ओ,ं थान आ द पर लखे गये रे खा च ह। इनके रे खा च पर वदे शी
लेखक - वशेषत: ए० जी० गाडनर-के रचना- श प का पया त भाव पड़ा है। इस युग के
अ य सं मरण लेखक म राजा रा धकारमण साद संह का नाम भी उ लेखनीय है।
सं मरणमू लक कहा नयाँ लखने म वे अ तम ह। ऐसे ह एक कहानी-सं ह टू टा तारा
(1940) म संक लत 'मौलवी साहब’तथा 'दे वी बाबा’शीषक सं मरण वशेषत: पठनीय ह।
साथक वशेषण , व श ट उपमाओ एवं व या मक श द का योग उनक शैल गत
वशेषताएँ ह। वनयमोहन शमा (ज म 1906) का रे खा च -सं ह रे खा और रं ग अपनी
चु ट ल शैल तथा मा मक प रि थ त- च ण के लए यात है। क हैयालाल म
भाकर कृ त’िज दगी मु कराई’(1953) म संक लत सं मरण तथा माट हो गयी सोना
एवं द प जले शंख बजे’(1959) म सं ह त रे खा च भी उ लेखनीय ह। मामू ल -से-
मामूल यि त अथवा घटना पर ांजल भाषा तथा चु त शैल म सं मरण लख डालने
क कला म वे न णात ह। रोचक ार भ, घटना-ऐ य, प ट व लेषण तथा आ य त
सु नि चत वाह उनके लेखन क क तपय मु य वशेषताएं ह।
आलो य युग म क तपय अ य लेखक ने भी अपनी मू यवान रचनाओं वारा ह द के
सं मरणा मक रे खा च -सा ह य को समृ कया है। स यजीवन वमा 'भारतीय’क ए बम
(1949), ओंकार शरद क लंका का महारािजन’(1950) कैलाशनाथ काटजू क म भू ल
नह ं सकता (1955) ेमनारायण ट डन क रे खा च (1959) इ व यावाच प त क
म इनका ऋणी हू ँ (1959) वनोदशंकर यास क साद और उनके समकाल न’

385
(1960) स पूणान द क कुछ मृ तयाँ और फुट वचार (1992) ह रभाऊ उपा याय
क 'मेरे दय-दे व (1965) राय कृ णदास क 'जवाहर भाई उनक आ मीयता और
स दयता’(1965) महे भटनागर क ' वकृ त रे खाएँ. धुध
ँ ले च (1966), कु तल
गोयल क कु छ रे खाएँ कु छ च (1967) प नी मेनन क चाँद’(1969) ल मीनारायण
सु धांश’ु क ' यि त व क झाँ कयाँ (1970) और शवानी क आमोदर
शाि त नकेतन’ न चय ह इन वधाओं क अ य उ लेखनीय कृ तयाँ ह।

24.7 या ावृ त
छायावादो तर काल के या ावृ त -सा ह य म िजन लेखक का मु य योगदान रहा
है,उनम से कु छ छायावाद'-युग म भी या ावृ त रचना क थी। इस ि ट से वामी
स यदे व प र ाजक का नाम उ लेखनीय है, क तु उनक कृ त मेर पाँचवी जमनी-या ा
(1955) म या ा- ववरण उतना सजीव नह ं है। कारण यह है क यह या ा आँख का
इलाज कराने के लए क गयी थी, फल व प वे अ धक मण नह ं कर सके। इसी
भाँ त क हैयालाल म 'आय पदे शक क भी एक कृ त मेर ईराक या ा (1940)
आलो य युग म का शत हु ई। इसम या ा-माग म पड़ने वाले थान का भी
व तारपूवक वणन कया गया है। स तराम (ज म 1886)-कृ त वदे श- वदे श या ा
(1940) भी इस काल क उ लेखनीय रचना है। इसम का मीर तथा कु लू-या ा से
स बि धत अंश तो इनके लखे हु ए ह और आ े लया-या ा-स ब धी अंश रामे वर
नेह वारा ल खत है। कांगड़ा-उप यका क न दय , च ान , शैल- बखर और वन के
च ताकषक तथा अ व मरणीय वणन के कारण यह पु तक पाठक के दय पर अ मट
छाप अं कत कर दे ती है।
या ावृ त -सा ह य म जवाहरलाल नेह -कृ त 'आँख दे खा स (1953) भी उ लेखनीय है
-इसम स-या ा-काल क उनक त याओं का सजीव च ण हु आ है। क तु तु त
ग य- वधा को समृ करने म िजतना योग राहु ल सांकृ यायन ने दया है, उतना अ य
कसी लेखक ने नह ।ं मेर ल ाख-या ा (1939) क नर दे श म (1948) राहु ल
या ावल (1949) या ा के प ने’(1952) स म प चीस मास’(1952) ए शया के
दुगम भू ख ड म (1956) आ द उनक क तपय उ लेखनीय कृ तयाँ ह। इनके
अ त र त घुम कड़शा (1949) म उ ह ने घुम कड़ के मागदशन के लए अपने
जीवन का पूरा नचोड़ ह सामने रख दया है। राहु ल जी के चरण जीवनपय त
ग तशील रहे-उनके या ा-सा ह य म वदे श- वदे श के व वध थान का अ य त
च ोपम अंकन मलता है। भाषा-शैल म भावानु प प रवतन भी उनक अ यतम
वशेषता है। सेठ गो व ददास-कृ त 'हमारा धान उप नवेश (1938) सु द ूर द ण-पूव
(1951) और पृ वी प र मा (1954) भी मह वपूण या ावृ त है िजनम मश: पूव
तथा द णी अ का क जहाजी-या ा, संगापुर , आ े लया, यूजीलै ड और फ जी क

386
या ाओं और मस, यूनान , इटल , ि व जरलै ड, ांस, टे न, अमर का, चीन, जापान
आ द दे श के ाकृ तक वैभव, ऐ तहा सक मारक , राजनी तक-सां कृ तक जीवन आ द
का यथाथवाद और मम पश च ण कया गया है। वामी स यभ त ने मेर अ का
या ा (1955) म युगांडा , क या आ द दे श क अपनी या ाओं का सु स ब वणन
करने के साथ ह वभ न थान पर हु ए अपने भाषण का सारांश भी दया है। कनल
स जन संह क ल ाख-या ा क डायर (1955) म 1800 फुट क ऊँचाई पर क गयी
शकार-या ा तथा वहाँ के ाकृ तक सौ दय का सरल- प ट शैल म वणन हु आ है।
सू यनारायण यास ने सागर- वास (1940) म आप के ाकृ तक सौ दय का मनोरम
यंकन कया है, तो रामवृ बेनीपुर ने पैर म पंख बाँधकर (1952) तथा उड़ते
चलो, उड़ते चलो (1954) के मा यम से यूरोपीय रं गमंच, दे हात आ द का मम पश
ववरण डायर -शैल म तु त कया है।
आलो य काल के या ावृ त -लेखक म यशपाल भी उ लेखनीय है। जोहे क द वार के
दोन ओर (1953) म उ ह ने सो वयत संघ और पूँजीवाद दे श क सामािजक यव था
का तु लना मक ववरण है तथा राहबीती (1956) म पूव यूरोप कै दे श का सश त
च ण है। रामधार संह दनकर या ावृ त दे श- वदे श सौरा आ द भारतीय दे श के
मनोहार च तु त कये गये ह और दूसर ओर यूरोपीय दे श के र या ुत थान
दे श तथा मनोरंजन के साधन का व तृत ववरण भी दया गया है। चह दु नया
(1952) तथा 'कलक ता से पी कं ग (1955) भगवतशरण उपा याय के उ लेखनीय
या ावृ त -सं ह ह िजनम रे खा च -शैल का सफल योग मलता है। इसी कार आवारे
क यूरोप या ा (1940) तथा यु -या ा (1940) डॉ स यनारायण क उ लेखनीय
कृ तयाँ ह। अबीसी नया पर इटल के आ मण के समय वे वहाँ प कार क है सयत से
उपि थत थे. फल व प शु -या ा म यु का अ य त रोमाचंकार वणन मलता ह।
अ ेय जी ने भी 'अरे यायावर रहे गा याद (1953) तथा एक बूँद सहसा उछल (1960)
के वारा ह द -या ा सा ह य को समृ कया है। ाकृ तक सौ दय के मनोरम श द-
च , रोचक घटनाओं तथा भाव- वण रचना-शैल से स पृ त ये रचनाएँ न चय ह
पठनीय ह। यशपाल जैन-कृ त जय अमरनाथ (1955) तथा उ तराख ड के पथ पर
(1958) म हमखि डत पवतमालाओं. स पल पहाड़ी माग , कलकल-नाद करते पात
आ द का सश त अंकन हु आ है, तो भु वने वर साद 'भु वन ने 'आँखो दे खा यूरोप
(1958) म इं लैड के अि थर मौसम, कला तथा सौ दय से प रपूण वे नस नगर आ द
का च ण कया है। यशपाल जैन ने वदे श- वदे श-दशन और या ावृ त -लेखन म बहु त-
कु छ राहु ल जी क भाँ त ह च ल है। स म छयाल स दन, पड़ौसी दे श म और
द ण-पूव ए शयायी दे श उनक अ य या ावृ ता मक रचनाएँ है। गोपाल साद यास
वारा वर चत 'अरब के दे श म (1960) का उ लेख भी आव यक है। इसम अरब
दे श क ग त के सरकार आकड़े या व ि तयाँ दे ने के थान पर आँख -दे खी यव था

387
का न पण कया गया है। व णु भार क हँ सते नझर दहकती भ ी (1966) भी
उ लेखनीय कृ त है। व भ न दे श और थान का वणन करते समय लेखक कह ं क व
हो उठा है, कह ं दाश नक, कह ं आलोचक और कह ं मा दशक! रामकृ ण रघुनाथ
खा डलकर ने 'हालड म प चीस दन (1954) तथा बदलते स म (1958) शीषक
कृ तय म दशनीय थान का ववरण दे ने के साथ ह भारत के साथ इन दे श के
स ब ध पर भी वचार य त कये ह। त ालोक से य ालोक तक (1968) तथा
'अ वासी क या ाएँ’(1972) म डॉ० नगे क वदे श-या ाओं के सं मरण संक लत ह।
थम कृ त म काठमा डू काबुल , ताशकंद और मा को या तथा 'अ वासी क या ाएँ म
आपान, अमे रका, यूरोप आ द के जनजीवन, दशनीय थान आ द का सहज एवं
वाहपूण भाषा म च ोपम वणन करने म लेखक अनुकरणीय सफलता मल है। इसी
कार 'आ खर च ान तक म मोहन राकेश ने कथा मक शैल के मा यम से द ण
भारत के वै व य-भरे जीवन के सश त च तु त कये है। व य और अ भ यि त क
समासन सश तता क ि ट से भाकर ववेद क पा र उत र क ह जैह भी पठनीय
कृ त है।
ह द के या ावृ त -सा ह य का मू यांकन करने पर यह प ट होता है क वदे श
मण-स ब धी थ
ं क तु लना म भारत- मण-स ब धी थ
ं कम का शत हु ए ह।
ाकृ तक सौ दय का न पण या ावृ त -सा ह य क एक अ य मु ख वृि त है। दे श-
वदे श क या ाओं को सभाक लत करने वाले थ म कृ त-सौ दय के मनोरम च
उरे हे गये ह। शैल - श प क ि ट से भी या ावृ त -स ब धी रचनाएँ पया त वै व यपूण
ह। ाय: सभी लेखक ने सहज एवं वाहपूण भाषा तथा नब ध-शैल , डायर -प त
अथवा प -शैल का योग करते हु ए अपने या ा सं मरण को च ोपम प दे ने का
य न कया है।

24.8 सा ा कार
ह द -ग य क न यतम वधाओं म इंटर यू’का उ लेख भी अपे त है। इसके लए
सा ा कार, 'भट-वाता और वशेष प रचचा श द भी पयाय प म यु त होते ह।
'इंटर यू’से अ भ ाय उस रचना से है िजसम लेखक यि त वशेष यि त व एवं कृ त व
के स ब ध म ामा णक जानकार ा त करता है और फर अपने मन पर पड़े भाव
को ल पब कर डालता है। ह द -ग य म इस वधा के वतन का ेय बनारसी दास
चतु वद को है- वशाल भारत म का शत र नाकर जी से बातचीत ( सत बर, 1931)
और ेमच द जी के साथ दो दन (जनवर , 1932) इस दशा म उनक उ लेखनीय
रचनाएँ ह। डाँ० स ये के स पादक व म का शत साधना प का के माच-अ ल
ै ,
1941 के अंक का इस वधा के वकास म मह वपूण थान है। जगद श साद चतु वद
और चरं जीलाल एकांक वारा मश: भद त आन द कोस यायन और महादे वी वमा से
लये गये इंटर यू इस अंक क उ लेखनीय रचनाएँ ह। बेनीमाधव शमा क 'क व-दशन

388
इस वधा क थम वत कृ त है िजसम अयो या संह उपा याय, यामसु दर दास,
रामच शु ल, मै थल शरण गु त भृ त कृ तकार से लये गये इंटर यू सं ह त ह।
‘इंटर यू के स दभ म सवा धक लोक य कृ त डॉ0 प य संह शमा 'कमलेश’(ज म
1918) वारा दो भाग म वर चत म इनसे मला’(1952) है। ‘कमलेश’जी ने जहाँ
स ब सा ह यकार से कु छ बँध-े बँधाये न पूछकर उनके उ तर सजोने क शैल
अपनायी है, वहाँ ृ टा सा ह यकार से बातचीत करने के बाद मन पर पड़े भाव को
ल पब कर दे ने क शैल का भी योग कया है। तु त वधा क दूसर मह वपूण
कृ त दे वे स याथ क कला के ह ता र है। य य प इसम अनेक थल पर
सं मरण, रे खा च तथा नब ध क वशेषताएँ भी अनायास समा व ट हो गयी ह,
क तु इसक पृ ठभू म म इंटर यू क वधा ह मु य है-लेखक ने सा ह य, संगीत,
अ भनय, च का रता आ द से स ब मह वपूण यि तय से अपने वातालाप के बाद
उपल ध जानकार को ल पब कया है। इस वग क एक अ य मह वपूण कृ त है-डॉ0
रणवीर रां ा क सृजन क मनोभू म’(1968)। इसम ह द के शीष थ सा ह यकार के
स दभ म इ क स भट-वाताएँ संक लत ह, िजनके मा यम से लेखक ने पाठक को
सा ह यकार के अवचेतन क अतल गहराइय से प र चत कराने का तु य यास कया
है। दनकर क ‘वट पीपल’(1961) और व णु भाकर क कु छ श द कु छ रे खाएँ’म भी
अ य वषयक रचनाओं के साथ कु छ भट वाताएँ द गयी है। भाकर माचवे, शवदान
संह चौहान, रामचरण महे , कैलाश, 'कि पत आ द लेखक ने भी इस वधा क
समृ म योग दान कया है। इधर कु छ ऐसे थ
ं भी का शत हु ए ह िजनम कसी
एक व श ट सा ह यकार से पूछे गये न के उ तर संक लत ह। इस ि ट म समय
और हम तथा समय सम या और स ा त वशेष पेण उ लेखनीय ह। इनम मश:
वीरे कुमार गु त तथा रामावतार ने जैने जी से भट-वाताओं के आधार पर
सा हि यक, सामािजक, राजनी तक आ द े से स ब न के उ तर संजोये ह।
इसी कार का एक अ य सं ह ह द -कहानी और फैशन’है, िजसम डॉ0 सु रेश स हा
ने उपे नाथ अ क ने अपनी कु छ भट-वा ताओं का नो तर- प म संयोजन कया है।
नई धारा, सा रका, धमयुग, सा ता हक, ह दु तान आ द प काओं का भी इस दशा म
उ लेखनीय योग रहा है। 'नई धारा म हम इनसे मले थे शीषक थायी त भ के
अ तगत अनेक रोचक इंटर यू का शत हु ए ह। सा रका के 1963-1965 ई० तक के
अंक म भी अनेक मह वपूण इंटर यू का शत हु ए। इसी कार मा सक प का संगीत
म संगीत-साधक ते भट’शीषक के अ तगत स संगीत ो के इंटर यू का शत होते
रहे ह।

24.9 सारांश
छायावादो तर काल म जीवनी, आ मकथा, या ावृत , सं मरण, रे खा च , ग यका य,
रपोताज, इंटरर यू प -लेखन. अ भन दन- थ ं ,
मृ त- थ भृ त गौण समझी जाने

389
वाल सा ह य- व याओं का अभूतपूव वकास हु आ। रपोताज तथा इंटर यू-लेखन तो
इसी युग क दे न है। अ य व याओं म भी क य क व वधता और शैल गत नूतन
योग क दशा म इस युग के सा ह यकार म जो जाग कता ल त होती है, वह
पूववत लेखक म नह ं मलती। कारण प ट है-जहाँ अब तक के लेखक ने वधा-
वतन के दा य व- नवाह से स तोष का अनुभव कया, वहाँ छायावदो तर काल म इन
वधाओं को प रपु ट करना भी आव यक था, और इसके लए क य और श प दोन
े म नवीन संभावनाओं क खोज अपे त होती है।
इस कार ह द क सवतो मु खी उ न त हो रह है, यह स य है। अभी ह द
पूण पेण उ च श ा का मा यम नह ं बनी है। िजस समय ह द को यह गौरव ा त
हो जायेगा जब भ न- भ न वषय क पु तक बहु त शी ता के साथ नकलने लगगी।
अब भी उ चको ट के सा ह य का नमाण बहु त बड़ी मा ा म हो रहा है, और उसम
भ व य के लए शु भ ल ण दखायी पड़ रहे ह।

24.10 अ यासाथ न:
1. ह द सा ह य के इ तहासा तगत अ य ग य वधाओं का सं त प रचय
द िजए।
2. रे खा च कसे कहते ह, मु ख रे खा च कार का प रचय दे ते हु ए उनक
रचनाओं का उ लेख क िजए।
3. रपोताज कसे कहते ह, मु ख रपोताज लेखक का प रचय दे ते हु ए उनक
रचनाओं का उ लेख क िजए।
4. सं मरण वधा का प रचय दे ते हु ए मु ख सं मरण लेखक का वणन क िजए।
5. या ावृ त ह द सा ह य क एक उ ले य वधा है, प ट क िजए।
6. “ सा ा कार लेना एक दु ह एवं संवेदनशील काय है” इस कथन क या या
क िजए।

24.11 संदभ ंथ
1. बाबू गुलाबराय- ह द सा ह य का सु बोध इ तहास, ल मीनारायण अ वाल
काशन, आगरा, 2005।
2. सं. आचाय नगे - ह द सा ह य का इ तहास, नेशनल पि ल शंग हाऊस, नई
द ल , 1988।
3. आचाय रामच शु ल- ह द सा ह य का इ तहास, काशी नागर चा रणी
सभा, वाराणसी, 1988।
4. डॉ. रामच तवार - ह द का ग य सा ह य।
5. डॉ. ब चन संह- ह द सा ह य का दूसरा इ तहास।

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