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Adhunik Kavya - Khand 1
Adhunik Kavya - Khand 1
2
3
पा य म अ भक प स म त
अ य
ो. (डॉ.) नरे श दाधीच
कु लप त
वधमान महावीर खुला व व व यालय, कोटा (राज थान)
4
डॉ. मीता शमा - 18, 19
सहायक आचाय, ह द वभाग
वधमान महावीर खुला व व व यालय, कोटा
डॉ. शा हद मीर खान - 20
पूव ाचाय
नातको तर महा व यालय, बाड़मेर
पा य म उ पादन
योगे गोयल
सहायक उ पादन अ धकार ,
वधमान महावीर खुला व व व यालय, कोटा
5
एमएएचडी-02
ख ड – 1 9—53
ववेद यु गीन का य
इकाई सं. इकाई का नाम पृ ठ सं या
इकाई – 1 मै थल शरण गु त का का य 9
इकाई – 2 मै थल शरण गु त के का य का अनुभू त एवं अ भ यंजना प 32
ख ड – 2 54—249
छायावाद यु ग
इकाई सं. इकाई का नाम पृ ठ सं या
इकाई – 3 जयशंकर साद का का य 54
इकाई – 4 जयशंकर साद के का य का अनुभू त एवं अ भ यंजना प 71
इकाई – 5 सू यका त पाठ नराला का का य 95
इकाई – 6 सू यका त पाठ नराला के का य का अनुभू त एवं अ भ यंजना प 117
इकाई – 7 महादे वी वमा का का य 141
इकाई – 8 महादे वी वमा के का य का अनुभू त एवं अ भ यंजना प 176
इकाई – 9 सु म ान दन पंत का का य 203
इकाई – 10 सु म ान दन पंत के का य का अनुभू त एवं अ भ यंजना प 232
6
ख ड-प रचय
प रवेश म आया प रवतन समाज और सामािजक क मान सकता को नयी दशा और
नया रं ग दान करता है । जो चल रहा होता है, वह प रवेश क मांग के अनु प नया
प- व प ा त करने लगता है । जीवन और सा ह य दोन ह इस नयम क चोट
सहते ह । अत: सोच बदलता है, तो सा ह य भी बदलने लगता है । आधु नक क वता
का इ तहास मा णत करता है क ाचीनकाल से अब तक क वता ने व तु और श प
दोन ह े म कई मोड़ लए ह और कतने ह सोपान पार कये ह । य द केवल
आधु नक क वता क ह बात कर, तो प ट होता है क भारते दु युग , ववेद युग ,
छायावाद युग और छायावादो तर युग म क वता कई मोड़ से गुजर है और हर मोड़
कोई न कोई नया प रवतन, नया सोच और नयी मान सकता लेकर क वता म
अ भ यि त पाता रहा है । एम. ए. पूवा ह द के वतीय नप को ''आधु नक
का य'' शीषक दया गया है । इस नप के अ तगत ववेद युग से लेकर
छायावादो तर युग के त न ध क वय क रचनाओं को थान दया गया है ।
'आधु नक का य’ शीषक नप के अ तगत 12 क वय को थान दया गया है ।
इनम मै थल शरण गु त, सु म ानंदन पंत, जयशंकर साद, सू यका त पाठ नराला,
महादे वी वमा, दनकर, ह रवंशराय ब चन, नरे शमा, नागाजु न, अ ेय, दु य त
कु मार और रघुवीर सहाय मु ख ह । ये सभी क व अपने युग क क वता का
त न ध व करते ह । इन सभी क वय को थान दे कर न प को आधु नक क वता
का तनध व प दान कया गया है । स पूण क वय को चार ख ड म वभ त
कया गया है । थम ख ड ( ववेद युगीन का य) के अ तगत मै थल शरण गु त को
थान ा त है और उनके साकेत म आये भरत- मलन, च कू ट संग और कैकेयी-
राम-संवाद को थान दया गया है । इसके साथ ह मै थल शरण गु त के का य के
अनुभू त प एवं अ म यंजना मक प का ववेचन सि म लत कया गया है 1
गु तजी ववेद युग के त न ध क व ह और इनके साकेत से छायावाद क भू मका
तैयार होती है । इसके प चात ् वतीय ख ड (छायावाद का य) म छायावाद के आधार
त भ पंत, साद, नराला और महादे वी वमा क क वताओं को आधार बनाकर कई
इकाइयाँ लखाई गयी ह । छायावाद के इन सभी क वय क नधा रत क वताओं के
मु ख अंश क संग और सा हि यक ट प णय स हत या या तु त क गयी है एवं
इन सभी क वय के अनुभू त और अ भ यि त प पर सोदाहरण व तार से वचार
कया गया है ।
तृतीय ख ड (रा य-सां कृ तक का य) के अ तगत रा य सां कृ तक का य धारा के
क व दनकर, ह रवंशराय ब चन और नरे शमा को थान दया गया है । दनकर
का का य एक ओर तो छायावाद रोमा नयत लए हु ए है और दूसर ओर रा य
सां कृ तक संदभ म ग तशील चेतना का वाहक भी है । ह रवंशराय ब चन को भले
ह हालावाद क व कहा गया हो और उनक क वता को वैयि तक का यधारा नाम दया
7
गया हो, क तु उनक अ धकांश क वताओं क मू ल चेतना सां कृ तक और
समसाम यक संदभ से जु ड़ी हु ई है । नरे शमा भी इसी ेणी के क व ह । उनक
िजन क वताओं को पा य म म नधा रत कया गया है, उनसे स बि धत साम ी
स बि धत इकाइय म द गयी है । चतुथ ख ड (नयी क वता) के अ तगत ग तशील
चेतना के वाहक तथा नयी क वता के मु ख क वय को थान दया गया है । इस
ख ड म अ ेय, नागाजु न, दु यनाकु मार और रघुवीर सहाय क क वताओं को थान
दया गया है । अ ेय ने योगवाद से ार भ करके नयी क वता तक क या ा तय
क है । वे नयी क वता के शलाका पु ष ह, क तु पा य म म उनक द घ क वता
''असा य वीणा' को ह रखा गया है । यह अकेल क वता उनके क व व का उ तमांश
तु त करती हु ई उनक भावभू म और अ भ यि त मता से प र चत कराती है ।
नागाजु न मू लत: ग तशील चेतना के क व ह । उनक क वताओं म छायावाद संदभ
तो य -त ह दे खने को मलता है, क तु ह रजन-गाथा जैसी ल बी क वताओं म
उनके यथाथबोध और ग तशील चेतना को समसाम यक संदभ क भू मका पर भी
भल -भाँ त दे खा जा सकता है । दु यनाकु मार का का य नयी क वता के तनध कव
का का य है, क तु यहाँ उनक 'साये म धू प' कृ त म संक लत गजल को ह
पा य म म थान दया गया है । ये गजल नयी क वता के क व वारा लखी गयी ह
और हमारे सामािजक, राजनै तक और सामा य यि त के जन-जीवन के न,
सम याओं और ि थ तय से स ब ह । इनसे स बि धत साम ी दो इकाइय म
वभ त है । इसी म म रघुवीर सहाय का नाम भी लया जा सकता है । इसम कोई
स दे ह नह ं क रघुवीर सहाय का का य साठो तर क वय म व श ट का य है । इनक
जो क वताएँ यहाँ संक लत ह, वे उनक समाज सापे च तना और समसाम यक
जीवन क ि थ त का उ घाटन करती ह । इस कार स पूण नप आधु नक क वता
के मक इ तवृ त को सं ेप म समेटता हु आ हमारे सामने आता है ।
इस कार स पूण वतीय नप के अ तगत तेईस इकाइय को समा हत करते हु ए
पूरे नप के लए अपे त और अ नवाय साम ी जु टायी गयी है । सभी आलेख
वषय के व वान , सुधी समी क और च तक वारा लखे गये ह । साम ी अ य त
उपयोगी है । यह साम ी एमए. पूवा ( वतीय नप ) आधु नक का य से
स बि धत है जो छा के लए उपयोगी है और साथ ह आधु नक क वता के पाठक
और समी क के लए भी उपयोगी मा णत होगी, ऐसा व वास कया जा सकता है ।
िजन व वान ने इस नप म अपने लेख तु त कए ह, वे सब बधाई के पा ह ।
िजन व वान ने अपना अमू य समय दे कर उपयु का इकाइय का लेखन कया है, उन
सभी के त व व व यालय आभार कट करता है और यह अपे ा करता है क
भ व य म भी वे व व व यालय का सहयोग करते रहगे ।
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इकाई – 1 मै थल शरण गु त का का य : 'साकेत' (अ टम
सग, भरत- मलाप, च कू ट- मलन, कैकेयी-राम
संवाद)
काई क परे खा
1.0 उ े य
1.1 तावना
1.2 क व प रचय
1.2.1 जीवन प रचय
1.2.2 कृ त व प रचय
1.2.2.1 क व मै थल शरण गु त
1.2.2.2 नाटककार मै थल शरण गु त
1.2.2.3 अनुवादक मै थल शरण गु त
1.2.3 गु त जी क कृ तयाँ
1.2.3.1 का य-कृ तयाँ
1.2.3.2 नाटक
1.2.3.3 अनू दत कृ तयाँ
1.3 अ टम सग का प रचय
1.4 का य वाचन और संदभ स हत या या
1.4.1 और के हाथ से....
1.4.2 हे भरत भ , अब कहो....
1.4.3 यह सच है तो अब लौट चलो.....
1.4.4 हा माल मु झको, कहो, न य ........
1.4.5 मेरे उपवन के ह रण आज.......
1.5 अ यासाथ न
1.6 स दभ थ
ं
1.0 उ े य
तु त इकाई का अ ययन करने पर आप-
मै थल शरण गु त के जीवन का प रचय पा सकगे ।
रचनाकार के यि त व के बारे म व तृत जानकार ा त कर सकगे ।
क व-रचनाओं से प र चत हो सकगे ।
क व के चु ने हु ए का यांश का वाचन कर सकगे और उनक संदभ स हत या या
के वषय म जान सकगे ।
9
आप क व से संबं धत ऐसे संदभ- थ
ं को जान सकगे जो उसके बारे म आपक
जानकार को और अ धक बढा सकते है ।
1.1 तावना
मै थल शरण गु त ववेद युग के मु ख क व के प म स ह। क व-कम के साथ
उ ह ने नाटक भी लखे तथा अनुवाद काय भी कया। भारते दु युग से का य म खड़ी
बोल के योग क शु आत हु ई एवं उसे आंदोलन के प म महावीर साद ववेद ने
उठाया। खड़ी बोल के का य म योग के आ दोलन म ववेद जी के श य के प म
गु तजी ने अहम भू मका नभाई, िजसके लए उ ह आज याद कया जाता है। ववेद
युग के समय भारत पराधीन था। लोग म सा ह य चेतना के साथ रा य चेतना
जगाने का नवजागरण-काय गु तजी ने कया। अपने सा ह य के मा यम से उ ह ने
भारत के भ य अतीत को पौरा णक-ऐ तहा सक कथानक , पा वारा आधु नक संदभ
से जोड़ कर सा ह य सृजन कया। वशेषकर इ तहास और पुराण के उपे त पा एवं
चर तथा उनम भी नार च र का उ कष उनका ल य रहा । वाधीनता आ दोलन
के साथ सं कृ त एवं सा ह य को जोड़कर खड़ी बोल के आरं भक का य प से लेकर
'साकेत’ जैसे भाषा के ौढ़ योगवाल व वध रचनाएँ ह द सा ह य जगत को गु तजी
ने ह द । भाव और भाषा का अनूठा संगम उनक रचनाओं म दखाई दे ता है ।
1.2 क व प रचय
1.2.1 जीवन प रचय
10
बाद म मै थल शरण गु त नाम से स हु आ । इसके अलावा उ ह ने 'र सकेश',
'र सक बहार ', 'र सके ', 'मधु प', 'भारतीय', ' वदे श' आ द नाम पर स रचनाय
लखी थीं, पर स 'गु त जी' के नाम से ह हु ए।
गु तजी के पता का नाम सेठ रामचरण था, जो घी का पैत ृक यवसाय करते थे ।
माता का नाम काशीबाई था, िजनके त गु तजी को अपार नेह था । गु तजी पाँच
भाइय म तीसरे म म थे-महरामदास, राम कशोर गु त, मै थल शरण गु त, सयाराम
शरण गु त तथा चाराशीला शरण गु त । गु तजी का आदश प रवार था । बचपन म
नटखट वभाव होने के बावजू द वे ती एवं खर बु के धनी थे । रामभि त उ ह
लहू के सं कार एवं प रवार से ा त हु ई थी । नार के त कोमल भावना, वतं
वृि त , परोपकारभाव, नमल वभाव आ द उनके च र - नमाण क वशेषताएँ थीं ।
ारं भक श ा गाँव के कू ल म ह हु ई । पताजी अं ेजी पढ़ा- लखाकर ड ट कले टर
बनाना चाहते थे, पर तु गु तजी ने जीवन क पाठशाला से श ा ा त करना उ चत
समझा । घर पर पढ़ाई हु ई, िजससे अं ेजी क पढ़ाई वशेष रह । घर पर ह गु तजी
ने सं कृ त, ह द तथा अनू दत रचनाओं को पढ़कर अपनी ानाजन- या को स य
रखा । गु तजी का तीन बार ववाह हु आ । तीसर प नी सरयू दे वी से उ मलाचरण
पु र न क ाि त हु ई । पहल दो पि नय एवं उनक संतान क मृ यु से गु तजी को
गहन आघात का अनुभव हु आ था । सरयू दे वी उनके सु ख-दुःख म सहभागी बनी ।
गु तजी ने जीवन म कई दुःख का सामना 'रामकृ पा' मानकर कया । 1935 के बाद
उनक आ थक ि थ त म सु धार हु आ । सामािजक स ाव, मया दत ेम, ामीण जीवन,
पा रवा रक सामंज य आ द उनके यि त व क ऐसी वशेषताएँ जो उनके जीवन से
अटू ट प से जु ड़ी ह ।
सादा जीवन और उ च वचार गु तजी का मू ल म रहा है, िजसक ेरणा उ ह गांधी
जी से मल थी । सादगी, सौ यता, सरलता, मधुरता उनके यि त व के अ भ न गुण
थे । इसी कारण उनके यि त व म असाधारण आकषण था । छायावाद कव य ी
महादे वी ने गु तजी के बारे म लखा है क- ''अपने प और वेशभू षा दोन से इतने
रा य है, क भीड़ म मल जाने पर शी ह खोजे नह ं नकाले जा सकते । जो
वशेषताएँ उ ह सबसे भ न कर दे ती ह वह है उनक बँधी हु ई ि ट और मु त हँ सी
(हंस-माच-1939 पृ. 49) । सामािजकता, वनोद- ेम और स ावना, े ,
कृ त म
अनुभू त- न ठता उनम कू ट-कू टकर भर हु ई थी । अनुभू तशीलता होते हु ए भी गु त जी
वकेि त नह थे, वे समाजल ी थे ।
आचाय महावीर साद ववेद गु तजी के का य-गु थे । ववेद जी क ेरणा से
'सर वती' प का म खड़ी बोल म सव थम गु तजी क 'हे म त' प यरचना छपी ।
उसके प चात गु तजी नई का यभाषा के क व बने । आचाय ववेद जी के
आदे शानुसार उ ह ने 'सर वती' प का म ह लखा और ववेद जी ने उनक येक
रचना का संशोधन कया । अ धक संसग से वे उनके प श य बन गये ।
11
ववेद जी के अलावा गु तजी का कई सा ह यकार के साथ संबध
ं रहा । जयशंकर
साद के 'आँस’ू का थम सं करण गु तजी ने का शत कया । ी ब ह प यजी ने
'जय थ' पढकर गु तजी को 'उ मला वरह' ख डका य लखने को कहा । राजा रामपाल
संह ने सन ् 1912 म 'भारत-भारती' क रचना हे तु ेरणा द । महादे वी वमा के कहने
पर ने नराला जी, इलाच जोशी, गंगा साद पा डेय के सहयोगी बने । इनके अलावा
गु तजी के वृ दावनलाल वमा, माखनलाल चतु वद , सु म ान दन प त, बालकृ ण शमा
'नवीन', बनारसीदास चतु वद , अ ेय, जैने , डा. नगे आ द से भी घ न ठ मधुर
संबध
ं रहे ।
भारतीय रा य वाधीनता आ दोलन क लड़ाई म स य भाग लेने के कारण 17
ै सन ् 1914 को गु तजी को जेल जाना पड़ा । उ ह झाँसी क जेल म रखा गया
अ ल
। बाद म कई जेल म बदला गया । वे अपना अ धक समय कताई म बताते थे ।
जेल म ह उ ह ने 'अिजन 'कु णालगीत', तथा 'जय भारत' के कु छ अंश लखे ।
कारागार म उनका आचाय नरे दे व और गांधीजी से संपक व घ न ठ संबध
ं हु आ ।
1.2.2 कृ त व प रचय
12
चरण) गु त जी के उ कष का काल माना जाता है । इस युग म अ धकांश च र धान
महाका य एवं व तु- यंजक रचनाएँ लखी गयी । अपनी रचनाओं म उ ह ने भारतीय
सं कृ त के उ थानमू लक एवं ग तशील व प क रचना क । इसी समय तप, याग,
कम यता एवं क णा उनके जीवनदशन म अ भ यि त ा त करते ह । इसी समय
मानवता के आदश एवं नार च र क उब ि थ त पर क व क ि ट केि त होती है,
सां कृ तक भावना एवं रा य चेतना बु होती है । इसके बाद के काल को गु तजी
क रचनाओं का ौढकाल कहा जा सकता है । इसी समय गु तजी क या त चरम
ि थ त को ा त करती है ।
गु तजी क का य-सजना म उ तरो तर वकास दखाई दे ता है । मान सक और
कला मक दोन तर पर क व, स म बनता जाता है । क व क युग चेतना,
सां कृ तक भावना, जीवन दशन तथा का यकला मश: उ कषा भमु ख रह है ।
1.2.2.1 क व मै थल शरण गु त
13
उनक बंगला भाषा से अनू दत रचनाएँ ह- ' वर हणी जांगना', 'वीरग़ंना', 'मेघनाद वध'
' लासी का यु ’। 'गीतामृत ' नामक अनू दत रचना म सं कृ त से गीता के वतीय
अ याय का अनुवाद है । ऐसे बहु मु खी तभाशाल सा ह यकार गु तजी को 'यशोधरा'
और ' वापर' का शत होने तक उ ह युग वतक क व, त न ध क व, रा क व,
ववेद युग के 'शीष थ क व', महावीर के साद, आधु नक युग के वैता लक आ द
अनेक वशेषण से वभू षत कया गया है । 50 व वष म अनेक थान पर उनक
वण-जयंती मनाई गई । सन ् 1936 म गांधीजी के कर-कमल से 'मै थल शरण
का यमान ं ' भट कराया गया, जो काशी क तु लसी मीमांसा प रषद क ओर से था।
थ
गु तजी को कई पुर कार से भी पुर कृ त कया गया । सन ् 1937 म मंगला साद
पा रतो षक, सन ् 1952 म अंज ल और अ य, ह ड बा और पृ वीपु के लए उ तर
दे श सरकार वारा पुर कृ त, 1946 म करांची अ धवेशन म 'सा ह यवाच प त क
उपा ध से स मा नत कया गया। 1948 म उ ह आगरा व व व यालय वारा डी. लट
क उपा ध दान क गयी । सन ् 1954 म भारत सरकार वारा पदमभू षण तथा
गांधीजी के वारा लोकमत से रा क व क उपा ध, सन ् 1952 म रा पत वारा
रा यसभा के सद य के प म स मान ा त हु आ। ऐसे महाक व, रा य चेतना को
जगानेवाले रा क व का नधन 11 दस बर 1964 को हु आ ।
14
(5) पंचवट (सन ् 1925) :- तु त कृ त म अपनी अन य रामभि त को व णत
करते हु ए राम के वनवास के जीवन के चरप र चत सू पणखा संग को नवीन
उ ावनाओं के साथ तु त कया है । गु तजी ने सू पणखा संग को अ धक
मानवीय, रोचक, सजीव एवं आकषक बनाया है। गु तजी क रचनाओं म 'पंचवट '
का व श ट थान है।
(6) वदे श संगीत (सन ् 1925) :- यह भारतवा सय को जागरण का स दे श दे ने के
लए नूतन और पुरातन वचार का पार प रक संबध
ं था पत करते हु ए
रा भि त वाल क वताओं का सं ह है, िजसका काशन सन ् 1925 हु आ था ।
(7) ह दू (सन ् 1928) :- यह का य ह दुओं क दुदशा का च ण तु त करता है
(8) शि त (सन ् 1928) :- पौरा णक दे व-दानव सं ाम से संबं धत इस ख डका य म
यि टगत शि त के एक ीकरण से महान शि त का नमाण हो सकता है-इस
बात का संदेश दया गया है। यह का य सन ् 1928 म का शत हु आ था ।
(9) सैर धी :- वक सत का य- श प म न मत यह का य महाभारत क उस
अ ातवास क घटना पर आधा रत है, िजसम ौपद सैर धी नाम धारण कर
रहती है। इसम क चक- ौपद का संग क ण रस क धानता के साथ च त
है।
(10) वन वैभव (सन ् 1928) :- महाभारत क पांडव एवं कौरव क आपसी लड़ाई के
प र े य म भारत म वदे शी शासक वारा आपस म फूट डालकर ह दू-मुि लम
के बीच जो लड़ाई करवायी जाती है, उसी के संदभ म इस का य क वषय-व तु
को रखा गया है। गांधीजी के बताये रा ते पर चलकर सां दा यक व वेष का
समाधान ढू ं ढ़ने क को शश करने वाला यह का य सन ् 1928 म का शत हु आ
था ।
(11) बक संहार (सन ् 1928) :- महाभारत पर आधा रत इस ख डका य म नार -
जीवन क म हमा एवं जीवनो सग व णत है।
(12) वकट भट (सन ् 1929) :- यह गु त जी क थम अतु का त रचना है, जो
जोधपुर के राजा सवाई मान संह को के म रख कर रची गयी है । इस
ऐ तहा सक का य का काशन सन ् 1929 म हु आ ।
(13) गु कुल (सन ् 1929) :- सन ् 1929 म का शत इस का य म सख गु ओं के
जीवन च र का वणन करते हु ए ह दू मुि लम एवं स ख के बीच एकता
था पत करने का य न कया गया है ।
(14) साकेत (सन ् 1932) :- सन ् 1932 म का शत इस बंध का य म उ मला,
कैकेयी जैसे नार पा के उ कष एवं भरत स हत तीन के च र का उ वल
अंकन करने का यास कया गया है । कवी -रवी के 'का येर उपे ता'
शीषक से भा वत होकर तथा आचाय महावीर साद ववेद के उ मला वषयक
लेख से े रत होकर इस का य का सृजन कया गया। 'साकेत' का घटना-के
15
साकेत है । राम के वनगमन क घटना साकेत म घटती है । उ मला के वरह-
वणन का के भी साकेत है । उ मला एवं कैकेयी को वशेष मह व दे ने के
बावजू द राम के च र म उनक जीवन साधना और जीवनदशन क सफल
अ भ यि त हु ई है । ववेद युगीन सां कृ तक वकास के तनध थ
ं के प
म 'साकेत' को मह वपूण थान ा त है ।
(15) यशोधरा (सन ् 1932) :- यह सन ् 1932 म का शत रचना है । इसम यशोधरा
के च र क ग रमा, नार क शां त और उसक क णा ि थ त क अ भ यि त
क गयी है । इ तहास स घटना पर आधा रत इस ख डका य म उ तराध म
गु तजी ने क पनामयी सृि ट क है ।
(16) वापर (सन ् 1936) :- सन ् 1936 म का शत ीमदभागवत पर आधा रत यह
ख डका य कृ ण च र क सापे अ भ यि त है ।
(17) स राज (सन ् 1936) :- यह सन ् 1936 म का शत गुजरात के राजा स राज
जय संह के जीवनवृत पर आधा रत ऐ तहा सक ख डका य है ।
(18) नहु ष (सन ् 1940) :- यह सन ् 1940 म का शत गु तजी का मह वपूण
पौरा णक ख डका य है । मनु य जब तक पूणता ा त न कर ले, तब तक वह
अपनी दुबलताओं के कारण बार-बार उठता- गरता है-इस स य को क व ने नहु ष
के मा यम से अ भ य त कया है ।
(19) जयभारत (सन ् 1952) :- यह महाभारत पर आधा रत सन ् 1952 म का शत
महाका य है।
(20) व णु या (सन ् 1957) :- तु त कृ त सन ् 1957 म का शत हु ई है। इस
वणना मक ख डका य म चैत य महापु ष क प नी एवं उनक सहध मणी
व णु या का च र का यब कया गया है । इसम व णु या के उपे त
चर का उ कष धान है ।
(21) र नावल सन ् 1960 :- यह सन ् 1960 म का शत तु लसी क प नी र नावल
पर आधा रत मु तक का य है । अनेक ऐसे मु तक एवं का य के सं ह तथा
का य गु तजी ने रचे ह ।
1.2.3.2 नाटक
16
इस कार हम दे खते है क गु त जी एक सफल क व ह नह , वरन एक सफल
नाटककार एवं अनुवादक भी है।
1.3 अ टम ् सग का प रचय
अ टम सग गु तजी क बंध कृ त 'साकेत' का एक मह वपूण सग है । क व ने
‘रामायण’ के िजस संग को आधार बना कर तु त का य क रचना क है, यह सग
उस संग क मह वपूण कड़ी है । इस सग क मूल -संवेदना च कू ट संग से संब है,
जब भरत अपने प रवार, सेना एवं रा य के नाग रक के साथ च कू ट म राम से
मलने आते ह, िजससे क वे राम को 'पुन : अयो या ले जा सक। भरत- मलाप,
च कू ट एवं कैकेयी राम संवाद इस सग क मह वपूण घटनाय है, िज होने इस सग
को मम पश , भावपूण एवं भावशाल बना दया है। यह सग का य कथा के वकास
क ि ट से िजतना मह वपूण है, पा के च र ोदघाटन क ि ट से भी उतना ह
उ लेखनीय है । यह वह सग है, िजसम सीता को अपने गाह य सु ख क अ भ यि त
करने, उ मला को अपने प त के स मु ख भावा भ यि त करने, भरत के वारा राम के
स मु ख अपना नद ष प तु त करने, कैकेयी को अपना प चाताप करने तथा
अपराध वीकार करने का अनुकूल अवसर ा त हु आ है। यह सग येक पा के
चर के उ जवल प को पाठक के सम तु त करता है। इस लये यह ‘साकेत’ का
एक मह वपूण सग है।
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डाल म नव फल न य मला करते ह
तृण -तृण पर मु ता-भारत झला करते है ।
न ध खोल दखला रह कृ त नज माया,
मेर कु टया म राज भवन मन भाया ।
कहता है कौन क भा य ठगा है मेरा ?
वह सु ना हु आ भय दूर भगा है मेरा ।
कु छ करने म अब हाथ लगा है मेरा,
वन मे ह तो गाह य जगा है मेरा ।
वह वधू जानक बनी आज यह जाया,
मेर कु टया म राज-भवन मन भाया ।
संदभ :
तु त अंश 'साकेत’ के अ टम सग से लया गया है। इसके रचनाकार मै थल शरण
गु त ह और उनक यह सवा धक स बंध कृ त है। गु तजी ववेद युग के मु ख
क व ह। खड़ी बोल का का य म योग कर ववे वी जी वारा शु कये गये खड़ी
बोल आ दोलन म सश त भू मका नभाने वाले क व के प म उ ह या त ा त है।
संग :
उ त अंश म राम-सीता ल मण स हत वनवास के दौरान च कू ट म पणकु ट बनाकर
रहते थे, उस समय वनवास म सीता को राज-भवन स श या उससे अ धक खु शी ा त
होती है। सीता को प त और दे वर के संग कृ त क गोद म जो नैस गक जीवन
यतीत करने का सु नहरा मौका मला है, उस समय के सीता के मधुर भाव का अंकन
क व गु त जी ने इन श द म कया है । सीता वमु ख से अपनी स न
च तावास था क अ भ यि त करती है ।
या या :
वैसे सीता राजकुमार थी और राम के साथ ववाहोपरा त राजा क प नी रानी बनती
है। दोन ि थ तय म राज प रवार म मलनेवाले सुख क वह भो ी थी । उसी सीता
को राम के साथ ( ववाह के बाद तु र त) वन जाना पड़ता है । हालाँ क सीता राम के
साथ वन जाने का नणय खु द लेती है । कहाँ राज-भवन का सु खभरा जीवन-जहाँ सब
कु छ सहज सुलभ है । प र म क आव यकता ह नह ं पड़ती और कहाँ वन का कंटक
एवं सम याओं से भरा जीवन ! ऐसी ि थ त म भी सीता अपने प त एवं दे वर के साथ
होने के कारण वन म राज-भवन स श खु शी ा त कर रह है । व तु त: खु शी या सु ख
ं बा य भौ तक सु ख-सु वधाओं क अपे ा मन से अ धक होता है । सीता के
का संबध
मन क स नता का रह य समझने पर उसक अ भ य त खु शी भी समझ म आ
जाती है । वन मे पेड़ पौध , फल -फूल के साथ नैस गक जीवन जीने म सहज प से
म हो जाता है । वा य क भावना पु ट होती है । तनु-लता क सफलता का वाद
सीता समझती है। तन-मन क व थता से सु खी जीवन क उपलि ध राजभवन के सु ख
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से अ धक मू यवान है। अत: सीता कहती है मेर कु टया म राज भवन मन भाया।
अथात यहाँ वन म भी उ ह राजभवन के सहश सु ख ह ा त हो रहा है। वन म प त
और दे वर अपना दै नक कत य नभाते हु ए सायं जब लौटते ह, तब सीता के लए साथ
म कु छ ले आते ह। एक साथ प नी और भाभी का सु ख ा त कर सीता का वनोद
समाता नह ं है । सु बह फूल का खलना मान हमारा वागत करना होता है। ऐसा
तीत होता है मानो मृदु मनोभाव जैसे खल रहे ह । शाखाओं पर नये फल का
झू लना, तृण पर जमे ओस कण पर सू रज क करण पड़ती ह, तथा मान कसी ने
मो तयाँ बखेर ह , ऐसा लगता है। कृ त अपना वैभव- नज माया जो क णक होता
है- दखलाती है । ऐसी खु शी कु टया म रहने के कारण ह मल है । ववाह के बाद
तु र त वन जान का संग अ धक दुख दे ने वाला था । लोग के वारा कहा गया होगा
क या भा य है सीता के? ससु राल आते ह वनवास? ऐसी ि थ त म चार ओर से
शोक एवं यथामय वातावरण से सीता के मन को भय ा त होना वाभा वक है ।
पर तु सीता यहाँ प ट कहती है क-कौन कहता है क-मेरे भा य ने मु झे ठगा है? वह
तो सु नकर उ प न होना वाला भय था जो अब दूर हो गया है । वा य जीवन का
श ण, ाकृ तक जीवन क स नता मनु य को सहज, सरल बना दे ती है । अत:
सीता कहती है- “कु छ करने म अब हाथ लगा है मेरा, वन म ह तो गाह य जगा है
मेरा। ’असल गृह थ जीवन का अनुभव सीता को कु टया म, वनवासी जीवन से मला
है । अत: अब वह वधू से जाया बन गई है ।
वशेष:
1. ''मेर कु टया म राज भवन मन भाया'' पंि त तु त का यांश क ु व पंि त के
प म आई है िजससे व यजीवन से, कृ त के साथ नकट संबध
ं से उ प न
लगाव से सीता के मन क स नता को य त कया गया है, जो कसी राजभवन
के सु ख-वैभव से कह ं अ धक है ।
2. ‘वन म ह गाह य जगा है मेरा'' प त और दे वर के साथ ाकृ तक प रवेश म
गृह थ जीवन क साथकता का रह य एवं पर पर नेह का सौ दय सीता को
समझ म आया ।
3. ‘ न ध खोले दखला रह कृ त नज माया'' म कृ त के अपार एवं वै व यपूण
प का पता चलता है ।
4. बड़े ह सरल एवं सहज ढं ग से धरणीसु ता जानक के कृ त एवं पा रवा रक ेम
क अ भ यि त हु ई है।
5. सरल भाषा क सहजता को कायम 'रखते हु ए क व ने उपमा एवं पक अलंकार
का सु दर योग कया है, जैसे- ' कसयल-कर', 'मनोभाव सम सु मन' ।
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सब सजग हो गये, भंग हु आ य सपना ।
हे आय, या रहा भरत अभीि सत अब भी?
मल गया अकंटक रा य उसे जब, तब भी?
पाया तु मने तक-तले अर य बसेरा,
रह गया अभीि सत शेष तद प या मेरा?
तनु तड़प-तड़पकर त त तात ने यागा,
या रहा अभीि सत और तथा प अभागा?
हा! इसी अयश के हे तु जनन था मेरा ।
नज जननी ह के हाथ हनन था मेरा ।
अब कौन अभीि सत और आय वह कसका?
संसार न ट है ट हु आ घर िजसका ।
मु झसे मने ह आज वयं मु ँह फेरा,
हे आय, बता दो तु ह ं अभीि सत मेरा?
संदभ :
तु त अंश ववे वी युग के मु ख क व मै थल शरण गु त क स बंध रचना
‘साकेत’ से लया गया है । ‘साकेत’ बंध का य म भरत क यथा, कैकेयी के अनुताप
एवं उ मला क वरहा भ यि त के मा यम से क व ने इन तीन पा का उ कष करने
का यास कया है। तीन के उ जवल च र का अंकन मा मक ढं ग से कया गया है।
संग :
कैकेयी के वर मांगने के कारण, पता दशरथ क आ ा-पालन हे तु राम, सीता और
ल मण स हत वनगमन करते है। पु - वयोग म दशरथ क तड़पकर मृ यु होती है। यह
सब भरत क अनुपि थ त म होता है। भरत के लौटने पर जब अपनी माता कैकेयी के
बारे म उसे पता चलता है, तब भरत बहु त दुःखी होता है। वह माँ को भावावेग म बहु त
कु छ सु नाकर राजग ी पर बैठने से मना करता है। अपने अन य ातृ ेम के कारण
वह राम को मनाकर अयो या लाने के लए च कू ट जाता ह। वहाँ जब राम भरत से
न करते ह क-''अब कहो अभीि सत अपना तब भरत अपनी यथा पीड़ा क
अ भ यि त करते ह, जो उ त अंश म अ भ य त क गयी है।
या या :
च कू ट म सभा बैठती है । भरत, राम ल मण सब मौन थे । मौन भंग करते हु ए
राम भरत से न पूछते ह- ''हे भरत भ , अब कहो अभीि सत अपना'' । राम के
श द पूर सभा म सा रत होते ह सब सजग हो जाते है मान कोई व नभंग हु आ हो
। भरत वैसे भी दुःखी था । राम के त भरत का अगाध नेह था । अत: राम ने
भरत को आते ह आ लंगन दे कर उसे शा त कया था। भरत को आशा थी क राम
ज र लौटगे । सभा के सामने राम ने जब न कया, तब भरत के अंतर क पीड़ा
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दुबारा फूट पडी । भरत के लए अभीि सत तो राम ह, पर यहाँ राम ह जब न
करते ह क अपना अभीि सत बताओ, तब भरत के भाव का बाँध टू ट जाता है । अब
भाव का आवेग इतना बल है क वह रोके कता नह ं है । ‘अभीि सत’ श द को यहाँ
अनेक संदभ से जोड़कर भरत अभीि सत के अथ क साथकता को समझाते है। या
सचमु च भरत के लए अब भी कु छ अभीि सत बचा है। राजा के लए अंकटक रा य क
ाि त अभीि सत होता है, ले कन भरत के लए रा य ाि त का ल य नह ं था। अत:
पीडा क अ भ यि त सरल क तु व ढं ग से क है । अकंटक रा य मलने पर भी
भरत के लए अब या कु छ अभीि सत बचा है । आपने (राम ने) वन पाया और मने
रा य- अब या अभीि सत बचा है? वैसे स ता के लए भाई-भाई के बीच खू न क
न दयाँ बह है, इ तहास गवाह है, ले कन भरत के लए स ता से यादा भाई का नेह
है । अत: वह कहता है क इसी स ता से मेर माँ कैकेयी ने आपको वन भेजा, िजसके
कारण पता क पु - वयोग म तड़प-तड़पकर मृ यु हु ई । या भला भाई और पता को
गंवाने के बाद भी मेरे लए कु छ अभीि सत शेष रहा है? हाँ इसी अपयश क ाि त
हे तु मेरा ज म हु आ था । मेर ह जननी के हाथ मु झे भाई और पता क ह या के
अपयश का कलंक जो लगना था । अपयश के कलंक को मौत से अ धक माना गया है
। स जन अपयश के बजाय मृ यु को वरे य मानते ह, ले कन भरत के भा य म तो
वह भी नह ं है ।
भरत क पीड़ा भरत ह समझ सकता है । अत: वह कहता है क इन प रि थ तय म
मेरे लए या अभीि सत है? यह समझ नह ं पाता हू ँ । अत: आप ह बता द मेरा
अभीि सत । ट मन से नकले ट वचार जो माता कैकेयी के थे, िजसने पूरे
प रवार को ततर- बतर कर दया, न ट कर दया । त प चात अब जीवन का या
मतलब है? अब म दूसर को नह ,ं अपना मु ँह खु द को भी नह ं दखा सकता हू ँ । भरत
क असमंजस क ि थ त भावावेश से उ प न है, िजसम वे कु छ भी नणय नह ं कर
पा रहे ह।
वशेष :
(1) 'अभीि सत' श द को व वध सदं भ से जोड़कर भरत क यथा क अ भ यि त
मा मक ढं ग से क गई है ।
(2) भरत के च र का उ कष हु आ है ।
(3) भरत का अपने बड़े भाई राम के त अन य म
े एवं सम पत ातृभाव क
अ भ यि त हु ई है ।
(4) गु तजी के श द योग के कौशल से का यांश म अथगौरव का सफल नवाह हु आ
है।
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च के सब सु नकर अटल कैकेयी- वर को ।
सबने रानी क ओर अचानक दे खा,
वैध य-तु षारावृ त यथा वधु-लेखा ।
बैठ थी अचल तथा प असं यतरं गा,
वह संह अब भी हहा मोमु खी गंगा-
''हा जनकर भी मैने न भरत को जाना,
सब सु न ल, तु मने वयं अभी यह माना ।
यह सच है तो फर लौट चलो घर भैया,
अपरा धन म हू ँ तात, तु हार मैया ।
दुबलता का ह च न वशेष शपथ है,
पर अबलापन के लए कौन-सा पथ है?
य द म उकसाई गई भरत से होऊँ,
तो प त समान ह वयं पु भी खोऊँ।
ठहरो, मत रोको मु झ,े कहू ँ सो सु न लो,
पाओ य द उसम सार उसे सब चु न लो ।
करके पहाड़-सा पाप मौन रह जाऊँ?
राई भर भी- अनुताप न करने पाऊँ?''
थी सन श श- नशा ओस टपकाती.
रोती थी नीरव सभा दय थपकाती ।
उ का-सी रानी दशा द त करती थी, ।
'' या कर सकती थी, मर म थरा दासी,
मेरा ह मन रह सका न नज व वासी ।
जल-पंजर गत अब अरे अधीर, अभागे,
वे व लत भाव थे वयं तु झी म जागे ।
पर था केवल या व लत भाव हो मन म?
या शेष बचा था कु छ न और इस जन म?
कु छ मू य नह ं वा स य-मा , या तेरा?
पर आज अ य-सा हु आ व स भी मेरा?
थू क मु झ पर ै ो य भले ह थू क,
ल
जो कोई जो कह सके, कह य चू के?
छ ने न मातृपद क तु भरत का मु झसे,
हे राम, दुहाई क ँ और या तु झ से?
कहते आते थे यह अभी नरदे ह ,
'माता न कुमाता, पु कुपु भले 'हो ।''
22
अब कहे यह सब हाय । व वधाता,
'हे पु पु ' ह , रहे कुमाता माता ।''
बस मने इसका बा य-मा ह दे खा,
ढ़ दय ने दे खा, मृदुल गा ह दे खा,
परमाथ न दे खा, पूण वाथ ह साधा,
इस कारण ह तो हाय आज यह बाधा ।
युग -युग चलती रहे कठोर कहानी-
'रघुकुल म भी थी एक अभा गन रानी ।''
नज ज म ज म म सु ने जीव यह मेरा-
' ध कार! उसे था महा वाथ ने घेरा ।
''सौ बार ध य वह एक लाल क माई,
िजस जननी ने है जना भरत-सा भाई ।''
पागल-सी भु के साथ सभा च लाई
'सौ बार ध य वह एक लाल क माई ।
संदभ :
उपयु त का यांश ‘साकेत’ से लया गया है। ‘साकेत’ बंध का य है, िजसके रच यता
क व मैथल शरण गु त है। गु तजी ववेद युग के सबसे स क व ह। 'साकेत'
रामायण और रामच रतमानस आ द पर आधा रत रचना है, पर इसम कैकेयी के च र
को उ वल बनाने क संग-योजना क व का मौ लक सृजन है।
संग :
जब पता क आ ा का पालन करने हे तु राम वन म गये, तब भरत कैकेयी के वरदान
क बात सु नकर राजग ी पर बैठने से इनकार कर दे ता है। कैकेयी को अपने शा त
वभाव के बावजू द भरत ोधा व ट होकर खर -खोट सु नाता है। पता क मृ यु और
भाई का वरह उसे काफ आघात पहु ँ चाता है। अ त म, श ु न एवं माताओं समेत वह
राम को लेने के लए च कू ट पहु ँ चता है। च कू ट म भाई के साथ मलन के अन तर
जो सभा बैठती है, उसम भरत से अपना अभीि सत य त करने क बात राम कहते
ह। भरत के भीतर भाव का जो तू फान था, वह उमड़ पड़ता है। याकु ल भाई को
समझाने एवं शा त करने के लए राम कहते है- ''उसके आशय क थाह मलेगी
कसको? जनकर जननी ह जान न पाई िजसको?' यह वा य सु नकर कैकेयी अपना
अनुताप अ भ य त करती है, जो तु त अंश म है।
या या :
राम के वचन सु नते ह कैकेयी मौका पाकर अपने भाव साद को वाणी का प दान
करती हु ई कहती है क सचमुच , भरत नद ष है, तु म लौट चलो घर को । सारा दोष
तो मेरा ह है । मौन बैठ हु ई रानी कैकेयी वैध य तु षारावृ त वधु लेखा-सी थी ।
23
शा त बैठ थी, पर उसके भीतर असं य भाव तरं ग उठ रह थीं, उन तरं ग क चंचलता
दख रह थी । कैकेयी रानी अब ोति वनी गोमु खी-गंग बन चु क थी । कु ल मलाकर
कैकेयी अपने भीतर क यथा य त करके अपने नद ष और अकलं कत होने का
माण दे ती है तो साथ म यह भी प ट करती है क राजग ी के लए उसका अपना
मोह या भरत का त नक भी नह ं है । भरत तो न छल है । कैकेयी के इस अनुताप
भरे वचन से उसके साफ दल होने का तथा भरत के त मम व होने के बावजू द इस
वरदान मांगने के पीछे भरत का 'कोई हाथ नह ं है, ऐसा प ट होता है । राम, भरत
और सभा म बैठे सभी लोग के सामने अपना कलंक वीकार कर वह नमल गंगा क
तरह प व होती है । वह कहती है क मेर दुबलता के कारण म अपरा धन हू ँ । कसी
भी माँ को अपना बेटा अ धक य होता है । वह कसी भी हालत म उसक मौत के
बारे म सोच भी नह ं सकती । यहाँ कैकेयी राम से कहती है-य द भरत के वारा
उकसाने पर मने ऐसा कया हो, तो म प त के समान पु को भी खोऊँ । मेर बात
यान से सु नो, उसम य द सार लगे तो उसे, चु न लो । म पहाड़-सा पाप करके मौन
बैठ रहू ँ । अपना अनुताप य त न कर पाऊँ तो इस संसार म मु झसे बड़ी अभा गन
और कौन होगी ? कैकेयी के ऐसे वचन को सु नकर-रा म चाँद भी मानो ओस
टपकाकर रो रहा हो, ऐसा लगता था । सभा के लोग रो रहे थे । उस सभा म रानी क
उपि थ त उ का के समान तेज काशन का काय करती थी । उसके इस यि त व से
सब म भय, व मय और खेद उ प न हो रहा था ।
कैकेयी अपने वरदान मांगने से उ प न ासद के लए कसी और को नह ,ं खु द को
िज मेदार मानती है । लोग म थरा के कान फूँ कने से ऐसा हु आ - ऐसा मानते ह पर
कैकेयी कहती है, जब मेरा ह मन अपने पर व वास नह ं कर सका, िजसका प रणाम
यह हु आ, अब इसके लए म थरा को य दोष द ? अगर मेरा व वास राम और
भरत के त पूण होता तो आज ऐसी नौबत य आती ? मेरे भरत को, िजसको मने
जना है, म खु द ह उसे समझ न पाई । भरत का राम के त इतना नेह है क वह
राम के बना रह नह ं सकता तो फर रा यपद कैसे वीकार करे गा ? और वह भी राम
के वनवास के बाद । मेरे मन म ई या क आग ने मु झे पूण प से वचारह न ि थ त
म रख दया था । म पु के मोह म पु के वभाव और राम के त अपने वा स य
को भू ल चु क थी, ले कन म मोह म अंधी थी । मेरे वा स य से भला राम अप र चत
है या? आज मेरा बेटा भरत मु झे अपनी माता कहने से झझक रहा है, मेरा अपना
व स आज पराया हो गया है - ''पर आज अ य-सा हु आ व स भी मेरा' । जब म अपने
बेटे को नह ं समझ पाई तो मेरा बेटा भी मु झे माता न मान इसम आ खर दोष
कसका? कसी का नह ,ं सफ मेरा ह है । िजसे जो कहना है वह कहे , मु झ पर
थू कना है थू के, म इसी लायक हू ँ । पर आ खर यह सब मने अपने वा स य के कारण
कया है । मेरा मातृपद छ नने का अ धकार म कसी को नह ं दे सकती । जो करना
है, कहना है, करो, कहो, थू को, पर म भरत क माता तो हू ँ ह । कलं कनी ह सह पर
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माता हू ँ । राम और या दुहाई दूँ ? लोग पहले कहा करते थे क पु -भले ह कु पु हो
सकता है पर माता कु माता नह ं होती । अब लोग कहगे पु तो पु ह रहा, ले कन
माता-कु माता हो गई । मने भरत का बा य शर र, छल गा दे खा । उस कोमल शर र
का ढ़ दय नह ं दे खा था । मने अपना वाथ ह दे खा, परमाथ नह ं । इसी लए आज
यह दन दे खने को मला क-पु भी मु झसे घृणा करता है । मेरे जीवन क इस कठोर
कहानी को लोग युग -युग तक गाते रहगे क रघुकु ल म ऐसी अभा गन रानी थी
िजसने पु -मोह म, प त और पु दोन को खो दया । महा वाथ ने मु झे घेर लया ।
मेरे जीवन को कई ज म तक ध कार मलेगा । यह ध कार अपने वाथवश पूरे
प रवार को न ट करने के कारण ा त होगा । कैकेयी अपने अनुताप को य त करती
हु ई अपना सारा अ तमन खोलती है । बात चरम सीमा तक आ पहु ँ चती है । राम को
लगता है क- अब माँ को स भालने क आव यकता है । कह ं वह अपराधभाव दूसर
दशा न पकड़ ले । प रि थ त समझकर राम बोल उठते ह- ''सौ बार ध य वह एक
लाल क माई' यह सु नकर कैकेयी को कतनी सा वना मल होगी । जलते हु ए दय
को सभी लोग के एक साथ कहने से कतनी शीतलता का अनुभव होगा, यह अनुमान
सहज ह लगाया जा सकता है ।
वशेष :
(1) रानी कैकेयी के च कूट क सभा म वधवा प म, उसके चंचल मन के अंकन
करने म, अनुताप के समय वह अब गौमु खी गंगा है-ऐसा कहने म क व के कैकेयी
के व वध च खींचने क कु शलता का पता चलता है ।
(2) राम-कैकेयी के संवाद से कैकेयी राम के वनवास के त अपनी िज मेदार वीकार
करती है । वयं के अपराध का दोष दूसरे के सर पर नह ं डालती । अत: यहाँ
कैकेयी के च र के उ जवल प क अ भ यि त हु ई है ।
(3) भरत के त कैकेयी के वा स य भाव पर कोई संदेह करे , यह कैकेयी को वीकार
नह ,ं पर तु साथ म अपने अपराध के लए कोई भरत को दोषी माने, यह भी
वीकाय नह ं ।
(4) सभा म कैकेयी के व वध भाव का अंकन, कैकेयी क भावि थ त, बा य दखाव,
कथन, प त, संवाद म आलंका रक उपकरण का सु ंदर योग हु आ है । जैसे -
''वह संह अब भी हहा! गौरमुखी गंगा, वैध य तु षारावृ त वधु लेखा, बैठ थी अचल
तथा प असं य तरं ग, उ का-सी रानी दशा द त करती थी, बस मने इसका बा य
मा ह दे खा ।'
(5) कैकेयी के साथ भरत के उ वल च र एवं राम का भरत एवं कैकेयी के त
अटू ट नेह भी इस संवाद से अ भ य त हु आ है ।
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म सु न न सकूँ गा बात और अब आधी ।
कहती हो तु म या अ य तु य यह वाणी,
या राम तु हारा पु नह ं वह मानी?
इस भां त मानकर हाय, मु झे न ठाओ,
जो उठू ँ न म, य तु ह ं न आप उठाओ ।
वे शैशव के दन आज हमारे बीते,
माँ के शशु य शशु ह न रहे मनचीते ।
तु म र झ-खीझकर यार जताती मु झको,
हँ स आप ठातीं, आप मनाती मु झको ।
वे दन बीते, तु म जीण दुःख क मार ,
म बड़ा हु आ अब और साथ ह भार ।
अब ठा सकोगी, तु म न तीन म कोई ।''
'तु म हलके कब थे? हँ सी कैकेयी, रोई!
''मां अब भी तु मसे राम वनय चाहे गा?
अपने ऊपर या आप अ ढाहे गा?
अब तो आ ा क अ ब तु हार बार ,
तु त हू ँ म भी धमधनुध ृ तधार ।
जननी ने मु झको जना, तु ह ं ने पाला,
अपने सांचे म आप य न से ढाला ।
सबके ऊपर आदे श तु हारा मैया,
म अनुचर पूत , सपूत, यार का भैया ।
वनवास लखा है मान तु हारा शासन,
लूँगा न जा का भार, राज- संहासन?
पर यह पहला आदे श थम हो पूरा,
वह तात स य भी रहे न अ य, अधूरा ।
िजस पर ह अपने ाण उ ह ने यागे,
म भी अपना त- नयम नबाहू ँ आगे ।
न फल न गया माँ, यहाँ भरत का आना,
सर माथे मने वचन तु हारा माना ।''
स तु ट मु झे तु म दे ख रह हो वन म,
सु ख धन धरती म नह ,ं कं तु नज मन म ।
संदभ :
तु त अंश 'साकेत' के अ टम सग से लया गया है । 'साकेत' मै थल शरण गु त
वारा र चत बंध का य है । खड़ी बोल भाषा का का य म सफल योग तथा
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अ य त रामभि त के लए गु तजी स ह । ववेद यु ग के मु ख क व के प म
उ ह आदर मला है । 'साकेत' म कैकेयी, उ मला, भरत के च र का उ कष मु ख
उ ेशय होते हु ए भी राम के त गु तजी का अन य एवं भि त भाव का य म
ि टगोचर होता है ।
संग :
भरत- श ु न अपनी माताओं एवं सै य समेत राम को अयो या वापस ले जाने हे तु
च कू ट आये है । अ टम सग म च कू ट मलन, राम-भरत कैकेयी के संवाद मु ख
घटना के प म व णत ह । भरत के बाद कैकेयी भी अवसर पाकर अपना अनुताप
य त करती हु ई राम को अयो या लौटने को कहती है । तब राम अपनी ममता,
नेह, वा स य, अनुराग , बा याव था क सार मृ तय को याद करके कैकेयी से
अपना अटू ट बंधन है, यह जताते ह, सां वना भी दे ते ह । ेम और क त य म अ तर
करते हु ए राम कैकेयी क बात मानते हु ए भी अपने क त य के त ढ़ता क बात
करते है । उ त अंश म राम-कैकेयी के वा स यपूण संवाद क झाँक तु त हु ई है।
या या :
यह सव व दत त य है क बेटा गलती करने पर माँ से माफ मांग,े - अनुनय - वनय
करे , यह वाभा वक है पर माँ अपनी गलती का अहसास होने पर भी सामािजक मयादा
के चलते ऐसा नह ं कर सकती। कैकेयी यहाँ अपनी गलती वीकार कर राम से जब
अपने अपार नेह एवं ममता क दुहाई दे कर अयो या लौटने के लए ाथना करती है,
तब राम व थ च त से अपने मयादा पुराषो तम प के अनुसार वा स यमयी माँ
कैकेयी को कहते ह क हे माता, अब मु झे य अपराधी मत करो, य क यह वपर त
म है । अत: म अब आपक आगे कु छ सु ननेवाला नह ं हू ँ । तु म मु झे और क तरह
पराया समझ रह हो। या राम तु हारा पु नह ं है ? और पु से वनय नह ं उसे
आदे श दया जाता है। अगर आप ऐसा कहगी तो म ठ जाऊँगा। याद है-बचपन म म
जब नह उठता था, तब आप ह मु झे उठाती थी । म तो तु हारा उस समय भी शशु
था और आज भी हू ँ । तु म मु झे रझाकर- रझाकर तरह-तरह से यार जताती थी । मु झे
हँ साकर आप मनाती । वे शैशव के दन या बीत गये? अब तो; म इतना बड़ा हो
गया हू ँ क तु म तीन माताओं से म उठ भी न पाऊँगा । त ण कैकेयी कहती है-
''तु म हलके कब थे?' वा य क जो व न है, वह राम के ग रमामय च र का
उ घाटन करती है । राम कभी ह के थे ह नह । कैकेयी हँ सकर रो पड़ती है । राम
कहते है माँ, अब वनय नह ,ं राम तु हार आ ा चाहता है, आपका आदे श सर माथे
पर । म धम, धीरज और धनुष धारण करनेवाला हू ँ अथात राम अपने कत य नवाह
के त कृ त संक प है । कसी भी कार क भावुकता म आकर राम अपना धैय नह ं
खो सकता । अपने परा म से पीछे नह ं हट सकता । मुझे तु ह ं ने पाला-पोषा, बड़ा
कया । म तो तु हारा अनु ह हू-ँ जैसा भी हू ँ वैसा तु हारा बेटा हू ँ । य द मने वनवास
27
भी लया, उसम भी आपक आ ा ह थी । अत: अब म तु हार आ ा को तोड़कर
राज- संहासन एवं जा का भार नह ं ले सकता । ऐसा करने पर तु हार आ ा का
उ लंघन और मेरे आ ाकार कत य प का हनन होगा । वनगमन के लये तात का
आदे श मु झे मला था, िजसम आपक इ छा शा मल थी । इसी कारण तो तात ने ाण
यागे । जब सबने अपना- अपना कत य नभाया है तो म भी अपने कत य का नवाह
य न क ँ?
माँ, तु म च ता न करो । भरत का यहाँ आना यथ नह ,ं गया है । म तु हारे वचन
को सर-माथे चढ़ाता हू ँ । तु म मु झे वन म स तु ट दे ख रह हो । सु ख व तु त: धन या
शासन म नह ं । मन जहाँ और िजसम सु ख ा त करता है, वह ं सु ख मलता है ।
वशेष :
(1) तुत अंश म राम और कैकेयी के माता-पु ेम क कु शलतापूवक अ भ यि त क
गई है । कैकेयी के च र के उ कष के लए ऐसी संवाद-योजना आव यक भी थी ।
(2) गु तजी को राम के आदश, मयादा पुराषो तम धीर, गंभीर, धम कत य परायण
चर के अंकन करने म सफलता मल है । इस का यांश म उनक रामभि त का
पता चलता है ।
(3) गंभीर संवाद म भी ''तु म हलके कब थे?'' जैसे वशेष अथ क अ भ यि त कहने
वाल वा य योजना के कारण एक ओर जहाँ गंभीर वातावरण म उपहास के कारण
तनाव कम होता है वहाँ दूसर ओर राम का ग रमामय आदश च र व नत होता
है ।
28
तु त का यांश मै थल शरण गु त र चत 'साकेत' बंध का य के अ टम सग से लया
गया है । 'साकेत' उ मला- वरह के लए स है । क व ने भरत, कैकेयी और उ मला
के च र का उ कष दखाया है । मै थल शरण गु त ववेद युग के मु ख क व के
प म या त ा त है ।
संग :
अ टम सग म च कू ट मलन म राम ल मण-सीता का भरत-श ु न एवं अपनी
माताओं से मलन होता है । राम-भरत और राम-कैकेयी के सभा म संवाद के बाद
सु खद समाधान होता है और नणय कया जाता है क राम पता क आ ानुसार चौदह
वष के वनवास के बाद अयो या लौटगे और अपना कत य नवाह करगे । सब एक
दूसरे से मलकर स न होते ह । इसी समय सीता चतु राई से पणकु ट म खड़ी उ मला
से ल मण का मलन करवाती है । ल मण-उ मला के बीच उन ण म जो मौ खक-
मौन संवाद होता है उसका वणन उ त अंश म कया गया है ।
या या :
'साकेत' म सब अपने कत य का पालन कर कमोबेश प म खु श है। सबको अपना
अलग- अलग सु ख व दुःख है । सीता राम के साथ वन म आकर वन म गृह थ का
सु ख पा रह है । भरत-मांडवी, श ु न - ु तक त भी अपने प त के साथ है। एक मा
उ मला ऐसा पा है जो भवन म रहकर भी प त-सु ख से वं चत वन से भी कठोर दुःख
पाने के लए ववश है । उ मला के मन क बात कोई जानता नह ं और न ह कोई
पूछता है। प त ल मण भी उ मला क परवाह कये बना, उससे कसी कार क
बातचीत कये बना, उसक इ छा समझे बना ातृ कत य- नवाह करने म लगे ह।
इसम उ मला का या दोष है ?
सीता ी है। एक ी ह दूसर सी क पीड़ा समझ सकती है। वन म जाने के बाद
एक लंबी अव ध-चौदह वष के प चात ल मण-उ मला का मलन होगा। सीता ने उ मला
क यथा को समझते हु ए समय साधकर कु टया म अकेल खड़ी उ मला से ल मण का
मलन करवाया। ल मण कु टया म वेश करते ह जो दे खते ह, उसे दे खकर
आ चयच कत हो जाते है । उ ह कु छ समझ म नह ं आता है। उ मला क काया है या
शेष उसी क छाया। वे कु छ बोल नह पाते है। तब उ मला ल मण क ऐसी घबराहट
भर ि थ त दे ख कहती है- ''मेरे उपवन के ह रण, आज वनचार ' उ मला के उपवन म
नि च त घूमनेवाला ह रण आज वनचार हो गया है अथात भय, संशय, व मय,
संकोच आ द भाव एक साथ जो ल मण के शर र म उपि थत हु ए ह, उनक कु शल
अ भ यि त हु ई है । उ मला कहती है-मु झसे डरो नह ं । म तु ह वन जाने से नह
रोकूँ गी । शायद ल मण ने यह सोचा हो क उ मला रो-रोकर वन न जाने के लए कहे
और मेरे कत य नवाह म बाधा डाले । पर तु यहाँ तो उ टा होता है । वयं उ मला
ह ल मण को-जो उनके मन म रोकने का भार भय है-उसे छोड़ने क बात कहती है ।
ल मण या कर ? या सोच रहे थे और सामने या हो रहा है ? अपने-आप पर
29
लजाते हु ए या के पद तल म जा पहु ँ चे । उ मला आँख म आँसू भरे ल मण के
चरण- पश करती हु ई रोमां चत हो उठती है । अब ल मण कहते ह क म वन मे
थोड़ी तप या करके यो यता ा त करना चाहता हू ँ । भाभी क भ गनी मेरे लए तु म
केवल उपयोग क व तु नह ं हो । एक बात यान दे ने यो य है क नार को केवल
उपभोग क व तु मा न समझकर उससे वशेष उसक इयता का वीकार गु तजी ने
ल मण पु ष पा के वारा करवाया है । उ मला के मन म एक साथ बहु त कु छ कहने
को है पर या कह ? भाव क संकु लता, प रि थ तज य गंभीरता और बहु त एक साथ
होने से कु छ नह ं कह पाती है । इस न कह पाने म वह कसी को दोषी नह ं मानती ।
अपने कम का ह दोष मानती है । आ खर म भारतीय सं कृ त क आदश नार क
भाँ त वह कहती है क-िजसम तु ह स तोष है, मु झे भी उसी म स तोष है । क व ने
याग म भोग का आनंद जानने वाल बात उ मला के मुख से कहलवायी है । उ मला
के च र क यह सबसे बड़ी वशेषता बन जाती है ।
वशेष :
(1) तु त अंश म उ मला के च र का उ कष दे खने को मलता है । साथ ह
प रि थ त पाकर तु र त उ तर दे ने क कला भी उ मला म दखाई दे ती है ।
ल मण के लए उपवन का ह रण जो वनचार बन गया है, ऐसा कहने म जो
व न है वह ल मण के अंत वंद और उ मला क ववश प रि थ त क संकेतक है
(2) उ मला के च र म यागवृि त , समपण क भावना तथा प रि थ त म कसी को
दोष दये बना व थता से अपना कत य नवाह करने क मता के दशन होते
है।
(3) ल मण क असमंज य क ि थ त बहु त कुछ कह जाती है । नार केवल उपयोग
क नह ,ं जीवन-पथ म अ य कई कम म साथ दे नेवाल सहध मणी, यागमयी
नार ह, इसक अ भ यि त उ मला के च र के वारा क गयी है । पु ष के
कत य नवाह मे नार क मह वपूण भू मका होती है नार के त यह वशेष
ि टकोण आगे छायावाद म वक सत प म दखाई दे ता है ।
1.5 अ यासाथ न
1. मै थल शरण गु त क का य या ा क चचा क िजए ।
2. मै थल शरण गु त के का य क वशेषताएँ बताइए ।
3. साकेत के अ टम सग का मह व नधा रत क िजए ।
4. न न ल खत का यांश क या या करते हु ए संबं धत का यांश पर का य सौ दय
परक ट पणी ल खए-
(i) कसलय - कर........मन भाया ।
(ii) थी सन ....... तु झी म जागे ।
(iii) मेरे उपवन...... ग जल म ।
30
1.6 स दभ ंथ
1. डॉ. मंजु ला तवार - मै थल शरण गु त के का य म नार , सु लभ काशन,
लखनऊ।
2. डॉ. कमलाका त पाठक - मै थल शरण गु त यि त और का य, रणजीत टं स
ए ड पि लशस द ल , 1960 ।
3. डॉ. दानबहादुर पाठक - मै थल शरण गु त और उनका सा ह य, वनोद पु तक
मं दर, आगरा, 1964 ।
4. डॉ. सी. एल. भात - मै थल शरण गु त यि त और अ भ यि त, ह द
व यापीठ, ब बई, 1987 ।
5. डॉ. ह रचरण शमा - छायावाद के आधार तंभ, राज थान काशन, जयपुर ।
♦♦♦
31
इकाई- 2 मै थल शरण गु त के का य का अनुभू त एवं
अ भ यंजना प
इकाई क परे खा
2.0 उ े य
2.1 तावना
2.2 मै थल शरण गु त के का य का अनुभू त प
2.2.1 मै थल शरण गु त और उनका साकेत
2.2.2 गृह थ जीवन के च
2.2.3 उ मला का वरह
2.2.4 मम पश थल का च ण
2.3 मै थल शरण गु त के का य का अ भ यंजना प
2.3.1 बंधा मकता
2.3.2 य वधान
2.3.3 संवाद-योजना
2.3.4 अ तु त योजना
2.3.5 भाषा-योजना
2.3.6 छं द योजना
2.4 मू यांकन
2.5 वचार संदभ और श दावल
2.6 अ यासाथ न
2.7 संदभ थ
2.0 उ े य
इस इकाई को पढ़ने के बाद आप :
मै थल शरण गु त के का य क वशेषताओं का प रचय पा सकगे।
मै थल शरण गु त के का य के अनुभू त प का प रचय ा त कर सकगे।
मै थल शरण गु त के का य क बंधा मकता, य वधान और संवाद-योजना का
प रचय ा त कर सकगे।
गु तजी क अ तु त योजना, भाषा-कौशल एवं छं दयोजना क जानकार पा सकगे।
क व के बारे म ऐसे संदभ क जानकार ा त करके क व से संबं धत जानकार
और बढ़ा सकगे।
2.1 तावना
मै थल शरण गु त ववेद युग के मु ख क व के प म स ह । उ ह खड़ी बोल
म पौरा णक वषय को लेकर सफल का य रचना करने म कुशल क व के प म
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या त ा त है । रामायण के उपे त पा के उ कष के लए 'साकेत' क रचना क
गई है । वशेषकर उ मला, कैकेयी और भरत के पा को ऊपर उठाने का यास
'साकेत' म हु आ है । सु ंदर गृह थ च का अंकन साकेत क वशेषता है । उ मला के
वरह वणन एवं मम पश थल का च ण क व ने कु शलतापूवक कया है । बंध के
सारे त व का नवाह करने म क व सफल रहा है । भौ तक एवं ाकृ तक य- वधान
म क व कौशल के दशन होते ह । नाटक यता के सजन म संवाद क अहम भू मका
होती है, 'साकेत' म क व ने इस बात का पूरा यान रखा है । 'साकेत' क भाषा के
वारा क व क खड़ी बोल के योग म समथता का पता चलता है ।
33
सारा।' शपू णखा क कहानी, खर-दूषण आ द उपकथाएँ श ु न के वारा सू - प से
कहलवाई है । उसके बाद क घटनाओं-ल मण शि त तक का वणन हनुमान के वारा
साकेत म ह करवाया गया है तथा यु का वणन व श ठ अपनी योग- ि ट वारा सभी
साकेतवा सय को दखलाते है । सू यवंश के राजाओं क क तगाथा, दशरथ, राम-ज म,
जनक का गृह थ , बालल ला, ताड़का-वध, थम दशन, धनुष य आ द आरं भक संग
क सू चना उ मला से ा त होती है । इस ू कथा क रं गभू म 'साकेत' ह है
कार संपण
। सम त घटनाओं का समाहार 'साकेत' म ह हो जाता है । अत: 'साकेत' नामकरण
क उपयु तता वत: स हो जाती है ।
'साकेत' के जो मम थल ह वो इस कार ह- ल मण-उ मला क वनोद-वाता, कैकेयी-
म थरा संवाद, वदा संग, नषाद- मलन, दशरथ-मरण, भरत-आगमन, च कू ट-
सि मलन, उ मला क वरह-कथा, नि द ाम म भरत और मा डवी का वातालाप,
हनुमान से ल मण शि त का समाचार सु नकर साकेत-नाग रक क रणस जा, राम-
रावण यु और राम, भरत तथा ल मण और उ मला का पुन मलन । जब साकेत के
अनुभू तप क बात क जाय तब इन मम पश थल का क व ने िजस कु शलता एवं
भावना मक प म अपनी सहज का य तभा के बल से सृजन कया है, उसक झाँक
करना ज र बन जाता है ।
मानव जीवन राग- वेष क ड़ा है । मानव जीवन क इसी रागा मकता वृि त के
कारण अनेक अव थाओं और यि तय के बीच उसक जो जीवन-ल ला बनती है, क व
ने उसे बड़ी मा मकता से 'साकेत' म गृह थ जीवन के च के प म अं कत कया
है। गृह थ जीवन के सु ख-दुःख क यंजना सु ंदर तर के से क गई है। ‘साकेत’ म रघु
प रवार के सु ख-दुःख का वणन है। सू यकु ल के इसी तापी प रवार म प त-प नी, पु -
पु याँ , माता- वमाताएँ, दे वर-भाभी, सास-पु वधु ए,ँ वामी-सेवक आ द ह अत: प रवार
ू समि ट है- जैसे
बड़ा है। व भ न यि टय से बना हु आ यह प रवार एक संपण
एक त के व वध सु मन से खले,
पौरजन रहते पर पर ह मले ।
गृह थ जीवन का ाण दा प य-जीवन है। मानव जीवन क तु त वृि त एवं काम का
समु चत वकास मयादाब अथात ् ववाहब होकर हो सकता है । 'साकेत' के दशरथ
प रवार म पाँच द प त ह- उ मला-ल मण, राम-सीता, भरत-मांडवी, दशरथ और उनक
तीन रा नयाँ ( वशेषकर कैकेयी) तथा श ु न और ु तक त। 'साकेत' का धान काय
चौदह वष क द घ अव ध के उपरांत उ मला-ल मण का मलन है। अत: वभावत:
उसका धान रस गृं ार है- और शृंगार म भी जीवन म वरह क वशेषता के कारण,
वयोग प धान है। दा प य जीवन म ी-पु ष क शार रक और भावना मक तर
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पर पर पर वीकृ त जीवन म मधु रता लाती है। ‘साकेत’ म ल मण-उ मला के संवाद
म इस बात को बड़े ह मा मक एवं सट क ढं ग से तु त कया गया है जैसे दा प य
जीवन म प नी के गौरव को ल मण इस कार कहते ह-
''भू म के कोटर, गुहा , ग रगत भी,
शू यता नभ क , स लल आवत भी
ेयसी, कसके सहज-संसग से,
द खते ह ा णय को वग से ।।''
ी-संसग से ह जीवन म रस आ जाता है। जगत ् के शू य च रं गीन बन जाते है
तो दूसर ओर उ मला नार का त न ध व करती हु ई पु ष म हमा का वणन इस
कार करती है-
खोजती ह क तु आ य मा हम
चाहती ह एक तु म-सा पा हम
आ त रक सु ख-दुःख हम िजसम धरे ।
और नज नव-भार य हलका कर।
प त-प नी के म य सु ख-दुःख कह-सु न सकने के कारण जीवन कतना मधु र और
भार वह न हो जाता है। भाव का य तीकरण शार रक-मान सक वा य के लए
कतना आव यक है, इस बात का संकेत अं तम पंि त म कतने सट क ढं ग से कहा
गया है-''और नज भव-भार य हलका कर ।''
ठ क इसी कार कृ त के गंभीर और मयादा-मू त राम भी सीता के स मु ख साधारण
मनु य बन जाते ह ।राम-सीता के बीच वन म जो हास-प रहास गु तजी ने व णत
कया है, वह मधुर दा प य जीवन का एक सु ंदर उदाहरण है। सीता वन के वृ को
सींचती फर रह ह। राम उनके इस कृ त- ी का पान कर रहे ह-कु छ दे र बाद उनका
दय-रस श द का प धारण कर य त होता है-
''हो जाना लता न आप लता संल ना
करतल तक तो तु म हु ई नवल दल म ना
ऐसा न हो क म फ ँ खोजता तु मको।''
ऐसे ह दा प य जीवन म वपि त के समय म ी पु ष का संबध
ं कतना अवलं बत
है एक दूसरे पर । ऐसा होने पर वपि त के ण म ी पु ष के दुःख को कम करने
म कस कार सहायक बन सकती है। पु ष का दुःख फर कस कार ी के सहयोग
से हलका हो जाता है, इस बात क झाँक भरत-मा डवी के उदाहरण से करवायी गयी
है। चार ओर से यथा,शोक दुःख से घरे भरत जब कहते ह-
''एक न म होता तो भव क या असं यता घट जाती?
छाती नह ं फट य द मेर तो धरती ह फट जाती।''
यह सु नकर मा डवी अपने आवेश को रोक नह ं पाती और कह दे ती है-
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''हाय! नाथ धरती फट जाती, हम तु म कह ं समा जाते,
तो हम दोन कसी मू ल म, रहकर कतना रस पाते ।
न तो दे खता कोई हमको, न वह कभी ई या करता,
न हम दे खते अ त कसी को, न यह शोक आँसू भरता।''
मांडवी न तो उ मला क तरह वयो गनी है और न सीता- ु तक त क भाँ त सयो गनी
। वह ऐसे प त क प नी है िजसका जीवन गृह -वास और वनवास का संगम है । प त
क गौरव भावना के कारण उनके दुःख से वह दुःखी है । पर तु लोग क ई या उसे
स य नह ं । मांडवी म ि यो चत लालसाएँ ेम क आग है पर तु उसक भावनाएँ
बि दनी ह । इस लए पहले वह भरत के श द को सु नकर तड़प जाती है, त प चात ्
उसक गौरव भावना जा त होती है, वह कहती है-
''मेरे नाथ जहाँ तु म होते, दासी नह ं सु खी होती।
क तु व व क ातृ-भावना यहाँ नरा त ह रोती।''
इसी कार दशरथ-कैकेयी के उदाहरण से दा प य जीवन म संयम क सीमा न रखने
पर कस कार के कटु फल भु गतने पड़ते ह । वयो चत दा प य जीवन क सीमाएं
होती ह । वहाँ थोड़ी-सी असावधानी जीवन को कैसे मरण तक ले जाती है, इस बात
क पुि ट क गई है। इसी कार वा स य का भी मा मक च खींचा है।
दा प य,गृह थ -जीवन का मू ल है, तो वा स य उसका फल है । तु त का य म राम
के त दशरथ-कौश या, ल मण-श ु न, भरत के त, उनक माताओं का पर पर,
माता- वमाताओ का पु के त नेह तथा उस नेह-ज नत व भ न भाव का
मम पश च ण मलता है । ठ क ऐसे ह पु ी को ससु राल वदा करते समय माँ-बेट
के संवाद से गृह थ जीवन के एक मा मक च का अंकन कया है। बेट क वदाई का
संग बड़ा क ण होता है । जनकपुर से उ मला-सीता आ द के वदा के समय 'मत-रो'
कहकर माता वयं रो उठ -ं
''तु म य माँ यह धैय खो उठ ं।
यह म जननी पी डता ।
पर तू है शशु आज ड़ता।''
सु न, म यह एक द न माँ, तु मको है अब ा त तीन माँ।
क या क माता के मु ख से नकला यह संदेश आदश गृह थ प रवार-ससुराल के लए
आज भी कतना ासं गक है। इसी कार दे वर- भाभी के मधु र साि वक रोमांस वाले
संबध
ं का च सीता-ल मण के संवाद से खींचा है। याग राज म गंगा-यमु ना के
संगम को दे खकर सीता ल मण से हष-गदगद होकर कह उठती है-
याम-गौर तु म एक ाण दो दे ह य।
इस पर ल मण कहते ह-
भाभी य नह ,ं
36
सर वती सी कट जहाँ तु म हो रह ।ं
सीता तु र त कहती है-
दे वर मेर सर वती अब है कहाँ
संगम- शोभा दे ख नम न हु ई यहाँ ।
ऐसे ह मांडवी- श ु न के बीच भी एक च क व ने बनाया है, जब अयो या के सु ख-
समाचार सु नाते ह, तब मांडवी कहती है-
''कोई तापस कोई यागी, कोई आज वरागी है ।
घर संभालने वाले मेरे दे वर ह बड़ भागी है । ''
ठ क इसी कार भाई-भाई, भाई-बहन के ेम क सु ंदर यंजना क अ भ यि त भी
'साकेत' म हु ई है । राम के व वा म के साथ असु र से य क र ा करने हे तु वन
जाते समय दशरथ सु ता शा ता के र ाबंधन के प म ातृ ेम का सु ंदर च मलता
है । ननद-भाभी के च भी है । इस कार भारतीय पा रवा रक जीवन म गृह थ
जीवन के मह व का सु ंदर च ण गु तजी ने सकुशल ढं ग से कया है ।
37
''मेरे उपवन के ह रण, आज वनचार
म बाँध न लूँगी तु ह, तजो भय भार ।''
उ मला के उपवन का ह रण आज वनचार हो गया है अत: कदा चत उपवन म आने से
डरता है क- बाँध न लया जाऊँ । ले कन उ मला व वास दलाती है क-डरो नह ,ं म
नह ं बाँधू गी। ल मण उ मला क उदारता दे ख लि जत हो जाता ह। उसके चरण म
गर पड़ता है। उ मला के साथ अ याय होने का बोध उसे होता है अत: ल मण कहते
ह-
''वन म त नक तप या करके बनने दो मु झको नज यो य।
भाभी क भ गनी, तु म मेरे अथ नह ं केवल उपभो य।''
यह उ मला के च र को अ धक उ वल बना दे ता है।
उ मला के वरह वणन म ाचीन और नवीन का सि म ण है । एक ओर उसम ताप
का ऊहा मक वणन है, ष ऋतु आ द का समावेश है, तो दूसर ओर यथा का
संवेदना मक एवं मनोवै ा नक यि तकरण भी। उ मला के वरह-ताप-वणन म एकाध
दो थान पर ऊहा मकता दे खने को मलती है-
''जा मलया नल लौट जा, यहाँ अव ध का शाप
लगे न लू होकर कह ,ं तू अपने को आप।''
उ मला का वरह जीवन के बाहर क व तु नह ं है । वह राज-प रवार क वयो गनी
कु ल-ललना है । वह घर-प रवार छोड़कर बाहर नह ं नकलती और न ह उ माद क
ि थ त म कोई गलत कदम उठाती है । अपने वयोग क छटपटाहट के बीच भी न य
कत य कम को नभाना, पालतू पशु-प य क च ता, दूसर क सेवा सु ष
ू ा करना
आ द सब का नवाह करती है। वरह म समय कैसे कटे ! वह कभी च बनाती है तो
कभी शु क-सा रका से मन बहलाने लगती है। वरह के दुःख से दुःखी होकर तोते से
पूछती है- ''कह वहग, कहाँ है आज आचाय तेरे?'' तोता हमेशा क तरह जवाब दे ता
है- 'मृगया म ।' उ मला व वल होकर बोल उठती है-
''सचमु च मृगया म? तो अहे र नये वे,
यह हत ह रणी य छोड़ य ह गये वे ?''
''अहे र नये वे'' क सांके तक यंजना रमणीय ह, और गहर भी। य द अहे र नये नह ं
होते तो ऐसी हत-ह रणी को छो कर भला जाते या?
द पक जलने पर पतंगा भी जलने आ जाता है । उ मला को अपनी यथा क झाँक
वहाँ मलती है-
''द पक के जलने म आल , फर भी है जीवन क लाल ।
क तु पतंग भा य ल प काल , कस का वश चलता है?''
यहाँ परवश ि थ त का मा मक संकेत है । शरद म खंजन को दे ख ल मण के नयन
का आभास मल जाता है-
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'' नरख सखी ये खंजन आये,
फेरे उन मेरे रं जन ने नयन इधर मन भाये।''
वरह म य मलन क अ भलाषा सबसे धान होती है, साथ ह अ य काम दशाओं
का ज म इसी से होता है । उ मला के वरह म-
''यह आता है इस मन म...
जब वे नकल जायँ तब लेटूं उसी धू ल म लोट।''
वरह म अध- व मृ त क ि थ त म लाप करती हु ई उ मला का वणन कतना मा मक
ह
''भू ल अव ध-सुध य से कहती जगती हु ई कभी 'आओ।'
क तु कभी सोती तो उठती वह चौक बोलकर 'जाओ'।''
उ मला क ज टल मनोदशा का संकेत इसम है। आदश और कामना का संघष है ।
आदश कहता है- 'जाओ' भाव कहता है-'आओ' । उ मला क अध व मृ त के मू ल म
यह वं व है।
उ मला के उ माद क चरम सीमा का च भी क व ने खींचा है। जैसे-
''िजधर पीठ दे द ठ फेरती, उधर म तु ह ढ ठ हे रती''
उ मला के वरह वणन म आदश का गौरव है और वाथ का नषेध । उ मला का
आदश बड़ा ऊँचा है । सती और ल मी से भी ऊँचा-
''डू ब बची ल मी पानी म, सती आग म पैठ
िजये उ मला, करे ती ा, सहे सभी घर बैठ।''
उ मला का वरह साव ध था, अत: उसका अ त भी नि चत है। यौवन को सहेजकर
य को सम पत करने क उसक आकां ा को अ वाभा वक नह ं मानना चा हए।
उ मला के वरह म ई या का अणुमा पश नह ं है। वह दूसरे को सु खी दे ख दुःख नह ं
मानती । उसके पास सहानुभू त का भ डार है। तु छ व तु म सदगुण दे खना, उ मला
के वरह म मानवता क पुकार है।
2.2.4 मम पशीं थल का च ण
40
दे ख राम योगी के स मु ख जैसे अटल यो त जगने का अनुभव कर रहे ह। वनवासी
दा प य जीवन के मधु मय च का अंकन राम-सीता के आदश को स हालते हु ए क व
ने कया है।
च कू ट म भरत-राम संवाद और राम-कैकेयी संवाद मु ख है जो केवल अ टम सग म
ह नह ,ं पूरे 'साकेत' म मह व रखते ह। इन संवाद से क व ने राम-भरत के अटू ट,
अपार नेह का पता चलता है। भरत और कैकेयी के च र को भ य और उ जवल
बनाने का क व का यह तु य यास है। राम और भरत का च कू ट मलन ेम और
आवेग का मलन है । भरत के दय म भाव का तू फान उठ रहा था। वह कु छ बोल
नह ं पाता। सीधे राम के चरण म गरकर रोने लगते ह- राम कहते ह –
''रोकर रज म लोटो न भरत, ओ भाई''
तब भरत का ऐसा उ तर-
''हा, आय भरत का भा य रजोमय ह है।''
राम को उलाहना दे ते हु ए कहना-
''उस जड़ जननी का वकृ त वचन तो पाला,
तु मने इस जन क ओर न दे खा-भाला।''
राम या उ तर द? न तर हो जाते ह। जब रात म च कू ट म सभा मलती है। राम
न करते ह-
''हे भरत भई! अब कहो अभीि सत अपना।''
राम का यह न भरत को शू ल चु भ गया हो, ऐसा लगता है । भरत क ला न पुन :
एक बार उमड़ पड़ती है।' अभीि सत' श द को पकड़ कर मानो भरत आवेग के आव त
म च कर लगा रहे ह , ऐसा लगता है । डू बते-उतराते हु ए भरत उनक शि त को
वफल करने क को शश करते ह।' अभीि सत' श द क पुनरावृि त उनके भावावेश को
तरल बना दे ती है। यहाँ भाव- वण च के अंकन म गु तजी को जो कौशल ा त है
उसके दशन होते ह। जैसे-
हे आय, रहा या भरत अभीि सत 'अब भी?
मल गया अकंटक रा य उसे जब-तब भी?
पाया तु मने त -तले अर य बसेरा,
रह गया अभीि सत शेष तद प या मेरा?
तनु तड़प-तड़प कर त त तात ने यागा ।
या रहा अभीि सत और तथा प अभागा?
अब कौन अ अभीि सत और आय वह कसका?
संसार न ट है ट हु आ घर िजसका ।
मु झ से मने ह आज वयं मु ख फेरा,
हे आय बता दो तु ह ं अभीि सत मेरा?
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उ त अंश म एक साथ ला न, क णा, नेह, दै य और आवेश का एक साथ वाह
दखाई दे ता है। भरत क दयनीय ि थ त का पता चलता है। भरत का दय कचोट
खाकर तड़प उठता है। ला न का दशन उसको बेचैन कर दे ता है। लगता है भरत के
अ तर म क व का अ तर हो। भरत इस दु वधामय ण म अपने आपको स हालने म
असमथ महसू स करता है। अत: वह राम के चरण म सम पत हो कहता है-''हे आय
बता दो तु ह ं अभीि सत मेरा?'' प रि थ त को समझकर राम अपने वभाव के
अनुकू ल भरत को उबारने के लए कहते ह-
''उसके आशय क थाह मलेगी कसको ?
जनकर जननी ह जान न पाई िजसको''
कैकेयी-राम संवाद क शु आत भी यहाँ से होती है। राम भरत से कहते है ले कन राम
के उ त श द भरत के साथ-साथ कैकेयी को भी अवल बन दान करते ह । जैसे ह
कैकेयी बोल उठती है-''यह सच है तो अब लौट चलो तु म घर को।'' गु तजी ने कैकेयी
क ि थ त का बड़ा ह सजीव च खींचा है ''सबने रानी क ओर अचानक दे खा,
वैध य-तु षारावृ ता यथा वधु-लेखा ।
बैठ थी अचल तथा प असं य तरं गा,
वह संह अब थी हहा! गोमु खी गंगा।''
कैकेयी अपना आ हपूण अनुरोध आरं भ करती है-
''हाँ जनकर भी मने न भरत को जाना,
सब सु न ले, तु मने वयं अभी यह माना।''
रानी के उपयु त श द म दै य क जगह मातृ व का अथ अ भ य त हु आ है ।
मतलब क य द यह सच है क- म भरत को जान न सक तो मेरा अपराध अ ान-
ज य है और माँ का अपराध तो वैसे ह एक सीमा तक य होता है । आवेश म
कहते- कहते रानी चरम ि थ त तक पहु ँ च जाती है-
''य द म उकसाई गई भरत से होऊँ,
तो प त समान ह वयं पु भी खोऊँ।''
यहाँ उ त कथन कैकेयी क गहनतम मान सक ि थ त का योतक है। कैकेयी क
सबसे बड़ी खू बी एवं कमजोर है उसका मातृ व। वैसे साधारण माता भी पु क मृ यु
क चचा सह नह ं सकती, ले कन कैकेयी जैसी पु - ेम म पागल माता के लए तो और
भी अस य हो सकता है। पर कैकेयी का आदे श उसक अव था, बु , मयादा सभी को
लाँघकर बह नकलता है । कैकेयी क उ त पथ के दो कारण ह-पहला भरत के च र
गौरव क र ा और दूसरा- अपने दय को द ड दे ने का वचार। गु तजी ने यहाँ बा य
वातावरण के साथ सभी क मनोदशा का तादा य दखला कर भाव को ग त को और
भी ती ता दान क है। भाव क गहनता और प रि थ त क गंभीरता क स यक्
अ भ यि त हु ई है। कैकेयी अपने इस कृ य के लए भा य या दे वताओं या मंथरा को
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दोषी न मानकर खु द को ह िज मेदार मानती है । जब वह कहती है- ''मेरा ह मन
रह सका न नज व वासी।'' राम के साथ संवाद म अपने मातृ व क , राम के त
अपार नेह क झाँक कराती हु ई कहती है-
''कुछ मू य नह ं वा स य मा या तेरा
पर आज अ य-सा हु आ व स भी मेरा ।''
मातृ व को लां छत करने का िज मा वयं पर लेती हु ई कहती है क-अब तक लोक म
''पु -कुपु हो सकता है पर माता कुमाता नह 'ं ' यह च लत था पर अब-
''अब कह सभी हाय! व वधाता,
है पु पु ह , रहे कु माता-माता।''
अपने आप पर ध कार क भावना य त करती हु ई रानी कहती है-
''युग -युग तक चलती रहे कठोर कहानी
रघुकु ल म भी थी एक अभा गन रानी।
नज ज म-ज म म सु ने जीव यह मेरा,
ध कार! उसे था महा वाथ ने घेरा।''
कैकेयी वारा अ ख लत प से व क ताड़ना, पीड़ा- यथा क अ भ यि त राम के
लए अस य हो जाती है । माँ के साथ राम भी भाव- वाह म बहकर कह उठते ह-
''सौ बार ध य वह एक लाल क माई,
िजस जननी ने है जना भरत-सा भाई ।''
सम त सभा राम के इस कथन को च लाकर दोहराती है। साधारण लगने वाल इन
पंि तय पर गौर कया जाय तो एक बात प ट प से उभर कर सामने आती है और
वह है- ''मानव दय के रह य म वेश करने क गु तजी क अतु ल मता''
अपराधभाव से जलती हु ई कैकेयी के लए उ त पंि तयाँ उपचार का काम करती ह।
राम के इन श द से कैकेयी को अपार शाि त का अनुभव होता है । कैकेयी जैसी
वा भमानी रानी को दया, क णा क अपे ा नह ं बि क शु नेह क आव यकता थी।
रानी के वयं के श द म-
''सह सकती हू ँ चर नरक, सु ने सु वचार ,
पर मु झे वग क दया द ड से भार ।''
अ त म रानी कैकेयी पघलकर-गोमु खी गंगा-शु भाव से राम के त अपना मातृ व
भाव ट करती है िजसम भाव एवं तक का गु तजी ने अ ु त सम वय कया है- जैसे
(1) ''मने इसके ह लए तु ह वन भेजा
घर चलो इसी के लए न ठ अब य ।''
(2) मु झको यह यारा और इसे तु म यारे ।
मेरे सु ने य रहो न मु झसे यारे ।
म इसे न जानू ं क तु जानते हो तु म ।।
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(3) हो तु ह ं भरत के रा य, वराज संभालो ।
म पाल न सक वधम, उसे तु म पालो ।
अ त म एक अचूक उि त के आगे राम भी ववश हो जाते ह-
''मेरे तो एक अधीर दय है बेटा
उसने फर तु मक आज भु जा भर भटा।''
व तु त: भरत और राम तथा राम और कैकेयी के संवाद से ऐसा लगता है जैसे च कू ट
म सु ख और दुःख क लहर के साथ आवेग का सागर उमड़ पड़ा है। उन लहर म
कैकेयी का कलंक का काला रं ग यह जाता है। क व क भावुकता क ि थ त सजन
करने क मता, भाव वणता, तक के साथ, संबध
ं क मयादाओं को अ ु ण रखते
हु ए, कु शलतापूव ातृ व एवं मातृ व क अ भ यि त का बोध हम सहज प म होता
े यह है क-उपे
है। क वता का अ भ त त घृ णत के त सहानुभू त ह मह ता महान ्
आ माओं म ह होती है। मानव-मन क संक प- वक प क ि थ त म प रव तत
मनोदशा का सू म अंकन क व ने कया है। समूचे संग से कैकेयी एवं भरत के च र
को गौरव और ऊँचाई मलती है, जो क व का ल य भी था।
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कथा क घटनाएँ ाय: एक दूसरे से नकलती ह , ऐसी अि व त क व ने क है। कह ं
इतनी सहज अि व त क है- जैसे दशरथ के मू ि छत होते ह राम-ल मण का- ''चलो
पतृ व दना करने चल अब'' कह कर वहाँ उपि थत करवाना या भरत के लौटने पर
म थरा क हँ सी से भरत को भावी अमंगल क सू चना का आभास होना। एक अ य
बात यह है क जहाँ भावनाओं का ाब य है ऐसे थान पर क व ने वाक् संयम- ाय:
मौन से काम लया है। ऐसा करने से जहाँ एक ओर भाव क पूव अ भ यि त हो पायी
है वहाँ दूसर ओर वणन म ग तरोध होने से कथा म व च ता आ गई है। जैसे- सीता
और ल मण को राम के साथ वन म जाने के लए 'साकेत' म लंबा ववाद नह ं करना
पड़ता है, ल मण और सीता के न चय को क व एक पंि त म कह दे ता है जैसे-
ल मण- बदा क बात कससे और कसको
अपे ा कु छ नह ं है नाथ इसक ।
सीता-कहती या वे य जाया
जहाँ काश वहाँ छाया ।
भरत के आगमन पर कैकेयी भी एक सांस म सार बात कह दे ती है। ऐसे कई थल
'साकेत' म है, जहाँ भाव क बलता, संकु लता के समय क व ने सट क, सं त, मौन
रहकर कहने क शैल अपनाई है। कथा-वणन के उपकरण के लए कथोपकथन, य-
च ण आ द क सहायता ल गयी है। कह ं-कह ं भाषण एवं वगत कथन शैल का
योग कया है-जैसे वरयाचना क बात सु नकर श ु न का ाि तकार भाषण, च कू ट
म सीता का वगत कथन। कह ं अनुमान का सहारा लया है- जैसे आभरण र हत
सतवसना माता को दे ख राम को पता क मृ यु का अनुमान। क व का अ भ ेत
रामायण या रामच रतमानस क कथा दुबारा कहना नह ं था। अत: रामायण के ऐसे
संग , कथा को िजसे लोग जानते ह उसे इ तवृ ता मक शैल म कहकर अपनी
ल यस क है- जैसे उ मला का रघु-राजाओं क वंश पर परा, राम-ल मण के ज म
आ द का वणन सरयू से करना है। अपनी बा य अव था क ड़ाओं का मृ त प म
वणन। हनुमान वारा सीताहरण से ल मण शि त तक क घटनाओं क सू चना दे ना।
हाँ एक बात ज र है क ऐसा करने पर भी क व वाभा वकता, सहजता को छोड़ नह ं
पाया, यह क व के वणन-कौशल क व श टता है। कथा-वणन म रोचकता एवं
उ सु कता का सफल व नयोग हु आ है। पूवर चत घटनाओं म क व ने मौ लक उ ावना
करके इस त व को बनाये रखा है और पाठक पर उसका चर भाव भी छोड़ा है- जैसे
च कू ट म कैकेयी क सफाई, उ मला-ल मण का णक मलन, राम-रावण यु आद
ऐसे ह थान ह। क व ने नाटक य टन का योग कर उ सु कता को बरकरार रखा है-
जैसे राम के वारा- ''उसके आशय क थाह मलेगी कसको, जानकर जननी भी जान
न पाई िजसको'', कहने से भरत क ला न को दूर करना, तो साथ म कैकेयी वारा
इसे सु नकर अपनी बात कहने का मौका मलना एक तरह से कथा वाह को नि चत
दशा म ग त दान कया है। नाटक य वषमता या पूव संकेत का नाटक एवं कहानी
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म योग व मय या कौतू हल क सृि ट कर सहज ढं ग से योग कया है जैसे-
प रि थ त क वषमता के उदाहरण के प म ल मण-उ मला के संवाद म-उ मला
वारा ल मण का च खींचते समय पीत रे खा का बहकर अ भषेक घट पे जाना भावी
घटना का संकेत है । ऐसा ह दूसरा संग च कू ट म राम-सीता के प रहास म-
''करतल तक तो तु म हु ई नवल दल म ना,
ऐसा न हो क म फ ं खोजता तु मको'' म सीता के अपहरण के अन तर राम का
सीता क खोज म भटकने का संकेत दे ता है।
क व ने नाटक य टन, वषमता या पूव संकेत को पूवापर म म जोड़कर उसक काय-
कारण क तकब तु त क है, जैसे भरत क कैकेयी के त भ सना साकेत म है,
तो वह ं च कू ट म कैकेयी के ायि चत के प म फूट पड़ती है- एक उदाहरण से यह
प ट होगा । भरत कहता है ''सू यकुल म यह कलंक कठोर, नरख तो तू त नक नभ
क ं ओर'' तो कैकेयी का च कू ट म कथन-
''युग -युग तक चलती रहे कठोर कहानी,
रघुकु ल म भी थी एक अभा गन रानी''
वैसे ह 'अभीि सत' श द योग म राम, भरत के संवाद म व भ न भावा भ यि त हु ई
कथा वणन म कई दोष भी ह- जैसे सजीवता का अभाव- वशेषकर तीसरे , चौथे और
छठे सग म। नज व वणन जैसे क व बलात ् कर रहा है, ऐसा लगता है। कथावणन म
एक अ य दोष है- 'अनुपात' म कमी। कथा क ग त आव यकता से अ धक वषम है।
शु आत म म थरा, बीच म ि थरता और अ त म इतनी ु ग त मानो कु छ कहने-
त
सु नने का समय नह ं है।
2.3.2 य वधान
2.3.3 संवाद
संवाद के वारा कथा क ग त आगे बढ़ती है, च र क गहन गुि थयाँ सु लझती ह और
वणन म ाण आते ह। इस ि ट से संवाद को एक मह वपूण उपकरण माना गया है।
‘साकेत’ म उ मला-ल मण संवाद, दशरथ-कैकेयी आ द संवाद से जहाँ कथा को ग त
मल है, वह ं दूसर ओर भरत-कैकेयी वातालाप, म थरा-कैकेयी का ववाद, राम और
भरत के वातालाप आ द से च र क अंतवृि तय का व लेषण हु आ है। कु छ संवाद से
जैसे-राम-सीता के णय प रहास अथवा सीता-ल मण के संवाद से वनोद, राम-भरत के
संवाद से वणन सजीवता, सरसता आई है। ‘साकेत’ के संवाद म सजीवता,
वाभा वकता, प रि थ त और पा ानु पता , ग तशीलता और रसा मकता का सु ंदर
व नयोग हु आ है। जैसे ल मण के संवाद म उनक वाभा वक गम दखती है। ल मण
क उ कृ त का बोध उनके कैकेयी के साथ संवाद म तथा च कू ट म भरत को
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ससै य आते दे ख जो संवाद है, उसम होता है। हालां क दोन प रि थ तय के अनुसार
उतार-चढ़ाव भी अलग-अलग है। सजीवता और उ ीि त का सु ंदर उदाहरण है- कैकेयी
का संवाद। कैकेयी क ला न हो या ोध या अ भमान या प चाताप, सभी म एक
उ ीि त नजर आती है। इसी कारण कैकेयी साकेत के सबसे ाणवान च र के प म
उभरती है। ठ क इसी तरह सभी संवाद म रसा मकता का पुट भी मलता है- जैसे
उ मला-ल मण संवाद, राम-सीता संवाद एवं भरत कौश या, राम-कैकेयी के संवाद म
भावुकता का मधु र साद मलता है तो ेम के प रहास म कह ं यं य, कह -ं कह ं मीठ
चु टक , कह ं ह का- सा मान मलता है। जैसे प रहास का सु ंदर उदाहरण-
उ म ला बोल - ''अजी तु म जग गये
व न- न ध से नयन कब से लग गये।''
ल मण- ''मो हनी ने म पढ़ जब से छुआ,
जागरण चकर तु ह जब से हु आ।''
यहाँ 'जागरण' और ' व न न ध' के लंग को ि ट म रखकर प रहास कया गया है।
अत: बड़ा सू म हो गया है। 'साकेत' म संवाद क वशेषता है क उसक रोचकता म।
वातालाप म यु प नम त , सौज य और संग त से रोचकता आती है। 'साकेत' म ये
सव मलता है। जैसे राम-रावण के उ तर- युतर म यु प नम त से ज य रोचकता
दे खए-
रावण-पंचानन के गुहा वार पर र ा कसक ?
म तो हू ँ व यात दशानन, सु धकर इसक ।
राम- हँ स बोले भु- 'तभी तो वगुण पशु ता है तु झम?'
तू ने ह आखेट रं ग उपजाया मु झम।
भरत के ससै य च कू ट म अलमन पर राम-ल मण के संवाद म संग त का कु शल
योग हु आ है, जब राम कहते है-
''माता का चाहा कया राम ने आहा,
तो भरत करगे य न पता का' चाहा?''
2.3.4 अ तु त योजना
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राम को छोड़कर आये हु ए रथ क समानता र त-धन से दखाई गई है। िजस कार
अपना सब जल लु टा कर धन सू नेपन, अभाव से मंथर ग त से लौटता है वैसे ह राम
को छोड़ने के बाद घोड़ म उ साह नह ं था, सारथी यथा- वमू ढ़ था। ग त म जीवन न
होने के कारण सू ने पथ पर म थर ग त से खसकते हु ए बादल के समान रथ चल रहा
था। ठ क इसी कार क व ने ब ब- त ब ब प को सा य के आधार पर बड़े सू म
कौशल से अं कत कया है-
''िजस पर पाले का एक पत-सा छाया,
हत िजसक पंकज-पंि त अचल-सी काया।
उस सरसी-सी आभरण र हत, सतवसना,
सहरे भु माँ को दे ख, हु ई जड़ रसना।''
कौश या के वधवा-दे श क इससे और अ धक सु ंदर अ भ यि त या हो सकती है भला
! कुछ अमू त भावनाएँ हमारे नकट इतनी प ट होती ह क हम उनको मू त प म ह
दे खते ह। 'साकेत' म ऐसे कई उदाहरण मलते है। जैसे-क व ने वषादयु त मांडवी के
वणन म वषाद को लौहत तु के प म अनुभव कया है और मांडवी के तेजो ी त मु ख
मंडल को मोती के प म। जैसे लौहत तु से मोती क वाभा वक शोभा म याघात
पड़ता है, उसी कार वषाद के कारण मांडवी का तेज वाभा वक प म का शत नह ं
हो रहा था-
'' फर भी एक वषाद वदन के तप तेज म बैठा था,
मानो लौहत तु मोती को बेध-उसी म बैठा था।''
इसी कार अ तु त वारा तु त का आ छादन, तु त के थान पर तीक का
योग, तु त वणन के पीछे अ तु त चेतन च , यि त के थान पर गुण का
हण, वशेषण वपयय, ल मणा, यंजना आ त णा लय का कला मक योग,
अ तशयोि त, संग गभ व आ द क अ भ यंजना कौशल के प म क व ने
चम का रक योग कया है। संगगभ व का एक दशनीय उदाहरण-
कराणे, य रोती है? 'उ तर' म और अ धक तू रोई-
मेर वभू त है जो, उसको 'भवभू त' य कहे कोई?
इसे पढ़ते ह भवभू त और उ तररामच रत के साथ जु ड़े हु ए क ण रस क मृ त हो
उठती है।
2.3.5 भाषा
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अ य मु ख क वय क भाँ त सं कृ त श द क शरण म जाना पड़ा है। 'साकेत' म
चु र मा ा म सं कृ त पदावल का योग हु आ है। सं कृ त श द के योग का
आ हवश योग नह ं कया गया है, बि क भाव वृ के लए कया गया है। कह -ं
कह ं अ च लत सं कृ त श द का योग कया है-जैसे अ ं तु द, वेष, क प, आ य,
िज णु आ द के योग तु कपूत हे तु के अ त र त अ य कसी वशेष उ े य से कया
गया हो ऐसा लगता नह ं है।
कु छ थान पर सं कृ त याकरण के अनुसार नए श द का नमाण भी कया है- जैसे
ला म य, सपरगांबज
ु ता। इसी तरह क व ने असम त पदावल का योग अ धकतर
कया है तथा प कु छ थान पर काफ ल बे पद का योग दे खने को मलता है, जैसे-
जन-धा ी- तन-पान-लालसा, वृि त - नवृि तमाग -मयादा-मा मक, चपल-वि गत-ग त-
ल मी आ द, ले कन ऐसे थान बहु त कम है।
क व ने कह -ं त व श द को त सम से जोड़ कर एक नया योग कया है जैसे दन-
रात सं ध, कह ं अ च लत श द को जोड़ा गया है, जैसे दोष-दूर-कारण, भू म-भार,
हारक आ द।
बहु त कम ह , ले कन क व ने ा तीय श द का योग भी कया है- जैसे भरके,
झींमना, छ ंटना, अपूर , धाता, धड़ाम, लंघन आ द। ऐसे श द के योग से एक ओर
जहाँ भाषा क शु ता को आघात पहु ँ चता है, वह ं दूसर ओर माधु य एवं भाव-वृ म
इनक अहम भू मका स होती है। जैसे-
धाड़ मार कर वे बोल ,ं कह कर हाय धड़ाम गर ,
इसी कार क जो, द जो, मा नयो, जा नयो, जाय आ द याओं के पां ड यपूण
ा तीय योग मलते ह।
याकरण क ि ट से दे खा जाय तो 'साकेत' क भाषा म कह ं अ वय-दोष नह मलता
है, पूण वा य का योग कया गया है। जैसे-
पूव पु य के य होने तक पापी भी तो दुजय है,
सरला अबला आया ह के लए आज मु झको भय है।
क व क वा य-रचना पर कह -ं कह ं अं ेजी का भाव दखाई दे ता है, ले कन ऐसे योग
से नाटक यता म वृ होती है, जैसे-
तु ह ं पार कर रहे आज िजसको अहो
सीता हँ स कहा, '' य न दे वर कहो।''
'साकेत' म क व के भाषा पर अ धकार क शि त का अनुभव हम होता है। चाहे वहाँ
िजस प म, बड़े ह वाभा वक सरल ढं ग से भाषा का योग करते नजर आते ह।
क व को श द ढू ँ ढना नह ं पड़ा है- जैसे
''स य है यह अथवा प रहास
स य है तो है स यानाश
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हा य है तो है ह या-पाश।''
चाहे हम तु का त कहे ले कन इसका योग भी बड़ी सरलता से कया है। यह माण है
क व के भाषा पर भु व का।
तु त का य म श द और वा य को पकड़ कर फर उसका यं य के साथ योग
कया है। ऐसे ह वा चातु य एवं उ तर- यु तर के साधन प म श द का योग कर
क व ने संवाद म नाटक यता, सजीवता को भरकर भाव उ प न कया है। जैसे-भरत-
राम के वातालाप म ' अभीि सत' श द का और कैकेयी राम के संवाद म 'जनकर
जननी भी जान न पाई िजसको' वा य का योग इस ि ट से उ लेखनीय है। ल मण-
उ मला, ल मण-सीता और ल मण-मेघनाद के संवाद म यह दे खा जा सकता है। क व
कु छ थान पर थोड़े म बहु त कहकर अपनी भाषा-साम य का दशन कराते ह-जैसे
'' भु को न कासन मला, मु झको कारागार,
मृ यु द ड उन तात को, रा य तु झे ध कार।''
'साकेत' म जहाँ एक ओर तु क मलाने हे तु श द का योग मलता है, वह ं दूसर ओर
माधु य से लबालब भरे हु ए श द का योग एवं यहाँ भाषा के व छ योग के सु ंदर
उदाहरण क भी कमी नह ं है।
'साकेत' क भाषा क एक अ य वशेषता यह है, पा एवं संगानुकू ल भाषा का योग।
एक ह ेणी के पा होने के बावजू द वभाव एवं संग के वै व य से भाषा योग म
व वधता नजर आती है। ल मण क वाणी म गम और औ य, उ मला क वाणी म
शील का मादव एवं चंचलता, राम के वा य गंभीर एवं ढ, सीता के वा य म एका त
सरलता एवं भोलापन ि टगत होता है।
इसके अलावा 'साकेत' क भाषा म ला णकता एवं मू तम ता भी पाई जाती है। कु ल
मलाकर कहा जाता है क गु तजी क भाषा म ि ल ट एवं ौढ़ प म खड़ी बोल के
दशन होते ह। अलंकार का सहज योग भाषा को अ धक शि त एवं भाव दे ता ह
2.3.6 छं द योजना
51
तीसरे सग म दशरथ के वलाप म सु मे का योग दशरथ क यथा करने म असहाय
बनता है। चौथे सग म गाह थ च के अंकन के लए मानव छ द का उपयु त योग
हु आ है। पाँचव सग म कथा क वलास-म थर ग त के अनुकू ल छ द को रखा है। फर
छठे सग म दशरथ क मृ यु से कथा क ग त के अनुकू ल 'पदपादाकुलक’ छ द का
योग कया है। इसी कार सातव सग म भरत के शोक और ला न क अ भ यि त
के कारण कथा ि थर है तो वहाँ छ द भी वैसा ह है।
आठव सग म कैकेयी के रं गमंच पर आने के कारण कथा म ग त है। आठव सग म
एक ह छं द के योग म दो भ न- च खींचे ह, जैसे-सीता और कैकेयी का। सीता
शा त, सरल सु खी है तो कैकेयी आगबबूला है। नवम सग म वरह म भावना के अ त-
य त होने के कारण व भ न छ द का योग हु आ है।
दूसर एक वशेषता यह है क महाका य क ढ़ के अनुसार सगा त म छ द प रवतन
कया गया है, िजसम उपा यान समाि त के साथ आगे का संकेत कया गया है। क व
कु ल मलाकर-उपयु त छ द के अलावा आया, गी त, आयागी त, शादूल व ड़त,
शख रणी, मा लनी, ु - वलि बत आ द सं कृ त तथा दोहा सोरठा, घना र , सवैया
त
जैसे ाचीन छ द का सु ंदर, कला मक योग कया। छ द के इन वै व यपूण योग
म क व-कौशल ि टगत होता है। छ द के योग म राग क अ तधारा एवं सरल
वाह दखाई दे ता है। आया के उपभेद का इतना सु ंदर योग थम बार साकेत म
हु आ है। न कष प म कहा जा सकता है क गु त जी क शैल , उनके का य का
कलाप इतना सश त, ढ़ है, िजसम भाषा क वाभा वकता, सरलता, सहजता जैसे
गुण होने के साथ-साथ चम का रक श द एवं वा य योग, अ भ यंजना के लए
अ तु त योजना का व भ न आधार पर योग, संवाद का भाव, छ द योजना म
वै व य सब एक साथ मलकर क व क अ तम शि त एवं तभा का बोध कराते ह
2.4 मू यांकन
बंध का य के प म 'साकेत' गु तजी क सफल रचना है। गृह थ जीवन के व वध
च का अंकन 'साकेत' म ा त होता है। उ मला, कैकेयी एवं भरत के च र का
उ कष कया गया है। संवाद के मा यम से नाटक यता का भावा मक योग बंध म
हु आ है। युगीन प रि थ तय के अनु प खड़ी बोल का उ कृ ट योग एवं बंधा मक
शैल म उसका नवाह सु ंदर प म हु आ है। एक वग के च र होने के बावजू द
प रि थ त के अनुसार वाभा वक वै व य दखाई दे ता है। य- वधान, अ तु त-योजना
के कारण का य के कु छ अंश अ व मरणीय भाव छोड़ जाते है, जैसे-राम-सीता,
ल मण-उ मला का प रहास, राम-भरत एवं राम-कैकेयी का संवाद, उ मला का वरह।
अप र चत त सम श द के योग का आ ह तु कब द एवं कु छ वणन म नीरसता
'साकेत' क सीमाएँ कह जा सकती है, तथा प सम ता म 'साकेत' सफल बंधका य
एवं गु तजी े ठ कव स होते ह।
52
2.5 वचार-संदभ और श दावल
1. ‘अभीि सत’ श द का व वध संदभगत योग, िजसके कारण अनेक अथ क
अ भ यि त करता है- राम का भरत के त अगाध ातृ ेम , भरत का राम के
त समपण, नेह, अन य ातृ नेह , भरत क अपनी यथा, पीड़ा, कैकेयी के
त आ ोश आ द।
2. 'मेरे उपवन के ह रण, आज वनचार ' का योग उ मला के ल मण के त प नी
के त उपे ा, कत य क उपे ा का संकेत, प त के त समपण नेह आ द कई
भाव क एक साथ अ भ यि त करता है। ह रण जो उपवन का है, आज वह
वनचार हो गया है, बड़ा ह मा मक बनाता है।
2.6 अ यासाथ न
1. मै थल शरण गु त के का य क वशेषताएँ बताइए।
2. मै थल शरण गु त के अनुभू त प क चचा क िजए।
3. मै थल शरण गु त के अ भ यंजना-प पर काश डा लए।
4. कैकेयी-राम के संवाद को बीस पंि तय म बताइए।
5. राम-भरत के च कूट मलन संग क चचा क िजए।
2.7 संदभ ंथ
1. मै थल शरण गु त- 'साकेत' साकेत काशन, चरगाँव झाँसी-1997
2. डॉ. नगे - 'साकेत' एक अ ययन, नेशनल पि ल शंग हाउस, द ल - 2, 1987
3. डॉ. मंजल
ु ा तवार - मै थल शरण गु त के का य म नार , सु लभ काशन, लखनऊ
4. डॉ. आशा गु ता - मै थल शरण गु त का का य : सां कृ तक अ ययन, अ नपूणा
काशन, कानपुर , 1997
5. उमाका त- मै थल शरण गु त : क व और भारतीय सं कृ त के आ याता, नेशनल
पि ल शंग हाउस, द ल -2, 1964
6. डॉ. वारका साद म तल- मै थल शरण गु ता का सा ह य, अ नपूणा काशन,
कानपुर - 1978
♦♦♦
53
इकाई – 3 साद का का य : कामायनी
( चंता. ा. ल जा एवं आनंद सग)
इकाई क परे खा
3.0 उ े य
3.1 तावना
3.2 क व प रचय
3.2.1 साद का जीवन प रचय
3.2.2 साद का यि त व
3.2.3 सृजन -कम
3.3 का य वाचन तथा संदभ स हत या या
3.3.1 ओ चंता क पहल रे खा
3.3.2 अर उपे ा-भर अमरते
3.3.3 उषा क पहल लेखा का त
3.3.4 कृ त के यौवन का गृं ार
3.3.5 लाल बन सरल कपोल म
3.3.6 नार ! तु म केवल ा हो
3.3.7 हम अ य न और कुटु बी
3.3.8 समरस थे जड या चेतन
3.4 सारांश एवं मू यांकन
3.5 संदभ ग थ
3.6 अ यासाथ न
3.0 उ े य
इस इकाई को प ने के बाद आप :
ववेद युगीन क वता क पृ ठभू म म छायावाद का य- वृि त के नवीन प को
समझ सकगे।
जयशंकर साद क का य संवेदना एवं छायावाद क वय से उनके वै श य को
जान सकगे।
क व-जीवन के साथ-साथ उनके रचनाकार यि त व एवं कृ त व से प र चत ह गे ।
कामायनी' के का य-वै श य के साथ ह उसके कु छ या या यो य अंश क
कला मकता को पहचान सकगे।
कामायनी क ं 'का यभाषा’ तथा बंब, तीक आ द श पगत वशेषताओं को समझ
सकगे।
54
3.1 तावना
जयशंकर साद छायावाद के त न ध क व थे। उनक का य-संवेदना ववेद युगीन
सा ह य-पर परा से े रत होते हु ए भी एक? नवीन का य वृ त क त ठा करते हु ए
वक सत हु ई थी। उ ह ने ववेद युगीन आदशवाद मू य को तो आ मसात ् कया ह
था, साथ ह खड़ी बोल ह द क कोमलकांत पदावल और ला ल य से ओत ोत
का यभाषा म नए भावबोध क क वताएँ लखते हु ए मानव-जीवन और कृ त के
अ त:सौ दय का उ घाटन भी अ य धक कला मक प म कया था। इस कार साद
का का य ेम, सौ दय, कृ त- च ण के साथ ह भारतीय सां कृ तक चेतना और
मानवातावाद मू य का प रचायक रहा है। उनके का य का एक प जीवन क वेदना
और क णा को उभारता तीत होता है, तो दूसरा प जीवन क वषमताओं और
कोलाहलभर दु नया से अलग एक क पनालोक क छ व अं कत करता तीत होता है
िजसम समरसता और शां त का सा ा य है। इस कार युग -जीवन क छ वय के साथ
ह साद के का य म रह यमयता और पलायन-बोध क वृि तयाँ भी ह। इस अथ म
अपने समकाल न क व नराला एवं पंत से साद जी का का य थोड़ा भ न एवं
व श ट भी है। नराला के का य म व ोह एवं यथाथ क चेतना अ धक सघन है तो
पंत के का य म कृ त के त वशेष आ ह है, ले कन साद के का य म इन सब
वशेषताओं का सम वय एवं उदा तता है िजसक वजह से उनम छायावाद क सभी
वशेषताएँ के भू त होती ि टगत होती ह। ह द व छं दतावाद का य पर अपने
समय म िजस पा चा य भाव एवं बंगला के रह यवाद का लेबल लगाते हु ए आलोचक
ने इसका वरोध कया था, एक कार से साद जी का सारा का य एवं चंतन उसका
यु तर दे ता तीत होता ह। साद जी के का य क जो सबसे मु ख वशेषता है, वह
है हमारा जातीय बोध। उ ह ने अतीत क पर परा का सजना मक एवं युग -संदभ के
अनु प उपयोग करते हु ए छायावाद को हमार जातीय पर परा का का य स करने का
य न कया। इस ि ट से 'का य और कला तथा अ य नबंध सं ह म संग ृह त उनके
नबंध यथाथवाद और छायावाद तथा रह यवाद उ लेखनीय ह िजनम उ ह ने छायावाद
क मू ल वशेषताएँ उ घा टत करते हु ए उसे भारतीय पर परा का का य स कया था।
छायावाद के प म ह द क वता म आए नये का या दोलन को सं चत करके
प ल वत करने म साद जी का वशेष योगदान रहा है। मनु य के दुःख-सु ख के साथ
कृ त के सौ दय म वराटता एवं अलौ कक स ता क अनुभू त सादजी के का य म
मा मक प म च त होती दे खी जा सकती है। सादजी ने ह द क वता को
ववेद युगीन क वता क खी एवं उपदे शा मक का य-शैल से मु त करके सरस एवं
अनुभवज य बनाया। खड़ी बोल क वता क अ भ यंजना शि त का व तार करते हु ए
उ ह ने उसे नए भाव एवं वषय से स पृ त कया। उनका संपण
ू का य हमार रा य
सां कृ तक चेतना से ओत ोत है िजसम ेम एवं सौ दय क सू म अ भय यि त
उनक का य-संवेदना का मु य गुण है। श प के धरातल पर भी साद का का य
55
व वधता लये हु ए है। ह द गी त का य-पर परा को उ ह ने युगानु प नवीनता एवं
सरसता से स प न कया। गीत, गीत, आ यानपरक ल बी क वताओं के साथ ह
बंध एवं मु तक सभी तरह क का य-शै लय को अपनाते हु ए उ ह ने ह द क वता
का फलक यापक बनाया। का य और संगीत का सम वय साद क का यकला का
एक वशेष गुण है। इस कार साद का का य भाव, रस, रचना- वधान, का यभाषा,
बंब, तीक, संगीत और लय क ि ट से आधु नक ह द क वता म अ वतीय है
और उनक पर परा का वकास आगे चलकर अनेक क वय म व वध प म होता
दे खा जा सकता है ।
3.2 क व प रचय
3.2.1 साद का जीवन-प रचय
56
ले कन प रवार क त ठा को इससे बड़ा ध का पहु ँ चा । बढ़ते हु ए घर खच एवं
यापार म घाटे के कारण साद जी के प रवार पर ऋण का बोझ बहु त अ धक बढ़
गया । इसी बीच उनक माता का दे हा त हो गया । ऐसी वषम ि थ तय म भी साद
जी कु छ न कु छ लखते रहते थे और यापार म भाई का हाथ भी बँटाते रहते थे,
ले कन नय त का कोई अ भशाप ह रहा होगा क स ह वष के उस युवा क व के सर
पर से एक दन पतातु य बड़े भाई का साया भी उठ गया । अब घर म मातातु य
भाभी के अ त र त उनका कोई स बल नह ं रह गया था । उनक ि थ त मानो
कामायनी के मनु जैसी ह थी, जो अपने वगत वैभव पर आँसू बहा रहे थे और आगे
का जीवन संकट - पी सागर से घरा हु आ था । इस सबके बावजू द साद जी टू टे नह ं
। उ ह ने अपना यापार संभाला और कु छ वष म प रवार को भी कज के बोझ से
मु त कर दया । उ ह ने अपना ववाह भी अपने ह य न से कया । पहल प नी
के दे हा त के प चात ् दूसरा और फर तीसरा ववाह करके उ ह अपने खि डत प रणय
के तीन प दे खने पड़े । एक कार से साद जी का संपण
ू जीवन संघष और
वड बनाओं क क ण कथा ह था । ‘हंस' के 'आ मकथा’ वशेषांक म अपने जीवन क
वड बनाओं का सांके तक प म उ लेख करते हु ए 'आ मकथा’ नामक क वता म
उ ह ने लखा था-
छोटे से जीवन क कैसे बड़ी कथाएँ आज कहू?ँ
या यह अ छा नह ं क और क सु नता म मौन रहू?ँ
सु नकर या तु म भला करोगे मेर भोल आ मकथा?
अभी समय भी नह ं थक सोई है मेर मौन यथा?
अपने सृजन -कम से दु नया को अपना े ठतम दे ने वाला यह क व भीतर ह भीतर
कतनी टू टन लए हु ए था और अपनी मौन यथाओं को बताने म कतना संकोची था,
इ ह ं टू टन और मौन यथाओं को लए हु ए सन ् 1937 ई. म साद जी का
असाम यक नधन हो गया । मै थल शरण गु त ने साद जी के नधन पर लखा था-
'जयशंकर' कहते-कहते ह अब भी काशी आवगे ।
कं तु ' साद' न व वनाथ का मू तमान हम पावगे
तात भ म भी तेरे तनु क ह द क वभू म होगी ।
पर हम जो हँ सते आते थे, रोते-रोते जावगे
इस कार साद जी का जीवन संघष क कहानी ह था, ले कन जीव तता और
रचना मकता उनके यि त व के ऐसे गुण थे िजनके सहारे जीवन म आए बड़े से बड़े
संकट का उ ह ने धैय के साथ सामना कया ।
3.2.2 साद का यि त व
57
ा त हु ए थे । अपना यवसाय करते हु ए अवकाश मलने पर वे सदा कु छ न कु छ
लखते-पढ़ते रहते थे । उनक दूकान पर सा हि यक म क बैठक होती रहती थीं ।
उनका रचनाकर- यि त व बहु आयामी था । क वता के साथ ह नाटक, कहानी और
उप यास के े म उ ह ने अपनी तभा का वशेष प रचय दया था । उनके
रचनाकार मानस पर सबसे गहरा भाव भारतीय सं कृ त और पर परा के जीवनदायी
मू य का था । वेद , उप नषद और सं कृ त के सा ह य का उ ह ने गहराई से अ ययन
कया था । उनका प रवार शैव मतावलंबी था । अत: शैव-दशन के आनंदवाद के त
उनक गहर आ था थी । बु क क णा और अ हंसा के दशन से भी वे भा वत थे ।
उनके चंतन का के य भाव जातीय-बोध था । अपने नाटक म उ ह ने भारतीय
इ तहास के गौरवपूण प को तु त करते हु ए रा यता एवं मातृभू म- ेम को सव च
मह व दया था । बनारसी रं ग से सरोबार उनके यि त व क सबसे बड़ी वशेषता थी
म ती । वपर त प रि थ तय म भी धैय न खोते हु ए वे चरं तन आनंद और समरसता
क खोज म लगे रहे । साद जी अ तमु खी वभाव के होने के कारण दशन, वाद-
ववाद और सा हि यक आयोजन से दूर ह रहते थे । एक साधक क तरह सदा
अ ययन- चंतन और सृजनरत रहना ह उनके रचनाकार यि त व क वशेषता थी ।
ेम एवं सौ दय-बोध उनके यि त व म फूल म सु ग ध क तरह या त थे । 'आँस’ू
नामक का य उनके इसी ेम एवं सौ दय-बोध क रचना मक अ भ यि त कहा जा
सकता है, ले कन साद जी को ेम का एका त साधक मान लेना भी भू ल होगी ।
उनके ेम क प र ध म म के साथ ह संपण
ू कृ त, रा एवं व वमानवता थी,
िजसका प रचायक उनका सा ह य है । इस कार साद जी का रचनाकार यि त व
ेम, सौ दय, आनंद, नै तकता, उदा तता एवं उ च आदश से सराबोर था ।
58
साद जी क खड़ी बोल क क वताओं का पहला वतं सं ह 'कानन-सुसु म’ (1918
ई.) था । भावमयी क पना के साथ वनयभाव कृ त के त संवेदनशील ि टकोण के
साथ अनुभू म एवं अ भ यि त क नवीनता कानन-सु सम
ु क क वताओं क वशेषताएँ
थीं, िजनसे आगे चलकर छायावाद के प म ति ठत होने वाले का या दोलन क
पृ ठभू म का अंदाज लग सकता है । साद जी ने क णालय (गी तना य) के
अतर त ेम प थक और 'महाराण का मह व जैसी आ यानक क वताएँ भी अपने
इसी आरं भक दौर म रची थीं । पर परागत भावबोध एवं का य श प को तोड़ते हु ए
कृ त, ेम एवं सौ दय- ि ट से ओत ोत व छं दतावाद का य चेतना को मु खता से
तु त करने वाला साद जी का पहला छायावाद का य-सं ह 'झरना' (1918 ई.) था,
िजसम छायावाद ग तशैल से ओत ोत रचनाएँ सं ह त थीं । आगे चलकर ‘झरना’ का
दूसरा सं करण 1927 ई. म का शत हु आ िजसम 1913 ई. से 1927 ई. के बीच
क क वताएँ सि म लत कर द गई थीं । ेमानुभू म कृ त-सौ दय के त संवेदनशील
ि ट के साथ ह भावो वेलन और मानव जीवन क ज टलताओं के त एक सहज
आ ोश-भाव 'झरना' क क वताओं क वशेषताएँ थीं । ह द क मु तक गी तशैल
‘झरना’ म अपने पूरे सौ दय के साथ अ भ य त होती दे खी जा सकती है । छायावाद
का य चेतना क व छं दतावाद मु तक शैल का एक और का य 'आँस’ू (1926 ई.)
साद जी क इसी दौर क रचना है, िजसम क व ने अपने ेम क मृ तय का सू म
एवं बंब ाह च ण तु त कया है ।
साद क गी तपरक मु तक क वताओं का अं तम सं ह 'लहर' (1935 ई.) था । लहर
क क वताएँ उनके वक सत एवं ौढ़ मानस क रचनाएँ ह । इनम वैयि तकता होते
हु ए भी एक तट थता का भाव है । क व ने मानव जीवन के दुःख-सु ख एवं राग- वराग
के भाव क घनीभू त यंजना इसके गीत म उँ ड़ेल द है । रागा मकता, लया मकता,
संगीता मकता के साथ अनुभू तय क संवेदना मक एवं घनीभू त यंजना 'लहर' के गीत
क अपनी खास वशेषताएँ ह िजनम छायावाद का य- ि ट अपने पूरे वैभव के साथ
तु त होती दे खी जा सकती है ।
'मेर आँख क पुतल म
तू बनकर ाण समा जा रे ।‘
जैसे ेमा भ यि तपरक गीत तथा ‘ले चल मु झे भु लावा दे कर, मेरे ना वक धीरे -धीरे ’,
जैसे वैयि तक बोध के गीत ‘लहर’ के गीत को एक खास अंदाज के गीत स करते
ह । अशोक क चंता, शेर संह का श समपण, पेशोला क त व न तथा लय क
छाया 'लहर म संग ृह त इ तहास वषयक क वताएँ ह । इन क वताओं म मानव-मु ि त,
वाधीनता और रा य चेतना के भाव को क व ने मु खता से उभारने का य न
कया है । ' लय क छाया’ साद जी क एक व श ट क वता है िजसम नार
मनो व ान और प-सौ दय के अहं का न कला मक प म उठाया गया है ।
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'कामायनी’ (1936 ई.) साद जी क अं तम रचना है । यह छायावाद का य क ह
नह ,ं अ पतु बीसवीं शता द क संपण
ू ह द क वता क अ वतीय रचना है । इसम
क व ने एक ाचीन मथक के मा यम से मानव जीवन एवं मनो व ान क ज टलताओं
को कला मक प म तु त कया है, िजनका सवागीण ववेचन अगल इकाई म कया
जाएगा ।
एक े ठ क व के प म ह नह ,ं नाटककार एवं कथाकार के प म भी साद क
ह द सा ह य म वशेष या त रह है । राज ी, वशाख, अजातश ु ज मेजय का
नागय , कामना, कंदगु त, एक घूट
ँ , च गु त तथा ु व वा मनी उनके स नाटक
ह । 'छाया', ' त व न', 'आकाशद प', 'आँधी' और 'इ जाल' नामक कहानी-सं ह म
उनक संपण
ू कहा नयाँ संग ृह त ह । कंकाल, ततल तथा इरावती साद जी के
उप यास ह । सा ह य चंतन और अलोचना के े म भी साद जी च चत रहे ह ।
'का य और कला तथा अ य नबंध’ उ छे नबंध का सं ह है िजसम इ ह ने का य-
कला और छायावाद-रह यवाद वषयक अपनी मा यताओं को तकसंगत ढं ग से तु त
कया है ।
इस कार ू सा ह य बहु आयामी है । उनके का य म एक वकास है,
साद जी का संपण
उदा तता और वराटता है, और है व श ट छायावाद भं गमा िजसके कारण वे ह द
क का यधारा छायावाद के पुर कता एवं त न ध क व के प म समा त ह ।
60
ले कन लय से हु ए महा वनाश के कारण पहल बार चंता नामक
मनो वकार उ ह कस तरह वच लत कर दे ता है, इसक सु दर
यंजना इन पंि तय म हु ई है ।
या या- चंता नामक मानवीय मनोभाव को संबो धत करते हु ए मनु कहते ह
क हे चंता! आज मने पहल बार तु हारा सा ा कार कया है ।
तु हार अनुभू त से मु झे समझ म आ गया क तू इस संसार पी
वन म वचरण करने वाल स पणी के समान है । जैसे वन म
स पणी का वास भय का कारण बन जाता है, वैसे ह हे चंता! तू ने
इस संपण
ू जगत ् को अपनी उपि थ त से भयभीत कर रखा है । क व
चंता क तु लना वालामु खी- व फोट के समय होने वाले थम क पन
से करते हु ए अगल पंि त म कहता है, हे चंता! तु हारा भाव
अ य धक भयावह है । जैसे वालामु खी म व फोट के समय संपण
ू
चराचर डोलायमान हो जाता है, वैसे ह तू िजसे घेर लेती है, उसे
वच लत कर दे ती है । मनु चंता को संबो धत करते हु ए आगे कहते
ह, हे चंता! तू अभाव क बा लका है, य क मनु य म अभाव से
ह चंता उ प न होती है । चंता के बा य प म कट होने वाले
यापार को प ट करते हु ए मनु कहते ह, हे चंता! तू मनु य के
ललाट पर उभरने वाले दुभा य का खल प है अथात ् म तक पर
उभरने वाल व रे खाओं से तु हारा बोध हो जाता है । चंता के
उदय होते ह मनु य उससे उबरने के यास शु कर दे ता ह । मनु
आगे कहते ह - इस तरह तू मनु य को आशा और नराशा म डु लाने
लगती है, ले कन वह चंता के वशीभूत होने के कारण अपने यास
म सफल नह ं हो पाता है । अत: तेरा अि त व रे ग तान म बालू के
कण म दखाई पड़ने वाले जल क मृगमर चका जैसा है । तू िजसे
घेर लेती है, उसक ि थ त भी बालू के कण म जल क खोज म
भटकने वाले हरण के समान हो जाती ह ।
वशेष-' (1) चंता' नामक मनो वकार का मानवीकरण करते हु ए इसका मू त एवं
बंब ाह च तु त हु आ है ।
(2) मनु क मनःि थ त का अ य धक का णक च तु त कया गया
है । 'पहल रे खा' और ' थम क प के मा यम से क व ने यह बताने
का यास कया है क दे व सृि ट के अवशेष मनु को पहल बार
मानवीय जीवन क वषमताओं का सा ा कार हु आ था ।
(3) ' चंता' के काय- यापार को दशाने के लए 'अभाव क चपल बा लके',
' वालामुखी का थम क प तथा जलमाया क चल रे खा' जैसे
उपमान क योजना साथक बन पड़ी है ।
61
(4) हे अभाव क चपल बा लके' तथा डर -भर -सी दौड़-धू प म ला णकता
है ।
(5) उपमा और पक अलंकार क साथक तु त हु ई है । 'हर -भर -सी
दौड़-धू प म उपमा तथा वन- याल ' म पक अलंकार है ।
(6) ' चंता' नामक अमू त भाव का मू त एवं मनोवै ा नक भावभू म पर
च ांकन अ य धक भावशाल बन पड़ा है ।
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सारा वैभव न ट हो गया । इस कार मनु ने दे वताओं के वलासमय
प का यहाँ अनुभू तपरक च ण तु त कया है ।
वशेष – (1) मनु ने दे वताओं क अमरता क भावना और इसके दं भ से होने वाल
सामािजक वकृ तय और पतनशील वृि तय का अनुभू तपरक
व लेषण कया है ।
(1) पश और चा ुक बंब साथक प म तु त हु ए ह ।
(2) भाषा म यंजकता और ला णकता दशनीय है ।
(3) मनु क चंता और प चाताप का मनोवै ा नक धरातल पर अंकन
हु आ है ।
63
सामने उपि थत हो गया है । सौ दय के इस वैभव से प रपूण ा
के शर र से एक वशेष कार क गंध चार ओर फैल गई है । इस
तरह उसका गंधवाह सु दर प मानो बसंत ऋतु म वन- दे श से
मंद-मंद वायु वारा लायी गई सु गध
ं का साकार प है । उसके प-
सौ दय क एक सु दर क पना करते हु ए वे सोचते ह क ा के
ू शर र का नमाण मान फूल के मकर द-कण और उनके रस
संपण
से कया गया है ।
वशेष – (1) ा के सौ दय का कृ त के अमू त उपादान वारा मू त प म बड़ा
ह भावपूण च ण कया गया है ।
(2) उ े ा अलंकार क योजना अ य त साथक बन पड़ी है ।
(3) भाषा म माधु य गुण एवं कोमलकांत पदावल का ला ल य दशनीय ह।
(4) का यभाषा म लय और छं द अथ- व न को अ धक भावशाल बना
रहे ह ।
64
द नता और पुरातनता का मोह याग कर नवजीवन का वागत करना
चा हए । कृ त का भी यह नयम है । ा फर मनु को समझाते
हु ए आगे कहती है, कृ त एक ण के लए भी पुरातनता क इस
कचुल को सहन नह ं कर पाती अथात ् प रवतन को वीकार करते हु ए
न य नूतनता का आनंद लेती रहती है । इस लए हे मनु! जीवन म
भी वह मनु य स न और अ शील रह सकता है जो ढ़य का
याग करके नवीनता का वागत करता रहता है ।
वशेष- (1) कृ त के प रवतनशील प का मानवीकरण कया गया है ।
(2) कृ त के प रवतनशील प क मनु य जीवन से तु लना अ य धक
साथक बन पड़ी है ।
(3) का यभाषा साद गुण से ओत ोत है । दाश नक ढं ग से कह गई
बात का य-पंि तय के अथ को अ य धक ाणवान ् बना दे ती ह ।
(4) वचारा मक और उपदे शा मक बात भी कृ त के उदाहरण से पु ट
करने के कारण सरस हो उठ ह ।
66
है । ल जा क बात सु नकर ा उससे पूछती है क मु झे या करना
चा हए? अपना सव व मनु को सम पत कर दे ना चा हए अथवा नह ?
ं
इस बात पर बीच म ह टोकते हु ए ल जा ा से कहती है क
ठहरो! तु म तो पहले ह अपने सु नहले सपने मनु को दान कर चु क
हो, अत: अब तो व वास के साथ मनु का साहचय नभाते हु ए उनक
पथ- द शका बनने म ह तु हारा मह व है।
या या- ल जा ा को समझाते हु ए कहती है, हे नार ! तु म दया, ममता,
ेम और व वास का प हो । तु हारा प ामय है । जैसे नद
बफ से ढके वेत एवं उ वल पवत के सहारे -सहारे क ठन रा त पर
बहते हु ए अमृत के समान जल लाकर अपनी तलहट म बसे सभी
लोग का समान भाव से पोषण करती है और स नता से बहती
रहती है, वैसे ह तु म भी मनु पर व वास करो और उनके साथ
मलकर वषमताओं को दूर करते हु ए जीवन के क याण का रा ता
अपनाओ । नार का ामय प दूसर के हताथ याग और सेवा म
ह कट होता है । यह जीवन जो वषमताओं से भरा हु आ है, उसम
सामंज य लाकर नद क तरह सींचना ह तु हारा े ठ क त य है ।
वशेष- (1) नद और नार के प क पर पर तु लना साथक बन पड़ी है । पवत
से नकलकर जैसे नद अपनी तलहट म बसे लोग के जीवन को
सु खमय बनाती है, वैसे ह नार भी अपने मातृ व - प, दया, ममता,
ेम, वा स य और क णा जैसे भाव से पु ष क सं गनी बनकर
अपना क याणी प कट करती है ।
(2) ' व वास रजत नग तल म' म पक और 'पीयूष - ोत-सी म उपमा
अलंकार क योजना सु दर बन पड़ी है ।
(3) नार के ामय प क त ठा भारतीय सं कृ त और पौरा णक
सा ह य के अनु प है।
(4) 'पीयूष ोत' तथा ' व वास रजत नग पग तल म तु त चा ुष बंब
अ य त भावो पादक ह ।
3.3.7 हम अ य न और कुटु बी
67
क व ने समरसता दशन म क है । सार वत दे श क जा के साथ
संघष म परािजत होने के बाद मनु तप या करने हे तु कैलाश पर चले
जाते ह । ा भी उ ह खोजते हु ए वहाँ पहु ँ च जाती है । मनु क
तप या तथा कैलाश क म हमा से भा वत होकर इड़ा के साथ मानव
और सार वत नगर क जा का एक दल भी कैलाश क या ा करने
वहाँ आ जाता है । वहाँ पर ा इड़ा को कैलाश क म हमा और
समरसता-भाव का मह व समझाती है । लोग का कोलाहल सु नकर
समा ध थ मनु का यान भी टू ट जाता है । इतने लोग को कैलाश
के दशन हे तु आए जानकर मनु उ ह वरा शि त क अभेदता का
महा य समझाने लगते ह ।
या या- कैलाश पवत क ओर सबका यान आकृ ट करते हु ए मनु बताते ह-
दे खो! यहाँ कोई एक दूसरे से पराया या अलग नह ं है । न ह कसी
का कोई पृथक प रवार या कु दु ब है । आज हम सभी अ भ न होकर
एक हो गए ह । तप वी मनु आगे कहते ह, तु म सभी मेरे ह अंग
हो िजनम कसी कार का पृथक व नह ं है । जैसे हाथ-पैर आ द
अंग का नाम पूण शर र है, उसी कार तु म मेरे हाथ-पैर के समान
मेरे ह अंग हो । तु म सभी से ह म पूण हू ँ । मनु प ट करते ह,
यहाँ इस तपोवन म कोई भी ाणी शा पत नह ं है और न ह कोई
दै हक, दै वक या भौ तक दुःख से दुखी ाणी है । यहाँ क यह भू म
जीवन- पी है जो सबके लए एक-सी एवं समतल है । यहाँ ऊँच-नीच
और वषमता का कोई प नह ं है । सम त ाणी जो िजस थान
पर ह, समान भाव से आनंद को ा त कर रहे ह ।
वशेष- (1) कामायनी के ांरभ म तु त एक त व क ह धानता, कहो उसे
जड़ या चेतन' क एकाकारता के प को यहाँ समरसता स ांत वारा
प ट कया गया है ।
(1) म एवं जीव क एक पता एवं तदाकारता का तपादन है ।
(2) जीवन-वसु धा म पक अलंकार दशनीय है ।
(3) यहाँ य भ ा दशन के अनु प जड़-चेतन क आनंद व प प रण त
को ति ठत कया गया है ।
(4) भाषा म दाश नकता एवं बंबा मकता है ।
68
आनंद अखंड घना था ।
संग- तु त प यावतरण छायावाद के स क व जयशंकर साद क
अमर का य-कृ त 'कामायनी के आन द सग से लया गया है । मनु
वारा कैलाश दशन हे तु आये सार वत नगरजन को कैलाश क
जीवनदायी एवं पावन भू म का मह व समझाते एवं संसार के अन य
प क बात बताते दे खकर ा के चेहरे पर मु कान क आभा फैल
जाती है । मानो मानसरोवर के तट पर उपि थत द य एवं उ लास
पूण य का वह सा ात ् प हो । ा इस प म संसार क
साकार कामनापू त लग रह थी । कृ त के उ लास एवं चं मा के
रजत काश से वहाँ का वातावरण अ य धक मनोहार एवं आनंदमय
हो गया था । ा के वारा फैलाई गई इस अलौ कक ेम यो त को
दे खकर पवत पर उपि थत संपण
ू जड़-चेतन एवं ाणी एक वशेष
आनंद क अव था म िजस समरस भाव क अनुभू त करते ह, इसी
क सु दर तु त उपयु का पंि तय म हु ई है।
या या- ा के फैलाए ेम एवं अलौ कक यो त के प का दशन कर उस
समय कृ त के सभी पदाथ - चाहे वे जड़ थे या चेतन, एक समान
आनंद म ल न थे । लगता था मानो सौ दय ने साकार प धारण
कर लया है । सभी एक ह वराट चेतना शि त को समू ची कृ त म
ड़ारत दे ख रहे थे । चार ओर अखंड आनंद का सा ा य छाया हु आ
था ।
वशेष- (1) कामायनी का उ े य समरसता भाव क थापना था, िजसे उपयु त
पंि तय म साकार प म च त कया गया है ।
(2) य भ ा दशन के अनुसार जड़-चेतन क एक पता के मा यम से
आनंदभाव क त ठा क गई है ।
(3) चेतन शि त के वरा प क अभेदता को तु त कया गया है ।
यह समरसता है िजसम सभी समान प से आनंद म ल न हो सकते
ह । भौ तक जीवन म या त वषमताओं का तर कार करते हु ए
मनु य एवं ा णमा क एक पता एवं समता के चंतन को उभारा
गया है ।
(4) का यभाषा म यंजकता एवं दाश नकता है ।
69
जी ने य य प आरं भ म जभाषा और खड़ी बोल म अपनी का य-रचनाएँ क थीं,
ले कन धीरे -धीरे उनम व छं दतावाद का य क वशेषताएँ अपना थान बनाने लगीं ।
'झरना' और ‘आँस’ू तक आते-आते उनके का य म छायावाद व छं द ि ट अपने
सु दर प म कट हो जाती है । एक कार से सन ् 1920 से 30 के बीच साद जी
ने िजन क वताओं का सृजन कया, उनक कला मकता और अनुभू त क व वधता से
ह यह आभास होने लग जाता है क आगे चलकर क व हम कोई वशेष कार क
का य रचना दे गा । यह संयोग ह था क 'आँस’ू (1926 ई.) नामक का य म िजन
भावानुभू तय को साद जी ने अ य धक सघन प म अभ य त कया था तथा
'कामना' और 'एक घूटँ ' नाटक म िजस ढं ग से भाव- धान पा क सजना क थी,
इन सभी रचनाओं को 'कामायनी' जैसी महाका या मक रचना क पृ ठभू म कहा जा
सकता है ।
'कामायनी' साद जी क वछं दतावाद का य ि ट और अनुभू तय क सजना मक
अ भ यि त है । इसम साद जी ने ाचीन मथक के मा यम से अतीत और अपने
युगीन जीवन संदभ और मानवीय च र क रोमां टक भावभू म पर सजना क है तथा
इसक कथा को भी एक सु दर रचना- वधान म अनु यूत कया ह ।
3.5 अ यासाथ न
1. न नां कत अवतरण क संग स हत या या क िजए और आव यकतानुसार ट पणी
भी ल खए-
1. ओ च ता क ........................................... चल रे खा ।'
2. 'उषा क पहल ............................... मधु का आकार ।'
3. ' कृ त का..................................... प रवतन म टे क ।'
4. 'नार तु म केवल.................................... समतल म ।'
5. 'समरस थे जड.......................................... घना था ।'
2. न न पर ट पणी ल खए-
(ख) जयशंकर साद के जीवन-संघष का सं ेप म प रचय द िजए ।
(ग) साद जी के रचनाकार- यि त व क मु य वशेषताएँ बताइये ।
3.6 संदभ ंथ
1. जयशंकर साद – डॉ. नंददुलारे वाजपेयी, भारती भ डार, इलाहाबाद।
2. डॉ. ेमशंकर - साद का का य, भारती भ डार, इलाहाबाद ।
3. डॉ. भाकर ो य - साद का सा ह य, आ माराम ए ड संस, द ल ।
4. सं. र नशंकर साद - साद ं ावल (दो ख ड). लोक भारती
थ काशन, इलाहाबाद।
5. डॉ. हरदे व बाहर - साद सा ह य कोश, भारती भ डार, इलाहाबाद ।
6. डॉ. भोलानाथ तवार - क व साद, राज कमल काशन, द ल ।
70
इकाई-4 जयशंकर साद के का य का अनुभू त एवं
अ भ यंजना प
इकाई क परे खा
4.0 उ े य
4.1 तावना
4.2 क व और का य-या ा
4.3 का य अनुभू त प
4.3.1 कृ त-स दय
4.3.2 नार -स दय
4.3.3 णयानुभू त
4.3.4 वेदना और क णा
4.3.5 आ था और जीवन-स य
4.3.6 अतीत के त आकषण
4.3.7 क पना क अ तशयता
4.3.8 सां कृ तक चेतना
4.3.9 शैव दशन क पी ठका पर आन दवाद
4.4 का य का अ भ यंजना प
4.4.1 का य-भाषा
4.4.2 अलंकार योग
4.4.3 ब ब योग
4.4.4 का य- प और छ द
4.5 सारांश
4.6 अ यासाथ न
4.7 संदभ थ
4.0 उ े य
संके तत इकाई के अ ययनोपरा त आप:
छायावाद के आधार त भ जयशंकर साद के यि त व और कृ त व से प र चत
हो सकगे ।
छायावाद क वय म जयशंकर साद क ि थ त से भल -भाँ त अवगत हो सकगे ।
साद क का य-या ा से पूणत: प र चत होकर उनके का य के अनुभू त प का
स यक् अ ययन कर सकगे ।
साद के का य के अ भ यंजना प से प र चत हो सकगे ।
छायावाद क वय म साद क ि थ त और उनके दे य से अवगत हो सकगे ।
71
4.1 तावना
ेम, स दय, क णा, वेदना और मानवता के रं ग के मेल से जो मानवाकृ त उभर , उसे
आधु नक सा ह य म साद के नाम से जाना जाता है । यह वह यि त व था,
िजसक आ मा म ेम और क णा का जल था, आँख म स दय को दे खने-परखने और
पाने क ललक थी तथा िजसके मनोरा य म मानवता, क णा और आन द क
भावो छल तमा इधर से उधर च कर काटती रहती थी, साद छायावाद के उ ावक,
युग के नयामक और असाधारण यि त व के धनी बनकर का य-जगत ् म अवत रत
हु ए । युगीन प रि थ तय से का य, के नमाणकार त व का संकलन करके,
पा रवा रक सं कारशीलता से शैव दशन का मं पाकर, इ तहास, दशन और सं कृ त से
गृह त जीवन के नमायक त व को भावना के रं ग म रं गकर साद ने िजस मानवता
क वजय-गाथा ह द -पाठक को सु नाई है, वह उनके का य, नाटक, कहानी और
उप यास-सा ह य म आ य त व यमान है । उनका का य न केवल स दय-जल ध है,
अ पतु जीवनोद ध भी है । सजक साद का आ वभाव उस समय हु आ, जब भारते दु
युग अपनी अि तम साँस गन रहा था और ववेद युग अपनी नै तकता और सुधार -
प र कारवाद ि ट को द त-चैत य करण क अ णमा म ह द जगत को जीवन-
मू य के हण क ेरणा दे रहा था । साद ज मजात अनुरागी थे, उनक ललाट-
ल खत तेजि वता और मादक आँख क सु रा का रं ग ह इस त य का संकेतक था क
कु छ नया उनके मानस म उमड़-घुमड़ रहा है । जब वे सा ह य-सृजन क ओर उ मु ख
हु ए तो उनक तभा से च कत होकर क वता, कहानी, नाटक और उप यास सभी
अहमह मकापूवक उनक कलम का गृं ार बनने को उ सुक हो उठे और वे उन पर
उपे ा क गद नह ं डाल सके ।
साद क तभा का उ तमांश ‘कामायनी’ के प म हमारे सामने है । यह माना क
वह छायावाद का उप नषद है, यह भी माना क वह आधु नक युग क े ठ कृ त है,
यह भी स य है क उसम सृि ट के वकास क मक परे खा तु त क गयी है, पर
यह सबसे बड़ा स य है क कामायनी एक जीवन-का य है । उसम तपा दत च तन
हम राह दखाता है और आज अपनाये जा रहे जीवन- म पर पुन वचार के लए
आमं ण दे ता है । जब ऐसा है तो फर 'कामायनी' को मा छायावाद क े ठ रचना
कहकर चु पी साध लेना या हमारे सोच का संक ण प नह ं है? कामायनी म ऐसे
जीवन-सू संके तत ह जो उसे एक कालजयी व ासं गक रचना मा णत करते ह ।
4.2 क व और का य-या ा
अ तर म स दय, मि त क म न का अ बार और वाणी म सू म अ भ यंजना क
मता लए हु ए साद अपने भावी यि त व के साथ ह द क वता के दशा- नदशक
भी बने और बदलते प र े य के संवाहक भी । उ ह ने शु वसना एवं सं या सनी बनी
72
क वता को नये सरे से सजाया-सँवारा । उसके मु ख को राग से रं िजत कया, उसके
अधर म म दर कंपन भरा, कपोल को ि न ध कया और केशरा श को स च कण
कया । उनके बोल मानवता के चाकर बने और उनक श द- यव था प र कृ त होकर
सू म अथ क वा हका बनती हु ई ला णक, यंजक और व तापूण भं गमाओं म
बदलकर जीवन, समाज और दशन क गुि थय को सु लझाने का सश त मा यम बनी
। इसके लए साद को कड़ी मेहनत तो करनी पड़ी, क तु उनका सु फल भी छायावाद
के प म सामने आया । न चय ह साद छायावाद के उ ावक, युग के नयामक
और असाधारण यि त व के धनी बनकर का य-जगत म अवत रत हु ए । सन ् 1889
म काशी के सु ंघनी साहू प रवार म ज मे साद का कृ त व उनके शांत-गंभीर एवं
न छल मानवतावाद यि त व क ह तकृ त तीत होता है । युगीन प रि थ तय
से का य के नमाणकार त व का संकलन करके, पा रवा रक सं कारशीलता से शैव
दशन का मं पाकर, इ तहास, दशन और सं कृ त से गह त जीवन के नमायक त व
को भावना के रं ग म रं गकर साद ने िजस मानवता क वजय-गाथा ह द पाठक को
सु नाई है, वह उनके का य, नाटक, कहानी और उप यास-सा ह य म आ य त
व यमान है । उनका का य न केवल स दय-जल ध है, अ पतु जीवनोद ध भी है िजसम
भाव, वचार और कला का, इ छा, या और ान का अ ु त सम वय है । ा क
और भावुक साद का कृ त व व वधा मक है । उनके नाटक इ तहास रस क न पि त
करते हु ए रा य सं कृ त क ताि वक मीमांसा करते ह, तो उप यास यथाथवाद का
सश त तु तीकरण । कहा नय म इ तहास, रोमांस, क णा और साम यक च तना
अ भ य त हु ई है तो का य म सं कृ त, दशन, क पना और अनुभू त का व नयोजन ।
उनक का यकृ तयाँ ये ह- च ाधार, ेम प थक, क णालय, महाराणा का मह व, कानन-
कु सुम, झरना, आँसू लहर और कामायनी । साद जी क सम का य-या ा को
ारं भक और वक सत का य-सोपान के प म माना जा सकता है । उनका ारि भक
कृ त व च ाधार से 'कानन कु सु म' तक क या ा को प ट करता है और वक सत व
ौढ़ कृ त व क संवा हका कृ तय म झरना, आँसू लहर और कामायनी को लया जा
सकता है । अपने ारि भक सृजन म साद जभाषा के यो ता, र तयुगीन चेतना के
वाहक और पर परा के पोषक तथा भंजक दोन प म सामने आते ह ।
‘ च ाधार’ गवाह है क कभी तो वे अतीत क ओर मु ड़े ह, कभी वतमान क ओर झु के
ह, कभी परं परा के त आसि त दखाते ह और कभी उससे व ोह करते हु ए नया पथ
खोजते तीत होते ह । इतना ह नह ,ं कभी बंधा मक शैल क ओर आकृ ट होते ह
और कभी उससे ऊबकर व छं द, गीत चेतना क ओर । प ट ह भाव, च तन और
कला तीन ह संदभ म साद च ाधार के मा यम से मागा वेषण करते तीत होते
ह। अ वेषण क यह या उ ह कृ त- ेम रह यानुभू त, भि त भावना, व थ
गृं ा रकता अतीत के त आसि त, मातृभू म, के त वनयशील और भारतीय
73
सं कृ त के त आ थावान मा णत करती है । व तु त: साद के भावी का य एवं
उसम त पत च तना के लए च ाधार च का आधार ह तीत होता है । 'कानन
कु सुम' साद क का य-या ा का दूसरा सोपान है । इसके वतमान उपल ध सं करण म
49 क वताएँ ह । 'कानन कुसुम' सहज, वाभा वक, असा धत और ाकृ तक प-रचना
का तीक है । इसम संक लत एवं नयोिजत क वताओं क जैसी कृ त है, वैसा ह
इसका नामकरण भी है । इसक क वताएँ कृ तपरक, भि तपरक, वनयपरक और
आ यानपरक ह । क तपय फुटकर रचनाओं को भी इस सं ह म थान ा त है ।
इसक कृ तपरक क वताओं म पारं प रक शैल भी है और कह -ं कह ं क व नवीन प त
भी अपनाता दखाई दे ता है । जहाँ-जहाँ नवीनता है, वहाँ-वहाँ मौ लक उ ावना के साथ-
साथ सू म नर ण क वृि त भी दखाई दे ती है । वनय और भि त क रचनाएँ
ाय: प ट-पे षत शैल और भावना क याह से ह लखी गयी ह । इनम ई वर य
स ता क भु ता, सव यापकता और रह यमयता के साथ म क सावका लकता और
सावभौ मकता को संके तत कया गया है । आ यानक क वताओं- ' च कू ट', 'भरत,
'कु े ', खीर बालक' और ' ीकृ ण जय ती' आ द म पौरा णकता और ऐ तहा सकता
का आधार हण कया गया है । इनम स दय, गृं ार और कृ त के ब बांकन म
ाय: शाल नता, ापूत ि ट और मयादा का सदै व यान रखा गया है । ह , इसके
श प म पूवापे ा कं चत ् प रवतन दखाई दे ता है । अतुका त छ द का योग यहाँ
कव क व ोह और व छ दता य वृि त को प ट करता है ।
‘क णालय’ का काशन सन ् 1913 म हु आ, क तु बाद म इसे ‘ च ाधार’ म
सि म लत कर लया गया । आगे चलकर सन ् 1928 म इसे पुन : वतं अि त व
दान कर दया गया । साद के अनुसार ‘क णालय’ यका य है, िजसे गी तना य
के ढं ग पर लखा गया है । हमार धारणा है क यह गी तना यो मु ख का य है ।
इसक कथाव तु ऋ वेद, तै तर य सं हता, अथववेद, ऐतरे य ा मण, रामायण,
महाभारत, मपुराण और दे वी भागवत आ द म बखर पड़ी है । इनम बखर हु ई
कथा को साद ने शु नःशेफ, रो हत और ह र च आ द से जोड़कर मौ लक तु त क
है । इस कृ त के सृजन के मू ल म अतु का त मा क छं द के योग क भावना तो रह
ह है, साथ ह नर-ब ल का वरोध करते हु ए त काल न समाज क व वध ि थ तय का
च ण करने क भावना भी धान रह है । य कला- श प क ि ट से यह एक
श थल रचना है, क तु भावी का य म अ भ य त क णा भावना के बीज यहाँ अव य
दे खे जा सकते ह ।
'महाराणा का मह व’ साद वारा र चत आ यानक रचनाओं क अगल कड़ी है ।
इसका - काशन सन ् 1914 म हु आ था । इस ऐ तहा सक ख डका य म साद ने
महाराणा ताप, रह म और अकबर से स ब कथानक लेकर अपनी सजन मता का
नदशन कया है । पाँच य म वभ त, 'महाराणा का मह व’ क कथा पूणत :
74
नयोिजत और संग ठत है । नाटक यता, च र ो घाटन मता वातावरण नमाण और
कला मक व छं दता के वरण के कारण यह साद क उपलि ध है । भाषा क
प र कृ त, ला णक और यंजक शैल , नवीन अ तु त योजना और अ र ल छ द के
अतु का त योग के कारण यह रचना अब तक क रचनाओं म मह वपूण है ।
' ेमप थक’ 'महाराणा का मह व’ ख डका य के प चात ् दूसर उ लेखनीय रचना है ।
ेमा यानक के आधार पर र चत इस कृ त म छायावाद का य-चेतना क पी ठका के
दशन होते ह । य यह कोरा ेमका य नह ं है । इसम क व का जीवन-दशन और
ि टकोण भी कला मक शैल म अ भ य त हु आ है। ' ेमप थक’ इदम ् से अहं, जगत
और जीवन के सम वय का का य है । ेममयी भावनाओं कां अ भ यंजक होते हु ए भी
' ेमप थक’ ेम के पावन और न कलु ष प को तु त करता है: '’क णा-जमु ना ेम-
जा नवी का संगम है भि त- याग।'' डॉ. ेमशंकर के श द म '’ ेमप थक ह द
सा ह य के लए एक मह वपूण रचना है । इसम साद ने ेम और गृं ार का
आदशवाद प तु त कया है । ह द म यह गृं ार का नव नमाण था।''
'झरना' से पूव तक साद का का य व तु न ठ तीत होता है । यहाँ पहल बार साद
आ म न ठता और नजता के को ठ म बैठकर नई भावधारा क यमु ना म अवगाहन
करते तीत होते ह । इसी म छायावाद का रं ग, रह य और रोमान क पना वण और
ला णक शैल क गोद म पलता दखाई दे ता है । इसी कारण आचाय वाजपेयी ने इसे
छायावाद क योगशाला का थम आ व कार माना है । 'झरना ेमानुभू तयो के
अनवरत वाह को संके तत करता है । इसम संक लत क वताएँ णय, कृ त के
भावकण से स त और के पराग से सु वा सत ह । इनम क व क स दय-चेतना कृ त
के उपकरण का सहारा लेकर त मयानंद क सृि ट करती तीत होती है । वह अपनी
इस सृि ट म कह ं उ ी त और कह ं व मय- वमु ध करती हु ई मानवीकरण और तीक
शैल के कदम से चलती हु ई छायावाद चेतना म मलती तीत होती है । भाषा म
पूणता, प र कृ त और ला णकता तो है ह , वह यंजकता और नादा मकता म भी
अ वतीय तीत होती है । ाय: सभी अ तु त कृ त के उ मु त ांगण से चय नत
होकर संवे य, सं े य और समानुपा तक प म आये ह । उदाहरणाथ-
कौन कृ त के क ण का य-सा
वृ -प क मधु छाया म
लखा हु आ सा अचल पड़ा है
अमृत स श न वर छाया म ।
'आँस’ू 'झरना' से आगे का सघन वाह है। 'झरना य द छायावाद क योगशाला का
थम आ व कार है तो 'आँस’ू उसी योगशाला म वेदना दशन के उपकरण से न मत
और मा णत क पना क ववृि त म द त और स दय क तरं ग पर तैरता हु आ
छायावाद का न कष है । झरना म णयानुभू तय का अव रल वाह था तो 'आँस’ू म
ेमज नत घनीभू त पीड़ा क मादक तरं ग ह जो क व के दय-सरोवर क उ तर ु व से
75
द णी ु व तक क या ा करती तीत होती ह । झरना के ेम का संकोच 'आँस'ू क
वेदना एवं सरस यंजना म संकोच करता रहा, वह यहाँ आँसु ओं क राह से व छं द
ग त पाकर बहा है । व तु त: आँसू क हर बूँद म क व क पीड़ा का नचोड़ है । इस
पीड़ा म क णा क वणशीलता, हम क वे तमा और हम ग र क मोहक उठान सी
क पना का वैभव है । यह वह वेदना स त का य है िजसम यौवन क उ त त दुपहर
म उ ी त करने वाल ेम क सु रा है, प क आ ामक छ वयाँ ह, आकषण क डोर
के सहारे या त णयी क या ा है, मलन के णक पल क स पूणता है और
अक मात ् चमक कर वल न हो जाने वाल बजल के वैभव पर लु टने वाले णयी क
ट स है, ममा तक पीड़ा है । यह पीड़ा सामा य नह ं है, व श ट है जो धरती से उठकर
हम शखर का पश करती हु ई अपनी वेत आभा से संसार को उदा त मनोभू म पर ले
जाकर वैि वक भू मका दान करती है । आँसू म अ भ य त वेदना क घनता के मूल
म जो प-स दय है वह यौवन के मद क ला लमा से रं िजत और काल जंजीर से बँधे
हु ए वधु का स दय है तभी तो ''अ भलाषाओं क करवट फर सु त यथा का जगना,
सु ख का सपना हो जाना, भीगी पलक का जगना‘' जैसी अधृ तसूचक पंि तयाँ लखी
गयी ह ।
मरणीय त य यह है क 'आँस’ू म न पत वेदना दै हक तर पर ज म लेती है,
मान सक और भावा मक तर पर क व को ''म यथ ती ा लेकर गनता अ बर के
तारे '' जैसी बेचैन बना दे ने वाल ि थ तय म नरावल ब छोड़ दे ती है और यह वेदना
अपने अि तम प म क णा म पयव सत होकर नवैयि तक प धारण कर लेती है ।
प ट है क साद क यह वेदना नि यता और नराशा क े रका न होकर जीवन-
ि ट को प रशो धत करके वृि त क ओर ले जाने वाल वेदना है । ऐसे वेदना-
वग लत का य का कला-वैभव भी अ ु त है । भाषा क प र कृ त उतनी मह वपूण नह ं
िजतनी क श द क आ मा के तलघर म छपी सू म अथव ता । इसी से इस का य
क मधु म त श दावल म एक आवेग है, एक वाह है जो पाठक को नर तर बाँधे
रखता है । ल णा, यंजना और व ता क डोर से बँधी ‘आँस’ू क भाषा म आये
च ोपम श द, आवेग धान शैल और संवे यता अ तम है ।
'लहर' साद क जीवनानुभू तय क स रता से उठ हु ई वह शाल न लहर है िजसका
हमानी रं ग क व के भावो छवास पर चढ़कर उसे तरल और ि न ध बना गया है ।
झरना क भावनाओं का पावतीय उ वेग, कल-कल, छल-छल और आँसू क घनीभू त
पीड़ा लहर के गीत म पहु ँ चकर पूणत: सं कृ त, शाल न एवं जीवन के ताप से नखर
कर प व और उ वल बन जीवन-पु लन के वरस अधर का अनुपान करने लगी है ।
''वह पंकज वन क मम वपूण प र मा को छोड़कर जन-जीवन के सू ने तट पर सकता
क रे खाएँ उभार कर एक क णा तरल- सहर भर दे ती है ।'' 'लहर क अ धकांश
क वताएँ णय और कृ त क भू म से उपजी ह, क तु यहाँ ये दोन ह भाव शाल न,
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गंभीर और ौढ़ हो गये ह । फलत: स दय के च अ धका धक सू म, भावी और
उदा त हो गये ह । उनम एक ग रमाबोध है । णय यहाँ उ सग के फूल पर आकर
टक गया है । यहाँ तक आने म उसे अनेक लौ कक सं कार क राह से गुजरना पड़ा
है । यह कारण है क ेम का यह प रशोधन, उदा तीकरण और भ यता बोध अनेक
क वताओं म य त लौ कक ेम क ि थ तय को भी लए हु ए है । यह ि थ त क व
वारा न पत कृ त-स दय क है । वह जीवन के चरम त व क तीक बनकर
तु त हु ई है । य पक और मानवीकरण क शैल यहाँ भी खू ब है, पर सहज और
संवे य । 'बीती वभावर जाग र ' गीत इसका माण है । आ यानक क वताओं म
'शेर संह का श -समपण' ' लय क छाया' और ‘पेशोला क त व न' जैसी द घ
क वताएँ ह । ‘शेर संह का श -समपण' म शेर संह क अ त यथा मू तत हु ई है ।
‘पेशोला को त व न' म मेवाड़ क ाचीन गौरव-गाथा संके तत है तो ' लय क छाया
ऐ तहा सक प र य पर रची गयी आ यानक क वता है । इसम 'कमला' के प- व प,
मानस और त ज नत चेतना के आरोह-अवरोह का अ छा ब बाकन हु आ है । इस
क वता क तीक योजना प, गुण , धम और वभाव आ द के अनुसार भावा त है
और भाषा यंजकता और ेषणीयता के गुण से ओत- ोत है । प ट ह ऊहर कोई
साधारण लहर नह ं है। उसक व श टता सं ह म आई क वताओं के भाव- श प एवं
स दयबोध म न हत है ।''
'कामायनी छायावाद क चरम प रण त है और साद क गभीर च तना का े ठतम
वच व है । 15 सग म वभ त यह का य ा और मनु के मा यम से सृि ट के
वकास क कथा को तो तु त करता ह है, ि ल ट पक- वधान के सहारे मानवता के
चरम वकास को भी मनोवै ा नक और आ याि मक भू मका पर तु त करता है ।
बीसवीं शता द क महनीय उपलि ध के प म ‘कामायनी’ दाश नक, सां कृ तक,
मनोवै ा नक और कला मक वै श य का समीकृ त प लेकर आई है । च ता सग से
लेकर आन द सग तक क या ा करता हु आ यह का य हम ग र क एक चेतनता से
समरस होने वाले मनु के जीवन का इ तहास है, मानवीय चेतना के अ नमय कोष से
आन दमय शखर तक पहु ँ चने क या ा का वृ ता त है । इसके मु ख पा मनु, ा
और इड़ा ह जो इ छा, या और ान के तनध ह । चर क पना म साद ने
पूर ईमानदार बरती है । मनु नायक ह, उनका यि त व च तक, ादे व जाप त,
कृ त और अ त म एक ि थत का यि त व है । ारि भक ि थ त म मनु
मननशील होकर भी फूट-फूटकर रोते से लगते ह और अपने को हतभा य मानते ह ।
चंचल वृि तयाँ उ ह घेरे रहती ह । च ता सग के मनु को इस बात का गहरा अफसोस
है क उनका सभी कु छ चला गया है और अब केवल वे बचे ह-केवल वे, जो यह कहते
ह-
शैल नझर न बना हतभा य,
77
गल नह ं सका जो हमख ड
दौड़कर मला न जल न ध अंक
आह वैसा ह हू ँ पाष ड ।
मनु के सम दो वचार ह-पहला यह क संसार न वर है, व वंस थायी है और दूसरा
यह क जीवन भी नाशवान है । ये वचार मनु को नि य बना दे ते ह । ा का
आगमन, उनक इसी नि यता को तोड़ता है, क तु वषमताज नत व द उ ह भोगी
और वाथ बनाकर उस ब दु पर लाकर छोड़ दे ता है जहाँ वे सार वत दे श क
जनता का व ोह झेलते हु ए घायल हो जाते ह । वे वषमता के जाल म फँसकर वह
सब झेलते ह जो ऐसे द मत और आ मकेि त यि त व को झेलना पड़ता है,
क तु साद उ ह इस ि थ त म कैसे छोड़ते? अत: अ त म वषमता के भाव धीरे -
धीरे तरो हत हो जाते ह और मनु ा व इड़ा का साहचय पाकर िजस ब दु पर आ
खड़े होते ह, वह यह है-
मनु ने कु छ मु स याकर कैलास ओर दखलाया ।
बोले दे खो क यहाँ पर कोई भी नह ं पराया ।
हम अ य न और कु टु बी हम केवल एक हमीं ह ।
तु म सब मेरे अवयव हो िजनम कु छ नह ं कमी है ।
कैलाश पवत पर पहु ँ चकर मनु का मन संशयर हत, न कलु ष और यापक तो हो ह
जाता है, उनक चेतना म यह त य भी घर कर जाता है-
अपने म सी मत रह कैसे, यि त वकास करे गा
यह एकांत वाथ भीषण है. अपना नाश करे गा ।
ा 'कामायनी जगत क मंगल कामना अकेल और व वचेतना व पूणकाम क तमा
है । इड़ा बु क तीक तो है, क तु अपने स दय से नयन महो सव क तीक भी है
। इतने पर भी यह सच है क उसका यि त व बौ क बना रहा है । ा भारतीय
सं कृ त क जीव त तमा है तो इड़ा आधु नक पा चा य स यता और यां क युग क
मनोवृि तय के साथ जु ड़ी हु ई तीत होती है । कामायनी जीवन क मु ख सम या का
समाधान भी है और आन दवाद क त ठा भी है । आज जीवन जैसा है, उसम न
कह ं चैन है और न सु ख और शां त ह । यह कारण है क कामायनी के सहारे सतत
संघषशील और चर अशांत जीवन को समरस और आन दमय बनाने क वृि त को
न पत कया गया है । च ता सग मानव क संघषशील और य थत ि थ त का
न पक है और आन द सग समरस और आन दमय ि थ त का ।
कला मक भू मका पर भी कामायनी का गौरव और मह व असं द ध है । भाषा, तीक,
ब ब और छ द क ि ट से कामायनी का कला-वैभव छायावाद क सम त वशेषताओं
का नदशक है तो भावा मक भू मका पर उसम आये रस, ेम, कृ त, स दय, आन द,
मानवता और जीवन के नमाणकार मू य का व नयोग हु आ है । पक- योग और
मनोवै ा नक प र े य के कारण तो कामायनी और भी महनीय हो गयी है । ता पय
78
यह है क कामायनी साद के जीवनानुभव का नचोड़ है, उनके सम त च तन का
का या मक न कष है ।
4.3 का य का अनु भू त प
साद के यि त व म भावना और वचारणा का अ ु त योग था । वे िजतने भावुक थे,
उतने ह वचारक भी । भावुकता का वरण करके साद ने णय एवं स दय के गीत
गाये तो अपनी च तना के फल व प आधु नक जीवन क ि नल ि थ तय का
मांग लक समाधान तु त कया । छायावाद चेतना से अनु ा णत साद का का य ेय
और ेय, यि त हत और समाज हत अनुभू त और क पना तथा आ था और मू यबोध
का का य है । उनक सरस चेतना का तफल बनकर आने वाले का य क मु ख
वृ तयाँ ये ह : कृ त स दय का सू म अंकन, नार -स दय के त ा, णय के
त उ लास, वेदना, क णा, मानव और उसके जीवन के त आ था, रा यता और
आन दवाद दशन क थापना आ द ।
4.3.1 कृ त-स दय
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बनकर न वास छोड़ती तीत होती है । मानव के सु ख और आन द म नम न कृ त
भी आन दमय होकर य द हलते दुमकल कल- कसलय दे ती गलबाँह डाल , फूल का
चु बन, छड़ती मधु प क तान नराल ि थ त म डू बी हु ई है तो वरहानुभू त के दाहक
ण म वह मानव के त सहानुभू त य त करती है-
याकुल उस मधु सौरभ से मलया नल धीरे -धीरे ,
न वास छोड जाता है अब वरह तरं ग न तीरे ।
चु बन अं कत ाची का पीला कपोल दखलाता,
म कोर आँख नरखता पथ ात समय सो जाता । (आँस)ू
कृ त न पण म आल बन, उ ीपन और अलंकार प को तो काम म लया ह गया
है, कृ त का मानवीकरण तो अ ु त है । साद वारा कये गये उषा, रजनी, धरा,
सं या और चाँदनी आ द के मानवीकरण अपनी समता नह ं रखते ह । इन मानवीकरण
म कव क कला-संयोजना और भावोपम शि त को सव दे खा जा सकता है ।
प ट करण के लए केवल एक उदाहरण दे खए िजसम ‘धरा’ का मानवीकरण
नव ववा हता ल जावनत वधू के प म कया गया है ।
स धु सेज पर धरा वधू अब त नक संकु चत बैठ -सी
लय- नशा क हलचल मृ त मान कए सी ऐंठ -सी ।
इसी म म आशा सग म आया रजनी का मानवीकरण भी अ ुत है । ‘’तृण गु म से
रोमां चत नग’’, उ काधार हर से ह-तारा नभ म टहल रहे आ द तथा च ता,
आशा, काम और ल जा आ द भावनाओं का शर र करण भी इसी ेणी म आता है ।
कृ त स दय के अकन म साद जी ने अलंकरण का सहारा भी लया है । व तु त:
कृ त के वारा भाव और व तु ओं के अलंकरण का काय भी साद क कामायनी,
आँसू और लहर जैसी रचनाओं म कया गया है । ‘’जलदागम मा त से कं पत प लव-
स श हथेल ”, केतक गभ-सा पीला मु ँह, तु म फूल उठोगी ल तका-सी, तु म इडे उषा-सी
आज यहाँ आ द पंि तय म कृ त के वारा ह मानवीय स दय और भाव क ीवृ
क गयी है । साद के कृ त का य म तीक प भी उपल ध होता है । काम सग
का आ द छं द इसका े ठ उदाहरण है । य तीक प म कृ त च ण के अनेक
उदाहरण साद के का य म मलते ह, क तु प ट करण के लए यह काफ होगा-
मधुमय बस त जीवन-वन के
बह अंत र क लहर म
कब आये थे तु म चु पके से,
रजनी के पछले हर म।
यहाँ सम तीक ाकृ तक े से चय नत ह और अपने गुण , धम और कृ त आ द
के वारा उपमेय (यौवन) का बोध कराने म स म ह । सं ेप म यह कहा जा सकता
है क साद ने कृ त को बहु त कर ब से दे खा था, उसक शि त, मता, आकषण
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मता, ममता और संवेदना मक कृ त को गहराई से पहचाना था । यह कारण है क
उनके कृ त स दय म सू मता, कोमलता, भावोपमता अलंकरण मता, संवेदनीयता
और तीका मकता को पया त थान ा त है ।
4.3.2 नार -स दय
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ह हंस न, शु क यह फर य चु गने को मु ता ऐसे?
मु ख-कमल समीप सजे थे दो कसलय से पुरइन के,
जल- ब दु स श ठहरे कब उन आँख म दुख कनके?
कहने का ता पय यह है क साद क स दयानुभू त म कमनीयता है, मधु रमा है,
पावनता है और है ग भीरता। उसम तन-मन का स दय समा हत है । छायावाद ने नार
को केवल स दय-बोध क ि ट से दे खा । यह कारण है क वह नार को स दय क
अकलु ष तमा, च मा क मु कान, जु ह क माला और सपन क शोभा मानता रहा
है । ल जा सग म ल जा के मु ख से कहलाये गये नार वषयक वचार स दय क
उ त वशेषताओं को रे खां कत करते तीत होते ह-
या कहती हो ठहरो नार ! संक प अ ु जल से अपने
तु म दान कर चु क ं पहले ह जीवन के सोने से सपने ।
नार तु म केवल ा हो व वास रजत नग पग तल म
पीयूष - ोत-सी बहा करो जीवन के सु दर समतल म ।
4.3.3 णयानुभू त
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और को हँ सते दे खो मनु हँ सो और सु ख पाओ;
अपने सु ख को व तृत कर लो सबको सु खी बनाओ ।
4.3.4 वेदना और क णा
83
सु ख को सी मत कर अपने म केवल दुख छोड़ोगे
इतर ा णय क पीड़ा लख. अपना मु ख मोडोगे ।
प ट ह साद के का य म वेदना का मांग लक, व व यापी और का णक प ह
च त हु आ है । यह वेदना शि त का ोत है, जीवन म वेश क े रका है और
साद के आन दवाद और कलावाद क सहज अ भ यंजना है । इसम व व वेदना का
भाव है तथा दूसर के दुख से उ प न सहानुभू त और क णा का वर सव प र है ।
'आँस,ू म इसी से क व ने दुख-द ध वसु धा को सहानुभू त और क णा का जल दया है-
नीचे वपुल। धरणी है दुख-भार बहन सी करती,
अपने खारे आँसू ले क णा-सागर को भरती ।
4.3.5 आ था और जीवन-स य
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ा ने कम सग म और इड़ा सग म कम े रत जीवन बताने क जो सलाह द है,
उससे भी साद के आ थाबोध को िजसम मनु य पर आ था य त क गयी है,
दयंगम कया जा सकता है-
हाँ. तु म ह हो अपने सहाय
यह कृ त परम रमणीय, अ खल ऐ वय-भर शोधक वह न,
तु म उसका पटल खोलने म प रकर कस कर बन कमल न
सबका नयमन शासन करते बस. बढा चलो अपनी मता ।
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स दय है । क पना क यह अ तशयता ‘आँस’ू म तो थान- थान पर दे खी जा सकती
है-
तर रह अतृि त जल ध म नीलम क नाव नराल
काला पानी वेला-सी अंजन रे खा काल ।
इसी कार ‘कामायनी’ के ा सग और कम सग म आई ये पंि तयाँ भी दे खए
िजनम क पना का वैभव लु टाता हु आ साद का क व कहता है-
1. अ ण क एक करण अ लान.
अ धक अलसाई हो अ भराम ।
2. जलदागम मा त से कं पत प लव स श हथेल
3. उषा क पहल लेखा कांत माधुर से भीगी भर मोद
मदभर जैसे उठे सल ज भोर क तारक-धु ती क गोद ।
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इसी म म ये पंि तयाँ भी दे खी जा सकती ह-
हमा तु ंग ग ृं से
बु शु भारती-
वयं भा समु वला
वत ता पुकारती-
अम य वीर पु हो’ ढ़ त ा सोच लो
श त पु य पंथ ह -बढ़े चलो बढ़े चलो ।
4.4 का य का अ भ यंजना प
साद का का य अनुभू त क ि ट से िजतना समृ है, अ भ यि त क ि ट से भी
उतना ह स म है । भाषा, अलंकार, छ द और तीक एवं ब ब के सफल और
साथक योग साद का य क मह तम उपलि धयाँ ह । अ भ यंजना श प के मु ख
उपकरण म पहला थान भाषा का है, तदन तर अलंकरण आ द को मह व ा त है।
4.4.1 का य-भाषा
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है। य य प उ ह ने पहले-पहले जभाषा म ‘ च ाधार’ क रचना क थी और ' ेम
प थक' को भी जभाषा म ह तु त कया था, क तु बाद म वे खड़ी बोल के सफल
कव मा णत हु ए। उनके का य म यु त भाषा त सम श दावल से यु त है।
कामायनी, आँसू लहर और झरना जैसी े ठ कृ तय म साद ने त सम भाषा का ह
योग कया है । जहाँ तक साद क जभाषा का न है, वह सं कृ त के त सम प
के सहयोग से ह न मत हु ई है । ‘ च ाधार’ क अ धकांश क वताओं म जभाषा का
सं पश दखाई दे ता है। हाँ, साद ने ज दे श म च लत त व और दे शराज श द
का पया त योग कया है। उनक ज क रचनाओं म 'लसत’, ‘भीिज’, ‘ नवा र’,
‘ठांवा’, 'पसीजत’, ‘ ठठक ’, चकचूर, टे रो, उछाह, गोइये, तातो ठौर और चेतो आ द ज
के च लत त व और दे शज श द के योग मल जाते ह । जभाषा म ह आये दन
यु त होने वाले उदू फारसी के श द भी साद के श द-भ डार म दे खे जा सकते ह ।
उनके वारा यु त खड़ी बोल भाषा को मु ख वशेषताएँ ये ह-
1. साद क भाषा सं कृ त न ठ श दावल से यु त है । उसम न केवल सं कृ त के
श द का, अ पतु द घ सामा सक श दावल व सं धज श द का योग भी हु आ है।
2. साद के का य म यु त श द त सम, त व और दे शज तीन कार के ह । यह
ठ क है क उनके का य म त सम श द का बाहु य है, क तु यान रहे ये
त सम श द भी दो कार के ह. दाश नक और सा हि यक । दाश नक त सम का
योग कामायनी म मलता है । च त, समरस, ल ला, कला, उ मीलन, काम, ेय,
वषमता, भू मा, नय त और पुट ऐसे ह दाश नक त सम श द ह । सा हि यक
श द तो सव ह ह । एक तीसरे कार के त सम श द भी साद के का य म
उपल ध होते ह । ये वे श द ह जो ह द म न केवल अ च लत ह, अ पतु
दु भा य भी ह यथा- वापद, आवजना, नाराच, आल बुषा, या, यो त रंगण और
त मंगल आ द । इस कार क त सम श दावल भी व वधवण है, क तु
अ त र त ि ल टता फर भी उसम नह ं है ।
3. त व श द का योग भी साद क भाषा म चु रता से हु आ है- नबल, सपना,
सु हाग, नखत, रात, तीखा, राज, पीर, ान, परम, सांझ, अध, परदे शी, नाव आ द
ऐसे ह श द ह । इनका योग त सम श द के साथ होने से खटकता नह ं है ।
4. दे शज श द भी साद क भाषा के गौरव ह और भाषा क जीव त शि त के तीक
ह । इनके योग से साद क का य-भाषा भाव ी और लोक ी से सं स त होकर
सामने आयी है । ऐसे श द म पग, झीमना, बकना, बयार, दाँव, ठठोल , खु ी,
बु ला, गेल, झटका मचल, सु आ, पुआल , अटकाव, घोट, हचक आ द को लया
जा सकता है ।
5. साद एक सजग श पी थे । अत: श द- नमाण क वृि त भी उनके का य म
मलती है । उनके वारा यु त व न मत श द म गुलाल , वकस चल , दपती,
88
अलगाता और सल ल आ द के कारण भाषा माधु ययु त हो गयी है । साद ने
मधुर , मधु, महा, चर और च त आ द श द को आगे पीछे जोड़कर भी अनेक
नये श द का नमाण कर लया है ।
6. व या मकता साद क भाषा क अ यतम वशेषता है । अरराया, रम झम,
झल मल, छपछप, थर-थर, सन-सन और धू-धू आ द श द का योग ऐसा ह है।
अपनी व न से ह अथ क ती त कराने म स म 'आँस’ू ं म पया त ह । 'आँस’ू
क भाषा म कव ने यंजना शि त का योग करके सांके तकता और
भावा भ यंजकता क पया त सृि ट क है । ' बजल माला पहने फर मु कराता सा
आँगन म, हाँ कौन बरस जाता था रस बूँद हमारे मन म’ पंि तय म वा याथ से
ल याथ और यं याथ तक ह क या ा तय कर ल गयी है।
7. ला णकता साद क का य-भाषा क सातवीं वशेषता है । कामायनी और आँसू
ह य , झरना और लहर म भी ला णक भाषा का चु र योग हु आ है । ‘र त
क नद म सर ऊँचा छाती कर तैरते थे’ म सा यवसना ल णा का वैभव है, तो
'मेरे जीवन के सु ख नशीथ जाते-जाते क जाना म योजनवती ल णा का स दय
समा हत है। शीतल वाला जलती थी ईधन होता ग जल का म ‘ वाला' का
ल याथ वेदना है, तो 'झंझा झकोर गजन था, बजल थी नीरद-माला म झंझा
भाव क ती ता क , बजल पीड़ा क और ‘नीरदमाला’ नराशाज नत भाव क
संके तका बनकर आई है । सैकड़ उदाहरण और भी ह जो साद क ला णक
भाषा के वैभव को संके तत करते ह।
8. साद क का य-भाषा म तीक का योग भी पया त वै व य लए हु ए है । उनके
तीक योग से भाषा मधुर , ग भीर और ला ल यपूण हो गयी है । साद के
अ धकांश तीक कृ त के े से लये गये ह, क तु क तपय ऐसे भी ह जो
दशन और संगीत कला के े से लए गए ह । दाश नक तीक का योग
कामायनी म मलता है । शेष सा हि यक तीक म परं परागत और नवीन दोन ह
वग के तीक ह । वधु, काल जंजीर, फ ण और ह रे जैसे पार प रक तीक
मश: मु ख, काले बाल, वेणी और माँग का तीकाथ रखते ह । इसी कार
न नां कत पंि तय म भी पर परागत तीक के प म नीलम क याल (यौवन
मद क ला लमा), व म
ु सीपी (लाल ह ठ), मोती (दाँत) और शु क (ना सका) आ द
को लया जा सकता है :
1. मा नक म दरा से भर द कसने नीलम क याल
2. ु सीपी स पुट म मोती के दाने कैसे?
व म
नूतन अथ के घोतक व छं द तीक का योग भी साद के का य म बहु तायत
से हु आ है । ऐसे क तपय तीक क सू ची यह है- पतझड़(नीरस), सू खी फुलवार
(शु क जीवन), कसलय (सरसता), यार ( दय), करण (आश-उ साह), बस त
89
(यौवन), तपन ( यथा), आकाश (अ ट और दय), उषा (सु ख), श शलेखा
(क त), कुसुम सु मन (मन, भावनाएँ), कुसु म(तारागण), खू प अचेत (जड़ता), बयार
(जीवनदा यनी) आ द । इन तीक के योग से भाषा मे क ठनाई नह ं आने पाई
है, बि क भाषा भावा मक, स दयमूलक और ब ब ा हणी शि त से यु त हो गयी
है । भाषा का माधु य गुण भी जो क साद का य क वशेषता है, इन तीक के
योग से संर त और सु र त बना रहा है ।
9. अ भ यि त को स ाण बनाने के लए कह -ं कह ं साद क भाषा मु हावर और
लोकोि तय से भी यु त हो गयी है । यान रहे मु हावर का योग साद क
भाषा म सहज और अय नज है तभी तो उसक वाहशीलता और ेषणीयता
बरकरार रह है : 'भीगे नयन, छाती का दाग खोजना, अपने ह बोझ से दबना,
तल का ताड़ बनाना, लक र पीटना, मर-मर कर जीना, साँस उखड़ना और सु हाग
छ नना तथा सु ख का बीन बजाना आ द मु हावरे साद का य के गौरव बने हु ए ह।
उपयु का ववेचन के संदभ म कह सकते ह क साद क भाषा प र कृ त श दावल
से न मत हु ई है । उसम आये श द अथ के धन से स प न, ेषणीयता से
भरपूर, लोकोि तय एवं मु हावर के रं ग म नखरे च ा मक वि छ त से द त
और ला णक, तीका मक एवं यंजना वण श दावल के सौ ठव और मारक
भाव से यु त भाषा के नमाता ह । साद एक ऐसे श पी थे िज ह श द क
अ तरा मा म छपे अथ का ान था । अत: उ ह ने िजस भाषा को अपनाया है,
वह न केवल मृदु ल लत और सरस है, अ पतु भावोपमता ेषणीयता और
ब बो ावन मता से भी भरपूर है । उसम एक कला मक संसार सहज ह दे खा
जा सकता है ।
90
प रणाम है । उनक उपमाओं म वै व य है, इ धनुषी रं ग ह और सबसे अ धक
सट कता है । क तपय योग दे खए क णा क नव अँगड़ाई सी, मलया नल क
परछाई-सी, उषा-सी यो त रे खा, अव श ट रह गयी अनुभव म अपनी अतीव
असफलता-सी, अवसादमयी म द लता-सी छायापथ म तारक यु त -सी, घन यामख ड-
सी आँख म और 'पीयूष ोत-सी बहा करो' आ द योग म उपमा का वैभव है । ये
उपमाएँ ल लत, मधुर और भावी तो ह ह , एक अ त र त लाव य से भी द त ह ।
मू त के लए अमू त, अमू त के लए मू त और मू त के लए मू त और अमू त के लए
अमू त उपमान का यह वधान क व क सू म क पना का प रचायक है । कह ं कह ं तो
उपमाओं के योग म क व क सू म क पना शाल न और वेताभा से भी मं डत है
और यौवन-बस त के रं ग से भी । उदाहरणाथ- 'चंचला नान कर आवे चि का पव
म जैसे, उस पावन तन क शोभा आलोक मधुर थी ऐसी । साद के पक एवं
सांग पक क संि ल ट और भावुक सघनता को सव दे खा जा सकता है । प ट करण
के लए ये पंि तयाँ दे खए-
इस दय कमल का घरना अ ल अलक क उलझन म
आँसू मरं द का गरना मलना न वास पवन म ।
इन पंि तय म सांग पक है और ' तर रह अतृि त जल ध म नीलम क नाव नराल
व 'अं कत कर तज-पट को तू लका बरौनी तेर म पक-सांग पक का स दय
समा हत है । इन दोन अलंकार के योग से तथा मानवीकरण के कारण साद क
क वता ब बमयी हो गयी है । सफल और े ठ ब ब वह ं आये ह जहाँ अलंकृ त का
वैभव सु र त है । क तपय उदाहरण दे खए और क व क घना मक ब ब योजना व
अलंकृ त के वैभव म डु ब कयाँ लगाइये-
''धीरे -धीरे हम आ छादन हटने लगा धरातल से
जगीं वन प तयाँ अलसाई मु ख धोती शीतल जल से ।‘’
‘' संधु सेज पर धरा वधू अब त नक संकु चत बैठ -सी
लय- नशा क हलचल मृ त म मान कये सी ऐंठ -सी ।‘'
4.4.3 ब ब योग
91
अ बर पनघट म डु बो रह
ताराघट उषा नागर ।
उपयु त पंि तय म आया ब ब अनेक कारण से व श ट बन गया है । यह वह
ब ब है िजसम चा ुष गुण भी है, संवे य ब ब भी है और कु ल मलाकर एक
सां कृ तक चेतना का ब ब भी उभरकर आता है । ऐसे ब ब साद-सा ह य क अ य
न ध ह । झरना, आँसू और कामायनी के अ तगत जो ब ब उपल ध ह वे न केवल
अलंकृत ब ब ह, अ पतु संवे य, भावोपम और संि ल ट ब ब भी ह । कामायनी का
तो येक सग ब ब- वधान क ि ट से अ वतीय बन पड़ा है । आशा सग म आई
हु ई ये पंि तयाँ दे खए जो एक उ कृ ट ब ब क वा हका बनी हु ई ह-
स धु सज पर धरा वधू अब
त नक संकु चत बैठ -सी
लय- नशा क हलचल मृ त
मान कए सी ऐंठ -सी ।
च ता सग, आशा सग, ा सग, ल जा सग और इड़ा सग ब ब वधान क ि ट
से वशेषो ले य है । 'आँस'ू जैसा मानवीय वरह का का य भी ब ब- वधान क ि ट
से पया त भा वत करता है । नार न:सग स दय से प रपूण या के अनुपम केश-
कलाप पूण सर का यह ब ब दे खए जो अपनी रमणीयता म अकेला है-
बाँधा था वधु को कसने इन काल जंजीर से
म ण वाले फ णय का मु ख य भरा हु आ ह र से?
इसी कार यौवन के मधु क ला लमा से प रपूण एवं काजल क रे खा से सु शो भत
या क काल -काल आँख का यह य- ब ब दे खए जो पाठक के मन- ाण को
बाँधने क मता रखता है-
काल आँख म कतनी यौवन के मद क लाल
मा नक-म दरा से भर द कसने नीलम क याल ?
तर रह अतृि त जल ध म नीलम क नाव नराल
काला-पानी बेला-सी है अंजन-रे खा काल ।
कहने का अ भ ाय यह है क साद का का य अ ु त, मा मक, संि ल ट, भावोपम और
संवे य ब ब से भरा पड़ा है ।
4.4.4 का य प और छ द
92
नकट तीत होता है । उनके वारा यु त छ द पर परागत ह ह क तु शेर संह का
श समपण, ‘पेशोला क त व न' और ' लय क छाया’ आ द म मु त छ द और
अतु का त छ द का योग हु आ है । कामायनी म पार प रक छं द का वै व य है । वहाँ
सार, गृं ार, ताटं क वीर और पमाला आ द छं द का सफल योग हु आ है । क तपय
छ द ऐसे भी ह जहाँ पादाकु लक और प र का म त प भी मलता है । 'आँस’ू म
यु त 'आँस’ू छ द कामायनी के आन द सग म भी यु त हु आ है । कु ल मलाकर
छ द- वधान और का य- प क ि ट से भी साद का का य भावी और आकषक बन
पड़ा है ।
4.5 सारांश
छायावाद अपने आप म एक व श ट का यधारा रह है । जयशंकर साद छायावाद के
वतक भी थे, मागदशक भी थे और व श ट क व भी थे । नराला का कृ त व
वै व यपूण था और उनका सृजन जीवन का पा ववत होने का सा य तु त करता है।
वे ां त के अ दूत, पौ ष के गृं ार युगीन वषमताओं और नजी यथाओं से तप-
तचकर नभ क, प टवाद और मानवता का जयघोष करने वाले क व थे । महादे वी जी
का तो सृजन ार म से अ त तक ह एक जैसा रहा है ।हाँ, पंत म वै व य दखाई
दे ता है, क तु वह वै व य मा स और गांधी के सै ां तक प रवेश से मलकर कह -ं कह ं
पया त ह का हो गया है । साद जी ऐसे वै व यवाद थे ह नह ,ं वे तो सां कृ तक
जीवन-मू य के आदश करण के प धर थे । वे अतीत का मंथन कर वतमान के
अनुकू ल अमृत खोजते रहे और पंत हवा के हर ख के साथ चंचल होते रहे । पंत ने
अपने को दोहराया बहु त है । साद म यह दोहराहट नह ं है । साद अतीत के त न
केवल िज ासा भाव रखते थे, अ पतु आ था भी रखते थे, जब क पंत वतमान से े रत
होकर भावी के नमाता बनने का य न करते रहे । य नमाता दोन ह, पर एक
अतीत के शलाप पर वतमान क ऐसी रे खाएँ खींचता रहा जो भावी क नया मका
बनी और दूसरा वतमान क जा नवी से अमृतमयी पावन धार नकालकर भावी समाज
के लए नवल सृि ट रचने म संल न रहा । एक ने अतीत के समु -मंथन से अमृत
नकालकर वतमान को दया और दूसरे ने वतमान जीवन क अनुभावना कर भावी के
लए व न संजोये । भावुक भी दोन ह थे । साद क भावुकता अकेल नह ं है ।
उ ह सहचर के प म च तन भी मला है । उनके का य म दय और बु का
सम वय है, भाव और तक का समायोजन है, रं ग और प क मै ी है, द य और
मधुर का संगम है, शर र और मन का सं थन है, लता और वृ त का मलन है, पु प
और गंध का ं थबंधन है और तज का स दय है । पंत म भी यह सम वय है तो,
पर एका मकता नह ं जो साद के पास है । पंत का च तक और भावुक पूर तरह
मल नह ं पाया है । पंत के पास भावुकता का तीर तो है जो पाठक के मम को बेध
दे ता है, पर तक का वह कवच नह ं जो भावुकता के तीर से अपनी र ा कर सके ।
93
फलत: पंत घायल करते ह, क तु साद घायल करने के साथ-साथ उसक मरहमप ी
भी कर दे ते ह । एक वा य म साद व श ट क व, च तक और सां कृ तक चेतना के
तीक पु ष ह ।
4.6 अ यासाथ न
1. साद के यि त व का सं त प रचय दे ते हु ए उनके कृ त व पर काश डा लए ।
2. '' साद के भावलोक म ेम, गृं ार और रागत व क धानता तो है ह , उसम
घनीभू त वषाद क छाया भी दे खने को मलती है ।” इस कथन क स यक्
ववेचना तु त क िजए ।
3. '' साद का कृ त-स दय छायावाद क वता के मेल म होते हु ए भी नवचेतना का
वर लए हु ए है ।’' इस कथन क समी ा क िजए ।
4. “सां कृ तक चेतना और रा यता का मला-जु ला वर साद-का य क उ लेखनीय
वशेषता है ।'' इस कथन को प ट क िजए ।
5. साद क का य-भाषा क वशेषताओं पर काश डा लए ।
6. साद-का य म यु त तीक , ब ब और अलंकार-स दय को उदाहरण स हत
प ट क िजए ।
4.7 संदभ ंथ
1. डॉ. वेद काश अ मताभ-युग क व जयशंकर साद
2. भाकर ो य- साद सा ह य म त व
3. डॉ. नगे - साद और कामायनी
4. डॉ. ह रचरण शमा –छायावाद के आधार त भ
5. डॉ. वा रका साद स सेना- ह द के आधु नक तनध कव
6. डॉ. वा रका साद स सेना – साद दशन
7. डॉ. वजयबहादुर संह- साद, नराला और पंत
8. डॉ.इं नाथ मदान- साद तभा
♦♦♦
94
इकाई- 5 सू यका त पाठ नराला का का य
इकाई क परे खा
5.0 उ े य
5.1 तावना
5.2 का य वाचन
5.2.1 जु ह क कल
5.2.2 ( य) या मनी जागी
5.2.3 म अकेला
5.2.4 नेह- नझर बह गया है
5.2.5 सं या सु दर
5.3 संग स हत या या
5.3.1 क वता प रचय (जु ह क कल )
5.3.2 क वता प रचय ( य या मनी जागी)
5.3.3 क वता प रचय (म अकेला)
5.3.4 क वता प रचय ( नेह- नझर वह गया है)
5.3.5 क वता प रचय (सं या सु दर )
5.4 संदभ थ
ं
5.5 अ यासाथ न
5.0 उ े य
संके तत इकाई के अ ययन के उपरा त आप :
नराला क सरस का य-पंि तय से प र चत हो सकगे ।
नराला क का य-पंि तय क स संग या या करने क प त को भल -भाँ त
समझ सकगे ।
नराला क क वताओं के भाव-स दय को भल -भाँ त दयंगम कर सकगे ।
नराला क क वताओं के कलागत स दय का प रचय ा त कर सकगे ।
5.1 तावना
नराला छायावाद के एक उ लेखनीय क व ह । उ ह ने अपनी सश त एवं प र कृ त
का य-कृ तय के मा यम से ह द क वता को ववेद युगीन इ तवृ ता मकता,
उपदे शपरकता और नीरसता से बाहर नकालकर मधुर , सरस, भ य एवं जीव त बनाया।
उनक लगभग सभी क वताओं म एक अ ु त वैभव है, ग रमा है, वेदना है और अनुराग
है । 'जु ह क कल ', ' य या मनी जागी', नेह नझर बह गया ह’, 'म अकेला’ तथा
95
‘सं या सु दर ’ आ द इस इकाई म तु त सभी कृ तयाँ भाव एवं श प दोन ह क
ि ट से अ य त सश त, सरस एवं भावशाल ह ।
5.2 का य वाचन
5.2.1 जु ह क कल
वजन-वन-व लर पर
सोती थी सु हाग-भर - नेह- व न-म न
अमल-कोमल-तनु त णी - जु ह क कल ,
ग ब द कए, श थल, प ांक म,
वास ती नशा थी,
वरह- वधु र- या-संग छोड़
कसी दूर दे श म था पवन
िजसे कहते ह मलया नल ।
आयी याद बछुड़न से मलन क वह मधु र बात,
आयी याद चाँदनी क धु ल हु ई आधी रात,
आयी याद का ता क कि पत कमनीय गात,
फर या? पवन
उपवन-सर-स रत गहन ग र-कानन
कं ु ज -लता-पु ज
ं को पार कर
पहु ँ चा जहाँ उसने क के ल
कल खल साथ
जाने कहो कैसे य-आगमन वह!
नायक के घूमे कपोल,
डोल उठ ब लर क लड़ी जैसे हंडोल ।
इस पर भी जागी नह ,ं
चू क मा माँगी नह ,ं
न ालस बं कम वशाल ने मू ँदे रह -
कं वा मतवाल थी यौवन क म दरा पये,
कौन कहे
नदय उस नायक ने
नपट नठु राई क
क झ क को झा ड़य से
सु दर सु कुमार दे ह सार झकझोर डाल ,
मसल दये गोरे कपोल गोल,
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च क पड़ी युवती
च कत चतवन नज चार ओर फेर,
हे र यारे को सेज-पास,
नसमु ख हँ सी- खल ,
खेल रं ग यारे -संग ।
( य) या मनी जागी ।
अलस पंकज- ग अ ण-मु ख
त ण-अनुरागी ।
खु ले केश अशेष शोभा भर रहे ,
पृ ठ - ीवा-बाहु-उर पर तर रहे .
बादल म घर अपर दनकर रहे .
यो त क त वी, त ड़त-
यु त ने मा माँगी ।
हे र उर-पट फेर मु ख के बाल,
लख चतु दक चल म द मराल,
गेह म य-नेह क जय-माल,
वासना क मु ि त, मु ता याग म तागी ।
5.2.3 म अकेला
म अकेला,
दे खता हू ँ आ रह
मेरे दवस क सा धय बेला ।
पके आधे बाल मेरे,
हु ए न भ गाल मेरे,
चाल मेर म द होती आ रह ,
हट रहा मेला ।
जानता हू ँ नद -झरने,
जो मु झे थे पार करने,
कर चु का हू ँ, हँ स रहा यह दे ख,
कोई नह भेला ।
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रे त य तन रह गया है ।
आम क यह डाल जो सू खी दखी,
कह रह है- 'अब यहाँ पक या शखी
नह ं आते, पंि त म वह हू ँ लखी नह ं िजसका अथ-
जीवन दह गया है ।’
दये ह मने जगत ् को फूल-फल,
कया है अपनी तभा से च कत-चल, पर अन वर था सकल प ल वल पल-
ठाट जीवन का वह
जो ढह गया है ।
अब नह ं आती पु लन पर यतमा,
याम तृण पर बैठने को, न पमा ।
वह रह है दय पर केवल अमा
म अल त हू ँ यह
क व कह गया है ।
5.2.5 स या सु दर
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स दय-ग वता-स रता के अ त व तृत व ः थल म-
धीर वीर ग भीर शखर पर हम ग र-अटल-अचल म-
उ ताल-तरं गाघात- लय-घन-गजन-जल ध- बल म-
त म-जल म-नभ म-अ नल-अनल म-
सफ एक अ य त श द-सा ''चु प चु प चु प''
है गूँज रहा सब कह ,ं -
और या है? कु छ नह ं ।
म दरा क वह नद बहाती आती,
थके हु ए जीव को वह स नेह
याला वह एक पलाती
सु लाती उ ह अंक पर अपने,
दखलाती फर व मृ त के वह कतने मीठे सपने ।
अ रा क न चलता म हो जाती वह ल न,
क व का बढ़ जाता अनुराग,
वरहाकुल कमनीय क ठ से
आप नकल पड़ता तब एक वहाग ।
5.3 संग स हत या या
5.3.1 क वता प रचय (जु ह क कल )
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1. जु ह क कल म पया त ौढ़ता और का या मकता है ।
2. यह थम इस लए भी नह ं हो सकती य क इसे कई थान से संपादक ने लौटा
दया था । यह थम का शत रचना भी नह ं है ।
इस क वता के अ तगत नराला ने पवन को नायक और जु ह क कल को ना यका के
प म च त कया है । वयं नराला के कथनानुसार जु ह क कल तथा पवन
नायक का मलन 'तमसोमा यो तगमय’ क का य म मा मक तु त है । क वता म
जु ह क कल का आ य त मानवीकरण कया गया है और छायावाद कला-वैभव,
क पना-वैभव और स दयबोध क मल -जु ल च ावल बनी इस क वता ने ह द जगत ्
को पया त भा वत कया है ।
अवतरण1
वजन-वन-व लर पर
सोती थी सु हाग-भर - नेह- व न-म न
अमल-कोमल-तनु त णी-जु ह क कल ,
ग ब द कए, श थल, प ांक म.
वास ती नशा थी,
वरह- वधु र- या-संग छोड़
कसी दूर दे श म था पवन
िजसे कहते ह मलया नल ।
श दाथ- वजन = एका त, नजन । वन-व लर = उपवन क लता । सु हाग- भर =
सौभा यवती । अमल = नमल अथवा धवल । वास ती' नशा = बस त क रा ।
वरह- वधु र न= वयोग क अि न से वद ध । मलया नल = द ण म ि थत
मलय ग र से वा हत होने वाल वायु ।
संग- तु त प यावतरण नराला क बहु च चत और स क वता जु ह क कल का
ारि भक अंश है । इसके अ तगत क व नराला ने जु ह क कल क ि थ त, उस के
स दय का वणन करते हु ये मानवीकरण कया है ।
या या- क व नराला क रहे ह क अ रा क नीरवता एवं न त धता के म य
नजन एका त वन क एक लता पर बछे पल क शैया पर जु ह क कल गाढ़ न ा
म नम न थी । वह सौभा यवती सु दर और कोमलवदना त णी क तरह पूण यौवना
कल भी अपने य के ेम म पगी और उसी क मधु र गुर ेम- ड़ाओं तथा ने हल
ेमालाप से यु त व न का आन द ा त कर रह थी । इस गौरवणा जु ह क कल
पी त णी क दे हलता कोमल थी । यतम का मरण करती हु ई वह अब तक थक
चु क थी और अ त म श थल होकर ग भीर न ा म नम न हो गयी थी । हाँ, गाढ़
न ा के म य भी वह य को व मृत नह ं कर पाई थी । जा त अव था क मृ त
एवं च तना गहर न ा के बीच भी व न बनकर सामने आ गयी थी । य के
अभाव म उसका मु ख अध खला था और यह कारण है क क व ने उसे कल कहा है ।
100
यतम से दूर परदे श म ि थत नायक मलया नल भी अपनी थ का वयोग बड़ी
क ठनाई से सह पा रहा था । ठ क भी है, एक तो बस त क नशा थी, चार ओर
मधुर मादकता छाई हु ई थी, प रणाम व प वरह का उ ीपन रह-रहकर बढ़ता जा रहा
था । जु ह क कल बनी ना यका उसे याद कर-करके सो चु क थी और
व न म भी उसी के याकलाप और उनसे जु ड़ी अनुभू तय को दे ख रह थी । इस
कार एक ओर घर पर बैठ हु ई व यतप तका परदे श म ि थत यतम को मरण
कर रह थी और दूसर ओर परदे श म ि थत य भी या वारा बार-बार याद कए
जाने के कारण वरह से याकु ल हो रहा था।
ट पणी- (1) इस प यांश म पवन और जु ह क कल को मश: नायक और
ना यका के प म च त करके नराला ने कृ तपरक उपमान के
सहारे भौ तक जगत ् म रं ग- प और मानवीय या- यापार का
सजीव च ांकन कया है ।
(2) इस अंश म ‘अमल कोमल तनु त णी’ तथा पवन को वरह-मधुर
मलया नल कहकर मानवीकरण का वधान कया गया है । यह शैल
छायावाद क वता क रे खां कत करने यो य वशेषता है ।
(3) प यांश म आये ‘ नशा और 'प ांक' श द वशेष प से हमारा यान
खींचते ह । न स दे ह ये श द साथक भी ह और सा भ ाय भी ह ।
' नशा' श द के योग से समूचा प रवेश सामने आ जाता है । इस
श द के योग से आधी रात और रा के तीसरे हर के बीच का
प रवेश साकार हो उठता है । नशाकाल बारह से तीन बजे तक ह
होता है । इसी कार 'प ांक' श द त णी ना यका जु ह क कल क
कोमलता और ि न धता को एक साधे सजीव ब ब के मा यम से
तु त कर दे ता है । ना यका के शर र म त णाई का वकास हो
चु का है । प के अंक म सोने वाल त णी क त णमा, कोमलता
और उसका लाव य प ांक श द म समटकर आकषण पैदा कर रहा है
।
(4) ‘ वजन-वन-व लर ’, 'अमल-कोमल,’ ‘मलया नल, नेह- व न’ आ द
श द त सम तो ह ह , समास न ठ होते हु ए भी संगानुकूल ह ।
(5) ‘सोती थी ग ब द कए', ‘ या संग छोड़’ आ द के योग से
नाटक यता और ग तशील ब ब क सृि ट हो गयी है ।
(6) इस अवतरण म वृ यानु ास , मानवीकरण जैसे अलंकार का साथक
योग दे खने को मलता है ।
अवतरण 2
आयी याद बछुड़न से मलन क वह मधु र बात,
आयी याद चाँदनी क धु ल हु ई आधी रात,
101
आयी याद का ता क कि पत कमनीय गात,
फर या? पवन
उपवन-सर-स रत गहन ग र-कानन
कंज-लता-पु ज
ं को पार कर पहु ँ चा जहाँ उसने क के ल
कल खल साथ
श दाथ -का ता = ी । कि पत = काँपती हु ई । कमनीय = सु दर । गहन- ग र-
कानन = गहरे अथवा बीहड़ पवन अथवा वन । कं ु ज -लता-पु ज
ं = वन वा टका का लता-
समू ह । के ल = ेम- ड़ा।
संग- नराला वारा र चत 'जु ह क कल ’ क वता के इस वतीय अवतरण म नेह-
वपनम न-अमल-कोमल-तनु-त णी ना यका जु ह क कल के च ण के प चात ् यह
वरह- वधु र नायक जो दूर दे श म ि थत है, क व वलता और ेमाकुलता का च
तु त कया गया है ।
या या- क व नराला कह रहे ह क बस त क व छ नमल चि का से यु त
म तीभर रा म नायक को या जु ह क कल क मृ त ने याकु ल कर दया ।
नायक पवन को अपनी या से बछुड़ने पर उसक मृ त बार-बार य थत करने लगी।
प ट श द म बास ती नशा के सु दर वातावरण को दे खकर नायक पवन को अपने
संयोगकाल न वगत अ भसार-वेला क मृ त हो आई । आसपास का प रवेश, मादक
रा उसे कामो ी त करने लगी । प रणाम व प उसके ने के सामने म- म से
अ भसार के सभी य साकार होने लगे । आज बछुड़कर उसे मलने क वे कभी न
समा त होने वाल मधुर बात भी याद आने लगी । चाँदनी से धुल वेत, कोमल,
नमल और शीतल अ रा क वेला पुन : उसके ने के सामने नाच उठ । उसे लगा
क जैसे गलबाँह डाले ेमी युगल के मधुर ेमालाप के य भी मश: मू तत होते जा
रहे है । इसी म म मृ त क कचोटने वाल ि थ त अनेक रं गीन और मादक च
म उसके सामने आ खड़ी हु ई । आ लंगन के न म त बढ़ाये हाथ के पश मा से
या के शर र म क पन ार भ हो गया था । क व यह कहना चाहता है क िजस
कार कोमल पवन के ह के पश से कल और पु प-प म क पन होता है, वैसा ह
क पन मृ त के ण म भी होने लगा । वगत म हु ए मलन क वेला क मधु र बात
चाँदनी म नहाई हु ई नमल रा और का ता का काँपता हु आ शर र आ द सभी उसे
रोमां चत करने लगा । प रणाम व प मलया नल या से मलने के लए आतु र हो
उठा । ऐसी ि थ त म नायक पवन भी अपने आपको संभाल नह ं सका । उप रव णत
सभी मृ तय ने एक होकर ेमी पवन को अपनी या से मलने को ववश कर
दया । ता पय यह है क पवन पी नायक अथवा य अपनी इस मलनो क ठा को
दबा नह ं पाया । प रणाम यह नकला क आवेग क ि थ त म उ व न और अधीर
हो पवन पी नायक या जु ह क कल से मलने के लए ती ग त से चल पड़ा ।
या- मलन क ती उ क ठा और मन म उ प न आवेग के कारण पवन पी नायक
102
को माग के बाधा वण का भी यान नह ं रहा । उ ह वह उपे त करता हु आ भयंकर
वेग से आगे बढ़ने लगा । माग म कतने ह नद -नाले, पहाड़, जंगल, खाई और काँटे
भी आये, पर उसे इस कार क बाधाओं क कोई च ता नह ं थी । प रणाम व प वह
वेग से उन सभी माग क बाधाओं को लाँघता हु आ अपनी ेयसी कल के पास जा
पहु ँ चा । वहाँ पहु ँ चकर उसने या से के ल- ड़ा क और ेयसी का लान मु ख भी हष
से उ ल सत होता हु आ आन द से भर उठा ।
ट पणी- (1) इस अवतरण म नराला ने ेमी पवन क वरह- वदवल मनोदशा का
अंकन मनोवै ा नक शैल म कया है । एक ेमी क त याओं का
वणन बड़ी सू मता से कया गया है ।
(2) उपवन सर-स रत, गहन ग र कानन' जैसे योग के मा यम से ेमी
दय म मलने क आतु रता, वदवलता और माग क बाधाओं क
उपे ा करके मलनो क ठा के कारण मा गत क ती ता को ह
सू चत नह ं कया गया है, अ पतु इस कार के श द- वधान के सहारे
नराला जी ने पाठक के सम एक सजीव और प ट ब ब तु त
कर दया है । ऐसे कम और सरल श द का सहारा लेकर इतना
सश त सजीव और भावपूण ब ब नराला ह दे सकते थे ।
(3) जु ह क कल ाकृ तक स दय क क वता है । अत: इस अंश म भी
च त सभी या- यापार ाकृ तक उपकरण से जु ड़े हु ए ह ।
वातावरण भी ाकृ तक है । मानवीकरण शैल के योग वारा इस
वणन को और अ धक प ट, ग तशील और मनोहर बनाने का यास
कया गया है । पवन नायक का या से मलने के न म त द य
बाधाओं क च ता न करते हु ए पूरे वेग से आगे बढ़ते जाना
ग तशील चा ुष ब ब क सृि ट कर रहा है । पूरे अंश म
मानवीकरण अलंकार का सु दर योग हु आ ह ।
अवतरण 3
जाने कहो कैसे य-आगमन वह!
नायक के चू मे कपोल,
डोल उठ ब लर क लड़ी जैसे हंडोल ।
इस पर भी जागी नह ,ं
चू क मा माँगी नह ,ं
न ालस बं कम वशाल ने मू ँदे रह -.
कं वा मतवाल थी यौवन क म दरा पये,
कौन कहे
नदय उस नायक ने
नपट नतु राई क
103
क झ क को झा ड़य से
सु दर सु कुमार दे ह सार झकझोर डाल ,
मसल दये गोरे कपोल गोल,
च क पड़ी युवती
च कत चतवन नज चार ओर फेर,
हे र यारे को सेज-पास,
न मु ख हँ सी- खल , खेल रं ग यारे -संग ।
श दाथ- हंडोल = झू लना, हलना । सु कुमार = कोमल । हे र = दे खकर ।
संग- नराला वारा र चत जु ह क कल क वता के इस तृतीय अवतरण म कामातुर
नायक पवन ना यका के पास पहु ँ चता है ।
या या- नराला कह रहे ह क वरह- य थत एवं कामातुर अधीर नायक पवन माग क
सम त क ठनाइय को झेलता हु आ ना यका के पास पहु ँ च जाता है । कु छ ण के
न म त वह ठठककर रह जाता है, य क ना यका त णी कल गहर नींद म नम न
थी । बहु त स भव है क ना यका व न म य- मलन के आन द का उपभोग कर
रह थी । उसे इस बात का आभास था अथवा कह क अवग त थी क व न म आने
वाले य सचमुच ह उसके नकट शैया के पास आ पहु ँ चे ह । एक ओर तो यह
ि थ त थी और दूसर ओर नायक के दय म मलन का वेग ती ता से दौड़ रहा था ।
अत: नायक पवन को इस कार नि य और चु पचाप खड़े रहना न तो उ चत लगा
और न उसके लए स भव ह था । ऐसी ि थ त म नायक पवन ने अधीर होकर अपनी
त णी को जगाने का य न कया । नीरवता म त नक भी आहट न होने पाये,
प रि थ त क यह माँग थी अत: या को जगाने के लए अधीर बने हु ए नायक ने
उसके कोमल, गोल और गोरे कपोल को चू म लया । इस चु बन से लता भी इतनी
पि दत हु ई क वह झू ले क भाँ त झू ल उठ , क तु गाढ़ न ा म म न यतमा
कल पर इस चु बन का कोई भाव नह ं पड़ा । वह यथावत सोयी रह । अपने वशाल
बं कम ने को ब द कर ना यका चु पचाप पड़ी रह । क व ने क पना क है क ी
के लए यह धृ टता क ह बात है क यतम वदे श क या ा क व वध क ठनाइय
को सहकर थका-हारा या के पास पहु ँ चा हो, क तु वह उसके वागत के लए त पर
न हो, अपनी मु कान के वारा उसक थकान उतारने के थान पर न ा के आन द म
नम न रहे । व तु त: यह कैसी गाढ़ न ा है क ह के से मीठे चु बन और पश का
उसके शर र पर कोई प दन नह ं हु आ । ऐसा तीत होता था क यौवन क मादक
म दरा का पान कर ना यका मदहोशी क ि थ त म सोयी हु ई थी । संकेत यह है क
यौवन पी म दरा को ना यका ने इतना अ धक पी लया था क उसे आसपास के
प रवेश क त नक भी सु ध-बुध नह ं रह । प रणाम व प वह भी अपने वशाल बं कम
ने क पलक को मू ँदकर गाढ़ न ा म पड़ी रह ।
104
नराला कह रहे ह क इस कार के कं चत ् यास के प चात ् जब ना यका क आँख
नह ं खु ल ं और वह य पवन के वागताथ सजग नह ं हु ई तो अधीर और कामातु र
नायक ने आवेश म आकर उसके कोमल तन क कोमलता क बना च ता कए एक
नमम य क भाँ त नदयतापूवक उस सु र य, कोमलांगी सु कु मार के कोमल शर र
को झकझोर डाला । इतना ह नह , उसने आवेश म आकर गौरवण ि न ध कपोल को
भी मसल दया । जब नायक ने आवेशम न होकर यह या क , तब ना यका अचानक
च क पड़ी । उसने च कत होकर अपने चतु दक दे खा, अपनी ि ट को घुमाया और फर
चर ती त अपने य को समीप पाकर वह रोमां चत और पुल कत हो उठ । उसने
अपने मु ख को नीचे झु का लया और यतम के अ धक समीप आ गयी । इतना ह
नह ,ं वह अपने य के साथ एका म होकर एकदे ह हो गयी ।
ट पणी- (1) क वता के इस अंश म ‘' न ालस बं कम वशाल ने मू ँद रह ‘' से
गाढ़ न ाम न त णी का ब ब बड़ा प ट और जीव त हो उठा है।
'यौवन क म दरा पये' से इसम अथ क यंजकता भावा मकता एवं
चा ता. और अ धक बढ़ गयी है ।
(2) क वतांश म व लर , नरालस बं कम और वशाल आ द त सम श द
का योग संग और भाव के अनु प हु आ है । क वतांश के अि तम
भाग म दे शज और थानीय श द का योग भी हु आ है । नठु र और
दे ह ऐसे ह श द ह ।
(3) क वतांश के अि तम भाग म नायक को नपट न ठु र कहकर नराला
ने एक कार से सु कु मार त णी के त अपनी सदाशयता य त क
है ।
(4) अि तम पंि तय म मानव-आवेग के सू म मनोवै ा नक नर ण का
प रचय मलता है । आवेग और उ तेजना के चरम ण म नायक
का न ठु र हो जाना सहज वाभा वक तो है ह , मनोवै ा नक भी है ।
105
अवतरण 1
( य) या मनी जागी ।
अलस पंकज- ग अ ण-मु ख
त ण-अनुरागी ।
खु ले केश अशेष शोभा भर रहे ,
पृ ठ - ीवा-बाहु-उर पर तर रहे ,
बादल म घर अपर दनकर रहे ,
यो त क त वी, त ड़त-
धु त ने मा माँगी ।
हे र उर-पट फेर मु ख के बाल
लख चतु दक चल म द मराल,
गेह म य-नेह क जय-माल
वासना क मु ि त, मु ता याग म तागी ।
श दाथ-या मनी = रा । अलस = अलसाये । पंकज = कमल । अ ण = सू य ।
त ण-अनुरागी = त ण यतम म अनुर त । अशेष = स पूण । पृ ठ = ीवा । बाहु-
उर = पीठ, गदन और भु जा व दय । त वी =कृ शांगी । त ड़त यु त = बजल क
चमक ।
संग- नराला वारा र चत '( य) या मनी जागी' एक लघु आकार वाल क वता है ।
इस क वता म नराला ने य के साथ रा भर जागरण करने वाल ना यका का
सु दर, सजीव च तु त कया है । यह सजीव च मनोवै ा नक ि ट से भी
अ य त मह वपूण है । पूर क वता म एक ऐसा ब ब है जो चा ुष होने के साथ -
साथ ग तशील और ना यका क व वध भं गमाओं को च त करने म नराला क
तभा का प रचायक है ।
या या- क व नराला ारि भक पंि तय म च त कर रहे ह क य के साथ
रा भर जागरण करने वाल ना यका न केवल आकषक है, अ पतु अपनी भाव-
भं गमाओं से सभी के मन को आनि दत करने वाल भी है । ातःकाल होने पर जब
या और यतम अलग होते ह, उस समय क प और भाव योजना को च त
करते हु ए नराला ने कहा है क य या मनी जाग गयी है । उसके ने अलसाये हु ए
ह । वे अ वक सत कमल के स श ह जो सू य क उ वल आभा से यु त अपने
त ण यतम म अनुर त ह । या शैया से उठते ह बड़ी अनुरागमयी तीत हो रह
है । या के केश खु ले हु ए ह क तु इन खु ले हु ए केश म अ तम शोभा समाई हु ई
है। खु ले हु ए केश ना यका क पीठ, ीवा, बाहु और व थल पर बखरे हु ए ह ।
केशरा श से घरा हु आ ना यका का मु ख ऐसा तीत हो रहा है जैसे बादल ने सू य को
घेर लया हो । वह गौरवण त वंगी ना यका अपनी चंचलता म व युत - यु त के
समान है । भाव यह है क ना यका ने मु कराते हु ए ये से मा माँगी है । मा
106
माँगना वदाई लेने का औपचा रक कृ य है । ना यका व थल पर पड़े हु ए अंचल को
संभालकर मु ख पर के बाल को पीठ क ओर समेटकर चार ओर ि ट डालकर म द
ग त से चल पड़ी है । दै नक गृह -चया म स यः वेश करने वाल इस प त ाणा ेयसी
ने य के नेह क जयमाला पहन ल है । अब वह ेयसी गृहकाय म संल न होते ह
रा क गृं ा रक चचा से एकदम मु त है । भाव यह है क रा म जो आन द ा त
हु आ, अब वह उससे मु ता होकर गृहकाय म संल न हो गयी है । नराला ने प ट
लखा है क गृ हणी और या - इस समि वत उ वल प क अ भ यि त है, जो
याग के व णम सू म परोयी हु ई है ।
ट पणी- (1) इस क वता म येक संवेदनशील और स दय पाठक को रा
जागरण करने वाल ना यका के व प क ि थ त तो दे खने को
मलती ह है, कमल तथा सू य के उपमान वारा ना यका के - सहज
ाकृ तक स दय का आभास भी दे दया गया है ।
(2) ‘खु ले केश’ म ना यका क वाभा वक ि थ त का च ण हु आ है ।
‘जयमाला’ श द नार के वजय-गव और अटू ट नेह का सू चक है ।
(3) अि तम पंि तय म भारतीय गृ हणी के उस वाभा वक व प का
वणन हु आ है जब वह प रवार के अ य लोग को अपनी गृं ा रक
ि थ त से अवगत नह ं होने दे ती है ।
(4) ‘वासना क मुि त‘ श द दाश नक आदश के साथ पा रवा रक आदश
क भी अ भ यि त कर रहा है । यहाँ गृं ा रक च को क वता के
अ त म शांत रस म प रणत कर दया गया है ।
(5) 'त ड़त यु त ' के समान ' य नेह क जयमाल' म उपमा क
नवीनता ट य है और नार को जयमाल का एक पक दे कर पाठक
के मन म मा मक संवेदना जगायी गयी है । 'अलस मु ख' म पक है
और त वी-त ड़त म अनु ास का स दय दे खते ह बनता है । ‘ याग
म तागी’ म वरोधाभास का स दय भी ट य है ।
107
नराला उन सभी ि थ तय को पार करके नर तर आगे बढ़ते रहे । एक कार से
जीवन म संघष समा त हो चु का ह और मान सक अवसाद क कोई ह क -सी छाया
य द कोई है, तो वह मा इस बात को लेकर है क अब जीवन का सा यकाल आ रहा
है । इस ह क छाया के बावजू द नराला न तो हताश ह, न नराश ह, अ पतु जीव त
बने हु ए ह ।
अवतरण 1
म अकेला,
दे खता हू ँ, आ रह
मेरे दवस क सां य बेला ।
पके आधे बाल मेरे,
हु ए न भ गाल मेरे
चाल मेर म द होती आ रह
हट रहा मेला ।
जानता हू ँ नद -झरने
जो मु झे थे पार करने
कर चु का हू ँ हँ स रहा यह दे ख,
कोई नह ं भेला ।
श दाथ- सां य वेला = जीवन का अि तम समय, वृ ाव था । न भ = भावह न,
चमकह न यो त र हत । मेला = जीवन के त आकषण, जगत के त आकषण ।
भेला= नाव, नौका ।
संग- नराला क यह लघु आकार वाल क वता 'म अकेला' अ य त मह वपूण है ।
यह वह क वता है िजसम नराला ने अपने जीवन-संघष के त अपनी भावनाओं को
श दब कया है । अनेक कार के संघष , नराशाजनक ि थ तय और व व को
पार करके नराला अब एक आ वि त क मु ा म ह, क तु साथ ह अपने को अकेला
भी अनुभव कर रहे ह । नराला कह रहे ह क अब इस जीवन म - इस संसार म म
अकेला रह गया हू ँ । एक कार से जीवन के अि तम छोर पर पहु ँ च गया हू ँ । जीवन
का अि तम समय वृ ाव था का सू चक ह ।
या या- नराला अपने को अकेला अनुभव करते हु ए इस जीवन क सां यवेला का
अनुभव कर रहे ह । अपनी इसी भावना से े रत होकर वे कह रहे ह क अब तो मेरे
आधे बाल भी पक गये ह । अब तक कपोल म जो ला लमा और आभा दखाई दे ती
थी, वह भी अब शेष नह ं रह गयी है । वाभा वक है क जीवन जब यौवन के
सीमा त को पार करके वृ ाव था क ओर बढ़ने लगता है, तब कपोल क आभा और
चेहरे क द ि त ीण से ीणतर होती जाती है । इतना ह नह ,ं ग त म भी म दता
आ जाती है । नराला भी अपनी ग त क म दता को अनुभव कर रहे ह । एक कार
से प ट श द म वे कह रहे ह क ग त के म द पड़ जाने और कपोल क आभा के
108
ीण पड़ जाने से अब पूव क भाँ त संघष करने क मता भी नह ं रह है । ऐसी
ि थ त म संसार और जीवन के त मेरा अब आकषण नह ं रह गया है । अब तक
मेरे त िजन लोग का आकषण था, अब वह भी दूर होता जा रहा है । क व अ त म
कह रहा है क जो कु छ नद , नझर उसे पार करने थे, उन सभी को वह पार कर चु का
है । अ भ ाय यह है क अपने जीवन और जगत ् के सम त संघष को पार करके
नराला एक कार से अकेला अनुभव करते हु ए भी हँ स रहे ह । उ ह हँ सी इस लए नह ं
आ रह है क वे दुखी ह, अ पतु अब तक जो कु छ जीवन म घ टत हु आ, वह एक
तमाशा मा था, सांसा रक संघष- म था, इस लए वे हँ स रहे ह क अब तो उनके पास
कोई नौका भी नह ं है । नौका के सहारे जीवन-सागर को पार कया जा सकता है,
क तु जब नौका ह न रहे , अथात ् कोई साधन ह न रहे तो कस बलबूते पर जीवन
को पार कया जा सकता है । संकेत यह है क अब तक तो उ ह ने अपनी शि त,
िजजी वषा और संघष करने क वृ ता के बल पर जीवन को बताया, क तु अब वैसी
मता भी शेष नह ं रह गयी है ।
ट पणी – (1) इस क वता म अव था के अनुसार नराला ने अपने जीवन क
वा त वक अनुभू त का च तु त कया है।
(2) समूची क वता म क व नराला ने अपने पु षाथ और संघषशील
यि त व क ओर भी प ट संकेत कर दया है । अपराजेय
यि त व के धनी नराला जीवन के अि तम सोपान क ओर बढ़ते
हुए य द अकेलेपन का अनुभव कर रहे ह तो यह एक सहज
वाभा वक ि थ त का प रणाम है।
(3) क वता क भाषा सहज, सरल और यावहा रक है । उसम एक वाह
है जो क व क मनोदशा को न केवल संके तत करता है, अ पतु
उसका यथाथ और व वसनीय ब ब भी तु त कर दे ता है ।
109
तु त करता है। ऐसा तो स भव ह नह ं है क मानव-जीवन सदै व बना रहे, उसम
वषाद और वेदना के साथ-साथ र तता क अनुभू त का आना भी वाभा वक है। यह
कारण है क ‘ नेह नझर बह गया है' जैसी क वता का सृजन हु आ है।
अवतरण 1
नेह- नझर बह गया है।
रे त य तन रह गया है।
आम क यह डाल जो सू खी दखी,
कह रह है - 'अब यहाँ पक या शखी
नह ं आते, पंि त म वह हू ँ लखी
नह ं िजसका अथ-
जीवन दह गया है।'
दये ह मने जगत को फूल-फल.
कया है अपनी तभा से च कत-चल,
पर अन वर था सकल प ल वल पल-
ठाट जीवन का वह
जो ढह गया है ।
अब नह ं आती पु लन पर यतमा,
याम तृण पर बैठने को, न पमा।
वह रह है दय पर केवल अमा,
म अल त हू ँ, यह
क व कह गया है।
श दाथ- नेह नझर = ेम का झरना । पक = कोयल । शखी = मोर । दह गया है
= जल गया है। भा = काश । चल = चलायमान संसार । अन वर = नाश र हत ।
पु लन = कनारा । न पमा = अ तम सु दर । अमा = अँधेर रा । अल त =
उपे त या जो दखाई न दे ।
संग- ' नेह नझर बह गया है’ शीषक इस क वता के अ तगत क व नराला एक ओर
तो जीवन क न वरता और असारता को च त कर रहे ह और दूसर ओर अपने मन
क नराशा को अ भ य त कर रहे ह ।
या या- जीवन क न वरता को प ट करता हु आ क व कहता है क एक समय था,
जब क मेरे यौवनकाल म मेरे जीवन म नेह का झरना वा हत था । अब वह समय
बीत गया है अत: झरने के वाह का कोई भी च न शेष नह ं बचा है । जल के बह
जाने पर जैसे म ी अथवा सू खी रे त शेष रह जाती है, वैसे ह शर र के पानी अथात ्
शि त के वह जाने के कारण मेरा शर र सू खे रे त क तरह शेष रह गया है। क व
कहता है क मेरे शु क जीवन पी आ वृ क सू खी डाल मु झसे कह रह है क
बस त के दन बीत जाने के कारण अब मेरे शर र-वृ पर कोयल और बस त आकर
110
मधुर राग का आलाप नह ं करते ह फलत: मेरा जीवन का य क उस अथह न पंि त
क तरह हो गया है जो न तो अपना औ च य और अथ ह मा णत कर पाती है और
न अपनी ओर कसी का यान ह आक षत करने म समथ हो पाती है। वा तव म,
अब तो इस जीवन का सु ख-स दय जलकर राख होता जा रहा है ।
क व कहता है क मेरे जीवन पी आ वृ क डाल जैसे कह रह है क मने आज
तक तु ह व वध कार के फल-फूल अ पत कए ह, क तु अब दे ने को कु छ भी नह ं
बचा है । आज तक मने अपनी हर तमा और फल व रस क सरसता से सम त संसार
को च कत बनाया था, पर तु मेरे शर र-वृ के वकास के सारे संदभ न वर नकले ।
भाव यह है क संसार म सब कु छ न वर है-शर र, यौवन और सम कृ त वैभव ।
कु छ भी अजर अमर नह ं है । अ तत: क व कहता है क अब तो जीवन का वह सारा
वैभव ह न ट हो गया है, जो कभी था और अपनी सु षमा से सबको आक षत करता
रहता था । क वता त म क व यह अनुभव कर रहा है क अब कह ं भी सरसता शेष
नह ं रह गयी है । यह कारण है क आम क यह सू खी डाल भी कह रह है क अब
मेरे कनारे या नीचे उगी हु ई घास पर या बछ हु ई पि तय पर बैठने और ेमालाप
करने के लए कोई अ तम सु दर भी नह ं आती है । अब समय बीत जाने पर जैसे
सम त आन द और उ लास समा त हो गया है । मेरे शेष जीवन म केवल गहनतम
अंधकार अँधेर रात के समान ह बह रहा है। जीवन म कोई उ साह और सरसता का
काश अब शेष नह ं रह गया है। इसी भाव से े रत होकर क व ऐसे ह वर म कह
रहा है क म भी अब इस संसार म उपे त-सा हो गया हू ँ । ता पय यह है क मेरे
दय पर अमाव या का-सा अंधकार या त हो गया है। इस अंधकार म म अल त हू ँ,
कह ं मेरा अि त व दखाई नह ं दे रहा है । नराशा के सघनतम ण म क व क यह
अनुभू त उसक हताशा क धोतक न होकर जीवन के सीमा त पर पहु ँ चकर एक सहज
वाभा वक ि थ त का ह नदशन है ।
ट पणी- (1) तु त क वता म उपमा का साथक योग कया गया है, वणन म
सजीवता है और यथाथ ज नत क णा भावना का सार है।
(2) सम त वणन तीका मक है। ‘ नेह नझर बह गया है’, 'पंि त म
वह हू ँ लखी नह ं िजसका अथ' आ द उपमान मौ लक होने के साथ-
साथ संग-सापे और भावानुमो दत है। इनम एक ऐसी क णा का
वाह है जो पाठक के मन ाण को भगो दे ता है ।
111
शांत वातावरण होता है, प य का कलरव ब द हो जाता है उसी कार नराला क
यह सं या-सु दर मौन रहकर थके हु ए जीव को अपने अंक म व ाम दे ने के लए
धरती पर उतर रह है। सा योपमा के प म क वता क व क अदभू त सू झबूझ का
माण है। वा तव म सं या-सु दर जो मेघमय असमान से पर के समान उतर रह है,
का मानवीकृ त प क वता को व श टता दान कर रहा है।
अवतरण 1
दवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रह है
वह स या-सु दर पर -सी
त मरांचल म चंचलता का नह ं कह ं आभास
मधुर -मधुर ह दोन उसके अधर,- क तु ग भीर-नह ं है उनम हास- वलास ।
हँ सता है तो केवल तारा एक
ँ राले काले बाल से,
गुँथा हु आ उन घुघ
दय-रा य क रानी का वह करता है अ भषेक ।
अलसता क -सी लता
क तु कोमलता क वह कल ,
सखी नीरवता के क धे पर डाले बाँह,
छाँह-सी अ बर-पथ से चल ।
श दाथ- दवसावसान = दन ढलने का समय, सं या । मेघमय आसमान = बादल से
भरा आकाश । सं या-सु दर = सु दर युवती सं या । त मरांचल = अ धकार के
दामन म । हास वलास = हँ सी । तारा = आकाश म सं या के समय चमकने वाला
एक तारा, बाल के बीच चमकने वाला मोती । अलसता = आल य । नीरवता = शां त,
खामोशी । अ बर-पथ = आकाश माग पर ।
संग- ‘सं या सु दर ’ नराला क बहु च चत और छायावाद स दय और श प से
अ भ ष त क वता है । इस अवतरण म नराला ने सं या-सु दर का मानवीकरण करते
हु ए उसके धरती पर धीरे -धीरे उतरने का भावोपम च तु त कया है । इस च ण म
वाभा वकता के साथ-साथ एक ऐसी व श टता भी है जो कसी सु दर ना यका क
ग त और ि थ त को न पत करती है।
या या- क व नराला कृ त का मानवीकरण करते हु ए कह रहे ह क सं या हो गयी
है, आकाश बादल से भरा हु आ है। चार ओर धीरे -धीरे अंधकार फैलता जा रहा है।
वातावरण मौन-शांत है और चंचलता अथात ् दन का कोलाहल समा त हो गया है। क व
इस वातावरण का आरोपण एक ना यका के प म करता है। सं या एक सु दर पर के
समान धीरे -धीरे बादल से भरे आकाश से नीचे उतर रह है, पर उसम अ य ि य क
तरह चंचलता नह ं है। उसका आँचल जो अंधकार क तरह काला है, ि थर है, उसम
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कोई फरफराहट नह ं है । उसके अधर यौवन के उ माद से भरे होने के कारण मधु र ह,
पर ह जरा ग भीर और उनम हँ सी भी दखाई नह ं दे रह है। क व नराला कहते ह
क यह सं या-सु दर जो आकाश से चु पचाप नीचे उतर रह है, उसके इद- गद
स नाटा-सा छाया हु आ है । चार ओर अ धकार छा गया है, उसम दूर केवल एक तारा
टम टमा रहा है जो इसका अ भषेक करता हु आ तीत होता है। इसी कार इस सु दर
युवती के काले-काले घुघ
ँ राले बाल म एक मोती तारे क तरह -चमक रहा है जो उस
दय-रा य क रानी का अ भषेक-सा कर रहा है। यौवन के भार से लद हु ई सं या पी
ना यका बार-बार अँगड़ाई लेकर आल य कट कर रह है, ले कन साथ ह बहु त कोमल
भी है। वह अपनी सहेल नीरवता के साथ छाया के समान आकाश माग से जा रह है।
ट पणी- (1) अवतरण के अ तगत कृ त का मानवीकरण कया गया है। सं या के
मानवीकरण वारा नराला ने अदभू त, साथक और एक वश ट
क पना क है ।
(2) इस अवतरण म सं या-सु दर को पर -सी बतलाकर, अलसता क -सी
लता और छाँह-सी जैसे योग वारा उपमा अलंकार का साथक योग
कया गया है। ‘काले-काले’ म पुन ि त काश अलंकार है और अनु ास
क छटा तो दे खते ह बनती है।
(3) अवतरण म यु त श द- वधान ग या मक ब ब क ि ट से
आकषक और जीव त बन पड़ा है। ‘छाँह-सी अ बर-पथ से चल ’ं
पंि त म क व क मनोहर क पना और अ त
ु सू झबूझ का माण
मलता है । नीरवता को सं या क सखी बतलाकर नराला ने
वातावरण म सजीवता भर द है । स पूण अवतरण क व के क पना-
स दय और भावुक मन का जीव त नदशन है।
अवतरण 2
नह ं बजती उसके हाथ म कोई वीणा,
नह ं होता कोई अनुराग-राग आलाप,
खर म भी न-शु न न-शु न न-शु न नह ,ं
सफ एक अ य त श द-सा “चु प चु प चु प”
है गूँज रहा सब कह -ं
योमम डल म - जगती-तल म-
सोती शा त सरोवर पर उस अमर कम लनी-दल म-
स दय-ग वता-स रता के अ त व तृत व ः थल मे-
धीर वीर ग भीर शखर पर हम ग र-अटल-अचल मे-
उ ताल-तरं गाघात- लय-घन-गजन-जल ध- बल म-
त म-जल म-नभ म-अ नल-अनल म-
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सफ एक अ य त श द-सा “चु प चु प चु प”
है गूँज रहा सब कह ,ं -
और या है? कु छ नह ं।
श दाथ- अनुराग-राग-अलाप = आन द म म त करे दे ने वाला श द । योम-म डल =
आकाश । जगती-तल = धरती । अमल = मलह न, साफ । उलाल-तरं गाघात = ऊँची-
ऊँची तरं ग वाला । त = पृ वी । अ नल = वायु । अनल = आग । अ य त = न
सु नाई दे ने वाला ।
संग- क व नराला इस अवतरण म सं या के समय के चार ओर के वातावरण का
च तु त करते हु ए सु दर ना यका के अ भसार के न म त जाते समय के
वातावरण का ब ब तु त कर रहे ह । इस च ण म इतनी अ धक सजीवता है क
समूचा अवतरण एक आकषक वातावरण ब ब का उदाहरण बन गया है ।
या या- क व नराला कह रहे ह क सं या के समय वीणा के वर म द पड़ जाते ह
इस लए सं या-ना यका के हाथ म वीणा भी झंकृ त नह ं हो रह है । सामा यत:
ना यका के हाथ से जब वीणा झंकृ त होती है, तब उससे नःसृत होने वाले वर म
अनुराग और ेम क गंध होती है, क तु सं या-ना यका के हाथ म वीणा भी नह ं
झंकार कर रह है। उसके वर से अनुरागमय आलाप भी नह ं नकल रहा है। चार
ओर स नाटा या त है और एक अ य त श द “चु प-चु प-चु प” चतु दक गूँज रहा है ।
यह गेज न केवल ना यका के आसपास है, अ पतु समूचे वातावरण म या त है। यह
स नाटा आकाश म, धरती म और समूचे वातावरण म गूँजता-सा लग रहा है। सं या के
समय य भी स पूण वातावरण शांत हो जाता है। सरोवर भी शांत है और उसके ऊपर
वक सत कम लनी भी शांत मु ा म सोयी हु ई है। इतना ह नह ,ं स दय के भार से
उफनती नद का वशाल जल से भरा सपाट व थल भी इस समय शांत दखलाई दे
रहा है। बफ से आ छा दत रहने वाला हम ग र भी मौन योगी क भाँ त तप याल न है
और उ ताल तरं ग वाला लय स य गजना करने वाला सागर भी इस समय स नाटे
के इस वातावरण को और भी मु ख रत कर रहा है। भाव यह है क समू चे प रवेश म,
स पूण वातावरण म, कृ त के अंग-अंग म शां त या त है, सव स नाटा है । जल,
आकाश, वायु, अि न और ध र ी पर चार ओर यह स नाटा पूर तरह छा गया है और
एक अ य त व न चु प-चु प क चार ओर भराती हु ई गूँज रह है। यह एक व न है
और इसके अ त र त और कु छ भी नह ं है। लगता है जैसे सब कु छ शां त के अपार
सागर म नम न हो गया है।
ट पणी- (1) इस अवतरण म नराला ने त ध वातावरण का बड़ा सश त और
भावी ब ब तु त कया है। इसे हम वातावरण क शां त का वराट
ब ब कह सकते ह। सं या के समय जब रा घरने लगती है, तब
वातावरण का समूचा कोलाहल वयं ह शांत हो जाता है । उसी क
ओर क व ने अपनी क पना- तभा से यह ब ब तु त कया है ।
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(2) इस अवतरण म अनु ास , पुन ि त काश जैसे अलंकार का ह योग
हु आ है। स पूण अवतरण एक ऐसे भावमय संि ल ट ब ब क ती त
कराता है जो नराला जैसे तभा-पु के कौशल का ह प रणाम कहा
जा सकता है ।
(3) स पूण अवतरण म छायावाद स दयबोध, भाषा क व श टता, शैल
क वाहशीलता और ब ब क संि ल टता वधमान है।
अवतरण 3
म दरा क वह नद बहाती आती
थके हु ए जीव को वह स नेह
याला वह एक पलाती
सु लाती उ ह अंक पर अपने
दखलाती फर व मृ त के वह कतने मीठे सपने ।
अ रा क न चलता म हो जाती वह ल न,
क व का बढ़ जाता अनुराग,
वरहाकुल कमनीय क ठ से
आप नकल पड़ता तब एक वहाग ।
श दाथ- म दरा = शराब । अंक = गोद । अ रा = आधी रात । न चलता= खामोशी
। वरहाकु ल कमनीय क ठ = वरह से भरा पर कोमल क ठ । वहाग = सवेरा ।
संग- सं या सु दर क वता के इस अवतरण से पूव तक क व नराला सं या का वणन
कर रहे थे और सं या के समय के वातावरण को बि बत कर रहे थे, क तु यहाँ
आकर सं या का वणन रा क ओर बढ़ गया है। एक कार से इन पंि तय म क व
का अगर भाव भी च त हु आ है और सं या-सु दर क ि थ त का न पण भी कया
गया है ।
या या- क व नराला कह रहे ह क मौन माग से चलकर आती हु ई सं या या सु दर
पी ना यका वासना से आवृ त नह ं है, फर भी उसक म ती उसके अंग से छलक
रह है। ऐसा लगता है क म ती शराब क एक स रता के समान बहती हु ई आ रह है
जो थके हु ए ाण को म दरा का एक याला पलाकर अपने अंक म सु ला लेती है।
क व का संकेत यह है क सं या के समय थके-हारे मनु य जब अपने घर को लौटते
ह, तब वे एक ऐसी थकानभर खु मार से भी यु त होते ह क शी ह वे रा क
गोद म सो जाना चाहते ह । इसी भाव को य त करने के लए नराला ने शराब क
नद जैसा योग कया है। यह भी संकेत यहाँ है क लोग शराब क म ती म भर
उठते ह और अपनी ेयसी के अंक म खलवाड़ करते हु ए सोकर अपनी थकान मटाते
ह, अपनी लाि त को दूर करते ह । नराला ने बड़ी शाल नता से यह संकेत भी यहाँ
कर दया है । लोग लाि त मटाते ह और फर उ ह अनेक कार के मधु र व न भी
दखाई दे ते ह । सपने रा क गहनता पर ह ाय: अ रा म आते ह। इसके बाद
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इन सपन म सभी ल न हो जाते ह तो क व का अनुराग बढ़ जाता है। उसके क ठ से
एक वरहाकु ल राग फूट पड़ता है और यह राग सभी को जागरण का संदेश दे ता है।
यह संदेश ात:वेला के आगमन का सूचक होता है।
ट पणी- (1) वणन गृं ारपरक हो गया है। क व क क पना मता और सू म भाव
को उभारने क शैल भा वत करने वाल है।
(2) अि तम तीन पंि तय म नराला ने क वजनो चत यथा का च ण
भी कया है और संसार को जागरण का संदेश भी दया है।
(3) इस अवतरण म म दरा, स नेह, व मृ त , अ रा , न चलता,
वरहाकुल और कमनीय व वहाग जैसे श द भाषा क त समीकरण
वृ ती को य त कर रहे ह।
5.4 अ यासाथ न
1. 'जु ह क कल ' क वता के का य-स दय पर काश डा लए।
2. ' य या मनी जागी’ क वता म व णत ना यका के प-स दय पर एक ट पणी
ल खए।
3. 'म अकेला' नामक क वता का मू ल भाव प ट क िजए।
4. न न ल खत का यांश क या या करते हु ए उसके श प-स दय पर काश
डा लए-
(अ) वजन-वन-व लर ................................कमनीय गात।
(ब) खु ले केश अशेष.............................. मा माँगती।
(स) दवसावसान का समय............... अ बर-पथ से चल ।
5.5 संदभ थ
ं
1. डॉ. राम वलास शमा : नराला क सा ह य-साधना
2. डॉ. ह रचरण शमा: नराला क ब ध-सृि ट
3. आचाय नंददुलारे वाजपेयी : क व नराला
4. मधुकर गंगाधर: नराला: जीवन और सा ह य
♦♦♦
116
इकाई-6 सू यका त पाठ नराला के का य का अनुभू त व
अ भ यंजना प
इकाई क परे खा
6.0 उ े य
6.1 तावना
6.2 क व और का य-या ा
6.3 का य का अनुभू त प
6.3.1 कृ त-स दय
6.3.2 ेम और गृं ार भावना
6.3.3 औ स वकता
6.3.4 क पना-वैभव
6.3.5 आ याि मकता
6.3.6 भि त भावना
6.3.7 रा यता
6.3.8 यं य और वनोद
6.3.9 सां कृ तक चेतना
6.3.10 घनीभू त वषाद
6.4. का य का अ भ यंजना प
6.4.1. का य- प
6.4.2 का य-भाषा
6.4.3 अलंकार योग (अ तु त वधान)
6.4.4 तीक योग
6.4.5 ब ब योग
6.4.6 छ द योग (छ द के बंधन से मु ि त)
6.5 सारांश
6.6 संदभ थ
ं
6.7 अ यासाथ न
6.0 उ े य
संके तत इकाई के अ ययनोपरा त आप :
छायावाद के आधार त भ सू यका त पाठ नराला के यि त व और कृ त व से
प र चत हो सकगे ।
छायावाद क वय म नराला क ि थ त से भल -भाँ त अवगत हो सकगे।
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नराला क का य-या ा से पूणत: प र चत होकर उनके का य के अनुभू त प का
स यक् अ ययन कर सकगे।
नराला-का य के अ भ यंजना प से प र चत हो सकगे।
छायावाद क वय म नराला क ि थ त, उनक ग तशीलता और उनके योगदान
से अवगत हो सकगे।
6.1 तावना
नराला सावभौम तभा के शु पु ष थे। ह द क वता को उनसे एक दशा मल -एक
ऐसी राह मल जो ववेद युगीन इ तवृ ता मकता , उपदे परकता और नीरसता के
कंकड़-प थर को कू ट-पीसकर बनायी गयी थी। वे वयं इस राह पर चले और अपने
का य-सृजन को अथ-माधु य, भ यता, वेदना और अनुराग से भरते चले गये। यह
कारण है क उनका का य एक नज व संकेत मा नह ं है। उसम रं ग और गंध है,
आसि त और आन द के झरन का संगीत भी है तो अनासि त और वषाद का वर
भी है। उसे पढ़ते समय आन द के अमृत - ब दुओं का पश होता है और मन का
येक कोना अवसाद व वेदना क घनी परत से घरता भी जाता है। इतना ह य,
उनके कृ त व म ‘नयन के लाल-गुलाबी डोर' ह, जु ह क कल क ि न ध भावोपम
े मलता भी है तो व लव के बादल का गजन-तजन भी है। 'जागो फर एक बार' का
उ तेजक आसव भी है और िज दगी क जड़ म समाते जाते ख े-मीठे , क ण-कोमल
और वेदना स त अनुभव का नचोड़ भी है। व तु त: नराला ने अपने ताप से समाज
और सा ह य म या त ढ़य का वरोध कया, च ो जवल यि त व से राग-भावना
क स रता म नम जन कया और वणशीलता से शो षत , पी ड़त और ववश मानव-
जा त के त क णा, सहानुभू त और मानवीय भाव का काशन कया । उनक त त,
व ोह और ने हल ि ट से वक रत करण से भा वर मं दर और क ण संवेदनशील
काश फूटा।
6.2 क व और का य-या ा
नराला का यि त व श द के चौखटे म नह ं समा सकता है, वे बहु त सी वशेषताओं
के बाद भी वशे य रह जाते ह। वे अना मका के च कार, ‘भार त जय वजय करे ' के
ला सक गायक और यं य के सफल यो ता थे। लगता है क उनका दद कह ं गहरे
म था। अत: उसका ऊपर मू यांकन समीचीन नह ं है। य द हम उनके वारा र चत
का य का स यक् मू यांकन करे तो लगता है क वे झू ठे, बनावट और अनपे त
बंधन को ठु कराकर व छं द ग त से चलने वाले वत चेता कलाकार थे। यह कारण
है क उ ह ने अतीत के उपयोगी त व को हण करते हु ए नवीन माग का अनुसंधान
कया । इस मागा वेषण म नराला का यि त व कह ं भी थ लत नह ं हु आ है।
आचाय वाजपेयी ने कहा है क 'िजतना स न अथवा अ ख लत यि त व नराला जी
118
का है, उतना न साद का है, न पंत का है। यह नराला जी क समु नत का य-
साधना का माण है।' नलप और तट थ यि त व के धनी नराला जी का सा ह य
उनके इसी यि त व का तफलन है। उनका व वधा मक और अ ुत यि त व उनक
सजना मता का सहगामी रहा है। व ोह, शि त, स दय और मानवा था के त
नराला का कृ त व का य, कहानी और उप यास आ द के प म सामने आया है।
नराला का यि त व और कृ त व कसी एक वाद या वृ त म घरा नह ं रहा, वह
व छं द नवीन और ग तमय रहा है। आधु नक युग क ाय: सभी वृि तयाँ नराला
के कृ त व म पं दत दखाई दे ती ह। कारण, नराला क दग त या पनी तभा ने
समूचे युग को अपने म समेट लया था। अत: कोई भी समकाल न वचार- वाह या
वृि त उनसे कतराकर नह ं जा सक । छायावाद और छायावादो तर का यधाराओं को
नराला ने अथव ता, उदा तता और यापकता के साथ साथ युग ि ट दान क । इस
कार नराला का कृ त व ार भ से लेकर नर तर ग तशील बना रहा है। उसम
स दय, क पना और गृं ार क वेणी लहराती है, भि त का अमंद वाह भी युगीन
वषमताओं को प र ा लत ह करता है और ग तशील चेतना वल यत मानवीय ि ट,
यापक मानवतावाद भू मका और मु त जीवन ि ट के त आव यक ललक दखाई
दे ती है। अत: नराला के कृ त व म क पना का वैभव, स दय-कु सुम का संभार, भि त
और अ या म क शांत न छल भागीरथी का अज वाह और ग तशील चेतना
े रत यथाथ जीवन ि ट को दे खा जा सकता है। 'प रमल', 'अना मका, 'गी तका',
‘तुलसीदास', 'कुकुरमु ता, 'अ णमा', ‘बेला’, 'अपरा’, ‘नये पले’, 'अचना’, 'आराधना’,
‘गीतगु ज
ं ’, और ‘सा यकाकल ’ नराला के कृ त व क महनीय उपलि धयाँ ह।
'अना मका' नराला का थम का य-सं ह है जो सन ् 1922-23 म का शत हु आ। इसे
ह द सा ह य क थम वशु व छ दतावाद कृ त वीकार कया जा सकता है।
नराला के कृ त व क दूसर पहचान 'प रमल' नामक कृ त से सामने आयी। इसका
काशन सन ् 1930 म हु आ। 'गी तका' नराला क तीसर का य-कृ त है जो प रमल
क ह भू मका पर गहरे भावबोध को य त करने वाल है। सन ् 1936 म का शत
इस कृ त म 101 गीत ह । इन गीत म व वध भावानुभू तया को वाणी मल है। सन ्
1938 म 'अना मका’ का पुन काशन हु आ जो पहल अना मका से भ न कार क
रचना है। यह वह का य-सं ह ह िजसम नराला-का य क अ धकांश वृि तयाँ कसी न
कसी प म दखाई दे ह जाती ह । 'तु लसीदास' नराला क पाँचवीं ब धा मक कृ त
है । इसम मा सौ छ द म तु लसीदास के जीवन म घ टत प नी क फटकार, ह-
याग और तदन तर स या वेषण क या को क वताब कया गया है। इसके थम
भाग म सां कृ तक हास व तु लसी के ज म, दूसरे म कृ त वारा ान- दा यनी ेरणा
तथा प नी के त आसि त और अि तम भाग म प नी क फटकार से भोग- वमु ख
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तु लसीदास का रामो मु ख व स यो मुख होना च त है। व तु त: 'तु लसीदास' यि त म
युगधम के वेश क और आ मा के उ नयन क कहानी है।
'कुकुरमु ता' नराला क नये मोड़ और नये भावबोध क कृ त है। इसम नराला का
ग तशील ि टकोण एवं यं यबोध आम भाषा म अ भ य त हु आ है। 'कु कु रमु ता’
यं य-का य क ेणी म अपना सानी नह ं रखता है। शैि पक भू मका पर यह एक
सरल और सीधी रचना होकर भी पया त सश त कृ त बन गयी है। नराला क सातवीं
कृ त 'अ णमा’ है जो सन ् 1943 म का शत हु ई। इसम गीत ह, जो भि त, वषाद,
क णा और शि त या वृ त-लेखन क वृि तय से यु त ह। इसके अ धकांश गीत म
क णा का सार है, वषाद का वर है और तमाम पीड़ाओं को श मत करने वाल
भि त क अज धारा है। सन ् 1943 म ह नराला क आठवीं कृ त 'बेला’ का
काशन हु आ। इसक क वताओं म वनय का वर है, वृि तपरक ि टकोण है,
गृं ा रक यंजना है, यं य और वनोद के छ ंटे ह, सामािजक और रा य भावधारा को
संके तत करने वाल च तन धान क वताएँ भी ह। इसके प चात ् 1946 म 'अपरा’ का
काशन हु आ। इसम ‘जागो फर एक बार’ और 'बादल राग’ जैसी े ठ क वताओं को
थान ा त हु आ है। ‘नये प ते' शीषक कृ त का काशन भी सन ् 1946 म ह हु आ।
इसक क वताओं का वर भी ‘बेला' के समान ह है, क तु यथाथवाद वर पूवापे ा
अ धक है। 'अचना’ शीषक कृ त का काशन सन ् 1950 म हु आ । इसम आ याि मक,
भि तपरक, कृ तपरक, गृं ा रक और योगशील गीत भी ह। भि तभाव भी यहाँ
पया त मा ा म है। सन ् 1953 म 'आराधना’ नामक कृ त का काशन हु आ और इसी
वष ‘गीतगु ज
ं ' का भी काशन हु आ। ‘गीतगुज
ं ’ और 'आराधना' का वर भी ाय: वह
है िजसे हम भि त का वर कह सकते ह। वषय और शैल दोन ह ि टय से ये
गीत गी तका क पर परा म आते ह। ‘सां यकाकल ’ नराला क क वताओं का अि तम
सं ह है। 68 क वताओं के इस सं ह म वषाद क घनी छाया भी है और कृ त का
वैभव भी है। क व संसार क वषमता से य थत और पी ड़त होकर भी आ थावाद है ।
प ो कं ठत जीवन का वष बुझा हु आ है, आशा का द प जलता है दय-कं ु ज म जैसी
पंि तयाँ इसका माण ह। यह है नराला क का य-या ा का सं त प रचय और
वै श य।
6.3 का य का अनु भू त प
ां त के अ दूत , पौ ष के गृं ार, युगीन वषमताओं और नजी यथाओं से तप-तचकर
बने नभ क, प टवाद और मानवता का जयघोष करने वाले नराला ह द क वता के
पर प रत मेघा छा दत गगन म म या के सू य, न त ध रजनी के च और
सां यकाल न आकाश म न मु खी दनकर बनकर कट हु ए। उनका का य- सृजन एक
ऐसा प र य तु त करता है, िजसम गहरे उतरकर ह कु छ पाया जा सकता है। उनके
सम का य-सागर म अवगाहन करने पर जो आनुभू तक वृि तय के मोती हाथ लगते
120
ह, उ ह हम कृ त स दय, गृं ार, क पना-वैभव, औ स वकता आ याि मकता, भि त-
भावना, ेम-भावना, यं यशीलता, वनोद यता, रा यता. सां कृ तक चेतना, ां त
भावना, घनीभू त वषाद भावना और मानवता जैसे शीषक म रखकर समझ सकते ह ।
6.3.1 कृ त स दय
121
मेघमय आसमान से उतर रह है
वह सं या सु दर पर -सी
धीरे -धीरे -धीरे ........ ।
छायावाद क वय म कृ त च ण क जो प तयाँ च लत रह ह, वे ाय: सभी
नराला का य म मलती ह । उनके सं या, भात, वषा, शरद, बस त और बादल के
स दय के च अपने म अनूठे ह । कह ं कह ं कृ त और मानव के यापार एक साथ
मलकर सामने आये ह । गी तका का ‘रं ग गयी पग पग ध य धरा’ गीत कृ त के
वैभव से समटा हु आ लगता है । यान दे ने क बात यह है क कृ त के गृं ा रक,
मधुर और कोमल प को जैसे ह समाज और भौ तक स यता के आघात लगते ह,
वैसे ह कृ त क छ वय से व ोह और यं य का रं ग बरसने लगता है । बादल
क वता इसका माण है । इसम बादल के वारा युग को अ याचार के लए चु नौती द
गयी है । यह व लव नव नमाण क भू मका पर है । धीरे -धीरे क व अपनी अि तम
रचनाओं तक पहु ँ चकर कृ त व रमणीयता म ह संतोष लाभ करता दखाई दे ता है ।
व तु त: कृ त क वधा ह ऐसी है जो उ ह सदै व और सभी रचनाओं के सृजन के
दौरान शि त और आ लाद वत रत करती रह है । उ ह सामािजक और मान सक
संघष क वभी षका से य द कोई शि त कु छ राहत दला सक है तो वह कृ त ह
है। कृ त नराला के लए संजीवनी बनकर आई है।
नराला के कृ त- च ण क अ य वशेषताओं म दाश नक भाव का अ भ यंजन भी
मह वपूण है। उनक अनेक क वताओं म दाश नक वचारणाएँ कृ त के मा यम से
य त हु ई ह। तु म तु ंग हमालय ग ृं और म चंचल ग त सु रस रता / तु म वमल दय
उ छवास और म का त का मनी क वता' इसका उदाहरण है। ‘प रमल' क भू मका म
नराला क वीकारोि त भी है। उनके श द ह “प लव के हलने म कसी अ ात
चर तन, अना द, सव को हाथ के इशारे से अपने पास बुलाने का इं गत य त:
दे खा जा सकता है।'' य नराला क कृ त-छटा आलंका रक, उपदे शा मक, उ ीपना मक
और रह या मक आ द सभी प म उपल ध है, क तु कृ त का शु अंकन और उसी
म शां त पाने का भाव नराला का य क अ तम वशेषता है। नराला ने ाय: सभी
ऋतु ओं का वणन कया है, क तु यता क ि ट से वषा का थान सव प र रहा है।
वषा के बाद बस त को क व का मम व ा त हु आ है। नराला के ऋतु वणन म वषा
को इतना मह व और मम व मला है क क व बस त से तो वदाई ले लेता है, क तु
अि तम समय म भी वषा क जलधारा म भीगते रहना चाहता है । वा तव म
ऋतु परक सा ह य म नराला का ऋतु वणन अ य त भावी और मा मक छ वय से
यु त है । ‘सां यकाकल ’ के 'िजधर दे खए याम वराजे / ाण के घन याम वराजे'
आ द म भी ऋतु का वैभव पूर प टता से च त हु आ है। ऐसा लगता है क नराला
वषा के व वध प को पी गये ह और अपनी का या भ यि त के वारा उस ऋतु
वैभव के आसव को सभी को पलाना चाहते ह।
122
6.3.2 ेम और गृं ार गार भावना
123
पूर मा मकता के साथ नराला क क वताओं म मलती है । सामा यत: अतीत के सु ख
पर आँसू बहाना उनका वभाव नह ं है, क तु कह ं कह ं वे 'अब नह ं आती पु लन पर
यतमा / याम तृण पर बैठने को न पमा / बह रह है दय पर केवल अमा जैसी
पंि तयाँ ह लख गये ह । उनका णय-साधना क शला पर घसकर पावन हो गया
है और वयोग क चर वाला म जलकर उनका दय शांत, उ वल और नमल हो
गया है । ेम और गृं ार क ऐसी भावा भ यि त नराला क क वताओं म नार और
नर दोन क ओर से ह हु ई है । नराला का य म नार के जो च मलते ह, वे
कोमल, सु दर होने के साथ-साथ शव व से भी यु त ह । 'नयन के डोरे लाल गुलाल
भरे खेल होल ’ के मलन- संग, 'नुपरू के सु र ब द रहे ’ जैसा गृं ा रक वृ त, ‘ पश से
लाज से लगी' क भावपरकता और 'या मनी जागी’ क वता का संदभ आ द सभी नराला
क नार ऐि यता से ऊपर उठ हु ई पावन प म च त हु ई है । ऐि य रं गत म
रं गी ना रय के च नराला के का य म वरल ह, पर जहाँ ह, वहाँ वे क व क
अनुभू त और अ भ यि त क पूर ईमानदार का सबूत पेश करते 'ह।
'जु ह क कल ' के अ त र त ' य कर क ठन उरोज परस कस कसक मसक गयी
चोल '/ एक बसन रह गयी म द बस अधर दसन अनबोल पंि तय म ऐि यता को
पूर सहजता के साथ च त कया गया है । इसके साथ ह ‘वासना क मुि त' जैसी
क वताएँ भी पठनीय ह । राम क शि तपूजा क वे पंि तयाँ िजसम राम सीता के
थम मलन का मरण करते ह, नार के पावन प को य त करती ह । कहने का
अ भ ाय यह है क नराला के का य म ेम और गृं ार के च क कमी नह ं है, पर
वे ाय: एक उदा त भू मका पर न पत हु ए ह । ेम क पावनता, मा मकता, गृं ार
क मधुरता और उदा तता के योग से न मत नार शर र क या ा करने वाल क व क
लखेनी कह ं ऐसी फसलन का शकार नह ं हु ई है क उस पर आरोप यारोप क
भाषा को लादा जा सके ।
6.3.3 औ स वकता
124
है । व तु त: औ स वकता क यह वृि त नराला के का य म अनेक थल पर आकार
लए हु ए है । इससे यह मा णत होता है क नराला अपनी सां कृ तक चेतना को
कह ं भी व मृत नह ं कर पाये ह । कथा मक क वताओं म तो यह चेतना और भी
मु खर प लेकर सामने आयी है ।
125
उ लास और आशा क गंध फैलाती चलती ह । ‘स ख बस त आया’ जैसी क वता म
इसी राग-चेतना अथवा आन द के अमृत को दे खा जा सकता है । चाँदनी रात,
मलया नल उपवन, सरस रता, गहन ग र कानन आ द सबके के म ि थत जु ह क
कल का स दय भी आन द के नझर म नात होने क ेरणा दे ता है । इस कार
प ट है क राग- वराग सं ह म जो आन द का अमृतवष नझर वा हत है, वह न
केवल क व क क पना- मता से यु त है, अ पतु उसम कृ त क मनहरण छ वयाँ भी
अं कत ह
126
य त कया है । कह -ं कह ं वे सू फ क वय क च तना से भा वत दखाई दे ते है
और कभी वे परमस ता को माँ कहकर स बो धत करते ह । उ ह ने इस स ता को
अ य खोजने क अपे ा अपने ह भीतर वीकार कया है-
पास ह रे , ह रे क खान. खोजता कहाँ और नादान
कह ं भी नह ं स य का प. अ खल जग एक अंध तु म कू प । ।
माया को नराला ने अ य संत क भाँ त ह बाधक त व वीकार कया है । माया के
कारण ह जीव ब रहता है और उससे मु त होकर ह वह आ म ान ा त कर लेता
है । इसी ि थ त म जीव और म दोन एक प हो जाते ह । इस ि थ त क
योतनका रणी पंि तयाँ तु म क वता म दे खी जा सकती ह- तु म तु ंग हमालय ग ृं /
और म चंचल ग त सर स रता / तु म वमल दय उ छवास/ और म कां त का मनी
क वता।' डॉ. राम वलास शमा ने नराला क आ याि मकता क ववेचना करते हु ए उ ह
अ वैतवाद माना है। हमार धारणा है क नराला को वैसा अ वैतवाद नह ं माना जा
सकता है जैसा क शंकर अ वैत ह । उनक कई क वताओं म जगत को आन द प
मानने का भाव व नत है । यह अ वैत भू म ववेकान द क है िजसका एक पहलू
वैयि तक है और दूसरा सामािजक । यह सामािजक पहलू ह उ ह मानवतावाद संदभ
से भी जोड़ता है ।
नराला िजन-िजन से भा वत हु ए, उनम रामकृ ण का थान मु ख है, क तु यह सह
है क उ ह ने इन सबसे भा वत होकर भी अपना एक ऐसा यावहा रक और संतु लत
दशन तैयार कया जो य द हठध मता को छोड़कर समझा जाये तो सार सम या ह
हल हो जाती है । नराला म जहाँ-जहाँ शि त-पूजा का भाव मलता है, उसे रामकृ ण
से अलग नह ं समझना चा हए । वे मानते थे क सृि ट शि त पर टक हु ई है, उसक
क णा ि ट से संसार मंगल- वधान क ओर वृ त होता है । वह सृि ट के ज म,
वकास और अवसान के लए उ तरदायी है । 'तु लसीदास' म इसका भ न प भले ह
हो, पर वह प रणाम म भ न नह ं है । शि तपूजा से प ट ह है । शि तपूजा म
राम क ट पर पार पाने और रा स व पर वजय पाने के लए शि त क उपासना
करते ह तो तु लसीदास' म र ना ह वह आ याशि त बन गयी है । उसी क ेरणा से
कथानायक तु लसी के बल सं कार जा त होते ह और वह उ ह सृि ट क वागी वर
तीत होती है, तभी तो उसके मु ख से नकले वचन 'अमृता र नझर' बतलाये गये ह
। उ ह सु नकर ह अ व या क अंध रा समा त हो जाती है । व तु त: रामकृ ण क
सम वयाि मका ि ट नराला म भी है जैसा क पंचवट संग क क वता के उदाहरण
से प ट है । ये ान भि त और कम को मलाकर ह यह सम वयवाद ि ट तैयार
कर सके ह ।
6.3.6 भि त भावना
6.3.7 रा यता
128
से ह पनपी और बढ़ थी। अतीत के वैभव का गान करते हु ए नराला ने िजस
रा यता को वक सत कया, उसका वर द ल , 'यमु ना के त’, ‘भार त जय वजय
करे ’ आ द क वताओं म दे खा जा सकता है। ‘बता कह ं वह अब वंशीवट', कह ं गये
नटनागर याम अथवा ' या यह वह दे श है भीमाजु न आ द का क त े ’ जैसी
पंि तयाँ इसी भाव क पो षका ह । जागरण का संदेश दे कर भी नराला ने अपनी
रा यता का अलख जगाया है । ' य मु त ग खोलो’ अथवा ‘जागो जागो आया
भात, बीती बीती वह अंध रात’ आ द म यह जागरण का वर नना दत है । महाराज
शवाजी का प और ज़ागो फर एक बार जैसी रचनाएँ तो रा य भावना के वकास
के इ तहास म अपना सानी नह ं रखती ह ।
6.3.8 यं य और वनोद
129
खू न चू सा खाद का तू ने अ श ट
डाल पर इतरा रहा है कै पट ल ट
सवहारा वग क अ य धक चारवाद वृि त और पूँजीवाद सं कृ त दोन पर बडे तीखे
यं य 'कु कुरमु ता’ म दे खने को मलते ह। क वता म क व नराला ने उन सभी को
यं य का नशाना बनाया है जो त काल न सा ह य और समाज म वकृ तय के प म
दखाई दे रहे थे । यं य का नशाना वे ह संदभ बने ह िजनम त य कम और ढ ग
अ धक था, अस लयत कम और चारा मकता अ धक थी ।
130
इतना ह नह ,ं जब वे कहते ह क म अकेला / आ रह मेरे दवस क ‘सां य वेला' तो
उनका वषाद और भी घनीभू त हो जाता है । 'गहन है अंधकार' म नराला ने जगत क
वाथमय वृ त पर वषाद य त कया है । सं ेप म कह सकते ह क नराला का य
क मु ख वृि तयाँ ये ह ह । ाय: सभी वृि तय के मू ल म नराला क
मानवतावाद ि ट का सार दे खने को मलता है । रा यता, यं य, वषाद, ेम,
भि त आ द म नराला के मानवतावाद के दशन होते ह । मानव क शि त के
व वासी और उससे कर बी र ता रखने वाले नराला का मानवतावाद न केवल
अनुकरणीय है, अ पतु जीवन के लए बहु त बड़ी अ नवायता भी है । यह कारण है क
नराला ने मानवता क थापना और उसक मंगलाशा से े रत होकर लखा है-
मानव मानव से कह ं भ न
न चय हो वेत कृ ण
अथवा वह नह ं ि ल न
भेद कर पर नकलता कमल जो मानवता का
वह न कलंक / हो कोई सर ।
6.4 का य का अ भ यि त प
6.4.1 का य- प
6.4.2 का य-भाषा
131
क आव यकता होती है । भाषा क ि ट से वचार कर तो नराला ने भावना के
अनुसार भाषा का योग कया है । वे ऐसे रचनाकार के प म सामने आये ह जो
भाव को भाषा से कभी अलग करके नह ं दे खते ह । उनके का य म भाव-वै व य है तो
उनक भाषा भी एक जैसी नह ं रह है । मु ख प से उनक भाषा के चार प हमारे
सामने आते ह । पहला प वह है िजसम नराला प र कृ त भाषा का योग करते ह,
दूसरा वह है जहाँ उनक भाषा मधु रता क तमू त बनी लरजती हु ई हमारे सामने
आती है, तीसरा प सरल और यावहा रक भाषा का है और चौथा प वह है जहाँ
भाषा पूर तरह चलताऊ है । प र कृ त और सश त भाषा का प हम ‘राम क
शि तपूजा’ और ‘तु लसीदास' जैसे का य म दे खने को मलता है । इन का य म
सं कृ त न ठ भाषा का जो प मलता है, वह न केवल सामा सक श दावल से यु त
है, अ पतु समासा त पदावल और ओज वी श द- वधान से भी सं स त है । माधु यपूण
और सौ ठवपूण भाषा को 'जु ह क कल ’, ‘शेफा लका’, 'यमु ना के त’ और ‘सं या
सु दर ’ जैसी क वताओं म दे खा जा सकता है । नराला ने जहाँ इस भाषा का योग
कया है, वहाँ उनक पदावल कोमल, कमनीय और सि चकण है । शि तपूजा म
ओजपूण भाषा भी है तो माधु यपूण भाषा भी दे खने को मलती है । संगीत के वर म
गुनगुनाती गी तका क भाषा भी ऐसी ह है । सरल, सु बोध और यावहा रक भाषा का
योग उन क वताओं म मलता है, जहाँ नराला ने जीवन और जगत के यथाथ च
तु त कए ह । अ भधा धान यह भाषा वधवा, भ ुक और ‘वह तोड़ती प थर' जैसी
क वताओं म दे खने को मलती है । इसी म म न नां कत पंि तयाँ भी ट य ह
िजनम भाषा क प र कृ त भी है और सु बोधता व सरलता भी-
नेह नझर बह गया है
रे त य तन रह गया है
आम क यह डाल जो सू खी दखी
कह रह है- 'अब यहाँ पक या शखी
नह ं आते. पंि त म वह हू ँ लखी
नह ं िजसका अथ-
जीवन ढह गया है ।
भाषा का चौथा प िजसे बोलचाल क चलताऊ भाषा कहा जा सकता है, नराला क
परवत रचनाओं म दे खने को मलता है । इस भाषा म उदू और अं ेजी क म त
श दावल यु त हु ई है । 'कु कु रमु ता’ और 'नये प ते’ व ‘बेला’ क भाषा इसी कार
क है । भाषा के इस प को अपनाये जाने का कारण यह तीत होता है क इन
रचनाओं म नराला ने खु ल आँख से समाज क सम त ग त व धय , ि थ तय और
वकृ तय को दे खा है । दे खकर और महसूस करके उ ह ने जो अनुभव कया है, उसे
ऐसी ह भाषा म कह दया है । उदाहरणाथ ये पंि तयाँ दे खए-
अबे सु न बे गुलाब
132
भू ल मत, गर पाई खु शबू रं गोआब
खू न चू सा खाद का, तू ने अ श ट
डाल पर इतरा रहा, कै पट ल ट
इस बोलचाल क चलती भाषा म कह -ं कह ं तो क व का आ ोश इतना अ धक बढ़
जाता है क उसम 'भदे स' श द क भी भरमार हो गयी है । क व ने खु लकर इन
गा लय का भी योग कया है, जो रोजमरा आवेश म आने पर जन-साधारण म सु नी
जाती ह, जैसे-
1. रोज पड़ा रहा पानी,
तू हरामी खानदानी ।
2. ऐसे कोई साला एक धेला नह ं दे ने का ।
3. तीन भाव पड़ जाय उ लू के प पर ।
4. लडी जमींदार को आँख तले रखे हु ए ।
भाषा का यह प मन म खीझ पैदा करता है । कहाँ तो वह त सम भाषा, जो 'भारत
के नभ का भापूय , शीतल छाय सां कृ तक सू य' और ‘ व छु रत-व -राजीव नयन-हत-
ल य-बाण’ अथवा ‘रावण हार-दुवार- वकल वानर कल बलं’ और कहाँ उप रसंके तत
भाषा क चालू कृ त के नमू ने । ऐसी भाषा को दे खकर लगता है क नराला भाषा के
उदा त शखर से उतरकर जमीन के ग दे खाई-ख दक म आ गये ह । इतने पर भी
यह यान रहे क जीवन क भाषा खाई-ख दक म ह रहती है, हम- शखर पर नह ं ।
फर नराला तो यह मानते थे क जैसा भाव वैसी ह का य-भाषा हो सकती है ।
आ ोश और यं य के ती तम ण म य द भाषा ने ऐसा प धारण कर लया है तो
इसके लए नराला कम िज मेदार ह, सामािजक ि थ तयाँ अ धक ।
133
वह इ टदे व के मि दर क पूजा -सी.
वह द प- शखा सी शांत. भाव म ल न.
वह ू र काल-तांडव क मृ त रे खा-सी.
वह टू टे त क छुट लता-सी द न-
द लत भारत क ह वधवा है । ( वधवा)
उपयु त पंि तय म वधवा क प व ता, शु चता, शां त, दुभा यशीलता, द नता और
द लताव था का भावी च ण हु आ है । इसी कार क व ने सं या का वणन करते हु ए
उसे पर के समान कहकर सं या जैसी अ प एवं नराकार बेला का एक पवती एवं
साकार सु दर क भाँ त च ण कया है िजसम उपमा अलंकार ने अ ु त मा मकता,
ग तशीलता और भावो पादकता उ प न कर द है-
दवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रह है
सं या-सु दर पर -सी
धीरे -धीरे -धीरे ।
उपमा के अ त र त पक और सांग पक भी नराला के का य म सव बखरे मलते
ह- ‘ नेह नझर वह गया है, 'पृ वी के उठे उरोज मंजु न पम, ‘मोगल दल बल के
जलद यान’, ‘ बखर छूट शफर अलक', ' न पात नयन नीरज पलक' आ द ।
सांग पक अलंकार क छटा ‘तु लसीदास’ का य म दे खते ह बनती है । नराला का
तीसरा य अलंकार मानवीकरण है । अनेक मानवीकरण क खृं ला म सं या सु दर
का मानवीकरण सव य और सव स है । मानवीकरण के साथ ह समासोि त
अलंकार का वधान भी नराला क क वताओं म हु आ है ।
134
प रचय दया है । 'कण’ द न और द लत यि त का तीक है और रा ते का फूल
असहाय यि त का व शेफा लका यौवनागम को ा त त णी युवती का तीकाथ रखती
है । ाकृ तक तीक म ह भात को अबोध बालक का, बस त को त ण नवजागरण
का, ये ठ मास को ू र और आतंकवाद शासक का और एक अ य थान पर
न काम कमयोगी का तीक व दान कया गया है । परवत यं य धान रचनाओं म
गुलाब और कु कुरमु ता दोन को नया तीकाथ दान कया गया है । गुलाब शोषक एवं
पूँजीप त वग का तथा कु कु रमु ता मक, कृ षक और सवहारा वग का तीक माना
गया है । प ट ह नराला ने ाकृ तक उपकरण को ह तीक व दान कया है,
क तु ये तीक न याथ से मि डत और क व के मनोगत भाव को सरलता व सट कता
से तु त करने म स म ह ।
6.4.5 ब ब योग
135
स दय-वणन म भी अलंकृ त और औदा य से मलकर बड़े भावशाल संि ल ट ब ब
तु त कए गए ह । वशेषकर जाते हो कह ं तु ले तयक और 'यह ी पावन, गृ हणी
उदार से ार भ होने वाले छं द म ब बगत संि ल टता मलती है । ये वे ब ब ह,
िजनम ग तशीलता और भ व णु ता दोन का समावेश है । इस ब ब से मादकता
छलक पड़ती है । वह कहती है- 'कहाँ जाते हो?' या न तु हारे बना हम कैसे रहगे?
‘ फर लए मू ँद वे पल प मल इंद वर के-से कोश वमल’ म तो य गुण इतना प ट
है क लगता है क जैसे रला नील कमल कोश के समान बड़ी-बड़ी बरौ नय वाल
आँख को बंद कए सामने खड़ी हो । उसके प क सम त छ व का, एक-एक भाव
मु ा का स पूण स दय ब ब म बँध गया है । इस ब ब म आकु लता, मधु र फटकार,
शकवा- शकायत क मु ा, ेमावेशज नत नशील आँख और ेम व वला नार का
रसपूण ब ब दे खा जा सकता है ।
' य या मनी जागी’ शीषक क वता म यु त ब ब भी सहज ह हमारा यान
आक षत करता है । इस क वता म यु त ब ब सहज अलंकृ त से ार भ होकर
प टत: चा ुष ग तशील ब ब का उदाहरण तु त करता है । येक पंि त म ब ब
मश: आगे बढ़ता जाता है और पाठक क चेतना उसके साथ वत: ह बँधती चल
जाती है । उदाहरणाथ यह अंश दे खए-
( य) या मनी जागी ।
अलस पंकज- ग अ ण-मु ख त ण-अनुरागी ।
खु ले केश अशेष शोभा भर रहे ,
पृ ठ - ीवा-बाहु-उर पर तर रहे ,
बादल म घर अपर दनकर रहे ,
यो त क त वी. त ड़त-
यु त ने मा माँगी ।
हे र उर-पट फेर मु ख के बाल
लख चतु दक चल म द मराल
गेह म य-नेह क जय-माल
वासना क मु ि त, मु ता
याग म तागी ।
'सं या सु दर ' शीषक क वता भी ब ब- योग क ि ट से बड़ी आकषक बन पड़ी है ।
इसम मानवीकरण का सहारा लेकर नराला ने जीव त ब ब तु त कया है । इसी
कार ' नेह नझर बह गया है, रे त य तन रह गया है' क वता म भी सहज
अलंकृ त के साथ ब ब को तु त कया गया है । इस क वता के अि तम भाग म
मृ त ब ब बड़ा आकषक बन पड़ा है । कहने का अ भ ाय यह है क नराला ब ब-
योग म अ य त सफल क व के प म सामने आये ह । नराला के का य म संवे य
136
ब ब क भी कमी नह ं है । वण, नाद, य, ाण के आधार पर मू तत होने के
कारण ये ब ब कह ं अ धक सू म और अनुभवग य होते ह । केवल य और नाद
ब ब ह ऐसे ह जो थोड़े बहु त प ट कहे जा सकते ह । कई बार तो ये सभी ऐसे
मल जाते ह क उनक अलग-अलग पहचान ह क ठन हो जाती है । तु लसीदास म
व न, वण और य ब ब क बहु तायत है । श द नाद के मा यम से ब ब योजना
करने म नराला को वशेष सफलता मल है । कई बार साद भी इस े म पीछे
छूटते दखाई दे ते ह । कु छ उदाहरण से यह बात प ट हो सकती है । मु गल क
सेना के दल ने भारत को र द डाला और आसुर शि तय के जल- लावन म सारा दे श
डू बता जा रहा है । क व ने भयंकरता क तु त के लए 'ल' क आवृि त और जल
के अज वाह के लए ‘र’ क आवृि त से िजस नाद ब ब का वधान कया है, वह
भावशाल है । इतना ह नह ,ं आकाश म गरजते हु ए घन पु ज
ं , दूटते हु ए दाहक वज
और नीचे अपार जल संघात का धारा वाह लावन अ तु त वधान के साथ व न-
ब ब को भी सजीव कर दे ता है-
मोगल-दल-बल के जलद-यान
द पत-पद उ मद-नद पठान ।
है बहा रहे द दे श ान शर-खरतर
छाया ऊपर घन-अंधकार-
टू टता व दह दु नवार ।
इसी कार व न ब ब का यह उदाहरण दे खए-
‘नीचे लावन क लय-धार व न हर-हर’
‘उ मु त गु छ , च ांक पु छ
लख न तत क व- श ख. मन समु च’ ।
और न नां कत पंि तय म ‘र’ क आवृि त म रला का वर ह बरसता जान पड़ता
है-
कु छ समय अन तर, ि थत रहकर
वग याभा वह व रत खर
रबर म झरकर जीवन भरकर य बोल ।
नराला के का य म नाद- ब ब का योग भी बड़ी कु शलता के साथ कया गया है ।
ऐसे ब ब क ि ट से नराला कृ त तु लसीदास का य वशेष मह व रखता है । नराला
ने भारत के तमसपूय. द म डल, मोगल-दल-बल-जल ध, घन-नीलालका छाया- लथ,
ाण के चु बन, धू ल-धू स रत छ व, रं ग पर रं ग छोड़ना आ द अनेक नादा मक श द
का योग करके व न- ब ब क साथक योजना क है।
137
6.4.6 छ द योग
138
वजन-बन व लर पर
सोती थी सु हाग-पर - नेह- व न-म न-
अमल-कोमल-तनु-त णी-जु ह क कल ,
ग ब द कए, श थल, प ांक म,
अथवा-
घेर अंग अंग को
लहर तरं ग वह थम ता य क,
यो तमय-लता सी हु ई म त काल
घेर नज त -तन ।
नराला ने 'बेला’ सं ह के मा यम से उदू क गजल शैल को लेकर भी योग तु त
कए ह । लोकगीता मक छं द भी नराला क अचना, आराधना म मल जाते ह ।
गजल के योग साथक ह, क तु कह ं कह ं वे अटपटे और बो झल हो गये ह । 'य
यह टहनी से हवा क छे ड़छाड़ थी मगर/ खलकर सु गध
ं से कसी का दल बहला गया
म ह द -उदू छं द का स दय आकषक प ले
कर आया है ।
6.5 सारांश
सम त: कहा जा सकता है क नराला का का य अनुभू त और अ भ यि त क ि ट
से ह द क वता क उपलि ध है। छायावाद, ग तशील और योगशील त व का
समीकरण और जीवनोपयोगी च तना के रं ग से रं गा नराला का का य भावी क वता
के वकास को भी सू चत करता है और समसाम यक सा हि यक श प को भी । उसम
ग भीरता और मधुरता के साथ-साथ औदा य क ग रमा और भावांकन क ि न धता,
च तना का भ य आलोक तो बरस ह रहा है जन-सामा य क भाषा का सीधापन भी
अनेक थल पर झाँक जाता है ।
6.6 अ यासाथ न
1. नराला के यि त व का सं त प रचय दे ते हु ए उनके कृ त व पर काश डा लए।
2. '' नराला क का य-या ा एक जैसी नह ं रह है, वह नर तर ग तशील बनी रह
है।'' इस कथन क सोदाहरण और सट क समी ा तु त क िजए ।
3. '' नराला के भावलोक म ेम, गृं ार और रागत व क धानता तो है ह , उसम
घनीभू त वषाद क छाया भी दे खने को मलती है ।” इस कथन क स यक्
ववेचना तु त क िजए।
4. “ नराला का कृ त-स दय छायावाद क वता के मेल म होते हु ए भी नवचेतना का
वर लए हु ए है ।'' इस कथन क समी ा क िजए ।
139
5. ‘' नराला के का य म क पना-वैभव, आ याि मकता और भि त-भावना तो दे खने
को मलती ह है, उसम यं य और वनोद का वर भी पूर तरह व यमान है ।''
सोदाहरण समी ा तु त क िजए ।
6. '’सां कृ तक चेतना और रा यता का मला-जु ला वर नराला-का य क
उ लेखनीय वशेषता है ।'' इस कथन को प ट क िजए ।
7. नराला क का य-भाषा क वशेषताओं पर काश डा लए ।
8. नराला-का य म यु त तीक , ब ब और अलंकार-स दय को उदाहरण स हत
प ट क िजए।
9. '' नराला का का य छ द- योग क ि ट से अ य त मह वपूण है ।‘' इस कथन
को ि टपथ म रखते हु ए नराला के छ द- योग का वै श य न पत क िजए ।
6.7 संदभ थ
ं
1. मधुकर गंगाधर : नराला : जीवन और सा ह य,
2. डॉ. राम वलास शमा : नराला क सा ह य-साधना
3. आचाय न ददुलारे वाजपेयी : क व नराला
4. डॉ. धनंजय वमा : नराला का का य और यि त व
5. डॉ. ब चन संह : ां तकार क व नराला
6. डॉ. ह रचरण शमा : नराला क ब ध-सृि ट
7. डॉ. पु तू लाल शु ल : आधु नक ह द का य म छ द-योजना
♦♦♦
140
इकाई- 7 महादे वी वमा का का य
इकाई क परे खा
7.0 उ े य
7.1 तावना
7.2 क व प रचय
7.2.1 जीवन-प रचय
7.2.2 रचनाकार यि त व
7.2.2.1 कव य ी महादे वी
7.2.2.1.1 का य ेरणा और शैशव यास
7.2.2.1.2 वय क का य रचना संसार
7.2.2.2 ग यकार महादे वी
7.2.2.2.1 सं मरणकार
7.2.2.2.2 नब धकार
7.2.2.3 अ य सा हि यक ग त व धयाँ और उपलि धयाँ
7.2.3 कृ तयाँ
7.3 का य वाचन तथा स दभ स हत या या
7.3.1 इस एक बूँद आँसू म....
7.8.2 जो तु म आ जाते एक बार...
7.3.3 धीरे धीरे उतर तज से आ वस त रजनी...
7.3.4 बीन भी हू ँ म तु हार रा गनी भी हू...
ँ
7.3.5 शलभ मै शापमय वर हू...
ँ
7.3.6 म नीर भर दुःख क बदल ....
7.3.7 टू ट गया वह दपण नमम....
7.3.8 चर सजग आँख उनींद आज कैसा य त बाना....
7.3.9 पंथ होने दो अप र चत ाण रहने दो अकेला....
7.3.10 सब आँख के आँसू उजले
7.4 वचार संदभ और श दावल
7.5 अ यासाथ न
7.6 संदभ थ
ं
7.0 उ े य
इस इकाई के पहले आप छायावाद के आधार तंभ क वय - साद, प त, नराला के
जीवन और का य से बखू बी प र चत हो चु के ह गे । यह इकाई छायावाद क मु ख
141
कव य ी महादे वी वमा के जीवन और का य से स बि धत है । इस इकाई के अ ययन
से आप :
महादे वी वमा के जीवन से प र चत हो सकगे,
रचनाकार- यि त व के नमाण के ेरक कारण , ि थ तय , वकास म और उसक
दशाओं को समझ सकगे,
रचनाओं क जानकार ा त कर सकगे,
चु नी हु ई क वताओं का वाचन और उनक या याओं का आ वादन कर सकगे,
ऐसे स दभ थ
ं क सू चना ा त कर सकगे, जो महादे वी के जीवन और कृ त व
के बारे म आपके ान क वृ करने म सहायक ह गे ।
7.1 तावना
आधु नक ह द सा ह य म भारते दु युग , ववेद युग के बाद का य और भाषा दोन
ि ट से उनसे समृ युग छायावाद है । साद, पंत, नराला और महादे वी वमा का
सीधा ता लुक इसी युग से है । चार छायावाद के आधार- तंभ क व ह । वशेष प से
उ लेखनीय बात यह है क छायावाद के पु ष क वय के बीच महादे वी वमा छायावाद
क सबसे स अि तम कव य ी ह । छायावाद क वैयि तक अनुभू त,
आ याि मकता, रह या मकता, वेदना आ द- वशेषताओं क ि ट से जहाँ वे अपने
अ ज छायावाद क वय के साथ खड़ी दखाई पड़ती ह, वह ं नार क नजी-सामािजक
अनुभू त और अ भ यि त क ि ट से उनका अपना व श ट रचना मक यि त व है,
अपनी पहचान है । इसका कारण यह है क वे वयं नार है । जभाषा से का य
रचना क शु आत करके वे खड़ी बोल क का य रचना म आयी थीं और अ त तक
उसी म क वता और ग य लखती रह । उनक रचनाओं क सं या साद, पंत,
नराला से शायद ह कम हो । उनक का य रचना म साद, पंत, नराला क तरह न
तो चढ़ाव-उतार है और न ह वैसी व वधता और यापकता, ले कन य द ी संवेदना
और अ भ यि त क बात क जाए तो उनक क वताएँ छायावाद का य का सवा धक
जगह घेरती है और उसे गहराई भी दे ती ह । उनक कु छे क क वताएँ ऐसी ह जो कृ त
ेम और वाधीनता आ दोलन को वर दे ती है । कु ल मलाकर यह उनक क वता का
दायरा है ।
का य रचना के साथ महादे वी ने आधु नक ह द ग यलेखन को अपना नया तेवर
दे कर समृ बनाया है । उनके ग य आलेखन म वै व य है । सं मरण के आलेखन म
वे छायावाद क सबसे बड़ी ले खका है । अछूते वषय को नब ध का वषय बनाकर
उ ह ने नब ध वधा को समृ कया । उ ह ने भारतीय ि य से संब सामािजक,
राजनी तक, आ थक, शै णक, यावसा यक सम याओं को आधार बनाकर ऐसे
वचारा मक नब ध क रचना क , िजसक ओर उस यु ग के नबंधकार का वशेष
यान नह ं गया था । इसके अलावा उ ह ने अनेक ल लत नबंध क रचना क । इस
142
कार महादे वी ने छायावाद क वता और ग य दोन को समृ करके ह द सा ह य के
भंडार को बढ़ाने म मदद क । य द उनके का य के साथ ग य को मलाकर दे खा
जाय, तो छायावाद के रचनाकार से वे अपना च वै भ नय कट करती है और उसम
अपना व श ट योगदान दे ती ह । कव य ी, रे खा च कार, नबंधकार, च कार, सा ह य-
संर का, समाज से वका आ द उनके यि त व के व वध प रपा व ह ।
7.2 क व प रचय
महादे वी वमा का ज म संप न म यवग य काय थ प रवार म सन ् 1907, होल के
दन उ तर दे श के फ खाबाद म हु आ था । वे गो व द साद वमा और हे मरानी दे वी
क पहल संतान थी । कु लदे वी दुगा से बड़ी मान-मनौती के बाद उनका ज म हु आ था।
इसी से े रत होकर दादा ने उनका नाम 'महादे वी' रखा था । पताजी सं कार से
आयसमाजी, पेशे से अं ेजी के अ यापक थे और माताजी परम धा मक वै णव वभाव
क गृ हणी थीं । घर म कसी कार का अभाव न था । इस लए महादे वी का बचपन
बड़े लाड़- यार और ठाट-बाट से बीता ।
महादे वी को श ा और सा ह य के सं कार वरासत म मले थे । श ा का सं कार
उ ह अपने पतृप से मला था । दादा उदू-फारसी के, पताजी अं ेजी के वशेष
जानकार थे । वे श ा के अन य ेमी थे और आयसमाजी होने के कारण लड़ कय क
श ा- द ा के बल समथक भी । महादे वी क ाथ मक श ा इ दौर के मशन
कू ल म हु ई, इसके अलावा घर पर पता ने ह द , संगीत, च कला क श ा क
समु चत यव था क थी । दादा के वशेष आ ह के चलते नौ वष क अव था म
उनका बाल ववाह कर दया गया था । वे कु छ दन के लए ससु राल गयीं और ससु र
क श ा वरोधी मान सकता के कारण उनक पढ़ाई म बाधा उपि थत हु ई । शाद के
एक साल के अंदर संयोगवश ससुर क मृ यु हो जाने और महादे वी के ससु राल न जाने
और पढ़ने क िजद के कारण दुबारा उनके आगे क व धवत श ा क यव था इ दौर
से दूर याग के ा टवेट कॉलेज म क गई । वह ं से उ ह ने म डल, ए स,
इ टरमी डयेट तक क पर ाएँ पास क ं । बचपन से महा मा बु के त वशेष
अनुराग के चलते बौ भ ण
ु ी बनने के वचार ने ज म लया । महोदवी के जीवन का
सबसे संघष और संकट का दौर यह था, िजसे उ ह ने ''मेर सा ह य या ा क वता के
संदभ म’ इस कार याद कया है-
'' फर बड़े संघष का युग भी पार कया मने । हमारे यहाँ बा लकाएँ ह द बस इतनी
जानती थी क रामच रतमानस पढ़ ल, च ी-प ी लख ले, इससे अ धक कोई पढ़ाना
नह ं चाहता था । मने कहा ‘नह ,ं म पढू ँ गी । बना जाने क यह स या ह है । मने
कहा, भोजन नह ं क ँ गी, म उठू ँ गी ह नह ,ं नह ं तो मु झे प ने के लए भेजा जाए’ ।
वहाँ पढ़ने क यव था नह ं थी इसी लए म यहाँ ( याग म) आ गई । आप क पना
क िजए क समाज से संघष, प रवार से संघष और एक कार से सार यव था से
143
संघष, उसके बीच म पढ़ना है, उसके बीच म लखना है, ले कन याग म आकर
मु झको कुछ मु त वातावरण मला । फर भी म समझती हू ँ मेर अव था म दूसर
कोई बा लका या म हला कशोर संभवत: हार मान लेती । मने नह ं मानी और लखती
रह । जभाषा म लखा, फर खड़ी बोल म लखा, क तु पढ़ना चाहती थी वेद ।
उसम या लखा ह, जानना चाहती थी । यह भी एक नयी बात थी । ि य को
वेदा ययन तो यथ था । हमारे यहाँ कोई पं डत सु नते ह अ स न हो जाता था ।
आज क ि थ त नह ं थी । आप आज से साठ वष पहले क क पना क िजए क जब
एक पं ह-सोलह वष क लड़क कहती है क वह गृह थ नह ं होगी, वह भ ु होगी ।
क पना क िजए उसने कतना क ट, कतना संघष झेला होगा, क तु संघष ने मु झे
कभी परािजत नह ं कया । हार नह ं मानी मने, दूसर एक जो सबसे बड़ी बात है क
मन म कोई कटु ता नह ं रह मेरे । कोई ऐसा घाव नह ं रस रहा है कह ं क िजसक
मु झको बड़ी याद हो क यह चोट है । यह भी ई वर क कृ पा ह मानती हू ँ नह ं तो
जीवन बहु त कटु हो सकता था । और यू ं भी है क प रवार ने मु झको बहु त सा
सहयोग भी दया, जब उ ह ने समझा क संभवत: यह कु छ वशेष है । इ ह बा य
कया जायेगा तो यह मर जायेगी । यह समझकर सबने मु झको मा ह कया ।''
बी. ए. क पर ा पास करने के बाद वे नैनीताल के महा थ वर बौ से मल , ले कन
अपने त उनके भेदभावपूण यवहार से ख न होकर उ ह ने बौ भ ण
ु ी बनने का
वचार हमेशा के लए छोड़ दया । इसी दौरान वे महा मा गांधी के सीधे संपक म
आयीं और उनक ेरणा से सामािजक काय से जु ड़ गई । याग के आस-पास के गाँव
म जाकर गर ब ब च को पढ़ाना उनके दै नक काय म का ह सा बन गया था । इसी
दौरान अ व थता के कारण श ा म एक साल का यवधान फर आ गया । व थ
होने के प चात उ ह ने 1932 म इलाहाबाद व व व यालय से सं कृ त म एम.ए. पास
कया । बाद म वे आय म हला व यापीठ से जु ड़ी, आगे धानाचाय के प म
कायभार संभाला । अ ततः वे उसके कु लप त पद के कायभार से मु त हु ई । महादे वी
दुबारा न तो अपने प त के घर गयीं और न दूसर शाद ह क । एक वतं ,
सु श त म यवग य ी का जीन िजया-दा प य और कोखवाल माँ से मु त । सन ्
1987 म वे हमेशा के लए हमारे बीच से चल गई ।
7.2.2 रचनाकार- यि त व
7.2.2.1 कव य ी महादे वी
147
का राग। यथा के घन अतृि त क आग।’ इसे नीहार से जोड़ती है । ‘नीहार’ क कु छ
( वग का था नीरव उ वास) और ‘रि म’ क कई (‘तु हन के पु लन पर छ वमान,
रजत रि मय के छाया म, न थे जब प रवतन दनरात, कसी न लोक से टू ट
आ द) क वताओं पर पंत क प रवतन क वता का भाव है। यह भाव वषय और छं द
दोन ि टय से है। पंत और महादे वी क अ व थता, आस न मृ यु के भय के कारण
संसार क णभंगरु ता का एहसास ह दोन को एक जैसा सोचने के लए बा य करता
है। महादे वी पंत क तरह यहाँ सोचती है क ‘ अल त प रवतन क डोर, खींचती हम
इ ट क ओर’ ।
‘नीरजा’ महादे वी क तीसर का य-रचना है। इसम एक तो पुराने रं ग-ढं ग यानी नीहार
और रि म के रं ग-ढं ग के वरह और आँसू वाले गीत है तो इसक ओर य क
मु कान से जीवन के ल लाकमल खलाने क कामना है। नीरजा म कु छ क वताएँ
नहायत दाश नक आधार पर रची गयी ह । जैसे-‘बीन भी हू ँ म तु हार रा गनी भी हू,ँ
तो कु छ क वताएँ जायसी और कबीर क रह या मक भू म पर। ‘तु म मु झम य, फर
प रचय या’, ‘ या पूजन या अचन रे ’ इसी कार के गीत ह। नीरजा म एक वर
और है जो इन दोनो से भ न है-‘टू ट गया वह दपण नमम’ इसी कार क रचना है।
नीहार और रि म क तु लना म नीरजा म केवल वचार ह नह ,ं गीत भी अ धक सधे
ह। उनक अि व त सु घड़ बन गयी है।
महादे वी क चौथी का यकृ त ‘सां यगीत’ है। नीरजा और ‘सां यगीत’ के बारे म महादे वी
का कहना है क ‘नीरजा और सां यगीत मेर उस मान सक ि थ त को य त कर
सकगे, िजसम अनायास ह मेरा दय सु ख और दुःख म सामंज य का अनुभव करने
लगा।’ सां यगीत म वरल-सु हाग, साध- वषाद, ‘सु र भत है जीवन मृ यु तीर’ क बात
तो पुरानी रचनाओं जैसी है। इस कृ त म दो बात खास ह-एक तो सजगता क , दूसर
साधना-आराधना क बड़ी बात है। ‘म सजग चर साधना ल’, ‘म नीर भर दुःख क
बदल ’, ‘ चर सजग आँख उनींद , आज कैसा य त बाना’, ‘क र का य आज पंजर
खोल दो’ जैसे सु ंदर और लोक य सधे गीत इसी मे ह। य का वरह यहाँ भी है,
ले कन स य होकर मधु र बन गया है-
वरह का युग आज द खा मलन के लघु पल सर खा,
सु ख दुख म कौन तीखा म न जानी औ, न सीखा,
मधुर मु झको हो गये सब मधुर य क भावना ले।
महादे वी क पाँचवी, रचना के वकास म क ि ट से अ भ न का य कृ त ‘द प शखा’
है। यह वचार और भाव के सामंज य क ि ट से नीरजा और सां यगीत का ह बढ़ाव
है। य के बहाने लोक के लए मट जाने और एक मान सक संताप और आ वि त
का भाव इसम आ गया है। इसके अलावा भी द प शखा म 'यह मं दर का द प इसे
नीरव जलने दो’, ‘जो न य पहचान पाती’, ‘सब आँख के आँसू उजले’, ‘पथ मेरा
148
नवाण बन गया’, ‘पंथ रहने दो अप र चत ाण रहने दो अकेला’ जैसे सधे हु ए सु ंदर
गीत है। सां यगीत और इसम एक बात समान है। ये दोन रचनाएँ च गीत है यानी
दोन म गीत के साथ च ह। च -सृजन के सं कार तो महादे वी वमा म बचपन से
थे, ले कन उनका भावा भ यि त के लए उपयोग उ ह ने यहाँ पहल बार कया है। ये
च भाव धान ह, व तु धान नह ं। महादे वी वमा ने अपनी संपण
ू का यया ा का
आकलन करते हु ए कहा है क ‘मेर दशा एक और मेरा पथ एक रहा है। केवल इतना
ह नह ,ं वे श त से श ततर और व छ से व छतर होते गये ह।’ ले कन यह
वचार गीत क साधना क ि ट से ह ठ क है, अनुभू त क ती ता क ि ट से नह ं।
डा. नमला जैन ने महादे वी क का यया ा के बारे म सह ट पणी क है क ‘आवेग
क वाभा वक ऊ मा ीण होने के प रणाम व प ‘नीहार’ से ‘द प शखा’ तक पहु ँ चते-
पहु ँ चते वषयी धान आवेगशील, सवधा मानवीय भाव से े रत पु कल गीत-सृि ट
मश: वषयी नरपे , चंतन धान और आ याि मक सं पश से यु त हो जाती है।
इन आरं भक गीत क भावना का सहज उ छलन, हा दकता तथा मा मकता परवत
गीतसं ह म उ तरो तर ीण होती जाती है।‘ द प शखा के बाद उनके छटपुट गीत
क अं तम का यकृ त ‘अ रे खा’ है, जो उनके मरणोपरा त का शत हु ई। मौ लक
का यकृ तय के अलावा महादे वी ने अपनी क वताओं के दो संकलन तैयार कये। ‘यामा’
उनक 1936 तक का शत चार का यकृ तय -नीहार, रि म, नीरजा और सां यगीत का
संकलन है, जब क ‘सं धनी’ का शत कृ तय के पसंद दा चु ने हु ए गीत का संकलन।
अपनी क वताओं के संकलन के अलावा महादे वी ने वशेष ल य से े रत होकर दो
का य पु तक संपा दत क । बंगाल के अकाल से य थत होकर उस पर अनेक क वय
वारा र चत क वताओं का संकलन और संपादन ‘बंगदशन’ के नाम से कया। इसी
कार जब चीन ने सन ् 1962 म भारत पर आ मण कया, तो रा य भावना,
दे श ेम का और ढ़ करने क मंशा से उ ह ने ‘ हमालय’ नाम से क वताओं का संकलन
और संपादन कया। इसके अलावा महादे वी ने का यानुवाद क दशा म मह वपूण काय
कया है। अपनी ाचीन सा हि यक वरासत को ह द म लाने म उनका यास
सराहनीय है। ‘स तपणा’ महादे वी क अनू दत का यकृ त है िजसका व प मौ लक और
संक लत-संपा दत का यकृ तय से ब कुल अलग है। इसम उ ह ने वेद क आषवाणी से
लेकर लौ कक सं कृ त के वा मी क, का लदास, अ वघोष, भवभू त, जयदे व के सा ह य
और पा ल भाषा क स कव य य क थेर गाथाओं से चु ने हु ए अंश का ह द म
सरस अनुवाद कया है। अनुवाद के वषय म मह वपूण जानकार इसक भू मका म है,
अनुभू त सरस रचना के आ वाद का मजा तो अलग से है।
7.2.2.2.1 सं मरणकार
150
रे खाएँ, के भि तजन, चीनी फेर वाला, ठकु र बाबा आ द सं मरण इस कार के
साधारण और अ कं चन लोग पर है।
महादे वी के कु छ सं मरण अपने सा ह यकार सा थय , अ ज और अनुज पर ह। ‘पथ
के साथी’ के सभी सं मरण इसी को ट म आते ह। इसम उनके व श ट यि त व का
आलेखन तो है, साथ ह उनके रचनाकम क वशेषताएँ भी आ गयी है। उ ह ने ‘पथ के
साथी’ क भू मका ‘दो श द’ म कहा है क ''अपने अ ज , सहयो गय के संबध
ं म,
अपने आप को दूर रखकर कु छ कहना सहज नह ं होता। मने साहस तो कया है, पर
ऐसे मरण के लए आव यक न ल तता या असंगतता मेरे लए संभव नह ं है। मेरे
ि ट के सी मत शीशे म वे जैसे दखाई दे ते ह, उससे वे बहु त उ वल और वशाल ह,
इसे मानकर पढ़नेवाले ह उनक कु छ झलक पा सकगे।’ महादे वी ने ‘पथ के साथी’ म
रवी नाथ ठाकु र, मै थल शरण गु त, सु भ ाकुमार चौहान, सू यका त पाठ नराला,
जयशंकर साद, सु म ानंदन पंत आ द पर लख सं मरण को अपने अं ज और
सहयो गय का ‘ मरण’ कहकर ह द पाठक समाज म च लत उस म का नवारण
कर डाला िजसके तहत इ ह रे खा च समझा जाता है। रे खा च के लए िजस
सं तता और न ल तता क आव यकता होती है, वह इनम नह ं है। रे खाकन इसम
है, ले कन ये भी सं मरण धान ह। महादे वी के कु छ सं मरण राजनी तक यि तय
पर है । महा मा गांधी, जवाहरलाल नेह , राजे साद, पु षो तम दास टं डन पर
लखे गये सं मरण इसी कार के है। इन सं मरण का आलेखन महादे वी ने उ ह
राजनी तक यि त जानकर नह ,ं बि क उनसे अपने आ मीय संबध
ं और नकटता के
आधार पर कया है। दरअसल उ ह महादे वी बहु त नजद क से जानती और मानती थी।
इन सं मरण म उनके चा र क गुण भी आ गये है।
महादे वी के सं मरण क एक दशा और है। उनके कई मा मक सं मरण पशु-प य
पर आधा रत है । ‘मेरा प रवार’ के सं मरण इसी कार के ह। इनम ग लू गौरा और
नीलकंठ बहु त च चत ह । पशु-प य के त वशेष लगाव के बीज बचपन म पड़ गये
थे। उ ह ने अपने एक ‘आ मक य’ म लखा है क “उस समय ान नह ं था क
भ व य म ऐसे मृ यांकन क परं परा अटू ट हो जायेगी, परं तु बालपन क इस
ग या मक अ भ यि त के बीज पर मेरे सारे सं मरण अंकु रत, प ल वत और पुि पत
हु ए है।’ एक न सहज िज ासा का वषय है आ खरकार महादे वी ने इतने सारे
सं मरण क रचना क , उ ह ने कथा सा ह य लेखन म कोई च य नह ं दखाई?
कोई उप यास या कहानी य नह ं लखा, जब क छायावाद के अ य बड़े रचनाकार,
साद और नराला का तो यहाँ न ह नह ं है, यहाँ तक क पंत ने भी कु छ
कहा नयाँ लखी ह। इस संदभ म महादे वी ने अपना बचाव करते हु ए अपने
आ मव त य मेर सा हि यक या ा ग य के संदभ म कहा है “कथा लखने क इ छा
सं मरण से पूर हो जाती है।’ उ ह ने लोग के म का नवारण करते हु ए आगे लखा
151
है क 'ये रे खा च नह ं है क जैसा ाय: लोग को म हो जाता है । रे खा च म तो
हम कु छ रे खाओं म तट थ भाव से कसी यि त को दे सकते ह ले कन सं मरण म
ऐसा नह ं होता । सं मरण वह रह जाता है जो हम अ छा लगता है, िजसे हम बार-
बार याद करते ह, वह तो सं मरण म आयेगा।
7.2.2.2.2 नबंधकार
महादे वी वमा के ग य लेखन क दूसर दशा है- नबंध लेखन। इसके बीज भी बचपन
क पढ़ाई के दौरान पड़ गये थे। यह कला सं मरण क तु लना म अ धक सायास और
बौ क है और उ ह ह द सखाने वाले पं डत जी ने सखाई है। इ दौर म जो पं डत
जी उ ह ह द पढ़ाते थे, आगे उ ह ं क कृ पा का फल यह मला क उ तर दे श क
एक ा तीय नबंध तयो गता, िजसम इ टरमी डएट तक के छा तभागी थे, उसम
कथा आठवी क छा ा महादे वी को थम पुर कार ा त हु आ । महादे वी के नबंध के
व प के बारे म कु छ और प ट करण कया है । अपने नबंध क वषयब ता और
ता ककता के बारे म वे कहती है क “म अगर कु छ लखू ँ तो वषय छोड़कर इधर-उधर
बहु त नह ं बहकती हू ँ और उस समय मेर बात आपको ठ क लेगेगी, जो तक म
उपि थत करती हू ँ । नबंध म मेर अपनी एक दशा है और म जो कहना चाहू ँ गी उसे
भाव के साथ कहू ँ गी।’
महादे वी वमा के नबंध लेखन म भी सं मरण क तरफ काफ व वधता है। उ ह ने
वचारा मक, गवेषणा मक (शोधपरक), ल लत कई कार के नबंध का सजन कया है।
उनक सवा धक च वचार या तक धान यानी वचारा मक नबंध के आलेखन म रह
है। भारतीय ि य क सम याओं से संबं धत ' खृं ला क क ड़याँ’ के सभी नबंध
वचारा मक ह। इसी कार का नबंध सं ह ‘सा ह यकार क आ था तथा अ य नबंध
है।' ' णदा' उनके ल लत नबंधो का सं ह है। वचारा मक नबंध के लेखन म पं डत
जी क ेरणा तो है ह , उनका वशद अ ययन और अ यापन भी वशेष प से
मददगार सा बत हु आ । उ ह ने अपने एक आ मव त य म बताया है क ऐसे नबंध
म वे लखने के पहले वषय का चु नाव कर लेती है और उन पर तट थ भाव से
सोच लेती ह। यह कारण है वे क वता म अपने यि त व को एकाकार तो पाती है,
तट थता और नवयि तकता क वजह से वचारा मक नबंध से अपने यि त व को
दूर रखती ह।
महादे वी ने अपने सम लेखन, ग य और प य दोन पर तु लना मक ढं ग से भी वचार
कया है। उनक क वता और सं मरण संवेदना धान है, जब क नबंध वचार और तक
धान है। उ ह ने लखा है क “म मू लत: क व हू ँ । मु झे फूल का खलना अ छा लगता
है। आकाश के रं ग अ छे लगते है। बादल अ छा लगता है। व तु त: ऐसा नह ं है क
वै ा नक युग या तक के युग म म तक नह ं कर सकती या मेर बु - या श थल
है। आधु नक बु ववाद के म ेनजर महादे वी ने नबंधलेखन क राह पकड़ी है । उनके
152
यादातर नबंध वचार या चंतन धान ह। उनका सृजना मक त व वैयि तक न
होकर सामािजक अनुभव रहा है । अ ययन- अ यापन से य संबध
ं के चलते
महादे वी वमा को भाषण दे ना बहु त य रहा है । उनके स भाषण 'मेरे य
संभाषण' म संक लत ह । उसम वषय का नधारण तो नबंध क तरह है, ले कन
उनम नबंध जैसी ता ककता नह ं है । भाषण म उनका योजन ल यीभू त ोता तक
अपनी बात पहु ँ चाना है । इस लए इनम वशेष यान स ेषणीयता पर है।
153
जहाँ तक सरकार अलंकरण और पुर कार का न है, तो सन ् 1956 म महादे वी
वमा भारत सरकार के ‘प भू षण’ अलंकरण से, य य प सन ् 1968 म भारत सरकार
क ह द नी त के वरोध म उसको लौटा दया, सन ् 1976 म उ तर दे श सरकार
वारा व श ट ‘सा ह यकार पुर कार ’, 1960 म वहार सरकार वारा सा ह यकार के
प म वशेष प से स मा नत क गयीं। सन ् 1988 म मरणोपरांत वे भारत सरकार
क ओर से ‘पदम वभू षण’ से अलंकृ त क गयीं।
गैरसरकार संगठन म द ल ले खका संघ ने सन ् 1963 म स मा नत कया और
भारतीय सा ह य प रषद, याग ने सन ् 1964 म वृहद अ भनंदन थ
ं भट करके
उनका स मान कया। इसके अलावा समय-समय पर कई उ च श ा सं थान - व म
व व व यालय, उ जैन, कु मायू ँ व व व यालय, काशी ह दू व व व यालय-ने डी ल
क मानद उपा ध दान करके उ ह स मा नत कया।
7.2.3 कृ तयाँ
7.2.3.1 का य कृ तयाँ
154
इ छाओं क कंपन से/सोता एका त जगा दो,
आशा क मु कराहट पर/मेरा नैरा य लु टा दो,
चाहे जजर तार म/अपना मानस उलझा दो,
इन पलक के याल म/सु ख का आसव छलका दो,
मेरे बखरे ाणो म/सार क णा दुलका दो,
मेर छोट सीमा म/अपना अि त व मटा दो,
पर शेष नह ं होगी यह/मेरे ाण क डा,
तु म को पीड़ा म ढू ँ ढा/तु म म ढू ँ ढ़ँगी पीड़ा ।
संग : तु त प यावतरण महादे वी वमा वारा र चत ‘नीहार’ म संक लत ‘तु म’
क वता से लया गया है। महादे वी का ववाह बा याव था म हो गया था और इसी
अव था म दा प य का दुःखद अनुभव लेकर वे अपने पता के घर म वापस आ गयी
थी। पता के घर म पढ़ते- लखते वे जवान हु ई । इस दौरान उ ह ने अपने भीतर
खाल पन पाया । अपने यथाथ अनुभव क इसी पा थव जमीन पर उ ह ने नार -पु ष
संबध
ं के अनुभव का नया संसार खड़ा कया है । महादे वी इस क वता के मा यम से
उस नार को हमारे सामने खड़ी करती ह, िजसे हम पढ़ - लखी आधु नक नार कहते ह
। यह वह नार है जो अपनी शत पर पु ष को परखना चाहती है । पुराने ी-पु ष
स ब ध म पु ष धान यव था के चलते नार के प-गुण , नार व को जाँचने-परखने
और मू य नधा रत करने का अ धकार पु ष को था। महादे वी पु ष को परखने क शत
रखती ह।
या या : महादे वी वमा का कहना है क हे य, चाहे तु म मेरे एक बूँद आँसू के बदले
अपने वैभव का सा ा य नछावर कर दो या फर वरदान क झड़ी लगाकर मेरे भीतर
का सू नापन न ट- ट कर दो, चाहे तु म अपनी आकां ाओं, आ वसन से मेर सोई हुई
एका त य इ छाओं को उ मीद को जगा दो या फर अपनी आशा भर मु कान से
मेरे भीतर क नराशा को मटा दो, चाहे तु म मेर व ख ृं लत साँस को अपने मन का
आ य थल समझ लो, चाहे तु म अपने सु ंदर प-रं ग क म दरा मेर आँख के याल
म ढाल दो, चाहे तु म मेरे बखरे ाण पर अपनी सार क णा उं ड़ेल दो या फर चाहे
मेरे छोटे से अि त व के सामने अपने अ धकार भाव वाले यि त व को पूण सम पत
कर दो, तु हारे यह सब करने के बावजू द मेरे ाण का खलवाड़ तब तक अनवरत
चलता रहे गा जब तक म तु ह ठोक-बजाकर दे ख नह ं लेती । मने तु ह खु शी-खु शी
नह ,ं दय क गहर पीड़ा म खोजा है । मेरा ल य तु ह खोज लेने से ह पूरा नह ं हो
जाता, यह ल य तो तब पूरा होगा जब म जाँच-पड़ताल करके यह जान सकूँ गी क
तु ह ढू ँ ढ़ने म जो दद मने उठाया है, मेरे लए वह दद तु हारे दय म है या नह ं है ।
यह ं महादे वी पुराने ी-पु ष संबध
ं के बोध से अलग हो जाती है ।
155
वशेष : तु त क वता ‘तु म’ के आवरण म पु ष प य को संबो धत है । कव य ी
ी-पु ष के सनातन सबंध म व वास रखती ह । उसे मा य रखते हु ए अपने प से
उसे परखने क नई शत रखती ह । यह वह पढ़ - लखी आधु नक नार है, जो पु ष क
सभी पुरानी चाल से बेखबर नह ं है, पूर तरह प र चत है। वह अपने ेम और पीड़ा के
त इतनी आ म सजग है क अपने दय क कसौट पर य के दय को, अपनी
पीड़ा के वजन पर य क पीड़ा को, उसक सचाई को परखना चाहती ह । इस
प यांश क भाषा ला णक है । भाषा म तराश कम है, पर नये श द वधान- वरदान
क वषा, सोता एका त, आशा क मु कान, पलक के याले, सु ख का आसव, बखरे
ाण आ द काफ अथ यंजक है ।
जो तु म आ जाते एक बार
कतनी क णा कतने संदेश
पथ म बछ जाते बन पराण,
गाता ाण का तार तार
अनुराग भरा उ माद राग
आँसू लेते वे पद पखार
हँ स उठते पल म आद नयन
धू ल जाता ओठ से वषाद,
छा जाता जीवन म वसंत
छुट जाता चर सं चत वराग,
आँख दे ती सव व वार ।
संग : तु त गीत महादे वी वमा के ‘नीहार’ संकलन से लया गया है । भाव और पद
रचना दोन तर पर गीत म ययुगीन संत के सु र म गाया गया है । गीत का ‘तु म’
महादे वी का आका त य है । यह उसी मनोवा त य के त संबो धत
ाथनागीत है । एक कार से यह महादे वी के अपने य का आ वान ाथना गीत है।
या या : महादे वी कहती है क हे य, य द तु म एक बार सशर र मेरे पास आ जाते,
मृ त म नह ,ं कारण क मेर मृ त म तो तु म हमेशा हो, तो मेर अब तक क
पीड़ा, मेरे वारा मन ह मन तु हारे पास भेजे गये न जाने कतने संदेश तु हारे आने
के माग म फूल के पराग क तरह बछ जाते । परं परा म े मकाएँ अपने य के
माग पर पलक-पाँवड़े बछाती थी, ले कन महादे वी अपने य के पथ म अपने दय क
क णा और मान सक संदेश को बछाना चाहती है यहाँ पलक और आँख का वह
मह व नह ं है जो दल क क णा, वेदना का है। और तु हारे आने क खु शी का गीत
अनुराग से पागल होकर मेर आती-जाती हर साँस गाती तथा मेर आँख के आँसू
तु हारे पैर धोने के लए पया त होते, अलग से पानी क ज रत नह ं पड़ती ।
156
तु हारे आने क खु शी म मेरे गीले नयन त काल हँ सने लगते, मु झसे तु हारे दूर होने
और भेजे गये संदेश का तु हार ओर से युतर न मलने के कारण मेरे दय क जो
वेदना ओठ पर चु पी बनकर वषाद के प म छा गयी है, वह हमेशा के लए बह
जाती । तु हारे न होने के कारण आज तक का मेरा जीवन पतझड़ क तरह सू खा और
नीरस रहा है, ले कन तु हारे आने पर जीवन म फर से बसंत क ह रयाल छा जता ।
अब तक तु मसे अलग-थलग पड़ी होने के कारण जीवन म थायी प से वरि त ने
अपनी जगह बना ल है, ले कन कोई बात नह ,ं वह भी तु हार सशर र उपि थ त से
अपने आप ख म हो जाती और ये आँखे तु ह दे खकर अपना सब कु छ-तन, मन, दय,
ाण तु म पर नछावर कर दे ती । आ खर म वीकृ त और नछावर करने क मु ँह और
हाथ से अलग आँख क अपनी भाषा है ।
वशेष : महादे वी ने अपना यह भावभीना ाथना गीत अपने पूरे अ तबा य यि त व
से बुना है । वह मांसल उपकरण के बदले वशेष प से आ त रक भाव से रचा गया
है। आँख और ओठ के िज के बावजू द यह महादे वी क आ त रक जगत को कट
करना है । इसम दो ला णक योग है । एक क णा और संदेश का पथ म पराग बन
कर बछ जाना । दो-जीवन म बसंत छा जाना । यहाँ महादे वी के नजी आतं रक
यि त व क नखा लस आकां ा ह अ यंत सधे सुर और लय म गीत का प ले
बैठ है ।
धीरे कर उतर तज से
आ बसंत-रजनी
तारकमय नव वेणी बंधन,
शीश-फूल कर श श का नूतन ,
रि म-वलय सत घन-अवगु ठ
ं न,
मु ताहल अ भराम बछा दे
चतवन से अपनी
पुलकती आ वंसत-रजनी
157
पुल कत व न क रोमाव ल
कर म हो मृ तय क अंज ल
मलया नल का चल दुकू ल अ ल
घर छाया सी याम, व व को
आ अ भसार बनी
सकुचती आ वसंत-रजनी
158
सू खी पि तय क मधुर ममर व न क पायल छमकाती हु ई, मर से गु ज
ं रत कमल
का कंगन बजाती हु ई, अलसाई नंद क मंथर चाल चलती हु ई सजनी, अपनी मीठ
मु कान से चार ओर पछल हु ई चाँद क धारा बहा दो। हे वसंत रजनी, हँ सती हु ई
धरती पर आओ ।
सु खद सपन से रोमां चत होकर, मृ तय को अपने हाथ क अंज ल बनाकर, सखी
मलया नल से अपने आँचल को फहराती हु ई, काल छाया सी घर आओ और पूरे व व
को अपने अ भसार क थल बना लो । हे वसंत रजनी, शरमाते हु ए धरती पर उतरो।
नद का दय तरं ग के प म बार-बार सहर उठता है और मकर द भरे फूल बार-बार
खल पड़ते ह, मलन क आशा के ण फर- फर मचल आते ह, वसंत राज य के
पैर क आहट सु नकर यह धरती- या अ त स न हो उठ है। इस मलन के ण पर
हे वसंत-रजनी, सहरती हु ई आओ।
वशेष : महादे वी ने वसंत-रजनी का एक सजी-सँवर , य से अ भसार के लए उ सु क,
उ यत युवती का सांग पक खड़ा करना चाहा है, ले कन सांग पक म क वता उनसे
ठ क से सध नह ं सक है । य म अि व त का अभाव है, अ त तक पहु ँ चते-पहु ँ चते
छं दबंध भी बखर गये ह । टे क अ छा होने से कोई गीत समूचा अ छा नह ं हो जाता।
कृ त गीत होने के बावजू द उसम जो व तु और अ भ यि त के बीच अि व त और
एक पता होनी चा हए, वह इसम नह ं है।
159
नाश भी हू ँ म अन त वकास का म भी,
याग का दन भी चरम आसि त का तम भी,
तार भी आघात भी झंकार क ग त भी,
पा भी मधु भी मधु प भी मधु र व मृ त भी,
अधर भी हू ँ और ि मत क चाँदनी भी हू ँ ।
संग : तु त गीत महादे वी वमा वारा र चत ‘नीरजा’ का यकृ त से लया गया है ।
महादे वी शु से लेकर आ खर तक अपनी क वताओं म वयं सी होने के नाते एक
ं भी मानती ह,
सनातन पु षत व म व वास करती है और उससे अपना सीधा संबध
ले कन वे अपने संबध
ं को म ययुगीन भ त क तरह पुराने प-संबध
ं - शव-पावती,
राम-सीता या राधा-कृ ण आ द म नह ं दे खती । महादे वी का सनातन पु ष उनका य
है और परमे वर भी । महादे वी उसे एक पढ़ - लखी आधु नक ी क मनोभू म पर
दे खती है । वे अपनी और उसक अि मता तथा स ता दो मानती ह, ले कन दोन क
आंत रक एकता क व वासी है । सनातनता के भीतर वे िजस पु ष - ी संबध
ं क
प धर है वह आधु नक लोकतं के आलोक म है और इस ि ट से नवीन भी । ी
होने के नाते महादे वी इस गीत क रचना अपने प से करती है और उनके मनोभाव
आरो पत नह ं है ।
या या : महादे वी का कहना है क सनातन पु ष क सृि ट -बीन और उसके हर तार
पर बजने वाल रा गनी दोन म ह हू ँ । पहले यह सृि ट क बीन और उसक रा गनी
दोन सोयी हु ई थी, जड़ थी, मौन थी,ले कन जब पहले-पहल इस जगत क रचना हु ई,
उसी के साथ म भी जागी, मेर भी रा गनी का जागरण हु आ । सृि ट के नाश और
नमाण दोन म मेरे पैर के नशान है । एक तरफ ज म-मृ यु के बंधन से म शा पत
हू ँ दूसर तरफ अमरता क आकां ा का वरदान भी मु झे ा य है । ज म मृ यु ,नाम- प
के बंधन म बँधकर ह मने अपने अि त व को जाना है और उस सनातन पु ष क
स ता को भी पहचाना है । इस लए म शाप त वरदान हू ँ । म सृि ट और जीवन का
नाश- नमाण, ज म-मृ यु के प म दो कनारे हू ँ ले कन सृि ट के सतत वकास, जीवन
के सतत वाह के प म उनसे मु त भी हू ँ । मै वह यासा चातक हू ँ िजसक आँख
म हमेशा जलद रहता है । जलद आकाश म आये चाहे न आये, ले कन मेर आँख म
तो हमेशा उसी क छ व बसी रहती है । य य प म न ठु र द पक हू ँ जो अपने य
शलभ को जला डालता है, बावजू द इसके, वह मेरे पास आये चाहे न आये, ले कन मेरे
ाण म सदा वह रहता है । म वह बेचैन बुलबुल हू ँ, फूल मेर आँख के सामने हो
चाहे न हो, ले कन मेरे दय म सदा उसी क चाह छपी रहती है । म वह ग तशील
छाया हू ँ जो अपने आधार के प म शर र से एक है, ले कन व प म उससे अलग
दूर बनी रहती है । म अपनी शार रक स ता और अि मता म अपने सनातन पु ष
यानी तु मसे अलग हू ँ ले कन मेरा अख ड सु हाग तो तु ह ं से जु ड़ा है । सनातन संबध
ं
के नाते ह तु मसे अलग स ता रखकर म तु हार ह अख ड सु हा गनी हू ँ ।
160
म ऐसी आग हू ँ जो ठं डी पड़ गयी है, िजसम वलनशीलता के बदले बफ के जल क
बूँद टपकती है, म ऐसा शू य, नरावलंब, र त हू ँ क जहाँ सफ आते-जाते पल ह, म
ऐसी स नता हू ँ जो पाषाण जैसी कठोर सामािजक पाबं दय म जकड़ी हु ई है, म वह
त बंब हू ँ जो अपने आधार ब ब के उर म समाया रहता है । तु हारे आकाश का
नीला बादल और उसक सु ंदर बजल दोन म ह हू ँ ।
म नाम- प क यि त-स ता के प म सृि ट -जीवन का नाश हू ँ, ले कन शर र क
नरं तरता के प म उसका अन त वकास भी हू ँ । म मृ यु के प म जीवन का अ त
हू ँ, ले कन जीवन के सतत म के प म उसका अख ड वकास भी । म वीणा का
तार हू ँ, उस पर आघात और उससे उठने वाल झंकार क ग त भी म हू ँ । छ ता,
उसके भीतर का शहद, उसका पान करने वाला मर और इन सभी को भु ला दे ने वाल
व मृ त म ह हू ँ । म ह ओठ हू ँ और ओठ पर क चाँदनी जैसी उजल हंसी भी ।
वशेष : महादे वी क इस भाव वाल क वताओं को आ याि मकता और रह या मकता
के आवरण म समझने का वशेष आ ह कया जाता रहा है, ले कन इसका आधार
सनातन पु ष - ं क पा थवता है । अ यंत सधे सु र का यह गीत है, भाषा,
ी संबध
श द-चयन ला णक और यंजना धान है । चातक-जलद, शलभ-द पक और फूल-
बुलबुल आ द तीक परं परागत अथ म ह आये है ।
161
संग : यह गीत महादे वी वमा क का य-रचना 'सां यगीत' से लया गया है । महादे वी
वमा छायावाद रचनाकार के बीच अपनी व श ट ी मनोभू म और सधे सु र के गीत
के लए जानी जाती ह । शलभ-द पक भारतीय दशन- भि त परं परा म कामासि त के
ढ़ तीक रहे ह । महादे वी ने इस तीक को परं परा से लेते हु ए उनके संबध
ं क
या या आधु नक म यवग य नार क आ मसजग ि ट से क है । परं परा इस तीक
संबध
ं पर शलभ के प म वचार करती रह है । महादे वी ने पहल बार द पक के प
से वचार कया । उनके इस गीत का शलभ सं कार- त आधु नक म यवग य पु ष
है, जब क द पक अ तबौ क, व ोह आधु नक म यवग य नार । महादे वी म यवग य
नार क नजी मान सक हक कत को वैचा रक जामा पहनाते हु ए इस गीत म ढालती
ह।
या या : महादे वी कहती ह क हे शलभ-पु ष, म 'शाममय वर' हू ँ म कसी और
काशमान पु ष का नमम द पक हू ँ । 'शापमय वर' इस लए क म एक ओर पु ष
धान समाज के अ भशाप से त हू ँ और दूसर ओर आधु नक श ा का वरदान मु झे
ा त है । इसी वरदान के कारण मेरे भीतर तु हारे पु ष धान समाज क दासता से
मु ि त क चाह, नये-नये सपने दे खने क आकां ा और अपनी अि मता क आग जल
उठ है । अब म तु हारा द प बनने के बदले अपने मनोवां छत काशमान पु ष क
होने के लए नमम भाव से कृ त संक प हू ँ ।
अपने मनोवां छत काशमान ाप क आग मेरे मि त क म जल उठ है, उसी के अ
फु लंग मेरे वचार क गृं ार-माला है, या कलाप , अनुभाव का रं ग थल मेरा यह
शर र उसी के अंगार का बना है । आज तो इसका अंग- यंग वाला का अ य कोष-
सा बन गया है । म मरणधमा शर र के भीतर उसी अपने आकां त काशमान पु ष
क सु ंदर चाह के प म जी वत हू ँ ।
हे शलभ-पु ष, य द तू अपने पुराने सं कार और रं ग-ढं ग को लए- दये मेर आँख म
रहना चाहता है तो रह, म तु ह रोकने वाल कौन हू?ँ ले कन इतना समझ ले क तू
िजन आँख म रहना चाहता है उसक जलती हु ई पुत लयाँ तेरे लए अंगार हो जायगी ।
तू अगर आँख से भाग कर मेरे ाण म अपना बसेरा ढू ढ़गा तो वहाँ अ क दु सह
समा ध लगी होगी । अब तो तु ह मेरे ी व क अि न-पर ा से गुजरना होगा और
उसम तु हारा जलकर खाक होना नि चत है । इस आग के बना म मृ यु का घर हू ँ ।
मेर मु ि कल यह है क तु ह आ य दूँ तो कहाँ दूँ तु हार र ा क ँ तो कैसे क ँ ?
जो चनगा रयाँ पलक के उठने- गरने के साथ आँख क आग से झरकर अलग हो गई
वे अपने ताप खोकर ठं डी राख म बदल रह है और जो न: वास दय के पघले लावा
से नकल बाहर आ गये वे काले धु एँ म बदल गये । म अपने मनोवां छत, मू ल ोत,
सनातन अि नपु ष क चेतना क वाला के बना महज राख का घर हू ँ । जब तक
मु झे उस आ द अि नपु ष से जु ड़े रहने का बोध है तभी तक मेरे भीतर ी व क
आग और व व क वाला है ।
162
मु झे ठ क से, पूरा होशोहवास म ान नह ं है क अंधेर रात म सपने दे खने के दौरान
कौन जगाने आया था । नींद म थी, सपने म थी इसी लए उसक श ल दे ख न सक ,
ले कन उसने अपनी िजन अंगु लय से छूकर मु झे जगाया था अभी भी उनक मृ त
तरोताजा है । उ ह ं क मृ त को पाथेय बनाकर मु झे युग जैसी लंबी रात काटनी है ।
हे शलभ पु ष, अंधेर रात के दय म म दन क चाह का तीर हू ँ । म अंधेर रात,
नींद और सपने के दौर से गुजर रह हू ँ, ले कन मेरा ल य ग त य दन है । इसी लए
म अंधेर रात म होते हु ए दन को चाहती हू ँ । रात को भेद कर दन को हा सल करना
मेरा अि तम ल य है ।
पु ष धान समाज के नपट अंधकारपूण प रवेश म शू य-नग य यि त व के प म
मेरा ज म हु आ था । इ तहास इस बात का गवाह है । मने अपनी या ा अंधकारपूण
प रवेश के भीतर अपने शू य यि त व से शु , क है, ले कन मेर या ा क समाि त
है-सु बह के वार पर । लंबी या ा के दौरान मेरे ाण बहु त बेचैन थे और इस हालत म
भी सफ एक ह साथी था- अंधेरा ।पु षतं का नपट अंधेरा मेरे बाहर था और नपट
अ ान का अंधेरा मेरे भीतर था । साथी भी वह था, श ु भी वह था, उसी के साथ
चलना था और उसी से लड़ना भी था । हे शलभ पु ष, तु म मु झसे अपने मलन क
बात अभी मत कर । अभी तो म अंधेरे, नींद, सपने म हू ँ अपने अ - पु ष, सू य-पु ष
को चाहते हु ए प रि थ तवश उससे दूर हू ँ । म उसी के वरह म बनी रहना चाहती हू ँ
फलहाल म उसी के इंतजार म यह बुरा व त काट दे ना चाहती हू ँ । हे शलभ पु ष ,
तु म मेर पसंद नह ं हो, इस लए तु हारे मलने क बात मु झे वीकार नह ं है । मेर
पसंद वह अि न और सू यपु ष है जो अभी दूर है, पर मै उसी को पाना चाहती हू ँ ।
तु हारे मलन से बेहतर मेरे लए उसका वरह है, ल बा इंतजार भी ।
वशेष :
1. इस गीत म महादे वी ने परं परागत ढ़य से त म यमवग य शलभ-पु ष को
अपनी नापसंद घो षत करते हु ए अपने लए अयो य ठहराया है । नजी नार व का
े ठताबोध इसके पीछे है ।
2. इस गीत म वे ऐसे अि न-पु ष, सू यपु ष क आकां ा करती ह जो अभी से
सशर र उ ह ा त नह ं है । यह अि न, सू यपु ष उनके दय का स य है । उसके
सशर र अवतरण के इंतजार म युग -युगांतर का वरह वीकार है, ले कन अपने
लए अयो य शलभ पु ष से मलन नह ं ।
3. चंतन क धानता के कारण भाषा यंजनाधम होकर भी अथ को ठ क से उजागर
नह ं कर पाती ।
163
नयन म द पक से जलते, / पलक म नझ रणी मचल
मेरा पग पग संगीत भरा, / वास से व न-पराग झरा,
नभ के नव रं ग बुनते दुकूल, / छाया म मलय बयार पल
165
कैसा पतझड़ कैसा सावन, / कैसी मलन वरह क उलझन
कैसा पल घ ड़य मय जीवन, / कैसे न श- दन कैसे सु ख-दुःख
आज व व म तु म हो या तम
टू ट गया वह दपण नमम
166
या मन ह मन अपनी ममता पर रोती- बलखती थी । बा य हा य और अंतर- दन से
उसक दु नया सजी थी । बाहर समाज के दपण म हँ सती हु ई औरत ने अंदर क
असल औरत को इतना लु ंज-पु ज
ं बना दया था क वह पु ष क पराधीन, जड़ और
यि त व-शू य बनकर रह गयी थी । पु ष समाज अपने और औरत के बीच भेदभाव
परक आँख- मचौनी का खेल हजार साल से खेल रहा था । उसका शा तर आयोजक,
खलाड़ी और नणायक भी वह था और औरत थी क अपने भोले व वास म बाजी
हारती रह और पु ष हमेशा जीतता रहा । पु ष समाज संसार चलाने के लए, यार-
वार का एक ठोस दाश नक स ा त भी गढ़ लया था । और इसी यार-वार, ेयसी,
प नी, माँ क भु लभु लैया म नार के दुःख का बीज पड़ा ।
इस आधु नक नार ने अपनी और पु ष समाज क समी ा करते हु ए कहा क मेरे लए
या सावन, या पतझड़, या मलन, या वरह, या सु ख, या दुःख , सब एक
जैसा है । आज व व म या तो तु हार स ता है या फर तु हारा फैलाया हु आ अंधकार
है । आगे यह नार अपनी आ म समी ा और अपने मन के असमंजस के बारे म
कहती ह क मने पु ष के दये दपण को तोड़ डाला है और अपने सजने-सँवरने और
अपनी छ व दे खने के लए वयं नया दपण गढ़ा भी नह ं है । आज मेरे पास वह
अपनाव भी नह ं है िजसक ओट म तु म अपने को छपा सको । हे य, तु मने मेर
दासता को हमेशा अपने सु ख का साधन समझा है । हे यतम, वह जमाना लद गया
जब, तु म मु झम अपना सु ख ढू ँ ढ़ते थे और म तु हारे दुःख म अपना दुःख दे खती थी ।
आज वह नमम दपण टू ट गया है ।
वशेष :
1. इस गीत क भाषा छायावाद है । वह सीधे-सीधे नह ं कहती ह क दपण मने तोड़
डाला है, बि क यह कहती है क 'वह टू ट गया है ।'
2. सामा यत: छायावाद क व कसी मा यम के ज रए अपनी बात कहते ह । इस
गीत म महादे वी टू टे दपण के ज रए अपनी मनोदशा कट करती ह ।
167
बाँध लेग या तु झे यह मोम के बंधन सजीले?
पंथ क बाधा बनगे तत लय के पर रं गीले?
व व का ं दन भु ला दे गी मधु प क मधुर गुनगुन ,
या डु बा दगे तु झे यह फूल के दल ओस-गीले?
तू न अपनी छाँह को अपने लए कारा बनाना
जाग तु झको दूर जाना ।
व का उर एक छोटे अ क
ु ण म धो गलाया,
दे कसे जीवन-सु धा दो घूट
ँ म दरा माँग लाया?
सो गई आँधी मलय क बात का उपधान ले या?
व व का अ भशाप या चर नींद बनकर पास आया?
अमरता-सु त चाहता य मृ यु को उर म बसाना?
जाग तु झको दूर जाना ।
168
चाहे आज तु हारे उदघोष से ि थर हमालय का दय काँप उठे , चाहे तु हार ां तकार
या-कलाप को दे खकर यह आकाश चु पचाप अलयकार आँसू गारकर रोता रहे , आज
चाहे तु हारे माग के काश को घोर अंधकार क छाया नगलकर उस पर या त हो
जाये या लपलपाती बज लय म नमम च वाती आँधी जागकर गजने लगे, या ा के
दौरान प रि थ त चाहे िजतनी वपर त हो, ये शि तशाल भौ तक त व तु हारे रा ते म
चाहे िजतनी अड़चन खड़ी करे , तु हारे अि त व को मटाने क चाहे प रि थ त खड़ी
कर चाहे दे ले कन तु ह इनसे डरना नह ं है, इनके आगे झु कना नह ं है, हार मानकर
पीछे लौटना नह ं है, कना भी नह ं है । अपने ाण क परवाह कये वगैर तु ह
आजाद के मरण-पथ पर अपनी अमरता के नशान छोड़ते हु ए आगे बढ़ना है । आज
जागो, तु ह यहाँ से बहु त दूर आजाद के वार तक जाना है ।
आज या मोम जैसे मु लायम और जीव त र ते तु ह बाँध लगे, तु हारा पथ रोक
लगे? या रं गीन पर वाल तत लयाँ, शोख और रं गीन युव तयाँ तु हारे पथ क बाधा
बनगी, या भौर क मधु र गु ज
ं ार के आगे व व का ं दन भु ला दोगे? या फूल क
ओस से गील पंखु डयाँ तु हारा मन लु भाकर बीच रा त म ह डु बा दगी? तु म अपने
मन के भीतर इनक छाँह के, भाव-संबध
ं , प और कृ त स दय क मृ त के गुलाम
मत बन जाना, उनके मोह म कैद मत हो जाना । आज तु म इनका मोह छोड़ दो,
जागो य क तु ह बहु त दूर आजाद के वार तक जाना है ।
या आँसू क कु छ बूँद म तु हारा ब कैसा कठोर दय धु लकर घुल गया है? या
छोटे -मोट क ट -दुःख को ताकतवर समझकर तु म भी बन गये हो? या तु म अपने
जीवन का अमृत कसी और के हाथ म स प कर उससे दो घूट
ँ म दरा लाये हो और
उसे पीकर बेसु ध हो गये हो? या तु हारे दय म उ साह, साहस, जोश क जो आँधी
थी, आज वह मलया नल का आवरण ओढ़ कर सो गई है? तु हारे भीतर मंद-मंद ठं डी
सफ साँस भर चल रह है? व व का अ भशाप-अ ान, मोह का अंधकार या हमेशा
के लए तु हारे पास आँख क नींद बनकर आ गया है? अमृत -पु , या आज तू
अपने दय म मौत को बसाना चाहता है, सोते सोते मरना चाहता है? अरे जाग, तु ह
बहु त दूर आजाद के वार तक जाना है ।
गीत का अं तम छं द-बंध रा के लए सम पत वा भमानी औरत के लए है । हे
मा ननी, ठँ डी साँसे भरकर पु ष धान समाज के दय को जलाने वाल कथा कहने,
शकवा- शकायत करने का यह व त नह ं है। यह दे श क आजाद के लए संघष का
व त है, इस लए अपने द ध हदयवाल कहानी भूलकर भी मत कह । पु ष के साथ
तु हारे जागने और उनके कंधे से कंधा, कदम से कदम मलाकर वाधीनता के संघष
पथ पर आगे बढ़ने का यह व त है । जब दय म आग, उ साह, जोश, साहस, ओज
होगा, तभी आँख म पानी, क णा, ममता आ द सु ंदर लगेगा । हे मा ननी य द इस
पथ पर तु हार हार हो जाये तो वह भी तु हारे जय क पताका बन जायेगी ।
169
आ मब लदानी शलभ का शर र तो एक ण के अंदर जलकर खाक हो जाता है, ले कन
वह िजस अमर द पक के लए अपना आ म ब लदान करता है, वह अकारथ नह ं जाता,
वह द पक क यो त को सम पत होकर उसी के साथ अमर हो जाता है । हे मा ननी
आज तु ह वतं ता संघष क अंगार वाल श या पर अपने हाथ से कोमल क लयाँ
बछाना है, लड़ने वाले पु षो के त कोमल बने रहना है । अरे , तू जाग बहु त दूर
आजाद के वार तक जाना है।
अ य ह गे चरन हारे ,
और जो ह लौटते, दे शू ल को संक प सारे ,
दु:ख ती नमाण उ मद, यह अमरता नापते पद,
बॉध दगे-संस ृ त से त मर म वण-बेला
दूसर होगी कहानी,
शू य म िजसके मटे वर, धू ल म खोयी नशानी,
आज िजस पर लय वि मत, म लगाती चल रह नत,
मो तय क हट औ' चंगा रय का एक मेला
हास, का मधु-दूत भेजो,
रोष क भू- भं गमा पतझार को चाहे सहे जो
ले मलेगा उर अचंचल, वेदना-जल, व न, शतदल
जान लो वह मलन एकाक वरह म है दुकेला
पंथ होने दो अप र चत ाण होने दो अकेला
संग : यह गीत महादे वी वमा वारा र चत 'द प शखा' का यकृ त से लया गया है ।
वे छायावाद क व श ट कव य ी के प म मा य है । 'द प शखा' क रचना तक
पहु ँ चते-पहु ँ चते महादे वी अपनी सहज वैयि तक अनुभू त को च तन से ढँ क लेती है ।
महादे वी के गीत म जो बात अपने पाठक का यान बरबस अपनी ओर खींचती ह,
उनम से एक है-आंका त णयवेदना क अनुभू त । शाद -शु दा होने और नजी
दा प य जीवन के असफल होने के बावजू द एक ी होने के नाते वरह क ऐसी पीड़ा
क अनुभू त वाभा वक है ।
170
या या : महादे वी अपने मनोवां छत सनातन णय-पु ष से कहती है क मेरे णय का
जो पथ है उसे आज व मृत हो जाने दो और ाण को भी अब अपने से अलग-थलग
पड़ा रहने दो । आज चाहे मेरे रा ते म बादल क छाया अमावस का अंधेरा बनकर घर
जाए और चाहे यह घरा बादल उस पर काले-काले आँसु ओ क रम झम बरसात कर
दे । वे नेह-शू य आँखे कोई और ह गी िजनक पुत लय क चमक नाउ मीद से बुझ
जाती ह और पलक भावह न हो जाती है, ले कन मेर चतवन नेह से गील और
उसम सैकड़ बज लय के द पक जलते है, उ मीद का काश ह । य द आज इस
हालत म पथ भू लता है तो भू ल जाने दो और ाण अकेला पड़ गया है तो अकेला रहने
दो ।
वे पैर दूसरे ह गे जो चलकर हार मान लेते ह, जो अपने संक प को क ट के सामने
नछावर कर दे ते है और बीच से लौट पड़ते ह, ले कन मेरे पैर तो दूसर माट के बने
ह । इ ह ने दुःख उठाने का त ले रखा है और इनम नमाण का पूरा जोश भी है ।
ये अमरता के पथ के या ी ह । ये रात के अंधेरे से चलते-चलते संसार के आँचल म
ात: काल क रोशनी ला धरगे ।
वह जीवनकथा कसी और क होगी, िजसक अनुगँज
ू आकाश म खो जाती है, िजसे
आकाश नगल लेता है, जो म ी म दफन हो जाती है और िजसे धरती मटा दे ती है ।
मेर जीवन-कथा इससे ब कु ल अलग है । आज तो मेरे कहानी पर अि त व का नाश
करने वाला लय यानी महाकाल भी आ चयच कत है, य क महाकाल का मु झे डर
नह ं है और म नरथक मर मटने वाल म से नह ं हू ँ । म सतत याशील और
आ मसजग हू ँ पानी और आग दोन मेरे पास ह । म तो रोज आँसू क मो तय का
बाजार और आग क चनगा रय का मेला लगाती हू ँ ।
हे सनातन णयी, चाहे तु म मेरे पास अपने उपहास का दूत भेजो, मेरा उपहास करो या
फर गु से से मेर टे ढ़ भ ह और उजड़े जीवन को संभाल कर रखो, रोष से मेर
कं ु चत भौह और उजाड़ जीवन का आदर करो, अनुकू ल- तकू ल दोन ि थ तय म मेरा
दय पूरे संयम के साथ वेदना के आँसू और आशाओं-आकां ाओं के व न के कमल
अथात पानी और फूल का अहश लेकर तु हारा वागत करे गा, तु हार पूजा करे गा ।
मेरा तन न सह , ले कन सैकड़ आकां ाओं का आगार क णा ल वत मेरा दय तु मसे
अव य मलेगा । तु म यह ठ क से जान लो क मलन हम दोन को मलाकर एक कर
दे गा, हम दोन के अपने-अपने यि त व का बोध मटाकर रख दे गा । हम दोन एक
दूसरे से अलग रहकर ह एक दूसरे के यि त व को ठ क से जान और समझ सकते ह
। य द वरह वेदना क बाढ़ के कारण आज माग व मृत हो गया है तो जाने दो और
तु मसे अलग-थलग होकर य द ाण अकेला पड़ गया तो पड़ा रहने दो । इस वरह
ज य अकेलेपन का अपना मजा है । तु मसे दूर होने का दुख तो है, ले कन यह य
भू लते हो क इसी दूर ओर अलगाव के कारण तु हारे और अपने यि त व क
अि मता का बोध भी तो है ।
171
वशेष :
1. महादे वी का सु श त वतं आधु नक नार क मनोभू म से इस गीत क रचना
करती ह।
2. यह गीत महादे वी के मम को उजागर करता है । सनातन य क दय से पूजा
का भाव ह इसम धान है । आँख, पैर, जीवन-कथा के उपकरण से गीत को
बुनते हु ए वे दय तक ले जाकर उसे पूरा कर दे ती ह ।
3. वरहज य चरम व मृ त ओर अकेलेपन, यि त व के अलगाव के ण म वे
ाणपण और दय से अपने य को सम पत है और एक ह, ले कन दोन के
यि त व का पृथक -पृथक बोध बना रहे , इस लए वे अपने अलगाव को नरथक
नह ं मानती ह।
172
क आँख के आँसू उ जवल होते ह और सबके सपन , आकां ाओं म स य मौजू द
रहता है । वे अपने इसी था पत वचार को द पक-फूल, सागर- ग र, आकाश- धरती के
टांत से पु ट करते हु ए एक पूरा गीत रच दे ती ह ।
या या : महादे वी का कहना है क जड़ ह या चेतन, सभी के आँसू के रं ग एक जैसे
सफेद होते ह और सबके अ तजगत म, क पना-आकां ा म एक ह स य मौजू द रहता
है । द पक और फूल को दे खए-िजस सृि ट नमाता ने द पक को वाला द है, उसी ने
फूल को पराग से भर दया है । द पक है क तपल अपने को घुलाकर संसार पर
अपना काश नछावर कर दे ता है और फूल है क अपना पराग धरती पर झाड़कर
चार तरफ अपनी सु गध
ं फैला दे ता है । दोनो सृि ट के म ह, ले कन दोन के
आ मदान का प अलग- अलग है । द पक जलता तो है, ले कन फूल क तरह खल
नह ं सकता और फूल है क खलता तो है, पर द पक क तरह जल नह सकता ।
173
दोन जीवन के क याणाथ अकेले-अकेले, ले कन एक उ े य से े रत होकर साथ म
मलकर काम करते ह ।
सृि ट के च पे-च पे म, कण-कण म तु म चाहो तो मेर साँस को नये-नये प म आँक
लो, एक-एक चीज को चु न लो या फर तपल म बनते ओर मटते प म अपनी
सफल-असफल चाहो को गन लो । इस संसार म जो कु छ मटकर खाक हो रहा है या
नया बन रहा है या फर पल- तपल बदलते हु ए आगे बढ़ा रहा है सबके भीतर एक ह
ाण घुल - मलकर धड़क रहा है । हर व तु के अ तजगत म, क पना म एक ह स य
ि थत है ।
वशेष :
1. यह एक चंतन धान गीत है । अ भ यि त यंजना धान है, पर अथ क ि ट
से साफ नह ं है ।
2. जगत क हर व तु के अ तजगत म एक ह स य- ाण, मंगल भावना का वीकार
ह।
3. सब म स य के मौजू द होने क बात दो भ न- भ न कृ त वाले यु म -द पक-
फूल, पहाड़-सागर, सोना-ह रा, आकाश-धरती-के का योपकरण के ज रए कह गयी
है ।
7.5 अ यासाथ न
1. महादे वी वमा के का य और ग य के ेरक कारण पर सं प
े म वचार क िजए ।
2. महादे वी वमा के का य क वकास-या ा पर वचार क िजए ।
3. महादे वी वमा ने ग य वकास क व वध दशाओं क चचा द िजए ।
7.6 संदभ ंथ
1. महादे वी वमा - यामा - लोकभारती काशन - इलाहाबाद, सं करण- 1995
174
2. अतीत के चल च , राधाकृ ण काशन नई द ल , सं करण-1999 ।
3. पथ के साथी-राधाकृ ण काशन-नई द ल , सं करण-1992 ।
4. संचयन- श ा काशन-आगरा, सं करण- 1985
5. सु म ानंदन पंत (सं.) - महादे वी ं ,
मरण थ लोकभारती काशन-इलाहाबाद
सं करण- 1967 ।
6. गंगा साद पांडेय (सं.) महादे वी वमा, राजपाल ए ड संज द ल , सं करण-
1992।
7. नमला जैन (सं.) - महादे वी संच यता, वाणी काशन-नई द ल सं करण-2002।
175
इकाई-8 महादे वी वमा के का य का अनुभू त एवं
अ भ यंजना प
इकाई क परे खा
8.0 उ े य
8.1 तावना
8.2 महादे वी वमा का का य: अनुभू त प
8.2.1 का य ि ट
8.2.2 वैयि तक अनुभू त और क पनाशीलता
8.2.3 ी व व, आकां ा और णयानुभू त
8.2.4 दुःखवाद और वेदनानुभू त
8.2.5 सौ दय और कृ त च ण
8.2.6 नव रह यानुभू त
8.3 महादे वी वमा का का य : अ भ यंजना प
8.3.1 का य भाषा
8.3.2 अलंकार वधान
8.3.3 ब ब वधान
8.3.4 तीक वधान
8.3.5 का य प : गीत वधान
8.3.6 छं द वधान
8.4 मू यांकन
8.5 वचार स दभ और ट पणी
8.6 अ यासाथ न
8.7 स दभ थ
ं
8.0 उ े य
इस इकाई का अ ययन करने के बाद आप :
महादे वी वमा के का य क अनुभू त के व वध प से आप प र चत हो सकगे,
उनके का य के अ भ यंजना प क जानकार ा त कर सकगे,
छायावाद का य म महादे वी वमा के व श ट योगदान को जान सकगे ।
8.1 तावना
महादे वी वमा छायावाद का य के आधार तंभ म से एक ह । वे वाधीनता आ दोलन
के दौर म पैदा हु ई, पढ़ - लखी और उससे भा वत हु ई । एक ओर उ ह भारतीय
सं कृ त के समृ अतीत ने, वेदा त दशन ने, महा मा बु के दुःखवाद, भि त सा ह य
176
ने भा वत कया तो दूसर ओर रा य मु ि त संघष, महा मा गांधी के यापक
रा य-सामािजक काय और रवी नाथ ठाकु र के व वमानववाद ने न केवल अपनी
ओर खींचा, बि क भीतर तक भा वत कया । इन सबका अ भ न, मौ लक, जीव त
तीक है महादे वी का का य । उनक क वता म अनुभू त के प म जो कु छ है, उसका
सीधा संबध
ं भारतीय सं कृ त के गौरवशाल अतीत से लेकर उनके दौर के रा य
मु ि त संघष से है । उनक क वता म रा य जागरण के साथ नार जागरण है ।
उनक क वता म य द एक आम भारतीय ी क पीड़ा है तो एक आधु नक सु श त
म यमवग य भारतीय नार क आ म सजगता, अि मता, मु ि त क आकां ा, व ोह
और व न क अ भ यि त भी । उ ह ने छायावाद क वता को अनुभू त के साथ
अ भ यंजना क ि ट से भी समृ कया । ी क भा षक मनोरचना से ह द जगत
का प रचय मीरा के बाद महादे वी ने करवाया । इसी कारण छायावाद रचनाकार के
बीच उनक सजना मक का यभाषा-श द चयन, ब ब- तीक-अलंकार वधान का अपना
मह व है । साद, पंत, नराला क तरह बंधा मक रचना म उ ह रस नह ं था । शु
से आ खर तक गीत का सजाते, सँवारते और समृ करते हु ए उ ह ने अपनी
का याया ा पूर कर द ।
178
ह द समाज के सामने रखा और उसे कट करने का अंदाज भी सामा यत: आ मपरक
है । नराला ने प ट कहा क ''मने 'म' शैल अपनाई और महादे वी ने बदल क ओट
लेकर कहा क ''म नीर भर दुख क बदल ’ । य द छायावाद के पु ष क व- साद, पंत,
नराला आ द-अपने यि त व क पहचान और उसक अ भ यि त चाहते ह, तो
महादे वी अपने नार यि त व क महादे वी ने 'यामा' क भू मका 'अपनी बात' म लखा
है क '' आज हमारा दय ह हमारे लए संसार है । हम मनी येक साँस का
इ तहास लख रहना चाहते है, अपनी येक कंपन को लख लेने के लए उ सु क ह
और येक व न का मू य पा लेने के लए वकल है । संभव है यह उस युग क
त या हो िजसम क व का आदश अपने वषय म कु छ न कहकर संसार भर का
इ तहास कहना था, दय क उपे ा कर शर र को आ त करना था ।'
महादे वी ने अपनी क वताओं के मा यम से अपने दय क भावकथा कह है और
ि य क त न ध होने के कारण आम भारतीय नार और पढ़ - लखी म यवग य ी
क भी । और दोन को कट करने का अंदाज उनका ाय आ मपरक (म शैल ) है ।
इस कार उ ह ने अपनी क वताओं म अपनी और आधु नक भारतीय नार के यथाथ,
व न, मु ि त क आकां ा और व व का गीत गाया है । इस लए वह वैयि तक रं ग
म होकर भी वशु प से वैयि तक नह ं है, उसका सामािजक आधार है । मसलन-
मेरे ओ वहग से गान ।
सो रहे उर-नीड़ म मृदु पंख सु ख-दुःख के समेटे
सघन व मृ त म उनींद अलस पलक को लपेटे
त मर सागर से धु ले । द श कू ल से अनजान ।
खोजता तु मको कहाँ से आ गया आलोक सपना?
चौक तौले पंख, तु म को याद आया कौन अपना?
कु हर म तु म उड़ चले । कस छाँह को पहचान?
यह सु ि त और जागरण, त मर और आलोक महादे वी का अपना यथाथ तो है ह , उस
जमाने क हर पढ़ - लखी म यमवग य ी का भी यथाथ कमोवेश यह है ।
179
छायावाद क वता को एक युगीन सामू हक पहचान साद, पंत, नराला और महादे वी ने
मलकर द थी, ले कन नार व व, आ मजागृ त , व ोह, मु ि त, आकां ा,
णयानुभू त क पहचान अकेले महादे वी ने द थी । उ ह ने छायावाद क वता म नार
को जो पहचान द , वह साद-पंत- नराला क नार पहचान से अलग थी, कारण यह है
क वे पढ़ - लखी ी थीं । वे अपने और अपनी ी जा त के यथाथ को िजस प
म, िजतने नकट से जानती थी, वह पु ष क वय के लए पु ष होने के कारण कृ या
संभव न था । उ ह ने छायावाद क वता क पु ष धान नार वषयक ि ट और च ण
क समी ा करते हु ए कहा है क ''छायावाद ने उस कठोर अचलता से शापमु ि त दे ने
के लए नार को कृ त के समान मू त और अमू त ि थ त दे डाला । उस ि थ त म
सौ दय को एक रह यमयी सू मता और व वधता ा त हो गयी, पर तु जीवन क
ँ ल और अ प ट हो गयी ।' कु ल मलाकर छायावाद क नार ' 'पु ष
यथाथ रे खाय धुध
के सौ दय, व न, आदश आ द का तीक है ।' यह सह है क छायावाद क व पु ष
ने ववेद युग क तु लना म नार के अ तबाहय को न केवल अ धक गहराई म दे खा,
बि क उससे यादा मु त और रं गीन वातावरण म च त भी कया । ले कन महादे वी
ने उसके अ तबाहय जगत को िजस प म दे खा, पहचाना और च त कया, वैसा ये
क व नह ं कर सके। महादे वी ने पु ष को आगाह करते हु ए साफ श द म कहा क
नार ''आज इतनी सं ाह न और पंगु नह ं है क पु ष अकेले ह उसके भ व य और
ं म नि चत कर ले ।'
ग त के संबध
महादे वी ने अपनी क वताओं म आधु नक लोकतं क समानता क भू म पर नार -पु ष
के ेम संबध
ं को मा य रखा । बावजू द इसके वे पु ष के वच व से मु त और
यि त व से अलग नार के यि त व क अपनी पहचान भी चाहती है । उनक
क वताओं म भारतीय नार के बा य प संभार, मांसल सौ दय से अ धक उसके दय
का वैभव का शत है, उसके अ तजगत का सब कु छ । महादे वी अपने का य म ी-
ाप णय-संबध
ं के आधु नक, नये संसार को सामने लाती है । सामािजक ब धन से
पूर तरह मु त न होने के कारण महादे वी का नार - वर अ तमु खी है, क तु ढ़ है ।
उनक ारं भक क वताओं म नजी दा प य के दुःखद अनुभव और असफलता का भी
रं ग घुल - मल गया है । स मोहन और पीड़ा के बीज यहाँ तो ह ह , द य आवरण म
ढाँकने क को शश भी यह से शु , होती है । दे ख-
अल त आ कसने चु पचाप, सु ना अपनी स मोहन तान
दखाकर माया का सा ा य, बना डाला इसको अनजान
मोह-म दरा का आ वादन कया य हे भोले जीवन ।
िजन चरण क नख- आभा ने ह रक-जाल लजाये
उन पर मने धु ंधले से आँसू दो-चार चढ़ाये
इन ललचायी पलक पर जब पहरा था बीड़ा का
180
सा ा य मु झे दे डाला उस चतवन ने पीड़ा का । - नीहार
महादे वी क णया भ यि त का व प आँसू धान है । उसका कारण सामािजक है ।
पु ष धान सामािजक यव था ने नार के लए नषेध और दासता क कठोर तर
कारा का नमाण कर डाला था, जब इस बात का उसे पहले-पहल ान हु आ तो रोना
ह आया । महादे वी ने अपनी अनेक क वताओं म नजी ओर नार जा त क मनोदशा
क अ भ यि त के लए यह मु ा धारण क है । उनक क वताओं म एक पढ़ - लखी
म यमवग य ी का अपनी अ भ यि त के आकु ल दय तो दखाई पड़ता ह है, इसके
अलावा उसक तेजो ी त मु ा और बल अि मता भी दखाई पड़ती है । अपने
आकां त य के सामने वे मटने के अ धकार का नणय अपना मानती है और अपनी
पीड़ा के सामने उसके दय क पीड़ा को परखने का भी महादे वी के इस नये ेम का
अनोखापन यह है क बल आ मबोध के बावजू द वे अपने मनो भल षत य का
मनुहार और आ वान करती ह ।
जो तु म आ जाते एक बार ।
कतनी क णा कतने संदेश, पथ म बछ जाते बन पराग
गाता ाण का तार-तार, अनुराग भरा उ माद राग
आँसू लेते वे पद पखार । - नीहार
महादे वी क क वताओं म आधु नक म यव ीय नार का एक दूसरा वर-अ त बौ क,
आ मसजग और व ोह नार का- मलता है । यह ऐसी व ोह नार है जो अपनी
पसंद-नापसंद न सफ जानती है, बि क उसे कट करने का साहस भी रखती है । वह
अपनी पु ष दासता, उसके त व ोह से बखू बी प र चत है और वयं कोई नव नमाण
न कर पाने क ि थ त ओर असमंजस से भी प र चत है । महादे वी आधु नक नार के
व ोह और असमंजस दोन का बयान एक ह क वता म करती ह । अपनी पु ष
दासता का ान और उसके त असहम त का वर यह है-
आज कहाँ मेरा अपनापन, तेरे छपने का अवगु ठ
ं न
मेरा बंधन तेरा साधन, तु म मु झम अपना सु ख दे खो
म तु मम अपना दु:ख यतम । टू ट गया वह दपण नमम ।
एका धकार वाले पु ष माया-दपण को तोड़ दे ने के बाद वयं नया दपण न बना पाने
का संकट यह है-
कसम दे ख संवा ँ कं ु तल , अंगराग पुलक का मल मल,
व न से आँजू पलक चल, कस पर र झूँ कससे ठू ँ ,
भर लूँ कस छ व से अ तरतम । टू ट गया वह दपण नमम ।
महादे वी क क वताओं म आधु नक नार का एक तीसरा वर भी सु नाई पड़ता है । वे
पु ष धान समाज यव था के भीतर नार जा त के प रचय और इ तहास का, उसक
यि त व शू यता, अ धकार ह नता ओर उसके परवश आ मब लदान का बयान उसक
त न ध बनकर करती ह ।
181
म तज-भृकु ट पर घर धू मल, च ता का भार बनी अ वरल
रज-कण पर जल-कण हो बरसी, नवजीवन अंकु र बन नकल
व तृत नभ का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना
प रचय इतना इ तहास यह , उमड़ी कल थी मट आज चल
म नीर भर दुःख क बदल ।
वाधीनता आंदोलन के म ेनजर महादे वी सोई हु ई ि य को न केवल जगाती है,
बि क दे शमु ि त क राह म पछला दुःख भु लाकर पु ष को सहयोग दे ने का उ ह दशा
नदश भी करती ह । वे प रि थ त के अनु प ी क आग और क णा दोन क
प धर ह।
कह न ठं डी साँस म भू ल वह जलती कहानी
आग हो उर म तभी ग म सजेगा आज पानी
हार भी तेर बनेगी मा ननी जय क पताका
राख णक पतंग है अमर द पक क नशानी
जाग तु झको दूर जाना ।
182
एक आ म नभर, वतं , व ोह ी का जीवन िजया था, ले कन वे अपनी क वताओं म
िजस ी-पु ष के ं क कामना करती है, वह उनके प
णय संबध म अपने लए
मनोकां त पु ष के अभाव से पैदा हु ई थी । उनका मनोकां त पु ष उनके जीवन का
स य कभी नह ं बन सका, वह केवल दय-स य बन सका । एक हाड़-मांस और
आकां ा से पूण ी क अपने मनोकूल, सवथा यो य पु ष क तड़प को ह वे
सनातन पु ष- ी के णय और वरह म ढालती ह । ऐसे पु ष क बल लालसा ओर
सशर र उसक अनुपि थ त ह वह मू लभूत कारण है जो महादे वी क नजी तौर पर शु
से आ खर तक उनक क वताओं म कमोवेश अपना प बदलते हु ए मौजू द है ।
ारं भक क वताओं म यह वरह वेदना वैयि तक और आवेगा मक है, पर धीरे -धीरे वह
स य बन जाती है । इसका ारं भक प दे खए-
बछाती थी सपन के जाल तु हार वह क णा क कोर
गयी अधर क मु कान मु झे मधु मय पीड़ा म बोर
भू लती थी म सीखे राग बछलते थे कर बार बार
तु ह तब आता था क णेश उ ह ं मेर भू ल पर यार
मेर आह सोती थीं इन ओठ क ओटो म
मेरा सव व छपा है इन द वानी चोट म । 'नीहार'
दरअसल महादे वी ने अपने लए िजस पूण पु ष क कामना क थी, उस समय का
म यमवग य समाज ऐसे पु ष को ज म न दे सका था और जो नवपु ष समु दाय उनके
सामने था, वह पढ़ा- लखा होने के बावजू द अपने भीतर मनोलोक म पुराने एका धकार
वाले सं कार से पूर तरह मु त न हो पाया था । ऐसे नवम यमवग य पु ष को
उ ह ने अपने लायक नह ं समझा, इस लए उसे अयो य ठहरा दया । आकां त, ले कन
ऐि य तर पर अ य त पूण पु ष को ी क सनातन पु ष-कामना से जोड़कर
ू जीवन को उसक मनो मृ त , क पना और उसी के वरह से रं ग
उ ह ने अपने संपण
लया ।
शलभ म शापमय वर हू ँ । कसी का द प न ठु र हू ँ
कौन आया था न जाना, व न म मु झको जगाने,
याद म उन अंगु लय के ह, मु झे पर युग बताने,
रात के उर म दवस क चाह का शर हू ँ ।
मलन का मत नाम ले म वरह म चर हू ँ ।
यह वह पढ़ - लखी नयी म यमवग य ी थी िजसे अपने मनोकू ल, यो य नये पु ष
क चाह थी । यह चाह पुरानी ी क बेबस चाह से अलग नयी थी और ां तकार
भी । फर भी उसके बारे म खु लमखु ला कहने का साहस अभी नह ं आ पाया था ।
हाँ, ढ़ता उसम अव य थी । खु लकर न कह पाने के संकोच के कारण उसे अपनी बात
कहने के लए कसी अ य का योपकरण क ओट लेनी पड़ती थी । छायावाद क व
पु ष क जब यह हालत थी तो महादे वी एक ी थी । उनक अ भ यि त के
183
अ तमु ख होने का एक धान कारण यह है । महादे वी ने इसे अपनी छायावाद भाषा
म य कहा है क ''बा यजगत क कठोर सीमाओं और अ तजगत क असीमता क
अनुभू त ने उस दुःख को एक अ तमु खी ि थ त दे द थी ।' अ तजगत क असीमता
नये पु ष का यूटो पया था । महादे वी अपने वरह और दुःख के बारे म सीधे-सीधे कहने
के बदले कभी 'बदल क ओट लेकर कहती ह तो कभी 'सां य गगन' क , तो कभी
'जलजात' और कभी 'नीरजा' । इसका एक उदाहरण दे खए-
वरह का जलजात जीवन, वरह का जलजात
वेदना म ज म, क णा म मला आवास
अ ु चु नता दवस इसका, अ ु गनती रात
जीवन वरह का जलजात आँसु ओं का कोष उर, ग अ ु क टकसाल
तरल जलकण से बने घन-सा णक मृदुगात
जीवन वरह का जलजात ।
प. रामचं शु ल जैसे मम आलोचक जब महादे वी क इस वेदनानुभू त के बारे म यह
कहते ह क ''इस वेदना को लेकर उ ह ने दय क ऐसी अनुभू तयाँ सामने रखी ह जो
लोको तर ह । कहाँ तक अनुभू तय क रमणीय क पना है, यह नह ं कहा जा सकता।'
महादे वी के मनोलोक को ठ क से न समझने के कारण शु लजी के सामने अनुभू त क
वा त वकता और अनुभू त क क पना के बीच व वधा उठ , वना महादे वी ने अपना
प बहु त पहले साफ कर दया था क वेदना का स ब ध यथाथ अनुभू त से है और
उनके भावी व न से भी । भावी ं क पना से है, ले कन उसका आधार
व न का संबध
महादे वी के नजी जीवन का यथाथ है । महादे वी के व न और अनुभू त म अ तशयता
और अ प टता है, ले कन वे यथाथ - शू य भी नह ं है ।
'सां यगीत' और 'द प शखा' तक पहु ँ चते-पहु ँ चते महादे वी को अपनी नार सीमाओं का
पता चल गया था । वे जान गयी थी केवल यि तगत बल आकां ा के बल पर
अपने दय के भीतर के पूण व न पु ष को साकार प नह ं दया जा सकता । वे
जान गयी थीं क सनातन दय थ पु ष को साकार होने म एक जीवन या, एक युग
भी कम है । इसी लए उनका यि तगत आवेग मंद, वरह क आग ठं डी पड़ने लगती
है । वे अपने दय के सनातन पूण पु ष के व न को भ व य क अमानत समझकर
उसे दशन क चादर म लपेटते हु ए आवेग से संय मत चर साधना और नवाण के पथ
पर आगे बढ़ जाती ह । इस कार वे मन को समझाने म कामयाब हो जाती है क
अंदर का पु ष अभी बाहर मलने वाला नह ं है । इसी ि थ त म आकां त पु ष का
वरह उसके लंबे इंतजार के कारण स य और मधुर से मधुर बन जाता है ।
म सजग चर साधना ले
सजग हर से नर तर जागते अ ल रोम नझर
न मष के बुद बुद मटाकर, एक रस है समय सागर
हो गयी आरा यमय वरह क आराधना ले - 'सां यगीत'
184
महादे वी क णय वेदना बु के दुःखवाद से भा वत है, उनक लोकक याण भावना के
पीछे बु क क णा क ेरणा है, ले कन वह बु के माग से इस अथ म अलग है क
उसम व व का नाश नह ं है, बि क उसका उदा तीकरण है और इस उदा तीकरण म
आ मसजगता का पूरा हाथ ह ।
8.2.5 सौ दय और कृ त च ण
185
हु ए क अपनी वैयि तकता के रं ग म उसे भी रं ग डाला । उ ह ने अपनी भावनाओं और
इ छाओं को उस पर आरो पत करते हु ए उसे मानवीय व प दे दया । उनक इस
वृ त म भारतीय और यूरोपीय दोन का य परं पराएँ बहु त मददगार सा बत हु ई, ले कन
मददगार ह । उ ह ने कृ त को नये प म च त कया ।
महादे वी क क वताओं म कृ त के त ारं भ म शशु जैसा आकषण और कौतू हल
भाव मलता है । उ ह ने कृ त का सवा धक उपयोग मानवीय भाव क अ भ यि त
क पृ ठभू म या उसके उपादान और अलंकरण के प म कया है । उनके पहले
क वता सं ह 'नीहार' म नजी भाव क पृ ठभू म के प म कृ त का बहु त ह सु ंदर
च ण है । मसलन-
रजनी ओढ़े जाती थी झल मल तार क जाल
उसके बखरे वैभव पर जब रोती थी उिजयाल
आँख म रात बताकर जब वधु ने पीला मु ख फेरा
आया फर च बनाने ाची म ात चतेरा
कन-कन म जब छायी थी वह नवयौवन क लाल
म नधन तब आयी ले सपन से भरकर डाल । - 'नीहार'
'रि म' म पहु ँ चकर महादे वी के सामने कृ त के वैभव और मनु य के दुःख के बीच
वक प का न खड़ा हो गया, ले कन इस न का जवाब भी उ ह ने आ द कृ त माँ
से पाना चाहा, पर वह भला या जवाब दे ती? महादे वी ने तो खु द सवाल पूछा था,
भला वे या जवाब दे तीं, इस लए उसे अनु त रत ह छोड़ दया ।
कह दे माँ या अब दे खू ँ
दे खू ँ खलती क लयाँ या यासे अधर को
तेर चर यौवन-सु षमा या जजर जीवन दे खू ँ
तु झम अ लान हँ सी है, इसम अज आँसज
ू ल
तेरा वैभव दे खू ँ या जीवन का ं दन दे ख?
ूँ
महादे वी क 'नीरजा' से लेकर 'द प शखा' का यकृ तय तक कृ त के साथ जीवन ं दन
क क वताएँ दे खकर यह लगता है क उ ह ने दोन म से कसी को भी नह ं छोड़ा ।
उ ह ने 'नीरजा' म ''धीरे -धीरे उतर तज से आ बस त-रजनी'', '' प स तेरा धन-केश-
पाश'', ''ओ वभावर '', 'सां यगीत' म ''ओर अ ण वसना'', ''यह सं या फूल सजील '',
''जाग-जाग सु के शनी र '' जैसे सु ंदर और सधे कृ त गीत ह द का य को दये ह ।
कु छ अ छे कृ त गीत 'द प शखा' म भी ह । महादे वी के कृ त गीत क सं या पंत
और नराला के कृ तगीत क तु लना म कम है, उनम वै व य भी उतना नह ं है, पर
जो भी है वर क ि ट से वे बहु त सधे हु ए ह । दूसर बात, उनका कृ त च ण
संि ल ट तो है, ले कन संपण
ू च म हर जगह अि व त नह ं है । तीसर बात, उनम
कह -ं कह ं अलंकरण क वृि त बहु त है । 'नीरजा' का यह गीत दे खए क अलंकार से
कस कार लदा हु आ है ।
186
धीरे धीरे उतर तज से आ वस त-रजनी
तारकमय नववेणी बंधन, शीश-फूल कर श श का नूतन
रि मवलय सत धन- अवगु ठ
ं न, मु ताहल अ भराम बछा दे
चतवन से अपनी । पुलकती आ वस त रजनी ।
कृ त गीत म अलंकरण क वशेष वृि त का एक धान कारण यह है क उ ह ने
कृ त को खास तौर पर एक सजी-सँवर नवयुवती -कभी पसी, कभी अ भसा रका,
कभी सु के शनी, तो कभी अ ण वसना-आ द के प म च त कया है । कृ त के
मानवीकृ त प म उ ह उसका पसी और माँ प सवा धक य है । महादे वी अपने
एक कृ त गीत म वराट कृ त को पसी के साथ अ तत: माँ प दे कर उसे एक
ू , साथक
संपण ी के प म सामने लाती ह ।
प स तेरा धन-केश-पाश ।
यामल यामल कोमल कोमल
लहराता सु र भत केश-पाश
इन ि न ध लट से छा दे तन
पुल कत अंक से भर वशाल,
झु क सि मत शीतल चु बन से
अं कत कर इसका मृदुल भाल,
दुलरा दे ना बहला दे ना
यह तेरा शशु जग है उदास ।
प स तेरा घन-केश-पाश ...
महादे वी के सामने कृ त के वराट-लघु, कोमल, कठोर, आकषक- भयानक, मू त-
अमू त सभी प रहे ह । आकाश, धरती, समु को वे ाय: वराट प म च त करती
ह । कृ त का एक भीषण प दे खए-
घोर तम छाया चार ओर,
घटाएँ घर आई घनघोर
वेग मा त का है तकू ल
हल जाते है पवत-मू ल
गरजता सागर बार बार
कौन पहु ँ चा दे गा उस पार ।
ात:, शाम, नपट अंधेर , चाँदनी और तार भर रात को लेकर महादे वी के अनेक कृ त
गीत ह । सभी छायावाद क वय ने सं या और सु बह क कृ त पर अनेक सु ंदर
क वताएँ रची ह । साद क 'बीती वभावर जाग र ' और नराला क 'सं या सु ंदर '
कृ त गीत यात ह । ात: पर लखा महादे वी का यह कृ त जागरण गीत दे खए-
जाग जाग सु के शनी र ।
अ नल ने आ मृदुल हौले
187
श थल बेणी-बंधन खोले
पर न तेरे पलक डोले
बखरती अलक झरे जाते
सु मन परबो धनी र ।
छाँह म अि त व खोये
अ ु म सब-रं ग धोये,
मंद भ द पक संजोये,
पंथ िजसका दे खती तू अलस
व न नमे षनी र ।
रोचक त य यह है क जो महादे वी वमा वैयि तक अ भ यि त के गीत म प संभार
और मांसल सौ दय से ाय: अपने को दूर रखती ह, वह कृ त गीत म वे प
सौ दय और साधन के त आ हशील है । ऊपर बात कह जा चु क है क महादे वी
ने कृ त का सवा धक इ तेमाल अपने भाव क अ भ यि त के साधन प म कया
है। 'म नीर भर दुःख क बदल ', ' वरह का जलजात जीवन', ' य सां यगगन मेरा
जीवन', 'मेरे ओ वहग से गान', 'शलभ म शापमय वर हू,ँ ' ाण पक। य नाम रे
कह, आ द गीत इसी कार ह । ये इतने च लत है क अलग से उदाहरण दे ने क
आव यकता नह ं जान पड़ती ।
8.2.6 नव रह यानुभू त
188
से लेकर महादे वी वमा तक के यहाँ मलती ह । छायावाद क व पु ष से महादे वी का
फक यह क वे ी ह और अपनी ी कृ त के कारण वे कृ त के सनातन पु ष
क क पना सामा यत: य के प म करती ह । इसी ब दु पर वे अपने आकां त
दय थ य और अन त कृ त के मू ल कारण सनातन क क ड़याँ जोड़कर एक कर
दे ती ह । इसका कारण यह है क वे वयं ी है और अनंत कृ त भी ी पा है ।
वे अपनी स ता म प ड है और संपण
ू कृ त मा ड है और दोन के ाण-पु ष
महादे वी का नजी य और कृ त का सनातन पु ष-त वत: एक ह है । महादे वी के
लए वह नजी और कृ त-दोन तर पर रह या मक है । वे नजी तौर पर अपने
आका त य क ेयसी बनती ह और अनंत कृ त को वराट सनातन पु ष क
ेयसी के प म खड़ी करती ह । इसके ठोस यि तगत और सामािजक कारण थे ।
महादे वी इ ह ं को दशन से जोड़ते हु ए अपने नबंध सं ह 'सा ह यकार क आ था तथा
अ य नबंध' म एक जगह लखती ह क ''समपण के भाव ने ह आ मा को नार क
ि थ त दे डाल । सामािजक यव था के कारण नार अपना कु ल-गो आ द, प रचय
छोड़कर प त को वीकार करती है और वभाव के कारण उसके नकट अपने आपको
पूणत: सम पत कर उस पर अ धकार पाती है । अत: नार के पक से सीमाब
आ मा का असीम म वलय होकर असीम हो जाना सहज ह समझा जा सकता है ।'
महादे वी क अपने लए असीम य क क पना वाभा वक और काफ ता कक है,
ले कन वराट कृ त के लए सनातन पु ष क प रक पना गैर वै ा नक है और गैर
ता कक भी । यह कृ त और पु ष पर अपने ी- यि त व ओर दय थ मनोवां छत
पु ष का आरोपण है । कृ त म अपने आ म सार के सवा इसका कोई अ य कारण
नह ं जान पड़ता ।
'नीहार' से लेकर 'सां यगीत' तक नजी तौर पर महादे वी का रह यपु ष, य वह,
'कौन' और 'तु म' धम है । दय के तर महादे वी को इस 'वह' धमा रह यपु ष का
पूरा एहसास है, ले कन वह दय से बाहर जगत म ऐि य तर पर दखाई नह ं
पड़ता। इस लए वह महज अ प ट प म अपना आभास ह कराता है, सशर र प ट
प म सामने नह ं आता । महादे वी के दूसरे का य सं ह 'रि म' क इस क वता का
जरा मु आयना क िजए-
रजत रि मय क छाया म धू मल धन-सा वह आता,
इस नदाध से मानव म क णा के ोत बहा जाता ।
उसम मम छपा जीवन का, एक तार अग णत क पन का,
एक सू सबके बंधन का
संस ृ त के सू ने पृ ठ से क ण-का य वह लख जाता । -रि म
एक क णा अभाव म चर-तृि त का संसार सं चत,
एक लघु ण दे रहा, नवाण म वरदान शत शत,
पा लया मने कसे इस वेदना के मधु र य म
189
कौन तु म मेरे दय म ? - नीरजा
महादे वी के रह यवाद पर न उनक पहल कृ त 'नीहार' के काशन के बाद ह उठने
लगा था, िजसका उ ह ने माकूल जवाब दे ते हु ए 'रि म' क भू मका म लखा है क
''इससे ( कृ त और मनु य के बीच संबध
ं से) मानव दय क सार यास न बुझ
सक , य क मानवीय स ब ध म जब तक अनुरागज नत आ म वसजन का भाव नह ं
धु ल जाता, तब तक वे सरस नह ं हो पाते और जब तक यह मधुरता सीमातीत नह ं हो
जाती, तब तक दय का अभाव दूर नह ं होता । इसी से इस अनेक पता के कारण पर
एक मधुरतम यि त व का आरोपण कर उसके नकट आ म नवेदन कर दे ना, इस
का य का दूसरा सोपान बना, िजसे रह यमय प के कारण ह रह यवाद का नाम
दया गया । रह यवाद, नाम के अथ म छायावाद के समान नवीन न होने पर भी
योग के अथ म वशेष ाचीन है । ाचीनकाल के दशन म इसका अंकु र मलता
अव य है, पर तु इसके रागा मक प के लए उसम थान कहाँ?’ छायावाद क वय
का रह यवद अपने युग क ि थ तय और आव यकताओं से उपजा था । वह अपने
व प म एक ओर भारतीय वाधीनता आ दोलन से स ब था और दूसर ओर
आधु नक म यवग य क वय के यथाथ और भावबोध से जुड़ा था । वह अपने ताि वक
व प म च तन धान दशन ओर म ययुगीन आ याि मक रह यवाद से अलग था ।
वेदा ती आचाय और म ययुगीन संत के दाश नक एवं रह यवाद मनोलोक से
छायावाद क वय का रह यवाद न केवल अलग, बि क आधु नक था । अपने इसी
व प के चलते वह चर नवीन या नवरह यवाद था । य य प उस पर वेदा त और
म ययुगीन रह यवाद स त क छाया अव य है । दे खए-
म तु मसे हू ँ एक, एक है जैसे रि म- काश
म तु मसे हू ँ भ न, भ न य धन से त ड़त- वलास । -रि म
नयन म िजसके जलद वह तृ षत चातक हू ँ
शलभ िजसके ाण म वह नठु र द पक हू ँ
एक होकर दूर तन से छाँह वह चल हू ँ
दूर तु मसे हू ँ अख ड सु हा गनी भी हू ँ । - नीरजा
म ययुगीन स त क छाया दे खए-
सगुण भि त का रं ग-
जो तु म आ जाते एक बार ।
हँ स उठते पल म आ नयन
धु ल जाता ओठ से वषाद
छा जाता जीवन म बस त
लु ट जाता चर सं चत वराग
आँख दे तीं सव व वार । - नीहार
नगु णया रं ग-
190
तु म मु झम य । फर प रचय या?
च त तू, म हू ँ रे खा- म,
मधुर राग तू, म वर-संगम
तू असीम, म सीमा का म,
काया-छाया म रह यमय ।
ेयसी- यतम का अ भनय या? सां यगीत
महादे वी वमा ने एक जगह लखा भी है क ''आज गीत म हम िजसे नये रह यवाद के
प म हण कर रहे ह, वह इन (वेदा त, योग, नगु ण, सू फ मत आ द) सब क
वशेषताओं से यु त होने पर भी उन सबसे भ न है । उसने परा व या क अपा थवता
ल , वेदा त क छाया मा हण क , लौ कक ेम से ती ता उधार ल और इन सबको
कबीर के सांके तक दा प यसू म बाँधकर एक नराले नेह-संबध
ं क सृि ट कर डाल ,
जो मनु य के दय को अवल बन दे सका, उसे पा थव ेम से ऊपर उठा सका तथा
मि त क को दयमय और दय को मि त कमय बना सका ।''
भारतीय वेदा त क छाया के बावजू द महादे वी के रह यवाद म बु या तक के बदले
दय क धानता है, य य प वह बु - शू य भी नह ं है । वह म ययुगीन रह यवाद
से इस लए भ न है क आरा य और आराधक के बीच वहाँ जैसी असमान स ब ध क
भू म नह ं है । दरअसल महादे वी रह यवाद भ त के बदले सौ दयदश और उससे
तादा य क व वासी कव य ी ह । महादे वी के यहाँ आधार और आधेय का संबध
ं
समानता क भू म पर दय क एकता है । उनके बीज जो अ तर है वह सीमाब और
सीमा से मु त का है, सौ दय क अपूणता और पूणता का है । दूसर बात, वे अपने
य से भि त जैसा कु छ माँगने के बदले सफ उसे चाहती ह और उसम लेना नह ,ं
सफ आ मदान संभव है । इस व श ट अनुभू त और आ मसमपण का आधार लौ कक
है । महादे वी 'द प शखा' क भू मका म कहती है क ''अलौ कक आ मसमपण को
समझने के लए लौ कक का सहारा लेना होगा । वभाव से मनु य अपूण भी है और
अपनी अपूणता के त सजग भी । अत: कसी उ चतम आदश, भ यतम सौ दय या
पूण यि त व के त आ मसमपण वारा पूणता क इ छा वाभा वक हो जाती है ।
आदश सम पत यि तय म संसार के असाधारण कम न ठ मलगे, सौ दय से
तादा य के इ छुक म े ठ कलाकार क ि थ त है और यि त व समपण ने हम
साधक और भ त दये ह । 'उ ह ने यह भी प ट कया क ''अलौ कक रह यानुभू त
भी अ भ यि त म लौ कक ह रहे गी ।' उ ह ने म ययुगीन संत क रह यपरक भि त
से आधु नक रह यवाद के व प को अलगाते हु ए कहा है क ''रह योपासक का
आ मसमपण दय क ऐसी आव यकता है िजसम दय क सीमा, एक असीमता म
अपनी अ भ यि त चाहती है और दय के अनेक रागा मक संबध
ं म माधु य भावमू लक
ेम ह उस सामंज य तक पहु ँ च सकता है जो सब रे खाओं म रं ग भर सके, सब प
को सजीवता दे सके और आ म नवेदक को इ ट के साथ समता के धरातल पर खड़ा
191
कर सके । भ त और इ ट के बीच वरदान क ि थ त संभव है, जो इ ट नह ,ं इ ट
का अनु ह दान कहा जा सकता है । माधु य भावमू लक ेम म आधार और आधेय का
तादा य अपे त है और यह तादा य उपासक ह सहज कर सकता है, उपा य नह ं।
इसी से त मय रह योपासक के लए आदान संभव नह ,ं पर दान या आ मदान उसका
वभावगत धम है ।' महादे वी के आ मसाधक क इ ट के साथ 'समता' का लोकतं ीय
' वतं ता' से, आदान नह ं का 'अ धकार' से सीधा संबध
ं जु ड़ता है । यह ं वे आधु नक
रह यवाद बन जाती है ।
म ययुगीन रह यवाद संत क च ता म रा क मु ि त शा मल न थी । उनक
मु य च ता सामािजक-धा मक साम ती ढ़य से समाज और यि त क मु ि त थी।
उनका व प पा थव से अ धक आ याि मक था, जब क महादे वी आ द छायावाद
रचनाकार का रह यवाद सीधे-सीधे रा , समाज और यि त क वतं ता से संबध
ं
रखता है । वह रा क सीमा पार कर व वमानववाद से हाथ मलाता है । छायावाद
ू है, पर यह उसका
क वय के रह यवाद म य य प म यकाल न रह यवादक अनुगँज
अनुकरण भी नह ं है । वह अपने युग के गभ से, हमार लोकतं ीय आकां ा को लेकर
पैदा हु आ था । उसक बाहर मु ा आ याि मक थी । हमारे रा य संघष के अगुआ
बाल गंगाधर तलक ह या महा मा गांधी, उ ह ने इसी मु ा को धारण करके अं ेज से
लोहा लया था । महादे वी क बाहर मु ा भले आ याि मक हो, ले कन उसक जमीन
ठोस, लौ कक है । अपने इसी प म वह स त के रह यवाद से भ न नह ,ं नता त
मौ लक है।
'नीहार' से 'सां यगीत' तक क का यया ा म महादे वी का जो असीम य काफ
अ प ट और धू मल था, वह 'द प शखा' तक आते-आते उनके मन म काफ प ट हो
गया, ले कन शर र धारण न कर सका । वे उसे िजस प म चाहती और यार करती
है उसके अवतरण के लए एक जीवन या, एक युग कम था । बावजू द इसके,
महादे वी अपनी अ मट चाह क ढ़ता से एक कदम पीछे नह ं हटती । वह दय थ,
का प नक और व न पु ष ह सह , ले कन वैि छक नवाण भी उसी के न म त है।
यह अपने लए सवथा यो य पु ष का ह द य उदा तीकरण है । जरा 'द प शखा' के
इस गीत पर गौर क िजए-
' मट- मट कर हर साँस लख रह
शत शत मलन- वरह क लेखा ।
नज को खोकर न मष आँकते
अनदे खे चरण क रे खा ।
पल भर का वह व न तु हार
युग -युग क पहचान बन गया ।
पथ मेरा नवाण बन गया
त पग शत वरदान बन गया ।
192
दे ते हो तु म फेर हास मेरा
नज क णा-जल कण मय कर
आज मरण का दूत तु ह छू
मेरा पाहु न ाण बन गया ।
महादे वी इसी का य कृ त क भू मका लखती है क ''मनु य का आ म नवेदन उसी के
अ तजगत क तकृ त खोजता है । ... रह य टा जब खंड प से चलकर अखंड
और अ प चेतन तक पहु ँ चता है तब उसके लए अपने अ तजगत के वैभव क
अनुभू त भी सहज हो जाती है और बा य जगत क सीमा क भी । अपनी य त
अपूणता को अ य त पूणता म मटा दे ने क इ छा उसे पूण आ मदान क ेरणा दे ती
है । य द इस तादा य के साथ माधु य भाव न होता तो यह ाता और य क एकता
बन जाता, भावभू म पर आधार और आधेय क एकता नह ं ।' मीरा के बाद महादे वी
एक ऐसी आधु नक रह यवाद कव य ी है िज ह ने अपने हदय थ असीम आकां त
व न-पु ष के लए अकेले वयोग म पूरा जीवन काट दया । इसम उनक बेबसी नह ,ं
िजद थी ।
बोध न- 1
(1) महादे वी के ी व व, णय और वेदना क बीस पंि तय म चचा क िजए ।
(2) महादे वी के उ रण के आधार पर बीस पंि तय म उनक का यगत वशेषताएँ
ल खए।
(3) महादे वी क नव रह यानुभू त के व प को सं ेप म समझाइए ।
(4) महादे वी के कृ त च ण पर दस पंि तय म वचार क िजए ।
8.3.1.1 श द वधान
193
ले कन दूर तक गूँजती न थी । ववेद युग से ा त यह का यभाषा हमारे छायावाद
क वय के भाव धान, क पनाशील सौ दय- च ण और उसक सू म यंजना के लए
असमथ थी । साद, पंत, नराला, महादे वी ने ववेद युग क अनगढ़, ठस, नीरस,
इकहर अथ वाल भाषा को अपनी भाव धान ि ट और क पनाशील दय से कोमल,
मधुर , संि ल ट यानी अ य त स ना मक और कला मक बनाया । उ ह ने श द वशेष
के समाज वीकृ त अथ को अनदे खा करते हु ए और पद- म और अ वय म याकरण
के नयम क उपे ा करते हु ए अपने मनोकू ल अथ का नधारण और का यभाषा का
गठन कया । इन सभी का यान वशेष प से ला णक और यंजनापरक श द के
चयन पर था । छायावाद के सभी क वय ने अपने यि तगत, सं कार और च के
अनुसार का यभाषा को समृ बनाया । उनक का यभाषा म जहाँ का लदास से लेकर
जयदे व आ द सं कृ त क वय क मधु र, ल लत, कोमलकांत पदावल मलती है, वह ं
जभाषा और अपनी-अपनी े ीय बो लय क छ क भी । आव यकतानुसार नये श द
के नमाण क वृि त भी उनम है । बावजू द इसके काल म म उनक भाषा क कु छ
सीमाएँ भी उभर कर सामने आयीं ।
छायावाद का यभाषा को अपने अ यास और प र कार वारा उसे ि थर बनाने म
महादे वी का योगदान सबसे यादा है । ी-मनोभाषा क सृि ट का ेय भी उ ह ं को
है, ले कन महादे वी स ा तत: भले सामा य मनु य तक भाषा क स ेषणीयता के
त आ हशील थीं, यवहारत: अ य छायावाद क वय क तरह उनक का यभाषा
बोलचाल से दूर है । वह सामा य मनु य के लए सहज ाहय भी नह ं है । भारतीय
सं कृ त दशन, सं कृ त सा ह य से वशेष ेम, सं कृ त से रं गी बंगला सा ह य भमु खी
अ भ च और सं कृ त भाषा म उ च श ा ा त करने का प रणाम यह हु आ क वे
अपनी का यभाषा को सं कृ त श द के त वशेष मोह से मु त नह ं कर पायीं ।
उ ह ने सं कृ त भाषा का आभास दे ने वाले अनेक श द का नमाण भी कया । उनक
का यभाषा म जभाषा और पछाँह क मा छ क भर है । जैसे-हौले-हौले आ द ।
महादे वी क आरं भ से ह वृि त ला णक और यंजनापरक पदावल के चयन क ओर
रह है और बाद म भी उनक इस वृि त म कोई कमी नह ं आयी, बि क ऊपर से
अलंकार और तीक का बोझ बढ़ता गया । ला णक और यंजना धान पद के
चयन से का यभाषा को फायदा यह हु आ क उसक अथ यापकता बहु त बढ़ गयी और
उसके अ त र त भार से नुकसान यह हु आ क का यभाषा क कमर टू टने लगी । डॉ.
नामवर संह ने ठ क लखा है क 'महादे वी क पदावल से अ तशय अलंकृ त का बोध
होता है । ... इससे उनके वभाव के अ तशय प र कार और तराश का बोध होता है ।'
प त के बाद महादे वी ह छायावाद क ऐसी रचनाकार है िज ह ने ु त-माधु य और
मृ त च आधा रत श दचयन को वर यता द उनक क वता म यु त ला णक और
यंजक पदावल के कु छ टा त पर यान द िजए-
' न वास का नीड़ नशा का बन जाता जब शयनागार'
194
'तब बुझते तार के नीरव नयन का यह हाहाकार'
'घायल मन लेकर सो जाती मेघ म तार क यास'
'वरदान क वषा से यह सू ना एका त जगा दो ।'
'आशा क मु कुराहट पर मेरा नैरा य लु टा दो ।'
' न पंद पड़ी ह आँख वरसानेवाल आँधी'
'छाया क आँख मचौनी', 'सि मत सपन क बात'
महादे वी क क वता म इन ला णक और यंजक पद का सौ दय अकेले या वतं
प म नह ं है, बि क उसके भाव वाह और रचना के अनु म म है । अलग-अलग ये
श द कसी भी सं कृ त का य या कोश म मल सकते ह, ले कन महादे वी अपने रचना
वाह के भीतर इनके ज रए व श ट सौ दय और सू म अथ क सृि ट करती ह ।
महादे वी ने छायावाद क नवीन अ भ यंजना णाल को ताकतवर बनाने म पूरा
योगदान दया, इसम कोई स दे ह नह ं है । महादे वी क क वता के वाह म इन पद
क अथ यंजकता दे खए-
हँ स उठते पल म आद नयन, धु ल जाता ओठ से वषाद
छा जाता जीवन म बस त, लु ट जाता चर सं चत वराग
साद, पंत, नराला को िजस कार कु छ श द से वशेष मोह था, उसी कार महादे वी
को भी था । वे श द घूम - फरकर उनक अनेक क वताओं म आते रहते है । जैसे-
वाँस, न: वास, उ छवास, पंदन, कंपन, न पंद, सीमा, असीम, तम, काश, रजत,
रि म, ओस, आँसू आ द । उनक भाषा म इनक फजूलखच भी है । महोदवी क
भाषा म अ य छायावाद क वय क भाँ त पद म-भंग, दूरा वय दोष, सहायक याओं
के ब ह कार क वृि त है । भावावेग ने एक ओर पद म भंग म मदद क , दूसर ओर
वशेषण- वपयय क वृि त को भी बढ़ावा दया ।
195
महादे वी को सा यमू लक अलंकार-उपमा, पक, तद प. आ द- वशेष प से य है ।
उनम व वधता भी है । उनके का य म वराट, लघु, मू त के लए अमू त, अमू त के
लए मू त हर कार के उपमान यु त हु ए हे । श द वधान क तरह यहाँ भी यान
रखना ज र है क महादे वी के अलंकार का सौ दय भी रचना के अनु म म ह खु लता
है । इनके दो उदाहरण दे खऐ-
वधु क चाँद क थाल , मादक मरकंद भर -सी
िजसम उिजयाल रात, लु टती घुलती मसर -सी ।
ममर क सु मधुर नूपुर- व न, अ लगुिं जत प य क कं क ण
भर पद-ग त म अलस तरं ग ण, तरल रजत क धार बहा दे
मृदु ि मत से सजनी ।
8.3.3 ब ब वधान
196
अि व त क ि ट से महादे वी के ब ब वधान म बखराव ाय: खटकता है ।
199
बनाने म महादे वी का कोई जवाब नह ं है । वे छायावाद क सबसे बड़ी गीतकार है,
इसम कोई दो राय नह ं है ।
8.3.6 छं द वधान
8.4 मू यांकन
महादे वी वमा ने एक कव य ी के प म छायावाद क वता को अनुभू त और
अ भ यि त दोन ि टय से एक ी क अनुभू त और भाषा द है । छायावाद क
अनेक सामा य वशेषताएँ उनम साद, पंत, नराला के समान मलती ह, ले कन एक
म यवग य ी के मनोलोक के उदघाटन म वे उनसे अलग अपनी पहचान बनाती ह ।
महादे वी के समय म भारतीय नार क िजतनी छ वयाँ है, महादे वी यि तगत और
तनध प म उ ह साकार करती है । उनका णय, वरह, रह य, छायावाद पु ष
क व क नजर से नह ,ं बि क उ ह ं क नजर से अपने प का बयान है । उनक
रह यानुभू त के पीछे एक आधु नक ी क आकां ा और संकोच है । उनका रह य
पु ष व नजात है । कारण यह है क उस समय क पु ष धान यव था ढ़य से
पूर तरह मु त न थी, वह महादे वी के आकां ा पु ष को सशर र पैदा नह ं कर सक
थी । महादे वी ने का य के अ भ यंजना प -का यभाषा और का य प को समृ बनाने
म मदद क । साद, पंत, नराला क तु लना म उनक भाषा म अ धक प र कार,
200
नखार और तराश है । उ ह ने अपने ी मनोलोक से ब ब और तीक को नयी
अथ यंजकता द । अनुभू त क सघनता और अि व त क ि ट से नराला से भी
अ धक सधे गीत उ ह ने छायावाद को दये ।
8.6 अ यासाथ न
1. महादे वी वमा के का य के अनुभू त प क वशेषताओं पर वचार क िजए ।
2. महादे वी वमा के का य के अ भ यंजना प क चचा क िजए ।
8.7 संदभ ंथ
1. महादे वी वमा- यामा, भारती-भ डार ल डर ेस-इलाहाबाद, पाँचवा सं करण- 1971
द प शखा, भारती-भ डार ल डर ेस-इलाहाबाद,पंचम सं करण-सं. 1960
सं धनी, लोकभारती काशन-इलाहाबाद, यारहवाँ सं करण- 1982
201
2. डॉ. नामवर संह-छायावाद, राजकमल काशन- द ल , वतीय आवृि त - 1968
क वता के नये तमान, राजकमल काशन, वतीय सं करण- 1974
3. इ नाथ मदान (सं.) - महादे वी,राधाकृ ण काशन- द ल , तृतीय सं करण- 1983
♦♦♦
202
इकाई- 9 सु म ानंदन पंत का का य
इकाई क परे खा
9.0 उ े य
9.1 तावना
9.2 क व प रचय
9.2.1 जीवन प रचय
9.2.2 रचनाकार का यि त व
9.2.2.1 क व सु म ानंदन पंत
9.2.2.2 पंत के अ य सजक प
9.2.3 का य- वकास एवं कृ तयाँ
9.2.3.1 का य कृ तय का प रचय
9.2.3.2 साठो तर का य
9.3 का य-वाचन तथा संदभ स हत या या
9.3.1 थम रि म का आना रं ग ण
9.3.2 शा त ि न ध यो सना उ जवल
9.3.3 भारत माता ाम वा सनी
9.3.4 हाय । मृ यु का ऐसा अमर अपा थव पूजन
9.4 वचार संदभ और श दावल
9.5 अ यासाथ न
9.6 संदभ थ
ं
9.0 उ े य
यह इकाई छायावाद के त न ध क व सु म ानंदन पंत के जीवन, यि त व और
कृ त व से संबं धत है । इस इकाई के अ ययन से आप-
क ववर सु म ानंदन पंत के जीवन से प र चत हो सकगे ।
रचनाकार- यि त व के नमाण के ेरक और भावक त व, प रि थ तय ,
वकास म तथा उनक दशाओं को जान सकगे ।
पंत के कृ त व एवं उनके का य- वकास क जानकार ा त कर सकगे ।
उनक चु नी हु ई क वताओं का वाचन और या याओं का आ वाद ले सकगे ।
स बं धत क वताओं के तपा य और श प से प र चत हो सकगे ।
9.1 तावना
सु म ानंदन पंत छायावाद के त न ध क व ह, िजनक क वताओं के आधार पर
छायावाद क वता क तमाम व श टताओं, सीमाओं और संभावनाओं को रे खां कत कया
203
जाता है। 'छायावाद' नाम उस का यधारा के लए यु त कया गया, जो ववेद युग
क अ तशय सामािजकता, नै तकता के वरोध म एक व छं दतावाद का य- ि ट लेकर
आई थी । छायावाद अपनी पूववत ह द क वता के समानांतर एक भावगत और
श पगत व ोह था । आरं भ म ''अनंतजी क ओर' जैसे काटू न पंत क रह या मक
क वताओं को यान म रखकर ह बनाये गये थे । छायावाद चतु टय म पंतजी का
ऐ तहा सक मह व है । िजस छायावाद को लेकर आरं भ म आलोचक म गलतफहमी
थी, क तपय नवीनताओं को वीकार न करने के कारण वे इस का यधारा के बल
वरोधी बन गये थे, पंत ने उस गलतफहमी को दूर कया । 'प लव' का '' वेश'
लखकर उ ह ने छायावाद क पृ ठभू म, उसके उ व क अ नवायता तथा उसके का य-
उपादान क , सह प र े य म या या क , िजससे छायावाद को लेकर छायी हु ई धु ंध
छँ ट और छायावाद क नई या या शु हु ई । इस लए 'प लव' के ' वेश' को छायावाद
का घोषणा-प कहा जाता है ।
ह द म छायावाद का यधारा के वतन का ेय कु छ लोग मु कुटधर पा डेय तथा कु छ
जयशंकर साद को दे ते ह, क तु इस संबध
ं म कोई दो मत नह ं ह क छायावाद
क वता के अनुभू त-प तथा अ भ यि त प के चार- सार का ेय पंत को जाता है
। पंतजी अपनी क वताओं म भाव, भाषा, चंतन और का यशैल के े म नतांत नये
योग करते रहे ह, इस लए उ ह ने र तकाल न अ तव तु क जगह आधु नक
अ तव तु तथा जभाषा क जगह खड़ी बोल का योग कया । उ ह ने छायावाद को
िजतनी गंभीरता और नूतन अ भ यंजना शि त दान क , उतनी ह ग तवाद के लए
नयी भू म तैयार क । वाच प त पाठक के अनुसार ''अपने का यबोध और जीवन के
व तु गत स य के त िजतनी तट थ, ईमानदार और उ तरदा य वपूण ि ट पंत क
रह है, उतनी कदा चत कसी भी दूसरे क व क नह ं रह ।'
पंतजी कृ त के सु कुमार क व है । वे कोमल भावनाओं के क व है । नराला जैसी
संघषशीलता उनम नह ं है । अं ेजी के रोमेि टक क व शेल से भा वत होने के कारण
उ ह ह द का शैल भी कहा जाता है । सौ दय और उदा त क पना से यु त उनक
क वता छायावाद म वश ट थान रखती है । पंत एक बड़े सजग और जाग क
रचनाकार थे । 1921 म गांधीजी के असहयोग आंदोलन क पुकार पर पंत ने अ ययन
छोड़कर वतं लेखन करना शु , कया । उ ह ने अपने युग क तमाम वचारधाराओं
को बार -बार से अपने अनुभव के नकष पर कसा और सबके साथ अपनी शरकत क ।
उप नषद के अ वैतवाद, गांधीवाद, मा सवाद, समाजवाद, अर वंद दशन सबसे उनका
नाता रहा और उ ह ने सबम कु छ-न-कु छ अ छाइयाँ दे खीं । क तपय वशेषताओं को
लेकर य द वे गांधीवाद के साथ ह, तो सामािजक बदलाव को लेकर वे मा सवाद से
भा वत है । पंतजी बहु मु खी तभा के रचनाकार है । उ ह ने कई वधाओं म अपनी
कलम चलाई है । वे क व के साथ नबंधकार, आलोचक, नाटककार, कथाकार, संपादक
204
भी ह । पंतजी कृ त, ेम और स दय से अपनी या ा आरं भ करते ह तथा मानव ेम
और व व मानवतावाद तक क या ा तय करते ह । उ ह ने खड़ी बोल ह द तो
तराशकर का य के उपयु त बनाया ।
9.2 क व प रचय
9.2.1 जीवन प रचयम
205
भाव पड़ा िजससे वे भौ तकता और आ याि मकता के सम वय से एक नये युग का
व न दे खते है । यह पंत क वचारधारा और उनके का य म एक नये मोड़ का सू चक
है ।
पद एवं पुर कार : इस तरह वष तक पंतजी मण करते रहे और अंत म उ ह ने
इलाहाबाद को थायी नवास- थान बनाया । 1950 म ह वे इलाहाबाद आकाशवाणी
के म ह द ो यूसर तथा 1957 म आकाशवाणी के ह द परामश दाता के पद
पर नयु त हु ए । 1960 म भारत के थम रा प त राजे साद क अ य ता म
उनक ष ठपू त आयोिजत क गई िजसम उनका भ य अ भनंदन हु आ । 1961 म
उ ह प भू षण क उपा ध मल । 1962 म 'कला और बूढ़ा चाँद' क वता-सं ह पर
उ ह सा ह य अकादमी पु कार मला । 1964 म उ तर दे श सरकार का दस हजार
पये का वशेष पु कार ा त हु आ । 1969 म ' चद बरा' का य पर उ ह ानपीठ
पुर कार मला । 'लोकायतन' महाका य पर इ ह सो वयत लै ह नेह पुर कार ा त
हु आ ।
का य- ेरणा : येक रचनाकार अपनी रचना क ेरणा कह ं न कह ं से अव य ा त
करता है । 'रि मबंध ' क भू मका म पंतजी ने लखा है- ''अपने समय के स
क वय क रचनाओं से ह कसी न कसी प म भा वत होकर उद यमान क व अपनी
लेखनी क पर ा लेता है । जब मने क वता लखना आरं भ कया था, तब मु झे कु छ
भी ात नह ं था क का य क मानव-जीवन के लए या उपयो गता या मह ता है ।
म यह जानता था क उस समय का य जगत म कौन सी शि तयाँ काय कर रह थीं
। जैसे एक द पक दूसरे द पक को जलाता है, उसी कार ववेद युग के क वय क
कृ तय ने मेरे दय को अपने स दय से पश कया और उसम एक ेरणा क शखा
जगा द । उनके काश म म भी अपने भीतर-बाहर अपनी च के अनुकूल का य के
उपादान का चयन एवं सं ह करने लगा ।' इनके अ त र त पंत क क व व शि त,
उनके क व प को बाहर लाने का ेय कृ त को है िजसे उ ह ने सहज प से
वीकार कया है- ''मेरे कशोर- ाण मू क क व को बाहर लाने का सवा धक ेय मेर
ज मभू म के उस नैस गक स दय को है, िजसक गोद म पलकर म बड़ा हु आ हू ँ । मेरे
भीतर ऐसे सं कार अव य रहे ह गे िज ह ने मु झे क व-कम करने क ेरणा द थी,
क तु उस ेरणा के वकास के लए व न के पालने क रचना पवत- दे श क दगंत-
यापी ाकृ तक शोभा ह ने क , िजसने छुटपन से ह मु झे अपने पहले एका त
एका त मयता के रि म-ढोल म झु लाया, रझाया तथा कोमल कंठ वनपाँ खय के
साथ बोलना-कु हु कना सखाया । कृ त नर ण और कृ त- ेम मेरे वभाव के
व भ न अंग ह बन गये ह िजनसे मु झे जीवन के अनेक संकट- ण म अमोघ
सां वना मल है ।'
206
भाव- हण : ाय: येक रचनाकार कसी न कसी रचनाकार के जीवन दशन और
का य- ि ट से भा वत होता है । पंतजी अं ेजी के व छं दतावाद क वय तथा
रवी नाथ से भा वत ह । उ ह ने लखा है- ''सन ् 1919 क जु लाई म म कॉलेज म
पढ़ने के लए याग आया तब से ाय दस साल तक याग ह म रहा । यहाँ मेरा
का य संबध
ं ी ान धीरे -धीरे यापक होने लगा । शेल , क स, टे नसन आ द अं ेजी
क वय से मने बहु त कु छ सीखा और मेरे मन म श दचयन और व न-स दय का बोध
पैदा हु आ (रि मबंध) ।'
वभाव : पंतजी का वभाव अंतमु खी था । उनके वभाव के बारे म अ ेय का कथन
है क- ''पंतजी के वभाव म एक वशेष कार क पर नभरता थी । ... वह आजीवन
न कसी के भरोसे रहते रहे, शायद आ यंतर जगत क वाय तता बनाये रखने क यह
एक युि त थी क बाहर क जगत क संपण
ू यव था कसी दूसरे को स पकर वह
वयं उधर से नि चंत हो जाय ।' पंतजी सु चसंप न यि त थे । उनका बाहर
यि त व िजतना आकषक था, उतना ह आंत रक यि त व भी । उनके बाल क
सजावट को दे खकर कसी व वान ने कहा था क य द आप वलायत म होते तो बाल
क डजाइन बनाने के लए आपको लाख पये मलते । उनक चसंप नता जीवन के
साथ उनक क वता म भी कट हु ई है ।
9.2.2 रचनाकार का यि त व
207
व छं द का यधारा वक सत हु ई उसे छायावाद नाम दया गया । छायावाद नाम हे यता
सू चक अथ म दया गया, क तु वह नाम वीकृ त हो गया । पंतजी छायावाद के
त न ध और व श ट क व ह िज ह ने छायावाद क या या क तथा पूववत का य
से उसक एक पृथक पहचान कायम क । छायावाद के संदभ म उ ह ने कहा क क व
या लेखक अपने युग से भा वत होता है, साथ ह अपने युग को भा वत भी करता
है। ''छायावाद का य वा तव म भारतीय जागरण क चेतना का का य रहा है । उनक
एक धारा रा य जागरण से संब रह है, िजसक ेरणा गांधीजी के नेत ृ व म
वतं ता के यु म न हत रह है और दूसर धारा का संबध
ं उस मान सक दाश नक
जागरण क भावा मक तथा स दयबोध संबध
ं ी या से रहा है िजसका समारं भ
औप नष दक वचार तथा पा चा य सा ह य तथा सं कृ त के भाव के कारण हु आ है।'
छायावाद थूल स दय क जगह सू म स दय क थापना करता है । पंतजी ने बदलते
युग संदभ म क वता के बदलते स दय- बोध क या या क - ''छायावाद ने जो नवीन
स दय बोध, जो आशा आकां ाओं का वैभव, जो वचार सामंज य तथा सम वय दान
कया था, वह पू ज
ं ीवाद युग क वक सत प रि थ तय क वा त वकता पर आधा रत
था । मानव चेतना तब युग क बदलती हु ई कठोर वा त वकता के नकट संपक म
नह ं आ सक थी । उसक सम वय तथा सामंज य क भावना केवल मनोभू म पर ह
ति ठत थी, क तु वतीय व वयु के बाद वह सवधम सम वय, सां कृ तक
सम वय, ससीम-असीम तथा इहलोक-परलोक संबध
ं ी सम वय क अमू त भावना
अपया त लगने लगी िजससे छायावाद ने ारं भक ेरणा हण क थी । अनेक क व
तथा कलाकार क सृजन -क पना इस कार के कोरे मान सक समाधान से वर त
होकर अ धक वा त वक तथा भौ तक धरातल पर उतर आई और मा स के वं वा मक
भौ तकवाद से भा वत होकर ग तवाद के नाम से एक नवीन का य चेतना को ज म
दे ने म संल हो गई । िजस कार मा स के भौ तकवाद ने अथनी त तथा राजनी त
संबध
ं ी ि टकोण को भा वत कया, उसी कार ायड, यु ग
ं आ द पि चम के
मनो व लेषक ने रागवृ त संबध
ं ी नै तक ि टकोण ने एक महान ां त उपि थत कर
द । फलत: छायावाद युग के सू म आ याि मक तथा नै तक व वास के त सं द ध
होकर तथा पि चम क भौ तक तथा जै वक वचारधाराओं से अ धक-कम मा ाओं म
भा वत होकर अनेक ग तवाद , योगवाद , तीकवाद कलाकार अपने दय के
व ोभ तथा कं ु ठत आशा-आकां ाओं को अ भ यि त दे ने के लए सं ां त काल क
बदलती हु ई वा त वकता से ेरणा हण करने लगे ।'
ह द क वता को छायावाद का दे य या है, इसक या या करते हु ए पंत ने लखा
है- ''छायावाद क वता ने सोयी हु ई भारतीय चेतना क गहराईय म नवीन रागा मकता
क माधु य वाला, नवीन जीवन- ि ट कास दय बोध तथा नवीन व व-मानवता के
व न का आलोक उं ड़ेला । छायावाद से पहले खड़ी बोल का का य, भाव तथा भाषा
क ि ट से नधन ह रहा । छायावाद ने उसम अंगड़ाई लेकर जागते हु ए भारतीय
208
चैत य का भाव-वैभव भरा । व वबोध के यापक आयाम, लोकमानव क नवीन
आकां ाएँ, जीवन ेम से े रत प र कृ त अहंता के मांसल स दय का प रधान उसके
पहले-पहल ह द क वता को दान कया' (रि मबंध) ।
ग तवाद और सु म ानंदन पंत : छायावाद क अ तशय क पना का वरोध करती तथा
मा स के वं वा मक भौ तकवाद से भा वत जो का यधारा ह द म आई उसे
ग तवाद कहते ह । ग तवाद जीवन और जगत के त भावा मक और क पनावाद
ि टकोण न रखकर एक व तु न ठ और वै ा नक ि टकोण अपनाता है । जब 1935
म ेमचंद ने सा ह य के मानदं ड बदलने क बात कह तब 1938 म ' पाभ' के
वेशांक म पंतजी ने भी कहा था क ''आज क क वता व न म नह ं पल सकती ।'
जा हर है क पंत ने भी छायावाद क समाि त क घोषणा क तथा ग तवाद के
आगमन का वागत कया था । मा स का उ ह ने गुणगान कया-
ध य मा स चर तमा छ , पृ वी के उदय शखर पर
तु म ने के कालच ु सम, कट हु ए लयंकर ।
ाय: छायावाद और ग तवाद को एक दूसरे का वरोधी माना जाता है । यह भी कहा
जाता है क '' ग तवाद छायावाद के भ म से नह ,ं उसका गला घ टकर पैदा हु आ था,'
क तु पंत ग तवाद को छायावाद का अगला वकास-चरण मानते ह- '' ग तशील
क वता वा तव म छायावाद क ह धारा है । दोन के वर म जागरण का उदा त
संदेश मलता है- एक म मानवीय जागरण का, दूसरे म लोक जागरण का । दोन क
जीवन- ि ट म यापकता रह है- एक म स य के अ वेषण या िज ासा क , दूसरे म
यथाथ क खोज या बोध क । दोन ह वैयि तक ु अहंता को अ त म पर भा वत
हु ई है, एक ऊपर क ओर, दूसर व तृत धरती क ओर । दोन खमतापूण रह है- एक
अंतर गांभीय क , दूसर सामािजक ग त क शि त से ।' वे यह भी कहते है क
छायावाद का आरं भक अ प ट अ या मवाद ि टकोण ग तवाद म धू मल भौ तकवाद
तथा व तु वाद बनने का य न करने लगा ।
ग तशील चेतना से भा वत होकर ह पंतजी यथाथवाद ि टकोण अपनाने क ओर
अ सर हु ए । ठोस सामािजक, आ थक सम याओं का च ण तथा लघुता पर ि टपात
करते हु ए मानवतावाद का उ ोष करने लगे । ताजमहल को रोमि टं ग ि ट से न
दे खकर यथाथवाद और ग तशील ि ट से दे खा । ''दुत झरो जगत के जीण प '-
कहकर संसार के तमाम ढ़य और जजर ा या म उनक ग तशील ि ट भा वर
प म तु त हु ई है । सारतः पंत जी ग तवाद के कोई काड-होलडर सद य नह ं थे,
परं तु युगधारा के भाव म आकर उ ह ने ग तवाद को अपनाया तथा उसक
मा यताओं के अनु प क वताएं लखीं तथा व त य दए । उ ह ने ग तवाद क
ासं गकता और अ नवायता के प म अपने वचार कट कये । अत: पंतजी
छायावाद दायरे को तोड़कर ग तवाद खेमे म आये । उनक ग तशील क वताओं और
वचार को अनदे खा करके ग तशील आंदोलन का इ तहास नह ं लखा जा सकता है ।
209
अत: कह सकते ह क पंत ने छायावाद को िजतना समृ कया, उतना ह ग तवाद
को भी
योग और पंत :
योगवाद और पंत :
योगवाद एक सा हि यक, कला मक आंदोलन था जो 1943 म अ ेय के संपादक व
म 'तारस तक' के काशन के साथ अि त व म आया । पंतजी इस आंदोलन से जु ड़े
नह ं थे और न ह उनक क वताएँ स तक म संक लत थीं, क तु सा ह य म
योगशीलता क जो एक सहज वृि त होती है, उससे वे भा वत रहे और भाव, भाषा,
अलंकार और छं द के े म नरं तर योग करते रहे । 'प लव' क भू मका म वे
जभाषा म यु त भाव, भाषा, अलंकार, छं द आ द क एकरसता क जगह नये का य
उपकरण के योग पर बल दे ते ह- ''भाव और भाषा का ऐसा शु क योग, राग और
छं द क ऐसी एक वर रम झम, उपमा तथा उ े ाओं क ऐसी दादुरावृि त , अनु ास
एवं तु क क ऐसी अ ांत उपलवृि ट या संसार के और कसी सा ह य म मल सकती
है? घन क घहर, भेक क भहर, झल क झहर, बजल क बहर, मोर क कहर,
सम त संगीत तु क एक ह नहर म बहा दया और बेचारे औपकायन क बेट उपमा को
तो बाँध ह दया । आँख क उपमा? खंजन, मृग , कंज, मीन, इ या द और इन धु रंधर
सा ह यचाय को? शु क, दादुर, ामोफोन इ या द ।'
पंतजी ग तवाद और योगवाद को छायावाद से जोड़कर दे खते ह - ''मने ग तवाद
और योगवाद को छायावाद क उपखाखाओं के प म इस लए माना है क मू लत: ये
तीन धाराएँ एक ह युग -चेतना अथवा युगस य से अनु ा णत हु ई ह । उनके प-
वधान तथा भावना-सौ ठव म कोई वशेष अंतर नह ं है और अपने वचार-दशन म भी
वे भ व य म एक दूसरे के नकट आ जाएँगी । ये तीन धाराएँ एक दूसरे क पूरक ह।
नई क वता और सु म ानंदन पंत :
योगवाद के बाद ह द म नई वषयव तु और नये श प का दावा लेकर एक का य
आंदोलन खड़ा हु आ िजसे नई क वता नाम दया गया । पंतजी एक द घ कालाव ध तक
सा ह य-सृजन म रत रहे । छायावाद से लेकर नई क वता तक ह द म िजतनी
का यधाराएं और सा हि यक आंदोलन अि त व म आए, उन सबसे वे भा वत हु ए तथा
उनक मा यताओं के अनु प सा ह य- सृजन कया । उ ह ने नई क वता क अंतव तु,
श प, कला ि ट, छं द आ द का मू यांकन कया । ग तवाद क सीमाओं का उ लेख
करते हु ए उ ह ने नई क वता के संदभ म लखा क- ''नई क वता इन दोष से कु छ
हद तक अपने को मु त कर सक है, पर वह अ धकतर 'कला के लए कला' वाले
स दयवाद स ांत क त व न मा रह गई है । इस समय उसका सवा धक आ ह
प- वधान एवं श प के त तीत होता है । भावप को वह वैयि तक न ध या
संपि त मानती है । भावना क उदा तता, सावज नक उपयो गता एवं अथगांभीय क
210
ओर वह अ धक आकृ ट नह ं । भाव एवं मा यताओं क ि ट से वह अभी अपीरप क,
अनुभवह न तथा अमू त ह है । वह अपने चार ओर क प रि थ तय के अंधेरे तथा
मान सकता के कु हासे म कु छ टटोल-भर रह है । स य से अ धक उसक आ था ण
के बदलते हु ए यथाथ ह म है और टटोलन के ह भावुक सु ख-दुःख भरे य न को वे
अ धक मह व दे ती है । ल य से अ धक मू य वह ल य के अनुसध
ं ान क यथा को
दे ती है । इसी से उसके मानस म रस का संचार होता है जो उसक कशोर वृि त है।
ऐसा भाव या व तु स य, िजसका मानव जीवन के क याण के लए उपयोग हो सके-
उसे नह ं चता । वह उसक का यगत मा यताओं के भीतर समा भी नह ं सकता । वह
तो साधारणीकरण क ओर बढ़ना हु आ । उसे वशेषीकरण से मोह है । वह तीक ,
ब ब , शै लय और वधाओं को ज म दे रह है । वह अ त वैयि तक चय क
त यशू य तथा आ म-मु ध क वता है । आज जो एक सवदे शीय सं कृ त, व व
मानवता आ द का न सा ह य के स मु ख है, उसक ओर उसक झान नह ं । उसक
मानवता वैयि तक और कु छ अथ म अ त वैयि तक मानवता है । सामािजक ि ट से
वे समाजीकरण के वरोध म आ मर ा तथा यि तगत अ धकार के त सचे ट तथा
स न मानवता है । 'पंतजी का यह भी आरोप है क नई क वता ने छं द क ि ट से
कोई नये योग नह ं कये । नयी क वता श दलय को न संभाल सकने के कारण वह
अथलय या भावलय क खोज म लयह न बनी रह - '' प और भावप क
अप रप कता के कारण अथवा त संबध
ं ी दुबलता को छपाने के लए वह शैल गत श प
को ह अ धक मह व दे ती है और यि तगत होने के कारण शैल एक ऐसी व तु है क
उसक दुहाई दे कर एक कृ तकार कु छ अंश तक सदै व अपनी र ा कर सकता है ।'
(रि मबंध)
211
9.2.3 का य वकास एवं कृ तय
पंत क का शत मु ख कृ तयाँ :
उ वास (1922) - खानगी तौर पर अजमेर से का शत
प लव (1926) - इं डयन ेस, इलाहाबाद ।
वीणा (1927) - इं डयन ेस, इलाहाबाद ।
ं थ (1929) - इं डयन ेस, इलाहाबाद ।
ं न (1932) - भारती भंडार, बनारस ।
गु ज
यो सना (1934) - गंगा ं ागार, लखनऊ।
थ
युगांत (1936) - इं ा ं टंग व स, अ मोड़ा ।
युगवाणी (1939) - भारती भंडार, इलाहाबाद ।
ा या (1940) - भारती भंडार, इलाहाबाद ।
वण करण (1947) - भारती भंडार, इलाहाबाद ।
वणधू ल (1947) - भारती भंडार, इलाहाबाद ।
मधु वाल (1948) - भारती भंडार, इलाहाबाद ।
युगपथ (1949) - भारती भंडार, इलाहाबाद ।
उ तरा (1949) - भारती भंडार, इलाहाबाद ।
रजत शखर (1951) - भारती भंडार, इलाहाबाद ।
श पी (1952) - स ल बुक डपो, इलाहाबाद ।
अ तमा (1955) - भारती भंडार, इलाहाबाद ।
सौवण (1947) - भारतीय भंडार, इलाहाबाद ।
वाणी (1958) - भारतीय ानपीठ, काशी ।
कला और चु ढ़ा चाँद (1959) - राजकमल काशन, द ल ।
लोकायतन - 1977
पंत जी क लोकायतन के बाद का शत मु ख का य कृ तयाँ ह -
' करणवीणा', पो फटने से पहले, पतझर एक भाव ां त, समा धता, गीतहंस, शंख व न,
श श क तर और आ था ।
( यो सना, रजत शखर, श पी, उ तर-शती उनके का य पक ह।)
संकलन
प ल वनी (1940) - भारती भंडार, इलाहाबाद ।
आधु नक क व (2) (1941) - ह द सा ह य स मेलन, याग ।
क व ी सु म ानंदन पंत (1956) - सा ह य सदन, चरगाँव (झाँसी) ।
रि मबंध (1958) - राजकमल काशन, द ल ।
चदं बरा (1959) - राजकमल काशन, द ल ।
212
हर बाँसु र सु नहर टे र
ता पथ-संपादक-दूधनाथ संह, लोकभारती काशन, इलाहाबाद, 1956
ग यकृ तयाँ
हार (उप यास), पाँच कहा नयाँ (1936) - भारती भंडार, इलाहाबाद ।
श प और दशन ( नबंध भाषण और वाताओं का संकलन)
ग यपथ (1953) - सा ह य भवन ल मटे ड, इलाहाबाद ।
छायावाद : पुनमू यांकन (आलोचना), कला और सं कृ त ।
साठ वष: एक रे खांकन (आ मकथा-1960) - राजकमल काशन, द ल ।
' पाभ' प का का संपादन- 1938 ।
9.2.3.1 का य कृ तय का प रचय
वीणा : ''वीणा'' पंत का दूसरा का य-सं ह है । इसे उ ह ने अपनी ''बाल क पना'' तथा
''दूधमु ँहा यास'' कहा है । यह एक कशोर मन का भावना- धान का य है । क तु
इसम युग - वमु खता भी नह है । इस सं ह क क वताओं म अ तशय क पना,
आदशवाद, रह या मकता तथा सू म सौदय चेतना व यमान है । पंत का कथन है
क-
''मने कृ त क छोट -छोट व तु ओं को अपनी क पना क तू लका से रं गकर का य क
साम ी इक ी क है । क व ने 'वीणा' म वयं को एक भोल बा लका के प म
तु त कया और कहा है-
यह तो तु तल बोल म है
एक बा लका का उपहार ।
ं थ : (1920) । यह अतु का त छं द म ल खत एक ेमकथा है । एक नाव के डू बने
के साथ एक युवक का डू बकर बेहोश होना तथा बेहोशी टू टने पर अपने सर को एक
अपूव कशोर क जाँघ पर रखे दे खना-क व को भाव व वल कर दे ता है । क तु उस
कशोर का ववाह कसी अ य युवक के साथ होता है और वह ववाह-बंधन क व के
मन म वषाद क एक गाँठ लगा दे ता है जो आजीवन नह ं खु लती । कु छ आलोचक के
अनुसार इस ेम- वरह क क वता म पंत ने अपने जीवन क उस घटना का सांके तक
और मा मक च ण कया है िजसके कारण वे आजीवन कुँ वारे रहे । इसम प व ेम
तथा वरह क ती और मा मक अनुभू त है ।
प लव : (1926) 'प लव' का काशन ह द क वता के इ तहास म एक युगांतकार
घटना थी । 'प लव' म का शत भू मका को छायावाद का मे नफे टो कहा जाता है ।
इसम छायावाद के पूववत का य वषय, का य-प त तथा छायावाद क पृ ठभू म और
उनक मा यताओं को स व तार तु त कया गया है । युग -संदभ म क वता के बदलते
वषय, मानदं ड, शैल क नयी प त क अ नवायता स करते हु ए छायावाद क
थापनाओं को तु त कया गया है । ''प लव'' सं ह ने सबसे पहले पंत को का य-
213
जगत म था पत कया । प लव काल म पंतजी कृ त- ेम और स दय से वशेष
मोहास त रहे । ''मोह'' क वता म वे लखते ह
छोड़ दुम क मृदु छाया,
तोड़ कृ त से भी माया
बाले! तेरे बाल जाल म
कैसे उलझा दूँ लोचन?
भू ल अभी से इस जग को ।
''प लव'' सं ह क सबसे लंबी क वता 'प रवतन' है जो क व क ''उस काल के दय-
मंथन तथा बौ क संघष क वशाल दपण सी बन गयी है ।'' इसम सृि ट म प रवतन
क न यता, संसार क णभंगरु ता का यथाथ च ण करते हु ए प रवतन को न ठु र
कहा गया है तथा उसका वराट च खींचा गया है-
अहे न ठु र प रवतन ।
तु हारा ह ता डव नतन
व व का क ण ववतन ।
तु हारा ह नयनो मीलन
न खल उ थान-पतन ।
अहे वासु क सह फन ।
ल अल त चरण तु हारे च न नर तर
छोड़ रहे ह जग के व त व ः थल पर ।
शत- शत फेनो छव सत, फ त फू कार भयंकर
घूमा रहे ह घनाकार जगती का अ बर ।
मृ यु तु हारा गरल द त, कंचुक क पा तर,
अ खल व व ह ववर,
व कु डला, द म ल।
पूववत सं ह क तु लना म ''प लव'' म क व क ि ट अ यंत प रप क दखती है ।
पंत का कथन है- '' कृ त स दय और कृ त ेम क अ भ यंजना प लव म अ धक
ांजल तथा प रप क प म हु ई है । ''वीणा'' क व मय भर रह य य बा लका
अ धक मांसल, सु च-सु रंगपूण बनकर, ाय: मु धा युवती का दय पाकर, जीवन के
त अ धक संवेदनशील होकर ''प लव'' म कट हु ई है ।'' (रि मबंध)
ं न : गु ज
गु ज ं न पंतन के का य- वकास का एक मह वपूण पड़ाव है िजसम क व का
चंतन मश: ौढ़ होता, गया है । इसम छायावाद अपनी संपण
ू व श टता के साथ
साकार हो उठा है । इसका मूल वषय मानवजीवन है । क व सु ंदर से स य और शव
क ओर अ सर होता है । इस सं ह क बहु च चत क वता ''नौका वहार' है जो
कालाकांकर वास के समय लखी गयी थी । इसम क व नौका- वहार से ा त
214
उ लासपूण अनुभू त का च ण करते हु ए अंत म क वता को दशन म प रणत करता है
और मानवजीवन को शा वत मानता है -
इस धारा-सा ह जग का म, शा वत इस जीवन का उ म
शा वत है ग त, शा वत संगम ।
यो सना : (1934) यह एक का य- पक है । इसम क व ने मानवजीवन के आदश
मानदं ड तथा वण-जा त वह न रा तथा नये मानवतावाद क क पना क है । क व
ं म जो कु छ भी सु ंदर प रक पना करता है,
जीवन तथा मानव के संबध ेम, मानवता
के वषय म जो भी उ चादश हो सकते है उसका अंकन क व ने कया है । उ ह ने
वीकार कया है क- ''मेरे का य दशन क कं ु जी न चय ह यो सना म है ।'
युगा त : 1936 इसम कु ल 33 क वताएँ संक लत ह । ''युगा त ' शीषक ह इस त य
का योतक है क यह पछले युग छायावाद युग के अंत का प रचय दे ता है । यह
क व के पूववत भावलोक और क पनालोक क समाि त क घोषणा है । कृ त ेम और
स दय से आस त प लव काल का क व युगा त क ''मानव' शीषक क वता म घोषणा
करता है-
सु ंदर है वहग, सु मन सु ंदर
मानव ? तु म सबसे सु ंदरतम ।
''युगा त '' म क व मानव और उसके जीवन क सम याओं के त वशेष आकृ ट है ।
वह अपने सृजन और चंतन के के म मानव को रखता है । इसम मानव-क याण
क भावना, मानव क समता, वतं ता और आपसी ेम क भावना य त हु ई है ।
पंत का कथन है क- ''युगा त क ां त भावना म आवेश है और है नवीन मनु य व
के त संकेत । दूसरे श द म बा य ां त के साथ ह मेरा मन अंत: ां त का,
नवीन मनु य व क भावना मक उपलि ध का आकां ी बन जाता है ।''
युगवाणी : (1936) युगवाणी म क व ने युग -चेतना को वाणी द है । इसम पंत ने
मा सवाद वचारधारा को पकड़ा है । क व ने सा यवाद क ासं गकता दखाकर
शो षत के त गहर सहानुभू त दखाई है । इसम क व का वचार प बल हो गया
है । पंतन ने समाज और उसक सम याओं को मा सवाद आलोक म दे खा है ।
'युगवाणी' म भावुकता नह ,ं बौ कता है । बौ क आलोक म वे युगीन सम याओं को
दे खते ह । वे एक र य समाज- नमाण क क पना करते ह जो समाजवाद चेतना से
अनु ा णत ह-
र य प नमाण करो है,
र य व तु प रधान,
र य बनाओ गृह , जन पथ को,
र य नगर, ज म थान ।
215
शवदान संह चौहान के अनुसार ''पंत क युगवाणी क क वता यूटो पयन है य य प
उनका 'यूटो पय न म ' समाजवाद है, इस लए ग तवाद है । वह 'यूटो पयन ' इस लए है
क वे एक उ च आदश, उ च जीवन, नये समाज, नयी सं कृ त क क पना करते ह।
ा या : (1940) ा या म क व ा य जीवन क ओर लौटता है तथा भारतीय ा य
जीवन के व वध प पर काश डालता है । ाम-जीवन क उपे ा, वकास के अभाव
तथा बदतर ि थ त को दे ख क व भावाकुल हो उठते ह-यह तो मानव-लोक नह ं रे , यह
है नरक अप र चत यह भारत का ाम, स यता-सं कृ त से नवा सत । ' ा या' म
क व यथाथवाद जमीन पर ि थत है । 'गु ज
ं न' के बाद क व क यथाथवाद चेतना
मश: गहराने लगती है और वे मानव-जीवन क सम याओं से जु ड़ने लगते है ।
ा या म अ न, व , घर, यानी दै नक आव यकता क व तु ओं से वं चत द नह न
लोग ह । पंत ामजन के त सहानुभू त, दया, क णा दखाते ह तथा उनके जीवन
म प रवतन क अ नवायता पर बल दे ते हु ए ''सामू हक मंगल हो समान'' क उ घोषणा
भी करते है । ''हमारे अंदर से उठकर जो ेरणाएँ कल दे श और समाज क ताकत
बनने वाल ह, ं मु यत: उ ह ं से है ।''
ा या का संबध ा या क ''वे आँख'' क वता
बड़ी मा मक तथा मानवतावाद वचारधारा से यु त है । इसम क व ने एक कसान क
पीड़ा का च ण कया है िजसके लहराते खेल जमींदार वारा बेदखल हो गये ह ।
उसका जवान बेटा कारकू न क ला ठय से मारा गया है, िजसका घर-बार महाजन
वारा कु क कर लया गया है । िजसक बेट दूध के अभाव म मर गयी है और
िजसक पु वधू पु लस अ याचार के कारण कु एँ म कू दकर मर गयी है । ये आँख उसी
कसान क है िजनम दुःख का सागर लहरा रहा है-
अंधकार क गुहा सर खी
उन आँख से डरता है मन
भरा दूर तक उनम दा ण
दै य दुःख का नीरव रोदन ।
मानव के पाशव पीड़न का
दे ती वे नमम व ापन ।
फूट रहा उनम गहरा आतंक,
ोभ, शोषण, संशय, म
डू ब का लमा म उनक
कँपता मन उनम का तम ।
स लेती दशक को वह
दुजय,दया क भू खी चतवन
झू ल रहा उस छाया-पट म
युग -युग का जजर जन-जीवन ।
216
ा या क 'भारत माता' बहु च चत क वता है िजसम भारतमाता का यथाथ च खींचा
गया है । क व भारत माता क दुराव था से बेहद चं तत ह । इसम क व क रा य
चंता य त हु ई है ।
वण करण और वणधू ल : यह उनका वण का य कहलाता है िजसम क व अर वंद
दशन से भा वत होकर भौ तकता और आ याि मकता को पृथक् -पृथक् अपया त
मानकर दोन के सम वय पर बल दे ता है । पंत का कथन है- '' वण करण म मने
मानवता क यापक सां कृ तक सम वयता क ओर यान आकृ ट कया है-
''भू रचना का भू तपाद युग हु आ व व इ तहास म उ दत,
स ह णु ता सदभाव शाि त म ह गत सं कृ त धम समि वत
वृथा पूव -पि चम का द म मानवता को करे न खि डत,
ब हनयन व ान को महत अ त ि ट ान से योिजत ।
सि मत होगा धरती का मु ख, जीवन के गृह - ांगण शोभन,
जगती क कु ि सत कु पता सु ष मत होगी, कु सु मत द श ण ।''
वण करण म वेद-उप नषद के मं क त व नयाँ ह । वणधू ल म भी वेदमं के
अनु वाद है ।
वाणी : वाणी म भी सम वयकार चेतना है । इसम वषय क व वधता है । मु ख
क वता 'आि मका' म यि तगत जीवन के मा यम से चेतना के संचरण तथा प ड
और मा ड को समझने-समझाने का यास कया गया है । नये छं द- पक के योग
है ।
कला और बूढ़ा चाँद : यह एक ेरणा- धान का य-सं ह है िजसे पंतजी ने का य शैल
क ि ट से एक नया योग कहा है । यह उनके का य वकास क एक मह वपूण
रचना है । वे छं द, अलंकार के बंधन से मु त होकर क वता से कहते ह –
ओ रचने-
तु हारे लए कहाँ से
व न छं द लाऊँ?
कहाँ से श द भाव लाऊँ?
लोकायतन : 'लोकायतन' उनका बंध का य है िजसम लोकायत दशन क थापना है।
परं परागत और वतमान मू य को यागकर क व नये मू य क थापना पर बल दे ता
है । ऊ व और साम यक चेतना का सम वय लोकायतन का तपा य है । सा व ी
स हा के अनुसार 'लोकायतन अपने पहले के हर महाका य से अलग है । न तो उसम
ववेद युगीन महाका य के समान अतीत का गौरव गान, शू अथवा नार का उ ार
है और न परवत बंध का य क भां त कसी एक सावभौम सम या के वरोधी
पहलु ओं क ट कर म संशय और वं व- त चेतना का च ण है । लोकायतन के
कव क ि ट- या ह अलग है । पूववत बंधका य म यि त, घटना अथवा
सम या धान है, युग और प रवेश उनक नयामक इकाईय म से ह एक है, पर
217
लोकायतन का ल य तो मू त वराट पर केि त है, घटनाएँ और पा उसी वराट के
अंश है ।'
इस रचना म पंतजी क जीवन- ि ट सम ता म य त हु ई है । पंतजी के श द म-
''मने इस का य म अपने जीवन दशन को य त कया है ।... िजस चेतना को
महाभारतकार, भागवतकार या मानसकार ने य त कया है, उसी को मने अपनी
जीवन ि ट वारा मानव पर च रताथ करने का य न कया है । .... मने तो
उ यमु खी मनु य क क पना क है । लोकायतन म मेरा ई वर संत या कसी धम का
नह ं है । मने तो मनु य को भू-ई वर कहा है । मेरा व वास है क धरती ह वग है
और इस पर जीवन जीने वाला मनु य ह उसका ई वर है ।… इस महाका य म मने
अपनी भाषा और महाका य के अनु प भाषा का योग कया है ।..... व तु त: यह
चंतन धान का य है ।.... यह युग वघटन का है और इसी म से लोकायतन का
ज म हु आ है ।..... मेरे भीतर आज का वघटन, भ व य का नमाण सब कु छ भरा
हु आ था और एक कार से लोकायतन के वारा मने वमन कर दया है ।'
अत: पंत का का य वकास अनेक पड़ाव से होकर गुजरा है । स दय, ेम,
वैयि त कता से होते हु ए मानवता म उनके का य क प रण त होती है । पंत का
सजग मन न य नवीन वचारधारा क तलाश म ल न रहा और ढ़य से बँधकर रहना
उसने वीकार नह ं कया । इसी संदभ म उ ह ने उप नषद के अ वैतवाद, गाँधीवाद,
मा सवाद, अर वंद दशन-सबसे जु ड़कर उसे जाँचा परखा । वे मा सवाद से जु ड़कर भी
गाँधीवाद से अपना अलगाव नह ं दखाते । मा स के भौ तकवाद तथा अर वंद के
अ या म दोन को पृथक -पृथक अपया त मानकर दोन म सम वय था पत करते ह ।
आरं भ म पंतजी कला कला के लए स ांत के समथन थे, कं तु छायावादो तर युग म
वे- ''कला जीवन के लए' स ांत के पोषक बन गये । एक अ य त य यह है क
उनके का य- वकास पर सम त: ि टपात करने पर पता चलता है क उनक क वता
के आरं भक का या मक और कला मक प पर उनका चंतन मश: हावी होने लगता
है, उनके क व को उनका दाश नक
प सत कर लेता है िजससे उनका परवत का य लोकायतन आ द दु ह का य का
टांत तु त करता तीत होता है ।
9.2.3.2 साठो तर का य
थम रि म का आना रं ग ण ।
तू ने कैसे पहचाना?
कहाँ-कहाँ हे बाल- वह ग न ।
पाया, तू ने यह गाना?
सोयी थी तू व न-नीड़ म,
पंख के सु ख म छपकर,
झु म रहे थे, घूम वार पर,
हर -से जु गनू नाना ।
श श- करण से उतर-उतरकर,
भू पर काम प नभचर,
चू म नवल क लय का मृदु मु ख,
सखा रहे थे मु सकाना ।
नेह-ह न तार के द पक,
वास-शू य थे त के पात,
वचर रहे थे व न-अव न म,
तम ने था म डप ताना!
कू क उठ सहसा त वा सनी ।
गा तू वागत का गाना,
कसने तु झको अ तया म न ।
बतलाया उसका आना?
नकल सृि ट के अंध-गभ से,
छाया-तन बहु छाया-ह न,
च रच रहे थे खल न शचर,
219
चला कुहु क, टोना-माना!
छपा रह थी मु ख शश-बाला,
न श के म से हो ी-ह न,
कमल- ोड म ब द था अ ल,
कोक-शोक से द वाना ।
मू ि छत थीं इि याँ, त ध जग,
जड़-चेतन सब एकाकार,
शू य व व के उर म केवल,
साँस का आना-जाना!
तू ने ह पहले बहु द शनी!
गाया जागृ त का गाना,
ी-सु ख-सौरभ का, नभ-चा र ण ।
गूँथ दया ताना-बाना!
नराकार तम मानो सहसा,
यो त-पु ज
ं म हो साकार,
बदल गया ु जगत-जाल म,
त
धर कर नाम- प नाना!
सहर उठे पुल कत हो दुम-दल,
सु त समीरण हु आ अधीर
झलका हास कु सु म अधर पर,
हल मोती का-सा दाना!
खु ले पलक, फैल सु वण-छ व,
जगी सु र भ, डोले मधु-बाल,
प दन, क पन और नवजीवन,
सीखा जग ने अपनाना ।
थम रि म का आना, रं ग ण!
तू ने कैसे पहचाना?
कहाँ-कहाँ हे बाल- वह ग न!
पाया यह व गक गाना?
संदभ : ' थम रि म' क वता छायावाद के त न ध एवं कृ त के सु कुमार क व
सु म ानंदन पंत के 'वीणा' का य सं ह म संक लत है । इसका रचनाकाल 1919 है ।
यह पंत क आरं भक क वताओं म से एक है, जब वे कृ त के त पूर तरह आस त
थे ।
220
संग : तु त क वता कृ त के संबध
ं म पंतजी क िज ासा का प रणाम है । यह
उनके िज ासु यि त व का योतक है । पंत के लए यह आ चय और िज ासा का
वषय है क उषा के आगमन के पहले ह प ी चहकने लगते है और अपने कलरव से
उषा के आने क सू चना दे ते ह । कौन ऐसी शि त और अंत ि ट है िजससे प य को
भात के आगमन का भान हो जाता है? पंत के लए कृ त सदा रह यमयी रह है
इसी लए उसके संबध
ं म कौतू हल उ प न करते तथा च ड़य से न करते है । क व
वहं गनी क इस चेतना पर वि मत और वमु ध ह क सबसे पहले वह थम-रि म
के आने का अनुभव कैसे करती है ।
या या : क व च ड़य से न करता है क थम रि म के आने का भान कैसे हु आ
तथा तू ने जागरण का यह गाना कहाँ से पाया है? आगे के तीन चरण म रा के
वातावरण का च ण है । च ड़य को संबो धत करते हु ए क व का कथन है क जब
तु म व न-नीड़ म पंख के सु ख म छपकर सो रह थी, तब तु हारे वार पर हर के
प म जु गनु घूम रहे थे । श श क करण के सहारे उतरकर काम प नभचर नयी
क लय का मु ख चू मकर मु काना सखा रहे थे यानी उसक पंखु ड़य को खोल रहे थे
ता क वे खल जाएँ । तारे बुझ रहे थे, पेड़ के प ते न चल थे, सव व न वचर रहे
थे तथा पृ वी पर चार ओर तम का मंडप तना हु आ था । ऐसी प रि थ त म हे त
वा सनी! तू सहसा कू क उठ । ऐ अंतया मनी! थम रि म (उषा, सवेरा) का आना तु ह
कसने बतलाया?
आगे के चरण म न शचर के या-कलाप का संकेत है क सृि ट के अंधेरे-गभ से
नकलकर छायातन और छायाह न (मायावी) दु ट न शचर षडयं रच रहे थे, जादू-टोना
कर रहे थे । रा समा त होने क ि थ त म चं मा थककर डू बने जा रहा था, कमल
के कोश म भ रा अभी बंद था और कोक प ी शोक म डू बा हु आ था, इं याँ मू ि छत
अथात सु ताव था म थीं, जड़-चेतन एकाकार हो गया था, अथात ् दोन म कोई अंतर
नह ं द खता था और सु त-शू य व व क छाती म सफ साँस का आना-जाना जार
था । यानी न त ध नशा थी । ऐसी अव था म हे बहु द शनी । सबसे पहले तू ने ह
जागृ त का गाना गाया और सारे जगत म ी-सु ख सौरभ का ताना-बाना गूँध दया ।
यानी अब तक जो त ध संसार था उसम जागृ त लाकर हलचल पैदा कर द । उसम
समृ ला द । रा म जड़-चेतन के एकाकार (अंधेरे के कारण) क ि थ त म होने के
बाद कृ त के व प म बदलाव को सव थम वहं गनी ह पहचानती है, क व उसक
द य ि ट और पहचान क ती शि त पर मु ध है ।
आगे क पंि तय ( नराकारतम…. नाम प नाना) के दो अथ नकलते ह । एक तो
यह क च ड़य क चहक के साथ रा का नराकार अंधेरा अचानक यो तपु ज
ं म
साकार हो उठा और सारा संसार बड़ी तेज ग त से अनेक नाम धारण कर कट हो उठा
। यानी रा के अंधेरे म सारा जगत एकाकार था, जड़-चेतन क अलग पहचान नह ं
थी, कं तु सवेरा होते ह सारा संसार उठा और अपने न य कम म वृ त होकर अनेक
221
प म य त हु आ । इन पंि तय म भारतीय दशन के एक स ांत क ओर संकेत
है। जब मा अपने अ य त, नराकार प म रहता है तब सम त जगत उसम
वल न रहता है और जगत क अलग कम-स ता नह ं रहती । यह लयाव था होती है।
जब जगत क सृि ट होती है और हमा अपना साकार प धारण करता है तो सृि ट
क उ पि त होती है । वह हमा जगत-जाल म अनेक प और अनेक नाम म
या त हो जाता है । यानी सृि टकता सृि ट म अनेक प म अ य त प म
व यमान रहता है । यहाँ भी क व क वता के साथ दशन को जोड़ते ह जो उनक
वशेषता है ।
' सहर उठे … का सा दाना ।' अथात ् दुमदल पुल कत हो गये, सोया हु आ समीर जागकर
अधीर हो उठा, कु ल के अधर पर हा य फैल गया ओर ओस क बूँदे मोती के दाने के
समान चमक उठ ं । सभी के पलक खल गयी, वण छ व चार ओर फैल गयी तथा
संसार म पंदन, कंपन और नवजीवन फैल गया ।
वशेष :
1. यह नवजागरण क चेतना से समि वत क वता है । जैसे रा क समाि त का
आभासा पहले च ड़य को होता है, उसी कार ह द म नवजागरण क चेतना को
सबसे पहले छायावाद ने बड़े यापक प म हण कया ।
2. इस क वता म वपर त वातावरण का च ण है-एक रा का, दूसरा-ऊषा का । रा
के अंधेरे से सु बह के उजाले क ओर या ा कराती है यह क वता ।
3. इस क वता म पंतजी ने प य के लए रं गणी, बाल- वहं गनी, त वा सनी,
बहु द शनी, नभचा रणी, संबोधन का योग कया है । रं गणी का अथ है रं गील ,
व वध रं ग वाल । बाल- वहं गनी श द का योग कया है । पंत क वृि त
कोमल श द- नमाण क ओर रह है इस लए उ ह ने रं गणी, बाल- वहं गनी आ द
श द के योग कये ह ।
4. काम प नभचर को कसी ने पवन, कसी ने अ सरा के प म ववे चत कया है।
नराकार तम मानो सहसा वाले चरण मे कृ त च ण का दाश नक प मलता
है।
5. 'जगत जाल' दाश नक श दावल ह । दशन के अनुसार संसार काय- यापार और
संघष का जाल है । दन शु क होते ह आदमी उसम उलझ जाता है ।
6. ''कमल ोड़ म बंद था अ ल''-म क व स का योग हु आ है क रा के समय
मर कमल के कोश म बंद रहता है ।
7. क वता छायावाद गीत का उदाहरण है िजसम कौतू हल क धानता है ।
8. भाषा म प र कृ त के साथ-साथ च ोमयता और ला णक सौ दय कट ह।
शा त, ि न ध, यो सना उ जवल!
222
अपलक अनंत, नीरव भू तल!
सैकत श या पर दु ध धवल, त वंगी गंगा, गी म वरल,
लेट है ा त, लांत, न चल!
तापस बाला गंगा नमल, श श मु ख से द पत मृदु करतल,
लहर उर पर कोमल कु तल!
गोरे अंग पर सहर- सहर, लहराता तार तरल सु दर,
चंचल अंचल सा नीला बर!
साड़ी क सकु डन सी िजस पर, श श क रे शमी वभा से भर,
समट है वतु ल, मृदुल लहर!
चाँदनी रात का थम हर,
हम चले नाव लेकर स वर!
सकता क सि मत सीपी पर मोती क यो सना रह वचर,
लो, पाले चढ़ , उठा लंगर!
मृदु मंद-मंद, मंथर-मंथर, लघु तर ण हंस न-सी सु दर,
तर रह खोल पाल के पर!
न चल जल के शु च दपण पर बि बत हो रजत पु लन नभर,
दुहरे ऊँचे लगते ण भर!
कालाकांकर का राजभवन, सोया जल म नि च त, मन,
पलक म वैभव व न सघन!
नौका से उठती जल हलोर!
हल पड़ते नभ के ओर-छोर!
व फा रत नयन से न चल, कु छ खोज रहे चल तारक दल,
यो तत कर जल का अंत तल,
िजनके लघु द प का चंचल, अंचल को ओट कए अ वरल,
फरती लहर लु क- छप पल-पल!
सामने शु क छ व झलमल तैरती पर -सी जल म कल,
पहरे कंच म हो ओझल!
ँ ट से झु क-झु क, दशमी का श श नज तयक मु ख
लहर के घूघ
दखलाता, मु धा-सा क- क!
अब पहु ँ ची चपला बीच धार!
छप गया चाँदनी का कगार!
दो बाँह से दूर थ तीर, धारा का कृ श कोमल शर र,
आ लंगन करने को अधीर!
अ त दूर , तज पर वटप माल, लगती भू-रे खा सी अराल,
223
अपलक नभ नील नयन वशाल!
माँ के उर पर शशु-सा, समीप, सोया धारा म एक वीप,
उ मल वाह को कर तीप,
वह कौन वहग? या वकल कोक उड़ता, हरने नज वरह-शोक,
छाया क कोक को वलोक!.
पतवार घुमा, अब तनु भार
नौका घूमी वपर त धार!
डांड के चल करतल पसार, भर-भर मु ताफल फेन- फार,
बखराती जल म तार हार!
चाँद के साँप -सी रलमल नाचतीं रि मयाँ जल म चल,
रे खाओं-सी खंच तरल सरल!
लहर क ल तकाओं म खल, सौ -सौ श श सौ-सौ उ ड झल मल,
फैले फूले जल म फे नल!
अब उथला स रता का वाह, यागी से ले ले सहज थाह,
हम बढ़े घाट को सहो साह!
य - य लगती है नाव पार
उर म आलो कत शत वचार!
इस धारा सा ह जग का म, शा वत, इस जीवन का उदगम,
शा वत है ग त! शा वत संगम!
शा वत लघु लहर का वलास!
हे जग जीवन के कणधार! चर ज म मरण के आर पार,
शा वत जीवन-नौका वहार!
म भू ल गया अि त व ान, जीवन का यह शा वत माण,
करता तु झको अमर व दान!
संदभ : तु त 'नौका वहार' क वता छायावाद के त न ध एवं स दयजीवी क व
सु म ानंदन पंत के का य-सं ह 'गु ज
ं न' म सं हत है । इसका रचनाकाल 1932 है ।
यह कालाकांकर के नवासकाल मे र चत पंत क , कृ त च ण क स क वता ह।
संग : कालाकांकर नरे श ने बड़े आ ह के साथ पंतजी को आमं त कया था । एक
लंबे समय तक पंतजी ने कालाकांकर म नवास कया जहाँ क कृ त से भा वत
होकर उ ह ने अपने कृ त ेम तथा सू म नर ण शि त को पैना बनाया । चांदनी
रात म नौका- वहार क मधुर अनुभू त को क व ने अनेक संि ल ट च , रमणीय
य , ब ब और पक म बाँधा है । नंददुलारे बाजपेयी के अनुसार ' वशेषकर नौका
वहार म पंतजी कृ त के प- च ण क ओर आकृ ट हु ए ह' ।
224
या या : रा का समय है । चार ओर शांत वातावरण है । शीतल चांदनी बखर हु ई
है । ऐसा लगता है, मान आकाश अपलक नयन से धरती के स दय को नहार रहा
हो। धरती भी अपने शांत दय से आकाश के व तार और सौ दय को दे खने म म न
है । ी म ऋतु म गरमी के कारण ीणकाय गंगा नद बालू क श या पर, थकाव से
चू र होकर लेट हु ई है । गंगा कनारे दूर -दूर तक फैले बालू पर चाँदनी पड़ रह है ।
उस रे त म बखर छोट छोट सी पयाँ चाँदनी म मोती के समान चमक रह ह, मान
ये सी पयाँ हँ स रह ह। सारा वातावरण चाँदनी क शोभा म मु कु रा रहा है । ऐसे
रोमानी वातावरण म नौका का लंगर खोल दया गया, उसक पाले चढ़ाई गयी । नौका
धीरे -धीरे मंथर ग त से धारा म आगे बढ़ने लगी, ऐसा लगता था मान कोई हं सनी
अपनी वेत पंख को फैलाकर जल म वहार कर रह हो । इस क वता क च मयता
और ब बा मकता अनुपम है ।
नौका- वहार क रमणीय और उ लासपूण अनुभू त का वणन करते हु ए क व अंत म
दशन क ओर मु ड़ता है-
शा वत इस जीवन का उदगम
शा वत है ग त श वत संगम ।
यहाँ क व भारतीय दशन के आशावाद ि टकोण तथा जीवन-मृ यु संबध
ं ी वृ तीय
अवधारणा से भा वत है । भारतीय दशन के अनुसार जीवन शा वत है, मृ यु जीवन
का अंत न होकर एक नये जीवन क शु आत है । ग त शा वत है और संगम शा वत
है । िजस तरह नौका- वहार के लए थान करके क व पुन : उसी ब दु पर लौट
आता है, उसी तरह मृ यु के बाद भी ाणी पुन : जीवन म लौटता है । अत: जीवन
और मरण शा वत है, एक च य अवधारणा है ।
वशेष :
1. क वता का मू त वधान अ यंत का या मक है । पूर क वता म भाव, श द योग
और संरचना म एक गहर अि व त और संि ल टता है । इसम क व का कृ त
ेम, क पनाशि त, संवेदना मकता, सू म नर ण शि त और ब बा मकता
ट य ह।
2. शु ल जी के अनुसार 'नौका- वहार का वणन अ तु त आरोप से अ धक आ छा दत
होने पर भी कृ त के य प क ओर क व का खंचाव सू चत करता है ।'
3. ' दखलाता मु धा सा क- क' म उपमा अलंकार है ।
4. 'त वंगी गंगा तथा तापस बाला गंगा नमल म मानवीकरण अलंकार है । 'अपलक
अनंत' म भी आकाश का मानवीकरण है जो अपलक ने से धरती के सौ दय को
नहार रहा है ।
5. अपलक अनंत, सैकत श या, शांत ि न ध, सकता क सि मत सीपी पर, मृदु
मंद-मंद मंथर-मंथर म अनु ास अलंकार है । सहर- सहर म पुन ि त काश
अलंकार ह।
225
6. दु ध-धवल, त वंगी, ांत- ला त, शु च, दूर थ, कृ श, तीप आ द सं कृ त के
त सम श द ह।
7. इस क वता को पढ़ने से ऐसा लगता है क पंतजी ने कृ त के प, रं ग, आकार,
ग त, व न तथा उसक एक-एक भं गमा को बड़ी सू मता से च त कया है ।
8. क वता कृ त च ण और मनोरं जन से आंरभ होकर अंत म दशन क गंभीरता म
समा त होती है ।
भारत माता
ाम वा सनी!
खेत म फैला ग यामल
श य भरा जन जीवन आँचल
गंगा यमु ना म शु च म जल
शील मू त,
सु ख-दुःख उदा सनी!
व न मौन, भू पद नत चतवन,
होठ पर हँ सते दुःख के ण,
संयम तप का धरती सा मन,
वण कला,
भू पथ वा सनी!
तीस को ट सु त, अध न न तन,
अ न व पी ड़त, अनपढ़, जन,
झाड़ फूस खर के घर आँगन,
णत शीष
त तल नवा सनी!
व व ग त से नपट अप र चत,
अथ स य, जीवन च सं कृ त,
ढ़ र तय से ग त कु ि ठत,
राहु सत
शरदे दु हा सनी!
स दय का ख डहर, नि कय मन,
ल य ह न, जजर जन जीवन,
कैसे हो भू रचना नूतन ,
ान मू ढ़
गीता का शनी!
226
पंचशील रत, व व शां त त,
युग युग से गृह आँगन ीहत,
कब ह गे जन उ यत जा त?
सोच म न
जीवन वका सनी!
उसे चा हए लौह संगठन,
सु दर तन, ा द पत मन,
भू जीवन त अथक समपण,
लोक कलाम य,
रस वला सनी!
संदभ : 'भारत माता' क वता छायावाद के त न ध क व सु म ानंदन पंत के का य
संकलन '' ा या'' म संक लत है । इसका रचनाकाल 1940 है ।
संग : ' ा या' सं ह म क व ा य-जीवन क ओर लौटता है । इस क वता म भारत
माता क क ण और दयनीय ि थ त का च ण है । भारतमाता के ि थ त- च ण वारा
भारतवा सय क दयनीय ि थ त का नदशन कराया गया है । क व भारत को जगाकर,
उसे एकताब करके वकास के रा ते पर उसे वैि वक प र े य दे ना चाहता है । क व
का मातृभू म के त ेम तथा उसके अभाव के त चंता कट हु ई है ।
या या : इस क वता के येक चरण म क व ने भारतमाता के अनेक च दए है ।
गुलाम भारत का च बड़ा ह दयनीय है । क व ने भारत माता को एक असहाय,
दुःखी , पी ड़त मानवी प म तु त करके भारत क पोल खोल द है । क व का कथन
है क भारतमाता गाँव म नवास करती है । खेत क यामलता के प म उसक
आँख क का लमा फैल हु ई है । फसल और जनजीवन से भरा उसका आँचल है ।
गंगा, यमु ना म वा हत जल मान भारतमाता का प व म-जल है । वह शील क
मू त है, वह सु ख-दुःख से उदासीन है ।
दूसरा च इस कार है क उसके व न मौन ह, भु पद पर उसक चतवन है, होठ
पर दुःख वहँ सता है, वह संयम-तप करती है तथा धरती सा उसका मन स ह णु और
गंभीर है । वह वग य कला के समान अ वतीय है, कं तु भू म पर नवास करती है ।
तीसरे च म क व का कथन है क भारत माता के तीस करोड़ पु (उस समय भारत
क जनसं या तीस करोड़ थी) अधन न, अ नव वह न, अनपढ़, झाड़-फूस के घर म
रहते ह और भारतमाता अपनी संतान क यह अव था दे ख सर झु काये हु ए पेड़ के
नीचे नवास करती है । ता पय यह क भारत अपनी बु नयाद आव यकताओं क पू त
नह कर पाया । कारांतर से त काल न सरकार क अ मता क ओर संकेत है । वह
अपने ह घर म गुलाम बनी बैठ है । अगले श द- च म क व का कथन है क
भारतमाता व व- ग त से अप र चत है, यानी उसका दायरा सी मत है । वह अधस य
है, ढ़य -अंध व वास म फँसी हु ई है, उसक ग त का रा ता है, वह राहु त
227
होते हु ए भी शरद के चाँद के समान हंसी क चाँदनी बखरे नी वाल है । यानी उसक
मु कान के भीतर उसका गहरा दुख छपा हु आ है । उसका मन नि य है, वह ल मी
है, उसका जीवन जजर है तो नूतन भू क रचना कैसे हो सकेगी? उसने गीता जैसे थ
ं
का सृजन कर उसके ान को व व म फैलाया है, कं तु आज वह ान से दूर है ।
पंचशील और व वशां त का संदेश फैलाना उसका त है, वह युग -युग से घर-आँगन म
उदास पड़ी है । वह इस बात से चं तत है क उसके नवासी कब जा त ह गे, कब
चंतनशील होकर जीवन का वकास करगे । अंत म क व का कथन है क उसे लौह-
संगठन (सु ढ़ संगठन, एकता) चा हए । सु ंदर शर र तथा ा से द पत मन चा हए,
लौ कक जीवन के त अथक प र म चा हए।
रा गीत के अ य क व जहाँ भारत के मा उ वल और शंसा मक प को रखते
ह, वहाँ 'भारत माता' क वता म पंत ने भारत के समाज का यथाथ च तु त कया
है । इसम क व भारत क गौरवशाल परं परा के त अ भभू त नह ं होते, बि क तट थ
भाव से उसके सामािजक, आ थक, राजनी तक, सां कृ तक और नै तक पतन तथा
उसके अंत वरोध को दशाते है । भारत क दुराव था के त क व पंत क गहर चंताएँ
य त हु ई ह, इस ि ट से 'भारत माता' क व क रा य चेतना और दे श- ेम क
क वता ह।
वशेष :
1. 'भारत माता' क वता म भारतीय समाज क दुराव था का यथाथ च ण है ।
2. क व का कथन है क भारत ने अपनी बु नयाद आव यकताओं क भी पू त नह
कर पाया ।
3. ' व व ग त से नपट अप र चत' म भारत के वैि वक प र े य से जु ड़ा न होने
तथा उसक सी मत ि थ त का संकेत है ।
4. 'पंचशील रत', ' व वशां त त'-भारत का आदश रहा है ।
5. 'लौह संगठन'- ढ़ एकता का तीक है । क व भारत म एकता के अभाव को दे खते
हु ए लौह-संगठन क अ नवायता स करता है । लौह संगठन से ह भारत का
वकास हो सकता है तथा बाहर शि तयाँ भारत म ह त ेप नह ं कर सकती ह।
6. श य, शु च, ीहत, शरदे दु, णत आ द सं कृ त के त सम श द ह ।
7. भारतमाता को तीक बनाकर भारतीय क दुदशा का च ण है । भारत के त
चंता क वता को लोकजीवन और रा य भावधारा से जोड़ती है ।
8. यह एक गेय क वता है िजसम ग त शैल का नवाह हु आ है ।
228
न न, ु ातुर , वास वह न रह जी वत जन?
ध
मानव! ऐसी भी वरि त या जीवन के त?
आ मा का अपमान, ेत औ छाया से र त!!
ेम अचना यह , कर हम रण को वरण?
था पत कर कंकाल, भर जीवन का ांगण?
शव को द हम प, रं ग, आदर मानव का
मानव को हम कु ि सत च बना द शव का?
युग -युग के मृत आदश के ताज मनोहर
मानव के मोहांध दय म कये हु ए घर ।
भू ल गये हम जीवन का संदेश अन वर
मृतक के है मृतक , जी वत का ह ई वर!
संदभ : यह क वता ग तशील क व सु म ानंदन पंत के का य-संकलन 'युगांत ' म
संक लत है । इसका रचना-काल 1935 है ।
संग : यह 'ताज' क वता पंत क उन क वताओं म से एक है, िजनके आधार पर वे
ग तशील क व के प म सामने आते ह । इस क वता म पंतजी ताज को दे खकर
वाह-वाह नह ं करते । वे उसे कला मक और स दयवाद ि ट से न दे खकर ग तवाद
और उपयो गतावाद ि ट से दे खते है िजससे छायावाद से उनका अलगाव तथा एक
नयी का यधारा से उनका जु डाव ल त होता है । क व सु ंदरम से स यं और शवम ् क
भू म पर कदम बढ़ाता दखाई दे ता है ।
या या : छायावाद क व पंत जहाँ कृ त, स दय तथा कला मक व तु ओं के त
वशेष मोह रखते ह, वह ं ग तवाद से भा वत होने पर उनक वचारधारा सहसा
बदलती है, िजससे उनका स दयबोध बदलता है । वे क पना क ऊँचाई से यथाथ क
ठोस जमीन पर उतरते ह । ताजमहल, जो ेम और स दय का तीक है, वहाँ पंत क
ि ट म वह सामंती युग क वलास यता, जनता के शोषण और अमानवीयता का
तीक है । क व आ चय कट करता हु आ कहता है क जब जनजीवन एकदम नज व
और वषादयु त बना हु आ हो, तब मृ यु का गृं ार कया जाता है, जब क दूसर ओर
न न, भू खा, वास वह न िज दा आदमी भटकने को ववश है । क व उस मानव को
ध कारता है जो जीवन से उदासीन होकर आ मा का अपमान करता तथा ेत से ेम
करता है । क व पुन : सवाल करता है क या ेम-अचना यह है क हम मरण का
वरण कर तथा जीवन के ांगण म कंकाल क थापना कर? यह ताज इस बात का
सबूत है क वहाँ शव को जी वत मानव का रं ग, व प और आकार दया जाता है
तथा जी वत मानव को शव का कु ि सत च बना दया जाता है । ताज युग -युग से
मृत आदश का तीक है । अंत म क व का कथन है क मृतक के लए मृतक
(अथात ् जो मृतक क पूजा करता हो वह भी मृत है ।) तथा जी वत के लए ई वर है।
229
आचाय रामचं शु ल का कथन है क ''ताजमहल के कला-स दय को दे ख अनेक क व
मु ध हु ए ह, पर करोड़ क सं या म भू खी मरती जनता के बीच ऐ वय वभू त के
उस वशाल आडंबर के खड़े होने क भावना से ु ध होकर युगांत के बदले हु ए क व
पंतजी कहते ह क हाय! हाय मृ यु का... बना दे शव का ।' कु ल मलाकर 'ताज'
क वता छायावाद सं कार से मु त, ग तवाद सोच और संवेदना क क वता है ।
इसम स दय- टा छायावाद क व पंत समाज टा और रा टा बन जाते ह । वे यह
वलंत न छोड़ जाते ह क जी वत मानव क हत- चंता कये बना मृतक के
आकषक मारक बनाने से या लोक-क याण संभव है?
वशेष :
1. इस क वता म दो वपर त ि थ तय को सामने रखकर एक का समथन तथा दूसरे
क भ सना क गई है ।
2. क व क ि ट म ताज वला सता और शोषण का तीक है । ताज वारा जी वत
मानव का उपहास उडाना तथा मृतक क पूजा करना सामािजक नै तक ि ट से
अनु चत है ।
3. क वता म वचारप क धानता है । क व क मानवतावाद वचारधारा और
जनप धरता य त हु ई है ।
4. 'मृतको के ह मृतक् ' म यं य है क मृतक क क पर आल शान महल बनाने
वाला भी मृतक ह है । उसक नै तकता मर चु क है, य क वह जी वत क
उपे ा और मृतक ह है और मृतक क पूजा करता है । 'जी वत का है ई वर' -
जी वत यि त ई वर के भरोसे है ।
5. क वता म सामािजक याय क बात उठाई गई है । इसम न और आ चय
च न क भरमार है ।
6. क व ने जनजीवन म या त दुःख -दै य का मू ल कारण सामंत और बादशाह क
वलास यता को माना है ।
7. वष ण, फ टक, सौध, ध
ु ातुर आ द सं कृ त के त सम श द ह ।
8. 'ताज' पंत के बदले हु ए स दयबोध और बदल हु ई यथाथ ि ट का प रचय दे ती है ।
इस क वता को छोड़कर पंत का सम मू यांकन असंभव है ।
230
लए कया जाता है । डांड-नाव खेने का ब ला । वष ण- वषादयु त। सौध-एक
बहु मू य सफेद प थर जो पारदशी होता है । सौध-राजमहल । ान मू ढ़/गीता का शनी-
यह भारतमाता के लए कहा गया है क भारत ने व व भर म गीता का ान फैलाया
कं तु आज वह ान मू ढ़ है यानी भारत म नर रता है ।
9.6 अ यासाथ न
1. सु म ानंदन पंत के यि त व एवं कृ त व पर काश डा लए ।
2. पंत के का य- वकास पर सं ेप म ल खए ।
3. व भ न का यधाराओं के संदभ म पंत के का य का मू याकंन क िजए ।
4. 'पंत और प लव'-पर सं ेप म एक ट पणी ल खए ।
9.7 संदभ ंथ
1. सु म ानंदन पंत-रि मबंध, राजकमल काशन, नई द ल , सं करण- 1988
2. संपादक दूधनाथ संह - ता पथ-लोकभारती काशन, इलाहबाद, सं करण- 1995
3. पंत-प लव, राजकमल काशन-, नई द ल ।
4. पंत- ा या, भारती भंडार, इलाहाबाद ।
5. पंत - लोकायतन
6. पंत-कला और बूढ़ा चाँद
♦♦♦
231
इकाई 10 सु म ानंदन पंत के का य का अनुभू त एवं
अ भ यंजना प
इकाई क परे खा
10.0 उ े य
10.1 तावना
10.2 का य-संवेदना
10.2.1 का यानुभू त
10.2.2 वैयि तता
10.2.3 क पना ध य
10.2.4 कृ त- च ण
10.2.5 ेम और स दय का सू मीकरण
10.2.6 वेदना और नराशा
10.2.7 रह या मकता
10.2.8 यथाथ च ण
10.2.9 ग तशील ि ट : नार भावना
10.2.10 जजर परं पराओं का वंस
10.2.11 दाश नकता
10.2.12 रा यता
10.2.13 मानवतावाद चेतना
10.3 अ भ यंजना प
10.3.1 का य प
10.3.2 का यभाषा-शैल
10.3.3 अलंकार
10.3.4 ब ब-योजना
10.3.5 तीक- वधान
10.3.6 लय और छं द वधान
10.4 सारांश
10.5 अ यासाथ न
10.7 संदभ थ
10.0 उ े य
यह इकाई सु म ानंदन पंत क रचनाशीलता तथा उनके का य के भाव और श प प
से संबं धत है । इस इकाई से आप-
232
छायावाद और छायावादो तर ह द क वता क पृ ठभू म म सु म ानंदन पंत क
का य संवेदना से सा ा कार कर सकगे ।
पंत क क वता के भावप और कलाप का सोदाहरण प रचय ा त कर सकगे ।
रचनाकार के बु नयाद सरोकार से प र चत होने के साथ उनके समकाल न अ य
क वय से भ नता बता सकगे ।
छायावाद, ग तवाद, योगवाद, नयी क वता जैसे का यादोलनो से पंत क
सहम त-असहम त को जान सकगे ।
पंत क का य ेरणा, का य वभाव, का य ि ट और का य के उ े य को जान
सकगे ।
10.1 तावना
पंतजी छायावाद के त न ध और कृ त के सु कुमार क व ह । भाषा- श प को तराशने
के कारण उ ह श द श पी कहा जाता है । ग तवाद और योगवाद से भी उनके
गहरे सरोकार रहे ह । पंत क का य संवेदना नरं तर वकासशील रह है । उसम जीवन
के व वध प च त हु ए है । कृ त ेम से अपनी या ा आरं भ कर, व वध
का यांदोलन से रचना के तर पर जु ड़ते हु ए, व भ न दशन से अपने सरोकार बनाते
हु ए वे रचनारत रहे ह । पंत क व श टता इसम ह क उ ह ने क वता को दशन क
पृ ठभू म दान क , िजसम क वता भावुकता तक सी मत न रहकर दशन क ठोस
जमीन पर अवि थत हु ई । य य प दाश नकता के चलते उनक क वता क आलोचना
भी हु ई, तथा प पंत उस आलोचना क परवाह कये बगैर का यरचना म वृ त रहे ।
उ ह ने भारतीय और पा चा य दशन का गहरा अ ययन करके अपने का य- चंतन को
समृ कया । पंतजी एक व थ जीवन और समाज दशन क तलाश म अनेक दशन
के संपक म आते ह और उनक ाय: येक रचना एक नये मोड़, एक नयी
रचना ि ट का सबूत दे ती है । पंतजी कृ त से िजतनी गहराई से जु ड़ते ह, उतनी ह
गहराई से मानव, समाज और उसक सम याओं से भी । अत: उनके का य म एक
संतु लन है । वे अपनी पूवव त क मय को परवत रचनाओं से पूरा करते ह और उनक
येक रचना एक नयी संभावना लेकर आती ह । क वता के भावप और कलाप के
े म वे नरं तर योग करते रहे ह । व छं दतावाद से लेकर ग तवाद क तब ता
दोन उनम मलती है । उनक क वता के आधार पर छायावाद और ग तवाद क वता
के मानदं ड था पत कये जाते ह ।
10.2 का य-संवेदना
10.2.1 का यानुभू त
का यानुभू त का संबध
ं का य के अनुभू त प से ह । क वता के मू लत: दो प होते
ह- अनुभू त प और अ भ यि त प । इसी को भाव प और श पप भी कहते
233
ह। अनुभू त प के अंतगत क वता म य त क व के भाव, संवेदना, वचार आ द
आते ह । भाव वचार और संवेदना अमू त होते है जो क वता म श प के मा यम से
कट होते ह । अत: अनुभू त क वता क ाथ मक व तु है और इसी अनुभू त प को
क वता का मु य शील माना जाता है । अनुभू त के अंतगत क व का इि य बोध,
भावबोध और वचार बोध क चचा होती है । इि य के मा यम से बाहर चीज का
ान होता है, फर वे मन के भीतर ि थत भाव को भा वत करते ह । वचारबोध का
संबध
ं हमारे चंतनजगत से ह । वचार बोध के वारा एक रचनाकार जीवन-जगत क
सम याओं के बारे म सोचता और उसका समाधान तु त करता है । अत: इि य
बोध, भावबोध और वचारबोध क संि ल ट प ह कसी क व क का यानुभू त का
नमाण करता है । िजस क व का यह तीन प िजतना यापक होगा, उसक
का यानुभू त उतनी ह समृ होगी । पंतजी ह द के एक ऐसे ह क व ह िजनका
अनुभू त प बड़ा ह यापक और समृ है । उनक क वता का अनुभू त प या
भावप इस कार है-
10.2.3 क पना ध य
234
क पना म उड़ान भरते और का प नक तथा मनोवां छत संसार क सजना करते ।
नामवर संह का कथन है क ''क पना' के वारा ह उसम सावभौम भावना आयी ।
अपनी का प नक उड़ान म क व ने अनुभव कया क वह संपण
ू व व को अपनी बाँह
म बाँध सकता है । जैसे छोटा-सा फूल अपनी सु र भ से संपण
ू योम को बाँध लेने का
हौसला रखता है, उसी तरह छायावाद क व ने भी अपनी क पना से अ खल चराचर को
समेट लेने का सु ख अनुभव कया' (छायावाद) । पंत वीकारते ह क ''म क पना के
स य को सबसे बड़ा स य मानता हू ँ (आधु नक क व क व क भू मका) । पंत क
'अ सर ', 'अनंग', ' थम रि म', 'बादल' आ द क वताओं म क पना क धानता है ।
'अ सर ' क वता म पंत क क पना का व प ट य है -
तु हन बंद ु म इ दु रि म सी सोई तु म चु पचाप
मृदुल शयन म व न दे खती नज न पम छ व आप ।
क पना का ह चम कार है क छाया दमयंती-सी, तारे गगन के उर म घाव से तीत
होते है और याह क बूँद न का आभास कराती है । क पना के मू लत: दो प
मानते गए ह- वधायक क पना तथा ाहक क पना । वधायक रचनाकार के पास होती
है और ाहक क पना पाठक या आलोचक के पास । पंत अपनी वधायक क पना के
लए स ह । उ ह ने इस क पना का इतना अ धक योग कया है क कह ं-कह ं
उनक क पना वा त वकता से बहु त दूर चल गयी है।
पंत कोमल क पना के क व मानते जाते ह, इसका कारण यह है क उ ह ने अपने
कोमल वभाव के अनुकू ल ह कोमल वषय का चयन कया तथा भाषा क कोमलता
पर बल दया । आंर भक क वताओं म यह वृ त दखाई दे ती है । अत: वषय-चयन,
नार -स दय और कृ त के कोमल प के च ण, व तु वणन म कोमलता, भाषा,
ब ब, अलंकार तथा छं द योग म कोमलता के कारण उ ह कोमल क पना का क व
कहा जाता है, जो उपयु त है । क पना उनक सबसे य व तु ओं म से है इस लए वे
प लव को ''क पना के ये व वल बाल' क सं ा दे ते ह । ब चन के अनुसार - ''पंतजी
क पना के गायक ह, अनुभू त के नह ,ं इ छा के गायक ह-वासना, ती तम इ छा के
नह ं ।' यह सह है क क पना पंत-का य क बहु त बड़ी शि त है । इसी के चलते
उ ह ने लोकजीवन ओर दशन क व वध झाँ कयाँ तु त क है । वे क पना से इतने
अ भभू त ह क उसे ई वर य तभा का अंश मानकर उसे ह जीवन का सबसे बड़ा
स य मानते है । न द दुलारे वाजपेयी का कथन है- ''क पना ह पंत जी क क वता
क वशेषता, उसके आकषण का रह य है । यह उनक व वध बहु मु खी रचनाओं का
आधार, उनम रमणीयता का व तार करती है । क पना केवल शैल म ह नह ,ं
का य वषय म भी है.... क पना ह पंत जी क क वता का मे दं ड, उसक का यसृि ट
का मापदं ड है । कोर क पना क बा य-सु लभ रं गीन उड़ान से लेकर अ यंत त ल न
और गहन क पना-अनुभू तय के च ण म पंतजी का वकास म दे खा जा सकता है ।'
235
पंतका य म अ तशय क पना और भावुकता तो है, कं तु उसके बीच म वचार त व भी
झलक मारता है, जैसे 'नौका- वहार' क अं तम पंि तयाँ तथा 'प रवतन' जैसी क वता ।
पंत क यह वचारा मकता उनके परवत का य म मश: गहराती जाती है और
क वता क कला मकता को त त भी करती है । ले कन आरं भक क वताओं म
वचार त व भावना क तरलता म घुलकर आते ह, जब क परवत क वताओं म वचार
त व भावधारा म तंभ क तरह टके होते ह । इतना वीकाय है क कृ त-सौ दय
और गहन चंतन-मनन ने उनक क पना को धार द ।
10.2.4 कृ त च ण
236
ेम-कंटक से अचानक व हो
जो सु मन त से वलग है हो चु का ।
4. मानवीकरण प म-
इसम कृ त मानव क तरह या-कलाप करती दखाई दे ती है जैसे-
सैकत श या पर दु ध धवल, त वंगी गंगा ी म वरल
लेट है ा त- ला त न चल
5. दूती के प म-
इसम कृ त दूती या संदेशवाहक के म च त होती है । जैसे-
सु रप त के हम ह ह अनुचर,
जग ाण के भी सहचर,
मेघदूत क सजल क पना,
चातक के य जीवनधर ।
6. दाश नक प म-
इस धारा-सा ह जग का म, शा वत इस जीवन का उदगम,
शा वत है ग त, शा वत संगम ।
10.2.5 ेम और स दय
237
साद य से पी ड़त और वधु र बने, नराला भी कम उ म वधु र बन गये, पंत
आजीवन कुँ वारे रहे तथा महादे वी का दा प य जीवन दुःखमय रहा । वेदना के
यि तगत कारण के अलावा युगीन कारण भी थे । युगीन प रि थ तय म क वय क
इ छाओं का पूण न होना तथा रा य आंदोलन क असफलता भी कारण व प थी ।
पंत ने वेदना को का य का उदगम थल मानते हु ए कहा है -
वयोगी होगा पहला क व, आह से उपजा होगा गान
उमड़कर आँख से चु पचाप, बह होगी क वता अनजान ।
पंत क क वता म वेदना और नराशा का च ण अनेक मलता है । उ छवास, आँसू
ं थ तमाम क वताओं म उनक इसी वेदना को वाणी मल है, ले कन वेदना से एक
मधुर संगीत भी फूटता है-
क पना म है कसकती वेदना,
अ ु म जीता ससकता गान है,
शू य आह म सु र ले छं द ह,
मधुर लय का या कह ं अवसान है?
10.2.7 रह या मकता
238
10.2.8 यथाथ च ण
239
ु झरो जगत के जीण प ,
त
हे त व त! हे शु क शीण!
हमताप पीत, मधु वात भीत,
तु म वीत रगा, जड़ पुराचीन!
इसी तरह वे को कल से आ ह करते है क वह अपने व ोह गान से अि न बरसाकर
तमाम कार के भेद को न ट कर दे -
गा को कल वरसा पावक कण
न ट ट हो जीण पुरातन ।
10.2.12 रा यता
10.2.13 मानवतावाद ि ट
छायावाद क वता पर भारतीय सवा मवाद और अ वैतवाद का गहरा भाव पड़ा, इसके
अलावा उस पर नवजागरण काल न चंतक -रामकृ ण परमहंस, वामी ववेकानंद, गांधी
और रवीं नाथ क मानवतावाद वचारधारा का वशेष भाव पड़ा । यह कारण है क
छायावाद म जहाँ वैयि तक चेतना और यि तक क अि मता का उ घोष है, वह ं
उसम मानवतावाद चेतना का च ण भी है । इस मानवतावाद क प रण त व बंधु व
म होती है। कृ त के पुजार पंत मानव-सौ दय पर यान क त करते ह-
सु ंदर है वहग सु मन. सु ंदर,
मानव तू सबसे सु दरतम
न मत सबक तल-सु षमा से,
तु म न खल सृि ट म चर न पम ।
पंत के मानवतावाद क वशेषता यह है क वे वग, वण और दे श क सीमाओं से ऊपर
उठकर मनु यमा को स ची आ मा से अपनाते है, यह वह व श टता है जो छायावाद
पर लगे वैयि तकता के दाग को धो डालती है । पंत लखते ह-
आज मनुज को खोज नकालो
जा त-वण सं कृ त समाज से,
मू ल यि त को फर से चालो
अ खल अव न म र त मनुज को
केवल मनुज जान अपना तो ।
व वबंधु व और मानव- ेम को वे वग का तथा मानव को ई वर का पयाय मानते ह-
मनुज ेम से जहाँ रह सके मानव-ई वर / और कौन सा वण चा हए मु झ-े धरा पर?
पंत मानव और उसक शि त म आ था रखते ह ।
10.3 अ भ यंजना प
क वता का अनुभू त प िजतना मह वपूण होता है, उतना ह उसका अ भ यंजना प
भी । दोन एक दूसरे पर आ त होते ह और एक के बना दूसरे क क पना नह ं क
जा सकती । क वता का अनुभू त प अमू त होता है िजसे अ भ यंजना प आकार
दे ता है । यह गौरतलब है क भावप ह क वता का नधारक और आधारभूत त व है
तथा भाव के अनु प श प नधा रत होता है । पंत का अनुभू त प िजतना सौ य
और सु ंदर है, उतना ह सु ंदर और पु ट उनका अ भ यंजना प भी है जो सधे हु ए
हाथ का प रचय दे ता है । उनके अ भ यंजना प पर नंददुलारे वाजपेयी जी का कथन
है क उनक नाग रक च का 'उनके व णत वषय पर ह नह ,ं उनके श द संगीत,
241
छं द-चयन और भाषाशैल पर भी काश पड़ जाता है । उनक क पना के साथ उनक
यह च मलकर उनक क वता को रमणीय अथच आकषक वेश-भू षा से सि जत
करती है-यह साज स जा आधु नक हंद म अ तशय वरल है । पंतजी क इस च से
ह द खड़ी बोल को ईि सत फल ा त हु ए ह-सरस, साथक, श दसृि ट , सु गय
े छं द
और सु ंदर श त भाषा । श द साधना म पंतजी ने संकृत क सहायता ल है य य प
श द तमाएँ अं ेजी कला-कौशल से खड़ी क गई ह' (पंत सहचर) ।
10.3.1 का य प
पंत ने फुटकल क वताओं के साथ ''प रवतन'' जैसी लंबी क वता लखी । वैचा रक
तनाव लंबी तनाव लंबी क वता क वशेषता है जो 'प रवतन' म मौजू द है । इसके बाद
पंत ने 'लोकायतन' ब
ं ध
ं का य लखा । उ ह ने श पी, रजत शखर और सौवण
का य पक क रचना क । यो सना उनका तीक नाटक है । का य प क ि ट से
छायावाद म गीत, खंडका य और महाका य मलते ह । गी तका य के अंतगत पंत ने
संबोधी गी त, शोकगी त, यं यगी त आ द का योग कया । 'लोकायतन' अ तमन के
दशन का महाका य है िजसम व व क याण क भावना के चलते उपदे शा मकता क
धानता है ।
242
''धू ल क ढे र '' तु छ, अ नि छत व तु तथा ''मधुमय गान'' सु खद, इि छत व तु का
बोध कराता है।
अमू त वधान : पंत क भाषा का एक धान गुण है-अमू त वधान का योग । पंत ने
अमू त वधान क झड़ी लगा द है । ''छाया' को उ ह ने 'पछतावे' क परछाई', कहा है
जहाँ एक साथ दो अमू त वधान है । उसी तरह वे अमूत वधान है । उसी तरह वे
अमू त के लए मू त वधान का योग करते ह- ''अपराधी-सी भय से मौन' । बादल के
लए 'संशय' और 'अपयश' के योग म भी अमू त- वधान है ।
संगीता मकता : पंत क भाषा नादयु त और का या मक है । उ ह ने खड़ी बोल ह द
को अ धक का या मक बनाकर उसे नाद-स दय से यु त कया, अत: भाषा संबध
ं ी
उनका दे य अ त मह वपूण है । उ ह ने सं कृ त क त सम श दावल से खड़ी बोल
ह द को यु त करके उसे अ धक का या मक, कला मक और रसपेशल बनाया ।
छायावाद क मू ल चेतना गीता मक होने के कारण उनम नाद यंजना तथा
संगीता मकता का सफल नवाह हु आ है । पंत क अनेक क वताओं म वर साधना का
अ यंत पु ट और सफल प मलता है । क व ने च ड़य क बोल को उसके पूरे
सांगी तक संभार के साथ कट कया है
बाँस का झु रमु ट
सं या का झु टपुट
है चहक रह च ड़या
ट वी टू टु ट टु ट ।
वर-साधना क इस सफलता को दे खते हु ए अ ेय ने कहा था क- ''ले कन म तो
जानता हू ँ क वर व नय पर पंतजी का ऐसा अ धकार था क उ ह स चे अथ म
वर स क व कहा जा सकता है' (पंत सहचर- धान अशोक वाजपेयी पृ 130) ।
पंत क क वता म अनेक व न- च मलते ह जैसे प त क स र-स र, म र- म र
व न, कह ं ढोल क धा धन-धा तन, कह ं गुज रया के पाँव म बँधी पैजनी से छन-छन-
छन-छन क व न गूँजती है । अत: पंत जी ने का यभाषा को गेयता और संगीत-
व न से संयु त करने का काय कया और अंत म छायावाद म यह वृि त इतनी बढ़
क वह छायावाद के पतन का कारण बन गई िजसे पंत ने वीकार कया क
छायावाद इस लए अ धक नह रहा क वह अलंकृ त संगीत बन गया था ।
पंत ने छायावाद क का यभाषा को एक नया तेवर दया । उनका कहना है क ''भाषा
का और मु यत: क वता क भाषा का ाण राग है ।' उ ह ने पुन : कहा है क ''भाषा
संसार का नादमय च है, व नमय व प है । यह व व के तं ी क झंकार है,
िजसके वर म वह अ भ यि त पाता है ।' इसका अथ है क वे क वता म राग के
साथ नादमयता या न संगीत का सम वय करते ह तथा इस मा यता के अनुकू ल वे
भाषा का योग भी करते है । पंत भाव और भाषा म मै ी या ए य था पत करने के
प धर ह । वे श द क एक-एक सू म भं गमा पर काश डालते ह तथा पयायवाची
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श द के अ तर को भी रे खा कं त करते ह । पंत ने भाव के अनुकू ल श द चयन तथा
श द- नमाण कए ह- वि नल, ति ल, पांशु ल, व णम, रलमल, टलमल आ द ।
परवत क वताओं म तदभव श द के योग भी कए ह ।
पंत ने भाषा को अंतमु खी बनाया । र तकाल न क वय क भाषा जहाँ बा य च ण को
मह व दे ती थी, वहाँ पंत ने ह द भाषा को आ यंतर दशा क ओर मोड़ा । दूधनाथ
संह का कथन है-….भाषा को और श द को बा य वधान से अंदर क ओर मोड़ने का
काम पंतजी ने सव थम कया । यह श द का उसके शर र को अ त मत करना है,
िजसम श द अपने अथ को बाहर क ओर न फककर अंदर क ओर लौटता है (ता पथ
क भू मका) । इसी का प रणाम है क पंत क क वता-भाषा सू मा तसू म चीज तथा
मनु य और कृ त क सू म भं गमाओं को सफलता के साथ च त करती ह ।
10.3.3 अलंकार
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वशेषण वपयय : वशेषण वपयय छायावाद का नया अलंकार है, िजसम वशेषण क
जो जगह होती है वहाँ से हटाकर उसे दूसर जगह यु त कया जाता है, यानी उसका
म उलट दया जाता है । मू ि छत आतप, तु तला उप म म वशेषण वपयय है ।
10.3.4 ब ब योजना
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दुःख का, उषा, फु लता और जागरण का तीक है । 'सौवण' सं मणकाल न मानव
मू य के वकास का तथा ' शु भ पु ष' महा मा गांधी का तीक है।
10.3.6 लय और छं द वधान
10.4 सारांश
इस कार पंत-का य का भावप और कलाप अ यंत समृ है तथा उसम नरं तर
सु धार-प र कार होता रहा । पंत एक ऐसे वल ण तभा संप न क व है, िज ह
सौ दयवाद -कलावाद अपने खेमे म तथा ग तवाद अपने खेमे म लाने का यास
करते है । पंत के क व- यि त व का जायजा ल, तो प ट होगा क उनका यि त व
न केवल क व का, बि क एक सफल ग यकार और चंतक का भी है । क व के प म
वे छायावाद , योगवाद , ग तवाद क व के प म अपनी पहचान बनाते ह । जहाँ
तक छायावाद का न है, पंत ने छायावाद क वता के मानदं ड ि थर कये थे । िजस
समय छायावाद क वता क व तु, उसके प- वधान को लेकर आलोचक म ऊहा-पोह
था, उन दन पंत ने प लव का वेश लखकर बदले हु ए प रवेश म छायावाद क वता
क अ नवायता और ासं गकता को रे खां कत कया । छायावद क कृ त और उसक
मजाज को या या पत कया तथा प लब के ' वेश' के आधार पर उ ह ने छायावाद
का घोषणप लखने का ेय ा त कया । अत: छायावाद के भाव और श प को
नखारने तथा खड़ी बोल ह द को अ धक का या मक और कला मक बनाने का ेय
पंतजी को जाता है ।
पंत म सृजना मक वं व बड़ा गहरा है । वे इस वं व से नरं तर गुजरते रहे , िजसके
कारण उनक रचनाओं म वैचा रक अंतराल है । पंत क क वता नरं तर वकसनशील
रह है । युग के अनुसार उनक वचारधारा तथा क वता का तेवर बदलता रहा है ।
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छायावाद क व के प म लंबे समय तक रहने के बाद जब युग करवट लेने लगा तथा
छायावाद क वता वायवीयता और अ तशय क पना के चलते युग -जीवन से वमु ख होने
लगी िजससे क वता के नये मानदं ड क खोज हु ई, तब पंत ने 1938 म ' पाभ' के
वेशांक म कहा क ''इस युग म जीवन क वा त वकता ने जैसा उ प धारण कया
है उससे ाचीन व वास म त दन हमारे भाव और क पना के मू ल हल गये ह,
अतएव इस युग क क वता व न म नह ं पल सकती । इसक जड़ को पोषण-साम ी
हण करने के लए कठोर धरती का आ य लेना पड़ रहा है । हमारा उ े य इस
इमारत म थू नयाँ लगाने का कदा प नह है, िजसका क गरना अव यंभावी है ।'
प ट है क पंतजी छायावाद से मु त होकर मा स क ां त से भा वत होकर
ग तवाद क ओर झु क रहे थे । युगा त युगवाणी, ा या उसी काल क रचनाएँ है
जब पंत छायावाद भामंडल से अलग हो चु के थे । वे गांधीवाद से भी भा वत हु ए
और मा स क ां त से भी । उ ह गांधी क स य अ हंसा तथा मा स का यव था
बदलाव-दोन आक षत करते ह । पुन : वे अर वंद के संपक म आये और अर वंद दशन
से भा वत हु ए । वे भौ तकता और अ या म-दोन के सम वय म मानव जीवन क
स और सफलता दे खते ह । अत: नरं तर प रवतनशीलता और नव- योग के चलते
पंत का का य जड़ता और ग तरोध का शकार नह ं बन, जो एक सकारा मक पहलू है।
पंत म इतने वैचा रक भटकाव आलोचक को खटकते ह क पंत म वैचा रक ि थरता
नह है, ले कन पंत एक सजग-सचेत रचनाकार क है सयत से अपने युग म आने वाल
तमाम वचारधाराओं को परखते है तथा उनम जो कु छ मानव जीवन के हत म दखता
है, उ ह अपनाते ह । जीवन के वकास ओर ग त के लए वे सभी वचारधाराओं को
नकष बनाते ह । अत: उनका यह वैचा रक भटकाव मानव हत, मानव जीवन क
समृ और ग त के लए एक मनीषी क चंता है । यह भटकाव युग का भटकाव है
। अत: पंत का का य लोक चंता का य है । उनम कला, स दय है, क पना क उड़ान
है, यथाथ च ण और ा य जीवन क झाँ कयाँ ह ।
पंत ग यकार के प म भी अ धक सफल रहे । उ ह ने का य क भू मकाएँ तथा
छायावाद : पुनमू यांकन, ''ग यपथ' आ द ग य रचनाएँ द िजनम उनका समी क प
सामने आता हे । वैसे पंतजी मू लत: क व थे, समी क नह ं थे क तु आप धम म
उ ह समी क बनना पड़ा । जैसे अं ेजी के व छं दतावाद क व व सवथ तथा उनके
सहयोगी क व कॉल रज का जवाब दे ने के लए समी ा लखनी पड़ी थी वैसे ह
छायावाद के आलोचक को युतर दे ने के लए पंत तथा अ य छायावाद क वय को
समी क बनना पड़ा था िजससे छायावाद क वता संबध
ं ी अ प टता समा त हु ई थी ।
ह द क वता को पंतजी का भा षक योगदान सबसे अ धक है । उ ह ने जभाषा क
जगह खड़ी बोल को क वता क भाषा के प म था पत कया, जो नवजागरण काल
क मांग थी । बदलते युग -संदभ म चंतन क अ भ यि त तथा रा य पहचान को
था पत करने के लए एक नयी भाषा क ज रत थी, िजसका थान खड़ी बोल ह द
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ले रह थी उसे पंत तथा अ य छायावाद क वय ने का योपयु त बनाया । पंत ने खड़ी
बोल को नयी संभावनाओं से यु त कया । ल णा, यंजना, नये श द योग के
वारा खड़ी बोल का व तार करके उसे लोक य बनाया । य द छायावाद क व न होते
तो खड़ी बोल ह द इतनी ज द का य के आसन पर था पत न हु ई होती तथा
वकास के ऊँचे शखर का पश न कर पाती । पंतजी के अनुसार ''खड़ी बोल जागरण
क चेतना थी । ववेद युग िजस जागरण ार भ था, हमारा युग उसके वकास का
समारं भ था । छायावाद के श प-क म खड़ी बोल ने धीरे -धीरे स दय-बोध, पद-मादव
तथा भाव-गौरव ा त कर थम बार का यो चत भाषा का संहासन हण कया'
(रि मबंध-17) । पंत ने खड़ी बोल ह द क अ भ यंजना-शि त क खोज क तथा
भाषा को नाद-स दय, च ा मकता, कोमलता, अंतमु खता जैसी वशेषताओं से संप ृ त
कया । ह रवंश राय ब चन के श द म ''जब स दयाँ बीत जाएँगी और ह द ह द
क एकता क भाषा होगी, तब यह सहज प ट होगा क रा भाषा का यह क व
सचमु च उस युग -रा का 'जन चारण था' था िजसने कम, भावना और ा के तीक
टै गोर और अर वंद जैसी तभाओं को ज म दया था' (आज के लोक य ह द क व-
सु म ानंदन पंत) ।
सारत : पंत ह द के एक व श ट क व ह िज ह ने ह द क वता के वकास म एक
नया मोड़ पैदा कया । क वता को दाश नक ऊँचाई और गंभीरता द । क वता क व तु
और श प को तराश कर उसे एक नया व प दान कया । उनक आरं भक क वताएँ
जहाँ छायावाद चेतना को य त करती ह, वह ं युगांत , युगवाणी और ा या क
क वताएँ ग तशील क वता क पृ ठभू म तथा उसके वकास म मह वपूण योगदान
करती ह । छायावाद के वतन का ेय भले मु कुटधर पांडेय या साद को मला हो,
क तु छायावाद के व लेषण, चार- सार और उसक थापना म पंत क अ णी रहे
ह । पंत का सम त का य युग और जीवन के बीच एक सामंज य, एक अंत: संग त
क तलाश है । पंत का का य मश: कला और सौ दय से लोको यूख होता गया है
10.6 अ यासाथ न
1. पंतका य के भावप और श पप का ववेचन क िजए ।
2. छायावाद के संदभ म पंत के का य का मू यांकन क िजए ।
3. पंत कृ त के सु कु मार क व ह'' -इस कथन क समी ा क िजए-
4. पंत क ग तशील और यथाथ- ि ट - पर काश डा लए ।
10.7 संदभ ंथ
1. धान संपादक-अशोकवाजपेयी, पंत सहचर, वाणी काशन, नई द ल , 2001
2. वा रका साद स सेना - ह द के आधु नक त न ध क व, वनोद पु तक
मं दर, आगरा-2
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3. नंददुलारे वाजपेयी - क व सु म ानंदन पंत, काशन सं थान नई द ल , 1997
4. नामवर संह छायावाद, राजकमल काशन, नई द ल ।
5. संतोष कुमार तवार -छायावाद का य क ग तशील चेतना, भारतीय थ
ं नकेतन,
133, लाजपत राय माकट, नई द ल , 11006, सं करण - 1974
6. सु म ानंदन पंत-छायावाद पुनमू यांकन ।
7. कुमार वमल, छायावाद का सौ दय शा ीय अ ययन-राजकमल काशन, नई
द ल
8. दे वराज-छायावाद का पतन ।
9. डॉ. ह रचरण शमा - छायावाद के आधार तंभ, राज थान काशन जयपुर
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