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पा य म अ भक प स म त
अ य
ो. (डॉ.) नरे श दाधीच
कु लप त
वधमान महावीर खुला व व व यालय, कोटा (राज थान)

संयोजक एवं सम वयक


संयोजक सम वयक
ो. (डॉ.) कु मार कृ ण डॉ. मीता शमा
अ य , ह द वभाग सहायक आचाय, ह द वभाग
हमांचल व व व यालय, शमला वधमान महावीर खुला व व व यालय, कोटा
सद य
 ो. (डॉ.) जवर मल पारख  ो. (डॉ.) सु देश ब ा
अ य , मान वक व यापीठ पूव अ य , ह द वभाग
इि दरा गांधी रा य खुला व व व यालय, नई द ल राज थान व व व यालय, जयपुर
 ो. (डॉ.) न दलाल क ला  डॉ. नवल कशोर भाभड़ा
पूव अ य , ह द वभाग ाचाय
जयनारायण यास व व व यालय, जोधपुर राज. क या महा व यालय, अजमेर
 डॉ. पु षो तम आसोपा
पूव ाचाय
राजक य महा व यालय, सरदारशहर (चु )

संपादन एवं पा य म-ले खन


संपादक म डल
ो. (डॉ.) च कला पा डे य
ह द वभाग
कलक ता व व व यालय, कलक ता
पाठ ले खक इकाई सं या
 ो. (डॉ.) च कला पा डे य - 1, 2, 3, 4
ह द वभाग
कलक ता व व व यालय, कलक ता
 ो. (डॉ.) दयाशंक र पाठ - 5, 6
ह द वभाग
सरदार पटे ल व व व यालय, व लभ व यानगर, गुजरात
 ो.(डॉ.) जगमल संह - 7, 8, 13, 14, 17, 18
पूव अ य , ह द वभाग
असम व व व यालय, सलचर
 ो.(डॉ.) योगे ताप संह - 9, 10
पूव अ य , ह द वभाग
इलाहाबाद व व व यालय, इलाहाबाद
 डॉ. ट .सी. गु ता - 11, 12
पूव अ य , ह द वभाग
राजक य नातको तर महा व यालय, कोटा
 ो.(डॉ.) ल लन राय - 15, 19, 20
पूव अ य , ह द वभाग
हमांचल व व व यालय, शमला
 डॉ. मीता शमा - 16
सहायक आचाय एवं अ य , ह द वभाग
वधमान महावीर खुला व व व यालय, कोटा

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 ो.(डॉ.) व णु वराट - 21
अ य , ह द वभाग
महाराजा सयाजी व व व यालय, बड़ौदा
 डॉ. हे तु भार वाज - 22
पूव ाचाय , ह द वभाग
पार क नातको तर महा व यालय, जयपुर

अकाद मक एवं शास नक यव था


ो. नरे श दाधीच ो. एम.के. घड़ो लया योगे गोयल
कु लप त नदे शक भार
वधमान महावीर खुला व व व यालय, कोटा संकाय वभाग पा य साम ी उ पादन एवं वतरण वभाग

पा य म उ पादन
योगे गोयल
सहायक उ पादन अ धकार ,
वधमान महावीर खुला व व व यालय, कोटा

उ पादन : अग त-2012 ISBN-13/978-81-8496-114-0


इस साम ी के कसी भी अंश को व. म. खु. व., कोटा क ल खत अनु म त के बना कसी भी प मे ‘ म मयो ाफ ’ (च मु ण) वारा
या अ य पुनः तुत करने क अनु म त नह ं है ।व. म. खु. व., कोटा के लये कु लस चव व. म. खु. व., कोटा (राज.) वारा मु त एवं
का शत।

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एमएएचडी-01

वधमान महावीर खु ला व व व यालय, कोटा

ख ड – 3 14—163
भि तकाल न का य भाग –II
इकाई सं. इकाई का नाम पृ ठ सं या
इकाई – 9 तु लसीदास का का य 14
इकाई – 10 तु लसीदास के का य का अनुभू त एवं अ भ यंजना प 33
इकाई – 11 सू रदास का का य 56
इकाई – 12 सू रदास के का य का अनुभू त एवं अ भ यंजना प 88
इकाई – 13 मीरा का का य 112
इकाई – 14 मीरा के का य का अनुभू त और अ भ यंजना प 133

ख ड – 4 164—323

र तकाल न का य भाग –I
इकाई सं. इकाई का नाम पृ ठ सं या
इकाई – 15 बहार का का य 164
इकाई – 16 बहार के का य का अनुभू त और अ भ यंजना प 181
इकाई – 17 पदमाकर का का य 202
इकाई – 18 पदमाकर के का य का अनुभू त और अ भ यंजना प 217
इकाई – 19 घनान द का का य 234
इकाई – 20 घनान द के का य का अनुभू त और अ भ यंजना प 251
इकाई – 21 भू षण का का य 276
इकाई – 22 भू षण के का य का अनुभू त और अ भ यंजना प 299

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पा य म-प रचय
सा ह य का अ ययन मनु य के भाव एवं वचार के प र करण, वकसन और उ नयन का
मह वपूण मा यम है। युग वशेष क सामािजक , राजनै तक, ऐ तहा सक, आ थक, सां कृ तक और
वैचा रक पृ ठभू म के साथ उसके संघष , प रवतन तथा मह वपूण मोड क छाया सा ह य के
आइने म यथावत दे खी जा सकती है। इसी कारण सा ह य को मानवीय स ता के अ ययन क
सं ा द जाती है। सा ह यकार हम युग के च र का सा ा कार कराता है ह द के आ दकाल न
सा ह य से लेकर आज तक के सा ह य म हम त साम यक युग का त बंब पाते है। युग
सा ह य क व वध वधाओं म पं दत होता है।एम.ए ह द (पूवा ) का पा य म बनाते समय
इस बात को वशेष प से यान म रखा गया है िजससे इसका अ ययन आपको पूरे युग को
समझने म मदद दे सके और आपक एक सम ि ट तथा प ट समझ (युग वशेष के वषय
म) वक सत हो सके।
यह पूरा पा य म चार ख ड म वभािजत है क तु इस वभाजन म का य- वकास पर परा क
क ड़य को अ वि छ न रखने क चे टा क गई है। ख ड का अ ययन आर भ करते ह
अ ययनक ता यह महसूस करगे जैसे क वे ह द का य क पर परा और वृि तय से ता कक
और अंतरं ग वातालाप कर रहे ह । ह द सा ह य के इ तहास का अ ययन करते समय आप
आ दकाल अथवा वीरगाथाकाल क सामा य वृि तय से अवगत हो चु के है। इस पृ ठभू म को
ि ट म रखते हु ए ाचीन (आ द) का य शीषक से थम ख ड तैयार कया गया है िजसम
आ दकाल के दो व श ट क वय चंदवरदायी तथा व याप त के क व यि त व, क व- ि ट ,
अनुभू त तथा अ भ यंजना प पर व तृत ववेचन कया गया है। इस ख ड म चार इकाइयाँ है।
इकाई- 1 तथा 2 आ द कल के सबसे ववादा पद क तु े ठता म अ णी क व चं दवरदायी के
यि त व एवं कृ त व से संबं धत है और इकाई-3 एवं 4 लोकभाषा को का य भाषा का गौरव दे ने
वाले मै थल को कल क व व याप त का अ ययन तु त करती है। इन दोन क का य या ा म
सहभागी होते हु ए आप आ दकाल क दो मु ख वशेषताओं वीरगाथापरकता और गृं ार यता से
तो प र चत होग ह , इन क वय के वशद ान, सू म पयवे ण शि त, उ भावना कौशल तथा
भाषा योग से भी वा कफ हो सकगे ।
वतीय ख ड भि तकाल न का य भाग-1 शीषक से लखा गया है। इसम भि तकाल न का य से
संत और सू फ का य के व तक कबीर और जायसी का चयन करते हु ए अ ययन साम ी तैयार
क गई है। दोन के अ ययन से प ट होगा क ह द सा ह य का भि तकाल दे श यापी भि त
आ दोलन क सबसे बड़ी उपलि ध है । मूलत: यह भि त आ दोलन- सामंतवाद, पुरो हतवाद,
शा ान के अ भमान,अंध व वास का तवाद, लोक भाषाओं के उदय एवं त काल न समाज
यव था म जनता का सामंतवाद वरोधी सां कृ तक आंदोलन था। इस आंदोलन ने समाज क
दशा- ि ट दे ने वाले ानी संत क व दये । नगु ण शाखा क ानमाग धारा के संत कबीर ह
या ेममाग के संत जायसी, दोन क सामािजक भू मका लोक हतकार थी। यह ख ड इन दोन
क वय के यि त व एवं का य के अनुभू त एवं अ भ यंजना प पर व तृत वचार तु त
करता है। इस ख ड म पहल दो इकाइयाँ संत कबीर और दूसर दो सूफ क व जायसी पर
अ ययन साम ी तु त करती है। ख ड म कुल चार इकाइयाँ है।
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तीसर ख ड भि तकाल न का य भाग-II शीषक से तैयार कया गया है। इसम सगुण भि तधारा
के रामभ त क व तुलसीदास , कृ णभ त क व सू रदास तथा ेम और वेदना क अन य गा यका,
भ त सा धका मीरा पर अ ययन साम ी तु त क गई है। ख ड म कुल छ: इकाइयाँ है। पहल
दो तु लसी,दूसर दो सूरदास तथा तीसर दो मीराबाई के यि त व तथा रचना के अनुभू त और
अ भ यंजना प का अ ययन तु त करती है। इनक क वताओं का अ ययन प ट करता है क
भि त का य, लोक भाषाओं, लोक- का य प , लोक आ थाओं तथा लोक रंजन वृि तय के
वकास का का य है।
चौथा ख ड र तकाल न का य अं तम ख ड है। इसम आठ इकाइयाँ है। इसम र त स का य के
त न ध क व बहार , र तब का य के प ाकर और र तमु त का य के त न ध घना द के
साथ र तकाल के वीरता और शौय के त न ध क व भू षण के क व यि त व, क व ि ट और
का य कौशल पर वचार कया गया है। मानुसार बहार , पदमाकर, घनान द तथा भू षण पर दो-
दो इकाइयाँ अ ययन साम ी के प म लखी गई है।
ात य है क येक ख ड क इकाई के अंत म मह वपूण पु तक क सूची भी द जा रह है
िजसका वशेष अ ययन कर आप अपने ान म अपे त वृ कर सक गे ।

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ख ड प रचय

ख ड 3 का प रचय
एम.ए. ह द (पूवा ) पा य म का ख ड-3 भि तकाल न का य भाग-II शीषक से लखा गया है।
ख ड-3 का प रचय दे ते हु ए पहले पैरा ाफ म जो बात कह गई है उसे यहाँ यथावत उ घृत करना
संगत होगा अत: बना कसी पूव पी ठका के हम सीधे ख ड क इकाइय पर आ जाते है। इस
ख ड म कुल 6 इकाइयाँ है िजनम न न ल खत प म अ ययन साम ी तुत क गई है :-
इकाई 9 : इस इकाई म यकाल न रामभि त शाखा के सव े ठ क व िजसे जॉज यसन ने
गौतम बु के बाद सबसे बड़ा सम वयक ता और लोकनायक माना उन कालजयी रचनाकार
`तु लसीदास के क व यि त व क वतावल , का य योजन और रचनाओं का अ ययन तु त
कया गया है। इसी इकाई म तुलसीदास क रचनाओं, और वनय का से चु ने हु ए पद और
सवैया तथा क वता क सस दभ या या द गई है। चय नत का य ख ड क वशेषता बतलाते
हु ए या याओं के साथ जो ट प णयाँ द गई है उनसे आप क व के भाव प और कला प
संबध
ं ी प ट समझ बना पाने म स म होग। अथ स ष
े ण क सु वधा हेतु कु छ क ठन श द के
अथ भी दए गए है।
इकाई-10 इस इकाई म तु लसीदास के का य के अनुभू त एवं अ भ यंजना प पर वचार कया
गया है। इस संग म गो वामी तुलसीदास क आ मानुभू त के व वध प , उनके रचनासंसार,
अ वचल-एक न ट भि त, उदा त मानव मू य का नदशन, सम वय भावना तथा सामािजक
सरोकार का व लेषण कया गया है। अ भ यंजना प पर अ ययन साम ी तैयार करते हु ए
तु लसी के का य प म सृजन प क व वधता, भावयोजना, सा हि यक तब ता, वै व य पूण
रस, अलंकार एवं छं द वधान तथा का य भाषा पर व तृत और वपुल चंतन पर यान रखा
गया है।
इकाई 11: इस इकाई म भि तकाल क कृ ण भि त धारा के त न ध क व सू रदास के क व
यि त व एवं कृ तय पर प रचया मक ट पणी दे ते हु ए मरगीत संग के चु ने गए बीस पद
क संदभ स हत या या द गई है। सुर के इन पद के अ ययन से आपको वह ि ट ा त होगी
िजससे इन पद के भीतर झांक कार आप त काल न सामंती समाज के यथाथ को बखू बी पहचान
सकगे तथा आचाय रामच शु ल के इस कथन को च रताथ पाएंगे क “सुर का संयोग वणन
एक णक घटना नह ं है, ेम-संगीतमय जीवन क एक गहर चलती धारा है, िजसम अवगाहन
करने वाले को द य माधु य के अ त र त और कह ं कुछ नह ं दखाई पड़ता।” या या के अंत म
क ठन श द के अथ दए गए ह, िजससे आपको अथ समझने म सहू लयत हो।
इकाई 12: इस इकाई म महाक व सूरदास क क वता म अनुभू त एवं अ भ यंजना मक प का
अ ययन तु त कया गया है। इस संदभ म सूरदास क क वता म व णत गृं ार रस के संयोग
एवं वयोग प क वशेषताओं सूरदास म व णत कृ त के व वध प का मू यांकन एवं सू र
का य म लोकजीवन के च ण का व लेषण लया गया है। का य- श प के अंतगत का य प

10
छं द, रस, अलंकार का ववेचन है। इस इकाई म सवा धक मह वपूण सू र के अ भ यंजना कौशल
के अंतगत गोपी-उ व संवाद का व लेषण है।
कृ ण-सखा उ व से गो पय के वाद- ववाद म सू र सा ह य अपने चरम उ कष पर प रल त होता
है। ीम भागवत के इस संग को आधार बनाकर अपनी मौ लकता के सं पश से सू र ने इसे जो
कला मक अ भ यि त द है,वह परवत क वय के लए रे णा ोत के साथ तमान भी बन
गई । इस इकाई म सू र के भा षत योग पर वचार कया गया है। जभाषा को प रमािजत,
ांजल और सहज बनाने का काय करने वाले महाक व को जभाषा का वा मी क कहना सवथा
उ चत है।
इकाई 13: कृ ण भ त क वय म अ ग य मीराबाई िजनक भि त म ण कबीर का ‘खंडन-मंडन’
है न सूर का नगु ण-सगुण ववाद और न ह तु लसी का दशन सं दाय से ऊपर अपने आरा य के
त न छल मन का आ म समपण है, इस इकाई म उ ह ं मीराबाई के जीवन-प रचय, रचनाकार
यि त व एवं कृ तय के प रचय के साथ मीरा के यारह चु ने हु ए पद क या या क गई है।
इससे अ यनक ता मीराबाई क क वता का रसा वादन कर मीराबाई के का य म एक पूर क पूर
समाज यव था क अस ह णु और अमानवीय मान सकता को, उसक भेदभाव पूण र त-नी त
और दोहर जीवन- ि ट से प र चत हो सकगे। वह समाज िजसम मीरा म वाधीनता के लए
संघष कया, वष पया और भाव स य के प म अमृतमय का य रचा। या याओं के साथ जो
ट प णयां द गई है, उनसे आप क व के भावप और कलाप संबध
ं ी प ट स ब ध बना पाने
म स म होग। अथ सं ेषण क सु वधा के लए कु छ क ठन श द के अथ भी दये गये ह।
इकाई 14: भि तकाल न का य भाग-II (खंड-3) क यह अि तम इकाई है िजसम मीराबाई के
का य के अनुभू त एवं अ भ यंजन प का व लेषण कया गया है। मीराबाई के रचना के
योजन, उनक का य परं परा क वता के वैचा रक प , का य- प, भाषा-शैल , अलंकार तथा छं द
क ववेचना क गई है। मीरा क का यानुभू त उनके का य म एक ी के जीवन-संघष लोक
त व, दाश नक भाव स दय के साथ मीराबाई क कृ ण भि त एवं उनके आ थावाद मू य का
प ट करण कया गया है। भि त के े म व वध मत-मतांतर से ऊपर मीरा ने अनुभू त प
को ह धानता ह है। अंश से संबं धत नबंधा मक एवं लघु तरा मक न भी दये गये ह। इसी
कार इकाइय के अंत म व तृत एवं गहन अ ययन के लए संदभ थ
ं क सूची द गई है।
आप उनका भी अ ययन कर।

11
ख ड प रचय

ख ड 4 का प रचय
एम.ए. ह द (पूवा ) पा य म का यह अं तम ख ड है। इस (र तकाल न का य) ख ड म ह द
सा ह य के र तकाल के त न ध क वय के रचनाकार यि त व एवं का य सौ दय पर अ ययन
साम ी तु त क गई है । ऐ तहा सक प रवतन का या भ यि त के व प म भी बदलाव ला
दे ता है। इसका जीवंत उदाहरण है भि तकाल न ेमानुभू त क र तकाल न भावनाओं म अ तरण।
आचाय रामच शु ल के अनुसार “ इसका कारण जनता क च नह ं आ यदाता राजा-
महाराजाओं क च थी” का यगत े ठता का मु य आधार लोक चेतना से जु ड़ना है। इसके
वपर त र तकाल न क वय के लए क वता एक पेशा बन गई, दरबार सं कृ त ने भावप पर
कला प को हावी कार दया। स पूण र तकाल न सा ह य को सामंती सं कृ त के प र े य म ह
समझा जा सकता है। र तकाल न का य को मु यत: तीन धाराओं-र त स , र तब और
र तमु त म बांटा गया है। इस ख ड म 8 इकाइयाँ है। येक धारा के त न ध क वय को
चु नते हु ए इस ख ड क अ ययन साम ी तैयार क गई है। इकाइय का वभाजन न न ल खत
प म है:-
इकाई 15: इस इकाई म र त स क व बहार के यि त व एवं उनक एक मा रचना ‘सतसई’
से चु ने गए प ह दोह क स संग या या तुत क गई है। या याओं के साथ जो ट प णयाँ
द गई है, उनसे आप बहार क , क पना क अ त
ु समाहार शि त और अलंकार धान उि त
वै च य का अवलोकन कार सकते है। दोह के साथ क ठन श द के अथ दये गये है िजनसे वयं
अथ समझने मदद मलेगी।
इकाई 16: इस इकाई म बहार के का य के अनुभू त और अ भ यंजना प पर वचर कया गया
है। बहार क चम का रणी, मनोहा रनी, गहर , गूढ और गंभीर भाषा गृं ार इस च ण म
पारं गतता और एक-एक दोहे म अनेकानेक अंलकार क उपि थ त सोदाहरण दखाते हु ए स
कया है, कस कार बहार के दोहे ‘नावक के तीर’ के समान है।
इकाई 17: इस इकाई म र तब क व प ाकर के रचनाकार यि त व के साथ गृं ार , वीर रस
और भि त-भाव से आपू रत उनके छ: छं द क ससंदभ या या तु त क गई है। या याओं को
पढ़ते हु ए छंद शा पार प ाकर क पकड़ और अलंकारो पार उनके अ धकार से प र चत हु आ जा
सकता है। प ाकर क लेखनी, त काल न युग के सभी च लत वषय गृं ार , वीर एवं भि त
भावना पार चल है फर भी उनक का य शि त का सव कृ ट माण गृं ार वषयक रचनाओं म
ह मलता है। या या के साथ क ठन श द के भी अथ दये गये ह।
इकाई 18: तुत इकाई म प ाकर के का य के अनुभू त और अ भ यि त प का व लेषण
कया गया है। भाव प क ह भां त प ाकर का कला प भी ौढ़ है। उि त वै च य और
चम कार दशन क वृि त भावानुभू त के माग म बाधक नह ं हु ई है। अनु ास का बहु ल योग
भी अ चकर नह ं तीत होता । भाषा पार इनका पूण अ धकार है। आचाय शु ल ने इन पार
ट पणी करते हु ए कहा है-‘इनक भाषा कह ं अनु ास क म लत झंकार उ प न करती है, कह ं

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र र दप से ु धवा हनी के समाज अकड़ती और कड़कती हु ई चलती है तो कभी शांत सरोवर के
समान ि थर और गंभीर होकर मनु य जीवन को व ां त क छाया दखाती है।’
इकाई 19: तुत इकाई म घनान द के रचनाकार यि त व के व लेषण के उपरांत इनके कु छ
क व त और सवैया ससंदभ या या यत ह। या या के साथ वशेष ट पणी आपको घनान द के
उस वै श य से प र चत करायेगी िजसे ल य करते हु ए क व ने वयं लखा है- ‘लोग तो जोड़-
तोड़ कर क वता बनाते ह ले कन मेर क वता वयं मुझे न मत करती है।’ र तकाल न बंधन को
तोड़कर भावना के उ मु त गगन म उड़ान भरने वाले घनान द अपनी खास पहचान रखते ह।
इकाई 20: इस इकाई म र तमु त क व घनान द के का य के अनुभू त और अ भ यंजना प पर
वचार कया गया है। आचाय शु ल का कहना है ‘घनान द का वयोग वणन अ धकतर अंतवृि त
न पक है वा याथ न पक नह ं । घनान द ने अपनी क वताओं म दय क पुकार को वाणी
दान क है। उनक का यानुभू त म िजस ती ता, मा मकता और रमणीयता का एक साथ वधान
कया गया है, वह अनुपम है। ’
इकाई 21: इस इकाई म र तकाल के वीर गीत गायक भू षण के रचनाकार यि त व पार काश
डालते हु ए उनके का य से सात छं दो को चु न कार उनक स संग या या क गई है। ह द म
रा य मु तक क रचना सामा यता: डंगल के क वय वारा ह हु ई है। भू षण इनम अपवाद ह
जो डंगल के थान पंगल या ज भाषा का योग करते ह। इनक या या का अ ययन करते
हु ए आप वीर रसा मकता को परख सकगे। छ साल और शवाजी के दरबार म रहते हु ए भी
इ ह ने चाटु का रता के नये मानदं ड बनाये और अपनी ि ट के अनुसार स ती चाटु का रता छोड़
िजस शवाजी और छ साल को उ ह ने इ लाम स ता के व लड़ने वाले वीर के प म दे खा।
उनका वीर व वणन और शौय वणन करने म कह ं कोई कसर नह ं छोड़ी।
इकाई 22: इस इकाई म वीर ग त गायक भू षण क अनुभू त व अ भ यंजना प पार काश
डाला गया है। इस ख ड क सभी इकाइय के अंत म श दावल अ यास के लए नबंधा मक एवं
लघु तरा मक न दये गये ह। व तृत एवं गहन अ ययन के लए संदभ थ
ं सूची भी द गई
है, आप इ ह भी दे खे और अ ययन कर।

13
इकाई-9 तु लसीदास का का य
इकाई क परे खा
9.0 उ े य
9.1 तावना
9.2 क व-प रचय
9.2.1 जीवन-प रचय
9.2.2 रचनाकार का यि त व
9.2.3 कृ तयां
9.3 का य वाचन एवं या या (क वतावल )
9.3.1 छं द सं या 105 धू त कहौ अपधू त कहौ....
9.3.2 छं द सं या 96 कसबी कसान कुल ब नक....
9.3.3 छं द सं या 97 खेती न कसान कौ...
9.3.4 छं द सं या 11 पुरतै नकसी-रघुवी बधू..
9.3.5 छं द सं या 79 दे व तू ं दयालु द न हौ...
वनय प का से
9.3.6 छं द सं या 90 ऐसी मू ढ़ता या मन क
9.3.7 छं द सं या 105 अब लौ नसन अबन नसै ह
9.3.8 छं द सं या 111 केसव क ह न जाइ का क हए
9.3.9 छं द सं या 174 जाके य न राम वैदेह
9.3.10 छं द सं या 162 ऐसो को उदार जग मांह
9.3.11 छं द सं या 101 जाउँ कहाँ तीज चरन नहारे
9.4 वचार संदभ और श दावल
9.5 सारांश/मू यांकन
9.6 अ यासाथ न
9.7 संदभ ग थ

9.0 उ े य
 गो वामी तु लसीदास जी क दो कृ तय - क वतावल तथा वनय प का के छ द
का मू ल प तथा ामा णक पाठ तु त करना ता क का य वाचन कया जा सके ।
 क वतावल के उ तराख ड एवं अयो याका ड एवं वनय प का के पद क संग
स हत या या ता क क व का म त य प ट हो सके ।
 ट पणी के मा यम से क व के म त य को यंिजत करने वाले अलंकार एवं अ य
वशेषताओं को बतलाना ता क क वता क कला मक उपलि धय का ान हो सके।
 छ द के ज टल श द का अथ न द ट करना ता क का य वाचन और अथ लेखन
क ज टलता दूर हो सके ।
14
9.1 तावना
गो वामी तु लसीदास क दो कृ तयाँ 'क वतावल एवं ' वनय प का' उनके जीवन के
अि तम काल म लखी गई थीं । गीतावल कृ त का मू ल म त य उ तराख ड को
छोड़कर आरा य ीराम का ब बा मक च तु त करना है । इसके उ तरका ड म
क व अपने युग के लोक संकट तथा उससे मु ि त के उपाय क खोज करता है । कु ल
मलाकर, जहाँ कव अपनी अ य कृ तय म अपनी आदशमयी नै तकता क
अवधारणाओं क सा ह य म थापना करता है- वह ं इस क वतावल म वह अपने युग
के घोर यथाथ का वणन करता है । महामार एवं दु भ से पी ड़त लोक क पीड़ा के
यथाथपूण च ण का ऐ तहा सक सा य इस क वतावल म दे खा जा सकता है ।
क व क दूसर कृ त ' वनय प का' उसक साधना, उपासना तथा दा य भि त क
वैयि तक अनुभू तमयी न ठा को य त करती है । ' वनयप का' ीराम को भेजी गई
एक प का है- िजसम क व ने उनक आ मीयता क ाि त के लए पूणभावेन सम पत
होकर अपनी भौ तक वेदनाओं को य त कया है । इस वनयप का म क व का
उ े य है जीवन क भौ तक अधोग त से पी ड़त मानव समाज को ई वर या ीराम क
शरणाग त क ाि त कराने के लए े रत करना । इस कृ त म क व क वैयि तक
पीड़ा तथा लोकपीड़ा के संदभ दोन एकमेव हो उठे ह । क व क आ मपीड़ा तथा
लोकपीड़ा दोन को एकभाव से जोड़कर उसक मुि त का अि तम उपाय ीराम क
'शरणाग त' ह खोजना है । कसी भी कार से भु ीराम क आ मीयता क भावना
क उ पि त ह लोकवासनाओ म अधोग त भोगने वाले जीवन क मु ि त का हे तु है
और तु लसी अ त तक भु ीराम क आ मीयता क याचना ह यहाँ करते रहते ह ।
वनयप का के न कष को इं गत करते हु ए वे कहते ह क-
कृ पा कोप सतभायेहु सपनेहु तरछे हु, नाथ तहारे हे रे ।
जो चतव न स ह लगै सो चतइये सबेरे।।

9.2 क व प रचय
9.2.1 जीवन प रचय

गो वामी तु लसीदास के जीवन के वषय म अभी तक पया त ववाद बना हु आ है


क तु अ धकांशत: तु लसी सा ह य के अ वेषक ने उनका ज म संवत 1589 (सन ्
1532) भादो मास, शु लप , एकादशी दन मंगलवार को च कूट से 15 कलोमीटर
पहले दुबे के पुरवा को माना है जो बाद म राजापुर के नाम से बांदा जनपद म
व यात हु आ । इनके पता का नाम आ माराम दुबे तथा माता का नाम हु लसी था ।
बा याव था म ह माता- पता के दे हावसान हो जाने के कारण आ य वह न तु लसी को
पया त संकट भोगना पड़ा ।
ारि भक दन म इ ह गु ी नरह रदास ने आ मीयता के साथ पाला-पोसा तथा
द ा द । गु ीनरह रदास जी से ह इ ह ने ीरामकथा का वण कया तथा जीवन

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भर पूर न ठा के साथ वे ीराम से जु ड़े रहे । ीरामच रतमानस म क व ने अपने
गु का आदरपूवक मरण कया है ।
ीनरह रदास जी के बाद गो वामी तु लसीदास जी ने काशी म ी शेष सनातन जी क
पाठशाला म व धवत-् यो तष तथा वै दक सा ह य क श ा ा त क । अपनी श ा
समा त करके वे पुन : अपनी ज मभू म राजापुर लौटे और यमु ना के तट पर ि थत
महे वा गांव के नवासी द नबंधु पाठक क पु ी र नावल से उनका ववाह हु आ ।
कं वद ती है क प नी के कदुवचन से आहत तथा य थत तु लसी ीराम क भि त के
त सम पत हु ए ।
ीराम भि त के लए संक पशील तु लसी ने पूरे भारत का मण कया और अंत म
संवत ् व 631 म अयो या आकर ीरामच रतमानस क रचना ार भ क । कहा जाता
है क इसे पूरा करने म तीन वष, तीन मास एवं सात दन लगे थे- वैसे
ीरामच रतमानस म क व ने कई बार पाठ म प रवतन कया है और ऐसी े ठ तथा
कालजयी रचना के लए इतना समय अ धक नह ं है ।
गो वामी तु लसीदास ने अपना अ धकांश समय च कू ट, अयो या तथा काशी म यतीत
कया था। अि तम समय म वे काशी म रहे तथा उनक अि तम कृ तयाँ- दोहावल ,
क वतावल , वनयप का एवं हनुमान बाहु क काशी म ह लखी गई थीं । काशी म
इनक म मंडल क चचा बराबर मलती है और इनके म म राजा 'टोडरमल' का
नाम वशेष उ लेखनीय है । इनके दूसरे म गंगाराम यो तषी थे िजसके अनुरोध पर
उ ह ने 'रामा ा न' क रचना क । अकबर के सेनाप त तथा दरबार अ दुररह म
खानखाना से तु लसी का अ छा स ब ध था और उनक ह ेरणा से उ ह ने 'बरवै
छ द' के अ तगत 'बरवै रामायण' क रचना क थी ।
कहा जाता है क काशी नवास काल म इ ह पया त संकट झेलना पड़ा था- िजसक
सू चना 'क वतावल ' कृ त म क व ने वयं द है । जीवन के अि तम दन म इ ह
तमाम गि टयाँ नकल आई थी और हनुमान क कृ पा ाि त से रोग मु ि त के लए
उ ह ने अपनी अि तम कृ त 'हनुमान बाहु क' क रचना क थी ।
गो वामी तु लसीदास जी का दे हावसान संवत ् 1680 (सन ् 1623) ावण मास,
शु लप , तृतीया , दन श नवार को हु आ था ।
गो वामी तु लसीदास जी आजीवन ीराम के त पूण न ठा तथा आ था के साथ जु ड़े
रहे और यह एक ऐसे यि त ह िजनक इस ीराम न ठा म कह ं भी खर च नह ं
दखाई पड़ती -
ब यो व धक परयो पु य जल उल ट उठाई च च ।
तु लसी चातक ेम पुट मरतहु ँ लगी न ख च।।

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9.2.2 रचनाकार का यि त व

गो वामी तु लसीदास के यि त व के कई प हमारे सामने उभर कर उनक कृ तय के


मा यम से आते ह । ये इस कार ह-
1. गो वामी तु लसीदास ीराम के त आ यि तक प से सम पत भ त थे । उनक
ीराम म एक मा न ठा आजीवन बनी रह । वे अपनी ीराम क एक मा
ेम न ठा को चातक वृि त से उप मत करते ह । वे कहते ह क-
एक भरोसो एक बल एक आस व वास ।
एक राम घन याम हत चातक तु लसीदास।।
ीराम ह एक मा भरोसा ह, एक मा शि त ह, एक मा आशा ह-
एकमा व वास ह- क व ऐसे ीराम के लए वा त बूँद के लए तड़पते
चातक प ी क भाँ त आजीवन बेचैन रहा है ।
2. गो वामी तु लसीदास संपण
ू लोक को इस ीरामभि त के साथ जोड़ना चाहते थे ।
उनक ि ट म लोक वयं म जब तक ीरामभि त के साथ नह ं जु ड़ता उसे
शाि त नह ं मलेगी । 'भि त' के संदभ म उ ह ने कोई भेदभाव नह ं रखा और
उनके अनुसार सभी जा तयाँ, ी-पु ष , पशु-प ी, भारतीय एवं अभारतीय, व वान
आ द सभी ीराम क शरणाग त ा त करके सु ख एवं शाि त का जीवन यतीत
कर सकते ह । तु लसी इस कार केवल अपने को ह नह ं वरन ् लोक के सु ख तथा
आन द के अ वेषक तथा उसक पीड़ा के त सचेत थे । तु लसी के यि त व क
यह सबसे बड़ी वशेषता थी क वयं के संकट के साथ लोकसंकट क मु ि त के
लए भी वे जीवन भर व न दे खते रहे । ीराम से लोक को जोड़ने के पीछे उनके
यि त व क लोक हतै षका वृि त का व प सामने उभरकर आता है ।
3. गो वामी तु लसीदास एक ऐसे समाज क रचना म व वास रखते ह- िजसम
'लोकादश' क तब ता क भावना से पूरा समाज जु ड़ा हो । उनके वारा र चत
ीरामच रतमानस इसी लोकादश क तब ता का उदाहरण है । भाई-भाई, पु -
पता, पु -माता, वधू-सास, प त-प नी, वामी-सेवक, राजा- जा आ द के बीच
सामंज य एवं सौहा क ेममयी उदा तता के वे प धर रहे ह । जीवन के
यापक मू य के त मानव मा क न ठा-राम के संक प से जु ड़कर हम आगे
बढ़ने के लए े रत करती है । यह उनका स ा त था । यह तु लसी के ह
यि त व का तफल है क समाज म आज रावण के त सावज नक न दा का
भाव दखाई पड़ता है ।
4. गो वामी तु लसीदास के यि त व का एक मह वपूण प है- लोक सम वय क
भावना म न ठा ता क टू टते हु ए समाज को बचाया जा सके । गो वामी जी पूरे
भारतीय समाज को बखरने और टू टने से बचाते ह, यह उनक च ता उनक
कृ तय म बराबर दखाई पड़ती है क समाज को जोड़कर कैसे समाज को े ठतम
ब दुओं पर अवि थत कराया जाए । वे धा मक सम वय-जातीय सम वय तथा

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इ तहास एवं वतमान के सम वय के तपूण न ठावान ह । यह सम वयवाद
उनके यि त व का मह वपूण प है और वदे शी आलोचक ने उनके यि त व
के इस सम वय प क बराबर शंसा क है ।
5. गो वामी तु लसीदास, भि त के साथ-ह -साथ नै तक मानवीय मू य के जीवनभर
प पाती रहे ह । दया, नेह, आ मीयता, ेम, क णा, दान, अ हंसा, सम व आ द
मू य मानवीय समाज क संर ा के मू ल उपादान ह और गो वामी जी के
यि त व क यह सबसे बड़ी वशेषता रह है क अपनी कृ तय के मा यम से
आजीवन इ ह ं मू य क थापना पर वे बल दे ते रहे ह । ीराम का आदशपूण
स ता याग एवं भरत के ातृ व ेम का टांत तु लसी को सवथा य रहा है
और वे सामािजक रचना के संदभ म इ ह ं े ठ मानवीय मू य के अि त व को
जीवन भर वीकारते रहे ह ।
सं ेप म, गो वामी जी के यि त व के मह वपूण प ह- ीराम के त अन य
न ठा तथा अन यभि त, लोकादशमयी सव े ठ जीवन यापन क सामािजक ि ट,
लोक सम वय तथा नै तक मानवीय मू य के त अगाध आ था । इस कार
गो वामी तु लसीदास ीरामच रतमानस एवं लोक न ठा के कालजयी क व के प म
हमारे समाज म सव वतमान ह ।

9.2.3 कृ तयाँ

गो वामी तु लसीदास क कु ल कृ तयाँ बारह ह-


1. रामलला नहछू
2. रामा ा न
3. जानक मंगल
4. ीरामच रतमानस
5. पावती-मंगल
6. बरवै रामायण
7. ीकृ ण गीतावल
8. ीरामगीतावल
9. वनयप का
10. दोहावल
11. क वतावल
12. हनुमान बाहु क
आगे इन कृ तय के रचना मक वै श य का व लेषण आगे क इकाई म कया गया
है।

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9.3 क वतावल
9.3.1 का यवाचन : छ द सं या 105

धू त कहौ अवधू त कहौ रजपूत कहौ जु लहा कहौ कोई ।


काहू क बेट सो बेटा न याहब काहू क र त बगार न सोई ।
तु लसी सरनाम गुलाम है राम को जाको चै सो कहै कछु कोई ।
मां ग कै खहै मसीत कै सोइबे लइबे को एक न दे बो को दोई।।
संग- क व गो वामी तु लसीदास इस छ द के मा यम से वयं अपने वषय म
ट पणी दे रहे ह- अपने वरो धय के त त या य त करना उनका मू ल म त य
है । वे अपने वरो धय को बताते ह क वह ीराम के त पूर तरह से सम पत ह
जो चाहे जैसा वरोध करे , उ ह उनक च ता नह ं है य क वे लोकर त, लोक यव था
तथा लोक स ब ध से ऊपर उठ चु के ह ।
क व गो वामी तु लसीदास अपने वरो धय को उ तर दे ते हु ए कहते ह क-
या या- तु म चाहे मु झे छल करने वाला धू त कहो, चाहे आड बर को रचने वाला
अवधू त योगी कहो, चाहे मु झे य कहो, चाहे जु लाहा कहो, मु झे कसी बात क कोई
च ता नह ं है । म न तो कसी क पु ी से अपने पु का याह करना चाहता हू ँ और
न कसी क जा त बगाड़ना चाहता हू ँ और यह सभी जानते ह क यह तु लसी तो
ीराम के गुलाम के नाम से स (सरनाम) है । भ ा मांगकर खाना और नि च त
होकर मि जद आ द धा मक थल पर सो रहना उसक दनचया ह और उसको न
कसी से उधार मांगकर एक लेना और न याज स हत दो दे ना है ।
ट पणी-
1. तु लसी ने यह अपने जीवन नवाह क प त क ओर संकेत कया है, सवथा
ीराम का होकर लोकसं ि त र हत जीवन यापन उनका उ े य है ।
2. लोक वरोध का कारण तु लसी लोकसंसि त मानते ह और लोक संसि त के बाद
वरोध य और कैसा ?
3. अपने जीवन क वृ ाव था म काशी म अपने त होने वाले वरोध का उ ह ने
यहाँ वणन कया है ।

9.3.2 उ तरकांड- का यवाचन : छ द सं या 96

कसबी कसान कु ल ब नक भखार भाँट


चाकर चपल नट चोर चार चेटक ।
पेट को पढ़त गुन गढत चढ़त ग र
अटन गहन वन अहन अखेट क ।
ऊँचे नीचे करम धरम अधरम क र
पेट ह को पचत बचत बेटा बेटक ।
तु लसी बुझाइ एक राम घन याम ह ते
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आ ग बडवा ग ते बड़ी है आ ग पेट क ।।
संग- भू ख से पी ड़त अपने युग के जन समु दाय को सा वना दान करता हु आ क व
कहता है क ीराम क शरण म जाओ, भू ख क आग बडवाि न से भी भयंकर है और
उसे केवल ीराम पी बादल (घन याम) ह अपनी कृ पा ि ट से बुझा सकते ह, अ य
कोई नह ं । काशी म दु भ पड़ने के कारण वहाँ क भू खी जनता म हाहाकार मचा था,
उस समय लोक क र ा के लए शासन वग नि य था । ऐसी प रि थ त म ीराम
क कृ पा के अ त र त अ य कोई वक प नह ं था ।
या या- भू ख क पीड़ा को मटाने के लए ह मजदूर मजदूर करते ह. कसान समू ह
कृ ष करते ह तथा ब नया, भखार , भाँट, नौकर, चंचल नट चोर, हरकारे तथा बाजीगर
आ द भी इसी उदर पोषण के लए उ यम करते ह ।
उदरपू त के लए ह यि त, अपने गुण को गढ़-गढ़कर कु शल बनते ह, पहाड़ पर
चढ़ने, शकार तथा दनभर गहन वन म (नाना कार क व तु ओं क खोज के लए)
भटकते रहते ह ।
पेट भरने के न म त भले बुरे कम, धम-अधम का काय करते तथा उदरपू त के
न म त ह बेटे-बे टयां बेचते रहते ह ।
तु लसीदास जी कहते ह क यह पेट क आग बडवाि न क भां त है जो यामल घनमेघ
पी ीराम क कृ पा ि ट से ह बुझाई जा सकती है ।
ट पणी- अपने युग म फैल भु खमर क शां त का उपाय तु लसी ीराम कृ पा बताते ह
और जन समु दाय को समझाते ह क भू ख मानव जा त क सबसे बड़ी उसक ाथ मक
आव यकता है, उसक शाि त ीराम कृ पा से ह स भव है ।
1. पर प रत पक अलंकार- “तु लसी बुझाइ..... आ ग पेटक ।” राम पी घन याम- से
और पेट क आग के बुझने म कायकारण स ब ध है- पक राम-घन याम हे तु है,
और काय है- पानी से आग का बुझाना ।
श दाथ- कसबी (पेशेवर या गैर पेशेवर) मजदूर, कु ल-समूह , चाकर-नौकर. चार-हरकारे ,
चेटक (बाजीगर), गुन गढ़त-अ यास करते ह, अहन-टहलना, अहन- दनभर, अटन-
भटकना बेटक -बेट पचत-भरते ह. बडवा ग-बडवाि न (समु का अि न) ।

9.3.3 उ तरकांड- का यवाचन : छ द सं या 97

खेती न कसान को भखार को न भीख ब ल


ब नक को ब नज न चाकर को चाकर ।
जी वका वह न लोग सी यमान सोचबस
कह एक एकन सो कहां जाई का कर ।
बेद हू ं पुरान कह लोकहू बलो कयत
सांकरे समै पै राम रावरे कृ पा कर ।
दा रद दसानन दे बाई दुनी द नबंधु

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दु रत दहन दे ख तु लसी हहा कर ।।
संग- क व अपने युग म लेग, महामार , भु खमर आ द के अनेकानेक संकट से
पी ड़त सामा य जन समु दाय को दे खकर अ य त पीड़ा से दुखी होकर ीराम से उनक
मु ि त क ाथना कर रहा है । इस ाथना म लोकजन क पीड़ा का भौ तक संकट है-
यहाँ क व आ याि मक संकट क बात न कहकर भौ तक संकट क मु ि त से ाथना
कर रहा है । यह ाथना अपने लए नह ,ं संपण
ू लोक के दुखी लोग के लए है । वह
कहता है क-
या या- दु भ के कारण मानव समु दाय के ऊपर इतना बड़ा संकट आ गया है क
कृ षक के पास न कृ ष क उपज होती है, भखार को न भीख मल रह है, यवसायी
के लए न यवसाय (वा ण य) क ि थ त है और नौकर पेशे वाले को न नौकर मल
रह है ।
आजी वका र हत समाज के लोग च तावश भयकि पत ह, और एक-दूसरे से वे आपस
म कहते ह, कहां जाएँ और (आजी वका के लए अब) या कर?
हे ीराम! ऐसी दुदशा म वेद पुराण ने बताया है और य -संसार म दे खा भी जाता
है क आपातकाल म हे भु! आपने ह बराबर कृ पा क है । इस समय, दा र य पी
रावण ने संसार को अपने भयंकर भाव से दबा रखा है और उससे उ प न भयंकर
पीड़ा (दहन) दे खकर तु लसी के साथ संपण
ू मानव समाज हाहाकार कर रहा है- आप
सबक र ा कर ।
ट पणी-
1. तु लसी अपने युग क यथाथभर सामा य जन क पीड़ा का वणन करते हु ए उससे
मु ि त के लए ीराम से ाथना करते ह- य क ऐसी वषम प रि थ त म
सहायता का उनके अ त र त अ य कोई आधार नह ं है ।
2. ''कहा जाई का कर '' तु लसी के युग के यथाथ बोध को इं गत करता है ।
3. अलंकार दा रद दसानन दबाई दुनी द नबंध म सांग पक अलंकार है ।
श दाथ- ब नज-वा ण य यवसाय । सी यमान-भय से कि पत, सोच-शोक, साँकरे -
संकट त, दुनी -दु नया -सभी लोग को, हहा कर -हाहाकार करना ।

9.3.4 अयो याका ड - छ द सं या 11

पुरत नकसीं रघुवीर वधू ध र धीर दये मग म डग वै ।


झलक भ र भालकनी जल क पुट सू ख गये मधुराधर वै ।
फ र अ त है चलनो अब के तक पन कु ट क रहौ कत वै ।
तय क ल ख आतु रता पय क अ खया अ त चा चल जल वे ।
संग- क व ने यहाँ सीता क मु धता, मृदुता सु कु मारता एवं कोमलता का च ण कया
है । संग है. अयो या से वन गमन के लए सीता का नगर से बाहर नकलना यह
ऐसी सीता ह िज ह ने वन के जीवन के वषय म सु ना अव य है उनम यथाथत: वन

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क कोई समझ का अनुभव नह ं है । इस कार के वभाव वाल सीता के वन गमन
का वै च य एवं कौतु कपूण वणन करता हु आ क व कहता अयो या नगर से नकलकर
ीराम क या सीता ने आगे धैय धारण करके माग म दो डग (पद यास) रखे ।
दो डग रखते ह , थकावट के कारण पसीने क बू द
ं क माथे पर भरपूर झलक नकल
पड़ी और उनके कोमल सु दर (मधुर ) ह ठो के स पुट (अधराधर: ऊपर तथा नीचे के
ओ ठ) सु ख से गए ।
इस थकान क मु ा म ीराम से वह पुन : पूछती है- अभी कतनी दूर चलना है और
अपनी पणकुट छाकर कहाँ बनाएंगे ।
थकान से भर भोल , सरल (मु ध) प नी (सीता) क आतु रता (ज द बाजी) दे खकर
ीराम क रमणीक आख म जल भर आए और अ ु ब दु टपकने लगे ।
ट पणी-
1. यह छ द मू लत: हनुम नाटक का पा तरण है-
''ग त यमि त मय द यसकृ द व
ु ाणा
ु : कृ तवती
रामा ण थमावतारम ् ।''
क व ने अपने रचना कौशल वारा 'हनुम नाटक' के इस संग को अ य त ना मक
एवं भावशाल बनाया है ।
2. क व का उ े य यहां सीता क मु धता का च ण करके उनके त उनके प त
ीराम के मोह भरे नेह एवं आ मीयता का न पण करना है ।
3. ीराम क यह मु धता पाठक के च त को भी वच लत करती है ।
4. थकान भाव दशा का च ण है- 'ध र धीर हये' म सीता क कोमलता, भालकनी
पद पसीने क ं , हठ
बू द का सू ख जाना, पण कु ट बनाने के त उ सु कता
साि वक दशा से जु ड़े का यक अनुभव ह- ीराम के ने से अ ु ब दुओं का
वगलन सीता के अनुभाव क ेरणा है ।
5. यह छ द छु मल या च कला सवैया म लखा गया है । आठ सगण का होना
इसका ल ण है-सगण- IIS दो लघु तथा एक गु
पुरत नकल ं रघुवीर वधू ध रधी रदये मग म, डग वै ।
IIS, IIS, IIS, IIS, IIS, IIS, IIS, IIS
अलंकार : सू म चे टाओं के वणन के कारण सू म अलंकार तथा वाभा वकता के
कारण वभावोि त अलंकार है ।
श दाथ : पुरत -अयो यानगर क सीमा से बाहर, डग-पद यास. कनी-क णका, पुट -ओ ठ
स पुट- अधराधर-ऊपर तथा दोन ओ ठ, वै-छूकर, वौ-चूने लगीं -टपकने लगीं ।

9.3.5 वनयप का

का यवाचन-छ द सं या 79
दे व! तू दयालु द न ह तू दा न ह भखार ।

22
ह स ं हार ।।1।।
पातक तू पाप पु ज
नाथ तू अनाथ को अनाथ कौन मोसो ।
मो समान आरत न हं आर त हर तो सो।।2।।
म तू ह जीव तू है ठाकु र ह चेरो ।
तात मात गु सखा तू सब व ध हतू मेरो।।3।।
तो हं मो हं नातो अनेक मा नयै जो भावै ।
य य तु लसी कृ पालु चरन सरन धावै।।4।।
संग- ' म तथा जीव' के बीच के स ब ध का कैसे न चय हो, इस लए गो वामी
तु लसीदास वयं ई वर के ऊपर ह अपने और उनके बीच ि थत स ब ध का
प ट करण करना छोड़ दे ते ह । इस करण म उनक शत यह है क िजस स ब ध
म अन त आ मीयता हमारे और आप (माया सत जीव और नमल म) के बीच
ि थर तथा गाढ़ हो सके, वह वीकार कर । वीकृ त का दा य व आपका है- जीव
का नह ं । तु लसी कहते ह-
या या- हे भु! आप द न पर दया करने वाले ह और मु झ स श कोई द न नह ं ह,
आप सबसे बड़े दानी ह और मु झ जैसा कोई द र भखार नह ं है । म तो जीव के
प म सबसे बड़ा पापी हू ँ और आप पाप समू ह को न ट करने वाले भु ह।।1।।
हे भु! आप अनाथ के (र क) वामी ह और मु झ जैसा अनाथ और कौन होगा? मेरे
स श (क ट से) पी ड़त कोई नह ं है और आप स श पीड़ाओं को दूर करने वाला अ य
कोई नह ।ं ।2।।
आप वयं म ह और म आपसे ह जु ड़ा (अन य) जीव हू ँ और आप मेरे वामी है,
म आपका सेवक हू ँ । आप मेरे पता-माता, गु , सखा ( म ) तथा मेरे सभी कार से
हतैषी ह।।3।।
हे कृ पालु भु! आपके और मेरे बीच अनेकानेक र ते ह- जो र ता आपको भला लगे-
उसे ह आप वीकार कर ल, ता क जैसे- भी हो, यह सेवक तु लसी आपके चरण म
शरण ा त कर सके।।4।।
ट पणी-1. ीराम म और भ त तु लसी येक वक प म ीराम के चरण म
आ य ा त करना चाहते ह-
दयालु भु द न तु लसी
दा न भु भखार तु लसी
अनाथ के नाथ भु अनाथ तु लसी
संकट ह ता भु संकट त तु लसी
मराम जीव तु लसी
वामी राम सेवक तु लसी
इन स ब ध के बीच तु लसी ीराम के अ त र त अपनी अन यता अ य कह ं भी नह ं
दे ख पाते ।

23
2. म यकाल न भि त, दा याभि त, सा यभि त, वा स याभि त आ द प म
या या यत है और तु लसी- 'तात मात गु सखा' के मा यम से उसक यंजना
करते हु ए भु से भि त क आ मीयता जोड़ते ह- म-जीव स ब ध म उ ह
मु ि त का य नह ं है । यहाँ वा स य, ेमरस, स य के भाव मु ख ह । तु लसी
ी के व प म पूर तरह से बँधकर उनक आ मीयता ा त करना चाहते ह- उ ह
ीराम क भि त चा हए- मु ि त नह ं ।
3. 'म ह तो हं नातो अनेक' वारा म-जीव के सम स ब ध क चचा क जा रह
है अथात ् लोकाथ एवं परमाथ' का ताि वक संकेत इन पंि तय का अभी ट है ।
भु िजस भाव से वीकार करना चाह वीकार कर- यह उन पर क व छोड़ रहा है।
यह पद तु लसी क पि तमू लक भि त के े ठ उदाहरण म से एक है । वृि त का
अथ है, भु के त भ त का अन य समपण ।
श दाथ- पातक -पापी, आरत (आत)-कि टत, चेरो-दास ।

9.3.6 का यवाचन-छ द सं या 90

ऐसी मुढता या मनक ।


प रह र राम भग त सु र स रता आस करत ओसकन क ।।1।।
धू म समूह नर ख चातक य तृ षत जान म त घन क ।
न हं तहँ सीतलता न बा र पु न हा न हो त लोचन क ।।2।।
य गच काँच वलो क सेन जड़ छॉह अपने तन क ।
वत अ त आतु र अहार बस छ त बसा र आनन क ।।3।।
कंह लै कहौ कु चाल कृ पा न ध जानत ह ग त जनक ।
तु लसी भु हरहु दुसह दुख करहु लाल नज पन क ।।4।।
संग- क व इस सांसा रक माया म ल त जीव के मन क उस छूता (अ ववेक) का
वणन करता है- जो लोक के अस य को अि तम प से स य मानकर जीवनभर उसी
क कामना म संल न रहता है । क व लोक जन के म यास य का उपहासपूण व वध
टा त के साथ वणन करता हु आ उसका उपहास करता है । अहम,् अ ान एवं
म या व के कारण मानव संसार क भौ तकता को स य मानकर उसके लए जीवन
भर पंच करता रहा है । क व अ ान से मु ि त के संदभ को प ट करता हु आ कहता
है क-
या या- इस मन क ऐसी कु छ जड़ता है क वह ीराम क भि त पी दे वनद गंगा
जल का प र याग करके अपनी यास बुझाने के लए ओस क बू द
ं क आशा कए
बैठा है।।1।।
धु एँ के समू ह को दे खकर चातक प ी यास के कारण मवश बादल समझ लेता है-
(जब उसे ा त करने क चे टा करता है) तो न वहाँ (धु एँ के समू ह म) न तो शीलता
है, न जल है और उ टे उसके ने क ह हा न होती है।।2।।

24
िजस कार मू ख बाज प ी भू म पर पड़े शीशे म अपने त ब ब को दे खकर अ य त
आतु र- भाव से आहार क ाि त के लए उस पर टू ट पड़ता है और उसे अपने मु ख क
त का ान नह ं रहता।।3।।
हे कृ पा न ध! म अपने दु कम का कह ं तक वणन क ँ । आप इस दास (जन) क
चे टाओं को भल भाँ त जानते ह । हे नाथ! अपनी (भ त र क होने क ) मयादा को
दे खते हु ए हमारे असहनीय संकट को दूर कर।।4।।
ट पणी- माया त जीव क मा मक मन:दशा का क व च ण करता हु आ- ीराम से
अपनी मु ि त क ाथना करता है । माया तता को समझाने के लए वह चातक और
बाज प ी क छूता का टा त दे ता है ।
अलंकार- टांत अलंकार है ।
श दाथ- प रह र- याग करके, ओसकन- ओस क बूँद, गच-टु कड़ा, छ त-चोट।

9.3.7 का य वाचन - छ द सं या 105

अबल नसानी अब न नसैह ।


रामकृ पा भव नसा सरानी जागे फ र न डसौह ।।1।।
पायेउ नाम चाह चंताम न उर करते न खसैह ।
याम प च चर कसौट चत कंचन हं कसैह ।।2।।
परबस जा न हाँ यो इन इि न नज बस है न हाँसैह ।
मन मधु कर पनकै तु लसी रघुप त पद कमल बसैह ।।3।।
संग- मा यक यथाथ का वा त वक बोध हो जाने पर जागृत क मन:दशा से जु ड़ा
साधक जीव ( यि त) अब पुन : माया म न फँसने का यहाँ संक प लेता है । जीवन
भर माया को स य मानकर उसक अनेकानेक यातनाओं को भोगने वाला यह जीवन
अब जा त हो चुका है । यह जागृत जीवदशक क भाँ त संसार को एक य जैसा
वीकार करता हु आ कहता है क-
या या- अब वा त वकता का ान हो चु का है- अब तक मा यक म या संसि त म
िजतना भी जीवन न ट हो चु का है- उसके आगे अब उसे नह ं न ट होने दूं गा । ीराम
क कृ पा से सांसा रक माया पी रा समा त हो हो चु क है- अब जग चु का हू-ँ पुन :
अब सोने के लए बछौने नह ं लगाऊँगा।।1।।
मने ीराम के नाम पी म ण को ा त कर लया है और मायास त होकर पुन : उसे
दय- पी हाथ से नह ं गरने दूँ गा । ीराम का यामवण कसौट है और अब अपने
च त पी वण को उसी पर कस-कसकर उसक े ठता क जाँच करता रहू ँ गा।।2।।
इन इि य ने सदै व मेरे च त को दूसरे के वश (माया के वश) म समझ-समझ कर
मेरा उपहास कया है, अब पुन : अपने को उनके वश म करके उपहास नह ं कराऊँगा।।
ान हो जाने के बाद तु लसी कहते ह क वह ण करके अपने मन पी मर को
ीराम के पद कमल म नर तर नवास कराते रहगे।।3।।

25
ट पणी- 1. जीव क च त जागृ त के बाद उसक ववेकशि त आ याि मक होकर भु
ीराममय हो उठती है । ीराम क कृ पा से सांसा रक माया- पी रा क समाि त के
बाद पुन : जागृत जीव उसम नह ं फँसना चाहता । यहाँ इस पद म तु लसी वयं अपनी
इसी मनोदशा का च ण करते ह ।
अलंकार- '' याम प च...... कसैह '' म सांग पक अलंकार है ।
''मनमधुकर.. ...... ...बसैह '' पर प रत पक अलंकार है ।
( मर का कमल म आ य लेना एक पर परागत मा यता है, इस लए पर प रत पक
अलंकार है।
श दाथ- सरानी-समा त हो गई, डसैह - सोने के लए ब तर लगाना, खसैह - गराना
कसौट -सोने क शु ता क जाँच क कसौट , पनकै- ण करके ।

9.3.8 का यवाचन - छ द सं या 111

केसव क ह न जाइ का क हये ।


दे खत तव रचना व च ह र समु झ मन हं मन र हये।।1।।
सू य भी तपर च रं ग न हं तनु बनु लखा चतेरे ।
धोये मटइ न मरइ भी त दुख पाइय यह तन हे रे।।2।।
र वकर नीर बसै अ त दा न मकर प ते ह माह ं ।
बदनह न सो सै चराचर पान करन जे जाह ।ं ।3।।
कोउ कह स य झू ठ कह कोऊ जु गल बल कोउ मानै ।
तु लसीदास प रहरै तीन म सो आपन प हचानै।।4।।
संग- क व यहाँ संसार के म या व का कू टा मक (रह यमयी) वणन कर रहा है ।
संसार के म या व का वणन करने के लए कबीर आ द स त ने कू टा मक शेल का
बराबर योग कया है । उसी शैल म यहाँ भ त क व तु लसीदास भी संसार के
आ चयपूण म या व का तीका मक वणन कर रहे ह । वह कहते ह क-
या या- माया से त यह म या संसार कतना आ चयपूण है, हे केशव! यह कहा
नह ं जाता अथात ् म वणन करने म असमथ हू ँ । हे ह र! आपक अ य त व च ता
भर सृि ट रचना को दे खकर मन ह मन चु प होकर रह जाना पड़ता है।।1।।
यह संसार पी च बनाया तो गया है क तु इस च के लए कोई आधार ( भि त
फलक) नह ं है । इस च म कोई रं ग नह ं है तथा च कार भी बना शर र का है ।
ये च धोने से मटते नह ं और इसे मृ यु का नर तर भय या त रहता है तथा
इसक ओर दे खने पर नर तर क ट उ प न होता रहता है।।2।।
सू य क करण के जल म (जल क मर चका मे) मृ यु (काल) पी एक भयंकर मगर
नवास करता है । वह मगर मु खह न है क तु सचराचर जो इस मृगमर चका का पान
करने जाता है, वह उसका भ ण करता रहता है।।3।।

26
हे भु! आपक इस सृि ट रचना को कोई स य कहता है, कोई अस य कहता है, कोई
इसे युगल अथात ् दोन अथात ् स यास य मानता है । तु लसीदास जी कहते ह क इन
तीन म (स य, अस य एवं स यास य) का प र याग कर दे ने के बाद ह उसे सह -
सह समझा जा सकता है।।4।।
ट पणी-
1. इस पद म कूट अलंकार है- कूट का अथ है- या या म तीका मक ज टलता और
यह ज टलता पहे ल क भाँ त है- समझ लेने पर इससे व च ता भरा आन द
मलता है । इस कू टा मक वणन के वारा क व शू यवा दय क भाँ त संसार का
वणन करता है, उसके अनुसार यह अनुभव का वषय है क तु उसक या या नह ं
क जा सकती- जैसा न मानकर अ वैतवेदा तवा दय क भां त कहता है क यह
संसार तीत होता है क स य है क तु सवथा म या तथा अस य है ।
2. येक च के लए एक फलक चा हए, एक च कार का यि त व चा हए, च
मटाने पर मटना चा हए, च को दे खकर आन द मलना चा हए- क तु क व
कहता है क यह संसार एक च है- क तु आधार र हत है, इस च का च कार
दखाई नह ं पड़ता, इस च को रं गा नह ं गया है, कसी भी तरह इस च को
न ट नह ं कया जा सकता और इस च को दे खने पर आन द के थान पर
क ट होता है ।
इस संसार म बना जल के अथात ् म या मर चका पी मा मक अस य म मृ यु
पी एक मगर रहता है और वह सम त ा णय का भ ण करता रहता है- अथात ्
काल दे वता इस संसार को नर तर खाते रहते ह- असहाय लोग उ ह दे खते रह जाते
ह।
व वतजन इस संसार को अ वैत, वैत एवं वैता वैत आ द नाम से पुकारते ह क तु
वह उनसे सवथा वल ण है ।
इस सृि ट क वल णता को क व तु लसी कू ट क अलंका रक शैल म वल णता के
प म य त करते ह ।
3. बना कारण के काय का घ टत होना- वभावना अलंकार है । इस कू टा मक वणन
का आधार वभावना अलंकार है । मु खह न मगर का सबको ास बना लेना बना
कारण के काय है ।

9.3.9 का यवाचन - छ द सं या 174

जाके य न राम वैदेह


तिजये ता हं को ट बैर सम य य प परम सनेह ।।1।।
त यो पता लाद वभीषन बंधु भरत महतार ।
ब ल गु त यो कंत ज ब नति ह भये गुद मंगलकार ।।2।।
नाते नेह राम के म नयत सु हद सुसे य जहाँ ल ।

27
अंजन कहा ऑ ख जे ह फूटै बहु तक कहौ कहाँ ल ।।3।।
तु लसी सो सब भाँ त परम हत पू य ान ते यारो ।
जैसो होय सनेह रामपद एतो मतो हमारो।।4।।
संग- भु ीराम ह माता, पता, ब धु, गु , सखा वामी ह- और संपण
ू सांसा रक
स ब ध केवल उ ह ं से जु ड़े होने के कारण साथक है- अ यथा ये संपण
ू लोक स ब ध
म या ह । य द ीराम से जु ड़कर कोई नाता- र ता (स ब ध) नह ं बनता तो वह
स ब ध यथ है- अत: हम जैसे भ त के लए और संसार के लए केवल उ ह ं का
स ब ध साथक है । वह कहते ह क -
या या- िजसे ीराम तथा माता सीता य नह ह- उसे को ट-को ट श ु के स श
याग द- चाहे वह कतना ह घ न ठ य न हो।।1।।
उसी करण म, हलाद ने पता का, वभीषण ने भाई का और भरत ने माता का
याग कर दया था । ब ल ने गु का, ज ब नताओं ने अपने प तय का याग करके
मंगलमय जीवन यतीत कया।।2।।
जहाँ तक यि त के भ न एवं सु से य होने का न है वह सब ीराम के ह
स ब ध से ह संभव है- म अ धक या कहू-ँ उस अंजन को ने म लगाने से या
फायदा- िजससे आँख ह फूट जाएँ अथात ् उस स ब ध से या लाभ िजससे लोक
परलोक दोन न ट हो जाएं ।
गो वामी तु लसीदास जी कहते ह क मेरा अपना मत है क वह परमपू य, हतैषी एवं
ाण से भी अ धक य है, िजसके कारण ीराम के चरण म आ मीय नेह जागृत
हो।।4।।
ट पणी- क व व वध उदाहरण वारा यह स करने क चे टा कर रहा है क
भ तगण केवल ीराम के चरण म आस त ह और य द उनके लए कोई भी बाधक
हु आ तो उसे यागने म कोई संकोच नह ,ं वह चाहे िजतना अ धक य तथा हतैषी
य न हो ।
अलंकार- टा त अलंकार है । लाद वभीषण, भरत आ द के टा त के वारा
क व अपने म त य को स करता है ।

9.3.10 का यवाचन - छ द सं या 162

ऐसो को उदार जग माह ं ।


बनु सेवा जो वै द न पर राम स रस कोउ नाह ं।।1।।
जो ग त जोग बरल जतन क र न हं पावत मु न वानी ।
सो ग त दे त गीध सबर कहे भु न बहु त िजय जानी।।2।।
जो स प त दससीस अर प क र रावन सव प ह ल ह ।
सो स पदा वभीषन कह अ त सकु च स हत ह र द ह ।ं ।3।।
तु लसीदास सब भी त सकल सु ख जो चाह स मन मेरो ।

28
तौ भजु राम काम सब पूरन करै कृ पा न ध तेरो।।4।।
संदभ- व वध उदाहरण वारा क व ीराम क अकारण उदारता का च ण करता हु आ
लोक को उनक भि त के लए े रत कर रहा है । उसके अनुसार लोक और
लोकसंसि तय क पूणता आन द का वषय नह ं है- लोक संसि तयाँ तो म या ह,
आन द का मू ल वषय ीराम क भि त है- क व कहता है क-
या या- हे भु ीराम । आपके दूसरा स श और कौन ऐसा उदार है (अथात,् कोई
नह )ं । ीराम के अ त र त इस संसार म कोई अ य दे व नह ं है- जो द न-दु खय पर
अकारण बना कसी सेवा के वत हो।।1।।
ानी मु नजन योग-वैरा य के य न वारा जो दुलभ ग त नह ं ा त कर सके, उस
े ठ दुलभ ग त को ग और शबर जैस को ीराम दय म यह समझ कर दे ते ह
क यह बहु त अ धक कु छ नह ं है।।2।।
अपने दस मु ख को अ पत करके शव से जो स पि त रावण ने ा त क थी, उस
स पदा को ीराम ने दय म अ य त संकोच करते हु ए शरणागत वभीषण को दया
था।।3।।
हे मेरे मन! य द तु म सभी तरह के अतु लनीय और आ यि तक आन द चाहते हो- तो
गो वामी तु लसीदास कहते ह क सम त कामनाओं को पूण करने वाले ीराम का
भजन करो और कृ पाशील ीराम नि चत ह उसे पूरा करगे।।4।।
ट पणी-
1. क व ीराम क असहज दयालु ता एवं दानदाता के प म उनके संकोची वभाव क
चचा करता है ।
2. क व नदशना एवं टांत अलंकार के मा यम से अपने आरा य ीराम क सहज
कृ पालु ता के भाव को व णत करता है ।
3. आ यि तक आन द एवं आ याि मक सु ख क ाि त के लए भटकने वाले
यि तय को क व ीराम क भि त के लए े रत करता है ।
श दाथ- जतन-य न- य नपूवक , अर प-अ पत करके ।

9.3.11 का यवाचन - छ द सं या 101

जाउँ कह तिज चरन तु हारे ।


काको नाम प तत पावन जग के ह अ तद न पयारे ।।1।।
कौने दे व बराइ वरद हत ह ठ ह ठ अधम उधारे ।
खग मृग याध पशान वटप जड़ जवन कवन सु र तारे ।।2।।
दे व दनुज मु न नाग मनुज सब माया बबस बचारे ।
तनके हाथ दास तु लसी भु कहा अपनपौ हारे ।।3।।
संग- भु ीराम क शरणाग त म जाने का आधार ता कक भी हो सकता है- क तु
यहाँ ाना मक ता ककता का नषेध करके वह भावा मक आधार के वारा लोकजन

29
को ीराम क शरणाग त म जाने का आ ह करता है । भावा मक आधार है भ त
वारा न कपट होकर भु ीराम क उदारता, दया, कृ पा, भ त व सलता के त
सम पत होना । वह कहता है क-
या या- हे भु! तु हारे चरण का आ य यागकर म अ य कहाँ जाऊं । इस संसार
म और कसका नाम 'प तत पावन' है और कसे द न दुखी य ह।।1।।
आपके अ त र त कस दे वता ने अपनी व दावल को बचाते हु ए अ यंत हठपूवक
पा पय का उ ार कया है । (मनु य को तो छो ड़ये) आपके अ त र त कस दे वता ने
जटायु प ी, र छ वानर, मृग ( वणमृग मार च), पाषाण (अह या), यमलाजु न वृ ,
आ द िजसका- कसका तरण तारण नह ं कया है।।2।।
हे भु! आपके अ त र त िजतने भी दे वता, दानव, मु न, नाग तथा मनु य है, आपक
माया से ह ववश ह, फर इनके सम आ मसमपण कैसा?।।3।।
संदभ-
1. ीराम ने िजन प तत का उ ार कया है- उनम से पशु, प ी, प थर, मृग , भालू-
वानर आ द ह- जो जड़ता के कारण मु त नह ं हो सकते ह- क तु आपने उ ह
मु ि त दे कर अश य को श य बना दया है ।
पका त योि त अलंकार के प म- खग, मृग , याध, पषान, वटप आ द श द यु त
ह- िजनके न हताथ ह- जटायु, मार च, या -वा मी क, पाषाण-अह या आ द ।
श दाथ - बराइ-बचाकर, जवन-कवन- िजसका- कसका, अपनपो- अपने आप से ह ।

9.4 वचार संदभ / श दावल


1. मसीत — मि जद
2. कूट — या या मक ज टलता जो पहे ल जैसी होती है ।
3. गच कांच — शीशे का टु कड़ा
4. सेन — बाज प ी
5. दा य भि त — ई वर को वामी एवं वयं को सेवक मान कर क गई
भि त
6. स य भि त — ई वर को अपना म मान कर क गई भि त ।
7. बंबा मक — तीक के प म च त ।
8. लोक — लोक का हत चाहने वाल , समाज र क
हतै षका
9. उपहास — मजाक उड़ाना
10. वल णता — व च ता, अ वतीयता
11. चेटक — बाजीगर
12. अवधू त — औघड़ स यासी
13. आ यं तक — अ य धक, गाढ़

30
14. तीन म — संसार को कोई स य, कोई असल तो कोई स यास य
कहता है। तु लसी क ि ट म ये तीन म है।
15. कूटा मक — रह या मक
16. पातक — पापी
17. आ त — दुःखी , क ण
18. सी यमान — भय से कांपता हु आ
19. पाषाण — प थर
20. वटप — वृ

9.5 सारांश/मू यांकन


तु लसीदास म यकाल न रामभि त शाखा के सव े ठ क व ह। इनका जीवनकाल
अनुमानत: सन ् 1532 ई. से 1632 ई. के बीच अनुमा नत है। इनक रचनाओं म आए
उ लेख से ात होता है इनका बचपन भयंकर द र ता म बीता। शायद भु तभोगी
यथाथ के कारण ह वे लख सके ''आ ग बइवा गते बड़ी है आ ग पेट क ।'' कदा चत
यह वजह है क भू ख, यास से याकुल जन क पीड़ा को महसूस कर सके ह और
लख सके ह। कलयुग के पतनशील समाज के समाना तर ऐसे रामरा य क क पना
जहां कोई द र न हो, दुःखी न हो, द न-ह न न हो यहाँ तक क मू ख भी न हो।
तु लसी क वैकि पक तावना है। वे एक तरह से आ याि मक तर पर समाजवाद क
पृ ठभू म तैयार करते दख पड़ते ह। 'तु लसी ममता राम सो, समता सब संसार।' तु लसी
का राम से गहरा ेम रखना एवं क याणकार रा य का आदश उपि थत करना कसी
न कसी मा ा म उनक जनतां क भावना का धौतक है। दोहावल म आदश राजा क
प रक पना करते हु ए तु लसी कहते ह, वह जा सौभा यशाल है िजसका राजा सू य क
तरह आचरण करने वाला है, सू य जब जल सींचता है तब कसी को पता भी नह ं
चलता, वह जल बरसाने क या से जु ड़ा है। पानी बरसता है, सब स न होते ह,
ेय बादल को मलता है। सू य का काम है अपना कत य पूरा करना, ेय पाना नह ं।
'क वतावल ' म त युगीन समाज के संकट को क व ने खु ल आँख से दे खा है और
इससे मु ि त पाने के लए अपने आरा य को मरण कया है। महा मा बु के बाद
सचमु च तु लसीदास उ तर भारत के सबसे बड़े लोकनायक थे िजनक क वता म आ द
से अंत तक सम वय क वराट चे टा है।
तु लसीदास के वनय-प का राजा राम के दरबार म द जाने वाल अज है। इस अज
म तु लसी युगीन राजनी तक, धा मक, सां कृ तक, सामािजक और आ थक प रि थ तय
का ह च ण है। तु लसीदास जब कहते ह क समाज म स जन दुःखी है, स जनता
चंता त है और इसके समाना तर दुजन का उ साह बे हसाब बढ़ गया है तो उनक
वेदना म लोक वेदना का वर सु नाई पड़ता है। '' सदत साधु, साधु ता सोच त, खल
बलसत, हु लस त खलाई है।।'' तु लसीदास का इन वषम प रि थ तय म अपने अरा य

31
से कृ पा का आ ह करना मानव मू य म आ था कट करना है । डॉ. हजार साद
ववेद के श द म ' 'तु लसीदास ने महान ् जीवन मू य म आ था नह ं छोड़ी थी ।
लगता है, उनके समकाल न अ धकांश लोग ने भी नह ं छोड़ी थीं, पर आज? आज भी
छोड़ने क ज रत नह ं है । ''इस कार वतमान युग म भी तु लसी के सा ह य का
अ ययन ासं गक है ।

9.6 अ यासाथ न
नब धा मक न
1. गो वामी तु लसीदास का जीवन एवं रचनाकार यि त व शीषक से एक नबंध
ल खए ।
2. तु लसी के समाज दशन क ववेचना प ठत पद के आधार पर क िजए ।
3. मनु य के मन क मू ढ़ता का वणन क व ने कन श द म कया है? माया का
बोध हो जाने पर भ त या करता है?
4. संसार क न सारता का वणन कस प म करना है? सोदाहरण ल खए ।
5. राम क उदारता व णत करते हु ए क व या कहता है?
लघु तरा मक न
1. छ द सं या 1 का संग तीन पंि तय म ल खए
2. छ द सं या 2 म कौन से अलंकार ह लख-
3. छ द सं या 4 का ता पय चार पंि तय म लख-
4. ई वर तथा जीव के बीच कस- कस कार के स ब ध ह, चार पंि तय म प ट
कर-
5. इस संसार क मा मक व च ता का वणन 6 पंि तय म कर-
6. भु ीराम के वभाव का चार पंि तय म वणन कर-
7. भु ीराम क उपे ा करने वाल का याग कन- कन भ त ने कया है । चार
उदाहरण द
नदश : इन न के उ तर के लए दे ख क वतावल उ तरका ड छ द सं या 105,
96, 97, तथा अयो याका ड 11, वनयप का 79, 90

9.7 संदभ ंथ
1. संपा0 योगे ताप संह, क वतावल - जयभारती काशन, क टगंज, इलाहाबाद
2. संपा0 योगे ताप संह, वनयप का- लोकभारती काशन, ववेकानंद माग,
इलाहाबाद

32
इकाई-10 तु लसीदास के का य का अनुभू त और
अ भ यंजना प
इकाई क परे खा
10.0 उ े य
10.1 तावना
10.2 का यानुभू त प
10.3 का यानुभू त का आधार
10.4 तु लसी क आ मानुभू त के व वध प
10.4.1 ीराम के त न ठा
10.4.2 तु लसी का सामािजक संकट बोध
10.4.3 मह तम आदश तथा मू य के त संसि त
10.4.4 लोकादश : रामरा य क क पना
10.4.5 तु लसी क लोक सम वय साधना
10.5 अ भ यंजना प
10.5.1 का य प
10.5.2 वधान ि ट
10.5.3 तु लसी का श प वधान तु लसी क भाव योजना
10.5.4 तु लसी का सम रचना कौशल
10.5.5 तु लसी का अलंकार वधान
10.5.6 तु लसी क का य भाषा
10.6 श दावल वचार स दभ
10.7 सारांश
10.8 अ यासाथ न
10.9 स दभ थ

10.0 उ े य
इस इकाई का अ ययन करने के बाद आप-
 गो वामी तु लसीदास क कृ तय और उनके ेरणा ोत को समझ सकगे ।
 गो वामी तु लसीदास क भि त, दशन तथा सामािजक वचारधारा को जान सकगे ।
 उनक रचना मक वशेषताओं क जानकार ा त कर सकगे ।
 गो वामी तु लसीदास वारा यु त व वध का य प एवं उनक शै लय का ान
ा त कर सकगे ।
 उनके का य सौ दय तथा रचना वधान क जानकार ा त कर सकगे ।
 उनके योगदान- 'लोक सम वय' को समझ सकगे ।

33
10.1 तावना
गो वामी तु लसीदास का युग भारतीय सं कृ त के संकट का युग था इस घोर संकट
काल म गो वामी जी ने संपण
ू समाज को ीराम क भि त से जोड़कर एक करने का
संक प लया था । गो वामी तु लसीदास क कृ तय म सव ीराम ह- केवल 'पावती
मंगल' का य को छोड़कर । उस समय लोक च लत शैवमत के आरा य शव तथा
वै णव धम के आरा य ीराम को गो वामी तु लसीदास ने जोड़ने का मह वपूण काय
उ ह एक मंच पर ले आकर कया था । अपनी ीराम क भि तभावना से लोक को
जोड़ने के लए इ ह ने ' ीरामच रतमानस' जैसे कालजयी महाका य क रचना क तथा
वनयप का, क वतावल स हत अपनी अ य रचनाओं के वारा संपण
ू म यकाल न
समाज को राममय बनाया । इ ह ने लोक जीवन के लए आदश तथा नी त न ठा का
माग श त कया तथा रामरा य' क थापना वारा लोक क याण क मंगलमय
उ ावना क । इनक सम सा हि यक कृ तयाँ लोक क याण तथा भि त क अनुभू त
से ओत ोत मानव समाज के हतवधन से स ब ह । सा हि यक पर परा के प म
गो वामी जी ने अपनी पूववत सम त का य बो लय तथा का य प का योग करते
हु ए ह द का य रचना के मानक क थापना क और इस प म वतमान युग म भी
उनक कृ तयाँ लोकादश तथा सा हि यक सजगता के माण के प म वीकार क
जाती ह । गो वामी तु लसीदास जी क सबसे बड़ी वशेषता है- लोकजीवन तथा
आ याि मक न ठा का सम वय-ता क समाज म स य, ेम, दया, ममता, समाज क
जीवनर ा आ द मू य का वकास हो सके । गो वामी जी समाज के इन े ठतम
मू य क थापना के लए आजीवन संक पब रहे और उनक सम कृ तयाँ इसके
लए े ठतम माण है ।

10.2 का यानु भू त प : का यानु भू त का अथ


क व का रचना-संसार उसक अपनी अनुभू त ि ट से जु ड़ा है । वह कसी वश ट
काल ख ड म या अनुभव करता है और उनका यह अनुभव उसे सृजन के लए कैसे
े रत करता है, उनका अपना नजी एवं वैयि तक करण है । वह िजस रचना संसार
का अनुभव करता है- वह है तो उसी क अनुभू त का प क तु रचना या क वता के
प म कट होने पर उसक यह अनुभू त लोक क अनुभू त का अ भ न अंग हो जाता
है । तु लसी के राम, राम क कथा, कथा के व वध पा के साथ तु लसी के क व दय
का तादा य होता है । वे अ भ यि त के पूव तु लसी के दय एवं क पनालोक के राम
है क तु का य के प म य त होने पर वह तु लसी के राम सारे समाज और लोक
जगत के राम वन जाते ह । जो भी पाठक, ीरामच रतमानस के अ ययन म त पर
होता है- वह गो वामी तु लसी क ह भावदशा म पहु ँ चकर राममय हो उठता है ।

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अत: का यानुभू त का अथ है- क व के दय लोक क वह नरपे अनुभू त जो का य
रचना के पूव क व क अपनी है और का य रचना क पूणता के बाद वह संपण
ू पाठक
तथा ोता समाज का अनुभव हो जाता है ।

10.3 का यानु भू त का आधार : तु लसी का रचना संसार


गो वामी तु लसीदास कृ त 'पावती मंगल' तथा 'दोहावल ' को छोड़कर शेष कृ तयाँ
रामकथा पर आधा रत ह । 'पावती मंगल' म शव ववाह क कथा है तथा 'दोहावल '
लोकनी त, भि त, आदश आ द से जु ड़ा मु तक का य है । उनके जीवन म के
अनुसार उनक रचनाएँ इस कार ह :-
1. ारि भक जीवन काल क रचनाएँ- रामलला नहछू, रामा ा न, जानक मंगल
2. म यकाल न जीवनकाल क रचनाएँ- पावती मंगल, ीरामच रतमानस, बरवै
रामायण
3. जीवनकाल क तृतीय अव था क कृ तयाँ- ीकृ ण गीतावल , राम गीतावल
4. जीवनकाल क अि तम अव था क कृ तयाँ- वनयप का, दोहावल , क वतावल ,
हनुमानबाहु क । व ान के अनुसार उनक पहल कृ त रामलला नहछू तथा अि तम
कृ त हनुमानबाहु क है ।
इस कार उनक कु ल कृ तय क सं या बारह बताई जाती ह । इन कृ तय क मू ल
चेतना ीराम क भि त है । यह भि त लोक परलोक सभी प के लए उपयोगी एवं
र क है । ीराम क भि त मनु य, पशु प ी, दे वता सभी के लए अभी ट है और
सभी इसके वारा मु ि त तथा आ याि मक आन द ा त कर सकते ह । तु लसी क
का यानुभू त को व ले षत करने का आधार उनक यह कृ तयाँ ह और उनके जीवन के
वतीय चरण म उनक अनुभू त क प रप तता तथा पूण झलक ीरामच रतमानस
जैसी कृ तय म दखाई पड़ती है ।''

10.4 तु लसी क आ मानु भू त के व वध प


तु लसी क आ मानुभू त के व वध प ह- कारण प ट है वे जीवन के वृह तर
आयाम को लेकर चलने वाले भि त का य के सव े ठ क व ह । सव थम तो वयं
अपने को लोक के त ीराम के मा यम से सम पत करते ह । ीरामभि त उनक
आ मानुभू त का व श ट अंग है- उ ह ने जीवनभर ीराम के अ त र त और कसी को
नह ं दे खा और दे खा भी तो ीराम से ह सबको जोड़कर उनक न ठा के एक मा
आधार ीराम ह है ।
तु लसी क आ मानुभू त का दूसरा प युग के संकट का बोध और उस युग क
सामा य जनता क भौ तक तथा आ याि मक आ द संकट पर अपना स पूण यान
उ ह ने केि त कया है । अ त होती हु ई भारतीय लोक अि मता क र ा का संक प
और जीवन भर उसके लए वैचा रक प से संघषरत रहना उनक आ मानुभू त का
वश ट प ह । लोकजीवन के त उनक अपनी आि मक छटपटाहट वनयप का,

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दोहावल , क वतावल एवं ीरामच रतमानस आ द म दे खी जा सकती ह । क लकाल से
त मानव समाज, लू ट, आतंक, शोषण से परे शान लोक जन तथा महामा रय से
त तथा तड़पते हु ए जनजीवन को तु लसी नर तर ह ीराम क भि त का संदेश
दे ते रहे ।
भारतीय सं कृ त के शु भतम मू य के त न ठा तथा क व के प म उसके बचाव
के उपाय क च ता करना उनक आि मक पीड़ा का सवा धक मह वपूण ल ण है
और गो वामी तु लसीदास समाज को आय सं कृ त के े ठतम मू य तक पुन :
पहु ँ चाना चाहते थे । रामरा य क प रक पना उनक इसी अवधारणा का अंग है ।
समाज के संपण
ू मानवीय स ब ध को था पत करने के त उनम नर तर च ता
दखाई पड़ती है । लोक स ब ध एवं जीवन नवाह प त के त उनका आदश
च तन वशेष मह वपूण है । आदश तथा शु भ मू य क थापना के लए उनक
क वता म उनका य न नर तर व यमान है ।
तु लसी क एक मह वपूण च ता समाज के बखरने एवं टू ट जाने क थी ।
साम तवाद वग जा का शोषक था और जा आ य वह न उस शि त स प न वग से
शा सत थी- रामरा य क प रक पना के मू ल म रा य- जा के बीच या त दूर को
समा त करना उनका मू ल ल य था । इसी के साथ उनका सम वयभाव भी उनक
आ मानुभू त से जु ड़ी एक मह वपूण अवधारणा थी य क उनके युग म इस संकट ने
संपण
ू समाज को तोड़कर ववश बना दया था । तु लसी क आ मा भ यि त से उनके
युग का संकट बोध नर तर जु ड़ा दखाई पड़ता है । तु लसी एक ओर ीराम के त
सम पत भ त थे तो दूसर ओर उसी न ठा से समाज क याण के त भी सम पत थे
। वे आगे चलकर लोकक याण को पूर तरह से ीरामभि त से जोड़ दे ते ह ।
इस कार, हम य द गो वामी तु लसीदास क आ मानुभू त को ब दुओं के मा यम से
रखना चाह तो वे इस कार ह :-
1. ीराम के त संपण
ू न ठा से समपण
2. सामािजक संकट बोध के त सजगता
3. मह तम आदश तथा शु भ तम मू य के त संसि त
4. लोक का सव े ठ मांग लक आदश : रामरा य क प रक पना
5. तु लसी क लोक सम वय भावना
अपनी भि त तथा अपने आरा य ीराम के पावन च र एवं स ब रामकथा के पा
के मा यम से वे समाज के यापक संकट का अनुभव करते हु ए मानव समाज को
उससे मु त रखने के लए नर तर संघषरत रहे ।

10.4.1 ीराम के त न ठा

गो वामी तु लसी के कृ त व क सबसे बड़ी वशेषता है, ू त:


ीराम क भि त से संपण
संस त एवं उनक सवाग न ठा के प म उसक अ भ यि त । गो वामी जी का
सम जीवन एक ओर भि त के लए सम पत था तो दूसर ओर सृजन के लए ।

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उनक 'भि त तथा सृजन ' के पर पर भ न- भ न ब दु नह ं थे । ीराम के त
आ मीय भि त छटपटाहट और उस छटपटाहट को य त करने का एकमा उपाय'
उनक क वता- इ ह ं दोन के बीच उ ह ने अपना सारा जीवन यतीत कर दया ।
ज म से आ य- वह न, समाज म ारि भक काल से ह तर कृ त के लए ीराम के
ह आ य से तु लसी जीवन भर उनके अ त र त और कसी को भी नह ं वीकार कया-
ीराम के सम पत उनक क वता उ ह ं के लए है । वनयप का क क वताओं को
दे खकर ऐसा तीत होता है क वे ीराम को एक प का लखकर अपनी संपण
ू पीड़ा
क अ भ यि त करना चाहते ह, उ ह पढ़ाना-सु नाना चाहते ह, अपनी आ मीयता य त
करके वे ीराम का होना चाहते ह और यहाँ अपनी आ था तथा भि तमूलक संवाद म
पूर तरह सफल भी होते ह ।
का य सजन य द सजक क अंतरं ग पीड़ा क न वशेष अ भ यि त है तो तु लसी क
अ तरा मा नर तर ीराम क अ तरं गता क ाि त के लए छटपटाती रहती है ।
उनक इसी छटपटाहट म ीराम क भि त और सजना मक अ भ यि त के प म
उनक क वता साथ-साथ चलती रहती है । ीराम क भि त से जु ड़ी उनक क वता क
साथकता उनक भि त क छटपटाहट के ह कारण है और इस आ मा भ यि त से जु ड़े
वे भि त सजना के ह े ठ कव ह । ीराम क भि त उनक क वता का उपकरण
या साधन नह ,ं वयं म क व क पीड़ा भर छटपटाहट है और वह उनक क वता ह ।
इस कार, उनक ीराममयी सव व समपण क न ठा तथा उनक क वता दोन
एकमेव ह- कायकारण नह ,ं सा य साधन नह -ं सवथा अ वैतभाव से एक-दूसरे के
पयायवाची त व ।

10.4.2 तु लसी का सामािजक संकट बोध

गो वामी तु लसीदास का ज म मु गल स ाट अकबर एवं जहाँगीर के शासन काल म


हु आ था । य य प क तपय इ तहास लेखक इस युग को वणकाल क सं ा दे ते ह
क तु वह तु लसी को वीकार नह ं है । तु लसी सा ह य का अ ययन करने पर यह
ात होता है क यह युग कतना संकट भरा युग था । तु लसी इस युग के संकट को
प ट करते हु ए कहते ह क-
खेती न कसान को भखार को न भीख ब ल
ब नक को ब नज न चाकर को चाकर ।
जी वका वह न लोग सी यमान सोच बस
कहै एक एकन सो कह जाई का कार ।।
कसी के पास अजी वका नह ं थी- सारे लोग परे शान एवं भयभीत रहा करते थे । वे
बराबर चि तत रहते थे क अपने तथा प रवार के पेट को भरने के लए कह ं जाए
और या कर ।

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तु लसी के युग का लोकसंकट बड़ा ह यापक था और तु लसी जैसे यापक मानवीय
मू य के क व लए यह संकट बड़ा क टकार था और वे नर तर इस पीड़ा से मु ि त
क च ता से पी ड़त दखाई पड़ते ह ।
यह नह ,ं इन संकट के साथ- ह दू तथा मु सलमान के बीच तनाव, भारतीय धम
यव था म अस तुलन, सामािजक कलह, धा मक मतभेद तथा बु जी वय के तर पर
भी ान, कम, उपासना तथा भि त के बीच गहरा मतभेद, जा त-पाँ त का भेद-भाव,
शैव एवं वै णव मतावलि बय म दूर - आ द कतनी सम याएँ थीं, िज ह गो वामी
तु लसीदास न केवल समाज म दे ख रहे थे- वरन ् भोग भी रहे थे । गो वामी तु लसीदास
ने ीराम क भि त का एक मा आल बन हण करके न केवल लोक संकट से
धैयपूवक मु ि त पाने का आ वासन दे ते रहे- वरन ् समाज म या त संपण
ू अ यव थाओं
को पार प रक मेल- मलाप तथा सम वयभाव से समा त करने का भी आ ह करते रहे ।
गो वामी तु लसीदास जी के सम वय स ा त क शंसा न केवल भारतीय व वान ने
क है अ पतु वदे शी व वान म सर जाज यसन आ द ने इसे काफ सराहा तु लसी
ने अपने युग के लोक संकट का एक मा हल सम पत भाव से ीराम क भि त को
बताते हु ए भारतीय को जातीय, धा मक, थानीय मतभेद को भू लकर एक होकर एक
मंच पर ले आने का अथक यास कया है ।

10.4.3 मह तम आदश तथा उ चतम मू य के त संसि त

रामच रतमानस तथा उनक अ य कृ तय म उनका एक अ य म त य समाज रचना


के तर पर दखाई पड़ता है । समाज के लए े ठ आदश एवं शु भतम मू य क
थापना के त उनम सदै व संसि त दखाई पड़ती है ।
इस म त य को प ट करने के लए उ ह ने अपनी कृ तय क कथाव तु के म त य ,
उ े य तथा जु ड़ी वचारस रणय के साथ-साथ वैचा रक न ठा से स प न पा क
प रक पना क है । ीराम, भरत, ल मण. श ु न, हनुमान , सीता, शबर , नषाद आ द
अनेक पा वारा तु लसीदास जी ने समाज के लए िजस शील तथा मयादा क
थापना क है, शायद अभी तक वहाँ कोई दूसर कृ त या क व नह ं पहु ँ चा है । लोक
जीवन के व वध स ब ध को लेकर आदश तथा न ठामय च र नमाण तु लसी क
अनुभू त तथा अ भ यंजना का सवा धक मह वपूण प है । पता-पु , अ ज-अनुज ,
प त-प नी, वामी-सेवक, राजा- जा आ द लोक स ब ध के आदश प को तु लसी ने
रामच रतमानस म ति ठत करके भारतीय आय जीवन प त को जैसे पुन : था पत
करने का काय कया हो । इस आदशमयी त ठा के लए अपनी दाश नक ि ट
भि त वषयक न ठा एवं लोक जीवन के सदाचरण इन तीन का यह क व आ य
हण करता है । ाथ मक तर पर उ ह ने बताया है क समाज क सबसे बड़ी
े ठता ीराम के त समपण म है य क ीराम के अ त र त लोक के लए े ठ
और कोई नह ं हो सकता है । वे प ट भाव से कहते ह ि थ त क हयत एक राम को
नातो सु द सु से य जहॉ लौ ।'' लोक का दा य व ीराम क भि त ह नह ं उनके
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आदश का अनुसरण भी है । राम से े ठ आचरण और कसके हो सकते ह । भि त
एवं लोक क े ठता ीराम से जु ड़ने के ह कारण है और यह े ठता लोक जीवन के
लए अ नवाय है ।

10.4.4 लोक का सव े ठ मांग लक आदश : रामरा य क थापना

तु लसी लोक जीवन के लए सबसे मह वपूण आदश- रामरा य क थापना वारा


करते ह । म यकाल के साम तवाद यव था के लए भी रामरा य आधार है ।
रामरा य लोकजीवन के लए सव च भौ तक तथा आ याि मक आन द का तीक भी
है । इस रा य म राजा- जा के बीच कोई वषमता, असमानता, पीड़ा एवं लेश का
भाव नह ं मलता । जा नर तर साि वक गुण से स प न सामािजक े ठता के
चार- सार म लगी रहती है । लोक के सम त अमांग लक त व का यह हास एवं
पराभव दखाई पड़ता है । धम, नै तकता एवं स कम संपण
ू समाज को नर तर आगे
बढ़ाने म त पर रहते ह । रामरा य म संपण
ू कृ त एवं दै वी ेरणाएँ सामािजक सु ख
एवं शाि त का माग श त करती रहती ह । तु लसी का रामरा य मानव मंगल क
उनक े ठतम क पना से यु त एक ऐसी शासन यव था क अवधारणा से स ब है-
जहाँ लोक के लए े ठता, शु भ, आनंद एवं शाि त क सम तया संपण
ू यव था
व यमान रहती ह ।
रामरा य अथात ् संपण
ू लोकजीवन के लए सवथा सु खमय जीवन जीने क रा य
यव था का आदशमयी तीक तु लसीदास क वानुभू त का अपना अ भ न अंग है ।
इस रामरा य के वारा केवल वे अपने युग म ह नह -ं आज भी सामािजक न ठा के
अ तगत लोक तथा समाज यव था के े ठ क व बने हु ए ह । तु लसी के लोकादश का
यह रामरा य े ठतम उदाहरण है ।

10.4.5 तु लसी क लोक सम वय-भावना

गो वामी तु लसीदास क सम वय भावना उनक वानुभू त का मह वपूण प है ।


उनके मन म म यकाल न बखरे हु ए ह दू समाज को दे खकर स भवतया सवा धक
पीड़ा थी । उ ह ने समाज के बखराव को दूर करने के लए सृजन के तर पर अनेक
अवधारणाएँ द -ं नषाद को राम से जोड़कर भरत जैसा राम का भाई वीकार कया
गया । शबर तथा अह या जैसी ना रयाँ ीराम से जु ड़कर समाज म सवथा आदर का
पा बनी । शव तथा ीराम का पर पर एक दूसरे के त ा एवं ेमभाव शैव तथा
वै णव धम भावनाओं के सि मलन का े ठ उदाहरण है । ान, उपासना, कम एवं
भि त तु लसीदास क ि ट से ीराम से जु ड़कर समाज को शि त दान करते ह ।
ानी, कमका डी, - उपासक एवं भ त को एक सू म बाँधकर गो वामी तु लसीदास ने
समाज म सदभाव एवं मै ी का वातावरण न मत कया ।
न कष प म, गो वामी तु लसीदास ने अपनी सम वय-भावना वारा समाज को जोड़ने,
उनके बीच पार प रक मै ी तथा सदभाव उ प न करने का जो काय अपनी कृ तय

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वारा कया है, वह आज भी मरणीय है । उनक ेमामूल दा य भि त आज संपण

समाज म पूरे स मान एवं ा के साथ वीकार क जाती है ।

10.5 अ भ यंजना प
का य रचना का थम प क व क वैयि तक एवं सामािजक अनुभू त है और वतीय
प है, इस का यानुभू त क अ भ यि त (अ भ यंजना) का कौशल । श द, अथ, भाषा,
रचना, अलंकार, गुण , र त आ द के व वध त व क अ भ यंजना (अ भ यि त) के
लए उपयोग क व का रचना कौशल है । क व वयं म क वता के कला मक उपादान
का योग करके कैसे अपनी अ भ यंजना को स म, समथ, ेषणीय एवं रसानुभू त से
समि वत करके समाज के सामने रखता है, यह न इस संदभ म सबसे मह वपूण है
। अ भ यंजना क अ भ यि त के साथ क व का सजक यि त व जो कृ त व के प
म सामने आता है, वह सब कु छ है । इस यि त क सजना मक भाषा के मा यम से
उसक तभा, उसक सजक शि त तथा उसके भाव एवं समाज वारा उसक
ा यता का अनुशीलन यहाँ अपे त है ।
इस कार अ भ यंजना का सीधा अथ है, क व वारा कला मक उपादान का क वता म
योग ता क वह पाठक वारा सहज ा य एवं ती तापूवक संवे य हो सके ।
अ भ यंजना के व वध प का व लेषण मश: इस कार है-

10.5.1 तु लसी के का य प : सृजन प क व वधता

का य प का अथ है- महाका य, ख डका य आ द का य प वधान से और तु लसी के


संदभ म यह एक मह वपूण सम या है य क उ ह ने पर परा एवं समसाम यक युग
के कसी भी का य प को नह ं यागा है । का य प क ि ट से उनक सम
रचनाओं को न न ल खत भाग म वभ त कया जा सकता है-
का य प के नाम :
1. ीरामच रतमानस ब धका य
2. वनयप का गीता मक ब धका य
3. क वतावल मु तक धान ब धका य
4. रामगीतावल गीता मक ब धका य
5. कृ ण गीतावल गीता मक ब धका य
6. रामा ा न मु तक ब धका य
7. रामलला नहछू ख डका य
8. जानक मंगल ख डका य
9. पावतीमंगल ख डका य
10. दोहावल मु तकका य
11. बरवै रामायण मु तक धान ब धका य

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12. हनुमान बाहु क तु तपरक मु तक का य
तु लसी के ये का य अपने व प वधान क ि ट से उनक अ भ यंजना कौशल से पूर
तरह जु ड़े ह।
ब धका य क ेरणा उ ह वा मी क तथा आ या म रामायण से मल थी । मु तक
ब ध का य उनके युग के र तकाल न क वय वारा लखे जाते रहे ह और गीता मक
ब ध का य सू रदास आ द उनके पूववत क वय क ेरणा से लखे गए । ख डका य
रचना क पर परा उनके पूव सं कृ त के ल लत सा ह य क पर परा के क वय क दे न
है तथा मु काक का य क प रपाट भारतीय का य पर परा म उनके पहले हजार वषा
पूव से चल आ रह थी । रामा ा न म तु लसीदास ने ' यो तष और भि त' का
सम वय करके रामकथा लखी- िजसक पर परा हम सं कृ त सा ह य म दखाई पड़ती
है । उनका तु तपरक का य 'हनुमान बाहु क' है िजसका स ब ध धा मक सा ह य क
ोत पर परा से है । आ मर ण या लोक र ण के लए तु तय वारा अपने आरा य
हनुमान को स न करने के लए जीवन के अवसान काल म तु लसी ने इसक रचना
क थी ।
इस कार, गो वामी तु लसीदास के का य प लोक, धम तथा भि त को संवेदना से
स बि धत समसाम यक का य पर परा से जु ड़े एवं र त न ठ क वय क सा हि यक
पर परा से स ब ह । इन का य प को दे खकर यह सहज ह अनुमान कया जा
सकता है क गो वामी तु लसीदास जो कु छ भी रचना चाहते थे- उसके त उनम
सजगता का भाव था और वशेषकर का यरचना क संपण
ू वीकृ त प रपा टय से अपने
को जोड़कर वे बराबर अपने युग क च लत क वता के साथ बने रहने क प ट
न ठा रखते ह ।

10.5.2 तु लसी : व वध का य प और उनक वधान ि ट

1. गो वामी तु लसीदास का रचना व यास साम य अदभूत है । ह द के बहु त कम


क वय म गो वामी तु लसीदास जैसी रचना वधान क साम य दखाई पड़ती है ।
जैसा क ऊपर कहा गया है क ऐसा कोई का य प नह ं है- िजसक रचना
गो वामी जी ने अ य त नपुणता पूवक न क हो ।
ब ध का य के प म ीरामच रतमानस उनका वशालकाय महाका य है । इसके
नायक ीराम तथा त नायक रावण है । 'राम-रावण' कथा य तो भारतीय
सं कृ त म हजारो वष से चल आ रह है क तु उसको जो प तु लसी ने दया है
वह, नता त लोक ा य है । गो वामी तु लसीदासकृ त ीरामच रतमानस जीवन के
िजन उदा त भारतीय मू य पर क व वारा था पत क है, उसक ा यता आज
लोक म पूर तरह से वीकाय है । उदा त मू य, े ठ तथा अनुकरणीय च र ,
नै तक आदश क भ यता, लोकजीवन क संर क भावनाओं क सव थापना
आ द त व से न मत ीरामच रतमानस भारतीय जनजीवन के लए कंठहार है ।
लोक संकट क मु ि त क यह गाथा लोक जीवन म स य-अस य, े ठ-अ े ठ

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शु भ-अशुभ के नराकरण के लए आधार है । ीरामच रतमानस क कथाव तु का
फलक इतना यापक है क उसम हम मानव-जीवन क सभी सम याओं का
समाधान अनायास ह पा जाते है।
ीरामच रतमानस क कथा व ता- ोता संवाद के प म लखी गई है और ये
संवाद पर परा के व वध रामायणीय भाव म सू चक ह । या वल य रामायण,
आ या म रामायण, ( शव रामायण), भुशु ं ड रामायण एवं वा मी क रामायण के
भाव इन संवाद के मा यम से खोजा जा सकता ह ।
गो वामी तु लसीदास ीरामच रतमानस म ीराम क भि त तथा ल ला कथा कहते
ह । ीराम का मानवीय व प लोक को दखाने के लए है- अ यथा म राम है
। वे लोकजीवन के मंच पर आकर ना य अ भनय जैसा यवहार करके सभी भ त
को आनि दत एवं जीवनमु ि त के आशीवाद से मं डत करते ह । रा स तथा
ऋ षमु न, पशु-प ी सभी उनक कृ पा के पा ह और वे सब पर समान भाव से
कृ पा करते हु ए कहते ह क सृि ट के संपण
ू जीव मेरे वारा उ प न कए गए ह-
रा स हो या मनु य - मेर आ मीयता के सभी पा ह-
सब मम य सब मम उपजाये ।
सबसे अ धक मनुज मो हं भाये ।
इसी संदभ म वे रावण, कु भकण, मेघनाद आ द को भी मु ि त दान करते ह-
जो ऋ षय को दुलभ है ।
इस कार आ याि मक समता, एक पता तथा संतल
ु न क सामािजक थापना
उनके कृ त व का एक वृहत ् ल य रहा है ।
कला मक संरचना क ि ट से ीरामच रतमानस सं कृ त का य म न द ट ब ध
का य के ल ण से सवथा प रपूण है । धीरोदा त नायक के वै श य के सारे गुण
ीराम म ह । रस वधान क ि ट से व ाि तदायी शा त भि त रस'
ीरामच रतमानस का के य रस है । जीवन क वशालता का एक यापक फलक
पूर कथा को आव रत कए हु ए ह । अथ-धम-काम-मो जैसे उ च भारतीय जीवन
मू य क पर परा का सा य यहाँ तपद दखाई पड़ता है । ब ध रचना कौशल
तथा संग संदभ के रचना वधान का यह कु शल क व मानस के संग म का य
सौ दय तथा जीवनमू य का अदभू त सम वय करता है । बालका ड का धनुभंग
संग, अयो याका ड का राम वनगमन, सु दरका ड के हनुमान -सीता भट,
लंकाका ड के रावण-सु ीव संवाद संग आ द को आधार बनाकर क व क रचना
वल णता का सा य तु त कया जा सकता है ।
2. गो वामी तु लसीदास के लघु ब ध म जानक मंगल, पावती मंगल, रामलला
नहछू बरवै रामायण आ द को दे खा जा सकता है । 'जानक मंगल तथा पावती
मंगल' मंगलका य पर परा से जु ड़े ह और ववाहा द के संग म इनके गायन का

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एक कम मलता है । इनके मा यम से भी क व लोकक याण एवं हतै षता क
भावना को था पत करने का यास करता है । इनका व प लघु ब धा मक है ।
'रामलला नहछू' का करण लोक म ववाह या य ोपवीत के उ सव से जु ड़ा एक
वशेष आयोजन ह- जहाँ लोक तथा वामी राजा और जा के बीच पार प रक
सदभाव तथा हतै षता का संदभ आता है।
'बरवै रामायण' चम कारपूण र त न ठा से जु ड़ा लघु ब ध है, कहा जाता है क
क व रह म के छ द बरवै क कु शलता का उपयोग करके रामकथा तु त करने क
चे टा करता है । ला ल य वधान एवं भि त इस रचना का मु ख त व ह ।
'रामा ा न' नामक क व क कृ त सं कृ त सा ह य के वयथक अथसंधान का य
क पर परा से स ब है । यह क व यो तषशा और कथा वधान दोन को एक
साथ तु त करता है । चम कार वधान क ि ट यहाँ मु खता के साथ दखाई
पड़ती है ।
3. क व कृ त 'दोहावल मु तक का यपर परा क कृ त है और कहा जाता है क क व
के मृ यु पय त तक के दोहे यहाँ संक लत ह । य य प इसम ीरामच रतमानस के
दोहे यथा थल संक लत कर लये गये ह क तु म यकाल न का य म दोहे को
मु तक वधान के अ तगत रह म आ द क वय ने रखा था । क व भी उसी
पर परा म नी त, लोक यथाथ, यो तष, कृ ष आ द से जु ड़े संग म दोहा छ द
के मा यम से रचकर मु त वधान क पर परा स क है ।
4. क व क तीन कृ तयाँ युगीन गी त वधान से जु ड़ी ह । ीराम गीतावल , ीकृ ण
गीतावल तथा वनयप का । सू र आ द कृ ण भ त क वय क पर परा से जु ड़कर
क व व वध, राग राग नय के मा यम से ीराम और ीकृ ण के कथा संग को
गीता मक शैल म तु त करता है । यहाँ क व का उ े य ' ीराम तथा ीकृ ण'
से स ब संवेगा मक भाव संग क ला ल यपूण संरचना है । दा य, स य,
वा स य एवं उ वल रस तथा उनक लोक ल ला से जु ड़ी ये कथाएं गीता मक
रचना म उपल ध है । चू ं क इनका आधार ल लाभि त है- इस लए इन च र से
स ब लोकसंदभ यहां ा त ह । ये दोन रचनाएं गीता मक ब ध के प म है।
5. गी तका य म ' वनयप का का व प व यास अदभूत है- इसम कथा नह ं है-
क तु वयं क व तु लसी से जु ड़ा एक कथा सू व यमान है । तु लसी ीराम के
पास अपनी क लयुग क यथाभर प का भेजना चाहते ह । ीराम के दरबार तक
प का कैसे पहु ँ चे इसके लए वे शव, पावती, गणेश, सू य, दुगा आ द क मनौती
करते ह । हनुमान , ल मण, भरत, श ध
ु न एवं माता सीता से वंदना करके बार-
बार वनती करने म माद नह ं करते- वे सीता माता से कहते ह क-
कबहु ँ क अब अवसर पाइ
मे रयौ सु ध यायबी कछु क ण कथा चलाइ ।

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और इन सबक सहायता के बाद तु लसी क वनयप का ीराम तक पहु ँ चती है,
तु लसी आ व त हो उठते ह-
रघुनाथ हाथ सह है-
वनयप का का मू ल उ े य जीवन क मु ि त-आंका ा का सचे टता भरा यास है
। म से बछुड़ा हु आ यह जीव पुन : अपने मू ल प से जु ड़ना चाहता है । अपने
सनातन र ते से जु ड़े जीवन क परमा मा से मलन क संपण
ू कथा वनयप का
म पद के मा यम से गी तयोजना के प म ू ' वनयप का' म
तु त है । संपण
वयु त जीव क मा मक पीड़ा का गान नि चत ह ह द भि त का य क
अभू तपूव रचना है और इसे शंकराचाय कृ त आन दलहर तथा सौ दय लहर जैसी
कृ तय के समाना तर रखा जा सकता है ।
6. क व क दो अि तम कृ तयाँ- 'क वतावल ' एवं 'हनुमान बाहु क' ह द मु तक
का य पर परा से स ब सवैये तथा क व त म र चत है । ह द मु तक पर परा
से 'क वतावल ' इस अथ म भ न है क इसम कथा मक संग है, शु मु तक
नह ं है । इस मु तक कला क वल णता अथ चम कार क नह ं है । ह द तथा
सं कृ त भाषा के मु तक श द, अथ तथा अ भ ाय म चम कार वधान के लए
सृिजत ह । तु लसी अपने क व त सवैय एवं छ पय छ द के मा यम से
'क वतावल ' म ीराम क बा मक छ व का नमाण करते है । छोटे -छोटे वा य
म न मत लघु च के वारा एक यवि थत यापक ब ब रचना का नमाण कर
पाठक के च त को ीराम के प म फँसा दे ते ह । आलंका रक ि ट से उपमा,
पक, उ े ा एवं अ त योि त अलंकार वधान का योग क वतावल म अ धक
हु आ है । क वता के उ रण वारा ऐसे संदभ क पुि ट क जा सकती है ।
7. 'हनुमान बाहु क' क व क अि तम रचना है । जीवन के अपने अि तम समय म
वातरोग पी ड़त क व ने अपनी मु ि त के लए 'क व त तथा छ पय' छ द म
आरा य हनुमान से रोगमु ि त क कामना के लए तु त का य क रचना क है ।
' तु तका य' क रचना क ट क मुि त या 'अभी ट ाि त' के लए क जाती है ।
य य प यह एक तु तपरक मु आ का य है- क तु इसक रचना म सव ' दै यभाव
ह वतमान है । क व नर तर असु र ा के भाव से पी ड़त सु र ा तथा भयह नता
क ाि त के लए इसम हनुमान से, ीराम से, शव से, पावती से थल- थल पर
ाथना करता है, क तु यहाँ के य आरा य हनुमान ह ह । आजीवन ीराम
तथा हनुमान क भि त म त मय एक क व क मृ युपीड़ा बोध का सा य इस
कृ त म दे खा जा सकता है । ोता मक मु तक के सम त ल ण इस कृ त म
व यमान ह ।

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10.5.3 तु लसी का श प वधान

तु लसी क क वता श प प क ि ट से सात भाग म वभ त क जा सकती है,


आचाय रामच शु ल अपने ह द सा ह य के इ तहास म उनक पाँच शै लय का ह
वणन करते ह ।
1. वीरगाथा काल क छ पय प त
2. व याप त और सू रदास क गी त प त
3. गंग और भॉट क सवैया प त
4. कबीरदास क नी त बानी
5. ई वरदास क दोहे -चौपाई वाल ब ध प त
6. आचाय रामच शु ल ने यह दो प तय का संदभ छोड़ दया है ।
7. भ , ीहष आ द क वय क 'शा का य के सम वय क प त िजसम राम ा
न लखा गया है ।
8. धा मक पर परा से जु ड़ी, तो शैल क क वता िजसम वनयप का के ारि भक
अंश तथा हनुमान बाहु क लखे गये ह ।
गो वामी तु लसीदास एक सजग तथा सश त क व क भाँ त अपने सा ह य को अपनी
समसाम यक का य रचना शै लय से जोड़कर ासं गक ह नह ं बनना चाहते वरन ्
अ पतु साम यक च लत सा ह य वारा आकषण उ प न करके पाठक समाज को
अपनी ओर खींचना चाहते ह ।
इस कार उनक रचना शैल म युगीन यापकता तथा सम ता दोन के दशन होते ह।

10.5.4 तु लसी क भावयोजना

गो वामी तु लसीदास भ त क व है और इसी लए उनक सम त कृ तय म भि त रस


क भावा मक अनुभू त के दशन होते ह । ीराम के जीवन क व वध घटनाओं को
ल ला के प म वीकार करके गो वामी तु लसीदास ने ल लाभि त के व वध सोपान
वारा भि तरस क थापना अपनी क वताओं म क है । भि त रस के पाँच व प
ह:-
1. दा यभि त रस
2. शाि तभि त रस
3. वा स यभि त रस
4. सा यभि त रस
5. का तासि त या उ वल रस
गो वामी तु लसीदास जी मयादावाद क व ह । अत: कृ ण भ त क वय क भां त
का तारस भि त रस ( गृं ार या उ वल भि त रस) को अपनी कृ तय का आधार नह ं
बनाते ह । उनक क वता म मु य दा य एवं शा त भि त रस है । थल- थल पर
उनक कृ तय म वा स य एवं सां य भि त रस के भी दशन होते ह ।

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गो वामी तु लसीदास क कृ तय का के य भाव यापार 'सा य भि त रस' है । उनके
राम और वयं तु लसी तथा अ य पा के बीच सेवक से य स ब ध है और इस
वामी-सेवक स ब ध वारा गो वामी तु लसीदास लोकमु ि त का हे तु इसे ह नधा रत
करते हु ए नर तर कामना करते ह क संपण
ू समाज ीराम क शरणाग त ा त करके
इस भव सागर से मु ि त ा त कर । उनक स कृ तयाँ ीरामच रतमानस,
वनयप का एवं क वतावल के अ तगत इसी दा य भि त रस क थापना क गई है
। मानस के समापन पर तु लसी व ाि तमूलक दा यभि त रस क चचा करते ह और
वनय प का के अ तगत ीराम को अपने त आक षत करके उनक कृ पा से वयं
क मु ि त क बात करते ह । कसी भी कार से ीराम एक बार दे खभर ल- तु लसी
वीकार करते ह क इतने से ह उनक मु ि त स भव हो जाएगी । इस कार, ीराम
के त अन य यता एवं वा म वभाव से जु ड़ा उनका आ मगत आवेश क व को
नता त य है । भरत, हनुमान , ल मण, वभीषण आ द अनेक कथा पा ीराम के
दास के प म अन य कृ पाकां ा के लए नर तर लाला यत रहते ह ।
क व ने शव, मा, पावती तथा अ य ऋ ष पा वारा ीराम के वराट व णु व
प वारा तृणा य सु खमू लक शाि त रस क थापना क है- क तु गो वामी
तु लसीदास क का यरचना का के य भाव दा यभि त रस ह है । ीरामच रतमानस,
क वतावल , रामगीतावल तथा कृ णगीतावल म वा स य एवं स य ल लाभाव से जु ड़े
भी पद मलते ह और ऐसा तीत होता है क अपने युग क च लत भि तरस
वषयक मा यताओं को वह का य रचना वारा तु त करने के त य नशील है ।
भि त रस वषयक इन मा यताओं के बावजू द भी, न कष प से कहा जा सकता है
क गो वामी तु लसीदास के कृ त व क मू ल संवेदना समपणभाव से संबं दा यभि त
रस क है और उ ह ने ीराम एवं संपण
ू ाणीवग के बीच वामी एवं सेवक भाव के
संबध
ं क थापना पर बल दया है । उसका इस स ब ध म न कष केवल एक पंि त
वारा ह कट कया जा सकता है-
‘सेवक से य भाव बनु भव न त र हं पुरा र ।‘
भि त रस के साथ ह ीरामच रतमानस म लौ कक का य से स ब आठ रस का
वणन भाव के प म आता है । हा य, क ण, गृं ार, रौ , भयानक, वीर, अदभूत,
वीभ स रस से जु ड़े भाव ीरामच रतमानस के लौ कक ल लाभाव क समृ के लए
आते ह क तु ये अपने म पूणरस न होकर भि त रस से जु ड़े व वध भाव का पोषण
करते है । ये भि त रस के सहायक भाव ह और इनका मूलल य पाठक म भि त क
अनुभू त को सघन बनाना है ।
भि त का य म लोकभाव आ याि मक भाव का पोषण करके उ ह सबल बनाते ह-
ठ क रामच रतमानस तथा तु लसी क अ य रचनाओं म लोकभाव क ऐसी ह ि थ त
ह।

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इस कार गो वामी तु लसीदास क कृ तय क रस वषयक अवधारणाओं का ववेचन
आ याि मक भि त भावना के काश म ह कया जाना उ चत होगा ।

10.5.5 तु लसी का सम रचना कौशल

जैसा क कहा गया है- गो वामी तु लसीदास ने अपने युग के सभी का य प , का य


शै लय एवं लोक तथा अ या म से जु ड़े ल ला भाव को अपनी क वता का वषय
बनाया है- अत: उनके रचना कौशल के उन त व का भी ववेचन कर लेना अपे त
है- जो उ ह े ठतम क वय क ेणी म रखने के लए हम ववश करते ह । तु लसी
के रचना मक संदभ क शंसा वदे शी व वान म ीक, यसन, शातल वोदवील
वराि नकोव आ द ह नह ं क है- ह द का शायद ह कोई आलोचक हो जो उनके
रचना कौशल का समथक न हो । तु लसी क यंजना शि त, ला णकता,
अलंकार वधान योजना, भा षक अथ खरता श दाथशि त और साम य आ द कतने
त व ह- िजसक आलोचक नर तर शंसा करते ह । मानस म रावण को पता चला
चलता है क ीराम ने समु सेतु बना लया- उसके दस मु ख से समु के दस
पयायवाची श द उसक य ता तथा भय कट करने के लए अनायास नकल पड़ते
है-
बॉ यो बन न ध नीर न ध जल द संधु बार स ।
स य तोय न ध कंप त उद ध पयो ध नद स।।
ये दस समु के पयायवाची श द उसक पीड़ा तथा छटपटाहट को य त करते है।
क. उनक कृ तयाँ अ या म, नै तकता तथा क वता के गुण से समि वत है
उनक रचनाओं म नै तक तथा आ याि मक जीवन मू य और क वता के े ठतम
मानक का सम वय दे खा जाता है । उनक कृ तयाँ जीवन मू य क ि ट से
उ कृ टतम ह । यह उनके रचना कौशल क सबसे बड़ी वशेषता है क कला तथा
आ याि मकता दोन को उ ह ने बड़ी बार क से जोड़ दया है । यह कारण है क कला
र सक समाज उसम कला मक आन द तथा आ याि मक रस का आ वादन करता ह
और अ या म े मय एवं भ त को उनक रचनाओं म भी आ याि मकता क अनुभू त
होती है ।
ख. वभ न संग क सृजना मकता का कौशल
तु लसीदास ने अपनी कृ तय म व वध भावदशाओं, पा के च र , व वध घटनाओं एवं
संगानुकू ल प रि थ तय का सव बड़ा ह मा मक च ण तु त कया है । उनक
अथरचना क यंजनाशि त त ण- तपद पाठक को भा वत करती चलती है ।
सीता के सौ दय का च ण करता हु आ क व वयंवर संग म कहता है क-
सु दरता कहँ सु दर करई ।
छ व गृह द प सखा इव बरई।।

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(सीता का सौ दय सृि ट सम त सु दरता को सु दर बना रह है, वह इस कार है,
मानो छ वगृह (शीश महल) म द प शखा जल रह हो । जगतमाया पी सीता अपने
मा यक सौ दय से सम त मा यक सृि ट के सौ दय को सु दरतम बना रह है । सृि ट
का सौ दय सीता के सौ दय से मलकर सु दरतम हो उठा है- जैसे एक ह द पक
शीशमहल के हजार शीश के टु कड़ को ण म ह आलो कत तथा चकाच ध मय बना
दे ता है ।)
यहाँ क व एक ह क वता वारा जगतमाता सीता के सौ दय का आ याि मक तथा
वयंवर के समय राजाओं के बीच लौ कक सौ दय दोन क एक साथ सृि ट छ वगृह म
द प शखा क उपमा से जोड़कर यंिजत कर दे ता है ।
ग. अदभू त त व के नमाण म क पना शि त का योग
गो वामी तु लसीदास क वल ण क पना शि त कभी-कभी ऐसे चम कार का सृजन
करती है िजससे चम कार एवं का या मक आन द दोन क साथ-साथ न पि त होती है
। ीरामच रतमानस म इसके अनेक उदाहरण भरे पड़े ह । जैसे- वन गमन के समय
ीराम सीता को वनगमन क सू चना दे ने के लए जाते ह और समाचार सु नकर सीता
वयं मु ख से ीराम के साथ चलने के लए नह ं कहती है । उसके चरण के नूपरु
कहते ह क-
चा चरन नख लेख त धरनी । नूपरु मु खर मधुर क व बरनी ।
मनहु ँ ेमबस बनती करह ं । हम हं सीय पद ज न प रहरह ।ं ।
अथ- सीता ीराम क बात सु नकर अपने सु दर चरण नख से पृ वी कु रदने लगती ह
और इस ग त संचालन से उनके पैर के नूपरु बज उठते ह । ये बजते नूपरु मान
ीराम से वनय कर रहे ह क हे भु! हम सीता के चरण -से अलग न होने द ।
या या- प त के वास (परदे श) जाने पर ना यकाएँ अपने अलंकार को शर र से
नकालकर अलंकरण वह न जीवनचया बताती ह- (यह क वय क वणन णाल ह)
जब ीराम का वनवास हो उठे गा तो सीता के अयो या म रहने पर वयं नूपरु स हत
सम त अलंकार को उतारकर अलग कर दे ना होगा । नूपरु को सीता के पॉव बड़े य
है । अत: याजोि त अलंकार के मा यम से वह यहां चर के वनय के मा यम से
क व यह कहना चाहता है क आप सीता को वन म साथ ले चल ता क सीता के य
चरण से मु झे अलग न होना पड़े ।
घ. का यपटु ता तथा रचना वै च य :
गो वामी तु लसीदास अपनी कृ तय क रचना एक भ त, धा मक आ था से स ब एक
साधु तथा ऋ ष क भां त न तु त करके पर परा के सं कृ त क वय जैसी
वाि व धता एवं का यपटु ता वारा रचते ह । गो वामी तु लसीदास ने अपनी कृ तय
वारा केवल धम, नै तकता, आदशमयता तथा अ या म को ह शीष ब दु पर पहु ँ चाने
क चे टा नह ं क है- वरन ् क वता के कला मक मू य को भी उसक े ठता क

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उ चभू म पर था पत करने क चे टा क है । इसे एक उदाहरण वारा इस कार
प ट कया जा सकता है-
संकर राम प अनुरागे । नयन पंचदस अ त य लागे।।
नर ख राम छ व व ध हरषाने । आठहु नयन जा न पछताने।।
सु र सेनप उर बहु त उठाहू । व ध ते डेवढ़ लोचन लाहू।।
राम हं नर ख सु रेस सु जाना । गौतम सापु परम हत माना।।
दे व सकल सु रप त हं सहाह ं । आज पुरंदर सम कोउ नाह ं।।
प ट करण-
शव पंचानन ह- अत: वयंवर काल म सजी सीता को अपनी प ह ऑख वारा
( येक मु ख म तीन ऑख) दे खकर आनि दत ह! मा के चार मु ख है- अत: आठ
ऑख से सीता के सौ दय को दे खते पछता रहे ह क काश! शव क भां त हमारे शर र
म भी अ धक आख होती । शवपु षडानन (दे वताओं सेनाप त) बड़ी उमंग से सीता को
दे खकर आनि दत ह और इस लए ह षत ह क मा क डेढ़ गुनी (8 + 4 = 12)
अथात,् बारह ऑख ह । सबसे आनि दत दे वा धप त इ ह- य क अह या के शाप
से वे सह ा (एक हजार ऑख वाले) हो चु के ह और एक हजार ऑख से सीता का
सौ दय दे खते हु ए वयं आनि दत और अ य े ठ दे वताओं क ई या के पा बने हु ए
ह । वयं इ आज अह या के शाप को अपने लए उपकार मान रहे ह ।
वय वर के अवसर पर एक ओर सीता के प क अ वतीयता का क व च ण कर
रहा है तो दूसर ओर आ द शि त सीता के अ वतीय सौ दय क यंजना क वह
हजार ने से दे खने पर भी पूर तरह से नह ं दे खी जा सकती ।
लोक तथा अ या म का अदभू त सम वय यहां क व के कृ त व के म त य का अंग ह
। क व के सजन क अ युि तमयी वल णता से संपण
ू वणन वयं म रचना कौशल
का एक सा य वन जाता है ।
ङ. सा हि यक तब ता
तु लसी क तब ता या है? अथात,् उनका सा ह य कन मू य के लए लखा जा
रहा है, यह एक मह वपूण न है । गो वामी जी ने ीरामच रतमानस क भू मका म
प ट कया है क उ ह ने अपनी क वताएँ वा तः सु ख के लए लखी ह-
वा तः सु खाय तु लसी रघुनाथ गाथा-
भाशा नब म त मंजल
ु मातनो त ।
अथात-् ''अपनी प व ा वारा म (तु लसीदास) ीराम क गाथा को वा त: सु ख के
लए लख रहा हू ँ ।''
ीरामच रतमानस म एक दूसरे थल पर वे पुन : कहते ह- क वता वह है जो गंगा नद
क भाँ त सम त मानवजा त का क याण करे - 'सु रस र सम सबकर हत होई ।'
अथात,् म मानव क याण के लए क वता क रचना कर रहा हू ँ ।''

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इन दोन संदभ को यान म रखकर उनके ' वा त: सुख ' श द क पुन : या या
करनी पड़ेगी । तु लसी का वा त: सु ख या है?
मू लत: तु लसी के वा त: सु ख म संपण
ू लोक क याण क भावना न हत है । उनक
ि ट म म, और मेरा यह सब मायामय है, अत: म और मेरा या वा त: सु ख केवल
उनके नजी जैसे संदभ म यु त करना सवथा अनु चत है । वे लोक के त पूण पेण
सम पत तथा कहना चाह तो कह सकते ह क वे लोक हतै शता के क व ह ।
ीरामच रतमानस एवं अपनी अ य कृ तय वारा उ ह ने िजन मानवीय मू य क
थापना क है- वे दया. ेम. नेह, उदारता, समाज क याण, हतै शता स य, अ हंसा
आद ह । ीरामच रतमानस के अ त म 'भु शु ि ड तथा ग ड़ संवाद आता है- िजसम
लोक क याण से स ब ग ड़ सात न को पूछते ह । इस न का उ तर दे ते हु ए
तु लसीदास माना अि त व को सव े ठ और उसक द र ता को नकृ टतम मू य मानते
ह । वे ीराम क भि त वारा मानव-समाज को मानवीय मू य के त तब
कराना चाहते ह और वे बताते ह क हंसा, वेष, मोह, ोध, घृणा , पाखंड आ द
मानस रोग है और सम मानव जा त इ ह ं रोग से पी ड़त है । इन रोग से मु ि त
क ह औष ध है, ीराम के त आ यि तक भाव से समपण तथा भि त । उ ह ने
समाज को राम भि त के ढ़ व वास से मलाकर उनसे स बि धत होने पर संपण
ू त
अमांग लक त व से मु ि त क कामना करते ह । वे कहते ह क इसके लए अ य
कोई दूसरा माग है । ीरामच रतमानस के समापन के बाद वे अ त म अपना न कष
नकालते हु ए कहते ह-
तरइ न बन सेये मम वामी । राम नमा म नमा म नमामी ।
इस कार गो वामी तु लसीदास क तब ता थी- मानव समाज को हर तरह से संकट
मु त करना और इस लए उनक रामकथा म मानव जा त के संकट मु त होने क
तब ता हम दखाई पड़ती ह और इस संकट मु ि त के लए उनका सु झाव है '' ीराम
के त आ यि तक समपण'' ।
गो वामी तु लसीदास क इस सामािजक तब ता म न सं यास क आव यकता है, न
गृह और समाज के याग क । वे 'घर तथा वन' अथात ् सं यास एवं गृह थ धम के
बीच सामंज य चाहते ह ता क उनके लोक क याण का दायरा व तृत हो । वे जा त-
पां त, धम- वधम, कम- ान-सं यास सबको छोड़कर सबके लए समान प से ीराम
क भि त कामना करते ह । ीरामच रतमानस म उनका यह न कष उ ह ं के श द
म दे ख-
पायो न के हं ग त प तत पावन राम भजु सुनु सत मना ।
ग नका अजा मल याध गीध गजा द खल तारे घना।।
आभीर यवन करात खस वपचा द अ त अध प जे ।
क ह नाम बारे क ते3 प पावन हो हं राम नमा म ते।।

50
जा त-पां त वह न, लोक ब धन से मु त, पशु-प ी, मानव आ द सबके लए ीराम
क कथा तथा भि त मंगलदा यनी है ।
गो वामी तु लसीदास भारतीय समाज के इसी मंगलदायी व प क थापना के लए
अपनी क वता वारा तब (संक पब ) ह ।

10.5.6 गो वामी तु लसीदास - अलंकार वधान

गो वामी तु लसीदास ने अलंकार के वषय म अपना प ट मत रखा है क ये क वता


के साधन ह, सा य है- उनका ीरामकथा के त ि टकोण इस संदभ म थल- थल
पर दखाई पड़ता है । उ ह ने अपनी रचनाओं म अनेकानेक श दमूलक तथा अथमूलक
अलंकार का योग कया है क तु उन अलंकार का मु य काय है- व तु वषय को
भावी बनाना, प ट करना तथा पाठक पर संवेदना मक भाव डालना । व तु वषय
का यहाँ प ट अथ है- ीराम के च र , उनके प, उनके गुण , उनक चे टाओं एवं
यवहार तथा उनके शील एवं वभाव आ द से पल-पल प ट करना, भावशाल , साथ
ह, ा य बनाना । वे अलंकार को अपने आरा य ीराम के छ व वधान को नर तर
जोड़े हु ए उनके गुण तथा आचरण क सु दरता क वृ को साधन जैसा वीकार करते
ह । गो वामी तु लसीदास को पक अलंकार सवथा य है- और अपनी संपण
ू कृ तय
म सांग, नरं ग, भेद धान अभेद धान एवं पर प रत पक क झड़ी लगाते रहते ह ।
का य सौ दय क वृ के लए व तु त व क ती त कराना उनके पक अलंकार
का मु य वषय है । उनके एक पक का उदाहरण इस कार है-
आ म सागर सांत रस पूरन पावन पाथ ।
सेन मनहु ँ क ना स रत लए जा हं रघुनाथ।।
बोरत ान वराग करारे । वचन ससोक मलतनद नारे ।
यहाँ उपमेय 'आ म नवास' एवं उपमान 'क णा क बढ़ हु ई नद ' दोन को
क व एक साथ मला रहा है । क णा एवं पीड़ा म डू बे ीराम एवं उनके दशन के लए
आ रहे, अयो यावा सय क पीड़ा दशा का यहाँ सु दर च है ।
गो वामी तु लसीदास का दूसरा मह वपूण अलंकार उ े ा है । प, गुण , या एवं
वाभा वक सौ दय क वृ के लए नाना कार क क पनाएँ इस अलंकार के वारा
कव वारा क गई ह । उ े ा अलंकार के कु छ टा त इस कार ह ।
1. नील सरो ह नील म न नीलनीर धर याम ।
लािजत तन सोभा नर ख को ट को ट सत काम।।
प ट करण- ीराम के शर र का नीलवण मानो नीला कमल हो, नील म ण हो, या
नीलवण वाले जलधारण कए हु ए बादल ह । इन उ े ाओं वारा अपने आरा य के
प वणन के वै श य को च त करने के लए क व उ े ाओं क झड़ी लगा दे ता है।
इसी कार अलंकार योजना के योग वारा क व अपनी का यभाषा एवं वधानतं को
न केवल कला मक संग त दान करता है अ पतु अथ एवं वषयव तु को भावो पादक
बनाकर पाठक के लए उसे ी तकर बना दे ता है ।
51
गो वामी तु लसीदास भि त पर परा के क व ह- भि त का संदभ सामािजक मू य तथा
लोक क याण से है । इन सबके होते हु ए भी गो वामी तु लसीदास का का यप और
वशेषकर भा षक वधान का संदभ बड़ा ह मनोरम तथा वल ण है । गो वामी
तु लसीदास क भाषा के मु ख तीन त व ह- लोकभाषा का मु ख आधार अवधी तथा
जभाषा, सं कृ त क पर परागत श दावल तथा ग तशीलता तथा अपने युग म
च लत अरबी, पारसी, उदू आ द के वे च लत श द जो जनसामा य म वीकृ त हो ।
वे एक ओर भाषा के मा यम से नये, पुराने, भाषा पं डत एवं सामािजक जीवन के
लोक को जोड़ना चाहते थे- दूसर ओर उसम ऐसी अथशि त का योग भी करना चाहते
थे ता क उसक समझ तथा अथशि त का पूणत: भाव पड़ सके । क वता क भाव
शि त के लए का यभाषा वयं म उपादान तथा ल य दोन है । क वता अ ततया-
भाषा वारा ह गट होती है और वह भाषा के अ त र त अ य कसी प म हमारे
सामने नह ं आती । क व तु लसी भाषा के इस लोक यवहार तथा उससे जु ड़ी भावा मक
शि तय से पूर तरह से प र चत ह और इसी लए समाज के सभी वग क भाषा के
व वध प को अपनी क वता क भावशि त क अ भ यि त के लए वे साधन बनाते
ह । उनक क वता क भाषा केवल लोक जीवन म बोल जाने वाल अवधी या जभाषा
मा नह ं है ।

10.5.7 तु लसी क का यभाषा

तु लसी ने सवा धक योग अवधी का कया है फर भी, उनक गीता मक रचनाओं म


जभाषा का योग ा त होता है ।
क वता क भाषा क सबसे बड़ी वशेषता है, क वह कला मक साधन के मा यम से
इसे इस कार न मत कया जाए क पाठक को उसक अथ तीत तथा भाव ती त
का संवेगा मक बोध साथ-साथ हो सके । क वता क भाषा ह वह मू ल उपादान है जो
अपने कला मक गुण वारा पाठक को आन द के समीप पहु ंचाती और आनि दत
करती है ।
गो वामी तु लसीदास क का यभाषा का य के रचना मक उपादान से सवथा समथ है ।
उनक का यभाषा का गुण सरलता एवं लोक यावहा रकता है ।
उनक का यभाषा का दूसरा गुण है- ला णकता तथा मन पर भाव डालने क शि त
। तु लसी अथ वधान के तर पर भाषा ज टलता का योग न करके चा ता को भाषा के
साथ जोड़ते ह । यह चाहते है- अथ वधान क भावो पादक शि त जो भाषा सु नते ह
पाठक को अनायास ह अथ से जोड़ दे ती है, मह वपूण तु लसी क भाषा का वधान
तं सरल एवं सहजग य है । वे अलंकार , र त, गुण का योग सरलतम अथ के
भावी प से जोड़ते है उनम अथगत ि ल टता कह ं नह ं है । लोक जीवन के कथन ,
योग , उि तय , मु हावर च लत संदभ का िजतना अ धक योग अपनी क वता म
करते ह, शायद ह कसी अ य क व ने वैसा कया हो ।

52
कु ल मलाकर तु लसी का अ भ यंजना प नता त समथ एवं येक प म पाठक
को सवथा य तथा ा य है । अपनी इस अ भ यंजना साम य के कारण ह वे
महाक व के प म जाने जाते ह ।

10.6 वचार स दभ/श दावल


1. संक पब - त ाब
2. सम वय - मेल
3. रामरा य - तु लसी क क पना का रा य िजसम सभी सु खी-समृ और
समथ ह गे। समाज वेष बैर वह न समरसतापूण होगा।
4. वैयि तक - नजी
5. व ता- ोता- - कहने और सु नने क शैल म लखा गया का य ।
संवाद रामच रत मानस इसी शैल म लखा गया है ।
6. तो ा मक - व दनापरक
7. वा स यभि त - ई वर को पु या वयं को पु मान कर क गई भि त।
8. का तासि त - प नी के त ेम ।
9. नुपरू - ं ु , पायल जो पैर का आभू षण है ।
घुघ
10. तब ता - प धरता, त ा परायणता
11. अ युि तमयी - बढ़ा-चढ़ा कर कह गई ।
12. छ व वधान - शोभा वणन का तर का
13. उपादान - अवयव, त व
14. चातक भि त - चातक एक प ी है जो वा त न म आकाश से टपक
बू द
ं को ह हण करता है चाहे यास से मर य न मर
जाए । उसक एक न ठा जैसी भि त ।
15. कमका डी - धम पासना म बाहर व ध वधान का पालन
16. वानुभू त - नजी अनुभव
17. मा यक - माया संबध
ं ी
18. वयंवर - अपना वर वयं चु नने के लए आयोिजत समारोह
19. युग - संकट-युग पर घरे वपि त के बादल
20. गरल - वष

10.7 सारांश
तु लसी एक कालजयी रचनाकार है । डॉ. राम वलास शमा के श द म ''तु लसी से बार-
बार सीखना चा हये क कैसे उनक वाणी जनता को इतनी गहराई से आंदो लत कर
सक ।'' तु लसी क लोक यता का मू ल कारण उनका अ भ यंजना कौशल और भाव
क सघनता है । मानव दय क नाना भावानुभू तय के च ण म महाक व ने अपनी
सू म मनोवै ा नकपरक तथा स ची स दयता का प रचय दया है । इनके पा म

53
कु छ ऐसी व श टता, वाभा वकता और भ यता मलती है जो अनायास ह पाठक क
बु और क पना को क त कर लेती है । क य भाव के प म भि त का चयन
करने वाले क व तु लसी म शांत रस मु य है क तु संगानुकू ल अ य रस क उ ावना
भी भावपूण है । रचना प त और छं द-योजना क व ने पार प रक प म हण क
है । दोहा, चौपाई के अ त र त सोरठा, तोमर, हर गी तका एवं अ य सभी च लत छं द
को क व ने अपनाया है । बंध का य के अ त र त गी त और मु तक शैल भी तु लसी
को य रहे ह । वनय प का और क वतावल माण व प दे खी जा सकती है ।
इनके सव य ं रामच रतमानस म पौरा णक कथाओं, सं कृ त एवं
थ ाकृ त एवं ह द
के अप श
ं के च र का य एवं ह द के पूववत पौरा णक बंध का य क वभ न
वशेषताएं म त प से दखाई पड़ती ह ।
तु लसीदास ने अपने प रवेश क भाषा अवधी को वीकार कर उसम अन त वैभव को
समावेश कर दया है तथा दे शज और लोक च लत अरबी-फारसी के श द को भी
समान आदर से यु त कया है ।
तु लसीदास क महानता के व वध आधार माने गये ह । कु छ लोग उ ह धम पदे शक के
प म, कु छ भ त के प म और कु छ लोक नायक के प म - सव च मानते है ।
अव य ह वे अपने युग के सबसे बड़े धमा मा, भ त एवं लोक नायक थे क तु उनक
जन यता और मह ता का सबसे बड़ा आधार उनम का य व क गंभीरतम और
यापकता का समु चत सम वय है । एक ओर जहाँ उ ह ने का य क वभ न प,
वृि तय एवं शै लय को अपना कर यापकता का प रचय दया है, वह ं दूसर ओर
जीवन के उदात ् आदश एवं गंभीर भाव के तु तीकरण के वारा अपने ि टकोण क
गंभीरता म सौ दय के च ण से भी बड़ी बात है । औदा य क आकषक यंजना ।
का य क ि ट से उनक सम त धा मकता, नै तकता एवं दाश नकता का सव प र
मह व इस बात म है क ये सब उसम औदा य क त ठा एवं यंजना म सहयोगी
मा णत होते है । रस- स ा त क श दावल म यह औदा य य आनंद व प
शांत रस के प म वीकृ त है ।

10.8 अ यासाथ न
नब धा मक न
1. तु लसी क आ मानुभू त के व वध प को प ट कर ।
2. ट पणी लख-
क. तु लसी क का यानुभू त का आधार
ख. तु लसी का सामािजक संकट बोध
ग. तु लसी क लोक सम वय साधना
घ. तु लसी क रामरा य क क पना
3. तु लसी के रचना कौशल क व तृत ववेचना कर ।
4. तु लसी के का य प एवं का य भाषा पर काश डाल ।
54
5. तु लसी का श प वधान शीषक से एक नबंध लखे ।
लघु तरा मक न
1. आ मानुभू त का अथ तीन पंि तय म प ट कर-
2. तु लसी क आ मानुभू त के चार प के नाम लख-
3. अ भ यंजना प के तीन त व का उ लेख कर-
4. तु लसी के अलंकार वधान को पाँच पंि तय म ववे चत कर-
5. तु लसी क का यभाषा क चार पंि तय म वशेषताएँ बताएँ-
6. तु लसी के रचना कौशल को चार पंि तय म ल खए-
न 1. के लए दे ख 10.2
न 2. के लए दे ख 10.4
न 3. के लए दे ख 10.5.1,10.5.2,10.5.3
न 4. के लए दे ख 10.5.10
न 5. के लए दे ख 10.5.11
न 6. के लए दे ख 10.5.4

10.9 संदभ थ
1. डॉ0 माता साद गु त - गो वामी तु लसीदास, लोकभारती काशन, ववेकानंद माग,
स वल लाइंस, इलाहाबाद
2. डॉ0 योगे ताप संह - रामच रतमानस के रचना श प का ववेचन
3. डॉ॰ उदयभानु संह - तु लसीमीमांसा

55
इकाई-11 सू रदास का का य
इकाई क परे खा
11.0 उ े य
11.1 तावना
11.2 क व-प रचय
11.2.1 जीवन-प रचय
11.2.2 रचनाकार - यि त व
11.2.3 कृ तयाँ
11.3 का य वाचन तथा संदभ स हत या या
11.3.1 आयी घोष बडो योपार ।
11.3.2 ल रकाई क ेम कहौ अ ल, कैसे, क रकै छूटत ?
11.3.3 नरगुन कौन दे स को बासी?
11.3.4 अँ खयाँ ह र-दरसन क भू खी ।
11.3.5 हमारे ह र हा रल क लकर ।
11.3.6 अ त मल न वृषभानु कुमार ।
11.3.7 न स दन बरसत नयन हमारे ।
11.3.8 ऊधो! मन नाह ं दस बीस 1
11.3.9 मधुकर! यह कारे क र त ।
11.3.10 ऊधो! मो ह ज बसरत नाह ं ।
11.3.11 पूरनता इन नयनन पूर ।
11.3.12 बलग ज न मानहु ऊधो यारे ।
11.3.13 ऊधो! वरहौ ेम करै ।
11.3.14 ऊधो! ी त न मरन बचारै ।
11.3.15 दे खयत का लंद अ त कार ।
11.3.16 कृ त जोई जाके अंग पर ।
11.3.17 दन गोपाल बै रन भई कं ु जँ ।
11.3.18 संदेस न मधु वन-कूप भरे ।
11.3.19 ऊधो । मन माने क बात ।
11.3.20 ब ये बदराऊ बरसन आए ।
11.4 संदभ और श दावल
11.5 मू यांकन
11.6 सारांश
11.7 अ यासाथ न

56
11.8 संदभ थ

11.0 उ े य
पछल इकाइय म आपने ेम क पीर के गायक जायसी और भ त शरोम ण महाक व
तु लसीदास का अ ययन कया । इस इकाई म हम भि तकाल क सगुण भि त धारा
के मु ख क व तथा कृ ण के अन य उपासक सू रदास के जीवनवृ त तथा उनके का य
संसार का अ ययन करने जा रहे ह । इसे पढ़कर आप-
1. सू रदास के जीवनवृ त क जानकार ा त कर सकगे;
2. सू रदास के यि त व का प रचय ा त कर सकगे;
3. सू रदास क का य कृ तय से प र चत हो सकगे;
4. ' मरगीत सार' के व श ट पद क या या कर सकगे ।

11.1 तावना
इस इकाई म हम महाक व सू रदास के यि त व एवं कृ त व का प रचय ा त करगे ।
सू रदास महान ् कृ ण भ त क व थे । महा भु व लभाचाय जी से भट होने से पूव वे
दा य भाव क भि त म ल न थे, क तु महा भु से भट होने के प चात ् उ ह ने
भागवत के आधार पर भगवान ीकृ ण क ल लाओं म अपनी च तवृि त को रमाया
और सा य भि त-प त क ओर अपनी वृि त क । कृ ण भि त का य धारा का
मू ल ोत ' ीम ागवत' माना जाता है और सू रदास इस भाव स रता को वा हत करने
वाले े ठ क व ह । सूरदास पर सं कृ त के महान ् क व तथा 'गीत गो व द' के
रच यता महाक व जयदे व और मै थल को कल व याप त के कृ ण भि त का य का भी
यापक भाव दे खने को मलता है । महाक व सू र ने अपने द घ जीवनकाल म कृ ण
क आराधना म सवा लाख पद लखे थे । सू रसागर, सा ह य-लहर तथा सू र सारावल
सू र के स थ ह । ' मरगीत सार सू र कृ त सू रसागर' का सवा धक कलापूण,
सरस और ह द सा ह य म स मरगीत-पर परा का जनक माना जाता है । सू र
ने ' ीमदभागवत म व णत उ व-गोपी संवाद के सं त नीरस संग को अपनी सवथा
मौ लक उदभावनाओं वारा अ य त व तृत प दान कर उसे ह द सा ह य का ऐसा
संग बना दया है जो भ व य म भी शताि दय तक इसी कार लोक य बना रहे गा
। सू र-सा ह य के कु छ व श ट पद का वाचन एवं या या भी इस उ े य से द गई है
क आप पद का अथ एवं या या करना जान सक । आइए अब हम महाक व सू रदास
तथा उनके सा ह य पर व तार से चचा कर ।

11.2 क व प रचय
'सू र सू र तु लसी स स उडु गन केसवदास ।
अबके क व ख योत सम जहँ तहँ करत काश।।

57
इस लोक च लत दोहे के अनुसार सू रदास ह द सा ह याकाश के सू य ह । सू रदास ने
अपनी का य तभा के बल पर आ या म, धम, दशन, भि त और सगुण म को
साकार प म ति ठत कर दया । सू र क का य कला ने का य के धरातल को शीष
पर पहु ँ चाया । उ ह ने अपने अ तर- पश से िजन वषय को अ भ य त कया, वे
वषय ध य हो उठे । सू रदास अपने युग म ऐसे काश- त भ वन कर अवत रत हु ए'
ह क हम आज तक उसी काश म मानवीय स ाव का आनंद ा त कर रहे ह और
भ व य म भी अन त काल तक सू र का भाव अ ु ण बना रहे गा ।।

11.2.1 जीवन-प रचय

कृ ण भि त शाखा के अमर गायक, पुि टमाग के जहाज, वा स य और गृं ार के


कु शल च कार महाक व सू र का जीवन वृत भी अंधकार क ोड (गोद) म छपा हु आ
है । अ य भ त क वय के समान ' वा त: सु खाय' रचना करने वाले सू र ने अपने
का य म वयं का प रचय दे ना उ चत नह ं समझा । यह कारण है क सूर के जीवन
के व भ न प , समय, थान, वंश, अंध व आ द के वषय म व वान म पया त
मतभेद है । फर भी उनके जीवन मृत का नधारण करने के लए हम जो साम ी
उपल ध होती है, वह दो कार क है –
1. अ तःसा य और
2. ब हसा य
अ तःसा य साम ी के अ तगत सू र के वे आ म वषयक कथन आते ह जो उनके पद
म यं -तं उपल ध होते ह । य य प सू र ने प ट प से कह ं भी अपने बारे म कु छ
नह ं कहा है, क तु उनके वणन म कह -ं कह ं ऐसे उ लेख ा त हो जाते ह, िजनम
उनके जीवन एवं यि त व क अ प ट झलक दखाई दे जाती बा य सा य म वे सभी
रचनाएँ सि म लत क जा सकती ह जो उनके समकाल न एवं परवत क वय वारा
सृिजत ह । इनम चौरासी वै णव क वा ता, ह रराय कृ त 'भाव काश ट का', नाभादास
कृ त 'भ तमाल', 'अ टसखामृत , भ त वनोद, राम र सकावल आइने अकबर , मू ल
गु स
ं ाई च रत आ द मु ख ह ।
नामकरण :
सू र के पद म सू र, सू रजदास, सू रज, सू रदास और सू र याम ये पाँच नाम आते ह ।
आचाय मु शीराम शमा सभी नाम को सू रदास के मानते ह । सू र नणय के लेखक ने
'अ ट-सखामृत के आधार पर उनका नाम सू रजदास माना है । 'सा ह य लहर ' के पद
म सू रज चंद लखा है । क तु सू रदास जी का वा त वक नाम सू रदास ह था य क
'वा ता-सा ह य' म इ ह सू र या सू रजदास ह कहा गया है ।
ज म तथ :
सू र क ज म- त थ के संबध
ं म व वान म पया त मतभेद रहा है, क तु आधु नक
खोज से यह ववाद ाय: समा त हो गया है और लगभग सभी ने सू र क ज म त थ

58
बैसाख शु ल पंचमी संवत ् 1535 व. को वीकार कर लया है, इसक पुि ट के लए
न न ल खत माण तु त कए जा सकते ह :
1. सू र नणय के लेखक ने अ त:सा य के आधार पर सू र का ज म-संवत ् 1535
व म ह नि चत कया है ।
2. व लभ-स दाय क मा यता के अनुसार सू रदास महा भु ब लभाचाय से आयु म
10 दन छोटे थे । महा भु का ज म संवत ् व 535 व. बैसाख कृ ण दशमी
र ववार नि चत है । अत: सूर क ज म त थ बैसाख शु ल पंचमी, मंगलवार संवत
1535 व. स होती है ।
3. सू र के द ा गु ब लभाचाय जी के. वंशज भ जी ने प ट श द म लखा है -
'' कटे भ त शरोमणी राय
माधव शु ला पंचमी, ऊपर छ अ धक सु खदाय ।''
4. नाथ वारा के मं दर म सू र का ज म दन बैसाख शु ल पंचमी को मनाये जाने क
पर परा बहु त ाचीन है ।
ज म- थान:
सू र क ज म-भू म के संबध
ं म न न ल खत चार थान क स है –
1. गोपाचल - डॉ. पीता बरद त बड़ वाल ने वा लयर का नाम 'गोपाचल' स कया
है और इसे ह सू र क ज म भू म माना है ।
2. मथुरा म कोई ाम - क व मयाँ संह ने 'भ त वनोद' म सू र का ज म थान
मथुरा के पास कोई ाम माना है ।
'मथुरा ा त व कर गेहा भो उ प न भ त ह र नेहा ।
3. नकता - आचाय रामच शु ल ने अपने ' ह द सा ह य का इ तहास म सू र का
ज म थान ' नकता लखा है । डॉ. याम-सु दर दास ने भी सू र क ज मभू म
' नकता ह मानी है' इसका कारण कदा चत सू रदास का गऊघाट पर रहना है, जो
नकता से कु छ दूर पर है ।
4. सीह - 'वा ता-सा ह य' म सू रदास क ज मभू म सीह नामक थान को माना
गया है । 'चौरासी वै णवो' क वा ता के भाव काश म ी ह रराय जी ने सबसे
पहले सू रदास जी का ज म थान द ल से चार कोस क दूर पर सीह ाम
बतलाया था । 'अ टसखामृत ' म भी सू र का ज म सीह ह माना गया है-
'' ी ब लभ भू ला डले, सीह सर जलपात ।
सारसु ती दुज त सु फल, सू र भगत व यात।।''
आज अ धकांश व ान सीह को ह सू र क ज म थल मानते ह ।
जा त तथा वंश :
सू रदास क जाती एवं वंश के वषय म भी पया त मतभेद है । कु छ व ान इ ह भाट
तो कु छ भ ा मण मानते है, तो कु छ ढाढ या जगा जा त का मानते ह । पु ट

59
माण के आधार पर सू रदास जी सार वत ा मण थे । वा ता-सा ह य म भी इ ह
सार वत ा मण बताया गया है । इसक पुि ट इस बात से भी होती है क द ल के
आसपास सार वत ा मण ह रहते ह । अत: सू रदास सार वत ा मण ह थे ।
अंध व :
ं म लगभग सभी एकमत ह. क तु सू र ज मा ध थे या
सू रदास के अंध व के संबध
बाद म अ धे हु ए. इस वषय म व वान म पया त मतभेद है । वा ता-सा ह य - म
भी उ हे ज मांध माना गया है । सू रसागर के अनेक पद सू र के अंध व के माण म
दए जा सकते ह -
''सू रदास स बहु त नठु रता नैन न हू क हा न ।''
एवं
''नाथ मो ह अब क बेर उबारो ।
करमह न जनम को आँधो, मोते कौन न कार ।''
क तु कु छ आलोचक का मानना है क एक ज मांध क व न तो नख- शख वणन क
सू मता तक पहु ँ च सकता है, और न वाि वद धता के च तु त कर सकता है ।
क तु यह स य है क ज म से अंधा ह 'सू रदास' कहलाता है और भु के स चे भ त
के लए व व के नगूढ़ रह य भी खु ल जाते ह । अत: सू र को ज मांध ह माना
जाना चा हए ।
वैरा य तथा स दाय वेश - वामी ह रराय जी के भाव- काश के अनुसार केवल छ:
वष क अव था म ह सू रदास वर त होकर अपने गाँव से चार कोस क दूर पर
तालाब के कनारे , पीपल के वृ के नीचे रहने लगे थे । वह ं वे 18 वष क उ तक
रहे । इसके प चात ् मथु रा-आगरा के बीच गौघाट पर रहने लगे । यह पर 1580 म -
उ ह ने - महा भु व लभाचाय से द ा ा त क ।
अकबर से भट :
'चौरासी वै णवो क वा ता' के अनुसार द ल से आगरा जाते समय अकबर सू रदास जी
से मले थे । कं वद ती है क अपनी सभा के स गायक तानसेन वारा सू र का
कोई पद सु नकर अकबर सू र से मलने के लए लाला यत हो उठा । डॉ. हरवंशलाल
शमा का मत है क अकबर सन ् 1579 क अजमेर या ा म फतेहपुर सीकर से लौटता
हु आ, रा ते म मथुरा म उनसे मला हो ।
का य रचना :
कहा जाता है क सू र ने सवा लाख पद क रचना क थी क तु सू र से संबं दस
हजार पद भी नह ं मलते । इनम भी काफ पद क ामा णकता सं द ध है।
गोलोकवास :
ज म त थ क ह भाँ त सू र क मृ यु - त थ के संबध
ं म पया त मतभेद है ।

60
व भ न व वान ने उनक मृ यु त थ संवत ् 1620 से 1642 के बीच मानी है ।
म -बंधु ओं ने सू र का नधन संवत 1620 माना है । क तु अ त:सा य एवं
बा मसा य के आधार पर संवत ् 1640 तक सू र क उपि थ त स होती है ।
ऐ तहा सक सा य के अनुसार सू र और अकबर क भट संवत 1630 से पहले स भव
नह ं । अत: सूर का गोलोकवास संवत ् 1631 के बाद ह मानना चा हए ।

11.2.2 रचनाकार - यि त व

महाक व सू र कृ ण भ त के प म च चत रहे । उनके वारा र चत पद म अपने


आरा य कृ ण क बाल ल लाओं का मम पश च ण है । उनके भ त दय से जो
अ भ य त हु आ वह उनक रचनाओं के मा यम से हमारे सम अनेक कृ तय के प
म आज भी व यमान है । 'सू र सागर' एक अमर थ है । कृ ण के साथ तादा मय
हो जाने के कारण उनका यि त व गौण हो गया और वे कृ णमय हो गए । यह सू र
का सू र व है । इसके बारे म कहा गया है -
'' कं धौ सू र को सर ल यौ कं धौ सू र क पीर ।
कधौ सू र को पद ल यौ, तन-मन धु नत शर र।।''

11.2.3 कृ तयाँ

महाक व सू र व लभाचाय जी से द ा लेने के पूव से ह का य-सृजन म ल न थे । तब


से लेकर जीवन पय त उनक दय वीणा के वर व भ न राग-राग नय के मा यम से
व नत होते रहे । 'वा ता-सा ह य' एवं समकाल न ऐ तहा सक थ म वैसे तो सू र क
कसी भी रचना का उ लेख नह ं मलता है, क तु इस बात का संकेत अव य मलता
है क सू र ने सह ाव ध पद अथवा सवालाख पद क रचना क थी । काशी नागर
चा रणी सभा क खोज रपोट, इ तहास थ
ं एवं पु तकालय म सु र त थ
ं के
आधार पर अब तक िजन ं का पता चला है उनक सं या 25 बताई गई ह -

1. सू र सारावल
2. भागवत-भा य
3. सू र-रामायण
4. गोवधन ल ला
5. भंवरगीत
6. ाण यार
7. सू रसाठ
8. सू रदास के वनय आ द के फुट पद
9. एकादशी महा य
10. दशम ् कंध भाषा
11. सा ह य लहर

61
12. मान-ल ला
13. नाग ल ला
14. ि टकूट के पद
15. सू रपचीसी
16. नल दमय ती
17. सू रसागर
18. सू र-सागर सार
19. राधारस के ल कौतू हल
20. दान ल ला
21. याहलो
22. सू रशतक
23. सेवाफल
24. ह रवंश ट का (सं कृ त)
25. रामज म
इन थ
ं ो म कु छ का शत और कु छ अ का शत ह ।
डी. द नदयाल गु त ने केवल सू रसागर, सू र सारावल तथा सा ह य-लहर को ह सू र क
ामा णक रचनाएँ माना है । वा रका साद पा रक एवं भु दयाल म तल ने अपने
का य ं 'सू र नणय' म सू र क सात
थ ामा णक रचनाएँ मानी ह-
1. सू र सारावल
2. सा ह य लहर
3. सू र सागर
4. सू र साठ
5. सू र पचीसी
6. सेवाफल
7. सू र के वनय संबध
ं ी फुट पद
आधु नक आलोचक ने सू र क तीन रचनाओं को ह ामा णक माना है –
1. सू र सारावल
2. सा ह य लहर
3. सू र सागर
इनक ि ट म अ य थ
ं या तो सू र सागर के ह अंश ह अथवा उनको सू र कृ त मान
लया गया है य क उनम कह -ं कह ं सू र के नाम क छाप है । अत: इनक
ामा णकता सं द ध है ।

62
सू र सागर -
सभी व ान इस वषय म एकमत ह क महाक व सू र ने कृ ण भि त म डू बकर
सह पद लखे ह । िज ह का य जगत म सू रसागर के नाम से जाना. जाता है ।
'वा ता सा ह य' म सूर-सा ह य के वषय म दो उि तयाँ अलग-अलग तर के से लखी
हु ई ह
थम - ''सू रदास जी ने सह ाव ध पद कये ह
ताको सागर क हये सो जगत म स भये ।''
वतीय - ''सो तब सू रदास जी मन म वचारै
जो म तो मन म सवालाख क तन कट क रबे को संक प कयो है।
सो तामे त लाख क तन तौ कट भये है।
सो भगवत इ छा ते प चीस हजार क तन ओर कट करने ह
'सू र सारावल ' म भी इसी से मलती-जु लती बात कह गई है -
'ता दन ते ह र ल ला गाई एक ल पद बंद
ता को सार 'सू र-सारावल ' गावत अ तआन द ।'
य य प ह रराय जी ने प ट प से सवालाख पद का उ लेख कया क तु अब तक
के अनुसंधान के फल व प केवल 8 - 10 हजार पद ह ा त हो सके ह । डॉ. याम
सु दर दास ने अपने ं ' ह द भाषा और सा ह य' म केवल 8 हजार पद माने ह ।

जब क शव संह 'सरोज' ने सू र के पद क सं या 6 हजार मानी है । वा रका साद
पा रक और भु दयाल म तल ने 'सू र नणय' म सू र के पद क सं या ग णत के
आधार पर 93 हजार 350 मानी ह तथा इनके अ त र त ल ला संबध
ं ी अनेक पद
अलग से गनाए ह । य द उन सबक गनती क जाए तो सू र के पद क सं या सवा
लाख से भी कह ं अ धक पहु ँ चती है ।
सू र-सारावल :
यह थ
ं सव थम वकटे वर ेस, ब बई और नवल कशोर ेस, लखनऊ से 'सू र सागर
के सं करण के ार भ म छापा गया था । इसी लए कुछ व ान इसे सू रसागर का
सार या उसक भू मका भी मानते ह । इसके पद क सं या 1107 ह । थ
ं का
ार भ इस कार होता है,
'अथ ी सू रदास जी र चत सू रसागर सारावल तथा सवा लाख पद का सूची प । '
सू र सारावल का थम पद है.
'बंदौ ी ह रपद सु खदाई ।
तु त थ
ं म सू रदास जी ने इस संसार को होल का पक दान कया ह, िजसम
ल ला पु ष क अदभूत ल लाएँ नरं तर चलती रहती ह । ड़ा करते-करते भगवान को
सृि ट रचना का वचार आया और उ ह ने वयं म से ह काल-पु ष क अवतारणा क ,
िजसम माया ने ोभ उ प न कया । िजससे कृ त के सत,् रज व तम तीन गुण

63
कट हु ए और इन तीन गुण से – पंचमहाभू त, चार अंतःकरण और दस ाण क
उ पि त हु ई । इस कार 28 त व का ादुभाव हु आ । त प चात ् नारायण क ना भ
से कमल, कमल से मा का उदभव हु आ । मा ने सौ वष तक तप कया िजसके
फल व प उ ह ह र के दशन हु ए । फर उ ह ने मा क सृि ट नमाण क आ ा द
और मा ने 14 लोक, बैकं ु ठ , पाताल क रचना होल के खेल के प म ह कर डाल
। मा के 10 पु हु ए तब शत पा और वयंभू का ज म हु आ और भगवान ने पृ वी
क र ा के लए वराह अवतार धारण कया । इस कार व भ न छ द म लोकपाल .
बन, उपवन, नद पवत 24 अवतार आ द क कथा कह गई और छं द सं या 360 से
कृ णावतार क कथा ारं भ होती है, िजसम कृ ण से संबं धत सम त ल लाओं का
वणन है । इस थ
ं क ामा णकता पर व ान एकमत नह ं ह । आचाय मु ंशीराम
शमा तथा 'डी. द नदयाल गु त इसे ामा णक मानते है । डॉ द नदयाल गु त का कहना
है क, चार-छ: श द को पकड़कर जो संभवत: अब तक के छपे सू र सागर म. नह ं
मलते, इस ' थ
ं को सू र कृ त न कहना उ चत नह ं है । त श द व वा य सू र के
सभी थ
ं म हो सकते है ।
जब क डॉ. जे वर बमा ने इसे अ ामा णक मानते हु ए लखा है, उपयु त ववेचन के
न कष व प यह न संकोच कहा जा सकता है क कथाव तु भाव भाषा शैल और
रचना के ि टकोण के वचार से 'सू र सारावल ’ सूर दास क ामा णक रचना नह जान
पड़ती । तथाक थत आ मकथन और क व छाप से भी यह सकते मलता है''
अत: यह थ
ं ामा णक हू ँ या अ ामा णक इसक गहराई म जले से पूव यह कहा जा
सकता है क यह थ
ं होल गान के प म लखा गया है । आचाय मु श
ं ीराम शमा ने
ं म लखा है अत: हमार समझ म सारावल एक 'वृहद होल ' नाम का गीत
इस संबध
है. िजसक टे र है -
'खेलत यह व ध ह र होर हो वेद- व दत यह बात ।'
इसी एक गीत क 1107 क ड़याँ ह जो सारावल के छं द के प म कट क गई ह ।
सा ह य लहर -
'सा ह य लहर ' महाक व सू र के उन पद का सं ह है िज ह ' ि टकूट' कहा जाता है ।
इसम रस. अलंकार और ना यका-भेद जैसी रचना शैल व यमान है । इसम कु ल 118
पद ह । य य प इस थ
ं क कोई ाचीन ह त ल खत त नह ं मलती है क तु
नागर चा रणी सभा क रपोट म सू रदास जी के ि टकू ट सट क तथा 'सू रशतक' नाम
क रचनाओं का उ लेख है । इस थ
ं क दो ट काएँ भी का शत हो चु क ह । नवल
कशोर ेस, लखनऊ से सरदार क व क ट का दो भाग म का शत हु ई है । इसके
थम भाग म 118 और दूसरे भाग म 63 पद ह । इस ं का नाम ' ी सू रदास के

ि टकू ट सट क' ह । इस थ
ं क दूसर ट का ख ग वलास ेस, बांक पुर से का शत
हु ई है, िजसके सं हकता भारते दु ह र चं ह ।

64
सा ह य लहर म ि टकूट पद का सं ह है और इनका वषय राधा का नख- शख
वणन एवं मु त सौ दय वणन है । इन पद म ना यका-भेद जैसे वषय पर चचा क
गई है और कह ं-कह ं गृं ार को अ ल लता के चरम शखर तक पहु ँ चा दया गया है ।
इसी लए सा ह यकार का एक प इसे अ मा णक मानता है । आलोचक का कहना है
क सूर जैसे भ त क व को घोर गृं ा रक रचनाएँ लखने क या आव यकता थी ।
डॉ. जे वर वमा सा ह य-लहर को ामा णक थ
ं नह ं मानते ह । जब क आचाय
मु ंशीराम शमा ने इसे पूण ामा णक थ माना है और इसके 118 द पद को आधार
बनाकर अनेक क पनाएँ कर डाल ह य क यह एक ऐसा पद है िजसको लेकर
सा ह य लहर को अ ामा णक बताने का यास कया है ।
डी. द नदयाल गु त ने इसक ामा णकता के वषय म कहा है
“सा ह य लहर सू रदास के ि टकू ट पद का थ
ं है िजसका संकलन सू र के ह जीवन
काल म हो गया था । इसक रचना के बाद भी सू र ने ि टकू ट पद लखे और लोग
ने उ ह सू र-सागर से छांटकर मू ल 'सा ह य-लहर म मला दया । यह थ
ं य यप
सू रसागर का अंश कहा जा सकता है फर भी एक वत ं है, जो अपनी नजी

वशेषताएँ रखता है ।”
'सा ह य लहर म राधा का नख- शख वणन, गृं ार का उ मु त वणन, ना यका भेद
जैसे वषय च त कए गए ह, इसी लए महाक व सू र पर इस थ
ं को लेकर आरोप
लगाया जाता है क सू र जैसे भ त क व को वषय-वासना के सागर म गोते लगाने क
या आव यकता थी?
उपयु त न क इ त ी डॉ. हरवंश लाल शमा के 'श द म क जा सकती है. 'अपनी
पव भावना के बल पर सांसा रकता के धरातल से बहु त ऊँचे उठे सूर ने अपने
आरा य क अनेक णय पु य ल लाओं के मधुर गान का जो मर उठाया है उसम
सरसता है क तु कदम (क चड़) नह ं व वलता है क तु वासना नह ,ं स दय रसपान
क पपासा है क तु इि य लोलु पता नह ं ।'

11.3 का य वाचन तथा संदभ स हत या या


11.3.1 आयो घोष बढ़ो योपार

आयी घोष बढ़ो योपार ।


ला द खेप गुन ान-जोग क , ज म आय उतार ।।
फाटक दै कर हाटक माँगत, भोरै नपट सु धार ।
धु र ह तै खोट खायो है, लये फरत सर भार ।।
इनके कहे कौन डहकावै, ऐसी कौन अजानी?
अपनो दूध छाँ ड को पीवै, खार कू प को पानी।।
ऊधो जाहु सवार यहाँ तै, बे ग गह ज न लावौ ।

65
मु ँह माँ यो पैहो सू रज भु, साहु ह आ न दखावौ।।
संदभ - तु त प यांश भि तकाल क सगुण का यधारा क कृ ण भि त शाखा के
मु ख क व, पुि टमाग के जहाज, महाक व सू रदास वारा र चत ' मरगीत सार से
लया गया है ।
संग - इस पद म गो पयाँ उ व के ान योग के उपदे श पर यं य करती हु ई आपस
म वातालाप कर रह ह ।
या या - गो पयाँ कहती ह क आज हमार अह र क ब ती म एक बहु त बड़ा
यापार आया है । उसने ान और योग के गुण से स प न माल क खेप यहाँ ज
म (बेचने के लए) उतार है । इसने यहाँ के लोग को इतना अ धक भोला समझ
लया है क न सार व तु ( नगु ण म) दे कर वह उसके बदले म हमसे वण ( वण
के समान बहु मू य कृ ण) माँगता है । पर तु इस यापार का माल खोटा है, इस लए
इसे ार भ से ह अपने इस यापार म हा न उठानी पड़ रह है । अथात इसका माल
कोई नह ं खर दता. इस लए उसका भार बोझ सर पर उठाये इधर-उधर भटक रहा है ।
यहाँ ज म ऐसा कौन अ ानी है जो इसक बात म आकर धोखा खा जाय अथात ्
इसका माल खर द ले । अपने घर का मीठा दूध यागकर, ऐसा कौन मू ख है जो खारे
कुँ ए का पानी पये ।
हे उ व! तु म यहाँ से शी ह चले जाओ, जरा भी दे र मत लगाओ । य द तु म अपने
साहु (कृ ण िज ह ने तु ह यहाँ माल दे कर बेचने भेजा है) को यहाँ लाकर हम उनके
दशन करवा दोगे तो बदले म तु ह मु ँहमाँगी क मत मलेगी ।
श दाथ - घोष-अह र का गाँव । खेप-माल का बोझ । फाटक-फटकन, भू सा । हाटक-
वण । धार -धारणा बनाकर, समझकर । धुर - ार भ मू ल । डहकावै-ठगाया जाय, धोखा
खाए । अजानी-अ ानी । खारकू प-खारे जल का कु आँ । सबार-शी । बे ग-ज द ।
गह -दे र, वल ब । आ न-लाकर । साहु-महाजन ।
वशेष -
1. उ व के ान योग को न सार व तु घो षत कर उसका तर कार कया गया है ।
2. तु त पद म कृ ण ेम को अमू य तथा ान योग से ा त म को न सार
घो षत कया गया है ।
3. स पूण पद म पक और अ योि त अलंकार का योग कया गया है ।
4. 'फाटक दे कर हाटक माँगत भोरै नपट सु धार लोकोि त का योग हु आ है ।
5. 'भ सना संचार के साथ-साथ मृ त और आवेग भी है ।

11.3.2 ल रकाई कौ ेम, कहौ अ ल, कैसे, क रकै छूटत?

ल रकाई क ेम, कह अ ल, कैसे, क रकै छूटती?


कहा कह जनाथ-च रत अब, अ तरग त य लू टत।।
चंचल चाल मनोहर चतवन, वह मु सु का त मंद धु न गावत ।

66
नटवर भेस नंदनंदन को, वह वनोद गृह इनते आवत।।
चरनकमल क सपथ कर त ह , यह संदेश मो ह वष सम लागत
सू रदास मो ह न मष न बसरत मोहन मू र त सोवत जागत ।
संदभ - तु त पद गृं ार एवं वा स य रस के स ाट महाक व -सू रदास हास र चत है।
संग - गो पयाँ बाल साहचय-सपूत ेम क एक न ठता का मा मक वणन कर रह ह ।
या या - गो पयां उ व से कहती है क हे उ व! यह बताओ क बाल साहचय - से
उ प न ेम कस कार छूट सकता है। हम ज के वामी कृ ण क ल लाओं का कहाँ
तक वणन करे ? उनक ल लाओं का यान हमारे मन को सहज प से उनक ओर
आक षत करता रहता है । अथात ् उनका मरण आते ह हम अपनी सु ध-बुध खो बैठती
ह । उनक वह चंचलता से यु त चाल, वह मनोहर ि ट, वह मधु र मु कान और धीमे
- धीमे वर म गाना हम कभी भी नह ं भूलता । उनका वह नटवर वेश धारण करके
वनोद करते हु ए वन से घर को लौटना हमार मृ त म सदै व छाया रहता है ।
हम ीकृ ण के चरण-कमल क सौगंध खाकर कहती ह क उनका यह संदेश (उ ह
भू लकर म क आराधना करने का संदेश) हम वष के समान घातक लगता है । हम
तो सोते और जागते हु ए कृ ण क वह मोहक मू र त एक पल के लए भी नह भू लती
ह ।
श दाथ - ल रकाई-बचपन । अ तरग त-मन च त क वृि त ।
न मष-पलभर को भी । बसरत-भू लना ।
वशेष-
1. यह एक मनोवै ा नक त य है क बचपन के सं कार अ मट रहते ह ।
2. ल रकाई क ेम म एक अदभूत मा मकता और दय को छू लेने क मता है।
3. ' मृ त ' संचार भाव का च ण है ।
4. व लंभ गृं ार रस है ।
5. अनु ास , उपमा व पक अलंकार का योग हु आ है ।

11.3.3 नरगुन कौन दे स को बासी?

नरगुन कौन दे स को बासी?


मधुकर ! हँ स समु झाय, स ह दै बूझ त सींच, न हाँसी ।
को है जनक जन न को क हयत कौन ना र को दासी।।
कैसो बरन, भेस है? कैसी, के ह रस म अ भलासी।।
पावेगो पु न कयो आपनो जो रे कहैगो गाँसी ।
सु नत मौन हे वे रहो ठ यो सौ, सू र सबै म त नासी।।
संदभ - तु त पद सगुण उपासक, कृ ण के अन य भ त महाक व सू रदास वारा
र चत ' मर गीत सार' म से लया गया है ।

67
संग - तु त प यांश म सू रदास ने गो पय के मा यम से नगु ण म क उपे ा
और सगुण म क थापना का यास कया है ।
या या - गो पयाँ नगु ण म पर यं य करती हु ई उ व से पूछती ह क, हे उ व!
तु हारा नगु ण कस दे श का रहने वाला है । (हम तो अपने सगुण कृ ण का नवास
जानती ह) हे मधुकर ! हम हँ सकर अथात स न मन से यह सब समझा दो । हम
तु ह सौगंध दे कर सच-सच पूछ रह ह । तु हारे साथ मजाक नह ं कर रह ह । अब
यह बताओ क तु हारे नगु ण म का पता कौन है, उनक माँ कौन ह, कौन उनक
प नी है और उनक सेवा करने वाल दासी कौन है? उसका रं ग और वेश-भू षा कैसी है
और उसे कौन सा रस अ छा लगता है?
फर गो पयाँ मर के मा यम से कहती ह क - हे मर! य द तू ने कोई कपट क
बात कह , झू ठ कहा तो तु झे अपनी करनी का फल भु गतना पड़ेगा । गो पय के मु ख
से नकल इन बात को सु नकर उ व मौन हो गए और ठगे से रह गए । ऐसा लग
रहा था क जैसे उनक सार बु ह न ट हो गई । अथात ् वह कं क त य वमू ढ़ हो
कु छ भी उ तर नह ं दे सके ।
श दाथ- स ह-सौग ध कसम । बरन-वण, रं ग । गाँसी-गाँस सा कपट क बात । ठ यो
सौ-ठगा हु आ सा, ति भत । नासी-न ट हो गई ।
वशेष-
1. तु त पद म यं या मक शैल म नगु ण म का ख डन कया गया है ।
2. गो पय का वा वैद ध ट य है ।
3. उप नषद ने िजस ं म ने त-ने त कहा है. उस
म के संबध म का न पण
बेचारे उ व कैसे कर पाते!

11.3.4 अँ खयाँ ह र-दरसन क भू खी

अँ खयाँ ह र-दरसन क भू खी ।
कैसे रह परसराची ये ब तयाँ सु न खी ।
अव ध गनत इकटक मग जोवत तब एती नह ं सू खी ।
अब इन जोग-संदेसन ऊधो अ त अकु लानी दूखी।।
बारक वह मु ख फे र दखाओ दु ह पय पवत पतखी ।
सू र सकत ह ठ नाव चलायी ये स रता है सू खी।।
संदभ- तु त पद रागानुराग भि त के उपासक, कृ ण ेम व सौ दय के चतेरे
महाक व सू रदास वारा र चत है ।
संग - गो पय क कृ ण के त ेम क अन यता एवं एक न ठता का महाक व सू र
ने दय पश च ण कया है ।
या या - गो पयाँ उ व से कहती ह क हमारे ये ने सदै व कृ ण दशन के लए
लाला यत रहते ह । ये आँख कृ ण के प और उनके ेम रस म पगी हु ई ह, उनम ह

68
पूणत: अनुर त ह । फर तु हारे नीरस योग क बात सुनकर ये कैसे धैय धारण कर
सकती ह? जब ये आँखे कृ ण के लौटकर आने क अव ध का एक-एक दन गनती
हु ई टकटक बाँधे माग क ओर दे खा करती थीं, उस समय भी इतनी संत त नह हु ई
थी । पर तु अब तु हारे इन योग के संदेश को सु नकर याकु ल और दुःखी हो उठ ह
। हमार तु मसे केवल यह ाथना है क हम कृ ण के उस मु ख के एक बार दशन करा
दो, िजस मु ख से वह प ते के दोने म दूध दुहकर पान कया करते थे । तु म हम योग
का उपदे श दे कर वैसा ह असंभव काय करने का य न कर रहे हो, जैसे कोई सू खी हु ई
नद क बालू म हठपूवक नाव चलाने का य न करे । अथात कृ ण- ेम म अनुर त
हमारे दय पर तु हारे योग का भाव पड़ना असंभव है ।
श दाथ - भू खी- याकु ल । परस राची- प के रस म पगी हु ई । गनत- गनते हु ए ।
झू खी-संत त, दुखी । बारक-एक बार । दु ह - दुहकर । पय-दूध । पतूखी-प ते का दोना
। सकत - रे त, बालू ।
वशेष-
1. व लभ स दाय क पुि टमाग य वचारधारा का भाव है ।
2. रागानुराग भि त म उपा य के प और रस क धानता रहती है ।
3. सू खी नद म नाव चलाने का य न करने के लौ कक यवहार के उदाहरण वारा
नगु ण म का नराकरण और संभा यता द शत क गई है ।
4. बारक..... पतू खी म मरण अलंकार,
सू र ........ सू खी म नदशना अलंकार
'ये स रता है सू खी' म पका त योि त अलंकार है ।
5. व ल भ गृं ार क मा मकता है । ।

11.3.5 हमारे ह र हा रल क लकर

हमारे ह र हा रल क लकर ।
मन-बच- म नंद नंदन स , उर यह ढ क र पकर ।।
जागत, सोवत, सपने, स तु ख, का ह-का ह जकर ।
सु नत ह जोग लगत ऐसी अ ल! य क ई ककर ।।
सोई या ध हम लै आए, दे खी, सु नी न कर ।
यह तौ सू र त ह लै द जे, िजनके मन चकर ।।
संदभ- तु त पद महा भु व लभाचाय के श य, अ टछाप के मु ख क व, द य ि ट
संप न महाक व सू रदास वारा र चत है ।
संग- सू रदास ने कृ ण के त गो पय के एक न ठ व ढ़ ेम का मा मक च ण
कया है ।
या या - गो पयाँ उ व से कहती है क कृ ण तो हमारे लए हा रल प ी क लकड़ी
के समान वन गए ह । अथात ् िजस कार हा रल प ी, चाहे कसी भी ि थ त म हो,

69
वह सदै व अपने पंज म लकड़ी को पकड़े रहता है । उसी कार हम भी नर तर कृ ण
का ह यान करती रहती ह । हमने मन, वचन और कम से न द न दन पी लकड़ी
को, अथात ् कृ ण के प और उसक मृ त को अपने मन वारा कसकर पकड़ लया
है । अब उसे हमसे कोई नह ं छुड़ा सकता । हमारा मन जागते, सोते, व न या
य म, चाहे कसी भी दशा म य न हो, सदै व 'कृ ण-कृ ण क रट लगाये रहता
है, उ ह ं का मरण करता रहता हे उ व! तु हार योग क बात सु नते ह हम ऐसा
लगता है, मानो कडवी ककड़ी खाल हो । अथात योग क बात हम नता त अ चकर
लगती ह । तु म हमारे लए योग पी ऐसी बीमार ले आए हो, िजसे हमने न कभी
दे खा, न सु ना और न कभी भु गता ह है । इस लए तु म अपनी इस बीमार को तो उन
लोग को जाकर दो, िजनके मन चकई के समान सदै व चंचल रहते ह । योग का
उपदे श तो अि थर मन वाल को दया जाता है. जब क हमारे मन तो पहले से ह
कृ ण ेम म ि थर ह ।
श दाथ - हा रल क लकर -एक प ी, जो अपने पंज म सदै व कोई-न-कोई लकड़ी का
टु कड़ा या तनका ढ़ता से पकड़े रहता है । म-कम । स तु ख- य । जक-रट, धु न
। क ई-कडवी । ककर -ककड़ी । या ध-बीमार । चकर -चंचल, चकई के समान सदै व
अि थर रहने वाला ।
वशेष-
1. यहाँ नगु ण के उपदे श को ' या ध कहकर' उसक अवहे लना क गई है ।
2. वरह क लापाव था का च ण है ।
3. जभाषा का माधु य है ।
4. सु नत ह ..... ककर म उपमालंकार, हा रल क लकर म पक अलंकार है

11.3.6 अ त मल न वृषभानु कुमार

अ त मल न वृषभानु कु मार ।
ह र- मजल अंतर-तनु भीगे, ता लालच न धु आव त सार ।
अधोमु ख रह त उरध न हं चतव त, य गथ हारे थ कत जु आर ।
छूटे चहु र, बदन कु ि हलाने य न लनी हमकर क मार ।.
ह र-संदेस सु न सहज मृतक भई, इक बर ह न दूजे अ ल जार ।
सू र याम बनु य जीव त है, जब नता सब याम दुलार ।
संदभ- तु त पद ह द सा ह याकाश के सू य, भगवान कृ ण क माधु यमयी ल लाओं
के चतेरे महाक व सू रदास वारा र चत है ।
संग- क व ने कृ ण वरह म स त त राधा क अ य त द न-ह न दशा का मा मक
च ण कया है।

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या या- गो पयाँ उ व से कहती ह क वृषभानु कु मार राधा कृ ण के वरह म अ यंत
मल न रहने लगी ह । वह अपने व को साफ नह ं करतीं, मैल साड़ी पहने रहती ह
। इसका कारण है क कृ ण के साथ के ल- ड़ा करते समय ेमावेश के कारण कृ ण
के शर र से नकले हु ए पसीने से राधा का सवाग और साड़ी भीग गई थी । इसी
लालच के कारण वह उस साड़ी को नह ं धु लवाती । वह सदै व मु ख नीचा कए हु ए
उ ह ं पूव मधुर मृ तय म खोई रहती है, कभी मु ख उठाकर ऊपर नह ं दे खती ।
उसक दशा उस जु आर के समान हो गई है, जो जु ए म अपनी सार पूँजी हार गया हो
और नीचा मु ख कए उदास बैठा हो । उसके बाल बखरे रहते ह और मु ख कु हलाया
रहता है । उसक दशा उस कम लनी के समान न भ और दयनीय हो उठ है, िजस
पर पाला पड़ गया हो । वह एक तो पहले ह कृ ण क व हरणी बनी हु ई थी, उस पर
भ रा बार-बार उसके पास आकर अपने प और गुण -सा य वारा कृ ण का मरण
कराकर उसे य थत करता रहता है । एक तो उसका यह दुःख ह असहनीय था, ऊपर
से उ व वारा लाए गए संदेश को सु नकर तो वह मृत ाय हो गई है । ऐसी वषम
ि थ त उस अकेल राधा क ह नह ं है, कृ ण क दुलार सभी जव नताओं क भी
ऐसी ह ि थ त है ।
श दाथ- मल न-मैल , उदास । ह र मजल-कृ ण के साथ क गई ेम- डाओं के
समय शर र से नकला हु आ पसीना । गथ-पूँजी । चहु र-केश । बदन-मु ख । न लनी-
कम लनी । हमकर-ओस ।
वशेष -
1. वर हणी राधा क ि थ त का मा मक च ण कया गया है ।
2. वरह क अि तम अव था 'मरण' का च ण है ।
3. उपमा, उ े ा और अनु ास अलंकार क छटा दशनीय है ।

11.3.7 न स दन बरसत नयन हमारे

न स दन बरसत नयन हमारे ।


सदा रह त पावस ऋतु हम पै, जब त याम सधारे ।।
ग अंजन लागत नह ं कबहू ँ उर-कपोल भए कारे ।
कंचु क न हं वत सुनु सजनी! उर- बच बहत पनारे ।
सू रदास भु अंबु ब यो है, गोकु ल लेहु उबारे ।
कहँ ल ं कह ं यामघन सु दर, वकल होत अ तभारे ।।
संदभ- तु त पद भ त शरोम ण, ती वेदनानुभू त क भाव स रता वा हत करने
वाले महाक व सू र वारा र चत है ।
संग - गो पयाँ कृ ण वरह म अ य धक संत त ह और रात- दन अ ध
ु ारा वा हत
करती रहती ह।

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या या - हे स ख! कृ ण के वयोग म हमारे ने आँसु ओं के प म रात- दन बरसते
रहते ह । जब से कृ ण हम छोड़कर गए ह तब से हम पर सदै व वषा ऋतु रहती है ।
अथात वषा ऋतु के समान हमारे ने से नर तर जल वा हत होता रहता है । इन
आँसु ओं के कारण हमारे ने म कभी काजल ह नह ं रह पाता, आँसु ओं के साथ बह-
बहकर उसने हमारे कपोल और व थल को भी काला कर दया है ।
हे स ख! हमार कंचु क कभी सु ख नह पाती ह, य क हमारे दय थल पर हमेशा
आँसु ओं क धारा बहती रहती है । हे सू रदास के वामी ीकृ ण । हमारे अ -ु जल से
गोकु ल म बाढ़ आ गई है और उसम गोकु ल के डू ब जाने का खतरा उ प न हो गया है
। अब आप आकर पहले के समान पुन : गोकु ल को इस बाढ़ से बचाइये । हे यामघन
के समान सु दर कृ ण! हम तु हारे से अपनी वरह- यथा क बात कह ं तक कह?
हमारा दय अ य धक याकु ल हो रहा है।
श दाथ- पावस-वषा । सधारे -चले गए । अंजन-काजल । कंचु क-चोल । उर- बच- दय
के बीच । पनारे -धारा । अंब-ु जल । उबारे -र ा करना, बचा लेना । अ तभारे - अ य धक
भार ।
वशेष -
1. गो पय क वरह- यथा का च ण अ य त मा मकता से कया गया है ।
2. पक व अनु ास अलंकार का योग हु आ है ।
3. 'सू रदास भु. ... लेहु उबारे । ' म कृ ण के गोवधन पवत.... धारण करने क बात
कह गई है । एक बार इ ने कु पत होकर ज को बहा दे ने का य न कया था
और कृ ण ने गोवधन पवत को उँ गल पर उठकर उसक र ा क थी ।

11.3.8 ऊधो । मन नाह ं दस बीस

ऊधो! मन नाह ं दस बीस ।


एक हु तो सो गयो ह र के सँग, को अराधै तु व ईस?
भइं अ त स थल सबै माधव बनु, जथा दे ह बन सीस ।
वासा अट क रहे आसा ल ग, जीब हं को ट बर स ।
तु म तौ सखा याम सु दर के, सकल जोग के ईस 1
सू रदास र सक क ब तयाँ, पुरबौ मन जगद स ।
संदभ- तु त पद कृ ण के अन य भ त, ेमाभि त के गायक महाक व सू रदास वारा
र चत है ।
संग - गो पयाँ उ व के सम नगु ण म को वीकार न कर पाने क अपने मन
क ववशता का वणन कर रह ह ।
या या - गो पयाँ कहती ह क हे उ व! मन तो केवल एक ह होता है, दस-बीस नह ं
होते । हमारा एक ह मन था, वह भी कृ ण के साथ मथुरा चला गया । अब यह
बताओ क तु हारे इस ई वर ( म) क आराधना कौन करे ? कृ ण के बना हम सब

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गो पयाँ उसी कार श थल अथात न ाण हो उठ ह, जैसे सर कट जाने पर शर र
नआण और न चेतन हो जाता है । हमारे शर र म हमारे ाण कृ ण दशन क आशा
म ह अटके हु ए ह । इसी आशा के सहारे हम करोड़ वष तक जी वत बनी रहगी ।
अथात उनके दशन कए बना हम ाण भी नह ं याग सकती ।
हे उ व! तु म तो याम सु दर के म और संपण
ू योग साधनाओं के वामी हो अथात
परम ाता हो । इस लए हमार तु मसे केवल एक ह ाथना है क संसार के वामी
उन र सक कृ ण के मन म र सकता क सार बात पुन : उ प न कर दो, जो वे यहाँ
कया करते थे । उन बात का मरण कर वे यहाँ लौट आएंगे ।
श दाथ - हु तो-था । अराधै-आराधना करे । तु व-तु हारे । जथा-जैसे । वासा-साँस ।
बर स-वष । ईस- वामी । पुरबौ-पूर करो ।
वशेष-
1. तु त पद म का य और संगीत का सु दर सामंज य है ।
2. गेयता इस पद क मु ख वशेषता है ।
3. ' ववशता संचार है ।
4. उपमा अलंकार का योग हु आ है ।

11.3.9 मधुकर । यह कारे क र त ।

मधुकर ! यह कारे क र त । मन दै हरत परायो सवस करै कपट क ीत ।


य षटपद अंबज
ु के दल म बसत नसा र त मा न ।
दनकर उए अनत उ ड़ बैठे फर न करत प हचा न ।
भवन भु जंग पटारे पा यो य जननी जा न तात ।
कु ल-करतू त जा त न हं कब हू ँ सहज सो ड स भिज जात ।
को कल काग कु रं ग याम क छन-छन सु र त करावत ।
सू रदास भु को मु ख दे यो नस दन ह मो हं भावत ।
स दभ- तु त पद नेह- वण, मातृ दय के पारखी महाक व सू रदास वारा र चत है।
संग- गो पयाँ काले रं ग वाल को व वासघाती घो षत करते हु ए भी याम वण कृ ण
के त अपने ेम क अन यता क घोषणा करती ह ।
या या- मर के मा यम से गो पयाँ उ व को स बो धत करती हु ई कहती ह, क हे
मधुकर ! काले रं ग वाल क तो यह काय-प त ह होती है क पहले वे कसी को
अपना मन दे कर उसे अपने त आक षत कर लेते ह और फर उसका सव व हरण
कर लेते ह । इस कार उनका ेम कपट से प रपूण होता है । िजस कार मर रात
होने पर कमल के त अपने ेम का दशन कर उसक पँखु ड़य के भीतर बंद हो
रात भर वह ं व ाम करता है, और ातःकाल सू य दय होते ह वहाँ से उड़कर दूसर
जगह जा बैठता है । फर उस कमल से कोई जान पहचान भी नह ं रखता है । िजस
कार सपेरा काले नाग को पटार म रखकर उसका पालन-पोषण उसी कार करता है

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िजस कार माता ब चे को ज म दे कर उसे पालती-पोसती है । क तु वह काला नाग
अपने वंश के वभाव को कभी भी नह ं भू ल पाता; इसी लए अवसर मलते ह वह
अपने पालने-पोसने वाले उस सपेरे को डस कर भाग जाता है । भाव यह है क कृ ण,
मर, नाग आ द सभी काले रं ग वाले है; इस लए व वासघात करना उनका वभाव
बन गया है ।
कोयल, कौआ, काला हरन - ये सब काले रं ग वाले हम त ण कृ ण क याद दलाते
ह । हम तो रात दन कृ ण के उस सु दर मु ख को दे खते रहना ह अ छा लगता है ।
भाव यह है क य य प कृ ण ने हमारे साथ व वासघात कया है, फर भी हम रात-
दन उ ह ं के ेम म डू बी रहती ह ।
श दाथ - र त-प त, काय- णाल । षटपद- मर । अंबज
ु -कमल । दनकर-सू य । उए-
उ दत होने पर । भवन-सपेरा । भु जंग-सप । ज न-पैदा कर । तात-पु । भिज जात-
भाग जाता है । कु रं ग- हरण । सु र त- मृ त । भावत-अ छा लगता है ।
वशेष-
1. गो पयाँ काले रं ग वाल को एक वर म व वासघाती घो षत करती हु ई भी अ त
म याम वण कृ ण के त अपने बल आकषण और अन य ेम क घोषणा
करती ह ।
2. य ...... मा न म उपमा अलंकार;
को कल काक कु रं ग म अनु ास ;
को कल...... करावत म मरण अलंकार है ।

11.3.10 ऊधो । मो ह ज बसरत नाह ं

ऊधो! मो ह ज बसरत नाह ं ।


हंससुता क सु द र कगर , अ कं ु जन क छाह ं ।
वै सु रभी, वै ब छ दोहनी, ख रक दुहावन जाह ं ।
वाल-बाल सब करत कु लाहल, नाचत ग ह-ग ह बाह ं ।
यह मथुरा कंचन क नगर , म न-मु ताहल आह ।
जब हं सु र त आव त वा सु ख क , िजय उमगत तनु नाह ं ।
अनगन भाँ त कर बहु-ल ला, जसु दा न द नबाह ।
सू रदास भु रहे मौन ह, यह क ह-क ह प छता ।
संदभ- तु त पद ह द सा ह याकाश के अ य त भावुक और स दय क व सू रदास
वारा र चत है ।
संग - उ व जब ज से मथु रा लौटकर कृ ण को जवा सय का संदेश सु नाते ह तो
कृ ण जवा सय के त अपने ेम का अ य त मा मक वणन करते है
या या - हे उ व । मु झे सदै व ज क याद सताती रहती है । म ज को भु ला नह ं
पाता हू ँ । यमु ना का वह सु दर कनारा, और कं ु ज क सघन छाया, वे गाएँ, उनके
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बछड़े और दोहनी लेकर गौशाला म जाना तथा वाल-बाल का वह कोलाहल मचाना
और एक-दूसरे का हाथ पकड़-पकड़कर नाचना इन सबक मृ त को म एक पल के
लए भी नह ं भु ला पाता हू ँ । य य प यह मथु रा वण-नगर है, जहाँ म ण-मु ताओं के
प म अगाध सौ दय बखरा पड़ा है, पर तु जब मु झे ज म भोगे गए सु ख का
मरण होता है तो म अपने शर र क सु ध-बुध खो जाता हू ँ । अथात ् मथुरा के इस
राजसी वैभव के सम मु झे ज ह कह ं अ धक अ छा और य लगता है ।
मने ज म अनेक कार क अग णत ल लाऐं क थी, पर तु माता-यशोदा और न द
बाबा ने मु झे पूर तरह नभा लया था, मेर सार शैता नय को सहन कर लया था ।
सू रदास कहते ह क कृ ण इतना कहकर, भावा तरे क के कारण मौन हो गए, वह आगे
कु छ भी नह ं बोल पाए । फर बार-बार इ ह ं बात को कह-कहकर पछताते रहे क
जवा सय के ऐसे नमल, न छल नेह को यागकर वे मथु रा य आ गए?
श दाथ- मो ह-मु झे । बसरत-भू लना । हंससुता-सू य क पु ी अथात ् यमु ना । कगर -
कनारा । छाह -ं छाया । सु रभी-गाय । दोहनी-दूध दुहने का बतन । ख रक-गोशाला गाय
का बाड़ा । सु र त- मृ त , याद आना । तनु नाह ं-शर र नह ं रह जाता, सार सु ध-बुध
खो जाती है । अनगन-अग णत । नबाह - नभाया था ।
वशेष-
1. इस पद के मा यम से नगु णोपासना के थान पर न छल ेमाभि त क मह ता
था पत करने का यास कया गया है ।
2. स पूण पद म मरण अलंकार है ।
3. कोमल भाव क अ भ यि त ने पद को और भी मा मक बना दया है ।

11.3.11 पूरनता इन नयनन पूर

पूरनता इन नयनन पूर ।


तु म जो कहत वन न सु न समुझत ये याह दुख मर त बसू र ।
ह र अ तयामी सब जानत, बु बचारत बचन समू र ।
वै रस प रतन सागर न ध य म न पाय खवावत ी ।
रहु रे कु टल, चपल, मधु लंपट, कतव संदेस कहत कटु कू र ।
कहँ मु न यान, कह ,ं जयुवती । कैसे जात कु लस क र चू र ।
दे खु कट स रता, सागर, सर, सीतल सु भग वाद च र ।
सू र वा तजल बसै िजय चातक, चत लागत सब सू र ।
संदभ- तु त पद गृं ार-रस शरोम ण, द य- ेम-संगीत क धारा वा हत करने वाले
महाक व सू रदास वारा र चत है ।
संग- गो पयाँ उ व वारा व णत पूण म को पूणतया अ वीकार करते हु ए उ व पर
यं य कर रह ह ।

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या या - गो पयाँ कहती ह क हे उ व! तु मने पूण म का जो वणन कया है,
उसक पूणता हमारे इन ने म पूर तरह से समा नह ं पाती ह अथात हमारे ने को
ं म जो भी बात कह रहे हो, उसे हम कान से
अ छ नह ं लगती है । तु म इस संबध
सु न कर समझ रह ह । पर तु हमार इसी बात के कारण हमार ये आँखे दुखी हो
बलख- बलख कर मर जा रह है । कारण यह है क या तो इ ह वह पूणता कह ं
दखाई नह ं दे ती या इ ह यह भय है क कह ं हम तु हार बात मानकर कृ ण को
याग कर म को वीकार न कर ले सब यह जानते ह क भगवान अ तयामी ह ।
जब हम बु वारा इस बात पर वचार करती ह तो हम भी तु हार यह बात स य
तीत होती है क भगवान अ तयामी ह । पर तु हमारे कृ ण तो ेम, प और र न
के समान अमू य गुण के अथाह सागर ह । हमने जब ऐसे कृ ण पी म ण को ा त
कर लया है तो फर तु म हम धू ल के समान तु छ-अपने म को अपना लेने का
उपदे श य दे रहे हो । गो पयाँ मर के मा यम से कहती ह क हे कु टल. चंचल,
मधु के लोभी, धू त- मर, ठहर जा! तू हम ऐसा कड़वा और कठोर संदेश य दे रहा
है? यह तो बता क कह ं मु नय क म वषयक कठोर और ि ल ट साधना तथा
कहाँ कोमल शर र वाल ज युव तयाँ , इन दोन म कह ं समानता है? जैसे वज के
टु कड़े-टु कड़े करना अस भव है उसी कार हमारे लए साधना करना असंभव है । इस
संसार म नद , सागर, सरोवर आ द शीतल और मधुर जल से आपू रत है; उनका जल
पीने म मीठा और अ छा लगता है । पर तु वा त जल के ेमी चातक को केवल
वा तजल ह अ छा लगता है । अ य सारे जल उसे नीरस और फ के लगते ह । भाव
यह है क तु हारा नगु ण म भले ह अ छा हो, पर तु हम तो एकमा कृ ण ह
य लगते ह । इस लए हम तु हारे म को वीकार नह ं कर सकती ।
श दाथ- पूर नता - पूण । न पूर -नह ं जँ चती । बसू र - बलख- बलख कर । समूर -पूण
प से, जड़ मूल से । ी-धूल । कतव-धू त, छल । कू र - ू र, नखु र । कु लस-व ।
र -अ छ । झू र -नीरस, फ का ।
वशेष-
1. गो पयाँ चातक के उदाहरण वारा अपने ेम क अन यता घो षत कर रह है
2. स रता, सागर, सर म दु म व दोष ह ।
3. कहै मु न. ... फ म नदशना अलंकार है ।

11.3.12 बलग ज न मानहु ऊधो यारे

बलग ज न मानहु, ऊध यारे ।


वह मथु रा काजर क कोठ र जे आव ह ते कारे ।
तु म कारे , सु फलकसुत कारे , कारे मधु प भँवारे ।
तनके संग अ धक छ व उपजत, कमल नैन अ नयारे ।
मा हु नील माट तै काढ़े लै जमु ना य पखारे ।

76
ता गुन याम भई का लंद , सू र याम-गुन यारे ।
स दभ- तु त पद महाक व सू रदास वारा र चत है ।
संग- तु त पद म गो पयाँ मथु रा के काले लोग पर यं य करते हु ए उनम याम
वण कृ ण क े ठता तपा दत कर रह ह ।
या या- गो पयाँ कहती ह क, हे यारे उ व । हमार बात का बुरा मत मानना ।
तु म जो हम ान-योग सखाने आए हो, उसम तु हारा कोई भी दोष नह ं है, य क
जहाँ से तु म आये हो वह मथु रा काजल क कोठर के समान है । इसी लए वह ं से जो
भी आता है, काला ह होता है । तु म काले हो, अ ू र भी काले ह और उधर क ओर
से उड़कर आने वाले मर भी काले ह । इन स पूण काले लोग के साथ कमल-ने
वाले कृ ण म णधार काले सप के समान अ धक शोभा पा रहे ह ।
तु म सब लोग को दे खकर ऐसा तीत होता है, मानो तु म सब नीले रं ग से भरे हु ए
एक मटके म पड़े थे और कसी ने तु म सब को उसम से नकाल कर यमु ना म धोकर
साफ करने का य न कया है । तु हारे शर र से छूटे हु ए उस नीले रं ग के कारण ह
यमु ना का जल भी नीला हो गया है । इन काले लोग के गुण भी अदभूत व नराले
होते ह ।
श दाथ- बलग-बुरा । म नयारे -म णधार , काला सप । माट-मटका । काढे - नकालना ।
पखारे -धोए । का लंद -यमु ना ।
वशेष -
1. पक, उ े ा, अनु ास अलंकार का योग हु आ है ।
2. ' याम' म लेष अलंकार है ।
3. 'ता गुन याम भई का लंद ' म त गुण अलंकार है । (अपना गुण यागकर दूसरे
का गुण धारण कर लेने पर त गुण अलंकार होता है ।)

11.3.13 ऊधो! वरहौ ेम करै

ऊधो! वरहौ ेम करै ।


य बनु पुट गहै न रं ग ह पुट गहे रस ह परै ।
जौ आव घट दहत अनल तनु, तौ पु न अ मय भरै ।
जी ध र बीज दे ह अंकु र च र तौसत फर न फरै ।
ु इन, तौ र बरथ ह सरै ।
जौ सर सहत सु भट संमख
सू र गोपाल ेमपथ-जल त, कोउ न दुख ह डरै ।
संदभ - तु त पद भाव के चतेरे, ेम यंजना के अनूठे गायक महाक व सू र वारा
र चत है ।
संग- तु त पद म गो पयाँ वरह को ेमव क, उ वल. गाढ़ और प व ेम क
वृ करने वाला मानती ह ।

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या या- हे उ व! वरह भी ेम उ प न करता है; अथात ् वरह म ेम और अ धक
गाढ़ हो जाता है । िजस कार व को रं गते समय जब तक उस रं ग म पुट नह ं
दया जाता, तब तक वह रं ग प का नह ं बनता । जैसे क ची म ी के घड़े को अंवा म
रखकर खू ब तपाया जाता है, तभी वह अमृत के समान जीवनदायक जल भरने यो य
बनता है । जब बीज धरती म ब द हो, अपने शर र को फाड़, उसम अंकु र उ प न
करता है, तभी वह वृ का प धारण कर सैकड़ फल के प म फलता है । जब
यो ा यु - े म यु करता हु आ अपने सीने पर बाण का आघात सहता है, तभी मरने
पर उसे सू यलोक क ाि त होती है । भाव यह है क क ट सहन करने के प चात ् ह
अभी ट फल क ाि त होती है । गो पयाँ कहती है क हे उ व! कृ ण के ेमपथ म
उ प न वरह पी जल से न तो कोई गोपी दुखी है और न ह भयभीत है । य क
यह वरह उनके ेम को और अ धक प रप व एवं ढ़ बनाता जा रहा है ।
श दाथ - वरहौ- वरह से । पुट -कपड़े को रँ गते समय रं ग म सोडा या फटकर डालकर
उसे प का, थायी बना दे ना पुट दे ना कहलाता है । पट-व । रस हं परै-रं ग लाता है
। आँव -कु हार का अवा, िजसम बतन पकाए जाते ह । घट-घड़ा । जौ-जब । च र-
फटकर । फर न फरै-फल के प म फलता है । सु भट-यो ा । र बरथ ह सरै-सू यलोक
को जाता है ।
वशेष-
1. वर हणी गो पय के ेम क अन यता एवं एक न ठता का मम पश च ण है ।
2. स पूण पद म उदाहरण माला और पक अलंकार है ।
3. कबीर के न न ल खत पद म सा य भाव दे खा जा सकता है ।
'हँस-हँ स कंत न पाइए, िजन पाया तन रोय ।
जो हँ स-हँ स कता मलै, तौ न सु हा ग न कोय ।

11.3.14 ऊधो । ी त न मरन बचारै

ऊधो! ी त न मरन बचारै ।


ी त पतंग जरै पावक प र, जरत अंग न हं टारै ।
ी त परे वा उड़त गगन च ढ़ गरत न आपु स हारै ।
ी त मधु प केतक -कु सुम ब स, कंटक आपु हारै ।
ी त जानु जैसे पय पानी, जा न अपनपो जारै ।
ी त कु रं ग नादरस लु खक, ता न-ता न सर मारै ।
ी त जान जननी सु त-कारन, को न अपनपो हारै ।
सू र याम स ी त गो पन क , कहु कैसे न वारै ।
संदभ- तु त पद स दयता एवं भावुकता, चतु रता और वाि वद धता म अपना सानी न
रखने वाले सु स क व सू रदास वारा र चत है ।
संग- गो पयाँ उ व के सम ेम क एक न ठता का तपादन कर रह ह ।

78
या या- गो पयाँ उ व से कहती है क, हे उ व! ेम म मरने क च ता नह ं क
जाती । पतंगा अि न से ेम करता है और अपने इसी ेम के कारण ह अि न म
गरकर जल जाता है । अपने अंग को जलता हु आ दे खकर भी वह अपने अंग को
बचाने का यास नह ं करता है । कबूतर आकाश से ेम करता है और उसके पास
पहु ँ चने के लए ऊपर बहु त ऊँचा उड़ता चला जाता है और जब उड़ते-उड़ते थक जाता है,
तो अपना होश-हवास खो, नीचे गर पड़ता है और मर जाता है । मर केतक के पु प
से ेम करता है । केतक म काँटे होते ह, पर तु उन काँट क त नक भी च ता न
कर, उस पु प पर ह वास करता है और वे छा से उन काँट के हार को सहता है;
पर तु उससे ेम करना नह ं छोड़ता है ।
हे उ व! स चे ेम का प तो दूध और जल के उदाहरण वारा ह समझा जा सकता
है । जल दूध से ेम करता है, य क जल से ह दूध क उ पि त होती है । जल
और दूध मलाकर जब गम कया जाता है तो जल दूध पर जरा भी आँच नह ं आने
दे ता है । जल वयं जल-जलकर अपना अि त व समा त कर लेता है और दूध को
बचा लेता है । इसी कार हरण वीणा के वर से ेम करता है । बहे लया वीणा
बजाकर हरण को म मु ध कर दे ता है और कस-कस कर बाण मारता है । बाण का
आघात सहकर भी हरण भागने का य न नह ं करता ।
य द तु म ेम का मह व जानना चाहते हो तो माता से पूछो । माता अपने पु के लए
अपना अि त व तक समा त कर दे ती है । हे उ व । कृ ण के त हम गो पय का
ेम भी इतना ह ढ़ व नः वाथ है । अब तु ह ं बताओ क कृ ण के त उस ेम
को हम कैसे न ट कर द ।
श दाथ- बचारै- वचार करना । पावक-अि न । टारै-हटाता । परे वा-कबूतर । हारै- हार
सहता है । पय-दूध । अपनपो-अपनापन । कु रं ग- हरण । नादरस-वीणा क मधु र वन
। लु धक-ब धक । सर-तीर । ता न-ता न-कस-कस कर । न वारै - नवारण करे ।
वशेष-
1. इस पद म गो पय ने व भ न उदाहरण वारा कृ ण के त अपने ेम क
एक न ठता का वणन कया है ।
2. स पूण पद म द पक अलंकार है ।

11.3.15 दे खयत का लंद अ त कार

दे खयत का लंद अ त कार ।


क हयो, प थक! जाय ह र स य भई बरह-जु र-जार ।
मनो प लका पै पर धर न धँ स तरं ग तलफ तनु भार ।
तट बा उपचार-चू र मनो, वेद- वाह पनार ।
बग लत कच कु स कास पु लन मनो, पंक जु क जल सार ।
मर मनो म त मत चहू ँ द स फर त है अंग दुखार ।

79
न स दन चकई- याज बकत मु ख, कन मानहु ँ अनुहार ।
सू रदास भु जो जमु ना-ग त, सो ग त भई हमार ।
स दभ- तु त पद महाक व सू र वारा र चत '' मरगीत सार'' से लया गया
संग- कृ ण के वरह म गो पय के समान ह यमु ना नद क वरहाव था का च ण
कया गया है ।
या या- गो पयाँ कहती ह क हे प थक । दे खो यह यमु ना नद अ य धक काल हो
गई है । तु म जाकर कृ ण से कहना क मानो यह भी तु हारे वरह पी वर के ताप
से द ध होकर काल पड़ गई है । ऐसा तीत होता है, मानो, पीड़ा से अ य धक
याकु ल हो वह पलंग से गरकर धरती पर आ पड़ी हो और भयानक वरह- यथा के
कारण तरं ग के प म उसका शर र छटपटा रहा हो । मानो उसके तट पर पड़ा हु आ
बालू ह उसे दया गया औष ध का चू ण है और उसक जलधारा ह रो गणी के शर र से
बहती हु ई पसीने क धारा है ।
ऐसा लगता है मानो यमु ना तट पर सड़े-गले हु ए कु श-कास ह वर हणी के उलझे हु ए,
मैले-कु चैले केश ह और जमा हु आ क चड़ ह मान वर हणी क मैल कु चैल साड़ी है ।
अपने ऊपर च कर काटते हु ए भ र के प म वह वर हणी के समान द मत हो,
पागल बन, चार दशाओं म अपने अंग- यंग म उठने वाल भयानक पीड़ा से य थत
भटकती फरती रह हो । िजस कार तेज जर हो जाने पर रोगी सि नपात- त हो
बकने लगता है, उसी कार यह यमु ना भी चकवी के बहाने रात- दन लाप करती
रहती है । हे उ व । तु म इस यमु ना क दशा को वर हणी क दशा य नह ं मान
लेत?
े तु म वामी कृ ण से जाकर यह कह दे ना क तु हारे वरह म जो दशा इस
यमु ना क हो गई है, वह दशा हम गो पय क भी हो रह है ।
श दाथ- वरह-जु र-जार - वरह पी वर के ताप से द ध होकर । प लका-पंलग ।
धर न-पृ वी । तलफ-तड़फड़ाना । भार -अ य धक । तटबा -तट का बालू । उपचार-चू र-
औष ध का चू ण । वेद भाव-पसीने का बहना । पनार -धारा नल । बग लत-गले हु ए
। कच-बाल । कु सकाय-घास-पात । पु लन -तट, कनारा । पक-क चड़ । क जल सार -
काल साड़ी । समत-घूमती है । दुखार -दुखी । चकई- याज-चकवी के बहाने ।
वशेष-
1. इस पद म कृ त का उ ीपन प च त कया गया है ।
2. कृ त का मानवीकरण कया गया है ।
3. वरह क अ भलाषा, उ वेग, लाप आ द व भ न दशाओं का वणन है ।
4. या ध, च ता, औ सु य. ला न, मृ त आ द संचार भाव का च ण है ।
5. उ े ा, पक, अनु ास आ द अलंकार का वणन है ।

11.3.16 कृ त जोई जाके अंग पर

कृ त जोई जाके अंग पर ।


80
वान-पूँछ को टक जौ लागै सू ध न काहु कर ।
जैसे काग भ छ न हं छाडै, जनमत जौन धर ।
धौये रं ग जात कहु कैसे, य कार कमर ।
य अ ह डसत उदर न हं कृ त, ऐसी धर नं धर ।
सू र होउ सो होउ सोच न हं, तैसे ह एउ र ।
स दभ- तु त पद महाक व सू र वारा र चत है ।
संग- उ व वारा बार-बार नगु ण का संदेश दे ने पर गो पयाँ झ लाकर उनके झ क
वभाव पर व भ न उदाहरण के वारा यं य करती ह ।
या या- एक गोपी अ य गोपी से कहती है क िजसका जैसा वभाव पड़ जाता है वह
बदल नह ं सकता । करोड़ य न करने पर भी आज तक कोई कु ते क पूँछ को सीधा
नह ं कर पाया है; य क पूँछ का वभाव ह सदै व टे ढ़ बने रहने का पड़ गया है ।
कौआ िजस घड़ी ज म लेता है, तभी से भ याभ य (खाने, न खाने यो य पदाथ) खाने
का अपना वभाव नह ं छोड़ता । यह बताओ - क धोने पर भी कह ं काले क बल का
रं ग दूर हो सकता है । य य प दूसर को डंसने से सप का पेट नह ं भरता पर तु
उसका वभाव ह ऐसा पड़ गया है क वह बना दूसर को डंसे रह ह नह ं सकता ।
ये उ व भी ऐसे ह ह । इ ह इस बात क च ता नह ं क इनक बात का प रणाम
या नकलेगा जो होता हो सो हो । यह तो इनका वभाव है क इ ह दूसर को दुःख
दे ने म आन द आता है, इस लए ये हम बराबर दुखी करते चले जा रहे ह ।
श दाथ- कृ त- वभाव । वान-कु ता । को टक-करोड़ । सू ध-सीधी । भ छ-भ य,
खाने यो य व तु । जौन घर -िजस घड़ी! जनमत-ज म लेते ह । अ ह-सप । धर न
धर -टे क पकड़ रखी है । एउ-ये भी ।
वशेष-
1. गो पयाँ वभाव का मनोवै ा नक व लेषण करते हु ए उ व पर कटा कर रह ह।
2. वान-पूँछ. .... कर ’ म अथा तर यास अलंकार है ।

11.3.17 बन गोपाल बै रन मई कं ु ज

बन गोपाल बै रन भई कं ु ज ।
तब ये लता लग त अ तसीतल अब भई वषम वाल क पु ज

वृथा बह त जमु ना, खग बोलत, वृथा कमल फूलै, अ त गु ज
ं ै ।
पवन पा न घनसार संजीव न द धसु त करन भानु भई भु ज ।
ए, ऊधो, क हयो माधव स , वरह कदन क र मारत लु ंज ।
सू रदास भु को मग जोवत अँ खयाँ भई बरन य गु ज
ं ।
स दभ- तु त पद कृ त को मानवीय भावनाओं म रं गकर तु त करने वाले महाक व
सू र वारा र चत है ।

81
संग- यह एक मनोवै ा नक त य है क जो व तु एँ संयोगाव था म सु खदायी होती ह,
वह वयोगाव था म दुखदायी हो जाती ह । गो पयाँ इसी वषमता का वणन करती ह।
या या - गो पयाँ कहती ह क हे उ व । अब कृ ण के बना वे सु खदायक कं ु जे हम
श ु के समान दुःख पहु ँ चा रह ह । अथात इ ह दे ख-दे खकर हम कृ ण क मृ तयां
और अ धक सताने लगती है । जब कृ ण यहाँ थे तब ये लताऐं हम अ य त शीतल
लगती थी, अब उनके बना ये भयंकर अि न वालाओं के समू ह के समान द ध करने
वाल वन गई ह । ये यमु ना यथ बहती है, प ी यथ बोलते ह, कमल यथ फूलते है
और उन पर मर यथ गु ज
ं ार करते ह । अथात ् इन सब बात को दे खकर हम दुःख
ह होता है । हमारे लए इनक कोई उपयो गता नह ं है ।
संयोगाव था म वायु जल, कपूर आ द हम संजीवनी बूट के समान जीवन दायक
तीत होते थे, पर तु अब द ध करते रहते ह । उस समय च मा क जो शीतल
करण सु ख व शाि त दान करती थी वे ह अब सू य क करण के समान भू न रह ह
। हे उ व । तु म माधव से जाकर यह कहना क तु हारा वरह ब धक के समान छुर
से गोद-गोदकर हमारे अंग- यंग को लु ंज-पु ज
ं कए दे रहा है, हम मारे डाल रहा है ।
अब तो कृ ण का माग दे खते-दे खते हमारे ने भी गु ज
ं ा के समान लाल हो गए ह ।
श दाथ - पु ज
ं -समू ह । गुजै -गु ज
ं ार करते ह । पा न-जल । घनसार-कपूर । द धसु त-
च मा । भु ज-भु नती ह । कदन-छुर । लु ंज-लु ंज-पु ज
ं बना रह ह । बरन-रं ग । गु ज
ं -
गुजा (गाढ़े लाल रं ग का एक सू खा फल)
वशेष-
1. इस पद म कृ त का उ ीपन प च त हु आ है ।
2. अ तशयोि त और उपमा अलंकार का वणन हु आ है ।
3. तु लसी के वरह राम को भी सीता- वरह म कृ त क उसी वषमता का अनुभव
हु आ था । जैसे
“कहे उ राम वयोग तब सीता । मो कहँ सकल भए वपर ता ।
नव त कसलय मनहु ँ कृ सानु । काल नसा सम न स स स भानु ।

11.3.18 संदेस न मधुवन-कूप भरे

संदेस न मधु वन-कू प भरे ।


जो कोउ प थक गए ह, ाँ ते फ र न हं अवन कर ।
कै वै याम सखाय समोधे कै वे बीच मरे ?
अपने न हं पठवत नंदनंदन, हमरे उ फे र धरे ।
ँ कागद जल भीजे, सर दब ला ग जरे ।
म स खूट
पाती लख कहौ य क र, जो पलक कपाट अरे ।
संदभ- तु त पद वयोग गृं ार के मम पश च ण म समथ महाक व सू र वारा
र चत है ।

82
संग- गो पय ने कृ ण को अनेक स दे श भेजे पर तु एक भी उ तर नह ं आया । अत:
वे य थत हो उठती ह ।
या या- गो पयाँ कहती ह क हमने कृ ण को स दे श लख- लख कर इतने प भेजे ह
क उनसे मथु रा के कु एँ भर गए । यहाँ से िजतने भी प थक हमारा स दे श लेकर
मथुरा को गए, वे फर लौटकर यहाँ नह ं आए । हम ऐसा स दे ह होता है क या तो
कृ ण ने उ ह समझा-बुझाकर वह ं रोक लया, इधर नह ं लौटने दया या वे बीच म ह
कह ं मर कर समा त हो गये । नंदबाबा के पु ी कृ ण अपना तो कोई स दे श-प
भेजते नह ं ह । और जो स दे श प हम भेजती ह, उ ह भी चु पचाप रख लेते ह ।
अब हम उ ह और अ धक स दे श लखकर कैसे भेजे? य क हमारे पास क सार
याह वरहाि न के ताप से सू ख गई है । सारे कागज ने के जल से भीग गए ह
और हमार वरह- य थत द घ उसाँस के ताप से वन म आग लग गई है, िजससे
कलम बनाने वाले सरक डे जल कर भ म हो गए ह । सबसे बड़ी मुसीबत यह है क
नर तर रोते रहने से पलक पी कवाड़ ब द हो गए ह । जब आँख से ह दखाई
नह ं दे रहा है तो प कैसे लखा जा सकता है?
श दाथ- कू प-कु एँ । अवन करे -आए । समोधे-समझा-बुझाकर । खूट
ँ -समा त । दब-
दावाि न, वन म लगने वाल आग । कपाट- कवाड़ । पठवत-भेजना । मसी- याह ।
अरे -बंद ।
वशेष-
1. यतम को प लखने म साधन का अभाव बाधा वन गया है ।
2. अनु ास व पक अलंकार का योग हु आ है ।
3. थम पंि त म अ त योि त अलंकार है ।
4. गो पयाँ कृ ण को उपाल भ दे रह ह ।

11.3.19 ऊधो । मन माने क बात

ऊधो । मन माने क बात ।


जरत पतंग द प म जैसे औ फ र फ र लपटात ।
रहत चकोर पुहु म पर, मधुकर । स स अकास भरमात ।
ऐसो यान धरो ह रजू पै छन इत उत न हं जात ।
दादुर रहत सदा जल-भीतर कमल हं न हं नयरात ।
काठ फो र घर कयो मधु प तै बंधे अंबज
ु के पात ।
बरषा बरसत न स दन ऊधो! पहु मी पू र अघात ।
वा त बूँद के काज पपीहा छन-छन रटत रहात ।
से ह न खात अमृतफल भोजन तोम र को ललचात ।
सू र जु कृ न कु बर र झे गो पन दे ख लजात ।

83
स दभ- तु त पद भाव जगत के मम , ेम यंजना म अ वतीय महाक व सू रदास
वारा र चत है ।
संग- ेम म िजसे जो अ छा लगता है, वह उसी के लए द वाना रहता है, चाहे उसम
कतने ह अवगुण य न हो ।
या या- तु त प यांश म गो पयाँ ेम क एक न ठता व व च ता का वणन व भ न
उदाहरण वारा करते हु ए कहती ह क, हे उ व । यह तो अपनी-अपनी च क बात
है. िजसे जो अ छा लगता है वह उसी के पीछे द वाना हो जाता है, उसके गुण -अवगुण
क ओर वह यान ह नह ं दे ता है । उदाहरणाथ - पतंगा द पक से ेम करता है, उस
पर गरकर जलता है, अपने ाण क हा न जानते हु ए भी बार-बार उसी द पक से
लपटता रहता है । हे मधुकर ! चकोर पृ वी पर रहता है और च मा आकाश म मण
करता रहता है । चकोर उसे एका ि ट से दे खता रहता है और एक पल के लए भी
अपना यान नह ं हटाता । चकोर कभी भी च मा तक नह ं पहु ँ च सकता, मगर उससे
ेम करना नह ं छोड़ता । हमने भी ीकृ ण से ऐसा ह गाढ़ ेम कया है क हमारा
मन उ ह याग. ण भर को भी इधर-उधर नह ं जाता ।
मढक सदै व जल के भीतर रहता है. क तु कमल के पास कभी नह ं जाता, य क
कमल के त उसके मन म कोई आकषण नह ं होता । जब क काठ को फोड़कर घर
बनाने वाला मर रात भर कमल क कोमल खु ं ड़य म बंद रहता है, उ ह काटकर
बाहर नह ं नकलता है य क वह कमल से अ य धक ेम करता है । हे उ व! वषा
ऋतु म रात- दन वषा होती है और सार पृ वी जल से प रपूण होकर तृ त हो जाती है
क तु पपीहा वा त न के जल क एक बू द
ं के लए पीउ-पीउ रटता रहता है ।
य क वह वा त-जल से एक न ठ ेम करता है । से ह मीठे फल का भोजन न कर
कडवी लौक के लए ह सदै व लाला यत रहता है, य क उसे वह अ छ लगती है ।
ऐसी ह ि थ त हमारे य कृ ण क हो गई है । वह अब कु जा पर मो हत हो गए ह
और गो पय को दे खकर लि जत होते ह । अथात ् अब उ ह हमारा साि वक ेम अ छा
नह ं लगता और कु जा का वासना मक ेम अ छा लगने लगा है ।
श दाथ- पुहु म-धरती । भरमात- मण करना, घूमना । छन- ण । दादुर-मढक ।
नयरात-पास नह ं जाना । काठ-लकड़ी । अंबज
ु -कमल । अघात-तृ त हो जाना । से ह-
एक जीव िजसके शर र पर लंब-े लंबे काँटे होते ह । तौम र-कड़वा घआ, लौक ।
वशेष-
1. गो पयाँ कृ ण के कु जा ेम पर यं य कर रह ह । अत: 'असू या' संचार भाव है।
2. '' ेम अ धा और एक न ठ होता है ।'' उि त इस पद म च रताथ होती है ।
3. स पूण पद म अथा तर यास अलंकार है ।

11.3.20 ब ये बदराऊ बरसन आए

ब ये बदराऊ बरसन आए ।

84
अपनी अव ध जा न, नंदनंदन! गरिज गगन घन छाए ।
सु नयत है सु रलोक बसत स ख, सेवक सदा पराए ।
चातक-कु ल क पीर जा न कै, तेउ तहाँ त धाए ।
दुम कए ह रत, र ष बल म ल, दादुर मृतक िजवाए ।
छाए न बड़ नीर तृन जहँ-तहँ, प छन हू ँ अ त भाए ।
समझ त न ह स ख! आ आपनी, बहु तै दन ह र लाए ।
सू रदास वामी क नामय, मधु बन ब स बसराए ।
स दभ- तु त पद उ चको ट के रस स क व, ह रल ला के महान गायक महाक व
सू रदास वारा र चत है ।
संग- तु त पद म गो पयाँ कृ ण को अव ध बीत जाने पर भी न आने का उपाल भ
दे रह है तथा साथ ह कृ त वारा येक काय समय पर कए जाने के कारण
उसक शंसा कर रह ह ।
या या- गो पयाँ कृ ण को स बो धत करती हु ई कह रह ह क, हे न द न दन ।
दे खो वषा ऋतु के आगमन का ठ क समय जानकार बादल भी बरसने के लए आ गए
ह और गरजते हु ए आकाश म छा गए ह । हे स ख! इन बादल के संबध
ं म यह सु ना
जाता है क ये वग म रहते ह और सदै व दूसरे क अथात ् इ क सेवा म रहते ह ।
परवश होते हु ए भी ये इतने स दय ह क चातक क पीड़ा जानकर इतनी दूर से यहाँ
दौड़े चले आते ह । भाव यह है क बादल दूर होते हु ए भी अपने े मय क पीड़ा
सु नकर दौड़े चले आते ह, पर तु कृ ण इतने पास (मथुरा) म रहते हु ए भी गो पय क
वरह- यथा का अनुभव कर नह ं आते ह ।
इन बादल ने आकर वृ को हरा-भरा बना दया है, लताएँ इनसे मलकर स न हो
उठ ह और मरे हु ए मढक पुन : जी वत हो गए ह । (कहा जाता है क ग मय म जल
सू ख जाने से मढक मर जाते है और वषा होते ह पुन : जी वत हो जाते ह ।) पृ वी पर
चार ओर सघन ह रयाल छा गई है । प ी भी इन बादल को दे खकर अ य त स न
हो उठे ह । पर तु हे स ख! हमार समझ म यह नह ं आता क हमसे कौन सा अपराध
हो गया था, िजसके कारण कृ ण अभी तक नह ं आए । उ ह ने तो वहाँ मथु रा म बहु त
दन लगा दए । हम तो ऐसा लगता है क हमारे क णामय वामी मथु रा म बसकर
हम भू ल गए ह ।
श दाथ- बदराऊ-बादल । पराए-दूसर के अथात ् इ के । धाए-दौडे आए । न बड़-सघन
। लाए-लगाए । मधु बन-मथु रा । बसराए-भुलाना । चू क-गलती ।
वशेष-
1. कृ त का उ ीपन प है ।
2. वषा ऋतु को दे खकर गो पय का वरह और भी बढ़ गया है । उनक यथा का
सजीव च ण क व ने कया है ।
3. स पूण पद म का य लंग और उ े ा अलंकार है ।
85
11.4 वचार संदभ और श दावल
इस इकाई से संबं धत कु छ क ठन. श द, नाम और पा रभा षक पद के अथ नीचे दये
गए ह । इनसे आपको इकाई म कह ं गयी बात को समझने म मदद मलेगी।
उडु गन - तारे
ख योत - जु गनू
सू र-सू र - सू रदास, सू य
सारसु ती - सर वती
संजीवनी बूट - जीवनदायी जड़ी वन प त
मसाल - उदाहरण
ि टकोण - िजन पद का अथ ग ण, गणना आ द के सहारे नकले
कं वद ती - लोक म च लत उि त
बेर - इस समय
उबारो - उ ार करो
तादा य - एकाकार होना
त - बाद म जोड़े गए
अ तहम - अ वतीय
वेद - पसीना
पीर - पीड़ा
हाटक - वग
भवन - सँपेरा
कु रं ग - हरण
मस - याह
सु र त - याद, मृ त

11.5 मू यांकन
सू र-सू र तु लसी स स उडु गन केसव दास अबके क व ख योत सम जहँ-तहँ करे कास ।
जैसी कं वदि तयाँ इस बात क तीक ह क सा ह याकाश म जगमगाने वाले न
अथवा काशपु ज म सू र का मह वपूण थान रहा होगा । कृ ण का य दो अनुपम
गायक, मधु रा भि त के चारक, वा स य के स ाट और बाल मनो व ान के सू म
च कार महाक व सू र का भि तका य म मु ख थान रहा है । भि तकाल को
वणकाल कहे जाने क पृ ठभू म म सू र का का य मुख थान का अ धकार है ।
आज भी वै णव स दाय म महाक व सू र के पद बड़ी ा से गाए जाते ह । सू र के
पद का गायन ाय: पूरे दे श म च लत है ।

86
11.6 सारांश
इस इकाई म आपने कृ ण भि त शाखा के अमर गायक, पुि ट माग के जहाज, ेमा
भि त के चारक, वा स य एवं गृं ार के कु शल च कार महाक व सू र क जीवनी एवं
उनक रचनाओं के वषय म पया त जानकार ा त क । आपने यह भी जान लया.
क. सू रदास ने अपने वषय म बहु त कम लखा है और जो लखा है, वह संकेत प
म होने से उनका जीवन प रचय नधा रत करने के लए अ त:सा य एवं बा य-सा य
को आधार बनाया गया है । उनक तीन रचनाएँ- सू रसागर, सू रसारावल और सा ह य
लहर - उपल ध हु ई ह । क तु उनके सा ह य का े यापक और व तृत है ।
वा स य और गृं ार के े म तो व व सा ह य म भी उनका कोई सानी नह ं है ।
सा ह य लहर के पद िजनम राधा-कृ ण का नख- शख और सौ दय- च ण है, वे उनक
अ तम तभा और व वता क अनूठ मसाल ह ।

11.7 अ यासाथ न
नब धा मक न
1. अ त: सा य एवं ब हसा य के आधार पर महाक व सू र का यि त व एवं कृ त व
च त क िजए।
2. सू र के ज म थान के संबध
ं म व भ न मत क पर ा क िजए ।
3. सू र-सारावल क वषय-व तु का ववेचन करते हु ए उसक ामा णकता पर वचार
क िजए ।
4. सू र के जीवन वृ त क आधारभू त उपल ध साम ी क उपयो गता तथा ामा णकता
क पर ा क िजए ।
5. सू रदास ज मांध थे अथवा बाद म अ धे हु ए । इस वषय पर अपना मत प ट
क रए ।
लघु तरा मक न
1. कबीर क रचनाओं के नाम ल खए ।
2. सा ह य लहर का प रचय द िजए ।
3. नगु ण पर सगुण क वजय का कोई एक उदाहरण ल खए ।
4. मथुरा के काले लोग पर यं य करते हु ए गो पयां या कहती है?
5. ेम क एक न ठता का प रचय दे ते हु ए गो पयां या कहती है?

11.8 संदभ ंथ
1. आचाय रामच शु ल, मरगीत सार, नागर चा रणी -सभा, काशी ।
2. हरवंश लाल शमा, सू र और उनका सा ह य, भरत काशन मं दर, अल गढ़ ।
3. राम व प चतु वद , म यकाल न का य भाषा, लोकभारती काशन इलाहाबाद ।
4. द नदयाल गु त , अ टछाप और व लभ स दाय, ह द सा ह य स मेलन, याग।

87
इकाई-12 सू रदास के का य का अनुभू त एवं
अ भ यंजना मक प
इकाई क परे खा
12.0 उ े य
12.1 तावना
12.2 पृ ठभू म
12.3 गृं ार वणन
12.3.1 संयोग वणन
12.3.2 वयोग वणन
12.4 ाकृ तक वणन
12.5 लोक जीवन का च ण
12.6 का य श प
12.7 का य भाषा
12.8 श दावल
12.9 सारांश
12.10 अ यासाथ न
12.11 संदभ थ

12.0 उ े य
पछल इकाई म आपने भ त वर, कृ ण के अन य भ त, ेमाभि त के उपासक,
महाक व सू रदास के जीवनवृ त तथा का य संसार का अ ययन कया । इस इकाई म
हम सू रदास के का य के अनुभू त एवं अ भ यंजना प का अ ययन करने जा रहे ह ।
इसे पढ़कर आप :
 सू रदास क क वता म व णत गृं ार रस के संयोग व वयोग प क वशेषताओं
को जान सकगे ।
 सू रका य म व णत कृ त के व वध प का मू यांकन कर सकगे ।
 सू रका य म लोक जीवन का च ण पढ़ सकगे ।
 सू रका य के श पगत और भाषागत वै श य का अ ययन कर सकगे ।

12.1 तावना
वा स य और गृं ार के कु शल च कार, कृ ण-का य के सु मधुर गायक, ाच ,ु
महाक व सूर के सू र व से भला कौन अप र चत होगा । कृ ण ल लाओं को अपनी
लेखनी का वषय बनाकर क व ने िजस कु शलता से व वध ल लाओं के व भ न च
च त कए ह, उनक छटा अनुपम और अ वतीय है । उनका सू र-सागर ह द

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सा ह य का र नागार है और मरगीत उसक सव कृ ट र नरा श है । इसम गो पय
क भि त, नी त, ेम, वयोग, आत दन और उपाल भ के साथ वाकचातु य का
मम पश च ण है । इसके साथ ह नगु ण म का नषेध और सगुण म क
वीकृ त है । सू रदास ने अपनी भि त क रागा मक आधार दान कया । माधु य भाव
से म त भि त ह उनके मानस म बसी राधा-कृ ण क छ व को अनेक दशाओं म
चंचल और जीव त बनाती है । महाक व सू र भ त पहले, क व बाद म थे ।
सगुणोपासक कृ ण भ त क वय क पर परा म सू रदास का थान अ यतम है ।
उ ह ने स य, माधु य और वा स य भाव क भि त क । पूव म वे वनय और दै य-
दशन के पद गाया करते थे ले कन गु व लभाचाय क ेरणा से वे कृ ण के
मनोहार प के चतेरे वन गए ।

12.2 पृ ठभू म
सू रदास का ारि भक जीवन गऊघाट पर रहते हु ए भगवान के सामने वनय के पद
तु त करके गड़ गड़ाने म बीता था । वे अपने आरा य कृ ण को प तत पावन और
वयं को '' भु ह सब प ततन को ट क '' मानते थे । एक दन जब व लभाचाय
द ण- वजय से लौटे तो गऊ घाट पर ठहरे । सूर ने महा भु के सामने वनय-पद
तु त कये । 'मोसम कौन कु टल खलकामी'' और '' भु ह सब प ततन को ट क '' ।
आचाय व लभ भगवान क भि त म सू र क अन यता और तादा य भाव से अ य त
भा वत हु ए और ल ला ेमी महा भु ने सू र से कहा -
''सू र हवै के ऐसी घ घयाता काहे को हो, कछु ह र जस ल ला वणन करो ।'' सू रदास ने
वयं को महा भु के चरण म सम पत कर दया । वयं आचाय व लभ ने सू रदास को
द ा द और भागवत म व णत कृ ण-ल लाओं का रह य व तार से समझाया । कृ ण
ल लाओं को अपने भीतर अं कत करने से सू र के आ त रक ने खु ल गये । उ ह ने
कृ ण-ल लाओं का जो च ण शु कया तो फर घ घयाने के लए उ ह अवकाश ह
नह ं मला । भि त, वनय, अन यता, शरणाग त आ द भाव को भी उ ह ने ल लारस
म ह डु बो कर तु त कया । कृ ण क बाल ल ला, सखा ल ला और फर कशोर तथा
युवा कृ ण क ल लाएँ उ ह आनि दत करने लगीं । 'प तत सू र' अब र सक सू र' वन
चु के थे । पाठक के सम अब कृ ण के तीन प तु त थे - बालकृ ण, सखाकृ ण,
युवाकृ ण । आलोचक ार भ म सू र वारा अं कत युवा कृ ण क मादक-मनोहर
ड़ाओं को औ च य वरोधी समझकर नाक-भ सकोड़ते रहे, क तु अ त म सू र के
साथ वह भी उसी मादक वाह म बहना पस द करने लगे । युवा कृ ण का यह मादक
प ह का य े म गृं ार रस बना । इसी का एक प संयोग गृं ार कहलाया और
दूसरा प व लंभ गृं ार । कृ ण क कशोर और युवा जीवन क अन त ल लाएं ह
सू र ने सैकड़ मु ाओं के साथ अं कत क है । तभी तो आचाय रामच शु ल को

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कहना पड़ा क गृं ार का रस-राज व य द कसी क व ने दखाया है तो इसी अंधे क व
सू र ने । अपनी ब द ऑख से वे गृं ार का कोना-कोना झाँक आये ह'' ।

12.3 गृं ार वणन


गृं ार को रस राज कहा जाता है । आचाय आन दवधन के अनुसार , '' गृं ार रस
सम त सांसा रक ा णय के अनुभव का वषय होने के कारण कमनीयता क ि ट से
धान है ।'' व तु त: अपनी स दयता, यापकता, सरसता और मानव क मू ल वृि त
काम से संबध
ं रखने के कारण ह गृं ार को रसराज कहा गया है । गृं ार रस के दो
प ह - संयोग गृं ार और वयोग या व लंभ गृं ार ।
भ त वर महाक व सू रदास ने अपनी भि त को रागा मक आधार दया है । माधु य
भाव से म त भि त ह उनके मानस म बसी राधा कृ ण क छ व को अनेक दशाओं
म चंचल और जीव त बनाती है । सू र ह द सा ह य म गृं ार के अ वतीय चतेरे ह
। तभी तो आचाय रामच शु ल को कहना पड़ा क गृं ार का रसराज व य द कसी
क व ने दखाया है तो इसी अंधे क व सू र ने । अपनी बंद आँख से वे गृं ार का
कोना-कोना झाँक आये ह । महाक व सू र ने गृं ार के संयोग एवं वयोग दोन प का
चु रता से. वणन कया है ।

12.3.1 संयोग वणन

आचाय धनंजय के अनुसार , ''जहाँ अनुकू ल वलासी एक-दूसरे के दशन- पशन इ या द


का सेवन करते ह, वह आन द से यु त संयोग गृं ार कहलाता है ।'' संयोग गृं ार के
वणन म नायक-ना यका के ेम क उ पि त, आल बन का प च ण, नायक-ना यका
क डाएँ, पार प रक छे ड़छाड़ और उनके मलने आ द का वणन कया जाता है । सू र
का संयोग वणन अ य त वाभा वक एवं मनोवै ा नक है । सू र ने कृ ण, राधा और
गो पय को आल बन बनाया है । राधा सम त गो पय का त न ध व करती है ।
राधा और कृ ण का मलन अ य त नाटक य और चम कारपूण प रि थ तय म होता है
। एक दन कृ ण भ रा चकडोर हाथ म लये ज क ग लय म खेलने के लए
नकलते ह -
''खेलन ह र नकसे ज खोर ।
क ट काछनी पीता बर धारे , हाथ लये भ रा, चकडोर ।
गए याम र व-तनया के तट, अंग लस त च दन क खोर ।
औचक ह दे खी तहँ राधा, नैन बसाल भाल दये सेर ।
सू र याम दे खत ह र झे, नैन-नैन म ल पर ठगौर ।''
राधा और कृ ण के वशेष ेम क उ पि त सू र ने प के आकषण वारा ह बताई है-
'बुझत याम कौन तू गोर ?
कह ं रह त काक तू बेट ? दे ख ना ह कबहू ँ ज खोर । ”

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राधा भी चतुराई से उ तर दे ती है -
“काहे को हम ज तन आव त? खेल त रह त आपनी पौर
सु न त रह त वनन नंद ढोटा करत रहत माखन द ध चोर ।”
बाल ड़ा के सखी-सखा आगे चलकर यौवन- ड़ा के सखी-सखा बन जाते ह । यह
कारण है क गो पयाँ उ व से प ट कह दे ती ह -
ल रकाई को ेम कहो अ ल, कैसे छूटे ?''
सू र का यह संयोग वणन ल बी-चौड़ी ेम चचा है िजसम आन दो लास के न जाने
कतने व प का वधान है । रासल ला, दान-ल ला आ द सब इसके अ तभू त है।
कृ ण अलौ कक सौ दय के स ाट ह, उनका अंग- यंग आकषक है । कृ ण के चंचल
ने तो गो पय के आकषण का वषय है -
''दे ख, र । ह र के चंचल नैन ।
खंजन मीन मृगज चपलाई न हं पटतर एक सैन ।''
राधा-कृ ण का ेम शनैः-शनै: वक सत होता है । आपसी छे ड़छाड़, हास-प रहास म वे
ल न रहने लगते ह । एक दन गाय दुहते समय कृ ण को मजाक सू झा और अ त
अनुराग म वे ठठोल करने लगे -
''धेनु दुहत अ त ह र त बाढ ।
एक धार मथनी पहु ँ चावत, एक धार जहँ यार ठाढ़ ।''
''रा धका ने भी इस ठठोल का यु तर दया -
तुम पै कौन दुहावे गैया । इत चतवत, उत धार चलावत ए ह सखायी मैया ।''
कृ ण क दान ल ला भी आनि दत करने वाल ह । वे सम त गो पय से गोरस का
दान माँगते ह । गो पयाँ भी गूढ़ाथ से प र चत ह, अत: कहती ह -
''ऐसो दान मां गये न हं जौ, हम पै दयो न जाइ ।
बन म पाइ अकेल जु व त न मारग रोकत धाइ ।
हम जान तं तु म य न हं र हहौ, र हहौ गार खाइ ।
जो रस चाहो, सो रस नाह ं, गोरस पयौ अघाइ ।''
आचाय रामच शु ल के अनुसार , ''सु र का संयोग वणन एक णक घटना नह ं है,
ेम-संगीतमय जीवन क गहर चलती धारा है, िजसम अवगाहन करने वाले को द य-
माधु य के अ त र त और कु छ दखाई नह ं पड़ता । राधा-कृ ण के रं ग रह य के इतने
कार के च सामने आते ह क सू र का दय ेम क नाना उमंग का अ य भंडार
तीत होता है ।''
सू रदास ने राधा को वक या के प म च त कया है । वस त, फागुन , होल , जल
ड़ा आ द अनेक ल लाओं म राधा-कृ ण भाग लेते ह और गो पयाँ उनका दशन कर
आनि दत होती रहती ह -
''आजु ह र अदभूत रास रचायौ ।

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एक हं सु र सब मो हत क हे, मु रल नाद सु नायी ।
अचल चले, चल थ कत भए, सब मु न जन यान भुलायौ ।''
गो पयाँ कृ ण के साथ फाग खेलने के लए और उनके आ लंगन सु ख को पाने के लए
नकल पड़ती ह ।
''ह र संग खेल त ह सब फाग ।
इ हं मस करत गट गोपी, उर अ तर क अनुराग ।''
कु े म राधा-कृ ण का वष प चात ् मलन दय पश है । इस संयोग सु ख को
ा त कर राधा कृ णमय और कृ ण राधामय हो जाते ह -
''राधा माधव भट भई ।
राधा माधव, माधव राधा, क ट भृं गग त हवै जु भई ।
माधव राधा के रं ग रांचे, राधा माधव रं ग भई ।
माधव राधा ी त नर तर, रसना क र सो कह न गई ।''
ेम क मनोवृि त का जैसा वश एवं पूण ान सू र को था वैसा कसी अ य क व को
नह ं । सू रसागर म राधा-कृ ण के रं ग रह य के इतने च हमारे सम आते ह क
सू र का दय ेम क नाना उमंग का अ य भ डार तीत होता है । सू र का संयोग
वणन ल बी चौड़ी ेम-चया है, िजसम आंदोलन के जाने कतने प का वधान कया
गया है । इस कार सू र ने गृं ार के रस-राज व को दखाया है ।

12.3.2 वयोग वणन

आचाय भोज के श द म, ''जहाँ र त नामक भाव कष को ा त हो. ले कन अभी ट


को न पा सके, वहाँ व ल भ गृं ार कहा जाता है ।''
सा ह यकार ने संयोग गृं ार क अपे ा वयोग गृं ार को अ धक मह व दया है ।
संयोग गृं ार म भाव का संकुचन होता है । ेमी और े मका एकांत चाहते ह, जब क
वयोग गृं ार म आ मा का व तार सम त ाणी जगत से लेकर जड़ पदाथ तक होता
है । ेम भि त को वीकारने वाले भ त क वय ने भि त के े म संयोग क
अपे ा वयोग को अ धक मह व दया है ।
व तु त: गृं ार रस को रस-राज व दान करने वाला त व वयोग गृं ार ह है ।
महाक व सू र ने गृं ार के े म मलन- वरह क मा मक अनुभू तय का गो पय के
वारा न पण करके अपने सा ह य म अदभू त रसमयता ला द है । डॉ. मु श
ं ीराम राम
के श द म, ''सू र व ल भ- गृं ार के अ वतीय क व ह । उनके सू रसागर म
वयोगज य नाना कार क मान सक दशाओं क तरं गे उ वे लत हो रह ह, दय क
घनीभू त पीड़ा आँसु ओं क शतशत धाराओं म कट होकर लहर मार रह ह ।''
सू र ने वरह के वारा ेम क पुि ट य त क है । वरहाि न म तपकर ेम वशु
हो जाता है । बाबू गुलाबराय सू रदास के वरह-वणन पर ट पणी करते हु ए लखते ह,
''सू र क गो पय ने दुःख म अपना सहज चाप य नह ं छोड़ा था, क तु इन चाप य

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क लहर के भीतर वरह का बडवानल धधक रहा था इस वरह ने ह उनके संयोग के
गा भीय को आलो कत कया । गो पय का हास- वलास केवल जवानी क उठती तरं ग
न थी जो सहज वल न हो जाती । वरह क अि न म वासना और ऐि कता का
कदम जल गया था और उनका ेम दे द यमान वण हो नखर आया था ।' वरह
वारा ेम के प रपु ट होने क बात को सू र ने इस कार य त कया है -
ऊधौ! वरहौ ेम करै ।
य बनु पुट पर गहै न रं ग ह पुट गहै रस ह परै ।
का यशा के अनुसार वयोग क चार अव थाएँ होती ह -
पूवराग, मान, वास और मरण । य य प सू र के का य म सभी अव थाओं का च ण
मलता है, तथा प उ ह ने वास- वयोग का ह अ धक वणन कया है । वास वरह
कृ ण के मथुरागमन से ार भ होता है । कृ ण नह ं लौटे और उनके बना गो पय के
तन क सभी बात बदल गई -
''मदन गोपाल बना या तन क सबै बात बदल ।''
गो पयाँ रात- दन कृ ण क मृ तय म ल न रहती ह -
''हमको सपने हू ँ म सोच ।
जा दन त बछुरे नंदनंदन, ता दन तै यह पोच ।
मनु गोपाल आए मेरे गृह हँ स क र भु जा गह ।
कहा कह बै रन भई न ा, न मष न और रह ।''
जो कृ त संयोगाव था म आन द दे ने वाल होती है, वयोगाव था म वह दुःखदायी हो
जाती है । कृ त के इसी उ ीपन प को सू रदास ने गो पय के वरह को उ ी त करने
के लए चु रता से वीकार कया है । संयोगाव था म म बनी रहने वाल कं ु जे
वयोगाव था म बै रन वन गई है, शीतल लगने वाल लताएँ वषम वाला के पुँज वन
गई ह -
'' बनु गुपाल बै र न भई कं ु ज ।
तब वै लता लग त अ त सीतल, अब भई वषम वाल क पु ज
ं ।
वृथा बह त जमु ना, खग बोलत, वृथा कमल फूल त अ ल गुज ।''
वयो गनी गो पयाँ अपने उजड़े नीरस जीवन से मेल न खाने के कारण वृ दावन के हरे -
भरे पेड़ को भी कोसती ह -
''मधु वन! तु म कत रहत हरे ?
बरह- वयोग याम सु ंदर के ठाढ़े य न जरे ।''
इसी कार रात उ ह सां पन-सी लगती ह -
'' पया बनु सां पन कार रा त ।''
वै णव आचाय ने वासज य वयोग क एकादश दशाएँ मानी ह और सू र ने सभी
दशाओं का व तार से च ण कया है । आचाय रामच शु ल के अनुसार , '' वयोग

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क िजतनी अ तदशाय हो सकती ह, िजतने ढं ग से उन दशाओं का सा ह य म वणन
हु आ है और सामा यत: हो सकता है, वे सब उसके भीतर मौजू द ह ।''
जैसे - अ भलाषा क दशा -
''ऐसे समय जो ह रजू आव ह ।
नर ख- नर ख वह प मनोहर नैन बहु त सु ख पाव ह ।''
मृ त क दशा -
''ऊधो य राखी ये नैना ।
सु मर-सु मर गुन अ धक तपत है, सु नत तु हारे बैना''
लाप क दशा -
'' बनु गोपाल बै रन मई कं ु जै ।
ं ै ।''
तब वै लता लग त अ त सीतल अब भई वषम जाल क पु ज
ी कृ ण के वरह का वणन सू र ने कम ह कया है, क तु िजतना भी कया है. वह
च अ य त मा मक है -
''ह र गोकुल क ी त चलाई ।
सु नहु उपंगसु त मो ह न बसरत जवासी सु खदायी ।
यह चत होत जाउं म अब हं, यहाँ नह ं मन लागत ।
गोप सु वाल गाय वन चारत अ त दुख पायो यागत ।''
उ व जब ज क दशा का वणन कृ ण के सम करते ह, तो वरह- वद ध होकर
कृ ण कह उठते ह
''ऊधौ! मो ह ज बसरत नाह ं ।
वृ दावन गोकु ल वन उपवन सघन कं ु ज क छांह ।''
हंस सु ता क सु दर कगर अ कं ु जन क छांह ।
कृ ण के वरह म गो पय के दय टू ट रहे ह । वरह- वषाद क वाला से ज जल
रहा है । तभी उ वव कृ ण जैसी वेश-भू षा म आकर नगु ण का उपदे श दे ते ह, जो जले
पर नमक का काम करता है । ेमो माद त गो पयाँ अपनी ववशता, एक न ठता को
इस मा मकता से तु त करती ह -
''ऊधो! मन न भये दस बीस ।
एक हु तौ सो गयौ याम संग, को अवराधे तु व ईस ।''
उधर राधा क दशा भी अ य त दयनीय है -
'अ त मल न वृषभानुकुमार ।
हर म जलु अ तर तन भीजै, ता लालच न धु वाव त सार ।
अधो मु ख रह त उरध न हं चतव त, य गथ हारे थ कत जु आर ।'
डॉ. रामकु मार वमा ने सू र के व ल भ क वशेषताओं का न पण इस कार कया है,
''सू रदास ने मानव- दय के भीतर जाकर वयोग और क णा के िजतने भाव हो सकते

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ह, उ ह अपनी कु शल लेखनी से ऐसे अं कत कर दया है क वे अमर हो गए ह ।
भाव म ऐसी प टता है मान हम वयं उ ह अनुभव कर रहे ह ।''
डॉ. हजार साद ववेद के श द म, लस वरह का कोई कू ल- कनारा नह ,ं कोई
ह ी- हसाब नह ं।
सारांशत: सू र ने सहज चाप य एवं यं य- वनोद क शीतल लहर के अ तगत भी
वयोग क बडवाि न का सहज च अं कत कया है । न संदेह सू र क वर हणी
गो पयाँ तपि वनी ह, य क वयोगाि न के अ तगत उनक सम त इि य-ज य
लालसाय एवं वासनाय न ट हो चु क ह और उनका कृ ण- ेम कं ु दन क भां त नखर
आया है । इसी कारण सू र ने नगु ण पर सगुण क वजय दखाकर ान पर भि त
क अथवा संयोग पर वयोग क वजय दखाई है और इसी कारण सू र वा स य के
साथ-साथ वयोग-वणन म भी स ह त माने जाते ह । डॉ. मु ंशीराम शमा के अनुसार ,
सू र के दय क जो धड़कन और तड़फन व ल भ के वणन म कट हु ई है. उसम
मान सम त व व का दय योग दे रहा है ।

12.4 ाकृ तक वणन


कृ त मानव क चर सहचर रह है । मानव ने अपनी आंखे उसी क गोद म खोल
और उसी म सब कु छ सीखा । मानव और कृ त के इस अनूठे संबध
ं के बारे म कहा
गया है - ' य कृ त मानव-जीवन को अथ से इ त तक च वात क तरह घेरे रह है
। कृ त के व वध कोमल-प ष, सु दर- व प, य त-रह यमय प के आकषण-
वकषण ने मानव क बु और दय को कतना ह प र कार और व तार दया है,
उसका लेख-जोखा करने पर मनु य कृ त का सबसे अ धक ऋणी ठहरे गा ।' व तु त:
संसार म से मनु य का भाव जगत ् ह नह ,ं उसके च तन क दशाएँ भी कृ त के
पा मक प रचय वारा तथा उससे उ प न अनुभू तय से भा वत ह ।
यह कारण है क कृ त मानव के का य-जगत का वषय वन गई है और क वय ने
वै दक काल से लेकर आज तक के सा ह य म कृ त के नाना प का वणन कया ।
यह कृ त कृ ण के अन य भ त महाक व सू रदास के का य क यापक पृ ठभू म को
आ मसात ् कये हु ए है । सू र-का य क रचना कृ त के वराट े म हु ई । इसी क
ओर संकेत करते हु ए आचाय रामच शु ल ने लखा है वृ दावन म कृ ण और
गो पय का स पूण जीवन ड़ामय है और वह स पूण ड़ा संयोग-प है । उसके
अ तगत वभाव क प रपूणता. राधा के अंग-अंग क शोभा के अ य त चु र और
चम कारपूण वणन म तथा वृ दावन के कर ल कं ु ज , सलोनी लताओं, हरे भरे कछार ,
खल हु ई - चाँदनी, को कल - कू जन आ द म दे खी जाती है ।''
सू रका य म कृ त च ण का वै व य दे खने को मलता है ।
1. आल बन प म कृ त च ण - जब का य म कृ त के वभ न प का
यथात य वणन कया जाता है. तो ऐसे वणन कृ त के आल बन प के च ण

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कहे जाते ह । महाक व सू र ने कृ त का आल बन प म च ण अनेक थल
पर कया है, जैसे -
सीतल बू द
ं पवन पुरवाई ।
जहाँ-तहाँ त उम ड़-घुम ड़ घन कार घटा चहु ँ द स धाई ।
भींजत दे खी राधा माधव, ल कार कामर उड़ाई ।
अ त जल भींिज चीखर टपकत और सबै टपकत अंबराई ।
क व ने व न सौ दय से दावानल क भयंकरता का सजीव च तु त कया है -
भहरात झहरात दावानल आयो ।
घे र चहु ँ ओर, क व सोर अ दोर वन धर न आकास चहु ँ पास छायो ।
बरत बनबांस, थरहत कु स-कास ज र उड़त बहु झांस, अ त बल धायो ।
झप ट झपटत लपट, फूल-फूटत पट क चट क लट लट क दुम फ टनवायो ।
2. उ ीपन प म कृ त च ण - उ ीपन प म कृ त हमारे सु खा मक एवं
दुखा मक भाव को उ ी त करती हु ई तीत होती है । क वय ने कृ त के इस
प का च ण गृं ार रस के अ तगत नायक-ना यका के र त भाव को उ ी त
करने के संग म कया है । संयोगकाल म कृ त अपने प, रस, पश, थ

आ द से र त क वृ करती है और हमारे सु खा मक भाव म वृ करती है
ले कन वयोगकाल म उसी कृ त क सु षमा, आकषण और वैभव हमार वेदना को
घनीभू त कर दे ता है । कृ त के चतेरे सू र ने संयोग के च म कृ त के
व भ न रमणीय च क आकषक योजना क है -
''आजु न स सो भत सरद सु हाई ।
ं पवन बहै, रोम-रोम सु खदाई ।
सीतल मंद सु गध
जमु ना पु लन पुनीत परम च, र च मंडल बनाई ।
राधा वाम अंग पर कर ध र, म य हं कं ु वर क हाई ।''
क तु वयोग काल म कृ त का यह वैभव वेदना को घनीभू त कर दे ता है । कृ ण के
मथुरा चले जाने पर गो पय का दय वेदना से य थत हो उठता है और पावस ऋतु म
दादुर, मोर, मधु प, पक का बोलना, बादल का गरजना गो पय के दय म ट स
उ प न करता है -
''ये दन सबे के नाह ं ।
कार घटा पौन झकझौरे , लता त न लपटाह ं ।
दादुर मोर चकोर मधु प पक बोलत अमृत बानी ।
''सू रदास'' भु तु हरे दरस बनु बै र न रतु नयरानी ।'
वयं कृ ण भी ज ड़ाओं का मरण करते हु ए कहते ह -
''ऊधो'' मो ह ज बसरत नाह ं ।
हंस सु ता क सु ंदर कगर अ कं ु जन क छांह ।
वै सु रभी वै ब छ दो हनी ख रक दुहावन जाह ।

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3. कृ त का मानवीकरण - क व अपनी तभा से जड़ कृ त पर चेतना का आरोप
कर उसे सजीव बना दे ता है । वह मानव के समान कभी हास-प रहास करती हु ई
तो कभी वेदना से याकु ल होती हु ई ात होती है । तु त पद म क व सू र ने
यमु ना को संत त नार के प म च त कया है ।
''दे खयत का लंद अ त कार ।
क हयो प थक! जाय ह र स य भई वरह जु र जार ।।
मनो प लका तै पर धर न ध स तरं ग तलफ तनु भार ।
तट बा उपचार चू र मनो वेद वाह पनार ।''
4. आलंका रक प म कृ त च ण - क व अपने का य को रसा मक बनाने के लए
उपमान प म ाकृ तक उपादान का चयन करता है । इसके अ तगत वह उपमा,
पक, उ े ा, य तरे क आ द व भ न अलंकार का योग करता है । महाक व
सू रदास ने भी कृ ण और राधा के सौ दय अंकन म कृ त के इसी प को च त
कया है । कृ ण का सौ दय च ण दशनीय है-
''मेरे माई, याम मनोहर जीवन ।
नर ख नैन भू ले जु ब दन छ व, मधुर हँ स न पय-पीवन ।
कं ु तल -कु टल मकर कं ु डल , ु व नैन बलोक नबंक ।
सु धा संधु तै नक स नयौ स स राजत मनु मृग अंक ।
सो भत सु मन मयूर -चि का, नील न लत तनु याम ।
मनहु ँ नछ -समेत इ -धनु सु भग मेघ अ भराम ।''
उपमा अलंकार के उदाहरण के प म कृ त का न न ल खत च दशनीय है -
''हमारे ह र हा रल क लकर ।
मन वचन कम नंदन दन स उर, यह ढ़ क र पकर ।''
इसी कार वभावना और पक अलंकार अपनी सम त शोभा के साथ यह ं तु त हु ए
है-
''दे ख माई! नयन ह स घन हारे ।
बन ह रतु बरसत न स बासर सदा सजल दोऊ तारे ।
उरध वांस समीर तेज अ त सु ख अनेक दुम डारे ।
बदन-सदन क र बसे बचन-खग ऋतु पावस के मारे ।''
उ े ा अलंकार को तो क व ने व वध कार से कट कया ह गो पय का उपालंभ
यहाँ दशनीय है-
'' बलग ज न मानहु ँ ऊधो यारे ।
वह मथु रा काजर क कोठर , जे आवै ते कारे ।
मानौ नील माट तै काढ़े , जमु ना आइ पखारे ।
ताते याम मई का ल द , सू र याम गुन यारे ।''

97
इस कार कृ त के चतेरे सू र के मनोमि त क म कृ त के नाना प ड़ा करते
रहते थे जो भावानुकूल अलंकार प म यथा समय कट हो जाया करते थे ।
5. रह यमयी शि त के प म कृ त च ण - महाक व सू र ने कृ त के रह यमय
प भी च त कए ह । ऐसे थल पर वे नगु ण-पंथ के संत के समान आ मा
या जीव को चकवी, मर या सु वा के प म संबो धत करते ह और भु के चरण
म थान पाने क ेरणा दे ते ह -
''चकई र , च ल चरन सरोवर जहाँ न ेम वयोग ।
जहाँ म नसा हो त न हं कबहू ँ सोई सायर सु ख संजोग ।''
इसी कार एक अ य पद म जीव को सु वा प म संबो धत कया है –
''सु वा, च ल ता वन क रस पीजै ।
जा वन राम नाम अ त रस सवन पा भ र पीजै ।''
6. संदेशवा हका के प म कृ त च ण - ाकृ तक उपादान वारा स दे श भजवाना
का य म एक ाचीन- पर परा रह है । पृ वीराज रासो, ढोला-मा रा दूहा, य
वास आ द के समान ह सू र क गो पयाँ भी य को संदेश भजवाने के लए
ाकृ तक उपादान का योग करती ह । गो पयाँ च मा से स दे श भजवाती ह
और कहती ह -
“द धसु त जात ह व ह दे स ।
वारका है यामसु दर सकल भवन नरे स ।
परम सीतल अ मय-तनु तु म क हयो यह उपदे स ।
काज अपनो सा र हमको छो ड रहे वदे स ।
नंदनंदन जगतबदन धरहु नटवर भेस ।
नाथ! कैसे अनाथ छाँ यो क हयो सू र संदेस ।”
गो पयाँ को कल से कृ ण को ले आने का नवेदन करती ह -
''जा ह र सखी । सीख सु न मेर ।
जहाँ बसत जदुनाथ जगत म न बारक तहाँ आउ दै फेर ।
तू को कला कु ल न कु सल म त, जान त बथा बर हनी केर
उपवन बै ठ बोल मृदुबानी , बचन बसा ह मो ह क चेर ।''
7. संवेदक प म कृ त च ण - संयोग- वयोग क अ भ यि त म कृ त पृ ठभू म
म व यमान होकर नायक-ना यका के त संवेदना अ भ य त करती है । सू रदास
ने भी कृ त के संवेदनशील प का सौ दय अं कत कया है । अव ध बीत जाने
पर भी जब कृ ण मथुरा से नह ं आते ह तो गो पयाँ वषा ऋतु के बादल के
मा यम से अपने दुःख क अ भ यि त करती है –
''ब ये बदराऊ बरषन आए ।
अपनी अव ध जा न न दन दन । गरिज गगन घन छाये ।
क हयत है सु रलोक बसत स ख, सेवक सदा पराये ।

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चातक कु ल क पीर जा न कै, तेऊ जहाँ ते आये- ।''
कृ ण के वयोग म लता-कं ु ज सु ख गये ह, मु रझा गये ह । लताओं क शीतलता अब
दाहक वन गई है -
'' बनु गोपाल बै रन भई कं ु जै ।
तब ये लता लग त अ त सीतल, अब भई वषम ं ै ।''
वाल क पु ज
सम त: सू र-का य म कृ त का सागर हलोरे ले रहा है िजसम असं य भाव-र न छपे
हु ए ह । सू र का कृ त च ण दय को आंदो लत कर दे ता है । उनक उपमाओं क
ताजगी, उ े ाओं क व च ता, और पक क नवीनता तो अवणनीय है । सू र का
कृ त वणन अ य भ त क वय क अपे ा अ धक यापक, मौ लक, और व वधता से
यु त है ।

12.5 लोक जीवन का च ण


सू रसागर म ज का लोक-जीवन अपने साकार प म उपि थत हु आ है । ज दे श
ाचीन काल से ह आय सं कृ त का के रहा है । मु ंशी राम शमा के श द म ‘’ ज
का अथ गोचर भू म है. जहाँ पशु- वचरण करते ह, तनके चु गते और अपने शर र को
पु ट करते ह । ज के वादश वन अपनी न:सग सु षमा और - रमणीयता के लए
अ य त स है । इन वन म पशु ओं के लए बड़े-बड़े चारागाह थे । सू र ने अपने
सू रसागर म इन सबका दयहार वणन कया है ।''
इस दे श क बोल भी अपने सा हि यक प म '' ज'' नाम से यात हु ई । इस
बोल के मा यम से ज क सं कृ त का व तार दूर -दूर तक हो गया और उसक
सरसता एवं भाव- वणता ने यहाँ क जनता को, लोक समु दाय को अ य त भा वत
कया ।
सू रदास व लभाचाय के मु ख श य थे । उ ह ने अपनी रचनाओं म ज-सं कृ त को
पूण पेण तफ लत कया है । ह दू धम म सं कार का वशेष मह व है । सू र ने
इन सं कार के वणन म ज-सं कृ त का मनोहर प तुत कया है ।
1. पु -ज म-सं कार - आय सं कृ त म आ दकाल से ह पु -ज म का वशेष मह व
रहा है । यशोदा न द से कहती ह-
''आवहु क त, दे व परसन भये, पु भयौ, मु ख दे खी धाई ।''
न द दौड़कर आते ह । पु का मु ख दे खते ह । सू रदास पु ज म क खु शय म
जवा सय के साथ सि म लत होकर बधाई दे ते ह -
''ह इक नई बात सु न आई ।
मह र जसोदा ढोटा जायौ, घर-घर होत बधाई ।
वार भीर गोप-गो पन क , म हमा बर न न जाई ।''

99
सू र ने पु ज म के अवसर पर होने वाले अनेक आचार- यवहार, मंगलगीत, बधाइयाँ,
नाल छे दन, बंदनवार, ह द -दह छड़कना, वेद व न, ा मण को तलक करना, वार
पर वि तक च न बनाना आ द का वणन कया है ।
2. छठ सं कार - पु ज म के प चात छठ के दन मा लन ब दनवार बाँधकर केला
लगाती है । सु नार ह रा ज ड़त वणहार लाता है, नाइन महावर लाती है, दाई को
लाख टका, झू मक और साड़ी दे ते ह, बढ़ई पालना लाता है तथा जा त-पाँ त क
प हरावनी करके पु को काजल लगाते ह । इस कार सू र ने छठ उ सव का
आकषक च ण कया है ।
3. नामकरण सं कार - बालक का नामकरण आय सं कार म वशेष मह व रखता
है। सू र ने कृ ण के नामकरण सं कार म व , चारण, ब द जन के आगमन एवं
यो तषी वग वारा ज मप का बनवाकर इस सं कार का वणन कया है ।
''आ द यो तष तु म रै घर को पु ज म सु न आयी ।
लागन स ध जब यो तष ग ण के चाहत ह तु ह सु नायौ ।''
4. अ न ाशन सं कार - जब कृ ण छ: मास के हो जाते ह, तब उनका अ न ाशन
सं कार व धपूवक कया जाता है -
''कुँ वर का ह क करहु पासनी, कछु दन घ ट षट मास गए ।
न द महर यह सु न पुल कत िजय, ह र अन ासन जोग भए ।''
गोप-गो पयाँ एक होकर मंगल-गीत गाते ह । न द वण थाल म मृत -मधु मल खीर
लाते ह और यह खीर बाल कृ ण को खलाई जाती है । तदुपरा त यौनार होती है ।
5. कण-छे दन - सू र ने कृ ण के कणछे दन के अवसर का वष वणन कया है । इस
अवसर पर कृ ण पीत झगुल , सर पर कु लह म णज टत याध-नख से संयु त
कंठ ी, कं कणी बाहु भू षण आ द धारण करते ह । कनछे दन सं कार के समय सू र
उ लासपूवक कहते ह -
''का ह कुँ वर को कनछे दन ह, हाथ सु राह भेल गुर क ।
व ध वहंसत ह र हँ सत हे र यशु म त के धु कधु क उर क ।''
6. य ोपवीत सं कार - सू र ने कृ ण और बलराम के य ोपवीत सं कार का वणन भी
कया है । इस अवसर पर ष स यौनार होती है तथा गग ऋ ष कृ ण को गाय ी
म का उपदे श दे ते ह । ा मण को इस अवसर पर गाय का दान दया जाता
है । ि याँ मंगलगान करती ह और यशोदा यौछावर करती ह ।
7. ववाह सं कार - सू र ने राधा और कृ ण का ग धव ववाह अपने समय म च लत
सम त र तय के अनु प कराया है । ये र तयाँ आज तक ज म चल आ रह
ह । जैसे मोर धारण करना -
''मोर मु कुट र च मौर बनायौ
माथे पर ध र ह र व आयी ।''

100
सम त गोप-गोपीजन आमि त कए गए । नवीन फूल का मंडप बनाते समय अनेक
वध आन द मंगलगान हु आ । पा ण हण और भाँव र सं कार हु आ –
''तापर पा ण हण व ध क ह
तब मंडल भ र-भ र भांव र द ह ं ।''
कंकण खोलना आ द र म का सू र ने अ य त सु दर च ण कया है -
''बहु र स म ट ज सु दर म ल द ह ं गाँ ठ बनाई ।
छोरहु वे ग क आनहु अपनी यशु म त माई बुलाई ।''
ववाह सं कार के सभी वधान स प न होने पर सू र कहते ह -
''सनका द नारद मु न सव बरं च जान ।
दे व दु दुभी मृदं ग बाजे वर नसान ।
वारने तोरन बंधाये ह र क हौ उछाह ।
ज क सब र त भई बरसाने याह ।''
8. पूजा, त और नान - ज सं कृ त म पूजा, त, नान आ द का भी वशेष
मह व है । सू रदास ने गौर -पूजा , शव-पूजा, सू य-पूजा त रखना, यमु ना- नान
करना आ द का वणन राधा एवं गो पय के संग म कया है । इसी कार नंद
वारा शा ल ाम क पूजा और एकादशी त करने का वणन है । ज के लोग दे व
म व वास रखने वाले, शकु न मानने वाले तथा तीथया ा को मह व दे ने वाले थे
। सू र ने गोव न-पूजा का समारोह उ सव के प म व णत कया है ।
9. पव और योहार का वणन - सामािजक उ सव म वषा ऋतु के हंडोल, वस त
ऋतु के फाग और होल का वणन सू र ने कई थल पर कया है । ज क होल
सव स है । ी-पु ष , ब चे, वृ सब एक दूसरे पर गुलाल -अबीर डालते ह ।
इस अवसर पर चंग, मृदं ग और ढोल लोग को उ सा हत करने के लए बजाये
जाते ह । सू र ने कई पद म इस यौहार का वणन कया है
''खेलत, फाग कुँ वर गरधा र
मारती बाँस लए उ नत कर, भाजत गोप ना र सो हा र ।''
उ सव के साथ सू र ने व भ न खेल का भी वणन कया है । आँख मचौनी, कब डी,
भाग-दौड़, गे द, भ रा, चकडोर जल ड़ा, दं गल आ द उस समय ज सं कृ त के अंग
थे ।
'' याम सखा को गे द चलाई ।
ी दामा मु र अंग बचायी, गे द पर काल दह जाई ।''
10. फूलडोल उ सव - होल का उ सव समा त होते-होते ज म फूल डोलो सव ार भ
हो जाता है । इस उ सव म फूल का बाहु य होता है, पु प गृं ार होता है, पु प
के ह झू ले डाले जाते ह और ी-पु ष झू ला-झू लते ह । सूर ने इस उ सव का भी
बड़ा सु दर च ण कया है -

101
''गोकुल नाथ वराजत डोल ।
झु लव ह जु थ मले ज सु दर हर षत करत कलोल ।
11. अ नकूट महो सव - जवासी द पावल के प चात ् अ नकू ट उ सव धूमधाम से
मनाते ह यह योहार ज म वा षक उ सव के प म मनाया जाता है । इस दन
इ क पूजा क जाती है और ष स यंजन बनाकर खु शयाँ मनाई जाती है ।
इसका वणन भी सू रदास ने कई थान पर कया है ।
12. प रधान और गृं ार - सू र ने अनेक पद म जवा सय के आभू षण और प रधान
का सु दर च ण कया है । जांगनाएँ रं ग- बरं गे व तथा आभू षण से सौ दय
वृ करने म चतुर थीं महाक व सू र ने राधा क साज-स जा का मनोहार च
तु त कया है -
''कंठ स र उर प दक बराजत गजमो तन को हार ।
र न ज टत गजर बाजू बद
ं सोभा भु ज न अपार ।
छ न लंक क ट कं क न क धु न बाजत अ त झनकार ।
छटक रह लहँ गा रं ग तनसु ख सार तन सु कु मार ।
ं ार ।''
सू र सु अंग सु ग ध समू ह न भँवर करन गु ज
सम त: ज सं कृ त का यह सु दर द दशन सू र-सा ह य म सव व णत है । क व
िजस वातावरण म वक सत होता है उससे वह वलग नह ं हो पाता । द यच ु होते
हु ए भी महाक व सू र ने ज दे श म च लत उन सभी मा यताओं. पर पराओं, यास
और यौहार का वणन करना अपना क त य समझा जो उस समय ज अंचल म
च लत थीं । इसी लए हमार भारतीय सं कृ त और स यता आज तक सु र त रह है
। सू र का का य सचमुच लोक जीवन का अनूठा त ब ब है ।

12.6 का य श प
सू रदास का स पूण का य भाव-रा श का एक वशाल महासागर है, िजसम लहर क
ऊँचाई तथा जल क अतल गहराई के समान का यान द क मु ताम णय को सं ह त
कर लु टाने क उदार वृि त है । का य मानव जीवन को आनि दत, उ ल सत और
भा वत करता है । िजस का य म भावप के उ नत होने के साथ कला मक ि ट से
भी सौ दय का आकषक आयोजन हो, वह का य लोक के दय का हाल बताने क
मता रखता है । सू रदास का का य एक ओर भाव क सहजता, सरसता और मु त
वेग का उमड़ता ोत है, तो दूसर ओर उसम का य-कला का सौ दय भी उ कष तक
पहु ँ चा हु आ है ।
1. भाषा सौ दय - क व क सम त का य-कला का मू ल आधार भाषा क समृ ह
होता है । े ठ कलाकार भाषा को अपनी अनुभू तय के अनुसार ढालता है, िजससे
क य क स ेषण-शि त कई गुना बढ़ जाती है । महाक व सू र ने अपने इ टदे व
कृ ण क वहार- थल जभू म क भाषा को ह अपने का य क भाषा बनाया ।

102
ज भाषा को सू र ने सा हि यक ौढ़ता दान क । यह कारण है क सू रदास को
जभाषा का वा मी क तथा ह द सा ह याकाश का सू य कहा जाता है । सू र क
वाणी का पश पाकर ह ज भाषा स पूण म यकाल म सा हि यक भाषा के प
म ति ठत हु ई ।
सू र क भाषा म कोमलकांत पदावल , भावानुकूल श द योजना, वाहमयता, अपूव
संगीता मकता, सजीवता और ाणव ता के साथ-साथ चरप र चत उपमान और
मु हावर -लोकोि तय का सु दर-सरस आयोजन हु आ है । सू र क भाषा म सं कृ त
के कणकटु तथा संयु त यंजन वाले श द म साधारण लोकगीत का वाह और
ि टकू ट क व जन-यो य चम कार वृि त न हत है ।
2. अलंकार योजना - सू र ने अपने का य म भाव क जो अपूव स रता वा हत क
है, उसम अलंकार के व वध सौ दय- ब दु दखाई दे ते ह । इस का य म
श दालंकार व अथालंकार का ाचु य दे खने को मलता है । पक, उपमा, उ े ा,
अ तशयोि त, वरोधाभास, वभावना, वशेषोि त, टा त, अ योि त, लेष आ द
व भ न अलंकार सू रसागर म म णय के समान बखर गए ह ।
अनु ास - सू रका य म अनेक पद इसी सौ दय से मि डत ह ।
''पूर नता इन नयन न पूर ।
तु म जो कहत वन न सु न समझते, ये याह दुख मर त
बसू र ।
यमक - लोचन जल कागद-म स म ल कै,
हवै गई याम- याम क पाती ।
लेष - ''ऊधो! यह मन और न होय ।
प हले ह च ढ़ रहयो याम रं ग छुटत न दे खत धोय ।''
उपमा - '' य जल माह तेल क गाग र बू द
ं न ताके लागी ।''
पक - सू रसागर पक का भंडार है । क व ने इनक सरस योजना
क है । इसम क व ने प ी के सांग पक के मा यम से
सांसा रक मनु य क दयनीय दशा का च ण कया है –
अबकै रा ख लेहु भगवान ।
ह अनाथ बै यो दुम ड रया पार ध साधे बान ।
ताके डर म भा यौ चाहत, ऊपर ढु यौ सचान ।''
य तरे क अलंकार- य तरे क अलंकार का क व ने यथा थान भावपूण योग कया
है-
''दै ख र ह र के चंचल नैन ।
खंजन, मीन, मृग -चपलाई, न हं पटतर इक सैन ।''
वरोधाभास -

103
''चरन कमल ब दौ ह रराई ।
जाक कृ पा पंगु ग र लंघ,े अंधे को सब कु छ दरसाई ।''
व ोि त - मरगीत व ोि त अलंकार का अ य भ डार है । व ोि त
के वारा क व ने गो पय क मम- यथा को य त कया है-
''काहे को गोपीनाथ कहावत ।
जौ मधु कर वै याम हमारे , य न इहाँ लौ आवत ।''
क व सू र ने सभी कार के अलंकार का भावपूण योग अपने का य म कया है ।
डॉ. हजार साद ववेद के श द म, ''सू रदास जब अपने य वषय का वणन
शु करते ह, तो मान अलंकार शा उनके पीछे -पीछे दौड़ा करता है । उपमाओं
क बाढ़ आ जाती है, पक क वषा होने लगती है।''
छ दयोजना- य य प सूर ने मा क, व णक और म त सभी कार के छ द का
योग कया है, फर भी उनम मा क छ द का ह आ ध य दे खने
को मलता है। सू रसागर के आधार पर कहा जा सकता है क सू र का
छ द ान अप र मत था और इनका छ द योग वल ण था ।
सू रसागर म तोमर, चौपाई, चौपई, प र, कं ु डल , सस आ द सम
छ द का तो दोहा आ द अ सम छ द का योग हु आ है । ल ला-
तोमर, चौबोला + चौपई, चौपइ + चौपई आ द - म छ द भी
यु त हु ए ह । यहाँ छ द के उदाहरण ट य ह -
कु डल छ द - '' वारै पैठत गय द मा र, ध न डारयौ ।
मु ि टक चानूर म ल, मू सल सहारयौ ।
िज ह जैसी िजय वचा र, तैसी प धारयौ ।
दे वक वसु देव को स ताप नवारयौ ।''
ह र या छ द- ''मारे सब म ल न द के कुमार दोऊ ।
क ड सब न भू लगए, हांक दे त यकृ त भए ।
लपक-लपक सबै हए, उबरयौ न हं कोऊ ।''
सू रदास केवल छ द यो ता ह नह ं थे, वरन ् नवीन छ द के नमाता भी थे ।
संगीत होने के कारण उनक लय-चेतना बड़ी ती थी । िजसक लय चेतना
िजतनी ती होगी, वह नवीन छ द के नमाण म उतना ह कृ तकाय होगा ।
लोकोि तयां एवं मु हावरे - लोकोि तयाँ एवं मु हावरे भाषा क ाणशि त को बढ़ा
दे ते ह तथा उनके योग से का य म ौढ़ता और वाहमयता आ जाती है ।
लोकोि तयाँ एवं मु हावरे मानव-मा के सं चत अनुभव का सार ह । सू र ने
लोकोि तय के योग से का य को भावशाल बनाया है । ''अपने वा था के सब
कोऊ ।
चु प क र रह मधु प रस ल पट, तु म दे खे अ ओऊ ।''

104
इसी कार क व ने एक डार के तोरे , नपट दई को खोयो, धूम के हाथी, हाथ
बकानी बो हत के खग आ द व वध मु हावर के योग वारा भाषा म सौ ठव वृ
क है ।
गी तत व - सू रसागर एक गी तका य है । उसम गी तका य के सम त छ: त व
मलते ह । सू रदास भ त क व थे और अपनी भि त भावनाओं को गा गाकर ोताओं
तक पहु ँ चाना चाहते थे । इसी लए इनके का य म संगीता मकता, आ मा भ यंजना,
भावाि व त, सहज, अ तः रे णा, वाभा वकता और सु कोमलता मलती है । आचाय
रामच शु ल के अनुसार , ''सू रसागर'' म कोई राग या रा गनी, छूट न होगी । इससे
वह संगीत े मय के लए भी बड़ा भार खजाना है ।'' सु कोमल भाषा से यु त यह पद
ट य है ।
''सो भत कर नवनीत लए ।
घुटुरन चलत रे न-ु तन मं डत, मु ख द ध लेप कये ।
चा कपोल, लोल-लोचन, गोरोचन तलक दए ।''
सू रदास का गी त का य भारतीय वा मय क वशाल एवं समृ गी त का य क
पर परा का वह उ जलतम र न है, जो स पूण गी त पर परा को अपनी अपूव काि त
से द त कर रहा है । डॉ. च भान रावत के अनुसार , ''सू रसागर के गीत म ब ध
सू भी ह, संवाद भी ह, च भी ह, वणन भी ह । इन गीत म सरलता भी है,
अलंकृ त भी ह, शा ीय झलक भी है और लोकगीत क सरलता भी है ।''
इस कार सू र का य का अ भ यंजना श प का यकला के े म सू र क महान
उपलि ध है । भाषा के श द-शि त, गुण , चम कार, व या मकता, च ा मकता, श द-
चयन आ द उपकरण के आधार पर तथा अलंकार, छ द, र त आ द क ि ट से सू र
का का य एक ओर भावो कष के लए सु यात है । तो दूसर कला मक सौ दय म
अपनी पधा नह ं रखता ।

12.7 का य भाषा
भाषा भाव क अमू त छ व को तु त करने का मू त मा यम है । कसी भी कृ त
क सफलता को मापने के लए भाषा एक मह वपूण मानद ड होती है । जब कोई भाषा
कसी महाक व क लेखनी को सु शो भत करती है तो उसम सजीवता आ जाती है और
वह अ य क वय के लए पथ- दशक बन जाती है ।
जब हम महाक व सू र क का य-भाषा पर वचार करते ह तो हम ि टगत होता है क
सू र ने अपने इ टदे व भगवान कृ ण क ल ला भू म क ह भाषा को अपने का य का
वषय बनाया, िजसे जभाषा के प म जाना जाता है । जभाषा सम त सा हि यक
गुण से स प न रह है । सच तो यह है क जभाषा को ामीण बोल से उठाकर
उ च सा हि यक आसन पर बठाने का काम सू रदास ने ह कया । ऐसी सरस और
स प न भाषा म का य रचना कर सू रदास ने अपने भाव को अ भ यि त दान करने

105
के साथ ह जभाषा के मू ल प म भी सा हि यक वृ क है । जभाषा का सु दर,
आकषक, प र कृ त और प रमािजत प यद थम बार कसी क व के का य म दखाई
दया है तो वह है महाक व सूरदास का का य । उनक का य भाषा म जो कोमलका त
पदावल , भावानुकू ल श द-चयन, अलंकार योजना, संगीता मकता, सजीवता और धारा
वाहता है वह अ य दुलभ है । सू र क भाषा वषयक वशेषताएँ -
1. ं ी वशेषताएँ - सूर का य म
व न संबध जभाषा क सभी व नयाँ ा त होती ह
जभाषा क कृ त के अनुसार 'ए- और 'ओ' के व प भी मलते ह । 'ऋ'' का
उपयोग उसके उ चारण के अनुसार - र प म कया गया है । सभी वर के
नरनुना सक और सानुना सक प मलते ह । जैसे, नंद, आँ ख, कुँ वर, नकु मोक
आद ।
यंजन म ‘’य’’ के थान पर च, च के थान पर 'व' तथा “श” के थान पर 'स'
मलते ह । जैसे - जाव, ब न स स आ द । 'ल' का “र” होना तो ज भाषा क
वशेषता है, जैसे धूल -धू र, बल-बर आ द ।
2. श दावल - सू र क भाषा एक यापक भाषा है । सू र ने भाषा को यापक व दान
करते हु ए त सम, त व, दे शज आ द सभी कार के श द का योग कया है ।
नूतन श द योजना वारा ज भाषा को गौरवशाल बनाया ।
''नीलो पल दल याम अंग नव यौवन ाजै ।
कु टल अलक मु ख कमल मनो अ ल अव ल वराजै ।
ल लत वसाल सु भाल दवतजनु नकर नसाकर ।
कृ ण भग त त ब ब त मर कहु को ट दवाकर ।''
उपयु त पद म त सम श द का बाहु य है ।
सू रदास िजन श द को पूरे त सम प म न रख सके, उनके अ त सम प का
योग करते रहे , जैसे - कण-करन, ाण- ान, ण-पन. धम-धरम, मो -मो छ
आद ।
इनके अ त र त सू रका य म त व श द का आ ध य भी दे खने को मलता है ।
जहाँ भी अनुभू या मक तपा य है, वह ं त व श दावल क धानता है । आखर,
अटार , औसर, क खेत, खन, धरनी, जु ग त, तमचुर , द ठ, बछल आ द श द
ट य ह ।
3. जभाषा के श द - सू रसागर म ज भाषा के श द का वपुल भ डार है । इस
कार के श द सं कृ त के त सम, अ त सम एवं त व श द के साथ मलकर
जभाषा के मौ लक एवं व श ट प को सु र त रखने म सहायक स हु ए ह ।
औचट, खु नस
ु , चु टया, टोरत, धु कधु क , अह ठ, तालवेल , ख रक, झार , झगा,
आ द सैकड़ श द ने सू रका य को जनजीवन से जोड़ रखा है ।
4. वदे शी श द - सू रका य म अरबी-फारसी के वदे शी श द भी पया त मा ा म मल
जाते ह । वदे शी श दावल से वदे शीपन हटाकर उ ह अपना बनाने क कला म

106
सू रदास बेजोड़ थे । उस समय तक मु ि लम सा ा य के कारण अरबी-फारसी के
अनेक श द च लत हो गए थे और सू र ने बहु च लत श द का योग नःसंकोच
कया है, जैसे - अबीर, अमीर, खसम, जवाब, कु लफ, कागद, खबर, गुलाम ,
जहाज, दगा, महल, फौज, जौहर आ द ।
5. व या मकता - सू र ने व या मक श द से नाद-सौ दय उ प न करने का यास
कया है । ऐसे श द म दे शज श द क गंध आती ह । जैसे - कलक- कलक,
खर-भर, झकझक, थरथर, झमकत, आ द दावानल का वणन करने के लए सू र ने
एक-एक वण-योजना, तु क, व प और ग त के यापार को स य कया है -
''झहरात झहरात दवानल आयौ ।
पटकत बाँस, काँस कु स, चटकत ताल तमाल ।
उघटत अ त अंगार, फटत फर झपटत लपट कराल ।''
6. ि टकू ट पद क श दावल - सू र क ''सा ह य-लहर '' ि टकू ट पद का सं ह है,
िजनम ज टलता और दुब धता आना वाभा वक है । कभी-कभी एक-एक साथक
श द के लए पद के अथ के साथ पूर कसरत करनी पड़ती है । जैसे ''मांस''
श द क ाि त के लए यह खींचतान दे खए –
''मि दर अरध अव ध ह र बद गये ह र-अहार च ल जात ।''
अथात मि दर अरध - मकान का पछवाड़ा, पखवाड़ा क अव ध जो ीकृ ण
बताकर गऐ थे । ह र अहार - संह का भोजन, मांस उ चारण क ि ट से मांस,
मह ना गुजर गया है, क तु य नह ं आये ।
इस कार अथ क खींचतान करने म भी सू र क बौ क जाग कता झलकती है ।
7. पयायवाची श द - सू र समथ क व थे और जभाषा पर उनका पूर अ धकार था ।
सू र ने जभाषा को अ भ यंजना का साम य दान कया, िजसके कारण एक
समय यह सम त उ तर भारत क सा हि यक भाषा का गौरव ा त कर सक ।
सू र ने अनेक पयायवाची श द का ऐसा योग कया है ता क भाषा क द र ता का
आरोप सू र क जभाषा पर लगाया ह नह ं जा सके । जैसे - दे खने के अथ म
सू र ने पे ख वलोक , नर ख, चतव त, दे यो, ि ट रह नैन भु लाने, झाँक त
झख त आ द व भ न पयायवाची श द का योग कया है ।
8. लोकोि त - का य-भाषा का मु ख गुण है - व ता । लोकोि तय से भाषा म
व ता का आधान हो जाता है । अत: समथ क वय क भाषा म लोकोि तय का
योग भी दे खने को मलता है । क व सू र ने अपने का य म चुर मा ा म
लोकोि तय का योग कर भाषा को गौरवशाल बनाया है । जैसे –
''अपने वा थ के सब कोऊ ।
चु प क र रह मधु प रस ल पट, तु म दे खे अ ओऊ ।''

107
उपयु त पंि तय म गो पयाँ उ व और कृ ण को परम वाथ बता रह ह । सू र का
का य लोकोि तय का भ डार है और क व सू र लोकोि तय के पि डत । ''अपन
दूध छां ड़ को पीवै खार ''कू प कौ वार ।'' ''एक आधरौ हय क फूट , दौरत प ह र
खराऊँ'', ''काटहु अ ब बबूर लगावहु च दन क क रवा र'', ''खाट मह कहा च
मानै सू र खवैया घी क जाको मन मानत है जास सो तहँ ह सु ख मानै'' आ द
लोकोि तय का आकषक योग सू र ने कया है ।
9. मु हावरे - लोकोि तय के समान ह मु हावरे भी भाषा सौ ठव म वृ करते ह ।
महाक व सू र ने अपने का य म मु हावर का योग चु र मा ा म कया है । जैसे
- एक डार के तोरे , नपट दई को खोयो धूम के हाथी, बरस त आँखी, मू ड चढाई,
बो हत के खग, भई भु स पर क भी त, गगन कू प ख न बोरे . तेरो कदयो पवन को
पुस भयो, गू ग
ं े गुर क दसा, मोल लयो बनमोल काहे को वै नाव चढ़ावत चाम
के दाम चलावत आ द ।
10. श द-शि त का चम कार - श द शि त क ि ट से सू र क भाषा अ य त
स प न है । भाषा क अ भधा शि त से मु य अथ का बोध होता ह सू र का य म
ऐसे पद का ाचु य है िजनम अ भधा के वारा व त य को सजीव और मा मक
बना दया गया है । एक उदाहरण ट य है -
''मैया म न हं माखन खायौ ।
याल परै ये सखा सबै म ल, मेरे मु ख लपटायौ ।
दे ख तु ह सींके पर भाजन, ऊँचै ध र लटकायौ ।
ह जु कहत ना है कर अपनै म कैसे क र पायौ ।''
तु त पद म अ भधा श दशि त वारा बाल- वभाव का मनोवै ा नक च ण
कया गया है । मु याथ बा धत होने पर िजस शि त से अ य अथ ल त होता
है, उसे ल णा श द-शि त कहते ह । महाक व सू र ने ल णा शि त के अनेक
दय ाह च अं कत कए ह -
'' जर मनौ अनाथ कयौ ।
सु न र सखी जसोदा नंदन, सु ख संदेह दयौ ।''
'मानो ज को ह अनाथ कर दया है' इस वा य म मु याथ बा धत है; य क
ज एक जड़ व तु है, जो कृ ण के वरह क अनुभू त करके वयं को अनाथ
अनुभव नह ं कर सकता । जवा सय को ज कहने क ढ़ है । अत: यहाँ
'' ज'' म ढ़ ल णा है । अ भधा और ल णा श द-शि तयाँ जब अपने-अपने
अथ का बोध करके शा त हो जाती ह तब िजस श द-शि त से यं याथ का बोध
होता है, उसे यंजना श दशि त कहा जाता है । इसक उपि थ त से महाक वय
क वाणी म उसी कार वल ण रमणीयता का आधान हो जाता है, िजस कार
सु ग ठत अंग वाल अंगना म काि तज य लाव य से अपूव सौ दय क सृि ट होती

108
है । महा मा सू रदास ने अपने का य क भाषा को अ धकांश प से यं याथ वारा
ह स प न और वैभवशाल बनाया है । माखनचोर राधा ेम संग, मु रल संग,
मरगीत संग म तो इस श द-शि त का सौ दय वशेष प से दशनीय है -
'' कध घन गरजत न हं उन दे स न ।
कध ह र हर ष इ ह ठ बरजे, दादुर खाए सेष न ।
कध उ हं दे स बग न मग छांड,े धरनी न बू द
ं वेस न ।
चातक मोर को कला उ ह वन, ब धक न बधे बसेष न ।''
इस पद के वा याथ से तो यह ात होता है क िजस दे श म कृ ण रहते ह, वहाँ
ऋतु ओं का अभाव है, जो गोपी का अभी टाथ नह ं है । गोपी का अभी टाथ, जो
यंजना श द-शि त पर आधा रत है, वह है क वषा ने हमार वरह- यथा को
अ य धक बढ़ा दया है ।
सम त: महाक व सू र क भाषा एक समृ भाषा है, िजसम त सम, त व, ज
और वदे शी श द का अनूठा संगम है, जो अ भधा, ल णा और यंजना श द-
शि तय के सौ दय से ग रमापूण है, िजसम मु हावरे और लोकोि तयाँ उसे और भी
सौरभमय बना रह ह । सू रदास क का यभाषा का सा हि यक सौ दय प र कृ त है,
इनका श द चयन और उनका योग आदश तथा भाव का काशन करने म स म
है । डॉ. मनमोहन गौतम महाक व सू र क भाषा व ता पर ट पणी करते हु ए
कहते ह -
“उनक भाषा म साधारण लोकगीत से लेकर चम कार धान ि टकू ट पद-रचना
तक क व वधता मलती है । इसी लए उनको जभाषा का वा मी क कहना सवथा
उ चत ह है । सू रदासजी ने जभाषा को जो व प दया, वह ि थर प से
परवत सा ह यकार वारा हण कया गया ।”

12.8 श दावल / वचार संदभ


1. युगा तरकार = युग प रवतक
2. अ तकदन = भीतर दन
3. व चातुय = वाणी क कु शलता
4. व लंभ = वयोग गृं ार
5. घनीभू त = जमी हु ई, एक
6. तीक शैल = व श ट अथ संकेत उ प न करने वाल शैल
7. पूवानुराग = नायक ना यका म वण, दशन आ द के कारण मलने से
पूव जो ेम उ प न होता है।
8. बैकं ु ठ = सबसे ऊँचाई पर ि थत वग क क पना
9. क पत = समु मंथन से नकला ऐसा वृ जो कु छ भी मांगने पर दे
दे ता है ।

109
10. आगम = लोक परं परा िजनम शा के त वरोध होता है ।
11. नगम = वेद से चलने वाल पर परा, कमकांड क धानता से भरा
माग
12. अनुभाव = आ य के शार रक-मान सक भाव
13. आधान = थापना, रखना
14. च वाल = एक पुराण स पवत, घेरा
15. उ ी त = जगाना
16. अवणनीय = वाणी वारा वणन न कए जाने वाला धोखा, छल
17. दगा = धोखा, छल
18. खसम = प त, सू रा ने परम म के लए इस श द का योग कया
है
19. महावर = आलता, पैर क सजावट के लए लगाया गया लाल रं ग।
20. वल ण = अपूव

12.9 सारांश
सू रदास नःस दे ह ह द के े ठ क व ह । वह गृं ार और वा स य रस के स ाट ह
उनम व तार नह ं है, गहराई है । उ ह ने दय क गहनतम अनुभू त से भगवान क
ल ला का वणन कया है । अत: उनका सम त का य स ची अनुभू त से ओत- ोत है ।
उसम दय को छू लेने क बड़ी भार शि त है । ''सु र-सू र तु लसी स स'' उि त के
आधार पर सूर ह द सा ह याकाश म सू य क तरह सदै व पाठक के सामने चमकते
रहे ह और चमकते रहगे । भगवान कृ ण क ल लाओं का जैसा त च ण सू र ने
कया है वह ह द सा ह य म अ वतीय है । सू र वा स य और गृं ार रस का कोना-
कोना झाँक आये ह । गृं ार के संयोग और वयोग दोन प का वश च ण सू र
का य म हु आ है । सू र का य म भावप व कला प का म णकांचन संयोग हु आ है
और भि त, क वता और संगीत क सु दर वेणी वा हत हो रह है ।
सू रका य के लए सार प म यह स उि त कह जा सकती है -
''त व-त व सू रा कह तु लसी कह अनू ठ ।
बची खु ची क बरा कह , और कह सब झूँ ठ ।''

12.10 अ यासाथ न
नब धा मक न
1. ''सु र का व ल भ- गृं ार सू म मानवी अ तदशाओं का रसपूण एवं कला मक
च ण है ।'' इस कथन क समी ा क िजए ।
2. सू रदास के संयोग गृं ार-वणन पर एक सं त लेख ल खए ।

110
3. ''सू रदास का कृ त- च ण मानव-भावनाओं के रं ग म रंगा हु आ है, शु और
नरपे वणन नह ं है ।'' कथन क समी ा क िजए ।
4. ''सू रदास के का य म लोकजीवन का स पूण च मल जाता है ।'' सोदाहरण इस
कथन क पुि ट क रए ।
5. सू र के का य क भाषा क ववेचना क िजए ।
6. सू र के का य म भावप एवं कलाप का सु दर सम वय हु आ है, सोदाहरण
ववेचना क िजए ।
लघु तरा मक न
1. सू रदास के संयोग वणन क कोई दो वशेषताएँ बताएं।
2. सू रदास के वयोग वणन क क ह ं दो वशेषताओं के बारे म लखे ।
3. सू र क का य भाषा पर सं त ट पणी लख ।
4. सू र के कृ त वणन क तीन वशेषताएं बताएं ।
5. सू र क क वता के लोक प पर ट पणी लख ।

12.11 संदभ थ
1. आचाय रामच शु ल, मरगीत सार, नागर चा रणी सभा, काशी ।
2. हरवंश लाल शमा. सू र और उनका सा ह य, भरत काशन मं दर, अल गढ़ ।
3. राम व प चतु वद . म यकाल न का य भाषा, लोकभारती काशन, इलाहाबाद ।
4. द न दयाल गु त, अ ट छाप और व लभ स दाय, ह द सा ह य स मेलन,
याग ।

111
इकाई-13 मीराबाई का का य
इकाई क परे खा
13.0 उ े य
13.1 तावना
13.2 क व-प रचय
13.2.1 जीवन - प रचय
13.2.2 रचनाकार - यि त व
13.2.3 कृ तयाँ
13.3 का य -वाचन या ससंदभ या या
13.3.1 मण थे परस......तारण तरण
13.3.2 माई र हां..........जणम को कोल
13.3.3 माई हाणे......जणम रो भाग
13.3.4 कन संग खेल.ू ं ...........जनम जनम क बेल
13.3.5 हाँ गरधर आगाँ....ह र रँ ग रा याँर
13.3.6 हारां र गरधर........हो जो हू याँ
13.3.7 माई सांवरे रं ग.........भगत रसील जांची
13.3.8 पग बांध घु ध
ं रयां...........शरणां आ यां र
13.3.9 हे र हां तो दरद.........बैद सांवरो होय
13.3.10 बरसी र बद रया.............मंगल गायण र
13.3.11 राणाजी हाने..........जलो जा अंगीठ
13.4 वचार संदभ और श दाथ
13.5 मू यांकन
13.6 सारांश
13.7 अ यासाथ न
13.8 स दभ थ

13.0 उ े य
सगुण भि त के अ तगत राम - कृ ण भि त के क वय का अ ययन आप कर चु के ह
। इस इकाई म मीरा के का य का अ ययन अभी ट है । मीराबाई स दाय नरपे
कव य ी थीं । यहाँ मीरा के पद और उनक ससंदभ या या पढने के बाद आप :
 मीरा के पद के आधार पर मीराबाई के जीवन संघष का उ लेख कर सकगे ।
 मीरा के सामंती ढ़य के त व ोह से प रचय ा त कर सकगे ।
 राणा के वारा मीराबाई पर कए गए अ याचार से प र चत हो सकगे ।
 कृ ण के त मीरा क भि त और समपण भावना से प र चत हो सकगे।

112
13.1 तावना
मीराबाई भि तकाल क प हवीं शता द क कव य ी ह । उनके का य म भि त
आ दोलन क ग तशील अ तव तु पूण सम ता म उ घा टत हु ई है । मीराबाई ने
नार पराधीनता का संर ण करने वाले धम, शा और सामािजक व ध - वधान के
त व ोह कर दया है । वे जा त - पां त और वण यव था का भी वरोध करती ह
। म यकाल न समाज म धम के नाम पर सामािजक वैष य और नार क पराधीनता
को अ धक यापक कया गया । मनु य और मनु य म कसी कार का भेद न मानने
वाले भि त आ दोलन के लए धम के मु ख स ा त का वरोध अ नवाय हो गया था
। द ण के आलवार भ त तथा रामानुजाचाय रामान द, म वाचाय, नामदे व, चैत य
महा भु तथा महापु ष शंकर दे व आ द महान संत ने ा मण - पुरो हत वच व वाल
वण यव था से क ठन संघष कया । इ ह ं महान ाि तकार च तक तथा आचाय
से यह ाि तकार वरासत कबीर रै दास, तु लसी, जायसी, मीरा, पीपा, ध ना आ द को
ा त हु ई ।
भि त काल लोक जागरण का युग था । िजसम म ययुगीन साम ती जड़ताओं के
वरोध और समाज और सं कृ त के पुन नमाण क चेतना व यमान थी । उस समय
सामा य जन म आ म गौरव का बोध जगाना और मु ि त क आकां ा को े रत करना
च तक और संत क वय का ल य था । इसके लए उ ह ने ई वर क सवसुलभता
और सव यापकता क त ठा क । त काल न सामंती समाज के धा मक - सामािजक
अ त वरोध के त उ ह ने सामा य जन को सचेत कया । भ त क वय का ई वर य
व प समाज के द लत - वं चत वग म बहु त लोक य हु आ और भि त का य ने
एक यापक आ दोलन का प ले लया । मीराबाई क कृ ण भि त उनक वैयि तक
मु ि त का य न मा नह ं है बि क वह अपने समय के अमानवीय अ त वरोध क
पहचान कराता है और उनसे संघष करने का सबल य न है । मीरा के का य म उनके
क ठन जीवन संघष के साथ लोको मु खता और भ व य के त ि ट है । वह
राजप रवार और उसक छदम कु लमयादा का पोषण करने वाले राणाकुल और त काल न
समाज का वरोध करती है । आज के 500 वष पूव एक राज थानी म हला का यह
साहस मामू ल नह ं है ।

13.2 क व प रचय
13.2.1 जीवन प रचय

ज म : अ य म यकाल न भ त क वय के समान ह मीराबाई के ज म के संबध


ं म
बाहय एवं अ तःसा य उपल ध नह ं है । इस कारण कव य ी के ज म के संबध
ं म
ववाद च लत है । यहाँ व तार से ज म संबध
ं ी ववाद को तु त करके हम कसी
नणायक ि थ त तक तो नह ं पहु ँ च सकते क तु बहु मत क वचारधारा का समथन
अव य कर सकते ह ।

113
ज म तथ : ी दे व कशन राजपुरो हत ने अपनी पु तक ''मीराबाई मेड़तणी'' म ज म
त थ के संबध
ं म अं तम नणय करते हु ए लखा है मीरा क ज म त थ चै 14 व.
सं. 1562 एवं उनक माता का नाम झाल राजकंवर था ।
ज म थान : कु छ लोग इनका ज म थान कु ड़क मानते ह तो कु छ बाजोल । डॉ.
हु कम संह भाट ने इनका ज म थान स माण मेड़ता होना मा णत कया है । ी
दे वकृ ण राजपुरो हत भी मीरा का ज म थान मेड़ता ह मानते ह । ऐ तहा सक सा य
के अभाव म हम इन व वान के मत ह तु त कर सकते ह और कोई नणायक
बात नह ं कह सकते ।
ववाह : मीराबाई सन ् 1516 ई. ( व. सं. 1573) म मेवाड़ के महाराणा सांगा के कुँ वर
भोजराज को याह गयी थी ।'' मीरा के ववाह के वष के संबध
ं म भी ववाद है ।
मीरा के प त का वगवास व.स. 1575 म हो गया । मीराबाई का वैवा हक जीवन
केवल दो वष रहा । पर परा अनुसार प त क मृ यु के बाद मीरा को सती होना चा हए
था । क तु उसने सती होने से मना कर दया । मीराबाई तो भगवान ् ीकृ ण को
अपना प त मान चु क थी । अत: वह भोजराज के साथ सती कैसे हो सकती थी?
गु : मीरा के गु के संबध
ं म भी अनेक मत च लत ह । मीरा के गु द ा के संबध

म कई मत च लत ह । कु छ व ान स त रै दास को, गोसाई व लनाथ को,
तु लसीदास को, जीव गो वामी को उनका गु मानते ह । स भवत: मीरा क भि त -
ू है । उ ह ने मु त - भाव से सभी भि त- स
भावना आ मो त दाय से भाव हण
कया था । कसी यि त वशेष से उनका गु - श य संबध
ं नह ं था ।

13.2.2 रचनाकार - यि त व

मीराबाई का यि त व बहु त महान है य क िजस दे श म और िजसके ससु राल म


एका धक बार जौहर क वाला धधक और जहाँ पर प त के साथ प नी, रखैल, दास-
दासी आ द के भी सती होने क पर परा रह है और आज भी िजस ा त क नार
घूघ
ँ ट म से एक ने को नरावृ त करके संसार को दे खती है वहाँ मीरा ने सती होना
अ वीकार कर दया । साधारण प रवार क य ना रयाँ िजस ा त म आज भी
बेपरदा घर क चार दवार से बाहर नकलने को वत नह ं ह वह ं मीरा ने पीहर -
ससुराल के राजकुल क मयादाओं को तलांज ल दे डाल और कृ ण भि त के रं ग म
रं गकर वह साधु समाज के बीच नाचने और गाने लगी । उसका साहस दे खने यो य है
य क य कु ल म आज भी नाचने - गाने का काय ढोल . भांड या अ य द लत
वग के लोग करते ह वहाँ मीरा का जनसामा य के बीच बेपरदा नाचना - गाना बहु त
साहस का काय था । राणा जी के रा य म राणा क अव ा करने वाल का सर
कलम कर दया जाता था । वह ं मीराबाई न केवल राणा क अव ा करती ह बि क
खु लकर उसका वरोध करती ह ।

114
13.2.3 कृ तयाँ

मीराबाई के नाम से न न रचनाओं का उ लेख कया जाता है- 'नरसीजी रो माहे रो',
'गीत गो व द क ट का', 'राग गो वंद', 'सोरठ के पद', 'मीराबाई का मलार', 'गवागीत',
'राग वहाग' और 'फुटकर पद' । मीराबाई क ामा णक और मह वपूण रचना उनक
पदावल को माना जाता है । इसके अनेक सं करण नकल चु के ह ।
मीराबाई के पद बहु त ह लोक य ह । दे श के व भ न भाग म संगीत के वारा
ह द दे श और ह द तर दे श म गाये जाते रहे ह और गाये जाते ह । बहु त से पद
मीरा के नाम से लोक गायक के वारा बनाकर जोड़ दए गए ह । इस लए मीरा
पदावल के पद क ामा णकता सं द ध है । हाल ह म मीरा मृ त सं थान,
च तौड़गढ़ के वारा ''मीरा पदमाला'' (2006) का शत क गई है िजसम केवल 125
पद दए गए ह । वामी डॉ. ओम आन द सर वती के मतानुसार इतने ह ामा णक
पद ह ।
मीराबाई क स का आधार मीरा पदावल ह है और यह उनक सवमा य
ामा णक रचना है । िजसम नि चत प से अ य भ त और स त के पद भी
सि म लत हो गए ह । इसी लए उनके ामा णक पद क सं या का नणय करना
क ठन हो गया है । पदावल के लगभग दो दजन से भी अ धक सं ह का शत हो
चु के ह । इससे यह कहा जा सकता है क पदावल अ य त लोक य है ।

13.3 का य वाचन तथा संदभ या या


13.3.1 मण थे परस....तारण तरण

मण थे परस ह र रे चरण ।
सु भग सीतल कंवल कोमल जगत वाला हरण ।
इण चरण हलाद पर यां इ पदवी धरण ।
इण चरण ु व अटल कर यां सरण असरण सरण ।
इण चरण मांड भ यां णख सखा स र भरण ।
इण चरण का लया णा यां गोप ल ला करण ।
इण चरण धारयां गोवरधण गरब मघवा हरण ।
दा स मीरा लाल गरधर अगम तारण तरण।।
संग :
यह पद भ त कव य ी म धर मंदा कनी मीराबाई वारा र चत है और उनक पदावल
से उ ृत है । कव य ी अपने मन को स बो धत करते हु ए कहती है क हे मन! तु म
ह र के चरण का पश करो ।
या या :
मीरा कृ ण क परम भ त थीं । वह अपने मन को समझाती ह क तु म ह र के चरण
का पश करो य क वे चरण सु दर ह, शीतल ह और कमल के समान कोमल ह

115
तथा इस संसार क वालाओं से दै हक, दै वक और भौ तक; इन तीन से मु ि त उन
चरण क शरण म जाने से होती है । इन चरण को भ त हलाद ने पश कया तो
उसको इ क उपा ध ा त हो गई । इन चरण क शरण म भ त ु व गए तो वह
अटल गोद ( ु व लोक) ा त कर सके और आज भी वह ु व तारे के प म आकाश
म दे द यमान ह । ये चरण शरण म जाने वाले यि त को शरण दे ते ह और अशरण
के भी शरण दाता ह । ये वह चरण ह िज ह ने मा ड को नाप लया । यहाँ
वामनावतार का संग है जब ई वर ने तीन पद म अ खल मा ड को नाप लया था
। इन चरण म नख - से - शख तक ी का नवास है । इ ह ं चरण ने का लया
नाग को नाथा था और गोकु ल म वाल तथा गो पय के साथ ल लाएँ क थी । जब
इ को अ भमान हो गया तो इन चरण ने उसका गव चू र - चू र करने के लए
गोव न पवत धारण कया । मीरा उ ह ं भगवान कृ ण क दासी ह और वे भगवान
कृ ण इस अग य भवसागर से उ ार करने वाले ह ।
वशेष :
इस पद म मीरा बाई ने अपने मन को ी कृ ण के चरण क शरण म जाने क
श ा द है । वह कहती है क इन चरण क शरण म जाने वाले दलाद, ु व को
मो ा त हु आ । इस पद म कव य ी ने भगवान व णु से संबं धत अनेक पौरा णक
कथाओं का समावेश कया है । इनम दलाद और हर यक यपु और ु व तथा वमाता
क कथा सि म लत है । वामन अवतार बनकर राजा ब ल को भगवान ने छल लया
था और तीन डग म स पूण मा ड को नाप लया था । भगवान ी कृ ण नख - से
- शख तक सु दर ह । जब का लया नाग ने वृ दावन म सं ास फैला रखा था तो
भगवान कृ ण ने उसको नाथ कर उसके सं ास से वृ दावन वा सय को मु आ कया ।
भगवान कृ ण ने वृ दावन म इ ह ं चरण से वाल के साथ अनेक ल लाएँ क । जब
इ ज पर कु पत हो गया और अपनी पूजा के लए उसने वृ दावन वा सय को
ववश करने का य न कया तो भगवान कृ ण ने गोव न पवत धारण कया और
इ का गव दूर कया । मीरा अपने यतम ी कृ ण से कहती है क आप इस
अग य भवसागर से तारण करने वाले ह ।
स पूण पद म अनु ास क छटा दशनीय है ।
मीरा भ त है और उसक अभी ट ीकृ ण भि त है । इसी लए उ ह ने इस पद म
ीकृ ण के चरण-कमल क व दना क है य क उनके आरा य ीकृ ण अशरण को
शरण दे ने वाले ह और वे भ त व सल ह ।
अ तकथाएँ :
1. लाद- दै यराज हर यक शपु का पु लाद ज म से ह भगव भ त था ।
अपने पु क ई वर - भि त से हर यक शपु ु हो उठा तथा उसने लाद को
व णु - भि त से वमु ख करने हे तु उसे नाना कार से पी ड़त करना शु कया ।
इस पर भी जब लाद क भगवान व णु के त न ठा अ वचल रह तो दु ट
हर यक शपु ने उसके ाण - हरण के अनेक उपाय कए, पर तु सभी वफल रहे
116
। एक दन लाद का वध करने को उ यत हर यक शपु ने उससे पूछा- बता तेरा
भगवान कहाँ है ?' उसने कहा- मु झम, तु ममे खड़ग खंभ म तभी भगवान खंभे से
नृ संह प म कट हु ए एवं हर यक शपु को मारकर लाद को उसके पता का
रा य दे दया ।
2. ु व- राजा उ तानपाद के दो रा नयाँ थीं- सु च और सुनी त । ु व छोट रानी
सु नी त के पु थे, िजस पर राजा का नेह कम था । बड़ी रानी सु च के भी एक
पु था िजसका नाम था उ तम । एक बार जब उ तम राजा क गोद म बैठा हु आ
था तभी ु व भी एक ओर उनक गोद म जा बैठा । ु - दया सु च को यह
सहन नह ं हु आ और उसने अव ापूवक ु व को राजा क गोद से हटा दया ।
वमाता के इस दु यवहार से ु व के बाल - दय को बड़ी चोट पहु ँ ची और माता
सु नी त से यह जानकर क भगवान के प म एक पता ऐसा भी है जो सबसे बड़ा
व दयालु है, वे नजन वन म जाकर उसी परम पता क ाि त हे तु कठोर तप या
म ल न हो गए । उनक साधना सफल हु ई एवं भगवान ् ने अवतीण होकर अपने
पु का मनोरथ सफल कया तथा उसे सब लोक से ऊपर अ वचल ु व - लोक
दान कया ।
3. का लया नाग- यह नाग, नाग के नवास- थान रमणक वीप को छोड़ जभू म म
आकर एक दह म रहने लगा था, िजससे ज - जन आतं कत रहते थे । एक बार
बालक कृ ण खेलते - खेलते अपनी गद लेने हे तु उस दह म कू द पड़े । का लया ने
अपने साथी अ य नाग स हत उ ह घेर लया । कृ ण ने का लया का दमन कर
उसे वृ दावन छोड़ने को ववश कया ।
4. गरब मधवा हरण- ीम ागवत पुराण के दशम ् क ध के अनुसार कृ ण ने जब
पर परागत इ - पूजा के थान पर ज - जन को गोव न - पूजा क आ ा
द तो इ अ य त कु पत हु आ एवं उसने जवा सय को दं डत करने हे तु
मू सलाधार वषा करनी शु क । कृ ण ने त काल गोव न पवत को अंगल
ु पर
उठा कर उस भीषण जल - लावन से आ त ज क र ा क तथा इ के गव
को चू र कर दया ।
श दाथ:
मण = मन । परस = पश कर, व दना कर । सु भग = सु दर । वाला = दुख या
क ट । कर यां = कया । भ या = नाप लया । सर = शोभा, ी । णा यां = नाक
म र सी डाल । मधवा = इ । अगम = अग य । तरण = नौका, बेड़ा (तर ण) ।

13.3.2 माई र हां......... जणम को कोल

माई र हां लया गो व दा मोल ।


थे क यां छाणे हां क चो डे लया बजता ढोल ।
थे क यां मु ंहघो हां क यां सु तो, लया र तराजां तोल ।

117
तण वारां हां जीवण वारां, वारां अमोलक मोल ।
मीरा कं ू भु दरसण द यां, पुरब जणम को कोल।।
संग :
यह पद भ त कव य ी म धर मंदा कनी मीराबाई वारा र चत है और उनक पदावल
से उ ृत है । मीरा बाई बा यकाल से ह कृ ण भि त म डू बी हु ई थी । तु त पद म
मीरा यह घोषणा करती है क हे माँ ! मने तो भगवान ी कृ ण को खर द लया है ।
या या :
मीराबाई पर कृ ण ेम को लेकर अनेक आ ेप कए गए । मीराबाई अपनी माँ को
स बो धत करते हु ए कहती ह क मने तो गो व द को मोल ले लया है । तु म कहते
हो क मने उनको गु त प से लया है क तु मने तो उ ह चौड़े (सबके सामने) ढोल
बजाकर (डंके क चोट) लया है । आप लोग कहते ह क ये बहु त महंगा व नमय है
क तु म समझती हू ँ क मने तराजू म तोल कर बहु त स ता खर दा है । म उस
भगवान कृ ण के लए अपना तन - मन- जीवन योछावर करती हू ँ और उसको
अमू य मोल दे कर खर दती हू ँ । मीरा अब भगवान कृ ण से ाथना करती है क आप
मु झे दशन द िजए य क आपके और मेरे बीच म पूव ज म का कौल (वादा, वचन) है

वशेष :
मीरा बाई का ज म - ववाह राजप रवार म हु आ था िजसक अपनी मयादा थी िजसम
नार को कोई वतं ता नह ं थी । मीराबाई ने राजप रवार क इन वजनाओं को ठु करा
दया और वह भगवान कृ ण के मि दर म नाचती - गाती और साधु ओं के संग स संग
करती थी । इस कारण उस पर अनेक तब ध लगाए गए क तु मीरा ने उन सब
तबंध को नकार दया और कह दया क मने तो कृ ण को खु ले आम बजते हु ए
ढोल के बीच अथात ् डंके क चोट पर खर दा है । मने कोई छप कर मोल नह ं लया।
इस पद म मीराबाई ने: ''छाने - चो डे'', ''बज ता ढोल'' ''मु ंहघो - सु तो'', ''तराजू
तोल'' और ''अमोलक मोल'' मु हावर का योग है । मीरा के का य म लोकत व क
अ धकता है ।
भारतीय जीवन म पुनज म म व वास च लत है, इसी लए मीरा भी अपने कृ ण ेम
को ज म - ज मा तर का मानती ह ।
श दाथ :
मोल = मू य दे कर खर दा । छाणे = छपकर, गु त प से । काँ = कहना । चो डे
= चोडे, खु ले आम । बज ता ढोल = ढोल बजाते हु ए । मु ंहघो = महंगा । ताराजाँ =
तराजू । अमोलक = अनमोल । कोल = वादा, त ा, संक प ।

13.3.3 माई हाणे..... जणम रो भाग

माई हाणे सु पणा माँ पर याँ द नानाथ ।

118
छ पण कोट जणाँ पधाया दू हो सर जनाथ ।
सु पणाँ माँ तोरण बँ यार , सु पणामाँ ग या हाथ ।
सु पणाँ माँ हारे परण गया, पायी अचल सोहाग ।
मीरा रो गरधर म यार , पुरब जणम रो भाग।।
संग:
यह पद भ त कव य ी म धर मंदा कनी मीराबाई वारा र चत है और उनक पदावल
से उ ृत है । मनु य िजसके लए दन - रात वचार म न रहता है उसको व न म
दे खना वाभा वक है । मीरा कहती है क मेरा द नानाथ से व न म ववाह हो गया है
और ववाह क सार थाएँ भी नभाई गई ह ।
या या :
हे माँ! व न म द नानाथ कृ ण से मेरा ववाह हो गया है । छ पन को ट दे वता उस
दू हा ी जराज क बरात म बराती बनकर आए । व न म ह उ ह ने तोरण मारा
है । व न म ह उ ह ने मेरा पा ण हण कया । सपने म ह उ ह ने मेरे साथ ववाह
कया और मु झे अटल सौभा य दान कया । मीरा को गरधर (कृ ण) ा त हु ए ।
यह मेरे पूव ज म के सु कम का प रणाम है ।
वशेष :
मीरा के बालमन म बा यकाल म ह कृ ण ेम का अंकु र फूट पड़ा । इसी अंकु र को
मीरा ने अपने आँसु ओं से सींच कर प ल वत कया । यह ेम - व लर फैलती चल
गई और उसके बाल दय पर कृ ण क प त के प म अ मट छ व अं कत हो गई ।
व न म अपने आरा य के साथ ववाह वाभा वक है ।
चेतनाव था म िजसका यान ण भर भी नह भूलने वाल ( गरधर यान धारा
नसबासर मणमोहण हारे बसी) मीरा के अवचेतन मन म बैठ कृ ण के वर होने क
बात व न म साकार हो गई ।
मीरा ने इस पद म लोक च लत ववाह क पर परा का वणन कया है । दू हे के
साथ बारात आती है और कृ ण क बारात म छ पन को ट दे वता पधारते ह ।
राज थान म दू हा जब क या के वार पर पहु ँ चता है तो वह तोरण मारता है । तोरण
लकड़ी से बना हु आ एक उपकरण होता है िजसम च ड़या बनी होती ह । गृह वेश से
पूव दू हा इस तोरण पर तलवार (कह ं - कह ं छड़ी) से सात बार वार करता है इसको
तोरण मारना कहते ह । मीराबाई ने इसी पर परा का उ लेख यहाँ कया है । ववाह म
वर - वधू का हाथ पकड़ता है िजसे पा ण हण सं कार कहते ह । दू हे ने पा ण हण
भी कया इस कार मीरा कहती है क भगवान कृ ण ने व न म मु झसे ववाह कया
और अटल सु हाग दे दया । यह मेरे पूव ज म के सत ् कम थे िजनके कारण यह
ववाह संभव हु आ है ।
स पूण पद म अनु ास क छटा दशनीय है ।

119
इस पद म मीरा ने राज थान क ववाह के समय च लत लोकपर पराओं का उ लेख
कया है । मीरा पूव ज म म भी व वास करती ह इसी लए उ ह ने कहा है क यह
व न म कृ ण से मलन, पूव ज म के पु य का फल है ।
श दाथ :
पर या = शाद क , याह कया । छ पन कोट = छ पन करोड़ । जणा = जनेती
बराती । सु पना = सपना । अचल = अमर, अख ड ।

13.3.4 कन संग खेल.ू ं ......... जनम जनम क चेल

कन संग खेलू ं होल , पया तज गये ह अकेल ।।टे र।।


मा णक मोती सब हम छोडे, गल म पहनी सेल ।
भोजन भवन भलो न ह लागै, पया कारण भई गैल ।।
मोहे दूर यू ं मेल ।।
अब तु म ीत और से जोड़ी, हम से कर यू ं पहे ल ।
बहु दन बीते अजहु ं न ह आये, लग रह तालाबेल ।।
कोण बलमाये र हे ल ।।
याम बना िजवडो मु रझावै, जैसे जल बन बेल ।
मीरा कूँ भु दरसण द यो, जनम जनम क चेल ।।
संग :
यह पद भ त कव य ी म धर मंदा कनी मीराबाई वारा र चत है और उनक पदावल
से उ ृत है । राज थान म होल का यौहार धू म - धाम से मनाया जाता है और
ि याँ अपने यतम के साथ होल के अवसर पर रं ग खेलती ह । मीरा ने जब अ य
संयो गनी ि य को होल (रं ग) खेलते हु ए दे खा तो उसके मन म यह िज ासा हु ई क
वह होल कसके साथ खेल?
े व तु त: मीरा का यतम तो अलौ कक है । िजससे होल
खेलना संभव नह ं है । होल खेलना एक लोक पर परा है ।
या या :
मीरा कहती है क मेरे यतम मु झे एकाक छोड़ गए । अब म कसके साथ होल
खेलँ ?
ू ि याँ अपना करने के लए मा णक मोती पहनती ह, मने उन सबका याग कर
दया है और गले म साधु ओं के वारा पहनी जाने वाल सेल पहन ल है । वयोग क
इस अव था म भोजन एवं भवन दोन ह मु झे अ छे नह ं लगते । म अपने यतम
के कारण बावर हो गई हू ँ । मेरे यतम ने मु झे दूर य रखा?
हे कृ ण! आपने मु झसे ेम कया, अब मु झको दूर करके कसी और से ीत जोड़ ल
है । मेरे स मु ख यह कैसी पहे ल उ प न कर द है । नार दय म ई या क भावना
होती है । उसको ई या के कारण यह संदेह बना रहता है क मेरा यतम कसी अ य
ी के ेम पाश म बंध गया है । मीरा के दय म यह संदेह सौ तया डाह के कारण
उ प न हो रहा है और मीरा कहती है क मेरे लए मेरे यतम ने यह पहे ल खड़ी कर

120
द है और बहु त दन यतीत हो गए पर तु वह लौटकर नह ं आए । मेरे दय म
ग भीर असंतोष उ प न हो गया है । हे सखी! ऐसे समय म मु झे कौन सां वना दे
सकता है । बना याम के मेरा दय मु रझा रहा है । जैसे बना जल के बेल या लता
मु रझाती है । अंत म मीरा कहती है क म आपके दशन के बना दुखी खड़ी हू ँ ।
इस लए हे भु! मु झे दशन द िजए य क म आपक ज म - ज म क श या हू ँ ।
वशेष :
मीराबाई के का य म लोकत व क धानता है- इस पद म होल के योहार पर
ि य के वारा अपने यतम के साथ होल खेलने क लोक पर परा का उ लेख हु आ
है ।
नार एवं े मका का दय पाप शंक होता है । मीरा के दय म भी सौ तया डाह के
कारण यह संदेह उ प न होता है क उसके यतम उसको छोड़ गए और कसी अ य
ी से ेम संबध
ं था पत कर लया । यह मनोवै ा नक स य है और का य एवं
लोकका य ढ भी ।
मीरा के यतम जब लौटकर नह ं आए तो उसको संदेह होता है क उनको कसी ी
ने फँसाकर रख लया है । राज थानी लोक गीत म भी इस कार के उदाहरण मलते
ह-
''मू ँ थाने बरजूँ सायबा, थ उदयापुर मत जाय ।
उदयापुर क कामणी थाने, राखेल बलमाय।।''
याम के बना दय ऐसे मु रझाता है, जैसे बेल; (लता) म उ े ा अलंकार है और पूरे
पद म अनु ास क छटा दशनीय है ।
श दाथ :
तज गये = याग गए । सेल = साधु ओं वारा गले म पहनी जाने वाल ब ी या
बॉधने का साधन अथवा छोट चादर, वह गदडी िजसके बीच म छे द करके साधु अपने
गले म चौगे क तरह लटका लेते ह । (सेल के अथ के वषय म व वान म मतभेद
है) गैल = बावर । पहे ल = बुझौवल । तालाबेल = याकु लता, बेचैनी । बलमाये =
ेम - पाश म बांध लया । हैल = सखी । िजवडो = दय । बेल = लता, बेल ।
चेल = श या । दुहेल = दुखी ।

13.3.5 हाँ गरधर आगाँ.... ह र रँ ग रा याँर

हाँ गरधर आगाँ, आगाँ ना यार ।।टे क।।


णाच णाच हाँ र सक रझावाँ ीत पुरातन जाँ या र ।
याम ीत र बाँध घुघ
ँ या मोहण हारो साँ यार ।
लोक लाज कु लरा मरजादाँ जगमाँ णेक णा रा यौर ।
ीतम पल छण णा बसरावाँ मीरा ह र रँ ग रा याँर ।।
संग:

121
यह पद भ त कव य ी म धर मंदा कनी मीराबाई वारा र चत है और उनक पदावल
से उ ृत है । इस पद म मीरा कहती ह क म अपने यतम कृ ण नृ य के आगे
करती हू ँ । कृ ण से मेरा ेम बहु त पुराना है।
या या :
म गरधर के स मु ख नाचती हू ँ और नाच - नाचकर अपने र सक यतम को स न
करती हू ँ और साथ ह अपनी पुरातन ीत क जाँच करती हू ँ । मने अपने पाँव म
कृ ण ेम के घुघ
ँ बाँध लए ह । मेरा य मोहन स चा ेमी है । मने उस यतम
के लए सांसा रक मयादा और लोक लाज को इस संसार म पूण प से याग दया है
। म अपने उस ीतम को ण भर के लए भी नह ं भूलती हू ँ और म उसके रं ग म
रं गी हु ई हू ँ ।
वशेष :
पद म अनु ास क छटा दशनीय है ।
मीरा ने अनेक पद म कृ ण ेम को पुरातन ेम कहा है । उसने अपने कृ ण ेम को
ज म - ज मा तर का ेम माना है ।
भारत म पुनज म - स ा त को माना जाता है और मीरा भी यह मानती है क
उसका कृ ण के साथ ज म - ज मा तर का ेम है । यह लोक व वास क
अ भ यि त है ।
मीरा ने कृ ण भि त के लए राजकुल क मयादा का पूण प से याग कर दया है ।
उस युग म मीरा का यह कदम बहु त साह सक कदम था ।
श दाथ :
णाच = नाच नृ य । रझावाँ = स न कया करती हू ँ । पुरातन = पुरानी । जाँ या =
दे खा, जाँचा । साँ यार = स चा है । कु लरा = कु ल क । मरजादाँ = मयादा । णेक
= एक । रा याँर = रं गी हु ई है, अनुर त है ।

13.3.6 हारां र गरधर........ हो जो हू याँ

हारां र गरधर गोपाल दूसरा णाँ कू याँ ।


दूसरा णाँ कू याँ साधी सकल लोक जू याँ।।टे क।।
भाया छाँ याँ ब धा छाँ याँ, छाँ याँ सगाँ थी ।
साधाँ ढग बैठ बैठ, लोक लाज खूयाँ ।
भगत दे याँ राजी हायाँ, जगत दे याँ याँ ।
असु वाँ जल सींच सींच ेम बेल बूयाँ ।
दध मथ मृत काढ़ लयाँ डार दया छूवाँ ।
राणा वषरो याला भे याँ, पीय मगण हूयाँ ।
अब तो बात फैल पड़ी, जाणै सब कोई ।
मीरा र लगण ल याँ, होणा हो जो हूयाँ ।।
संग :
122
यह पद भ त कव य ी म धर मंदा कनी मीराबाई वारा र चत है और उनक पदावल
से उ ृत है । मीराबाई भगवान कृ ण के त पूण प से सम पत थीं । उ ह ने
भगवान कृ ण को ह अपना सव व मान लया था ।
या या :
मीरा के सव व गरधर गोपाल ह और वह कहती है क दूसरा मेरा संसार म कोई नह ं
है । हे साधु जन! मने स पूण संसार को दे ख लया है क मेरा दूसरा कोई नह ं है ।
मने अपने बंधु - बांधव सब को याग दया है और मने अपने सभी संबं धय को भी
छोड़ दया है । मने साधु ओं के साथ बैठ - बैठकर लोक- ल जा का याग कया है ।
म भ त को दे खकर स न होती हू ँ और संसार को दे ख कर म दुःखी होती हू ँ । मने
(बा यकाल म जो ेम का बीज लगाया था) ेमव लर को अपने आँसु ओं के जल से
सींच - सींच कर प ल वत कया है । मने दह को मथकर उसम से घी नकाल लया
है और छाछ (म ा) को छोड़ दया है । राणा ने वष का याला भेजा उसको पीकर म
कृ ण भि त म त मय हो गई । अब मेरे ेम क बात सव फैल गई है और सब
कोई जान गए ह । मीराबाई कहती है क मु झे कृ ण ेम क लगन लग गई है । अब
जो भी प रणाम होना हो वह हो अथात ् म इस कृ ण ेम के बदले भ व य म होने
वाले प रणाम को भोगने के लए तैयार हू ँ ।
वशेष.
मीराबाई कृ ण क अन य भ त थीं । अत: वह कृ ण के त पूण प से सम पत थीं
। इस लए वह कृ ण के अ त र त इस संसार म कसी को भी अपना नह ं समझती
थी।
मीरा ने कृ ण ेम के कारण सब वजु - बांधव और संबं धय को छोड़ दया । अथात ्
वह पूण प से भगवान कृ ण को सम पत हो गई ।
मीराबाई राजकु ल क म हला थीं क तु उ ह ने राजकुल क वजनाओं और मयादा को
यागकर साधु ओं के साथ बेपरदा बैठकर लोक - लाज को छोड़ दया । मीरा भ त को
दे खकर स न होती थी और संसार को दे खकर वह दुःखी होती थी।
आँसु ओं के जल से ेमव लर को सींचना और दह को मथकर घी नकाल लेना और
छाछ को छोड दे ना म पक अलंकार है ।
म यकाल म नार जा त पर अनेक तबंध थे पर तु उनको ठु कराकर मीरा ने कृ ण
भि त क । उसने घोषणा कर द क अब जो भी हो मु झे कृ ण ेम क लगन लगी
है।
''होणी हो जो होई'' मु हावरे का सु दर योग हु आ है ।
श दाथ :
साधां =हे साधु गण ! साधां संग = साधु ओं के साथ । सकल = सारा । जोई = दे ख
लया है । सगासोई = संबध
ं ी । सू याँ = सब । भगत = भ त लोग । रोई = दुःखी हु ई
। मथ = बलोकर । छोई = छाछ ।

123
13.3.7 माई सांवरे रं ग......... भगत रसील जांची

माई सांवरे रं ग रांची (रा त) ।


साज शंगार बांध पग घू घ
ं र लोकलाज तज णांची ।
गयां कु मत यां साधां संगत याम ीत जग सांची
गायां गायां ह र गुण णस दण काल याल र बांची ।
याम बना जग खारा लागां जार बातां कांची ।
म स सर गरधर नट नागर भगत रसील जांची ।
संग :
यह पद भ त कव य ी म धर मंदा कनी मीराबाई वारा र चत है और उनक पदावल
से उ ृत है । मीरा ने अनेक पद माई संबोधन से ार भ कए ह । मीरा केवल अपने
कृ ण से ेम करती है और उसके ेम म नम न रहना चाहती है ।
या या :
मीरा अपने यतम ीकृ ण के रं ग म रं ग गई है । उसने नृ य का साज - गृं ार कर
लया है और अपने पाँव म घु घ
ं बाँध लए ह । इस कार तैयार होकर मीरा ने लोक
लाज को तलांज ल दे द और वह अपने यतम के स मुख नाची । साधु ओं क संगत
म उसक कु म त (अ ववेक) न ट हो गई और उसने यह समझ लया क संसार म
केवल कृ ण ेम ह स य है । वह कहती है क मने अह नश ई वर का गुणगान कया
इस लए म काल पी नाग से बच गई । मु झे कृ ण के बना स पूण जगत खारा
(कड़वा – कटु ) लगता है और इस संसार क बात मु झे क ची जान पड़ती ह । मीरा के
वामी कृ ण ह जो गरधर ह और नट नागर ह म उनक रस पूण भि त अथात ्
आन ददा यनी ेमाभि त म डू ब गई हू ँ ।
वशेष :
इस पद म अनु ास क छटा दशनीय है ।
मीराबाई के कृ ण के त समपण भाव क अ भ यि त हु ई है ।
काल याल म पक अलंकार है ।
मीरा का ज म - ववाह राजकुल म हु आ था । मीरा ने अपने दोन कु ल क मयादा
का याग कया और कृ ण भि त म त ल न हो गई और इससे समाज म उसक बड़ी
बदनामी हु ई । मीरा बहु त साहसी ी थी िजसने कहा क मने लोक ल जा का याग
कर दया है और म कृ ण भि त के रं ग म रं ग कर अपने यतम कृ ण के स मु ख
नाचती हू ँ ।
'खारा लागां' और 'बाता काची’’ मु हावर का सु दर योग हु आ है ।
श दाथ :
रांची (राती) = रं ग गई, राती अथात ् लाल । णांची = नाची । कु मत = कु म त, दुबु
। णस दण = रात - दन । याल = सप । बांची = बच गई । खारा = कडु वा,

124
कटु , बुरा । कांची = क ची, म या, न सार । जांची = पर ा क हु ई, याचना क ,
कामना क ।

13.3.8 पग बांध घु ध
ं रयां.......... शरणां आ यां र

पग बांध घु ध
ं रयां णा यां र ।
लोग क मां मीरा बावर सासू क या कु लनासी र ।
बख रो यालो राणा भे यां पीवां मीरा हांसां र ।
तण मण बारया ह र चरणां मां दरसण अम रत पा यां र ।
मीरा रे भु गरधर नागर थार शरणां आ यां र ।।
संग :
यह पद भ त कव य ी म धर मंदा कनी मीराबाई वारा र चत है और उनक पदावल
से उ ृत है । मीरा भगवान ीकृ ण के मि दर म साधुओं के स मुख पाँव म घुघ

बांध कर नाचती थीं । राजकु ल क म हला के लए इस कार नाचना अशोभनीय था ।
इससे मीरा क समाज म नंदा हो रह थी । मेवाड़ के राणा व माजीत संह के वारा
उस पर अनेक अ याचार कए गए । उसको मारने के अनेक य न कए गए क तु
मीरा भगवान कृ ण क दया से मर नह ं ।
या या :
मीरा अपने पाँव म घुघ
ँ बाँधकर, कृ ण ेम म त मय होकर नाचती ह । मीरा के
नाचने पर लोग उसको बावर (पगल ) कहते ह तो सास उसको 'कुलनाशी' (कुल
कलंकनी) कहती है । य क राजप रवार क मयादा और वजनाओं का उ लंघन करके
मीरा नाच रह ह । मीरा कहती ह क राणा ने मु झे मारने के लए वष का याला
भेजा । मने वष भी हँ स - हँ सकर पी लया । मीरा कहती है क म अपना तन - मन
अथात ् सव व कृ ण के चरण पर सम पत कर चु क हू ँ । म केवल उनके दशनामृत क
यासी हू ँ । म भगवान के दशन के लए याकु ल हू ँ । हे गरधर लाल! म आपक
शरण म आना चाहती हू ँ । मु झे आप अपनी शरण म ल िजए । आपक शरण पाकर म
कृ ताथ हो जाऊँगी ।
वशेष :
मीराबाई म यकाल क कव य ी थीं । राजकुल क बेट - बहू होने के कारण मीरा पर
अनेक तबंध थे । उसका जन - सामा य के बीच नाचना राजकुल क मयादा के
व था । क तु मीरा ने इस वजना को तलांज ल दे द । मीरा क इसके लए
बहु त न दा हु ई क तु मीरा ने न दा भी सहन क , अपवाद भी सु ने और सास -
ननद के अपश द भी सु ने और राणा के वारा उसको मारने के यास कृ ण क कृ पा
से वफल हो गए ।
नार ने नार को िजतना ता ड़त कया है और दुःख दया है उतना पु ष ने भी नह ं ।
लोकसा ह य म सास - ननद को सदै व बहू को पीड़ा दे ते हु ए च त कया गया है ।

125
मीरा क सास - ननद इसका अपवाद कैसे हो सकती है? इसी लए मीरा को सास कु ल
कलं कनी कहती है ।
राणा ने मीरा क जीवन ल ला समा त करने के लए पटारे म साँप भेजा, मीरा के
लए सू ल क सेज बछाई और वष का याला भी भेजा क तु मीरा पर यह कहावत
च रताथ होती है- 'जाको राखै सांइयां, मार सके न कोइ, बाल न बांको कर सके जो
जग बैर होई'' ।
मीरा क कृ ण भि त म त मयता दे खकर लोग उसको ''बावर '' कहते थे । वा तव म
वह थी भी - कृ ण ेम म द वानी ।
स पूण पद म अनु ास क छटा दशनीय है ।
म यकाल न सामंती दबाव से जू झती हु ई म हला का जीवन संघष और तरोध क
भाव - भू म पर मीरा क ेम अचना क अ भ यि त इस पद म हु ई है ।
श दाथ :
णा याँर = नृ य कया । बावर = बावल , पगल । कु लनासाँ = कु ल म कलंक लगाने
वाल । वख = वष । हाँसी = हँ सी, स न रह । या याँ = यासा ।

13.3.9 हे र हां तो दरद....... बैद सांवरो होय

हे र हां तो दरद दवाणी हांरा दरद णा जा यां कोय ।


घायल र गत घायल जा या हवडो आस संजोय ।
जौहर क मत जौहरा जा यां या जला िजण खोय ।
दरद र माया दर दर डो यां बैद म या णा कोय ।
मीरा र भु पीर मटांगा जद बैद सांवरो होय।।
संग :
यह पद भ त कव य ी म धर मंदा कनी मीराबाई वारा र चत है और उनक पदावल
से उ ृत है । मीराबाई के यतम भगवान ीकृ ण ह जो अलौ कक पु ष ह और उनसे
इस संसार म मलन संभव नह ं है । इस लए मीराबाई को जीवन भर वयोग क अि न
म जलना पड़ा । मीरा क वरह - वेदना कौन समझ सकता है? कहावत है ''जाके पाँव
न फट बवाई वो या जाने पीर पराई'' । मीरा भी कहती है क म तो दद से दवानी
हू ँ क तु मेरा दद कोई नह ं समझ सकता ।
या या :
म तो दद के कारण द वानी हू ँ । (पागल हो रह हू ँ क तु मेरा दद कोई नह ं जान
सकता । घायल यि त ह घायल का दद जान सकता है । या िजसके दय म पीड़ा
हो । ह रे - मोती का मू य तो कोई जौहर ह जान सकता है, या वह यि त िजसने
ह रे - मोती खो दए ह । मीरा अपनी वरह - वेदना म दर - दर डोलती फर पर तु
उसे कोई वैध नह ं मला । मीरा क यह वरह - वेदना भगवान कृ ण के मलने पर ह
मट सकती है अ यथा इसके मटने क कोई स भावना नह ं है ।

126
वशेष :
मीरा अपने यतम ीकृ ण के वयोग म इतनी य थत हो गई है क वह द वानी हो
गई है । मीरा क इस वरह - वेदना को कोई समझ नह ं सकता । मीरा कहती है क
घायल क ग त तो कोई घायल ह जान सकता है या िजसके दय म वह वयोग क
वाला जल रह हो, वह समझ सकता है ।
घायल र गत घायल जा यां, जौहर क मत जौहरां जा यां, दर दर डो यां, मु हावर का
यहाँ सु दर योग हु आ है । मीरा के का य म लोकत व क धानता है और इसी
कारण उनके पद अ यंत लोक य हु ए ।
स पूण पद म अनु ास क छटा दशनीय है ।
मीरा के इस पद म ''जाके पाँव न फट बवाई, वह या जाने पीर पराई'' । लोकोि त
का सु दर योग राज थानी म हु आ है ।
कसी भी रोग के उपचार के लए वैध क आव यकता होती है । मीरा क वयोग-
वेदना भगवान कृ ण के वैध होने पर ह समा त हो सकती है ।
श दाथ :
दरद = दद, ेम क पीड़ा । जोहर = जवाहर, र न । गत = दशा, ि थ त, गुणव ता ।
सँजोय = जलाकर, लगाकर । जोहर = जौहर , र न का पारखी । ओर = अ य, दूसरा
। दर दर = घर - घर । डोलूँ = भटकती हू ँ । वैद = वैध ।

13.3.10 बरसाँ र बद रया............ मंगल गायण र

बरसाँ र बद रया सावण र , सांवण र मणभावण र ।।


सावन माँ, उम यो हारो मण र , भणक सु याँ ह र आवण र ।
उमड़ घुमड़ घण मेघां आयी, दामण घण झर लावण र ।
बीजाँ बूँदा मेहो आयी बरसा शीतल पवन सु हावण र ।
मीरा के भु गरधर नागर, बेला मंगल गायण र ।।
संग :
यह पद भ त कव य ी म धर मंदा कनी मीराबाई वारा र चत है और उनक पदावल
से उ ृत है । वयो गनी मीरा इस पद म सावन मास म अपनी दशा का वणन करती
ह । मीरा को लगता है क उसके यतम सावन मास क इस सु रंगी ऋतु म अव य
लौट आएंगे और मीरा से उनका मलन संभव होगा । मीरा कहती है क इसी लए यह
समय मंगल गीत गाने का है ।
या या :
मीराबाई सावन क बदर से बरसने का अनुरोध करती है सावन क ऋतु मन भावन है
इस लए वह कहती है क सावन म मेरा मन उमंग से भर गया है य क मने अपने
यतम कृ ण के आने क भनक सु नी है । सावन के मेघ उमड़- घुमड़ कर आकाश म
छा गए ह । आकाश म बजल चमक रह है और इससे आभास हो रहा है क अब

127
घनी वषा होगी । वषा क बड़ी-बड़ी बू द
ं े बरस रह है और वषा से शीतल और सु हावना
पवन चल रहा है । कृ त म सावन मास म आए इस प रवतन से मीरा को आभास
लगता है क उसके यतम आने वाले ह । मीरा कहती है क गरधर नागर मेरे भु
ह और उनके आगमन का आभास इस ऋतु से हो रहा है और यह वह समय आ गया
है जब यतम के आने पर मंगल गीत गाए जाएं ।
वशेष :
राज थान म भू म है जहाँ पर वषा केवल वषा ऋतु के मह न म होती है । सावन के
मह ने म वासी यतम घर लौटते ह । कृ त म भी मलन का य दखाई दे ता है;
यथा :
सावण आयो सा हबा, पगां बलू ंबी गार ।
छ बलू ंबी बेलड़ी, नरां बलू बी नार।।
तथा
नैना बरसे सेज पर, आंगण बरसे मेह ।
होडाँ होड़ी झड़ लगी, उत सावण इत नेह।।
सावन के मह ने म वयो गनी ना यकाएं अपने यतम को तीज पर अव य लौट आने
को आमं त करती ह । ावण तृतीया के दन ि याँ नवीन व और आभू षण से
गृं ार कर पेड़ क डाल म झू ले डालती ह और झू ला झू लते हु ए गीत गाती ह । अपने
यतम को वे चु नौती दे ती ह-
''उ तर दशा उम य , मोट छांटा मेह
भीगी पागां पधार जो जद जाणूल नेह''
मीरा का य पर लोक सा ह य का भाव था । इसी लए मीरा भी सावन के मह ने म
अपने वासी यतम से मलने क आकां ा कर रह है । यह लोक पर परा का भाव
है ।
यतम के लौटने पर मंगल गीत गाने क भी राज थान म लोक पर परा है िजसको
बधावा गीत कहते ह ।
ावण मास म वषा ऋतु के कारण वयो गनी ना यका उ कं ठत और उमं गत हो जाती
है । उसको लगता है क यह वषा ऋतु का सु हावना मौसम य मलन का संकेत दे
रहा है । यह कृ त का उ ीपन प म च ण है ।
श दाथ :
मणभावण = मन को भाने वाल । उम यो = उमंग से भर गया, उम गत हु आ ।
भणक = आहट, आभास । दागा = बजल । वीजा = बजल । घण = सघन । वेला
= समय ।
मेहा = वषा । मंगल = बधावा गीत गाना ।

13.3.11 राणाजी हाने........ जलो जा अंगीठ

राणाजी हाने या बदनामी लगे मीठ ।।टे क।।


128
कोई न दो कोई ब दो म चलू ंगी चाल अनूठ ।
साँकड़ल सेरया जन म लया यू ं कर फ ं अपूठ ।
सत संग त मा यान सु णै छ , दुरजन लोगाँ ने द ठ ।
मीरा रो भु गरधर नागर, दुरजन जलो जा अंगीठ ।।
संग :
यह पद भ त कव य ी म धर मंदा कनी मीराबाई वारा र चत है और उनक पदावल
से उ ृत है । मेवाड़ के राणा व माजीत संह ने मीरा से कहा क तु म साधु ओं क
संगत छोड़ दो और राजकु ल क मयादा म रह । मीरा बाई ने राजप रवार क सार
मयादाओं और वजनाओं को तलांज ल दे कर कृ ण मं दर म नृ य के साथ भजन गाती
रह । राणा ने कहा क इससे राजकु ल क मयादा न ट हो रह है और चार ओर
तु हार बदनामी हो रह है । मीरा ने इस पद म राणा को उ तर दया है ।
या या :
मीरा कहती है क मु झे तो हे राणा! यह बदनामी भल लग रह है । कोई न दा करे
या कोई शंसा करे म तो अपनी अनूठ या अनोखी चाल पर ह चलूँगी । मु झे सँकर
गल म मेरे यतम मले । म कस तरह से लौट सकती हू ँ अथात ् िजस भि त के
संक ण माग म कृ ण मले ह उस माग म लौटने का थान ह नह ं है । मु झे लोग ने
सतसंग म ान क बात सु नते हु ए दे खा । मीरा कहती है क मेरे तो भु गरधर
नागर ह । ये जो दुजन लोग ह वे मेर तरफ से अंगीठ म जल अथात ् भाड़ म जाएं ।
वशेष :
मीरा को मेवाड़ के राणा ने बार - बार समझाने का यास कया क तु म साधु ओं के
साथ सतसंग म मत बैठो य क इससे राजकु ल बदनाम हो रहा है । मीरा कहती है
क मु झे तो यह बदनामी ह य लगती है । म अपने यतम कृ ण क भि त का
माग नह ं छोड़ सकती ।
श दाथ :
मीठ = भल , अ छ । अनूठ = अनोखी, उ ट , भ न माग से । साँकडल =
संक ण, सँकर , तंग । द ठ = दे खा ।

13.4 वचार संदभ और श दाथ


आलवार : त मल ांत के आलवार बारह ह । आलवार उसे कहते ह िजसे भगवान क
वतः फूत अनुभू त होती है और वे भाव वभोर होकर ई वर को आ मसमपण करते ह
। आलवार क भि त (जो मु यत: न न वग का धम था) से टकराकर दूसरे धम का
भाव अ यंत ीण हो गया । आलवार क भि त वहाँ क धरती क उपज थी ।
आलवार म अ धकांश शू , ी और छोट जा तय के कसान और कार गर थे ।
रामानुजाचाय : (1137 ई.) का ज म 11 वीं शता द के म य म कांचीपुरम के नकट
हु आ था । वह आलवार का दे श था । रामानुज ने भागवत के ई वरवाद और शंकर
के हवाद को म त करते हु ए एक नया दशन दया िजसको व श टा वैतवाद

129
कहते ह । म अंशी है जीवन - जगत अंश; यह व श टा वैतवाद है । ई वर के
त पि त या शरणाग त ने भि त का वार सबके लए खोल दया । रामानुज ने
भि त के लए पुरो हत वग क स ता को अ वीकार कर दया ।
रामानंद : राम भि त के थम आचाय वामी रामानंद का जीवन काल सन ् 1400 से
1470 ई. के बीच माना जाता है । रामानंद के ज म थान के संबध
ं म भी ववाद ह
। कु छ व ान उ ह दा णा य मानते ह । दूसरे उ ह उ तर का मानते ह । उनका
के मठ काशी के पंच गंगा घाट पर था । क तु उ ह ने भारत के मु ख तीथ क
या ाएं क ं और अपने मत का चार कया । च लत कं वदं ती के अनुसार छुआ - छूत
के मतभेद के कारण उ ह गु राघवानंद ने अलग सं दाय चलाने क अनुम त द थी ।
रामानंद के मु ख श य अनंतानंद, कबीर, सु खानंद, सु रसु रानंद, प ावती, नरहयानंद,
पीपा, भावानंद, रै दास, ध ना, सेन और सु रसु र आ द को माना जाता है । उ ह ने राम
भि त को सा दा यक प दान कया । कबीर और तु लसी दोन का ेय रामानंद को
दया जाता है । उ ह ने भि त का वार ी और शू के लए भी खोल कर सबल
उदार वचारधारा को ज म दया । संत सा ह य क उदार चेतना उ ह ं के कारण है ।
उ ह ने ह दू और मु सलमान को समीप लाने क भू मका तु त कर द थी । ह द
के अ धकांश संत क व रामानंद को ह अपना ेरणा ोत मानते ह । उनक उदार
वचारधारा ाय: समूचे भारत म फैल गई थी । ह द के अ त र त भारतीय भाषाओं
म रामभि त सा ह य उ ह ं क परो - अपरो ेरणा से लखा गया ।
चैत य महा भु : वै णव के एक स दाय के वतक चैत य गौरांग महा भु के नाम
से भी स ह । इ ह ने बंगाल, उड़ीसा से जभू म तक कृ ण भि त का चार -
सार कया । उ ह ने भी ा मण - पुरो हत वच व वाल वण यव था से क ठन
संघष कया । गौड़ीय स दाय के नाम से भी यह स दाय जाना जाता है ।
शंकरदे व : अस मया सा ह य के नव नमाता मु ख क व और सा हि यक शंकरदे व ह ।
उ ह ने अस मया जीवन का नव नमाण कया । उनके धम को एक शरण धम कहा
जाता है िजसम उ ह ने भगवान कृ ण क भि त का असम म चार कया और शा त
पूजा और ब ल का वरोध कया । उनको आधु नक भारतीय भाषाओं का थम
नाटककार माना जाता है िज ह ने अं कया नाटक क रचना क । क तन घोषा, भि त
द प आ द उनके का य थ
ं है । असम म उनको महापु ष शंकरदे व कहा जाता है ।
श दाथ :
ू = आ मा से उ प न । तालाबेल =
आ मो त याकुलता, बैचेनी । अह नश = रात -
दन । वच व = े ठता । लोको मु खता = लोक क ओर उ मुख । व नमय = लेन
दे न । च रताथ= फ लत । सेल = गले म पहनी जाने वाल जंजीर । मधवा = मेघ,
इं । ेमव लभी = ेम क लता । भनक = आहट।

130
13.5 मू यांकन
भि तमती मीरा के पद अनुभू तय से प रपूण ह इस कारण ये लोकमानस एवं भावुक
दय को हठात ् वमु ध कर दे ते ह । आसान से लेकर केरल तक और बंगाल से
गुजरात तक घर - घर म मीरा के वर राग - रा ग नय म गु ज
ं रत ह । मीरा क
पदावल गीता मक है । मीराबाई ने क वता रचना क चे टा नह ं क उनका का य ेम
के उफान म क वता बनकर फूट पड़ा, िजसम सरसता, ासा दकता मधु रता, कोमलता,
सरलता एवं त मयता आ द गुण ह । मीरा -का आरा य कृ ण है, वह जोगी है, वह
गरधरनागर है, वह सांव रया है, वह गो व द है, वह याम है, वह ह र है । मीरा
का का य लोकक ठ म वगत पाँच शता द से जी वत है; यह मीराबाई क लोक यता
का माण है।

13.6 सारांश
मीराबाई म यकाल क स नार कव य ी ह । िजनका ज म थान मेड़ता माना
जाता है और ज म त थ व. स. 1582 मानी जाती है । इनका ववाह च तौड़गढ़ के
कुँ वर भोजराज से व. स. 1573 म हु आ और दो वष बाद ह भोजराज का दे हांत हो
गया । मीराबाई बा यकाल से ह कृ ण को अपना प त मान चु क थीं अत: ववाह के
प चात ् भी उ ह ने गृह थ जीवन यतीत नह ं कया । मेवाड़ के राणा व माजीत संह
ने उन पर अनेक अ याचार कए और उ ह मारने के लए असफल यास कया ।
मीराबाई के पद म उन पर कए गए अ याचार का उ लेख है । मीरा के ज म, ज म
थान, ववाह आ द के संबध
ं म व वान म गहरा मतभेद है । मीरा के पद और
जीवन के संबध
ं म शोध क आव यकता बनी हु ई है ।

13.7 अ यासाथ न
1. मीराबाई के जीवनवृ त पर सं ेप म काश डा लए ।
2. मीरा क रचनाओं का ववरण द िजए ।
3. मीरा के यि त व पर काश डा लए ।
4. मीराबाई के पद के आधार पर उनके जीवन संघष का उ लेख क िजए ।
5. मीराबाई पर मेवाड़ के राणा कुल के वारा कए गए अ याचार का ववरण द िजए।
6. मीराबाई क कृ ण के त भि त और समपण भावना पर सं त लेख ल खए ।

13.8 स दभ थ
1. वामी नरो तम दास, मीरा मु तावल , राज थानी थागार, जोधपुर (2008)
2. सं. व ी ह रनारायण पुरो हत, मीरा वृह पदावल भाग- 1, राज थान ा य
व या त ठान, जोधपुर (2006)

131
3. सं. वामी (डॉ.) ओम आन द सर वती, मीरा पदमाला मीरा मृ त सं थान.
च तौड़गढ़ (2004)
4. दे व कशन राजपुरो हत, मीराबाई मेड़तणी, राजपुरो हत काशन, च पाखेड़ी (2005)
5. आचाय जी. एस., भ त मीरा, शव काशन, बीकानेर (नवीन सं करण 20अ)
6. सं. आचाय न द कशोर, मीरा माधव, वा दे वी काशन. बीकानेर (2003)
7. सं. सुरेश गौतम, मीरा का पुनमू यांकन, क य ह द सं थान, आगरा (2007)
8. व वनाथ पाठ , मीरा का का य, वाणी काशन, नई द ल (तृतीय सं करण
2008)
9. सं. वामी (डॉ) ओम आन द सर वती, मीरा का यि त व और कृ त व, भाग-1,
मीरा मृ त सं थान, च तौड़गढ़ (1998)
10. सं. वामी (डॉ.) ओम आन द सर वती, मीरा का सौ दय बोध, मीरा मृ त
सं थान, च तौड़गढ़, (2004)
11. मनोहर शंभु संह, मीरा पदावल , पदम बुक क पनी, जयपुर (1969)

132
इकाई-14 मीराबाई के का य म अनुभू त और
अ भ यंजना प
इकाई क परे खा
14.0 उ े य
14.1 तावना
14.2 का य संवेदना
14.2.1 मीरा का य का वषय
14.2.2 का यानुभू त
14.2.3 मीरा के का य म जीवन संघष
14.2.4 मीरा के का य म लोकत व
14.3 का य - श प
14.3.1 मीरा का य का श प वधान
14.3.2 का य - प
14.3.3 का य - भाषा
14.3.4 संगीत
14.3.5 मीरा का य म अलंकार योजना
14.3.6 मीरा का य म दाश नक भाव - स दय
14.4 वचार संदभ और श दावल
14.5 मू यांकन
14.6 सारांश
14.7 अ यासाथ न
14.8 स दभ थ

14.0 उ े य
इस इकाई को पढने के बाद आप
 म यकाल न क वता क पृ ठभू म म मीराबाई क का य संवेदना से सा ा कार कर
सकगे ।
 क व प रचय रचनाकार यि त व के बु नयाद सरोकार से प र चत होने के साथ
उसक कृ तय के वषय म बता सकगे ।
 क व क का यानुभू त क बनावट म भि त क भू मका से प र चत कर सकगे ।
 मीराबाई का का य उनके कटु जीवनानुभव का तफलन है, इस त य को समझ
सकगे।
 मीराबाई क कृ ण भि त और उनके आ थावाद मू य के कारण को बता सकगे।

133
 मीराबाई के का य - वभाव, का य ेरणा, का य ि ट और उ े य का प रचय दे
सकगे।
 कव य ी मीरा क अ भ यि त क , सहज सौ दय क मा मकता से आ मीयता से
संवाद कर सकगे ।

14.1 तावना
म यकाल न भि त का य म मीराबाई एक मह वपूण नार कव य ी ह । हमारे दे श म
मानवता और द लतो ार का संबध
ं वण यव था और नार पराधीनता से रहा है ।
भारत म मानवीय वचार धारा ने जब लोक य और यापक आंदोलन को ज म दया
है, तब उससे े रत सा ह य ने वण यव था और नार पराधीनता पर हार कया है ।
इस आ दोलन ने नार वमश को भी स यता दान क है । मीराबाई के का य म
व ोह, संघष, भि त, ेम और रह य क अनुभू त के साथ भाव क अ भ यि त हु ई
है । मीराबाई राज थान क कव य ी ह िजनका ज म थल और कम थल राज थान
रहा है । क तु मीराबाई का संबध
ं ज और गुजरात से भी रहा है । कव य ी के का य
म सरलता और सरसता है िजसके कारण उसका का य इन तीन ा त क सीमा का
अ त मण करके ह द ह नह ं ह द तर ा त म भी लोक य हो गया है । गुजरात
से म णपुर और द ण म त मलनाडु म त मल भाषी लोग भी मीराबाई के पद को
संगीत सभाओं म गाते और झू मते ह । बंगाल म तो मीराबाई वशेष य कव य ी ह
िजनके पद और भजन गाने क सु द घ पर परा है । ऐसी महान नार र न कव य ी के
का य का इस इकाई म अ ययन अभी ट है ।

14.2 का य संवेदना
14.2.1 मीरा का य का वषय

मीरा क क वता का वषय उनक आ मानुभू तयां और जीवनानुभव ह । ेम ह उनके


जीवन और भि त का सार है । इस ेम क ेरणा भी मीरा वयं है बा य अव था म
ह ी कृ ण क मंगलकार मनोहर छ व का अंकुर उनके दय म फूट पड़ा िजसको
मीरा ने अपने आसु ओ के जल से सींच - सींच कर प ल वत- पुि पत कया । मीरा क
पासि त नर तर ढ़ और गाढ़ ेम म पा त रत होती चल गई । मीरा एक
सामा य ी से भ न थी । वह म य काल के भ त क वय म भी व श ट थी ।
कबीर, तु लसी और सू र जैसे महान क वय के स मुख संसार के लोभन का संकट था
और वे अपने भु से इन लोभन को दूर करने के लए आ म बल और कृ पा करने
क याचना करते थे । मीरा य य प राज प रवार म भोग- वलास के प रवेश म रह थी
पर तु वह इनसे मु त या वर त रह और कभी वच लत नह ं हु ई :
'' हाँर आसा च तव ण थार , और णा दूजा दौर ।''
मीरा का एक मा दुःख कृ ण से वयोग है । उ ह साँव रयां के बना सब जग सू ना
लगता है । कृ ण वमु ख संसार को वे दुजन या कू ड़ा कहती है । वह राणा के ठने

134
पर प ट श द म कहती है क ससो दया ठ कर मेरा या कर सकता है? म तो
उसके ठने पर भी गो व द के गुण गाऊँगी । राणा ठ जाएगा तो अपना दे श (मेवाड़)
रखेगा क तु म ई वर के ठने पर मु रझा जाऊँगी, यथा -
''सीसो यो यो हाँरो कांइ करलेसी ।
+ + +
हर याँ ''कु ह ला या'' हो, माई ।''
इससे प ट है क मीरा क क वता का मु ख वषय है गो वंद के गुण गाना । गो वंद
क शि त से ह मीरा नडर है । पु ष स ता मक समाज को मीरा क यह वतं ता
और साहस अस य हो जाता है और वह उस पर टू ट पड़ता है और पहरे - चौक बैठाता
है, ताले लगवाता है इतने पर भी जब मीरा राज प रवार के अनुशासन को नह ं मानती
है तो उसको मारने के लए राणा ने पटारे म साँप भेजा, सूल क सेज बछाई और
उसको वष का याला पलाया िजसको भगवान कृ ण ने अमृत बना दया मीरा कहती
है क मने गरधर नागर के प म पूण पु ष का वरण कया है-
''मीरा के भु गरधर नागर, बर पायो है पूरो'' ।
मीरा कृ ण ेम को पूव ज म का ेम मानती है । मीरा के कृ ण के त पूण समपण
क तु लना आचाय हजार साद ववेद ने द लत ा ा क तरह वयं को नचोड़ कर
दे दे ने का पक दया है । मीरा ने अपना सव व मन मोहन पर यौछावर कर दया
। सामािजक और सांसा रक ि टकोण वाले लोग उनके इस प व ेम को समझ नह ं
सकते और उ ह बगड़ी हु ई कहकर उनक न दा करते ह पर तु मीरा को उनक कोई
चंता नह ं है उनका एक मा अभी ट कृ ण मलन है । वह येक ण मलन क
आशा और ती ा म उ कं ठत है । उस अलौ कक भु से इस जगत म मलन स भव
नह ं है इस लए वह वर हणी है जो यतम के बना पल भर भी जीना नह ं चाहती ।
उनका कु टु ब ह र भि त का वरोधी है । वह जानती है क उसक वरह वेदना का
य द कोई उपचार है तो वह ी कृ ण के पास है और वे ह वैध बनकर उपचार कर
सकते ह ।

14.2.2 का यानुभू त

मीराबाई के का य क भू मका लौ कक है क तु उसने आ या म के शीष का पश


कया है । सामािजक संघष और भावनाह न एवं अमानवीय मू य के वरोध म
सजनधमा मीरा क क णा और व ोह उसके का य म आ थापूण और ऊजा यु त वर
म आ या त मु खर हु आ है । मीराबाई क सम त साधना कृ ण के सगुण , साकार,
अवतार प पर केि त है । व तु त: यह प उनक आराधना का एक मा ल य है
। मीराबाई के कु छ पद के कारण व वान ने इ ट दे व का नगु णवत ् न पण करने के
कारण मीरा को नगु ण भ त कव य ी स करने का असफल य न कया क तु
मीरा के सम त का य का मू ल वर ेम है और उसका एक मा आल बन ीकृ ण है
। इस भि त भावना को '' ेमा- भि त'' अथवा ''माधु य पासना'' क सं ा द जाती है ।

135
मीरा इस ेमाभि त क जीव त तमा है । इस वषय म भ त के सा य न ववाद
एवं असं द ध ह । गो पय के ेम को कृ ण ेमाभि त का आदश माना जाता है
इस लए संत म मीरा क ेमा भि त को गो पन क सी ी त - र त' कहा है । मीरा
के पद भी ेमा - भि त क उपा सका होने को मा णत करते ह.
1. मीरा सर ग रधर नटनागर भगत रसील जांची ।
2. अँसु वन जल सीं च - सीं च ेम - बेल बोई ।
3. ेम भग त रो पड हारो और न जाण र त ।
4. जाओ नरमो हया जाणी तेर ीत ।
कृ ण भ त म मीरा सव प र म हषी के प म ति ठत ह । म धर - मंदा कनी,
मेड़तनी मीरा मेवाड़ क मु कु ट और कृ ण के त सम पत ' ेम द वानी' है । उसका
ेम अलौ कक त व से पूण है और वह परमा मा के यान म नम न है । उसने उस
परम त व का, अमृ व का, उस अलौ कक स ता का ेम याला पी लया है इस लए
अब उसको अ य सभी व तु एँ सारह न लगती है :
पया पयाला अमर रस का, चढ़ गई घुम घूमाय ।
यो तो अमल हांरो कबहु ं न उतरे , को ट करो न उपाय ।
इस संसार म मीरा को सव यापक, सू म त व म क स ता या त दखाई दे ती है
और उस अलौ कक आभा के स मुख सब कु छ फ का लगता है । अत: मीरा ने कहा :
झू ठा मा णक मो तया र , झू ठ जगमग जो त ।
झू ठा सब आभू षणां र , सांची पयाजी र पो त ।
मीरा कसी स दाय वशेष म द त नह ं हु ई और न उस पर कसी स दाय का
वशेष भाव ह है । रामान द क पि त, चैत य क माधु य भि त एवं माधवे पुर
क गोपाल पूजा का मीरा क भि त प त पर परो भाव वीकार कया जा सकता
है । मीरा क ेमोपासना उसक ती अन य ेमाकुलता सवथा अपनी थी, नतांत
वैयि तक थी । मीरा क ेमानुभू त सवथा अ नवचनीय है । मीरा के आरा य, यतम
और सांव रया गरधर लाल ह । िजनके ेम रस म वह आक ठ डू बी थी । वह अह नश
उ ह ं के यान म रहती थी । याम का वरह उसे तपल सताने लगा । उसका रोम
- रोम कृ ण दशन के लए जल से वलग हु ई मछल के समान छटपटाने लगा । यह
वरह ह ेम - त व का सार है िजसम ेमी को एक पल भी अपने य के बना
चैन नह ं पड़ता । अपने गरधर के वयोग म याकुल मीरा क दशा भी कु छ ऐसी ह
थी.
धान न भावै, नींद न आवै, वरह सतावै मोइ ।
ँ त फ ँ रे , मेरो दरद न जाणै कोइ।।
घायल सी घूम
+ + +
पंथ नहा ँ डगर बुहा ँ , ऊभी मारग जोइ ।

136
मीरा के भु कब रे मलोगे, तु म म लयाँ सु ख होइ।।
मीरा ने माधु य भि त के मा यम से दा प य भाव को गाढ़ प म कट कया । ेम
- वयो गनी मीरा को उसके य का दशन नह ं होता । वरह क वाला उसके सवाग
को जलाती है । वह ेम व वलता अपनी अ त थ यथा को कट भी नह ं कर पाती
। उस वर हणी के वरह-स ताप से यह बोल फूट पड़े :
हे र म दरद द वानी मेरो दरद न जाणै कोय ।
घायल क ग त घायल जाणै क िजण लाई होय।।
+ + +
दरद क मार बन - बन डोलू ं बैद म या नह ं कोय ।
मीरा क भु पीर मटै अब बैद सांव लया होय।।
मीरा के पद उसक ेम पीड़ा क ऋचाएँ ह । िजसम अनुभू त का स चा आवेग है ।
ेम के लए य का वरह वरदान है । ेम क लौ को सतत ् व लत रखने वाल
व तका वरह है । जब सारा संसार सु ख क नींद म नम न होता है उस समय
वयो गनी मीरा क आँख म नींद नह ं ; वह रा भर जागकर आँसु ओं क माला
परोती है और यतम क नयन के जलते द प से पूजा करती है । उसक लगन
अनूठ है और अन य है
म वरह ण बैठ जाग जगत सब सोवैर आल ।
वरह ण बैठ रं गमहल म, मो तयन क लड़ पोवै ।
एक वरह ण हम ऐसी दे खी, अँसु वन माला पोवै ।
तारा गण - गण रै ण बहानी सु ख क घड़ी कब आवै ।
मीरा के भु गरधर - नागर, मलकर बछुड़ न जावै ।
वयोग म व रहणी का एक मा संबल यतम का संदेश होता है । िजससे वयोग क
दुखपूण घ ड़याँ कट सकती ह । पर तु मीरा के यतम कृ ण न तो आते ह और न
आगमन का संदेश भेजते ह ।
आप न आवै, लख नह ं भेजै बाण पड़ी ललचावन क ।
ए दोइ नैण कहयौ न हं मानै, न दया बहै जैसे सावन क ।।
य दशन के लए मीरा याकुल है इस लए उसने अनेक पद म दशन दे ने के लए
अनुनय - वनय क है ' यू ं तरसावौ अ तरजामी आय मलो करपा कर वामी ।' और
'जनम - जनम क दासी' म ेम क अख ड, अटू ट एवं अन य भावना का नवेदन है।
मीरा ेमो मा दनी थी । कृ ण के द य और अलौ कक ेम म डू बी हु ई । वह अपने
सांव रया के यान म त मय होकर सु ध - बुध खो बैठती थी और यतम के चरण
म सम पत होकर हष - वभोर होकर नाच उठती थी
पग घुघं बाँध मीरा नाची, रे ।
म तो मेरे नारायण क होगई आप ह दासी रे ।
लोग कहे मीरा भइ बावर यात कहै कु ल नासी रे ।

137
मीराबाई भगवान कृ ण क भ त थी और उनक भि त माधु य भाव क थी । मीरा
का य म वरह का वर बल गाढ़ और मा मक है । उनके यतम कृ ण अलौ कक
पु ष ह िजनसे इस जगत म मलन नह ं हो सकता । बा यकाल से उनके दय म
कृ ण के त जो ेम भाव उ प न हु आ, वह नर तर ढ़ होता चला गया । उनक
ेम भावना तरोध के कारण और अ धक बल होती चल गयी और उनको अपने
वजन से वरोध सहना पड़ा । कृ ण- वयोग क अनुभू त िजतनी आ याि मक थी
उतनी ह लौ कक भी थी । मीरा क वरहा भ यि त म अपने अलौ कक यतम से
संयोग नह ं होने क ती वेदना थी जो उनके का य म कट हु ई मीराबाई अपने
यतम कृ ण के ेम म डू बी रहती थी वह यतम से सदा रकटता चाहती थी क तु
च तौड़ के राणा, सास-ननद और राज प रवार के लोग को मीरा का कृ ण के त
ेम फूट ऑख से भी नह ं दे खा जाता था । इसका कारण यह था क राज प रवार क
म हलाएं सदा परदे म रहती थी और पर पु ष से मल नह ं सकती थी जब क मीरा
साधुओं के संग नाचती-गाती और स संग करती थी उसके वजन मीरा के इस यवहार
से बहु त ु ध थे । उनक वजनाओं के उपरा त भी मीराबाई का ेम परवान चढ़ता
चला गया राज प रवार क मयादाओं का उ लंघन करने से राणा और प रवार के अ य
सद य कु पत हो गए । राणा ने मीरा को कु लकलं कनी समझ लया और उसको वष
दे कर, साँप पटारे म भेज कर, और सू ल क सेज पर सु ला कर मार डालने क
असफल चे टा क । उसको बाहर जाने से रोकने के लए दरवाजे ब द करवा दए,
पहरा बैठा दया और ताले जड़वा दए । तरोध क इसी भावभू म पर मीरा का ेम
और गहरा होता चला गया । मीरा ने अपने का य म इन सब तरोध का उ लेख
कया ह । मीराबाई ने राणा क स ता और शि त को चुनौती द । एकाक नार का
यह साहस दे खने यो य है क वह राणा को कहती है- वह राणा जी को राज थान म
पाया जाने वाला कैर (कांटे दार) वृ कहती ह । मेवाड़ के राणा को कैर कहना मीरा
का ह साहस था-
''राणा जी थे यांने राखी हांसू ं बैर ।
थे तो राणा जी हांने इसड़ा लागो य छन म कैर ।'
मीरा कहती ह क वह कृ ण के बना नह ं रह सकती और उसके पा रवा रक सद य
उसके मि दर म जाकर भगवान कृ ण के दशन करने पर आपि त करते ह । सास
लड़ती है, ननद खजाती है, राणा ु ह, उसने पहरा बैठा रखा है, चौक बैठा रखी है
और ताला जड़वा दया ह -
''हे ल हांसू ह र बन र यो न जाय ।
सास लड़े मेर ननद खजावै राणा रहू य रसाय ।''
पहर भी रा यो चौक बठाय तालो दयो जडाय ।''
सास और ननद अपने अ याचार के लए कु यात ह मीरा बाई क सास-ननद अपवाद
कैसे हो सकती है? मीरा क सास उसको कु ल का नाश करने वाल कहती ह -

138
''सासु क या कुल नासां र ।''
सास-बहू व ननद-भावज म कलह के साथ ेम भी होता ह मीरा ने इन वजन के
वषय म जो कु छ लखा है उसका समथन लोक सा ह य से होता ह मीराबाई क ननद
ऊदा थी । मीरा के पद म मीरा - ऊदा संवाद मलता है, यथा-
''ऊदौ थाणे बरजू म हार , भाभी मानो बात हमार ।
राने रोस कया था पर साध म मत जार ।
कु ल को दाग लगे छै भाभी, न दा हो रह भार ।
साधो रे संग बन-बन भटको लाज गमाई सार ।
बड़ा घरां म जनम लयो छै नाचो दे -दे तार ।''
ननद ऊदा अपनी भावज मीरा से कहती है क म आपको बार-बार मना करती हू ँ क
आप साधु ओं के साथ मत जाइए, मने ोध भी कया पर तु आप मेर बात नह ं
मानती ह आपने कु ल को कंल कत कया है और भार न दा हो रह है । आपने
साधुओं के साथ वन-वन म भटककर स पूण ल जा का याग कया है आपने उ च
कु ल म ज म लया है और ता लयाँ बजाकर नाचती हो । मीराबाई को ननद उ तम
व ाभू षण का लोभन दे ती है-
''छापा तलक गलहार उतारो, प हरो हार -हजार ।
रतन ज ड़त प हरो आभू षण, भोगो भोग अपार ।
मीरा जी थे चालो महल म थाणे सोगन हार ।''
मीराबाई ने ऊदा को उ तर दया -
''ऊदा बाई मन समझ जाओ अपन धाम ।
राज पाट भोगो तु म ह हमसे न तासू ं काम ।''
मीरा ने इन सारे लोभन को ठु करा दया और ऊदा ने उनको यह भी कहा क य द
तु मने साधु ओं का संग नह ं छोड़ा तो राणा आपको छोड़ दगे इसका प रणाम होगा क
आपको बासी-कू सी टु कडा मलेगा और ख ी छाछ मलेगी, भाभी भू खी मर जाओगी ।
तु हारे भगवान नह ं आएँगे तु ह सु खी करने –
''बा या कू या टू कड़ा ये भाभी और मलेगी खाट छाछ ।
रो-रो भू खा मर ये भाभी नह ं मलेगो ह र आय ।''
मीरा ननद के वारा दये गये लोभन और सं ास को नह ं मानती और वह अपने
माग पर चलती रहती है ।
मीराबाई एक नार थी और कसी भी नार के च र पर लांछन लगाना बहु त सहज
होता है । मीरा के संबध
ं म पु ष धान समाज ने अपवाद- न दा फैलाई-
''कड़वा बोल लोक जग बो यां कर यां हार हांसी ।
आबां क डाल कोइल इक बोले मेरो मरण अ जग केर हांसी ।''

139
राणा दमनकार राजस ता का तीक है और मीराबाई ने अपने आ मा भ यि तपरक
पद म उसक प ट श द म भ सना क है । राणा एकाक नह ं है, उसके साथ
सम त नार वरोधी सामंती शि तयां भी ह क तु मीराबाई उनसे भयभीत नह ं होती
और इन वृि तय पर चोट करते हु ए कहती ह -
''न हं सू ख भावै थांरो दे सलडो रं ग डो।।टे क।।
थारे दे सां म राणा साधु नह ं छै लोग बसै सब कू डो ।''
आज भी नार म इतना साहस नह ं क वह समाज को इस तरह खु ल चु नौती दे सके
। यह आ चय क बात है क पाँच शता द पूव मीरा ने समाज को चु नौती द वह
कहती है क म न चोर क ँ गी, न जीव सताऊँगी फर मेरा कोई या कर सकता है?
हाथी से उतर कर म गधे पर नह ं बैठ सकती, यह बात तो हो नह ं सकती, यथा-
''चोर न कर यां िजव न सता यां काई करसी हार कोई ।
गज से उतर के खर नह ं चढ यां, ये तो बात न होई ।''
मीराबाई का संघष असाधु, अ याय और अस य से है । राणा म ये तीन वृि तयां थीं
और मीरा ने इन पर ती हार कया ह -
'' वध वधणा र यारा।।टे क।।
द रघ नेण मरघ कं ू दे खां बणबण फरता मारा ।
+ + +
मू रख जण सघांसण राजा पि डत फरतां वारा ।
मीरा रे भु गरधर नागर राणा भगत संपारा ।''
मीराबाई ने इस पद म वधाता के वारा कये गये अ याय को चु नौती द है और साथ
म त काल न राजनी तक ि थ त पर भी यं य करते हु ए कहा है क पि डत लोग दर-
दर भटकते ह और मू ख संहासन पर बैठते ह । यहाँ राणा क ओर संकेत है क वह
मू ख है ।
मीराबाई का का य उनके दय से नकले ेमो वास का साकार प है । उनका मन
एकांतत ् और सम त ेम - माधुर म रमा है । मीरा का '' गरधर गोपाल'' क वल ण
छ व के त अन य आसि त अनेक श द वारा उनके पद म श दधारा बन कर
कट हु ई ह । मीरा ने मधु र मलन के व न संजोए और त ज य आन द क अनेक
कार से यंजना क है । उसका यतम आ याि मक है अत: उससे उसका मलन तो
स भव नह ं है, इस लए मीरा के पद म व लंभ गृं ार क धानता है । उनक वरह
भावना का ओर - छोर नह ं ह । उनका एक - एक पद उनके दय क आकु ल -
याकु ल ि थ त का प रचायक है; यथा –
'' बरहनी बावर सी भई ।
ऊंची च ढ अपने भवन म टे रत हाय दई ।
ले कचरा मु ख अंसु वन पोछत उघरे गात सह ।
मीरा के भु गरधर नागर बछुरत कछु न कह ।।''

140
मीराबाई ेम दवानी थी एक लोकोि त ह ''जाके पाँव न फट बवाई, वह या जाने
पीर पराई'' इसी लोकोि त को उ होन अपने श द म न न पद म य त
कया ह और वह कहती है क मेर वेदना बना साँव रया के वैध बने नह ं मट सकती,
यथा -
''हे र म तो ेम - दवाणी मेरो दरद न जाणे कोय ।
सू ल उपर सेज हमार कस वध मलणा होय ।
घायल क ग त घायल जाणे क िजन लाई होय ।
दरद क मार बन - बन डोलूँ बैद म या न हं कोय ।
मीरा के भु पीर मटै गी जद बैद साँव रया होय।।''
मीराबाई गरधार लाल के अभाव म रो रह है उसका जीवन इस आशा म अटका हु आ
है क उसके यतम उसक पीड़ा को समझगे और उससे मलने के लए आएंगे ।
वयो गनी मीराँ उनके आने के संदेश क ती ा करती है; यथा -
''कोई क हयौ रे भु आवन क , आवन क मन भावन क ।
आप न आवै लख न हं भेज,ै बाण पड़ी ललचावन क ।
ए दोउ नैन कहयौ न हं मानै, न दया बहै जैसे सावन क ।
कहा क ँ कछु न हं बस मेरा पाँख न हं उ ड़ जावन क ।
मीरा कहै भु कबरे मलोगे चेर भई हू ँ तेरे दाँवन क ।।''
ह द के िजतने भी महान क व ह उ ह ने पु ष होकर नार वरह क यथा का च ण
कया ह । उनका दुःख उधार लया हु आ है फर भी वे उसम अपने दय का रस घोल
दे ते ह और पाठक को रोने के लए ववश कर दे ते ह । मीरा ने गो पयाँ, नागमती,
सीता अथवा पावती क वयोग वेदना का च ण नह ं कया है; उसने अपने ह दय म
वरह क अनुभू त का अपने सांव रया से सा ा कार के लए जो वेदना है उसे
ं ज म - ज मांतर का है
अ भ य त कया ह । भगवान कृ ण के साथ उसका संबध
इस लए मीरा ने अनेक पद म उस ेम क अ भ यि त क है - ''पूरब जनम क
याह '', ''जनम - जनम क कँवार '' ''मेर उनक ीत पुराणी'', ''पूरब जनम के कोल'',
''जनम - जनम क दासी'' आ द पद म मीरा अपनी ीत को केवल इस ज म क
ी त नह ं मानती । उसक मा यता ह क उसका और कृ ण का ेम पूवज म से चला
आ रहा है । इस पुरातन संबध
ं के कारण ह मीरा के ेम म आ मीयता है और वे उस
यतम पर सा धकार मलन का दावा करती ह । उसके का य म जो भाव सौ दय है
उसके मू ल म यह आ मीयता क भावना है । उसका का य यतम के पथ म आ मा
के अ भसार और अ भसार पथ क अनुभू तय से भरा है । मीराबाई का जीवनानुभव
येक जीव के अनुभव के प म कट होता ह इस लए उसका साधारणीकरण होता है
। मीरा का दुःख सवथा अपना दुःख होते हु ए भी मानव मा का दुःख है मीरा का य
क भ व णुता का सबसे बल कारण है - उसका सरल - न छल भावा भ यंजन ।

141
मीरा क वेदना जीवमा क वेदना है, भगवान से बछुड़े हु ए और उसके यार म
तड़पते हु ए जीवमा क अ त यथा है ।
राज थान म वषा बहु त कम होती है और वासी यतम क ती ा म वयो गनी
ना यकाएं अपने यतम क ती ा करती ह लोक गीत क ना यका अपने वासी
यतम को कहती है- ''भीगी पागां पधारजो जद जानु ल
ं नेह । ना यका अपने वासी
यतम से कहती है क म तु हारा नेह उस समय मानू ग
ं ी जब वषा मे भीगी हु ई
पगड़ी लए घर आओगे । वषा ऋतु म भी राज थान म वषा वरल है इस लए जब वषा
होती है तो वयो गनी ी के दय म आन द और उ लास छा जाता है वह सोचती है
क िजस कार वषा से पृ वी के ताप का शमन होगा उसी कार मेर वयोग वेदना
का भी शमन होगा । मीरा ने ऐं क ब ब के वारा अपने भाव को अ भ य त कया
है; यथा -
''बादला रे थे जल भया आ यो ।
झर - झर बू द
ं ा बरसा आल कोयल सबद सु ना यो ।
गा यां बा यां पवन मधुरयो अ बर बदरां छा यो ।
सेज सँवारया पय घर आ यां सखयां मंगल गा यो ।
मीरा रे भु ह र अ वणासी भाग भ यां िजण पा यो ।''
मीरा क ेमासि त का आलंबन कृ ण का प है और वह मीरा के दय म गड़ गया
है । उस नख - शख सौ दय को मीरा अपने दय से नकाल नह ं सकती और अपने
आरा य कृ ण से मलने के लए अकुलाती है । वह अपने भवन पर खड़ी पंथ नहारती
है, उसको यतम क ती ा है इस लए उस ती ा के कारण वह अपने भवन पर
खड़ी है; यथा -
''कब र ठाढ पंथ नहारां अपने भवन खड़ी ।''
मीरा के पद म कह ं - कह ं मलन - संयोग के आन दो लास का वणन भी मलता है
। न न पद म मीरा ने वासी यतम के घर लौटकर आने क ि थ त का वणन
कया है
'' हॉरा ओल गया घर आया जी ।
तन क ताप मट सु ख पाया, हल मल मंगल गाया जी ।
मन क धु न सु न मोर मगन भया, यू ँ आणंद आया जी ।''
यतम के घर आने पर मंगल गीत गाने क लोक पर परा है कबीर ने भी इसी
पर परा का उ लेख करते हु ए कहा है - ''मोरे घर आए राजा राम भरतार! सखी गावहु
मंगलाचार ।'' मीरा भी उसके यतम के आने पर यो तषी को बधाई दे ती है य क
उसने यो तषी से बहु त बार यतम के आने क भ व यवाणी करने को कहा था आज
जब यतम लौट आए ह तो मीरा यो तषी को बधाई दे ना नह ं भू लती है और वह भी
पंच सखी (शर र, मन, ाण, दय और आ मा) के उ लास का वणन करती है -
''जोसीडा ने लाख बधाई रे , अब घर आयो याम ।

142
आिज आन द उमं ग भयो है, जीव लहै सु खधाम ।
पाँच सखी मल पीव पर सकै, आणॅद ठॉमू ठॉम ।''
''मेरे तो गरधर गोपाल दूसरो न कोई ।'' परमा मा के चरण म जब भ त अपने को
सम पत कर दे ता है तो उस भाव को परम भाव या धु रभाव कहते ह । उस समय
जीवन और मृ यु , सु ख और दुःख, मलन और वरह का वैत न ट हो जाता ह ।
भ त का भला बुरा सब कु छ यतम के चरण म यौछावर हो जाता है । संसार म
उसक प माधुर का आभास होने लगता है यह ि थ त अ च य भेदाभेद क है जो
अ नवचनीय है यह ेम क चरम ि थ त है ।

14.2.3 मीरा के का य म जीवन संघष

मीरा को जीवन - पय त वषम प रि थ तय से संघष करना पड़ा । कं वदं ती के


अनुसार उसके शैशव काल म ह उसक माँ क मृ यु हो गई । उसके प चात ् कु छ ह
दन के बाद पतामह राव दूदाजी क मृ यु हो गई । पता रावर न संह यु म उलझे
रहे और वीर ग त को ा त हु ए । या जी के बाद राव वीरम दे व ने मीरा का पालन -
पोषण कया और उ ह ने ह मेवाड़ के कुँ वर भोजराज से उसका ववाह कया । प त
और वसुर क मृ यु के प चात ् वधवा मीरा पर वपि त का पवत ह टू ट पड़ा ।
व माजीत संह ू र, अनुदार और संक ण वृ त का यि त था और उसको मीरा का
साधुओं के साथ उठना - बैठना, नाचना - गाना, अपने प रवार क मयादा का नाश
लगता था । इस लए मीरा क कृ ण भि त और साधु - संत क संग त उसे ब कु ल
नह ं भाती थी और उसने मीरा पर स संग करने पर तबंध लगा दया । मीरा ने
अपने अनेक पद म राणा के वरोध और अ याचार का उ लेख कया है-
''बूझया माणे मदण बावर याम ीत हां कांचा ।
वखरो यालो राणा भे यां आरो यांणा जांचां ।''
मीरा ने राणा का भेजा हु आ वष का याला भी पी लया क तु उसका उस पर कोई
भाव नह ं पड़ा । राणा ने उस पर पहरे बठा दए, ताले जड़वा दए । सास - ननद ने
गा लयाँ द । मीरा का साहस दे खए क िजस मेवाड़ म राणा के व कोई पु ष एक
श द भी नह ं बोल सकता था, वहाँ मीरा ने राणा क नंदा क और उपहास कया ।
उसने कहा-
''कड़वा बोल लोक जग बो यां करसयां हार हांसी ।
आंबां क डा ल कोइल इक बोले मेर मरण अ जग केर हांसी ।''
पु षस ता मक समाज म नार के व सबसे बड़ा ह थयार है च र - हनन । मीरा
क साधु संग त पर भी उसी ह थयार का योग कया गया क तु मीरा ने उस पर
हार करते हु ए कहा क-
'न हं सु ख भावै थांरो दे सलड़ो रं ग ड़ो।।टे क।।
थारे दे सां म राणा साधु नह ं छै , लोग बसै सब कू डो । '

143
मीराबाई ने सामंती यव था म नार पर ढाए जाने वाले अ याचार को सहन नह ं कया
और साहस पूवक उनका वरोध कया । राणा के अ याचार क बात सब ओर फैल चु क
थी । इस लए राव वीरम दे व ने उ ह मेड़ता बुला लया क तु सन ् 1538 म जोधपुर
नरे श राव मालदे व ने मेड़ता पर अ धकार कर लया और इन सब घटनाओं का मीरा के
दय पर दु भाव पड़ा और वह मेड़ता से तीथ या ा पर गई और वृ दावन होते हु ए
वह वारका जा पहु ँ ची । कहा जाता है क वहाँ पर मीरा ी कृ ण क मू त म समा
गई । मीरा एक नडर, साहसी और मु खर ी थी िजसने एकाक होते हु ए भी पु ष
वग का सामना कया और वा भमान के साथ जीवनयापन कया ।

14.2.3.1 मीरा का सामंतवाद ढ़य के त व ोह

मीरा का ज म मेड़ता के राठौड़ राजप रवार म हु आ था और वह च तौड़ के ससो दया


वंश क पु वधू थी । उस समय का य वंश यु को ह अपने जीवन का धम
समझता था । इनके समाज म स ता और संप त को लेकर पर पर यु हु आ करते थे
। यु क छाया म जीवन यापन करने वाले प रवार श त
ु ा के दबाव म रहते थे और वे
अपनी ि य के त ढ़वाद और अनुदार थे । य बाला पर पता और प त दोन
वंश क मयादा का भार माना जाता था और अ पायु म ह उनका ववाह कर दया
जाता था और वधवा होने पर उस मयादा क र ा के लए सती होना अ नवाय था ।
मयादा इतनी संवेदनशील थी क ी के वारा अपनी इ छा क अ भ यि त से उसके
भंग होने का खतरा था । इस लए य प रवार म ि य पर अनेक नषेध लगाए
जाते थे । पता का घर हो या प त का ी का थान अंतःपुर था । उनको घर क
चार दवार म बंद रखा जाता था । पु ष िजतना उन पर नषेध लगाते थे उससे भी
अ धक सास-ननद का उन पर अनुशासन रहता था और वे ी होकर भी ी को
पी ड़त और ता ड़त करती थीं । मीराबाई को भी उसक सास और ननद ने बहु त क ट
दए । मीरा क वतं कृ त को उ ह ने वछ दता मान लया और उस पर अ याचार
कए । मीराबाई के च र पर लांछन लगाए गए ।
मेवाड़ के राणा सं ाम संह के पु भोजराज से मीरा का ववाह हु आ था । कं वदं ती के
अनुसार मीराबाई मेड़ता से ी कृ ण व ह साथ लेकर गई थी और उसने अपने प त
भोजराज से कहा क वह सांसा रक जीवन यतीत नह ं कर सकती य क उसका
ववाह तो भगवान ी कृ ण से हो चु का है । भोजराज बहु त ह उदार यि त थे
उ ह ने मीरा क कृ ण भि त म कोई बाधा उपि थत नह ं क । मीरा का वैवा हक
जीवन अदभू त रहा । वह अपने वसु र राणा साँगा और भोजराज के जीवनकाल म
नर व ल ी कृ ण भि त करती रह क तु साँगा क मृ यु के बाद र न संह च तौड़
क राजग ी पर बैठा क तु वह भी अ प समय म ह वगवासी हो गया । त प चात ्
व माजीत राणा बना । वह एक ू र शासक था । उसके पास धन और सता का बल
था और उसके साथ ह पु ष होने के कारण उसको समाज म व श ट थान ा त था
। ढ़वाद सामंती समाज म जब राणा मीराबाई पर अ याचार कर रहा था तो उसका
सब लोग समथन कर रहे थे । मीरा ने राणा के वारा कए गए अ याचार और

144
नरं कु श, अमानवीय और ढ़वाद च र का अपने पद म वरोध कया । वह अपने
पद को साधु मंडल म गाती थीं । मीरा का उस राज प रवार म एक मा स बल
कृ ण और कृ ण भि त थी । मीरा के पद उनके जीवनकाल म ह लोक य हो गए थे
और लोक के वारा गाए जाते थे । मीरा इसी लोक शि त के बल पर कृ ण भि त म
डू बी रह ं । राज थान जहाँ साधारण नार को भी अपना मु ँह ढकना पड़ता है और घू घ
ं ट
म से एक आँख को नरावृ त करके संसार को दे खना होता है । राजप रवार क
म हलाओं को तो उस समय राजमहल क चार दवार म ब द जीवन यतीत करना
होता था और प रवार के पु ष सद य के अ त र त कसी अ य पु ष को दे खने क
वतं ता नह ं थी । राणाकु ल क सामंती नै तकताओं और ढ़वा दता ने उनका बहु त
वरोध कया क तु सामा य लोक के च त म मीरा क सहज त ठा थी । इस लोक
शि त के बल पर वधवा मीरा ने राणा और सम त ी वरोधी समाज से संघष कया
। मीरा का साहस दे खए क उसने राणा के येक अ याचार का न केवल वरोध कया
बि क उसको खु ल चु नौती द । मीरा क नभयता से शि त और स ता के अहंकार म
डू बे हु ए राणा का कद बहु त छोटा हो गया ।
आ चय होता है क आज भी राज थानी म हला पु ष वग का वरोध नह ं कर पाती है
और बीसवीं शता द के अं तम दशक म दवराला (राज थान) म प कँवर सती हो
जाती है । मीरा का साहस दे खए क उसने अपने प त के नधन के प चात जब
उसको सती होने के लए कहा गया तो उसने सती होने से अ वीकार कर दया ।
'' गरधर गा याँ, सती न हो यां, मन मोहयो धन नामी ।
जेठ-बहू को नातो नह ं राणा जी, हे सेवग थे वामी।।''
मीरा के साहस का मू यांकन राज थान के सामंती प रवेश के संदभ म ह स भव है ।
िजस थान पर रानी प नी और कमवती ने हजार य म हलाओं के -साथ जौहर
कया था उसी थान पर मीरा ने सती होना अ वीकार कर दया । मीराबाई ने अपने
एक पद म कहा है क भोजराज से उसका ववाह मा हथलेवे (पा ण हण) का पाप है।
''साघ संत हरदै बसै, हथलेवा को ला यो पाप ।''
मीरा के वारा हथलेवे का पाप पद राज थान म एक मु हावरे के प म यु त होता है
। आज भी बाल वधवा अथवा ववाह के तु र त प चात ् वर के मरने पर इस मु हावरे
का योग कया जाता है । न यह उठ सकता है क मीरा ने भोजराज के साथ
ववाह ह य कया था ? इस न का उ तर ढू ँ ढने के लए हमको भारतीय नार
और वशेष प से राज थानी नार के संदभ म वचार करना होगा । जहाँ आज भी
नार को ववाह करने क वतं ता नह ं है । जब आज 21 वीं शता द म नार ववाह
करने के लए वतं नह ं है तो आज के 500 वष पूव क हम सहज ह क पना कर
सकते ह क मीरा का ववाह बलात कया गया होगा । मीराबाई ने प ट घोषणा कर
द थी क मेर और कृ ण क ीत पुरानी है-
''मेर उणक ीत पुरानी, उण वण पल न रहाऊँ ।
जहाँ बैठाव ततह बैठूँ बेचे तो बक जाऊँ।।''

145
अथवा
''पूव जनम क ीत पुराणी, सो काँ छोड़ी जाय ।
मीरा के भु गरधर नागर, अव न आवे हॉर दाय।।''
मीरा के दय म कृ ण - ेम का अंकु र बा यकाल म ह फूट पड़ा था । उस अंकु र को
मीरा ने अपने आँसु ओं से सींच कर प ल वत कया । यह ेम - व लर फैलती ह
चल गई । मीरा ने अपने गोपाल से व न म ववाह होने का उ लेख कया है-
''माई र हाँने सु पने म परण गया गोपाल ।
राती पीर चू नर पहर , महद पान रसाल।।''
व न म अपने आरा य के साथ ववाह वाभा वक है । चेतनाव था म िजसका यान
ण भर भी नह ं भू लने वाल ( गरधर यान धर नसबासर, मणमोहण हारे बसी)
मीरा के अवचेतन मन म बैठ कृ ण के वर होने क बात व न म साकार हो गई ।
मीरा ने कृ ण ेम को बालपन क ीत कहा है-
''आवो मनमोहना जी मीठा थारा बोल ।
बालपनां क ीत रमइया जी, कदे ना हं आयो थारो तोल।।''
कसी ववा हत ी का इस कार कसी पर-पु ष चाहे वह कृ ण ह य न हो
अनुर ि त कट करना कतने साहस का काम है । उसके इस ेम का वरोध प रवार के
सभी ी-पु ष कर रहे थे पर तु मीराबाई उनके वरोध के उपरा त भी नरं तर कृ ण
भि त म डू बी रह ं । मीरा ने तरोध क भाव - भू म पर ेम-अचना क । उसके
य वयोग के गीत वर हणी नार के दय के वाभा वक उ गार ह । मीरा ने
आजीवन तरोधा मक शि तय से संघष और तरोध कया । ेम - अचना म म न
मीरा का आ मबल सराहनीय एवं लाघनीय है । उसक अनुभू त मौ लक है,
आ मा भ यि त न छल है, मानवीय तर क है जो मानव को भाव - बोध और
अनुभू त क मा मक गहराई म ले जाकर लोक - मानस से सु संब करती है । इस लए
मीरा का य क ासं गकता सावका लक और सावभौ मक है ।

14.2.4 मीरा के का य म लोकत व

मीराबाई के का य म लोकत व क पड़ताल जांच करने से पूव लोक और त व श द


क या या करना अभी ट है ।
लोक श द के च लत अथ दो ह- एक तो व व अथवा समाज और दूसरा जनसामा य
अथवा जनसाधारण । सा ह य अथवा सं कृ त के एक व श ट भेद क ओर इं गत
करने वाले एक आधु नक वशेषण के प म इस श द का अथ ा य या जनपद य
समझा जाता है; क तु इस ि ट से केवल गाँव म ह नह ं वरन ् नगर , जंगल , पहाड़
और टापुओं म बसा हु आ वह मानव - समाज जो अपने पर परा - थत र त -
रवाज और आ दम व वास के त आ थाशील होने के कारण अ श त एवं

146
अ पस य कहा जाता है, 'लोक' का त न ध व करता है । अं ेजी के श द 'फोक' का
यह श द पयायवाची है ।
लोक श द क या या करने के उपरा त त व श द पर ि टपात करना अभी ट है ।
त व श द का अथ है मू लभू त वचार - कण जो कसी श द या शा का नमाण
करते ह । अत: लोक - त व क या या इस कार क जा सकती है- ऐसे मू लभू त
वचार या अ य वधायक कण जो लोक के अि त व को था पत करते ह । लोक -
जीवन से स ब उपकरण ह लोक - त व है ।
लोक - वाता क प रभाषा के आधार पर इसके त व को न नां कत तीन वग म
वभािजत कर सकते ह-
1. लोक-सा ह य
2. लौ कक र त - रवाज और
3. लोक - च लत व वास ।
मीराबाई क श ा - द ा का उ लेख कह ं उपल ध नह ं है । राज थान म ी श ा
का अ य प चलन है । इस लए यह सहज ह अनुमान लगाया जा सकता है क 500
वष पूव मीरा को श ा नह ं द गई होगी । मीरा के लए यह कहा जाता है क गुजर
गौड़ पं डत गजाधर को उ ह संगीत, वा य, कथा, पुराण , भजन आ द सखाने के लए
नयु त कया गया था । (सां कृ तक गुजरात पृ. 123 व पर परा प का भाग 63-
64 पृ. 68) उनक जीवनी म कह ं भी उनके पढने लखने का उ लेख नह ं है । मीरा
ने जो कु छ सीखा होगा वह लोकजीवन क पाठशाला से सीखा होगा । इस लए मीरा के
का य म लोकसा ह य, लौ कक र त - रवाज और लोक च लत व वास क बहु लता
वाभा वक है । लोक और लोकमानस द घकाल न पर पराओं, जातीय वशेषताओं,
आ दम सं कार और अिजत सदाचार का सं ह त संभार होता है । वह लोक से बनता
है । लोकत व समाज क चेतन अव था के मू ल म ि थत गुण तर है जो चेतन
धरातल को आचरण और यवहार को संजीवक रस दान करते ह । जो बात शा म
नह ं होती वे समाज के लोक त व म होती है और पर परा, र त, आचरण, यवहार,
मा यता आ द के मा यम से समाज को अनु ा णत, संचा लत और याशील रखती ह
। कसी समाज म अनेक र तयाँ, पर पराएँ, थाएँ, मा यताएँ, व वास, धारणाएँ होती
ह जो पव -उ सव , सं कार , सा ह य, श प, च कला, संगीतनृ य , गीत. कथा, कहानी
सब म अनु यूत होती है । लोकमानस लोकत व को ज म दे ता है, साधारणीकरण का
धरातल बनाता है और का य, भि त, वाता, कथा आ द का ज म इस धरातल से होता
है । मु न मानस व श ट े म ान- व ान के संबध
ं का नमाण करता है । ान,
व ान, सा ह य, शा आ द इस मानव के उ पादन और प रणाम होते ह ।
मु नमानस और लोकमानस म घात- तघात और आदान - दान होता रहता है
जब क जन - मानस; आव यकतानुसार दोन का यावसा यक उपयोग कर लेता है ।

147
डॉ. हजार साद ववेद के अनुसार भारतीय सा ह य का अ य त मह वपूण भाग
लोकसा ह य पर आधा रत था । न जाने कतनी बार वह उपरले तर के थ से
भा वत हु आ है और कतनी बार उसने उ ह भा वत कया है । व तु त: लोकत व क
याि त इतनी अ धक है क सा ह य उनसे भा वत हु ए बना नह ं रह सकता य क
सा ह यकार वयं उस भू म क उपज है िजसके व भ न भाव एवं वचार प को
लोकत व के नाम से पुकारा जाता है । ( वचार और वतक- डॉ. हजार साद ववेद .
पृ. 206)

14.2.4.1 लोक च लत ढ़य का च ण

व न के वारा ेम जा त होना या व न म यतम के दशन होना एक लोक


च लत ढ़ है । भावी घटनाओं क सूचना भी व न दशन वारा मल जाती है ।
लगभग सभी अ भजात सा ह य के का य थ म व न का वणन हु आ है और मीरा
ने भी अपने का य म इस ढ़ का योग कया है; यथा –
''माई हांनै सु पने म परणया द नानाथ ।''
व न म य मलन का य क एक पर परागत ढ़ है और मनोवै ा नक प से भी
स य है । अह नश यतम के यान म त मय वयो गनी क अतृ त आकां ाओं क
पू त व न म ह होती ह । क तु क ठनाई यह है क व न म यतम को दे खकर
मीरा चमक उठ और उसक मृ त उसको य थत कर रह है-
''चमक उठाँ सु पनाँ लख सजणी सु ध णा भू याँ जात ।''
मीरा ने सप संबध
ं ी का य ढ़ का भी उपयोग कया है । लोकगीत से सप - ढ
हण क गई है, यथा -
वरह भवंगम ड याँ कलेजा माँ लहर हलाहल जागी ।
मीरा याकुल अ त अकु लाणी याम उमंगा लागी ।
और
ीतम पनंग ड यो कर मेर लह र लह र िजव जावै हो ।
मीरा का य म लोक त व क मु खता रह है और यह अनेक उदाहरण दए जा
सकते ह पर तु इस आधार पर यह कहा जा सकता है क मीरा का लोक जीवन से
घ न ठ संबध
ं था । इस लए उसके का य म शा ीयता के थान पर लोक त व क
अ धकता है । मीरा के का य को समझने के लए मीरा क लोकताि वक ि ट को
समझना अभी ट है ।

14.2.4.2 लोक - च लत व वास

राज थान ह म नह ं स पूण भारत म पुनज म म व वास च लत है । भारत म


ं के वषय म मा यता यह है क प त - प नी के संबध
ववाह संबध ं ज म- ज मा तर
के होते ह । मीरा इसी लए कहती है- ''दासी थार जणम - जणम क '' । ह दू ववाह
के अनुसार ववाह संबध
ं दो दे ह के बीच का संयोग मा नह ं है बि क दो आ माओं

148
का अख ड और अ व छे द मलन है । हमारा सां कृ तक जीवन च इस व वास क
धु र पर घूमता आया है इसी लए ि याँ ने जौहर कए ह या सती हो गई ह तो पु ष
यु भू म म मृ यु का आ लंगन करने से नह ं डरते । ज म - ज मानतर का यह अटू ट
नेह मीरा के नेह द पक को व लत कए रहा है; यथा -
साँवरो हारो ीत णभा यो जी।।टे क।।
थ तो हारो गुण रो सागर, औगुण ह ं बसरा य जी ।
लोकणा सी याँ मण णपतीजाँ मु खड़ा सबद सुणायो जी ।
मीरा रे भु गरधर नागर, बेड़ा पार लगा यो जी।।8
मीरा ने अपने अनेक पद म अपनी भारतीय सं कृ त क मा यता के आधार पर अपनी
ीत को ज म-ज मा तर क ीत कहा है । यथा -
1. ''मीरा के भु ह र अ वनासी पूरब जणम को कंत।।''
2. मीरा के भु कबरे मलोगे, पूरब जणम का साथी।।
3. पूव जनम क त पुराणी, सो यू ँ छोड़ी जाय।।
कसी - कसी पद म मीरा अपनी ीत को पुरातन ीत कहती है-
णाच णाच हाँ र सक रझावाँ, ीत पुरातन जाँ याँ र ।
मीरा अपने को ''जणम - जणम र दासी'' कहती है और एक पद म ''जणम जणम र
वाँर '' भी कहती है ।
राज थान म वशेष प से और स पूण भारत म सामा य प से यो तष और
भ व य वाणी म व वास च लत है । च लत लोक व वास को कु छ लोग अंध व वास
का नाम भी दे ते ह । अंध इस लए क इनका कोई तक संगत आधार नह ं होता ।
यो तष के जानने वाले पि डत राज थान म जोशी कहलाते ह । कसी भी सम या के
समाधान के लए लोग जोशीजी से भ व यवाणी करने का अनुरोध करते ह । मीरा ने
भी कहा है-
''कहो न जोशी यारा, राम मलन कद होसी'' ।
जोशी प ा (पंचाग) दे खकर भ व यवाणी करता है और वयो गनी ना यका के यतम के
लौटने क भ व य वाणी करता है । यतम के लौट आने पर ना यका जोशीजी को
बधाई दे ती है-
''जोसीड़ा ने लाख बधाई, अब घर आया याम ।''
वरह और मलन के इन उ गार म यो त षय के त सामा य लोक - व वास ह
य त हु आ है । बीसलदे वरासो म भी गमनो यत राजा के थान का शु भ दन (शु भ
मु हू त) जानने के लए यो तषी क तलब होती है:
''ले पतड़ो जोशी वेगो आई / सू दन कहै ड़ा जोईसी।।''
म ययुग ह य , आज भी हर शु भ व मांग लक काय का ार भ शु भ मु हू त दे खकर ह
कया जाता है । पर तु अ तर इतना ह है क आज कसी के लौटने क त थ जानने
के लए लोग यो त षय के पास जाने का क ट नह ं करते ।

149
लोक जीवन म शकु न म भी गहरा व वास होता है । जब शकु न के वारा अनुकू ल
संकेत मलता है तो लोग का व वास है क वह काय अव य पूरा होगा । य द शकु न
तकू ल होते ह तो यह माना जाता है क यह काय पूरा नह ं होगा । ी के लए
वाम अंग फड़कना शुभ माना जाता है और द णांग फड़कने पर अशु भ माना जाता है
। मीरा को वामांग फड़कने से यह व वास हो जाता है क उसका यतम अव य
आएगा ।
''कद आसी गो पयाँ वालो का ह फ खे बाँई आँखडी ।''
प य के उड़ने या बोलने से भी शु भाशुभ का अनुमान होता है । कौवा एक ऐसा प ी
है िजसके उड़ने पर य मलन क आशा होती है । इस लए मीरा कौवे से उड़ने का
अनुरोध करती है-
''उड़ - उड़ रे कागा बनका, याम गया वो ह दन कार ।
तेरे उड़या सू ण राम मलेगा, धोखा भागे मन का ।''
मानवेतर ा णय के साथ संदेश - ेषण का काय लोक सा ह य म उपल ध है और
श ट सा ह य म भी यह पर परा दखाई दे ती है । प य को संबो धत करके वह
अपने दय थ भाव का उदा तीकरण (सवल मेशन) करती ह । उसक द मत भावनाएँ
प य आ द को संबो धत करके लोकगीत म कट क जाती है।

14.2.4.3 लौ कक र त - रवाज

मीराबाई ज म से ह राज थान क व भ न पर पराओं से प र चत थी । इसी लए


उसने सावन क तीज का यौहार हो या होल हो, झर मट का खेल हो सबका उ लेख
अपने का य म कया है । रोग और य मलन के लए आतु र होने पर े मकाएँ तं
- मं और औष ध के वारा उपचार करती ह । मीराबाई अपनी माँ से कहती है क
तं - मं ओर औष ध के वारा भी मेर वेदना दूर नह ं हो रह है; यथा -
तंत मंत अउखद करउ, तऊ पीर न जाई ।
है कोई उपकार करै, क ठन दरद र माई ।
मीराबाई के का य म लोक पर पराओं का व तार से उ लेख हु आ है । मीरा
राजप रवार क म हला थी और राज प रवार म राजभोग का परोसा जाना कोई आ चय
क बात नह ं है । पर तु वा त वकता यह है क लोकगीत म अ तशयोि त पूण वणन
मलता है । इनम ना यका सोने क थाल म ह भोजन परोसती है और जब झू ला
झू लती है तो रे शम क डोर पर । फर मीरा अपने सांव रया के आने पर य द छ पन
भोग और छ तीस यंजन सजाकर परोसती है तो आ चय क कोई बात नह ं है य क
मीरा ने राजमहल म सदै व छ पन भोग और छ तीस यंजन परोसे जाते दे खे थे ।
इस लए वह कहती है -
छ पन भोग छतीसां बंजन, पावो जन तपाल ।
राजभोग आरोगो गरधर, सनमु ख राखां थाल ।
मीरा दासी सरणां जासी क यो वेग नहाल।।

150
मीरा के पद म जोगी का अनेक थल पर उ लेख हु आ है । िजसको लेकर मीरा को
नाथपंथी तक स करने का असफल यास कया गया है । खेद का वषय है क
व वान का यान लोकगीत क ओर नह ं गया िजनम जोगी बहु त लोक य स बोधन
रहा है ।
मीरा ने लोक जीवन क पाठशाला से लोक पर पराओं का पाठ पढ़ा था । भारतीय नार
को भारतीय सं कृ त र त म ा त होती है । मीरा इसका अपवाद कैसे हो सकती थी !
इस लए उ ह ने यथा - थान इनका उ लेख कया है क तु यह त य सव व दत है
क मीरा ने लोक मयादाओं को चु नौती द है और उ लंघन भी कया है । आज भी
भारतीय नार लोक पर परा का उ लंघन करने म स म नह ं है और उनका पालन
करने के लए ववश है । परदा था -
घू घ
ं ट था और सती था जैसी पर पराएँ राज थान क अ धकांश ि य वारा मा य
है । मीरा ने 500 वष पहले इन थाओं को तोड़ा । मीराबाई राजकु ल क म हला थी ।
आज भी राजकुल क म हलाएँ परदा था का पालन करती ह पर तु मीराबाई ने इन
तीन थाओं को तोड़ा ।
मीरा के का य म लोक पर पराओं का उ लेख भी हु आ है । एक पद म मीरा कहती है
क जब मेरे यतम घर आएँगे तो मेरे तन का ताप मट जाएगा और उनसे मलने
पर मंगल गीत गाएँगे । भारत म वासी यतम के घर लौटकर आने पर मंगल गीत
गाने क पर परा है इसी लए मीरा ने भी इस पर परा का उ लेख करते हु ए कहा है-
हारो ओल गया घर आ यो जी ।
तणर ताप म याँ सु ख पा याँ, हल - मल मंगल गा यो जी ।
कबीर दास जी ने भी (''गावहू दुल हन मंगलाचार ! मोरे घर आए राजा राम भरतार ।'')
मंगल गीत गाने के लए अपनी स खय को आमं त कया है । राज थान म गोठ
(दावत) करने क पर परा है । य य प गोठ श द के अनेक अथ है पर तु यह
ी तभोज, आ त य - स कार के अथ म यु त होता है । मीरा अपने यतम के घर
आने पर इसी पर परा का पालन करने का उ लेख करती है-
हारे घर आवो याम, गोठडी कराइयै ।
आनंद उछाव क ँ , तण मण भट घ ँ ।
कसी वशेष यि त के आने पर उसका वागत करने क पर परा राज थान म ह
नह ं भारत के अ य भाग म भी च लत है ।

14.2.4.4 लोक सा ह य का भाव

मीरा क का य चेतना साम ती प रवेश म पो षत होकर भी लोकधरातल पर वक सत


हु ई है । मीरा का ज म - ववाह राजकु ल म हु आ । मीरा राजकुल से संबं धत थीं
क तु उसका जीवन राज ासाद क चार दवार म आब नह ं रह सका । मीरा क ेम
साधना और भि त भावना तरोध क भावभू म पर वक सत हु ई और उसका
यि त व लोक के साथ एकाकार हो गया । मीरा का ववाह 12 वष क आयु म

151
च तौड़ के राजकुमार भोजराज से होना माना जाता है । मीरा इस ववाह से पूव ह
अपने सांव रया का वरण कर चु क थी । उसने अपने एक पद म लखा था क
''माई हांन सु पने म पर या द नानाथ ।
छ पन कोट जणापधारया, दु ह सर जनाथ ।
सु पने म तोरण बं या र , सु पने म ग या हाथ ।
सु पना मां हाने परण गया, पाया अचल सु हाग ।
मीरा ने गरधर मलया र , पूरब जनम रो भाग।।
मीरा का य म लोक च लत ढ़य का च ण हु आ है । व न के वारा ेमजागत
होना या व न म यतम के दशन लोक च लत ढ़ है । भावी घटनाओं क सू चना
भी व न दशन वारा मल जाती है । अ भजात सा ह य के का य थ
ं ो म भी व न
ढ़ का योग हु आ है ।
व न म य मलन का य क एक पर परागत ढ़ (Motif) है और मनोवै ा नक
प से भी स य है । अह नश यतम के यान म त मय वयो गनी क अतृ त
आकां ाओं क पू त व न म ह होती है । क तु क ठनाई यह है क व न म
यतम को दे खकर मीरा चमक उठ और अब उसक मृ त उसको य थत कर रह है-
''चमक उठाँ सु पनाँ लख सजणी सु ध णा भू याँ जात ।''
मीरा ने सप संबध
ं ी का य ढ़ का भी उपयोग कया है । लोकगीत से सप - ढ़
हण क गई है, यथा -
1. वरह भवंगम ड याँ कलेजा माँ लहर हलाहल जागी ।
मीरा याकुल अ त अकु लाणी याम उमंगा लागी।।
2. ीतम पनंग ड यो कर मेर लह र लह र िजव जावै हो ।
मीरा के का य म अनेक मु हावर का योग हु आ है । इनक सं या बहु त अ धक है ।
अत: यहाँ क तपय उदाहरण दे कर इस संग को समा त करना उ चत होगा । मु हावरे
लोकजीवन क संपि त है । िजससे सा ह यकार अपनी भाषा म चम कार उ प न करते
ह । ''लागाँ लगण'' ''काण सु ण ल ज '', ''वार वार हो'', ''रं ग राते'', ''आयो थारो तोल''
''जक न परत है'', '' चत मेरो डावा डोल'' इस तरह के अनेक उदाहरण दये जा सकते
ह ।
लोक जीवन म मु हावर के साथ लोकोि तय का भी चलन है । मीरा का य म
लोकोि तय का भी योग हु आ है । उदाहरणाथ यहाँ कु छ लोकोि तयाँ तु त ह- ''सौ
पर एक धड़ी'', ''बेड़ा पार लगा जो जी'', ''गज से उतरके खर नह ं चढसयां'', ''दे ख
वराणै नवाँण कू हे , यू ं उपजावै खीज'', '' नरभे नसाण धु रा याँ'', ''भव सागर तर
जा याँ'', ''दा या ऊपर लू ण लगायाँ'' । मीरा ने अनेक मु हावर और लोकोि तय का
योग कया है ।
लोक सा ह य म लोक गीत एक मु ख वधा है । राज थानी लोकगीत म और मीरा के
का य म सा य ि टगत होता है । राज थान म वषा होने पर ि याँ बहु त स न

152
होती है और ावण तृतीया को पेड़ पर झू ले डाल लेती ह और झू लते हु ए संयोग,
वयोग के गीत गाती ह । इस पर परा के गीत से मीरा भल - भाँ त प र चत थी ।
इस लए सावन तृतीया पर जब उसक स खयाँ झू ले झू ल रह है उसको अपने यतम
क मृ त य थत करती है । वह कहती है-
मोर आसाढाँ कु रलहे, धन चा ग सोई, हो ।
सावण म झड़ ला गयौ स ख तीजाँ खेल,ै हो ।
राज थान क ि य म झर म टयां खेलने क पर परा है । व वान का अनुमान है
क ये झर म टयां खेल ''फूं द '' ह है । िजसम दो ि याँ एक दूसरे के हाथ पकड़कर
नाचती ह । मीरा ने इस खेल का उ लेख कया है-
हाँ गरधर रँ ग राती सैयाँ हाँ।।
पँचरँ ग चोला पहया सखी हाँ, झर मट खेलण जाती ।

14.3 का य – श प
14.3.1 मीरा का य का श प वधान

मीराबाई ने आ मा भ यि त के लए गीता मक मु तक पद का श प चु ना है ।
गीत श प का कृ ण भ त क वय के का य म सवा धक वकास हु आ है । ी कृ ण
का ल लामय सु दर व प ह नृ य , गीत, च और मू तकलाओं का अ य ोत है ।
कृ ण भ त क वय म इन कलाओं क संक पनाओं का सु दर उपयोग कया है । ी
कृ ण क छ व, उनक मु ाएँ, पद ेप चतवन आ द हाव भाव इन कलाओं म
अ भ य त हु ए ह । कृ ण च र केवल का य का वषय नह ं है बि क म यकाल क
सम त कलाओं म उसक अ भ यि त हु ई है ।
का य प केवल संरचना नह ं है, अ पतु वह सम अि व त है िजसम अ तव तु संवेदना
और अ भ यि त व ध का आंत रक सामंज य होता है । कलाकृ त म उसके वधायक
त व का सं लेषण मह वपूण होता है । इन त व क आंत रक अनुकू लता के वारा
कला के सम भाव क सृि ट होती है । इस का य कया म रचनाकार क अनुभव
समृ , तभा और कला ववेक का मह वपूण योगदान होता है । कृ ण भि त के
वारा मीरा को भावसमृ और आ म व तार ा त हु आ और साथ म उनका भावलोक
सम - वषम जीवन अनुभव से स प न हु आ । जीवन और जगत के त उनक
ि ट व तु परक होती चल गई । मीराबाई वदुषी म हला थीं । राजघराने से लेकर लोक
जीवन तक के प रवेश ने उनके अनुभव जगत को व तृत कया । मीरा का का य
आ मपरक होते हु ए भी वैयि तकता क सीमाओं म आब नह ं हो सका ।
मीरा बाई का येक पद एक इकाई है । िजसम उनका स य अनुभू त और अ भ यि त
के अ तरबा य अवयव से रचना मक संग त के लए य नशील है । वे गीता मक
चेतना क रचनाकार ह । मीरा के पद म सघन ती आ मानुभू तय का काशन
मह वपूण है । ये अनुभू तयां उनक पासि त, अनुरि त, भि त और जीवन संघष से

153
संब है । मीरा के पास यापक अनुभव के संदभ से यु त क य ह । ये क य पद
के लघु कलेवर म वक सत और न मत होते ह इस लए उनक भाषा पर गहर
अनुभू तयां, मनोदशाओं का भार आ जाता है । मीरा ने भाषा क आ त रक शि त के
प म अलंकार का योग नह ं कया इस लए उ ह ने श द क यापक अथस दभता
सांके तकता और यंजकता से काम लया है । उनके पद गीता मक है इस लए उनक
आ त रक अि व त म लय का वशेष थान ह । मीरा के श द इन लय के अनु प
तराशे गए ह । लया मकता मीरा के पद क बा य ग त न होकर उनका आ त रक
अनुशासन ह । लया मकता से भाव क मा मकता और ला ल य नखर जाता है ।
उनके पद क थम पंि त टे क के प म नर तर आवृ त के लए है और उस पद का
मु य कथन वह टे क है । शेष पंि तयां उसके अथ का व तार करती है अथवा
अनुगमन करती है । पद क अं तम पंि त म उनका आ म नवेदन क त और य
हो जाता है अं तम पंि त म मीरा नामो लेख के साथ गरधर नागर के त सम पत
होती ह । मीराबाई क ि ट व तु परक है और वे युग स य को यापक प र े य म
दे खती है ।
मीरा क रचना का ाण त व आ मानुभू त है जो गीत का सबसे मह वपूण त व
माना जाता है । आ मपरकता, ती भावना मकता आ द त व आ मानुभू म के अ भ न
अंग है । लया मकता गीत का नयामक त व है िजसका संबध
ं भाव और भाषा दोन
से है । मीरा लया मक अि व त के त बहु त सावधान है । मीरा अपने पद पर साधु
समाज म ताल - वा य के संयोग के साथ घु घ
ं बजाती हु ई नृ य करती थी इस लए
मीरा के पद म ती भावाकुलता नाटक य संघात से प रपूण है मीरा ने नृ य मु ाओं
के मा यम से इसको य त कया होगा । संगीत के अनुशासन के कारण मीरा के पद
अपने चरम मा मक भाव क सृि ट करते ह । उनके पद म राग क भावानु पता
उ लेखनीय है उनक रचनाशीलता क मू ल कृ त कोमल और ला यपूण है । मीरा ने
व वध राग-रा ग नय का उपयोग कया है । मीरा को गोत - संगीत और नृ य के
शा ीय प का ान था पर तु साथ म वे लोक कलाओं के प से भी प र चत थी ।
इस लए उ ह ने शा ीय और लोक कला प म सामंज य था पत कया । मीरा के
वारा राग झंझोर , राग मालकोस राग पीलू राग ख माच, राग पहाड़ी, राग पू रया
क याण, राग दलावल राग दरबार , राग होल , राग बागे वर , राग याम क याण,
राग भाती, राग रोड़ी, राग भैरवी, राग वहाग, राग आसवर राग रामकल आ द राग
का अपने पद म योग कया गया ह ।

14.3.2 का य - प

मीरा के बहु त पहले ह द सा ह य म पद रचना क पर परा ार भ हो चु क थी ।


बौ - स और नाथ - पंथी यो गय क चयागी त पर परा से वक सत नगु ण स त
क पद - रचना - प त, वै णव भ त क टे कयु त और राग यवि थत सगुण ल ला
पद - गान - पर परा तथा लोक - गीत - पर पराओं तीन का सि म लत भाव मीरा

154
के पद पर पड़ा है । टे क, रागानुसार वग करण, दो या अ धक छ द का म ण और
इ टदे व के नाम, प, गुण , ल ला, धाम का वणन वै णव - पद - रचना पर परा क
मु ख वशेषता रह है । उनके कु छ पद कबीर, रै दास और नगु ण संत क श द जैसे
ह । कु छ पद म लोकगीत क पर परा ि टगोचर होती है िजसके संबध
ं म हम यह
कह सकते ह क लोक के वारा र चत इन पद का मीरां के नाम से चलन हो गया
हो । मीरा के पद का मह व इनक संगीता मकता, भावमयता, मधुरता, सहजता और
रच यता क एका त त मयता के कारण है ।
मीरा क पदावल गेय व क ि ट से ह द सा ह य क अ यतम कलाकृ त है ।
कला वह नता ह उसक कला मकता है, सहजता इन पद का सौ दय है । यह पद
भ त , संगीत और का य-र सक म समा त ह । म धर मंदा कनी ेम पुजा रन
मीराबाई के पद का ामा णक सं ह और जीवन-च र का शत कया जाना चा हए
िजससे वतमान ववाद का अंत हो सके ।

14.3.3 का य - भाषा

मीरा के जीवन, रचनाओं और भाषा इन सब के वषय म ववाद है । ो॰ सु नी त


कु मार चटज और झवेर च द मेघाणी के अनुसार मीरा क भाषा शु राज थानी थी ।
लोक म चलन के कारण उसका प प रव तत होता चला गया । मोतीलाल मेना रया
और नरो तम वामी के अनुसार मीरा क भाषा म राज थानी के साथ जी और
गुजराती का म ण भी है । मीरा के उपल ध पद म और उनके सं ह म राज थानी,
ज, गुजराती, पंजाबी, खड़ीबोल , पूरबी आ द कई भाषाओं का सि म ण हो गया है ।
मीराबाई राज थान के अ त र त वृ दावन और गुजरात म भी रह और इस कारण ज
और गुजराती के म ण क संभावना से इंकार नह ं कया जा सकता है । भाषा के
संबध
ं म इतना ह कहा जा सकता है क लोक कंठ पर अवि थत मीरा के पद म
बहु त कु छ त पद एवं भाषा के श द का आ जाना संभव है ।
मीरा पदावल के भाषा - प के संबध
ं म व वान म मतभेद पाया जाता है य क
पदावल का कोई ामा णक पाठ उपल ध नह ं हु आ है । भाषा के संबध
ं म अं तम
नणय के लए मीरा - पदावल के पाठ लोचन क आव यकता है । जब तक पाठ
लोचन के आधार पर पदावल का ामा णक पाठ उपल ध नह ं होगा तब तक मीरा क
भाषा के संबध
ं म अ नणय क ि थ त बनी रहे गी । अब तक का शत पदाव लय क
भाषा म एक पता नह ं है । ी परशुराम चतु वद ने पदावल का जो थम सं करण
नकाला था उसम और डाकोर से ा त पा डु ल प के आधार पर स पा दत परवत
सं करण म भी अंतर है । सु ी प ावती शबनम वारा स पा दत मीरा बृहत ् पद सं ह
म ज राज थानी और गुजराती भाषा के साथ पंजाबी भाषा के पद भी ह । यूना धक
मा ा म अ य पदाव लय क ि थ त इससे भ न नह ं है । थोड़े बहु त अंतर के साथ
उनके पद इन सभी भाषाओं म मल जाते ह । गुजराती भाषा म भी पदावल के अनेक
संकलन नकल चु के ह । गुजराती सा ह य म मीरा को अपनी कव य ी माना जाता है

155
। ज भाषा वाले भी मीरा को अपनी कव य ी कहने म नह ं हचकते ह । गुजराती के
व वान ने यह वीकार कया है क मीरा के पद गुजराती भाषा म उपल ध ह पर तु
मीरा क भाषा राज थानी थी और उसके पद राज थानी के ह माने जाने चा हए ।
मीरा ने अपने पद क रचना अपनी मातृ भाषा राज थान क बोलचाल क मारवाड़ी म
क जो उस समय लोक भाषा थी । मीरा के पद साधुओं और भ त मंड लय ने गा-
गाकर दे श के वभ न ा त म पहु ँ चा दए । प रणाम व प मौ खक पर परा म
जी वत मीरा का य अपना मू ल व प समा त हो गया और उसम व भ न थानीय
भाषाओं का भाव प ट ि टगोचर होता है । मीरा पदावल के केवल उ ह ं पद को
ामा णक माना जाना चा हए िजनम उनका मू ल राज थानी प सु र त है ।

14.3.4 मीराबाई के पद म संगीत

मीराबाई मू लत: भ त कव य ी ह िज ह ने अपनी भि त का दशन क तन के मा यम


से कया है । क तन करते समय वह भाव वभोर होकर नृ य भी करती थीं । वह
च तौड़ के कले पर बने हु ए अपने सांव रया के मि दर म वयं न मत पद गाती थीं
और नाचती थीं । भि त और संगीत का संबध
ं अ य त घ न ठ है । संगीत को फु रत
करने वाल भावना भि त ह थी िजससे े रत होकर भ त क वय ने भि तपरक
पदा मक गीत क रचना क । भि त म भाव वव लता होती है जो संगीत को ज म
दे ती है । इसी लए भ त क वय ने संगीत क साधना क थी । संगीत कला सदा धम
का संबल लेकर चल । संगीत के वर मन को एका त मय और ि थर कर दे ते ह
और उसक चंचलता को वर म बांधकर आ म केि त कर दे ते ह ।
संगीत के मधु र वर म अ नवचनीय आन द क अनुभू त होती है िजस म सु नने वाला
अपनी वेदना भू ल कर आन द म म न हो जाता है। मान सक प रताप और दै हक भोग
से मु ि त मलती है। रोगी भी अपने रोग के दुख को भू ल जाता है और संगीत क
वर लह रय म नवाध बहने लगता है। संगीत का आधार नाद होता है । कण य या
ु तमधुर नाद से ह संगीत का ज म होता है। मीराबाई के पद से संगीत का वशेष
संबध
ं है। मा ा एवं य त संबध
ं ी नयम का पालन छं द के लए आव यक होता है
य क वहाँ मा ाओं को बढ़ाने - घटाने क छूट नह ं होती । मीराबाई के पद ह नह ं
अ धकांश कृ ण भ त क वय के भाव वव लता क ि थ त म वर चत पद का गायन
कया जा सकता है । इसी लए कृ णभ त क वय के पद लोक य हु ए।
पद तीन कार के होते ह- समान मा ा वाले, असमान मा ा वाले और टे क वाले ।
समान मा ा वाले पद क सब पंि तय म मा ाओं क सं या समान होती है ।
असमान मा ाओं वाले पद म मा ाओं का कोई बंधन नह ं होता और न ह पंि तय म
मा ाओं का कोई म होता है । अ य त भाव व वल ि थ त म र चत पद क
पंि तय म मा ाओं म असमानता होती है । मीरा के अ धकांश पद म टे क का योग
हु आ है । टे क वाले पद म थम पंि त अपे ाकृ त छोट होती है िजसे टे क या थाई
पद कहते ह । िजसक आवृि त कई बार क जाती है िजससे पद म अदभूत वन
स दय उ प न हो जाता है । ऐसे पद संगीत क ि ट से अ धक सफल होते ह; यथा-

156
1. माई र हाँ लयो गो व दो मोल ।
2. थ क यो छाने हाँ कह ं चौडे लयो बजती ढोल ।
3. थ क यो मु ँहंघो हाँ कहाँ सु हंगो लयो तराजाँ तोल ।
4. तन वारा हाँ जीवण वारा वार अमोलक मील ।
5. मीरा (नै) भु दरसण द यो पूरब जणम को कोल।।
वर क ग त को लय कहते ह । िजस ग त से वर चलते ह वह लय है । लय तीन
कार क होती है- वलि बत, म य एवं दुत । संगीत का पूण आन द लेने के लए
वर के साथ लय का यान रखना भी आव यक होता है । कृ ण के ेम म वभोर
मीरा का संयोग - सु ख. हषा तरे क के कारण दुत - लय के छोटे -छोटे चरण वाले पद
म अ भ य त होता है; यथा -
''रं ग भर राग भर , राग सू ँ भर र ।
होल खे या याम संग रं ग सू ं भर र ।।''
वयोगाव था म रं ग भर और राग भर होल मीरा क वरह - वेदना को उ ी त कर
दे ती है । दय क कसक उपाल भ के प म वलि बत लय म फूट पड़ी है, यथा -
''होल पया बण लागाँ र खार ।।टे क।।
सू नो गाँव दे स सब सू नी, सेज सू नी अटार ।''
गहन वेदना और यथा क भावा भ यि त ल बे चरण वाले वलि बत लय के लए
उपयु त पद ह; यथा -
''होल पया बन हाने ना भावाँ घर आँगणा ना सु हावाँ ।''
शा त और सा य भाव को यंिजत करने वाले वर क ग त म यम होती है । मीरा
के न न पद म म य लय का नवाह हु आ है -
'' हरां र गरधर गोपाल, दूसरा न कोई''
''मन रे परस ह र रे चरण ।''
इनके अ त र त अनेक पद म म यम लय के साथक सि नवेश से पद म सौ दय क
वृ हु ई है ।
पद के अंत म अ र - मै ी का संयोजन, तु क या अ यानु ास कहलाता है । इसका
योग लय पर नय ण रखने और नादा मक सौ दय क वृ के लए सहायक होता
है । तु क का योग कई कार से कया जा सकता है । मीरा ने तु क का योग सव
कया है । जैसे –
कू याँ, जूँयाँ, सु याँ, खूयाँ ।
जासी कासी, फाँसी, दासी, गासी ।
मीरा के पद के संकलन म येक पद के साथ राग - रा ग नय का संकेत मलता है
। मीरा एक गा यका थी और उ ह ने गाकर ह पद को अपने यतम कृ ण को
सम पत कए । मीरा बाई के पद म संगीत और का य त व का सहज ह सि नवेश

157
हो गया है । मीरा के पद म संगीत के अथवा का य शा का कोई आधार नह ं खोजा
जा सकता ।

14.3.5 मीरा का य म अलंकार योजना

द डी म का य - शोभा के स पादक - धम को अलंकार कहा है और वामन क ि ट


म सौ दय ह अलंकार है । यह सौ दय चाहे क वता के भाव का हो या उसक
अ भ यि त का अलंकार के रहने से मोहक बन फूट पड़ता है । अलंकार सौ दय क
सृि ट नह ं करते अ भ यि त करते ह । कु पा ी को अलंकार सौ दय नह ं दे सकते
। पवती ी के साथ जु ड़कर वे उसके सौ दय को मोहक बना सकते ह । का य म
अंलकार को बलात ् नह लाया जाता वे भावावेश क ि थ त म वत: उ त
ू होते ह ।
क व अपनी क पना से यथाथ के आधार पर आकषक भावना च च त करता है ।
मीरा भ त कव य ी थीं मीरा के का य म भि त से सनी हु ई ेम क मादकता आ म
समपण के साथ चरम सीमा पर है । मीरा के वर ेम वभोर दय से नकले हु ए
स चे उ गार ह - िजनम अनुभू त क स यता है, वाभा वकता है, सहज सौ दय है ।
मीरा क भाव - ती ता म अलंकार वयं आकर उसके का य क शोभा बढ़ाते ह । मीरा
को अलंकार क चंता नह ं । मीरा के मु ख से फूटे हु ए रबर भि त, शि त और
अनुरि त के वर ह । भि त भावना के इन वर म कतने ह राग और रा ग नयाँ
अपने आप कट होती ह ।
मीरा के का य म वी सा अलंकार सहज ह न नां कत उदाहरण म वत: आ गया है:
1. ''ऊँची - नची राह रपट ल , पाँव नह ं ठहराय
म ह र से मलूँ कैसे जाय''
2. ''सोच - सोच पग ध ँ जतन से, बार - बार डग जाय ।''
3. ''राम नाम रस पीजै, मनुआ, राम नाम रस पीजै ।''
4. ''दद क मार वन - वन डोलूँ'' म पुन ि त अलंकार वत: ह आ गया ह ।
मीरा के का य भाव म अनु ास तो भाव क ग त के साथ आता चला जाता है- ''सू नो
गाँव, दे श सब सू नो, सू नी सेज अटार ।'' अथवा ''समरथ सरण तु हार सइयाँ, सरब
सु धारण काज ।''
उपमा मीरा का य का मू ल अलंकार है, यथा- ''जल बन कमल, च द बन रजनी ऐसे
तु म दे याँ बन सजनी ।'' वरह क ती ता और गहराई को य त करने के लए
उ े ा का योग दे खए- ''ए दोउ नैण कइय नह ं मानै, न दयां बहै जैसे सावन क ।''
वयोग - वेदना को यह कथन कतना वकराल प दे गया है । मीरा अपनी वरह
वेदना को चातक और मछल के उपमान से कट करती है - '' यू ँ चातक घन कुँ रटै,
मछल िज म पानी हो ।'' मीरा ने ेम के वेग को य त करने के लये उ े ा
अलंकार का योग कया है - ''आल ! साँवरे क ि ट मानौ ेम क कटार ह'' अथवा
''तन - मन सब यापो ेम, मानो मतवार है ।'' मीरा का य म पक अलंकार तो य

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ह आ जाता है - भवसागर, '' वरह - भु जंग'', ''चरण कंवल'', '' यान गल '', ''राम
रतन'', '' ेमजंजीरं'' आ द पदावल को भाव सौ दय से मि डत करते ह ।
मीरा का य म अ तशयोि त अलंकार का भी योग हु आ है - ''आँगु लया र मू दड़ी
( हारे ) आवण लागी बाँ हं'', ''काढ़ कलेजो म ध ँ रे कागा तू लै जाय, याँ दे सी हार
पव बस रे वे दे खे तू खाय ।'' यह वरह दशा का उ प है और इसी को कट करने
के लये मीरा जब साँव रया क ती ा करते - करते थक गयी तो कहती है -
''आऊँ - आऊँ कर गया साँवरा, कर गया कौल अनेक,
गणता - गणता धस गई, हार आंगु लयाँ र रे ख ।''
मीरा का य म लोक त व का भाव य - त दे खा जा सकता है । लोक
गीत म यह अ तशयोि त एक का य ढ है मीरा ने इसी का योग कया है । मीरा
सू रज और घाम का उदाहरण दे कर अपने ं समझाती है- ''तु म
यतम को अपना संबध
बच हम बच अ तर नाह ,ं जैसे सू रज घामा ।'' वभावना अलंकार का मीरा ने बहु त
सु दर योग कया है- और ''सखी मद पी - पी माती, म बन पयाँ ह माती ।''
दूसरा उदाहरण दे खए - ''पायोजी हाँ तो राम रतन धन पायो । खरचै नह ं कोई चोर
न लेवे, दन - दन बढ़त सवाय ।'' ''हे र म तो दरद द वानी, मेरो दरद न जाने
कोय'', ''घायल क ग त घायल जाणै, जो कोई घायल होय'' म अथा तर यास अलंकार
और ''हम चतवत तु म चतवत नाँह , दल के बड़े कठोर'' म वशेषोि त अलंकार का
योग हु आ है । ह र तु म हरौ जन क पीर, म ह र का योग साथक है और
''प रकरांकुरं'' अलंकार के वारा इसके सौ दय म वृ हु ई है । पद मै ी के योग भी
मीरा का य म भाव - ेपण म ती ता उ प न करते ह- ''गज क अरज गरज उठ
यायो'', या ।
''यो संसार वकार सागर बीच म घेर ।''
लेष अलंकार के वारा अनेक भाव का गु फन एक साथ ह एक थान पर हो जाता
है सारा भाव समटकर एक ह श द म यंिजत हो जाता है । मीरा भि त के रस म
डू बी हु ई कहती है - ''मीरा लागो रं ग हर '' यह हर मीरा क स नता, हर तमा और
स प नता क ि थ त को य त करता है इसम कृ ण - भि त अनुरि त और समपण
क ि थ त भी कट होती है । दोन ि थ तयाँ मलकर ेमानुभू त क गहर धारा बहा
दे ती ह ।
मीरा जब वरह नवेदन करते हु ए कहती है - । ''पलक उघाड़ द नानाथ'' यहाँ द नानाथ
भु है, साथ ह द न और अनाथ मीरा उनसे अपना उ ार करने को कहती ह । ''हंस
के याँ कर म हंस, हंस प ी के साथ हंस (आ मा) का भी बोध कराता है । अ य पद
म भी लेष अलंकार का योग हु आ है।
व ोि त अलंकार के उदाहरण भी मीरा के पद म मल जाते है । मीरा अपनी वरह
वेदना म याकुल होकर गाती है ''को वर हन को दुःख जाणे हो'' और कहती है ''रोगी

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अ तर बसत है, वैद ह औखद जाणे हो ।'' यहाँ वैद दवा दे ने वाला वैध तो है ह
पर तु अ तर म बसने वाला वैद क हैया भी है । व ोि त के क तपय उदाहरण अ य
पद से भी दए जा सकते ह ।
मीराबाई ने का य शा का अ ययन नह ं कया था उसने जो कु छ सीखा था वह लोक
जीवन क पाठशाला से सीखा था उसके का य म अलंकार सहज ह आ गये है । उसने
अलंकार लाने के लए कोई य न नह ं कया ।

14.3.6 मीरा का य म दाश नक भाव - सौ दय

दशन का अथ है िजसके वारा दे खा जाए । यह दे खना थू ल ने से भी हो सकता है


और सू म ने से भी हो सकता है िजनको द य, ा और ान च ु भी कहा जाता
है । थू ल और सू म दोन ह कार के पदाथ दशन शा के वषय है और उस परम
तल को ा त करने के लए दोन का सा ा कार आव यक है । सा ह य और दशन दो
भ न स ता ह । मीराबाई के का य म भाषा. भाव, छ द म आड बर नह ं है और न
ह उनक वेश- भू षा अथवा जीवन म कोई आड बर था । मीरा ने जीवन और जगत के
न से स ब चंतन को सहज, सरल प म अ भ य त कया है । उ होन दशन
वशेष क सै ां तक या याएं तु त नह ं क ह फर भी दाश नक स ांतो क
अ भ यि त उनके पद म सहज प से हो गयी है । उनके पद म दाश नक त य एवं
न कष को का यमयी भावना से े रत होने का वत: अवसर ा त हो गया है ।
दशन क ज टलता, दु हता को उ ह ने सहज, सरल, सु बोध, सु दर, ि न ध और प ट
कया है । त मयता मीरा के अंग-अंग म समाई हु ई है िजसके दशन अनेक पद म
होते ह । जैसे - 'पग घु घ
ं बांध मीरा नाची रे ।
कृ ण भ त म मीरा स दाय नरपे े ठ कव य ी ह । वह ेम द वानी है । उसके
ेम म अलौ कक त व समाया हु आ है । उसके यतम का दे श अगम है जहाँ जाने से
काल डरता है । वहाँ ेम का हौज भरा है िजसम जीवा मा पी हंस के ल करता है ।
अथात वहाँ वह आ मान द म नम न हो जाता है, यथा ''चाला अगम वा दे स, काल
दे यां डरा ।''
राज थान म अफ म पीने - पलाने क परं परा रह है । मीरा ने इसी परं परा का एक
पद म उ लेख कया है । वह कहती है क मने ेम का अमर याला पी लया है ।
यह ेम का याला अफ म का याला पीने के समान है । अफ म का नशा तो उतर
जाता है और फर पीना पड़ता है । मीरा कहती है क मैन जो ई वर भि त का याला
पया है उसका नशा उतरने वाला नह ं है –
'' पया पयाला अमर रस का, चढ़ गई घुम घुमाय ।
यो तो अमल हांरो कबहु ं न उतरे , को ट करो न उपाय ।''
मीरा चराचर जगत म उस सव यापक, सू म त व म के दशन करती है और
कहती है क सम त व व म उसी म का काश दखाई दे ता है । उस म क
अलौ कक आभा के स मु ख सब फ का है और उस य क मु दड़ी के पश से ह
160
आ मा तृ त हो जाती है और उसके पश से मन को शीतलता, शाि त और सम व
भाव ा त हो जाता है; यथा -
''झू ठा मा णक मो तया र , झू ठ जगमग जो त ।
झू ठा सब आभू षणां र , सांची पयाजी र पो त ।
झू ठा पाट पटं बरा रे , झू ठा दखणी चीर ।
सांची पयाजी र गुदड़ी , जामे नरमल रहे सर र ।''
मीराबाई कृ ण जी के सु दर प पर मो हत हो गयी है और अनेक पद म उ ह ने उस
सु दरता का वणन कया है । वह कहती है - '' हारे नैणां नपट बंकट छब अटके ।''
नयन म अटकने वाल इस छ व का कारण यह है क वह सौ दय क तमू त है -
''सु दर बदन जोवतां साजण, थार छ व ब लहार ।'' अपने घन याम ीतम के ेमरस
म पगी मीरा कभी मोरमुकु ट पीतांबर सोने वाला प नरखती है, कभी राजसी ठाठ
ऐ वय का, कभी ''धूतारा जोगी एकर सू ं हं स बोल'' कहकर अनुनय करती है ।

14.4 वचार संदभ और श दावल


मीरा के गु
मीरा के जीवन के संबध
ं म अनेक ववाद च लत है । मीरा के गु के वषय म भी
अनेक मत च लत है । रै दास-पंथी सनत रै दास को इनका गु मानते ह । व लभ
स दाय के लोग उनका व लनाथ से द त होना स करते ह । बाबा
वेणीमाधवदास प - यवहार वारा तु लसीदास से उनके द ा - हण करने क बात
कहते ह । वयोगीह र उ ह जीव गो वामी क श या मानते ह । मीरा के पद म
रै दास को गु मा णत करने वाले पद मलते ह क तु इन दोन के समय म पया त
अ तर है । जीव गो वामी से मलने क बात का उ लेख यादास क ट का म हु आ है
क तु इससे उनका श या होना मा णत नह ं होता । गौड़ीय वै णव म प गो वामी
से मीरा के मलने क बात च लत है क तु इन दोन का मलना सं द ध है ।
व तु त: मीरा क भि त - भावना आ मो त
ू है । उ ह ने साधु संग त म बैठकर सभी
स दाय के वचार हण कए थे ।
श दावल
अह नश = रात - दन । संभार = उपकरण, आ ध य, एक करना । अनु यूत =
थत, परोया । र थ = वरासत । अि व त = प रणाम आ द म य वह एकता
िजससे वह खं डत न जान पड़े । सं लेषण = जु टाना, मलाना, संल न करना । संघाल
= आघात करना । तरोध = बाधा, रोक, तबंध । लाघनीय = ला य, शंसनीय
। अनुरि त = ेम, आसि त, भि त । कं वदं ती = जन ु त, अफवाह । अ च त =
िजसका चंतन न हो सके, अ ेय । अ नवचनीय = िजसके ल ण न बताए जा सके,
िजसका वणन न हो सके । व ह = मू त । अभु त = न भोगा हु आ, अछूता । जौहर

161
= यु म श ु क वजय नि चत हो जाने पर य ि य का दहकती चता म
सामू हक प से वेश कर भ म हो जाना । अनु यूत = थत, परोया सला हु आ ।

14.5 मू यांकन
मीराबाई का य, संगीत और भि त क वेणी ह; पर तु मीरा का मह व इस बात म
ह क उनके गीत म केवल उ ह ं क भि त नह ं बोलती, व व - मानवता का दुःख -
दद और व ोह भी बोलता है । पाँच शता द यतीत हो चु क पर तु लोक के शोषण,
दमन और नार पु ष क असमानता से ज मे न आज तक हल नह ं हु ए । मीरा के
का य क लोक यता का मू ल कारण उनक लोकध मता है । लोक शि त के बल पर
ह क ठ - से - क ठ पर या ा करते हु ए मीरा के पद ने पाँच शताि दयाँ पार कर ल
ह । लोक धमी सा ह य - संगीत - े मय और स दाय मु त भ त ने उनके पद
को सु र ा दान क है ।

14.6 सारांश
मीराबाई भ त कव य ी थी िजनका ज म म यकाल म हु आ था । मीरा को अपने
जीवनकाल म मेवाड़ के राणा, अपने राजकु ल तथा त काल न समाज से संघष करना
पड़ा । ी कृ ण के त अन य भि त के कारण मीराबाई तरोध क भावभू म पर
ेम अचना करके कृ ण भि त म नम न रह । मीरा के यतम आलौ कक थे
इस लए उनका उनसे मलन संभव नह ं था । इस लए मीरा के कु छ ह पद म संयोग
गृं ार का वणन है और अ धकांश पद म वयोग वणन क धानता है । मीरा ने जो
कु छ सीखा था वह लोक जीवन क पाठशाला से सीखा था । इस लए उनके का य म
लोकत व क धानता है । मीरा के पद मु तक का य म गणना क जाती है । उनके
का य म अलंकार और संगीत के साथ दशन का भी समावेश हो गया है ।

14.7 अ यासाथ न
द घ तर
1. मीरा क भि त म उनके जीवनानुभव क स चाई और मा मकता है, इस कथन से
आप कह ं तक सहमत है ।
उ तर – 14.2.2 दे खए ।
2. मीरा के का य म अलंकार योजना पर एक सं त लेख ल खए ।
उ तर – 14.3.5 दे खए ।
3. मीरा के वरह म उनके लौ कक जीवन के अभाव के प क गहर भू मका है, इस
कथन के आधार पर उसक वशेषताओं पर काश डा लए ।
उ तर - 14.2.3 दे खए ।
4. मीरा का य म लोकत व वषय पर नब ध ल खए ।
उ तर - 14.2.4 दे खए ।

162
5. मीरा क भाषा के वै श य पर काश डा लए ।
लघु तर
1. मीरा के य छं द का उ लेख कर ।
2. मीरा के य अलंकार बताएं ।
3. मीरा के दशन पर ट पणी लख ।
4. मीरा के का य म संगीत क भू मका बताएँ ।
5. मीरा क भाषा क दो वशेषताएँ बताएँ ।

14.8 स दभ ंथ
1. वामी नरो तम दास, मीरा मु तावल , राज थानी थागार, जोधपुर (2008)
2. सं॰ व॰ पुरो हत ी ह रनारायण, मीरा बृह पदावल भाग-1, राज थान ा य वधा
त ठान, जोधपुर (2006)
3. सं॰ सर वती वामी (डॉ) ओम आन द, मीरा पदमाला मीरा मृ त सं थान,
च तौड़गढ़ (2004)
4. राजपुरो हत दे व कशन मीराबाई मेड़तणी, राजपुरो हत काशन, च पाखेडी (2005)
5. आचाय जी. एस., भ त मीरा, शव काशन, बीकानेर (नवीन सं करण 2004)
6. सं॰ आचाय न द कशोर, मीरा माधव, वा दे वी काशन, बीकानेर (2003)
7. सं॰ गौतम सु रेश, मीरा का पुनमू यांकन, क य ह द सं थान, आगरा (2007)
8. पाठ व वनाथ, मीरा का का य, वाणी काशन, नई द ल (तृतीय सं करण
2006)
9. सं॰ सर वती वामी (डॉ.) ओम आन द, मीरा का यि त व और कृ त व, भाग-
1, मीरा मृ त सं थान, च तौड़गढ़ (1998)
10. सं॰ सर वती वामी (डॉ.) ओम आन द, मीरा का सौ दय बोध, मीरा मृ त
सं थान, च तौड़गढ़, (2004)
11. मनोहर शंभु संह मीरा पदावल , पदम बुक क पनी, जयपुर (1989)
12. ो य ी च शेखर. गरधर वचनामृत , भीलवाड़ा ।
13. शमा डॉ. क णा, म ययुगीन ह द भि त - सा ह य म वा स य और स य ।
14. पा डेय डी. एस. एन., ह द कृ ण का य म माधु य पासना लखनऊ ।
15. म डी- भु वने वर, मीरा क ेम साधना, राजकमल काशन ।
16. सं॰ वमा डी. धीरे , ह द सा ह य कोश ।
17. मर डी. रवी , ह द भि त सा ह य म लोकत व, भारती सा ह य मि दर,
द ल (1965)
18. हजार साद ववेद , वचार और वतक

163
इकाई-15 बहार का का य
इकाई क परे खा
15.0 उ े य
15.1 तावना
15.2 क व-प रचय
15.2.1 युग प रवेश
15.2.2 जीवन-प रचय
15.2.3 क व का यि त व व रचनाएँ
15.3 बहार - र त स का य
15.4 का य वाचन तथा या या
15.5 स संग या या के कु छ उदाहरण
15.6 सारांश
15.7 अ यासाथ न
15.8 संदभ थ

15.0 उदे य
एम.ए. पूवा के ाचीन एवं म यकाल न पा य म का य क यह 15 वीं इकाई है ।
इस इकाई म र तकाल न क व बहार के का य का अ ययन करगे । इस इकाई को
पढ़ने के बाद आप :-
 बहार का जीवन प रचय दे सकगे,
 र तका य परं परा क मु य वशेषताएँ बता सकगे,
 बहार को र त स कव य कहा जाता है, बता सकगे,
 बहार के का य के आधार पर र तका य क वशेषताएँ बता सकगे,
 बहार सतसई क वशेषता बता सकगे,
 बहार के का य का अथ हण कर उसे स े षत कर सकगे ।

15.1 तावना
ह द सा ह य के इ तहास म संवत ् 1700 से 1900 (संवत ् ईसवी सन ् से 57 वष
बडा अ धक होता ह) तक का समय र तकाल के नाम से जाना जाता ह । र तकाल
या क व बहार र तधारा क मु ख वृ तय , को अपनी रचना म तु त करने वाले
त न ध रचनाकार ह । भि तकाल के बाद र तपरक गृं ार क जो धारा पूरे शो से
वा हत हु ई है- बहार इसी धारा क शि त और सीमाओं को थामकर क व कम म
वृ त होते है । र त परपरा सं कृ त के का य म भी थी, पर सामंत वग क चय
का इतना पतन न हु आ था, िजतना क हंद के र तकाल मे पतन दखाई दे ता है ।

164
राजा य पोषण के सभी त व र तकाल के का य म समा हत होते गए और का य
चम कारवाद, नायक-ना यका भेद, अलंकार दशन का कृ म े ह बनता गया । इस
समाज और का य के मू यादश क पूणता भोगवाद, नार के स दय और शार रक
वासना क तृि त म हु ई । फलत: इनका य का य वषय बना नार का नख शख
वणन, हाव-भाव वणन, अ भसा रका क व भ न अव थाओं और दशाओं का च ण ।
जहांगीर, शाहजहाँ, जय संह, इं दे व संह जैसे स ाट और राजाओं क इ छाओं क पू त
का यह एक साधन मा रह गया । राधा-कृ ण ई वर व क ग रमा खोकर नायक-
ना यका बन गए और उनका शर र ह तीथराज याग । भरे भु वन म आंख लड़ाने का
यापार चल पड़ा और ''उड़त गुडी ल ख लाल'' से ह ना यका ेमो माद म पागल हो
उठ । तं ीनाद, क व त रस, सरस, राग, र तरं ग क पूणता पूर तरह उसम डू बने पर
ह समझाई जाने लगी । सूफ ेम का ''इ क हक क '' राग भू लकर क वगण इस काल
म वलासता को ह जीवन का मान दं ड मान बैठे । बहार का का य और उसम
अ भ यि त अनुभू तय का च ण ह ।
सं कृ त, ाकृ त और फारसी, उदू क क वता से समानता या े ठता पाने के लए
ह द के दरबार क वय को गृं ार या नायक - ना यका के नख- शख वणन का
रोमानी व वासनामू लक च तु त करना पड़ता था । बहार ने भी इसी दरबार का य
परं परा को अपनाते हु ए अपने अपने का य म गृं ार वणन को अ धक मह व दया है ।

15.2 क व प रचय
15.2.1 युग प रवेश

र तकाल प रवेश ने बहार क रचना मक मान सकता का गठन कया है । कहना न


होगा क बहार का काल अकबर के शासन का उ तरा और औरं गजेब के रा या भषेक
के कु छ वष तक फैला हु आ है । उ होन तीन मु गल शासक और उनक नी त दे खी थी
। जहांगीर-शाहजहाँ का काल वैभव वलास और कला क न काशी का काल था ।
जनता उपे त, शो षत और पी ड़त थी तथा उ च वग आमोद - मोद के सु ख साधनो
को भोगने म म त था ।
बहार को ा त आमेर का राजपूत घराना वैभव और चकाच ध का संसार था ।
जय संह मु गल क म ता से भोग के लए समय पा गया था । उ तरा धकार के न
पर भी जय संह ने औरं गजेब का साथ दया था और उसके वरो धय को कु चलने म
कसर न छोडी थी । मु गल के संकेत पर राजा जय संह उनके वरो धय का नममता
से संहार करता था । इस नी त से बहार का मन ु ध था । एक दोहे म वे कहते ह-
वारथ सुकृत न म वृथा , दे ख वहंग वचार ।
बाज पराये पा न प र, तू प छ न न मा र।।
मु गल और शवाजी के बीच जब सं ध हो गई तब बहार का मन बेहद स न हु आ ।
इस स नता को य त करने वाला यह दोहा ऐ तहा सक द तावेज है ।

165
घर-घर तु र कनी ह दुनी दे त आसीस सरा ह ।
प तनु रा ख चादर बुर त राखी जय संह।।
इसी तरह मु सलमान और हदुं ओं क ि याँ खु श ह क ''जय संह'' को उनके सु हाग क
परवाह है।
1. क र फुलेल को आचमन मीठो कहत सरा ह ।
रे गंधी म त अंधत ् इतर दखावत का ह।।
2. क रलै सू ध सरा ह क र, सवै रहत ग ह मौन ।
गंधी गंध गुलाब क गवई गाहक कौन।।
इस फुलेल का अथ तो शहर र सक वग ह समझता था । गांव के मक उसका अथ
और योग या समझे । सामा य जन दयनीय अव था म गुजर -बसर कर रहा था ।
यापार पर ध नक का पूरा क जा था । गाँव के आदमी को हा थय के यापार क
मता ह न थी । पछडी जा तयाँ शो षत और वं चत थी- इस बात का माण बहार
के कथन से बार-बार मलता है ।
गर ब के पास सफ बद थी और शहर ना यका के पास सोने के आभू षण क भरमार
। तरयौन बे सर, करधनी, कणफूल से वे ना यका सजी पड़ी थी । एक जगह तो सहज
शोभा भर युवती पर कृ म आभू षण का बोझ दे खकर बहार कह उठे -
भू षण भार संभा र है, यो यह तन सु कु मा र ।
सू धे पांव न ध र परत सोभा ह के भा र।।
शाहजहाँ के समय म भारतीय समाज का सामंतवाद आधार बड़ा शि तशाल था ।
के के आधार ऊंचे ओहदे वाले मनसबदार और अमीर थे । म यवग इनक सेवा और
कृ पा पर जीवन बसर कर रहा था । यापार , साहू कार संप न थे पर श ा सं कृ त से
ह न थे । अ धकांश समाज कृ ष पर नभर था और सु ख सु वधाओं से वं चत । शोषक
और शो षत समाज के बीच लंबी खाई थी और कलाकार, क व रईस के यहाँ आ य
पाये हु ए थे ।क व कलाकार न न वग के थे ले कन उ च वग से सीधा संबध
ं न था ।
क व, कलाकार राजाओं, सू बेदार , नवाब मनसबदार और अमीर के दरबार म पल रहे
थे । ऐसी ि थ त के कारण उनका वतं यि त व नह ं था ।
अमीर के बहू मू य व म र न, ह र और इ फुलेल क गंध बसी रहती थी ।
रा नय का पूरा शर र आभू षण से भरा रहता था । र तकाल के क वय को इस
प रवेश से सीधे ेरणा मलती रहती थी ।
सामंत, रईस छोटे अ धकार अपना समय आमोद- मोद म गुजारते थे । अंतपुर और
भवन म वलास का एकछ रा य था । शतरंज, चौसर, गजफा का खेल, पतंगबाजी,
कबूतर उड़ाना और तोता, मैना वर से प रवेश गज रहा था । बहार ने उस ि थ त
का सीधा च अं कत कया है-
1. उड़त गुडी ल ख लाल क , अंगना अंगना माह ।
बौर सी दौर फर त छुब त छबील छांह।।

166
यहाँ वकृ त साम तवाद क सीधी त वीर ह मान बहार ने चतु रता से खींच द है ।
ह दू, मु सलमान के उ सव , पव - यौहार , सं कार र त रवाज , खेल तमाश म
सामा य प से भेद करना क ठन था ।
युवती के ने क चंचलता युवक को आक षत कर रह थी । बहार ने इसी हालात
का बंब दया है:
सर जीवै सर मैन के, ऐसे दे ख मैन ।
ह रनी के नैनान ते, ह र नीके ये नैन।।
भि त क आड़ म गृं ार का क तन हो रहा था ।ऐसे समय म ''रामच रतमानस'' के
थान पर '' बहार सतसई'' क रचना हो सकती थी । कबीर सू र क उपे ा के बाद
क वगण गृं ा रकता पर टू ट पड़े थे । व भ न ना यकाएँ रागमालाओं ल लतकलाओं क
च ावल म कला का तीक वन गई थी । राज थानी शैल के च म राधा-कृ ण के
अ भसार को रे खां कत कया गया है । नायक, परक या ना यका के त आस त है-
पलक पीक, अंजन अधर दए महाउर भाल ।
आज मले सु भल कर , भले बने हो लाल।।
अत: र तकाल न का य क अंत ेरणा आ यदाताओं से जोड़कर ह समझी जा सकती
थी ।
भि तकाल न आ याि मकता को परािजत कर र तकाल न गृं ा रकता का वेग उमड़ पडा
था- िजसके पीछे युग के पूरे प रवेश के कारण ह और भि तकाल न कृ ण-भि त
परं परा को भी र त क वय ने बेधड़क होकर गृं ार म ढाल दया था तथा र तकाल न
गृं ा रकता के सामने भि तकाल न आ याि मकता परािजत हो रह थी ।काम स दय क
उपासना राजदरबार का वीकृ त स य था और फारसी सा ह य और सं कृ त के भाव
से शृंगा रकता म एक नया रं ग ह घुल मल गया था । इस शृंगा रकता म ेम म
एक न ठ न होकर वलास क लालसा ह शेष थी । र तकाल के त न ध क व बहार
लाल भी र सक ह थे- ेमी क व नह ं । उनक ि ट बाहर वैभव और शार रक स दय
पर केि त रह है । राधा-कृ ण भि त उनके लए मान सक छलना के अ त र त और
कु छ नह ं है ।

15.2.2 जीवन प रचय

र तकाल न परं परा के स क व बहार का ज म सन ् 1595 म वा लयर के पास


बसु आ गो व दपुर नाम के गाँव म हु आ था । इनके पता का नाम केशवराय था ।
इनका बचपन बु दे लखंड म बीता और ववाह मथुरा म हु आ ।
कहा जाता है क पता केशवराय इ ह ओरछा ले गये । वहाँ इ ह ने हंद के ाकृ त
का य थ
ं का अ ययन कया और आगरा आकर उदू फारसी पढ़ । स कव
अ दुरह म खानखाना के संपक म रहे ओर क व कम क या त अिजत क । ये
शाहजहाँ के कृ पा पा भी रहे तथा जोधपुर, बूँद म भी इनका संपक रहा । वे आमेर

167
गए और जयपुर नरे श के साथ पटरानी अन तकुमार को अपनी का य- तभा से
भा वत कया । यह ं वे जयपुर नरे श के दरबार क व हो गए। यह भी स है क
जब राजा जय संह नव ववा हता प नी पर आस त होकर राजकाज से उदासीन हो रहे
थे तो बहार ने उ ह यह दोहा लखकर सचेत कया :-
न हं- परागु न ह मधुरमधु न हं वकास इ ह काल ।
अल कल ह स ब धयौ, आगे कौन हवाल।।
बहार क प नी सु श त थी और कहा जाता है क सतसई रचनाओं म उनका भी
योगदान था । आमेर म ह सतसई क रचना क । र तशा क शा ीय प तय म
उ होन वीणता ा त क और कु छ समय नरह रदास और पं. जग नाथ के साथ
का यमंथन म यतीत कया । बहार के कोई संतान नह ं थी । जीवन के अं तम वष
नराशा म यतीत हु ए । सतसई क या त ाि त के प चात ये पुन : मथुरा लौट आए
और यह ं पर सन ् 1664 ई. म इनका नधन हो गया ।

15.2.3 क व का यि त व व रचनाएँ

क ववर बहार लाल का यि त व का य शा के ाता बहु मानव और र सक


यि त के आदश पर न मत हु आ था । वे जीवन के भोग प को वीकृ त दे ते थे
और सं दाय क दलबंद से दूर रहते थे । वा तव म इनके यि त व का नमाण
सामंतवाद प रवेश म हु आ था । गँवई संवेदना से दूर ये नागर कला के यि त थे ।
वलास-ऐ वय इनके सं कार म बस गया था । ले कन जीवन अनुभव के कारण
सामािजक, राजनी तक ि थ तय पर कठोर यं य करने म नह ं चू कते थे। नंबाक
सं दाय म द त होने पर भी राम और कृ ण, नगुण और सगुण म भेदभाव न रखते
थे । यह कारण है क उनके पास एक अखंड रचनाकार का तेज वी यि त व था ।
रचनाएँ
सतसई
बहार क एक ह रचना ''सतसैया या सतसई'' नाम से मलती है । इस रचना को ह
'' बहार सतसई और '' बहार र नाकर'' भी कहा जाता ह । इस रचना म बहार के
मु तक परं परा के 713 दोहे तथा सारठे संग ृह त ह । इधर इस रचना के साथ इनके
तीन क व त और उपल ध हु ए ह तथा शेष रचनाओं क खोज जार है । गृं ार , नी त
और भि त के दोह से यु त इनक ''सतसई भाषा'' क सम त शि त एवं अथ के
पैनेपन को लए हु ए ह । बहार के दोहे अथ गढ़ होने के कारण ''गागर म सागर''
भरने वाल कहावत च रताथ करते ह । इस रचना के लए यह कहा जाता है क -
सतसैया के दोहरे , य ना वक के तीर ।
दे खन म छोटे लग घाव कर गंभीर।।
अथ क गहराई और व तार दोन ह गुण इनके दोह म पाए जाते ह । राधा-कृ ण का
र तकाल न प ना यका के भेद -उपभेद के साथ इस र त स क व के का य म

168
व यमान है । वशेष बात है क बहार ने अलंकार के उदाहरण के प म रचना
नह ं क , पर अलंकार क का य उपयो गता पर इनक ि ट बराबर केि त रह है ।
िजस कार का य परं परा के उदू शायर वद धतापूण शेर कहकर दरबार म वाहवाह
लू टते थे वैसे ह बहार दोहे क अथ शि त से दरबा रय को च कत कर यश पाते थे
। चम कार और अलंकार इनके दोह क छ व नह ं बगाड़ते बि क स दय म वृ करते
है ।
'' बहार सतसई'' का भाव ह द सा ह य पर काफ दूर तक पड़ा । इनके बाद सतसई
का यह आदर रहा क बड़े से बड़े क वय ने इस रचना पर ट काएं लखीं है । सतसई
र सक सं दाय और र तवाद क व सं दाय क तो कंठ माला ह बनती गई है ।
''सतसई'' क पहल ट का या ग य ट का कृ ण लाल ने क है । यह ट का सन ् 1662
ई. क है । दूसर ट का सन ् 1763 ई. म मान संह ने लखी है । तीसर ट का सन ्
1714 ई. म अनवर ने ''अनवर चं का'' नाम से क है । सन ् 1717 ई. म सु र त
म ने ''अमर चं का'' नाम से क है । 1777 ई. म ह रचरण दास ने ''ह र काश''
नाम से सतसई क स ट का क । उधर ल लू लाल ने खड़ी बोल ज म त
भाषा म ''लाल चं का'' नाम से ट का क । इसका पहला सं करण 1811 ई. म
नकला । वयं भारतदु बाबू ने सतसई पर कं ु ड लया भा य लखा । लाला भगवान द न
ने '' बहार बो धनी'' पं जग नाथ दास र नाकर ने '' बहार र नाकर'' प संह शमा ने
''संजीवन भा य'' लखा । '' बहार सतसई'' क भारतीय भाषाओं म भी अनेक ट काएं व
भा य का शत हु ए ह ।
गृं ारपरक सतसई परं परा मे बहार का थान सव प र है । उनक सतसई को गृं ार
परं परा म िजतनी- लोक यता ा त हु ई है उतनी अ य कसी सतसई को नह ं ।
बहार सतसई परं परा को भाव-भाषा दोन ि टय म ौढ़ता ा त है । मनोभाव,
प रि थ त व मनोदशा का च ण करने म वे समथ रचनाकार है । श द को इस ढं ग
से चु न-चु न कर यं याथपरक योग करते ह क उसम अथ लाव य और उि त व ता
पैदा हो जाती है । भाव क सघनता और अ भ यि त क कला मकता यह दोन
वशेषताएँ उनके रचना कम म व यमान रहती है । उनक श द व ता और वचन
व ता का अदभू त और रमणीय का य संसार है । ना यका के अनुभाव, हाव-भाव व
स दय का वणन बहार ने कु शलता से कया है । उदाहरणाथ :
बतरस लालच लाल क , मु रल धर लु काय ।
स ह करै, भौहन हंसे, दे न कहै न ट जाय।।
लाल क मु रल छपाने और उससे बतरस का आंनद पाने के साथ ने भौह क
याएँ ि थ त का यं य उभारती है । गृं ार के ऐसे सहज, व . चम कार वधायक
और आकषक च क '' बहार सतसई'' एक अनुपम च शाला है । भाव च म प
के साथ ग त के च अ धक ह । वयोग वणन म बहार क क पना अपने पंख खोल
दे ती है और वह वरहणी का ऐसा अ तशयोि तमय च खींचते ह क फारसी क वय

169
क वरहणी ना यकाओं का च फ का पड़ जाता है । ाकृ त भाषा और सं कृ त क
गाथा स तशती और आया स तशती का भावनुवाद ऐसे कर दे ते ह क मौ लक
सजना मकता का आनंद मलता है । बहार ने सतसई म गृं ार के अ त र त भि त,
नी त, र त, यो तष व अंकग णत स ब धी ब ब व च भी तु त कए ह ।

15.3 बहार - र त स कव
जो क व र तशा के ान का सहारा लेते थे और र त से बंधकर भी वतं रचना
करते थे उनम बहार का मु ख थान है। बहार के दोहे अपनी भाव वतं ता म
र तशा क जु गाल भर नह ं है बि क उनका चम का रक व वतं का य स दय भी
है। ले कन इस वतं ता का मेल र तमु त क वय क तरह भी नह ं ह य क
र तमु त क वय म दयगत भाव क वछं द अ भ यि त यादा वा त वक लगती ह।
सच बहार र तशा के वरोध म नह ं है ले कन र तशा के ऐसे दास भी नह ं है।
फलत: र त स कव बहार क वशेषता यह है क वे र तब क वय क भां त
र तशा के गुलाम नह ं है । आचाय व वनाथ साद म ने सह लखा है क
''शा ि थ त संपादन पा इनका ल य नह ं था । कह ं तो चम कार दशन के लए
ये उि तयाँ बाँधते थे और कह ं रसा भ यि त के लए र तशा म गनाई साम ी का
याग करके अनुभव और नर ण से ा त साम ी या नूतनता का सि नवेश करते थे
। वशेष ना यका या नायक के व प के लए जो शत शा म कह हु ई ह वे उप
ल ण मा ह अथात ् वे माग नदश के लए है । उनके सहारे नई-नई क पनाएं वयं
क व कर सकता है और भी बात वह ला सकते है ( बहार वाि वभू त पृ. 22) यह
मानी हु ई बात है क ल ण लेकर ह ल य थ
ं का नमाण होता है । ले कन
र तशा के लेखक र त थ
ं को ह सब कु छ समझते थे और यह क ठनाई काफ बड़ी
थी िजससे वे कभी छुटकारा नह ं पा सके । प रणाम व प वे ल ण के उदाहरण तो
जु टाते रहे पर तु वतं उ ावना न कर सके । बहार म नवीन उ ावना के बीज ह-
पर उनका व तार वे नह ं कर सके । दोहे म कला का कमाल है, पर भाव उपे त
नह ं है । अथ रमणीयता और भाषा का ना स दय बहार क रचना शि त का एक
वश ट प है ।
कृ ण भि त के गृं ार प ने भी बहार को खु ला े दया । आगे के क व र झे ह
तो क वताई ह, न तो ''रा धका का ह सुम रन को बहानो है'' इसी भाव- भू म का अथ
व तार है । यह भाव भू म इतनी स हु ई क ना यका भेद म च बढ़ने लगी
दरबार , अमीर के भवन म गृं ार का य गोि ठयाँ जमने लगीं और वशेष तरह का
''रस इन र त क वय नै तैयार कया ।
र तस क व बहार के दोह क द वार पर च कार भी हु ई उस पर ाकृ त भाषा व
वतं ना यका भेद क प त का भी रं ग दखाई दया । राजदरबार के फारसी प रवेश
ने बहार क मान सकता को भी भा वत कया है और उसक झलक भी उनके दोहे म
ि टगत होती है । जा हर है क र त स परं परा के बहार बडे नपुण क व है ।

170
15.4 का य वाचन तथा या या
1. अजौ तरयौना ह र यौ ु त सेवत इक - रं ग ।
नाक-बास बेस र लहयौ ब स मु कु तन क संग।।
श दाथ - अज = आज तक भी, अब तक भी । तरयौना- यह श द ि ल ट ह । इसका
अथ अधोवत है और दूसरा कण- भू षण वशेष, ु त = वेद क ु त; कान।। इकरं ग =
एक र त पर, अ वि छन प से।। बेस र = ना सका भू षण, वशेष मु कु तनु = जीवन
मु त स जन , मु ताओं ।
अवतरण- इस दोहे म क व बेसर का वणन करता हु आ लेष- बल से स संग क शंसा
करता है ।
अथ - क व कहता है क मनु य अ वि छन प से ु त (वेद) का सेवन करता हु आ,
आज तक भी तरयौना (अधोवत ) ह बना रहा, और बेसर (महा अधम ाणी) ने भी
मु त (जीवन- मु त स जन ) के संग बसकर नाक- बास अथात ् उ च पद ( वग-
नवास) को ा त कया ।
2. तौ पर कर उरबसी, सु न रा धके सु जान ।
तू मोहन क उर बसी, ह उरबसी- समान।।
श दाथ- उरबसी = उवशी अ सरा । उरबसी- दय पर पहनने का भू षण वशेष।।
अवतरण- रा धकाजी ने ीकृ णचं को अ य रत सु नकर मान कया है । सखी मान
छुडाने के न म त कहती है ।
अथ- हे वीण राधे! तू तो ऐसी सु दर है क और क कौन कहै, इ क अ सरा,
उवशी को भी म तु झ पर वार दूँ । तू तो मोहन के घर म दय म पहनने वाले भू षण
के समान होकर बसी है फर दूसर उनके घर म कैसे बस सकती है।।
3. कहत, नटत, र झत, खझत, मलत, खलत लिजयात ।
भरे भौन म करत ह. नैननु ह ं सब बात।।
श दाथ- मलत- मेल कर लेते है।। खलत- खल उठते ह, स नता कट करते ह ।
भौन भवन ।
अवतरण- इस दोहे म नायक व ना यका क चातुर से, आँख क चे टा ह के वारा,
दय के सब भाव को पर पर कट कर दे ने का वणन सखी- सखी से करती ह-
अथ- दे खो, कैसी चातुर से ये दोनो गु जन से भरे हु ए भवन म आँख ह म सब
अपने अभी ट क बात कर लेते ह । (अपने अ भ ाय पर पर कट कर दे ते ह कभी
कु छ कहते ह, कभी नटते ह, नषेध करते ह कभी र झते ह, कभी खीझते ह, कभी फर
मेल कर लेते ह. कभी खलते ह फुि लत होते ह, और कभी लजाते ह । इसम
संयोग- गृं ार क चे टाओं का मनोरम य उपि थत है ।
4. पाइ महावर दै न क ं नाइ न बैठ आइ ।
फ र फ र, जा न महावर , एडी मीड त जाइ।।
171
श दाथ- महावर - मेहंद के गाढ़े रं ग म ई को भल - भाँ त भगोकर नाइन गोल सी
बना लेती ह और पाँव म मेहंद लगाते समय वे इसे ह मल मल कर रं ग नचोड़ती
और लगाती ह । इसी ई क गोल को मेहंद (महावर- वट ) कहते है । मीड़ती जाइ-
मलती जाती है ।
अवतरण- स खयाँ नाइन का प रहास करती हई ना यका क एड़ी क ललाई क आपस
म शंसा करती ह-
अथ- पाँव म महावर दे ने को नाइन आकर बैठ । पर ना यका क एडी का रं ग ऐसा
लाल है क उसको उसम तथा मेहंद क गोल म कु छ भेद नह ं तीत होता, अत: म
के कारण वह एड़ी को फर फर, महावर क गोल समझकर, मलती जाती है।।
5. न हं परागु न हं मधु र मधु, न हं बकासु इ हं काल ।
अल , कल ह स बं यौ, आग कौन हवाल।।
श दाथ- बकासु = खलावट । हवाल = दशा । मधु = मकर द ।
अवतरण- इस दोहे म मर याज से क व कसी मु धास त को श ा दे ता है-
अथ- न तो इसम अभी पराग (पु प - रज अथात ् जवानी क रं गत), न मधुर मधु
(मीठा मकर द अथात ् सरसता) और न वकास. खलावट अथात ् यौवन के कारण अंगो
म फु लता ह ह । हे मर, तू ऐसी कं ु ज क कल ह से बंधा है (अपने सब कत य
छोडकर उसी म लवल न हो रहा है), तो आगे चलकर जब उसम पराग, मकरं द तथा
वकास का आगमन होगा, तो फर तेर या दशा होगी।।
इस दोहे म अ तु त कथन है, तथा मर के मा यम से जयपुर के राजा जय संह को
राजकाज म यान रखने का संदेश दया गया है ।
6. मंगलु बंद ु सु रंगु मु खु स स, केस र आड़ गु ।
इक नार ल ह संग,ु रसमय कय लोचन-. जगत।।
श दाथ- सु रंग- सु दर रं ग वाला । यहाँ इसका अथ लाल है । आड़ आड़ा तलक।।नार -
यह श द यहाँ ि ल ट है- (1) नार , ी । (2) चंडा, समीरा इ या द सात ना ड़य म
से कोई नाड़ी ।
अवतरण- ना यका के मु ख पर लाल ब दु तथा केसर क पील आड़ दे खकर नायक क
आँख अनुरागमय हो रह ह । अपनी इस दशा को वह वगत अथवा ना यका क कसी
अ तरं गी सखी से कहता ह-
अथ- लाल बंदु- पी मंगल, मु ख प च , एवं केसर क पील आड़- पी बृह प त
इन तीन ह को एक ह नार ( ी- पी नाड़ी) ने साथ ह ा त करके मेरे लोचन
पी जगत ् को रसमय (अनुरागमय जलमय) कर दया ।
7. द रघ साँस न ले ह दुख , सु ख साई हं न भू ल ।
दई दई य करतु ह, दई दई सु कबू ल।।

172
श दाथ- द रघ साँस- ल बी साँस, जैसी दुख म मनु य लेता ह । साई हं- वामी को ।
'कबू ल- वीकार करना।।
अवतरण- कसी वपि त त को उसका गु अथवा कोई म धैय दे ता हु आ कहता है
क-
अथ- तू इस वपि त म दई दई (हा दै व! हा दै व!) य कर रहा ह जो वपि त दै व ने
द है, उसको धैय धारण कर अंगीकृ त कर (अथात ् सहनकर) । तू दुख म ल बी साँस
ने ले, और सु ख म वामी को न भू ल।।
8. कागद पर लखत न बनत कहत सँदेसु लजात ।
क हहै सबु तेर हयौ मेरे हय क बात।।
श दाथ- कागद - कागज । सँदेसु - संदेश । लजात - ल जा, शम ।
अवतरण- े षतप तका ना यका ने प ी म अपने वरह का कु छ वृतांत यह बात जताने
के लए ( क जो कु छ लखा गया है, उससे वरह यथा क पूण यव था व दत नह ं
हो सकती) अंत म यह दोहा लख दया-
अथ- कंप, वेद, अ ु इ या द के कारण कागज पर तो वरह -वृतांत लखते नह ं
बनता, और संदेश कहते लजाता है । अत: म यह लखकर संतोष करती हू ँ क य द तू
वचार करे गा, तो तेरा दय मेरे दय क सब बात तु झसे कह दे गा (अथात ् अपने दय
क यथा से तु झको मेरे दय क स ची दशा का अनुमान हो जायेगा।।
9. थोर ह गुन र झते, बसराई वह बा न ।
तु महू,ँ का ह मनौ भए, आज काि ह के दा न।।
श दाथ- थोर - थोड़ा । बसराई - भु लाना । दा न - दान दे ने वाला । गुन - गुण ।
अवतरण- क व इस दोहे म, ीकृ णच को अपने पर न र झने का उलाहना दे ता
हु आ, बडी चातुर से, अपने समय के दा नय क अगुण ाहकता तथा अपना गुणा ध य
यंिजत करता है-
अथ- हे ीकृ ण, प हले तो तु म थोडे ह गुण पर र झ जाते थे, पर अब तु मने वह दान
( कृ त) बसरा द (भु ला द ), मान तु म परम उदार होकर भी आजकल के कृ पण दानी
हो गये हो।। 'थोरे ह गुन र झते' तथा 'भए आज काि ह के दा न' इन खंड - वा य से
यंिजत होता है क पहले तो तु म थोडे ह गुण पर र झ जाते थे, पर अब य य प
मु झम बहु त गुण ह, तथा प उस पर तु म नह र झते, जैसे क आजकल के दानी
कतना ह गुण हो, पर उसका आदर नह ं करते।।
10. प ा ह ं त थ पाइय या घर क चहु ँ पास ।
नत त पू यौई रहै. आनन- ओप- उजास।।
श दाथ- प ा= त थ प ।। चहु ँ पास = चार ओर।। पू य = पू णमा।।
अवतरण- ना यका के मु ख क शंसा सखी नायक से करती है, अथवा नायक वगत
कहता है

173
अथ- ना यका के साथ रहते हु ए त थ के जानने के दो साधन ह- एक तो त थ- प
और दूसरा चं मा के उजास होने का समय । प े से त थ पाई (जानी) जाती ह,
य क वहाँ तो मु ख क चमक के उजाले से न य त पू णमा ह रहती है,) िजससे
कस समय चाँदनी का उजाला आरं भ हु आ, यह ल त नह हो सकता।।
11. तं ी- नाद क ब त- रस, सरस राग, र त रं ग ।
अनबूडे बूढ़े तरे , जे बूडे सब अंग।।
श दाथ- तं ी नाद = वीणा इ या द का मधु र वर।। क ब त-रस = का य का वाद।।
सरस राग = रसीला नेह अथवा रसीला गाना।।अनबूडे =अनबूडे का अथ होता है ऐसे
लोग जो क तं ी नाद इ या द म हाथ तो डालते है, पर उनम डू बे नह ं ह ।
अवतरण- क व क ा ता वक उि त है-
अथ- तं ी-नाद, क व त- रस सरस राग तथा र त- रं ग म जो अनबूढ़े ह वे तो बुड़े
(न ट हो गए है), पर जो पूण र त से बूड ( व ट हु ए), {वे} तरे ( ा ताभी ट हु ए
सु धर गए) क व का ता पय यह है क तं ी- नाद इ या द पदाथ ऐसे ह, िजनम बना
पूण र त से व ट हु ए कोई आनंद नह ं मल सकता । य द इनम पड़ना हो, तो
पूणतया पड़ो नह ं तो इनसे दूर ह रहो।।
12. जपमाला, छापै, तलक सरै न एकौ कामु ।
मन काँचै नाचै वृथा , साँचै राचै रामु।।
श दाथ- जपमाला- जपने क माला।।छाप- छापे से, त त मु ा इ या द से । मन काँचै
= क चे मनवाला, ह बना स ची भि त वाला ह ।। साँचै = स ची भि त वाले ह ।
राँचै = रं िजत होता ह, स न होता ह।।
अवतरण- बनावट भि त पर क व क उि त ह-
अथ- जपमाला, त त मु ा द तथा तलक से एक भी (कु छ भी) काम नह ं सरता
( नकलता) य क ये सब तो ऊपर दखावा मा ह क चे मन वाला ह वृथा ( बना
कु छ लाभ के) नाचा करता है, ई वर तो स चे ह से रचता ह ( स न होता है)।।
13. आवत जात न जान यत, तेज हं तिज सयरानु ।
घरहँ जँ वाई ल ं घ य खर पूस - दन- मानु।।
श दाथ- सयरानु = शीतल हो गया, ठं डा पड गया।। घरहँ जँ वाई = घर का जमाई,
अथात ् वह जमाता, जो ससुराल म रहता हो ।
अवतरण- पौष मास के दन के छोटे होने का वणन क व, ससु राल म रहने वाले
जमाता का प रहास करता हु आ, करता ह-
अथ- पूस के दन का मान (1. माण । 2. त ठा) घर के जमाई क भाँ त भले
कार से ऐसा घट गया है क अब वह आता जाता जाना नह ं जाता; और तेज
(उ णता, वभाव क उ ता) को छोडकर ठं डा (शीतल या न ) हो गया है ।
14. म समु झयौ नरधार, यह जगु काँचो काँच सौ ।
174
एकै पु अपार त बं बत ल खयतु जहाँ।।
श दाथ- नरधार = न चय।। अपार = अनंत।।
अवतरण- यह कसी म ानी अ वैतवाद का वा य वगत अथवा कसी सतसंगी से
है-
अथ- मने तो यह न चय ( स ा त) समझा है क यह क चा (अस य) जगत ् कांच के
समान है जहाँ एक ह प (एक ह ई वर का प) अपार (अनंत प से) त बं बत
भा सत होता है । अथात ् जगत म िजतने दाथ दखलाई दे ते ह, वे सब एक ह ई वर
के अनंत प क आभा मा ह।।
15. कनक कनक त सौगुनौ मादकता अ धकाइ ।
उ हं खाऐं बौराइ इ हं पाऐं ह बौराइ।।
श दाथ- मादकता = उ मत करने क शि त । अ धकाइ = बढ़ जाता है । कनक- यह
श द लेष है, (सोना, धतूरा)
अवतरण- क व क उि त ह क वण अथात ् धन धतूरे से सौगुना अ धक उ मत करने
वाला है ।
अथ- मादकता म कनक (सु वण) कनक (धतू र)े से सौगुना बढ़ जाता ह; य क उसको
तो खाने से मनु य बौराता है, पर इसके पाने ह (पाने मा ) से बौरा जाता है।।
16. तिज तीरथ ह र- रा धका- तन दू त क र अनुराग ।
िज हं ज- के ल- नकं ु ज - मग, पग पग होत यागु।।
श दाथ- अनुराग - ेम । नकं ु ज - बाग-बगीचे ।
अवतरण- क व क उि त अपने मन से अथवा कसी जवासी भ त क उि त श य
से-
अथ- तू तीथ का छोड़ और ीकृ णच तथा ी रा धकाजी क उस तन- यु त
(शर र क कां त) म अपना अनुराग कर (लगा,) िजससे (िजस अनुराग के लगाने से)
ज के बहार- नकं ु जो के माग के पग पग पर याग (तीथराज) हो जाता है ( कट हो
जाता है) ।
भाव यह है क ीकृ णच तथा ी रा धका जी क याम तथा गोर छ वय से यमु ना
तथा गंगा तो वहाँ उपि थत है ह , उनम अनुराग के लगने से सर वती भी मल जाती
ह अत: यहाँ गंगा, यमु ना, तथा सर वती, तीन का संगम हो जाता ह और इस संगम
के कारण कं ु ज के त पग पर-पग याग कट होता है । ता पय यह क ी राधा
और ी कृ ण के यान म अनुराग करने से ज के कं ु ज के त रा ते पर याग राज
का फल ा त होता है, अत: तीथाटन का म उठाना यथ है । इसके अ त र त कसी
तीथ म जाने से एक ह तीथ का फल मल सकता ह, उ त व ध से, एक सामा य
तीथ क कौन कह, अनंत तीथ राज के फल सु लभ है ।
17. नर क अ नल- नीर क ग त एकै क र जोइ ।

175
जेतौ -नीची ह चलै, तैतौ ऊंचौ होइ।।
श दाथ - नल- नीर = फहारे के नल का पानी।। ग त = चाल, यव था।।
अवतरण- क व क वन यि त के वाभाव के त उि त है-
अथ- मनु य क तथा फुहारे के नल के जल क यव था एक ह करके (एक ह सी)
दे खो (समझो) । वह िजतना नीचा (न ; न नगामी) हो कर चलता है, उतना ह ऊँचा
( े ठ, उ वगामी) होता ह । इसी तरह वन वभाव का यि त भी समाज म उ च
पद ा त कर सकता है ।
18. अधर धरत ह र क परत ओठ- डी ठ- पट- जो त ।
हर त बांस क बाँसरु इ धनुश - रं ग हो त।।
श दाथ- अधर - ह ठ, धरत - रखना, पट - व ।
अवतरण- सखी ीकृ णच को बाँसु र बजाते हु ए दे ख आई है और ी रा धकाजी से
उसक शंसा करके उनको उसके दखाने के याज से ले जाना चाहती है । ह र के
सामी य से एक सामा य बाँसु र का इ धनुष के रं ग क हो जाना कह कर वह
यंिजत करती है क य द आप उनके समीप चलगी तो आपक लेमा भी बड़ी रं गील हो
जायेगी । वह ओंठ, ने तथा पट क यो त क बाँसु र के इ धनुष के रं ग क हो
जाना कहकर ी कृ णच के अधर क ललाई, ने क यामता एवं व के पीलेपन
का अ त चटक तथा भा दे ने वाला होना भी यंिजत करती है ।
अथ- ह र के अपने अधर पर बाँसु र धारण करते ह और उस पर उनके ओंठ, ि ट
तथा पट क यो त (झलक) पड़ते ह वह ह रत (हरे ) बांस क बाँसरु इ धनुष - रं ग,
(इ दधनुष के व वध रं ग क ), हो जाती है ।
19. भाल लाल बद , ललन आखत रहे बरािज ।
इ दुकला कु ज म बसी मनौ राहु- भय भाजी ।।
श दाथ- लाल बद = रोल अथवा स दूर क गोल ट पी ।। ललन = हे लालन, हे
ललन । आखत (अ त) = बना टू टे चावल, जो क पूजा इ या द म काम आते ह ।
कं ु ज = भीम अथात ् मंगल ह ।। भािज = भाग कर ।
अवतरण- ना यका ऋतु नान करके गौर , गणेश इ या द के पूजन से नवृ त हो म तक
पर लाल तलक धारण कए, वराजमान है । उस तलक म पूजन के अ त भी लगे
हु ए है । सखी नायक के पास जाकर उसक शोभा का वणन करती हु ई तलक को
मंगल तथा अ त को च कलाएँ ठहराकर एक हसं था वशेष पर यान दला कर
संयोग उपयोगी न समय को सू चत करती है। अथ- हे ललन, उसके भाल पर लाल
ब द म अ त ऐसे वराजमान है मान चं क कलाएँ राहु के भय से मु त होकर
मंगल ह म आ बसी ह।। क व ने अ त च मा क कलाएँ तथा लाल तलक को
मंगल ह ठहराया है ।

176
15.5 स संग या या के कुछ उदाहरण
क. मेर भवबाधा हरौ, राधा-नाग र सोइ ।
जा तन क झांई परै, यामु ह रत दु त होइ।।
संग- यह सतसई का थम दोहा है । इसको का यारंभ का मंगलाचरण समझना
चा हए । बहार ने इ ट दे वता के प म ''राधा नागर क तु त क है ।
या या- इस दोहे का एक सीधा अथ यह है क वह राधा नागर मेर सांसा रक
बाधाओं को दूर कर िजनके शर र क झांई या छाया पडने से ( याम ह रत) काले रं ग
के कृ ण स न चत हो जाते है । इस दोहे का दूसरा अथ यह है क वह राधा नागर
मेर सांसा रक भव बाधाओं को दूर कर, िजनके शर र मा का यान करने से पाप
न ट हो जाते ह और मन म काश छा जाता है ।
वशेष- इस दोहे के भ न- भ न अथ कए जा सकते है । बहार क कला वद धता
को दे खते हु ए ल लापरक अथ भी कया है । ल लापरक का अथ है क वृ दावन म रास
ल ला करते हु ए राधा कृ ण जब एक हो जाते है । तो कृ ण के शर र क नील झलक
तथा राधा के शर र क पील कनक (छ व) क झलक मलने से हरे रं ग का आभास
होता है । िजसे पाकर भ त के दय हरे भरे हो जाते है ।
बहार के रं ग का ान यह अ टम उदाहरण है क नीला तथा पीला रं ग मलाने से हरा
रं ग वन जाता है ।
''झाई'' '' यामु'' ''ह रत'' पद म लेष ह ।
झाई श द का अथ - झख झलक - कां त आ द है । ह रत यु त के दो अथ ह- हर
यु त से यु त या हर गई िजसक अथात ् यु तह न - दोन पर पर वरोधी अथ एक
साथ नकलते है ।
र तकाल न गृं ार क ि ट को समझने के लए यह दोहा उस जीवन दशन को
मू लाधार तु त करता है ।
ख. अधर धरत ह र क, परत ओठ-डी ठ पर जो त ।
ह रत सांस क बांसु र , इ धनुष रं ग हो त।।
संग- ी कृ ण क साव भक आकषण मु ा भंगीमु ा ह । बहार ने इसी मु ा का
इस दोहे म वणन कया ह वंशी वादन करते हु ए ी कृ ण क इस मु ा पर क व का
च त अनुर त रहा ह । बहार कहते है क यह रं ग- बरं गी अ मा लोक चत को मु ध
कर लेती है ।
या या - िजस समय ी कृ ण अधर पर मु रल रखकर बजाने को तु त होते ह उस
समय क अदभूत छ व इ धनुष के रं ग क भां त रं ग- बरं गी आभा बखेर दे ती है ।
इस आभा म वंशी का हरा सा, अ त का नल रम, आंख का याम और पर (पीता बर)
का पीला रं ग मलकर चम कार उ प न कर दे ते ह ।
वशेष

177
क. इ धनुष के सात रं ग माने जाते ह । कं तु यहाँ चार रं गो का ह वणन ह इस हे तु
क दो या याएँ ह ।
1) इन चार रं गो के मेल से अ य तीन रं ग भी सहज ह झलक उठते ह । 2)
इ धनुष से रं ग- बरं गी छ व का अथ लेना अ धक साथक तीत होता है ।
ख. नचले ओठ अधर तथा ऊपर के ओठ को ''ओ ठ'' कहते ह । अधर श द का अथ
आकाश भी है । इस ि ट से इ धनुष ओठ पर स दय बखेरता ह ।
ग. पूरे दोहे म त गुण अलंकार ह ।
घ. ''हो त'' या ी लंग म ह । अथ का अ नय होगा- ''बांसु र इ धनुष रग हो त'
। प ट है क यह बंशी क रं गी- बरं गी आभा का वणन ह । मु रल , कृ ण क
नाद शि त है । कं तु यह कथन सखी का ना यका के त माना जा सकता है ।
व य कृ ण नह ं है, वंशी है
ग. उड़त गुडी ल ख लाल क , अंगना अंगना मांह ।
बौर सी दौर फर त छुव त छवी छांह।।
संग- अ हड़ कशोर पड़ोस के युवक से ेम करने लगी ह । वह अवसर पाकर कभी-
कभार नायक से ने संवाद तथा च चाह का आनंद भी ले लेती है । एक दन उसका
य पतंग उडा रहा था । उस पतंग क छाया ना यका के आगन म पड़ रह थी । उस
पतंग क छाया को दे खकर ना यका इतने ेमवश म आ गई क वह पतंग क छाया
को पश से ह रोमा चंत होने लगी । यहाँ पर एक सखी कसी अ य सखी से ना यका
के उ माद और असाि त का वणन कर रह है ।
या या- नायक क पतंग ना यका के घर के ऊपर उड़ रह थी और उस पतंग क
छाया ना यका के आंगन म पड़ने लगी । उस छाया को दे खकर वह छबील ना यका
मानो पागल हो गई हो । उस छाया को छूने के लए वह छाया के पीछे भागती रह ।
उसे लगता था क मानो छाया के पश कर लेगी, तो वह नायक के पश के समान
सु खकर होगा ।
वशेष- यहाँ ना यका ने नायक के दशन का आनंद तो पाया है, कं तु पश सु ख से वह
वं चत रह है ।
इस दोहे म उ माद दशा ( वरह क एक दशा वशेष) का बंब है ।- िजसे चपलता और
पागलपन के संचार भाव ने अनुभू त क ईमानदार म ढाला है ।
''आगंन'' पद क दो बार आवृि त से यमक अलंकार होता है । ''बोर सी दोर फर त'
म उपमा तथा ''छुबत छरौल छांह' म अनु ास अलंकार है । र तकाल के वलासी
वातावरण म पतंग उड़ाना, कबूतर पालना, बटे र लड़ाना, नठ ले सामंत कशोर का
य यसन था । इस सु ग म का यशा . का आभास समा त होता जा रहा था । इस
कार यह दोहा उस पतनशील प रवेश पर क व क बड़ी साथक ट पणी है ।
श दाथ-गुडी - पतंग । ल ख- दे खकर । लाल- य । अंगना- ी का घर । बौर -
पागल । दौर - भागती हु ई । छुव त- पश ।

178
घ. न हं पराग, न हं मधु र मधु न हं वकास इ ह काल ।
अल , कल , ह सौ बं यौ. आगे कौन हवाल ।
संदभ- यह दोहा '' बहार सतसई से लया गया ह । इसके रचनाकार क ववर बहार
लाल ह ।
संग - बहार का यह इ तहास स दोहा है । यह माना जाता है क बहार ने यह
दोहा राजा जय संह के पास लखकर भजवाया था । राजा इस दोहे के भाव स दय से
बहु त भा वत हु आ था । और उसने नवोढ़ा रानी के वलाय से अपने को सावधान कर
लया गया था । इसक इस दोहे से आंखे खु ल गई और उसने क व को स मान स हत
रा या म दया । क व ने अ योि त अलंकार क सहायता से ु मर के त कह गई
युि त को नायक पर भी लागू कया ह । य क राजा अपने सभी कत य को भू लकर
नावोढ़ा बाला ना यका के वलास म डू बा रहता था ।
या या - हे मर, यह अभी तो कल ह । इसम ने तो अभी पु प का पराग ह न
मधुर रस है और न ह इसका अभी पूर तरह वकास ह हु आ है । अभी से तू इस
कल पर आस त होकर बा गया है । आगे चलकर जब यह कल फूल बनेगी तब तेर
आसि त का या हाल होगा?
वशेष - इस दोहे म अ योि त अलंकार का का य स दय ह जहाँ तु त अथ धान हो
वहाँ अ योि त अलंकार होता है ।
बहार ने राजा को कोरा उपदे श न दे कर का या मक शैल म अथ यंजना से उपदे श
दया है । उ ह यान हे क क वता मा उपदे श नह ं है वह सामा य कथन होकर
वशेष कथन ह । समथ क व उपदे शक नह ं होता, वह तो अथ संकेत या भाव- भं गमा
से बात करने म नपुण होता ह ।
बहार क का य भाषा ( जभाषा) म अथ क गहर कसावट ह । येक श द म एक
वशेष अथ व न ह । ''हवाल श द अरबी श द'' हाल'' का त व बहु वचन ह । मू ल ह-
''अहवाल'' । इस तरह के श द दरबार म अरबी फारसी के भाव मौजू द थे और लोक
भाषा म कु ल मलकर चल - पड़े थे । इन श दो के योग से का य भाषा म वशेष
रचना मक पैदा हु ई है ।
''अल कल '' म छे कानु ास है । ''आगे कौन हवाल'' म व ोि त है । ''माधुर मधु'' म
यमक अलंकार ह ''न ह'' श द क तीन बार आवृ त अथ के मक उ कष क योतक
है । ''बं यौ'' का अथ ल ण श द शि त से लेना पडता ह । अथात ् हर समय उसके
संयोग मे रहना, णभर भी उससे अलग न होना । रस लोभी मर के बंब से रज
लोभी राजा क अंधी आसि त को तु त कया गया है ।
भोगवाद सामंतवाद क अंधी वासना पर यह एक इ तहास स का योि त है ।

15.6 सारांश
बहार र तकाल न र त स का यधारा के मु ख क व रहे ह । उनके वारा र चत
बहार सतसई युगीन प रवेश व मान सकता का सश त माण ह । साथ ह बहार

179
क व वता का भी । बहार सतसई ने भि त, नी त, र त, गृं ार, अ या म दशन,
व ान, अंकग णत व यो तष सभी वषय को आधार बनाकर एक यापक भावभू म व
त काल न समाज क पृ ठभू म को तु त कया है ।

15.7 अ यासाथ न
1. बहार को र त स कव य कहा जाता ह?
2. बहार -सतसई के का य स दय को ववे चत क िजए ।
3. न न दोहो क स संग या या क िजए-
1. भाल लाल बद , ललन आखत रहे बरािज ।
इ दुकला कु ज म बसी मनी राहु- भय भािज।।
2. कनक कनक त सौगुनौ मादकता अ धकाइ ।
उ हं खाऐं बौराइ इ हं पाऐं ह ं बौराइ।।

15.8 संदभ थ
1. संपादन डॉ नगे - ह द सा ह य का वृहद इ तहास, नागर
चा रणी स म त, वाराणसी
2. ह द सा. का इ तहास - नेशनल पि ल शंग हाउस, द ल
3. डॉ नगे - र तका य क भू मका
4. डॉ महे कु मार - ह द सा ह य का उ तरम यकाल आय बुक
डपो, करोल बाग, नई द ल
5. डॉ ब चन संह - बहार का य का नया मू यांकन - ह द
चारक सं थान, वाराणसी
6. डॉ रामसागर पाठ - मु तक पर परा और बहार , अशोक काशन,
नई सड़क, द ल
7. व वनाथ साद म - बहार क वाक वभू त वाणी वहान काशन,
मनाल, वाराणसी
8. रामच शु ल ह द - ह द सा ह य का इ तहास, काशी नागर
चा रका सभा. काशी

180
इकाई-16 बहार के का य का अनुभू त और अ भ यंजना

इकाई क परे खा
16.0 उ े य
16.1 तावना
16.2 जीवन-प रचय : दे श-काल और प रवेश म कृ त व
16.3 बहार वारा च त ेम और सौ दय का व प
16.4 संयोग- च ण
16.5 वयोग- च ण
16.6 संयोग और वयोग-दोन म क पना और भावना क समाहारशि त
16.7 बहार का अ भ यंजना-प
16.7.1 भाषा क समास-शि त और बहार क जभाषा
16.7.2 बहार क अ तु त-योजना और उपमान- वधान
16.8 एक अ यंत सचेत कलाकार के प म मू यांकन
16.9 श दावल
16.10 सारांश
16.11 अ यासाथ न
16.12 संदभ थ

16.0 उ े य
इस इकाई को पढने के बाद आप :-
 बहार के वा त वक मह व को समझ सकगे,
 बहार के यि त व और कृ त व क समु चत जानकार ा त कर सकगे,
 एक गृं ा रक क व के प म बहार क ि थ त को समझ सकगे,
 बहार के ेम और सौ दय भावना से प र चत हो सकगे,
 बहार के संयोग- च ण क वशेषताओं क परख कर सकगे,
 बहार क का य- श प स ब धी वशेषताओं क पहचान कर सकगे,
 एक सचेत कलाकार के प म बहार का सम मू यांकन कर सकगे ।

16.1 तावना
इससे पूव आपने 15वी इकाई म बहार के दोह क या या के मा यम से उनक
क तपय वशेषताओं क जानकार ा त कर ल है । इस इकाई म बहार के यि त व
और कृ त व क स पूण वशेषताओं से प र चत कराने का यास कया जाएगा । इससे

181
पूव बहार से स ब एक वशेष त य क ओर आपका यान आकृ ट करना आव यक
लगता है ।
ह द का य-जगत म बहार एक मा ऐसे क व ह, िज ह अपनी अ यंत अ प रचना
के बावजू द बहु त अ धक या त मल है । इ ह ने सात सौ दोह से यु त एक मा
'सतसई' क रचना क है । सा ह य के अ येताओं के बीच इस रचना को ह द क
महान रचना रामच रतमानस के समान लोक यता मल है । इसके फल व प मानस
क भाँ त 'सतसई' क भी सवा धक ट काएँ और या याएँ क गई ह । बाबू
जग नाथदास र नाकर ने अपनी ट का, बहार र नाकर के पूव ट काओं का व तृत
प रचय दया है । आ खर या कारण है क इसक इतनी सार ट काएँ लखी गई ।
मेरे याल से इसका सबसे मह वपूण कारण है बहार के दोह क अपार भाव- मता,
जो एक या या का अ त मण कर दूसर , तीसर चौथी या याओं के लए अवकाश
उपि थत करती है । म बंधु ओ,ं प संह शमा, लाला भगवानद न और र नाकर जी क
या याओं के तु लना मक अ ययन वारा हम इस त य से आसानी से प र चत हो
सकते ह । कई या याकार ने सतसई के दोह के भाव को क व त, सवैया कं ु ड लया
जैसे ल बे छं द म बांधने क को शश क है । ले कन एक छोटे से दोहे का भाव बड़े
छं द म बांधा नह ं जा सका ।
एक अ त सचेत कलाकार के प म बहार ने सं कृ त, ाकृ त और अप ंश क समूची
का य-पर परा को नचोड़ कर आ मसात कया था । उसे अ य धक मपूवक अपने
एक-एक दोहे म पाकार दया और इसके साथ अपनी बु -कौशल का म ण कया ।
यह 'सतसई' के आकषण का कारण बना । अपने 20-25 वष के रचनाकाल म मा
सात सौ दोह के रच यता बहार ने अपनी संगो ावना, क पना क समाहार शि त
और भाषा क समास-शि त के मा यम से अपने को अमर बना लया । इन त य को
हम आगे यथा- थान ववे चत- व ले षत करगे ।

16.2 जीवन प रचय : दे श-काल और प रवेश म कृ त व


आचाय रामच शु ल के अनुसार बहार का ज म वा लयर के पास बसु वा गो व दपुर
गांव म संवत 1660 व मी और मृ यु लगभग 1720 व मी को हु ई थी । ये
त थयाँ बहार र नाकर और क ववर बहार के रच यता बाबू जग नाथदास र नाकर के
वारा नधा रत क गई ह, िजसम आचाय शु ल ने थोड़ा-बहु त प रवतन कर दया है ।
अब तक के अ ययन से यह स हु आ है क बहार माथुर चौबे थे । उनके पता का
नाम केशव दे व या केशव राय था और पतामह का नाम वासु देव था । इनका बचपन
वा लयर, युवाव था ससु राल मथु रा म यतीत हु ई थी । यह ं से वे जयपुर के राजा
जय संह के दरबार म गए थे । िजस समय ये राजदरबार म पहु ँ चे उस समय राजा
जय संह अपनी छोट रानी के ेम म म त होकर राजकाज से वमु ख हो गए थे ।
सरदार क सलाह पर बहार ने न न ल खत दोहा राजा साहब के पास भजवाया :

182
''न ह पराग- न हं मधु र मधु नह ं वकास य ह काल ।
अल कल ह स बं यो, आगे कौन हवाल ।
कहा जाता है क इस दोहे से भा वत होकर रानी के ेमजाल से मु त हो राजा साहब
बाहर नकले । उ ह ने बहार को पूरा स मान दे कर अपना राज-क व बनाया । सतसई
के अ धकांश दोहे इसी राज-दरबार म लखे गए ।
बहार का समय हासो मुख राजाओं का समय था । इसम के य राज-स ता मु गल
के हाथ म थी । राजे-महाराजे अपनी अिजत स पि त का उपभोग ऐशोआराम क
िज दगी जीने म कर रहे थे । नत कय , वे याओं, पं डत -पुरो हत के साथ क व-
कलाकार, नतक-वादक भी राजदरबार क शोभा वन चु के थे । भखार दास, म तराम,
दे व, प ाकर क भाँ त ह बहार भी राज-दरबार क शोभा बने थे । इस कार के
राजा य ने अपनी रं गत म क वय को भी पूर तरह डु बो दया था । अ य र तब
क वय क भाँ त बहार ने आचाय क व बनने के मोह म का य-ल ण पर आधा रत
रचना तो नह ं क , ले कन ना यका भेद, अलंकार, रस आ द के ल ण को उ ह ने
अ छ तरह अ ययन के मा यम से स कर लया था । अत: इनके दोह म ये
तमाम ल ण द लत- ा ा क भाँ त नचोड़ कर रख दए गए ह । चूँ क बहार ने
का य-ल ण का अ धानुगमन नह ं कया था, इस लए ना यका, अलंकार आ द के
व प के अ त मण क झलक भी इनके दोह म मलती है । फल व प बहार के
दोह म ना यका के व प, अलंकार के ल ण को लेकर उनके अ येताओं म बराबर
मतभेद उभरता रहा ह । इस लए बहार सतसई क अनेक ट काएँ लखी गई । इस
मतभेद या अंतर को आगे यथा- थान हम दे खने का यास करगे ।

16.3 बहार वारा च त ेम और सौ दय का व प


ेम और सौ दय-दोन ह अपने श दाथ म एक भाव ह । ले कन यवहार के ठोस
धरातल पर ये दोन भाव म त होकर व तु न ठ हो जाते ह । दोन क ि थ त दूसरे
के बना स भव नह ं होती । जो सु दर है, वह य होता है । अत: यता के लए
कसी व तु का सु दर होना ज र है । सौ दय क इस व तु न ठता का वा त वक
माण है क वह ेमी के आकषण का हे तु और के दोन बन जाए । इसक दो
ि थ तयाँ हो सकती, ह, एक म वह शार रक तर पर टका रह कर भौ तक आकषण
बना रह सकता है तो दूसर ि थ त म भौ तक का अ त मण कर आि मक प धारण
कर लेता है । यहाँ यान दे ने क ज रत है क अ या य र तब क वय क भाँ त
बहार का ेम भी पहले ह धरातल पर ि थत है, वह भौ तक धरातल से ऊपर नह ं
उठ पाता । भौ तक धरातल से ऊपर उठने क माँग के पीछे यहाँ अलौ कक तर क
माँग नह ं है । इसका इतना ह अथ है क ेम वारा दय को यापक बनाने वाले
काश से जोड़ा जाए ।

183
इस ि ट से दे ख तो र तब क वय के साथ बहार का ेम भी अनेक कार के दाँव-
पच, लु का- छपी क ि थ त के कारण एक कार का ड़ा-कौशल वन गया है ।
वा त वकता यह है क अनेक कार के सामािजक व ध- नषेध के कारण ये क व
खु लकर ेम नह ं कर सकते थे और न ह इनके युग म अ य के लए ऐसा संभव था
। इस लए इ ह सोच-समझ कर फूँ क-फूँ क कर इस माग पर कदम रखना पड़ा और
अ य लोग से छपकर अपना काम पूरा करना पड़ा ।
इसके वपर त र तमु त का याधरा के क वय ने डंके क चोट पर घो षत कया :
''लोक क लाज औ सोच लोक को बा रये ी त के ऊपर दोऊ ।
लोक क भी त डेरात जे मीत तौ ी त के पडे परै ज न कोऊ ।''
-बोधा
''अ त शो नेह को मारग है जहँ नेकु सयानप बाँक नह ं ।
तहँ सींचे चल तिज आपनपौ झझक कपट जे नसांक नह ।''
-घनानंद
इन क वय ने ेम को एक नई मयादा दान क , िजसम लोक- नब मा यताओं के
अ त मण का अदभू त साहस था ।
बहार जैसा सचेत और मेधावी क व ेम क वा त वक मह ता से प र चत था । इस
वषय म उ ह ने लखा है :
'' ग र त ऊँचे र सक मन, बूडे जहाँ हजार ।
वहै सदा पशु नरन को, ेम पयो ध पगार ।
यहाँ बहार ने एक ओर पवत के समान ऊँचे हजार र सक को गहराई तक डू ब जाने
वाला कह कर शं सत कया है वह ं दूसर ओर पशु के समान मनु य को ेम क
छछल तलैया समझने वाला मान कर नि दत कया है । ेम क गंभीरता का च ण
करते हु ए बहार ने लखा है.
''चटक न छाँड़त घटत हू ँ स जन नेह ग भीर ।
फ को परै न, ब फटै, रँ यो चोल रँ ग चीर।।
स जन यि त का ेम चोल रं ग (प के लाल रं ग) म रं गे हु ए व क तरह चटक है
जो फट जाने पर भी कम नह ं होता । ले कन बहार के साथ ह इस काल के र त
क व न तो उ च को ट के र सक ह थे और न ह स जन । अत: बहार ने यहाँ एक
प रपाट - व हत ेमादश का उ लेख मा कया है । वे एक नागर च के क व रहे ह
। इ ह ने ेम और सौ दय के च ण म अ धकांशत: अपनी नागर च का ह प रचय
दया है । सौ दय- च ण के कु छ उदाहरण से यह त य प ट हो जाएगा:
1. 'सहज सेत पँचतो रया प हरत अ त छ ब हो त ।
जलचादर के द प ल , जगमगा त तन जो त ।''
2. ''अंग अंग छ ब क लपट, उपट त जा त अछे ह ।

184
खर पातर उ तऊ, लगै भर -भर सी दे ह ।''
3. ''प ा ह त थ पाइयत वा घर के चहु पास ।
नत त औ ह रहै, आनन ओप उजास ।''
ऐसे अनेक उदाहरण सतसई से तु त कए जा सकते ह, यह ं सव समू चे शर र या
शर र के वशेष अंग के सौ दया ध य का च ण कया गया है । इस कार के
सौ दय पर आधा रत ेम का व प भी ऐसा ह ड़ापरक होगा । इकाई सं या 19
म घनान द के ेम और सौ दय च ण से इसे मलाकर दे खा जाए तो दोन के अ तर
के मा यम से बहार क एत वषयक ि ट क यूनता को आसानी से समझा जा
सकता है ।

16.4 संयोग- च ण
अ या य र तब क वय क भाँ त बहार म भी वयोग क अपे ा संयोग- गृं ार के
त अ धक ललक दखाई पड़ती है । संयोग- गृं ार का मू लाधार शार रक आकषण है ।
व तु त: यह आकषण केवल शर र क बाल शोभा तक सी मत न होकर अनेक हाव
भाव , अंग-भं गमाओं, वा चक वकार तक फैला हु आ है । इस ि ट से दे ख तो बहार
का मन ड़ापरक ेम म बहु त अ छ तरह रमा है । फल व प सतसई म हाव-योजना
अथवा अंग-भं गमाओं के वणन मलन- संग म छाये हु ए ह । आचाय रामच शु ल
ने बहार क िजस हाव-योजना क भू रश शंसा क है, उसके पीछे भी ड़ापरक ेम
क ह भू मका मु ख है । अत: संयोग गृं ार क ि ट से बहार क हाव-योजना पर
अ धक व तार से वचार करना आव यक है ।
हाव के अ तगत आने वाल यल-सा य चे टाओं क आकषण- मता वत: स है ।
ामीण श दावल म कहना चाह इसे नखरा त ला कह सकते ह । न न ल खत
कहावत म इनक अपार आकषण- मता को अ यंत कौशल के साथ इस कार रे खां कत
कया गया है:
'एक हु न आदमी, हजार हु न कपड़ा ।
लाख हु न जेवर, करोड़ हु न नखरा ।''
बहार के का य म इस न कष को अ यंत भावी ढं ग से अं कत कया गया है ।
इसके लए न न ल खत उदाहरण को दे खा जा सकता है:
1. ''तृबल , ना भ दखाइ क सर ढ क सकु च समा ह ।
गल , अल क ओट है ् चल भल व ध चा ह।।''
2. ''बतरस लालच लाल क मु रल धर लु काय ।
स ह करै भ ह न हँ स,ै दै न कहै न ट जाय।।''
3. ''ऐंच त सी चतवन चतै भई, ओट अलसाय ।
फर उझक न क मृगनय न ग न लग नया लाय।।''
4. ''कहत, नटत, र झत, खझत. मलत, खलत. लिजयात ।

185
भरे भीन म करत ह नैननु ह ं स बात।।''
पहले दोहे म सामना होते ह वह (ना यका ने) संकोच के कारण घूघ
ँ ट डालने के बहाने
हाथ उठाकर अपनी मनोहर बल और ना भ मु झे दखलाते हु ए, सखी क आँख बचा,
मेर ओर आँख भरकर दे खती हु ई गल म चल गई । दूसरे उ रण म ना यका ने
बतरस (बातचीत से उ प न आनंद) के लोभ से नायक क बाँसरु छपा कर रख द है
। नायक के मांगने पर कसम खाती है, भौह म हँ सकर आ वासन दे ती है और फर
दे ने क बात मानकर इनकार कर दे ती है । तीसरे उदाहरण म मृगनयनी ना यका
नायक को अपनी आक षत करने वाल ि ट से दे खकर इस लालसा से ओट म हो
जाती है क पुन : नायक खड़क से उझक कर उसे दे खने का यास करे । चौथे
उदाहरण म क व ने अ य लोग से भरे -पूरे घर म नायक और ना यका वारा ने के
मा यम से स पूण वातालाप को स प न कराया है । बहार अपने युग के सभी
क वय क अपे ा इस ग त व ध म अ धक मा हर ह । इस कार क बहु त सार
ग त व धय के मा यम से उ ह ने संयोग- गृं ार का च ण कया है । इसके साथ ह
आँख मचौनी, लु का- छपी जैसे खेल , ना यका क गोद से ब चा लेने के बहाने उसक
छाती का पश, कभी-कभार तो नायक वारा उड़ा' जाने वाल पतंग क अपने आंगन
म पड़ने वाल छाया को ह ना यका पागल क भाँ त दौड़-दौड़ कर छूते हु ए ह सु खी हो
जाती है । इस कार के संयोग- च ण के पीछे मु ख कारण है ेम के े म
सामािजक व ध- नषेध । र तब क वय के लए ल णानुसार का य-रचना क वृि त
ने ेम के े को संकु चत कर दया था । फल व प ये लोग सु जान हत (घनानंद),
वरह बार श (बोधा) या ठाकु र ठसक (ठाकु र) जैसी ेमाधा रत रचना नह ं कर सके,
िजसम ेम का यापक प उभर कर सामने आता । यह संकुचन इनके वयोग- च ण
म भी दखाई दे ता है, िजस पर हम आगे वचार करगे ।

16.5 वयोग- च ण
संयोग क भाँ त वयोग के च ण म भी बहार क ि ट ाय: बा याथ न पक ह
रह है । यहाँ दूसर यान दे ने क बात यह है क संयोग क अपे ा वयोग- च ण म
बहार पर परा का अ धक अनुगमन करते हु ए अपनी मौ लकता का प रचय नह ं दे
सके ह । इस त य को हम बहार के वयोग- च ण पर वचार करते हु ए आसानी से
समझ सकगे । वयोग क ि थ त को दे खते हु ए व वान ने इसके चार कार
नधा रत कए ह । पूवानुराग , मान, वास और चौथा क ण, िजसम खि डता ना यका
का स पूण आ त रक और बा याचार आ जाता है । वैसे कु छ आचाय ने पूवानुराग को
गंभीर वयोग के अनुपयु त माना है । ले कन एक ल बे समय तक चलने वाले
पूवानुराग म वयोगा मक ती ता का उदय वाभा वक हो जाता है ।
जहां तक मान का संबध
ं है इसके भी दो प ि थर कए गए ह । इनम एक को
णयमान और दूसरे को ई यामान क सं ा द गयी है । णयमान नायक को वश म

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रखने क एक कू टनी त है िजससे इसे एक ड़ा मक प मल जाता है । अत: वयोग
क कसी वा त वक ि थ त का आ वभाव इसम संभव नह ं होता । इसके लए बहार
का एक उदाहरण दशनीय है-
''सतर भ ह, खे वचन, करत क ठन मन नी त ।
कहा कर है जा त ह र हे र हस ह द ठ।।
यह ं सखी ने नायक के दय म ना यका के त ेम को ढ़ बनाने के लए मान
करने क पूर श ा द है, ले कन ना यका अपनी असमथता कट करते हु ए कहती है
क हे सखी म कसी तरह भ ह को टे ढ़ कर लेती हू ँ बात को खी और मन को
कठोर बना लेती हू ँ । ले कन उ ह दे खते ह मेर स नता सू चक हँ सी कट हो जाती
है । इससे प ट है क णय-मान एक तरह क ेमपरक ड़ा है, जो ेम को उ ी त
करती है ।
ई या मान के च ण म बहार का च त अ धक रमा है । इसके अ तगत उ ह ने
खि डता ना यका क यं य-भावना और ती आ ोश को अ छ तरह से अं कत कया
है । इसके लए कु छ उदाहरण अपे त ह:
1. ''कत बेकाज चलाइयत चतुराई क चाल ।
कहे दे त यह रावरे सब गुन बनगुन माल।।''
2. ''पल न पीक, अंजन अधर, धरे महावर भाल
आज मले सू ं भल कर , भले बने ह लाल।।''
पहले उदाहरण म मानवती खि डता ना यका नायक को अपने यं य-बाण वारा
ता ड़त करती हु ई कहती है क अपनी चतु राई क चाल को अब छोड़ दो, य क
तु हारे व थल पर बना धागे क माला का नशान तु हारे सभी गुण ( वपर त
ल णा से दोषो) का बयान बखू बी कर रहे ह । यहाँ बन गुन माल से अ भ ाय
ना यका के गाढ़े आ लंगन से उसक मो तय क माला के नायक के व थल पर उपट
हु ई छाप से है । दूसरे उदाहरण म नायक क पलक पर पीक (पान का रं ग), उसके
ओत पर अंजन का दाग और म तक पर लगे महावर को दे खकर ना यका उसके
अपराध को ल त कर इस पर यं य करते हु ए अपना आ ोश कट करती है क
अ छा कया जो आज मु झसे मलकर तु मने इस छ व के दशन कराए । यहाँ नायक
क आँख पर पान पीक और अधर पर अंजन क ल क से नायक और उसक े मका
के पर पर चु ंबन को संके तत कया गया है । माल पर महावर का अ भ ाय है क
उसने े मका क म नत करने के लए उसके महावर यु त चरण पर माथा रगड़ा है
। इस कार के अनेक च ण बहार 'सतसई' म हु ए ह । पलक म पीक, अधर पर
अंजन, म तक और उं ग लय म महावर, व थल पर नख त, अधर पर दं त त, बाँह
पर चोट के नशान आ द पर परागत ढ़यां ह, िजनके अ य धक योग से खि डता
के यं य क मा मकता के थान पर चम कार दशन ह अ धक मह वपूण हो गया है
। खं डता ना यका के संदभ म ये ढ़याँ अ य धक ाचीन काल से चल आ रह ह ।

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इसका ाचीनतम प वा यायन के कामसू म मलता ह । का लदास के रघुवश
ं म
प रभोग म डन के प म इसका व तृत च ण हु आ है । रघुकु ल के अं तम तथा
वलास-वासना म आकंठ म न राजा अि नवण के संबध
ं म का लदास ने लखा है :
'' े य दपणतल थमा मनो राजवेशम त श शो भनम ् ।
व ये न स तथा यथा युवा य त प रभोगमंडनम ्।।''
अथात वह राजा इ के व से भी सु दर अपने राजसी-व को दपण म दे खकर
उतना स न नह ं होता था िजतना अपने शर र पर लगे संभोग च ह को दे खकर ।
कामसू और बाद म चलकर 'आयास तशती' (गोवधन), गाथा स तशती (हाल) तथा
'अम शतक' (अम क) जैसी रचनाओं म इन ढ़य का अनुगमन मलता है । इ ह
'प रभोग म डन' के साथ ह कोप वधायक मंडन क सं ा भी द गई है । बहार -
सतसई' म एक थान पर नख त का मौ लक योग इस कार कया गया है:
'' तय नय हय जु लगी चलत, पय नख-रे ख-खर ट ।
सू खन दे त न सरसई, ख ट-ख ट खत-ख ट।।''
वास के लए चलते समय य वारा लगायी गयी नाखू न क खर च को ना यका
न च-न च कर उसे हरा बनाए रखती है, ेमा तशय वश लगी उस खर च को कभी
सू खने नह ं दे ती । र तका य म इस भाव से संबं कोई उदाहरण नह ं मलता । इसम
ि य वारा ह नख त लगाने का उ लेख हु आ है । कामसू म नख त लगाए जाने
के अवसर म वास के पूव का समय वशेष मह व का माना गया है । बहु त संभव है
बहार ने कामशा ीय थ
ं या सं कृ त क कसी अ य उि त से ेरणा ले कर इस
दोहे क रचना क हो । य क बहार के समय तक पु ष ने नाखू न संवारना बंद कर
दया था ।
यहाँ तक तो हु आ खि डता ना यका के च ण का संग । आगे बहार के वास- वरह
क चचा भी कर लेनी चा हए ।
वयोग के अ तगत वास- बरह को सवा धक गंभीर माना गया है । ना यका से
वयु त होकर नायक का कह ं दूर थान पर एक ल बी अव ध के लए गमन करना
ना यका के लए वास- वरह माना गया है । इस वयोग क दस दशाएँ मानी गयी ह,
िजनम संताप, पीलापन, दुबलता, अ च, अधीरता, अि थरता, त मयता, उ माद, मू छा
आ द क गणना क गई है । मरण अं तम दशा है, िजसे दशम दशा का नाम दया
गया है और सा ह य-शाि य , ने सा ह य म इसके समावेश का नषेध कया है ।
संताप या वरह- वर का च ण र तका य म पया त मा ा म हु आ है । बहार क भी
इस ओर वशेष वृि त रह है । इसके लए कु छ उदाहरण दशनीय ह :
1. ''आड़े दै आले बसन जाड़े हू ँ क रात ।
साहस ककै सनेहबस सखी सबै ढग जात।।''
2. ''औंधाई सीसी सु ल ख वरह बर त बलला त ।
बीच हं सू ख गुलाब गौ छ ंटौ छुई न गात।।''

188
पहले उदाहरण म वरह- वाला से जलती हु ई ना यका के पास अ य धक नेहवश जाने
वाल स खयाँ जाड़े क रात म भी गीले कपड़े क ओट म जा पाती ह । दूसरे उदाहरण
म तो बहार ने वरह-ताप के च ण म हद ह कर द है । यहाँ गुलाब जल क पूर
बोतल वर हणी के ऊपर उड़ेल दे ने पर भी उसके शर र पर एक छ ंट भी नह ं पहु ँ च
पाती । सारा गुलाब जल शर र पर पहु ंचने के पहले ह भाप वन कर उड़ जाता है ।
वरह-ताप क वाभा वता का पूणत: उ लंघन करते हु ए बहार यहाँ तक कह जाते ह
क नायक जब वर हणी ना यका के गाँव के नकट पहु ँ चता है तो जाड़े के मौसम म
वह ं गरम लू चलते हु ए दे खकर व वास कर लेता है क ना यका अभी िज दा है । इसी
कार दुबलता के च ण म भी बहार ने अ तशयोि त क सीमा का उ लंघन कर
दया है:
1. कर बरह ऐसी तऊ गैल न छाँडत नीच ।
द ने हू चसभा चख न चाहै लखै न मीच।।
2. ''इत आवत, च ल जा त उत, चल छ सातक हाथ ।
चढ़ हंडोरै स रहै लगी उसासनु साथ।।''
पहले उदाहरण म वरह के कारण ना यका इतनी दुबल हो गयी है क मृ यु अपनी
आंख पर च मा लगाकर भी उसे दे ख नह ं पाती । दूसरे उदाहरण म अ त दुबलता के
कारण उ वास छोड़ते हु ए ना यका छ: सात हाथ आगे और साँस खींचते हु ए छः-साथ
हाथ पीछे चल जाती है । लगता है क वह हंडोले पर झू ल रह है । यह ि थ त
अि थरता, त मयता, उ माद आ द के च ण म भी दखाई दे ती है । सा ह य शाि य
वारा व णत दशम दशा अथात ् मरण का च ण भी बहार ने कया है:
1. ''कहा कहाँ बाक दसा ह र ानन के ईस ।
बरह वाल ज रबो लख म रबो भयो असीस।।''
2. ''कहे जु वचन वयो गनी वरह वकल वललाय ।
कए न को अँसु वा स हत सु वा त बोल सु नाय।।''
पहले उदाहरण म बरह- वाला म जलती हु ई ना यका क ि थ त से अवगत कराते हु ए
उसक सखी नायक से कहती है क अब तो मर जाना ह उसके लए आशीवाद लगता
है । यहाँ क णो पादन वारा नायक को ना यका के अनुकू ल बनाने का यास है । इस
मरणास न दशा के साथ बहार ने दूसरे दोहे म ना यका क मृ यु का भी च ण कर
दया है । वरह से याकु ल होकर मरते हु ए ना यका ने जो वचन कहे थे, उसे
गृहपा लत तोते ने पुन : सु नाकर वहाँ शोक जताने के लए उपि थत लोग को अ ु पू रत
कर दया ।
वयोग च ण म अ धकांशत: बहार ने अ तशयोि तय का ह सहारा लया है, िजसम
वेदना मकता के थान पर बाहर नाप-जोख पर ह उनक ि ट अ धक केि त रह है
। ले कन वरह-वणन म, जहाँ वे अ तशयोि तय से बच पाए ह, वहाँ उनक का य-

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तभा का समु चत प रचय भी मलता है । इसके लए कु छ उदाहरण दे खे जा सकते
ह :
1. ''अजौ न आए सहज रँ ग वरह दूबरे गात ।
अब ह कहा चलाइयत ललन चलन क बात ।
2. ‘कर के मीड़े कुसु म ल ं गई बरह कुि हलाय ।
सदा समी प न स खन हू ँ नी त पछानी जाय।।'
पहले उदाहरण म परदे श से ज द ह वापस आने वाले नायक के पुन : परदे श जाने क
बात को लेकर ना यका क सखी नायक से कहती है क अभी तक वरह से दुबल हु ए
ना यका के शर र क वाभा वक रं गत भी नह ं आ पाई है और आप पुन : जाने क
बात करने लगे ह । उस वयोग म तो बेचार क यह दशा हु ई, पता नह ं इस दूसरे
वयोग म उसक या दशा होगी? दूसरे दोहे म हाथ से मसल दए गए फूल क तरह
मु रझाई हु ई ना यका क ि थ त ऐसी हो गई है क सदै व समीप रहने वाल स खय
वारा भी क ठनाई से पहचानी जाती है । यहाँ वर हणी क सखी वारा उसक वषम
दशा का वणन पूर संवेदनशीलता के साथ नायक के सामने उपि थत हु आ है । अत:
ऊपर के दोन ह उ रण म वरह क मा मकता स दय पाठक क संवेदना को भी
समु चत प से जागृत करती है।

16.6 संयोग और वयोग. दोन म ह क पना या भावना क


समाहार-शि त
बहार क का य- तभा और त ठा का एक मु य आधार है, उनके वारा क पना
और भावना क समाहार शि त । एक मु तककार के लए आचाय रामच शु ल ने
इस व श टता को अ नवाय माना है । ह द के मु तककार के बीच यह वशेषता
बहार म सवा धक है । उनके संयोग और वयोग वणन म हमने इस त य को बखू बी
दे खा-परखा है । क व क इसी वशेषता के कारण उसे गागर म सागर भरने वाला कहा
गया है । सतसई के दोह क भाव मता को रे खां कत करते हु ए ाय: कहा जाता है:
'सतसैया के दोहरे , य नावक के तीर ।
दे खन म छोट लग घाव कर गंभीर।।''
यहाँ नावक के तीर का अथ है ऐसी ब दूक िजसक नल म बा द के ऊपर नुक ले लोहे
के टु कड़े रख कर दागा जाता है । छोटे होने के बावजू द ये टु कड़े गंभीर चोट करते ह ।
इस ब ब के सहारे बहार के दोह क ममबेधी मता को अ छ तरह उजागर कया
गया है । वैसे तो आपने इकाई सं या 15 म बहार के कुछ दोह क या या म दे ख
लया होगा क उ ह ने एक छोटे से छं द म संदभ, संग और या या के लए एक
ल बी-चौड़ी क पना और भाव-संपदा का समावेश कया है । संयोग और वयोग के
च ण म इसी इकाई म बहार क भाव क समाहार-शि त से प रचय भी ा त कर

190
लया होगा । फर भी कु छ नये उदाहरण के मा यम से हम इस वा त वकता को पुन :
आपके सामने उजागर करने का यास करगे । इसके लए उदाहरण है:
1. ''जद प ल ग ल लतौ तऊ, तू न प ह र इक आँक ।
सदा संक ब ढ़यै रहै, रहै चढ़ सी नाँक।।''
2. ''बेधक अ नयारे नयन, बेधत कर न नषेध ।
बरबस बेधत मो हयो तो नासा को बेध।।''
थम दोहे म वा चतु र धृ ट नायक क उि त ना यका को संबो धत है । बहार के
कु छ ट काकार ने इस दोहे म उि ल खत नाक म ल ग वारा उसके सहज सौ दय क
वृ का हवाला दया है ले कन लाला भगवानद न और बाबू जग नाथ दास र नाकर
जैसे बहार के नम या याकार ने इसे खि डता ना यका का संदभ दे कर नायक क
झू ठ चालबाजी और धृ टता का प रचायक माना है । यह ं वा त वक संदभ यह है क
नायक वारा पर- ी-गमन के कु कृ य से प र चत होकर अपनी नाराजगी कट करने
के लए ना यका ने मान कर रखा है । मान म बनाव- गृं ार के सभी उपकरण उतार
दए जाते ह । चू ं क ना यका ववा हता- वक या है, अत: उसने मान के लए तो नाक
का आभू षण उतार दया है । ले कन एक सु हागन के लए नाक का आभू षण वह न
रहना अशुभ माना जाता है । इस लए उसने अशु भ के प रहार के लए नाक म ल ग
डाल रखा ह । आज भी ि यां सफाई के लए नकफूल आ द उतारने के बाद नाक म
सींक या ल ग आ द डाल लया करती ह । तु त दोहे म अपराध- त नायक ना यका
क चढ़ हु ई यौर से यह तो समझ जाता है क उसने मान कया है । ले कन इस
वा त वकता को छपाने के लए उससे कहता है क य य प तु हार नाक म ल ग भी
सु दर लगती है, फर भी मेरे वचार से तु ह ल ग नह ं धारण करना चा हए । य क
लग क चराहट से तु हार नाक कु छ तन जाती है, िजससे मु झे आशंका होती है क
तु मने मान कर रखा है । यहाँ वाकचतुर धृ ट नायक के च र का कु शलतापूवक अंकन
कया गया है । ऊपर दया गया दूसरा उदाहरण या या क ि ट से बहु त अ धक
ववादा पद है । इसका सामा य अथ तो यह हु आ क तेरे नुक ले ने , जो मेरे दय
को बेधते ह, उ ह तू मना मत कर, बेधना उनका काम है, जो मु झे अ छा लगता है ।
ले कन आ चय तो यह है क तु हार नाक का छे द (बेध), जो वयं व है और
नुक ला भी नह ं है, वह भी बरबस (जबरद ती) मेरे दय को बेधता है अथात अ छा.
लगता है । बहार के दोन मम समी क , लाला भगवानद न और जग नाथदास
र नाकर से लेकर तमाम या याकार ने इसे सहज सौ दय और सवाग सु दरता का
उदाहरण माना है और नाक का छे द भी सौ दय का एक अ भ न अंग बना है । ले कन
बहार क मू ल कृ त और वृि त को दे खते हु ए मु झे यह या या ठ क नह ं लगती ।
वैसे भी नाक कान इस लए नह छदवाए जाते क उनके छे द सु दर लगगे । व तु त:
आभू षण वारा इन अंग क सौ दयवृ के उ े य से इ ह छदवाया जाता है । आज
भी कसी युवती या म यवय वाल ी के आभू षण र हत इन अंग को दे खकर ाय:

191
च तनीय ि थ त का एहसास होता है । इन सारे त य को यान म रख कर दे खा
जाए तो बहार के इस दोहे म भी नायक क धृ टता व वचनचतु रता के साथ ह
ना यका का खि डता प ह हमारे सामने आएगा । यहां ना यका पहले उदाहरण क
भाँ त वक या ववा हता न होकर परक या-अ ववा हता है । इसने सारे आभू षण के
साथ नाक का आभू षण भी अपना मान य त करने के लए उतार दया है । चूँ क यह
ववा हता नह ं है, अत: इसके लए सु हाग- च ह के प म नाक म ल ग या स क
डालने क ज रत नह ं है । ले कन इसक मु ा से मान को भाँप कर वचनचातु र से
अपने पर- ी-गमन के अपराध पर नायक परदा डालना चाहता है । फलत: उसके ने
क आकषण मता क अ तो उसके नासा-बेध (नाक के छे द) क आकषण- मता को
और अ धक बताता है । उपयु त त य के आधार पर नि चत प से यह कहा जा
सकता है क बहार म व तृत क पना और भाव के समाहार क अपूव मता है ।
यहाँ गो वामी तु लसीदास क यह उि त 'अरथ अ मत ल ख आखर थोरे ' ह द का य
जगत म बहार पर ह सवा धक संगत तीत होती है । यह गागर म सागर भरने के
रह य को भी उ घा टत करती है ।

16.7 बहार का का य : अ भ यंजना-प


16.7.1 भाषा क समास-शि त और बहार क जभाषा

इससे पूव हमने इस इकाई के 16.6 म मु तक रचना क सफलता के लए क पना


एवम ् भाव क समाहार शि त के मह व पर वचार कर लया है । मु तक क
सफलता का दूसरा उपकरण भाषा क समास-शि त है, िजस पर बहार का पूरा
अ धकार था । इस अ धकार के लए सं कृ त भाषा और उसके याकरण का अपे त
ान आव यक है । सं कृ त समास- धान भाषा है, िजसके याकरण म सम त पद
रचना के नयम दए हु ए ह । बाबू जग नाथदास ‘र नाकर’ ने व तार के साथ इस
त य का न पण कया है क बहार ने सं कृ त, ाकृ त, अप श
ं के याकरण क
सहायता से अपने लए सा हि यक जभाषा का एक यवि थत ढाँचा तैयार कया था ।
इसी या म उ ह ने ज भाषा को भी समास-यु त बनाने का यास कया । इनक
सम त पद-रचना के लए र नाकर जी के साथ ह आचाय रामच शु ल ने भी इनक
शंसा क है । इस समास धान भाषा पर पूण आ धप य के कारण ह बहार को
गागर म सागर, भरने का गौरव ा त हु आ है । बहार वारा शु एवम ् प रमािजत
जभाषा के योग के वषय म र नाकर जी ने लखा है ''यह बात मु तकंठ से कह
जा सकती है क जैसी प रमािजत भाषा लखने म बहार समथ हु ए वैसी जभाषा के
क वय म न तो कोई उनके पूव लख सका और न उनके प चात । ह बहार के बाद
आन द घन जी ने अपनी क वता म शु तथा सा यस प न ज भाषा यु त करने
का य न कया और वे बहु त कु छ कृ तकाय भी हु ए । इससे प ट है क बहार क
भाषा शु और याकरण-स मत जभाषा है ।

192
जहाँ तक समास के योग का न है, र नाकर जी ने प ट प से रे खां कत कया
है क 'सतसई' के अ धकांश दोह म समास का योग बड़ी सु दरता से हु आ है । इसे
समझने के लए कु छ उदाहरण दशनीय ह:
1. ''खौ र-प नच मृकुट -धनुपु ब धक सम , तिज का न ।
हनतु-त न-मृग तलक-सर-सु रक-भाल भ र ता न''
2. ''समरस-समर सकोच-बस- बबस न ठक ठहराइ ।
फ र- फ र उझक त फ र दुर त दु र दु र उझक त आइ।।''
पहले उदाहरण म सांग अभेद पक क सृि ट करते हु ए क व ने लखा है क ''खौर
पी प नच वाले भृकु ट पी धनुष को भरपूर तान कर कामदे व पी याध बना कसी
रोक-टोक के नशंक होकर सु रक पी भाल वाले तल? पी बाण से त णजन पी मृग
का शकार करता है ।'' यह अथ दोहे का पदा वय मा है । इसम यु त श द के
अथ को जानकर ह वा त वक अथ प ट होगा । खौ र ललाट पर लगाया जाने वाला
आड़ा तलक है और प नच धनुष क डोर है । खौ र प नच म बहु ी ह समास है, जो
भृकु ट पी धनुष का वशेषण है । ब धक- शकार , तिजका न-मयादा वह न होकर,
सु रक-नाक के ऊपर लगे उस तलक को कहते ह, जो भाले के आकार का होता है ।
माल-भाला अथवा तीर का फलक, यहाँ सु रक-भाल भी खौ र प नच क भाँ त ह सम त
पद है और यह पद तलक पी सर का वशेषण है, भ र ता न-भरपूर तानकर । इस
अथ को जानने के बाद स दय पाठक के स मु ख एक आड़ा खड़ा लगाए स न पवती
युवती का साकार च उपि थत हो जाता है, जो युवक के मारक आकषण का के
बनी हु ई है । यहाँ धनुष -बाण से लैस शकार और उसके उ मु ख शकार के लए
तु त मृग का अ तु त य आ द क वक पना क सरणशीलता और सरणशील
क पना के उदाहरण माने जा सकते ह । बहार के संदभ म आचाय रामच शु ल ने
िजसे क पना क समाहार शि त कहा है, वह भाषा क समास-शि त के बना संभव
नह ं है ।
दूसरे उदाहरण म काम-भावना और संकोच-ल जा के वशीभू त म या-परक या ना यका
क ववशता को च त करते हु ए क व ने लखा है क ना यका नायक को अपनी
खड़क से दे खकर ेमा भभूत हो गई है । वह कभी खड़क से उझककर नायक को
दे खती है, ले कन नायक वारा दे ख लए जाने से लि जत होकर छप जाती है । काम
और ल जा के बराबर दबाव (समरस) के कारण वह बार-बार दे खने के लए उझकने
और छपने और फर नायक तथा अ य लोग क ि ट से बच कर उझक कर दे खने
का यास करती है । काम भावना और ल जा के म य झू लती हु ई म या ना यका
र तब क वय के आकषण का के रह है, िजसका बहु त व तार से उ ह ने अंकन
कया है । बहार ने अपने एक छोटे से दोहे म भाषा क समास-शि त के मा यम से
उसक कृ त को अ यंत सं ेप म पूर तरह उजागर कर दया है ।

193
16.7.2 बहार क अ तु त-योजना और उपमान- वधान

यहाँ अ तु त-योजना से ता पय अलंकार-योजना से ह है । का य म अलंकार क


अ नवायता न होने के बावजू द अ धकांश क वय ने इसका योग कया है ।
भावा भ यि त म भाषा क असमथता के कारण इनका योग आव यक हो जाता है ।
घनानंद आ द जैसे कु छ गने-चु ने क व हु ए ह, िज ह ने कम-से-कम अलंकार का सहारा
लेकर भाषा क ल ण- यंजना शि तय , वशेषण , ला णक मू तम ता, योग-
वै च य, वरोध-वै च य आ द के सहारे अपने गृह त भाव क साथक और सफल
अ भ यि त क है । इस ि ट से बहार का भाषा-प दुबल माना जा सकता है ।
ले कन अ य र तब क वय क भाँ त बहार ने ल णानुसार अलंकार न पण तो
नह ं कया है, ले कन का य शा ीय परं परा के अपने यापक अ ययन के मा यम से
िजस कार उ ह ने नायक ना यका भेद क कृ त और व प को आ मसात कया था,
ठ क उसी कार अलंकार के प- व प क वे पूर जानकार रखते थे । इसी लए उ ह
र त स क व माना गया है । अलंकार क कृ त के आधार पर दो भेद कए गए ह-
श दालंकार और दूसरा अथालंकार । जब श दालंकार और अथालंकार संयु त हो जाते
ह, तो उसे उभयालंकार क सं ा द जाती है ।
श दालंकार के अ तगत वे अलंकार आते ह, जो श द के चम कार से अथ म वृ
करते ह । इसके अ तगत अनु ास , यमक, लेष आ द क गणना क जाती है ।
अनु ास का एक उदाहरण इस कार है :
'रस संगार मंजन कए कंजन भंजन दै न ।
अंजन रं जन हू ँ बना गंजन खंजन नैन ।''
व तु त: यह ं न वण क अनेक आवृि त से समा व ट अनु ास केवल चम कार मा
उ प न कर पाता है । वह कमल या खंजन प ी के मान-मदन से कोई गंभीर अथ क
सृि ट नह ं कर पाता । इसी तरह यमक का एक उदाहरण है:
''तो प बार उरबसी सु न रा धके सु जान ।
तू मोहन के उर बसी है उरबसी समान।।
यह ं 'उरबसी' श द क आवृि त से यमक अलंकार क ि थ त वीकार क गई है ।
ले कन अलंकार शाि य वारा नधा रत सीमा का इसम अ त मण मलता है । यहाँ
दोहे के चार चरण म उरबसी श द का योग न होकर केवल पहले, तीसरे और चौथे
चरण म ह हु आ ह, अत: उसे यमक का सट क उदाहरण नह ं माना जा सकता । यहां
इस त य को यान म रखना चा हए क बहार ने शा ीय ल ण का अ धानुगमन
नह ं कया है । अत: कह -ं कह ं वे ल ण के दायरे से बाहर भी गए ह । इसके लए
एक दूसरा उदाहरण दशनीय होगा:
''अधर धरत ह र के परत ओत द ठ पट जो त ।
ह रत बाँस क बाँसरु इ धनुष रं ग हो त।।''

194
इसे ाय: त गुण अलंकार का उदाहरण माना जाता है । ले कन त गुण अलंकार म
गौण व तु मु य व तु का प हण कर अपने प-रं ग को याग दे ती है । जैसे लाल
हथेल पर रखे वेत मोती का मू ंगे के प म दखायी दे ना । यहाँ हरे बाँस क बाँसु र
अपना हरा रं ग नह ं यागती । अतः इसे त गुण अलंकार का सट क उदाहरण नह ं
माना जा सकता । हम बहार के ना यका भेद-वणन म भी इस त य को दे ख आए ह
क उसम वक या-खं डता, परक या-खि डता या म या के प को लेकर मतभेद क
काफ गु ज
ं ाइश है ले कन इतनी छूट लेने के बावजू द बहार ने अलंकार के सट क
योग पर काफ यान रखा है । जैसे लेष का एक उदाहरण है :
''अजौ तरौना ह रहयौ सु त सेवत इकअंग ।
नाकबास बेसर लहयौ ब स मु कतन के संग।।
यहाँ तरौना (कान का एक आभू षण और तर न सका), ु त (कान और वेद), नाकबास
(नाक म नवास और वग म नवास), मु कतन (मो तय के साथ और मु त या
स जन लोग के बीच) आ द के ि ल ट योग से लेष नामक श दालंकार क सृि ट
हु ई है । साथ ह स संग त के मह व को भी यहाँ कु शलता के साथ त बि बत कया
गया है ।
आचाय रामच शु ल ने अथालंकार के योग म बहार क नपुणता को रे खां कत
करते हु ए लखा है: '' कसी- कसी दोहे म कई अलंकार उलझे पड़े ह, पर उनके कारण
कह ं भ ापन नह ं आया है । असंग त और वरोधाभास क ये मा मक और स
उि तयाँ कतनी अनूठ ह :
1. '' ग उरझत छत कुटु म, जु रत चतुर चत ीत ।
पर त गाँठ दुरजन हए दई नई यह र त।।''
2. ''तं ी-नाद क ब त रस, सरस राग र त रं ग ।
अनबूड़े , बूड़े , तरे जे बूड़े सब अंग।।''
पहले उदाहरण म उलझने (लगने) का काम तो ने करते ह ले कन टू टता है प रवार
यानी कारण कह ं और काय कह ं अ य म असंग त दखायी दे ती है । दूसरे उदाहरण
म तं ीनाद और क वता के रस म जो नह ं डू बते वे तो डू ब जाते ह यानी नरथक हो
जाते ह ले कन जो डू ब जाते ह उनका बेड़ा पार हो जाता है । यह वरोधाभास के
मा यम से क य क सफल अ भ यि त हु ई है । वैसे उपमा क अपे ा बहार क
ि ट उ े ा म अ धक रमी है । इनक मनोरम उपे ाओं के कु छ उदाहरण दशनीय ह:
1. ''सोहत ओढ़े पीत पट याम सलोने गात ।
मनो नीलम न सैल पर आतप परयौ भात।।''
2. ''चमचमात चंचल नयन बच घूघ
ँ ट पट झीन ।
मानहु सु रस रता वमल जल उछरत जु ग मीन।।''
3. '' छ यौ छबीलो मु ख लसै नीले अंचल चीर ।
मनो कला न ध झलमलै का लंद के नीर।।''

195
इन उ े ाओं के मा यम से मश: सलोने शर र, चंचल ने और सु दर मु ख को
सफलता के साथ त बि बत कराया गया है । व तु त: उपमा क अपे ा बहार क
उ े ा- यता के पीछे न हत वा त वकता को समझने के लए गो वामी तु लसीदास
क इससे संब मा यता पर एक नजर डालना अ धक उपयोगी हो सकता है ।
तु लसीदास जी के लए जब सीता के सौ दय वणन क सम या सामने आई तो उ ह ने
लखा क ''सब उपमा क व रहे जु ठार , के ह पट तर बदे ह कु मार ।'' ऐसी ि थ त म
उनक ि ट उ े ा क ओर गई और सीता के सौ दय को पा यत करने के लए
उ ह ने उ े ा का दामन पकड़ा:
''सु दरता कहँ सु दर कह ह ं, छ ब-गृह द प सखा जनु बरई ।''
व तु त: उपमा म उपमान ाय: पर परा- वीकृ त होते ह, िजसका उपयोग बड़ी आसानी
से कया जा सकता है । ले कन उ े ा म उपमान क पना त होते ह, अत: उनम
ताजगी और अनूठापन होता है । इसे गो वामी जी ने इस कार भी रे खां कत कया है,
'उपमा सकल जूठ मो ह लागीं ।' इस वा त वकता को समझ कर ह बहार ने उ े ा
का सहारा लया है । वैसे ' बहार सतसई' म ह द -का य-जगत म यु त होने वाला
ऐसा कोई अलंकार नह ं है, िजसका उदाहरण न मले । ले कन अ योि त के योग म
इ ह काफ सफलता मल है:
1. ''न हं पराग न हं मधु र मधु न हं वकास इ ह काल ।
अल कल ं ह स बँ यौ आगे कौन हवाल।।''
2. '' वा थ सु कृ त न म वृथा दे ख बहंग वचा र ।
बाज पराए पा न प र तू प छ नु न मा र।।''
उपयु त दोन दोहे अ योि त के अ छे नमू ने ह, जो बहार और उनके आ यदाता
जय संह से जु ड़े हु ए ह । पहले उदाहरण के मा यम से बहार ने राजा जय संह को
अपनी नवप रणीता रानी के आकषण जाल से मु त कर राजकाज के त समु चत
यान दे ने के लए े रत कया था । दूसरा दोहा उस समय का है, जब वे मु गल
स ाट शाहजहाँ के प म ह दू राजाओं का संहार कर रहे थे । इसको लेकर उनके
आ यदाता क काफ न दा हो रह थी । यहाँ तक क शवाजी ने भी इसके लए उ ह
फटकारा था । पहले उदाहरण म कल के साथ भँवरे क ववशता और दूसरे उदाहरण
म शकार के हाथ म पड़कर अपनी जा त के प य का वध तथा जय संह का
शाहजहाँ क जीत के लए अपने ह प वाल ( ह दुओं ) का संहार बड़े ह सट क ढं ग से
अ योि त का उदाहरण माना जा सकता है । इनक सांके तक अथव ता अ य त
मा मक है । अ योि त का मतलब होता है जो श द के मा यम से कहा जाए उससे
एक अ य या भ न अथ क भी ती त हो सके और यह अ य अथ ह मु ख हो जाए
। इससे प ट है क बहार ने क तपय यूनताओं के बावजू द अपने समसाम यक
क वय क अपे ा अ तु त- वधान म अ धक सावधानी बरती है ।

196
16.8 एक अ यंत सचेत कलाकार के प म मू यांकन
इस ओर पहले भी कई बार संकेत कया जा चु का है क बहार एक अ य त सचेत
कलाकार थे । इसका आशय यह है क उ ह ने अ य त सावधानी के साथ अपने क य
और उसे य त करने क कार गर पर वचार कया था । अपने ल बे रचनाकाल म
उ ह ने केवल सात सौ दोहे लखे । अत: आसानी से इस बात का अनुभव कया जा
सकता है क उ ह ने अपने एक-एक दोहे के नमाण म कतना म और समय खच
कया था । एक तरफ उ ह ने सं कृ त, ाकृ त तथा अप श
ं सा ह य और उनके
याकरण क समु चत जानकार ा त कर जभाषा के सा हि यक व प को यवि थत
करने का यास कया तो दूसर ओर उनक भावगत एवम ् कलागत ढ़य को
आ मसात कर अ यंत सचेत प से उनके याग और हण का ववेक ा त कया ।
अपने इस समूचे ववेक के साथ वे रचनाल न हु ए ह ।
यह सह है क इस सचेतनता को अ तशय जाग कता क सं ा नह ं द जा सकती ।
इसे आज के सु धी अ येता ह नह ,ं वरन ् समसाम यक र तमु त क वय ने भी अ छ
नगाह से नह ं दे खा था । घनानंद क यह मा यता क 'लोग ह ला ग क व त बनावत'
अथात र तकाल के अ धकांश क व लगकर, पूर तरह ठ क-बजाकर, जोड़-तोड़ कर
यासपूवक क वता बनाते ह । इस त य को और अ धक प टता से य त करते हु ए
र तमु त क व ठाकु र ने लखा क 'सी खल नो मीन, मृग , खंजन, कमल' नैन अथात
ने के लए मछल , मृग , खंजन प ी, कमल आ द के पर परागत उपमान क श ा
लेकर आने वाले क वय को ठाकु र ने 'क व त क रबो खेल क र जा यौ है अथात
उ ह ने क वता को एक ड़ा-कौशल मान लया ह । मा र तब क वय के स ब ध
म ह नह ,ं वरन बहार जैसे र त स क वय के वषय म भी उ त मा यता उ चत
तीत होती है । बावजू द इस ड़ा-कौशल के बहार ने र तकाल न का य के
अ येताओं को अपनी ओर सवा धक आकृ ट कया ।
आधु नक काल के आर भ म बहार और दे व को लेकर म बंधु ओं तथा प संह शमा
के म य हु ए वं व के साथ ह लाला भगवानद न, बाबू जग नाथदास र नाकर से लेकर
आचाय व वनाथ साद म तक बहार पर अपनी जान छड़कते रहे ह । आचाय
व वनाथ साद म ने तो नःसंकोच भाव से यह घो षत कर दया था क क वता
केवल र तकाल म लखी गयी, म यकाल और आधु नक काल म धा मकता और
वैचा रकता के वारा उसके व प को पूर तरह आ छ न कर दया गया । ' बहार
सतसई' क पचास-साठ ट काएँ इसके माण के प म तु त कर द जाती ह ।
ले कन आचाय रामच शु ल ने, ' बहार सतसई' क रचना के लगभग दो सौ वष
बाद, उसका समु चत मू यांकन करते हु ए लखा है।
'' बहार क कृ त का जो बहु त अ धक मू य आँका गया है, उसे अ धकतर रचना क
बार कय , का यांग के सू म व यास क नपुणता क ओर ह मु यत: ि ट रखने

197
वाले पार खय के प से समझना चा हए. उनके प से समझना चा हए जो कसी
हाथी दाँत के टु कड़े पर मह न बेल-बूटे दे ख घंट वाह-वाह कया करते ह । पर जो दय
के अ त थल पर मा मक भाव चाहते ह, कसी भाव क व छ नमल धारा म कु छ
दे र अपना मन म न रखना चाहते है, उनका संतोष बहार से नह ं हो सकता । बहार
का का य दय म कसी ऐसी लय या संगीत का संचार नह ं करता, िजसक वर-धारा
कु छ काल तक गूँजती रहे । मा मक भाव क ि ट से वचार कर तो दे व और प ाकर
के क व त सवैय का सा गूँजने वाला भाव बहार के दोह का नह ं पड़ता । दूसर
बात यह क भाव का बहु त उ कृ ट और उदा त व प बहार म नह ं मलता ।
क वता उनक गृं ार है, पर ेम क उ च भू म पर नह ं पहु ँ च पाती, नीचे ह रह जाती
है । ''इस ल बे उ रण का मतलब है आचाय शु ल क मू याधा रत मू यांकन ि ट
िजससे आज असहमत नह ं हु आ जा सकता । व तु त: मू यांकन का अं तम और
नणायक ब दु है कसी रचना क भाव- मता । इस मता का नधारण अ येताओं-
आलोचक क ि ट से नह ,ं वरन ् सामा य पाठक क ि ट से ह होना चा हए ।
आचाय शु ल ने यहाँ सामा य पाठक का एक कार से त न ध व कया ह । इस
रचना से सामा य पाठक समु दाय को अपनी चेतना के प र कार म कोई सहायता नह ं
मल ।

16.9 श दावल
गृहपा लत - पालतू
द लत दा ा - अंगरू का रस
नख त - नाखू न क खरौच
मरज - सा ह य शाि य वारा व णत वरह क अं तम दशा
नावक के तीर - ऐसे तीर िजसक न क पर बा द लगी हो ।
समाहार - संयोजन
ुत - कान और वेद
मु कतन - मो तय
अंत तल - दय
अ त मण - उ लंघन
पयो ध - सागर
चोल - प का लाल रं ग
एत वषयक - इस वषय से संबं धत
प ा - पंचांग, िजसम त थ दे खते ह
नासा बेध - आभू षण पहनने के लए नाक म छे द
नागर म सागर - थोड़े म बहु त कु छ कह दे ना
लोक नब - लोक समाज वारा नधा रत
हरख - हष (त व प)

198
प रपाट व हत - ाचीन काल से चल आई र त

18.10 सारांश
बहार के यि त व और कृ त व का ववेचन- व लेषण करते हु ए हमने व तार से दे ख
लया है क वे एक अ य त प र मी और िज ासु यि त थे । सं कृ त, ाकृ त,
अप श
ं और अपने पूववत ह द सा ह य का उ ह ने गंभीर अ ययन कया था । वे
रचना क मा ा म व वास न कर उसक गुणवता म व वासी थे । अपने ल बे
रचनाकाल म उ ह ने केवल सात सौ दोहे लखे थे । ह द ह नह ,ं वरन ् व व क
कसी भी भाषा म इतना कम लखकर इतना अ धक स मान पाने वाला कोई दूसरा
उदाहरण क ठनाई से मलेगा ।
ं है, उ ह ने अपने युग के अ धकांश क वय क
जहाँ तक बहार के कृ त व का संबध
तरह वयं को भी केवल गृं ार के े तक ह सी मत रखा । गृं ार के भी एक पूव -
नधा रत बँधे बंधाए े म ह अपने को रमाए रखा है । फर भी अपनी का य-
नपुणता और क पनाशीलता के सहारे गृं ार के संयोग और वयोग प के च ण म
अपनी एक नयी पहचान बनाई है । 'सतसई' म च त कु छ ना यकाओं के व प,
कृ त तथा अलंकार क ढ़ कारा और का य-शा के संक ण दायरे से भी एक सीमा
तक उ ह ने अपने को मु त रखने का यास कया है । वैसे संयोग- वयोग क
प रपाट ब सीमा म रह कर भी इ ह ने अपनी कार गर क प ट छाप छोड़ने का
यास कया है । इसके लए एक उदाहरण पया त है-
'नय वरह बढ़ती वथा खर बकल िजय बाल ।
बलखी दे ख परो स य हरखी हँ स त हं काल।।
इसम कसी एक ना यका का व प प ट नह ं है । अ य त कम वय वाल ।
मु धा ना यका अपने य के परदे श जाने पर याकुल है । ले कन जब वह दे खती है
क उसक पड़ो सन ौढ़ा भी उसी के वरह म याकु ल है तो ह षत हो जाती है । य
ह षत हो जाती है. इसे लेकर लाला भगवानद न, 'र नाकर' आ द या याकार म
पया त मतभेद दखाई दे ता है । व तु त: यह व च ि थ त है, जहाँ अपनी सौत को
दुःखी दे ख ह षत होने का संकेत कया गया है । इसी तरह बहार के अ भ यंजना प
के अ तगत भी अलंकार को लेकर, श द- योग को लेकर काफ - ववाद है और इस
ववाद का कारण च लत ढ़य -ल ण का वीकार-अ वीकार है ।
बहार ने समू चे र तब क वय के म य संयोग और वयोग, दोन के च ण म हाव
अनुभाव और वरह-दशाओं का जो वधान कया है, वह अ य त अनूठा है । इ ह भी
बहार अपनी कौशलपूण ड़ा का े बनाने से नह ं चू के ह । सब मलाकर बहार ने
जो 'गागर म सागर भरने' अथात अ यंत म सं ेप बहु त अ धक भाव क अ भ यि त
म सफलता ा त क है, इसका अ धकांश ेय अनुभू त और अ भ यंजना को एकमेक
कर दे ने क नपुणता को ह दे ना होगा ।

199
जहां तक आज के संदभ म बहार के मू यांकन का न है, उसक बहु त अ धक
ासं गकता नह ं है । य क वह ण भर के लए चम कृ त करने के अ त र त कोई
थायी भाव पाठक पर नह ं डाल पाती । यहाँ आकर बहार दे व म तराम और वशेष
प से घनानंद जैसे क वय से बहु त पीछे छूट जाते ह । जहाँ तक बहार के
वा त वक मू यांकन का न है, उसे इकाई के अ त म आचाय रामच शु ल के
ल बे उदाहरण वारा रे खां कत कर दया गया ह ।

16.11 अ यासाथ न
नब धा मक न
1. ' बहार ने गागर म सागर भरने का सफल यास कया है ।' इस कथन के
औ च य पर सोदाहरण काश डाल ।
2. ' बहार का वा त वक मह व अनुभाव और हाव क सफल योजना म है । इस
कथन क साथकता मा णत कर ।
3. ' बहार ने वयोग क व भ न दशाओं- वशेषत: दुबलता और वरह ताप के च ण
म अ धकांशत: वा त वकता क सीमा का उ लंघन कर दया है । इस कथन से
अपनी सहम त या असहम त सोदाहरण प ट कर ।
4. बहार सतसई क लोक यता के मु ख कारण पर काश डाल ।
लघु तरा मक न
1. भाषा क समास-शि त से या अ भ ाय है? इसे पाँच पंि तय म प ट कर,
(उ तर के लए दे ख 16.8 अंश के आरं भक भाग को)
2. अलंकार के मु ख भेद को चार पंि तय म प ट कर (उ तर के लए दे ख इकाई
के 16.8.2 अंश का आरं भक भाग)
3. उपमा और उ े ा अलंकार के मू लभू त अ तर को पांच पंि तय म प ट कर
(इसके उ तर के लए दे ख इकाई 16.8.2 का अं तम अंश)
4. ' बहार सतसई' क वा त वक मह ता को छ: पंि तय म रे खां कत कर (इसके
लए इस इकाई के तावना अंश को दे ख)
5. बहार क र त स ता को पाँच पंि तय म रे खां कत कर (इसके लए दे ख इकाई
के 16.2 के अं तम भाग को) ।
6. बहार ने अपनी दो अ योि तय के मा यम से कौन से मह वपूण काय कए? इसे
पांच पंि तय म प ट कर (उ तर के लए दे ख इकाई 16.8.2 का अं तम पैरा)
7. 'लोग ह ला ग क ब त बनावत के मा यम से घनान द ने बहार जैसे क वय के
वषय म अपनी कस भावना को उजागर कया है? इसे पाँच पंि तय म प ट
कर (उ तर के लए दे ख इकाई 16.9 अंश के पहले और दूसरे पैरा को)

200
8. आचाय रामच शु ल के अनुसार ' बहार सतसई' का बहु त अ धक मू य बताने
वाले कौन से लोग है? उ तर चार पंि तय म द (उ तर के लए दे ख 16.9 अंश
के अं तम भाग को)
9. बहार के संबध
ं म क पना और भाव क समाहार शि त से या आशय है? इसे
पाँच पंि तय म प ट कर। (उ तर के लए दे ख इकाई के 16.6 अंश को)
10. बहार वारा च त ेम और सौ दय के संबध
ं को पाँच पंि तय म प ट कर।
(इसके उ तर के लए इस इकाई के 16.3 अंश को दे ख)
11. बहार के संयोग- च ण म अपे त गंभीरता का अभाव य है? नीचे द गई पाँच
पंि तय म इसका उ तर द। (उ तर के लए दे ख इकाई 16.4 अंश को)
12. वयोग के मु ख प या कार का तीन पंि तय म उ लेख मा कर। (उ तर के
लए दे ख इकाई के 16.5 का पहला पैरा)
13. सं ेप म छ: पंि तय म बताय क बहार के वयोग- च ण म मा मकता क कमी
के मु ख कारण या है? (उ तर के लए दे ख 16.4 के म य से अं तम अंश तक)

16.12 संदभ ंथ
1. आचाय रामच शु ल, ह द सा ह य का इ तहास, 0 नागर चा रणी सभा,
वाराणसी, (केवल बहार से संब अंश) ।
2. डा0 ब चन संह, बहार का नया मू यांकन, 0 लोक भारती काशन महा मा
गांधी माग, इलाहाबाद ।
3. जग नाथ दास र नाकर, क ववर बहार , 0 ं कार, शवाला, वाराणसी ।

4. आचाय व वनाथ साद म , बहार , 0 संजय बुक सटर के 38/6, गोलघर,
वाराणसी-1

201
इकाई-17 प ाकर का का य
इकाई क परे खा
17.0 उ े य
17.1 तावना
17.2 क व - प रचय
17.2.1 जीवन प रचय
17.2.2 रचनाकार का यि त व
17.2.3 कृ तयाँ
17.3 का य-वाचन तथा संसदभ या या
17.3.1 सु ंदर सु रंग नैन
17.3.2 गोकुल के कूल के
17.3.3 कूलन म के लन म
17.3.4 या जग जानक
17.3.5 बई ती बरं च भई
17.3.6 कूरम पै कोल
17.4 वचार संदभ (अ तकथाएँ/श दावल )
17.5 मू यांकन
17.6 अ यासाथ न
17.7 स दभ थ

17.0 उ े य
 इस इकाई को पढने के प चात आप प ाकर के जीवन, यि त व एवं कृ तय के
वषय म बता सकगे ।
 इस इकाई को पढने के प चात ् आप प ाकर के का य का अथ समझ सकगे ।
 प ाकर के का य म अलंकार को पहचान सकगे ।
 प ाकर के का य म भाषा - शैल क वशेषताओं पर काश डाल सकगे ।

17.1 तावना
यसन ने ''मॉडन वना यूलर ल े चर ऑफ ह दु तान'' के सातव अ याय म उ तर
म यकाल को 'र तका य' कहा था और आचाय रामच शु ल ने इसको र तकाल नाम
दया । वृि त क ि ट से इससे उ तम नाम क क पना नह ं क जा सकती है ।
य य प इस काल को अलंकृत म यकाल, गृं ार काल आ द नाम दे ने का यास कया
गया क तु र तकाल सवमा य नाम है । र त श द का सं कृ त के र त स दाय
( व श ट पद रचना) से इसका कोई संबध
ं नह ं है । सं कृ त के का य शा का इसको

202
समानाथ कहा जा सकता है य क सं कृ त का य शा क भाँ त इसम का य रचना
के व वध उपकरण क प रभाषा और या या होती है । इसका संबध
ं परवत अलंकार

ं से है िजनम रसालंकार के ल ण उदाहरण आचाय वारा वयं बनाए गए ह ।
जहाँ भि त काल न क वय ने ''संतन को कहा सीकर स काम'' कहा वहाँ र तकाल न
क वय ने सीकर के बना 'सरै न एकौ काम' कहा है । डॉ ब चन संह ने कहा है-
''चूँ क र तकाल न क व सचेत प से क वता लख रहे थे इस लए उ ह ने उसे का य
पर परा से जोड़ा और भि त क उपे ा क । प ाकर र तकाल के अं तम- े ठ कव
थे । यह वह समय था िजसम अं ेजी सा ा यवाद अपनी भु स ता के लए मराठ ,
स ख , नवाब से लड़ाइयाँ लड़ रहा था । दे श के कु छ भाग पर अं ेज का अ धकार
हो चु का था । भारतीय अथ यव था छ न- भ न हो रह थी । इसी समय बंगाल म
राजा राममोहन राय (1772- 1833) आय समाज और म समाज के मा यम से
पारं प रक ढ़य का वरोध करते हु ए नये मू य क थापना कर रहे थे । बंगाल और
मराठ म अखबार का नकलना शु हो गया था ।''
डॉ॰ ब चन संह का कथन है- ''इस संदभ म प ाकर पर वचार करते समय अजीब
हैरानी होती है । र तकाल न वषयव तु बुर तरह पट चु क थी । प ाकर ने अपनी
तभा के बल पर उसम नयी चमक पैदा करने क को शश क । पर नये प रवेश ने
उनका यान मेल - ठे ल , तीज - यौहार , होल - द वाल आ द क ओर खींचा ।
एकाध जगह उनम फरं गी - वरोधी वर भी सु नाई पड़ेगा । कहने का अ भ ाय यह है
क जब दे श के अ य भाग म आधु नक चेतना आ वभू त हो चुक थी, ह द भाषा म
पारं प रक र तका य लखा जा रहा था ।''

17.2 क व प रचय
17.2.1 जीवन प रचय

'प ाकर तैलंग ा मण थे । उनके पूवज द ण भारत के नवासी थे । वे लोग उ तर


भारत म आये और यह ं बस गए । प ाकर का ज म 1753 ई0 म सागर म हु आ ।
उनके पता मोहनलाल भ भी क वता लखते थे । पर वे आनु ठा नक और तां क के
प म अ धक स थे । उनके वंशज अब भी क वता करते ह और कवी वर कहे
जाते ह ।
प ाकर सागर नरे श रघुनाथराव अ मा, महाराज जैतपुर , सुगरा नवासी नोने अजु न संह,
द तया महाराज पर त, शु जाउ ौला के जागीरदार गोसाई अनूप ग र उपनाम ह मत
बहादुर, सतारा के रघुनाथ राव (राघोबा), जयपुर नरे श ताप संह और उनके पु जगत
संह, उदयपुर नरे श महाराज भीम संह तथा वा लयर नरे श दौलत राव सं धया के
दरबार म रहे । वे बीच - बीच म अपने घर बाँदा लौट आते थे । सन ् 1833 म
कानपुर म उनका दे हावसान हु आ ।

203
17.2.2 रचनाकार का यि त व

प ाकर र तकाल के अि तम े ठ आलंका रक क व और आचाय के प म स ह ।


इनका भाव अपने परव तय पर भी पड़ा है । प ाकर क रचनाएँ बहु आयामी ह ।
आपने उदयपुर के महाराणा भीम संह क आ ा से गनगौर मेले का वणन कया ।
सि धया दरबार म सरदार ऊदाजी के अनुरोध पर हतोपदे श का ग य-प या मक
भावानुवाद तु त कया । अि तम काल म रोग - त रहने पर बोध - पचासा क
तथा गंगा तट पर सात वष रहने के समय गंगालहर क रचना क । इ ह ने वा मी क
- रामायण के आधार पर दोहा - चौपाई म राम - रसायन च रतका य क रचना क ।
इस कार रचना क ि ट से आप र त - शा के ाता, गृं ार तथा भि त के साथ
- साथ वीर - रस के समान प से क व, मु तक तथा ब ध दोन शै लय के सफल
रचनाकार, सफल अनुवादक तथा पचासा - शैल के वतक माने जायगे । का यगत
रमणीयता क ि ट से इनक समक ता म बहार ह बैठ पाते ह । इसी कारण वे
र तकाल के एक मु ख क व माने जाते ह ।

17.2.3 कृ तयाँ

उनक यारह कृ तय का उ लेख हु आ है- अनूप ग र ह मत बहादुर क व दावल ,


ई वर पचीसी, गंगालहर , जग वनोद, जमु नालहर प ाभर ण, बोध पंचा शका,
राजनी त, रामरसायन ललहार ल ला और व दावल । इनम से ललहार ल ला और
बोध पंचा शका प ाकर र चत नह ं ह । महाराज वा लयर के नाम पर उनका बनाया
हु आ 'आल जाह कास' भी मलता है । जग वनोद' और 'आल जाह कास' म कोई
खास अ तर नह ं है । 'आल जाह कास' म जग वनोद के ह छ द, कह -ं कह ं कु छ
श दा तर के साथ, रखे गए है । जगत संह क शि त के थान पर आल जाह क
शि त रख द गयी है । वा तव म उनक क त दो थ
ं पर नभर है- जग वनोद
और प ाभरण पर । इन दोन म भी जग वनोद (1810) मु ख है । कहा जाता है
क अं तम दन म उ ह कु ट रोग हो गया था । उसके नवारणाथ उ ह ने 'गंगालहर '
लखी ।
इनके सम त का य को तीन े णय म वभ त कया जा सकता है- शि त का य,
र तका य और भि तका य । पहले और अं तम कार के का य का य नह ,ं का याभास
ह । वा तव म वे भी ना यका - भेद के ह क व ह । इन तीन कार के का य का
अनुशीलन ब र त का य क ढ़य के साथ त काल न सामंती चय पर भी काश
डालता है । प ाकर के समय, ह द का य म इ तहास ठहर गया है । इस ठहराव के
बाद ह द क वता और सा ह य 'आधु नक' क ओर मु ड़ जाता है ।
शि त- का य म जो कु छ कहा गया है वह इतना ढ़ त और अयथाथ है क उ ह
का य नह ं कहा जा सकता । न तो ह मत बहादुर क लड़ाई का कोई बड़ा उ े य था
और न ताप संह का । ऐसे भू प तय क शि त खोखल होगी ह । ह मत बहादुर
204
ने तो सचमुच क लड़ाई भी नह ं लड़ी थी । ताप संह- व दावल का आधार कोई
यु नह ं है । पर उनक सेना, रणस जा, आतंक आ द का वणन कया गया है । दोन
यु म न कह ं उ साह है और न यु ज य प रवेश । बँधी-बँधाई प रपाट पर व व
वण और अमृत व नय के चम कार दे खे जा सकते ह । यु म यु त श ा क
सू ची एक कार का ढ़पालन है और अ तशयोि त का ढं ग यह क डंका बजा नह ं क
श ु सेना लंका तक पला यत हो गई ।
प ाकर के यश का आधार जग वनोद है । इसम ना यका का सौ दय, हाव, उ ीपन
वभाव अ धक भावशाल वन पड़े ह । ऋतु वणन भी उ ीपना मक है । उ सव के
वणन अ धक उ लासपूण ह ।
संयोग-वणन हो या वयोग-वणन, कसी म र त के ढाँचे को तोड़ना संभव नह ं था ।
संयोग-वणन म भी ढ़याँ कम नह ं ह । ऊँचे उरोज दे खना दे वराज का रा य पाना है
। वपर त र त का वणन युगधम था । श शर के पाला के वरोध म मसाला जु टाने म
प ाकर कसी से कम नह ं ह । गजक, सु रा, सु दर , तान, दुशाला आ द के सामने
श शर क एक भी नह ं चल सकती थी । इसका व तार वाल ने कया है । फर भी
उसम नयी उ ावनाओं के लए अवकाश है । पर वयोग-वणन तो और भी संक ण है
य क सामंती समाज म यह लगभग अनुपि थत है । जो जीवन म नह ं था, वह
क वता म कैसे हो सकता था?
क तु प ाकर का का य-सौ दय ऋतु ओं और यौहार के साथ जीवन को मलाने म है
। इससे उसम रस आ जाता है, जीवन जीने यो य बनता है । बु द
ं े लखंड के लोकजीवन
म फागो सव का वशेष मह व है । उनक रचनाओं म रची-बसी यह लोक सं कृ त
का य को उ लास के रं ग म डु बो दे ती है । प ाकर क भाषा अ य क वय क अपे ा
अ धक लोको मु ख है ।

17.3 का य वाचन तथा ससंदभ या या


17.3.1 सु दर सुरंग नैन

सु दर सुरंग नैन सो भत अनंग रं ग,


अंग अंग फैलत तरं ग प रमल के ।
बारन के भार सु कुमा र को लचत लंक,
राजै परजंक पर भीतर महल के।।
कहै प ाकर बलोक जन र झ जा हं,
अंबर अमल के सकल जल थल के ।
कोमल कमल के गुलाबन के दल के
सु जा त ग ड पायन बछौना मखमल के।।
श दाथ- सु रंग = सु दर वण वाले अथात ् अलम ती के भाव से यु त सु दर ने । नैन
= ने । सो भत = अ छे लगते ह । अनंगरं ग = कामदे व के प वाले अथात गृं ार

205
वृि त से यु त िजनम कामज-भाव टपकता हो । तरं ग = लहर । प रमल = सुगध
ं ,
सु वास, दे हगंध । बारन = बाल, केशरा श, जु फ । सु कु मार=त वंगी, कोमल कायावाल ।
लंक = कमर । तजै = शो भत होना । परजंक = पलंग । बलो क = दे खकर । जा ह =
िजसको, आल जाह (दौलतराव स धया, प ाकर के एक आ यदाता) । अ बर =
आकाश, यहाँ धरती के आ यदाता के अथ म । अमल = शु , न कलंक । सकल =
सम त । दल = पांखड
ु ी । सु=सो । पाइन =पाँव म ।
संग- तु त क व त ह द के स र तकाल न क व प ाकर के वारा लखे गए
'जग वनोद' नामक ना यका भेद संबध
ं ी ं म से लया गया है । ना यका- भेद का य

- धारा ह द के र तकाल न का य क एक स का य - या रह है । क व
'ना यका', क प रभाषा करते समय यह न उठाता है क ना यका कसे कहा जाए वह
उ तर दे ता है क हर वह युवती - नार , जो दे खने वाले के दय म गृं ार काम के
भाव को जगा सके- वह ना यका है । ऐसी ना यका के प एवं उसक छ व का वणन
करते हु ए क व कहता है-
या या- सु दर मदम त - तरं गे ( वेत, याम, रतनार) ने वाल , काम के रं ग म
पूर तरह डू बी हु ई कामबाला ह ना यका कहलाने यो य है । उसके शर र के पोर - पोर
से उसक दे ह - गंध फूटती है- जो सारे वातावरण को मादक - सु गध
ं से भर दे ती है ।
वह त वंगी इतनी कोमल है क. अपनी ह केशरा श के भार से चल नह ं पाती है और
चलते समय उसक कमर लचक- लचक जाती है । ऐसी भार नत बा, ीण क ट
ना यका राजमहल के रं गक म पलंग पर सोई हु ई अ य त आकषक लगती है । क व
कहता है क ऐसी ना यका िजसे दे खने मा से ह सब लोक ( वशेषकर आल जाह
दौलतराव सं धया जैसे ीपु ष ) जो स पूण धरती के राजा ह, जल, थल, आकाश म
िजनके शौय का डंका बजता है- भी र झ उठ, वह ना यका कहलाने के यो य है ।
उसके पांव कमल और गुलाब क पंखु ड़य क नम - र ताभवण कोमलता से भी
अ धक कोमल और मसृण ( चकने) ह । यहाँ तक क मखमल के बछौने भी उसके
पाँव म गड़ते ह- चु भन - सी उ प न करते तीत होते ह ।
वशेष-
1. नार के प-सौ दय को लेकर उसके अंग - यंग पर हजार वष से क ववाणी
दु नया क लगभग हर भाषा म सौ दय - वधान करती आयी है । यहाँ भी
प ाकर ने का मनी क दे ह का प - वणन ह कया है ।
2. तु त क व त 'ना यका' के उदाहरण व प गढ़ा गया है । अथात ् ल ण उदाहरण
प म लखे गए 'जग वनोद' नामक ं म यह क व त 'ना यका' क प रभाषा

दे ने के प चात ् ल ण को स करने के लए रचा गया है ।
3. तीसर पंि त म क व ने अपने आ यदाता दौलतराव सं धया क गृं ार यता का
भी प रचय दया है ।

206
4. अलंकार- वृ यानु ास एवं अ यानु ास क छटा दशनीय है । वण - मै ी एवं
भा षक सौ दय क ग तशीलता अ भ यि त म च मयता उ प न कर दे ती है ।
पूरा क व त एक ऐसी खू बसू रत ना यका का च उभारता है, जो पलंग पर अपनी
स पूण दे ह - छ व के साथ सोई है, पलंग पर बछे मखमल बछौने भी िजसके
तलु व म गड़ते ह- जो काम पीड़ा से मदम ता है । यह एक थै तक - च है ।
प ाकर ऐसे च को केवल श द के वारा ह च त करने म द है ।
(1) कमल और गुलाब के 'दल' म पक अलंकार है ।
(2) क व त छं द है । 16- 15 क य त - ग त के नयम से आब ।
(3) कोमलावृि त है । गृं ार रस है ।

17.3.2 गोकुल के कुल के

गोकु ल के कु ल के गल के गोप गाँवन के ,


जौ ल ग कछू को कछू भारत भनै नह ं ।
कहै प ाकर परोस पछावरन ते,
वारन ते दौ र गुन औगुन गनै नह ं ।
तौ ल च ल चातु र सहेल आई कोऊ कहू,ँ
नीकै कै वचारै ता ह करत मनै नह ं ।
हौ तो याम रं ग म चु राइ चत चोराचोर
बोरत तौ बोरयौ पै नचोरत बनै नह ।ं ।
श दाथ- वारन = वार के । कु ल = वंश । गाउन =गाँव के । कछू का कछू =कु छ का
कु छ । भारत = वृतांत ल बी गाथा । भनै=कहना, बोलना । परोस पछवारन ते =
ं गनती नह ं । चातु र=चतु र । नीकै कै=अ छ तरह ।
पछवाडे के पड़ोस म । गनै नह =
नचौरे = नचोड़ती है । करत मनै = मना करना । बौरयौ = डु बोना । बोरत = डु बाना
संग- तु त छ द प ाकर वारा वर चत है । इस पद म क व ने ऊढ़ा ना यका का
वणन कया है । ऊढ़ा ना यका उस ना यका को कहते ह जो कसी क प नी हो क तु
ेम कसी और से करती हो, साथ ह र सक जन क रस र त का पालन करने वाल
हो । तु त संदभ म क व ने गोपी के मा यम से ऊढ़ा ना यका का वणन उदाहरण
प म कया है । ेम भाव के च ण म प ाकर धनी ह । यह याम के त अनुराग
का रं ग अनजाने ह चढ़ आया । जब यह रं ग चढ़ आया तब उस रं ग को धो डालना
संभव नह ं है । ेम क इसी ि थ त क यंजना प ाकर ने इस छ द म क है ।
या या- क व कहता है क गोकु ल के लोग ने, उसके अपने कु ल के लोग ने, गल के
लोग ने तथा गाँव के गोपजन ने तथा अ य ने उसके (गोपी के) बारे म बहु त - सी
बात बनाई, पर उसने लोग के कहने क परवाह नह ं क और ेम भाव म म त रह ।
क व कहता है क वह पड़ोसी के पछले वार से मलने या अ भसार के लए पहु ँ च
जाती है । इस कार य के पास चले आने म या बुराई है या अ छाई है वह नह ं

207
गनती या अ छाई - बुराई के बारे म सोचती ह नह ं है । तब उसक एक चतुर सहे ल
ने कु छ और बात चलाकर समझाकर कहा क तू अ छ तरह से वचार करके दे ख ले
उसको ( य को) मना मत कर अथात ेम का नवाह करती रह । गोपी ने अपनी
सखी को उ तर दया क मने लु क - छपकर याम रं ग म अपने च त को बार बार
डु बाया है क तु अब वह मु झसे नचोड़ा नह ं जा रहा अथात ् मने ीकृ ण से गु त ेम
तो कर लया, पर तु अब उसे तोड़ना संभव ।
वशेष-
(1) यहाँ पर क व ने ऊढ़ा ना यका के च त क दशा का वणन कया है, जो अपने
य के ेम रस म च त को डु बाये रखना चाहती है ।
(2) उसको लोकलाज का कोई भय नह ं है ।
(3) सखी के कथन म वचन - व द धता है ।
(4) इसम अनु ास , उ लेख तथा पक अलंकार है ।

17.3.3 कूलन म के लन म

कू लन म के लन म कछारन म कं ु जन म,
या रन म क लत कल न कलकंत है ।
कहै प ाकर परागन म पौनहू म,
पातन म पक म पलासन शांत है ।
वारे म दसान म दुनी म दे स दे सन म,
दे खी द प द पन म द पत दगंत है ।
बी थन म ज म नवे लन म बे लन म,
बनन म बागन म काय बसंत है ।
श दाथ- कू लन = नद कनार पर । के ल= काम, ड़ा, क लय म । कछारन= कनारे
। क लत = जड़े हु ए । कल न = क लयाँ । कलकंत= कलकार मारता है । पौनहू =
पवन अथात ् वायु म भी । पातन= प त म । पलासन= पलाश के फूल । पगंत =पगा
हु आ है । दसान = दशाओं म । बी थन= ग लय म छोट छोट वी थय अथात ्
ग लय म । नवे लन= नई - नई । बनन = वन म । बगरयो = फैला हु आ है ।
संग- प ाकर ने इस पद म बस त ऋतु के यापक भाव का वणन कया है ।
बस त का ऋतु राज के प म शृंगा रक क वय ने वणन कया है । क व ने इस पद म
बस त का जीवन के अंग - अंग म फुटन का वणन कया है । प ाकर का यह पद
र तकाल न क वता म ह नह ं ह द क वता म कृ त वणन का अनूठा उदाहरण है ।
या या- प ाकर कहते ह क वसंत नद कनारे के पु प म, क लय म, कछार म,
कं ु जो म, या रय म, पराग म, पवन म, प त म, वार म, दशाओं म, दे श-
दे शा तर म, ग लय म, ज म, नवोढ़ाओं म, वन वे लय म, वन म, और बाग म
फैला हु आ है । क व ने वस त ऋतु के यापक भाव का च ण कया है ।

208
र तकाल न क वता क ल क से हटकर क व ने गृं ारह न वशु कृ त च ण कया
है।
वशेष-
1. प ाकर मानव - सौ दय के च कार थे; कृ त के स मोहन पर र झने वाले क व
नह ं थे ।
2. यह कृ त - च ण वणना मक है और संि ल ट य नयोजन का इसम अभाव
है ।
3. इस क व त म वशु नाम प रगणा मकता है ।
4. अनु ास अलंकार क छटा दशनीय है ।

17.3.4 या जग जानक

या जग जानक जीवन को जस य इस आनन गाइ अघैये ।


य पदमाकर मारग ह बहु वै पद पाइ कतै कतै जैये ।
नाम अनंत अनंत कह ते कहे न परै क ह का ह जतैये ।
राम क र कथा सु नबे को करोरन कान कहौ कह ं पैय।े ।
श दाथ- जानक जीवन = ीराम । जस = यश, या त । अधैये = तृ त होना । मारग
= माग, रा ता । जैये = जाएँ । र = पुरा पुरानी । करोरन = करोड ।
संग- यह पद प ाकर क कृ त '' बोध पचासा'' का अंश है । र तकाल के ाय:
सम त क वय ने जीवन के उ तरा म गृं ार क रचनाओं के थान पर भि तपरक
रचनाएँ क । संभव है वे गृं ा रक रचनाएँ करते - करते ऊब गए ह अथवा मान सक -
शार रक आ ध - या ध से वे ई वरो मु ख हो गए थे । प ाकर ने भी जीवन के अं तम
समय म भि त और वैरा य क रचनाएँ क । भगवान शंकर - राम आ द दे वी -
दे वताओं को मरण कया । तु त पद म क व राम को मरण कर रहा है ।
या या- क व प ाकर कहते ह क इस संसार म जानक (सीता) के जीवन भु ीराम
का यश इस एक मु ख से गाकर कोई कैसे तृ त हो सकता है? क व कहता है क माग
तो अनेक ह अथात ् ई वर तक पहु ँ चने के अनेक माग ह क तु मनु य को केवल दो
पाँव मले ह वह कह ं - कह ं जाए? ई वर के अन त नाम ह िजनको कहा नह ं जा
सकता है । इस लए कसी को कहकर कैसे कट कया जा सकता है? राम क पुरातन
कथा सु नने को को ट - कान कह ं मल सकते ह? ी भु राम क शंसा के गुणगान
म क व अपने को असमथ पाता है ।
वशेष-
1. भि त - भाव से प रपूण तु त पद म प ाकर ने अनु ास अलंकार का योग
कया है ।
2. क व राम - कथा का वणन एक मु ख से करने म अपने को असमथ पाता है ।

209
3. ई वर तक जाने के माग तो असं य ह क तु मनु य क अपनी सीमा - साम य
है ।
4. राम - कथा ाचीन है और बहु त व तृत है िजसको सु नने के लए को ट - को ट
कान चा हए - कथा म राम कथा क ाचीनता एवं वशालता का अ तशयोि त पूण
वणन है ।

17.3.5 बई ती बरं ची भई

बई ती बरं ची भई बामन पगन पर


फै ल फै ल फ र ईससीस पै सु गथ क ।
आइकै जहान ज हुजंघा लपटाइ फ र
द नन के द हे दौ र क हे ती न पथ क ं ।
कहै पदमाकर सु म हमा कह ं ल ं कह
गंगा नाम पायो सह सबके अरथ क ।
चारचो फल फल फूल गहगह बरबह
लहलह क र तलता है भगीरथ क ।।
श दाथ- बरं ची = हमा । बामनपगन = वामन अवतार वाले व णु के पग को धोकर
नकल । ईससीस = शंकर के सर पर । सु गथ = सु दर गाथा । जहान = संसार,
धरती । ज हुजंघा=ज हु नाम के ऋ ष क जाँघ (गंगा ज हु क जाँघ से नकल है
इसी से उनका एक नाम जा हवी भी है) । लपटाइ = लपटकर । द नन = द नो, गर ब
। अरथ = अथ (काम, उपयोग, लाभ) । गृह गह -बर । बह = फु लता से, आनंद =
उ लास से । लहलह = लहराना, हर भर , लहलाती हु ई । क र तलता = क तलता ।
भगीरथ= राजा भागीरथ (गंगा को वग से धरती पर लाने का ेय इ ह ं को है । गंगा
का एक नाम भागीरथी भी है) ।
संग- तु त पद म प ाकर ने गंगा का वणन एवं तु त क है । कहा जाता है क
प ाकर वृ ाव था म वेत कु ठ रोग से पी ड़त हो गए थे । आ यदाताओं से जीवन के
अं तम पड़ाव म अपमा नत होकर संसार से वर त और ई वर म अनुर त होकर गंगा
के तट पर जाकर रहे जहाँ उनक 80 वष क अव था म मृ यु हो गई । '' बोध
पंचा शका'' और ''गंगालहर '' के ाय: सम त छ द अनारो पत भि त भावना से पूण ह
। तु त पद क व क भि त भावना पर आधा रत है । गंगा तु त के याज से मा,
व णु एवं शवजी के त भी भि त कट क गई है ।
या या- गंगा मा जी के कमंडल से नकलकर वामन अवतार धारण करने वाले
व णु के पाँव को धोकर नकल और भगवान शंकर के सर पर जाकर सु दर गाथा
का नमाण कया । फर वह धरती पर अवतीण हु ई । ज हु नामक ऋ ष क जाँघ से
लपटकर नकल ; इस लए जा हवी कहलाई । उसने द न का तीन कार से क याण
कया । प ाकर का कथन है क गंगा क म हमा का कह ं तक वणन कया जाए ।

210
उसने सबके अथ (काम, उपयोग एवं लाभ) के लए ह गंगा नाम पाया जो उ चत है ।
चार फल दा यनी (धम, अथ, काम और मो ) गंगा भगीरथ क आन द - उ लास से
लहराती हु ई नद है ।
वशेष-
1. तु त पद म गंगा नद से जु ड़ी अंतकथाओं का समावेश है ।
2. नधन लोग के लए गंगा क याणकार है ।
3. गंगा धम, अथ, काम और मो दा ी है ।
4. प ाकर र तकाल न क व थे इस लए भि त के पद म भी अलंकार यता से मु त
नह ं हो सके ह ।

17.3.6 कूरम पै कोल

कू रम पै कोल कोलहू पै सेष कं ु डल है


कं ु डल पै फबी फैल सु फन हजार क ।
कहै पदमाकर य फन पै फबी है भू म
भू म पै फबी है ि थ त रजतपहार क ।
रजतपहार पर संभु सु रनायक ह
संभु पर जो त जटाजू ट सु अपार क ।
संभु जटाजु ट पर चंद क छुट है छटा
चंद क छटान पै छटा है गंगाधार क ।।
श दाथ- कू रम = क छप, कू म । कोल = वराह (सू अर) । सेष = शेषनाग । फबी =
सुशो भत है । ि थ त = ि थत है । रजतपहार = चाँद का पहाड़ अथात बफ से ढका
कैलाश पवत । संभु = शव । जो त = यो त ।
संग- तु त पद गंगावतरण से संब है! प ाकर क 'गंगा लहर ' नामक कृ त से
अवत रत है । इसम क व ने गंगा - माहा य का वणन कया है । साथ म उनक
तु त भी क है । गंगा, शवजी क जटा म च मा के साथ वराजमान है । क व ने
गंगा क ि थ त का पौरा णक आधार पर वणन कया है ।
या या- पौरा णक धम शा के अनुसार पृ वी क छप या वराह (सू अर) अथवा
शेषनाग के सह फन पर ि थत है । कू म (क छप) पर शेषनाग ने कं ु डल मार रखी
है । उस कं ु डल पर शेषनाग के सह फन सु शो भत ह । प ाकर कहते ह क उस फन
पर पृ वी सु शो भत है । भू म पर रजत पवत (कैलाश पवत) सु शो भत है ।
उस कैलाश पर भगवान शंकर दे वताओं के नायक सु शो भत ह । भगवान शंभु क जटा
जू ट पर च मा क अपार यो त फूट रह है और च मा क छटा से गंगा क धारा
वा हत हो रह है ।
वशेष-
1. भि त रस से सराबोर पद है ।
2. भि त रस का पद होने पर भी क व क अलंकार यता दखाई दे रह है ।
211
3. पुराण के अनुसार पृ वी क छप, वराह और शेषनाग पर टक हु ई है । प ाकर ने
इसी मा यता का यहाँ उ लेख कया है ।

17.4 वचार संदभ (अ तकथाएँ )


1. क छप क अ तकथा- व णु के एक अवतार का नाम है । इसे 'क छ' तथा
'क छप' भी कहा जाता है । ऐसी स है क दे वासु र सं ाम के अन तर जो
व तु एँ संघष म खो गयी थीं, उनक ाि त के लए समु म थन का आयोजन
हु आ । म दराचल तो मथानी बने, शव तथा व णु ने क छप का प धारण
कया । वासु क नाग क र सी बनायी गयी और दे वताओं तथा असुर ने एक -
एक ओर खड़े होकर समु म थन कया िजससे न न ल खत चौदह व तु एँ ा त
हु ई- 1. अमृत , 2. ध व त र, 3. ल मी, 4. सु रा, 5. च , 6. र भा, 7.
उ चै: वा, 8. कौ तु भ म ण, 9. पा रजात वृ , 10. सुर भ गाय, 11. ऐरावत
हाथी, 12. शंख, 13. धनुष तथा 14. वष ।
2. वराह क अ तकथा- व णु के अवतार म दूसरा अवतार वराहावतार माना जाता है
। 'भागवत और व णु' पुराण म वराह - अवतार क कथा स व तार व णत हु ई है
। एक बार मा ने वाय भुव मनु को अपनी भाया शत पा से अपने ह समान
गुणवती स त त उ प न करके पृ वी का पालन और ी ह र क आराधना का
आदे श दया । मनु ने मा को उ तर दया क मेर स त त के रहने के लए
थान बतलाइये य क सम त पृ वी जल म डू बी है । मनु का उ तर सु नकर
मा सोचते रहे क पृ वी को कैसे नकालूँ । तभी उनक नाक से अक मात
ू े के बराबर आकार का एक वाराह शशु नकला । धीरे - धीरे वह हाथी के
अँगठ
आकार का हो गया । तब वराह भगवान ् अपने बाण के समान पैने खु र से जल
को चीरते हु ए उस अपार जलरा श के उस पार पहु ँ चे । फर वे जल म डू बी हु ई
पृ वी को अपनी दाढ़ पर लेकर रसातल से ऊपर आये और अपने खु र से जल को
ति भत कर उस पृ वी को था पत कया । तदन तर वराह भगवान ् अ तधान
हो, गये । ह द कृ ण भ त क वय म सू रदास ने व णु के इस अवतार का
वणन कया है ।
3. शेषनाग (अनंत नाग)- शेषनाग का नामा तर अन त भी है । ये नाग के तथा
पाताल के अ धप त थे । महा लय के अ त म व णु इनके शर र क श या पर
शयन करते ह । इससे इ ह अन तशयन भी कहते ह । कहा जाता है क ये
सह फन वाले ह और इ ह ं पर मा ड क ि थ त है । कह ं - कह ं शेष और
वासु क दो माने गये ह । इनके पता का नाम क यप और माता का नाम क ु था
। अन तशीषा इनक प नी थीं ।
4. गंगा अ तकथा- पुराण के अनुसार गंगा एक पु य स रता का नाम है । पुराण म
गंगा दे वी के प म व णत हु ई ह । व णु पद , म दा कनी, सु रस र, दे वपगा

212
ह रनद आ द गंगा के पयाय है । ऋ वेद म भी गंगा का उ लेख मलता है । गंगा
क उ पि त एवं ि थ त के संबध
ं म न न ल खत दो कथाएँ च लत है
1. गंगा क उ पि त व णु के चरण से हु ई थी । मा ने इ ह अपने कम डल
म भर लया था । ऐसी स है क वराट अवतार के आकाश ि थत तीसरे
चरण को धोकर मा ने अपने कम डल म रख लया था । इसके संबध
ं म
एक भ न या या भी मलती है । सम त आकाश म ि थत मेघ का ह
पौरा णक गण व णु जैसा वणन करते ह । मेघ से वृि ट होती है और उसी से
गंगा क उ पि त हु ई ।
2. गंगा का ज म हमालय क क या के प म सु मे तनया अथवा मैना के गभ
से हु आ था । कसी वशेष कारण वश गंगा मा के कम डल म जा छपी ।
दे वी भागवत के अनुसार ल मी सर वती और गंगा तीन नारायण क प नी ह
। पार प रक कलह के कारण उ ह ने एक दूसरे को शाप दे कर नद प म
अवत रत होकर मृ यु लोक म नवास करने को बा य कर दया था ।
फल व प तीन ह पृ वी पर अवत रत हु ई । पुराण म गंगा शा तनु क
प नी और भी म क माता कह गयी ह । पृ वी पर गंगा - अवतरण क कथा
इस कार है-क पल मु न के शाप से राजा सगर के साठ हजार पु भ म हो
गये । उनके वंशज ने गंगा को पृ वी पर लाने के लए घोर तप या क ।
अ त म भगीरथ क घोर तप या से मा स न हो गये । उ ह ने गंगा को
पृ वी पर ले जाने क अनुम त दे द , क तु पृ वी मलोक से अवत रत होने
वाल गंगा का भार सहन कर सकने म असमथ थी । अतएव भगीरथ ने
महादे व जी से गंगा को अपनी जटाओं म धारण करने क ाथना क । मा
के कम डल से नकलकर गंगा शव क जटाओं म खो गयी । माग म जदनु
ऋ ष अपने य क साम ी न ट हो जाने के कारण गंगा को पान कर गये ।
भगीरथ के ाथना करने पर उ ह ने गंगा को पुन : अपनी जाँघ से नकाल
दया । इसी समय से गंगा का नाम जा हवी पड़ा । भगीरथ आगे - आगे
चलकर गंगा को अपने पूवज क मातृभू म तक ले आये । इस कार उ ह ने
उ ह मु ि त दलायी । भगीरथ के य न से वा हत होने के कारण गंगा को
भागीरथी कहा जाता है ।
ह द सा ह य म गंगा - माहा य चुर मा ा म व णत हु आ है । भ त
क वय ने गंगा के माहा य के वणन के अ त र त व णु के दय दे श पर
सु शो भत मु ता - माला आ द क उपमा गंगा से द है । इसके अ त र त
वषय प म भी उसक म हमा का आ यान हु आ है । गंगा का धा मक
मह व तो प ट ह है । गंगा के अवत रत होने क कथा पर आधा रत
र नाकर का 'गंगावतरण' नामक ब ध का य अ य त स है । पु य –
स लला के प मे तो उसके अनेक स दभ मलते है ।

213
श दावल
अवतरण - आगमन, ऊपर से नीचे क ओर
वद धता - कौशल
श शर - जाड़ा
व दाव ल - यश गान
अ भसार - छप कर ेमी से मलना
फबना - सु शो भत
चषक - शराब पीने का पा
जानक जीवन - ी राम का एक ना
शि त - यश गाथा
दे व पगा - गंगा

17.5 मू यांकन
प ाकर िजस वातावरण म रचना कर रहे थे वह गृं ार के सवथा अनुकू ल था । उनक
स का मू लाधार उनक गृं ा रक रचनाएँ ह । उस युग म जीवन का साि वक
उ साह लु त हो गया था । औरं गजेब के चंड शासन से दुबक कर उ तर भारत के
राजा - महाराजा सर उठाने का साहस नह ं करते थे । उनके लए शाह कर चु काकर
महल के भीतर आराम करना ह सब कु छ था । राज- दरबार म जीवन के बहु मु खी
व तार से उदासीन हो गृं ार और वला सता क संक ण ग लय म अपने को भु लाये
रखने क को शश क जा रह थी । दरबार क व राजाओं - महाराजाओं क शंसा के
साथ - साथ उनक गृं ार - पपासा को शांत करने के लए नवोढ़ाओं क भाव -
भं गमा का च ण करने म ह लगे रहते थे । लोभ के च मे के भीतर से वे सबको
शहंशाह मानते थे और केवल गृं ार - चषक पलाकर उनके ऊपर दोहरा नशा चढ़ाया
करते थे । र तकाल क ग हत शृंगा रकता के बीच भू षण ने अव य संह गजन कया,
गृं ार के अ डे जगह - जगह हो गए । छुटभैये जमीदार तक का शगल ना यका -भेद
क बार क नकालना एवं समझना हो गया । क वय क लेखनी उसके न पण म
लगी । प ाकर का का य - संसार म आ वभाव ऐसे ह समय म हु आ था । प ाकर
क मह ता इसी बात म ह क परवत क वय ने वाल, वजदे व, ल छराम आ द ने
प ाकर के भाव क नकल क । पं. व वनाथ साद म ने ठ क ह लखा है क
पुराने ढं ग का कोई परवत क व ऐसा न होगा िजसने प ाकर क क वता को पढ़ा या
सु ना न हो और उसका अनुगमन भी नह ं कया हो । शायद ह कोई परवत क व ऐसा
हो जो प ाकर के भाव क न सह , भाषा क सफाई क नकल करने न बैठा हो ।
भाषा के वचार से प ाकर का ह द के पछले खेवे के क वय पर बहु त भाव पड़ा
है।

214
17.6 अ यासाथ न
नब धा मक न
1. प ाकर का जीवन प रचय द िजए ।
2. प ाकर क कृ तय का उ लेख करते हु ए उनके यि त व पर काश डा लए ।
3. न नां कत पद क ससंदभ या या क िजए.
(क) कूरम पै कोल कोलहू पै सेष कं ु डल है
कं ु डल पै फबी फैल सु फन हजार क ।
कहै पदमाकर य फन पै फबी है भू म
भू म पै फबी है ि थ त रजतपहार क ।
रजतपहार पर संभु सु रनायक ह
संभु पर जो त जटाजू ट सु अपार क ।
संभु जटाजु ट पर चंद क छुट है छटा
चंद क छटान पै छटा है गंगाधर क ।।
(ख) सु दर सुरंग नैन सो भत अनंग रं ग,
अंग अंग फैलत तरं ग प रमल के ।
बारन के भार सु कुमा र को लचत लंक,
राजै परजंक पर भीतर महल के।।
कहै प ाकर बलोक जन र झ जा हं,
अंबर अमल के सकल जल थल के ।
कोमल कमल के गुलाबन के दल के,
सु जा त ग ड पायन बछौना मखमल के।।
(ग) कूलन म के ल म कछारन म कं ु जन म,
या रन म क लत कल न कलकंत है ।
कहै प ाकर परागन म पौनहू म,
पातन म पक म पलासन शांत है ।
वारे म दसान म दुनी म दे स दे सन म,
दे खौ द पद पन म द पत दगंत है ।
बी थन म ज म नवे लन म बे लन म,
बनन म बागन म बगरयो बसंत है ।
4. शेषनाग और वराह क अ तकथाएँ ल खए ।
5. गंगा क उ पि त से संबं धत अ तकथाओं को ल खए ।
लघु तरा मक न
1. क व ने गंगा नद म कौन-कौन से गुण बताए ह?
2. बसंत ऋतु कहाँ-कहाँ वचरण कर रह है?
3. क व राम क वंदना कन श द म करता है?

215
4. क व ने ऊढ़ा ना यका के च त क दशा का वणन कस कार कया है?
5. डॉ॰ ब चन संह ने प ाकर के वषय म या कहा है?

17.7 स दभ ंथ
1. ह द सा ह य कोश
2. रामच शु ल - ह द सा ह य का इ तहास
3. डॉ॰ ब चन संह - ह द सा ह य का दूसरा इ तहास
4. सं॰ डॉ॰ नगे - ह द सा ह य का इ तहास
5. डॉ॰ नगे - र तकाल क भू मका
6. सं॰ पं डत व वनाथ साद - प ाकर थ
ं ावल

216
इकाई-18 प ाकर के का य का अनुभू त और अ भ यंजना

इकाई क परे खा
18.0 उ े य
18.1 तावना
18.2 का य-संवेदना
18.2.1 प ाकर के का य का वषय
18.2.2 का यानुभू त
18.2.3 प ाकर के का य म लोक - जीवन
18.3 का य- श प
18.3.1 का य म गृं ार भावना
18.3.2 का य - भाषा
18.3.3 अलंकार योजना
18.4 वचार संदभ श दावल
18.5 मू यांकन सारांश
18.6 अ यासाथ न
18.7 स दभ थ

18.0 उ े य
इस इकाई को पढने के बाद आप
 र तकाल न क वता क पृ ठभू म म प ाकर के का य वषय से सा ा कार कर
सकगे ।
 क व प रचय, रचनाकार यि त व के बु नयाद सरोकार से प र चत होने के साथ
उसक कृ तय के वषय म जान सकगे ।
 क व क का यानुभू त म र त क भू मका से प र चत हो सकगे ।
 क व क भाषागत वशेषताओं से प र चत करा सकगे ।
 प ाकर का का य उनके प रवेश और जीवनानुभव का तफलन है, इस त य को
समझ सकगे ।
 प ाकर के गृं ार वणन क वशेषताओं को समझ सकगे ।
 प ाकर के का य क मा मकता से संवाद कर सकगे ।
 प ाकर के का य म लोकजीवन के च ण क वशेषताएँ समझ सकगे ।

18.1 तावना
प ाकर र तकाल के अि तम े ठ आलंका रक क व के प म स ह । इनका
भाव परवत क वय पर भी पड़ा है ।
217
वे िजस वातावरण म का य - सजना कर रहे थे, वह भी गृं ार के सवथा अनुकू ल था
। उस युग म जीवन का साि वक उ साह लु त हो गया था । परवत क वय म वाल,
वजदे व, ल छराम आ द ने प ाकर के भाव क नकल क । वाल क 'यमु नालहर '
प ाकर क 'गंगालहर ' क होड़ाहोड़ी म बनी और रस रं ग 'जग वनोद' के अनुगमन पर
न मत हु आ । इन क वय म वषय क ह समानांतरता नह ं है, उप वषय, संग, भाव
आ द ठ क आमने - सामने भड़े बैठे ह । ल छराम ने भी गंगालहर क होड़ म
सरयूलहर ' लखी है । ल छराम म खाल-सा अनुकरण तो नह ं है, पर प ाकर के
वषय से बाहर ल छराम भी नह ं जा सके ह । वजदे व क भी कु छ क वताएँ प ाकर
क जोड़ - तोड़ म ह न मत हु ई ह ।

18.2 का य संवेदना
18.2.1 प ाकर के का य का वषय

प ाकर क स एक क व और आचाय दोन प म है । उ ह ने तीन कार के


का य - थ
ं क रचना क है- शि त का य, र तका य और भि तका य । शि त
का य दो ह- ' ह मतबहादुर व दावल ' और ' ताप संह व दावल ' । र तका य के
अंतगत भी दो पु तक धान ह- 'प ाभरण, जो महाराज जसवंत संह के 'भाषा भू षण'
क शैल म लखी अलंकार क पु तक है और जग वनोद, जो गृं ार रस और उसके
एक मु ख अंग ना यका भेद का न पक थ
ं है । प ाकर के नाम पर एक तीसरा
ं भी मलता है- अल जाह
र त थ काश । ले कन यह कोई वतं कृ त नह ,ं युत
जग वनोद का ह अंशत: प रव तत प है, िजसक रचना वा लयर के दौलत राव
सं धया के नाम पर हु ई है । एक ह पु तक को थोड़े हे र - फेर के साथ एका धक
राजाओं क सेवा म उपि थत करना उस युग के आ यभोगी क वय के लए कोई नई
बात नह ं थी । प ाकर के भि त - वैरा यपरक थ
ं म ई वर पचीसी, बोध पचासा,
गंगा लहर , राम रसायन आ द के नाम लए जाते ह । सारतः प ाकर ने अपने
का यकाल के आरं भ म वीर रसा मक रचनाएँ क , म या न म गृं ार का चषक भरा
और पयवसान भि त म पाया ।
पं. व वनाथ साद म ने इनके थ
ं दो कार के माने ह 1. मौ लक और 2.
अनू दत । मौ लक थ
ं क तीन वृि तयां मानी ह (1) शि त का य (2) ल ण थ

(3) भि त और वैरा य क ।
1. शि त का य
1. प ाभरण, 2. जग वनोद, 3. आल जहां काश
2. भि त और वैरा य
1. गंगा लहर , 2. यमु ना लहर , 3. बोध पचासा, 4. क ल पचीसी, 5. राजनी त
क वच नका, 6. राम रसायन ।

218
अि तम काल म रोग - त रहने पर ' बोध - पचासा क तथा गंगा तट पर सात
वष रहने के समय 'गंगालहर ' क रचना हु ई । इ ह ने वा मी क - रामायण के आधार
पर दोहा - चौपाई म 'राम - रसायन' च रतका य क रचना भी क । इस कार रचना
क ि ट से आप र त - शा के ाता, गृं ार तथा भि त के साथ - साथ वीर -
रस के समान प से क व, मु तक तथा ब ध दोन शै लय के सफल रचनाकार,
सफल अनुवादक तथा पचासा - शैल के वतक माने जायगे । का यगत रमणीयता क
ि ट से इनक समक ता म बहार ह बैठ पाते ह । इसी कारण वे र तकाल के एक
मु ख क व माने जाते ह । वाभा वक तथा मधु र क पना और हाव - भाव के
य वत मू त वधान क ि ट से शु लजी 'जग वनोद' को गृं ार का सार थ
मानते ह । श दाड बर और ऊहा मक वै च य से मु त रहकर चम कार - चातु र के
साथ सु घर क पना वाले भाव - च क उपि थ त, अ त: भावनाओं क यंजना -
शि त के वारा सजीवता और साकारता के साथ बड़े कौशल के साथ सजावट, च ांकन
तथा बहु ता और व व ता के एक साथ नवाह के लए प ाकर अ वतीय कहे जा
सकते ह

18.2.2 का यानुभू त

प-सौ दय का च ण-
प ाकर तभा स प न थे, क तु वे युग सीमा के बंधन म बंधे हु ए थे । उ ह जीवन
म अनेक आ यदाताओं के पास जाना पड़ा । इससे यह तीत होता है क आ थक
अभाव के कारण उ ह दर - दर भटकना पड़ा और इस लए वह खु लकर र त पर परा
से आगे न जा सके । गृं ार , भि त, ान, वैरा य और वीर ह उनक क वता के
वषय रह गए । संयोग क बात है क उनके आ यदाता ेम के भू खे न होकर व ान
और वासना के दास थे । अत: उनक इि य - ल सा क पू त के लए क वय को
बा य होकर उनके मनोनुकू ल होकर सा ह य लखना पड़ता था ।
र तकाल म अपने जीवन अि त व के लए र त थ
ं लखना आव यक था । इस मोह
से प ाकर भी छुटकारा न पा सके । यौवन के आवेश म आ यदाता के सु द रय के
प - दशन क चाह क का य वारा पू त करते रहे क तु अव था के ढलने के साथ
- साथ उनम ान और वैरा य के भाव उ दत हु ए और उ ह ने राम, कृ ण, शव और
गंगा क तु त क और उनके त अपने भाव - सु मन अ पत कए । प ाकर ने नार
के प - स दय के एक से बढ़कर एक च खींचे ह । जहाँ उ ह ने इस प के वैभव
को सामा य श दावल के मा यम से यंिजत कया वहाँ ाकृ तक उपमान और तीक
का सहारा लेना भी नह ं भू ले । ना यका क सखी कृ ण से ना यका के प स दय का
च ण इस ढं ग से करती है क वे च कत हो जाते ह- य नह ं उस चं को दे खते
िजसम दो लाल कमल धीरे - धीरे ला लमा पा रहे ह उसके ऊपर एक क र बधू भी बैठ
हु ई मोती चु ग रह है । ऊपर से तम लाया हु आ है । सू य के काश से भी वह हटने

219
का नाम नह ं लेता । व तु त: वह सखी कहना चाहती ह क तु म उस ना यका के चं
मु ख को य नह ं दे खते जो ला लमा से यु त है । उसके ने वयोग के कारण डू बे -
डू बे से है उसक ना सका क र के समान मोहक है । उसके दाँत मोती क तरह
चमक ले ह । उसके घु घ
ं राले केश सू य का काश लगने से चमकने लगते ह ।
दे खत य न अपूरब इ दु म है अर व द रमे ग ह लाल ।
य प ाकर क र बधू इस, मोती चु गै मनी है मतवाल ।
ऊपर ते तम छाय र यो, र त क दबतेन दबै खु ल याल ।
य सु न बैन सखी के व च भये चत व त से वनमाल ।
ढ़ और पारं प रक उपमान के सहारे प ाकर ने ना यका का जो अपूव च खींचा है,
वह व तु त: सु दर है । इसक सबसे बड़ी वशेषता यह है क क व ने कु शलतापूवक प
च ण कया है । प ाकर ने एक अ य ना यका का च ण प ाभरण म कया है ।
ना यका के ने कमल के समान ह अधर मू ंगे के श ,ु तन सू य के समान चमक ले
ह, उनसे एक कार क द ि त नकलती रहती है । बाल अंधकार को भी का लमा म
पीछे छोड़ दे ते ह :
कमल चोर न तु ब अधर वदुम रपु नराधार ।
कु च कोकन के ब दु है, तम के वाद बार ।
क व ने इस वणन म चोर ग के वारा यंजना क है क ये आँख िजसको भी दे ख
लेती ह उसी का मन चु रा लेती ह । इस कार क व ने ना यकाओं के प वैभव का
च ण दो प म कया थम प का सहज या अनलंकृ त च ण वतीय प का
अलंकृत च ण । इस कार च ण म सभी छं द एक से बढ़कर एक ह । प के इस
संि ल ट च ण के साथ - साथ क व ने यथा थान वभ न संग का भी च ण
कया है ।
प ाकर के का य म ने , भृकु ट, तल, व णी अधर आ द व भ न अगांग का च ण
मलता है । यह च ण अ धकांश प म स उपमान के आ य से कया गया है ।
ने वणन-
पाँखन बना ह करै लाखन ह वार आँख,
पावती जो पाँखै तो कहा ध कर डारती।।
व णी वणन-
कहा करौ जो आँगु रन , अनी घनी चु भ जाय.
अ नयारे चख ल ख सखी, कजरा दे त डराय ।
भृकु ट वणन-
छ व छलकन भर पीक पलकन य ह ,
सम - जलकन अलकन अ धकाने वै ।
कहै प ाकर सु जान पखा न तया,
ता क ता क रह ता ह आपुह अजाने हैव ।

220
परसत गात मनभावन के भावती क
च ढ़ गई भौह रह ऐसी उपमाने वै ।
मान अर व द पै च द को चढ ाय द ह ,
मान कमनैत बन रोदा क कमाने वै ।
अधर-
तु व अधरन के हत सखी, म थ लय अमृत जू सार ।
सोई दुसह दुख स अहै, अब ल ग संधु सखार।।
तल-
कैध अर व द म म लदउ सु त सोयो आ न
कैध तल सोहत कपोल क लु नाइ म ।
प ाकर का प - स दय च ण शा ीय नह ,ं वानुभू तज य भी है । उसम
ववरणा मकता कह ं नह ,ं वह तो क व का अनुभू त स य है । क व वयं य क प
माधुर से परािजत है । ना यका क ल जा और सु कुमारता का स दय च प ाकर ने
खींचा है । वह सु कुमार और कोमलांगी है । जो दे खता है वह मु ध हो जाता है ।
उसके मन म संकोच है, झझक है । कसी से बातचीत करती हु ई वह डरती है ।
इस लए घू घ
ं ट का उपयोग करती हु ई ह कटा पात करती है । इसके मु ख मोड़ने,
कटा पात करने, दूसर के साथ बातचीत करने के च ण म प ाकर को बहु त आन द
आता है । उ ह ऐसा लगता है जैसे वह रस के बीज बोती चलती है ।
एक स बतराइ कछू छन एकन को मन हौ चल लै चल ।
एकन को त क घू घ
ं ट म मु ख मो र कनै खन दै चल दै चल ।
प ाकर का प - स दय च ण बा य व प न पता मक के साथ अ तद ि त
न पक भी है । ' गृं ार रस के संग म इनके अनुभाव हाव और अंगज अलंकार क
योजना न संदेह उ च को ट क हु ई है । प ाकर का आधारफलक काफ व तृत है ।
सरस च क योजना म जभाषा के कम क व इनक समानता कर सकते ह ।

18.2.3 प ाकर के का य म लोक जीवन

प ाकर एक दरबार क व थे, उ ह ने अपने आ यदाता नरे श को स न करने के लए


उनक अ तशयोि त परक शंसा क है । वैसे उनका का य-वैभव एवं वलास के बीच
पनपने वाले जीवन का ह क पनामय तथा वा त वक वणन करता है । उनके का य म
य त जीवन क सम त स यता राजा - महाराजाओं तक ह स ब है । क लयुग म
मनु य क तृ णा धन क ओर है, लोक संयोग - वयोग सभी भू ल गये ह, न कसी
म शील बाक है न स य ह दखाई दे ता है, ति ठत जन भींच मांगते फर रहे ह
और वे या द वग के जन - महल म नवास कर रहे है, बु मान को भी जरा - सा
चैन नह ं है, धन - वैभव भी अ य त चंचल है, वह कसी के पास ि थर नह ं रहता ।

221
इस लए प ाकर संसार क असारता म राम - नाम को ह मु य मानते ह, अत:
सांसा रक व तु ओं का आकषण छोड़कर राम से ेम करने क बात लखते ह-
ल ख अ तस म इस सी पंकत बनु कोऊ काम न आया है ।
अब वचन वचा र कह प ाकर यह ई वर क माया है।।
'गंगा लहर ' म क व अपनी द नता का वणन कर रहा है और गंगा से वयं का उ ार
करने का अनुनय कर रहा है, यहाँ पर गंगा तथा उसके आस - पास के वातावरण का
अ य त सजीव च ण है । साथ ह गंगा क प तत पावनता और अपनी द नता का
रोना भी प ाकर ने खु ले दल से रोया है । एक छ द दे खये-
चलो चल चलो चल बचल बीच ह ते,
क च बीच नीच तै कु टु ब को कच र ह ।
ऐरे दगादार मेरे पातक अपार तो ह
गया क कछार म पछार छार क र ह ।।
प ाकर संसार क असारता पर वचार करते हु ए ई वर पचीसी म मोह, लोभ आ द को
छोड़कर जीवन से वर त होकर राम म मन लगाने क बात भी कहते ह । यथा-
कफ बात प त मल मू त हाड़ नस मास धर जहँ छाया है ।
ये ऐसो नं य प ना रन को तनस ेम पगाया है ।
सु भ सु दर याम सरो ह लोचन राम न मन म आया है ।
अब बचन बचार कहत 'प ाकर' यह ई वर क माया है ।
इन वणन के अ त र त प ाकर ने त काल न मेल एवं उ सव के उ लास एवं उ साह
का भी सांगोपांग वणन कया है । उनका होल वणन सबसे स एवं वशेष है ।
यथा-
फाग के भीर अभीरन म ग ह गो व द लै गई भीतर गोर ।
भाई कर मन क 'प ाकर' ऊपर नाई अबीर क झोर ।
द न पत बर क मर ते सु ं वदा दई मी ड कपोलन रोर ।
नैन नचाई कह मु सकाई लला फ र आइयो खेलन होर ।।
होल के अ त र त दशहरा, गनगौर, सलू नो; अखती (तृतीया ) हंडोले आ द के उ सव
का भी प ाकर ने बड़ा ह सजीव वणन कया है । दशहरा राम क वजय के प म
मनाया जाता है, अत: उस दन आन द होना वाभा वक ह है । गनगौर के इस मेले
क धू मधाम का वणन प ाकर के न न छ द म अ य त सजीव हो उठा है । यथा-
यौस गनगौर के सु ग रजा गुसाइन क ,
छाई उदै परु म बधाई ठौर- ठौर है ।
दे ख भीम राना या तमासो ता कबे के लये,
भायी आसमान म बमानन क झोर है ।
नायक - ना यका के मलन के लए क वय ने संकेत - थल का वणन कया है ।
इनम जीवन क स यता के यथाथ च ा त अव य होते ह । ामीण जीवन से

222
स ब संकेत - थल म से कु छ ऐसे थे- पनघट, तालाब, जानवर के चराने के थान
आ द जहाँ ी - पु ष का खु ले प म स पक हो सकता था । अरहर का खेत भी
मलने का सु दर थल था-
धर ह र धीर घर जाइये, अब अरह र क ह हे त ।
का ल भात मलाय ह , य ह अरह र के खेत।।
गाय का दोहना ामीण जीवन का अ य त आव यक काय है । ना यका प त के परदे श
चले जाने पर य को गाय दूहने के बहाने बुलाती है; सायंकाल को दूध दोहने अव य
आना ।

18.3 का य - श प
18.3.1 का य म गृं ार भावना

साधारणत: र तकाल न गृं ार भावना क अ भ यि त दो प म हु ई । थम ल ण



ं के उदाहरण प म तथा वतीय ल य थ म व णत गृं ार भावना के प म
ल ण ग थ म तो शा ीय प रपाट का नवाह कया गया अथात ् आचाय ने ल ण
बना दया िजनका पालन कया गया और उदाहरण म उन ल ण को घटाकर बता
दया गया । प ाकर मु यत: ऐसे ह आचाय क व कहे जा सकते ह िज ह ने ल ण
और उदाहरण प म अपनी गृं ार भावना क अ भ यि त क है । गृं ार रस का
न पण उ ह ने ठे ठ शा ीय भाषा म कया है । यथा-
प रपूरन थर भाव र त सो संगार रस जा न ।
आलंबन उ ीपनहु वै वभाव उर आ न।।
गृं ार के दो प होते ह- संयोग गृं ार और वयोग गृं ार । संयोग गृं ार के दो अंग
ह- प वणन तथा मलन । प वणन म व तु त: प स दय का च ण होता है जो
ने के मा यम से मन का सादन करता है । इसक तीन अव थाएं मानी गई ह-
व तु गत प क अनुभू त, पज य, मान सक आन द क अनुभू त तथा प के त
वासना क अनुभू त । इसके अ तगत प ाकर ने ना यका के अंग शोभा, सु गि ध,
काि त, वलास, मु ा, हावभावा द का च ण कया है ।
प ाकर ने ना यका क सु कुमारता का वणन कया है । पयक के ऊपर बैठे ह बैठे वह
सारे महल को सु वा सत कर रह है । इसक कमर बाल के भार को नह ं संभाल सकती
। इसके चरण इतने कोमल ह क चलने पर मखमल का बछावन भी गड़ता है ।
मलन च ण के अ तगत क व ने नायक - ना यका क अनेक चे टाओं सुर त ड़ा के
बाद क ि थ त आ द का च ण र त पर परा के अनुकू ल ह कया है ना यका के मन
म नायक से मलने क इ छा जाग पड़ी है इस लए वह झरोखे म से झाँकती रहती है
ना यका क सखी उसे समझाने का य न करती है ।
झाँक त है का झरोखे लगी लग ला गवे को इहाँ झेल नह ं फर ।
य प ाकर तीखे कटाछन क सर को सर सेल नह ं फर।।

223
वर हणी के लए वषा क रम झम, बादल क बहार, आकाश म घरे कारे - कारे
बादल, चाँदनी कस कार वयोग को उ तेिजत करती है, इसका रोचक वणन प ाकर
के का य म मलता है ।
अंगन - अंगन मां ह अनंत के तु ंग तु रंग उमाहत आवै,
य प ाकर आसहू ँ पास जवासन के वन दाहत आवै ।
मानव तीन के ं न दाहत आवै,
ानन म जु गुमान के गु ज
बान सी बु दन के चदरा, बदरा वरह न पै ढारत आवै।।
प ाकर क गृं ार - भावना उ छृं खल या अनै तक नह ं है । उ ह ने प त के ेम का
एक अ छा छं द रचा है । प नी को प त नैहर नह ं जाने दे ता, य य प वहाँ के लोग
ना यका के लए दुःखी ह-
मो बन माइ न खाइ कछू 'प ाकर' य भई भाभी अचेत है ।
बीरन आये लबाइवे को तनक मृदुबा न हू मा न न लेत है ।
ीतम को समु झाव त य नह ,ं ये सखी तू जु पै राख त हे त है ।
और तो मो ह सबै सु ख र , दुख र यहै माइके जान न दे त है।।
पत - ेम क बेजोड़ यंजना इस सवैया से होती है । यहाँ व य साम ी साधारण
जीवन से ल गई है । अ धकांश र त क व साधारण जीवन म कम घुसे ह । उनके
लए वणन - साम ी राधा - माधव क ेम ड़ा ह वशेष रह है । प ाकर के यहाँ
भी यह ि थ त दखाई पड़ती है, क तु इ ह ने अपनी वणन - साम ी सामा य जीवन
से भी चु नी है । यहाँ प ाकर ने सामा य जीवन का वणन कया है, वहाँ अनोखापन
आ गया है । प के गव क यंजना का यह उदाहरण दे खए-
है न हं माइको मेर भटू यह सासुरो है सबक स हबो करौ ।
य 'प ाकर' पाइ सोहाग सदा स खयान हु को चा हबो करौ।।
नेह भर ब तयाँ क हकै नत सौ तन क छ तयाँ द हबो करौ ।
चंदमुखी कह होती दुखी तौ न कोऊ कहैगो सु खी र हबो करौ।।

18.3.2 का य-भाषा

प ाकर क भाषा सु मधुर जभाषा है । इस महाक व के काल तक जभाषा अपना प


ि थर कर चु क थी । प ाकर के समय म जभाषा बु दे लखंड म का य - भाषा के प
म च लत थी । व तु त: जभाषा के द णी प का वकास बु द
ं े ल बोल के प म
था । प ाकर का ज म सागर म हु आ तथा उसका लालन - पालन एवं श ा - द ा
बु द
ं े लखंड म हु ई । इस ं े ल भाषा को उ ह ने मातृ - भाषा के
कार बु द प म बोला और
समझा । बु द
ं े ल भाषा के त सहज नेह तथा अपनी भाषा को का य - भाषा के
नकट ले जाने के मोह म प ाकर ने बु दे ल म सं ा श द, या पद, मु हावर तथा
लोकोि तय का योग पया त मा ा म कया है ।

224
अपने जीवन के सं याकाल म शार रक या ध और वा भमान पर ठे स लगने के
कारण प ाकर का भी कु छ अ य शृंगा रक क वय क भाँ त वैरा य और भि त क
ओर झु काव हु आ । प ाकर क भि त - वषयक क वता म भी संसार क ज टलताओं
का ह च ण हु आ है । कह ं पेट क बेगार का न पण है, तो कह ं तृ णा और वैर का
वणन । उनक भि तपरक रचनाओं म संसार क असारता के साथ ह संसार क
भावनाएँ भी भीतर बैठ हु ई ह-
धोखा क धु जा है औ जा है महादोषन क ,
मल क मँजू षी मोह - माया क नसानी है ।
कहै 'प ाकर' सु पानी - भर खाल, 'ताके'
खा तर खराब कत होत अ भमानी है ।
राखे रघुराज के रहै तो रहै पानी, न तौ जंगी जमराज ह के हाथ न बकानी है ।
जा ह ल ग पानी तौ ल दे ह सी दखानी,
फे र पानी गये खा रज परवाल य पुरानी है।।
का य गुण
िजस कार शर र म वराजमान आ मा के शौय आ द धम आ मा के साथ अपृथक्
स ' अथवा नयतावि थत रहा करते ह और आ मत व क ीवृ कया करते ह उसी
कार का य म धानतया वराजमान आन द प रस के भी माधु य, ओज और साद
प रस के साथ अपृथक् स कं वा नयमत: अवि थत रहते हु ए भी रस त व क ह
ीवृ कया करते ह ।
माधु य गुण
जब का य के आ वादन म भावुक दय वीभू त हो जाता है तब उस दशा वशेष को
माधु य गुण कहते ह –
मधुर मधुर सु र मु रलो बजाइ धु न,
धम क धमारन क धाय धाम कै गयो ।
कहै प ाकर य अगर अबीरन क ,
क र कै घलाघल छलाछल चतै गयी ।
को हो वह वा ल न गुवाल न के संग म,
अनंग छ ब बारो रस रं ग म भजै गयी ।
वै गयो सतेह फ र छू वै गयो छरा को छोर,
फगुवा न दै गयो हमारा मन लै गयो ।
ओज गुण
ओज गुण क संभावना वीर, रौ , वीभ स आ द पु ष रस म अपे ाकृ त अ धक होती
है ।
तहं ज काज क ठ काठ क ढ काढ क ढालन क ,
तु पकन क तड़तड़ बानन सड़सड़ मचत सु खड़खड़ मालन क ।

225
साद गुण
यह गुण सवा धक यापक है । कारण रचना के अ ययन अथवा वण मा से अथ
बोध कराने वाले श द क योजना साद गुण क वृि त है । यथा-
गोदावर गोकरन गंगा हू गया हू यह,
ये ह को ट तीरथ को लाभ ल हये ।
कहै प ाकर सु ान यहै यान यहै,
यहै सु खखान सरव व मान र हये ।
ये ह जप ये ह तप ये ह जग जोग यहै,
ये ह भव रोग को उपाव एक च हये ।
रै न दन आठ जाम राम राम राम राम,
सीताराम सीताराम सीताराम क हये ।
र त वृि त का संबध
ं प ट है । म मट ने इ ह एक - दूसरे का पयाय माना है ।
वैदभ र त और उपनाग रका वृि त , गौड़ी र त और प षा वृि त , पांचाल र त और
कोमला वृि त का संबध
ं मश: माधु य, ओज और साद गुण से भी है । अत: इनके
उदाहरण समान होते ह ।
प ाकर ने का य क भाषा को सश त संप न, ांजल. कला मक और भावो पादक
बनाने के और लोकोि तय का योग कया है-
1. बार पके थके अंग सबै मढै मीच गरई पर हर हार सी ।
2. दुख और य कास क य को सु नै ज क ब नता ग फेरे रह ।
3. एक कहै इनै डह लगी पर भेद न कोई लहै दुलह को ।
4. डी ठ सी डी ठ लगी इनके उनक लगी मू ठ सी मू ठ गुलाल क ।
5. म त लाल कर ग याल के खंजन ।
6. नैन नचाइ क यो मु सकाइ लला फ र अइयो खेलन होर ।
7. हा थ जो र गंगा जू स चु गल करे खरे ।
8. कै गई को ट करे जन के कतरे कतरे पतरे क र ह क ।
9. गो पन को चीर चो र मेरो चत चो र ।
10. ऊँची ले त साँस यो हये म य नह ं समा त ।
11. वचारे पाक सासन को सांस न मलती है ।
12. मन तन तु रंग सु तेज क म च रह होडा होड़ है ।
13. टू ट सी पर है कै पर है परजंक पर ।
14. तहाँ तहाँ आपन क धू र उ ड़ जात है ।
15. बीबी न स हा रबे क सु भई सु ध ना र को चार घ र म ।
प ाकर के का य म लोकोि तयाँ भी मलती ह :
1. सांचहु ताको न होत भलो जो न मानत है क ह चार जनै क ।
2. जो ब ध भाल म ल क लखी सु बढ़ाई बढू ै न घटाई घटै ।
226
3. एक दना न हं एक दना कबहु ँ फ र वे दन फेर फरगे ।
4. आपने हाथ स अपने पीय पै पाथर पा र परयो प छताव ।
5. एक जू कंज क ल न खल तौ कहा कहू ँ भीर को ठौर है नाह ं ।
6. चाह सु मे को राई कर र व राई को चाहै सु म बनावै ।
7. बात के लागे नह ं ठहरात है य जल जात पै पानी ।
8. ते सोवत बा द पर पट म बाँध गृं ार ।
9. ी त पयो न ध म धं सकै हँ सकै क ढव हँ सी खेल नह ं फर ।
10. राजा करै सु याउ है पासा परे सु दाउ ।
छं द वधान
वै दक सं कृ त क छ द धातु से उ प न छ द श द का अ भधाथ है आवृत करना,
र त करना या स न करना । का यशा ीय श द म छ द क जननी है लय, जो
हमारे मन से होकर सृि ट के कण - कण म या त है । सामा यत: अ र क सं या,
म, मा ा, मा ा गणना तथा य त - ग त आ द से संबं धत वश ट नयम से
नयोिजत प य रचना छ द कहलाती है । छ द के साथ एक अ य है- पंगल । यह
श द पंगलाचाय के नाम के कारण च लत हु आ । सु म ान दन पंत के श द म हम
कह सकते ह क ''क वता (का य) तथा छ द के बीच बड़ा घ न ठ संबध
ं है, क वता
हमारे ाण का संगीत है छ द क पन, क वता का वभाव ह छ द म लयमान
होता है । िजस कार नद के तट अपने बंघन से धारा क ग त को सु र त रखते ह
उसके बना वह अपनी ह बंधनह नता म अपना वाह खो बैठती है, उसी कार छ द
भी अपने नय ण से राग को पंदन - क पन तथा वेग दान कर, नज व श द के
रोड़ म एक कोमल, सजल, कलरव भर, उ ह सजीव बना दे ते ह ।'' य द हम
यानपूवक दे ख तो ग य और प य म अ तर ह छ द के मा यम से उभरता है ।
अतएव का य और छ द का अ भ न संबध
ं माना जाता रहा है । आज ह द म
अतु कांत और छं द वह न रचनाओं का चार पा चा य भाव से हो गया है क तु अभी
भी ह द म गीतकार क कमी नह ं है और वे अपनी रचनाओं को छं दोब प म ह
तु त करते है।
पा चा य व वान इगरटन ि मथ भी मानते ह क छं दोब भाषा क व क त ी क
झंकार है । उसक भावनाओं का नादमय च है तथा भाव क ेषणीयता म सहायक
है । अ तस म उमड़ने वाले भाव को य त करने के लए जब क व भाषा म लय
और वर का संयोजन करता है तब ेषणीयता अपे ाकृ त अ धक बढ़ जाती है । का य
म भाव लह रय के अनु प भाव और व न का जो उतार- चढ़ाव हम दे खने को मलता
है वह वा तव म क वता के लय क थम अव था है । इ साइ लोपी डया टे नया के
अनुसार भी लय अलंकृ त तथा सजीव प य- योजना म अ धक आव यक है । यह ोता
क क पना को जागृत कर और भावो तेिजत कर व य वषय का अनुभव कराती है ।
लय क पूणता क भावक वयं हमार वणेि य ह है ।

227
भारतीय सा ह य म छं द के दो प मलते ह- 1. सं कृ त 2. ाकृ त । सं कृ त छं द म
वण क गणना होने के कारण उ ह व णक छं द कहा गया है तथा ाकृ त छं द म
मा ाओं क गणना होने के कारण उ ह मा क छं द कहा गया है । डॉ॰ नगे ने लखा
है- 'वीरगाथा काल म व णक छं द का भी योग हु आ, पर तु उनक अपे ा दोहा,
छ पय प त के आ द मा क छं द कह ं अ धक च लत थे । भि त काल के गेय पद
को तो मा क छं द का कोमलतम प कहा जा सकता है, उनका स दय सवथा वर
पर आ त है, पर तु भि त काल के उपरांत र त का य को अचानक ह दो व णक
छं द ने- मेरा अ भ ाय सवैया और घना र से है- आ छा दत कर लया ।''
भाव प
डॉ॰ गो व द गुणायत के अनुसार - ''भाव हमारे दय के उ बु मनो वकार होते ह जो
जीवन और जगत के स पक से उ प न होकर हमारे दय म सु ताव था म घनीभू त
होते रहते है । का य सृजन के ण म कव दय म उ ी त होकर तथा का य वण
पठना द के वारा र सक ( ोता पाठक) के दय म फु टत होने के कारण का य
सृजन के मू ल कारण और प रणाम यह होते ह ।'' का यशा ीय प रभाषा म वभाव,
अनुभाव, संचार भाव आ द के संयोग से रस न पि त के आ द कारण भी भाव होते ह
। शाि दक या यु पि तक ि ट से भावयि त (प र या त अथवा यंिजत करने वाला)
होने से ये भाव कहलाते ह । व तु त: भाव का अथ कारण है, य क यह भा वत
रा सत तथा कृ त का समानाथक है और इसक मू ल धातु भावय का अथ है- प र या त
होना । इस कार जब वभाव अनुभाव का अथ पाठक या दशक के मन म प र या त
कया जाता है तो यह भाव कहलाता प ाकर का कृ त व दो प म मलता है । थम
शा ीय िजसको उ ह ने सं कृ त क और अपने समय म बहु च लत ल ण उदाहरण
शैल म तु त कया है । वतीय वत मु काक छ द के प म जहाँ क व ने वयं
को य त कया है । इन सभी रचनाओं म समथ अ भ यि त और समथ का य -
कला के दशन होते ह ।
कला-प
प ाकर र तकाल के क व ह । र तकाल म िजतने भी का य लखे गये वे सभी
र तकाल के अ तगत आते ह । उनम भाव क अपे ा कला क स क गई है ।
जहाँ तक भाव प का न है उसक सीमा नि चत क जा चु क थी । कसी
आ यदाता का वणन करना है तो उसके राजक य वैभव यि तगत गुण वशेषकर यु
वीरता और दानवीरता का ह अ युि त पूण ढं ग से वणन क व को करना पड़ता था,
ना यका - भेद, षडऋतु वणन नख - शख का उ लेख करना उनका धम था । अत:
प ाकर को वह सब कु छ करना पड़ा जो अ य क वय ने कया । सभी क वय म
भाव उपादान, उपमान ाय: एक से ह क तु उनक अ भ यि त प ह उनक शैल
है, िजसके कारण वे एक दूसरे से पृथक् दखाई पड़ते ह । र तकाल न क वता के कला

228
प के मु ख प से भाषा, अलंकार, उि त, वै च य र त वृि त गुण छं द आ द
उपादान ह । इसी कसौट पर हम प ाकर के का य के कला - प को दे ख सकते ह ।
भाषा क च ा मकता- भाषा भावा भ यंजना म सहायक होती है । इसके दो प होते
ह- सांके तक और ब ब वधायक । सांके तक म केवल भाषा अथ बोध का कारण
बनती है तथा ब ब वधान म भाषा ऐसा च मय प हण करती है क उसके वारा
स पूण च ह प ट हो जाता है । यथा :
फाग के भीरे अभीरन त ग ह गो वंद लै तई भीतर गोर ।
भाई कर मन क प ाकर ऊपर नाई अबीर क झोर ।
भाषा क ला णकता- र तकाल न क वता म भाव को मू त प म च त करने के
लए श द शि तय क सहायता लेनी पड़ती है । इसम भी वशेष प से ल णा श द
- शि त सहायक होती है।
कनर नर है कै छर है छ वदार पर ।
वी सी पर है क पर है परजंक पर ।
यह ं पर पर श द अपना अथ रखते हु ए भी सु दर नार का बोधक है । मनोहार कम
के कारण अथवा ी जा त से संबध
ं रखने के कारण ता क य अथवा सजा य संबध
ं से
शु ा है ।
भाषा म सांके तकता- भाषा म सांके तकता से ता पय है अ भघा से । अ भधा श द
शि त से सा ात ् सांके तक अथ क ती त होती है । ल णा और यंजना दोन श द
शि तय के मू ल म अ भधा क वाचक शि त न हत रहती है । इसम मु याथ का
चम कार रहता है । प ाकर ने अपने का य म इस शि त का सु दर और बहु लता से
योग कया है । उनका न न ल खत छं द वणना मकता तथा अ मधा शि त के लए
बहु त स रहा है
गुलगुल गलम गल चा ह गुनीजन ह,
चाँदनी है चक है चरागन क माला ह ।
भाषा म तीका मकता- र तकाल न का य म तीक एक नि चत अथ के लए ि थर
कए जा चु के थे । येक तीक अपने मू ल म ब ब होता है और मौ लक प म
मश: वक सत होकर तीक वन जाता है । तीक वयं गौण होता है, मु यत: उस
दशा क होती है िजधर वह नर तर संकेत करता है । यह उसका ब ब से मौ लक
अ तर है । डॉ॰ बु राज ने क व प रपाट गत तीक को तीन वग म रखा है- 1.
वन प त जगत से संबं धत 2. ाणी जगत से संबं धत 3. घरे लू जीवन से संबं धत ।
आचाय रामच ं म कहा है- ''कह तो इनक भाषा
शु ल ने प ाकर क भाषा के संबध
ि न ध, मधु र पदावल वारा एक सजीव भावभर ेम मू त खड़ी करती है, कह ं भाव
या रस क धारा बहाती है, कह ं अनु ास क मी लत झंकार उ प न करती है, कह ं
वीरदप से सु ख वा हनी के समान अकड़ती और कड़कती हु ई चलती है और कह ं शांत
सरोवर के समान ि थर और गंभीर होकर मनु य जीवन को व ां त क छाया दखाती

229
है । सारांश यह क इनक भाषा म वह अनेक पता है जो एक बड़े क व म होनी
चा हए । भाषा क ऐसी अनेक पता गो वामी तु लसीदासजी म दखाई पड़ती है ।''
आचाय शु ल के इस कथन के वारा प ाकर क भाषा के सभी गुण प ट हो गए ह।
भाषा म संगीता मकता- प ाकर के का य क दो वशेषताएँ मानी जाती ह- पहल
च ा मकता और नादा मकता । उ ह ने अपने का य म वण का इस ढं ग से योग
कया है क उनसे नादा मकता वयंमेव ह फूट पड़ती है तथा वर लहर से संगीत
नःसृत होने लगता है ।
छं द- प ाकर के का य म मु यत: तीन कार के छं द मलते ह- दोहा, क व त और
सवैया । दोहे का योग ाय: ल ण के लए हु आ है । प ाभरण म ल ण और
उदाहरण दोहे म दए गये ह ।

18.3.3 अलंकार योजना

भाषा को सु सि जत एवं भावपूण बनाने के लए क वगण भाषा म अलंकार का बहु धा


योग करते रहे ह । इसी कारण भाषा क वृि त वशेष बन गई । प ाकर ने भी
अपनी भाषा को अलंकृत कया है । उ ह ने वेणी का एक अभेद पक दया है-
जा हरै जागन सी जमु ना जब बुड़े बहे उमहै वह बेनी ।
य प ाकर ह र के हारन गंग तरं गनी को सु ख दे नी ।
पायल के रं ग सो रं ग जा त सी भाँ त ह भाँ त सर वती सेनी ।
पैरै जहाँई जहाँ वह बाल तहाँ तहाँ ताल म होत बेनी ।
इसी कार का एक च ण है िजसम नवयौवन के उतु ंग उरोज के अनंत स दय को
दे खकर मानो शैशव और यौवन का यु हु आ और इसम शैशव परािजत होकर भाग
गया -
छाई उरोजन क छ ब य , प ाकर दे खत ह चक च धे ।
भािज गई ल रकाई मन ल रकै क रकै दुं हु दुं द ु भ औंधे।।
क व ने श द लेष के चम कार से याज तु त अलंकार को प ट कया है -
हौ तो पंचभू त तिजबे को त य तो ह पर,
तै तो करयो मो ह भल भू तन को प त है ।
कहै प ाकर सु एक तन ता रबे क ,
क ह तन यारह कह सो कौन ग त है ।
मेरै भाग गंग यहै लखी भागीरथी, तु ह
क हए कछुक तौ कतेक मेर म त है ।
एक भव झू ल आयौ मे टबे को तेरे कू ल,
तो ह तो सू ल दे त बार न लग त है ।
उि त वै च य- व ोि त के मा यम से कथन म स दय उ प न कया जाता है । यह
अ भ यि त क एक णाल है िजसके वारा कथन म एक व श ट चम कार उ प न
कया जाता है । यथा-

230
1. ह इ ह बाग क मा ल न ह इत आए भले तु म ह बनमाल ।
2. कब ल खह इन गन स वा मु ख क मु स यान ।
3. ता खन त इन आँ खन त न कढयो वह माखन चाखन हार ।
इन पंि तय म इ ह के वारा बाग क सु दरता का, वा के वारा मु ख क सु दरता
का तथा वह के वारा कृ ण क रस लोलु पता का संवरण कया गया है ।
का य - श प के संदभ म प ाकर क अलंकार - योजना भी वचारणीय है । उनक
अलंकार - योजना व तु का व प हण कराने और भाव क अनुभू त ती कराने म
सहायक है । उ ह ने ाय: सा यमूलक अलंकार - उपमा, पक, उ े ा आ द का ह
उपयोग कया है-
वंद ु घने मेहँद के लस कर, ता पर य रहयो आनन आई क । इंद ु मनो अर वंद पै
राजत इं वध के वृंद बछाइ क।।
सा य और साध य दोन वचार से यहाँ उ े त उपमान ठ क पड़ते ह । प ाकर ने
भीषण उ े ाएँ नह ं क ह । बदा के छटककर गरने पर क व क उ े ा दे ख-
नीलम न - ज टल सु बदा उ च कु च पै, परयो है
टू ट ल लत ललाट के मजेजे त ।
मानो ग यो हे म ग र सृंग पै सु के ल क र
क ढ़ कै कलंक कल न ध के करज त।।
लेष और उपमा के सहारे वरह क यंजना म कहा गया है-
याह छन वाह स न मोहन मलौगे जो पै,
लग न लागइ एती अ ग न आबती - सी ।
रावर दुहाई तौ बुझाई न बुझेगी फे र,
नेह - भर नागर क दे ह दया बाती - सी।।
भावानुभू त ती कराने वाले अलंकार के अ त र त प ाकर ने शु चम कार उ प न
करने वाले अलंकार भी रचे ह । प ाकर क अलंकार - योजना के संदभ म प ाभरण
उ लेखनीय है । यह है भी अलंकार ं , जो महाराज जसवंत संह के 'भाषाभू षण' क

शैल म लखा गया है । इसम ाय: एक ह दोहे म अलंकार के ल ण और उदाहरण
दोन दए गए ह । पूवाहन म ल ण, उ तरा म उदाहरण । जैसे-
1. तीप- सो तीप उपमान को जहँ क जै उपमेय ।
मु ख सो सो भत सरद - स स - कमल सलोचन सेय।।
2. मी लत- सो मी लत सा सा त भेद न जा यो जाइ ।
अ न अधर म पीक क ल क न पर त लखाई।।
ऐसी तमाम पु तक का आधार थ
ं जयदे व का च ालोक है । ले कन प ाकर के
'प ाभरण' पर बैर साल के 'भाषाभरण का भी भाव दखाई पड़ता है । य य प इस थ

म केवल शृंगा रक उदाहरण दे ने का दुरा ह नह ं दखाया गया है । फर भी प ाकर'
क गृं ार चेतना क बानगी इसम दे खी जा सकती है ।
231
18.4 श दावल / वचार संदभ
कटा पात - तरछ आंखो से दे खना
वानुभू तज य - यि तगत अनुभू त से उपजा बाद के
परवत - बाद के
आनन - चेहरा
उ तरा - खाट, प लंग
होड़ाहोड़ी - पधा
शैशव - बचपन
ऊहा मक - व च तापूण
सादगुण - सरलता सहजता का गुण तोता
कर - तोता
अर व द - कमल
नैहर - ी के लए माता- पता का घर
प रपाट गत - परं परा से या ल क पर के
व य - िजसका वणन कया गया हो
ठे ठ - शु (पुराने के अथ म)
प रव तत - बदला हु आ
गौण - कम मह व वाला
समक ता - बराबर
तंकपन - धड़कन

18.5 मू यांकन/सारांश
र तकाल के सभी क वय को आचाय व और क व का कम एक साथ करना पड़ा ।
संभवत: यह राजदरबार म आ य पाने के लए आव यक था । इसका दूसरा कारण यह
भी हो सकता है क का यगुण से ह न र सक जन को का य म न हत चम कार को
समझाने के लए पहले उसके ल ण को बतलाना, िजससे क पाठक या ोता उस
का य म अ भ य त क हु ई भावनाओं को समझ सक तथा चम कार को हण कर
उसका आन द उठा सक । र तकाल म भाषा, अलंकार, उपमान, तीक सभी कु छ
नि चत थे ऐसी ि थ त म केवल अ भ यि त म नवीनता उ प न कर ह का य
चम कार को प ट कया जा सकता था । प ाकर ने इसके लए अनु ास अलंकार को
अपनाया और इसके मा यम से या तो च ा मकता क अ भ यि त क या नाद स दय
का सागर लहरा दया । प ाकर एक े ठ क व और का यकला के वामी थे । उनका
र तकाल न क वय म एक व श ट थान है । उनक े ठता का य - र त क र ा
म है । उनक का य कलागत व श टताएँ और त संबध
ं ी उपलि धयाँ भी मौ लकता क
प रचायक ह और उनके का य क उ कृ टता क सा ी भी । यह कारण है क उनके
समकाल न तथा परवत क वय ने उनका अनुकरण कर उनके यश को ि थर कया ।

232
18.6 अ यासाथ न
नब धा मक न
1. ''अ धकांश र तकाल न क वय क क वता म लोकजीवन क अ भ यि त का अभाव
है क तु प ाकर इसके अपवाद ह ।'' कथन क समी ा क िजए ।
2. ''प ाकर के का य म र तकाल न क वता क सभी वशेषताएं उपल ध होती ह ।''
इस कथन क सोदाहरण समी ा क िजए ।
3. र तकाल न कृ त च ण क पृ ठभू म म प ाकर के कृ त च ण क वशेषताओं
को प ट क िजए ।
4. प ाकर ने यौवन और प के जो स दय च अं कत कए ह, उनका मह व
बताइए ।
5. प ाकर क अलंकार योजना पर एक सं त लेख ल खए ।
6. प ाकर क गृं ार भावना को प ट क िजए ।
लघु तरा मक न
1. प ाकर क क वता म का य गुण पर ट पणी ल खए ।
2. प ाकर के का य म छं द वधान समझाइए ।
3. भाषा क ला णकता से या ता पय है?
4. प ाकर क क वता के लोकप पर वचार क िजए ।
5. प ाकर के य दो अलंकार सोदाहरण बताएं ।
6. प ाकर के का य का मु य वषय या है?
सभी उ तर के लए इकाई अ छ तरह पर कर समझ और उ तर तलाश । न के
उ तर के लए सभी या याएं ठ क से पढ़े ।

18.7 स दभ ंथ
1. ह द सा ह य कोश
2. रामच शु ल - ह द सा ह य का इ तहास
3. डॉ॰ ब चन संह - ह द सा ह य का दूसरा इ तहास
4. सं॰ डी॰ नगे - ह द सा ह य का इ तहास
5. नगे - र तकाल क भू मका
6. सं॰ पं डत व वनाथ साद - प ाकर थ
ं ावल

233
इकाई- 19 घनान द का का य
इकाई क परे खा
19.0 उ े य
19.1 तावना
19.2 जीवन-वृ त एवं कृ तयाँ
19.3 का य वाचन और या या
19.3.1 लाज न लपेट चतव न भेदभाव भ र
19.3.2 वहै मु स या न वहै मृदु बतरा न वहै
19.3.3 मोर ते सांझ ल कानन ओर
19.3.4 कार कूर को कला
19.3.5 चंद चकोर क चाह करै
19.3.6 अ त सू धो सनेह को मारग है
19.4 श दावल / वचार संदभ
19.5 सारांश
19.6 अ यासाथ न
19.7 संदभ थ

19.0 उ े य
इस इकाई को पढने के बाद आप :
 घनान द क क वता के व प से प र चत हो सकगे,
 क व त-सवैय क समु चत या या कर सकगे,
 क वता म यु त क ठन श द का अथ बता सकगे,
 क वता म यु त श द- योग क बार कय को समझ सकगे,
 का य-भाषा क ला णक मू तम ता को उ घा टत कर सकगे,
 अपनी युगीन धारा के अ य क वय से घनानंद क नजी वशेषता को कु शलता
पूवक रे खां कत कर सकगे
 क व क अ भ यि त- मता के सहज सौ दय को उ घा टत कर सकेग ।

19.1 तावना
तु त इकाई म आपके पा य म म नधा रत का यांश क या या के मा यम से
घनानंद क क वता क आंत रक अनुभू तयाँ एवं श प स ब धी वशेषताओं से प र चत
कराने का यास कया जाएगा । इन या याओं के मा यम से यह दखाने का भी
यास कया जाएगा क घनानंद ने र तब तथा र त स क वय से ह नह ,ं वरन ्
अपने वग के र तमु त क वय से भ न अपनी एक नजी वशेषता था पत क है ।
घनानंद ने ढ़य से बंधे हु ए अ तु त वधान या ढ़ त अलंकार का सहारा लए
234
बना भाषा क आंत रक शि तय - ल णा और यंजना के सहारे अपनी अनुभू तय को
अ य त मा मक ढं ग से पाठक को दयंगम कराया है । जभाषा के सहज- वाभा वक
और याकरण स मत प के साथ ह भाषा क श द शि तय के समु चत योग
वारा घनानंद ने जभाषा वीण और भाषा वीण- दोन ह प म अपने युग के
क वय म अपनी सव े ठता था पत क है । इन सभी त य को आगे क गई
या याओं से आप अ छ तरह समझ सकगे ।

19.2 जीवन-वृ त एवं कृ तयां


घनानंद के मम अ येता और 'घनानंद थ
ं ावल के संपादक आचाय व वनाथ साद
म ने क व क अनुमा नत ज म त थ सं. 1730 व. और मृ यु सं. 1817 व मी
नधा रत क है । घनानंद, आनंदघन और आनंद के ववाद को दे खते हु ए लगता है क
इस नाम के कई क व हु ए है । इन पर व तार से वचार करते हु ए आचाय म ने
घनानंद क ामा णक रचनाओं का सं ह 'घनानंद ं ावल ' म कया है ।

एक कं वद ती के अनुसार घनानंद मु ह मद शाह रं गीले के दरबार थे । वहां एक क व
के प म नह ,ं वरन एक कमचार के प म वे रहते थे । वे दरबार म एक मीर मु ंशी
या वजीर थे- इस वषय म प ट प से कु छ नह ं कहा जा सकता । राजदरबार म वे
अपनी क व व शि त के लए नह ,ं वरन ् संगीत- नपुणता के लए स थे । बादशाह
क कृ पा और सु जान नामक पवती दरबार वे या से ेम के कारण घनानंद कु छ
दरबा रय के वेष के शकार बने । षड़यं क भावना से े रत दरबा रय ने बादशाह
को बताया क घनानंद बहु त अ छा गाते है । दरबा रय को मालूम था क वे अपनी
संगीत कला को दरबार नह बनाना चाहते । अत: बादशाह के अनुरोध पर भी उ ह ने
गाया नह ं । जब दरबा रय ने बताया क सु जान के अनुरोध पर वे अव य गायगे तो
उ ह दरबार म बुलाया गया । उनके अनुरोध पर गाते हु ए वे इतने त मय हो गए क
जब गीत समा त हु आ तो उनका मु ख सु जान क ओर और पीठ बादशाह क ओर हो
गयी । इस अ श टता के लए उ ह राजदरबार से नकाल दया गया । नकाले जाने
पर जब इ ह ने सु जान को भी साथ चलने को कहा तो उसने इनकार कर दया ।
राजदरबार से न कासन और सु जान क उपे ा के बाद ह इ ह ने क व के प म
या त ा त क । इससे प ट है क इनक क वता वयोग ज नत है ।
यहाँ यह वशेष प से यान दे ने क बात है क घनानंद अपने समय के काफ
ववादा पद यि त रहे ह । जहां एक ओर उनके जनाथ, हतवृ दावनदास आ द जैसे
बहु त सारे शंसक रहे है, वह ं दरबा रय के साथ ह ह दू समाज के कणधार क
न दा के पा भी वे बने है । इनक न दा के प म 'यस क व त' शीषक से एक
भड़ौवा मला है, िजसम इनके जीवन के बहु त सारे त य तु त हु ए ह । काय थ
प रवार म ज म लेकर 'तर कनी का ब दा' बनना, दूसर क वाणी का चोर और अनेक
समाज वरोधी काम करने वाला बता कर इस न दापरक रचना ने क व के जीवन के
अनेक ामा णक त य भी उपि थत कए ह, िजसका एक उदाहरण ह-

235
''डफर बजावै डोम डाड़ी सम गावै, काहू
तु रकौ रझावै तब पावै झू ठो नाम है ।
हु र कनी सु जान तु र कनी को सेवक है,
तिज रामनाथ वाको पूजै काम- धाम है ।''
इस भड़ौवे के रच यता ने घनान द क न दा के बहाने बहु त-से ामा णक त य हमारे
सामने तु त कर दए है । सु जान नामक मु सलमान वे या से ेम, काय थ कु ल म
ज म, मु सलमान का दरबार होना, दूसर क वाणी चु रा कर क वता करना, जभू म म
कह ं बाहर से आकर बसना, भि त का नाटक करना आ द ऐसे उ लेख ह, जो घनानंद
के जीवन-वृ त को का शत करते ह ।
आचाय व वनाथ साद म ने 'घनानंद ं ावल ' क भू मका म इनक सु जान हत,

कृ पाकंद, वयोग वे ल, इ कलता आ द चाल स छोट -बड़ी रचनाओं का उ लेख कया है
। इनके मा यम से भाषा वै व य के साथ ह वषय वै व य भी हमारे सामने आता है
। बहु त-सी रचनाओं म पूव ह द , अवधी, पंजाबी, राज थानी आ द के साथ ह अरबी-
फारसी म त भाषा का भी योग मलता है । ले कन घनानंद के समसाम यक और
उनक क वता के शंसक जनाथ वारा अ य त म से तैयार कया गया 'घनानंद
क व त' सबसे ाचीन ं है िजसम 500 क व त सवैए ह । यह इनक क त का

मु ख तंभ है, िजसे आचाय व वनाथ साद ने म ने 'घनानंद क व त' शीषक से
का शत कया है । तु त इकाई म क व क वशेषताओं के उ घाटन म इसी रचना
को आधार बनाया गया है । यहां सारे उ रण इस रचना के साथ ह 'घनानंद ं ावल '

से दये गये हे ।

19.3 वाचन और या या
19.3.1 लाज न लपेट चतव न भेद-भाय-भर

''लाज न लपेट चतव न भेद-भाय-भर ,


लस त ल लत लोल-चख- तरछा न म ।
छ व को सदन गोरो बदन चर भाल,
रस नचु रत मीठ मृदु मु स या न म ।
दसन दमक फै ल हय मोती-माल हो त,
पय स लड़ क ेम-पगी बतरा न म ।
आनँद क न ध जगमगा त छबील बाल,
अंग न अनंग रं ग ढु र मु र जा न म ।''
स दभ : तु त क व त घनानंद क क वता से लया गया है । घनानंद र तकाल के
र तब , र त स ह नह ,ं र तमु त क वय म भी सव े ठ माने गए ह । भाव के
य ीकरण के साथ ह सौ दय के य ीकरण म भी घनानंद ने अपनी एक ल क

236
बनायी है । बहार तथा अ या य र तब क वय ने सौ दय के च ण म ाय: उसक
मा ा का च ण ह अ धक कया है । ले कन घनानंद ने सौ दय क मा ा क जगह
दय पर पड़ने वाले उसके भाव का वशेष प से च ण कया है । तु त क व त
म इस त य को आसानी से अनुभव कया जा सकता है।
संग - र तकाल न र तब क वय म ना यकाभेद- न पण के साथ ह उनके सवाग
नख- शख वणन क ढब पर परा रह है । इसके लए उ ह ने ना यकाओं के
व भ न अंग को मू त करने के लए पर परा त उपमान का ह अ धक सहारा लया
है । फल व प उसम अंग के सौ दय क मा ा ह अ धक साकार हु ई । शर र के
व भ न अंग के वणन क ओर घनानंद क भी वृि त दखाई दे ती है । इस ि ट से
ने , मु ख, दांत, ीवा, ना भ, पंडल , पांव आ द के साथ ना यका का सौ दय- च ण
उ लेखनीय है । ले कन यहां क व- ि ट अंग के आकार- कार क ओर न होकर उसके
दय पर पड़ने वाले भाव पर ह अ धक है । र तकाल म बहार को सौ दय का
मह वपूण चतेरा माना जाता ह । उनके यहां ना यका के अंग क शोभा इतनी अ धक
होती है क उन पर धारण कए गए आभू षण 'दपण म लगे मोरच (ध बे) जैसे दखाई
दे ते ह, अथवा 'मु ख क शोभा इतनी काशमान होती है क अंधेरा घर भी द पक के
बना ह काशयु त हो जाता है । यह नह ,ं वरन ् दपण स श ना यका के शर र पर
धारण कए गए आभू षण दोहरे , तहरे , चौहरे प म त बि बत होने लगते ह' ।
न न ल खत दोहे म बहार ने सौ दया ध य क मा ा को अ तशयोि तपूण बना दया
है:
‘भू षन भार संभा रयै य य ह तन सु कुमार,
सु धे पाँव न धर परै सोभा हू ं के भार ।‘
शोभा (सौ दय) के बोझ से ना यका के पाँव जमीन (धर) पर लड़खड़ाने लगते ह । वह
आभू षण का भार (बोझ) कैसे संभाल सकती है । घनानंद ने सौ दय- च ण म इरा
कार मा ा मक अ तशयोि तय से अपने को बचाते हु ए सौ दय के भाव- च ण पर
अपनी ि ट केि त क है, िजसका अनूठा उदाहरण तु त क ब त है । इसम क व ने
ने क या, मु ख, ललाट और मु कान, दांत क शोभा के साथ ह थरकन से यु त
ना यका क नृ यरत भं गमा का अ यंत ग तशील च तु त कया है ।
या या : नृ यरत ना यका ल जा से लपट , रह यमय भाव से प रपूण , सु दर चंचल
एवं ने क तरछ चतवन के कारण अ य त आकषक तीत होती है । सु दर ललाट
से यु त सौ दय-गृह के समान गोरे मु ख से रस टपकाती मधुर और कोमल मु कराहट
दशक को भाव वभोर कर दे ती है । जब वह य के त लाला यत होकर वातारत
होती है तो उसके दांत क आभा (दमक) फैलकर दय पर मु तामाल का प धारण
कर लेती है अथात दय को अ य त आ लाद से भर दे ती है । नृ य के आरोह-अवरोह
(ढु र-मु र) म आन द क खान वह सु दर बाला अपने अंग क थरकन से कामज य
छटा से दशक को अ भभू त कर दे ती है ।

237
वशेष :
1. अलंकार क जगह वशेषण का व श ट योग चतव न (दे खने का ढं ग) के लए
लाज न लपेट और 'भेद-भाव-भर ं का वशेषण के प म योग । इसका अथ हु आ
ल जा और रह यपूण भाव से यु त चतव न । इसी कार ल लत (सु दर), लोल
(चंचल), तरछा न ( तरछे ) ने के वशेषण वन कर आए ह । आगे मु ख के लए
'छ ब को सदन और गोर (गौर) तथा भाल (ललाट) के लए सु दर ( चर) और
मु कान के लए मीठ -मृदु (कोमल) का काम करते है ।
2. कुछ व श ट अंग और आं गक याओं के मा यम से सौ दय म ग तशीलता
उ प न क गयी है ।
3. इस क व त म एक नृ यरत ना यका का अ यंत ामा णक और ग तशील सौ दय-
च तु त कया गया है ।
4. यहां नृ यरत एक ना यका का वानुभू त च ण हु आ है । घनान द ने राजदरबार म
रहकर सु जान आ द जैसी नत कय के नृ य को गहराई से दे खा-परखा था । अत:
गायन-वादन, नृ या द क व भ न भं गमाओं से उनका य प रचय था ।
घनानंद ने अपने क व त और सवैय म इस कार के अनेकश: अ य त ामा णक
च तु त कए ह । एक अदभूत संगीत दे प म नृ य क ओर -उनका वशेष
यान रहा है ।
श दाथ: लपेट = लपट हु ई, भेद-भाव = गढ़ भाव से यु त, बदन = मु ख, दसन-
दमक = दाँत क चमक या आभा, लड़ क = ललक के साथ, बाल = बाला या
ना यका, अनंग-रं ग = कामज य छटा या शोभा, ढू र-मु र = आगे बढ़ने और मु ड़ने म
अथात नृ य के आरोह-अवरोह म ।

19.3.2 वहै मु स या न, वहै मृदु बतरा न वहै

''वहै मु स या न वहै मृदु बतरा न है,


लड़क ल बा न आ न उर म अर त है ।
वहै ग तलैन औ बजाव न ल लत बैन,
वहै हं स दै न, हयरा त न टर त है ।
वहै चतुराई सो चताई चा हबे छ व,
वहै छै लताई न छनक वसर त है ।
आयन नधान ान ीतम सु जान जू क
सु ध सब भा तन स बेसु ध कर त है ।''
स दभ : अनुभय न ट (एकतरफा) वषम ेम क पीड़ा घनानंद के का य क एक बहु त
बड़ी वशेषता है । इस पीड़ा का मु ख आधार य क पूवकाल न मृ तयां ह ह । इस
कार क वरहो पादक मृ तय क बहु लता घनानंद को बोधा, आलम, ठाकु र आ द
जैसे अ य र तमु त क वय से भ नता दान करती है । बोधा को वयोग के बाद

238
संयोग के प म उ ह सु भान क ाि त हु ई थी और आलम को अंततः शेख क ।
ठाकु र का कह ं एक न ठ ेम था ह नह ं । ले कन घनानंद को सु जान नामक े मका
से जीवन पय त वयु त रहकर एक न ठ भाव से वरह को झेलना पड़ा । घनान द क
इस वषम- यथा क वशेषता के संबध
ं म समकाल न और उनक क वता के परम
पारखी जनाथ ने लखा था, ''समझे क वता घनआनंद क हय-आं खन नेह क पीर
तक ।'' क व के म और शंसक महा मा हत वृ दावनदास ने भी उसक मृ यु पर
भाव- व वल होकर ांज ल दे ते हु ए कहा था, '' वरह सो तायो तन नबा यो वन सांचो
पन, ध य घनआनंद मु ख गायी सोई कर है ।'' इस त य को वयं रे खां कत करते हु ए
घनानंद ने लखा है, ''लोग ह ला ग क व त बनावत मो ह तो मेरे क व त बनावत ।''
अथात ् घनानंद ने र तब क वय क भां त लगकर, जोड़-तोड़ कर क वता नमाण का
काय नह ं कया, उनक क वता ने ह उनका नमाण कया है । इसी लए वे अ धकांश
र तब क वय क तरह वयोग का नाटक करते हु ए, उधार के आँसू बहाने वाले न
होकर अपनी यथा से रोते-कराहते दखाई दे ते ह । इस वा त वकता को रे खां कत करते
हु ए आचाय रामच शु ल ने लखा है, '' ेम क पीर ह लेकर इनक वाणी का
दुभाव हु आ । ेम-माग का ऐसा वीण और धीर प थक जभाषा का दूसरा क व नह ं
हु आ'' ।
संग : संयोग-काल क सु खा मक मृ त वयोग-काल म सु त पीड़ा क आग को कु रे द
कर व लत कर दे ती है । इस त य को यान म रखकर ह र तमु त क व बोधा ने
लखा था क '' ेम को पंथ कराल महा, तरवा र क धार पै धावनौ है ।'' कभी-कभी
वच लत होकर घनान द को भी कहना पड़ जाता है क ''दरै िजन कोऊ सनेह क
फांसी ।'' वैसे का यशा म मृ त को संचार के प म णभंगरु माना गया है, जो
सु ख या दुःख को संच रत कर समा त हो जाता है । ले कन घनानंद के यहां मृ त
संचार नह ,ं वरन एक कार से थाई भाव वन गयी है । व तु त: यह ि थ त वयोग
क शा वतता के कारण पैदा हु ई है, िजसम ेमी समझता ह नह ,ं व वास भी करता
है क य कभी उसके अनुकू ल नह ं हो सकता । वैसे अतीत क मृ तयां वतमान को
संबल दान करते हु ए उ वल भ व य के लए संधान तु त करती ह । ले कन
अनुभय न ठ ेम के कारण घनानंद के यहां व च ि थ त वन गई है । इस व च ता
क ओर संकेत करते हु ए घनानंद ने वयं लखा है, ''न हं आव न औ ध न रावर आस,
इते पै एक सी बाट चहो''- अथात ् ''न तो आपने आने क कोई अव ध द है और न
आपके आगमन क आशा है, फर भी एकटक आपके माग क ती ा कर रह हू ं ।
तु त क बत म य क संयोगकाल न मृ तयां ेमी को कस कार पी ड़त करती है,
इसका सु दर अंकन हु आ है ।
या या : संयोग काल न मृ तय क पीडादायकता का उ लेख करते हु ए वर हणी
कहती है क तु हार वह मु कान, कोमल-मीठ बातचीत, लाला यत करने वाल आदत

239
दय म अडकर पीड़ादायक वन गई ह । तु हार वह म त चाल, सु दरवेण-ु वादन, बीच-
बीच म हंसने क मृ त दय से हटती ह नह ं । वह चतु राई से दे खकर आक षत
करने वाल छ व और तु हारा वह रं गीलापन एक ण के लए भी नह ं व मृत होता ।
''आन द के घर, ाण के समान य सु जान क सु ध (याद) सभी कार से मु झे
बेसु ध (बेहोश) कए रहती है ।''
वशेष :
1. श द- योग मुस या न, बतरा न लड़क ल वा न आ द के मा यम से जहां
अं यानु ास अलंकार क सृि ट हु ई, वह ं श द के यंजक योग का या मकता क
सृि ट करते ह ।
2. 'ग तलैन, ल लत बैन, हं स दै न के अं तम अंश से जो व न या नाद यंजना क
सृि ट हु ई है, उससे भाव भ यि त म सघनता आ गई है ।
3. अर त है, टर त है, बसर त है, कर त है आ द या तक श द के वारा क व त
म एक लय उ प न हु ई है, िजससे अथ को प टता ा त होती है ।
4. अं तम पंि त म यु त 'सु ध' और 'वेसु ध' म वरोध वै च य दखाई दे ता है,
िजसे वरोधाभास कह सकते ह य क पूरे अथ क ाि त के बाद वरोध ख म हो
जाता है ।
5. इसम जभाषा का सहज- वाभा वक योग हु आ है ।
श दाथ : बतरा न = बात-चीत, लड़क ल बा न = लाला यत करने क आदत, ग त लैन
= म त चाल, बैन = वेणु या बांसु र , चताई = जगाना, चा हबे = दे खने क , अर त है
= अडती है, छै लताई = रं गीलापन, सु ध = मृ त , वेसु ध = व मृ त ।

19.3.3 मोर ते सांझ ल कानन ओर

''भोर ते सांझ ल कानन ओर नहार त बावर नेकुन हार त ।


सांझ त भोर ल तार न ता कबो तार न स इकतार न टार त ।
जी कहू ं भावतो द ठ परै घनआनंद आसु ं न औसर गार त ।
मोहन-सोहन जोहन क ल गयै रहै आं ख न के उर आर त।।'
संदभ : तु त सवैया घनानंद वारा र चत क वता से लया गया है । घनानंद के
अनुभय न ठ ेम क एक बहु त बड़ी वशेषता है, ' दख-साध' अथात ् दे खने मा क
लालसा । दे खने का काय आँख करती ह । इसके लए क व ने जहां एक ओर य को
न दे ख पाने से आख क यथा को च त कया है, वह ं दूसर ओर उनके लोभी
वभाव के कारण ता ड़त भी कया है । वरह जब खीझ क दशा म होता है, तो
सारा दोष ने पर जड़ दे ता है, ''जान के प लु भाय के नैन न, बे च कर अधवीच ह
लौडी'' । -अथात य के सौ दय पर लु ध होकर इन ने ने ेम क पू त के बना ह
(अधबीच) य क चेर (लौडी) बना दया । घनानंद ने अ य लखा है, ''दे खयै दसा
असाध अ खयां नपे ट न क , भसमी वथा पै नत लंघ न कर त ह' इस पंि त म

240
वर हणी ने ' दख-साध' के एक भयंकर रोग से त अपने ने क वल ण यथा क
ओर संकेत कया है । भारतीय आयुवद म 'भ मक' एक ऐसी बीमार है, िजसम रोगी
जो भी खाता है, सब उसके पेट म भ म (राख) हो जाता है और भू ख य -क - य
बनी रहती है । इधर आख वभावत: पे ू ह ( नपे टन जभाषा क एक गाल है)
अथात ् अ धक खाने वाल ह । य को िजतना भी दे ख उनका असंतोष बना ह रहता
है और दूसर तरफ य क अनुपि थ त के कारण दशन से वं चत होकर उ ह न य
लंघन (उपवास) करना पड़ता है । इस कार क व ने ' दख-साध' से वं चत ने क
याकु लता का अ यंत कौशल के साथ अंकन कया है । इस तरह के बहु त सारे
उदाहरण घनानंद क रचना म भरे पड़े ह ।
संग : अ य र तकाल न क वय क भां त संयोग काल म ने क करामात का
च ण घनान द ने भी अ य त बार क से कया है । ले कन वयोग काल म ने क
पीड़ा का मा मक च ण अ य क वय क अपे ा घनान द ने अ धक कया है । 'यह
कैसे वयोग भरे अंसु आ, जो संयोग म आगेइ दे खन धावत'- अथात ् संयोग का समय
उपि थत होते ह आन दा ु य के दशन से वं चत रखते ह । आख म आंसू अजाने
पर कु छ दखाई नह ं दे ता । अत: आंसू दख-साध म बाधक बनते ह, इसक ओर
घनान द ने अपनी क वता म अनेक थल पर संकेत कया है । या येय सवैये म भी
इस त य का मा मक अंकन हु आ है ।
या या : ातःकाल से सं या तक याकु ल वर हणी अथक प से जंगल क ओर य
के आगमन क आशा म नजर वछाए रहती है । सं या से ात: तक तार क ओर
लगातार आँख वछाए रहती है. एक पल के लए आँख नह ं हटाती । इस बीच य द
कह ं य (भावतो) दखाई भी दे ता है तो आंसू दे खने के अवसर को नचोड़ (गारत)
दे ते ह अथात समा त कर दे ते ह । इस लए य को स मु ख दे ख सकने क लालसा
आख के दय म लगातार बनी ह रहती है । अत: आन दा ु के कारण य-दशन से
ने को वं चत रहना पड़ता है ।
वशेष :
1. सं या से ात: तक एकटक तार को दे खते रहना, रात म तारे गनना, जैसे
मु हावरे का संकेतक है ।
2. 'इकतार न टार त, 'आंसु न अवसर गार त व श ट श द- योग है जो न हत भाव
क कु शल यंजना करते ह ।
3. अं तम पंि त म यु त 'मोहन-सोहन-जोहन' का अं यानु ास अ भ यि त प को
ह का बना दे ता है ।
श दाथ : न हार त = हारती नह ं या थकती नह ,ं तारन ता कबो = तार को दे खना,
तार न स = पुत लय या आख से, इकतार = एकटक या लगातार, टा रबो = नह ं
टालती या छोड़ती, भावतो = भाने वाला या य, आंसु न अवसर गार त = आंसओ
ु ं
वारा अवसर ह नचोड़ दया जाता है या आंसओ
ु ं के वाह वारा दे खने का अवसर ह

241
नह ं मलता, मोहन = मोहने वाला या य, सोहन = सामने या स मुख, जोहन =
दे खने का, आर त = लालसा या बल इ छा ।

19.3.4 कार कूर को कला

''कार कूर को कला! कहां को बैर काढ़ त र ,


कू क कू क अबह करे जो कन को र लै ।
पडे परे पापी ये कलापी नस यौस य ह,
चातक घातक य ह तू हू कान फो र लै ।
आनंद के घन ान-जीवन सु जान बना,
जा न कै अकेलो सब घेर दल जो र लै ।
जै लौ कर आवन वनोद वरसावन वे,
तौ ल रे डरारे बजमारे घन घो र लै।।
संदभ : तु त क व त घनान द क क वता से लया गया है । वयोग वणन म
घनान द ने अपने युग के अ या य क वय क भां त वषा, मेघ, चाँद, चांदनी,
को कला, चकोर, फागुन , बसंत आ द कृ त के अनेक उपकरण का उ ीपन के प म
च ण कया है । िजस कार ये उपकरण संयोग काल म सु ख को बढ़ाने वाले होते ह,
उसी कार वयोग काल म वरह- यथा को उ ी त या बढ़ाने वाले वन जाते ह । इस
म म घनान द ने पर परागत, पवन दूत , मेघदूत जैसी प तय का भी सहारा लया
है । इससे ऐसा लगता है क का य क र तय से मु त घनान द ने भी ढ़य या
र तय का सहारा लया है । ले कन यहां एक बात वशेष प से यान दे ने क है क
जहां र तब क वय ने दूती या दूत क म य थता वारा ना यका के वरह के वणन
म इन ाकृ तक उपकरण का सहारा लया है, इसके वपर त घनानंद के यहां वर हणी
वयं इन उपकरण के मा यम से अपनी यथा को उजागर करती है । फल व प यहां
सव आ म नवेदन के कारण एक वशेष कार क वाभा वकता और आ म न ठता आ
गयी है । इस ि ट से वचार कर तो हम दखायी दे गा क घनान द ने ठे केदार क
तरह दूसर का वरह वणन न कर वयं अपने और अपनी या सु जान के संबध
ं को
ह बार-बार दुहराया है । इस लए उ ीपन प म कृ त के उपयोग म एक वशेष कार
क ती ता और सघनता का समावेश हो गया है ।
संग : या येय क व त के वषय म एक उ लेखनीय त य यह है क इसके मा यम
से घनान द क एक वशेष कृ त का उ घाटन हु आ है । केवल क व ह नह ं मनु य
मा क सु ख-दुखा मक दशाएं अपने आस-पास के जीवन और ाकृ तक प रवेश से
जु ड़कर ह ठोस और ामा णक व प हण करती ह । होल -द पावल जैसे पव, वषा,
चांदनी, चांद- सतार जैसे ाकृ तक उपकरण ह नह ,ं वरन ् अपने आस-पास के पशु-प ी
जगत के बीच ह मनु य क वा त वक ि थ त का पता चलता है । यह समूचा प रवेश
उसके सु ख-दुख के साथ अ भ न प से जु ड़ा होता है । संवेदनशील क व के स ब ध

242
म भी इसक मह वपूण भू मका होती है । वरहाव था म बादल और उसका गजन
जहां वर हणी क पीड़ा म वृ करता है, वह ं उनसे सहानुभू त क याचना करते हु ए
वह कहती है क 'कबहू ं वा वसासी सु जान के आंगन मो अंसु वा न हू ं लै बरसौ ।
जभाषा म वसासी का अथ व वासघाती होता है । यहां वर हणी बादल से नवेदन
करती है क 'कभी मेरे आंसओ
ु ं को उस व वासघाती के आंगन म अपनी वषा के साथ
पहु ंचा दो । 'कभी बादल वरह दशा पर क णा से भीग कर आंसओ
ु ं क झड़ी लगा दे ता
है तो कभी पपीहा क णा वग लत होकर ं दन करने लगता है । यह नह ं ये सारे
उपकरण कभी-कभार वर हणी को चढ़ाने वाले या पीड़ा पहु चाने वाले वन जाते ह ।
या येय क व त म कोयल, मयूर , चातक और बादल दल बनाकर वर हणी के पीछे
पड़ गए ह । ऊपर-ऊपर से दे खने पर ये सारे उपकरण नाम-प रगणना णाल और
र तब ता का आभास अव य दे ते ह, ले कन आ म नवेदन के प म इन उपकरण
लए यु त आ ोश सू चक वरोध सारे वणन म एक यि त न ठ पश ला दे ते ह ।
अत: इसे नता त र तब एवं घसा- पटा वणन नह ं कहा जा सकता । नीचे या या
के मा यम से इस त य को आसानी से समझा जा सकता है ।
या या : वर हणी को कला को ध कारती हु ई कहती है क ऐ काल और ूर
को कला तू कहां और कब क दु मनी का बदला ले रह है । इस समय तो तू कू क-
कू क कर मेरे कलेजे को वद ण कर ले । ये पापी मयूर रात- दन हाथ धोकर मेरे पीछे
पड़े हु ए ह । अपनी पयु- पयु क वाणी से कठोर आघात करने वाले चातक (पपीहा)
तु म भी अभी मेरे कान को फोड़ लो । अ य धक आन द दायक मेरे ाण को जी वत
रखने वाले यतम सु जान क अनुपि थ त म मु झे अकेल समझकर तु म सबने दल-
ब होकर मु झे चार तरफ से घेर लया है । अंत म वर हणी बादल को ता ड़त
करती हु ई कहती है क जब तक आन द क वषा करने वाले य नह ं आ जाते, तब
तक ऐ डराने वाले बजमारे (व के मारे , एक गाल ) बादल, तु म भी गरज लो । सारांश
यह क य के आगमन के बाद कोयल, पपीहा, मोर क बोल और बादल क गजना
का पीड़ादायक भाव समा त हो जाएगा ।
वशेष :
1. मनोदशा को य करने वाले वशेषण क भरमार- कार कू र ( ू र) को कला,
पापी कलापी (मोर), घातक चातक, डरारे बजमारे घन (बादल) ।
2. 'जा न कै अकेल सब घेरो दल जो र लै' के मा यम से क व ने दल-ब होकर
चढ़ाई करने के संकेत वारा स मूतन- वधान कया है । इससे भावा भ यि त म
ती ता के साथ ह या मकता भी आ गई है ।
3. वाहयु त और भावानुकूल वशु जभाषा का योग ।
4. बैर काढ़ना ( नकालना), करे जा (कलेजा), कोरना (गोड़ना), कान फोड़ना, दल जोरना
(जोडन), बजमारे आ द के योग से भाषा मु हावरा यु त हो गयी है ।

243
श दाथ : कू र = ू र या न ठु र, बैर काढ़ना = श त
ु ा नकालना, कन को र लै = खोद
कर नकाल य न ले, पैड़े परे = पीछे पड़ना या रा ते म अवरोधक बनना, कलापी =
मोर, घेर = घेरा, दलजो र = सेना जोड़कर या बनाकर, डरारे = डरावने, बजमारे =
व का मारा हु आ (एक गाल ) या दु ट, घन = बादल, घो रले = गरज ले

19.3.5 चंद चकोर क चाह करे

''चंद चकोर क चाह करै, घनआनंद वा त पपीहा को यावै ।


य सरै न के ऐन बसै र व, मीन पै द न है सागर आवै ।
मोस तु ह सु नौ जान कृ पा न ध, नेह नबा हबो दो छ ब पावै ।
य अपनी च रा च कु बेर सुरं क हं लै नज अंक बसावै।।''
संदभ : तु त क व त के रच यता घनान द ह । र तमु त क वय म अनुभय न ठ
(एकतरफा) ेम का पूण प रपाक घनान द म ह दखायी दे ता है । वैसे एकतरफा ेम
का आदश फारसी ेम प त क वशेषता मानी जाती है । बोधा, आलम, ठाकु र आ द
र तमु त क वय ने भी इस ेम प त का सहारा लया है । ठाकु र के लए तो इतना
ह पया त है क य को ेमी के ेम क जानकार मा हो जाए । इसे उ ह ने इस
कार रे खां कत कया है, ''आवत है नत मेरे लए इतनो त बसेस कै जान त हवैह ।''
इस ि थ त क अ भ यि त बोधा इस कार करते ह. ''हम को वह चाहै क चाहै नह ;ं
हम नेह को नातो नबाहन है ।'' ले कन बोधा ेम को 'तरवा र क धार पै धावनो है'
वीकार करते हु ए भी इस मा यता तक पहु ंच जाते ह, '' वष खाइ मरै क गरै ग र ते
दगादार ते यार कभी न करै । ''समूची र तमु त का य पर परा म घनान द ह अकेले
ऐसे क व ह, िज ह ने एक न ठ भाव से दगादार से यार ' क है । फारसी ेम-प त का
वा त वक प यह है । य द ेमी को यह व वास हो जाए क ेम-साधना म उसक
मृ यु के बाद य के मु ख से क णाज नत सहानुभू त के दो श द नकल जाएंगे या
उसक आख म दो बू द
ं आंसू आ जाएंगे तो वह स नतापूवक ाणो सग के लए भी
तैयार हो सकता है । पहले इस त य का उ लेख कया जा चु का है क घनान द के
ेम म ' दख-साध' क मह वपूण भू मका रह है । ले कन इस ' दख-साध' (दे खने मा
क लालसा) का भी प र याग कर वे कह उठते ह.
''अधर लगे ह आ न कर के यान ान
चाहत चलन ये संदेश लै सु जान को ।''
य के संदेश मा क ती ा म अधर पर अटके ाण क ि थ त घनानंद को फारसी
ेम-प त क एक न ठता के साथ सू फय क ' ेम क पीर' से भी समि वत कर दे ती
है । ले कन इससे यह नह ं समझना चा हए क एक न ठता और ' ेम क पीर' क व
वारा उधार म ल गयी है । अपनी व तु गत प रि थ तय के फल व प ये दोन
वशेषताएं उनक जीवनधारा और भावधारा से संि ल ट होकर आई ह । मु ह मद शाह

244
रं गीले के राजदरबार म सु जान से ेम और उसक न ठु र उपे ा इस ेम प त के
साथ एकतरफा ेम को भारतीय आचार- न ठा और ेमादश से समि वत कर दे ती है ।
संग : अपनी अनुभय न ठ एक न ठता के कारण घनानंद क ेम-साधना म ेम
साधन न रहकर सा य वन गया है । इनके ेम क मू ल वशेषता को रे खां कत करते
हु ए जनाथ ने लखा है, ' वछुरे मले ीतम सां त न मानै ।' संयोग और वयोग म
समान प से अशांत रखने वाला यह ेम अ य ाय: दुलभ ह है । इसक सबसे
मा मक वशेषता है, य वारा नमम उपे ा । यहां वर हणी यह मान चु क है क
य उसके अनुकू ल कभी नह ं होगा । इसके लए वह य को दोषी न मानकर वयं
अपने भा य को दोषी मान लेती है, ''भाग आपने ह ऐसे दोष का ह धौ लगाइयै ।''
अथवा ''इत बांट पर सु ध रावरे भू ल न कैस उराहनो द िजयै जू ।'' अथात ''भा य के
बंटवारे म मेरे ह से म तु हारा मरण और तु हारे ह से म मु झे भू लना आया है ।
अत: तु ह उलाहना भी कैसे दे सकती हू ं । इस लए 'अब तो सब सीस चढ़ाए लयी जु
कछू मनभाई सु क िजयै जू । व तु त: इस कार का ेम आदश क उस भू म पर
ति ठत हो जाता है, जहां पहु ंच कर ेमी अपने ेम का कोई तदान नह ं चाहता ।
व तु त: इस तर पर पहु ंचा हु आ ेम अहैतु क या न काम वन जाता है । इस कार
क न कामता ेम को भि त क समक ता म था पत कर दे ती है । िजस कार
भि त क चरमाव था म भ त का भगवान के साथ एका य माना गया है, ठ क उसी
कार ेम क चरमाव था म ेमी का य के साथ एका य हो जाता है । इस त य
का प ट संकेत करते हु ए घनानंद ने वयं लखा है:
''चंद ह चकोर करै, सोऊ स स दे ह धरै,
मनसा हू रहै एक. दे खबे को रहै वै ।
ान हू ं ते आगे जाक पदबी परम ऊँची,
रस उपजावै ताम भोगी भोग जात लै ।
यहां क व ने ेम-योग को ान-योग से भी ऊँची भाव-भू म पर ति ठत कया है ।
य क यह अपनी चरम ि थ त म च मा को चकोर और चकोर को च मा क
ि थ त म ला दे ता है । वैसे ान क चरम दशा म ाता और ेय म अ वैत था पत
हो जाता है । इस अ वैतता से उ प न आन द स) म भो गय क भोग- ल सा पूर
तरह तरो हत हो जाती है । यह वासना- वह न ेम है, िजसके अ तगत घनान द ने
य वारा ेमी के अनुकू ल होना असंभव माना है । इस त य को या येय सवैये म
क व ने अ य त भावशाल ढं ग से अ भ य त कया है ।
या या : अनुपि थत य को संबो धत करती हु ई वर हणी कह रह है क िजस कार
च मा चकोर से ेम करने लगे, वा त-जल ेमातुर होकर पपीहे के पीछे दौड़ने लगे,
सू य सरे णु जल के सबसे छोटे कण) के घर म नवास करने लगे, समु अनाथ होकर
मछल के पास आए, धन के अ ध ठाता कु बेर अपनी इ छा से अनुरागपूवक कसी अ त
नधन को अपनी गोद म बठा ले. िजस कार ये सभी बात असंभव ह, ठ क उसी
245
कार आपका मेरे साथ ेम- नवाह भी असंभव है । इस कार घनान द ने ेमी के
त य क अनुकूलता क असंभा यता को अ य त भावशाल और तकसंगत ढं ग से
कला मक अ भ यि त द है।
वशेष :
1. च मा-चकोर, वा त-पपीहा, सू य-अणु, कु बेर-रं क आ द से स ब ढ़य , क व-
समय क वपर तता क ि थ त के मा यम से क व ने ेमी के त य क
अनुकू लता क असंभा यता को अ यंत सहज और कौशलपूण ढं ग से उजागर कया
है ।
2. यहां क व ने का य ढ़य के उपयोग म अपनी मौ लकता का प रचय दया है ।
3. यहां ेम के अनुभय न ठ या एकतरफापन क सफल अ भ यि त हु ई है ।
4. जभाषा का सहज और याकरण-स मत योग यहां हु आ है ।
श दाथ : चाह करै = ेम करे , पपीहा को धावै = पपीहा के पास दौड़ कर आवे, सरे नु
= छोटा अणु- कसी बार क छे द म से आने वाल सू य क पतल करण म नाचते हु ए
छोटे -छोटे कण (अणु), ऐन = घर, द न है = अ त वन वन कर, मीन पै = मछल
के पास, नेह नबा हबो = ेम का नभाना या नवाह करना, यो छ ब पावै = इस
कार क ( वल ण) शोभा, अपनी च = अपनी इ छा या पसंद से, अपनी च =
वे छा से, रा च = अनुर त होकर या ेम के वशीभू त होकर, रं क = द र , अंक
बसावै = गोद म बठा ले ।

19.3.6 अ त सू धो सनेह को मारग है

''अ त सू धो सनेह को मारग है, जहां नेकु सयानप बाँक नह ं ।


तहां सांचे चलै तिज आपनपौ झझक कपट जे नसांक नह ं ।
घन आनंद यारे सु जान सु नी यहां एकते दूसरो आँक नह ं ।
तु म कौन ध पाट पढ़े ह कहौ मन लेहु पै दे हु छटाँक नह ।ं ।''
संदभ : तु त सवैया घनानंद वारा र चत है । अपने एकतरफा ेम के आदश के
कारण इ ह ने ेम-पंथ क बीहड़ता या क ठनाई का वणन बार-बार कया है । ले कन
अ वच लत एक न ठता के कारण उसके त ढ़ आ था इन सार क ठनाइय को झेलने
का साहस दान करती है । इस ेम म एक तरफ इस कार क साह सकता है क
''पाऊँ कहां ह र हाय तु ह, धरनी म धंसीं क अकास ह चीर ।'' फर भी य क
अनुपल धता को अपना भा य मान कर वर हणी बार-बार यह संतोष कट करती है
क 'तेरे बांटे आयौ है अंगार न पै लो टब ' या कभी-कभार य के अ हत क आशंका
से अ भभूत होकर कहती है क 'ह त के हतू न कहौ काहू पाई प त रे '- अथात ् अपने
ेमी को दुख दे कर कसी को इ जत नह ं मलती । य क मंगल कामना करते हु ए
वह कहती है क ' नत नीके रह तु ह चाड़ कहा पै असीस हमा रयौ ल िजयै जू ।'

246
संग : य के अपने त वमु ख होने के बावजू द वर हणी को अपने न कपट ेम
पर पूण व वास है । घनान द के ेम के व प नधारण म घोर पासि त और
त मयता के साथ ह भावना-मू लकता ( लेटो नक लव) का मह वपूण योगदान है ।
व तु त: यह वशेषता इनके एकतरफा ेम को सदाचरणयु त शील दान करती है ।
य क न ठु रता को जान कर भी उसके त एक न ठ भाव से उ मु ख रहना, ेम के
लए ेम करना है, ेम को साधन के थान पर सा य मान लेना है । इस ि थ त के
कारण जीवन के अं तम चरण म घनान द का लोको मु ख ेम कृ ण भि त के प म
ई वरो मु ख हो जाता है । इस स ब ध म घनान द ने लखा है :
''ताह एक रस वै बवस अवगाह दोऊ,
नेह ह र-राधा िज ह दे ख सरसायो है ।
सोई घनानंद सु जान ला ग हे त होत,
ऐसे मन म ध स प ठहरायो है ।''
कृ ण (ह र) और राधा के ेम घनान द और सु जान के ेम क अ भ नता को क व ने
यहां अ छ तरह रे खां कत कया है । सब मलाकर दे ख तो न छलता घनान द के ेम
क एक ऐसी शि त है, जो कठोर साधना को अ य त सहज और सरल बना दे ती है ।
इस त य को क व ने या येय सवैये म बहु त ह प टता के साथ तु त कया है ।
या या : ेम का माग अ य त सहज और सीधा है । इसम चतुराई क थोड़ी भी
व ता या टे ढ़ापन अनपे त है । इस माग पर स चे लोग अपनापन या अहंभाव को
छोड़ कु शलता पूवक चलते ह । ले कन ऐसे छल या कपट जो न:शंक नह ं ह, इस
माग पर झझकते हु ए लड़खड़ा जाते ह । अपनी अनुपि थत या सु जान को संबो धत
करते हु ए- घनान द ने कहा है क यहां मेरे दय पर तु हारे अ त र त कसी अ य
का अंकन या अि त व ह नह ं है । इसके बावजू द पता नह ं तु मने कौन सी प ी पढ़
रखी है अथात ् कस कार क चतु राई भर श ा ा त कर रखी है क मेरा पूरा मन
ले लेने पर भी बदले म एक छटांक दे ने को तैयार नह ं हो । यहां मन ( दय थ मन
और भार-सू चक मन) तथा छटांक (छटा या शोभा का दशन) श द म लेष के वारा
इस अ भ ाय को उ घा टत कया गया है क य ेमी के मन को अ भभूत कर लेने
अथवा उस पर क जा कर लेने के बावजू द अपनी शोभा को दखाने का एक छोटा सा
अवसर भी दान नह ं करता ।
वशेष :
1. इस सवैये म स पूण समपण के बावजू द ' दख-साध' क अपूणता का अ यंत
कौशल के साथ च ण कया गया है ।
2. 'मन' और 'छटांक' म यु त लेष वारा चम कार का दशन ह नह ,ं वरन ् क य
क मा मक यंजना भी हु ई है ।
3. न छल- न काम ेम क कला मक अ भ यि त यहां हु ई है ।

247
4. पाट पढ़ना या पढ़ाना एक मह वपूण मु हावरा है, िजसका सधा हु आ योग यहां
हु आ है ।
5. जभाषा का सधा हु आ अ य त कु शल योग इस सवैये म हु आ है ।
श दाथ : सू धो = सीधा या सरल, सयानप = चतु राई या चालबाजी, नेकु = जरा भी,
बॉक = व या टे ढ़ा या छलकपट या कु टलता, सॉचे = स चे, आपनपौ = अपनापन
या अपना अहम,् झझक = हचकते ह, नसॉक: नःशंक, एक से दूसर आक नह ं =
एक के अ त र त कसी दूसरे का अंकन या उपि थ त नह ं है । ध = पता नह ,ं पाट
पढ़े हौ = पाठ पढ़ र वा या चालबाजी क श ा ले रखी है।

19.4 श दावल / वचार संदभ


अ श टता - बेअदबी, अस यता
नैकु - थोड़ा सा भी
समक ता - बराबर
भू षण - अलंकार, गहना
दख साध - दे खने मा क लालसा
घावनो - दौड़ना
वसासी - व वासघाती
दसन - दाँत
संि ल ट - जु ड़ी हु ई
अ भ नता - एकता, पर पर जु ड़े हु ए
सु ध - मृ त
प रगणना - गनती गनना
सरे नु - छोटा ण
घौ - शायद, पता नह ं
सयानप - चतु राई या चालाक
अनंग - कामदे व
र तस - र तकाल क वह का य धारा िजसके क व जानकार के आधार
पर का य क र तय पर रचना के समय पूरा यान रखते थे ।
र तब - इस धारा के क वय ने ना यका भेद रसभेद, अलंकार आ द का
ल ण दे ते हु ए उदाहरण के तौर पर क वताएं लखीं ।

19.5 सारांश
ऊपर दए गए क व त-सवैय क व तृत या या के आधार पर कहा जा सकता है क
घनान द र तब क वय के साथ ह र तमु त क वय म भी सव े ठ ह । सौ दय-
च ण क नजी व श टता ( भाव च ण) के साथ ह संयोग और वशेष प से
वयोग क बार क ि थ तय के ामा णक और सहज च ण म उ ह पूण सफलता

248
मल है । गृं ार के अ तगत अनुभय न ठ या एकतरफा ेम म वरह के दय म
उठने वाल भावना के व भ न भेद , तर को आ मानुभू त के मा यम से िजस गहराई
के साथ घनान द ने पश कया है, वह उनके युगीन क वय म कह ं भी नह ं दखाई
दे ती । वयोग- च ण म वर हणी क मनोदशाओं क व वधता और उनक गहर परख
के जो मौ लक च घनान द ने अं कत कए है, वे स दय पाठक को मु ध कर दे ते ह
। वषम ेम के च ण के लए भाषा म योग-वै च य ला णक मू तम ता, सट क
वशेषण क योजना और जभाषा का याकरण न ठ संवरा प उपयु त या याओं म
उभर कर सामने आया है । इन या याओं के मा यम से सौ दय क अ वतीयता,
ेम-पंथ क साह सकता, वमु ख और अनुपि थत य के त गहन लगाव, वरह- यथा
क अ नवचनीयता आ द अनेक त य हमारे सामने उपि थत होते ह । इससे घनान द
का एक सम कव यि त व उभर कर हमारे सामने आता है । अनुभू तय क सफल
अ भ यि त म का य- श प के लए यु त अ या य व धय के योगदान से भी ये
या याएं हम प र चत कराती ह । अत: अनुभू त और यंजना. दोन ह ि ट से क व
के कृ त व क एक सं त झांक हम इन या याओं से मल जाती है ।

19.6 अ यासाथ न
नब धा मक न
1. ह द के र तब क वय से घनान द के सौ दय- च ण म कस कार क
भ नता मलती है ।
2. बोधा, ठाकुर, आलम आ द क जीवनगत ि थ त से घनान द क जीवन-ि थ त म
या अंतर था और इस अंतर के कारण घनानंद के का य म कौन सी नजी
वशेषताएं आई ह?
3. वरह वेदना क अ भ यि त म कृ त का उ ीपन प म सहारा लेकर घनान द ने
अपने कस कौशल का प रचय दया है ।
लघु तरा मक न
1. अहैतु क या न काम ेम क अं तम प रण त या होती है?
2. य का ेमी के अनुकू ल होने क संभावना का घनानंद ने सबसे ठोस माण दया
है, स कर ।
3. अनुभय न ठ (एकतरफा) ेम के बावजू द घनान द एक न ठ ेमी थे- इस कथन
क पुि ट चार पंि तय म कर ।
4. ेम के माग पर सफलता पूवक . आगे बढ़ने के लए घनानंद ने ेमी के लए कन
व तु ओं को आव यक माना है?
5. वरह- यथा क मा मक यंजना के लए कृ त के उ ीपन प का घनान द ने
अ य त कला मक उपयोग कया है- इस कथन क पुि ट पांच पंि तय म करे ।

249
6. घनानंद वारा यु त ं ी वशेषताओं ( वशेषण क ला
वशेषकर संबध णकता) को
प ट कर ।
एक या दो श द म उ तर द-
1. घनानंद ने कसके त अ श टता दखाई?
2. घनानंद क दो पु तक के नाम बताएं?
3. घनानंद ं ावल क भू मका कसने लखी?

4. र तमु त क वता के घनानंद के अलावा दो क वय के नाम लख ।
5. घनानंद क ना यका और से सांझ तक कस ओर दे खती रहती है?
6. घनानंद ने नेह के माग को कैसा माना है?
7. घनानंद के दो य छं द के नाम लख ।

19.7 संदभ थ
1. आचाय रामच शु ल, ह द सा ह य का इ तहास: 0 नागर चा रणी सभा,
वाराणसी (केवल घनान द से स ब अंश)
2. आचाय व वनाथ साद म , ह द सा ह य का अतीत, भाग-2 0 वाणी वतान
मनाल, वाराणसी ।
3. डॉ0 ल लन राय, घनानंद 0 सा ह य अकादमी, फरोजशाह रोड. नयी द ल -
110001
4. डॉ0 ब चन संह, र तकाल न क वय क ेम यंजना नागर चा रणी सभा,
(वाराणसी) (केवल व छ द का य धारा शीषक अ याय)
5. मनोहरलाल गौड़, घनानंद और व छ द का य-धारा 0 नागर चा रणी सभा,
वाराणसी ।

250
इकाई-20 घनान द के का य का अनुभू त एवं अ भ यंजना

इकाई क परे खा
20.0 उ े य
20.1 तावना
20.2 अनुभू त प : गृं ार रस के संदभ म
20.2.1 र तकाल न गृं ार रस
20.2.2 ेम का व प
20.2.3 सौ दय-बोध
20.2.4 संयोग-भावना
20.2.5 वयोग-भावना
20.2.5.1 वषम ेम क पीड़ा-मौन म ध पुकार
20.2.5.2 संयोग और वयोग क म त ि थत
20.3 अ भ यंजना-प
20.3.1 जभाषा- याकरण और श दावल क ि ट से
20.3.2 श द शि तय और ला णक मू तम ता क ि ट से
20.3.3 योग-वै च य और वरोध-वै च य
20.3.4 लोकोि त और मु हावरे
20.4 श दावल / वचार संदभ
20.5 सारांश
20.6 अ यासाथ न
20.7 संदभ थ

20.0 उ े य
इस इकाई को पढने के बाद आप :-
 घनानंद के जीवन और उनक रचनाओं के बारे म व तृत जानकार ा त कर
सकगे,
 घनानंद वारा च त ेम के व प को समझ सकगे,
 घनानंद क सौ दय- ि ट से प र चत हो सकगे,
 र तब , र त स और र तमु त क वय के अंतर को समझ सकगे,
 घनानंद वारा च त संयोग और वयोग क वल ण ि थ त से प र चत हो
सकगे,
 घनानंद वारा च त वषम या एकतरफा ेम क पीड़ा का सा ा कार कर सकगे
 घनानंद क भाषा एवं श प स ब धी- वल णता से प र चत हो सकगे,

251
 श प-संबध
ं ी कु छ नजी वशेषताओं को समझ सकगे,
 पूर इकाई पढने के बाद घनानंद के सम मू यांकन म समथ हो सकगे ।

20.1 तावना
वाचन और या या वाल 19 वीं इकाई के अ ययन से आपने घनानंद क अनुभू त
और श प-प क एक ह क झांक अव य ा त कर ल होगी । तु त इकाई के
मा यम से घनानंद के सम यि त व और कृ त व का व तृत ववेचन- व लेषण
कया जाएगा । इस या म आप प ट प से दे ख सकगे क घनानंद अपने युग
के एक व ोह क व रहे ह । उनका यह व ोह सामािजक जीवन और क वता. दोन ह
े म प ट प से कट हु आ है । ह दू काय थ प रवार म ज म लेकर समाज के
व ध- नषेध को खि डत करते हु ए उ ह ने राजदरबार क मुसलमान वे या से ेम कया
था । उसक उपे ा के बावजू द वे एक न ठ भाव से उससे ेम करते रहे । क वता के
े म अपने युग क तमाम पर परा त मा यताओं को तलांज ल दे ते हु ए उ ह ने
अपने लए एक व छ द माग का नमाण कया । ना यका, रस, अलंकार ववेचन
और नख- शख वणन क प रपाट का ढ़ता पूवक तकार कर घनानंद ने अपनी
वानुभू त को अपनी क वता का वषय बनाया । उनक स पूण क वता पर ि टपात
करने के बाद यह प ट प से अनुभव कया जा सकता है क क वता म उ ह ने
अपने और सु जान के स ब ध को ह बार-बार दुहराया है । अपनी इस वशेषता को
रे खां कत करते हु ए उ ह ने वयं लखा है:
''य घनआनँद छावत भावत जान सजीवन ओर त आवत ।
लोग ह, ला ग क व त बनावत मो ह तो मेरे क ब त बनावत।।''
यहां र तब क वय पर सीधा आ ेप है क उ ह ने आराम से बैठकर, जोड़-तोड़ कर
अपनी क वता का नमाण कया है । ले कन घनानंद ने अपनी क वता का नमाण नह ं
कया, वरन ् वयं अपनी क वता क ह वे न म त थे । इस त य के साथ ह उनक
तमाम अ तबा य वशेषताओं को के म रखकर उनके समकाल न म और शंसक,
जनाथ ने लखा है:
''नेह महा, जभाषा- बीन और सु दरता न के भेद क जानै ।
जोग- वयोग क र त म को बद भावना-भेद- व प क ताने ।
चाह के रं ग म भी यौ हयो बछुरे - मल ीतम सां त न माने ।
भाषा- बीन सु छंद सदा रहै, सो घन जू के क ब त वखानै।।''
''जग क क ताई के धोखे रह यीं बीनन क म त जा त जक ।
समु झै क वता घनआनँद क हय-आँ खन नेह क पीर तक ।।
इन सवैय म जनाथ ने घनानंद के स दय पाठक म िजन वशेषताओं क अपे ा क
है, व तु त: वे ह घनानंद क का य के भावगत एवं श पगत वशेषताएं भी ह ।
व या थय को इसे के म रखकर घनानंद क वशेषताओं को समझने का यास

252
करना चा हए । इसम पहल वशेषता है, जभाषा म वीणता के साथ ह भाषा म भी
वीणता । इसका मतलब हु आ जभाषा म नपुणता के साथ ह भाषा क श द
शि तय अ भधा, ल णा तथा यंजना क समझ म भी पारं गत होना । दूसर वशेषता
है, सौ दय के भेदोपभेद क परख । तीसर वशेषता है- संयोग और वयोग क र तय
म नपुणता और भाव के भेदोपभेद क पूण जानकार ।
चौथी वशेषता है. ेम (चाह) के रं ग म इस तरह सराबोर होना क संयोग और वयोग
दोन ह ि थ तय म शांत और संतु ट बने रहना । पांचवीं वशेषता है कसी कार के
आंत रक और बाहय बंधन से व छ द होना । अं तम वशेषता है अ य क वय अथात
र तब क वय क क वताई के धोखे से बचकर दय क ऑख से ेम (नेह) क पीड़ा
दे ख-समझ सकने क मता । व तु त: घनानंद के का य क इ ह ं वशेषताओं को
के म रखकर आगे यथा थान हम उनक क वता के नर ण-पर ण का यास
करगे ।

20.2 अनु भू त प : गृं ार रस के संदभ म


20.2.1 र तकाल न गृं ार रस

समूचे र तकाल न का य का मु ख वषय गृं ार रस का च ण ह रहा है । आचाय


रामच शु ल ने इस पूरे काल को र त क सं ा दे ने के बावजू द र तमु त का यधारा
का इसके अ तगत अलग से प रचय दया है । इस कमी को पूरा करने के लए
आचाय व वनाथ साद म ने इस काल को गृं ारकाल क सं ा दे ते हु ए उसे तीन
धाराओं म इस कार वभ त कया है: 1. र तब का यधारा, 2. र त स का यधारा
और 3. र तमु त का यधारा । तु त इकाई म पहले भी इन तीन धाराओं का उ लेख
हु आ है और बाद म भी इनका योग कया जाएगा । अत: व या थय के लए इन
धाराओं के व प क जानकार अपे त है । इस त य को यान म रख -कर आगे
तीन धाराओं क मू ल वशेषता को अलग-अलग शीषक के अ तगत प ट करने का
यास कया जा रहा है ।
र तब का य-धारा: इसके अ तगत वे क व आते ह, िज ह ने अपनी अ धकांश
रचनाओं म ना यका-भेद, रस-भेद, अलंकार न पण कया है । इस या म क वय
ने पहले ना यका, रस या अलंकार के ल ण दए ह, फर अपनी क वता म उसके
उदाहरण तु त कए ह । इस कार के ल णानुसार रचनाकार र तब क वय के
अ तगत आते ह । र तकाल के च ताम ण, भखार दास, दे व, म तराम, प ाकर आ द
र तब का यधारा के त न ध क व ह । उ ह एक कार से आचाय क व कहा जाता
है ।
र तस का य-धारा: इसके अ तगत वे क व आते ह जो जानकार के तर पर का य
क र तय का पूरा ान रखते थे । उनक रचनाओं से र त स ता का पूरा माण
मलता है । ले कन उ ह ने ना यका भेद, रस या अलंकार के ल ण को आधार

253
बनाकर रचना नह ं क थी । इस धारा के क वय क सं या काफ कम है । इसके
सव े ठ तनध बहार ह । वृ द , रस न ध आ द जैसे क वय और अलकशतक
तलशतक जैसी रचनाओं को इसके अ तगत रखा जा सकता है । इस ि ट से दे ख तो
बहार के अ धकांश दोह म ना यका का एक नि चत व प, अलंकार एक अनूठा प,
गृं ार रस के संयोग या वयोग प का एक नि चत व प अ यंत कौशल के साथ
अ भ य त हु आ है । ले कन ज रत पड़ने पर इन दोह म ल ण का अ त मण भी
दखाई दे ता है । इसी कारण रामच रतमानस के बाद बहार सतसई क सबसे अ धक
ट काएं- या याएं तु त हु ई ह । जग नाथदास र नाकर का ' बहार र नाकर, लाला
भगवानद न क ' बहार बो धनी ट का, आचाय व वनाथ साद म , म बंधु क
ट का- ट प णयां इसके माण ह ।
र तमु त का य-धारा: र तकाल क तीसर का यधारा र तमु त क वय क है, िजसके
मह वपूण क व घनानंद, ठाकु र, बोधा, आलम आ द ह । इ ह आचाय शु ल ने
र तब क वय के साथ फुटकर खाते म रखकर ेम का उ म त गायक कहा है । इसे
र तमु त का यधारा नाम दे कर आचाय व वनाथ साद म ने र तकाल का अ भ न
अंग बना दया । इन क वय ने का य क पर परागत र तय का उ लंघन ह नह ं
कया, वरन ् क वय क र तब ता पर आ ेप भी कया है । इस वषय म ठाकु र का
उदाहरण है:
'सीख ल ह मीन मृग खंजन कमल नैन
सी ख ल ह जस और ताप को कहानो है ।'
डेल सो बनाय आय मेलत सभा के बीच,
लोगन क व त क रबो खेल क र जानौ है ।'
इस त य को घनानंद ने इस कार उजागर कया है:
लोग ह ला ग क व त बनावत मो ह तो मेरे क व त बनावत ।
कहने का मतलब यह है क इन र तमु त क वय ने अपनी भावनाओं क व छ द
अ भ यि त क है । इन क वय ने जहां र तब ता का उ लंघन कया, वह ं राजक य
या सामािजक व ध- नषेध के दायरे से भी अपने को मु त रखा । ठाकु र ने कई
राजदरबार से स ब रहकर भी कसी लोभन म पड़ अपने स मान पर आच नह ं
आने द । आचाय रामच शु ल ने अपने ' ह द सा ह य का इ तहास' म लखा है
क एक बार बांदा नरे श ह मत बहादुर ने अपने भरे दरबार म ठाकु र को कु छ कटु -
बचन कह दया था । इससे ु होकर ठाकु र ने यान से तलवार नकाल कर कहा था
''ठाकुर कहत हम बैर वेवकूफन के,
जा लम दमाद है, अदा नयां ससुर के ।
चोिजन के चोजी महामौिजन के महाराज,
हम क वराज ह, पै चाकर चतुर के।।''

254
काय थ घनान द ने सु जान नामक मु सलमान दरबार वे या से ेम कया, िजस
अपराध के लए उ ह राजदरबार क नौकर से हाथ धोना पड़ा । ा मण वंश म
उ प न बोधा ने सु भान नामक मु सलमान वे या को अपनी जीवन सं गनी के प म
राजदरबार को वीकृ त दे ने पर ववश कया । ा मण आलम ने शेख नामक
मु सलमान रं गरे िजन से ेम- ववाह कया । इस कार इन सभी क वय ने का य
र तय के उ लंघन के साथ ह सामािजक व ध- नषेध का उ लंघन करने का साहस
दखाया ।

20.2.2 ेम का व प

घनान द वारा च त ेम अनुभय न ठ (एकतरफा) या वषम ेम है । भारतीय


का य-पर परा के साथ ह सामािजक पर परा क ि ट से भी वषम ेम या एकतरफा
ेम को वीकृ त नह ं मल है । फारसी का य म सू फ भाववश इस कार के ेम
को आदश के प म वीकार कया गया है । इसका असर घनान द के साथ ह ठाकु र,
बोधा, आलम आ द क वय पर भी है । वषम ेम के स ब ध म ठाकु र का कहना है
क 'आवत है नत मेरे लए इतनोत वसेस कै जान त दवै ह । बोधा भी इसे वीकार
करते ह क हम को वह चाहै क चाहै नह ,ं हम नेह को नातो नबाहनो है । 'ले कन
आगे चलकर वे इस ि थ त तक पहु ंच जाते ह क
‘ वष खाइ मरै क गरै ग रते दगादार से यार कभी न करै ।'
समूची र तमु त का यधारा म अकेले घनान द ह एक ऐसे क व ह, िज ह ने एक न ठ
भाव से दगादार से यार क है । य क लाख उपे ा और न ठु रता के बावजू द ेम
के त उनम कह ं वचलन नह ं दखाई दे ता । इस संदभ म घनानंद वारा वीकृ त
ेम के व प को दे खा जाए तो उसम व छ दता, परम साह सकता, घोर पासि त,
गहर त मयता, भावना मूलकता, न कामता आ द ेम क अ या य वभू तयां वषम
ेम को सं चत कर उसे एक अ भनव आचार न ठता से जोड़ती ह । अत:
एकतरफापन को के म रखकर उ त वशेषताओं के ववेचन वारा हम घनानंद के
ेम के व प को आसानी से समझ सकते ह ।
घनान द के वषम ेम के व छ द व प को य द गहराई से दे खा जाए तो हम
प ट प से दखाई दे गा क उसका वा त वक अ भ ाय ेम क व छ द ड़ा या
सामािजक व ध- नषेध क अ वीकृ त मा नह ं है । यह व छ दता वषम ेम क
एक न ठता से अनुशा सत है, िजसके मू ल म परम साह सकता है:
अंतरहौ कधो अंत रह , ग फा र फर क अभा ग न भीराँ ।
आ गजरौ अ क पा न पर , अब कैसी कर हय का व ध धीरौ ।
पाऊँ कहां ह र हाय तु ह, धरनी म धसी क अकास ह चीर ।।
यहां वर हणी का उ ाम आवेग कट हु आ है । वह अनुपि थत य को संबो धत करके
कह रह है क तु म मेरे दय (अंतर) म हो या अ य (बाहर) कह ,ं म इसका नणय

255
नह ं कर पा रह हू ं । अत: आँख फाड़कर तु ह बाहर खोजू ं या अपने भा य को रोऊँ ।
तु ह ा त करने के लए आग म अपने को झ क दूं या पानी म डू ब म ँ ? ऐ य!
अब या क ं और कस कार अपने दय को धीरज बंधाऊं? ऐ य! तु हार ाि त
के लए पृ वी म धसू ं या आकाश को ची ँ ? इस कार क साह सक अधीरता के पीछे
एक वशेष कार क ढ़ता है, जो कभी-कभी हठ या चु नौती क सीमा तक पहु ंच जाती
है''
'तु ह बदौ तो पै जो बरिज राखी यान क । ' घनानंद क व त, सं0 310 अपने इस
वरोध-मूलक प म घनानंद के यहां ेम ड़ा- वलास न रहकर एक कठोर साधना का
प हण कर लेता है:
गरल गुमा न क गराव न दसा को पान,
क र क र, यौस रै न ान घट यो टबो ।
त ह य सरा त छाती तो ह वैलग त ताती
तेरे बाँटे आयी है अंगार न पै लो टबो।। घनानंद क व त सं0 56
वष के गव को चू र-चू र कर दे ने वाल भीषण वरह-दशा को वीकार (पान) कर रात-
दन ाण को शर र पी घड़े म घोटने के बाद भी य तु हारे अनुकू ल नह ं होता तो
भी तु ह पछताने क ज रत नह ं है । तु ह यह मान लेना चा हए क भा य के बंटवारे
म तु हारे ह से आग पर लेटना ह आया है । इस कार क अद य साह सकता का
मू लाधार है घोर आसि त । यह ेम साहचयज य न होकर थम दशनज य है । अत:
यहां आसि त मु यत: पासि त है, िजसका कारण य का अदभू त सौ दय है । इसे
कु छ उदाहरण वारा आसानी से समझा जा सकता है:
1. 'जब ते नहारे घनआनंद सु जान यारे ,
तब ते अनोखी आ गला ग रह चाह क ।' घनानंद क व त सं या 18
2. ‘जब ते नहारे इन आँ खन सु जान यारे ,
तब ते गह है उर आन दे खबे क आ न ।' घनानंद क व त सं या 474
3. ‘वह प क रा श लखी जब त,
स ख आँ खन को हटतार भई ।' घनानंद क व त सं या, 258
इन सभी उदाहरण से यह प ट है क घनानंद के यहां ेम का आधार य का अपार
सौ दय है, िजसम दशना भलाषा ह मु ख है । यह ेम आदश क उस भू म पर
ति ठत है, जहां पहु ंच कर ेमी अपने ेम का कोई तदान नह ं चाहता । इस तर
पर पहु ंचा हु आ ेम अहैतु क या न काम वन जाता है । इस कार क न कामता ेम
को भि त क समक ता म था पत कर दे ती है । िजस कार भि त क चरमाव था
म भ त का भगवान के साथ एका य हो जाता है, ठ क उसी कार ेम क
चरमाव था म ेमी का य के साथ एका य हो जाता है । इस संबध
ं म घनानंद ने
ेम को भि त और ान-योग से अ धक मह व दे ते हु ए लखा है :

256
'चंद ह चकोर करै, सोऊ स स दे ह धरै,
मनसा हू ं रहै एक, दे खबो क रहै वै ।
ान हू ं ते आगे जाक पदबी परम ऊँची,
रस उपजाबै ताम भोगी भोग जात वै । घनानंद क व त, सं0 296
यहां क व ने ेम-योग को भि त और ान-योग से उ च भाव-भू म पर ति ठत
कया है । य क यह अपनी चरम ि थ त म च मा को चकोर और चकोर को
च मा क ि थ त म ला दे ता है; िजसे सामा य तर पर घनानंद ने असंभव माना है
। यहां कहने का ता पय यह है क ान क चरमाव था म ाता और ेय म िजस
कार अ वैत था पत हो जाता है, ठ क उसी कार ेम क चरमाव था म ेमी और
य म अ वैत हो जाता है । ेम क इस अ वैतता से उ प न आनंद (रस) म
भो गय क भोग- ल सा पूर तरह तरो हत हो जाती है । ेम न कामता क इस
ि थ त तक पहु ंच कर वासना वह न ेम का प धारण कर लेता है । व तु त: यह
सू फ ेमादश है, िजसम फारसी ेम क एक न ठता, सू फय क पीड़ा, भारतीयता का
आदश और भि त-भावना का सु दर पुट मलता है । ेम के इस म त व प के
संदभ म घनानंद ने अपने 116व क व त के मा यम से लौ कक और ई वर ेम के
पार प रक संबध
ं म अपनी मा यता को प ट कया है । उनके अनुसार ेम एक
महासागर है, वचार वारा िजसका पार नह ं पाया जा सकता । ेमी युगल राधा और
कृ ण एकरस होकर उस महासागर का अवगाहन करते ह; िजसके कारण वह उमं गत
होता है । उनक ड़ाज नत उमंग से उठने वाल लहर से छूटा हु आ एक तरल कण
इस स पूण लोक म उफन कर फैल गया है । उसी का एक कण घनानंद और सु जान
के ेम म फल भू त हु आ है :
‘सोई घनआनँद सु जान ला ग हे त होत,
ऐसे म थ मन पै स प ठहरायौ है । क व त सं0 116
इससे प ट हो जाता है क लौ कक ेम अलौ कक ेम का ह एक गोचर प है ।
व तु त: म यकाल न चेतना क यह एक अ नवायता थी, िजसे हम सू र, तु लसी,
नंददास, मीरा, रसखान आ द म कसी-न- कसी प म अव य पाते ह । घनानंद के
आरं भक जीवन का लौ कक ेम भी ेम के व वध सोपान से होता हु आ अ तत:
अलौ कक ेम म पयव सत हो गया । घनानंद ने अपने जीवन का एक ल बा समय
न बाक स दाय म द त होकर वृ दावन म सखी भाव क उपासना म बताया ।
दानघटा, वृषभानपुर सु षमा, गोकु ल गीत, कृ ण कौमु द , भान घटा, या साद,
ग रगाथा आ द उनक भि त वषयक मु ख कृ तयां ह ।

20.2.3 सौ दय-बोध

इस इकाई क तावना म हमने दे खा है क क व- म और शि तकार जनाथ


वारा घनानंद क का यगत वशेषता म एक सु दरता न के भेद को जानै माना गया है

257
। सु दरता के थान पर सु दरता न (सु दरताओं) का योग कर जनाथ ने उ ह
सु दरता के भेदोपभेद के साथ ह उसके व वध तर क परत-दर-परत का पारखी भी
स कया है । घोर पासि त के संदभ म हमने पहले ह इस त य को दे ख लया है
क घनानंद के ेम का मू लाधार य का अदभूत सौ दय ह है । सौ दय-पारखी के
प म क व ने अपनी ि ट का उ घाटन इस कार कया है.
रावरो प क नी त अनूप नयो नयो लागत य- य नहा रए । क व त सं 15
सं कृ त सा ह य म इस कार के सौ दय को रमणीयता क सं ा दे ते हु ए कहा गया है,
' णे- णे य नवतामुपै त तदे व पं रमणीयताया: ' अथात ण- त ण िजसम
नवीनता उ प न हो उसी सौ दय ( प) को रमणीय मानना चा हए । अपने ेम के
व प को यान म रखकर अपनी इस सौ दय- ि ट के कारण घनानंद ने सौ दय का
अ य त भाव- वण और मनोयोग पूवक च ण कया है । इस ि ट से र तब ह
नह ,ं वरन र तमु त क वय से भी इनम पया त अ तर दखाई दे ता है । बोधा को
वरह नवेदन से ह अवकाश नह ं मला और आलम सौ दय वणन म बहु त कु छ र त
के ढर पर ह चले ह । ठाकु र के पास सौ दय के सू म नर ण क ि ट का पया त
अभाव दखाई दे ता है । जहां तक र तब क वय का न है, उ ह ने अनेक कार के
ढ़ अ तु त के मा यम से उसे ाय: आ छ न कर लया है । उनक ि ट ाय:
सौ दय क मा ा दखाने पर ह अ धक रह है, उसके मनोरम भाव क यंजना क
ओर उनका यान कम ह गया है । इसके साथ ह नख- शख के पर पराब और
सट क च ण के कारण भी उसम भावो पादन क मता का ाय: अभाव ह मलता
है । र त स बहार क ि थ त भी लगभग ऐसी ह है । क तु घनान द क ि ट
सौ दय क बाहर नाप-जोख म न जाकर दय पर पड़ने वाले उसके भाव क यंजना
पर अ धक रह है । वानुभू त क बलता के कारण इनका टा च त आलंबन क
प माधु र के साथ इस कार घुल - मल गया है क दोन को एक दूसरे से अलग कर
पाना ाय: असंभव हो जाता है । वानुभू त क ठोस भू म पर आधा रत होने के कारण
इनक सौ दय क पनाएं सौ दय क ड़ा मा न रह कर सौ दय क पुनरचना करती
ह । इस त य को न न ल खत उदाहरण वारा अ छ तरह समझा जा सकता है :
'झलकै अ त सु दर आनन गौर, छके ग राजत कान न वै ।
हं स - बोल न म छ व-फूलन क वरषा उर ऊपर जा त है हवै ।
लट लोल कपोल कलोल करै, कल कंठ बनी जलजाव ल वै ।
अंग-अंग तरं ग उठै दु त क , प रहै मनो प अबै धर चै । क व त सं0 2
'अ यंत सु दर गोरा मु ख, कान तक खंचे हु ए ल बे म त ने दय पर सौ दय के
फूल क वृि ट करने वाल हंसी, कपोल पर ड़ा करने वाल चंचल लट, सु दर ीवा
म सु शो भत होने वाल दो ल ड़य क मोती-माला और अंग- यंग से उठने वाल शोभा
क तरं ग सब मलाकर ऐसा तीत होता है क सौ दय अभी पृ वी पर टपक पड़ेगा ।'

258
इस च ण म मु ख, ने , वाणी, हंसी, लट, ीवा, मोती क माला आ द क आकारगत
वशेषता क ओर क व क वृि त नह ं है, जैसा क र तब क वय ने पर परागत
नख- शख वणन म ढ़ उपमान के मा यम से कया है । यहां घनानंद ने सौ दय म
न हत लाव य और कां त के दय पर पड़ने वाले भाव का ह अंकन कया है । प रहै
मनो प अबै धर चै इस अं तम चरण क पृ ठभू म के प म ऊपर के तीन चरण
आए ह । 'अ त सु ंदर के वारा क व ने सौ दय क प रपूणता, उसके लबालब भरे होने
को संके तत कया है । इसी संदभ म उसके छलक कर टपकने क ि थ त साथक होती
है । ग के साथ 'छके' वशेषण अ यंत यंजक ह । इसम संतोष के साथ ह फैलाव
क ि थ त का भी बोध होता है । छ ब फूलन क बरषा पद भी अ यंत यंजक है ।
शर र पर फूल क वृि ट आ लादजनक होती है, िजससे दय पर होने वाल सौ दय के
फूल क वृि ट के आन द का आसानी से अनुमान कया जा सकता है । तीसर पंि त
म चंचल लट का कपोल पर ड़ा करना ना यका क वशेष भं गमा को यो तत
करता है । वतीय पंि त के 'हं स बोल न म पद से प ट है क नायक से वह हंस-
हंस कर बाते कर रह है, िजससे लट का चंचल होकर कपोल पर हलना वाभा वक है
। इस कार यहां क व ने सौ दय का एक ग तशील और अ यंत यंजक च तु त
कया है । इस कार के ग तशील सौ दय- च के लए पछल इकाई म द गई
या या सं या एक और दो व याथ पुन : दे ख ल । वहां घनानंद के सौ दय- च ण क
वशेषता का व तृत ववेचन- व लेषण कया गया है ।
राजदरबार म रहते हु ए घनान द ने अपनी संगीत- यता के कारण सु जान आ द
वे याओं के नृ य क गहर समझ ा त क थी । फल व प नृ य क अनेक मु ाओं
के अ यंत भावपूण एवं जीव त च तु त करने म उ ह पया त सफलता मल है ।
इसके लए यहां एक उदाहरण पया त होगा :
''नीक नासापुट क उच न अचंभे भर ,
मु र कै इच न स न य हू ं मनते मु रै ।
प लाड़ जोबन-ग र चोप चटक स ,
अन ख अनोखी तान गावै लै मह सु रै ।
सहज हसोह छ व फब त रं गीले मु ख,
दसन न जो त-जाल मोती माल सी रै ।
सरस सु जान घनाआनंद भजावै ान,
गरबील ीवा जब आ न मान पै ढु रै ।।’ घनानंद ं ावल , पृ0 32 / 98

नृ य म नासापुट क उठान, ग त के यावतन अथात उसका पीछे क ओर मु ड़ना एक
तरफ ठने क मु ा म अनोखी तान का मह न सुर म गायन तो दूसर तरफ सहज
मु कान से यु त दं त-पंि तय क शोभा इन सबके बीच गव ल ीवा का मान क मु ा
म मु ड़ना आ द भाव-भीनी एवं सरस याएं दय को अ भभू त कर दे ती ह । यहां
ना यका के संगीतरत नृ य का अ यंत आकषक एवं जीव त च तु त हु आ है ।

259
व तु त: घनानंद का सौ दय-बोध उपमान क अनुपि थ त म इनके ला णक वशेषण
म ह ल त कया जा सकता है । सौ दय के त एक अछोर ललक और उसे अपने
अ दर उतार लेने क अशेष अ भलाषा इनक नजी वशेषता है । इस वशेषता के
कारण घनानंद का सौ दय- च ण अपने समसाम यक क वय से भ न एक अलग
पहचान बना सका है ।

20.2.4 संयोग-भावना

घनानंद क का य रचना सु जान के वयोग के बाद हु ई है । इस लए उनके संयोग-सु ख


के पीछे वयोग क एक काल छाया हमेशा मंडराती रह है । इस त य को रे खां कत
करते हु ए उनके समसाम यक शि तकार जनाथ ने लखा है, बछुरे मले ीतम सां त
न मानै अथात संयोग और वयोग म समान प से असंतु ट एवं अशांत बने रहना ।
वैसे घनानंद का का य मु यत: वयोग धान ह है, ले कन संयोग क ती अनुभू त के
' बना वयोग म गंभीरता नह ं आती । संयोग और वयोग दोन म ह घोर अशां त के
स ब ध म यह उदाहरण पया त बोधक है:
''मु ख-चाह न-चाह-उमाहन को घनआनँद ला यौ रहैई झरै ।
मनभावन मीत सु जान संयोग बने बन कैसे वयोग टरै ।
कबहू ं जो दई-ग त स सपनो सो लख तो मनोरथ भीर भरै ।
मलेहू न मलाप मलै तनको उर क ग त य क र यौ र परै ।। घ0 0पृ0 24/72
यहां ेमी दय क वच उलझी हु ई दशा का च ण है । उसे वयोग क भां त संयोग
काल म भी मलन-सु ख का रं च मा भी अनुभव नह ं होता । य द दै व ग त या भा य
से य व न क भां त दखायी भी दे जाता है तो अ भलाषाओं क ऐसी भीड़ लग
जाती है क उसे भर आख दे ख पाना असंभव हो जाता है । फल व प मलने पर भी
मलन-सु ख क ं म दूसरा उदाहरण है :
ाि त नह ं होती । इस संबध
“सु न र सजनी! रजनी क कथा इन नैन चकोरन य बतई ।
मु ख-चंद सु जान सजीवन को ल ख पाए भई कछु र त नई ।
अ भलाष न आतु रताई-घटा तबह घनआनँद आ न छई । ”
सु बहा त न जा न पर म सी कब वै वसवा स न बीत गई।।घ0क0सं0 79
र त-ब क वय क संयो गनी ना यकाओं के पास मलनोपरा त सखी-सहे लय को
सु नाए जाने के लए बहु त सारे सरस वृ ता त मलगे, िज ह सु नाते हु ए वे थकती ह
नह ं । इस उदाहरण म मलनोपरा त ेयसी को मा अतृि त ह हाथ लगी है । सखी
से रा - मलन क कथा म वह ने क यथा ह बता पाती है । य का मु ख दे खते
ह अ भलाषाओं क याकुल घटा इस कार छा गई है क उसे कु छ पता ह नह ं लग
पाया क यह व वासघा तनी रात म क भां त कब बीत गई । यह दशना भलाषा ह
घनानंद के यहां वयोग क भां त संयोग क भी मु ख वशेषता है । यहां े मका को
संयोग के बाद भी ाय: क थत होते ह दखाया गया है:

260
''सपने क संप त ल भई है मलोले मई,
मीत को मलन-मोद जान न कहां गयी ।
राखे आप ऊपर सु जान घनआनँद पै,
पह के फटत य रे हये फ ट ना गयी।।'' घ0 0पृ0 23/68
घनानंद के यहां य- मलन व न क भां त होता है और मलन के बाद ाि त भी
व नवत ह होती है । िजस कार व न म मल हु ई संपि त व न के बाद गायब
हो जाती है, उसी कार य के मलन के बाद मलन-सु ख पता नह ं कहां चला जाता
है । इस लए मलन के बाद य थत होकर ना यका कहती है क 'पौ फटते ह (सबेरा
होते ह ) यह दय भी फट य नह ं गया । इस कार हम दे खते ह क घनानंद क
संयोग-भावना सा ह य म व णत संयोग क पर परा से पया त भ न है । अत: इनक
वरह-भावना या वयोग-भावना के ववेचन- व लेषण म ह इनक गृं ार -भावना क
वा त वकता को सह ढं ग से समझा जा सकता है ।

20.2.5 वरह-भावना

इस स ब ध म क व के समसाम यक शि तकार जनाथ क मा यता है क 'समु झै


क वता घनआनदे क हय आँ खन नेह क पीर तक '. अथात घनानंद क क वता
समझने के लए दय क आख से ेम क पीड़ा को अनुभव करने क मता चा हए
। केवल घनानंद के का य-मम जनाथ ह नह ;ं वरन क व के म और शंसक
भ त महा मा हत वृ दावनदास ने घनानंद क मृ यु के बाद ांज ल दे ते हु ए
भाव वहवल होकर उ त वृि त को इस कार रे खां कत कया है:
'' बरह सो तायो तन नबा यौ न सांचोपन
ध य घनआनँद मु ख गाई सोई कर है ।''
इससे प ट है क घनानंद ने केवल वरह- यथा क क वता ह नह ं लखी, उनका
जीवन भी वरह- यथा क सा ात तमा रहा है । ' वरह से संत त शर र और इस
भावना के लए अपने को यौछावर कर दे ने क त ा का नवाह'- इस बात का
माण है क घनानंद ने 'जो कु छ मु ख से गाया है, वह कया भी है अथात 'जो कु छ
कया है वह गाया है ।' अत: इनक कथनी और करनी म एक पता मलती है ।
इस लए वे र तब क वय क भां त ेम का नाटक खेलते हु ए, ठे के पर दूसर के लए
दुख पर आंसू बहाने वाले न होकर अपनी यथा से रोते-कराहते हु ए दखाई दे ते ह ।
इस त य को र तमु त क व ठाकु र ने अ यंत कौशल के साथ इस कार तु त कया
है: 'पै वीर मले- वछुरे क यथा म ल कै बछुरै सोई जानत है ।' अथात वयोग क
पीड़ा को मलन के बाद नयु त होने वाला ह समझ सकता है । र तब क वय म
इस ि थ त से गुजरने वाला कोई भी क व नह ं है । इस वा त वकता को का शत
करते हु ए ह द के का ड आलोचक आचाय रामच शु ल ने लखा है, '' ेम क पीर
को लेकर ह इनक (घनान द क ) वाणी का ादुभाव हु आ था । ेम-माग का ऐसा
261
वीण और धीर प थक... जभाषा का दूसरा क व नह ं हु आ ।'' ( ह द सा ह य का
इ तहास, पृ0 320) । घनानंद क ' ेम क पीर' का मू लाधार वषम (एकतरफा) ेम
है, िजससे इसम कु छ ऐसी वशेषताओं का समावेश हो गया है, जो र तब ह नह ,ं
वरन ् र तमु त क वय से भी इ ह भ नता दान करती है ।

20.2.5.1 वषम ेम क पीड़ा

मौन-म य पुकार वयोग म वरह का य थत होना वाभा वक है । इसका सहज प


है उभयप म ेम क ि थ त । इसम भी वयोग-ज य यथा होती है । ले कन
एकतरफा या वषम ेम क पीड़ा इससे पया त भ न होती है । वषम ेम म ेमी
एक न ठ भाव से ेम करता है और य नरं तर उपे ा करता है । ेम क यह ि थ त
समाज- वीकृ त न होने के कारण लोक न दा का वषय वन जाती है । सामािजक
व ध- नषेध का उ लंघन करने वाले घनानंद के लए इस न दा का कोई मह व नह ं
है । अत: घनानंद क वर हणी म लोकापवाद का सामना करने का अपूव साहस है:
'' वष सी कथा न मा न सुधापा न कर जान
जीवन नधान वै बसासी मा र म त रे ।
जा ह जो भजै सो ता ह तजै घनआनँद य
ह त के हतू न कह काहू पाई प त रे ।।- घ0क व त सं0 60
यहां वषयु त लोक न दा को अमृत समझ कर पीने क बात से प ट है क वर हणी
क वा त वक पीड़ा य क उपे ा को लेकर ह है । ले कन कभी-कभार जब कोई
अ य त आ मीय बनकर इस यथा को सु नना चाहता है तो वर हणी क याकु लता
शतधा बढ़ जाती है । इसका एक उदाहरण है:
''घनआनँद यारे सु जान! सु नी िज ह भा तन ह ं दुख -सूल सह ।
न ह आव न औ ध न रावर आस, इतै पर एक सी बाट चह ।
यह दे ख अकारन मेर दसा कोई वे तौ ऊतर कौन कह ं ।
िजय नेकु बचा र कै दे हु बताय हहा पय! दू र ते पीय गह ।।'
- (घनानंद क व त सं0 273)
वर हणी अनुपि थत य को संबो धत करती हु ई कहती है क 'न तो आपके आने क
कोई नि चत अव ध है और न आप से ऐसी उ मीद ह क जा सकती है क आप
आएंगे । फर भी म नरं तर आपके आने का माग दे ख रह हू ं । मेर इस अकारण
ती ा को दे खकर कोई पूछ बैठे क म ऐसा य कर रह हू ं तो म उसे उ तर या
दूं ? म दूर से ह तु हारे पांव पड़ती हू ं जरा सोच कर इसका उ तर बता द । व तु त:
यह वल ण वेदना एकतरफा ेम के कारण है । उभय न ठ ेम म वरह दूसर को
सहज भाव से अपनी वेदना का सहभागी बना सकता है, िजससे अपनी यथा का भार
ह का कर लेता है । ले कन वषम ेम क अव था म वैसा कर पाना संभव नह ं है ।

262
इस वषमता ज य वेदना के अटपटे पन को घनानंद ने अ यंत मम पश ढं ग से तु त
कया है:
''अंतर उदे ग दाह आँ खन वाह-आँस,ू
दे खी अटपट चाह भीग न दह न है ।
सोइबो न जा गबो हो ह सबो न रोइबो हू,ं
खोय-खोय आपह म चेटक लह न है ।
जान यारे ान न बस पै अन दघन,
बरह वषम दसा मू क ल कह न है ।
जीवन-मरन, जीव-मीच बना ब यौ आ न
हाय कौन व ध रची नेह क रह न है।।'' - घ0 ं0पृ0 63/196
यहां वषम ेम क यथा क अ भ यि त के लए क व ने ाय: पर पर वरोधमू लक
व तु ओं और याओं का सहारा लया है । आग और जल, जीना और मरना, भीगना
और जलना आ द वरोधी व तु एं और याएं ह, िज ह वर हणी एक साथ झेल रह है
। 'जीवन के बना जीने और मृ यु के बना मरने' के उ लेख वारा नेह क रह न
अथात वषम- ेम से त ेमी क दशा को क व अ यंत मा मक ढं ग से उजागर
करता है । ' वरह- वषम-दसा मु ंक तौ कह न' वारा इसक अ नवचनीयता को उ घा टत
कया गया है । इस सारे यापार म अपने को पूणत: खो दे ने के बाद जो मलता है,
वह चेटक लह न जादू क - सी ाि त है, जो अंतत: झू ठ स होती है । ऐसी वषम
ि थत म वरह क पुकार मौन के म य क पुकार वन जाती है । वैसे मान सक
वेदना अपने सामा य प म भी अ नवचनीय होती है, ले कन वषम ेम क वेदना के
प म घनानंद ने उसक वल णता को 'मौन म ध पुकार ' क सं ा द है । पीछे अभी
हमने दे ख लया है क घनानंद के लए ' वरह- वषम-दसा मू क ल कह न है । ले कन
य द समझने वाला हो तो गू ग
ं े का सांके तक कथन भी समझा जा सकता है । यहां
ि थ त और अ धक उलझी हु ई है, जो दशा को अ धक दयनीय बना दे ती है:
''इतै अनदे ख दे खबेई जोग दसा भई,
त तो आनाकानी ह सो बां यौ द ठ-तार है ।
तेरे बहराव न ई है कान बीच, हाय,
वरह बचा रन क मौन म पुकार है।।'' घना0 थ
ं ा0पृ0 122/369
इधर ' बना दे ख'े ( बना दशन के) 'दे खबेई जोग' (दयनीय) ि थ त और उधर ' य
वारा न दे खने का हठ' वेदना क भीषणता को अ य त क ण बना दे ता है । इससे
प ट है क घनानंद वषम ' ेम क पीर' को अ नवचनीय मानकर मौन के मा यम से
उसक सांके तक अ भ यि त को मह व दे ते ह । वैसे गहराई से दे खा जाए तो
आंत रक यथा क वा त वक अ भ यि त मौन म ह है, िजसे क व ने अपने का य म
एक व श ट अवधारणा के प म इस कार तु त कया है :

263
'मौन मह ं बात है सम झ जाने जान,
अमी काहू भां त को अचंभै भ र यावई ।
कह कौन मानै. पहचानै कान नैन वाके,
बात क भदन मो ह मा र-मा र यावह ।।'' - धन0 0
ं , पृ ठ 129/423
मौन अ यंत बार क (मह न) कथन- णाल है, िजसे बहु त समझदार या समझने क
इ छा रखने वाला ह समझ सकता है । एक तो इसे कहा नह ं जा सकता और दूसरे
य द कसी कार कहा भी जाए तो कोई मानने के लए तैयार नह ं होगा । इसे वह
पहचान सकता है, िजसके ने म ह कान लगे ह अथात ् जो दे खकर ह सार यथा
का अनुभव कर सके । इसी को घनानंद के शि तकार जनाथ ने हय आं खन नेह
क पीर तक - कहकर संके तत कया है । इस त य को और अ धक प ट करते हु ए
घनानंद ने वयं लखा है:
''पहचानै ह र कौन, मो सो अनपहचान को,
य पुकार म ध मौन, कृ पा-कान म ध नैन य ।'' - घ0 क0 22
ने के म य कृ पा पी कान के बना 'मौन के म य ि थत पुकार को नह ं सु ना जा
सकता । अत: 'मौन इनके लए एक व श ट साधना के साथ ह अ भ यि त का एक
साधन भी है :
“मौनहू स दे ख ह , कतेक पन पा लहै जू
कू क भर . मू कता बुलाय आप बो ल है,
ई दए रहौगे कहा ल बहराइबे क ,
कबहू ं तौ मे रयै पुकार कान खो लहै।।'' घ0क0, सं0 104
यहां मौन क मता पर अपूव धैयपूण अ डग व वास कट हु आ है । वर हणी न ठु र
य को चु नौती दे ते हु ए कह- रह है, 'दे खना है क तु म अपनी न -सु नने क त ा
पर कब तक अटल रहते हो । मेर यह कू क भर मू कता (पुकार भर मौन) तु हार
चु पी को तोड़ कर ह दम लेगी । अपनी क वता म थान- थान पर इस कू क भर
मू कता' क अ भ यि त- मता को क व ने रे खां कत कया है
''सु ध कर भू ल क सु र त जब आय जाय, -
तब तब सु ध भू ल कू क ग ह मौन को ।'' - घ0क0, 200
य क उपे ा (भू ल) क याद करने पर जब-जब उसक मृ त सताने लगती है, तब-
तब म अपनी सु ध-बुध खोकर कू कने लगती हू ं । इस कू कभर मू कता को 'मौन बखान'
के प म था पत करते हु ए घनानंद ने लखा है:
''आँ खन मू ं दबे बात दखावत सोव त जाग त बात ह पे खलै ।
नैन न कान न बीच बसे, घनआनँद मौन बखान सु दे खलै ।
(घना0 0
ं , पृ ठ 130/424)

264
यहां क व ने ने और कान के म य ि थत मौन के बखान म वाणी (बात) क
वा त वक मह ता का उ घाटन कया है । ले कन 'मौन म ध पुकार ', 'कू क भर मू कता'
और 'मौन बखान' को पया त मह व दे ने के बावजू द घनानंद ने भाषागत वाणी क
अ भ यि त- मता का अ य त कु शल योग कया है । इसके लए एक उदाहरण
पया त होगा:
“ग त न तहार दे ख थक न म चल जा त,
थर चर दसा कैसी ढक उघर त है ।
कल न प र त कहू ं कल जौ पर त होय,
पर न पर हौ जा न पर न पर त है ।
हाय यह पीर यारे ! कौन सु नै कास कह ,
सह ं घनआनँद य अ तर अर त है ।
भू ल न च हा र दोऊ ह न हो हमारे या त,
वसर न रावर हम लै बसर त है।।- घना0 क व त, सं0 104
घनानंद अ नवचनीयता क अ भ यि त म 'कू क भर मू कता', 'मौन वखान' म पारं गत
होने के साथ ह भाषा वीण भी थे । अत: भाषा क ल णा- यंजना शि तय के साथ
ला णक मू तम ता और योग-वै च य तथा वरोध-वै च य जैसे अ भ यि त के साधन
म जो मम ता घनानंद ने दखाई है, ह द म अ य त दुलभ है । उ त सवैया इस
त य का अ तम माण है । ग त को दे खकर थक न म चलते जाना, ढकने म
उघरना (उ घा टत होना), पर न म पड़ना और जान न पड़ना, भू ल और पहचान दोन
का साथ छोड़ दे ना, ' वसर न का ले वसरना' आ द ऐसे योग ह, जो वाणी क व ता
के साथ ह वद धता को भी समेटे हु ए ह । यहां मह वपूण क व-कौशल या चम कार
नह ,ं वरन ् भावा भ यि त का चरम वकास दे खा जा सकता है । इस सवैये पर श प
के अ तगत व तार से चचा क जाएगी ।

20.2.5.2 संयोग और वयोग क म त ि थत

घनानंद के अनुभू तप के अ तगत संयोग और वयोग क एक साथ उपि थ त


रे खां कत करने यो य वशेषता है । यह वशेषता उ ह र तब क वय के साथ ह
र तमु त क वय से भी अपना पूण पाथ य था पत करती है । यह नह ं ह द
सा ह य म अ य कह ं भी इस कार क वशेषता नह ं दखाई दे ती । संयोग म भी
वयोग क ि थ त को समझने के लए एक उदाहरण है:
'' ढग बैठे हू पै ठ रहै उर म घर कै दुख को सु ख दोहतु है ।
ग-आगे ते बैर टरै न कहू ं ज ग-जोह न-अतर जोहतु है ।
घनआनँद मीत सु जान मले ब स बीच तऊ म त मोहतु है ।
यह कैसो संयोग न बू झ परै जु वयोग न य हू ं छछोहत है।।
- (घनानंद 0 पृ0 34/104)

265
य के नकट बैठे रहने पर भी ना यका के दय म वयोग दुख के लए थायी थान
बनाए रखकर संयोग सु ख का दोहन करता रहता है । यह श ु ( वयोग) आँख के
सामने से कभी टलता ह नह ,ं य को दे खने के समय बीच म से झांकता रहता है ।
इस कार य सु जान के मलन के समय हमारे बीच उपि थत होकर मन को मू छत
कए रहता है । ना यका समझ नह ं पाती क यह कैसा संयोग है, िजससे वयोग एक
पल के लए भी साथ नह ं छोड़ता । इस व श ट ि थ त के लए लगता है क मु य
कारण घनानंद के वा त वक जीवन का ेम है, जो सु जान से वयु त होने के बाद
क वता म थान हण करता है । अत: जब तक घनानंद ने लोक जीवन से सं यास
नह ं लया था और वरह के प म जीवन यतीत कया था, तब तक के उनके संयोग
च ण म वयोग क एक काल छाया मंडराती दखाई दे ती है । इसे एक मनोवै ा नक
कारण माना जा सकता है । इनक क वता म इसका उ लेख बार-बार हु आ है
1. ''अनोखी हलग दै या! वछुरै तौ म यो चाहै
मले हू ं म जारै मारै खरक वयोग क ।'' - घ0 0
ं पृ0 89/276
2. ''कहा कहौ आनंद के घन जानराय ह जू
मले हू ं तहारे अन मले क कु शल है ।'' - घ0 0
ं , पृ0 20/61

20.3 अ भ यंजना-प
20.3.1 जभाषा याकरण और श दावल क ि ट से

भाषा- योग क ि ट से समू चे र तकाल म जभाषा को मु खता दे ते हु ए भी िजस


कार उसम अवधी, बु दे लख डी, वैसवाड़ी आ द का म ण हु आ है इससे भाषा संबध
ं ी
अराजकता दखाई दे ती है । आधु नक युग म जब बाबू जग नाथदास र नाकर ने
जभाषा का याकरण लखने का न चय कया तो उ ह र तकाल के दो ह ामा णक
क व मले, िज ह ामा णक आधार बनाया जा सकता था । उनम एक घनानंद और
दूसरे बहार थे । इस त य को र नाकर जी ने आधु नक युग के आरं भ म रे खां कत
कया था । ले कन घनानंद के समसाम यक म जनाथ ने इसे आरं भ म ल त कर
क व को ' जभाषा वीन' और 'भाषा वीन'- दोन प म पहचान लया था ।
' जभाषा वीन' का अथ जभाषा म नपुणता और 'भाषा वीन' का अथ भाषा क
श द शि तय का समु चत ान है । घनानंद क क त के मु ख तंभ 'सु जान हत'
और 'घनानंद क व त म वशु जभाषा का योग हु आ है । कसी का य का अ ययन
करते हु ए हम एक नि चत भाषा को यान म रखते ह । वरोधी कृ त क भाषाओं
के श द उसम आकर बाधा उ प न करते ह । जभाषा क शु ता और याकरण-
यव था का पूर तरह यान रखते हु ए घनानंद ने या, कारक आ द का प- वधान,
त व प का योग जभाषा के नयम के अनुसार ह कया है ।

266
श दावल क ि ट से केवल भाषा क शु ता ह पया त नह ं होती । श द-चयन और
श द- नमाण क ि ट से भी घनानंद ने जभाषा क मता म वृ क है । इसे एक
उदाहरण वारा अ छ तरह समझा जा सकता है
'' कत को ढ रगो वह ढार अहो िज ह मो तन आँ खन ढोरत है ।
अरसा न गह उ ह बा न कछू सरसा न सो आ न नहोरत है ।
घन आनंद यारे सु जान सु नौ तब य सब भां तन भोरत है ।
मन मा हं जी तोरन ह , तो क या बसवासी सनेह य जोरत है ।
- (घनानंद ं ावल , पृ0 88/272)

यहां ‘ढ रगो’, ‘ढार', ‘ढोरत’, ‘अरसा न’, ‘सरसा न’, ‘ नहोरत’, ‘भोरत’ आ द श द क व
क श द- नमाण-शि त के प रचायक ह । ‘ढार’ श द ढलान के अथ म यु त होता है
ले कन यहां उसका योग कृ पा या वीभू त होने के अथ म हु आ है । अत: 'ढ र गौ'
ढल गया के थान पर समा त हो जाने के अथ का वाचक वन गया है । ढोरत
ढु लकाने या लु ढकाने के अथ से भ न अनुकू ल होने के अथ म यु त हु आ है । यह
ि थ त अरसा न, सरसा न- नहोरत, भोरत आ द श द क भी है । ये सभी एक भ न
अथ के योतक बने ह । इस कार क व ने इ ह नवीन अथ दान कए ह । घनानंद
क इसी वशेषता को यान म रखकर आचाय शु ल ने लखा है क ''भाषा क पूव
अिजत शि त से ह काम न चला कर इ ह ने अपनी ओर से नयी शि त दान क है
। ---भाषा का ऐसा बेधड़क योग करने वाला ह द के पुराने क वय म दूसरा नह ं
हु आ ।' इससे प ट है क याकरण और श द- नमाण दोन ि टय से घनानंद ने
सभी जभाषा-क वय क अपे ा अ धक शु और यंजक योग कए ह ।

20.3.2 श द शि तय और ला णक मू तम ता क ि ट से

याकर णक शु ता, भावानुकू ल एवं संगानुकूल श दावल के चयन के साथ ह भाषा म


न हत श द-शि तय का ान भी क व के लए आव यक है । जनाथ वारा घनानंद
को 'भाषा वीण' कहना इसी क ओर संकेत करता है । भारतीय सा ह य-शा म
श द क तीन शि तय . अ भधा, ल णा और यंजना पर व तार से वचार कया
गया है । वा याथ बोध कराने वाल शि त को अ भधा कहा गया है । वा याथ के साथ
या उसे छोड़कर ल याथ का बोध कराने वाल श द-शि त ल णा है । अ भधा और
ल णा शि तयां जब जवाब दे जाती ह तब क व यंजना शि त का सहारा लेता है ।
इसम अ भधा और ल णा-दोन का प र याग होता ल णा और यंजना के े म
म ययुगीन क वय ने कम ह वेश कया है । घनानंद उस युग के अकेले क व ह;
िज ह ने इन शि तय का पूरा उपयोग कया है । इनक इस वशेषता को ल य कर
आचाय रामच शु ल ने लखा है क ''भाषा के ल क और यंजक प क सीमा
कहां तक है, इसक पूर परख इ ह ं (घनानंद) को थी । ल णा का व तृत मैदान
खु ला रहने पर भी ह द क वय ने उसके भीतर बहु त ह कम पैर बढ़ाया । एक

267
घनानंद ह ऐसे क व हु ए ह, िज ह ने इस े म अ छ दौड़ लगायी है ।'' यहां ल णा
और यंजना क तकनीक बार कय और पा रभा षक सीमाओं क ओर जाने क अपे ा
क व क ला णक और ला णक मू तम ता संबध
ं ी वशेषताओं पर ह वचार करना
हमारे लए अ धक साथक और उपयोगी होगा ।
ला णकता घनानंद क भाषा क मु ख वशेषता मानी जा सकती है । इसके मा यम
से क व ने जहां एक ओर अ नवचनीय भाव-ि थ तय और मनोदशाओं क समु चत
अ भ यि त क है, वह ं दूसर ओर अमूत भाव को मू त प दे कर उ ह अ धक
संवेदनीय बनाया है । एक उदाहरण के मा यम से इस त य को आसानी से समझा जा
सकता है :
‘ग तन तहार दे ख थक न म चल जा त,
थर-चर दशा कैसी ढक उघर त है ।
कल न पर त कहू ं कल सो पर त होय,
पर न पर ह जा न पर न पर त है ।
हाय यह पीर यारे ! कौन सु न,ै का स कह ,ं
सह घनआनँद य अंतर अर त है ।
भू लं न च हा र दोऊ ह न हमारे ताते,
बसर न रावर हम लै वसर त हे ।। घ0 क व त, सं0 144
इस क व त म य क अ तशय न ठु रता के संदभ म वषम ेम क पीड़ा से त
वर हणी क आ त रक वेदना क सांके तक अ भ यि त हु ई है । अ नवचनीयता क
अ भ यि त म वाणी क व ता और वद धता कस सीमा तक जा सकती है. इसका
अदभू त माण इस क व त म मलता है । यहां सार व ता वल ण ला णक योग
से आई है । 'ग त को दे खकर थकना अथात य क उपे ा क आदत (ग त) को
दे खकर वथ कत हो जाना और थकने पर भी चलते चले जाना अथात दुदशा म भी
जीवन काटते रहना, अचल और चल ( थर-चर) दशा का ढँ के हु ए रहकर भी उघरना
अथात अ प ट बने रहना, पर न का न जान पड़ना अथात पड़ी हु ई वपि त का पता न
लगना, 'भूल न और च हा र'- दोन का साथ छोड़ दे ना यात मरण और व मरण
क भावना से र हत अथात चेतना शू य हो जाना, बसर न का ले बसरना अथात
व मरण वारा आ म- व मृ त के गत म डाल दया जाना आ द सभी योग ल याथ
के संकेतक ह । ले कन यहां इस बात का यान रखना ज र है क उ त योग
ल णा अथवा यंजना के पा रभा षक दायरे म बंधे हु ए नह ं ह । यहां स पूण चम कार
अ भधामूलक ह है और अ भ त
े अथ क स अ भधा- यापार से ह होती है ।
आचाय रामच शु ल तो का य को अ भधा यापार ह मानते ह । इस ि ट से
वचार कया जाए तो घनानंद के ये योग श द-शि तय के शा ीय दायरे का
अ त मण कर एक ओर उनक उ मु त ि ट का प रचय दे ते है तो दूसर ओर एक
अ भनव यंजना-प त का संकेत करते ह । इ ह ं त य को ल य कर आचाय

268
रामच शु ल ने लखा है: ''ला णक मू तम ता और योग-वै च य क जो छटा
इनम दखाई पड़ी, खेद है क वह फर पीने दो सौ वष पीछे जाकर आधु नक काल के
उ तरा म अथात वतमान काल क नूतन का य-धारा (छायावाद) म ह
अ भ यंजनावाद के भाव से कु छ वदे शी रं ग लए हु ए कट हु ई ।'' ( ह द 'सा ह य
का इ तहास' पृ. 322-23) । इसे समझने के लए हम योग-वै च य और वरोध-
वै च य जैसी वशेषता का सहारा लेना होगा ।

20.3.3 योग-वै च य और वरोध-वै च य

इसके अ तगत श द योग क वच भं गमा और वरोध पर आधा रत कौशल का


सहारा लया गया है । इसके लए कु छ उदाहरण अपे त ह:
1. 'अरसा न गह उ ह बा न कछू सरसा न सो आ न नहोरत है ।'
2. 'मग हे रत द ठ हराय गई, जब ते तु म आव न औ ध बद ।
बरसौ कतहू घनआनँद पारे , पै बाढ़ त है इत सोच-नद ।''
थम उदाहरण म आदत (बा न) का आल य हण करना व च योग है । आल य
आदमी करता है, आदत नह ं । ले कन उस आदत (उ ह बा न) का आल य करना, जो
पहले आलसी नह ं थी. इससे य क िजस न ठु रता क यंजना हु ई, वह य के
आल य हण करने से नह ं हो सकती थी । यहां आदत का स पूतन हु आ है ।
' नहोरा श द जभाषा म कृ त ता के अथ म यु त होता है, िजससे ( नहोरत) या
का नमाण क व का मौ लक यास है । दूसरे उदाहरण म ि ट का खो जाना (द ठ
हराय गई) एक मु हावरा है, ले कन 'मग हे रत (माग दे खने या जोहने) के स दभ म
हलके वरोध क छाया से यु त होने के कारण अथ म एक वशेष कार क ती ता
आ गई है । रा ता खोजते हु ए ि ट का खो जाना अथात ् दे खने के यास म खो जाना
जहां एक ओर चम कार क सृि ट करता है, वह ं दूसर ओर वर हणी क संकटपूण
गंभीर ि थ त को भी संके तत करता है । दूसर पंि त म बादल का कह ं बरसना और
नद का कह ं अ य बढ़ना म असंग त है. कारण कह ं और काय कह ं, के योग म
असंग तमू लक वरोध है । इसी कार एक तरफ सोच- नद का बढ़ना और दूसर तरफ
उ वेग क आँच म उबलना म भी वरोध का आभास है । इस कार यहां मु हावरे,
ला णक योग, वरोध-वै च य, योग-वै च य असंग त आ द एक साथ मलकर
वर हणी क गंभीर दशा को पा यत करते ह । इस कार के योग घनानंद क
क वता म वरल नह ,ं वरन ् अ य धक मा ा म हु ए ह । इसके लए कु छ अ य
उदाहरण भी लए जा सकते ह:
1. 'रोक रहै न दहै घनआनँद, वावर र झ के हाथन हा रयै ।'
2. 'बदरा बरसै रतु म घ रकै, नतह अँ खया उघर बरसै ।'
3. उजर न बसी है हमार अँ खया न दे खो,
सु बस सु देस जहां रावरे बसत ह । '
269
4. ‘अकुला न के पा न परयौ दन रा त ।’
5. ‘ पयराई छाई तन सयराई ल दह ।’
6. 'हवै ह सोउ घर भाग उघर अन द घन ।
सु रस बरस लाल दे खयौ हर हम ।'
उपरो त उदाहरण म ला णकता, योग-वै च य और वरोध-वै च य आ द चम कार-
वधायन क अपे ा भाव- वधायन म अ धक सहायक हु ए ह । यहां दए गए थम
उदाहरण का आशय है क 'र झ पर कसी का वश नह ं । ले कन इस कथन म र झ
क वह ती ता नह ;ं जो वावर र झ के हाथ हारने' म है । र झ आसि त के प म
भाववाचक सं ा है, ले कन यहां क व ने उसे यि तवाचक सं ा का प दे कर उसे मू त
प दया है, िजसे संमू तन- वधान कहते ह । दूसरे उदाहरण म 'उघर बरसै' के थान
पर 'खु ल कर बरसै' से भी काम चलाया जा सकता था । क तु ' घ र कै बरसै' के
स दभ म उघर वरसै के मा यम से आँख क जो याकु लता य हु ई है, वह
'खु लकर बरसै' से संभव नह ं थी । इस कार 'खु लकर बरसना' जैसे मु हावरे को क व ने
यहां एक नया सं कार दान कया है । तीसरे उदाहरण म 'उजर न बसी है' हमारे ने
उजड़ गए ह. उ ह चार ओर कु छ दखायी नह ं दे ता आ द के सीधे योग से ि थ त
क गंभीरता और ती ता अ छ तरह उ घा टत नह ं हो पाती । यहां उजर न श द को
कता प म मु खता दे कर उजाड़पन' को मू त प दे दया गया है । चौथे उदाहरण के
अकु ला न के पा न पारयौ म जो गहनता और ती ता आई है वह ' ाण अ य धक
याकु ल हो गए ह' के सीधे कथन म कभी नह ं आ पाती । याकु लता (आकु ला न) भाव
भाचक सं ा है, ले कन इसे अकु ला न के प म बहु-बचन म यु त कर क व ने इसे
जा तवाचक सं ा का प दे दया है । इस कार उसने र झ से र झ न लाज से
लाज न यथा से यथा न, सु दरता से सु दरता न आ द योग वारा अ धकांश थल
पर सू म भाव को सघन और ती करने का सफल यास कया है । पांचवे उदाहरण
म सयराई ल दह 'ं वरोधमू लक वल ण योग है, जो वर हणी क वषम- यथा को
उजागर करता है । शीतलता ( सयराई) से जलना म एक वशेष कार क व ता है ।
इस कार के ला णक योग छायावाद क वय , वशेषत: साद म काफ मा ा म
यु त हु ए ह
'शीतल वाला जलती है, ईधन होता ग-जल का ।
यह यथ वास चल-चल कर, करती है काम अनल का ।'
इस कार के अनेक योग घनानंद ने कए ह । छठव उदाहरण म खु ले भा य वाल
घड़ी को वशेषण- वपयय क सं ा द जा सकती है, जहां वशेषण को सजीव यि त
से कसी नज व व तु म थाना त रत कर दया जाता है । छायावाद म अं ेजी के
' ां फड ए पथेट' का इसे ह द अनुवाद माना जा सकता है । व तु त: घड़ी (मु हू त)
खु ले भा यवाल नह ं होती, वरन आदमी खु ले भा य वाला होता है । य क उसी का

270
भा य खु लता है । यहां शु भ मु हू त के लए 'खु ले भा य वाल घड़ी' का योग कर क व
ने अपने अपूव अ भ यंजना-कौशल का प रचय दया है । 'दे खहौ हर ' के संदभ म
'खु ले भा यवाल घड़ी' को वशेष साथकता ा त हु ई ह । घनानंद के अ धकांश क व त-
सवैय म इसी कार क ला णकता, योग-वै च य और वरोध-वै च य का सहारा
लया गया है ।

20.3.4 लोकोि त और मु हावरे

'लोकोि त और मु हावरे का य-भाषा को लोक-जीवन के नकट लाकर एक वशेष कार


क ताजगी और जीव तता दान करते ह । र तब क वय म इस यास का नता त
अभाव मलता है । ले कन र तमु त क वय ने इसका जम कर योग कया है ।
ठाकु र ने अपने 'ठाकु र ठसक' थ
ं म इसका सु दर योग कया है । उनका एक
उदाहरण है
'हवैह नह ं मु रगा जे ह गाँव, सखी ते ह गाँव का भोर न हवैह ।'
यह पूरा थ
ं ह लोकोि तय के सहारे लखा गया है । मु हावरे और लोकोि तय म
लोकजीवन के अनुभव को अ यंत सं ेप म कट करने क पूण मता होती है ।
का य म थान पाकर ये जहां एक ओर उसम सजीवता और वाभा वकता का संचार
करते ह, वह ं दूसर ओर भाषा क अ भ यि त- मता म अ य धक वृ भी करते ह ।
मु हावर का नमाण य य प ल णा के सहारे होता है, ले कन लोक-समाज म बार-बार
यु त होने के कारण वे नि चत अथ म ढ़ हो जाते ह । लोकोि तयां पूण कथन या
वा य होती ह, िज ह तोड़ना-मरोड़ना संभव नह ं होता । भाषा के अ दर इनका योग
टा त या उदाहरण के प म होता है । अत: बना कसी प रवतन के का य म इ ह
थान दे ना मु ि कल हो जाता है । आव यकता के अनुसार मु हावर के व प म
प रवतन कया जा सकता है । इस लए का य म इनका योग आसान होता है ।
घनानंद का झु काव लोकोि तय क अपे ा मु हावर क ओर ह अ धक है, फर भी
इ ह ने कु छ लोकोि तय का अ य त साथक ढं ग से योग कया है
1. ‘ रै न- दन चैन को न लेस कहू ं पैय,े भाग
आपने ह ऐसे दोष का ह ध लगाइयै ।'
2. 'सु नी है कै नाह ं यह गट कहावत जू
काहू कलपाइयै सु कैसे कल पाय है ।'
कु छ लोकोि तय क छाया का उपयोग भी घनानंद ने अ य त सफलता से कया
1. ह त के हतून कहौ काहू पाई प त रे । '
2. 'मान मेरे िजयरा बनी क कैसो मोल है । '
लोकोि तय क अपे ा मु हावर का योग घनानंद म काफ मलता है । अपनी
ला णकता के कारण इनके त घनानंद का अ धक झु काव रहा है । इनके योग के

271
े म क व ने अपनी मौ लकता के साथ ह व श टता का भी प रचय दया है ।
इसके लए एक उदाहरण पया त होगा:
''प हल अपनीय सु जान सनेह स , य क फ र तेह कै तो रयै जू ।
नरधार अधार दै धार मझार दई! ग ह बाँह न बो रयै जू ।
घनआनँद आपने चा तक को, गुन बा ध लै मोह न छो रयै जू ।
रस याय के याय बढ़ाय कै आस, बसास म य वष घो रयै जू।।''
- (घनानंद क व त, सं0 14)
इस सवैये म 'ग ह बॉह (बाँह थामना), सहारा दे ने के अथ म एक मु हावरा है । ग हबाँह
न बो रयै (बाँह पकड़ कर डु बाना) सहारा दे कर असमय हाथ खींच लेना एक अलग
मु हावरा है । ये दोन ह मु हावरे नरधार अधार दै धार मझार के पूरे संदभ म इस
तरह यु त हु ए ह क इनक अ भ यि त मता म अ य धक वृ हो गयी है ।
'मझधार म छोड़ना एक तीसरा मु हावरा है, बीच म डु बा दे ना एक चौथा मु हावरा भी वन
जाता है । इस कार इस सवैये म मु हावर के एक गु छ का योग हु आ है । इससे
उ ह एक नया सं कार भी मला है । कसी नराधार को सहारा दे कर म यधारा म ले
जाना और फर बाँह पकड़कर (बलपूवक) डु बो दे ना. व वध मु हावर के मौ लक उपयोग
ह नह ,ं वरन ् वषम (एकतरफा) ेम क मू ल कृ त को भी उ घा टत करता है । इस
सवैये का अं तम मु हावरा है, बसास म य वष घो रयै, ( व वास म वष घोलना)
अथात ् व वासघात करना है । 'रस याय' आनं दत करते हु ए आशा बढ़ाने के संदभ म
ं म दूसरा उदाहरण है:
यह मु हावरा और अ धक यंजक हो गया है । इस संबध
''घनआनँद जान न कान केरै, इतके हत क कत कोऊ कहै ।
उत ऊतर पायँ लगी मेहंद सु कहा ल ग धीरज हाथ रहै।।''
यहां कान करना ( यान दे ना), पाँव म महद लगना (चलने म असमथ होना, हाथ
रहना (वश म रहना) आ द मु हावर का अ यंत कला मक समावेश हु आ है । एक तरफ
य प से उ तर के पाँव म महद लगी होना और दूसर ओर ेमी के प से धैय
का हाथ से खसक जाना ला णक मू तम ता का एक उ कृ ट नमू ना तु त करता है
। इस कार ये मु हावरे क व क ला णकता क वृि त के अ भ न अंग बन गए ह ।

20.4 श दावल / वचार संदभ


भेदोपदभेद - भेद
हय आं खन - दय क आँख से
अ तबा य - भीतर और बाहर
आ ेप - आरोप
कणधार - ना वक, यं याथ म ठे केदार
र तमु त - का य क पर परागत र तय का उ लंघन करने वाले क व
एकतरफा

272
अनुभय न ठ - एकतरफा
उ लंघन - अ त मण, न मानना
साहचयज य - साथ रहने के कारण उ प न
दशना भलाषी - कसी को दे खने क इ छा
पयव सत - वल न हो जाना, खो जाना
यावतन - पीछे क ओर मु ड़ना
फबना - शो भत होना
बोधक - यंजक
रावरे - आपके (अवधी, भोजपुर श द)
वृ ता त - कहा नयां, घटनाओं का उ लेख
उभय न ठ - दोन म ि थत, दो तरफा
वल ण - व च , अदभू त
अ नवचनीय - िजसे वाणी वारा कट न कया जा सके ।
दे ख बेई जोग - दयनीय

20.5 सारांश
घनानंद क का यानुभू त प के ववेचन- व लेषण के बाद हम कह सकते ह क वे
एक अ यंत मतावान क व के प म हमारे सामने आते ह । इनके वारा च त ेम
का उदा त प, गहन पपारखी सौ दय- ि ट, गृं ार रस के संयोग और वयोग प के
व वध भेदोपभेद क गहर परख आ द सभी ि टय म घनानंद एक बड़े क व के प
म हमारे सामने आते ह । व तु त: उनके का य क वाभा वकता, ामा णकता,
दय ा यता उनक जीवनानुभू त और जीवन-प त के ठोस धरातल पर आधा रत होने
के कारण ह इतनी आकषक वन पायी है । उनक जीवनानुभू त के मू ल ोत उनक
का यानुभू त को बराबर सं चत करते हु ए उसे ाणवान और जीव त बनाए रखते ह ।
इ ह ं सब कारण से घनानंद पूरे र तकाल म एक अकेले क व ह, िज ह ह द का य-
सा ह य के महान पारखी आचाय रामच शु ल ने अपने ह द सा ह य का इ तहास'
म मु त भाव से स मान दया है । बहार को ऊहा मकता या असंभव अ तशयोि तय
के लए लताड़ते हु ए शु ल जी ने बोधा को फारसी के तेग, कटार जैसे वग लत
उपकरण के समावेश के लए नि दत कया है । ले कन घनानंद म उ ह कसी भी
ु ट का समावेश नह ं मला है । ेम क पीर के धीर प थक के प म घनानंद क
नमल छ व न मत करने का थम ेय आचाय शु ल को ह जाता है । तु त इकाई
म घनानंद क वरह-वेदना का जो मा मक व तार ववे चत- व ले षत हु आ है, वह
उनके मह व का मू लाधार है ।
जभाषा क वीणता और भाषा क श द शि तय क गहर परख उ ह एक
मह वपूण क व के प म ति ठत करती है । भावानुकूल श द-योजना, नवीन श द-
नमाण क मता, योग-वै च य और वरोध-वै च य पर आधा रत ला णक

273
मू तम ता, वशेषण क अनुपम योजना आ द सभी ि टय से घनानंद ने अपने
अनुभव-जगत क मा मक अ भ यि त क है ।
वषम या एकतरफा ेम के व प, उसके सौ दय के म य वरह मन क अ य त गढ़
मनोदशाओं क अ भ यि त के लए भावानुकू ल, अवसरानुकू ल, और संगानुकू ल श प
क योजना उ ह अपने युग के क वय के शखर पर ह ति ठत नह ं करती, वरन
समूचे ह द -का य के े ठ क वय के बीच स मान के साथ ति ठत भी करती है ।
कसी क व-कलाकार का वा त वक मह व उसके युग प रवेश के संदभ म ह आँका जा
सकता है । ले कन एक बड़ा क व अपने युग के भाव- े के साथ कला क पर परा
का भी अ त मण करता है । घनान द ने यह दोन काय कया है । ना यका-भेद, रस-
भेद, अलंकार-भेद के न पण क पर परा का अ त मण करते हु ए इ ह ने अपने
यि त-जीवन के कोने-अंतर से उ वे लत करने वाल अनुभू त क अ भ यि त के लए
एक नयी का य-प त का नमाण कया । का य-रचना के लए िजन नये उपकरण का
नमाण और हण घनानंद ने कया वे आज भी का य पार खय के लए अ य त
मह वपूण बने हु ए ह ।

20.6 अ यासाथ न
नब धा मक न
1. जनाथ ने घनानंद को जभाषा- वीण और भाषा- वीण य कहा है- इसका
तकसंगत उ तर द ।
2. 'चाह के रं ग म भी यो हयो वछुरे मले ीतम शां त न माने'- इस कथन को
के म रखकर घनान द के का य म च त वशेषताओं पर काश डाल ।
3. 'मौन म ध पुकार' को के म रखकर घनान द वारा च त एकतरफा ेम क
पीर का सोदाहरण प रचय द ।
4. घनान द क श पगत मु ख वशेषताओं का प रचय द ।
5. घनानंद के का य म च त न न ल खत वषय पर सं त ट प णयां लख-
(क) दखसाध या दशना भलाषा (ख) सौ दय को रमणीय बनाने वाल वशेषता,
(ग) संयोग म वयोग क ि थ त (घ) ला णक मू तम ता
(ङ) घनानंद का सं त जीवन प रचय।
लघु तरा मक न
1. घनानंद क जभाषा वीणता को पाँच पंि तय म प ट कर- (उ तर के लए
इकाई का 20.6.1 अंश दे ख)
2. घनानंद के का य म च त ला णक मू तम ता को चार पंि तय म प ट कर-
(उ तर के लए दे ख इकाई का 20.6.1 व अंश)
3. ' सयराई ल दह 'ं के आशय को चार पंि तय म प ट कर- (उ तर के लए दे ख
इकाई के 20.6.3 अंश को)

274
4. लोकोि त और मु हावरे के मु य अंतर को पाँच पंि तय म प ट कर- (उ तर के
लए दे ख इकाई का 20.6.4 अंश)
5. मु हावर के योग से घनानंद को अ भ यि त म या सहायता मल है- पांच
पंि तय म उ तर द- (उ तर के लए दे ख इकाई का 20.6.4 का अं तम अंश)
6. घनानंद वारा तु त ेम के व प क तीन वशेषताएं ल खए ।
7. घनानंद वारा सौ दय च ण म अपनायी गयी मू ल ि ट प ट कर ।

20.7 संदभ ंथ
1. डॉ0 रामदे व शु ल, घनानंद का गृं ार का य, 0 वाणी काशन, 21 ए,
द रयागंज, नई द ल -2
2. आचाय रामच शु ल, ह द सा ह य का इ तहास, 0 नागर चा रणी सभा,
वाराणसी (केवल घनानंद से स ब अंश)
3. डॉ0 ब चन संह, र तकाल न क वय क ेम यंजना, 0 नागर चा रणी सभा,
वाराणसी (केवल र तमु त का यधारा)
4. सं0 आचाय व वनाथ साद म , घनानंद क व त : (केवल भू मका भाग),
वतरक नंद कशोर ए ड दस, बांसफाटक, वाराणसी ।
5. डॉ॰ ल लन राय, घनानंद, सा ह य अकादमी, व य वभाग, वा त, मं दर माग,
नई द ल - 110001
6. सं0 आचाय व वनाथ साद म , घनानंद ं ावल ,
थ 0 वाणी वतान, मनाल,
वाराणसी (केवल भू मका भाग)

275
इकाई-21 भू षण का का य
इकाई क परे खा
21.0 उ े य
21.1 तावना
21.2 क व-प रचय
21.2.1 जीवन-प रचय
21.2.2 रचनाकार यि तव
21.2.3 कृ तयां
21.2.4 समी ा
21.3 वाचन तथा संदभ स हत
21.3.1 इ िज म जंभ पर
21.3.2 सािज चतुरंग वीर
21.3.3 ऊंचे घोर मंदर के अंदर
21.3.4 का म न कंत सौ
21.3.5 ग ड़ क दावा जैस
21.3.6 कोकनद नैनन त
21.4 वचार संदभ और श दावल
21.5 मू यांकन
21.6 सारांश
21.7 अ यासाथ न
21.8 संदभ थ

21.0 उ े य
इस इकाई का अ ययन करने के बाद आप :
 म यकाल न जभाषा का य क पृ ठभू म म महाक व भू षण क ओजपूण वाणी से
प र चत हो सकगे ।
 भू षण क व के जीवन-प रचय एवं उनके यि त व पर स यक प से काश डाल
सकगे तथा उनके सा ह य-सृजन क जानकार भी तु त कर सकगे ।
 क व क का यानुभू त म रा यता तथा मातृभू म के त ा क उदा त भावना
से प र चत हो सकगे तथा जभाषा क रा य का यधारा को भी प ट कर
सकगे।
 म यकाल न भि त तथा गृं ार क सहज धारा से अलग हटकर क व क राजभि त
तथा रा भि त के वै श य को प ट कर सकगे ।

276
 महाक व भू षण के वीर का य तथा सम त म यकाल न का यधारा म उनक
ओज वी वाणी का का य के नकष पर पर ण करके उसक मह ता ा पत कर
सकगे ।
 कला एवं भावप क ि ट से भी भू षण क का य स पदा का पर ण कर
सकगे।

21.1 तावना
ह द सा ह य के इ तहास के उ तर म यकाल म कलावाद का य दशन का बाहु य
था, अ धकतर े ठ क वय को राजा-महाराजाओं के दरबार का आ य ा त था तथा
उनक आजी वका इ ह ं दरबार क कृ पाकां ा पर अवल बत थी, ाय: रजवाड़े अपनी-
अपनी सी मत स ता म वला सता का के बने हु ए थे, ये राजा, महाराजा या जमींदार
लोग क वय , संगीतकार एवं कला वद को आजी वका हे तु आ य दान करते थे, तब
ये क व और कलाधर अपने आ यदाता क शि त म अथवा उ ह खु श करने के लए
उनक अ भ च के अनु प रचनाएँ तुत करते थे । इस तरह इन आ यदाता रजवाड़
और दरबार ने कला को वला सता का मा यम बना डाला था, अ धकांश र तकाल इसी
दरबार सं कृ त के आ य म गृं ारपरक का यस पदा से आ छा दत रहा है, कार म भी
णय यापार क वलास ल लाएँ तथा कू ल एवं मांसल गृं ार के वणन ने क वता को
आकंठ वासना मक य भचारमयी सोच म जकड़ दया । स पूण र तकाल इसी कार
क णयल लाओं के अ तरे क से आरो पत रहा है ।
दूसर वृि त ल ण ं कार क भी थी, िजनम का यानुशासन , ना यकाभेद, महाका य,

षटऋतु वणन, का यांत न पण आ द वषय पर ल ण थ
ं क रचना करके महाक व के
वशेषण से संल न होने का मोह बना रहता था तथा ऐसे ह महाक वय क या त के
नाम पर बड़े-बड़े दरबार म नयुि त भी हो जाती थी । स पूण उ तर म यकाल इसी
कार के गृं ारपरक एवं ल ण थ
ं के सा ह य से भरा पड़ा है ।
महाक व भू षण इस धारा म सवथा वरल और व श ट क व थे, उ ह ने वलासपूण
य भचार गाथाओं म अपनी का यकला को रत नह ं कया, वरन ् रा यता क
ओज वी वाणी के साथ अपने वीरका य के परम वै श य को था पत कया । उस
समय क रा यता क भावना का अ भ ाय आज क जनतां क से भ न था, उस
समय दे श भ न- भ न रजवाड़ म बँटा हु आ था अपने अपने रा य के त वहां क
जा क राजभि त और राजभि त क उदार भावना को य त करते हु ए उस समय
क वैला यपूण वासनामयी ढ़ का य धारा के वपर त अपनी का य ग त अ सर क
थी ।
महाक व भू षण क वीररस पूण क वता पौ ष और मदानगी क तीक रह ह, उ ह ने
जमाने के साथ कदम नह ं मलाया वरन ् जमाने क दशा ह बदलने का साह सक
अ भयान शु कया था । उ ह ने भारत वष क आय जा तय के ल वभाव को
झकझोरा तथा ह द क वताओं को र नवास एवं जनानखान के वलासी क से

277
नकाल कर यु भू म क वीरो मा दनी उदा त धरती पर खड़ा कर दया । स पूण
र तकाल म महाक व भू षण ह वीर का य के स ाट क व के प म स मा नत है ।

21.2 क व प रचय
21.2.1 भू षण-जीवन प रचय

स पूण र तकाल म भू षण अपनी तरह के एक अलग क व है । इस काल म वीर रस


म अपनी रचनाएं लखने वाले अ य क व भी थे क तु गृं ार और ना यका भेद क
धारा को वीररस ह ओर मोड़ने का कृ त व भू षण के खाते म ह जाता है । जब ह द
क वता ना यका भेद और नख शख वणन क ग लय म भटकने को ह क वकम क
इ त ी मान रह थी तब भू षण ने इ तहास क उस जीवंत धारा को पहचाना जो
औरं गजेब (मु गल बादशाह) के अ याचार से तवाद वर के प म बह रह थी ।
भू षण को इस धारा का भगीरथ कहा जाता है । भू षण ने अपनी क वता के मा यम से
शवाजी का यशगान कर अ याचार वरोधी और तरोधमू लक धारा को अ धक वेग और
गत दान क । इस युग म दरबार म पलने वाले शि त गायक का अभाव नह ं था
ले कन भू षण म जो शि तया गाई और लखीं उनक बु नयाद कोरे झू ठ पर खड़ी न
होकर जातीय जीवन क प धर और अ याय के व स य थीं । अ तशय उि त
एवं कृ म भाषा के बावजू द इनक वीर दप ि तय को जनता ने पसंद कया ।
आलोचक ने अनेकानेक माण वारा स करने क को शश क है क जटाशंकर के
भाई थे । कं वद ती है क औरं गजेब के दरबार म चंताम ण ह भू षण को ले गए थे
क तु औरं गजेब के दरबार क कृ त और सं कृ त उ ह रास नह ं आई । वे कु छ दन
बाद ह वहां से लौट आए । यह भी कहा जाता है क उनके भाई म तराम, जो वयं
ं नरे श राव भाऊ संह के दरबार म रहते थे और िज ह ने बहार सतसई क , तज
बू द
पर भ तराम सतसई लखी थी, उ ह कु मायू ँ नरे श के दरबार म ले गए थे वे भी उ ह
रोक नह ं पाए । अपनी मान सकता से मेल खाते आ यदाता क तलाश म नकले
भू षण को अंतत: शवाजी का दरबार पसंद आया । भू षण के जीवन का ल य न तो
आ यदाता का मनोरं जन था न योपाजन उ ह मनचाहा प रवेश मल गया महाराज
शवाजी के आ य म । वे चाहते तो ना यका भेद और नख शख वणन सु नाकर
चम कार का सृजन करते और वाहवाह लू टते क तु उनक दशा और ि ट त गीन
क वय से अलग रह । र त-काल के भोग वलास, आनंद उ लास के बीच उ ह ने
शौय का भैरव राग छे ड़ा ।
शव संह सगर ने भू षण क चार रचनाओं का िज कया है, जो ह शवराज भू षण,
भू षण हजारा, भू षण उ लास और दूषण उ लास । इनम से केवल शवराज भू षण या
शवभू षण ह उपल ध है । भू षण हजारा, का लदास हजारा क तरह बहु त से क वय क
रचनाओं का सं ह हो सकता है । भू षण उ लास अलंकार थ
ं और दूषण उ लास दोष
दशन थ
ं हो सकते है । इन चार थ
ं के अ त र त आलोचक ने उनके दो और
थ क चचा क है । जो है शवा बावनी और छ साल दशक । ले कन इन दोन
278
थ का काशन सबसे पहले सन ् 1890 म हु आ था । इनक न तो कोई
ह त ल खत त नकल है न अ य कसी थ म इनका उ लेख । शवा बावनी म
भू षण के अ त र त कु छ अ य क वय वारा र चत छं द भी संक लत ह । एक जन ु त
है क भू षण का
एक छं द शवाजी को इतना पसंद आया था क उ ह ने इस बावन बार सु नना चाहा था
और भू षण ने उनक इ छा पूर क थी। इसी आधार पर इस थ का नाम
शवाबावनी रखा गया था। छ साल दशक म भी कु छ छं द भू षण के अ त र त अ य
क वय के लखे हु ए ह। भू षण का केवल शवराज भू षण ह ामा णक ं है, िजसका

रचनाकाल 1773 ई. है।
शवाजी का दरबार क व स करने के लये भू षण का ज म संवत ् कसी ने सं.
1672 कसी ने सं. 1692 तो कसी ने सं. 1738 माना है। शव संह तकवांपरु से
1520 मील क दूर पर ि थत को था (उ नाव) था। अत: उनके कथन को माण
माना जाता है। भू षण वारा र चत एक छं द से भी ऐसा ह कु छ मा णत होता है- छं द
इस कार है।
सन ् स ह सतीस पर शु च बाद तेर हस मान।
भू षण शवभूषण कयो, प ढ़यौ सु नी सु जान।।
इस दोहे म लेष से भू षण के रचनाकाल का उ लेख मलता है अथात ् सं. 1737 के
प चात ् सं. 1738 म आषाढ़ बद 13 र ववार को भू षण का ज म हु आ था और
उ ह ने सं. 1773 म शवराज भू षण क रचना क ।
भू षण का ज म थान धनपुर माना गया है। बाद म वे संभवत: तकवांपरु जाकर रहने
लगे थे। वृ त को भुद म म तराम ने अपना नवास थान बनपुर बताया है।
तरपाठ बनपुर बसै, व स गो सु न गेह।
ववुध च भ ष पु त है, गरधर लखर दे ह।।
वृ त कौमु द क रचना सं. 1768 म हु ई थी। इसी समय व म सतसई क एक ट का
म उ लेख मलता है।
बसत व म पुर नगर का ल द के तीर वर यो वीर हमीर जनु,
म य दे श को ह र भू षण च ताम ण वहां।,
भ त भू षण भ तराम नृप ह मीर समान तै क ह नज नज धाम।
िजससे प ट होता है, भू षण च ताम ण और म तराम वस. 1758 तक बनपुर म रहे
और उसके प चात ् तकवांपरु जाकर रहने लगे।
भू षण कई आ यदाताओं के यहां रहे। उनका न न ल खत छ द ट य है-
मोरं ग जाहू क जांहु-कु माऊँ
सर नगरै क क व त बनाए।
बांधव जाहु क जाहु आमेर क जोधपुरै क चतौर ह धाए।
बांधन जाहु कु न ब कै ऐ दल प,

279
क दल सु र पै कन जाहु बुलाए
भू षण गाई फर म ह म
ब तहे चत चा ह सवा ह रमाए।
प रा य के नरे श छ साल ने भी भू षण को राजक व क मा यता से अलंकृ त कया
था तथा इनका स मान कया था, उ ह ने महाक व भू षण क पालक को कंधा लगाकर
अपनी गुण ाहकता का अभू तपूव प रचय दया था ।
राजा छ साल तथा महाराजा शवाजी को छोड़कर अ य कसी राज दरबार म इनक
च तवृि त नह ं रमी, इ ह ने कहा भी है क-
शवा क बखान कै बखानी छ साल क
अ त तक शवाजी के ह दरबार से संल न रहे और सन ् 1715 के आसपास कानपुर
म ह इनका दे हा त हो गया ।

21.2.2 रचनाकार- यि त व

भू षण ने दे खा क उनके समय क सा ह यधारा वलासपूण दरबार सं कृ त क


मु खापे ी होकर समाज से और जना ह से वरत कर रह है । आयजा त क गौरवमयी
पर परा ल व और कापुराष होकर य भचार वृ त म रम रह है, उ ह ने महाराजा
छ प त शवाजी के पौ षपूण संहनाद का वण कया और वीरतापूण उनके शौय का
दशन भी कया, उ ह लगा क भारतभू म म यह शंखनाद फूं कना पड़ेगा, ह द क वता
को वलासपूण मांसल गृं ा रकता से नकाल कर जना ह रा यता क उदा तवाद
संक पना से जोड़ना होगा । उ ह ने अपनी का यकला को र नवास के वलास-क म
म दरापान म म त राजाओं के मनोरं जन हे तु सम पत न करके भारत वसु धरा क
नवचेतना क सोच म आग जगाने के उप म म जोड़ना उ चत समझा । संयोग से
उ ह शवाजी और छ साल जैसे यश वी दे शभ त संर क का आ य भी ा त हो गया
और उ ह ने वीर रस म सराबोर अपनी रा भि त को क वता के मंच पर था पत कर
दया ।
उ ह ने जभाषा को का यरचना का मा यम बनाया और च लत दोहा, दं डक, क व त,
सवैया आ द छ द म ह रचनाएँ तैयार क । उनक घना र क वता इतनी लोक स
हु ई क लगभग तीन सौ वष तक सा ह य र सक क वाणी म वे समाई रह ं । स पूण
दे श म का य र सक वारा उनक वीर रसपूण क वताओं का गजन होता रहा ।
म यकाल के उ तराख ड म रा य धारा को वा हत करने वाले भू षण शखर थ
त ठा पर वराजमान है ।
भू षण का य शा के पारं गत तथा छं द शा के पं डत थे । उ ह ने का यशा क
श ा अपने पता ी र नाकार पाठ से हण क थी जो सं कृ त के उ कृ ट व वान
थे । शवराज भू षण म इनका यह शा ीय ान जाना जा सकता है । दोहा छ द म
प रभाषा तथा दं डक छ द म उदाहरण तु त करके उ ह ने अपने आचाय व क ग रमा

280
भी था पत क थी । उनके वीर रस के छ द आज भी का य र सक क वाणी म
स मान के साथ कंठ थ ह ।
उनका यि त व भी वरल था, अ डग आ था रखने वाले राजभ त, एवं रा भ त
क व के प म वह यात थे । मातृभू म के त अगाध ेम था तथा नई पीढ़ के
ठं डे खू न म आग जगाने का उ ह ने अन त यास कया था । रा के श ओ
ु ं के त
तथा बा य आ ामक- ू र शासक के त इनके मन म आ ोश था िजसका प रचय
उनक वीररस क क वता म अनुभव कया सकता है, वह एक नभ क रा भि त क व
थे ।

21.2.3 कृ तयाँ

महाक व भू षण के फुट वीररस के क व त ह लोक म अ धक यात रहे ह । उ ह ने


सह ा धक क व त रचे थे, जो अब स पूण प से ा त नह ं है ।
इनक बंध रचनाओं म-
1. शवराज भू षण
2. शवा बावनी तथा
3. छ साल दशक स ह । इनके अ त र त कु छ व वान ने इनके पृथक -पृथक
का य संकलन भी स पा दत कये ह ।
शवराज भू षण- यह एक ल ण थ
ं है िजससे स होता है । महाक व भू षण आचाय
पर परा के क व थे िज ह का यशा का व धवत और गढ़ ान था । शवराजभू षण
का यांग न पण का ं है िजसम छ द, अलंकार, का य दोष रस आ द क वैधा नक

चचा है । दोह म का यांग के ल ण तथा दं डकवृ त एवं घना र छ द म उदाहरण
तु त कए गए है । शा ीय ि ट से यह थ अ यंत मह वपूण है ।
शवा बावनी-घना र छ द म बावन क व त म संक लत सं ह ं है, इसे मु तक

सं ह भी कह सकते ह कं तु र तकाल म सं यावाची थ
ं के णयन क पर परा थी,
इसी म म शवा बावनी थ
ं रचा गया था । इसम छ प त शवाजी क शौय गाथा
एवं उनके अजेय पौ ष का ओज पूण वणन है । येक छ द वीर रस का अनुपम
उदाहरण है । श ु के समू ह पर शवाजी महाराज का शेर क तरह टू ट पड़ना और उ ह
वन ट कर दे ना ह इस संकलन का वषय-वृ त है ।
छ साल दशक-एक छोटा-सा संकलन है कं तु वीररस के अ भनव योग क ि ट से
यह अ यंत लोक य तथा च चत रहा है ।

21.2.4 समी ा

मु य प से भू षण वीररस के मु ख क व ह । उ ह ने गृं ार क क वताएँ भी रची ह


कं तु वे नग य ह, उनक पहचान वीरका य के वारा ह हु ई है ।
छ द : मु तक का य के प म जो छ द र तकाल म यात थे, भू षण ने उ ह ं
च लत छ द का योग कया है, जैसे शवराज भू षण म दोहा तथा दं डकवृ त के

281
अ त र त छ पय तथा अमृत व न के भी छं द समा हत ह, कं तु शवा बावनी तथा
छ साल दशक म उ ह ने घना र क व त का ह योग कया है, कु छ सवैया छ द
भी ा त होते ह ।
घना र छ द के गठन वीररस क अ भ यि त के लए सवथा अनुकूल है, इसी लए
वीरका य म इसी छ द का धान- योग मलता है ।
भाषा : भू षण क का यभाषा जभाषा है जो र तकाल न क वय म उस समय च लत
थी तथा सभी राजदरबार म एवं क व समाज म यात थी । भू षण क भाषा म
ाकृ त भाषा के तथा ा यज श द के म ण मलते है । उ ह ने र तकाल न जभाषा
आचाय क वय क तरह शु सं कृ त न ठ भाषा का आ ह नह ं रखा । उनक भाषा
जना ह वीरका य क भाषा थी अत: जन च लत श दाव लय का इसम म ण मलता
है । उदू फारसी, मराठ , बु द
ं े लखंडी, तु क , ह रयाणी आ द भाषाओं के श द-भावानुकूल
क वता म संयोिजत ह । भाषा म सादगी, सहजता तथा सरलता का आ ह बनाए रखा
। इ ह ने अपना पां ड य द शत न करके जन-जन के सामा य भाव को का यां कत
करने का य न कया है । श द का पलटना-उलटना, नये श द ग ठत करना आरो पत
श द बनाना उनक कृ त थी जैसे एक उदाहरण यात य है-
सािज चतुरंग सैन अंग म उमंग भ र,
सरजा शवाजी जंग जीतन चलत ह ।
भू षण भनत नाद बहद नगारन के,
नद नद मद गैबरन के रलत ह ।
ऐल फेल खैल भैल, खलक म गैल गैल,
गजन क ठे ल पेल सैल उलसत ह,
तारा सी तर न धू र धारा म वा त,
िज म थारा पै पारा, पारावर य हलत ह ।
इसम जंग, गैबरन, खैल, भैल, खलक, पारा जैसे व भ न भाषाई श द के च लत
योग संक लत ह ।
रस अलंकार
रस और अलंकार के योगा के संदभ म क व अ धक य नशील नह ं दखाई दे ता ।
वीररस उसके का य का शीष रस है । शांत, गृं ार आ द नग य रस ह ।
अलंकार के योग म क व अव य योगधम और जाग क रहा है । यमक, लेष,
अ तशयोि त, अ योि त, य तरे क, अन वय, तीक, टा त, उदाहरण जैसे अलंकार
क भरमार है । वशेष प से समतु य अलंकार के योग अ धक है । जैसे-
प छ पर छ ने ऐसे परे पर छ ने वीर,
तेर बरछ ने बर छ ने ह खलन के।।
इसी तरह-
इ िज म जंभ पर बाडव सु अंब पर
282
राव संदभ पर रघुकु ल राज ह ।
पौन वा रवाह पर शु ंभु र तनाह पर
य सह बाहु पर राम ववराज ह ।
इस कार कहा जा सकता है क का य शा के आचाय और महाक व होते हु ए भी
उनका यास था क भारतीय म आ म व वास और रा य जागरण क भावना
प ल वत तथा वक सत हो तथा रा के श ओ
ु ं के सामने वीर दे श म खड़े होकर वे
उनक ललकार सक । इस तरह वह एक युग वतक रा य भावना से संल न
जनक व थे।

21.3 का य वाचन तथा संदभ स हत या या


21.3.1 शत.। इ िज म जंभ पर

इ िज भ जंभ पर, बाडव सु अंब पर,


रावन सदंभ पर रघुकुल राज ह ।
पौन वा रवाह पर शंभु र तनाह पर
य सह बाहु पर, राम दुजराज है ।
दावा दुमदं ड पर, चीता मृग झु ंड पर
भू षण वतु ड पर जैसे मृगराज है,
तेज तम अंश पर, का ह िज म कंस पर
य मले छ वंश पर, शेर शवराज है।।
संदभ : यह क व त शवाबावनी का य सं ह से हण कया गया है, इस सं ह म
बावन क व त है जो शवाजी के शौय के वषय म काश डालते है ।
इस क व त के रचनाकार भू षण है जो शवाजी महाराज के आ य म रहते थे तथा
शवाजी क वीरता क शंसा म क वता करते थे ।
संग : भू षण क व म यकाल न सा ह य के त न ध क व है तथा ल क से हटकर
क वता करने वाले व श ट क व है, िजस समय अ धकांश क व गृं ार परक थू ल एवं
मांसल गृं ार वणन म डू बे हु ए थे उस समय रा य गौरव को सामने रखकर उ ह ने
शवाजी क शौयगाथा क वीररस म रचनाएँ क थीं, ह द सा ह य के इ तहास म
वीररस के वह यात क व रहे है ।
या या : क व भू षण शवाजी क अन यतम एवं अनुपम वीरता का वणन करते हु ए
कहते है क
िजस कार इ जंबासु र पर आ मण करता है, बडवानल सु दर पानी को भ मीभू त
करने के लए टू ट पड़ता है, रावण के अ भमानी दं भ पर जैसे रघुकु ल राजा रामच
टू ट पड़ते ह, हवा जैसे बरसात पर, भगवान शंकर जैसे र त के प त कामदे व पर तथा
जैसे परशुराम सह बाहु का संहार करने के लए टू ट पड़ते है, जैसे जंगल क दावाि न
बाँस के वृ के वन पर, जैसे हरण के झु ंड़ पर चीता टू ट पड़ता है और उ ह

283
समा त कर दे ता है, महाक व भू षण कहते है िजस कार हाथी पर संह टू ट कर उसे
मार डालता है, िजस कार अंधकार के समू ह को सू य समा त कर दे ता है, भगवान
कृ ण जैसे कंस का संहार कर दे ते ह वैसे ह ले छ के वंश पर, दु मन के समूह पर
शवाजी महाराज शेर क तरह टू ट पड़ते ह ।
श दाथ : जंभ = जंभ रा स, बाड़व = जल म लगने वाल आप, िज भ= जैस,े
वा रवाहवषा, र तनाह = कामदे व, दुमदं ड = वृ , बांस वन, तेज = सू य का काश, तम
अंश अंधकार का ह सा ।
वशेष :
 यह घना र छ द है ।
 इसम मालो े ा अलंकार है, साथ म यमक, अनु ास , अ तशयोि त, अ योि त
तथा उदाहरण अलंकार भी ह ।
 इसक भाषा जभाषा है तथा वीररस का इसम नवाह हु आ है ।
 यह रा य उ े ग और वा भमान क क वता है ।
 इसम अनेक अ तकथाएँ समा व ट है जैसे कामदे व और शंकर भगवान, सह बाहु
और परशु राम, रावण और राम, कंस और ीकृ ण के कथांश उदधृत कए गए है ।

21.3.2 सािज चतुरंग वीर

सािज तु रंग वीर रं ग म तु रंग च ढ़


सरजा शवाजी जंग जीतन चलत है ।
भू षन भनत नाद बहद नगारन के,
नद नद गुद गैवरन के रलत ह ।
ऐल फेल खैल भैल, खलक म गैल गैल
गजन के ठे लपेल सैल उलसत है ।
तारा सौ तर न, सू र धारा म लगत िज म
थारा पै पारा पारावर य हलत ह।।
संदभ : यह क व त शवा बावनी से अवत रत है िजसके रच यता वीररस के मू ध य
क व भू षण है ।
रचना के वषय म : शवाबावनी महाक व भू षण वारा र चत महाराजा शवाजी क
वीरता को उ घा टत करने वाल बावन छ द क का यसं ह कृ त है ।
या या : महाराजा शवाजी क सेना यु जीतने के लये नकल पड़ती है, इस समय
उसक यशगाथा का वणन भू षण क व करते ह ।
शवाजी के वीर सपाह घोड़ पर सवार होकर नकल पड़ते ह, चतु रं गणी सेना सजधज
कर तैयार हो गई िजसम हाथी सवार, रथ सवार, घोड़े सवार तथा पैदल सपाह
समा व ट ह, अब इस चतुरं गणी सेना के साथ वीर शवाजी महाराज जंग जीतने के
लए िजस समय चल पड़ते ह तब भू षण क व कहते ह क इस सेना म यु के नगाड़

284
के जो शोर हो रहे ह, उ ह सु न कर न दय और महानद के चढे हु ए गव राह म
बखर जाते ह अथात ् ये न दयाँ और नद नगाड़ क आवाज सु नकर बखर जाते ह,
यहाँ-
वहाँ, सभी रा त तथा पगडं डय म, सव संसार के रा त म वीर शवाजी महाराज के
हा थय क भयंकरता क चचा ह िजनक ढे ल-पेल से पहाड़ के प थर तक धँस जाते
ह।
जब शवाजी महाराज क सेना के घुड़सवार क दौड़ से उड़ी धूल ऊपर आकाश म
जाकर तार को भी ढक दे ती ह जब सारा संसार कसी थाल पर पारे क ब दु के
समान कं पत होने लगता है, अथात ् भू ंकप जैसी ि थ त पैदा हो जाती है ।
श दाथ : नाद= व न, नगारन=नगाड़ क , सैल=पवत, खलक=संसार, तर न=सू य,
परावार=समु , धू र= धू ल ।
वशेष :
 यह घना र छ द है ।
 वीर रस धान है ।
 अ योि त, अतशयोि त, याज तु त, अनु ास , उ े ा, उपमा आ द अलंकार ह ।
 भाषा जभाषा है ।
 रा य उदा त भावना धान है ।
 यु के वणन का सजीव च ण है ।

21.3.3 ऊँचे घोर मंदर के अंदर

ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहन वार ,


ऊँचे घोर-मंदर के अंदर रहाती ह,
भू षन श थल अंग, भू षन श थल अंग,
वजन डु लाती ते वै वजन डु लाती है ।
कंदमूल भोग कर, क दमू ल भोग कर,
तीन बेर जातीं, सो तौ तीन बेर खाती है ।
भू षन भनत शवराज वीर तेरे खास,
नगन जड़ाती ते वै नगन जड़ाती ह।।
संदभ : यह छ द महाराजा शवाजी क शि त म लखे वीर का यसं ह शवा बावनी
से अवत रत है ।
इसके रच यता यात वीर रस के क व तथा शवाजी के आ यीक व भू षण ह । इस
छ द म महाराजा शवाजी के शौय और वीरता के कारण दु मन के श वर म पैदा हु ई
दहशत और आशंका का सजीव च ण कया गया है । ह द सा ह य का यह बहु त ह
ति ठत तथा लोक य यात छ द है ।

285
संग : शवाजी महाराज ने जब दु मन पर आ मण कया तो उनके महल, कले,
हवले, मकान सब धराशायी हो गए, उनके प रवार घर से बछुड़ कर जंगल म भाग
गए । शवाजी महाराज के परा म से घबड़ाई दु मन क बेगम क दुदशा का बड़ा क
भावक च ण भू षण क व ने कया है ।
या या : वह कहते ह क हे शवाजी महाराजा, तु हारे भय के कारण दु मन क
बेगम बेघर बेपनाह अनाथ और यतीम क तरह घूम रह है, जो बेगम ऊँचे भ य
महल म रहा करती थी, आज वे ह बेगम जंगल के अ दर बने ख डहर मि दर म
पनाह लेने को मजबूर हो गई है । िजन हसीन बेगम के अंग भार आभू षण के कारण
श थल पड़ जाते थे या दुखने लगते थे । आज उ ह ं दु मन क पि नय के शर र भू ख
से दुख रहे ह । खाने को भी नह ं मल पाता । जो बेगम दन रात दा सय से पंखा
झलवाकर आराम फरमाती थी आज वे ह बेगम नजन वन म भयातु र होकर घूम रह
है ।
जो दु मन क ि याँ पहले महल म कलाक द म ठा न आ द का भोग लगाती थीं
आज वे ह क दमूल जैसे जड़ फल को खाकर दन गुजारती है, जो कभी दन म तीन
तीन बार भोजन करती थीं, आज वे ह वेग म केवल तीन बेर के फेल खाकर ह दन
गुजार दे ती ह ।
पहले दन बेगम के िज म आभू षण जवाहरात से नग से जड़े रहते थे, भू षण क व
कहते ह आज वे ह बेगम महाराज शवाजी के भय से जंगल म जाड़ से काँप रह ह,
वे अब न ाव था म जाड़ म मर रह ह ।
श दाथ : मंदर=महल, खंडहर, बेर=बार, नगन=र न, वजन=पंखा, नजन
वशेष :
 यह घना र छ द है ।
 इसक भाषा जभाषा है ।
 यमक और लेष अलंकार मु य है ।
 अनु ास , याज तु त, अ योि त, अनु ास , टा त, उपमा आ द अलंकार है ।
 वीर रस पूण सा हि यक ग रमा से यु त छ द है ।
 रा य उदा त भावना से सरोबार है ।
 इसम व अथक श द ह-मंदर/भू षन/ वजन/क दमूल/बेर/नगन/जड़ाती आ द ।
 भाषा क यमकृ त दरबार क वता का यह अ तम उदाहरण है ।

21.3.4 का म न कंत सौ

का मनी कंत स , जा म न चंद स ,


दा म न पावस मेघ घटा स ।
क र त दान स , सू रत ान स ,
ी त बड़ी सनमान महा स ,

286
भू षन-भू षन सी तन ह
न लनी नव-पूषन दे व भा स ।
जा हर चारहु ओर जहान,
लसै हंदआ
ु न खु मान शवा स ।।
संदभ :
 यह शवानी बावनी का यात वीररस का छ द है ।
 इस छ द के रच यता महाक व भू षण ह ।
 शवाबावनी महाराज शवाजी के शि त म लखे छ द का सं ह है िजसम कु ल
52 छ द ह ।
या या : इस कार का मनी ि याँ अपने य प त से शोभा पाती ह, चांदनी क
शोभा च मा से होती है, आकाश म पावस ऋतु क मेघघटाओं से बजल क शोभा
होती है, दान दे ने से क त क शोभा होती है, तथा ान से यि त के तन क या
यि त व क शोभा होती है । इसी कार जैसे स मान त ठा से ी त क शोभा
बढ़ती भू षण क व कहते है क िजस कार आभू षण से शर र क शोभा होती है, और
कम लनी क शोभा नवो दत सू य क द य भा से बढ़ती है ।
इसी कार संसार म सभी दशाओं म यह स है क ह दू जा त का स मान,
वा भमान तथा सब कु छ शवाजी महाराज के कारण ह शोभायमान है ।
श दाथ : का मनीद= ि याँ, जा म न =रात, दा मनी= बजल , न ल न= कम लनी,
क र त=यश, लसै= शो मत ।
 घना र छ द है ।
 वीर रस धान है ।
 इसक भाषा जभाषा है ।
 इसम टा त, याज तु त, यु म , उपमा, अनु ास , आ द अलंकार का योग है ।
 शवाजी महाराज क शि त का छ द है ।
 रा य उदा त भावना सि न हत है ।
 ह द सा ह य का यह स छ द है ।

21.3.5 ग ड़ कौ दावा जैस

ग ड़ क दावा जैस नाग के समू ह पर,


दावा नागजू ह पर संह सरताज कौ ।
दावा पुर हू त को पहारन के कु ल पर,
दावा सबै पि छन के गोल पर बाज कौ ।
भू षन अखंड नवखंड म हमंडल म
तम पै दादा र ब- करन समाज कौ ।
पूरब पछाँह दे स दि छन त उ तर लौ
जहाँ पातसाह तहाँ दावा शवराज कौ।।
287
संदभ : यह छ द जभाषा का य कृ त शवा बावनी से उ त है शवाजी के शि त म
लखा गया यह का य महाक व भू षण कृ त है, जो महाराज शवाजी के आ य म रहते
थे ।
संग : महाराज शवाजी क वीरता क गाथाओं को भू षण ने वीर रस म रचा है शवा
बावनी म उ ह ने बावन छ द म शवाजी क वीरता का बखान कया है । तु त
छ द म भी शवाजी क शि त का ह बखान है ।
या या : िजस कार नाग के समू ह पर ग ड़ प ी आ मण करता है और नाग को
न ट कर दे ता है, िजस कार हा थय के झु ड पर वनराज संह का भयानक आ मण
होता है, पुराण म स है क िजस कार इ का आ मण पहाड़ से ऊपर हु आ था
। अथात ् पहाड़ के कु ल का नाश करने के लए िजस कार दे वे ने आ मण कया
था, जैसे प य के दल पर बाज झप ा मारकर आ मण करता है, इसी कार क व
भू षण कहते ह क जैसे सम पृ वी पर तथा नवख ड पर अंधकार के ऊपर सू य क
करण के समु दाय का धावा होता है अथात ् जैसे सम त पृ वी पर छाये अंधकार पर
सू य क करण आ मण करके उसे वन ट कर दे ती ह, इसी कार पूव , पि चम तथा
उ तर से द ण तक जहाँ-जहाँ भी बादशाहत है, राजाओं के रा य ह, वहाँ-वहाँ सभी-
जगह महाराजा शवाजी का दावा हे , शवाजी का आ मण है, शवाजी का अ धकार है।
श दाथ : पुरहू त = इ , नागजूह = हा थय का समू ह, तम = अंधकार, पातशाह =
बादशाहत, पहारन = पवत ।
वशेष :
 यह घना र छ द है ।
 इसक भाषा जभाषा है ।
 इसम उ े ा, अ योि त, याज तु त, अ तशयोि त, उपमा, अनु ास आ द अलंकार
है।
 इसम याज तु त के वारा महाराज शवाजी क शि त क गई है ।
 वीररस पूण छ द है ।

21.3.6 कोकनद नैनत त

कोकनद नैनत त क जल क लत छूटे


आँसु न क धार त क लंद सरसा त है।
मो तन क लरै गर छू ट परै गंग छ ब
सदुर सु रंग सरसु त दरसा त है ।
भू षन भनत महाराज शवराज वीर,
रावरे सु जस ये उक त ठहरा त है ।
जहाँ-जहाँ भाग त ह वैरवधू तेरे ास,
तहाँ तहाँ मग म वेनी होत जा त है।।

288
संदभ : शवा बावनी से यह छ द उदधृत कया गया है, इसम शवाजी महाराज क
शंसा क गई है।
इस का य के रचनाकार क व भू षण है जो र तकाल के आचाय क व थे तथा जो
वीररस के यात क व रहे ह ।
संग : तु त छ द म महाराज शवाजी के शौय क शंसा क गई है िजसम बड़ी क
का या मक शैल म कारा तर से शवाजी क म हमा का बखान है । यहाँ शवाजी के
भय से भागती हु ई श प
ु ि नय का वणन है ।
या या : ेम रस म न गृं ार रस से प रपूण उन श ओ
ु ं क बेगम क आँख से
काजल बहने लगा है, वह काजल उनक भयातुर आँख से आँसु ओं के साथ जब बहने
लगा तो उन आँसओ
ु ं क धारा से यमु ना नद क यामल धारा का जैसे नमाण होने
लगा । उन श ु पि नय के गले म पड़ी हु ई मो तय क मालाएँ भय से याकु ल होकर
भागती हु ई उनके गले से टू ट जाती है िजससे मोती बखरकर गंगा क छ व का आभास
कराते ह । मान वे मो तय क टू ट हु ई मालाएँ न होकर गंगा क धाराएँ बखरने लगी
ह, और उन श ु याओं के माथे से स दूर धुल कर जब बहता है तो वह सर वती
नद का आभास कराता है, इस कार शवाजी महाराज के भय से भागती हु ई श -ु
याओं के वारा यमु ना, गंगा तथा सर वती नद क संरचनाओं का उप म आभा सत
होता है ।
यमु ना नद का वण याम है, गंगा नद वेतांगी ह तथा सर वती नद का रं ग लाल
है।
भू षण क व कहते ह क हे शवराजवीर आपक त ठा से तथा स मान से यह सु यश
ु ं क वधु एँ जहाँ-
संसार म जब फैल रहा है तब ऐसा आभास होता है क आपके श ओ
जहाँ भाग कर जाती ह, वहाँ-वहाँ रा त म वेणी संगम क संरचना होती जाती है
अथात ् गंगा, यमु ना, सर वती का मलन होकर तीथराज याग के संगम क ि थ त
क संरचना होने लगती है ।
श दाथ : कोकनद = कामास त, क लंद = यमु ना, सरसुती=सर वती नद , भनत =
कहते ह, दरमा न = दखाई पड़ती है, वैरबूध = दु मन क ि याँ, रावरे = आपके,
मग=रा ता, वेनी = गंगा, यमु ना, सर वती न दय का संगम ।
वशेष :
 इस छ द क भाषा जभाषा है ।
 यह एक घना र छ द है ।
 यह वीररस धान क वता है ।
 यह मु तक छ द के अ तगत ग य है ।

289
21.4 वचार संदभ और श दावल
जैसा क वगत पृ ठ पर कहा जा चु का है क महाक व भू षण क क वता जीव त
अनुभू तय क क वता है, उसम रा वाद, वा भमान तथा मातृभू म के त अपार ेम
क उदा त भावना प रल त होती है ।
भले भू षण क व महाराज शवाजी अथवा छ साल क शि त को क वता कहते थे ।
कं तु उनक क वता का वर सदै व शौय और वीरता का रहा है, चाटु का रता या अभ
वला सता के वर एवं उनके का य म कह ं नह ं दे खे जा सकते ।
सबसे अ धक यानाक षत त य यह हे क िजस समय ाय: सभी दरबार या आ यी
क व घोर गृं ार क या र त वलास क या भचार गाथाओं के वणन म संल थे उस
समय एकमा महाक व भू षण ने अपनी पौ षपूण वाणी से सम सा ह य जगत को
हलाकर रख दया था, उनक संह गजना ने भारतीय मनीषा को जागृत भी कया और
अपनी सां कृ तक एवं धा मक वरासत पर हो रहे हमले से सचेत भी कया, उ ह ने
कहा भी है-
राखी ह दुवानी, ह दुवान कौ तलक राखौ,
राखी रजपूती, राखौ धरा म धरम है ।
कु छ लोग उन पर सा दा यक संक णता का आरोप लगाते ह क उ ह ने ह दू-मु ि लम
व वेष को बढ़ावा दया था, क तु यह स य नह ं है । वे वशु रा वाद क व थे
और उनके समय क रा यता यह थी क वे वदे शी मु गल आ मण कार स ता का
वरोध करके आम आदमी को वेत कर । और उ ह ने यह कया भी, उ ह ने कसी
ना यका के उ याम यौवन क मांसल चचा न करके उस तलवार क शि त गाई है जो
दु मन के व का भेदन कर सके यथा-
नकसत यांन से मयूख लैभानु क सी
उ ह ने पौ ष क शि त गाई है, वीरता का यशगान कया है, भारतीय सं कृ त और
धम क र ा के लए वह क टब रहे ह ।
सारांश : वैसे तो भू षण के का य क भाषा वशु जभाषा है, उनके समय तक
जभाषा क का यभाषा का एक मानद व प था पत हो चु का था, मराठावाड़ा,
गुजरात, पंजाब या ह द भाषी सम ा त म जभाषा क एक पता का अनुभव
कया जा सकता है, इसम मराठ , गुजराती या पंजाबी का अ य भाव भी
प रल त नह ं होता, शवाजी क शि त म र चत शवा बावनी म भू षण ने जना ह
भाषा का तथा अ भधापरक अ भ यि त का झान बनाए रखा है, यह बात अलग है
क भाषा म अलंकार के अ तशय अरोपण से वह बच नह ं पाए ह, जो उस समय का
युगधम भी था, ाय: सभी क व अपनी रचनाओं म अलंकार के चम मकार का लोभ
संवरण नह ं कर पा रहे थे, भू षण पर भी यह कालधम का भाव था ।

290
श दावल
शवा बावनी : यह प रमाणवाची सं ा हे , इसम बावन सं या म छ द नब त रहते है
। पंचप या न दशक, पंचा सका, बावनी, शतक, सतसई आ द सं यावाची सं ह का
नबंधन र तकाल म बहु त हु आ है । बावनी अपे ा कृ त अ धक लखी गई ह । यह
शवाजी महाराज के शि त म लखे 52 छ द का सं ह है ।
जंभासु र : जंभ नामक एक असु र हु आ है िजसका इ ने संहार कया था ।
बाडव : वाडवानल है जो जल म अ दर उपजती है समु क आग ।
र तनाह : कामदे व
राम दुजराज : परशु राम
दावा : दावा
वतु ड : हाथी
चतु रंग : चतुरं गणी सेना
तु रंग : घोड़ा
मंदर : मं दर तथा महल
भू षन : आभू षण तथा भू ख
बजन : नजन तथा पंखा
कंदमूल : कलाकंदा द म ठान - कंदमू ल जंगल फल
तीन बेर : तीन बेर फन-तीन बार
नगन : न तथा ह रामोती न
जा मनी : चाँ दनी
दा मनी : बजल
भू षण : भू षण क व तथा आभू षण
नाग : पहाड़ तथा हाथी
शक : इ
कोकन द : कामास त, कमल जैसे
क लंद : यमु ना
सरसु त : सर व त
उक त : उि त, कहावत
वेणी : वेणी संगम

21.5 मू यांकन
महाक व भू षण अपने समय के बहु त ह ति ठत तथा च चत क व रहे ह, वह एक
आचाय क व थे िज ह ने, शवराज भू षण नामक ल ण थ रचा था िजसम महाराज
शवाजी क शि त का बखान है, इस थ म का यांग ववेचन भी, है िजसम ल ण

291
उदाहरण के साथ का य के गुण एवं दोष पर व तार से काश डाला गया है, इसी
तरह शवाबावनी एवं छ साल दशक म भी अपने आ य दाता क अ तशयोि तपूण
शंसाएँ है ।
महाक व भू षण क सव प र पहचान यह है क उ तर म यकाल के सव च ति ठत
रा वाद क व थे । उस समय राजभि त ह रा भि त थी और शवाजी महाराज ने
तो अपने रा य क प रसीमा से बाहर नकल कर श ु सेना से लोहा लया था । यह
कारण है क आज क तार ख म महाराज शवाजी को रा य गौरव के साथ मरण
कया जाता है ।
ू परक वीर का य है, उ ह ने यु
महाक व भू षण का का य अनुभत के मैदान म अपना
शौय का 'भी दशन कया था तथा इसी जीव त यु का सा ह य म अंकन भी कया
था । उनक भाषा जभाषा है य क उस समय सम रा म जभाषा ह का य क
सवमा य भाषा थी, इस संदभ म क व भू षण एक ऐसे वरल क व थे िज ह ने अपनी
का य भाषा के पौ ष से क वता म एक नया जोश था पत कया था ।
उनक क वता म दे शज, ा यज तथा उदू-फारसी एवं अरबी भाषा के भी श द समा हत
ह, िजससे यह भाषा जना ह झान के साथ अं कत होती है और यह कारण है क
भू षण क वता भारतवष म जन जन के कंठ म थान पा सक है ।
िजस तरह डंगल के रा य क वय ने महाराणा ताप के अपने का य का वषय
चु नते हु ए अपने क व कम को साथक माना उसी कार क व भू षण ने छ प त शवाजी
और ओर छा नरे श बु द
ं े ला सरदार छ पाल क शि त म अपने भाव दूगार को य त
करके ह दु व के त अपनी स ची न ठा का प रचय दया । भू षण क त ा थी
साहु क सराह क सराह छ साल को । अपने युग के इन दो वीर ने औरं गजेब क
क रतावद नी त का जमकर मु काबला कया था । इस कारण इ ह अपने युग के
रा य नेताओं के प म वीकार कया जाता है । इ ह अपने का य का नायक बना
भू षण ने अपनी ि ट म उ यता और यापकता का संचार कया िजससे उस युग के
सामा य आ य दाताओं क शि त म लख गए का य से यह पृथक क म का हो
जाता है ।
भू षण का मू लनाम प तराम या मनीराम माना जाता है । भू षण उपा ध उ ह
च कू टप त दयराम के पु सोलंक से ा त हु ई थी । इनके पता र नाकर
पाठ व मपुर ( तकवांपरु ) के नवासी थे तथा स क व म तराम एवं चंताम ण
उनके भाई कहे जाते ह । इनक रचनाओं म से शवराज भू षण, शवा बावनी, छ साल
दशक तथा कु छ फुटकल छं द उपल ध ह । शेष ं - भू षण हजारा, भू षण उ लास

आ द का शव संह सरोज म नामो लेख मलता है । शवराज भू षण एक अलंकार थ

है िजसम दो उ े य अलंकार न पण और शवाजी क म हमा पा दशन का दा य व
एक साथ नभाने क चे टा क गई है ले कन इसम से दूसरा उ े य ह ाथ मक हो
गया है । अथात ् क व को िजतनी सफलता शवाजी के शौय और वीर व न पण म
मल है, उतनी अलंकार न पण म नह ं मल ।

292
शवा बावनी और छ साल दशक म मश: शवाजी एवं छ साल संबध
ं ी फुट छं द
संक लत ह । ये वीररस से शराबोर ह फुट छं द म केवल 10 को छोड़कर सभी
शवाजी क वीरता से संबं धत ह । व तु त: भू षण वीररस के क व ह । िजनक येक
उि त उ साह भाव एवं ओज गुण से यु त है । शवाजी क शि तयाँ चाटु का रता से
े रत नह ं है । अ पतु इसके मू ल म व धम एवं व जा त के संर ण क स ची
भावना प रल त होती है । क व क इस भावना का काशन अनेक थल पर प ट
प से हु आ है-
वेद राखे व दत पुरान पर स राखे,
राम-नमन रा यो अ त रसना सु धर म ।
हल क चोट , रोट राखी है सप हन क ,
काँधे म जनेऊ रा य माला राखी गर म ।
मी ड राखे मु गल मरोड़ राखे पातशाह,
बैर पी स राखे वरदान रा यौ कर म ।
राजन क छा राखी तेग बल सवराज,
दे व राखे दे वल वधम रा यो घर म।।
यहाँ यह उ ले य है क र तकाल उसी म यकाल का उ तरा है िजसका पूवा
सामािजक चेतना से संप न और कत य क उदा तीकृ त भि त रचनाओं का युग था
और ठ क उसके बाद वह भारते दु युग आता है िजसे नवजागरण का थम भात कहा
जाता है । इस कार का य क ि ट से र तकाल दो उजाल के बीच एक अंधेरे का
युग था । ऐ तहा सक ि ट से यह युग शाहजहां के शासनकाल के अं तम दौर तक
स रत था । इस युग का अ धकांश औरं गजेब के शासनकाल से जु ड़ा हु आ है । अकबर
के भावा मक एकता के यास और धा मक स ह णु ता का सार ाय: समा त ाय था ।
जहांगीर और शाहजहां के समय वलास के दौर म कला और सा ह य म भी शान-
शौकत, न काशी और वला सता क वृि त पनप रह थी । अकबर के दरबार क
व वत ् और धा मक प रषद का थान बादशाह के वलास को बढ़ावा दे ने वाले और
चम कार का दशन करने वाले क व-कलाकार क मंड लय ने ले लया । अकबर के
दरबार क वय ने ाय: नी त- धम आ द से संबध
ं का य रचनाएं क िज ह ने कई बार
शासक को द मत होने से बचा उ चत पथ दखाने का काम कया । आचाय शु ल
का कथन है क नरहर क व के न न ल खत छं द को सु नकर अकबर ने गो ह या बंद
करवा द थी । आप इस छं द को पढ़े और व तु ि थ त वयं समझ-
अ रहु दं त तनु धरै ता ह न हं मा र सकत कोइ
हम संतत तनु चर हं वचन उ चर ह द न होइ
अमृतपय नत सव हं ब छ म ठ थंमन जाव हह
ह दु ह मधु र न दे हं कटु क तु रक हं न पयाव हं
कह क व नरहर अकबर सु नौ बनव त गउ जोरे करन

293
अपराध कौन मो ह मा रयत मु येह,ु धाम सेवइ चरन ।
अकबर दरबार के क वय म बीरबल, टोडरमल, गंग, रह म जैसे नी त और जाग क
क व थे । पर यह ि थ त बदल गई द ल दरबार भ न क म के क वय का
जमावड़ा बना और उसी के अनुकरण पर दे श के अ य राजाओं और सू बेदार क
राजसभाएं भी चल पड़ी । क व राजदरबार तक सी मत हो गए सामा य जनता से कट
जाने का अ नवाय प रणाम र तक वय के ढ़पालन और भारतीय जीवन और सं कृ त
क ग तशील चेतना से कट जाने के प म दखाई दया । य क जनता से कट
जाने का प रणाम जीवंत सं कृ त और जीवन क ग या मकता से करने म वत: दे खा
जा सकता है ।
दरअसल र तयुग ऐसा युग नह ं था क जनता इतने सु कू न म हो क उसके भी आनंद
और उ लास- वलास के दन लौट आए रहे हो । आम जनता के लए तो वह युग
आ थक, सामािजक, राजनै तक और वैयि तक ि ट से घोर वषमता, ास, पराभव
और घुटन का युग था । जहां एक ओर उनके जीवन का के धम भयावह अपमान
क ि थ त म था, वह ं धम प रवतन के तरोध म उ ह घोर आ थक ास और
वैयि तक अि थरता तथा दबाव का सामना करना पड़ रहा था । इधर वघटनशील
सामंती शि तयां अपने सु ख क क मत पर जा के साथ अमानु षक बबरता और उपे ा
का यवहार कर रह थीं । यु और वलास के साथ उनके य - अ य
अ याचार और लापरवा हय क क मत जनता को चु कानी पड़ रह थी ।
अगर र तयुग केवल इन दरबार क वय का का य युग होता तो न चय ह यह
सा हि यक और सामािजक ि ट से घोर अंधकार का युग होता । पर तु इस युग म
धा मक आ दोलन से अनेक नए समु दाय ग ठत हु ए । इनके भाव म पूरे ह द े
म अनेक क व हु ए, िजनका जनजीवन से नकट का संबध
ं था । भले ह ये आ दोलन
खास जोर नह ं पकड़ पाए फर भी वे भीतर से बराबर समाज का संचालन करते रहे ।
सतनामी सं दाय ने तो औरं गजेब क धा मक हठवा दता के लए उसके खलाफ सश
यु भी कया, कई हजार सतनामी मारे गए । राधा वामी सं दाय ने भी उस युग म
मह वपूण सामािजक भू मका नभाई । जा भी उस कु शासन के युग म भि त और
संत सा ह य से ेरणा लेती रह । खोज ववरण से यह त य मा णत होता है क
धा मक आ दोलन से उ प न संत और भ त क वय के स संग और रचनाओं ने
सामािजक जीवन को वशेष प से भा वत कया ।
यह भी सच है क जा को इस काल म िजस सबसे बड़े संकट का सामना करना पड़ा
वह धम से संबं धत था । आ थक सु वधा- असु वधा या ि थरता धम प रवतन से जु ड़ी
थी और यह काय मु ि लम सा ा यवा दय के वारा बलपूवक कया जाता था । ऐसे
समय क व भू षण क भू मका वशेष प से उ लेखनीय है, य क उनके का यनायक
शवाजी शो षत बहु सं यक ह दू जनता के संर क थे । इस संदभ म भू षण कहते ह
'' शवाजी न होते तो सु न त (सु नत) हो त सबक ।''

294
म यकाल म मु ि लम शासक क भू मका रा य नह ं थी, वह रा वरोधी आ ामक
ह रह है । उनके यु सुशासन के लए नह ,ं ह दुओं के दमन के उ े य से े रत थे
। शवाजी क दु मनी न आम मु सलमान से थी न उसके धम से । उनक सेना म एक
दल मु सलमान का भी था । इ तहास म माण मलता है क शवाजी ने कसी
मि जद या मु सलमान ी क अ मत पर हमला नह ं कया । वरोधी प क ि य
और उनके धम का स मान शवाजी के यि त व को मु ि लम शासक के यि त व से
अलग करता है । उसी तरह शवाजी अ य वलासी ह दू राजाओं और सू बेदार से भी
अलग थे । इस अथ म उ ह रा ो ारक और ग तशील ह माना गया है । उ ह ने
समाज रचना के अनु प शासन कया और मावल, महार आ द जनजा तयां के सहयोग
से यु कए । प रणामत: शवाजी के मह व वीरता और काय क शि त गाने वाले
क व भू षण भी र तकाल न क वय से भ न रा य और सामािजक मह व रखते थे ।
शवाजी क तरह ह क व भू षण के आ मण का ल य भी साधारण मु ि लम जा नह ,ं
मु ि लम शासक थे । नीचे दये गये उदाहरण पर य द गौर कर तो प ट होगा क
भू षण ने जो यौरे दए ह, वे शासक के ह, सामा य मु ि लम जा के नह ं उनके लए
ह दू और मु ि लम दोन समान थे-
दाढ़ के रखैयन क डाढ़ सी रह त छाती
दाढ़ मरजाद जस दद ह दुआने क ।
का ढ़ गई रै य त के मन क कसक सब
म ट गई उसक तमाम तु रकाने क ।।
भू षण उन र तकाल न क वय क तरह नह ं थे जो िजस- तस आ यदाता क शंसा म
अपनी वाणी अप यय करते थे । ऐसे क वय क तु लना म अपने च र नायक क
मह ता का प ट तपादन करते हु ए उ ह ने लखा है-
भूखन य क ल के क वराजन राजन के गुन गाय नसा न
पु य च र सवा सरजा सर याय प व भई मु न बानी।।
अ य क वय के बहु त से आ यदाता ऐसे थे िजनका जीवन म यु से कभी संबध
ं नह ं
था फर भी क वय ने उ ह परा मी यो ा ठहराया । नःसंदेह भू षण के आ यदाता
शवाजी के त उस युग म सारे दे श म स मान क भावना या त थीं । च र नायक
क लोक यता ने क व के का य को भी लोक य बनाया । इस संदभ म भू षण का
छ साल दसक और लाल क व का छ काश भी उ लेखनीय रचनाएं ह ।
भू षण क रचनाओं म कह -ं कह ं शवाजी से कह ं अ धक क र ह दूवाद आलोचना का
कारण बनता है । उनक लेखनी ह दू वरोधी बादशाह औरगंजेब के त अ य त खर
और कटु हो उठती है, उसक यह खरता कभी-कभी तो शवा क तलवार क धार से
भी अ धक तीखी प रल त होती है-
दारा क न दौर यह, रार नह ं खजु वे क
बाँ धबो नह ं है, कधौ मीर सहवाल को ।

295
मठ व वनाथ को, न बस ाम गोकुल को ।
दे वी को न दे हरा, न मि दर गोपाल को ।
गाढ़े गढ़ ल ह अ बैर कतलाभ क ह,
ठौर ठौर हा सल उगाहत है साल को
बूड़ त है द ल सो सभारै य न द लपत
ध का आ न ला यो सवराज महाकाल को ।
गणप त च गु त लखते है ''डू बती हु ई द ल को बचाने के लए औरं गजेब को दया
गया यह चैलज कतना साहस एवं उ साह से प रपूण है, इसे श द म प ट नह ं
कया जा सकता ।'' य य प स ता के मद म उ म त होकर मु गल स ाट ने अपने ह
दे शवा सय और अपने ह सा थय के यि त व धम एवं बल को कु चलने म कोई कसर
नह ं रखी थी क तु िजस दे श म शवा जैसा एक भी वीर एवं' भू षण जैसा एक भी
का य रच यता व यमान हो उसक जा तयता, धा मकता एवं नै तकता को न ट करना
कसी शि त के लए संभव नह ं है । भू षण क ये फड़कती हु ई पंि तयां, चु नौ तय से
भरे हु ए ये श द और उसक वाणी का यह ओजपूण वर बताता है क हजार वष क
गुलामी के बाद भी ऐसी जा त जी वत थी, उसम यह शि त थी क वह द ल के
स ाट को चु नौती दे सके और इ तहास बताता है क क व क यह चु नौती थोथी धमक
मा नह ं थी, अ पतु एक वा त वकता क , शवराज महाकाल के ध के से सचमु च
द ल सा ा य क नींवे हल गई थीं ।
आधु नककाल क रा य कव य ी सु भ ा कु मार चौहान ने टश स तनत क
बु नयाद हला दे ने वाल क व वाणी क इ छा कट करते हु ए भू षण को बड़ी ह ा
से मरण कया है । उदाहरण दे खए-
भू षण अथवा क व चंद नह ं ।
बजल भर दे वह छं द नह ं ।
अब हम बताए कौन हंत ।
वीर का कैसा हो बसंत ।
भू षण क भाषा शैल के बारे म कहा गया है क उसम श द के प वकृ त है और
कह ं कह ं मनगढ़ं त श द का योग हु आ है, इसम कोई संदेह नह ं क आज बहु त से
सा ह यकार भावानुसा रणी भाषा लखने से वरत हो गए है वे सभी वषय का न पण
एक जैसी शैल म कर दे रहे ह । इनक ि ट म भू षण क शैल दोष से भर है
क तु जो लोग भावानु प शैल प रवतन के औ च य को वीकार करते ह वे अव य ह
इसे दोष नह ं गुण मानगे । इसी गुण के कारण भू षण के यु वणन अ य त सजीव
एवं भावपूण हो गए ह, जैसे-
दु ग पर दु ग जीते सरजा शवाजी गाजी,
उ ग पर उ ग नीचे ं ड, मु ंड फरके ।
भू षन भनत बाजे, जीत के नगारे भारे ,

296
सारे करनाट भू प संहल को सरके ।
मारे सु न सु भट पनारे वारे उ ट,
तारे लगे फरन सतारे गढ़ धर कै ।
बीजापुर बीरन के गोलकं ु डा धीरन के,
द ल उर मीरन के दा डम से दरके ।
इस कार के ओजपूण छं द को ल य कर कहना पड़ता है क क व ने भाषा क सार
शि तय को वीररस के े म उतार दया है । उसने न केवल उसक अथशि त से
काम लया है वरन ् उसके नाद और श द प से भी यथे ट प म काम लया है, अत:
इसे भाषा का अ त र त गुण ह मानना चा हए । हाँ, जहाँ कह ं इसम अनाव यक प
म ि ल टता आ गई है, जैसे-
ऐल = फैल, खैल, मैल खलक म गैल गैल
गजन के ठे ल पेल सैल उलसत है- उदाहरण म अलंकार क ठू ं सठास अथ सौ दय म
बाधक बनी दखती है । यहाँ वह अव य शंसनीय नह ं है ।
सम प म महाक व भू षण को अपने युग एवं अपनी पर परा का एक ऐसा े ठ
क व माना जा सकता है, िजसने अपनी तभा और अ यास का उपयोग स ती
चाटु का रता म न करके वधम और वजा त के संर क के उ साहव न म कया ।

21.6 सारांश
इस सम का य म भू षण क व ने महाराज शवाजी के अ तम शौय क चचा क है,
उस समय शवाजी क राजभि त थी, उ ह ने अपने राजकाज, सु ख चैन, वैभव-
वला सता सभीका याग करके मराठ क वीर सेना लेकर मु गल आ मणका रय पर
दावा बोलकर उनक नींद हराम कर द थी ।
छोट -सी सेना के बल पर औरगंजेब क वशाल सेना से ट कर लेना कोई मजाक नह ं
था । तब उ ह ने गु र ला यु के तर के से अचानक आ मण करके भाग जाने क
नी त अपनाई, िजसने मु गल शासक के हैरान परे शान कर दया था ।
इस पाठ के अ तगत समा व ट भू षण के ये छ द रा यता से पूण , दे शभि त से तथा
सराबोर तथा ब लदान, याग तथा शौय क गाथा सामने रखते ह ।
द ल से लेकर मराठवाड़ तक शवाजी क वीरता के डंके बज उठे थे और सम भारत
म शवाजी के शौय क यश गाथाएँ गाई जाने लगी थीं । उस समय क वता के वारा
ां त का बगुल बजाने वाले तथा भारतीय धम एवं सं कृ त क र ा करने वाले
महाराज शवाजी ने स पूण भारत म रा भि त क संचेतना जागृत कर द थी ।
उनक क वता म वीरता है, शौय, आवेश है, पौ य है और सव प र रा यभि त है ।

21.7 अ यास न
नब धा मक न
1. भू षण के जीवनवृ त एवं रचनाकार यि त व का प रचय द।

297
2. भू षण के का य का मू यांकन क िजए।
लघु तरा मक न
1. भाषण क का य कला क समी ा पाँच पंि तय म क िजए।
2. भू षण एक रा वाद क व थे, पाँच पंि त म प ट क िजए।
3. भू षण क व ने कन- कन अलंकार का अ धक योग कया है, पाँच पंि त म
सोदाहरण प ट क िजए।
4. स क िजए क भू षण क व सा दा यक संक णता से बँधे हु ए नह ं थे पाँच पंि त
म उ तर द।
5. स क िजए क भू षण क व लोक से हटकर एक आदश क व थे, पाँच पंि त म
उ तर द।

21.8 संदभ ंथ
1. म भू षण - व वनाथ साद, वाणी वतान, बनारस (सं. 2010)
2. बोटा भू षण और उनका सा ह य, ले. राजमल, सा ह यर नाकर, कानपुर (सं.
1968)
3. द त भू षण का वीरका य, ले. ह रशच (सं. 1970)
4. अर वंद - भू षण के का य म अ भ यि त वधान, ले. डॉ. सु रे बाबू ववेक
काशक आगरा-(सं. 1986)
5. शमा भू षण ं ावल , सं. राजनाथ, ह द भवन, इलाहाबाद

6. म - भू षण ं ावल , सं.
थ व वनाथ साद, वाणी वलाम व त वारणसी सं.
2010
7. संह-भू षण भारती सं., हरदयाल, इं डयन ेस ल. भाग सं. 1966
8. म -भू षण मंजू षा, सं. ज कशोर, व व व यालय काशक गोरखपुर
9. गु त-भू षण म तराम तथा अ य भाई, ले.डॉ. कशोर लाल, व यामं दर वाराणसी,
सं. 1964
10. द त-भू षण, सं.आ भगीरथ साद अवध, पि ल शंग हाउस, लखनऊ।
11. तवार -भू षण का सा हि यक एवं ऐ तहा सक अनुशीलन , डॉ. भगवानदास,
सा ह यभवन इलाहाबाद, सं. 1972

298
इकाई-22 भू षण के का य का अनुभू त एवं अ भ यंजना प
इकाई क परे खा
22.0 तावना
22.1 उ े य
22.2 भू षण - क व-प रचय
22.2.1 जीवन-प रचय
22.2.2 भू षण क रचनाएँ
22.2.3 आ यदाता
22.3 भू षण के का य क वषय व तु
22.4 म भू षण के का य का भाव प (अनुभू त प )
22.4.1 रस योजना
22.4.3 गृं ार रस और ना यका भेद
22.5 भू षण के का य का कला प (अ भ यि त प )
22.5.1 भू षण के का य क भाषा
22.5.2 अलंकार न पण
22.5.3 गुण ववेचन
22.5.4 र त ववेचन
22.5.5 दोष ववेचन
22.5.6 छं द ववेचन
22.6 सारांश
22.7 अ यासाथ न
22.8 संदभ थ

22.0 तावना
सं कृ त म का य शा क पर परा नाटक और क वता को के म रखकर वक सत
हु ई क तु यह पर परा बहु त समृ थी और का य के भाव प और कला प पर
सं कृ त के आचाय ने बहु त ग भीरता और सू मता से वचार कया । उ ह ने जो
स ा त तपा दत कये उनक ासं गकता आज भी वीकार क जाती है । ह द
सा ह य के वकास म भि त काल का का य भावा भ यि त क ि ट से अपने
उ चतम शखर पर था ले कन तब तक ह द म ल ण थ
ं क रचना क पर परा
आर भ नह ं हु ई थी । भि त काल के प चात ह द म ल ण थ
ं क अथात र त

ं के णयन क पर परा आर भ हु ई । रा तकाल के आचाय केशवदास तु लसीदास
के समकाल न थे क तु उ ह ने र त का य या ल ण का य रचना क पर परा का
सू पात कया । भि तकाल के बाद ह द सा ह य के वकास म रा त काल एक

299
मह वपूण सोपान है- िजसम क वगण र त थ
ं क रचना पर पूरा बल दे ने लगे थे ।
इस काल के का य म दो शेष वृ तयां प रल त होती है-अलंकरण और दशन । इन
वृ तय के चलन का कारण यह भी रहा क इस काल तक आते-आते क वता फक र
क वय के हाथ से नकलकर उन क वय के हाथ म पहु ंच गयी जो राजदरबार से
स ब हो गये और क वता रचना का उ े य वांतसु खाय न रहकर मनोरंजन और अथ
स भी हो गया । यह त काल न सामंती जीवन शैल का भी भाव रहा क र त
काल के क वय ने क वता को यश और धन ाि त का साधन बनाया और वे राज
दरबार म सामंतो को खु श करने के लए क वताएं लखने लगे । इस काल के क वय
का यान क वता क उदा तता से हटकर उसके बाहर प पर अ धक रहा । इसका
मु य कारण यह था क वगण अपने आ यदाता को स न करने के लए क वताएं
लखने लगे । इस लए इस काल का मु य रस गृं ार रस रहा । फर भी इस काल म
जो का य वृ तयां उभर ं उ ह तीन को टय म रखा जा सकता है-र तब का यधारा,
इस धारा के क वय ने का य शा के स ा त का तपादन अपनी क वता के
मा यम से कया जैसे केशवदास और च ताम ण के का य, र त स का य, धारा- इस
धारा के क वय ने का य शा के स ा त का तपादन तो अपनी क वता म नह ं
कया पर उनक क वता पूर तरह का यशा के स ा त के अनु प है जैसे बहार
क क वता, र तमु त का य धारा- इस धारा के क वय ने र त पर परा से मु त
रहकर का य सृजन कया जैसे घनानंद आलम आ द । क तु इन क वय पर भी
र तकाल न प रि थ तय का कु छ न कु छ भाव अव य है ।
र तकाल म क वता के तपादन के प म गृं ार रस ह धान रहा और गृं ार म भी
क वय ने मांसल सौ दय वणन का सहारा लया जो कई बार बहु त भोगवाद हो जाता
है । क वय ने राधा-कृ ण के बहाने से मांसल गृं ार का वणन कया और उ ह ने कहा
भी ''आगे के क व मा नह तो क वताई न तो राधा-क हाई सु मरन कौ बहानौ है ।'' इन
क वय ने नी तपरक क वताएं भी लखी जैसे बहार के अनेक दोहे नी तपरक है क तु
इस काल क क वता का मु य वर नी त थापन नह ं है । गृं ार रस से ओत ोत
इस युग म भू षण नामक एक क व ऐसा भी है िजसक क वता का मु य वर वीर रस
है और वह अपनी क वता म रा ेम या दे श ेम क भावनाओं क अ भ यंजना
करता है । य य प भू षण र तकाल न क वय क पर परा म ह आते ह क तु रस क
ि ट से वे र तकाल न क वय से सवथा भ न ह और वे ह द के ऐसे पहले क व है
िजनक क वता म रा यता क भावना क अ भ यि त भी होती है । इस कार भू षण
इस काल के सवथा भ न तभा वाले क व है ।

22.1 उ े य
र तकाल म सवथा भ न तभा वाले क व भू षण क क वता मू लत: वीर रस क
क वता है और वह रा ेम का उ घोष भी करती है, यह बात अलग है क भू षण क
रा यता क तु लना आज क रा यता से नह ं क जा सकती । भू षण र त काल के

300
एक मु ख क व ह तथा उनक क वता को ह द पा य म म वभ न तर पर
पढ़ाया जाता है । भू षण का का य अनुभू त और अ भ यि त दोन ह ि टय से बहु त
मह वपूण का य है इस लए क व प म भू षण को एम.ए. म पढ़ाया जाना आव यक है
। भू षण के का य के अ ययन के मु ख उ े य इस कार हो सकते ह-
1. भू षण के का य के अ ययन से र तका य धाराओं का प रचय ा त कराना ।
2. र तकाल म भू षण क उपि थ त के वषय म ान कराना ।
3. भू षण का जीवन प रचय दे ना ।
4. उन प रि थ तय का प रचय कराना िजनम भू षण ने अपना क वकम न प न
कया ।
5. भू षण क रचनाओं का प रचय कराना ।
6. भू षण के का य म रस यंजना का ान कराना ।
7. भू षण के का य के संदभ म वीर रस तथा उसके व भ न अंगो और अनुषग
ं का
ान कराना ।
8. भू षण क रा भावना का ान कराना ।
9. भू षण के का य के कला प का व तार से प रचय कराना ।
10. भू षण के का य का र तकाल न स ा त क ि ट से समझाना ।
11. ह द का य के वकास म भू षण के योगदान को रे खां कत कराना ।
12. भू षण के का य का मह व तपा दत करने क मता वक सत करना ।

22.2 भू षण - क व प रचय
22.2.1 जीवन वृ त

भू षण का जीवन वृ त ामा णक प से ह द जगत के सम नह ं आ पाया है ।


इनके ज म-संवत, ज म थान तथा इनके भाइय के वषय म व वान म मतभेद है
। उनका नाम भी भू षण नह ं था बि क यह उनक उपा ध थी । '' शवराज भू षण'' थ

के आधार पर ात होता है क भू षण ाम- तकवांपरु िजला-कानपुर के नवासी थे ।
उनके पता का नाम र नाकर था । माना जाता है क म तराम और चतांम ण उनके
भाई थे । शवाजी के पु य च र से भा वत होकर उ ह ने शवाजी के च र पर यह

ं लखा िजसे उ ह ने व0 सं0 व 730 मे पूरा कया । कानपुर गजे टयर म अं कत
है- ''उपयु त प रवार के चार भाइय को शाहजहाँ के रा यकाल म भू त त ठा मल
थी । उनम चंताम ण मु य थे िजनका संर ण वयं शाहजहाँ ने कया था । भू षण
पाठ प ना के राजा छ साल और सतारा के राजा के दरबार म उपि थत हु ए थे ।''
शव संह सगर ने अपने क वता सं ह '' शव संह सरोज'' म भू षण का समय सं0 1738
दया है िजसे लोग ने भू षण का ज म काल मान लया है । व भ न सा य के
आधार पर म बंधु और आचाय रामच शु ल भू षण का ज म मश: संवत ् 1671
और 1670 मानते ह । आचाय व वनाथ साद म भी इसी मत का अनुमोदन करते
301
ह । भू षण और शवाजी को समकाल न माना जाता रहा है इसका माण संत तु काराम
वारा शवाजी को लखा वह प है िजसम उ ह ने क व भूषण को नमन लखा है-
पेशवे सु र नस चटण स डवीर,
राजाला सु मंत व याधन ।
भू षण पं डत राय व याधन
वैदराजा नमन माझे आसो।।
बाबू यामसु दरदास ने क व भू षण का सं0 1797 तक रहना बताया है क तु इसका
कोई ठोस माण नह ं मलता । व वान क सामा य धारणा यह है क भू षण का
ज म संवत ् 1670 म हु आ था तथा उनका दे हांत संवत ् 1772 म हु आ । उनका ज म
थान और नवास थान- तकवांपरु िजला-कानपुर था । माना जाता है क चंताम ण
(ज म सं0 1660) इनके बड़े भाई थे जब क म तराम (ज म सं0 1674) तथा
जटाशंकर इनके छोटे भाई थे । जटाशंकर क रचनाओं के बारे म कु छ ात नह ं है ।
संवत ् 1872 म रस चि का के लेखक बहार लाल क व ने यह दोहा लखा-
बसत व मपुर नगर का लंद के तीर ।
भू षण चंताम ण तहा क व भू षण म तराम।।
म बंधु वनोद म तथा आचाय रामच शु ल ने म तराम और चंताम ण को भू षण
का भाई माना है । भू षण का असल नाम या था, इस न पर भी व वान म
मतभेद है । कु छ कहते ह च कू ट नरे श दयराम सु त ने उ ह भू षण क उपा ध द
थी । इनके असल नाम के बारे म कु छ व वान ने अनुमान लगाया है क उनका
नाम प तराम था तो कु छ उनका नाम जटाशंकर भी मनते ह । भागीरथ साद द त
ने -इनका नाम म नराम बताया है तो डॉ. कशोर लाल गु त ने इनका नाम बृजभू षण
लखा है । वे वंय इस नाम क ामा णकता के त आ व त नह ं ह । आचाय
व वनाथ साद म ने साहु जी के दरबार क व जयराम प डे क क वता के हवाले से
भू षण का नाम घन याम तय कया है । इस नाम के बारे म उ ह ने सोदाहरण तक
दये ह । क तु यह मत भी अभी तक न ववाद नह ं है ।

22.2.2 भू षण क रचनाएं

शव संह सगर ने भू षण र चत चार थ


ं का उ लेख '' शव संह सरोज'' म कया है-
भू षण हजारा, भू षण उ लास, दूषण उ लास, तथा शवराज भू षण । इनम केवल
शवराज भू षण ह उपल ध है । भू षण क अ य दो रचनाओं- शवा-बावनी और छ साल-
दशक का उ लेख भी मलता है । इन कृ तय म भू षण ने त काल न वीर क शंसा
क है । कु छ मु तक वीर क वताएं भी अलग से मल ह । क तु भू षण क ामा णक
रचनाओं म तीन रचनाओं क गणना होती है- शवराज भू षण, शवा-बावनी, छ साल
दशक ।
शवराज भू षण- ' शवराज-भू षण' क व का एक ामा णक ं है, िजसम क व एवं

नायक का वंश प रचय दया हु आ है । नमाण- त थ भी उस म द गई है । यह एक

302
अलंकार थ के प म लखा गया, िजसम अलंकार के ल ण और उदाहरण दये
गये ह । अत: इसम मलने वाले सभी प य मु तक प म लखे गये ह । यह
ब ध-का य जैसी कथा-व तु को आधार बनाकर नह ं लखा गया, पर तु क व ने
1730 सं. व. तक क अपने नायक के जीवन क मु ख घटनाओं का च ण इसम
कया है । वणन अलंकार-पूण ह, उसम अ युि तयां भी ह । अलंकारा मक-अंश को
नकाल कर य द इ तहास से मलान कया जाय तो थ उसके तकू ल नह ं जाता है

इसक त ल पयां भारत के कोने-कोने म पहु ंची । य ह शवाजी का ऐ तहा सक
अ ययन आर भ हु आ, भू षण- वषयक खोज भी होने लगी ।
शवाजी के वषय म बहु त जाना जा चु का है पर उनके राजक व भू षण के वषण म
अभी बहु त-कु छ जानने को है । सव थम 1944 संवत ् के लगभग ी शंकर-पांडु-रं ग
और राना डे के य न से ' शवराज भू षण' छपा । इस सं करण का मू लाधार गो वंद
भाई, ग ला भाई तथा जयपुर के राज पु तकालय क तयां थी । संवत ् 1946 म
जयपुर के दुगा साद-शा ी और ी जनादन के य न से यह गंथ दूसर बार का शत
हु आ ।
संवत 1950 म तीसर बार नवल कशोर ेस लखनऊ से यह थ
ं मु त हु आ । पूव
सं करण म मलने वाल सार साम ी का उपयोग करके तथा संशोधन करके यह थ

ी परमान द-सु हाने ने तैयार कया था ।
कलक ता के बंगवासी ेस तथा ब बई के वकटे वर ेस ने भी इस थ को छाप ।
इसके उपरा त म बंधु ओं ने ऐ तहा सक एवं आलोचना मक भू मका दे ते हु ये काशी
नागर चा रणी सभा से 'भू षण ं ावल '
थ का शत क । िजसम उपयु त थ के
अ त र त शवावावनी और छ साल-दशक' भी थे ।
शवाबावनी- सव थम क छभु ज से गोवधनदास ल मीदास बुकसेलस ने सं. 1946 म
' शवा-बावनी' का काशन कया, िजसके साथ 'छ साल-दशक' भी जु ड़ा हु आ था ।
इसके अ त र त कु छ अ य छ द भी इसम दये गये थे, साथ ह काशक ने यह भी
बताया क उपयु त दोन का नामकरण उ ह ं के वारा हु आ है । इन नाम क ाचीन
ह त ल खत त अब तक कोई भी नह ं मल है! अत: यह एक त य है क कु छ
प य का संकलन करके उ ह बावन सं या म गनकर ' शवा-बावनी' नाम रख दया
गया, इसी भां त छ साल वषयक छ द को अलग करके 'छ साल-दशक' नाम से छापा
गया । शवा जी के वषय के छ द बावन सं या वाले संकलन म अ धक थे, अत:
उसका नाम ' शवा-बावनी' रख दया गया, इसी भां त छ साल वषयक छ द क
अ धकता के संकलन के कारण दूसरे भाग का नाम 'छ साल-दशक' रखा गया ।

303
शवा-बावनी म शवा जी के वषय म लखे हु ए छ द ह होने चा हए जैसा क नाम से
प ट है पर तु इसम अवधू त सु लंक तथा साहू जी क शंसा के प य भी संक लत ह
। ये 'भू षण क व के वारा लखे भी गये थे अथवा नह ं यह भी पता नह ं ।
इस सं ह के वे छ द तो मा णत माने जा सकते ह जो वा तव म भू षण क व के
वारा लखे गये थे और शवा जी क शंसा म ह लखे गये थे । इसके अ त र त
संकलन का शेष-अंश अ ामा णक ह है । रह ' शवा-बावनी' नाम क बात, वह तो कोर
क पना है जो सबसे पहले उपयु त काशक ने ह क है।
छ साल-दशक- इसम दस क व त ह और दो दोहे , पर वे सबके सब द साल क शंसा
के ह नह ं ह । इसम दो म छ साल ' क ं नरे श छ साल हाड़ा,
शंसा है एक तो बू द
जो दारा के सहायक थे तथा दूसरे च प तराय के पु छ साल बु दे ला, िज ह ने प ना
नगर बसाया था । शव संह सरोज म उ ृत दो दोहे जो 'छ साल-दशक' के आ द म
दये गये ह, उनसे दोन छ साल का भेद प ट हो जाता है-
ं धनी, मरद गहे करबाल
इक हाड़ा बू द
सालत औंगजेब के ये दोन छ साल ।
ये दे खौ छ तापता, ये दखौ छ साल,
ये द ल क ढाल, ये द ल ढालनवाल।।
क तु छ साल-दशक के छ द क ामा णकता भी सं द ध है । दशक के एक क व त
म साहू तथा छ साल दोन क शंसा एक साथ क गई है । यह क व त भू षण क व
का ह है पर साहू जी क शंसा वाला क व त छ साल-दशक म है । व तु त: केवल
पांच क व त 'भू षण क व' के वारा लखी गई क वताओं से ह चु ने गये ह । िजनम
महोवा वाले च पतराय के पु छ साल क शंसा है । अि तम क व त िजसम साहू
और छ साल दोन क शंसा क गई है, वह भी भू षण का ह है ।
सारांशत: हम कह सकते ह क शवराज भू षण ह क व भू षण क सबसे ामा णक
रचना है ।

22.2.3 आ यदाता

भू षण शवाजी के दरबार म गये और वहां रहकर व0 सं0 1730 म उ ह ने अपनी


का यकृ त ' शवराज भू षण'' पूर क । तब उनक आयु लगभग 60 वष थी । कानपुर
गजे टयर के अनुसार वे अपने अ ज चंताम ण के साथ कु छ दन तक शाहजहां के
दरबार म रहे । लगभग संवत 1700 म वे शाहजहां के दरबार से चलकर च कू ट नरे श
के दरबार म पहु ंचे िज ह ने उ ह भू षण क उपा ध द और वे क व भू षण वन गये ।
उ ह ने कु छ छं द च कू ट नरे श क शंसा म लखे । उ ह ने द ण के शाहजी क
शंसा सु नी तो वे चंताम ण के साथ शाहजी के दरबार म पहु ंच गये और शाहजी क
शंसा म भी कु छ प य लखे । सं0 1704 म शवाजी के गु क डदे व का दे हा त हो
गया तब उनक आयु 20 वष थी । शाहजी ने उनक मं णा और सहायता के लए

304
कु छ वयोवृ आमा य, पेशवा और चटणीस आ द भेजे । उस समय भू षण शाहजी के
दरबार म थे । हो सकता है शाहजी ने उ ह शवाजी के दरबार म भेजा हो जहां वे
1730 सं0 तक रहे । उसके बाद उ ह ने राजपूताना , कुमायू ं गढ़वाल आ द के दरबार
का मण कया क तु वे कह ं भी टक कर नह ं रह सके ।
र तकाल के अ धकांश क वगण भू षण क भां त ह कसी एक दरबार म जमकर नह ं
रहे । धन- ल सा ने इन क वय को बहु त दरबार म घुमाया । क वत-भू षण भी ऐसे ह
घूमते रहे और बाद म उ ह ने अ य त प चाताप का अनुभव कया, जो उनक क वता
के अ तः- माण के प म भी उपल ध है-
मोरं ग जाहु क जाहु कु माहु क ीनगरै हु क व त बनाए ।
बांघव जाहु क जाहु अमेर क जोधपुर क चतौर ह धार ।
जाहु कु तु ब क ए दल पै क दल सहु पै कन जाहु बुलाए ।
भू षन वैहौ नहाल मह गढ़पाल सवा ह क क र त गाए ।
1723 व. म शवा जी औरं गजेब के दरबार म आए और ब द बनाकर रोक लए गए,
पर तु कु छ ह समय प चात ् ' शवाजी ब द गृह से गु त प से नकलकर सकुशल
द ण पहु ंच गये' । भू षण-क व इस समाचार का सु नकर अपने को न रोक सके, और
शवाजी के दरबार म जा पहु ंचे । इस बार उ ह ने अपना थ
ं शवराज भू षण लखा,
इसम क व को पया त समय लगा और इसे 1730 व. म पूरा कर पाये जैसा क
उसके अि तम दोहे से प ट है-
समत स ह सतीस पर सु च ब द तेर स भानु ।
भू षन सवभू षन कयो पढ़ सकल सु ान।।
इस बीच 1728 व. म छ साल-बु द
ं े ला शवा जी के पास गए, और भू षण क व से भी
उनका प रचय हु आ ।
दो वष बाद ह 1730 व. म भू षण क व भी अपना थ
ं समा त करके जब उ तर
भारत को लौट रहे थे, रा ते म छ साल का रा य पड़ा, और कु छ समय तक छ साल
के दरबार म रहकर उनक शंसा म लखी हु ई क वताएं -सु नाकर उनका उ साह बढ़ाते
रहे । अ त म जब क व ने वदा ल , तो छ साल ने सोचा क ' शवा जैसे राजा के
क व को म या धन दे कर स तु ट कर सकता हू ं मेर वजय-या ा का तो आर भ ह
है, अत: अ य त बु मतापूवक उ ह ने क व का गु तु य आदर कया, जो साम यक
एवं वाभा वक ह था । शवाजी से धन पाने के उपरा त क व को धन क अब अ धक
लालसा न थी, ऐसा अनुमान भी है, क भू षण जैसे अनुभवी-पु ष को वंय ह शवा
जी ने छ साल के पास भेजा हो य क छ साल को भू षण जैसे गु क मं णा क
उस समय नता त आव यकता थी और तब भू षण शवा के आदे शानुसार उनके दरबार
को छोड़ कर छ साल के यहां चले आये ह , छ साल और भू षण ने मलकर उ तर-
भारत म रहने वाले श ु औरं गजेब क सेना के माग को बहु त कु छ अव रखा और

305
इस समय शवा जी का रा य भषेक द ण भारत म न वण स प न हो गया । अत:
शवा जी ने ह क व को छ साल के पास भेजा था, ऐसा अनुमान वाभा वक है ।

22.3 भू षण के का य क वषय-व तु
भू षण र तकाल के एक मु ख क व ह, य य प उ ह ने अपने का य का मू ल वषय
गृं ार को नह ं बनाया । वे मू लत: वीर रस के क व ह इस लए उनके का य का
तपादन भी उनके कसी आ यदाता क वीरता का बखान करना है । क तु भू षण
अपने कसी आ यदाता का जीवनच रत व धवत नह ं लखते । उनका का य बंध
का य न होकर मु तक का य क को ट म ह आता है । उनके का य के आल बन
कई वीर पु ष ह तथा प उनका अ धकांश का य शवाजी क शंसा म लखा गया है ।
उ ह ने छ साल के शौय और परा म क भी भू र-भ र शंसा क है जो उनके
''छ साल दशक'' नामक का य म संक लत है । क तु उनका मु ख का य- थ

'' शवराज भू षण'' ह है िजसम उ ह ने शवाजी के शौय और परा म क वंदना क है ।
इस वंदना म उ ह ने शवाजी का जीवनवृता नह ं लखा है बि क ह दू जा त और
ह दू धम क र ाथ कये गये शवाजी के काय क वंदना क है । व तु त: भू षण एक
र तकाल न क व थे अत: शवाजी क शंसा म लखी क वता भी उ ह ने अलंकार के
उदाहरण के प म लखी है । आचाय व वनाथ साद म ने लखा है क ''भू षण के
ल ण कई थान पर अ प ट और ामक ह । कह -ं कह ं तो उदाहरण भी नह ं वन पड़े
ह इसका एक कारण तो यह है क इ ह ने बरबस सभी अलंकार के उदाहरण शवाजी
क शंसा म घटाए । दूसरे 'भू षण म का यर त का अ छा अ यास न था । उदाहरण
के लए ' वक प को ल िजए । इसम दो समान बलबाल वपर त व तु ओं के लए एक
ह समय म एक थान पर घ टत न हो सकने के कारण वक प करना पड़ता है, दो
म से कसी एक के भी होने का अ न चय रहता है । इ ह ने ल ण ठ क दे ते हु ए भी
उदाहरण ऐसा दे दया, िजसम ' वक प न होकर न चय हो गया, िजससे अलंकार
बगड़ गया- 'भू षण गाय फर म ह म ब नहै चत-चाह सवा ह रझाए ।' 'भू षण' ने
दो-एक नए अलंकार नकालने का भी य न कया, पर उसम भी सफलता नह ं मल ।
इ ह ने एक नया अलंकार 'सामा य- वशेष' माना है, िजसम ' वशेष' का कथन करके
सामा य' ल त कराया जाता है । यह आलंका रक के अ तु त शंसालंकार क
वशेष- नबंधना है । इसके उदाहरण भी प ट नह ं ह । दूसरा नया अलंकार है भा वक
छ व िजसका ल ण है दूरि थत प तु को संमख
ु दे खना । भा वक म समय क दूर है
और भा वक छ व म थान क दूर । व तु त: भा वक छ त भा वक का ह अंग है, -
उससे भ न नह ं । 'भू षण ने सब अलंकार का वणन भी नह ं कया है । कई अलंकार
तो केवल चलते कर दए है, उनके भेद का पता भी नह ं चलता । म तराम' का
ख लतललाम अलंकार का जैसा प रपूण और ौढ़ ं है वैसा 'भू षण का शवभू षण नह ं

। अलंकार का अ यास 'भू षण' को बहु त कम था । अलंकार के च कर म उनक

306
क वता भी बहु त कु छ वकृ त हो गई और रस-प रपाक भी जैसा चा हए वैसा न हो पाया
। इससे अ छा रस-प रपाक तो उन छं द म है जो ' शवभूषण के नह ं है । '' शवभू षण
को अलंकार क ि ट से दे खने पर बहु त कु छ नराश होना पड़ता है ।''
कहने का ता पय यह है क भू षण के का य का वषय तो वीर रस का तपादन ह है
िजसे उ ह ने शवाजी अथवा छ साल के याकलाप से च त कया है । इसी च ण
म उनक रा य भावना और ह दू जा त ेम भी आ गया है । उनक क वता म
य त रा यता का वह व प नह ं है जो हम आज समझते है तथा प वे अपने समय
म ह दू जा त पर हो रहे अ याचार के बीच शवाजी क भू मका को पूरा मह व दे ते है
। उनका ह दू ेम भी आज के ह दूवाद क तरह संक ण नह ं है, बि क उनक ह दू
जा त पूरे भारत म रहने वाले वे नाग रक ह जो मु ि लम शासक के अ याचार से
सत ह । इस लए वे शवाजी को ह दू धम का रखवाला कहते ह ।
शवाजी का धम ारक प धम-रस क को ट म आता है । उ ह ने वेद का चार
कया, पुराण के सार का सं थापन कया, रसनाओं को राम नाम से अलंकृ त कया,
ह दुओं के शखा-सू क र ा क तथा ह दू धम के श ओ
ु ं को दबा कर रखा । इस
भां त उनका धम ारक वरद-ह त दै वी-ह त था-
वेद राखे व दत पुरान राखे सार युत ,
राम नाम रा यो र च रसना सुधर म ।
हंदन
ु क चोट रोट राखी है सपा हन क
कांधे म जनेऊ रा यो माला राखी गर म ।
मी ड राखे मु गल मरो ड राखे पातसाह
बैर पी स राखे वरदान रा यो कर म ।
जब दे वी-दे वता तक औरं गजेब से डरकर ा ह- ा ह कर रहे थे, अपने-अपने थान को
छोड़-छोड़ कर भाग रहे थे, ह दू धम को जड़ से खोद फकने का संक प करके
औरं गजेब ने ह दू धम नाशक- वभाग अलग था पत कर दया था और तोड़े गये
मं दर क सं या और मारे गये अथवा द न म द त कये गये ह दुओं क सं या
क सू चना, नय मत प से तमास औरं गजेब वयं दे खा करता था, िजससे काय म
मंदता या मंथरता न हो । अत: काशी क कला का नाश हु आ, मथुरा मसीद हो गई ।
काशीप त व वनाथ भागे । चार वण भयभीत हो गये-
'काशी हू क कला गई मथु रा मसीद भई ।
तथा- दल म डरन लागै चार बन ताह सम ।
+++
भू षण भनत भागे कासीप त व वनाथ ।
तथा - गौरा गनप त आप औरं ग को दे ख ताप,
अपने मु काम सब मा र गये दबक ।

307
ऐसे समय शवा ने तलवार उठाई । उसे ' शव' क कथाओं म नेह था । अत: जो
धम-नाशक गण अपने को चंड-बल-मं डत समझते थे, मैदान छोड़कर भागे, शखा-सू
क म हमा बढ़ने लगी, मत और मं दर पर रोशनी चढ़ने लगी, ललाट पर चंदन
चमकने लगा-
क हे खंड खंड वे चंड बलबंड वीर
मंडन मह के अ र खंडन भु लाने ह ।
तथा- फे र सखा न क म रमा बढै लगी,
+++
मठ मं दरन पै रोसनी चढ़े लगी,
+++
माथन पै फे र लागे चंदन दे न ।
इस भां त 'धम' को उ ार का पा बताकर, शवा को 'उ ारक' प म क व ने वणन
कया है । यह उ तम-वीर व है य क लोक-साध व और पराथ-घटक व इसम
व यमान है, वाथ का इसम लेश भी नह ं है । शवा का वीर व असत ् का नाशक
होकर सत का संघटक है । अत: स चा धम-वीर व है।
भू षण क क वता मु तक है । इसक आलोचना भाव-भाषा और वणन-शैल क ि ट से
क जा सकती है । पर इनक क वता का स बंध इ तहास से भी है और इनक क वता
का व य- वषय ऐ तहा सक है क तु भू षण के का य क आलोचना ऐ तहा सक ि ट से
करना बहु त समीचीन नह ं होगा य क एक तो उनका उ े य कसी ऐ तहा सक स य
का तपादन नह ं था, दूसरे उ ह ने ' शवराज-भू षण के प म एक र तशा लखा
िजसम व भ न अलंकार का नयमन है ।

22.4 भू षण के का य का अनु भू त प
22.4.1 रसयोजना

भू षण क रचनाएं मू ल प से वीर रस क है अत: उनक क वता का अनुभू त प भी


वीर रस से संबध
ं रखता है । भू षण ने का य रचना ह जा त म वीर रस का संचार
करने के लए क । वीर रस का थायी भाव उ साह और ओज माने जाते ह िजनके
उ े क के लए का य लानी पड़ती है । रौ और भयानक वीर रस के सहयोगी रस ह ।
आचाय व वनाथ ने वीर रस का न पण इस कार कया है-
''उ तम कृ त वीर उ साह था यभावक
महे दे वतो हे मवण यं समु दाहत: ।
आल बन वभावा तु वजेत यादयो मता:
वजेत या दचे टा या त यो ीपन पण: ।
अनुभावा तु त यु: सहाया वेषणादय:

308
संचा रण तु घृ तम त -गव मृ त - तक रोमांचा ।
स च दानधमयु ैदयया च समि वत चतु घा यात ्।।''
-वीर रस का नायक धीरोद त होता है । महे इसका दे वता है । वण वण है ।
वजेत य श ु आ द इसके आल बन वभाव है । रपुओं क चे टाएं इसके उ ीपन
वभाव है । इसके अनुभाव ' सहाय-अ वेषण आ द है ।
इसके संचार भाव धृ त , म त गव, मृ त , तक, रोमांच आ द होते है । इसके भेद चार
होते है । दान धम, यु और दया । दान म धन, यु म सेना, धम म, म आ द,
दया म याग आ द इनके सहचार होते है ।
शवा का दान म उ साह थायीभाव, दानपाने वाले क व आ द आल बन, दान-प के
वारा क गई शंसा आ द उ ीपन, बहु त दान करने पर भी उसे कम ह समझना,
अनुभाव, अपने कु ल ओर शील आ द क मयादा का मरण आ द संचार भाव ह ।
क व ने चार का चा च ण कया है । वीर का थायीभाव उ साह है, चार उपभेद के
अ तगत उ साह दे खा जाता है पर तु यु वीर इनम मु य है, क व ने भी इसे मु खता
द है । दानवीर-
आज य ह समै महराज सवराज तु ह ,
जगदे व जनक जनजा त अ बर क स ।
भू षण भनत तेरे दान-जल जल ध म,
गु नन को दा रद ब ह गयी खर क स ।।
+++
तेरे जस पु ड
ं र क को अकास चंचर क सो ।
इस वणन म क व ने अपने आल बन को जगदे व जनक, जजा त और अ बर क कहा
है । जी पोषण के लए पया त नह ं है । इ तहास म इनका यश दानवीरता के लए
नह ं है । इसके अ त र त-
सा हतनै सरजा तु अ हार ती दन दानन को दुं द ु भ बाजै
भू षन भ छुक भीरन को अ त भोजहु त बढू मौज न साजै।।2
जैसी क वता चारण व क ओर अ धक बढ़ गई है । शवाजी का वार भ ुओं को सदा
ह भाता है-
ऐसी भू प भ सला है, जाके वार भ छुक सदाई भाइयतु है ।
रजत क ह स कये हे म पाइयतु है ।
जो चांद मांगता है उसे सोना मलता है । शवा के यहां से य तो हर कोई घोड़े पर
चढ़कर ह वदा होता है । पर जो उसके गुणगान सु ना दे उसे तो हा थय का समू ह
भट म मलता है-
दे त तु र गुन गीत सु ने बन दे त कर गन गीत सु नाएं ।
शवा जी सामा य हाथी दान म नह ं दे ते-
तु डन
ं ाय सु न गरजत गु ज
ं रत भ र भू षण भनत तेऊ महामद छकसे ।

309
िजनका म -मद-भ रत-नाद घन घघर-घोष को भी परा त कर दे ता है, िजनक मद-
वषा से मर-पु ज
ं उ ह ं के चार ओर मंडराने लगते है ।
िजनक गरज सु न द गज बेआब होत,
मद ह के आब गरकाब होत ग र ह ।
िजनक चंघाड़ से द गज घबरा जाते ह और मद जल वषा के कारण पवत भी
पूणतया मद जल म न हो जाते है ।
शवा के क वय तथा कृ पापा के आवास- ासाद म एक ओर इ नील म णयां दन म
रा का य तु त करती है, तो दूसर ओर जड़े हु ये लाल म णवृंद रात म भी
भात-काल न उषा का अ णोदय तु त करते है-
लाल कर ात जहां नीलम न रा त जहां ह रा चीरा बदन के चांदनी करत ह वह इतना
दानी है क उसके वारा संक प-काल म अ भ सं चत जल से न दयां बह गई ह-
तेरो कर कोकनद कदतु है ।
अतएव येक बु मान भगवान से यह ाथना करता है-हे भगवान! हम जल या
थल-माग का बड़ा यापार मत बनाइए, न हम राजा ह बनाइए, बस हम तो शवाजी
के वार का भखार बना द िजए'-
बैपार जहाज के न राजा भार राज के न
हू ज जू भखार महाराज सबराज के।।
दान-वीरता का प रपाक होने के साथ इसम स यता भी है,'' इ तहास िजसका सा ी है ।
शया मंगन-मनोरथ के थम हं दाता ह ।
दान-वीर-रस के संचार -भाव के वणन, प, कु ल और शील क मयादा आ द के (नायक
को) मरण से लेकर, दान-पाने वाल वारा क गई शंसा, उ ीपन वभाव, तथा बहु त
कु छ दे कर भी उसे थोड़ा समझना, अनुभव प म वणन कये गये ह । इनम
धानतया उ ीपन वभाव ( शंसा) का अ धक चम कार पूण वणन है । शवा के दया-
वीर व का प रपोषण करने के लए क व ने तनायक क धमा धता एवं धा मक पर
कये अ याचार का वणन करके नायक के दया भाव क जागृ त दखाई है । ऊपर के
वणन म इसका पया त अंश आ चु का है । सार ह दू जा त और दे व तथा दे व-मि दर
नायक क दया के पा हु ए, अत: वे नायक के 'दया-वीर-रस- के आल बन बने ।
श ओ
ु ं वारा कया गया 'अ याचार' इसका उ ीपक बना है, फर अ य याएं िजनम
ु ाश के लए कया गया दुख दया-वीर-रस का पोषक बना है ।
श न
वा तव म-धम-वीरता' और 'दयावीरता' दोन है तो अलग, पर वे 'यु -वीरता' के साथ
गु थ
ं ी हु ई भी ह य क धम ार एवं दया वीर व म भी नायक को यु थल म जाना
ह पड़ता है, इस भां त इन तीन के मेल से वीर- रस क ेणी वा हत होती है ।
ऊपर आए हु ए उदाहरण इसके सा ी है । अ य वीरताएं यु -वीरता के सामने फ क सी
पड़ जाती है । अत: जहां कह धम-वीर व अथवा दया-वीर व क धानता है, वहां भी

310
यु वीर व ह धान लगता है । क व ने वीर-रस के भेद का वणन एक साथ
मलाकर कह ं कह ं तो एक ह प य म रख दया है-
दान समै वज दे ख मे हू कु बेर हू क ,
संप त लु टाइवे को हयो ललकतु है ।
सा ह के सपूत सब सा ह के बदन पर,
सब क कथान म सनेह झलकतु है
भू षन जहान ह दुआन के उबा रबे क ,
तु रकान मा रबे को बीर बलकतु है ।
सा हन सो ल रबे क चरचा चल त
आ न सरजा के गन उछाह छलकतु है ।
भू षण ने यु -वणन अ धक नह ं कया है । ' शवा का आतंक श ु पर या है, उसक
त याएं कन- कन पर या या है', इसके वणन से ह क व ने नायक के शौय का
वणन यं य से कया है ।
उनके नायक का श ु धोखेबाज था, अत: नायक को श ु क त या व प सभी
कार क नी तय का आ य समय-समय पर लेना पड़ा । वशाल समु के समान
उमड़ते हु ए श -ु सै य को अपने थोड़े से आद मय से आतं कत कर दे ना, क ठन काम
था, पर उनके नायक ने वह सब कु छ कया । अत: यह भयानक रस का वषय बना-
बहल न ह ह दल दि छन उम ड आये,
घटा ये न हो हं इम सवा जी हु ंकार के ।
+ + +
द ल प त भू ल म त गाजत न घोर घन
बाजत नगारे ये सतारे गढ़ धार के ।
+ + +
और इसका श -ु ना रय पर आतंक-
सु न सु न मु गल क हरम भवन यागे,
उझ क उझ क उठ बहत बयार थे ।
तथा-औरं गजेब का आतंक-
दा ह-दा ह दल क ह दुखदाई दाग,
ताते आ ह आ ह करत ओरं गजेब औ लया
श -ु प म भय का संचार करने वाल उनक वशेष यु -नी त थी । अ य कोई जब
आराम करता, भू षण का नायक काम करता था, दन म भी रात म भी । अत: बहु त
से थल पर धीर धान रस है और 'भयानक' उसका अंग, तो अ य इसका उ टा भी
है-
छूठत कमान अ गोल तीर बानन के
मु स कल होत मु रचान हू क ओट म

311
ताव दै दै मू न कंगूरन पै पांव दै दै ,
घाव दै दै अ रमु ख कू दे परे कोट म ।
छ साल एवं शवा के आतंक का वणन ह द सा ह य म वीर-भाव क अमू य
स पि त है । तु त क व ऐसे थल के सजीव च तु त कर दे ने से अमर हो
गया।
नायक के आतंक से भयभीत श -ु ना रय क दुदशा- च ण क प रपाट सं कृ त क वता
से चल आयी थी, क व ने उसे हण कया, इसके वणन म क व ने कई शै लयां
अपनाई । श ु ना रय क दयनीय-दशा च ण म क ण-रस वीर, भयानक अथवा रौ -
रस का अंग वन कर आया है-
क ता क कराकने चक ता को कटक का ट
क ह सबराज वीर अकह कहा नयां ।
भू षन भनत ओर मु लक
ु तहार धाक,
द ल और बलाइतसकल बला नयां ।
आगरे अगारन क नांधती पगारन संभारती-
न बारन बदन कु हला नयां ।
क बी कह कह और गर बी गहे भागी जा ह ।
बीबी गहे सू थनी सु नीबी गहे रा नयां।।
शवाजी के सामने श ु साम त के उ साह ीण हो गये ह । वे द ण के सू बेदार
बनकर आने को तैयार नह ं होते । द ण क सू बेदार पाकर कसी सरदार क या
दशा होती है, इसका वणन अंग प म हा यरस के अ तगत भी हु आ है, पर तु उसका
अंगी-रस वीर ह है ।
च वती स ाट औरं गजेब को शवा जी के आतंक से अपने हर दुग म दरार पड़ी सी
दखाई पड़ती है, वह द ल म ह बैठे-बैठे घर हु ई सू रत- क सू रत दे खता रहता है-
औरं ग आपुनी दु गजमात बलोकत ते रह दौ र दरे र ।
रा तहु ं यौस दल वर के तु व सैन क सू र त सु र त घेर ।।
कभी कभी तो इतना आतं कत हो जाता है क कं क त य वमू ढ़ होकर ऐसे यि तय
को सू बेदार बना दे ता है, जो वा तव म यु क ि ट से पूरे 'नौ स खए' ह ।
द न मु ह म को भार बहादूरै, छावो सहै य गयंद को ट पर ।
+ + +
ऐ अब सू बा वै आव पर 'का ल को जोगी ल ंदे को ख पर'।।
जब वे लड़ाई के मैदान को छोड़कर भाग जाते है तो क व या तो उनक हँ सी उड़ाता है,
या उनका तमाशा बनाता है-
जात मु ह म त ते उमराउ करै तनस अबरं ग तमासौ ।
कू ब र सेल धर जु इनाम करै तसबी कफनी उ कासी।।

312
इस कार व भ न ि टकोण से क व ने शवा का आतंक ह अ धक य त कया है
। वीभ स अथवा रौ रस के े यु थल ह । रौ -रस के थायी भाव ोध का वणन
तो बहु त थल पर क व ने कया है, पर अ धकतर वह शु रौ नह ं रह गया है
बहु धा वीर रस का अंग वन गया है अथवा भयानक क ओर मु ड़ गया है, फर भी शु
रौ एकाध थल पर मल ह जाता है-
भू षन भनत महावीर बलकन ला यो
सार पातसाह के उड़ाय गए िजयरे ।
रौ दस का थायीभाव ोध है अत: यहां शु रौ है, पर तु गुसीला और गुसा रौ के
थायी भाव ोध- के पयायवाची क व ने योग कर दये, जो एक दोष है ।
आवत गुसु लखाने ऐसे कछु यौर ठाने
जा यौ अवरं ग जू के ानन को लेवा है ।
यहाँ शु रौ होते हु ए भी वीर रस यं य है
द यौ कु चाब दल स को य जो डरो सब गौसलखाने डरारौ ।
नायौ न माथ ह दि छननाथ, न साथ म सैन न हाथ हथयारौ।।
नायक के 'उ साह-वणन' व तु से वीर-रस यं य' कया गया है । नीचे लखे प य म
भी इसी भाव को दे खा जा सकता है-
भू षन भनत तहां सरजा सवा जी गाजी,
जहां को तु जक
ु दे खकै न हयै लरजा ।
ठा यौ न सलम, भा यौ साह को इलाम
मा यौ धू मधाम कै न राम संह हू को बरजा।।
श ु वारा कये गये प चाताप से वीर-रस यं य-
पंच हजा रन बीच खरा कया म उसका कु छ भेद न पाया,
भू षन यॉ भ न औरं गजेब उजीस स बे हसाब रसाया।।
वीभ स- च ण म 'का लका- और 'भू तनाथ क सहायता ल गई है ।
कलक त का लका कलेजै क कलल क र, करकै अलल भू त-भैरो तमकत है, ।
कहू ं ं डमु ंड, कहू ं कं ु ड भरे ो नत के, कहू ं बखतर क र-झु ंड झमकत ह।।
भयानक-भौनन के भीतर भु जंग भू त फैले फर
ेतन के पु ज
ं पौ र पैठत सत ह ।
चा च सा रन म चाँकत चु ड़ल
ै फरै
खासे आमखासन म राकस हंसत ह।।
शा त रस का वणन केवल दो प य म मलता है-
गगन के गौन जम गनन न दै हे नग
नगन चलैगो साथ नग न चलाइवौ ।
तथा- भू षन भनै रे मन! स से सनेह क ीप त रसाने तै बप त तौपै प रहै ।
साधना नपुन नर भवसुख भोग क र बपुल सु गमता से भव न ध त र है ।

313
गृं ार रस लगभग 50 प य म मलता है, इसम संयोग और व ल भ दोन प ह,
व ल भ का अंश संयोग क अपे ा अ धक है । र त क वय के समान ह इनक
शैल है, ना यका भेद का च ण करने के साथ साथ क व ने इन प य म ( च ण मे)
यंजना-वृ त का आ य लया तो है, पर एकाध श द से अ भधेय व का नकटवत हो
गया है और व न गौण हो गई है अथवा लु त हो गई है । ऐसे थल पर म यम-
का यता ह अ धकतर दे खी जाती है । रस-प रपाक म व न को ाधा य मलना
चा हए था जो अ धकतर नह ं मल पाया ।

22.4.2 भाव च

भाव का एक वशाल समु दाय है इनम से कु छ भाव आव यकतानुसार रस न प त के


सहायक होते ह । यहां भू षण के का य म उनके धान रस नीर से स ब भाव पर
सं ेप म ि टपात कर लेना समीचीन होगा ।
औरं गजेब हार कर लौटे हु ए सू बेदार के साथ या यवहार करता है, इसे वणन करते
हु ए 'खीझ' का द गदशन क व ने इन श द म कया है:-
खीझ - मु लक
ु लु टायो तौ लु टायौ कहा भयो
डील आपनो बचायो महाकाज क र आयी है ।
दै य - (सरदार क औरगंजेब के त उि त)
भीख मां ग खह बन मनसब रै ह पै न जैह
हजरत महाबल सबराज पै ।
आवेग - कसी सरदार को जब औरं गजेब ने द ण का सू बेदार बना दया, घर
लौटने पर शाम को उसक या दशा होती है-
च त अनचैन आंसू उमगत नैनं
दे ख बीबी कह बैन मयां क हयत का ह नै ।
+ + +
सी न धकधकत पसीनी आयौ अंगन म ह नो भयौ प नं चतौत बाएं दा हनै ।
फन के जैतबार सवा पर सू बेदार जा नयत क नौ तु ह अवरं गसा ह नै।।
आतंक - च कत चकता च क उठे बार बार ।
द ल दहसते चतै चाह खरक त है ।
बल ख बदन बललात बजैपरु प त
फर त फरं गन क नार फरक त है ।
य ता (श ु क ) - च क च क चकता कहत चहु ंधा ते यारो,
लेत रह खब र कहां लौ सवराज है ।
नवद- नगन चलैगो साथ नग नचलाइबो ।
हष- जेते ह पहार भु वम य पारावर तन सु नकै अपार कृ पा गहे सु ख-फैल ह ।
मधवा मह म आज सब वै म हरबान कोटक र सकल सप छ कयेसल
ै ह ।

314
भू षण ने वीर-रस के उपयु त े को चु ना, उसका अंग- यंग अवे ण कया, उनके
व भ न भाव का सामंज य थापन कया, अतएव वे भाव का सू म- यंजन करने म
सफल हु ए । उनम यह वृि त नह ं दखाई पड़ती क पूवानुगत पर परा के प टपेषण
म ह अपने कत य क इ त ी समझ लेते । अत: उनक यंजन-सर ण मौ लक है,
उ ावनाएं नवीन ह, अनूठ ह ।

22.4.3 गृं ार रस तथा ना यका भेद

भू षण के लगभग 50 छ द ऐसे मलते ह िजनक रचना शु र तकाल न आदश पर


क गई है । कु छ क वताओं म सं कृ त-प य क छाया है । पर तु उनम वतं रचना
जैसी व श टता भी है । उपल ध साम ी थोड़ी है पर उससे यह य हो जाता है क
क व र तकाल के अ छे क वय के समान ह इस े म भी स ह त ह ।
गृं ार रस क क वताओं म क व ने ना यकाभेद को भी लखा है । क वताएं क तपय ह
उपल ध ह अत: सारे भेद तो उनम मलते नह ं पर तु ' थाल पुलाक- याय' से कु छ भेद
क समी ा से ह उनक कला पर काश पड़ सकता है ।
' व ी-मु धा- वाधीन-प का का ल ण करते हु ए आचाय व वनाथ ने कहा था क
िजसके गुण से आकृ ट-का त उसका साथ नह ं छोड़ता, जो व च व म-यु त होती
है, वह वाधीन भतृका है ।' इसका उदाहरण सा ह यदपण म दया गया है िजसका अथ
है-
हे स ख मेरे व चर नह ं ह, ीवा-दाम भी उ वल नह ं है, ग त भी व नह ं है,
हंसी भी खु ल कर नह ं नकल पाती, कोई मद भी नह ं है क तु और लोग यह कहते ह
क 'इसका य सु दर होते हु ए भी अ य ि ट नह ं डालता । भू षण ने इसी का
उदाहरण इस प य म तु त कया है-
बो ल न यंग न जान त ह न बलोल बलोक न म चतु राई
हास बलास कास क के ल म, खे ल वसेष न आ ह ढठाई।।
भू षण क रचना क व भू षन ज य प ह सखऊं चतुराई ।
त य प नाह को नेह सखी तिज मो ह न और तया मन भाई।।
इसम- ''बो ल न यंग न जान त ह ' 'इ या द थम तीन पंि तय म मु धा व है ।
''नाह को नेह' वक या व यंजक ह ।
''न और तया मन भाई' ' वाधीनभतृका व यंजक है ।
'आ ा त-नायका:- वाधीन-प तका- व ी' का उदाहरण दे ते हु ए क व ने यह च तु त
कया है:-
तेरे सु हाग बड़ो क हये अपने कर पी गहनो प हराबै ।
ध य तू माई बढ़ाई सह , सब या व ध साई सनेह जनाबै ।
नैरे तै ब लभ दै कु च च दन बदन बंद ु सौ बैन बनाबै ।
अंग भा छ प जैहै कहै क व भू षण मो ह न भू षन भावै ।

315
''अपने कर पी गहनो प हराबै' म व ी व आ ा त-नायक व तथा वाधीन-भतृका व
के माण प म मश: 'पी' अपने करस गहन प हराकै उपल ध ह । सारे प य म
वीधीनभतृका व एवं आ ा त नायक व उपल ध है । ग भा व 'नैरै तै' इ या द से
यं य है ।
ग भा ना यका का च -
नैन जु गनैनन सौ थम हं लड़े ह धाय,
अधर कपोल तेऊ टरे नह ं टे रे ह।।
अ ड अ ड़ प ल प ल परे ह उरोज वीर,
दे खी लगे सीसन पै धाव ये घनेरे ह।।
पय क चखायौ वाद कैसो र त संगर को
भए अंग अंग न के केते मु ठभेरे ह।।
पाछे परे बारन क बां ध कहै आ लन स
भू षन सुभट येई पाछे परे मेरे ह।।
यह सब-अ मघा वृि त से ह कह दया गया, अत: यंजना को कोई भी अवकाश नह ं
रहा ।
ना यका का च तो सांगोपांग ल णानुकूल है, पर च म रं ग गहरा भर दया गया ।
अ भधा- धान होने के कारण यह 'अधम-का य' है संगर श द गृं ार रस क मधु रता के
तकू ल है ।
भू षण ने ना यका-भेद च ण म कु छ प य म ना यका के भेद का नाम वहन करके भी
वणन कया है—
कु लटा-मु दता :-
मं दर न नाह, औ न नकट ननद आजु
औसर अनंद न दन दन क यावती ।
ऐहे मनमोहन, लगैहै उर आपने स ,
वै है हत मन, च त चैन य बढ़ावती।।
है समीप सासु पै न नैन ब ल बै रन के
मु दत भई है वधू मु दता कहावती।।
लोचन बलोल क व भू षन हय अलोल
का म न कपोलन म लोभ उपजावती।।
इसम क व ने वयं ना यका का भेद मु दता कह कर कट कया है जो रहे मनमोहन
लगैहै उर से पु ट होता है ।
धीरा-धीरा-खि डता ना यकाओं के च भी क व ने सु दर ढं ग से तु त कये ह-
कंत तु ह हो मनोहर मू र त सुर त स मकर वज कैसी ।
य जु वतीजन के मनमोहन राज त चातुरता चत तैसी ।
कोप कयौ हय म मृगलोच न बैन नह ं सु खचैनन बैसी ।

316
धीर-अधीर धर क व भू षन 'आंस-ू भरे - ग-पावक' ऐसी।।
इसम 'आंस-ू भरे - ग-पावक ऐसी' म क व को अनोखी सू झ है । ना यका का नाम भी
'धीर-अधीर' कहकर बता दया गया है ।
इसके अ त र त अ य भेदोपभेद का भी वणन है, पर यं य क धानता अ धक नह ं
मलती । उनक ये क वताएं गुणीभू त- यं य अथवा अ भधा-का य के अ तगत ह
अ धक ह ।
अव था-भेद के अनुसार आचाय ने ना यकाओं के और भेद भी बताए ह । ऊपर के
संग म इनम से खं डता और थाधीन-भतृक यव थान नदश भी कये गये है ।
भू षण ने कु छ सं कृ त और ाकृ त के क वय के भाव लेकर भी गृं ार-रस क रचनाएं
क ह । पर तु ये क व क अपनी ह कला के प रचायक ह ।

22.5 भू षण के का य का अ भ यि त प (कला प )
क व िजन साधन से अपने मन के भाव को अ भ य त करता है, वे साधन या
उपकरण का य के अ भ यि त प म आते ह । इन उपादान म भाषा, अलंकार
वधान, छद वधान, गुण , र त आ द आते ह । र तकाल न क वय ने अनुभू त प
क अपे ा का य के कला प पर अ धक यान दया इस लए वे क वता को कला मक
बनाने का यास अ धक करते ह । का य के कला प पर वचार करने के लए उनके
वारा अपनाये गये उपादान क समी ा समाचीन रहे गी ।

22.5.1 भू षण के का य क भाषा

भि तकाल न क वय ने मु ख प से बृज तथा अवधी भाषाओं को अपनी क वता के


लए उपयु त माना । यह ज र है क उ ह ने ादे शक बो लय के श द तथा अरबी-
फारसी के श द को अपनाने से कोई परहे ज नह ं कया । र तकाल न क व क वता के
कला प के त अ धक सचेत होने के कारण, भाषा के योग के त भी पूण सचेत
थे । केशव य य प सं कृ त के पं डत थे क तु उ ह ने अपने पां ड य को द शत करने
के लए न तो सं कृ त का उपयोग कया न जभाषा के प म ह द का प र कार
कया । प रणाम व प केशव क भाषा बहु त कु छ बनावट तीत होती है ।
भू षण क बोल के प म मातृभाषा क नौजी कह जा सकती है य क वे कानपुर
िजले के एक गांव के नवासी थे क तु इस क नौजी पर पि चम से ज, द ण से
तरहार तथा पूव से बैसवाड़ी का भाव था । इन सभी बो लय का उ स शौरसैनी है ।
भू षण ने अपने का य के लए मु ख प से जभाषा को अपनाया तथा उनक भाषा
पर उनके आ यदाताओं के े क भाषाओं का भाव भी पड़ा । भू षण का स पक
चंताम ण जैसे अ य दरबार क वय से भी हु आ और उ ह वयं भी दरबार म रहने
का अवसर मला । मु गल दरबार क भाषा का भाव भी भू षण पर पड़ा ।
भू षण मू लत: वीर रस के क व ह इस लए उ ह अपनी अ भ यि त के लए वीर रस के
अनुकू ल भाषा का नमाण करना पड़ा । आचाय व वनाथ साद म ने उनक भाषा

317
के वषय म ठ क ह लखा है, 'चीर रस का गुण ओज माना गया है । इस ओज के
गुण के लए का य म प षा वृि त लानी पड़ती है । इस वृ त के अनुकूल संयु त
रे फयु त और व ववण का योग अ धक कया जाता है तथा टवग का भी अ धक
यवहार अपे त होता है । बड़े आ चय क बात है क वीर रस क रचनाओं म भू षण
ने इस वृ त का वशेष सहारा नह ं लया ।
भू षण के का य क भाषा सामा य प से बृजभाषा ह है पर कई संग म वे
खड़ीबोल का योग भी करते ह-
1. अफजलखानजू को मारा मयदान जाने बीजापुर गोलकं ु डा डराया तराज है ।
2. बचैगा न समु हाने बहलोलखां अयाने भू षन बखाने दल आने मेरा बरजा ।
3. अवरं ग अठाना साहू सर क न मानै आ न जबर जोराना भयो जा लम जमाना को ।
4. सवा क बड़ाई औ हमार लघुताई य कहत गरो प रबे क पातसाह गरजा ।
भू षण ने अपनी क वता म अरबी, फारसी और तु क भाषाओं, श द का बहु तायत के
साथ योग कया है । इसका एक कारण यह भी रहा क उस समय मराठ क वृि त
भी इन भाषाओं के श द को हण करने क थी । उस काल के मराठ प म 96
तशत तक श द फारसी के मलते ह । भू षण के का य म क ल परगण मौजे,
बे दल, गैर मसल जैसे श द मराठ के भाव से ह । ए दल आ दलशाह बादरखां
बहादुरखां, माची गुसलखाना , परग, हु ने, जु मला, नालबंद , आम ास तोड़ादार जैसे
श द मराठ म भी यु त होने लगे थे । भू षण के का य क भाषा म श द समू ह का
योग बहु त वै व यपूण है िजसे इन को टय म रखा जा सकता है-
त सम श द- अंक, अंकुर, अ तबल अ लपु ज
ं , इ दु, इव, ऊडु , मंडल, उदभव, उ तु ंग,
कोकनद को कला, कानन, खल, गजानन, ीवा, ग रजा, घनसार, चं भा, चपला,
छ प त, छ व, जगजननी, जवाल, जल ध, तमाल, त मर, तु रंग, पुरा र , नकर,
नत ब, नरानंद, दल, द गज, धराधर, धाम, पंक, प रकर, पुनीत , फेन, ब लभ,
वासव, भु जंगन, भू तल, म त, मलय, म हष, याम, यवनी रं क, र तबीज, ल बोदर,
लघुता, वा र, वपर त, श ,ु ीफल, संकेत, स पि त, सु रवर, हमाचल, हंस, दय,
आ द लगभग 750 श द अपने सं कृ त प म भू षण ने यु त कये ह।
त वश द- अ ग त आंस,ू उछाह, क हैया, गाजत-गाजन, च कार चक ता, दुलराइ
दूलह, नैर गैबरअनर थ कर न सम य ल ख, तु र क, लु गाइन क वी, बघरे , जबर,
तराप, पसान पे सत बललानी आ द त व श द का योग भू षण ने अपनी क वता म
कया है ।
अरबी श द- अ कल अजू बा, अदल, अमीर, आलम, इलाज, दौलत, महल, ह स
रसाला, ईबास, कसम, कसाई, म का, मजाज, फक र, फ कर सलाम, मु स कल,
बजीर, मसनद, जवा हर, जा लम, बरक त सर फ सराय, हु म आ द ।

318
फारसी श द- जंग, दरबार, दलगीर पंजा, पटवार , पील, आफताब, कैद, साफ-सु थरा,
खलक, गजक, गुमान, गुनाह , जहान, नेवाज, दुनी , द रयाव, बादबान, यार'-यार ,
मरदाने, सरदार, साज, सु थ नया सहर, हजार, हरौल आ द ।
तु क श द- बीबी, तोप, तु क, तु कान, बेगम, खान, खानखानान मुगल
ु , तैमू र आ द ।
इनके अ त र त भू षण ने प तो (पठान, हलानो, हे ल,े आ द) मराठ आ द भाषाओं
के श द को ने यु त कया है । उनक क वता क भाषा वीर रस के अनु प ओज
तथा उ साह से भरे है । उ ह ने भावा भ यि त के अनु प मु हावर और कहावत का
योग कया है जैसे-
1. कैसे ध नद -नदन क रे ल उतर त है ।
2. पाग बां धयतु मान कोट बा धयतु है ।
3. दं त तो र तखत तरे त आयो सरजा ।
4. नाह दवाल क राह न धाओ ।
5. काि ह के जोगी कसीदे का ख पर ।
6. सौ-सौ चू हे खायकै बलाई बैठ जप के ।
इसम संदेह नह ं क भू षण के का य क भाषा भाव क सबल अ भ यि त करने म
समथ है । आचाय व वनाथ साद म ने भू षण क भाषा के बारे म लखा है-
''भू षण ने सामा य का य-भाषा का जो प लया, वह बहु त प र कृ त नह ं है । जैसे
सफाई इनक क ण रचना म है और जो श द-माधुर गृं ार रस क कृ त म उपल ध
होती है, वह शवभू षण म नह ं । अपनी भाषा को बोधग य बनाने का यास इ ह ने
अव य कया । यह दूसर बात है क अ यासवश ादे शक श द और छं दानुरोध से
वकृ त श द का भी योग करते रहे ।'

22.5.2 अलंकार न पण

भू षण र तकाल न क व थे, उ ह ने ' शवराज भू षण' नामक का य क रचना व भ न


अलंकार का उदाहरण दे ने के लए क थी । आचाय व वनाथ साद म ने लखा है,
''भू षण के सामने शा या अलंकार न पण साधन ह, याज-बहाना ह, वह भी
यव था र हत । म से उदाहरण नह ं बनाये गये । कु छ तो पहले से ह बने बनाये
थे । शेष बना लये गये । थ
ं का ढांचा खड़ा हो गया । सहारा या अ ययनानुशीलन
सीधे कसी सं कृ त अलंकार थ
ं का भी नह ं । इसी से भूषण के ल ण और उदाहरण
दोन कई थल पर अ प ट और दोषपूण ह ।''
भू षण को अलंकार न पण म वशेष सफलता नह ं मल है । जैसे तीप अलंकार का
ल ण भू षण ने इस कार दया है-
ह न होय उपमेय स , न ट होत उपमान
इसका अथ हु आ उपमेय से ह न (कमतर) होने पर उपमान न ट हो जाए । जब क
च ालोककार ने इसका ल ण इस कार बताया है-

319
उपमान य कैम यम प म वते अथात जब उपमेय उपमान दमा काय करे तो तीप
अलंकार होता है । इसी तरह भू षण ने वरोध और वरोधाभास दो अलंकार माने ह
जब क अ धकांश आचाय ने वरोध को वतं अलंकार नह ं माना । इसी तरह उनके
अलंकार के उदाहरण भी दोषपूण ह । य य प भू षण ने भा वक छ व नामक अलंकार
क क पना भा वक अलंकार से क है ।
भू षण ने अपने का य म अनु ास , पक, लेष, उपमा, अ तशयोि त, संदेह आ द
अलंकार का सु दर योग कया है । वे वे मालोकमा अलंकार का वधान करने म बड़ी
कु शलता दखाते ह जैसे-
इ िज मज भ पर बाड़व सु अ बपर
रावन संदभ पर रघुकुल राज है ।
पौन बा रबाह पर, संभु र तनाह पर,
य सहसु वाहु पर राम ववराज है ।
दावा दुमदं ड पर, चीता मृग झु ंड पर भू षण वतु ंड पर जैसे मृगाराज है ।
तेज तम अंसपर, का ह िज म कंस पर
य मले छ वंश पर सेर सवराज है।।

22.5.3 गुण ववेचन

का य म रस के धम गुण ह । शा ीय प से का य के तीन गुण माने गये ह- ओज,


माधु य, साद । भू षण के का य का मु ख रस वीर होने के कारण उनके का य का
मु य गुण ओज है । वे अपने का य म ओज संचरण के लए वदे शी श द का भी
योग कर लेते ह जैसे-
भट भू म धर लपेटे परकटे ,
पठनेटे मु गलेटे फरकत ह ।
रनभू म लेटे ने चपेटे परे
धर लपेटे पठनेटे फरकत ह ।
गृं ार वणन क क वता म उ ह ने माधु य गुण का भी समावेश कया है जैसे- उन
दोउन क मनसा-मनसी नतहोत नई ललना-ललक ।
भ र भाजन बाहर जात मन , मु सका न कं ध छ व क छलके ।
यह गुण व लंभ गृं ार के छं द म भी है कह ं –कह ं वे शांत रस के वणन म साद
गुण का समावेश कर लेते ह,
जैसे- जेते मन मा नक है, तेते मन मा न कहै,
धराई म धर ते तौ धराई धराइवाँ ।
गगन के गौन जम गनन न दै हे नग
नगन चलैगी साथ नग न चलाइव ।।
र त ववेचन- सा ह य दपणाकार ने का य क चार र तयां मानी ह-वैदभ , पांचाल ,
गौडी, लाट । भू षण ने अपने का य म लगभग सभी र तय का समावेश कया है
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तथा प उनका का य वीर रस का होने के कारण उसम गौड़ी र त का समास बाहु य
मलता है । उनके का य म व भ न र तय के उदाहरण मलते ह-
पांचाल - कमल-कोक-कु ल सोकहर ल क-ल क-आल क
वैदभ - रसत वहंगम-बहु-लभ नत बहु-भां त बाग मा ह ।
को कल-क र-कपोल के ल-कल-कल करं त ता हं।।
गौड़ी- शव सरजा सलहे र ढंग मु र कय जु
कु र कय ब अर अ र क र।।
दोष ववेचन- आचाय ने दोष को पांच अंग म बांटा है- पद, पदांश, वा य, वा यांश,
रस । दोष उसके अपकषक माने गये है । िजन पद म अ प मा ा या अ धक मा ा
होती है वहाँ य त भंग और ग त भंग दोष हो जाते है । भू षण के का य म य त भंग
और ग त भंग के उदाहरण मल जाते है जैसे–
ऐसौ ऊँचो दुरग महाबल को जाम नख -
ताबल स बहस दपावल धर त है ।
व तु त: नखतावल एक श द है पर वराम यह यहां नख के बाद है अत: अत: यह
य त भंग दोष है । इसी तरह-
सातौबार आठौ जाम जाचक नबाजै नव,
अवतार कर रिज, कृ षन हर यदा ।
कु छ अ य दोष भी भू षण के का य म मलते ह-
अ धक पद व-कै वह कै यह य जहाँ होत आ न संदेह ।
भू षन सो संदेह है, या म न हं संदेह ।
यह ं या म न हं संदेह पद यथ है ।
ा य व दोष- चंचल बरस एक काहू प रहैन दार ,
ग नका समान सु बेदार दल दल क ।
यहाँ दार श द म ा य व दोष है ।

22.5.4 छं द- ववेचन

भू षण ने अपने का य के लए वीर रस के अनुकू ल छं द को चु ना है । उ होने िजन


छं द को अपने का य क तु त के लए चु ना उन का सं त ववरण इस कार है-
वा णक छं द-घना र - इस छं द म व 16 + 15 क य त के साथ 31 वण होते है ।
जैसे-
एते हाथी दोने माल मकरद जू के नंद
जेते ग न सक त वरं च हू क न तया ।
मा क छं द-छ पय- रोला और उ लाला को मलाकर छ पय बनता है । भू षण ने
छ पय छं द का योग यं -तं कया है ।

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गी तका-इस छं द म चार चरण होते ह तथा येक चरण म 26 मा ाएं होती है । 14,
12 पर वराम होता है । जैसे -
उपमा अन वै क ह बहु र, उपमा तीप तीप ।
उपमेय उपया है बहु र, मालोपम क व द प।।
भू षण ने दु मलं सवैया छं द का भी योग कया है ।
सवैया- भू षण वारा यु त सवैया मा क और व णक दोन को टय म आता है ।
इसम 32-32 मा ाओं के चार चरण होते है । जैसे-
बदन तेज औ क र त चंदन साजे संगार वधू बसुधा को ।
इसम 32 मा ाएं है ।
भू षण ने छं द वधान म रस प रपाक का पूरा यान रखा है ।

22.6 सारांश
र तकाल न क व भू षण र तकाल न क वय क गृं ारपरकता से अलग हटकर वीर रस
म क वता लखने वाले क व ह । उनके का य के आल बन शवाजी और छ साल जैसे
वीर पु ष ह । इनम भी उ ह ने महानायक व शवाजी को दान कया है । उ ह ने
शवाजी को त काल न प रि थ तय के बर स एक धम र क यो ा के प म दे खा है
। वे शवाजी क इसी लए वंदना करते ह क उ ह ने भारत के उन तीक क र ा क
िजनका मु सलमान शासक वंस कर रहे थे । वे मुसलमान के वरोधी नह ं ह बि क
उस वृ त के वरोधी थे जो ह दुओं पर तथा ह दू धम के तीक पर अ याचार कर
रह थीं । वे मू लतएक जातीय क व ह आचाय व वनाथ साद म ने भू षण का
मह व तपा दत करते हु ए लखा है, ''इ होने लोक र ा का भाव धान रखा ।
शवाजी ऐसे लोकोपकारक एवं दे श र क नायक को आल बन बनाया । िजन वीर
नायक वारा लोक का क याण एवं उ ार होता है । जनता उ ह ं को अपने दय
मं दर म ति ठत करती है'' । वे रा य भाव के गायक थे । ह द सा ह य म
भू षण क क वता अपना वशेष मह व रखती है ।

22.7 अ यासाथ न
नबंधा मक न
1. र तकाल न क वय म भू षण का थान नधा रत क िजए ।
2. भू षण के का य क वशेषताओं पर काश डा लए ।
3. भू षण का जीवन प रचय दे ते हु ए उनक रचनाओं का ववरण द िजए ।
4. भू षण के का य के भावप का ववेचन क िजए ।
5. ''भू षण वीररस और ओज के क व है'' स क िजए ।
6. भू षण क -रा य भावना पर नब ध ल खए ।
7. ह द सा ह य म भू षण का थान नधा रत करते हु ए उनके सा हि यक योगदान
को रे खा कं त क िजए ।

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8. स क िजए क भू षण का का य कला मक ि ट से प रपूण का य है ।
9. स क िजए क भू षण र तकाल न क व है ।
लघु तरा मक न
1. भू षण के का य क भाषा पर काश डा लए ।
2. ट पणी ल खए :-
क. भू षण के का य म रा य ेम।
ख. भू षण के का य म गुण -दोष ववेचन।
ग. भू षण के का य म अलंकार ववेचन।

22.8 स दभ ंथ
रामनरे श पाठ - भू षण ं ावल ,
थ बंगवासी ेस, सा ह य स मेलन,
इलाहाबाद, 1928
भागीरथ णव द त - भू षण वमश, इं डयन ेस, याग, 1968
हरदयालु संह - भू षण भारती, इं डयन ेस, याग 1973
व वनाथ साद म - भू षण ं ावल , वाणी
थ काशन नई द ल , 1994
वेणी दल म शा ी - महाक व भू षण, श द और श द, नई द ल , 1999
रामच शु ल - ह द सा ह य का इ तहास, नागर चा रणी सभा काशी,
1929

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